पहला प्रवचन-शांति की खोज
मेरे
प्रिय आत्मन्!
मनुष्यता
क्या है?
मनुष्य
क्या है?
एक
प्यास,
एक
पुकार,
एक
अभीप्सा!
जीवन
ही एक पुकार है। जीवन ही एक अभीप्सा है। जीवन ही एक आकांक्षा है।
लेकिन
आकांक्षा नरक की भी हो सकती है और स्वर्ग की भी। पुकार अंधकार की भी हो सकती है और
प्रकाश की भी। अभीप्सा सत्य की भी हो सकती है और असत्य की भी।
चाहे
हमें ज्ञात हो और चाहे हमें ज्ञात न हो, अगर हमने अंधकार को पुकारा होगा, तो हम अशांत होते चले जाएंगे।
अगर हमने असत्य को चाहा होगा, तो हम
अशांत होते चले जाएंगे। अगर हमने गलत को चाहा होगा, तो शांत होना असंभव है। शांति
छाया है--ठीक की चाह से पैदा होती है। सम्यक चाह से शांति पैदा होती है।
एक बीज
अंकुरित होना चाहता है। अंकुरित हो जाए तो आनंद से भर जाएगा, अंकुरित न हो पाए तो अशांत और
पीड़ा अनुभव करेगा। सरिता सागर होना चाहती है। सागर तक पहुंच जाए, असीम से मिल जाए, तो शांत हो जाएगी। न पहुंच
पाए, भटक जाए मरुस्थलों में, तो अशांत हो जाएगी, दुखी हो जाएगी, पीड़ित हो जाएगी।
किसी
ऋषि ने गाया है: हे परमात्मा! अंधकार से आलोक की तरफ ले चल! मृत्यु से अमृत की
तरफ! असत्य से सत्य की तरफ! वही सारी मनुष्यता के प्राणों की आकांक्षा भी है, वही पुकार है। और अगर हम जीवन
में शांत होते चले जा रहे हों, तो
समझना चाहिए कि हम उस पुकार की तरफ चल रहे हैं जो जीवन के गहरे से गहरे प्राणों
में छिपी है। और अगर हम अशांत हो रहे हों, तो जानना चाहिए कि हम गलत दिशा में जा रहे
हैं, उलटी दिशा में जा रहे हैं।
अशांति
और शांति लक्ष्य नहीं हैं, केवल
सूचक हैं,
केवल
लक्षण हैं। शांत मन खबर देता है इस बात की कि हम जिस दिशा में चल रहे हैं वही दिशा
जीवन की दिशा है। अशांत मन खबर देता है इस बात की कि हम जहां चल रहे हैं वह जगह
चलने की नहीं। हम जिस ओर जा रहे हैं वह जाने की मंजिल नहीं। हम जहां पहुंच रहे हैं
वहां पहुंचने के लिए पैदा नहीं हुए।
अशांति
और शांति लक्षण हैं--हमारे जीवन के विकास को सम्यक दिशा मिली है या असम्यक दिशा
मिल गई है। शांति लक्ष्य नहीं है। और जो लोग शांति को सीधा ही लक्ष्य बना लेते हैं
वे कभी भी शांत नहीं हो पाते। अशांति को भी मिटाना सीधा संभव नहीं है। जो आदमी
अशांति को ही मिटाने में लग जाता है वह और भी अशांत होता चला जाता है। अशांति
सूचना है--जीवन उस दिशा में जा रहा है जहां जाने के लिए वह पैदा नहीं हुआ है। और
शांति खबर है इस बात की कि हम चल पड़े उस मंदिर की तरफ जो कि जीवन का लक्ष्य है।
एक
आदमी को बुखार है,
शरीर
उत्तप्त है,
गरम
है। शरीर की गर्मी बीमारी नहीं है, शरीर की गर्मी केवल खबर है कि शरीर के भीतर
कोई बीमारी है। शरीर गर्म नहीं है तो खबर मिलती है कि शरीर के भीतर कोई बीमारी
नहीं है। गर्मी खुद बीमारी नहीं है, केवल बीमारी की खबर है। गर्मी का न होना भी
स्वास्थ्य नहीं है, सिर्फ
खबर है कि भीतर जीवन स्वस्थ दिशा में चल रहा है। और अगर कोई आदमी अपने शरीर के
बुखार को जबरदस्ती ठंडा करने की कोशिश में लग जाए, तो इससे बीमारी से मुक्त नहीं
होगा, मर सकता है।
नहीं; शरीर का बुखार नहीं दूर करना
पड़ता है। बुखार मित्र है, खबर
देता है कि भीतर बीमारी है; बीमारी
की खबर लाता है। अगर शरीर उत्तप्त न हो और भीतर बीमारी बनी रहे, तो आदमी को पता ही नहीं
चलेगा--कब बीमार हुआ, कब
समाप्त हो गया।
अशांति
ज्वर है,
बुखार
है, गर्मी है, जो चित्त पर घिर जाती है और
खबर देती है कि तुम प्राणों को वहां ले जा रहे हो, जहां नहीं ले जाना है।
शांति--बुखार का चला जाना है और खबर है कि प्राण उस दिशा में चलने लगे, जहां चलने के लिए पैदा हुए
हैं। यह बात प्राथमिक रूप से समझ लेना जरूरी है, तो आने वाले चार दिनों की
"शांति की खोज' की
यात्रा पूरी-पूरी स्पष्ट हो सकती है।
शांति
को मत चाहिए और अशांति को दूर करने की कोशिश मत करिए। अशांति को समझिए और जीवन को
बदलिए। जीवन की बदलाहट शांति का अपने आप आगमन बन जाती है।
जैसे
कोई आदमी किसी बगीचे की तरफ घूमने निकले, वह जैसे-जैसे बगीचे के पास पहुंचने लगता है, वैसे ही ठंडी हवाएं उसे घेरने
लगती हैं,
वैसे
ही फूलों की सुगंध उसके आस-पास मंडराने लगती है, पक्षियों के गीत सुनाई पड़ने
लगते हैं। उसे विश्वास हो जाता है कि मैं बगीचे के पास पहुंच रहा हूं। पक्षियों के
गीत आने लगे,
ठंडी
हवाएं आने लगीं,
फूलों
की सुगंध आने लगी।
शांति
परमात्मा के पास पहुंचने की खबर है। वह परमात्मा के बगीचे के पास उड़ने वाले फूलों
की सुगंध है। और अशांति परमात्मा की तरफ पीठ करके चलने की खबर है। इसलिए मौलिक रूप
से आदमी जिन कारणों को समझता है कि इनके कारण मैं अशांत हूं, वे कारण अशांति के कारण नहीं
हैं।
अगर
कोई आदमी समझता हो कि मैं इसलिए अशांत हूं कि मेरे पास धन नहीं है, तो वह गलती में है। धन मिल
जाएगा और अशांति कायम रहेगी। कोई आदमी समझता हो कि मेरे पास बहुत बड़ा मकान नहीं है
इसलिए अशांत हूं। मकान मिल जाएगा और अशांति कायम रहेगी, बल्कि अशांति थोड़ी बढ़ जाएगी।
क्योंकि मकान नहीं था, धन
नहीं था,
तब तक
कम से कम एक राहत थी कि मैं इसलिए अशांत हूं कि मकान नहीं है, धन नहीं है। मकान और धन के हो
जाने के बाद वह राहत भी छिन जाएगी। मकान भी मिल जाएगा, धन भी मिल जाएगा और अशांति अपनी
जगह खड़ी रहेगी। और तब प्राण और भी बेचैन हो जाते हैं।
इसलिए
दरिद्र की बेचैनी उतनी कभी नहीं होती जितनी समृद्ध की बेचैनी होती है। अमीर आदमी
की तकलीफ को गरीब आदमी कभी भी नहीं पहचान पाता। बिना अमीर हुए पहचान पाना मुश्किल
है। क्योंकि अमीर के पास गरीब का संतोष भी नहीं रह जाता कि मैं गरीब हूं, इसलिए अशांत हूं। कम से कम एक
कारण तो पता रहता है कि मैं इसलिए अशांत हूं। किसी दिन गरीबी मिट जाएगी और शांति आ
जाएगी।
लेकिन
आज तक कोई आदमी गरीबी मिटाने से शांत नहीं हुआ है। गरीबी मिट जाती है, शांति तो नहीं आती, अशांति और बढ़ जाती है।
क्योंकि पहली दफा यह पता चलता है कि धन के मिलने से अशांति के टूटने का कोई संबंध
नहीं है। तब एक आशा भी टूट जाती है कि धन के मिलने से मैं शांत हो जाऊंगा।
इसीलिए
जितना समाज धनिक होता चला जाता है, उतना ही समाज ज्यादा अशांत होता चला जाता
है। आज अमेरिका से ज्यादा अशांत शायद दुनिया में कोई दूसरा समाज नहीं है। और
अमेरिका के पास जैसी समृद्धि है वैसी मनुष्य के इतिहास में कभी किसी समाज, किसी देश के पास नहीं थी। बड़ी
हैरानी होती है कि इतना सब तुम्हारे पास है, फिर तुम अशांत क्यों हो? हम अगर अशांत हैं तो समझ में
आती है बात कि हमारे पास कुछ भी नहीं है।
लेकिन
कुछ होने और न होने से शांति और अशांति का कोई संबंध नहीं है।
मनुष्य
के जीवन में शरीर है, मन है, आत्मा है। शरीर की जरूरतें
हैं। अगर वे पूरी न हों, तो
जीवन कष्टपूर्ण हो जाता है। शरीर की जरूरतें हैं--रोटी है, कपड़ा है, मकान है--अगर शरीर को न मिलें, तो जीवन एक कष्ट की यात्रा बन
जाएगा। शरीर पूरे वक्त खबर देगा कि मैं भूखा हूं, मैं नंगा हूं, दवा नहीं है, प्यास लगी है, पानी नहीं है, रोटी नहीं है। शरीर पूरे वक्त
अभाव की खबर देगा। और अभाव की खबर जीवन को कष्ट से भर देती है। खयाल रहे: अशांति
से नहीं,
कष्ट
से!
यह हो
सकता है,
एक
आदमी कष्ट में हो और अशांत न हो। और यह भी हो सकता है, एक आदमी बिलकुल कष्ट में न हो
और अशांत हो। बल्कि अक्सर यही होता है। जो आदमी कष्ट में होता है उसे अशांति का
पता ही नहीं चलता। कष्ट ही इतना उलझा लेता है कि अशांति पर ध्यान देने की सुविधा
और फुरसत नहीं मिलती। जब सब कष्ट समाप्त हो जाते हैं, तब पहली दफा ध्यान आता है कि
अशांति भी भीतर है।
गरीब
आदमी कष्ट में होता है। समृद्ध आदमी अशांति में होता है।
शरीर
में कष्ट होते हैं, और अगर
शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं तो शरीर में कष्ट का अभाव हो जाता है। लेकिन शरीर के
तल पर सुख का कभी कोई अनुभव नहीं होता। यह भी समझ लेना जरूरी है। शरीर में कष्ट हो
सकते हैं,
सुख
शरीर में कभी नहीं होता। हां, कष्ट
का अभाव हो जाए,
कष्ट न
हों, तो उसी को हम सुख समझ लेते
हैं।
अगर
पैर में कांटा गड़ा है तो तकलीफ होती है और पैर में कांटा न गड़ा हो तो कोई आनंद
नहीं होता। कि हम जाकर मोहल्ले में खबर करें कि आज मेरे पैर में कांटा नहीं गड़ा, मैं बहुत आनंद में हूं। कि आज
मेरे सिर में दर्द नहीं हो रहा इसलिए आज मैं बड़ा सुखी हूं। सिर में दर्द होता है
तो हम कष्ट में होते हैं, लेकिन
सिर में दर्द न हो तो हम सुख में नहीं होते। यह शरीर के साथ समझ लेना बहुत उपयोगी
है कि शरीर के तल पर सुख जैसी कोई चीज कभी होती ही नहीं; दुख होता है और दुख का अभाव
होता है। दुख के अभाव को ही लोग सुख समझ लेते हैं। शरीर दुख दे सकता है, दुख नहीं दे सकता है; लेकिन सुख कभी भी नहीं दे
सकता है।
इसलिए
जो शरीर के तल पर ही जीते हैं उन्हें सुख का कभी कोई पता नहीं चलता। दुख का पता
चलता है,
दुख से
बचने का पता चलता है। भूख लगी है तो कष्ट मालूम होता है, भूख मिट गई तो कष्ट मिट गया।
बस शरीर यहीं ठहर जाता है।
शरीर
के बाद,
शरीर
के भीतर मन है। मन की हालत उलटी है। मन की भी जरूरतें हैं, मन की भी मांगें हैं, मन की भी भूख और प्यास है।
साहित्य है,
कला है, दर्शन है, संगीत है--वे सब मन की
आकांक्षाएं हैं,
मन की
भूख और प्यास हैं। वह मन का भोजन है। लेकिन अगर किसी आदमी ने कालिदास का काव्य न
पढ़ा हो,
तो
इसके कारण कोई कष्ट नहीं होता। या किसी आदमी ने अगर किसी बड़े कलाकार का सितार न
सुना हो,
तो इस
कारण कोई कष्ट नहीं होता। नहीं तो आदमी एकदम मर जाए कष्ट से। क्योंकि इतनी चीजें
हैं मन की दुनिया में जिनका हमें कोई पता ही नहीं।
मन की
दुनिया में,
जिस
चीज का आपको पता नहीं है, अनुभव
नहीं है,
उसका
कोई कष्ट नहीं होता; लेकिन
पता चले तो सुख जरूर होता है। अगर आपको सितार सुनने मिल जाए तो सुख होता है। नहीं
सुना था तब तक कोई कष्ट नहीं था। अगर आप काव्य नहीं समझते हैं, नहीं सुना है, नहीं समझा है, तो कोई कष्ट नहीं है। लेकिन
सुनने मिल जाए तो सुख जरूर होता है।
मन के
तल पर सुख है। एक बार सुख का अनुभव शुरू हो जाए और फिर सुख न मिले, तो सुख का अभाव मालूम पड़ता है; लोग उसी को मन का कष्ट समझ
लेते हैं। शरीर के तल पर सुख नहीं होता, सिर्फ दुख का अभाव होता है। मन के तल पर सुख
होता है और सुख का अभाव होता है, कष्ट
जैसी कोई चीज नहीं होती।
लेकिन
मन की एक और खूबी है। मन के तल पर जो सुख होते हैं, वे क्षण भर के लिए होते हैं, उससे ज्यादा कभी नहीं हो
पाते। क्योंकि मन को जो सुख एक बार मिला, उसकी पुनरुक्ति से उसे सुख नहीं मिलता।
अगर आज
आपने किसी वीणावादक से वीणा सुनी और कल फिर वही वीणा सुनाए, तो आज जितना सुख हुआ था उतना
कल नहीं होगा। और परसों फिर सुनाए, तो और भी कम होगा। और अगर दस-पांच दिन सुननी
पड़े, तो जिससे पहले दिन सुख हुआ था
उसी से दुख की प्रतीति शुरू हो जाएगी। और अगर दो-चार महीने सुनना पड़े, तो आप अपना सिर फोड़ लेंगे और
भागना चाहेंगे कि अब मैं इसे नहीं सुनना चाहता हूं।
मन के
तल पर मन प्रति बार नये सुख की आकांक्षा करता है। शरीर हमेशा पुराने ही सुख की
आकांक्षा करता है,
नये
सुख की कभी नहीं। शरीर को अगर आप नया-नया रोज-रोज मौका दें, तो शरीर तकलीफ में पड़ जाता
है। शरीर अगर रोज दस बजे रात सोता है, तो रोज दस बजे रात ही सो जाना चाहता है। और
अगर ग्यारह बजे सुबह भोजन करता है, तो ठीक ग्यारह बजे ही भोजन कर लेना चाहता
है। शरीर एक यंत्र की भांति है, वह रोज
पुनरुक्ति चाहता है, रिपीटीशन
चाहता है और उसमें जरा भी हेर-फेर नहीं चाहता। जिस आदमी के शरीर को रोज बदलाहट
करनी पड़ती है,
उस
आदमी का शरीर बहुत तकलीफ में पड़ जाता है।
आधुनिक
सभ्यता ने शरीर को इसीलिए नुकसान पहुंचाया है कि आधुनिक सभ्यता रोज शरीर को नया
होने के लिए आग्रह करती है। और शरीर बेचारा पुराना ही रहना चाहता है। इसलिए गांवों
के लोग जितने स्वस्थ दिखाई पड़ते हैं, उतना शहर का आदमी स्वस्थ नहीं दिखाई पड़ता।
उसके शरीर को रोज नई जरूरत, नई
व्यवस्था,
नये
नियम का पालन करना पड़ता है। शरीर मुश्किल में पड़ जाता है। शरीर के पास समझ नहीं है
कि वह रोज अपने को नया करने के लिए तैयार हो जाए। वह पुराने की ही मांग करता है।
मन, मन रोज नये की मांग करता है, वह पुराने से जरा भी राजी
नहीं होना चाहता। जरा पुरानी पड़ी चीज और मन इनकार करने लगता है कि बस हो गया। उसे
रोज नया मकान चाहिए, रोज नई
कार चाहिए। और उसका वश चले तो रोज नई पत्नी चाहिए, रोज नया पति चाहिए। इसलिए जिन
सभ्यताओं ने धीरे-धीरे मन के आधार पर निर्माण शुरू किया है, वहां तलाक की संख्या बढ़ती
जानी अनिवार्य है। क्योंकि मन के आधार पर जीने वाली कोई भी सभ्यता स्थायी नहीं हो
सकती। पुराने पूरब के देश शरीर के आधार पर जी रहे हैं। नये पश्चिम के देशों ने मन
के आधार पर जीना शुरू किया है। मन रोज नई बात मांगता है।
मैंने
सुना है,
अमेरिका
में एक अभिनेत्री ने अपने जीवन में बत्तीस विवाह किए। हमारी कल्पना के बाहर है!
हमारे देश की पत्नी प्रार्थना करती है भगवान से कि आने वाले जन्म में भी यही पति
उपलब्ध हो। अगर अमेरिका की पत्नी कोई प्रार्थना करेगी--हालांकि वह प्रार्थना ही
नहीं करेगी--अगर वह प्रार्थना करेगी तो यही कि कम से कम इतना ध्यान रखना कि यही
आदमी दुबारा न मिल जाए! अगले जन्म की बात का भरोसा भी नहीं है, इसलिए पत्नी होशियार है, वह इसी जन्म में उसे बदल लेना
चाहती है।
जिस
अभिनेत्री की मैंने बात की, जिसने
बत्तीस विवाह किए,
उसने
इकतीसवां जो विवाह किया, पंद्रह
दिन बाद पता चला कि यह आदमी एक बार पहले और उसका पति रह चुका है। क्योंकि इतनी
जल्दी बदलाहट की दस-पंद्रह दिन में कि कहां फुरसत रही पहचानने की कि किसको
पहचानूं!
हमारे
मुल्क की पत्नी दस-पांच जन्मों के बाद भी आदमी को पकड़ लेगी हाथ कि आप भूल गए? वह जन्मों-जन्मों तक पहचान
रखेगी।
मन की
आकांक्षा नित्य प्रतिपल नये की है। इसलिए मन पुराने से ऊब जाता है और घबड़ा जाता
है। अगर कोई प्रियजन आपको मिल जाए और आप उसे छाती से लगा लें, तो पहले क्षण बहुत आनंद की
पुलक मालूम होगी। लेकिन वे मित्र अगर बहुत ही प्रेमी हों और छाती छोड़ने को राजी न
हों, तो दोत्तीन-चार मिनट के बाद
घबड़ाहट शुरू हो जाएगी। वह आनंद की पुलक खो गई। और अगर वह आदमी बिलकुल पागल
हो--जैसा कि प्रेमी पागल होते हैं--और आधा घंटे तक आपको पकड़े ही रहे, तो आप अपनी या उसकी गर्दन दबा
देने को उत्सुक हो जाएंगे। लेकिन क्या हुआ? यह आदमी आकर हृदय से लग गया था, बहुत सुखद मालूम पड़ा था, अब तकलीफ क्या हो गई? यह घबड़ाहट क्या हो गई? मन ऊब गया। शरीर कभी नहीं
ऊबता है;
मन सदा
ऊब जाता है।
इसलिए
आप जान कर हैरान होंगे कि बोर्डम जैसी चीज मनुष्य को छोड़ कर दुनिया के किसी और पशु
में नहीं होती! आपने किसी भैंस को कभी बोर होते नहीं देखा होगा। या किसी कौवे को, या किसी कुत्ते को आप ऐसी
हालत में नहीं देखे होंगे कि यह बोर हो गया, उदास हो गया, ऊब गया। नहीं; मनुष्य को छोड़ कर ऊबने वाला
कोई प्राणी नहीं है। ऊब ही नहीं सकता कोई प्राणी, क्योंकि प्राणी सब शरीर के तल
पर जीते हैं। शरीर के तल पर कोई ऊब नहीं होती; ऊब होती है मन के तल पर। और मन जितना विकसित
होने लगता है,
ऊब
उतनी ही बढ़ने लगती है।
इसलिए
पूरब के मुल्क इतने ऊबे हुए नहीं हैं, जितने पश्चिम के मुल्क ऊबे हुए हैं। और जब
ऊब ज्यादा पैदा हो जाती है तो रोज नया सेंसेशन खोजना जरूरी हो जाता है, ताकि ऊब तोड़ी जा सके।
यह भी
आपको जान कर हैरानी होगी कि आदमी अकेला ही प्राणी है जो ऊबता है और आदमी अकेला ही
प्राणी है जो हंसता है। आदमी को छोड़ कर दुनिया में और कोई जानवर हंसता नहीं! अगर
रास्ते पर आप जा रहे हों और एक गधा हंसने लगे, तो फिर आप जिंदगी भर सो नहीं सकेंगे, इतने घबड़ा जाएंगे। क्योंकि हम
अपेक्षा नहीं करते कि कोई जानवर हंसेगा। जो ऊबता नहीं है, वह हंसता भी नहीं है। हंसी ऊब
को मिटाने की तरकीब है।
इसलिए
जब आप ऊबे हुए होते हैं, तब
चाहते हैं कि कोई मित्र मिल जाए, दो
हंसी की बातें हो जाएं, थोड़ी
ऊब कट जाए। आदमी को इतने मनोरंजन के साधनों की जरूरत इसलिए है कि आदमी इतना ऊब
जाता है दिन भर में कि उसे कुछ मनोरंजन चाहिए। फिर मनोरंजन भी उबाने लगते हैं, तो नये ढंग के मनोरंजन चाहिए।
फिर सब तरफ ऊब पैदा हो जाती है, तो
युद्ध चाहिए। युद्ध से थोड़ी ऊब टूटती है।
आपने
देखा होगा कि हिंदुस्तान और चीन का युद्ध हुआ, या हिंदुस्तान और पाकिस्तान का, तो कितनी चमक आ गई थी लोगों
के चेहरों पर! आंखें कितनी रोशन मालूम पड़ती थीं! आदमी कितने ताजे और जिंदा मालूम
पड़ते थे!
क्यों? जिंदगी इतनी ऊबी हुई है कि
थोड़ी चहल-पहल हो जाती है, कुछ
उपद्रव होने लगे;
कहीं
कोई दंगा-फसाद हो जाए, तो
जिंदगी में थोड़ी रौनक आ जाती है, थोड़ी
चमक आ जाती है;
नींद
थोड़ी टूट जाती है;
लगता
है कि अभी भी कुछ होने जैसा है, देखने
जैसा है। अन्यथा सब देखा हुआ है, सब हो
चुका है,
वही
दोहर रहा है,
तो मन
ऊब जाता है और मन घबड़ा जाता है।
यह
आपको इसी के साथ--न कोई जानवर ऊबता है, न कोई जानवर हंसता है--और आपको ध्यान रहे, कोई जानवर स्युसाइड भी नहीं
करता, आत्महत्या भी नहीं करता, सिर्फ आदमी को छोड़ कर। आदमी
जिंदगी से इतना भी ऊब सकता है कि जिंदगी को खतम कर ले। और खतम करने में भी एक
नयापन हो सकता है। खतम करना भी एक पुलक, एक सेंसेशन हो सकता है।
एक
आदमी पर स्वीडन में एक मुकदमा चला। उसने समुद्र्र के तट पर बैठे हुए एक अपरिचित
आदमी की पीठ में जाकर छुरा भोंक दिया। अदालत में उससे पूछा गया कि तुम्हारा इस
आदमी से कोई झगड़ा था?
उसने
कहा, झगड़े का सवाल नहीं; मैंने इस आदमी को कभी देखा ही
नहीं! और छुरा मारने के पहले मैंने इसकी शक्ल ही नहीं देखी है! क्योंकि मैंने छुरा
पीछे से मारा है,
पीठ की
तरफ से मारा है।
वह जज
ने पूछा कि बड़े पागल हो! फिर किसलिए तुमने छुरा मारा?
उसने
कहा, मैं इतना ऊब गया था कि जिंदगी
में कुछ होना चाहिए। और मैं अपने बचाव में कुछ नहीं चाहता हूं। अगर मुझे फांसी हो
सकती है,
तो
खुशी से मैं फांसी को देखने को तैयार हूं। क्योंकि जिंदगी में अब देखने लायक मुझे
कुछ भी नहीं बचा है। सब देखा हुआ है। सब देखा जा चुका है। मौत भर एक नई चीज है। और
हत्या मैंने कभी नहीं की थी, वह भी
जरा देखने जैसी थी कि क्या होता है!
पश्चिम
में हत्याएं बढ़ रही हैं, स्युसाइड
बढ़ रहा है,
आत्महत्या
बढ़ रही है,
अपराध
बढ़ रहे हैं। उसका कारण यह नहीं है कि पश्चिम अपराधी हो रहा है। उसका कुल कारण यह
है कि पश्चिम के जीवन में इतनी उदासी और ऊब है कि बिना अपराध किए उस ऊब को तोड़ने
का और कोई उपाय नहीं सूझता है।
अभी
मैंने सुना कि अमेरिका में उन्होंने एक नया खेल निकाला है। वह खेल बहुत खतरनाक है।
और जब सभ्यताएं बहुत ऊब जाती हैं, तब इस
तरह के खेल ईजाद करती हैं। वह खेल है कि दो कारों को पूरी शक्ति और तेजी से दौड़ाते
हैं और दोनों के चाक रास्ते के बीच पर जो निशान बना होता है उस पर रखते हैं। एक इस
तरफ से,
दूसरा
दूसरी तरफ से। पूरी शक्ति से दौड़ती हुई कारों को कौन पहले हटा लेता है एक्सीडेंट
के डर से,
वह हार
जाता है;
जो
पहले नहीं हटाता,
वह जीत
जाता है।
अब अगर
सौ या एक सौ बीस मील की रफ्तार से दो गाड़ियां आ रही हैं और दोनों के चाक एक ही
लकीर पर हैं,
तो
प्राणों को बड़ा संकट है। कौन पहले हटेगा नीचे! जो हटेगा वह हार जाएगा। यह सभ्यता
बहुत ऊब पर पहुंच गई है। अब जिंदगी को दांव पर लगाए बिना कोई रस मालूम नहीं पड़ता
है।
इसीलिए
सभ्यता जब ऊबने लगती है, तो जुआ
पैदा होता है,
शराब
पैदा होती है,
दांव
पैदा होते हैं। जब कोई समाज बहुत जुआ खेलने लगे तो समझना चाहिए कि समाज बहुत ऊब
गया है। अब बिना दांव पर लगाए, खतरे
में पड़े,
उसे
कोई रास्ता नहीं मालूम पड़ता जिससे कुछ नई बात होने की संभावना पैदा हो जाए।
मन की
दुनिया में चीजें रोज ऊब जाती हैं। और मन एक क्षण से ज्यादा किसी सुख को अनुभव
नहीं कर पाता। एक क्षण बीता और सुख दुख हो जाता है। शरीर के तल पर कोई दुख नहीं है, कोई सुख नहीं है, कष्ट का अभाव है। मन के तल पर
सुख होते हैं,
लेकिन
बिलकुल क्षणिक होते हैं और एक क्षण में ही डूब जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं।
इसीलिए तो जिस चीज को पाने के लिए हम बिलकुल पागल होते हैं कि सब कुछ लगा देंगे, वह मुट्ठी में आ जाए, हम एकदम उदास हो जाएंगे।
आप एक
बहुत बढ़िया मकान खरीदना चाहते हैं। खरीद लें, और फिर अचानक पाएंगे कि सब खत्म हो गई बात।
वह पुलक,
वह दौड़, वह तेजी, वह खुशी जो पाने की खोज में
थी वह गई,
मिलते
ही गई। जो भी आप पाना चाहते हैं, पाते
ही निराश हो जाएंगे। क्योंकि पाने में एक क्षण तो खुशी होगी, और एक क्षण के बाद सब पुराना
पड़ जाएगा और सब बात वहीं खड़ी हो जाएगी।
मन के
तल पर सुख हैं,
लेकिन
क्षणिक हैं। और जो आदमी शरीर और मन के बीच ही जीता है वह आदमी हमेशा अशांति में
जीएगा। क्योंकि जिस आदमी को शाश्वत सुख की झलक नहीं मिली, वह आदमी शांत कैसे हो सकता है? और मन और शरीर, दोनों तलों पर कोई शाश्वत सुख
की झलक उपलब्ध नहीं हो सकती।
लेकिन
फिर भी शरीर के तल पर जीने वाले एक अर्थों में शांत मालूम पड़ेंगे--मरे हुए शांत।
शांति
दो तरह की होती है: एक जीवंत, जीती; एक मुर्दा, मरी हुई। मरघट पर जाएं, वहां भी एक शांति है। लेकिन
वह कब्रों की शांति है। वह शांति इसलिए है कि वहां कोई है ही नहीं जो अशांत हो
सके।
बुद्ध
एक गांव के बाहर ठहरे थे दस हजार भिक्षुओं को लेकर। उस गांव के राजा को उसके
मित्रों ने कहा कि बुद्ध का आगमन हुआ है, आप भी चलें! दस हजार भिक्षु साथ में आए हुए
हैं।
वह
राजा बुद्ध के दर्शन करने गया। सांझ हो गई है, रास्ते में अंधेरा घिरने लगा है। वे पास
पहुंच गए आम्रवन के, जहां
बुद्ध ठहरे हैं,
उनके
दस हजार भिक्षु ठहरे हैं। अचानक उस राजा ने अपनी तलवार निकाल ली और अपने मित्रों
को कहा कि मालूम होता है तुम मुझे धोखा देना चाहते हो! जहां दस हजार लोग ठहरे हों, हम इतने पास पहुंच गए, वहां कोई आवाज नहीं है! वहां
इतनी शांति मालूम होती है! तुम कोई धोखा तो नहीं देना चाहते हो? वे मित्र कहने लगे कि आप
बुद्ध और उनके मित्रों से परिचित नहीं हैं। आपने मरघट की शांति देखी है, आप जीवित शांति देखिए। दस
हजार लोग उस बगीचे में हैं, आप
चलें, अविश्वास न करें।
लेकिन
वह राजा पग-पग पर डरने लगा--कहीं अंधेरे में वे धोखे में तो नहीं ले जा रहे हैं!
लेकिन वे मित्र कहने लगे, आप न
घबड़ाएं,
आप आएं, सच में ही वहां दस हजार लोग
हैं। दस हजार लोग और वहां ऐसा सन्नाटा कि जैसे कोई न हो!
वह
बुद्ध के पास जब गया तो उनके चरणों में सिर रख कर वह कहने लगा, मैं हैरान हूं, दस हजार लोग! दस हजार लोग
बैठे हैं वहां वृक्षों के नीचे और वहां परिपूर्ण सन्नाटा है जैसे कोई न हो!
तो
बुद्ध ने कहा,
तू
सिर्फ मरघट की शांति ही पहचानता है मालूम होता है। जीवित शांति भी एक शांति है।
जो लोग
शरीर के तल पर जीते हैं, एक
अर्थ में शांत हैं। पशु शांत हैं; पशु
अशांत नहीं हैं। कुछ मनुष्य भी शरीर के तल पर जीकर शांत होंगे। खाना खा लेंगे, कपड़े पहन लेंगे, सो जाएंगे; फिर खाना खा लेंगे, फिर कपड़े पहन लेंगे, फिर सो जाएंगे। लेकिन ऐसा
संतोष शांति नहीं है; ऐसा
संतोष सिर्फ चेतना का अभाव है। होश नहीं है। भीतर जैसे एक मुर्दा की हालत है, एक मरे हुए आदमी की स्थिति
है।
सुकरात
से किसी ने कहा कि तू इतना अशांत है सुकरात, इससे तो अच्छा होता एक सुअर हो जाता। सुकरात
होने से क्या फायदा? सुअर
गांव के किनारे घूमते हैं और कितने शांत हैं! डबरों में पड़े रहते हैं, कुछ भी खा-पी लेते हैं और
कितने प्रसन्न और शांत मालूम पड़ते हैं!
सुकरात
ने कहा कि मैं एक असंतुष्ट सुकरात होना पसंद करूंगा बजाय एक संतुष्ट सुअर के। सुअर
संतुष्ट जरूर है,
लेकिन
इसलिए संतुष्ट है कि शरीर के ऊपर की कोई प्यास, कोई पुकार उसके जीवन में नहीं है। वह है ही
नहीं एक अर्थों में। मैं असंतुष्ट जरूर हूं, क्योंकि एक पुकार मुझे खींच रही है। और ऊपर
एक शांति है,
उसे
पुकार रहा हूं मैं, इसलिए
असंतुष्ट हूं। और जब तक उसे नहीं पा लूंगा, असंतुष्ट रहूंगा। लेकिन मैं इस असंतोष को ही
लेना चाहता हूं। इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूं।
हममें
से जो लोग शरीर के तल पर ही संतुष्ट हो जाते हैं, उनकी स्थिति पशुओं से बहुत
भिन्न नहीं हो सकती।
पशु का
अर्थ है: शरीर के तल पर ही संतुष्ट हो जाना, शांत हो जाना।
मनुष्य
का अर्थ है: मन के तल पर अशांत होना। और देवता का अर्थ है: आत्मा के तल पर शांत हो
जाना।
शरीर
और आत्मा के बीच में मन है। मन की दुनिया में क्षण भर को सुख की झलक मिलती है। वह
झलक क्षण भर की कहां से आती है? वह
क्षण भर की झलक भी आत्मा से ही आती है। मन क्षण भर को अगर मौन हो जाता है तो आत्मा
से क्षण भर को आनंद की झलक नीचे उतर आती है। उस मौन में वह शांति झलक जाती है।
जैसे अंधेरी रात में कोई बिजली चमक जाए, तो एक क्षण को उजाला हो जाता है, फिर घुप्प अंधेरा हो जाता है।
मन तो अंधकार है,
लेकिन
किन्हीं भी क्षणों में अगर एक क्षण को मन चुप हो जाए, तो पीछे छिपी आत्मा की रोशनी
उतर आती है।
एक
प्रियजन आपको मिला, एक
क्षण को हृदय की धड़कन रुक गई, एक
क्षण को मन के विचार रुक गए, आपने
उसे गले से लगा लिया। एक क्षण को सब रुक गया और आत्मा की झलक भीतर प्रवेश कर गई।
पर एक ही क्षण को। फिर मन काम शुरू कर दिया, फिर मन ने दौड़ शुरू कर दी, फिर विचार आ गए, फिर सब दुनिया शुरू हो गई।
फिर आप वहीं खड़े हो गए। फिर वह आदमी जो गले से लगा हुआ है, उबाने वाला हो गया; हटने का मन होने लगा कि हट
जाऊं। वह जो प्रियजन के मिलने पर शांति की और आनंद की थोड़ी सी झलक मिली थी, वह प्रियजन से नहीं मिली थी, प्रियजन केवल अवसर बना था, मिली आपके ही भीतर से थी।
संगीत
सुन कर जो क्षण भर को मन शांत हो जाए, तो झलक भीतर से उतरनी शुरू हो जाती है। और
आप सोचते होंगे कि सितार के बजने से मिल रही है वह शांति, तो आप गलती में हैं। सितार के
बजने से केवल एक अवसर उपस्थित हुआ है और मन मुक्त हो गया और चुप हो गया है। मन के
चुप होते ही भीतर की शांति उतर आई है। शांति सदा भीतर से उतरती है, आनंद सदा भीतर से उतरता है।
लेकिन मन के लिए अगर बाहर से अवसर मिल जाए क्षण भर को, तो वह मौन हो सकता है। इस मौन
होने की हालत में वह उतार भीतर से शुरू हो जाता है। मन चुप हुआ और भीतर से कुछ उतर
आता है। इसीलिए मन क्षण भर को ही चुप होता है और क्षण भर को ही उतर पाता है, फिर सब खो जाता है।
लेकिन
मन के पीछे आत्मा भी है। और इस आत्मा की जो दिशा है, इस आत्मा को उपलब्ध कर लेने
का जो मार्ग है,
इस
आत्मा में प्रवेश हो जाने की जो चित्त-दशा है, वही चित्त-दशा आनंद को, शांति को, आलोक को उपलब्ध कराती है।
कैसे
हम इस दिशा में प्रविष्ट हो जाएं?
एक
छोटी सी घटना से मैं समझाने की कोशिश करूं।
मैं एक
छोटे से गांव में पैदा हुआ। वह गांव तो बहुत छोटा है। उस गांव के पास ही बहती हुई
एक छोटी नदी भी है। वह नदी ऐसे तो साधारण है, लेकिन वर्षा में बहुत जानदार हो जाती है।
वर्षा में,
पहाड़ी
नदी है,
बहुत
पानी उसमें आता है, उसका
फैलाव कोई एक मील का हो जाता है। और बड़ी गर्जन से बहती है वर्षा में वह नदी। उस
वर्षा की नदी को पार करना बड़ा मुश्किल है। लेकिन मुझे बचपन से ही उस नदी से प्रेम
रहा है और वर्षा में भी पार करने का हमेशा शौक रहा है।
कोई
पंद्रह या सोलह वर्ष का था, मित्रों
के साथ तो कई बार वर्षा में उस नदी को पार किया था, लेकिन एक बार खयाल आया कि रात
अंधेरे में अकेले उसको पार किया जाए। बड़ी खतरनाक है! बड़ी तेज धार होती है! रात की
अंधेरी रात में मैं दो बजे उसे पार करने को गया। जितना खतरा हो उतना आकर्षण भी
होता है। अंधेरी रात थी। मैं उसमें उतरा। कितना श्रम किया उस पार पहुंचने के लिए, कोई दो मील बहता हुआ, चेष्टा, सारी चेष्टा की। लेकिन ऐसा
लगने लगा कि जैसे दूसरा किनारा है ही नहीं। अंधेरे में किनारा दिखाई भी नहीं पड़े।
फिर थक
गया। और ऐसा लगा कि आज बचना मुश्किल है। आखिरी चेष्टा की, आखिरी कोशिश की। जोर के थपेड़े
हैं, अंधेरी रात है। दूसरा किनारा
दिखाई नहीं पड़ता। और अब पहला किनारा भी बहुत पीछे छूट गया। अब लौटने का भी कोई
अर्थ नहीं है। हो सकता है दूसरा किनारा ही पास हो और पिछला किनारा तो और भी दूर हो
गया हो। और नदी जोर से बहाए ले जा रही है--कोई दो मील, तीन मील नीचे बह गया हूं। आखिरी
कोशिश की। जितनी कोशिश की उतना ही लगा कि पहुंचना मुश्किल है। और फिर एक क्षण को
ऐसा लगा कि मौत आ गई है; हाथ-पैर
ने जवाब दे दिया;
आंख
बंद हो गई;
लगा कि
मर गया हूं;
और समझ
लिया कि बात खत्म हो गई है।
कोई दो
घंटे बाद आंख खुली तो किनारे पर पड़ा था, उस पार। लेकिन इस दो घंटे में कुछ हो
गया--वह मैं कहना चाहता हूं। जैसे पुनर्जीवन हुआ। जैसे मरा और फिर वापस लौटा। जैसे
ही मुझे यह लगा कि मर रहा हूं और मौत आ गई, तो फिर मैंने सोचा कि जब मौत आ ही गई तो उसे
शांति से देख लेना चाहिए कि वह क्या है।
आंख
बंद करके मैंने हाथ-पैर छोड़ दिए। जैसे कोई--घुप्प अंधेरा तो था ही बाहर--जैसे भीतर
भी कोई बहुत घुप्प अंधेरी गुहा में प्रवेश कर गया हूं। इतना गहरा अंधेरा पहले कभी
नहीं देखा था!
बाहर
अंधेरा है,
लेकिन
पूर्ण अंधेरा बाहर नहीं है। बाहर प्रकाश भी है, लेकिन बाहर पूर्ण प्रकाश नहीं है। बाहर का
अंधेरा भी फीका है, बाहर
का प्रकाश भी फीका है। अंधेरा पहली दफा दिखाई पड़ा कि कौन सा अंधेरा है जिसके लिए
ऋषियों ने कहा होगा कि हे परमात्मा, अंधेरे से प्रकाश की तरफ ले चलो! तब तक मैं
सोचता था यही अंधेरा जो बाहर घिर जाता है, इसी के लिए ऋषियों ने प्रार्थना की होगी कि
परमात्मा,
इस
अंधेरे से प्रकाश की तरफ ले चलो!
लेकिन
मैं कई दफे सोचा कि इस अंधेरे को तो बिजली जला कर मिटाया जा सकता है। इसके लिए
परमात्मा को कष्ट देने की क्या जरूरत? मैं बहुत बार हैरान हुआ था कि ऋषि बड़े नासमझ
रहे होंगे। यह तो एक दीया जलाने से काम हो जाता, परमात्मा को पुकारने की क्या
जरूरत थी?
अवैज्ञानिक
रहे होंगे। बुद्धि न रही होगी। नहीं तो दीया जला लेते और अपना काम कर लेते। अंधेरे
को मिटाने की,
परमात्मा
से प्रार्थना करने की क्या जरूरत थी?
लेकिन
उस दिन पहली दफा पता चला कि एक ऐसा अंधेरा है, जिसे दीये से नहीं मिटाया जा सकता, जहां तक दीया ले जाया नहीं जा
सकता। पहली बार,
किस
अंधेरे के लिए आदमी के प्राणों की प्रार्थना रही है, वह समझ में आया। लेकिन उस
अंधेरे को उसके पहले कभी जाना नहीं था। इतना घनघोर अंधेरा हो सकता है, इसकी कल्पना भी करनी मुश्किल
है। चित्रकारों के पास इतना अंधेरा कोई रंग नहीं है। बाहर कुछ तो रोशनी हमेशा है।
अगर चांद न होगा,
तो
तारे होंगे। अगर सूरज ढल गया होगा, आकाश में बादल छाए होंगे, तो भी सूरज की किरणें बादलों
को पार करती होंगी। सच तो यह है कि बाहर का सब अंधेरा रिलेटिव है, सापेक्ष है; पूर्ण नहीं है, एब्सोल्यूट नहीं है।
एब्सोल्यूट,
पूर्ण
अंधेरा क्या है,
पूरी
रात क्या है,
वह
पहली दफा खयाल आया।
इतनी
घबड़ाहट उस अंधेरे में मालूम हुई!
और तब
मुझे समझ में आया कि बाहर का अंधेरा आदमी को इतना क्यों घबड़ाता है। बाहर के अंधेरे
में कोई खतरा तो नहीं है। अंधेरी रात इतना क्यों घबड़ा देती है? और आदमी हजारों साल से अग्नि
की पूजा क्यों करता है? तब
मुझे लगा कि शायद बाहर का अंधेरा भीतर के अंधेरे की कोई धुंधली स्मृति दिलाता
होगा। अन्यथा बाहर के अंधेरे में डर का कोई भी तो कारण नहीं है। और शायद बाहर जो
दीये को जला कर और आग को जला कर और अग्नि की पूजा चल पड़ी होगी, वह भी किसी भीतर की अग्नि की
तलाश का हिस्सा होगी।
अंधेरा
पहली दफा देखा। और इतने जोर से उस अंधेरे में मैं चल रहा हूं--वह अंधेरा और घना
होता चला जा रहा है, और घना
होता चला जा रहा है--और सारे प्राण तड़फड़ा रहे हैं। एक क्षण में हो गया होगा; बहुत देर नहीं लगी होगी।
क्योंकि समय के भी स्केल, समय की
भी धारणा,
समय की
भी तौल अलग-अलग है।
जब आप
जागते हैं,
तो घड़ी
में जो कांटे चलते हैं, उनसे
तौल चलती है। वह तौल भी बहुत पक्की तौल नहीं है। अगर आप सुख की हालत में हों, तो घड़ी के कांटे बहुत जल्दी
घूम जाते हैं। और अगर दुख में हों, तो बहुत धीरे-धीरे घूमते हैं। अगर घर में
कोई आदमी मर रहा है और आप उसकी खाट के पास बैठे हैं, तब देखिए कि घड़ी कैसी मरी हुई
चलती है! चलती ही नहीं, ऐसा
लगता है कि कांटे ठहर गए हैं, वहीं
के वहीं हैं। रात लंबाती मालूम पड़ती है, रात बहुत लंबी हो जाती है, ऐसा कि जैसे अब इस रात का कोई
अंत नहीं होगा!
घड़ी तो
अपनी ही चाल से चलती होगी। घड़ी को क्या मतलब है कि आपके घर में कोई मरता है! लेकिन
घड़ी लंबी मालूम होती है।
कोई
प्रियजन मिल जाए बहुत दिन का बिछुड़ा हुआ, घड़ी एकदम छलांग लगाने लगती है; एक-एक सेकेंड नहीं चलती, एक-एक घंटे कूदने लगती है।
रात ऐसे गुजर जाती है कि अभी तो सांझ हुई थी, अभी सुबह हो गई? इतने जल्दी? यह कैसे हो गया? और ऐसा लगता है कि घड़ी भी
बहुत बाधा दे रही है प्रेम में। सारी दुनिया तो बाधा देती ही है, घड़ी भी बाधा दे रही है। इतने
जल्दी गुजर जाती है रात।
बाहर
भी सुख और दुख में घड़ी की चाल भिन्न हो जाती है। दुख जितना बड़ा हो, घड़ी की चाल उतनी लंबी हो जाती
है। सुख जितना बड़ा हो, घड़ी की
चाल उतनी धीमी हो जाती है। दुख अगर पूर्ण हो, तो घड़ी के कांटे खड़े हो जाएंगे, कभी नहीं चलेंगे! सुख अगर
पूर्ण हो,
तो भी
घड़ी के कांटे एकदम घूम जाएंगे, पता ही
नहीं चलेगा। कब घूम गए, वहीं
दिखाई पड़ेंगे जहां पहले दिखाई पड़े थे।
फिर
बाहर और भीतर भी टाइम, समय
में फर्क पड़ता है। आप चौबीस घंटे गुजारते हैं। कभी एक क्षण को झपकी लग जाती है और
एक सपना देखते हैं--कि आपका विवाह हो रहा है; बच्चे हो गए, लड़की बड़ी हो गई, उसकी शादी के लिए लड़का खोजने
चल पड़े;
लड़का
खोज लिया है,
लड़की
का विवाह हो रहा है, और
अचानक नींद टूट जाती है। घड़ी में देखते हैं कि सोए हुए अभी मुश्किल से एक मिनट हुआ
था! झपकी एक मिनट लगी! एक मिनट में इतनी बड़ी प्रक्रिया कैसे हो गई? कि आपका विवाह हुआ, लड़की पैदा हुई, बड़ी हुई, उसका आप विवाह कर रहे हैं, उसको लड़का खोज लिया है, उसकी शादी-विवाह हो रही थी, बैंड-बाजे बज रहे थे। और
अचानक नींद टूट गई! एक मिनट गुजरा बाहर और भीतर इतनी लंबी यात्रा कैसे हो गई?
सपने
में टाइम का मेजरमेंट, सपने
में समय की गति भिन्न है, जागने
में भिन्न है। यह उस दिन पता चला। इतनी तेजी से भीतर जाना शुरू हुआ और इतनी
शीघ्रता से हो रहा है कि शायद समय ही नहीं लग रहा होगा। और प्राण तड़फड़ा रहे हैं कि
कैसे इस अंधेरे के बाहर हो जाया जाए? कैसे इस अंधेरे के बाहर, कैसे अंधेरे के बाहर हो जाऊं? उस दिन पहली दफा पूरी प्यास
मन में पकड़ी कि हे परमात्मा, अंधेरे
के बाहर ले चल!
भीतर
के अंधेरे का साक्षात न हो, तब तक
यह प्यास पकड़ती भी नहीं। इन आने वाले दिनों में भीतर के अंधेरे के साक्षात के लिए
हम कुछ कोशिश करेंगे। जिसे भीतर के अंधेरे का पता नहीं है, वह भीतर के प्रकाश के लिए कभी
रोएगा नहीं,
चिल्लाएगा
नहीं, पुकारेगा नहीं।
वह
कितनी देर उस अंधेरे में प्रवेश रहा। फिर जाकर एक द्वार पर सिर पीटने लगा हूं। आज
तो कहता हूं तो बहुत लंबा मालूम पड़ता है। बहुत जोर से सिर पीट रहा हूं: दरवाजा
खोलो! दरवाजा खोलो! कोई कह नहीं रहा हूं, भीतर कोई शब्द नहीं हैं, लेकिन प्राण पुकार रहे हैं।
कुछ भीतर पुकार नहीं रहा हूं कि द्वार खोलो, ऐसा कुछ शब्द नहीं है भीतर। लेकिन सारे
प्राण,
रोआं-रोआं
कह रहा है कि द्वार खोलो, मुझे
बाहर निकल जाने दो!
जीसस
का एक वचन सुना है: नॉक, एंड दि
डोर शैल बी ओपन। खटखटाओ, और
द्वार खुल जाएंगे।
मैं
सोचता था,
इतनी
सस्ती होगी बात क्या? कि
खटखटाओ,
और
द्वार खुल जाएंगे?
और
परमात्मा के द्वार के लिए बात है यह! तो थपकी दो, और द्वार खुल जाएंगे? अगर ऐसी ही बात होती तो कौन
आदमी राह चलते थपकी न दे देता! लेकिन उस दिन पता चला कि नॉक का मतलब क्या है।
सारे
प्राण,
सारी
श्वास,
सारा
रोआं-रोआं चिल्लाने लगे। शब्दों में नहीं, भावों में! सारी आत्मा ठोंकने लगे द्वार को; तो द्वार जरूर खुल जाते हैं।
द्वार खुल गए,
और एक
बिलकुल दूसरा,
ज्यादा
बृहत्तर...अभी तो जैसे कोई एक टनल, एक गुफा, संकरी गुफा थी, जिससे निकल जाने को प्राण
तड़फड़ाते थे। अब कुछ बड़ी गुफा है, जहां
धीमा प्रकाश है। मन को थोड़ी राहत मिली है।
लेकिन
आंख खोल कर उस धीमे प्रकाश को गौर से देखने पर--उस प्रकाश में बड़ी चहल-पहल है, भारी चहल-पहल है। रंग-बिरंगे
बहुत से आकार घूम रहे हैं, भाग
रहे हैं,
दौड़
रहे हैं। और जैसे-जैसे उसमें आगे बढ़ा हूं--जैसे एक बहुत बाजार है, जहां बहुत भीड़-भाड़ है, जहां बहुत तरह के लोग हैं, इतनी चीजें घूम रही हैं।
लेकिन चीजें बहुत अनूठी हैं, ऐसी
चीजें पहले कभी नहीं देखीं।
सुना
है कि प्लेटो यूनान में यह कहता था कि चीजें बाहर हैं, और चीजों के रूप भीतर हैं, फर्ॉम्स भीतर हैं। सुना था कि
मन की दुनिया में सारी चीजों के रूप हैं।
आप
मुझे बाहर दिखाई पड़ रहे हैं। मैं आंख बंद कर लूं, फिर भी आप दिखाई पड़ते हैं। आप
तो बंद हो गए,
आप तो
बाहर रह गए। फिर कौन दिखाई पड़ता है भीतर? आपका कोई रूप भीतर रह गया, कोई थाट फॉर्म, कोई विचार-आकृति भीतर रह गई।
बहुत
विचार-आकृतियां हैं, जिनका
मेला भरा हुआ है,
जो दौड़
रहे हैं,
भाग
रहे हैं,
चारों
तरफ से घेर रहे हैं। इतना कोलाहल है! पहले तल पर घनघोर अंधकार था, कोई कोलाहल नहीं था। दूसरे तल
पर धीमी रोशनी है,
लेकिन
भयंकर कोलाहल है। कान फटने लगे हैं, इतनी तेज आवाजें हैं। इतनी तेज आवाजें हैं
कि उनसे भी बच जाना जरूरी है, नहीं
तो आदमी पागल हो जाएगा।
बाद
में यह खयाल आया कि पहला अंधकार का तल शरीर का तल रहा होगा। दूसरा तल मन का तल रहा
होगा। शरीर के तल पर घनघोर अंधकार है। मन के तल पर घनघोर आवाजें हैं। शरीर एक टनल, एक छोटी गुफा है। मन एक
विस्तार है। लेकिन विस्तार में बहुत भीड़ है, बहुत रंग हैं, बहुत ध्वनियां हैं, बहुत सुगंधें हैं। जो भी जाना
हो, जो भी जीया हो, वह सब वहां मौजूद है, वहां कुछ मरता नहीं।
अनंत-अनंत जन्मों में भी जो जाना होगा, जो जीया होगा, वह सब वहां मौजूद है। मन एक
अदभुत संग्रह है सारे जन्मों का। वे सारे लोग जो मित्र रहे होंगे, वे सारे लोग जो शत्रु रहे
होंगे,
वे
सारी बातें जो सुनी होंगी, वे
सारी बातें जो कही होंगी, जो
घटनाएं गुजरी होंगी, जीवन
में जो-जो हुआ होगा--वह सब वहां जैसे इकट्ठा है। एक बहुत बड़े विस्तार में बहुत बड़ी
भीड़ है और वह सब आवाज से भरी हुई, सब
ध्वनियों से भरी हुई। वह भी घबड़ाने वाली और पागल करने वाली है।
क्या
यही है असत--यह जो चारों तरफ से घेर रहा है और विक्षिप्त किए दे रहा है? और फिर वही पुकार है कि और
आगे, और आगे, और आगे! दौड़ जारी है। फिर
द्वार है,
फिर
सिर पटकना है,
फिर
चिल्लाना है,
फिर
द्वार का खुल जाना है।
और एक
तीसरी दुनिया--जहां कोई सीमा नहीं; जहां कोई अंधकार नहीं; जहां कोई ध्वनि नहीं; जहां कोई प्रकाश नहीं। जहां न
अंधकार है,
जहां न
प्रकाश है। क्योंकि जिस प्रकाश को हम जानते हैं वह भी अंधकार का रूप है और जिस
अंधकार को हम जानते हैं वह भी प्रकाश का रूप है। यहां कुछ है जिसे प्रकाश कहते भी
मन डरता है,
क्योंकि
प्रकाश उसके सामने कुछ भी नहीं है।
लेकिन
एक क्षण को,
और एक
आनंद की लहर सारे प्राणों में छा गई, और फिर वापसी और मैंने आंख खोली तो मैं
किनारे पर पड़ा हूं। एक क्षण को लगा कि जैसे कोई सपना देखा। विश्वास नहीं आया कि जो
हुआ, वह हुआ। बहुत सोचा, लेकिन हाथ में तो कुछ भी न था, सपना ही रहा होगा। लेकिन वह
सपना फिर पीछा करने लगा। फिर बहुत उपाय करके उस सपने की खोज जारी रही। और
धीरे-धीरे उस दिन जो अचानक मृत्यु की घड़ी में घटित हो गया था, वह फिर सहज होना शुरू हो गया।
इन आने
वाले तीन दिनों में उसी यात्रा पर आपको भी ले चलना चाहता हूं।
पहली
यात्रा--शरीर के तल पर।
दूसरी
यात्रा--मन के तल पर।
और तीसरा
प्रवेश,
तीसरी
यात्रा--आत्मा के तल पर।
उसकी
एक किरण की झलक भी मिल जाए--एक बार भी--फिर वह कभी भूलती नहीं। वही न्यूक्लिअस बन
जाता है,
फिर
उसी के आस-पास सारा जीवन परिवर्तित होने लगता है। एक बार वहां की एक किरण उतर आए, और जीवन दूसरा हो जाता है, नया जन्म हो जाता है। और उसकी
एक किरण उतर जाए तो सारे जीवन में शांति छा जाती है। फिर चाहे जीवन पर कितने ही
उत्पात घटें--चाहे कोई छुरा लेकर छाती में भोंक दे, चाहे कोई गर्दन काट दे, चाहे कोई आग में जला दे, चाहे कोई अपमान करे, चाहे कोई सम्मान करे, चाहे कोई गालियां दे, चाहे कोई फूलों के हार
डाले--फिर इस सब में कुछ फर्क नहीं रह जाता। जैसे सपने में सारी बातें हो रही हैं, होती हैं। भीतर शांति के उस
तल पर कोई खबर नहीं पहुंचती। वहां शांति, वहां आनंद, वहां जो है वह अखंडित, अविचलित, अकंप बना रह जाता है। वहां
पहुंचने का जो अनुभव जीवन में छा जाता है, उस अनुभव का नाम शांति है।
शांति
मानसिक घटना नहीं है।
पश्चिम
के सारे मनोवैज्ञानिक इस दृष्टि से बुनियादी रूप से भूल में हैं। पश्चिम के
मनोवैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं आदमी को शांत करने की उसके मन के द्वारा। वे कभी भी
सफल नहीं हो सकेंगे। शांति मानसिक घटना नहीं है। मन के तल पर ज्यादा से ज्यादा
एडजेस्टमेंट हो सकता है, समायोजन
हो सकता है। शांति कभी नहीं। शांति आध्यात्मिक घटना है, आध्यात्मिक उपलब्धि की छाया
है।
इसलिए
पश्चिम को शांति का कोई भी पता नहीं है कि शांति क्या है। और आज लाख चेष्टा चलती है
मन को समझने की,
उसकी
बीमारियों को समझने की, उसके
विचारों को समझने की, वृत्तियों
को समझने की,
मन की
सारी की सारी स्थिति को समझने की और मन को समझाने की, सुव्यवस्थित करने की। लेकिन
वह चेष्टा शांति में ले जाने वाली नहीं होगी। शांति तो मन के ट्रांसेंडेंस से, मन के पार होने से, मन के अतीत होने से उपलब्ध
होती है।
मन के
तल पर कोई शांति नहीं। इसलिए मन की चाहे कितनी ही सुव्यवस्था की जाए, ज्यादा से ज्यादा इतना हो
सकता है कि आदमी अशांति को सहने योग्य बन जाए, लेकिन शांत कभी नहीं बन सकता। अशांति को
सहने योग्य बनना एक बात है, शांत
हो जाना बिलकुल दूसरी बात है। स्वस्थ होना एक बात है, बीमारी को सहने योग्य बन जाना
बिलकुल दूसरी बात है।
आज
जितना मनसशास्त्र,
जितना
मनोविज्ञान चेष्टा कर रहा है, वह
सारी की सारी चेष्टा मनुष्य को ज्यादा से ज्यादा सहने योग्य--अशांति को सहने योग्य
बनाने में समर्थ कर सकती है, लेकिन
शांत नहीं बना सकती। शांत तो मनुष्य बनता है तीसरे तल पर, आत्मा के तल पर। और क्यों
आदमी शांत हो जाता है आत्मा के तल पर?
जैसे
मैंने कहा,
शरीर
की भूख है कि रोटी चाहिए। मन की भूख है: सुख चाहिए। वैसे ही आत्मा की भूख है:
परमात्मा चाहिए। परमात्मा आत्मा का भोजन है। और जिस दिन तीसरे तल पर प्रवेश होता
है, उसी दिन वह मिल जाता है जिसे
परमात्मा कहते हैं। उसके मिलते ही सारे जीवन में एक अपूर्व शांति छा जाती है उसके
मिलन की। और उसका मिलन कुछ ऐसा नहीं है कि फिर खो सके। सच तो यह है, वह अभी भी खोया हुआ नहीं है; सिर्फ हमें पता नहीं है कि वह
खोया हुआ नहीं है। उसे कभी खोया नहीं जा सकता। वह सदा है। भीतर है।
जैसे
किसी के घर में खजाना रखा हो और वह घर के बाहर घूमता हो, और घूमता हो, और घूमता रहे। और जितना
ज्यादा घूमे उतना ही भूल जाए भीतर जाने का रास्ता। और घूमने की आदत मजबूत होती चली
जाए और बाहर का रास्ता लीक बन जाए। और वही रास्ता दिखाई पड़े और वह उस पर ही घूमता
रहे, घूमता रहे, घूमता रहे। और धीरे-धीरे इतनी
विस्मृति हो जाए कि भीतर कोई खजाना था, यह खयाल ही भूल जाए। और बाहर घूमने की वजह
से वह पूछता फिरे सारी दुनिया में कि खजाना कहां है? मैं क्या खोज रहा हूं, मैं क्या खोजना चाहता हूं, मुझे कुछ पता नहीं! और उसी
खजाने के आस-पास घूमता चला जाए। आदमी करीब-करीब ऐसी हालत में है और इसीलिए अशांत
है। जो उसका है,
वही
उसे नहीं मिल पाता है। जो उसको उपलब्ध है, उसको भी नहीं जान पाता है। जो वह है, उसकी भी खबर नहीं मिल पाती।
और बाहर ही घूम कर जीवन नष्ट हो जाता है।
अशांति
का अर्थ है: बाहर घूमना।
शांति
का अर्थ है: भीतर प्रवेश।
लेकिन
यह भीतर प्रवेश कैसे हो सकता है? यह
भीतर प्रवेश बड़ी सरलता से हो सकता है। लेकिन सरलता का मतलब सस्ता नहीं होता! सरलता
का मतलब यह नहीं होता कि सस्ता हो सकता है। सच तो यह है कि सरलता से ज्यादा कठिन
और कोई चीज जगत में दूसरी नहीं है। सरल होने से ज्यादा आरडुअस, कठिन और कुछ भी नहीं है। कठिन
होना आसान है,
सरल
होना ही मुश्किल हो जाता है। क्योंकि सरल होने में अहंकार को कोई तृप्ति नहीं
मिलती,
कठिन
होने में अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। सरल होने में अहंकार मर जाता है, कोई तृप्ति नहीं मिलती।
मैंने
सुना है,
इकहार्ट
ने कहीं कहा है,
कहीं
कहा है कि टु बी आर्डिनरी इज़ दि मोस्ट आरडुअस थिंग। साधारण होना सबसे कठिन बात है।
और इकहार्ट जब मरा तो किसी ने कहा कि वह बहुत एक्सट्रा आर्डिनरी आदमी था, वह बहुत असाधारण आदमी था। कोई
पूछने लगा,
क्यों? तो उसने कहा कि वह बहुत
साधारण था। इतना असाधारण आदमी इसीलिए था कि बिलकुल साधारण था। इतना साधारण होना
बहुत ही कठिन है। अजीब लगती है यह बात कि किसी आदमी को हम कहें कि वह बहुत असाधारण
है, क्योंकि बिलकुल साधारण है।
और ऐसे
ही असाधारण और कठिन यह बात लगेगी कि बहुत सरल है। लेकिन सरल से यह मत समझ लेना आप
कि सस्ता है। सरल तो बहुत है, क्योंकि
जो स्वभाव है उसको पाना कठिन नहीं हो सकता। जो हमारे भीतर ही है, उसे पाना कठिन नहीं हो सकता।
जो हम ही हैं,
उसे
पाना कठिन नहीं हो सकता।
लेकिन
बहुत कठिन हो गया है। क्योंकि बहुत जन्मों से हम एक ऐसे रास्ते पर चल रहे हैं, जिस रास्ते का उससे कोई संबंध
नहीं है। और वह यात्रा इतनी मजबूत होती चली गई है जन्म-जन्म, वह आदत इतनी मजबूत होती चली
गई है कि अपनी तरफ गर्दन मोड़ना ही मुश्किल हो गया है, पैरालिसिस हो गई है जैसे
गर्दन में। जैसे किसी आदमी की गर्दन पैरालाइज्ड हो जाए, और उससे हम कहें--पीछे मुड़ कर
देखो! वह कहे,
बहुत
कठिन है। हम कहें कि यह क्या कठिन बात है, पीछे गर्दन करो और देखो! वह कहे, वह आप कहते हैं, ठीक है, लेकिन मेरी गर्दन कुछ जड़ हो
गई है,
पीछे
लौटती ही नहीं। जब तक कि मैं पूरा न लौट जाऊं, तब तक गर्दन नहीं लौटती, अकेली गर्दन नहीं लौटती। और
आदमी अकेली गर्दन लौटा कर पीछे देखना चाहता है, इसलिए कभी भी पीछे नहीं लौट पाता; पूरे आदमी को लौटना पड़ता है, टोटल आदमी को लौटना होता है, तब लौटना होता है।
इसलिए
धर्म समग्र जीवन का रूपांतरण है। धर्म कोई गर्दन को मोड़ लेना नहीं है। वह जैसा
कवियों ने कहा है कि जब जरा गर्दन झुकाई और देख ली! ऐसी कोई तसवीर नहीं है वहां
भीतर कि आपने गर्दन झुकाई और देख ली। गर्दन नहीं झुकती; पूरे ही आदमी को झुक जाना
पड़ता है। वह पूरा टघनग है, वह
पूरा कनवर्शन है। उसमें सिर्फ गर्दन नहीं झुकती, कोई एक हाथ-पैर नहीं झुकता, पूरा आदमी मुड़ जाता है। और
पूरे आदमी का मुड़ना कैसे हो सकता है, वह मैं बात करूंगा।
लेकिन
उसके पहले,
क्योंकि
हम रोज रात यहां ध्यान के लिए बैठेंगे। आज भी ध्यान के लिए पंद्र्रह मिनट हम पीछे
बैठेंगे,
तो
थोड़ा मैं ध्यान के लिए समझा दूं। और फिर कल से वह यात्रा कैसे हो सकती है एक-एक
कदम, उस यात्रा को समझाने की कोशिश
करूंगा। लेकिन समझाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि जो मैं कहूं उस पर थोड़ा प्रयोग
करना है। वह प्रयोग हम अभी करेंगे, वह प्रयोग मैं आपको समझाऊं।
अभी हम
ध्यान का एक प्रयोग शुरू करेंगे। वह प्रयोग ऐसे बहुत सरल है। वह प्रयोग, स्वयं के भीतर जो सोए हुए
हिस्से हैं उनको जगाने का प्रयोग है। स्वभावतः, अगर कोई सोया आदमी हो तो हम उसे पुकारते
हैं। लेकिन हमें नाम मालूम हो तो हम नाम लेकर पुकार सकते हैं। और नाम अगर पता न हो
तो हम क्या करेंगे? और
हमें तो भीतर जो सोया है उसका कुछ भी पता नहीं है, कौन है? उसके नाम का कुछ पता नहीं। तो
हम तो एक ही काम कर सकते हैं कि अपने प्राणपण से यह पूछें कि मैं कौन हूं? और अगर पूरी शक्ति से यह पूछा
जाए कि मैं कौन हूं? तो
धीरे-धीरे भीतर जो सोए हुए तल हैं, वे जागने लगेंगे। और जिस दिन भीतर तक यह
प्रश्न पहुंच जाता है, अंतस
तक--उस तीसरे द्वार तक--कि मैं कौन हूं? तो वहां जो बैठा है, वहां से उत्तर आना शुरू हो
जाता है कि कौन हैं आप।
वह जिन
लोगों ने कहा है,
अहं
ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं! वह किसी पुस्तकालय में बैठ कर किसी किताब में से
उतार कर नहीं कह दिया है। पूछा है अपने से कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछते ही चले गए हैं, सारे प्राण को डुबा दिया है
इस पूछने में,
इस
इंक्वायरी में कि मैं कौन हूं? किसी
दिन यह तीर घुसता चला गया भीतर और वहां से उत्तर आया कि मैं कौन हूं।
लेकिन
हम सब बहुत होशियार लोग हैं। हम कहते हैं, हम क्यों मेहनत करें? किताब में लिखा हुआ है कि हम
ब्रह्म हैं! उसी को याद कर लेंगे, झंझट
में हम क्यों पड़ें? उसको
कंठस्थ कर लेंगे। अगर सवाल उठेगा तो कह देंगे कि मैं ब्रह्म हूं! मैं आत्मा हूं!
ये झूठे उत्तर...झूठे इसलिए नहीं कि जिन्होंने उत्तर दिए वे झूठे थे। झूठे इसलिए
कि उत्तर आपके नहीं हैं! आपका जो उत्तर नहीं है वह झूठा है! किताबों से यह सीख
लिया है कि मैं कौन हूं। और हमें कुछ भी पता नहीं है!
नहीं; परमात्मा के लिए खुद से ही
पूछना होगा और खुद ही खोजना पड़ेगा। और जिस दिन अपना उत्तर आता है, वही उत्तर है। उस उत्तर के
आते ही सब कुछ और हो जाता है, सब कुछ
और हो जाता है। जैसे अंधे आदमी को अपनी आंख मिल जाए, यह एक बात है। और अंधा आदमी
दूसरे लोगों से सुन ले कि प्रकाश है और दोहराने लगे कि प्रकाश है, यह बात ही और है, इससे कोई संबंध ही नहीं है।
तो हम
इधर पूछेंगे। और पूछना मुर्दा पूछना नहीं हो सकता, कि मरे-मरे पूछ रहे हैं कि
मैं कौन हूं?
ऐसे
नहीं होगा। क्योंकि बहुत गहरी पर्तें हैं जहां आवाज पहुंचानी है।
अगर
जंगल में आप भटक जाएं, अंधेरी
रात हो,
कोई
साथी-संगी न हो,
तो ऐसा
पूछेंगे किसी झाड़ के नीचे, कोई है? यहां कोई है? ऐसा फिर नहीं पूछेंगे। फिर तो
सारे प्राण लगा कर पूछेंगे कि कोई है यहां? मैं रास्ता भूल गया हूं! कि जंगल का एक-एक
पौधा कांपने लगे,
एक-एक
पहाड़ी गूंजने लगे,
एक-एक
घाटी पूछने लगे कि कोई है यहां? आप
पूरी ताकत लगा देंगे।
उससे
भी बड़ी भटकन है--जो जंगल में हो जाती है। क्योंकि जंगल में भटका आदमी कितनी देर
भटका रह सकता है?
सुबह
घर लौट आएगा। न पूछे तो भी लौट आएगा। सूरज निकलेगा ही आखिर। लेकिन हम जिस जंगल में
भटके हुए हैं वह बहुत जन्मों का है। न मालूम कितने जन्मों से भटके हैं। लेकिन इतने
धीरे-धीरे पूछते हैं कि कहीं कोई रास्ता है, कि पूछने से ऐसा लगता है कि हमें कोई
प्रयोजन नहीं है।
नहीं; यह पूछना टोटल हो सकता है।
पार्शियल नहीं;
खंड-खंड
नहीं; छोटा-छोटा नहीं; पूर्ण हो सकता है। और यह
आश्वासन है कि जो आदमी पूरी शक्ति से पूछे, आज और इसी वक्त भी उत्तर मिल सकता है, कल की क्या जरूरत है? लेकिन हमने कभी पूछा ही नहीं
है! हमने कभी खोजा नहीं है! हम इसी खयाल में हैं कि कहीं से उधार, कहीं से बारोड कुछ मिल जाए।
नहीं; सत्य की दिशा में कुछ भी उधार
नहीं मिलता है,
आनंद
की दिशा में किसी दूसरे से कुछ भी नहीं मिलता है। अपना ही श्रम, और अपना ही संकल्प, और अपनी ही शक्ति! वही कसौटी
भी है इस बात की कि हमारी मांग आथेंटिक है, हमने जो मांगा है वह हम सच में मांगने के
हकदार हैं। एक ही पात्रता है इस खोज में, और वह यह है: अपने को पूरी तरह खोज के साथ
खड़ा कर देना। इस ध्यान की एक ही शर्त है और वह शर्त यह है कि धीरे-धीरे नहीं, आहिस्ता-आहिस्ता नहीं, ऐसे ही कामचलाऊ ढंग से नहीं, पूर्णतया, जैसे यह हमारे प्राणों का
प्रश्न है। हो सकता है एक क्षण बाद हम न बचें! हो सकता है एक क्षण बाद श्वास न
लौटे! तो यह कहने को न रह जाए कि हम अपने को बिना जाने फिर वापस लौट आए। ऐसी ही
स्थिति है।
महावीर
ने कहा है,
जैसे
घास के एक पत्ते पर सुबह ओस की बूंद होती है। कब गिर जाएगी हवा के झोंके में, कुछ पता नहीं। ऐसा ही आदमी का
जीवन है। घास के पत्ते पर ओस की बूंद! हवा का जरा सा झोंका और गिर जाएगी। ऐसा ही
आदमी का जीवन है! इतनी ही इनसिक्योरिटी में; इतनी ही असुरक्षा में; इतने ही खतरे में; इतने ही डेंजर में। एक-एक पल
का वहां कोई भरोसा नहीं है। और वहां जब
आदमी अपनी खोज में जाता है तो इतने धीमे, ऐसे जैसे कोई जल्दी नहीं है।
नहीं; ऐसे नहीं चल सकता है। इन तीन
दिनों में हम जो ध्यान यहां करेंगे, उसमें यह आशा लेकर मैं चलूंगा कि वह
परिपूर्णतया,
आपने
पूरा अपने को,
पूरा
कमिटमेंट,
श्वास
का, हृदय की धड़कन का, शरीर का, मन का, पूरा--जितने पूरे आप उसमें
कूदेंगे उतने ही गहरे आप प्रवेश पा जाएंगे। जितनी पूर्णता से कूदेंगे उतने भीतर
चले जाएंगे। और करना क्या होगा? करना
कुछ बहुत नहीं है,
छोटी
सी ही बात है।
अभी हम
सब बैठेंगे,
तो
सबको आराम से बैठ जाना है, और
हाथों की सारी अंगुलियां एक-दूसरे में डाल लेनी हैं, ताकि पूरी ताकत से पूछना हो
सके। और जितना हाथ पर दबाव बढ़ेगा, उतना
पता चलेगा कि मैं कितनी शक्ति से पूछ रहा हूं। हाथ पत्थर हो जाएंगे। ये दसों
अंगुलियों को एक-दूसरे के भीतर डाल लेना है, इनको अपनी गोद में रख लेना है, आराम से बैठ जाना है। इसके
बाद हम आंख बंद करेंगे। और आंख बंद करने के बाद, ध्यान जो रहे, वह दोनों आंखों के बीच में
रहे। वह क्यों बीच में रहे? वह आने
वाले कल के दिनों में मैं समझाने की कोशिश करूंगा कि उसका अर्थ क्या है, क्या परिणाम हैं उसके। आंख
दोनों बंद रहेंगी,
लेकिन
इस तरह रहेंगी कि जैसे हम बंद आंख से दोनों आंखों के बीच में भीतर देख रहे हों।
हाथ बंद रहेंगे। रीढ़ सीधी रहेगी। और शरीर ढीला रहेगा।
पहले
ऐसे बैठ जाएं। हाथ बंद कर लें, रीढ़
सीधी हो। रीढ़ इसलिए सीधी जरूरी है कि जितनी रीढ़ सीधी होगी उतने ही जोर से आप पूछ
सकेंगे।
आपने
खयाल किया होगा कि जब भी जोश आ जाएगा तो रीढ़ अपने आप सीधी हो जाती है। लड़ाई-झगड़े
में आपने देखा होगा कि कोई आदमी रीढ़ झुका कर लड़ाई-झगड़ा नहीं करता है। रीढ़ अपने आप
सीधी हो जाएगी। जब पूरे प्राणों की पुकार होगी तो रीढ़ सीधी हो जाएगी।
तो रीढ़
सीधी। हाथ बंद। और वे हाथ आपके लिए मापदंड का काम करेंगे कि कितने जोर से आप पूछ
रहे हैं,
उतने
ही जोर से हाथ जड़ होते चले जाएंगे। उनको खोलना ही मुश्किल हो जाएगा। वे बिलकुल बंद
हो जाएंगे,
जैसे
उनमें खुलने की ताकत भी नहीं रही। और आंख दोनों बंद रहेंगी, और ध्यान दोनों पलकों के बीच
में, मध्य में; नाक जहां से शुरू होती है
दोनों आंखों के बीच में, नासाग्र
जहां से हिस्सा शुरू होता है वहां अंदर आंखें दोनों रहेंगी।
फिर
अपने भीतर...ओंठ बंद हैं और जीभ तालू से सट जाएगी, जब ओंठ बंद रहेंगे तो जीभ ऊपर
तालू से सट जाएगी,
अर्थात
मुंह बिलकुल बंद हो गया। मुंह से नहीं पुकारना है अब हमें, भीतर प्राणों से पुकारना है।
और भीतर पूछना है कि मैं कौन हूं? इतनी
तेजी से कि दो "मैं कौन हूं?' के बीच में कोई जगह न रह जाए। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? इस भांति सतत और पूरी शक्ति
से कि भीतर कोई शक्ति शेष न रह जाए।
यह हो
सकता है कि शरीर कंपने लगे। यह हो सकता है कि आंख से आंसू बहने लगें। यह हो सकता
है कि रोना आ जाए। अब जब शरीर पूरी ताकत से लगेगा तो यह सब हो सकता है। कुछ भी
रोकना नहीं है। जो भी हो, होने
देना है। एक ही ध्यान रखना है कि मैं तो पूछता ही चला जाऊं, पूछता ही चला जाऊं। मेरा तो
पूरा जीवन दांव पर है; मैं
पूछूंगा और जानना चाहता हूं कि भीतर क्या है? यह हम पंद्र्रह मिनट के लिए प्रयोग करेंगे।
और इस प्रयोग के बाद हमारी बैठक समाप्त होगी।
तो अब
आप बैठ जाएं। जो लोग, मित्र
ऊपर खड़े हैं,
वे
अपनी जगह बैठ जाएं तो बड़ी कृपा होगी। बैठ जाएं, कुछ हर्ज नहीं हो जाएगा; थोड़े कपड़े खराब हुए तो कुछ
हर्ज नहीं होगा,
बैठ
जाएं। क्योंकि कोई भी खड़ा रहेगा वह बाधा देगा, बैठ जाएं। चुपचाप अपनी जगह बैठ जाएं। और कोई
बातचीत नहीं करेगा। और ध्यान रखेंगे आप कि आपके कारण किसी दूसरे को जरा भी बाधा न
पड़े।
ठीक है, रीढ़ सीधी कर लें। हाथ बांध
लें। आंख बंद कर लें। ध्यान दोनों आंखों के बीच, आंख बंद करनी है, ध्यान दोनों आंखों के बीच में
ले जाएं,
जैसे
हम बंद आंखों से दोनों आंखों के बीच की तरफ देख रहे हैं। ठीक! ओंठ बंद हैं। अब
भीतर पूरी शक्ति से शुरू करें, पूछें:
मैं कौन हूं?
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?...तेजी से, गति से, तीव्रता से और पूरी शक्ति से।
पूछते चले जाएं,
पूरी
शक्ति लग जाए,
बढ़ाते
जाएं...मैं कौन हूं? मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?...धीरे-धीरे नहीं, पूरी शक्ति से। और जितनी
शक्ति से पूछेंगे,
भीतर
उतरना शुरू हो जाएगा।...
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?...पूछें तीव्रता से, शक्ति से, पूरी शक्ति से...हृदय की
धड़कन-धड़कन पूछने लगे, श्वास-श्वास
पूछने लगे। हाथ बंधते चले जाएंगे, रीढ़
सीधी होती चली जाएगी, शरीर
कंप सकता है,
आंख से
आंसू बह सकते हैं,
पर
पूरी शक्ति लगा दें...और जैसे-जैसे शक्ति बढ़ेगी, वैसे-वैसे शांति बढ़ेगी। भीतर
एक गहरी शांति पैदा होती चली जाएगी।...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
नहीं; धीरे-धीरे नहीं, पूरी शक्ति से...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...फिर मुझसे कहना नहीं चाहिए
आकर कि नहीं कुछ हुआ। पूरी शक्ति से...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं हूं कौन?...पूछें, पूछें...गहरे, गहरे...जैसे तीर की तरह आवाज
पूछने लगे--भीतर,
भीतर, भीतर...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...पूरा शरीर कंपने लगे--मैं कौन
हूं? पूरी शक्ति लग जाए--मैं कौन
हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
एक
गहरी शांति उतरनी शुरू हो जाएगी।...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...पूरी शक्ति से, पूरी शक्ति से...एक तूफान आ
जाए...यह पूरा वातावरण पूछने लगे--मैं कौन हूं? इतनी आत्माएं इकट्ठी पूछें और परिणाम न
हो!...मैं कौन हूं? मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?...पूरी शक्ति से...जो हो हो।...
मैं
कौन हूं?...किसी दूसरे की कोई चिंता न
करें, अपना--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...श्वास-श्वास, हृदय की धड़कन-धड़कन, कुछ याद न रह जाए, बस एक प्रश्न रह जाए--मैं कौन
हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?... और भीतर, और भीतर...एक गहरी शांति छाती
चली जाएगी। जितने जोर से पूछेंगे, पीछे
उतनी ही शांति मालूम पड़ेगी। जितनी गहराई से पूछेंगे, पीछे मन उतना ही गहरी शांति
अनुभव करेगा।...
मैं
कौन हूं?...हिला डालें, अपने पूरे व्यक्तित्व को हिला
दें...पूरे प्राण हिल जाएं--मैं कौन हूं?...जैसे कोई किसी वृक्ष को हिलाता हो, उसकी जड़ें तक हिल जाएं--मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?...जानना ही है, पहचानना ही है, पहुंचना ही है--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...पूछें, पूछें, पूछें...एक प्रश्न ही रह जाए, एक प्रश्न ही रह जाए--मैं कौन
हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...खो गए हैं अंधकार में, मैं कौन हूं पूछते हैं।
रास्ता खो गया है,
अपना
ही पता नहीं।...
मैं
कौन हूं?
खोजना
है, खोजना है...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...पांच मिनट और पूरी शक्ति
से--मैं कौन हूं?
मैं
कौन हूं?...पूरी ताकत लगा दें...मैं कौन
हूं?...पीछे कुछ बच न जाए, ऐसा न लगे कि मैं अधूरा-अधूरा
कर रहा हूं। मैं कौन हूं? मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?...एक चोट द्वार पर--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...जैसे किसी बंद द्वार पर
चोट--मैं कौन हूं?
मैं
कौन हूं?
मैं
कौन हूं?...गहरा अंधेरा है... मैं कौन
हूं? मैं कौन हूं?...
जितनी
तीव्रता से पूछेंगे, मन
शांत होता चला जाएगा...मैं कौन हूं?...एक ही गूंज--मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...आखिरी दो मिनट, पूरी शक्ति से...पूरी शक्ति
से...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...
आखिरी
मिनट...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...
मन
शांत होता चला जाएगा, एक
गहरी शांति भीतर छा जाएगी। जैसे तूफान के बाद सब शांत हो जाता है।...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...आखिरी बार--मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...आखिरी ऊंचाई पर ले जाकर छोड़ना
है--मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं?...
छोड़
दें...बिलकुल छोड़ दें...शांत हो जाएं...छोड़ दें। धीरे-धीरे आंख खोलें...मौन बैठे
रहें थोड़ी देर...धीरे-धीरे आंख खोलें...फिर धीरे-धीरे हाथ खोलें...धीरे-धीरे आंख
खोलें...
तीन
छोटी-छोटी सूचनाएं मुझे देनी हैं, वे मैं
सूचनाएं दे दूं,
फिर हम
उठ जाएंगे।
पहली
सूचना तो यह मुझे देनी है कि मेरे आते-जाते कोई भी व्यक्ति मेरे पैर न छुए। मैं
किसी का गुरु नहीं हूं और न मानता हूं कि कोई किसी का गुरु हो या कोई किसी का
शिष्य हो। तो मेरे कोई पैर न छुए। मैं कोई साधु-संत, कोई महात्मा भी नहीं हूं। साधु-संत और महात्मा होने
की कोशिश मुझे बहुत बचकानी मालूम पड़ती है। तो मुझे कोई आदर, समादर, सम्मान देने की जरा भी जरूरत
नहीं है। इतना ही सम्मान मेरे लिए बहुत है कि मैं जो कहता हूं उसे आप सुन लें। उसे
मानने की भी जरूरत नहीं है। सोचें, प्रयोग करें। हो सकता है ठीक हो, तो रुक जाएगा; गलत होगा तो छूट जाएगा।
दूसरी
बात यह मुझे सूचना देनी है कि मैं--मेरे पास कोई आए तो मेरा स्वभाव है उसे प्रेम
देना। जिन्हें प्रेम से भय हो उन्हें मेरे पास नहीं आना चाहिए। मेरी हालत
करीब-करीब वैसी है, जैसा
प्लोटिनस बूढ़ा हो गया था, जिंदगी
भर प्रेम को ही उसने प्रार्थना समझा। बुढ़ापे में उसके शरीर पर कोढ़ आ गया। तो भी
लोग उसके पास आते तो उन्हें गले लगा लेता। लोग बहुत डरते, क्योंकि कोढ़ी शरीर से कौन गले
लगना चाहे! लोगों ने आना-जाना बंद कर दिया। प्लोटिनस लोगों से पूछता कि लोग अब आते
नहीं? संकोच में कौन उसे कहे! कुछ
मित्रों ने बहुत हिम्मत करके कहा कि तुम्हारे शरीर में कोढ़ हो गया। तुम लोगों के
हाथ हाथ में ले लेते हो, उन्हें
गले से लगा लेते हो, किसी
का माथा चूम लेते हो। लोग डरने लगे तुम्हारे पास आने से। वह प्लोटिनस कहने लगा, अरे हां, यह तो मैं भूल ही जाता हूं कि
मैं शरीर भी हूं। यह मुझे खयाल ही नहीं रहता कि शरीर में कोढ़ भी है।
मेरे
पास भी कम आएं,
क्योंकि
मुझे कुछ पता नहीं कि मैं शरीर भी हूं, शरीर पुरुष का भी है, किसका है, मुझे कुछ पता नहीं। तो पुरुष
आ जाते हैं पास तब तो बहुत झंझट नहीं होती, स्त्रियां पास आ जाएं तो बहुत झंझट हो जाती
है। तो पूरा खयाल रखें कि मेरे पास ही न आएं। मैं अपने स्वभाव को बदलूं, यह मुश्किल मालूम पड़ता है।
लेकिन आप मुझ पर दया कर सकते हैं, मुझसे
थोड़ा दूर-दूर रहें।
अभी
यहां आया तो पता चला। एक संसद-सदस्य हैं बड़ौदा के, उन्होंने कुछ वक्तव्य दिया।
उन्होंने वक्तव्य दिया तो मुझे पता चला कि वे ठीक कहते हैं। एक बहन दिल्ली आई हुई
थी। वह संसद-सदस्य से कम बुद्धिमान नहीं, किसी युनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। वह आई और
मेरे पास रुकी और उसने मुझसे बहुत ही आग्रहपूर्ण निवेदन किया कि यह मेरा बड़ा
सौभाग्य होगा कि मैं आपके साथ ही रुक जाऊं। मैं वर्षों से यह प्रतीक्षा करती हूं
कि कभी दो दिन आपके साथ रहने मिल जाए।
मैंने
कहा, तू पागल है, तू कभी भी आ सकती थी।
वह
मेरे साथ रुक गई। मुझे पता नहीं कि उसका साथ रुकना बहुत अड़चन और कठिनाई की बात हो
जाएगी। मुझे अगर किसी ने आकर कहा होता कि इसका साथ रुकना हमें बहुत अड़चन और कठिनाई
की बात है,
तो मैं
उनको कष्ट भी नहीं देता। या उनसे कहता कि तुम भी आ जाओ और तुम भी यहीं सो जाओ, तुम भी यहीं रुक जाओ।
उन्होंने मुझे तो कुछ कहा नहीं। मैं तो मीटिंग में गया। दूसरे दिन उन्होंने इस बहन
का सब सामान निकाल कर बाहर कर दिया।
मैं
आया तो वह खड़ी हुई रो रही है और उसने मुझे कहा कि मेरा बहुत अपमान किया गया, मुझसे बहुत अभद्र बातें कही
गईं। मैंने कहा,
यह तो
बड़े आश्चर्य की बात है! तो उन मित्रों ने कहा कि जब आप आए तो यह बहन आपसे गले
मिली। और यह तो बड़ा अनाचार है कि कोई बहन आपसे गले मिल जाए। तो मैंने उनसे कहा कि
मुझे कह देना था तो अच्छा होता, उसका
सामान निकालना या उससे कुछ बातें कहनी बहुत गलत बात है, अभद्र है।
फिर
अभी इधर आया तो पता चला, उन्होंने
वक्तव्य दिया है अखबारों में। तो मुझे खयाल आया कि वह भी निवेदन आप से कर दूं।
मेरे पास कौन आता है, स्त्री-पुरुष
है, मैं कोई हिसाब नहीं रखता हूं।
इसलिए सम्हल कर ही मेरे पास आना चाहिए, वह अच्छा है। आगे भी मैं हिसाब रख सकता हूं, यह बड़ा मुश्किल है। तो मुझसे
थोड़ा दूर ही रहना चाहिए, वह
अच्छा है। संसद-सदस्यों को तकलीफ देना अच्छा नहीं होता। और संसद-सदस्य बेचारे देश
का आचरण ठीक रखने की कोशिश करते हैं। उन्हीं के कारण देश का इतना अच्छा आचरण भी है, नहीं तो कभी का बिगड़ गया
होता। देश इतना चरित्रवान और आचरणवान उन्हीं के कारण है। और मेरे जैसे लोग तो
हमेशा से आचरण बिगाड़ने वाले रहे हैं। तो ऐसे लोगों से थोड़ा दूर रहना चाहिए।
तो
दूसरा निवेदन यह है कि मेरे पास थोड़े फासले से ही नमस्कार किया तो बहुत अच्छा।
मुझसे व्यक्तिगत रूप से भी मिलने सोच-समझ कर आना चाहिए। एक तो आना ही नहीं चाहिए।
क्योंकि जो मुझे कहना है, वह मैं
यहां कह देता हूं,
मुझसे
अलग और पूछने की कोई बात नहीं।
लेकिन
मैं जानता हूं,
कुछ
बातें हो सकती हैं जो अलग पूछने की हों। लेकिन संसद-सदस्यों की इच्छा नहीं है कि
मुझसे कोई अलग बात कर सके। सिर्फ पुरुषों तक बात चल जाए, तब तो ठीक है। स्त्रियां अलग
आकर बात करने की कोशिश करें, तो बड़ी
कठिनाई हो जाती है। तो स्त्रियों को तो कतई मुझसे अलग बात करने नहीं आना चाहिए। अब
इसमें मेरा कसूर नहीं है, उनका
स्त्री होना कसूर है या भारत में पैदा होना कसूर है, यह वे समझें।
और अगर
कोई मुझसे एकांत में मिलने आए, तो उसे
सोच-समझ कर आना चाहिए कि चरित्र जिसका ठीक नहीं, एक ऐसे आदमी के पास जा रहे
हैं। तो सोच-समझ कर, विचार
करके आना चाहिए। क्योंकि कठिनाई हो लोगों को, तकलीफ हो लोगों को, परेशानी हो...
और
परेशानी वही होती है--जैसा हमारा चित्त होता है, वैसी ही परेशानी शुरू हो जाती
है। जिनके चित्त में कामवासना अति है, उन्हें सिवाय कामवासना के और कुछ भी सारी
दुनिया में दिखाई नहीं पड़ता है। दिखाई नहीं पड़ सकता है।
डाक्टर
राममनोहर लोहिया ने एक किताब लिखी है। और उसमें पूछा है किताब में एक प्रश्न--कि
बुद्ध जब वैशाली गए, तो
वैशाली की जो नगरवधू थी, वेश्या
थी, आम्रपाली, वह आकर बुद्ध के चरणों में पड़
गई और उसने कहा कि मुझे दीक्षा दे दो। तो डाक्टर राममनोहर लोहिया ने एक प्रश्न
उठाया है कि मैं सोचता हूं कि उस वक्त उस सुंदर स्त्री को देख कर बुद्ध के मन में
कैसी कंपन,
कैसी
लहर उठी होगी?
बड़े
मजे की बात है! बुद्ध के मन में कैसी कंपन और कैसी लहर उठी होगी, यह डाक्टर लोहिया को खयाल आता
है। लेकिन डाक्टर लोहिया भी संसद-सदस्य थे और संसद-सदस्यों को फिकर करनी चाहिए।
बिलकुल फिकर करनी चाहिए। देश का चरित्र उन्हीं सबके ऊपर निर्भर है।
विवेकानंद
हिंदुस्तान आए,
सिस्टर
निवेदिता का आना बंगाल में एक मुसीबत का कारण हो गया। संन्यासी के साथ और स्त्री!
और उन्हें पता ही नहीं कि संन्यासी का अर्थ ही यह होता है कि जिसे स्त्री और पुरुष
अब नहीं रहे। लेकिन वह कठिनाई हो गई, वह अड़चन हो गई, वह मुश्किल हो गई।
जीसस
क्राइस्ट के पास मेग्दालिन एक औरत आई और उनके चरणों को पकड़ कर आंसुओं से धो डाला।
बस सब गड़बड़ हो गई। ईसा उसी दिन से गड़बड़ शुरू हो गए। एक वेश्या को उन्होंने पैर
क्यों छूने दिए!
अब
जीसस के लिए भी कोई वेश्या है? और
जीसस के लिए भी कोई स्त्री और पुरुष है? लेकिन जीसस गलती में हैं, संसद-सदस्य ज्यादा ठीक जानते
और समझते हैं। और उन दिनों के संसद-सदस्य जो थे, उन्होंने जीसस को सूली पर
लटकवा दिया।
सुकरात
के ऊपर चरित्रहीनता का आरोप था कि यह लड़कों को बिगाड़ता है।
रामकृष्ण
परमहंस के पास विवेकानंद गए, तो
विवेकानंद तो एक सुंदर युवक थे। तो अफवाह उड़ाई गई कि रामकृष्ण सुंदर लड़कों को
प्रेम करते हैं। वह तो यह कहो कोई संसद-सदस्य नहीं था वहां दक्षिणेश्वर में, नहीं तो रामकृष्ण को पता चलता
कि क्या मुसीबत हो सकती है।
तो
उचित यही है,
उनकी
कोई गलती नहीं है,
उन्होंने
तो अच्छा ही किया,
उन्होंने
तो बात अच्छी ही कही, उनका
कोई कसूर भी नहीं है, उनको
ये बातें कहनी चाहिए। मैंने तो उनसे वहीं कहा था कि मैं जाहिर में बात कर लूं। तो
वे कहने लगे,
नहीं, जाहिर में बात करना ठीक नहीं
है। लेकिन अब उन्हें खुद लगा कि जाहिर में बात होनी चाहिए। मैं तो जाऊंगा उनके
इलेक्शन के वक्त वहां बड़ौदा और लोगों से कहूंगा कि इनको जरूर वोट देना, नहीं तो देश का चरित्र खराब
हो जाएगा। इनको वोट देते ही रहना, नहीं
तो देश के चरित्र की कोई संभावना नहीं है।
सारे
देश के चित्त को कामुक बनाया हुआ है और चरित्र की सारी बातें चलती हैं। और कामुकता
इतनी गहरी घुस गई है कि असंभव हो गया है स्त्री-पुरुष को क्षण भर को भूलना कि कौन
स्त्री है,
कौन
पुरुष है। भूलना ही असंभव हो गया है। लेकिन वे दूसरी बातें हैं, मुझ जैसे गलत लोग करते हैं, अच्छे लोग ऐसी बातें नहीं
करते। लेकिन लोगों को सावधान होना चाहिए। क्यों, मेरे पास आने की जरूरत क्या
है? कोई जरूरत नहीं है। मुझे पत्र
लिखने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि
मैं बड़े गड़बड़ पत्र लिखता हूं।
तो
तीसरी प्रार्थना आपसे यह करनी है कि मुझे पत्र मत लिखा करें। और स्त्रियों के साथ
बड़ी मुसीबत है। अगर उनके पत्र का उत्तर न दो, तो ठीक पीछे से लगे हुए दूसरे पत्र पहुंच
जाते हैं। पत्र का उत्तर दो तो कठिनाई शुरू होती है। तो मुझे पत्र न लिखा करें।
मुझसे तो जो बात पूछनी हो, वह
यहां पूछ ली।
और या
फिर अगर किसी को मिलना ही हो, पुरुषों
को तो उतनी तकलीफ नहीं है, स्त्रियों
को अगर मिलना ही हो, तो अगर
वे कम उम्र हों तो अपने बाप को साथ लाना चाहिए, वह रक्षक रहता है। ज्यादा उम्र हो, अपने पति को साथ लाना चाहिए, वह रक्षक रहता है। और ही
ज्यादा उम्र हो,
तो
अपने बेटे को साथ लाना चाहिए, वह
रक्षक रहता है। लेकिन अकेले कभी नहीं आना चाहिए। अकेले आना बिलकुल ठीक नहीं।
क्योंकि मैं प्रेमपूर्ण ही हो सकता हूं।
अब
यहां हिम्मतभाई जोशी हैं, वे
यहां बैठे होंगे कहीं। उनकी पत्नी मेरे साथ गई, जसु मेरे साथ इंदौर गई। उसे मेरे बगल के
कमरे में ठहराया। वह शाम को आई और कहने लगी कि मैं तो यहीं सोऊंगी आपके कमरे में।
मैंने कहा,
कमरा
बहुत बड़ा है,
तू सो
जा। अब मुझे खयाल नहीं रहा कि इस स्त्री को सोने के लिए कह रहा हूं, कोई संसद-सदस्य आस-पास इंदौर
में भी तो होंगे। वह तो इंदौर का संसद-सदस्य सोया हुआ आदमी मालूम पड़ता है, उसे चरित्र का कोई खयाल नहीं
है। और इसलिए इंदौर के लोगों को उसे वोट नहीं देना चाहिए--कि तुम गलत आदमी हो!
तुमको पता लगाना चाहिए, कौन
कहां सोता है,
कौन
क्या करता है! और फिर मेरे जैसे गड़बड़ आदमी के साथ कौन सो गया, क्या हो गया। तो उसको ही
जब...मैंने कहा,
ठीक
है। वह सो गई। वह बड़ी आनंदित रही होगी। वह तो भाग्य कहो किसी संसद-सदस्य को पता
नहीं चला,
और
नहीं तो मुश्किल हो जाती।
ये जो
लोग...कई बार चीलें आकाश में उड़ती हैं, इससे यह मत सोच लेना कि चीलें आकाश में हैं।
चीलें उड़ती आकाश में हैं, उनकी
नजर जमीन के घूरों पर पड़े हुए गंदे मांस के लोथड़ों में लगी रहती है। आकाश में उड़ान
होती है,
नजर
मांस के लोथड़ों में लगी होती है। आकाश में उड़ने भर से मत समझ लेना कि चीलें आकाश
में हैं,
चीलों
की नजर जमीन पर होती है और गंदे स्थानों पर होती है।
आपकी
नजर कहां है,
वहीं
आप होते हैं। संसदों में होने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। नजर कहां है? लेकिन उनका कसूर नहीं है कोई, वे तो बेचारे जनहित के लिए सब
कुछ किए। वह करना ही चाहिए जनहित में ऐसा। लेकिन आपको यह निवेदन करता हूं कि मेरे
पास आने-जाने की कोई जरूरत नहीं है। और मुझसे किसी तरह के प्रेम-संबंध बनाने की भी
जरूरत नहीं है। और मुझसे किसी के भी प्रेम-संबंध बन जाते हैं। वह गलती बात है।
प्रेम ही गलती बात है।
तो यह
तीसरा निवेदन आपसे करना है। और इन तीन दिनों के संबंध में या पीछे और जो बातचीत
चली है उस संबंध में जो भी प्रश्न हों, वे आप लिखित दे देंगे, ताकि अंतिम दिन की बैठक में
मैं उन सारे प्रश्नों पर चर्चा कर सकूं।
मेरी
बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में
सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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