सात चक्रों की साधना
मेरे
प्रिय आत्मन्!
अंतर
की यात्रा पर चलने के पूर्व उस मार्ग से थोड़ा परिचित हो लेना जरूरी है जिस पर चलना
पड़ता है। उन द्वारों को भी समझ लेना जरूरी है जिन्हें खटखटाना पड़ेगा। उन तालों को
भी समझ लेना जरूरी है जिन्हें खोलना पड़ेगा।
जो
यात्री यात्रा-पथ के संबंध में बिना जाने चल पड़े, उसके भटक जाने की ही ज्यादा
संभावना है बजाय पहुंच जाने के। और बाहर के रास्ते तो दिखाई भी पड़ते हैं, भीतर का कोई रास्ता दिखाई भी
नहीं पड़ता है। बाहर तो रास्तों के किनारे चिह्न भी लगे हैं कि रास्ते कहां जाते
हैं, भीतर के रास्ते पर न कोई
चिह्न हैं,
न कोई
माइल स्टोन हैं,
न कोई
प्रतीक हैं,
अनचार्टर्ड!
कोई नक्शा नहीं! शायद इसीलिए आदमी भीतर जितना भटकता है उतना बाहर नहीं भटकता।
आज की
चर्चा में भीतर के रास्ते पर कुछ जरूरी बातों की पहचान कर लेना उचित है।
सबसे
पहली बात तो यह समझ लेना जरूरी है कि जो शरीर हमें दिखाई पड़ता है, वह शरीर बहुत से शरीरों का
सबसे ऊपर का हिस्सा है। इस शरीर के भीतर और भी शरीर हैं। यह शरीर ही अकेला शरीर
नहीं है। और जैसे ही हम भीतर यात्रा शुरू करते हैं, और शरीरों के बीच में मार्ग
में गुजरने और पार करने की जरूरत पड़ती है। स्वयं तक पहुंचने के पहले इस शरीर के
बीच में और स्वयं के बीच में और भी शरीर हैं।
इस
शरीर के ठीक बाद जो पहला शरीर है--इस दिखाई पड़ने वाली देह, इस अन्नमय देह, इस फिजिकल बॉडी के ठीक पीछे
जो शरीर है--वह प्राण शरीर है, ईथरिक
बॉडी है। उस प्राण शरीर के संबंध में थोड़ी सी बातें जाननी जरूरी हैं। क्योंकि उसे
पार करना होगा। और बिना समझे किसी भी चीज को पार करना, भटकाने का भी हो सकता है, खतरे का भी हो सकता है, नुकसान भी पहुंचा सकता है।
इस
शरीर के ठीक पीछे विद्युत की देह है, जिसे हम प्राण शरीर अब तक कहते रहे हैं। उस
शरीर के जुड़ने के कारण ही इस शरीर से हमारा संबंध है। इस शरीर के गिर जाने पर भी
वह शरीर शेष रह जाता है। मृत्यु के बाद भी कुछ घंटों तक वह शरीर शेष होता है। वह
शरीर वापस इस शरीर से जुड़ने के लिए आतुर होता है।
इसलिए
जिन कौमों ने उस शरीर के संबंध में ठीक से पहचान कर ली है, वे अपने मुर्दे को शीघ्र जला
देते हैं,
बचाते
नहीं। मुर्दे को जला देने के पीछे प्राण शरीर के संबंध में कुछ गहरे अनुभव हैं।
जैसे ही शरीर जल जाता है, प्राण
शरीर का आकर्षण शरीर के प्रति समाप्त हो जाता है। अन्यथा प्राण शरीर आत्मा को लेकर
शरीर के आस-पास,
मृत
शरीर के आस-पास ही भटकेगा। भटकने की बहुत संभावना है।
यह जो
शरीर के पीछे प्राण शरीर है, यह
शरीर बहुत अदभुत है। और इसके पहले कि हमें विद्युत के संबंध में कुछ भी पता चला था, साधकों को इस शरीर के
विद्युतमय होने का पता चल गया था। इसीलिए हजारों वर्षों से साधक लकड़ी के तख्ते का
उपयोग करता है,
या शेर
की खाल का उपयोग करता है, या
मृगचर्म का उपयोग करता है।
प्राण
शरीर के निकट से गुजरने पर, अगर
शरीर से विद्युत के बाहर निकल जाने की संभावना हो, तो नुकसान पहुंच सकता है, मृत्यु भी हो सकती है। यह
अनुभव बहुत पहले खयाल में आ गया। यह भी खयाल में आ गया कि उस विद्युत शरीर के कारण
ही स्त्री और पुरुष में फर्क है। यह जो ऊपर का शरीर में जो भेद दिखाई पड़ता है, यह भेद गौण है, असली भेद पुरुष और स्त्री के
प्राण शरीर में है। पुरुष का प्राण शरीर पाजिटिव है, स्त्री का प्राण शरीर निगेटिव
है। पुरुष के शरीर की जो विद्युत है वह विधायक है, स्त्री के शरीर की जो विद्युत
है वह नकारात्मक है। और यही उन दोनों के बीच आकर्षण का कारण है।
लेकिन
जैसे ही कोई व्यक्ति ध्यान में प्रविष्ट होना शुरू होता है, प्राण शरीर का जो आकर्षण है, प्राण शरीर की जो तीव्रता है, प्राण शरीर की जो विद्युत है, वह क्रमशः क्षीण होती चली
जाती है और अंतर्मुखी होने लगती है। जिस दिन प्राण शरीर की विद्युतधारा अन्नमय
शरीर की तरफ न बह कर, अंतस
के दूसरे शरीरों की तरफ बहने लगती है, उसी क्षण व्यक्ति न पुरुष रह जाता है न स्त्री।
उसके चित्त में स्त्री-पुरुष होने का कोई प्रश्न समाप्त हो जाता है।
बुद्ध
एक पहाड़ के पास कुछ दिनों तक साधना करते थे। रात थी, पूर्णिमा की रात थी। नगर से
कुछ लोग आए थे,
वे एक
वेश्या को भी ले आए थे जंगल में--आनंद के लिए, मंगल के लिए, प्रमोद के लिए। वे नशे में
धुत्त होकर नाचने लगे। उन्होंने उस वेश्या के सारे वस्त्र भी छीन लिए। उन्हें नशे
में डूबा हुआ देख कर वह नग्न स्त्री भाग गई। जब उन्हें थोड़ा होश आया तो हैरान हुए!
वे उस स्त्री को खोजने निकले।
राह पर
तो कोई नहीं मिला। उस जंगल में सिवाय बुद्ध के कोई भी न था। वे एक वृक्ष के नीचे
साधना में बैठे थे। उन लोगों ने जाकर बुद्ध को हिलाया और कहा, भिक्षु, यहां से जरूर तुमने किसी
स्त्री को भागते देखा होगा, रास्ते
पर चरणों के चिह्न हैं। वह स्त्री नग्न थी, वेश्या थी। हम पूछ सकते हैं कि वह कहां गई? किस ओर गई?
बुद्ध
ने कहा,
कोई
भागता हुआ जरूर निकला था, लेकिन
वह स्त्री थी या पुरुष, यह
मेरे लिए थोड़ा बताना कठिन है। दस साल पहले तुम आए होते तो मैं बता सकता था। जब से
मेरे भीतर का पुरुष क्षीण हो गया, तब से
बाहर की स्त्री को खयाल करूं तो ही दिखाई पड़ सकती है, अनायास नहीं। फिर उसने वस्त्र
पहने थे या नहीं,
यह भी
मुझे पता नहीं। जब से अपने शरीर पर ही वस्त्रों के होने न होने का पता नहीं चलता, तब से दूसरे के शरीर पर
वस्त्र हैं या नहीं, यह भी
सवाल मिट गया है।
बुद्ध
ने कहा,
जो हम
होते हैं वही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं कि मित्रो, तुम उसे क्यों खोज रहे हो? क्या यह अच्छा न होगा--इस
शांत और पूर्णिमा की भरी रात में तुम अपने को खोजो?
पता
नहीं उन लोगों ने सुना या नहीं। कहते हैं, लोग सदा कहते रहते हैं--अपने को खोजो! कौन
सुनता है?
हम सब
किसी और की खोज में दौड़ते रहते हैं। और यह खोज भी, अगर हम बहुत गौर से समझेंगे, यह दूसरे की खोज भी हमारे
प्राणमय शरीर की ही खोज है। प्राणमय शरीर अधूरा है, या तो पाजिटिव है या निगेटिव
है। वह दूसरे शरीर को खोजता है जिसके साथ मिल कर पूरा हो सके। वह अधूरा है, आधा है। आधा शरीर आधे की खोज
करता है और मांग करता है। इसलिए दूसरे की खोज चल रही है।
यह जो
विद्युत शरीर है हमारे भीतर, यह
हमारे इस देह शरीर से सात स्थानों से संयुक्त है। उसके सात जगह से कांटेक्ट फील्ड
हैं, संपर्क स्थल हैं। उन संपर्क
स्थलों का नाम ही चक्र है। इस शरीर को वह विद्युत का शरीर सात जगह छूता है, स्पर्श करता है। और उन सात
जगह से ही इस शरीर को उस शरीर के द्वारा शक्ति मिलती है, प्राण मिलता है, जीवन मिलता है।
इन सात
चक्रों के संबंध में भी थोड़ी बात जान लेनी जरूरी है। क्योंकि जैसे ही कोई व्यक्ति
ध्यान में प्रविष्ट होना शुरू होता है, जैसे ही भीतर की यात्रा शुरू होती है, इन सात चक्रों के पास से भी
उसे गुजरना ही पड़ता है। जाने-अनजाने इनके करीब से वह निकलेगा। हर एक व्यक्ति का
अनुभव थोड़ा भिन्न होगा, क्योंकि
हर एक व्यक्ति का अलग-अलग चक्र साधारण रूप से सक्रिय है।
इन
चक्रों के संबंध में इसलिए भी समझना जरूरी है कि आपको अपनी पर्सनैलिटी, अपने व्यक्तित्व के समझने में
भी बड़ा सहारा मिलेगा। आप समझ सकेंगे कि आप किस तरह के आदमी हैं, आपका टाइप क्या है। और उस समझ
के द्वारा भीतर प्रवेश करने में बड़ी सहूलियत हो जाती है। क्योंकि जब हम यह समझ लें
कि हम किस प्रकार के व्यक्ति हैं, तो हम
यह जान लेते हैं कि हम कहां खड़े हैं। और जहां हम खड़े हैं वहीं से तो यात्रा करनी
पड़ती है। जिस आदमी को यह भी पता न हो कि मैं कहां खड़ा हूं, वह यात्रा कैसे करेगा? कहां जाना है, यही जानना काफी नहीं है, उससे भी ज्यादा जरूरी जानना
यह है कि हम कहां हैं। क्योंकि हम जहां हैं, वहीं से हम चलेंगे उस तरफ, जहां हमें पहुंचना है।
ये सात
चक्र बहुत अदभुत घटना हैं। मनुष्य के शरीर में जो सबसे ज्यादा रहस्यपूर्ण हैं, वे ये सात चक्र हैं। ये कहीं
शरीर को काटने-पीटने से, खोजने
से नहीं मिल जाएंगे। इसलिए फिजियोलाजिस्ट के पास जाएंगे, वह कहेगा, कहां के चक्र? कैसे चक्र? शरीर में कोई चक्र नहीं हैं।
इस
शरीर में हैं भी नहीं। चक्रों का अर्थ है कि भीतर का जो दूसरा शरीर है, प्राण शरीर, वह सात जगह से इस शरीर को
स्पर्श करता है। और उन्हीं सात द्वारों से इस शरीर को शक्ति मिलती है और प्राण
मिलते हैं।
पहला
चक्र, शरीर के पीछे जो रीढ़ है, उस रीढ़ के पुच्छ में है, सबसे आखिरी हिस्से में है। वह
बहुत अदभुत चक्र है। उस संबंध में कुछ हम जानेंगे। सबसे पहला चक्र वहां है और सबसे
अंतिम चक्र सिर के ऊपर है। फिर बीच में पांच चक्र और हैं। नंबर दो का चक्र जननेंद्रिय
के पास है,
वह
सेक्स आर्गन के पास है। वह चक्र ही काम को, सेक्स को प्रभावित करता है और आंदोलित करता
है।
सारी
दुनिया में,
जैसे
ही आदमी को जरा सा होश आया, उसने
अपनी जननेंद्रिय को ढंक लेने की कोशिश की। क्योंकि ये जो चक्र हैं, अगर दूसरा व्यक्ति इन चक्रों पर
अपनी आंखें गड़ा कर देख सके, तो वह
इन चक्रों को प्रभावित करता है। इसलिए शरीर के सारे अंगों को उघाड़ छोड़ने में आदमी
को कोई कठिनाई नहीं हुई, लेकिन
सबसे महत्वपूर्ण चक्र के स्थान को ढंक लेने की अनिवार्यता मालूम पड़ी--चाहे पत्तों
से ढंक लिया हो उसने, चाहे
कपड?ो से, चाहे किसी और ढंग से।
जो
नंबर दो का चक्र है, जिसको
हम सेक्स-सेंटर कहें, काम-चक्र
कहें, वही सर्वाधिक सक्रिय है
मनुष्य के भीतर। क्योंकि प्रकृति को उसी की सबसे ज्यादा जरूरत है। उसी चक्र के
द्वारा शरीर अपने को पुनरुत्पादित करता है, रिप्रोडयूस करता है। उसी के द्वारा व्यक्ति
नये-नये शरीरों को जन्म देने की तीव्रता और आकुलता से भरता है। जनन की सारी
प्रक्रिया उसी चक्र के द्वारा चल रही है।
और जो
व्यक्ति उस चक्र के प्रभाव में है या जिस व्यक्ति का वह चक्र सबसे ज्यादा सक्रिय
है, उसके जीवन में सिवाय काम के, सिवाय वासना के और कुछ भी
नहीं होता। वह चाहे धन कमाए, वह
चाहे यश कमाए,
चाहे
वह बड़े पदों पर पहुंच जाए, लेकिन
धन, यश और पद मूलतः उसकी कामवासना
के तृप्ति के ही मार्ग होंगे, उपाय
होंगे। उसके जीवन का लक्ष्य वहीं केंद्रित होगा।
मैं एक
बहुत बड़े उपन्यासकार, एक
बहुत बड़े लेखक,
अनातोले
फ्रांस का जीवन पढ़ रहा था। अनातोले फ्रांस ने अपने जीवन के अंत में अपने एक मित्र
को...मित्र ने यह पूछा कि तुम्हारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण क्या था? अनातोले फ्रांस ने कहा कि जो
बात मैंने किसी को नहीं कही वह मैं तुम्हें कहता हूं: मेरे जीवन में सबसे ज्यादा
महत्वपूर्ण कामवासना थी, सेक्स
था। उसका मित्र हैरान हुआ! उसने कहा कि तुम इतने बड़े उपन्यासकार, इतने बड़े लेखक! हम तो सोचते
थे तुम्हारे जीवन में साहित्य और कला और संगीत, ये महत्वपूर्ण होंगे।
उसने
कहा, वे सब गौण थे, वे सब बहाने थे।
अगर हम
अपने व्यक्तित्व के बाबत खोजबीन करना चाहते हैं, तो हमें पहली खोजबीन यह करनी
चाहिए--हमारे व्यक्तित्व का केंद्र क्या है? हम कहां जीते हैं?
और
हमारे व्यक्तित्व का जो केंद्र हो, वह सूचना होगा इस बात की कि हमारे शरीर में
कौन सा चक्र सर्वाधिक सक्रिय है और महत्वपूर्ण है। और यह भी ध्यान रहे कि जो चक्र
महत्वपूर्ण होगा,
हम उसी
के माध्यम से पूरे जीवन को देखेंगे, पहचानेंगे, समझेंगे। हम कुछ और नहीं समझ
सकेंगे।
खजुराहो
की मूर्तियां हैं। अमेरिका से एक बहुत बड़ा चित्रकार उन मूर्तियों को देखने आया।
मेरे एक मित्र विंध्य प्रदेश में मंत्री थे, शिक्षा मंत्री थे। उनको खबर की थी केंद्रीय
सरकार ने कि जाकर उस अमेरिकी चित्रकार को वे खजुराहो की मूर्तियां दिखाएं। वे
मित्र बहुत डरे हुए थे। वे डरे हुए थे कि इतनी नंगी मूर्तियां, इतनी अश्लील मूर्तियां। वह
अमेरिकन चित्रकार देख कर हैरान होगा और क्या सोचेगा भारत की संस्कृति के लिए--कि
कैसे लोग हैं?
मंदिरों
में ऐसी अश्लील मूर्तियां खोदी हैं! ऐसे मैथुन चित्र बनाए हैं! वह बहुत घबड़ाया हुआ
था।
लेकिन
कोई रास्ता नहीं था, ऊपर से
खबर थी। तो उन मित्र को, उस
अमेरिकन चित्रकार को लेकर खजुराहो जाना पड़ा। सारी मूर्तियां उन्होंने बहुत डरे-डरे
दिखलाईं,
बहुत
भयभीत मन से,
कि
कहीं वह पूछ न ले कि ये मूर्तियां ही तुम्हारे भारत की संस्कृति हैं? ये तुम्हारे मंदिर हैं? तुम जो अपने को धार्मिक कहते
हो!
लेकिन
वह तो चित्रकार मूर्तियों में ऐसा लीन हो गया कि उसने तो कुछ भी नहीं कहा। वे मित्र
जरूर उसको बार-बार कहते रहे कि ये हमारी भारतीय परंपरा के प्रतीक नहीं हैं, हमारी मूलधारा के प्रतीक नहीं
हैं। कुछ गलत लोगों ने किसी गलत प्रभाव में इन मंदिरों को बना लिया है।
बाहर
निकल कर उस मित्र ने कहा कि बहुत-बहुत धन्यवाद।
लेकिन
उन मित्र को तो वही घबड़ाहट थी। उससे कहा कि आप अमेरिका में जाकर ऐसा मत कहना कि
ऐसे अश्लील मूर्तियों वाले मंदिर हैं भारत में।
उस
आदमी ने कहा,
अश्लील
मूर्तियां! तुम कहते क्या हो? मुझे
फिर से चल कर देखना पड़ेगा! मैंने इतनी सुंदर मूर्तियां कभी भी नहीं देखीं, इतनी भव्य मूर्तियां नहीं
देखीं। उसने कहा,
वापस
चलो! क्योंकि तुम ज्यादा जानकार हो। जब तुम कहते हो मूर्तियां अश्लील थीं, तो मुझे फिर चलना पड़ेगा।
क्योंकि अभी तो मैं जो देख कर आया हूं, इससे भव्य मूर्तियां मैंने कभी भी नहीं
देखीं।
हम वही
देखते हैं,
जो हम
देख सकते हैं। हम वही नहीं देखते हैं, जो है। हम वही देखते हैं, जो हम देख सकते हैं। समस्त
दर्शन जीवन में हमारा प्रोजेक्शन है। जो हमारे भीतर होता है वही हमें बाहर दिखाई
पड़ता है।
एक
कामुक व्यक्ति को सारा जगत काम से भरा हुआ दिखाई पड़ेगा। एक ईश्वर उपलब्ध व्यक्ति
को सारा जगत ईश्वर से भरा हुआ दिखाई पड़ेगा। एक क्रोधी व्यक्ति को सारे जगत में सभी
लोग क्रोधी मालूम पड़ेंगे। एक प्रेमी व्यक्ति को सारा जगत प्रेम से आंदोलित मालूम
पड़ेगा। हम वही देखते हैं जो हम हैं। यह सारा जगत हमारे भीतर का ही प्रोजेक्शन है।
जगत एक परदा है,
उस पर
हम वही देख लेते हैं जो हमारे भीतर छिपा है। तो अगर किसी व्यक्ति को जीवन में
चारों तरफ सेक्स और काम दिखाई पड़ता हो, तो उसे जानना चाहिए कि उसके निजी व्यक्तित्व
में सेक्स का केंद्र सर्वाधिक सक्रिय है। और वह है। क्योंकि प्रकृति को उसकी जरूरत
है। प्रकृति को आपके और किसी केंद्र की इतनी जरूरत नहीं है, जितनी सेक्स के केंद्र की
जरूरत है। क्योंकि वह उसी के द्वारा नये शरीरों को जन्म दे सकती है।
पशुओं
में वही एक केंद्र सक्रिय है, और कोई
भी केंद्र सक्रिय नहीं है। आदमियों में भी अधिक आदमियों में वही केंद्र सक्रिय है।
लेकिन दूसरे केंद्र भी सक्रिय हो सकते हैं। और यह ध्यान रहे, जब तक सेक्स का केंद्र ही
सक्रिय है,
तब तक
हममें और पशुओं में बुनियादी फर्क नहीं है। पोटेंशियली फर्क है कि हमारे दूसरे
केंद्र सक्रिय हो सकते हैं। लेकिन वे सक्रिय हैं नहीं।
और
आमतौर से आदमी वहीं जीता है। उसका साहित्य उठा कर देख डालें, तो सौ में से निन्यानबे
प्रतिशत साहित्य काम के आस-पास घूमता है, सेक्स के आस-पास घूमता है। यह बड़ी आश्चर्य
की बात है! चित्र उठा कर देखें; मूर्तियां
उठा कर देखें;
फिल्में
उठा कर देखें;
कविताएं
उठा कर देखें;
जो भी
उठा कर देखें,
पता
चलेगा: आदमी का,
निन्यानबे
प्रतिशत काम के आस-पास क्यों घूमता है?
जरूर
कहीं कोई बात है। काम का केंद्र ही एकमात्र सक्रिय केंद्र है। और ध्यान रहे, ब्रह्मचर्य की साधना में इस
काम के केंद्र को निष्क्रिय करने की व्यवस्था है। और यह निष्क्रिय हो जाए तो
व्यक्ति के जीवन से वासना ऐसे विलीन हो जाती है जैसे हो ही नहीं। जैसे हम एक बटन
को दबा दें और बिजली एकदम विलीन हो जाएगी, जैसे थी ही नहीं। क्योंकि वह कांटेक्ट, वह संपर्क टूट गया, जहां से प्रवाहित होती थी।
ब्रह्मचर्य की साधना का अर्थ यह नहीं है कि कोई आदमी आंखें बंद करके बैठ जाए।
ब्रह्मचर्य की बुनियादी वैज्ञानिक साधना का अर्थ है: काम का जो केंद्र है वह
निष्क्रिय हो जाए। उसके उपाय हैं, उसके
टेक्नीक हैं,
उसकी
विधियां हैं।
सैकड़ों
वर्ष पहले,
पच्चीस
वर्ष तक किसी भी युवक को ब्रह्मचर्य की साधना में रखा जा सकता था। उसका कारण यह
नहीं था कि उनको फिल्म देखने नहीं मिलती थी। उसका यह भी कारण नहीं था कि स्त्रियां
दिखाई नहीं पड़ती थीं या स्त्रियों को पुरुष दिखाई नहीं पड़ते थे। उसका कारण यह भी
नहीं था कि वे कसम खाकर बैठे हुए थे। इस सब का कोई कारण न था। इस सबके पीछे
वैज्ञानिक प्रक्रिया है। उस केंद्र को निष्क्रिय किया जा सकता है। उसके निष्क्रिय
होते से ही सेक्स विलीन हो जाता है। उसका कोई पता नहीं चलता, जब तक कि वह केंद्र पुनः
सक्रिय न हो जाए।
सौ में
से तीन लोगों का केंद्र जन्म से ही निष्क्रिय होता है। और इस तरह के तीन प्रतिशत
लोगों को समझ में ही नहीं आता कि लोग इतने पागल क्यों हैं? इतने दीवाने क्यों हैं? उनकी समझ के बिलकुल बाहर होगा, उनकी कल्पना के ही बाहर होगा।
छोटे
बच्चों का सेक्स केंद्र निष्क्रिय होता है। धीरे-धीरे सक्रिय होना शुरू होता है।
चौदह वर्ष के करीब जाकर वह ठीक से गति लेता है। उसके पहले उन्हें कुछ बोध नहीं कि
क्या हो रहा है। वह केंद्र जब सक्रिय होगा तभी बोध होगा। वह केंद्र सक्रिय नहीं
होगा तो बोध नहीं हो सकता है।
इस बात
को अपने चित्त में बहुत साफ होना चाहिए कि मेरा यह केंद्र अति सक्रिय तो नहीं है? अगर अति सक्रिय है, तो ध्यान के करने के पहले और
ध्यान के बाद निरंतर अपने मन में यह दोहराना चाहिए कि मेरा यह केंद्र कम सक्रिय हो
जाए। ध्यान के पहले और ध्यान के बाद, उस केंद्र पर भीतर ध्यान ले जाकर मन में यह
सुझाव देना चाहिए कि केंद्र कम सक्रिय हो जाए। थोड़े ही दिनों में एक बुनियादी फर्क
दिखाई पड़ना शुरू होगा।
उस
केंद्र के बाद दूसरा केंद्र नाभि का केंद्र है। नाभि का केंद्र फियर और भय का
केंद्र है। जैसे जननेंद्रिय का केंद्र सेक्स का केंद्र है, वैसे नाभि का केंद्र भय का
केंद्र है। यह शायद आपको खयाल में आया होगा कि जब भी आप भयभीत होंगे, नाभि डांवाडोल हो जाएगी और
परेशान हो जाएगी।
अगर आप
कार चला रहे हैं और एकदम से एक्सीडेंट हो, तो आपके शरीर में जो झटका पहुंचेगा वह नाभि
पर पहुंचेगा,
और
कहीं नहीं। अगर कोई आदमी एकदम से आपकी छाती पर छुरा लेकर चढ़ जाए, तो सबसे बड़ा झटका नाभि पर
पहुंचेगा। नाभि भय का केंद्र है। इसीलिए बहुत भय की अवस्था में किसी का मल-मूत्र
भी छूट सकता है। उसके छूटने का और कोई कारण नहीं है। नाभि इतनी सक्रिय हो जाती है
कि पेट को खाली करना जरूरी हो जाता है, अन्यथा नाभि सक्रिय नहीं हो सकती।
नाभि
भय का केंद्र है। जिन लोगों का भय का केंद्र बहुत सक्रिय है, उनको थोड़ा नाभि पर ध्यान देना
अत्यंत जरूरी है। इसलिए बहुत-बहुत प्राचीन समय से, जिन लोगों को युद्ध की शिक्षा
दी जाती,
उनके
नाभि केंद्र को ही सबल करने की कोशिश की जाती है। भय वहीं पकड़ता है। भय और कहीं भी
नहीं पकड़ता। कभी आपको भय खोपड़ी में नहीं पकड़ेगा। जब भी भय पकड़ेगा तब पेट में
पकड़ेगा। और स्त्रियां ज्यादा भयभीत होती हैं, उसका कुल कारण इतना है कि स्त्री को पेट में
गर्भ रखना पड़ता है और उसका नाभि केंद्र निरंतर निर्बल और कमजोर होता चला जाता है।
स्त्री
और पुरुष के बीच भय का और कोई भेद नहीं है। और इसलिए पश्चिम में जैसे-जैसे
स्त्रियां बच्चों को पैदा करने से इनकार कर रही हैं, उनका भय समाप्त होता चला जा
रहा है। अगर स्त्रियां कुछ समय तक बच्चे देना बंद कर दें, तो वे करीब-करीब पुरुषों जैसी
हालत में खड़ी हो जाएंगी। इसलिए दुनिया की जिन कौमों में भी स्त्रियां पुरुषों जैसी
होने की कोशिश कर रही हैं, वहां वे
मां बनने से इनकार करना शुरू कर देंगी। क्योंकि पुरुष नहीं बना जा सकता जब तक कि
मां बनने की प्रक्रिया जारी है। क्योंकि वह जो मां बनने की स्थिति है, वही सारे व्यक्तित्व को भय से
भर देती है।
वह जो
नाभि केंद्र है वह भय का केंद्र है। जब आप भयभीत होंगे तब आपका पाचन एकदम खराब हो
जाएगा। चिंतित होंगे, पाचन
खराब हो जाएगा। इसीलिए चिंता और भय के कारण...दुनिया में आज बहुत भय है और बहुत
चिंता है। अल्सर की बीमारी का और कोई कारण नहीं होता। जितना भयभीत और चिंतित आदमी
होगा, पेट की सारी की सारी व्यवस्था
धीरे-धीरे विकृत और खराब होती चली जाएगी।
यह
ध्यान रखना जरूरी है कि अगर काम केंद्र सक्रिय हो तो आदमी जिस धर्म को जन्म देगा
या जिस तरह के धर्म को मानेगा, वह
धर्म किसी न किसी तरह सेक्सुअल आर्गी का धर्म होगा। सबसे प्राचीन धर्म के जो
प्रतीक हैं वे जननेंद्रिय के प्रतीक हैं, फैलिक हैं। जैसे शंकर का शिवलिंग है, या यूनान में, या रोम में, या मिश्र में जो प्राचीनतम, मेसोपोटामिया में, बेबीलोन में, सीरिया में या
हड़प्पा-मोहनजोदड़ो में जो सबसे प्राचीनतम जो मूर्तियां मिली हैं, वे सब फैलिक हैं। वे सब
जननेंद्रिय के ही प्रतीक हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आज से कोई बीस हजार वर्ष पहले
जो भी दुनिया में सभ्यता थी, वह
चूंकि अभी जानवरों से बहुत आगे विकसित नहीं हुई थी, इसलिए भगवान का प्रतीक भी
जननेंद्रिय ही हो सकती थी। वही केंद्र सबसे ज्यादा सक्रिय था।
उस
केंद्र के बाद जैसे-जैसे मनुष्य थोड़ा बलशाली हुआ, और थोड़ा पार हुआ वासना के, और भी उसने कुछ सोचना शुरू
किया, भगवान की जो प्रतिमा बननी
शुरू हुई वह भयभीत करने वाले भगवान की थी। ओल्ड टेस्टामेंट में, या पुराने भगवान के जो रूप
हैं रुद्र के,
वे
सारे के सारे रूप घबड़ाने वाले, डराने
वाले रूप हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का जो दूसरा केंद्र है भय का, उस भय के केंद्र ने भयभीत
करने वाले भगवान को जन्म दिया।
वह जो
मंदिरों में हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने वाला आदमी है, भगवान के चरणों में सिर रखने
वाला आदमी है,
जो
कंपता है और कहता है, हे
भगवान,
बचाओ!
अगर वह थोड़ा भी ध्यान रखेगा तो उसे पता चलेगा कि उस प्रार्थना करने के क्षण में
उसकी नाभि का केंद्र सबसे ज्यादा सक्रिय होगा। दुनिया जितनी शिक्षित होगी, जितना दुनिया में भय कम होगा, उतना ही पूजा और प्रार्थना
करने वाले धर्म जमीन से अपने आप समाप्त होते चले जाएंगे। क्योंकि वे धर्म नाभि के
केंद्र से विकसित होते हैं। अगर नाभि का केंद्र मजबूत हुआ तो वे विलीन हो जाएंगे।
मंदिरों
में पुरुषों की बजाय स्त्रियां ज्यादा दिखाई पड़ती हैं। उसका कोई और कारण नहीं है, उनका नाभि का केंद्र पुरुषों
से ज्यादा क्षीण है। जहां एक पुरुष होगा, वहां कम से कम चार स्त्रियां मंदिर में
होंगी। सारे मंदिर स्त्रियां चलाती हैं। सारे साधु-संतों को स्त्रियां चलाती हैं।
भय! भय वाला भगवान उन्हें अपील करता है, उन्हें सार्थक मालूम पड़ता है।
इस पर
ध्यान जाना जरूरी है कि जो आदमी भी जीवन में बहुत भयभीत हो उसे ध्यान के साथ नाभि
के केंद्र पर थोड़े प्रयोग करने जरूरी होते हैं, उस केंद्र को मजबूत करने के सुझाव देने
जरूरी होते हैं। और यह बड़े मजे की बात है कि ये केंद्र चूंकि प्राणों के केंद्र
हैं, विद्युत के केंद्र हैं, ये मात्र सुझाव से परिवर्तित
हो जाते हैं। इनके लिए कुछ और करना नहीं पड़ता।
उसके
बाद तीसरा केंद्र हृदय का केंद्र है। वह राग का केंद्र है, मोह का केंद्र है, लगाव का केंद्र है। जो लोग
तीसरे केंद्र से प्रभावित होते हैं, वे किसी न किसी तरह के भक्ति वाले धर्म में
दीक्षित हो जाएंगे। जहां राग, मोह, उस तरह के आसक्ति की पकड़ने की
संभावना हो। यह तीसरे केंद्र पर भी ध्यान रखना जरूरी है। इसे भी समझ लेना जरूरी है
कि वह क्या-क्या कर सकता है। वह भी बहुत सक्रिय है।
पूरब
के मुल्कों में बहुत सक्रिय है, पश्चिम
के मुल्कों में कम होना शुरू हुआ है। इसलिए पश्चिम के मुल्कों में परिवार टूट रहा
है। परिवार के टूटने को कभी नहीं रोका जा सकता पश्चिम में, जब तक कि उनके हृदय के केंद्र
को मजबूत करने की कोई वैज्ञानिक प्रक्रिया में दीक्षित न किया जाए। परिवार वहां
टूटता ही चला जाएगा। क्योंकि राग का केंद्र टूट गया है, या टूट रहा है, या शिथिल हो गया है, या निष्क्रिय है। पूरब के
मुल्कों में भी घटना शुरू हो गई है।
और यह
भी ध्यान रहे कि यह केंद्र भी पुरुष की बजाय स्त्री का ज्यादा सक्रिय है। इसलिए
परिवार को बनाने वाला पुरुष नहीं है, परिवार को बनाने वाली स्त्री है। इस भूल में
कोई न रहे कि परिवार पुरुष ने निर्मित किया है। पुरुष परिवार निर्मित कर ही नहीं
सकता। परिवार पुरुष के बावजूद निर्मित हो गया है, पुरुष तो परिवार से प्रतिपल
भागने की चेष्टा में रत है, वह तो
प्रतिपल भाग जाना चाहता है। उसका कोई राग का केंद्र उतना तीव्र नहीं है। स्त्री ने
सारी की सारी सभ्यता खड़ी की है। परिवार और घर उसने खड़ा किया है। पुरुष जन्म से
खानाबदोश है। वह भटकने वाला है। वह भटकता रहे, उतना सुखी होगा। जितना भटके उतना सुखी होगा।
स्त्री एक जगह खूंटी गाड़ कर बैठ जाना चाहती है। भटकना उसे बहुत कठिन मालूम पड़ता
है। भटकना उसके मन की बात नहीं है। कहीं वह लगाव बांध ले; कोई छोटी जमीन हो, कोई छोटा मकान हो, जहां वह बैठ जाए। और इसीलिए
परिवार,
कैसा
ही परिवार हो,
पुरुष
उसमें कभी भी केंद्र नहीं है, वह
उसकी परिधि पर घूमता रहता है, उसका
केंद्र स्त्री बन जाती है।
वह जो
केंद्र है राग का,
उस
केंद्र पर भी विचार करना, समझना
जरूरी है कि मेरे व्यक्तित्व में वह बहुत महत्वपूर्ण है या नहीं।
अभी
मैं सिर्फ समझा रहा हूं कि ये केंद्र क्या काम करते हैं। फिर हम आगे उसकी बात को
सोच सकते हैं कि उनसे और क्या काम लिया जा सकता है।
उस
केंद्र के बाद कंठ का केंद्र है। यह केंद्र व्यक्तित्व को वाणी देता है, विचार भी देता है। और जिन
लोगों का कंठ का केंद्र बहुत सक्रिय है, उनका जीवन अक्सर सिर्फ विचार करने में, बातचीत करने में खो जाता है।
वे कुछ और नहीं कर पाते। मौन की साधना इस कंठ के केंद्र को निष्क्रिय करने की
साधना है।
उसके
बाद, कल जो मैंने ध्यान करने के लिए
कहा था,
दोनों
आंखों के बीच,
वह
छठवां केंद्र है,
वह
आज्ञा चक्र है। वह बहुत महत्वपूर्ण चक्र है। उस चक्र के द्वारा ही व्यक्ति अपने
व्यक्तित्व को रूपांतरित करता है, या
रूपांतरित कर सकता है।
लेकिन
हमारे आज्ञा चक्र भी बहुत क्षीण हैं। हम अपने को कोई आज्ञा ही नहीं दे सकते हैं।
अगर एक आदमी रात को तय करता है कि कल सुबह चार बजे उठूंगा। सुबह चार बजे पाता है
कि वह खुद ही कह रहा है कि आज रहने दें, बहुत सर्दी है, फिर कल देखेंगे। सुबह उठ कर
पछताता है और कहता है कि मैंने तय किया था कि चार बजे उठना है, फिर यह क्या हो गया? आज कसम खाता हूं कि आज जरूर
उठूंगा,
अब
भूलूंगा नहीं। चार बजे फिर रात, और फिर
वह अपने को कहता है कि नहीं, आज
जाने दो,
फिर कल
देखेंगे। सुबह फिर पछताता है। बात क्या है?
एक
आदमी एक वचन देता है और पूरा नहीं करता। एक आदमी तय करता है: यह करूंगा, और नहीं कर पाता है। इस सबके
पीछे कारण क्या है? इस
सबके पीछे एक ही कारण है, वह जो
आज्ञा चक्र है,
संकल्प
का, जो विल का केंद्र है, वह विल का केंद्र हमारा एकदम
शिथिल है या न के बराबर है।
वह जो
मैंने कल कहा कि ध्यान करते वक्त दोनों आंखों के मध्य में ध्यान होना चाहिए, वहां ध्यान होने से आप जो भी
करेंगे वह मजबूती से और गहराई से भीतर प्रविष्ट होगा। ध्यान वहां रहेगा तो जितनी
तीव्रता से आप जो भी करना चाहते हैं, वह कर सकेंगे। यह आपने खयाल किया होगा कि यह
जो चक्र है,
जब भी
आपको निर्णय करना पड़े, कोई
डिसीजन लेना पड़े,
तो
आपको सबसे ज्यादा भार आपकी दोनों आंखों के बीच में पड़ेगा। जब भी आपको कोई निर्णय
करना पड़े,
कोई
निर्णय लेना पड़े कि मैं क्या करूं! तो मस्तिष्क पर उस जगह भार पड़ेगा जहां मैं कह
रहा हूं: दोनों आंखों के बीच में। क्योंकि वहीं डिसीजन लिए जाते हैं, वहीं आज्ञाएं ली जाती हैं, वहीं संकल्प किए जाते हैं। और
जो व्यक्ति वहां संकल्प लेने में समर्थ हो जाता है, उसके संकल्प पूरे होने शुरू
हो जाते हैं। वह जो वहां निर्णय करता है, वे निर्णय पूरे होने शुरू हो जाते हैं। वह
जो वहां चाहता है अपने व्यक्तित्व में, वे फर्क होने शुरू हो जाते हैं।
यह बड़े
आश्चर्य की बात है कि हमारे व्यक्तित्व को बदलने के लिए बहुत काम करने का उतना
सवाल नहीं है,
जितना
संकल्प करने का सवाल है। संकल्प सूत्र है व्यक्तित्व को बदलने का, काम नहीं। लेकिन संकल्प होना
चाहिए पूर्ण। और पूर्ण संकल्प शरीर के और किसी कोने पर नहीं लिया जाता, पूर्ण संकल्प आज्ञा चक्र में
लिया जाता है। इसलिए समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं आज्ञा चक्र के पास ही घूमती हैं, केंद्रित होती हैं। क्योंकि
ध्यान वहीं से गहरा प्रविष्ट हो सकता है और अंतस में जा सकता है।
अगर आप
अफ्रीका के जंगली आदमियों से पूछें, या आस्ट्रेलिया के बुशमेन से पूछें, या अमेजान के जंगलों में रहने
वाले आदिवासी से पूछें, तो आप
हैरान हो जाएंगे एक बात जान कर। जब पहली बार इन आदिवासियों को यह खबर लगी कि
दुनिया के दूसरे लोग सिर से सोचते हैं, तो वे बहुत हंसने लगे। उन्होंने कहा, सिर से कोई सोच ही नहीं सकता, हम तो पेट से सोचते हैं।
आदिवासी
पेट से ही सोचता है। वह जो मैंने नाभि का चक्र कहा, उसी से सोचता है। वे अभी
पशुओं से बहुत ज्यादा विकसित हालत में नहीं हैं। हजारों साल तक करोड़ों लोग यही
समझते रहे हैं कि सोचने की प्रक्रिया पेट में होती है, बेली में होती है, सोचने की प्रक्रिया बुद्धि
में नहीं होती। और हममें से भी बहुत ही कम लोग सिर से सोचते हैं। जितने भी विश्वास
करने वाले लोग हैं वे पेट से सोचते हैं, वे कभी भी सिर से नहीं सोचते। क्योंकि
विश्वास करने के लिए सोचना ही नहीं पड़ता है। और इसलिए जो आदमी विश्वास ही किए चला
जाता है उसके ऊपर के चक्र कभी विकसित नहीं होते, उसके नीचे के चक्र ही रह जाते
हैं, वही सक्रिय रह जाते हैं।
इसलिए
मैं निरंतर विरोध करता हूं कि किसी पर श्रद्धा मत करना, किसी पर विश्वास मत करना।
क्योंकि जब तक कोई स्वयं सोचना शुरू न करे, उसके सोचने के अपने चक्र सक्रिय नहीं होंगे।
और अपने चक्र सक्रिय न हों तो व्यक्ति करीब-करीब हवा में भटकता हुआ एक पत्ते की
भांति रह जाता है। उसके पास न अपनी कोई विल है, न अपना कोई संकल्प है, न अपनी कोई दृढ़ स्थिति है।
उसके पास अपना कुछ भी नहीं है। वह किसी के पीछे चल रहा है।
दुनिया
के नेता आदमी को जितना नुकसान पहुंचाते हैं उतना और कोई नहीं पहुंचाता। क्योंकि
दुनिया के सब नेता आर्डर्स देते हैं और आपसे कहते हैं, आपको सिर्फ स्वीकार करना है।
दुनिया के गुरु आज्ञाएं देते हैं और लोगों से कहते हैं, आपको स्वीकार करना है। आपका
अपने आज्ञा का चक्र कभी विकसित नहीं हो पाता।
दुनिया
में जो इतनी मनुष्य-जाति दीन-हीन दिखाई पड़ती है, इस दीन-हीनता में सबसे बड़ा
कारण यह है कि हम मनुष्य-जाति को आज्ञाएं देते हैं, उसकी अपनी आज्ञा की क्षमता को
विकसित नहीं होने देते। छोटे से बच्चे को हम आज्ञाएं देना शुरू करते हैं--यह करो
और यह मत करो! हम कभी इसकी फिक्र नहीं करते कि उसकी अपनी चिंतना, अपना डिसीजन, अपना निर्णय विकसित हो सके।
उस बच्चे का आज्ञा चक्र कभी भी विकसित नहीं हो पाता, वह अधूरा ही रह जाता है। और
अगर आज्ञा चक्र विकसित न हो तो आदमी का व्यक्तित्व ही विकसित नहीं हो पाता है।
बच्चों
को हम समझाते हैं--ऐसे बनो, ऐसे
बनो। लेकिन हम यह भूल ही जाते हैं, वे बच्चे वैसे कभी नहीं बनेंगे। वे बन सकते
हैं, लेकिन उनके बन सकने के लिए
उनके चक्रों पर ध्यान देना पड़ेगा, जिनसे
व्यक्तित्व निर्मित होता है। जो मां-बाप जानते हैं, जो शिक्षक जानते हैं, वे बच्चे के मस्तिष्क के
आज्ञा चक्र पर पूरा श्रम करेंगे।
यह
शिक्षा बहुत अधूरी और बहुत बेमानी है। क्योंकि इस शिक्षा में मनुष्य के बुनियादी
सूत्रों के संबंध में कोई चिंतन नहीं है, कोई विचार नहीं है। अगर हम बच्चों की
यूनिवर्सिटी तक आते-आते उनके आज्ञा चक्र को, उनके संकल्प को विकसित कर सकें, हम सारी दुनिया को बदल देंगे।
एक नई दुनिया और एक नया आदमी पैदा हो जाएगा। एक आदमी, जिसमें बल है। एक आदमी, जो सोचता है--वैसा करता है, वैसा कर सकता है। एक आदमी, जिसमें साहस है। एक आदमी, जिसमें कि हिम्मत है, जिसमें करेज है। लेकिन वह
हममें हो नहीं सकता, क्योंकि
जिस चक्र से वह सारी चीजें आती हैं वह चक्र ही हमारा सोया रह जाता है।
गुरजिएफ
था यूनान में एक अदभुत आदमी, कुछ
वर्षों पहले उसकी मृत्यु हुई। वह एक छोटा सा प्रयोग अपने साधकों को कराता था। उस
प्रयोग का नाम था: स्टाप एक्सरसाइज। एक छोटा सा प्रयोग वह अपने साधकों से कहता था:
रुक जाओ।
हम
यहां बैठे हैं। गुरजिएफ अगर अपना प्रयोग कराता तो वह यह कहता था कि जब मैं
कहूं--स्टाप! रुक जाओ! तो जो जहां है, जैसा है, वैसा ही रुक जाए। अगर बोलने के लिए मुंह
खोला है,
तो फिर
बंद मत करना,
मुंह
खुला ही रह जाए। अगर चलने के लिए पैर उठाया तो फिर हिलाना मत, पैर वहीं रह जाए, चाहे गिरो, चाहे मरो।
क्यों? यह क्या पागलपन की एक्सरसाइज
है! इससे क्या मतलब है? लेकिन
जिन लोगों ने उसके साथ यह प्रयोग किया वे दूसरे आदमी हो गए। और उन्होंने कहा, हम हैरान हो गए, इतना छोटा सा प्रयोग कितनी
क्रांति करवा सकता है!
क्योंकि
बहुत बल चाहिए इस बात में। आप अपने को धोखा देने की कोशिश करेंगे--कि कोई देख तो
रहा नहीं,
पैर
इतना ऊंचा बहुत तकलीफ दे रहा है, थोड़ा
नीचे करके रख लो। और अगर नीचे करके रख लिया तो किसी और का नुकसान नहीं किया, वह जो चक्र आपके भीतर जिसको
विकसित करने के लिए वह एक्सरसाइज थी, वह बेमानी चला गया। लेकिन अगर आपने हिम्मत
की और आप खड़े रह गए, वैसे
ही जैसे आप थे--आंख खुली थी तो आंख खुली रह गई, अब पलक झपेगी नहीं; हाथ ऊपर उठा था तो ऊपर रह गया; मुंह खुला था तो मुंह खुला रह
गया; एक पैर ऊपर उठा था, एक पैर ऊपर उठा रह गया; कमर झुकी थी तो झुकी रह गई; बहुत तकलीफ होगी, लेकिन अब हिलना भी नहीं है।
और इस प्रक्रिया में जो खड़ा रह जाएगा, वह अपने को आज्ञा दे रहा है, वह अपने संकल्प को बल दे रहा
है।
एक बार
वह तिफलिस में ठहरा हुआ था गुरजिएफ, रूस के एक छोटे गांव में, अपने तीस मित्रों को लेकर।
उनको साधना के लिए ले गया था। और उसने कहा था कि तीस दिन निरंतर स्टाप एक्सरसाइज
के सिवाय कुछ भी नहीं करना है। जब भी मैं कहूं--स्टाप! तब तुम रुक जाना, जो जहां हो। कोई स्नान करता
हो तो वहीं ठहर जाएगा, कोई
भोजन करता हो तो वहीं ठहर जाएगा। जो जो कर रहा हो, बस वैसे ही ठहर जाना, जैसे मूर्ति हो गए।
पास ही, उस तंबुओं के पास जहां वे
ठहरे थे,
एक नहर
बहती थी। नहर सूखी थी, कभी-कभी
उसमें पानी छोड़ा जाता था। सुबह का वक्त था, सारे तीस लोग आस-पास घूमने निकले हुए थे।
तीन आदमी उस नहर को पार कर रहे थे। सूखी नहर थी, पानी नहीं था। अचानक गुरजिएफ
ने अंदर से चिल्लाया--स्टाप! तो सारे लोग रुक गए, वे तीन लोग भी रुक गए।
किसी
ने पानी छोड़ दिया नहर का, पानी
जोर से भागा हुआ आया। गुरजिएफ तंबू के भीतर बंद है। उन तीन आदमियों की कमर तक पानी
भर गया,
गले तक
पानी भर गया। जब गले के ऊपर पानी बढ़ने लगा, तो एक आदमी छलांग लगा कर बाहर निकल गया।
उसने कहा,
उसे
पता नहीं है,
वे तो
तंबू के भीतर बैठे हुए हैं, और
हमारी यहां जान जाने के करीब आ गई। वह बाहर निकल गया।
उसे
पता नहीं कि उसने एक मौका चूक गया। एक मौका, जब कि पूरा शरीर कह रहा था कि हट जाओ बाहर, तब सिर्फ संकल्प कह सकता था
कि नहीं हटते हैं! जान दांव पर लगाते हैं, लेकिन बदलेंगे नहीं। तो वह जो चक्र सोया हुआ
है, सक्रिय हो जाता। एक शॉक, एक धक्का, और वह चल पड़ता। लेकिन वह चूक
गया; वह बाहर कूद गया। अक्सर लोग
कूद जाएंगे। आप भी होते तो कूद गए होते। उसने कोई गलती नहीं की थी।
दो
व्यक्ति रह गए। फिर इसके बाद मुंह तक पानी आ गया। और जब नाक तक पानी आया तो दूसरे
ने भी सोचा कि अब खतरा है, वह भी
छलांग लगा कर बाहर हो गया। लेकिन तीसरा आदमी खड़ा रहा। खतरा उसको भी दिखाई पड़ा, अंधा नहीं था। जान जाने की
नौबत दिखाई पड़ी। मौत सामने आ गई। पानी सिर के ऊपर से निकल गया। लेकिन उसने कहा कि
अब जो भी हो जाए,
जो तय
किया है तो तय किया है।
गुरजिएफ
भागा पागल की तरह तंबू के भीतर से। वह नहर तो जान कर छुड़वाई गई थी। कूदा पानी में, उस आदमी को बाहर निकाला। वह
आदमी दूसरा आदमी हो गया। गुरजिएफ ने कहा कि एक मौका मिला था, दो साथी तेरे चूक गए। इस दबाव
में, इतने तेज दबाव में कि मौत
सामने आ गई,
लेकिन
संकल्प नहीं बदला। तो फिर और कब चलेगा वह चक्र, वह चल पड़ा। वह आदमी दूसरा हो गया।
अब यह
आदमी जो चाहेगा हो जाएगा। यह अपने विचार को कह दे कि रुक जाओ! तो फिर विचार चल
नहीं सकते भीतर। यह आदमी कह दे कि श्वास रुक जाओ! तो फिर श्वास एक बार आगे नहीं चल
सकती। यह आदमी कह दे कि मैं इसी वक्त मरता हूं! तो आप पाएंगे कि वह आदमी मर गया।
यह आदमी अब जो चाहेगा अपने लिए, हो
जाएगा।
दक्षिण
में एक बहुत बड़े संगीतज्ञ का जन्मदिन मनाया जाता था। कोई तीन सौ वर्ष पहले की बात
है। बहुत बड़े-बड़े मित्र थे उसके, बहुत
बड़े-बड़े शिष्य थे,
बड़े
राजा-महाराजा थे। उन सबने मिल कर उसका आयोजन किया था। उसकी साठवीं वर्षगांठ मनाई
जाती थी। उसके हजारों शिष्य अपनी-अपनी भेंटे लेकर आए थे। एक गरीब फकीर भी उसका
शिष्य था,
जो
सड़कों पर तंबूरा बजा कर भीख मांगता था। उसके पास तो कुछ भी नहीं था। आधी रात बीत
गई, सारी भेंटें देकर लोग जा
चुके। तब वह भिखारी द्वार पर आया और उसने द्वारपालों से कहा, मुझे भीतर जाने दें, अपने गुरु को मैं भी कुछ भेंट
देना चाहता हूं। लेकिन उसके हाथ खाली थे, कपड़े फटे थे। उस द्वारपाल ने कहा, तुम्हारे पास कुछ दिखाई नहीं
पड़ता। उसने कहा,
मैं तो
हूं। द्वारपाल ने कहा, कोई
पागल है,
जाने
दो; चले जाओ, ठीक है।
वह
भीतर गया। सारे लोग विदा होने के करीब हैं, सारा भवन भेंट की चीजों से सजा है, करोड़ों रुपये की भेंट आई है।
तब उस भिखारी ने जाकर गुरु के चरणों में सिर रखा और उसने कहा कि मैं भी एक भेंट
लाया हूं,
क्या
आप स्वीकार करेंगे? गुरु
ने भी देखा उसके हाथ खाली हैं और कुछ भी नहीं। उसने कहा, लेकिन भेंट कोई दिखाई नहीं
पड़ती। उसने कहा,
मैं जो
हूं। वह हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ और उसने कहा कि परमात्मा, मेरे पास तो देने को कुछ नहीं, मेरी उम्र मेरे गुरु को मिल
जाए! उसने यह कहा और उसकी श्वास खतम हो गई, वह वहीं मरा हुआ गिर पड़ा।
यह
आदमी में क्या रहा होगा? इसने
कहा कि मेरी उम्र...कितनी बार आपने नहीं कहा है लोगों से कि मेरी उम्र आपको मिल
जाए। वह नहीं मिलेगी। आप भी जानते हैं, दूसरा भी जानता है। लेकिन आज्ञा चक्र उपलब्ध
हो जाए तो कभी भूल कर ऐसी बात मत कहना किसी से। लोग कहते हैं कि संतपुरुष किसी के
संबंध में कोई बुरी बात नहीं कहते। उसका कोई कारण यह नहीं है कि संतपुरुष बुरी बात
नहीं कह सकते। बुरी बात कह सकते हैं, लेकिन कहना खतरनाक साबित हो सकता है। उतने
संकल्प से निकली बात सार्थक हो सकती है। उतने संकल्प से दिया गया विचार बहुत सजीव
हो जाता है। उसमें एक ऊर्जा और एक शक्ति मिल जाती है।
हम
कहते हैं लोगों से कि मन शांत नहीं होता। बहुत बैठते हैं, बहुत यह करते हैं, मन तो अशांत रहता है, चंचल रहता है। रहेगा। क्योंकि
आपको पता ही नहीं कि इसको कहा जा सकता है--रुक जाओ! और इसे रुकना पड़े। लेकिन
"रुक जाओ!'
में
कोई बल तो चाहिए।
जीसस
के बाबत मैंने सुना है। जीसस और उनके दो मित्र एक झील पर एक नाव में सवार हैं। जोर
का तूफान आ गया। और जीसस सो रहे हैं एक कोने में। उनके मित्र उन्हें आकर हिलाते
हैं कि नाव डूबने के करीब है, खतरा
है, उठिए, और आप सो रहे हैं! जीसस कहते
हैं कि मैं तो अभी थोड़ा सो लूं, रात भर
का थका हूं,
खतरा
है तो तुम जूझो। लेकिन नाव डूबने के करीब होने लगी, अब डूबी, अब डूबी। वे मित्र फिर आए, उन्हें बड़ा क्रोध भी आया कि
हम मर रहे हैं,
डूब
रहे हैं,
और यह
आदमी सो रहा है!
जाकर
जीसस को उठाया। जीसस ने कहा, जाओ और
झील को कह दो कि शांत हो जाओ! उन्होंने कहा, पागल हो गए हो? झील किसी की मानती है! जीसस ने
कहा, अगर तुम्हारे भीतर की झील
तुम्हारी मानती हो, तो
बाहर की झील भी मान सकती है।
लेकिन
अपनी भीतर की झील पर ही कोई भरोसा नहीं, कोई विश्वास नहीं, तो बाहर की झील से क्या
कहेंगे?
कहानी
बड़ी मधुर है। जीसस झील के पास गए और कहा कि चुप हो जा! शांत हो जा! और कहानी कहती
है: झील शांत हो गई, वह
तूफान खो गया।
बाहर
की झील हुई हो या न हुई हो, यह
सवाल नहीं है। लेकिन भीतर की झील के बाबत मैं भी आपको यह आश्वासन दिलाता हूं कि
अगर एक बार कहने का बल आ जाए और भीतर कोई मुड़ कर कह दे कि बस! तो भीतर सन्नाटा छा
जाता है। जैसे कोई तूफान नहीं है, कभी था
ही नहीं। लेकिन हम रोते-धोते, चिल्लाते
हैं बहुत;
सामायिक
करते हैं,
प्रार्थना
करते हैं,
नमोकार
पढ़ते हैं,
न
मालूम क्या-क्या करते हैं, कुछ
होता नहीं। होगा भी नहीं। क्योंकि हो सकता है, एक चक्र के सक्रिय होने से--विल, संकल्प के सक्रिय होने से। वह
तो नहीं है। वह नहीं है, फिर हम
कहते हैं,
वह सब
थोथा पड़ जाता है,
वह
कहीं जाता ही नहीं। जो भी हम चाहते हैं, वह सिवाय इस चक्र के और कहीं से भीतर प्रवेश
नहीं कर सकता है।
इसलिए
ध्यान में उस चक्र पर जोर से नजर रखनी है। और यह बड़े रहस्य की बात है कि जितनी
गहरी उस पर नजर हो, उतनी
ही शीघ्रता से वह सक्रिय हो जाता है। चक्रों को सक्रिय करने का उपाय--उन पर अटेंशन, उन पर ध्यान देना है। जिस
चक्र पर ध्यान जाएगा वही चक्र सक्रिय हो जाएगा।
इसका
आपको शायद पता भी नहीं होगा कि अगर आप अपनी नाड़ी पर हाथ रख कर गिनती करें, तो जितनी गिनती निकलेगी, फिर दुबारा नाड़ी पर पूरा
ध्यान देकर गिनती करें और आप पाएंगे कि नाड़ी की गति बढ़ गई। सिर्फ ध्यान देने से
गति बढ़ जाएगी। ध्यान नाड़ी पर दिया और गति बढ़ी। आप श्वास पर बैठ कर पांच मिनट ध्यान
दें और आप पाएंगे कि श्वास गहरी हो गई।
चक्रों
के मामले में तो और भी अदभुत बात है--जिस चक्र पर ध्यान देंगे वही सक्रिय हो
जाएगा। ध्यान चक्र का भोजन है, फ्यूल।
पेट्रोल डाल दिया गाड़ी में और गाड़ी चल पड़ी। अकेले नाम से नहीं चलेगी गाड़ी।
हालांकि
मैंने ऐसी अफवाह सुनी है। एक बार ऐसा हुआ कि फोर्ड की एक दुकान में एक आदमी कार खरीदने
गया। उसने जो गाड़ी पसंद की, उसको
दिखाने के लिए मैनेजर वह कार निकाल कर बाहर गया। पांच-सात मील जाकर वह गाड़ी एकदम
झटका खाकर बंद हो गई। उस देखने वाले ग्राहक ने कहा कि बड़ी हैरानी की बात है, नई गाड़ी और एकदम बंद हो गई, सात ही मील चल कर! यह नहीं
चलेगा।
उसने, मैनेजर ने अपने ड्राइवर को
कहा कि जरा गौर से देख, पेट्रोल
डाला भी था कि बिना डाले ही ले आया है!
उस
ड्राइवर ने कहा,
पेट्रोल
तो डालना भूल ही गए। नई गाड़ी है, पेट्रोल
तो बिलकुल है ही नहीं, कभी
डाला ही नहीं गया।
वह
ग्राहक हैरान हुआ,
उसने
कहा, फिर सात मील कैसे आई?
उस
मैनेजर ने कहा,
इतना
तो फोर्ड के नाम से चल जाती है।
लेकिन
गाड़ी-वाड़ी चल जाती होगी, नाम-वाम
लेने से चक्र नहीं चलने वाला। वहां कुछ करना पड़ेगा। उसको फ्यूल देने की जरूरत है।
और फ्यूल एक ही है। चेतना के जगत में, कांशसनेस के जगत में ध्यान एकमात्र भोजन है, एकमात्र शक्ति है। इसलिए
मैंने कहा कि वह "मैं कौन हूं?' का तीव्र स्मरण करते समय, ध्यान होना चाहिए आज्ञा चक्र
पर। और आप अनुभव करेंगे। और पंद्रह मिनट आज हम प्रयोग करेंगे। उसके पहले आप अपने
सिर पर हाथ रख कर थोड़ा देख लेना और पंद्रह मिनट के बाद हाथ रख कर देखना। आप पाएंगे
कि उतनी जगह,
थोड़ी
सी जगह गरम हो गई है, बाकी
हिस्सा गरम नहीं है।
वह जब
भीतर कुछ चलता है तो बाहर तक गर्मी आ जाती है। सच तो यह है कि जिनको चक्रों का
अनुभव है वे आपके शरीर पर हाथ रख कर जांच कर ले सकते हैं कि कौन सा चक्र सक्रिय
है।
रामकृष्ण
की तो बड़ी आदत थी। विवेकानंद पहली दफा गए तो रामकृष्ण बगल के कमरे में ले गए, द्वार बंद कर दिया और कहा, कमीज खोल! विवेकानंद थोड़ा
घबड़ाए कि यह क्या मामला है? कमीज
किसलिए खोलें?
वह तो
अच्छा हुआ कि लड़के थे, लड़की
होते तो बहुत झंझट हो जाती। रामकृष्ण ने कहा, पहले कमीज खोल! विवेकानंद ने कमीज खोली, रामकृष्ण ने छाती पर हाथ रखा
और कहा,
ठीक है, हो जाएगा। विवेकानंद बाद में
उनसे बहुत पूछने लगे कि क्या हो जाएगा? क्या देखा आपने? रामकृष्ण ने कहा, पहले देख तो लूं कि कौन सा
चक्र तेरा सक्रिय है, नहीं
तो मैं किसी दूसरी चीज पर मेहनत करता रहूं और सब गड़बड़ हो जाए।
इस बात
की पूरी संभावना है। संभावना क्या, सरल ही बात है। क्योंकि उन चक्रों के, जैसे ही वे सक्रिय होते हैं, शरीर पर अलग बिंदु, अलग अर्थ, अलग ऊष्मा, अलग गर्मी लेना शुरू कर देते
हैं।
आपने
बुद्ध की,
महावीर
की मूर्तियों पर सिर के ऊपर बड़े-बड़े बाल के गुच्छे देखे होंगे। वे बाल के गुच्छे
नहीं हैं,
वह
अंतिम चक्र का प्रतीक है सिर्फ कि वह चक्र सक्रिय हो गया। वह चक्र सक्रिय हो गया, उसका प्रतीक हैं वे सिर्फ, बाल वे नहीं हैं। बुद्ध और
महावीर की दाढ़ी-मूंछें आपने नहीं देखी होंगी कि दाढ़ी-मूंछ दिखाई पड़ती हों, वे नहीं हैं। वे सिर पर भी
बाल नहीं हैं,
वह
सिर्फ प्रतीक है। और अगर गिनती करेंगे तो आपको पता चलेगा कि वह गिनती एक हजार है, वह जितने खांचे बने हुए हैं
सिर के ऊपर। वह एक हजार, जो
अंतिम चक्र है उसके एक हजार आरों और पंखुड़ियों के प्रतीक हैं, और कुछ भी नहीं।
वह
अंतिम चक्र है सिर के ऊपर के हिस्से में। और जिस आदमी के सिर पर वह चक्र सक्रिय हो
जाए, उसके सिर पर हाथ रख कर आप कह
सकते हैं कि वह चक्र सक्रिय हो गया। क्योंकि उतना हिस्सा थोड़ा सा ऊपर उठ जाएगा, सारी खोपड़ी से अलग हो जाएगा, थोड़ा सा हिस्सा ऊपर उठ जाएगा।
वह अंतिम चक्र ब्रह्म चक्र है। आज्ञा चक्र के बाद वह है और आज्ञा चक्र से ही उसमें
प्रवेश मिलता है। वह चक्र सक्रिय हो जाए, तो व्यक्ति इस शरीर से दूसरे शरीर को बिलकुल
पृथक करने में समर्थ हो जाता है। तब उसे ज्ञात होता है कि मैं यह शरीर नहीं हूं, मैं कुछ और हूं।
ये सात
चक्र हैं। इनकी मैंने बात क्यों की? इनकी मैंने इसलिए बात की ताकि आप को खयाल
में आ सके कि आपका केंद्रीय चक्र कौन सा है, एक--आपको समझ-बूझ पूर्वक ध्यान कर लेना
चाहिए। और जो आपका केंद्रीय चक्र हो, उससे ऊपर के चक्रों में बढ़ने की कोशिश शुरू
करनी चाहिए। और आज्ञा चक्र पर सर्वाधिक जोर देने की जरूरत है, क्योंकि उसके बिना आध्यात्मिक
साधना में कोई गति नहीं हो सकती है।
यह
ध्यान रहे कि नाभि के नीचे के चक्र सिर्फ नाभि के नीचे ही नहीं हैं, नीचे के चक्र भी हैं, नीचे चक्र भी हैं। नाभि के
ऊपर के चक्र सिर्फ ऊपर ही नहीं हैं शरीर में, व्यक्तित्व के ऊपर के विकास के भी चक्र हैं।
जो चक्र जितने ऊपर है वह उतने ही ऊपरी विकास का सबूत है। अंतिम चक्र सर्वाधिक
विकास का सबूत है। जैसे ही आप इस "मैं कौन हूं?' के ध्यान में तीव्रता लाएंगे
और तीन या चार महीने इस प्रयोग को चलाएंगे, आपको अपने चक्रों का स्पष्ट बोध और दर्शन
होना शुरू हो जाएगा। आपको यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा कि मेरा कौन सा चक्र बिलकुल
निष्क्रिय पड़ा है,
कौन सा
सक्रिय है। और आपको यह भी दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा कि जो चक्र सक्रिय है, उसी तरह के राग, द्वेष, क्रोध, माया, मोह, वे सब मुझमें सक्रिय हैं।
इसलिए
क्रोध को बदलना हो, या मोह
को बदलना हो,
तो
क्रोध और मोह को कोई नहीं बदल सकता; उसके चक्र को निष्क्रिय करने से बदलाहट शुरू
हो जाती है। प्रेम जगाना हो, तो कोई
प्रेम नहीं जगा सकता; प्रेम
के चक्र को सक्रिय कर देने से प्रेम की धारा शुरू हो जाती है। संकल्प पैदा करना हो, तो संकल्प कोई पैदा नहीं कर
सकता सीधा। चाहे वह कितना ही तय करे कि मैं अंधेरे में नहीं डरूंगा! मैं दुश्मन से
नहीं डरूंगा! लेकिन इससे कुछ नहीं होता। वह दुश्मन से डरेगा ही, अंधेरे में डरेगा ही। वह जो
यह कह रहा है कि मैं नहीं डरूंगा, यह भी
डर का ही सबूत है,
डर की
ही खबर है। कोई बहादुर आदमी कभी नहीं कहता कि मैं नहीं डरता हूं। जो भी आदमी कहे
मैं नहीं डरता हूं, समझना
कि वह आदमी बहादुर नहीं है। नहीं तो उसे यह खयाल भी पैदा नहीं होता कि मैं नहीं
डरता हूं।
अकबर
के दरबार में दो राजपूत जवान लड़के एक दिन सुबह-सुबह आए। दोनों जुड़वां भाई हैं। आकर
अकबर के दरबार में खड़े होकर उन्होंने कहा कि हम सेना में भर्ती होने की तलाश में
हैं। हम दो बहादुर जवान हैं। क्या आपको जरूरत है?
अकबर
ने कहा कि तुम बहादुर जवान अपने को कहते हो, कोई सर्टिफिकेट, कोई प्रमाणपत्र लाए हो? हम कैसे मान लें कि तुम
बहादुर हो?
वे
दोनों हंसने लगे और उन्होंने कहा, हमें
ऐसी आशा न थी कि आप जैसा आदमी और यह पूछेगा। बहादुरी का कहीं कोई सर्टिफिकेट हुआ
है? कोई प्रमाणपत्र हुआ है? और बहादुर आदमी किसके पास
जाएगा लिखवाने?
अगर
कोई आदमी प्रमाणपत्र लिखवा कर आए तो सबूत हो गया कि यह आदमी बहादुर नहीं है।
बहादुर आदमी किसी से प्रमाणपत्र लिखवाएगा कि लिख दो मेरे लिए कि मैं बहादुर हूं? चरित्रवान आदमी किसी के पास
जाएगा कि लिख दो कि मैं चरित्रवान हूं? अगर चरित्र खुद अपना प्रमाण नहीं है तो कौन
सा पत्र,
प्रमाणपत्र
प्रमाण हो सकता है?
उन्होंने
कहा, हम बहादुर हैं, इतना हम कह सकते हैं। मौका
पड़े तो दिखा सकते हैं। लेकिन प्रमाणपत्र नहीं है।
अकबर
ने कहा,
तो
देखें,
फिर हम
कैसे देखें?
कैसे
पता चले?
तो
उन्होंने कहा,
देखना
ही चाहते हैं?
अकबर
ने कहा,
हां, देखना चाहते हैं।
उन
दोनों की तलवारें बाहर निकल गईं। अकबर तो एक क्षण घबड़ा गया कि उनका क्या इरादा है!
और वे तलवारें तो जूझ गईं एक-दूसरे से। जुड़वां भाई थे, दोनों प्यारे जवान थे अभी, अभी-अभी फूल खिलना शुरू हुआ
था। वे एक-दूसरे की छाती में घुस गईं। वे दोनों जवान एक क्षण बाद जमीन पर पड़े थे, खून के फव्वारे बह रहे थे।
अकबर
ने कहा,
पागलो, यह क्या किया?
तो
उन्होंने कहा कि सिवाय मरने के और बहादुर क्या सबूत दे सकता है? बहादुरी का और क्या सबूत हो
सकता है--कि हम मर सकते हैं हंसते हुए, एक क्षण में! मौत हमें खेल है।
राजपूत
सरदारों को बुलाया अकबर ने और कहा, यह क्या गड़बड़ हो गई?
उन्होंने
कहा, आप गलत आदमी हो, आपको पता नहीं कि राजपूत से
बहादुरी की बात नहीं पूछनी चाहिए। अब कभी भूल कर मत पूछना। क्योंकि मतलब ही एक
होता है कि मौत को हम खेल समझते हैं।
ये जो
दो जवान लड़के हैं,
इनके
आज्ञा चक्र का आपको कुछ अंदाज हो सकता है कि कैसा रहा होगा। अगर मौत को ये इस तरह
खेल सकते हैं,
तो
परमात्मा को भी इसी तरह पा सकते हैं।
ध्यान
रहे, परमात्मा के रास्ते पर भी
क्षत्रिय होने की जरूरत पड़ती है, वह
रास्ता भी बनिए का रास्ता नहीं है। वह नहीं है। वह रास्ता भी एक साहस से भरे हुए
संकल्पवान आदमी का रास्ता है। इसीलिए दुनिया जितनी कम क्षत्रिय होती चली गई है
उतना ही परमात्मा से हमारा संबंध समाप्त होता चला गया है। दुनिया आज वणिक के हाथ
में है,
वैश्य
के हाथ में है। आज हम कह सकते हैं कि बीसवीं सदी बनिए की सदी है। आज दुनिया में
ताकतवर वह है जो चालाक दुकानदार है।
अगर हम
ऐसा इतिहास को उठा कर देखें तो शायद इतिहास के प्राथमिक चरण और तरह के व्यक्तित्व
से प्रभावित रहे हैं। अब और तरह का व्यक्तित्व प्रभावी है। कल शायद और तरह का
व्यक्तित्व प्रभावी होगा। एक बात तय है लेकिन कि जिस समाज में जितना साहस कम होगा
उतना संकल्प कम होगा; जितना
संकल्प कम होगा उतना धर्म कम हो जाएगा। क्योंकि धर्म मूलतः संकल्प की ही
अभिव्यक्ति है।
इसलिए
मेरा जोर है कि इस चक्र पर पूरी की पूरी चेष्टा करनी है, यह द्वार है। और आज जब हम
ध्यान के लिए बैठें तो सारी समग्र शक्ति दोनों आंखों के बीच में चली जाए, कि वहां कोई चीज चलने लगे, कोई सूरज घूमने लगे। और जब
पूरी तरह ध्यान वहां होगा तो आप कुछ ही दिन में अनुभव कर सकते हैं--आज भी अनुभव कर
सकते हैं--कि जैसे एक छोटा सूरज वहां घूमना शुरू हो गया। उसकी गर्मी भी पूरे
मस्तिष्क पर छानी शुरू हो जाएगी।
एक
छोटा सा सूरज तेजी से घूम रहा है। जैसे कभी हाथ के संध में से सूरज को देखा हो
घूमते हुए,
वैसा
छोटा सूरज वहां घूमता हुआ मालूम पड़ेगा। और जैसे-जैसे साधना गहरी होगी, वह सूरज बड़ा होता चला जाएगा।
जैसे-जैसे वह बड़ा होगा वैसे-वैसे आपके व्यक्तित्व में दिखाई पड़ने लगेगा कि जो आप
कल तक नहीं थे वह होना शुरू हो गए। व्यक्तित्व में एक बल आया; रीढ़ पैदा हो गई; पैर मजबूत हो गए हैं; संकल्प बली हो गया है। इसी
संकल्प के सहारे,
इसी
संकल्प के द्वार से मनुष्य परमात्मा के मंदिर में प्रविष्ट होता है। उस मंदिर के
संबंध में शेष बातें कल हम करेंगे।
अब हम
ध्यान के लिए बैठेंगे। और ध्यान रहे कि सिर्फ बैठ जाना काफी नहीं है। यह भी ध्यान
रहे कि धीरे-धीरे दोहराना भी पर्याप्त नहीं है। और यह भी ध्यान रहे कि इतने लोग
जहां मौजूद हैं,
अगर ये
सारे लोग साथ मेहनत करते हैं, तो आप
अकेले मेहनत नहीं कर रहे हैं, इन
सारे लोगों की मेहनत का भी आपको फायदा मिलता है। वह मैं कल आपको कहूंगा कि कैसे यह
फायदा उपलब्ध हो जाता है।
जहां
अगर दो हजार लोग बैठ कर ध्यान कर रहे हों, तो दो हजार लोगों का विचार का संकल्प एक हवा
पैदा करता है,
एक
साइकिक एटमॉस्फियर पैदा करता है। एक विचार की तरंगें यहां दौड़नी शुरू हो जाती हैं, जो आपके मस्तिष्क को भी
छुएंगी और स्पर्श करेंगी। विचार आपके भीतर ही नहीं चलता है, उसकी खबरें, उसकी लहरें आपके चारों तरफ
फैलनी शुरू हो जाती हैं। लेकिन हिंदुस्तान में कभी भी सामूहिक प्रार्थना विकसित
नहीं हुई। और हिंदुस्तान के धर्मों में एक बुनियादी कमियों में से एक कमी कही जा
सकती है कि हिंदुस्तान के धर्मों ने कोई सामूहिक प्रार्थना विकसित नहीं की।
सामूहिक
ध्यान का अदभुत अर्थ है। जो एक व्यक्ति अकेले में नहीं कर पाएगा, वह सारे लोगों के साथ आसानी
से संभव हो सकता है। इसलिए इस मौके को ऐसे ही मत खो देना कि ठीक है, बैठे हैं। अकेले भी आप
बैठेंगे अपने घर में, लेकिन
यह मौका बहुत अदभुत है--दो हजार लोग भी आपके साथ हैं।
आपको
पता नहीं कि अगर आप अकेले दौड़ रहे हों, तो यह दौड़ना एक बात है; और दो हजार लोग साथ दौड़ रहे
हों, उनके हाथ आपको छू रहे हों, उनके पैर आपको छू रहे हों, उनकी आवाजें आपको सुनाई पड़
रही हों,
तो यह
बात दूसरी है।
मैंने
तो यहां तक सुना है कि मिलिट्री के जनरल्स, पुल पर से गुजरते वक्त, सैनिकों को एक साथ पैर गिराने
की मनाही कर देते हैं। क्योंकि अगर पैर एक साथ गिर रहे हों तो पुल के गिर जाने का
डर है। रिदम तुड़वा देते हैं, कि तोड़
दो रिदम,
पैर
अलग-अलग गिरने चाहिए! अब अगर एक हजार आदमी गुजर रहे हों, और पैर एक साथ गिर रहे हैं, तो एक हजार आदमियों के पैर के
गिरने की जो लय पैदा होती है, जो
ध्वनि पैदा होती है, जो
तरंगें पैदा होती हैं, वे ब्रिज
को तोड़ सकती हैं।
शायद
आपको यह पता न हो,
इस बात
की संभावना है कि एक तंबूरा रखा हो और अगर दस तंबूरे वहां बजाए जाएं एक लय में, तो जो तंबूरा नहीं बज रहा है
उसके तार हिलने शुरू हो जाते हैं और वही ध्वनि देने लगते हैं जो कि दस तंबूरे दे
रहे हैं। इस बात की संभावना है।
अगर
यहां दो हजार लोग बैठे हैं और एक संकल्प कर रहे हैं और एक ध्यान कर रहे हैं, तो इनके बीच में एक आदमी जो
धीरे-धीरे कर रहा है, उसके
हृदय की गति भी तीव्र हो जाती है, उसका
संकल्प भी बलपूर्वक हो जाता है। उसके चित्त पर भी चोट लगने लगती है चारों तरफ की
हवाओं की,
चारों
तरफ की तरंगों की। उसकी बात मैं कल करूंगा कि वह कैसे संभव हो जाता है। लेकिन अगर
बल से हम करें,
पूरी
शक्ति से हम करें,
तो
नहीं होने का कोई कारण नहीं है।
कल
मैंने समझाया था,
दो
मिनट आपको समझा दूं, हो
सकता है कुछ नये मित्र हों। सबसे पहले तो रीढ़ को सीधा करके बैठ जाना है। हाथ की
पांचों अंगुलियां,
दूसरी
पांचों अंगुलियों के बीच में डाल देना है और हाथ को अपनी गोद में रख लेना है।
मुट्ठियां बंद कर लेनी हैं दसों अंगुलियां उलझा कर। क्योंकि जितने जोर से आप
पूछेंगे अपने भीतर, मुट्ठियां
उतनी ही जोर से बंधती चली जाएंगी, वे
सबूत होंगी कि भीतर आप कितनी तेजी से पूछ रहे हैं। रीढ़ को सीधा कर लेना है। फिर
आंख बंद कर लेनी हैं। और आंख बंद कर लेने के बाद ओंठ बंद कर लेने हैं। जबान ऊपर
तालू से सट जाएगी,
ओंठ
बिलकुल बंद हो जाएंगे। और फिर पूरी शक्ति से भीतर अपने से पूछना है--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? और तेजी से पूछना है कि दो
"मैं कौन हूं?' के बीच में जगह न रह जाए। और इतनी तेजी से पूछना है कि भीतर कोई
शक्ति कायम बाकी न रह जाए। पूरी शक्ति से पूछना है कि मैं कौन हूं? सारा प्राण कंप जाए, सारे प्राण की झील मंथन करने
लगे, एक-एक रोआं पूछने लगे, हृदय की धड़कन पूछने लगे, श्वास-श्वास पूछने लगे। सारा
शरीर पूछने लगे कि मैं कौन हूं? एक
बुखार,
एक
ज्वर छा जाए पूरे व्यक्तित्व पर।
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