चौथा
प्रवचन
एकाकीपन
का बोध
एक
फकीर के पास तीन युवक आए और उन्होंने कहा कि हम अपने को जानना चाहते हैं। उस फकीर
ने कहा कि इसके पहले कि तुम अपने को जानने की यात्रा पर निकलो, एक छोटा सा काम कर लाओ। उसने एक-एक कबूतर उन
तीनों युवकों को दे दिया और कहा,
ऐसी जगह में जाकर कबूतर की
गर्दन मरोड़ डालना जहां कोई देखने वाला न हो।
पहला
युवक रास्ते पर गया--दोपहर थी,
रास्ता सुनसान था, लोग अपने घरों में सोये थे--देखा कोई भी
नहीं है, गर्दन मरोड़ कर, भीतर आकर गुरु के सामने रख दिया। कोई भी
नहीं था, उसने कहा, रास्ता
सुनसान है, लोग घरों में सोये हैं, किसी ने देखा नहीं, कोई देखने वाला नहीं था।
दूसरे
युवक ने सोचा कि अगर रास्ते पर गर्दन मरोडूंगा, पता
नहीं कोई बीच में निकल आए,
कोई खिड़की से झांक ले। वह एक
गली में गया। लेकिन अभी दिन था,
उसने सोचा रात तक रुक जाऊं, पता नहीं कोई एकदम से गली में आ जाए, जहां मैं आ सका हूं वहां कोई दूसरा भी आ
सकता है। उसने रात तक प्रतीक्षा की,
जब अंधेरा हो गया तो उसने
गर्दन मरोड़ी और गुरु के पास जाकर दे दिया।
लेकिन
तीसरे युवक को पंद्रह दिन हो गए। वह अभी भी नहीं लौटा, अभी भी नहीं लौटा...। दोनों युवकों को खोजने
भेजा। वे कहीं से उसे पकड़ कर लाए। वह बड़ी मुश्किल में था। वह अंधेरी रात में भी
गया था। अंधेरी रात, गहरे से गहरे अंधेरे में भी बहुत कुछ था जो
उसे देख रहा था। चांदत्तारे देख रहे थे। तो उसने सोचा कि नीचे एक तलघर में चला
जाऊं। वह एक तलघर में गया। वहां चांदत्तारे तो न थे, लेकिन
जब गहरे अंधेरे में जाकर उसने कबूतर की गर्दन पर हाथ रखा, तो कबूतर देख रहा था, उसकी दो आंखें चमक रही थीं। तो उसने फिर
कबूतर की आंखें बांध दीं,
ताकि कबूतर न देख सके। और जब
वह उसकी गर्दन को मरोड़ रहा था,
तब उसे खयाल आया--गहन अंधकार
था, कोई भी न था, कबूतर
की आंखें बंद थीं--लेकिन उसे खयाल आया कि मैं तो देख ही रहा हूं, और गुरु ने कहा था: कोई भी न देखता हो। तब
वह मुश्किल में पड़ गया। और जब उसके साथी उसे पकड़ कर लाए तो उसने कबूतर वापस लौटा
दिया। और उसने कहा, यह न हो सकेगा। क्योंकि मैं कितने ही अंधकार
में चला जाऊं, कोई न देखे, कम से
कम मैं तो देखूंगा! और आपने कहा था,
जहां कोई भी न देखता हो।
तो उस
गुरु ने दो युवकों को तो विदा कर दिया कि तुम जाओ, तुम
बहुत गहरी खोज न कर सकोगे। तीसरे युवक को रोक लिया, क्योंकि
एक बहुत गहरे अनुभव पर वह पहुंचा था--कि गहनतम अंधकार में भी मैं तो शेष रह ही
जाता हूं देखने वाला।
समाधि
का भी पहला चरण गहन अंधकार है। क्योंकि जब सब तरफ अंधेरा हो जाता है तो चेतना को
बाहर जाने का उपाय नहीं रहता,
चेतना अपने पर वापस लौट आती
है। इसीलिए तो रात हम सोते हैं,
अगर प्रकाश हो तो नींद में
बाधा पड़ती है, क्योंकि चेतना को बाहर जाने के लिए मार्ग
होता है। अंधकार हो तो चेतना अपने पर वापस लौट आती है। अंधकार में मार्ग नहीं है
किसी और को देखने का, इसलिए अपने को ही देखने की एकमात्र शेष
संभावना रह जाती है।
पर
अंधकार के प्रति हमारा भय है। इसलिए हम अंधेरे में कभी भी नहीं जीते। अंधेरा हुआ
कि हम फिर सो जाएंगे। उजाला हो तो हम जी सकते हैं। इसलिए पुरानी दुनिया सांझ होते
सो जाती थी, क्योंकि उजाला न था। अब नई दुनिया के पास
उजाला है कि वह रात को भी दिन बना ले, तो अब
दो बजे तक दिन चलेगा। बहुत संभावना है कि धीरे-धीरे रात खतम ही हो जाए, क्योंकि हम प्रकाश पूरा कर लें। अंधेरे में
फिर हमें सोने के सिवाय कुछ भी नहीं सूझता, क्योंकि
कहीं जाने का रास्ता नहीं रह जाता। लेकिन काश हम अंधेरे में जाग सकें, तो हम समाधि में प्रवेश कर सकते हैं।
तो
पहले पांच मिनट हम गहन अंधकार में डूबेंगे। एक ही भाव रह जाए मन में कि अंधकार है, अंधकार है, चारों
तरफ अंधकार है। सब तरफ अंधकार घिर गया और हम उस अंधकार में डूब गए, डूब गए, डूब
गए। पूर्ण अंधकार रह गया है और हम हैं, और
अंधकार है। तो पांच मिनट पहले इस अंधकार के प्रयोग को करेंगे। फिर मैं दूसरा
प्रयोग समझाऊंगा। फिर तीसरा। और अंत में तीनों को जोड़ कर फिर हम ध्यान के लिए, समाधि के लिए बैठेंगे।
तो
सबसे पहले तो एक-दूसरे से थोड़ा-थोड़ा फासले पर हट जाएं। चिंता न करें बिछावन की, अगर नीचे भी बैठ जाएंगे तो उतना हर्ज नहीं
है जितना कोई छूता हो। क्योंकि कोई छूता हो तो कोई मौजूद रह जाएगा, अंधेरा पूरा न हो पाएगा। तो बिलकुल कोई न
छूता हो। और इसका भी खयाल न रखें कि दूसरा हट जाए। दूसरा कभी नहीं हटेगा; स्वयं को ही हटना पड़ेगा। तो हट जाएं, चाहे जमीन पर चले जाएं, चाहे पीछे हट जाएं। लेकिन कोई किसी को किसी
भी हालत में छूता हुआ न हो। और इतने धीरे न हटें, जमीन
पर बैठ गए तो क्या हर्जा हुआ जाता है! बिलकुल सहजता से हट जाएं। एक भी व्यक्ति
छूता हुआ न हो।
मैं
मान लूं कि आप हट गए हैं,
कोई किसी को नहीं छू रहा है।
अगर अब भी कोई छू रहा हो तो उठ कर बाहर आ जाए और अलग बैठ जाए।
अब आंख
बंद कर लें। आंख बंद कर लें। आंख बंद कर लें, शरीर
को ढीला छोड़ दें। शरीर ढीला छोड़ दिया है, आंख
बंद कर ली है। और देखें भीतर,
अनुभव करें--अंधकार, महा अंधकार है...विराट अंधकार फैल गया
है...चारों तरफ सिवाय अंधकार के और कुछ भी नहीं। अंधकार है...अंधकार है...। बस
एकदम अंधकार ही अंधकार है। जहां तक खयाल जाता है, अंधकार...अंधकार...अंधकार...।
पांच मिनट के लिए इस अंधकार में डूबते जाएं। बस अंधकार ही शेष रह जाए। छोड़ दें
अपने को अंधकार में। और पांच मिनट के अंधकार का अनुभव मन को बहुत शांत कर जाएगा।
समाधि की पहली सीढ़ी खयाल में आ जाएगी। मृत्यु की भी पहली सीढ़ी खयाल में आ जाएगी।
अनुभव
करें अंधकार का, बस अंधकार ही अंधकार है चारों ओर, सब तरफ मन को घेरे हुए अंधकार है, दूर-दूर तक घनघोर अंधकार है। कुछ भी नहीं
दिखाई पड़ता, कुछ भी नहीं सूझता, हम हैं और अंधकार है। पांच मिनट के लिए मैं
चुप हो जाता हूं। आप गहरे अंधकार को अनुभव करते हुए, करते
हुए अंधकार में डूब जाएं...
बस
अंधकार शेष रह गया है...अंधकार और अंधकार, महा
अंधकार, सब अंधेरा हो गया है...कुछ भी नहीं सूझता, अंधकार है, जैसे
अंधेरी रात ने चारों ओर से घेर लिया...मैं हूं और अंधकार है...
अंधकार
ही अंधकार है...डूब जाएं...छोड़ दें...बिलकुल अंधेरे में डूब जाएं। अंधकार ही
अंधकार शेष रह गया...अंधकार है,
बस अंधकार है, अंधकार ही अंधकार है...अनुभव करते-करते मन
बिलकुल शांत हो जाएगा...अंधकार ही अंधकार है...अंधकार ही अंधकार है...मन शांत होता
जा रहा है। मन बिलकुल शांत हो जाएगा। अंधकार ही अंधकार है...छोड़ दें अपने को, अंधकार में बिलकुल छोड़ दें...अंधकार ही
अंधकार है...बस अंधकार ही अंधकार है...छोड़ दें अंधकार में, महान अंधकार चारों ओर रह गया। मैं हूं और
अंधकार है। न कुछ दिखाई पड़ता,
कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, बस अंधकार ही अंधकार मालूम होता है...डरें
नहीं, छोड़ दें, बिलकुल
छोड़ दें। अंधकार ही अंधकार शेष रह गया है। और मन एकदम शांत हो जाएगा। अंधकार परम
शांतिदायी है। मन का कण-कण शांत हो जाएगा। मस्तिष्क का कोना-कोना शांत हो जाएगा।
अंधकार
में डूब जाएं, अंधकार ही अंधकार है...अंधकार ही अंधकार
है...अंधकार ही अंधकार है...मन बिलकुल शांत हो गया है, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है...अंधकार ही अंधकार
है...चारों ओर अंधकार है...मैं हूं और अंधकार है...कुछ भी नहीं सूझता, कोई और दिखाई नहीं पड़ता, अंधकार है...अंधकार है...। मन शांत हो गया
है, मन बिलकुल शांत हो गया है...
अब
धीरे-धीरे आंखें खोलें...बाहर भी बहुत शांति मालूम पड़ेगी। धीरे-धीरे आंखें
खोलें...फिर दूसरा प्रयोग समझें,
और उसे पांच मिनट के लिए
करें। समाधि की पहली सीढ़ी है अंधकार का बोध। धीरे-धीरे आंख खोलें...बाहर भी बहुत
शांति मालूम पड़ेगी।
अब
दूसरा चरण समझ लें। फिर पांच मिनट उसे हम करेंगे। जब कोई मरता है तो गहन अंधकार
में चारों ओर से घिर जाता है। मृत्यु के पहले चरण पर अंधकार घेर लेता है। वह सारा
जगत जो दिखाई पड़ता था, खो जाता है। वे सब प्रियजन, मित्र, अपने, पराये, वे जो
चारों तरफ थे, सब खो जाते हैं और एक अंधकार का पर्दा चारों
तरफ से घेर लेता है। लेकिन हम अंधकार से इतना डरते हैं कि उस डर के कारण बेहोश हो
जाते हैं। काश हम अंधकार को भी प्रेम कर पाएं, तो फिर
मृत्यु में बेहोश होने की जरूरत न रह जाए। और समाधि में जिन्हें जाना है उन्हें
अंधकार को प्रेम करना सीखना पड़े,
अंधकार को आलिंगन करना सीखना
पड़े, अंधकार में डूबने की तैयारी दिखानी पड़े।
इसलिए पहले चरण में पांच मिनट अंधकार को अपने चारों ओर घिरा हमने देखा। अब दूसरी
बात समझ लेनी चाहिए। मृत्यु का या समाधि का दूसरा चरण है: एकाकीपन का बोध, मैं अकेला हूं। मृत्यु के दूसरे चरण में
अंधकार के घिरते ही पता चलता है कि मैं अकेला हूं। कोई भी मेरा नहीं, कोई भी संगी नहीं, कोई भी साथी नहीं। लेकिन जीवन भर हम इसी ढंग
से जीते हैं कि लगता है--सब हैं मेरे--मित्र हैं, प्रियजन
हैं, अपने हैं। अकेला हूं, इसका कभी खयाल भी नहीं आता। अगर खयाल आए भी
तो जल्दी किसी को अपना बनाने निकल पड़ता हूं, ताकि
अकेलेपन का खयाल न आए। बहुत कम लोग,
बहुत कम क्षणों पर, अकेले होने का अनुभव कर पाते हैं। और जो
मनुष्य अकेले होने का अनुभव नहीं कर पाता, वह
अपना अनुभव भी नहीं कर पाएगा। जो व्यक्ति निरंतर ऐसा ही सोचता है कि दूसरों से
जुड़ा हूं, दूसरों से जुड़ा हूं--दूसरे हैं, संगी हैं, साथी
हैं--उसकी नजर कभी अपने पर नहीं जा पाती है।
मृत्यु
का भी दूसरा अनुभव जो है वह अकेले का अनुभव है। इसलिए मृत्यु हमें बहुत डराती है।
क्योंकि जिंदगी भर हम अकेले न थे,
और मृत्यु अकेला कर देगी। असल
में मृत्यु का डर नहीं है,
डर है अकेले होने का।
अभी भी
अकेले होकर हम डरते हैं। कोई साथ हो तो डर नहीं है। और मजा यह है कि दो आदमी साथ
हैं, वे दोनों अकेले में डरते हैं, दोनों मिल जाएंगे तो डर दुगुना होगा कि आधा
होगा? दो आदमी, दोनों
अकेले में डरते हैं, लेकिन दोनों मिल कर सोचते हैं कि दूसरा है, डर नहीं है। दूसरा भी सोचता है: दूसरा है, डर नहीं है।
डर
सिर्फ दुगुना हो गया है। लेकिन एक-दूसरे के साथ हम सोच लेते हैं। आदमी अंधेरी गली
में से निकलता है तो डरता है,
तो जोर से गीत गाने लगता है, भगवान का नाम लेने लगता है। अपनी ही आवाज
सुन कर भी ऐसा लगता है कोई है। अकेले का भय है। लेकिन जो अकेले होने को राजी नहीं, टोटली अलोन, वह
समाधि में नहीं जा सकता। क्योंकि समाधि में कौन साथ देगा? पत्नी कैसे समाधि में साथ देगी? बेटा कैसे साथ जाएगा? पति कैसे साथ जाएगा? गुरु कैसे साथ जाएगा? दोस्त कैसे साथ जाएगा? समाधि में तो कोई भी नहीं जाएगा। समाधि में
तो बिलकुल अकेले जाना होगा।
इसलिए
जो जितना एक्सट्रोवर्ट है,
जो अपने से बाहर के लोगों से
जितना जोड़े रखता है अपने को,
कभी अकेला नहीं होता, वह आदमी समाधि में पहुंचने में उतनी ही
मुश्किल अनुभव करता है। अगर कभी हम अकेले छूट भी जाएं सौभाग्य से, तो जल्दी से अपने को भर लेते हैं। रेडियो
खोल लेंगे, अखबार पढ़ने लगेंगे--कुछ न कुछ करने
लगेंगे--सिगरेट पीने लगेंगे। ये सिर्फ अकेलेपन से बचने के उपाय हैं। यहां तक कि
लोग अकेले हैं, बैठ कर ताश खेलने लगेंगे, अकेला ही आदमी दोनों तरफ से बाजियां चलने
लगेगा, दूसरे को कल्पित कर लेगा कि कोई है।
अकेले
होने से हम इतने भयभीत हैं,
तो फिर हम समाधि में प्रवेश
नहीं कर सकते हैं। और अकेले होने का सौंदर्य अदभुत है। मेरा मतलब यह नहीं है कि
कोई समाज से भाग जाए। समाज से जो लोग भाग जाते हैं, वे भी
अकेले नहीं हैं। क्योंकि जिसे वे छोड़ कर भागते हैं, वह
उनके मन में साथ चला जाता है। वे जंगल-पहाड़ पर बैठ कर आपकी ही याद कर रहे हैं।
क्योंकि अगर आपको वे भूल सकते,
तो यहीं भूल सकते थे
जंगल-पहाड़ जाने की कोई भी जरूरत न थी।
अकेले होने
का मतलब भाग जाना नहीं है। अकेले होने का मतलब इस सत्य को जानना कि मैं अकेला हूं, अकेला आता हूं, अकेला हूं, अकेला
जाऊंगा। साथी हैं, संगी हैं--रास्ते पर राहगीर की तरह मिले हुए
मित्र हैं, साथ थोड़ी देर हम हैं, और विदा हो जाएंगे। साथ होना बुरा नहीं है।
लेकिन इतना साथ हो जाना कि अपने होने का बोध ही मिट जाए, महंगा है। साथ जरूर हों--पत्नी हों, पति हों, बेटे
हों, मित्र हों, समाज
हो--यह सवाल नहीं है; लेकिन सबके बीच निरंतर अपने को अकेला जाना
जा सके, पहचाना जा सके, तो फिर भीड़ में भी अकेले हो सकते हैं। और
अगर अकेले होने की कला मालूम न हो,
तो जंगल में भी अकेले नहीं हो
सकते हैं, वहां भी भीड़ मौजूद रहेगी। तो दूसरा प्रयोग
है अकेले होने का। जैसा अभी हमने अंधकार का भाव किया। तो पहले हम अंधकार का भाव
करेंगे एक मिनट। जब अंधकार घिर जाएगा, तब हम
दूसरा भाव करेंगे कि मैं बिलकुल अकेला हूं, अकेला
हूं, एकदम अकेला हूं। कोई भी साथी नहीं, कोई संगी नहीं, कोई मित्र नहीं, कोई है ही नहीं, मैं बिलकुल अकेला हूं। यह अकेले होने का भाव
जितना गहरा होगा उतना मैं अपने निकट आऊंगा। जब तक मैं दूसरे को खोज रहा हूं तब तक
अपने से दूर जा रहा हूं। तो समाधि का दूसरा चरण, मृत्यु
का भी दूसरा चरण है--अकेलेपन का बोध।
अब हम
आंख बंद करें, दूसरे प्रयोग के लिए शरीर को ढीला छोड़ कर
बैठें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद हो गई, शरीर ढीला छोड़ दिया। घने अंधकार को चारों
तरफ घिरा हुआ अनुभव करें। अंधकार है...अंधकार है...चारों तरफ अंधकार है...कोई
दिखाई नहीं पड़ता, कुछ सूझता नहीं, बस अंधकार ही अंधकार है...छोड़ दें अंधकार
में अपने को...
अंधकार
ही अंधकार है और मैं अकेला हूं। दूसरा भाव करें: मैं अकेला हूं। प्राण के
कोने-कोने में यह खबर पहुंच जाए: मैं अकेला हूं। श्वास-श्वास तक यह खबर पहुंच जाए:
मैं अकेला हूं। मन के कण-कण तक यह खबर पहुंच जाए: मैं अकेला हूं। मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं बिलकुल अकेला हूं। अकेला आता हूं, अकेला जाता हूं, मैं अकेला हूं। पांच मिनट के लिए इस भाव में
गहरे से गहरे उतर जाएं। मैं अकेला हूं, मैं
अकेला हूं, मैं बिलकुल अकेला हूं, कोई भी तो नहीं, मैं बिलकुल अकेला हूं, मैं अकेला हूं, कोई भी तो नहीं; संगी, साथी, प्रियजन, कोई भी
तो नहीं। मैं अकेला हूं,
मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं बिलकुल अकेला हूं...
पांच
मिनट के लिए एक ही भाव में डूब जाएं, मैं
अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। और विराट शांति उतर आएगी।
मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। चारों तरफ घनघोर अंधकार है, और मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। जैसे ही बिलकुल अकेले रह
जाएंगे, सब शांत हो जाएगा। ऐसा शांत जैसा कभी नहीं
हुआ। मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं बिलकुल अकेला हूं, चारों तरफ अंधकार और मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, चारों तरफ अंधकार, और मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। मन शांत हो जाएगा, मन बिलकुल शांत हो जाएगा। मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। कोई नहीं, कोई नहीं, बस
अंधकार है और मैं अकेला हूं,
मैं अकेला हूं, चारों ओर अंधकार, अंधकार, अंधकार
और मैं अकेला हूं, मैं बिलकुल अकेला हूं। अकेला हूं, अकेला हूं, अकेला
हूं, चारों ओर अंधकार, और मैं अकेला हूं। मन बिलकुल शांत हो जाएगा।
सब अशांति दूसरे के साथ है,
सब अशांति दूसरे के साथ है।
मैं अकेला हूं तो कैसी अशांति! मैं अकेला हूं, मैं
अकेला हूं। सब शांत हो जाएगा। अकेला हूं, अकेला
हूं, अकेला हूं, अंधकार
है, अंधकार है, और मैं
अकेला हूं। मन शांत हो गया है।
समाधि
की दूसरी सीढ़ी है--अकेले होने का भाव। इस भाव को ठीक से पहचान लें। मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। फिर धीरे-धीरे आंख खोलें, चारों तरफ लोग दिखाई पड़ेंगे, फिर भी लगेगा मैं अकेला हूं। लोग हैं चारों
तरफ, लेकिन मैं अकेला हूं। धीरे-धीरे आंख खोलें, चारों तरफ बड़ा संसार है, लेकिन मैं अकेला हूं।
फिर
तीसरा प्रयोग समझें और पांच मिनट के लिए तीसरे प्रयोग को करें।
अंधकार
मृत्यु का पहला अनुभव है। अकेले होने का, निपट
अकेले होने का अनुभव मृत्यु का दूसरा अनुभव है। और तीसरा अनुभव है उस आदमी के मिट
जाने का जिसे मैंने अब तक जाना था कि मैं हूं, जिसे
मैंने समझा था कि मैं हूं। नाम था जिसका, मकान
था जिसका, इज्जत थी, पता-ठिकाना
था जिसका, मृत्यु का तीसरा अनुभव है उस आदमी का मिट
जाना जिसे मैंने जाना था कि मैं हूं। जरूर, जिसे
हम जानते हैं मैं हूं, उसके पीछे भी कोई है जो कभी नहीं मिटता।
लेकिन उसे हम नहीं जान पाएंगे,
नहीं पहचान पाएंगे, जब तक यह पर्त न मिट जाए जिसे हम जानते हैं
अपना होना।
इसलिए
तीसरा प्रयोग है इस बात के अनुभव का कि मिट गया मैं--वह जो था, जिसे मैं जानता था; जिसका चेहरा था, शक्ल थी, पहचान
थी, नाम था, ठिकाना
था--मिट गया, मिट गया। मैं मिट गया हूं, क्योंकि मैं अपने को जैसा जानता हूं वह
मृत्यु में मिट जाएगा। समाधि में इस तीसरे अनुभव को तीव्रता से उतारना है कि मैं
मिट गया हूं, मैं मर गया हूं, मैं मर गया हूं। तीसरा अनुभव मिटने का अनुभव
है। जब अंधकार पूरा हो जाएगा और मैं बिलकुल अकेला रह जाऊंगा, तब मिटना बहुत आसान होगा। और जब मैं मिट भी
जाऊंगा, तब जो शेष रह जाएगा, वही है, दि
रिमेनिंग, वह जो पीछे बच जाता है। जिसे अंधकार डुबा
नहीं पाता, जिसे अकेले होने से कुछ टूटता नहीं, और जिसके मर जाने से भी कुछ मिटता नहीं, फिर जो पीछे रह जाता है वह है। तीसरा प्रयोग
है मिटने का। और जब आप मिट जाएं,
मिट गए हों, तो आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं, आपके करने का कुछ बाकी नहीं रह जाता है। फिर
आप रह जाते हैं। जो रह जाएगा,
रह जाएगा; जो खो जाएगा वह खो जाएगा। तो इस तीसरे
प्रयोग को सर्वाधिक केंद्र पर समझना चाहिए समाधि के, मिट
जाने का।
एक
फकीर लोगों को समाधि के संबंध में समझाता था। लेकिन वह कहता था, जो थोड़ा जानता हो वही मेरे पास आए। एक युवक
उसके पास गया है। उस युवक ने कहा,
मुझे सीखनी है समाधि। उसने
कहा, कुछ थोड़ा जानते हो तो आओ। लेकिन वह युवक कुछ
भी न जानता था। तो उस फकीर ने उसे द्वार के बाहर करके द्वार बंद कर लिए। उस युवक
ने सोचा कि मैं कैसे बताऊं कि मैं कुछ जानता हूं? मैं
कुछ जानता नहीं। उसने पास-पड़ोस में जाकर लोगों से पूछा कि क्या कहने से फकीर मुझे
स्वीकार कर लेगा? तो उन लोगों ने कहा कि जहां तक हमें पता है, फकीर सिखाता है कि समाधि यानी मर जाना। तो
तुम जाकर, जब फकीर कहे, कुछ
जानते हो? तो गिर पड़ना और मर जाना। तो उसने कहा, ऐसे कैसे मरूंगा? गिर पड़ सकता हूं, लेकिन मरूंगा कैसे? तो उन्होंने कहा, तुम तो आंख बंद करके पड़ जाना। तो फकीर
समझेगा कि थोड़ा तो जानते हो।
वह
युवक गया। सीख कर आया था। सीखा हुआ सदा झूठा होता है। दूसरे से सीखा हुआ कैसे काम
पड़े? जैसे ही उस गुरु ने पूछा, कुछ जानते हो? वह
तत्काल गिरा और मर गया। मर गया यानी आंख बंद करके, हाथ-पैर
ढीले छोड़ कर पड़ा रह गया। गुरु ने कहा, बिलकुल
ठीक! बिलकुल ठीक! लेकिन कम से कम एक आंख तो खोलो! तो उस युवक ने सोचा: शायद यह
जरूरी होगा समाधि में एक आंख खोलना। पर एक आंख खुलती नहीं, एक खोली तो दोनों आंखें खुल गईं। उस गुरु ने
कहा, उठो और बाहर निकल जाओ! किससे सीख कर आए हो? कहीं मुर्दा आदमी आंख खोलता है! अगर मर ही
गए थे तो मर ही जाना था। आंख क्यों खोली? मरा
हुआ आदमी कुछ भी नहीं करता है!
तीसरा
जो प्रयोग है कि मर ही गए,
तो उसका मतलब है कि फिर पांच
मिनट आपको कुछ नहीं करना है। अगर शरीर गिरे तो गिर जाए, झुके तो झुक जाए, जो हो हो। अगर बाहर कोई आवाज आ रही है, सड़क से कार निकल रही है, सुनाई पड़ रही है, सुनते रहें। मरा हुआ आदमी कुछ नहीं कर सकता, यह भी तो नहीं कह सकता कि यह कार आवाज नहीं
करनी चाहिए। कर रही है, मरा हुआ आदमी क्या करेगा? मरा हुआ आदमी पड़ा हुआ रहेगा। जो सुनाई पड़
रहा है, सुनाई पड़ेगा; नहीं
सुनाई पड़ रहा है, नहीं सुनाई पड़ रहा है। चीजें जैसी हैं वैसी
ही स्वीकार कर लेगा। मरा हुआ आदमी कुछ भी तो नहीं कर सकता।
एक और
फकीर के संबंध में मैंने सुना है कि वह फकीर सदा दूसरों से पूछा करता था। उसने एक
दिन गांव में एक ज्ञानी आया और उससे पूछा कि किसी दिन मैं मर जाऊं तो मुझे कैसे
पता चलेगा कि मैं मर गया?
तो मुझे कोई तरकीब बता दें
जिससे मैं जांच कर लूं कि मैं मर तो नहीं गया हूं! तो उस ज्ञानी ने कहा, यह भी कोई जांच करने की बात है, जब मरोगे तो हाथ-पैर बिलकुल ठंडे हो जाएंगे।
ठंड के
दिन थे, बर्फ पड़ रही थी। वह फकीर जंगल में घास काटने
गया था, कुछ लकड़ी काटने गया था। हाथ ठंडे हो गए।
उसने हाथ छुआ, उसने देखा, मालूम
होता है मौत आ रही है। उसने कुल्हाड़ी नीचे पटक दी और एक वृक्ष पर लेट गया, क्योंकि मरे हुए आदमी को लेट जाना चाहिए।
नियमानुसार वह लेट गया। हाथ ठंडे होते गए, लेट
जाने से और जल्दी ठंडा हो गया,
कुल्हाड़ी चलाता था तो थोड़ी
गर्मी भी थी। जब बिलकुल ठंडा हो गया तो उसने कहा कि अब तो मर ही गए। पड़ोस से कुछ
लोग निकलते थे रास्ते से,
उन्होंने देखा, बेचारा कोई मर गया। तो वे उसकी अरथी बना कर, परदेशी लोग थे, मरघट ले जाने लगे।
अब उस
फकीर ने कहा, हम क्या करें! जब मर ही गए हैं, तो मरघट तो ले जाए ही जाएंगे। तो वह कुछ भी
न बोला। वह अरथी पर सवार हो गया। अरथी चली, लेकिन
अजनबी लोग थे, परदेशी लोग थे, उन्हें पता न था मरघट का रास्ता कौन सा है।
चौरस्ते पर आकर वे सोचने लगे,
कोई यात्री निकले तो हम पूछ
लें मरघट का रास्ता कौन सा है। फकीर को तो पता था कि रास्ता कौन सा है, लेकिन उसने कहा कि पता नहीं मुर्दे बताते
हैं या नहीं बताते। मगर यह वह ज्ञानी से पूछना भूल गया था कि मुर्दे, अगर कोई ऐसा अवसर आ जाए, तो कुछ बता सकते हैं कि नहीं। लेकिन बड़ी देर
हो गई, कोई नहीं आया, तो वे
चारों बड़े परेशान हो गए जो उठा कर ले गए थे। उन्होंने कहा, बड़ी देर हुई जाती है। तो फिर इसको अपन यहीं
छोड़ दें और अपने-अपने रास्ते पर जाएं, कोई
दूसरा पहुंचा देगा। फकीर ने कहा,
घबड़ाओ मत! रास्ता मुझे मालूम
है। जब मैं जिंदा हुआ करता था,
तो बाएं तरफ के रास्ते से लोग
मरघट जाते थे। जब मैं जिंदा हुआ करता था, तब
बाएं तरफ के रास्ते से लोग मरघट जाते थे। तब तो वे चारों घबड़ा कर भाग खड़े हुए--कि
यह क्या हो गया है! उस फकीर ने कहा,
तुम बिलकुल पक्का मानो, मैं मरा हुआ आदमी हूं। सिर्फ यह ज्ञानी से
पूछना भूल गया था कि मरा हुआ आदमी कुछ बता सकता है कि नहीं बता सकता है। इतनी भर
भूल है।
मरे
हुए होने का पांच मिनट जो हम अनुभव करेंगे, उसमें
कुछ भी नहीं करना है, जो हो जाए उसे होने देना है। रास्ता भी नहीं
बताना है। रास्ते से कोई गुजरता हुआ हो हार्न, तो यह
भी नहीं सोचना है कि लोग शोर क्यों कर रहे हैं। कोई आपके ऊपर गिर भी जाए, तो भी नहीं सोचना है कि यह क्यों गिर गया।
मुर्दे को स्वीकार कर लेना चाहिए--जो हो रहा है, हो रहा
है। पांच मिनट के लिए मुर्दा होने का प्रयोग करें। फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
शरीर
को ढीला छोड़ें और आंख बंद कर लें। शरीर को ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें। आंख बंद कर लें, शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। अभी छोड़ सकते
हैं, अभी मर नहीं गए। मर गए, फिर कुछ भी न कर सकेंगे। बिलकुल ढीला छोड़
दें। शरीर ढीला छोड़ दिया है,
आंख बंद कर ली है। एक मिनट के
लिए अंधकार को लौटा लें। चारों ओर अंधकार ही अंधकार है...चारों ओर अंधकार ही
अंधकार है...अंधकार ही अंधकार है...फिर दूसरा भाव कर लें: मैं अकेला हूं, कोई संगी-साथी नहीं, मैं बिलकुल अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं बिलकुल अकेला हूं। और तीसरा अनुभव करें:
मैं मर रहा हूं, मैं खो रहा हूं, मैं मिट रहा हूं, मैं मिटा जा रहा हूं, मैं मर रहा हूं, मैं समाप्त हो रहा हूं, मैं मर रहा हूं, मैं मिट रहा हूं, मैं समाप्त हो रहा हूं। पांच मिनट के लिए
मैं मर रहा हूं, मैं मिट रहा हूं, मैं समाप्त हो रहा हूं...
मिट
जाएं, बिलकुल मिट जाएं, जैसे हैं ही नहीं। मर जाएं, जैसे बचे ही नहीं। फिर जो बचेगा, बच रहेगा। वह आप नहीं हैं, वह जो बचा है वह परमात्मा है। वह जो बचेगा
वह आप नहीं हैं, वह जो बचा है वह आत्मा है। मिट जाएं, बिलकुल मर जाएं, मैं हूं ही नहीं। मैं मर गया हूं, मैं मर गया हूं, मैं मर गया हूं। बिलकुल मिट जाएं। शरीर गिरे, गिर जाए...शरीर आगे झुके, झुक जाए...अब मरा हुआ आदमी कुछ भी नहीं कर
सकता, जो हो रहा, हो रहा
है। मैं मर गया हूं, मैं मर गया हूं, मैं बिलकुल मिट गया हूं। मर ही जाएं, मिट ही जाएं, कुछ भी
नहीं बचा।
पांच
मिनट के लिए खो जाएं, समाप्त हो जाएं। मैं मर गया हूं, मैं मर गया हूं, मैं हूं ही नहीं। मैं मिट गया हूं, मैं समाप्त हो गया हूं, मैं मर गया हूं, मैं मिट गया हूं, मैं समाप्त हो गया हूं, मैं मिट गया हूं, मैं मर गया हूं, मैं हूं ही नहीं। छोड़ दें, बिलकुल मिट जाएं, अपने को छोड़ दें, हूं ही नहीं, मिट
गया हूं, समाप्त हो गया हूं। और एक अपूर्व शांति
प्राणों पर छा जाएगी। एक अलौकिक शांति मन पर छा जाएगी।
मैं मर
गया हूं, मैं मिट गया हूं। अब कुछ भी नहीं कर सकता
हूं। हूं ही नहीं। छोड़ दें,
छोड़ दें, बिलकुल मिट जाएं। मैं मर गया हूं, मैं मिट गया हूं, मैं हूं ही नहीं, मैं हूं ही नहीं। जो है वह है, मैं नहीं हूं, मैं
नहीं हूं। जो है वह है, मैं नहीं हूं, मैं
मिट गया हूं। और देखें कैसी शांति,
कैसी शांति सब तरफ से उतर आती
है। मैं मर गया हूं, मैं मिट गया हूं, मैं हूं ही नहीं, मैं बिलकुल मिट गया हूं। मैं मिट गया हूं, मैं मिट गया हूं, मैं हूं ही नहीं, मैं नहीं हूं, मैं
नहीं हूं, मैं बिलकुल नहीं हूं। मन शांत हो गया है, मन बिलकुल शांत हो गया है। मैं मिट गया हूं, मैं मर गया हूं, मैं हूं ही नहीं। मैं बिलकुल मिट गया हूं, मैं मर गया हूं। इस भाव को ठीक से पहचान लें, यह समाधि का केंद्र है। इस भाव को ठीक से
पहचान लें, मैं मिट गया हूं, मैं समाप्त हो गया हूं, मैं हूं ही नहीं। और मन बिलकुल शांत हो गया।
अब
धीरे-धीरे आंखें खोलें...। भीतर सब कुछ मिट गया है। धीरे-धीरे आंखें खोलें...। अब
जो आंखों से देख रहा है,
वह मैं नहीं हूं।
ये तीन
सूत्र हैं समाधि के लिए।
पहला:
अंधकार। दूसरा: अकेला होना। तीसरा: समाप्त हो जाना।
अब हम
अंतिम दस मिनट के लिए इन तीनों प्रयोगों को एक साथ, ये तीन
मैंने समझाने के लिए अलग-अलग आपको प्रयोग कराए कि आपके खयाल में आ जाएं, अब इन तीनों का सम्मिलित प्रयोग दस मिनट के
लिए हम करेंगे। उस समय बिलकुल ही अपने को छोड़ देना है, जैसे खो ही गए, बचे ही नहीं। आवाज आती रहेगी, बाहर मशीन चलती है, कोई सड़क से गुजरेगा, कहीं कोई पक्षी आवाज करेगा, उसे चुपचाप सुनते रहना है। जो हो रहा है, हो रहा है, और हम
समाप्त हो गए हैं।
अब
अंतिम प्रयोग के लिए बैठें। आंख बंद कर लें और शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर
लें और शरीर को ढीला छोड़ दें। चारों ओर अंधकार है, चारों
ओर अंधकार है, मैं बिलकुल अकेला हूं, कोई संगी नहीं, साथी नहीं। ढीला छोड़ दें बिलकुल, मिटने की तैयारी करनी है, बिलकुल ढीला छोड़ दें। अनुभव करें: शरीर
शिथिल हो रहा है, शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है। अंधकार
है घना, चारों ओर अंधकार ही अंधकार है, मैं बिलकुल अकेला हूं, कोई संगी नहीं, साथी नहीं। और मर रहा हूं, मिट रहा हूं, समाप्त
हुआ जा रहा हूं। जैसे कोई बूंद किसी सागर में मिट जाती है। उस मिटने के लिए तैयार
हो जाएं। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें, अनुभव
करें शरीर शिथिल हो रहा है,
शरीर शिथिल हो रहा है। बिलकुल
ढीला छोड़ते जाएं, मिटना ही है, बिलकुल
ढीला छोड़ दें, शरीर शिथिल हो रहा है। गिरे, गिर जाए; झुके, झुक जाए; जो हो, हो। शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है। चारों ओर अंधकार ही
अंधकार है, मैं बिलकुल अकेला हूं, एकदम अकेला हूं। शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है। श्वास शांत होती जा
रही है, श्वास शांत होती जा रही है। मन शांत होता जा
रहा है, मन शांत होता जा रहा है। अब दस मिनट के लिए
बिलकुल मिट जाएं, जैसे हैं ही नहीं। मैं मर गया हूं, मैं नहीं हूं, मैं मर
गया हूं, मैं नहीं हूं। आवाज सुनाई पड़ती रहेगी, सुनते रहें। मरा हुआ आदमी कुछ भी नहीं कर
सकता। जो हो रहा है उसे जान लेता है, स्वीकार
कर लेता है। दस मिनट के लिए बिलकुल मिट जाएं। और इस मिटने से एक बिलकुल नई शांति, नया आनंद, और एक
नया अनुभव जन्मेगा। मिट जाएं,
मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं, मैं बिलकुल मिट गया हूं...
अंधकार
ही अंधकार है...अंधकार ही अंधकार है...और मैं बिलकुल मिट गया हूं, मैं हूं ही नहीं। सब शांत हो जाएगा। भीतर एक
अनूठा आनंद उठने लगेगा। मैं मर गया हूं, मैं मर
गया हूं, मैं बिलकुल मिट गया हूं।
छोड़
दें...छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...। मैं मिट गया हूं, मैं मिट गया हूं, मैं बिलकुल मिट गया हूं, मैं हूं ही नहीं, मैं नहीं हूं, मैं
नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं
नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं
नहीं हूं, मैं नहीं हूं, मैं
नहीं हूं, मैं हूं ही नहीं, मैं हूं ही नहीं, मैं हूं ही नहीं। सब शांत हो गया है। और एक
गहरे आनंद की लहर भीतर उठने लगेगी। सब शांत हो गया है। मैं नहीं हूं...
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