तीसरा
प्रवचन
एकाकीपन
का बोध
मेरे
प्रिय आत्मन्!
समाधि
है जीते जी मृत्यु को अनुभव कर लेना। लेकिन जो जीते जी मृत्यु को जान लेता है, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। इस संबंध में
कल मैंने कुछ आपसे कहा था। बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। उन प्रश्नों के माध्यम से
ही जो मुझे आज कहना है, वह आपसे मैं कहूंगा।
एक
मित्र ने पूछा है कि रात की समाधि के प्रयोग में, मैं मर
रहा हूं या मर गया हूं, अगर मैं, यानी
साक्षी हूं, तो वह साक्षी कैसे मर सकता है? यह भावना करने का क्या अर्थ है?
जो
साक्षी है वह मैं नहीं हूं। और जब मैं मर जाऊंगा, न हो
जाऊंगा, शून्य हो जाऊंगा, तब जो शेष रह जाएगा, वही साक्षी है। इसलिए कोई साक्षी नहीं बन
सकता है। अगर बनूंगा, तो मेरा अहंकार ही मौजूद रहेगा। अगर मैंने
कहा, मैं साक्षी हूं, तो साक्षी अभी पैदा ही नहीं हुआ। क्योंकि
साक्षी तो वह है जो यह भी देख रहा होगा; यह
"मैं साक्षी हूं,' इस बात को भी जो देख रहा है, वह साक्षी है। मैं को भी जो जानता है, वह साक्षी है। इसलिए साक्षी कभी मैं नहीं
है। यह मुझे पता चलना कि मैं हूं,
यह भी जो मेरे पीछे चेतना है, उसका बोध है।
जब तक
मैं हूं, तब तक साक्षी का पता नहीं चलेगा। मुझे तो
मिटना ही पड़ेगा, मुझे तो समाप्त होना ही पड़ेगा। मेरे मिटने
पर ही, मेरे हट जाने पर ही साक्षी प्रकट होगा।
साक्षी मौजूद है, आत्मा मौजूद है, वह जिसे हम ब्रह्म कहें, वह भीतर मौजूद है। लेकिन मेरे मैं की पर्त
में दबा हुआ है। जैसे पानी पर,
जैसे आपकी नदी पर, पिछले दो वर्ष पहले मैं आया था, तो पत्तों से ढंकी थी सारी नदी, पानी दिखाई नहीं पड़ता था। नीचे थी नदी, ऊपर थे पत्ते। पानी का कोई पता न चलता था, पत्तों ने सब ढांक दिया था। लेकिन जरा सा
पत्ता हटाएं और नीचे से नदी झांकने लगे। साक्षी है भीतर, उसकी अनंत धारा है, लेकिन मैं के पत्तों ने सब तरफ से ढांक दिया
है। थोड?ा सा हटाएं मैं को, नीचे से साक्षी झांकने लगेगा।
ध्यान
रहे, इस बात को समझ लेना बहुत जरूरी है कि मैं
कभी साक्षी नहीं हो सकता हूं,
जो साक्षी है उसके सामने मैं
भी खो जाऊंगा। मैं कभी परमात्मा से नहीं मिल सकता हूं, क्योंकि मैं ही उससे मिलने में बाधा हूं। जब
मैं नहीं रह जाऊंगा, तभी उससे मिलना हो सकता है। मैं मिटूं तो ही
उसकी उपलब्धि है। और यही सबसे बड़ी कठिनाई है कि मैं कैसे मिटूं? मैं हूं! मैं मिटूं कैसे?
अगर
मैं सच ही होता, तो मिटना असंभव था। लेकिन मैं हूं नहीं, कंसट्रक्टेड हूं, बनाया हुआ हूं। सिर्फ खयाल है मुझे कि मैं
हूं, मैं हूं नहीं। सिर्फ खयाल है इस बात का कि
मैं हूं। और यह खयाल हमने एक व्यवस्था से पैदा किया है। यह खयाल एक बाइ-प्रोडक्ट
है। यह मेरे होने की जो धारणा है,
यह सिर्फ सपने में निर्मित एक
भाव है। हम बहुत सी बातें निर्मित कर लेते हैं।
हम
यहां बैठे हैं, हम कह सकते हैं, एक समाज यहां बैठा है। लेकिन एक-एक व्यक्ति
इस कमरे के बाहर चले जाएं,
फिर हम पीछे पूछें कि समाज
कहां है? क्योंकि जो गए उसमें एक-एक व्यक्ति गया, समाज तो बाहर निकला ही नहीं। अब समाज कहां
है? तो हम कहेंगे कि समाज तो अब कहीं भी नहीं है, क्योंकि समाज केवल व्यक्तियों का जोड़ था।
समाज का अपना कोई अस्तित्व न था। समाज सिर्फ एक संज्ञा था, एक शब्द था।
एक
छोटी सी घटना से मैं समझाऊं।
एक
भिक्षु हुआ नागसेन। मिलिंद नाम के सम्राट ने उसे अपने दरबार में आमंत्रित किया था।
रथ भेजा है उसे लेने, नागसेन रथ पर बैठ कर आया। लेकिन जब निमंत्रण
गया मिलिंद का, नागसेन को मिलिंद के राजदूतों ने कहा कि
सम्राट ने निमंत्रण किया है,
और कहा है, भिक्षु नागसेन आएं, हम उनका स्वागत करेंगे। तो नागसेन बहुत
हंसने लगा और उसने कहा, आ जाऊंगा जरूर, लेकिन भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं।
तो उन
राजदूतों ने कहा, फिर आएगा कौन?
नागसेन
ने कहा, आ जाऊंगा जरूर, लेकिन भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं। जाकर
सम्राट से इतना कह देना।
सम्राट
ने कहा, किस पागल को हमने बुला लिया! हम तो भिक्षु
नागसेन को ही बुलाए हैं। अगर वह है ही नहीं तो आएगा कौन? फिर कहा, ठीक है, आने दें।
राज-द्वार
पर स्वागत किया नागसेन का। नागसेन रथ से उतरा। सम्राट ने पूछा, आ गए आप, मैं
भिक्षु नागसेन का स्वागत करता हूं।
फिर वह
हंसा और उसने कहा, आ तो गया हूं, लेकिन
भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं।
तो
सम्राट ने कहा, आप पहेली बना रहे हैं! अगर भिक्षु नागसेन
नहीं है, तो कौन आया है?
तो उस
नागसेन ने कहा कि यह रथ दिखाई पड़ता है, जिस पर
मैं आया?
सम्राट
ने कहा, दिखाई पड़ता है।
भिक्षु
नागसेन ने कहा, इसके घोड़ों को अलग खोल दो। घोड़े खोल दिए गए
और नागसेन ने सम्राट से पूछा,
ये घोड़े रथ हैं?
सम्राट
ने कहा, घोड़े रथ नहीं हैं।
घोड़े
अलग कर दिए गए। नागसेन ने कहा,
इसके पहियों को भी निकाल
डालो।
सम्राट
ने कहा, मतलब क्या है आपका?
पहिए
निकाल डाले। उस नागसेन ने कहा,
ये पहिए रथ हैं?
सम्राट
ने कहा, पहिए रथ नहीं हैं।
फिर रथ
की एक-एक चीज निकलने लगी,
एक-एक चीज निकलने लगी। और वह
पूछने लगा, यह है रथ? यह है
रथ? धीरे-धीरे सब चीजें निकल गईं। और रथ तो कोई
भी न था उनमें से। पीछे कुछ भी न बचा। फिर उस नागसेन ने कहा, रथ कहां है तुम्हारा?
रथ तो
नहीं था। तो सम्राट ने कहा,
रथ अब नहीं है।
उस
नागसेन ने कहा, और जितनी चीजें निकलीं, सब पर आपने कहा, यह रथ नहीं है। फिर अब रथ कहां है? रथ पीछे बचना चाहिए।
तो
सम्राट ने कहा कि रथ उन सभी चीजों का जोड़ था। रथ का अपना कोई होना नहीं है। घोड़े
थे, पहिए थे, और सब
था, सबका जोड़ रथ था।
वह
नागसेन कहने लगा, मैं भी स्मृति और विचारों का जोड़ हूं, ज्यादा नहीं। और एक-एक स्मृति, एक-एक विचार को निकाल दूं, तो फिर मैं नहीं बचता हूं। फिर जो बचता है
वह भिक्षु नागसेन नहीं है,
वह परमात्मा ही है। भिक्षु
नागसेन परमात्मा के ऊपर जुड़े हुए शब्दों का जोड़ है।
हम भी
शब्दों के जोड़ हैं। बचपन से मौत तक,
मरने तक, हम शब्दों को इकट्ठा कर रहे हैं। मेरा नाम!
जो कि एक झूठ है। कोई नाम लेकर पैदा नहीं होता। लेकिन एक शब्द चिपक जाता है। मेरे
घर का पता! कौन सा है मेरा घर?
किसी भी घर में मुझे बड़ा किया
जाता, वही मेरा घर हो जाता। मतलब यह कि मेरा कोई घर
नहीं है। जिस घर की छाप मेरे मन पर बचपन से पड़ गई है, वही मेरा घर हो गया। कौन सा है मेरा देश? जिस देश में मैं आंखें खोलता, वही देश मेरा हो जाता। मतलब मेरा कोई देश
नहीं है। आंखों ने पहली दफा जिस भूमि को पकड़ लिया, एक्सपोजर
जिस भूमि पर आंख का पहले हो गया,
वही है मेरा देश। कौन हैं
मेरे प्रियजन? कौन हैं मेरे संबंधी? वे ही जिन पर मेरी आंखें खुलीं और जिनकी
तस्वीरें मैंने पकड़ लीं। इन सबका जोड़ इकट्ठा हो गया है। अगर इसमें से एक-एक चीज को
निकालने लगें और पूछने लगें,
कौन हूं मैं? तो कोई भी पता न चलेगा। जब सब जोड़ खाली हो
जाएगा, रथ का सब सामान निकल जाएगा, तब बड़ी मुश्किल हो जाएगी पूछना कि कौन हूं
मैं? तब कोई उत्तर न आएगा, फिर भी कुछ शेष रह जाएगा। वही शेष रह जाएगा
जो मेरे जन्म के भी पहले था और जो मेरे मरने के भी बाद होता है। लेकिन मैं बिखर
जाऊंगा, मैं नहीं रह जाऊंगा। मैं एक जोड़ है।
वैज्ञानिक
कुछ प्रयोग करते थे। मुर्गी का बच्चा पैदा होता है, फिर
एकदम से अपनी मां के पीछे भागने लगता है। उसे कुछ पता नहीं कि उसकी मां कौन है, वह भागने क्यों लगता है अपनी मां के पीछे? तो सदा हम ऐसा ही सोचते थे कि बच्चे को किसी
तरह पता होना चाहिए कि उसकी मां यह है, इसलिए
भागने लगता है। तो वैज्ञानिकों ने एक काम किया, मुर्गी
के अंडे से बच्चा निकला--मुर्गी तो नहीं थी उसके पास, उसकी मां को तो हटा दिया, एक गैस भरा हुआ गुब्बारा उसकी जगह रखा हुआ
था--हवा फिरती, गुब्बारा उड़ा, सरका, मुर्गी का बच्चा गुब्बारे के पीछे भागा। फिर
बड़ी मुश्किल हो गई। फिर वह गुब्बारे को मां समझने लगा और मां को पहचानना मुश्किल
हो गया। पहला एक्सपोजर गुब्बारे का हो गया।
फिर
वैज्ञानिक इस खयाल पर पहुंचे कि पहली दफा चेतना, जैसे
कैमरे का लेंस खुलता है और चित्र पकड़ जाते हैं, ऐसा ही
जो पहला एक्सपोजर है वह मां है। पहला होने की वजह से उससे लगाव बहुत गहरा है। फिर
सब एक्सपोजर उसके बाद, फिर कैमरा बाद में खुलेगा। इसलिए बच्चा मां
से सदा के लिए सबसे गहरा बंधा रह जाता है। वह पहली दफा उसके मन की, मन ने पहला चित्र उसका लिया है। वह उसके मन
में गहरा बैठ जाता है। फिर वह मुर्गी के पीछे नहीं भागता था वह बच्चा, वह गुब्बारे के पीछे भागता था। वह गुब्बारे
के पास सट कर सोने की कोशिश करता था, जैसे
अपनी मां के पास सोने की कोशिश की होती। फिर बहुत उपाय किए उसे समझाने के कि यह
तेरी मां नहीं है, लेकिन उसके लिए तो गुब्बारा मां हो चुका था।
वह
बच्चा मर गया, क्योंकि वह अपनी मां को फिर नहीं समझ पाया
कि उसकी मां है। मोमेंट ऑफ एक्सपोजर, एक
क्षण है जब हमारा चित्त खुलता है और कुछ पकड़ लेता है। बचपन से हमारा चित्त खुलता
रहता है, पकड़ता रहता है। फिर जो भी इकट्ठी हो गई है
स्मृति, उसके जोड़ का नाम है मैं। अगर आपकी सारी
स्मृति छीनी जा सके, किसको कहिएगा कि मैं हूं? फिर बताना मुश्किल हो जाएगा कि मैं कौन हूं।
मैं, मैं कोई सच्चाई नहीं है, मैं स्मृतियों का एलबम है, जोड़ है। और जब तक यह जोड़ हमें सबसे ज्यादा
सत्य मालूम पड़ता है, तब तक इस जोड़ के पीछे जो है उसका पता न
चलेगा। झील पर फैले हुए पत्तों को ही सब कुछ समझ रखा है हमने, हमें झील का कोई पता न चलेगा। पत्ते हटाना
पड़ेंगे, झील को उघाड़ना पड़ेगा।
परमात्मा
हमसे कहीं वहां दूर नहीं है,
परमात्मा हमसे यहां दूर है, भीतर की तरफ। वह जहां हमने मैं को इकट्ठा कर
रखा है, उससे नीचे दबा है। परमात्मा मैं के नीचे दबा
है। जैसे पेपर वेट के नीचे पन्ने दबे हों और तड़प रहे हों, हवा चलती हो और पन्ने तड़पते हों और पत्थर
दबाए हो, ऐसे पूरे वक्त हमारे भीतर परमात्मा तड़प रहा
है। और मैं का पत्थर उसे दबाए हुए है।
समाधि
में मैं को खो देना पड़ता है। मैं खो जाता है, पन्ने
उड़ जाते हैं, तड़प मिट जाती, भीतर
जो छिपा है वह प्रकट हो जाता है।
साक्षी
आप नहीं बनेंगे, जब आप नहीं रहेंगे तो जो शेष रह जाएगा, दि रिमेनिंग, वह
साक्षी होगा। इसलिए साक्षी को कभी पता नहीं चलता कि मैं साक्षी हूं। मैं तो साक्षी
हो ही नहीं सकता। मैं जब नहीं होता हूं, तब जो
होता है उसका नाम साक्षी है। तो जब मैं कह रहा हूं मैं को मिटा दें, तो मेरा मतलब कुल इतना है कि मैं को ठीक से
पहचान लें, यह सत्य नहीं है, यह सिर्फ स्मृति का जोड़ है।
मेरे
एक मित्र हैं, डाक्टर हैं। ट्रेन से चल रहे थे, भीड़ थी और बाहर डंडे पकड़ कर लटके हुए थे।
गिर पड़े, हाथ छूट गया, सिर
में चोट लगी, स्मृतियां खो गईं अपना नाम भी भूल गए। बचपन
से मेरे साथ पढ़े थे, गांव गया, उन्हें
देखने गया। वे मुझे ऐसे देखने लगे जैसे कभी न देखा हो। वे एक्सपोजर जो थे वे मिट
गए, वह जो स्मृति थी वह खो गई। वे मुझसे पूछने
लगे, कौन हैं आप? कैसे
आए? वे किसी को न पहचानते थे--पत्नी को न
पहचानते थे, बेटे को न पहचानते थे, पिता को न पहचानते थे, वे सब भूल गए थे। सब भूल गए थे, वे अपने को न पहचानते थे। उनसे पूछिए, कौन हैं आप? तो वे
ऐसा हाथ करते थे, कुछ मुझे पता नहीं कौन हूं मैं।
मैं
कहां गया? लेकिन वे तो अब भी हैं, मैं कहां गया? वह जो
जोड़ा था, बनाया था, वह गया, वह बिखर गया, वह खो
गया। चोट खा गया मस्तिष्क और जहां स्मृति इकट्ठी थी वह केंद्र टूट गया। उसके
केंद्र के टूट जाने से बिखर गई बात। चोट से अगर केंद्र टूटे तो आदमी विक्षिप्त हो
जाता है। क्योंकि उसे भीतर का भी पता नहीं चलता और जिसे वह जानता था कि मैं हूं वह
भी टूट जाता है, वह मुश्किल में पड़ जाता है।
लेकिन
अगर हम अपनी समझ से मैं को विसर्जित कर दें--समझ से--तो भीतर का पता चल जाता है।
समझ से न करें, टूट जाए...तोड़ा जा सकता है। अब तो ब्रेन-वॉश
के बहुत उपाय ईजाद हो गए हैं। चीन में बड़े जोर से प्रयोग कर रहे हैं वे। आदमी के
दिमाग को पोंछा जा सकता है। जैसे हम टेप-रिकार्ड को वापस पोंछ कर साफ कर लेते हैं, ऐसे मस्तिष्क की स्मृति को भी पोंछा जा सकता
है। बड़ी खतरनाक ईजाद है आदमी के हाथ में। जो हमारा दुश्मन है, सरकार के हाथ में ताकत हो तो उसके दिमाग को
वॉश कर दे, साफ कर दे! वह भूल ही जाए कि वह कौन है, विचार क्या हैं, स्मृति क्या है। वह क ख ग से उसे सीखना पड़े, फिर से सीखना पड़े, फिर नया मैं बनाना पड़े।
मैं
हमारा वास्तविक तत्व नहीं है। मैं के पीछे हमारा वास्तविक तत्व है। लेकिन जब तक
हमारी नजर मैं पर लगी रहेगी,
तब तक पीछे नजर न जाएगी।
इसलिए
समाधि मैं से नजर को हटा कर पीछे की तरफ ले जाने के लिए है, समाधि का मतलब है कि मैं नहीं हूं। फिर क्या
है? उसे जानना है। यदि मैं न रहूं तो फिर क्या
है? उसे जानना है, उसे
पहचानना है।
बुद्ध
की मृत्यु करीब आई। तो उनके प्रियजन, उनको
प्रेम करने वाले भिक्षु,
उनके शिष्य और उनके श्रद्धालु
लाखों की तादाद में इकट्ठे हो गए और वे रोने लगे। बुद्ध ने कहा, तुम किसके लिए रोते हो? उसके लिए जो था ही नहीं या उसके लिए जो फिर
भी रहेगा? बड़ी अजीब बात उन्होंने पूछी! उसके लिए रोते
हो जो था ही नहीं या उसके लिए जो फिर भी रहेगा--किसके लिए रोते हो?
एक
भिक्षु ने कहा, हम आपके लिए रोते हैं। आप मरने के करीब हैं, आप मिटने के करीब हैं।
बुद्ध
ने कहा, जो मिटने के करीब है वह था ही नहीं। क्योंकि
वही मिट सकता है जो रहा ही न हो;
जो है उसे मिटाने का कोई उपाय
नहीं।
एक रेत
के छोटे से कण को भी हम नहीं मिटा सकते। हमने हाइड्रोजन बम तो बना लिया है, लेकिन हम रेत के एक छोटे से कण को भी नहीं
मिटा सकते। मिटा नहीं सकते,
अस्तित्व के बाहर नहीं भेज
सकते। वह रहेगा। जो है वह रहेगा। सिर्फ वही मिट सकता है जो न रहा हो। कंसट्रक्शंस
मिट सकते हैं, संयोग मिट सकते हैं। हम एक कुर्सी को मिटा
सकते हैं, क्योंकि कुर्सी एक जोड़ थी। चार लकड़ी के टुकड़ों को कीलें ठोंक कर हमने
खड़ा कर दिया था। कुर्सी थी नहीं,
सिर्फ जोड़ थी। मिट सकती है।
लेकिन कुर्सी जिस तत्व से बनी है वह नहीं मिट सकता। लकड़ी भी मिट सकती है, क्योंकि वह भी जोड़ थी। लकड़ी के और गहरे में
जो एलिमेंट्स हैं, वे नहीं मिट सकते। अगर वे भी मिट सकते हैं
तो उनके भी गहरे में जो और गहरे में अणु हैं, परमाणु
हैं, वे नहीं मिट सकते। अगर वे भी मिट सकते हैं
तो वे भी जोड़ हैं। जो भी मिट सकता है वह जोड़ है। और नीचे जाना पड़ेगा, और नीचे जाना पड़ेगा। इलेक्ट्रांस नहीं मिट
सकते, एनर्जी नहीं मिट सकती, शक्ति नहीं मिट सकती। वही सत्य है। जो नहीं
मिट सकता है वही सत्य है। जो सदा था और सदा रहेगा वही सत्य है।
हमें
अपने भीतर भी उसे खोज लेना है जो नहीं मिट सकता है। लेकिन उसे हम तभी खोज पाएंगे, जब हम उसे पहचान लें जो मिट सकता है। अगर
हमने जो मिट सकता है उसी के साथ आइडेंटिटी कर ली है, हमने
समझ लिया है कि यही मैं हूं,
तो फिर, तो फिर बहुत कठिनाई है, सत्य का हमें कोई पता न चलेगा।
मृत्यु
से हम डरते क्यों हैं? हम डरते इसीलिए हैं कि जिसे हमने समझ रखा है
मैं हूं, वह तो मरेगा, उसे तो
कोई नहीं बचा सकता, उसका मिटना निश्चित है, वह मरणधर्मा है। जिसे हमने मैं समझा है, उसकी मृत्यु होगी ही। इसलिए हम डरे हुए हैं।
और उसे हम जानते नहीं जो नहीं मरेगा। इसलिए हम अभय नहीं हैं। समाधि अभय में ले
जाती है। उसके दर्शन करा देती है जो नहीं मिटेगा, जो
नहीं मिट सकता है।
लेकिन
ध्यान रहे, मैं कभी साक्षी नहीं हो सकता हूं और मैं कभी
परमात्मा से नहीं मिल सकता हूं। इसलिए परमात्मा से मिलने की जिद मत करना। और यह
सोच कर मत जाना कि मैं, क ख ग नाम का आदमी, परमात्मा से मिल जाऊंगा। मेरा मिलना कभी भी
नहीं होगा। क्योंकि जब तक मैं हूं,
तब तक परमात्मा न हो सकेगा।
और जब मैं नहीं रह जाऊंगा तब वह होगा। अब तक किसी का परमात्मा से मिलना नहीं हुआ।
क्योंकि मिलने का मतलब होता है,
दोनों मौजूद हों। दो में से
एक ही रहता है। जब तक मैं रहता हूं तब तक वह नहीं रहता और जब वह होता है तब मैं
नहीं रहता। मिलन हुआ ही नहीं कभी।
कबीर
ने कहा है: उसकी गली बहुत संकरी है,
उसमें दो नहीं समाते, उसमें एक ही समाता है। जब तक मैं हूं तब तक
वह नहीं, जब वह होता है तब मैं नहीं होता हूं।
साक्षी
बच सकता है, मुझे खोना पड़ेगा। इसलिए मैंने कहा कि मैं
मिट रहा हूं, मैं मर रहा हूं, इस भाव को अगर बहुत गहरा करें, तो जो शेष रह जाएगा वह साक्षी है।
एक
दूसरे मित्र ने पूछा है कि मैं मिट रहा हूं, ऐसा
भाव करने से मैं कैसे मिटूंगा?
इसलिए
मिट जाइएगा कि मैं हूं, यह भी भाव का ही परिणाम है, यह कोई सत्य नहीं है। अगर मैं यहां बैठ कर
यह भाव करूं कि मकान मिट रहा है,
तो मकान नहीं मिटेगा। क्योंकि
मकान मेरे भाव पर निर्भर नहीं है। मैं कितना ही भाव करूं कि मकान मिट रहा है, मकान मिट रहा है...आंख खोल कर देखूंगा, पाऊंगा कि मकान अपनी जगह है। क्योंकि मकान
मेरे भाव से निर्मित नहीं है। लेकिन अगर मैं भाव करूं कि मैं मिट रहा हूं, तो मैं मिट जाऊंगा, क्योंकि मेरा होना मेरा भाव ही है। इसलिए
दूसरे भाव से मिट सकता है;
विपरीत भाव से मिट सकता है।
आपको
पता होना चाहिए, कुछ बीमारियां हैं जो इलाज से कभी ठीक नहीं
होती हैं। वे इसलिए ठीक नहीं होतीं कि पहली तो बात वे बीमारियां झूठी हैं और इलाज
सच्चा है। तो वैसा आदमी और बीमार हो जाएगा। अगर झूठी बीमारी का सच्चा इलाज होगा तो
मुश्किल पड़ जाएगी। अगर एक आदमी को सांप ने काटा हो, तो
सांप के काटने के लिए जो इंजेक्शन दिया जाना चाहिए वह उसको लाभ करेगा। लेकिन अगर
एक आदमी को सांप ने काटा ही न हो और उसको खयाल पैदा हो गया हो कि मुझे सांप ने
काटा, काटा चूहे ने हो या सपने के सांप ने काटा हो, तो उसको इंजेक्शन देना बहुत खतरनाक हो
जाएगा। जितना सांप के काटने से खतरा नहीं है, उतना
इंजेक्शन खतरनाक हो जाएगा। झूठी बीमारी के लिए झूठा इलाज चाहिए।
मैंने
सुना है, एक रात एक सराय में कुछ लोग मेहमान थे। और
एक आदमी सुबह चार बजे उठा और अपनी यात्रा पर आगे निकल गया। कई जगह के लोग ठहरे हुए
थे, रात उन्होंने भोजन किया था। साल भर बाद वह
आदमी उस सराय में वापस लौटा। उस सराय के मालिक ने उसे देखा और कहा, आप जिंदा हैं!
उस
आदमी ने कहा, क्या मतलब? जिंदा
क्यों नहीं रहूंगा?
उसने
कहा कि अरे! लेकिन बाकी जितने लोगों ने उस रात भोजन किया था, वे सब मर गए। फूड-पायज़न हो गया था, भोजन में जहर हो गया था। आप जिंदा हैं, आश्चर्य! लेकिन सब लोग तो मरे हुए उठे सुबह।
आप तो चार बजे निकल गए थे।
उस
आदमी ने इतना सुना और वहीं गिर पड़ा। उसे बहुत हिलाया, लेकिन वह तो मर चुका था।
साल भर
पहले किया था भोजन! फूड-पायज़न हो गया! साल भर बाद मरा! मर सकता है। लेकिन ऐसी
बीमारी का इलाज नहीं हो सकता। अगर जहर हो गया हो भोजन में तो इलाज हो सकता है। अब
इस आदमी का कैसे इलाज करिएगा?
इसका इलाज करना बहुत मुश्किल
है। इसकी बीमारी झूठी है। झूठी बीमारी का झूठा इलाज करना होता है।
मैं
जिसे समाधि का प्रयोग कह रहा हूं,
झूठा इलाज है, सच्चा इलाज नहीं है। क्योंकि आपकी बीमारी
झूठी है। मैं झूठी बीमारी है। उसे मिटाने के लिए उसी तरह झूठा इलाज करना पड?ेगा।
मेरे
पैर में असली कांटा गड़ जाए,
असली, तो दूसरा कांटा असली लाकर निकालना पड़े।
लेकिन असली कांटा न गड़े,
सिर्फ मुझे खयाल हो जाए कि
पैर में कांटा गड़ा है। अब असली कांटा लाकर मत निकालना, अन्यथा व्यर्थ का घाव हो जाएगा। कांटा गड़ा न
हो, तो फिर झूठे कांटे की जरूरत पड़ती है।
धर्म
की सारी प्रक्रियाएं झूठी प्रक्रियाएं हैं, क्योंकि
अधर्म की बीमारी झूठ है। समस्त योग झूठी प्रक्रिया है। समस्त साधना झूठी प्रक्रिया
है। इसलिए झूठी प्रक्रिया है कि जिसे हम मिटाने चल रहे हैं, वह बीमारी झूठी है। वहां कोई आदमी बीमार
नहीं है। मैं अगर होता, तो हमें कोई असली तलवार खोज कर मैं को काटना
पड़ता।
रामकृष्ण
के अंतिम जीवन में एक कीमती घटना है। रामकृष्ण जीवन भर तो काली की पूजा में रत
रहे। आखिरी क्षणों में उन्हें ऐसा लगने लगा कि क्या बस यही है सत्य, आखिरी! एक संन्यासी ठहरा हुआ था, तोतापुरी। उसने कहा कि कब तक काली वगैरह में
उलझे रहोगे? ये सब कल्पनाएं हैं।
तो
रामकृष्ण ने कहा, मैं क्या करूं? इस कल्पना के ऊपर कैसे उठूं?
तोतापुरी
ने कहा, आंख बंद करो और काली से छुटकारा पाओ।
रामकृष्ण
आंख बंद करते तो काली की मूर्ति खड़ी हो जाती। जीवन भर उसी को साधा था। वे कहते कि
उसको कैसे हटाऊं? वह नहीं हटती है, वह नहीं मिटती है।
तो
तोतापुरी ने कहा कि तुम एक तलवार उठा कर दो टुकड़े कर दो।
तो
रामकृष्ण ने कहा कि तलवार कहां उठाऊं भीतर? तलवार
कहां है?
तोतापुरी
ने कहा, जब कल्पना से ही काली को भीतर खड़ा कर लिया, तो एक कल्पना की ही तलवार उठा कर दो टुकड़े
कर दो। काली को कहां से लाए हो भीतर? कल्पना
से ही खड़ा किया था।
रामकृष्ण
भीतर जाते थे, लेकिन हिम्मत न जुटा पाते थे तलवार उठाने
की। काली पर और तलवार कैसे उठाएं?
इतने दिन में साधा-संवारा!
भक्त भगवान के प्रति बहुत कमजोर हो जाता है। कल्पित भगवान के प्रति बहुत कमजोर हो
जाता है। क्योंकि उसको खुद ही तो बनाया है, अब उसे
मिटाए कैसे? तलवार पकड़ते होंगे, छूट जाती होगी। बार-बार कहते थे कि नहीं
होता। तो तोतापुरी ने कहा,
बस आखिरी कर लो, अन्यथा मैं चला जाऊं। इस बच्चों के खेल में
मुझे मत उलझाओ।
तो
तोतापुरी एक कांच का टुकड़ा लेकर बैठ गया और उसने कहा कि तुम आंख बंद करो, अंदर जाओ, और मैं
तुम्हारे माथे पर कांच से काटूंगा। और जब यहां खून की धार बहने लगे और कांच से
मस्तिष्क कटे, तब तुम एक दफा हिम्मत उठा कर तलवार चला ही
देना।
रामकृष्ण
ने हिम्मत की, और जब तोतापुरी ने माथा काटा तो उन्होंने भी
भीतर काली को काट दिया। काली दो टुकड़े होकर गिर गई। झूठी तलवार थी, झूठी काली थी। रामकृष्ण खाली हो गए। बाद में
उन्होंने कहा, आखिरी बाधा, दि
लास्ट बैरियर, आखिरी बाधा गिर गई।
जिसे
हम मैं कहते हैं वह भी झूठा है। उस मैं को गिराने के लिए झूठे उपाय करने पड़ें। अगर
समझ जाएं कि झूठा है, तब तो उपाय करने की भी जरूरत न रहे। लेकिन नहीं
समझ पाते हैं, तो फिर उपाय करने पड़ते हैं।
इसलिए
जो समझता है उसके लिए न ध्यान है,
न समाधि है, न योग है। जो समझता है उसके लिए जगत में कुछ
भी नहीं है। उसे कुछ करने को नहीं है। लेकिन बड़ी मुश्किल है, हम समझ नहीं पाते। नहीं समझ पाते हैं, तो कुछ झूठा इलाज करना पड़ता है। और झूठे
इलाज से झूठी बीमारी को तोड़ देना पड़ता है। जब दोनों बीमारियां विदा हो जाती हैं, तो जो खाली जगह रह जाती है वही सत्य है।
अब एक
मित्र ने कहा है कि रात जिसको आप समाधि कह रहे थे, वह तो
आटो-हिप्नोसिस या हिप्नोटिज्म जैसी मालूम हो रही थी, सम्मोहन
जैसी मालूम हो रही थी।
मालूम
नहीं हो रही थी, है ही। मैं एक सम्मोहन है। जिसको हम कहते
हैं मैं, यह एक सम्मोहन है जो हमने पैदा किया हुआ है।
इस मैं को तोड़ने के लिए हमें विपरीत, एंटी-हिप्नोटिक
सजेशन, विपरीत सम्मोहक सुझाव देकर इसे तोड़ देना
पड़ेगा। मैं हमारा एक सम्मोहन है,
इससे ज्यादा नहीं है। यह
हमारा एक भ्रम है कि मैं हूं। जो है वह तो विराट है। जो है उसकी तो कोई सीमा नहीं
है। जो है वह तो अनंत है। जो है वह मुझसे पहले से है और मेरे बाद है। लेकिन मैं
हूं, यह सिर्फ हमारा एक सम्मोहन है। यह हमारी
बचपन से पकड़ी गई जिंदगी की एक आदत है। कामचलाऊ आदत है। उसे हमने पकड़ लिया है। उसे
हमने पकड़ लिया है, तो हम...अगर आपने कभी सम्मोहन का कोई प्रयोग
देखा हो तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे। सम्मोहन में हम जो मान लेते हैं, वही सत्य हो जाता है। जो हम स्वीकार कर लेते
हैं, मन उसी के लिए राजी हो जाता है। सम्मोहन
हमारे चित्त को उन सत्यों को पैदा कर देता है, जो हैं
ही नहीं।
हम सब
भी ऐसे ही जीते हैं। अगर एक स्त्री आपको बहुत प्रीतिकर लगने लगे या एक पुरुष बहुत
प्रीतिकर लगने लगे, तो आप शायद सोचते होंगे कि सच में वहां
सौंदर्य है। सब सौंदर्य आपके द्वारा आरोपित और सम्मोहन है। इसलिए हर मुल्क में
सौंदर्य की जैसी आदतें हैं,
वैसा सौंदर्य होता है।
अफ्रीका में कोई कौम स्त्रियों के बाल घोट कर सिर संन्यासियों जैसा कर देती है और
मानती है कि बहुत सुंदर है। जिस स्त्री की खोपड़ी जितनी चमकदार निकल आए, वह उतनी सुंदर हो जाती है। आप उस स्त्री को
देख कर भागेंगे तो पीछे नहीं लौटेंगे। लेकिन वहां कोई उसके लिए दीवाना हो सकता है।
आखिर सिर घुटी स्त्री! हम सोच भी नहीं सकते! हम तो अपने मुल्क में संन्यासिनियों को
सिर घुटवाते हैं। वह इसीलिए घुटवाते हैं, ताकि
कोई पुरुष मोहित न हो जाए। वह इसीलिए घुटवाते हैं। हम संन्यासी, संन्यासिनी को कुरूप बनाने की कोशिश करते
हैं, ताकि आप सम्मोहित न हो जाएं, किसी भांति उसके प्रति आकर्षित न हो जाएं।
इसलिए सब तरह की अग्लीनेस पैदा करने की कोशिश करते हैं साधु-संन्यासी में कि वह
कुरूप हो, कि आपके सम्मोहन के जो नियम हैं...लेकिन अगर
हमारी संन्यासिनी अफ्रीका चली जाए,
तो उसको बड़े प्रेमी मिल सकते
हैं।
कोई
कौम है जो मानती है कि ओंठ पतले हों तो ही सुंदर हैं। कोई कौम मानती है कि ओंठ
जितने चौड़े हों, उतने ही सुंदर हैं। तो ओंठों को चौड़ा करने
के भी उपाय करते हैं। ओंठों में पत्थर बांध लेते हैं, लटका लेते हैं पत्थर बचपन से, ताकि ओंठ चौड़े से चौड़े हो जाएं। और जब ओंठ
बहुत चौड़ा हो जाता है कि चेहरे पर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता, सिर्फ ओंठ ही दिखाई पड़ने लगता है, तब स्त्री परम सुंदर हो जाती है, उसको प्रेमी मिल जाता है। थोड़ा सोचने जैसा
है कि जिसको हम सौंदर्य कहते हैं,
वह है या हमारा सम्मोहन है? या हमने आदत बना रखी है?
अब यह
आपको पता ही है, आज से पचास साल पहले कैक्टस सुंदर नहीं था।
और घर में अगर कोई धतूरे का पौधा लगा लेता, तो हम
उसे पागल कहते, कि दिमाग खराब हो गया। अब कैक्टस बड़ा
बुर्जुआ हो गया है, बड़ा सुसभ्य हो गया है। अब कैक्टस ग्रामीण न
रहा। अब एकदम जिस आदमी के घर में कैक्टस नहीं है, वह
अनकल्चर्ड है, वह सुसंस्कृत नहीं है। अब जो ठीक से शिक्षित
आदमी है, उसके घर में कांटों वाला पौधा जरूरी है।
पचास साल पहले गुलाब सुंदर था,
अब कैक्टस ने गुलाब की जगह ले
ली है। उसने गुलाब को कहा,
राजा, उतारो सिंहासन से! बहुत दिन तुम रह लिए, अब मजदूर आते हैं, अब हम ऊपर आते हैं। अब कैक्टस बहुत दिन गरीब
शूद्र की तरह रह लिया, अब जगह खाली करो! गुलाब हट गया है, कैक्टस आ गया है। अब कैक्टस बैठा है। अब
कैक्टस बड़ा सुंदर मालूम पड़ रहा है,
जो कभी सुंदर नहीं मालूम पड़ा
था। कैक्टस कभी सुंदर था?
कभी सुंदर न था। कोई आश्चर्य
नहीं है। आदत और नया सम्मोहन। ऊब गए हम गुलाब के फूल से। चिकनापन भी ऊबा देता है, फिर खुरदुरेपन की इच्छा शुरू हो जाती है। अब
खुरदुरापन अच्छा लगता है। सब चीजों से आदमी ऊब जाता है। फिर नये सम्मोहन पैदा करता
है। नये सम्मोहन पैदा करता चला जाता है। जिसे हम सौंदर्य कहते हैं, वह हमारा सम्मोहन है।
अब चीन
में तो चपटी नाक सुंदर होती है;
गाल की हड्डियां उठी हुई हों
तो सुंदर होती हैं। हमारे मुल्क में गाल की हड्डियां उठी हों तो फिर सुंदर होना
बहुत मुश्किल हो जाता है। सुंदर क्या है? हमारा
थोपा हुआ भाव है। इसलिए पृथ्वी पर हजारों तरह के सौंदर्य हैं, सब तरह के सौंदर्य हैं। ऐसा कोई आदमी नहीं
है जिसे किसी कोने में सुंदर न माना जा सके। और ऐसा भी कोई आदमी नहीं है जो किसी
दूसरे कोने में असुंदर न हो जाए। हमारी आरोपित धारणाएं हैं। सुंदर हमें दिखाई पड़ने
लगता है, क्योंकि हमने देखना शुरू कर दिया। हम जिसमें
सौंदर्य देखने लगें वही सुंदर हो जाता है।
मेरे
एक मित्र सोवियत रूस गए हुए थे। उनके हाथ बड़े सुकोमल थे। कभी कोई काम नहीं किया।
स्त्रैण थे हाथ। उनका हाथ हाथ में लें और आंख बंद कर लें, तो ऐसा न लगे कि पुरुष का हाथ हाथ में है, स्त्री का हाथ हाथ में है। आंख खोल कर देखें
तो ही पता चले कि पुरुष का हाथ है। हाथ बहुत कोमल थे। वे रूस पहली दफा गए। तो वहां
जिस आदमी, जो उनका स्वागत करने आया था एयरपोर्ट पर, उसने हाथ मिला कर हाथ पीछे खींच लिया। तो वे
कुछ हैरान हुए! उन्होंने कहा,
क्या हुआ? उस आदमी ने कहा, आप जरा हाथ के प्रति सावधान रहना! रूस में
ऐसे हाथ को हम शोषक का, खून पीने वाले का हाथ समझते हैं। आपके हाथ
में मजदूर के गट्ठे नहीं हैं। आपका हाथ जो भी छुएगा, हाथ
खींच लेगा ग्लानि से। आप अच्छे आदमी नहीं हैं।
यहां
तो उनका जो भी हाथ छूता था,
वह कहता था, धन्य हैं आप, इतना
सुंदर हाथ! रूस में, वे कहने लगे, मैं
अपने हाथ खीसों में डाल कर रखने लगा। क्योंकि दो-चार दफे जिससे भी हाथ मिलाया, उसने ही हाथ ऐसा खींचा कि किसी गलत आदमी का
हाथ छू गया।
रूस का
सम्मोहन बदल गया है। अब वे कहता हैं, हाथ पर
गट्ठे होने चाहिए, मजदूरी की छाप होनी चाहिए, तो अच्छा आदमी है। अगर मजदूरी की छाप नहीं
है तो अच्छा आदमी नहीं है। अगर महावीर या बुद्ध चले जाएं रूस में, मुश्किल में पड़ जाएं, हाथ पर मजदूर की गट्ठी की छाप नहीं है। और
हम? हम कहते हैं, चरण
कमल! आपके हाथ कमल की भांति हैं;
आपके पैर कमल की भांति हैं।
रूस में वे कहेंगे, पैर आपके? खूनी
के हैं, हत्यारे के हैं। हाथ? हाथ आपके दुष्ट के हैं। ये हाथ न चलेंगे
यहां रूस में! सम्मोहन बदल गया उन्नीस सौ सत्रह से। नया सम्मोहन पैदा कर लिया। अब
वे उसके अंतर्गत जी रहे हैं।
सौंदर्य
हमारा सम्मोहन है। कुरूपता भी हमारा सम्मोहन है। हमारी जिंदगी में बहुत से सम्मोहन
हैं जो हमें खयाल में नहीं आते। और जब हमारे खयाल में नहीं आते तो हम उनमें जीए
चले जाते हैं। अब अगर एक आदमी अपने सिर के बाल उखाड़ने लगे, तो आप उसको पागलखाने भेज देंगे। लेकिन अगर
वह जैन मुनि हो जाए, फिर आप उसके पैर छुएंगे। क्या बात है? एक आदमी को सिर के बाल उखाड़ता, अगर यह जैन मुनि न हो तो पागलखाने जाएगा।
लेकिन अगर जैन मुनि हो तो चलेगा। क्यों? क्योंकि
वे जैन मुनि के आस-पास जो लोग हैं,
वे बाल उखाड़ने की बात से
हजारों साल से सम्मोहित हैं। वे कहते हैं, यह
तपस्वी का लक्षण है।
अगर आप
स्नान न करें, तो आपकी पत्नी आपको घर के बाहर कर देगी।
लेकिन अगर आप जैन मुनि हो जाएं और स्नान न करें, तो
आपकी पत्नी ही पैर छुएगी,
कि आप परम तपस्वी हैं, आप स्नान नहीं करते हैं। क्योंकि स्नान न
करने को किसी ने, बहुत दिन से सम्मोहित हो गया। वह कहता है, स्नान करना, यह
भोगियों की बात है, त्यागी स्नान नहीं करते। त्यागी को स्नान की
क्या जरूरत है? उसको शरीर को सजाने का कोई सवाल नहीं है।
हम जिस
चीज से सम्मोहित हो जाते हैं,
वह हमारे मन को पकड़ लेती है।
अब दो ही रास्ते हैं। या तो हम समझ जाएं और समस्त सम्मोहन से मुक्त हो जाएं। समझ
मुक्ति ला सकती है। अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन व्यवहार में, उठने-बैठने में, चलने में, सोचने
में, हर बात में इस बात की खोज कर ले कि मैं
सम्मोहित होकर जी रहा हूं,
तो सम्मोहन टूटना शुरू हो
जाता है। लेकिन अगर हम यह न समझ पाएं, तो फिर
एंटी-हिप्नोटिक, सम्मोहन के विपरीत सम्मोहन की जरूरत पड़ जाती
है।
जो लोग
प्रज्ञा को उपलब्ध हो सकते हैं,
अंडरस्टैंडिंग को, उनके लिए किसी ध्यान और समाधि की कभी कोई
जरूरत नहीं है। नहीं जो उपलब्ध हो सकते, जो
कहते हैं, कांटा तो हमें गड़ा ही है, असली गड़ा है, हम
कैसे मानें कि कांटा नकली है! और कांटा गड़ा नहीं है उनके पैर में। अब उनके लिए
हमें एक कांटा और भी नकली ईजाद करना पड़ेगा, जो
उनके पुराने कांटे को निकाले।
तो
जिसे मैंने रात कहा है, वह सम्मोहन ही है। आपके पूर्व-सम्मोहनों को
नष्ट करने के लिए, उनको विदा करने के लिए उनसे विपरीत सम्मोहन
की स्थिति पैदा करनी जरूरी है। लेकिन अगर आपको लगता हो कि नहीं, कोई जरूरत नहीं है विपरीत सम्मोहन की, मैं समझ सकता हूं कि यह सम्मोहन है और
समझपूर्वक मुक्त हो जाऊंगा। इससे शुभ कुछ भी नहीं है। अगर आप समझपूर्वक मुक्त हो
सकें तो इससे शुभ कुछ भी नहीं है।
मैंने
सुना है, एक आदमी दो वर्षों से पैरालाइज्ड था, लकवा लग गया था। हिल-डुल नहीं सकता था; उठ नहीं सकता था। चिकित्सक हार गए थे
चिकित्सा करते-करते, ठीक नहीं होता था। ठीक हो जाता, अगर सच में लकवा लगा होता। लकवा लगा न था।
चिकित्सक मुश्किल में थे,
ठीक कैसे हो? बीमारी थी नहीं। लेकिन वह आदमी कैसे माने!
जिसका हाथ न हिलता हो, जिसका पैर न हिलता हो--वह आदमी कैसे माने कि
बीमारी झूठी है! फिर एक दिन आधी रात मकान में आग लग गई। घर भर के लोग बाहर हुए। वह
जो लकवे से लगा आदमी था,
वह भी दौड़ कर बाहर पहुंच गया।
वह दो साल से नहीं हिला था। जब वह बाहर आ गया, घर के
लोगों ने कहा, क्या आप भी चल गए? वह आदमी वहीं गिर पड़ा! उसने कहा, मैं कैसे चल सकता हूं? यह कैसे हुआ? यह कुछ
समझ में नहीं आता। क्योंकि मैं तो लकवे से पीड़ित हूं।
अब यह
आदमी अगर समझ सके, तो लकवे के बाहर हो जाए। नहीं तो इसके मकान
में झूठी आग लगानी पड़े, ताकि यह बाहर निकल आए। अगर यह कहे कि मेरा
लकवा असली है, तो फिर हमें एक आग का इंतजाम करना पड़े, जिसमें यह दौड़ कर बाहर आ जाए। अगर यह समझ
जाए तो बात खतम हो गई, फिर किसी मकान में आग लगाने की कोई जरूरत न
रही। समझ ले!
लेकिन
बहुत कठिन है। कठिन इसलिए है कि हम अपनी बीमारियों को प्रेम करने लगते हैं। और
शारीरिक बीमारियों से तो हम छुटकारा चाहते हैं, मानसिक
बीमारियों को हम जोर से पकड़ लेते हैं। क्यों? क्योंकि
मानसिक बीमारियों पर ही हमारा होना निर्भर है।
सबसे
बड़ी बीमारी तो है मैं की,
ईगो की। अगर वही छूट जाए तो
हम कहां होंगे? तो आदमी डरता है। वह अपने मैं को जोर से पकड़े
रहता है। अगर आप उससे, उसके पैर में धक्का लग जाए आपके पैर का, या भीड़ में आपका धक्का लग जाए, तो वह कहेगा, देख कर
नहीं चल रहे हैं! जानते नहीं मैं कौन हूं! खुद भी पता नहीं है कि कौन है, दूसरे से कहता है, जानते नहीं मैं कौन हूं! उसके, वह अपने मैं को बचा रहा है, बचा रहा है। धन कमा रहा है। गरीब भी दिखलाना
चाहता है अपने मैं को, लेकिन दिखाने के साधन नहीं होते उसके पास।
यही गरीब की तकलीफ है। अमीर साधन खोज लेता है। उसके मैं के लिए सहारा मिल जाता है।
वह कहता है, हां, यह रहा
मेरा मैं और ये रहे मेरे साधन। वह एक बड़ा मकान बनाता है। बड़ा मकान रहने के लिए
जरूरी नहीं है। लेकिन बड़ा मकान बड़े मैं को प्रकट करने के लिए बहुत जरूरी है। रहा
तो शायद बहुत छोटे मकानों में जा सके, और
शायद बड़े मकान से ज्यादा सुविधा से भी रहा जा सके, लेकिन...
अभी
मैं एक घर में मेहमान था। तो उस घर में नहीं तो कम से कम सौ कमरे होंगे। पति-पत्नी
अकेले हैं। सारा मकान खाली है। कोई पंद्रह-बीस नौकर रखने पड़ते हैं जो पूरे मकान को
साफ करते रहें। मैंने उनसे पूछा कि इतना बड़ा मकान, इतने
नौकर-चाकर, सिर्फ खाली साफ करने के लिए! किसलिए है यह? आपके रहने के लिए तो यह बहुत जरूरत से
ज्यादा है। वे हंसने लगे। उनकी मुस्कुराहट में उनके अहंकार ने बड़ा विस्तार पा
लिया। उनकी हंसी में उन्होंने कहा कि हम कोई साधारण आदमी नहीं हैं जो हम एक कमरे
में रह लें, बड़े आदमी को कई कमरों में रहना पड़ता है। हम
कोई साधारण आदमी नहीं कि एक बिस्तर पर सो जाएं, बड़े
आदमी को कई बिस्तर पर सोना पड़ता है। हम कोई साधारण आदमी नहीं कि एक ही कपड़ा पहन कर
निकल जाएं बाजार में, बड़े आदमी को कई कपड़े इकट्ठे पहनने पड़ते हैं।
उनकी मुस्कुराहट फैल गई। उनकी मुस्कुराहट ने कहा कि वी कैन अफर्ड। उनकी मुस्कुराहट
ने कुछ कहा नहीं, लेकिन कहा कि नहीं, हम अफर्ड कर सकते हैं, हम सौ कमरे भी रख सकते हैं।
वह मैं, उस मैं की बीमारी को हम सब तरफ से पोसते
हैं। इसलिए छोटी कुर्सी दुख देने लगती है, क्योंकि
बड़ी कुर्सी वाले का मैं बड़ा प्रकट हो सकता है। छोटी कुर्सी वाले को जरा सिकुड़ कर
मैं प्रकट करना पड़ता है। हां,
अपने से छोटी कुर्सी वालों के
सामने जरा वह फैल सकता है। ऊपर की कुर्सी वाला आता है, तो वह एकदम दब कर और पूंछ हिलाने लगता है।
तो उसे ऐसा लगता है: उस जगह कब पहुंच जाऊं जब कि मुझे किसी की तरफ पूंछ न हिलानी
पड़े और सारे लोग मेरे चारों तरफ पूंछ हिलाएं। इसलिए दौड़ चलती है कि कैसे
राष्ट्रपति हो जाऊं! कैसे प्रधानमंत्री हो जाऊं! फिर जो हो जाए, वह जब तक मर न जाए, उस जगह को नहीं छोड़ता। क्योंकि जगह छोड़ दे
तो मुश्किल में पड़ जाता है। फिर नीचे उतर आता है। फिर मैं को सिकोड़ना और भी
मुश्किल हो जाता है। मैं अगर फैल जाए, तो फिर
सिकोड़ना बहुत ही कष्टपूर्ण हो जाता है। फिर बहुत ही मुसीबत हो जाती है उसे वापस
अपनी जगह लौटाना। इसलिए अगर एक मिनिस्टर नीचे उतर आए मिनिस्टरी से, तो उसकी बड़ी तकलीफ हो जाती है। तकलीफ? तकलीफ मिनिस्टरी खोने की उतनी नहीं होती है, तकलीफ इस बात की हो जाती है कि मिनिस्टर का
अहंकार फैल गया होता है,
फिर नीचे सिकुड़ जाना पड़ता है।
एक
गांव में मैं मेहमान था और रास्ते से गुजरता था। तो उस प्रदेश के, पीछे कोई मुख्यमंत्री थे, वे मेरे साथ थे। अब तो वे नहीं हैं, अब तो भूतपूर्व हो गए वे, तो वे मेरे साथ थे। रास्ते में कार बिगड़ गई।
और सुनसान रास्ता था और बहुत कम गाड़ियों के गुजरने की उम्मीद थी। रात का वक्त था।
तो वहां से एक नॉन-स्टाप बस गुजरती थी। तो उन्होंने कहा कि नहीं, कोई चिंता की बात नहीं, उसे रुकवा लेंगे। वह रुकती तो नहीं है, लेकिन रुकवा लेंगे। भूतपूर्व मुख्यमंत्री थे, सोचा रुकवा लेंगे। तो एक नाके पर, जहां एक पुलिस का आदमी सोता था, उसको जाकर उन्होंने उठाया। और उन्होंने कहा
कि वह जो बस यहां से गुजरती है,
जो रुकती नहीं है, उसे रोकना है, क्योंकि
हमारी गाड़ी बिगड़ गई। उस आदमी ने,
मैं मौजूद था, उस आदमी ने कहा कि महाराज...वे ब्राह्मण हैं, अभी भी ब्राह्मण होना मुख्यमंत्री होने के
लिए बड़ा जरूरी है...उसने कहा, महाराज, बहुत मुश्किल है, वह न रुकेगी।
तो
उन्होंने कहा, क्या कहते हो! न रुकेगी? जानते नहीं हो कि मैं कौन हूं!
उसने
कहा, मैं भलीभांति जानता हूं। आपको और न जानूं!
लेकिन आप भूतपूर्व हैं। उस कांस्टेबल ने कहा, आप
भूतपूर्व हैं। बस न रुकेगी।
वे
मुख्यमंत्री एक दफा उस कांस्टेबल की तरफ देखे, एक दफा
मेरी तरफ देखे। अब उनके अहंकार को ऐसी पीड़ा जो उस दिन हुई वह कभी न हुई होगी। एकदम
सिकुड़ गए, जब उसने कहा, भूतपूर्व
हैं आप, पहचानता अच्छी तरह हूं। लेकिन बस न रुकेगी, नॉन-स्टाप है, वह
नहीं रुकती।
अब एक
कांस्टेबल जो है मुख्यमंत्री को पूंछ हिलवा दिया। कांस्टेबल को भी तो कभी-कभी मौका
मिलना चाहिए। कई बार इनके आस-पास घूमा होगा, आज
इनको भी घुमा दिया। अब उन्हें ऐसा लगने लगा कि अगर पुराना जमाना होता तो शायद
पृथ्वी माता से कहते कि फट जाओ,
और समा जाते उसमें
मुख्यमंत्री। मैंने उनसे कहा कि मत कहिए, पृथ्वी
माता से कुछ मत कहिए, लौट चलिए। ठीक है, उसको भी मौका मिला है, आपको मिल चुका है। उसको भी मौका मिला है, सबको मिलने दीजिए।
हमारा
जो अहंकार है वह ऐसा रोग है जिसे हम प्रेम करते है, तो उसे
छोड़ें कैसे? उसे हम बचाते फिरते हैं। अगर कोई उसे तोड़ने
वाला है तो उसे हम दुश्मन समझते हैं। तो हम उसे कैसे तोड़ेंगे? हमारी मानसिक बीमारियां हमें बड़ी प्रीतिकर
हैं। हमारे मानसिक इल्यूजंस,
भ्रम बड़े प्रीतिकर हैं। हमने
उन्हें खड़ा किया है, हमने उन्हें पाला है, पोसा है, पानी
सींचा है, खाद दी है, मेहनत
की है, बड़ा किया है किसी तरह। हम उनको कैसे सिकोड़
लें?
समाधि
में जिसे जाना है, या तो वह समझ ले कि यह अहंकार की सारी की
सारी यात्रा एक आटो-हिप्नोसिस है,
एक आत्म-सम्मोहन है, जो मैं व्यर्थ ही अपने ऊपर थोपे चला जा रहा
हूं। यदि यह समझ में आ जाए,
तब किसी ध्यान की कोई भी
जरूरत नहीं है। लेकिन अगर यह समझ में न आ सके, तो फिर
मैं मानता हूं कि हमें इससे उलटा प्रयोग शुरू करना चाहिए। हमें मैं को मिटाने का
भाव करना चाहिए। शायद जिस तरह हमने मैं को बनाया है, उसी तरह
हम उसे मिटा भी सकें। अगर भाव से ही बना है, तो
विपरीत भाव से मिट जाएगा। और तब खाली जगह रह जाएगी।
इसलिए
सम्मोहन के मैं विरोध में भी हूं और पक्ष में भी। विरोध में इसलिए हूं कि सम्मोहन
अगर भ्रम में ले जाता हो तो मैं विरोध में हूं, लेकिन
अगर सम्मोहन पुराने भ्रमों को तोड़ता हो और रिक्त में ले आता हो तो मैं पक्ष में
हूं। पाजिटिव सम्मोहन के मैं विरोध में हूं, निगेटिव
सम्मोहन के मैं पक्ष में हूं। यह भी सम्मोहन है कि मैं यह हूं और यह भी सम्मोहन है
कि मैं कुछ भी नहीं हूं। लेकिन "मैं हूं' इस
सम्मोहन के मैं विरोध में हूं,
क्योंकि यह सत्य से निरंतर
दूर ले जाएगा। "मैं नहीं हूं'
इस सम्मोहन के मैं पक्ष में
हूं, क्योंकि यह सत्य के निरंतर पास ले आएगा।
और
ध्यान रहे, रास्ता तो वही होता है दूर जाने के लिए भी
और पास आने के लिए भी, सिर्फ रुख बदल लेना पड़ता है। अगर मुझे आपके
पास आना है, तो चेहरा आपकी तरफ करके आना पड़ता है। और अगर
आपसे दूर जाना है, तो आपकी तरफ पीठ करके जाना पड़ता है। रास्ता
वही होता है। अभी जिस रास्ते से आप घर से यहां तक आए हैं, उसी रास्ते से वापस भी लौटिएगा। लेकिन आप
कभी अपने मन में यह न सोचिएगा कि जिस रास्ते से हम गए थे, उसी रास्ते से वापस कैसे लौट सकते हैं? वह रास्ता तो घर से दूर ले जाने वाला है!
नहीं, वह रास्ता घर के पास भी ले आएगा। फर्क इतना
पड़ेगा कि जब दूर आए थे तो घर की तरफ पीठ करनी पड़ी थी और जब पास आ रहे हैं तो घर की
तरफ मुंह करना पड़ेगा।
सम्मोहन
दूर ले जा रहा है हमें, पीठ कर ली है अपनी तरफ; सम्मोहन पास ले आएगा, अगर मुंह कर लें अपनी तरफ।
तो मैं
सम्मोहन के विरोध में भी हूं। ऐसे सम्मोहन के विरोध में हूं जो आपको किसी कल्पना
को मजबूत करने के लिए किया जाता है। और ऐसे सम्मोहन के बिलकुल पक्ष में हूं जो
कल्पनाओं को विसर्जित करने के लिए किया जाता है और निर्विकल्प कर देता है।
जैसे, मैं इस सम्मोहन के विरोध में हूं कि आप बैठ
कर यह सोचें कि मैं ब्रह्म हूं,
मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं। मैं इसके विरोध में हूं।
लेकिन मैं इसके पक्ष में हूं कि मैं नहीं हूं, मैं
नहीं हूं, मैं नहीं हूं। क्या फर्क है इन दोनों में?
इनमें
फर्क यह है कि ब्रह्म होने में आप एक पाजिटिव, एक
विधायक सम्मोहन कर रहे हैं,
जिसका आपको पता नहीं है। आपको
पता नहीं है कि मैं ब्रह्म हूं,
और आप थोप रहे हैं अपने ऊपर
कि मैं ब्रह्म हूं। हो सकता है आप सम्मोहित हो जाएं और आपको ऐसा लगने लगे कि मैं
ब्रह्म हो गया। वह भ्रम होगा,
सत्य नहीं होगा। ब्रह्म होने
के लिए आपको अपने को सम्मोहित करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि ब्रह्म आप हैं ही। अगर सब सम्मोहन
टूट जाएं, तो आपको पता चल जाएगा कि मैं ब्रह्म हूं।
लेकिन
आपने एक दूसरा सम्मोहन पैदा कर रखा है कि मैं यह हूं, मैं यह हूं--इसका पति हूं, इसका पिता हूं, इसका बेटा हूं, इस पद पर हूं, यह
मेरा धन है, यह मेरी प्रतिष्ठा है, यह मेरी पदवी है--ये सारी उपाधियां आपने
अर्जित कर ली हैं कल्पना में। मैं इस सम्मोहन के पक्ष में हूं कि आप कहें--न मेरा
कोई नाम है, न मैं किसी का पिता हूं, न किसी का पति हूं, न बेटा हूं--मैं कोई भी नहीं, मैं कोई भी नहीं, मैं कोई भी नहीं। और एक ऐसी घड़ी आ जाए कि आप
कुछ भी न रह जाएं। जिस क्षण यह घड़ी आ जाएगी कि आपको पता चले कि आप कुछ भी नहीं हैं, उसी क्षण भीतर एक विस्फोट हो जाएगा और आपको
पता चलेगा--मैं तो ब्रह्म हूं। यह आपको सोचना न पड़ेगा, यह तो हो जाएगा। यह अपने से हो जाएगा। यह
विस्फोट होगा। आप सिर्फ जगह खाली कर दें, आप
मंदिर से सब मूर्तियां हटा दें,
फिर जो मूर्ति शेष रह जाएगी
वह परमात्मा की होगी। आपके हटाने के बाद, जब
आपने मंदिर बिलकुल खाली कर दिया,
कोई मूर्ति न रखी, जो आपने रखी थीं, सब मूर्तियां हटा लीं, तब भी जो शेष रह जाएगा वही परमात्मा है।
आपकी रखी हुई मूर्तियां आपके हाथ की मूर्तियां हैं, उनका
कोई भी मूल्य नहीं है।
तो उन
मित्र ने ठीक ही पूछा है,
वह सम्मोहन ही है। लेकिन कहना
चाहिए डी-हिप्नोटाइजेशन है। सम्मोहन, सम्मोहन
तोड़ने के लिए, मिटाने के लिए। कांटा झूठा, झूठे कांटों को अलग कर देने के लिए। और अगर
आपको समझ में आ जाए कि कांटा झूठा है, इसलिए
है ही नहीं, फिर तो कोई सवाल नहीं है, बात खतम हो गई। फिर आपके लिए कोई सवाल शेष
नहीं रह जाता। लेकिन अगर बात खतम न हो गई हो, तो फिर
कांटे को निकालना पड़ेगा। वह गड़ रहा है। झूठा सही, लेकिन
गड़ रहा है, अच्छी तरह दुख दे रहा है। दूसरा कांटा खोजना
पड़ेगा। फिर दोनों कांटे एक-दूसरे को काट देंगे। ऋण और धन मिल कर शून्य हो जाएगा।
कट जाने पर शून्य रह जाएगा। उस शून्य में स्वयं का साक्षात्कार हो सकता है।
और
प्रश्न रह गए हैं, कल सुबह उनकी बात करेंगे।
लेकिन
प्रश्न और उनके उत्तर से जो समझ में न आए, वह
प्रयोग से समझ में आ सकता है। तो जिन्हें सच में ही जानना है, सिर्फ सुनना नहीं है, जिन्हें सच में ही उतरना है, सिर्फ शब्द नहीं, सत्य में ही चले जाना है, वे शाम के लिए निमंत्रित हैं। शाम के लिए
दोत्तीन सूचनाएं खयाल में रख लें।
घर से
आते समय ही चुप होकर चलें। वहां भी पहुंच कर जहां बैठना है, चुपचाप आंख बंद करके बैठ जाएं। तैयारी लेकर
आएं घर से ही, ताकि वहां पहुंचते-पहुंचते मन बिलकुल तैयार
हो गया हो। और उस एक घंटे में न तो किसी से बात करें, न किसी की फिक्र करें, न किसी की तरफ देखें। उस एक घंटे में आप
अकेले ही हैं। और उस एक घंटे में जितनी सामर्थ्य हो अपनी, पूरी सामर्थ्य लगा कर, अपने सब सम्मोहन काटने में, झूठे कांटों को हटाने में लग जाएं। कोई
आश्चर्य नहीं है, कोई वजह नहीं है कि आज ही क्यों न उदघाटन हो
सके। समय कोई बाधा नहीं है। और इस खयाल में भी मत रहना कि पिछले जन्मों के कर्म
बाधा देंगे। इस खयाल में भी मत रहना कि भाग्य रोकेगा। इस खयाल में भी मत रहना कि
मैं पात्र नहीं हूं, अधिकारी नहीं हूं। परमात्मा को पाने के लिए
प्रत्येक अधिकारी है। और परमात्मा को पाने के लिए प्रत्येक सुपात्र है। और
परमात्मा को पाने के लिए कोई भी बाधा किसी जन्म के किसी कर्म से कभी नहीं पड़ती।
ऐसे ही
जैसे एक भवन में अंधकार भरा हो,
हजारों साल का भरा हो, और मैं आपसे कहूं--दीया जलाएं। आप कहें, हजारों साल का अंधकार है, आज दीया जलाने से कैसे मिटेगा? हजार साल दीया जलाएंगे तब मिटेगा। नहीं; हजार साल का अंधकार हो कि करोड़ साल का, दीया जला कि मिट जाता है। अंधेरे की कोई
पर्तें नहीं होती हैं। एक दिन का अंधेरा भी उतना ही अंधेरा होता है, करोड़ जन्मों का अंधेरा भी उतना ही अंधेरा
होता है।
अज्ञान
की कोई पर्त नहीं होती है,
ज्ञान के दीये के जलते ही
समस्त अज्ञान मिट जाता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता
कि कितने जन्मों तक अज्ञान में आदमी भटका है, अंधेरे
में रहा है। दीया जला और अंधेरा गया। जब तक दीया नहीं जला है तब तक अंधेरा है।
और
ध्यान रहे, अंधेरा दीये को जलने से रोक नहीं सकता।
अंधेरे के पास कोई ताकत ही नहीं है कि दीये को जलने से रोक ले। अंधेरा बिलकुल
निर्वीर्य है, इंपोटेंट है, वह कुछ
कर नहीं सकता।
अज्ञान
भी इंपोटेंट है, कुछ भी नहीं कर सकता। इसलिए ऐसा मत सोचें कि
फिर कभी होगा। अगर ताकत लगाएं तो आज और अभी और यहीं हो सकता है।
तो रात
उन सबके लिए निमंत्रण, जो उतरना चाहते हैं थोड़ा साहस करके शून्य
में, ताकि उससे मिलन हो सके जो हमारा असली होना
है।
मेरी
बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे
अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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