दिनांक 21 जनवरी
1978;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र
:
ब्रह्मकांडं
तु भक्तौ तस्यानुज्ञानाय
सामान्यात्।।26।।
बुद्धिहेतुप्रवृत्तिराविशुद्धेरवधातवत्।।27।।
तदङगानाज्च।।28।।
तामैंश्वर्थ्यपदा
काश्यप: परत्वात्।।29।।
आत्मैकपरां
बादरायण:।।30।।
मनुष्य
का अस्तित्व तीन
तलों में विभाजित
है—शरीर, बुद्धि,
हृदय। या दूसरी
तरह से कहें तो
कर्म, विचार
और भाव। इन तीनों
तलों से स्वयं
की यात्रा हो सकती
है। स्थूलतम यात्रा
होगी कर्मवाद की।
इसलिए धर्म के
जगत में कर्मकांड
स्थूलतम प्रक्रिया
है।
दूसरा द्वार
होगा ज्ञान का,
विचार का, चिंतन—मनन। दूसरा
द्वार पहले से
ज्यादा सूक्ष्म
है। दूसरे द्वार
का नाम है—ज्ञानयोग।
तीसरा द्वार सूक्ष्मातिसूक्ष्म
है— भाव का, प्रीति
का, प्रार्थना
का। उस तीसरे द्वार
का नाम भक्तियोग
है।
कर्म से
भी लोग पहुंचते
हैं। लेकिन बड़ी
लंबी यात्रा है।
ज्ञान से भी लोग
पहुंचते हैं। पर
यात्रा संक्षिप्त
नहीं है। बहुत
सीढ़ियां पार करनी
पड़ती हैं। पहले
से कम, लेकिन तीसरे
की दृष्टि में
बहुत ज्यादा। भक्ति
छलता है। सीढ़ियां
भी नहीं हैं, दूरी भी नहीं
है। भक्ति एक क्षण
में घट सकती है!
भक्ति तत्कण घट
सकती है। भक्ति
केवल भाव की बात
है। इधर भाव, उधर रूपांतरण।
कर्म में तो कुछ
करना होगा, विचार में कुछ
सोचना होगा, भक्ति में न सोचना
है, न करना है,
होना है। इसलिए
भक्ति को सर्वश्रेष्ठ
कहा है। आज के सूत्रों
में इसी की चर्चा
है। शांडिल्य कहते
है—
‘ब्रह्माकाडं
तु भक्तौ तस्य
अनुज्ञानाया सामान्यात्।
' भक्ति
के प्रतिपादन के
लिए ब्रह्म विषय
के उत्तरकाड से
ज्ञानकाड की सामान्यता
दिखायी गयी है।
' शांडिल्य
कहते है—वेदों
में पहले क्रियाकांड
है, कर्मवाद
है;फिर दूसरे
चरण में ब्रह्मज्ञान
की बात है, ज्ञानवाद
है; और फिर अंतिम
चरण में ईश्वर
की चर्चा है, भक्ति और भाव
की बात है। जैसे
वृक्ष है, तो
कर्म;फिर फूल
लगे, तो ज्ञान;और फिर सुवास
उड़ी तो भक्ति।
सुवास अंत में
है।
जो व्यक्ति
वृक्ष को ही पूजता
रह गया, वह अटक
गया। जिसने फूल
को ही सब कुछ मान
लिया, उसे अभी
परम की प्राप्ति
नहीं हुई। जो सुवास
के साथ एक हो गया,
वही स्वतंत्र
है। वृक्ष की तो
देह है, जड़ देह
है। फूल की देह
है—उतनी जड़ नहीं,
ज्यादा सूक्ष्म
तरंगों से निर्मित
है, ज्यादा
रंगीन है, ज्यादा
माधुर्य से भरी
है, फिर भी देह
तो देह है। वृक्ष
की छाल जैसी खुरदुरी
नहीं, रेशम
जैसी चिकनी है,
पर देह तो देह
है, रूप तो रूप
है, आकार आकार
है। आकार से बंधन
तो पड़ता ही है।
फिर चाहे पत्थर
की लकीर खींचो,
चाहे फूलों की
एक लकीर बनाओ,
रेखा बनती है
तो विभाजन हो जाता
है। फूल भी अभी
दूर है। सुवास
एक हो गयी। सुवास
ने देह छोड़ दी।
सुवास से मेरा
प्रयोजन है —स्थूलता
समग्र रूप से विनष्ट
हो गयी। इसलिए
सुवास को तुम देख
नहीं सकते, अनुभव कर सकते
हो। पकड़ नहीं सकते,
मुट्ठी नहीं
बांध सकते, अनुभव कर सकते
हो। सुवास आकाश
के साथ एक हो गयी।
ऐसी भक्ति है।
भक्ति आत्यंतिक
क्रांति है।
शांडिल्य
कहते है—इसलिए
वेदों में भक्ति
की चर्चा अंत में
आयी है। अंत में
ही आ सकती है। लेकिन
इधर कोई दो—तीन
सौ वर्षो से इस
देश मे कुछ लोगो
ने बड़ी मूढतापूर्ण
बात फैला रखी है।
उन्होंने यह फैला
रखा है कि कलियुग
में तो भक्ति ही
काम की है! जैसे
कि भक्ति निकृष्टतम
है। उन्होंने यह
बात चला रखी है
कि कलियुग मे और
सब मार्ग तो संभव
नहीं हैं, वे
तो सतयुग में संभव
थे, जब लोग महान
थे, जब लोग शुद्ध
और सात्विक थे,
जब लोगों के
जीवन में प्रामाणिकता
थी, सचाई थी;जब पृथ्वी पर
मनुष्य मनुष्य
जैसा नहीं, देवता जैसा चलता
था, तब संभव
था ज्ञान। अब तो
कलियुग है, काले दिन आ गये,
अमावस की रात
है, पापियों
का फैलाव है, सब तरफ पाप है,
पुण्य की कहीं
कोई खबर नहीं,
इस अंधेरे युग
में; इस काली
रात्रि में तो
जो निकृष्टतम है
वही संभव हो सकता
है, वह है भक्ति।
यह तो बात उल्टी
हो गयी। जितना
सात्विक व्यक्ति
हो, उतनी भक्ति
संभव होती है।
जितना असात्विक
व्यक्ति हो, उतना कर्मकांड
संभव होता है।
भक्ति तो सुगंध
है। भक्ति तो परा
है। इसलिए यह कहना
कि इस निकृष्ट
युग में भक्ति
ही एकमात्र उपाय
है—इस कारण कहना
क्योंकि आदमी पतित
हो गया है और पतित
आदमी और कुछ कर
नहीं सकता—बुनियादी
रूप से गलत बात
है, सौ प्रतिशत
गलत बात है।
खयाल रहे, आदमी
पतित नहीं हुआ
है, आदमी रोज
विकासमान है। इसलिए
भक्ति संभव है।
मैं भी तुम से कहता
हूं कि आज भक्ति
संभव है, लेकिन
कारण यह नहीं है
कि आज अमावस की
रात है, कारण
यह है कि आज पूर्णिमा
है। मैं भी यही
कहता हूं कि आज
भक्ति के सिवाय
और कुछ काम नहीं
आएगा, क्योंकि
आदमी प्रौढ़ हुआ
है; उठ चुका
क्रियाकाडो से।
आज क्रियाकाड पर
किसका भरोसा है?
आज अगर कहीं
यश होता हो तो सिवाय
मूढों के और कौन
इकट्ठा होता है?
जो आज के नहीं
हैं, वे इकट्ठे
होते हैं। जिन्हें
कब्रों में होना
चाहिए था, वे
इकट्ठे होते हैं।
जो दो हजार—तीन
हजार साल पुरानी
खोपड़ी लिये बैठे
हैं, वे इकट्ठे
होते हैं। आज की
दुनिया में कौन
सोचता है कि यश
करने से और पानी
गिरेगा! कहा हैं
इंद्र? कहा
हैं तुम्हारे देवता?
गये सब! जो तुमने
बचपन में सोची
थीं परियों की
कथाएं, उनका
अब कोई मूल्य नहीं
रहा। वे बचपन के
हिस्से थे, बच्चों की कहानियां
थीं।
बच्चों
को कहानियां बतानी
हों तो भूत—प्रेत, और
परी, और अप्सराएं,
और स्वर्ग,
और देवी—देवता,
इनकी बात करनी
पड़ती है। तो ही
बच्चे उत्सुक होते
है। बच्चे यथार्थ
में उत्सुक नहीं
होते, बच्चे
सपनों में उत्सुक
होते हैं। बच्चे
सपनो में जीते
हैं। अभी बच्चों
के जीवन में सपने
और यथार्थ का कोई
भेद पैदा नहीं
होता। तुमने अक्सर
देखा होगा, छोटा बच्चा सुबह
नींद से उठता है
और रोने लगता है।
और मा परेशान होती
है कि किसलिए,
अभी तो कुछ हुआ
भी नहीं! एकदम नींद
खुलते से ही रोने
लगता है, वह
कहता है—मेरा खिलौना
कहा है? उसने
सपने में एक खिलौना
देखा था, वह
अपना खिलौना मांग
रहा है। अभी सपने
में और सत्य में
फर्क नहीं है।
अभी धुंधली है
चेतना। अभी बुद्धि
जाग्रत नहीं है।
मैं तुम
से यह कहना चाहता
हूं कि आज भक्ति
ही काम आएगी, क्योंकि
आदमी प्रौढ़ हुआ
है; आदमी की
चेतना ज्यादा सजग
हुई है। दुनिया
में जो अधर्म दिखायी
पड़ता है वह इसलिए
नहीं कि आदमी पतित
हो गया है, बल्कि
इसलिए कि धर्म
के पुराने ढंग
आदमी के काम के
नहीं रह गये हैं,
और तुम उन्हीं
ढंगों को थोपे
चले जाते हो। जैसे
कि कोई जवान हो
गया है और तुम उसे
बचपन का पाजामा
पहना रहे हो, वह फेंकता है
पाजामा, वह
भागता है कि यह
तुम क्या कर रहे
हो? पाजामे
के खिलाफ नहीं
है वह, लेकिन
जरा उसकी तरफ भी
तो देखो। अब वह
छोटा बच्चा नहीं
रहा। अब तुम यह
जो छोटा पाजामा
उसे पहना रहे हो,
तुम उसकी मखौल
उडवाओगे। तुम बाजार
में उसकी हंसी
करवाओगे। उसके
योग्य पाजामा चाहिए।
आज का मनुष्य
अधार्मिक नहीं
है। सच तो यह है
कि आज का मनुष्य
जितना धार्मिक
हो सकता है उतना
कभी और किसी समय
का मनुष्य नहीं
हो सकता था। लेकिन
पुराना धर्म काम
न आएगा। बचकानी
बातें काम न आएंगी।
अब धर्म को भी प्रौढ़
होना पड़ेगा। कसूर
उनका है जो धर्म
को प्रौढ़ नहीं
होने दे रहे हैं।
आदमी तो धार्मिक
होने को उत्सुक
है,
लेकिन उसके योग्य
धर्म चाहिए। आदमी
ने समझो कि कार
बना ली और तुम बैलगाड़ी
लिए उसके द्वार
पर खड़े हो, और
तुम कहते हो—बैलगाड़ी
में बैठो; क्या
तुम्हारी यात्रा
में उत्सुकता नहीं
रही? क्या तीर्थयात्रा
को न चलोगे? और अगर वह आदमी
तुम्हारी बैलगाड़ी
में नहीं बैठता
है तो तुम कहते
हों—अब कोई तीर्थयात्रा
पर जाने को उत्सुक
नहीं है। तीर्थयात्रा
पर लोग अब भी जाना
चाहते है—कौन नहीं
जाना चाहता? सारा जीवन तीर्थयात्रा
है। परमात्मा को
लोग आज भी खोज रहे
हैं। ऐसा कोई मनुष्य
ही नहीं जो परमात्मा
को न खोज रहा हो।
लेकिन अब रास्ते,
ढंग बदले हैं।
बैलगाड़ी पर कोई
सवार नहीं होना
चाहता। और तीर्थयात्रा
का मतलब अब कुंभ
जाना नहीं हो सकता।
अब तो कुंभ का गहरा
अर्थ खोजना होगा।
कुंभ शब्द
जानते हैं कहा
से बना? घड़े से
बना। कुंभ कहते
हैं घड़े को। पूरे
भरे घड़े को कुंभ
कहते हैं। अब कोई
कुंभ के मेले पर
नहीं जाना चाहता
है, अब तो अपने
भीतर के सूने घड़े
को भरना चाहता
है, कुंभ बनाना
चाहता है। अब तो
लबालब भीतर भरना
चाहता है। अब बाहर
की गंगा—यमुना
और सरस्वतियों
में उलझने का कोई
रस नहीं है किसी
को, अब तो चाहता
है कि भीतर। और
ये तीन ही भीतर
की नदिया है—कर्म,
ज्ञान, भक्ति।
तुमने देखा, प्रयाग
में जाते हो, दो नदियां दिखायी
पड़ती है—यमुना
और गंगा—सरस्वती
अदृश्य है। ऐसी
ही भक्ति है। कर्मकांड
दिखायी पड़ता है।
कोई आदमी बैठा
है हवन बनाये,
अग्नि मे आहुति
डालता हुआ, शोरगुल मचा रहा
है, दिखता है।
कोई आदमी बड़े सोच—विचार
में पड़ा है, माथे पर पड़े बल
तो कम से कम दिखायी
पड़ते हैं।
तुम ने रोदिन
का प्रसिद्ध मूर्ति
का चित्र देखा
होगा—विचारक अपनी
ठुड्डी से हाथ
लगाए, आंख बंद
किये, सिर पर
बल डाले, रोदिन
का विचारक बैठा
है। सोच—विचार
सिर पर बल ले आता
है, चिंता ले
आता है। चिंता
और चिंतन में बहुत
फर्क थोड़े ही है,
एक ही शब्द से
बने हैं। जंहा
चिंतन है, वहां
चिंता है। लेकिन
भक्त को कहा पहचानोगे?
भक्त की दशा
बड़ी गहन है। भक्त
तो भाव है। इसलिए
भक्ति को सरस्वती
कहा है। वह दिखायी
नहीं पड़ती—सुवास।
फूल तक दिखायी
पड़ती है बात, सुवास में अदृश्य
हो जाती है। ऐसी
भक्ति है।
आज भी आदमी
परमात्मा को खोजना
चाहता है, ज्यादा
खोजना चाहता है
जितना पहले खोजना
चाहता था—और ठीक
कारणों से खोजना
चाहता है, पुराने
लोगो ने गलत कारणों
से खोजा था। पुराने
आदमी के कारण गलत
ही हो सकते थे।
बीमारी थी, इसलिए खोजा था,
क्योंकि औषधि
नहीं मिलती थी।
आज हमने औषधियां
बहुत खोज ली है,
अब हम परमात्मा
को चिकित्सक की
तरह नहीं खोजते।
जरूरत नहीं है,
चिकित्सक हम
ने पैदा कर लिये
है। आदमी परमात्मा
को खोजता था—वर्षा
करो, धूप पड़
रही है, खेत
सूखे जा रहे हैं।
अब वैज्ञानिक देशों
में वर्षा आदमी
के हाथ में हो गयी
है, हम जंहा
चाहेंगे वहा करवा
लेंगे, जब चाहेंगे
तब करवा लेंगे।
अब इंद्र को कष्ट
देने की कोई जरूरत
नहीं। आदमी प्रार्थना
करता था—मेरी उस
बड़ी करो, मैं
खूब जीऊं। आज उस
आदमी के हाथ में
है। जो बातें आदमी
परमात्मा से मागता
था, वे आदमी
के हाथ में आ गयीं।
लेकिन परमात्मा
से उस मांगनी,
वैभव मागना,
संपदा मतानी,
स्वास्थ्य मागना
गलत कारण से परमात्मा
की तरफ जाना है।
परमात्मा की तरफ
तो वही जाता है
जो सिर्फ परमात्मा
को मांगता है।
परमात्मा के अतिरिक्त
कुछ भी मांगा,
तो उसका मतलब
है तुम परमात्मा
का उपयोग कर रहे
हो। परमात्मा में
तुम्हारा रस नहीं
है;परमात्मा
के द्वारा तुम्हें
धन मिल सकता है
तो चलो, परमात्मा
की पूजा—प्रार्थना
कर लेते हो;यह खुशामद से
ज्यादा नहीं,
यह स्तुति है।
यह आकस्मिक
नहीं है कि इस देश
में इतने खुशामदी
है। यह देश सदियों
से खुशामद करता
रहा है। भगवान
की खुशामद करता
रहा है, राजा—महाराजाओं
की खुशामद करता
रहा, अब वह दो
कौड़ी के राजनीतिज्ञों
की खुशामद कर रहा
है। खुशामद की
आदत पड़ गयी है।
वह कहीं भी थाल
सजाये तैयार है
स्वागत करने को!
वह किसी के भी चरणों
में गिरने को राजी
है, नाक लड़ने
को राजी है! रिश्वत
देने को राजी है,
क्योंकि वह सदा
से रिश्वत देता
रहा है। यह भारतीय
चरित्र हो गया।
लोग
कहते है— भारत में
इतनी रिश्वत क्यों
है?
यह कोई नयी बात
नहीं है। तुम जब
जाते हो हनुमान
जी के मंदिर में
और कह आते हों—लड़के
को पास करवा देना
तो नारियल चढ़ाऊंगा,
तुम क्या समझते
हो क्या दे रहे
हो? पांच आने
का नारियल—वह भी
तुम सड़ा—गला बाजार
से खरीदकर लाओगे,
सस्ते से सस्ता—तुम
हनुमान जी को रिश्वत
दे रहे हो। ये सारी
की सारी गलत वृत्तियां
धर्म के नाम से
प्रचलित थीं। ये
समाप्त हो गयीं,
यह अच्छा हुआ।
जाल छूटा इन बीमारियों
से। अब आदमी अगर
खोजेगा तो परमात्मा
के लिए ही खोजेगा।
इसलिए मैं
कहता हूं;जब
समाज समृद्ध होता
है तो परमात्मा
की सच्ची तलाश
शुरू होती है।
क्योंकि समृद्ध
आदमी के पास वह
सब है जिसको लोग
अतीत मे परमात्मा
से मांगते रहे
थे। सब है उसके
पास और फिर भी वह
नहीं है। सब है
और सब खाली है।
धन की राशि लग गयी
है और भीतर गहरी
निर्धनता है। हाथ
मे बड़ी शक्ति है
और भीतर प्राण
कंप रहे हैं;भीतर बड़ी कमजोरी
है। यह सदी परमात्मा
को ठीक कारणों
से खोजना चाहती
है। कोई अधार्मिक
नहीं हो गया है,
धर्म काम के
नहीं रह गये हैं।
धर्म के ढंग ओछे
पड़ गये, पुराने
पड़ गये। धर्म के
ढंग आज के विकसित
आदमी के अनुकूल
नहीं है।
मैं भी तुमसे
कहता हूं : भक्ति
आज के अनुकूल है,
लेकिन मेरा हेतु,
मेरा कारण अलग।
दूसरों ने तुमसे
कहा भक्ति आज के
लायक है, क्योंकि
तुम इतने पतित
हो और कुछ तुम्हारे
लायक हो भी नहीं
सकता। मैं तुमसे
कहना चाहता हूं
भक्ति तुम्हारे
लायक है, क्योंकि
तुम पहली दफे प्रौढ़
हुए हो। मनुष्य
जाति पहली दफा
जवान हुई है। बचपन
के धुंधले दिन
गये, प्रौढ़
मस्तिष्क पैदा
हुआ है। इसलिए
भक्ति काम की है।
शांडिल्य से मैं
राजी हूं;क्योंकि
शांडिल्य कहते
है—भक्ति सर्वोपरि
है।
बुद्धि हेतु:प्रवृत्ति:अविशुद्धे:
अवधावत्।
'जब तक धान
पर छिलका रहता
है तभी तक धान को
उद्कल और मूसल
द्वारा कूटा जाता
है। इसी प्रकार
बुद्धि संबंधी
प्रवृत्तियां
तभी तक रहती हैं
जब तक चित्त शुद्ध
नहीं हो जाता है।
'
शांडिल्य
कहते है— भक्ति
के लिए कोई साधन
आवश्यक नहीं है,
सिर्फ भाव। भक्ति
के लिए कोई सीढ़ियां
नहीं हैं, सिर्फ
छलांग का साहस—कहें
दुस्साहस। अपने
को छोड़कर परमात्मा
मे गिरने की हिम्मत।
जैसे नदी सागर
में गिरती है।
जब नदी सागर में
गिरती है तो झिझकती
होगी, जरूर
झिझकती होगी,
क्योंकि अब तक
जो थी अब नहीं रह
जाएगी। वे कूल
—किनारे जिन मे
बही, वे पर्वत
श्रृंखलाएं जिन
में जन्मी, वे मैंदान जिन
से गुजरी, वे
लोग, वे वृक्ष,
वे मौसम, वे सुंदर सुबहें
और सुंदर सांझे,
और न मालूम कितने
गीत, और गाव—गांव
के गीत, और गाव—गांव
की धुनें, वे
सब याद आती होंगी;सारा अतीत रोकता
होगा नदी को कि
ठहर जा, क्यों
मिटी जाती है?
फिर तू तू नहीं
रह जाएगी। तेरा
तादात्म्य खो जाएगा।
तू अपने किनारे
मत छोड़, क्योंकि
किनारों में ही
तेरा अस्तित्व
है, तेरा तादात्म्य
है, तेरा होना
है, तेरी परिभाषा
है—तू गंगा है,
कि सिंधु है,
कि तू नर्मदा
है—सागर में गिरकर
न तू गंगा रह जाएगी,
न सिंधु रह जाएगी,
न नर्मदा रह
जाएगी। सागर में
गिरते ही तू नहीं
हो जाएगी, रुक
जा, ठहर जा,
पीछे लौटकर देख,
तेरा अपना एक
अतीत है, तेरी
अपनी एक विशिष्टता
है, तेरा अपना
एक कुल है, अपना
एक गौरव है, हिमालय में जन्मी
तू? याद कर कितने—कितने
लोगों ने राह में
तेरी पूजा की,
याद कर कितने
दीये तुझ मे छोड़े
गये और कितने फूल
तुझ पर गिराये
गये, याद कर;याद कर लोग कितने
आनंदित थे; याद कर वे प्रसन्न
चेहरे, याद
कर वे धन्यवाद
और कृतज्ञता के
भाव जो तुझे अर्पित
किये गये और आज
तू मिटने चली है
इस खारे सागर में!
पीने योग्य भी
न रह जाएगी। फिर
कोई फूल न चढ़ाका।
फिर घाट न बनेंगे
तेरे किनारे पर,
तीर्थ न उमगेगे
तेरे किनारे पर,
मेले न भरेंगे
तेरे किनारे पर,
फिर तेरा कोई
किनारा नहीं,
फिर तू नहीं,
रुक जा।
अगर नदी सोचती,
तो ऐसा होता।
आदमी सोचता है,
इसलिए ऐसा होता
है। परमात्मा में
छलांग लगानी,
अपने को खोना
है। सिर्फ थोड़े
से दुस्साहसी लोग
कर सकते है। फिर
मैं तुम्हें याद
दिलाऊं, जिनको
तुम धार्मिक कहते
हो, अक्सर कायर
और कमजोर लोग होते
है। उनके कारण
धर्म डूबता और
बदनाम होता है।
जिनको तुम धार्मिक
कहते हो—मदिरो,
मस्जिदों, गुरुद्वारों
में बैठे हुए लोग,
अक्सर कंपे हुए
लोग है;हाथ—पैर
कंप रहे हैं उनके,
घबड़ाहट मे घुटने
टेक दिये हैं उन्होंने।
धर्म उनके
जीवन में वस्तुत:
पैदा होता है जो
निर्भीक हैं,
जो अभय हैं;
जो परमात्मा
से भयभीत होकर
प्रार्थना नहीं
करते, जो परमात्मा
के प्रेम में पड़ते
हैं, तब प्रार्थना
करते हैं।
दोनों में
भेद समझ लेना,
बड़ा भेद है,
जहर—अमृत का
भेद है, जीवन—मृत्यु
का भेद है।
एक आदमी भय
से भी प्रेम कर
सकता है। मगर वह
प्रेम किस मतलब
का होगा? तुम
किसी की छाती पर
तलवार लिए खड़े
हो और कहते हो मुझे
प्रेम करो; करेगा;क्योंकि
तुम्हारी तलवार
देख रहा है। तुम्हारी
आंखों में दानव
देख रहा है, करेगा, झुकेगा,
तुम्हारे हाथ
चूमेगा, तुम्हारे
पैर चूमेगा, और कहेगा कि मैं
तुम्हें प्रेम
करता हूं सिर्फ
तुम्हीं को प्रेम
करता हूं? तुम्हारे
लिए जी रहा हूं;तुम्हारे लिए
जीऊंगा। और भीतर?
भीतर इसके ठीक
विपरीत बात होगी
कि अगर यह तलवार
कभी मेरे हाथ में
पड़ जाए और कभी तुम्हें
सोते में पा लूं
तो तुम्हें मजा
चखा दूं? तो
तुम्हें बता दूं
यह प्रेम का अर्थ
क्या है! तो तुम्हें
झुका दूं अपने
चरणों में इसी
तलवार के सहारे!
जहां भय है, वहा घृणा पैदा
होती है, प्रेम
पैदा नहीं होता।
चूंकि दुनिया के
धर्मो ने लोगों
को ईश्वर भीरु
बनाया, इसका
अंतिम परिणाम यह
हुआ कि लोग ईश्वर
के दुश्मन हो गये।
सारी दुनिया की
भाषाओं मे ऐसे
शब्द है—ईश्वर
भीरु, गाड फियरिग—इससे
ज्यादा कुरूप शब्द
नहीं हो सकते।
महात्मा
गांधी ने कहा—मैं
किसी से नहीं डरता,
सिर्फ ईश्वर
से डरता हूं। मैं
तुमसे कहता हूं—और
सबसे डरना, ईश्वर से मत डरना।
ईश्वर से डरे तो
कभी संबंध ही नहीं
हो पाएगा। ईश्वर
से डरोगे, तो
फिर जुडोगे कैसे?
भय से कहीं कोई
संबंध बनता है।
भय तो विषाक्त
कर देता है। भय
नहीं, ईश्वर
और तुम्हारे बीच
प्रेम की तरंग
चाहिए। प्रेमी
एक—दूसरे में डूबने
को आतुर होते हैं।
भक्त भय से पैदा
नहीं होता। और
जो भय से पैदा होता
हो, जान लेना
वह भक्त नहीं है।
वह सिर्फ भयभीत
है। इसी भयभीतता
के कारण दुनिया
में धर्म कम दिखायी
पड़ता है, क्योंकि
सदियों तक आदमी
को भयभीत किया
गया। इसका इकट्ठा
परिणाम यह हुआ
कि फ्रेड्रिक नीत्शे
जैसे विचारक ने
घोषणा की कि ईश्वर
मर गया है। और इतना
ही नहीं कि उसने
यह कहा ईश्वर मर
गया है, उसने
यह भी कहा कि और
ठीक से समझ लो कि
कैसे मरा? हमने
उसे मारा है। हमने
उसकी हत्या की
है। करनी ही पड़ी।
क्योंकि हमारी
छाती पर उसका बोझ
भारी हो गया था।
नीत्शे ने कहा—गाड
इज डेड एंड नाउ
मैंन इज फ्री।
ईश्वर खतम हुआ
और अब आदमी स्वतंत्र
है। झंझट मिटी।
अब तुम मुक्त हो,
अब तुम मुक्त
भाव से जीओ, अब किसी मंदिर
और मस्जिद में
जाकर प्रार्थना
करने की, घुटने
टेकने की जरूरत
नहीं।
यह नीत्शे
का वचन कहा से आया?
यह उन पादरी,
पुरोहितों,
पंडितों के कारण
आया जिन्होंने
सदियों—सदियों
तक तुम्हें सिखाया—ईश्वर
से डरो, घबड़ाओ।
और घबड़ाने के लिए
कितने—कितने आयोजन
किये—नर्क बनाया,
नर्क की बड़ी
बेहूदी कल्पनाएं
बनायीं कि तुम्हें
सडाया जाएगा। स्वभावत:
आदमी के मन में
ईश्वर के प्रति
प्रेम की जगह घृणा
का भाव पैदा होता
रहा। ऊपर—ऊपर पूजा
चलती रही, भीतर—भीतर
घाव बड़ा होता रहा,
मवाद इकट्ठी
होती रही। आखिर
हर चीज की एक सीमा
होती है। इस प्रौढ़
सदी ने आकर ईश्वर
को इनकार कर दिया।
तुलसीदास
ने कहा, भय बिन
होय न प्रीति।
इससे ज्यादा गलत
बात कभी किसी आदमी
ने नहीं कही। कहते
हैं, भय के बिना
प्रीति नहीं होती।
तो तुलसीदास को
प्रीति नहीं हुई
फिर। क्योंकि भय
से तो प्रीति होती
ही नहीं। तुमने
कभी किसी को प्रेम
किया है भय के कारण?
तुम बदला लेना
चाहते हो। छोटा
बच्चा स्कूल जाता
है, शिक्षक
को नमस्कार भी
करता है, जयरामजी
भी करता है — भय के
कारण, वह शिक्षक
के हाथ में जो छड़ी
देखता है—लेकिन
तुमने देखा, यह छोटा बच्चा
भी बदला लेता है;
जब शिक्षक तख्ते
पर कुछ लिखता होता
है, पीठ इसकी
तरफ होती है, तब वह मुंह बिचका
देता है। छोटा
बच्चा भी बदला
ले लेता है। वह
भी कुछ शरारत कर
देता है, मौका
पाकर स्याही छिड़क
देता है, या
उसकी कुर्सी पर
काटे रख जाता है।
वह क्या कर रहा
है? वह इतना
ही कर रहा है कि
आखिर मैं भी आदमी
हूं;छोटा ही
सही, मगर यह
बेंत तो मुझे मत
दिखाओ। और इस घबड़ाहट
में मुझ से अगर
तुमने नमस्कार
ली, तो मैं नमस्कार
का बदला लूंगा।
इसलिए छोटे बच्चे
अपने शिक्षकों
की मजाक उड़ाते
हुए बाहर मिलेंगे।
वह सिर्फ बदला
है। वह सिर्फ संतुलन
है। छोटे से छोटे
बच्चे बाहर बैठकर
क्या बात करते
हैं? स्कूल
से छूटते ही क्या
बात करते हैं?
शिक्षकों की
मजाक उड़ते हैं।
क्यो? नहीं
तो उनके ऊपर बड़ी
ग्लानि का भाव
हो जाएगा कि हम
में इतनी भी सामर्थ्य
नहीं है कि हम थोड़ा
बदला लें। अपमान
करना चाहते हैं
शिक्षक का वे,
सम्मान नहीं।
क्योंकि शिक्षक
जबर्दस्ती सम्मान
करवा रहा है।
पुरानी बाइबिल
मे ईश्वर कहता
है कि मैं खतरनाक
ईश्वर हूं, मैं बहुत क्रोधी
ईश्वर हूं;अगर
तुमने मेरी न सुनी
तो तुम्हें नष्ट
कर दूंगा। यह जिन
पंडितों—पुरोहितों
ने कहलवाया, उन्हीं ने नीत्शे
का वचन बन सके एक
दिन इसकी आयोजना
की। तुम जरा लौटकर
देखो धर्म के इतिहास
में तो तुम पाओगे
सबसे पहले जो ईश्वर
आया, वह घबड़ाने
वाला ईश्वर था,
डराने वाला ईश्वर
था। फिर जब आदमी
थोड़ा प्रौढ़ हुआ,
तो हमने ईश्वर
की शक्ल बदली;क्योंकि वह घबड़ाने
वाला ईश्वर कुरूप
मालूम होने लगा।
मूसा का ईश्वर
कहता है कि मैं
बहुत खतरनाक हूं
मैं बहुत ईर्ष्यालु
हूं अगर मेरी नहीं
मानी, अगर मेरी
आशा का उल्लंघन
किया, तो तुम्हें
जला डालूंगा,
नष्ट कर दूंगा,
नर्को में सडाऊंगा।
जीसस का ईश्वर
कहता है—मैं प्रेम
हूं। मूसा और ईसा
के बीच क्रांति
हो गयी। धर्म थोड़ा
प्रौढ़ हुआ। दो—ढाई
हजार साल का फासला
हो गया। बुद्ध
ने तो ईश्वर को
समाप्त ही कर दिया,
विदा कर दिया।
बुद्ध ने
कहा—ईश्वर की मौजूदगी
से ही भय पैदा होता
है। इतना बड़ा है
कि आदमी डरता है
और सिकुड़ जाता
है। डरने और सिकुड़ने
के कारण प्रार्थना
पैदा नहीं होती,
ईश्वर को विदा
ही कर दो। प्रेम
करने वाला ईश्वर
भी आखिर रहेगा
तो। और हम से विराट,
महाशक्तिशाली,
सर्वज्ञाता,
झंझट रहेगी उसकी
मौजूदगी में। वह
कितना ही कहे,
मैं तुम्हें
प्रेम करता हूं;लेकिन वह इतना
बड़ा है और हम इतने
छोटे है! बुद्ध
ने कहा इसे जाने
दो, प्रार्थना
काफी है, ध्यान
काफी है, ईश्वर
की कोई जरूरत नहीं
है। जहां प्रार्थना
है, वहा परमात्मा
का अनुभव आ ही जाएगा।
यह धर्म ने और भी
ऊंची उड़ान ली।
यह धर्म का विकास
है। जैसे—जैसे
भय हमने छोड़ा,
वैसे—वैसे हम
धार्मिक होने में
सफल हुए।
लेकिन जब
तक बुद्धि है,
जब तक विचार
है, तब तक अशुद्धि
रहेगी। शांडिल्य
कहते हैं, भाव
तो परम शुद्धि
है। वहा तो शुद्ध
करने को कुछ भी
नहीं बचता, भाव यानी शुद्धि।
वहां तो आदमी छलता
लगा लेता है। इसलिए
भक्ति में कोई
साधन नहीं है—न
श्रवण, न मनन,
न निदिध्यासन;भक्ति में कोई
साधन नहीं है—न
योग, न तप, न विराग;भक्ति
में कोई साधन नहीं
है, भक्ति तो
शुद्ध साध्य है।
लेकिन आदमी
का शरीर है, शरीर में बड़ी
अशुद्धिया हैं,
तो योग की जरूरत
है, तो व्यायाम
की जरूरत है। तो
शरीर को शुद्ध
करने के उपाय हैं,
देह शुद्धि की
विधियां है—वही
योग है। फिर कुछ
लोग ऐसे पागल हैं
कि उसी में लगे
रह जाते हैं, वह देह शुद्धि
ही करते रहते हैं
जिंदगी भर। वे
भूल ही जाते है
कि देह शुद्धि
किसलिए कर रहे
थे। जैसे कोई अपने
घर को साफ करने
में लग जाए, क्योंकि साफ
न करेंगे तो रहेंगे
कैसे घर में, और फिर भूल ही
जाए कि रहना भी
है, और साफ ही
करता रहे।
मैं एक घर
में कुछ दिनों
तक रहा। महिला
बिलकुल पागल थी
सफाई के लिए। वह
इतनी पागल थी कि
अपने पति को भी
सोफे पर बैठने
नहीं देती थी—सलवट
पड़ जाए—बच्चों
को कमरों में घुसने
नहीं देती थी।
घर बड़ा था, लेकिन
सफाई के कारण सबको
रहना पड़ता था एक
कोने मे ही, घर के एक कमरे
में ही, बाकी
तो सब साफ—सुथरा
रहता, दर्पण
की तरह चमकता रहता।
कुछ दिन मैं घर
में मेहमान था,
मैंने उस महिला
से पूछा कि घर तो
तेरा मुझे पसंद
आया, मगर यह
घर म्यूजियम है,
यह रहने योग्य
नहीं, क्योंकि
यहा सब डरे हुए
है—तेरा पति डरा
है, तेरे बच्चे
डरे हैं कि कहीं
किसी चीज में कुछ
खरोंच न लग जाए।
कोई चलता—फिरता
नहीं ठीक से, हिलता—डुलता
नहीं ठीक से, तूने सबको घबड़ा
रखा है, कोई
कचरा भीतर न ले
आए, तो सब इस
तरह रह रहे हैं
जैसे किसी दूसरे
के घर में रह रहे
हों और चोर की तरह
रह रहे हैं। यह
सफाई किसलिए है?
आदमी सफाई करता
है कि वहा रहे।
रहेगा तो थोड़ी
गंदगी होगी, तो फिर सफाई।
मगर सिर्फ सफाई
ही करते रहो और
रहना भूल जाओ—ऐसे
बहुत योगी तुम्हें
इस देश में मिलेंगे
जो दिन—रात आसन—व्यायाम—उपवास
करने में लगे हैं
और यह भूल ही गये
कि यह सिर्फ घर
की सफाई है। इसमें
रहोगे कब? रहोगे
कैसे?
इस से कुछ
ऊपर जाते हैं,
वे लोग बुद्धि
की सफाई में लगते
हैं। मगर वह भी
सफाई है। उसी की
सफाई मे जीवन मत
गंवा देना। बहुत
लोग विचारक होकर
ही नष्ट हो जाते
हैं। विचार से
कभी कुछ मिलता
नहीं, कोई निष्पत्ति
नहीं आती हाथ में।
विचार थोथी यात्रा
है, शब्द ही
शब्द हैं वहा।
रोटी शब्द से पेट
तो नहीं भरता।
कितना ही सोचो
रोटी शब्द पर,
तो भी पेट नहीं
भरता। एक रूखी—सूखी
रोटी भी बेहतर
है। तुम्हारे कितने
ही सुंदर विचार
हों रोटी के संबंध
में, उन से एक
रूखी—सूखी रोटी
बेहतर है। और तुम
परमात्मा के संबंध
में लाख सोचो,
उसका कोई मूल्य
नहीं है।
परमात्मा
के संबंध में सोचना
परमात्मा को जानना
नहीं है। जानना
और सोचना अलग—अलग
बातें है। जानना
तो तब होता है,
जब सोचना रुकता
है। जब तक सोचना
चलता है तब तक जानना
नहीं होता; क्योंकि सोचने
वाला आदमी सोचने
मे उलझा रहता है,
जानने की फुर्सत
कहा, सुविधा
कहां, अवकाश
कहा? जो आदमी
फूल के संबंध में
सोच रहा है, वह फूल के सौदर्य
को जी ही नहीं पाता।
कोई पक्षी गीत
गाता है और जो आदमी
पक्षी के इस गीत
के संबंध मे विचार
करने लगता है—इसका
ध्वनि—शास्त्र
क्या है, इसकी
उत्पत्ति कैसे
है, इस पक्षी
का कंठ कैसा होगा,
उसके कंठ का
यंत्र कैसा है;ध्वनि को पैदा
करने वाली ध्वनि
की संभावना, ध्वनि का अर्थ—इस
सब में जो पड़ गया,
वह व्यक्ति पक्षी
के गीत के आनंद
को अनुभव नहीं
कर पाएगा। वह पक्षी
के गीत को जानने
से रह जाएगा। ऐसा
ही समझो कि तुम्हें
एक सुंदर कविता
दी गयी और तुम इस
उलझन में पड़ गये
कि इसकी व्याकरण
क्या है? शब्दों
का जमाव कैसा है?
शैली कौन सी
है? नयी है कि
पुरानी, आधुनिक
है कि प्राचीन?
फिर छंद
के नियम पाले गये
हैं या नहीं? मात्राएं सब
अपनी जगह हैं या
नहीं? अगर तुम
इस सब मे पड़ गये,
तो एक बात पक्की
है कि तुम बहुत
कुछ कविता के संबंध
में जान लोगे,
लेकिन कविता
को जानने से वंचित
रह जाओगे। या ऐसा
समझो कि तुमने
वीणा को बजते देखा
और तुम वीणा खोलकर
बैठ गये और देखा
कि तार कहा बने
हैं, जापान
में कि जर्मनी
में, लकड़ी कहा
से लायी गयी? यह यंत्र बना
कैसे है जिसमें
इतना माधुर्यपूर्ण
संगीत पैदा होता
है? तुम वीणा
के संबंध में बहुत
कुछ जान लोगे,
लेकिन संगीत
के संबंध में कुछ
भी न जान पाओगे।
प्रेम के
संबंध में सोचने
वाले लोग प्रेम
से वंचित रह जाते
है। यह दुर्भाग्य
है, मगर ऐसा
है। ईश्वर के संबंध
में जो लोग जीवनभर
विचार करते हैं,
वे ईश्वर को
जानने से वंचित
रह जाते हैं।
भक्ति
इन सब बातों की
तरफ इशारा करती
है। भक्ति बड़ी
क्रांतिकारी दृष्टि
है। भक्ति कहती
है—शरीर की शुद्धि
ठीक,
अपनी जगह ठीक,
लेकिन उसी में
उलझ मत जाना। उसका
मूल्य बहुत कम
है। और विचार की
प्रक्रियाएं भी
सुंदर हैं, लेकिन उन्हीं
में भटक मत जाना,
अन्यथा वे महाकाल
सिद्ध होंगी और
तुम उन्हीं में
भटकते रह जाओगे।
पहेलियों पर पहेलियां
उठती जाएंगी,
तुम कभी उस जंगल
के बाहर न आओगे।
शरीर से पार
जाना है, और
मन से भी पार जाना
है। हृदय में आरोपित
करना है जीवन—चेतना
को। हृदय में जड़ें
जमानी है। भाव
में डुबकी लेनी
है। जो भाव तक उठ
पाता है, वह
श्रेष्ठतम है इस
जगत में, क्योंकि
वही परमात्मा को
जान पाता है, जी पाता है, हो पाता है। बुद्धि
मलिन है;चंचलता
है बहुत, अस्थिरता
है बहुत, विचार
ही विचार की इतनी
तरंगें हैं जैसे
झील पर बहुत तरंगें
हों और चांद का
प्रतिबिंब न बने,
और बने भी तो
ऐसा लगे जैसे चांदी
बिखरी है, चांद
को चांद की तरह
देखना असंभव हो।
तो बुद्धि के लिए
शुद्ध होने की
प्रक्रियाएं,
वही ध्यान है।
वही अवधान है।
जो सदियों—सदियों
में खोजे गये मार्ग
हैं, वे बुद्धि
को शुद्ध करने
के मार्ग है। कैसे
बुद्धि एकाग्र
हो, कैसे बुद्धि
निर्विकार हो,
कैसे बुद्धि
शांत हो,
कैसे विचार शांत
हों, यह ज्ञानयोग
का मार्ग है। लेकिन
भक्तियोग एक अपूर्व
कदम है, भक्तियोग
यह कहती है—बुद्धि
को छोड़ो उसकी जगह,
उसमें उलझो मत;
तुम बुद्धि को
दरकिनार रख सकते
हो और आगे बढ़ जा
सकते हो। बुद्धि
इतना समय खराब
करने योग्य नहीं
है। और एक बार उलझे
तो बाहर निकलना
मुश्किल हो जाएगा।
बुद्धि में उठने
दो तरंगें, तुम बुद्धि की
तरंगों को बिठालने
में उतनी चिंता
मत करो, तुम
बुद्धि पर ज्यादा
ध्यान ही मत दो,
उपेक्षा करो;उठने दो बुद्धि
में तरंगें, तुम तो परमात्मा
मे सीधी छलाग लगाओ।
फर्क समझना।
ज्ञानी कहता
है—जब तक बुद्धि
शुद्ध न होगी,
तब तक परमात्मा
आएगा नहीं। भक्त
कहता है—जब तक परमात्मा
न आए, तब तक बुद्धि
शुद्ध कैसे होगी?
ज्ञानी कहता
है—पहले मैं शुद्ध
कर लूं बुद्धि
को, तभी परमात्मा
आ सकता है, क्योंकि
वह शुद्ध में ही
आएगा। भक्त कहता
है—उसकी मौजूदगी
में ही शुद्धि
फलित होती है,
उसके बिना कोई
शुद्धि नहीं है।
उसके बिना कौन
शुद्ध करेगा?
तुम्हीं करोगे
न! तुम ही अशुद्ध
हो, तुम कैसे
शुद्ध करोगे?
कौन शुद्ध कर
रहा है? बुद्धि
ही बुद्धि को शुद्ध
कर रही है। बुद्धि
ही शुद्धि के उपाय
खोज रही है, वही बुद्धि जो
अशुद्ध है। अशुद्ध
बुद्धि से शुद्धि
के उपाय खोजे जा
रहे हैं, वे
सब उपाय अशुद्ध
होंगे। इसमें एक
बड़ी भमणा हो जाएगी।
भक्त कहता
है—स्वीकार करो
कि बुद्धि अशुद्ध
है, स्वीकार
करो कि मैं अशुद्ध
हूं और फिर भी पुकारो
उसे कि मैं अशुद्ध
हूं भला, तेरा
हूं; बुरा हूं
भला, तेरा हूं;
जैसा हूं;स्वीकार कर,
अंगीकार कर,
मुझ पर उतर।
मैं अपनी धूल खुद
न झाडू पाऊंगा,
तेरी वर्षा हो
तो मेरी धूल बह
जाएगी, मैं
शुद्ध हो जाऊंगा।
तू आ, तेरे आते
ही रोशनी आ जाएगी।
तेरी रोशनी मे
सब निखर जाएगा,
सब साफ हो जाएगा,
तू आ। तेरी अग्नि
मुझ पर बरसे तो
जो कूड़ा—कर्कट
है, अपने से
जल जाएगा, सोना
ही बचेगा। आग में
बिना डाले सोना
निखरेगा कैसे?
और भगवान में
गुजरे बिना भक्त
निखरेगा कैसे?
इसलिए भक्ति
की दृष्टि को समझ
लेना।
उसकी दृष्टि
यही है कि उसकी
मौजूदगी मे सब
फलित हो जाता है।
हम उसे बुला लें,
तो सब हो जाएगा।
हमारे किये कुछ
भी नहीं हो सकता
है। हमारे किये
पर हमारे हाथ की
छाप होगी—हमारे
हाथ गंदे हैं।
हमारे किये पर
हमारे विचार का
अंकन होगा—हमारे
विचार गंदे हैं।
हम तो जो भी करेंगे
उसमें गंदगी आ
जाएगी। हम गंदे
हैं, हमारा
अहंकार गंदा है;
यह मैं— भाव तो
गंदगी का मूल है।
तो भक्त कहता है
—यह हमारे बस की
बात नहीं है; हम अवश हैं, हम असहाय है;
हम रो सकते है,
हम पुकार सकते
हैं, हम विक्रल
हो सकते हैं, आना तुझे पड़ेगा।
और परमात्मा आता
है। परमात्मा की
कोई शर्त नहीं
कि तुम जब शुद्ध
होओगे तभी आऊंगा।
यह शर्त तुम्हारे
अहंकार ने ही लगा
रखी है। यह शर्त
तुम्हारे ही अहंकार
की है।
यह ऐसा है
जैसे बच्चा मल—मूत्र
कर लिया है और अपने
झूले में मल—मूत्र
में दबा पड़ा है, और
सोचता है कि जब
तक शुद्ध न हो जाऊं
तब तक मां को कैसे
बुलाऊं? पहले
शुद्ध तो हो लूं?
ऐसे में कहीं
मां को बुलाना
होता है? ऐसे
में कहीं मा आएगी?
लेकिन यह बच्चा
शुद्ध होगा कैसे?
यह शुद्ध होने
की अगर थोड़ी चेष्टा
करेगा तो और गंदगी
में दब जाएगा।
वह जो गंदगी अभी
शायद इतनी फैली
भी न हो, इसकी
शुद्ध करने की
चेष्टा में और
बुरी तरह फैल जाएगी।
नहीं, यह बच्चे
को इस सब की चिंता
नहीं आती। यह रोने
लगता है, यह
पुकारने लगता है,
मां दौड़ी चली
आती है।
भक्ति का
सूत्र, मौलिक
सूत्र यही है कि
तुम्हारी पुकार
परमात्मा को ले
आती है। तुम एक
बार पुकारो तो!
तुम आसन—व्यायाम
करो, तुम श्रवण—मनन—निदिध्यासन
करो, तुम सब
तरह से अपने को
शुद्ध करो, फिर बुलाओगे,
इसमें भी अस्मिता
है कि मैं जब शुद्ध
हो जाऊंगा तब बुलाऊगा—लेकिन
मैं जब शुद्ध हो
जाऊंगा, तब!
तुमने शर्ते बना
रखी हैं अपने ऊपर।
तुम शुद्ध हो पाओगे?
इस देह को कितना
ही शुद्ध करो,
यह रोज अशुद्ध
हो जाएगी। फिर
भोजन करोगे, फिर अशुद्ध हो
जाएगी। इसमें तो
खून रहेगा और बहेगा।
इसमें तो जीवाणु
मरेंगे और जीएंगे।
यह देह तुम कितनी
ही शुद्ध करो—योगी
कितनी ही देह की
चिंता में लगा
रहे, तुम सोचते
हो योगी की देह
कुछ भोगी से ज्यादा
शुद्ध हो जाती
है? शायद थोड़ी
कम बीमारियां आती
होंगी; लेकिन
मौत तो फिर भी आती
है। शायद थोड़े
ज्यादा दिन जिंदा
रह जाता होगा;लेकिन ज्यादा
दिन जिंदा रहे
कि कम, इससे
क्या फर्क पड़ता
है। योगी की देह
भी सडेगी, उस
से भी दुग ध उठेगी।
सब जप—तप व्यर्थ
श्रम हुए।
और तुम सोचते
हो जो बहुत ज्यादा
चित्त को एकाग्र
करने बैठे रहते
हैं,
इनका चित्त शांत
हो जाता
है? सच तो यह
है, उल्टा अशांत
हो जाता
है। तुम्हारे घर
में अगर एक आदमी
को भी यह सनक सवार
हो जाए कि चित्त
एकाग्र करना है,
तो वह खुद तो
अशांत हो
ही जाता है, पूरे घर को भी
अशांत कर
देता है। क्योंकि
जरा कोई हिल नहीं
सकता, लोग बोल
नहीं सकते, बच्चे शोरगुल
नहीं मचा सकते।
पत्नी को बर्तन
भी चौके में सम्हालकर
रखने होते है—कोई
आवाज न हो जाए,
क्योंकि पतिदेवता
ध्यान कर रहे हैं,
उनका ध्यान अगर
खंडित हो जाए—और
वह बिलकुल तैयार
ही बैठे हैं कि
कोई बहाना मिल
जाए; खंडित
तो हो ही रहा है,
किसी बिना बहाने
के भी हो रहा है,
लेकिन बिना बहाने
के वह किस पर टूटे?
अगर पत्नी का
बर्तन गिर जाए
हाथ से, तो वह
निकलकर अभी पूजागृह
के बाहर आ जाएं
कि भ्रष्ट कर दिया
मेरा ध्यान, अशांति पैदा
कर दी! कोई बच्चा
चिल्ला दे, तो उनको मौका
मिले, वह बाहर
आ जाएं। वे तैयार
ही बैठे हैं, वे उबल ही रहे
हैं भीतर, भाप
इकट्ठी हो रही
है। तुमने
देखा नहीं, जितने लोग ध्यान
इत्यादि में बहुत
उत्सुक हो जाते
हैं, उतने ही
ज्यादा अशांत चित्त हो
जाते हैं, उतने
ही क्रोधी हो जाते
हैं। एक आदमी घर
में धार्मिक हो
जाए, तो समझो
घर में एक उपद्रव
हो गया। वह क्रोधी
हो जाता है। वह
माला फेरता रहता
है और चारों तरफ
देखता रहता है
कि सारा संसार
उसके अनुकूल चल
रहा है कि नहीं!
जब मैं माला फेर
रहा हूं;तो
कुत्ते क्यो भूक
रहे हैं? जब
मैं माला फेर रहा
हूं; तो बच्चे
क्यों शोरगुल कर
रहे हैं? जब
मैं माला फेर रहा
हूं; तो कोई
गीत क्यो गा रहा
है? जैसे सारी
दुनिया तुम्हारे
साथ माला फेरने
का निर्णय किये
बैठी है।
नहीं, यह
चित्त को शांत
करने वाले
लोग चित्त को शांत
नहीं कर
पाते। चित्त को
शांत कर
पाते हैं वे लोग,
जो चित्त के
ऊपर है उसको बुलाते,
जो उसे पुकारते;जो कहते हैं,
मैं तो ऐसा हूं?
बुरा— भला तुम्हारा
हूं? तुम आओ,
मुझे निखारो,
मुझे पखारो,
मुझे ले चलो,
मैं तो अंधा
हूं;मेरा हाथ
गहो।
भक्त कहता
है—मैं अपने से
कुछ न कर पाऊंगा, तुम
कुछ करो। यही समर्पण
है। इसी समर्पण
में शांति है,
शुद्धि है। शांडिल्य
कहते है—
बुद्धि
हेतु: प्रवृत्ति
: अविशुद्धे: अवधावत्।
'जब तक धान
पर छिलका रहता
है तभी तक धान को
मूसल द्वारा कूटा
जाता है। ' जब
धान का छिलका उतर
जाता है, तो
फिर उसे कोई नहीं
कूटता। क्या छिलका
है जिसकी वजह से
तुम्हें अशुद्धि
हो रही है और शुद्ध
नहीं हो पा रहे
हो? अहंकार
छिलका है। अहंकार
ने तुम्हारी आत्मा
को घेरा है। जब
तक अहंकार है,
तब तक बहुत कूटे
जाओगे। जिस दिन
अहंकार नहीं रहा,
उस दिन कूटने
की कोई जरूरत नहीं
रह जाएगी। इसलिए
भक्त कहता है—न
तो कोई योग है,
न कोई ध्यान
है, सिर्फ शरणागति।
अहंकार को छोड़
दो तो धान ने अपना
छिलका छोड़ दिया,
फिर कूटने की
कोई जरूरत नहीं
रही।
ये जिनको
तुम तपस्वी कहते
हो,
ये क्या कर रहे
हैं? ये मूसल
से अपने को कूट
रहे हैं। तुम्हें
इन पर दया भी आती
है, सम्मान
भी आता है कि बिचारे
कितना कष्ट उठा
रहे हैं! इनका कष्ट
देखकर तुम इनके
चरण छूने भी जाते
हो, आदर देने
भी जाते हो। मगर
ये व्यर्थ कष्ट
उठा रहे हैं, और इनके कष्ट
उठाने से छिलका
कटता नहीं। मजा
यह है, यह कोई
साधारण धान नहीं
है कि मूसल से कूटा
और छिलका निकल
जाए। यह आदमी है,
आदमी बड़ी उलझी
हुई धान है। जितना
कूटो, छिलका
और चिपकता है।
तो तुम अपने त्यागियो
में जितना अहंकार
पाओगे, उतना
भोगियों में नहीं
होता।
जो आदमी
शराबघर जाता है
रोज,
वह विनम्र होता
है। विनम्र इसलिए
होता है कि अहंकार
करने का है ही क्या?
हमेशा सिर झुकाए
रहता है, कहता
है—हा, पापी
हूं ; क्षुद्र
हूं तुच्छ हूं
किसी योग्य नहीं
हूं आपके सामने
आंख भी उठाऊं इस
योग्य भी नहीं
हूं; यह विनम्र
होता है। लेकिन
जो आदमी रोज मंदिर
जाता है, छाती
अकड़ जाती है, उसकी रीढ़ एकदम
सीधी हो जाती है,
वह अकड़कर चलता
है, वह चारों
तरफ देखकर चलता
है कि देखो मैं
मंदिर गया, देखो मैं मंदिर
से आ रहा हूं; और तुम सब पापी
क्या कर रहे हो?
जिसने एकाध दिन
उपवास कर लिया,
वह दूसरे दिन
बाजार में इस तरह
घूमता है जैसे
उसने कोई संपदा
इकट्ठी कर ली।
जरा सा किसी ने
त्याग कर दिया,
कुछ दान दे दिया
कि उसका अहंकार
बढ़ा।
तुम अपने
योगियों को, अपने
महात्माओं को जितने
अहंकार से भरा
हुआ पाओगे उतने
तुम साधारणजनों
को न पाओगे। तुम्हारे
साधारणजन ज्यादा
धार्मिक हैं। मैं
दोनों से परिचित
हूं। जिसको तुम
साधारणजन कहते
हो, वह परमात्मा
के ज्यादा करीब
मालूम पड़ता है।
तुम्हारा महात्मा
तो भयंकर अहंकार
से ग्रस्त है।
यह धान ऐसी है आदमी
की, इसको मूसल
से कूटो तो छिलका
और चिपक जाता है।
अगर बहुत कूटो
तो धान तो समाप्त
हो जाती है, छिलका ही छिलका
रह जाता है। छूंछा
अहंकार।
शांडिल्य
कहते है— 'इसी प्रकार
बुद्धि संबंधी
प्रवृत्तियां
तभी तक रहती हैं,
जब तक चित्त
शुद्ध नहीं हो
पाता। ' लेकिन
चित्त शुद्ध कैसे
होगा? शुद्ध
कौन करेगा? इसको मैं फिर
दोहरा दूं शुद्ध
कौन करेगा? तुम शुद्ध करोगे,
तुम्हीं तो अशुद्ध
हो। यह ऐसे ही है,
जैसे कोई आदमी
अपने ही पेट को
खोल ले और आपरेशन
करे। कितना ही
बड़ा सर्जन हो,
अपना ही पेट
नहीं खोलेगा। कितना
ही बड़ा, कितना
ही कुशल सर्जन
हो और हजारों लोगों
की अपेंडिक्स निकाली
हो, तो भी अपनी
अपेंडिक्स नही
निकालेगा। क्योंकि
वह प्रक्रिया तो
घातक है। किसी
को पुकारना पड़ेगा।
और जब पुकारना
ही हो, तो परमात्मा
से छोटे को क्यो
पुकारना? छोटे
से क्यों राजी
होना?
उस महाचिकित्सक
को बुलाओ, उस
परमवैद्य को उतरने
दो, उसकी मौजूदगी
तुम्हें स्वस्थ
कर जाएगी, तुम्हारे
घाव भर जाएगी।
जो गलत है, ले
जाएगी, जो सही
है, दे जाएगी।
इसलिए शांडिल्य
कहते हैं कि भक्त
को इन सब बातों
में नहीं पड़ने
की जरूरत है।
त्यागियो
को बड़ी हैरानी
होती है भक्तों
को देखकर, क्योंकि
उनको लगता है भक्त
तो भोगी जैसे हैं।
क्योंकि भक्त नाचता,
गाता, आनंदित
रहता है। यह अस्तित्व
भगवान से भरा है,
इसलिए उल्लसित
रहता है, उदास
नहीं रहता। भक्त
उदास नहीं होता,
यह उसके स्वास्थ्य
का लक्षण है। उसके
चेहरे पर मुस्कुराहट
होती है। यह परमात्मा
से भरा हुआ जगत,
यहा मुस्कुराओगे
नहीं तो कहा मुस्कुराओगे!
भक्त उदास नहीं
है, क्योंकि
अपने चेहरे पर
चिंता का कोई कारण
ही नहीं है, सब उस पर छोड़ दिया
है, अब वह जाने।
जो चांद—तारे चला
रहा है, वह मुझे
एक छोटे से आदमी
को न चला पाएगा?
भक्त कहता है—जो
इतने विराट की
लीला के पीछे छिपा
है, वह मुझे
छोटे से क्षणभंगुर
के पीछे भी चला
लेगा। उसके हाथों
में मैं सुरक्षित
हूं। भक्त आनंदित
होता है, प्रफुल्लित
होता है, प्रसन्नचित्त
होता है। जैसे—जैसे
भक्ति की गहराई
बढ़ती है, वैसे—वैसे
उसका भोग गहन होता
है। यहां भोगने
को ही है, त्यागने
को क्या है, क्योंकि सब तरफ
परमात्मा है। जो
भी तुमने त्यागा,
वह परमात्मा
को ही त्यागा।
जितना तुमने त्यागा,
उतना परमात्मा
तुमने त्यागा।
यहा सभी परमात्मा
है। कुछ भी त्यागने
को नहीं है। हर
भोग में परमात्मा
को खोज लेना, हर भोग में भगवान
को खोज लेना। तपस्वी
कहता है — भोजन करना,
लेकिन स्वाद
मत लेना। भक्त
कहता है—अन्न ब्रह्म।
भक्त कहता है—अन्न
तो ब्रह्म है।
इतना स्वाद लेना
कि अन्न तो भूल
ही जाए, भगवान
का स्वाद आ जाए।
ये बड़ी भिन्न दृष्टियां
हैं। ये बड़े महत्वपूर्ण
बिंदु हैं।
त्यागी
भागता है स्त्री
से,
पुरुष से, डर लगता है उसे—त्यागी
सदा डरा हुआ है—और
जितना भागता है,
उतना डर बढ़ता
है। भक्त तो प्रेम
में लवलीन होता
है, वह कहता
है, सब भक्ति
के ही रूप हैं।
बाप और बेटे के
बीच जो घटता है,
वह भक्ति का
ही रूप है। और पति—पत्नी
के बीच जो घटता
है, वह भी भक्ति
का ही रूप है। गुरु—शिष्य
के बीच जो घटता
है, वह भी भक्ति
का ही रूप है। परम
भक्तिया ये नहीं
हैं, बड़ी धूलमिश्रित
भक्तिया हैं,
मगर हैं तो भक्तिया
ही।
कभी—कभी
किसी क्षण में, जिसे
तुमने प्रेम किया
है उसमें परमात्मा
की झलक निश्चित
मिलती है, नहीं
तो प्रेम ही नहीं
किया होता—प्रेम
ही हम परमात्मा
को करते हैं, झलक उसकी कहीं
भी मिली हो। झलक
ही मिलती है; खो—खो जाती है,
फिर अंधेरा घना
होता जाता है;
इस से क्या फर्क
पड़ता है? भक्त
कहता है—इस तरह
प्रेम करना कि
जंहा तुम्हारा
प्रेम हो, वहीं
से प्रार्थना का
अनुभव शुरू हो
जाए। पत्नी इस
तरह चाही जा सकती
है कि पत्नी परमात्मा
की मौजूदगी बन
जाए। पति इस तरह
चाहा जा सकता है,
पति के साथ इस
तरह की लीनता हो
सकती है कि पति
के साथ, उसका
संग प्रार्थना
की झलक लाने लगे।
मां अपने बेटे
को इस भांति चाह
सकती है कि हर बेटा
कृष्ण बन जाए।
भक्त कहता है —जीवन
को रूपांतरण करना,
त्यागना नहीं।
आंख खोलकर ठीक
से देखना है, यहा सब तरफ भगवान
छिपा है, उसे
पुकारना है।
‘तत् अंगानान्
च।
यह बड़ी क्रांति
का सूत्र है। उसके
अंगसमूहो की भी
आवश्यकता नहीं
है। भक्त को तपश्चर्या, योग
इत्यादि के अंगसमूहो
की कोई आवश्यकता
नहीं है —तत् अंगानान्
च। कोई योग, कोई विधि—विधान,
कोई निधि, कोई निषेध, भक्त को कुछ भी
जरूरत नहीं है।
भक्ति काफी है।
सीढ़ियां नहीं हैं
भक्ति में।
'तत् अंगानान्
च'। अंगसमूहो
की आवश्यकता भक्ति
को नहीं है। योग
में अष्टाग है—अंग।
बुद्ध ने भी अष्टागिक
मार्ग कहा है—अंग।
भक्ति में कोई
अंग नहीं है। भक्ति
समग्र है, पूरी—पूरी
है। चाहो तो ले
लो पूरी, चाहो
तो न लो। टुकड़ों
में बंटी हुई नहीं
है। ऐसा नहीं है
कि थोड़ा लिया,
फिर थोड़ा लिया,
फिर थोड़ा लिया;
जिसे लेना है,
उसे पूरा। भक्ति
अखंड है। उसमे
अंग नही हैं, खंड नहीं हैं।
इसका परम अर्थ
होता है कि भक्त
सब विधि—निषेधों
से मुक्त। जिसको
अष्टावक्र ने कहा
है—स्वच्छंदता,
वह भक्त की परमदशा
है। भक्त स्वच्छंद
होता है।
घबड़ा मत
जाना शब्द स्वच्छंद
से;क्योंकि तुमने
उसका जो अर्थ सुना
है, वह गलत है।
तुमने स्वच्छंद
से अर्थ समझ लिया—उच्छृंखल।
तुमने स्वच्छंद
का अर्थ समझ लिया
है—जो कुछ भी करता
है, उलटा—सीधा।
नहीं, स्वच्छंद
का वह अर्थ नहीं
है। स्वच्छंद का
अर्थ होता है—जो
भीतर के छंद से
जीता है, स्वयं
के छंद से जीता
है। जिसके ऊपर
बाहर से विधि—निषेध
नहीं आते। जो शास्त्रों
में देख—देखकर
नहीं चलता। जिसके
पास बाहर के कोई
नक्यो नहीं हैं,
जो अंतर्ज्योति
से चलता है। प्रभु
को पुकार लिया
है, अब प्रभु
उसके भीतर नाच
रहा है, वह उसी
नाच में मस्त है,
वह उसी मस्ती
में चलता है। अब
उस पर कोई विधि—विधान
नहीं लगते। अब
उस पर छोटी—छोटी
बातें मर्यादा
की लागू नहीं होतीं।
इसलिए तो मीरा
कहती है—लोक—लाज
खोयी।
लोक—लाज
अंधे आदमियों के
लिए व्यवस्थाएं
हैं। जिसको आंख
मिल गयी, वह लोक—लाज
की चिंता नही करता।
ऐसा समझो कि एक
अंधा आदमी एक लकड़ी
को लेकर चलता है,
टटोल—टटोलकर।
फिर उसकी आंख ठीक
हो गयी, तो वह
लकड़ी को फेंक देता
है, अब लकड़ी
किसलिए? अब
वह स्वच्छंद हो
जाता है। पहले
लकड़ी से बंधा था,
पहले एक तरह
की परतंत्रता थी,
लकड़ी के बिना
चल ही नहीं सकता
था—उठता था तो पहले
पूछता था मेरी
लकड़ी कहा है? एक इंच नहीं हिलता
था बिना लकड़ी के,
बिना लकड़ी के
चलना खतरनाक था,
लकड़ी ही उसकी
परिपूरक आंख थी,
वही आंख का काम
देती थी, लेकिन
अब असली आंख मिल
गयी, अब आंख
की जाली कट गयी,
आंख खुल गयी,
अब वह लकड़ी के
लिए नहीं रुकता,
अब लकड़ी को टटोलता
भी नहीं है, अब लकड़ी को लेकर
चलता भी नहीं है,
अब लकड़ी की कोई
जरूरत भी नहीं
है। जिसके हाथ—पैर
ठीक हो गये, वह बैसाखी लेकर
तो नहीं चलता?
जगत में
इतने विधि—निषेध
है —ऐसा करो, ऐसा
मत करो; यहा
जाना, वहा मत
जाना;इस तरह
बोलना, उस तरह
मत बोलना;इस
तरह का व्यवहार
शुभ, उस तरह
का व्यवहार अशुभ; यह नीति, यह
अनीति;यह चरित्र,
यह दुश्चरित्रता—ये
सारे जो इतने नियम
हैं, ये लकड़ियां
हैं। आदमी अंधा
है, उसके भीतर
कोई रोशनी नहीं
है, उसके पास
अपनी आंख नहीं
है, उसे टटोल—टटोलकर
चलना पड़ता है,
नहीं तो गट्टो
में गिरेगा। इतना
टटोल—टटोलकर चलता
है फिर भी तो गड्डों
में गिरता है,
तो बिना टटोले
चलेगा तो और भी
ज्यादा गिरेगा।
टटोल—टटोलकर भी
कहा बच पाता है?
कितना तुम सोचते
हो कि क्रोध बुरा
है और क्रोध करना
नहीं है, और
शास्त्र कहते है
क्रोध मत करो,
फिर भी क्रोध
आता है तब आता है।
गड्डा जब आता है
तो तुम चूक नहीं
पाते, गिर ही
जाते हो। कामवासना
जब पकड़ती है तो
पकड़ती है। फिर
ज्वर की भांति
पकड़ती है। फिर
तुम्हारे हाथ के
बाहर होती है।
फिर तुम्हारे सब
निर्णय ब्रह्मचर्य
के, और तुम्हारी
सारी पढ़ी—लिखी
बातें दो कौड़ी
की हो जाती है।
उस प्रगाढ़ बाढ़
मे सब बह जाता है—तुम्हारे
सब शास्त्र, तुम्हारे सब
शास्ता। लेकिन
जब वासना चली जाती
है, तब तुम फिर
अपने शास्त्रों
को सम्हालकर फिर
चलने लगते हो।
फिर अपनी लकड़ी
उठा ली, गड्डे
से फिर निकल आए,
अब तय कर लिया
अब कभी न गिरेंगे,
अब जरा और सम्हालकर
चलेंगे, और
टटोलकर चलेंगे।
मगर ये लकड़ियां
बहुत काम आतीं
नहीं।
स्वच्छंद
का अर्थ होता है—जिसको
भीतर का छंद उपलब्ध
हो गया, जिसको
भीतर की गीतमयता
उपलब्ध हो गयी,
जिसको भीतर का
राग सुनायी पड़ने
लगा, जिसके
भीतर की वीणा बज
उठी। अब बाहर से
उसको हिसाब नहीं
लगाना पड़ता। अब
तो उसकी भीतर की
वीणा के जो अनुकूल
है, वही शुभ
है;जो अनुकूल
नहीं है, वही
अशुभ है। इसको
हम ऐसा कहें—भक्त
के अतिरिक्त और
लोग सोच—सोच कर
करते है कि क्या
ठीक है और क्या
गलत है। भक्त जो
करता है, वही
ठीक है, और भक्त
जो नहीं करता,
वही गलत है।
भक्त ठीक ही करता
है। क्योंकि भक्त
ने अपने को भगवान
के साथ तन्मय कर
लिया।
और भी ठीक
होगा यह कहना कि
भक्त अब कुछ नहीं
करता, जो भगवान
उससे करवाता है
वही करता है। भक्त
ने अपने को उसके
हाथ में छोड़ दिया।
भक्त कहता, जो तेरी मर्जी।
राम बनाना है राम
बना दे, रावण
बनाना है रावण
बना दे, जो तेरी
मर्जी। मेरी अपनी
कोई मर्जी नहीं,
मेरी अपनी कोई
ना—मर्जी नहीं।
मेरा अपना कोई
निर्णय नहीं,
सब निर्णय तेरे
हाथ में है। तू
जिलाए तो जीऊं,
तू मारे तो मरूं।
न तो जीने में मेरा
कोई रस है, न
मरने में मेरा
कोई भय है। एक ही
रस है मेरा कि तेरे
हाथ मेरे हाथों
को पकड़ लें, और मैं तुझ से
अलग कभी भी न चलूं;
तू चलाए, वैसा ही चलूं।
ऐसी भगवान में
तल्लीनता की दशा
में स्वच्छंदता
अपने आप पैदा हो
जाती है। स्वच्छंदता
के लिए जो शब्द
उपयोग किया है
शास्त्रों में,
वह है परमहंस।
इसलिए भक्त
पर कोई नियम लागू
नहीं होता। तुम्हारी
सामान्य नैतिकताए—अनैतिकताए
लागू नहीं होतीं।
मैं यह नहीं कह
रहा हूं कि तुम
अपनी सामान्य नैतिकता
और अनैतिकता को
छोड़ देना, मैं
यह कह रहा हूं कि
जब तुम भक्त होओगे
तो वे छूट ही जाती
हैं, वे बच नहीं
सकतीं। भक्त का
व्यक्तित्व बड़ा
विद्रोही होता
है, क्योंकि
चरित्र मुक्त होता
है।
तुमने देखा, राम
की कथा को हम कहते
है—राम चरित्र
मानस। कृष्ण की
कथा को नहीं कहते।
कृष्ण की कथा को
कहते है —कृष्ण—लीला।
चरित्र जरा ठीक
नहीं है वहा कहना।
कृष्ण में चरित्र
जैसा कुछ भी नहीं
है। राम में चरित्र
ही चरित्र है,
लीला जैसा कुछ
भी नहीं है। राम
सत्पुरुष हैं,
सच्चरित्र।
मर्यादापुरुषोत्तम—क्या
करना है, खूब
सोच—सोचकर फूंक—फूंककर
कदम रखते हैं।
जो करना चाहिए,
वही करते हैं।
जो नहीं करना चाहिए,
कभी नहीं करते।
एक धोबी भी छोटी
सी बात उठा देता
है, दो कौड़ी
की बात, लेकिन
राम की मर्यादा
ऐसी है कि वह सीता
को त्याग देते
है। एक भी आदमी
ने अगर संदेह उठा
दिया, तो उनके
चरित्र को लांछन
लगता है।
पिता आशा
दे देते है—और पिता
ने आज्ञा कोई बहुत
सोच—समझ में नहीं
दी थी। दशरथ कोई
बहुत चरित्र के
व्यक्ति मालूम
नहीं होते हैं।
बुढ़ापे में विवाह
कर लिया था उस नवयुवती
से। अक्सर जब कोई
बूढ़ा आदमी विवाह
करता है, तो झंझटें
होती हैं। बूढ़ा
आदमी विवाह करता
है तो जो नयी युवती
को ले आया है पत्नी
बनाकर, उसकी
हर बात माननी पड़ती
है। अब और तो कुछ
कर भी नहीं सकता,
जवानी तो है
नहीं उसके पास
कि प्रेम से आपूर
कर दे इस युवती
को। अब इसका प्रेम
तो भर नहीं सकता,
इसलिए यह परोक्ष
रूप से और भी कुछ
मांगे वह भर देता
है —हीरे—जवाहरात
खरीद लाता है,
कार खरीद देता
है, बड़ा मकान
बना देता है, ये परिपूर्तिया
है—जवानी तो है
नहीं।
तो दशरथ
ने बुढ़ापे मे विवाह
किया। इस नयी युवती
ने वचन ले लिया
कि मैं जो कहूंगी, वही
तुम्हें मानना
पड़ेगा। एक वचन
मेरा पूरा करना
पड़ेगा। अब यह बड़ी
क्षुद्र सी बात
थी। लेकिन उसने
कहा कि राम को वनवास
भेज दो चौदह वर्ष
के लिए, क्योंकि
उसके बेटे को राज्य
मिले। यह अनैतिक
बात थी, नियम
के अनुकूल नहीं
थी। राम मानते
ऐसा आवश्यक नहीं
था। राम कह सकते
थे, यह बात ही
गलत है, गलत
के सामने मैं न
झुकूंगा; मगर
राम है मर्यादापुरुषोत्तम,
गलत—सही का सवाल
नहीं, पिता
की आज्ञा पिता
की आशा है।
ऐसा नहीं
है कि राम को न दिखा
होगा कि गलत है, दिखा
होगा, लेकिन
वे मर्यादा से
चलेंगे, वे
नियम के अनुकूल
होंगे, वे लकीर
के फकीर होंगे;जैसा है, जैसा
होना चाहिए, जो विधि कहती
है, विधान कहता
है, संस्कार
कहते हैं, उस
से रत्तीभर यहा—वहा
नहीं होंगे। उनके
जीवन में चरित्र
है, कृष्ण के
जीवन में लीला
है।
लीला का
अर्थ होता है —कोई
नियम नहीं है।
इसलिए कृष्ण क्या
करेंगे, उसकी पहले
से भविष्यवाणी
नहीं की जा सकती।
कृष्ण बेबूझ रहेंगे।
कुछ भी कर सकते
हैं, दिये गये
वचन भी भंग कर सकते
हैं। क्योंकि कृष्ण
जो कह रहे हैं,
वह इस क्षण के
लिए लागू है, कल के लिए नहीं।
इमर्सन का बड़ा
प्रसिद्ध वचन है
कि जो आज तुम्हारे
भीतर से कहा जाए,
कहना, और
जो कल तुम्हारे
भीतर से कहना चाहे,
कल जो कहना चाहे,
वह कल होने देना।
बाधा मत बनने देना।
यह मत सोचना कल
कि मैंने बीते
कल ऐसा कहा था,
अब मैं ऐसा कैसे
कहूं? प्रत्येक
क्षण को उसकी समग्रता
में जीना।
लीला का
अर्थ होता है —जीवन
में असंगति होगी।
तो कृष्ण ने कह
दिया था युद्ध
में शस्त्र न उठाऊंगा, और
फिर उठा लिया।
राम से ऐसी अपेक्षा
नहीं हो सकती।
राम नैतिक पुरुष
हैं। कृष्ण धार्मिक
पुरुष है। कृष्ण
परमहंस है। कृष्ण
उस जगह हैं, जंहा परमात्मा
के साथ एकलयता
हो गयी है, स्वच्छंद
हैं। अपने को मिटा
ही दिया है। अब
जो परमात्मा की
मर्जी। उस क्षण
उसकी मर्जी थी
कि वचन दिया कि
युद्ध में शस्त्र
न उठाऊंगा, और अब उसकी मर्जी
है कि उठाना चाहता
है, तो मैं कौन
हूं बीच में बाधा
डालने वाला? मैं कैसे कहूं
कि मर्यादा उल्लघित
होती है;कि
मेरा दिया हुआ
वचन खंडित होगा,
मेरे अहंकार
पर बदनामी आएगी।
नहीं, कृष्ण
तो बांस की बांसुरी
हैं। कल वैसा गीत
गाया था, वह
कल का गीत था; आज ऐसा गीत गाते
हो, यह आज का
गीत है। कल के और
आज के गीत में संगति
होनी चाहिए, इसकी कोई अनिवार्यता
नहीं। कल कल था,
आज आज है।
परमहंस
का अर्थ होता है—
क्षण— क्षण जीएगा
जो। और जिसके दो
क्षणों में संगति
हो भी सकती है, न भी
हो। परमहंस दशा
को हमने अंतिम
दशा कहा है।
वह भक्त
की स्थिति है।
'तत् अंगानान्
च' — भक्ति के
कोई अंग नहीं है।
और भक्त को किन्हीं
अंगों की कोई आवश्यकता
नहीं है। भक्त
भगवान से तन्मय
हो जाता है। बस,
यही भक्ति का
सार है —तन्मयता।
अब कैसी विधि,
कैसा निषेध?
ज्ञानी कहता
है—नेति—नेति,
यह भी नहीं—यह
भी नहीं। भक्त
कहता है—इति—इति,
यह भी—यह भी।
भक्त समग्र स्वीकार
करता है। भक्त
नहीं जानता ही
नहीं। भक्त अस्तित्व
के प्रति एक पूर्ण
हा का भाव है—स्वीकार,
परम स्वीकार।
भक्त निषेध—नकार
जानता ही नहीं।
भक्त की भाषा में
नहीं शब्द होता
ही नहीं। भक्त
की भाषा मे एक ही
शब्द होता है—हा।
मैंने सुना, एक
युवती को उसके
प्रेमी ने दूर
से तार भेजा कि
क्या तुम मुझ से
विवाह करने को
राजी हो? उस
युवती ने जल्दी
से जाकर पोस्ट
आफिस में तार का
उत्तर दिया—गांव
की ग्रामीण युवती,
उसने लिखा—हा।
जिस क्लर्क को
तार दिया, उसने
कहा कि एक ही शब्द
लिख रही हो, एक लिखो चाहे
दस, दाम बराबर
लगते हैं, तुम
दस लिख सकती हो।
तो उसने बहुत सोचा
और फिर लिखा—हा,
हा, हा, नौ बार हा। क्लर्क
ने गिनती की, उसने कहा एक बार
और लिख सकती हो।
उसने कहा, लिख
तो सकती हूं, मगर जरा ज्यादा
हो जाएगा। नौ हा
काफी नहीं है?
असल में एक ही
हा में सब हा समा
जाते हैं, नौ
लिखो, कि दस
लिखो, कि हजार
लिखो, कि करोड़
लिखो, कोई फर्क
नहीं पड़ता। एक
ही हा में सब समा
जाते हैं। एक ही
न में सारी न समा
जाती है, एक
ही हा में सारे
हा समा जाते हैं।
भक्त एक बार हा
कह देता है, फिर हा जीता है।
फिर न नहीं उठाता।
इति—इति, यह
भी—यह भी, सब
परमात्मा है। यहा—यहा,
अब—अभी, भक्त
की यह उदघोषणा
है।
ताम् ऐश्वर्यपदाम्:
परत्वात्।
'विभिन्नता
के कारण आचार्य
कश्यप ऋषि ने इसको
ऐश्वर्यपदा कहकर
वर्णन किया है।
'
कश्यप
परमभक्त हुए। भक्तों
की परंपरा में
प्रथम भक्त हुए।
उन्होने इस अवस्था
को ऐश्वर्यपदा
कहा है। शांडिल्य
उनका उल्लेख करते
हैं। ऐश्वर्यपदा
क्यों? क्योंकि
इसी हा में सारा
ऐश्वर्य है, क्योंकि इस हा
में स्वयं ईश्वर
है। तुमने खयाल
किया, ईश्वर
और ऐश्वर्य शब्द
एक ही शब्द के रूप
हैं। ऐश्वर्य से
ही ईश्वर बना है।
जिसके साथ जुड़
जाने से ऐश्वर्य
मिलता है, वह
ईश्वर। जिसके साथ
न जुड़े तो दरिद्रता
बनी रहती है; चाहे लाख धन इकट्ठा
करो। कितना ही
पद, कितना ही
धन, सारी पृथ्वी
पर साम्राज्य फैला
दो, लेकिन जब
तक ईश्वर न जुड़े
तब तक दीनता और
दरिद्रता बनी रहती
है, तब तक आदमी
भिखारी होता है।
तुम्हारे सिकंदर,
तुम्हारे नेपोलियन,
सब भिखारी हैं।
भिखारी की तरह
ही जीते हैं और
भिखारी की तरह
ही मरते हैं। उनके
भिक्षापात्र तुमसे
बड़े हैं जरूर,
बस इतना ही फर्क
है। राह के किनारे
जो भिखारी भीख
मागता है, उसका
भिक्षापात्र छोटा
है। सिकंदर जो
भीख मांगता है,
उसका भिक्षापात्र
बड़ा है। राह के
भिखारी का भिक्षापात्र
गरीब है, सिकंदर
का भिक्षापात्र
हीरे—जवाहरातों
से जड़ा है, मगर
भिक्षापात्र भिक्षापात्र
है। दोनों मांग
रहे हैं, और
दोनों गरीब है।
सिकंदर
जब मरा, तो उसने
कहा कि मेरे दोनों
हाथ मेरी अरथी
के बाहर लटके रहने
देना। उसके वजीरों
ने पूछा, क्यों?
ऐसा कोई रिवाज
नहीं। सिकंदर ने
कहा—रिवाज हो या
ना हो, मेरे
हाथ अरथी के बाहर
लटके रहें। लेकिन
वजीरों ने पूछा,
ऐसी बेढंगी चाह
का कारण? तो
सिकंदर ने कहा,
मैं चाहता हूं
कि लोग जब मेरी
अर्थी को उठते
देखें, तो गौर
से देख लें कि मैं
भी खाली हाथ लिये
जा रहा हूं;खाली हाथ आया,
खाली हाथ जा
रहा हूं;मेरे
हाथ भी भरे नहीं;दौड़ा बहुत, तड़फा बहुत, भिखारी का भिखारी
मर रहा हूं।
चलो देर
सही,
लेकिन सिकंदर
को समझ तो आयी।
बहुत देर में आयी,
मगर थोड़ी समझ
की किरण तो आयी।
ईश्वर के साथ जुड़कर
ही ऐश्वर्य है।
इसलिए कश्यप ने
कहा है—ऐश्वर्यपदा।
भक्त की परमहंस
दशा, उसकी स्वच्छंद
दशा, फिर उसमें
और ईश्वर में कोई
भेद नहीं है। फिर
भक्त ईश्वर है,
क्योंकि भक्त
ऐश्वर्य के पद
पर प्रतिष्ठित
हुआ। सब उसका है,
इसलिए ऐश्वर्यपदा।
सारा भोग उसका
है, सारा सौदर्य
उसका है, सारा
रंग, सारे इंद्रधनुष,
सारे फूल, सारे आकाश के
तारे उसके हैं;
यह सारे जगत
का वैविध्य उसका
है; इसमें से
कुछ भी उसने छोड़ा
नहीं। त्यागी का
ऐश्वर्य इतना बड़ा
नहीं हो सकता।
उसने बहुत कुछ
छोड़ दिया, सिकुड़
गया—त्यागी सिकुड़
जाता है। भक्त
फैलता है, विस्तीर्ण
हो जाता है।
ब्रह्म
शब्द का अर्थ होता
है —जो फैलता चला
जाए। ब्रह्म का
अर्थ होता है—विस्तार।
भक्त जानता है
फैलने की कला।
त्यागी सिकुड़ना
जानता है। त्यागी
कहता है, इतना और
कैसे छोड़ दूं;इतना और कैसे
छोड़ दूं यह भी कैसे
छूट जाए, वह
भी कैसे छूट जाए।
जिसको तुम संसारी
कहते हो, वह
कहता है—यह भी कैसे
मिल जाए, वह
भी कैसे मिल जाए,
त्यागी उसके
विपरीत है, शीर्षासन करता
हुआ भोगी है। वह
कहता है ,यह
भी कैसे छूट जाए,
वह भी कैसे छूट
जाए। भक्त कहता
है, न यहा कुछ
छोड़ने को है, न यहा कुछ पकड़ने
को है, यह सब
हमारा है, हम
इसके हैं, हमारे
और इसके बीच कोई
भेद नहीं है;छोड़कर कहा जाओगे,
इकट्ठा करने
की क्या जरूरत
है; यह तुम्हारा
है ही, इसलिए
इकट्ठा मत करो;
और छोड़कर कहां
जाओगे, जंहा
भी जाओगे यह तुम्हारा
ही रहेगा, इसलिए
छोड़कर भी मत जाओ।
न भोग, न त्याग।
भक्त कहता है,
सत्य देखो और
ऐश्वर्य से भर
जाओ। यह सब तुम्हारा
है, तुम इसके
हो, यहा तुम
अजनबी नहीं हो,
यह तुम्हारा
घर है।
'ताम् ऐश्वर्यपदाम्
काश्यप : परत्वात्।
'
इसलिए काश्यप
ने कहा कि वह दशा
परम ऐश्वर्य की
है,
ऐश्वर्यपदा
है। सीमा में दरिद्रता
है, असीमा में
ऐश्वर्य है। ईश्वर
के साथ होकर तुम
असीम हो जाते हो,
फिर तुम्हें
कोई सीमा नहीं
बाधती—न नीति की,
न धर्म की, न समाज की, न संस्कृति की,
न सभ्यता की।
ईश्वर के साथ होकर
फिर तुम्हें कोई
सीमा नहीं बांधती—हिंदू
की नहीं, मुसलमान
की नहीं, ईसाई
की नहीं। ईश्वर
के साथ होकर तुम्हें
कोई सीमा नहीं
बांधती—पुरुष की
नहीं, स्त्री
की नहीं;गोरे
की नहीं, काले
की नहीं;सुंदर
की नहीं, असुंदर
की नहीं;शिक्षित
की नहीं, अशिक्षित
की नहीं। ईश्वर
के साथ होते ही
सारी सीमाएं टूट
गयीं। नदी सागर
में गिरी, सब
किनारे खो गये।
नदी सागर में गिरी,
नाम—रूप सब खो
गया। नदी सागर
में गिरी, सागर
हो गयी। ताम् ऐश्वर्यपदाम्
काश्यप: परत्वात्।
आत्मा एक
पराम् बादरायण।
' और आचार्य
बादरायण ने इसी
अवस्था को आत्मपर
कहा है। ' आत्मसाक्षात्कार
की अवस्था कहा
है। यह दूसरे महर्षि
का उल्लेख करते
है। दो का किया
उल्लेख, क्योंकि
दोनों थोड़े प्रतीक
रूप हैं।
समझें।
काश्यप ने कहा—ईश्वर
की अवस्था है वह, तू।
और बादरायण ने
कहा—मैं की अवस्था
है वह, आत्मपरक,
आत्मसाक्षात्कार
की। ये दो शब्द
समझ लेने जैसे
है—मैं, तू।
ये दो उपाय हैं
प्रकट करने के।
पश्चिम
के बहुत बड़े यहूदी
विचारक मार्टिन
बूबर ने एक किताब
लिखी है—आई दाऊ, मैं
—तू। किताब महत्वपूर्ण
है। यहूदी भक्ति
संप्रदाय का सारा
सार उस मे है। बूबर
ने कहा है कि परमात्मा
और भक्त के बीच
एक संवाद चलता
है, मैं—तू का
संवाद। जैसे प्रेमियों
के बीच चलता है
मैं—तू का संवाद।
मैं अकेला—अकेला
रहे तो ऊब जाता
है, तू की जरूरत
पड़ती है;तू
के बिना बेचैनी
लगती है, तू
के बिना खालीपन
लगता है, तू
के साथ भराव आता
है। इसी तरह अकेला
कोई मैं ही मैं
को जपता रहे, तो ध्यान। बूबर
कहता है— ध्यान
में आदमी थोड़ा
उदास हो जाएगा,
अपने में बंद
हो जाएगा, आत्मोन्मुख
हो जाएगा, बाहर
से संबंध टूट जाएगा।
बूबर का कहना है—प्रार्थना
ज्यादा मूल्यवान,
उसमें तू मौजूद
रहता है—परमात्मा।
प्रार्थना में
एक संवाद है, डायलाग है। काश्यप
उस में से चुनते
है—तू। काश्यप
कहते हैं कि मैं
तो नहीं हो गया।
काश्यप बूबर से
आगे जाते हैं।
बूबर कहता है,
मैं और तू दोनों।
इस में द्वंद्व
रहेगा, इस में
द्वैत रहेगा,
दुई रहेगी। यहूदी
भक्ति का संप्रदाय
द्वैत के ऊपर नहीं
उठ पाया।
काश्यप
कहते है—तू? मैं
नहीं; ईश्वर;भक्त मिट गया,
बस भगवान बचा;
यह अद्वैत की
घोषणा हुई। लेकिन
जब तक तू है, तब तक कहीं छिपे
में मैं रहेगा,
नहीं तो तू कौन
कहेगा? तो ऊपर—ऊपर
तो अद्वैत की घोषणा
हुई, लेकिन
भीतर—भीतर द्वैत
बचा रह गया। भूमि
में दब गया, भूमिगत हो गया,
अंडरग्राऊंड
हो गया, मगर
बचा रहा। इसके
विपरीत बादरायण
कहते है—तू नहीं,
मैं। अहं ब्रह्मास्मि।
या जैसा मंसूर
ने कहा—अनलहक,
मैं हूं ईश्वर।
तू नहीं है, मैं ही हूं। यह
भी एक उपाय है अद्वैत
की घोषणा का। लेकिन
इस मे भी भूल वही
है। जब तक मैं हूं;तब तक तू भी छुपा
रहेगा। तू के बिना
मैं में कोई अर्थ
नहीं होता।
लेकिन ये
उपाय हैं अलग—अलग
ढंग से उस परम अवस्था
को प्रकट करने
के।
एक उपाय—मैं
—तू। यहूदी फकीर, हसीद,
बूबर। तू—काश्यप,
सूफी फकीर जलालुद्दीन
रूमी। मैं—वेदात,
बादरायण, मंसूर : अनलहक,
अहं ब्रह्मास्मि।
और चौथी संभावना
है—न मैं —न तू; गौतम बुद्ध,
झेन।
ये चार संभावनाएं
है और पांचवीं
संभावना है, वह
शांडिल्य की स्वयं
की है। आगे के सूत्रों
में हम उसकी चर्चा
करेंगे।
आज इतना
ही।
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