ताओ का
द्वार--सहिष्णुता
व निष्पक्षता—(प्रवचन—अड़तीसवां)
अध्याय
16 : सूत्र 2
शाश्वत
नियम का ज्ञान
जो
शाश्वत नियम
को जान लेता
है,
वह सहिष्णु
हो जाता है;
सहिष्णु
होकर वह
निष्पक्ष हो
जाता है;
निष्पक्ष
होकर वह
सम्राट जैसी
गरिमा को उपलब्ध
होता है;
इस
गरिमा के साथ
प्रतिष्ठित
हो वह हो जाता
है स्वभाव के
साथ अनुरूप;
स्वभाव
के अनुरूप हुआ
वह ताओ में
प्रविष्ट होता
है;
ताओ
में प्रविष्ट
वह अविनाशी है;
और
इस प्रकार
उसका समग्र
जीवन दुख के
पार हो जाता
है।
उन्नीस
सौ उनसठ में
एक बहुत अनूठी
नोबल प्राइज
दो अमरीकी
वैज्ञानिकों
को दी गई। एक
का नाम है
डाक्टर सेग्रेल
और दूसरे का
नाम है डाक्टर
चैंबरलेन।
अनूठी इसलिए
कि उन्होंने
जो खोज की, वह
अब तक की सारी
वैज्ञानिक
व्यवस्था के
प्रतिकूल है।
और जिस कारण
से उन्हें
नोबल पुरस्कार
मिला, वह
कारण, अब
तक के विज्ञान
का जो भवन है, उस पूरे भवन
को भूमिसात
कर देता है।
उन्होंने जो
बात कही, वह
लाओत्से के तो
करीब पड़ती है,
न्यूटन के
करीब नहीं
पड़ती।
उन्होंने जो
खोज की, उससे
गीता का मेल
बैठ सकता है, माक्र्स का
मेल नहीं बैठ
सकता।
वह खोज
है
एंटी-प्रोटोन
की। इन दोनों
वैज्ञानिकों
ने यह सिद्ध
किया है कि जगत
में पदार्थ है, मैटर
है, तो
एंटी-मैटर भी
होना जरूरी
है। क्योंकि
इस जगत में
कोई भी चीज
बिना विपरीत
के नहीं हो
सकती है। यहां
प्रकाश है, तो अंधकार
है। और जन्म
है, तो
मृत्यु है।
अगर पदार्थ है,
मैटर है, तो
एंटी-मैटर, पदार्थ के
प्रतिकूल भी
कुछ होना
चाहिए। और उन्होंने
जो कहा, वह
सिर्फ कहा
नहीं, उसे
सिद्ध कर
लिया। उनका
कहना है, इस
पदार्थ के बीच
भी, जहां
प्रोटोन काम
कर रहा है, जहां
पदार्थ के
अन्यतम
आधारभूत अणु
काम कर रहे
हैं, वहां
एंटी-प्रोटोन,
ठीक उनके
विपरीत भी एक
शक्ति काम कर
रही है।
वह
शक्ति हमें
साधारणतः
दिखाई नहीं
पड़ती और उसका
हमें कोई
अनुभव नहीं
होता। लेकिन
इस जगत में
कोई भी चीज
बिना
प्रतिकूल के
नहीं हो सकती
है। दि अपोजिट
इज़ इनएविटेबल।
वह जो
प्रतिकूल है, वह
अनिवार्य है,
अपरिहार्य
है। उससे बचा
नहीं जा सकता।
उन प्रतिकूलों
से मिल कर ही
जगत निर्मित
होता है। उसे सेग्रेल
और चैंबरलेन
ने
एंटी-प्रोटोन
कहा है, या
एंटी-मैटर कहा
है। और
लाओत्से, कृष्ण,
बुद्ध और
क्राइस्ट उसे
दूसरे नाम
देते रहे हैं--आत्मा
कहें, शाश्वत
नियम कहें, मोक्ष कहें,
परमात्मा
कहें। एक बात
उन सब की समान
है कि वह इस
संसार के
प्रतिकूल है,
इस संसार से
बिलकुल
विपरीत है। और
समस्त धर्म की
अब तक की खोज
यही है कि
संसार नहीं हो
सकता, अगर
इसके
प्रतिकूल कोई
संसार न हो।
बहुत
मजे की बात है
कि सेग्रेल
और चैंबरलेन
ने यह भी
अनुमान दिया
है...।
यह तो
अभी अनुमान
है। जो
उन्होंने
सिद्ध किया, वह
मैंने आपसे
कहा:
एंटी-मैटर के
बिना मैटर
नहीं हो सकता।
उसके
उन्होंने वैज्ञानिक
प्रमाण दिए।
उस पर ही
उन्हें नोबल
पुरस्कार
मिला है। उनकी
एक परिकल्पना
भी है, जो
कभी सही हो
सकती है।
क्योंकि वह
परिकल्पना भी
इसी सिद्धांत
पर आधारित है,
जो कि सिद्ध
हो गया है।
उनका
कहना है कि
जैसे हमारे इस
जगत में नियम
हैं--जैसे ग्रेविटेशन
नीचे की तरफ
खींचता है, पानी
नीचे की तरफ
बहता है, आग
ऊपर की तरफ
उठती है, प्रोटोन
एक खास
परिक्रमा में
घूमते हैं--इन
दोनों
वैज्ञानिकों
का कहना है कि
ठीक इस जगत को बैलेंस
करने के लिए
कहीं एक जगत
और होना ही चाहिए,
जो इसके
बिलकुल प्रतिकूल
हो, जहां
पानी ऊपर की
तरफ जाता हो
और जहां आग
नीचे की तरफ
बहती हो और
जहां प्रोटोन
उलटी परिक्रमा
करते हों।
यह तो
अभी
परिकल्पना
है। लेकिन यह
सबल है; क्योंकि
जिन आदमियों
ने कही है, वे
कोई मिस्टिक,
कोई
रहस्यवादी
नहीं हैं, कोई
कवि नहीं हैं।
और उनके कहने
का कारण भी है,
क्योंकि इस
जगत में भी
विपरीत के
बिना कुछ नहीं
चलता। तो इस
बात की
संभावना हो
सकती है कि जिस
जगत को हम
जानते हैं, इससे विपरीत
जगत भी हो, तभी
यह पूरा विश्व
संतुलित रह
सके, तराजू
के दोनों पलड़े
संतुलित रह
सकें।
विज्ञान कब
उसे सिद्ध कर
पाएगा, नहीं
कहा जा सकता।
लेकिन धर्म
सदा से ही यह
मानता रहा है
कि संसार के
प्रतिकूल
मोक्ष की
संभावना है।
ठीक संसार से
विपरीत नियम
वहां काम करते
हैं।
जीसस
ने कहा है, जो
यहां प्रथम है,
वहां अंतिम
हो जाएगा; जो
यहां अंतिम है,
वहां प्रथम
हो जाएगा। जो
यहां इकट्ठा
करेगा, वहां
उससे छीन लिया
जाएगा; जो
यहां बांट
देगा, वहां
उसे मिल
जाएगा।
यह कवि
की भाषा में
विपरीत की
सूचना है कि
वहां विपरीत
नियम काम
करेंगे: जो
यहां अंतिम है, वहां
प्रथम होगा।
वहां यही नियम
काम नहीं करेंगे;
इनसे ठीक
विपरीत नियम
काम करेंगे।
जीसस की भाषा
कवि की भाषा
है। समस्त
धर्म काव्य की
भाषा में बोला
गया है। शायद
उचित भी यही
है। क्योंकि
विज्ञान की भाषा
में जीवंतता
खो जाती है, सुगंध
तिरोहित हो
जाती है, लय
नष्ट हो जाती
है, गीत
समाप्त हो
जाता है।
मुर्दा आंकड़े
रह जाते हैं।
और
लाओत्से जिसे
शाश्वत नियम
कह रहा है, उस
नियम को हम
संक्षेप में
खयाल में ले
लें, तो
उसके सूत्र
में प्रवेश हो
जाए।
वह कह
रहा है, एक तो
जगत है
परिवर्तन का,
जहां सब
चीजें बदलती
हैं। लेकिन
यही जगत नहीं है
काफी। बल्कि
इस जगत के
होने के लिए
भी एक जगत
चाहिए, जहां
परिवर्तन न हो,
इससे
विपरीत जहां
शाश्वतता हो,
जहां इटरनिटी
हो, जहां
कोई चीज बदलती
न हो, जहां
कोई चीज
तरंगित न होती
हो, जहां
सब शून्य और
परम शांत हो, जहां कोई भी
कंपन न हो।
यहां
सब चीजें
कंपती हुई
हैं। अगर हम
विज्ञान से
पूछें, तो
विज्ञान
कहेगा, इस
जगत में जो
कुछ भी है, सभी
कुछ वाइब्रेशंस
हैं, तरंगें
हैं। तरंग का
अर्थ है सभी
कुछ कंपित है,
सब कंप रहा
है, हिल
रहा है। कोई
भी चीज ठहरी
हुई नहीं है, एक क्षण भी
ठहरी हुई नहीं
है। जितनी देर
में मैं बोलता
हूं, उतनी
देर में भी वह
बदल जाती है।
यह जगत एक गहरी
बदलाहट है।
इसे हम जगत न
कहें, एक
बदलाहट की
प्रक्रिया ही
कहें--एक
प्रवाह, एक
फ्लक्स।
लाओत्से
कहता है, ठीक
इस जगत के
नियम के
प्रतिकूल, इसी
जगत में छिपा
हुआ वह सूत्र
भी है, जहां
सब सदा ठहरा
हुआ है, जहां
कुछ भी बदलता
नहीं, जहां
कोई तरंग नहीं
है--निस्तरंग,
वेवलेस! उसे वह कहता
है शाश्वत
नियम! और अगर
यह परिवर्तन
संभव होता है,
तो उसी
शाश्वत नियम
के संतुलन
में। अगर वह
शाश्वत नियम
नहीं है, तो
परिवर्तन भी
संभव नहीं है।
और हर चीज
विपरीत से
निर्मित है।
तो आपके भीतर
शरीर भी है और
आपके भीतर
अशरीर भी है।
मैटर भी और
एंटी-मैटर भी,
प्रोटोन भी
और
एंटी-प्रोटोन
भी। आपके भीतर
परिवर्तन भी
है, और वह
भी जो शाश्वत
है।
लाओत्से
कहता है, जो
परिवर्तन को
ही अपना होना
समझ लेता है, वह
विक्षिप्त
है। वह पीड़ित
होगा, दुखी
होगा, परेशान
होगा।
क्योंकि
जिससे वह अपने
को जोड़ रहा है,
वह एक क्षण
भी ठहरा हुआ
नहीं है। वह
उसके साथ घसिटेगा;
और जितनी भी
आशाएं निर्मित
करेगा, सभी
धूल-धूसरित हो
जाएंगी।
क्योंकि
परिवर्तन के
साथ कैसी आशा?
परिवर्तन
का कोई भरोसा
ही नहीं है।
परिवर्तन का
अर्थ ही है कि
जिसका कोई
आश्वासन नहीं
है। परिवर्तन
का अर्थ ही है
कि जहां हम घर
नहीं बना
सकते--रेत पर
घर नहीं बना
सकते। वहां सब
बदल रहा है।
और इसके पहले
कि हम घर की
बुनियादें
रखेंगे, वह
भूमि बदल
जाएगी जिस पर
हमने
बुनियादें
खोदनी चाही
थीं। और जब तक
हम बुनियाद के
पत्थर रख पाएंगे,
तब तक वह
आधार तिरोहित
हो जाएगा जिस
पर हमने सहारा
लिया था।
इसलिए
जो भी व्यक्ति
परिवर्तन के
जगत में अपने
को जोड़ेगा, दुख
उसकी नियति
है। दुख का
अर्थ है: उसकी
सभी आशाएं टूट
जाएंगी और
उसके सभी सपने
खंडित हो जाएंगे।
और जितने भी
इंद्रधनुष वह फैलाएगा
आशाओं के, अपेक्षाओं
के, उतने
ही उसके हाथ
रिक्त होंगे;
और उतनी ही
दीनता उसके
ऊपर होगी; उतनी
ही पीड़ा, उतना
ही संताप उसके
जीवन का अनिवार्य
अंग बन जाएगा।
दुख का अर्थ
है परिवर्तन
से अपने को
जोड़ लेना; आनंद
का अर्थ है
शाश्वत से
अपने को
संयुक्त कर
लेना। दोनों
हैं। हमारे
ऊपर निर्भर है
कि हम किससे
अपने को जोड़
लेते हैं।
शाश्वत
नियम का अर्थ
है: जो भी
परिवर्तन
दिखाई पड़ रहा
है,
उससे
विपरीत; जो
भी दिखाई पड़
रहा है, उससे
विपरीत।
दिखाई पड़ने
वाले में जो
छिपा है, अदृश्य
है। और जब हम
छूते हैं, तो
जो छूने में
आता है, वह
नहीं; बल्कि
जो छूने में
नहीं आता, वह।
एक
शब्द मैं
बोलता हूं या
वीणा का एक
तार छेड़
देता हूं, आवाज
गूंज उठती है।
एक स्वर कंपित
होता है, आकाश
उससे आंदोलित
होता है, आपके
कान पर उसका
संघात पड़ता है,
आपके हृदय
में भी उसकी
तरंग प्रवेश
कर जाती है।
फिर थोड़ी देर
में वह स्वर
खो जाएगा; क्योंकि
स्वर
परिवर्तन का
हिस्सा है।
थोड़ी देर पहले
नहीं था; अब
है; थोड़ी
देर बाद फिर
नहीं हो
जाएगा। थोड़ी
देर बाद स्वर
खो जाएगा, झंकार
लीन हो जाएगी,
शब्द शून्य
हो जाएगा। फिर
सन्नाटा छा
जाएगा। तार कंपेगा, ठहरता जाएगा,
ठहर जाएगा।
हृदय कंपित
होगा, रुक
जाएगा। स्वर
सुनाई पड़ेगा;
फिर शांति,
सन्नाटा रह
जाएगा।
स्वर
परिवर्तन है।
स्वर के पहले
जो शून्यता थी, वह
शाश्वतता है।
और स्वर के बाद
भी फिर जो
शून्यता घिर
जाएगी, वह
शाश्वतता है।
और स्वर भी
जिस शून्यता
में तरंगित
हुआ, स्वर
भी जिस
शून्यता में गूंजा, वह
भी शाश्वत है।
प्रत्येक
घटना शून्य
में घटती है।
शून्य से ही
जन्मती है और
शून्य में ही लीन
हो जाती है।
लाओत्से
कहता है, इस
शाश्वत को जान
लेना ही ताओ
है। इस शाश्वत
को जान लेना
ही धर्म है।
अब हम
उसके सूत्र को
समझें।
"जो
शाश्वत नियम
को जान लेता
है, वह
सहिष्णु हो
जाता है। ही
हू नोज दि इटरनल
लॉ इज़ टॉलरेंट।'
शायद
यह कहना ठीक
नहीं कि जो
शाश्वत नियम
को जान लेता
है,
वह सहिष्णु
हो जाता है।
कहना यही ठीक
होगा कि ही हू
नोज दि इटरनल
लॉ इज़ टॉलरेंट।
हो जाता है
नहीं, जो
शाश्वत नियम
को जान लेता
है, वह
सहिष्णु है।
उसे कुछ करना
नहीं पड़ता
सहिष्णु होने
के लिए।
शाश्वत को
जानते ही
सहिष्णुता आ
जाती है।
क्यों? हमारी
असहिष्णुता
क्या है? हमारा
अधैर्य क्या
है?
वह जो परिवर्तित
हो रहा है, वह
कहीं
परिवर्तित न
हो जाए, यही
तो हमारा
अधैर्य है। वह
जो बदल रहा है,
वह कहीं बदल
ही न जाए, यही
तो हमारा
संताप है। वह
जो बदल रहा है,
वह भी न
बदले, यह
हमारी
आकांक्षा है।
इसलिए हम सब
बांध कर जीना
चाहते हैं:
कुछ भी बदल न
जाए।
मां का
बेटा बड़ा हो
रहा है। वह
खुद उसे बड़ा
कर रही है।
लेकिन जैसे-जैसे
बेटा बड़ा हो
रहा है, मां
से दूर जा रहा
है। बड़े होने
का अनिवार्य अंग
है। वह मां ही
उसे बड़ा कर
रही है; अर्थात
मां ही उसे
अपने से दूर
भेज रही है।
फिर छाती पीटेगी,
फिर रोएगी।
लेकिन बेटे को
बड़ा करना
होगा। प्रेम
बेटे को बड़ा
करेगा। और जो
प्रेम बेटे को
बड़ा करेगा, बेटा उसी
प्रेम पर पीठ
करके एक दिन
चला जाएगा। तो
मां जब बेटे
को बड़ा कर रही
है, तब वह
बड़े सपने बांध
रही है कि यह
प्रेम सदा उस पर
बरसता रहेगा!
और उसने इतना
किया है, यह
बेटा भी उसके
लिए इतना ही
करेगा! हजार-हजार
सपने बनाएगी।
फिर वे सब
सपने पड़े रह
जाएंगे और
बिखर जाएंगे।
वह जो
परिवर्तित हो
रहा था, उसके
साथ कोई भी
आशाएं बांधीं,
तो कष्ट
होगा। प्रेम
भी एक बहाव
है। और गंगा एक
ही घाट पर
नहीं रुकी रह
सकती। और
प्रेम भी एक ही
घाट पर रुका
नहीं रह सकता।
आज मां के साथ
प्रेम है, कल
किसी और के
साथ होगा। आज
मां बांध कर
दुखी होगी; कल पत्नी
बांधने लगेगी
और दुखी होगी।
जो भी बांधेगा,
वह दुखी
होगा।
परिवर्तन को
बांधने की जो
भी चेष्टा
करेगा, वह
दुखी होगा।
फिर
असहिष्णुता
पैदा होगी, फिर बेचैनी
पैदा होगी।
फिर सहने की
क्षमता बिलकुल
कम हो जाएगी।
हम सब
असहिष्णु हैं, हम
कुछ भी सह
नहीं सकते।
अगर मैं किसी
को प्रेम करता
हूं और मैं
जिसे प्रेम
करता हूं वह
किसी दूसरे की
तरफ प्रेम भरी
आंख से देख ले,
तो मैं
विक्षिप्त हो
जाता हूं। सह
नहीं पाता।
लाओत्से
कहता है, जो इस
शाश्वत नियम
को जान लेता
है, वह सहिष्णु
है। क्योंकि
वह जानता है, परिवर्तन के
जगत में जो भी
है, वह सभी
परिवर्तित
होता है। वहां
कुछ भी ठहरता नहीं।
वहां प्रेम भी
ठहरता नहीं।
वहां कोई आशा
बांध कर नहीं
जीना चाहिए।
कोई जीए, तो
दुखी होगा।
आप
उलटे-सीधे
चलेंगे, गिर
पड़ेंगे, पैर
टूट जाएगा, तो आप ग्रेविटेशन
को, गुरुत्वाकर्षण
को गाली नहीं
दे सकते और न
किसी अदालत
में मुकदमा
चला सकते हैं।
और न आप परमात्मा
से यह कह सकते
हैं कि कैसी
पृथ्वी तूने बनाई
कि जरा ही
संतुलन खोओ कि
पैर टूट जाते
हैं। यह
गुरुत्वाकर्षण
न होता तो
अच्छा था!
गुरुत्वाकर्षण
आपका पैर नहीं
तोड़ता; नियम
को न जान कर आप
जो करते हैं, उससे पैर
टूट जाता है।
आप सम्हल कर
चलते रहें तो
गुरुत्वाकर्षण
आपके पैर को तोड़ता
नहीं, बल्कि
सच तो यह है कि
गुरुत्वाकर्षण
के कारण ही आप
चल पाते हैं।
नहीं तो चल ही
नहीं सकेंगे।
नियम
को जो जान
लेता है, वह
नियम के विपरीत
आशाएं नहीं बांधता।
जो जान लेता
है कि
परिवर्तन का
नियम ही कहता है
कि कुछ भी
ठहरेगा नहीं।
इसलिए जहां भी
मैं ठहरने की
इच्छा करूंगा,
वहीं
कठिनाई और जिच
पैदा हो
जाएगी। वहीं
ग्रंथि बन
जाएगी, वहीं
अड़चन खड़ी हो
जाएगी। जो
व्यक्ति
शाश्वत को जान
लेता है, वह
परिवर्तन को
पहचान कर
सहिष्णु हो
जाता है। आज
सम्मान है, कल अपमान
है। तो सम्मान
को पकड़ कर
नहीं बैठता; जानता है कि
सम्मान आज है,
कल अपमान हो
सकता है। आज
आदर है, कल
अनादर हो सकता
है। क्योंकि
यहां कोई भी
चीज ठहरती
नहीं, और
आदर थिर नहीं
हो सकता। और
अनादर भी थिर
नहीं होगा। वह
भी आज है और कल
नहीं हो
जाएगा। जब ऐसा
कोई देख पाता
है, तो
असहिष्णुता
कैसी?
आप कल
मुझे सम्मान
दे गए, आज
गालियां लेकर
आ गए।
असहिष्णुता
पैदा होती है,
क्योंकि
मैं सोचता था,
आज भी
सम्मान लेकर
ही आएंगे।
आपके कारण
नहीं, आपकी
गालियों के
कारण कोई पीड़ा
नहीं पैदा
होती; मेरी
भ्रांत
अपेक्षा
टूटती है, इसलिए।
क्योंकि मैं
सोचता था, मान
कर चलता था कि
कल जो पैर छू
गया, वह आज
भी पैर ही
छूने आएगा।
किसने
कहा था मुझे
कि यह आशा मैं बांधूं? और
इस बदलते हुए
जगत में कौन
सा कारण था इस
आशा को बांधने
का? कल का
गंगा का पानी
कितना बह गया!
कल के आदमी भी
सब बह गए! कल का
सम्मान-सत्कार
भी बह गया
होगा। चौबीस
घंटे में क्या
नहीं हो गया
है! कितने
तारे बने और
बिखर गए
होंगे! और कितने
जीवन जन्मे और
खो गए होंगे!
इस चौबीस घंटे
में इतना
विराट
परिवर्तन
सारे जगत में
हो रहा है, कि
एक आदमी जो
मेरे पैर छूने
आया था, आज
गाली लेकर आ
गया, इस
परिवर्तन को
परिवर्तन
जैसा कहने की
भी कोई जरूरत
है? जहां
इतना सब बदल
रहा हो, वहां
इस आदमी का न
बदलना ही
हैरानी की बात
थी। इसके बदल
जाने में तो
कोई हैरानी
नहीं है। यह तो
बिलकुल
नियमानुसार
है। लेकिन अगर
मेरी अपेक्षा
थी कि कल भी
आदर मिलेगा, तो मेरी
अपेक्षा टूटेगी।
और वही पीड़ा
और वही मेरा
दुख बनेगी। और
उसके कारण ही
असहिष्णुता
पैदा होती है।
सहिष्णु
का अर्थ है: जो
भी हो रहा है, परिवर्तन
के जगत में
होगा ही, इसकी
स्वीकृति। जो
भी हो रहा है।
आज जीवन है, कल मृत्यु
होगी। अभी
सुबह है, अभी
सांझ होगी। और
अभी सब कुछ
प्रकाशित था,
और अभी सब
कुछ अंधेरा हो
जाएगा। और
सुबह हृदय में
फूल खिलते थे,
और सांझ राख
ही राख भर
जाएगी। यह
होगा ही। न तो सुबह
के फूल को पकड़ने
का कोई कारण
है और न सांझ
की राख को बैठ
कर रोने की
कोई वजह है।
परिवर्तन
के सूत्र को
जो ठीक से जान
लेता है और
अपने को उससे
नहीं जोड़ता, बल्कि
उससे जोड़ता है
जो नहीं
बदलता...।
सिर्फ एक ही
चीज हमारे
भीतर नहीं
बदलती है, वह
है हमारा
साक्षी-भाव।
सुबह मैंने
देखा था कि
फूल खिले हैं
हृदय में, सब
सुगंधित था, सब नृत्य और
गीत था। और
सांझ देखता
हूं कि सब राख
हो गई, सुरत्ताल सब बंद हो गए,
सुगंध का
कोई पता नहीं,
स्वर्ग के
द्वार बंद हो
गए और नरक में
खड़ा हूं। सब
तरफ लपटें हैं
और दुर्गंध है;
कुछ भी सुबह
जैसा नहीं
रहा। सिर्फ एक
चीज बाकी है:
सुबह भी मैं
देखता था, अब
भी मैं देखता
हूं। सुबह भी
मैंने जाना था
कि फूल खिले
और अब मैं
जानता हूं कि
राख हाथ में
रह गई है।
सिर्फ जानने
का एक सूत्र
शाश्वत है। एक
दिन जवान था, एक दिन बूढ़ा
हो गया हूं।
एक दिन स्वस्थ
था, एक दिन
अस्वस्थ हो
गया हूं। एक
दिन आदर के
शिखर पर था, एक दिन
अनादर की खाई
में गिर गया
हूं। एक सूत्र
शाश्वत है कि
एक दिन आदर
जानता था, एक
दिन अनादर
जाना। जानना
भर शाश्वत है;
बाकी सब बदल
जाता है।
सिर्फ
द्रष्टा
शाश्वत है; विटनेसिंग,
चैतन्य
शाश्वत है।
तो
लाओत्से जब
कहता है कि
शाश्वत नियम
को जो जान
लेता है वह
सहिष्णु हो
जाता है, तो वह
यह कह रहा है
कि जो साक्षी
हो जाता है वह
सहिष्णु हो
जाता है।
साक्षी से इंच
भर भी हटे कि
पीड़ा और
परेशानी का
जगत प्रारंभ
हुआ। एक क्षण
को भी जाना कि
परिवर्तन के
किसी हिस्से
से मैं जुड़ा
हूं, एक
क्षण को भी
तादात्म्य
हुआ कि शाश्वत
से पतन हो
गया।
"जो
शाश्वत नियम
को जान लेता
है, वह
सहिष्णु हो
जाता है; सहिष्णु
होकर वह
निष्पक्ष हो
जाता है।'
सहिष्णुता
का अर्थ हुआ:
कुछ भी हो, असंतोष
का उपाय नहीं
है। कुछ भी
हो--बेशर्त कुछ
भी हो--संतोष
मेरी स्थिति
है। सहिष्णु
का अर्थ हुआ
कि मेरा संतोष
किन्हीं
कारणों पर
निर्भर नहीं
है।
एक
आदमी कहता है, बड़ा
संतोष है, क्योंकि
बैंक में
बैलेंस है। एक
आदमी कहता है,
बड़ा संतोष
है; बच्चे
हैं, पत्नी
है, भरा-पूरा
घर है। एक
आदमी कहता है,
बड़ा संतोष
है; प्रतिष्ठा
है, सम्मान
है, लोग
आदर देते हैं।
ये कोई
भी संतोष नहीं
हैं। ये कोई
भी संतोष नहीं
हैं,
क्योंकि ये
सब सकारण हैं।
कल सुबह एक
ईंट खिसक
जाएगी इस भवन
से और असंतोष
ही असंतोष हो जाएगा।
यह संतोष का
धोखा है।
संतोष
का अर्थ है:
अकारण। एक
आदमी कहता है, मैं
संतोषी हूं, संतोष
है--कोई कारण
से नहीं।
शाश्वत को
परिवर्तन से
पृथक अनुभव
करता हूं; शाश्वत
में ठहरा हूं,
परिवर्तन
को पहचान लिया
है। कारण हटाया
नहीं जा सकता,
कारण किसी
के हाथ में
नहीं है
अब--अकारण, अनकंडीशनल,
बेशर्त।
सहिष्णुता या
संतोष बेशर्त
घटनाएं हैं।
बुद्ध
को किसी ने
आकर पूछा है
कि आपके पास
कुछ दिखाई तो
नहीं पड़ता, फिर
भी आप बड़े
प्रसन्न
मालूम पड़ते
हैं! स्वाभाविक
है उसका
प्रश्न। कुछ
दिखाई पड़ता हो,
तो
प्रसन्नता
समझ में आती
है। बुद्ध के
पास कुछ भी
नहीं दिखाई
पड़ता। वे एक
वृक्ष के नीचे
बैठे हैं।
उनकी
प्रसन्नता
बेबूझ है। वह
आदमी कहता है
कि आप क्या
मुझे समझाएंगे
थोड़ा? सिर्फ
पागल आदमी ही
बिना कारण के
ऐसा आनंदित हो
सकता है। आप
पागल भी दिखाई
नहीं पड़ते। आप
कौन हैं? लगता
है ऐसा कि
जैसे सारी
पृथ्वी का
साम्राज्य
आपका हो। आप
कोई सम्राट
हैं? बुद्ध
ने कहा, नहीं।
उस आदमी ने
पूछा, फिर
क्या आप कोई
देव हैं, जो
पृथ्वी पर उतर
आए? बुद्ध
ने कहा कि
नहीं, मैं
देव भी नहीं
हूं। वह आदमी
ऐसे पूछता
जाता है कि आप
यह हैं, आप
यह हैं? और
बुद्ध कहते
जाते हैं, नहीं,
मैं यह भी
नहीं हूं।
नहीं, मैं
यह भी नहीं
हूं। वह आदमी
बेचैन हो जाता
है और वह कहता
है कि कुछ भी
आप नहीं हैं!
कुछ तो आप कहें,
आप कौन हैं?
तो
बुद्ध ने कहा
कि कभी मैं
पशु भी था।
पशु होने के
कारण थे।
वासनाएं ऐसी
थीं कि पशु
होना
अनिवार्य था।
कभी मैं
मनुष्य भी था।
वासनाएं ऐसी
थीं,
जो मुझे
मनुष्य बनाती
थीं। कभी मैं
देव भी था।
वासनाएं ऐसी
थीं, जो
मुझे देव
बनाती थीं। वे
सब
कारण-अस्तित्व
थे। अब तो मैं
सिर्फ बुद्ध
हूं। न मैं
मनुष्य हूं, न मैं देव
हूं, न मैं
पशु हूं; मैं
सिर्फ बुद्ध
हूं।
उस
आदमी ने पूछा
कि बुद्ध का
क्या अर्थ?
तो
बुद्ध ने कहा, अब
मैं सिर्फ
जागा हुआ हूं।
अब सिर्फ मैं
एक जागी हुई
चेतना हूं। अब
मैं सिर्फ एक
होश हूं, एक
चैतन्य हूं।
अब मैं कोई
व्यक्ति नहीं
हूं। क्योंकि
व्यक्ति तो
निर्मित ही
होता है परिवर्तन
को पकड़ लेने से,
रूप को पकड़
लेने से। कभी
मैंने पशुओं
के रूप पकड़े,
कभी मैंने
मनुष्यों के,
कभी मैंने
वृक्षों के; वे मेरे
व्यक्तित्व
थे। अब मैं
कोई व्यक्ति नहीं
हूं। अब मैं
सिर्फ एक
चैतन्य मात्र
हूं--एक
ज्योति का
दीया।
शाश्वत
नियम को
उपलब्ध कर
लेने का यह
अर्थ है कि साक्षीत्व
का एक
दीया--परिवर्तन
मैं नहीं हूं, शाश्वत
मैं हूं। फिर
कोई
असहिष्णुता
पैदा नहीं
होती।
क्योंकि
परिवर्तन से
कोई लगाव ही न
हो, तो
लगाव के टूटने
का भी कोई
उपाय नहीं रह
जाता। जो आशा
रखते हैं, वे
कभी निराश हो
सकते हैं।
लेकिन जो आशा
ही नहीं रखते,
उनके निराश
होने का उपाय
कहां? और
जिनके पास
संपत्ति है, वे कभी
दरिद्र हो
सकते हैं।
लेकिन जिनके
पास कुछ भी
नहीं है, जो
किसी संपत्ति
से अपने को
पकड़ नहीं लिए
हैं, उनके
दरिद्र होने
का कोई उपाय
नहीं है।
अगर
मैंने कुछ
पकड़ा नहीं है, तो
आप उसे मुझसे
छीन न सकेंगे।
आपका छीनना
संभव हो पाता
है मेरे पकड़ने
की वजह से। आप
छीन सकते हैं,
अगर मैं कुछ
पकड़े हुए
हूं। और अगर
मैं कुछ भी पकड़े
हुए नहीं हूं,
तो आप छीन
कैसे सकते हैं?
यह जो
साक्षी-भाव है, यह
जो शाश्वत
नियम का बोध
है, यह
सारे
परिवर्तन के
जगत से पकड़ का
छूट जाना है।
फिर गंगा बहती
रहती है और
मैं किनारे
बैठा हूं। और
गंगा के पानी
में कभी फूल
बहते हुए आ
जाते हैं, तो
उनको देख लेता
हूं। और कभी
किसी का
अस्थिपंजर
बहता हुआ आता
है, तो उसे
देख लेता हूं।
और कभी गंगा
गंदे पानी से
भर जाती है
वर्षा के, मटमैली
हो जाती है, तो उसे देख
लेता हूं। और
कभी ऐसी
स्वच्छ हो
जाती है कि
आकाश के तारे
उसमें झलकते
हैं, तो
उसे देख लेता
हूं। लेकिन
मैं गंगा नहीं
हूं; उसके
किनारे बैठा
हूं।
परिवर्तन
के किनारे जो
साक्षी का भाव
है,
वह थिर हो
जाए, तो
फिर गंगा में
क्या बहता है
और क्या नहीं
बहता, इससे
मेरे भीतर कोई
चिंता पैदा नहीं
होती। और गंगा
के निरंतर
प्रवाह को देख
कर मैं जानता
हूं, आशा
नहीं बांधनी
चाहिए। इसमें
कभी फूल भी
आते हैं और
कभी राख भी
बहती है; इसमें
कभी तारे भी
झिलमिलाते
हैं और कभी यह
गंगा बिलकुल
गंदी हो जाती
है और कुछ भी
नहीं झिलमिलाता।
और कभी यह
गंगा
विक्षिप्त
होकर बहती है,
बाड़ तोड़
देती है। और
कभी यह गंगा
सूख कर दुबली-पतली
धारा हो जाती
है और शांत
मालूम होती
है। यह गंगा
का होना है; इससे मेरा
कुछ लेना-देना
नहीं है। मैं
उसके किनारे
खड़ा हूं।
शाश्वत नियम
का बोध, परिवर्तन
के किनारे जो
साक्षी का भाव
है, उसमें
थिर हो जाने का
नाम है।
लाओत्से
कहता है, "जो
सहिष्णु हो
जाता है, वह
निष्पक्ष हो
जाता है।'
इसे
समझना पड़े।
असल में, पक्ष
तभी तक हैं, जब तक
परिवर्तन में
कोई चुनाव है।
मैं कहता हूं
यह आदमी अच्छा
है, क्योंकि
यह आदमी मेरे
साथ वैसा ही
व्यवहार करता
है जैसी मेरी
अपेक्षा है।
और मैं कहता
हूं यह आदमी
बुरा है, क्योंकि
यह आदमी वैसा
व्यवहार करता
है जैसी अपेक्षा
नहीं है।
लेकिन अगर
मेरी कोई
अपेक्षा ही न
हो, तो कौन
आदमी अच्छा है
और कौन आदमी
बुरा है?
मैं
कहता हूं यह
आदमी संत है
और कहता हूं
यह आदमी दुष्ट
है। जिसे मैं
दुष्ट कहता
हूं,
वह दुष्ट है
या नहीं, मुझे
पता नहीं; लेकिन
मेरी कुछ
अपेक्षाएं
हैं, जो वह तोड़ता है।
और जिसे मैं
संत कहता हूं,
वह संत है
या नहीं, पता
नहीं; लेकिन
मेरी कुछ
अपेक्षाएं
हैं, जिन्हें
वह पूरी करता
है।
अगर आप
अपने संतों के
आस-पास जाकर
देखें और अपने
दुष्टों के
आस-पास जाकर देखें, तो
आपको पता
चलेगा: जो
आपकी
अपेक्षाएं
पूरा कर दे, वह साधु।
अगर आप मानते
हैं कि मुंह
पर एक पट्टी
बांधने से
आदमी साधु
होता है, तो
मुंह पर पट्टी
बांधे मिलेगा
तो आप पैर छू लेंगे।
वही आदमी कल
मुंह की पट्टी
नीचे उतार कर
रख दे, तो
आप उसको घर
में नौकरी
देने को भी
राजी न होंगे।
अगर आपकी
धारणा है कि...।
आपकी धारणा जो
भी पूरा कर दे!
अगर साधुओं की
जांच-पड़ताल
करने जाएं, तो आप
पाएंगे, उनमें
जो आपकी धारणा
जितनी
पूर्णता से
पूरी करता है,
उतना बड़ा
साधु है। जो
थोड़ी-बहुत
ढील-ढाल करता है,
जो
थोड़ा-बहुत
इधर-उधर
डांवाडोल होता
है, वह
उतना छोटा
साधु है। साधु
कौन है? आपकी
अपेक्षा जो
पूरी कर दे।
असाधु कौन है?
जो आपकी
अपेक्षा तोड़
दे। लेकिन
जिसकी कोई अपेक्षा
न हो, उसके
लिए कौन साधु
और कौन असाधु?
लाओत्से
यह कहता है, जो
शाश्वत को जान
लेता है, वह
निष्पक्ष हो
जाता है। उसके
लिए राम और रावण
में कोई भी
फर्क नहीं है।
क्योंकि राम
और रावण का जो
भी फर्क है, वह हमारी
अपेक्षाओं का
फर्क है। हम
पर निर्भर है
वह फर्क। वह
हमारा विभाजन
है। हमारी
धारणाएं काम
कर ही हैं।
अगर मेरी कोई
धारणा नहीं है,
तो कोई भी
फर्क नहीं है।
निष्पक्ष
होने का अर्थ
है कि अब मेरा
कोई चुनाव न
रहा।
निष्पक्ष
होने का यह भी अर्थ
है कि अब मैं
आपसे नहीं
कहता कि आप
ऐसे हो जाएं।
एक
मेरे मित्र
हैं,
वृद्ध हैं।
उनके बड़े लड़के
की मृत्यु हो
गई। बड़ा लड़का
उनका
मिनिस्टर था।
और मन ही मन
आशाएं थीं कि
आज नहीं कल वह
मुल्क का
प्रधानमंत्री
भी हो जाए। जिनके
लड़के
मिनिस्टर भी
नहीं हैं, वे
भी अपने लड़कों
के
प्रधानमंत्री
होने की आशा
रखते हैं, तो
कोई उन पर
कसूर नहीं है।
उनका लड़का कम
से कम मंत्री
तो था ही।
प्रधानमंत्री
भी हो ही सकता था।
आशा बांधने
में कोई
असंगति नहीं
थी। फिर लड़का
मर गया। वे
बहुत रोए-धोए,
बहुत पीटे,
छाती पीटे।
आत्महत्या का
सोचने लगे।
मैंने
उनसे पूछा, इतनी
पीड़ा का क्या
कारण है? उन्होंने
कहा, मेरा
बेटा मर गया!
मैंने कहा कि
मैं ऐसा समझूं,
आपका बेटा
चोर होता, बदमाश
होता, लफंगा
होता, बदनामी
का कारण होता
और फिर मर
जाता; आप
उसके लिए
आत्महत्या
करने को राजी
होते? उनके
बहते आंसू सूख
गए और
उन्होंने कहा,
क्या आप
कहते हैं! ऐसा
लड़का तो अगर
होता तो मैं चाहता
कि यह होते से
ही मर जाए। तो
मैंने कहा, फिर आप यह मत
कहें कि आप
लड़के के लिए
रो रहे हैं।
इस लड़के में
कोई
महत्वाकांक्षा
मर गई, कोई एंबीशन।
इस लड़के के
कंधे पर चढ़ कर
आप कोई यात्रा
कर रहे थे।
क्योंकि यह लड़का
जब
प्रधानमंत्री
होता, तो
यह लड़का ही
प्रधानमंत्री
नहीं होता, आप
प्रधानमंत्री
के बाप भी हो
जाते। बड़ी
महत्वाकांक्षा
थी। और जो
लड़का चोर होता,
डाकू होता,
बदनामी
लाता, तो
लड़का ही
चोर-डाकू नहीं
होता, आप
चोर के पिता भी
हो जाते। कोई
महत्वाकांक्षा
इस लड़के के
कारण मर गई है;
उसके लिए आप
रो रहे हैं।
बड़े
नाराज हुए कि
मैं इतने दुख
में पड़ा हूं
और आपको ऐसी
बात कहते
संकोच नहीं
आता! मैंने
उनको कहा कि
इस दुख में
अगर सत्य आपको
दिख जाए!
कभी-कभी
दुख में सत्य
को देखना आसान
होता है। क्योंकि
जब आपने ताश
का घर बनाया
हो और घर अभी गिरा
न हो,
तब मैं
कितना ही कहूं
कि यह ताश का
घर है और गिर जाएगा;
दिखाई पड़ना
मुश्किल है।
हवा का एक
झोंका लगे और
ताश का घर गिर
गया हो, और
आप जार-जार रो
रहे हों; और
तब मैं कहूं
कि आप व्यर्थ
रो रहे हैं, यह तो बनाते
समय ही जानना
था कि ताश का
घर है और
गिरेगा। यह नाव
कागज की है और डूबेगी।
लेकिन कागज की
नाव भी
थोड़ी-बहुत देर
तो चल सकती
है। चलते समय
कागज की नाव
को कागज का
मानना बहुत
मुश्किल है।
चलना काफी
प्रमाण है।
डूबते में ही
खयाल आता है।
इस जगत में
सत्य का जो अवतरण
है, दुख
में आसान है।
क्या है अच्छा?
क्या है
बुरा? यह
बेटा अच्छा था,
यह बेटा
बुरा है; इसमें
भी परिवर्तन
के जगत में
मेरी कोई
आकांक्षाओं-अपेक्षाओं
का जोड़ है, तो
ही।
लाओत्से
कहता है, जो
सहिष्णु हो
जाता है, वह
निष्पक्ष हो
जाता है।
निष्पक्ष
का अर्थ है कि
जब भीतर कोई
अपेक्षा न रही, तो
बाहर कोई पक्ष
न रहा।
लाओत्से से
अगर कोई कहे
कि फलां आदमी
को अच्छा बनाओ,
फलां आदमी
बुरा है, तो
लाओत्से
कहेगा कि मेरी
कोई अपेक्षा
नहीं। कौन
बुरा है, मुझे
पता नहीं चलता;
और कौन
अच्छा है, मुझे
पता नहीं
चलता। और क्या
करने से कौन
अच्छा हो जाएगा,
मुझे पता
नहीं चलता। और
मुझे अच्छा हो
जाएगा, तो
दूसरे को भी
अच्छा होगा, कहना
मुश्किल है।
दूसरे की
अपेक्षाएं
हैं।
इस
दुनिया में
बुरे से बुरा
आदमी भी कुछ
लोगों के लिए
तो अच्छा होता
ही है। इस
दुनिया में अच्छा
से अच्छा आदमी
भी कुछ लोगों
के लिए तो बुरा
होता ही है।
इस दुनिया में
शत-प्रतिशत
अच्छे होने का
कोई उपाय नहीं
है।
शत-प्रतिशत
बुरे होने का
कोई उपाय नहीं
है। अगर जमीन
पर आप अकेले
ही हों, तो
शत-प्रतिशत
कुछ भी हो
सकते हैं।
लेकिन जमीन पर
और लोग भी
हैं। और उनकी
अपेक्षाएं
हैं।
तो
जीसस दस-बारह
लोगों को
अच्छा आदमी था, जब
सूली लगी तो।
बाकी सब को
बुरा आदमी था।
क्योंकि जो भी
अपेक्षाएं
थीं, इसने
पूरी नहीं
कीं। अच्छे
आदमी के लक्षण
सदा से जाहिर
रहे हैं।
जीसस
वेश्या के घर
में ठहर गया।
अब इससे और ज्यादा
बुरे आदमी का
क्या लक्षण
होगा? तो
जिन-जिन के मन
में वेश्या के
घर जाने की
आकांक्षा रही
होगी, उन
सब को मौका
मिला कि इस
आदमी पर सारा
क्रोध निकाल
लिया जाए।
जिसको हम
अच्छाई से
पैदा हुआ क्रोध
कहते हैं, उसमें
निन्यानबे
प्रतिशत तोर्
ईष्या होती
है। ये वे ही
लोग थे जो
वेश्या के घर
जाना चाहे
होंगे; लेकिन
लोग बुरा
कहेंगे, इसलिए
नहीं जा सके।
और यह हद हो गई
कि एक आदमी
जिसको लोग
अच्छा कहते
हैं, वह
वेश्या के घर
में ठहर गया।
तो अब दो में
से एक ही बात
रही। या तो तय
हो जाए कि यह
आदमी बुरा है,
तो इनको
शांति मिले; या यही तय हो
जाए कि अच्छा
आदमी भी
वेश्या के घर
में जा सकता
है, यह
स्वीकृत हो
जाए, तो भी
शांति मिले।
यह
दूसरी बात
बहुत मुश्किल
है। इस दूसरी
बात का बड़ा
जाल है। इस
दूसरी बात का
भारी इतिहास
है। और जब तक
विवाह पवित्र
है,
तब तक
वेश्या
अपवित्र
रहेगी ही। जब
तक विवाह ही न
मिट जाए जमीन
से, तब तक
वेश्या
तिरोहित नहीं
हो सकती। वह
उसकी बाई-प्रोडक्ट
है। तो इसकी
तो लंबी
जटिलता है। यह
तो हो नहीं
सकता। अब एक
ही उपाय है कि
जीसस बुरा
आदमी करार दे
दिया जाए। और
यह सबको ठीक
लगेगा। पिता
भयभीत है कि
उसका लड़का वेश्या
के घर न चला
जाए। पत्नी
भयभीत है कि
उसका पति कहीं
वेश्या के घर
न चला जाए।
सारा समाज भयभीत
है। और वेश्या
इसी समाज की उत्पत्ति
है। इन्हीं
सबने मिल कर
वेश्या को निर्मित
किया है। और
ये सभी भयभीत
हैं। और ये सभी
वेश्या को
सहारा दे रहे
हैं।
लेकिन
वे अंधेरे में
फैले हुए हाथ
हैं। जीसस की
गलती है तो एक
कि वे उजाले
में वेश्या के
घर चले गए।
वही उनकी भूल
है। वे फांसी
से बच सकते थे, थोड़ी
कुशलता चाहिए
थी। सभी जाते
थे वेश्या के घर--ऐसी
कोई अड़चन न
थी--जिन्होंने
सूली दी थी। लेकिन
वे ज्यादा
कुशल थे, ज्यादा
होशियार थे।
वे जानते थे, काम करने का
एक ढंग होता
है। इस आदमी
ने गैर-ढंग से
किया।
फिर भी
उपाय थे: माफी
मांगी जा सकती
थी,
पश्चात्ताप
किया जा सकता
था, व्रत-नियम
लिए जा सकते
थे। इसने और जिद्द की।
इस आदमी ने
कहा कि इसमें
पाप कुछ है ही
नहीं। और
वेश्या होगी
वह तुम्हारे
लिए, मेरे
लिए नहीं है।
क्योंकि
वेश्या एक
संबंध है; व्यक्ति
नहीं होता कोई
वेश्या। कोई
औरत वेश्या
नहीं होती, न कोई औरत
पत्नी होती
है। किसी के
लिए वेश्या
होती है, किसी
के लिए पत्नी
हो सकती
है--वही औरत।
क्योंकि
वेश्या होना
एक संबंध है
दो
व्यक्तियों
के बीच। जीसस
ने कहा, मेरे
लिए वह वेश्या
नहीं है, तुम्हारे
लिए रही होगी।
तुम मत जाओ।
लेकिन
यह समझ के
बाहर थी बात।
इस आदमी को
सूली लगानी जरूरी
हो गई।
जो
इसके पीछे चल
रहे थे, वे भी
सोचते थे कि
ऐन वक्त, आखिर
में परमात्मा
कुछ ऐसा करेगा,
चमत्कार दिखाएगा, कि सिद्ध हो
जाएगा कि जीसस
सही है। शक तो
उनको भी होता
रहा होगा; क्योंकि
वे भी उसी
समाज से पैदा
हुए थे। उनको भी
लगा तो होगा
कि लोग ही ठीक
कह रहे हैं।
लेकिन जीसस का
प्रभाव था, जीसस के
प्रति प्रेम
था, तो
पीछे चलते
रहे। दस-बारह
लोग ही थे।
जीसस भलीभांति
जानते थे कि
ये वक्त पर
भाग जाएंगे।
और वक्त पर वे
सब भाग गए। और
जब जीसस की
सूली से उनकी
लाश उतारी गई,
तो वही
वेश्या लाश को
उतार रही थी, बाकी सब
शिष्य भाग गए
थे।
निश्चित
ही,
जीसस के लिए
वह वेश्या
वेश्या नहीं
थी। और उस वेश्या
के लिए जीसस
सिर्फ एक
पुरुष नहीं थे,
एक खरीददार
नहीं थे। और
जब निकटतम
शिष्य भाग गए,
जो बाद में एपास्टल्स
हो गए, जो
बाद में बारह
महा संत हो गए,
वे सब भाग
गए थे, तब
एक वेश्या ने
उन्हें उतारा
था। वही आखिर
तक खड़ी रही थी
उस भीड़ में।
कौन
भला है, कौन
बुरा है, कौन
तय करे? कैसे
तय करते हैं
हम? क्या
है क्राइटेरियन?
क्या होता
है मापदंड तय
करने का? एक
ही मापदंड
होता है सदा:
आपकी
अपेक्षाओं के लिए
जो अनुकूल
पड़ता है; आपकी
अपेक्षाओं के
जो प्रतिकूल
पड़ता है।
लेकिन अगर
किसी व्यक्ति
की कोई
अपेक्षा ही
नहीं है, तो
वह निष्पक्ष
हो जाता है।
जीसस जैसे
लोगों की यही
मुसीबत है। एक
वेश्या ने कहा
कि चलें और मेरे
घर ठहर जाएं
आज रात, तो
जीसस की कोई
भी तो अपेक्षा
नहीं है। आप
होते तो सोचते
कि कल बदनामी
होगी, गांव
में खबर हो
जाएगी, पत्नी
क्या कहेगी, बच्चे क्या
कहेंगे, क्या
होगा, क्या
नहीं होगा, आप हजार
बातें सोचते।
जीसस बस चल
पड़े।
बुद्ध
के साथ भी ऐसा
हुआ। एक दिन
एक वेश्या ने आकर
सुबह ही
निमंत्रण दे
दिया भोजन का।
उसके ही पीछे
रथ पर सवार
प्रसेनजित
आता है, सम्राट
है। और
प्रसेनजित
आकर कहता है
कि मेरे घर पधारें!
पर बुद्ध ने
कहा, निमंत्रण
तो मुझे आपके
पहले मिल गया।
पर प्रसेनजित
ने कहा कि अगर
इसकी खबर भी
लोगों को हो जाएगी
कि आप
आम्रपाली
वेश्या के घर
भोजन करने गए,
महा अनर्थ
हो जाएगा, प्रतिष्ठा
धूल में मिल
जाएगी। आप और
वेश्या के घर
जाएंगे!
पर
बुद्ध ने कहा, निमंत्रण
उसका ही पहले
है और हां भी
भरी जा चुकी
है। और जिन
बातों से आप
मुझे भयभीत
करते हैं, अगर
मैं उनसे
भयभीत ही होता
हूं, तो
फिर मैं बुद्ध
ही नहीं हूं।
अब तो होगी
बदनामी, तो
अच्छा। इस जगत
में बदनामी
होगी। लेकिन
अगर वेश्या के
घर जाने की
बदनामी से डर
कर प्रसेनजित,
तुम्हारी
मैं मान लूं, तो
अनंत-अनंत काल
में जो बुद्ध
हुए हैं, वे
मुझ पर
हंसेंगे।
वहां मेरी बड़ी
बदनामी हो जाएगी।
तो इस बदनामी
को हो जाने
दो।
लाओत्से
कहता है, निष्पक्ष
हो जाता है
वैसा
व्यक्ति।
जीता है--पक्षों
से नहीं, सहजता
से। कोई
निर्णय नहीं
लेता--क्या
बुरा है और
क्या भला है, क्या होना
चाहिए और क्या
नहीं होना
चाहिए।
थोड़ी
कठिनाई लगेगी; क्योंकि
जिनकी नैतिक
बुद्धि है और
जो सोचते हैं
कि जीवन की जो
ऊंची से ऊंची
बात है, वह
नीति है, उनको
बहुत कठिनाई
होगी। नीति
ऊंची से ऊंची
बात उनके लिए
है, जिनके
जीवन अनैतिक
हैं। जैसे
औषधि उनके काम
की है जो
बीमार हैं।
लेकिन भूल कर
भी स्वस्थ लोगों
को औषधि मत
पिलाने लगना।
नीति उनके काम
की है, जो
अनीति में भरे
हैं और पड़े
हैं। लेकिन जो
धर्म को
उपलब्ध होते
हैं, उनसे
नीति वैसे ही
छूट जाती है
जैसे अनीति
छूट जाती है।
पक्ष छूट जाते
हैं।
नैतिक
चिंतन तो पक्ष
करता है।
इसलिए नैतिक
चिंतन कभी
निष्पक्ष
नहीं होता।
नैतिक चिंतन
तो साफ-साफ
निर्णय करता
है--यह ठीक है
और यह गलत है।
गणित से चलता
है,
हिसाब रख कर
चलता है।
कभी-कभी हिसाब
सीमा के बाहर
चला जाता है, तो भी हिसाब
से ही चलता
है। क्या करना
है, क्या
नहीं करना है,
वह सब हिसाब
रखता है। धर्म
कोई हिसाब
नहीं रखता।
शाश्वत में
प्रतिष्ठा
जिसकी हो गई, वह फिर उस
प्रतिष्ठा पर
ही सब कुछ छोड़
देता है। और
वह जहां ले
जाए शाश्वत
नियम--चाहे
पूर्व तो
पूर्व और चाहे
पश्चिम तो
पश्चिम; जहां
ले जाए, अंधेरे
में या प्रकाश
में--वह
शाश्वत नियम
जहां ले जाए, उस पर ही
अपने को छोड़
देता है।
इस
फर्क को हम
ऐसा समझें कि
एक डांड
से खेने वाला
नाविक है। वह
पतवार चलाता
है और अपनी
नौका को खेता
है। सारा श्रम
उसे करना होता
है। एक और
नाविक भी है, जिसने
एक नियम खोज लिया
कि खुद पतवार
चलाने की कोई
जरूरत नहीं है;
हवाएं,
पाल बांध दो,
और नाव को
ले जाती हैं।
तो वह पाल
बांध लेता है,
पतवार अलग
रख देता है, हवाएं उसकी नाव को
चलाने लगती
हैं।
नैतिक
व्यक्ति
पतवार से नाव
चलाता है पूरे
वक्त; बाएं, दाएं, सब
उसे हिसाब
रखना पड़ता है।
पूरे वक्त
श्रम उठाना
पड़ता है। नाव
और नदी के बीच
एक संघर्ष है,
नाविक और
नदी के बीच एक
दुश्मनी है।
लड़ना पड़ता है।
फिर वह भी है, जिसने पाल
बांध लिया। अब
सिर्फ उसे
हवाओं के ऊपर
अपने को छोड़
देने की
हिम्मत भर
जुटानी होती
है। फिर हवाएं
उसकी नाव को
ले जाने लगती
हैं।
धार्मिक
व्यक्ति
दूसरी तरह का
व्यक्ति है, जिसने
अपना पाल बांध
लिया है नाव
में और जिसने
परमात्मा की
या शाश्वतता
की हवाओं को
कहा कि बस अब
जहां ले जाओ।
अब जहां पहुंच
जाए, वही
मुकाम है। और
नाव अगर मझधार
में डूब जाए, तो वही
मंजिल है। अब
कोई किनारा
नहीं है। अब तो
जो मिल जाए, वही किनारा
है। अब अपना
कोई चुनाव
नहीं है कि वहां
पहुंचूं; और
अगर वहां नहीं
पहुंचा, तो
दुखी होऊंगा;
और वहां
पहुंचा, तो
सुखी हो जाऊंगा।
धार्मिक
व्यक्ति कहीं
पहुंचने की
चेष्टा में
नहीं है।
पहुंच गया।
नैतिक
व्यक्ति कहीं
पहुंचने की
चेष्टा में लगा
है। तो नैतिक
व्यक्ति तो
पक्षपाती
होगा। इसलिए
नैतिक
व्यक्ति कभी
सहिष्णु नहीं
हो सकता। और
अगर उसकी
सहिष्णुता भी
होगी, तो थोपी
हुई और आरोपित
होगी, कल्टीवेटेड होगी।
सम्हाल-सम्हाल
कर वह सहने की
कोशिश कर सकता
है। लेकिन
सहिष्णुता
उसकी सहज नहीं
हो सकती।
शाश्वत को जान
कर जो
सहिष्णुता
आती है, वह
निष्पक्ष कर
जाती है।
कठिन
है यह बात; क्योंकि
हमें तो नैतिक
तक होना कठिन
है। लाओत्से
कहीं और दूर
की बात कर रहा
है। वह कह रहा
है, नैतिकता
भी एक बीमारी
है। वह कह रहा
है कि जब तक
द्वंद्व
है--यह ठीक और
यह गलत--तब तक
बेचैनी रहेगी
ही। अगर मुझे
दिखता है कि
यह ठीक और यह
गलत, तो
बेचैनी
रहेगी।
इसलिए
तथाकथित
धार्मिक आदमी
जो हैं, जिन्हें
नैतिक आदमी
कहना चाहिए, वे बड़े
बेचैन रहते
हैं। वे कहते
हैं, यह
गलत हो रहा है,
वह ठीक हो
रहा है। सारे
संसार में जो
गलत और ठीक हो
रहा है, सबकी
चिंता उन्हीं को
होती है। उनकी
बेचैनी का कोई
अंत नहीं है। रातें
उनकी हराम हो
जाती हैं, नींद
उनकी नष्ट हो
जाती है। कहां
क्या गलत और कहां
क्या सही हो
रहा है, सब
का हिसाब उनके
पास है। और
सारे जगत में
ठीक होना
चाहिए, इसके
लिए उनकी
चिंता इतनी
ज्यादा होती
है कि इसी
चिंता में घुल-घुल
कर वे मर जाते
हैं। जगत में
कुछ ठीक होता
या नहीं होता
उनकी चिंता से,
वह दिखाई
नहीं पड़ता।
लाओत्से
की बात समझनी
थोड़ी कठिन है।
और इसलिए पश्चिम
में बहुत
नासमझी भी
पैदा होती है।
लाओत्से जैसे
लोगों के
विचार जब
पश्चिम में
पहुंचते हैं, तो
उन्हें लगता
है, यह तो
बहुत इम्मॉरल
थिंकिंग
है, यह तो
बहुत नीतिविहीन
चिंतन है।
निष्पक्ष? कैसे
निष्पक्ष हो
सकते हैं हम? जहां इतना
संघर्ष है
अच्छाई और
बुराई में, वहां हम
कैसे
निष्पक्ष हो
सकते हैं? उसका
कारण है कि
अगर हम
परिवर्तन से
ही अपने को
देखेंगे, तो
निष्पक्ष
नहीं हो सकते;
शाश्वत से
देखेंगे, तो
निष्पक्ष हो
सकते हैं।
शाश्वत के तल
से देखने पर
परिवर्तन का
जगत स्वप्नवत
हो जाता है।
रात एक
सपना देखा।
देखा कि राम
और रावण में
बड़ी कलह चल
रही है। पूरी
रामायण देखी।
अगर नैतिक
आदमी हैं, तो
राम के साथ
तादात्म्य बन
जाएगा। अगर
अनैतिक आदमी
हैं, तो
रावण के साथ
तादात्म्य बन
जाएगा। लेकिन
सुबह जाग कर
देखा, सपना
टूट गया, सुबह
जाग कर देखा।
सुबह जाग कर, उस रात सपने
में राम और
रावण का जो
संघर्ष था, उसमें क्या
कोई भी पक्ष
जाग कर रह
जाएगा? अगर
रह जाए, तो
समझना अभी
नींद खुली
नहीं, सपना
जारी है। सुबह
अगर हंसी आए
और पता चले कि
सब ठीक था; और
सपने में रावण
जीते तो और
राम जीतें
तो कोई अंतर न
पड़े और सुबह
पूरी बात पर
हंसी आ जाए, तो समझना
नींद खुल गई, अब आप
निष्पक्ष हो
गए।
लाओत्से
जैसे व्यक्ति
के लिए
परिवर्तन का
जगत एक स्वप्न
है। स्वप्न से
ही जो घिरा है, वह
पक्ष करेगा।
स्वप्न में ही
जो बंधा है, वह पक्षपात
करेगा। लेकिन
जहां पक्षपात
है, वहां
असहिष्णुता
होगी, अधैर्य
होगा, असंतोष
होगा, संताप
होगा। अगर
उठना है आनंद
तक, तो
अभेद और
निष्पक्ष हुए
बिना कोई
रास्ता नहीं
है।
"जो
निष्पक्ष हो
जाता है, निष्पक्ष
होकर वह
सम्राट जैसी
गरिमा को
उपलब्ध होता
है। बीइंग इम्पार्शियल
ही इज़ किंगली,
निष्पक्ष
होकर वह
सम्राट जैसी
गरिमा को उपलब्ध
होता है।'
सम्राटों
की भी गरिमा
कुछ नहीं है
जैसी गरिमा को
वह उपलब्ध
होता है जो
निष्पक्ष हो
जाता है।
क्योंकि उसकी
आंखों की
शांति की फिर
कोई कल्पना
नहीं, कोई
तुलना नहीं हो
सकती।
क्योंकि उसकी
आंख में कहीं
कोई पक्ष न
रहा, तो
आंख
ट्रांसपैरेंट
हो जाती है, पारदर्शी हो
जाती है।
जिसका कोई
पक्ष न रहा, उसकी गति
अकंप हो जाती
है। पक्ष के
कारण हम झुकते
हैं, और
हमारा सारा
जीवन कंपित
होता रहता है।
अभी तो
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
हमारी शरीर तक
की भाषा में
पक्षपात होता
है। अभी बॉडी लैंग्वेज
पर बहुत काम
चलता है; बहुत
खोज चलती है
शरीर की भाषा
पर। आप किसी
आदमी के पास
किस ढंग से
खड़े होते हैं,
बताया जा
सकता है कि
आपका पक्ष
क्या है; उस
आदमी के पक्ष
में हैं कि
विपरीत हैं।
जब आप किसी
आदमी के
विपरीत में
हैं, तो आप
हटे हुए खड़े
होते हैं; खड़े
भी रहते हैं
और भीतर से
हटे भी रहते
हैं--कहीं पास
न आ जाएं। जिस
आदमी के आप
पक्ष में होते
हैं, गिरे
हुए होते हैं,
निकट आ
जाएं।
स्त्रियां तो
बहुत साफ बता
देती हैं उनके
शरीर की भाषा
से। अगर एक
स्त्री को
किसी से प्रेम
है, तो वह
गिरने को
बिलकुल तैयार
है। अगर प्रेम
नहीं है, तो
वह पीछे दीवार
खोज रही है कि
कहीं टिक जाए,
बच जाए, हट
जाए।
शरीर-भाषाशास्त्री
कहते हैं कि
अगर स्त्री का
आपसे प्रेम है,
तो उसके
बैठने का ढंग
और होगा; अगर
नहीं है, तो
और होगा। और
एक-एक सिंबल, एक-एक संकेत
उसके शरीर से
मिलेंगे।
शरीर
तक,
जब आप चलते
हैं, उठते
हैं, लोगों
के बीच घूमते
हैं, तो
खबर देता है।
अगर वेश्यालय
पड़ गया, तो
आपकी चाल तेज
हो जाती है; मंदिर आ गया,
तो नमस्कार
हो जाता है।
अगर वेश्याओं
के मुहल्ले से
गुजर रहे हैं,
तो धड़कन बढ़
जाती है--कहीं
कोई देख न ले।
आपके पक्ष, आपके विपक्ष
पूरे वक्त
आपको कंपित
किए हुए हैं।
लाओत्से
कहता है, जो
निष्पक्ष हो
जाता है, वह
सम्राट की
गरिमा को
उपलब्ध हो
जाता है।
शायद
और कोई बेहतर
प्रतीक
लाओत्से को
नहीं सूझा; क्योंकि
सम्राट
निष्पक्ष
नहीं होते।
लेकिन कोई और
उपाय नहीं है।
इसका मतलब यह
हुआ कि सम्राटों
के पास भी
सम्राटों की
गरिमा नहीं
होती।
जीसस
ने कहा है, जीसस
ने एक दिन कहा
है अपने
साथियों को कि
देखो लिली के
खिले हुए इन
फूलों को, सम्राट
सोलोमन भी
अपनी पूरी
गरिमा में
इनके सामने
फीका है।
फूल जब
खिलता है तो जिस
गरिमा को
उपलब्ध होता
है,
मनुष्य जब
खिलता है तब
वह भी उसी
गरिमा को उपलब्ध
होता है। वह
गरिमा अकंपता
की गरिमा है।
जैसे कि किसी
घर में दीया
जले, हवा
का कोई झोंका
न हो, और लौ
ठहर जाए, जरा
भी कंपित न हो;
वैसे ही जब
कोई चेतना भी
भीतर ठहर जाती
है और जरा भी
कंपित नहीं
होती।
अब
इसके दो उपाय
हैं। एक उपाय
तो यह है कि
पक्ष तो बने
रहें, जबर्दस्ती
इस चेतना को
अकंप कर लिया
जाए; जो कि
तथाकथित साधु,
धार्मिक
व्यक्ति करते
रहते हैं।
पक्ष तो बने रहें
कि यह बुरा है
और यह ठीक है, और वह सुंदर
है और वह
कुरूप है, और
यह पाने योग्य
है और वह नहीं
पाने योग्य है,
यह तो सब
बना रहे; लेकिन
अपने को
सम्हाल कर और
अपनी चेतना को
थिर कर लिया
जाए। इस तरह
जो थिरता आती
है, वह
जबर्दस्ती
थोपी हुई
थिरता है, झूठी
है। क्योंकि
जरा ही
रिलैक्स किया,
जरा ही
शिथिल
हुए--पक्ष की
तरफ चेतना बह
जाएगी, अपक्ष
की तरफ से हट
आएगी।
एक
दूसरी गरिमा
है,
जिसकी
लाओत्से
चर्चा कर रहा
है। वह कह रहा
है, खुद की
उतनी फिक्र मत
करो; जबर्दस्ती
खुद को ठहराने
की फिक्र मत
करो। शाश्वत
नियम को जान
लो, परिवर्तन
को पहचान लो, और तुम
पाओगे कि पक्ष
गिर गए। और
पक्ष के गिरते
ही तुम अकंप
हो जाओगे।
क्योंकि कोई
जगह न रही
जहां कंपो; किसी तरफ
झुको, वह
कोई स्थान न
रहा; किसी
तरफ से हटो, वह कोई
स्थान न रहा।
तब जो अकंपता
आती है, वह
सहज है। उस
सहजता के बिना
साधुता भी एक
जटिलता है, एक
जबर्दस्ती है,
एक दमन है।
और
इसलिए फर्क
देखा जा सकता
है। जब भी कोई
सहजता की
साधुता को
उपलब्ध होता
है,
तो एक
अपरिसीम
सौंदर्य को
उपलब्ध होता
है। और जब भी
कोई
जबर्दस्ती
साधुता को
उपलब्ध होता है,
तो एक गहन
कुरूपता को
उपलब्ध हो
जाता है। कुरूपता
स्वाभाविक ही
आ जाएगी।
क्योंकि जहां
सब चीजें खींचत्तान
कर, तनाव
से बिठाई
जाएंगी, वहां
सब चीजें खिंच
जाएंगी। सहज
साधु खोजना
मुश्किल है; यद्यपि सहज
ही साधु हो
सकता है।
लेकिन उसके बड़े
चुनाव हैं।
एक
साधु मेरे साथ
यात्रा करते
थे। जिस कार
में हमें जाना
था,
मैं जाकर
बैठ गया। वे
आए और कहने
लगे, ऐसे
तो मैं न बैठ
सकूंगा; मैं
तो सिर्फ चटाई
पर बैठता हूं।
इसमें कौन सी
कठिनाई है, मैंने कहा।
जिनके घर मैं
मेहमान था, उनसे मैंने
कहा कि लाकर
एक चटाई कार
के सोफा पर
बिछा दो।
चटाई
बिछा दी गई।
साधु बिलकुल
सम्हल कर सोफा
पर बैठ गए।
बीच में चटाई
आ गई;
परम शांति
उनको मिली।
सोफा वही है, कार वही है; लेकिन वे
चटाई पर बैठे हैं।
उनको देख कर
दया ही आ सकती
है, और
क्या हो सकता
है! सोफा पर वे
बैठे ही नहीं
हैं; कार
में वे हैं ही
नहीं। वे अपनी
चटाई पर हैं। और
अपनी सादगी को
उन्होंने
सुरक्षित रख
लिया है। ऐसी
सुरक्षित
व्यवस्था से
जो जी रहा हो, उसका सब कुछ
कुरूप हो
जाएगा; सब
अपंग, सब पक्षाघात
हो जाएगा।
लाओत्से
कहता है, निष्पक्ष
जो है, वह
सम्राट जैसी
गरिमा को
उपलब्ध होता
है।
इसमें
एक बात और
खयाल लेने
जैसी है।
सम्राट जैसी
गरिमा का अर्थ
यह हुआ: भागना, छोड़ना,
यह नहीं, वह नहीं--उसे
कोई अर्थ का
नहीं रह जाता;
वह जहां है,
सम्राट की
तरह ही है। उसे
महल में खड़ा
कर दें तो, और
उसे किसी दिन
नग्न रास्ते
पर खड़ा कर दें
तो, उसकी
गरिमा में
फर्क नहीं
लाया जा सकता।
महल उसे
डराएगा नहीं;
वह वहां भी
उतनी ही शांति
से सो सकेगा।
वृक्ष उसे
आकर्षित नहीं
करेगा; वहां
भी उतनी ही
शांति से सो
सकेगा। न महल
आकर्षित
करेगा, न
वृक्ष
विकर्षित
करेगा। जो भी
हो, जहां
भी हो, वह
सम्राट जैसी
गरिमा में ही जीएगा।
इसलिए
बुद्ध जैसे
व्यक्ति को
महल से हट कर
भी हमने देखा, पर
उनकी गरिमा
में कोई फर्क
नहीं पड़ता।
शायद गरिमा और
बढ़ जाती है।
शायद गरिमा और
बढ़ जाती है।
अगर किसी
कुरूप शरीर पर
कपड़े पहना दिए
जाएं, तो
कुरूपता कम हो
जाती है।
इसलिए दुनिया
में जब तक
बहुत सौंदर्य
नहीं होता, तब तक कपड़े
आदमी का बहुत
पीछा करेंगे
ही। कपड़े
सौंदर्य तो
नहीं ला सकते,
लेकिन
कुरूपता को ढांक सकते
हैं। नहीं
जिनके पास
सौंदर्य है, उनके लिए
इतना भी क्या
कम है कि
कुरूपता ढंक
जाती है! कुछ
तो बहाना
सुंदर होने का
हो जाता है।
लेकिन अगर
अन्यतम सुंदर
व्यक्ति हो, तो कपड़े हट
जाने पर उसका
सौंदर्य और
पूरी तरह प्रकट
होता है। तो
जो दीन-दरिद्र
हैं, उन्हें
महलों में बिठाल
दो, तो
उनकी
दीनता-दरिद्रता
छिप जाती है।
गरिमा नहीं आ
जाती सम्राट की।
लेकिन अगर
गरिमा सम्राट
की हो, तो
छीन लो महल, हटा लो ताजत्तख्त,
तो उस
नग्नता में वह
और भी जोर से
प्रकट हो जाती
है।
यह जो
सम्राट की
गरिमा है, यह
एक आंतरिक
मालकियत का
परिणाम है--एक
इनर, एक
आंतरिक
मालकियत, एक
स्वामित्व।
जो परिवर्तन
से बंधा है, वह हमेशा
गुलाम रहेगा।
आज इस पर
निर्भर रहना
पड़ेगा, कल
उस पर निर्भर
रहना पड़ेगा।
परिवर्तन के
जगत में
हजार-हजार
चीजों पर
निर्भर रहना
पड़ेगा। जो
परिवर्तन से
हट कर शाश्वत
से अपने को
जोड़ लेता है, अब वह मालिक
हुआ। अब उसे
किसी पर
निर्भर नहीं रहना
पड़ेगा। अब वह
सारे
परिवर्तनों
के बीच से
मालिक की तरह
गुजर सकता है।
उसकी मालकियत
आंतरिक है।
"सम्राट
जैसी गरिमा को
उपलब्ध होकर
स्वभाव के साथ
अनुरूप हुआ वह
ताओ में
प्रविष्ट
होता है।'
धर्म
के गहनतम
लोक में वही
प्रविष्ट
होते हैं, जो
सम्राट की
गरिमा से
प्रविष्ट
होते हैं। दीनता
से, रो-पीट
कर, मांग
कर वहां कोई
प्रविष्ट
नहीं होता।
जीसस ने कहा
है: जिनके पास
है, उन्हें
और दे दिया
जाएगा; और
जिनके पास
नहीं है, उनसे
और छीन लिया
जाएगा।
पागल
रहा होगा
जीसस! लेकिन
यह एंटी-मैटर, वह
दूसरे जगत के
नियम हैं। बड़ी
उलटी बात है।
साधारण
बुद्धि भी
कहेगी, जिनको
थोड़ा भी गणित
आता है, वह
भी कहेगा, जिनके
पास नहीं है, उन्हें दो।
अगर छीनना ही
है, तो
उनसे छीन लो, जिनके पास
है। और उन्हें
दे दो, जिनके
पास नहीं है।
यह सीधा गणित
है। लेकिन जीसस
कहते हैं, जिनके
पास है, उन्हें
और दे दिया
जाएगा; और
जिनके पास
नहीं है, सावधान
रहें वे, उनसे
और छीन लिया
जाएगा।
उस जगत
में कोई दीन
की तरह
प्रविष्ट
नहीं हो सकता।
उस जगत में तो
सम्राट की तरह
ही कोई प्रविष्ट
होता है। असल
में,
उस जगत की
चाबी ही
स्वामित्व
है। इसलिए हम
संन्यासी को
स्वामी कहते
रहे हैं। सभी
संन्यासी स्वामी
होते हैं, ऐसा
नहीं। लेकिन संन्यासी
को हम स्वामी
इसलिए कहते
रहे हैं--उस
इनर, उस
भीतरी
मालकियत। वही
तो चाबी है उस
महल में प्रवेश
की, जिसको
लाओत्से ताओ
कहता है, बुद्ध
ने जिसे धम्म
कहा है, वेद
ने जिसे ऋत
कहा है, जीसस
ने जिसे
किंगडम ऑफ गॉड
कहा है। ये
सिर्फ शब्दों
के फर्क हैं।
"स्वभाव
के अनुरूप हुआ
वह ताओ में
प्रविष्ट
होता है। ताओ
में प्रविष्ट
होकर वह
अविनाशी है।'
जब तक
हम परिवर्तन
से अपने को
जोड़े हुए हैं, तब
तक हम विनाश
से अपने को
जोड़े हुए हैं।
तब तक हम
मिटते ही
रहेंगे, मिटते
ही रहेंगे।
बनेंगे और मिटेंगे।
बनेंगे
इसीलिए कि मिटें।
वहां बनना और
मिटना
अनिवार्य है।
जो आदमी समझ
ले कि मैं
वस्त्र हूं, तो दोत्तीन
महीने में
उसको मरना
पड़ेगा। दोत्तीन
महीने में
वस्त्र
जीर्ण-शीर्ण
हो जाएंगे, छोड़ने
पड़ेंगे, फिर
नए वस्त्र
पहनने
पड़ेंगे। अगर
किसी आदमी ने
ऐसा समझ लिया
कि मेरे
वस्त्र ही मैं
हूं, तो हर
तीन महीने में
मरना और
पुनर्जन्म।
फिर नए कपड़े, तो फिर नया
जन्म। फिर अ ब
स से शुरू
करेगा वह आदमी।
जितनी
परिवर्तनशील
चीज से आप
अपने को बांधेंगे, उतना
ज्यादा विनाश,
उतना
रोज-रोज सब
बदलना पड़ेगा।
रोज मरना होगा,
रोज जन्मना
होगा। हम अपने
को वस्त्रों
से नहीं बांधते
हैं, शरीर
से बांधते
हैं। इसलिए
पचास-साठ साल,
सत्तर साल,
अस्सी साल
में मरना पड़ता
है।
क्या
ऐसा भी कोई
सूत्र है, जो
वस्त्र की तरह
नहीं है हमारे
लिए, अस्तित्व
है हमारा? अगर
उससे हम अपने
को एक जान
पाएं, तो
फिर कोई विनाश
नहीं है।
मृत्यु है
इसीलिए कि हम मरणधर्मा
से अपने को
जोड़ लेते हैं।
मृत्यु है
इसीलिए कि जो
मरने वाला है,
उसके साथ हम
अपने को एक
समझ लेते हैं।
उसी क्षण
मृत्यु
विसर्जित हो
जाती है, जिस
दिन हमने मरणधर्मा
के साथ अपना
संबंध छोड़
दिया। उस दिन
जिससे हमारा
संबंध है, उसकी
कोई मृत्यु
नहीं है।
तो
लाओत्से कहता
है,
"ताओ में
प्रविष्ट हुआ
वह अविनाशी
है। और इस प्रकार
उसका समग्र
जीवन दुख के
पार हो जाता
है।'
दुख ही
क्या है? मृत्यु
की ही छाया है
दुख। मृत्यु
की ही लंबी हो
गई छाया दुख
है। जहां-जहां
मृत्यु दिखाई
पड़ती है, वहीं-वहीं
दुख है। और
जहां भी हम
थोड़ी देर को मृत्यु
को भुला पाते
हैं, वहीं
सुख मालूम
पड़ता है।
लेकिन
आदमी बड़े दुष्टचक्र
में घूमता है।
भुलाने से कुछ
भूलता तो नहीं
है।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला नसरुद्दीन
एक सांझ शराब
पी रहा है।
अपने घर के
सामने वृक्ष
के नीचे बैठ
कर शराब के
प्याले पर
प्याले ढाले
चला जा रहा
है। मेहमान एक
घर में आया
है। वह मुल्ला
को कहता है कि नसरुद्दीन, क्यों
इतनी शराब
पीते हो? तो
नसरुद्दीन
कहता है, भुलाने
के लिए। तो वह
मेहमान पूछता
है, क्या
भुलाने के लिए?
तो नसरुद्दीन
कहता है, अपनी
बेशर्मी, अपना
पाप, अपना
अपराध। तो वह
मेहमान पूछता
है, क्या
है अपराध? क्या
है पाप? क्या
है बेशर्मी? नसरुद्दीन कहता है, यही
कि यह शराब की
लत पड़ी है।
पाप यह है कि
शराब पीता हूं;
इस पाप को
भुलाने के लिए
शराब पीए चला
जाता हूं।
अगर हम
अपने जीवन के
क्रम को गौर
से देखें, तो
वह ऐसा ही
मिलेगा।
उसमें हम एक
चक्कर में घूमते
रहते हैं। एक चीज
से बचने को
दूसरी चीज पकड़ते
हैं; दूसरी
से बचने को
तीसरी पकड़ते
हैं; और
तीसरी से बचने
के लिए उसको पकड़ते हैं,
जिससे बचने
के लिए इन सब
को पकड़ा था।
और तब हम एक
गोल चक्र में
वर्तुलाकार
घूमते रहते
हैं। इससे
घूमना तो हो
जाता है काफी,
यात्रा भी
बहुत हो जाती
है, पहुंचना
नहीं हो पाता।
पहुंचने का
कोई उपाय भी
नहीं है
इसमें। दुख
यही है कि सुख
का तो हमें कोई
पता नहीं है, दुख का ही
पता है। और
कभी-कभी दुख
को भुला लेते हैं,
तो उसको हम
सुख कहते हैं।
और जिन-जिन
चीजों से हम
दुख को भुलाते
हैं, वे
सभी चीजें और
दुख को लाने
वाली हैं। तब
हम वर्तुल में
फंस जाते हैं।
एक बात
बहुत गहरे में
समझ लेने की
जरूरत है कि जब
तक मैं मरने
वाला हूं, तब
तक मैं कोई भी
उपाय करूं, मैं सुखी
नहीं हो सकता।
मौत वहां खड़ी
है और उसकी
छाया मेरे ऊपर
पड़ रही है। वह
मेरे हर सुख
को जहर में डुबा
देगी। आप भोजन
कर रहे हैं, बहुत
सुस्वादु
भोजन है। और
तत्काल आपको
खबर मिलती है
कि आज ही सांझ
आपको फांसी लग
जाने वाली है,
स्वाद खो
जाएगा। आप लाख
उपाय करें, स्वाद नहीं
आ सकता अब। आप
किसी के प्रेम
में डूबे हैं,
और सोचते
हैं, चांद
जमीन पर उतर
आया है। और
अचानक खबर
मिलती है कि
सांझ आपको
फांसी हो
जाएगी। आपके
पास कौन है, उसका आपको
पता भी नहीं
रहेगा। सब
बेमानी हो गया।
कामू
ने कहीं लिखा
है कि जब तक
मौत है, तब तक
कैसे सुख संभव
है? इसलिए
जानवर थोड़े
सुखी मालूम
पड़ते हैं; क्योंकि
मौत का उन्हें
बोध नहीं है।
और आदमी सुखी
मालूम नहीं
पड़ता; क्योंकि
मौत का उसे
बोध है। जानवर
सुखी मालूम
पड़ते हैं; क्योंकि
मौत का कोई
बोध नहीं है, कोई धारणा
नहीं है।
इसलिए
आदमियों में
भी जो जानवरों
के थोड़े ज्यादा
निकट हैं, वे
थोड़े ज्यादा
सुखी मालूम
पड़ते हैं। वे
भी मौत को
भुलाए रखते
हैं: कि होगी, कोई और मरता
है सदा, हम
तो कभी नहीं
मरते। कभी अ
मरता, कभी
ब मरता, कभी
स मरता; हम
तो अभी तक
नहीं मरे। और
जब अभी तक
नहीं मरे, तो
मरने का आगे
भी क्या कारण
है? हमेशा
कोई और ही मरा
है, हम तो
कभी नहीं मरे।
सीधा-साफ तर्क
है कि हम नहीं
मरेंगे।
पशुओं
को कोई बोध
नहीं है कि
मृत्यु है, क्योंकि
पशुओं को समय
का बोध नहीं
है, पशुओं
को भविष्य का
बोध नहीं है।
इसलिए पशु एक
अर्थ में सुखी
हैं। आदमी को
बोध है कि मौत
है। तो आदमी
ज्यादा से
ज्यादा दुखी
हो सकता है, या दुख को
भुला सकता है;
दो ही काम
कर सकता है।
सुखी नहीं हो
सकता--जब तक कि
लाओत्से की
बात न समझ ले, जब तक कि
शाश्वत से एक
न हो जाए।
पशु
सुखी हो सकते
हैं;
मौत का भाव
नहीं है। आदमी
सुखी नहीं हो
सकता। पशुओं
के ढंग से
आदमी सुखी
नहीं हो सकता।
असल में, उस
यात्रा के हम
पार आ गए हैं; उस जगह को हम
छोड़ चुके हैं।
एक जवान आदमी
बच्चे के ढंग
से सुखी नहीं
हो सकता।
कितने ही
खिलौने उसके
चारों तरफ रख
दो, कितना
ही कहो कि
इतने खिलौने
हैं, पूरा
घर खिलौनों से
भर देते हैं; लेकिन एक
जवान आदमी
बच्चों के ढंग
से सुखी नहीं
हो सकता। और
अगर आप सच में
बूढ़े हो गए
हैं, वृद्ध
हुए हैं, तो
जवान के ढंग
से आप सुखी
नहीं हो सकते।
कितनी ही खूबसूरत
औरतें चारों
तरफ बिठा दी
जाएं, और
कितना ही
नाच-रंग हो
जाए, अगर
आप सच में
वृद्ध हो गए
हैं, तो
फिर ये खिलौने
ही मालूम
पड़ेंगे, फिर
इनसे सुखी
नहीं हो सकते।
जहां से चेतना
आगे बढ़ जाती
है, फिर उस
तल के सुख
बेमानी हैं।
आदमी
सुखी नहीं हो
सकता पशु के
ढंग से। लेकिन
सब आदमी उसी
ढंग से सुखी
होने की कोशिश
कर रहे हैं।
इसलिए सिर्फ
दुखी होते
हैं। वह कोई
उपाय न रहा।
चेतना पीछे
नहीं लौट
सकती। चेतना
और आगे जा
सकती है।
मृत्यु
की छाया जब तक
बनी रहेगी, आदमी
सुखी नहीं हो
सकता। तो क्या
किया जाए? एक
तो उपाय यह है
कि शरीर को जितनी
देर तक बचाया
जा सके, बचाया
जाए; ताकि
मृत्यु दूर
हटाई जा सके।
लेकिन कितना
ही हटाओ
मौत को दूर, दूर भी हट
जाए तो भी खड़ी
रहती है। उससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता। चार दिन
और हट जाए, आठ
दिन और हट जाए,
आदमी अस्सी
साल न जीकर सौ
साल जीए, कि
डेढ़ सौ
साल जीए, इससे
कोई भेद नहीं
पड़ता। मौत
पीछे भी हट
जाए, तो भी
खड़ी रहती है।
और सच
तो यह है, आदमी
जितनी ज्यादा
देर जीएगा,
मौत का बोध
उतना सघन हो
जाएगा। अगर दस
साल का बच्चा
मर जाए, तो
उसे मौत का
कोई खास पता
नहीं होता।
चालीस साल का
जवान मर जाए, तो अभी उसे
मौत की
थोड़ी-थोड़ी झलक
मिलनी शुरू
हुई थी। अस्सी
साल का बूढ़ा
आदमी मरता है,
तो मरने के
बहुत पहले मौत
में काफी बुरी
तरह डूब चुका
होता है। जिस
दिन डेढ़
सौ साल का
आदमी मरता है,
उस दिन और
भी ज्यादा
मौत...। अगर हम
आदमी को हजार साल
जिंदा रखने
में सफल हो
जाएं, तो
मौत की जो
छाया है, और
सघन हो जाएगी,
और भारी हो
जाएगी।
क्योंकि
जितनी उम्र बढ़ेगी, जितना
अनुभव बढ़ेगा,
उतने ही
जीवन के सब
खिलौने बेकार
होते चले जाएंगे।
और एक जगह
आएगी कि सिर्फ
मौत ही
एकमात्र अर्थ
रह जाएगा, बाकी
सब अर्थ खो
जाएगा।
इसलिए
हमारे बीच जो
सबसे ज्यादा
बुद्धिमान आदमी
है,
वह सबसे ज्यादा
मौत के प्रति
सचेतन हो जाता
है। अगर बुद्ध
को रास्ते पर
मरे हुए आदमी
को देख कर
खयाल उठा कि
जीवन बेकार
है...। आपको
नहीं उठता।
आपको रोज रास्ते
पर मरे हुए
आदमी मिलते
हैं। आपको
इतना ही खयाल
आता है:
बेचारा! उस पर
दया आती है, अपने पर
नहीं। और मन
में थोड़ी
प्रसन्नता भी
होती है कि
चलो, हम तो
अभी जिंदा
हैं। तो बाजार
की तरफ कदम और
जोर से बढ़
जाते हैं कि
हम तो अभी
जिंदा हैं। हर
मरा हुआ आदमी
आपको सिर्फ
इतनी ही खबर
देता है कि आप
अभी जिंदा
हैं। बुद्ध को
मरे हुए आदमी
को देख कर खबर
मिली कि मैं
भी मर गया
इसके साथ।
आयरिश
कवि मुनरो
ने लिखा है कि
जब भी कोई
मरता है, तो
मैं ही मरता
हूं। और इसलिए
कभी बाहर
पूछने को मत
भेजो कि किसकी
अरथी गुजरती
है; मेरी
ही अरथी
गुजरती है।
बुद्ध
को मरा हुआ
आदमी देख कर
लगा कि मैं मर
गया;
अगर एक आदमी
मर गया, तो
मैं मर गया।
मौत निश्चित
है; तो अब
जीवन बेकार हो
गया।
जितनी
सचेतन आत्मा
होगी, उतनी
जल्दी मौत की
छाया पकड़ेगी।
आपको बूढ़े
होने में
अस्सी साल
लगते हैं; बुद्ध
बीस साल में
बूढ़े हो गए।
इससे
आप यह मत
समझना कि बूढ़े
ही आदमी...।
भारत में यह
धारणा ही रही
है सदा से कि
वृद्ध को ही
संन्यास लेना
चाहिए। मेरे
पास बहुत लोग
आते हैं और वे
कहते हैं कि
आपको वृद्ध को
ही संन्यास
देना चाहिए, सत्तर-पचहत्तर
साल पार कर
जाए! मैं उनसे
कहता हूं, तुम्हें
पता नहीं कि
आदमी कब वृद्ध
हो जाए। पचहत्तर
साल में भी कई
लोग हैं, जो
वृद्ध नहीं
होते। कई क्या,
बहुत लोग
नहीं होते।
आसान तो नहीं
है वृद्ध हो
जाना। बूढ़ा हो
जाना बहुत
आसान है; वृद्ध
हो जाना उतना
आसान नहीं।
क्योंकि बूढ़ा होना
तो सिर्फ उम्र
से हो जाता है,
वृद्ध होना
तो बुद्धि की
बात है। कोई
आदमी बहुत
पहले वृद्ध हो
जाता है।
बुद्ध
बीस साल में
वृद्ध हो गए।
जो अस्सी साल के
बूढ़े की भी
बुद्धि में
नहीं आता है, वह
बीस साल के
बुद्ध की
बुद्धि में आ
गया, वे
वृद्ध हो गए।
उन्हें दिखाई
पड़ गया कि मौत
सुनिश्चित
है। अब कब
होगी, यह
बात गौण है।
यह नासमझों
पर छोड़ा जा
सकता है कि वे
तय करें कि कब
होगी। मेरे
लिए होगी, तो
कब होगी, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। अब मुझे
यही जानना
जरूरी हो गया
कि क्या मेरे
भीतर ऐसा कुछ
है, जो
अमृत है! अगर
नहीं है, तो
सब व्यर्थ है।
अगर है, तो
उसी को खोजने
में सार्थकता
है।
लाओत्से
कहता है, ताओ
में जो
प्रविष्ट हो
जाता है, वह
अविनाशी है।
वह अमृत हो
गया। उसकी फिर
कोई मृत्यु
नहीं है। और
जो अविनाशी है,
वह समग्र
दुखों के पार
हो जाता है।
क्योंकि सारे
दुख विनाश के
दुख हैं। मेरा
विनाशी होना
ही मेरे दुख
का कारण है।
अविनाशी हो
जाना ही मेरे
आनंद का
सूत्रपात है।
आज
इतना ही। बैठें
लेकिन; कोई
उठे न।
पांच-दस मिनट
कीर्तन के बाद
जाएं।
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