ताओ के पतन
पर
सिद्धांतों
का जन्म—(प्रवचन—चालीसवां)
अध्याय
18 : सूत्र 1
ताओ
का पतन
महान
ताओ के पतन पर,
मानवता
और न्याय के
सिद्धांत का
उदय हुआ।
और
जब ज्ञान और
होशियारी का
जन्म हुआ,
तब
पाखंड भी अपनी
पूरी तीव्रता
में सक्रिय हो
गया।
जब
संबंधों के
बीच शांति असंभव
हो गई,
तब
दयालु
माता-पिता और
आज्ञाकारी
पुत्रों की प्रशंसा
शुरू हुई।
और
जब देश में
कुशासन और
अराजकता छा गई,
तब
स्वामिभक्त
मंत्रियों की
प्रशंसा होने
लगी।
जीवन
की अत्यंत
कठिन पहेली के
संबंध में यह
सूत्र है।
लाओत्से, जिन्हें
हम बड़े नैतिक
सिद्धांत
कहते हैं, उनके
विपरीत है, उनके विरोध
में है।
क्योंकि
लाओत्से का
मौलिक
सिद्धांत यही
है कि जीवन
में एक गहरा
संतुलन
प्रतिपल
स्थापित होता
रहता है।
अगर हम
साधुता पर जोर
देंगे, तो
असाधुता बढ़ेगी।
अगर हम
नैतिकता पर बल
देंगे, तो
अनैतिकता भी
उसी मात्रा
में विकसित
होगी। अगर हम
चाहेंगे कि
लोग अच्छे हों,
तो हम उसी
मात्रा में
बुरे लोगों को
भी पैदा करने
का कारण
बनेंगे।
अगर हम
जीवन को समझने
की कोशिश करें, तो
पहली बात तो
यह खयाल में
आएगी कि जीवन
संतुलन के
बिना असंभव
है। और यह
संतुलन
सर्व-व्यापक
है--सभी
आयामों में, सभी दिशाओं
में।
अभी
वैज्ञानिक एक
अनूठे खयाल पर
पहुंचे हैं। हमें
चिंता से भरता
है;
लेकिन
लाओत्से को
चिंता से नहीं
भरेगा। आज से सौ
वर्ष पहले
फ्रांस में विनेट नाम
के विचारक और
मनोवैज्ञानिक
ने मनुष्य की बुद्धि
को नापने का
पहला प्रयोग
किया। इन सौ वर्षों
में विनेट
की विधियां काफी
विकसित हो गई
हैं। और अब हम
मनुष्य का
बुद्धि-माप, आई. क्यू., इंटेलीजेंस कोशिएंट
जान सकते हैं।
एक आदमी के
पास कितनी
बुद्धि की
मात्रा है, वह जानी जा
सकती है।
यह जो
बुद्धि की
मात्रा है, इसके
निरंतर
अनेक-अनेक
प्रयोगों ने,
जिसकी
कल्पना भी
नहीं थी, उस
दृष्टि को
दिया। और वह
यह है कि अगर
सौ
व्यक्तियों
में एक
व्यक्ति
प्रतिभाशाली
होता है, जीनियस
होता है, तो
एक व्यक्ति
ईडियट होता है,
महामूढ़ होता है।
अगर दस
व्यक्ति
तीक्ष्ण
बुद्धि के होते
हैं, तो दस
व्यक्ति मंद
बुद्धि के
होते हैं। अगर
हम सौ
व्यक्तियों
को दो हिस्सों
में बांट दें,
तो जो ऊपर
पचास लोग हैं,
ठीक उनको
संतुलित करते
हुए पचास लोग
दूसरे छोर पर
होते हैं। अगर
आपको दस
प्रतिभाशाली
व्यक्ति पैदा
करने हैं, तो
आप अनिवार्य
रूप से दस मूढ़
व्यक्ति पैदा
करने में सफल
हो जाएंगे।
यह
बहुत हैरानी
की बात मालूम
पड़ती है। इसका
अर्थ तो यह
हुआ कि जितने
हम लोगों को
तीक्ष्ण
बुद्धि देंगे, उसी
अनुपात में हम
कुछ लोगों से
बुद्धि छीन भी
लेंगे। जीवन
सभी आयामों
में संतुलन है,
इसका अर्थ
यह हुआ कि अगर
एक मात्रा
स्वस्थ लोगों
की होगी, तो
उसे संतुलित
करती उतनी ही
मात्रा
अस्वस्थ और
बीमार लोगों
की होगी।
लाओत्से
कहता है कि
संतुलन से बचा
नहीं जा सकता।
अगर हम अच्छे
लोग दस पैदा
कर लेंगे, तो
दस बुरे लोग
अनिवार्य रूप
से पैदा हो
जाएंगे। वे
अच्छे दस
लोगों का
दूसरा पहलू
है। और जैसे
एक सिक्का एक
ही पहलू का
नहीं हो सकता,
वैसे ही इस
जीवन के रहस्य
में भी एक
व्यक्तित्व
एक ही पहलू का
नहीं हो सकता।
तो जब एक साधु
पैदा होता है,
तो
अनिवार्य रूप
से एक असाधु
पैदा होता है।
यह
समझने में
थोड़ी कठिनाई
पड़ेगी, क्योंकि
साधु से असाधु
का क्या लेना?
लेकिन
चेतना भी एक
विस्तीर्ण
भूमि है, ऐसा
समझें। तो जब
एक पहाड़ खड़ा
होता है, तो
पास एक खाई भी
निर्मित हो
जाती है। और
हम पहाड़ खड़ा
नहीं कर सकते
बिना खाई
बनाए। अगर
हमें घाटियों
से बचना है, तो हमें
पहाड़ों से भी
बच जाना होना।
अगर हम पहाड़
की चोटियां
चाहते हैं, तो हमें
घाटियों की
अंधेरी
स्थिति को भी
स्वीकार कर
लेना होगा।
क्योंकि पहाड़
का जो शिखर है,
वह एक पहलू
है; उसके
पास ही पैदा
हो गया जो गङ्ढ
है, वह भी
उसी का दूसरा
पहलू है। वह
पहाड़ का ही
हिस्सा है।
अगर समतल भूमि
चाहिए, तो
ही हम पहाड़ और
घाटियों से बच
सकते हैं।
और
जैसे यह जमीन
के संबंध में
सही है, लाओत्से
कहता है, चेतना,
कांशसनेस
के संबंध में
भी यही सही
है। कांशसनेस
भी एक भूमि
है। और जब
कांशसनेस में,
चेतना में
एक पहाड़ की
तरह व्यक्ति
खड़ा होता है, तो तत्क्षण
उसको संतुलित
करता एक
व्यक्ति खाई
बन जाता है।
जब एक व्यक्ति
राम होगा, तो
दूसरा
व्यक्ति अनिवार्यरूपेण
रावण हो
जाएगा। अगर
राम चाहिए, तो रावण से
बचने का कोई
उपाय नहीं है।
और अगर रावण
से बचना है, तो राम का
आकर्षण और मोह
छोड़ देना
होगा।
यह
जटिलता है।
रावण से हम
बचना चाहेंगे, राम
को बचाना
चाहेंगे।
चाहेंगे कि
राम ही राम हों,
रावण
बिलकुल न हो।
लेकिन हमें
खयाल नहीं है
जीवन के
संतुलन का। और
हमें यह भी
खयाल नहीं है
कि अगर पृथ्वी
पर राम ही राम
हों, तो
उससे ज्यादा
उबाने वाली और
घबड़ाने
वाली पृथ्वी
दूसरी नहीं हो
सकती। अगर
सारे लोग राम
जैसे हों, तो
बहुत बोर्डम
और बहुत ऊब
पैदा करने
वाले होंगे।
बीच-बीच में
वह रावण भी
चाहिए। वह राम
से ऊब पैदा
नहीं होने
देता। वह राम
में रस को
बनाए रखता है।
रावण
भी अकेले नहीं
हो सकते। भले
आदमी के होने
के लिए बुरा
आदमी जरूरी है, बुरे
आदमी के होने
के लिए भला
आदमी जरूरी
है। सब भले
आदमी बुरे
आदमियों पर
निर्भर होते
हैं; सब
बुरे आदमी भले
आदमियों पर
निर्भर होते
हैं।
इंटर-डिपेंडेंट
हैं। न तो भले
आदमी
स्वतंत्र हैं
और न बुरे
आदमी
स्वतंत्र हैं;
एक-दूसरे पर
निर्भर हैं।
यह
निर्भरता बड़ी
कठिन है
समझनी।
क्योंकि हजारों-हजारों
साल से हमारी
आकांक्षा रही
है: भले लोग
हों,
बुरे लोग न
हों; बुद्धिमान
लोग हों, बुद्धिहीन
लोग न हों; चरित्रवान
लोग हों, चरित्रहीन
लोग न हों। हम
इस कोशिश में
लगे हैं कि
प्रकाश ही
प्रकाश हो, अंधेरा न
हो। हम इस
कोशिश में लगे
हैं कि जीवन ही
जीवन हो, मौत
न हो। हम इस
कोशिश में लगे
हैं कि सुख ही
सुख हो, दुख
न हो।
लाओत्से
कहता है, हमारी
कोशिश असफल
होगी ही।
इसलिए मजे की
बात है कि जो
आदमी जितना
सुख चाहेगा, उतना दुखी
हो जाएगा। जो
आदमी सुख नहीं
चाहेगा, वह
दुख से बच
सकता है। दुख
से बचने का एक
ही सूत्र है, सुख को न
चाहना। दुख
बड़ा हो जाएगा,
अगर सुख की
आकांक्षा
प्रबल है।
जीवन
एक द्वंद्व है
और द्वंद्वों
के बीच एक संतुलन
है। इस सूत्र
को समझने के
पहले यह
द्वंद्व और
संतुलन का
खयाल समझ लेना
जरूरी है।
विरोध भी है
दोनों में और
भीतर जोड़ भी
है। अब रावण
और राम में
विरोध साफ है।
कौरव और
पांडवों में
विरोध साफ है; दुश्मनी
स्पष्ट है। यह
दुश्मनी बहुत
ऊपर की बात
है। लेकिन
गहरे में
दोनों
एक-दूसरे पर
निर्भर हैं।
हम सोचते हैं
आमतौर से कि
एक तरफ अमीर
हो जाते हैं
लोग, तो एक
तरफ लोग गरीब
हो जाते हैं।
तो हम अमीरों के
खिलाफ हैं; क्योंकि एक
तरफ लोग अमीर
होते हैं, तो
एक तरफ लोग
गरीब हो जाते
हैं।
लेकिन
जब हमें जीवन
के और सूत्रों
का पता चलेगा, तो
हमें पता
चलेगा, यह
सिर्फ धन के
संबंध में ही
लागू नहीं है।
जार्ज
गुरजिएफ का
खयाल था कि
ज्ञान की भी
सीमित मात्रा
है। और इस सदी
में बुद्धिमान
से बुद्धिमान
लोगों में एक
था। उसका खयाल
था, ज्ञान
भी सीमित है।
इसलिए जब कोई
आदमी ज्ञान इकट्ठा
कर लेता है, तो दूसरा
आदमी ज्ञान की
दृष्टि से
दरिद्र हो जाता
है। चेतना भी
सीमित है। और
जब एक व्यक्ति
परम चैतन्य को
उपलब्ध हो
जाता है, तो
कोई दूसरा
व्यक्ति
चेतना की
दीनता को उपलब्ध
हो जाता है।
और न केवल
सीमित होने के
कारण, बल्कि
संतुलन के लिए
भी आवश्यक है।
अन्यथा जीवन
की व्यवस्था
टूट जाए, सब
बिखर जाए।
इसलिए
एक अनूठी बात मनुष्य
के इतिहास में
दिखाई पड़ती है
कि जैसे-जैसे
सदगुणों की
आकांक्षा
बढ़ती है, वैसे-वैसे
दुर्गुण भी
विकसित होते
हैं।
लाओत्से
कहता है कि एक
ऐसी अवस्था भी
है प्रकृति की, जब
हम द्वंद्व पर
ध्यान नहीं
देते। वही परम
अवस्था है।
उसे वह ताओ
कहता है, उस
स्वभाव की
अवस्था को, जब हमें
दुर्गुण का भी
पता नहीं और
सदगुण का भी
पता नहीं। जब
हमें यह भी
पता नहीं कि
साधुता क्या
है और असाधुता
क्या है। वह
परम शांति की अवस्था
है। जैसे ही
हमें पता चला
कि साधुता क्या
है, उसका
अर्थ हुआ कि
असाधुता का
हमें बोध हो
गया है।
इसलिए
एक बहुत मजे
की बात है कि
साधुओं को पाप
की जितनी समझ
होती है, असाधुओं को उतनी
नहीं होती। और
साधु जितनी
बारीकी से पाप
को जानते हैं,
असाधु उतनी
बारीकी से
नहीं जानते।
अगर किसी व्यक्ति
को स्वास्थ्य
का खयाल आ गया,
तो उसका
अर्थ है कि वह
बीमार हो गया
है। जिन लोगों
को जितना स्वास्थ्य
का बोध होता
है, वे
उतने ही बीमार
होते हैं। और
जो आदमी चौबीस
घंटे
स्वास्थ्य का
खयाल करता है,
वह आदमी कभी
स्वस्थ नहीं
हो सकता। यह
भी एक बीमारी
है और गहरी
बीमारी है।
लाओत्से
कहता है कि
ताओ का पतन, वह
स्वभाव का पतन
कब हुआ।
"महान
ताओ के पतन पर
मानवता और
न्याय के
सिद्धांत का
जन्म हुआ--ह्यूमैनिटी
एंड जस्टिस।'
लाओत्से
कहता है, जब
मनुष्य
मनुष्य न रहे,
तब मानवता
के सिद्धांत
का जन्म हुआ।
हम
उलटा ही सोचते
हैं। हम सोचते
हैं,
मानवता के
सिद्धांत को
मान कर हम
चलेंगे, तो
मनुष्य हो
पाएंगे। और
लाओत्से कहता
है, जब
मनुष्य
मनुष्य न रहा,
तब मानवता
के सिद्धांत
का जन्म हुआ।
तब हमने कहना
शुरू किया
लोगों से कि
मनुष्य बनो!
मनुष्य
तो मनुष्य है
ही। बनने की
कोई बात नहीं
है। बनने का
तो मतलब यह
हुआ कि गिरना
हो चुका है।
किसी मनुष्य
से यह कहना कि
मनुष्य बनो, क्या
अर्थ है इसका?
इसका यही
अर्थ है कि
मनुष्यता से
गिरना हो चुका
है।
लाओत्से
कहता है, मानवता
का महान
सिद्धांत
मनुष्य के पतन
की स्थिति में
पैदा होता है।
नहीं तो आदमी
सहज ही मनुष्य
होता है।
न्याय की बात
ही तभी उठती
है, जब
अन्याय शुरू
हो जाए।
इसे हम
समझ लें।
विपरीत के साथ
ही बोध शुरू
होता है। जब
हम कहते हैं, अन्याय
नहीं होना
चाहिए, न्याय
होना चाहिए, तो एक बात
साफ है कि
अन्याय हो रहा
है। और जितनी
हम न्याय की
पुकार बढ़ाते
जाएंगे, उतना
ही अन्याय
बढ़ता चला
जाएगा। हम
कहते हैं, ज्ञान
चाहिए, क्योंकि
अज्ञान घना
है। और जितना
हम ज्ञान को बढ़ाते
चले जाते
हैं...।
अब
लाओत्से की यह
बात पश्चिम को
भी समझ में आनी
शुरू हो गई
है। और इस समय
पश्चिम में
ऐसे बहुत से
विचारशील लोग
हैं,
जो सोचते
हैं कि हमें
अब लाओत्से को
केंद्र मान कर
अपनी पूरी
व्यवस्था को रि-ओरिएंट
कर लेना चाहिए,
पुनर्निर्मित
कर लेना
चाहिए।
अभी तक
हमने जो
व्यवस्था
निर्मित की है
जगत में, वह
हमने लाओत्से
के विपरीत
निर्मित की
है। हमने सुनी
उनकी बात, जिन्होंने
कहा, अच्छाई
होनी चाहिए; हमने सुनी
उनकी बात, जिन्होंने
कहा, न्याय
होना चाहिए; हमने सुनी
उनकी बात, जिन्होंने
कहा, समानता
होनी चाहिए; हमने सुनी
उनकी बात, जिन्होंने
कहा, मनुष्यता,
स्वतंत्रता,
समानता, ये
सिद्धांत
हैं। लेकिन
परिणाम क्या
है?
अगर हम
परिणाम को
देखें, तो
हमें बहुत बात
साफ हो जाएगी।
आज जमीन पर जितना
ज्ञान है, इतना
शायद कभी भी
नहीं था। और
आज आदमी जितना
अज्ञानी है, इतना भी कभी
नहीं था। यह पैराडाक्सिकल
मालूम होता
है। इतना
ज्ञान और इतना
अज्ञान एक
साथ! लाओत्से
को मालूम नहीं
होता।
लाओत्से तो
कहता है, तुम
जितना ज्ञान बढ़ाओगे, उतना अज्ञान
बढ़ेगा। लेकिन
हमें मालूम
होगा। क्योंकि
हमारी धारणा
यह रही है कि
जितना ज्ञान
बढ़ेगा, उतना
अज्ञान कम
होगा। हमारे
सोचने का तर्क
यह है कि
जितना ज्ञान
बढ़ जाएगा, उतनी
अज्ञान की
राशि कम हो
जाएगी।
लेकिन
इतिहास हमें
गवाही नहीं
देता, हमारा
प्रमाण नहीं
देता। ज्ञान
की राशि तो बढ़ी,
कोई
शक-शुबहा नहीं
है। प्रति
सप्ताह पांच
हजार नए ग्रंथ
सारी दुनिया
में निर्मित
हो जाते हैं।
प्रति सप्ताह
पांच हजार नए
ग्रंथ गतिमान
हो जाते हैं।
हमारे
पुस्तकालय
बढ़ते चले गए
हैं। हमारे विश्वविद्यालय
फैलते चले गए
हैं। हमारे
ज्ञान की
शाखाएं-प्रशाखाएं
नई होती चली
गई हैं। आक्सफोर्ड
युनिवर्सिटी
तीन सौ साठ
विषयों में
शिक्षण देती
है।
हर तरफ
हम ज्ञान की
राशि को बढ़ाते
चले गए हैं।
और हर रोज
हमें ज्ञान की
नई शाखाएं तोड़नी
पड़ती हैं।
क्योंकि
ज्ञान इतना हो
जाता है कि एक
ही शाखा पर
भारी हो जाता
है,
सम्हाला
नहीं जा सकता।
आज अगर कोई
आदमी सिर्फ छोटी
सी आंख के
संबंध में भी
पूरा
विश्व-साहित्य
जानना चाहे, तो एक जीवन
छोटा है। वह
कितना ही
जानता चला जाए,
छोटी सी आंख
के संबंध में
भी आज पूरा
ज्ञान नहीं हो
सकता।
इसलिए
हमको बांटते
चलना पड़ता है।
एक दिन हमारा
डाक्टर पूरे
शरीर का इलाज
करता था।
ज्ञान बहुत कम
था। एक डाक्टर
ही सारे ज्ञान
को जान लेता
था। फिर ज्ञान
बढ़ा,
तो हमें
स्पेशलिस्ट निर्मित
करने पड़े, विशेषज्ञ
निर्मित करने
पड़े। क्योंकि
ज्ञान इतना हो
गया कि एक ही
डाक्टर पूरे
शरीर को नहीं
जान सकता। तो
फिर हमें अलग
अंगों के अलग
डाक्टर खोज
लेने पड़े।
अब
एक-एक अंग का
भी इतना ज्ञान
है कि एक ही
डाक्टर की
सीमा के बाहर
है जान लेना।
इसलिए अब अमरीका
में तो खयाल
ही यह है कि
भविष्य में
ज्ञान इतना
होता जा रहा
है कि आदमी पर
भरोसा नहीं
किया जा सकता, कम्प्यूटर
ही सहायता
करेंगे। तो
भविष्य में तो
यही स्थिति हो
जाने वाली है
कि ज्ञानी वह
आदमी है, जो
कम्प्यूटर का
उपयोग करना
जानता है। तो
डाक्टर को
डाक्टरी
जाननी जरूरी
नहीं है, बल्कि
कम्प्यूटर से
पूछ सके, फलां
बीमारी के लिए
कौन सा इलाज
होगा--इतनी कुशलता
आवश्यक होगी।
क्योंकि
ज्ञान इतना
होता जा रहा
है कि आदमी के
मस्तिष्क में
उसे समाया नहीं
जा सकता।
पुस्तकें
इतनी होती जा
रही हैं कि अब
बड़ी लाइब्रेरीज
नहीं निर्मित
की जा सकतीं, क्योंकि
वे सारी जमीन
को घेर लेंगी।
सिर्फ मास्को
की लाइब्रेरी
में इतनी
किताबें हैं
कि अगर हम एक
के बाद एक
आलमारी को
रखते जाएं, तो पूरी
जमीन का एक
चक्कर हो
जाएगा। इन
किताबों को
कौन पढ़ेगा?
इसलिए माइक्रो
बुक्स का खयाल
पैदा हुआ है।
छोटी किताबें
होनी चाहिए।
फिल्म रहेगी
छोटी। एक हजार
पन्ने की किताब
एक पन्ने पर आ
जाएगी। वह
पन्ना
संगृहीत रखा
जा सकता है।
और जब भी किसी
को पढ़ना
हो,
तो पढ़ने का
ढंग पुराना
नहीं रह
जाएगा। फिल्म
और
प्रोजेक्टर
के द्वारा ही
किताब पढ़ी जा
सकेगी।
किताबें
बढ़ती जाती
हैं। ज्ञान
बढ़ता जाता है।
और अभी तो
पश्चिम के
वैज्ञानिक
चिंतित हो गए
हैं कि हम
अपने बच्चों
को,
जितना
ज्ञान हमारी पीढ़ी पैदा
कर रही है, उसको
कैसे ट्रांसफर
करें? इसलिए
नया खयाल आ
रहा है, वह
यह कि शिक्षा
बीस-पच्चीस
साल में
समाप्त नहीं
हो जानी
चाहिए। कम से
कम पचास साल
तक अगर हम शिक्षा
न दें, तो
इस सदी के बाद
शिक्षा का कोई
अर्थ नहीं रह
जाएगा। लेकिन
अगर एक
व्यक्ति को हम
पचास साल तक
शिक्षा दें, तो वह जीएगा
कब? उसके
जीने का कोई
उपाय नहीं
मालूम होता।
इसलिए
एक नया खयाल
आया है। और वह
नया खयाल यह है
मेमोरी ट्रांसप्लांटेशन
का,
कि जब एक
आदमी मरे, तो
उसकी हम
स्मृति को बचा
लें और छोटे
बच्चे के ऊपर
स्मृति
आरोपित कर दें,
रिप्लांट कर दें।
ताकि छोटे
बच्चे को वे
बातें न सीखनी
पड़ें, जो
उसके बाप ने
सीखी थीं। बाप
की स्मृति उसे
सीधी उपलब्ध
हो जाए, तो
छोटा बच्चा
आगे बढ़ सके, कुछ नया सीख
सके।
ज्ञान
इतना! लेकिन
दूसरी तरफ
आदमी को हम
देखें, तो
अज्ञान भयंकर
है। चांदत्तारों
का हमें पता
है; अपना
हमें कोई पता
नहीं है। कैसे
पहुंचें मंगल
पर, उसकी
हम तलाश में
हैं और हम
रास्ते बना
लिए हैं। कैसे
पहुंचें अपने
तक, बहुत
दूर मालूम
पड़ती है यह
यात्रा, पहुंचना
संभव नहीं
मालूम पड़ता।
इतना ज्ञान है
और आदमी इतना अनाश्वस्त!
उसको कोई
आश्वासन नहीं
है कि कभी
अपने को जान सकेगा।
इतना
ज्ञान है हमें
अब कि हम सब
जानते हैं, क्रोध
कैसे पैदा
होता है, कैसे
कार्य करता
है। कामवासना
कैसे जगती है,
कैसे कार्य
करती है, क्या
उसकी
बायो-केमिस्ट्री
है, क्या
उसके कार्य
करने का ढंग
है, सब
हमें पता है।
बुद्ध को इतना
पता नहीं था।
लेकिन बुद्ध
को इतना पता
था कि क्रोध
उनके भीतर काम
नहीं कर पाता
था। हमें
क्रोध के
संबंध में सब
कुछ पता है; लेकिन क्रोध
पर हमारा
रत्ती भर भी
कोई वश नहीं
है। कामवासना
के संबंध में
हमें जितना
ज्ञात है, मनुष्य-जाति
के इतिहास में
कभी किसी को
ज्ञात नहीं
था। लेकिन
कामवासना से
जिस बुरी तरह
हम पीड़ित हैं,
वैसा कभी
कोई समय इस
बुरी तरह
पीड़ित नहीं
रहा।
हमारा
ज्ञान तो बढ़ता
गया है राशि
में। और हमारा
अज्ञान भी
बढ़ता गया है।
जितना कंपता
हुआ आदमी आज
का है--खुद पर
उसे कोई भरोसा
नहीं है; एक
क्षण का कोई
विश्वास नहीं
है; कोई
सुरक्षा नहीं
है; जीवन
अर्थहीन
मालूम पड़ता
है। तो
निश्चित ही जिस
तर्क का सहारा
लेकर हम चले
थे, वह गलत
सिद्ध हुआ है।
अरस्तू
का तर्क लेकर
मनुष्य-जाति
चली है। अरस्तू
ने कहा था कि
ज्ञान बढ़ जाए, तो
अज्ञान कम हो
जाएगा। यह
सीधा गणित है।
लाओत्से का
गणित तो उलटा
मालूम पड़ता
है। लाओत्से कहता
है, ज्ञान
बढ़ेगा, तो
अज्ञान भी
बढ़ेगा।
लाओत्से की
कभी किसी ने सुनी
नहीं। सुनने
जैसी बात भी
नहीं थी।
बिलकुल अर्थहीन
मालूम पड़ती है,
तर्कहीन
मालूम पड़ती
है।
स्वाभाविक
बात है कि
ज्ञान बढ़े, तो अज्ञान
कम हो जाना
चाहिए। हमारे
मन को समझ में
आती है। इसलिए
अरस्तू सारी
मनुष्य-जाति के
लिए केंद्र बन
गया। और
पश्चिम ने
अरस्तू को आधार
मान कर सारा
विज्ञान
विकसित किया।
लेकिन
अब जब चीजें
विकसित हो गई
हैं,
तो पता चलता
है कि शायद
लाओत्से ही
सही है। इधर
पचास वर्षों
में पश्चिम
में जो भी
बुद्धिमान
लोग हैं, उन
सब की प्रतीति
एक ही है कि
जीवन बिलकुल
अर्थहीन हो
गया है, मीनिंगलेस
हो गया है।
कोई अर्थ नहीं
सूझता। किसलिए
हम जी रहे हैं,
कुछ पता
नहीं चलता।
क्यों यह
भाग-दौड़ है, क्यों यह
आपाधापी है, कुछ पता
नहीं चलता। जीएं ही
क्यों, इसका
भी कोई कारण
नहीं मालूम
होता।
सार्त्र
ने कहा है, बिना
हमारी मर्जी
के हमें जीना
पड़ता है। बिना
हमारी मर्जी
के न मालूम
क्यों हम पैदा
किए जाते हैं!
बिना हमारी
मर्जी के न
मालूम किस दिन
हम उठा लिए
जाते हैं!
सार्त्र ने
कहा है कि एक
ही बात है
जिसमें हम
अपनी मर्जी
जाहिर कर सकते
हैं और वह
आत्मघात है, स्युसाइड है। और तो
हमारी कोई
मर्जी नहीं
है। न कोई हमसे
पूछता जन्म के
समय; न कोई
हमसे पूछता
मृत्यु के
समय। यह जीवन
एक दुख-स्वप्न,
एक नाइटमेयर
मालूम होता
है।
इधर
पचास वर्षों
में न मालूम
कितने
विचारशील
लोगों ने
आत्महत्या की
है। ऐसा कभी
नहीं हुआ था।
पचास साल के
पहले दुनिया
में आत्महत्याएं
हुई
हैं--विचारहीन
लोगों के
द्वारा। इन
पचास वर्षों
में जो आत्महत्याएं
हुई हैं, वे
हुई हैं
विचारशील
लोगों के
द्वारा। यह
गुणात्मक भेद
है। पचास साल
पहले जो आदमी
आत्महत्या
करता था, वह
कोई बहुत
बुद्धिमान
आदमी नहीं था।
कोई उसे बुद्धिमान
नहीं मानता
था। और आज
हालत ऐसी है, पश्चिम में
कम से कम, कि
जिसको लोग
बुद्धिमान
मानते हैं, अगर उसने अब
तक आत्महत्या
नहीं की है, तो उसकी
बुद्धि पर शक
होता है।
क्योंकि अगर
जीवन व्यर्थ
है, तो
आत्महत्या ही
एकमात्र उपाय
है। अगर मुझे
यह पक्का पता
चल जाए कि
जीवन में कोई
भी सार नहीं
है, तो फिर
जीने के लिए
चेष्टा ही...!
निजिंस्की ने
आत्महत्या
करने के पहले
एक पत्र में
लिखा है कि
मैं
आत्महत्या कर
रहा हूं; लेकिन
कोई यह न समझे
कि मैं कायर
हूं। स्थिति उलटी
है। तुम अपनी
आत्महत्या
नहीं कर सकते,
कायर हो, इसलिए जीए
चले जाते हो।
मैं कर सकता
हूं; मैं
कायर नहीं
हूं। इसलिए
मैं तुम्हारे
इस व्यर्थ
जीवन की
दौड़-धूप से
अपना छुटकारा
चाहता हूं।
निजिंस्की की
बात एकदम गलत
नहीं मालूम
पड़ती है। अगर
आप भी अपने से
पूछेंगे कि
क्यों जीए चले
जाते हैं, तो
शायद कायरता
ही कारण हो।
मरने की
हिम्मत न जुटा
पाते हों, तो
जीए चले जाते
हैं, ढोए
चले जाते हैं।
यह ढोने का
भाव पहली दफा
आया है दुनिया
में। ज्ञान के
बढ़ने के साथ
आत्म-अज्ञान
बढ़ गया। इधर
राशि बढ़ गई
बाहर के ज्ञान
की, उधर
भीतर अज्ञान की
राशि बढ़ गई।
संतुलन पूरा
हो गया।
लाओत्से
कहता है कि
आत्मज्ञान
नहीं जन्म सकता, जब
तक इस बाहर के
ज्ञान से
छुटकारा न हो।
इधर हम
देखते हैं, अगर
हम तीन सौ
वर्ष के
मनुष्य के
विचार को उठा कर
देखें, तो ह्यूमैनिटी,
मनुष्यता
का सिद्धांत
बहुत गति
पाया। लेकिन इन
तीन सौ वर्षों
में हमने
जितने युद्ध
किए और जिस भयंकर
ढंग से युद्ध
किए, उनकी
कोई तुलना
इतिहास में
नहीं है। इधर
मनुष्यता का
खयाल बढ़ता चला
गया और उधर हम
हिरोशिमा और
नागासाकी पर
एटम भी गिरा
दिए। इधर सारी
दुनिया में
चीख-पुकार
चलती है
मनुष्यता की
और उधर
वियतनाम में
युद्ध चलता
चला जाता है।
जो मनुष्यता
की बात करते
हैं, वे ही
युद्ध को चलाए
भी चले जाते
हैं। अगर मनुष्यता
का इतना बोध
दुनिया में
पैदा हो गया
है, तो
युद्ध बंद हो
जाने चाहिए।
लेकिन युद्ध
बंद होते नहीं
दिखाई पड़ते।
इधर हम
न्याय की बड़ी
चिंता करते
हैं। और अन्याय
का कोई हिसाब
नहीं है। और
न्याय के नाम
पर जब भी हम
कोई बदलाहट
करते हैं, तो
अन्याय की एक
नई व्यवस्था
निर्मित हो
जाती है। और
कोई फर्क नहीं
पड़ता है।
हमारी सब
क्रांतियां
बीमारियों को
नष्ट नहीं
करतीं, केवल
बीमारियों को
कंधे बदल देती
हैं। और हमारे
सब सुधार
सिर्फ आशा बंधाते
हैं, परिणाम
कोई भी नहीं
आता।
जो हम
चाहते हैं, उससे
उलटा परिणाम
आता है। सोचते
हैं हम कि जितनी
अदालतें
होंगी, जितना
कानून होगा, उतने अपराध
कम होंगे।
लेकिन आंकड़े
उलटी कहानी
कहते हैं।
जितने कानून
बढ़ते हैं, जितनी
अदालतें बढ़ती
हैं, जितने
न्यायाधीश
बढ़ते हैं, उतने
अपराधी बढ़ते
हैं। अपराधी
कम नहीं होते।
अगर हम दो
हजार साल का
अपराध का
इतिहास देखें,
तो ठीक
अनुपात में
बढ़ती होती है।
कानून बढ़ते हैं,
अपराधी
बढ़ते हैं।
अपराधी बढ़ते
हैं, तो
कानूनविद
डरते हैं कि
कानून शायद कम
हैं, इसलिए
अपराधी बढ़ रहे
हैं। वे और
कानून बढ़ा
लेते हैं।
अपराधी और बढ़
जाते हैं।
किसी
भ्रांत तर्क
में मनुष्य का
मन घूमता है। जब
अपराधी और बढ़
जाते हैं, तो
हम और कानून
की व्यवस्था
जमा लेते हैं।
और तब ऐसा
मालूम पड़ता है
कि अपराधी और
न्यायाधीश के
बीच एक गहरा
संबंध है। और
तब ऐसा मालूम
पड़ता है कि
चोर और पुलिसवाला
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। वे दो चीजें
नहीं हैं।
कहीं भीतर
जुड़े हैं। एक
बढ़ता है, दूसरा
भी बढ़ता है।
एक की ग्रोथ
दूसरे की ग्रोथ
तभी हो सकती
है, जब
दोनों जुड़े
हों। कहीं
भीतर जोड़ है।
और एक का रस
दूसरे को भी
मिलता है, और
एक का जीवन
दूसरे को भी
मिलता है।
लाओत्से
की दृष्टि
बिलकुल और है।
लाओत्से कहता
है कि
तुम्हारे सब
अच्छे
सिद्धांत, तुम्हारी
सब अच्छी
धारणाएं
तुम्हारी
सारी बुराइयों
की जड़ में
हैं।
"मानवता
और न्याय के
सिद्धांत का
उदय हुआ, जब
ताओ का पतन
हुआ। और जब
ज्ञान और
होशियारी का
जन्म हुआ, तब
पाखंड भी अपनी
पूरी तीव्रता
में सक्रिय हो
गया।'
कभी
आपने खयाल
किया कि
शिक्षित आदमी
को बेईमानी से
बचाना बहुत
मुश्किल है!
लेकिन तब भी
हम ऐसा सोचते
हैं कि यह
शिक्षा की भूल
से ऐसा हो रहा
है;
शायद
शिक्षा में
कोई कमी है; शायद शिक्षा
ठीक नहीं है।
अगर ठीक
शिक्षा हो, राइट एजुकेशन
हो, तो ऐसा
नहीं होगा।
फिर हम गलती
कर रहे हैं।
लाओत्से
कहता है कि
शिक्षित आदमी
को बेईमानी से
बचाना असंभव
है। असंभव
इसलिए है कि
शिक्षा होशियारी
देती है; होशियारी
चालाकी बन
जाती है।
शिक्षा समझ
देती है; हृदय
को नहीं
बदलती। हृदय
तो वही होता
है। समझ भर
बदल जाती है।
हृदय जो कल कर
सकता था
अशिक्षित होकर,
अब और
दुगुने वेग से
कर सकता है।
सिर्फ, एक
आदमी के हाथ
में तलवार थी;
आदमी वही है,
हमने उसको
एटम बम दे
दिया। यह आदमी
कल तलवार चलाता,
दो-चार को
मारता; आज
यह लाखों को
मार सकता है।
इसके भीतर
क्रोध वही है।
इसके हाथ में
पत्थर होता, तो पत्थर
फेंक कर मार
देता। इसके
हाथ में एटम बम
है, तो एटम
बम फेंक कर
मार देगा। यह
आदमी वही है।
इधर
शिक्षा बढ़ती
है,
बेईमानी
बढ़ती चली जाती
है। इमर्सन या
और विचारक, जो मानते
हैं कि जिस
दिन सारा जगत
सुशिक्षित हो
जाएगा, उस
दिन कोई बुराई
न रह जाएगी, बुनियादी
रूप से गलत
हैं। हम देख
रहे हैं कि जगत
सुशिक्षित
होता जा रहा
है, और कुछ
मुल्क तो पूरी
तरह
सुशिक्षित हो
गए हैं। आज
अमरीका तो
पूरी तरह
सुशिक्षित
है। लेकिन उसकी
शिक्षा से ही
उसकी सारी
बीमारियों का
जन्म हो गया
है। अच्छे लोग
भी गलत तर्क
को मान कर चलें,
तो नुकसान
पहुंचाते
हैं।
एक
मित्र मेरे
पास आए।
उन्होंने
अपना पूरा जीवन
आदिवासियों
को शिक्षा
देने में
लगाया। बड़े
प्रसन्न हैं
कि उन्होंने
भारी काम किया, बड़ा
त्याग किया।
काफी आनंदित
हैं। शहीद
होने का मजा
है, कि
मैंने अपनी
पूरी जिंदगी
लगा दी, एक
पैसा नहीं कमाया।
मैं क्या नहीं
कमा सकता था!
जेल गया; आज
केंद्रीय
मंत्रिमंडल
में हो सकता
था, पार्लियामेंट
में हो सकता
था। उस सब पर
लात मार दी।
आदिवासी
बच्चों को
शिक्षा देने
में मैंने सब
जीवन कुर्बान
कर दिया।
मैंने
उनसे पूछा कि
तुम जो शिक्षा
दे रहे हो, यह
भी तो देखो कि
जिन बच्चों को
शिक्षा मिल गई
है, उनको
क्या हुआ है? तुम मर
जाओगे शिक्षा
दे-दे कर इस
खयाल में कि बड़ा
उपकार कर रहे
हो, लेकिन
दूसरी तरफ भी
नजर डालो--जिनको
शिक्षा मिल गई
है, उनको
क्या हो गया
है?
अमरीका
तो आज शिक्षित
मुल्क है। हम
आशा कर सकते
हैं कि अमरीका
सारे जगत का
भविष्य है। सब
लोग शिक्षित
हो जाएंगे, तो
सभी मुल्क
अमरीका जैसे
हो जाएंगे।
लेकिन यह पूरी
शिक्षा का
परिणाम क्या
है? अपराध
कम नहीं हुए, बढ़ गए।
बेईमानी कम
नहीं हुई, बढ़
गई। हत्याएं
कम नहीं हुईं,
बढ़ गईं। पाप
कम नहीं हुए, बढ़ गए। जिस
मात्रा में
शिक्षा बढ़ी, उसी मात्रा
में सब बढ़
गया।
इसका
अर्थ क्या है? इसका
अर्थ यह है कि
हम विपरीत को
मिटा नहीं सकते;
एक को बढ़ा
कर हम उसके
विपरीत को
मिटा नहीं सकते,
सिर्फ बढ़ा
सकते हैं।
किसी
और पहलू से
देखें। आज
जमीन पर जितनी
दवाएं हैं, कभी
भी नहीं थीं।
लेकिन
बीमारियां कम
नहीं हुईं।
बीमारियां बढ़
गई हैं। सच तो
यह है कि नई-नई
मौलिक
बीमारियां
पैदा हो गईं, जो कभी भी
नहीं थीं।
हमने दवाओं का
ही आविष्कार
नहीं किया, हमने
बीमारियां भी
आविष्कृत की
हैं। क्या होगा
कारण? दवाइयां
बढ़ें, तो
बीमारियां कम
होनी चाहिए; यह सीधा
तर्क है।
दवाइयां बढ़ें,
तो
बीमारियां
बढ़नी चाहिए, यह क्या है? यह कौन सा
नियम काम कर
रहा है?
असल
में,
जैसे ही दवा
बढ़ती है, वैसे
ही आपके बीमार
होने की
क्षमता बढ़
जाती है।
भरोसा अपने पर
नहीं रह जाता,
दवा पर हो
जाता है।
बीमारी से फिर
आपको नहीं लड़ना
है, दवा को
लड़ना है। आप
बाहर हो गए।
और जब दवा
बीमारी से लड़
कर बीमारी को
दबा देती है, तब भी आपका
अपना रेसिस्टेंस,
अपना
प्रतिरोध
नहीं बढ़ता।
आपकी अपनी
शक्ति नहीं
बढ़ती। बल्कि
जितना ही आप
दवा का उपयोग
करते जाते हैं,
उतना ही
बीमारी से
आपकी लड़ने की
क्षमता रोज कम
होती चली जाती
है। दवा
बीमारी से लड़ती
है, आप
बीमारी से
नहीं लड़ते। आप
रोज कमजोर
होते जाते
हैं। आप जितने
कमजोर होते
हैं, उतनी
और भी बड़ी
मात्रा की दवा
जरूरी हो जाती
है। जितनी बड़ी
मात्रा की दवा
जरूरी हो जाती
है, आपकी
कमजोरी की खबर
देती है। उतनी
बड़ी बीमारी आपके
द्वार पर खड़ी
हो जाती है।
यह सिलसिला
जारी रहता है।
यह लड़ाई दवा
और बीमारी के
बीच है; आप
इसके बाहर
हैं। आप सिर्फ
क्षेत्र हैं,
कुरुक्षेत्र,
वहां कौरव
और पांडव लड़ते
हैं। वहां
बीमारियों के जर्म्स और
दवाइयों के जर्म्स
लड़ते हैं। आप
कुरुक्षेत्र
हैं। आप पिटते
हैं दोनों से।
बीमारियां
मारती हैं
आपको; कुछ
बचा-खुचा होता
है, दवाइयां
मारती हैं
आपको। लेकिन
दवा इतना ही करती
है कि मरने
नहीं देती; बीमारी के
लिए आपको
जिंदा रखती
है।
दवाओं
और बीमारियों
के बीच कहीं
कोई अंतर-संबंध
है।
अगर हम
लाओत्से से
पूछें, तो
लाओत्से
कहेगा कि जिस
दिन दुनिया
में कोई दवा न
होगी, उसी
दिन बीमारी
मिट सकती हैं।
लेकिन यह बात
हमारी समझ में
न आएगी।
क्योंकि
लाओत्से का
तर्क ही कुछ
और है। वह यह
कहता है, कोई
दवा न हो, तो
बीमारी से
तुम्हें लड़ना
पड़ेगा।
तुम्हारी शक्ति
जगेगी। दवा का
भरोसा खुद पर
भरोसा कम करवाता
जाता है। हम
देख सकते हैं
कि किस भांति
हमारे शरीर
दवाओं से भर
गए हैं। लेकिन
कोई उपाय नहीं
है। क्योंकि
पूरा तर्क...।
इसे हम
ऐसा समझें।
जितनी हम
सुरक्षा में
हो जाते हैं, उतने
असुरक्षित हो
जाते हैं।
जितने
असुरक्षित
होते हैं, उतने
सुरक्षित
होते हैं।
क्या मतलब हुआ
इस पहेली का? इस पहेली का
यह मतलब हुआ, जितने आप
सुरक्षित
होते हैं, उतने
कमजोर हो जाते
हैं।
हम एक एयरकंडीशंड
कमरे में बैठे
हुए हैं। अपने
एयरकंडीशंड
कमरे की खिड़की
से आप बाहर एक
मजदूर को सड़क
पर से धूप में
निकलते देखते
हैं। आप सोचते
हैं,
बेचारा
कितनी धूप झेल
रहा है! लेकिन
आप नहीं जानते
कि हो सकता है,
उसे धूप का
पता भी न चल
रहा हो। यह
धूप का खयाल आपका
है। और यह बात
सच है कि आप
अगर इस मजदूर
की जगह चलेंगे,
तो भयंकर
धूप होगी।
लेकिन एक ही
सड़क पर एक सी धूप
नहीं होती, क्योंकि
अलग-अलग आदमी
अलग-अलग धूप
का अनुभव करते
हैं। धूप सूरज
पर ही निर्भर
नहीं है, आप
पर भी निर्भर
है। इसलिए जब
आप सड़क पर चल
कर पसीने से
तरबतर हो
जाएंगे, तो
आप सोचते हैं,
बेचारा
मजदूर! यह
सिर्फ आप ही
बेचारे हैं; बेचारा
मजदूर नहीं।
मजदूर को, हो
सकता है, धूप
का पता ही न चल
रहा हो।
क्योंकि धूप
के पता चलने
के लिए एयरकंडीशनिंग
पहले जरूरी
है। वह अनिवार्य
है।
इसका
मतलब यह हुआ
कि जितनी एयरकंडीशनिंग
बढ़ेगी, उतनी
धूप बढ़ेगी।
और जितनी
दुनिया को हम
शीतल कर लेंगे,
उतनी
दुनिया गरम हो
जाएगी। यह
विपरीत दिखाई
पड़ता है।
लेकिन जोड़ हैं
भीतर। गहरे
जोड़ हैं। जितनी
देर आप एयरकंडीशनिंग
में हैं, उतनी
आपके शरीर की
अपनी क्षमता
धूप से लड़ने
की कम होती जा
रही है। स्वभावतः
जिस चीज की
जरूरत नहीं है,
वह क्षमता
कम हो जाएगी।
आपका शरीर जो
काम करता, वह
एयरकंडीशनिंग
की मशीन कर
रही है। तो जब
आप अचानक धूप
में खड़े हो
जाएंगे, आपका
शरीर एकदम
असुरक्षित हो
जाएगा; वह
नहीं सह
पाएगा। मशीन
सह रही थी धूप
आपके लिए; आप
नहीं सह रहे
थे। तो आपकी
अपनी सहने की
क्षमता तो कम
हो ही जाएगी।
धूप में जब आप
निकलेंगे, तो
भयंकर पीड़ा
अनुभव होगी।
यह जो पीड़ा का
अनुभव है, यह
बढ़ गया आपका।
जब तक एयरकंडीशनिंग
नहीं थी, तब
तक दुनिया में
धूप का ऐसा
कोई अनुभव
नहीं था।
इसलिए
अब रूस में वे
विचार करते
हैं कि हमें
पूरे नगर को एयरकंडीशन
कर लेना
चाहिए। लेकिन
जिस दिन आप
पूरे नगर को एयरकंडीशन
कर लेंगे और
बच्चे एयरकंडीशनिंग
में ही पैदा
होंगे और बूढ़े
एयरकंडीशनिंग
में ही मरेंगे, उस
दिन आप समझना
कि मनुष्य को
अंडरग्राउंड
चले जाना
पड़ेगा। ऐसी
कथाएं हैं कि
कभी-कभी
सभ्यताएं इस
ऊंचाई पर पहले
भी पहुंच चुकी
हैं। और जो भी
सभ्यता आखिरी
ऊंचाई पर
पहुंची, उसको
अंडरग्राउंड,
भूमिगत
जाना पड़ा है।
दक्षिण
अमरीका में एक
झील है, टिटीकाका। बहुत
अनूठी झील है;
और
वैज्ञानिक
बहुत परेशान
रहे हैं।
क्योंकि झील
में एक नदी
गिरती है।
करोड़ों गैलन
पानी रोज उस
झील में गिरता
है। और झील से
बाहर निकलने
का कोई उपाय
नहीं है पानी
का। लेकिन झील
में कभी इंच भर
पानी बढ़ता
नहीं। तो
वैज्ञानिक
बहुत परेशान हुए
स्वभावतः। यह
सारा पानी
जाता कहां है?
यह टिटीकाका
मिस्टीरियस
झील है सारी
जमीन पर। इसका
पानी जाता
कहां है? इतना
पानी प्रति
सेकेंड गिर
रहा है, और
उसमें कभी इंच
भर बढ़ती नहीं
होती! कभी
बढ़ती नहीं हुई
सैकड़ों
वर्षों के
रिकार्ड में।
पानी उसका
उतना ही रहता
है।
कुछ
रहस्यवादियों
का खयाल है कि टिटीकाका
झील के नीचे
कभी किसी
पुरानी इन्का
सभ्यता की
बस्ती थी। और
यह टिटीकाका
झील उस बस्ती
में पानी
पहुंचाने का
उपाय करती थी।
वह बस्ती तो
नष्ट हो गई है; लेकिन
अंडरग्राउंड
जो पानी को
सोखने की व्यवस्था
थी, वह
जारी है। तो
पानी ऊपर से
पहुंचता जाता
है और वह नीचे
झील पीती चली
जाती है। उस
झील के नीचे
एक बस्ती थी, ऐसा खयाल
है। और अब
वैज्ञानिक भी
थोड़ा इससे राजी
होते चले जाते
हैं। इस पर
काफी खोज चलती
है कि उस
बस्ती का कोई
पता चल सके।
ऐसा
खयाल है कि जब
भी कोई सभ्यता
पूरी विकसित होती
है,
तो वह
अंडरग्राउंड
हो जाती है।
हम जो मोहनजोदड़ो
और हड़प्पा
में सात-सात
पर्तें देखते हैं
नगरों की, वह
जरूरी नहीं है
कि विध्वंस के
कारण, भूकंप
के कारण जमीन
के भीतर चली
गई हों। बहुत संभावना
यह है कि
सभ्यता स्वयं
भूमिगत हो गई
हो। क्योंकि
एक-दो पर्त
नहीं हैं, मोहनजोदड़ो में सात
पर्तें हैं।
तो अब
तक वैज्ञानिक
कहते थे, भूगर्भशास्त्री
कहते थे, स्थापत्यविद कहते थे कि
सात बार मोहनजोदड़ो
बसा और सात
बार भूकंप के
कारण भूमिगत
हो गया। यह
बात ठीक नहीं
मालूम पड़ती
है। और एक के
बाद एक सात
सभ्यताएं नगर
की जमीन में
डूब गईं। ज्यादा
ठीक यह बात
मालूम पड़ती है
कि सभ्यता उस
शिखर पर पहुंच
गई, जहां
भूमिगत हो
जाना अनिवार्य
हो गया।
क्योंकि भूमि
के बाहर की
कोई भी व्यवस्था
को सहने की
क्षमता
आदमियों में न
रही।
दो सौ
साल के भीतर
अगर हम एयरकंडीशनिंग
को बस्तियों
पर फैला देते
हैं,
तो आदमी को
जमीन के भीतर
जाना पड़ेगा।
क्योंकि फिर
सूरज की रोशनी
में बाहर
निकलना ही मौत
का कारण हो
जाएगा। अगर
बच्चा एयरकंडीशनिंग
में ही पैदा
हो और बड़ा हो, तो सूरज की
रोशनी में
निकलना ही
मृत्यु हो जाएगी।
सूरज अब तक
जीवन रहा है; कल वह मौत भी
हो सकता है।
जैसे-जैसे
हम सुरक्षित
होते हैं, वैसे-वैसे
असुरक्षित हो
जाते हैं।
जैसे-जैसे हम
इंतजाम करते
हैं बचने का, वैसे-वैसे
हमारे द्वार
खतरों के लिए
खुल जाते हैं।
लाओत्से
कहता है कि जब
ज्ञान का जन्म
होगा, तो
पाखंड पैदा
होगा, हिपोक्रेसी
पैदा होगी, बेईमानी
पैदा होगी, धोखा पैदा
होगा। लोग
प्रवंचक हो
जाएंगे।
जानने वाला
आदमी ईमानदार
हो, यह बड़ा
मुश्किल
मालूम पड़ता
है।
इस
संबंध में
बाइबिल की कथा
स्मरणीय है।
और ईसाइयों की
कथाओं में अगर
कोई कथा
मूल्यवान है, तो
बस एक यही कि
अदम और ईव को
ईश्वर ने बगीचे
से बाहर कर
दिया स्वर्ग
के, क्योंकि
उन्होंने
ज्ञान का फल
चख लिया।
ईश्वर ने जब
अदम और ईव को
बनाया, तो
उसने कहा कि
यह सारा बगीचा
तुम्हारा है,
सिर्फ एक
वृक्ष को छोड़
कर--दि ट्री ऑफ नालेज।
ज्ञान के
वृक्ष को छोड़
कर सारा बगीचा
तुम्हारा है।
तुम सब फल
चखना, बस
इस ज्ञान के
फल को मत
चखना।
शायद
इसी कारण अदम
और ईव ज्ञान
के फल के लिए
बहुत उत्सुक
हो गए। और
शायद इसी कारण
शैतान ईव को
समझाने में
सफल हो गया।
शैतान ने ईव को
समझाया कि इस
फल का वर्जन
इसीलिए किया
गया है कि जो
भी इसके फल को
खा लेगा, वह
ईश्वर जैसा हो
जाएगा, देवताओं
जैसा हो
जाएगा। ज्ञान
आदमी को देवता
बना देता है।
और ईश्वर ने तुम्हें
सब छुट्टी दे
दी है, सिर्फ
इससे रोका है;
इसीलिए कि
तुम देवताओं
जैसे न हो
जाओ। जो जान लेगा,
वह देवता
जैसा हो
जाएगा।
ईव को
उसकी बात
जंची।
क्योंकि
अज्ञान ही तो
पतन है; और
ज्ञान
श्रेष्ठता
है। तो ज्ञान
का फल वर्जित
किया ईश्वर ने,
इसका मतलब
साफ है कि
ईश्वर हमें
अपने जैसा
नहीं होने
देना चाहता।
शैतान ने भी
ईव को पहले
समझाया; क्योंकि
किसी पति को
सीधा समझाने
की कोई जरूरत
नहीं है।
पत्नी राजी है,
तो पति
बेचारा राजी
ही है। और
पत्नी को राजी
कर लेना आसान
है, क्योंकिर् ईष्या
जगानी आसान
है। और शैतान नेर्
ईष्या जगा दी।
उसने कहा कि
तुम देवताओं
जैसे हो
जाओगे। आदम ने
बहुत कहा कि
जब ईश्वर ने
मना किया है, तो हम क्यों
झंझट में पड़ें?
लेकिन जब
पत्नी और
परमात्मा के
बीच चुनना हो,
तो पत्नी को
ही चुनना पड़ता
है। ईव मानने
को राजी नहीं
थी। और जितना
अदम ने रोका, उतना ईव का
आकर्षण बढ़ता
चला गया। और
वह फल चखना
पड़ा। उस फल के
चखते ही उन्हें
स्वर्ग के बगीचे
के बाहर कर
दिया गया।
ज्ञान
आदमी के पतन
का कारण बना, बाइबिल
में। यह बड़ी
हैरानी की बात
है। इससे लाओत्से
का मेल है।
लाओत्से भी
यही कहता है
कि ज्ञान पतन
का कारण है
आदमी का। और
तब से अदम भटक रहा
है, और उस
अदम के बेटे
आदमी भटक रहे
हैं। और तब तक
वापस नहीं लौट
सकते, जब
तक वे ज्ञान
को तिलांजलि न
दे दें।
स्वर्ग का
द्वार उनके
लिए फिर से
खुल सकता है, अगर वे
ज्ञान को
तिलांजलि दे
दें।
एक मजे
की बात है कि
ज्ञान के
तिरोहित होते
ही अज्ञान भी
तिरोहित हो
जाता है। सच
बात तो यह है
कि अज्ञान है, यह
भी ज्ञान के
ही कारण पता
चलता है।
इसलिए जितना
ज्ञान बढ़ता है,
उतना
अज्ञान का बोध
बढ़ता है। अगर
आप जमीन पर बिलकुल
अकेले हों, तो आप
अज्ञानी
होंगे कि
ज्ञानी? क्या
होंगे आप? आप
सिर्फ होंगे।
क्योंकि
कंपेरिजन की,
तुलना की
कोई जगह न
होगी। किससे तौलेंगे
कि आप ज्ञानी
हैं कि
अज्ञानी? अगर
आप अकेले हों
जमीन पर, तो
चरित्रवान
होंगे कि
चरित्रहीन? किससे तौलेंगे?
साधु होंगे
कि असाधु? कैसे
जानेंगे? कैसे
तौलेंगे?
क्या होगा
मापदंड?
लाओत्से
कहता है कि
ताओ की स्थिति
वह सरल स्थिति
है,
जैसे हर आदमी
जमीन पर अकेला
हो। न कोई
तौलने का उपाय
है; न कुछ
बुरा है, न
कुछ भला है; न कुछ ज्ञान
है, न कुछ
अज्ञान है; न कुछ
साधुता है, न कुछ
असाधुता है।
सिर्फ होना
मात्र है--जस्ट
बीइंग।
बाइबिल
की इस कथा में
एक और मजेदार
बात है कि जैसे
ही फल को चखा
ईव ने, उसने
जल्दी से
पत्ते उठा कर
अपने शरीर को
ढंका। अब तक
वह नग्न थी।
ज्ञान के साथ
ही पाप का बोध
आ गया। ज्ञान
के साथ ही, कुछ
छिपाना है, इसका खयाल आ
गया। ज्ञान के
साथ ही पूरे
शरीर की
स्वीकृति न
रही, कुछ
अस्वीकृत हो
गया। तब तक
अदम और ईव
नंगे थे। तब
तक वे छोटे
बच्चों की तरह
निर्दोष थे।
ज्ञान के साथ
ही दोष शुरू
हो गया।
लाओत्से
कहता है कि
ज्ञान जब तक न
खो जाए, तब तक
इनोसेंस, निर्दोषिता
उपलब्ध नहीं
होती।
इसलिए
बहुत मजे की
बात है कि परम
ज्ञान को वे ही
लोग उपलब्ध
होते हैं, जो
ज्ञान को भी
छोड़ने में
समर्थ हो जाते
हैं। तब वे
निर्दोष हो
जाते हैं, तब
वे सरल हो
जाते हैं।
जीसस
ने कहा है कि
वे ही मेरे
स्वर्ग के
राज्य में
प्रवेश
करेंगे, जो इन
छोटे बच्चों
की तरह
निर्दोष हैं।
पता
नहीं, छोटे
बच्चे
निर्दोष हैं
या नहीं।
क्योंकि फ्रायड
नहीं मानता कि
निर्दोष हैं।
फ्रायड तो मानता
है कि सब दोष
उनमें मौजूद
हैं; सिर्फ
प्रकट होने की
देर है। सब
उपद्रव मौजूद हैं।
आपके सहारे की
जरा जरूरत है;
सब प्रकट
होने लगेंगे।
थोड़ा शिक्षित
करिए, थोड़ा
बड़ा करिए, खिलाइए-पिलाइए,
तैयार करिए;
सब
बीमारियां
तैयार हैं, वे प्रकट
होने लगेंगी।
लेकिन
जीसस का मतलब
और है। जीसस
का मतलब यह है
कि जहां बोध
नहीं है, अबोध!
अबोध ही
निर्दोषिता
है।
जैसे
ही ज्ञान आया
ईव को और अदम
को,
उन्होंने
ढंक लिया अपने
को। वे अपने
ही प्रति निंदा
से भर गए।
शर्म मालूम
पड़ने लगी।
शर्म का अर्थ
ही है कि आदमी
को दोष का बोध
शुरू हो गया। स्त्रियों
में हम शर्म
को बड़ा गुण
मानते हैं; वह गुण है
नहीं। लज्जा
को हम गुण
मानते हैं; वह गुण है
नहीं।
क्योंकि
लज्जा का मतलब
यह होता है कि
स्त्री को दोष
का बोध हो
गया। कुछ गलत
है, इसका
पता चल गया।
बिना अनुभव के
पता कैसे चलेगा?
किसी न किसी
रूप में गलत
भीतर प्रवेश
कर गया है।
निर्दोष
व्यक्तित्व
में लज्जा भी
नहीं है, शर्म
भी नहीं है, बेशर्मी भी
नहीं है।
क्योंकि
बेशर्मी के
लिए पहले शर्म
आ जानी जरूरी
है। निर्दोष
व्यक्तित्व
में लज्जा भी
नहीं है, निर्लज्जता
भी नहीं है।
क्योंकि
निर्लज्जता
बाई-प्रोडक्ट
है; लज्जा
के बाद ही!
किसी में
लज्जा आ जाए
और फिर वह
लज्जा की
फिक्र न करे
और जीता चला जाए,
तो
निर्लज्ज
होता है।
लाओत्से
कहता है कि एक
ऐसी सरल
स्थिति भी है
जीवन की, जहां
अभी द्वंद्व
का पता ही
नहीं है कि
क्या है काला
और क्या है
सफेद। वह कहता
है, वही
परम धर्म है।
उसके नीचे
जितनी बातें
धर्म की कही
जाती हैं, वे
सब पतन की
हैं।
कनफ्यूशियस
मिलने आया है
लाओत्से को।
तो कनफ्यूशियस
ठीक उलटा आदमी
है। वह ठीक
अरस्तू से मेल
खाता है, हमसे
मेल खाता है। कनफ्यूशियस
कहता है कि
लोगों को सिखाओ
कि अच्छाई
क्या है। कनफ्यूशियस
सदधर्म, नीति, नियम
का पक्का
पाबंद है।
इंच-इंच जीवन
को नियम से
बांध कर, अनुशासन
से बांध कर
चलना चाहिए।
उठना कैसे, बैठना कैसे,
बोलना कैसे,
उस सब की
उसकी
व्यवस्था है।
इस जगत में
उससे ज्यादा
बड़ा अनुशासनविद
और अनुशासनप्रेमी
नहीं हुआ है।
हर चीज का
नियम उसने बना
दिया है। जीना
कैसे, मरना
कैसे, सब
का नियम है।
कनफ्यूशियस मर
रहा है। उसका
शिष्य उससे
मिलने आया है।
तो कनफ्यूशियस
उससे पूछता
है। क्योंकि
कई वर्षों बाद, बीस
वर्ष बाद
शिष्य वापस
आया है मरते
गुरु के पास।
मरता गुरु और
कुछ नहीं
पूछता, मरता
गुरु यह पूछता
है कि तू जिस बैलगाड़ी
में बैठ कर
आया है, गांव
के बाहर उससे
नीचे उतर गया
था या गांव के
भीतर भी बैठ
कर आया? उसके
शिष्य ने कहा,
आपका शिष्य
होकर ऐसी भूल
कैसे कर सकता
हूं? जिस
गांव में मैं
पैदा हुआ, उसमें
बैलगाड़ी
में बैठ कर
कैसे आ सकता
हूं? गांव
के बाहर उतर
गया था। कनफ्यूशियस
ने कहा, तब
ठीक है; मैं
शांति से मर
सकता हूं।
ऐसा नियमविद!
हर चीज को
नियम, डिसिप्लिन,
कानून, उसमें
बांधना।
लाओत्से
बिलकुल उलटा
आदमी था। वहां
कोई नियम ही न
थे। क्योंकि
नियम ही
लाओत्से के
लिए पतन था।
नियम का मतलब
ही है कि
बीमारी आ गई; अब
उसे बांधना है,
सम्हालना
है, किसी
तरह चलाना है।
कनफ्यूशियस मिलने
गया लाओत्से
को। तो कनफ्यूशियस
ने कहा कि
आपका क्या
संदेश है? लोगों
को मैं अच्छा
बनाना चाहता
हूं; आप
मुझे कुछ सलाह
दें, यह
मैं कैसे करूं?
तो लाओत्से
ने कहा कि तुम
अच्छे बनाने
की कोशिश भर
मत करो। नहीं
तो तुम लोगों
को बुरा बनाने
में सफल हो
जाओगे।
तुम्हारी इतनी
कृपा काफी
होगी कि तुम
लोगों को
अच्छा बनाने
की कोशिश मत
करो।
कनफ्यूशियस की
तो कुछ समझ
में न आया; क्योंकि
उसके तो चिंतन
की एक धारा
थी। उसने कहा,
यह भी क्या
बात है? इससे
तो अराजकता
फैल जाएगी!
इससे तो अनार्की
हो जाएगी! अगर
हम लोगों को
अच्छा न बनाएं,
तो सब
अराजकता हो
जाएगी।
लाओत्से ने
कहा, राजकता
लाने की
चेष्टा से
अराजकता पैदा
होती है। कनफ्यूशियस
ने कहा कि लोग
बिलकुल
स्वच्छंद हो
जाएंगे। लाओत्से
ने कहा, नियम
के कारण ही
लोग स्वच्छंद
होते हैं। अगर
नियम नहीं, तो कैसी
स्वच्छंदता? लोग सहज
होंगे। नियम
हैं, तो
लोग स्वच्छंद
हो जाएंगे। और
सब नियम सहजता
के विपरीत
होते हैं; इसलिए
सब नियम लोगों
को स्वच्छंद
होने के लिए मजबूर
कर देते हैं।
यह
थोड़ा समझने
जैसा है, सब
नियम लोगों को
स्वच्छंद
होने के लिए
मजबूर कर देते
हैं। सहजता तो
एक प्रवाह है,
और नियम तो
एक बांध है।
मैं
छोटा था, तो
मेरे स्कूल के
एक शिक्षक की
मृत्यु हुई।
उन्हें स्कूल
में हम सारे
लोग भोले शंकर
कह कर चिढ़ाया
करते थे। बहुत
भोले आदमी थे।
सच में ही
भोले आदमी थे।
और सब तरफ से
उन्हें
परेशान किया
जा सकता था।
और सब तरफ से
चौबीस घंटे
स्कूल में वे परेशान
किए जाते थे।
उनकी मृत्यु
हो गई। सारे
स्कूल के
बच्चे उनको
अंतिम विदा
देने गए। उनसे
प्रेम भी था, लगाव भी था।
उनको इतना
परेशान भी
किया हुआ था।
मैं सामने ही
खड़ा था, उनकी
अरथी के
बिलकुल पास।
उनकी पत्नी
बाहर निकली और
जोर से उनकी
छाती पर गिर
पड़ी और उसने
कहा, हे
मेरे भोले
शंकर! तो मुझे
हंसी रोकनी
बिलकुल
मुश्किल हो
गई। यह कभी
नहीं सोचा था
कि मरने पर और
उनकी पत्नी
उनको भोले
शंकर कहेगी।
भोले शंकर कह
कर तो हम
उन्हें चिढ़ाते
थे। तो उनकी
मौत की जो
गमगीनी थी, वह तो खतम हो
गई। वह तो भूल
ही गया खयाल
कि वे मर गए
हैं और अभी
हंसना उचित
नहीं है। हंसी
इतने जोर से
फैली कि
करीब-करीब
पूरे स्कूल के
लड़के हंसने
लगे। क्योंकि
सभी को पता था
कि भोले शंकर!
हद हो गई! यह तो
मजाक की आखिरी
सीमा हो गई।
बहुत
डांट-डपट पड़ी।
घर लौट कर हर
एक के घर पर डांट-डपट
पड़ी;
और कहा गया
कि अब तुम्हें
कभी ऐसी जगह
नहीं ले जाया
जा सकता। आदमी
मर गया और तुम
हंस रहे हो!
कुछ नियम का खयाल
होना चाहिए।
फिर इतने जोर
से हंसने की
क्या बात थी? अगर हंसी भी
आ गई थी--और जब
बताया कारण, तो सब को समझ
में आया कि
हंसी का कारण
था--तो भी अपने
मन में ही। पर
कारण जोर से
हंसने का यह
था कि नियम के
खयाल के कारण
सभी ने रोकने
की कोशिश की।
फिर रोकना
इतना असंभव हो
गया कि वह
इतने जोर से
फूटी कि वह एक्सप्लोसिव
हो गई। उनकी
पत्नी के भी
आंसू सूख गए।
वह भी घबड़ा कर
खड़ी हो गई कि
क्या हुआ!
नियम
अक्सर विपरीत
को शक्ति देते
हैं। नियम था
साफ था कि
नहीं हंसना
है। हंसने की
कोई बात
बिलकुल ही
गैर-मौजूं है।
लेकिन जिंदगी
नियम नहीं
मानती। वहां
भीतर तो हंसी
आ गई,
और वह
बिलकुल सहज
थी। कोई
दुर्भाव भी न
था। लेकिन
नियम ने उसे
रोका। नियम
बांध बनाता
है। जो सहज
धारा आ गई थी, नियम ने
बांध बनाया।
और बांध जब टूटेंगे,
तो
स्वच्छंदता
पैदा होती है।
बांध के कारण
पैदा होती है,
नदियों के
कारण नहीं। और
जब बांध टूटते
हैं, तो
भयंकर उत्पात
हो जाता है।
तो
जिन्होंने
जीवन को बांध
की भाषा में
देखा है, जैसे कनफ्यूशियस
ने, तो
उसने कहा, सब
स्वच्छंद हो
जाएगा। कोई
किसी की
मानेगा नहीं,
कोई किसी की
सुनेगा नहीं।
प्रजा राजा की
नहीं सुनेगी;
बेटे पिता
की नहीं
सुनेंगे; पत्नियां पतियों
की नहीं मानेंगी;
नौकर मालिक
की नहीं
सुनेंगे।
लाओत्से
ने कहा कि तुम
जितनी कोशिश
करोगे कि बेटे
पिता की सुनें, बेटे
पिता के उतने
ही विपरीत
होते चले
जाएंगे। और
लाओत्से सही
सिद्ध हुआ है।
पांच हजार साल
से हम कोशिश
कर रहे हैं कि
बेटे बाप की
सुनें। और
परिणाम केवल
एक हुआ कि
बेटे और बाप
के बीच की खाई
बड़ी होती चली
गई। कोशिश
हमारी यही रही
है कि नौकर
मालिक की
सुनें। और
परिणाम यह हुआ
है कि नौकर ने
कहा कि तुम
मालिक हो, यह
तुमसे कहा
किसने? भ्रांति
में हो। ज्यादा
से ज्यादा हम पार्टनर्स
हैं, साझेदार
हैं। प्रजा
राजा की माने,
इसका कुल
परिणाम इतना
हुआ कि आज
जमीन पर राजा नहीं
हैं।
यह
बहुत हैरानी
की बात है।
क्योंकि पांच
हजार साल की
सतत चेष्टा का
यह फल कि
प्रजा राजा की
माने, परिणाम
यह हुआ कि
राजा कहीं भी
नहीं हैं। और
अगर हैं भी, तो उनकी
हैसियत
नौकरों की हो
गई है। आज
इंगलैंड की
रानी की
हैसियत एक
नौकर से
ज्यादा नहीं है;
क्योंकि
तनख्वाह भी
पार्लियामेंट
तय करती है।
कम भी कर सकती
है, बढ़ा भी
सकती है, बंद
भी कर सकती
है। कोई मूल्य
नहीं रह गया।
किस वजह से?
कनफ्यूशियस की
वजह से। लाओत्से
ने उसी दिन कनफ्यूशियस
को कहा था कि
तुम बर्बाद कर
दोगे दुनिया
को। तुम नियम थोपोगे, अनियम
पैदा हो
जाएगा। तुम
अनुशासन
चाहोगे, अनुशासनहीनता
जन्मेगी।
लाओत्से ने
कहा था, तुम
अच्छा करने की
कोशिश ही छोड़
दो। अगर तुम अच्छा
करने की कोशिश
छोड़ दो, तो
दुनिया में बुरा
होना बंद हो
सकता है।
मगर यह
बड़ा कठिन है; और
बड़ा मुश्किल
है; बड़ा
मुश्किल है।
यह मान कर
चलना बड़ा
मुश्किल है कि
दवा मत दो, तो
बीमारी अच्छी
हो सकती है।
लेकिन
अभी पश्चिम के
बहुत से
अस्पतालों
में प्रयोग
चलते हैं। और
लाओत्से सही
निकलता है--न मालूम
कितने-कितने
कोनों से। एक
आदमी को
एलोपैथिक दवा
दें,
एक आदमी को होमियोपैथिक
दवा दें। एक
सी बीमारी
दोनों की है।
एक को नेचरोपैथी
करवा दें, एक
को किसी बाबा
की भभूत दिलवा
दें। परिणाम परसेंटेज
में बराबर
निकलते हैं।
सत्तर परसेंट
लोग हर हालत
में ठीक होते
हैं--चाहे
एलोपैथी हो, चाहे
नेचरोपैथी हो,
चाहे
होमियोपैथी
हो, चाहे बायोकेमी
हो, कुछ भी
हो। चाहे बाबा
की भभूत हो, और चाहे कुछ
भी हो, सत्तर
परसेंट
मरीज तो तय
किए बैठे हैं,
ठीक होंगे
ही।
अभी इस
पर बहुत
प्रयोग चले, तो
फिर यह सोचा
कि कुछ
होमियोपैथी
की दवा भी करती
ही होगी, कुछ
बायोकेमी
की दवा भी
करती ही होगी,
कुछ
नेचरोपैथी की
विधियां भी
करती ही
होंगी। तो फिर
शुद्ध पानी
मरीजों को
देकर देखा गया
न मालूम कितने
अस्पतालों
में। दस मरीज
हैं एक ही
बीमारी के।
पांच को दवा
दी जा रही है, पांच को
पानी दिया जा
रहा है। पानी
भी उतना ही काम
करता है, जितनी
दवा काम करती
है।
अब तो
वे कहते हैं
कि अगर
सर्दी-जुकाम
है,
दवा लो तो
सात दिन में
ठीक हो जाओगे,
दवा न लो तो
एक सप्ताह में
ठीक हो जाओगे।
दवा लो, सात
दिन में ठीक
हो जाओगे। दवा
न लो, एक
सप्ताह में
ठीक हो जाओगे।
क्या होता
होगा आदमी को?
अभी तक साफ
नहीं है।
लाओत्से
कहता है, प्रकृति
स्वयं ही अपना
सुधार कर लेती
है। तुम सिर्फ
प्रकृति पर छोड़ो। तुम
कृपा करो और
बीच में
दखलंदाजी मत
करो। तुम ही
उपद्रव हो।
तुम जरा दूर
रहो और
प्रकृति पर
छोड़ दो।
प्रकृति अपना
उपाय कर लेती
है। जिसने
तुम्हें पैदा
किया, जिसने
तुम्हें जीवन
दिया, जिससे
तुम श्वासें
ले रहे हो, जिसके
कारण तुम चेतन
हो, वह
विराट है
ऊर्जा; वह
तुम्हारी
बीमारियों को
भी बहा ले
जाएगी, तुम
बीच में मत
आओ। वह
तुम्हारी
बुराई को भी बहा
ले जाएगी, तुम
बीच में मत
आओ। तुम ही
उपद्रव हो।
तुम बीच में
आओ ही मत। तुम
इस धारा के
साथ सहज एक हो
जाओ। यह धारा
जो चाहे और
जहां ले जाए
और जो करवाए!
बीमारी आए, तो बीमारी
से राजी हो
जाओ। प्रकृति
को छोड़ दो, जो
उसे करना हो।
अगर
ऐसा हम समझें, तो
लाओत्से ही
अकेला प्रकृतिवादी
है। अगर ठीक
से कहें, तो
वह जो कह रहा
है, वही
सिर्फ
नेचरोपैथी
है। पेट पर
पट्टी बांधे
हैं मिट्टी की,
या कपड़ा
बांधे हुए हैं,
या टब में
बैठे हुए हैं,
या एनिमा
ले रहे
हैं--कोई भी
नेचरोपैथी
नहीं है।
क्योंकि क्या
संबंध है नेचर
का एनिमा
से?
लाओत्से
कहता है, बिलकुल
छोड़ दो
प्रकृति पर।
जो प्रकृति
करना चाहे, होने दो।
तुम सिर्फ
राजी रहो बहने
को। लाओत्से
कहता है, तैरो मत,
बहो। छोड़ दो
नदी पर, जहां
ले जाए। और
तुम मत कहो कि
मेरी मंजिल
कौन सी है; नदी
पर छोड़ दो।
जहां तू
पहुंचा दे, वही मेरी
मंजिल है।
लाओत्से कहता
है, ऐसी
अवस्था में ही
धर्म के फूल
खिलते हैं।
"और जब
ज्ञान और
होशियारी का
जन्म हुआ, तब
पाखंड भी अपनी
पूरी तीव्रता
में सक्रिय हो
गया। जब
संबंधों के
बीच शांति
असंभव हो गई, तब दयालु
माता-पिता और
आज्ञाकारी
पुत्रों की प्रशंसा
शुरू हुई।'
जब हम
कहते हैं कि
फलां का बेटा
बड़ा
आज्ञाकारी है, तो
उसका मतलब
क्या होता है?
उसका मतलब
है कि वह
अपवाद है, एक्सेप्शन है।
लाओत्से
कहता है, बेटा
होने का अर्थ
ही आज्ञाकारी
होना होना चाहिए।
बेटा
आज्ञाकारी, यह
पुनरुक्ति है,
रिपीटीशन है। अगर हम
कहते हैं कि
फलां मां
कितनी दयालु है,
तो उसका
मतलब यह हुआ
कि मां और दया
दो अलग चीजें
हैं? कि
कभी मां के
साथ जुड़ती
है और कभी
नहीं जुड़ती
दया! लेकिन
मां होना ही
दया है। इसलिए
यह कहना कि
फलां मां
दयालु है, इस
बात की खबर है
कि अब माताएं
भी दयालु नहीं
होती हैं। यह
अपवाद है। तभी
तो हम इसकी
प्रशंसा करते
हैं, कहते
हैं, फलां
का बेटा कितना
आज्ञाकारी
है। इसका मतलब
कि अब बेटे
आज्ञाकारी
नहीं होते; अब पिता
दयालु नहीं
होते; अब
मां ममता से
भरी नहीं
होती।
लाओत्से
कहता है, ये
पतन के लक्षण
हैं। जब किसी
मां की
प्रशंसा करनी
पड़े कि वह
प्रेम से भरी
है, यह पतन
का लक्षण है।
जब पिता को
कहना पड़े कि
वह दयालु है, यह पतन का
लक्षण है। और
जब बेटे के
लिए आज्ञाकारी
होना प्रशंसा
का कारण हो
जाए, तो
समझना चाहिए
बीमारी आखिरी
सीमा पर पहुंच
गई।
यह
लाओत्से
बिलकुल उलटा
आदमी मालूम
होता है। लेकिन
यह भी हो सकता
है कि हम सब
उलटे हों और
वह सीधा खड़ा
है,
इसलिए हमें
उलटा मालूम
पड़ता है। बात
तो उसकी ठीक
लगती है। मां
के प्रेम की
क्या बात करनी
है? मां के
होने का अर्थ
ही प्रेम होता
है। यह चर्चा
ही नहीं उठानी
चाहिए। मां
प्रेमी है, यह बात ही
बेकार है।
बेटा
आज्ञाकारी है,
यह व्यर्थ
पुनरुक्ति
है। बेटा होने
का फिर अर्थ
ही न रहा।
बेटे होने का
अर्थ ही क्या
है? बेटे
होने का अर्थ
है कि वह मां
और पिता का एक्सटेंशन
है, उनका
फैलाव है, उनका
विस्तार है।
उनका ही हाथ
है, उनका
ही भविष्य है।
इसमें आज्ञा
और न आज्ञा की
बात कहां है?
मैं
नहीं कहता कि
मेरा हाथ मेरा
बड़ा आज्ञाकारी
है। लेकिन अगर
किसी दिन
दुनिया में
ऐसी कोई बात
चले कि फलां
आदमी का हाथ
बड़ा
आज्ञाकारी है, तो
समझ लेना कि
दुनिया में
सभी लोग पैरालाइज्ड
हो गए हैं।
क्या मतलब
होगा इसका कि
अखबार में फोटो
छपे कि इस
आदमी का हाथ
बिलकुल
आज्ञाकारी है!
जब पानी उठाना
चाहता है, पानी
उठा लेता है; जो भी करना
हो, करो; इसका हाथ
बड़ा
आज्ञाकारी
है। तो उसका
मतलब है कि
पैरालिसिस
जीवन का सहज
हिस्सा हो गई
है; सब लोग पैरालाइज्ड
हैं; अब
हाथ भी अपनी
नहीं मानते।
हम जिस
दुनिया में रह
रहे हैं, वह पैरालाइज्ड
है, लकवा
खा गई दुनिया
है, पक्षाघात
से भरी दुनिया
है। किसी बाप
को भरोसा नहीं
है कि बेटा
आज्ञा
मानेगा। और
अगर बेटे आज्ञा
मानते मालूम
पड़ते हैं, तो
वे गोबर-गणेश
बेटे होते हैं,
बिलकुल
गोबर के गणेश।
उनसे कोई
तृप्ति भी नहीं
होती। उनसे
कहो बैठो, तो
वे बैठ जाते
हैं। जब तक न
कहो उठो, तब
तक वे उठते ही
नहीं। उनसे
कोई तृप्ति
नहीं मालूम
होती। जिन
बेटों में
थोड़ी बुद्धि
दिखाई पड़ती है,
वे सुनते
नहीं। वे बाप को
आज्ञाकारी
बनाने की
कोशिश करते
हैं।
पचास
साल पहले
अमरीका में, मनोवैज्ञानिक
कहते थे कि
बेटे घर में
घुसते डरते
हैं, लड़कियां घर में
घुसते डरती
हैं। अब हालत
उलटी है। बाप-मां
घर में घुसते
डरते हैं, कि
पता नहीं
बेटे-बेटियां
क्या उपद्रव
खड़ा कर दें!
पचास साल पहले
बेटे और बेटियां
अमरीका में
मां-बाप से
पीड़ित थे, ऑप्रेस्ड थे। अब
मां-बाप उनसे ऑप्रेस्ड
हैं। हर बात
में मां-बाप
को डरना पड़ता
है कि कोई
गलती तो नहीं
कर रहे! कहीं
कोई कांप्लेक्स
बच्चे में
पैदा तो नहीं
हो जाएगा!
कहीं ऐसा तो नहीं
होगा कि
मनोवैज्ञानिक
कहें कि तुमने
बच्चे को
बीमारी दे दी,
इसका मन
खराब कर दिया!
डरे हुए हैं, घबड़ाए हुए हैं।
यह जो
पक्षाघात से
ग्रस्त
दुनिया है, यह
लाओत्से की
सलाह न मानने
के कारण है।
लाओत्से कहता
यह है कि जीवन
की जो सहजता
है, उसको
बांधने की
चेष्टा मत करो;
अन्यथा टूट
भी पैदा होगी।
आज्ञा मनवाने
की चेष्टा मत
करो; अन्यथा
अवज्ञा पैदा
होगी।
अनुशासन थोपो
मत; अन्यथा
दूसरे के भीतर
भी अहंकार है,
वह अहंकार
प्रतिकार
करेगा। और जब
बाप कहता है कि
मैं मनवा कर
रहूंगा, तो
बेटे का
अहंकार भी
कहता है कि
देखें, कैसे
मनवा कर
रहेंगे! बाप
का अहंकार
बेटे का अहंकार
पैदा करवा
देता है। और
जब बाप के मन
में मनवाने की
कोई आकांक्षा
नहीं होती, तो बेटे के
मन में भी न
मानने का कोई
प्रतिरोध पैदा
नहीं होता है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
जब बाप सचेत
होता है कि
ऐसा करवा कर
ही रहेंगे, तो
बेटा भी सचेत
हो जाता है।
और ध्यान रहे,
अगर बेटे और
बाप में लड़ाई
होगी, तो
अंततः बेटा
जीतेगा।
क्योंकि बाप
तो हारती हुई
बाजी है, बाप
जीत नहीं
सकता। वह
कितना ही वहम
पाले, वह
जीत नहीं
सकता। बेटा ही
जीतेगा। बेटा
है उठती हुई
ताकत, और
बाप है डूबती
हुई ताकत। अगर
विरोध खड़ा
होगा, तो
बेटा जीतेगा,
बाप
हारेगा। और
सारी दुनिया
में बाप हार
रहे हैं; जगह-जगह
उनके पैर उखड़ते
जा रहे हैं।
और बड़ी हैरानी
की बात है कि
बाप और बेटों
के बीच
संघर्ष...।
तुर्गनेव ने
एक किताब लिखी
है: फादर्स
एंड संस।
कीमती किताब
है। बाप और
बेटों के
संघर्ष की कथा
है। हर बाप हर
बेटे से लड़
रहा है। हर
बेटा हर बाप
से लड़ रहा है।
लाओत्से
कहेगा, इससे
ज्यादा रुग्ण
और विक्षिप्त
अवस्था क्या
होगी, जहां
बाप और बेटों
को लड़ना पड़ता
है! तो फिर दुनिया
में और क्या
उपाय होगा
जहां लड़ना न
हो!
लेकिन
हम देखते हैं
कि लड़ाई जारी
है। हर घर में
लड़ाई जारी है।
हर इंच पर
लड़ाई जारी है।
और हर इंच पर
तय करना होता
है--कौन जीता, कौन
हारा। रोज बाप
हारता जाएगा।
लेकिन इस बाप के
हारने में कोई
गहरा नियम काम
कर रहा है, जो
हमारे खयाल
में नहीं है।
और लाओत्से
उसी नियम की
याद दिलाता
है। वह दिलाता
है याद कि जब बाप
सिद्ध करने की
कोशिश करेगा
कि मैं बाप हूं
और मेरी मानो,
और जब गुरु
कहेगा कि मैं
गुरु हूं, मेरा
आदर करो; तो
इसकी जो
प्रतिध्वनि
है, वह
अनादर है। जब
गुरु ऐसा होता
है कि उसे पता
ही नहीं कि
उसे भी आदर
दिया जाना
चाहिए, तब
उसे आदर मिलता
ही है।
मैं
विश्वविद्यालय
के शिक्षकों
के एक सम्मेलन
में था। वहां बड़ी
चर्चा यही थी
कि शिक्षक का
आदर खतरे में
है। पूरी
चर्चा यही थी।
तो है ही खतरे
में। खतरे में
है,
यह भी कहना
क्या ठीक है? अब तो खतरा
भी बीत चुका।
अब तो आदर
कहीं बचा भी नहीं
है। मरीज मर
ही चुका है।
अब क्या खतरे
में है? लेकिन
अभी भी बचाने
की कोशिश में
लगे हैं। और
जितनी बचाने
की कोशिश करते
हैं, उतना
उपद्रव फैलता
चला जाता है।
हर स्कूल, हर
कालेज, हर
यूनिवर्सिटी,
अनुशासनहीनता
से, इनडिसिप्लिन से भर गई है।
लेकिन कोई भी
यह नहीं सोचता
कि इसकी
जिम्मेवारी
कहां है?
तो
मैंने उनसे
कहा कि
तुम्हारी यह
चिंता कि विद्यार्थी
तुम्हें आदर
नहीं देते, बड़ी
खतरनाक है। इस
चिंता का एक
ही परिणाम हो
सकता है कि
विद्यार्थी
तुम्हें और भी
आदर न दें।
तुमसे कहा
किसने कि गुरु
को आदर मिलना
चाहिए? असल
में, पुरानी
परिभाषा
बिलकुल और है।
वह परिभाषा यह
है कि जिसको
आदर मिलता है,
वह गुरु है।
गुरु को आदर
मिलना चाहिए,
इसका कोई
संबंध ही नहीं
है। गुरु को
आदर का सवाल
ही नहीं है।
जिसको आदर
मिलता है, वह
गुरु है। नहीं
मिलता, वह
गुरु नहीं है।
बात समाप्त हो
गई। अगर तुम्हें
विद्यार्थी
आदर नहीं देते,
तुम गुरु
नहीं हो। और
हो भी नहीं।
व्यर्थ मोह को
क्यों खींचे
चले जाते हो?
बाप वह
है,
जिसकी
आज्ञा मानी
जाती है। अगर
बेटा आज्ञा नहीं
मानता, तो
समझना चाहिए
आप बाप नहीं
हैं। सिर्फ बायोलाजिकली
बाप हैं, और
कुछ नहीं हैं।
तो बायोलाजिकली
होना कोई इतनी
महत्ता की बात
भी नहीं है।
एक इंजेक्शन
से, एक
इंजेक्शन भी बायोलाजिकली
पिता हो सकता
है। तो बायोलाजिकली
पिता होने की
कोई महत्ता भी
ऐसी नहीं है
कि आपकी आज्ञा
मानी जाए।
पिता
होना एक
आध्यात्मिकता
है। एक बात ही
अलग है। बच्चे
तो बहुत लोग
पैदा करते हैं, पिता
मुश्किल से
कभी कोई हो
पाता है। और
बच्चे करना
कोई गुण है? मक्खियां-मच्छर इतने
करते हैं कि
उसमें कोई
गुणवत्ता समझ
में नहीं आती।
आपका कोई
कृत्य है, ऐसा
भी कुछ समझ
में नहीं आता।
लेकिन
पिता होना एक
बड़ी बात है।
और ध्यान रहे, मां
से बड़ी बात
है। क्योंकि
मां नैसर्गिक
घटना है, पिता
एक उपलब्धि
है। मां तो
प्राकृतिक
घटना है; लेकिन
पिता नहीं है
प्राकृतिक
घटना। इसलिए
जब कोई
व्यक्ति पिता
हो पाता है, तो मां
बिलकुल फीकी
पड़ जाती है।
हालांकि पिता होना
बहुत मुश्किल
है। क्योंकि
पिता होने के लिए
कोई नैसर्गिक
इंतजाम नहीं
है। पशुओं को
तो पिता का
कोई पता नहीं
होता। और आपको
भी पता होता
है, तो
कितना इंतजाम
करना पड़ा वह पता
रखने के लिए!
शादी करो, पहरे
रखो, कानून
बनाओ, सारा
इंतजाम करो, फिर भी पिता
पक्के भरोसे
में नहीं होता
कि मेरे बेटे
का पिता मैं
ही हूं। यह
पक्का भरोसा
हो भी नहीं
सकता। इस
भरोसे के लिए
सती और
पतिव्रता और न
मालूम कितने
सिद्धांत और
कितनी नैतिकता--सिर्फ
एक बात को
पक्का रखने के
लिए कि मेरे
बेटे का बाप
मैं ही हूं।
सारा इतना
इंतजाम, इतनी
घबड़ाहट, इतना डर, इतना
भय! और जीवन एक
संस्था जैसा
बन जाता है--सिर्फ
इस इंतजाम के
लिए कि मेरी
वसीयत, मेरे
धन का जो
मालिक हो, वह
पक्के रूप से
मेरा ही बेटा
हो। बस इतने
इंतजाम के लिए
कितना कष्ट
उठाया जाता है
और कितनी कलह
झेली जाती है!
लेकिन
पिता कोई
नैसर्गिक
घटना नहीं है।
अगर बच्चे कल
समाज पालने
लगे और इंतजाम
करने लगे, तो
पिता की
संस्था खो
जाएगी। पिता
की संस्था सदा
नहीं थी, बहुत
बाद में आई
है। पर मां
नैसर्गिक
घटना है। पिता
होना एक आध्यात्मिक
बात है। इसलिए
हमने
परमात्मा को
पिता कहना
पसंद किया, बजाय मां
कहने के।
क्योंकि मां
होना एक नैसर्गिक
घटना है; और
पिता होना एक
आध्यात्मिक
उपलब्धि है।
पिता होने का
अर्थ ही इतना
है कि बेटा
उसकी मानता है।
इस मानने का
कहीं पता भी
नहीं चलता। इस
मनवाने की कहीं
कोई चेष्टा भी
नहीं है। यह
तो पिता की
गरिमा ही...।
पुराना
नियम था कि
जिस दिन बेटे
का विवाह हो जाए, उस
दिन से पिता
ब्रह्मचारी
हो जाए। हो ही
जाना चाहिए।
जिस घर में
बाप भी बेटे
पैदा कर रहा
हो और बेटा भी
बेटा पैदा कर
रहा हो, उस
घर में बाप का
कोई आदर हो
नहीं सकता है।
ज्यादा से
ज्यादा
मित्रता हो
सकती है
थोड़ी-बहुत, कंधे पर हाथ
रखा जा सकता
है, आदर
नहीं हो सकता।
क्योंकि बेटा
जो मूढ़ता
कर रहा है, बाप
भी वही मूढ़ता
में अभी पड़े
हुए हैं, तो
बाप होने का
हक खो देते
हैं।
तो
हमने
व्यवस्था की
थी कि पच्चीस
वर्ष में बेटे
घर लौटेंगे
आश्रमों से, पच्चीस
वर्ष के होकर
घर लौटेंगे
विवाह के लिए;
तब तक पिता
और मां पचास
वर्ष के हो
चुके होंगे।
जिस दिन बेटे
घर में प्रवेश
करेंगे, उसी
दिन मां-बाप
वानप्रस्थ हो
गए। उनका मुंह
अब जंगल की
तरफ हो गया।
अब शरीर और
वासना और वह सब
बच्चों के खेल
उनके लिए न
रहे। अब बच्चे
उन खिलौनों से
खेलने लगे, अब उन्हें
उनके पार हो
जाना चाहिए।
इसलिए पचास
साल के
मां-बाप
वानप्रस्थ हो
गए। पच्चीस
साल बाद बेटों
के बेटे
गुरुकुल से
लौटेंगे। तब
तक मां-बाप
पचहत्तर साल
के हो चुके
होंगे। अब उनके
बेटों का वक्त
आ गया
वानप्रस्थ
होने का। तब
वे संन्यस्त
हो जाएंगे। तब
बात समाप्त हो
गई। अब उनकी
दुनिया बिखर
गई।
तो बाप
के प्रति एक
आदर था। और ये
जो पचहत्तर साल
के बूढ़े
थे--बूढ़े नहीं
कहना चाहिए, वृद्ध,
क्योंकि बुढ़ापा तो
उम्र से आता
है; वार्धक्य,
ज्ञान, अनुभव
प्रतीतियों
का फल है--ये जो
पचहत्तर साल
के वृद्ध हैं,
ये जाकर
गुरुकुलों
में गुरु का
काम करेंगे। ये
जिन्होंने
जीवन की इन
तीन सीढ़ियों
को पार किया, ब्रह्मचर्य
को जाना
पच्चीस वर्ष
तक, पच्चीस
वर्ष तक संसार
को पहचाना, पच्चीस वर्ष
तक संसार के
बीच रह कर
संसार के बाहर
रहने की कला
सीखी, ये
गुरु होंगे।
इन
गुरुओं के
प्रति अगर आदर
सहज होता, तो
उसमें कोई
आश्चर्य नहीं
है। छोटे-छोटे
बच्चे जो गांव
से इनके पास
पढ़ने आएंगे, उनके लिए ये
हिमालय के
शिखर मालूम
पड़ेंगे। इनको
छूना भी बहुत
दूर की बात
है। इनका पैर
भी छू लेना
परम सौभाग्य
होगा। ये इतने
फासले पर हैं,
इतना
डिस्टेंस है,
इतनी दूरी
है कि कभी इन
तक पहुंच
पाएंगे, इसकी
कल्पना भी बांधनी
मुश्किल है।
इन गुरुओं को
आदर सहज मिल
जाता। वे गुरु
थे। और गुरु
होने के पहले
वे पिता थे। पिता
होने के पहले
वे
ब्रह्मचर्य
के जीवन में थे।
यह सारी एक
लंबी
प्रक्रिया है,
सहज।
लाओत्से
कहता है, लेकिन
सहज। अगर जीवन
अपनी सहज धारा
से बहता चला
जाए, तो
धर्म का फूल
खिलता है। और
अगर हम बांधें
उसे मर्यादाओं
में, नियमों
में, तो
धर्म का फूल
खिलना तो
मुश्किल है, अगर हम
नैतिकता के
थोड़े-बहुत
कागज और
प्लास्टिक के
फूल लगाने में
सफल हो जाएं, उतना काफी
है।
"और जब
देश में
कुशासन और
अराजकता छा गई,
तब
स्वामिभक्त
मंत्रियों की
प्रशंसा होने
लगी।'
एक ही
बात है
अलग-अलग
पहलुओं पर कि
सहजता को छोड़ना
ही अधर्म है।
साधुता धर्म
नहीं है
लाओत्से के
लिए,
सहजता धर्म
है। बस यह
आखिरी बात
खयाल में ले लें।
साधुता धर्म
नहीं है लाओत्से
के लिए, क्योंकि
साधुता
असाधुता के
विपरीत नियम
है। सहजता
धर्म है।
सहजता किसी के
विपरीत नहीं
है। असाधु भी
सहज अगर जीए, तो साधु हो
जाएगा। और
साधु भी अगर
असहज जीता है,
तो सिर्फ
छिपा हुआ
असाधु है। एक स्पांटेनियस,
एक
सहज-स्फूर्त
जीवन ही
लाओत्से के
लिए धर्म है।
फूल खिलते हैं,
पक्षी गीत
गाते हैं, सूरज
उगता है; आदमी
भी जिस दिन
ऐसा ही सहज
होता है, कहीं
कोई असहजता
नहीं, कोई
आरोपण नहीं।
हमें
बहुत कठिन
लगेगा।
क्योंकि
सुनते ही हमें
लगेगा कि अगर
कहीं कोई
आरोपण नहीं, तो
हम क्या
करेंगे अगर हम
पर से सब
आरोपण उठा लिए
जाएं? जरा
सोचें कि आप
पर कोई नियम
नहीं, कोई
आरोपण नहीं, पहला काम आप
क्या करेंगे?
कोई अपने
पड़ोसी की
पत्नी को ले
भागेगा; कोई
बैंक पर डाका
डाल देगा; कोई
किसी की हत्या
कर देगा। आपको
खयाल जो आएगा।
सोचना आप एक
क्षण बैठ कर
कि आप पर कोई
नियम न रहे, आपने
लाओत्से को बिलकुल
मान लिया, क्या
करिएगा?
सुना
है मैंने, एक
दफ्तर में एक
मनोवैज्ञानिक
की सलाह मान
कर मालिक ने
एक तख्ती लगा
ली। लोग थे अलाल
दफ्तर के, कोई
काम नहीं करता
था। उसने एक
तख्ती लगा
ली--कि जीवन है
छोटा; जो
कल करना है, वह आज करो; जो आज करना
है, वह अभी
करो।
फिर बड़ी
मुश्किल में
पड़ा। दूसरे
दिन ही दफ्तर
बंद करना पड़ा।
क्योंकि एक
क्लर्क दफ्तर
की सेक्रेटरी
को लेकर भाग
गया। कैशियर
ने डाका डाल
दिया। सोचता
था बहुत दिन
से डाका डालने
का;
जो कल करना
है, वह आज
ही करो। और जो
आफिस बॉय
था, उसने
मालिक की
जूतों से
पिटाई कर दी।
वह भी कई दिन
से सोच रहा था;
सभी आफिस बॉय सोचते
हैं। लेकिन अब
तक यह सोचता
था कि कर लेंगे
कभी, पोस्टपोन करता जा रहा
था। जब यह
नियम मालूम
पड़ा--काल करंते
आज कर, आज करंते
अब--उसने भी
जूते...।
मालिक
ने कहा, वह
तख्ती अलग
करो!
अगर आप
भी लाओत्से का
नियम सोचेंगे, तो
सोचना थोड़ा, ध्यान करना।
उससे लाओत्से
के नियम पर
कोई बाधा नहीं
पड़ेगी, आपको
अपने
व्यक्तित्व
का पता चलेगा
कि अगर आप पर
कोई नियम न
हों तो आप
क्या करेंगे,
वही आपका
असली चरित्र
है। आप पर कोई
नियम न हों तो
आप क्या
करेंगे, वही
आप हैं। वही
आपका असली
चरित्र है।
नियमों की वजह
से जो आप कर
रहे हैं, वह
आप नहीं हैं।
वह आपका
चरित्र भी
नहीं है। वह
आपका अभिनय
है। वह
जबर्दस्ती
है। उसका कोई
मूल्य नहीं
है।
तो
आपको अपने
भीतर उतरने
में,
सेल्फ-आब्जर्वेशन
में बड़ी
सहायता
मिलेगी
लाओत्से से।
सोच लें, एक
दिन चौबीस
घंटे के लिए
कोई नियम नहीं
है आपके लिए।
अब आप वही
करें, जो
सहज हो रहा
है। सोचें
सिर्फ, अभी
करना मत।
सिर्फ सोचना।
तो पता चलेगा
कि मनुष्यता
कितनी विकृत
हो गई है
नियमों के
कारण।
आज
इतना ही। पांच
मिनट रुकें, कीर्तन
करें, फिर
जाएं।
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