अध्याय
20 : खंड 2
संसार
और मैं
दुनियावी
लोग काफी
संपन्न हैं,
इतने
कि दूसरों को
भी दे सकें,
परंतु
एक अकेला मैं
मानो इस परिधि
के बाहर हूं,
मानो
मेरा हृदय
किसी मूर्ख के
हृदय जैसा हो,
व्यवस्था-शून्य
और कोहरे से
भरा हुआ!
जो
गंवार हैं, वे
विज्ञ और
तेजोमय दिखते
हैं;
मैं
ही केवल मंद
और भ्रांत
हूं।
जो
गंवार हैं, वे
चालाक और
आश्वस्त हैं;
अकेला
मैं उदास, अवनमित।
समुद्र
की तरह धीर, इधर-उधर
बहता
हुआ--मानो
लक्ष्यहीन!
सप्रयोजन
हैं दुनिया के
सब लोग;
अकेला
मैं दिखता हूं
हठीला और
अभद्र!
और
अकेला मैं ही
हूं
भिन्न--अन्यों
से,
क्योंकि
देता हूं
मूल्य उस पोषण
को जो
मिलता
है सीधा ही
माता प्रकृति
से।
अरस्तू
ने कहा है:
संसार में
केवल दो
वस्तुएं अनंत
हैं--एक आकाश
और दूसरी
मनुष्य की
मूर्खता। ओनली
टू थिंग्स
आर इनफाइनाइट
इन दि
वर्ल्ड--वन, स्पेस;
एंड सेकेंड,
ह्यूमन स्टुपिडिटी।
आइंस्टीन
ने अरस्तू को
आधा गलत सिद्ध
कर दिया है।
आइंस्टीन ने
सिद्ध किया है
कि आकाश असीमित
नहीं है। अनंत
भी नहीं है; सांत
है, फाइनाइट है और सीमित
है। अगर
आइंस्टीन सही
है--और सही मालूम
होता है--तो
फिर एक ही
वस्तु अनंत रह
जाती है जगत में:
ह्यूमन स्टुपिडिटी,
यानी
मनुष्य की
मूर्खता।
और
आकाश अनंत
नहीं है, यह
सिद्ध करना एक
आइंस्टीन के
लिए भी आसान
हुआ। हजार
आइंस्टीन भी
दूसरी बात
सिद्ध न कर
सकेंगे कि
मनुष्य की
मूर्खता अनंत
नहीं है।
मनुष्य का जो मूढ़ भाव है,
वह अनंत भी
है, असीम
भी है और इतना
व्यापक है और
इतना सार्वजनीन,
यूनिवर्सल
है कि उसे
पहचानना भी
कठिन है।
मेक्सिको
में एक छोटी
सी पहाड़ी पर
एक बहुत अदभुत
कबीले का वास
है। छोटी सी
जाति है।
ज्यादा उसकी
संख्या नहीं
है,
कोई तीन सौ,
साढ़े तीन सौ के
बीच है।
ज्यादा
संख्या उसकी
हो भी नहीं
सकती। पहाड़
निर्जन है। यह
तीन सौ, साढ़े तीन सौ
लोगों की जाति
आदिवासियों
की, पांच-सात
छोटे-छोटे
गांवों में
आस-पास बसी
है।
विशिष्टता है
इस जाति की कि साढ़े तीन
सौ लोग सभी
अंधे हैं।
बच्चे पैदा तो
होते हैं आंख
वाले; लेकिन
एक मक्खी है
उस पहाड़ पर, जैसे मच्छर
से मलेरिया
होता है, ऐसे
ही उस मक्खी
के काटने से
आंखें चली
जाती हैं। अब
तक उसका कोई
इलाज भी नहीं
खोजा जा सका है।
तो बच्चे आंख
वाले पैदा
होते हैं; लेकिन
महीने, दो
महीने के भीतर
अंधे हो जाते
हैं। तीन सौ, साढ़े तीन सौ लोग
अंधे हैं।
इन
अंधे लोगों का
जब पहली दफे
पता चला सभ्य
आदमियों को और
आंख वाले आदमी
पहले इन अंधों
के पास पहुंचे, तो
अंधों ने
मानने से
इनकार कर दिया
कि कोई भी हो
सकता है जिसके
पास आंख हो। न
केवल मानने से
इनकार किया, बल्कि आंख
वाले आदमियों
के प्रति
अच्छा भाव भी
नहीं लिया। सच
तो यह है कि
उन्होंने
समझा कि तुम
किसी और ही
जाति के
प्राणी हो, मनुष्य
नहीं।
क्योंकि
मनुष्य तो
अंधे ही होते
हैं।
ईसाइयों
के एक
संप्रदाय ने
अपने एक
मिशनरी को अंधों
के बीच ईसाइयत
का प्रचार
करने के लिए
भेजा। लेकिन
अंधे आंख वाले
से सुनने और
समझने को राजी
न हुए। आखिर
में किसी ने
सुझाया और बात
काम कर गई।
फिर उन्होंने
एक अंधे
मिशनरी को
भेजा। अंधे
मिशनरी को
सुनने को जरूर
अंधे राजी
हुए। अंधे और
अंधों के बीच
एक तादात्म्य, एक
समरसता पैदा
हुई। लेकिन
आंख वाला आदमी
पसंद नहीं
किया जा
सका--स्वभावतः।
लाओत्से
जैसे लोग हम
अंधों के बीच
आंख वाले लोग
हैं--आध्यात्मिक
अर्थों में।
शायद हम भी जब
पैदा होते हैं, तो
आंख वाले ही
पैदा होते
हैं। लेकिन
सभ्यता, शिक्षा,
संस्कृति
के जीवाणु, इसके पहले
कि हमें होश
आए, हमें
अंधा कर जाते
हैं। फिर
हमारा, अंधों
का, बड़ा
समाज है। संख्या
बड़ी बात नहीं
है। तीन, साढ़े
तीन सौ की
संख्या है
उनकी; हमारी
संख्या कोई साढ़े तीन
सौ करोड़
की है। सारी
पृथ्वी हम
अंधों से भरी
हुई है। उसमें
जब भी लाओत्से
जैसा आंख वाला
आदमी पैदा होगा
तो हम पसंद
नहीं करते।
दुखद है उसका
होना, उसकी
मौजूदगी हमें
पीड़ा देती है।
क्योंकि उसके
कारण हमें पता
चलना शुरू
होता है कि हम
अंधे हैं। और
यह पता चलना
अच्छा नहीं मालूम
होता; वह
हमारे अंधेपन
के लिए--घाव के
लिए--चोट बन
जाता है।
लाओत्से
के ये सूत्र
बहुत व्यंग्य
से भरे हैं और
बहुत
महत्वपूर्ण
हैं। यह एक
ऐसे आदमी का
वक्तव्य है, जो
हमारे बीच
अजनबी है; जो
पाता है कि हम
जो भाषा बोलते
हैं, वह
नहीं बोल
सकता। और जो
पाता है कि हम
जिस ढंग से
जीते हैं, उस
ढंग से वह
नहीं जी सकता।
और वह यह भी
देखता है कि
हमारे जीने का
ढंग, जीने
का कम, मरने
का ज्यादा है।
और हम जो भाषा
बोलते हैं, उसमें बोलते
कम हैं, छिपाते
ज्यादा हैं।
हम रुग्ण और
बीमार हैं, स्वस्थ नहीं
हैं। लेकिन
फिर भी हमारी
बड़ी संख्या है
और हमारा बड़ा
बल है। उस बल
के कारण ही यह सूत्र
लिखा गया है।
लाओत्से
कहता है, "दुनियावी
लोग काफी
संपन्न हैं।'
हम
विपन्न लोगों
को कहता है
संपन्न।
जिनके पास कुछ
भी नहीं है, उनको
लाओत्से कहता
है, ये
दुनिया के लोग
बड़े संपन्न
हैं।
"दि पीपुल ऑफ
दि वर्ल्ड हैव
इनफ एंड
टु स्पेयर।'
न केवल
उनके पास काफी
है,
बल्कि वे
दूसरों को भी
देने के लिए
तत्पर हैं।
अपने लिए तो
काफी है ही, दूसरों को
भी बांटने के
लायक हमारे
पास है। और हम
हैं बिलकुल
दीन-दरिद्र, दूसरों को
देने की तो
बात ही अलग, हमारे पास
कुछ है ही
नहीं।
लेकिन
यह खयाल में
आना बड़ा
मुश्किल है।
हम थोड़ा समझें, एक-दो
दिशाओं से पहचानें।
हम सब
प्रेम देते
हैं,
बिना इसकी
फिक्र किए कि
हमारे पास
प्रेम है? मां
प्रेम देती है;
बाप प्रेम
देता है; पति,
पत्नी, भाई,
मित्र
प्रेम दे रहे
हैं। सारी
दुनिया में
सभी लोग प्रेम
दे रहे हैं।
और दुनिया में
प्रेम की कहीं
एक बूंद दिखाई
नहीं पड़ती।
सारे लोग प्रेम
बरसा रहे हैं;
लेकिन किस
मरुस्थल में
खो जाता है
प्रेम? सागर
बह जाने चाहिए
प्रेम के, इतना
प्रेम बह रहा है।
एक-एक आदमी
हजार-हजार दरवाजों
से प्रेम बरसा
रहा है। किसी
के लिए वह मां
है, किसी
के लिए पत्नी
है, किसी
के लिए पिता
है, भाई है,
मित्र है।
कितना-कितना
हम प्रेम बहा
रहे हैं चारों
तरफ! हमारा
जगत तो प्रेम
का सागर हो
जाना चाहिए।
लेकिन जगत
दिखता है घृणा
का सागर।
प्रेम उसमें
कहीं दिखाई
नहीं पड़ता।
इतना प्रेम
दिया और लिया
जा रहा हो, वहां
प्रेम की कहीं
एक बूंद नहीं
दिखाई पड़ती। जरूर
कुछ भूल हो
रही है। जो
हमारे पास
नहीं है, वह
हम दे रहे
हैं। इसलिए हम
देने का मजा
भी ले लेते
हैं और किसी
के पास
पहुंचता भी
नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने गांव के
एक अमीर आदमी
के पास गया।
सुबह-सुबह ही
उसने द्वार
खटखटाया।
अमीर मुल्ला
को देख कर ही
समझ गया कि वह
कुछ दान
मांगने आया
होगा--मस्जिद
के लिए, मदरसे
के लिए।
मुल्ला ने कहा,
भयभीत न हों,
न तो मदरसे
के लिए आया
हूं, न
मस्जिद के
लिए। काम ही
दूसरा आ गया।
अमीर आश्वस्त
हुआ। उसने कहा,
क्या काम
आया है? मुल्ला
ने कहा कि
थोड़े पैसे की
जरूरत है, एक
हाथी खरीद रहा
हूं। अमीर ने
कहा, पागल
हो गए हो! हाथी
खरीदने के लिए
पैसा नहीं है
तो हाथी को
रखने के लिए
कहां से
इंतजाम जुटाओगे?
मुल्ला ने
कहा, माफ
करिए, मैं
आपसे पैसा
मांगने आया
हूं, सलाह
मांगने नहीं।
आई हैव कम टु आस्क फॉर
मनी, नाट एडवाइस।
और मुल्ला ने
कहा, ठीक
से आप समझ लें,
आपसे वही
मांगा जा सकता
है, जो
आपके पास है।
जो आपके पास
है ही नहीं, वह आपसे
मांगा नहीं जा
सकता। जो नहीं
है, कृपा
करके किसी को
देने की कोशिश
न करें।
लेकिन
हम सभी लोग
सलाह दे रहे
हैं। और सलाह
किसके पास है? सलाह
देने का कौन
हकदार है? शायद
जो हकदार है, वह चुप रह
जाता है; और
जो हकदार नहीं
है, वह
सलाह दे देता
है। दुनिया
में जितनी
सलाह दी जाती
है, उतनी
और कोई चीज
नहीं दी जाती।
लेकिन किसके
पास है? कौन
जानता है कि
क्या सही है? लेकिन देने
से ऐसा भ्रम
पैदा होता है
कि जो हम दे
रहे हैं, वह
हमारे पास
होगा भी।
हम हैं
विपन्न। न
हमारे पास
प्रेम है, न
हमारे पास समझ
है। और जिसे
हम संपत्ति
कहते हैं, वह
संपत्ति का
धोखा है, संपत्ति
नहीं। तो चाहे
हम तिजोरियां
भर लेते हों
और चाहे हम
गहनों से अपने
घर भर लेते
हों, वह
संपत्ति नहीं
है। धोखा जरूर
है। धोखा इसलिए
है कि उससे
हमें खयाल
पैदा होता है
कि संपदा हमारे
पास है। कितना
सोना है किसके
पास, कितने
रुपए हैं
किसके पास, बैंक में
कितना जमा है,
उससे हम
सोचते हैं हम
संपत्ति वाले
हो गए हैं।
आदमी
ने,
अंधे आदमी
ने, झूठी
संपत्ति पैदा
कर रखी
है--स्वयं को
धोखा देने के
लिए। क्योंकि
अगर यही
संपत्ति होती
तो महावीर इसे
छोड़ कर भागें
नहीं। अगर यही
संपत्ति हो तो
बुद्ध पागल
हैं, हम
बुद्धिमान
हैं। बुद्ध
इसे छोड़ कर न
जाएं। अगर यही
संपत्ति हो तो
लाओत्से को यह
व्यंग्य न
करना पड़े।
हमारे पास संपत्ति
जैसी कुछ भी
व्यवस्था
नहीं है।
विपत्ति
हमारे पास
बहुत है। और
जिसे हम
संपत्ति कहते
हैं, वह भी
हमारी
विपत्ति ही बन
जाती है; और
कुछ भी नहीं।
बड़ा मजा है, जिनके पास
संपत्ति नहीं
है, वे
विपत्ति में
हैं; और
जिनके पास
संपत्ति है, वे दुगुनी
विपत्ति में
हैं। संपत्ति
को बचाने का
भी काम उन्हीं
के ऊपर पड़
जाता है; वे
पहरेदार बन
जाते हैं। वे
जिंदगी भर उन
चीजों पर पहरा
देते हैं, जो
उनकी नहीं थीं;
उन चीजों के
खोने पर दुखी
होते हैं, जो
उनकी नहीं
थीं। और एक
दिन मर जाते
हैं और वे
चीजें किसी और
की हो जाती
हैं। और कोई
उन पर पहरा
देने लगता है।
लाओत्से
कहता है, "दुनियावी
लोग काफी
संपन्न हैं।'
हर
आदमी यहां, मालूम
होता है, मालिक
है। और हर
आदमी, मालूम
होता है, किसी
बड़े
साम्राज्य का
मालिक है। और
ऐसा ही नहीं
कि मालकियत है,
मालकियत
इतनी बड़ी है
कि हर आदमी
दूसरे को भी
दे रहा है, दान
भी कर रहा है, बांट भी रहा
है।
"एक
अकेला मैं
मानो इस परिधि
के बाहर हूं।'
एक
अकेला मैं ही
विपन्न मालूम
पड़ता हूं, जिसके
पास कुछ भी
नहीं है। सभी
के पास बहुत
कुछ है।
बुद्ध
पहली बार जब
काशी आए ज्ञान
के बाद, तो
काशी के पहले
ही गांव के
बाहर ही सांझ
हो गई और वे एक वृक्ष
के नीचे
विश्राम करने
को रुक गए।
सूरज डूबता
था। और तभी
काशी के नरेश
ने अपने सारथी
को कहा कि मैं
बहुत
उद्विग्न हूं,
मुझे गांव
के बाहर ले
चलो।
स्वर्ण-रथ, डूबते हुए
सूर्य की
किरणों में
चमकता हुआ, बुद्ध के पास
आकर अचानक रुक
गया। सम्राट
ने अपने सारथी
को कहा, रथ
को रोक! यह कौन
भिखमंगा
सम्राट सा, कौन भिखमंगा
सम्राट सा इस
वृक्ष के नीचे
बैठा है? रोक!
सम्राट
बुद्ध के पास
आया। और उस
सम्राट ने कहा, तुम्हारे
पास कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता; लेकिन
तुम्हारे पास
जरूर कुछ होगा;
तुम्हारी
आंखें कहती
हैं। यह डूबता
हुआ सूर्य भी
तुम्हारे
सामने
तेजपूर्ण
नहीं मालूम हो
रहा है। क्या
है तुम्हारे
पास? कौन
सी संपदा है? कौन सा छिपा
हुआ खजाना है?
मेरे पास सब
है जो गिना जा
सके, देखा
जा सके, पहचाना
जा सके, और
मैं
आत्महत्या के
विचार करता
हूं।
सम्राट
है जिसके पास
सब है; और
भिखारी है
जिसके पास कुछ
भी नहीं है।
और फिर भी
सम्राट
भिखारी के
सामने हाथ जोड़
कर खड़ा है कि
तुम्हारे पास
क्या है, उसकी
मुझे खबर दो।
बुद्ध
ने कहा है कि
तुम्हारे पास
जो है, कभी
मेरे पास भी
था। लेकिन तब
मैं भी ऐसा ही
विपन्न था। और
जो आज मेरे
पास है, तुम्हारे
पास भी छिपा
है। लेकिन जब
तक तुम्हारी
झूठी संपत्ति
तुम्हें झूठी
न दिखाई पड़े, तब तक सच्ची
संपत्ति की
खोज नहीं शुरू
होती। जब तक
तुम माने ही
जाओगे कि तुम
सम्राट हो, तब तक तुम
उसे न खोज
पाओगे, जिसे
मैंने खोज
लिया है।
क्योंकि जो
झूठे साम्राज्य
को सच्चा मान
कर जी रहा हो, वह सच्चे
साम्राज्य से
वंचित रह जाता
है।
स्वभावतः, सीधा
गणित है यह।
अगर मैं झूठी
चीज से मन को
बहला रहा हूं,
और बहला
लिया है मैंने
अपने मन को, तो फिर मैं
सच्चे की तलाश
बंद कर दूंगा।
तो
बुद्ध ने कहा, इस
भीतरी
साम्राज्य की
खोज के दो चरण
हैं। पहला तो
यह कि तुम
जिसे साम्राज्य
समझे हो उसे
साम्राज्य न
समझो; और
दूसरा कि अब
तक तुमने बाहर
खोजा है, अब
तुम भीतर
खोजो। जो
तुम्हारे पास
है, मेरे
भी पास था। और
जो आज मेरे
पास है, वह
अभी भी
तुम्हारे पास
मौजूद है।
सिर्फ तुम्हें
उसका पता नहीं
है।
लाओत्से
कहता है, "दुनिया
के लोग काफी
संपन्न हैं, इतने कि
दूसरों को भी
दे सकें। एक
अकेला मैं मानो
इस परिधि के
बाहर हूं।
मानो मेरा
हृदय किसी
मूर्ख के हृदय
जैसा हो, व्यवस्था-शून्य
और कोहरे से
भरा हुआ।'
यहां
सभी
बुद्धिमान
हैं। यहां सभी
बुद्धिमान
हैं,
यहां ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जो
बुद्धिमान न
हो। या कि कभी
आपको कोई आदमी
मिला, जो
बुद्धिमान न
हो? खोजें,
ऐसा आदमी
मिल न सकेगा।
ऐसा आदमी
मिलना मुश्किल
है, जो
अपने को समझता
हो कि मैं
बुद्धिमान
नहीं हूं; यद्यपि
यह
बुद्धिमत्ता
का पहला लक्षण
है। यहां सभी
अपने को बुद्धिमान
मान कर जीते
हैं; इसलिए
वास्तविक
बुद्धि से
वंचित रह जाते
हैं। झूठी
संपत्ति को
समझते हैं
संपदा, झूठी
बुद्धि को
समझते हैं
बुद्धिमानी; तो फिर जो
वास्तविक है,
उससे वंचित
रह जाते हैं।
उस तरफ पैर ही
नहीं उठते, उस मंदिर की
तरफ जाना ही
नहीं होता, उस राह पर
चलना ही नहीं
होता। वह खोज
का द्वार बंद
ही हो जाता
है।
हम सब
बुद्धिमान
हैं। और कोई
हमसे पूछे कि
हमने क्या
बुद्धिमानी
की है जिसकी
वजह से हम
बुद्धिमान
हैं?
लौटें, अपनी
जिंदगी को
खोजें, क्या
बुद्धिमानी
की है जिसकी
वजह से हम
बुद्धिमान
हैं? तो मूढ़ताओं
का अंबार
मिलेगा, ढेर
मिलेगा।
लेकिन अहंकार
को चोट लगती
है यह जान कर
कि मैं नासमझ
हूं। तो हम
अपनी नासमझियों
पर भी सोने के
पलस्तर चढ़ा
लेते हैं। हम
अपनी नासमझियों
पर भी सुंदर
वस्त्र ढांक
लेते हैं। हम
अपनी व्यर्थताओं
पर, अपनी विक्षिप्तताओं
पर भी
रंग-रोगन कर
लेते हैं; रंग-रोगन
करके हम
व्यवस्था
जमाए चलते
हैं।
जीसस
ने कहा है कि
तुम्हारे
शुभ्र
वस्त्रों में
मुझे सिर्फ
सफेद पुती
हुई कब्र के
सिवाय कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता है।
कब्र
को कितना ही
सफेद पोत दो, इससे
क्या फर्क
पड़ता है! हम भी
अपने को पोते
हुए हैं। कभी
आपने सोचा कि क्या
है
बुद्धिमानी
जिसके कारण आप
कहें कि मैं
बुद्धिमान
हूं? जो भी
किया है, उससे
दुख पाया है।
जो भी किया है,
उससे दुख
पाया है। पाप
किया तो दुख
पाया, पुण्य
किया तो दुख
पाया। किसी के
साथ बुरा किया
तो पछताए;
किसी के साथ
भला किया तो पछताए।
मित्रता
बांधी तो दुख पाया;
शत्रुता
बनाई तो दुख
पाया। दरिद्र
थे, नहीं
था पास एक
पैसा, तो
पीड़ा थी। अमीर
हो गए, पैसे
का ढेर लग गया,
तो और पीड़ा
बढ़ गई।
बुद्धिमानी, कौन सी
बुद्धिमानी
की है?
अगर हम
जिंदगी को
खोजें तो
बुद्धिमानी
का अर्थ होना
चाहिए कि
निष्कर्ष
आनंद हो तो ही
बुद्धिमानी है।
बुद्धिमानी
की और क्या
कसौटी होगी? क्या
होगी मापदंड
की व्यवस्था?
एक ही
व्यवस्था है
कि बुद्धिमान
आदमी निरंतर आनंद
को उपलब्ध
होगा; कि
प्रतिपल उसका
आनंद बढ़ता चला
जाएगा; कि
उसके जीवन की
सुगंध, उसके
जीवन की सुवास,
उसके जीवन
की शांति बढ़ती
चली जाएगी।
प्रतिपल वह और
भी प्रकाशोज्ज्वल
होता चला
जाएगा।
प्रतिपल अमृत
निकट और मृत्यु
दूर होती चली
जाएगी।
लेकिन
हम,
जो अपने को
बुद्धिमान
मान कर चलते
हैं, कौन
सी सुवास पा
लिए हैं? कौन
सा आनंद, कौन
सा संगीत, कौन
सी किरण हमें
मिली है, जिसको
हम अपनी परम
मुक्ति और
अपने परम अमृतमय
जीवन का मार्ग
बना सकें? कुछ
भी हाथ में
नहीं है। सच
तो यह है कि
हमारी पूरी
जिंदगी एक
खोने की लंबी
यात्रा है, जिसमें हम
खोते हैं, पाते
कुछ भी नहीं।
प्रतिपल खोते
हैं और खो-खो कर
प्रतिपल अपने
को और
बुद्धिमान
माने चले जाते
हैं।
अगर यह
खोना ही
बुद्धिमानी
है,
तब तो
लाओत्से का
व्यंग्य गलत
है। लेकिन
लाओत्से का
व्यंग्य गलत
नहीं है।
क्योंकि हम
अपने भीतर झांकें
तो हम सिवाय
खाली, रिक्त,
राख से भरे
हुए अपने को
पाएंगे। सारी
अभिलाषाएं, सारे सपने
धीरे-धीरे राख
हो जाते हैं
भीतर। सारे
इंद्रधनुष
वासनाओं के, सब टूट कर
कीचड़ बन जाते
हैं। आखिर में
हमारे हाथ
इंद्रधनुष
नहीं होते, कीचड़ होती
है।
लाओत्से
कहता है, "मानो
मेरा हृदय
किसी मूर्ख के
हृदय जैसा हो।'
जब
देखता है अपने
चारों तरफ सब बुद्धिमानों
को,
तो सोचता है
कि अब एक ही
उपाय है, अगर
मैं भी
बुद्धिमान
हूं तो इन्हीं
जैसा हूं। अगर
ये बुद्धिमान
हैं तो फिर
मैं मूर्ख ही
हूं; यही
उचित है। दो
ही उपाय हैं।
अगर लाओत्से
बुद्धिमान है
तो हम
बुद्धिमान
नहीं हो सकते।
अगर हम
बुद्धिमान
हैं तो
लाओत्से
बुद्धिमान
नहीं हो सकता।
इसमें कोई
समझौता नहीं
है। स्वभावतः,
अगर मत से
तय करना हो तो
लाओत्से
मूर्ख है, हम
बुद्धिमान
हैं। इसीलिए
व्यंग्य कर
रहा है। इसलिए
उसके व्यंग्य
में वजन है।
वह यह
कह रहा है कि
अगर मैं अकेला
यह भी कहूं कि तुम
सब नासमझ हो, उसका
कोई अर्थ न
होगा। मैं
अकेला तुमसे
कहूं कि तुम
सब अंधे हो तो
मेरी आंखों पर
संदेह करोगे।
यह भी कर सकते
हो कि मेरी
आंखें फोड़
दो। उचित यही
है कि मैं
कहूं कि मैं
अंधा हूं तुम
सब आंखों
वालों के बीच।
तुम्हारे पास
आंखें अदभुत
हैं, तुम्हें
पास का ही
नहीं, दूर
का भी दिखाई
पड़ता है; जमीन
के ऊपर का ही
नहीं, जमीन
के नीचे का भी
दिखाई पड़ता
है। तुम्हारे
पास आंखें ऐसी
हैं कि तुम्हें
जगत का सारा
सत्य दिखाई
पड़ता है। एक
तुम्हारे बीच
मैं ही ऐसा
हूं, जो
अंधा हो।
लाओत्से
को हमने
इसीलिए सूली
पर नहीं चढ़ाया।
हम बड़े
प्रसन्न हुए
होंगे कि आदमी
बिलकुल ठीक ही
कह रहा है।
जीसस को हमने
सूली पर चढ़ाया।
जीसस ने
व्यंग्य नहीं
किया, सीधी-सीधी
बात कह दी। सुकरात
को हमने जहर
दिया। उसने भी
व्यंग्य नहीं
किया, सीधी-सीधी
बात कह दी।
सुकरात ने
कोशिश की बताने
की कि तुम
मूर्ख हो।
हमें क्रोध आ
गया। अदालतें
हमारी हैं, कानून हमारा
है। सुकरात को
जहर देने में
क्या अड़चन है
हमें! जीसस ने
भी हमें सीधी
बात कही। पर
जीसस और सुकरात
थोड़े भोले
मालूम पड़ते
हैं। लाओत्से
जैसे एक बहुत
प्राचीन
सभ्यता का
नवनीत है।
हजारों-हजारों
वर्षों का
अनुभव है जैसे
लाओत्से के पीछे।
वह उलटा कहता
है। कोई
लाओत्से पर
पत्थर भी नहीं
फेंका।
बर्ट्रेंड
रसेल ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि मैंने एक
बार मजाक में
एक लेख लिखा
राष्ट्रीयता
के खिलाफ, नेशनलिज्म के खिलाफ, राष्ट्रवाद
के खिलाफ एक
लेख लिखा। और
उस लेख में
व्यंग्य में
ऐसा कहा कि
मेरे इस लेख
को पढ़ने वाला
जो पाठक है, उसको छोड़ कर
समस्त
राष्ट्र मूढ़
हैं।
बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा
है कि अनेक
लोगों के अनेक
मुल्कों से मेरे
पास पत्र आए
कि आप एक ठीक
पहचानने वाले
आदमी मिले।
पोलैंड से एक
आदमी ने लिखा
कि आप बिलकुल
ठीक कहते हैं,
पोलैंड को
छोड़ कर सारे
जगत के लोग मूढ़
तो हैं ही।
व्यंग्य
को समझने की
बुद्धि भी तो
बहुत मुश्किल
है।
लाओत्से
अगर आपसे आकर
कहे कि आप सब बुद्धिमानों
के बीच मैं ही
एक मूढ़
हृदय जैसा। तो
हम कहेंगे, हम
पहले ही जानते
थे। अन्यथा घर
बसाते, विवाह
करते, दुकान
चलाते, कुछ
काम की बात
करते। अगर
बुद्धि होती
तुम्हारे पास
तो आज जगत में
कहीं होते, किसी पद पर
होते। सफल
होते, कोई स्वर्णपदक
होते, कोई
राष्ट्रपतियों
से दी गई उपाधियां
होतीं। कहीं
भी तो नहीं
हो। वह हम पहले
ही जानते थे, सिर्फ शिष्टतावश
हमने नहीं कहा
था। और
लाओत्से हमसे
कहेगा कि संसार
के लोग इतने
संपन्न हैं, सबके पास
इतना है कि वे
न केवल अपने
लिए काफी उनके
पास है, दूसरों
को भी बांट
देते हैं; तो
हम कहेंगे, ठीक ही कहते
हो।
हम सभी
को यह खयाल है, हम
सभी बांट रहे
हैं। हम सभी
को यह खयाल है
कि हम सभी न
मालूम कितनी
संपदाएं बांट
रहे हैं--प्रेम
की, आनंद
की, सुख की,
मित्रता की,
करुणा की।
हम कितनी
संपदाएं बांट
रहे हैं! हम कहेंगे,
ठीक ही कहते
हो।
लेकिन
लाओत्से गहन
व्यंग्य कर रहा
है। वह कह रहा
है कि तुम सब
बुद्धिमान हो, इसलिए
उचित होगा यही
कि मैं कहूं
कि मैं तुम्हारे
बीच एक मूर्ख
हूं। तुम सबके
जीवन में बड़ी व्यवस्था
है; मैं
व्यवस्था-शून्य।
तुम्हारा
इंच-इंच नपात्तुला
है, तुम
गणित से चलते
हो, तुम्हारे
जीवन में एक
ढांचा है, योजना
है। मैं एक अनायोजित,
अनप्लांड,
व्यवस्था-शून्य!
तुम्हारे पास
तर्क है, तुम्हारे
पास सोचने का
ढंग है, तुम
दूर की खोज
लाते हो।
भविष्य में भी
तुम झांक लेते
हो। तुम एक-एक
कदम नाप कर
रखते हो। और तुम्हारी
कोई मंजिल है,
जहां तुम
पहुंच रहे हो।
एक मैं हूं
कोहरे से भरा हुआ।
मेरी बुद्धि
में कोई योजना
नहीं, कोई
गणित नहीं, कोई तर्क
नहीं। सब
धुंधला-धुंधला
है। तुम बिलकुल
साफ हो।
हम सभी
को यह खयाल है
कि हम बिलकुल
साफ हैं। और लाओत्से
हमें कोहरे से
भरा हुआ लगेगा
भी। क्या
बातें कर रहा
है--हां और न
में कोई अंतर
नहीं? कि पाप
और पुण्य सब
समान हैं? कि
शुभ और अशुभ
में भेद क्या
है? कोहरे
से भरी बातें
हैं, मूढ़ ही ऐसी
बातें कर सकते
हैं! समझदार
ऐसी बातें करेंगे
कि हां और न
में अंतर क्या
है, तो फिर
समझदारी और नासमझदारी
में भी अंतर
क्या रह जाएगा?
समझदार
साफ-साफ जानते
हैं कि हां और
न में अंतर
है। समझदार तो
यहां तक जानते
हैं कि एक हां
और दूसरे हां
में भी अंतर
है;
एक न और
दूसरे न में
भी अंतर है। न
भी हजार तरह की
होती हैं; हां
भी हजार तरह
की होती हैं।
समझदार तो
अंतर पर ही
जीता है। ठीक
से हम समझें
तो हमारी सारी
समझदारी इस पर
निर्भर करती
है कि हम कितने
अंतर, कितने
भेद निर्मित
कर पाते हैं।
जो आदमी जितने
भेद देख पाता
है, उतना
बुद्धिमान
है। जो कहता
है अभेद, कोई
भेद नहीं है, वह तो अराजक
है, उसके
पास बुद्धि
नहीं है। उसकी
बुद्धि कोहरे की
भांति है।
लेकिन
लाओत्से खुद
ही कहता है।
और इसलिए हम
चूक भी सकते
हैं कि उसका
प्रयोजन क्या
है। वह यह कह
रहा है, जो इस
जगत में
समझदार हैं और
व्यवस्था से
जीते हैं, वे
केवल मरते
हैं--जी नहीं
सकते।
क्योंकि जीवन
का सारा रहस्य,
जीवन का
सारा काव्य
कोहरे में है।
सुबह जब कोहरा
छाया होता है
और एक वृक्ष
और दूसरे
वृक्ष में
फर्क करना मुश्किल
हो जाता है, दो इंच
फासले पर कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता, सारी
प्रकृति जैसे
किसी एक ही
सागर में
कोहरे के डूब
जाती
है--लाओत्से
कहता है कि
ऐसे धुंध में
जो जीते हैं!
लाओत्से
के लिए धुंध
और कोहरा
रहस्य के
प्रतीक हैं।
पश्चिम में
शब्द है
मिस्टिक।
मिस्टिक का
मतलब यह होता
है कि जो
कोहरे में
जीता है, धुंध
में जीता है, रहस्य में
जीता है।
लेकिन आधुनिक
पाश्चात्य जगत
में किसी को
मिस्टिक कहना
गाली देने के
बराबर है। और
जब लोग किसी
की बात को गलत
कहना चाहते
हैं, तब वे
कहते हैं कि
तुम मिस्टीफाई
कर रहे हो, तुम
चीजों को
धुंधला कर रहे
हो। लाओत्से
को पढ़ कर तो
बड़ी कठिनाई
होती है। लेगे
ने, जिसने
लाओत्से का
अनुवाद किया
है, उसने
जगह-जगह अपने
अनुवाद में
लिखा है कि इस
वाक्य का
अनुवाद नहीं
किया जा सकता,
यह मेरी समझ
में ही नहीं
आता। क्योंकि
समझ तो फासलों
पर जीती है।
यह तो सब
फासले गिरा
देना है, यह
तो सब सीमाएं
तोड़ कर
गड्ड-मड्ड कर
देना है। यह
तो सब जो भेद
थे, सीमांत
थे, उनको
तोड़ देने का
उपाय है। तो
फिर अराजकता
हो जाएगी।
लाओत्से
लेकिन खुद ही
कहता है, "मानो
मेरा हृदय
किसी मूर्ख के
हृदय जैसा हो,
व्यवस्था-शून्य
और कोहरे से
भरा हुआ! जो
गंवार हैं, वे विज्ञ और
तेजोमय दिखते
हैं; मैं
ही केवल मंद
और भ्रांत
हूं।'
जो
गंवार हैं, वे
विज्ञ और
तेजोमय दिखते
हैं! गंवार
होना और तेजोमय
होना बहुत
आसान है।
गंवार होना और
विज्ञ होना
बहुत आसान है।
विज्ञ होना और
विज्ञ होने के
खयाल से भरना
बहुत मुश्किल
है। असल में, मैं बुद्धिमान
हूं, यह गंवारी
का ही लक्षण
है।
बुद्धिमान को
यह भाव पैदा
भी नहीं हो
सकता।
बुद्धिमान की
तो जितनी
बुद्धिमत्ता
बढ़ती है, उतना
उसे लगता है
कि कितना कम
मैं जानता
हूं।
न्यूटन
ने कहा है कि
जैसे सागर के
किनारे कुछ सीप
बीन ली हों, कुछ
रेत पर मुट्ठी
बांध ली हो, ऐसा मेरा
ज्ञान है।
सागर के
किनारे
अनंत-अनंत बालू-कणों
के बीच थोड़ी
सी रेत पर
मुट्ठी बांध ली
है; थोड़े
जैसे बच्चों
ने सीपें, सागर
के शंख बीन
लिए हों, ऐसे
ही कुछ शंख
बीन लिए
हैं--ऐसा मेरा
ज्ञान है। जो
मैं जानता हूं,
वे मेरी
मुट्ठी के
रेत-कण हैं।
और जो मैं नहीं
जानता हूं, वे इस सागर
के रेत-कण
हैं।
लेकिन
न्यूटन कह
सकता है।
न्यूटन गंवार
नहीं है।
न्यूटन
जैसे-जैसे
जानने लगा, वैसे-वैसे
अज्ञान प्रगाढ़
और स्पष्ट
होने लगा।
लेकिन किसी
गंवार को पूछें,
वह इतना भी
मानने को राजी
न होगा कि
मेरी मुट्ठी
में जितने कण
हैं, उतना
भी मेरा
अज्ञान है।
जितने सागर
में कण हैं, वह तो मेरा
ज्ञान है ही; लेकिन जितने
मेरी मुट्ठी
में हैं, इतना
भी मेरा
अज्ञान है, यह भी मानने
को राजी न
होगा।
इसलिए मूढ़ बड़े
सुनिश्चित
होते हैं। और
इन सुनिश्चित मूढ़ों के
कारण जगत में
इतना उपद्रव
है जिसका
हिसाब लगाना
कठिन है।
क्योंकि वे
बिलकुल
निश्चित हैं।
जगत में दो ही
कठिनाइयां
हैं: मूढ़ों
का निश्चित
होना, ज्ञानियों
का अनिश्चित
होना। इसलिए मूढ़ कार्य
करने में बड़े
कुशल होते
हैं। ज्ञानी
निष्क्रिय
होते मालूम
पड़ते हैं।
ज्ञानी इतना
अनिश्चित
होता है, कोहराछन्न होता है, रहस्य
में डूबा होता
है, इतने
काव्य से घिरा
होता है कि
गणित की भाषा
में सोच नहीं
सकता। मूढ़
आंख बंद करके
वहां प्रवेश
कर जाते हैं, जहां देवता
भी प्रवेश
करने में
डरें। मूढ़
काफी सक्रिय
होते हैं।
उनकी
सक्रियता
उपद्रव लाती
है।
सोचें
थोड़ा।
लाओत्से को एक
तरफ रखें, एक
तरफ हिटलर को
रखें। हिटलर
की सक्रियता
का बेचारा
लाओत्से क्या
मुकाबला
करेगा! लेकिन
उस दिन होगा
सौभाग्य जगत
का, जिस
दिन हिटलर
जैसे मूढ़
निष्क्रिय हो
सकें और
लाओत्से जैसे
बुद्धिमान
सक्रिय हो
सकें।
लाओत्से
कहता है, "जो
गंवार हैं, वे विज्ञ और
तेजोमय दिखते
हैं।'
उन्हें
कुछ पता नहीं
है। इसलिए जो
भी थोड़ा-बहुत
उन्हें पता है, उस
पर वे मजबूती
से खड़े होते
हैं। उनका
थोड़ा सा ज्ञान
भी उन्हें महासूर्य
जैसा मालूम
पड़ता है।
ज्ञानी को
उसका महाज्ञान
भी एक मिट्टी
के दीए जैसा
लगता है--टिमटिमाता।
"मैं
ही केवल मंद
और भ्रांत
हूं।'
और इन
सुनिश्चित
लोगों के बीच, मतांध
लोगों के बीच,
जहां सभी
आश्वस्त हैं,
निश्चित
हैं, पूर्ण
हैं, वहां
एक मैं ही मंद
और भ्रांत
मालूम पड़ता
हूं।
महावीर
किसी गांव में
आते हैं। उस
गांव का जो बड़ा
पंडित है, वह
महावीर से
मिलने जाता
है। वह महावीर
से पूछता है:
ईश्वर है? वह
महावीर से
पूछता है:
आत्मा है? महावीर
को बोलने का
अवसर भी नहीं
है; वह
प्रश्न पूछे
चला जाता है।
जैसे ईश्वर के
संबंध में
प्रश्न पूछना
कुछ ऐसा हो कि
दो और दो कितने
होते हैं? कि
आत्मा के
संबंध में
प्रश्न पूछना
कुछ ऐसा हो कि
जैसे कोई
भूगोल का सवाल
हो कि टिम्बकटू
कहां है? स्वर्ग
है, मोक्ष
है, वह
पूछता चला
जाता है।
महावीर को तो
बोलने का भी
मौका उसने
नहीं दिया है।
जब वह सब सवाल
पूछ चुकता
है--एक सांस
में उसने सब
पूछ लिया है, जो मनुष्य
की चेतना ने
अपने पूरे
इतिहास में
पूछा है; करोड़ों-करोड़ों
वर्षों में
मनुष्य की
चेतना ने जो
सवाल पूछे हैं
और जिनके
उत्तर नहीं
पाए, वह
आदमी एक क्षण
में पूछ लेता
है--महावीर
उससे कहते हैं
कि तुम्हारे
पास इतने बड़े
सवाल हैं और
इतना कम समय
मालूम पड़ता है
कि उत्तर देना
मुश्किल है।
तुम्हारे पास सवाल
बड़े हैं और
समय कम मालूम
पड़ता है; क्योंकि
तुम एक सवाल
पूछ कर रुकते
भी नहीं हो।
और एक सवाल ही
काफी है कि
अनंत जीवन लग
जाएं उसकी खोज
में।
उस
आदमी ने कहा
कि मैं जरा
जल्दी में हूं
और फिर ऐसा
कोई जरूरी भी
नहीं है। आपको
कुछ खयाल हो तो
कह सकते हैं
संक्षिप्त में।
और न हो खयाल
तो कोई हर्जा
नहीं है। मैं
यहां से
गुजरता था, सोचा
आप आए हैं, मिलता
चलूं। महावीर
ने चलते-चलते
उस आदमी से कहा,
और जहां तक
मैं समझता हूं,
आपको इनके
उत्तर भी
मालूम होंगे।
उस आदमी ने कहा,
निश्चित
ही। किसको
मालूम नहीं है
कि ईश्वर है? मैं आस्तिक
हूं, ईश्वर
है।
यह जो मूढ़ता है, उस
मूढ़ता की
तरफ इशारा कर
रहा है
लाओत्से कि
तुम सभी बहुत
आश्वस्त हो।
पूछो किसी
से--ईश्वर है? वह जवाब दे
देता है, झिझकता
भी नहीं। हां
कह देता है, न कह देता
है। उसे खयाल
नहीं है, वह
क्या बोल रहा
है, किस
संबंध में बोल
रहा है। ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जिससे पूछें
ईश्वर के बाबत
और वह चुप रह
जाए। वह कुछ
कहेगा। हिंदू
होगा तो हिंदू
के ईश्वर की
बात कहेगा, मुसलमान
होगा तो
मुसलमान के
ईश्वर की बात
कहेगा, कम्युनिस्ट
होगा तो ईश्वर
के न होने की
बात कहेगा, लेकिन
कहेगा। सभी
आश्वस्त हैं,
सभी को पता
है। इसीलिए तो
इतना विवाद
है।
थोड़ा
सोचें। जगत
में जो इतना
विवाद है, वह
हमारी मूढ़ता
के आश्वस्त
होने के कारण
है। सभी इतने
आश्वस्त हैं
कि वे ठीक हैं,
सारी
दुनिया गलत
है। दूसरे को
गलत सिद्ध
करने में वे
इतने उत्सुक
हैं कि वे यह
भूल ही जाते हैं
कि जिस चीज को
वे ठीक कह रहे
हैं, उसका
उन्हें भी पता
है या नहीं।
इसकी फुर्सत भी
नहीं मिलती।
दूसरे को गलत
करने में इतना
श्रम लगता है
कि खुद के सही
होने का पता
लगाने का भी न
तो अवसर है, न सुविधा
है। और झंझट
का काम भी है
वह। दूसरे को
गलत करना
हमेशा आसान
है।
लाओत्से
कहता है, यहां
सभी को सब कुछ
पता है, एक
मैं ही मंद और
भ्रांत मालूम
पड़ता हूं।
जो
बिलकुल ही
भ्रांत नहीं
है,
वह हमारे
बीच भ्रांत
मालूम पड़ता
है। जो बिलकुल
ही मंद नहीं
है, वह
हमारी झूठी
प्रतिभाओं के
बीच बिलकुल ही
मंद मालूम
पड़ता है। यह
करीब-करीब ऐसा
ही है, जैसे
कागज के फूलों
के बीच असली
फूल को कोई रख
दे। निश्चित
ही, कागज
के फूलों के
रंग ज्यादा
चटकीले हो
सकते हैं, ज्यादा
तेजोमय हो
सकते हैं। मौत
का उन्हें डर नहीं
है; ज्यादा
आश्वस्त हो
सकते हैं।
असली फूल तो
डगमगाता
होगा। एक-एक
पल मौत करीब
आती होगी। और
जो रंग है, वह
भी प्रतिक्षण
तिरोहित हो
रहा है, प्राण-ऊर्जा
क्षीण हो रही
है। असली फूल
कागज के फूलों
के बीच बहुत
दीन और दरिद्र
मालूम होगा।
और थोड़ी ही
देर में उसे
पता चल जाएगा
कि मैं ही एक
कमजोर हूं, बाकी सब
शक्तिशाली
हैं। और हो
सकता है मरते
वक्त वह फूल
कह कर जाए कि
एक मैं ही
कमजोर था, एक
मैं ही था
नकली असली
फूलों के बीच।
असली बचे, नकली
खतम हुआ। और
कागज के फूल
भी इस पर
भरोसा करेंगे;
क्योंकि यह
प्रत्यक्ष है
बात कि जो
असली थे वे बच
गए और जो नकली
था वह समाप्त
हो गया।
जिंदगी बहुत
उलटी है। और
भीड़ के कारण
बड़े भ्रम पैदा
होते हैं।
"जो
गंवार हैं, वे चालाक और
आश्वस्त हैं;
अकेला मैं
उदास, अवनमित,
समुद्र की
तरह धीर, इधर-उधर
बहता
हुआ--मानो
लक्ष्यहीन!'
कभी
आपने खयाल
किया, नदियों
के पास लक्ष्य
है, सागर
के पास कोई
लक्ष्य नहीं
है। छोटे से
नाले के पास
भी लक्ष्य है,
कहीं
पहुंचना है।
सागर के पास
कोई लक्ष्य
नहीं है।
क्षुद्र सा
नाला भी परपजफुल
है, प्रयोजन
है। इतना बड़ा
सागर परपजलेस
है--निष्प्रयोजन।
पूछो इस सागर
से, कहां
पहुंचना है
तुझे? कहीं
पहुंचना नहीं
है। तब
क्षुद्र नाला
भी कह सकता है,
क्या
व्यर्थ पड़े हो
निष्क्रिय? हमारी तरफ
देखो! भागते
हैं, दौड़ते
हैं, व्यवस्था
से चलते हैं।
पहुंचना है
कहीं, कोई
मंजिल है, कोई
भविष्य है।
सागर का है
केवल वर्तमान;
नाले का
भविष्य भी है।
लाओत्से
कहता है, जो
गंवार हैं, वे चालाक और
आश्वस्त हैं।
बड़े गणित में
कुशल हैं, बड़ा
हिसाब रखते
हैं। एक-एक
इंच, एक-एक
पाई की
व्यवस्था है
और आश्वस्त
हैं कि पहुंच
कर रहेंगे, बिना इसकी
फिक्र किए कि
पहुंचने को
कहीं कोई जगह
है, कोई
मंजिल है!
उसकी बिना
फिक्र किए
आश्वस्त हैं
कि पहुंच कर
रहेंगे। उनका
आश्वासन ही
उनके लिए
पर्याप्त
भरोसा है कि
मंजिल होगी।
हमारे मन में
लक्ष्य है तो
लक्ष्य जरूर
होगा।
क्योंकि हम ही
तो निर्धारक
हैं जगत के, नियंता हम
ही हैं।
और
लाओत्से कहता
है,
"अकेला मैं
उदास।'
क्योंकि
लक्ष्य न
हो...हममें जो
तेजी आती है, वह
लक्ष्य से आती
है। ध्यान
रखना, ये
सारे शब्द
व्यंग्य के
हैं। लाओत्से
कहता है ऐसा
समझें कि हम
सबको बुखार
चढ़ा हो और एक
आदमी
गैर-बुखार का
हो तो बिलकुल
ठंडा मालूम
पड़े--कोल्ड।
हम कहें कि
क्या
तुम्हारी
जिंदगी है!
जरा गर्मी भी
नहीं है। थोड़ा
गरमाओ, थोड़ी तेजी
लाओ, कुछ
जीवन का लक्षण
दो! थर्मामीटर
लगाते हैं, कोई खबर ही
नहीं देता कि
तुम में कोई
गर्मी है।
तो
लाओत्से कहता
है,
और सब भरे
हैं बड़ी तेजी
से, त्वरा
से, ज्वर
से; कहीं
पहुंचना है, कुछ पाना है,
कुछ होना
है। एक मैं ही
उदास, अवनमित,
डिप्रेस्ड--इन सब के
मुकाबले, फीवरिश, जो ज्वर से
भरे दौड़ रहे
हैं।
कभी
सन्निपात में
किसी को देखा? जैसी
तेजी
सन्निपात में
आती है, वैसी
कभी नहीं आती।
चार आदमी पकड़ें
तो भी आदमी को पकड़ना
मुश्किल है।
खाट पर सोया
हुआ आदमी भी
कहता है कि
मेरी खाट आकाश
में उड़ रही
है। सन्निपात
में जो गति आ
जाती है, वह
गति जो ज्वर
की तेजी आ
जाती है, वैसी
तेजी में हम
सब हैं।
एक
राजनीतिज्ञ
को देखें, एक
आध्यात्मिक
ज्वर चढ़ा हुआ
है। उस ज्वर
में वह ऐसे
काम कर लेता
है, जैसा
कि सामान्य
स्वस्थ आदमी
कभी नहीं कर
सकता। एक
राजनीतिज्ञ
को देखें, जब
वह किसी देश
की रक्षा के
लिए लगा हुआ
है, किसी
देश के
निर्माण के
लिए या किसी
देश के ध्वंस
के लिए लगा
हुआ है, तब
उसकी ज्वर की
अवस्था
देखें। अगर
हमारे पास कभी
आध्यात्मिक
ज्वर नापने का
कोई उपाय हो
तो राजनीति एक
आध्यात्मिक
ज्वर सिद्ध
होगी। लेकिन
देखें
राजनीतिज्ञ
को, उसके
पैरों की गति
को, सुबह
से शाम तक
उसकी
व्यस्तता को!
सारे जगत का भार
उसके ऊपर है।
वह नहीं है तो
सारा जगत नहीं
है। वह है तो
सब कुछ है।
यह जो ज्वर
है,
लाओत्से
कहता है, इन
ज्वरग्रस्त
लोगों को देख
कर यही कहने
को रह जाता है
कि एक मैं ही
उदास, ठंडा,
निष्क्रिय
हूं। सभी कहीं
पहुंच रहे हैं,
एक मैं ही
सागर की तरह
लक्ष्यहीन
अपनी जगह ही पड़ा
हूं।
"सप्रयोजन
हैं दुनिया के
सब लोग; अकेला
मैं दिखता हूं
हठीला और
अभद्र।'
जब
सारे ही लोग
दौड़ रहे हों, तो
आपका आहिस्ता
चलना हठीला
दिखाई पड़ेगा।
और जब सारे
लोग ही पागल
हो रहे हों, तब आपका
शांत और सौम्य
बना रहना
अभद्र मालूम पड़ेगा।
जब
हिंदू-मुस्लिम
दंगे में उतर
रहे हों तब आप
दूर खड़े देखते
रहें, तो
लगेगा कि आप
आदमी हैं! जब
हिंदुस्तान
और पाकिस्तान
लड़ते हों, हिंदुस्तान
और चीन लड़ते
हों, या
बंगला देश और
पाकिस्तान
लड़ता हो, या
वियतनाम में
युद्ध चलता हो,
तब आप दूर
खड़े चुपचाप
देखते रहें, कोई पक्ष
में न हों, बंटे
हुए न हों, ज्वर
के भीतर न हों,
तो लोग
कहेंगे: क्या
हुआ आपको? जीवित
हैं या मर गए?
कभी
आपने खयाल
किया, जब
युद्ध चलता है
तब लोग ज्यादा
जीवित हो जाते
हैं। जो आदमी
सुबह आठ बजे
भी बिस्तर से
उठने में
मुश्किल पाता
था, वह
पांच बजे उठ
कर रेडियो खोल
कर सुनने लगता
है--क्या खबर
है? जान
में जान आ
जाती है। खून
तेजी से चलने
लगता है। सुबह
से आदमी अखबार
लेकर बैठ जाता
है। लोगों के
चेहरों पर
रौनक देखें!
जब युद्ध चलता
है, तब
लोगों के
चेहरों पर
रौनक देखें!
जब युद्ध चला
जाता है, लोग
फिर मंदे
हो जाते हैं; फिर धीमे हो
जाते हैं; फिर
राह देखते हैं
कि कुछ हो
जाए। कहीं कुछ
नहीं हो रहा
है, अखबार
में कोई खबर नहीं
है।
सुना
है मैंने, मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने जीवन के
अंत में गांव
का काजी, गांव
का न्यायाधीश
बना दिया गया
था। पहले ही दिन
जब वह बैठा
अदालत में, सुबह से
दोपहर होने
लगी, कोई
मुकदमा न आया।
फिर सांझ भी
होने लगी, कोई
मुकदमा न आया।
क्लर्क उदास,
बेचैन।
पहरेदार बेचैन।
सिपाही
बाहर-भीतर आते
हैं, कोई
नहीं आया।
वकील बेचैन।
आखिर क्लर्क
ने कहा कि
क्या हो गया, आज ही आप बने
हैं
न्यायाधीश और
कोई आया नहीं।
नसरुद्दीन ने
कहा,
घबड़ाओ मत, आई
हैव स्टिल फेथ
इन ह्यूमन
नेचर। आदमी की
प्रकृति पर
मुझे अब भी
भरोसा है; कोई
न कोई आएगा। कोई
न कोई आएगा; घबड़ाओ मत। कोई न
कोई अपराध
होकर रहेगा।
आदमी पर मुझे
अब भी भरोसा
है।
और जब
सांझ
होते-होते एक
मुकदमा आ गया
मार-पीट का, सारी
अदालत में
रौनक आ गई।
लोग अपनी-अपनी
जगह बैठ गए।
लोगों ने अपने
रजिस्टर खोल
लिए। वकील खड़े
हो गए, सिपाही
में जान आ गई।
मजिस्ट्रेट
में जान आ गई।
अदालत
मर जाती है, जिस
दिन मुकदमा
नहीं आता।
डाक्टर की
नब्ज ढीली पड़
जाती है, जिस
दिन कोई बीमार
नहीं
होता--स्वभावतः!
हमारे जीवन का
जो ढंग है, वह
ज्वरग्रस्त
है। युद्ध
होता है तो
सबकी रीढ़ तन
जाती है।
हिटलर
ने अपनी
आत्मकथा में, मेन
केम्फ में
लिखा है कि
किसी भी
राष्ट्र को
बड़ा होना हो तो
युद्ध के बिना
कभी कोई बड़ा
नहीं होता। और
जो राष्ट्र
बिना युद्ध के
बहुत दिन जी
जाते हैं, उनकी
रीढ़ टूट जाती
है।
हो
सकता है, यही
कारण भारत की
रीढ़ के टूट
जाने का हो।
क्योंकि
महाभारत के
बाद युद्ध
वगैरह से हमने
कोई संबंध
नहीं रखा।
हिटलर ने लिखा
है कि अगर कोई युद्ध
न भी हो रहा हो
तो भी मुल्क
में जान बनाए रखने
के लिए युद्ध
की अफवाह बनाए
रखनी चाहिए कि
अब युद्ध हो
रहा है, अब
युद्ध हो रहा
है। सस्पेंशन!
तो लोगों का
खून तेजी से दौड़ता है, आत्मा जोर
से धड़कती
है, लोग
प्राणवान रहते
हैं।
निश्चित
ही,
ऐसे
प्राणवान
लोगों के बीच
अगर लाओत्से
को लगता हो--एक
मैं ही हठीला
और अभद्र!
जहां सभी बीमारी
से भरे हैं और
ज्वर में भागे
जा रहे हैं और
सन्निपात में
बक रहे हैं, चिल्ला रहे
हैं, वहां
मेरी आवाज बड़ी
धीमी मालूम
पड़ती है। निश्चित
ही उन सबको लगता
है कि तुम
हठीले हो; आओ
हमारे साथ! दौड़ो
हमारे साथ!
अभद्र हो तुम,
जो सभी कर
रहे हैं, वह
तुम नहीं कर
रहे हो।
सभ्य
का मतलब ही
क्या होता है? असभ्य
का मतलब ही
क्या होता है?
सभ्य
शब्द का तो
यही मतलब होता
है। सभ्य शब्द
बनता है सभा
से। जो सभा के
साथ हो, वह
सभ्य। जो सबके
साथ हो, वह
सभ्य। जो सबके
साथ न हो, वह
असभ्य। सभ्य
का मतलब होता
है, सभा
में बैठने की
योग्यता
जिसमें हो।
भीड़ के साथ
खड़े होने की
जिसमें
योग्यता हो, वह सभ्य।
भद्र कौन है? जो हमारे
मापदंड के
अनुकूल है।
अभद्र वही है,
जो हमारे
मापदंड के
अनुकूल नहीं
है।
तो
लाओत्से कहता
है,
एक मैं ही
दिखता हूं
हठीला और
अभद्र। लोगों
की मानता
नहीं। लोग
नाराज हैं।
भीड़ के साथ
चलता नहीं।
भीड़ समझती है,
मैं
विक्षिप्त
हूं।
"और
अकेला मैं ही
हूं भिन्न
अन्यों से; क्योंकि
देता हूं
मूल्य उस पोषण
को, जो
मिलता है सीधा
ही माता
प्रकृति से।'
ये
चारों तरफ जो
लोग हैं, इनका
सारा पोषण, इनके जीवन
की सारी ऊर्जा
और गर्मी, इनका
प्राण सहज
स्वभाव और
प्रकृति से
उपलब्ध नहीं
होता। इनका
प्राण भविष्य
की किन्हीं आशाओं,
आकांक्षाओं
से उपलब्ध
होता है।
किन्हीं सिद्धांतों,
शब्दों, लक्ष्यों
से उपलब्ध
होता है। सहज
प्रकृति और
स्वभाव से
नहीं। मैं तो
उतना ही जीता
हूं, जितना
सहज; जितना
प्रकृति
जिलाती है, उतना जीता
हूं। जितना
प्रकृति दौड़ाती
है, उतनी
ही मेरी गति
है। प्रकृति
रोकती है तो
मैं रुक जाता
हूं। प्रकृति
चलाती है तो
मैं चलता हूं।
अपनी मेरी कोई
दौड़ नहीं है।
अपनी मेरी कोई
गति नहीं है।
मस्तिष्क और
बुद्धि से
मेरा कोई
परिचालन नहीं
है।
इस
अंतिम वाक्य
को हम ठीक से
समझ लें। एक
तो ढंग है सहज
जीवन का।
लाओत्से ने
कहा है, मैं
एक सूखे पत्ते
की भांति हूं।
हवा पूरब ले जाती
है तो पूरब
चला जाता हूं;
हवा पश्चिम
ले जाती है तो
पश्चिम चला
जाता हूं। हवा
जमीन पर गिरा
देती है तो मैं
विश्राम कर
लेता हूं; हवा
आकाश में उठा
देती है तो
मैं बादलों के
साथ होड़
कर लेता हूं।
लेकिन मेरी
अपनी कोई दिशा
नहीं है। कहीं
जाने की मेरी
कोई योजना
नहीं है। क्योंकि
योजना जैसे ही
बनी, वैसे
ही संघर्ष
शुरू हो जाता
है। मैं पूरब
जाना चाहता
हूं और हवाएं
पश्चिम जा रही
हैं। और हवाएं
मेरी मानने
वाली नहीं
हैं। मैं कौन
हूं? और
हवाओं को मुझ
से क्या
प्रयोजन है?
लाओत्से
कहता है, हवाएं जिस तरफ
बहती हैं, वही
मेरी दिशा है।
और अगर हवाएं
बीच में अपनी
दिशा बदल लेती
हैं तो मेरी
दिशा भी बदल
जाती है। कहता
यह है कि मेरी
अपनी कोई दिशा
नहीं है, जो
मैंने बुद्धि
से तय की हो।
मेरा कोई
लक्ष्य नहीं
है। प्रकृति
का ही अगर कोई
लक्ष्य मुझमें
हो तो प्रकृति
जाने। अगर
प्रकृति ही
मेरे द्वारा
कुछ करवाना
चाहती हो तो
करवा ले। अगर
प्रकृति को
मुझसे कुछ न
करवाना हो, मेरी कोई
योग्यता-पात्रता
न हो, तो
मैं अकारण
अपनी पात्रता
सिद्ध करने की
व्यर्थता में
न पडूंगा।
लाओत्से के
लिए प्रकृति का
वही अर्थ है, जो परमात्मा
का है। लेकिन
लाओत्से
परमात्मा शब्द
का उपयोग करना
पसंद नहीं
करता। कारण
है। लाओत्से
प्रकृति शब्द
उपयोग करना
पसंद करता है
बजाय
परमात्मा के।
क्योंकि
परमात्मा को
हमने एक
सिद्धांत बना
लिया है। और
परमात्मा को
हमने आगे रख
लिया है। और
जब भी हम
परमात्मा की
बात करते हैं
तो परमात्मा
से हमारा कम
प्रयोजन होता
है, हमारे
परमात्मा से
ज्यादा
प्रयोजन होता
है। परमात्मा
पर दावेदारी
भी है। और
परमात्मा में
हमने वे सब चीजें
डाल दी हैं, जो हम चाहते
हैं कि हों।
हमने
परमात्मा से
नहीं पूछा है
कि तेरी क्या
मर्जी है; हमने
अपनी मर्जी उस
पर रख दी है और
कहा है कि यह मर्जी
अगर हो तो तू
हमारा
परमात्मा है।
बाइबिल
कहती है कि
ईश्वर ने आदमी
को अपनी
अनुकृति में
बनाया--गॉड क्रिएटेड
मैन इन हिज
ओन इमेज, ईश्वर
ने खुद अपनी
ही शक्ल में
आदमी को
बनाया। लेकिन
नीत्शे कहता
है, इस
वाक्य से
ज्यादा गलत
दूसरा वाक्य
खोजना कठिन
है। क्योंकि
सच्चाई उलटी
है। सचाई यह
है कि आदमियों
ने ईश्वर को
अपनी शक्ल में
बनाया है।
इसीलिए तो
इतने ईश्वर
हैं; क्योंकि
इतने आदमी
हैं। काला
आदमी ईश्वर को
गोरी शक्ल का
नहीं बना
सकता। गोरा
आदमी ईश्वर को
काली शक्ल का
नहीं बना
सकता। और
अफ्रीकी का ईश्वर
अफ्रीकी की ही
अनुकृति होता
है। और हिंदू
का ईश्वर
हिंदू की
अनुकृति होता
है। हमारे ईश्वर
हमारे गढ़े
हुए होते हैं।
ईश्वर ने हमें
गढ़ा या
नहीं, वह
दूसरी बात है।
लेकिन हम
ईश्वर को रोज गढ़ते हैं।
और
इसलिए हर
दो-चार सौ साल
में ईश्वर की
शक्ल बदल जाती
है। क्योंकि
दो-चार सौ साल
में गढ़ने
वाले बदल जाते
हैं। उनके ढंग
बदल जाते हैं, सोचने
की व्यवस्था
बदल जाती है।
तो फिर नए
ईश्वर बनाने
पड़ते हैं।
आदमी के पास
ईश्वर
निर्मित करने
के बड़े
कारखाने हैं।
वहां वह
उन्हें
निर्मित करता
रहता है। फैशन
बदलती है, ईश्वर
को बदलना पड़ता
है। फैशन के
हिसाब से ईश्वर
की भी फैशन
होती है। और
पुराने ईश्वर
कभी-कभी आउट
ऑफ डेट पड़
जाते हैं, उनको
फेंक देना
पड़ता है, नए
ईश्वर गढ़
लेने पड़ते
हैं। हमसे
उनका तालमेल
रहना चाहिए।
अगर आप
पांच हजार साल
का इतिहास उठा
कर देखें तो
आपको पता
चलेगा कि
कितने ईश्वर डिसकार्डेड, कितने
ईश्वर को हम
फेंक चुके हैं
उठा कर बाहर।
आज हमको खयाल
भी नहीं आएगा
कि ये हमारे
फेंके हुए
ईश्वर हैं!
हमने दूसरे गढ़ लिए।
वक्त बदलता है,
हमें
बदलाहट करनी
पड़ती है। अगर
हम पांच हजार
साल पुराने
ईश्वर को
देखें तो हमको
दिक्कत मालूम
पड़ेगी कि इसको
ईश्वर मानें?
हमारी
धारणाएं बदल
गईं। इसलिए
बड़ी अड़चन आती
है। हम पुराने
ग्रंथों की
पूजा करते
जाते हैं; लेकिन
उनको खोल कर
कभी देखते
नहीं कि उसमें
ईश्वर की शक्ल
क्या है। अगर
हम पुरानी
यहूदी शक्ल को
देखें ईश्वर
की, तो
ईश्वर बड़ा
खूंखार मालूम
पड़ता है, तानाशाह
मालूम पड़ता
है। वह कहता
है, जो
मेरा नाम न
लेगा उसको नरकों
में सड़ाऊंगा,
गलाऊंगा,
काटूंगा;
आग में
डालूंगा; जो
मेरे खिलाफ है,
उसके बचने
का कोई उपाय
नहीं है; जो
मेरे पक्ष में
है, उसी को
मैं बचाऊंगा।
अगर आज
हमारा ईश्वर
ऐसी भाषा बोले
तो हमें लगेगा
कि यह तो बहुत
तानाशाही हो
गई। लोकतंत्र
की भाषा
बोलो--डेमोक्रेटिक!
यह तो डिक्टेटोरियल
मामला हो गया।
ऐसे ईश्वर को
आज हम बर्दाश्त
न करेंगे।
क्योंकि ऐसा
ईश्वर तो हमें
हिटलर और मुसोलिनी
और तोजो
की शक्ल का
मालूम पड़ेगा।
और यह भी कोई
ईश्वर हुआ, जो
इस तरह की
बातें बोलता
है! डिसकार्डेड
है। यहूदी भी
किताब की पूजा
कर लेते हैं, लेकिन इस
ईश्वर की
चर्चा नहीं
करते। बिलकुल
इसकी चर्चा
नहीं करते।
जीसस
ने पूरी धारणा
बदल दी। जीसस
ने कहा कि ईश्वर
है प्रेम--गॉड इज़ लव। अब
ईश्वर जो जीसस
का है, उसका, जीसस के
पिता का जो
ईश्वर था, उससे
कोई तालमेल
नहीं है।
अगर
पीछे हम लौटें, अगर
हम वेद के वचन
पढ़ें, अगर
हम
प्रार्थनाएं
पढ़ें, तो
हमें बड़ी
हैरानी होगी
कि ये कैसी
प्रार्थनाएं
हैं? एक
किसान
प्रार्थना कर
रहा है कि हे
ईश्वर, मेरे
खेत में वर्षा
कर देना, लेकिन
मेरे दुश्मन
के खेत में
वर्षा मत
करना। आज हमें
लगेगा, यह
भी प्रार्थना
है? कभी
थी। और जब थी, तब किसी को
शक नहीं आया
था। आज शक
आएगा। क्योंकि
बुद्ध ने और
महावीर ने धारणा
बदल दी।
उन्होंने कहा,
प्रार्थना
में अगर
वैमनस्य आ गया
तो प्रार्थना
तो खराब हो
गई।
बुद्ध
ने कहा है कि
ध्यान तुम
करना, और
ध्यान के बाद
प्रार्थना
करना कि मेरे
ध्यान से जो
शांति मुझे
मिली, वह
सब में बिखर
जाए। मुझे
चाहे न मिले, लेकिन सब को
मिल जाए।
अब बुद्ध
बीच में आ गए
तो यह वेद की
जो प्रार्थना
है,
मुश्किल
में पड़ गई।
इसको डिसकार्ड
करना पड़ा। वेद
की हम पूजा
करते चले
जाएंगे। लेकिन
आज वेद को
मानने वाले को
भी बड़ी तकलीफ
होगी। फिर एक
ही रास्ता है
कि वह इसके
अर्थ बदले। वह
बताए कि इसमें
यह अर्थ ही
नहीं है।
अरविंद ने
पूरी चेष्टा
यही की कि
इसमें यह अर्थ
ही नहीं है।
लेकिन वह
चेष्टा
ईमानदार नहीं
है। क्योंकि
एकाध सूत्र
ऐसा होता तो
हम समझते। वेद
में नब्बे
प्रतिशत
सूत्र ऐसे
हैं। और
अरविंद जैसी
प्रतिभा का
आदमी भी कितनी
ही तोड़-मरोड़
करे, इसको झुठलाया
नहीं जा सकता।
लेकिन अरविंद
की तकलीफ भी
है। तकलीफ यह
है कि वे वेद
को अप-टू-डेट
कर रहे हैं।
वह जो वेद
पांच हजार साल
पीछे पड़ गया, उनका श्रम
यह है कि वह
उसे आज के
योग्य बना दें;
वह वेद को
नई शक्ल दे
दें, ताकि
हमारे लिए
ग्राह्य हो
जाए।
हमको
अपने ईश्वर की
शक्ल में रोज
छेनी का उपयोग
करना पड़ता है।
रोज उसको
बदलना पड़ता
है। ईश्वर हमारा
बनाया हुआ है।
इसलिए
लाओत्से
ईश्वर शब्द का
प्रयोग नहीं
करता।
लाओत्से कहता
है प्रकृति।
प्रकृति शब्द बहुत
कीमती है।
प्रकृति का
मतलब होता है:
बनने के भी जो
पूर्व था।
प्रकृति का
अर्थ होता है:
दैट व्हिच वाज
बिफोर क्रिएशन।
प्र और कृति, निर्माण
के पहले जो था,
सब होने के
पहले जो था, सब बना, उसके
पहले जो था।
सबके होने के
मूल में जो
छिपा है, सबका
जो आधार है।
रूप जब मिट
जाते हैं, तो
जिसमें गिरते
हैं; और
रूप जब उठते
हैं, तो
जिससे उठते
हैं। प्रकृति
का अर्थ है: वह
तत्व जो रूप
लेने के पहले
था।
लाओत्से
कहता है, वही
मां है, वही
मूल स्रोत है;
मैं उसी से
जीता हूं।
मेरा अपना कोई
लक्ष्य नहीं
है। उस
प्रकृति का
कोई लक्ष्य
मुझसे हो, पूरा
हो जाए। न हो, कोई एतराज
नहीं है। अगर
वह प्रकृति
मुझे चाहती है
कि मैं बेकार
ही रहूं और खो
जाऊं तो यही
मर्जी पूरी
हो। अगर कोई
काम उसे लेना
हो, काम ले
ले। लेकिन
मेरी अपनी तरफ
से निर्धारित कोई
नियति, कोई
डेस्टिनी
नहीं है।
यही
समझने जैसा
है। लाओत्से
कहता है, छोड़ता
हूं अपने को
मैं उसी पर, जिससे मैं
पैदा हुआ और
जिसमें मैं कल
खो जाऊंगा।
मैं बीच में
बाधा क्यों
दूं? मैं
क्यों कहूं कि
मुझे मोक्ष
चाहिए? जब
मुझे अपने
होने का पता
नहीं, जब
मैं अपने को
पैदा नहीं कर
सकता, तो
मैं अपने को
मोक्ष कैसे
पहुंचा
सकूंगा?
लाओत्से
कहेगा कि
जितने लोग
अपनी चेष्टा
से कुछ पाने
में लगे हैं, वे
ऐसे लोग हैं, जैसे कोई
आदमी अपने
जूते के बंद
पकड़ कर खुद को
उठाने की
कोशिश में लगा
हो। कोशिश
कितनी ही करो,
परिणाम कुछ
न होगा।
थोड़ा-बहुत
उछलकूद भी कर
सकता है आदमी।
उछलेगा, कूदेगा,
तो लगेगा कि
उठता भी हूं
बीच-बीच में।
फिर जमीन पर
पड़ जाएगा।
मुझसे जो
विराट और बड़ा
मुझे घेरे हुए
है, अगर
उसका ही कोई
लक्ष्य है तो
ठीक। मेरा कोई
लक्ष्य नहीं
है। मैं कौन
हूं जो बीच
में आऊं? न
मुझसे मेरे
जन्म के समय
प्रकृति ने
पूछा कि बनाते
हैं तुम्हें;
क्या इरादा
है? न मेरी
मौत के वक्त
कोई मुझसे
पूछेगा कि
मिटाते हैं
तुम्हें; क्या
इरादा है? न
प्रकृति
मुझसे पूछती
है कि
तुम्हारे भीतर
रखते हैं यह
हृदय, किसलिए धड़के
तुम तय करना।
नहीं, कोई
प्रकृति कहती
नहीं।
प्रकृति बना
देती है, मिटा
देती है। बीच
में जो हम
विचार करना
शुरू करते हैं,
उससे हम
अपने लक्ष्य
निर्धारित कर
लेते हैं।
लाओत्से
कहता है, अपने
लक्ष्य
निर्धारित
करके हम उन
नालों की तरह
हो जाते हैं, जो चलते
बहुत हैं, लेकिन
पहुंचते उसी
सागर में हैं
जो कहीं नहीं जाता।
नाले चलते
बहुत हैं। और
चलते वक्त
नाला सागर से
कह भी सकता है:
क्या पड़े हो, चलो! हम
छोटे-छोटे
इतना चल रहे
हैं, तुम
इतने बड़े हो, चलो! लेकिन
ये नाले चल-चल
कर पहुंचते
कहां हैं? गिरते
कहां हैं? खोते
कहां हैं? उस
सागर में खो
जाते हैं, जिससे
इन्होंने कहा
था: क्या
बेकार पड़े हो!
लाओत्से
हम बुद्धिमानों
को कहेगा कि
तुम व्यर्थ ही
दौड़ रहे हो; क्योंकि
तुम वहीं
पहुंच जाओगे,
जहां मैं
पड़ा ही हुआ
हूं। इसका
मतलब समझ लें।
तुम वहीं
पहुंचोगे, जहां
मैं पहुंचा ही
हुआ हूं। तुम
चल-चल कर
पहुंचोगे; बहुत
चलोगे, बहुत
परेशान, चिंता
लोगे, रातें
खराब करोगे, निद्रा खो
जाएगी, हजार
बीमारियां
पाल लोगे।
सोचें नाले की
तकलीफ, सागर
तक लंबी
यात्रा है!
कितने समझौते
करने पड़ते हैं,
किस नदी में
गिरना पड़ता है,
किस तरह खुद
को बचाना पड़ता
है! और बचा कर
भी होता क्या
है? मजा यह
है कि सागर तक
अंतिम जो घटना
घटने वाली है,
वही घटती
है--बचाए नाला
तो, न बचाए
तो। नाला
बचाता है कि
कहीं
रेगिस्तान में
न खो जाऊं।
रेगिस्तान
में भी कोई
नाला खो जाएगा
तो जाएगा कहां?
सूरज की
किरणों से चढ़ेगा
और सागर में
पहुंच जाएगा।
नदी में चला
जाऊं, बड़ी
नदी का सहारा
ले लूं। कहीं
छोटी नदी के
सहारे से, हो
सकता है, न
पहुंच पाऊं;
तो बड़ी नदी
का सहारा ले
लूं, बड़ा
सहारा ले लूं।
छोटी नदियां
भी वहीं पहुंच
जाती हैं, बड़ी
नदियां
भी वहीं पहुंच
जाती हैं। और
मजा यह है कि
सबकी अंतिम
परिणति उस
सागर में हो
जाती है, जो
कहीं जाता ही
नहीं।
लाओत्से
कहता है, "अकेला
मैं उदास, अवनमित,
समुद्र की
तरह धीर, इधर-उधर
बहता
हुआ--मानो
लक्ष्यहीन!'
ऐसा
दिखता है कि
लहरें यहां आ
रही हैं, वहां
जा रही
हैं--लक्ष्यहीन।
कभी आपने खयाल
किया कि सागर
में जब आपको
लहरें
आती-जाती
मालूम पड़ती
हैं, तो आप
एक बड़े भ्रम
में होते हैं।
सागर के किनारे
तट पर खड़े
होकर आप देखें
तो लगता है, दूर से फेनोज्ज्वल,
फेन के शिखर
से लदी भागती
चली आ रही है
लहर। आती है, चली आती है, तट से
टकराती है, बिखर जाती
है। लेकिन
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
लहरें अपनी
जगह नहीं छोड़तीं।
सागर में जो
लहर आपको
दिखती है आती
हुई, वह
सिर्फ आंखों
का भ्रम है, इल्यूजन है।
एक लहर उठती
है, नीचे गङ्ढा हो
जाता है; एक
लहर गिरती है,
पास का पानी
ऊपर उठ जाता
है। वह जो पास
का पानी ऊपर
उठ जाता है और
पहला पानी
नीचे गिर जाता
है, आपको
लगता है पहली
लहर आगे आ गई।
कोई लहर आगे नहीं
आती।
इसीलिए
तो स्टेज पर
नाटक में
आसानी से
लहरों का भ्रम
पैदा किया जा
सकता है; कोई
अड़चन नहीं है।
आप जो बिजली
के बल्बों
को देखते हैं
शादी-विवाह के
मंडप पर लगे
हुए, लगते
हैं भागे चले
जा रहे हैं।
वह कोई भाग नहीं
रहा है। बल्ब
अपनी जगह जलता
है, बुझ
जाता है। एक
बल्ब बुझा, दूसरा जल
जाता है; वहम
पैदा होता है
कि बिजली
यात्रा कर गई।
सागर
की लहरों में
भी वैसा ही
वहम है। एक
लहर उठती है, नीचे
गङ्ढा हो
जाता है। वह
गिरती है, पास
का पानी ऊपर
उठ जाता है।
आपको लगता है
लहर यात्रा कर
गई। कोई लहर
यात्रा नहीं
करती; सब
अपनी जगह
उठती-गिरती
रहती हैं।
सागर में यात्रा
है ही नहीं।
सागर थिर है।
इसलिए सागर को
हमने कहा है
धीर। उसमें
अधैर्य है ही
नहीं। अधैर्य
का मतलब क्या
होता है? अधैर्य
का मतलब होता
है कि कहीं
पहुंचना है। जब
तक नहीं पहुंचे
हैं, तब तक
धैर्य कैसे हो?
सिर्फ
धैर्य में तो
वही हो सकता
है, जिसे
कहीं पहुंचना
नहीं है।
पहुंचने वाले
को तो अधैर्य
में जीना ही
पड़ेगा। और
जितनी जल्दी होगी
पहुंचने की, उतना अधैर्य
होगा।
पश्चिम
में देखते हैं, अधैर्य
ज्यादा है
पूर्व की
बजाय। और कारण?
कारण सिर्फ
एक छोटा सा है;
या बड़ा भी
कह सकते हैं।
कारण सिर्फ
इतना है कि पश्चिम
में ईसाइयत, यहूदी और
इसलाम, तीनों
धर्मों ने एक
ही जन्म को
स्वीकार किया
है। एक ही
जिंदगी है, समय बहुत कम
है, पहुंचना
जल्दी है।
भारत में, पूरब
में, अधैर्य
नहीं है। उसका
कारण? उस
कारण यह नहीं
है कि आप बहुत
धीर हैं। आपके
पास टाइम एक्सटेंशन
ज्यादा है, जन्मों-जन्मों
का। इसमें
नहीं तो अगले
में पहुंच
जाएंगे, अगले
में नहीं तो
और अगले में
पहुंच
जाएंगे। ऐसी
जल्दी क्या है?
चूंकि हमने
धारणा बनाई है
पुनर्जन्मों
की, अनंत
जन्मों की
शृंखला की, हमारे पास
समय बहुत है।
इसलिए हमें
घड़ी की बहुत
चिंता नहीं
है। समय इतना
ज्यादा है कि
नाप-नाप कर भी
क्या करना है?
सागर को कोई
नापता है? सागर
को क्या नापिएगा?
हमारे पास
इतना समय है
कि क्या नापना
है?
इसलिए
हम धीरज में
हैं। दौड़ भी
रहे हैं, तो
बड़े आहिस्ता
से, सुस्ताते
भी हैं। और
कोई जल्दी
नहीं है।
पश्चिम में
बहुत जल्दी
पैदा हो गई; क्योंकि
ईसाइयत ने एक
ही जन्म को
स्वीकार किया।
यह मौत जो
होने वाली है,
यह आखिरी
है। इसके बाद
फिर समय नहीं
है। स्वभावतः
समय कम पड़ गया,
घबड़ाहट बढ़ गई। और
पहुंचना है।
और चूक गए तो
सदा के लिए चूक
गए। हमारे
मुल्क में
चूकने में कोई
डर नहीं है।
चूकने का मतलब
सदा के लिए
चूकना नहीं
होता। सिर्फ
इस बार चूक गए,
अगली बार
देखेंगे। और
परमात्मा
अनंत धैर्यशाली
है हमारा। वह
प्रतीक्षा
करेगा, कोई
ऐसी जल्दी
कहीं भी नहीं
है। इसलिए
टाइम-कांशसनेस,
जो
काल-चेतना है,
वह पूर्व
में पैदा नहीं
हो सकी।
टाइम-कांशसनेस
पश्चिम में
पैदा हुई। और
टाइम-कांशसनेस
पैदा करने में
जीसस का हाथ
है। क्योंकि
एक ही जिंदगी
है तो घबड़ाहट
हो गई है।
सागर
को हम कहते
हैं धीर। उसे
कहीं पहुंचना
ही नहीं है।
नदी तो अधीर
होगी ही।
इसलिए नदी शोरगुल
करेगी, भागेगी,
तड़पेगी। उसमें
बेचैनी दिखाई
भी पड़ेगी।
सागर बेचैन नहीं
है।
लाओत्से
कहता है, इन सब
भागते हुए
लोगों के बीच,
जो गंवार
हैं, वे
विज्ञ और
तेजोमय; मैं
ही मंद और
भ्रांत! जो
गंवार हैं, वे चालाक और
आश्वस्त; मैं
ही उदास, अवनमित,
समुद्र की
तरह धीर, इधर-उधर
बहता हुआ--मानो
लक्ष्यहीन।
सप्रयोजन हैं
दुनिया के सब
लोग, अकेला
मैं दिखता
हठीला और
अभद्र। और
अकेला मैं ही
हूं भिन्न
अन्यों से; क्योंकि
देता हूं
मूल्य उस पोषण
को, जो
मिलता है सीधा
माता प्रकृति
से। वह जो गहनतम
स्रोत है जीवन
का, उसको
ही जीता हूं।
और इसलिए
भिन्न हूं।
इसको
हम एक तरह से
और देखें।
जो
व्यक्ति
लक्ष्य को
लेकर जीएगा, भविष्य
उसके लिए
मूल्यवान
है--आगे, कल।
जो व्यक्ति
आधार को, स्रोत
को लेकर जीएगा,
उसके लिए
भविष्य का कोई
मूल्य नहीं
है। उसके लिए
जड़ें
मूल्यवान हैं,
स्रोत
मूल्यवान है।
हम ऐसा समझें
कि हम ऐसे लोग
हैं या हम ऐसे
वृक्ष हैं जो
इस आशा में
जीते हैं कि
फूल लगें। इस
आशा में हम
जड़ों की सारी
चिंता ही छोड़
देते हैं। हम
यह भूल ही
जाते हैं कि
हम सिर्फ जड़ों
का फैलाव हैं।
हम यह भूल ही
जाते हैं कि
हम जड़ें ही
हैं, जो
पृथ्वी के
बाहर आ गई
हैं। हम यह
भूल ही जाते हैं
कि हम जड़ें ही
हैं, जिन्होंने
आकाश को छूने
की आकांक्षा
की है। हम यह
भूल ही जाते
हैं कि अगर
जड़ों के भीतर
ही छिपा है
कोई फूल तो
निकल आएगा; अगर नहीं
छिपा है तो
निकालने का
कोई उपाय नहीं
है। हम ऐसे
वृक्ष हैं, जो जड़ों को
भूल गए हैं।
अब हम सोचते
हैं, फूल
कैसे हो जाएं?
अगर
कोई वृक्ष फूल
की चिंता में
पड़ जाए कि फूल कैसे
हो जाए, तो एक
बात पक्की है
कि फूल उस
वृक्ष में कभी
नहीं होंगे।
चिंता ही सारे
रस को सोख
जाएगी, जिससे
फूल बनते हैं।
चीनी
कहानी है, और
लाओत्से के
वक्त की ही, कि एक सेंटीपीड,
एक शतपदी
जानवर, सौ
पैर वाला
जानवर एक जंगल
से गुजर रहा
है। एक खरगोश
बड़ी चिंता में
पड़ गया--सौ पैर!
कौन सा पहले
रखता होगा, कौन सा बाद
में? कैसे
हिसाब रखता
होगा कि कौन
सा उठ गया, कौन
सा उठाना है, कौन सा आधा
है बीच में, कौन सा जमीन
को छू रहा है? सौ पैर!
खरगोश पास गया
और उसने कहा, चाचा, बड़ी
चिंता होती है
आपको देख कर।
कैसे रखते हैं
हिसाब? क्या
है गणित? पहले
कौन सा पैर
उठाते हैं? फिर कौन सा? फिर कौन सा? सौ का हिसाब,
सौ की
संख्या याद
रखनी पड़ती
होगी। शतपदी
ने कहा, अजीब
सवाल पूछा।
मैंने कभी
खयाल नहीं
किया। चलता तो
रहा हूं, मैंने
कभी खयाल नहीं
किया। अब मैं
खयाल करके तुझे
बताऊं।
शतपदी
थोड़ी देर खड़ा
रहा। उसके पैर
कंपे और
वह वहीं गिर
गया। खरगोश ने
पूछा, क्या
हुआ? उस
शतपदी ने कहा
कि नासमझ, अब
यह सवाल किसी
और शतपदी से
मत पूछना। हम
चलना जानते थे,
यह हमने कभी
सोचा न था कि
कौन सा पैर पहले,
कौन सा बाद
में। सौ का
मामला है, सब
गड़बड़ हो गया।
अब कोई पैर ही
नहीं उठता, या कई पैर
साथ उठ गए, आपस
में उलझ गए।
जान पर मुसीबत
आ गई है। तूने
जो यह सवाल
उठाया, यह
बहुत कठिन है।
और भगवान करे
कि मैं जल्दी
ही तेरे सवाल
को भूल जाऊं।
अन्यथा चलना
मुश्किल हो जाएगा।
चिंता आ जाएगी
चलने की जगह।
कोई
वृक्ष अगर
सोचने लगे कि
फूल को कैसे
बनाऊं, कैसे
कली बने, कितनी
पंखुड़ियां
रखूं, कैसा
रंग हो, कैसी
गंध भरूं--उस
वृक्ष में फिर
फूल नहीं लगेंगे।
वृक्ष को फूल
की क्या चिंता
होनी है? फूल
तो छिपे हैं
जड़ों में, जड़ें
सम्हाल
लेंगी। वृक्ष
को बढ़ते जाना
है, जड़ों
पर सब छोड़
देना है भार, कर देना है
समर्पित
स्रोत पर।
स्रोत में ही
सब छिपा है, भविष्य भी
छिपा है, कल
भी छिपा है।
जो होगा, वह
भी छिपा है।
लाओत्से
कहता है, जड़ों
पर सब छोड़
दिया है
मैंने। और
चारों तरफ जो
लोग हैं, वे
सब अपना-अपना
भार उठाए चल
रहे हैं। वे
कहते हैं, हमारी
मंजिल! हमारा
लक्ष्य! हमें
कुछ होना है! हमें
कुछ करके
दिखाना है!
संसार में आए
हैं, तो
बिना किए नहीं
जाएंगे!
मां-बाप
समझाते हैं
बच्चों को:
संसार में आए
हो,
कुछ करके
दिखाओ!
कितने
लोग संसार में
आए,
कितना करके
दिखा गए, क्या
फल है? और न
जिन्होंने
करके दिखाया,
कौन सी
असुविधा हो गई
है? करके
भी क्या दिखाइएगा?
लेकिन
चिंता पैदा हो
जाती है।
चिंता सारे के
सारे
मस्तिष्क को
ग्रसित कर
लेती है। फिर
एक-एक कदम
हिलाना
मुश्किल हो
जाता है।
शतपदी की हालत
हो जाती है।
आज
आदमी
करीब-करीब
चीनी कहानी के
शतपदी की हालत
में है। उसे
कुछ नहीं सूझता
कि क्या करे, क्या
न करे? कैसे
करे? सब
अस्तव्यस्त
हो गया है। हो
जाएगा।
क्योंकि जड़ों
से हमने सब
छीन लिया है।
और उनमें ही
सब छिपा है।
सब मस्तिष्क
में रख लिया
है।
और
लाओत्से के
अनुयायी कहते
हैं,
खोपड़ी से
सोचने से बचना!
लाओत्से से
अगर आप जाकर
पूछते कि
तुम्हारा
मस्तिष्क
कहां है? तो
वह अपने पेट
पर हाथ रखता; वह कहता, यहां
पेट में है।
बेली इज़
माई माइंड। वह
कहता कि कहां
खोपड़ी में, इतनी दूर
स्रोत से कहां
जाना? बहुत
दूर निकल गए
ये। क्योंकि
मां से बच्चा
जुड़ा होता है
नाभि से। वह
पहले
अस्तित्व की
शुरुआत है।
नाभि स्रोत है।
और नाभि के
निकट
अस्तित्व है।
खोपड़ी, तो
बहुत दूर निकल
गए, शाखाओं
में चले गए, जड़ों से
बहुत दूर चले
गए।
आदमी
की जड़, आपको
पता है, नाभि
है। वहीं से, मां से जड़
जुड़ी होती है।
उसकी मां की
जड़ नाभि से
जुड़ी थी। इस
सारे संसार
में मनुष्यों
की जड़ें खोजें
तो नाभि में
वे फैली हुई
मिलेंगी। यों
तो प्रत्यक्ष,
ऊपर से भी
नाभि से जुड़ी
होती हैं, लाओत्से
कहता है, अप्रत्यक्ष
भीतर की जड़ें
नाभि से ही
फैली होती
हैं।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
खोपड़ी की
फिक्र छोड़ो,
नाभि की
फिक्र करो।
नाभि मजबूत हो,
जड़ें गहरी
हों प्रकृति
में, तो
तुम कहीं
पहुंचे या न
पहुंचे, इससे
फर्क नहीं
पड़ता। पहुंचे
तो, न
पहुंचे तो, हर हालत में
आनंद है। और
अगर तुम
मस्तिष्क से जीए,
पहुंचे तो,
न पहुंचे तो,
हर हालत में
दुख है।
इसलिए
वह कहता है, "एक
अकेला मैं
भिन्न हूं
अन्यों से; क्योंकि
देता हूं
मूल्य उस पोषण
को, जो
मिलता है सीधा
माता प्रकृति
से।'
आज
इतना ही। फिर
हम कल बात
करेंगे। बैठें
पांच मिनट, कीर्तन
करें।
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