दिनांक
22 जूलाई 1977;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—अजहूं
चेत गंवार--पलटूदास जी का यह
संबोधन तो सभी
के लिए है; पर
हम सबका एक
मात्र
गंवारपन क्या
है? आप
कृपा करके
हमें कहें।
2—संत
पलटूदास
कहते हैं कि
भागवत-धन की
लूट हो रही है
और जो चाहे सो
लेय। यदि ऐसी
बात है तो
क्यों इस बात
का धनी करोड़ों
में एकाध हो
पाता है?
3—संन्यास
का फल मधुर है, फिर भी सभी
उसे क्यों
नहीं चखते? कृपा करके
कहिए।
पहला
प्रश्नः
"अजहूं
चेत गंवार'--पलटूदास जी का यह
संबोधन तो सभी
के लिए है; पर
हम सबका
एकमात्र
गंवारपन क्या
है? आप
कृपा करके
हमें कहें।
एक
ही अज्ञान है
कि हमें पता
नहीं कि हम
कौन हैं। फिर
सारे अज्ञान
उसी एक अज्ञान
से पैदा होते
हैं। एक ही
बीज है; फिर
तो वृक्ष बड़ा
हो जाता है; फिर तो बहुत
शाखाएं-प्रशाखाएं
होती हैं; बहुत
फूल-पत्ते
लगते, फल
लगते। और फिर
एक बीज में
बहुत बीज भी
लगते हैं।
वनस्पतिशास्त्री
कहते हैं: एक
छोटा-सा बीज
सारी पृथ्वी
को हरियाली से
भर देने में
समर्थ है। और
एक छोटे-से
अज्ञान के बीज
ने मनुष्य को
परिपूर्ण
अंधकार से भर
दिया है।
बीज है
छोटाः यह
बोध नहीं है
कि मैं कौन
हूं। और जिसे
यही बोध नहीं
है कि मैं कौन
हूं, फिर वह जो
भी करेगा गलत
ही करेगा।
जहां भीतर का
दीया ही न जला
हो, फिर
तुम्हारे
कृत्य के ठीक
होने की कोई
संभावना
नहीं। और हम
सब चेष्टा
करते हैं कि
कृत्य ठीक हो
जाए। यह ऐसे
ही है जैसे
कोई अंधेरे
में दीया तो न जलाए और
ठीक-ठीक चलने
का अभ्यास करे,
ताकि
अंधेरे में
मैं बिना गिरे
चल सकूं, बिना
टकराए चल
सकूं, दीवालों
से सिर न फूटे,
जब चाहिए तब
दरवाजा मिल
जाए।
काश, जिंदगी थिर
होती तो यह
संभव हो जाता!
काश, ऐसा
होता कि तुम
एक ही मकान
में सदा रहते,
एक ही कक्ष
में सदा रहते,
तो
धीरे-धीरे
अभ्यास हो
जाता।
धीरे-धीरे तुम
जानने लगते
बिना दीए के जलाए, द्वार
कहां है, दीवाल
कहां है।
जानने लगते टेबिल
कहां रखी है, कुर्सी कहां
रखी है। जानने
लगते किस दिशा
में जाएं, किस
दिशा में न
जाएं। तो दीए
की भी जरूरत न
थी। लेकिन
जिंदगी रोज
बदल जाती है, यह अड़चन है।
यह जिंदगी का
मकान
परिवर्तनशील
है। यहां एक
क्षण को भी
कुछ थिर नहीं
है। यहां सब
धारा है। यहां
सब बह रहा है।
यहां सब बदल
रहा है। इसलिए
कल तुमने जो
तय किया था वह
आज काम नहीं
आता। आज जो
तुम अनुभव
करोगे, वह
कल काम में
नहीं आएगा।
दीया तो जलाना
ही होगा।
यह
जिंदगी से
सरित-प्रवाह
में, केवल
अभ्यास कर
लेने से
कृत्यों का, कोई परिणाम
होनेवाला
नहीं है; बल्कि
खतरा होता है।
ऐसा सोचो कि
कमरा रोज बदल
जाता हो, रात
तुम सोए और
कमरा घूम जाता
हो; जहां
दरवाजा था, दीवाल आ
जाती हो और
जहां दीवाल हो,
दरवाजा आ जाता
हो। कल तुमने
अभ्यास कर
लिया था, निश्चिंत
हो कर सोए थे
कि अब तो सब
पता हो गया, अब दूसरा
सिर न टकराएगा,
अब चोट न
खाऊंगा; अब
तो जब निकलना
होगा बाहर तो
निकल जाऊंगा;
अब तो मैं
जानता हूं। कल
तुम निश्चिंत
हो कर सो गए थे,
लेकिन रात
सारा मकान बदल
गया।
तुम्हारा
ज्ञान सहयोगी
न होगा; और
बाधा बनेगा।
क्योंकि तुम
निश्चिंत हो
कि अब मैं
जानता हूं। अब
तुम एकदम
दीवाल से टकरा
जाओगे। वहां
कल दरवाजा था।
आज वहां
दरवाजा नहीं
है।
इसलिए
जिसको हम
तथाकथित
अनुभवी आदमी
कहते हैं, वह और भी गङ्ढों
में गिरता है।
बच्चे तो थोड़ा
संभल कर भी
चलें, अनुभवी
संभल कर नहीं
चलता।
क्योंकि
अनुभवी को
खयाल है कि
मैं जानता ही
हूं।
जानना
तो सिर्फ एक
है जगत् में
कि मैं कौन
हूं। उससे ही
भीतर का दीया
जलता है और
तुम्हारा सारा
जीवन, तुम्हारे
सारे कृत्य
रोशन हो जाते
हैं। और दीया
फिर ऐसा है कि
मकान बदलता
रहे, बदलता
रहे, जब
दीया जल रहा
है तो द्वार
जहां होगा
दिखाई पड़
जाएगा। यही
नीति और धर्म
का भेद है।
नीति
सिखाती है
क्या करो।
नीति अभ्यास
करवाती
है--शुभ का, शिव का; बुरा
छोड़ो, बुरे
की आदत न डालो,
भले की आदत डालो।
नीति आचरण को बदलवाती
है और अंतस
अंधेरे से ही
भरा रहता है।
तो आचरण तो
अच्छा भी हो
जाता है, तो
भी क्या
परिणाम होता
है! बुरे आदमी
उन्हीं गङ्ढों
में तड़प
रहे हैं
जिनमें भले
आदमी तड़प
रहे हैं। कोई
फर्क नहीं है।
जब मैं
यह कहता हूं, तुम थोड़े चौंकोगे।
तुम कहोगे
बुरे आदमी
कारागृह में
बंद हैं और
भले आदमी अपने
महलों में बैठे
हैं--फर्क
क्यों नहीं है?
ऊपर से जरूर
फर्क है। उनके
गङ्ढे
ऊपर से अलग
दिखाई पड़ते
हैं। लेकिन
अगर गहरे में देखोगे तो
अहंकार का एक
ही गङ्ढा
है। उसमें
कारागृह में
बंद आदमी भी तड़प रहा है,
उसमें
मंदिर में
बैठा हुआ पूजा
करनेवाला आदमी
भी तड़प
रहा है। गङ्ढा
एक है। अहंकार
का गङ्ढा
है। गङ्ढा
एक है, क्योंकि
अंधेरा एक है।
न तो बुरा
आदमी जागा है--जाग
जाता तो बुरा
क्यों होता!
और यह वचन भी
मुझे तुमसे
कहने दो कि न
भला आदमी जागा
है--अगर जाग जाता
तो भला क्यों
होता! तुम
थोड़े चौंकोगे।
क्योंकि जागा
हुआ आदमी न
बुरा होता न
भला होता।
जागा हुआ आदमी
तो बस जागा
होता है।
जागरण भलाई के
उतने ही ऊपर
है जितने
बुराई के।
जागा हुआ आदमी
न तो दुर्जन
होता न सज्जन
होता। जागा
हुआ आदमी
बुद्ध होता, प्रबुद्ध
होता।
बुद्ध
से किसी ने
पूछा हैः आप
कौन हैं? देखकर
उनके अप्रतिम
सौंदर्य को, लगता है
जैसे कोई देवपुरुष
उतर आया है
इंद्रासन से
पृथ्वी पर--तो
पूछा है पूछने
वाले नेः
आप कौन हैं? क्या आप
देवता हैं? इस वनस्थली
में, इस
एकांत निर्जन
में, इस वट
वृक्ष के नीचे
बैठे, क्या
आप स्वर्ग से
उतरे कोई
देवता हैं? आपके
सौंदर्य को
देखकर ऐसा
लगता है इस
पृथ्वी के
नहीं हैं? पार्थिव
नहीं है यह
सौंदर्य। आप
देवता हैं।
बुद्ध
ने आंख खोली
और कहाः
नहीं, मैं
देवता नहीं
हूं।
उस
आदमी ने पूछाः
तो फिर आप
किन्नर हैं? देवताओं से
थोड़ी नीची
कोटि--जो
दरबार में
देवताओं के
संगीतज्ञ हैं,
आप वे हैं?
बुद्ध
ने कहाः
नहीं, वह भी
नहीं।
तो
पूछा उस आदमी नेः आप
चक्रवर्ती सम्राट
हैं? इस
पृथ्वी के
सबसे बड़े राजा
हैं?
बुद्ध
ने कहाः
नहीं, वह भी
नहीं।
तो आप
कौन हैं? मनुष्य
तो होंगे
कम-से-कम--उस
आदमी ने पूछा।
और बुद्ध ने
कहा कि नहीं, मनुष्य भी
नहीं हूं। तब
तो वह आदमी
जरूर अवाक् रह
गया होगा कि
यह आदमी होश
में है या
बेहोश, पागल
है! देवता
नहीं, चलो
न सही, चक्रवर्ती
सम्राट न सही,
न सही; मगर
कम-से-कम
मनुष्य! इसको
भी इनकार भी
करते हो!
तो उस
आदमी ने पूछाः
फिर आप कौन
हैं?
बुद्ध
ने कहा : मैं
बुद्ध हूं।
मैं जागा हुआ
हूं। और जागा
हुआ सिर्फ
जागा हुआ होता
है; उसकी और
कोई सीमा नहीं
होती; उसकी
और कोई
परिभाषा नहीं
होती।
भीतर
का दीया जल
जाता है तो
तुम रोशन हो
जाते हो। तुम
जागे हुए हो
जाते हो। जागे
हुए से बुराई
तो होती
नहीं--हो ही
नहीं सकती। और
जागे हुए को
ऐसा बोध कैसे
हो कि मुझसे
भलाई होती है? जिससे बुराई
होनी बंद हो
गई, उसे यह
बोध भी मिट
जाता है कि
मुझसे भलाई
होती है।
जब तक
तुम्हारे
भीतर चोर है
तब तक
तुम्हारे भीतर
दानी भी हो
सकता है। जिस
दिन चोर गया
उस दिन दानी
भी चला गया।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
दान नहीं
होगा। उसी दिन
दान
होगा--लेकिन
दानी नहीं
होगा। तुमसे
दिया तो जाएगा, लेकिन अब
देनेवाले का
अहंकार
निर्मित नहीं
होगा। तुम यह
दावा न करोगे
कि मैं दानी
हूं। तुमसे
हिंसा तो नहीं
होगी--अहिंसा
भी नहीं रह जाएगी।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
तुम्हारे
जीवन में
अहिंसा नहीं
होगी--अहिंसा
ही होगी। मगर
मैं अहिंसक
हूं, ऐसी
थोथी धारणा
नहीं बनेगी।
जिस दिन
बीमारी चली
जाती है उसी दिन
स्वास्थ्य का
भी विस्मरण हो
जाता है।
तुमने
देखा या नहीं, सोचा या
नहीं?--सिर
में दर्द होता
है तो सिर की
याद आती है।
जब सिर में
दर्द नहीं रह
जाता तो सिर
की कौन याद करता
है? तुम
जगत् में ऐसा
शोरगुल थोड़े
ही मचाते फिरते
हो कि आज मेरे
सिर में दर्द
नहीं है, कि
आज मेरा सिर
बिना दर्द के
है। तो लोग
हंसेंगे। लोग कहेंगेः
तो जरूर दर्द
है, अन्यथा
कौन बात करता
है सिर की! जब
दर्द चला गया
तो सिर भी चला
गया। दर्द में
ही बोध होता
है। दर्द में
ही चोट लगती
है, दर्द
में ही कांटा गड़ता है।
जब बीमारी
नहीं रह जाती
तो स्वास्थ्य
भी नहीं रह
जाता।
तुम
देखो, स्वास्थ्य
की चर्चा
बीमार लोग ही
करते हैं! जो
आदमी जितने
स्वास्थ्य की
चर्चा करे, समझना उतना
ही बीमार है।
बीमार आदमी
प्राकृतिक
चिकित्सा की
किताब पढ़ते
हैं। और
स्वास्थ्य के
संबंध में बड़े
जानकार हो
जाते हैं।
बीमार आदमी
स्वास्थ्य की
खोज में ही
लगे रहते हैं
कि स्वास्थ्य
क्या है, कैसे
बनाना कैसे
नहीं बनाना, स्वास्थ्य
का अर्थ क्या
है? स्वास्थ्य
नहीं है, इसलिए
स्वास्थ्य
क्या है, इसकी
खोज है।
बीमारी न हो
तो बीमारी की
छाया, वह
जो स्वास्थ्य
का विचार था, वह भी खो
जाएगा।
परम
स्वस्थ आदमी
का लक्षण होता
है कि उसे
अपने शरीर का
पता ही नहीं
होता। विदेह
अवस्था है परम
स्वास्थ्य।
उसे पता ही
नहीं होता कि
शरीर है।
तुम्हें पता
है पैर का? जब तक पैर सो
नहीं गया तब
तक पता ही
नहीं होता। जब
पैर सो जाएगा
और झुनझुनी चढ़ेगी, तब
पता चलेगा।
पैर में कांटा
लगेगा तो पैर
का पता चलेगा।
सिर में दर्द
होगा तो सिर
का पता चलेगा।
संस्कृत
में दुःख और
ज्ञान के लिए
एक ही शब्द है--"वेदना'।
वेद का अर्थ
ज्ञान होता
है। विद का
अर्थ जाननेवाला
होता है। बड़ा
अनूठा शब्द है
वेदना। दुनिया
की किसी भाषा
में ऐसा शब्द
नहीं है।
संस्कृत के
पास कुछ शब्द
हैं जो दुनिया
की किसी भाषा
में नहीं हैं--हो
ही नहीं सकते।
क्योंकि
जिन्होंने वे
शब्द निर्मित
किए, उन्होंने
बड़ी अनुभूति
से उन्हें रचा
है। वेदना का
अर्थ होता है
जानना और
वेदना का अर्थ
होता है दुःख।
जब दुःख होता,
तभी ज्ञान
बनता है। दुःख
का ही ज्ञान
होता है।
इसलिए वेदना
के दो अर्थ
हैं; बड़े
भिन्न अर्थ
हैं। दोनों
में कोई संबंध
नहीं दिखाई
पड़ता । कहां
ज्ञान और कहां
दुःख! लेकिन
दुःख के
अतिरिक्त कोई
ज्ञान ही नहीं
है। जब दुःख
चला गया तो
ज्ञान भी चला
गया। तब एक
परम शांति, एक निर्मल
शांति--जहां न
दुर्जन है न
सज्जन, न
पापी है न
पुण्यात्मा, न नास्तिक
है न आस्तिक।
हिंसा गई, अहिंसा
गई। नीति गई, अनीति गई।
झूठ गया, सच
गया। वे
द्वंद्व गए; निर्द्वंद्व
हुए। इस
निर्द्वंद्व
दशा का नाम है
धर्म।
नीति
द्वंद्व में
चुनाव करवाती
है। कहती हैः
हिंसा छोड़ो, अहिंसा करो।
झूठ छोड़ो,
सच करो; चोरी
न करो, दान
करो; घृणा
न करो, प्रेम
करो। नीति
कृत्य सिखाती
है--ठीक कृत्य
सिखाती है।
धर्म? धर्म
कृत्य की बात
ही नहीं है।
धर्म को आचरण
से कुछ
लेना-देना
नहीं है। धर्म
अपूर्व
क्रांति है।
धर्म कहता है,
सिर्फ भीतर
का दीया जले, फिर सब हो
जाएगा; अपने
से हो जाएगा।
अपने से ही हो
जाता है। फिर तुम्हें
कुछ करना ही
नहीं पड़ता।
इसलिए
परम
ज्ञानियों ने
तुम्हें जीवन
और आचरण के
नियम नहीं
दिए।
उन्होंने तो
सिर्फ, कैसे
भीतर का दीया
जल जाए, इसकी
प्रक्रिया
दी।
प्रक्रिया का
नाम ही ध्यान है।
तुम
पूछते हो कि
क्या है हमारा
मौलिक
गंवारपन? क्यों
कहते हैं पलटू
"अजहूं चेत
गंवार'?--अब
जाग!
"चेत' शब्द
को समझो। चेत
का अर्थ जागना
भी होता है, चेत का अर्थ
चेतना भी होता
है। चेत का
अर्थ होता है
सावधान। खूब
सो लिए, आंख
खोलो, जागो! काफी सो
लिए, अब तक सोए
ही रहे। कभी
बुराई में सोए,
कभी भलाई
में सोए।
ऐसा
समझो कि रात
तुम सपने
देखते हो। कभी
सपना देखते हो
कि साधु हो
गए। हाथ में
कमंडलु लिए भिक्षा
मांगने निकले
हो। और कभी
सपना देखते हो
कि हत्यारे हो
गए, चोर हो गए
और डाका डालने
निकले। नैतिक
व्यक्ति कहेगाः
अच्छा सपना
देखो; साधु
बनो, असाधु
न बनो।
धार्मिक आदमी कहेगाः
सपने सब सपने
हैं। चाहे तुम
चोर बनो सपने
में और चाहे
साधु बनो, क्या
फर्क है? सुबह
जाग कर पता
चलेगा दोनों
झूठे थे।
इसलिए धार्मिक
व्यक्ति कहता
हैः अब जागो!
सपने कब तक
बदलते रहोगे?
ऐसे ही हम
सपने बदलते
रहे हैं। एक
सपने से थक
जाते हैं तो
विपरीत सपना
देखने लगते
हैं। रोज हो
रहा है ऐसा।
जब तक मन की इस
अवस्था को ठीक
तुम खयाल में
न लोगे, जागोगे
नहीं. . .।
एक
आदमी बहुत
भोजन करता है
तो ऊब जाता है; फिर भोजन से
कष्ट होने
लगता है, सुख
तो मिलता
नहीं। बहुत
करने से कष्ट
होने लगता है।
जब कष्ट होने
लगता है तो
उपवास की सोचने
लगता है। एक
अति से दूसरी
अति पर चला।
जब कष्ट बहुत
होने लगा तो
आदमी सोचता है
उपवास कर लूं।
और मेरे अनुभव
में ऐसा आया
कि भोजन कम करना
ज्यादा कठिन
है, भोजन न
करना ज्यादा
आसान है।
मैंने अनेक
लोगों को
देखा। उनसे अगर
कहो कि थोड़ा
सम्यक् भोजन
करो, इतना
मत करो, आधा
कर दो--वे कहते
हैं, यह
कठिन है। आप
कहो तो
बिल्कुल बंद
कर दें।
अति पर
जाना मन को
आसान है, मध्य
में आना मन को
कठिन है।
निश्चिंत ही
जब खूब दुःख
भोग लिया
ज्यादा भोजन
करके, पेट
में दर्द है
और सिर भारी
है और दिन में
आलस्य छाया
रहता है और
प्रतिभा में
निखार नहीं रह
गया, सब
धुंधला-धुंधला
हो गया, अंधेरा-अंधेरा
और शरीर बेढब
हुआ जाता है, शरीर
सौंदर्य खोए
देता है और
जिंदगी एक बोझरूप
मालूम होने
लगी--तो तुम
जल्दी से
उपवास का सोचने
लगते हो। चले
उरली
कांचन--उपवास
कर लें। और तुम्हें
उपवास करवानेवाले
मिल जाते हैं।
मगर तुम्हारे
जीवन की दिशा
को कोई नहीं
समझता कि अड़चन
कहां है।
तुम
उपवास कर
लोगे--कितने
दिन? कोई
जीवनभर उपवास
कर सकता है? दस-पांच दिन
उपवास करके घर
आओगे, फिर
अति पर पहुंच
जाओगे।
क्योंकि
दस-पांच दिन जब
उपवास किया तो
भोजन ही भोजन
का सोचोगे। और
करोगे क्या? उपवासी आदमी
भोजन ही भोजन
की सोचता है; और कुछ
सोचता ही
नहीं। उसके
चित्त में एक
ही धारा बहती
है--भोजन, भोजन।
वह बड़ी
योजनाएं
बनाता है।
देखते
हैं न जैनों
के पर्यूषण
के बाद। "सोहन' इधर बैठी है,
उससे
पूछना। वह अठई
करती रही है। आठ
दिन क्या
सोचती रही? वह नौवें
दिन की बात
सोचेगी कि
नौवां दिन आता
है, अभी
आया ही जाता
है। पर्यूषण
जैनों के खत्म
होते, देखते
हैं एकदम
सब्जी-बाजार
में दाम बढ़
जाते हैं
सब्जियों के।
आठ-दस दिन
किसी तरह रोक
लिया है--बलपूर्वक
हिंसात्मक
ढंग से।
क्योंकि हिंसा
है उपवास।
ज्यादा खाना
तो हिंसा है
ही, उपवास भी
हिंसा
है। ज्यादा
खाने में भी तुम
शरीर को सताते
हो इसलिए हिंसा
है और कम खाकर
भी शरीर को
सताते हो, इसलिए
हिंसा है।
सताते तुम
दोनों हालत
में हो।
तुम्हारी
दुष्टता जाती
नहीं। कभी
धर्म के नाम
पर सताते हो, कभी अधर्म के
नाम पर सताते
हो, मगर
सताते तुम
निश्चित हो।
आठ-दस दिन सता
लिया--आशा में
कि स्वर्ग
मिलेगा। लोभ
में किसी तरह बांध
कर आठ-दस दिन
गुजार लिए।
इसलिए
जब जैन उपवास
करते हैं तो
मंदिर में रहते
हैं ज्यादा
समय, क्योंकि
वहां आसानी
पड़ती है; वहां
और भी उन्हीं
जैसे दुष्ट
अपने को सताए
हुए बैठे हैं।
उनको देखकर
राहत मिलती है
कि हम कोई
अकेले नहीं
हैं। नाव में
और बुद्धू भी
सवार हैं।
अकेले होने
में आदमी को
शंका होने लगती
है, संदेह
होने लगता है
कि पता नहीं
मैं यह क्या कर
रहा हूं।
उपवासी आदमी
को रैस्तरां
में जाकर बिठा
दो, तो उसे
बड़ी अड़चन होती
हैः सब लोग
भोजन कर रहे हैं,
गुलछर्रे
उड़ा रहे हैं, चर्चा कर
रहे हैं; भोजन
की सुगंधियां
उठ रही हैं, नासापुटों
को उतेजित कर
रही हैं, भूख
को जगा रही
हैं। उपवासी
आदमी रैस्तरां
में जा कर
नहीं बैठता; मंदिर जाता
है। वहां भोजन
से दुनिया
बिल्कुल दूर
है। वहां न
भोजन की कोई
गंध उठती है, न कोई भोजन
करता है, न
कोई भोजन लाता
है। और जितने
बैठे हैं वे
भी ऐसे उदास, मुर्दा; वे
भी ऐसे ही
अपने को सताए
हुए। वहां
आसानी है। फिर,
वहां
धर्म-चर्चा चल
रही है।
धर्म-चर्चा
का कुल अर्थ
इतना होता है
कि यहां, तुम
जो कर रहे हो, इसका बड़ा फल
तुम्हें
स्वर्ग में
मिलेगा। मोक्ष
मिलेगा। परम
धाम मिलेगा।
वहां परम
ऐश्वर्य सुख
ही सुख, कल्पवृक्ष!
तो बैठा
उपवासी आदमी
सोचता है कि थोड़े
दिन की बात और
है, फिर तो
कल्पवृक्ष के
नीचे बैठेंगे
और जो भी चाहिए
वह प्राप्त कर
लेंगे; जैसा
चाहिए, जब
चाहिए उसी
क्षण मिलेगा।
ऐसे किसी दिन
दस-पांच दिन
धर्म-चर्चा
सुनकर लोभ का
विस्तार करके गुजार
दिए, फिर
इसके बाद तुम
एकदम भोजन पर
टूटते हो। वह
जो दस दिन का
उपवास है, उसका
बदला लोगे न।
उसका बदला
कहां जाएगा!
वह तो लेना ही
पड़ेगा। अब मन
दस दिन भूखा
रह-रह कर ऊब
गया; अब मन
कहता है, ठीक
से खा लो, अब
तो ठीक से खा
लो, अब
दो-चार दिन तो
बिल्कुल
स्वतंत्रता
दे दो!
तो
जितना उपवास
में वजन गिरता
है, उसके
पांच-सात दिन
के भीतर उतना
वजन वापिस बढ़ जाता
है; थोड़ा
ज्यादा ही बढ़
जाएगा, क्योंकि
उपवास भूख को
भी जगा देता
है और शरीर को
राजी कर देता
है ज्यादा
पचाने के लिए।
तो शरीर
झपट्टा मार
देता है; जल्दी
पचाने लगता है;
जल्दी खाने
लगता है।
पाचक-रस जल्दी
छूटते हैं, ज्यादा
छूटते हैं।
तो तुम
देखोगे, उपवास में
वजन गिर जाएगा,
दो-चार दिन
में वजन फिर
उतना ही हो
जाएगा; थोड़ा
ज्यादा भले हो
जाए, कम तो
नहीं होने
वाला। फिर तुम
सोचने लगोगे
कुछ महीनों के
बाद उपवास कर
लें। ऐसा
मनुष्य का द्वंद्व
है।
स्त्रियों
के पीछे
भागते-भागते
परेशान हो गए, एक दिन तय
करते हो कि अब
स्त्रियों को
छोड़ कर जंगल
में भाग
जाएं--"यह
स्त्री नरक का
द्वार है!' या
पुरुषों के
पीछे ज्यादा
सिर फोड़ा-फाड़ी
हो गई है; सब
देख लिया
संसार, कुछ
रस नहीं
पाया--अब
सोचते हैं कि
अब, छोड़-छाड़
दें, इस
सबसे हट जाएं।
मगर एक अति से
दूसरी अति. . .।
तो
नीति तुम्हें
एक अति से
दूसरी अति पर
ले जाती है।
क्रांति नहीं
हो पाती। अति
से मुक्ति में
क्रांति है।
मध्य में खड़े
हो जाने में
क्रांति है।
संतुलन में
क्रांति है। सम्यकत्व
क्रांति है।
"सम्यकत्व'
शब्द को
समझो। उसका
मतलब है समतुल;
ठीक बीच में
आ गए, जैसे
तराजू के
दोनों पलड़े
बराबर हो जाते
हैं और कांटा
बीच में आ
जाता है। न
इधर झुके न
उधर झुके। न
संसार में
झुके और न मोक्ष
में झुके; मध्य
में खड़े हो
गए।
वही तो
पलटू ने कल
कहा कि इड़ा-पिंगला
मेरे दो पलड़े
हो गए, दोनों
को सतनाम
की डांडी से
संभाल लिया
है।
जैसे-जैसे
तुम्हारे
भीतर बोध बढ़े, वैसे-वैसे
तुम्हारे
भीतर संतुलन
आता है। तुम्हारे
भीतर द्वंद्व
कम हो जाता
है। यह निर्द्वंद्व
दशा का नाम ही
अद्वैत है।
एक ही
भूल है कि
तुम्हारा
दीया जला हुआ
नहीं है।
आचरण
को सुधारने
में बहुत
चिंता मत
लगाओ। और ध्यान
रखना, मैं
यह नहीं कह रहा
हूं कि आचरण
को बिगाड़ने
में चिंता
लगाओ। जब मैं
सुधारने तक को
दो कौड़ी
का मानता हूं
तो बिगाड़ने को
कैसे मूल्य दे
सकूंगा! मैं
कहता हूं आचरण
से दृष्टि को बदलो, गेयर बदलो, अंतर्मुखी
बनो।
भीतर
अंधेरा है।
इसको कैसे
रोशन करें, यहां कैसे
प्रकाश प्रकटे,
कैसे उजाला
हो?
ध्यान
से उजाला होता
है। ध्यान है
ज्योति जलाने
की
प्रक्रिया।
और मजा ऐसा है
कि सब साधन मौजूद
हैं।
तुम्हारे घर
में दीया है
तेल-भरा, बाती-लगा,
माचिस भी
रखी है। ज़रा
माचिस को रगड़ना
है। ज़रा
माचिस को रगड़ना
है कि ज्योति
पैदा हो
जाएगी। फिर
माचिस से ज्योति
को बाती से
छुआ देना है, छुआ देना है
कि दीया जल
उठेगा।
तुम सब
लेकर आए हो।
तुम्हारे
अंतरतम में सब
मौजूद है। जो
होना चाहिए, वह सब मौजूद
है। जो-जो
जरूरी है, सब
मौजूद है।
थोड़ा संयोजन
करना है।
थोड़ा-सा संयोजन।
तुम्हारे
भीतर
साक्षी-भाव की
संभावना छिपी
पड़ी है। ज़रा
चेष्टा, ज़रा
अपने को
झकझोरना। उसी
झकझोरने को
पलटू कहते हैं:
अजहूं चेत
गंवार! अब तो
जाग! अब तो जाग
खूब सो लिया, कितना सो
लिया!
सोते-सोते
जन्म-जन्म
बीते, सदियां
बीतीं, अनंत काल
बीत गया। अब
आंख खोल। बहुत
सपने देखे, अब सत्य को
देख। स्वयं को
देख।
दूसरा
प्रश्नः
संत
पलटूदास
कहते हैं कि भावगत-धन
की लूट हो रही
है और "जो चाहे
सो लेय'।
यदि ऐसी बात
है तो क्यों
इस बात का धनी
करोड़ों में
एकाध हो पाता
है?
धन
की लूट तो हो
रही है, लेकिन
तुम्हें धन
दिखे, तब न!
नदी बही जा
रही है, लेकिन
तुम्हें
प्यास लगे, तब न, तो
तुम पीयो!
प्यासे को नदी
दिखाई पड़ती
है। और प्यासे
को, नदी
हजारों मील
दूर भी बह रही
हो, तो भी
वह यात्रा
करके नदी तक
पहुंच जाता
है। और
गैर-प्यासे के
सामने, घर
के सामने से
बहती हो गंगा
तो भी दिखाई
नहीं पड़ती।
खयाल
रखना, तुम्हें
वही दिखाई
पड़ता है जिसकी
तुम खोज कर रहे
हो। जिसे तुम
देखने निकले
हो वही दिखाई
पड़ता है।
कहते
हैं, चमार जब
रास्ते पर
चलते लोगों को
देखता है तो उसको
सिर्फ लोगों
के जूते दिखाई
पड़ते हैं। सिर्फ
जूते दिखाई
पड़ते हैं। वह
जूते ही खोजने
चला है। जूतों
से हिसाब
लगाता रहता
है। जूता देख
कर पहचान लेता
है चमार; करीब-करीब
तुम्हारे
जूते से
तुम्हारी
पूरी आत्मकथा
पहचान लेता
है। जूते की
खस्ता हालत
बता देती है
कि शायद हार
गए चुनाव में
इस बार। जूते
पर चमक, दर्पण
जैसी चमक दिखा
देती है कि
मालूम होता है
जीत गए। जूते
की चमक बता
देती है कि
जेब गर्म है
कि ठंडी। जूते
की हालत बता
देती है कि
बुलाए, तुम्हारे
साथ मेहनत
करें कि गुजर
जाने दे। जूते
की हालत बता
देती है कि
भैया, गुजर
ही जाओ तो
अच्छा है, कहीं
और ही चले जाओ
तो अच्छा है; यहां न लौट
आना, नहीं
तो उधारी
करोगे।
चमार
जूते को देखता
है। चमार जूता
देखने को ही
बैठा है। उसकी
नजर वहां लगी है।
दर्जी
तुम्हारे
कपड़े देखता
है। दर्जी तुम्हें
नहीं देखता।
उसे तुम्हारे
कपड़े ही दिखाई
पड़ते हैं।
तुम जो
खोजने निकले
हो, वही
तुम्हें
दिखाई पड़ता
है। इस सत्य
को खूब गहराई
में पकड़ो। वही
रास्ता, वही
सड़क, वही
बाजार, तुम
अलग-अलग बार
निकले हो और
तुम्हें
अलग-अलग दुकानें
वहां दिखाई
पड़ी हैं।
तुमने कभी
सोचा? जीवन
के छोटे-छोटे
तथ्यों पर
विचार करो, और वहां से
बड़े तथ्यों की
पकड़ आएगी। जब
तुम भूखे होते
हो तो भोजनालय
और रैस्तरां
और होटल, यही
दिखाई पड़ते
हैं। उपवास
करके एक दिन
जाओ बाजार में
और तुम पाओगे
अरे, इतने रैस्तरां
हैं यहां!
इतनी होटलें!
इतनी दुकानों
पर भोजन बिक
रहा है! यह
तुम्हें कभी
खयाल में न
आया था। तुम
भरे पेट निकले
थे। खयाल में
आने का कोई
कारण न था।
फिर एक दिन
भरे पेट जाओ, फिर दिखाई न
पड़ेंगे।
जिसकी
कामवासना
पीड़ित है, उसे रास्ते
पर पुरुष नहीं
दिखाई पड़ेंगे,
स्त्रियां
दिखाई
पड़ेंगी। उसे
पुरुष छूट ही
जाएंगे। पुरुषों
को वह मद्देनजर
कर जाएगा। वे
गुजरेंगे
जरूर, लेकिन
उनकी कोई छाप
न बनेगी।
लेकिन जिसकी
कामवासना
तृप्त है, उसे
स्त्री-पुरुषों
से कोई भेद
नहीं पड़ेगा। और
जो कामवासना
के पार जा
चुका है, उसे
तो यह भी भेद
करना मुश्किल हो
जाएगा कि कौन
स्त्री है, कौन पुरुष
है।
स्त्री-पुरुष
का भेद तुम
तभी तक करते
हो जब तक
तुम्हारे
भीतर तलाश है,
तुम्हारे
भीतर वासना
प्रदीप्त है।
नहीं तो कौन
चिंता करता
है!
तुमने
खयाल किया? तुम वही
देखते हो जो
तुम खोज रहे
हो। तो पलटू तो
कहते हैं कि
भागवत-धन की
लूट हो रही है,
यह सामने
ढेरी लगी है, लूट सको तो
लूट लो।
खड़े-खड़े क्या
देख रहे हो, पलटू कहते
हैं। लेकिन जो
खड़े-खड़े देख
रहा है उसको
वहां धन दिखाई
नहीं पड़ रहा।
उसे वहां कुछ भी
दिखाई नहीं पड़
रहा है। या यह
भी हो सकता है
कि जो लूट रहे
हैं वे उसे
पागल मालूम
होते हों।
क्योंकि जब
उसे धन नहीं
दिखाई पड़ता और
ये टूटे पड़
रहे हैं तो
पागल ही तो
मालूम होंगे।
ये किस चीज पर
टूटे पड़ रहे
हैं? यहां
कुछ भी तो
नहीं। उसे
लगेगा ये सब
मन की कल्पना
के जाल में पड़
गए हैं।
ऐसा ही
तो होता है।
तुम यहां बैठे
हो; जो लोग
यहां नहीं हैं,
वे तुम्हें
पागल समझते
हैं। वे पागल
समझेंगे ही।
वे कहेंगेः
किन कल्पनाओं
में पड़े हो!
अरे यथार्थ
जगत् को देखो।
किस सम्मोहन
में उलझ गए हो?
किसकी
बातों में उलझ
गए हो? ये
सब बातें हैं।
इनमें मत उलझ
जाना, नहीं
तो घर-गृहस्थी
खराब हो
जाएगी।
बाल-बच्चों को
देखो। पत्नी
को देखो, परिवार
को देखो। अपने
कर्तव्य का
ध्यान रखो। यथार्थ
को देखो। ये
किन बातों में
पड़े हो? इतना
समय दुकान पर
लगाओ, बाजार
में लगाओ। कुछ
कमाओ।
कमाई हाथ में
आएगी तो कुछ
काम आएगी। यह
धर्म-चर्चा, यह
तत्त्व-चर्चा,
यह किस काम
में आएगी? इसकी
रोटी बनाओगे
कि कपड़े बनाओगे
कि इससे छप्पर
बनाओगे? इससे
बच्चों का पेट
नहीं भरेगा और
न पत्नी के लिए
साड़ी
खरीद सकोगे।
किस झंझट में
पड़ गए हो?
लोग
तुम्हें
समझाते हैं।
लोग तुम्हें
कहते होंगेः
अभी भी लौट आओ; अभी ज्यादा
नहीं गए हो, नहीं तो फिर
पीछे लौटना
मुश्किल हो
जाएगा। कहीं
ज्यादा मत उतर
जाना इसमें, होश-हवास न
खो देना। औरों
ने खो दिया
है।
उनकी
बात ठीक तो
है--उनकी तरफ
से ठीक ही है।
अब
यहां लोग मेरे
पास आए हैं, दूर-दूर से
आए हैं। कोई
जापान से है, कोई जर्मनी
से है, कोई
ईरान से है, कोई इथिओपिया
से है, कोई
अमरीका से है,
कोई स्वीडन
से आए हैं, कोई
इंग्लैंड से
है, कोई
इटली से है।
दूर-दूर से
लोग आए हैं।
करीब-करीब
जमीन के हर
तरफ से लोग
यहां मौजूद
हैं; सिर्फ
चीन और रूस को
छोड़ कर, क्योंकि
वहां से आ
नहीं सकते।
लेकिन मेरे
पड़ोसी भी हैं
यहां पूना में,
वे नहीं आए
हैं। वे समझते
हैं ये सब
पागल हो गए हैं,
इनका दिमाग
खराब हो गया
है। और उनकी
बात में भी
सच्चाई है, उनकी तरफ से
सच्चाई है।
उनको यहां कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता, यहां
धन लुट ही
नहीं रहा है।
धन तो वे कमा
रहे हैं। तुम
तो यहां
बैठे-बैठे
धीरे-धीरे
निर्धन हो
जाओगे।
तुम्हें लग
रहा है कि तुम
धन लूट रहे हो।
तो एक बात
समझो, धन और
"धन' भी तो
देखना पड़ता
है! जिन्हें
बाहर की
वस्तुओं में
धन दिखाई पड़ता
है, उन्हें
भीतर की
वस्तुओं में
धन नहीं दिखाई
पड़ता।
जिन्हें भीतर
की वस्तुओं
में धन दिखाई
पड़ जाता है
उन्हें बाहर
की वस्तुओं
में धन नहीं दिखाई
पड़ता।
बुद्ध
ने अपना
राजमहल छोड़ा तो
उनके सारथी ने, जब उन्हें
छोड़ने गया
जंगल में, उसने
उनके पैर पकड़
लिए। बूढ़ा
सारथी, बचपन
से बुद्ध को
रथ पर घुमाया
किया है। बचपन
से बुद्ध को
बढ़ते हुए देखा
है। उसका भी
बेटे जैसा
लगाव है बुद्ध
से। उसने
बुद्ध के पैर
पकड़ लिए और
कहा कि यह
क्या कर रहे
हो, यह
जंगल में कहां
जा रहे हो? इस
महल को छोड़
कर--इस
संगमरमरी महल
को छोड़ कर! उस सुंदर
यशोधरा को, तुम्हारी
पत्नी को छोड़
कर! उस नए-नए
पैदा हुए बेटे
राहुल को छोड़
कर! अपने बूढ़े
बाप को छोड़ कर!
तुम जा कहां
रहे हो? तुम
बूढ़े बाप के
हाथ की लकड़ी
हो। और यह
सुंदर महल और
यह सारा वैभव!
जंगल में
मिलेगा क्या?
तुम मुझसे
पूछो--मुझ
बूढ़े से पूछो!
मैं जंगलों में
खूब भटका हूं,
वहां कुछ भी
नहीं है। और
दुनिया तो
महलों की तरफ
जाना चाहती
है। तुम्हारा
दिमाग ठीक है?
तुम महल छोड़
कर जा रहे हो!
कौन नहीं जो
राजा न होना
चाहे! और राजा
होना
तुम्हारे हाथ
में है और छोड़
कर जा रहे हो!
वह
बूढ़ा रोने
लगा। उसकी बात
भी तो ठीक है।
उस बूढ़े को
जंगलों में
कुछ भी नहीं
दिखाई पड़ता।
उसे सब महल
में दिखाई
पड़ता है।
गरीब
आदमी का धन
महल में मालूम
होता है। यह
तो कभी किसी
अमीर को समझ
में आता है कि
महल में कुछ
भी नहीं है।
यह तो किसी
अमीर के अनुभव
में बात उतरती
है कि यहां कुछ
भी नहीं, क्योंकि
देख लिया, पाया
नहीं। शोरगुल
तो बहुत है, सार बिल्कुल
नहीं है।
बुद्ध
हंसने लगे।
उन्होंने कहा, तू तेरी तरफ
से ठीक कहता
है, लेकिन
मेरी तरफ से
वहां कुछ भी
नहीं है। वहां
से मैं देख कर
आ रहा हूं। तू
तो बाहर-बाहर
था बूढ़े। तू
तो सारथी ही
था। मैं भीतर
रह कर आ रहा
हूं, वहां
कुछ भी नहीं
है। और
जिन्हें तू
महल कहता है--सुंदर,
आलीशान, वैभव
से भरे, संगमरमर
के--उन्हें
मैं केवल
लपटों से जलता
हुआ देख रहा
हूं। मुझे
जल्दी दूर
निकल जाने दे।
इसके पहले कि
वे मुझे भी खाक
कर दें, क्योंकि
वे बहुतों को
खाक कर चुके
हैं--मेरे पिता
के पिता और
उनके पिता और
उनके पिता, वे सब वहीं
खाक हो गए
हैं--मुझे भाग
जाने दे। वहां
लपटें उठ रही
हैं।
वह
बूढ़ा देखता है
महल की तरफ, वहां कोई
लपट नहीं है।
यह बड़ा
दृष्टियों का
भेद है। और
बुद्ध ने जो कहा
था ठीक ही कहा
था। क्योंकि
जंगल में ही
मिला। जो धन
था, परमधन था, वह एक
दिन बैठकर
जंगल में ही
मिला। वह छः
साल की अथक
खोज के बाद एक
दिन निरंजना
नदी के तट बटवृक्ष
की छाया में
बैठे हुए वह
धन बरसा।
तो एक
अदृश्य धन है।
तभी तक अदृश्य
है जब तक तुम्हारी
आंखें बाहर से
उलझी हैं। उसी
दिन दृश्य हो
जाएगा जिस दिन
तुम्हारी आंख
बाहर से मुक्त
हो गई। दृष्टि
की क्रांति
चाहिए।
तुम
पूछते हो :
पलटू कहते हैं
भागवत-धन की
लूट हो रही है
और "जो चाहे सो
लेय'।
ठीक
कहते
हैं--शत-प्रतिशत
ठीक कहते हैं।
बस चाहना ही
पर्याप्त है
लेने के लिए।
जो चाहै
सो लेय। कोई
रोक नहीं रहा
है।
समाधि
का धन ऐसा है
कि उसे कोई भी
रोक नहीं रहा है।
तुम्हें कोई
बाधा नहीं डाल
रहा है। मगर
बड़ा मजा है।
जिस धन पर बड़ी
बाधाएं हैं, जो तुम्हें
मिलना एकदम
आसान नहीं है,
उस पर तुम
टूटे पड़ रहे
हो और जो मिल
भी गया अगर, तो भी कुछ
मिलेगा नहीं,
उस पर तुम
टूटे पड़ रहे
हो, उस पर
लूट मची है।
और जो धन कोई
भी छीनने को
मालूम नहीं हो
रहा और जो धन
इतना है कि
सभी को मिल जाए,
तो भी न्यून
नहीं होता--उस
धन की तरफ तुम
जा भी नहीं
रहे हो।
तुम सब
भागे जा रहे
हो बाहर की
तरफ। और
तुम्हारा धन
तुम्हारे भीतर
है। तुम्हारा
धन तुम हो।
तुम्हारे
होने में, तुम्हारी
सत्ता में
तुम्हारा धन
है। तुम्हारे
शून्य में, तुम्हारे
मौन में, तुम्हारा
धन है।
तुम्हारे
अस्तित्व में
समाया है धन।
खजाना
ले कर तुम आए
हो। चाबी भी
तुम्हारे पास है।
लेकिन इस चाबी
को तुम कभी
भीतर की तरफ
लगाते नहीं, बाहर की तरफ
लगाते हो। यही
आंखें जो बाहर
की तरफ भाग
रही हैं, दूर
दिशाओं में दौड़ी चली
जा रही हैं, यही आंखें
लौट कर अपने
धन को खोज
लेती हैं। यही
हाथ जो और
सारे संसार को
पकड़ते
फिर रहे हैं, इन्हीं
हाथों में
छिपी ऊर्जा
भीतर की तरफ
लौट कर परम धन
को संभाल लेती
है। लेकिन कोई
रोकता नहीं।
फिर भी तुम
उसके प्यासे
नहीं।
तुम
अभी संसार से
थके नहीं हो।
तुम्हें लगता
है यहां शायद
हो। आज नहीं
मिला, कल
मिले। जितना
मिला है शायद
इतने से
तृप्ति नहीं
हो रही; थोड़ा
और ज्यादा
मिले, तो
तृप्ति हो
जाए।
दस
हजार
तुम्हारे पास
हैं, तो शायद
दस लाख होंगे
तो तृप्ति हो
जाएगी। दस लाख
होंगे तो मन कहेगाः दस करोड़ हो
जाएं तो
तृप्ति हो
जाएगी। और मन
के फैलाव का
कोई अंत नहीं
है। मन आंकड़े
बड़े करता चला
जाता है। तुम
जहां रहोगे
वहीं से मन के
आंकड़े बाहर और
भविष्य की तरफ
विस्तीर्ण हो
जाएंगे। मन क्षितिज
की तरह फैलता
चला जाता है।
मन कभी भी तुम्हें
ऐसा मौका न
देगा कि अब
आगे नहीं है।
मर
गया होता कभी
का आपदाओं की
कठिन मार से।
यदि
नहीं आशा
श्रवण में
नित्य यही
संदेश देती प्यार
से--
घूंट
यह पी लो कि
संकट जा रहा
है
आज
से अच्छा दिवस
कल आ रहा है।
मर गया
होता कभी का
आपदाओं की
कठिनतम मार
से! कभी का यह
मन मर गया
होता, लेकिन
यह मन आशा की
दीया जलाए
रखता है। यह
मन कहता चला
जाता हैः यदि
नहीं आशा
श्रवण में
नित्य यह
संदेह देती
प्यार से! बड़ी
मीठी बातें
कहता है मन।
मन कहता है
फिक्र न करो।
दुर्दिन गए, भले दिन आने
को ही हैं। अब
मत लौट। करीब
आ कर मत लौट
जाओ। अब तो हाथ
में ही है
मंजिल, अब
मत लौट जाओ।
पागल हुए हो? इतनी दूर चल
आए, अब
कहां लौट कर
जाते हो?
घूंट
यह पी लो कि
संकट जा रहा
है
आज
से अच्छा दिवस
कल आ रहा है।
कल कभी
आता नहीं। और
मन कहे चले
जाता हैः "आ रहा
है, आ रहा है!
बस ज़रा ही
दूर है, आया
ही जाता है। ' कल कभी आता
नहीं। कल सदा
दूर ही बना
रहता है। तुम्हारे
बीच और कल के
बीच दूरी
शाश्वत है; सदा उतनी ही
होगी जितनी
सदा से है।
उसमें कभी कोई
कमी नहीं
पड़ेगी। और मन
सदा कल की
बातें करता
रहेगा।
यह जो
मन का धन है, कल में है।
और कल आता
नहीं। और यह
असली धन वह
अभी है, यहीं
है और
तुम्हारे
भीतर और
तुम्हारे साथ
ही आया है।
असली धन खोता
ही नहीं, सिर्फ
विस्मरण होता
है । और नकली
धन कभी मिलता
ही नहीं, सिर्फ
आशा बंधती
है।
तो
पलटू कहते तो
ठीक ही हैं कि
जो चाहे सो
लेय। जिस दिन
चाहोगे, जिस
दिन भी तय कर
लोगे कि बस ऊब
आया, थक
गया, अब और
कल की दौड़
नहीं, अब
और आपाधापी
नहीं, समझ
लिया मन को; मन का गणित
समझ में आ गया
कि यह तो रोज
ही यही कहे
चला जाएगा कि
कल, कल, कल;
इस जन्म में
नहीं, अगले
जन्म में; यहां
नहीं, स्वर्ग
में; यहां
नहीं, कहीं
और! मन सदा
कहता हैः कहीं
और है सुख!
देखो, भिखमंगा सड़क
पर सोचता है
चलते समय किसी
महल में जो
विराजमान है
वहां है सुख।
और महल में जो
बैठा है
परेशान-पीड़ित,
रात भर सो
भी नहीं सका...
महल में नींद
कहां! जिसकी
भूख भी मर गई. . .
महल में भूख
कहां! जो किसी
तरह दवाइयों
के सहारे जीए
जा रहा है, वह
सोचता है
रास्ते पर
चलते भिखारी
को देख कर कि
शायद इस भिखमंगे
की मस्ती में
सुख हो--देखो
किस मजे से
चला जा रहा है
एकतारा बजाता!
देखता है इस भिखमंगे
को रास्ते पर
सोया हुआ धूप
में, घनी
धूप में, और
गुर्राटे
ले रहा है! और
वह अपने महलों
में सुंदरतम
बिस्तर बनाए
हुए है, तो
भी नहीं सो
पाता। नींद
असंभव हो गई
है, चैन
हराम हो गया
है। भिखमंगे
को देखकर, उसकी
चाल को देख कर,
उसकी मस्ती
को देखकर, उसके
निर्द्वंद्व
भाव को देखकर,
अमीर को
लगता है शायद
सब छोड़ देने
में सुख है।
तुम भी
ऐसा सोचते हो, इसलिए तुमसे
कह रहा हूं।
सोचना। तुम
सदा ऐसा सोचते
हो कोई और सुख
पा रहा है।
शहर में
रहनेवाला
सोचता है गांव
में रहने वाले
लोग बड़े सुखी हैं।
गांववाले
से तो पूछो
कभी। गांववाला
लाख कोशिश कर
रहा है कि
कैसे बाहर
पहुंच जाए। बंबइया
सोचता है कि
कैसे गांव
पहुंच जाए और गांववाला
सोचता है कि
कैसे बंबइया
हो जाए। गांववाले
की एक ही आशा
लगी है कभी
बंबई पहुंच
जाए। और बंबईवाला
सोचता रहता है,
कविताएं भी
पढ़ता है। वे बंबइए ही
लिखते हैं। वे
कविताएं भी
बंबई में
रहनेवाले लोग
लिखते
हैं--गांव के
सौंदर्य की, गांव की
प्रकृति की, गांव के निसर्ग
की। गांव-वांव
जाते नहीं वे।
कौन रोक रहा
है तुम्हें
गांव जाने से?
मैं
दिल्ली में था
और एक हिंदी
के बड़े कवि
मुझे मिलने
आए। उन्होंने
एक कविता
सुनाई। गांव की
बड़ी प्रशंसा!
मैंने उनसे
पूछा, कविता
तो ठीक है मगर
एक सवाल पूछूं,
नाराज तो न
होओगे? उन्होंने
कहा कि नहीं।
वे सोचे कि
शायद मैं
कविता के
संबंध में कुछ
पूछ रहा हूं।
मैंने कहा, तुम्हें
रोकता कौन है?
दिल्ली में
तुमसे कह कौन
रहा है कि तुम
रहो? कोई
दिल्ली
तुम्हारे
पीछे पड़ी है? तुम गांव
जाते क्यों
नहीं?
वे तो ज़रा चौंके।
दस-पांच और
लोग बैठे थे, वे ज़रा
बेचैन हो गए।
इसका उत्तर
क्या दें!
. . .रोकता
कौन है
तुम्हें? अभी
निकल जाओ। टिकिट
की दिक्कत है?
तो मैं
जिनके घर में
ठहरा था, मैंने
उनको कहा कि टिकिट का
इंतजाम कर
दें। इनको अब
जाने दें। न
पत्नी है न
बच्चे हैं।
दिल्ली में भी
घर-द्वार नहीं
है; होटल
में रहते हैं।
काहे परेशान
हो? कौन-से
गांव जाना है?
--मैंने
उनसे पूछा।
उन्होंने
कहाः आप
भी खूब हैं!
क्या मुझे भेज
ही देंगे?
"किस गांव की
यह तस्वीर
तुमने उतारी
है?'
कहने
लगे : किसी
गांव की नहीं, यह तो गांव
मात्र की है।
मैंने
कहा : फिर भी तो
कोई गांव. . .? यह कहीं है
जमीन पर, वहां
तुम्हें भेज
दें? और
तुम दुबारा
लौट कर दिल्ली
मत आना ।
उन्होंने
कहाः यह
तो कविता है।
आप भी इसको
बड़ी गंभीरता
से ले रहे
हैं। "मैं तो
समझा कि इतनी
तुमने मेहनत
की है, रात
देर तक जगे
होओगे, कविता
लिखी है, जोड़त्तोड़ किया, शब्द
बनाए, तो
कुछ मतलब की
होगी। कौन रोकता
है?'
लेकिन
ये गांव जाते
नहीं। ये गांव
से ही आए हैं
और इनको
भलीभांति पता
है कि गांव का
सौंदर्य कैसा
है। अभी बरसा
के दिन हैं तो
कीचड़ ही कबाड़
है वहां। और
मच्छर हैं। और
खटमल हैं और
हजार तरह की
बीमारियां
हैं। और
भुखमरी है। और
यह सब प्रकृति
और सौंदर्य, यह सब बकवास
शहर में बैठे
आदमी को सूझ
रही है।
लेकिन
तुम जहां नहीं
हो वहां
सौंदर्य
दिखाई पड़ता है, वहां घट रही
है असली बात।
तुम जहां हो, कुछ
परमात्मा ऐसा
नाराज है कि
वहीं भर नहीं
घटती, और
सब जगह घटती
है।
हर
दूसरे की शक्ल
तुम्हें
हंसती हुई
मालूम पड़ती
है। और तुम भी
भली भांति
जानते हो कि
तुम जब घर से
निकलते हो तो
आईना में
देख-दाख कर, चेहरा बनाबूना
कर तुम भी
मुस्कराते
निकलते हो।
फिर भी तुम्हारी
अक्ल में नहीं
आता कि ऐसे ही
सभी मुस्कराते
निकलते हैं घर
से। यह धोखा
है। कोई मुस्करा
नहीं रहा है।
ये सब रो रहे
हैं। यह भीतर के
आंसुओं को
छिपा लेने की
तरकीब है। यह
आवरण है यह
मुस्कराहट।
क्योंकि रोना ज़रा अभद्र
होगा। और कौन
अपनी
बेइज्जती
करता है! रास्ते
पर खड़े होकर
रोना--कौन
अपनी दीनता
दिखाए! शरमा
रहे हैं अपने
रोने से, तो
मुस्कराहट
पोतकर निकले
हैं। छिपा ली
हैं झुरियां
जीवन की पावडर
में, लाली
में लगा कर।
किसी तरह छुपा
लिए हैं अपनी आंखों
के अंधेरे
सुरमा-काजल
में। किसी तरह
बन-ठन कर बाहर
आ गए हैं।
इनको देख कर
दूसरे मोहेंगे
और सोचेंगेः
गजब, तो यह
आदमी ने पा
लिया मालूम
होता है, यह
आदमी ऐसी
मस्ती से चला
जा रहा है!
इससे तो पूछो!
इसके भीतर तो
झांको। और
इसके भीतर
झांकने की कोई
जरूरत नहीं, तुम अपने
भीतर झांको, तुम भी तो
यही कर रहे हो!
हम
दूसरे को धोखे
देते हैं और
इस कारण सारी
दुनिया हमें
धोखा दे रही
है। तुम जो कर
रहे हो वही
दूसरे लोग भी
कर रहे हैं।
कोई यहां सुखी
नहीं है।
क्योंकि सुख
तो भीतर जाने
से मिलता है।
यहां कोई भीतर
जाता नहीं
मालूम पड़ता है; सब की ऊर्जा
बाहर बही जा
रही है--धन-पद
में, प्रतिष्ठा
में। दिल्ली
चलो! सभी जा
दिल्ली रहे
हैं। किसी तरह
चलो दिल्ली के
करीब ही पहुंच
जाओ; न
पहुंचे
दिल्ली भी तो
कहीं तो
रास्ते में
करीब पहुंच गए;
जितने करीब
पहुंच गए उतना
ही सुख मिल
जाएगा।
अपने
भीतर आने से
कोई सुख को
उपलब्ध होता
है। तब चेहरों
पर मुस्कराहट पोतनी
नहीं पड़ती। तब
एक दीप्ति
होती है--सहज, भीतर से
उठती। तब एक
शांति होती है,
जिसके लिए
कोई आयोजन
नहीं करना
होता। जागो,
तो रहती है;
सो जाओ, तो
रहती है। उठो
तो रहती है, बैठो तो
रहती है। बोलो
तो, चुप
रहो तो। तब एक
आनंद की लहर
चौबीस घंटे
बनी रहती
है--जिसको
पलटू ने कहा
कि आठों पहर
तूरा बजता है।
वह बजता ही
रहता है भीतर
का संगीत। उसे
बजाना थोड़े ही
पड़ता है। वह
बज ही रहा है।
वह तुम्हारे
भीतर इस क्षण
भी बज रहा है ।
लूट सके तो
लूट।
मगर
लूटने में
बाधा क्या है? कोई बाधा
नहीं--सिवाय
इसके कि तुम
भीतर जाते नहीं;
तुम बाहर
भागे जा रहे
हो। तुम अपने
से कोसों दूर
खड़े हो। तुम
अपने से ऐसे
भागे हो जैसे
कोई अपने
दुश्मन से भाग
गया हो। तुम
अपने से ऐसे
भागे हो जैसे
कोई मौत से
भाग गया हो।
तुम अपने पास
ही नहीं आते।
तुम दूर-दूर
चक्कर मार रहे
हो। तुम चांदत्तारों
पर घूम रहे हो,
लेकिन कभी
घर नहीं
लौटते।
तुम्हारा घर,
तुम्हारे
घर का मार्ग
जन्मों-जन्मों
से न चलने के
कारण तुम्हें
बिल्कुल
अपरिचित हो
गया है। इसलिए
कोई गुरु
चाहिए कि जो
तुम्हें घर के
मार्ग को फिर
से याद दिला
दे।
सारा
धर्म घर वापस
लौट आने की
यात्रा है। यह
पुनः वापसी
है। महावीर ने
इसको
प्रतिक्रमण
कहा है।
आक्रमण तुम कर
रहे हो अभी।
आक्रमण का अर्थ
हैः वहां है
सुख, जाऊंगा,
कब्जा कर
लूंगा।
प्रतिक्रमण
का अर्थ है
लौट आना--वापस
लौट आना। वहां
नहीं है सुख, यहां है
सुख। मैं हूं
सुख, अपने
में लौट आऊंगा।
पलटू
कहते हैं, इतनी ही भर
जरूरत है कि
तुम चाहो। और
चाह कैसे पैदा
हो? चाह
तभी पैदा होगी
जब तुम अपनी
बाहर चाह की
घनीभूत पीड़ा
को देखा। तुम
क्या कर रहे
हो?
जैसे
ही बाहर की
असलियत
तुम्हें
दिखाई पड़ने लगेगी...
और कोई कारण
नहीं है कि
क्यों दिखाई न
पड़े। तुम
देखना नहीं
चाहते, देखते
नहीं, देखने
से बचते हो।
प्रत्येक
अनिश्चय से
कुछ नष्ट होता
हूं
प्रत्येक
निषेध से कुछ
खाली
प्रत्येक
नए परिचय के
बाद दूना
अपरिचित
प्रत्येक
इच्छा के बाद
नयी तरह से
पीड़ित
हर
अनिर्दिष्ट
चरण
निर्दिष्ट के समीपतर
पड़ता है
हर
आसक्ति के बाद
मन उदासियों
से घिरता है।
जागो और
ज़रा
देखो।
हर
अनुरक्ति
मुझे कुछ इस
तरह बिता जाती
है।
मानो
फिर जीने के
लिए कोई
भविष्य नहीं
बचता है।
कितनी
बार तुमने वे
ही सुख जाने, जिनको तुम
अभी भी चाहने
की आकांक्षा
से भरे हो! फिर
मिला क्या? थोड़ा परखो!
थोड़ा कसो!
एक
स्त्री के, सुंदर
स्त्री के
प्रेम में पड़
गए थे कि
सुंदर पुरुष
के प्रेम में
पड़ गए। फिर
मिल गई सुंदर
स्त्री, फिर
क्या हुआ? एक
बार लौट कर
देखो, विश्लेषण
करो। फिर हुआ
क्या? कहां
खो गया
सौंदर्य? कहां
खो गई सुंदर
स्त्री? कहां
खो गया प्रेम?
हाथ में राख
रह गई, अंगार
भी तो नहीं।
और अब फिर तुम
योजना बना रहे
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी मर
गई, तो उसके
एक मित्र ने
तीन-चार दिन
बाद पूछा कि मुल्ला
बहुत दुःखी
मालूम पड़ते
हो। तुम्हारे
दुःख को देखकर
तो ऐसा लगता
है कि अब तुम
दुबारा विवाह
नहीं करोगे।
मुल्ला
ने कहाः
क्षमा करें।
मेरे जीवनभर
का अनुभव यह
है कि अनुभव
पर सदा आशा की
विजय हो जाती
है।
अनुभव
पर आशा की
विजय! मित्र
ठीक ही कर रहा
था, लेकिन
मुल्ला जीवन
का एक गहरा
अनुभव बता रहा
है। वह कह रहा
है कि अनुभव
पर आशा की
विजय हो जाती
है। इस पत्नी
के साथ सिवाय
दुःख के और कुछ
भी नहीं
जाना--तुम
जानते, मैं
भी जानता।
लेकिन पता
नहीं किसी
दूसरी स्त्री
के साथ सुख
मिलना बदा हो!
अनुभव
पर आशा की
विजय है। और
ऐसा भी नहीं
है कि एकाध
बार ऐसा हुआ
हो। हर बार
ऐसा हुआ तुम
अनुरक्त थे एक
भवन में, एक
मकान के खरीद
लेने में; फिर
तुमने बड़ी
मेहनत की, वर्षों
श्रम उठाया, धन कमाया, चोरी-चपाटी
बेईमानी की, धोखाधड़ी की, सब
जाल-साजियां
कीं, किसी
तरह उस मकान
को पाने में
समर्थ हो
गए--फिर क्या
हुआ? मिला
सुख? पहुंचे
किसी आनंद में?
कोई मग्नता
बरसी? कोई
फूल खिले? फिर
खाली के खाली,
फिर राख के
राख। फिर
सोचने लगे कि
कोई दूसरा मकान।
ऐसे तुम जीवन
के हर अनुभव
से गुजरे हो, बहुत बार
गुजरे हो; लेकिन
तुम अनुभव से
सीखते ही
नहीं। अनुभव
पर आशा की
विजय हो जाती
है।
अगर
अनुभव से सीखो
तो यह तुम्हें
दिखाई पड़ेगाः
प्रत्येक
अनिश्चय से
कुछ नष्ट होता
हूं।
प्रत्येक
निषेध से कुछ
खाली
प्रत्येक
नए परिचय के
बाद दूना
अपरिचित।
तुम
अपनी पत्नी से
अपरिचित हो गए
हो या नहीं, यह मुझे सोच
कर कहो। सोचना
अपने भीतर।
परिचय बनाने
चले थ, सोचा
था कि विवाह
करके इससे
परिचित हो
जाएंगे। मगर
परिचय हुआ? तीसत्तीस साल तक लोग
पति-पत्नी की
तरह रहे हैं
और अपरिचित और
ज़रा भी
एक-दूसरे को
पहचानते नहीं
और ज़रा भी
दोनों के बीच
सामंजस्य
नहीं उठ सका
है, संगीत
नहीं उठ सका
है। दोनों के सुरताल
मिले
नहीं--परिचय
कहां? जितने
दिन साथ रहोगे
उतने अपरिचित
हो जाते हो।
प्रत्येक
निषेध से कुछ
खाली
प्रत्येक
नए परिचय के
बाद दूना
अपरिचित
प्रत्येक
इच्छा के बाद
नई तरह से
पीड़ित।
देखा
नहीं, कितनी
इच्छाएं तुम
भर लेते हो!
भरते ही नहीं,
पीड़ा शुरू
हो जाती है।
इधर पुरानी
इच्छा पूरी नहीं
हुई कि नई
इच्छाओं के
अंकुर निकल
आते हैं। यह
होता ही
रहेगा। और यह
होता ही रहा
है। इसी को हम
आवागमन का
चक्र कहते
हैं। इसी को
हम कहते हैं
चौरासी करोड़
योनियों में
भटकना।
हर
अनिर्दिष्ट
चरण
निर्दिष्ट के समीपतर
पड़ता है।
हर
आसक्ति के बाद
मन उदासियों
से घिरता है।
कितनी
बार प्रेम में
पड़े, कितनी
बार हाथ खाली
के खाली रहे!
कितनी बार
समझा कि हीरा
है और जब
उठाया तो
पत्थर पाया।
मगर अब भी जब
चमकदार पत्थर
दिखाई पड़ेगा,
फिर तुम
हीरे का भ्रम
खा लोगे।
तुमने भ्रम
खाने की जिद्द
ही कर रखी है।
तो फिर
तुम्हें पलटू
का धन दिखाई न
पड़ेगा।
तुम्हें
जो धन मालूम
होता है, जब
तक वह तुम्हें
कूड़ा-कर्कट
न दिखाई पड़े, तब तक पलटू
का धन न दिखाई
पड़ेगा। ये
दोनों धन एक
साथ दिखाई
नहीं पड़ सकते।
अगर तुम्हें
दुनिया में धन
दिखाई पड़ रहा
है तो आत्मा
में धन नहीं दिखाई
पड़ेगा।
दुनिया की
भाषा का धन
आत्मा के धन
से बिल्कुल
विपरीत है। और
जिस दिन
तुम्हें दुनिया
में कोई धन न
दिखाई पड़ेगा,
उस दिन देर
नहीं है फिर।
फिर एक क्षण
में लौटना हो
जाता है।
तुम्हें भीतर
का धन दिखाई
पड़ने लगेगा।
हर
अनुरक्ति
मुझे कुछ इस
तरह बिता जाती
है
मानो
फिर जीने के
लिए कोई
भविष्य नहीं
बचता है।
लेकिन
फिर उमग आता
है। फिर
निर्मित हो
जाता है। ज़रा
देर के लिए
तुम उदास हो
जाते हो, ज़रा देर के लिए
थक जाते हो।
रात सो लेते
हो, सुबह
फिर उमंग से
भर जाते हो।
फिर दौड़-धूप, फिर संसार।
फिर फैलाव, फिर कल्पना
के जाल। अगर
तुमने जीवन के
सारे दुःखों
को ठीक-ठीक
देखा तो उनका
इकट्ठा
परिणाम यह होता
है कि संसार दुःख
है। यह बात
जितनी सघन हो
कर तुम्हारे
प्राण पर खुद
जाती है, अंकित
हो जाती है, उतनी ही
जल्दी पलटू की
बात तुम्हें
समझ में आ जाएगी।
कुछ
इस कदर है गमे-जिंदगी
से दिल मानूस
खिजां गई
तो बहारों में
भी नहीं लगता।
अगर
सच में तुम
जिंदगी के दुःखों
को समझ लो
अगर तुम्हारा
दिल जीवन के
सारे दुःखों
से इस भांति
जागरूक हो जाए, देख ले, ठीक-ठीक
देख ले, पहचान
ले, सब
पर्दे उघाड़ कर
पहचान ले कि
कहीं कोई सुख
नहीं है. . .
कुछ
इस कदर है गमे-जिंदगी
से दिल मानूस
खिजां गई
तो बहारों में
भी जी नहीं
लगता।
--फिर
तो पतझड़
चले जाने की
तो बात ही छोड़ो,
जब बहार भी
आ जाएगी तो भी
जी नहीं
लगेगा। अभी तो
तुम्हें जहां
कोई सुख नहीं
है वहां भी
सुख मालूम
होता है। अभी
तो दुःख में
भी सुख का
भ्रम होता है।
फिर असली सुख
भी सामने खड़ा
हो जाए संसार
का, तो भी
तुम्हें दुःख
दिखाई देगा।
क्योंकि अब
तुम जानते हो,
ये सब धोखे
हैं। संसार ने
बहुत बार धोखा
दिया है। यह
भ्रामक जाल
है। यह
मृग-मरीचिका
है।
ऐसा
तुम्हें
दिखाई पड़े और
कोई कारण नहीं
कि क्यों न
दिखाई पड़े।
अगर तुम देखना
चाहो तो अभी दिखाई
पड़े, यहीं
दिखाई पड़े।
मैं कुछ ऐसी
बात नहीं कह
रहा हूं कि
तुम सोचना कल,
विचारना, देखना। तुम
जीए हो, काफी
जी लिए हो। सब
अनुभव दोहर
चुके हैं।
अनुभव कितने
थोड़े हैं। ज़रा
सोचो तो!
दो-चार बातें,
आदमी
दोहराता रहता
है। वही क्रोध,
कितनी बार
कर चुके , हजार
बार कर चुके
लाख बार कर
चुके--अब कब
तुम्हें
अनुभव होगा? वही राग, कितनी
बार कर चुके, वही मोह, वहीर्
ईष्या, वही
मत्सर, वही
अहंकार।
मामला तो कुछ इनागिना, उंगलियों पर
गिना जा सके, इतना है; कुछ
बड़े गणित की
जरूरत नहीं
है। उसी-उसी
को हम दोहराते
रहते हैं।
एक
महीने की
डायरी तो रखो, तीस दिन की
डायरी रखो--और
तुम पाओगे
तुमने करीब-करीब
सब दोहरा लिया
जो जिंदगी में
दोहरता
है। दुःखी हुए,
नाराज हुए,
परेशान हुए,
पीड़ित हुए,
अपमानित
हुए, दंभ
घिरा, मोह
पकड़ा, राग
में पड़े, सब
हो गया। एक
महीने में सब
दोहर जाएगा।
फिर तो नया
करने को और
क्या बचा? फिर
इसी को तुम
कितनी ही बार
दोहराते रहो,
फिर तुम
ग्रामोफोन के
एक टूटे हुए
रिकार्ड हो
जाओगे। फिर
वही-वही लकीर दोहरती
रहेगी, दोहरती रहेगी।
पुनरुक्ति
है जीवन।
इसलिए तो हमने
चाक से उसकी
उपमा दी है।
इस देश ने
जीवन को अगर चका कहा है, चक्र कहा है,
तो इसीलिए
कि चाक घूमता
रहता है।
पुनरुक्ति है।
वही, फिर
वही, फिर
वही। नया क्या
है? नया
कहां है? कुछ
भी नया नहीं
है। फिर तुम
कैसे इसे पकड़े
हो? तुम
देखते ही
नहीं। तुम
अनुभव से कुछ निचोड़ते
नहीं। अनुभव
के निचोड़
का नाम बोध
है।
तुमने
महाभारत की
प्रसिद्ध कथा
सुनी है। पांडव
जंगल में भटक
गए हैं। पानी
नहीं मिला है।
एक झील पर
खोजने गए हैं।
पहला भाई गया।
लेकिन झील पर
झुकता ही था
पानी भरने को
कि यक्ष ने
वृक्ष से आवाज
दी कि रुक, पहले मेरे
प्रश्न का
उत्तर दे। अगर
मेरे प्रश्न
का उत्तर बिना
दिए तूने पानी
भरने की कोशिश
की तो यहीं
गिर पड़ेगा और
मर जाएगा।
"क्या प्रश्न
है?'
और उस
यक्ष ने कहा
कि अगर मेरे
प्रश्न का गलत
उत्तर दिया तो
भी पानी न भर
सकेगा; नहीं
तो मर जाएगा।
ठीक उत्तर
देगा, तो
ही पानी भर
सकेगा। यह
मेरे जीवन-मरण
का प्रश्न है,
उस यक्ष ने
कहा। मैं तब
तक इसी वृक्ष
पर कैद रहूंगा,
जब तक मुझे
ठीक उत्तर
नहीं मिल
जाता। इसलिए
मैं किसी को
पानी भी नहीं
पीने दूंगा, जब तक मुझे
ठीक उत्तर कोई
दे न दे। नहीं
तो मेरी
जिंदगी यही
बंधी है।
जन्मों से मैं
यहीं अटका
हूं।
"क्या प्रश्न
है?'-- पूछो।
फिर
उसने कई
प्रश्न पूछे।
उनमें पहला
प्रश्न बड़ा
अद्भुत
है--बड़ा
सीधा-सरल और
बड़ा कठिन भी।
पहला प्रश्न
यही कि आदमी
के संबंध में
सबसे ज्यादा
आश्चर्य की
बात क्या है? कुछ उत्तर
दिया होगा, वह सही
उत्तर नहीं
था। फिर भी
पानी भरने की
कोशिश की तो
पहला भाई
मुर्दा हो कर
गिर पड़ा। ऐसे चार
भाई आए और
मुर्दा हो कर
गिर पड़े। एक
के बाद एक।
फिर
युधिष्ठिर
अंत में आए।
चारों भाई गए
और लौटे नहीं
और सांझ हुई
जाती है, क्या
हुआ! पहुंचे
तो उस यक्ष ने
फिर कहा कि
चारों की
लाशें पड़ी
हैं। उस यक्ष
ने कहा, मेरे
प्रश्नों का
उत्तर चाहिए।
युधिष्ठिर
ने जो उत्तर
दिया है, वह
सीधा-सरल
उत्तर है। यही
तो सारे संत
सदा कहते रहे
हैं, फिर
भी तुमने सुना
नहीं है।
युधिष्ठिर ने
कहा, आदमी
के संबंध में
सबसे आश्चर्य
की यही बात है
कि वह अनुभव
से सीखता नहीं
है। उत्तर सही
था। यक्ष
मुक्त हो गया।
युधिष्ठिर ने
पानी भर लिया।
युधिष्ठिर ने
प्रार्थना की,
मेरे
भाइयों को भी
जिला दे। वे
भाई भी जिला
दिए गए। यक्ष
प्रसन्न था, क्योंकि वह
वृक्ष में
बंधा था, आबद्ध,
कीला गया था,
ठोका गया था। वह
मुक्त हो गया।
यह
छोटा-सा पाठ!
तुम सोचते हो
अगर तुम पानी
भरने गए होते
उस झील पर, तो जिंदा
लौट सकते थे? तुम यह
उत्तर देते? यह उत्तर
तुम्हारे
जीवन से उठता?
नहीं उठता।
तो तुम भी उसी मूढ़ता में
पड़े हो जिसमें
सारे लोग पड़े
हैं। अनुभव
सभी को होते
हैं। जो
अनुभवों को निचोड़-निचोड़
कर इत्र बना
लेता है, हर
अनुभव से इत्र
निचोड़
लेता है. . .।
खयाल
करना, फूल
हैं। तुम
फूलों को
इकट्ठा न कर
सकोगे। फूल तो
आए और गए।
सुबह थे, सांझ
न रहे। अभी
हैं, अभी
कुम्हला
जाएंगे।
फूलों को कोई
संभाल कर नहीं
रख सकता।
तिजोरी में
बंद भी कर
लोगे, तो सड़
जाएंगे। राख
रह जाएगी कुछ
दिन बाद।
सुगंध तो नहीं
बचेगी, दुर्गंध
हो सकती है।
लेकिन फूलों
को बचाने का एक
उपाय हैः इत्र
निचोड़
लो। उनका सार निचोड़ लो।
उनकी गंध निचोड़
लो। फूल तो मर
जाएंगे, लेकिन
इत्र सदियों
तक रह सकता
है। इत्र
शाश्वत हो
सकता है।
ऐसे ही
अनुभव के फूल
हैं। आज क्रोध
किया, यह एक
फूल है। इसमें
से निचोड़
लो--कुछ बोध, कुछ काम की
बात है, कुछ
सार की बात।
इसको ऐसे ही
मत जाने दो।
आज प्रेम किया,
इसमें से निचोड़ लो
कुछ काम की
बात--एक फूल
खिला। आज
अपमानित हुए,
नाराज हो गए,
मूर्छित हो
गए, अनाप-शनाप
बकने लगे, अनर्गल
व्यवहार किया,
विक्षिप्तता
प्रकट की। ये
फूल हैं, निचोड़
लो कुछ। ऐसे
रोज-रोज हर
अनुभव के फूल
से अगर निचोड़ते
गए तो बोध का
इत्र इकट्ठा
होता है--तो
बुद्धिमान
होता है आदमी।
बुद्धिमान
आदमी
शास्त्रों से
नहीं होता। बुद्धिमानी
जीवन के
शास्त्र को
अनुभव करने से
आती है। और
सबको यह
शास्त्र मिला
है। यह जीवन
सबके पास एक
जैसा है--
गरीब
के पास, अमीर
के पास; ग्रामीण
के पास, शहरी
के पास; पढ़े-लिखे के पास,
गैर-पढ़े
लिखे के पास।
सबके पास
एक-सा जीवन है,
क्योंकि
जीवन के अनुभव
एक-से हैं। पर
बहुत
थोड़े-से-लोग
इसमें से इत्र
निचोड़ते
हैं। जो इत्र निचोड़ते
हैं उनको पलटू
की बात जंच
जाएगी, समझ
में आ जाएगी।
इत्र निचोड़-निचोड़
कर तुम पाओगे
कि बाहर के
जीवन के किसी
अनुभव में कोई
सुख नहीं है।
दुःख ही दुःख
है। खालिस दुःख
है।
इसलिए
बुद्ध ने कहा
हैः जन्म दुःख
है, जरा दुःख
है, मृत्यु
दुःख है, जीवन
की पूरी कथा
दुःख है। जीवन
में दुःख छिपा
है। ऊपर-ऊपर
सुख के आभूषण
हैं, भीतर-भीतर
दुःख के घाव
हैं। ऊपर-ऊपर
सुख के अंदर
वस्त्र हैं, भीतर-भीतर
बड़ी अंधेरी
रात है। जिस
दिन ऐसा दिखाई
पड़ जाता है कि
बाहर दुःख
मात्र है, जिस
दिन ऐसी
प्रतीति होती
है कि बाहर
दुःख मात्र
है--फिर कहां
जाओगे? फिर
तो बाहर जाने
को कोई जगह न
रही। फिर तो
एक ही जगह
बची--भीतर ही
जा सकते हो।
पलटू
ने कल कहा न कि
दसवें द्वार
पर बैठा हूं। नौ
द्वार--आंख, कान, नाक,
मुंह, जननेंद्रियां,
ये सब नौ
छेद हैं आदमी
के शरीर में।
तुम्हारे
सारे तथाकथित
सुख इन्हीं नौ
छेदों से भीतर
आते हैं।
सुगंध आती है
नाक से। संगीत
आता है कान
से। सौंदर्य
आता आंख से।
ऐसा. . .। और
इन्हीं नौ
छिद्रों से
तुम जग में
जाते हो, बाहर
जाते हो। एक
सुंदर स्त्री
को देखा, चले
बाहर। आंख से
ही देखा। दूर
जाते देखा।
लेकिन तुम चल
पड़े उसके
पीछे। फिर तुम
अपनी पत्नी के
साथ चल रहे हो,
लेकिन हो
नहीं वहां।
पत्नी
तत्क्षण
पहचान लेती है
कि आप चल पड़े, आप कहीं
निकल गए दूर।
पत्नियों को
धोखा देना भी
मुश्किल है।
पत्नी जानती
है; वह
पूछने लगती है
कि कहां चले
गए, क्या
मामला है? तुम
यहां नहीं
मालूम होते।
और ऐसा भी
नहीं है कि
तुम आंख बचाओ
तो बच सकते
हो। तुम आंख
बचाओ तो भी
चले गए। आंख
बचाने का मतलब
ही यह हैः एक
स्त्री सुंदर
जाती थी, तुमने
नहीं देखने की
कोशिश की, मगर
अब इससे क्या
होता है; नहीं
देखने की
कोशिश में ही
चले गए। भीतर
तो रूप उठ
आया। आंख से
तुम बाहर बह
गए।
ये नौ
छेद हैं। और
एक दसवां छेद
है। "दशम
द्वार' उसको
ज्ञानियों ने
कहा है। वह
दसवां छेद
भीतर की तरफ
जाता है; नौ
छेद बाहर की
तरफ। संसार के
पक्ष में तो
नौ मार्ग हैं।
इसलिए लोग
संसार में
सुगमता से चलते
हैं। रास्तों
पर रास्ते हैं;
यह चूके तो
दूसरा है, दूसरा
चूके तो
तीसरा। यहां
कई पटरियां
इकट्ठी दौड़ती
हैं। यहां नौ
पटरियां
इकट्ठी दौड़
रही हैं। इस
ट्रेन में न
मिले जगह तो
दूसरी में मिल
जाती है। कहीं
न कहीं मिल
जाती है। लोग
दौड़ते रहते
हैं। कोई
संगीत का
दीवाना है, कोई रूप का
दीवाना है, कोई काम का
दीवाना है, कोई धन का
दीवाना--दीवाने
ही दीवाने
हैं। और हरेक
ने अपनी-अपनी
पटरी पकड़ ली
है।
भीतर
जाने का मार्ग
सिर्फ एक
है--एक मात्र
है। उसे ध्यान
कहो, भक्ति
कहो या जो भी
नाम दे लो।
होश भीतर जाने
का मार्ग है।
सुरति। वह एक
ही है। नौ
मार्गों से
जाओगे तो तीनत्तेरह
हो जाओगे। हो
ही जाओगे, क्योंकि
नौ मार्गों पर
भागना पड़ेगा।
बिखर जाओगे, खंड-खंड में
टूट जाओगे। एक
हिस्सा इस
पटरी पर दौड़ेगा,
दूसरा
हिस्सा दूसरी
पटरी पर दौड़ेगा।
एक हाथ एक
ट्रेन में चढ़
गया, एक
पैर दूसरी
ट्रेन में चढ़
गया। ऐसी हालत
है आदमी
की--खंड-खंड, टुकड़े-टुकड़े,
अंग-अंग!
तुम पूरे-पूरे
एक ट्रेन में
भी कहां बैठे
हो! क्योंकि
जो धन की
ट्रेन में
बैठा है, वह
पद की ट्रेन
में भी बैठा
है। वह सोचता
हैः धन कमाकर चुनाव
में लड़ लेंगे।
जो पद की
ट्रेन में
बैठा है, वह
सोचता हैः एक
दफा दिल्ली
पहुंच जाएं तो
सारी सुंदर
स्त्रियों को
इकट्ठा कर
लेंगे। फिर क्या
अड़चन है?फिर
कौन रोकने
वाला है?
तुम एक
ही ट्रेन में
भी नहीं हो, क्योंकि
बाहर
जानेवाली
यात्रा एक ही
ट्रेन में हो
भी नहीं सकती
है। यहां इतनी
ट्रेनें जा
रही हैं; तुम
कैसे चूको!
सभी को भोग
लेना चाहते
हो। तो आंख
कहीं चढ़ गई, कान कहीं चढ़
गए, हृदय
कहीं बैठा, सिर कहीं
बैठा, एक
पैर कहीं, एक
अंग कहीं--ऐसे
तुम खंड-खंड
हो गए। ऐसे
आदमी बिखर
जाता है, छितर
जाता है टुकड़ों-टुकड़ों
में। यही तो
संताप है। यही
तो चिंता है।
इनमें
द्वंद्व हो
जाता है। एक
पूर्व जा रहा
है, एक
दक्षिण जा रहा
है। अनेक घोड़ों
पर सवार हो गए,
अब फांसी
लगी। अब बड़ी
अड़चन होती है।
क्योंकि तुम
एक हो और तुम
अनेक घोड़ों
पर कैसे सवार
हो सकोगे? क्योंकि
होओगे तो झंझट
में पड़ोगे। टूटोगे।
विक्षिप्तता
आएगी।
जितनी
मनुष्य की
वासनाएं बढ़ती
जाती हैं उतनी
ही
विक्षिप्तता
आती जाती है, उतना जीवन
का संगीत
शून्य हो जाता
है; बेसुरापन
हो जाता है; भीतर की तालबद्धता
टूट जाती है।
वह एकतारा फिर
नहीं बजता। वह
एकतारा है।
फकीर के हाथ
में तुमने
एकतारा देखा न,
वह बहुत तारोंवाली
वीणा नहीं
बजाता। बहुत तारोंवाली
वीणा तो संसार
में ले जाती
है। फकीर तो
एकतारा बजाता
है। उसमें एक
तार है। वह
दशम द्वार की खबर
देता है। वह
तो एक को ही
याद करता है।
वह बहुत से
प्रेम नहीं
करता; वह
एक को प्रेम
करता है।
इसलिए
पलटू ने कहा :
पतिव्रता!
भक्त तो
पतिव्रता
होता है। उसने
तो एक को पकड़
लिया। उसने
सबको छोड़
दिया। और एक
साधे, सब
साधे; सब
साधे, सब
जाए।
संसार
में जानेवाला
आदमी
धीरे-धीरे सब
खो देता है।
स्वयं में
जानेवाला सब
पा लेता है।
तुम अपनी हालत
देखो। मैं जो
कह रहा हूं, केवल तथ्य
की बात कह रहा
हूं। न तो यह
कोई काव्य है,
न यह कोई
दर्शनशास्त्र
है। यहां
सिद्धांतों में
कोई रस ही
नहीं है। मैं
तुम्हें कोई
शास्त्र नहीं
समझा रहा हूं।
मैं तुम्हें
सिर्फ इतना कह
रहा हूं: ज़रा
अपने जीवन के
पन्नों को गौर
से पलट कर
देखो। मैं
तुम्हें गीता
पढ़ने की सलाह
नहीं देता, न वेद पढ़ने
की, न
कुरान पढ़ने
की। वह तुम
समझोगे नहीं।
जिसने जीवन के
जीवंत
शास्त्र को न
समझा वह कैसे
वेद पढ़े, कैसे कुरान पढ़े? जो
जीवन की अपनी
कहानी को भी
नहीं निचोड? रहा है, वह
मुहम्मद के
वचनों से क्या
पाएगा? वह
कृष्ण के
वचनों से क्या
पाएगा? जीवंत
परमात्मा
तुम्हें
चारों तरफ से
घेरे खड़ा है और
उसकी तुम्हें
याद नहीं आ
रही; तुम
मुर्दा
किताबों में
उसे कैसे खोज
पाओगे? हां,
यहां खोज लो
तो वहां भी
मिल जाएगा।
इसलिए
मैं कहता हूं:
जीवन में पहले
पढ़ लो तो फिर
वेद पढ़ लेना।
फिर बुद्ध की
वाणी पढ़ लेना।
फिर जिन-वाणी पढ़
लेना। वहां भी
पा लोगे। यहां
जो मिल गया तो वहां
तो मिल ही
जाएगा। यहां न
मिला तो कहीं
भी नहीं मिल
सकता है। मैं
तुम्हें केवल
इस तथ्य के
प्रति जागने
को कहता हूं।
और तुम्हारे
पास तथ्य है।
और तुम्हारे
पास जागने की
क्षमता भी है।
होश भी है
तुम्हारे पास
और तथ्यों का
जमाव भी है।
अब क्यों बैठे
हो? निचोड़ क्यों नहीं
लेते? थोड़ा
इत्र निचोड़ो।
इसलिए
कोई रुकावट
नहीं है, फिर
भी करोड़ों में
कोई एकाध इस
ढंग का धनी हो
पाता है। होना
चाहिए सभी को।
होने के हकदार
हैं सभी। सभी
की मालकियत है
यह। यह
जन्मसिद्ध
अधिकार है।
नहीं-नहीं, ठीक होगा कहनाः
स्वरूप-सिद्ध
अधिकार है।
सबका अधिकार
है। यह सबकी
मालकियत है।
फिर भी
तुम्हारी
मर्जी। तुम
इतने मालिक हो
कि गुलाम बने
रहना चाहो तो
बने रह सकते
हो। तुम इतने
स्वतंत्र हो
कि तुम गुलाम
रहने को भी
स्वतंत्र हो
तुम्हारी
स्वतंत्रता
असीम है।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
पूर्ण है। तुम
चाहो तो
भटकने
के लिए भी
स्वतंत्र
हो। यह
तुम्हारे हाथ में
है। जब तक तुम
भटकना चाहो
भटकते रहोगे।
जिस दिन तुम
तय करोगे लौट
चलना है, लौट
आओगे।
बुद्ध
एक नदी के
किनारे से
गुजरते हैं।
कुछ बच्चे खेल
रहे हैं।
उन्होंने रेत
के घर बनाए
हैं। और वे लड़
रहे हैं आपस
में। कोई कहता
है, मेरा है।
वह कहता है, यह तेरा है, दूर रख; अपने
मकान को मेरे
मकान के करीब
मत ला। उन्होंने
अपने-अपने रेत
के मकान के
चारों तरफ
रेखाएं खींच
रखी हैं कि यह
मेरा आंगन, यह मेरा
बगीचा, यह
मेरी सीमा है;
इस सीमा के
भीतर कोई न
आए। उन्होंने
अपने-अपने नाम
लिख रखे हैं
अपनी-अपनी सीमा
के सामने, अपनी-अपनी
तख्तियां लगा
रखी हैं। और
फिर भी बच्चे
तो हैं ही, कभी
भूल से किसी
का पैर किसी
के मकान में
लग गया। और
रेत के मकान
हैं, वे
गिर जाते हैं।
वे गिर गए तो
मारपीट हो
जाती है। एक
बच्चे का पैर
किसी के मकान
पर पड़ गया तो
वह बच्चा उसकी
छाती पर चढ़ बैठा
और उसने बाकी
को भी कहा कि भाइयो तुम
भी आओ, इसको
दुरुस्त करो,
इसको राह पर
लगाओ। बाकी भी
आ गए। न्याय
का सवाल है।
दूसरे के मकान
पर कब्जा कर
लिया है। दूसरे
का मकान गिरा
दिया है! और
उनको भी तो
अपने मकान
बचाने हैं, ऐसे आदमी के
खिलाफ भी तो
लड़ना ही
पड़ेगा। उन सबने
मिल कर उसकी
खूब मरम्मत
की।
यही तो
हम करते हैं।
कोई चोर
तुम्हारे घर
में घुस गया
तो तुम थोड़े
ही अकेले लड़ोगे, पड़ोसी भी आ
जाते हैं।
क्योंकि उनको
भी अपनी तिजोड़ियां
बचानी हैं।
कोई तुम्हारी
ही तिजोड़ी
का थोड़े ही सवाल
है। कोई ऐसे
चोर अगर चोरी
करने लगे तो
कल उनकी भी तिजोड़ियों
को खतरा है।
कल के खतरे को
देखकर वे आज
इसकी अच्छी
मरम्मत कर
देते हैं।
किसी का जेब
कट जाए तो
जिन-जिन के
पास जेब है, वे सब जेबकतरे
को पकड़ने
में संलग्न हो
जाते हैं, क्योंकि
यह संभावित
खतरा उनके लिए
भी है।
उन सब
बच्चों ने
मिलकर उसकी
खूब कुटाई की।
दंड दिया।. . .
यही तो
तुम्हारी
अपराध और
तुम्हारी दंड
की व्यवस्था
है। तुम्हारे
कानून, तुम्हारी
अदालतें क्या
हैं? तुम्हारे
नियम, तुम्हारे
मजिस्ट्रेट, तुम्हारी
पुलिस क्या है?
जिन-जिन को
खतरा है, . . .।
ऐसे दिनभर खेल
चलता रहा। फिर
सांझ हो गई।
किसी ने आकर, नौकर ने आकर,
नदी के
किनारे जोर से
आवाज दी कि
बच्चो, घर
चलो, तुम्हारी
माताएं
तुम्हारी राह
देख रही हैं। अब
सूरज भी ढल
गया है।
बच्चों ने
देखा कि हां सूरज
ढल गया है। वे
तो खेल में
तल्लीन हो गए
थे और भूल ही
गए थे कि दिन
अब जा चुका, अब घर लौटने
का वक्त आ
गया।
और तब
क्या हुआ, पता है? बुद्ध
खड़े देख रहे
थे, वे
देखते रहे।
ऐसे जीवन को
देखना चाहिए
सब अंगों में,
सब
दृष्टियों
से। हर अनुभव
से कुछ मिलता
है। बुद्ध खड़े
देखते रहे। वे
चुपचाप सुनते
रहे क्या हो
रहा है। वे
बच्चे जो लड़ते
थे, एक-दूसरे
से कहते थे मेरात्तेरा,
अपने-अपने
मकान की रक्षा
करते थे, कि
जिन्होंने एक
बच्चे की
कुटाई कर दी
थी--वे खुद ही
अपने मकानों
पर कूदने लगे।
उन्होंने अपने
मकान खुद ही
गिरा दिए और
खूब हुल्लड़
मचा। और सब
रेत उन्होंने
साफ कर दी। सब
मकान पुंछ गए,
सब दीवालें
गिर गईं, सब
सीमाएं असीम
में खोकर एक
हो गईं और वे
सब बच्चे घर
की तरफ भागे।
मां की याद आ
गई। अब घर जाना
है, सांझ
हो गई।
ठीक
बुद्ध ने
दूसरे दिन
अपने
भिक्षुओं से
कहा--ऐसा ही
संसार है। रेत
के घर! मेरात्तेरा!
बड़ी लड़ाई, बड़ी कलह! बड़ा
द्वेष, बड़ीर् ईष्या! बड़े
संघर्ष!
युद्ध!
अदालतें! हत्याएं!
और फिर एक दिन
सांझ हो जाती
है। सूरज ढल
जाता है, मौत
आ जाती है। और
घर से खबर आती
है। फिर जाना
पड़ता है। सब
यहीं पड़ा रह
जाता है। रेत
के घर रेत में
ही पड़े रह
जाते हैं। रेत
के घर रेत के
हैं, तुम्हारे
कैसे! रेत में
खींची गई रेखाएं
कहीं खिंचती
हैं! हवाओं के
झोंके आएंगे
और रेखाएं
पुंछ जाएंगी।
कितने
लोग यहां जमीन
पर रहे हैं और
कितने लोगों
ने यही खेल
खेला , जो
तुम खेल रहे
हो! इन्हीं
मकानों में
खेला, इन्हीं
दुकानों में
खेला, इन्हीं
बाजारों में,
इन्हीं
पद-प्रतिष्ठानों
में! कितने
लोग, कभी
सोचोगे!
करोड़ों-करोड़ों,
अरबों-अरबों
लोग! सब जा
चुके। उनकी
सांझ आ गई, चले
गए। तुम्हारी
सांझ भी जल्दी
ही आती होगी। अजहूं
चेत गंवार। अब
भी चेतो! जो
सांझ आने के पहले
चेत जाए, वह
समझदार। जो
मौत के आने पर चेते, वह
तो बहुत देर
हो गई, उसको
फिर जन्म लेना
पड़ेगा। जन्म
में ही चेते
तो फिर जन्म
नहीं लेना
पड़ता। मरते
वक्त अगर चेते
भी और एक खयाल
भी आए कि अरे
मैं बेकार
मेहनत करता
रहा, अदालत-मुकदमा,
यह, वह, झगड़ा-झांझा। कुछ सार
नहीं, सब
पड़ा रह जाएगा।
यह सब पड़ा रहा
जा रहा है और
मैं चला। अगर
मरते वक्त चेते
तो बहुत देर
हो गई। बहुत
देर हो गई, अब
कुछ करने को न
बचा। अब कब
ध्यान करोगे?
कब करोगे
पूजा-अर्चन? कब करोगे
प्रार्थना? अब तो जबान लड़खड़ा गई, आंखें भी मंदिम
हो गईं। भीतर
की थोड़ी-बहुत
जो बुद्धि थी
ज्यादा तो थी
ही नहीं, ज्यादा
होती तो कभी
के जाग गए
होते। थोड़ी
बहुत थी, ऐसी
धुंधियाती-धुंधियाती,
धुआं-भरी, वह भी और धुंधली
हो गई, मौत
की घबड़ाहट
देख कर
प्राणों में
समा गई, रोआं-रोआं
कांप गया, बेहोश
होने लगे। नए
जन्म की
तैयारी हो गई।
जो
बेहोश मरता है
वह नया जन्म
ले लेता है।
जो होश से मर
जाता है, फिर
उसका कोई जन्म
नहीं। लेकिन
होश से मरोगे
कैसे?--जब
जागते-जागते
मृत्यु के
बहुत दिन आने
के पहले भी
तुम यह पहचान
लोगे कि मौत आ
रही है और
जीवन दुःख है।
इस अनुभव की
परिणति ही
संन्यास है।
इस
अनुभव की
परिणति कि
संसार में सुख
नहीं, सब
रेत के घर-घूले
हैं, यहां
बनाया बनता
नहीं, मिट
जाता है, जो
मिट ही जाता
है उसके लिए
क्या झगड़ा-फसाद,
क्यों इतनी
चिंता, क्यों
इतनी व्यथा!
और फिर मौत तो
आ ही रही है। जो
छीन ही लेगी, उसको हम भी
क्यों पकड़ें?
जो मौत छीन
लेगी, उसे
हम ही क्यों न
छोड़ दें? पकड़
क्यों न छोड़
दें?
और
ध्यान रखना, जब मैं कहता
हूं हम ही
क्यों न छोड़
दें, तो
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
तुम दुकान छोड़
कर भाग जाओ।
भागोगे कहां?
मैं यह नहीं
कह रहा हूं
पत्नी-बच्चे
छोड़कर भाग
जाओ। भागने से
सार क्या है? पकड़ छोड़ दो। पकड़ना छोड़
दो। और यहां
भूल हो जाती
है। लोग पकड़
तो नहीं छोड़ते;
जो पकड़ा था,
उसे छोड़
देते हैं, मगर
पकड़ जारी रहती
है। तो घर छोड़
दिया, आश्रम
पकड़ लोगे।
जाओगे कहां? पकड़ तो कायम
रहेगी।
पत्नी-बच्चे
छोड़ दिए तो शिष्य-शिष्याओं
को पकड़ लोगे।
जाओगे कहां? उनसे मोह लग
जाएगा। उनसे
प्रेम लग
जाएगा। वे मरेंगे
तो रोओगे। वे
छोड़कर चले
जाएंगे तो
लगेगा कि धोखा
दे गए, मेरा
शिष्य धोखा दे
गया--जैसे
मेरा बेटा
धोखा दे गया!
यही तो वही का
वही खेल है, नाम बदल
गया। लेबिल
बदल लिए, जाल
तो वही का वही
है।
इसलिए
मैं नहीं कहता
कि तुम जो पकड़े
हो उसको छोड़
दो। मैं कहता
हूं, सिर्फ
मुट्ठी खोल
लो। जो भी पकड़े
हो उसको अब
पकड़ो मत।
पत्नी अपनी
जगह है, तुम
मत पकड़ो। बेटा
अपनी जगह है, तुम मत
पकड़ो। बेटा
अपनी जगह भला
है, यह मत
कहो कि मेरा
है। मेरा कहा
कि पकड़ शुरू
हुई। और छोड़
कर भागने की
भी कोई जरूरत
नहीं; अपना
था ही नहीं तो
भागोगे क्या
छोड़कर? छोड़कर
भागने में तो
वह भ्रम अभी
भी कायम है कि मेरा
था, छोड़
दिया। मेरा
था ही
नहीं कभी, एक
क्षण को कभी
मेरा नहीं था--छोड़ोगे
कैसे? त्याग
क्या करोगे?
जिस
व्यक्ति ने
भोग की
व्यर्थता देख
ली, उसके
जीवन में
त्याग का उपाय
नहीं रहा। अगर
त्याग करते हो
तो उसका मतलब
है कि अभी भी
बातों में
मूल्य था। तुम
कहते हो मैंने
लाखों रुपए छोड़
दिए। इसका क्या
मतलब हुआ? अभी
लाखों रुपयों
में तुम्हें
लाखों दिखाई पड़ते
हैं, अभी
भी दिखाई पड़ते
हैं; तब भी
दिखाई पड़ते
थे। कुछ फर्क
न हुआ। तब
तुमने इस
संसार की
बैंकों में
जमाकर रखे थे;
अब तुमने
परमात्मा की
बैंक में, परलोक
में जमाकर रखे
हैं। अब तुम
हिसाब लगा रहे
हो कि "जब पहुंचूंगा
परमात्मा के
सामने तो बता
दूंगा पूरा
खाता-बही
खोलकर कि
लाखों छोड़े थे,
क्या मिलता
है इसके उत्तर
में? सुना
तो था तेरे
पंडितों से कि
यहां एक दो, वहां करोड़
गुना मिलता है,
अब कहां है?'
तुम हिसाब
लगा रहे हो, तुम सौदा कर
रहे हो। तुमने
कुछ छोड़ा
नहीं।
छोड़ना
होता ही
नहीं--जागना
होता है। तो
फिर तुम भी
करोड़ों में वह
एक हो सकते
हो। और सबके
होने की
क्षमता है। जो
होना चाहे सो
हो जाए। और
देर क्यों करो? और खड़े-खड़े
क्यों देखते
रहो?
पलटू
कहते हैं:
क्या खड़े-खड़े
देख रहे हो? तमाशबीन कब
तक बने रहोगे?
अनुभव लो। जागो! और
क्या सारी
बस्ती लूट
लेगी, तब
तुम लूटोगे?
क्या तुमने
तय कर रखा है
कि सबसे आखीर
में अपना नंबर
लगाएंगे? किस
कारण? जो
अभी मिल सकता
है उसे कल
क्यों पाना? जो अभी मिल
सकता है उसे
कल के लिए
क्यों छोड़ना?
जो मिला ही
हुआ है, उस
रस में क्यों
न डूब जाओ? उस
उत्सव में क्यों
न तल्लीन हो
जाओ? क्यों
न उठने दो
महोत्सव
तुम्हारे
जीवन में? क्यों
न बहे रसधार?
रसो
वै सः! वह
परमात्मा
रस-रूप है!
तीसरा
प्रश्न भी
दूसरे से
संबंधित है, उसके साथ ही
ले लें।
तीसरा
प्रश्न :
संन्यास
का फल मधुर है, फिर भी सभी
उसे क्यों
नहीं चखते? कृपा करके
कहिए।
मधुर
है, यह तो चखोगे
तब पता चलेगा
न! मेरे कहने
से मधुर है, तो थोड़े ही
चख लोगे। अब
यह ज़रा
अड़चन की बात
है। चखोगे
तो पता चलेगा
मधुर है। और
तुम चाहते हो
कि पहले मधुर
होने का पता
चल जाए, फिर
चखें। यह तो
फिर हो नहीं
सकती बात। यह
तो बात बनेगी
नहीं। यह तो
बात बनती थी, उसके पहले
बिगड़ गई।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
तैरना सीखना
चाहता था। वह
नदी पर
गया--अपने एक मित्र
को लेकर, जो
तैरना सिखा
सकता था।
संयोग की
बात--संयोग की
भी नहीं कहनी
चाहिए, भीतर
तो कारण रहे
होंगे, डरा-डरा
गया होगा, भयभीत
गया होगा--नदी का
किनारा, सीढ़ियों
पर काई जमी थी,
उसका पैर
फिसल गया।
चारों खाने
चित्त पड़ा है।
सिर में चोट
भी लग गई। वह
उठा और एकदम
घर की तरफ भागा।
उसके मित्र ने
कहाः भाई,
बड़े मियां,
कहां चले? उसने कहाः
अब जब तैरना
सीख लूंगा, तभी नदी के
पास आऊंगा।
यह तो खतरनाक
मामला है। अगर
पानी में गिर
गया होता तो
जान गंवा दी
होती। नमस्कार!
उसने
कहा : अब तो जब
तैरना सीख
लूंगा, तभी
नदी के पास आऊंगा।
लेकिन
तैरना कहां सीखोगे? गद्देत्तकिए लगाकर घर
में? तैरना
हो तो नदी के
पास आना होगा
। और तुम कसम ले
लिए कि कसम, अब नहीं
आनेवाला। और
मुल्ला की बात
वैसे समझदारी
की लगती है, अनुभवी की
लगती है।
व्यवहारिक
बात है। यह तो
खतरनाक मामला
है; ज़रा और चूके
होते और पानी
में पड़ गए
होते तो आज
मौत हो जाती।
अब नदी से दूर
ही रहूंगा। अब
तो तैरना सीख
लूंगा, फिर
आऊंगा।
गणित
की बात है, तर्क की है
बात। शुद्ध
तर्क है। लेकिन
यह तो बात
बनते-बनते
बिगड़ गई, यह
तो शुरू से
बिगड़ गई। यह
तो कभी तैरना
सीखेगा नहीं
और कभी नदी के
पास आएगा
नहीं।
तुम
कहते हो :
संन्यास का फल
मधुर है, फिर
भी सभी उसे
क्यों नहीं
चखते? चखें
तो पता चले।
और तो कोई
उपाय नहीं है।
न चखोगे
तो पता नहीं
चलेगा। चखकर
ही तो पता
चलता है। तो
फिर क्या करें?
लोगों की बुद्धियां
बड़े तर्क से
भरी हैं; वे
कहते हैं कि
पहले प्रमाण
चाहिए कि
ईश्वर है, तो
फिर हम ईश्वर
की तरफ
चलेंगे। और
ईश्वर की तरफ
चलने से
प्रमाण मिलता
है कि है। अब
यह बड़ी मुश्किल
बात है। यही
अबूझ पहेली है
धर्म की। अनुभव
करने से
प्रमाण मिलता
है, और कोई
प्रमाण नहीं
है। और चखने
से स्वाद आता है,
और कोई उपाय
नहीं है।
इसलिए जो
हिम्मतवर है,
जो कहते हैं
कि ठीक है, बहुत
से बहुत यही
होगा न कि
कड़वा होगा-- तो
थूक देंगे।
ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही होगा न कि
फल मीठा नहीं
होगा, कड़वा
होगा--तो
जिंदगी में
इतने कड़वे
फल चखे हैं, एक और सही।
कितने
तो तुमने कड़वे
फल चखे हैं।
अभी तक तुमने
मीठा फल चखा
कहां है! कड़वे
के तो तुम
अभ्यासी हो।
तो क्या घबड़ाहट
है, एक फल और
सही। कड़वा ही
निकल सकता है,
चख तो लो!
हालांकि
जिन्होंने
चखा उन्होंने
पाया कि मीठा
है। मगर चख कर
पाया।
डूबोगे
तो अनुभव
होगा। नदी में
उतरोगे तो तैरना
सीखोगे।
तैरना सीखोगे
तो उस पार जा
सकोगे। तैरना सीखोगे तो
गहराइयों में
उतरने की
क्षमता आ
जाएगी। और
गहराइयों में
मोती पड़े हैं।
नदी की सतह पर
तो सूखे पत्ते
इत्यादि बहते
हैं, मोती
नहीं। सागरों
की गहराई में
डुबकी मारनी
पड़ती है, गोताखोर
होना पड़ता है।
बिना तैरे
तो कैसे गोता
मारोगे?
इसलिए
बहुत लोग
वंचित रह जाते
हैं क्योंकि
बहुत लोग
तर्कनिष्ठ
हैं। तर्कनिष्ठा
धर्मनिष्ठा
में बाधा है।
धर्म की तरफ
तो वही जाता
है जिसको पलटू
ने कहा--"जिसे
विश्वास हो जाए।' विश्वास
कैसे हो? विश्वास
होने का क्या
रिश्ता ? अब
में तुमसे यह
भी नहीं कह
रहा हूं, पलटू
भी नहीं कहते
कि तुम जा कर
ऐसे ही नदी
में कूद पड़ो।
पलटू भी कहते
हैं कि किसी
को खोज लो जो
तैरना जानता
हो। उसका
संग-साथ बना
लो। यारी बना
लो। किसी यार
को खोज लो।
कोई तो तैरना
जानता होगा।
कोई तो तुमने
तैरता हुआ
देखा होगा।
किसी को तो
पानी पर उमंग
से तिरता
हुआ देखा
होगा। जिसको
तुमने तैरता
देखा हो, जिसको
तुमने देखा हो
पानी में
खेलता है और ज़रा भी
डूबता नहीं, उससे दोस्ती
कर लो, उसके
साथ संग-साथ
बना लो। इसको
ही सद्गुरु की
खोज कहते हैं।
इसलिए
पलटू कहते हैं
: नाव भी मिल
जाए तो क्या
करोगे? केवट
तो होना
चाहिए। माझी
कहां है? शास्त्र
मिल जाए, क्या
करोगे? शास्ता
होना चाहिए।
हाथ पकड़नेवाला
कहां है? शास्त्र
को तुम पकड़
सकते
हो। तुम तो
खुद ही डूबने
वाले हो, तुम्हारे
साथ शास्त्र
भी डूब जाएगा।
कोई चाहिए जो
तुम्हें पकड़
ले। तो शायद
बच सको। कोई
जो स्वयं तैर
सकता हो, तो
तुम्हें बचा
ले। और एक दफा
थोड़े दिन साथ
हो जाए, तैरने
का अनुभव आ
जाए।
तैरना
कुछ बड़ी कठिन
बात नहीं है।
सच तो
यह है, तैरने
में हम कुछ
सीखते थोड़े ही
हैं। तैरने में
तो केवल सिर्फ
आत्मविश्वास
बढ़ता है। और
कुछ भी नहीं
होता, सीखते
हम कुछ भी
नहीं। तैरना
कोई सीखन-सीखावन
थोड़े ही है।
इसलिए तो एक
मजे की बात है
कि तैरना अगर
तुम एक दफा
सीख गए तो फिर
पचास साल न तैरो
तो भूल थोड़े
ही जाओगे।
पचास साल अगर
तुम भाषा सीख
गए हो, न
बोलो तो भूल
जाओगे। पचास
साल तक कैसे
याद रखोगे? सीखा हुआ
भूल जाएगा।
लेकिन तैरना
नहीं भूलता।
तैरना सीखने
जैसा नहीं है;
कुछ बात
भिन्न है। अगर
पचास साल तक
तुमने मान लो
जर्मन भाषा
सीख ली और
पचास साल तक
बोले नहीं, उपयोग नहीं
किया, पढ़ी
नहीं, सुनी
नहीं, तो
पचास साल बाद
साफ हो जाएगी;
पता भी नहीं
चलेगा कि कभी
तुमने सीखी
थी।
लेकिन
तैरना, पचास
साल तक तुम तैरो
ही मत, एक
दफा तैरना सीख
लिया, फिर
नदी जाओ ही मत,
सरोवर के
पास जाओ ही मत,
पचास साल के
बाद भी पानी
में उतरोगे, तैरोगे। फर्क है
कुछ। यह बात
स्मृति से
संबंधित होती
तो भूल गई
होती। यह बात
स्मृति से
संबंधित नहीं
है। फर्क यह
है कि तैरना
तो हमें आता
ही है, वह
हमारा स्वभाव
है। फिर हम
नदी में डरते
क्यों हैं? डरने का
कारण है :
आत्मविश्वास
की कमी। तैरना
नहीं आता, ऐसा
नहीं।
तैरने
वाला क्या
करता है, तुमने
देखा? नए सिक्खड़ को
नदी में ले
जाओ, वह
क्या करता है?
दोनों एक ही
काम करते है
दोनों हाथ-पैर
फड़फड़ाते
हैं। सिक्खड़
बेतरतीब से फड़फड़ाता
है और घबड़ाता
है और डरता
है। सीखा हुआ
भी हाथ-पैर फड़फड़ाता
है--व्यवस्था
से फड़फड़ाता
है, संगति
से--और डरता
नहीं और
निर्भय फड़फड़ाता
है, क्योंकि
उसे भरोसा आ
गया है। वह
जानता है। फिर
जब तैरने में
कोई बिल्कुल
कुशल हो जाता
है तो हाथ-पैर
भी फड़फड़ाता,
नदी पर ऐसे
ही तैर जाता
है।
तुमने
एक चमत्कार
देखा या नहीं
कि मुर्दा आदमी
नदी पर तैर
जाता है और
जिंदा डूब
जाता है। जरूर
कुछ मामला है।
मुर्दा डूबा
हुआ, ऊपर आ
जाता है, तैरने
लगता है।
मुर्दों को
तरकीब मालूम
हो और जिंदों
को तरकीब नहीं
मालूम !
मुर्दा न तो
हाथ-पैर फड़फड़ाता
न कुछ, सिर्फ
तैर जाता है।
क्या बात होगी?
मुर्दे को
भय नहीं है। अब
मर ही गए, अब
भय क्या ? अब
मर ही गए तो भय
किसको! मुर्दा
निर्भय है। जिंदा
आदमी भयभीत
है। भय डुबाता
है, नदी
नहीं डुबाती।
इस बात को तुम
खयाल में रख लेना।
गांठ बांध
लेना हीरे की
तरह। भय
डुबाता है, नदी नहीं
डुबाती।
इसलिए तैरने
में तुम कुशल
हो जाते हो तो
भय मिट जाता
है, तो तुम
मुर्दे की तरह
पानी पर तैर
सकते हो, जिंदा
रहते हुए भी।
असली तैराक
हाथ-पैर थोड़े
ही हिलाता है;
असली तैराक
तो ऐसे ही तिर
जाता है। तिरने
में और तैरने
में यही फर्क
है। तिरने
का मतलब हैः
वह ऐसे ही पड़
जाता है नदी
पर, मजा
लेने लगता है,
धूप आ रही; धूप-स्नान
ले लेता है
नदी में
पड़ा-पड़ा, हाथ-पैर
भी नहीं
हिलाता, डूबता
भी नहीं। फर्क
क्या हो गया? अब भरोसा आ
गया।
सारी
बात श्रद्धा
की है--अपने पर
श्रद्धा आ
जाए। अभी
तुम्हें अपने
पर श्रद्धा
नहीं इसलिए
किसी ऐसे आदमी
का हाथ पकड़ लो
जिसे अपने पर
श्रद्धा हो; जिसके पास
तुम्हें एक
बात समझ में
आती हो कि इस
आदमी को अपने
पर भरोसा है; जिस आदमी को
अपने पर भरोसा
हो; जिस
आदमी को ज़रा
भी संदेह की
रूपरेखा न हो;
जिस आदमी को
अब ज़रा भी डिगमिगी न
हो; पलटू
कहते हैं, डिगमिगी मिट गई हो; जो अब थिर
होकर बैठ गया
हो--उसका हाथ
पकड़ लो।
संन्यास
का और क्या
अर्थ है? संन्यास
का इतना ही
अर्थ है : किसी
का हाथ पकड़ लो,
दीक्षा ले
लो। शिष्यत्व
स्वीकार
करो--किसी का, जो तैरना
जानता है। जो तिरता हो
पानी में बिना
हाथ-पैर तड़फाए।
जल्दी ही तुम
भी योग्य हो
जाओगे। और
योग्यता कुछ
खास नहीं है।
योग्यता इतनी
ही है कि
तुमको भी पानी
में उतर-उतर
कर भरोसा आ
जाएगा कि अपने
हाथ-पैर चलाने
से डूबने से
बचा जा सकता
है। एक बात।
फिर धीरे-धीरे
दूसरी बात पता
चलेगी कि
"हाथ-पैर भी तड़फड़ाने
की जरूरत नहीं
है; बचना
स्वाभाविक
है। पानी तो
मुर्दे को तैरा
देता है, तो
मैं तो जिंदा
हूं, मुझे
क्यों न तैराएगा!'
तुम रुककर
पड़ जाते हो।
जब एक दफा
रुककर पड़ जाते
हो और नहीं
डूबते--बस एक
दफा अनुभव की
किरण उतर गई
कि नहीं डूबता,
डूबना होता
ही नहीं--भय
गया--भय सदा को
गया।
सद्गुरु
के संग-साथ
में भय मिट
जाता है।
सद्गुरु
भगवान थोड़े ही
दे सकता है
तुम्हें; सिर्फ
भय मिटा सकता
है। और भय मिट
गया तो भगवान
मिल गया। और
अभी तो
तुम्हारा जो
भगवान है, केवल
तुम्हारा भय
है। बड़ी उलटी
बातें हैं। अभी
तुम
मंदिर-मस्जिद
जाते हो, वह
भय के कारण
जाते हो। अभी
तो तुम्हारा
भगवान जो है
वह भय के भूत
से ज्यादा
नहीं है। और
भय से कैसे भगवान
मिलें? निर्भय
को भगवान
मिलता है।
तो
सारी बात
भगवान पाने की
नहीं है--सारी
बात : कैसे
निर्भय हो
जाएं? किसी
निर्भय के पास
बैठो, सत्संग
करो। उसकी
निर्भय की
किरणें
तुम्हें भी
आंदोलित करें,
उसकी
तरंगें
तुम्हें भी छुएं--और
धीरे-धीरे तुम
भी निर्भय हो
जाओ।
संगति
के परिणाम
होते हैं।
कायरों के साथ
रहोगे, कायर
हो जाओगे।
वीरों के साथ
रहोगे, वीर
हो जाओगे।
जैसों के साथ
रहोगे
धीरे-धीरे वैसे
हो जाओगे।
संग-साथ
परिणाम लाता
है।
अगर
परमात्मा की
तलाश है, अगर
आत्मधन
की तलाश है तो
उसका साथ करो
जिनको मिल गया
हो। पंडितों
के पास बैठकर
समय मत गंवाना;
उनको भी
नहीं मिला है,
तुम्हें
कैसे दे
सकेंगे? उस
आदमी से
सावधान रहना
जिससे तुम कहो
कि मुझे तैरना
सीखना है और
वह पोथी खोलकर
बैठ जाए और कहे
कि देख, मुझे
सब पता है कि
तैरने में
क्या-क्या
होता है; यह
लिखा है, मेरी
किताब में सब
लिखा है; यह
रही संहिता, इसमें सब
लिखा हुआ है, और मैं तुझे
सब समझाए देता
हूं कि तैरना
कैसा होता है।
नहीं, जो आदमी
तुम्हें नदी
के तट पर ले
जाने को तैयार
हो--तुम उससे
पूछो कि तैरना
कैसा, वह
कहे आओ; तुम
पूछो ध्यान
कैसा, वह
कहे आओ; तुम
पूछो भक्ति
कैसी, वह
कहे आओ और
डुबकी लो, बताए
देता
हूं--जिसका
इंगित यथार्थ
की तरफ हो।
संन्यास
का फल निश्चित
मधुर है।
सिर्फ संन्यास
का फल ही मधुर
है; संसार के
तो सभी फल कडुवे
हैं। और अगर
तुम्हें कडुवे
लगते भी न हों
तो सिर्फ उसका
कारण इतना है
कि तुम्हारी
जिह्वा
अभ्यस्त हो गई
है, जड़ हो
गई है।
ऐसा हो
जाता है न, पहली-पहली
दफे कॉफी पीयो
तो तिक्त लगती
है। फिर कुछ
दिन अभ्यास
करते रहो। इस
आशा में कि यह
तो सीखनी
पड़ेगी, सुसंस्कृत
आदमी हैं और
कॉफी न पीयो,
तो गंवारपन
का लक्षण है; कॉफी तो सीखनी
ही
पड़ेगी--थोड़े
दिन अभ्यास
करते रहो, फिर
कॉफी तिक्त
नहीं लगती।
पहली दफा
सिगरेट पीयो
तो खांसी आती
है, आंख
में आंसू आ
जाते हैं, गले
में अड़चन
मालूम होती
है। बिल्कुल
स्वाभाविक हो
रहा है। लेकिन
फिर यह देखकर
कि यह तो बड़ी
कमजोरी की बात
हो गई और
सिगरेट तो सभी
बलशाली आदमी
पीते हैं--तो
किए जाओ
अभ्यास, थोड़े
दिन में शरीर
स्वीकार कर
लेता है इस
अत्याचार को।
धुएं को
बाहर-भीतर ले
जाना, गंदे
धुएं को, तंबाकू
के
ज्वरग्रस्त
धुएं को
बाहर-भीतर ले
जाना--और
धीरे-धीरे
तुम्हें रस
आने लगता है।
रस होता तो
पहले दिन आ
जाता । रस था
नहीं। रस अभ्यास
से बनाया जा
रहा है।
इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूं कि
परमात्मा का
रस तो पहले ही
अनुभव में आ
जाता है। उसका
अभ्यास नहीं
करना होता; एक बार मुड़ो
भर, बस एक
दफा चखो
भर--पहला कौर
परमात्मा का
और रस मिल
जाता है। और
अभ्यास नहीं
करना होता।
पहली ही कौर
में प्राण
मुक्त हो जाते
हैं। एक ही
कौर--और रोआं-रोआं
अमृत से भर
जाता है। मगर
एक कौर लेने
की हिम्मत तो
करनी ही पड़े।
आज
इतना ही।
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