कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--052

वर्तुलाकार अस्तित्व में यात्रा प्रतियात्रा भी है—(प्रवचन—बावनवां)

अध्याय 25 : खंड 1

चार शाश्वत आदर्श

स्वर्ग और पृथ्वी के अस्तित्व में आने के पूर्व
सब कुछ कोहरे से भरा था:
मौन, पृथक,
एकाकी खड़ा और अपरिवर्तित,
नित्य व निरंतर घूमता हुआ,
सभी चीजों की जननी बनने योग्य!
मैं उसका नाम नहीं जानता हूं,
और उसे ताओ कह कर पुकारता हूं।
यदि मुझे नाम देना ही पड़े तो मैं उसे महान कहूंगा।
महान होने का अर्थ है अंतरिक्ष में फैलाव की क्षमता,
और अंतरिक्ष में फैलाव की क्षमता है दूरगामी,
यही दूरगामिता मूल बिंदु की ओर प्रतिगामिता भी है।


लाओत्से, जीवन का जो परम रहस्य है, उसे नाम देने के पक्ष में नहीं। नाम देते ही हम उससे वंचित होना शुरू हो जाते हैं। नाम देना उससे बचने का उपाय है, उसे जानने का नहीं। लेकिन हम सब यही सोचते हैं कि नाम दे दिया उसे तो जान लिया। इसके कारणों को समझना जरूरी है।
हम अपने पूरे जीवन में नाम देने को ही ज्ञान मानते हैं। एक बच्चा पूछता है सामने खड़े पशु को देख कर, क्या है? और हम कहते हैं, गाय है। या हम कहते हैं कुत्ता, या हम कहते हैं घोड़ा। और बच्चा नाम सीख लेता है। इस सीखने को ही वह जानना मानेगा। जो हमारा ज्ञान है, वह इसी तरह सीखे गए नाम हैं। न हम गाय को जानते हैं, न हम घोड़े को जानते हैं। हम नाम जानते हैं, हम लेबल लगाना जानते हैं। और जो आदमी जितने ज्यादा लेबल पहचानता है, उतना बड़ा ज्ञानी समझा जाता है।
यह नाम जान लेना भी बड़े मजे की बात है। क्योंकि न तो गाय कहती है कि उसका नाम गाय है, और न घोड़ा कहता है कि उसका नाम घोड़ा है। हमने ही दिए हैं नाम और फिर हम ही उन नामों से परिचित होकर ज्ञानी हो जाते हैं। वह जो अस्तित्व है, अपरिचित ही रह जाता है, अनजाना रह जाता है।
अब्राहम मैसलो ने एक संस्मरण लिखा है। उसने लिखा है कि मैं जिस विश्वविद्यालय में पढ़ता था, उस विश्वविद्यालय में एक बहुत बड़े ज्ञानी प्रोफेसर थे। और उनको चीजों को नाम देने की और हर चीज को व्यवस्थित करने की ऐसी विक्षिप्त आदत थी कि अखबार भी पुराने वे तारीखें-नाम लगा कर फाइल करते जाते थे। दाढ़ी बनाने का ब्लेड भी जब खराब हो जाए, तो किस तारीख को शुरू किया और किस तारीख को खराब हुआ, वे लेबल लगा कर सम्हाल कर रख देते थे। मैसलो ने लिखा है कि एक दिन वह उनके घर गया तो उसने पियानो का ढक्कन उठा कर देखा, तो उसमें नीचे बड़े अक्षरों में लिखा था--पियानो।
यह प्रोफेसर हमें पागल मालूम पड़ेगा। लेकिन अगर यह पागल है तो हम भी थोड़ी मात्रा में पागल हैं। वह अंतिम सीमा तक चला गया। कुर्सी पर लिखा हुआ है कुर्सी, दरवाजे पर लिखा हुआ है दरवाजा; यह हमें पागल मालूम पड़ता है। लेकिन हमारा ज्ञान भी और क्या है? हमारा सारा ज्ञान नामकरण है, लेबलिंग। और हमने--मजा यह है कि उस प्रोफेसर ने तो पियानो पर लिखा कि पियानो, दरवाजे पर लिखा दरवाजा, कुर्सी पर लिखा कुर्सी--हमने ईश्वर पर भी लिख छोड़ा है ईश्वर। आत्मा, मोक्ष, स्वर्ग, नरक। नाम देने से ऐसा भ्रम पैदा होता है कि हम जानते हैं।
जब मैं कहता हूं मोक्ष, तो आपके भीतर थोड़ी सी गुदगुदी पैदा होती है, आपको लगता है जानते हैं। क्योंकि नाम आपका सुना हुआ है। जब मैं कहता हूं ईश्वर, तो आपके भीतर में धड़कन होती है और आपको लगता है जानते हैं। क्योंकि यह नाम सुना हुआ है। लेकिन क्या जानते हैं आप ईश्वर को? क्या जानते हैं मोक्ष को? क्या जानते हैं गाय को? क्या जानते हैं घोड़े को? नाम जानते हैं। और आदमी भाषा को तत्वज्ञान समझ लेता है। नामों के संग्रह को आदमी संपदा समझ लेता है ज्ञान की।
इसलिए लाओत्से सख्त खिलाफ है नामकरण के। कहीं भी वह नाम नहीं देता। वह कहता है, जिसे नाम दिया जा सके, वह सत्य न होगा। जिस पर हम लेबल लगा सकें, वह सत्य न होगा।
असल में, हम लेबल लगाते ही इसलिए हैं ताकि हम जानने की झंझट और यात्रा से बच जाएं। लेबल लगाने पर हम निश्चिंत हो जाते हैं। फिर हमें कोई चिंता नहीं रह जाती। एक आदमी से हम पूछ लेते हैं: क्या है तुम्हारा नाम? क्या है तुम्हारी जाति? क्या है तुम्हारा धर्म? किस गांव से आते हो? किस देश के नागरिक हो? और ये सब बातें जान कर हम निश्चिंत हो जाते हैं, वह आदमी जान लिया गया।
एक आदमी इतनी बड़ी घटना है! और हमने इन चार नामों को इकट्ठा कर लिया, हिंदू है, राम उसका नाम है, हिंदुस्तान का नागरिक है, जानकारी पूरी हो गई। और आदमी इतनी बड़ी घटना है! इतना बड़ा सागर! छोर उसके खोजने मुश्किल हैं। हमारा सारा परिचय नाम देने के धोखे से निर्मित होता है।
इसलिए लाओत्से कहता है, मैं उस परम सत्य को कोई नाम नहीं देता हूं। उसे ईश्वर नहीं कहता हूं, उसे मोक्ष नहीं कहता हूं। क्योंकि जैसे ही मैं उसे नाम दूंगा, तुम समझोगे कि तुम जानते हो।
और बड़ी से बड़ी कठिनाई लाओत्से, कृष्ण या बुद्ध जैसे व्यक्तियों के सामने यही है कि वे कैसे आपको समझाएं कि आपको कुछ भी पता नहीं है। आप आश्वस्त हो अपने ज्ञान में। आपको अपने ज्ञान का बिलकुल पक्का भरोसा है। और लाओत्से जैसे व्यक्ति के लिए यही सबसे पहली जरूरत है कि वह आपको आपके ज्ञान से छुटकारा दिलाए और आपको बताए कि आपको कुछ भी पता नहीं है। जो भी पता करने योग्य है, अभी वह अनजाना पड़ा है। और जो भी आप जानते हो, वह कचरा है। वह पियानो पर लिख दिया कि पियानो, दरवाजे पर लिख दिया कि दरवाजा! बस वे हमारे दिए हुए नाम हैं। और उन्हीं लेबलों को इकट्ठा करके हम ज्ञानी बन जाते हैं। जो जितने ज्यादा लेबल जानता है, उतना बड़ा ज्ञानी हो जाता है।
सदगुरु के समक्ष पहला काम यही है कि वह व्यक्ति को अज्ञान के प्रति सचेत कर दे। तो लाओत्से ने सबसे सुगम तरकीब खोजी है कि वह आपसे नाम छीन ले। वह आपको यह बता दे कि जो भी आप समझते हैं कि जानते हैं, वह आप जानते नहीं हैं, वह धोखा है। अगर आपके सब नाम छीन लिए जाएं, आपकी जानकारी छीन ली जाए, तब आपको पता चलेगा कि आपका जीवन बिना जाने बीता जा रहा है। किसी ने गीता पढ़ ली है, किसी ने कुरान पढ़ लिया है, किसी ने रामायण पढ़ ली है, किसी ने उपनिषद पढ़ लिए हैं। वह उनका जानना बन गया। आपने किया क्या है? कुछ शब्द सीख लिए हैं। और बार-बार शब्दों को दोहराने से यह भ्रम आपको पैदा हो गया कि अब इन शब्दों से जो इशारा किया गया है, वह भी आप जानते हैं। वह आप बिलकुल नहीं जानते हैं।
अंधा भी प्रकाश शब्द को बहुत बार सुनता है। यह शब्द उसे भी मालूम हो जाता है। अंधों की ब्रेल लिपि होती है, इसमें वह अपने हाथ को फेर कर इसको पढ़ भी लेता है कि प्रकाश। प्रकाश की परिभाषा भी पढ़ सकता है। प्रकाश के संबंध में जो भी आदमी ने खोजा है, वह भी सब पढ़ सकता है। और तब अंधे को भी यह वहम पैदा हो सकता है कि वह जानता है कि प्रकाश क्या है। और उसकी सारी जानकारी व्यर्थ है; क्योंकि उसकी आंखों पर कभी प्रकाश का कोई संस्पर्श नहीं हुआ। और उसकी सारी जानकारी व्यर्थ है; क्योंकि उसके हृदय तक प्रकाश की कोई किरण नहीं पहुंची। उसकी सारी जानकारी न केवल व्यर्थ है, बल्कि खतरनाक भी है। क्योंकि यह भी हो सकता है कि अंधा धीरे-धीरे यह सोचने लगे कि जब मैं प्रकाश के संबंध में सब जानता हूं तो मैं अंधा नहीं हूं। क्योंकि अंधे प्रकाश के संबंध में जान ही कैसे सकते हैं!
हम सब की भी तकलीफ यही है। हम सब परम सत्य के संबंध में बिलकुल अंधे हैं। लेकिन शब्द हमें कंठस्थ हो गए हैं। और भारत जैसे मुल्क का तो और भी बड़ा दुर्भाग्य है। क्योंकि जितनी पुरानी हो संस्कृति, उतने शब्दों का बोझ होता है ज्यादा। जितनी लंबी यात्रा हो किसी जाति की, उतना ही ज्ञान उसके पास संगृहीत हो जाता है; जो उसकी मौत बन जाती है, उसकी गर्दन पर फांसी लग जाती है।
पुरानी कौम अपने ज्ञान से दब कर मरती है। नई कौमें अपने अज्ञान से परेशान होती हैं; पुरानी कौमें अपने ज्ञान से परेशान हो जाती हैं। बच्चे भटकते हैं अज्ञान के कारण, बूढ़े भटकते हैं ज्ञान के कारण। बच्चों की सारी तकलीफ यह है कि उन्हें रास्तों का कोई पता नहीं है, इसलिए भटक जाते हैं। बूढ़ों की तकलीफ यह है कि उन्हें सभी रास्तों का पता है बिना किसी रास्ते पर चले, इसलिए भटक जाते हैं। बच्चे क्षमा किए जा सकते हैं; बूढ़ों को क्षमा करने का कोई उपाय नहीं है। अज्ञान क्षमा किया जा सकता है; लेकिन झूठा ज्ञान क्षमा नहीं किया जा सकता। इस जगत में जो बड़े से बड़ा अपराध आदमी अपने साथ कर सकता है, वह अज्ञानी रहते हुए ज्ञान के भ्रम का अपराध है।
हमने इस मुल्क में कुछ इस संबंध में दूर तक चिंतन किया है। हमारे पास तीन शब्द हैं। एक को हम कहते हैं ज्ञान, एक को हम कहते हैं अज्ञान। लेकिन अज्ञान के साथ एक शब्द और है, जिसका हम प्रयोग करते हैं, वह है अविद्या। लेकिन बड़े मजे की बात है कि जिसको हमने अविद्या कहा है, उसको ही आमतौर से हम ज्ञान समझते हैं। अविद्या का मतलब अज्ञान नहीं है। अविद्या का मतलब है ऐसी विद्या जो विद्या नहीं है, ऐसा ज्ञान जो ज्ञान नहीं है, जो सिर्फ ज्ञान का धोखा है। जिससे भ्रम तो पैदा होता है...।
जैसे हम छोटे बच्चे को मुंह में कुछ चूसने को लकड़ी का टुकड़ा दे देते हैं। उसे भ्रम तो होता है कि शायद वह मां का स्तन चूस रहा है, लेकिन उससे कुछ पोषण नहीं मिलता। हालांकि उसका रोना बंद हो जाएगा और अपनी भूख को भी वह झुठला लेगा; क्योंकि जब बच्चा देखता है कि मुंह में स्तन है और वह दूध पी रहा है, चूस रहा है, तो वह अपनी भूख को झुठला देता है; आंख बंद करके, विश्राम करके सो जाता है। करीब-करीब हम ऐसी हालत में हैं। जो हम नहीं जानते हैं, उसे हम समझते हैं वह हमारा जाना हुआ। फिर वह हमारी जो भूख है सत्य के लिए, वह मर जाती है। या छिप जाती है, दब जाती है। और हम छोटे बच्चों की तरह झूठे ज्ञान को पोषण समझ कर सोए रहते हैं।
इसलिए लाओत्से की पहली और गहरी चोट है नाम के विरोध में। वह कहता है, नाम सत्य का कोई भी नहीं।
लेकिन तब एक अड़चन खड़ी हो जाती है। क्योंकि उसकी अगर चर्चा करनी हो, उसकी तरफ इशारा करना हो, तो कोई नाम तो देना ही पड़ेगा। अन्यथा किसकी चर्चा? किसकी बात? किसकी तरफ इशारा? यह भी कहना तो मुश्किल है कि हम उसे नाम न देंगे। पूछा जा सकता है: किसे? किसे नाम न देंगे आप?
तो लाओत्से चीनी भाषा का एक शब्द चुनता है, जो कि कम से कम नाम है, वह है ताओ। ताओ के लिए अगर हम अपनी भाषा में अनुवादित करने चलें तो वेद में एक शब्द है ऋत, बस उससे ही वह अनुवादित हो सकता है। या बुद्ध ने जिस अर्थ में धम्म शब्द का प्रयोग किया है, वह उसका अनुवाद हो सकता है। लेकिन धम्म या धर्म कहते ही हमारे मन में कुछ और खयाल उठता है, हमारे मन में खयाल उठता है: ईसाई धर्म, हिंदू धर्म, मुसलमान धर्म, जैन धर्म। बुद्ध ने धम्म या धर्म का प्रयोग किया है परम नियम के अर्थों में--दि इटरनल लॉ--जिस अर्थ में वेद ने ऋत का प्रयोग किया है। ऋत का अर्थ है वह नियम, जिससे सब संचालित है।
लाओत्से कहता है, मैं उसे ताओ कहता हूं। इस जगत का जो स्वभाव है, इस जगत के भीतर छिपा हुआ जो सारभूत, इसेंस है, वह मैं उसे कहता हूं।
लेकिन यह मजबूरी में दिया गया नाम है। इस नाम को समझ कर कोई यह न समझे कि उसने ताओ को समझ लिया। ताओ शब्द को कोई समझ कर यह न समझे कि उसने ताओ को समझ लिया। धम्म को समझ कर कोई यह न समझे कि उसने धर्म को समझ लिया। ऋत शब्द को कंठस्थ करके कोई यह न समझे कि वह उस परम नियम को जान लिया, जिसके लिए इशारा किया गया था।
इशारे छोड़ने के लिए हैं, पकड़ने के लिए नहीं। इशारे कहीं पहुंचाने के लिए हैं, रोकने के लिए नहीं। इशारे से दूर हटना चाहिए, इशारे को जकड़ नहीं जाना चाहिए। वह मील का पत्थर लगा है रास्ते पर, तीर का इशारा करता है कि मंजिल आगे है। वह मील के पत्थर पर रुकना नहीं है। वह मील का पत्थर लगाया ही इसीलिए है कि कोई वहां मंजिल समझ कर रुक न जाए। वह तीर आगे के लिए है। सब शब्द मील के पत्थर हैं। और सब शब्दों का तीर सत्य की तरफ है। लेकिन तीर हमें बिलकुल भूल गए हैं। और हम सब शब्दों को पकड़ कर बैठ जाते हैं, और उनके निकट विश्राम करते हैं। और जो मील का पत्थर था, वह मंजिल मालूम होने लगता है।
इसके कारण हैं, अपने को धोखा देने के कारण हैं। यात्रा कष्टपूर्ण है। मान कर सपना देखना आसान है। मील के पत्थर को ही मंजिल मान कर बड़ी चैन मिलती है। और अगर मील के पत्थर को मान कर यात्रा करनी पड़े तो श्रम उठाना पड़ता है। और हम हजारों-हजारों साल तक झूठे शब्दों को सत्य मान कर इस भांति के भ्रम में पड़ जाते हैं कि याद भी नहीं आता कि सत्य इससे भिन्न कुछ हो सकता है। इस सूत्र को समझें।
"स्वर्ग और पृथ्वी के अस्तित्व में आने के पूर्व सब कुछ कोहरे से भरा था: मौन, पृथक, एकाकी, अपरिवर्तित, नित्य, निरंतर घूमता हुआ, सभी चीजों की जननी बनने योग्य!'
जो लोग आधुनिक विज्ञान से परिचित हैं, उन्हें तत्काल इस सूत्र में प्रतिध्वनि मिलेगी। तब यह सूत्र आम धर्मों से बहुत गहरा हो जाता है। ईसाइयत कहती है कि ईश्वर ने एक विशेष दिन सारे जगत को निर्मित किया। इसलाम भी करीब-करीब ऐसा मानता है। फिजिक्स की आधुनिकतम खोजें कहती हैं कि जगत का निर्माण कभी भी नहीं हुआ; ज्यादा से ज्यादा हम इतना कह सकते हैं कि जब पृथ्वी नहीं थी, तो सारा जगत एक कोहरे से भरा था। इस सारे जगत का निर्माण नेबुलस से हुआ, गहन कोहरे से हुआ।
इस कोहरे शब्द का प्रयोग करने वाला लाओत्से संभवतः मनुष्य-जाति में पहला आदमी है। जिसको आज विज्ञान कहता है कि ऐसा कुछ संभव हुआ है कि पृथ्वी एक कोहरा थी, जैसे कि बादल वर्षा होने के पहले आकाश में घिरा हो। फिर पानी गिरे और फिर पानी जमे और बर्फ बन जाए। ऐसा ही सारा पदार्थ एक दिन कोहरा था।
विज्ञान कहता है कि प्रत्येक पदार्थ की तीन अवस्थाएं हैं: ठोस, सालिड; लिक्विड, तरल; और गैसीय, वाष्पीय। हर पदार्थ की तीन अवस्थाएं हैं। पत्थर भी तरल हो सकता है एक विशेष तापमान पर। और पत्थर भी एक विशेष तापमान पर गैस बन जाएगा, भाप बन जाएगा। हम सिर्फ पानी के बादल ही जानते हैं, लेकिन हर चीज के बादल हो सकते हैं। पत्थर के बादल हो सकते हैं। क्योंकि प्रत्येक वस्तु की तीन अवस्थाएं हैं। लेकिन पत्थर का बादल होने के लिए बहुत बड़े तापमान की जरूरत है, जैसा तापमान सूरज पर है। अगर हम पृथ्वी को सूरज के करीब ले जाएं, करीब ले जाएं, जैसे-जैसे पृथ्वी करीब पहुंचेगी, वैसे-वैसे पृथ्वी के तत्व वाष्पीभूत होने लगेंगे। सूरज के बिलकुल करीब जाकर पृथ्वी एक कोहरे का गोला भर रह जाएगी। उसके सारे तत्व अपनी दृढ़ता खो देंगे, ठोसपन खो देंगे और वाष्पीय हो जाएंगे।
लाओत्से कहता है कि इस सारी सृष्टि के पहले सभी कुछ कोहरे से भरा था।
विज्ञान की जो आधुनिकतम खोज है, उसका बोध लाओत्से को जरूर था। और अगर आज कोई विज्ञान के करीब से करीब आदमी पड़ेगा, पुराने जगत से खोजने पर, तो लाओत्से के वचन हैं।
लाओत्से कहता है, "देयर वाज समथिंग नेबुलस'
कुछ था कोहरे जैसा। उस कोहरे का कभी जन्म नहीं हुआ और उस कोहरे का कभी अंत नहीं होगा। जब कोहरा सघन हो जाता है तो पृथ्वियां निर्मित होती हैं। और जब कोहरा फिर कोहरा हो जाता है तो पृथ्वियां विलीन हो जाती हैं। लेकिन वह मूल कोहरा न कभी निर्मित हुआ है और न कभी नष्ट होता है। इसलिए जिसको हम सृजन और विनाश कहते हैं, वह सृजन और विनाश नहीं, केवल रूपांतरण हैं। जब पानी की बूंद आग पर पड़ कर भाप बन जाती है, तो हम सोचते हैं विनष्ट हो गई! वह जरा भी विनष्ट नहीं होती, सिर्फ भाप बन जाती है। और आज नहीं कल फिर पुनः पानी बन जाएगी। भाप बन जाना नष्ट हो जाना नहीं है, सिर्फ रूपांतरण है।
लाओत्से के हिसाब से जगत का होना और जगत का न होना पानी की बूंद के भाप बनने जैसा है। जो मौलिक है दोनों के बीच, वह कभी नष्ट नहीं होता। बूंद दिखाई पड़ती है तो हम सोचते हैं है। फिर आग की लपट में भाप बन कर उड़ जाती है, हम सोचते हैं नहीं है। ठीक यह जगत भी कभी ठोस होता है तो हमें मालूम पड़ता है कि है; उसे हम सृष्टि कहते हैं। और जब तरल होकर वाष्पीभूत हो जाता है तो उसे हम प्रलय कहते हैं। लेकिन जगत कभी नष्ट नहीं होता और कभी निर्मित नहीं होता।
विज्ञान भी इससे सहमति भरता है। विज्ञान कहता है कि हम एक छोटे से रेत के कण को भी नष्ट नहीं कर सकते। पदार्थ अविनाशी है--इनडिस्ट्रक्टिबल है। और हम एक रेत के छोटे से कण को निर्मित भी नहीं कर सकते। जब विज्ञान कहता है हम निर्मित नहीं कर सकते तो उसका मतलब यह है कि शून्य के बाहर निर्मित नहीं कर सकते; किन्हीं चीजों को मिला कर बना सकते हैं; लेकिन वे चीजें पहले से मौजूद थीं। जब विज्ञान कहता है हम नष्ट नहीं कर सकते तो उसका मतलब यह नहीं कि हम मिटा नहीं सकते; हम मिटा सकते हैं। रेत मिट जाएगी; लेकिन फिर कुछ और शेष रह जाएगा। बिलकुल नहीं मिटा सकते, किसी चीज को हम शून्य में नहीं बदल सकते। और किसी चीज को हम शून्य के बाहर पैदा नहीं कर सकते। जो भी है, वह किसी रूप में पहले था। और जो भी है, वह किसी रूप में आगे भी रहेगा। इस जगत में सभी कुछ अविनाशी है। विनाश असंभव है। और तब सृजन भी असंभव है।
इसलिए लाओत्से किसी स्रष्टा को, किसी क्रिएटर को नहीं मानता। लाओत्से नहीं कहता कि कोई ईश्वर है, जो सब बनाता है। बनाने की धारणा ही बचकानी है। और इस बनाने की धारणा की वजह से आस्तिक बड़ी तकलीफ में रहे हैं। क्योंकि नास्तिक उनकी इस बात को अंगुलियों पर तोड़ देते हैं। इसमें कुछ जान नहीं है। आस्तिकों की यह दलील कि हम ईश्वर को इसलिए मानते हैं, क्योंकि बनाने वाला कोई चाहिए, नास्तिकों को हंसी योग्य मालूम होती रही है। और हंसी योग्य है भी। अगर कोई इसीलिए आस्तिक है और सोचता है कि उसके पास प्रमाण है, क्योंकि हर चीज को बनाने वाला चाहिए, इसलिए इस जगत को भी बनाने वाला कोई होगा, तो वह बड़ी दुविधाओं में पड़ जाएगा। अगर सोचे न, तब तो ठीक है; सोचेगा तो मुसीबतें खड़ी हो जाएंगी।
पहली मुसीबत तो यह खड़ी होगी कि ईश्वर भी शून्य के बाहर नहीं बना सकता। शून्य से निर्माण असंभव है। अगर ईश्वर भी बनाए तो ज्यादा से ज्यादा अरेंजमेंट कर सकता है, क्रिएशन नहीं कर सकता। चीजें होनी ही चाहिए। हम कहते हैं, कुम्हार घड़ा बनाता है। घड़ा बनाता है; क्योंकि घड़ा कोई सृजन नहीं है, केवल मिट्टी का आकार बदलना है। मिट्टी मौजूद है। जो लोग कहते हैं कि कुम्हार की तरह ईश्वर जगत को निर्मित करता है, उनके लिए ईश्वर बनाने वाला नहीं है, सिर्फ संयोजन करता है, एक रूप देता है, एक मूर्तिकार है। लेकिन पत्थर पहले से चाहिए। अगर ईश्वर शून्य के बाहर बना सके तो ही सृजन की बात निर्मित हो सकती है। लेकिन शून्य के बाहर बनाने की धारणा भी असंभव है। शून्य से कुछ पैदा करने की धारणा भी असंभव है।
शून्य के बाहर तो सिर्फ स्वप्न ही निर्मित हो सकते हैं। और इसलिए शंकर की बात ठीक है; अगर ईश्वर बनाने वाला है, तो जगत माया है, सत्य नहीं है। इसे थोड़ा समझ लें। अगर ईश्वर बनाने वाला है, तो जो घड़ा उसने बनाया है, वह वास्तविक घड़ा नहीं है, स्वप्न का घड़ा है।
हां, शून्य से स्वप्न पैदा हो सकते हैं। रात आप सपने में कुछ निर्मित कर सकते हैं। उसके लिए किसी वस्तु की जरूरत नहीं होती। इसलिए जो लोग मानते हैं कि ईश्वर जगत का बनाने वाला है, उनके पास शंकर को मानने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। जगत झूठा है।
लेकिन तब बड़ी कठिनाइयां खड़ी होती हैं। क्योंकि अगर हम जगत को झूठा मान लें तो उसके बनाने वाले को सच मानने में बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि सारा तर्क इस बात पर निर्भर है कि जगत है और जगत को बनाने वाला कोई चाहिए। तो हमने माना कि ईश्वर है। अब ईश्वर को मान कर तकलीफ खड़ी होती है कि जगत झूठा होना चाहिए, स्वप्नवत होना चाहिए। क्योंकि शून्य से स्वप्न ही निर्मित हो सकता है। तो जगत माया है। लेकिन अगर इस झूठे जगत के कारण ही हम मानते हैं कि कोई बनाने वाला है, तो बनाने वाला भी झूठा हो जाता है, मायिक हो जाता है।
इसलिए शंकर को दूसरा कदम भी उठाना पड़ा। शंकर इस जगत में बहुत हिम्मतवर विचारकों में से एक हैं। दूसरा इससे भी...। एक तो कदम यह उठाना पड़ा शंकर को कि जगत माया है, झूठ है, इल्यूजरी है, मिथ्या है। लेकिन तब शंकर जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति को तत्काल दिखाई पड़ गया कि ईश्वर, इसका बनाने वाला, सच नहीं हो सकता। इसलिए शंकर ने कहा कि ईश्वर भी माया है, ईश्वर भी माया का हिस्सा है। और जब कोई ईश्वर के भी पार जाता है, तब ब्रह्म की उपलब्धि है। संसार के पार तो जाए ही, ईश्वर के भी पार जाए, तब ब्रह्म की उपलब्धि है।
लाओत्से कहेगा कि जिनके पार ही जाना है, उन्हें व्यर्थ उठाने की कोई जरूरत नहीं है। उस ऊहापोह में कोई सार नहीं है। लाओत्से कहता है, जगत शाश्वत है। इसलिए स्रष्टा को बीच में नहीं लाता। यह जो शाश्वत जगत है, यह अपने नियम से ही गतिमान है। उस नियम का नाम ताओ है।
हमें बहुत कठिनाई होती है। कठिनाई हमें होती है, क्योंकि जहां भी...। हम मनुष्य की भाषा सब जगह थोपते हैं। लेकिन विज्ञान मनुष्य से छुटकारा करवाता है चीजों का। और धीरे-धीरे मनुष्य से छूट कर चीजें नियमों के अंतर्गत चली जाती हैं।
समझ लें, एक छोटा बच्चा गिर पड़ता है तो वह फौरन गाली देता है जमीन को, कुर्सी से टकरा जाता है तो वह कहता है नॉटी, कुर्सी शैतान है। और अगर उसकी मां कुर्सी को दो चपत लगा दे तो वह प्रसन्न हो जाता है, खुश हो जाता है। निबटारा हो गया। कुर्सी ने शरारत की उसके साथ, उसको जवाब दे दिया गया। बच्चा यह सोच ही नहीं सकता कि कुर्सी बिना शैतानी करने के इरादे के उसे गिराती होगी। कुर्सी में कोई इरादा नहीं होगा, कोई व्यक्ति नहीं होगा, यह बच्चा नहीं सोच सकता। और अगर जमीन गिरा कर उसके पैर में चोट लगा देती है तो वह यह नहीं मान सकता कि न्यूटन कहता है कि गुरुत्वाकर्षण के कारण तुम गिर गए। बच्चा मानेगा कि गुरुत्वाकर्षण? तो मतलब कौन छिपा है उसके भीतर जो मुझे गिरा रहा है? बच्चे को कोई न कोई व्यक्ति चाहिए; तब निश्चिंतता हो जाती है। मुझे गिराने वाला कोई चाहिए, कोई दुश्मन वहां बैठा है जो मुझे गिरा रहा है।
बच्चों की भाषा में जो लोग सोचते हैं, उनके नियम को समझना उन्हें बड़ा कठिन पड़ेगा। लेकिन विज्ञान चाहे धर्म का हो, चाहे पदार्थ का, व्यक्तियों की भाषा में नहीं सोचता, इम्पर्सनल लॉज, निर्वैयक्तिक नियमों की भाषा में सोचता है। जमीन आपको गिराना नहीं चाहती। जमीन का कोई इरादा नहीं है। आप गलत चलते हैं, गिर जाते हैं। जमीन तो सिर्फ एक नियम है, एक कशिश है, एक आकर्षण का नियम है। आप ठीक नियम मान कर चलते हैं, जमीन आपको कभी गिराएगी नहीं। आप नियम के विपरीत चलते हैं, आप गिर जाते हैं। जमीन का कोई इरादा आपको गिराने का नहीं है। और जमीन को आपका पता भी नहीं है कि आप कब गिरे, क्यों गिरे। और जमीन की आप कितनी ही प्रार्थना और पूजा करें, अगर आप गलत चलेंगे तो कशिश आपके प्रति कोई दया-भाव नहीं कर सकती। आप गिरेंगे
धर्म के दो रूप हैं। एक धर्म का बचकाना रूप है। जिनकी बच्चों जैसी बुद्धि है, वे ईश्वर को व्यक्ति मान कर चलते हैं कि वहां आकाश में बैठा हुआ देख रहा है कि आप रात में पानी पी रहे हैं कि नहीं पी रहे हैं, कि आप किसी से झूठ बोले कि नहीं बोले। हिसाब लगा रहा है, बही-खाते लिए बैठा होगा।
अब तक पागल हो जाता, अगर कोई परमात्मा आपके सब कारनामों का हिसाब रखता होता। एक-एक आदमी अपने कारनामों से पागल हो जाता है। उसकी क्या गति होती, ईश्वर अगर यह सब हिसाब लगाता रहता? ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। लेकिन हम उसे व्यक्ति मान कर चलते हैं तो हम हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हैं उससे कि मुझ पर जरा दया रखना! मेरा जरा खयाल रखना! किससे आप बात कर रहे हैं? क्यों यह बात कर रहे हैं?
यह वही आपका तर्क है जो बच्चे का। कुर्सी से चोट लग जाए तो बच्चा समझता है, कुर्सी कोई शरारत कर रही है, शैतान कुर्सी है, अच्छी कुर्सी नहीं है। दूसरी कुर्सी जिस पर से वह कभी नहीं गिरा, उसे मानता है, साधु कुर्सी है, कभी गिराती नहीं। जिस दरवाजे से उसको खरोंच लग जाती है, वह समझता है, यह दरवाजा शरारती है। यह बच्चे की भाषा है। यह बच्चे की भाषा हम जब जगत पर लगा देते हैं तो हमारे बचकाने धर्मों का जन्म हो जाता है। फिर अगर ईश्वर हमें नौकरी लगवा देता है तो हम प्रसन्न होते हैं और अगर नहीं लगवाता तो हम नाराज होते हैं।
एक आदमी ने मुझे आकर कहा कि तीन दिन का समय दिया था। पत्नी बीमार थी और मैंने तीन दिन का समय जाकर मंदिर में भगवान को दे दिया और कहा कि अब सब दांव पर लगा दिया है। अगर तीन दिन में पत्नी ठीक नहीं होगी तो समझ लूंगा कि कोई ईश्वर नहीं है, और अगर ठीक हो गई तो सदा के लिए तुम्हारा भक्त हो जाऊंगा। पत्नी ठीक हो गई। वे सदा के लिए भक्त हो गए हैं। मैंने उनसे कहा कि अब दुबारा ऐसा मत करना। संयोग सदा काम नहीं करेगा। एक दफा परीक्षा ले ली, बहुत है। अब अपनी आस्तिकता को बचाना। अब दुबारा यह भूल मत करना। नहीं तो आस्तिकता मिट्टी में मिल जाएगी।
पर आदमी का मन ऐसा है कि उसकी पत्नी बीमार है, इसके लिए भी ईश्वर, ईश्वर को कुछ करना चाहिए। और वह यह भी सोचता है कि अगर मैं कहता हूं कि मैं तुम्हें मानना छोड़ दूंगा तो धमकी भी दे रहा है। और वह खुशामद भी कर रहा है कि मैं तुम्हारी पूजा करूंगा, फूल चढ़ाऊंगा। जैसे कि सारे फूल उस पर चढ़े हुए ही नहीं हैं। वह एक सलाह दे रहा है बुद्धिमानी की कि थोड़ी समझ से काम करना, नहीं तो एक आदमी को चूकोगे, खो जाओगे। जैसे ईश्वर का होना कोई लोकतांत्रिक मतों पर निर्भर है; कि एक मत, एक वोट हाथ से जाता है। वह आदमी यह कह रहा है कि पार्टी बदल लूंगा। तीन दिन के भीतर!
मगर हमारी सारी आस्तिकता ऐसी ही है, सशर्त है। इसलिए ध्यान रखें, जो आस्तिकता शर्त से बंधी है, वह अभी बचकानी है, अभी प्रौढ़ नहीं हो पाई। अभी समझ पैदा नहीं हुई; अभी हम बच्चों की तरह जगत के साथ व्यवहार कर रहे हैं।
लाओत्से एक प्रौढ़ धर्म की बात कर रहा है। वहां ईश्वर व्यक्ति नहीं है, नियम है। फर्क इसलिए समझ लेना जरूरी है कि जब ईश्वर नियम हो जाता है, तो प्रार्थना नहीं, आचरण मूल्यवान हो जाता है। और जब ईश्वर व्यक्ति होता है, तो आचरण नहीं, प्रार्थना मूल्यवान होती है। जब व्यक्ति ईश्वर होता है, तो हम जो कर रहे हैं उसके आस-पास, उसे हम एक आदमी मान कर करते हैं। फुसला भी सकते हैं; नाराज भी कर सकते हैं; प्रसन्न भी कर सकते हैं। लेकिन जब ईश्वर एक नियम है, तो ये सारी बातें व्यर्थ हो गईं। न फुसलाया जा सकता; न राजी किया जा सकता; न धमकी दी जा सकती; न भयभीत किया जा सकता। कुछ भी नहीं किया जा सकता।
फर्क समझ लें। जब तक ईश्वर एक व्यक्ति है, तब तक हमारी कोशिश होती है ईश्वर को बदलने की। जब एक आदमी जाकर कहता है: मेरी पत्नी बीमार है, उसे ठीक करो। यह वह यह कह रहा है कि अपना निर्णय बदलो, मेरी पत्नी को बीमार रखने की तुमने जो कोशिश की है, उसे बदलो। एक आदमी कह रहा है कि मैं मर रहा हूं, मुझे बचाओ; एक आदमी कह रहा है, मैं गरीब हूं, मुझे अमीर करो; कुछ भी कह रहा है, कुछ मांग रहा है। वह यह कह रहा है कि ईश्वर, तुम अपने को बदलो; तुम्हारे निर्णय से मैं राजी नहीं हूं; तुम्हारे निर्णय में कोई भूल है; तुमने जो भी निर्णय लिया है, अभी वह योग्य नहीं है; उसे बदलो। जब तक कोई व्यक्ति ईश्वर को व्यक्ति मानता है, तब तक ईश्वर को बदलने की कोशिश चलती है। हमारी प्रार्थनाएं, हमारी पूजाएं, हमारी उपासनाएं, उपवास, सब ईश्वर को बदलने की कोशिश हैं।
लेकिन ध्यान रखना, ईश्वर को बदलने का कोई उपाय नहीं है। और जो ईश्वर आदमियों से बदला जा सके, उस ईश्वर का फिर कोई भरोसा करने की जरूरत भी नहीं है।
जिस दिन ईश्वर नियम हो जाता है, उस दिन सारी चीज उलटी हो जाती है। तब हमें अपने को बदलने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रहता। अगर ईश्वर नियम है, तो मुझे अपने को बदलना पड़ेगा। क्योंकि नियम न किसी को क्षमा करता, न किसी का पक्षपात करता। नियम निर्वैयक्तिक है, इम्पर्सनल है। कितनी ही करूं प्रार्थना, कोई परिणाम न होगा। आचरण का ही परिणाम हो सकता है। कितनी ही उपासना, कितने ही उपवास, कुछ परिणाम न होगा। कितनी ही मांग करूं, कितनी ही कातरता से चिल्लाऊं, इससे कोई हल न होगा। नियम सुनता नहीं; नियम शब्दों को नहीं मानता। नियम तो आचरण को, भीतर जो बदलाहट होती है व्यक्तित्व की, उसको मानता है। मैं कितना ही पृथ्वी से कहूं कि मैं इरछा-तिरछा दौडूं, मेरी टांग मत तोड़ देना, उससे कोई फर्क न होगा। मैं गिरूं तो मुझे चोट मत देना; उससे कोई फर्क न होगा। मुझे अपने को ही बदलना पड़ेगा।
हां, मैं अपने को इतना बदल सकता हूं कि पृथ्वी का सारा गुरुत्वाकर्षण भी मुझे जरा सी चोट न पहुंचा पाए। क्योंकि गुरुत्वाकर्षण चोट पहुंचाने को नहीं है। गुरुत्वाकर्षण किसी को गिराने को नहीं है, न किसी को उठाने को है। गुरुत्वाकर्षण एक निर्वैयक्तिक नियम है। उस निर्वैयक्तिक नियम के बीच अगर मैं अपने को बदल लेता हूं--बदलने का मतलब है कि अगर मैं उस नियम और अपने बीच तालमेल, हार्मनी निर्मित कर लेता हूं; अगर उस नियम और मेरे बीच एक छंदबद्धता आ जाती है; उस नियम के और मेरे बीच कोई शत्रुता और कोई विरोध नहीं रह जाता; उस नियम और मेरे बीच एक अविरोध निर्मित हो जाता है; वह नियम और मैं एक हो जाते हैं; उस नियम से मेरी कोई अलग सत्ता नहीं रह जाती; उस नियम की मुझसे अलग कोई सत्ता नहीं रह जाती; हम मिल जाते हैं और एक हो जाते हैं--तो फिर उस नियम से मुझे दुख नहीं पहुंचता; उस नियम से मुझे आनंद मिलने लगता है।
जगत से हमें दुख पहुंचता है, क्योंकि हम नियम के प्रतिकूल हैं। जीवन हमारा नरक बन जाता है, क्योंकि हम नियम के प्रतिकूल हैं। जीवन स्वर्ग हो जाता है, जब हम नियम के अनुकूल हैं। और जीवन हो जाता है मोक्ष, जब हम नियम से एक हैं। इस फर्क को थोड़ा समझ लें। जब हम प्रतिकूल हैं, तब जीवन नरक हो जाता है। हम अपने ही हाथों दुख में उतरते चले जाते हैं। हम जो भी करते हैं, उससे हम कष्ट पाते हैं; क्योंकि वह नियम के अनुकूल नहीं है। हम कितना ही उपाय करें, हम सफल न हो सकेंगे। नियम की विपरीतता में कोई सफलता नहीं है।
लोग सोचते हैं, विज्ञान ने कितनी सफलता पाई! लेकिन क्या आपको पता है, विज्ञान की सारी सफलता इस बात पर निर्भर है कि उसने प्रकृति के नियमों के अनुकूल चलना सीख लिया! और तो कोई सफलता नहीं है। अगर विज्ञान के इतने शिखर उठ गए हैं आज सफलता के तो वह प्रकृति पर विजय के कारण नहीं। यह बिलकुल भ्रांत है धारणा। वह प्रकृति के नियम को समझ कर उसके अनुकूल चलने के कारण। जो विजय है विज्ञान की, वह समझ की दिशा में है; प्रकृति के ऊपर नहीं। बिना समझे अनुकूल चलना मुश्किल है; समझ कर अनुकूल चलना आसान हो जाता है। विज्ञान की सारी खोज प्रकृति के नियम को समझ लेने की खोज है।
धर्म की सारी खोज, वह जो परम नियम है--प्रकृति का ही नहीं, मनुष्य की चेतना के अंतसतम का भी--उसकी खोज है; उसके अनुकूल चलने की। उसका नाम है ऋत, उसका नाम है ताओ। उसके जो प्रतिकूल चलता है, वह दुख पाता है। इसलिए जब भी आप दुख पाएं, न तो किसी ईश्वर को दोषी ठहराना, न किसी और को दोषी ठहराना; क्योंकि वे सब भ्रांतियां हैं। तब एक ही बात समझना। न अपने को ही दोषी ठहराना। क्योंकि खुद को दोषी ठहरा लेने से भी कुछ हल नहीं होता। कुछ लोग तो खुद को दोषी ठहराने में भी मजा लेने लगते हैं। कुछ लोगों को खुद के अपराधी होने की चर्चा करने में भी आनंद होने लगता है। किसी को दोषी मत ठहराना।
इसलिए हमने इस मुल्क में ठीक उस तरह नहीं सोचा है, जैसे ईसाइयत ने सोचा है। ईसाइयत बोलती है जो भाषा, उसमें पाप, अपराध बड़े महत्वपूर्ण हैं। ईसाइयत कहती है कि तुम जो गलती कर रहे हो, वह तुम्हारा पाप है। हिंदू चिंतन कहता है, वह तुम्हारा अज्ञान है, पाप नहीं। यह बड़े मजे का फर्क है, और गहरा फर्क है। हिंदू चिंतन कहता है, वह अज्ञान है, पाप नहीं। क्योंकि पाप में तो अपराध का भाव हो जाता है। अज्ञान का केवल इतना ही मतलब है कि तुम्हें पता नहीं कि तुम क्या कर रहे हो, इसलिए दुख पा रहे हो। पाप का तो मतलब है, तुम्हें पता है कि तुम क्या कर रहे हो और फिर भी तुम कर रहे हो। पापी ज्ञानी हो सकता है। अज्ञानी को पापी कहना ठीक नहीं है। अज्ञान में क्या पाप है? उसे पता ही नहीं। मुझे पता नहीं है रास्ता कौन सा है और मैं भटक जाता हूं, तो मैं पापी नहीं हूं, कोई अपराध नहीं कर रहा हूं। कोई उपाय ही नहीं है, मैं भटकूंगा ही। पापी तो मैं उसी दिन होता हूं, जिस दिन मुझे पता था कि रास्ता क्या है, और मैं जान कर हटा।
लेकिन हिंदू चिंतन कहता है, जान कर दुनिया में कोई पाप नहीं कर सकता। जान कर आदमी वैसे ही पाप नहीं कर सकता, जैसे कि आग में जान कर कोई हाथ नहीं डाल सकता। छोटा बच्चा डाल देता है, क्योंकि उसे पता नहीं है। लेकिन छोटा बच्चा पापी नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि पापी नहीं है तो आग में हाथ डाल देगा तो आग जलाएगी नहीं। इसका यह मतलब भी नहीं है कि आग में हाथ डालेंगे आप अज्ञान में तो कष्ट न पाएंगे। कष्ट तो पाएंगे ही। लेकिन वह कष्ट अज्ञान का कष्ट है।
इसलिए जब आपके जीवन में दुख हो तो न तो ईश्वर को दोषी ठहराना, न भाग्य को, न दूसरों को, न अपने को; सिर्फ इतना ही समझना कि नियम के कहीं प्रतिकूल चले गए हैं। नियम को भी दोषी ठहराने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि नियम आपसे कहता नहीं कि प्रतिकूल चले जाएं। और अपने को भी दोषी ठहराने का कोई कारण नहीं है; क्योंकि पता नहीं है, इसलिए प्रतिकूल चले गए हैं।
लेकिन हम दोषी ठहरा कर बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं; मूल बात चूक जाती है। मूल बात इतनी है कि नियम से जितनी प्रतिकूलता होती है, उतना सघन दुख हो जाता है--उसी मात्रा में। अगर दुख बढ़ता ही चला जाए तो आप समझना कि आप नियम के प्रतिकूल चले ही जा रहे हैं, दूर हटते जा रहे हैं नियम से। जब कभी जीवन में आपको सुख की झलक मिले तो यह मत सोचना कि परमात्मा की कृपा है; यह भी मत सोचना कि आप बड़े पुण्यशाली हैं; इतना ही सोचना कि आप जाने-अनजाने नियम के करीब, अनुकूल पड़ गए हैं। सुख की जो हलकी हवा आ गई है, एक झोंका सुख का आकर आपको घेर गया है...।
इसलिए एक बड़ी मजे की घटना घटती है कि जब भी आदमी को पता चलता है कि वह सुख में है, तभी दुख शुरू हो जाता है। जैसे ही उसे पता चलता है कि सब सुख में है, वैसे ही दुख शुरू हो जाता है। क्यों हो जाता है?
जैसे ही उसे पता चलता है कि सुख में है, वह यह नहीं समझ पाता कि नियम के करीब है और खोज करे कि कहां से नियम के करीब है; वह सोचने लगता है कि मैं बड़ा सौभाग्यशाली हूं, मुझसे सौभाग्यशाली और कोई भी नहीं। वह कुछ गलत दिशा में यात्रा शुरू हो गई। वह सोचता है, मैं बहुत बुद्धिमान हूं, इसलिए यह सुख मुझे मिल रहा है। या वह यह सोचने लगता है कि यह सुख मैंने पा लिया, इसलिए अब मैं जब भी चाहूंगा, यह सुख पा लूंगा। तब मुसीबतें खड़ी हो जाएंगी। करीब-करीब ऐसी हालत है कि जैसे हम अंधे भाग रहे हों और अचानक दरवाजे पर हाथ पड़ जाए और हवा का एक झोंका लग जाए। नियम के करीब हम जब पड़ जाते हैं, जाने-अनजाने, तो सुख का अनुभव होता है। अगर आपका सुख बढ़ता चला जाए तो समझना कि आप नियम के करीब पहुंच रहे हैं।
लेकिन करीब भी एक तरह की दूरी है। इसलिए सुख में भी दुख का एक मिश्रण है। जब तक हम नियम से एक न हो जाएं, तब तक आनंद का अनुभव नहीं होता। कितने ही निकट हों, फिर भी एक दूरी है। और इसलिए सभी सुख थोड़े दिनों बाद दुख हो जाते हैं। उनके हम आदी हो जाते हैं। जब पहली दफा हवा का झोंका लगता है तो लगता था कि एक ताजगी बरस गई, स्नान हो गया, किसी एक परम अनुभव में उतरना हो गया। फिर जब आदमी खिड़की पर ही खड़ा रहता है, आदी हो जाता है; फिर भूल जाता है। सुख भी शीघ्र ही दुख हो जाता है। सिर्फ आनंद कभी बदलता नहीं है। क्योंकि दूरी इतनी भी नहीं रह जाती कि हम कहें कि निकटता है। एकता ही हो जाती है। मोक्ष, निर्वाण, ताओ, उस एकता के नाम हैं।
लाओत्से कहता है, जब कुछ भी न था, अर्थात जब कुछ भी प्रकट न था, जब कुछ भी अभिव्यक्त न हुआ था, सब कोहरे से भरा था--मौन। क्योंकि शब्द भी एक अभिव्यक्ति है। शब्द भी आकार है। शब्द भी ठोस है।
इसे थोड़ा हम समझ लें। जब मैंने कहा कि सभी चीजों की तीन अवस्थाएं होती हैं, तो शब्द की भी तीन अवस्थाएं होती हैं। एक अवस्था है शब्द की, जब हम बोलते हैं। लेकिन बोलने में भी कभी खयाल किया होगा, कुछ शब्द तरल होते हैं। जब हमें लगता है किसी शब्द में बड़ी मिठास है, लगता है किसी शब्द में बड़ा काव्य है, लगता है किसी शब्द में सौंदर्य के फूल खिल गए, तब शब्द तरल होता है।
काव्य एक तरलता है। प्रोज और पोएट्री में वही फर्क है--ठोस और तरल होने का। गद्य ठोस है, जैसे बर्फ जमी हुई। पद्य तरल है, जैसे बर्फ पिघल गई और बहने लगी। इसलिए विज्ञान कविता की भाषा में नहीं लिखा जा सकता। विज्ञान सीमा मांगता है--ठोस, स्पष्ट परिभाषा। प्रेम-पत्र कविता में लिखे जा सकते हैं; गणित कविता में नहीं किया जा सकता। गणित ठोस शब्द मांगता है। काव्य है तरल बात।
कोई पूछता था दांते से, दांते ने एक गीत लिखा है। किसी को प्रीतिकर लगा और वह दांते से पूछने गया कि इसका अर्थ क्या है? तो दांते ने कहा, जब मैंने लिखा था तो दो आदमियों को इसका अर्थ पता था--मुझे और परमात्मा को। अब सिर्फ परमात्मा को ही पता है; अब मुझे अर्थ पता नहीं है।
कवि को भी, वह जो लिखता है, उसका पूरा अर्थ पता नहीं होता। और अगर पता हो तो वह कवि बहुत छोटा है। उसका मतलब है, कविता कम है, तुकबंदी ज्यादा है। अगर काव्य सचमुच जन्म ले तो बिलकुल तरल होता है, उसकी कोई सीमाएं नहीं होतीं। उसके अनेक अर्थ हो सकते हैं; अर्थ पर कोई पाबंदी नहीं होती।
इसीलिए वेद हैं, उपनिषद हैं, उनके हम इतने अर्थ कर पाए। फिर भी अर्थ चुक नहीं सकते; क्योंकि वे सब काव्य हैं, तरल हैं। गीता पर हजारों टीकाएं हो सकती हैं, हुईं, होती रहेंगी। और कभी ऐसा दिन नहीं आएगा कि हमें कहना पड़े कि बस अब गीता पर और किसी टीका की कोई भी जरूरत न रही। क्योंकि गीता एक काव्य है, गणित का ग्रंथ नहीं। तरल है, कोई सीमा नहीं है। इसलिए परिभाषाओं में कुछ बंधता नहीं है।
पुरानी सब भाषाएं काव्य-भाषाएं हैं--अरबी है, ग्रीक है, संस्कृत है। इसलिए अरबी, ग्रीक या संस्कृत में एक-एक शब्द के दस-दस, बारह-बारह, पंद्रह-पंद्रह अर्थ हैं। इससे खेलने की बड़ी सुविधा है। इसलिए वेद की एक कड़ी के पचास अर्थ किए जा सकते हैं। कोई गलत और कोई सही नहीं। वहीं भ्रांति शुरू होती है, जब कोई कहता है कि दूसरे ने जो अर्थ किया, वह गलत है। वह काव्य-कड़ी है, तरल है।
इसलिए अरविंद उसमें से चाहें तो वह अर्थ निकाल सकते हैं, जो आइंस्टीन का है। आइंस्टीन के पहले वह अर्थ उसमें से नहीं निकाला जा सकता था। अब निकाला जा सकता है। अब जैसे वेद कहते हैं कि सूर्य के सात घोड़े हैं, अश्व। अब अश्व के संस्कृत में कई अर्थ होते हैं। उसका अर्थ किरण भी होता है; उसका अर्थ घोड़ा भी होता है। तो सूरज के सात घोड़े हैं। सूरज के रथ में चित्रकारों ने सात घोड़े जोते हैं। लेकिन हम चाहें तो अब कह सकते हैं कि नहीं, वे घोड़े नहीं हैं, सात रंग हैं; सूरज की किरण में सात रंग हैं। वह अभी फिजिक्स की नवीनतम खोज है; हम उसका दर्शन कर सकते हैं। कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि अश्व के दोनों ही अर्थ होते हैं, किरण भी और घोड़ा भी।
पुरानी सब भाषाएं काव्य-भाषाएं हैं। नई भाषाएं गद्य-भाषाएं हैं, ज्यादा ठोस हैं। इसलिए अगर संस्कृत में विज्ञान लिखना हो तो बड़ी मुश्किल बात है। और अगर एस्प्रैंटो में कविता लिखनी हो तो मुश्किल बात है। क्योंकि एस्प्रैंटो नवीनतम आदमी की बनाई हुई भाषा है। वह बिलकुल गणित जैसी है। उसमें जो कहा गया है, वही अर्थ होता है। जो कहा जाए, अगर वही अर्थ हो, तो कविता का जन्म मुश्किल है। जो कहा जाए, उससे बहुत अर्थ हो सके ज्यादा, तो ही कविता पैदा हो सकती है।
प्रेम में जब हम बोलते हैं, तो शब्द तरल होते हैं। इसलिए कभी आपने खयाल किया कि दो जवान व्यक्ति भी अगर प्रेम में पड़ जाएं तो फिर से बच्चों की भाषा बोलने लगते हैं, बेबी-लैंग्वेज शुरू हो जाती है। दो प्रेमी जो भाषा बोलते हैं आपस में, वह बच्चों जैसी बोलते हैं। बच्चों की भाषा ज्यादा तरल है। और प्रेम को तरल भाषा की जरूरत है। इसलिए प्रेमी अगर अपनी प्रेयसी को बेबी कहने लगता है तो कोई ऐसे अकारण नहीं। कारण है। वे दोनों बच्चे हो गए हैं।
लेकिन भाषा की एक तीसरी, शब्द की एक तीसरी अवस्था भी है, जहां गद्य-पद्य दोनों खो जाते हैं। वह है वायवीय अवस्था, जहां गैस बन जाता है शब्द। उसका नाम ही मौन है। मौन भी शब्द की ही अवस्था है।
ठोस बोला जा सकता है। जब आप किसी को क्रोध में बोलते हैं, तो शब्द ठोसतम होते हैं। गाली वजनी होती है, उसमें वजन होता है, वेट होता है। इसलिए हम कहते हैं कि बड़ी वजनी गाली दी। ठोस होती है। इसलिए छिद जाती है, पत्थर की तरह चोट करती है। प्रेम में बोले गए शब्द तरल होते हैं। उनकी चोट पत्थर की तरह नहीं होती है, उनकी चोट ऐसी होती है, जैसे ऊपर फूल की वर्षा हो जाए।
मौन शब्द की तीसरी अवस्था है, जहां शब्द भाप बन जाते हैं, कोहरे में खो जाते हैं।
तो लाओत्से कहता है, वह जो कोहरा था, मौन था; पृथक, एकाकी खड़ा। कोई दूसरा न था, अकेला था। अपरिवर्तित, कोई परिवर्तन न था; नित्य, निरंतर घूमता हुआ; सभी चीजों की जननी बनने योग्य!
इस फर्क को थोड़ा खयाल में लेंगे।
जो लोग मानते हैं ईश्वर ने जगत को बनाया, वे हमेशा गॉड दि फादर, ईश्वर पिता है, इस भाषा में सोचेंगे। लेकिन लाओत्से कहता है, मां! पिता नहीं। वह जो कोहरा था, सारे जगत की जननी बनने योग्य, मां बनने योग्य!
ईश्वर को पिता की तरह सोचना कई बातों की तरफ सूचना देता है। पहली बात, पिता का बच्चे के जन्म में न के बराबर संबंध होता है--न के बराबर। पिता बच्चे को जन्म दूर से देता है, अपने भीतर से नहीं। बच्चे के विकास, उसकी ग्रोथ, उसके निर्माण में उसका कोई हाथ नहीं होता। प्रारंभ में उसका हाथ होता है। जैसे आपके कार में बैटरी है स्टार्टर, बस वह स्टार्टर भर है। और जैसे ही इंजन शुरू हो गया, उसका कोई उपयोग नहीं है।
तो अगर ईश्वर पिता है तो जगत को बना कर वह दूर हट जाएगा। लेकिन ईश्वर अगर मां है तो जगत उसका गर्भ है। अगर ईश्वर पिता है तो बनाना एक कृत्य है--एटामिक, आणविक। लेकिन अगर ईश्वर मां है तो सृजन एक शाश्वतता है--इटरनल
इसलिए लाओत्से कहता है कि वह जो कोहरा था मौन, अकेला, अपरिवर्तित, स्वयं में घूमता हुआ, वह सबकी जननी बनने योग्य। सब उससे पैदा हो सकता है। सबकी संभावना है उससे पैदा होने की।
इसलिए कई बार, कई बार इन दोनों के बीच आंदोलन होता रहा है। कुछ लोगों ने परम सत्ता को मां की तरह सोचा है; कुछ लोगों ने परम सत्ता को पिता की तरह सोचा है। लेकिन जो लोग भी गहरे गए हैं, उन्होंने उसे सदा मां की तरह सोचा है।
मां के लिए बच्चे का जन्म बड़ी और बात है। उसके ही खून, उसके हड्डी-मांस, बच्चा उसका हिस्सा है। उसकी ही सांसें उसमें प्रविष्ट हो जाती हैं। उसकी ही आकांक्षाएं, उसके ही स्वप्न उसके खून में गतिमान हो जाते हैं। उसकी ही धड़कनें उसमें धड़कती हैं। मां और उस बच्चे का संबंध ज्यादा आंतरिक है, गहन है।
पिता एक धूमकेतु की तरह जीवन में आता और अलग हो जाता। पिता के बिना चल सकता है; मां के बिना नहीं चल सकता है। शायद भविष्य में विज्ञान थोड़ा विकसित हो तो पिता व्यर्थ भी हो जाए। क्योंकि ऐसे बायोलाजिकली जो वह करता है, वह एक इंजेक्शन से भी हो सकता है। कोई पिता का होना कोई बहुत गहन अर्थ नहीं रखता है। इसलिए पिता एक सामाजिक संस्था है, नैसर्गिक नहीं। मां एक नैसर्गिक है, वह संस्था नहीं है। पिता एक संस्था है, इंस्टीटयूशन है; हमने बनाई है। मां हमने बनाई नहीं है, वह है।
लाओत्से कहता है, "जननी बनने योग्य!'
उसके एक-एक शब्द बहुत विचारणीय हैं। क्योंकि वह शब्दों के मामले में बहुत कृपण है। शब्दों के मामले में वह बहुत कृपण है; वह बामुश्किल बोलता है--टेलीग्राफिक है। अगर एक शब्द काट सके तो वह जरूर काट देगा। जितना कम बन सके, उतना ही कहने की उसकी मर्जी है। तो वह ऐसे ही उपयोग नहीं कर लेता है; जब वह कहता है जननी बनने योग्य तो वह बहुत सी बातें कहता है। वह कहता है, यह जगत का अस्तित्व और जगत की अभिव्यक्ति एक ही चीज हैं, दो नहीं। परमात्मा कहीं दूर बैठा हुआ नहीं है; वह परम सत्य, वह परम नियम जगत में अनुस्यूत है। वह आपके भीतर, आपकी हड्डी में, जैसे आपकी मां आपकी हड्डी में, आपके खून में, आपकी चर्बी में अनुस्यूत है, ऐसे ही वह परम नियम आपके रोएं-रोएं में अनुस्यूत है। वह आपके पिता की तरह दूर खड़ा नहीं हो गया।
और पिता के संबंध में सदा संदेह हो सकता है; मां भर असंदिग्ध है। इसलिए पिताओं को सदा संदेह बना ही रहता है कि वे सच में अपने बेटे के पिता हैं या नहीं हैं। और इसलिए उन्होंने बड़ा इंतजाम किया है इसको व्यवस्थित करने का कि संदेह न हो। इतनी जोर् ईष्या, इतना जो नियम, इतना जो परिवार, इतना जो बंधन, स्त्री पर इतना जो जाल, इस सारे जाल का मौलिक कारण कुल इतना है कि पिता संदिग्ध है। उसे पक्का भरोसा कभी नहीं आता कि जो बेटा है, वह उसका ही है। इतना सब इंतजाम करके वह भरोसे में हो पाता है।
इसलिए विवाह करे तो कुंआरी लड़की से; वह भरोसे के लिए। पूरा पक्का भरोसा रखना चाहता है। इसलिए हम कुंआरे लड़के की फिक्र नहीं करते कि विवाह के वक्त लड़का कुंआरा था कि नहीं। अगर लड़का थोड़ा भी लड़का है तो कुंआरा होना बहुत मुश्किल है। लेकिन लड़की कुंआरी होनी चाहिए। फिर हम फिक्र नहीं करते, तो हम कहते हैं कि पुरुष तो पुरुष हैं। अगर वे कुछ यहां-वहां भटकते हैं तो हम कहते हैं कि पुरुष तो पुरुष हैं। लेकिन स्त्री पर हमारा सख्त...। उसका कारण है। उसका कारण है कि पुरुष कभी भी निश्चिंत नहीं हो पाता; भीतर एक संदेह और एक शक का बीज उसमें बना ही रहता है।
सिर्फ मां असंदिग्ध है। मां भर जानती है कि बेटा उसका है। उस मामले में कोई संदेह का उपाय नहीं है।
जिन लोगों ने परमात्मा को पिता की तरह माना है, उन्होंने बड़ी दूरी खड़ी कर दी। पिता की तरह परमात्मा भी एक संस्था हो गया--दूर। मां की तरह परमात्मा एक संस्था नहीं है, एक नैसर्गिक व्यवस्था है--निकट।
लाओत्से कहता है, जननी बनने योग्य वह कुहासा था।
सब उससे पैदा हो सकता है। स्रष्टा नहीं है वह, जननी है। सब उससे निकल सकता है, जैसे मां से बेटा निकल सकता है। वह कोई कुम्हार की तरह घड़ा बनाने वाला नहीं है। मां की तरह है, उसके ही गर्भ से सब पैदा हो सकता है; सब संभावित है।
"मैं उसका नाम नहीं जानता हूं।'
लाओत्से कहता है, मैं उसका नाम नहीं जानता हूं। यही नहीं कहता कि उसका नाम कहा नहीं जा सकता है; वह यह कहता है कि मैं उसका नाम जानता ही नहीं हूं। यह तो बहुत लोगों ने कहा है कि उसका नाम कहा नहीं जा सकता। लेकिन उसमें यह भी लग सकता है कि उनको तो पता है; कह नहीं सकते, कहने में तकलीफ है। जैसा हम निरंतर कहते हैं, गूंगे का गुड़। हम कहते हैं, गूंगा कह नहीं सकता कि गुड़ मीठा है, लेकिन गूंगे को पता तो है कि मीठा है। इसमें कोई शक नहीं है कि गूंगे को पता नहीं है, गूंगे को पता है, कह नहीं पाता। तो हमने कहा है कि संतों को पता है, कह नहीं पाते। क्योंकि भाषा असमर्थ है।
लाओत्से बहुत हिम्मत से कहता है, वह कहता है, मैं उसका नाम नहीं जानता हूं। मुझे उसका नाम पता ही नहीं है। क्योंकि उसका नाम है ही नहीं। यह सिर्फ अभिव्यक्ति की कठिनाई नहीं है; अस्तित्व अनाम है।
बोधिधर्म चीन गया। लाओत्से जैसा ही अनूठा आदमी था। भारत ने जो दस-पांच अनूठे आदमी पैदा किए, उनमें बोधिधर्म एक है। वह चौदह सौ साल पहले चीन गया। सम्राट ने उसका स्वागत किया। और सम्राट ने बड़ी आशाएं बांध कर रखी थीं। इतना महान मनीषी आता था तो सम्राट के मन में बड़े लोभ थे, बहुत कुछ हो सकेगा। सम्राट ने आते ही उससे पूछा, बोधिधर्म से, कि मैंने इतने-इतने मंदिर और विहार बनवाए, इनका क्या लाभ होगा? बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं, नथिंग
सम्राट थोड़ा चौंका। क्योंकि संन्यासी आमतौर से ऐसी भाषा नहीं बोलते। ऐसी भाषा बोलें तो संन्यासी जी नहीं सकते। संन्यासी समझाते हैं, इतना पुण्य करो, इससे हजार गुना मिलेगा। पुण्य तो संन्यासियों को मिलता है, हजार गुना मौत के बाद का सवाल है। उसके बाबत अब तक कुछ तय नहीं हुआ कि कितना गुना मिलता है, कि नहीं मिलता, कि पाप लगता है, कि क्या होता है। कुछ पता नहीं है। पुरोहित अगर ऐसी भाषा बोलें, बोधिधर्म जैसी, तो सारा धंधा टूट जाए। पुरोहित का धंधा आपके लोभ के शोषण पर निर्भर है। वह आपको कहता है, एक पैसा छोड़ो गंगा जी में, करोड़ मिलेंगे वहां, करोड़ गुना पाओगे। करोड़ गुना के लोभ में आदमी एक पैसा छोड़ता है। यह एक पैसा पुरोहित को मिल जाता है। बाकी करोड़ इसको मिलते हैं या नहीं मिलते, यह यह आदमी जाने।
बोधिधर्म के पहले और भी बौद्ध भिक्षु आए थे चीन में। उन्होंने सम्राट को समझाया था, विहार बनवाओ, मंदिर बनवाओ, बुद्ध की प्रतिमाएं बनवाओ। बड़ा पुण्य होगा। स्वर्ग तुम्हारा होगा। और बोधिधर्म कहता है, कुछ भी नहीं। तो सम्राट ने दुबारा--सोचा, शायद बोधिधर्म समझा नहीं--तो उसने कहा कि मैंने इतने पवित्र कृत्य किए, उनका पुण्य क्या? बोधिधर्म ने कहा, कोई कृत्य पवित्र नहीं है। सम्राट ने पूछा, धर्म क्या है? सोचा उसने, छोड़ो पुण्य की बात। बोधिधर्म ने कहा, पूछो और उत्तर मिल जाए, ऐसा धर्म नहीं है। जीओ, पा सकते हो।
तब सम्राट ने सोचा, यह हद हो गई। और सम्राट था, साधारण आदमी न था। उसके अहंकार को भारी चोट लग रही है बार-बार। हजारों लोग इकट्ठे थे। वे सुन कर बोधिधर्म का उत्तर मुस्कुराते। और सम्राट को दीनता मालूम होने लगी। तो सम्राट ने कहा, ये सब बातें छोड़ो; इसका भी पता नहीं, उसका भी पता नहीं। तुम कौन हो? हू आर यू? बोधिधर्म ने कहा, आई डोंट नो, मुझे पता नहीं, मुझे बिलकुल पता नहीं। हम सोचेंगे शायद बोधिधर्म को कहना था, मैं आत्मा हूं, मैं ब्रह्म हूं। उसने कहा कि आई डोंट नो, मुझे पता ही नहीं है।
सम्राट ने कहा, जब तुम्हें कुछ ही पता नहीं है तो तुम हमें क्या बताओगे? सम्राट वापस लौट गया।
बोधिधर्म के शिष्यों ने कहा, आपने यह क्या किया? आपने ऐसे उत्तर दिए कि वह हताश हो गया।
बोधिधर्म ने कहा, मैंने तो सोच कर कि सम्राट है, श्रेष्ठतम उत्तर दिए थे। अंतिम उत्तर दिए थे, सोच कर कि बुद्धिमान होगा। अशिक्षित निकला। मैंने तो अंतिम उत्तर दिए थे। मुझे क्या पता कि अशिक्षित गंवार है! नहीं तो मैं कह देता कि मेरा नाम बोधिधर्म है। इसमें क्या अड़चन थी? सोच कर कि सम्राट है, सुसंस्कृत है, मैंने अंतिम उत्तर दिए थे--अल्टीमेट। यह आखिरी उत्तर है।
लाओत्से कहता है, "मैं उसका नाम नहीं जानता हूं, और उसे ताओ कह कर पुकारता हूं।'
यह उसका नाम नहीं है, यह मेरा दिया हुआ नाम है।
जैसे आपके घर में एक बच्चा पैदा होता है, उसको कोई नाम नहीं है। आप उसे नाम देते हैं। अगर समझ हो तो कहना चाहिए कि मैं उसे मुन्ना कह कर पुकारता हूं। यह उसका नाम नहीं है। हमें उसका नाम पता नहीं है। लेकिन बिना नाम के कैसे पुकारें, इसलिए हमने उसे यह नाम दे दिया है--अ, , स। यह उस बच्चे को भी समझाया जाना चाहिए कि यह उसका नाम नहीं है, केवल एक इंतजाम है पुकारने का। एक कामचलाऊ इंतजाम है। अज्ञान है गहन और हमें नाम का कोई पता नहीं है। इसलिए हम यह नाम रख लिए हैं। यह बच्चे को भी पता होना चाहिए।
लेकिन मां-बाप भी भूल जाते हैं कि यह नाम सिर्फ पुकारने के लिए है। फिर बेटा भी सुनते-सुनते भूल जाता है कि नाम पुकारने के लिए था। जब कोई आपके नाम को गाली देता है तो आपको लगता है गाली आपको दी गई है। अगर आपको पता होता यह नाम सिर्फ पुकारने के लिए है तो आप कहते कि मेरे नाम को गाली दी गई है, मेरा इससे कुछ लेना-देना नहीं। जब आपके नाम को कोई जयजयकार करता तो आप कहते, मेरे नाम का जयजयकार किया जा रहा है, मेरा इससे कोई संबंध नहीं है। मैं तो अनाम हूं, यह कामचलाऊ है। अगर कोई व्यक्ति अपने नाम के संबंध में इतना स्मरण रख सके तो यह स्मरण भी ध्यान बन जाता है।
लेकिन बड़ा मुश्किल है। एक क्षण भी याद रखना मुश्किल है; चूक जाएगा। जरा...।
हुई हाई अपने गुरु के पास गया था। और उसके गुरु ने हुई हाई को समझाया कि पहला सूत्र तुझे देता हूं कि तू तेरा नाम नहीं है, इसको स्मरण रख। उसने कहा कि आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, स्मरण रखूंगा। और तभी जोर से उसके गुरु ने कहा, हुई हाई! और उसने कहा, जी! उसके गुरु ने कहा, कैसे तू स्मरण रखेगा? जरा तो संयम रखता जी कहने में!
ऐसे ही हमारा विस्मरण हो जाएगा। कितना ही हम मन में समझाते रहें कि यह जो गाली दी जा रही है, मेरे नाम को दी जा रही है; लेकिन गाली भीतर लगती ही चली जाएगी। छेद हृदय में हो जाएगा, नाम में नहीं। तीर वहां भीतर घुस जाएगा, नाम में नहीं।
लाओत्से कहता है, "मुझे उसका नाम पता नहीं, मैं उसे ताओ कह कर पुकारता हूं। यदि मुझे नाम देना ही पड़े, अगर तुम मानो ही न बिना नाम के, तो मैं उसे महत कहूंगा। इफ फोर्स्ड टु गिव इट ए नेम, आई शैल काल इट ग्रेट; अगर कहना ही पड़े कुछ नाम तो मैं उसे महत कहूंगा।'
महत का उपयोग सांख्य ने भारत में किया है। महत का मतलब होता है, जो इतना महान है कि उसकी हम सीमा न बना सकें। महान का मतलब है, जो फैलता ही चला गया है, जिसकी कोई सीमा नहीं है।
"महान होने का अर्थ है अंतरिक्ष में फैलाव की क्षमता।'
इससे भी विज्ञान का बड़ा संबंध है। आज तो विज्ञान कहता है कि यह जो हमारा यूनिवर्स है, ऐसा मत सोचें कि यह ठहरा हुआ है, यह एक्सपैंडिंग है। इस विचार ने फिजिक्स की सारी आधारशिलाएं हिला दीं और बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। क्योंकि यह तो हमारी समझ में आता है कि यह जगत कितना ही बड़ा हो, हमारी बुद्धि इसको कितना ही बड़ा सोचे, फिर भी ऐसा लगता है, कहीं तो सीमा होगी--कितनी ही दूर हो वह सीमा। लेकिन यह हमारी बुद्धि के लिए ग्रहण करना असंभव है कि कहीं भी सीमा न होगी। हमारा मन कहेगा, और आगे सही, और आगे सही, और आगे सही--कहीं तो होगी। यह भी हो सकता है, हम न पहुंच सकें वहां तक, लेकिन फिर भी तो होगी।
मन असीम को नहीं सोच सकता। मन की सोचने की क्षमता सदा सीमा के भीतर है।
महान का अर्थ है, जो मन से सोचा न जा सके। इसलिए जब आप कहते हैं फलां व्यक्ति बहुत महान है, तो आपको पता नहीं आप क्या कह रहे हैं। महान का मतलब है, जो आपकी पकड़ में न आए, जिसको आप कितना ही खोजें और जिसकी सीमा न खोज पाएं। लेकिन उसको आप महान नहीं कहते, आप तो महान उसको कहते हैं जो आपके तराजू में तुल जाए। आप कहें कि बिलकुल ठीक है। जितने कपड़े पहनना चाहिए, उतने ही कपड़े पहने हुए है; लंगोटी लगानी चाहिए, लंगोटी लगाए हुए है; एक दफा खाना खाना चाहिए, एक दफा खाना खाता है; पैदल चलना चाहिए, पैदल चलता है; आंख नीचे रखनी चाहिए, नीचे रखता है; हिंसा नहीं करता; बुरे वचन नहीं बोलता; महान है। आपकी तराजू पर जो तुल गया, वह महान है।
आपकी तराजू पर जो तुल जाए, वह क्षुद्र भी नहीं है, महान होना तो बहुत दूर है। आपके तराजू की औकात कितनी? महान का अर्थ है: जिसको आप तौल न पाएं, अमाप, जिसकी कोई सीमा न बना पाएं, जिसको आप तय न कर पाएं, जिसको आप यह भी न कह सकें कि महान है--तब! जिसको आप इतना ही कह पाएं कि बेबूझ है, समझ के परे है; हम चुक जाते हैं, वह नहीं चुकता।
यह जो जगत है, यह दोहरे अर्थों में बेबूझ है। एक तो यह बेबूझ है कि यह असीम है। पहली तो यह बेबूझ बात है। दूसरी बेबूझता यह है कि न केवल यह असीम है, बल्कि यह असीमता एक्सपैंडिंग है। यह जो असीमता है, यह बढ़ती चली जा रही है। यह और कठिन मामला है। क्योंकि हम समझ सकते हैं सीमित चीज बढ़ती जा रही हो। लेकिन असीम चीज बढ़ रही हो तो उसका मतलब पहला तो यह है कि वह असीम नहीं होगी, जब बढ़ रही है; कोई सीमा होगी, उससे आगे बढ़ती जा रही है।
जब आइंस्टीन ने पहली दफे कहा कि यह जगत फैल रहा है, तो सवाल उठा कि यह कहां फैल रहा है? स्थान चाहिए फैलने को, स्पेस चाहिए। और अगर स्पेस आगे है तो स्पेस जगत का हिस्सा है। तो आइंस्टीन कहता है कि स्पेस भी फैल रही है, आकाश भी फैल रहा है। इधर पिछले तीस-चालीस वर्षों में फिजिक्स मेटाफिजिक्स हो गई है। वह जो भौतिक शास्त्र है, वह अध्यात्म हो गया है। उसकी बातें ठीक अध्यात्म जैसी बेबूझ हो गई हैं। और आने वाले भविष्य में अगर वैज्ञानिक लाओत्से जैसी भाषा बोलें तो बहुत हैरानी नहीं होगी।
इसलिए लाओत्से के संबंध में पश्चिमी वैज्ञानिक को बड़ी उत्सुकता बढ़ गई है। अभी एक बहुत अदभुत किताब, दि ताओ ऑफ साइंस, लिखी गई है--ताओ और विज्ञान के बीच कहां तालमेल है इस पर।
लाओत्से कहता है, महान होने का अर्थ है अंतरिक्ष में फैलते चले जाना।
ब्रह्म का भी यही अर्थ है। ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है विस्तार। लेकिन सिर्फ मृत विस्तार नहीं, जीवित विस्तार। अर्थात विस्तीर्ण होता विस्तार, फैलता जाता फैलाव। इसलिए हम इसको ब्रह्मांड कहते हैं; यह फैलता हुआ विस्तार है। यह कहीं रुक नहीं जाता। जैसे एक सागर फैलता ही जा रहा हो, जिस पर कोई सीमा न हो कहीं; जहां कोई दीवार न हो, जो रोकती हो फैलाव को।
लेकिन अगला हिस्सा बहुत कठिन है: "और अंतरिक्ष में फैलाव की क्षमता है दूरगामी।'
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। क्योंकि यह साधना के लिए भी बहुत कीमती है।
"और अंतरिक्ष में फैलाव की क्षमता है दूरगामी।'
यह जो फैलाव है, यह इतना दूरगामी है, इतना दूरगामी है, अनंत तक दूर चला जाता है। यह तो कठिन है समझना, आखिरी कड़ी समझना असंभव है।
"यही दूरगामिता मूल बिंदु की ओर प्रतिगामिता भी है। दिस फार रीचिंग इंप्लाइज रिवर्सन टु दि ओरिजिनल प्वाइंट।'
यह जो लोग फिजिक्स समझते हैं गहरे में, वे ही समझ पाएं।
लाओत्से कहता है, यह जो दूर चले जाना है, यह इतने दूर चला जाता है, यह इतने दूर चला जाता है--कि फिर वर्तुल बन जाता है, और यह दूर जाना पास आना हो जाता है। इतने दूर, इतने दूर, इतने दूर--फिर वर्तुलाकार हो जाता है और यह दूर चले जाना फिर पास आना हो जाता है। और जो अपने से सर्वाधिक दूर चला जाता है, वह अचानक पाता है कि अपने बिलकुल पास आ गया है।
आइंस्टीन ने कहा है कि यह जो स्पेस है, सरकुलर है, वर्तुलाकार है। यह और भी कठिन मामला है। आइंस्टीन कहता है, यह जो आकाश है, यह वर्तुलाकार है। यह फैलता जा रहा है, लेकिन इससे यह मत समझना कि यह दूर ही चला जा रहा है। एक सीमा के बाद इसका फैलाव लौट पड़ता है अपनी ही तरफ, घर की तरफ, और मूल बिंदु पर आ जाता है। वापस लौट आता है।
जैसे एक आदमी, आप अपने घर से निकलें यात्रा पर और अपनी नाक की सीध में चल पड़ें। आप अपने घर से प्रतिपल दूर होते जा रहे हैं। लेकिन चूंकि पृथ्वी गोल है, आपका हर कदम आपको घर की तरफ भी ला रहा है। अपने घर से आप निकल पड़े, दस कदम दूर हो गए घर से, बारह कदम दूर हो गए घर से; लेकिन चूंकि पृथ्वी गोल है, अगर आप नाक की सीध में चलते ही गए तो एक दिन अपने घर वापस लौट आएंगे। तो हर कदम जो आपको दूर ले जा रहा है, वह आपको पास भी ला रहा है--दूसरी दिशा से, दूसरे आयाम से।
आकाश को आइंस्टीन कहता है, वर्तुलाकार है, सरकुलर है। तो जितनी दूर फैलता जा रहा है यह ब्रह्मांड, उतना ही पास भी आता जा रहा है। यह बड़ी हैरानी की बात है कि लाओत्से को यह खयाल आज से पच्चीस सौ साल पहले। लाओत्से कहता है, यही दूरगामिता का बिंदु प्रतिगामिता भी है, रिवर्सन टु दि ओरिजनल प्वाइंट। वापस लौटना भी है।
इसका मतलब यह हुआ कि सिर्फ वे ही लोग भटक जाते हैं, जो बीच में अटक जाते हैं। या तो दूर जाएं ही मत, और या फिर इतने दूर चले जाएं कि वापस अपने पास आ जाएं। या तो घर छोड़ें ही मत, और या फिर घर छोड़ दें तो फिर रुकें ही मत। तो किसी दिन वापस घर लौट आएं।
इसको ऐसा हम समझें। एक बच्चा पैदा हुआ, चला जिंदगी में। जीवन भी वर्तुलाकार है।
ध्यान रखें, इस जगत में सभी गतियां वर्तुलाकार हैं। गति का अर्थ ही वर्तुल है, सरकुलर है। कोई भी गति हो--चाहे तारे घूमते हों, और चाहे पृथ्वी घूमती हो, चाहे सूरज घूमता हो, चाहे स्पेस घूमती हो, चाहे ब्रह्मांड घूमता हो--सब घूमना वर्तुलाकार है। और चाहे जीवन घूमता हो, सब घूमना वर्तुलाकार है।
एक बच्चा पैदा हुआ। यह बच्चा चल पड़ा जीवन में। अब यह जन्म से दूर होता जा रहा है। मौत करीब आएगी, जन्म दूर होता जा रहा है। लेकिन यह उन्हीं की दृष्टि है, जिन्हें अगले जन्म का कोई पता नहीं है। अन्यथा यह फिर जन्म के करीब होता जा रहा है। इस जन्म से शुरू हुआ, मौत की तरफ जाता हुआ दिखाई पड़ रहा है; लेकिन हर मौत नए जन्म की शुरुआत है। मरते वक्त व्यक्ति ठीक वहीं पहुंचता है, उसी बिंदु पर, जहां जन्मते वक्त होता है। एक वर्तुल पूरा हो जाता है। हम पहले बिंदु पर वापस लौट आते हैं।
इसलिए जो लोग मृत्यु को समझ लें, वे जन्म को भी समझ लेते हैं। जन्म को समझना मुश्किल है, क्योंकि आपको पता ही नहीं है क्या हो रहा है। लेकिन मृत्यु को आप समझ सकते हैं। और जो व्यक्ति मृत्यु को समझ ले, मृत्यु के बिंदु को ठीक से समझ ले, उसको जन्म का रहस्य भी समझ में आ गया। जिसने जान ली मृत्यु, उसने जीवन भी जान लिया। लेकिन मृत्यु से हम डरते हैं। इसलिए हम जीवन जानने से भी वंचित रह जाते हैं। मृत्यु और जन्म, एक ही बिंदु पर मिलते हैं।
हमारी सारी की सारी जीवन की गतिविधियां वर्तुलाकार हैं। और हम कहीं भी चले जाएं, हम अपने मूल बिंदु पर वापस लौट आते हैं। लाओत्से यह क्यों कह रहा है? लाओत्से यह कह रहा है कि तुम कितना ही कुछ करो, तुम अपने स्वभाव से दूर न जा सकोगे। तुम कितने ही दूर चले जाओ, तुम्हारा दूर जाना भी पास आने का ही रास्ता बनेगा। लाओत्से यह कह रहा है, अपने से दूर जाने का कोई भी उपाय नहीं है। तुम भटक सकते हो, धोखा दे सकते हो, सपने देख सकते हो; लेकिन तुम अपने से दूर नहीं जा सकते। और कितने ही दूर चले जाओ, तुम्हारा सब दूर जाना तुम्हारा अपने ही पास आने का उपाय है।
इसलिए कभी-कभी ऐसा होता है कि जो बहुत गहरे संसार में चला जाता है, वह अचानक अध्यात्म में आ जाता है। बीच में जो मीडियाकर्स हैं, वे हमेशा मुश्किल में होते हैं। इसलिए कभी कोई बाल्मीकि अचानक धार्मिक हो जाता है। हैरानी होती है, कोई अंगुलीमाल एकदम हत्या की दुनिया से बदलता है और बुद्ध उससे कहते हैं कि तुझसे ज्यादा शुद्ध ब्राह्मण खोजना मुश्किल है अंगुलीमाल! यह हत्यारा अचानक शुद्ध ब्राह्मण हो जाता है। क्या हुआ? यह इतनी दूर चला गया हत्या में कि वर्तुलाकार हो गई यात्रा।
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पापी और अपराधी तो संत बन जाते हैं, तथाकथित साधु नहीं बन पाते। जिंदगी जटिल है। और उसके रास्ते इतने सीधे-सादे नहीं हैं जैसे हमें दिखाई पड़ते हैं। बहुत उलझे हैं।
यह लाओत्से का सूत्र बड़ा कीमती है, साधक के लिए बहुत कीमती है। तीन बातें स्मरण रख लेने जैसी हैं।
एक, लाख करो उपाय अपने से दूर नहीं जाया जा सकता। सब तरफ भटक कर, सब तरफ की यात्रा आखिर में अपने पर ले आती है। क्योंकि वह हमारा मूल बिंदु है।
दूसरी बात, जीवन की सब गतियां वर्तुल में हैं। इसलिए ऐसा, ऐसा सोचने की कोई भी जरूरत नहीं है कि कोई भी इतने पाप में पड़ गया है कि पुण्य को उपलब्ध न हो सकेगा। ऐसा सोचने की कोई भी जरूरत नहीं है कि कोई इतने संसार में गिर गया है कि मोक्ष का अधिकारी न हो सकेगा। सब यात्रा वर्तुल है। किसी भी बिंदु से लौटना हो सकता है। और किसी भी बिंदु से वापसी शुरू हो जाती है। और सच तो यह है कि अगर कोई जिद्द किए ही चला जाए नाक की सीध में तो हर यात्रा अपने पर ले आती है। इसलिए जिद्दी अक्सर पहुंच जाते हैं। उसको हम जिद्द नहीं कहते, उसको हम हठयोग कहते हैं। उसको हम दृढ़ता कहते हैं, उसको हम संकल्प कहते हैं।
तनका अपने गुरु के पास था। वह ध्यान की साधना कर रहा है। महीनों बीत गए हैं। गुरु उसके पास गया। और उसने तनका को बैठे हुआ देखा--बुद्ध की मुद्रा में, आंखें बंद किए, पत्थर की तरह। उसके गुरु ने, एक ईंट पड़ी थी दरवाजे पर, उसको उठा कर पत्थर पर घिसना शुरू कर दिया। ईंट की करर-करर आवाज, दांत किसमिसाने लगे तनका के। आखिर उसने आंख खोली और उसने कहा, यह क्या कर रहे हैं? और अपने गुरु को देखा तो बहुत हैरान हुआ। उसने सोचा, कोई बच्चा, या कोई शैतान आकर आस-पास कुछ कर रहा है। उसका गुरु पत्थर घिस रहा है। तनका ने पूछा, आप यह क्या कर रहे हैं? उसके गुरु ने कहा कि इस ईंट को घिस-घिस कर मैं दर्पण बनाना चाहता हूं।
गुरु तनका को कहना चाहता था कि जैसे यह ईंट घिस-घिस कर दर्पण नहीं बन सकती, ऐसे ही तू यह जो बैठा है आंखें बंद किए, कितना ही बैठा रहे, इससे ध्यान नहीं मिल सकता।
लेकिन तनका हंसा और उसने कहा कि अगर आप आखिरी तक घिसते ही गए तो दर्पण बन जाएगी। आंख बंद कर लीं। और आंख बंद किए-किए बैठे-बैठे तनका ज्ञान को उपलब्ध हुआ।
जब वह ज्ञान को उपलब्ध हुआ, तो उसके गुरु ने कहा कि मैं तो यह सोच कर तेरे सामने ईंट घिस रहा था कि तू पूछेगा कि आप पागल तो नहीं हो गए हैं! ईंट कितना ही घिसो, कहीं दर्पण बनेगी? तो मन को कितना ही घिसो, ध्यान कैसे हो जाएगा मन--यह मैं तुझे कहने आया था। और अगर तू यह सवाल मुझसे पूछ लेता कि कितना ही ईंट को घिसो, दर्पण कैसे बनेगी? तो पक्का था कि तू कितना ही मन को घिसता, ध्यान नहीं बन सकता था। लेकिन तूने यह पूछा ही नहीं और आंख बंद कर ली। मैं तुझसे पूछता हूं, तेरे मन को क्या हुआ? तो तनका ने कहा कि मेरे मन को हुआ कि अगर कोई घिसता ही चला जाए तो कभी न कभी दर्पण बन ही जाएगी। और मैं घिसता ही चला गया। सीमा है। अगर कोई जिद्द किए ही चला जाए, सीधा चलता ही चला जाए, तो ईंट भी घिसी जाए तो दर्पण बन सकती है। और नरक की तरफ मुंह करके चलने वाला आदमी भी एक दिन स्वर्ग में पहुंच सकता है। और संसार की तरफ चलने वाला आदमी भी एक दिन निर्वाण के द्वार पर खड़ा हो सकता है।
झेन फकीरों ने कहा है: संसार और निर्वाण में जरा भी, रत्ती भर का फर्क नहीं। जो ठहर जाते हैं बीच-बीच में, वे संसार में रह जाते हैं; जो चलते ही चले जाते हैं, वे निर्वाण में पहुंच जाते हैं।

आज इतना ही। रुकें पांच मिनट और कीर्तन करें।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें