दिनांक
24 जनवरी, 1977;
श्री
ओशो आश्रम,
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
पहला
प्रश्न :
पूर्वीय
मनीषा
सदगुरूओं को
मनोवैज्ञानिक
का संबोधन
क्यों नहीं
देती? क्या सदगुरु
मनोवैज्ञानिक
से किन्हीं
अर्थों में
बिलकुल भिन्न
है? कृपा
करके समझाइए।
मनोवैज्ञानिक
मनस्विद नहीं
है। मन के
संबंध में
जानता है, मन को
नहीं जानता।
मन के संबंध
में जानना एक
बात है, मन
को जानना
बिलकुल दूसरी।
मन के संबंध
में जानना तो
मन से ही हो
जाता है। मन
को जानना मन
के पार गए
बिना नहीं
होता। साक्षी
जानता है मन
को। मन को
जानने के लिए
मन से भिन्न
होना पड़ेगा, पार होना
पड़ेगा। मन से
ऊपर उठना
पड़ेगा। मन से
जो घिरे हैं
वे मन को न जान
पाएंगे।
जिन्होंने
ऐसा जाना कि
हम मन ही हैं
वे तो मन को
कैसे जान
पाएंगे? जिसे भी हम
जानते हैं
उससे थोड़ी
दूरी चाहिए फासला
चाहिए, तभी
तो परिप्रेक्ष्य
पैदा होता है।
मैं तुम्हें
देख रहा हूं
क्योंकि तुम
दूर हो। तुम
मुझे सुन रहे
हो क्योंकि
मैं दूर हूं।
मन से
जो दूरी पैदा
करने के उपाय
हैं वे ही ध्यान
हैं। मन को भी
दृश्य बना
लेने की जो
प्रक्रियाएं
हैं वे ही
ध्यान हैं।
जहां मन भी
तुम्हें अपने
से अलग दिखाई
पड़ने लगता है—देह
भी, मन
भी, और तुम
सबके पार खड़े
हो जाते हो।
मनस्विद
नहीं है
मनोवैज्ञानिक।
मन का ज्ञाता
नहीं है। मन
के संबंध में
जानकारी है
उसे। जानकारी
उधार है। अपने
मन के संबंध
में उसे कुछ
भी पता नहीं
है। मन के संबंध
में दूसरों ने
जो कहा है
उसका संग्रह किया
है उसने। मन
के संबंध में
मनुष्य के
व्यवहार को
जांच कर, परख कर जो
अनुमान किए जा
सकते हैं, उन
अनुमानों पर
थिर है वह।
मनोवैज्ञानिक
तकनीशियन है।
इसलिए
यह हो सकता है, अक्सर
होता है कि
मनोवैज्ञानिक
जिन संबंधों में
तुम्हें सलाह
देता है
उन्हीं
संबंधों में स्वयं
रुग्ण होता है।
तुम
जान कर चकित
होओगे कि
मनोवैज्ञानिक
जितने पागल
होते हैं उतना
कोई और पागल
नहीं होता। और
मनोवैज्ञानिक
का सारा काम
यही है कि
पागलों को
स्वस्थ करे।
मनोवैज्ञानिक
के धंधे में
पागलपन
दोगुना घटता
है, साधारण
धंधे की बजाय।
प्रोफेसर भी
पागल होते, इंजीनियर भी
पागल होते, डाक्टर भी
पागल होते, लेकिन
मनोवैज्ञानिक
दोगुने पागल
होते। ऐसा
होना तो नहीं
चाहिए।
मनोवैज्ञानिक
तो बिलकुल
पागल नहीं
होना चाहिए।
जिसने मन को
जान लिया वह
कैसे पागल
होगा?
मन को
जाना नहीं, मन के
संबंध में
जानकारी कर ली
है। तो शायद
दूसरे को सलाह
भी दे देते
हैं। लेकिन
दूसरों को दी
गई सलाह अपने
भी काम नहीं पड़ती।
यह भी तुम
स्मरण रखना कि
मनोवैज्ञानिक
के धंधे में
लोग दोगुनी
आत्महत्याएं
करते हैं।
ये तथ्य
घबडाने वाले हैं।
फिल्म
अभिनेता
आत्महत्या
करते हैं, राजनेता
आत्महत्या
करते हैं, कवि,
लेखक आत्महत्या
करते हैं, दार्शनिक
आत्महत्या
करते हैं, मनोवैज्ञानिक
दोगुनी
आत्महत्या
करते हैं।
मनोवैज्ञानिक
को तो
आत्महत्या
करनी ही नहीं चाहिए।
जिसने अपने मन
को समझ लिया
उसके लिए
आत्महत्या
जैसी रुग्ण
दशा घटेगी? असंभव। पर
ऐसा होता नहीं।
एक
मनोवैज्ञानिक
अपने मरीज से
बोला कि तुम, ठीक किया,
आ गए। अगर
तुम दस मिनट
और न आते तो
मैं
मनोविश्लेषण तुम्हारे
बिना ही शुरू
करने वाला था।
ऐसे
मनोवैज्ञानिक
हैं।
एक
मनोवैज्ञानिक
अपने मरीज की
बातें सुन रहा
था। मरीज ने
कहा कि मुझे
ऐसा वहम हो
गया है कि
मेरे ऊपर कीड़े—मकोड़े
चलते रहते हैं।
जानता हूं कि
यह भ्रम है, लेकिन
दिन भर मुझे
यह खयाल बना
रहता है कि यह
गया, यह
चढ़ा, सिर
पर जा रहा है, पैर में जा
रहा है, कपड़े
में घुस गया, और खड़े होकर
उसने अपने
कपड़े झटकारे।
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, ठहर।
इतने जोर से
मत झटकार, कहीं
मुझ पर न गिर
जाएं। जिसे हम
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, वह
वहीं खड़ा है
जहां रुग्ण
व्यक्ति खड़े
हैं। भेद अगर कुछ
है तो जानकारी
का है। भेद
अगर कुछ है, अंतरात्मा का
नहीं है।
मनोवैज्ञानिक
ने मन के
संबंध में
अध्ययन किया
है, मन के
संबंध में अभी
जागरूक नहीं
हुआ।
इसलिए
हम सदगुरुओं
को
मनोवैज्ञानिक
नहीं कहते। और
भी कुछ बात
खयाल में लेने
की है। दूसरी
बात :
मनोवैज्ञानिक
का काम है कि
जो असमायोजित
हो गए हैं, मैल—एडजेस्टेड
हो गए हैं, जो
जीवन की धारा
में पिछड़ गए
हैं, जो
किसी तरह
रुग्ण हो गए
हैं, उन्हें
सुसमायोजित
करे, एडजेस्ट
कर दे। फिर से
जीवन की धारा
का अंग बना दे।
जो लथड़ गए, पिछड़ गए, उन्हें
जीवन के साथ
चला दे। रुग्ण
को सामान्य
बना दे।
सदगुरु
का काम रुग्ण
की तरफ नहीं
है। सदगुरु का
काम है, स्वस्थ को
सहायता देना।
मनोवैज्ञानिक
का काम है, अस्वस्थ
को सहायता
देना। वह जो
अस्वस्थ है, उसे इस
योग्य बना
देना कि दफ्तर
जा सके, फैक्टरी
जा सके, काम
कर सके, पत्नी—बच्चों
की देखभाल कर
सके, बात
खतम हो गई।
सदगुरु
का काम है, जिसे
अपना पता नहीं
है उसे अपना
पता बता दे।
जिसे जीवन के
आत्यंतिक
स्रोत का कोई
अनुभव नहीं है
उसे उसका
स्वाद लगा दे,
परमात्मा
से मिला दे।
वह जो जीवन का
परम सत्य है
उससे संबंध
जुड़ा दे।
मनोवैज्ञानिक
तुम्हें समाज
का अंग बनाता
है। सदगुरु
तुम्हें सत्य
का अंग बनाता
है।
सोचना; समाज तो
खुद ही रुग्ण
है। इसके अंग
बन कर भी तुम
स्वस्थ थोड़े
ही हो सकोगे!
यह समाज तो
बिलकुल रुग्ण
है। यह हो
सकता है कि
जिनको तुम
पागल कहते हो
उनका रोग थोड़ा
ज्यादा है और
जिनको तुम
पागल नहीं कहते
उनका रोग थोड़ा
कम है। मात्रा
का भेद हो
सकता है, परिमाण
का अंतर हो
सकता है, लेकिन
कोई गुणात्मक
भेद नहीं है।
ऐसा हो सकता
है, तुम
निन्यानबे
डिग्री पागल
हो, जिसको
तुम पागल कहते
हो वह सौ
डिग्री के पार
चला गया। यह
डिग्री की ही
बात है। तुम
जरा उबल गए।
दिवाला निकल
गया, पत्नी
मर गई, तुम
भी एक सौ एक
डिग्री पर
पहुंच जाओगे।
जिनको तुम
कहते हो पागल
नहीं हैं, वे
कभी भी पागल
हो सकते हैं।
जिनको तुम
कहते हो पागल
हैं, वे
कभी भी फिर
सामान्य हो
सकते हैं।
अंतर गुण का
नहीं है, मात्रा
का है।
समाज
तो खुद ही
पागल है। तीन
हजार सालों
में पांच हजार
युद्ध लड़े गए
हैं। और
पागलपन क्या
होगा? सच
तो यह है, व्यक्ति
इतने पागल कभी
होते ही नहीं
जितना समाज
पागल है।
व्यक्तियों
ने इतने अपराध
कभी किए ही
नहीं जितने
समाज ने अपराध
किए हैं।
इस
समाज के साथ
व्यक्ति को
समायोजित कर
देना कोई
स्वस्थ होने
की बात नहीं
है, कोई
स्वस्थ होने
का मापदंड
नहीं है। यह
समाज रूग्ण
है। इस गा
समाज के साथ
किसी को
समायोजित
करने का अर्थ
इतना ही हुआ
कि भीड़ के रोग
के साथ तुमने
तालमेल बिठा दिया।
खलील
जिब्रान की
प्रसिद्ध कथा
है। एक गांव
में एक जादूगर
आया और उसने
गांव के कुएं
में मंत्र पढ़
कर कुछ दवा
फेंक दी और
कहा, जो
भी इसका पानी
पीएगा, पागल
हो जाएगा। अब
गांव में दो
ही कुएं थे, एक गांव का
और एक राजा का।
सारा गांव
पागल हो गया
सिर्फ राजा, उसका वजीर, उसकी रानी, इनको छोड़ कर।
राजा बड़ा खुश
हुआ। उसने कहा,
हम बचे। आज
अलग कुआं था
तो बच गए।
अब लोग
प्यासे थे तो
पानी तो पीना
ही पड़ा। और एक
ही कुआं था, तो कोई
उपाय भी न था।
सारा गांव
पागल हो गया।
राजा खुश है, परमात्मा को
धन्यवाद देता
है कि खूब
बचाया। लेकिन
सांझ होते—होते
राजा को पता
चला, यह
बचना बचना न
हुआ। क्योंकि
सारे गांव में
एक अफवाह जोर
पकड़ने लगी कि
मालूम होता है,
राजा का
दिमाग खराब हो
गया है।
जब
सारा गांव
पागल हो जाए
और एक आदमी
स्वस्थ बचा हो
तो सारा गांव
सोचेगा ही कि
पागल हो गया
यह आदमी। भीड़
एक तरफ हो गई, राजा एक
तरफ पड़ गया।
इस भीड़ में
राजा के
सिपाही भी थे,
सेनापति भी
थे। इस भीड़
में राजा के
पहरेदार भी थे,
अंगरक्षक
भी थे। राजा
तो घबड़ा गया।
सांझ होते—होते
तो सारा गांव
महल के चारों
तरफ इकट्ठा हो
गया। और लोगों
ने नारे लगाए
कि उतरो
सिंहासन से।
तुम्हारा
दिमाग खराब हो
गया है। हम
किसी स्वस्थ—मन
व्यक्ति को
राजा बनाएंगे।
राजा ने अपने
वजीर से कहा, अब बोलो, क्या
करें? यह
तो महंगा पड़
गया। यह कुआं
आज न होता तो
अच्छा था।
वजीर ने कहा, कुछ घबड़ाने
की बात नहीं।
मैं इन्हें
रोकता हूं
समझाता हूं आप
भागे जाएं, उस कुएं का
पानी पी लें।
गांव के कुएं
का पानी पी
लें। आप जल्दी
पानी पीए, अब
देर करने की
नहीं है।
वह
भागा राजा।
वजीर तो लोगों
को बातों में
उलझाए रहा।
राजा वहा से
पानी पीकर आया
तो नंगधडंग, नाचता।
गांव बड़ा खुश
हुआ। उस रात
बड़ा उत्सव
मनाया गया।
लोगों ने ढोल
पीटे, बांसुरी
बजाई। लोग खूब
नाचे। लोगों
ने कहा, हमारे
राजा का मन
स्वस्थ हो गया।
भीड़
पागल हो, समाज पागल
हो, इस
समाज के साथ
किसी को
समायोजित कर
देने का कोई
बड़ा मूल्य
थोड़े ही है!
लोग धन
के पीछे भागे
जा रहे हैं।
एक आदमी धन के
पीछे भागना
बंद कर देता
है, हम
उसको
मनोवैज्ञानिक
के पास ले
जाते हैं। हम
कहते हैं, इसे
क्या हो गया? जैसे सब हैं
वैसा यह क्यों
नहीं है? सब
धन कमा रहे
हैं, यह
कहता है धन
में क्या रखा
है? अभी
ऐसी घटना घटी
न्यूयार्क
में। एक आदमी
बैंक से दस
हजार डालर
लेकर निकला।
खूब धनी आदमी।
और उसे ऐसे
मौज आ गई
रास्ते पर कि
देखें क्या होता
है। तो उसने
सौ—सौ डालर के
नोट लोगों को
देने शुरू कर
दिए। जो दिखा
उसको कहा कि
लो। लोगों ने
नोट देखा, पहले
तो भरोसा न
आया कि सौ
डालर का नोट
कौन दे रहा है
ऐसे अचानक? फिर उस आदमी
को देखा, सोचे
कि पागल है।
उसने जो
रास्ते पर
मिला उसको नोट
देने शुरू कर
दिए।
थोड़ी
देर में खबर
फैल गई कि वह
आदमी पागल हो
गया। थोड़ी देर
में पुलिस आ
गई, उस
आदमी को पकड़
लिया कि
तुम्हारा
दिमाग खराब हो
गया? वह
कहने लगा, मेरे
रुपये और मैं
बांटना चाहूं
तो तुम हो कौन?
पर
उन्होंने कहा,
तुम पहले
अदालत चलो।
पहले तुम्हें
प्रमाणपत्र
लाना पड़ेगा
मनोवैज्ञानिक
का कि तुम
स्वस्थ हो!
क्योंकि ऐसा
कोई करता?
यहां
लोग पागल हैं
धन इकट्ठा
करने को। यहां
अगर कोई
बांटने लगे तो
पागल मालूम
होता है।
बुद्ध लोगों
को पागल मालूम
हुए जब
उन्होंने
राजसिंहासन
छोड़ा। महावीर
भी पागल मालूम
हुए जब
उन्होंने
साम्राज्य
छोड़ा। पागल
हैं ही।
वह
आदमी जाकर
अदालत में कहा
कि यह भी खूब
रही। मेरे
रुपये मैं
बांटना चाहता
हूं।
मजिस्ट्रेट
ने कहा रुको, मनोवैज्ञानिक
का
प्रमाणपत्र...।
मनोवैज्ञानिक
कोई
प्रमाणपत्र
देने को तैयार
नहीं, क्योंकि
ऐसा आदमी पागल
होना ही चाहिए।
दस हजार डालर
बांट दिए। और
वह कहता है कि
अगर तुम मुझे
प्रमाणपत्र
दे दो तो मैं
दस हजार निकाल
कर और बांट
दूं। मेरे पास
बहुत हैं। और
मुझे बहुत मजा
आया। जिंदगी
में इतना मजा
मुझे कभी आया
ही नहीं।
इकट्ठे मैंने
रुपये किए, खूब किए। यह
सुख मैंने कभी
पाया नहीं।
मुझे बड़ा सुख
मिल रहा है।
मुझे बांटने
दो।
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, अगर तुम्हें
फिर बांटना है
तो तुम मुझे
भी फसाओगे। तो
मैं तुम्हें
प्रमाणपत्र
नहीं दे सकता।
जहां
भीड़ पागल है
धन के लिए
वहां कोई आदमी
धन को छोड़ दे
तो पागल मालूम
होता है। जहां
लोग हिंसा से
भरे हैं वहां
कोई प्रेम से भर
जाए तो पागल
मालूम होता है।
जीसस को फांसी
ऐसे ही थोड़े
दी! पागल
मालूम हुआ।
क्योंकि
लोगों से कहने
लगा, कोई
तुम्हारे गाल
पर थप्पड़ मारे
तो दूसरा गाल उसके
सामने कर देना।
अब यह पागल ही
कोई कहेगा। ये
होश की बातें
हैं? कि
जीसस ने लोगों
से कहा, कोई
तुम्हारा कोट
छीन ले तो
कमीज भी दे
देना। ये कोई
होश की बातें
हैं? कभी
किसी समझदार
ने ऐसा कहा है?
कोई
कौटिल्य, कोई
मेक्यावेली
ऐसा कहेगा? बुद्धिमान
कभी ऐसा कहे
हैं? इस
आदमी का दिमाग
फिर गया है।
यह
कहने लगा कि
जो तुम्हें
घृणा करें
उन्हें प्रेम
करना। और जो
तुम्हें
अभिशाप दें
उन्हें वरदान
देना। इसको
सूली लगानी
जरूरी हो गई।
सूली पर लटक
कर भी इसने
अपना पागलपन न
छोड़ा। सूली से
अंतिम बात भी
यही कही कि हे
प्रभु! इन सबको
क्षमा कर देना
क्योंकि ये
जानते नहीं, ये क्या
कर रहे हैं।
लेकिन उन
करनेवालों से
पूछो, वे
भलीभांति
जानते हैं कि
क्या कर रहे
हैं। वे एक
पागल से
छुटकारा पा
रहे हैं। यह
कोई बात है? कोई चाटा
मारे, तुम
दूसरा गाल कर
देना।
जीसस
से एक शिष्य
ने पूछा कि
कोई एक बार
मारे तो हम
माफ कर दे, लेकिन
कितनी बार? जीसस ने कहा,
सात बार...
नहीं—नहीं, सतहत्तर बार।
फिर देखा गौर
से और कहा कि
नहीं—नहीं, सात सौ
सतहत्तर बार।
लेकिन
तुम खयाल रखना, तुम
इसमें से भी
तरकीब निकाल
लोगे पागलपन
की।
मैंने
सुना है, एक ईसाई
फकीर को एक
आदमी ने चांटा
मार दिया तो उसने
दूसरा गाल
सामने कर दिया।
जीसस ने कहा
है तो करना
पड़े। उसने
दूसरे गाल पर
भी चांटा मार
दिया। वह आदमी
भी अदभुत रहा
होगा
मारनेवाला।
वह शायद
फ्रेडरिक
नीत्शे का
अनुयायी रहा
होगा।
क्योंकि
फ्रेडरिक नीत्शे
ने कहा है कि
अगर कोई, तुम
चांटा मारो, और एक गाल पर
चांटा मारो और
दूसरा
तुम्हारे सामने
कर दे तो और भी
जोर से मारना,
नहीं तो
उसका अपमान
होगा। उसने
गाल दिखाया और
तुमने चांटा
भी न मारा?
तो रहा
होगा
फ्रेडरिक
नीत्शे का
अनुयायी।
उसने और कस कर
एक चांटा मारा।
सोचता था कि
अब यह फिर
पुराना गाल
करेगा। लेकिन
वह फकीर उसकी
छाती पर चढ़
बैठा। वह बोला, भाई रुको।
यह क्या बात
है? तुम्हारे
गुरु ने कहा
है कि जो एक
गाल पर चांटा
मारे, दूसरा
करना। उसने
कहा कि दूसरा
गाल बता दिया।
तीसरा तो है
ही नहीं। और
गुरु ने इसके
आगे कुछ भी
नहीं कहा है।
अब मैं
मुखत्यार खुद।
अब मैं तुझे
बताता हूं।
आदमी
पागल है। अगर
वह नियम का
थोड़ा पालन भी
करता है तो बस, एक सीमा
तक। जहां तक
नियम, मुर्दा
नियम पालन
करना है, कर
लेता है।
लेकिन उसके
बाद असलियत
प्रकट होती है।
सदगुरु
तुम्हें भीड़
के साथ एक
नहीं करता, सदगुरु
तुम्हें भीड़
से मुक्त करता
है। इसलिए
सदगुरु को
मनोवैज्ञानिक
कैसे कहें? कल तुमने
सुना
अष्टावक्र का
सूत्र? जो
ज्ञाता है, ज्ञानी है, वह लोकवत व्यवहार
नहीं करता, भीड़ की तरह व्यवहार
नहीं करता।
उसके जीवन में
न भीड़ होती है,
न भेड़—चाल
होती है। वह न
किसी का
अनुयायी होता
है, न किसी
के पीछे चलता
है। अनुकरण
उसकी
व्यवस्था
नहीं होती। वह
अपने बोध से
जीता है, वह
स्वतंत्र
होता है।
अष्टावक्र
कहते हैं, स्वच्छंद
होता है। उसकी
स्वतंत्रता
परम है। अगर
वह जीता है तो
अपने अंतर्तम
से जीता है।
जो उसका
अंतरतम कहता
है वही करता
है, चाहे
कोई भी कीमत
और कोई भी
मूल्य क्यों न
चुकाना पड़े।
सुकरात
को जब सूली दी
जाती थी, जहर पिलाया
जाता था, मारने
की आता दी गई
थी तो
मजिस्ट्रेट
को भी उस पर
दया आई थी और
उसने कहा था, एक अगर तू
वचन दे दे तो
हम तुझे क्षमा
कर दें। इतना
तू वचन दे दे
कि अब तू
जिसको तू सत्य
कहता है उसकी
बातचीत बंद कर
देगा तो हम
तुझे क्षमा कर
दें।
सुकरात
ने कहा, फिर जीकर
क्या करूंगा?
जीने का
अर्थ ही क्या
है जहां सत्य
की बात न हो, जहां सत्य
की चर्चा न हो?
जहां सत्य
की सुगंध न हो
तो जीने का
अर्थ क्या है?
इससे बेहतर
मर जाना है।
तुम मुझे मौत
की सजा दे दो।
मैं रहूंगा तो
मैं सत्य की
बातें करूंगा
ही। मैं
रहूंगा तो और
कोई उपाय ही
नहीं है, मेरे
रहने से सत्य
की सुगंध
निकलेगी ही।
मजिस्ट्रेट
को लगा होगा, सुकरात
पागल है। मौत
चुन रहा है।
तुमने चुनी
होती मौत? तुम
कहते, छोड़ो
सत्य इत्यादि।
इसमें रखा
क्या है? पाया
क्या? उपद्रव
में पड़े। अगर
सब झूठ बोल
रहे हैं और
सारा जीवन झूठ
से चल रहा है
तो इसी में
कुशलता है।
इसी में है
समझदारी कि
तुम भी झूठ
बोलो, लोगों
के साथ चलो।
लोग जैसे हैं
वैसे रहो—
भेड़चाल।
एक
स्कूल में एक
शिक्षक ने
अपने बच्चों
से पूछा कि
अगर एक घर के
भीतर आंगन में
दस भेड़ें बंद
हों और एक
छलांग लगा कर
दीवाल से बाहर
निकल जाए तो
कितनी भीतर
रहेंगी? एक बच्चा
जोर से हाथ
हिलाने लगा।
उसने कभी हाथ
हिलाया भी न
था। वह बच्चा
सबसे ज्यादा
कमजोर बच्चा
था। शिक्षक
बड़ा खुश हुआ; उसने कहा, अच्छा पहले
तू उत्तर दे।
उसने कहा, एक
भी न बचेगी।
शिक्षक ने कहा,
पागल हुआ है?
मैं कह रहा
हूं दस भेड़ें
भीतर हैं और
एक छलांग लगा
कर निकल जाए
तो भीतर कितनी
बचेंगी? तुझे
गणित आता है
कि नहीं? तुझे
गिनती आती है
कि नहीं?
उस
छोटे लड़के ने
कहा, गिनती
आती हो या न
आती हो, भेड़ें
मेरे घर में
हैं। मैं
भेड़ों को
जानता हूं। एक
छलांग लगा गई,
सब लगा गईं।
गणित तुम समझो,
भेड़ों को
मैं समझता हूं।
और भेड़ें गणित
को नहीं
मानतीं। भेड़
तो अनुकरण से
जीती है।
भीड़
भेड़ है।
सदगुरु
तुम्हें भीड़
से मुक्त
कराता है।
सदगुरु
तुम्हें समाज
के पार ले
जाता है।
सदगुरु
तुम्हें
शाश्वत के साथ
जोड़ता है।
समाज तो
सामयिक है, क्षणभंगुर
है। रोज बदलता
रहता है—आज कुछ,
कल कुछ।
नीति बदलती है
इसकी, शैली
बदलती है इसकी,
ढंग—ढांचा
बदलता है इसका,
व्यवस्था
रोज बदलती
रहती है।
सदगुरु
तुम्हें उससे
जुड़ा देता है
जो कभी नहीं
बदलता, जो सदा जैसा
था वैसा है, वैसा ही
रहेगा।
सदगुरु
तुम्हें
परमात्मा से
मिलाता है। और
परमात्मा ही
तुम्हारा
आत्यंतिक
स्वभाव है।
इसलिए हम
सदगुरु को
मनोवैज्ञानिक
नहीं कहते। और
मनोवैज्ञानिक
सदगुरु नहीं
है।
फिर यह
भी खयाल रखना, मनोवैज्ञानिक
के पास तुम
जाते हो, जब
तुम रूग्ण
होते हो।
सदगुरु के पास
तुम तब जाते
हो जब तुम सब
भांति स्वस्थ
होते हो और
अचानक पाते हो,
जीवन में
कोई अर्थ नहीं।
इस भेद को
खयाल रखना।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं कभी, वे कहते
हैं, हमारे
सिर में दर्द
है। मैं कहता
हूं डाक्टर के
पास जाना
चाहिए। कोई
कहता है कि
तबियत खराब
रहती है। तो
चिकित्सा
करवानी चाहिए।
मैं इसलिए
यहां नहीं हूं
कि तुम्हारी
तबियत खराब
रहती है, उसका
मैं इंतजाम
करूं। तो
डाक्टर
किसलिए हैं? जिसका काम
वह करे।
तुम
मेरे पास तब
आओ जब सब ठीक
हो और फिर भी
तुम पाओ कि
कुछ भी ठीक
नहीं है। धन
है, पद
है, प्रतिष्ठा
है, और हाथ
में राख ही
राख। सफलता
मिली है और
हृदय में कुछ
भी नहीं। एक
फूल नहीं खिला,
एक गीत नहीं
उमगा। कंठ
सुखा का: सूखा
रह गया है।
बाहर सब
हरियाला है और
भीतर सब
मरुस्थल है।
और एक भी
मरूद्यान का
पता नहीं है।
जरा भी छाया
नहीं है, धूप
ही धूप है, तड़पन
ही तड़पन।
जब
तुम्हारे पास
सब हो और तुम
पाओ कि कुछ भी
नहीं है तब
खोजना सदगुरु
को। जब
तुम्हारी
सफलता असफलता
सिद्ध हो जाए
तब खोजना
सदगुरु को। जब
तुम्हारा धन
तुम्हारे
भीतर की
निर्धनता बता
जाए तब खोजना
सदगुरु को। जब
तुम्हारी
बुद्धिमानी
बुद्धपन
सिद्ध हो जाए
तब खोजना
सदगुरु को।
सदगुरु के पास
जाना ही तब, जब यह
जीवन व्यर्थ
मालूम होने
लगे। तो वह
किसी और जीवन
की तरफ
तुम्हें ले
चले। किसी नये
आयाम की यात्रा
कराए।
मनोवैज्ञानिक
के पास तुम
जाते हो तो
तुम्हारा
संबंध वही है
जो तुम
चिकित्सक के
पास जाते हो।
चिकित्सक
तुम्हारा
गुरु नहीं है।
तुम्हारे पैर
में चोट लग गई
है, तुम
डाक्टर के पास
गए, उसने
मलहम—पट्टी कर
दी। डाक्टर
तुम्हारा
गुरु नहीं है।
गुरु एक प्रेम
का संबंध है।
अपूर्व प्रेम
का संबंध है।
गुरु इस जगत
में सबसे गहन
प्रेम का
संबंध है।
उसने
तुम्हारे पैर
पर मलहम—पट्टी
कर दी, तुमने
उसकी फीस चुका
दी, बात
खतम हो गई।
गुरु से जो
नाता है वह
हार्दिक है।
तुम कुछ भी
चुका कर गुरु—ऋण
चुका न पाओगे।
जब तक कि तुम
उस अवस्था में
न आ जाओ, जहां
तुम्हारे
भीतर छिपा
गुरु प्रकट हो
जाए तब तक
गुरु—ऋण नहीं
चुकेगा।
तो
गुरु का संबंध
कुछ किसी और
दिशा से है।
तुम्हारे
हृदय में एक
उमंग उठती है।
किसी के पास
होकर तुम्हें
झलक मिलती है
परम सत्य की।
कोई तुम्हारे
लिए झरोखा बन
जाता। किसी के
पास रह कर
तुम्हें
संगीत सुनाई
पड़ता शाश्वत
का। तुम्हारे
मन में बड़ा
शोरगुल है
लेकिन फिर भी किसी
के पास क्षण
भर को
तुम्हारा मन
ठहर जाता और
शाश्वत को जगह
मिलती। किसी
के पास
तुम्हें स्वर
सुनाई पड़ने
लगते हैं दूर
के, पार
के, तारों
के पार से जो
आते हैं। और
किसी की
मौजूदगी में
तुम्हारे
भीतर कुछ उठने
लगता, कुछ
सोया जागने
लगता।
सदगुरु
केटलिटिक
एजेंट है।
उसकी मौजूदगी
में कुछ घटता
है। सदगुरु
कुछ करता नहीं
है, मनोवैज्ञानिक
कुछ करता है।
मनोवैज्ञानिक
तकनीशियन है।
सदगुरु कुछ
करता नहीं, उसकी
मौजूदगी में
कुछ होता है।
सदगुरु करता
तो है ही नहीं,
क्योंकि
कर्ता छोड़ कर
ही तो वह
सदगुरु हुआ है।
उसने प्रभु को
कर्ता बना
लिया है, खुद
तो शून्य हो
गया है, निमित्तमात्र।
बांस की पोली
बांसुरी हो
गया है। अब
सदगुरु कुछ
करता नहीं
लेकिन उसके
पास महत घटता
है, बहुत
कुछ होता है।
सदगुरु
को
मनोवैज्ञानिक
नहीं कहा जा
सकता। पहली
बात, सदगुरु
वैज्ञानिक नहीं
है। अगर सद गुरु
कुछ है तो
शायद शाश्वत
का कवि है।
शायद तुक बंदी
न भी करता हो
शायद छंद में
बांधता भी न
हो कुछ, शायद
शब्दों और
व्याकरण का
धनी भी न हो, शायद
मात्राओं का
उसे बोध भी न
हो लेकिन फिर भी
सदगुरु
शाश्वत का कवि
है।
इसलिए
तो हमने
सदगुरुओं को
ऋषि कहा है।
ऋषि का अर्थ
होता है, कवि।
उन्होंने जो
भी कहा है वह
खुद नहीं कहा
है, परमात्मा
उनसे बोला है।
इसलिए तो हमने
वेदों को
अपौरुषेय कहा
है। पुरुष के
द्वारा
निर्मित नहीं।
इसलिए तो कहा
है कि कुरान
उतरी।
मोहम्मद ने
रची नहीं, उन
पर उतरी; इलहाम
हुआ। इसलिए तो
जीसस कहते हैं
कि मैं नहीं
बोलता, मेरे
भीतर प्रभु
बोलता है। ये
वचन मेरे नहीं
हैं।
सदगुरु
शाश्वत की
बांसुरी है।
और तुम उसके
प्रेम में पड़
जाओ, गहन
प्रेम में पड़
जाओ, तर्क
इत्यादि छोड़
कर उसके प्रेम
में पड़ जाओ तो
ही कुछ घटेगा।
मनोवैज्ञानिक
के पास
तुम्हें
प्रेम में पड़ने
की जरूरत नहीं
है। सच तो यह
है, तुम
चकित होओगे
जान कर कि
फ्रायड, एडलर,
कै और उनके
पीछे आने वाले
मनोवैज्ञानिकों
की लंबी कतार
कहती है कि मरीज
अगर प्रेम में
पड़ने लगे तो मनोवैज्ञानिक
उसे रोके। इसे
वे कहते हैं
ट्रांसफरेंस।
अगर मरीज
मनोवैज्ञानिक
के प्रेम में
पड़ने लगे तो
मनोवैज्ञानिक
इसे रोके।
क्योंकि अगर
मरीज प्रेम
में पड़ गया और
मनोवैज्ञानिक
भी मरीज के
प्रेम में पड़
गया तो कौन किसकी
सहायता करेगा?
कैसे
सहायता करेगा?
फिर तो
सहायता असंभव
हो जाएगी।
देखा
कभी? एक
बड़ा सर्जन, उसकी पत्नी
बीमार पड़ जाए,
हजारों
आपरेशन किए
हों उसने, अपनी
पत्नी का
आपरेशन नहीं
कर पाता। किसी
दूसरे सर्जन
को बुलाता है;
चाहे नंबर
दो सर्जन को
बुलाए। नंबर
एक सर्जन नंबर
दो सर्जन को
बुला कर आपरेशन
करवाता है, क्योंकि खुद
डरता है।
प्रेम इतना है
कि हाथ कंप
जाएंगे, घबड़ाहट
होगीं, चिंता
पकड़ेगी कि सफल
हो पाऊंगा कि
असफल हो जाऊंगा।
पत्नी है, कहीं
मर न जाए।
इतनी
चिंता से घिरा
हुआ निश्चित न
रहेगा। सर्जन
सर्जन कैसे हो
पाएगा?
नहीं, दूरी
चाहिए। सर्जन
चाहिए बिलकुल
निरपेक्ष।
जिसे कुछ
प्रयोजन ही
नहीं। तुम
जिंदा हो कि
मुर्दा इससे
भी प्रयोजन
नहीं। तुम
बचोगे कि नहीं
बचोगे इसमें
भी कोई आग्रह,
लगाव नहीं।
मर गए तो मर गए।
बचे तो बचे।
वह तो सिर्फ
अपना शिल्प
जानता है, अपनी
कला जानता है।
वह अपनी कला
का उपयोग कर
लेगा।
मैंने
सुना है, एक सर्जन
किसी के पेट
का आपरेशन कर
रहा था। और
उसने अपने
सहयोगी को
मरीज के सिर
के पास खड़ा
किया था कि
कुछ विशेष घटे
तो खबर देना।
कोई दस मिनट
बाद सिर के
पास खड़े हुए
आदमी ने कहा, महानुभाव, रुकिए। उसने
कहा, बीच
में मत टोको।
तो वह चुप रहा।
फिर उसने कहा
कि लेकिन
सुनिए तो मैं
क्या कहना
चाहता हूं।
मेरी तरफ का
जो हिस्सा है वह
मर चुका है।
वह सिर की तरफ का
जो हिस्सा है,
उसके
सहयोगी ने कहा,
वह मर चुका
है। और आपरेशन
आप किए ही चले
जा रहे हैं।
यह आदमी अब
जिंदा नहीं है,
अब आप बेकार
मेहनत कर रहे
हैं।
सर्जन
को उसका भी
पता नहीं होना
चाहिए कि जिंदा
भी है आदमी कि
मुर्दा। वह
अपनी कुशलता से
अपना काम किए जा
रहा है। उसे जरा
भी डावाडोल
नहीं होना चाहिए।
तो फ्रायड ने
कहा है कि
मरीज और
मनोचिकित्सक के
बीच किसी तरह
का रागात्मक
संबंध न बने, अन्यथा
मुश्किल हो
जाएगी। फिर
सहयोग देना
मुश्किल हो
जाएगा। दूरी
रहे।
ठीक
उलटी बात
सदगुरु के साथ
है। अगर
रागात्मक
संबध न बने तो
इतनी दूरी
रहेगी कि कुछ
हो ही न पाएगा।
रागात्मक
संबंध बने तो
ही कुछ हो
पाएगा।
सदगुरु के
पीछे तुम पागल
होकर प्रेम
में पड़े तो ही
कुछ हो पाएगा, मतवाले
हो जाओ तो ही
कुछ हो पाएगा।
यह संबंध
प्रेम का है।
सदगुरु तुम्हारे
हृदय में बस
जाए तो कुछ हो
सकता है।
वह गंध
मेरे मन बस गई
रे
एक बन
जूही एक बन
बेला
अगणित
गंधों का यह
मेला
पाकर
मुझको निपट
अकेला
इन
प्रणों को कस
गई रे
वह गंध
मेरे मन बस गई
रे
एक दिन
पश्चिम एक दिन
पूरब
भटक
रहे हैं गंध
पंख सब
रोम—रोम
के द्वार
खोलकर
वह
अंतर में धंस
गई रे
वह गंध
मेरे मन बस गई
रे
नभ में
जिसकी डालें
अटकी
थल पर
जिसकी कलियां
चटकीं
मेरे
जीवन के कर्दम
में
वह
अनजाने फंस गई
रे
वह गंध
मेरे मन बस गई
रे
जब तक
सदगुरु की गंध
तुम्हारे मन
में न बस जाए, जब तक तुम
दीवाने न हो
जाओ, तब तक
कुछ भी न हणो।
सदगुरु और
शिष्य का
संबंध रागात्मक
है। वह वैसा
ही संबंध है
जैसे प्रेमी
और प्रेयसी का।
निश्चित ही
प्रेमी और
प्रेयसी के
संबंध से बहुत
पार। लेकिन
उसी से केवल
तुलना दी जा
सकती है, और
कोई तुलना
नहीं है।
दीवानगी का
संबंध है।
रोम—रोम
के द्वार
खोलकर
वह
अंतर में धंस
गई रे
वह गंध
मेरे मन बस गई
रे
तो ही
कुछ
रूपांतरित
होता है। तुम
बदलोगे तभी, जब तुम
प्रेम में
झुकोगे।
मनोवैज्ञानिक
के पास झुकना
आवश्यक नहीं
है। झुकने का
कोई सवाल नहीं
है, मनोवैशानिक
तकनीशियन है।
मनोवैज्ञानिक
के प्रति
समर्पण का कोई
प्रश्न नहीं
है।
मनोवैज्ञानिक
कुछ जानता है,
उसके जानने
के तुम दाम
चुका देते हो,
बात खतम हो
गई। धन्यवाद
देने की भी
आवश्यकता
नहीं है।
सदगुरु
कुछ जानता है, ऐसा नहीं,
सदगुरु कुछ
हो गया है।
सदगुरु के आंगन
में आकाश उतरा
है। सदगुरु के
सूने
अंतरात्मा के
सिंहासन पर
प्रभु
विराजमान हुआ
है। यहां
कंजूसी से न
चल सकेगा।
यहां तो उछल
कर डुबकी ले
सकोगे तो ही
कुछ हो सकेगा।
इसलिए
पश्चिम ने तो
अब
मनोवैज्ञानिक
को भी गुरु
कहना शुरू कर
दिया है। पूरब
ने कभी गुरु
को
मनोवैज्ञानिक
नहीं कहा। और
पूरब को कभी
मनोवैज्ञानिक
को जन्म देने
की जरूरत नहीं
पड़ी। जहां गुरु
हो वहां
मनोवैज्ञानिक
की कोई खास
जरूरत नहीं है।
मनोवैज्ञानिक
तो एक परिपूरक, सस्ता
परिपूरक है।
मनोवैज्ञानिक
खुद उन उलझनों
में उलझा है
जिन उलझनों से
वह मरीज को
मुक्त करवाने
की कोशिश कर
रहा है।
सदगुरु उन उलझनों
के पार है। और जो
पार है उसका
ही सत्संग काम
आ सकता है।
सदगुरु
व्यक्ति नहीं
है। इसलिए
पूरब के मनीषी
सदगुरु को
परमात्मा कहते
हैं, उसे
ब्रह्मस्वरूप
कहते हैं।
उसका कारण है।
सदगुरु
व्यक्ति नहीं
है, सदगुरु
हो गया
अव्यक्ति।
उसने अपने को
तो पोंछ कर
मिटा डाला।
उसने अपनी
अस्मिता हटा
दी। उसने अपना
अहंकार गिरा दिया।
अब उसके भीतर
से जो काम कर रहा
है वह
परमात्मा है।
जब सदगुरु
तुम्हारा हाथ
पकड़ता है तो
परमात्मा ने
ही तुम्हारा
हाथ पकड़ा।
अगर
तुम्हें ऐसा
दिखाई न पड़े
तो सदगुरु से
तुम्हारा अभी
संबंध नहीं
बना। तुम अभी
शिष्य नहीं
हुए। अभी बात
शुरू ही नहीं
हुई। अभी बीज
बोया नहीं गया, फसल
काटने की मत
सोचने लगना।
बीज ही नहीं
बोया गया है।
जब कभी
गिरने लगा मन
खाइयों में
कौन
पीछे से अचानक
थाम लेता?
सूखते
जब जिंदगी के
स्रोत सारे
धार से
कटते चले जाते
किनारे
कौन
दृढ़ विश्वास
इन कठिनाइयों
में
जिंदगी
को हर सुबह हर
शाम देता?
जब
निगाहों में
सिमट आते
अंधेरे
जिंदगी
बिखरे समय के
खा थपेड़े
कौन
धुंधलायी हुई
परछाइयों में
जिंदगी
के कण समेट
तमाम लेता?
जो
जमाने से
विभाजित हो न
पाई
रह गई
अवशेष वह जीवन
इकाई
कौन
फिर संयोग बन
तनहाइयों में
जिंदगी
को नित नये
आयाम देता?
जब
तुम्हें किसी व्यक्ति
में अव्यक्ति
का दर्शन हो
जाए, जब
किसी व्यक्ति
में तुम्हें
शून्य का आभास
हो जाए, जब
किसी आकृति
में तुम्हें
निराकार
प्रतीत होने
लगे, जब
किसी की
मौजूदगी
तुम्हारे लिए
परमात्मा की
सघन मौजूदगी
बन जाए तो
सदगुरु से
मिलना हुआ।
सदगुरु
को खोजना पड़ता
है, मनोवैज्ञानिक
को खरीदना
पड़ता।
मनोवैज्ञानिक
धन से मिल जाए,
सदगुरु तो
मन को चढ़ाने
से मिलता है।
दोनों अलग
बातें हैं।
दूसरा
प्रश्न :
प्रभु,
मरना
चाहता हूं बस
मरना चाहता
हूं
इस देह
में न अब रहना
चाहता हूं
आपके
स्नेह को बस
भरना चाहता
हूं
अब
अपने को मैं
अमीमय करना चाहता
हूं
शून्य
भर होना चाहता
हूं।
पूछा है
बोधिधर्म ने। समझना
होगा। गहरे से
समझना होगा।
क्योंकि यह
भाव अनेकों के
मन में उठता
है। जब मैं
तुम्हें
समझाता हूं कि
मिट जाओ, समाप्त हो
जाओ, ताकि
प्रभु हो सके;
तुम अपने को
पोंछ डालो, जगह खाली
करो, ताकि
वह उतर सके; तो एक प्रबल
आकांक्षा
उठती है मिट
जाने की। और
उसी आकांक्षा
में भूल हो
जाती है। जब
मैं कहता हूं
मिट जाओ तो
मैं यही कह
रहा हूं कि अब
तुम और आकांक्षा
न करो।
क्योंकि
आकांक्षा
रहेगी तो तुम
बने रहोगे।
तुम आकांक्षा
के सहारे ही
तो बने हो।
कभी धन की
आकांक्षा, कभी
पद की
आकांक्षा।
आकांक्षा ही
तो सघन होकर
अहंकार बन
जाती है। आकांक्षा
ही तो अहंकार
है। तो जब तक
तुम आकांक्षा
से भरे हो, तुम
हो। जब तुम
निराकांक्षा
से भरोगे, कोई
आकांक्षा न
रहेगी... ध्यान
रखना, आकांक्षा
से मुक्त हो
जाने की
आकांक्षा भी
जब न रही।
लेकिन
तुम मुझे
सुनते हो और
बात कुछ की
कुछ हो जाती
है। मैं तुमसे
कहता हूं कि
मिट जाओ, मैं कहता
हूं आकांक्षा
छोड़ो। तुम
कहते हो, चलो
ठीक, हम
यही आकांक्षा
करेंगे; मिट
जाने की
आकांक्षा
करेंगे। तो
तुम पूछते हो,
हे प्रभु, कैसे मिट
जाएं? अब
मिटाओ।
अभी तक
कहते थे, कैसे जीएं? कैसे और हो
जीवन? और...
और। अब कहते
हो, कैसे
मिटें? कैसे
समाप्त हों? मगर बात तो
वही की वही
रही। कुछ फर्क
न हुआ। तुम धन
चाहते थे, अब
तुम धर्म
चाहने लगे।
तुम पद चाहते
थे, अब तुम
परमात्मा
चाहने लगे।
तुम सुख चाहते
थे, अब तुम
स्वर्ग चाहने
लगे। अब तक
तुम वासनाओं
के पीछे दौड़
रहे थे, अब
तुमने एक नई
वासना पैदा कर
ली निर्वासना
होने की। चूक
गए। बात फिर
गलत हो गई।
मैंने
तुमसे यह नहीं
कहा कि तुम मर
जाने की आकांक्षा
करो। मैंने
तुमसे इतना ही
कहा है कि अब
तुम आकांक्षा
न करो तो तुम
मर जाओगे। यह
जो मर जाना है, यह
परिणाम है, कांसिक्येंस
है। तुम इसे
चाह नहीं सकते।
यह तुम्हारी
चाहत का फैलाव
नहीं हो सकता।
अगर तुमने
इसको भी चाह
बना लिया, फिर
चाह बच रही।
चाह नये पंख
पा गई। चाह
नये घोड़े पर
सवार हो गई।
चाह ने
तुम्हारे
चित्त को फिर
धोखा दे दिया।
अब तुम यह चाह
करने लगे।
बुद्ध
ने कहा है, निर्वाण
चाहा तो
निर्वाण को
कभी उपलब्ध न
हो सकोगे।
और
अष्टावक्र
बार—बार कह
रहे हैं कि
अगर मोक्ष की
भी चाह रह गई
तो मुक्ति
बहुत दूर।
मोक्ष की चाह
भी बंधन है।
मोक्ष को भी न
चाहो। चाहो ही
मत। ऐसी कोई
घड़ी, जब
कोई भी चाह
नहीं होती, उसी घड़ी तुम
परमात्मा हो
गए। चाह से
शून्य घड़ी में
परमात्मा हो
जाते हो।
इसलिए समझो, नहीं तो भूल
हो जाएगी।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
ध्यान में
कैसे उतरें? बड़ी चाह
लेकर आए हैं।
मैं उनसे कहता
हूं चाह है तो
ध्यान में उतर
न पाओगे।
ध्यान में
उतरने की पहली
शर्त है कि
चाह को बाहर
रख आओ। वे
कहते, अच्छी
बात। फिर तो
ध्यान में उतर
सकेंगे न?
अब
उनका समझ रहे
हो मतलब? वे कहते हैं,
चलो, अगर
चाह रख आकर
चाह पूरी होती
है तो हम इसके
लिए भी राजी
हैं, मगर
चाह पूरी होगी
न? तो तुम
रख कर कहां आए?
वे दो—चार
दिन कोशिश
करते हैं फिर
आकर कहते हैं,
चाह भी नहीं
की, फिर भी
अभी तक हुआ
नहीं।
अगर चाह
ही नहीं की तो
अब क्या पूछते
हो कि फिर भी
अभी तक हुआ
नहीं। चाह बनी
ही रही। चाह
भीतर बनी ही
रही। चाह ने
कहा, चलो,
कहा जाता है
कि चाह छोड़ने
से चाह पूरी
होगी, चलो,
यह ढोंग भी
कर लो। मगर
तुम चूक गए। तुम
समझ न पाए।
इसीलिए
तो निरंतर यह
बात कही गई है, सारे
शास्त्र कहते
हैं कि जो कहा
जाता है वही सुना
नहीं जाता। जो
सदगुरु
समझाते हैं
वही तुम सुन
पाते हो ऐसा
पक्का नहीं है।
तुम कुछ का
कुछ सुनते हो।
तुम कुछ का
कुछ कर लेते
हो।
देख
लिया, जीवन
में कुछ पाया
नहीं, अब
तुम कहते हो, कैसे मिट
जाएं? मगर
पाने की धारणा
अभी भी बनी है।
अक्सर
ऐसा होता है
कि कोई
व्यक्ति
ध्यान करता, अचानक एक
दिन किरण
उतरती, रोआं—रोआं
रस से भर जाता।
अभिभूत हो
जाता। बस उसी
दिन से
मुश्किल हो
जाती। फिर वह
रोज चाह करने
लगता है कि
ऐसा अब फिर हो,
ऐसा अब फिर
हो 1 फिर वह
मेरे पास आता,
रोता, गिड़गिड़ाता;
कहता है कि
बड़ी मुश्किल
हो गई। घटना
घटी भी, और
अब क्यों नहीं
घट रही?
मैं उससे
कहती हूं कि
जब घटी तो कोई
चाह न थी।
तुम्हें पता
ही न था तो चाह
कैसे करते? चाह तो
उसी की हो
सकती है जिसका
थोड़ा सा अंदाज
हो, अनुमान
हो। सुन कर हो,
स्वाद से हो,
लेकिन
जिसका थोड़ा
अनुमान हो, चाह तो उसी
की हो सकती है
न! अब तुम्हें
पता चल गया।
स्वाद लग गया,
किरण उतरी।
पंखुड़ियां
खिल गईं हृदय
की। कमल—कमल
खिल गए भीतर।
तुम गदगद हो
उठे। अब
तुम्हें पता
चल गया, अब
मुश्किल आई।
अब बड़ी
मुश्किल आई। ऐसी
मुश्किल कभी
भी न थी। अब
तुम जब भी
ध्यान में
बैठोगे, यह
चाह खड़ी रहेगी
कि फिर हो, दुबारा
हो।
मैंने
एक तिब्बती
कहानी पढ़ी है।
कहते हैं दूर
तिब्बत की
पहाड़ियों में
छिपा हुआ एक
सरोवर है। उस
सरोवर के
किनारे एक
वृक्ष है।
वृक्ष बड़ा
अनूठा है।
वृक्ष से भी
ज्यादा अनूठा
सरोवर है।
कहते हैं, उस वृक्ष
को जो खोज ले, उस सरोवर को
जो खोज ले, और
वृक्ष पर से
छलांग लगा कर
सरोवर में कूद
जाए तो रूपांतरित
हो जाता है।
कभी भूलचूक से
कोई पक्षी गिर
जाता है सरोवर
में तो मनुष्य
हो जाता है।
कभी कोई
मनुष्य खोज
लेता है और उस
वृक्ष से कूद
जाता है तो
देवता हो जाता
है।
ऐसा एक
दिन हुआ, एक बंदर और
एक बंदरिया उस
वृक्ष पर बैठे
थे। उन्हें
कुछ पता न था।
और एक मनुष्य
न मालूम कितने
वर्षों की खोज
के बाद अंतत:
वहां पहुंच
गया। उस
मनुष्य ने
वृक्ष पर चढ़
कर झंपापात
किया। सरोवर
में गिरते ही
वह दिव्य
ज्योतिर्धर
देवता हो गया।
स्वभावत: बंदर
और बंदरिया को
बड़ी चाहत जागी।
उन्हें पता ही
न था। उसी
वृक्ष पर वे
रहते थे लेकिन
कभी वृक्ष पर
से झंपापात न
किया था। कभी
सरोवर में
कूदे न थे।
फिर तो देर
करनी उचित न
समझी। दोनों
तत्क्षण कूद
पड़े। बाहर
निकले तो चकित
हो गए। दोनों
सुंदर मनुष्य
हो गए थे।
बंदर पुरुष हो
गया था, बंदरिया
सुंदर, सुंदरतम
नारी हो गई थी।
बंदर
ने कहा, अब हम एक बार
और बूदें।
बंदर तो बंदर!
उसने कहा, अब
अगर हम कूदे
तो देवता होकर
निकलेंगे।
बंदरिया ने
कहा कि देखो, दुबारा
कूदना या नहीं
कूदना, हमें
कुछ पता नहीं।
स्त्रियां
साधारणत:
ज्यादा
व्यावहारिक
होती हैं। सोच—समझ
कर चलती हैं
ज्यादा। देख
लेती हैं, हिसाब—किताब
बांध लेती हैं,
करने योग्य
कि नहीं। आदमी
तो दुस्साहसी
होते हैं।
बंदर
ने कहा, तू फिकर छोड़।
तू बैठ, हिसाब
कर। अब मैं
चूक नहीं सकता।
बंदरिया ने
फिर कहा, सुना
है पुरखे
हमारे सदा
कहते रहे ' अति
सर्वत्र
वर्जयेत्'।
अति नहीं करनी
चाहिए। अति का
वर्जन है। अब
जितना हो गया
इतना क्या कम
है? मगर
बंदर न माना।
मान जाता तो
बंदर नहीं था।
कूद गया। कूदा
तो फिर बंदर
हो गया। उस
सरोवर का यह
गुण था—एक बार
कूदो तो रूपांतरण।
दुबारा कूदे
तो वही के वही।
बंदरिया तो
रानी हो गई।
एक राजा के मन
भा गई। बंदर
पकड़ा गया एक
मदारी के
हाथों में।
फिर एक दिन
मदारी लेकर
राजमहल आया तो
बंदर अपनी
बंदरिया को
सिंहासन पर
बैठा देख कर
रोने लगा। याद
आने लगी। और
सोचने लगा, अगर मान ली
होती बात दुबारा
न कूदा होता!
तो बंदरिया ने
उससे कहा, अब
रोओ मत। आगे
के लिए इतना
ही स्मरण रखो.
अति सर्वत्र
वर्जयेत्।
अति वर्जित है।
ध्यान
ऐसा ही सरोवर
है। समाधि ऐसा
ही सरोवर है
जहां
तुम्हारा
दिव्य ज्योतिर्धर
रूप प्रकट
होगा। लेकिन
लोभ में मत
पड़ना। अति
सर्वत्र
वर्जयेत्।
यह जो
तुम्हारा
प्रश्न है, अत्यंत
लोभ का है।
प्रश्न को जरा
गौर से देखो
तो तुम्हें
खयाल आ जाएगा।’मरना चाहता
हूं भरना
चाहता हूं
करना चाहता हूं
शून्य होना
चाहता हूं।’ चाहता हूं..
चाहता हूं.
.चाहता हूं।
चाह ही चाह।
प्रत्येक
पंक्ति में
चाह ही चाह
भरी है। और यही
मैं तुम्हें
समझा रहा हूं
कि चाहे कि
संसार पैदा
हुआ। चाहत का
नाम संसार है।
अब तुम एक नया
संसार पैदा कर
रहे हो। अब यह
मरना, निर्वाण,
शून्य, समाधि—
अब तुम्हें ये
पकड़े ले रहे
हैं। तुम जाल
से कभी छूटोगे,
न छूटोगे? एक और कहानी
तुमसे कहता।
कहते
हैं कि एक बार
शैतान का मन
ऊब गया। सभी
का ऊब जाता है।
शैतान का भी
ऊब गया हो तो
आश्चर्य नहीं।
शैतान का तो
ऊब ही जाना
चाहिए। कब से
शैतानी कर रहा
है! तो उसने
संन्यास लेने का
निश्चय कर
लिया। तब उसने
अपने गुलामों
को बेचना
शुरूकर दिया : बुराई, झूठ, ईर्ष्या,
निरुत्साह,
दर्प, हिंसा,
परिग्रह
आदि—आदि। सब
पर तख्तियां
लगा दीं।
खरीददार तो
सदा से मौजूद
हैं। शैतान की
दुकान पर कब
ऐसा हुआ कि
भीड़ न रही हो।
परमात्मा के
मंदिर खाली
पड़े रहते हैं।
शैतान की
दुकान पर तो
सदा भीड़ होती
है, भारी
भीड़ होती।
जमघट होता है।
क्यू लगे रहते
हैं।
और जब
यह लोगों को
पता चला कि
शैतान अपने
विश्वस्त
गुलामों को भी
बेच रहा है तो
सभी पहुंच गए।
राजनेता
पहुंचे, धनपति
पहुंचे। सभी
तरह के
उपद्रवी
पहुंच गए।
क्योंकि
शैतान के
सुशिक्षित
सेवक मिल जाएं
तो फिर क्या? फिर तो
दुनिया फतह!
एक के बाद एक
गुलाम बिकने लगे।
शैतान के भक्त
आते गए और
अपनी— अपनी
पहचान, अपनी—अपनी
पसंद का गुलाम
खरीदते गए। पर
एक बहुत ही
भोंडी और
कुरूप औरत खड़ी
थी जिसे कोई
पहचान ही नहीं
पा रहा था कि
यह कौन है? और
कठिनाई और भी
थी कि उसके
गले में जो
तख्ती लगी थी,
सबसे
ज्यादा कीमत
की थी।
अंतत:
एक आदमी ने
पूछा कि महानुभाव, बड़ा
आश्चर्य है, इस स्त्री
को हम पहचान
नहीं पा रहे
हैं। यह कौन
है आपकी
सेविका? और
ऐसी कुरूप और
ऐसी भोंडी कि
इसे देख कर ही
जी मिचलाता।
और सबसे
ज्यादा कीमत
लगा रखी है।
बात क्या है? कोई खरीददार
गया भी नहीं
इसके पास। यह
देवी कौन है? इसके संबंध
में कुछ बता
दें। शैतान से
उस ग्राहक ने
पूछा।
शैतान
ने कहा, ओह, यह? यह मेरी
सबसे प्रिय और
वफादार गुलाम
है। मैं इसके
सहारे बड़ी
आसानी से
लोगों को अपने
शिकंजे में कस
लेता हूं।
क्यों, पहचाना
नहीं इसे? बहुत
कम लोग इसे
पहचानते हैं
इसीलिए तो
इसके द्वारा
धोखा देना
आसान होता है।
इसे कोई
पहचानता नहीं
मगर यह मेरा
दाहिना हाथ है।
फिर
शैतान
अट्टहास कर
उठा और बोला, महत्वाकांक्षा
है यह।
महत्वाकांक्षा!
एंबीशन! यह
सबसे भोंडी और
सबसे कुरूप मेरी
सेविका है, लेकिन सबसे
कुशल। आदमी
जीता
महत्वाकांक्षा
में। यह पा
लूं यह मिल
जाए, और
मिल जाए, और
ज्यादा मिल
जाए। तुम उसी
महत्वाकांक्षा
को धर्म की
दिशा में मत
फैलाओ।
संन्यास
सत्य को पाने
की
महत्वाकांक्षा
नहीं है, संन्यास
महत्वाकांक्षा
का त्याग है।
संन्यास
मोक्ष को पाने
की नई चाह
नहीं है, संन्यास
सारी चाह की
व्यर्थता को
देख लेने का नाम
है। अब तुम और
मत चाहो। अब
तुम चाह को
जाने दो। अब
इसे विदा कर
दो। जिस दिन
तुम चाह को
विदा कर दोगे
उसी दिन तुम शैतान
के शिकंजे के
बाहर हो गए हो।
और जिस क्षण
चाह को तुमने
विदा कर दिया
उसी क्षण तुम
पाओगे, जो
तुमने सदा
चाहा था वह
होने लगा। वह
चाह के कारण
ही नहीं हो
पाता था। नहीं,
ऐसी
आकांक्षा न
करो।
अब न
अगले वलवले
हैं और न
अरमानों की
भीड़
एक मिट
जाने की हसरत
अब दिले—बिस्मिल
में है
यह मिट
जाने की हसरत
भी जाने दो।
यह हसरत भी
उपद्रव है।
जल्दी न करो।
मौत की इतनी
क्या जल्दी।
मौत है
वह राज जो
आखिर खुलेगा
एक दिन
जिंदगी
वह है मुअम्मा
कोई जिसका हल
नहीं
मौत तो
एक दिन खुल ही
जाएगी, एक दिन हो ही
जाएगी। उसकी
क्या जल्दी
में पड़े हो।
मरने की भी
क्या चाहत।
जिंदगी को समझ
लो। जिंदगी को
समझ लिया, जिंदगी
खुल गई। और जहां
जिंदगी खुल गई
वहा मौत खुल
गई। क्योंकि
मौत कुछ भी
नहीं, जिंदगी
का अंतिम शिखर
है। मौत कुछ
भी नहीं, जिंदगी
की चरम अवस्था
है। मौत कुछ
भी नहीं, जिंदगी
का आखिरी गीत
है। जिंदगी
समझ ली तो मौत
समझ में आ
जाती है। होना
समझ लिया तो न
होना समझ में
आ जाता है।
इसलिए
तो तुमसे कहता
हूं संसार से
भागना मत।
संसार को समझ
लिया तो मोक्ष
समझ में आ
जाता है। लेकिन
तुम जल्दबाजी
में पड़ते हो।
संसार को बिना
समझे तुम
मोक्ष को
समझने चल पड़ते
हो। फिर
तुम्हारा
मोक्ष भी नया
संसार बन जाता
है।
तीसरा
प्रश्न:
नृत्य
कब घटित होता
है? आप
सदा नृत्य की
बात करते हैं—किस
नृत्य की? और
कब घटित होता
है यह नृत्य?
निश्चित ही
मैं नृत्य की
बात करता, क्योंकि
मेरे लिए
नृत्य ही पूजा
है। नृत्य ही
ध्यान है।
नृत्य से
ज्यादा सुगम
कोई उपाय नहीं,
सहज कोई
समाधि नहीं।
नृत्य सुगमतम
है, सरलतम
है। क्योंकि
जितनी आसानी
से तुम अपने
अहंकार को नृत्य
में विगलित कर
पाते हो उतना
किसी और चीज में
कभी नहीं कर
पाते।
नाच
सको अगर दिल
भर कर तो मिट
जाओगे। नाचने
में मिट जाओगे।
नाच विस्मरण
का अदभुत
मार्ग है, अदभुत
कीमिया है।
और नाच
कि और भी खूबी
है कि जैसे—जैसे
तुम नाचोगे, तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा
प्रवाहित
होगी। तुम जड़
हो गए हो। तुम
सरिता होने को
पैदा हुए थे, गंदे सरोवर
हो गए हो। तुम
बहने को पैदा
हुए थे, तुम
बंद हो गए हो।
तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा
फिर बहनी
चाहिए, फिर
झरनी चाहिए।
फिर उठनी
चाहिए तरंगें।
क्योंकि
सरिता तो एक
दिन सागर
पहुंच जाती है,
सरोवर नहीं
पहुंच पाता।
सरोवर अपने
में बंद पड़ा
रह जाता।
इसलिए तुमसे
कहता हूं नाचो।
नाचने
का अर्थ, तुम्हारी
ऊर्जा बहे।
तुम जमे—जमे
मत खड़े रहो, पिघलो।
तरंगायित होओ।
गत्यात्मक
होओ।
दूसरी
बात: नाच में
अचानक ही तुम
प्रसन्न हो
जाते हो। उदास
आदमी भी नाचना
शुरू करे, थोड़ी देर
में पाएगा, उदासी से
हाथ छूट गया।
क्योंकि उदास
होना और नाचना
साथ—साथ चलते
नहीं। रोता
आदमी भी नाचना
शुरू करे, थोड़ी
देर में पाएगा,
आंसू धीरे—
धीरे
मुस्कुराहटों
में बदल गए।
थका—मादा आदमी
भी नाचना
शुरू
करे, शीघ्र
ही पाएगा कि कोई
नई ऊर्जा का
प्रवाह भीतर
शुरु हो गया।
नृत्य दुख
जानता ही नहीं।
नृत्य आनंद ही
जानता है।
इसीलिए
तो हिंदुओं ने
परमेश्वर के
परम रूप को नटराज
कहा है, कृष्ण को
नाच की मुद्रा
में, ओंठ
पर बांसुरी
रखे, मोरमुकुट
बांधे
चित्रित किया
है। यह ऐसे ही
नहीं, अकारण
ही नहीं। यह
सारा जीवन नाच
रहा है।
जरा
वृक्षों को
देखो, पक्षियों
को देखो।
सुनते हो यह
पक्षियों का
कलरव 1: फूलों
को देखो, चांद—तारों
को देखो।
विराट नृत्य
चल रहा है।
रास चल रहा है।
यह अखंड रास!
तुम इसमें
भागीदार हो
जाओ। तुम
सिकुड़—सिकुड़
कर न बैठो।
तुम कंजूस न
बनो। तुम बही।
पूछा
है तुमने, 'नृत्य कब
घटित होता है?'
नृत्य
तब घटित होता
है जब नर्तक
मिट जाता है।
नृत्य तब घटित
होता है जब
नाच तो होता
है, तुम
नहीं होते।
नाचने वाला
नहीं होता।
याद ही नहीं
रह जाती।
पश्चिम का
बहुत बड़ा
नर्तक हुआ
निजिंस्की।
ऐसा नर्तक, कहते हैं
मनुष्य जाति
के इतिहास में
शायद दूसरा
नहीं हुआ है।
उसकी कुछ
अपूर्व बातें
थीं। एक
अपूर्व बात तो
यह थी कि जब वह
नृत्य की ठीक—ठीक
दशा में आ
जाता था—जिसको
मैं नृत्य की
दशा कह रहा
हूं जब नर्तक
मिट जाता है—तो
निजिंस्की
ऐसी छलांगें
भरता था कि
वैज्ञानिक
चकित हो जाते
थे। क्योंकि
गुरुत्वाकर्षण
के कारण वैसी
छलांगें हो ही
नहीं सकतीं।
और साधारण
अवस्था में
निजिंस्की भी
वैसी छलांगें
नहीं भर सकता
था। उसने कई
दफे कोशिश
करके देख ली
थी। अपनी तरफ
से भी उसने
कोशिश करके
देख ली थी, हर
बार हार जाता
था।
जब
उससे किसी ने
पूछा कि इसका
राज क्या है? उसने कहा,
मुझसे मत
पूछो। मुझे खुद
ही पता नहीं।
क्योंकि
मैंने भी कई
दफे कोशिश
करके देख ली।
जब यह घटती है
तब घटती है।
जब नहीं घटती
तब मैं लाख
उपाय करूं, नहीं घटती।
और जब घटती है
तो मैं हैरान
होता हूं। कुछ
क्षण को ऐसा
लगता है, गुरुत्वाकर्षण
का मेरे ऊपर
प्रभाव नहीं
रहा। मैं एक
पक्षी के पंख
की तरह हलका
हो जाता हूं।
कैसे यह होता
है, मुझे
पता नहीं। एक
बात भर समझ
में आती है कि
यह उन क्षणों में
होता है जब
मुझे मेरा पता
नहीं होता, जब मैं
लापता होता
हूं। जब मैं
होता ही नहीं
तब यह घटता है।
यह तो
योग का पुराना
सूत्र है। यह
तो तंत्र का
पुराना आधार
है।
निजिंस्की को
कुछ पता नहीं
वह क्या कह
रहा है। अगर
उसे पूरब के
शास्त्रों का
पता होता तो
वह व्याख्या
कर पाता।
विज्ञान
कहता है..
.न्यूटन ने
खोजा वृक्ष के
नीचे बैठे—बैठे।
गिरा फल और
न्यूटन को
खयाल आया, हर चीज
ऊपर से नीचे
की तरफ गिरती
है। पत्थर भी
हम ऊपर की तरफ
फेंकें तो
नीचे आ जाता
है, तो
जरूर जमीन में
कोई
गुरुत्वाकर्षण,
कोई कशिश, कोई
ग्रेविटेशन
होना चाहिए।
जमीन खींचती
चीजों को अपनी
तरफ।
न्यूटन
ने एक बात
देखी। हमने और
भी एक बात
देखी, जो
न्यूटन ने नहीं
देखी। और खयाल
रखना, वही
दिखाई पड़ता है
जो हम देखने
को तैयार होते
हैं। कृष्ण ने
कुछ और देखा, अष्टावक्र
ने कुछ और
देखा।
उन्होंने यह
देखा कि ऐसी
कुछ घड़ियां
हैं जब अहंकार
नहीं होता तो
आदमी ऊपर की
तरफ उठने लगता
है; जैसे
आकाश की कोई
कशिश, कोई
आकर्षण है।
जैसे
वैज्ञानिक
कहते हैं
ग्रेविटेशन, गुरुत्वाकर्षण,
ऐसे अंतरतम
के मनीषियों
ने कहा है कि
प्रभु का
आकर्षण।
ऊर्ध्व, ऊपर
की ओर से
उतरती कोई
ऊर्जा और
खींचने लगती है।
लेविटेशन या
ग्रेस, प्रसाद
कहें।
वही घट
रहा था
निजिंस्की को।
कभी—कभी ऐसा
हो जाता था, वह इतना
तल्लीन.. .इतना
तल्लीन हो
जाता, ऐसा
लवलीन हो जाता,
ऐसा खो जाता
कि फिर नर्तक
न रहता, नृत्य
ही बचता। कोई
आयोजक न रह
जाता भीतर, कोई
नियंत्रक न रह
जाता। कोई
नृत्य करने
वाला न रह
जाता।
वही तो
अष्टावक्र
तुमसे कह रहे
हैं। इसी
नृत्य की
व्याख्याकर
रहे हैं कि
कर्ता को जाने
दो तो प्रभु
तुम्हें
सम्हाल ले अभी।
तुम्हीं अपने
को सम्हाले हो
तो प्रभु को
सम्हालने का
मौका ही नहीं।
तुम छोड़ो। तुम
कहो, तू
सम्हाल। तू
जान। तेरी
दुनिया। तेरा
यह जीवन। तूने
दिया जन्म, तू देगा मौत।
तू ही सम्हाल।
हम तो बीच में
आ गए हैं।
सुनी
हिकायते—हस्ती
तो दर्मिया से
सुनी
न इब्तदा
की खबर है, न इब्तदा
मालूम
हम तो
बीच में हैं।
न हमें पता है
कि जन्म क्यों
हुआ, न
हमें पता है
कि मौत क्यों
होगी। न हमें
प्रारंभ का
कुछ पता है, और न अंत का।
हम तो बीच में
हैं। जिसको प्रारंभ
का पता नहीं, अंत का पता
नहीं, वह
बीच की भी
क्यों फिकर
रखे हुए है? जो पहले
सम्हालता है,
पीछे
सम्हालता है,
वह बीच में
भी सम्हाल
लेगा।
ऐसा जो
छोड़ दे उसको
ही अष्टावक्र
कहते हैं, वही हुआ
ज्ञाता। वही
हुआ द्रष्टा।
वही अब न रहा
भक्तो, न
रहा कर्ता। और
जहां भोक्ता
और कर्ता खो
जाते हैं वहीं
परमात्मा है।
मैं
तुमसे कहता
हूं नृत्य की
परिभाषा : जब
नर्तक मिट जाए।
ऐसे नाचो, ऐसे नाचो
कि नाच ही बचे।
ऊर्जा रह जाए,
अहंकार का
केंद्र न रहे।
और
नृत्य जितनी
सुगमता से
परमात्मा के
निकट ले आएगा
और कोई चीज
कभी नहीं ला सकती।
और नृत्य बड़ा
स्वाभाविक है।
आदमी है अकेला, जो भूल गया।
सारा संसार
नाच रहा है
आदमी को छोड़कर।
आदमी भी नाचता
था। आदिम आदमी
अब भी नाच रहे
हैं, सिर्फ
सभ्य आदमी
वंचित हो गया
है। सभ्य आदमी
नाच भूल गया
है। जड़ हो गया
है। पत्थर की
तरह हो गया है।
झरना नहीं है
कि बहे। निर्झर
नहीं है।
थोड़ा
अपने को
पिघलाओ। थोड़ा
छूने दो प्रभु
को तुम्हें।
फागुन
ने क्या छू
लिया तनिक मन
को
कर्पूरी
देह अबीर हो
गई है
क्या
छुए मधुर
गीतों ने रसिक
अधर
धड़कन—
धड़कन मंजीर हो
गई है
अंगों
पर फैल गई
केसर क्यारी
नभ
बाहों में
भरने की
तैयारी
बढ़ गई
अचानक चंचलता
लट की
सीमा—रेखाएं
सिमटी घूंघट
की
सांसों
को क्या छू गई
मदिर सांसें
गंधायित
मलय समीर हो
गई है
फागुन
ने क्या छू
लिया तनिक मन
को
कर्पूरी
देह अबीर हो
गई है
फागुन
भी छू ले तो
देह अबीर—अबीर
हो जाती है।
देह कस्तुरी—कस्तुरी
हो जाती है।
तुम जरा सोचो, परमात्मा
छू ले तो तुम
नाच उठोगे।
तुम नाच उठो
तो परमात्मा
छू ले।
अब तुम
यह मत पूछना
कि क्या पहले
है? तुम
मुर्गी—अंडे
के सवाल मत
उठाना कि
मुर्गी पहले
कि अंडा पहले।
उस उलझन में
उलझोगे तो कभी
सुलझ न पाओगे।
इतना ही तुमसे
कहता हूं एक
वर्तुल है।
तुम नाचो तो
परमात्मा छू
ले। परमात्मा
छू ले तो तुम
नाच उठो।
अब
परमात्मा छू
ले यह तो
तुम्हारे हाथ
में नहीं, एक बात
तुम्हारे हाथ
में है कि तुम
नाचो। तुम
नाचो, उसे
मौका दो कि
तुम्हें छू ले।
नाचते में ही
छू सकता है
तुम्हें। अभी
तो तुम अकड़े—अकड़े
बैठे हो। अभी
तो तुम पानी
जैसे जम गया, बरफ हो गए
ऐसे हो गए हो।
थोड़ा पिघलो।
थोड़ा बहो।
तुम
इधर बहे कि
परमात्मा ने
तुम्हें छुआ।
उसने छुआ कि
तुम और बहे।
तुम और बहे कि
उसने तुम्हें
और छुआ। एक
वर्तुल है।
धीरे— धीरे
तुम ज्यादा—ज्यादा
हिम्मत
जुटाते जाओगे।
नर्तक खोता
जाएगा, नृत्य बचेगा।
अवनी
पर आकाश गा
रहा
विरह
मिलन के पास आ
रहा
चारों
ओर विभोर
प्राण
झकझोर
घोर में नाचे
निरख
घोर घन
मुग्ध
मोर मन
जल
हिलोर में
नाचे
जरा
हिलोर बनो।
निरख
घोर घन
मुग्ध
मोर मन
जल
हिलोर में
नाचे
चारों
ओर विभोर
प्राण
झकझोर
घोर में नाचे
निछावर
इंद्रधनुष
तुझ पर
निछावर
प्रकृति—पुरुष
तुझ पर
मयूरी
उन्मन—उन्मन
नाच
मयूरी
छूम छनाछन नाच
मयूरी
नाच, मगन—मन
नाच
मयूरी
नाच, मगन—मन
नाच
गगन
में सावन घन
छाए
न
क्यों सुधि
साजन की आए
मयूरी आंगन—आंगन
नाच
मयूरी
नाच मगन—मन
नाच
नाचो।
हृदय खोल कर
नाचो। सब तरह
की कृपणता छोड़
कर नाचो। एक
दिन तुम पाओगे
: अचानक, विस्मयविमुग्ध,
चकित— भाव, भरोसा न
होगा कि तुम
मिट गए हो, नाच
चल रहा है।
जिस दिन तुम
पाओगे कि तुम
नहीं हो और
नाच चल रहा है,
उसी दिन तुम
पाओगे सब जो
पा लेने जैसा
है, सब, जिसको
पाए बिना और
सब पाना
व्यर्थ है।
और
तुमने पूछा है
कि नाच कब
घटित होता है
और कब नहीं घटित
होता है? जब तुम होते
हो तब नहीं
घटित होता है।
जब तुम सम्हाल—सम्हाल
कर नाच रहे
होते हो तब
नहीं घटित
होता है। बे सम्हाले
नाचो।
नियंत्रण तोड़
कर नाचो।
अराजक होकर
नाचो।
स्वच्छंद
होकर नाचो, तभी होता है।
अगर
तुम मालिक रहे
और भीतर— भीतर
नियंत्रण
जारी रखा तो वह
मनुष्य का
नृत्य है, परमात्मा
नहीं नाच पाता।
तुमने बागडोर
उसके हाथ में
दी ही नहीं।
तुम बागडोर
उसके हाथ में
दे दो, फिर
होता है नाच।
फिर तुम इस
विराट नृत्य
के एक अंग हो
जाते हो।
चौथा
प्रश्न:
संन्यास
में दीक्षा लेने
पर आप अपने शिष्यो
को सुंदर—सुंदरनाम
देते हैं। इन सुंदर
नामों का रहस्य
और अर्थ समझाने
की कृपा करे।
नाम बस नाम है।
जब देना ही है
तो सुंदर दे
देता हूं
असुंदर क्यों
दूं? ऐसे
तो चाहूं तो
कह सकता हूं
स्वामी
चूहड़मल
फूहड़मल। नाम
बस नाम है। और
जब देना ही है
तो सुंदर दे
देता हूं।
इसमें कुछ
बहुत अर्थ
नहीं है।
नाम
में अर्थ हो
भी क्या सकता
है? अर्थ
तो होता काम
में। तुम नाम
के भरोसे मत
रुके रह जाना।
कुछ करोगे तो
कुछ होगा। कुछ
होने दोगे तो
कुछ होगा।
कितना ही
सुंदर नाम दे
दूं इससे क्या
होगा? काश,
नाम बदल
देने से जीवन
बदलते होते, कितना सरल
होता?
सुंदर
नाम देकर मैं
अपनी
आकांक्षा, अपनी
अभीप्सा प्रकट
कर रहा हूं।
सुदरनाम देकर
मैं अपना आशीष
तुम्हें दे
रहा हूं कि मैंने
सुंदरतम
तुममें चाहा
है! अब तुम कुछ
करो। सुंदर
नाम देकर मैने
तुम्हें बड़ा उत्तरदायित्व
दे दिया। अब तुम्हें
पूरा करना है।
सुंदर नाम
देकर मैंने
तुम्हें एक
चुनौती दे दी।
तुम्हें एक
बुलावा दे
दिया, एक
आमंत्रण दे
दिया कि अब यह
यात्रा करनी
है। अब यह नाम
याद रखना। अब
यह नाम
तुम्हें
सताएगा।
एक
पुरानी कथा
तुमसे कहूं।
बहुत पुरानी
कथा है। किसी
बालक के मां—बाप
ने उसका नाम पापक, पापी रख
दिया। लोग भी
खूब हैं। किसी
का नाम रख
देते हैं पोपट,
घसीटामल, घासीराम; जैसे नामों
की कुछ कमी है।
पापक? अब
ऐसे ही आदमी
पापी है, अब
और कम से कम
नाम तो न रखो।
इतनी तो कृपा
करो। लेकिन रख
दिया।
मैं
माऊंट आबू
शिविर लेने
जाता था, वहा एक
बगीचा है :
शैतानसिंह
उद्यान।
किसी
का नाम
शैतानसिंह है।
और कोई नाम न
सूझा?
तो
किसी ने रख
दिया होगा
पापक। बालक
बड़ा हुआ तो
उसे यह नाम
बहुत बुरा
लगने लगा, खटकने
लगा। हर कोई
कहे, कहो
पापी! कहां
चले जा रहे हो?
ऐसा नहीं कि
पापी नहीं था,
जैसे सब
पापी हैं वैसा
पापी था।
लेकिन यह नाम
एक मुसीबत हो
गई।
तो
उसने अपने
आचार्य से
प्रार्थना की, भंते, मेरा
नाम बदल दें।
अपने गुरु से
कहा कि इतना
कर दें। यह
नाम मेरे पीछे
बुरी तरह पड़ा
है। यह नाम
बड़ा अप्रिय है,
अशुभ और
अमांगलिक है।
लेकिन आचार्य
ने कहा, नाम
तो केवल
प्रज्ञप्ति
के लिए है।
व्यवहार—जगत
में पुकारने के
लिए होता है।
नाम बदलने से
क्या सिद्ध
होगा? अरे,
पाप ही बदल
ले ताकि किसी
की हिम्मत
पापी कहने की
न पड़े। मगर
उसने कहा कि
महाराज, वह
जरा कठिन काम
है, यह नाम
तो बदल ही दो।
तो
गुरु ने कहा, ठीक है, तो तू ऐसा कर
कि तू गांव भर
में घूम—फिर
कर देख ले, कौन
सा नाम तुझे
प्रिय लगता है,
वह तू आकर
मुझे बता दे।
वही तेरा रख
देंगे। नहीं
माना, तो
गुरु ने कहा, चलो ठीक, बदल
देगे। जा तू
खोज ला। जब
आग्रह ही करता
है तो तेरी
मर्जी। फिर भी
तुझसे कहता
हूं गुरु ने
कहा कि अर्थ
सिद्ध तो कर्म
के करने से
होता है, कर्म
सुधारने से
होता है। पर
तू नाम ही
सुधारना
चाहता है तो
जा, गाव
में खोज ले।
अब वह
निकला गांव
में। पहले ही
आदमी से टकरा
गया तो उसने
कहा, अरे,
देखते नहीं?
उसने कहा, भाई, मैं
अंधा हूं।
उसने कहा, चलो
कोई बात नहीं,
तुम्हारा
नाम? उन्होंने
कहा, नयन सुख।
वह जरा चौंका;
उसने कहा, हद हो गई! नाम
नयन सुख, आंख
के अंधे! उसने
कहा, होगा,
अपने को
इससे क्या
लेना—देना।
मगर नयन सुख
नाम रखना ठीक
नहीं, उसने
कहा। क्योंकि
अंधों का नाम
नयन सुख!
और आगे
चला तो एक
अरथी जा रही
थी। उसने पूछा, भाई, कौन
मर गया? उन्होंने
कहा, जीवक।
उसने कहा, और
सुनो जीवक तो
वह जो जीए; और
ये सज्जन मर
गए! यह तो बड़ा
बुरा हुआ।
जीवक और
मृत्यु का
शिकार हो गया!
बुद्ध के चिकित्सक
का नाम जीवक
था। राजाओं ने
उसे यह नाम
दिया था।
क्योंकि वह
लोगों को..
.उसकी औषधि
में ऐसा बल था कि
जैसे मरों को
जिला ले।
लेकिन जीवक भी
मरा। वह औषधि
भी काम न आई, नाम भी काम न
आया।
तो वह
सोचने लगा, जीवक नाम
भी ठीक नहीं।
तो अरथी कसी
जाएगी। फिर
लोग हंसेंगें
कि अरे, जीवक
मर गए! जिंदगी
भर हंसे
क्योंकि नाम
रहा पापक, मरते
वक्त हंसेंगे
कि हो गए जीवक!
यह नहीं चलेगा।
और आगे
बढ़ा तो देखा
एक दीन—हीन
गरीब
दुखियारी
स्त्री को मार—पीट
कर घर के बाहर
निकाला जा रहा
था। तो उसने
पूछा देवी, तेरा नाम?
तो उसने कहा,
धनपाली।
पापक सोचने
लगा, नाम
धनपाली और
पैसे—पैसे को
मोहताज।
और आगे
बढ़ा तो एक
आदमी को लोगों
से रास्ता पूछते
पाया। तो उसने
पूछा, भाई,
रास्ता
पीछे पूछ लेना,
पहले एक बात
बता दो, तुम्हारा
नाम? तो
उसने कहा, पंथक।
पापक फिर सोच
में पड़ गया कि
अरे, पंथक
भी पंथ पूछते
हैं, पंथ
भूलते हैं? पापक वापस
लौट आया। गुरु
से उसने कहा
कि बात खतम हो
गई। नामों में
क्या धरा!
रास्ते पर
अंधा मिला; जनम का अंधा,
नाम नयनसुख।
एक दुखिया
मिला; जनम
का दुखिया, नाम सदासुख।
सब देख आया।
यही ठीक है।
पाप को ही बदल
लूंगा। नाम को
बदलने से क्या
होगा?
फिर भी
जब तुम मुझसे
दीक्षा लेते
हो तो तुम्हें
सुंदर नाम
देता हूं।
सुंदर से मेरा
लगाव है। नाम
ही दे रहा हूं
तो क्या
कंजूसी करूं!
दिल खोल कर दे
देता हूं।
सुंदर से
सुंदर नाम जो
खयाल में आता
है, तुम्हें
दे देता हूं।
इससे
तुम ध्यान
रखना कि
तुम्हारे लिए
चुनौती है।
तुम इससे यह
मत समझ लेना
कि यह तुम: हो
गए। यह
तुम्हें होना
है। नाम अभी
सार्थक है
नहीं, संभावना
है, यह
तुम्हें होना
है।
किसी
को मैं नाम
देता हूं
सच्चिदानंद।
यह तुम्हें
होना है। तुम
यह मत समझ
लेना कि हो गए।
मैंने नाम दे
दिया तो बात
खतम। अब क्या
करना? जो
होना था सो हो
गए।
सच्चिदानंद
हो गए। इतना
सस्ता नहीं है।
आदमी एक
संभावना है
होने की। आदमी
है नहीं, आदमी
होने की
संभावना है, एक बीज है।
पुरानी
कथा है कि
परमात्मा ने
जब प्रकृति
बनाई, सब
बनाया और फिर
आदमी को बनाया,
तो आदमी को
उसने मिट्टी
से बनाया। जब
आदमी बन गया
तो परमात्मा
ने सारे
देवताओं को
इकट्ठा करके
कहा कि देखो, मेरी
श्रेष्ठतम
कृति यह
मनुष्य है।
इससे ऊपर
मैंने कुछ भी
नहीं बनाया।
यह मेरी
प्रकृति के
सारे विस्तार
में सबसे श्रेष्ठ,
सबसे
गरिमाशाली।
लेकिन एक
संदेहवादी
देवता ने कहा,
यह तो ठीक
है, लेकिन
मिट्टी से
क्यों बनाया?
निकृष्टतम
चीज से बनाई
श्रेष्ठतम
चीज, यह
कुछ समझ में
नहीं आती। अरे,
सोने से
बनाते! कम से
कम चांदी से
बनाते। न सही
चांदी, लोहे
से बना देते।
मिट्टी! कुछ
और न मिला? निकृष्टतम
से श्रेष्ठतम
को बनाया।
तो परमात्मा
हंसने लगा।
उसने कहा, जिसे
श्रेष्ठतम
बनना हो उसे
निकृष्टतम से
यात्रा करनी
होती है। जिसे
स्वर्ग जाना
हो उसे नर्क
में पैर जमाने
पड़ते। जिसे
ऊपर उठना हो
उसे निम्नतम
को छूना पड़ता।
और फिर
परमात्मा ने
कहा, तुमने
कभी सोने में
से किसी चीज
को उगते देखा?
चांदी में
से कोई चीज
उगते देखी? बो दो बीज
सोने में, कभी
उगेगा नहीं, मर जाएगा।
मिट्टी भर में
उगता है कुछ।
और मनुष्य एक
संभावना है, एक आश्वासन
है। अभी
मनुष्य को
होना है, अभी
हो नहीं गया।
हो सकता है।
होने की सब
व्यवस्था कर
दी है लेकिन
होना पड़ेगा।
इसलिए मिट्टी
से बनाया है, क्योंकि
मिट्टी में ही
बीज फूटता है,
अंकुर
निकलते हैं, वृक्ष पैदा
होते, फूल
लगते, फल
लगते, सुगंध
फैलती।
महोत्सव घटित
होता है।
मिट्टी
में ही
संभावना है।
सोने की कोई
संभावना नहीं।
सोना तो
मुर्दा है, चांदी तो
मुर्दा है।
इसीलिए तो मरे—मरे
लोग सोने—चांदी
को पूजते हैं।
जिंदा लोग
मिट्टी को
पूजते हैं।
जितना मरा
आदमी उतना ही
सोने का पूजक।
जितना जिंदा
आदमी उतना
उसका मिट्टी
से मोह, मिट्टी
से लगाव, मिट्टी
से प्रेम।
मिट्टी जीवन
है। ठीक कहा
ईश्वर ने कि
बीज मिट्टी
में फेंक दो तो
खिलता, फैलता,
बड़ा होता।
मनुष्य
एक संभावना है।
मनुष्य
यात्रा है, अंत नहीं।
अभी मनुष्य को
होना है, अभी
मनुष्य हुआ
नहीं। सारी
क्षमता पड़ी है
छिपी अचेतन
में; प्रकट
होना है, अभिव्यक्त
होना है। गीत
तुम लेकर आए
हो, अभी
गाया नहीं।
तुम्हारी
वीणा तो है
तुम्हारे पास,
लेकिन
तुम्हारी
अंगुलियों ने
अभी छुआ नहीं।
जब मैं
तुम्हें नाम
देता हूं तो
सिर्फ एक संभावना
देता हूं।
कहता हूं
सच्चिदानंद
हो जाना।
इसलिए
सच्चिदानंद
नाम दे देता
हूं। नाम को
तुम ऐसा मत
समझ लेना कि
तुम
सच्चिदानंद
हो इसलिए
मैंने
सच्चिदानंद
कह दिया है।
होते तब तो
कहना क्या था!
होते तब तो
दीक्षा की भी
कोई जरूरत न
थी। होते तब
तो कुछ भी
कारण न था।
नहीं हो, मगर हो सकते
हो। द्वार
खुला है, चलना
पड़े।
यह जो
तुम्हारा नाम
है इसे दूर की
मंजिल समझना।
वह जो दूर
तारों के पार
सच्चिदानंद—रूप
है, वह
मैंने
तुम्हें नाम
दे दिया है।
नाम से
तुम्हें जोड़
दिया उससे। अब
तुमसे कह दिया,
अब चलो।
लंबी यात्रा
है। दुर्गम पथ
है।
कंटकाकीर्ण
मार्ग है। भटक
जाने की पूरी
संभावना है, पहुंचने की
संभावना बहुत
कम है। लेकिन
यह नाम
तुम्हें दे
दिया, यह
एक दूर के
तारे की तरह
तुम्हें
रोशनी देगा।
और जब तुम
भटकने लगोगे
और जब तुम
गिरने लगोगे
तब तुम्हें
याद दिलाएगा
कि
सच्चिदानंद, यह क्या कर
रहे? यह
तुम्हारे
जैसा नहीं है।
सच्चिदानंद, यह तुम
क्या कर रहे? चोरी कर रहे?
यह
तुम्हारे नाम
से मेल नहीं
खाता।
सच्चिदानंद, यह किसी की
हत्या करने को
उतारू हो गए? यह तुम्हारे
नाम से मेल
नहीं खाता।
सच्चिदानंद, उदास बैठे
हो? मुर्दा
बैठे हो? यह
तुम्हारे नाम
से मेल नहीं
खाता। नाचो।
मयूरी
नाच, छनाछन
नाच
मयूरी
नाच, उन्मन—उन्मन
नाच
मयूरी
नाच, आंगन—आंगन
नाच
तुम्हें
याद दिलाने को, स्मरण
दिलाने को।
आखिरी
प्रश्न :
क्या
बुद्धपुरुष
भी आंसू बहाते
हैं?
बुद्धपुरुषों
के संबंध में
कोई भी बात तय
करनी उचित
नहीं।
बुद्धपुरुष
ऐसे विराट, जैसे
आकाश।
बुद्धपुरुष
के संबंध में
कोई सीमा—रेखा
नहीं खींची जा
सकती। एक ही
बात कही जा
सकती है कि
बुद्धपुरुष
होने का अर्थ
होता है, पूर्ण
हो जाना।
पूर्ण में सब
समाहित है— आंसू
भी। जैसे
मुस्कुराहटें
समाहित हैं
वैसे ही आंसू
भी।
एक झेन
फकीर जापान
में मरा। उसका
शिष्य रिंझाई
बड़ा प्रसिद्ध
था। इतना
प्रसिद्ध था, गुरु से
ज्यादा
प्रसिद्ध था।
सच तो यह है कि
रिंझाई के
कारण ही गुरु
की प्रसिद्धि
हुई थी। लाखों
लोग इकट्ठे
हुए और रिंझाई
रोने लगा।
गुरु की लाश
पड़ी है और
रिंझाई के आंसू
झरने लगे। और
रिंझाई के आस—पास
जो लोग थे
उन्होंने कहा,
यह क्या
करते हो? तुम्हें
लोग रोता
देखेंगे तो
क्या सोचेंगे?
बुद्धपुरुष
कहीं रोते? तो रिंझाई
ने कहा, तो
समझ लो कि मैं
बुद्धपुरुष
नहीं। मगर अब
रोना हो रहा
है, तो
क्या करूं? मेरे गुरु
ने एक ही बात
मुझे सिखाई थी
कि जो स्वाभाविक
हो उसे होने
देना। अभी तो आंसू
आ रहे हैं। पर
लोगों ने कहा,
तुम्हीं तो
समझाते रहे कि
आत्मा अमर है।
अब रोते क्यों?
रिंझाई
ने कहा, मैं आत्मा
के लिए रो भी
कहां रहा हूं?
यह शरीर भी
बड़ा प्यारा था।
आत्मा तो अमर
ही है, उसके
लिए कौन रो
रहा है? यह
गुरु की देह
भी बड़ी प्यारी
थी। अब दुबारा
इसके दर्शन न
हो सकेंगे। अब
अनंत काल में
इसका कभी
साक्षात्कार
न हो सकेगा।
एक अपूर्व
घटना का
विसर्जन हो
रहा है, तुम
मुझे रोने भी
न दोगे? तुम
सम्हालों
अपना
बुद्धपुरुष
और बुद्धपुरुष
की परिभाषा।
मैं जैसा, वैसा
भला। लेकिन
मुझे
स्वाभाविक
होने दो।
और मैं
तुमसे कहता
हूं रिंझाई
बुद्धपुरुष
था इसलिए रो
सका। तुम जैसा
कोई बुद्ध
होता, अगर
आंसू भी आ रहे
होते तो रोक
कर बैठ जाता
कि यह मौका कोई
रोने का है? सारी इज्जत
पर पानी फिर
जाएगा। अभी
रोने का मौका
है? रो
लेना स्यात
में, अकेले
में करके
दरवाजा बंद।
अभी तो न रोओ।
भीड़— भाड़ के
सामने तो अकड़
कर बैठे रही
कि ज्ञान को उपलब्ध
हो गए हैं, कैसा
रोना? अरे
जानी कहीं
रोते हैं गु:
यह तो अज्ञानी
रोते हैं।
नहीं, यह
निश्चित ही
बुद्धपुरुष
रहा होगा। तभी
तो
बुद्धपुरुष
होने की बात
को भी दो कौड़ी में
फेंक दिया।
कहा, रख आओ,
सम्हालो
तुम्हीं। तो
फिर मैं
बुद्धपुरुष
नहीं। बात खतम
हुई। मगर जो
सहज हो रहा है,
होने दो।
बुद्धपुरुष
होने का अर्थ
होता है, सहजता, समग्रता।
जीवन समग्र है।
कहना मुश्किल
है। बुद्धपुरुषों
के संबंध में
कोई
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती।
बुद्धपुरुष
ऐसे मुक्त
जैसे आकाश।
ऐसा
हुआ, गौतम
बुद्ध के जीवन
में उल्लेख है
कि जब वे बारह
वर्ष के बाद
अपने घर वापस
लौटे तो
स्वभावत: अपने
पिता को, अपनी
पत्नी को, अपने
बेटे को मिलना
चाहे। तो आनंद
ने कहा कि यह
शोभा नहीं
देता।
बुद्धपुरुष
का कौन पिता, कौन बेटा, कौन पत्नी? बात खतम हो
गई। आप तो
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए।
बुद्ध
ने कहा, मैं तो हो
गया लेकिन वे
नहीं हैं अभी
उपलब्ध। उनका
मोह अभी भी
मेरे प्रति है।
और मैं तो
मुक्त हो गया
लेकिन मेरा ऋण
तो कायम है।
उनसे मैंने
जन्म लिया। और
इस पत्नी को
मैं बारह साल
पहले छोड़ कर
अंधेरी रात
में भाग गया
था, क्षमा
तो मांग लेने
दो। मेरी
यात्रा तो
पूरी हो गई, लेकिन वह तो
अभी भी जली— भुंजी
बैठी है। अभी
भी नाराज है।
बड़ी मानिनी है
यशोस्ग्रा।
उसने मुझे
क्षमा नहीं
किया। और जब
तक मैं क्षमा
न मांग वह
क्षमा करेगी
भी नहीं। अब
मुझे उससे
क्षमा मांग
लेने दो ताकि
वह भी मुक्त
हो जाए। यह
बात गई—गुजरी
हो गई। जो हुआ,
हुआ।
आनंद
जरा कसमसाया।
उसको यह बात
जंचती नहीं।
बुद्धपुरुष
को क्या लेना—
देना? फिर
भी अब नहीं
मानते तो ठीक
है, गया!
आनंद
जब संन्यस्त
हुआ था— आनंद
बुद्ध का बड़ा
भाई था स्वयं, चचेरा
बड़ा भाई। जब
वह संन्यस्त
हुआ था, बुद्ध
से दीक्षा ली
थी तो दीक्षा
के पहले उसने
कहा था कि
मेरी कुछ
शर्तें हैं।
दीक्षा के बाद
तो मैं शिष्य
हो जाऊंगा, फिर तुम
मेरी सुनोगे
नहीं। मुझे
तुम्हारी
सुननी पड़ेगी।
दीक्षा के
पहले बड़े भाई
के हैसियत से
ये शर्तें
तुमसे मांग
लेता हूं।
उसमें एक शर्त
यह भी थी कि
सदा तुम्हारे
साथ रहूंगा।
तुम कभी भी
मुझसे यह न कह
सकोगे कि आनंद,
मुझे छोड़।
रात तुम्हारे
कमरे में
सोऊंगा।
तुम्हारी
छाया की तरह
चलूंगा। तुम
मुझे समझा न
सकोगे कि आनंद
जा, तू
दूसरे गाव में
शिक्षा दे
लोगों को। मैं
कहीं जाने
वाला नहीं।
मैं तुम्हारे
पीछे रहूंगा।
ऐसी उसने पहले
ही शर्त रखी
थी और बुद्ध
ने शर्त मान
ली थी।
जब वे
महल में
प्रवेश करने
लगे तो बुद्ध
ने कहा, आनंद, यशोधरा
खुल न पाएगी
अगर तू मौजूद
रहा। कुलीन
स्त्री है। वह
अपना भाव भी
प्रकट न करेगी
तेरे सामने।
फिर तू मेरा
बड़ा भाई है, वह घूंघट कर
लेगी। वह रो
भी न पाएगी, नाराज भी न
हो पाएगी। और
तेरे सामने
तेरी
प्रतिष्ठा को
ध्यान में रख
कर वह कुछ
कहेगी भी नहीं।
तू कृपा कर।
आज तू जरा
पीछे रह जा।
आनंद
ने कहा, यह कैसी बात!
बुद्धपुरुष
को पत्नी क्या,
पति क्या!
पर बुद्ध ने
कहा, तू
छोड़ फिकर
बुद्धपुरुषों
की। मैं किसी
परिभाषा से
बंधा नहीं।
यही उचित
मालूम होता है।
और बात
ठीक थी।
यशोधरा क्षमा
न कर पाती
बुद्ध को अगर
आनंद मौजूद
रहता। जब
बुद्ध गए, यशोधरा
टूट पड़ी। रोयी,
चीखी, चिल्लाई,
नाराज हुई।
उसने कहा कि
तुम मुझे छोड़
कर भाग गए।
तुमने इतना भी
भरोसा न किया
कि मुझे जगा
कर पूछ लेते? क्या तुम
सोचते हो, मैं
मना करती? तुमने
इतना भी मेरे
प्रेम का
भरोसा न किया,
इतना मेरे
प्रेम का
समादर न किया।
तुम पूछ लेते
कि मैं जाता
हूं। मैं
तुम्हें जाने
देती लेकिन
तुम पूछ तो
लेते। तुम जगा
कर कह तो देते।
मैं अंतिम
क्षण
तुम्हारे पैर
तो छू लेती।
तुमने इतना भी
मुझे मौका न
दिया? तुमने
इतना भी भरोसा
न किया? मैं
क्षत्राणी
हूं तुम अगर
कहते कि
तुम्हें अपनी
गर्दन भी
काटनी है तो
मैं तुम्हारे
पैर छूकर
तुमसे कहती कि
ठीक है, तुम
मालिक हो। तुम
मेरे स्वामी
हो। मैं
तुम्हारी
मालिक नहीं
हूं। तुम्हें
जो ठीक लगे, करो। लेकिन
तुम भाग गए
चोर की तरह, वह मन में
कसती है बात।
कांटे की तरह
सलती है बात।
वह खूब
नाराज हुई। वह
खूब चिल्लाई।
वह खूब रोई।
इस सब उधेड़बुन
में उसे खयाल
ही न रहा कि
बुद्ध चुपचाप
खड़े हैं, एक शब्द भी
नहीं बोले हैं।
तब उसने अपनी आंखों
से आंसू पोंछे
और बुद्ध से
कहा, आप
चुप हैं, बोलते
नहीं?
बुद्ध
ने कहा, मैं क्या
बोलूं? क्योंकि
जो गया था वह
आया नहीं।
जिससे तू लड़
रही है वह अब
है नहीं। और
जो मैं आया
हूं उससे तू
बिलकुल
अपरिचित है।
तू मेरी तरफ
देख पागल! जो
गया था वह मैं
नहीं हूं। देह
वैसी लगती
होगी तुझे, लेकिन सब
बदल गया। आमूल
बदल गया हूं।
जड़—मूल से बदल
गया हूं। यह
कोई और ही आया
है। यह एक
दूसरी ही
ज्योति है।
मैं तो मिट
गया, नया
होकर आया हूं।
तू मेरी तरफ
देख। अब कब तक
गुजरे को लेकर
बैठी रहेगी? जो हुआ, हुआ।
उठ। जो मुझे
हुआ है वह
तुझे देने आया
हूं। मैंने
परम आनंद पाया
है। तू भी
उसकी भागीदार
बन। और यशोधरा
संन्यस्त हुई।
जब
यशोधरा
संन्यस्त हो
गई तो यशोधरा
से बुद्ध ने
कहा, एक
बात तू आनंद
को समझा दे।
वह चिंतित है।
अगर मैं आनंद
को लेकर आया
होता तो तू
खुल पाती? वह
कहती, कभी
नहीं खुल पाती।
मैं तुम्हें
फिर कभी क्षमा
न कर पाती। एक
तो चोर की तरह
भाग कर गए और
फिर आए तो भीड़—
भाड़ लेकर आए
ताकि मैं कुछ
कह न सकूं।
आनंद की
मौजूदगी में
मैं चुपचाप रह
जाती। मैंने अपने
हृदय के छाले
तुम्हें न
दिखाए होते।
बात खतम हो गई
थी। तुमने फिर
मेरा भरोसा
नहीं किया।
तुम फिर किसी
को लेकर आ गए
आडू की तरह, बीच में
पर्दे की तरह।
बुद्धपुरुष
की कोई
परिभाषा नहीं।
फिर
कोई एक
बुद्धपुरुष
थोड़े ही हुआ
है कि परिभाषा
हो जाए! सब
बुद्धपुरुष
अनूठे होते
हैं। कृष्ण
अपनी तरह, राम अपनी
तरह, बुद्ध
अपनी तरह, महावीर
अपनी तरह, जीसस
अपनी तरह, मोहम्मद
अपनी तरह, इतने
फूल खिलते हैं
इस पृथ्वी पर,
इतने भिन्न—भिन्न।
जूही है और
बेला है और
चंपा है और
चमेली है; गुलाब
और कमल... और सब
अलग—अलग।
हर
बुद्धपुरुष
अनूठा है।
इसलिए
परिभाषा तो
कैसे हो? नहीं, कोई
परिभाषा नहीं
हो सकती।
तुम
पूछते हो, 'क्या
बुद्धपुरुष
भी आंसू बहाते
हैं?'
बहा भी
सकते हैं न भी
बहाए। निर्भर
करता है इस पर—किस
बुद्धपुरुष
के संबंध में
बात हो रही है, उसके
व्यक्तित्व
पर निर्भर
करता है।
तुमने
देखा! कृष्ण
का एक नाम है, रणछोड़दास।
बड़ा मजेदार
नाम है। भाग
खड़े हुए रण
छोड्कर।
रणछोड़दासजी।
अब तुम
कहोगे, बुद्धपुरुष
भाग सकता? कृष्ण
भागे।
बुद्धपुरुष
झूठ बोल
सकता? कृष्ण के
जीवन में बहुत
झूठ है।
बुद्धपुरुष
दिए हुए वचन
तोड़ सकता? कृष्ण,
ने तोड़े।
क्या करोगे? बुद्धपुरुष हाथ
में तलवार ले
सकता है? मोहम्मद
ने ली।
हालांकि
तलवार
पर लिखा था, शांति
मेरा संदेश है।
इस्लाम का
अर्थ होता है.
शांति। अब
तलवार
पर ही लिखे
हैं, 'शाति
मेरा संदेश है',
और कोई जगह
न मिली लिखने
को?
कहना
मुश्किल है।
इधर एक बुद्ध
हैं जो कहते
हैं, चींटी
को भी मारना पाप
है। उधर एक
मोहम्मद हैं,
वे तलवार
लेकर आदमियों
को काटते रहे।
और जरा फिकर न।
की। इधर
महावीर हैं, वे पानी भी
छान कर पीते।
उधर कृष्ण हैं,
वे अर्जुन
से कहते हैं,
तू मार।
बेफिकर मार।
क्योंकि ये
मारे ही जा
चुके हैं। तू
तो
निमित्तमात्र
है।
जितने
बुद्धपुरुष
उतने प्रकार
हैं। परिभाषा
असंभव है।
महावीर
अकेले खड़े हैं।
कृष्ण हजार
स्त्रियों के
बीच नाच रहे
हैं। बुद्ध
वृक्ष के
नीचे
बैठे हैं।
मीरा गांव—गांव
नाच रही है।
बुद्ध को तुम
नाचता हुआ सोच
नहीं सकते।
महावीर
के ओंठ पर
बांसुरी
रखोगे बड़ी
बेहूदी मालूम
होगी। कृष्ण
को नंगा खड़ा
कर
दो
दिगंबर, जंचेंगे
नहीं।
सब
अनूठे हैं। सब
अपने—अपने
जैसे हैं। एक—एक
बुद्धपुरुष
एक—एक अनूठी
घटना
है इसलिए कोई
परिभाषा नहीं
हो सकती। कुछ
कहा नहीं जा
सकता।
और अभी
सब बुद्धपुरुष
हो नहीं गए
हैं। जितने
हुए हैं उससे
बहुत ज्यादा
होंगे।
इसलिए अभी
परिभाषा बंद
भी नहीं हो
सकती। कल कोई
बुद्धपुरुष
कैसा होगा,
कहना
मुश्किल है।
एक बात
तय है, बस
उसी को तुम
समझना मूल
आधार. कि
बुद्धपुरुष
जो भी
करता
है, जागा
हुआ करता है।
रोए तो जागा
हुआ रोता, नाचे
तो जागा हुआ
नाचता।
अकेला
खड़ा रहे तो
जागा हुआ खड़ा
रहता है।
जागरण
बुद्धत्व का
स्वाद है।
बुद्ध शब्द का
अर्थ होता है, जागा हुआ।
जो भी
करे, जागा हुआ
करता है। उसकी
जागृति भर
एकमात्र
परिभाषा है, शेष सब गौण
बातें
हैं। उसके
अंतर का दीया
जला होता है।
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