अध्याय
16 : सूत्र 1
शाश्वत
नियम का ज्ञान
निष्क्रियता
की चरम स्थिति
को उपलब्ध
करें,
और
प्रशांति के
आधार से दृढ़ता
से जुड़े रहें।
सभी
चीजें
रूपायित होकर
सक्रिय होती
हैं;
लेकिन
हम उन्हें
विश्रांति
में पुनः वापस
लौटते भी
देखते हैं।
जैसे
वनस्पति-जगत
लहलहाती
वृद्धि को
पाकर
फिर
अपनी
उदगम-भूमि को
लौट जाता है।
उदगम
को लौट जाना
विश्रांति है;
इसे
ही अपनी नियति
में वापस
लौटना कहते
हैं।
स्वयं
की नियति को
पुनः उपलब्ध
हो जाना
शाश्वत
नियम को पा
लेना है।
शाश्वत
नियम को जानना
ही ज्ञान से
आलोकित होना
है।
अभी
आकाश खाली है।
जल्दी ही
बादलों से भर
जाएगा। बादल
आएंगे; घने
होंगे, वर्षा
करेंगे और फिर
समाप्त हो
जाएंगे। आकाश फिर
भी वैसा ही
बना रहेगा।
आकाश एक
निष्क्रियता
है, पैसिविटी।
बादल एक
सक्रियता है,
एक्टिविटी।
बादल बनते हैं,
मिटते हैं;
आकाश बनता
भी नहीं, मिटता
भी नहीं। बादल
कभी होते हैं,
कभी नहीं
होते। आकाश
सदा होता है।
बादलों का अस्तित्व
जन्म और
मृत्यु के बीच
में है। आकाश
के अस्तित्व
के लिए न कोई
जन्म है, न
कोई मृत्यु
है। आकाश समय
के बाहर है।
बादल समय के भीतर
बनते हैं और
बिखर जाते
हैं। आकाश
शाश्वत है।
इस
सूत्र का नाम
है: शाश्वत
नियम का
ज्ञान--नोइंग
दि इटरनल लॉ।
जहां
भी सक्रियता
है,
वहां
शाश्वतता
नहीं होगी।
क्योंकि
क्रिया को तो
विश्राम में
जाना ही
पड़ेगा। कोई भी
क्रिया, कोई
भी एक्टिविटी
शाश्वत, सदा
नहीं हो सकती।
थकेगी; और
विश्राम में
लीन होना
पड़ेगा। सिर्फ
निष्क्रियता
शाश्वत हो
सकती है।
इस
सूत्र को समझ
लेना बहुत
जरूरी है।
धर्मों ने कहा
है,
ईश्वर
स्रष्टा है, गॉड इज़ दि
क्रिएटर।
लाओत्से राजी
नहीं है। लाओत्से
कहता है, सृजन
तो एक क्रिया
है। और अगर
ईश्वर
स्रष्टा है, तो कभी तो थक
ही जाएगी
क्रिया। और हर
करने से विश्राम
लेना ही होता
है। करने का
अंतिम परिणाम
सदा न करना
है। तो अगर
ईश्वर
स्रष्टा है, अगर सृजन ही
उसका स्वरूप
है, तो
ईश्वर शाश्वत
नहीं हो सकता।
शाश्वत तो सिर्फ
आत्यंतिक
निष्क्रियता
ही हो सकती
है। अगर आकाश
भी बनता हो, सक्रिय होता
हो, आकाश
भी अगर कुछ
करता हो, तो
बादलों की तरह
ही कभी न कभी
विलीन हो
जाएगा। आकाश
कुछ भी नहीं
करता। बादल
कुछ करते हैं।
करते हैं, तो
रिक्त हो जाते
हैं। अभी
वर्षा से भरे
आएंगे, उमड़ेंगे,
घुमड़ेंगे; शोरगुल होगा,
बड़ी गति
होगी, बिजलियां
चमकेंगी। फिर
पानी झर जाएगा,
बादल रिक्त
हो जाएंगे, खो जाएंगे।
सभी क्रिया
रिक्त हो जाती
है। हो ही
जाएगी।
क्योंकि सभी
क्रियाएं
प्रारंभ होती
हैं। और जो भी
प्रारंभ होता
है, वह अंत
भी होगा। जो
प्रारंभ नहीं
होता, वही
अंत से बच
सकता है।
लाओत्से
का ईश्वर
निष्क्रियता
है। इसलिए लाओत्से
उसे ईश्वर भी
नहीं कहता। वह
उसे शाश्वत नियम
कहता है--ताओ।
जीवन के बहुत
पहलुओं में हम
इसे देखें, तो
फिर स्वयं के
भीतर भी देखना
आसान हो
जाएगा। और तब
लाओत्से की
साधना हमारे
खयाल में आ
जाएगी--वह
क्या चाहता है
और कैसे आदमी
उस परम
शाश्वतता को
उपलब्ध हो
सकता है। एक
बीज हम बो
देते हैं; वृक्ष
जन्म जाता है।
शाखाएं-प्रशाखाएं
फैलती हैं; फूल खिलते
हैं। और फिर
एक दिन वह
वृक्ष उसी मिट्टी
में वापस गिर
कर खो जाता
है। एक
व्यक्ति पैदा
होता है। और
फिर एक दिन हम
उसे कब्र में
सुला कर वापस
मिट्टी में
मिल जाने देते
हैं। सुबह आप
जागते हैं।
सांझ थक जाते
हैं और नींद
में खो जाते
हैं। जन्म भी
एक जागना है
और मृत्यु भी
एक सांझ है।
फिर वापस हम
वहीं गिर जाते
हैं, जहां
से हम आते
हैं। लेकिन
क्या हमारे
भीतर भी ऐसा
कुछ है, जैसा
बादलों के साथ
आकाश है?
वृक्ष
जन्मा, मिट्टी
उठी आकाश की
तरफ। मिट्टी
वृक्ष के पत्ते
बनी। मिट्टी
ने वृक्ष में
फूल खिलाए।
फिर फूल गिर
गए, पत्ते
गिर गए, वृक्ष
गिर गया।
मिट्टी वापस
मिट्टी में
मिल गई। क्या
वृक्ष में ऐसा
भी कुछ था जो
आकाश जैसा था?
यह तो बादल
जैसा
हुआ--वृक्ष का
होना, पत्तों
का फैलना, सक्रियता।
यह तो बादलों
जैसा था।
वृक्ष में क्या
कुछ ऐसा भी था
जो आकाश जैसा
था? जो तब
भी था जब बीज
अंकुरित न हुआ
और तब भी है जब वृक्ष
वापस मिट्टी
में खो गया?
एक
आदमी जन्मा; यह
एक बादल का
जन्म है।
उमड़ेगा, घुमड़ेगा,
युवा होगा,
वासनाएं पकड़ेंगी,
दौड़ आएगी, जीवन एक गहन
सक्रियता बन
जाएगी: चिंता
और तनाव और
बेचैनी, सफलताएं
और असफलताएं।
और एक लंबी
कथा होगी। और
फिर सब मिट्टी
में गिर
जाएगा। उमर
खय्याम ने कहा
है: डस्ट अनटू
डस्ट। और फिर
मिट्टी वापस मिट्टी
में गिर
जाएगी। क्या
इस आदमी में
बादल ही बादल
थे या आकाश
जैसा भी कुछ
था? ये
वासनाएं तो
बादल हैं। और
कभी बहुत भरी
होती हैं। एक
जवान आदमी को
देखें; वह
पानी से भरा
हुआ बादल है।
एक बूढ़े आदमी
को देखें; वर्षा
हो गई, बादल
रिक्त हो गया
है। जो भरा था,
वह बिखर
गया। एक बूढ़ा
आदमी सूख गया
बादल है। लेकिन
क्या इस आदमी
की वासनाओं, क्रियाओं, इसकी दौड़, इसकी
उपलब्धियों, इन सबके
पीछे कुछ आकाश
भी है या नहीं?
अगर
कोई आकाश पीछे
नहीं है, तो
कोई आत्मा
नहीं है। और
अगर पीछे कोई
आकाश है, तो
ही आत्मा है।
जो मानते हैं
मनुष्य के
भीतर कोई
आत्मा नहीं है,
वे कह रहे
हैं कि बादल
तो उठते हैं, लेकिन आकाश
नहीं है।
लेकिन आकाश के
बिना बादल उठ
भी नहीं सकते।
आकाश तो हो
सकता है
बादलों के
बिना, लेकिन
बादल आकाश के
बिना नहीं हो
सकते। या कि हो
सकते हैं? आकाश
के होने में
कोई भी अड़चन
नहीं है। बादल
न हों, तो
आकाश के होने
में जरा भी
कमी नहीं
पड़ती। न होने
से आकाश में
कुछ बढ़ती होती
है, न न
होने से कुछ
घटता है। आकाश
होता है
बादलों के
बिना भी। बादल
एक दुर्घटना
है; या
कहें, एक
घटना है; आकाश
एक अस्तित्व
है। बादल
सांयोगिक हैं,
एक्सीडेंटल
हैं, किन्हीं
कारणों पर
निर्भर हैं।
इसे
थोड़ा समझें।
आकाश में बादल
बनते हैं, तो
किन्हीं
कारणों पर
निर्भर
हैं--संयोगात्मक
हैं। सूरज
निकलेगा, पानी
भाप बनेगा, आकाश की तरफ
उठेगा, तो
बादल बनेंगे।
अगर सूरज ठंडा
हो जाए, धूप
न पड़े, पानी
उबले नहीं, तो बादल
नहीं बनेंगे।
सूरज तपता रहे,
आग बरसाता
रहे, पानी
न हो, तो
बादल नहीं
बनेंगे। आकाश
अकारण है।
सूरज हो या न
हो, पानी
हो या न हो, बादल
बनें या न
बनें, चांदत्तारे
रहें या न
रहें, पृथ्वी
बचे या न बचे, आदमी हो या न
हो, आकाश
अकारण है, अनकंडीशनल
है। उसके होने
में कुछ भी
अंतर न पड़ेगा।
इसका
अर्थ हुआ कि
जिन चीजों का
भी कारण होता
है,
वे चीजें
बादलों की तरह
होती हैं; और
जिनका कोई
कारण नहीं
होता, अकारण,
वे चीजें
आकाश की तरह
होती हैं। आप
पैदा हुए, तो
आपके पैदा
होने में दो
हिस्से हैं।
एक बादल जैसा।
आपके
माता-पिता न
होते, तो
आपको यह शरीर
नहीं मिल सकता
था। हजार-हजार
कारण हैं, जिनसे
आपको यह शरीर
मिला। लेकिन आप
कारण में ही
समाप्त अगर हो
जाएं, तो
फिर आप नहीं
हैं, आपके
भीतर कोई आकाश
नहीं है। आपके
माता-पिता भी
न होते, आपका
शरीर भी न
होता, तो
भी आप होते, तो ही आपके
भीतर आत्मा
है। अन्यथा
आत्मा का कोई
अर्थ नहीं रह
जाता।
लाओत्से
कहता है, हमारे
सबके भीतर
बादल भी हैं
और आकाश भी
है। और जैसे
बादल नहीं हो
सकते आकाश के
बिना, आपकी
वासनाएं भी
नहीं हो सकतीं
आत्मा के बिना।
जैसे आकाश
चाहिए बादलों
को तैरने के
लिए, वैसे
ही आत्मा भी
चाहिए
वासनाओं को
तैरने के लिए।
आत्मा हो सकती
है बिना
वासनाओं की; वासनाएं
नहीं हो सकतीं
बिना आत्मा
के।
लेकिन
जब आकाश
बादलों से
घिरा होता है, तो
आकाश बिलकुल
दिखाई नहीं
पड़ता, बादल
ही दिखाई पड़ते
हैं। और जब
मनुष्य भी
वासनाओं से
घिरा होता है,
तो आत्मा
बिलकुल दिखाई
नहीं पड़ती, वासनाएं ही
दिखाई पड़ती
हैं।
और हर
वासना
सक्रियता में
ले जाती है।
जिन्होंने
कहा है कि जब
तक आदमी
निर्वासना
में न पहुंच
जाए,
डिजायरलेसनेस
में न पहुंच
जाए, तब तक
आत्मा को न पा
सकेगा, उनका
प्रयोजन यही
है। क्योंकि
जब तक निर्वासना
में न पहुंचें,
तब तक
निष्क्रियता
में न
पहुंचेंगे।
हर वासना
क्रिया का
जन्म है। यहां
वासना के पैदा
होने का अर्थ
ही यह है कि आप
एक क्रिया की
यात्रा पर
निकल गए। चाहे
स्वप्न में ही
सही, चाहे
वस्तुतः, आप
कुछ करने में
संलग्न हो गए।
वासना जन्मी
कि क्रिया
शुरू हो गई, बादल घिर
गए।
जितने
होंगे ज्यादा
बादल, उतना ही
आकाश दिखाई
नहीं पड़ेगा।
बादल बिलकुल न
हों, तब
आकाश दिखाई
पड़ता है; या
दो बादलों के
बीच में दिखाई
पड़ता है। दो
वासनाओं के
बीच में जो
अंतराल होता
है, उसमें
कभी भीतर की
आत्मा दिखाई
पड़ती है। लेकिन
हमारी
वासनाएं ऐसी
हैं कि अंतराल
बिलकुल नहीं
है। एक वासना
समाप्त नहीं
हो पाती, उसके
पहले हम हजार
पैदा कर लेते
हैं। ऐसा कभी नहीं
होता कि एक
वासना समाप्त
हो जाए और
दूसरी अभी
पैदा न हो और
बीच में खाली
जगह छूट जाए, जिसमें से
हम अपने आकाश
में झांक लें।
एक वासना पूरी
नहीं होती कि
हजार को हम बो
देते हैं। एक
मरती है, तो
हजार जन्म
जाती हैं।
आकाश हमारा
सदा ही बादलों
से भरा रह
जाता है।
इसलिए
आदमी अगर अपने
को समझने की
कोशिश करे, तो
पाएगा, मैं
सिर्फ
क्रियाओं का
एक जोड़ हूं।
और हम सब ऐसा
ही अपने को
मानते हैं।
अगर कोई आपसे
पूछे कि आप
क्या हैं, तो
आप क्या
बताएंगे? बताएंगे
कि आप ने
क्या-क्या
किया है, कितने
मकान खड़े किए
हैं, कितना
धन अर्जित
किया है, कितनी
उपाधियां
इकट्ठी की
हैं। आप ने
क्या किया है,
वही आपका
जोड़ है। तो आप
अपने को बादल
समझ रहे हैं; आकाश का
आपको कोई पता
नहीं है।
क्योंकि आकाश
का करने से
कोई संबंध
नहीं है। आकाश
तो सिर्फ है।
और उसके होने
के लिए आपको
कुछ भी करने
की जरूरत नहीं
है। उसका होना
किसी कर्म पर
निर्भर नहीं
है। प्रत्येक
घटना में ये
दोनों सूत्र
एक साथ मौजूद
हैं: क्रियाओं
का जगत है और
निष्क्रियता
की आत्मा है।
लाओत्से
कहता है, इस
निष्क्रियता
को जान लेना
ही शाश्वत
नियम को जान
लेना है।
उसके
सूत्र को हम
समझें।
"निष्क्रियता
की चरम स्थिति
को उपलब्ध करें;
और
प्रशांति के
आधार से दृढ़ता
से जुड़े रहें।'
अपने
ही भीतर
निष्क्रियता
की चरम स्थिति
को उपलब्ध
करें। इसका यह
अर्थ नहीं है
कि आप कुछ करें
नहीं। जीवन है, तो
कर्म तो होगा
ही। जीवन है, तो कुछ न कुछ
तो आप करते ही
रहेंगे। अगर
आप बिलकुल ही
मूर्तिवत भी
बैठ जाएं, तो
वह बैठना भी
कर्म ही है।
और आप मुर्दे
की तरह शवासन
में लेट जाएं,
वह लेट जाना
भी कर्म ही
है। और आप सब
छोड़ कर जंगल
में भाग जाएं,
वह भाग जाना
भी कर्म ही
है।
झेन
फकीर हुई-हाई
के पास एक
युवक आया है।
और वह उस युवक
से कहता है, लाओत्से
का यह सूत्र
याद रखो: अटेन
दि अटमोस्ट इन
पैसिविटी, उस
चरम को
निष्क्रियता
में उपलब्ध
करो।
वह
युवक सब तरह
के उपाय करता
है। वह दूसरे
दिन सुबह आकर
बिलकुल बुद्ध
की पत्थर की
मूर्ति होकर
बैठ जाता है।
हुई-हाई उसे
हिलाता है और
वह कहता है, हमारे
मंदिर में
पत्थर के
बुद्ध काफी
हैं। और ज्यादा
जरूरत नहीं
है। ऐसे नहीं
चलेगा। अटेन
दि अटमोस्ट इन
पैसिविटी, निष्क्रियता
में उसकी
चरमता में
प्रवेश करो।
यह तो तुम ही
बैठे हुए हो।
और इस बैठने
में तुम्हें
कर्म करना पड़
रहा है।
और
आदमी साधारण
बैठा हो, तो कम
कर्म करना
पड़ता है; ठीक
बुद्ध जैसा बन
कर बैठ जाए, तो बहुत
कर्म करना
पड़ता है। वह
कई तरह के
उपाय करता है;
सब असफल हो
जाते हैं।
क्योंकि कोई
भी उपाय निष्क्रियता
पाने में सफल
नहीं हो सकता।
उपाय का अर्थ
ही है कर्म।
तो कर्म अकर्म
को पाने में कैसे
होगा सफल? कोई
रुकना चाहता
हो, तो
दौड़ने से कैसे
रुकने तक
पहुंचेगा? और
कोई मरना
चाहता हो, तो
जीवन उसके लिए
रास्ता नहीं
है। कर्म से
कोई कैसे
अकर्म को
पाएगा?
तो वह
युवक परेशान
हो गया। उसने
हुई-हाई के आश्रम
में
वृद्धजनों को
जाकर पूछा कि
मैं क्या करूं? मैं
परेशान हो
गया। मेरी
बुद्धि तो अंत
पर आ गई। मेरा
तो समाप्त हो
गया सोच-समझ
सब। सब उपाय
करके देख चुका
हूं। आप हैं
पुराने, आप
गुरु के साथ
बहुत दिन रहे
हैं। और
निश्चित ही आप
भी इस परीक्षा
से गुजरे
होंगे। मुझे
कुछ सलाह दें।
यह मैं
निष्क्रियता
कैसे प्राप्त करूं?
तो जिससे
उसने पूछा था,
उसने कहा कि
जब तक मर ही न
जाओ, तब तक
निष्क्रियता
प्राप्त नहीं
होती। जीते जी
कैसी
निष्क्रियता?
जीओगे, तो
कर्म तो होगा
ही। जीना
क्रिया का ही
नाम है। जीवन
अर्थात
सक्रियता। मर
ही जाओ, तो
ही परीक्षा
में पास हो
सकते हो। उस
युवक ने सोचा,
यह भी कोशिश
कर ली जाए।
वह
दूसरे दिन
सुबह जब गुरु
के पास गया, तो
गुरु ने पूछा
कि पा लिया वह
सूत्र? वह
तत्क्षण वहीं
गुरु के सामने
गिर कर मर
गया। गुरु
उसके पास आया
और उसने कहा
कि जरा एक आंख
खोलो। तो उसने
एक आंख खोल कर
गुरु को देखा।
तो गुरु ने
कहा कि मरे
हुए लोग आंख
खोल कर देखा
नहीं करते। यह
तुम किससे सीख
कर आ गए हो? और
सिखावन से कोई
कभी सत्य को
उपलब्ध नहीं
होता। तो वह
युवक रोने लगा
और उसने कहा
कि मैं सब
उपाय कर चुका,
और यह आखिरी
उपाय था। अब
कुछ करने को
बचा नहीं। यह
निष्क्रियता
कैसे उपलब्ध
हो?
उसके
गुरु ने कहा
कि जब तक तुम
पूछते हो कैसे, हाऊ,
तब तक तुम
कभी उपलब्ध न
हो सकोगे।
क्योंकि कैसे
का मतलब ही
क्या होता है?
उसका मतलब
होता है: किस
प्रकार, किस
विधि से, किस
प्रयत्न से, किस काम से
मैं पा सकूंगा?
तुम कर्म को
ही पूछे चले
जाते हो।
निष्क्रियता, हुई-हाई
ने कहा है, पाई
नहीं जाती, निष्क्रियता
मौजूद है। और
निष्क्रियता
पाने का कोई
उपाय नहीं; वह मौजूद
है। सिर्फ
सक्रियता से
ध्यान निष्क्रियता
पर हट जाए। यह
सिर्फ ध्यान
के हटने की बात
है। बादल से
ध्यान आकाश पर
हट जाए। आकाश
को पाना नहीं
है, आकाश
है। और हमने
उसे कभी खोया
भी नहीं है।
ज्यादा से
ज्यादा हम भूल
सकते हैं। और
आकाश को बनाना
भी नहीं है।
और हमारे किसी
प्रयत्न से वह
बन भी न
सकेगा। और हमारे
प्रयत्न से जो
बन जाए, वह
आकाश नहीं
होगा।
इसलिए
आत्मा को पाने
के लिए कोई भी
प्रयास नहीं
है। और आत्मा
को पाने के
लिए कोई भी
साधना नहीं
है। सारी
साधनाएं और
सारे प्रयास, वह
जो हमारे भीतर
बादलों का जगत
है, उस जगत
से ध्यान को
हटाने के लिए
ही हैं।
लाओत्से
का यह सूत्र, "निष्क्रियता
की चरम स्थिति
को उपलब्ध
करें।'
शब्दों
के कारण
भ्रांति पैदा
करता है। इससे
लगता है
उपलब्ध करें, कुछ
पाने को है।
लेकिन यह भाषा
की मजबूरी है।
और लाओत्से
पहले ही कह
चुका है कि जो
मैं कहना चाहता
हूं, वह
कहा नहीं जा
सकता। और जो
मैं कहूंगा, उसमें भूल
हो जानी
अनिवार्य है।
हमारी सारी की
सारी भाषा
क्रिया पर
निर्भर है।
अगर एक आदमी
मर जाता है, तो भी हम
कहते हैं वह
आदमी मर गया, जैसे मरना
उनका कोई काम
हो। मरना एक
क्रिया है। हम
कहते हैं फलां
आदमी मर गया, जैसे कि
मरने का कोई
काम उन्होंने
किया हो। मरने
के लिए आपको
कुछ करना नहीं
पड़ता। लेकिन
हमारी पूरी
भाषा क्रिया
पर चलती है।
चलेगी ही। हम जीवन
को बादलों से
ही जानते हैं।
और वहां तो सब
कर्म है, गति
है। इसलिए जो
भी हम...।
हम
किसी को कहते
हैं कि मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं,
जैसे कि
प्रेम कोई
कर्म हो। अब
तक दुनिया में
कोई प्रेम कर
नहीं सका है।
प्रेम कोई
कृत्य नहीं है
कि आप कर लें।
प्रेम या तो
होगा या नहीं
होगा; करने
का कोई सवाल
नहीं है। अगर
है तो ठीक; नहीं
है तो ठीक।
चेष्टा करके
आप प्रेम नहीं
कर सकते हैं।
प्रेम का क्रिया
से कोई भी
संबंध नहीं
है। लेकिन
भाषा में प्रेम
भी क्रिया है।
हम कहते हैं, मां बेटे को
प्रेम करती
है। मां और
बेटे के बीच
प्रेम होता है;
करती नहीं
है। करने का
तो कोई उपाय
ही नहीं है।
हम तो प्रेम
जैसी घटना को
भी क्रिया बना
लेते हैं। ठीक
ऐसे ही हमने
ध्यान को भी
क्रिया बना
लिया है। एक
आदमी कहता है,
मैं ध्यान
करता हूं।
मजबूरी है।
भाषा सभी चीजों
को क्रिया में
बदल देती है।
स्थितियों को
भी क्रिया में
बदल देती है।
इसलिए
बड़ा विपरीत है
यह सूत्र, "निष्क्रियता
की चरम स्थिति
को उपलब्ध
करें।'
उपलब्ध
करने में
क्रिया है। और
निष्क्रियता
की स्थिति
पानी है।
निष्क्रियता
पानी है, तो
उपलब्धि तो
नहीं हो सकती।
सब
उपलब्धियां क्रियाएं
हैं। धन पा
सकते हैं आप, धन की
उपलब्धि हो
सकती है। यश
पा सकते हैं, पद पा सकते
हैं। वे सब
क्रियाएं
हैं। लेकिन निष्क्रियता
कैसे पाइएगा?
लाओत्से
का मतलब है कि
हमारे भीतर दो
तल हैं। एक तल
पर क्रियाएं
हैं;
बादल हैं, लहरें हैं, तरंगें हैं।
और ठीक उसी के
नीचे गहराई
में आकाश है।
उसी आकाश में
ये सारे बादल
घिरे हैं। और वह
आकाश असीम है।
और ये बादल
बड़े सीमित
हैं। इन
बादलों को पार
करके देखने की
क्षमता ही
निष्क्रियता
की उपलब्धि हो
जाती है।
इसलिए
दूसरे ही
सूत्र में वह
कहता है, इसी
सूत्र के
दूसरे हिस्से
में, "निष्क्रियता
की चरम स्थिति
को उपलब्ध
करें; और
प्रशांति के
आधार से दृढ़ता
से जुड़े रहें।'
और जब
आपको दिखाई पड़
जाए आपके ही
भीतर कि आकाश भी
है,
तो फिर
बादलों में मत
भटकें। और
चाहे कितनी ही
बादलों में
यात्रा करें,
लेकिन आकाश
से सतत जुड़े
रहें। स्मरण
आकाश का ही
रखें। कितने
ही दूर निकल
जाएं, लेकिन
ध्यान सदा उस
आकाश का ही
रखें, जो
भीतर अनुभव
में हुआ है।
कितने ही कर्म
करें, कितने
ही दौड़ते रहें,
लेकिन
ध्यान उसका ही
रखें, जो
भीतर नहीं दौड़
रहा है, कभी
नहीं दौड़ा, जिसके दौड़ने
का कोई उपाय
ही नहीं है।
कभी
आपने कोशिश की? कभी
दौड़ कर देखें।
आप ट्रेन पर
सवार होते
हैं। आपके
भीतर कुछ ऐसा
भी है, जो
ट्रेन पर सवार
नहीं होता।
ट्रेन चलती
है। आप भी
ट्रेन के साथ
गतिमान होते
हैं। आपके
भीतर कुछ ऐसा
भी है, जिसमें
कोई गति नहीं
होती। आप एक
स्थान से दूसरे
स्थान पर
पहुंच जाते
हैं। लेकिन
आपके भीतर कुछ
ऐसा भी है, जिसमें
कोई परिवर्तन
नहीं होता। आप
कितने ही चलते-फिरते
रहें, आपके
भीतर एक अचल
तत्व भी है।
उस अचल, निष्क्रिय
आकाश को ही
सदा ध्यान में
रखें। आपके ऊपर
क्रोध के बादल
आ गए, या
कामवासना ने
मन को धुएं से
भर दिया, या
लोभ का जहर
फैल गया; तब
भी इन बादलों
के बीच पीछे
छिपे आकाश को
स्मरण रखें।
क्योंकि बादल
अभी नहीं थे, अभी हैं, अभी
फिर नहीं हो
जाएंगे। और जो
क्षण भर को
आया है और
क्षण भर में
चला जाएगा, उसके कारण विचलित
होने का कोई
भी कारण नहीं
है। उससे विचलित
वही होता है, जो भीतर के
शांति के
प्रगाढ़ आधार
को भूल जाता है।
एक
सूफी कथा है।
एक सम्राट
बूढ़ा हुआ।
उसने अपने
मंत्रिमंडल
को बुलाया और
उनसे कहा कि
मैं बूढ़ा हुआ
और मौत करीब
आती है। अब तक
मैंने ज्ञान की
कोई कभी चिंता
नहीं की।
लेकिन मौत
करीब आती है, तो
ज्ञान की भी
चिंता पैदा
होती है। अगर
मौत न होती, तो शायद
दुनिया में
ज्ञानी ही
मुश्किल से
होते। अगर मौत
न होती, तो
शायद धर्मों
का कोई
अस्तित्व
नहीं हो सकता था।
अगर मौत न
होती, तो
तत्व-चिंतन की
कोई जगह नहीं
बन सकती थी।
उस बूढ़े
सम्राट ने कहा
कि मन बहुत
घबड़ाता है। और
अब मैं कोई
ऐसा आधार
चाहता हूं, जहां इस
घबड़ाहट से मैं
बच सकूं। और
अब तक मैंने
जो भी इंतजाम
किए, वे सब
व्यर्थ हुए
जाते हैं। अब
तक उनका भरोसा
था बहुत।
फौजें थीं, तोपें थीं, महल थे, किले
थे; सुरक्षित
था। लेकिन अब
ये फौजें और
ये पत्थर की
दीवारें कुछ
भी न कर पाएंगी।
मौत करीब आई
चली जाती है।
मुझे कोई ऐसा
सूत्र चाहिए
कि मौत मुझे
भयभीत न करे।
यह बुढ़ापा
द्वार पर
दस्तक देता है;
बहुत कंपता
है मन।
मंत्रियों
ने कहा, हम
सलाह दे सकते
थे कि और बड़ा
किला कैसे
बनाया जाए; हम सलाह दे सकते
थे कि फौजें
और बड़ी कैसे
की जाएं; लेकिन
जिस संबंध में
आप पूछ रहे
हैं, उस
संबंध में तो
हमें कुछ भी
पता नहीं है।
तो
सारे राज्य
में खबर, खोजबीन
की गई। एक
बूढ़े फकीर ने
आकर कहा कि
मैं एक सूत्र
दिए देता हूं,
जो वक्त पर
काम पड़े।
लेकिन जब तक
वक्त न आ जाए, तब तक इसे
खोल कर देखना
मत। वक्त! जब
तुम्हें ऐसा
लगे कि सब
उपाय व्यर्थ
हो गए, तुम
जो भी कर सकते
थे, अब
किसी काम का न
रहा। जब तक
तुम कर सको, तब तक तुम कर
लेना। जब तुम
पाओ कि
तुम्हारी करने
की क्षमता चुक
गई, अब तुम
कुछ भी न कर
पाओगे, तभी
इस सूत्र को
देखना। उसने
एक ताबीज में
बंद करके वह
सूत्र दे
दिया।
सम्राट
ने वह ताबीज
अपनी बांह पर
बांध लिया। कई
मौके आए, जब मन
हुआ कि खोल कर
ताबीज देख ले;
लेकिन तभी
उसे पता चला
कि अभी तो मैं
कुछ कर सकता
हूं।
वर्षों
बीत गए। फिर
दुश्मन का
हमला हुआ और
वह राज्य हार
गया। और हारा
हुआ घोड़े पर
भागा जा रहा
है,
दुश्मन
उसके पीछे
हैं। तब अचानक
उसे ताबीज का खयाल
आया। पर उसे
लगा, अभी
तो मैं कुछ कर
ही सकता हूं।
अभी दुश्मन दूर
हैं, तेज
घोड़ा मेरे पास
है, अभी
मैं इन सीमाओं
के बाहर निकल
ही जा सकता हूं।
वह भागता रहा।
लेकिन अचानक
एक ऐसे मोड़ पर
पहुंचा पहाड़
के कि आगे
रास्ता
समाप्त था और
गङ्ढ आ गया।
पीछे लौटने का
कोई उपाय न
रहा, पीछे
दुश्मन हैं।
उनके घोड़ों की
टाप प्रतिपल बढ़ती
चली जाती है।
और आगे खड्ड
है, और आगे
जाया नहीं जा
सकता। और
रास्ता बस एक
छोटी पगडंडी
है। आखिरी
घोड़े की टाप
मालूम पड़ने लगी
कि बस अब छाती
पर ही पड़ रही
है, सिर पर
ही पड़ रही है, तब उसने तोड़
कर ताबीज पढ़ा।
उसमें एक छोटा
सा वाक्य लिखा
था। लिखा था:
यह भी बीत
जाएगा, दिस
टू विल पास।
और कुछ भी न
था। कोई उपाय
भी न था करने
का। ताबीज हाथ
में लिए वह
खड़ा रहा। बुद्धि
कुछ साथ न
देती मालूम
पड़ी। यह भी
फकीर ने क्या
धोखा दिया!
सोचता था, कोई
मंत्र होगा, कोई जादू
होगा, कोई
चमत्कार की
ताकत होगी कि
कुछ भी कर
लूंगा। इसमें
कुछ भी न था; एक कागज के
छोटे से टुकड़े
पर लिखा था: यह
भी बीत जाएगा।
खड़ा
रहा शांत।
घोड़ों की
टापों की
आवाजें बढ़ती गईं, बढ़ती
गईं, बढ़ती
गईं--और फिर
धीमी पड़ने
लगीं।
उन्होंने कोई
दूसरा रास्ता
पकड़ लिया था।
फिर घोड़े दूर
निकल गए। फिर
उसने ताबीज को
वापस बांध
लिया। वापस
उसकी फौजें
जीत गईं। वह
अपने राज्य
में लौट आया।
लेकिन
तब से वह हर
घड़ी ताबीज को
खोल कर और
पढ़ने लगा। हर
घड़ी! किसी ने
उसे गाली दे
दी है, अपमान
कर दिया है, और वह कागज
को पढ़ लेता और
मुस्कुराता
और ताबीज को
बंद कर लेता।
उस दिन से उसे
किसी ने
चिंतित नहीं
देखा। उस दिन
से उसे किसी
ने दुखी नहीं
पाया। उस दिन
से किसी ने
उसे क्रोधी
नहीं पाया। उस
दिन से मौत, जीवन, कोई
चिंता उसकी न
रह गई। उसके
मंत्री उसके
आस-पास घूमते
थे कि कभी
उसके कागज में
झांक
लें--क्या है
मंत्र! आदमी
बिलकुल ही बदल
गया। क्या है
जादू उस मंत्र
में? बस एक
छोटा सा सूत्र
था: यह भी बीत
जाएगा।
अगर
ठीक से समझें, तो
जो भी बीत
जाता है, वह
आपके भीतर
बादल है। और
जो नहीं बीतता,
वही आप हैं।
जो भी आता है
और बीत जाता
है, वह आप
नहीं हैं। इस
बात की स्मृति
गहरी हो जाए, तो आप
प्रशांति के
आधार से जुड़
गए। वह सम्राट
जुड़ गया
प्रशांति के
आधार से। जो
मेरे भीतर नहीं
बीतता है कभी,
वही मैं
हूं। लेकिन
मेरी सब
क्रियाएं बीत
जाती हैं। मैं
कुछ भी करूं, वह बीत जाता
है। तो मेरे
करने से
शाश्वत नियम
से कोई जोड़
नहीं है। वरन
मेरे न करने
की जो अवस्था
है, वही
शाश्वत से
संयुक्त है।
"सभी
चीजें
रूपायित होकर
सक्रिय होती
हैं।'
सभी
चीजें रूप
लेती हैं, सक्रिय
हो जाती हैं।
बादल रूप लेता
है, सक्रिय
हो जाता है।
वृक्ष रूप
लेता है, सक्रिय
हो जाता है।
वासना आपके
भीतर रूप लेती
है, सक्रिय
हो जाती है।
"सभी
चीजें
रूपायित होकर
सक्रिय होती
हैं; लेकिन
हम उन्हें
विश्रांति
में पुनः वापस
लौटते भी
देखते हैं।'
लाओत्से
कहता है, सभी
कुछ बनता है, निर्मित
होता है। फिर
हम इन्हें
लौटते भी देखते
हैं, वापस
विश्रांति
में गिरते भी
देखते हैं। जब
सभी बन कर गिर
जाता है...। अगर
यह दिखाई पड़ना
शुरू हो जाए, अगर यह
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाए
कि सभी रूप, चाहे वे
सुंदर हों या
कुरूप, चाहे
वे प्रीतिकर
हों या
अप्रीतिकर, बनते हैं और
बिखर जाते हैं;
बिखरना
अनिवार्य
नियम है; बनने
का ही हिस्सा है
बिखर जाना; जो आज पैदा
हुआ है, वह
मरने को ही
पैदा हुआ है; और जो फूल
खिला है, वह
गिरने को ही
खिला है; वह
गिरना, कुम्हलाना,
बिखर जाना
खिलने का ही
दूसरा हिस्सा
है; अगर
इतना आर-पार
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाए, तो आपके पास
धर्म की आंख
पैदा हो गई।
बुद्ध
कहते थे धर्म-चक्षु
इसको। वे कहते
थे,
सब अनित्य
है, सब
मरणधर्मा है;
कुछ भी
टिकेगा नहीं,
कुछ भी
बचेगा नहीं; जिसका भी
आदि है, उसका
अंत है; इसे
जो देख लेता
है, उसे
धर्म-चक्षु
उपलब्ध हो
जाता है। उसे
वह आंख मिल
जाती है, जिसको
हम धर्म की
आंख कहें।
कुरान को कोई
कंठस्थ कर ले,
तो वह आंख
नहीं मिलती।
और न गीता को
कंठस्थ करने
से मिलती है।
वह आंख मिलती
है इस अनुभव
से।
हमें
तो रूप दिखाई
पड़ता है। आकाश
में एक बादल बना, तो
हमें बादल
दिखाई पड़ता है,
आकाश खो
जाता है। जो
सदा था और जो
अभी भी है और जो
आगे भी होगा, वह भूल जाता
है; और
बादल सब कुछ
हो जाता है।
और जब बादल
होता है, तो
हम यह भूल ही
जाते हैं कि
थोड़ी देर में
बादल बिखर
जाएगा। यह
बादल कुछ भी
नहीं है, सिर्फ
घनी हो गई भाप
है, सिर्फ
सघन हो गया
धुआं है। यह
खो जाएगा। जो
व्यक्ति, बादल
घिरे हों, तब
भी यह देख
पाता है; जिस
व्यक्ति के
लिए, जब
बादल घिरे हों,
तब भी आकाश
स्वच्छ दिखाई
पड़ता है, उसे
धर्म की आंख
उपलब्ध हो गई।
सब रूप
निर्मित होते
हैं,
बिखर जाते
हैं। लेकिन
रूप मन को बड़ा
पकड़ लेते हैं।
वास्तविक
रूपों को तो
हम छोड़ दें; अगर एक
सुंदर शरीर की
तस्वीर भी है,
तो लोग उसको
भी छाती से
लगाए देखे
जाते हैं।
कागज के टुकड़े
पर स्याही की
रेखाएं एक रूप
बन जाती हैं।
लोग उससे भी
आंदोलित होते
हैं। लोग उससे
भी प्रभावित
होते हैं। लोग
उससे भी जकड़
जाते हैं। तो
जो कागज पर
खींची गई
रेखाओं से
आंदोलित हो
जाते हैं, वे
अगर
मांस-मज्जा और
हड्डी की
रेखाओं से
प्रभावित हो
जाते हों तो
आश्चर्य तो
नहीं है।
लेकिन
जो कागज पर
खींची रेखाओं
से आंदोलित होते
हैं,
वे अगर थोड़ा
गौर से देख
पाएं, तो
पीछे कोरा
कागज ही दिखाई
पड़ेगा। और जो
हड्डी-मांस-मज्जा
से भी
प्रभावित
होते हैं, वे
भी थोड़ा गहरा
देख पाएं, तो
उन्हें भी
पीछे कोरा
आकाश ही दिखाई
पड़ेगा। सभी
रूप स्याही से
खींची गई
रेखाओं के ही
रूप हैं। सभी
रूप--चाहे एक
वृक्ष
निर्मित हो रहा
हो, और
चाहे एक
व्यक्ति
निर्मित हो
रहा हो, और
चाहे एक सूर्य
निर्मित हो
रहा हो--सभी
रूप...।
बुद्ध
ने कहा है, सभी
चीजें संघात
हैं, जोड़
हैं। सभी जोड़
बिखर जाते
हैं।
बुद्ध
की मृत्यु
करीब आई है।
भिक्षु रो रहे
हैं। एक भिक्षु
बुद्ध से
पूछता है कि
अब आपका क्या
होगा? आप कहां
जाएंगे? किस
मोक्ष में?
बुद्ध
ने कहा, मैं
कहीं भी नहीं
जाऊंगा। और
जिसे तुम
समझते थे मेरा
होना, वह
तो सिर्फ
संघात है। वह
तो केवल
रेखाओं का जोड़
है। वह
तुम्हारे
सामने बिखर कर
यहीं मिट्टी
में मिल
जाएगा। तुम ही
उसे दफना
आओगे। जिसे
तुम समझते हो
मेरा होना, वह तो यहीं
मिट्टी में
मिल जाएगा। वह
रूप तो इसी
मिट्टी से
निर्मित हुआ
है। और जो मैं
हूं, उसका
कहीं कोई
आना-जाना नहीं
है। लेकिन उसे
तुम नहीं
जानते हो।
प्रत्येक
रूप के भीतर
अरूप छिपा है।
बिना अरूप के
रूप नहीं हो
सकता; जैसे
मैंने कहा, बिना आकाश
के बादल नहीं
हो सकते। अरूप
अनिवार्य है
रूप के लिए।
लेकिन
रूप हमें
दिखाई पड़ता है, अरूप
हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
लाओत्से
कहता है, "सभी
चीजें
रूपायित होकर
सक्रिय होती
हैं; लेकिन
हम उन्हें
विश्रांति
में पुनः वापस
लौटते भी देखते
हैं।'
यही
देख लेना धर्म
है।
"जैसे
वनस्पति-जगत
लहलहाती
वृद्धि को
पाकर फिर अपनी
उदगम-भूमि में
लौट जाता है।'
एक
पौधा निर्मित
होता है। फूल
खिलते हैं, सुगंध
आती है, हवाओं
से टक्कर लेता
है, सूरज
को छूने की
आकांक्षा से
आकाश की
यात्रा पर
निकलता है।
कितना रंग! कितना
रूप! कितनी
आकांक्षा!
कितना दृढ़
विश्वास! फिर
सब खो जाता
है। फिर
साल-छह महीने
बाद वहां जाकर
देखें, तो
कुछ भी नहीं
है। मिट्टी
वापस मिट्टी
में गिर गई।
जैसे एक लहर
ने छलांग ली
हो और फिर
वापस गिर गई
हो। लेकिन जब
यह पौधा होता
है और जब
इसमें फूल
खिलते हैं, जब यह
रूपायित होता
है, तब
हमें पीछे का
खाली आकाश
दिखाई नहीं
पड़ता।
लाओत्से
वही कह रहा है, लेकिन
सब चीजें वापस
लौट जाती हैं।
जिस
व्यक्ति को
चीजों का वापस
लौटना भी
दिखाई पड़ने
लगता है, वही
व्यक्ति
निष्क्रियता
की चरम सीमा
को छू पाएगा।
और वही
व्यक्ति
विश्रांति के
आत्यंतिक
आधार के साथ
जुड़ जाएगा।
"उदगम
को लौट जाना
विश्रांति
है।'
यह तो
दृष्टि की बात
हुई। यह तो
दृष्टि
उपलब्ध होनी
चाहिए। यह
दिखाई पड़ना
चाहिए।
एक
पौधे को तो हम
देख भी सकते
हैं आर-पार कि
कल यह मिट
जाएगा। लेकिन यह
पौधे को हम
देख रहे हैं।
एक बादल को तो
हम देख भी
सकते हैं कि
घड़ी भर बाद
बिखर जाएगा।
लेकिन यह बादल
को हम देख रहे
हैं। जिस दिन
कोई व्यक्ति
इस
अंतर्दृष्टि
को स्वयं पर
भी लागू कर लेता
है,
जिस दिन वह
कहता है कि
मुझमें भी जो
दिखाई पड़ रहा
है--यह मेरी
देह, और यह
मेरा मन, और
ये मेरे विचार,
और यह मेरी
अस्मिता, मेरा
अहंकार, यह
मेरी
बुद्धि--यह जो
कुछ भी मुझे
दिखाई पड़ रहा
है मुझमें, यह भी वापस
उदगम में गिर
जाएगा, वैसे
ही जैसे सब
रूप गिर जाते
हैं। जब कोई
व्यक्ति इस
दृष्टि को
अपने पर भी
लौटा लेता है,
तब लाओत्से
कहता है, उदगम
को लौट जाना
विश्रांति
है। और ऐसे
अनुभव में जो
भर जाता है, वह लौट गया
अपने उदगम को।
जिसे यह दिखाई
पड़ गया अपने
भीतर कि मेरा
भी सब जो भी
रूपायित है, वह सब बिखर
जाएगा; वह
आज ही अपनी
विश्रांति
में लौट गया।
यह वचन
बहुत कीमती है, "टु
रिटर्न टु दि
रूट इज़ रिपोज।'
वह जो
मूल उदगम है, जो
जड़ें हैं, वहां
लौटने का जो
बोध है, वह
लौट जाना है।
और अपनी जड़ों
को, अपने
उदगम को पा
लेना परम
विश्रांति
है।
वह जो
बुद्ध के
चेहरे पर
शांति की छाया
है,
वह किसी
ध्यान का
परिणाम नहीं
है, वह
किसी मंत्र-जप
का परिणाम
नहीं है। अगर एक
व्यक्ति
मंत्र को जपता
रहे, तो भी
चेहरे पर एक
शांति आनी
शुरू हो जाती
है--कल्टीवेटेड,
चेष्टा से
निर्मित। अगर
एक व्यक्ति को
केमिकली शांत
करना हो, तो
किया जा सकता
है। उसके सारे
खून में अगर
ट्रैंक्वेलाइजर्स
ही डाल दिए
जाएं, तो
चेहरे पर एक
शांति आ जाएगी;
लेकिन
मुर्दा, मरी
हुई, मरघट
की शांति!
बुद्ध के
चेहरे पर जो
जीवित शांति
है, वह
किसी क्रिया
का फल नहीं
है। वह उस
उदगम में लौट
जाने से जो
रिपोज, जो
विश्रांति
मिलती है, वही
है। बुद्ध को
बैठा हुआ
देखें, उनकी
मूर्ति को
देखें। तो जो
भी उनकी
मूर्ति को गौर
से देखेगा, उसे लगेगा
जैसे इस
मूर्ति के
भीतर भी कोई
सेंटर है जिस
पर यह पूरी
मूर्ति उस
केंद्र से
जुड़ी है। यह
पूरी मूर्ति
भी जैसे किसी
केंद्र से जुड़ी
है। कोई
केंद्र सब
चीजों को
सम्हाले हुए
है।
अगर
आपको कोई देखे
चलते, उठते, बैठते, तो
ऐसा पता चलेगा
कि आपके भीतर
कोई केंद्र नहीं
है। या बहुत
केंद्र एक साथ
हैं। एक भीड़ आपके
भीतर है। एक
बाजार भरा है;
उसमें कई
तरह के लोग
हैं, बड़े
विपरीत स्वर
हैं। जो
बादलों से
अपने को जोड़ेगा,
उसकी यही
हालत हो
जाएगी। आकाश
तो एक है, बादल
अनेक हैं। और
जो अभी छोटा
बादल है, थोड़ी
देर बाद बड़ा
हो जाएगा। और
जो अभी बड़ा
बादल है, थोड़ी
देर बाद
टुकड़े-टुकड़े
में बिखर
जाएगा। और बादल
के रूपों का
भी कोई भरोसा
है? अभी जो
बादल बहुत
सुंदर लग रहा
था, क्षण
भर बाद कुरूप
हो जाएगा।
बादल तो धुआं
है, वह
प्रतिपल रूप
बदल रहा है।
तो जो
व्यक्ति भी
अपने को अपनी
क्रियाओं से
जोड़ता है, जो
व्यक्ति भी
अपने को अपनी
उपलब्धियों
से जोड़ता है, जो व्यक्ति
भी अपने भीतर
बादलों का ही
इकट्ठा अहंकार
है, वह
व्यक्ति
प्रतिपल एक
भीड़ में डोल
रहा है। जैसे
ही किसी
व्यक्ति को यह
खयाल में आना
शुरू हो जाता
है...।
कठिन
है यह खयाल
में आना। और
सिर्फ
तात्विक चिंतन
से नहीं खयाल
में आएगा। मैं
यह भी देख
सकता हूं कि
यह वृक्ष कल
गिरेगा; यह
देखना बहुत
कठिन है कि कल
मैं गिरूंगा।
सभी लोग जानते
हैं कि सभी
लोग
मरेंगे--सिर्फ
स्वयं को छोड़
कर। सभी लोग
जानते हैं कि
सभी हड्डी-मांस-मज्जा
के पुतले
हैं--स्वयं को
छोड़ कर। स्वयं
को हम जोड़ते
ही नहीं कभी, वह हिसाब
में ही नहीं
है। उसे हम
बचा कर ही चलते
हैं। यह खयाल
में ही नहीं
आता कि इस
सारे बदलते
हुए रूप के
जगत में मैं
भी एक रूप
हूं। बहुत पीड़ा
होगी यह खयाल
में लाना। उस
पीड़ा को ही तपश्चर्या
कहें। यह
मानना कि मैं
भी
हड्डी-मांस-मज्जा
हूं, यह
जानना कि मैं
भी कागज पर
खींची गई
रेखाओं की एक
आकृति हूं, यह अनुभव
करना, प्रतिपल
इस अनुभव को
स्मरण रखना कि
धुएं का एक
बादल हूं, अति
कठिन है।
क्योंकि यह
अगर खयाल में
रहे, तो
अहंकार को खड़े
होने की जगह
कहां? फिर
मैं अपनी
प्रतिमा कैसे
बनाऊं? मेरा
फिर इमेज कहां
बने? फिर
मैं कौन हूं?
खलील
जिब्रान ने
कहा है कि जब
तक अपने को
नहीं जानता था, तब
तक समझता था
एक ठोस
प्रतिमा हूं।
और जब अपने को
जाना और
मुट्ठी खोली,
तो पाया कि
हाथ में सिर्फ
धुएं को
मुट्ठी में बंद
करके बैठा था।
हम सब
की मुट्ठियों
में भी धुआं
बंद है। लेकिन
इसे सुन लेते
हैं,
शायद
बौद्धिक रूप
से समझ में भी
आ जाए; लेकिन
अंतस्तल में
प्रवेश नहीं
होता। क्यों नहीं
होता? क्योंकि
हमने जो भी
अपने चारों
तरफ जिंदगी बना
कर रखी है, अगर
मैं यह जान
लूं कि मैं
मुट्ठी में
बंद एक धुआं
का टुकड़ा हूं,
तो मेरे
चारों तरफ जो
मैंने बना कर
रखा है वह अभी
बिखर जाए।
किसी ने मुझसे
कहा है कि आप
बहुत सुंदर
हैं और मुझे
आपसे प्रेम
है। और अगर
मुझे आज पता
चले कि मैं एक
धुएं का टुकड़ा
हूं, तो
मेरे प्रेम का
क्या होगा? और किसी से
मैंने कहा है
कि मेरा प्रेम
कोई कथा-कहानियों
का प्रेम नहीं
है, यह
शाश्वत प्रेम
है, मैंने
किया है तो
सदा करूंगा।
अगर मुझे पता
चले कि जिसने
यह आश्वासन
दिया है, वह
खुद ही धुएं
का एक पिंड है,
उसके
आश्वासनों का
कोई भरोसा
नहीं है, तो
मेरे प्रेम का
क्या होगा? मैंने अपने
चारों तरफ जो
इनवेस्टमेंट
किए हैं
जिंदगी में, वे सब मुझे
कहेंगे कि ऐसी
बातें मत सोचो,
तुम काफी
ठोस हो, तुम्हारे
वचनों का अर्थ
है, तुम्हारे
वक्तव्य
टिकेंगे। लोग
गीत गाते हैं
कि
चांदत्तारे
नहीं रहेंगे,
तब भी उनका
प्रेम रहेगा।
उस सब का क्या
होगा? वह
जो दूर अनंत
पर हमने सपने
फैला रखे हैं!
अगर
मैं ही धुआं
हूं,
तो मेरे
प्रेम का क्या
अर्थ है? और
अगर मैं ही
धुआं हूं, तो
मेरे वचन का
क्या मूल्य है?
और जब मैं
ही मिट जाऊंगा,
तो मेरे वचन
और मेरे कृत्य,
उन सब को
किस तराजू पर
तौलने का उपाय
है? कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए कठिनाई
होती है। बात कभी
समझ में भी आ
जाती है।
किन्हीं
क्षणों में लगने
भी लगता है, ये सब पानी
पर खींची गई
लकीरें हैं।
लेकिन तब भय
मन को पकड़ता
है; क्योंकि
वह चारों तरफ
जो जाल हमने
फैला कर रखा
है, उसका
क्या होगा? घबड़ा कर हम
वापस, जैसी
जिंदगी चलती
है, उस
ढांचे में उसे
चलने देते
हैं।
हर
ढांचा हमारी
दृष्टि पर
निर्मित है।
अगर हमारी
दृष्टि बदलती
है,
तो पूरा
ढांचा बदलना
पड़ेगा, पूरा
पैटर्न
जिंदगी का
बदलना पड़ेगा।
लिन
यूतांग ने एक
संस्मरण लिखा
है। चीन से
किसी मित्र ने
एक जर्मन
विचारक को एक
छोटी सी लकड़ी
की पेटी भेंट
की--बहुत
खूबसूरत, बहुत
कलात्मक, हजारों
वर्ष पुरानी।
लेकिन जिसने
भी उस पेटी को
निर्मित किया
था, उस पर
एक शर्त खुदी
थी कि पेटी का
मुंह सूरज की तरफ
ही होना
चाहिए। और
हजारों
वर्षों में
जितने लोग उस
पेटी के मालिक
रहे थे, उन्होंने
उस शर्त को
पाला था। चीनी
मित्र ने कहा
कि मैं यह
भेंट तो कर
रहा हूं, लेकिन
एक शर्त के
साथ: सूरज की
तरफ इस पेटी
का मुंह होना
चाहिए। इसे
किसी हालत में
न तोड़ा जाए; यह हजारों
वर्ष की वसीयत
है। मित्र ने
कहा, ऐसी
क्या कठिनाई
है, इसका
हम पालन
करेंगे।
लेकिन
जब मित्र ने
आकर अपने
बैठकखाने में
पेटी रखी और
उसका मुंह
सूरज की तरफ
किया, तो पूरा
बैठकखाना
बेजोड़ मालूम
पड़ने लगा। तो
उसने बजाय
पेटी को बदलने
के, पूरे
बैठकखाने को
बदलवा दिया।
खर्चीला था काम।
सब फर्नीचर
फिर से बनाया
गया, दीवारों
का रुख ठीक
किया गया, दरवाजे
बदले गए।
लेकिन तब
बैठकखाना
पूरे घर में
गैर-मौजूं हो
गया।
हिम्मतवर
आदमी था, उसने
पूरे घर को
बदलवा कर
बैठकखाने के
हिसाब से
बनवाया।
लेकिन तब उसने
पाया कि उसका
घर पूरे पड़ोस
से बेमौजूं हो
गया। पर उसने
कहा, अब तो
मेरी सीमा के
बाहर है
मामला।
एक
छोटी सी
बदलाहट चारों
तरफ बदलाहट
लाना शुरू कर
देती है। और
दृष्टि की
बदलाहट छोटी
बदलाहट नहीं
है। दृष्टि की
बदलाहट गहरी
से गहरी बदलाहट
है। जैसे ही
दृष्टि बदलती
है,
आप वही आदमी
नहीं रहे, जो
एक क्षण पहले
थे। आपका सब
बदलेगा। वह
घबड़ाहट कि यह
सबको कैसे
बदला जाएगा, आदमी को रोक
लेती है। और
यही साहस न हो,
तो आदमी
जीवन भर धर्म
की बातें
सुनता रहे, धार्मिक
नहीं हो पाता।
लाओत्से
कहता है, "उदगम
को लौट जाना
विश्रांति
है।'
वह जो
मूल आकाश है, वह
जो शून्य छिपा
है भीतर--और
आकाश का अर्थ
शून्य है, आकाश
का अर्थ है
नथिंगनेस।
आकाश कोई
वस्तु तो नहीं
है। आकाश है
अस्तित्व, वस्तु
नहीं। आकाश का
कोई रूप तो
नहीं है, आकाश
में कोई ठोसपन
तो नहीं है, फिर भी आकाश
है, रिक्त
स्थान है आकाश,
अवकाश है, स्पेस है।
सब कुछ उसी
में होता है
और मिटता है।
और वह अछूता, अस्पर्शित
बना रहता है।
"इसे
ही अपनी नियति
में वापस
लौटना कहते
हैं।'
लाओत्से
कहता है, इस
उदगम में गिर
जाना, मूल
स्रोत में गिर
जाना या मूल
स्रोत के साथ
अपने को एक
अनुभव कर लेना
ही नियति में
वापस लौटना है,
स्वभाव में,
प्रकृति
में। वही
हमारी
डेस्टिनी है,
वही हमारी
नियति है। और
जब तक कोई
व्यक्ति इस मूल
उदगम के साथ
एक नहीं हो
जाता, तब
तक भटकता ही
रहता है।
जन्मों-जन्मों
भटक सकता है।
जब तक किसी ने
रूप के साथ
अपने को जोड़ा,
आकृति के
साथ अपने को
जोड़ा, तब
तक भटकता ही
रहेगा। यह जो
जन्मों की
इतनी लंबी
यात्रा है, यह रूप के
पीछे है, आकार
के पीछे है।
"स्वयं
की नियति को
पुनः उपलब्ध
हो जाना शाश्वत
नियम को पा
लेना है।'
तो जगत
में दो नियम
हैं। एक जिसे
हम जगत कहते हैं, वहां
परिवर्तन
नियम है, दि
चेंज इज़ दि
लॉ। जिसे हम
जगत कहते हैं,
वहां
परिवर्तन
नियम है। सब
कुछ नदी की
तरह बहा जाता
है। वहां कुछ
भी पुनरुक्त
नहीं होता और वहां
कुछ भी ठहरा
हुआ नहीं है।
विज्ञान इसी
परिवर्तन के
जगत की खोज
है। और इसलिए
विज्ञान को
रोज अपने नियम
बदलने पड़ते
हैं।
एक
मजाक
वैज्ञानिकों
में चलता है।
जैसा कि
बाइबिल में
कहा है कि
ईश्वर ने कहा
कि प्रकाश हो
जा,
और प्रकाश
हो गया! तो
वैज्ञानिकों
में एक पुराना
मजाक था कि जब
न्यूटन पैदा
हुआ, तो
न्यूटन के साथ
इतिहास एक नया
मोड़ लेता है। विज्ञान
के जगत में
न्यूटन से
ज्यादा कीमती
आदमी दूसरा
नहीं है। तो
वैज्ञानिकों
में एक मजाक
प्रचलित हुआ
कि ईश्वर ने
कहा कि न्यूटन
हो जा और न्यूटन
हो गया! और फिर
दुनिया कभी
वैसी नहीं हो सकी,
जैसी
न्यूटन के
पहले थी।
फिर
हुआ आइंस्टीन, तो
किसी ने उस
मजाक में थोड़ी
बात और जोड़
दी। क्योंकि
न्यूटन के साथ
पैदा हुआ कानून,
नियम। और
न्यूटन ने जगत
को समझाने के
तीन नियम
स्थापित किए,
और सब चीजें
व्यवस्थित हो
गईं। न्यूटन
पैदा हुआ, और
सब चीजें
व्यवस्थित हो
गईं। तीन नियम
सुनिश्चित
रूप से
निर्धारित हो
गए। और सारा
जगत न्यूटन के
पहले एक केऑस
था, एक
अराजकता थी, न्यूटन के
बाद एक व्यवस्था
हो गई। फिर
मजाक में किसी
और दूसरे ने
जोड़ दिया कि
फिर ईश्वर
न्यूटन से
परेशान हो गया,
और उसकी
व्यवस्था से;
क्योंकि सब
व्यवस्थाएं
उबाने वाली हो
जाती हैं। तो
ईश्वर ने कहा
कि आइंस्टीन
हो जा, और
आइंस्टीन हुआ!
एंड ही ब्राट
दि ओल्ड केऑस
बैक। और वह जो
पुरानी
अराजकता थी
न्यूटन के
पहले, आइंस्टीन
ने वापस खड़ी
कर दी। उसने
सब नियम डगमगा
दिए। सब
अस्तव्यस्त
हो गया।
न्यूटन ने बामुश्किल,
दो और दो
चार होते हैं,
यह सिद्ध
किया। और
आइंस्टीन ने
कहा कि दो और दो
चार कभी हो ही
नहीं सकते। सब
अस्तव्यस्त
हो गया।
और
आइंस्टीन ने भी
जो कहा, वह
रोज बदलना
पड़ता है, रोज
बदलना पड़ता
है। विज्ञान
रोज बदलता
रहेगा; क्योंकि
विज्ञान
जिसकी खोज
करता है, वह
जगत ही रोज
बदलता चला
जाता है। जिस
चीज की हम खोज
कर रहे हों
अगर वह रोज
बदलती जाती हो,
तो उसका कोई
भी फोटोग्राफ
ज्यादा देर तक
काम का नहीं
रहेगा। दो-चार
दिन बाद हमें
पता चलेगा कि
यह तो किसी और
का चित्र है।
चित्र तो ठहर
जाएंगे और जगत
चलता चला
जाएगा। इसलिए
जगत का कोई
चित्र आत्यंतिक,
अल्टीमेट
नहीं हो सकता।
आइंस्टीन ने
कहा है कि जगत
का ज्ञान कभी
भी पूर्ण नहीं
हो सकता; क्योंकि
वह रोज बदलता
चला जा रहा है।
यह
मामला कुछ ऐसा
है कि आपके
गांव का जो
रास्ता है, स्टेशन
पहुंच जाता है;
क्योंकि
स्टेशन
चलती-फिरती
नहीं है। कल
आप जिस रास्ते
से गए, आज
भी जाएंगे, वहीं मिल
जाएगी। लेकिन
अगर स्टेशन
चलती-फिरती हो,
तो फिर
रास्ते तय
नहीं रह जाते।
तब कभी गलत रास्ते
से चला हुआ आदमी
भी पहुंच सकता
है और कभी सही
रास्ते से चला
हुआ आदमी भी न
पहुंचे। वह तो
स्टेशन थिर है,
इसलिए
रास्ते तय
हैं।
अगर
जगत ही एक
अथिरता है, एक
परिवर्तन है,
तो उसके कोई
नियम थिर नहीं
हो सकते।
इसलिए विज्ञान
को हर दो, चार,
पांच
वर्षों में
करवट बदल लेनी
पड़ती है। तो
विज्ञान आज से
तीन सौ साल
पहले तो कहता
था कि सत्य की
हमारी खोज है।
बर्ट्रेंड
रसेल ने अभी कुछ
वर्ष पहले कहा
था, सत्य
की बात बंद कर
दो; सिर्फ
सत्य के निकट
पहुंचने की
खोज काफी है।
डोंट टाक
अबाउट
एब्सोल्यूट
ट्रुथ, ओनली
एप्रॉक्सीमेट
ट्रुथ इज़ इनफ।
बस करीब-करीब सत्य।
लेकिन
ध्यान रहे, करीब-करीब
सत्य कुछ होता
है? करीब-करीब
प्रेम कुछ
होता है? करीब-करीब
चोरी कुछ होती
है? करीब-करीब
सत्य कुछ भी
नहीं होता।
करीब-करीब सत्य
का मतलब यह है,
ऐसा असत्य
जो अभी काम दे
रहा है। कल
पता चल जाएगा,
काम नहीं
देगा। तब
दूसरे असत्य
से काम लेना
पड़ेगा। परसों
पता चल जाएगा,
फिर तीसरे
असत्य से काम
लेना पड़ेगा।
करीब-करीब
सत्य का अर्थ
होता है, जो
असत्य अभी
असत्य सिद्ध
नहीं किया जा
सका है।
लेकिन
यह स्वाभाविक
है,
यह
स्वाभाविक
है। क्योंकि
जिस विषय से
विज्ञान का
संबंध है, वही
बदलता चला
जाता है।
लाओत्से
कहता है, एक
शाश्वत नियम
भी है, एक
इटरनल लॉ भी
है; वह
नहीं बदलता।
लेकिन उसके
लिए फिर जो-जो
बदलता है, उसे
छोड़ कर खोजना
पड़ेगा। जो भी
बदलता है, उसे
छोड़ कर खोजना
पड़ेगा। इसलिए
धर्म के नियम
बदलते नहीं।
पश्चिम
में कई
विचारकों को
चिंता जन्मती
है। बुद्ध ने
कुछ कहा, कृष्ण
ने कुछ कहा, या क्राइस्ट
ने कुछ कहा।
और आज तो
हमारे मुल्क
में भी बहुत
लोगों को
पश्चिम का
खयाल महत्वपूर्ण
मालूम होगा।
कि बुद्ध को
मरे ढाई हजार
वर्ष हो गए, बुद्ध का
सत्य आज भी
सत्य कैसे हो
सकता है? ठीक
है, अगर सौ
वर्ष पहले के
विज्ञान का
सत्य सौ वर्ष बाद
सत्य नहीं रह
जाता, दस
वर्ष पहले का
विज्ञान का
सत्य दस वर्ष
बाद सत्य नहीं
रह जाता, तो
ढाई हजार साल
पहले हुए
कृष्ण या
बुद्ध या महावीर
का सत्य कैसे
सत्य रह जाएगा?
और उनका
कहना ठीक है; क्योंकि जो
भी सत्य की
तरह वे जानते
हैं, वह
रोज बदलता चला
जाता है।
लेकिन उन्हें
कृष्ण के सत्य
का कोई पता
नहीं है। उन्हें
लाओत्से के
सत्य का कोई
पता नहीं है।
लाओत्से
उस सत्य की ही
बात कर रहे
हैं,
जहां
परिवर्तित
होने वाला सब
छोड़ दिया गया
है। वह शर्त
पहले ही पूरी
कर दी गई है।
जो बदलने की
धारा है, उस
धारा को छोड़
ही दिया गया
है। धर्म से
उसका कोई
लेना-देना
नहीं है। धर्म
का तो उससे
लेना-देना है,
जिसमें यह
बदलती धारा बह
रही थी।
बादलों से कोई
प्रयोजन नहीं
है; आकाश
की खोज है, जिसमें
बादल बनते हैं
और बिगड़ते
हैं।
निश्चित
ही,
कोई आदमी कह
सकता है कि
बादल सुबह
देखो, दोपहर
वही नहीं रह
जाते, सांझ
वही नहीं रह
जाते। और एक
से बादल तो
दुबारा कभी
देखे नहीं जा
सकते। यह तुम
किस आकाश की बात
कर रहे हो? जब
बादल बदल जाते
हैं, तो
आकाश भी बदल
जाता होगा।
तुम उसी आकाश
की बात किए
चले जाते हो।
लेकिन आकाश
सनातन है। जो
भी बदलता है, वह आकाश में
है; लेकिन
आकाश नहीं है
वह। जो भी
बदलता है, वह
आकाश में ही
बदलता है; पर
आकाश नहीं
बदलता।
इस
आकाश की जो
खोज है, इस
इनर स्पेस की,
अंतर-आकाश
की जो खोज है, इसे लाओत्से
कहता है, जब
भी कोई पा
लेता है, तो
उसने अपनी
नियति पा ली।
उसने पा लिया,
जिसे पाने
पर सब मिल
जाता है और
जिसे न पाने
पर कुछ भी
नहीं मिलता।
उसने अपना घर
पा लिया। उसने
खोज लिया घर, अब सरायों
में ठहरने की
जरूरत न रही।
अब वह अपने घर
आ गया है। अब
कहीं जाने का
कोई सवाल नहीं
है। अब वह जगह
मिल गई, जिसकी
तलाश थी।
हर
आदमी तलाश में
है,
पता हो उसे,
न हो पता।
हो सकता है, यह भी पता न
हो, क्या
खोज रहा है।
सच तो यही है
कि पता नहीं
है कि क्या
खोज रहे हैं।
अगर कोई आदमी
आपसे पूछे कि
कहें
ईमानदारी से,
क्या खोज
रहे हैं? तो
आपको बड़ी
बेचैनी मालूम
होगी। और
इसीलिए इस तरह
के अशिष्ट
प्रश्न कोई
किसी से पूछता
नहीं, क्योंकि
ये बेचैनी
पैदा करते
हैं। और अगर
कोई जोर से
पूछता ही चला
जाए, तो
थोड़ी देर में
घबड़ाहट शुरू
हो जाएगी। आप
क्या खोज रहे
हैं? दूसरे
दिन सुबह
बिस्तर से
उठना मुश्किल
हो जाएगा--किसलिए
उठ रहे हैं? क्या है खोज?
कुछ पता
नहीं है, क्या
खोज रहे हैं।
लेकिन खोज
जरूर रहे हैं
कुछ--कुछ
अनजान। कोई
चीज धकाए चली
जाती है।
और फिर
ऐसा भी नहीं
है कि इस खोज
में कुछ मिलता
न हो। बहुत
कुछ मिलता है; और
तृप्ति
बिलकुल नहीं
होती। इस जगत
का मजा यही है
कि यहां जो भी
चाहो, वह
कोशिश करने से
मिल ही जाता
है। आज नहीं
कल, कल
नहीं परसों, कोशिश करने
से मिल ही
जाता है। और
जब मिल जाता
है, तब पता
चलता है कि
कोशिश व्यर्थ
गई। मिल तो गया;
कुछ मिला
नहीं। जो आदमी
अपनी सब
आकांक्षाएं पा
ले, उससे
ज्यादा दुखी
आदमी खोजना
फिर मुश्किल
है।
थोड़ा
सोचें। अगर
परमात्मा
एकदम प्रकट हो
जाए आज इस भवन
में,
और आपसे कहे
कि आपकी सब
इच्छाएं पूरी
हो गईं! आपसे
ज्यादा दुखी
आदमी इस
पृथ्वी पर फिर
दूसरे नहीं
होंगे। क्या
करिएगा? कहां
जाइएगा फिर? श्वास लेने
की भी तो
जरूरत न रह
जाएगी। मरने के
सिवाय कोई
उपाय न बचेगा।
यही होती है
हालत। जो भी
पा लेता है
अपनी
आकांक्षाओं
को, वह
अचानक पाता है
कि अब कुछ बचा
नहीं है। अब
क्या करना है?
और तृप्ति
बिलकुल नहीं
होगी। सब मिल
जाए, तो भी
तृप्ति नहीं
होगी।
क्योंकि अभी
तक हमने उसे
तो खोजने की
शुरुआत ही
नहीं की है, जो नियति
है। नियति का
अर्थ होता है,
डेस्टिनी
का अर्थ होता
है: जिसे पा
लेने पर तृप्ति
हो जाए।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लेना
आप। उसे नियति
नहीं कहते, जिसे
आप पाना चाहते
हैं। आप जिसे
पाना चाहते हैं,
वह नियति हो
भी सकती है, न भी हो। पता
तो तब चलता है,
जब वह आपको
मिल जाए। जब
आपको मिल जाए,
तब अगर आपको
कोई तृप्ति न
हो, तो
समझना कि वह
नियति नहीं
थी। नियति का
अर्थ ही यह है
कि उस क्षण आप उस
परम बिंदु पर
पहुंच गए, जहां
फिर कोई और
इच्छा नहीं है,
जहां फिर
कोई खोज नहीं
है, और
तृप्ति है।
जहां कोई
भविष्य नहीं
है, और परम
तृप्ति है।
लेकिन
हम जो-जो
चाहते हैं...।
एक आदमी यश
चाहता है, यश
मिल जाता है
एक दिन। और तब
वह पाता है कि
क्या है मेरे
हाथ में, कुछ
भी नहीं है।
पास-पड़ोस के
लोग मेरे
संबंध में
अच्छा सोचते
हैं, बस
यही मेरी
मुट्ठी में है,
और तो कुछ
भी नहीं है।
एक आदमी धन
इकट्ठा कर लेता
है। और एक दिन
फिर धन को
देखता है और
पाता है कि
पूरा जीवन
चुका दिया इन
टुकड़ों को
इकट्ठा करने
में। अब ये
इकट्ठे हो गए।
अब इनको गले
में बांध कर
फांसी ही लगाई
जा सकती है, और कुछ नहीं
किया जा सकता।
बर्नार्ड
शॉ ने लिखा है
कि जिन लोगों
ने कहा है कि
नरक में बहुत
सताए जाओगे, वे
बहुत
कल्पनाशील
नहीं थे।
बर्नार्ड शॉ
ने कहा, अगर
मेरे बस में
हो नरक की
तस्वीर देनी
तो मैं दूंगा
ऐसी तस्वीर कि
जहां तुम जो
चाहोगे वह उसी
वक्त मिल जाएगा।
इससे बड़ा नरक
दूसरा नहीं हो
सकता। तुमने
चाहा नहीं कि
मिला नहीं।
इधर चाह और
उधर पूरी हो गई।
और तृप्ति
बिलकुल नहीं
होगी, क्योंकि
हमारी कोई भी
चाह नियति की
चाह नहीं है।
हम जो
भी चाह रहे
हैं,
वह शायद
हमारी चाह ही
नहीं है। एक
पड़ोस का आदमी
एक कार खरीद
लाता है, और
आप में भी एक
चाह पैदा हो
जाती है कि यह
कार मेरे पास
भी हो जाए। एक
पड़ोस का आदमी
एक मकान बना
लेता है, और
आपकी भी चाह
हो जाती है कि
आप भी एक मकान
बना लें। हम
उधार जी रहे
हैं, चाहें
भी हमारी उधार
हैं; वे भी
हमारी अपनी
नहीं हैं।
नियति
का अर्थ है, वह
चाह जो आपके
स्वभाव में है,
जिसको आपने
किसी से सीख
नहीं लिया है।
इसलिए
आज भलीभांति, बाजार
में जो
व्यापार की
कला को जानते
हैं, वे
भलीभांति
जानते हैं कि
वह पुराना
अर्थशास्त्र
का नियम गलत
है कि जब
लोगों में
मांग होती है,
तो ही तुम
चीजें पैदा
करो तो वे
बिकेंगी। अब
तो लोग
भलीभांति
जानते हैं कि
लोगों की कोई
मांग तो है ही
नहीं, तुम
पहले मांग
पैदा करवाओ।
इसलिए बाजार
में दस साल
बाद अगर
उत्पत्ति आने
वाली हो आपकी,
आपका सामान
आने वाला हो, तो दस साल
पहले से
एडवरटाइज
करो। अभी
बाजार में कोई
चीज ही नहीं
है। पहले
वासना पैदा कर
दो।
और लोग
उधार वासना से
जीते हैं।
दूसरे उनको पकड़ा
देते हैं। फिर
वे उसी के
पीछे दौड़ने
लगते हैं। और
जीवन भर आदमी
ऐसा दौड़ता
रहता है।
इसलिए जब आपकी
वासना पूरी
होती है, तब आप
पाते हैं: यह
तो कुछ भी न
हुआ, यह तो
राख हाथ लग
गई। अब मैं
क्या करूं? लेकिन सोचने
की अभी फुर्सत
नहीं है।
क्योंकि तब तक
और लोग कुछ और
पकड़ा देते हैं
और आप भागे चले
जाते हैं।
हर
आदमी मरते
वक्त जानता है
कि मैं न
मालूम किन-किन
के पीछे दौड़ता
रहा,
न मालूम
किन-किन की
इच्छाएं मैं
पूरी करने की कोशिश
करता रहा! मेरी
भी कोई अपनी
नियति थी? मैं
भी कुछ पाने
को इस जगत में
था? मेरा
भी कोई होने
का क्रम था? अवसर तो खो
गया, समय
तो व्यतीत हो
गया--कभी कपड़े
जुटाने में, कभी मकान
बनाने में, कभी नाम-यश
कमाने में।
लेकिन मेरी
नियति क्या थी?
मैं क्या
पाने को था?
लाओत्से
कहता है, नियति
तो उसी दिन
उपलब्ध होती
है, जिस
दिन कोई इस
शाश्वत नियम
को, इस
आकाश को अपने
भीतर पा लेता
है।
"स्वयं
की नियति को
पुनः उपलब्ध
हो जाना शाश्वत
नियम को पा
लेना है।
शाश्वत नियम
को जानना ही
ज्ञान से
आलोकित होना
है। और शाश्वत
नियम का
अज्ञान ही
समस्त
विपत्तियों का
जनक है।'
यह
बादलों के
पीछे जो भागने
से
विपत्तियां
पैदा हो रही
हैं;
यह जो इतना
दुख आदमी
उठाता है उन
सुखों को पाने
के लिए, जिनको
पाने पर कोई
सुख नहीं
मिलता; इतना
जो दुख उठाता
है उन मंजिलों
पर पहुंचने के
लिए, जहां
पहुंच कर
सिवाय थकान के
कुछ हाथ नहीं
लगता; और
हर मंजिल एक
पड़ाव सिद्ध
होती है फिर
किसी नई मंजिल
की खोज के लिए;
यह इतना दुख,
लाओत्से
कहता है, उस
शाश्वत नियम
को न जानने का
परिणाम है।
काश, हम
जान सकें कि
हमारे भीतर
कोई एक ऐसा
तत्व भी है, अपरिवर्तनीय,
अमृत, सदा;
और हम उसके
साथ अपना
संबंध जोड़ लें,
एक हो जाएं!
फिर कितने ही
बादल घिरें, और कितनी ही
आंधियां उठें,
फिर कोई
अंतर न पड़ेगा,
फिर कोई
अंतर न पड़ेगा।
फिर जरा सा
कंपन भी भीतर
पैदा न होगा।
बादल आएंगे और
चले जाएंगे, तूफान
उठेंगे और
बिखर जाएंगे,
और भीतर सघन
शांति बनी
रहेगी।
इस सघन
शांति के
सूत्र को पाने
के लिए तीन
बातें आखिरी
मैं आपसे
कहूं।
एक, सदा
अपने भीतर और
अपने बाहर भी,
क्या
परिवर्तित हो
रहा है, वह,
और क्या
परिवर्तित
नहीं होता, इसमें विवेक
को, डिस्क्रिमिनेशन
को बनाए रखें।
निरंतर यह खयाल
रखें कि
महत्वपूर्ण
वही है, जो
बदलता नहीं
है। जो बदल
जाता है, वह
महत्वपूर्ण
नहीं है, वह
गैर-महत्वपूर्ण
है। अपने भीतर
भी जो बदल जाता
है, उसका
कोई मूल्य
नहीं है। जो
नहीं बदलता, वही
मूल्यवान है।
उठते, बैठते,
चलते, उसका
ही स्मरण
रखें। रास्ते
पर चल रहे हैं,
तो ध्यान
रखें भीतर
उसका जो नहीं
चलता। जो चल रहा
है, वह ठीक
है। भोजन कर
रहे हैं, ध्यान
रखें उसका जो
भोजन नहीं
करता और जिसे
भूख भी नहीं
लगती। ठीक है,
शरीर को
भोजन देना है,
उसे देते
रहें। रात
बिस्तर पर गए
हैं सोने को, जानें कि
शरीर थक गया
है और सोने जा
रहा है, लेकिन
वह भी है भीतर
जो कभी नहीं
सोता। हर क्रिया
में उसका
स्मरण रखें, जो साक्षी
है, जो देख
रहा है।
भूख
लगती है, तो हम
तत्काल कहते
हैं, मुझे
भूख लगी।
लेकिन भला
बाहर ऐसा कहना
पड़े, भीतर
ऐसा स्मरण
रखें कि मुझे
पता चल रहा है
कि शरीर को
भूख लगी, मुझे
पता चल रहा है
कि पेट को भूख
लगी। अपने को द्रष्टा
से ज्यादा
नहीं, कर्ता
कभी न मानें।
क्योंकि जैसे
ही कर्ता माना,
कर्म से
संबंध जुड़
गया। जब आपको
भूख लगेगी, तो फिर आपको
ही भोजन भी
करना पड़ेगा।
जब आप जानेंगे
कि शरीर को
भूख लगी, तो
आप भोजन में
भी जानेंगे कि
शरीर ने ही
भोजन किया।
और
पीछे एक रिक्त
द्रष्टा, एक
ऑनलुकर, एक
दर्शक, भीतर
देखने वाला
पैदा हो
जाएगा। और तब
सारी जिंदगी
एक नाटक हो जाती
है। तब क्रिया
का जगत एक
नाटक हो जाता
है। और वह
निष्क्रियता
ही आपका
अस्तित्व बन
जाती है।
निष्क्रियता
को उपलब्ध
करें, निष्क्रियता
को सदा स्मरण
रखें। ध्यान
को सदा
निष्क्रियता
पर दौड़ाते
रहें। ध्यान
जिस चीज पर दें,
वह दिखाई
पड़ने लगता है।
इस
कमरे में हम
बैठे हैं।
इसको
मनोवैज्ञानिक
गेस्टाल्ट
कहते हैं। इस
मकान में हम
बैठे हैं। एक
बार इस तरह
देखें कि यह
मकान दीवारों
से बना है।
ध्यान
दीवारों पर
दें। बीच-बीच
में दरवाजे भी
दिखाई पड़ेंगे, लेकिन
वे केवल
दीवारों के
बीच-बीच में
होंगे।
दीवारें
महत्वपूर्ण
हैं। ध्यान दीवारों
पर दें। फिर
अचानक, खयाल
भूल जाएं कि
मकान दीवारों
से बना है, खयाल
करें कि मकान
तो एक रिक्तता
है; मकान
दरवाजों से
बना है, दीवारें
बीच-बीच में
हैं। और तब आप
पाएंगे कि इसी
कमरे के भीतर
आपको दो तरह
के अनुभव होंगे।
शायद
यह कठिन मालूम
पड़े,
तो कुछ ऐसा
करें: अपनी
तीन
अंगुलियां
अपनी आंख के
सामने कर लें
और ध्यान दें
कि बीच की
अंगुली
केंद्र है।
बीच की अंगुली
पर ध्यान दें,
कि वह
केंद्र है, दोनों
अंगुलियां
उसके आजू-बाजू
हैं। और देखें,
एक-दो मिनट
ऐसे देखें।
फिर अचानक
ध्यान को
बदलें, वहीं
आंख रखें, दोनों
अंगुलियों पर
ध्यान दें कि
दोनों अंगुलियां
महत्वपूर्ण
हैं, बीच
की अंगुली बस
बीच में है।
और तब आपको
पता चलेगा कि
इतने से फर्क
से आपके भीतर
सब बदलाहट हो
जाती है। जब
आप बीच की
अंगुली पर
ध्यान देंगे,
तो दोनों
अंगुलियां
बिलकुल फीकी,
मुर्दा
मालूम पड़ेंगी,
जैसे हैं ही
नहीं। कहीं
दूर मालूम
पड़ेंगी। जब आप
दोनों
अंगुलियों पर
ध्यान देंगे,
तो बीच की
अंगुली गौण हो
जाएगी।
या ऐसा
करें। एक हाथ
नीचे रखें, अपना
दूसरा हाथ ऊपर
रखें और दूसरे
हाथ को चलाएं।
और ध्यान दें
कि मैं, जो
हाथ चल रहा है,
उसमें हूं।
तो आपको दूसरा
हाथ बिलकुल
पराया मालूम पड़ेगा,
अपना नहीं
है। फिर ध्यान
को बदल दें और
खयाल करें कि
जो हाथ ठहरा
हुआ है, वह
मैं हूं; और
हाथ को चलाएं।
तब आप फौरन
पाएंगे कि जो
हाथ ठहरा हुआ
है, वह आप
हैं; जो
हाथ चल रहा है,
वह किसी और
का है।
यह
इसलिए कह रहा
हूं कि ध्यान
की बदलाहट
सिर्फ फोकस
बदलने की बात
है,
सिर्फ फोकस
बदलने की। ये
दोनों हाथ
मेरे हैं। और
आपको पता भी
नहीं चलेगा कि
मैं इस समय
किस हाथ से
अपने को जोड़े
हुए हूं। जो
हाथ ऊपर चल
रहा है, अगर
मैंने उससे
अपने को जोड़ा
है, तो
नीचे का हाथ
पराया हो गया।
वह मैं नहीं
हूं। और आप
बराबर अनुभव
करेंगे कि
नीचे का हाथ
आप नहीं हैं; जो चल रहा है,
वह आप हैं।
फिर ठहरे हुए
के साथ ध्यान
को बदल दें।
बाहर कोई
बदलाहट नहीं
हो रही, लेकिन
भीतर फोकस बदल
गया। ध्यान की
धारा ऊपर के
हाथ में बह
रही थी, वह
नीचे के हाथ
में चली गई।
ऊपर का हाथ
दूसरे का
मालूम पड़ने
लगेगा।
जब आप
भोजन कर रहे
हैं और सोचते
हैं,
मैं भोजन कर
रहा हूं, तब
एक हालत है
ध्यान की। और
जब आप कहते
हैं, अनुभव
करते हैं कि
भोजन शरीर कर
रहा है, मैं
देख रहा हूं, तब ध्यान का
फोकस बदल गया,
ध्यान
दूसरा हो गया।
जब आप रास्ते
पर चलते वक्त
सोचते हैं, मैं चल रहा
हूं, तो
ध्यान एक है।
अगर आप ऐसा
ध्यान कर पाएं
कि मैं देख
रहा हूं और
शरीर चल रहा
है, तत्काल
फोकस बदल गया,
गेस्टाल्ट
बदल गया, पूरा
ढांचा बदल
गया।
लाओत्से
की
निष्क्रियता
को अगर अनुभव
करना हो, तो
अपने भीतर जो
आकाश है, सदा
उस पर ध्यान
रखें, और
जो-जो बादल
हैं, उन पर
ध्यान मत
रखें। उनको
उड़ने दें, चलने
दें, लेकिन
ध्यान आकाश पर
हो।
क्या
है आपके भीतर
आकाश? भूख
लगती है, यह
एक बादल है; आता है, चला
जाता है।
क्रोध आता है,
यह एक बादल
है; आता है,
चला जाता
है। घृणा आती
है, यह एक
बादल है; प्रेम
आता है, यह
एक बादल है; आता है, चला
जाता है। दुख
या सुख, सम्मान
या अपमान, कुछ
भी आता है, चला
जाता है बादल
की तरह। कौन
है जो इस सबको
देखता रहता है?
कौन है भीतर
जो जाग कर इस
सबको देखता
रहता है? ध्यान
उसका रखें।
सारी ध्यान की
धारा को उससे जोड़
दें। देखने
वाले के साथ एक
हो जाएं। करने
वाले के साथ
संबंध छोड़ दें;
द्रष्टा के
साथ एक हो
जाएं। और
तत्काल आप
पाएंगे कि आप
भीतर उससे जुड़
गए, जो
आकाश
है--निष्क्रिय।
इस निष्क्रिय
के साथ जुड़ते
ही जीवन के
सारे दुख
विसर्जित हो
जाते हैं; मृत्यु,
परिवर्तन, सब स्वप्न
हो जाते हैं।
लाओत्से
कहता है, यही
है शाश्वत
नियम।
आज
इतना ही।
लेकिन बैठें।
पांच मिनट
कीर्तन करके
जाएं। और
कीर्तन में भी
खयाल रखें, जो
किया जा रहा
है, वह आप
नहीं हैं; जो
हो रहा है, वह
आप नहीं हैं।
बैठे
रहें! जिनको
कीर्तन करना
है,
वे ऊपर आ
जाएं या नीचे
आ जाएं।
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