दिनांक
14 जनवरी, 1977;
श्री
ओशो आश्रम,
कोरेगांवपार्क, पूना।
प्रश्नसार:
पहला
प्रश्न :
भीड़
में मन नहीं
रमता है और
निपट एकाकीपन
से भी जी
घबड़ाता है।
क्या यह
विक्षिप्तता
का लक्षण है? समझाने
की अनुकंपा
करें।
एकांत
के संबंध में
कुछ बातें समझ
लेनी चाहिए।
एकांत के तीन
रूप हैं। पहला
: जिसे हम
अकेलापन कहते
हैं,
एकाकीपन।
दूसरा. एकांत।
और तीसरा :
कैवल्य।
अकेलापन
नकारात्मक है।
अकेलापन
वास्तविक
अकेलापन नहीं
है;
दूसरे की
याद सता रही
है; दूसरा
होता तो अच्छा
होता; दूसरे
की गैर—मौजूदगी
खलती है, काटा
चुभता है, दूसरे
में मन उलझा
है। देखने को
अकेले हो, भीतर
नहीं; भीतर
भीड़ मौजूद है।
कोई आएगा तो
पाएगा अकेले
बैठै हो'।
लेकिन तुम
जानते हो कि
तुम अकेले
नहीं हो; किसी
की याद आती है,
किसी में मन
लगा है। किसी
को बुलावा भेज
रहे हो; किसी
का स्वप्न
संजो रहे हो; किसी की
पुकार चल रही
है—कोई होता, अकेले न
होते! अकेलेपन
से राजी नहीं
हो। आनंद तो
दूर. इस
अकेलेपन में
शांति भी नहीं।
अशांत हो, उद्विग्न
हो। जल्दी ही
कुछ न कुछ
उलझाव खोज
लोगे। चले
जाओगे मित्र
के घर, क्लब
में, बाजार
में, अखबार
पढ़ने लगोगे, रेडियो
सुनने लगोगे,
कुछ करोगे,
कुछ उलझाव
बना लोगे। यह
अकेलापन नीरस
है। यह
अकेलापन
भौतिक है, मानसिक
नहीं; आध्यात्मिक
तो बिलकुल ही
नहीं।
एकांत
दूसरे प्रकार
का अकेलापन है।
एकांत का अर्थ
है : रस आने लगा; अकेले
होने में मजा
आने लगा; अकेलापन
एक गीत की तरह
है अब; दूसरे
की याद भी
नहीं आ रही; अपने होने
का मजा आ रहा
है; दूसरे
की: याद भी भूल
गई है; दूसरे
का कोई
प्रयोजन भी
नहीं है; व्यस्त
होने की कोई
आकांक्षा भी
नहीं; बड़ी
शांति है।
पहला
नकारात्मक है;
दूसरा
विधायक। पहले
में दूसरे की
अनुपस्थिति
खलती है; दूसरे
में अपनी
उपस्थिति में
रस आता है।
पहले में तुम
अपने से नहीं
जुड़े हो; दूसरे
में तुम अपने
से जुड़े हो।
पहले में मन
भटक रहा है
हजार—हजार
स्थानों पर; दूसरे में
मन—पंछी अपने
घर आ गया।
दूसरा
एकांत गहन शांति
लाता है—
ध्यान की
अवस्था है।
फिर
तीसरा एकांत
है : कैवल्य।
पहले अकेलेपन
में अपना तो
पता ही नहीं
है,
दूसरे की
याद है। दूसरे
स्वात में
अपनी याद है, दूसरा भूल
गया है।
कैवल्य में
दूसरा भी भूल
गया, स्वयं
भी भूल गए, कोई
भी न बचा— न
दूसरा, न
स्व; न पर, न स्व।
क्योंकि जब तक
स्व का भाव
बचा है तब तक
कहीं कोने—कातर
में दूसरा
छिपा होगा।
क्योंकि
स्वयं की लकीर
दूसरे की
मौजूदगी के बिना
खिंच ही नहीं
सकती।’ मैं'
और ' तू
साथ— साथ होते
हैं। पहले में
' तू
प्रगाढ़ है, 'मैं' छिपा
है। दूसरे में
' मैं' प्रगाढ़
है, ' तू
छिपा है। ये
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। पहले में
' तू ऊपर, ' मैं' नीचे;
दूसरे में '
मैं' ऊपर,
' तू नीचे।
तीसरे में
पूरा सिक्का
खो गया— न ' मैं'
बचा, न ' तू बचा; कैवल्य
बचा, चैतन्य
बचा। यह परम
एकांत है—
समाधि की
अवस्था! भीड़
तो गई ही गई, तुम भी गए
भीड़ के साथ!
तुम भी भीड़ के
ही हिस्से थे।’तुम भी भीड़
के ही एक अंग
थे।
पहली
अवस्था में
अशांति है, दूसरी
अवस्था में
शांति; तीसरी
अवस्था में
आनंद। पहली
नकारात्मक, दूसरी
विधायक, तीसरी
महोत्सव की।
सिर्फ विधायक
नहीं। सिर्फ
विधायक काफी
नहीं है। अब
विधायकता
नाचती हुई है,
गीत गाती
हुई है। अब
विधायकता बड़ी
रंगीन है।
इस
फर्क को ऐसा
समझना। एक
आदमी बीमार है; वह
नकारात्मक
स्थिति में है।
दूसरा आदमी
बीमार नहीं है।
डाक्टर के पास
जाता है तो वह
निरीक्षण
करके कहता है
कि कोई बीमारी
नहीं, स्वस्थ
हो। लेकिन उस
आदमी के भीतर
स्वास्थ्य का
कोई उत्सव
नहीं है। वह
कहता है. ' आप
कहते हैं तो
मान लेता हूं
लेकिन मुझे
कुछ मजा नहीं
आ रहा; स्वास्थ्य
की ऊर्जा
नाचती हुई
नहीं है।
बीमारी नहीं
है तो आप कहते
हैं, स्वस्थ
हूं। परिभाषा
से स्वस्थ हूं
लेकिन अभी
स्वास्थ्य का
कोई आदोलन
नहीं है, ऐसा
तरंगायित
नहीं हूं।’
तो
एक तो बीमारी
है,
दूसरा
डाक्टर का
स्वास्थ्य है—
डाक्टर के
निदान से मिला
स्वास्थ्य।
जांच कर ली, सब जांच—परख
कर ली, कहीं
कोई बीमारी
नहीं। घर भेज
दिया कि कोई
बीमारी नहीं,
इलाज की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन तुम
नाचते हुए घर
नहीं आ रहे हो।
तुम्हारे
भीतर उमंग
नहीं है, उत्सव
नहीं है, हर्षोन्माद
नहीं है।
तीसरा
एक और
स्वास्थ्य है, जब
तुम डाक्टर से
पूछने ही नहीं
जाते; जब
तुम्हारा
स्वास्थ्य ही
ऐसा अहर्निश
बरसता है।
किससे पूछना
है! बीमारी भी
गई, डाक्टर
का स्वास्थ्य
भी गया; अब
तुम स्वस्थ
हो! तुम इतने
स्वस्थ हो कि
अब स्वास्थ्य
का खयाल भी
नहीं आता।
स्वास्थ्य का
खयाल भी बीमार
आदमी को आता
है। अब तुम
इतने स्वस्थ
हो कि विदेह
हो गए।
ये
तीन अवस्थाएं
हैं अकेलेपन
की।
पूछा
है : '
भीड़ में मन
नहीं लगता।’
यह
शुभ है। यह
यात्रा का
पहला
सूत्रपात है।
जिसका भीड़ में
मन लगता है, वह
तो बुरी तरह
भटका है। वही
पागल है। भीड़
में मन लगता
है, इसका
अर्थ हुआ :
अपने में मन
नहीं लगता।
उसके तो भीतर
के मंदिर के
द्वार बंद हैं।
अच्छा है, तुम्हारा
भीड़ में मन
नहीं लगता। यह
ठीक हुआ। एक
कदम ठीक उठा।
दूसरी
बात,
पूछा है. 'लेकिन निपट
एकाकीपन से भी
जी घबड़ाता है।’
वह
भी स्वाभाविक
है। जन्मों—जन्मों
तक भीड़ में
रहे हो, भीड़
का अभ्यास है;
अब बोध तो आ
गया है कि भीड़
व्यर्थ है, लेकिन
अभ्यास कायम
है। बोध से ही
अभ्यास मिट
नहीं जाता।
अभ्यास गहरे
उतर गया है, रोएं—रोएं
में समा गया
है, श्वास—श्वास
में भिद गया
है। अभ्यास तो
भीड़ का है।
समझ भी आ गई
देख कर कि भीड़
में कुछ सार
नहीं, बहुत
देख लिया, अब
अकेले बैठना
चाहते हो; लेकिन
अभ्यास बल
मारता है। जब
अकेले बैठते
हो तो एकाकीपन
में जी घबड़ाता
है। जी तो भीड़
से मिला है।
वह भीड़ का
हिस्सा है।
जिसको तुम जी
कहते हो, जिसको
तुम मन कहते
हो, वह
तुम्हारा
नहीं है। तुम
इस भ्रांति
में मत रहना
कि मन के तुम
मालिक हो। मन
का मालिक तो
भीड़ है; भीड़
ने ही दिया है।
इसलिए तो मन
को छोड़ कर ही
कोई भीड़ के
बाहर जा सकता
है। जी नहीं
लगता, यह
बात तो समझ
में आ जाती है।
जी लगेगा कैसे?
जी तो भीड़
का है। जी तो
भीड़ के ही
अभ्यास से ही
निर्मित हुआ
है। इस जी को
भी छोड़ना
पड़ेगा तो ही
एकांत में रस
आएगा।
इसलिए
तो ध्यान का
अर्थ होता है :
मन से मुक्ति।
भीड़ से मुक्ति
शुभ आरंभ है; मन
से मुक्ति भी
चाहनी होगी।
क्योंकि मन
भीड़ का ही
हिस्सा है
तुम्हारे भीतेर
बैठा हुआ।
तुम
जरा अपने मन
की जांच करो।
तुम्हारे मन
में जो भी है, सब
भीड़ का ही
दिया हुआ है।
भीड़ ने कहा कि
तुम हिंदू हो
तो तुम हिंदू
हो। और भीड़ ने
कहा कि तुम
सुंदर हो तो
तुम सुंदर हो।
और भीड़ ने कहा
कि तुम बड़े
बुद्धिमान हो
तो बुद्धिमान
हो।
ये
सब भीड़ की ही
मान्यताएं
हैं। इन्हीं
को इकट्ठा कर
लिया, यही
तुम्हारा जी
है। इस जी को
भी छोड़ देना
होगा। तुम जी
से पार हो।
तुम्हारा
वास्तविक
होना मन के
पार है।
तुम्हारा
वास्तविक
होना
परमात्मा से
आता है, भीड़
से नहीं आता।
भीड़ ने तो जो
परमात्मा से
आया है, उसके
ऊपर एक रंग—रोगन
की दीवाल खड़ी
कर दी है, पर्दा
डाल दिया है।
उस पर्दे को
तुम पकड़े हो।
तो
भीड़ से मन ऊब
गया,
ठीक हुआ। अब
यह भी समझो कि
भीड़ ने जो—जो
दिया है, वह
भी छोड़ देना
होगा; नहीं
तो अकेले में
मन न लगेगा।
मन कहेगा, वहीं
चलो जहां मेरे
प्राण हैं।
जहां मेरा मूल
उदगम है, जहां
मेरा स्रोत है,
जहां मेरी
जड़ें हैं—वहा
चलो। मन तो
भीड़ में ही ले
जाएगा। अ—मन
में चलना होगा।
इसलिए तो कबीर
कहते हैं : अ—मनी
दशा! भीड़ से
जिसे वस्तुत:
मुक्त होना है,
वह बिना मन
से मुक्त हुए
न हो पाएगा।
इसलिए
तो मैं तुमसे
कहता हूं :
जंगल जाने से
न होगा। अगर
तुम्हें जरा
सी समझ हो तो
भीड़ में खड़े—खड़े
अकेले हो सकते
हो। मन छूट
जाए बस!
समझो, तुम
हिंदओं की भीड़
में खड़े हो, लेकिन तुमने
यह भाव छोड़
दिया कि मैं
हिंदूहूं।
चारों तरफ
हिंदुओं की
भीड़ सागर की
तरह लहरा रही
है या
मुसलमानों की
या ईसाइयों की;
लेकिन तुम
उस भीड़ में
खड़े हो और
तुम्हारे मन
में यह भाव
नहीं रहा कि
मैं हिंदू हूं
मुसलमान हूं
ईसाई हूं।
क्या तुम इस
भीड़ के हिस्से
हो? भीड़
में खड़े हो, दिखाई पड़ते
हो; लेकिन
बड़े अदृश्य
मार्ग से तुम
मुक्त हो गए।
भीड़ कहती है
कि तुम सुंदर
हो और तुम यह
समझ गए कि
दूसरे की
बातों से कैसे
पता चलेगा कि
मैं कौन हूं—सुंदर
कि असुंदर, कि स्वस्थ
कि अस्वस्थ, कि ईमानदार
कि बेईमान, कि नैतिक कि
अनैतिक—दूसरे
से कैसे पता
चलेगा! यह
दूसरे के आधार
पर मैं अपने
को कैसे
जानूंगा! ये
दूसरे अपने को
ही नहीं जानते,
ये मुझे
ज्ञान दे रहे
हैं!
आत्मज्ञान को
तो सीधे—सीधे
पाना होगा, किसी के
माध्यम से
नहीं। ये उधार
बातें
आत्मज्ञान
नहीं बनेंगी।
ऐसा तुम जाग
गए और धीरे—
धीरे तुमने
उधार बातें
छोड़ दीं। अब
तुम भीड़ में
खड़े हो, जहां
लोग तुम्हें
बुद्धिमान
मानते हैं या
बड़ा नैतिक
पुरुष मानते
हैं, लेकिन
तुम्हारे मन
में अब यह कोई
धारणा न रही।
तुम जानते हो
कि भीड़ को बीच
में नहीं लेना
है। अब तुम
भीड़ के भीतर
भी खड़े भीड़ के
बाहर हो।
कभी
इसका प्रयोग
करना। बीच
बाजार में खड़े—खड़े
खयाल करना कि
बाहर हो। क्षण
भर को झलक
मिलेगी, झरोखा
खुलेगा। एक
लहर की तरह
दौड़ जाएगी
तुम्हारे
जीवन में एक
नई धारा। वही
धारा एकांत
में ले जाएगी।
ठीक
हो रहा है। जी
घबड़ाता है, जी
को भी छोड़ो।
जी को पकड़ा तो
जी भीड़ में ले जाएगा।
जी भीड़ का गुलाम
है, तुम्हारा
नहीं।
तुम्हारी इस पर
कोई मालकियत
नहीं है। यह
तो बड़ी
सूक्ष्म
तरकीब है भीड़
की। उसने
तुम्हारे मन
को संस्कारित
कर दिया है।
वस्तुत: उसने
जो—जो संस्कार
तुम्हारे
भीतर रख दिए
हैं, उन्हीं
के जोड़ का नाम
मन है। इसे भी
जाने दो।
हिम्मत करो।
पहला कदम
उठाया, अब
दूसरा भी उठाओ।
दूसरा कदम यही
होगा कि
घबड़ाने दो जी
को और तुम जानो
कि मैं जी
नहीं हूं मैं
मन नहीं हूं
मैं पार हूं।
धीरे— धीरे
जैसे भीड़ से
ऊब गए हो, ऐसे
ही अपने मन से
भी ऊब जाओगे।
तब दूसरा
स्वात पैदा
होगा। तब
तुम्हें बड़ी शांति
मिलेगी।
अपूर्व वर्षा
हो जाएगी
शांति की।
जन्मों—जन्मों
से जो प्राण
प्यासे थे, तृप्त होंगे।
मगर
यहां भी रुक
मत जाना, क्योंकि
बहुत से लोग
शांति पर रुक
जाते हैं। वे
सोचते हैं, आ गया घर।
शांति पड़ाव है,
मंजिल नहीं।
शांति सेतु है,
अंत नहीं। अशांति
से जाना है, शांति पर
पहुंचना नहीं।
अशांति से
जाना है, शांति
से होकर
गुजरना है, आनंद पर
पहुंचना है।
जब तक आनंद न
हो जाए...।
शांति
बड़ी मुर्दा सी
चीज है; अशांति
के मुकाबले
बड़ी कीमती।
अगर अशांति और
शांति में
चुनना हो, शांति
चुनना। लेकिन
शांति भी कुछ
चुनने जैसी
बात है? अगर
आनंद और शांति
में चुनना हो
तो आनंद चुनना।
अभी एक और
यात्रा बाकी
है। दूसरों को
तो छोड़ ही
दिया, अब
अपने को भी
छोड़ दो। दूसरे
को तो विस्मरण
कर दिया, अब
अपने को भी
विस्मरण कर दो।
इस आत्मविस्मरण
में, इस
अहंकार के
त्याग में ही
परम घटना
घटेगी। तब तुम
सुनोगे पहली
बार उस
बांसुरी को जो
आदमी की नहीं
है, जो
परमात्मा की
है। तब तुम
पहली बार
निमित्त
बनोगे—परम
ऊर्जा के
वाहक!
तुम्हारा रोआं—रोआं
पुलकित होगा,
उमंग से
भरेगा।' तब
कैवल्य की दशा
है। चल पडे हो—रुकना
मत, लौटना
मत!
दूसरा
प्रश्न :
जब
कोई व्यक्ति
अपने जीवन को
किसी दिशा
विशेष में ले
चलने की कोशिश
करता है तो
इतर दिशाओं का
बुलावा
विक्षेप बन जाता
है। लेकिन
क्या यह संभव
है कि कोई
व्यक्ति अपने
जीवन को उसकी
सभी दिशाओं
में बहने को छोड़
दे और तब क्या विक्षेपरहितता
की अवस्था में
जीवन के बिखराव
का खतरा नहीं
खड़ा होगा?
यह
प्रश्न
स्वाभाविक है, उठेगा
ही; एक न एक
दिन प्रत्येक
के सामने खड़ा
होगा ही। अब
तक तुम चुन कर
जीए हो। जो 'तुमने चुन
लिया है, उससे
एक दिशा मिल
जाती है; बाकी
सब दिशाएं छूट
जाती हैं। जो
तुमने चुना है
उससे तुम्हें
अपनी परिभाषा मिल
जाती है।
तुम्हें पता
चल जाता है कि
मैं कौन हूं।
अगर तुम सत्य
को खोज रहे हो तो
तुम सत्यार्थी।
अगर तुम ध्यान
को खोज रहे हो तो
ध्यानी। अगर
धर्म की यात्रा
पर निकले हो तो
धार्मिक। अगर पुण्य
कर रहे हो तो पुण्यात्मा।
एक परिभाषा
मिलती
है दिशा से।
कुछ चुन लिया, चुनाव
के साथ ही साथ
तुम्हें लगता
है कि तुम कुछ
हो। स्पष्ट
प्रतीत होने
लगता है। और
तुम्हारे
चुनाव के कारण
तुम्हारा
अहंकार सघन
होता है। इससे
खतरा पैदा
होगा।
जब
अष्टावक्र
कहते हैं, चुनाव
ही छोड़ दो, सारे
चुनाव छोड़ दो,
सारा
कर्तृत्व छोड़
दो, कर्ता
का भाव छोड़ दो,
तो तुम
घबडाओगे. 'इससे
बिखराव तो न
पैदा हो जाएगा?'
बिखराव
पैदा होगा।
अहंकार के तल
पर निश्चित
होगा।
क्योंकि
अहंकार के तल
पर तो बिखराव
चाहिए ही।
अभी
तुमने जिसको
आत्मा कहा है, वह
तुम्हारी
आत्मा नहीं, वह तो
तुम्हारे
कर्मों, चुनावों
का जोड़ है, अहंकार
है। अहंकार तो
बिखरेगा। अगर
तुम सब दिशाओं
में अपने को
मुक्त छोड़ दो,
स्वच्छंद—वही
तो देशना है
अष्टावक्र की—स्वच्छंद!
मत चुनो, मत
भविष्य का
विचार करो। मत
तय करो कि
क्या होना है।
जीयो क्षण—
क्षण। जहां ले
जाए जीवन वैसे
जीयो। सूखे
पत्ते की तरह
हो जाओ अंधड़—आधी
में। यह जो
जीवन का अंधड़
चल रहा है, इसमें
तुम सूखे
पत्ते हो जाओ।
अब सूखे पत्ते
को तो बिखराव
होगा ही। सूखे
पत्ते का
अहंकार बच तो
सकता ही नहीं।
सूखा पता जा
रहा था पूर्व
को और आधी
बहने लगी पश्चिम
को—तो सूखे
पत्ते के
अहंकार का
क्या होगा? और सूखा पता
तड़पेगा : 'यह
तो गलत हो रहा
है! जो नहीं
चाहिए था, वह
हो रहा है! मैं
कुछ और चाहता
था। यह तो
असफलता हो रही
है, यह तो
विषाद का क्षण
आ गया। तो मैं
हार गया।’ तो
अहंकार
टूटेगा। और
सूखे पत्ते
इतने चालाक भी
नहीं हैं कि
अपने अहंकार
को बचाने के
लिए नई—नई
तरकीबें
खोजते रहें।
आदमी तो बड़ा
चालाक है।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन एक
राह से गुजर
रहा था और एक
बड़े पहलवान
जैसे दिखाई
पड़नेवाले
आदमी ने जोर से
उसकी पीठ पर
धक्का मारा, धौल जमा दी।
वह चारों खाने
चित्त जमीन पर
गिर पड़ा। उठ
करखडा हुआ।
बड़ा नाराज था।
लेकिन
नाराजगी एक
क्षण में हवा
हो गई—देखा कि
पहलवान खड़ा है,
एक झंझट की
बात है। फिर
भी लेकिन आदमी
तो कुशल है, चालाक है।
उसने कहा : 'महानुभाव!
यह आपने मजाक
में किया है
या गंभीरता से?'
उस पहलवान
ने कहा मजाक
में नहीं, गंभीरता
से किया है।
मुल्ला ने कहा
फिर ठीक है, क्योंकि ऐसी
मजाक मुझे
पसंद नहीं।
अगर गंभीरता
से किया है, फिर कोई
हर्जा नहीं।
और चल पड़ा। अब
झंझट लेनी ठीक
नहीं है। इतना
बहाना काफी है
अपने अहंकार
को बचाने को।
आदमी
चालाक है बहुत।
मजा यह है कि
अहंकार को तो
रोज ही बिखराव
के क्षण झेलने
पड़ते हैं। तुम
गौर करो! तुम
कुछ चाहते हो, कुछ
होता है। फिर
भी तुम समझा
लेते हो। कह
देते हो : 'दूसरा
बेईमान था, इसलिए जीत
गया; हम
ईमानदार थे, इसलिए हार
गए।’ अहंकार
की हार तुम
कभी स्वीकार
नहीं करते।
तुम कहते हो : 'सारी दुनिया
मेरे खिलाफ है,
इसलिए। अकेला
पड़ गया हूं
इसलिए। या
मैंने पूरा
उपाय ही कहां
किया था; मैं
तो ऐसे ही गैर—गंभीरता
में ले रहा था।’
तुम कुछ न
कुछ मार्ग खोज
लेते हो और
अहंकार को बचा
लेते हो।
अगर
तुम जीवन को
गौर से पढ़ो, जीवन
के पाठ को ठीक
से पढ़ो, तो
जीवन रोज तोड़
रहा है।
क्योंकि जीवन
को तुम्हारे
चुनावों से
कुछ लेना—देना
नहीं।
तुम्हारे
चुनाव
वैयक्तिक हैं;
इस समग्र को
उनसे कोई
प्रयोजन नहीं
है। तुम्हारे
चुनाव अगर कभी—कभी
हल भी हो जाते
हैं तो संयोग
समझना। यह
संयोग की बात
है कि तुमने
कुछ ऐसी बात
चुन ली जिस
तरफ अस्तित्व
अपने आप जा
रहा था, बस।
भाग्यवशात!
बिल्ली
निकलती थी और
छींका टूट गया।
यह संयोग की
बात समझना; कोई बिल्ली
के लिए छींका
नहीं टूटता है।
यह बिलकुल
सांयोगिक था
कि तुमने चुन
ली ऐसी बात जो
होने जा रही
थी। लेकिन जब
तुम्हारी
चुनी हुई बात
हो जाती है, तब तुम बड़ी
अकड़ से भर जाते
हो कि देखा, करके दिखा
दिया! और जब
तुम्हारी बात
टूटती है... और
तुम्हारी बात
सौ में
निन्यानबे
मौकों पर टूटती
है! क्योंकि
संयोग तो कभी
सौ में एकाध
हो सकते हैं, अपवाद हो
सकते हैं। उन
निन्यानबे
मौकों पर तुम
कुछ न कुछ
तर्कजाल फैला
कर अपने को
समझा लेते हो।
कहीं दोष देकर
किसी तरह अपने
को निवृत्त कर
लेते हो।
जीवन
को कोई ठीक से
देखेगा तो
अहंकार
निर्मित ही
नहीं हो सकता; बिखराव
का तो सवाल ही
दूर है। और
अगर तुमने
अष्टावक्र की
बात मान कर
चुनावरहितता
का प्रयोग
किया तो
निश्चित
बिखराव होगा।
लेकिन एक बात
खयाल रखना, तुम्हारा
नहीं है
बिखराव।
तुम्हें जैसा
परमात्मा ने
बनाया है, वैसे
का तो कोई
बिखराव नहीं
है। परमात्मा
ने तुम्हें
अहंकार शून्य
बनाया; अहंकार
तुम्हारा ही
निर्मित किया
हुआ है। वही
टूटेगा। जो
तुमने बनाया
है, वही
टूटेगा। जो
तुमने नहीं
बनाया है, वह
कभी टूटने
वाला नहीं है।
ही, अहंकार
बिखर जाएगा।
और जब अहंकार
बिखरेगा तभी
तुम्हें
आत्मा का पहली
दफे पता चलेगा।
और वही
वास्तविक बात
है।
तो
पूछते हो—ठीक
पूछते हो—कि 'तब.
क्या
विक्षेपरहितता
की अवस्था में
जीवन के
बिखराव का
खतरा नहीं खड़ा
होगा?'
अष्टावक्र
कहते हैं कि
ज्ञान की जो
परम अवस्था
है,
विक्षेपरहित
है।
विक्षेपरहित
का अर्थ होता
है, वहां
कोई
डिस्ट्रेक्यान
नहीं। इसका
मतलब ही यह
हुआ कि अब तुम
कुछ चुनाव ही
नहीं करते।
नहीं तो
विक्षेप होगा
ही।
समझो, तुम
ध्यान करने
बैठ गए और एक
कुत्ता आकर
भौंकने लगा—विक्षेप
पैदा होगा।
क्योंकि तुम
एकाग्र होने
की चेष्टा कर
रहे थे, अब
यह कहा बेवक्त
कुत्ता आ गया!
अब तुम समझाते
हो कि न मालूम
किस जन्म में
कौन सा कर्म
किया है, इस
कुत्ते के साथ
कौन सा
दुर्व्यवहार
किया था कि
मैं ध्यान
करने बैठता
हूं तब इन
सज्जन को भौंकने
की याद आई है।
अब कभी और
भौंक लेते, चौबीस घंटे
पड़े हैं! तुम
ध्यान करने
बैठे. कि
बच्चा रोने
लगा। तुम्हें
बड़ी हैरानी
होती है कि
बच्चे को पता कैसे
चल जाता है कि
जब मैं ध्यान
करने बैठता हूं
तभी रोने लगता
है। अबोध
बच्चा, झूले
में पड़ा हो, वह रोने
लगता है। यह
तुम्हारे लिए
नहीं रो रहा
है। लेकिन अभी
तुम ध्यान
करने बैठे, तुमने एक
चुनाव कर लिया
कि मैं एकाग्र
रहूंगा।
एकाग्रता के
कारण ही
विक्षेप पैदा
हो रहा है।
तुमने चाहा
एकाग्र
रहूंगा; और
इस जगत में
हजारों
घटनाएं घट रही
हैं! सड़क पर
तांगे—घोड़े
दौड़ रहे, कारें
आवाज कर रहीं,
ट्रक जा रहे,
हवाई जहाज
उड़ रहे, पत्नी
चौके में खाना
बना रही, बर्तन
गिर रहे, बच्चे
रो रहे, शोरगुल
बच्चे कर रहे,
कुत्ते
भौंक रहे, कौवे
चिल्ला रहे—सब
तरफ हजार—हजार
चीजें हो रही
हैं। तुमने
जैसे ही तय
किया कि मैं
ध्यान में
बैठूंगा, अब
मैं कोई अपने
मन में विकल्प
न आने दूंगा, अपने मन में
किसी चीज से
बाधा न पड़ने
दूंगा, निर्बाधा
घड़ी भर
बैढूंगा—बस
बाधा आनी शुरू
हो गई! कैसे
बाधा आ रही है?
अष्टावक्र
कहते हैं.
उसने
निर्बाधा
रहने का जो तय
किया, उससे आ
रही है। इसलिए
अष्टावक्र
एकाग्रता के
पक्षपाती नहीं
हैं, न मैं
हूं।
एकाग्रता का
मेरा कोई
पक्षपात नहीं।
एकाग्रता
अहंकार का ही
फैलाव है। और
वास्तविक 'ध्यान
का एकाग्रता
से कोई संबंध
नहीं है।
क्योंकि
एकाग्रता
सेतो विक्षेप
पैदा होता है,
डिस्ट्रेक्यान
पैदा होता है।
इससे तो और
अशांति बढ़ती
है। फिर ध्यान
का क्या अर्थ
है? साधारण
'किताबों
में—उन लोगों
ने जो किताबें
लिखी हैं, जिन्होंने
ध्यान को
बिलकुल जाना
नहीं—तुम यही
पाओगे, वे
लिखते हैं :
ध्यान यानी
एकाग्रता।
उन्हें कुछ भी
पता नहीं है।
उन्हें क, ख,
ग भी पता
नहीं है।
ध्यान यानी
एकाग्रता!
बिलकुल नहीं,
कभी नहीं, हजार बार
नहीं! ध्यान
का अर्थ ही
होता है : विक्षेपरहितता।
एकाग्रता तो
कैसे हो सकता
है? एकाग्रता
का तो अर्थ
होगा :
विक्षेप पैदा
हुए।
ध्यान
का अर्थ होता
है : अनेकाग्र।
ध्यान का अर्थ
होता है : जो
होगा होने
देंगे। बच्चा
रोएगा, रोने
देंगे।
कुत्ता
भौंकेगा, भौंकने
देंगे। हम हैं
कौन बाधा
डालनेवाले? इस विराट अस्तित्व
में हम विराम
लगानेवाले
कौन हैं? मैं
कौन हूं जो
कहूं कि
कुत्ता अभी न
भौंके और कौवे
अभी कांव—कांव
न करें और
बच्चे अभी
रोएं नहीं, गाड़ियां अभी
रास्ते पर न
चलें, हवाई
जहाज आकाश में
न उड़े? मैं
कौन हूं विराम
लगाने वाला? यह तो बड़े
अहंकार की
घोषणा है कि मैं
विराम लगा दूं।
नहीं, मैं
कोई भी नहीं
हूं! जो होगा
मैं उसे
स्वीकार
करूंगा।
कुत्ता
भौंकता रहेगा,
मैं राजी
रहूंगा।
कुत्ते के
भौंकने की
आवाज सुनाई
पड़ेगी, गूंजेगी
मेरे अंतस्तल
में, सुनता
रहूंगा, लेकिन
मेरा चूंकि
कोई विरोध
नहीं है तो
विक्षेप पैदा
नहीं होगा। मेरी
कोई मांग नहीं
है कि कुत्ता
न भौंके, तो
मुझे कोई चोट
न लगेगी।
जैसे
ही तुमने
एकाग्र होना
चाहा कि तुमने
घाव बना लिया।
देखा तुमने, कभी
पैर में घाव
हो जाता है तो
दिन भर उसी पर
चोट लगती है।
बच्चा आकर पैर
पर चढ़ जाता है।
तुम चकित होते
हो कि इतने
दिन हो गए, जिंदगी
हो गई, कभी
यह बच्चा पैर
पर नहीं चढ़ता
था, आज पैर
पर चढ़ गया।
राह से निकलते
हो, किसी
का धक्का लग
जाता है।
दरवाजे का
धक्का लग जाता
है। चीजें गिर
पड़ती हैं। ये
रोज ही गिरती
थीं और यह
बच्चा अनेक
बार चढ़ा था; लेकिन कभी
पता न चला था, क्योंकि घाव
न था। आज घाव
है तो पता
चलता है। कोई
ऐसा थोड़े ही
है कि
तुम्हारा घाव
देख कर सारी
दुनिया
तुम्हारे पैर
पर गिरी पड़
रही है। घाव
का किसी को
पता नहीं है।
जब तुम एकाग्र
होने को बैठ
गए और तुमने
चेष्टा की, बस घाव पैदा
हो गया। अब
छोटी—छोटी
चीजें बाधा
डालने लगेंगी।
तुमने
खयाल किया होगा, ध्यान
करने बैठो, कही चींटी सरकने
लगती है— अभी
तक नहीं सरक
रही थी, जिंदगी
भर नहीं सरकी
थी—कहीं
खुजलाहट उठती
है, कहीं
लगता है कि
सिर में कोई
चींटी चढ़ गई, कहीं पैर सो
जाता है। हजार
काम एकदम शुरू
हो जाते हैं
जैसे सारा संसार
तुम्हारे
ध्यान के विपरीत
है। ध्यान के विपरीत
नहीं है, एकाग्रता
के विपरीत है।
संसार विपरीत
है, ऐसा
कहना ठीक नहीं;
एकाग्रता
में तुमने
संसार के
विपरीत होने
की घोषणा कर
दी। एकाग्रता
की चेष्टा में
तुमने कह
दिया. मैं दुश्मन
हूं। तुमने कह
दिया कि अब
मैं नहीं
चाहता, न
चींटियां
चलें, न
हवाएं चलें, न पक्षी
बोलें, न
रास्ते पर कोई
चले, न
बर्तन गिरे—तुमने
सारी दुनिया
को कह दिया कि
अभी मैं ध्यान
कर रहा हूं सब
ठहर जाए!
तुमने घोषणा
कर दी वैपरित्य
की। विक्षेप
पैदा होगा।
हजार—हजार
विक्षेप पैदा
होंगे। इससे
सिर्फ क्रोध
पैदा होगा।
अशांति पैदा
होगी।
ध्यान
का वास्तविक
अर्थ है. ' अनेकाग्रता!
नॉन—कनसनट्रेशन!
शांत होकर, शिथिल होकर
बैठ गए। जो
होता है, होता
है। स्वीकार
कर लिया।’
इस
स्वीकार की
दशा में एक
चीज बिखरेगी, वह
अहंकार है, और एक चीज
सम्हलेगी, वह
तुम हो। एक
चीज जाएगी, वह अहंकार
है; एक चीज
आएगी—तुम
जाओगे, परमात्मा
आएगा; या
तुम्हारा
झूठा रूप
जाएगा और
तुम्हारा वास्तविक
रूप आएगा।
जब
तुम्हारा कोई
चुनाव नहीं तब
जीवन में एक
सहजता आती है।
साधुओं को
कबीर ने कहा
है : साधो सहज
समाधि भली।
यह
कौन—सा मुकाम
है!
फलक
नहीं, जमीं
नहीं
कि
शब नहीं, सहर
नहीं
कि
गम नहीं, खुशी
नहीं
कहा
यह लेकर आ गई
हवा
तेरे दयार की!
अगर
तुम ऐसे चुप होकर
बैठ गए
अनेकाग्र हो कर
बैठ गए तो एक दिन
पाओगे— यह कौन
सा मुकाम है!
फलक
नहीं, जमीं
नहीं
कि
शब नहीं, सहर
नहीं
कि
गम नहीं, खुशी
नहीं
कहां
यह लेकर आ गई
हवा
तेरे दयार की!
तुम्हीं
थे मेरे
रहनुमा
तुम्हीं
थे मेरे हमसफर
तुम्हीं
थे मेरी रोशनी
तुम्हीं
ने मुझको दी
नजर
बिना
तुम्हारे
जिंदगी
शमा
है एक मजार की!
तुम
छोड़ दो अपने
को परमात्मा
के हाथों में।
निश्चित कुछ
बिखरेगा। जो
बिखरेगा वह
बिखरने ही के
लिए है, बिखरना
ही चाहिए। वह
बिखरे, यही
शुभ है। और
कुछ सम्हलेगा।
जो सम्हलना
चाहिए, वही
सम्हलेगा।
अभी
गलत तो सम्हला
है,
सही सोया है।
गलत को जाने
दो, ताकि
सही जाग सके।
और सही तभी
जागता है जब
गलत हट जाए।
असार को असार
की तरह देख
लेने में सार
का जन्म है।
असत्य को
असत्य की तरह
पहचान लेने
में सत्य की
पहेली किरण है।
तीसरा
प्रश्न :
प्रभु
को पाने का
मार्ग क्या है? प्यास
तो है, पर पथ
नहीं मिलता।
पथ—प्रदर्शन
करें!
प्यास
हो नहीं सकती।
कहते हो प्यास
है;
है नहीं।
क्योंकि
प्यास ही तो
पथ है। प्यास
हो तो पथ मिल
ही गया। प्यास
से अलग पथ
कहां! ये पथ
इत्यादि की
बातें तो प्यास
की कमी के
कारण ही पैदा
होती हैं।
प्यास नहीं तो
हम पूछते हैं.
पथ कहां है? प्यास हो, ज्वलंत
प्यास हो, रोआं—रोआं
जलता हो, आग
लगी हो विरह
की, लपटें
उठी हों खोज
की—कोई पथ
नहीं पूछता।
प्यास पथ बना
देती है।
ऐसा
समझो, घर में
आग लग गई हो, तब तुम थोड़े
ही पूछते हो
कि द्वार कहा,
मुख्य
द्वार कहा, कहा से
निकलूं कहां
से न निकलूं? खिड़की से
कूद जाते हो।
फिर तुम यह
थोड़े ही देखते
हो कि यह
मुख्य द्वार
नहीं है—जब घर
में आग लगी हो—यह
खिड़की से कूद
रहा हूं यह
शिष्टाचार के
विपरीत है!
तुम फिर नक्शा
थोड़े ही पूछते
हो कि नक्शा
कहां है? तुम
फिर
मार्गदर्शन
थोड़े ही चाहते
हो। तुम फिर
रुकते थोड़े ही
हो किसी से
पूछने को। घर
में आग लगी हो
तो तुम्हारे
प्राण ऐसे
आकुल हो जाते
हैं निकलने को
बाहर कि तुम
राह खोज लेते
हो। तुम्हारी
आकुलता राह बन
जाती है।
राह
इत्यादि की
बातें तो लोग
फुरसत में
पूछते हैं; असल
में जब निकलना
नहीं होता तब
पूछते हैं, तब वे कहते
हैं : ' कैसे
निकलें, पहले
राह तो पता हो।
मार्गदर्शन
तो हो।’ फिर
मार्गदर्शन
भी मिल जाए तो
वे पूछते हैं : 'क्या पक्का
है कि यह
मार्गद्रष्टा
सही है? फिर
और भी तो
मार्गद्रष्टा
हैं, अकेले
यही तो नहीं।
कौन सही है? पहले यह तो
तय हो जाए।
बुद्ध सही कि
महावीर सही कि
कृष्ण कि
क्राइस्ट कि
मोहम्मद—कौन
सही है? कुरान
सही कि वेद
सही, कौन
सही है? पहले
यह तो पक्का
हो जाए।
निकलेंगे
जरूर। निकलना
है। लेकिन जब
तक मार्ग साफ
न हो, सुनिश्चित
न हो, तब तक
कैसे चलें?' तब तक तुम घर में
बैठे हो मजे
से, अपना
काम— धाम जारी
रखे हो।
ये
तरकीबें हैं
बचाव की।
तुम
कहते हो 'प्रभु
को पाने का
मार्ग क्या है?
प्यास तो है,
पर पथ नहीं
मिलता।’
नहीं, जरा
अपनी प्यास को
फिर से टटोलना।
जरा खोल कर
फिर देखना—प्यास
नहीं होगी।
प्यास होती तो
मार्ग क्यों न
मिलता? प्यास
होती तो तुम
दांव लगा देते।
प्यास होती तो
तुम मार्ग खोज
लेते।
क्योंकि
मार्ग तो है; तुम जहां
खड़े हो वहीं से
मार्ग जाता है।
लेकिन जब तक
प्यास नहीं, तब तक
तुम्हारा उस
मार्ग से
संबंध नहीं हो
पाता है।
तो
पहली बात मैं
कहना चाहूंगा
: बजाय मार्ग
खोजने के
प्यास को गहरा
करो। गहराओ।
प्यास को जलाओ।
ईंधन बनी कि
प्यास की
लपटें जोर से
उठें। जब तक
प्यास
विक्षिप्त न
हो जाए, जब तक
ऐसी घड़ी न आ
जाए कि तुम सब
दाव पर लगाने
को राजी हो, तब तक समझना
प्यास नहीं है।
अगर मैं तुमसे
पूछूं कि क्या
दांव पर लगाने
को राजी हो, प्यास है तो...?
सिकंदर
भारत से वापस
लौटता था, तब
वह एक फकीर को
मिलने गया। और
उस फकीर ने
सिकंदर को
देखा और वह
हंसने लगा। तो
सिकंदर ने कहा
: 'यह अपमान
है मेरा।
जानते हो मैं
कौन हूं? सिकंदर
महान!' वह
फकीर और जोर
से हंसने लगा।
उसने कहा कि 'मुझे तो कोई
महानता दिखाई
नहीं पड़ती।
मैं तो
तुम्हें बड़ा
दीन— दरिद्र
देखता हूं।’ सिकंदर ने
कहा कि 'या
तो तुम पागल
हो और या
तुम्हारी मौत
आ गई। सारी
दुनिया को
मैंने जीत
लिया है।’ उस
फकीर ने कहा, 'छोड़ यह
बकवास! मैं
तुझसे पूछता
हूं अगर
मरुस्थल में
तू भटक जाए और
प्यास तुझे
जोर की लगी हो
और चारों तरफ
आग बरसती हो
और कहीं
हरियाली न दिखाई
पड़ती हो, कहीं
किसी
मरूद्यान का
पता न चलता हो—उस
समय एक गिलास
पानी के लिए
तू इस राज्य
में से कितना
दे सकेगा?'
सिकंदर
ने थोड़ा सोचा।
उसने कहा : 'आधा
राज्य दे
दूंगा। फकीर
ने कहा : 'लेकिन
आधे में मैं
बेचने को राजी
न होऊंगा।’ सिकंदर ने
फिर सोचा।
उसने कहा कि
ऐसी हालत अगर
होगी तो पूरा
राज्य दे
दूंगा। तो वह
फँकीर हंसने
लगा। उसने कहा
: 'एक गिलास
पानी कुल जमा
मूल्य है तेरे
राज्य का। और
ऐसे ही अकड़ा
जा रहा है।
वक्त पड़ जाए
तो एक गिलास
पानी में निकल
जाएगी सब अकड़।
यह राज्य तेरी
प्यास भी तो न
बुझा सकेगा उस
क्षण में।
चिल्लाना खूब—महान
सिकंदर, महान
सिकंदर! कुछ न
होगा।
मरुस्थल
बिलकुल न
सुनेगा।’
एक
गिलास पानी
में राज्य चला
जाता हो...! अगर
तुमसे कोई कहे
कि परमात्मा
मिलने को
तैयार है, तुम
क्या खोने को
तैयार हो? तुम
क्या दांव पर
लगाने को
तैयार हो? सिकंदर
फिर भी
हिम्मतवर था,
उसने कहा, आधा राज्य
दे दूंगा एक
गिलास पानी के
लिए। तुम एक
गिलास
परमात्मा के
लिए क्या देने
को राजी हो? तुम शायद
आधी दुकान भी
न दोगे। तुम
शायद आधा मकान
भी न दोगे।
तुम शायद अपनी
आधी तिजोड़ी भी
न दोगे। तुम
कहोगे : 'प्रभु,
अभी और बहुत
काम करने हैं,
तिजोड़ी अभी
कैसे दे दूं? अभी लड़की की
शादी करनी है,
अभी लड़का
युनिवर्सिटी
में पढ़ रहा है।
दे दूंगा एक
दिन, लेकिन
अभी नहीं दे
सकता।’ तुम
क्या देने को
राजी हो?
कभी
अपने मन में
पूछना, अगर
प्रभु द्वार
पर खड़ा हो और
कहे कि मैं
मिलने को राजी
हूं तुम क्या
देने को राजी
हो? तब तुम
क्या दे दोगे
निकालकर? तुम्हारे
हाथ डरेंगे, खीसे में न
जाएंगे।
रवींद्रनाथ
की एक बड़ी
प्रसिद्ध
कविता है। एक
भिखारी, जैसा
रोज भिक्षा
मांगने जाता
था वैसा ही
भिक्षा
मांगने निकला।
पूर्णिमा का
दिन है, धर्म
का कोई दिन है
और उसे बड़ी
आशा है। और
जैसे भिखारी
जब भिक्षा
मंगाने जाते
हैं तो घर से
थोड़ा सा अपनी
झोली में डाल
कर निकलते हैं—स्वाभाविक
है, जरूरी
है। झोली में
कुछ पड़ा हो तो
लोग दे देते
हैं, नहीं
तो देते भी
नहीं। झोली
में पड़ा हो तो
उनको जरा
संकोच आता है
कि दूसरों ने
दे दिया है तो
हम भी दे दें।
जरा बदनामी का
भी तो डर लगता
है। मंदिर में
पुजारी तक जब
आरती के बाद
पैसे के लिए
थाली फिराता
है तो उसमें
कुछ पैसे डाल
रखता है।
क्योंकि अगर
थाली खाली हो
तो तुम्हारी
हिम्मत बिलकुल
टूट जाएगी; तुम एक पैसा
भी न डाल
पाओगे। तुम
कहोगे : किसी
ने भी नहीं
डाला तो हमीं
कोई बुद्ध
हैं! अगर और भी
बुद्ध बन चुके
हैं, कुछ
पैसे पड़े हैं,
तो फिर
तुम्हें ऐसा
लगता है कि अब
न डालें तो जरा
कंजूसी मालूम
होगी। तो एकाध
पैसा तुम डाल
देते हो। वह
भी खोटे पैसे
लेकर लोग
मंदिर आते हैं।
छोटी से छोटी
चिल्लq मांगते
हैं।
निकला
था थोड़े से
पैसे डाल कर—
थोड़े चने के
दाने, थोड़े
गेहूं थोड़े
चावल और राह
पर आया है कि
देखा, राजा
का रथ आ रहा है
धूल उड़ाता।
सुबह सूरज
निकला है और
उसका स्वर्ण—रथ
चमक रहा है।
वह तो बड़ा
गदगद हो गया।
उसने कहा, ऐसा
कभी सौभाग्य न
मिला था, क्योंकि
राजा के महल
में तो कभी प्रवेश
ही नही मिलता
था, भिक्षा
मांगने का
सवाल ही न था।
आज राजा राह
परमिल गया है तो
खडा हो जाऊंगा
बीच में झोली
फैला कर, धन्यभाग
हैं मेरे! कुछ
न कुछ आज
मिलने को है।
रथ
आया,
रुका भी।
रुका तो
भिखारी
घबड़ाया भी।
कभी राजा के
साथ' साक्षात्कार
भी न हुआ था।
और राजा नीचे
उतरा भी। उतरा
तो भिखारी
बिलकुल ही कंप
गया। और इसके
पहले कि
भिखारी होश
जुटा पाता, अपनी झोली
फैला पाता, राजा ने
अपनी झोली
उसके सामने
फैला दी। और
उसने कहा : ' क्षमा
करो, ज्योतिषियों
ने कहा है कि
अगर मैं
भिक्षा मामू
तो राज्य बच
सकता है, अन्यथा
राज्य पर बड़ा
संकट आ रहा है।
और
ज्योतिषियों
ने कहा है, आज
सुबह मैं रथ
पर निकलूं और
जो आदमी पहले
मिले, उससे
भिक्षा मांग
लूं। क्षमा
करो, माना
कि तुम भिखारी
हो और तुम्हें
देने में बड़ी
कठिनाई होगी,
लेकिन अब
कोई उपाय नहीं
है, राज्य
को बचाने का
सवाल है। कुछ
न कुछ दे दो, इनकार मत कर
देना।’
तो
भिखारी बड़ा
घबड़ाया। कभी
उसने दिया तो
था ही नहीं, मांगा
ही मांगा था।
देने की कोई
आदत ही न थी, याद ही न आती
थी कि कभी
उसने कुछ दिया
हो।
तुम
जरा उसका संकट
देखो। ऐसे ही
संकट में तुम
पड़ जाओगे, परमात्मा
अगर झोली फैला
कर सामने खड़ा
हो जाए। तुमने
भी मांगा ही
मांगा है।
प्रार्थना जो
भी तुमने की
हैं अब तक, सब
मांगों से भरी
थीं। तुमने
देने के लिए
कभी
प्रार्थना की?
तुम कभी
प्रभु के
द्वार पर गए
कि प्रभु, मैं
अपने को देना
चाहता हूं तू ले
ले, कृपा
करना और मुझे
स्वीकार कर
ले! तुम कुछ
देने गए? तुम
सदा मांगने गए।
तुम भिखमंगे
की तरह गए।
वह
भिखमंगा बहुत
घबड़ा गया।
इंकार भी न कर
सका क्योंकि
राज्य पर संकट
है और राजा
अगर नाराज हो
जाए...। तो उसने
झोली में हाथ
डाला। हाथ
डालता है, मुट्ठी
भरके दे सकता
था, लेकिन
मुट्ठी भरने
की आदत ही न थी।
मजबूरी में एक
चावल का दाना
निकाल कर उसने
डाला। डालना
कुछ था, डालना
पड़ रहा था—राजा
सामने खड़ा था।
एक चावल का
दाना!
बात
आई—गई हो गई।
राजा ने झोली
बंद की, बैठा
रथ पर और चला
गया। धूल उड़ती
रह गई। तब उसे
होश आया कि
अरे, मैं
तो मांगना ही
भूल गया; यह
तो उलटा ही हो
गया! बड़ा दुखी!
दिन भर में
खूब भीख मिली,
क्योंकि जो
देता है वह
खूब पाता भी
है। हालांकि
उसने बहुत कुछ
न दिया था, मगर
फिर भी दिया
तो था ही।
भिखमंगे के
लिए उतना ही
बहुत था। उस
दिन खूब भीख
मिली; लेकिन
भी वह उदास था।
एक दाना तो कम
था। लाख मिल
जाए, इससे
क्या फर्क
पड़ता है, एक
दाना तो कम ही
रहेगा! और यह
भी कैसा
दुर्भाग्य का
क्षण कि राजा
के साथ
मुलाकात हुई
तो मलने की
जगह उलटा देना
पड़ा। बड़ी पीड़ा
थी। बड़े बोझ
से भरा था।
झोला बहुत भर
गया था उसका, लेकिन वह
खुशी न थी। वह
घर लौटा।
पत्नी दौड़ी।
ऐसा झोला कभी
भर कर न आया था।
पत्नी बड़ी खुश
हो गई। और
उसने कहा : 'धन्यभाग,
आज बहुत कुछ
मिला है।’ उसने
कहा : 'छोड़
पागल, तुझे
पता नहीं आज
क्या गंवाया
है! यह कुछ भी
नहीं है। एक
तो अपने पास
का एक दाना
गया और इतना
ही नहीं, जो
मिलना था वह
तो मिल ही न
पाया। राजा के
साथ मिलन हो
गया और कुछ
माग न पाया।
आज जैसा
दुर्भाग्य का
क्षण मेरे
जीवन में कभी
था ही नहीं।’
बड़ी
उदासी से उसने
झोली उलटाई और
तब वह छाती पीट
कर रोने लगा, क्योंकि
उस झोली में
उसने देखा कि
एक चावल का दाना
सोने का हो
गया था। तब वह
छाती पीट कर
रोने लगा कि
मैंने सब
क्यों न दे
दिया, तो
सब सोने का हो
जाता।
देने
से सोने का
होता है।
मांगने से तो
सोना भी
मिट्टी हो
जाता है। देने
से मिट्टी भी
सोना हो जाती
है। इसलिए तो
शास्त्र दान
की इतनी महिमा
गाते हैं। अगर
प्यास है तो
देने की
तैयारी करो; और
छोटी—मोटी
चीजें देने से
न चलेगा, स्वयं
को देना पड़ेगा।
क्योंकि छोटी—मोटी
चीजें तो मौत
तुमसे छीन
लेगी, उनको
देकर तुम कोई
परमात्मा पर
आभार नहीं कर
रहे हो। जो
मौत तुमसे न
छीन सकेगी वही
देने की
तैयारी हो तो
परमात्मा अभी
मिल जाए, इसी
क्षण मिल जाए।
वह द्वार पर
खड़ा है, दस्तक
भी दे रहा है; लेकिन तुम
डरते हो कि
कहीं कोई
भिखमंगा न खड़ा
हो! तुम अपने
बेटे को भेज
देते हो कि कह
दो कि पिता जी
बाहर गए हैं।
तुम
कहते हो कि
प्यास है। मैं
मान नहीं सकता।
क्योंकि
जिसको भी कभी
प्यास पैदा
हुई,
परमात्मा
प्यास के पीछे—पीछे
चला आया है।
ओ
गीले नयनों
वाली ऐसे आंज
नयन
जो
नजर मिलाए
तेरी मूरत बन
जाए
ओ
प्यासे अधरों
वाली इतनी
प्यास जगा
बिन
जल बरसाए यह
घनश्याम न जा
पाए
रेशम
के झूले डाल
रही है झूल
धरा
आ—आ
कर द्वार
बुहार रही है
पुरवाई
लेकिन
तू धरे कपोल
हथेली पर बैठी
है
याद कर रही
जाने किसकी
निठुराई!
जब
भरी नदी, तू
रीत रही
जी
उठी धरा, तू
बीत रही
ओ
सोलह सावन
वाली ऐसे सेज
सजा
घर
लौट न पाए जो
घूंघट से
टकराए
ओ
प्यासे अधरों
वाली इतनी
प्यास जगा
बिन
जल बरसाए यह
घनश्याम न जा
पाए
बादल
खुद आता नहीं
समुंदर से चल
कर
सुनो—
बादल
खुद आता नहीं
समुंदर से चल
कर
प्यास
ही धरा की उसे
बुला कर लाती
है
जुगनू
में चमक नहीं
होती केवल तम
को
छूकर, उसकी
चेतना ज्वाला
बन जाती है
सब
खेल यहां पर
है धुन का
जग
ताना—बाना है
गुण का
ओ
सौ गुण वाली
ऐसी धुन की गांठ
लगा
सब
बिखरा जल सागर
बन—बन कर
लहराए
ओ
प्यासे अधरों
वाली इतनी
प्यास जगा
बिन
जल बरसाए यह
घनश्याम न जा
पाए
घनश्याम
तो घिरे हैं, बादल
तो उमड़—घुमड़
रहे हैं, मेघ
तो सदा से
मौजूद रहे हैं—तुमने
पुकारा नहीं।
तुम वस्तुत:
प्यासे नहीं।
तुम्हारी धरा
अभीप्सा से
डांवाडोल
नहीं।
तुम्हारे
हृदय में ऐसी
पुकार नहीं
उठी है कि उस
पर सब
न्योछावर हो।
इसीलिए चूक हो
रही है।
मार्ग
की पूछते हो? पथ
की पूछते हो? ये सब गणित
के हिसाब हैं।
बुद्ध
से किसी ने
पूछा है कि आप
कहते हैं, बुद्धपुरुष
केवल मार्ग
दिखाते हैं; तो फिर
बुद्धपुरुषों
के सान्निध्य
और सत्संग का
वस्तुत: लाभ
क्या है? तो
बुद्ध ने कहा. 'लाभ है कि
प्यास लग जाए;
लाभ है कि
उनके पास धुन
जग जाए।’
बुद्ध
को देख कर अगर
तुम्हारे
भीतर प्यास जग
जाए,
तुम्हारे
भीतर एक
अभीप्सा का
आरोहण हो कि
यही मैं भी हो
सकता हूं दाव
पर लगाना है।
कंजूसी से न
चलेगा, आधे—आधे
न चलेगा—दांव
पर पूरा ही
लगाना होगा।
परमात्मा के
साथ होशियारी
न चलेगी।
मैंने
सुना है, इनकमटैक्स
दफ्तर में एक
आदमी का पत्र
आया। एक
अमरीकन अखबार
में मैं कल ही
पढ़ रहा था। उस
आदमी ने लिखा
है कि क्षमा
करें, बीस
साल पहले
मैंने कुछ
धोखाधड़ी की थी
इनकमटैक्स
देने में और
तब से मैं ठीक
से सो नहीं
पाया। तो ये
पचास डॉलर भेज
रहा हूं। अब
क्षमा करो और
मुझे सोने दो।
अगर नींद न आई
तो शेष पचास
डॉलर भी भेज
दूंगा।
ऐसे
आधे—आधे न
चलेगा। किसको
धोखा दे रहे
हो?
अब
इनकमटैक्स
दफ्तर को तो
पता भी नहीं
है, बीस
साल हो गए।
बात भी आई—गई
हो गई; पता
तो तुम्हीं को
है, लेकिन
फिर भी पचास
डॉलर भेज रहे
हो! और अगर नींद
न आई तो बाकी
पचास भी भेज
देंगे।
तुम्हें तो
पता ही है।
देखो, धोखा
और सबको दे
देना, परमात्मा
को मत देना।
क्योंकि
परमात्मा को
दिया गया धोखा
फिर तुम्हें
सोने न देगा, जागने भी न
देगा; उठने
न देगा, बैठने
न देगा। यह
परमात्मा को
दिया गया धोखा
तो अपने ही
भविष्य को
दिया गया धोखा
है। यह तो
अपने ही
अंतरतम को
दिया गया धोखा
है। और हम सब
यह धोखा देते
हैं। फिर हम
पूछते हैं, राह नहीं
मिलती। और राह
आंख के सामने
है। तुम जहां
खड़े हो वहीं
राह है। सच तो
यह है कि
राहें बहुत
हैं, तुम
अकेले हो
चलनेवाले।
इतनी राहें
हैं। प्रेम से
चलो, ध्यान
से चलो, भक्ति
से चलो, ज्ञान
से चलो, योग
से चलो—कितनी
राहें हैं!
इतनी तो राहें
हैं! इतने तो उपाय
हैं! मगर तुम
चलते नहीं; तुम बैठे हो
चौरस्ते पर, जहां से सब
राहें जाती
हैं।
पुराने
शास्त्र कहते
हैं : आदमी
चौरस्ता है।
जैन
शास्त्रों
में बड़ा
महत्वपूर्ण
एक सिद्धात है
आदमी के
चौरस्ता होने
का। कहते हैं
कि देवता को
भी अगर मोक्ष
जाना हो तो फिर
आदमी होना
पड़ता है, क्योंकि
आदमी चौरस्ते
पर है।
देवताओं ने तो
एक रास्ता
पकड़ लिया, स्वर्ग
पहुंच गए।
स्वर्ग तो
टर्मिनस है—विक्टोरिया
टर्मिनस।
वहां तो गाड़ी
खतम। वहा से
आगे जाने का
कोई उपाय नहीं
है, वहां
तो रेल की पटरी
ही खतम हो
जाती है। अब
अगर कहीं और
जाना हो, मोक्ष
जाना हो, तो
लौटना पड़ेगा
आदमी पर। आदमी
जंक्शन है। तो
अदभुत बात
कहते हैं जैन
शास्त्र कि
देवताओं को भी
अगर मोक्ष
जाना हो...।
किसी न किसी
दिन जाना ही
होगा।
क्योंकि जैसे
आदमी दुख से
ऊब जाता है, वैसे ही सुख
से भी ऊब जाता
है।
पुनरुक्ति
उबा देती है।
जैसे आदमी दुख
से ऊब जाता है—
ध्यान रखना—सुख
ही सुख मिले, उससे भी ऊब
जाता है। सच
तो यह कि दुख—सुख
दोनों मिलते
रहें तो इतनी
जल्दी नहीं
ऊबता, थोड़ा
कंधे बदलता
रहता है—कभी
सुख, कभी
दुख— फिर
स्वाद आ जाता
है। दुख आ गया,
फिर सुख की आकांक्षा
आ जाती है।
फिर सुख आया, फिर थोड़ा
स्वाद लिया, फिर दुख आ
गया, ऐसी
यात्रा चलती
रहती है।
लेकिन स्वर्ग
में तो सुख ही
सुख है।
स्वर्ग में तो
सभी को सुख के
कारण
डायबिटीज हो
जाता होगा—शक्कर
ही शक्कर, शक्कर
ही शक्कर! तुम
जरा सोचो कैसी
मितली और उलटी
नहीं आने लगती
होगी! सुख ही
सुख, शक्कर
ही शक्कर! लौट
कर आना पड़ता
है एक दिन।
आदमी
चौराहा है। सब
रास्ते तुमसे
जाते हैं—नर्क, स्वर्ग,
मोक्ष, संसार!
सब रास्ते
तुमसे जाते
हैं। और तुम
बैठे चौरस्ते
पर पूछते हो
कि रास्ता कहां
है? न जाना
हो न जाओ, कम
से कम ऐसे
उलटे—सीधे
सवाल तो न
पूछो। न जाना
हो तो कोई
तुम्हें भेज
भी नहीं सकता।
न जाना हो तो
कम से कम
ईमानदारी तो
बरतो यह कहो
कि हमें जाना
नहीं है इसलिए
नहीं जाते; जब जाना
होगा जाएंगे।
लेकिन
आदमी बेईमान
है। आदमी यह
भी मानने को
तैयार नहीं है
कि मैं ईश्वर
की तरफ अभी
जाना नहीं
चाहता। आदमी
बड़ा बेईमान
है! हाथ
फैलाता संसार
में है और
कहता है, जाना
तो ईश्वर की
तरफ चाहते हैं,
लेकिन करें
क्या, रास्ता
नहीं मिलता!
तो
पतंजलि ने
क्या दिया है? तो
अष्टावक्र ने
क्या दिया है?
तो बुद्ध—महावीर
ने क्या दिया?
रास्ते दिए
हैं। सदियों
से तीर्थंकर
और
बुद्धपुरुष
रास्ते दे रहे
हैं; तुम
कहते हो, रास्ता
क्या है! इतने
रास्तों में
से तुमको नहीं
मिलता; एकाध
रास्ता मैं और
बता दूंगा, तुम सोचते
हो, इससे
कुछ फर्क
पड़ेगा? यही
तुम बुद्ध से
पूछते रहे, यही तुम
महावीर से
पूछते रहे, यही तुम
मुझसे पूछ रहे
हो, यही
तुम सदा पूछते
रहोगे। समय के
अंत तक तुम
यही पूछते
रहोगे, रास्ता
नहीं है।
लेकिन
बेईमानी कहीं
गहरी है : तुम जाना
नहीं चाहते।
पहले वहीं साफ—सुथरा
कर लो। पहले
प्यास को बहुत
स्पष्ट कर लो।
मेरे
अपने अनुभव
में ऐसा है : जो
आदमी जाना चाहता
है,
उसे पूरा
संसार भी
रोकना चाहे तो
नहीं रोक सकता।
तुम खोजना
चाहो, खोज
लोगे। और जब
तुम्हारी प्यास
बलवती होती है,
लपट की तरह
जलती है तो
सारा
अस्तित्व
तुम्हें साथ
देता है। अभी
तुम खोजते तो
धन हो और
बातें
परमात्मा की करते
हो; खोजते
तो पद हो, बातें
परमात्मा की
करते हो, खोजते
कुछ हो, बातें
कुछ और करते
हो। बातों के
जरिए तुम एक धुआं
पैदा करते हो
अपने आस—पास, जिससे
दूसरों को भी
धोखा पैदा
होता है, खुद
को भी धोखा
पैदा होता है।
दूसरों को हो,
इसकी मुझे
चिंता नहीं; लेकिन खुद
को धोखा पैदा
हो जाता है।
तुमको खुद
लगने लगता है
कि तुम बड़े
धार्मिक आदमी
हो, कि
देखो कितनी
चिंता करते हो,
सोच—विचार
करते हो!
मैंने
सुना है कि
लंका में एक
बौद्ध भिक्षु
हुआ। उसके बड़े
भक्त थे, हजारों
भक्त थे। जब
वह मरने को
हुआ, आखिरी
दिन उसने खबर
भेज दी अपने
सारे भक्तों को
कि तुम आ जाओ, अब मैं जाने
को हूं। काफी
उम्र, नब्बे
वर्ष का हो
गया था। कोई
बीस हजार उसके
भक्त इकट्ठे
हुए। और उसने
खड़े होकर पूछा
कि देखो, अब
मैं जाने को
हूं अब दुबारा
मेरा—तुम्हारा
मिलना न होगा,
इसलिए अगर
कोई मेरे साथ
निर्वाण में
जाना चाहता हो
तो खड़ा हो जाए।
लोग एक—दूसरे
की तरफ देखने
लगे। जो जिसको
निर्वाण में
भेजना चाहता
था उसकी तरफ
देखने लगा।
लोग इशारा
करने लगे कि
चले जाओ। जो
जिसको हटाना
चाहता था, उससे
कहने लगा : ' अब
क्या बैठे देख
रहे हो! भई
हमें तो अभी
दूसरी झंझटें
हैं, अभी
और काम हैं; मगर तुम
क्या कर रहे
हो! तुम चले
जाओ!'
कोई
उठा नहीं।
सिर्फ एक आदमी
ने हाथ उठाया।
वह भी उठा
नहीं, हाथ
उठाया। तो उस
बौद्ध भिक्षु
ने पूछा कि
मैंने कहा, उठ कर खड़े हो
जाएं, हाथ
उठाने को नहीं
कहा।
उसने
कहा : 'इसी डर से तो
मैं सिर्फ हाथ
उठा रहा हूं।
मैं सिर्फ यह
पूछना चाहता
हूं कि रास्ता
क्या है
स्वर्ग जाने
का, मोक्ष
जाने का या
निर्वाण जाने
का? रास्ता
बता दें आप।
क्योंकि अभी
इसी वक्त जाने
की मेरी
तैयारी नहीं
है। मगर
रास्ता पूछ
लेता हूं
क्योंकि
दुबारा आप मिलें
न मिलें।
रास्ता काम
आएगा; जब
जाना चाहूंगा,
रास्ते का
उपयोग कर
लूंगा।’
उस
बौद्ध भिक्षु
ने कहा कि
रास्ता तो मैं
आज कोई पचास
साल से बता
रहा हूं कोई
चलता नहीं।
इसलिए मैंने
सोचा कि अब
जाते वक्त अगर
कोई जाने को
राजी हो तो
लेता जाऊं। अब
भी कोई राजी
नहीं है।
तुम
कहते हो :
परमात्मा से
मिलना है, प्यास
है!
नहीं, अपनी
प्यास को फिर
जांचना।
प्यास नहीं है,
अन्यथा तुम
मिल गए होते। परमात्मा
और तुम्हारे
बीच प्यास की
कमी ही तो बाधा
है। जलती
प्यास ही जोड़
देती है।
ज्वलंत प्यास ही
पथ बन जाती
है।
चौथा
प्रश्न :
मैं
देख रहा हूं
कि जब स्वामी
आनंद तीर्थ
अंग्रेजी में
सूत्र—पाठ
करते हैं तब
आप उसे बड़े
गौर से सुनते
हैं और जब मां
कृष्ण चेतना
महागीता के
सूत्र पढ़ती
हैं, तब आप आंखें
बंद कर लेते
हैं! ऐसा फर्क
क्यों? उसका
राज क्या है? ऐसा तो नहीं
है कि मां
चेतना के
अशुद्ध पाठ और
उच्चारण के कारण
उन्हें नहीं
सुनते? कृपापूर्वक
इसके संबंध
में हमें
समझाएं।
अंग्रेजी
मैं ज्यादा
जानता नहीं; सो
गौर से सुनता
हूं कि कहीं
चूक न जाए, और
संस्कृत मैं
बिलकुल नहीं
जानता; सो आंख
बंद करके
सुनने का मजा
ले सकता हूं
चूकने को कुछ
है नहीं।
'चेतना' के
पाठ में कोई
भूल—चूक नहीं,
क्योंकि
मैं भूल—चूक
निकाल ही नहीं
सकता; जानता
ही नहीं हूं।
फिर, संस्कृत
कुछ ऐसी भाषा
है कि आंख बंद
करके ही सुननी
चाहिए। वह
अंतर्मुखी
भाषा है।
अंग्रेजी
बहिर्मुखी
भाषा है; वह
आंख खोल कर ही
सुननी चाहिए।
अंग्रेजी
पश्चिम से आती
है। पश्चिम है
बहिर्मुखी।
पश्चिम ने जो
भी पाया है वह आंख
खोल कर पाया
है।
संस्कृत
पूरब के गहन
प्राणों से
आती है। पूरब
ने जो भी पाया
है,
आंख बंद
करके पाया है।
पश्चिम का
उपाय है : आंख
खोल कर देखो।
पूरब का उपाय
है अगर देखना
है, आंख
बंद करके देखो।
क्योंकि
पश्चिम देखता
है पर को; पूरब
देखता है स्व
को। दूसरे को
देखना हो, आंख
खुली चाहिए; स्वयं को
देखना हो, खुली
आंख बाधा है।
स्वयं को
देखना हो, आंख
बंद चाहिए।
संस्कृत
तो स्वयं को
देखने वालों
की भाषा है।
फिर
अंग्रेजी, मौलिक
रूप से अर्थ—निर्भर
है। संस्कृत
मौलिक रूप से
ध्वनि— निर्भर
है। अंग्रेजी
में कोई संगीत
नहीं।
संस्कृत में
संगीत ही
संगीत है।
पुरानी
भाषाएं काव्य
की भाषाएं हैं।
संस्कृत, अरबी
काव्य की
भाषाएं हैं।
अगर कुरान को
पढ़़ना हो तो
गाकर ही पढ़ा
जा सकता है।
कुरान काव्य
है। संस्कृत
काव्य है। उसे
सुनना हो तो आंख
बंद करके, मौन
में, संगीत
की—भांति
सुनना चाहिए।
अर्थ—निर्भर
नहीं है, ध्वनि—निर्भर
है। अंग्रेजी
अर्थ—निर्भर
है।
अंग्रेजी
विज्ञान की
भाषा है।
संस्कृत धर्म
की भाषा है।
अंग्रेजी में
चेष्टा है
प्रत्येक शब्द
का साफ—साफ, स्पष्ट—स्पष्ट
अर्थ हो।
अंग्रेजी बड़ी
गणितिक है।
संस्कृत में
एक—एक शब्द के
अनेक अर्थ हैं।
बड़ी तरलता है।
बड़ा बहाव है!
बड़ी सुविधा
है।
अगर
गीता
अंग्रेजी में
लिखी गई होती
तो एक हजार
टीकाएं नहीं
हो सकती थीं।
कैसे करते!
शब्दों के
अर्थ तय हैं, सुनिश्चित
हैं। गीता संस्कृत
में है; एक
हजार क्या,
एक लाख टीकाएं
हो सकती हैं।
क्योंकि शब्द
तरल हैं। उनके
अनेक अर्थ हैं।
एक— एक शब्द के
दस—दस बारह—बारह
अर्थ हैं। जो
मर्जी हो।
अंग्रेजी
जैसी भाषाएं
सुनने वाले, पढ़ने
वाले को बहुत
मौका नहीं
देतीं।
तुम्हारे लिए
कुछ छोड़ती
नहीं। जो है
वह साफ बाहर
है। संस्कृत—अरबी
जैसी भाषाएं
पूरा नहीं
कहतीं; बस
शुरुआत मात्र
है, फिर
बाकी सब तुम
पर छोड़ देती
हैं। बड़ी
स्वतंत्रता
है। फिर तुम
सोचो। पूरा
तुम करो।
प्रारंभ है
संस्कृत में,
पूरा
तुम्हें करना
होगा।
सूत्रपात है।
इसीलिए तो
इनको हम 'सूत्र'
कहते हैं।
इन संस्कृत के
वचनों को हम 'सूत्र' कहते
हैं। सिर्फ
धागा। सब साफ
नहीं है, जरा
सा इशारा है।
फिर इशारे का
साथ पकड़ कर
तुम चल पड़़ना।
फिर पूरा अर्थ
तुम अपने भीतर
खोजना। अर्थ
बाहर से तैयार
चबाया हुआ
उपलब्ध नहीं
है। तुम्हें
पचाना होगा, तुम्हें
अर्थ अपने
भीतर जन्माना
होगा।
पश्चिम
की भाषाएं
गणित और
विज्ञान के
साथ—साथ
विकसित हुई
हैं। इसलिए
पाश्चात्य
विचारक बड़े
हैरान होते
हैं कि
संस्कृत के एक—एक
वचन के कितने
ही अर्थ हो
सकते हैं, यह
कोई भाषा है!
भाषा का मतलब
होना चाहिए :
अर्थ सुनिश्चित
हो। नहीं तो
गणित और
विज्ञान विकसित
ही नहीं हो
सकते। अगर
गणित और
विज्ञान में
भी भाषा
अनिश्चित हो
तो बहुत
कठिनाई हो
जाएगी। सब साफ
होना चाहिए।
हर शब्द की
परिभाषा होनी
चाहिए।
संस्कृत में
कुछ भी
परिभाष्य
नहीं है!
अपरिभाष्य है।
एक तरंग दूसरी
तरंग में लीन
हो जाती है।
एक तरंग दूसरी
तरंग को पैदा
कर जाती है।
इसलिए
अंग्रेजी को
तो मैं आंख
खोल कर सुनता
हूं वह
अंग्रेजी का
समादर है।
संस्कृत को आंख
बंद करके
सुनता हूं वह
संस्कृत का
समादर है। और
उच्चारण और
पाठ इन सब में
मेरा बहुत रस
नहीं है, क्योंकि
मैं कोई
भाषाशास्त्री
नहीं हूं। और
व्याकरण और
पाठ और उच्चारण
सब गौण बातें
हैं। मुझे रस
है संस्कृत के
संगीत में। वह
जो ध्वनियों
का आघात है
चेतना पर; वह
जो ध्वनियों
से पैदा होता
हुआ
मंत्रोच्चार
है; उच्चारण
नहीं, उच्चार;
व्याकरण
नहीं, शब्दों
में छिपा हुआ
जो संगीत है—उसे
पकड़ने की
चेष्टा करता
हूं।
मैं
भाषाशास्त्री
नहीं हूं यह
सदा याद रखना।
इसलिए
कभी—कभी मैं
शब्दों के ऐसे
अर्थ करता हूं
जो कि भाषाशास्त्री
राजी नहीं
होगा। न हो
राजी, वह उसका
दुर्भाग्य!
मुझे कुछ भाषा
से लेना—देना
नहीं है। फिर
यह जो मैं कह
रहा हूं यहां
सूत्रों के
ऊपर, यह
कोई व्याख्या,
टिप्पणी—टीका
नहीं है। जो
मुझे कहना है
वह मैं जानता
हूं। जो मुझे
कहना है, वह
मुझे हो गया
है। जो मुझे
कहना है, उसका
मैं स्वयं
गवाह हूं। जब
मैं एक
संस्कृत का
सूत्र सुनता
हूं तो कुछ ऐसा
नहीं है कि इस
सूत्र पर
व्याख्या
करने जा रहा
हूं। नहीं, जो मुझे हुआ
है, वह और
इस सूत्र का
संगीत दोनों
को मिल जाने
देता हूं—फिर
उससे जो पैदा
हो जाए। इसको
टीका कहनी ठीक
नहीं है, इसको
व्याख्या
कहनी भी ठीक
नहीं है। यह
तो मेरे भीतर
हुई अनुगूंज
है।
जैसे
कि तुम पहाड़ी
में गए और
तुमने जोर की
आवाज की और
घाटियों में
गंज हुई—तुम
क्या कहोगे, घाटियों
ने व्याख्या
की? घाटियों
क्या
व्याख्या
करेंगी? घाटियों
ने क्या किया?
तुमने एक
आवाज की थी, घाटियों ने
अपने प्राणों
में उस आवाज
को ले लिया और
वापस बरसा
दिया।
घाटियों ने
अपनी सुगंध
उसमें मिला दी,
घाटियों ने
अपनी शांति
उसमें डाल दी,
घाटियों ने
अपनी नीरवता
उसमें
प्रवष्टि कर
दी। घाटियों
ने अपना
इतिहास उसमें
जोड़ दिया।
घाटियों ने
अपनी आत्मकथा
उसमें
सम्मिलित कर दी,
बस।
इन
सूत्रों के
माध्यम से मैं
अपनी आत्मकथा
इनमें उंडेल
देता हूं। जब
मैं बोलता हूं
तो जो मैं
बोलता हूं वह
मेरे संबंध
में ही है। ये
सूत्र तो
बहाना हैं, खूंटियां
हैं, जिन
पर मैं अपने
को टांग देता
हूं। लेकिन
तुमने पूछा, ठीक।
चेतना
बड़े प्रेम से
गुनगुनाती है।
उसका प्रेम
देखो! पाठ
इत्यादि
व्यर्थ की
बातें हैं।
व्याकरण
वगैरह की कोई
भूल करती हो
तो जो मूढ़ ही
यहां होंगे, उनको
खटकेगी।
मूढ़ो को
व्यर्थ की
बातें खटकती
हैं। तुम उसका
प्रेम देखो, उसका भाव
देखो, उसका
समर्पण देखो!
गदगद होकर
गाती है, हृदय
से गाती है, अपने हृदय
को उंडेल देती
है।
पांचवां
प्रश्न :
शास्त्रों
में संसार को
विषवत कहा है।
और आप कहते
हैं, संसार
से भागो मत!
इससे मन में
बड़ी उलझन पैदा
होती है।
शास्त्रों
ने संसार को
क्या कहा है, शास्त्र
पढ़ कर तुम न
जान सकोगे।
संसार में
जाकर ही जान
सकोगे कि
शास्त्र सच कहते
कि झूठ कहते।
कसौटी कहा है?
परीक्षा
कहां होगी?
शास्त्र
संसार को
विषवत कहते
हैं,
ठीक।
शास्त्र कहते
हैं, इतना
तो जान लिया।
ठीक कहते हैं
कि गलत कहते
हैं, यह
कैसे जानोगे?
शास्त्र
में लिखा है, इससे ही ठीक
थोड़े ही हो
जाएगा। सिर्फ
लिखे मात्र
होने से कोई
चीज ठीक थोड़े
ही हो जाती है।
लिखे शब्द के
दीवाने मत बनो।
कुछ पागल ऐसे
हैं कि लिखे
शब्द के
दीवाने हैं; जो चीज लिखी
है, वह ठीक
होनी चाहिए।
एक
सज्जन एक बार
मेरे पास आए।
उन्होंने कहा, जो
आपने कहा, वह
शास्त्र में
नहीं लिखा है,
ठीक कैसे हो
सकता है? तो
मैंने कहा :
मैं लिख कर दे
देता हूं। और क्या
करोगे? लिखे
पर भरोसा है, तो छपवाओ।
छपवा कर दे
दूं कहो।
हस्तलिखित पर
भरोसा हो तो
हस्तलिखित
लिख कर दे दूं।
और क्या चाहते
हो? शास्त्र
कैसे बनता है?
किसी के
लिखने से बनता
है। किसी ने
तीन हजार साल
पहले लिख दिया,
इसलिए ठीक
हो गया और मैं
आज लिख रहा
हूं इसलिए गलत
हो जाएगा? तीन
हजार साल के
फासले से कुछ
गलत—सही होने
का संबंध है? फिर तो तीन
हजार साल पहले
चार्वाकों ने
भी शास्त्र
लिखा है, फिर
तो वह भी ठीक
हो जाएगा। तीन
हजार साल पहले
से थोड़े ही
कोई चीज ठीक
होती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन, चुनाव
आया तो बड़ा
नाराज हुआ।
उसकी पत्नी का
नाम वोटर—लिस्ट
में नहीं था।
लिया पत्नी को
साथ और पहुंचा
आफिसर के पास—चुनाव
आफिसर के पास।
और उसने कहा
कि देखें, मेरी
पत्नी जिंदा
है और वोटर—लिस्ट
में लिखा है
कि मर गई।
झगड़ने को
तैयार .था।
पत्नी भी बहुत
नाराज थी।
आफिसर ने वोटर—लिस्ट
देखी और कहा, भई लिखा तो
है कि मर गई।
तो पत्नी बोली
कि जब लिखा है
तो ठीक ही
लिखा होगा।
अरे
लिखनेवाले
गलत थोड़े ही
लिखेंगे! घर
चलो। जब लिखा
है तो ठीक ही
लिखा होगा!
कुछ
लोग लिखे पर
बिलकुल
दीवाने की तरह
भरोसा करते
हैं। शास्त्र
में लिखा है, इससे
क्या होता है?
इससे इतना
ही पता चलता
है कि जिसने
शास्त्र लिखा
होगा, उसने
जीवन का कुछ
अनुभव किया था,
अपना अनुभव
लिखा है। तुम
भी जीवन के
अनुभव से ही
जांच पाओगे कि
सही लिखा है
कि गलत लिखा
है। कसौटी तो
सदा जीवन है।
वहीं जाना
पड़ेगा। आखिरी
परीक्षा तो
वहीं होगी।
इसीलिए
मैं तुमसे
कहता हूं :
भागो मत!
शास्त्र की
सुन कर मत भाग
जाना, नहीं तो
तुम्हारा
शास्त्र कभी
पैदा न होगा।
अपना शास्त्र
जन्माओ। अपने
अनुभव को पैदा
करो। क्योंकि
तुम्हारा
शास्त्र ही
तुम्हारी
मुक्ति बन
सकता है। किसी
ने तीन हजार
साल पहले लिखा
था, उसकी
मुक्ति हो गई
होगी। इससे
तुम्हारी
थोड़े ही हो
जाएगी। उधार
थोड़े ही होता
है ज्ञान।
इतना सस्ता
थोड़े ही होता
है ज्ञान।
जलना पड़ता है,
कसना पड़ता
है। हजार
ठोकरें खानी
पड़ती हैं। तब
कहीं जीवन के
गहन अनुभव से
पककर, निखर
कर प्रतीतिया
जगती हैं।
तो
जाओ जीवन में, भागो
मत! शास्त्र
कहता है, खयाल
में रखो। मगर
शास्त्र को
मान ही मत
लेना; नहीं
तो जीवन में
जाने का कोई
प्रयोजन न रह
जाएगा। जरा सी
कोई कठिनाई
आएगी, तुम
कहोगे : देखो
शास्त्र में
लिखा है कि
जीवन विषवत।
इतनी
जल्दबाजी मत
करना। जीवन
में गहरे जाओ।
जीवन के सब
रंग परखो।
जीवन बड़ा
सतरंगा है।
उसकी सब
आवाजें सुनो।
सब कोणों से
जांचो—परखो, सब तरफ से पहचानो।
जब तुम जीवन
को पूरा देख
लो, तब तुम
भी जानोगे कि
हा, जीवन
विषवत है और
उस जानने में
ही तुम्हारा
रूपांतरण हो
जाएगा। अभी
तुमने
शास्त्र से
पकड़ लिया, इससे
क्या हुआ? तुमने
जान लिया जीवन
विषवत है, लेकिन
इससे हुआ क्या?
सुन लिया, पढ़ लिया, याद
कर लिया, दोहराने
लगे। हुआ क्या?
क्या छूटा?
क्या बदला?
क्रोध वहीं
का वहीं है।
काम वहीं का
वहीं है। लोभ
वहीं का वहीं
है। धन पर पकड़
वहीं की वहीं
है। सब वहीं
के वहीं हैं।
और जीवन विषवत
हो गया। और
तुम वैसे के
वैसे खड़े हों—बिना
जरा से
रूपांतरण के।
नहीं, इतनी
जल्दी मत करो।
और फिर मैं
तुमसे यह भी
कहता हूं कि
यह बात सच है
कि जीवन विषवत
है। एक और बात
भी है जो तुमसे
मैं कहता हूं
वह भी
शास्त्रों
में लिखी है
कि जीवन अमृत
है। वेद कहते
हैं : 'अमृतस्य
पुत्र:। तुम
अमृत के पुत्र
हो!' जीवन
अमृत है।
शास्त्रों
में यह भी
लिखा है कि
जीवन प्रभु है,
परमात्मा
है।
तो
जरूर जीवन और
जीवन में थोड़ा
भेद है। एक
जीवन है जो
तुमने अंधे की
तरह देखा, वह
विषवत है; और
एक जीवन है जो
तुम आंख खोल
कर देखोगे, वह अमृत है।
एक जीवन है जो
तुमने माया, मोह, मद, मत्सर के
पर्दे से देखा।
और एक जीवन है
जो तुम ध्यान
और समाधि से
देखोगे। जीवन
तो वही है। एक
जीवन है जो
तुमने एक
विकृति का
चश्मा लगा कर
देखा। जीवन तो
वही है। चश्मा
उतार कर
देखोगे तो
अमृत को पाओगे।
इसी जीवन में
परमात्मा को
छुपे भी तो
लोगों ने देखा।
यहां पत्ते—पत्ते
में वही है, ऐसा कहने वाले
वचन भी तो
शास्त्र में
हैं। यहां कण—कण
में वही है।
यहां सब तरफ
वही है। पत्थर—पहाड़
उससे भरे हैं,
कोई स्थान उससे
खाली नहीं है।
वही पास है, वही दूर है।
यह भी तो
शास्त्र में
लिखा है।
अब
मजा है कि तुम
शास्त्र में
से भी वही चुन
लेते हो, जो
तुम चुनना
चाहते हो।
तुम्हारी
बेईमानी हइ की
है। तुम
शास्त्रों से
भी वही कहलवा
लेते हो जो तुम
कहना चाहते हो।
अभी तुमने
पूरा जीवन कहां
देखा! अभी
कंकड़—पत्थर
बीने हैं।
जैसे कोई आदमी
कुआ खोदता है
तो पहले कंकड़—पत्थर
हाथ लगते हैं,
कूड़ा—कबाड़
हाथ लगता है, कचरा हाथ
लगता है; फिर
खोदता चला जाए
तो धीरे— धीरे
अच्छी मिट्टी
हाथ लगती है, फिर खोदता
चला जाए तो
गीली मिट्टी
हाथ लगती है; फिर खोदता
चला जाए तो जल
के स्रोत आ
जाते हैं, गंदा
जल हाथ लगता
है; फिर
खोदता चला जाए
तो स्वच्छ जल
हाथ आ जाता है।
ऐसा ही जीवन
है। खोदो!
तुमने
कहा : 'जीवन विषवत
है।’ अभी
तुमने ऊपर—ऊपर
खोदा है। यह
कूड़ा— कर्कट
जो लोग फेंक
जाते हैं
सड्कों पर, वही इकट्ठा
है जमीन पर।
उसी को खोद लिया,
कहने लगे : 'जीवन विषवत
है।’ आ गए
घर!
जरा
गहरे जाओ।
तुमने
कहानी तो पढ़ी
है न पुराणों
में सागर—मंथन
की! पहले विष
निकला, फिर
अमृत निकला।
तुम पढ़ते भी
हो, लेकिन
अंधे हो। जहां
से विष निकला,
वहीं से
अमृत निकला।
पहले विष
निकला, फिर
अमृत निकला।
अंतत: अमृत का
घट निकला।
खोजे
जाओ। जीवन तो
सागर—मंथन है।
विष से ही थक
कर मत बैठजाना।
नहीं तो जीवन
की तुमने
अधूरी तस्वीर
ले ली, झूठी
तस्वीर ले ली।
और अगर तुमको
जीवन में विष
ही मिला, तो
फिर परमात्मा
को कहां
खोजोगे? जीवन
के अतिरिक्त
और तो कोई
स्थान नहीं है।
कहां जाओगे? फिर तुम्हारा
परमात्मा
झूठा होगा।
नहीं, खोदो!
गहरे खोदो!
खोदते जाओ। जब
तक अमृत का घट
न निकल आए तब
तक खोदते जाना'।
सच
कहते हैं
शास्त्र. जीवन
में विष है।
और सच कहते
हैं शास्त्र :
जीवन में अमृत
है। लेकिन
तुम्हारे
जीवन के अनुभव
से दोनों का
तुम्हें
साक्षी बनना
है।
अभी
तुम जो जीवन
जानते हो वहां
विष ही विष है।
लेकिन उसका
कारण जीवन
नहीं, उसका
कारण
तुम्हारी गलत
जीवन—दशा है; तुम्हारी
गलत चैतन्य की
दशा है।
नभ
की बिंदिया
चंदावाली
भूखी
अंगिया
फूलोंवाली
सावन
की ऋतु
झूलोंवाली
फागुन
की ऋतु
भूलोंवाली
कजरारी
पलकें शरमीली
निदियारी
अलकें उरझीली
गीतोंवाली
गोरी ऊषा
सुधियोंवाली
संध्या काली
हर
चूनर तेरी
चूनर है
हर
चादर तेरी
चादर है
मैं
कोई घूंघट
क्कुं
तुझे
ही बेपरदा कर
आता हूं
हर
दर्पण तेरा
दर्पण है।
पानी
का स्वर
रिमझिम—रिमझिम
माटी
का रुख रुनझुन—रुनझुन
बातून
जनम की कुनुन—मुनुन
खामोश
मरण की गुपुन—चुपुन
नटखट
बचपन की
चलाचली
लाचार
बुढ़ापे की
थमथम
दुख
का तीखा—तीखा
क्रंदन
सुख
का मीठा—मीठा
गुंजन
हर
वाणी तेरी
वाणी है
हर
वीणा तेरी
वीणा है
मैं
कोई छेडूं
तान
तुझे
ही बस आवाज
लगाता हूं
हर
दर्पण तेरा
दर्पण है!
खोजो, थोड़ा
गहरा खोजो।
तुम अपनी
पत्नी में ही
विष पाओगे और
अपनी पत्नी
में ही
परमात्मा भी,
अमृत भी।
तुम अपने ही
भीतर विष भी
पाओगे और अपने
ही भीतर अमृत
भी। विष ऊपरी
पर्त है। शायद
सुरक्षा है।
शायद सुरक्षा
के लिए है।
अमृत भीतर
छिपा है; अमृत
को सुरक्षा
चाहिए। विष
सुरक्षा करता
है।
जैसे
देखा न, गुलाब
की झाड़ी पर एक
फूल और कितने
कांटे! कांटे
रक्षा करते
हैं। कांटे और
फूल एक ही
स्रोत से आते
हैं। कीटों से
ही उलझ कर
रोकर मत लौट
आना; अन्यथा
गुलाबों से
अपरिचित रह गए
तो बहुत पछताओगे।
कांटे हैं
जरूर, निश्चित;
मगर जहां
कांटे हैं, वहीं छिपे
गुलाब के फूल
भी हैं। और
कांटे केवल
रक्षक हैं।
विष
है जीवन में
बहुत, पर
रक्षक है। और
जिस दिन तुम
ऐसा देखोगे
उसी दिन तुम
आस्तिक हुए।
जिस दिन विष
भी रक्षक
मालूम हुआ और
कांटे भी फूल
के मित्र, संगी—साथी
मालूम हुए उसी
दिन तुम
आस्तिक हुए।
उस दिन तुमने
परमात्मा को 'हा' कहा।
आखिरी
प्रश्न :
जब
कभी परिवार के
लोग मेरे
सामने मेरी
शादी का
प्रस्ताव
रखते हैं तो
अनायास मेरे
मुंह से निकलता
है कि मेरी
शादी तो भगवान
रजनीश से हो
चुकी है; वे
ही मेरे गुरु
और सब कुछ हैं।
इस पर परिवार
के लोग मुझ पर
हंसते हैं और
कहते हैं : 'क्या
तुम पागल हो
जो ऐसी बातें
बोलते हो? 'इसे
समझाने की
अनुकंपा करें!
इसमें
समझाने का
क्या है? पागल
तो तुम हो ही।
लेकिन पागल
होना शुभ है, सौभाग्य है।
सभी पागलपन
बुरे नहीं
होते और सभी
समझदारिया अच्छी
नहीं होतीं।
कुछ
समझदारिया तो
सिर्फ अभागे
लोगों को ही
मिलती हैं और
कुछ पागलपन
केवल
सौभाग्यशीलों
को ही...।
अगर
तुम मेरे
प्रेम में
पागल हो तो
समझना क्या है? तुम्हारे
घर के लोग भी
ठीक कहते हैं।
और तुम बिलकुल
ठीक हो।
तुम्हारे घर
के लोग ठीक
कहते हैं, इसका
यह अर्थ नहीं
है कि तुम गलत
हो। तुम्हारे
घर के लोग ठीक
कहते हैं; मगर
तुम भी बिलकुल
ठीक हो। यह
मामला ही
पागलपन का है।
सत्य
को खोजरो
समझदार थोड़े
ही जाते हैं—समझदार
दुकान चलाते
हैं,
धन कमाते
हैं, दिल्ली
जाते हैं।
समझदार ऐसी
उलझनों में
नहीं पड़ते हैं।
यह तो पागलों
के लिए ही यह है।
मीरा
ने कहा है? सब
लोक—लाज खोई।
घर के लोग
मीरा के भी, चिंतित हो
गए। जहर
इसीलिए तो
भेजा कि यह मर
ही जाए।
क्योंकि घर की
बदनामी होने
लगी।
राजघराने की
महिला
रास्तों पर
नाचने लगी। यह
बात घर के
लोगों को न
जंची। घर के
लोगों को कष्ट
मालूम होने
लगा। यह तो
कुल की सारी
प्रतिष्ठा
गंवा देगी।
राह— राह
नाचने लगी।
साधु—सधुक्कड़ों
के साथ बैठने
लगी। भीड़— भाड़
में खड़ी हो गई।
पर्दा उठु गया।
कभी नाचते हुए
वस्त्र सरक
जाते होंगे।
संस्कार, संस्कृति,
सभ्यता, सब
गंवाने लगी।
घर के लोगों
ने जहर भेजा
होगा, निश्चित
भेजा होगा—सिर्फ
इसीलिए कि यह
उपद्रव मिटे।
उनके अहंकार
को चोट लगने
लगी होगी।
मेरे
पास तुम हो, लोक—लाज
तो गंवानी ही
होगी। जिसने
पूछा है, संन्यासी
हैं : स्वामी
रामकृष्ण
भारती। तो
संन्यासी का
तो अर्थ ही
यही होता है
कि रंग गए अब
तुम पागलपन
में 1। ये
गैरिक वस्त्र
पागलपन के
वस्त्र हैं—सदा
से, सनातन
से। ये मस्तों
के वस्त्र हैं।
ये धुनियों के
वस्त्र हैं—जिन्होंने
संसार से पीठ
फेर ली और
जिन्होंने कहा,
हम प्रभु की
यात्रा पर
जाते हैं और
सब दांव पर लगाने
के लिए तत्पर
हैं। अब ऐसी
कोई बात नहीं
है जो
परमात्मा
मांगेगा और हम
इनकार करेंगे।
यह पागलपन तो
है ही। यह कोई
दुकानदारी
थोड़े ही है।
यह तो जुआ है।
यह तो
जुआरियों का
काम है।
इसमें
समझाने की
फिकर मत करो।
घर के लोग ठीक
ही कहते हैं।
हंसना और
नाचना और गाना।
घर के लोग गलत
नहीं कहते।
उनके देखने के
अपने मापदंड
हैं—शादी करो, नौकरी
करो, बच्चे
पैदा करो; जो
उन्होंने
किया वह तुम
भी करो। और
तुम भी अपने
बच्चों को यही
समझाना कि यही
समझदारी है और
यह पहिया
चलाते रहना।
तुम बच्चे
पैदा करना, बच्चों के
लिए जीना।
बच्चों को
कहना : तुम
बच्चे पैदा
करो, उनके
लिए जीयो। और
ऐसा ही चलता
रहे। न उनमें
से कोई जीया
है—तुम्हारे
मां—बाप में
से; न
तुम्हारे मा—बाप
के मा—बाप में
से कोई जीया
है। सब स्थगित
कर दिए हैं
जीवन को।
तो
जब भी कोई इस
भीड़ में से
जीने के लिए
तत्पर होता है, भीड़
को लगता है : यह
पागल हुआ। अरे,
कहीं कोई
जीता है, कहीं
कोई ध्यान
करता है! ये
बातें
शास्त्रों में
लिखी हैं, ठीक
हैं। शास्त्र
पढ़ लो! बहुत हो,
पूजा के दो
फूल चढ़ा दो!
अगर ऐसा कोई
मिल जाए और
बहुत भाव हो
जाए तो झुक कर
पैर छू लेना
और अपने घर आ
जाना और भूल
जाना। ये
बातें पढ़ने की
नहीं हैं।
तुमने
देखा, तुम्हारे
पड़ोसी के बेटे
को अगर
संन्यास का पागलपन
चढ़ जाए तो तुम भी
उसके पैर छूने
चले जाते हो; लेकिन
तुम्हारा
बेटा अगर
संन्यासी हो
जाए तो बड़े
नाराज होते हो।
बचपन
में मेरे घर
संन्यासियों
का आवागमन होता
रहता था। मेरे
पिता को उनमें
रस था। एक
संन्यासी आए
थे। वह मेरी
पहली याद है
संन्यासियों
के बाबत। मेरे
पिता उनके पैर
छूने गए, तो
मैंने उनसे
पूछा कि अगर
मैं संन्यास
ले लूं तो आप
आनंदित होंगे?
उन्होंने
कहा : 'क्या
पागलपन की बात
है!' तो
मैंने कहा : 'इस पागल के
पैर छूने आप
गए! अगर
संन्यासी
होना पागलपन
है तो पागल के
पैर छूना...।
इसमें कौन सा
तर्क है?' वे
थोड़े चौंके।
वे थोड़ा सोचने
लगे। वे सीधे—
सरल आदमी हैं।
उन्होंने
दूसरे दिन
मुझसे कहा कि
जरूर इसमें अड़चन
है, इसमें
असंगति है।
मैंने इस पर
कभी सोचा नहीं
इस भांति। तुम
अगर संन्यास
लोगे तो मैं
बाधा डालूंगा।
यह भी तो किसी
का बेटा होगा
और मैं पैर
छूने गया! अगर
मेसई निष्ठा
सच है तो
तुम्हारे संन्यास
लेने से मुझे
प्रसन्न होना
चाहिए। तो यह
पैर छूना
औपचारिक है; इसमें सचाई
नहीं।
दूसरा
संन्यासी हो
जाए तो तुम
प्रसन्न हो।
तुम्हारे घर
कोई संन्यासी
हो जाए तो
अड़चन आती है।
मीरा से
तुम्हें क्या
अड़चन! तुम
थोड़े जहर का प्याला
भेजते हो; वह
तो राणा ने
भेजा! तुम तो
कहते हो : 'मीरा,
अरे महाभगत!
पहुंची हुई!' राणा से
पूछो—पागल!
कुल—मर्यादा
गंवा दी!
तुम्हारे
घर के लोग भी
ठीक कहते हैं।
वे भी
संन्यासी के
पैर छूने जाते
होंगे और कभी—कभी
मीरा की भजन—लहरी
सुन कर आनंदित
होते होंगे और
कहते होंगे :
कैसा
भावपूर्ण भजन
है! लेकिन तुम
ऐसा भावपूर्ण
भजन गाओगे तो
वे पागल कहेंगे।
वही मीरा के
घर के लोगों
ने भी कहा था।
सोए हुए लोग
हैं। न
उन्होंने
अपना जीवन
जीया है, न
उन्हें पता है
कि कोई और भी
जीवन जी सकता
है। जैसा वे
रहे हैं, उसी
को वे मानते
हैं, रहना
समझदारी है।
उनसे अन्यथा
तुम रहोगे, अड़चन होगी।
उस अड़चन को ही
जाहिर करने के
लिए वे कहते
हैं : तुम पागल
हो।
अब
उनकी बात सुन
कर तुम घबड़ाना
मत और तुम कोई
व्याख्याएं
भी मत खोजो।
तुम यह भी मत
पूछो कि इसको
कैसे समझाएं!
यह समझाने का
काम नहीं। यह
समझ के थोड़े
बाहर जाने की
ही बात है। यह
समझ से थोड़े
ऊपर है बात।
तुम उनसे कह
दो कि मैं
पागल हूं। तुम
इसे स्वीकार
कर लो।
छिन—छिन
ऐसा लगे कि
कोई
बिना
रंग के खेले
होली
यूं
मदूमाए प्राण
कि जैसे
नई
बहू की चंदन
डोली
जेठ
लगे सावन मन
भावन
और
दुपहरी सांझ
बसंती
ऐसा
मौसम फिरा, धूल
का
ढेला
एक रतन लगता
है।
तुम्हें
देख क्या लिया
कि कोई
सूरत
दिखती नहीं
पराई
तुमने
क्या छू दिया
बन गई
महाकाव्य
गीली चौपाई
कौन
करे अब मठ में
पूजा
कौन
फिराए हाथ
सुमिरनी
जीना
हमें भजन लगता
है
मरना
हमें हवन लगता
है।
तुम्हें
चूमने का
गुनाह कर
ऐसा
पुण्य कर गई
माटी
जनम—जनम
के लिए हरी
हो
गई प्राण की
बंजर घाटी
पाप—पुण्य
की बात न
छेड़ो
स्वर्ग—नरक
की करो न
चर्चा
याद
किसी की मन
में हो तो
मगहर
वृंदावन लगता
है।
तुम्हारे
जीवन में एक
स्पर्श हुआ है, तुमने
हिम्मत की है।
एक किरण
तुम्हें छू गई
है। तुम्हारे
जीवन में
वृंदावन उतर
रहा है। तुम
पागल होने के
लिए तैयार रहो
और तुम स्वीकार
कर लो कि मैं
पागल हूं। इस
स्वीकृति से
तुम्हें भी
लाभ होगा; तुम्हारे
परिवार के
लोगों को भी
लाभ होगा।
तुम
समझाने को
कोशिश मत करना
कि मैं सूझदार
हूं। समझदार
तुम हो ही
नहीं। समझदार
होते तो
संन्यासी
बनते? समझदार
दुकानें
चलाते, धन
कमाते,
दिल्ली जाते,
पदों पर
होते, राजनीति
करते। समझदार
संन्यासी
बनते? यह
तो थोड़े से
पागलों का काम
है।
लेकिन
तुम
सौभाग्यशाली
हो। समझदार
अभागे हैं; क्योंकि
एक दिन पाते
हैं दुकान तो
खूब चली, लेकिन
खुद चुक गए; एक दिन पाते
हैं पद तो मिला,
खुद खो गए; एक दिन पाते
हैं धन तो जुड़
गया, लेकिन
परम धन नहीं
जुड़ पाया। एक
दिन मौत आती
है, दिल्ली
छिन जाती है; मरघट ही हाथ
लगता है। खाली
हाथ आते, खाली
हाथ जाते—क्या
उनको समझदार
कहो! लेकिन
संख्या उनकी
ज्यादा है। और
निश्चित, संख्या
जिनकी ज्यादा
है वे अपने को
समझदार
कहेंगे; उनके
पास संख्या का
बल है।
बुद्ध
भी नासमझ समझे
गए। इसलिए तो
अब भी हम
बुद्ध के नाम
पर एक गाली
चलाते हैं :
बुद्ध! बुद्ध
को लोगों ने
बुद्ध समझा।
यह बुद्ध शब्द
बुद्ध से बना।
लोगों ने कहा : 'यह
भी क्या बात
हुई! राजमहल
छोड़ा, धन—द्वार,
साम्राज्य,
सुंदर
पत्नी, सब
छोड़ा। यह आदमी
कैसा है!' फिर
इस तरह और लोग
भी जाने लगे
तो लोग कहने
लगे : 'ये
बुद्ध हुए जा
रहे हैं! ये भी
बुद्ध हुए अब!'
ऐसे
तुम्हें याद
भी भूल गई कि 'बुद्ध शब्द
बुद्ध से बना।
लेकिन
सदा से ऐसा
हुआ है। जो
सत्य की खोज
में गया है, इस
भीड़ में निश्चित
ही उसे पागल
समझा गया है।
यह स्वाभाविक
है। तुम भीड़
से सन्मान
पाने की आशा
मत करो। तुमने
अगर यह चाहा
कि भीड़
तुम्हें
समझदार कहे तो
एक बात खयाल
में रख लो.
मेरे
संन्यासी मत
बनो, फिर
तुम और तरह के
संन्यासी बनो!
जैन संन्यासी
बन जाओ, हिंदू
संन्यासी बन
जाओ! तो भीड़
तुम्हें कम
पागल कहेगी; आदर भी देगी।
क्योंकि जैन
संन्यासी ने
संन्यास तो
कभी का छोड़
दिया है; वह
तो भीड़ की
पूजा लेने में
ही तल्लीन है।
उसने भीतर के
अंतर्जगत को
तो कभी का छोड़
दिया है; वह
तो बाहर की
औपचारिकता ही
पूरी कर रहा, है।
एक
महिला मेरे
पास आई—जैन है।
उसने कहा. 'मेरे
पति को आप
छुटकारा दें।
आपने संन्यास
दे दिया! अगर
संन्यास ही
लेना है तो वे
जैन धर्म का
संन्यास लें।
यह कोई
संन्यास है—
आपका संन्यास!
यह तो झंझट हो
गई। संन्यासी
होकर और घर
में रह रहे
हैं, यह
कैसे हो सकता
है! वह रो रही
थी और मुझसे
कहने लगी कि
आप उनका
संन्यास से
छुटकारा करवा
लें, इतनी
मुझ पर कृपा
करें! मैंने
कहा कि तुझे
तो खुश होना
चाहिए; अगर
जैन संन्यासी
होते तो घर से
चले जाते। वह
कहती है. 'उसके
लिए मैं राजी
हूं। वे घर से
चले जाएं उसके
लिए मैं राजी
हूं। मैं
सम्हाल लूंगी
बच्चों को।
उसकी चिंता
नहीं है।’
पति
खो जाए, इसकी
चिंता नहीं है।
घर पर मुसीबत
आएगी, उसकी
चिंता नहीं।
लेकिन लोक—सम्मत
होगा। समाज को
स्वीकृत होगा।
लोग आकर समादर
तो करेंगे कि
धन्यभाग, तेरे
पति मुनि हो
गए! तूने किन
जन्मों में
कैसे पुण्य
किए थे!
रोएगी
भीतर, परेशान
होगी; क्योंकि
बच्चों को
पढ़ाना है, पैसे
का इंतजाम
करना है, वह
सब परेशानी
होगी। लेकिन
झेलने योग्य
है परेशानी; अहंकार तो
तृप्त होगा।
अब वह मुझसे
कहती है : यह
आपका संन्यास
तो झंझट है।
और लोग आकर
मुझसे कहने
लगे कि तेरे
पति का दिमाग
खराब हो गया, पागल हो गया!
अरे बचा! अभी
मौका है, अभी
खींच ले हाथ, नहीं तो
गड़बड़ हो जाएगा।
पति
छोड़ने को वह
राजी है; लेकिन
पति पागल समझे
जाएं, इसके
लिए राजी नहीं
है। जैन मुनि
के होने का तो
मतलब होगा कि
पति मर गए; वह
विधवा हो गई।
उसके लिए राजी
है!
तुम
जरा सोचो, आदमी
का मन कैसे
अहंकार से
चलता है। मेरे
संन्यासी का
तो अर्थ
स्वाभाविक
रूप से पागल
है। यह तो एक
मस्ती है, एक
धुन है। और
मैं तुम्हें
कहता भी नहीं
कि तुम समझदार
होने की या
समझदार ज़िद्ध
करने की
चेष्टा करना।
तुम इसे
स्वीकार कर
लेना। तुम
आनंद— भाव से
स्वीकार कर
लेना। तुम
स्वयं ही
घोषणा कर देना।
अच्छा यही है
कि तुम स्वयं
ही घोषणा कर
दो कि मैं
पागल हूं।
तुम्हें देख
क्या लिया कि
कोई
सूरत
दिखती नहीं
पराई
तुमने
क्या छू दिया, बन
गई
महाकाव्य
गीली चौपाई
कौन
करे अब मठ में
पूजा
कौन
फिराए हाथ
सुमिरनी
जीना
हमें भजन लगता
है
मरना
हमें हवन लगता
है!
आज इतना ही।
akelepan pe osho ke vichar bahut sunder hey dil ko chujane wale is pravarchan per bhagwan ka dhanyawad
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