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गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--056

शिष्य होना बड़ी बात है—(प्रवचन—छप्‍पनवां) 

अध्याय 27 : खंड 2

प्रकाशोपलब्धि

इसलिए सज्जन दुर्जन का गुरु है;

और दुर्जन सज्जन के लिए सबक है।

जो न अपने गुरु को मूल्य देता है,

और न जिसे अपना सबक पसंद है,

वह वही है जो दूर भटक गया है,

यद्यपि वह विद्वान हो सकता है।

यही सूक्ष्म व गुह्य रहस्य है।

जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उपयोगी न हो--वह चाहे अच्छा हो या बुरा। अच्छा और बुरा हमारी परिभाषाओं के कारण है। लेकिन अस्तित्व में उसकी अपनी अपरिहार्य जगह है। इसलिए जो जानते हैं, वे बुरे का भी उपयोग कर लेते हैं।
और जो नहीं जानते, उनके लिए भला भी बाधा बन जाता है। उपयोग समझ पर निर्भर है, वस्तुओं पर नहीं। नासमझ को मोक्ष में भी रख दिया जाए तो वह नरक का रास्ता खोज लेगा। समझदार को नरक भी मोक्ष का ही रास्ता बनने वाला है।
किसी ने पश्चिम के एक बहुत विचारशील आदमी एडमंड बर्क को एक बार पूछा कि तुम स्वर्ग जाना पसंद करोगे या नरक?
तो बर्क ने कहा, मैं जानना चाहूंगा, सुकरात कहां हैं? बुद्ध कहां हैं? जीसस कहां हैं? अगर वे नरक में हैं तो मैं नरक ही जाना पसंद करूंगा। अगर वे स्वर्ग में नहीं हैं तो स्वर्ग मेरे लिए नहीं है।
जिसने पूछा था, वह हैरान हुआ। उसने कहा, हम तो सोचते थे तुम बेशर्त स्वर्ग जाना चाहोगे। सभी बेशर्त स्वर्ग जाना चाहते हैं। लेकिन सुकरात, जीसस या बुद्ध नरक में हों तो तुम नरक भी जाना चाहते हो, कारण क्या है?
बर्क ने कहा, जीसस, बुद्ध और सुकरात जहां भी होंगे, वहां स्वर्ग अब तक बन चुका होगा। और जीसस और बुद्ध और सुकरात जहां नहीं होंगे, वह स्वर्ग कभी का उजड़ चुका होगा। वहां जाने का अब कोई अर्थ नहीं है।
व्यक्ति पर निर्भर करता है, स्थितियों पर नहीं। लोग अक्सर रोते हैं कि जीवन दुख है। और इसका उन्हें पता ही नहीं कि वे ही उस दुखपूर्ण जीवन के कारण हैं। परिस्थितियों में नहीं है स्वर्ग और नरक, व्यक्तियों के भीतर छिपा है। परिस्थितियां केवल पर्दे बन जाती हैं; उन पर्दों पर, जो भीतर छिपा है, उसकी तस्वीरें चलने लगती हैं। लेकिन जो भी हम देखते हैं परिस्थिति में, वह हमारा ही प्रक्षेपण है। हम ही परिस्थितियों में फैल कर दिखाई पड़ते हैं। परिस्थितियां दर्पण से ज्यादा नहीं हैं। फिर हम परिस्थितियों को दोष दिए जाते हैं। और परिस्थितियों को दोष देने से कभी कोई आदमी बदलता नहीं। बल्कि परिस्थितियों को दोष देने के कारण बदलने की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती।
लाओत्से कहता है कि संतजन कुछ भी अस्वीकार नहीं करते। जीवन उन्हें जो भी देता है, वे उसे बदलने की कीमिया जानते हैं। अस्वीकार तो वे करते हैं, जो उसे बदलने की कीमिया नहीं जानते। जिनको हमने बुरा कहा है, अशुभ कहा है, पाप कहा है, संत उन्हें भी अस्वीकार नहीं करते। क्योंकि उनके पास वह पारस है, जो उन्हें पुण्य बना देगा। उसके स्पर्श मात्र से, वह जो जहर है, वह अमृत हो जाएगा।
हमें इसका खयाल ही नहीं है, फिर भी हम अमृत की तलाश करते हैं। हमें इसका खयाल ही नहीं है कि हमारे हाथ में अमृत हो तो जहर के अतिरिक्त और कुछ हमें मिलने वाला नहीं है। हमारे हाथ में वह कला है कि जहर अमृत हो जाए। या हमारे हाथ में वह कला है कि अमृत जहर हो जाए। हमें अपने हाथों का कुछ भी पता नहीं है।
इन हाथों का पता चल जाना ही धर्म की सारभूत रहस्यमय प्रक्रिया है। इस आधे सूत्र को हम समझें।
लाओत्से कहता है, "इसलिए सज्जन दुर्जन का गुरु है।'
इसमें हमें बहुत अड़चन न होगी। इसमें हमें बहुत कठिनाई न होगी कि जो शुभ है, वह उसका गुरु हो जो अशुभ है। जो ज्ञानी है, वह उसका गुरु हो जो अज्ञानी है। जो भटक गया है रास्ते से, वह उसे गुरु माने जो रास्ते पर है। जो प्रकाश है, वह अंधेरे में भटके लोगों के लिए गुरु हो, यह हमारी समझ में आ सकता है।
दूसरा हिस्सा: "और दुर्जन सज्जन के लिए सबक है। देयरफोर दि गुड मैन इज़ दि टीचर ऑफ दि बैड, एंड दि बैड मैन इज़ दि लेसन ऑफ दि गुड।'
लेकिन यह अधूरी है बात कि अच्छा आदमी बुरे का गुरु है। पूरी बात तो तभी होगी जब अच्छा आदमी यह भी समझ ले कि बुरा उसके लिए सबक है। इसका मतलब यह हुआ कि बुरा भी किसी गहरे अर्थ में अच्छे का गुरु हो गया। लाओत्से जीवन के समस्त द्वंद्वों के बीच अद्वैत को खोजता है। तो यह कहना उचित न होगा--केवल यह कहना उचित न होगा--कि बुरे लोगों ने बुद्ध को अपना गुरु माना। यह भी स्मरण रखना जरूरी है कि बुरे लोग अगर न होते तो बुद्ध अच्छे नहीं हो सकते थे। उन बुरे लोगों की मौजूदगी बुद्ध के लिए सबक बनी। उन बुरे लोगों का दुख, उन बुरे लोगों का नरक बुद्ध के लिए आनंद की तलाश बनी। अब यह बड़े मजे की बात है कि बुद्ध तो भले होकर बुरे लोगों के गुरु बने; लेकिन बुद्ध जब बुद्ध नहीं थे, तब भी बुरे लोग उनके गुरु थे। बुरे लोगों से सीखा जाता है। और ध्यान रखें, जो बुरे आदमियों से नहीं सीख सकेगा, वह खुद आदमी बुरा हो जाएगा।
लेकिन बुरे आदमियों से सीखने के दो ढंग हैं। एक तो बुरे आदमी का अनुकरण करना। तब हमने अमृत को जहर बना लिया। और एक--बुरे आदमी को अनुभव करना, और बुरे की पीड़ा, उसका दुख, उसका संताप अनुभव करना। और यह सबक बन जाए और बुरे होने की संभावना लीन हो जाए। तो हमने जहर को अमृत बना लिया।
लेकिन हम भी बुरे आदमियों से सीखते हैं। सच तो यह है कि हम बुरे आदमियों से ही सीखते हैं। अच्छे आदमियों से हम कभी नहीं सीखते। हम बुरे का ही अनुकरण करते हैं, अच्छे का अनुकरण हम कभी नहीं करते। लेकिन बुरे से हम जो सीखते हैं, वह उसकी बुराई है; वह उसका नरक नहीं, वह उसका पाप है। वह उस पाप के गर्त में पड़ी हुई जो पीड़ा है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ती।
मेरे पास रोज लोग आते हैं। वे कहते हैं, फलां आदमी बेईमान है और इतना बड़ा मकान उसने खड़ा कर लिया! वह मकान उन्हें दिखाई पड़ता है। उस आदमी की बेईमानी का कोई नरक भी होगा, वह उन्हें दिखाई नहीं पड़ता। यह आदमी ज्यादा दिन तक बेईमानी से नहीं बच सकता है, जो आदमी कह रहा है कि फलां आदमी बेईमान है, और देखते हैं, उसने कितना बड़ा मकान बना लिया! यह आदमी ज्यादा दिन बेईमानी से नहीं बच सकता। इसने बेईमान आदमी से सीखना शुरू कर दिया।
लोग कहते हैं, फलां आदमी पापी है और फिर भी प्रतिष्ठित है।
इस आदमी ने पाप कर लिया, यह कह कर ही पाप कर लिया। क्योंकि पाप में जो प्रतिष्ठा देखता है, वह ज्यादा दिन तक पाप से नहीं बच सकता।
लेकिन पाप में कोई नरक भी आपने देखा है कभी? कभी आपने देखा है कि पापी आदमी भला प्रतिष्ठित हो, लेकिन उसके हृदय में एक नासूर भी होता है? वह आपको दिखाई नहीं पड़ता। बेईमान कितना ही सफल हो जाए, उसके भीतर सिवाय असफलता के कुछ भी नहीं होता। और बेईमान कितने ही बड़े महल बना ले, उनके भीतर शांति से रहने की कोई संभावना उसे मिलती नहीं। लेकिन वह आपको नहीं दिखाई पड़ता है। आपको सदा दिखाई पड़ता है कि बुरा आदमी फायदा उठा रहा है। यह किस बात की खबर है?
आप भी सीखेंगे। आप सीखेंगे यह कि बुराई सफल होती है। आप सीखेंगे यह कि भलाई असफल होती है। आप सीखेंगे यह कि पाप की प्रतिष्ठा है, पुण्य की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। आप यह सीखेंगे कि बुरे को स्वर्ग मिलता है और भला नरक में पड़ा रहता है। निश्चित ही इस शिक्षा का परिणाम होगा। आपका जीवन एक अनुकरण बनेगा।
लाओत्से भी कहता है, लेकिन वह कहता है बुरा आदमी अच्छे आदमी के लिए सबक है, पाठ है।
लेकिन वह पाठ तभी हो सकता है, जब हम बुरे आदमी के अंतस को समझना शुरू करें। एक बात तय है, जो आदमी बुराई करता है, बुरा करता है, वह भी मूल्य चुका रहा है। दुख का मूल्य चुका रहा है, ग्लानि का मूल्य चुका रहा है, आत्मदंश, पीड़ा का मूल्य चुका रहा है। उसे भी कुछ मिलना चाहिए। अगर वह एक बड़ा मकान बना ले, तो यह कोई सस्ता सौदा नहीं है। यह सौदा महंगा है। उसने जो खोया है, अगर हमें दिखाई पड़ जाए, तो जो उसने पाया है, वह बहुत महंगा सौदा मालूम पड़ेगा। लेकिन जो उसने खोया है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। जो उसने पाया है, वह हमें दिखाई पड़ता है।
ठीक इससे ही जुड़ी हुई भूल हम दूसरी भी करते हैं। महावीर ने त्याग किया; बुद्ध ने घर छोड़ा। वहां भी हम देखते हैं, उन्होंने क्या छोड़ा। वहां भी हमको नहीं दिखाई पड़ता, उन्होंने क्या पाया। तो जैन अपने शास्त्रों में लिखते हैं कि महावीर के घर इतने रथ थे, इतने हाथी थे, इतने घोड़े थे--एक-एक हिसाब उन्होंने रखा हुआ है--इतने हीरे, इतने माणिक, इतने मोती, इतनी अरबों-अरबों की राशि थी, वह सब छोड़ दी। इसको गिनने में भी उनको मजा आ जाता होगा। इतना सब था!
कहीं मन के कोने में जरूर कोई उनसे कहता होगा कि यह महावीर भी नासमझ रहा। थोड़ी देर सोचें कि आप महावीर की जगह हो जाते, तो यह भूल आप करने वाले नहीं थे, जो महावीर ने की। लेकिन महावीर ने क्या पाया, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। इसीलिए तो हम कहते हैं, महावीर महात्यागी हैं। अन्यथा हम कहते कि महावीर से परम भोगी जगत में दूसरे नहीं हुए। हमें वही दिखाई पड़ता है जो उन्होंने छोड़ा, इसलिए त्याग। जो उन्होंने पाया, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। नहीं तो हम कहते, परम भोग। और तब हम कहते, यह सौदा सस्ता हुआ। और महावीर होशियार हैं, चालाक हैं; हम नासमझ हैं। क्योंकि महावीर ने जो खोया, वह कुछ भी नहीं है। और जो पाया, उसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। इतने सस्ते में पाया! संसार खोकर अगर मोक्ष मिलता हो तो यह मुफ्त का सौदा है। और अगर वस्तुएं खोकर आत्मा मिलती हो तो यह भी कोई त्याग है!
लेकिन हम कहते हैं, महात्यागी। उसका कारण यह नहीं कि महावीर महात्यागी हैं। उसका कारण कि हमें दिखाई पड़ता है वह जो उन्होंने छोड़ा। और वह दिखाई नहीं पड़ता जो उन्होंने पाया। यह बड़े मजे की बात है।
लेकिन जब कोई बेईमान आदमी मकान बना लेता है, तो हमें दिखाई पड़ता है जो उसने पाया। और हमें दिखाई नहीं पड़ता वह जो उसने खोया। ये एक ही तर्क के दो हिस्से हैं। यह होगा ही। जिस दिन हमें बेईमान का नरक दिखाई पड़ेगा, उसी दिन हमें महावीर का स्वर्ग दिखाई पड़ सकता है। उसके पहले नहीं दिखाई पड़ सकता।
हम भी सीखते हैं। हम भी सीखते हैं। बेईमान से हम सीखते हैं कि वह सफल हो रहा है। और महावीर से हम सीखते हैं कि कितना कष्ट उठा रहे हैं! कितनी पीड़ा झेल रहे हैं! हम उनके चरणों में जो सिर झुकाते हैं, वह इसलिए नहीं कि उन्होंने कुछ पाया; बल्कि इसलिए कि वे कितना कष्ट उठा रहे हैं! कितना दुख उठा रहे हैं! हम बेईमान को भी नमस्कार करते हैं, महावीर से ज्यादा करते हैं। महावीर को तो कभी-कभी करते हैं। औपचारिक है। बेईमान को रोज करते हैं। वह भी हम बेईमान को नमस्कार इसीलिए कर रहे हैं कि हमें दिखाई पड़ रहा है उसने क्या पाया। वह सब राशि हमें दिखाई पड़ रही है। यह हमारा सीखने का ढंग है।
लाओत्से इस सीखने के लिए नहीं कह रहा है। वह कह रहा है कि जो गलत है, जो बुरा है, वह सज्जन के लिए सबक है। लेकिन यह सबक कठिन है। यह तो तभी हो सकता है, जब हम जीवन के अंतस-नियम के पर्तों में उतर जाएं। उस नियम को हम समझें तो शायद यह उतरना भी आसान हो जाए।
एक बात इस जगत में इस भांति तय है कि अब तक उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सका और कभी कोई परिवर्तन नहीं हो सकेगा। अगर हम पूरब की पूरी मनीषा की जो आत्यंतिक खोज है, उसको एक शब्द में रखना चाहें, तो वह खोज यह है कि जो बुरा करता है, वह सुख पा नहीं सकता। इसलिए नहीं कि कोई भगवान उसको दंड देता है। इसलिए भी नहीं कि जब उसने बुरा किया है, तो एक न्याय की व्यवस्था है जगत में, जो उसे फल देगी। इसलिए भी नहीं। और इसलिए भी नहीं कि जो आज बुरा कर रहा है, वह कल कभी न कभी फल पाएगा। इसलिए भी नहीं।
ये सब हमारे मन के समझावे हैं। देखते तो हम यह हैं कि बुरा आदमी सफल होता है, धनी होता है, पद पर होता है, यश पा जाता है। तब हमारे मन को बड़ी बेचैनी होती है। दिखाई तो यह पड़ता है, करता बुरा है और पाता अच्छा है। तो फिर हम सोचते हैं--हमारे मन के कंसोलेशन के लिए, सांत्वना के लिए--कि कभी, आज नहीं तो कभी, किसी जन्म में फल भुगतना पड़ेगा।
अगर आपको आज नहीं दिखाई पड़ रहा है कि उसके बुरे का फल उसे मिल गया है, तो आप जो बातें कर रहे हैं, वे झूठी हैं और सांत्वना की हैं, उनका कोई जीवन के सत्य से संबंध नहीं है। अगर आपको ऐसा लगता है कि बुरा आज किया जाएगा और फल जन्मों-जन्मों में भुगता जाएगा, तो आप सिर्फ अपने को समझा रहे हैं।
असल में, आपर् ईष्या से भरे हैं। आप जानते हैं कि इस आदमी को बड़ा मकान मिल गया। मिलना नहीं चाहिए था। और इस आदमी ने इतना धन इकट्ठा कर लिया। और धन इतना इकट्ठा नहीं होना चाहिए था। यह धन तो आपको मिलना चाहिए था। यह मकान तो आपको मिलना चाहिए था। इस आदमी को मिल गया। तो अब इस गणित को कैसे व्यवस्थित करें? या तो आपको सारे धर्म को तिलांजलि देनी पड़े और कहना पड़े कि बुरा सफल होता है; और जिसे सफल होना है, उसे बुरा होना चाहिए। लेकिन तब आपकी पूरी चिंतना की आधारशिला डगमगा जाएगी। चिंतना तो यह कहती रही है, सुना हमने यही है कि बुरा जो करेगा, बुरा पाएगा। तब हम क्या करें?
तब एक ही उपाय है: आज नहीं तो कल। तो हम कहते हैं कि प्रभु के राज्य में देर हो सकती है, अंधेर नहीं।
लेकिन देर भी क्यों होगी? देर से बड़ा अंधेर और क्या हो सकता है? वह हमारे मन को हम समझा रहे हैं कि कोई फिक्र नहीं, आज नहीं कल नरक में सड़ोगे। उससे हमको राहत मिलती है। पलड़ा बराबर हो जाता है। कि आज तुमने मकान बना लिया, कोई फिक्र नहीं; स्वर्ग में हमको मकान मिलेगा। नर्क में तुम सड़ोगे। इसलिए जब भी कोई साधु पापियों के लिए नरक में सड़ने की व्यवस्थाएं देता है, तो समझना कि अभी भीर् ईष्या छूटी नहीं, जेलसी अभी काम कर रही है।
लेकिन यह नियम तो आत्यंतिक है कि बुरा बुरा फल पाता है। पाएगा नहीं, पाता है। करने में ही पा जाता है। इसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें तो हम सबक सीख सकेंगे।
जब आप आग में हाथ डालते हैं तो हाथ जल जाता है; कोई अगले जन्म तक रास्ता नहीं देखना पड़ता। आग तत्काल हाथ जला देती है। और जहर अभी खाते हैं तो इसी जन्म में मरते हैं; अगले जन्म में नहीं मरेंगे। नियम तो तत्काल परिणाम ले आते हैं। जब आप क्रोध करते हैं तो किसी नरक में जलने की जरूरत नहीं है; क्रोध में ही आप जलते हैं। वही नरक है। जब एक आदमी बेईमानी करता है, तो मकान जिस भांति ऊंचा होता जाता है, उसी भांति उसकी आंतरिक आत्मा नीची होती चली जाती है, दीनता उसको पकड़ती चली जाती है। चोरी की सजा कोई अदालत नहीं दे सकती। और चोरी का दंड भी कोई परमात्मा के देने की जरूरत नहीं है। वह तो चोर होने की जो चेतना है, उसमें ही मिल जाता है।
हम एक कदम भी नहीं उठा सकते बिना परिणाम भुगते। और यह परिणाम कोई भविष्य की बात नहीं है। यह कदम के साथ ही जुड़ा हुआ है। यह उसी क्षण घटित हो रहा है। इस जगत में कोई हिसाब रखने वाला नहीं है। और इसलिए ध्यान रखना, चूंकि कोई हिसाब रखने वाला नहीं है, इसलिए रिश्वत काम नहीं पड़ सकती, प्रार्थनाएं काम नहीं पड़ सकतीं। इसलिए भगवान को कितना ही फुसलाओ, समझाओ, बुझाओ, कुछ काम नहीं पड़ सकता। इस जगत में चूंकि कोई भी नियम निलंबित नहीं है, प्रतिपल काम कर रहा है, तो जो हम कर रहे हैं, हम उसी क्षण भोग रहे हैं। करने और भोगने में अंतराल नहीं है। कर्म और भोग साथ-साथ हैं।
जब आप किसी पर दया करते हैं, तो उस दया के क्षण में जो प्राणों में एक सुगंध भीतर मालूम पड़ती है, वह उसका फल है। रास्ता मत देखिए किसी स्वर्ग का। जब आप एक भूखे को रोटी दे देते हैं, या पानी पिला देते हैं, या बीमार के सिर पर हाथ फेर देते हैं, तो बीमार को ही राहत नहीं मिलती। यह बड़े मजे की बात है कि बीमार को राहत अभी मिले और आपको राहत स्वर्ग में मिले। बीमार को भी राहत मिलती है; आपको भी राहत मिलती है। वह राहत आपका पुण्य है। वह इसी वक्त पूरा हो गया।
इसके गहरे अर्थ हैं। इसकी निष्पत्ति है। पहली तो बात यह कि अगर हम कर्म में ही फल को देख सकें तो हम बुरे आदमी से सबक ले सकते हैं। तब चाहे कितना ही बड़ा मकान हो, हम मकान के धोखे में नहीं आएंगे। चाहे कितने ही धन की राशि चारों तरफ इकट्ठी हो, वह झुठला न पाएगी। हम बुरे आदमी के अंतस में झांक लेंगे। क्योंकि फल भविष्य में होने वाला नहीं है। फल अभी हो गया है। इसी क्षण हो गया है।
हिटलर इतने लोगों की हत्या किया। लेकिन हिटलर कितने कष्ट से गुजरा, इसकी कोई बात नहीं होती। हिटलर सो नहीं सकता है। क्योंकि सोते ही उसे दुख-स्वप्न घेर लेते हैं। इतने लोगों की हत्या! वे सब प्रेत-आत्माएं, वे सब नर-कंकाल, उसे घेर लेते हैं। उसके स्वप्न नरक हैं। वह सोने से डरने लगा है। सो नहीं सकता। इतना भयभीत है। क्योंकि जिसने हिंसा की हो, वह भयभीत हो ही जाएगा। एक भी मित्र नहीं है हिटलर का। जो उसके निकटतम हैं, उनको भी वह शत्रु के ही भाव से देखता है। क्योंकि जिसने हिंसा की है, लोगों को धोखा दिया है, परेशान किया है, मारा है, उसे पूरे क्षण डर है। कहीं से भी बदला आ सकता है। वह पूरे समय भयभीत है। हिटलर की आत्मा भय से कंप रही है प्रतिपल। कोई एक मित्र नहीं है जिसका, वह आदमी नरक में होगा ही। नरक में और जाने की जरूरत नहीं है। शादी नहीं की उसने इसी भय से कि पत्नी इतने निकट होगी। और इतने निकट वह किसी को भी बरदाश्त नहीं कर सकता। एक ही कमरे में सोएगी; क्या भरोसा रात उसका गला न दबा दे! जिसने हजारों लोगों के गले दबाए हों, वह यह नहीं मान सकता कि हजारों लोग उसके गले दबाने के लिए तैयारी में नहीं हैं। यह कैसे मान सकता है? एक आदमी की हत्या करें, तो फिर जिंदगी भर उस आदमी की छाया आपका पीछा कर रही है।
हिटलर घिरा है अपनी हत्याओं से। और आखिरी क्षण बिलकुल पागल होकर मरा है। उसके सामने, जहां वह छिपा है, उसके सामने बमबारी हो रही है। जर्मनी परास्त हो गया है। दुश्मन बर्लिन में खड़े हैं। उसकी खिड़कियों में आकर गोलियां लग रही हैं। और जब उसका सेनापति उसे आकर खबर देता है, तो वह आज्ञा देता है अपने पहरेदार को कि सेनापति को गिरफ्तार कर लिया जाए। मालूम होता है, यह दुश्मनों से मिल गया है। हमारी सेनाएं तो जीतती चली जा रही हैं मास्को में। हिटलर आखिरी क्षण तक यही सोच रहा है कि हम जीत रहे हैं, लंदन और मास्को पर कब्जा हुआ जा रहा है। और जो उसे ठीक खबर देता है, उसको दुश्मन मान कर वह गोली मरवा देता है। आखिरी क्षण में भी, जब उसके दरवाजे पर गोलियां लग रही हैं, तब भी वह मानने को तैयार नहीं है। वह बिलकुल विक्षिप्त हो गया है। तब भी वह रेडियो से बोल रहा है कि हमारी फौजें जीत रही हैं और शीघ्र ही सारी दुनिया में जर्मन साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। वह बिलकुल पागल हो गया है।
हिटलर के निजी डाक्टर के वक्तव्य अब प्रकाशित हुए हैं, जिसमें उसने कहा है कि हिटलर पूरे समय पागल था। और पच्चीस तरह की बीमारियों से ग्रसित था। बीमारियां कभी-कभी इतनी ज्यादा हो जाती थीं कि वह बोलने में असमर्थ हो जाता था, बाहर निकलने में असमर्थ हो जाता था। और फिर उसकी एक प्रतिमा थी। तो कमजोर हालत में बाहर नहीं निकल सकता था। तो उसके डाक्टर ने संस्मरणों में लिखा है कि हिटलर ने एक आदमी, डबल, हिटलर की शक्ल का रख छोड़ा था। अक्सर तो वही सलामी लेता था फौजों की। हिटलर तो नहीं जा पाता था; क्योंकि उसकी हालत तो बहुत खराब थी। रात सो नहीं सकता था; दिन बैठ नहीं सकता था। एक क्षण कुर्सी पर एक करवट नहीं बैठ सकता था, इतना सब बेचैन हो गया था भीतर। दिन-रात दवाइयां डाल कर उसे किसी तरह जिंदा रखा जा रहा था। और उसका डबल सलामियां ले रहा था!
यह बड़े मजे की बात है। इन्हीं सलामियों के लिए यह सब कुछ किया गया था--इन्हीं सलामियों के लिए! अखबार में जिसके फोटो छप रहे थे, वे उसके डबल के फोटो थे। रेडियो पर जो बोल रहा था, टेलीविजन पर जो दिखाई दे रहा था, वह उसका डबल था। स्टैलिन भी ठीक अपना डबल रखे हुए था--एक आदमी जो नाटक करने वाला है, जो हिटलर का नाटक कर रहा है। यह बड़ी हैरानी की बात है कि यह सारा आयोजन किसलिए था? यह सारा आयोजन इसलिए था। लेकिन यह सारा आयोजन व्यर्थ हो गया। और यह आदमी नरक में सड़ रहा है। इसका रोआं-रोआं जल रहा है।
नहीं, कोई आगे भविष्य में नर्क नहीं है। हम जो करते हैं, वहीं, उसी क्षण हमें सब कुछ मिल जाता है। भविष्य में नरक रख कर हमने अपने को सांत्वना भी दी है और हमने अपने लिए सुविधा भी बनाई है। उससे हमको ऐसा लगता है कि अभी अगर हम बुरा कर रहे हैं तो अभी तो फल मिलने वाला नहीं है; देखेंगे। फिर हमने ये भी तरकीबें निकाली हैं कि अगर बुरा किया है, तो उसके वजन का कुछ भला कर दो तो कट जाएगा।
जिंदगी में कुछ भी कटता नहीं है। इस दूसरी बात को ठीक से समझ लें। आप सोचते हों कि दो पैसे का बुरा किया तो दो पैसे का भला कर देंगे तो पुराना बुरा किया हुआ कट जाएगा, तो आप गलती में हैं। दो पैसे का बुरा करेंगे तो उतना बुरा आपको भोगना पड़ेगा। दो का भला करेंगे, उतना भला आपको भोगना पड़ेगा। जिंदगी में कटता कुछ भी नहीं है। क्योंकि जिंदगी में दो क्षण का कोई मिलन नहीं होता।
यह थोड़ा कठिन है। अभी मैं बुरा करता हूं तो बुरा मुझे अभी भोग लेना पड़ता है। और कल मैं भला करूंगा तो कल मैं भला भोग लूंगा। लेकिन आज और कल का कहीं मिलन नहीं होता। जो बुरे का क्षण था, वह बीत गया। उसको अब काटा नहीं जा सकता। जो किया है, उसे अनकिया नहीं किया जा सकता।
लेकिन इसने हमको तरकीब दे दी। भविष्य में मिलेगा फल; कर्म अभी, फल दूर; बीच में समय का मौका मिलता है। उस समय में हम एडजस्टमेंट कर सकते हैं। उसमें हम कुछ इंतजाम कर सकते हैं। ऐसा जैसा मैंने आग में हाथ डाला, अगर छह घंटे बाद हाथ जलने वाला हो तो इस बीच में बर्फ पर रख कर ठंडा कर ले सकते हैं। बीच में अगर समय मिल जाए तो जो किया है उसको हम अनकिया कर सकते हैं। इसलिए भी हम कर्म को भविष्य के साथ जोड़ते हैं।
कर्म है प्रतिपल फलदायी। तब बड़ी मुश्किल होगी। तब कोई छुटकारा नहीं है। और तब कोई बचा नहीं सकता। और बचने की कोई विधि भी नहीं बनाई जा सकती। यहीं और अभी, हम जो करते हैं, वह हम भोग लेते हैं। इसलिए हम सब जमीन पर भला रहते हों, हम में से कुछ लोग नरक में रहते हैं, कुछ लोग स्वर्ग में रहते हैं, कुछ लोग यहीं मुक्त भी होते हैं, मोक्ष में रहते हैं।
यह भी गणना ठीक नहीं है। एक ही आदमी सुबह स्वर्ग में होता है; दोपहर नरक में हो जाता है; सांझ मोक्ष में हो सकता है। और ऐसा जरूरी नहीं है कि दोपहर स्वर्ग में था, इसलिए सांझ फिर नरक में नहीं हो जाएगा। एक-एक क्षण हम थर्मामीटर के पारे की तरह स्वर्ग, नरक और मोक्ष में डोलते रहते हैं। जिंदगी गतिमान है, डायनामिक है।
अगर यह हमें खयाल में आ जाए तो फिर हम बुरे आदमी से बहुत कुछ सीख सकते हैं। वह सबक बन सकता है। हिटलर का जीवन पढ़ें, वह सबक बन सकता है।
लेकिन बड़ी दुर्भाग्य की बात है कि हम जिनको सफल कहते हैं, उनके सच्चे जीवन हमें उपलब्ध नहीं होते। दुनिया में जिनको हमने सफल कहा है, बड़े राजनीतिज्ञ हैं, बड़े धनपति हैं, यशस्वी लोग हैं, उनका अगर हमें सच्चा जीवन मिल सके, एक्सरेड--उसमें जरा भी बेईमानी न हो, सीधी एक्सरे की तरह पूरी तस्वीर हो--तो इस दुनिया में बेईमान होना मुश्किल हो जाए, बुरा होना मुश्किल हो जाए। लेकिन जब एक आदमी चढ़ते-चढ़ते सीढ़ियां प्रधानमंत्री हो जाता है, तो उसकी जिंदगी के भीतरी दुख, पीड़ाएं, चिंताएं, सब तिरोहित हो जाती हैं। वह जो स्कूल के बच्चों के सामने मुस्कुराता हुआ तस्वीर उतरवाता है, वही हमारे सामने होती है। उसका भीतरी नरक हमें बिलकुल दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। उसकी सफलता की जो महिमा है--कागजी सही, लेकिन काफी रंगीन--वह हमें घेर लेती है, आच्छादित कर लेती है। और हमारे प्राणों के कोनों में भी कहीं एक वासना उठती है कि हम व्यर्थ ही हो गए, हम भी ये सीढ़ियां चढ़ सकते थे। और चढ़ सकते हैं अभी भी, कुछ तो कोशिश करें।
एच.जी.वेल्स कहा करता था--और ठीक कहा करता था--कि अखबारों में एडवरटाइजमेंट को छोड़ कर, और कोई चीज सच्ची नहीं होती। और हम जानते हैं कि एडवरटाइजमेंट कितना सच्चा होता है। लेकिन वह ठीक कहता है। बाकी सब झूठ होता है। हमारा इतिहास, हमारी किताबें, हमारी गाथाएं, सब झूठ होती हैं। और वे सब हमारे भीतर एक भ्रम पैदा करती हैं। हम बुरे आदमी के पीछे चलने लगते हैं; उससे सबक नहीं ले पाते।
मनुष्य-जाति का बड़ा कल्याण होगा उस दिन, जिस दिन हम बुरे आदमी की जिंदगी को पूरा खोल कर सामने रख सकेंगे। एक बुरे आदमी की जिंदगी बड़ा सबक हो सकती है।
एक भले आदमी की जिंदगी भी बड़ा सबक हो सकती है। लेकिन हम बुरे की जिंदगी ही नहीं खोल पाते, तो भले की जिंदगी खोलनी तो बहुत कठिन है। क्योंकि बुरा तो जीता है छिछला, ऊपर-ऊपर। उसकी जिंदगी तक छिपी रह जाती है। तो भला तो जीता है बहुत गहराइयों में, अतल गहराइयों में, सागर के बहुत नीचे। उसका तो हमसे कोई संबंध ही नहीं हो पाता।
ध्यान रखें, अगर बुरे को सबक बनाना है तो बुरे की जिंदगी को उघाड़े। कैसे उघाड़ पाएंगे? दूसरे की जिंदगी को उघाड़ना बहुत बुरा है। लेकिन आप में क्या बुराई कुछ कम है? वहीं से शुरू करें। अपनी ही बुराई उघाड़ें। और अपनी ही बुराई के साथ जो छाया की तरह दुख और नरक चलता है, उसे खोजें। हम सभी कुछ न कुछ बुरा कर रहे हैं। उस बुरे में थोड़ा झांकें और खोजें कि क्या मिला? दुख के अतिरिक्त बुरे से कभी कुछ नहीं मिलता है।
लेकिन हम क्षण में रुकते नहीं, हम आगे बढ़ जाते हैं। हम कभी खोज नहीं करते कि हमें क्या मिला। हमने जो किया, उस करने में क्या हुआ, उसका हम पूरा निरीक्षण नहीं करते।
आपने क्रोध किया। कभी आपने निरीक्षण किया है द्वार बंद करके, क्रोध पर ध्यान किया हो कि क्या हुआ? किसी को गाली दी, किसी का अपमान किया। कभी द्वार बंद करके निरीक्षण किया है कि क्या किया?
नहीं, हम बहुत होशियार हैं। जब भी हम क्रोध करते हैं, तो हम दूसरे पर ध्यान करते हैं कि उसने क्या कहा था जिसकी वजह से क्रोध किया--उसने क्या कहा था? हमने क्या किया, उसका हम निरीक्षण नहीं करते। दूसरे ने क्या किया, उसका हम निरीक्षण करते हैं। और मजा यह है कि वह दूसरा भी, आपने क्या किया, इसका निरीक्षण अपने घर पर कर रहा होगा। आप दोनों अपने से चूक जाएंगे।
आत्म-निरीक्षण का अर्थ है: मैंने क्या किया। आपने गाली दी, यह आपका काम था। इसका निरीक्षण करना मेरा जिम्मा नहीं है। इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। इसका मैं निरीक्षण करना भी चाहूं तो कैसे करूंगा? यह एक छोटी सी गाली जो आपसे आई है, यह आपके पूरे जीवन का हिस्सा है। यह आपकी पूरी जिंदगी की कथा है। उस पूरी जिंदगी के वृक्ष में यह गाली लगी है एक कांटे की तरह। यह आज अचानक नहीं लग गई है। यह पूरा वृक्ष इसमें अंतर्निहित है। मैं इसका निरीक्षण कैसे कर पाऊंगा? मैं निरीक्षण इतना ही कर सकता हूं कि इस गाली ने मेरे भीतर क्या किया? इस गाली के प्रतिकार में मेरे भीतर क्या हुआ? इस गाली ने मुझे क्यों बदल डाला? इस एक गाली ने मेरी मुस्कुराहट को राख क्यों कर दिया? इस एक गाली ने मेरे भीतर खिले हुए सब फूल क्यों जला डाले? इस एक गाली ने मेरा सारा रुख क्यों बदल दिया? इस एक गाली के कारण, मैं जो भला आदमी था, अचानक शैतान क्यों बन गया हूं? और फिर इस गाली से मेरे भीतर क्या हो रहा है--जो क्रोध उठ रहा है, जो आग उठ रही है, जो जलन मेरे रोएं-रोएं में फैलती जा रही है, जो हिंसा मेरे भीतर भभक रही है--वह क्या है?
अगर आप द्वार बंद कर लें जब आपको कोई गाली दे और उस आदमी को भूल जाएं और जो आपके भीतर हो रहा है उसका निरीक्षण कर लें, तो आप बुरे आदमी के भीतर प्रवेश करने की कला समझ जाएंगे। बुरा आदमी दूसरा नहीं है, बुरे आदमी आप ही हैं। और जिस दिन आप अपने क्रोध को और उसकी पीड़ा को जान लेंगे, अपने पाप को और उसके दंश को जान लेंगे, उस दिन आप इस भूल में कभी न पड़ेंगे कि कोई दूसरा आदमी क्रोध करके और जीवन में आनंद पा सकता है। इस भूल में फिर आप न पड़ेंगे। फिर आप यह न सोच सकेंगे कि कोई आदमी दूसरों को दुख पहुंचा कर, पीड़ा पहुंचा कर सुख पा सकता है। इस भ्रांति का फिर कोई उपाय नहीं है। इस आत्म-निरीक्षण से हम बुरे आदमी के भीतर भी देखने में समर्थ हो जाते हैं।
बुद्ध का चचेरा भाई है एक। दोनों साथ खेले और बड़े हुए हैं। तो जिनके साथ हम खेले और बड़े हुए हैं, वे कभी हम से बड़े हो सकते हैं, यह मानने के लिए अहंकार कभी राजी नहीं होता। देवदत्त बुद्ध के साथ बड़ा हुआ। कभी खेल में बुद्ध को गिराया भी, छाती पर भी सवार हुआ। कभी बुद्ध से हारा भी, कभी जीता भी।
फिर अचानक बुद्ध का शिखर ऊपर उठता चला गया। लाखों लोग बुद्ध के चरणों में सिर रखने लगे। देवदत्त की पीड़ा हम समझ सकते हैं। देवदत्त ने बुद्ध की हत्या के बड़े उपाय किए हैं। बुद्ध एक शिला पर बैठ कर ध्यान करते हैं; देवदत्त एक बड़ी चट्टान पहाड़ से सरकवा देता है। वह चट्टान सरकती हुई जब बुद्ध के पास से गुजरती है, बाल-बाल चूक जाते हैं, तो बुद्ध का एक शिष्य बुद्ध से कहता है, यह दुष्ट देवदत्त!
बुद्ध कहते हैं, रुको! रुको! तुम भी अपने भीतर उसके खिलाफ चट्टान सरकाने लगे। दुष्ट क्यों? जो उससे हो सकता है, वह कर रहा है। यह धार्मिक आदमी की स्वीकृति है: जो उससे हो सकता है, वह कर रहा है। और जो उससे नहीं हो सकता, उसकी अपेक्षा करने का कारण भी क्या है? बुद्ध उस भिक्षु से कहते हैं कि भिक्षु, तू भी अगर मेरे साथ खेला और बड़ा हुआ होता, तो शायद ऐसा ही कुछ करता। देवदत्त की पीड़ा का तुझे पता नहीं है। क्योंकि बहुत पीड़ा में होगा, तभी कोई आदमी ऐसी चट्टान सरकाने का श्रम लेता है।
इस आदमी को ध्यानी कह सकते हैं हम। क्योंकि यह आदमी, देवदत्त क्या कर रहा है, इस पर फिक्र नहीं करता; इसके भीतर क्या हो रहा है, इसकी ही फिक्र है।
बुद्ध आंख बंद कर लेते हैं। वह चट्टान सरकती नीचे के खड्डों में चली जाती है शोर करती। और बुद्ध आंख बंद किए रहते हैं। घड़ी भर बाद वह भिक्षु फिर पूछता है, आप क्या सोच रहे हैं?
बुद्ध कहते हैं, मैं अपने भीतर देख रहा हूं कि देवदत्त ने जो किया, उससे मेरे भीतर क्या होता है। अगर कुछ भी होता है मेरे भीतर तो चट्टान से मैं बच नहीं पाया, चोट लग गई। अगर जरा सी भी खरोंच मेरे भीतर आती है तो देवदत्त सफल हो गया। यही वह चाहता है। अगर मैं भी एक चट्टान लेकर उस पर दौड़ पडूं और उसके ऊपर चट्टान फेंक दूं तो उसकी सारी पीड़ा मिट जाए। यही वह चाहता है। समझ जाए कि ठीक है, कोई गड़बड़ नहीं है। उसकी फिर कोईर् ईष्या न रह जाए। उसकीर् ईष्या यही है, उसकी तकलीफ यही है।
बुद्ध के रास्ते पर से, बुद्ध जहां से गुजर रहे हैं, देवदत्त एक पागल हाथी छोड़ देता है। अब तो यह बात कथा जैसी लगती है। लेकिन कथा नहीं है; और आज नहीं कल, विज्ञान इसकी गहराइयों में उतर जाएगा, और यह कथा नहीं रह जाएगी। पागल हाथी बुद्ध के पास आता है और चरणों में सिर झुका कर खड़ा हो जाता है। वह पागल था। लगता है, कहानी है। क्योंकि पागल हाथी क्या फिक्र करेगा बुद्ध की? और पागल हाथी को क्या अंतर पड़ता है कि कौन कौन है? पागल हाथी तो पागल ही होगा।
इसमें थोड़े से फर्क हैं। पागल आदमी अगर होता तो शायद बुद्ध की फिक्र न भी करता। क्योंकि आदमी से ज्यादा पागल होने वाला जानवर जमीन पर दूसरा नहीं है। पागल हाथी कितना ही पागल हो, फिर भी पागल आदमी जैसा पागल नहीं होता। और जानवरों के पास एक अंतःप्रज्ञा होती है। बुद्धि तो उनकी नहीं काम करती, लेकिन उनका हृदय संस्पर्शित होता है।
अब वैज्ञानिक, विशेषकर जो साइकिक रिसर्च पर काम कर रहे हैं पश्चिम में, उनका कहना है कि जब कोई आदमी बिलकुल शांत होता है तो उससे एक खास तरह की तरंगें उसके चारों तरफ फैलनी शुरू हो जाती हैं। आपसे भी तरंगें फैल रही हैं। सभी से तरंगें फैल रही हैं। हर आदमी तरंगों में जी रहा है। और हर आदमी प्रतिपल एक झील है गहरी, जिसमें तरंगें उठ रही हैं। जब आपके भीतर क्रोध उठता है तो आपके बाहर क्रोध की तरंगें फैलनी शुरू हो जाती हैं। जरूरी नहीं है कि आप नाराज हों और चिल्लाएं और चीखें, तब तरंगें फैलें। जब आप नहीं भी चीखते, नहीं भी चिल्लाते, बाहर कुछ प्रकट नहीं होता, तब भी आपके भीतर से तरंगें बाहर फैलनी शुरू हो जाती हैं। जिस आदमी ने क्रोध प्रकट न किया हो, उसके आस-पास भी क्रोध की हवा पैदा हो जाती है। जो आदमी कामातुर हो गया हो, और कहीं प्रकट न कर रहा हो कि कामवासना भीतर भर गई है, तो भी तरंगें चारों तरफ कामातुर हो जाती हैं।
अब तो वैज्ञानिकों के पास उपाय हैं जांचने के। क्योंकि यंत्र हैं, जिन पर ये तरंगें अंकित हो जाती हैं कि आदमी इस वक्त कैसी हालत में है। और न केवल इतना, बल्कि अभी एक बहुत अनूठा प्रयोग हुआ है जो कि भविष्य की धार्मिक साधना के लिए बड़े काम का होगा। वह है एक छोटे से यंत्र की ईजाद, जिसमें बटन दबाते से आप अपने मस्तिष्क में कैसी तरंगें चल रही हैं, उनका ग्राफ देख सकते हैं। वह ग्राफ आपको सामने पर्दे पर दिखाई पड़ने लगता है। आपके मस्तिष्क से एक इलेक्ट्रोड, एक बिजली का तार जुड़ा होता है यंत्र में। आपने ऑन किया यंत्र, आपके मस्तिष्क में कैसी तरंगें चल रही हैं, वह बताना शुरू कर देता है। यंत्र पर निशान लगे हुए हैं कि अगर इतनी तरंगें चल रही हैं तो आपका मन अशांत है, इतनी चल रही हैं तो कम अशांत है, इतनी चल रही हैं तो शांत है, इतनी चल रही हैं तो बिलकुल शांत है, इतनी चल रही हैं तो आप बिलकुल शून्य हो गए हैं।
जब आप देखते हैं कि बहुत अशांत किरणें चल रही हैं, तो बड़े मजे की बात यह है कि देखते से ही किरणें नीचे गिरनी शुरू हो जाती हैं। क्योंकि जैसे ही आदमी सजग होता है कि अशांत है, वह शांत होना चाहता है। वह खयाल ही कि हमें शांत होना चाहिए, तत्काल किरणों को नीचे गिरा देता है। उस ग्राफ को वे कहते हैं फीड बैक। क्योंकि आपको देखने से तत्काल खयाल आता है कि यह तो ठीक नहीं हो रहा। उसका परिणाम होना शुरू हो जाता है।
ध्यान के लिए इस यंत्र का बड़ा परिणाम होगा। क्योंकि तब आप सामने ही देख सकते हैं कि क्या हो रहा है। और न केवल देख सकते हैं, जो आप देखेंगे, तत्काल उस पर आपकी प्रतिक्रिया होगी और उसका परिणाम होगा।
जैसे ही कोई आदमी बिलकुल शांति के करीब पहुंचता है और ग्राफ खबर देता है कि मन बिलकुल शांत हो गया, वह एकदम से कहता है कि मन बिलकुल शांत हो गया--अशांति शुरू हो जाती है। क्योंकि यह भी अशांत खयाल है। यह भी एक तरंग हो गई। तत्काल मन की शांति खो जाती है। तरंगें उठनी शुरू हो जाती हैं।
ये तरंगें पशु हमसे ज्यादा सक्षम हैं पकड़ने में। आदमी बहुत संवेदनहीन हो गया है। पशु ज्यादा संवेदनशील हैं। वैज्ञानिक बहुत चिंतित रहे हैं सदा से। कुत्ते हैं, बिल्लियां हैं। ऐसी बिल्लियां हैं जिनको कि हवाई जहाज से ले जाकर दूर जंगलों में छोड़ दिया गया। रास्ते का उन्हें कोई पता नहीं कि उनका घर कहां है। और वे सीधी घर की तरफ चल पड़ती हैं। सीधी! ऐसा भी नहीं कि उनको रास्ता खोजना पड़ता हो। उनको छोड़ा है बोरिए के बाहर, उनकी आंख की पट्टी खोली और वह चल पड़ीं--स्ट्रेट। इस जगह उन्हें कभी नहीं लाया गया। इस जगह हवाई जहाज से लाया गया है। आंख पर पट्टी बंधी हुई हैं। कोई रास्ते का उन्हें पता नहीं है। लेकिन फिर यह घर की तरफ चलना कैसे हो जाता है? अब वैज्ञानिक कहते हैं कि बिल्लियों को जरूर ही कुछ संवेदनाएं हैं, कुछ तरंगों का अनुभव है, जो हमें नहीं है। जिनके आधार पर वह चलनी शुरू हो जाती हैं।
एक वैज्ञानिक के घर में सरकार उसके खिलाफ कुछ जासूसी कर रही थी। शक था उस मुल्क की सरकार को कि वह वैज्ञानिक किन्हीं दूसरे मुल्कों से जुड़ा हुआ है। तो उसके घर में चोरी से एक टेप रिकार्डर छिपा दिया गया था। एक जरा सा यंत्र एक कोने में, दीवार में छिपा हुआ था।
वैज्ञानिक घर आया, उसके कुत्ते ने आते से ही उस कोने की तरफ मुंह करके और भौंकना शुरू कर दिया। वैज्ञानिक बहुत परेशान हुआ, कुत्ते को डांटा-डपटा; लेकिन वह मानने को राजी नहीं हुआ। वह छलांग लगाए और कोने में जाए और शोरगुल करे। खोज की गई तो पाया गया कि वहां कोई यंत्र छिपाया गया है। वह वैज्ञानिक ध्वनि पर काम कर रहा था। वह बड़ा हैरान हुआ।
खोज करने से पता चला कि जैसे यह माइक है, मैं इससे बोल रहा हूं, तो यह माइक मेरी आवाज को खींच रहा है। तो माइक के पास छोटा सा वैक्यूम निर्मित हो जाता है, क्योंकि वह आवाज को खींचता है, सक करता है। उस कुत्ते को उस वैक्यूम का अनुभव हुआ, इसलिए वह भौंका। फिर तो उस कुत्ते पर बहुत प्रयोग किए। सूक्ष्मतम भी तरंगों का वैक्यूम पैदा हो तो वह कुत्ते को पता चल जाएगा।
अब तो जो साइकिक रिसर्च करते हैं, वे लोग कहते हैं...। जैसा कि हिंदुस्तान के गांवों में ग्रामीण लोग कहते हैं। लेकिन वे ग्रामीण हैं, अंधविश्वासी हैं, उनकी कोई मानने को राजी नहीं--कि कुत्ते जब रात अचानक भौंकने लगें, तो किसी की मृत्यु हो गई, या मृत्यु होने के करीब है। अब वैज्ञानिक आधारों पर भी ऐसा मालूम पड़ता है कि जब कोई शरीर से आत्मा छूटती है, तो तरंगों का जो आघात चारों तरफ पैदा होता है, कुत्ते उसके लिए संवेदनशील हैं। और उनको लगता है कि कुछ हो रहा है जो बेचैनी का है, उनको बेचैनी का है।
तो कुछ हैरानी नहीं कि पागल हाथी बुद्ध के पास आकर अचानक उनकी तरंगों की छाया में शांत हो गया हो। देवदत्त बहुत परेशान हुआ; क्योंकि पागल हाथी से यह आशा न थी। पत्थर चूक गया, यह संयोग था। पागल हाथी, और जाकर चरणों में सिर रख दिया! तब तो उसकी बेचैनी और बढ़ गई।
बुद्ध ने कहा है कि हाथी को भी समझ आ गई जो पागल था, लेकिन देवदत्त को कब समझ आएगी!
आदमी सीखता ही नहीं। और सीखता है तो गलत सीखता है। देवदत्त इतना ही समझा कि हमने गलत समझा कि हाथी पागल था। हाथी पागल नहीं था। हमारी भ्रांति थी कि हमने समझा हाथी पागल था। हाथी पागल नहीं था। इतना सीखा। दूसरे पागल हाथी की तलाश उसने जारी की। हम ऐसे ही सीखते हैं।
लाओत्से कहता है, "सज्जन दुर्जन का गुरु है; दुर्जन सज्जन के लिए सबक है। जो न अपने गुरु को मूल्य देता है और न जिसे अपना सबक पसंद है, वह वही है जो दूर भटक गया है, यद्यपि वह विद्वान हो सकता है।'
"जो न अपने गुरु को मूल्य देता है और न जिसे अपना सबक पसंद है।'
ध्यान रखना, जब एक बुरे आदमी से आप कुछ सीखते हैं, तो आपको अनुगृहीत होना चाहिए। जिससे आपने कुछ सीखा है, उससे अनुगृहीत होना चाहिए। बुरे आदमी से भी।
लेकिन बुरे आदमी से अनुगृहीत होने की तो बात दूर है, हम जब भले आदमी से भी कुछ सीखते हैं तो अनुग्रह नहीं होता। असल में, हमें यह खयाल ही दुख देता है कि हमने और सीखा! हम और सीखें! सीखना अहंकार के लिए बड़ी चोट है। इस जगत में शिष्य होने से बड़ी कठिन और शायद कोई ही चीज हो।
हम कहेंगे, क्या है? शिष्य होने में क्या तकलीफ है? लेकिन जरूर बड़ी कठिन है। क्योंकि उसका अर्थ ही यह है, यह मानना कि मैं नहीं जानता हूं, शुरुआत है। और ऐसा कोई आदमी मानने को तैयार नहीं कि मैं नहीं जानता हूं। हम सभी जानते हैं। अगर हम कभी किसी से अनुग्रह भी प्रकट करते हैं तो हमारे शब्द बड़े मजेदार होते हैं।
मेरे पास बहुत लोग आते हैं; उनकी बातें बड़ी मजेदार होती हैं। एक सज्जन आकर अक्सर कहते हैं कि आपने जो कहा, वह बिलकुल मेरा ही खयाल है। सिर्फ यह है कि मैं उसे कहने में कुशल नहीं हूं, और आपने कहा। एक सज्जन आते हैं, वे अक्सर कहते हैं कि आपकी बातों से, जो मैं पहले से ही मानता हूं, उसे इतनी पुष्टि मिलती है जिसका कोई हिसाब नहीं। ऊपर से देखने पर लगेगा कि इसमें कुछ भी भूल-चूक नहीं है। वस्तुतः ये मित्र यह कह रहे हैं कि सीखने को कहीं कुछ भी नहीं है। जो भी सीखने को है, उनके पास है।
और यह जो, यह जो वृत्ति है, यह व्यक्तियों तक ही नहीं, समूह में फैल जाती है, जातियों में फैल जाती है। हमारे मुल्क में बहुत गहन है। हमारे मुल्क में इतनी जड़ता की तरह फैल गई है यह कि अगर पश्चिम में कोई भी विज्ञान की नई ईजाद होती है तो हमारा मुल्क कभी यह नहीं कह पाता कि यह कोई नई खोज है। हम नहीं कह पाते। हम फौरन अपनी किताबें उलटने लगते हैं और खोजने लगते हैं कि कहीं से कोई भी तोड़-मरोड़ कर भी हम कह सकें कि हमारी किताब में तो पहले से मौजूद है। और बड़ा मजा यह है कि इस किताब को इसके पहले हमने कभी नहीं खोला। और इसके पहले हम कभी नहीं बता सके कि उसमें क्या मौजूद है। हम इसमें इतने कुशल हो गए हैं कि दुनिया में कहीं कुछ हो ही नहीं सकता जो हमारे वेद में मौजूद न हो। कुछ भी कर ले दुनिया, हम फौरन बता देंगे कि यह देखो! हम मतलब बदल लेंगे। हम शब्दों को तोड़ लेंगे। हम शब्दों पर जबरदस्ती कलमें बिठा देंगे अर्थों की। और हम तोड़-मरोड़ कर सिद्ध कर देंगे कि यह तो हमारे इसमें पहले से लिखा हुआ है।
क्या कारण है? हमको वहम हो गया है कि हम जगतगुरु हैं। अब जो जगतगुरु हैं, वे शिष्य तो हो ही नहीं सकते, जगत में कुछ सीख तो सकते ही नहीं। और यह अगर कौम को ही हो गया हो, ऐसा नहीं है। हमारी कौम जगतगुरुओं की कौम है, इसमें हर आदमी जगतगुरु है।
सीखने की क्षमता हमने खो दी; वही हमारा पाप है। हम अगर पांच हजार साल में इंच भर आगे नहीं सरके तो उसका कारण है कि हमने सीखने की क्षमता खो दी। सीखने की क्षमता इस विनम्रता से शुरू होती है कि हमें पता नहीं है। लेकिन हम इतने बेईमान हैं कि हमें पता नहीं है इसकी कोई फिक्र नहीं, जब किसी को पता होगा तो हम कहेंगे यह तो हमें पहले से पता था।
अच्छा यह बड़े मजे की बात है कि हम, विज्ञान अभी सौ साल में आगे क्या होगा, उसकी एक-आध खोज करके अपने शास्त्रों से कभी बताएं। वह हम कभी नहीं बता पाते। साइकिल बनाना हमारे शास्त्र से मुश्किल है, लेकिन हवाई जहाज हमारे शास्त्र में है। वह वृत्ति! हवाई जहाज था या नहीं, यह बहुत मूल्य की बात नहीं है। लेकिन वृत्ति! और यह वृत्ति सामूहिक हिस्सा बन गई हमारी चेतना का। कोई आदमी सीखने को राजी नहीं है।
सीखने का भाव पैदा ही तब होता है, जब कोई यह स्वीकार करता है कि मुझे पता नहीं है। और तब तो बुरे आदमी से भी जो सबक मिलता है, उसका भी अनुग्रह मन में रह जाता है। तब तो जिन्हें गङ्ढे में गिरे देख कर हम गङ्ढे में गिरने से बच गए, वे भी हमारे गुरु हैं।
"जो न अपने गुरु को मूल्य देता है और न जिसे अपना सबक पसंद है, वह वही है जो दूर भटक गया है।'
क्यों दूर भटक गया है? क्योंकि जिसकी सीखने की क्षमता ही खो गई है, उसके अब पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। जिसने सीखना ही छोड़ दिया है, अब उसके भटकन का क्या हिसाब लगाएं? भटकन कम हो सकती है, अगर सीखने की क्षमता मौजूद हो। लाख कोस दूर भटक गया होऊं, लेकिन सीखने की क्षमता मौजूद है तो वापस लौट सकता हूं। लेकिन इंच भर दूर हूं मंजिल के, और सीखने की क्षमता नहीं है, तो भी वापस नहीं लौट सकता। लौटना, यात्रा, तो सीखने पर निर्भर होगी।
तो जरूरी नहीं है, जो आदमी सीख सकता है...जैसी मेरी समझ है कि पश्चिम हमसे ज्यादा धार्मिक हो सकता है। उसकी सीखने की क्षमता निश्छल है, ताजी है, निर्दोष है। हम बड़ी अड़चन में हैं। पश्चिम का बड़े से बड़ा विचारक सीखना चाहता हो, तो गंवार से गंवार आदमी के पास भी बैठ जाएगा सीखने के लिए। इसकी फिक्र छोड़ देगा कि मैं किससे सीख रहा हूं। लेकिन हम बहुत मजेदार हैं। पश्चिम से लोग आते हैं। पश्चिम से इधर पिछले पचास वर्षों में वहां के कुछ विचारशील लोग भी पूरब की तरफ आए। और कई बार ऐसा हुआ है कि जाने-अनजाने वे ऐसे लोगों के चरणों में भी बैठ गए हैं, जिनको खुद भी कुछ पता नहीं है। खोज है, इसलिए कई बार जरूरी नहीं है कि आप ठीक आदमी के पास पहुंच जाएं। लेकिन उनका श्रेष्ठतम विचारक भी हमारे गंवार से गंवार साधु के चरणों में बैठ जाएगा--सीखना है--और इस भांति सीखेगा कि अपनी सारी जानकारी, अपनी सारी समझ एक तरफ रख देगा। क्योंकि उसे बाधा नहीं बनानी है। लेकिन हमारा नासमझ से नासमझ आदमी भी सीखने की क्षमता खो दिया है। क्या हुआ है? क्या कारण गहन हो गया है भीतर हमारे?
दो बातें हुई हैं। एक तो जीवन के सत्यों के संबंध में जो शब्द हैं, वे हमें कंठाग्र हो गए हैं। शब्द ही बीच में आ जाता है और पता लगता है कि हमें मालूम है। फिर और भीतर जाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। और दूसरी बात, इस पांच हजार वर्षों में हम इतने दीन-हीन हो गए हैं कि अगर हम अब यह भी मानें कि हमें ज्ञान भी नहीं है अध्यात्म का तो फिर हमारे अहंकार के लिए कोई सहारा ही नहीं रह जाता। एक ही सहारा बचा है। बाकी तो सब सहारे टूट गए हैं। सब सहारे टूट गए हैं। हमारे पास और तो कोई बल नहीं है, जिसको हम कह सकें। मगर एक तो हम बात चलाए ही रख सकते हैं कि हम आध्यात्मिक हैं। सारी ग्लानि को भुलाने के लिए हमें एक ही सहारा बचा है कि हम अपने को आध्यात्मिक कहे चले जाएं।
लेकिन मजा यह है कि उसके कारण हम भीतरी रूप से भी दीन होते चले जा रहे हैं; क्योंकि वह खोज भी नहीं कर पाते। जब मालूम है, खोज का कोई उपाय न रहा। जब हम पहुंच ही गए हैं, तो चलने की कोई बात ही नहीं है।
लाओत्से कहता है, "जो न अपने गुरु को मूल्य देता है और न जिसे अपना सबक पसंद है, वह वही है जो दूर भटक गया है, यद्यपि वह विद्वान हो सकता है।'
विद्वान होना एक बात है। उतनी कठिन नहीं, जितना शिष्य होना कठिन है। सीखना जितना कठिन है, उतना विद्वान होना नहीं। पर विद्वान का क्या मतलब? क्योंकि हम तो सोचते हैं, जो आदमी सीखता है, वह विद्वान होता है। नहीं, जो आदमी सीखने से बचने की तरकीबें करता है, वह विद्वान हो जाता है। जो आदमी बिना सीखे सीखने की आयोजना कर लेता है, वह आदमी विद्वान हो जाता है। जो आदमी सत्य को बिना जाने शब्दों का संग्रह कर लेता है, वह आदमी विद्वान हो जाता है। जो आदमी गुरु से डरता है, लेकिन शास्त्र को पचा जाता है, वह आदमी विद्वान हो जाता है। शास्त्र बाजार में मिल जाते हैं। शास्त्र पर कोई अनुग्रह की जरूरत भी नहीं है।
यह एक मजेदार मामला है। लाओत्से की किताब पढ़ना आसान है, लाओत्से के पास क्षण भर बैठना मुश्किल हो जाए। बुद्ध की किताब बांचने में क्या अड़चन है? पढ़ी और एक कोने में फेंक दी। इतना आसान बुद्ध के पास जाना नहीं होगा। और बुद्ध के पास जाकर बुद्ध को फिर कोने में कभी नहीं फेंका जा सकता। बुद्ध की किताब पढ़ो, कुछ करना नहीं पड़ता। शब्द सीधे भीतर चले जाते हैं और खून में मिल जाते हैं। बुद्ध के पास जाओ, पूरी जिंदगी बदलनी पड़ेगी। बुद्ध तोड़ देंगे पूरा। पुराना सारा ढांचा तोड़ेंगे। एक-एक अंग-अंग, पसली-पसली अलग कर देंगे। फिर नया आदमी निर्मित करेंगे। वह जरा जटिल और कठिन मामला है।
लेकिन बुद्ध के जो शब्द हैं, वे उन्हीं के काम के हैं, जो उतना टूटने, मरने और नया जीवन पाने के लिए तैयार हों। वे शब्द उन्हीं के काम के हैं। इसलिए कभी-कभी ऐसा लगता है--धम्मपद पढ़ो, बुद्ध के वचन पढ़ो--कभी तो हैरानी होती है कि इन्हीं वचनों के कारण यह आदमी इतना बड़ा था! ये वचन तो साधारण हैं।
इन वचनों के कारण यह बड़ा आदमी नहीं था। ये वचन तो सिर्फ रास्ते पर छूट गया कचरा है। जिस रास्ते से यह आदमी गुजरा था, उस रास्ते पर छूट गई थोड़ी सी खबरें हैं। ये इतने ही शब्द इतने क्रांतिकारी रहे होंगे? वह क्रांति है व्यक्ति के बदलने में, शब्दों में नहीं। और जब व्यक्ति बदलता है और शब्द अनुभव बनता है, तब पता चलता है।
इसलिए इस मुल्क में हमने बहुत जोर दिया था गुरु पर। अतिशय जोर दिया था गुरु पर। यह थोड़ा समझ लेने जैसा है। हमारा जोर इतना था गुरु पर कि संभवतः पृथ्वी पर किसी कौम का कभी भी नहीं रहा। लेकिन थोड़ी भूल हो गई। गुरु पर जोर सिर्फ इसलिए था, ताकि आप शिष्य हो सकें। गुरु पर जोर इसलिए था। हमने गुरु को आसमान पर बिठाया था। उसे हमने सारी भगवत्ता दे दी थी।
कबीर ने यहां तक कहा कि गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांय। दोनों खड़े हैं सामने, गुरु भी और गोविंद भी, किसके पैर लगूं? बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय। फिर गुरु के ही पैर लग गया; क्योंकि उसके ही कारण गोविंद का पता चला।
हैरानी की बात है! गोविंद, खुद भगवान खड़ा हो और गुरु खड़ा हो, तो कबीर कहते हैं, गुरु के ही पैर में गिरा। क्योंकि गुरु के बिना वह भगवान नहीं बताया जा सकता था। इसलिए भगवान नंबर दो है।
इतना हमने गुरु को ऊपर रखा था। उसका प्रयोजन था, ताकि आप शिष्य हो सकें। लेकिन हम बड़े होशियार लोग हैं। हमने सोचा, जब गुरु इतने ऊपर है, तो हम गुरु ही क्यों न हो जाएं? इसलिए मुल्क में गुरु ही गुरु हो गए।
मैंने सुना है, एक गांव में कुछ लोग दान मांगने गए। एक मकान को सदा दान मांगने वाले छोड़ देते थे। वह गांव के सबसे बड़े धनपति का मकान था। पर अति कृपण था वह। और कभी वहां से किसी को दान नहीं मिला था। लेकिन हालत बुरी थी, अकाल था। और लोगों ने सोचा, शायद ऐसे क्षण में उसको दया आ जाए। और अस्थिपंजर गांव में पड़े थे। और लोगों को भोजन नहीं था। शायद उसको दया आ जाए! सोचा कि वर्षों से गए भी नहीं, एक कोशिश करें। फिर आदमी बदल भी जाता है। और ज्यादा से ज्यादा इनकार ही होगा; इससे ज्यादा क्या हो सकता है? तो वे भीतर गए। उन्होंने बहुत समझाई सारी हालत। उनकी हालत अकाल की सुन कर उन्हें ऐसा लगने लगा कि कृपण पिघल रहा है। और उन्हें ऐसा लगा कि कृपण की आंखों में रौनक आ रही है। और उन्हें लगा कि आज तो कुछ न कुछ जरूर मिलेगा। आखिर कृपण इतना प्रसन्न हो गया और उसने कहा कि मैं काफी प्रभावित हो गया हूं तुम्हारी बातों से। तो उन्होंने कहा कि फिर? तो उसने कहा, फिर क्या? मैं भी चलता हूं तुम्हारे साथ दान मांगने। फिर क्या? जब ऐसी हालत है तो हम घर में न बैठे रहेंगे।
ऐसा ही हुआ इस मुल्क में। गुरु की इतनी महिमा--सारा मुल्क गुरु हो गया। शिष्य के लिए थी वह सारी शिक्षा। वह इसलिए थी कि तब यह खयाल में आए कि अगर गुरु की इतनी महिमा है तो गुरु को पा लेना मार्ग है। लेकिन गुरु को पाने का उपाय एक ही है कि कोई पूरे हृदय से शिष्य हो जाए। और तो कोई उपाय नहीं है। शिष्य तो खोते चले गए। नानक ने पांच सौ साल पहले फिर से कोशिश की, और गुरु की बड़ी महिमा...। इसलिए अपने अनुयायियों को शिष्य नाम दिया। उनको पता नहीं था कि वे सिक्ख हो जाएंगे। शिष्य नाम दिया, उनको पता नहीं था कि वे सिक्ख हो जाएंगे। पंजाबी में शिष्य का रूप है सिक्ख। सिक्ख एक नई जमात हो गई, एक नया संप्रदाय हो गया। शिष्यत्व की तो बात ही खो गई; एक नई जमात खड़ी हो गई।
हम चूकने में कुशल हैं। कुछ भी हमें दिया जाए, हम अपने बचाव निकाल लेते हैं।
गुरुओं की इस महिमा का इतना नुकसान हुआ, तो इधर कृष्णमूर्ति ने गुरु के खिलाफ एक आंदोलन खड़ा किया सारे जगत में--कोई गुरु नहीं है। लेकिन जो भूल सदा होती है, वही भूल होने वाली है। इस सदी में यह खबर कि कोई गुरु नहीं है किसी का, प्रत्येक को स्वयं पाना है, हमारे अहंकार को बड़ी तृप्तिदायी मालूम पड़ी। कृष्णमूर्ति के पास अहंकारियों की जमात इकट्ठी हो गई। उन अहंकारियों ने कहा कि ठीक है, कोई गुरु नहीं है, यह तो बिलकुल ठीक बात है। कोई गुरु हो भी क्यों? प्रत्येक व्यक्ति पहुंच सकता है। तो ऐसे लोग हैं, जो चालीस साल से कृष्णमूर्ति को सुनते हैं; जो भी उनकी बुद्धि में है, सब कृष्णमूर्ति से सुना हुआ है; उनके शब्द-शब्द उधार हैं; फिर भी उनमें इतना भी अनुग्रह नहीं आ पाया कि वे कह सकें कि कृष्णमूर्ति से हमने सीखा है। बल्कि वे कृष्णमूर्ति की ही साथ में उक्ति बताएंगे कि सीखने का सवाल ही कहां है? कृष्णमूर्ति खुद ही कहते हैं, कोई गुरु नहीं है।
हमने एक बार इस मुल्क में मेहनत की थी गुरु की महिमा बता कर, ताकि लोग शिष्य हो जाएं; तब भी वे शिष्य न हुए, गुरु हो गए। अभी कृष्णमूर्ति ने दूसरा प्रयोग किया गुरु को खंडित करके, कि उसकी कोई महिमा नहीं है, ताकि लोग शिष्य हो जाएं, छोड़ें गुरु होना। मगर लोगों ने कहा, जब गुरु कोई है ही नहीं तो शिष्य होने का कोई सवाल ही नहीं है। जब गुरु की महिमा हमने सुनी, हम गुरु हो गए। जब हमने सुना कि गुरु है ही नहीं, हमने कहा, अब शिष्य होने का कोई सवाल ही न रहा।
चाहें बुद्ध हों, चाहे कबीर हों, चाहे कृष्णमूर्ति हों, हमको रास्ते से हटा नहीं सकते। हम बड़े मजबूत हैं। वे हमें कैसा ही धक्का दें, हम उसकी जो परिभाषा करेंगे, वह हमें और मजबूत कर जाती है। इस दशा को ठीक से समझ लें तो यह सूत्र समझ में आ जाएगा।
और लाओत्से कहता है, "यही सूक्ष्म व गुह्य रहस्य है। सच इज़ दि सटल सीक्रेट।'
आदमी अज्ञान में है। आदमी को पता नहीं, कौन है। यह भी पता नहीं, किस यात्रा पर है। यह भी पता नहीं, इस जीवन की नियति क्या है। इस जीवन के बीज से कौन सा फूल खिलेगा? इस जीवन के अंधेरे में कौन सी सुबह होगी? कौन सा सूरज निकलेगा? कुछ भी पता नहीं है। यह जीवन की नाव किस किनारे लगेगी? कोई किनारा भी है या नहीं है, कुछ भी पता नहीं है। इस गहन अज्ञान में अगर सीखने की विनम्रता न हो, तो भटकाव का कोई अंत नहीं हो सकता। सीखने की विनम्रता इतनी होनी चाहिए कि जहां से भी सीखने को मिल जाए, सीख लिया जाए। वह बुरा आदमी हो, चोर हो, बेईमान हो, डाकू हो, हत्यारा हो, जिससे भी सीखने को मिल जाए, सीख लिया जाए।
गुरु का यह अर्थ नहीं है कि इसी एक गुरु के पैर पकड़ कर और रुक रहा जाए। इस फर्क को थोड़ा ठीक से समझ लें। वह भी अड़चन खड़ी हुई है, क्योंकि गुरु लोगों को समझाते हैं...। एक महिला मेरे पास आई। उसने मुझे कहा कि आपको सुनने आना चाहती हूं, लेकिन मेरे गुरु कहते हैं: एक पति, एक गुरु! गुरु बदलेगी?
बड़े मजेदार लोग हैं। मगर वक्त गया एक पति वाला भी; एक गुरु का तो अब कोई सवाल ही नहीं है। और पति तो हैं मूढ़; एक की बात चल सकती है, समझ में आती है। लेकिन गुरुओं में ऐसी मूढ़ता हो, तब तो हद हो गई। लेकिन गुरु भी पकड़ते हैं। वहां भी डर है कि उनके घेरे से कोई बाहर न हो जाए।
शिष्य का मतलब गुरु को पकड़ना नहीं है। शिष्य का मतलब सीखने की अनंत क्षमता को जन्म देना है। फिर जहां भी सीखने को मिल जाए और जिससे भी सीखने को मिल जाए। फिर मस्जिद हो, मंदिर हो, गुरुद्वारा हो; फिर हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो; फिर जहां सीखने को मिल जाए, वहां सीखते चले जाना है। और सीखने की कोई सीमा नहीं है। और सीखने का कोई पड़ाव नहीं है, जहां रुक जाना पड़ता है। सीखना एक धारा है, एक बहाव है। और जो जितना बहता है, उतना सीखता है। सब से सीखें।
और ऐसा जरूरी नहीं है कि जो किसी अर्थ में आपसे अज्ञानी हो, वह किसी अर्थ में ज्ञानी न हो। ऐसा भी नहीं है। एक छोटा बच्चा भी किसी अर्थ में आपका गुरु हो सकता है। और किसी अर्थ में आपका गुरु भी आपसे सीख सकता है। सीखना एक बहुत जटिल और सूक्ष्म बात है। सीखने की वृत्ति चाहिए। यह वृत्ति हो, तो वह जो गुह्य रहस्य है जीवन का, वह सूक्ष्म रहस्य हमारे हाथ आ जाता है। जो सीखना सीख लेता है, सत्य उसके निकट है।
लेकिन इसे हम थोड़ा और तरह से समझ लें। यह कहना भी शायद ठीक नहीं है कि जो सीखना सीख लेता है, सत्य उसके निकट है। अगर वह सच में ही पूरे शिष्यत्व के भाव में आ जाता है, सत्य उसके भीतर है। क्योंकि जो इतनी विनम्रता से अपने द्वार खोल देता है सारे जगत के लिए--कि जहां से भी आती हों हवाएं सत्य की, मेरे द्वार खुले हैं, मेरा कोई पक्षपात बाधा नहीं बनेगा, मेरी कोई पूर्व-धारणा बाधा नहीं बनेगी, मैं टूटने को, मिटने को तैयार हूं, मेरा अतीत मेरे भविष्य के लिए बाधा नहीं बनेगा, अगर सत्य की हवाएं आती हों और मेरा अतीत गलत सिद्ध होता है तो मैं उसे राख करने को तैयार हूं--इतनी जिसकी तैयारी है, वह पहुंच गया। वह इसी क्षण पहुंच गया। शायद उसे सीखने की जरूरत भी न पड़े। यह सीखने का भाव ही काफी हो जाए। शायद यह खुलापन ही उसकी मंजिल हो जाए।
लेकिन हम हैं बंद। अगर हम सीखते हैं तो भी डरे-डरे तौलत्तौल कर। हम सत्य को भी अपने अनुकूल चाहते हैं। अगर सत्य प्रतिकूल पड़ता हो तो हम द्वार बंद कर लेते हैं कि यह सत्य अपने काम का नहीं है, यह अपने लिए नहीं है, यह अपना सत्य नहीं है। हम सत्य को भी अपने अनुकूल चाहते हैं। हम चाहते हैं, सत्य भी हमारा गवाह हो।
सत्य किसी का गवाह नहीं होता। जो अपने को खोने को तैयार हैं, सत्य उनका हो जाता है; लेकिन किन्हीं का गवाह नहीं होता। अगर आप सोचते हैं कि सत्य आपके अनुकूल हो--हिंदू हो, ईसाई हो, मुसलमान हो, ऐसा हो, वैसा हो, आपके कोई ढांचे-सांचे हों, उनमें ढले, तब आप स्वीकार करेंगे--तो आपके पास सत्य कभी नहीं पहुंच पाएगा। क्योंकि आपके ढांचे, सब ढांचे सत्य को असत्य कर देते हैं, मार डालते हैं, उसकी हत्या कर देते हैं, उसके अंग-भंग कर देते हैं। कुरूप हो जाता है। सत्य चाहिए तो सब ढांचे छोड़ कर खड़े हो जाने की तैयारी ही शिष्यत्व का अर्थ है।
इजिप्तियन सूत्र है: व्हेन दि डिसाइपल इज़ रेडी, दि टीचर एपीयर्स। जब शिष्य तैयार है, तो गुरु मौजूद हो जाता है। और यह सौ प्रतिशत सही है।
लेकिन हम बड़े मजेदार हैं। हम में से अनेक लोग गुरु खोजते फिरते हैं। पूछो, कहां जा रहे हो? वे कहते हैं, हम गुरु की खोज कर रहे हैं।
आप कैसे गुरु की खोज करिएगा? आपके पास कोई मापदंड, कोई कसौटी, कोई तराजू है? आप तौलिएगा कैसे कि कौन है गुरु आपका? और अगर आप इतने कुशल हो गए हैं कि गुरु की भी जांच कर लेते हैं, तो अब बचा क्या है? जिसकी हम जांच करते हैं, कर सकते हैं, उससे हम ऊपर हो जाते हैं। तो आप तो गुरु पहले हो गए। परीक्षा तो होनी है गुरु की। उतर जाएं, पास हो जाएं, उत्तीर्ण हो जाएं, तो ठीक। अनुत्तीर्ण हो जाएं?
तो शिष्य घूम-घूम कर गुरुओं को अनुत्तीर्ण करते रहते हैं; कहते हैं, फलां गुरु बेकार साबित हुआ। अब वे दूसरे गुरु की तलाश में जा रहे हैं।
गुरु को शिष्य नहीं खोज सकता। यह असंभव है। इसका कोई उपाय ही नहीं है। यह तो बात ही व्यर्थ है। हमेशा गुरु शिष्य को खोजता है। वह बात समझ में आती है; तर्कबद्ध है। तो गुरु शिष्य को खोजता है। तो जब भी आप शिष्य होने के लिए तैयार हो जाते हैं, गुरु प्रकट हो जाता है। वह आपको खोज लेगा। फिर आप बच नहीं सकते। वह आपको खोज लेगा। फिर आपके बचने का कोई उपाय नहीं। फिर आप भाग नहीं सकते।
इसलिए बड़ी चीज गुरु को खोजना नहीं है; बड़ी चीज शिष्य बनने की तैयारी है। आप गङ्ढे बन जाएं; पानी बरसेगा और झील भर जाएगी आपकी। आप सीखने के गङ्ढे बन जाएं; चारों तरफ से आपको खोजने वे सूत्र निकल पड़ेंगे, जो आपके गुरु बन जाएंगे। शिष्य का गङ्ढा जहां भी होता है, वहां गुरु झील की तरह भर जाता है। लेकिन गङ्ढे खोजने नहीं जा सकते। खोजने का कोई उपाय नहीं है।
दोत्तीन आखिरी बातें। यह जरूरी नहीं है कि आप गुरु को जांच सकें; यह जरूरी है कि आप अपने शिष्य होने को जांचते रहें। जो आवश्यक है वह यह है कि आप यह जांचते रहें कि मेरे शिष्य होने की पात्रता, मेरे सीखने की क्षमता निखालिस है, शुद्ध है।
बायजीद अपने गुरु के पास था। बायजीद के गुरु ने बायजीद से कहा कि बायजीद, तू जो मुझसे सीखने आया है, उसके अलावा मैं क्या हूं, यह भी तू जानना चाहता है? बायजीद ने कहा कि उससे मुझे क्या प्रयोजन है? जो मैं सीखने आया हूं, वह आप हैं। इतना मेरे जानने के लिए काफी है।
फिर एक दिन बायजीद आया है और गुरु शराब की सुराही रखे बैठा है। प्याली में शराब ढालता है और चुस्कियां लेता जाता है, और बायजीद को समझाता जाता है। एक और शिष्य भी बैठा था। उसके बरदाश्त के बाहर हो गया कि हद हो गई! बरदाश्त की भी एक सीमा होती है और भरोसे का भी एक अंत है। आखिर विश्वास, कोई अंधविश्वासी तो नहीं हूं मैं! उसने कहा, यह क्या हो रहा है? यह अध्यात्म किस प्रकार का है?
गुरु ने उस शिष्य को कहा कि अगर तुम्हें नहीं सीखना है, तुम जा सकते हो। मतलब यह कि हमारा गुरु-शिष्य का संबंध टूट गया। लेकिन किस शर्त पर? मैंने तुमसे कब कहा था कि मैं शराब नहीं पीऊंगा?
बायजीद की तरफ गुरु ने देखा और बायजीद से कहा कि तुम्हें तो कुछ नहीं पूछना है?
बायजीद ने कहा कि कुछ भी नहीं पूछना है।
बारह वर्ष बायजीद था। इस बारह वर्ष में बारह हजार दफे ऐसे मौके गुरु लाया होगा जब कि कोई भी पूछ लेता कि यह क्या हो रहा है, यह नहीं होना चाहिए। बारह साल बाद जिस दिन बायजीद विदा हो रहा था, उसके गुरु ने कहा कि तुम्हें कुछ पूछना नहीं है मेरे और संबंधों में? मेरे बाबत?
बायजीद ने कहा कि अगर मैं पूछता दूसरी चीजों के संबंध में तो मैं वंचित ही रह जाता तुमसे। मैंने उनके संबंध में नहीं पूछा। मैं तो उस संबंध में ही डूबता चला गया, जिसके लिए आया था। और आज मैं जानता हूं कि वह सब जो किया था, वह कैसा नाटक था। मैंने पूछा नहीं, लेकिन आज मैं जानता हूं कि वह सब नाटक था। अगर मैं उस नाटक के बाबत पूछता तो मैं वह जो असली आदमी था यहां मौजूद, उससे वंचित रह जाता।
तिब्बत में शिष्यों के लिए सूत्र है कि गुरु अगर पाप भी कर रहा हो सामने तो उसकी शिकायत नहीं की जा सकती। बड़ा अजीब है और उचित नहीं मालूम पड़ता। अंधविश्वास पैदा करने वाला है। लेकिन जो सीखने आया है, उसे व्यर्थ की बातों में रस लेना खतरनाक है। और उसकी सीखने की क्षमता नष्ट होती है।
नारोपा एक भारतीय गुरु तिब्बत गया। मिलारेपा उसका पहला शिष्य था तिब्बत में। नारोपा बहुत ही अदभुत व्यक्ति था। और वह मिलारेपा को ऐसे-ऐसे काम करने को कहता है कि किसी की भी हिम्मत टूट जाए। वह मिलारेपा से कहता है कि यह पहाड़ से पत्थर काटो। मिलारेपा का मन होता है कि मैं सत्य की साधना करने आया। पत्थर पहाड़ से काटना! लेकिन नारोपा ने कहा कि जिस दिन तुझे संदेह उठे, उसी दिन चले जाना; बताने मत आना कि संदेह उठा है। संदेह करने वालों के साथ मैं कोई मेहनत नहीं लेता।
लेकिन मिलारेपा भी नारोपा से कम अदभुत आदमी न था। उसने पत्थर काटे। फिर नारोपा ने कहा कि अब इसका एक छोटा मकान बनाओ। उसने मकान बनाया। जिस दिन मकान बन कर खड़ा हो गया, वह दौड़ा आया और उसने सोचा कि शायद आज मेरी शिक्षा शुरू होगी। यह परीक्षा हो गई। नारोपा के पास आकर चरणों में सिर रख कर कहा कि मकान बन कर तैयार है। नारोपा गया। और उसने कहा कि अब इसको गिराओ
कहानी कहती है, ऐसे सात दफे नारोपा ने वह मकान गिरवाया। गिरवा कर वह पत्थर वापस फेंको खाई में। फिर चढ़ाओ, फिर मकान बनाओ। ऐसा सात साल तक चला। सात बार वह मकान बना। एक साल में वह बन कर खड़ा हो पाए; गिरवा दे। और सातवीं बार भी जब मकान गिर रहा था, तब भी मिलारेपा ने नहीं कहा कि क्यों?
और कहते हैं कि नारोपा ने कहा कि तेरी शिक्षा पूरी हो गई। जो मुझे तुझे देना था, मैंने दे दिया। और जो तू पा सकता था, वह तूने पा लिया है। बोल! मिलारेपा चरणों में गिर पड़ा।
मिलारेपा से बाद में उसके शिष्य पूछते थे कि हम कुछ समझे नहीं यह क्या हुआ। क्योंकि कोई और शिक्षा तो हुई नहीं। यह लगाना, यह गिराना, बस यही हुआ। मिलारेपा ने कहा कि पहले तो मैं भी समझा कि यह क्या हो रहा है! लेकिन फिर मैंने कहा कि जब एक दफा तय ही कर लिया, तो ज्यादा से ज्यादा एक जिंदगी ही जाएगी न! बहुत जिंदगी बिना गुरु के चली गईं, एक जिंदगी गुरु के साथ सही। ज्यादा से ज्यादा, उसने कहा, एक जिंदगी ही जाएगी न! तो ठीक है। बहुत जिंदगियां ऐसे बिना गुरु के भी गंवा दीं, अपनी बुद्धि से गंवा दीं; इस बार बुद्धि को गंवा कर, दूसरे के हिसाब से चल कर देख लें। जिस दिन, मिलारेपा ने कहा, मैंने यह तय कर लिया, उस दिन से मैं बिलकुल शांत होने लगा। वह पत्थर जमाना नहीं था, जन्मों-जन्मों का मेरा जो सब था, उसने जमवाया-उखड़वाया, जमवाया-उखड़वाया। वह सात बार जो मकान का बनाना और मिटाना था; तुम्हें मकान का दिख रहा हो, वह मेरा ही बनना और मिटना था। और जिस दिन सातवीं बार मैंने मकान गिराया, उस दिन मैं नहीं था। इसलिए उसने मुझसे कहा कि जो मुझे तुझे देना था, दे दिया; और जो तू पा सकता था, वह पा लिया। तुझे कुछ और चाहिए?
"लेकिन जो न अपने गुरु को मूल्य देता है और न जिसे अपना सबक पसंद है, वह वही है जो दूर भटक गया है, यद्यपि वह विद्वान हो सकता है।'
अक्सर--यद्यपि नहीं--अक्सर वह विद्वान होता है।
"यही सूक्ष्म व गुह्य रहस्य है।'

आज इतना ही। कीर्तन करें पांच मिनट; फिर जाएं।


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