अध्याय
31 : खंड 2
अनिष्ट
के
शस्त्रास्त्र
विजय
में भी कोई
सौंदर्य नहीं
है।
और
जो इसमें
सौंदर्य
देखता है,
वह
वही है, जो
रक्तपात में
रस लेता है।
और
जिसे हत्या
में रस है,
वह
संसार पर शासन
करने की
अपनी
महत्वाकांक्षा
में सफल नहीं
होगा।
(शुभ
लक्षण की
चीजें
वामपक्ष को
चाहती हैं,
अशुभ
लक्षण की
चीजें दक्षिणपक्ष
को।
उप-सेनापति
वामपक्ष में
खड़ा होता है,
और
सेनापति दक्षिणपक्ष
में।
अर्थात, अंत्येष्टि
क्रिया की
भांति
यह मनाया जाता
है।)
हजारों
की हत्या के लिए
शोकानुभूति
जरूरी है,
और
विजय का उत्सव
अंत्येष्टि
क्रिया
की भांति
मनाया जाना
चाहिए।
हिंसा
में कौन
उत्सुक है? हत्या
में किसका रस
है? और
विध्वंस
किसकी
अभीप्सा बन
जाती है? इसे
हम थोड़ा समझ
लें; फिर
इस सूत्र पर
विचार आसान
होगा।
सिगमंड
फ्रायड ने इस
सदी में
मनुष्य के मन
में गहरा से
गहरा प्रवेश
किया है। इस
सदी का पतंजलि
कहें उसे।
सिगमंड
फ्रायड की गहनतम
खोज मनुष्य की
दो
आकांक्षाओं
के संबंध में
है। उन दो को
सिगमंड
फ्रायड ने कहा
है--एक को जीवेषणा
और दूसरे को
मृत्यु-एषणा।
आदमी जीना भी
चाहता है, इसकी
भी वासना है, और आदमी के
भीतर मरने की
भी वासना है।
दूसरा
सूत्र समझना
कठिन है।
लेकिन अनेक
कारणों से
दूसरा सूत्र
उतना ही
अपरिहार्य है, जितना
पहला। हर आदमी
जीना चाहता, इसमें तो
कोई शक नहीं
है। जीने की
आकांक्षा सभी
को जन्म के
साथ मिली है।
लेकिन दूसरी
आकांक्षा, जो
जीने के विपरीत
है, मरने
की आकांक्षा,
वह भी हर
आदमी के भीतर
छिपी है।
इसीलिए कोई आत्मघात
कर पाता है; अन्यथा
आत्मघात
असंभव हो जाए।
इसीलिए कोई अपने
को नष्ट कर
पाता है। अगर
भीतर मरने की
कोई आकांक्षा
ही न हो तो
आदमी अपने को
नष्ट ही न कर सके।
जैसे-जैसे
उम्र व्यतीत
होती है, वैसे-वैसे
जीवन का ज्वार
कम हो जाता है
और मृत्यु की
आकांक्षा
प्रबल होने
लगती है। बूढ़े
व्यक्ति
निरंतर कहते
हुए सुने जाते
हैं, अब
परमात्मा उठा
ले। बूढ़ा आदमी
सच में ही
चाहता है अब
विदा हो जाए।
क्योंकि अब
होने का कोई अर्थ
भी नहीं है।
मरने
का कहीं कोई
गहरा खयाल
जवान के भीतर
भी है। ऐसा
जवान आदमी भी
खोजना मुश्किल
है,
जिसे कभी न
कभी मरने का
खयाल न आ जाता
हो कि मैं मर
जाऊं, समाप्त
कर लूं। या इस
सब में क्या
अर्थ है? इस
जीवन में क्या
प्रयोजन है?
आज ही
एक युवती मेरे
पास थी। वह कह
रही थी कि हर महीने
यह बात
बार-बार लौट आती
है कि जीवन
में कोई अर्थ
नहीं है, मर
जाना चाहिए।
अभी तो उसने
जीवन देखा भी
नहीं है।
छोटे
बच्चों तक के
मन में मरने
का खयाल आ
जाता है।
तो अगर
मृत्यु की कोई
आकांक्षा
भीतर न हो तो ये
मरने के खयाल
कहां से
अंकुरित होते
हैं?
मृत्यु की
आकांक्षा भी
भीतर है। और
जब हम पाते
हैं कि जीवन
संभव नहीं रहा,
तो मृत्यु
की आकांक्षा
हमें पकड़ लेती
है।
यह बात
इसलिए भी
जरूरी है कि
जगत में हर
चीजें द्वंद्व
में होती हैं।
प्रकाश है, तो
अंधेरा है; अकेला
प्रकाश नहीं
हो सकता। और
जीवन है, तो
मृत्यु है; अकेला जीवन
नहीं हो सकता।
तो अगर भीतर
जीवेषणा है, तो
मृत्यु-एषणा
भी होनी ही
चाहिए। यह
सारा जगत
द्वंद्व पर
खड़ा है। यहां
हर चीज अपने
विपरीत के साथ
बंधी है।
विपरीत न हो, यह संभव
नहीं मालूम
होता।
अब तो
वैज्ञानिक भी
इस बात को
स्वीकार करने
लगे हैं कि
जीवन के सब
नियम विपरीत
पर खड़े हैं, और
ऐसा कोई नियम
नहीं है जिसका
विपरीत नियम न
हो। विपरीत न
हो तो वह हो ही
नहीं सकता।
करीब-करीब
हालत ऐसी है, जैसे एक
मकान को बनाने
वाला राजगीर
उलटी ईंटें
लगा देता है
दरवाजे पर, गोल दरवाजा
बन जाता है।
विपरीत ईंटें
एक-दूसरे को
सम्हाल लेती
हैं। जिंदगी
विपरीत ईंटों
से बनी है।
यहां हर चीज
का विरोध है, और विरोध के
तनाव में ही
संतुलन है।
जैसे एक लकड़ी
के दो छोर
होंगे, एक
छोर नहीं हो
सकता, ऐसे
ही जीवन की सब
चीजों का
दूसरा छोर भी
है--कितना ही
अज्ञात हो।
तो
फ्रायड चालीस
वर्ष निरंतर
लोगों का
मनोविश्लेषण
करके इस नतीजे
पर पहुंचा कि
लोगों को पता
नहीं है, उनके
भीतर मृत्यु
की आकांक्षा
भी है। पर
हालत ऐसी है, जैसे एक
सिक्का होता
है, उसके
दो पहलू होते
हैं। एक पहलू
ऊपर होता है तो
दूसरा नीचे
दबा होता है, जब दूसरा
ऊपर आता है तो
एक पहला नीचे
चला जाता है।
जवान आदमी में
जीने की
आकांक्षा
प्रबल होती है,
मृत्यु की
आकांक्षा
नीचे दबी रहती
है। कभी-कभी
किसी बेचैनी
में, किसी
उपद्रव में, किसी अशांति
में सिक्का
उलट जाता है; जिंदगी की
आकांक्षा
नीचे और मौत
की ऊपर आ जाती
है। बूढ़े आदमी
में मृत्यु की
आकांक्षा ऊपर
आ जाती है, जीवन
की आकांक्षा
नीचे दब जाती
है। कभी-कभी
किसी वासना के
उद्दाम
प्रवाह में
सिक्का उलट
जाता है और
बूढ़ा भी जीना
चाहता है।
लेकिन एक ही
वासना का आपको
पता चलेगा, दोनों एक
साथ आपको
दिखाई नहीं पड़
सकतीं; क्योंकि
एक ही पहलू आप
देख सकते हैं।
इसीलिए यह
भ्रांति पैदा
होती है कि
हमारे भीतर एक
ही आकांक्षा
है--जीवन की।
दूसरी भीतर
छिपी है।
ये जो
दो आकांक्षाएं
हैं आदमी के
भीतर, इन्हें
थोड़ा हम ठीक
से समझें, तो
हिंसा और
अहिंसा के
विचार में
बहुत गहन गति
हो पाएगी। जब
आपकी जीवन की
वासना ऊपर
होती है, तो
आपके स्वयं के
मरने की वासना
नीचे दबी होती
है। और जो
आदमी जीना
चाहता है
प्रबलता से, वह आदमी
मरना नहीं
चाहता। लेकिन
उसके जीवन की गति
में कोई बाधा
बने तो उसे
मारना चाहता
है। जिसकी
जीवन की वासना
प्रबल है, वह
दूसरे के जीवन
को नष्ट करके
भी अपने जीवन
की वासना को
पूरा करना
चाहता है।
हिंसा इसी से पैदा
होती है।
हिंसा, अपने
ही भीतर जो
मृत्यु की
वासना है, उसका
प्रोजेक्शन
है दूसरे के
ऊपर, उसका
प्रक्षेपण है
दूसरे के ऊपर।
मेरे भीतर जो
मृत्यु छिपी
है, उसे
मैं दूसरे पर
थोपना चाहता
हूं। हिंसा का
मनोवैज्ञानिक
अर्थ यही है:
मैं नहीं मरना
चाहता। मैं
अपने जीने के
लिए, चाहे
सबको मारना
पड़े, तो
उसकी भी मेरी
तैयारी है; लेकिन मैं
नहीं मरना
चाहता। हर
हालत में, सारा
जगत भी नष्ट
करना पड़े, तो
मैं तैयार हूं;
लेकिन मैं
जीना चाहता
हूं। आदमी के
भीतर दोनों
संभावनाएं
हैं। जब आदमी
जीवन को पकड़
लेता है, तो
उसकी मरने की
वासना का क्या
हो? वह भी
उसके भीतर है।
उसे प्रोजेक्ट
करना पड़ता है,
उसे दूसरे
पर थोपना पड़ता
है। नहीं तो
बेचैनी होगी,
कठिनाई
होगी। दोनों
की मांग है
पूरा होने की।
आप एक को पकड़े
हैं तो दूसरे
का क्या
करिएगा? उसे
आपको दूसरे पर
आरोपित करना
होता है।
इसलिए
जितना
जीवेषणा से
भरा हुआ
व्यक्ति होगा, उतनी
ही हिंसा से
भरा हुआ
व्यक्ति भी
होगा।
अगर
बुद्ध या
महावीर
अहिंसक हो सके, तो
उसका पहला
सूत्र यह है
कि उन्होंने
जीने की वासना
छोड़ दी। नहीं
तो वे अहिंसक
नहीं हो सकते।
उन्होंने
जीने की कामना
ही छोड़ दी।
बुद्ध ने तो
कहा है कि अगर
जरा सी भी
वासना जीने की
है, तो
आदमी दूसरे को
मिटाने को
हमेशा तैयार
होगा।
आप
लड़ते ही कब
हैं?
जब आपको डर
होता है कि
कोई आपके जीवन
को छीनने आ
रहा है--चाहे
झूठ ही हो यह
डर। आप भयभीत
कब होते हैं? जब आपको
लगता है आपका
जीवन छिन
जाएगा, तो
भयभीत होते
हैं। भय का एक
ही अर्थ है कि
मेरा जीवन न
छिन जाए। तो
हम सुरक्षा
करते हैं। उस
सुरक्षा में
अगर हमें दूसरे
का जीवन छीनना
पड़े, तो हम छीनेंगे।
शवीत्जर ने, एक
बहुत
विचारशील
व्यक्ति ने, भारत को मृत्युवादी
कहा है। उसकी
बात में थोड़ी
सचाई है, थोड़ी।
जिस अर्थ में
वह कहना चाहता
है, वह तो
ठीक नहीं है; लेकिन थोड़ी
सचाई है।
क्योंकि भारत
के जो भी बड़े
मनीषी हैं, वे जीवेषणा
से भरे हुए
नहीं हैं। वे
कहते हैं, जीवेषणा
हिंसा पैदा
करती है।
जब मैं
बहुत जोर से
जीना चाहता
हूं,
तो मैं
दूसरे की
मृत्यु का
कारण बन जाता
हूं। और दूसरे
भी इतने ही
जोर से जीना
चाहते हैं, वे मेरी
मृत्यु का
कारण बन जाते
हैं। जी कोई
भी नहीं पाता;
हम एक-दूसरे
की मृत्यु के
कारण बन जाते
हैं। हम
एक-दूसरे के
जीवन को काटते
हैं; जी
कोई भी नहीं
पाता।
तो
बुद्ध या
महावीर कहते
हैं,
ऐसी
जीवेषणा का
क्या मूल्य, जो दूसरे के
जीवन का घात
बनती हो! अगर
यही जीवन है, जिसमें
दूसरे की
हिंसा अनिवार्य
है, तो इस
जीवन को छोड़
देने जैसा है।
भारत
की आकांक्षा
रही है: ऐसे
जीवन की तलाश, जो
दूसरे के जीवन
के विरोध में
न हो। उसको
हमने परम जीवन
कहा है। एक
ऐसे सत्व की
खोज, एक
ऐसी स्थिति की
खोज, जहां
मेरा होना
किसी के होने
में बाधा न
बनता हो। और
अगर मेरा होना
किसी के होने
में बाधा बनता
है, तो
भारत इस होने
को दो कौड़ी
का मानता रहा
है। फिर इसका
कोई मूल्य
नहीं है। फिर
ऐसे होने को
करके भी, लेकर
भी क्या
करेंगे? ऐसे
जीवन को क्या
करेंगे, जो
लाश पर ही खड़ा
होता हो दूसरे
की? जो
दूसरे को मिटा
कर ही बनता हो,
ऐसी बनावट
के भारत पक्ष
में नहीं है।
तो शवीत्जर
ठीक कहता है, उसकी
आलोचना में
सचाई है कि
भारत मृत्युवादी
है। सचाई इतनी
ही है कि भारत जीवेषणावादी
नहीं है।
लेकिन शब्द
अनुचित है, मृत्युवादी कहना ठीक
नहीं।
क्योंकि जो
जीवन को ही
नहीं मानता, वह मृत्यु
को क्या
मानेगा? जिसका
जीवन में ही
रस नहीं है, उसका मृत्यु
में रस कैसे
हो सकता है?
तो
भारत वस्तुतः
न तो जीवेषणावादी
है और न
मृत्यु-एषणावादी
है। भारत तो
मानता है, ये
दोनों एषणाएं
साथ-साथ हैं; इनमें से एक
का त्याग नहीं
हो सकता। एक
सिक्के का मैं
एक पहलू
त्यागना
चाहूं, यह
कैसे हो सकता
है? पूरा
सिक्का फेंक
सकता हूं, या
पूरा सिक्का
बचा सकता हूं।
लेकिन सोचूं
कि एक पहलू बच
जाए और एक
फेंक दूं, तो
मैं पागल हूं।
तो भारत कहता
है, या तो
दोनों बचते
हैं, जीवन
की आकांक्षा
के साथ दूसरे
की मृत्यु की
आकांक्षा भी
बच जाती है, अपनी मृत्यु
की आकांक्षा
भी बच जाती
है। और अगर
फेंकना है
जीवेषणा, तो
मृत्यु-एषणा
भी फिंक
जाती है; वह
उसी का दूसरा
पहलू है।
इसलिए
भारत
मुक्तिवादी
है,
मृत्युवादी नहीं।
मुक्ति का
अर्थ है: जीवन
और मृत्यु दोनों
के पार। जीवन
का अर्थ है
मृत्यु के
विरोध में, मृत्यु का
अर्थ है जीवन
के विरोध में;
मुक्ति का
अर्थ है दोनों
के पार। किसी
के विरोध में
नहीं, किसी
के पक्ष में
नहीं; दोनों
से अलग। इसलिए
भारत का सारा
चिंतन मोक्ष
के इर्द-गिर्द
घूमता रहा है।
यह मोक्ष क्या
है? यह
मोक्ष ऐसे
होने की
अवस्था है, जहां मेरा
होना किसी के
होने का शोषण
नहीं है।
इसे थोड़ा
ठीक से समझ
लें। जहां मैं
होता हूं, इससे
कोई मिटता
नहीं, कोई
भी नहीं मिटता;
मेरे होने
से किसी की
हिंसा नहीं
होती; मेरा
होना शुद्धतम,
निर्दोष और
पवित्र हो
जाता है; उसमें
कोई रेखा
हिंसा की नहीं
रह जाती। अगर
ऐसा कोई जीवन
है, तो
भारत कहता है,
ऐसा जीवन ही
पाने योग्य
है। इस पृथ्वी
पर तो हम जो
जीवन देखते
हैं, वह
जीवन किसी न
किसी रूप में
हिंसा पर खड़ा
है। इसलिए
भारत को इस
पृथ्वी की
आकांक्षा ही न
रही। हमने जो
श्रेष्ठतम
मनीषी पैदा
किए, वे
पृथ्वी के पार
जाने की
उद्दाम
अभीप्सा से भरे
हुए लोग हैं।
वे कहते हैं, अगर यही
जीवन है तो
जीवन जीने
योग्य नहीं
है। एक और जीवन
हो सकता है
क्या?
शरीर
के रहते तो उस
जीवन की
संभावना
मुश्किल मालूम
पड़ती है।
क्योंकि शरीर
का होना तो
हिंसा पर
निर्भर है; चाहे
भोजन करें हम,
चाहे श्वास
लें, चाहे
पानी पीएं,
चाहे एक कदम
रखें, लेटें,
उठें, बैठें, हिंसा चलती
है। शरीर
हिंसा ही के
आधार पर है। लेकिन
चेतना, भीतर
शरीर के जो
होश, जो
जागरूकता है,
जो बोध है, उसके लिए
किसी की हिंसा
की कोई जरूरत
नहीं है।
इसलिए हम इस
बात की भी
तलाश करते रहे
हैं कि कैसे
शरीर के पार
के तत्व का
पता चल जाए।
और शरीर को
हमने एक आवश्यक
बुराई की तरह
स्वीकार किया
है। उसका इतना
ही उपयोग है
कि उसके रहते
हमें उसका पता
चल जाए जो
शरीर नहीं है।
जैसे ही उसका
पता चल जाए जो शरीर
नहीं है, फिर
शरीर में आने
का, लौटने
का कोई कारण
नहीं रह जाता।
जीवेषणा
खुद की हो, तो
मृत्यु-एषणा
दूसरे पर टिक
जाती है। आज
नहीं कल, खुद
पर वापस लौट
सकती है। वह
हमारी ही
वासना है, कभी
भी वापस लौट
सकती है।
एक
आदमी के मकान
में आग लग गई।
अभी क्षण भर
पहले तक वह
जीवेषणा से
भरा था। बड़े
सपने थे दुनिया
में रहने के, होने
के। अचानक वह
कूद पड़ना
चाहता है आग
में कि मैं मर
जाऊं। क्या हो
गया? क्षण
भर पहले यह
आदमी जीना
चाहता था।
जीने की बड़ी
योजना थी; लंबे
स्वप्न थे, जो पूरे
करने थे; समय
कम था। अब
अचानक यह आदमी
कहता है, मैं
मर जाना चाहता
हूं, मुझे
छोड़ दो, मैं
कूद जाऊं, इस
मकान के साथ
जल जाऊं। क्या
हुआ? जीवेषणा
मृत्यु-एषणा
कैसे बन गई? वह जो जीना
चाहता था, मरना
क्यों चाहता
है?
सब
जीने की शर्त
होती है।
ध्यान रखना, आप
भी जी रहे हैं,
उसमें
शर्तें
हैं--पता हों, न हों। इस
आदमी के जीने
की शर्त
थी--इसको पता
नहीं था अब
तक--कि यह महल
रहेगा तो ही जीऊंगा।
आज महल जल रहा
है तो जीना
व्यर्थ हो
गया। कोई आदमी
किसी को प्रेम
करता है; उसकी
पत्नी मर जाए,
बच्चा मर
जाए, पति
मर जाए--मरना
चाहता है।
हमारे
मुल्क में
हजारों
स्त्रियां
सती होती रहीं।
सती होने का
क्या मतलब है? उसका
मतलब है, जीवन
की एक शर्त थी
कि वह पति के
साथ ही...। वह
शर्त टूट गई, तो जीवेषणा
मृत्यु-एषणा
बन गई। अब वह
पति के साथ ही
मर जाना चाहती
है स्त्री।
उसका मतलब यह
हुआ कि एक
शर्त थी
सुनिश्चित, उसके बिना
जीवन स्वीकार
नहीं, उसके
बिना मृत्यु
स्वीकार है।
एक
मित्र को मैं
जानता हूं; वे
एक राज्य के
मुख्य मंत्री
थे। बूढ़े हो
गए थे। उनके
घर मैं मेहमान
था। ऐसे ही
बात चलती थी; बातचीत में
वे भूल से कह
गए, फिर पछताए
भी और कहा कि
किसी और को मत
कहना। लेकिन
अब वे नहीं
हैं, इसलिए
कोई अड़चन नहीं
है। वे ऐसे ही
बातचीत में, रात गपशप
चलती थी, वे
मुझसे कह गए
कि मेरी एक
इच्छा है कि
मुख्य मंत्री
रहते ही मर
जाऊं; क्योंकि
बिना मुख्य मंत्री
के फिर मैं एक
मिनट न जी
सकूंगा। जब से
भारत आजाद हुआ,
तब से वे
मुख्य मंत्री
थे उस राज्य
के। बस एक ही
इच्छा है कि
मुख्य मंत्री
रहते मर जाऊं।
मुख्य मंत्री
नहीं रहा तो
फिर न जी
सकूंगा।
ऐसे वे
एक स्कूल के
मास्टर थे
आजादी के
पहले। लेकिन
अब वापस, मुख्य
मंत्री का महल
छोड़ कर अब
वापस उनकी
हिम्मत न थी
पुरानी
स्थिति में
लौट जाने की।
उनकी स्थिति
दयनीय थी। और
मैं मानता हूं
कि अगर वे
मुख्य मंत्री
रहते न मरते, तो वे
आत्महत्या कर
लेते; वे
इतने ही बेचैन
और परेशान
आदमी थे।
शर्तें
हैं हमारी
जीने की। जीवन
सशर्त है। तो शर्त
टूट जाए तो हम
मरने को राजी
हो जाते हैं।
आप अपनी हत्या
करें या दूसरे
की,
कारण सदा एक
होता है।
दूसरे की भी
आप हत्या इसीलिए
करते हैं कि
वह आपके जीवन
में बाधा बन
रहा था। और
अपनी भी आप
हत्या इसीलिए
कर लेते हैं कि
अब आपका स्वयं
का जीवन भी
आपके सशर्त
जीवन की आकांक्षा
में बाधा बन
रहा था। उसे
मिटा डालते
हैं।
यह जो
हिंसा की
वृत्ति है, यह
इसी मृत्यु
की--इसको
फ्रायड ने
थानाटोस कहा
है--यह
मृत्यु-एषणा
का हिस्सा है।
अगर, जैसा
फ्रायड कहता
है, उतनी
ही बात हो, तो
फिर आदमी को
इससे मुक्त
कैसे किया जा
सकता है? इसलिए
फ्रायड कहता
है कि ज्यादा
से ज्यादा
आदमी को हम कम
से कम हिंसा
के लिए
नियोजित कर
सकते हैं; लेकिन
पूर्ण अहिंसा
के लिए नहीं।
आदमी तो हिंसक
रहेगा ही।
इसलिए हम उसकी
हिंसा को सब्लीमेट
कर सकते हैं, उसकी हिंसा
को हम थोड़ा सा
ऊर्ध्वगामी
कर सकते हैं।
कई तरह के
ऊर्ध्वगमन
हैं हिंसा के,
वह भी खयाल
में ले लें, तो आपको पता
चले कि वहां
भी आप हिंसा
ही कर रहे हैं।
दो
पहलवान
कुश्ती लड़ रहे
हैं;
आप देखने
चले जा रहे
हैं। हजारों,
लाखों लोग
इकट्ठे होते
हैं पहलवान को
कुश्ती लड़ते
देखने। आप
क्या देखने जा
रहे हैं? आपको
क्या रस मिल
रहा होगा? एक
आदमी पिटेगा,
कुटेगा,
गिरेगा; एक
गिराएगा,
दूसरा उसकी
छाती पर सवार
होगा; आपको
क्या पुलक
होती है? स्टुपिड, बिलकुल मूढ़तापूर्ण
है। आप किसलिए
पहुंच गए हैं
देखने?
मगर
लोगों को
देखें, जब
कुश्ती हो रही
हो, तो वे
अपनी कुर्सी
पर बैठ नहीं
सकते; इतनी
शक्ति से भर
जाते हैं कि
उठ-उठ आते
हैं। सांस
उनकी तेज चलने
लगती है, रीढ़
सीधी हो जाती
है; जैसे
उनके प्राण
अटके हैं किसी
बड़ी घटना में।
हो क्या रहा
है? आपके
भीतर जो हिंसा
की वृत्ति है,
उसकी केथार्सिस
हो रही है, वह
बाहर निकल रही
है। आप मजा ले
रहे हैं। असल
में, अब आप
इतने बलशाली
भी नहीं हैं
कि खुद ही
हिंसा कर लें,
वह आप
नौकरों से
करवा रहे हैं।
वे किराए के
आदमी कर रहे
हैं वह काम।
अब हम
किसी भी काम
को करने में
खुद समर्थ
नहीं हैं। अगर
आपको प्रेम
करना है तो आप
खुद नहीं कर
सकते। तो नाटक
या फिल्म में
दूसरों को
प्रेम करते
देखते हैं।
आपके नौकर
प्रेम कर रहे
हैं,
आप देख रहे
हैं। बड़ा
हलकापन लगता
है; तीन
घंटे नासमझियां
देख कर जब आप
लौटते हैं, तो मन हलका
हो जाता है।
क्यों?
यह सब
आप करना चाहते
थे। आपके भीतर
ये वेग हैं।
जब फिल्म के
पर्दे पर
पुलिस डाकू का
पीछा कर रही
हो,
और
सनसनीखेज हो
जाए स्थिति, और
रोआं-रोआं
कंपने लगे, पहाड़ी
रास्ते हों, भागती हुई
कारें हों और
ऐसा लगे कि अब
दुर्घटना, अब
दुर्घटना, तब
आप इस हालत
में हो जाते
हैं जैसे कार
के भीतर हैं।
वह तो अच्छा
है कि फिल्म
के हाल में
अंधेरा रहता
है, कोई
किसी को देख
नहीं सकता।
एकदम से उजाला
हो जाए, तो
आप शघमदा
हो जाएंगे कि
क्या कर रहे
थे! इतने जोश
में आप क्यों
आ गए थे?
आपके
भीतर भी कुछ
हो रहा था। वह
आप हलके हो
रहे थे। आप
कुश्ती देख
रहे हैं, दंगा-फसाद
देख रहे हैं, युद्ध देख
रहे हैं; आपके
भीतर कुछ हलका
हो रहा है।
नौकरों से काम
लिया जा रहा
है; आप जो
नहीं कर सकते
हैं, वह अब धंधेबाज
लोग उस काम को
कर रहे हैं।
आप नाच नहीं
सकते, कोई
नाच रहा है; आप गा नहीं
सकते, कोई
गा रहा है; आप
दौड़ नहीं सकते,
कोई दौड़ की
प्रतियोगिता
कर रहा है; आप
लड़ नहीं सकते,
कोई लड़ रहा
है। हमने अपनी
हिंसा को
निकास के रास्ते
बना रखे हैं।
और सारी
दुनिया में इस
तरह के उपाय
समाजों ने
छोड़े हैं--छुट्टी
के दिन। जैसे
होली; वह
छुट्टी का दिन
है। उस दिन
जो-जो नालायकी
आपको करनी हो,
वह आप मजे
से कर सकते
हैं। उसको कोई
एतराज नहीं
लेगा। लेकिन
आप कर रहे हैं
वह, यह
आपने कभी सोचा
कि क्यों कर
रहे हैं? आप
साल भर ही
करना चाहते, लेकिन
छुट्टी नहीं
थी। यह तो दिल
आपका था साल ही
भर करने
का--गाली देने
का, गंदगी
फेंकने का, दूसरे को
परेशान करने
का--यह तो आपका
मन सदा से था।
समझदार समाज
आपको साल में
कभी-कभी
छुट्टी देता
है, ताकि
आपका कचरा
निकल जाए, थोड़ी
राहत मिले, थोड़ी राहत
मिले।
सारी
दुनिया में
सभी समाज, विशेषकर
सभ्य समाज।
असभ्य समाज
नहीं करते ऐसी
व्यवस्था; क्योंकि
कोई जरूरत
नहीं है। साल
भर ही वे यह करते
हैं। इसलिए
कोई उनको होली
की जरूरत नहीं
है; साल भर
होली है।
जितना सभ्य
समाज होगा, उतना उसे
रास्ता बनाना
पड़ेगा निकास
का। फिर हम
उसको हलके मन
से लेंगे; फिर
आप उसमें
एतराज नहीं
उठाएंगे।
क्योंकि, आपने
कभी सोचा ही
नहीं कि आपकी
यह जरूरत है; मानसिक
जरूरत है।
सारी
दुनिया में
खेल है, प्रतियोगिता
है, ओलंपिक्स हैं। हमारी
सब हिंसा का
उपाय है कि
कहीं से वह बह
जाए, निकल
जाए। यह सब्लिमेशन
है, यह
ऊर्ध्वगमन
है--मनोविज्ञान
की भाषा में।
कुछ बहुत
ऊर्ध्वगमन
नहीं है, लेकिन
सीधी हिंसा
नहीं है। और
किसी को कोई
बहुत नुकसान
नहीं होता। पर
आपके भीतर
हिंसा है और
वह मांग करती
रहती है
निकलने की, इसे आपको
समझ रखना
चाहिए।
इसलिए
जब युद्ध होता
है,
तो लोगों के
चेहरे पर रौनक
आ जाती है।
आनी नहीं
चाहिए, उदासी
छा जानी
चाहिए। लेकिन
होता उलटा है।
युद्ध जब होता
है, तो लोग
रौनक से भर
जाते हैं, पैरों
में गति आ
जाती है, जिंदगी
में पुलक
मालूम होती
है--कुछ हो रहा
है! ऐसे ही
जिंदगी बेकार
नहीं जा रही, चारों तरफ
कुछ हो रहा
है। हवा गरम
है; उसमें
आप भी गरमा
जाते हैं। आप
कितनी ही
निंदा करते
हों युद्धों
की, लेकिन
अपने भीतर
देखेंगे, तो
आपको रस आता
है। हां, आपके
घर पर ही
युद्ध न आ जाए;
तब आपको
चिंता होती
है। वह कहीं
दूर होता रहे--वियतनाम
में, बंगलादेश में, इजराइल में--आप
बिलकुल
प्रसन्न हैं।
होता रहे। सुन
कर भी, टेलीविजन
पर देख कर, रेडियो
पर सुन कर भी, आपको हलकापन
आता है।
आदमी
क्या हिंसा से
मुक्त कभी भी
नहीं हो सकेगा?
मनोविज्ञान
के पास तो कोई
उपाय नहीं है
और निराशा है।
मनोविज्ञान
कहता है, इतना
ही हो सकता है
कि हम आदमी की
हिंसा को समुचित
मार्गों पर
गतिमान कर
दें। ठीक है, ओलंपिक देखो,
पहलवानों
को लड़ाओ, फिल्म देखो,
यह ठीक है।
सीधी मत करो।
इस तरह अपने
मन को निकाल
लो, हलका
कर लो। बस
इतना ही हो
सकता है।
या फिर
हम आदमी को
बदलें।
मनोविज्ञान
को आशा नहीं
मालूम होती।
लेकिन
लाओत्से, बुद्ध
को आशा है; वे
मानते हैं, आदमी बदला
जा सकता है।
आदमी के बदलने
का एक ही उपाय
है कि आदमी
पहले अपनी
वस्तुस्थिति
से पूरी तरह
परिचित हो
जाए। पहले तो
वह जान ले कि
उसके भीतर
हिंसा छिपी
पड़ी है। इसे
स्वीकार करना अहिंसा
की दिशा में
पहला कदम है।
लेकिन
हम इसे
स्वीकार नहीं
करते। हम तो
अपने को
अहिंसक मानते
हैं। क्योंकि
कोई रात में
पानी नहीं
पीता, वह
अहिंसक है; कोई पानी
छान कर पी
लेता है, वह
अहिंसक है; कोई मांस
नहीं खाता, वह अहिंसक
है। हमने
अहिंसा की बड़ी
सस्ती तरकीबें
खोज निकाली
हैं।
लेकिन
जो मांस नहीं
खाता उसके
व्यवहार में
और जो मांस खाता
है उसके
व्यवहार में, कभी
आपने फर्क
देखा है कि
कोई हिंसा का
फर्क हो? कोई
फर्क नहीं है।
जो आदमी पानी
छान कर पीता है
और जो बिना छाने
पीता है, क्या
उनका दोनों का
व्यवहार देख
कर कोई भी बता
सकता है कि
इनमें कौन
पानी छान कर
पीता है? कोई
भी नहीं बता
सकता। तो अहिंसा
क्या हुई? उन
दोनों का
व्यवहार एक
जैसा है।
अगर एक
जैन दूकानदार
है,
जो सब तरह
से अहिंसा को
ऊपर से साध
रहा है, और
एक मुसलमान
दूकानदार है,
जो
मांसाहारी है
और किसी तरह
की ऊपरी हिंसा
को छोड़ नहीं
रहा है। क्या
ग्राहक के
संबंध में उन
दोनों का जो
व्यवहार है, उसमें रत्ती
भर भी फर्क
होता है? कोई
फर्क नहीं
होता। डर तो
यह है कि जो सब
तरफ से हिंसा
से रोक रहा है
अपने को, वह
ग्राहक की
गर्दन ज्यादा दबाएगा।
क्योंकि उसे
दबाने का और
कहीं मौका
नहीं है, फैलाव
नहीं है। तो
उसकी गर्दन
दबाने की
वृत्ति
ज्यादा तीव्र
हो जाए, इसकी
संभावना है।
क्योंकि
हिंसा अगर
बहुत सी चीजों
में फैल जाए
तो उसकी
मात्रा कम हो
जाती है, डाइल्यूट हो जाती है।
सब तरफ से
सिकोड़ ली जाए
तो फिर उसकी
मात्रा घनी हो
जाती है; फिर
वह सीधी ही पकड़ती
है।
इसलिए
अक्सर यह होता
है और इसमें
आश्चर्य होता
है हमें। भारत
कई अर्थों में
अहिंसक
है--ऊपरी
अर्थों में।
पश्चिम के
मुल्क ऊपरी
अर्थों में
हिंसक हैं।
लेकिन अगर
आदमियत, ईमानदारी,
सचाई, वचन
का भरोसा करना
हो, तो
भारत के आदमी
का नहीं किया
जा सकता। क्या
मामला है? होना
नहीं चाहिए।
अगर यह अहिंसा
इतनी साधी जा रही
है, तो
भारत का आदमी
अलग ही तरह का
आदमी होना
चाहिए। लेकिन
आज हम देखते
हैं कि
मनुष्यता की
दृष्टि से
पश्चिम का
हिंसक आदमी भी
हम से बेहतर
साबित हो रहा
है। क्या कारण
होगा? कारण
एक है, और
वह यह है कि हम
जो छोटी-मोटी
अहिंसा साधते
हैं, उससे
हम अपनी हिंसा
के निकास का
उपाय भी नहीं छोड़ते।
फिर वह एक ही
तरफ, एक
दिशा में
हमारी हिंसा
यात्रा करने
लगती है; बहुत
सघन हो जाती
है।
इससे
क्या नतीजा
लिया जा सकता
है?
नतीजा एक
लिया जा सकता
है कि ऊपर से
जो जबरदस्ती,
ठोंक-पीट कर
छोटी-मोटी
हिंसा से
बचेगा और छोटी-मोटी
दिखाऊ अहिंसा साधेगा, वह एक तथ्य
से वंचित हुआ
जा रहा है
जानने के कि
उसके भीतर गहरी
हिंसा भरी है।
वह अपने आचरण
में थोड़ा-बहुत
उपाय करके
भुला लेगा। और
वह भुलाना
बहुत खतरनाक
है। आपके ऊपरी
आचरण के अंतर
से कोई बहुत
फर्क नहीं
पड़ता। आपके
भीतर हिंसा है,
उसे देखने
से बहुत फर्क
पड़ेगा, उसे
पहचानने से बहुत
फर्क पड़ेगा।
उसकी जितनी
गहरी समझ हो
जाएगी, उतना
ही उससे मुक्त
होना आसान हो
जाएगा।
और जब
तक आपके भीतर
हिंसा का पहलू
है,
तब तक आपके
जीवन में
सौंदर्य नहीं
हो सकता। यह
दूसरी बात हम
खयाल में ले
लें, फिर
सूत्र में
प्रवेश करें।
एक ही प्रकार
का सौंदर्य है
जगत में, और
वह सौंदर्य है
भीतर से सब
तरह की हिंसा,
विध्वंस की
वृत्ति का
विसर्जन हो
जाना। जब भीतर
किसी तरह की
हिंसा की
वृत्ति और
विध्वंस का
भाव नहीं रह
जाता, तो
भीतर की चेतना
कमल के फूल की
तरह खिल जाती
है।
हमने
बुद्ध में, महावीर
में वही
सौंदर्य देखा
है। एक सौंदर्य
है शरीर का; वह केवल
धारणा की बात
है। वह कुछ है
नहीं। बुद्ध
कहीं भी जाएं,
कैसे भी
आदमी के पास
से गुजरें,
कहानी तो
कहती है कि
पशु के पास से
भी गुजरें,
तो भी उनके
सौंदर्य से
आंदोलित हो
जाएगा।
एक
सौंदर्य शरीर
का है; वह
मान्यता की
बात है। कहीं
लंबी नाक
सुंदर है, कहीं
नहीं है। कहीं
सफेद चमड़ी
सुंदर है, कहीं
नहीं है। अभी
मैं एक अमरीकन
विचारक की किताब
पढ़ रहा था।
उसने लिखा है
कि सफेद चमड़ी
जो है, एक
तरह की बीमारी
है। वह खुद ही
सफेद चमड़ी का
आदमी है; लेकिन
बड़ी हिम्मत की
बात लिखी है।
उसने लिखा है
कि सफेद चमड़ी
जो है, वह
एक तरह की
बीमारी है।
क्योंकि सफेद
चमड़ी के आदमी
में कुछ पिगमेंट
कम हैं, जो
काली चमड़ी के
आदमी में हैं।
और वे जो पिगमेंट
हैं, जो
काली चमड़ी के
आदमी में हैं,
जीवन की
सुरक्षा के
लिए बड़े जरूरी
हैं। वह डाक्टर
है आदमी और
उसका कहना है
कि सफेद चमड़ी
जो है, वह
एक तरह की
बीमारी है।
सफेद चमड़ी कोई
सौंदर्य नहीं
है।
अगर आप अमेजान के
किनारे बसे
हुए जंगली
आदमियों से
पूछें, तो वे
सफेद चेहरे को
सफेद कहते ही
नहीं, वे
पेल फेस कहते
हैं, पीला
चेहरा। और वे
कहते हैं कि
यह रुग्ण आदमी
है।
सफेदी
कोई सौंदर्य
नहीं है; मान्यता
की बात है। इसलिए
हमने कृष्ण को,
राम को गोरा
नहीं बनाया; क्योंकि उन
दिनों हम गोरे
को कोई सुंदर
नहीं मानते
थे। पता नहीं,
राम और
कृष्ण सांवले
थे कि नहीं; यह दूसरी
बात है। लेकिन
एक बात पक्की
है कि उस दिन
जिन
चित्रकारों
ने उनके चित्र
बनाए और मूर्तियां
गढ़ीं, उनकी
मान्यता यह थी
कि सांवले
का मुकाबला
नहीं है, सांवला
ही सुंदर है।
इसलिए कृष्ण
को हमने नीलवर्ण,
श्याम नाम
ही दे दिया, सांवला। उन
दिनों भारत की
धारणा ऐसी थी
कि सफेदी में
एक तरह का
उथलापन है; सांवले में एक तरह
का गहरापन है।
जब नदी गहरी
हो जाती है, तो सांवली
हो जाती है; जब आकाश से
बादल हट जाते
हैं, तो
आकाश सांवला
हो जाता है; जितना गहन
और गहरा होता
है, उतनी
नीलिमा छा
जाती है। तो
उन दिनों भारत
की कल्पना थी
सौंदर्य की सांवले
की। सफेद को
हम कभी सुंदर
नहीं माने
हैं।
लेकिन
यह मान्यता की
बात है।
मान्यता
बदलती चली
जाती है। और
शरीर का
सौंदर्य
बिलकुल ही
धारणा पर
निर्भर है। जो
आज सुंदर है, कल
असुंदर हो
जाएगा। जो कल
असुंदर था, वह आज सुंदर
हो सकता है।
एक और
सौंदर्य है, जो
धारणा की बात
नहीं है; जो
आंतरिक
अवस्था की, अस्तित्वगत
बात है। बुद्ध
किसी भी युग
से गुजरें
और कैसी ही
धारणा के लोग
हों, बुद्ध
का सौंदर्य
छुएगा। वह
सौंदर्य शरीर
का नहीं है, वह चुंबक
भीतर का है।
यह चुंबक उस
आदमी में ही गहन
हो जाता है, जिस आदमी
में भीतर की
हिंसा क्षीण
हो जाती है।
क्यों? वह
हमें क्यों
आकर्षित करता
है?
सुंदर
का मतलब है जो
खींचे, आकर्षित
करे। इसलिए
हमने कृष्ण को
नाम ही कृष्ण
दे दिया।
कृष्ण का मतलब
है जो खींचे, आकर्षित
करे। आकृष्ट
करे वह कृष्ण,
खींच ले जो,
कशिश हो
जिसके भीतर।
इसे हम
ऐसा समझें कि
जब भी कोई
आदमी आपके
प्रति क्रोध
से भरता है, तो
उस आदमी का
सारा आकर्षण
आपके लिए
समाप्त हो
जाता है, विकर्षण
पैदा हो जाता
है। अगर कोई
आदमी आपके
प्रति हिंसा
से भरा है, आपको
पता भी न हो, तो भी उस
आदमी के पास
आपको बेचैनी
मालूम होगी; वह आदमी से
आप रिपेल्ड
अनुभव करेंगे,
हटते हुए, बच जाएं--दूर
हो जाए, यह
आदमी हट जाए।
कभी ऐसा लगता
है कि कोई
आदमी, बिलकुल
अपरिचित, अनजान,
आपको पहली दफा
दिखता है और
आप हट जाना
चाहते हैं।
क्या बात होगी?
जो भी
आपके प्रति
हिंसा से भरता
है,
उससे आपका
विकर्षण पैदा
होता है। अगर
आप भी हिंसा
से भरे हैं
किसी के प्रति
तो विकर्षण
पैदा होगा। और
अगर आप हिंसा
से भरे ही हैं,
किसी के
प्रति का कोई
सवाल नहीं, तो जो भी आपके
पास आएगा, वह
दूर हटना
चाहेगा। कभी
आपने अनुभव
किया है कि
लोग आपके पास
आना नहीं
चाहते, या
आते हैं तो
दूर हट जाते
हैं, या आप
उनको खींचते
हैं तो वे
भागते हैं।
अगर ऐसा अनुभव
भी होगा, तो
आप समझेंगे वे
लोग ही गलत
हैं। लेकिन
थोड़ा विचार
करना, अगर
भीतर हिंसा है,
तो हिंसा
विकर्षक है; वह उलटा
मैग्नेटिज्म
है उसमें, दूर
हटाती है।
स्वाभाविक भी
है। क्योंकि
जहां हिंसा हो,
वहां आपके
जीवन को खतरा
है; इसलिए
दूर हट जाना
उचित है।
जब
हिंसा
विसर्जित हो
जाती है, तो
इससे उलटी
घटना घटती है।
जिसके भीतर से
हिंसा
विसर्जित हो
जाती है, आप
अचानक जैसे
उसमें गिर
जाना चाहते
हैं, उससे
एक हो जाना
चाहते हैं, उसके पास
होना चाहते
हैं, उसके
निकट होना
चाहते हैं। एक
अदम्य आकर्षण
आपको उसकी तरफ
खींचने लगता
है।
अगर
बुद्ध और
महावीर के पास
सैकड़ों
लोग आकर्षित
होकर डूब गए, तो
उसका कारण, वह जो कह रहे
थे, वह
नहीं था।
क्योंकि
उन्होंने जो
कहा है, वह
किताबों में
रखा है। और आप
किताब पढ़ लें,
आप कुछ
दीवाने हो
नहीं जाएंगे।
गीता कितनी दफे
आपने पढ़ ली!
लेकिन जो
अर्जुन ने
जाना है, वह
आप नहीं जान
पाएंगे।
क्या, फर्क
क्या है? वहां
वह आदमी मौजूद
था, जिसके
होने में
आकर्षण था।
गीता आपको कनविन्स
नहीं कर पाएगी,
कितना ही
पढ़ें। कृष्ण
के होने में कनविक्शन
है। वह जो
राजी हो जाना
है आपका, वह
कृष्ण के वचन
से नहीं है, वह कृष्ण की
वाणी से नहीं
है, वह
कृष्ण के
अस्तित्व से
है।
एक
सौंदर्य है, एक
आकर्षण है, जो भीतर की
हिंसा के
विसर्जित हो
जाने से
उपलब्ध होता
है। और एक ही
सौंदर्य है
वस्तुतः, जो
उसे पा लेता
है, वह
सुंदर है। जो
उसे नहीं पाता,
वह कितने ही
आभूषण लगाए और
कितनी ही
सजावट करे और
कितना ही बाहर
से
सजाए-संवारे,
वह सिर्फ
अपनी कुरूपता
छिपा रहा है; सुंदर नहीं
हो पाता।
कुरूपता
छिपाना एक बात
है; सुंदर
हो जाना
बिलकुल दूसरी
बात है।
इसीलिए
महावीर जैसा
व्यक्ति नग्न
भी हो सका; क्योंकि
अब छिपाने को
कुछ बचा ही
नहीं। जिसे छिपाते
थे, वह
कुरूपता न
बची। सौंदर्य
नग्न हो सकता
है, कुरूपता
नग्न नहीं हो
सकती। सिर्फ
सौंदर्य ही
नग्न हो सकता
है। इसका मतलब
यह आप मत
समझना कि जो
भी नग्न हो
जाते हैं, वे
सुंदर हैं।
उलटा नहीं कह
रहा हूं कि जो
भी नग्न हैं, वे सुंदर
हैं। लेकिन
सौंदर्य नग्न
हो सकता है, प्रकट हो
सकता है; क्योंकि
अब कुछ छिपाने
को नहीं है, कुछ भय नहीं
है किसी का।
कुरूपता
भयभीत है, छिपना
चाहती है, ढंकना
चाहती है, आवृत
होना चाहती
है।
अब हम
सूत्र में
प्रवेश करें।
"विजय
में भी कोई
सौंदर्य नहीं
है। और जो
इसमें
सौंदर्य
देखता है, वह
वही है, जो
रक्तपात में
रस लेता है।'
विजय
में भी कोई
सौंदर्य नहीं
है;
क्योंकि
विजय निर्भर
ही हिंसा पर
होती है, विजय
आधृत ही
मृत्यु पर है।
कौन जीतता है?
जो मारने
में ज्यादा
कुशल है, जो
मृत्यु का दूत
आपसे ज्यादा
है। जीतने में
न तो पता चलता
कि सत्य जीत
रहा है, न
पता चलता कि
शिव जीत रहा
है, न पता
चलता कि सुंदर
जीत रहा है; एक बात भर
पता चलती है
कि जो
शक्तिशाली है
वह जीत रहा
है। ब्रूट
फोर्स, पाशविक
शक्ति जीतती
है।
जीसस
को सूली पर
लटका दिया।
जिन्होंने
सूली दी, उनके
पास सिर्फ
पाशविक शक्ति
थी; जीसस
के पास
परमात्मा था।
लेकिन वे सूली
देने वाले
सूली देने में
जीत गए। मंसूर
को जिन्होंने
काटा, उनके
पास तलवारें
थीं; मंसूर
के पास आत्मा
थी। लेकिन
तलवार से
काटने वाले
लोग शरीर
काटने में जीत
गए।
एक बात
खयाल में ले
लें: जितना
श्रेष्ठतर हो
भीतर का अंश, उतना
ही पशुता के
सामने--बाहरी
अर्थों
में--जीत नहीं
पाएगा। आपके
भीतर
आइंस्टीन की
बुद्धि हो, तो भी क्या
फर्क पड़ता है;
एक जोर से
मारा हुआ
पत्थर आपकी
खोपड़ी को तोड़
देगा। और आपके
पास कितनी ही
बड़ी आत्मा हो,
तलवार आपकी
गर्दन को काट
देगी। बाहरी
अर्थों में, पशुता जीत
जाएगी।
एक और
मजे की बात है
कि बाहरी
अर्थों में
सिर्फ पशुता
ही जीतना
चाहती है।
बाहरी अर्थों
में सिर्फ
पशुता ही
जीतना चाहती
है;
बाहरी
अर्थों में, वह जो दिव्यता
है, जीतना
भी नहीं
चाहती।
क्योंकि
जीतने की आकांक्षा
ही पशुता का
हिस्सा है; दूसरे को
जीतने का भाव
ही हिंसा है।
क्यों जीतना
चाहते हैं
दूसरे को? डॉमिनेट करना है? मालकियत
दिखानी है? उसको वस्तु
बना कर अपने
घेरे में, फंदे
में, अपने
कारागृह में
डालना है? दूसरे
को हम जीतना
क्यों चाहते
हैं?
दूसरे
को जीतने का
अर्थ है उसकी
स्वतंत्रता को
नष्ट करना; वस्तुतः
दूसरे को
जीतने का अर्थ
है उसको नष्ट करना।
अगर वह बाधा
डालेगा हमारे
जीतने में तो हम
नष्ट कर
देंगे। या तो
राजी हो हार
कर जीने को तो
हम जीने देंगे,
और या फिर
मरने को राजी
हो। असल में, क्या? दूसरे
को जीतने में
हम क्या चाहते
हैं? दूसरे
को जीतने में
हम दूसरे को
मिटाना चाहते हैं।
और क्यों? क्या
अस्तित्वगत
कारण है इसका?
इसका
कारण छोटी सी
कहानी से कहूं; वह
सबकी सुनी हुई
कहानी है।
अकबर
ने एक दिन एक
लकीर खींच दी
है बोर्ड पर, और
लोगों से कहा
है, अपने दरबारियों
से, कि इसे
बिना छुए छोटा
कर दो। बड़ी
मुश्किल में पड़
गए हैं दरबारी;
वे नहीं कर
पाए। और फिर बीरबल ने
एक लकीर बड़ी
उसके नीचे
खींच दी है।
बड़ी लकीर
खिंचते ही वह
लकीर छोटी हो
गई; कुछ
छुआ भी नहीं
उसे।
ठीक
यही हम कर रहे
हैं हिंसा में--उलटे
तरह से। हम
भीतर बहुत
छोटे हैं। एक
रास्ता तो है
कि इसे हम बड़ा
करें। लेकिन
तब इसे छूना
पड़ेगा, इस
भीतर के
अस्तित्व को
बदलना पड़ेगा।
तब इस भीतर के
अस्तित्व में
संघर्ष और
साधना आएगी।
तब यह भीतर का
अस्तित्व एक
लंबी यात्रा
होगी क्रांति
की, रूपांतरण
की। वह झंझट
का काम है।
इसे हम छूना
भी नहीं चाहते,
फिर भी हम
बड़े होना
चाहते हैं; फिर भी
अहंकार चाहता
है मैं बड़ा
हूं। तो एक सीधा
उपाय है, दूसरे
को छोटा कर
दो। इसको छुओ
ही मत, इस
भीतर की बात
ही छोड़ो, इस आत्मा
वगैरह की झंझट
में मत पड़ो;
दूसरे को
छोटा कर दो।
दूसरा छोटा
होते ही आप
बड़े मालूम
पड़ते हैं।
सारी
हिंसा का रस
दूसरे को छोटा
करके खुद को बड़ा
अनुभव करने का
रस है। आप बड़े
होते नहीं। वह
बीरबल ने
भी अकबर को
धोखा दिया; आप
भी धोखे में
पड़ मत जाना।
वह लकीर उतनी
की उतनी ही
रही, जरा
भी छोटी-बड़ी
नहीं हुई; लेकिन
नीचे एक बड़ी
लकीर खींच
देने से वह
छोटी दिखाई
पड़ने लगी।
छोटी हुई नहीं;
एपियरेंस,
सिर्फ भास
हुआ। वह छोटी
हुई नहीं, क्योंकि
वह उतनी ही
है। और उस
लकीर को कोई
पता भी नहीं
है कि वह छोटी
हो गई। कैसे
पता होगा? वह
तो आप जो बड़ी
लकीर नीचे देख
रहे हैं...।
इसको, जो
लोग दृष्टि और
प्रकाश के
संबंध में खोज
करते हैं, वे
दृष्टि-भ्रम
कहते हैं। बीरबल
ने धोखा दिया।
यह
दृष्टि-भ्रम
है। लकीर उतनी
की उतनी है; अकबर धोखे
में आ गया। वह
धोखा क्यों
पैदा हुआ? एक
बड़ी लकीर
दिखाई पड़ने
लगी; तुलना
पैदा हो गई।
वह छोटी लकीर
छोटी दिखाई पड़ने
लगी--बड़ी की
तुलना में।
लकीर उतनी ही
है।
अकबर
धोखे में भला
आ गया हो, आप
धोखे में मत आ
जाना।
क्योंकि जब आप
दूसरे को छोटा
करते हैं, आप
बड़े नहीं हो
रहे, आप
उतने के उतने
हैं। और डर तो
यह है कि
दूसरे को आप
छोटा कर सके, इसलिए आप और
छोटे हो गए
हैं। क्योंकि
दूसरे को छोटा
करने में बिना
छोटा हुए कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए
जिस आदमी के
पास जाकर आपको
लगे कि वह आपको
छोटा कर रहा
है,
वह आदमी बड़ा
आदमी नहीं
होता।
आइंस्टीन के
संबंध में सी.पी.स्नो
ने लिखा है कि
मैं दुनिया के
बहुत बड़े-बड़े
लोगों से मिला,
लेकिन
आइंस्टीन की
जो बड़ाई थी, जो बड़प्पन
था, वह और
ही है।
क्योंकि उसके
पास जाकर ऐसा
लगता था कि हम
बड़े हो गए
हैं। उसके पास
होने में यह
बात ही भूल
जाती थी कि
दूसरी तरफ
आइंस्टीन है।
वह इसका मौका
ही नहीं देता
था कि पता भी
चले कि दूसरी तरफ
आइंस्टीन है।
और
आइंस्टीन
बुद्धि के
हिसाब से तो बेजोड़ था
ही। एक बहुत
बड़े विचारक ने, जोरेफ
ने सुझाव दिया
है कि अब हमें
दुनिया का जो कैलेंडर
है, वह
आइंस्टीन के
हिसाब से
चलाना चाहिए--बिफोर
आइंस्टीन, आफ्टर
आइंस्टीन।
आइंस्टीन के
पहले की घटना
और आइंस्टीन
के बाद की
घटना अब
आइंस्टीन से
ही नापी जानी
चाहिए--वह
लकीर बन जानी
चाहिए बीच की।
उसके सुझाव
में जान है।
आदमी इतनी
बुद्धि का कभी
हुआ नहीं।
लेकिन
स्नो कहता है
कि उसके पास
बैठ कर पता ही नहीं
चलता था कि
आइंस्टीन के
पास बैठे हैं।
यह तो जब उसके
घर से लौटने
लगते थे, तब
खयाल आता
था--किससे मिल
कर लौट रहे
हैं। और उसने
खयाल भी न
होने दिया। और
उसके पास होकर
लगा कि हम बड़े
हो गए हैं।
जब आप
दूसरे को छोटा
करते हैं, तब
आप बड़े तो हो
ही नहीं सकते,
छोटे जरूर
हो जाते हैं।
लेकिन भ्रम
पैदा होता है,
दृष्टि-भ्रम
पैदा होता है।
तो
हिंसा का मजा
एक है: दूसरा
छोटा किया जा
सके,
हराया जा
सके। आप बड़े
होते हैं; लगता
है कि होते
हैं। अगर
दूसरा बाधा
डाले तो मिटा
दिया जाए। तब
आपको लगता है
कि आपके पास
परम शक्ति है,
आप मिटा भी
सकते हैं।
ध्यान रहे, एक दूसरा
भ्रम पैदा
होता है। जो
लोग भी मिटा सकते
हैं, वे
सोचते हैं कि
शायद वे बना
भी सकते हैं; जब मिटा
सकते हैं, तो
बना भी सकते
हैं। वह भी
भ्रम है। आपकी
मिटाने की
ताकत आपके बनाने
की ताकत नहीं
है। मिटाना
आसान है।
मिटाने का काम
बच्चे भी कर
सकते हैं, मूढ़ भी
कर सकते हैं, पागल भी कर
सकते हैं।
बनाना बड़ी और
बात है।
हिंसक
मिटाने में
सोचता है कि
कुछ बना लिया
उसने, कुछ
करके दिखा
दिया। क्या
करके दिखाया?
मिटाया है।
मिटाना कोई
कृत्य नहीं
है। बनाना! लेकिन
भ्रम पैदा
होता है कि जब
मैं मिटा सकता
हूं, तो
मैं बना भी
सकता हूं।
मनसविद
कहते हैं कि
दूसरे को मार
डालने में
आदमी को एक
भरोसा आता है
कि मैं मार
सकता हूं तो
मुझे कोई नहीं
मार सकेगा। एक
आदमी अगर लाखों
लोगों की
हत्या कर दे
तो उसे ऐसा
लगता है कि अब
मुझे कौन
मारने वाला
है! लेकिन वह
मौत आते वक्त
यह नहीं पूछती
कि आपने कितने
लोगों को मारा
था?
उससे कोई
अंतर ही नहीं
पड़ता। आपका मरणधर्मा-स्वरूप
मरणधर्मा
ही है।
हिंसा
पर खड़ा है
विजय का सारा
आधार। हिंसा
कुरूपता है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"विजय में
भी कोई
सौंदर्य नहीं
है। और जो
इसमें
सौंदर्य
देखता है, वह
वही है, जो
रक्तपात में
रस लेता है।'
लेकिन
आदमी है
बेईमान। और
आदमी की सबसे
बड़े बेईमानी
है उसकी रेशनलाइजेशन
करने की
क्षमता; वह हर
चीज को बुद्धियुक्त
कर लेता है।
इसे थोड़ा समझ
लें; क्योंकि
आदमी की
बुनियादी
बेईमानी है।
और हम सब
उसमें कुशल
हैं। हम जो
करना चाहते
हैं, उसके
आस-पास हम
बुद्धि का जाल
खड़ा कर लेते
हैं। अब तक
ऐसा ही आदमी
सोचता रहा है
कि वह जो भी करता
है, बुद्धियुक्त ढंग से करता
है। लेकिन यह
झूठ है। वह
करता पहले है।
करने के कारण
बुद्धि में
नहीं होते; करने के
कारण अचेतन मन
में होते हैं।
लेकिन आदमी यह
भी मानने को
तैयार नहीं है
कि मैं बिना बुद्धि
के कोई काम
करता हूं।
इसलिए करता है
किन्हीं और
कारणों से, दिखाता है
कोई और कारण।
इसे हम
जरा समझें। आप
घर में बैठे
हुए हैं। आपको
देख कर ही कोई
कह सकता है कि
आप किसी न किसी
पर टूटने की
तैयारी कर रहे
हैं। आप
हालांकि आरामकुर्सी
पर बैठे हैं; लेकिन
कुर्सी आराम
कर रही है, आप
नहीं कर रहे
हैं। आपके ढंग
से दिखता है
कि आप तलाश
में हैं, आप
शिकार की खोज
कर रहे हैं।
कोई भी आपका
निरीक्षण कर
रहा हो तो
पहचान सकता है
कि आप तैयारी
में हैं; हालांकि
आपको यह
बिलकुल खयाल
नहीं है खुद
भी। लेकिन
आपके भीतर भाप
इकट्ठी हो रही
है; जल्दी
ही आपकी भाप
फूटेगी।
आपका
बच्चा स्कूल
से चला आ रहा
है दिन भर की
मुसीबत झेल
कर। क्योंकि
शिक्षक से बड़ी
मुसीबत और
क्या हो सकती
है! अपना
बस्ता टांगे
हुए,
जैसे सारा
संसार का बोझ
उठा रहा
है--अकारण, उसकी
कुछ समझ में
भी नहीं आ रहा
कि क्यों। वह
चला आ रहा है।
आपको दिखाई
पड़ता है: कपड़े
पर दाग लगे
हैं, स्याही
डाल ली है; या
शर्ट फट गया
है, या
पैंट पर कीचड़
पड़ी है। आप
टूट पड़े।
आप यही
कहेंगे कि
बच्चे का
सुधार करना
जरूरी है। यह रेशनलाइजेशन!
क्योंकि कल भी
बच्चा ऐसे ही
आया था। बच्चा
ही है। और कल
तो और एक दिन
छोटा था।
परसों भी ऐसे
ही आया
था--स्याही भी
डाल कर लाया
था,
कपड़े भी फटे
थे, रास्ते
में कीचड़ से
भी खेल लिया
था। परसों भी ऐसे
ही आया था, लेकिन
तब, तब आप
भीतर क्रोध से
भरे नहीं थे।
आज, आज
क्रोध तैयार
है।
कल भी
इसी पत्नी ने
भोजन बनाया
था। और जैसा
वह सदा जलाती
है,
वैसा कल भी
जलाया था। आज,
आज भोजन
बिलकुल जला
हुआ है। आज आप
थाली फेंक देंगे
और आप यह
कहेंगे कि यह
भोजन मैं कब
तक खाऊं? अगर यही
भोजन खाना है,
तो जीना
बेकार है।
लेकिन
कल भी आपने
यही खाया था, परसों
भी खाया था।
और जिस दिन
पहले दिन यह
पत्नी आई थी, उस दिन तो
आपने कहा था, स्वर्ग है
तेरे हाथों
में! और जो तू
छू देती है, अमृत हो
जाता है। और
उस दिन भी ऐसा
ही जला हुआ था।
अब तो अभ्यास
भी अच्छा हो
गया इसका; तब
और भी जला हुआ
था। लेकिन आज
आप टूट
पड़ेंगे। आप
हालांकि यही
कहेंगे कि कब
तक कोई ऐसा
भोजन कर सकता
है! आखिर भोजन
तो आदमी को
ठीक मिलना चाहिए!
लेकिन आप भीतर
देखें, तो
यह रेशनलाइजेशन
है। आप
युक्तिपूर्ण
बना रहे हैं
एक घटना को, जिसका
युक्ति से कोई
भी संबंध नहीं
है, कोई
संबंध नहीं
है।
एक
स्त्री आपको
दिखाई पड़ती है
और आप प्रेम
में पड़ जाते
हैं। फिर पीछे
आप कहते हैं
कि उसकी नाक
ऐसी है कि
मुझे बहुत
प्यारी है, कि
उसकी आंखें
ऐसी हैं कि
मुझे बहुत
प्यारी हैं।
लेकिन यह सब रेशनलाइजेशन
है। क्योंकि
जब आप प्रेम
में पड़े, तो
न तो आंख का
आपने विचार
किया था और न
नाक का आपने विचार
किया था। ये
तो पीछे से
सोची गई बातें
हैं। आप कहते
हैं, वह
सुंदर है, इसलिए
मैं प्रेम में
पड़ गया। लेकिन
मनसविद
कहते हैं कि
आप प्रेम में
पड? गए, इसलिए
वह सुंदर
दिखाई पड़ रही
है। क्योंकि
वही स्त्री
किसी और को सुंदर
नहीं दिखाई पड़
रही है। और
किन्हीं को वही
स्त्री कुरूप
भी दिखाई पड़
रही है। और
कोई सोचेंगे
अपने मन में
कि तुम भी किस
पागलपन में पड़े
हो! इस स्त्री
को सुंदर देख
रहे हो!
तुम्हारी
बुद्धि मारी
गई है! पर आपको
सुंदर दिखाई
पड़ रही है।
इसलिए
कभी भी जब
किसी को कोई
सुंदर दिखाई
पड़े तो आप
आलोचना मत
करना। यह आलोचना
का काम ही
नहीं है। आप
चुप रह जाना; आपको
न भी दिखाई
पड़े तो समझना
कि अपनी भूल
है। आप शांत
रहना। उसमें
बीच में बोलना
मत; क्योंकि
सुंदर का कोई
वस्तु से
संबंध नहीं है।
सुंदर दिखाई
पड़ने लगता है
कोई भी
व्यक्ति, अगर
प्रेम हो जाए।
और
प्रेम क्यों
हो गया? तब
बड़ी अड़चन है, कि प्रेम
क्यों हो गया?
तो लोग उसके
भी रास्ते
खोजते हैं।
कोई सोचता है
कि शायद पिछले
जन्म में कुछ
संबंध रहा
होगा, इसलिए
प्रेम हो गया।
पर यह कोई हल
नहीं होता। क्योंकि
पिछले जन्म
में क्यों
प्रेम हो गया
था? कहां
तक पीछे ले
जाइएगा? कहीं
तो शुरुआत
करनी पड़ेगी।
पीछे हटाने से
क्या होगा?
आपको
पता नहीं है, प्रेम
की घटना अचेतन
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, अनकांशस
है। आपको पता
नहीं कि क्यों
हो गया। और
आपका मन खोला
जाए, तो जो
बातें आप बता
रहे हैं कि
इसकी नाक ऐसी
है, और आंख
ऐसी है, और
शरीर ऐसा है, ये सब बातें
कुछ भी नहीं
पाई जातीं; कुछ और ही
पाया जाता है।
अचेतन में
आपके उतरा जाए
तो कुछ और ही
पाया जाता है।
उसको
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
आपके भीतर
अचेतन में
बचपन से ही
स्त्री की जो
छापें पड़ रही
हैं, जैसे
कि एक बच्चे
ने आंख खोली, नर्स दिखाई
पड़ी; वह
पहली स्त्री
है। या मां
दिखाई पड़ी, या नौकरानी
दिखाई पड़ी, या कोई
दिखाई पड़ा; वह पहली
स्त्री है।
पहली स्त्री
का बिंब उसके भीतर
अचेतन में उतर
गया। अब इस
बिंब पर बिंब
जुड़ते चले
जाएंगे। और
बच्चा कोई एक
वर्ष तक अचेतन
में बिंब
इकट्ठे करता
रहता है।
जितनी
स्त्रियों से
संबंध होगा, वे बिंब
इकट्ठे हो
जाएंगे। और इन
सब बिंबों से
मिल कर अचेतन
में एक
प्रतिमा बन
जाएगी; वह
जिंदगी भर इसी
प्रतिमा की
तलाश करेगा।
जब किसी
स्त्री से यह
प्रतिमा मेल
खा जाएगी, वह
तत्काल कहेगा,
प्रेम हो
गया। लेकिन
इसका आपकी
बुद्धि और
विचार से कुछ
लेना-देना
नहीं है। इसको
वे कहते हैं
कि यह तो
एक्सपोजर पर
निर्भर है। और
इसलिए बहुत सी
बातें घटती
हैं, जो
आपके खयाल में
नहीं हैं।
सभी
पुरुष
स्त्रियों के
स्तन में बहुत
उत्सुक होते
हैं। वह
एक्सपोजर है; क्योंकि
मां का स्तन
उनका पहला
अनुभव है। और
उसी स्तन से
उन्होंने दूध
पाया, भोजन
पाया, पहला
स्पर्श पाया।
उस स्तन में
उन्होंने प्रेम
भी अनुभव
किया। उस स्तन
के साथ उनके
पहले संबंध
जुड़े। इसलिए
स्तन के प्रति
उनका एक एक्सपोजर
है। इसलिए आप
ऐसी स्त्री के
प्रेम में न पड़
पाएंगे, जिसके
स्तन न हों।
बिलकुल न पड़
जाएंगे।
बिलकुल न पड़
पाएंगे।
क्योंकि बिना
स्तन की
स्त्री के
प्रेम में
पड़ने का मतलब
यह होगा कि या
तो आपको बचपन
से पुरुष के
पास बड़ा किया
गया हो और
आपके मन में
कोई स्तन की
प्रतिमा न बनी
हो, नहीं
तो मुश्किल हो
जाएगा।
इसलिए
स्त्रियां भी
जाने-अनजाने
स्तन को उभार
कर दिखाने की
कोशिश में लगी
रहती हैं।
झूठे स्तन भी
बाजार में
बिकते हैं।
अमरीका
में एक मुकदमा
उन्नीस सौ बीस
में चला। एक
अभिनेत्री, नाटक
की
अभिनेत्री--बड़ी
प्रसिद्ध
अभिनेत्री थी,
उसकी बड़ी
ख्याति
थी--नाटक के एक
दृश्य में अभिनेता
और उसमें
छीन-झपट होती
है। उस छीन-झपट
में उसका झूठा
स्तन बाहर आ
गया। तो उसने अदालत
में लाखों
डालर का
मुकदमा किया;
क्योंकि
उसकी
प्रतिष्ठा ही
नष्ट हो गई
सारी। उसके
बाद फिर कोई
यह मान नहीं
सकता कि वह
स्तन सच्चा है,
फिर तो वह
कुछ भी लाख
उपाय करे।
उसका सारा का
सारा इमेज खो
गया।
क्यों
स्त्रियां
उत्सुक होती
होंगी? क्यों
पुरुष उत्सुक
है। कोई आप
कारण मत खोजें
बुद्धिगत।
बुद्धिगत
कारण नहीं है;
इंप्रिंट! सिर्फ एक
संस्कार है, बचपन से
बच्चे के ऊपर
पड़ा है। वह
संस्कार की तलाश
कर रहा है।
मां का मतलब
स्तन; वह
उसकी पहली
पहचान है इस
जगत से। इसलिए
स्तन प्रीतिकर
मालूम पड़ते
रहेंगे।
बूढ़े
आदमी को भी
कठिनाई होती
है। मुझसे एक
बूढ़े सज्जन
पूछ रहे थे कि
यह क्या मामला
है?
आखिर
स्त्री के
स्तन में अब
भी इतना रस
क्यों है?
तो
मैंने उनको
कहा कि इसमें
आप कुछ घबराएं
न, और कसूर न
समझें कुछ। और
न कुछ
पाप-अपराध हो
रहा है। आप भी बच्चे
थे, बस
इसकी खबर है।
और कुछ मामला
नहीं है। कभी
आप भी बच्चे
थे, बस
इसकी खबर है।
इसमें आप
परेशान न हों
ज्यादा।
सहजता से इसे
स्वीकार कर
लें। क्योंकि
कभी आप भी
स्तन से दूध
लिए।
लेकिन
आदमी आस-पास
तर्क, बुद्धि
का जाल खड़ा कर
लेता है। उसका
नाम है रेशनलाइजेशन,
तर्कीकरण। यह तर्कीकरण
से, कोई
आदमी रक्तपात
में रस लेता
हो तो वह
कहेगा, विजय
में बड़ा
सौंदर्य है, विजय की बड़ी
गरिमा है, विजय
महान है, विजय
बड़ी श्रेष्ठ
है, और
विजयी का बड़ा
गौरव है। हम
भी, आप भी
क्यों आखिर, अगर दो आदमी
लड़ते हों और
एक गिर जाए
जमीन पर और दूसरा
छाती पर बैठ
जाए, तो आप
छाती पर बैठने
वाले को
गौरवान्वित
क्यों मानते
हैं? समझ
के बिलकुल
बाहर बात है
कि इसमें क्या
गौरवान्वित
होने की बात
है? आप
छाती पर बैठ
गए, वह
आदमी नीचे लेट
गया, इसमें
गौरवान्वित
होने की क्या
बात है? वह
जो नीचे लेट
गया, वह भी
पीड़ा अनुभव करता
है कि मैं
ना-कुछ। जो
छाती पर बैठ
गया, वह
अनुभव करता है
मैं सब कुछ।
देखने वालों
के मन में भी, जो जीत गया, वह गौरव
पाता है।
क्यों? आखिर
जीतना ऐसा
गौरव क्यों है?
नहीं
आपने सोचा
होगा। आप भी
जीतना चाहते
हैं,
दूसरे की
छाती पर आप भी
बैठना चाहते
हैं। इसलिए जब
भी कोई दूसरे
की छाती पर
बैठ जाता है, तब आप उसको
गौरवान्वित
समझते हैं।
क्योंकि यही
आपकी भी मनोकांक्षा
है, यही आप
भी चाहते हैं।
और जब नीचे
कोई छाती के नीचे
गिर जाता है, किसी के
पैरों के नीचे
दब जाता है, तो आप उसको
गौरवान्वित
नहीं कह सकते।
हां, सहानुभूति
दिखा सकते हैं
उसके साथ।
इसलिए
सहानुभूति से
कोई सुखी नहीं
होता, ध्यान
रखना। भूल कर
किसी को
सहानुभूति मत
बताना।
क्योंकि उसका
मतलब ही यह है
कि आपने भी मान
लिया कि गिर
गए, सहानुभूति
के योग्य हो
गए।
सहानुभूति के
योग्य होने का
मतलब ही यह है
कि गौरव छिन
गया। जीते के
साथ कोई
सहानुभूति
नहीं दिखाता।
कभी आप कहते
हैं किसी से
कि बड़ी
सहानुभूति है
आपके प्रति, क्योंकि आप
जीत गए? कोई
नहीं कहता।
सिर्फ हारे
हुए के साथ
सहानुभूति।
वह भी क्यों? आप जीतना
चाहते हैं, इसलिए जीते
को
गौरवान्वित
कहते हैं। और
आप भी डरते
हैं कि कहीं
हार गए, तो
कम से कम
सहानुभूति तो
मिलनी चाहिए।
वे दोनों आपके
अचेतन में दबे
हुए भाव हैं।
उनका फैलाव
है।
अगर
कोई मनुष्य सच
में ही
आध्यात्मिक
साधना में
उतरना चाहता
हो तो उसे
अपने हर भाव
के पीछे अचेतन
दशा को खोजना
चाहिए।
बुद्धि और
तर्क से कुछ
समझाने की
कोशिश नहीं
करना चाहिए, कि
हम कुछ
समझा-बुझा कर
अपना जाल खड़ा
कर लें और कहें
कि इस वजह से।
आप
साधारणतः यही
कहना चाहेंगे
कि विजय श्रेष्ठ
है,
इसलिए जो
जीत गया, उसका
गौरव है।
लेकिन क्यों
है विजय
श्रेष्ठ? और
हार बुरी
क्यों है? और
वह हार गया, वह अपमानित
क्यों है? इसके
क्या कारण हैं
भीतर?
इसके
कारण आपकी
आकांक्षा और
वासना में
हैं। हारने और
जीतने की बाहर
जो घटना घट
रही है, वह तो
केवल बहाना है;
आपके भीतर
की वासना उस
बहाने का
उपयोग कर रही है।
लाओत्से
कहता है, "वह
वही है, जो
रक्तपात में
रस लेता है; वही सौंदर्य
देखता है विजय
में। और जिसे
हत्या में रस
है, वह
संसार पर शासन
करने की अपनी
महत्वाकांक्षा
में सफल नहीं
होगा।'
क्यों
नहीं होगा
महत्वाकांक्षा
में सफल? क्योंकि
जो हिंसा से
जीतता है, वह
हिंसा से
भयभीत रहता
है। जो हिंसा
से जीतता है, वह कभी भय के
बाहर नहीं जा
सकता। इसलिए
बड़े हिंसक बड़े
भयभीत रहते
हैं। हिटलर या
स्टैलिन से
ज्यादा भयभीत
आदमी खोजने
मुश्किल हैं।
जो थर-थर
कंपते रहते
हैं। स्टैलिन
की लड़की श्वेतलाना
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि मेरे पिता से
ज्यादा भयभीत
आदमी खोजना
मुश्किल है।
इतनी हिंसा की
है, तो
इतने लोगों को
हिंसा करने के
लिए उत्सुक भी
कर दिया।
जितने लोगों
को दबाया है, उनको भी
उत्सुक कर
दिया है कि वे
बदला लें, प्रतिकार
लें, और
तुम्हें दबा
दें।
और
जिसको हम
दबाते हैं, वह
हमसे भयभीत
भला हो जाए, वह कभी
मानता नहीं कि
हम जीत गए हैं
और वह हार गया।
वह सदा इतना
ही मानता है
कि एक टेंपरेरी
फेज, एक
अस्थायी बात
है कि तुम अभी
ऊपर आ गए; थोड़ा
मौका दो, थोड़ा
समय आए, हम
भी ऊपर आ
जाएंगे। हारा
हुआ कभी नहीं
मानता कि मेरी
हार शाश्वत हो
गई। वह मानता
है, क्षण
की बात है, संयोग
की बात है।
जीता हुआ भी
मान नहीं सकता
कि मेरी जीत
शाश्वत हो गई।
क्योंकि वह भी
जानता है, जो
नीचे है, वह
कल ऊपर आ सकता
है।
एक बात
विचारणीय है:
भय से कोई भी
कभी विजित नहीं
होता, कोई कभी
भय से हराया
नहीं जा सकता।
लेकिन हम सब
भय पर भरोसा
करते हैं। बड़े
युद्धखोर
करते हैं, ऐसा
नहीं, हम
भी। हम भी
मानते हैं
ऐसा।
उन्नीस
सौ चालीस में
रूजवेल्ट ने
एक वक्तव्य
में कहा कि
मेरा देश, मैं
चाहता हूं, उस स्थिति
में पहुंचे, जहां कोई भी
व्यक्ति
भयभीत न हो, किसी को भी
भय की
परतंत्रता न
रहे, सब
स्वतंत्र हों
अभय होने को।
और दूसरी बात
कही कि सभी
स्वतंत्र हों
पूजा करने को,
प्रार्थना
करने को।
एक
व्यक्ति ने, एक
बहुत
विचारशील
व्यक्ति ने, रूजवेल्ट को
एक पत्र लिखा
और उस पत्र
में लिखा कि
दोनों बातें
विरोधी हैं; आप जरा फिर
से सोचें।
क्योंकि ईसाई
प्रार्थना
में वचन ही
यही आता है कि
हे प्रभु, ऐसा
कभी दिन न आए
जब मैं तुझसे
भयभीत न होऊं;
तेरे प्रति
मेरा प्रेम
बना रहे और तुझसे
मैं सदा डरता
रहूं।
उस
आदमी ने ठीक
पत्र लिखा।
रूजवेल्ट को
मुश्किल पड़
गई। उसने ठीक
लिखा कि
प्रार्थना
में तो भय की
ही प्रार्थना
है। और अगर आप
चाहते हैं लोग
भय से मुक्त
हो जाएं, तो
लोग
प्रार्थना से
मुक्त हो
जाएंगे; जरा
खयाल कर लें।
और अगर आप
चाहते हैं लोग
प्रार्थना को
स्वतंत्र हों,
तो फिर उनको
भयभीत रहने ही
देना पड़ेगा।
इसमें थोड़ी
सचाई है।
अंग्रेजी में
गॉड-फियरिंग
धार्मिक आदमी
को कहते हैं; ईश्वर-भीरु
हम भी कहते
हैं।
तुलसीदास ने
कहा है, भय
बिन होई न
प्रीति, बिना
भय के प्रीति
नहीं हो सकती।
यह
थोड़ी दूर तक
सही बात मालूम
पड़ती है; क्योंकि
हमारा सब
प्रेम भय पर
ही खड़ा होता
है। बाप बेटे
को डराता है, तो बेटा बाप
को प्रेम करता
है। और जब
बेटा बाप को
डराने लगता
है--मौका तो आ
ही जाएगा, थोड़े
ज्यादा दिन
नहीं
चलेंगे--तब
बाप कहता है कि
अब तू मुझे
प्रेम नहीं
करता। वह पहले
भी प्रेम नहीं
करता था। आप
सिर्फ डरा रहे
थे, इसलिए
प्रेम मालूम
पड़ रहा था। अब
वह आपको डराने
लगा, तो अब
कैसे प्रेम
मालूम पड़े?
इसलिए
हर बाप को
अनुभव होता है
कि अब बेटा
प्रेम नहीं
करता। वह कब
करता था, यह तो
बताइए। जब
डंडा आपके हाथ
में था, तब
आपको लगता था
वह प्रेम करता
है। ज्यादा
देर डंडा आपके
हाथ में नहीं
रहेगा।
जिंदगी सभी को
मौका देती है;
डंडा उसके
हाथ में आएगा।
तब फिर वह
बूढ़े बाप को
डंडा बताएगा;
अब वह चाहता
है कि आप उससे
प्रेम करो।
पहले वह आपसे
प्रेम करता था,
अब आप उससे
प्रेम करो।
आखिर वही कब
तक करे, आप
भी तो करो।
जो
भयभीत कर रहा
है,
वह भला
सोचता हो कि
मैंने प्रेम
पैदा कर लिया,
वह दूसरे
में प्रेम
पैदा नहीं कर
रहा है, सिर्फ
घृणा पैदा कर
रहा है। लेकिन
तुलसीदास
ठीक कहते हैं,
निन्यानबे
आदमियों के
बाबत यही बात
है कि वे भय को
ही प्रेम
समझते हैं। तो
जितना डराते
हैं, उतना
सोचते हैं...।
एक
नेता है बड़ा।
भीड़ लग जाती
है,
लोग
जयजयकार करते
हैं, फूलमालाएं पहनाते
हैं। और कल वह
ताकत में नहीं
रहता, फिर
उसका पता ही
नहीं चलता, वह कब आता है,
कब जाता है।
फिर आपको
आखिरी खबर तभी
मिलेगी जब वह
मरेगा, अखबार
खबर छापेंगे।
क्यों? अगर
इतना प्रेम था,
तो इतनी
जल्दी खो कैसे
जाता है? वह
प्रेम वगैरह
नहीं था, सत्ता
का भय था, ताकत
की पूजा है।
तो खो जाती
है।
अगर
पति बहुत धन
कमाता है, तो
पत्नी बहुत
प्रेम करती
मालूम पड़ती
है। फिर धन
नहीं कमाता, या गंवा
बैठता है धन
को, सब
प्रेम समाप्त
हो जाता है।
वह प्रेम कहां
गया? वह
प्रेम कभी था
नहीं, वह
धन का भय था।
प्रतिष्ठा, धन की शक्ति,
उसका भय था।
उससे सब प्रेम
था। इसलिए
पुरुषों ने
स्त्रियों को
सदा भयभीत रखा
है। क्योंकि वे
सोचते हैं, भयभीत
स्त्री प्रेम
करेगी।
भयभीत
स्त्री भीतर
से घृणा ही
करेगी; प्रेम
नहीं कर सकती।
लेकिन सस्ता
है यह काम, दूसरे
को भयभीत करना
सस्ता काम है।
दूसरे के मन
में अपने लिए
प्रेम करना
बहुत कठिन काम
है, अति
कठिन काम है।
शायद इस
पृथ्वी पर
इससे बड़ा कोई
कठिन काम ही
नहीं है।
प्रेम से बड़ी
कोई कला नहीं
है। इसलिए
सस्ता काम है
कि डरा दो, तो
भय पैदा हो
जाए।
तो
पुराने धर्म
भी भय पर खड़े
हैं। वे कहते
हैं,
ईश्वर से
डरो। लेकिन जो
आदमी ईश्वर से
डरेगा, वह
ईश्वर को
प्रेम कैसे
करेगा? डर
कहीं प्रेम
पैदा करता है?
तब तो दिल
में तो यही
रहेगा कि कोई
दिन मौका मिल
जाए तो ईश्वर
की छाती में
छुरा भोंक
दें। मन में
तो यही रहेगा।
ऊपर से हाथ
जोड़े खड़े हैं,
जी-हुजूरी
कर रहे हैं: कि
हम पापी हैं, आप पतितपावन
हो। मगर भीतर
सोच रहे हैं
कि कब मौका
मिले कि हम
सिंहासन पर बैठें और
तुम वहां आगे
आकर कहो कि आप
पतितपावन हो,
हम पापी
हैं! भय तो सदा
ही यह
प्रतीक्षा
करेगा, चाहे
भयभीत आदमी को
पता भी न हो।
यही मैं कह
रहा हूं। खुद
भयभीत आदमी को
पता न हो कि
उसकी अचेतन
आकांक्षा
क्या है; लेकिन
डरा हुआ आदमी
अचेतन में
घृणा ही करेगा
और बदला लेना
चाहेगा।
लाओत्से
कहता है कि
घृणा से, हिंसा
से कभी कोई
शासन करने में
सफल नहीं हो पाएगा।
क्योंकि
शासित
स्वीकार ही
नहीं करता
आपको। उसके
हृदय में आपकी
विजय कभी
स्थापित नहीं
होती। सिर्फ
एक ही उपाय है
कि किसी के हृदय
में विजय
स्थापित हो
जाए; वह
उपाय प्रेम का
है, हिंसा
का नहीं है।
मगर
उसकी बड़ी कठिन
शर्त है। और
वह शर्त यह है
कि जब तक आप
दूसरे को
विजित करना
चाहते हैं, तब
तक आपमें प्रेम
ही नहीं है।
यह जरा जटिल
मामला है। जब
आप में प्रेम
होता है, तो
दूसरा हार
जाता है; लेकिन
जब तक आप
हराना चाहते
हैं, तब तक
आप में प्रेम
ही नहीं होता।
जीत होती है दुनिया
में, लेकिन
उसकी ही होती
है जो जीतना
चाहता ही नहीं।
और कई बार तो
ऐसा होता है
कि जो हारने
को तैयार होता
है, वही
जीत जाता है, पहले वही
जीत जाता है।
जीसस
ने कहा है, जो
आखिरी खड़े
होने को राजी
हैं, वे
मेरे राज्य
में प्रथम खड़े
हो जाएंगे। और
जो हारने को
राजी हैं, उनकी
जीत निश्चित
है। जो खोने
को राजी हैं, उन्हें कोई
पाने से नहीं
रोक सकेगा। जो
बचाना
चाहेंगे, उनसे
छिन जाएगा।
यह ठीक
कहा है, ये
उलटे सूत्र
बड़े ठीक हैं।
लेकिन ये
सूत्र प्रेम
के हैं। अगर
मैं आपको
जीतना चाहता
हूं, तो एक
बात निश्चित
है, मैं
कभी नहीं जीत
पाऊंगा।
क्योंकि मेरी
जीतने की
आकांक्षा ही
आपको मेरा
दुश्मन बना
रही है। अगर
मैं जीतना ही
नहीं चाहता, तो मैंने
मित्रता के
हाथ फैला दिए।
और अगर मैं
इतने प्रेम से
भरा हूं कि
आपको आनंद
मिलता हो मुझे
जीत लेने में
तो मैं हारने
को तत्काल राजी
हूं, तो
मैंने जीत
लिया। हिंसा
के जगत में हराए
बिना कोई जीत
नहीं है; अहिंसा
के जगत में
हारने की कला
ही जीतने की कला
है।
ऐसे
व्यक्ति की
महत्वाकांक्षा
कभी पूरी न होगी, जो
सोचता है कि
हिंसा से, रक्तपात
से जगत का
शासन कर ले।
एक व्यक्ति का
नहीं किया जा
सकता, जगत
तो बहुत बड़ी
बात है। आप
जरा सोचें, एक अपने
छोटे से बच्चे
को आप शासन
में नहीं रख सकते,
उसका भी
प्रेम पाने
में आप असफल
हो जाएंगे अगर
आपने हिंसा का
उपाय किया। और
सभी मां-बाप
कर रहे हैं, इसलिए असफल
हो जाते हैं।
डरा रहे हैं, भयभीत कर
रहे हैं, धमकी
दे रहे हैं।
बच्चा कमजोर
है, आप
धमकी दे सकते
हैं। बच्चे से
कमजोर और क्या
होगा? लेकिन
यह धमकी क्या
परिणाम लाएगी?
यह
बच्चा आपके
प्रति घृणा
इकट्ठी कर रहा
है। आप ही
जिम्मेवार
हैं। कल यह
घृणा फूटेगी
और बहेगी। और
तब?
तब आप सिर्फ
रोएंगे-पीटेंगे
और चिल्लाएंगे,
और कहेंगे
कि सब बच्चे
बिगड़ गए हैं।
और कभी खयाल न
करेंगे कि
बिगड़ कैसे गए
हैं। क्योंकि
कोई बच्चा
नहीं बिगड़
सकता, अगर
बाप पहले ही बिगड़
न गया हो। कोई
उपाय नहीं है
बिगड़ने का। वृक्ष
फलों से
पहचाने जाते
हैं; बाप
उनके बेटों से
पहचाने जाते
हैं। और कोई
उपाय भी नहीं
है। अगर फल सड़ा
है तो जड़ें ही सड़ी होंगी;
भला जड़ें
कितना ही
शोरगुल मचाएं
कि फल बिगड़
गया। लेकिन फल
बिगड़ता
कैसे है? बिगाड़ने
की लंबी प्रक्रिया
है। और
बिगाड़ने की
लंबी
प्रक्रिया
हिंसा से शुरू
होती है।
मगर
हमें खयाल में
नहीं है; हम
सोचते हैं, शासन आसान
है हिंसा से।
एक व्यक्ति पर
भी संभव नहीं
है; इस
विराट जगत पर
तो कभी भी
संभव नहीं हो
सकेगा।
"शुभ
लक्षण की
चीजें
वामपक्ष को
चाहती हैं, अशुभ लक्षण
की चीजें दक्षिणपक्ष
को।
उप-सेनापति
वामपक्ष में
खड़ा होता है, और सेनापति दक्षिणपक्ष
में। अर्थात
अंत्येष्टि
क्रिया की
भांति विजय का
पर्व मनाया
जाता है।'
यह
व्यंग्य कर
रहा है
लाओत्से।
जैसे कि कोई
अरथी ले जा
रहा हो, और
जैसे लाश रखी
गई हो
अंत्येष्टि
के लिए, और
एक तरफ
सेनापति खड़ा
है और एक तरफ
उप-सेनापति
खड़ा है, और
आग जलाई जा
रही है, और
लाश जलाई जा
रही है। विजय
को, विजय
की यात्रा को,
लाओत्से
कहता है, समझना
कि यह मरघट पर
हो रही अंतिम
क्रिया है।
"हजारों
की हत्या के
लिए शोकानुभूति
जरूरी है।'
और तुम
यह क्या कर रहे
हो?
विजय का
उत्सव मना रहे
हो? हजारों
की हत्या करके
तुम विजय का
उत्सव मना रहे
हो? लेकिन
थोड़ा इसे
समझें। जब भी
कोई मुल्क
जीतता है
युद्ध में, तो विजय का
उत्सव मनाता
है। क्यों? अगर थोड़ी भी
समझ हो, तो
यह भी हो सकता
है कि मजबूरी
थी, लड़ना
पड़ा, लेकिन
इसमें इतना उत्सव
मनाने की क्या
बात है?
इसके
बहुत गहरे, गहन
मनोवैज्ञानिक
कारण हैं। जब
भी आप कोई अपराध
करते हैं, तो
एक ही उपाय है
अपराध को
भूलने का कि
आप उत्सव में
लीन हो जाएं।
जब भीतर
पश्चात्ताप
का क्षण आ रहा
हो, तो
उससे बचने का
एक ही उपाय है
कि बाहर के
शोरगुल में, धूमधाम में
उस क्षण को
भुला दें। जब
भी आप कोई बड़ा
उत्सव मनाते
हैं, तो आप
भीतर किसी
अपराध को
छिपाने की
कोशिश कर रहे
हैं। यह बड़ी
कठिन बात है, यह बड़ी कठिन
बात है।
लेकिन
आदमी बड़ा कुशल
है छिपाने
में। तो जब भी युद्ध
में कोई जीतता
है,
तो उत्सव
मनाता है। उस
उत्सव के
शोरगुल में, बैंड-बाजों
में, झंडे-पताकाओं
में, रंग-बिरंगे
गुब्बारों
में, नारेबाजी में, नेताओं
की नासमझी की
बातों में एक
हवा पैदा होती
है, जिसमें
हम यह भूल ही
जाते हैं कि
हमने क्या किया!
हम किस बात का
उत्सव मना रहे
हैं? हमने
लाशें बिछा
दीं; उनके
ऊपर हम यह उत्सव
मना रहे हैं? इस उत्सव के
उपद्रव में
आदमी फिर वापस,
जहां युद्ध
के पहले था, उस काम-काज
की दुनिया में
संलग्न हो
जाता है। इस
उत्सव को मना
लेने में, पश्चात्ताप
के क्षण से
बचाव है, पलायन
है।
लेकिन
लाओत्से कहता
है,
इसे तो ऐसे
मनाना, विजय
का उत्सव
अंत्येष्टि क्रिया
की भांति
मनाना; जैसे
कि कोई मर गया
हो, ऐसा
दुख और शोक
में डूब जाना।
लेकिन
बड़ी कठिनाई
है। अगर हम
विजय के
क्षणों में
शोक में डूबने
लगें, तो फिर
हम लोगों को
हिंसा करने के
लिए राजी न कर
पाएंगे। जैसा
मैंने परसों
कहा कि अगर हम
अपने सेनापतियों
को युद्ध के बाद
पश्चात्ताप
के लिए
तीर्थयात्रा
पर भेज दें, या उनको
कहें कि अब
तुम महीने भर
का उपवास करो,
प्रभु-कीर्तन
करो, या
उनको कहें कि
तुमने बहुत
पाप किया, इतने
लोग मार डाले,
अब तुम सब
त्याग करके
संन्यासी हो
जाओ, तो
फिर हम किसी
आदमी को राजी
न कर पाएंगे
इतना पाप करने
के लिए! वह
कहेगा, फिर
पहले ही, इतना
जब हमें आखिर
में
पश्चात्ताप
करना हो, तो
फिर युद्ध पर
जाने की जरूरत
क्या है? तो
फिर हम नहीं
जाते।
सैनिक
को अगर हमें
युद्ध पर
भेजना है तो
हमें विजय की
यात्रा मनानी
ही पड़ेगी।
क्योंकि सैनिक
उसी विजय की
आकांक्षा में, उसी
शोभा की
आकांक्षा में
तो मरने और
मारने जा रहा
है। तो कल जब
वह जीत कर
आएगा, हत्या
करके आएगा, तो उस
हत्यारे का
हमें स्वागत
करना पड़ेगा।
इस स्वागत के
नशे में ही तो
वह भूल पाएगा
कि उसने पाप
किया है। तो
हमें उसे
पद्म-विभूषण
और भारत-रत्न
और
महावीर-चक्र
देने पड़ेंगे,
ताकि इस
शोरगुल में
उसे लगे कि वह
कोई महान कार्य
करके लौटा है,
और हम उसे
दुबारा फिर इस
मूढ़ता पर
भेज सकें।
नहीं तो फिर
दुबारा वह
जाएगा नहीं।
सैनिक को हमें
सम्मान देना
पड़ेगा; क्योंकि
हमने उससे एक
पाप करवाया
है। और उस पाप
के बदले में
हमें उसे गौरव
देना पड़ेगा, ताकि उसको
पाप का खयाल न
रहे। इसलिए
विजय की यात्रा
और विजय का
उत्सव और विजय
का पीछे का शोरगुल,
सब हमारी
आत्मा को अंधा
करने और बहरा
करने का उपाय
है।
अगर
लाओत्से की
बात मान ली
जाए,
तो दुनिया
में युद्ध बंद
हो जाएंगे।
अगर विजय जिसने
की है, वह
अगर शोक में
डूब जाए, तो
दुनिया में
फिर विजय की
आकांक्षा भी न
रह जाएगी। अभी
तो हारा हुआ
शोक में डूबता
है; जो
जीतता है, वह
खुशी मानता
है। अगर
लाओत्से की
बात मान ली जाए
और जीतने वाला
भी दुख में
डूब जाए, तो
इसके दोहरे
परिणाम
होंगे। इसका
एक परिणाम तो
यह होगा कि जो
हार गया है, वह दुख में
नहीं डूबेगा।
अगर जीतने
वाला दुख में
डूब जाए, तो
हार जो गया है,
वह दुख में
नहीं डूबेगा।
और अगर जीतने
वाला दुख में
डूबने लगे, तो जीत की
आकांक्षा
क्षीण हो
जाएगी, और
हम लोगों को
राजी न कर
सकेंगे हिंसा
के लिए। और
किसी दिन ऐसा
वक्त आ सकता
है कि विजय एक पाप
हो जाए, और
विजय एक अपराध
हो जाए। हम
ऐसा मनुष्य भी
निर्मित कर
सकते हैं
जिसके हृदय
में विजय की
आकांक्षा ही
अपराध हो।
शायद उसी दिन
हम दुनिया को
युद्ध से
मुक्त कर
पाएं। उसके
पहले दुनिया
युद्ध से
मुक्त नहीं
होगी।
हम
कितना ही कहें
कि युद्ध नहीं
होने चाहिए, लेकिन
युद्ध के जो
मूल कारण हैं
उनमें तो हम
सम्मिलित ही
होते हैं; उनमें
हम कभी भी दूर
खड़े नहीं
होते। हम
कितना ही कहें
कि युद्ध बुरा
है, लेकिन
जीतने वाला
अच्छा है यह
तो हम भी
मानते हैं। वह
जीतने वाला
चाहे स्कूल से
कक्षा में प्रथम
होने की प्राइज
लेकर घर आया
हो, वह भी
उनतीस लड़कों
को हरा कर चला
आ रहा है। एक बच्चा
जब घर में
प्रथम होकर
आता है अपनी
क्लास में, तो हम उसका
स्वागत करते
हैं; हम
युद्ध को
निमंत्रण दे
रहे हैं। वह
उनतीस को हरा
कर आ रहा है, उनको नीचे
गिरा कर आ रहा
है, तो हम
कहते हैं कि
तू प्रथम आया।
बाप बड़ा आनंदित
होता है; वह
नहीं आ पाया
था, कम से
कम उसका लड़का
आया। लड़के के
द्वारा उनकी महत्वाकांक्षा
पूरी हो रही
है। वह अकड़ कर
चलेंगे आज, क्योंकि
उनका लड़का
प्रथम आ गया।
लेकिन
उनतीस को हरा
आया। वे उनतीस
घर दुख में लौटे
हैं। उनके बाप
दुखी हो रहे
होंगे, वे
नाराज हो रहे
होंगे; वे
उनको अपमानित
कर रहे होंगे;
वे कह रहे
होंगे कि लानत
है तुम पर, तुम्हारे
होने से न
होना अच्छा था;
बरबाद कर
दिया, कुल
का नाश हो
गया। वे जो
उनतीस हार कर
घर चले गए हैं,
वहां शोक
होगा। यह जो
एक जीत कर घर
आया है, यहां
सम्मान होगा।
आपने युद्ध के
बीज बो दिए।
जिंदगी अब इसी
पटरी पर सदा
चलेगी। जो जीतेगा,
वह
सम्मानित; जो
हारेगा, वह
अपमानित। फिर
छोटे युद्ध
हैं और बड़े
युद्ध हैं। और
सारी जिंदगी
रक्तपात से भर
जाती है।
ध्यान
रहे लेकिन, हिंसा
में कोई भी
सौंदर्य नहीं
है और विजय
में कोई गौरव
नहीं है। विजय
की आकांक्षा
क्षुद्र मन का
फैलाव है। और
हिंसा में, विजय में, हत्या में
गौरव देखना
आदमी के रुग्ण
मन की खबर है, बीमार चित्त
की खबर है।
स्वस्थ
आदमी जीतने
में रोग
देखेगा, हिंसा
में पाप
देखेगा, दूसरे
को नीचा करने
में, हीन
करने में
अधर्म
देखेगा। और एक
ही सौंदर्य को
जानता है--जो
व्यक्ति सच
में विचारशील
है, वह एक
ही सौंदर्य को
जानता है--और
वह सौंदर्य है
परम अहिंसा का,
प्रेम का।
और उस
प्रेम से भी
एक विजय फलित
होती है। वही
वास्तविक
विजय है। और
उस प्रेम से
जीवन में एक संगीत
का जन्म होता
है,
जो संगीत
बिना किसी को हराए
जीतता चला जाता
है।
आज
इतना ही।
कीर्तन करें, और
फिर जाएं।
THANK YOU GURUJI
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