दिनांक
29 अगस्त, 1971;
प्रथम
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल बम्बई।
धम्म-सूत्र:
धम्मो
मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा
संजमो तवो।
देवा
वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया
मणो ।।
धर्म
सर्वश्रेष्ठ
मंगल है। (कौन
सा धर्म?) अहिंसा,
संयम और तपरूप
धर्म। जिस
मनुष्य का मन
उक्त धर्म में
सदा संलग्न
रहता है, उसे
देवता भी
नमस्कार करते
हैं।
बाह्य-तप
का चौथा
चरण है —
रस-परित्याग।
परंपरा
रस-परित्याग
से अर्थ लेती
रही है।
किन्हीं रसों
का,
किन्हीं
स्वादों का
निषेध, नियंत्रण।
इतनी स्थूल
बात
रस-परित्याग
नहीं है।
वस्तुतः सधना
के जगत में
स्थूल से
स्थूल दिखाई
पड़ने वाली बात
भी स्थूल नहीं
होती। कितने
ही स्थूल
शब्दों का प्रयोग
किया जाए बात
तो सूम ही
होती है।
मजबूरी है कि
स्थूल शब्दों
का प्रयोग
करना पड़ता है,
क्योंकि
सूम के लिए
कोई शब्द नहीं
है।
वह जो अन्तर्जगत
है, वहां
इशारे करने
वाले कोई शब्द
हमारे पास नहीं
हैं। अन्तर्जगत
की कोई भाषा
नहीं है।
इसलिए बाहय
जगत के ही
शब्दों का
प्रयोग करना
मजबूरी है। उस
मजबूरी से
खतरा भी पैदा
होता है
क्योंकि तब उन
शब्दों का
स्थूल अर्थ
लिया जाना
शुरू हो जाता
है। रस-परित्याग
से यही लगता
है कि कभी
खट्टे का
त्याग कर दो; कभी मीठे का
त्याग कर दो; कभी घी का
त्याग कर दो; कभी कुछ और
त्याग कर दो।
रस-परित्याग
से ऐसा प्रयोजन
महावीर का
नहीं है।
महावीर का
क्या प्रयोजन
है, वह दोत्तीन
हिस्सों में
समझ लेना
जरूरी है।
पहली
बात तो यह कि
रस की पूरी
प्रक्रिया
क्या है? जब आप
कोई स्वाद
लेते हैं तो
स्वाद वस्तु
में होता है
या स्वाद आपकी
स्वाद
इंद्रिय में
होता है? या
स्वाद
स्वादेंद्रिय
के पीछे वह जो
आपका अनुभव
करने वाला मन
है, उसमें
होता है? या
स्वाद उस मन
के साथ आपकी
चेतना का जो तादत्म्य
है उसमें होता
है? स्वाद
कहां है? रस
कहां है? तभी
परित्याग
खयाल में आ
सकेगा। जो
स्थूल देखते
हैं उन्हें
लगता है कि
स्वाद या रस
वस्तु में
होता है, इसलिए
वस्तु को छोड़
दो। वस्तु में
स्वाद नहीं होता,
न रस होता
है; वस्तु
केवल निमित्त
बनती है। और
अगर भीतर रस की
पूरी प्रक्रिया
काम न कर रही
हो तो वस्तु
निमित्त बनने
में असमर्थ
है। जैसे आपको
फांसी की सजा
दी जा रही हो
और आपको
मिष्ठान्न
खाने को दे
दिया जाए, तो
भी मीठा नहीं
लगेगा।
मिष्ठान्न अब
भी मीठा ही है,
और जो मीठे
को भोग सकता
था, वह
एकदम
अनुपस्थित हो
गया है।
स्वादेंद्रिय
अब भी खबर
देगी क्योंकि
स्वादेंद्रिय
को कोई भी पता
नहीं है कि
फांसी लग रही
है, न पता
हो सकता है।
स्वादेंद्रिय
के संवेदनशील
तत्व अब भी
भीतर खबर पहुंचाएंगे
कि मीठा है —
मिठाई मुंह पर
है, जीभ पर
है। लेकिन मन
उस खबर को
लेने की
तैयारी नहीं दिखाएगा।
मन भी उस खबर
को ले ले तो मन
के पीछे जो
चेतना है उस
का और मन के
बीच का सेतु
टूट गया है, संबंध टूट
गया है।
मृत्यु के
क्षण में वह
संबंध नहीं रह
जाता। इसलिए
मन भी खबर ले
लेगा कि जीभ
ने क्या खबर
दी है, तो
भी चेतना को
कोई पता नहीं
चलेगा।
आपके
व्यक्तित्व
को बदलने के
लिए हजारों वर्षो
से,
जब भी कोई
बहुत उलझन
होती है तो
शाक ट्रीटमेंट
का उपयोग करते
रहे हैं
चिकित्सक — जब
भी कोई उलझन
होती है तो
आपको इतना
गहरा धक्का
देने का
प्रयोग करते
रहे हैं, शाक
का, और
उससे कई बार
बहुत गहरी
उलझन सुलझ
जाती है। और
शाक ट्रीटमेंट
का कुल अर्थ
इतना ही है कि
आपकी चेतना और
आपके मन का
सेतु क्षणभर
को टूट जाए।
उस सेतु के
टूटते ही आपके
भीतर की सारी
व्यवस्था
जैसी कल तक थी
रुग्ण, वह
अव्यवस्थित
हो जाती है, अराजक हो
जाती है। और
नयी व्यवस्था
कोई भी रुग्ण
नहीं बनाना
चाहता। इसलिए
शाक ट्रीटमेंट
का कुल भरोसा
इतना है कि एक
बार पुरानी
व्यवस्था का
ढांचा टूट जाए
तो आप फिर
शायद उस ढांचे
को न बना
सकेंगे।
सुना
है मैंने कि
एक बहुत बड़े
मनोचिकित्सक
के पास एक
रुग्ण कैथलिक
नन,
कैथलिक
साध्वी को
लाया गया था।
छह महीने से
निरंतर उसे
हिचकी आ रही
थी, वह बंद
नहीं होती थी।
वह नींद में
भी चलती रहती
थी। सारी
चिकित्सा, सारे
उपाय कर लिए
गए थे, वह
हिचकी बंद
नहीं हो रही
थी। चिकित्सक
थक गए थे और
उन्होंने कहा—अब
हमारे पास कोई
उपाय नहीं है।
शायद मनस चिकित्सक
कुछ कर सकें।
तो मनस
चिकित्सक के
पास लाया गया।
बहुत लोग उस
साध्वी को माननेवाले
थे। आदर करने
वाले थे, वे
सब उसके साथ
आए थे। वह
साध्वी प्रभु
का भजन करती
हुई भीतर
प्रविष्ट
हुई। वह
निरंतर प्रभु
का स्मरण करती
रहती थी।
चिकित्सक ने
पता नहीं उससे
क्या कहा कि
दो ही क्षण
बाद वह रोती
हुई बाहर वापस
लौटी। उसके
भक्त देखकर
हैरान हुए कि
वह एक क्षण
में ही रोती हुई
वापस आ गई। रो
रही है! भगवान
का छह महीने
का स्मरण जो
नहीं कर सका
था, वह हो
गया है। रो तो
जरूर रही है, लेकिन हिचकी
बंद हो गई है।
पीछे
से चिकित्सक
आया। वह तो
साध्वी दौड़कर
बाहर निकल गई।
उसके भक्तों
ने पूछा—आपने
ऐसा क्या कहा
कि उसको इतनी
पीड़ा पहुंची? चिकित्सक
ने कहा कि
मैंने उससे
कहा— हिचकी तो
कुछ भी नहीं
है, यू आर प्रेगनेंट,
तुम
गर्भवती हो।
अब कैथलिक नन,
कैथलिक
साध्वी
गर्भवती हो, इससे बड़ा
शाक नहीं हो
सकता। उसके
भक्तों ने कहा—आप
यह क्या कह
रहे हैं? उस
चिकित्सक ने
कहा—तुम घबराओ
मत, इसके
अतिरिक्त
हिचकी बन्द
नहीं हो सकती
थी। बिजली के
शाक को भी वह
महिला झेल गयी।
लेकिन अब
हिचकी बंद हो
गयी। हुआ क्या?
कैथलिक
नन,
आजीवन
ब्रह्मचर्य
का व्रत लेकर
प्रवेश करती है।
वह ग िर्भणी
है, भारी
धक्का लगा। मन
और चेतना का
जो संबंध था, चेतना और
शरीर का जो
संबंध सेतु था,
वह एकदम टूट
गया। एक क्षण
को भी वह टूट
गया तो हिचकी
बन्द हो गयी, क्योंकि
हिचकी की अपनी
व्यवस्था थी।
वह सारी व्यवस्था
अस्त-व्यस्त
हो गयी। हिचकी
लेने के लिए
भी सुविधा
चाहिए, वह
सुविधा न रही।
हिचकी का जो
पुराना जाल था,
छह महीने से
निश्चित, वह
अब का रोग न
रहा। शरीर वही
है, हिचकी
कैसे खो गई!
कोई दवा नहीं
दी गई, कोई
इलाज नहीं
किया गया है, हिचकी कैसे
खो गई!
मनोचिकित्सक
कहते हैं कि
अगर चेतना और
मन के संबंध
में कहीं भी, जरा-सा भेद
पड़ जाए एक
क्षण के लिए
भी तो आदमी का व्यक्तित्व
दूसरा हो जाता
है। वह पुराना
ढांचा टूट
जाता है।
रस-परित्याग
उस ढांचे को
तोड़ने की
प्रक्रिया
है।
वस्तु
में रस नहीं
होता, सिर्फ
रस का निमित्त
होता है। इसे
हम ऐसा समझें
तो आसानी हो
जाएगी। आप इस
कमरे में आए
हैं। दीवारें
एक रंग की हैं,
फर्श दूसरे
रंग का है, कुर्सियां तीसरे रंग
की हैं, अलग-अलग
लोग अलग-अलग
रंगों के कपड़े
पहने हुए हैं।
स्वभावतः आप
सोचते होंगे
कि इन सब
चीजों में रंग
है। और जब हम
कमरे के बाहर
चले जाएंगे तब
भी कुर्सियां
एक रंग की
रहेंगी, दीवार
दूसरे रंग की
रहेंगी, फर्श
तीसरे रंग का
रहेगा। अगर आप
ऐसा सोचते हैं
तो आप कोई
आधुनिक
विज्ञान की
किसी भी कीमती
खोज से परिचित
नहीं हैं। जब
इस कमरे में
कोई नहीं रह जाएगा
तो वस्तुओं
में कोई रंग
नहीं रह जाता।
यह बहुत मन को
हैरान करता
है। यह बात
भरोसे की नहीं
मालूम पड़ती।
हमारा मन होगा
कि हम किसी
छेद से झांककर
देख लें कि
रंग रह गया कि
नहीं। लेकिन
आपने झांककर
देखा कि
वस्तुओं में रंग
शुरू हो जाता
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं—किसी
वस्तु में कोई
रंग नहीं होता,
वस्तु केवल
निमित्त होती
है, किसी
रंग को आपके
भीतर पैदा
करने के लिए।
जब आप नहीं
होते, जब
आब्जर्वर
नहीं होता, जब कोई
देखने वाला
नहीं होता, वस्तु
रंगहीन हो
जाती है, कलरलैस
हो जाती है।
असल
में प्रकाश की
किरण जब किसी
वस्तु पर पड़ती
है तो वस्तु प्रका श की
किरण को पीती
है। अगर वह
सारी किरणों
को पी जाती है
तो काली दिखाई
पड़ती है। अगर
वह सारी किरणों
को छोड़ देती
है और नहीं
पीती तो सफेद
दिखाई पड़ती
है। अगर वह
लाल रंग की
किरण को छोड़ देती
है और बाकी किरणों
को पी लेती है
तो लाल दिखाई
पड़ती है। अब
यह बहुत
हैरानी होगी
कि जो वस्तु
लाल दिखाई पड़ती
है वह लाल को
छोड़कर सब
रंगों को पीती
है,
सिर्फ लाल
को छोड़ देती
है। वह जो
छूटी हुई लाल किरण
है वह आपकी
आंख पर पड़ती
है, और उस
किरण की वजह
से वस्तु लाल
दिखाई पड़ती है,
जहां से वह
आती हुई मालूम
पड़ती है।
लेकिन अगर कोई
आंख ही नहीं
है तो लाल
किसको दिखाई
पड़ेगी? उस
किरण को पकड़ने
के लिए कोई
आंख चाहिए तब
वह लाल दिखाई
पड़ेगी। आपका
बाहर जाना भी
जरूरी नहीं
है।
जब आप
आंख बंद कर
लेते हैं तो
वस्तुएं
रंगहीन हो
जाती हैं, कलरलैस
हो जाती हैं।
कोई रंग नहीं
रह जाता। इसका
यह भी मतलब नहीं
है कि वे सब एक
जैसी हो जाती
हैं। क्योंकि
अगर वे सब एक
जैसी हो जाएं
तो जब आप आंख
खोलेंगे तो
उनमें सब में
एक-सा रंग
दिखाई पड़ना
चाहिए।
रंगहीन हो
जाती हैं, लेकिन
उनके रंगों की
संभावना
मौजूद बनी
रहती है, पोटेंशियलिटी।
जब आप आंख
खोलेंगे तो
लाल-लाल होगी,
हरी-हरी
होगी। जब आप
आंख बंद कर
लेंगे तो
लाल-लाल न रह
जाएगी, हरी-हरी
न रह जाएगी।
इसे ऐसा समझें
कि लाल रंग की
वस्तु सिर्फ
वस्तु का रंग
नहीं है, वस्तु
और आपकी आंख
के बीच का
संबंध है, रिलेशनशिप
है। क्योंकि
आंख बन्द हो
गई, रिलेशनशिप
टूट गई, संबंध
टूट गया। लाल
रंग की कुर्सी
नहीं है। आपकी
आंख और कुर्सी
के बीच लाल
रंग का संबंध
है। अगर आंख
नहीं है तो
संबंध टूट
गया।
जब आप
किसी चीज को
कहते हैं—मीठा, तब
भी वस्तु और
आपके
स्वादेंद्रिय
के बीच का संबंध
है। वस्तु
मीठी नहीं है।
इसका यह मतलब
नहीं है कि कड़वी
और मीठी वस्तु
में कोई फर्क
नहीं है।
पोटेंशियल
फर्क है। बीज
फर्क है, लेकिन
अगर जीभ पर न
रखा जाए तो
कोई फर्क नहीं
है। न कड़वी
कड़वी है; आप यह नहीं
कह सकते कि
नीम कड़वी
है जब तक आप
जीभ पर नहीं
रखते। आप
कहेंगे—मैं
रखूं या न
रखूं, मेरे
न रखने पर भी
नीम कड़वी
तो होगी ही।
तब आप भूल
करते हैं।
क्योंकि कड़वा
होना आपकी जीभ
और नीम के बीच
का संबंध है।
नीम का अपना
स्वभाव नहीं
है, सिर्फ
संबंध है।
इसे
ऐसा समझें कि
एक बच्चा पैदा
हुआ एक स्त्री
को। जब बच्चा
पैदा होता है
तो बच्चा ही
पैदा नहीं
होता, मां भी
पैदा होती है।
क्योंकि मां
एक संबंध है।
वह स्त्री बच्चा
होने के पहले
मां नहीं थी।
और अगर बच्चा
मर जाए तो फिर
मां नहीं रह
जाएगी। मां
होना एक संबंध
है। वह बच्चे
और उस स्त्री
के बीच जो संबंध
है, उसका
नाम है। बच्चे
के बिना वह
मां नहीं हो
सकती। बच्चा
भी मां के
बिना नहीं हो
सकता।
इस बात
को खयाल में
ले लें कि
हमारे सब रस
संबंध हैं
वस्तुओं और
हमारी जीभ के
बीच। लेकिन
अगर बात इतनी
ही होती तो
संबंध दो तरह
से टूट सकता था—या
तो हम जीभ को
संवेदनहीन कर
लें,
उसकी सेंसिटीविटी
को मार डालें,
जीभ को जला
लें तो रस
नष्ट हो
जाएगा। या हम
वस्तु का
त्याग कर दें
तो रस नष्ट हो
जाएगा। अगर
बात इतनी ही
आसान होती तो
दो तरफ से
संबंध तोड़े जा
सकते हैं — या
तो हम वस्तु
को छोड़ दें
जैसा कि
साधारणतः महावीर
की परम्परा
में चलने वाला
साधु करता है।
वस्तु को छोड़
देता है। तब
सोचता है कि
रस से मुक्ति
हो गई। रस से
मुक्ति नहीं
हुई। वस्तु
में अभी भी
पोटेंशियल रस
है और जीभ में
अभी भी
पोटेंशियल सेंसिटीविटी
है। अभी भी
जीभ अनुभव
करने में क्षम
है और अभी भी
वस्तु अनुभव
देने में क्षम
है। सिर्फ बीच
का संबंध टूट
गया है इसलिए
बात अप्रगट
हो गई है। कभी
भी प्रगट हो
सकती है। अप्रगट
हो जाने का
अर्थ नष्ट हो
जाना नहीं है।
फिर दोनों को
जोड़ दिया जाए,
फिर प्रगट
हो जाएगी।
हमने बिजली का
बटन बंद कर
दिया है इसलिए
बिजली नष्ट
नहीं हो गयी
है। सिर्फ
बिजली की धारा
में और बल्ब
के बीच का
संबंध टूट गया
है। और बल्ब
भी समर्थ है
बिजली प्रगट
करने में।
बिजली की धारा
भी समर्थ है
अभी बल्ब से
प्रगट होने
में। सिर्फ
संबंध टूट गया
है, बिजली
नष्ट नहीं हो
गयी। फिर बटन
आप आन कर देते
हैं, बिजली
जल जाती है।
जो
आदमी वस्तुओं
को छोड़कर सोच
रहा है, रस का
परित्याग हो
गया, वह
सिर्फ रस को अप्रगट कर
रहा है, परित्याग
नहीं। महावीर
ने रस अप्रगट
करने को नहीं
कहा है, रस-परित्याग
को कहा है।
सिर्फ अनमैनिफेस्ट
हो गया, अब
प्रगट नहीं हो
रहा है। इसका
यह मतलब नहीं
कि नष्ट हो
गया। बहुत-सी
चीजें आप में
प्रगट नहीं
होती हैं, बहुत
मौकों
पर। जब कोई
आदमी आपकी
छाती पर छुरा
रख देता है तब
कामवासना
प्रगट नहीं
होती, लेकिन
मुक्त नहीं हो
गए हैं आप, सिर्फ
छिप जाती है।
कितनी ही भूख
लगी हो और एक आदमी
बंदूक लेकर
आपके पीछे लग
जाए, भूख
मिट जाती है।
इसका यह मतलब
नहीं भूख मिट
गयी, सिर्फ
छिप गयी। अभी
अवसर नहीं है
प्रगट होने का।
अभी निमित्त
नहीं है प्रगट
होने का इसलिए
छिप गयी। छिप
जाने को त्याग
मत समझ लेना।
और
अकसर तो बात
ऐसी है कि
जो-जो छिप
जाता है वह छिपकर
और प्रबल और
सशक्त हो जाता
है। इसलिए जो आदमी
रोज मिठाई खा
रहा है, उसको
मीठे का जितना
अनुभव होता है,
जिस आदमी ने
बहुत दिन तक
मिठाई नहीं
खायी है, वह
जब मिठाई खाता
है तो उसका
अनुभव और भी
तीव्र होता
है। उसका
अनुभव और भी
तीव्र होता है
क्योंकि इतने दिनों
तक रुका हुआ
रस का जो अप्रगट
रूप है, वह
एकदम से प्रगट
होता है, वह
फलडेड, उसमें बाढ़ आ
जाती है। आ ही
जाएगी। इसलिए
जो आदमी
वस्तुएं
छोड़ने से शुरू
करेगा वह
वस्तुओं से भयभीत
होने लगेगा।
वह डरेगा कि
कहीं वस्तु पास
न आ जाए।
अन्यथा रस
पैदा हो सकता
है।
एक
दूसरा उपाय है
कि आप इंद्रिय
को ही नष्ट कर लें।
जीभ को जला डा
लें,
जैसा कि
बुखार में हो
जाता है, लम्बी
बीमारी में हो
जाता है।
इंद्रिय के
संवेदनशील जो
तंतु हैं वे
रुग्ण हो जाते
हैं, बीमार
हो जाते हैं, सो जाते
हैं। लेकिन तब
भी रस का कोई
अंत नहीं होता।
अगर मेरी आंख
फूट जाए तो भी
रूप देखने की आकांक्षा
नहीं चली
जाती। अगर आंख
ही से रूप देखने
की आकांक्षा
जाती होती, तो बहुत
आसान था। आंख
हट जाने से, टूट जाने से,
फूट जाने से
रूप की आकांक्षा
नहीं टूटती।
कान फूट जाए
तो भी ध्वनि
का रस नहीं
छूट जाता।
मेरे पैर टूट
जाएं, तो
भी चलने का मन
नष्ट नहीं हो
जाता । जो
जानते हैं वे
तो कहते हैं—पूरा
शरीर भी छूट
जाए तो भी
जीवेषणा नष्ट
नहीं होती।
नहीं तो
दोबारा जन्म
होना असम्भव
है। जब पूरा
शरीर छूटकर
भी नया जीवन
हम फिर से पकड़
लेते हैं तो
एक-एक इंद्रिय
को मारकर क्या
होगा? मृत्यु
तो सभी
इंद्रियों को
मार डा लती
है। सभी
इंद्रियां मर
जाती हैं, फिर
सभी
इंद्रियों को
हम पैदा कर
लेते हैं, क्योंकि
इंद्रियां
मूल नहीं हैं।
मूल कहीं इंद्रियों
से भी पीछे
है। इसलिए जो
आंख-कान तोड़ने
में लगा हो, वह भी
बचकानी बातों
में लगा है, वह नासमझी
की बातों में
लगा है। उससे
रस नष्ट नहीं
होगा।
इंद्रिय के
नष्ट होने से
रस नष्ट नहीं
होता। वस्तु
के त्याग से
रस नष्ट नहीं
होता, इंद्रिय
के नष्ट होने
से रस नष्ट
नहीं होता।
तो
क्या हम मन को
मार डालें? मन
को मारने में
भी लोग लगे
हैं। सोचते
हैं कि मन को
दबा-दबाकर
नष्ट कर डालें
तो शायद।
लेकिन मन बहुत
उल्टा है। मन
का नियम यही
है कि जिस बात
को हम मन से
नष्ट करना
चाहते हैं, मन उसी बात
में ज्यादा
रसपूर्ण हो
जाता है।
एक
सुबह मुल्ला
के गांव में
उसके मकान के
सामने बड़ी भीड़
है। वह अपनी पांचवीं
मंजिल पर चढ़ा
हुआ कूदने को
तत्पर है।
पुलिस
भी आ गयी है, लेकिन
उसने सब
सीढ़ियों पर
ताले डाल रखे
हैं। कोई ऊपर
चढ़ नहीं पा
रहा है। गांव
का मेयर भी आ
गया है। सारा
गांव नीचे
धीरे-धीरे
इकट्ठा हो गया
है, और
मुल्ला ऊपर
खड़ा है। वह
कहता है—मैं
कूदकर
मरूंगा। आखिर
मेयर ने उसे
समझाया कि तू
कुछ तो सोच!
अपने मां-बाप
के संबंध में
सोच! मुल्ला
ने कहा —मेरे
मां-बाप मर
चुके। उनके
संबंध में
सोचता हूं तो
और होता है
जल्दी मर
जाऊं। मेयर ने
चिल्ला कर कहा—अपनी
पत्नी के
संबंध में तो
सोच!
उसने
कहा — वह याद ही
मत दिलाना, नहीं
तो और जल्दी
कूद जाऊंगा।
मेयर ने कहा—कानून
के संबंध में
सोच, अगर
आत्महत्या की
कोशिश की, फंसेगा।
मुल्ला ने कहा—जब
मर ही जाऊंगा
तो कौन फंसेगा!
यह देखते हैं,
बड़ी
मुश्किल थी।
मेयर न समझा
पाया। आखिर
गुस्से में
उसने कहा कि
तेरी मर्जी तो
कूद, इसी
वक्त कूद और
मर जा। मुल्ला
ने कहा, तू
कौन है मुझे
सलाह देने
वाला कि मैं
मर जाऊं! नहीं
मरूंगा।
आदमी
का मन ऐसा
चलता है। अगर
कोई आपको
समझाए कि मर
जाओ,
जीने का मन
पैदा होता है।
कोई आपको
समझाए कि जियो,
तो मरने का
मन पैदा होता
है। मन विपरीत
में रस लेता है।
इसलिए जो लोग
मन को मारने
में लगते हैं
उनका मन और
रसपूर्ण होता
चला जाता है।
न वस्तु को छोड़ने
से रस का
परित्याग
होता है; न
इंद्रिय को
मारने से रस
का परित्याग
होता है; न
मन से लड़ने से
रस का
परित्याग
होता है। हम
सभी तो मन से
लड़ते हैं, लेकिन
कौन सा रस का
परित्याग हो
जाता है!
मात्राओं के
भेद होंगे, लेकिन हम
सभी मन से
लड़ने वाले
हैं। हम मन को
कितना दबाते
हैं, कितना
समझाते हैं!
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता। जिस
चीज के लिए आप
मन को समझाते
हैं, मन
उसी की मांग
बढ़ाता चला
जाता है। असल
में आप जब
समझाते हैं, तभी आप
स्वीकार कर
लेते हैं कि
आप कमजोर हैं,
और मन
ताकतवर है। और
जब एक बार
आपने अपने मन
के सा मने
अपनी कमजोरी
स्वीकार कर ली
तो मन फिर
आपकी गर्दन को
दबाता चला
जाता है। आप
मन से कहते
हैं—यह मत
मांग, यह
मत मांग, यह
मत मांग।
लेकिन आपको
खयाल है कि
नियम क्या है?
जितना ही आप
कहते हैं, मत
मांग, मांगने
में रस आ जाता
है। लगता है, जरूर कुछ
मांगने जैसी
चीज है। जरूर
कुछ पाने जैसी
चीज है। मन को
जितना रोकते
हैं, उसकी
उत्सुकता
बढ़ती है और
गहन होती है।
मन के जितने
द्वार बन्द
करते हैं, उसकी
जिज्ञासा
उतनी बढ़ती है,
उतना लगता
है कि कोई
द्वार खोलकर
झांक लूं और
देख लूं।
तो जो
भी मन के साथ
लड़ने में
लगेगा, वह रस
को जगाने में
लगेगा। यह भी
ध्यान रखें कि
मन से हम जिस
चीज को भुलाने
की कोशिश करते
हैं वहां हम
एक बहुत ही अमनोवैज्ञानिक
काम कर रहे
हैं। क्योंकि
भुलाने की हर
कोशिश याद
करने की
व्यवस्था है।
इसलिए कोई
आदमी किसी को
भुला नहीं
सकता। भूल
सकता है, भुला
नहीं सकता।
अगर आप किसी
को भुलाना
चाहते हैं तो
आप कभी न भुला
पाएंगे।
क्योंकि जब भी
आप भुलाते
हैं, तभी
आप फिर से याद
करते हैं।
आखिर भुलाने
के लिए भी याद
तो करना पड़ेगा,
और तब याद
करने का क्रम
सघन होता जाता
है, और याद
की रेखा मजबूत
और गहरी होती
चली जाती है।
तो
जिसे आपको याद
रखना हो, उसे
भुलाने की
कोशिश करना और
जिसे आपको
भुला देना हो,
उसे कभी भी
भुलाने की
कोशिश मत करना,
तो वह भूला
जा सकता है।
क्योंकि
पुनरुक्ति याद
बनती है, प्रेमियों
का यही कष्ट
है सारी
दुनिया में।
वे किसी प्रेमी
को भुला देना
चाहते हैं। जितना
भुलाते
हैं उतनी
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
भुलाने की
ज्यादा बेहतर
तरकीब वह शादी
कर लें और
प्रेमी को घर
में ले आएं।
फिर बिलकुल
याद नहीं आती।
मन का यह नियम
ठीक से खयाल
में ले लें, अन्यथा बड़ी
कठिनाई होती
है। तथाकथित
साधु, तपस्वी
इसी मन के
गहरे नियम को
न समझने के
कारण बहुत
उलझाव में पड़
जाते हैं।
भुलाने में
लगे हैं।
स्त्री न
दिखाई पड़े, इसलिए आंख
बंद करने में
लगे हैं। भोजन
न दिखाई पड़े
इसलिए इनिदरयों
को सिकोड़ने
में लगे हैं।
कहीं कोई रस न
आ जाए, मन
को वहां से
विपरीत किसी
दूसरी दिशा
में उलझाने
में लगे हैं।
लेकिन इस सबसे
जहां-जहां से
वे अपने को
हटा रहे हैं
वहीं-वहीं मन
और गहरी
रेखाएं
स्मृति की
निर्मित कर
लेता है।
नहीं, मन
को दबाने, समझाने,
भुलाने की
कोई व्यवस्था
रस-परित्याग
नहीं लाती।
फिर
रस-परित्याग
कैसे फलित
होता है? रस-परित्याग
का जो
वास्तविक
रूपांतरण है,
वह मन और
चेतना के बीच
संबंध टूटने
से घटित होता
है। मन और
चेतना के बीच
ही असली घटना
घटती है।
इसे
थोड़ा समझ लें
तो खयाल में आ
जाए।
मन उसी
बात में रस ले
पाता है
जिसमें चेतना
का सहयोग हो, को-आ
परेशन
हो। जिस बात
में चेतना का
सहयोग न हो, उसमें मन रस
नहीं ले पा
ता। असमर्थ
है। एक आदमी
रास्ते से
भागा जा रहा
है। आज भी
रास्ते की दुकानों
के विंडो केसेज
में वे ही
चीजें सजी हैं
जो कल तक सजी
थीं, लेकिन
आज उसे दिखाई
नहीं पड़तीं।
रास्ते पर अब
भी सुंदर का रें भागी
जा रही हैं, लेकिन आज
उसे दिखाई
नहीं पड़तीं।
उसके घर में
आग लगी है, वह
भागा चला जा
रहा है। क्या
हुआ? घर
में आग लगी है
तो हो क्या
गया? चीजें
तो अब भी गुजर
रही हैं। मन
वही है, इंद्रियां
वही हैं, उन
पर संघात वही
पड़ रहे हैं, संवेदनाएं
वही हैं, लेकिन
आज उसकी चेतना
कहीं और है।
आज उसकी चेतना
अपने मन के, अपनी
इंद्रियों के
साथ नहीं है।
आज उसकी चेतना
भाग गई है। वह
वहां है जहां
मकान में आग
लगी है। लेकिन
घर जाकर
पहुंचे और पता
चले कि किसी और
के मकान में
आग लगी है।
गलत खबर मिली
थी। सब वापस
लौट आएगा ।
दोस्तोवस्की को
फांसी की सजा
दी गयी थी—रूस
के एक चिंतक, विचारक,
लेखक को।
लेकिन ऐन वक्त
पर माफ कर
दिया गया। ठीक
छह बजे जीवन
नष्ट होने को
था, और छह
बजने के पांच
मिनट पहले खबर
आयी जार की कि
वह क्षमा कर
दिया गया है। दोस्तोवस्की
ने बाद में
निरंतर कहता
था—उस क्षण जब
छह बजने के
करीब आ रहे थे
तब मेरे मन में
न कोई वासना
थी, न कोई
इच्छा थी, न
कोई रस था, कुछ
भी न था। मैं
इतना शांत हो
गया था, और
मैं इतना
शून्य हो गया
था कि मैंने
उस क्षण में
जाना कि साधु,
संत जिस
समाधि की बात
करते हैं वह
क्या है। लेकिन
जैसे ही जार
का आदेश
पहुंचा और
मुझे सुनाया
गया कि मैं
छोड़ दिया जा रहा
हूं, मेरी
फांसी की सजा
माफ कर दी गई।
अचानक, जैसे
मैं किसी शिखर
से नीचे गिर
गया। बस वापस लौट
आया। सब
इच्छाएं; सब
क्षुद्रतम
इच्छाएं, जिनका
कोई मूल्य
नहीं था क्षणभर
पहले, वे
सब वापस लौट
आयी। पैर में
जूता काट रहा
था, उसका
फिर पता चलने
लगा। जूता काट
रहा था पैर
में, उसका
फिर पता चलने
लगा। नया जूता
लेना है, उसकी
योजना चल रही
थी—सब वापस। दोस्तोवस्की
कहता था—उस
शिखर को मैं
दुबारा नहीं
छू पाया। जो
उस दिन आसन्न
मृत्यु के
निकट अचानक
घटित हुआ था।
हुआ
क्या था? अब
मृत्यु इतनी
सुनिश्चित हो
तो चेतना सब
संबंध छोड़
देती है।
इसलिए समस्त
साधकों ने
मृत्यु के
सुनिश्चय के
अनुभव पर बहुत
जोर दिया है।
बुद्ध तो
भिक्षुओं को
मरघट में भेज
देते थे कि
तुम तीन महीने
लोगों को मरते,
जलते, मिटते,
राख होते
देखो। ताकि
तुम्हें अपनी
मृत्यु बहुत
सुनिश्चित हो
जाए। और जब
तीन महीने बाद
कोई साधक मृत्यु
पर ध्यान करके
लौटता था तो
जो पहली घटना
उसके मित्रों
को दिखाई पड़ती
थी, वह थी
रस-परित्याग।
रस चला गया।
रस के जाने का सूत्र
है—चेतना और
मन का संबंध
टूट जाए। वह
संबंध कैसे टूटेगा
और संबंध कैसे
निर्मित हुआ
है? जब तक
मैं सोचता हूं—मैं
मन हूं, तब
तक संबंध है। यह
आइडेंटिटी, यह तादत्म्य
कि मैं मन हूं,
तब तक संबंध
है। यह संबंध
का टूट जाना, यह जानना कि
मैं मन नहीं
हूं, रस
छिन्न-भिन्न
हो जाता है—खो
जाता है।
रस-परित्याग
की प्रक्रिया
है — मन के
प्रति साक्षीभाव, विटनेसिंग। जब आप भोजन
कर रहे हैं तो
मैं नहीं
कहूंगा आपको
कि आप भोजन मत
करें, यह
रसपूर्ण है।
मैं आपसे यह
भी नहीं
कहूंगा कि आप
जीभ को जला
लें क्योंकि
जीभ रस देती
है। मैं आपसे
यह भी नहीं
कहूंगा कि मन
में आप अनुभव
न करें कि यह
खट्टा है, यह
मीठा है। मैं
आप से कहूंगा—भोजन
करें, जीभ
को स्वाद लेने
दें; मन को
पूरी खबर होने
दें, पूरी
संवेदना होने
दें कि बहुत
स्वादिष्ट है।
सिर्फ भीतर इस
सारी
प्रक्रिया के
साक्षी बनकर
खड़े रहें।
देखते रहें कि
मैं देखने
वाला हूं। मन
को स्वाद मिल
रहा; जीभ
को रस आ रहा; वस्तु
प्रीतिकर
मालूम पड़ती
रही; लेकिन
मैं पीछे खड़ा
देख रहा हूं। जस्ट बियांड—एक
कदम भी पार
खड़े होकर देख
रहा हूं। मैं
देख रहा हूं; मैं द्रष्टा
हूं; मैं
साक्षी हूं।
रस के
अनुभव में
सिर्फ इतना
भाव गहन हो
जाए तो आप
अचानक पाएंगे
कि इंद्रियां
वही हैं, उन्हें
नष्ट करना
नहीं पड़ा।
पदार्थ वही
हैं, उन्हें
छोड़कर भागना
नहीं पड़ा। मन
वही है, वह
उतना ही
संवेदनशील है,
उतना ही सजग,
जीवंत है; लेकिन रस का
जो आकर्षण था
वह खो गया। रस
जो बुलाता था,
पुकारता था,
रस की जो
पुनरावृत्ति
की इच्छा थी—रस
का आकर्षण है
कि उसे फिर से दोहराओ; उसे फिर से दोहराओ; उसे दोहराओ
बार-बार, उसके
चक्कर में घूमो—वह
खो गया है। वह
बिलकुल खो गया
है। उसकी
पुनरुक्ति की
कोई आकांक्षा
नहीं रही। और
हम ऐसे रसों
तक की
पुनरुक्ति
करने लगते हैं
जो चाहे जीवन
को नष्ट करने
वाले क्यों न
हों। अब एक
आदमी शराब पी
रहा है। वह जानता
है, सुनता
है, पढ़ता
है कि जहर है, पर उसकी भी
पुनरुक्ति की
मांग है। मन
कहता है दोहराओ।
एक आदमी
धूम्रपान कर
रहा है। वह
जानता है कि वह
निमंत्रण दे
रहा है न
मालूम कितनी
बीमारियों को—वह
भली-भांति
जानता है। अगर
किसी और को
समझाना हो तो
वह समझा ता
है। अगर अपने
बेटे को रोकना
हो तो वह कहता
है—भूलकर कभी
धूम्रपान मत
करना। लेकिन
वह खुद करता है।
पुनरुक्ति की
आकांक्षा है।
विकृत रस भी अगर
संयुक्त हो
जाएं, और
विकृत रस भी
संयुक्त हो
जाते हैं, एसोसिएशन
से।
शिलर एक
जर्मन लेखक
हुआ। जब उसने
अपनी पहली
कविता लिखी थी
तो वृक्षों पर
सेव पक गए थे, नीचे
गिर रहे थे।
वह उस बगीचे
में बैठा था।
कुछ सेव नीचे
गिरकर सड़
गए थे, और सड़े हुए
सेवों की गंध
पूरी हवाओं
में तैर रही
थी। तभी उसने
पहली कविता
लिखी। यह पहली
कविता का जन्म
और सड़े
हुए सेवों की
गंध
एसोसिएटेड हो
गए, संयुक्त
हो गए। इसके
बाद शिलर जिंदगीभर
कुछ भी न लिख
सका जब तक
अपनी टेबल के
आसपास वह सड़े
हुए सेव न रख
ले। बिलकुल
पागलपन था। वह
खुद कहता था
कि बिलकुल पागलपन
है। लेकिन जब
तक सड़े
हुए सेवों की
गंध नहीं आती,
मेरे भीतर
काव्य सक्रिय
नहीं होता।
उसमें गति
नहीं पकड़ती।
मैं साधारण
आदमी बना रहता
हूं, शिलर नहीं हो
पाता। जैसे ही
सड़े हुए
सेवों की गंध
चारों तरफ से
मेरे
नासापुटों को
घेर लेती है, मैं बदल
जाता हूं। मैं
दूसरा आदमी हो
जा ता हूं। वह
कहता था कि
माना कि बड़ा
रुग्ण मामला
है कि सड़े
हुए सेव, और
भी गंधें हो
सकती हैं, फूल
रखे जा सकते
हैं। लेकिन
नहीं, यह
संयुक्त हो
गया।
अगर एक
आदमी सिगरेट
पी रहा है तो
सिगरेट का पहला
अनुभव सुखद
नहीं है, दुखद
है। लेकिन यह
दुखद अनुभव भी
निरंतर दोहराने
से किसी क्षण
की अनुभूति से
अगर संयुक्त हो
गया, तो
फिर जिंदगीभर
पुनरुक्ति
मांगता
रहेगा। और हो
सकता है संयुक्त।
जब आप सिगरेट
पीते हैं तो
एक अर्थो
में सारी
दुनिया से टूट
जाते हैं।
सिगरेट पीना
एक अर्थ में मैस्टरबेटरी
है, वह
हस्तमैथुन
जैसी चीज है।
मनोवैज्ञानिक
ऐसा कहते हैं —
आप अपने में
ही बंद हो
जाते हैं; दुनिया
से कोई
लेना-देना
नहीं; अपना
धुआं है, उड़ा
रहे हैं, बैठे
हैं। दुनिया
टूट गयी, आपके
और दुनिया के
बीच एक स्मोक करटेन आ
गया। पत्नी घर
है, मतलब
नहीं। दुकान
चलती है कि
नहीं चलती, मतलब नहीं।
कहां क्या हो
रहा है, मतलब
नहीं। आपको
इतना मतलब है
कि आप धुआं
भीतर खींच रहे
हैं, बाहर
छोड़ रहे हैं।
आप सारे जगत
से टूट गए, आइसोलेट
हो गए। अकेले
हो गए। अकेले
में एक तरह का
रस आता है, आइसोलेशन में रस है।
वही तो एकांत
के साधक को
आता है। अब आप
यह जानकर
हैरान होंगे
कि एकांत के
साधक को जो
आता है, अगर
वह किसी क्षण
में सिगरेट
पीने में आ
गया, और आ
सकता है, और
आ जा ता है, क्योंकि
सिगरेट भी तोड़ती
है। इसलिए
अकेला आदमी
बैठा रहे तो
थोड़ी देर में
सिगरेट पीना
शुरू कर देता
है। खयाल मिट
जाता है सब
चारों तरफ का।
अपने में बंद
हो जाता है, क्लोजिंग हो जाती है।
यह
वैसा ही है
जैसे छोटा
बच्चा अकेला
पड़ा हुआ अपना
अंगूठा पीता
रहे। जब छोटा
बच्चा अपना अंगूठा
पीता है, ही
इज़ डिसकनेक्टेड,
उसका
दुनिया से कोई
संबंध नहीं
रहा। दुनिया से
उसे कोई मतलब
नहीं, उसे
अपनी मां से
भी अब मतलब
नहीं है।
इसलिए मनोवैज्ञानिक
कहते हैं—बच्चे
को बहुत
ज्यादा
अंगूठा मत
पीने देना। अन्यथा
उसकी जिंदगी
में
सामाजिकता कम
हो जाएगी। अगर
कोई बच्चा
बहुत दिनों तक
अंगूठा पीता रहे
तो वह एकांगी
और अकेला हो
जाएगा। वह
दूसरों से
मित्रता नहीं
बना सकेगा।
मित्रता की
जरूरत नहीं।
अपना अंगूठा ही
मित्र का काम
देता है। किसी
से कुछ मतलब
नहीं। जो
बच्चा अंगूठा
पीने लगेगा, उसका मां से
प्रेम
निर्मित नहीं
हो पाएगा, क्योंकि
मां से जो
प्रेम
निर्मित होता
है वह उसके
स्तन के
माध्यम से ही
होता है, आ
र कोई माध्यम
नहीं है। अगर
वह अपने
अंगूठे से
इतना रस लेने
लगा जितना मां
के स्तन से
मिलता रहा है,
तो वह मां
से इनडिपेंडेंट
हो गया। अब
उसकी कोई डिपेंडेंस
नहीं मालूम
होती उसको। अब
वह निर्भर
नहीं है। और
जो बच्चा अपनी
मां से प्रेम
नहीं कर पाएगा,
इस दुनिया
में वह फिर
किसी से प्रेम
नहीं कर पाएगा,
क्योंकि
प्रेम का पहला
पार्ट ही नहीं
हो पाया। वह
बच्चा अपने
में बंद हो
गया। एक अर्थ
में वह बच्चा
अब समाज का
हिस्सा नहीं
रह गया।
और
जानकर आप
हैरान होंगे
कि जो बच्चे
बचपन में
ज्यादा
अंगूठा पीते
हैं,
वे ही बच्चे
बड़े होकर
सिगरेट पीते
हैं। जिन बच्चों
ने बचपन में
अंगूठा कम
पिया है या
नहीं पिया है,
उनके जीवन
में िसगरेट
पीने की
सम्भावना ना
के बराबर हो
जाती है। क्योंकि
सिगरेट जो है
वह अंगूठे का सबसटीटयूट
है, वह
उसका परिपूरक
है। बड़ा आदमी
अंगूठा पीए तो
जरा बेहूदा
मालूम पड़ेगा।
तो उसने
सिगरेट ईजाद की
है, चुरुट ईजाद किया
है। उसने ईजाद
की है चीजें, उसने हुक्का
ईजाद किया है,
लेकिन पी
रहा है वह
अंगूठा। वह
कुछ और नहीं
पी रहा है।
लेकिन बड़ा है
तो एकदम
सीधा-सीधा
अंगूठा पिएगा
तो जरा बेहूदा
लगेगा। लोग
क्या कहेंगे!
इसलिए उसने एक
परिपूरक
इंतजाम कर
लिया है। अब
लोग कुछ भी न
कहेंगे।
ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही कहेंगे कि
सिगरेट पीने
से नुकसान
होता है।
अंगूठा पीने
से कोई भी न
कहेगा कि
नुकसान होता
है, लेकिन
अंगूठा पीते
देखकर आदमी
चौंक जाएंगे कि
यह क्या कर
रहे हो!
सिगरेट पीने
से इतना ही कहेंगे
कि नुकसान
होता है। वह
कहेगा—क्या करें
मजबूरी है, यह तो मैं भी
जानता हूं, लेकिन आदत
पड़ गयी है।
अंगूठे में वह
बुद्धू मालूम
पड़ेगा, सिगरेट
में वह समझदार
मालूम पड़ेगा।
सबसटीटयूट
सिर्फ धोखा
देते हैं।
लेकिन, अगर
एक बार रस आ
जाए तो गलत से
गलत चीज
संयुक्त हो
जाती है।
मुल्ला
की पत्नी एक
दिन उसके काफी
हाउस में
पहुंच गयी
जहां वह शराब
पीता रहता था
बैठकर।
मुल्ला अपना
टेबल पर गिलास
और बोतल लिए
बैठा था।
पत्नी आ गयी
तो घबराया तो
बहुत, लेकिन
उसने, पत्नी
आ गयी थी तो एक
प्याली में
उसको भी डालकर
शराब दी।
पत्नी भी आयी
थी आज जांचने
कि यह क्या
करता रहता है!
शराब उसने एक
घूंट पिया, नितान्त
तिक्त और
बेस्वाद था, उसने नीचे
रख दिया और
मुंह बिगाड़ा,
और उसने कहा
कि मुल्ला, तुम यह पीते
रहते हो? मुल्ला
ने कहा—सोचो, तू सोचती थी
मैं बड़ा आनंद
मनाता रहता
हूं। यही दुख
भोगने के लिए
हम यहां आते
हैं। समझ गयी,
अब दुबारा
भूलकर मत कहना
कि वहां तुम
बड़ा आनंद करने
जाते हो।
शराब
का पहला अनुभव
तो दुखद ही है, लेकिन
शराब के गहरे
अनुभव
धीरे-धीरे
सुखद होने
शुरू हो जाते
हैं, क्योंकि
शराब आपको जगत
से तोड़ देती
है, जगत की
चिन्ताओं से
तोड़ देती है।
जगत मिट जाता
है, आप ही
रह जाते हैं।
यह बहुत ही
मजे की बात है
कि ध्यान और
शराब में थोड़ा
संबंध है। इसलिए
विलियम जेम्स
ने, जिसने
कि इस सदी में
धर्म और नशे
के बीच संबंध खोजने
में सर्वाधिक
शोध कार्य
किया, विलियम
जेम्स ने कहा
कि शराब का
इतना आकर्षण गहरे
में कहीं न
कहीं धर्म से
संबंधित है, अन्यथा इतना
आकर्षण हो
नहीं सकता।
कहीं न कहीं
शराब कुछ ऐसा
करती होगी जो मनुष्य
की गहरी
धार्मिक
आकांक्षा को
तृप्त करता है—है
संबंध। और
इसलिए वेद के
सोमरस से लेकर
एलडूअस
हक्सले तक, एल एस डी तक, धार्मिक
आदमी का बड़ा
हिस्सा नशों
का उपयोग करता
रहा है—बड़ा
हिस्सा। और
नशे के उपयोग
में कहीं न
कहीं कोई
तालमेल है। वह
तालमेल इतना
ही है कि शराब
आपको जगत से
तोड़ देती है
इस बुरी तरह
कि आप बिलकुल
अकेले हो जाते
हैं। अकेले
होने में एक
रस है। संसार
की सारी चिन्ताएं
भूल जाती हैं।
आप एक गहरे
अर्थ में
निश्चिंत मालूम
पड़ते हैं। हो
तो नहीं जाते।
शराब तो थोड़ी
देर बाद विदा
हो जाएगी, चिन्ता
वापस लौट आएगी,
लेकिन शराब
के सा थ इस
निश्चिंतता
का रस जुड़ जाएगा।
बस वह एक दफा
रस जुड़ गया, फिर आप शराब
के नाम से जहर
पीते रहेंगे।
वह कितना ही
तिक्त मालूम
पड़े, वह रस
जो संयुक्त हो
गया। हम विकृत
रसों से भी जुड़
जा सकते हैं, और फिर उनकी
पुनरुक्ति की
मांग शुरू हो
जाती है।
मुल्ला
एक दिन अपने
मकान के
दरवाजे पर
उदास बैठा है।
पड़ोसी बहुत
हैरान हुआ
क्योंकि दो
सप्ताह से वह
बहुत प्रसन्न
मालूम पड़ रहा
था,
इतना जितना
कभी नहीं
मालूम पड़ा था।
उदास देखकर
पड़ोसी ने पूछा
कि आज नसरुद्दीन
बहुत उदास
मालूम पड़ते हो,
बात क्या है?
नसरुद्दीन ने कहा—बात!
बात बहुत कुछ
है। इस महीने
के पहले सप्ताह
मेरे दादा मर
गए और मेरे
नाम पचास हजार
रुपए छोड़ गए।
दूसरे सप्ताह
मेरे चाचा मर
गए और मेरे
नाम तीस हजार
रुपए छोड़ गए
और तीसरा
सप्ताह पूरा
होने को है, अभी तक कुछ
नहीं हुआ।
मन पुनरुक्ति
मांगता है।
इसका सवाल
नहीं है कि कोई
मरेगा तब कुछ
होगा। मरने का
दुख एक तरफ रह
गया। वह पचास
हजार रुपए
मिलने का सुख
है। इसलिए मनसविद
कहते हैं कि
सिर्फ गरीब
बाप के मरने
से बेटे दुखी
होते हैं; अमीर
बाप के मरने
से केवल दुख
प्रगट करते
हैं। इसमें
सच्चाई है।
क्योंकि
मृत्यु से भी
ज्यादा कुछ और
साथ में अमीर
बाप के साथ
घटता है। उसका
धन भी बेटे के
हाथ में आ
जाता है। दुख
वह प्रगट करता
है, लेकिन
वह दुख ऊपरी
हो जाता है।
भीतर एक रस भी
आ जाता है। और
अगर उसे पता
चले कि बाप
पुनः जिन्दा
हो गया, तो
आप समझ सकते
हैं, मुसीबत
कैसी मालूम
पड़े। वह नहीं
होता कभी जिन्दा,
यह दूसरी
बात है।
मुल्ला
की जिंदगी में
ऐसी तकलीफ हो
गयी थी। उसकी
पत्नी मर गयी, बा
मुश्किल मरी।
अर्थी को
उठाकर ले जा
रहे थे कि
अर्थी सामने
लगे हुए नीम
के वृक्ष से
टकरा गयी।
अंदर से आवाज
आयी हलन-चलन
की। लोगों ने
अर्थी उतारी,
पत्नी मरी
नहीं थी, सिर्फ
बेहोश थी।
मुल्ला बड़ा छाती
पीटकर रो रहा
था। पत्नी को
जिंदा देखकर
बड़ा दुखी हो
गया—छाती
पीटकर रो रहा
था, पत्नी
को जिन्दा
देखकर वह बड़ा
दुखी हो गया।
फिर पत्नी तीन
सा ल और
जिन्दा रही, फिर मरी, और
जब अर्थी
उठाकर लोग
चलने लगे तो
मुल्ला फिर
छाती पीटकर रो
रहा था। जब
नीम के पास
पहुंचे, तो
उसने कहा—भाइयो,
जरा सम्भालकर,
फिर से मत
टकरा देना।
आदमी, जो
प्रगट करता है,
वही उसके
भीतर है, ऐसा
जरूरी नहीं
है। ज्यादा
सम्भावना तो
यह है कि वह जो
प्रगट करता है,
उससे
विपरीत उसके
भीतर होता है।
शायद वह प्रगट
ही इसलिए करता
है कि वह जो
विपरीत भीतर
है वह छिपा
रहे, वह
प्रगट न हो
जाए। अगर
ज्यादा जोर से
छाती कि दुख
नहीं है तो
छाती पीटकर रो
सकता है। भीतर
अन्यथा भी हो
सकता है।
कितनी ही गलत
चीज में अगर
रस आ जाए तो
उसकी
पुनरुक्ति
शुरू हो जाती
है। गलत से
गलत चीज में
शुरू हो जाती
है, तो सही
चीज में तो
कोई कठिनाई
नहीं है।
पर यह
जोड़ कब पैदा
होता है? यह
लिंक कब बनती
है? यह
लिंक, यह
जोड़, यह
संबंध तब बनता
है जब व्यक्ति
अपने मन से अपने
को दूर नहीं
पाता, एक
पाता है। वही
उसके जुड़ने
का ढंग है, जब
हम पाते हैं
कि मैं मन हूं।
अब आपको क्रोध
आता है और आप
कहते हैं कि
मैं क्रोधी हो
गया, तो
आपको पता नहीं,
आप मन के
साथ जोड़ बना
रहे हैं। जब
आपके जीवन में
दुख आता है और
आप कहते हैं—मैं
दुखी हो गया, तो आपको पता
नहीं, आप
मन के साथ
अपने को एक
समझने की
भ्रांति में पड़
रहे हैं। जब
सुख आता है तो
आप कहते हैं—मैं
सुखी हो गया, तब आप फिर मन
के साथ तादत्म्य
कर रहे हैं।
अगर
रस-परित्याग
साधना है तो
जब क्रोध आए
तब कहना कि
क्रोध आया , ऐसा
मैं देखता हूं—ऐसा
नहीं कि क्रोध
मुझे आ ही
नहीं रहा है—तब
आप फिर
संबंधित हो
गए। ध्यान रहे
अगर आपने कहा —नहीं,
क्रोध मुझे
आ ही नहीं रहा,
और क्रोध आ
रहा है तो आप
क्रोध से
संबंधित हों या
अक्रोध से
संबंधित हों,
दोनों हालत
में
रस-परित्याग
नहीं होगा। जब
क्रोध आए तब
रस-परित्याग
की साधना करने
वाला व्यक्ति
कहेगा, क्रोध
आ रहा है, क्रोध
जल रहा है, लेकिन
मैं देख रहा
हूं।
और सच यही
है कि आप
देखते हैं, आप
कभी क्रोधी
होते नहीं। वह
भ्रांति है कि
आप क्रोधी
होते हैं। आप
सदा देखनेवाले
बने रहते हैं।
जब पेट में
भूख लगती है
तब आप भूखे
नहीं हो जाते,
आ प सिर्फ
जाननेवाले
होते हैं कि
भूख लगी है। जब
पैर में कांटा
गड़ता है
तो आप दर्द
नहीं हो जाते,
तब आप जानते
हैं कि पैर
में दर्द हो
रहा है, ऐसा
मैं जानता
हूं।
लेकिन
इस जानने का
बोध आपका प्रगाढ़
नहीं है, बहुत
फीका है। वह
इतना फीका है
कि जब पैर का
कांटा जोर से
चुभता है तो
भूल जाता है
उस बोध को प्रगाढ़
करने का नाम
रस-परित्याग
है। वह बोध
जितना प्रगाढ़
होता जाए, तब
जीभ आपकी
कहेगी — बहुत
स्वादिष्ट
है। आप कहेंगे
कि ठीक है, जीभ
कहती है कि
स्वादिष्ट है—ऐसा
मैं सुनता हूं,
ऐसा मैं
देखता हूं, ऐसा मैं
समझता हूं, लेकिन मैं
अलग हूं। रसानुभव
के बीच में
साक्षी हूं।
कोई सम्मान कर
रहा है, फूल
मालाएं
डाल रहा है, तब आप जानते
हैं कि फूल मालाएं
डाली जा रही
हैं, कोई
सम्मान कर रहा
है, मैं
देख रहा हूं।
कोई पत्थर मार
रहा है, कोई
गालियां दे
रहा है, तब
आप जानते हैं
कि गालियां दी
जा रही हैं, पत्थर मारे
जा रहे हैं, मैं देख रहा
हूं।
और एक
बार इस
द्रष्टा के
साथ संबंध बन
जाए और इस मन
के संबंध
शिथिल हो जाएं
तो आप पाएंगे, सब
रस खो गए। न
वस्तुएं छोड़नी
पड़तीं, न आंखें
फोड़नी पड़तीं,
न तथाकथित
आरोपण अपने
ऊपर करना पड़ता,
लेकिन रस खो
जाते हैं। और
जब रस खो जाते
हैं तो वस्तुएं
अपने आप छूट
जाती हैं। और
जब रस खो जा ते
हैं तो
इंद्रियां
अपने आप शांत
हो जाती हैं।
और जब रस खो
जाते हैं तो
मन पुनरुक्ति
की मांग बन्द
कर देता है।
क्योंकि वह
करता ही इसलिए
था कि रस
मिलता था। अब
जब मालिक को
ही रस नहीं
मिलता तो बात
समाप्त हो
गयी। मन हमारा
नौकर है, छा
या की तरह
हमारे पीछे
चलता है। हम
जो कहते हैं
वह मन दोहरा
देता है। मन
जो दोहराता है
इंद्रियां
वही मांगने
लगती हैं। इंद्रिया
जो मांगने
लगती हैं, हम
उन्हीं के पदाथो
को इकट्ठा
करने में जुट
जाते हैं। ऐसा
चक्कर है।
इसे आप
पहले केंद्र
से ही तोड़ें।
फिर भी महावीर
इसे कहते हैं, यह
बाह्य-तप है। यह
बड़े मजे की
बात है। इसे
तोड़ना पड़ेगा
भीतर, लेकिन
फिर भी यह बाह्य-तप
है।
क्योंकि
जिससे आप तोड़
रहे हैं वह बाहर
की ही चीज है, फिर भी बाहर
की चीज है।
अगर मैं
साक्षी हो रहा
हूं तो भी तो
बाहर का हो
रहा हूं, वस्तु
का ही हो रहा
हूं, इंद्रियों
का हो रहा हूं,
मन का हो
रहा हूं। वे
सब पराए हैं, वे सब बाहर
हैं।
ध्यान
रहे,
महावीर
कहते हैं, साक्षी
होना भी बाहर
है। इसलिए जब
केवली होता है
कोई तब वह
साक्षी भी
नहीं होता।
किसका साक्षी
होना है? वह
सिर्फ होता है
— जस्ट
बीइंग, सिर्फ
होता है।
साक्षी भी
नहीं होता
क्योंकि साक्षी
में भी द्वैत
है। कोई है
जिसका मैं साक्षी
हूं। अभी वह
कोई मौजूद है।
इसलिए केवली
साक्षी भी
नहीं होता ।
जब तक मैं
ज्ञाता हूं तब
तक कोई ज्ञेय
मौजूद है, इसलिए
केवली ज्ञाता
भी नहीं होता,
मात्र
ज्ञान रह जाता
है।
इसलिए
महावीर इसे भी
बाहय
कहेंगे। यह भी
बाहर है।
लेकिन बाहर का
यह मतलब नहीं
है कि आप बाहर
की वस्तु को
छोड़ने से शुरू
करें। बाहर की
वस्तु छूटना
शुरू होगी, यह
परिणाम होगा।
अगर किसी
व्यक्ति ने
बाहर की वस्तु
छोड़ने से शुरू
किया तो वह
मुश्किलों में
पड़ जाएगा, उलझ
जाएगा। वह जिस
वस्तु को
छोड़ेगा उसमें
आकर्षण बढ़
जाएगा। वह
जिससे भागेगा
उसका निमंत्रण
मिलने लगेगा।
वह जिसका
निषेध करेगा
उसकी पुकार बढ़
जाएगी। जीभ से
लड़ेगा, आंख
से लड़ेगा तो
मन और भी
ज्यादा
प्रताड़ित करने
लगेगा। रस
कायम है और
इंद्रिय पास
में नहीं तो
मन और भी
ज्यादा
प्रताड़ित
करेगा। अगर मन
को दबाएगा,
हटाएगा, समझाएगा,
बुझाएगा तो मन उल्टी
मांग करता है।
सिर्फ एक ही
जगह है जहां
से रस टूट
जाता है, वह
है साक्षीभाव।
रस-परित्याग
की प्रक्रिया
है, साक्षीभाव।
रस-परित्याग
के बाद महावीर
ने कहा है —
काया-क्लेश।
यह महावीर के
साधना
सूत्रों में सबसे
ज्यादा गलत
समझा गया
साधना सूत्र
है। काया-क्लेश
शब्द साफ है।
लगता है — शरीर
को कष्ट दो, का
या को क्लेश
दो, काया
को सताओ; लेकिन
महावीर सताने
की किसी भी
बात में गवाही
नहीं हो सकते।
क्योंकि सब
सताना हिंसा
है। अपना ही
शरीर सताना भी
हिंसा है, क्योंकि
महावीर कहते
हैं — वह भी
तुम्हारा है!
सच तुम्हारा
है जो तुम उसे सता
सकोगे? पदार्थ
पर है। मेरे
शरीर में जो
खून की धारा
दौड़ रही है वह
उतनी ही मुझसे
दूर है जितनी
आपके शरीर में
खून की धारा
दौड़ रही है।
मेरे शरीर में
जो हड्डी है, वह भी मैं
नहीं हूं।
उतना ही मैं
नहीं हूं जितना
आपके शरीर की
हड्डी मैं
नहीं हूं। और
जब मेरे शरीर
की हड्डी
निकालकर और
आपके शरीर की
हड्डी
निकालकर रख दी
जाए तो मै पता
भी न लगा
पाऊंगा कि
कौन-सी मेरी
हड्डी है — कि
लगा पाऊंगा? कोई पता न
लगेगा। हड्डी
सिर्फ हड्डी
है। वह मेरी तेरी
नहीं है। और
मेरी हड्डी
जिस नियम से
बनती है उसी
नियम से आपकी
हड्डी भी बनती
है। वह सब बाहर
की ही व्यवस्था
है।
तो
महावीर अपने
शरीर को भी सताने
की बात नहीं
कह सकते
क्योंकि महा
वीर भलीभांति
जानते हैं कि
अपना वहां
क्या है? वहां
भी सब पराया
है। सिर्फ डिसटेंस
का फासला है।
मेरा शरीर
मुझसे थोड़ा कम
दूरी पर, आपका
शरीर मुझसे
थोड़ी ज्यादा
दूरी पर है, बस इतना ही
फासला है। और
तो कोई फासला
नहीं है। पर
महावीर की परम्परा
ने ऐसा ही
समझा कि काया
को सताओ, और
इसलिए मेसोचिस्ट
का, आत्मपीड़कों का बड़ा वर्ग
महावीर की
धारा में
सम्मिलित हुआ।
जिन-जिन को
लगता था कि
अपने को सताने
में मजा आ
सकता है वे
सम्मिलित
हुए।
अब
ध्यान रहे, महावीर
ने अपने बालों
का लोंच
किया, अपने
बाल उखाड़कर
फेंक दिए।
क्योंकि
महावीर कहते
थे — अब बालों
को उखाड़ने
के लिए भी कोई
साधन पास में
रखना पड़े, कोई
रेजर साथ
रखो या किसी
नाई पर निर्भर
रहो, या
नाई के यहां
क्यू लगाकर
खड़े हो, महावीर
ने कहा, फिजूल-फिजूल
समय इसमें
खोना जरूरी
नहीं है।
महावीर अपने
बाल उखाड़
देते थे।
लेकिन महावीर
बाल उखाड़ते
थे इसलिए नहीं
कि बाल उखाड़ने
में जो पीड़ा
होती थी उस
पीड़ा में
उन्हें कोई रस
था। सच तो यह
है कि महावीर
को बाल उखाड़ने
में पीड़ा नहीं
होती थी । यह
थोड़ा समझने
जैसा है। आपके
शरीर में बाल
और नाखून डैडपार्ट्स
हैं, जिन्दा
हिस्से नहीं
हैं। नाखून और
बाल मरे हुए
हिस्से हैं
इसलिए तो
कैंची से
काटकर दर्द नहीं
होता। उंगली
काटिए! बाल
कैंची से कटता
है, आप को
दर्द क्यों
नहीं होता? इफ
इट इज़ ए
पार्ट—अगर आ
पका ही हिस्सा
है तो दर्द
होना चाहिए, यदि वह
जिन्दा है तो
दर्द होना
चाहिए। लेकिन
आपके बाल कटते
रहते हैं, आपको
पता भी नहीं
चलता। बा ल
मरा हुआ
हिस्सा है।
असल में शरीर
में जो जीव
कोष मर जाते
हैं उन कोषों
को बाहर
निकालने की
तरकीब है—बाल
और ना खून और
अनेक तरह से, पसीने से, और सब तरह
से। शरीर के
मरे हुए कोष
शरीर बाहर फेंक
देता है। तो
बाल आपके शरीर
के मरे हुए
कोष हैं। अगर
मरे हुए कोषों
को भी खींचने
से पीड़ा होती
है तो वह
भ्रांति है
सिर्फ । वह
सिर्फ खयाल है
कि पीड़ा होगी,
इसलिए होती
है।
आप
कहेंगे, क्या
सारे लोग
भ्रांति में
हैं? तो
मैं आपको एक
छोटी-सी
वैज्ञानिक
घटना कहूं जिससे
खयाल में आए।
फ्रांस में एक
आदमी है, लोरेंजो। उसने पीड़ारहित
प्रसव के
हजारों
प्रयोग किए।
कोई अब तक वह
एक लाख
स्त्रियों को
बिना दर्द के
प्रसव करवाया है।
बिना कोई दवा
दिए, बिना
कोई अनस्थेसिया
दिए, बिना
बेहोश किए।
जैसी स्त्री
है वैसी ही
उसे लिटाकर
बिना दर्द के बच्चे
को पैदा करवा
देता है। वह
कहता है—सिर्फ
यह भ्रांति है
कि बच्चे के
पैदा होने में
दर्द होता है,
यह सिर्फ
खयाल है। और
चूंकि यह खयाल
है इसलिए जब
मां को बच्चा
होने के करीब
आता है तब वह
भयभीत होनी
शुरू हो जाती
है कि अब दर्द
होनेवाला है।
अब दर्द होगा।
और चूंकि दर्द
जब भी खयाल
में आता है तो
वह अपनी पूरी मांस-पेशियों
को भीतर सिकोड?ने लगती है।
दर्द सिकोड़ता
है—ध्यान रहे, सुख
फैलाता है, दुख सिकोड़ता
है। जब आप दुख
में होते हैं
तो सिकुड़ते
हैं। अगर एक
आदमी आपकी
छाती पर छुरा
लेकर खड़ा हो
जाए, आपकी
सब मांस-पेशियां
भीतर सिकुड़
जाती हैं। कोई
आपके गले में
फूलमाला डाल दे,
आपका सब फैल
जाता है।
फूलमाला डलवाकर
कभी वजन मत
तुलवाना, ज्यादा
निकल सकता है।
आप हैरान
होंगे, यह
वैज्ञानिक
निरीक्षित
तथ्य है कि भगतसिंह
का वजन फांसी
पर बढ़ गया।
जेल में तौला
गया और जेल से
ले जाकर फांसी
के तख्ते पर
तौला गया, फांसी
लगनेवाली थी
तो भगतसिंह
का वजन कोई डेढ़
पौंड बढ़ गया।
यह कैसे बढ़
गया? भगतसिंह इतना
आनंदित था कि
फैल सकता है।
जब आप दुख में होते
हैं तो अपने
को आप सिकोड़ते
हैं रक्षा के
लिए।
तो जब
मां को डर
लगता है कि अब
पीड़ा आनेवाली
है,
अब बच्चा
होनेवाला है
और उसने देखी
हैं चीखें, कराहें सुनी हैं
अस्पतालों
में, घर
में। सब उसे
पता है। वह
अपनी
मांस-पेशियों को
भीतर सिकोड़ने
लगती है। जब
वह
मांस-पेशियों
को भीतर सिकोड़ती
है और बच्चा
बाहर निकलने
के लिए धक्का
देता है, पीड़ा
शुरू होती है,
दर्द शुरू
हो जाता है।
दर्द शुरू
होता है, मां
का भरोसा
पक्का हो जाता
है कि दर्द
होने लगा। वह
और जोर से सिकोड़ती
है। वह िजतने जोर
से सिकोड़ती
है, बच्चा
उतने जोर से
धक्के देता
है। उसे बाहर
निकलना है।
दोनों के
संघर्ष में
पीड़ा और पेन
पैदा होता है।
लोरेंजो
कहता है—यह
पेन सिर्फ मां
पैदा करवाती है।
यह सजेशन
है उसका , खयाल
है। पेन होने
की जरूरत ही
नहीं। किसी
जानवर को नहीं
होता है, जंगली
आदिवासियों
को नहीं होता
है। आदिवा
सी स्त्री
बच्चा पैदा हो
जाता है जंगल
में, उसको
टोकरी में
रखकर अपने घर
चल पड़ती है।
उसे विश्राम
की भी कोई
जरूरत नहीं
रहती क्योंकि
जब दर्द ही
नहीं हुआ तो
विश्राम की
क्या जरूरत? दर्द हुआ तो
फिर महीनेभर
विश्राम की
जरूरत है। यह
सारा का सारा
मान िसक
है, लोरेंजो कहता है। और
अब तो लोरेंजो
की व्यवस्था
रूस और अमरीका
सब तरफ फैलती
जा रही है। और
वह सिर्फ मां
को इतना
समझाता है कि
तू खींच मत
अपनी मांस-पेशियों
को, रिलेक्स रख। बच्चे
को को-आपरेट
कर बाहर आने
में। तू सोच
कि बच्चा बाहर
जा रहा है।
इसलिए आप
देखेंगे कि
कोई पचहत्तर
प्रतिशत
बच्चे रात में
पैदा होते
हैं। उनको रात
में पैदा होना
पड़ता है। क्योंकि
नींद में मां
लड़ाई नहीं
करती। नहीं तो
हिसाब से पचास
परसेंट
रात में हों, चलेगा। पचास
परसेंट
दिन में हों, चलेगा। इससे
ज्यादा—इससे
ज्यादा का
मतलब है कि
मां कुछ गड़बड़
करती है। या
बच्चे रात में
जगत में उतरने
को ज्यादा
आतुर हैं। कुल
कारण इतना है
कि मां जब तक
जगी रहती है, वह ज्यादा
सख्ती से अपनी
मांस-पेशियों
को खींचे रहती
है। वह सो
जाती है तो
शिथिल हो जाती
है। सम्मोहन
में बच्चे
बिना दर्द के
पैदा हो जाते हैं
क्योंकि मां
नींद में—गहरी
नींद में
सम्मोहित हो
जाती है।
बच्चा पैदा हो
जाता है।
लेकिन लोरेंजो
कहता है—को-आपरेट
विद दि
चाइल्ड। और लोरेंजो
यह भी कहता है
कि जिस मां ने
बच्चे के पैदा
होने में
सहयोग नहीं
दिया वह बाद
में भी नहीं
दे पाएगी। और
जिस बच्चे के
सा थ पहला
अनुभव दुख का
हो गया उस
बच्चे के साथ
सुख का अनुभव
लेना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। क्योंकि
पहला अनुभव
एक्सपोजर है, गहरा।
वह गहरे में
उतर जाता है।
जिस बच्चे ने पहले
ही दिन पीड़ा
दे दी, अब
वह पीड़ा ही
देगा। यह
प्रतीति गहन
हो गयी। तो
इसलिए मां
बुढ़ापे तक
कहती रहती है
कि मैंने तुझे
नौ महीने पेट
में रखकर दुख
झेला। वह भूलती
नहीं। मैंने
कितनी-कितनी तकलीफें झेलीं।
बच्चे के साथ
सुख का अनुभव,
मां कभी कम
ही कहती सुनी
जाती है। दुख
के अनुभव ही
कहती सुनी
जाती है। शायद
ही कोई मां यह
कहती हो कि
मैंने तुझे नौ
महीने रखकर
कितना सुख
पाया। और जो
मां ऐसा कह
सकेगी, उसके
आनन्द की कोई
सीमा नहीं
रहेगी, लेकिन
कहने का सवाल
नहीं है, अनुभव
की बात है। और
जो मां बच्चे
को नौ महीने पेट
में रखकर आनंद
नहीं पा सकी, उसने मां
होने का हक खो
दिया। दुख
पाया तो दुश्मन
हो गया। और
जिसके साथ
इतना दुख पाया
अब उसके साथ
दुख की ही
सम्भावना का
सूत्र गहन हो
गया। अब जब वह
दुख देगा, तभी
खयाल में आएगा,
जब वह सुख
देगा तो खयाल
में नहीं
आएगा। क्योंकि
हमारी च्वाइस
शुरू हो गयी, हमारा चुनाव
शुरू हो गया।
लोरेंजो ने
लाखों
स्त्रियों को
बिना दर्द के, प्रसव
करवाकर यह
प्रमाणित कर
दिया कि दर्द
हमारा खयाल
है। अगर प्रसव
बिना दर्द के
हो सकता है तो
आप सोचते हैं,
बाल बिना
दर्द के नहीं
निकल सकते!
बहुत आसान-सी
बात है।
महावीर अपने
बाल उखाड़
कर फेंक देते
हैं।
लेकिन
पागलों की एक
जमात है और
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
पागलों का एक
खास वर्ग है
जो बाल नोंचने
में रस लेता
है। जिसको बाल
नोंचने
में रस आता है, अगर
वह ऐसा ही
बाजार में खड़े
होकर बाल नोंचे,
तो आप उसको
पागलखाने भेज
देंगे। अगर वह
महावीर का
अनुयायी होकर नोंचे तो
आप उसके पैर
छुएंगे। अब यह
आदमी अगर थोड़ी
भी इसमें
बुद्धि है और
पागलों में
काफी होती है—काफी
होती है।
इसलिए काफी बुद्धिवाले
लोग भी
कभी-कभी पागल
होते हैं।
पागलों में काफी
बुद्धि होती
है। और जहां
तक उनका
पागलपन है वह
अपनी बुद्धि
का उसमें पूरा
प्रयोग करते
हैं। तो जो
बाल नोंचनेवाले
पागल हैं वे
महावीर में
उत्सुक होकर
साथ खड़े हो
जाएंगे। कुछ
पागल हैं, जिनको
नग्न होने में
रस आता है।
उनको मनोवैज्ञानिक
एक्जीबीशिनिस्ट
कहते हैं। अगर
वे ऐसे ही
नग्न होकर खड़े
हों तो पुलिस पकड़कर ले
जाएगी। लेकिन
महावीर को
नग्न देखकर उनको
बहुत मजा आ
जाएगा। वे
नग्न खड़े हो
जाएंगे। और तब
आप उनके पैर
छूने पहुंच
जाएंगे। पता लगाना
बहुत मुश्किल
है कि वह
नग्नता की वजह
से महावीर के
अनुयायी हो गए,
या महावीर
के अनुयायी
होने की वजह
से वे नग्न हुए
हैं। बाल नोंचने
में उनको मजा
आता है इसलिए
महावीर के साथ
चले गए, या
महावीर के साथ
चले गए और उस
राज को पा गए
जहां बाल नोंचने
में कोई दर्द
नहीं होता। यह
तय करना बहुत
मुश्किल है।
आदमी के भीतर
क्या हो रहा
है, यह
बाहर से जांच
बड़ी कठिन है।
मुल्ला
एक दिन चर्च
में गया है
सुनने। कोई
बड़ा पादरी
बोलने आया है।
चला गया। एक
ईसाई मित्र ने
कहा,
जाकर बैठ
गया। आगे ही
बैठा है।
प्रभावशाली
आदमी है।
पादरी की भी
नजर उस पर
बार-बार जाती
है। जब पादरी
ने टेन कमांडमेंट्स
पर बोलना शुरू
किया, दस
आज्ञाओं पर और
जब उसने एक
आज्ञा पर काफी
बातें समझायीं
— दाउ शैल्ट
नाट स्टील, चोरी नहीं
करना तुम। तो
मुल्ला बड़ा
बेचैन हो गया।
उसके माथे पर
पसीना आ गया।
पादरी को खयाल
भी आया कि
बहुत बेचैन है
यह आदमी, क्या
बात है! इतना
बेचैन है कि
लगता है कि वह
उठकर न चला
जाए। हाथ पैर
उसके सीधे
नहीं हैं। फिर
पादरी दूसरी
आज्ञा पर आया —दाउ शैल्ट
नाट कमिट एडल्टरी, व्यभिचार मत
करना तुम।
मुल्ला हंसने
लगा। बड़ा
प्रसन्न हुआ।
बड़ा शांत और
आनंदित दिखाई
पड़ने लगा। पादरी
और भी हैरान
हुआ कि इसको
हो क्या रहा
है! जब सभा
समाप्त हो गयी,
उसने
मुल्ला को
पकड़ा और कोने
में ले गया।
और पूछा कि
राज क्या है
तुम्हारा? जब
मैंने कहा—
चोरी मत करना
तो तुम बहुत
परेशान थे।
तुम्हारे
माथे पर पसीना
आ गया। और जब
मैंने कहा—व्यभिचार
मत करना तो
तुम बड़े
आनंदित हो गए।
मुल्ला
ने कहा कि जब
आप नहीं मानते
तो बताए देता
हूं। जब आपने
कहा चोरी मत
करना तब मुझे
खयाल आया कि
मेरा छाता कोई
चुरा ले गया।
छाता दिखाई
नहीं पड़ रहा, तो
मैं मुसीबत
में पड़ गया कि
जरूर कोई चोर—मुझे
गुस्सा भी
बहुत आया कि
यह कैसा चर्च
है, जहां
चोर इकट्ठे
हैं। लेकिन जब
आपने कहा कि व्य िभचार
मत करना, तब
मुझे फौरन
खयाल आ गया कि
रात में मैं
छाता कहां छोड़
आया हूं—कोई
हर्जा नहीं, कोई हर्जा
नहीं।
आदमी
के भीतर क्या
हो रहा है, वह
उसके बाहर
देखकर पता
लगाना बहुत
मुश्किल है।
आदमी के भीतर
सूम में वह जो
घटित होता है
वह बाहर के
प्रतीकों से पकड़ना
अत्यंत कठिन
है। अकसर ऐसा
हुआ है कि
महावीर के पास
वे लोग भी
इकट्ठे हो
जाएंगे और
जैसे-जैसे
महावीर से
फासला बढ़ता
जाएगा, उनकी
संख्या बढ़ती
जाएगी। और एक
वक्त आएगा कि
महावीर के पीछे
चलने वाली भीड़
में अधिक लोग
वे होंगे जो
उन बातों से
उत्सुक हुए
जिन बा तों
से उत्सुक
नहीं होना
चाहिए था। और
जिन बातों से
उत्सुक होना
चाहिए था, उनका
खयाल ही मिट
जाएगा।
क्योंकि जिन
बातों से
उत्सुक होना
चाहिए वे गहन
हैं, और
जिन बातों से
हम उत्सुक
होते हैं वे
ऊपरी हैं, बाहरी
हैं। अब
महावीर को
लोगों ने देखा
है कि अपने
बाल उखाड़
रहे हैं, भूखे
खड़े हैं, नग्न
खड़े हैं, धूप-सर्दी,
वर्षा में
खड़े हैं, तो
जिन लोगों को
भी अपने को
सताना है, महावीर
की आड़ में
वे बड़ी आसानी
से कर सकते
हैं। लेकिन
महावीर अपने
को सता नहीं
रहे। काया-क्लेश
का अर्थ
महावीर के लिए
सताना नहीं
है।
पर यह
शब्द क्यों
प्रयोग किया? महावीर
का जो अर्थ है,
वह यह है कि
काया-क्लेश
है। इसे थोड़ा
समझें। शरीर
दुख है, शरीर
ही दुख है।
शरीर के साथ
सुख मिलता ही
नहीं कभी, दुख
ही मिलता है।
शरीर के साथ
कभी सुख मिलता
ही नहीं, शरीर
दुख ही देगा।
इसलिए साधक
जैसे ही आगे
बढ़ेगा उसे
शरीर से
बहुत-से दुख
दिखाई पड़ने
शुरू हो
जाएंगे जो कल
तक दिखाई नहीं
पड़ते थे।
क्योंकि वह
अपने मोह और
भ्रमों में जी
रहा था। डिसइल्यूजनमेंट
होगा। मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं—जब
से ध्यान शुरू
किया तब से मन
में बड़ी अशांति
मालूम पड़ती
है। ध्यान से
अशांति नहीं
हो सकती। अगर
ध्यान से
अशांति होती
तो फिर शांति
किस चीज से
होगी? मैं
जानता हूं, अशांति
मालूम पड़ती है
ज्यादा ध्यान
करने पर। क्योंकि
जो अशांति
आपने कभी भी
नहीं देखी थी
अपने भीतर, वह ध्यान के
साथ दिखाई पड़नी
शुरू होगी।
दिखती नहीं थी,
इसलिए आप
सोचते थे,
है नहीं। जब
दिखती तब पता
चलता है कि
है। इसलिए
ध्यान के पहले
अनुभव तो
अशांति के
बढ़ने के अनुभव
हैं।
जैसे-जैसे
ध्यान बढ़ता है,
अशांति
पूरी प्रगट
होती है। एक
घड़ी आएगी कि
भय लगने लगेगा
कि मैं पागल
तो नहीं हो जाऊंगा!
अगर आप उस घड़ी
को पार कर गए
तो अशांति
समाप्त हो
जाएगी। अगर आप
उस घड़ी को पार
नहीं किए तो
आप वापस अपनी
अशांति की
दुनिया में
फिर लौट जाएंगे,
सोए हुए।
एक
आदमी सोया है।
उसे पता नहीं
चलता कि पैर
में दर्द है।
जागता है तो पता
चलता है।
लेकिन जागने
से दर्द नहीं
होता, जागने
से पता चलता
है।
प्रत्यभिज्ञा
होती है।
महावीर जानते
हैं कि
काया-क्लेश
बढ़ेगा। जैसे
ही कोई
व्यक्ति
साधना में
उतरेगा, उसकी
काया उसे और
ज्यादा दुख
देती हुई
मालूम पड़ेगी।
क्योंकि सुख
तो देना बन्द
हो जाएगा। सुख
उसने कभी दिया
नहीं था, सिर्फ
हमने सोचा था
कि देगी। वह
हमारा भ्रम था,
वह हमारा
खयाल था वह तो
पर्दा उठ
जाएगा, दुख
ही दुख दिखाई
पड़ेगा। उसे
देखकर लौट मत
जाना। महावीर
कहते हैं—इस
काया-क्लेश को
सहना। यह
काया-क्लेश
देना नहीं है
अपने को।
काया-क्लेश
बढ़ेगा। काया
के दुख दिखाई
पड़ने शुरू
होंगे। उसकी
बीमारियां
दिखाई पड़ेंगी,
तनाव दिखाई
पड़ेंगे, असुविधाएं दिखाई
पड़ेंगी, रुग्णता,
बुढ़ापा आएगा, मौत
आएगी, यह
सब दिखाई
पड़ेगा। जन्म
से लेकर
मृत्यु तक दुख
की लम्बी
यात्रा दिखाई
पड़ेगी। घबरा
मत जाना। उस
काया-क्लेश को
सहना; उसको
देखना; उससे
राजी रहना, भागना मत।
तो
काया-क्लेश का
यह अर्थ नहीं
है कि दुख
देना।
काया-क्लेश का
अर्थ है—दुख
आएगा, दुख
प्रतीत होगा,
दुख अनुभव
में उतरेगा; तब तुम बचाव
मत करना, स्वीकार
करना। अब यह
बहुत अलग अर्थ
है। और ऐसा
देखेंगे तो
महावीर की
पूरी बात बहुत
और दिखाई
पड़ेगी। तब
महावीर यह
नहीं कह रहे
कि तुम सताना,
क्योंकि
महावीर कह रहे
हैं—सताने
की जरूरत नहीं
है। काया खुद
ही इतना सताती
है कि अब तुम
और क्या सताओगे?
काया के
अपने ही दुख
इतने
पर्याप्त हैं
कि तुम्हें और
दुख ईजाद करने
की कोई जरूरत
नहीं है। लेकिन
काया के दुख
पता न चलें, इसलिए हम
सुख ईजाद करते
हैं, ताकि
काया के दुख
पता न चलें।
सुख का हम
आयोजन करते
हैं। कल हो
जाएगा आयोजन,
परसों हो
जाएगा आ योजन।
किसी न किसी
दिन तो सुख
मिलेगा ही। आज
नहीं मिला, कल मिलेगा, परसों
मिलेगा। तो कल
पर टालते जाते
हैं, स्थगित
करते जाते
हैं। आज का
दुख भुलाने के
लिए कल का सुख
निर्मित करते
रहते हैं। आज
पर पर्दा पड़
जाए इसलिए कल
की रंगीन तस्वीर
बनाए रखते
हैं। इसलिए
कोई आदमी आज
में नहीं जीना
चाहता। आज बड़ा
दुखद है। सब
कल पर टालते रहते
हैं। आज बड़ा
दुखद है। अभी
अगर हम जाग
जाएं तो सुख
का सब भ्रम
टूट जाए।
महावीर
जानते हैं कि
जैसे साधना
में भीतर
प्रवेश होगा, कल
टूटने लगेगा,
आज ही जीना
होगा। और सारे
दुख प्रगाढ़
होकर चुभेंगे,
सब तरफ से
दुख खड़े हो
जाएंगे। सब
तरफ बुढ़ापा
और मौत दिखाई
पड़ने लगेगी, कहीं सुख का
कोई सहारा न
रहेगा। जो
कागज की नाव
आप सोचते थे, पार कर देगी,
वह डूब
जाएगी। जो आप
सोचते थे
सहारा है, वह
खो जाएगा। जिन
भ्रमों के
आसरे आप जीते
थे वे मिट
जाएंगे। जब
बिलकुल भ्रम
शून्य,
िडसइल्यूजंड आप सागर में
खड़े होंगे, डूबते होंगे,
न नाव होगी,
न सहारा
होगा, न
किनारा दिखाई
पड़ता होगा तब
बड़ा क्लेश
होगा। उस
क्लेश को
सहना। उस क्लेश
को स्वीकार
करना। जानना
कि वह जीवन की
नियति है।
जानना कि वह
प्रकृति का
स्वभाव है। जानना
कि ऐसा है।
काया-क्लेश
का अर्थ है यह—जो
भी क्लेश आए, उसे
स्वीकार करना,
जानना कि
ऐसा है। उससे
बचने की कोशिश
मत करना। उससे
बचने की कोशिश
ही भविष्य के
स्वप्न में ले
जाती है। उसके
विपरीत सुख
बनाने की
चिंता में मत पड़ना।
क्योंकि वह
सुख बनाने की
चिंता उसे
देखने नहीं
देती, जानने
नहीं देती, पहचानने
नहीं देती। और
ध्यान रहे, इस जगत में
जिसे मुक्त
होना है, सुख
से मुक्त कोई
नहीं हो सकता,
दुख से ही
मुक्त होना
होता है। सुख
है ही नहीं, उससे मुक्त
क्या होइएगा,
वह भ्रम है।
दुख से मुक्त
होना होता है
और दुख से
मुक्ति दुख की
स्वीकृति
में छिपी
है—एक्सेप्टिबिलिटी
में छिपी है, टोटल एक्सेप्टिबिलिटी,
समग्र
स्वीकार।
काया-क्लेश का
अर्थ है—काया
दुख है, उसका
समग्र
स्वीकार। वह
स्वीकार इतना
हो जाना चाहिए
कि आपके मन
में यह सवाल
भी न उठे कि
काया दुख है।
यह दूसरा
हिस्सा
काया-क्लेश का
आपसे कहता
हूं।
क्योंकि
जब तक आपको
लगता है, काया
दुख है, इसका
मतलब है कि आपको
काया से सुख
की आकांक्षा
है। अगर मैं
मानता हूं कि
मेरा मित्र
मुझे दुख दे
रहा है, तो
इसका कुल मतलब
इतना है कि
मैं अभी भी
सोचता हूं कि
मेरे मित्र से
मुझे सुख
मिलना चाहिए।
अगर मैं कहता
हूं कि मेरा
शरीर दुख देता
है तो उसका
मतलब यह है कि
मेरे शरीर से
सुख की
आकांक्षा
कहीं शेष है।
काया-क्लेश का
अर्थ है कि
स्वीकार कर लो
दुख को, इतना
स्वीकार कर लो
कि तुम्हें
क्लेश का भी
बोध मिट जाए।
क्लेश का बोध
उसी दिन मिट
जाएगा जिस दिन
पूर्ण
स्वीकृति
होगी। इसलिए
महावीर सब
दुखों के बीच
आनंद से भरे
घूमते रहते
हैं। वे जब
वर्षा में खड़े
हैं, या
धूप में पड़े
हैं, या
नग्न हैं, या
बाल उखाड़
रहे हैं, या
भोजन नहीं कर
रहे हैं तो
किसी दुख में
नहीं हैं।
उन्हें दुख का
अब पता ही
नहीं है।
काया-क्लेश की
स्वीकृति
इतनी गहन हो
गई है कि अब
दुख का कोई
पता भी नहीं
चलता। अब वह
कैसे कहें कि
यह दुख है।
अगर
मैं अपेक्षा
करता हूं कि
जब रास्ते से
मैं गुजरूं
तो आप मुझे
नमस्कार
करें। अगर न
करें तो दुख होगा।
अगर मैं
अपेक्षा ही
नहीं करता तो
न करें तो कैसे
दुख होगा! अगर
आप मुझे गाली
देते हैं और
मुझे दुख होता
है तो उसका
मतलब ही यह है
कि मैंने अपेक्षा
की थी कि आप
गाली नहीं
देंगे। नहीं
देते तो मुझे
सुख होता है, देते
हैं तो मुझे
दुख होता है।
लेकिन अगर
मेरी कोई
अपेक्षा नहीं
थी, अगर
मेरा सिर्फ
स्वीकार था कि
आप गाली देंगे
तो स्वीकार
करूंगा। तब
मैं जानूंगा
कि यही नियति
है। इस क्षण
गाली ही पैदा
हो सकती थी, वह हो गयी
है। आपसे गाली
ही मिल सकती
थी, वह मिल
गयी है। इसमें
कहीं कोई
विपरीत दूसरी
आकांक्षा
नहीं हो, तो
फिर कोई दुख नहीं
रह जाता — एक
तथ्य हो जाती
है, एक फेक्टीसिटी।
फिर इसके पीछे
हमारी कोई
कामना नहीं
है।
काया-क्लेश
की साधना शुरू
होती है, दुख
के स्वीकार से—पूर्ण
होती है दुख
के विसर्जन
से। विसर्जित
नहीं हो जाता
दुख, ध्यान
रहे, जब तक
जीवन है, दुख
तो रहेगा।
जीवन दुख है।
लेकिन जिस दिन
स्वीकार पूरा
हो जाता है, उस दिन आपके
लिए दुख नहीं
रह जाता।
महावीर अब भी
रास्ते पर
चलेंगे तो पैर
थकेंगे।
कोई पत्थर
मारेगा तो सिर
फूटेगा।
कोई कान में
खीलें ठोंक
देगा तो शरीर
दुख पाएगा।
लेकिन महावीर
अब दुखी नहीं
होंगे। यह स्वीकार
ही कर लिया कि
ऐसा है।
स्वीकार के
साथ इतना बड़ा
रूपांतरण
होता है, इतना
बड़ा ट्रांसफामशन,
जिसका हमें
पता भी नहीं।
युद्ध
के मैदान पर
सैनिक जाता है
तो जब तक नहीं
जाता, तब तक
भयभीत रहता
है। बहुत
घबराया रहता
है। बचाव की
कोशिश में लगा
रहता है कि
किसी तरह बच
जाऊं। लेकिन
युद्ध के मैदान
पर पहुंचता
है। एक-दो दिन
उसकी नींद खोई
रहती है, सो
नहीं पाता है,
चौंक-चौंक
उठता है। बम
गिर रहे हैं, गोलियां चल
रही हैं। पर
दो-चार दिन के
बाद आप दंग
होंगे कि वही
सैनिक, बम
गिर रहे हैं, गोलियां चल
रही हैं, सो
रहा है। वही
सैनिक, लाशें
पड़ी हैं, भोजन
कर रहा है।
वही सैनिक, पास से
गोलियां
सरसराती निकल
जाती हैं, ताश
खेल रहा है।
क्या हो गया
इसको? एक
बार युद्ध की
स्थिति
स्वीकृत हो गई,
फेक्ट हो गया कि
ठीक है, अब
युद्ध है। बात
खत्म हो गई।
लंदन
पर बमबारी
दूसरे
महायुद्ध में
चलती थी। चिन्तित
थे लोग कि
क्या होगा? लेकिन
दो-चार दिन के
बाद बमबारी
चलती रही, स्त्रियां
बाजार में
सामान खरीदने
निकलने लगीं,
बच्चे
स्कूल पढ़ने
जाने लगे।
स्वीकृत हो
गया। युद्ध एक
तथ्य हो गया।
ऐसा नहीं है
कि युद्ध के
मैदान पर वह
जो लाश पास
में पड़ी होती
है वह ला श
नहीं होती। और
ऐसा भी नहीं
है कि वह आदमी कठोर
हो गया, अन्धा
हो गया, बहरा
हो गया। नहीं,
वह आदमी वही
है। लेकिन
तथ्य की
स्वीकृति
सारी स्थिति
को बदल देती
है। अस्वीकार
जब तक करेंगे,
तब तक तथ्य
आपको सताएगा।
जिस दिन
स्वीकार कर लेंगे,
बात समाप्त
हो गई। अगर
मैंने ऐसा जान
ही लिया कि
शरीर के साथ
मौत अनिवार्य
है तो मौत का
दुख नष्ट हो
गया। मौत आएगी,
मौत नष्ट
नहीं हो गई—मौत
आएगी। लेकिन
अब मुझे नहीं
छू पाएगी।
काया-क्लेश
की साधना दुख
की स्वीकृति
से दुख की
मुक्ति का
उपाय है।
लेकिन भूलकर
भी काया को कष्ट
देने की कोशिश
काया-क्लेश की
साधना नहीं
है। क्योंकि
जो आदमी काया
को दुख देने
में लगा है, वह
आदमी फिर किसी
सुख की
आकांक्षा में
पड़ा। प्रयत्न
हम सुख के लिए
ही करते हैं।
ध्यान रहे प्रयत्न
मात्र सुख के
लिए है। जब तक
हम कोई प्रयत्न
करते हैं, तब
तक हम सुख की
ही आकांक्षा
से करते हैं।
एक आदमी अपने
शरीर को भी
सता सकता है, सिर्फ इस
आशा में कि
इससे मोक्ष
मिलेगा, आनंद
मिलेगा, आत्मा
मिलेगी, परमात्मा
मिलेगा। तो
सुख की
आकांक्षा
जारी है।
महावीर
की काया-क्लेश
की धारणा किसी
सुख के लिए
शरीर को दुख
देने की नहीं
है। परंपरागत
व्याख्याकार
कहते हैं कि
जैसे आदमी धन
कमाने के लिए
दुख उठाता है, ऐसा
ही मोक्ष पाने
के लिए दुख
उठाना पड़ेगा।
गलत कहते हैं।
बिलकुल ही गलत
कहते हैं।
जैसे कोई आदमी
व्यायाम करता
है तो शरीर को
कष्ट देता है ताकि
स्वास्थ्य
ठीक हो जाए, ऐसा ही
काया-क्लेश
करना पड़ेगा।
गलत कहते हैं।
बिलकुल गलत
कहते हैं।
काया तो क्लेश
ही है अब और
क्लेश आप
उसमें जोड़
नहीं सकते।
आपके हाथ के
बाहर है क्लेश
जोड़ना। अगर
आपके हाथ के
भीतर हो क्लेश
जोड़ना, तब
तो क्लेश कम
करना भी आपके
हाथ के भीतर
हो जाएगा। यह
समझ लें। अगर
आप शरीर में
दुख जोड़ सकते
हैं तो घटा
क्यों नहीं
सकते। फिर वह
सांसारिक
कौन-सी गलती
कर रहा है, वह
कह रहा है—तुम जोड़ने की
कोशिश में लगे
हो। अगर जोड़ने
में सफल हो
जाओगे—पांच
दुख की जगह
अगर तुम दस कर
सकते हो तो
मैं पांच की
जगह शून्य
क्यों नहीं कर
सकता!
अगर
दुख जुड़ सकते
हैं तो दुख घट
भी सकते हैं।
जहां जोड़ हो
सकता है, वहां
घटना भी हो
सकता है। तो
यह तथाकथित धार्मिक
आदमी जो शरीर
को दुख दे रहा
है इसमें, और
भोगी जो शरीर
के दुख कम
करने में लगा
है, कोई
भेद नहीं है।
इनका तर्क एक
ही है। इनकी
निष्ठा भी एक
है। इनकी
श्रद्धा में
भेद नहीं है।
एक कह रहा है—हम
जोड़ लेंगे; एक कह रहा है—हम
घटा लेंगे।
इनके गणित में
फर्क नहीं है।
इनके गणित का
हिसाब एक ही
है।
महावीर
कहते हैं—न
तुम जोड़ सकते, न
तुम घटा सकते।
जो है, उसे
चाहो तो
स्वीकार कर लो,
चाहो तो
अस्वीकार कर
दो। इतना तुम
कर सकते हो।
जो आल्टरनेटिव
है, जो
विकल्प है वह
स्वीकार और
अस्वीकार में
है। वह घटाने
और बढ़ाने में
नहीं है। तुम
चाहो तो
स्वीकार कर लो,
तुम चाहो तो
अस्वीकार कर
दो। ध्यान रहे,
स्वीकार कर
लोगे तो दुख
शून्य हो
जाएगा। अस्वीकार
कर दोगे तो
दुख जितना
अस्वीकार
करोगे, उतना
गुना ज्यादा
हो जाएगा।
काया-क्लेश का
अर्थ है, पूर्ण
स्वीकृति, जो
है उसकी वैसी
ही स्वीकृति।
महावीर
के कानों में
जिस दिन खीलें
ठोंके गए, तो
कथा कहती है, इंद्र ने
आकर महावीर को
कहा कि आप
मुझे आज्ञा दें।
हमें बड़ी पीड़ा
होती है। आप
जैसे निस्पृह व्यक्ति
को लोग आकर
कानों में
खीलें ठोंक
दें, सतायें,
परेशान
करें—हमें
पीड़ा होती है।
तो
महावीर ने कहा
कि मेरे शरीर
में ठोंके
जाने से
तुम्हें इतनी
पीड़ा होती है
तो तुम्हारे
शरीर में ठोंके
जाने से
तुम्हें
कितनी न होगी?
इंद्र
कुछ भी न
समझा। उसने
कहा कि
निश्चित होती
है। तो मैं
आपकी रक्षा
करने लगूं? महावीर
ने कहा—तुम
भरोसा देते हो
कि तुम्हारी
रक्षा से मेरे
दुख कम हो
जाएंगे? इंद्र
ने कहा—कोशिश
कर सकता हूं।
कम होंगे कि
नहीं, मैं
नहीं कह सकता।
महावीर ने कहा—मैंने
भी
जन्मों-जन्मों
तक कोशिश करके
देखी, कम
नहीं हुए। अब
मैंने कोशिश
छोड़ दी। अब
मैं इतनी
कोशिश भी न
करूंगा कि
तुमको मैं
रक्षा के लिए
रखूं। नहीं, तुम जाओ।
तुम्हारी भी
भूल वही है जो
उस कान में
खीलें ठोंकनेवाले
की भूल थी। वह
सोचता था
खीलें ठोंककर
मेरे दुख बढ़ा
देगा; तुम
सोचते हो मेरे
सा थ रहकर
मेरे दुख घटा
दोगे। गणित
तुम्हारा एक
है। मुझे छोड़
दो, जो है
मुझे स्वीकार
है। उसने
खीलें जरूर ठोंके।
मुझ तक नहीं
पहुंची उसकी
खीलें, मैं
बहुत दूर खड़ा हूं।
मैंने
स्वीकार कर
लिया है, मैं
दूर खड़ा हूं। एक्सेप्टेंस
इज ट्रासेंडेंस।
जैसे ही किसी
ने स्वीकार
किया, अतिक्रमण
हो जाता है।
जिस स्थिति को
आप स्वीकार
करते हैं, आप
उसके ऊपर उठ
जाते हैं—तत्क्षण।
काया-क्लेश
का यही अर्थ
है। छठवां
महावीर का बाहय
तप है—संलीनता।
उस पर हम कल
बात करेंगे।
अभी
बैठेंगे!
thank you guruji
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