ओशो
ओशो
द्वारा लाओत्से
के ‘ताओ तेह
किंग’ पर
दिए गए 127 प्रवचनों
में से 21 (44 से 64) (चव्वालीस
से चौंसठ) अमृत
प्रवचनों का
अपूर्व
संकलन।
लाओत्से
कहता है कि
ताओ मंजिल
नहीं है।
इसलिए उसने
नाम दिया है
ताओ। ताओ का
अर्थ है वे,
मार्ग। ताओ
कोई मंजिल
नहीं है जहां
पहुंचना है।
मार्ग ही ताओ
है। मार्ग ही
परमात्मा
है। प्रतिपल
मंजिल है। और
प्रतिपल का
उपयोग जो साधन
की तरह करेगा
वह उपयोगितावादी
है, और जो
प्रतिपल का
उपयोग साध्य
की तरह करता
है वह उत्सवादी
है।
लाओत्से
का मार्ग
बिलकुल प्राकृतिक
है। लाओत्से
कहता है,
निसर्ग के साथ
एक हो जाओ,
तोड़ो ही मत
अपने को।
इसलिए लाओत्से
के मार्ग की
शुरू से ही
शांति आनी
शुरू हो जाएगी।
और शुरू से ही
तथाता घटने
लगेगी। और शुरू
से ही मौन आने
लगेगा, क्योंकि
संघर्ष शुरू
से छूट जाता
है। ओशो
धार्मिक
व्यक्ति
अजनबी
व्यक्ति है—(प्रवचन—चवालीसवां)
अध्याय
20 : खंड 1
पांडित्य
को छोड़ो
तो मुसीबतें
समाप्त हो
जाती हैं।
हां
और न के बीच
अंतर क्या है?
शुभ
और अशुभ के
बीच भी फासला
क्या है?
लोग
जिससे डरते
हैं, उससे
डरना ही चाहिए;
लेकिन
अफसोस कि
जागरण की
सुबह
अभी भी कितनी
दूर है!
दुनिया
के लोग मजे कर
रहे हैं,
मानो
वे यज्ञ के
भोज में शरीक
हों,
मानो
वे वसंत ऋतु
में खुली छत
पर खड़े हों;
मैं
अकेला ही शांत
और सौम्य हूं,
जैसे
कि मुझे कोई
काम ही न हो,
मैं
उस नवजात शिशु
जैसा हूं,
जो
अभी मुस्कुरा
भी नहीं सकता;
या
वह बनजारा हूं, जिसका
कोई घर न हो।
गुरजिएफ
ने मनुष्य को
दो विभागों
में बांटा है।
एक,
जिसे वह
कहता है
व्यक्तित्व, पर्सनैलिटी;
और दूसरा, जिसे वह
कहता है आत्मा,
एसेंस।
व्यक्तित्व
वह हिस्सा है,
जो हम सीखते
हैं। और आत्मा
वह हिस्सा है,
जो अनसीखा
हमारे साथ है।
एक तो हमारे
जीवन का वह
पहलू है, जो
हमने दूसरों
से सीखा है।
और एक हमारे
जीवन की वह
गहराई है, जो
हम लेकर पैदा
हुए हैं। एक
तो मैं हूं, अंतरतम में
छिपा हुआ। और
एक मेरी बाहरी
परिधि है, मेरे
वस्त्र हैं, जो मैंने
दूसरों से
उधार लिए हैं।
व्यक्तित्व
उधार घटना है,
बारोड;
आत्मा अपनी
है।
लाओत्से
का यह सूत्र
आत्मा और
व्यक्तित्व
के संबंध में
है।
लाओत्से
कहता है, पांडित्य
छोड़ो तो
मुसीबतें
समाप्त हो
जाती हैं। बैनिश
लघनग, वह
जो सीखा है, उसे छोड़ो;
वह जो अनसीखा
है, उसे पा
लो।
बड़ी
कठिनाई होगी
लेकिन। क्योंकि
हम अगर अपने
संबंध में
विचार करने
जाएं तो
पाएंगे कि सभी
कुछ सीखा हुआ
है। आप जो भी
अपने संबंध
में जानते हैं, वह
सभी कुछ सीखा
हुआ है। किसी
ने आपको बताया
है, वही
आपका ज्ञान
है। और जो
दूसरे ने
बताया है, जो
दूसरे ने
सिखाया है, वह आपका
स्वभाव नहीं
हो सकता।
स्वयं
को जानने के
लिए किसी
दूसरे की किसी
भी शिक्षा की
जरूरत नहीं
है। हां, स्वयं
को ढांकना हो,
छिपाना हो,
तो दूसरे की
शिक्षा जरूरी
और अनिवार्य
है। स्वयं का
होना तो एक
आंतरिक, आत्मिक
नग्नता है, दिगंबरत्व है। वस्त्र
तो उसे छिपाने
के काम आते
हैं। हमारी
सारी जानकारी
ज्ञान को
छिपाने के काम
आती है। लेकिन
जो जानकारी को
ही ज्ञान मान
लेते हैं, वे
फिर सदा के
लिए ज्ञान से
वंचित हो जाते
हैं।
एक
बच्चा पैदा
होता है; जो भी एसेंस है, जो सार है, जो आत्मा है,
लेकर पैदा
होता है; लेकिन
एक कोरी किताब
की तरह। फिर
हम उस पर लिखना
शुरू करते
हैं--शिक्षा, समाज, संस्कृति,
सभ्यता।
फिर हम उस पर
लिखना शुरू
करते हैं। थोड़े
ही दिनों में
कोरी किताब
अक्षरों से भर
जाएगी।
स्याही के
काले धब्बे
पूरी किताब को
घेर लेंगे। और
क्या कभी आपने
खयाल किया है
कि जब आप किताब
पढ़ते हैं, तो
आपको सिर्फ
स्याही के काले
अक्षर ही
दिखाई पड़ते
हैं, पीछे
का वह जो सफेद
कागज है, कोरा,
वह दिखाई
नहीं पड़ता?
एक
प्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक
इस पर काम कर
रहा था, डाक्टर
पर्ल्स इस
संबंध में काम
कर रहा था। उसने
अपने
विद्यार्थियों
की कक्षा के
सामने एक दिन
आकर ब्लैक
बोर्ड पर एक
बड़ा सफेद कागज
टांगा, ब्लैक बोर्ड
के बराबर। फिर
उस बड़े सफेद
कागज पर एक
छोटा सा
स्याही का
काला गोल
बनाया, एक
बिंदु बनाया,
अति छोटा।
गौर से देखें
तो ही दिखाई
पड़े। और फिर
उसने अपने
विद्यार्थियों
से पूछा कि
तुम्हें क्या
दिखाई पड़ता है?
तो
उन्होंने कहा, एक
काला गोल
बिंदु दिखाई
पड़ता है। उस
पूरी कक्षा
में एक भी
विद्यार्थी
ने न कहा कि
बोर्ड पर टंगा
हुआ सफेद कागज
का टुकड़ा भी
दिखाई पड़ता
है।
बहुत
बड़ा था सफेद
कागज का टुकड़ा, पर
वह किसी को
दिखाई नहीं पड़
रहा है। दिखाई
पड़ रहा है एक
काला बिंदु।
उसका कारण है।
कोरापन हमें
दिखाई ही नहीं
पड़ता; कोई
दाग हो तो
दिखाई पड़ता
है। जितना
स्वच्छ और
कोरापन हो, उतना ही
अदृश्य हो
जाता है। शायद
परमात्मा इसीलिए
दिखाई हमें
नहीं पड़ता। वह
जगत का कोरापन
है, इनोसेंस
है। वह जगत की
निर्दोषिता
है। लेकिन दाग
हमें दिखाई
पड़ते हैं। दाग
देखने में
हमारी कुशलता
का कोई अंत नहीं
है।
एक
बच्चा तो कोरा
पैदा होता है।
फिर हम उस पर लिखना
शुरू करते
हैं। जरूरी है
कि हम उस पर
कुछ लिखें।
जीवन के
संघर्ष के लिए
उपयोगी है।
शायद कोरे
कागज की तरह
तो वह जी भी न
पाएगा। कोरे कागज
की तरह शायद
वह एक क्षण भी
इस जीवन के
संघर्ष में
सफल न हो
पाएगा। लिखना
जरूरी है।
कहें कि एक
जरूरी बुराई
है,
नेसेसरी ईविल
है। फिर हम
लिखते
जाएंगे। उसका
नाम देंगे, उसका रूप
देंगे।
आप
कहेंगे कि नाम
तो ठीक है, रूप
तो हर आदमी
लेकर पैदा
होता है।
वह भी
खयाल गलत है।
नाम भी हम
देते हैं, रूप
भी हम देते
हैं। क्यों? क्योंकि जो
शक्ल एक मुल्क
में सुंदर
समझी जाती है,
दूसरे
मुल्क में
असुंदर समझी
जाती है। एक
ढंग का चेहरा
चीन में सुंदर
समझा जाता है,
ठीक वैसे ही
ढंग का चेहरा
भारत में
सुंदर नहीं
समझा जाएगा।
चपटी नाक चीन
में असुंदर
नहीं है, सारी
दुनिया में
असुंदर हो
जाएगी। बड़े और
लटके हुए ओंठ
नीग्रो के लिए
असुंदर नहीं
हैं, सारी
दुनिया में
असुंदर हो
जाएंगे।
नीग्रो लड़कियां
अपने ओंठ को
बड़ा करने का
सब कुछ उपाय
करेंगी। पत्थर
बांध कर लटकाएंगी,
ताकि ओंठ
चौड़ा हो जाए, बड़ा हो जाए।
हमारे मुल्क
में या जहां
भी आर्यों का
प्रभाव है, पश्चिम में,
पतला ओंठ।
कहना
मुश्किल है कि
कौन सुंदर है।
दोनों के पक्ष
और विपक्ष में
बातें कही जा
सकती हैं।
क्योंकि
नीग्रो कहते
हैं कि ओंठ
जितना चौड़ा हो, चुंबन
उतना ही
विस्तीर्ण हो
जाता है। हो
ही जाएगा।
लेकिन पतले
ओंठ को मानने
वाले लोग कहते
हैं कि ओंठ
जितना चौड़ा हो,
चुंबन तो
विस्तीर्ण हो
जाता है, लेकिन
फीका हो जाता
है। क्योंकि
जब भी कोई चीज
बहुत जगह फैल
जाती है, तो
उसका प्रभाव
फीका हो जाता
है, इंटेंसिटी कम हो जाती
है। लेकिन
क्या सुंदर है,
पतला ओंठ या
मोटा ओंठ? समाज
सिखाएगा
कि क्या सुंदर
है।
रूप भी
हम देते हैं।
नाम भी हम
देते हैं, रूप
भी हम देते
हैं, विचार
भी हम देते
हैं। फिर
व्यक्तित्व
की पर्त बननी
शुरू हो जाती
है। आखिर में
जब आप अपने को
पाते हैं, तो
आपको खयाल भी
नहीं होता कि
एक कोरापन
लेकर आप पैदा
हुए थे, जो
पीछे छिप गया
है--बहुत सी
पर्तों में।
वस्त्र इतने
हो गए हैं कि
आपको अब अपने
को खोजना कठिन
है। और आप भी
इन वस्त्रों
के जोड़ को ही
अपनी आत्मा
समझ कर जी
लेते हैं। यही
अधार्मिक
आदमी का लक्षण
है। जो
वस्त्रों को
ही समझ लेता
है कि मैं हूं,
वही आदमी
अधार्मिक है।
जो वस्त्रों
के भीतर उसको
खोजता है, जो
समस्त सिखावन
के पहले मौजूद
था, और जो समस्त
वस्त्रों को
छीन लिया जाए
तो भी मौजूद
रहेगा, उस
स्वभाव को, वही व्यक्ति
धार्मिक है।
लाओत्से
कहता है, छोड़ो सिखावन।
जो-जो सीखा है,
छोड़ दो, तो
तुम स्वयं को
जान सकोगे।
लेकिन
हम बड़े उलटे
लोग हैं। हम
तो स्वयं को
भी जानना हो
तो उसे भी
दूसरों से
सीखने जाते
हैं। स्वयं को
खोना हो, तो
दूसरे से
सीखना
अनिवार्य है।
स्वयं को जानना
हो, तो
दूसरों की
समस्त
शिक्षाओं को
छोड़ देना जरूरी
है। जगत में
कुछ भी जानना
हो अपने को
छोड़ कर तो
शिक्षा जरूरी
है। और जगत
में स्वयं को
जानना हो तो
समस्त शिक्षा
का त्याग
जरूरी है।
क्योंकि जगत
में कुछ और
जानना हो तो
बाहर जाना
पड़ता है और
स्वयं को
जानना हो तो
भीतर आना पड़ता
है। यात्राएं
उलटी हैं।
तो
धर्म एक तरह
की अनलघनग
है;
शिक्षा
नहीं, एक
तरह का
शिक्षा-विसर्जन,
एक तरह का
शिक्षा का
परित्याग। जो
भी सीखा है, सभी छोड़
देना है।
इसमें धर्म भी
आ जाता है; जो
धर्म सीखा है,
वह भी आ
जाता है। जो
शास्त्र सीखे
हैं, वे भी
आ जाते हैं।
जो सिद्धांत सीखे हैं, वे भी आ जाते
हैं। जो भी
सीखा है, सभी
कुछ आ जाता
है। इसलिए
धर्म परम
त्याग है। धन
को छोड़ना बहुत
आसान है; जो
सीखा है, उसे
छोड़ना बहुत
कठिन है।
क्योंकि धन
हमारे ऊपर के
वस्त्रों
जैसा है; जो
हमने सीखा है
वह हमारी चमड़ी
बन गया है।
उसे छोड़ना
इतना आसान
नहीं है।
क्योंकि हम
अपने सीखे
हुए के जोड़ ही
हैं।
एक
आदमी से पूछें
कि तुम कौन हो, वह
कहता है, मैं
डाक्टर हूं।
एक आदमी से
पूछो वह कौन
है, वह
कहता है, मैं
शिक्षक हूं।
एक आदमी को पूछो
वह कौन है, वह
कहता है, अ
हूं, ब हूं,
स हूं। गौर
से देखो तो वे
सब यह बता रहे
हैं कि उन्होंने
क्या-क्या
सीखा है। एक
आदमी ने डाक्टरी
सीखी है, इसलिए
वह डाक्टर है।
एक आदमी ने
वकालत सीखी है
तो वह वकील
है। और एक
आदमी ने चोरी
सीखी है तो वह
चोर है। और
हमारे मुल्क
में कुछ लोग
साधुता सीख
लेते हैं, वे
साधु हैं।
लेकिन
यह सब सिखावन
है। यह सीखा
हुआ है। सीखे
हुए का धर्म
से कोई संबंध
नहीं है। अनसीखे
की खोज! जिसे न
कभी हमने सीखा
है और न सीख
सकते हैं, जो
हम हैं ही, जिसमें
सिखावन से कुछ
जोड़ा नहीं जा
सकता, कुछ
घटाया नहीं जा
सकता, जो
हमारी
मौजूदगी में
ही छिपा है, उसकी खोज।
और
लाओत्से कहता
है,
छोड़ो पांडित्य, मुसीबतें
समाप्त हो
जाती हैं।
क्योंकि सभी मुसीबतें
पांडित्य की
मुसीबतें
हैं। व्यक्ति
की, समाज
की सारी
मुसीबतें
जानकारी की
मुसीबतें हैं,
पांडित्य
की मुसीबतें
हैं। जो हम जानते
हैं, वही
हमारी मुसीबत
बन जाता है।
इसे
थोड़ा समझना
पड़े। जो हम
जानते हैं, वह
हमारी मुसीबत
कैसे बन जाता
होगा? क्योंकि
जो हम जानते
हैं, उसके
कुछ अनिवार्य
परिणाम होंगे,
पहला।
जानने के कारण
हम कभी भी सहज
न हो पाएंगे; हर क्षण
असहज होंगे। स्पांटेनियस
होना असंभव हो
जाएगा।
एक
आदमी आपके
पड़ोस में बैठा
हुआ है। आप
शांति से बैठे
हुए हैं। आप
उससे पूछते
हैं,
आप कौन हैं?
वह कहता है,
मैं
मुसलमान हूं,
या ईसाई हूं,
या हिंदू
हूं। तत्क्षण
आप असहज हो
जाएंगे। आदमी
तिरोहित हो
गया। मुसलमान
बैठा है पड़ोस
में; और
मुसलमान के
संबंध में
आपने कुछ सीख
रखा है। अब ये
दो आदमी पड़ोसी
नहीं हैं। अब
इनके बीच में
सिखावन आ गई।
अगर आप हिंदू
हैं, तो
उसने भी हिंदू
के संबंध में
कुछ सीख रखा
है। अब ये
दोनों आदमी
हजार मील की
दूरी पर हो
गए। अब इनके
बीच फासला बड़ा
हो गया। अब इन
दोनों के हाथ
कितने ही फैलें
तो भी मिल
नहीं सकते।
अभी दो क्षण
पहले ये पड़ोसी
थे; इनके
बीच कोई फासला
न था। अब इन
दोनों की शिक्षाएं
बीच में आ
गईं। अब ज्ञान
का पहाड़ बीच
में आ गया। जो
आदमी क्षण भर
पहले सिर्फ
आदमी था, अब
आदमी नहीं है,
मुसलमान
है। जो क्षण
भर पहले आदमी
था, अब
आदमी नहीं है,
हिंदू है।
और मजे
की बात यह है
कि दो हिंदू
एक से नहीं
होते और दो
मुसलमान एक से
नहीं होते।
मुसलमान अ और
मुसलमान ब के
बीच उतना ही
फासला होता है, जितना
हिंदू और
मुसलमान के
बीच होता है।
दो मुसलमान एक
से नहीं होते,
दो हिंदू एक
से नहीं होते।
लेकिन आपके
दिमाग में एक
धारणा है कि
मुसलमान कैसा
होता है; वही
धारणा आप इस
पड़ोसी पर भी
लगा देंगे। वह
धारणा झूठी है,
इस आदमी से
उसका कोई
संबंध नहीं
है। उस धारणा को
जिन्होंने
बनाया होगा, उनसे भी
इसका कोई
संबंध नहीं
है। यह आदमी
बिलकुल
निर्दोष और
निरीह है।
लेकिन
अब आपके मन
में न मालूम कितनी
धारणाओं का
जाल खड़ा हो
गया। और इस
आदमी को अब आप
एक खाने में
रख देंगे, एक
कैटेगरी
में रख देंगे
कि मुसलमान
है। हम
भलीभांति जानते
हैं कि
मुसलमान कैसे
होते हैं।
आपकी पूरी की
पूरी चेतना
सिकुड़ जाएगी।
अब जो भी
व्यवहार आप
करेंगे, वह
व्यवहार इस
आदमी से नहीं
होगा, वह
आपकी धारणा के
मुसलमान से
होगा। आप असहज
हो गए। सहजता
समाप्त हो गई।
सहजता का अर्थ
तो था कि इस
आदमी से संबंध
होता। अब आप
इससे बात भी नहीं
करेंगे। बात
भी करेंगे तो
आपके मुसलमान
से बात होगी, जो आपकी
धारणा है।
हमारी
जानकारी सब
जगह हमें असहज
बना देती है। सहज
का अर्थ होता
है: क्षण में
जो सत्य है, वहां
उसके साथ
व्यवहार।
लेकिन
जानकारी व्याख्या
बन जाती है; फिर हमारा
व्याख्या के
साथ व्यवहार
होता है।
हम
शब्दों में
जीते हैं।
मैं एक
घर में मेहमान
होता था। पड़ोस
में एक चर्च
था। चर्च बहुत
सुंदर था। तो
जब भी मैं
वहां मेहमान
होता था, सुबह
उठ कर चर्च
में चला जाता।
सन्नाटा होता,
रविवार को
छोड़ कर वहां
कोई आता भी
नहीं था। मित्र
को पता चला, जिनके घर
मैं ठहरता था,
वे भागे हुए
मेरे पीछे आए
एक दिन और कहा
कि आप, आपको
मुझे कहना था,
मंदिर ले
चलता। चर्च
में जाने की
क्या जरूरत थी?
और मंदिर
फिर ज्यादा
दूर भी नहीं
है। मैं उनसे
कुछ बोला
नहीं।
दस
वर्ष बाद उसी
घर में फिर
मेहमान था। वह
चर्च बिक गया
और जिन मित्र
के घर मैं
ठहरता था, उनके
संप्रदाय ने
ही उस चर्च की
जायदाद खरीद ली
थी। मकान वही
था, दरख्त वही थे, पक्षी
वही थे, सन्नाटा
वही था; सिर्फ
तख्ती बदल गई
थी। अब वह
चर्च नहीं था।
सुबह ही उठ कर
उन्होंने
मुझसे कहा--वे
तो भूल भी चुके
थे कि दस साल
पहले उसी मकान
से मुझे बाहर
निकाल लाए
थे--उन्होंने
मुझसे कहा, आपको बड़ी
खुशी होगी, पड़ोस की
जमीन हमने
खरीद ली है और
अब वहां सिर्फ
मूर्ति की
स्थापना होने की
देर है। मंदिर
बन गया है, आप
अंदर आइए।
सब वही
है;
सिर्फ
तख्ती बदल गई
है। तब वह
चर्च था, तब
मेरा जाना
उन्हें गुनाह
मालूम पड़ा था।
अब वह मंदिर
है, अब मैं
न जाऊं तो
उन्हें गुनाह
मालूम पड़ेगा।
हमारा
व्यवहार
यथार्थ से
नहीं है; शब्दों
से है, जानकारियों
से है। एक
क्षण में, शब्द
बदल जाए, हमारा
व्यवहार बदल
जाता है। लेबल
कोई बदल दे, भीतर जो
वस्तु थी, वही
है। बस ऊपर की
तख्ती कोई बदल
दे, सब बदल
जाता है। इससे
जटिलता खड़ी
होगी। और हमारा
जीवन इस
जटिलता का ही
परिणाम है। और
यह जटिलता न
केवल ऐसे ऊपरी
जगत में दिखाई
पड़ेगी, यह जटिलता
भीतर भी
प्रवेश कर
जाएगी--भीतर
भी! फिर हम
व्यक्तियों
को, उनकी
अनुभूतियों
को, उनके
प्राणों को
नहीं देख
पाते।
एक
आदमी आपसे कह
रहा है कि
मुझे आपसे
बहुत प्रेम
है। आप फिर
उसकी आंखों
में नहीं देख
पाते, न फिर
उसके चेहरे
में झांक पाते,
न उसकी
आत्मा में उतर
पाते। बस, ये
शब्द ही आपके
हाथ में पड़ते
हैं कि मुझे
बहुत प्रेम
है। इन शब्दों
के आधार पर ही
फिर आप सब कुछ
निर्णय करते
हैं। वे
निर्णय फिर
आपको दुख में
ले जाते हैं।
एक आदमी आप पर
नाराज हो रहा
है, बुरा-भला
कह रहा है।
शब्द ही आप
पकड़ लेते हैं;
उस आदमी की
आंखों में
नहीं झांकते।
कभी ऐसा भी
होता है कि
नाराजगी
प्रेम होती है।
और कभी ऐसा भी
होता है कि
प्रेम सिर्फ
एक धोखा होता
है। लेकिन
शब्द, जानकारी
बड़ी
महत्वपूर्ण
हो जाती है।
फिर हम शब्दों
के आसपास ही
अपने जीवन का
सारा भवन निर्मित
करते हैं। वह
भवन ताश के
पत्तों का भवन
है। उसमें रोज
दरार पड़ेगी, रोज
दुर्घटना
होगी, रोज
मकान गिरेगा।
जरा सा हवा का
झोंका आएगा और
सब गिर जाएगा।
और तब हम
यथार्थ को दोष
देंगे और हम
कहेंगे कि
यथार्थ बड़ा
कठोर है और
जीवन बड़ा दुख
है। न तो जीवन
दुख है और न
यथार्थ बड़ा
कठोर है। आप
यथार्थ को
जानते ही
नहीं। आप
शब्दों के
घरों में रहते
हैं। आपने
यथार्थ को कभी
झांका ही
नहीं। जो था, वह आपने
देखा नहीं। आप
अपनी
व्याख्या में
ही चल रहे
हैं।
इन
व्याख्याओं
के इर्द-गिर्द
फंसे हुए आदमी
को लाओत्से
कहता है
जानकारी में, पांडित्य
में उलझा हुआ
आदमी। इसे छोड़ो
तो विपत्तियां
मिट जाती हैं,
मुसीबतें
समाप्त हो
जाती हैं।
क्या
होगा छोड़ने से? यथार्थ
का
साक्षात्कार।
और यह बड़े मजे
की बात है कि
सत्य को जान
लेना कभी भी
दुखदायी नहीं
है। चाहे
कितना ही
दुखदायी
प्रतीत होता
हो, सत्य
को जानना कभी
भी दुखदायी
नहीं है। और
असत्य चाहे
कितना ही
प्रीतिकर
प्रतीत होता
हो, असत्य
कभी भी
प्रीतिकर
नहीं है। सत्य
कितना ही
चौंका दे, धक्का
दे, फिर भी
उसके अंतिम
परिणाम
निरंतर गहरे
आनंद में ले
जाते हैं। और
असत्य कितना
ही फुसलाए,
समझाए, झुठलाए; असत्य कितनी
ही थपकियां
दे; और
असत्य कितनी
ही तंद्रा, नींद में डुबाने
की कोशिश करे
और कितना ही
सुविधापूर्ण
मालूम पड़े; प्रतिपल
उसकी हर
सुविधा
अनंत-अनंत
असुविधाओं को
जन्म देती है।
लेकिन
हम तत्काल
सुविधा के
इच्छुक हैं।
लंबी हमारी
दृष्टि नहीं।
दूर तक देखने
की हमारी सामर्थ्य
नहीं। बहुत
पास देखते हैं
हम। और उस पास
देखने की वजह
से हमें
यथार्थ दिखाई
ही नहीं पड़ता।
हमारे पास तो
हमारे ही
शब्दों का जाल
है। हम उसी
में जीते हैं।
मुसीबतें सघन
होती चली जाती
हैं।
जैसे
हम सब ने मान
रखा है, हमें
सब को समझाया
गया है, सिखाया
गया है कि
प्रेम में कोई
कलह नहीं है। एक
सिखावन है कि
प्रेम में कोई
कलह नहीं है, सच्चे प्रेम
में कोई कलह
नहीं है, कोई
द्वंद्व नहीं
है, कोई
संघर्ष नहीं
है। इस
अपेक्षा को
लेकर जो लोग
भी प्रेम के
जगत में
उतरेंगे, वे
बहुत दुख में
पड़ जाएंगे।
क्योंकि
यथार्थ कुछ और
है। अगर
यथार्थ को हम
समझें तो
प्रेम एक कलह
है, एक कांफ्लिक्ट
है। प्रेम एक
संघर्ष है।
सत्य तो यही
है कि प्रेमी
लड़ते रहेंगे।
और जब दो
प्रेमियों
में लड़ाई बंद
हो जाए तो समझ
लेना प्रेम भी
समाप्त हो
गया। लड़ाई प्रीतिकर
हो सकती है, वह दूसरी
बात है। लेकिन
प्रेम एक कलह
है। और हमारी
धारणाओं में
प्रेम एक
स्वर्ग है, जहां कोई
कलह नहीं है।
इस जगत
में सभी चीजें
परिवर्तनशील
हैं। हमारे मन
में बहुत सी
धारणाएं
स्थायी हैं, शाश्वत
हैं। कहते हैं,
प्रेम
शाश्वत है। इस
जगत में कुछ
भी शाश्वत नहीं
है। हम ही
शाश्वत नहीं
हैं, हमारा
प्रेम कैसे
शाश्वत हो
सकेगा? हम मरणधर्मा
हैं। हमसे जो
भी पैदा होगा,
वह मरणधर्मा
होगा। सत्य
यही है कि इस
जगत में सभी
चीजें परिवर्तनशील
हैं।
आकांक्षा है
हमारी कि कम
से कम कुछ
गहरी चीजें तो
न बदलें, कम
से कम प्रेम
तो न बदले। उस
आकांक्षा के
कारण वह जो
परिवर्तनशील
प्रेम का आनंद
हो सकता था, वह भी जहर हो
जाता है। उससे
प्रेम स्थायी
नहीं हो सकता,
सिर्फ वे जो
क्षण-स्थायी
प्रेम में जो
फूल खिल सकते
थे, वे भी खिलने
असंभव हो जाते
हैं। ऐसे ही
जैसे कोई घर
में बगिया
लगाए और फिर
आशा करे कि जो
फूल खिलें
वे शाश्वत हों,
वे कभी मुरझाएं
न। फूल तो
सुबह खिलेंगे,
सांझ मुरझा
जाएंगे। यही
नियति है।
लेकिन जो आदमी
इस अपेक्षा से
भरा हो कि फूल
कभी मुरझाएं
नहीं, तो
वह जो सुबह
फूल खिला था, उसका आनंद
भी नहीं भोग
पाएगा।
क्योंकि फूल
के खिलते ही
मुरझाने का भय
विष घोलने
लगेगा, जहर
डालने लगेगा।
फूल
खिलते ही
मुरझाना शुरू
भी हो जाता
है। क्योंकि
खिलना और
मुरझाना दो
प्रक्रियाएं
नहीं, एक ही
प्रक्रिया का
अंग हैं।
मुरझाना खिलने
की ही अंतिम
अवस्था है।
मुरझाना पूरा
खिल जाना ही
है। फल पकेगा
तो गिर जाएगा।
कोई भी चीज
पूरी होगी तो
मृत्यु घटित
हो जाएगी।
पूर्णता और
मृत्यु जगत
में एक ही
अर्थ रखते
हैं।
लेकिन
जो आदमी सोच
रहा है कि
शाश्वत फूल
खिल जाएं उसकी
बगिया में, वह
मुश्किल में
पड़ेगा। तब एक
ही उपाय है कि
वह कागज के
फूल बना ले, प्लास्टिक
के फूल बना
ले। वे स्थायी
होंगे। वे भी
शाश्वत तो
नहीं हो सकते,
लेकिन
स्थायी
होंगे। लेकिन
वे कभी
खिलेंगे भी
नहीं।
क्योंकि जो
मुरझाने से डर
गया, जो
मुरझाने से
बचना चाहता है,
तो फिर खिलने
को भी छोड़
देना पड़ेगा।
वे कभी
खिलेंगे भी
नहीं, मुरझाएंगे भी नहीं।
लेकिन तब
उनमें फूल
जैसा कुछ भी
नहीं बचा। फूल
का अर्थ ही
खिलना और
मुरझाना है।
ऐसी
हमारी जो
चित्त की
धारणाएं हैं, वे
धारणाएं हमें
वास्तविक
जीवन के साथ
संबंधित नहीं
होने देतीं।
हम अपनी ही
धारणाओं को
लेकर जीते
हैं। यथार्थ
कैसा भी हो, यथार्थ के
ऊपर हम अपने
ही परदे डालते
हैं, अपने
ही शब्द ओढ़ाते
हैं, अपने
ही रूप देते
हैं। और
यथार्थ न
हमारे रूपों
को मानता है, न हमारे
शब्दों को, न हमारे
सिद्धांतों
को। और तब हर
घड़ी यथार्थ में
और हमारे
ज्ञान में
संघर्ष खड़ा
होता है। वही
संघर्ष हमारी
मुसीबत है। हर
घड़ी हममें और
यथार्थ में
तालमेल छूट
जाता है। वह
तालमेल का छूट
जाना ही हमारी
आंतरिक
अशांति है।
प्रतिपल आपकी
अपेक्षा है, एक्सपेक्टेशन है, वह पूरा
नहीं होता।
अपेक्षा छूट
जाती है, टूट
जाती है। दुख
और पीड़ा और
कांटे छिद
जाते हैं
भीतर। वे
कांटे आपकी ही
अपेक्षा से
जन्मते हैं।
अपेक्षा
हमारी
जानकारी से
पैदा होती है।
हम पहले से ही
जाने बैठे हुए
हैं।
लाओत्से
कहता है, तुम
ऐसे जीयो,
जैसे तुम
कुछ जानते
नहीं हो। तुम
यथार्थ के पास
इस भांति पहुंचो
कि तुम्हारे
पास कोई
पूर्व-निष्कर्ष
नहीं हैं, कोई
कनक्लूजंस,
कोई निष्पत्तियां
नहीं हैं। न
तुम्हारे पास निष्पत्तियां
हैं, न
तुम्हारे पास
अपेक्षाएं
हैं। फूल के
पास पहुंचो
और जानो कि
फूल कैसा है।
मत तय करके
चलो कि शाश्वत
रहे, कभी
बदले नहीं, कुम्हलाए नहीं। ये
धारणाएं छोड़
कर पहुंचो।
फूल जैसा है, उसको वैसा
ही जान कर जी
लो। तब फूल एक
आनंद है। तब
उसका जन्म भी
एक आनंद है और
उसकी मृत्यु
भी एक आनंद
है। तब उसका
खिलना भी एक
गीत है और तब उसका
बंद हो जाना
भी एक गीत है।
और तब दोनों
में कोई विरोध
नहीं; एक
ही प्रक्रिया
के अंग हैं।
जीवन
में दुख नहीं
है;
दुख पैदा
होता है
अपेक्षाओं
से। और
अपेक्षाएं
शिक्षाओं का
परिणाम हैं।
हम सब एक क्षण
को भी बिना
अपेक्षाओं के
नहीं जीते; उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, अपेक्षाओं
का एक जगत
हमारे चारों
तरफ चलता है।
लाओत्से कहता
है, यही
हैं तुम्हारी
मुसीबतों के
आधार।
"हां
और न के बीच
अंतर क्या है?'
अगर
अपेक्षाएं न
हों तो हां और
न के बीच कोई
अंतर नहीं है।
अगर
अपेक्षाएं
हों तो हां और
न के बीच से
ज्यादा बड़ा
अंतर और कहां
होगा? मैं
आपसे कुछ
मांगता हूं; आप कहते हैं
हां, या
कहते हैं न।
अगर मेरी मांग
अपेक्षा से
भरी है तो हां
और न में बड़ा
अंतर होगा।
हां मेरा सुख
बनेगी, न
मेरा दुख हो
जाएगा। लेकिन
अगर मेरी कोई
अपेक्षा नहीं
है, अगर
मैं पहले से
कुछ तय करके
नहीं चला हूं
कि क्या होगा
निष्कर्ष, क्या
होगा परिणाम,
अगर परिणाम
के संबंध में
मैंने कुछ
धारणा नहीं
बनाई है तो आप
हां कहें, आप
न कहें, इन
दोनों में कोई
अंतर नहीं है।
हां और न के बीच
जो अंतर है, वह दो
शब्दों के बीच
अंतर नहीं है,
वह दो
अपेक्षाओं के
बीच अंतर है। भाषाकोश
में तो हां और
न में अंतर
होगा, विपरीत
हैं दोनों; लेकिन जीवन
की गहराई में,
जहां
व्यक्ति अपेक्षाशून्य
चलता है, हां
और न में कोई
अंतर नहीं है।
एक
फकीर एक गांव
से गुजर रहा
है। उसने एक
दरवाजे पर
दस्तक दी। आधी
रात हो गई है।
और वह भटक गया
है। और जिस
गांव पहुंचना
था,
वहां न
पहुंच कर
दूसरे गांव
पहुंच गया है।
द्वार खुला।
घर के लोगों
ने कहा, क्या
चाहते हैं? उस फकीर ने
कहा कि अगर
रात भर
विश्राम का
मौका मिल जाए!
मैं भटक गया
हूं; और
जहां पहुंचना
था, नहीं
पहुंच पाया
हूं। घर के
लोगों ने पूछा
कि धर्म कौन
सा है
तुम्हारा?
क्योंकि
हम मनुष्यों
को तो नहीं
ठहराते, धर्मों
को ठहराते
हैं।
उस फकीर
ने अपना धर्म
बताया। द्वार
बंद हो गए। घर
के लोगों ने
कहा,
क्षमा करें,
हम इस धर्म
के मानने वाले
नहीं; न
केवल न मानने
वाले हैं, बल्कि
हम इसके
विरोधी हैं।
और इस गांव
में आपको कहीं
भी जगह न
मिलेगी। यह
गांव एक ही
धर्म मानने
वाले लोगों का
है। आप व्यर्थ
परेशान न हों।
उस फकीर ने
धन्यवाद दिया
और चलने लगा।
उस मकान के
मालिक ने पूछा,
लेकिन
धन्यवाद कैसा?
हम ठहराने
से इनकार कर
दिए हैं, धन्यवाद
कैसा? उस
फकीर ने कहा, तुमने कुछ
तो किया। तुम
क्या करोगे, इस संबंध
में हमारी कोई
धारणा न थी।
द्वार खुलेगा,
हां और न
कुछ भी होगा।
तुमने स्पष्ट
न कहा, इतना
भी आधी रात
कष्ट उठाया, उसके लिए
धन्यवाद!
वह
फकीर जाकर
गांव के बाहर
सो गया।
पूर्णिमा की
रात थी। और
जिस वृक्ष के
नीचे सोया था, उस
वृक्ष के फूल
पूर्णिमा की
रात में आवाज
करके खुलते
हैं। जब भी
फूल की आवाज
होती है, वह
आंख खोल कर
ऊपर देखता
है--चांद भाग
रहा है, फूल
खिल रहे हैं, सुगंध बरस
रही है।
सुबह
फिर उस फकीर
ने वापस आकर
उस आदमी के
द्वार पर
दस्तक दी। उस
आदमी ने
दरवाजा खोला।
फकीर ने झुक
कर तीन बार
पुनः-पुनः कहा, धन्यवाद!
धन्यवाद!
धन्यवाद! उस
आदमी ने कहा, अब धन्यवाद
की क्या जरूरत?
तुम आदमी
पागल मालूम
पड़ते हो। रात
मैंने मना
किया था, तब
तुमने
धन्यवाद
दिया। अब?
उस
फकीर ने कहा, अगर
तुम रात मुझे
मना न करते तो
जिस पूर्णिमा की
रात का मैंने
आनंद लिया है,
वह असंभव हो
जाता। तुमने
अगर हां भर दी
होती तो मैं
तुम्हारे
छप्पर के नीचे
सोता। मैं एक
वृक्ष के नीचे
सोया। और मेरे
जीवन में इतने
सौंदर्य का
क्षण मैंने
कभी नहीं
जाना। एक बात
तुमसे कहने
आया हूं, बुरा
न मानना; तुम्हारे
धर्म का फकीर
भी आए, उसे
भी मत ठहरने
देना।
अगर
आपको इस घर से
इनकार करके
लौटा दिया गया
होता तो
पूर्णिमा की
रात पहली तो
बात तत्काल अमावस
की रात हो
जाती। या नहीं
हो जाती? पूर्णिमा
की रात तो बच
ही नहीं सकती
थी, तत्काल
अमावस हो
जाती। फूल खिल
ही नहीं सकते
थे। उनकी इतनी
धीमी आवाज, आपके भीतर
जो तुमुलनाद
चलता, सुनाई
भी नहीं पड़ती।
आपके भीतर जो
कोलाहल होता,
जो हाहाकार
मचता, उसके
सामने कोमल
फूलों के खिलने
की आवाज कहां
सुनाई पड़ सकती
थी? आप
अमावस की रात
में सोते।
सोते भी कैसे!
चिंतित और
बेचैन और
परेशान होते।
हां और न में
बड़ा अंतर
होता। इस आदमी
को हां और न
में कोई अंतर
न था।
हां और
न का अंतर, सुख
और दुख का
अंतर धारणा का
अंतर है, अपेक्षा
का अंतर है; यथार्थ का
अंतर नहीं है।
लेकिन हम सभी
कुछ यथार्थ पर
थोप देते हैं।
हम कहते हैं, उसने ऐसा
कहा, इसलिए
मैं दुखी हूं;
उसने ऐसा
व्यवहार किया,
इसलिए मैं
सुखी हूं।
नहीं, कोई
संबंध किसी
दूसरे से नहीं
है सुख और दुख
का। उसने कुछ
भी किया हो, आप सुखी हो
सकते हैं; उसने
कुछ भी किया
हो, आप
दुखी हो सकते
हैं। उसका
करना असली बात
नहीं है। उसने
जो किया, उसकी
व्याख्या
आपने क्या की,
उस पर ही सब
कुछ निर्भर
है। आपकी अपनी
व्याख्या ही
आपका स्वर्ग
और आपका नरक
है।
सुना
है मैंने, दो
मित्र गुरु की
तलाश में थे।
वे दोनों एक
सूफी फकीर के
द्वार पर
पहुंचे।
दोनों ने
निवेदन किया,
सत्य की
उन्हें खोज है,
तलाश है
प्रभु की; रास्ता
कोई बताएं। वह
फकीर चुप बैठा
रहा, जैसे
उसने सुना ही
न हो। एक
मित्र ने सोचा,
इस आदमी से
क्या मिलेगा?
या तो बहरा
मालूम पड़ता है
और या फिर
बहुत अहंकारी
है। हम इतने
सत्य के खोजी,
इतने दूर से
चल कर आए हैं
और यह आदमी
ध्यान भी नहीं
दे रहा है, जैसे
हम कोई कीड़े-मकोड़े
हों। दूसरे ने
सोचा, शायद
मेरे प्रश्न
में कोई भूल
हो गई है।
शायद यह पूछने
का ढंग अनुचित
है। शायद सत्य
की जिज्ञासा
इस भांति नहीं
की जाती। शायद
इतनी जल्दबाजी,
इतना
अधैर्य
दुर्गुण है।
दोनों विदा हो
गए।
जिसने
सोचा था कि यह
आदमी अहंकारी
है,
वह वर्षों
बाद भी वैसे
का वैसा था।
लेकिन जिसने
सोचा था कि
शायद मेरी
जिज्ञासा में,
मेरे पूछने
के ढंग में, मेरे अधैर्य
में ही कोई
भूल है, वह
अपने को बदलने
में लग गया।
वर्षों बाद
पहला आदमी
अपने नरक में
ही पड़ा था; और
गर्त में हो
गया था। दूसरा
पूरा शांत हो
गया। दूसरा
धन्यवाद देने
गया गुरु को।
और पहला आदमी
उस आदमी के
खिलाफ वर्षों
से गालियां
बोल रहा था कि
वह आदमी हमारे
ऊपर ध्यान भी
नहीं दिया; अहंकारी है;
अपने को न
मालूम क्या
समझता है।
दूसरा आदमी धन्यवाद
देने गया कि
आपकी कृपा है,
आप उस दिन
नहीं बोले; मैं निश्चित
समझ गया कि
मेरी कोई
योग्यता और पात्रता
नहीं है। मैं
अपने को पात्र
बनाने की कोशिश
में ही सत्य
के दर्शन को
उपलब्ध हो गया
हूं। मैं
धन्यवाद देने
आया हूं।
उस
गुरु ने कहा, सत्य
को पाने का और
कोई उपाय नहीं
है। पात्र बन
जाना काफी है।
हम पर
निर्भर है।
गुरु तो चुप
रहा था। एक ने
समझा न, एक ने
समझा हां।
फासला बड़ा भी
हो सकता है।
फासला शून्य
भी हो सकता
है।
लाओत्से
कहता है, सब
फासले ज्ञान
के, पांडित्य
के फासले हैं।
हां और न के
बीच अंतर क्या
है?
हां और
न लाओत्से के
लिए बहुत सी
बातों के
प्रतीक हैं।
हां है जीवन
का प्रतीक; न
है मृत्यु का
प्रतीक। हां
है सुख का
प्रतीक; न
है दुख का
प्रतीक। हां
है सफलता का
प्रतीक; न
है असफलता का
प्रतीक। हां
है पाजिटिव,
विधायक का
प्रतीक; और
न है निगेटिव,
नकारात्मक
का प्रतीक।
लाओत्से
यह कह रहा है
कि विधेय में
और नकार में
अंतर ही क्या है? जन्म
और मृत्यु में
अंतर ही क्या
है?
अंतर
बहुत है। जीवन
को हम चाहते
हैं,
मृत्यु को
हम नहीं चाहते;
फिर अंतर
बहुत है। चाह
के कारण अंतर
है। जीवन और
मृत्यु में
कोई अंतर नहीं
है। जिसकी कोई
चाह नहीं, उसे
जीवन और मृत्यु
में फिर क्या
अंतर है? जिस
द्वार से हम
बाहर निकलते
हैं, उसी
से हम भीतर
आते हैं। जिन
सीढ़ियों से हम
ऊपर चढ़ते
हैं, उन्हीं
से हम नीचे
उतरते हैं। जब
आप ऊपर चढ़ रहे
होते हैं तब, और जब आप
नीचे उतर रहे
होते हैं तब, सीढ़ियों में
कोई अंतर होता
है? जब आप
बाहर जाते हैं
तब, और जब
आप भीतर आते
हैं तब, द्वार
में कोई अंतर
होता है? वही
द्वार है, वे
ही सीढ़ियां
हैं। वही जन्म
है; वही
मृत्यु है।
लेकिन
हमारी
अपेक्षाएं
बड़ा अंतर कर
देती हैं।
हमारी
जानकारी बड़ा
अंतर कर देती
है। हम सबको
सिखाया गया है, मृत्यु
कुछ बुरी है।
यह हमारी सिखावन
है। क्योंकि
मृत्यु को हम
जानते तो नहीं
हैं। मृत्यु
बुरी है, यह
हमें सिखाया
गया है। और
जीवन शुभ है, यह हमें
सिखाया गया
है। और जीवन
है अहोभाव, धन्यता, और
मृत्यु है
दुर्भाग्य, यह हमें
सिखाया गया
है। मृत्यु को
हम जानते नहीं,
यह तो पक्का
ही है। जीवन
को भी हम नहीं
जानते हैं। वह
उतना पक्का
नहीं मालूम
पड़ता; क्योंकि
हमें लगता है
कि हम जीवित
हैं तो जीवन
को तो जानते
ही होंगे।
जरूरी
नहीं है कि जो
जीवित है, वह
जीवन को जान
ही ले।
क्योंकि जो
जीवन को जान लेगा,
वह मृत्यु
को भी जान
लेगा। यह एक
ही द्वार है; बाहर और भीतर
आने का फर्क
है। जो जीवन
को जान लेगा, वह मृत्यु
को भी जान
लेगा।
क्योंकि
मृत्यु कोई
जीवन के
विपरीत घटना
नहीं है। जैसे
बायां और
दायां पैर हैं,
और चलना हो
तो दोनों का
उपयोग करना
होता है; ऐसे
ही जो
अस्तित्व है,
वह जीवन और
मृत्यु उसके
दोनों पैर
हैं। और अस्तित्व
हो ही नहीं
सकता; उन
दोनों पैरों
के कारण ही
अस्तित्व की
सारी गति है।
एक को भी जो
जान लेगा, वह
दूसरे को जान
ही लेगा।
क्योंकि
दूसरा विपरीत
नहीं है, पृथक
भी नहीं है।
एक ही
प्रक्रिया के
दो अंग हैं।
लेकिन हमें
सिखाया गया
है।
गुरजिएफ
ने लिखा है।
गुरजिएफ की आदत
थी लोगों को छेड़ने की।
इससे न मालूम
कितने लोग
उससे नाराज
थे। एक भोज
में गुरजिएफ
सम्मिलित था
और एक बड़ा
बिशप, एक बड़ा
धर्मगुरु भी
निमंत्रित
था। गुरजिएफ के
पड़ोस में ही
धर्मगुरु को
बिठाया गया
था। दोनों
महत्वपूर्ण
व्यक्ति थे।
गुरजिएफ
ने बिशप को
पूछा, धर्मगुरु
को पूछा कि
क्या आपका
खयाल है आत्मा
के संबंध में?
आत्मा अमर
है? धर्मगुरु
ने कहा, निश्चित
ही, इसमें
भी कोई संदेह
है? आत्मा
शाश्वत है, अमर है।
उसका कोई अंत
नहीं। उसकी
कोई मृत्यु नहीं।
गुरजिएफ ने तब
पूछा, और
आप कब तक
मरेंगे, इसके
संबंध में
क्या खयाल है?
और मरने के
बाद आप कहां
पहुंचेंगे, इस संबंध
में क्या खयाल
है?
तत्काल
बिशप का चेहरा
बिगड़ गया। यह
भी कोई बात है? भद्र
आदमी ऐसी
बातें पूछते
हैं? अभद्रता
हो गई। कब मरिएगा?
मरने के बाद
कहां जाइएगा?
बिशप ने
तेजी से कहा
कि कहां जाऊंगा,
परमात्मा
के राज्य में
प्रवेश करूंगा!
लेकिन भद्र
आदमी ऐसी
बातें पूछते
नहीं हैं।
गुरजिएफ
ने कहा कि अगर
आत्मा अमर है
तो मृत्यु के
संबंध में
पूछने में
अभद्रता कैसी? और
अगर मर कर
प्रभु के
राज्य में ही
प्रवेश करना
है तो आपके
चेहरे पर मेरे
प्रश्न से आ
गई यह कालिमा
कैसी? आनंद
से भर जाना
चाहिए कि जल्दी
मरेंगे और
प्रभु के
राज्य में
प्रवेश करेंगे।
नहीं, लेकिन
दोनों में
फर्क है। वह
जानकारी है, वह जो बात थी
आत्मा के अमर
होने की, वह
जानकारी है।
वह शाब्दिक है,
शास्त्रीय
है। भय तो
भीतर खड़ा है, मर न जाएं।
शायद उसी भय
के कारण उस
जानकारी को भी
पकड़ लिया है
कि आत्मा अमर
है। आत्मा को
अमर मानने
वाले लोग अक्सर
मृत्यु से
भयभीत लोग
होते हैं।
मानने वाले
लोग! जानने
वालों की बात
करनी उचित
नहीं है। मानने
वाले लोग
अक्सर जो
मानते हैं, उससे विपरीत
उनकी मनोदशा
होती है। भय
है मृत्यु का,
तो आत्मा
अमर है, इस
सिद्धांत को
पकड़ लेने से
राहत मिलती है,
कंसोलेशन
मिलता है। और
हमारा धर्म
कंसोलेशन, सांत्वना
से ज्यादा
नहीं है।
इसलिए धर्म
हमारी ऊपरी
पर्त है। वह
भी हमारी
सुरक्षा का
उपाय है।
जानते तो हैं
कि मरना
पड़ेगा। इसको
भुलाना चाहते
हैं, इस कड़वे
सत्य को
झुठलाना
चाहते हैं। तो
बड़े-बड़े अक्षरों
में लिख कर
रखा हुआ है:
आत्मा अमर है।
लेकिन कोई
आपसे मृत्यु
की पूछे, आपकी
मृत्यु की
पूछे, तो
धक्का लगता
है। क्यों? क्योंकि
आत्मा अमर है,
वह ऊपर
चिपकाई हुई
बात है। भीतर
तो भय मौत का खड़ा
है।
कब्रिस्तान
हम गांव के
बाहर बनाते
हैं;
मरघट गांव
के बाहर बनाते
हैं। कोई मर
जाए तो माताएं
अपने बच्चों
को भीतर बुला
लेती
हैं--भीतर आ
जाओ, कोई
अरथी गुजरती
है। जैसे
मृत्यु को हम
चाहते हैं कि
किसी तरह भूल
जाएं, वह
दिखाई न पड़े।
घर में कोई मर
जाए तो घड़ी भर
भी उसको रखना
मुश्किल हो
जाता है। शायद
कल उस आदमी से
हमने कहा हो
कि तुम्हारे
बिना हम मर
जाएंगे, एक
क्षण जी न
सकेंगे। अब वह
मर गए। अब
क्षण भर भी
उनको घर में
रखना मुश्किल
है। क्या है
तकलीफ? थोड़ी
देर रुकने
दें। ऐसे इतने
वर्ष तक वह
व्यक्ति इस घर
में था, दस-पांच
दिन और रुके
तो हर्ज क्या
है?
दस-पांच
दिन में आप
पागल हो
जाएंगे, अगर उसकी
लाश रखी रहे
तो। क्यों? क्योंकि
उसकी लाश हर
घड़ी आपको मौत
की याद दिलाएगी।
हर घड़ी उसका
मरा होना आपके
अपने मरने की
सूचना बन
जाएगा। एक घर
में एक आदमी
की मुर्दा लाश
को रख लें, उस
घर में फिर
कोई आदमी
जिंदा नहीं रह
सकेगा।
इसलिए
जल्दी हम
निपटाते हैं।
और घर के
लोगों को
तकलीफ न हो, इसलिए
पास-पड़ोस के
लोग इकट्ठे
होकर जल्दी
निपटाते हैं।
क्योंकि ये
पड़ोस के लोगों
के घर में जब
तकलीफ आती है
तो दूसरे
निपटाते हैं।
यह सब एक
पारस्परिक
समझौता है:
आदमी मरे, तो
उसे जल्दी हटाओ;
जिंदा
लोगों के बीच
से हटाओ।
क्योंकि मौत
को हम कहीं
दूर अंत्यज की
तरह व्यवहार
करते हैं। वह
गांव के बाहर
रहे; गांव
के भीतर, भरे
बाजार में
उसका कोई पता
न चले। हमें
एहसास न हो कि
मौत जैसी कोई
चीज भी है।
मजबूरी है कि
आदमी मरते हैं;
तो हम
उन्हें जल्दी
से डिसपोज
करते हैं, उनको
हम निपटाते
हैं। क्यों?
तो
हमारे लिए
जीवन और
मृत्यु एक
अर्थ नहीं रख
सकते। और हमारे
लिए हां और न
भी एक अर्थ
नहीं रख सकते।
और सुख और दुख
को हम कैसे
मानें कि एक
ही हैं।
लेकिन
कभी आपने खयाल
किया कि अगर
आप नाम न दें तो
कई बार आप बड़ी
मुश्किल में
पड़ेंगे बताने
में कि यह सुख
है या दुख है।
नामकरण से बड़ी
आसानी हो जाती
है। नाम दे
देते हैं यह
सुख है, तो
तत्काल मन मान
लेता है कि
सुख है। नाम
दे देते हैं
दुख है, तो
मान लेते हैं
कि दुख है।
कभी आपने खयाल
न किया हो, लेकिन
करना चाहिए
निरीक्षण कि
अगर हम नाम न
दें तो कौन सी
चीज सुख होगी
और कौन सी चीज
दुख होगी? और
अगर हम नाम
देने की जल्दी
न करें, सिर्फ
अनुभूति पर जीएं, तो
एक बड़ी अदभुत
बात मालूम
होगी कि जिसको
हम सुख कहते
हैं वह किसी
भी क्षण दुख
हो जाता है और जिसको
हम दुख कहते
हैं वह किसी
भी क्षण सुख
हो जाता है।
आपको
मैं प्रेम
करता हूं। राह
पर आप मिले और
मैंने आपको गले
से लगा लिया।
नाम न दें इसे
सुख का या दुख
का अभी, कोई
नाम न दें।
सिर्फ सीधा यह
तथ्य कि मैं
आपको गले से
दबा रहा हूं; मेरी
हड्डियां, मेरी
चमड़ी आपको
स्पर्श कर रही
हैं; आपकी
हड्डियां और
चमड़ी मुझे
स्पर्श कर रही
हैं। इसको कोई
नाम न दें कि
यह आलिंगन है,
सुख है, दुख
है, कोई
नाम न दें।
सिर्फ यह तथ्य,
यह फैक्ट कि
क्या घटित हो
रहा है। तब
आपको बड़ा मुश्किल
होगा कहना कि
इसे सुख कहें
कि दुख कहें।
और अगर
आप इसे सुख
कहें, कहना
चाहें कि नहीं,
सुख है, और
मैं आपको अपनी
छाती से लगाए
खड़ा ही रहूं; कितनी देर
यह सुख रहेगा?
एक क्षण, दो क्षण, पांच
क्षण, फिर
आसपास भीड़
इकट्ठी होने
लगेगी और लोग
झांकने
लगेंगे कि
क्या हो गया? और फिर आप
बेचैन होने
लगेंगे, और
फिर आपके माथे
पर पसीना आने
लगेगा, और
आप छूटना
चाहेंगे, बचना
चाहेंगे। वह
जो सुख था, वह
कब दुख बन गया,
कभी आपने
भीतर परीक्षण
किया? किस
घड़ी आकर सुख
दुख बनना शुरू
हो गया? और
अगर मैं न ही छोडूं?
सुना
है मैंने कि
नादिरशाह ने
ऐसा मजाक एक
बार किया था।
नादिर का
प्रेम था एक
युवती से; लेकिन
युवती उस पर
कोई ध्यान
नहीं देती थी।
नादिर ने सब
उपाय किए थे।
चाहता तो वह
उठवा कर हरम
में डलवा
देता। लेकिन
पुरुष को सुख
मिलता है
जीतने में; जबर्दस्ती
करने में सारा
सुख खो जाता
है। चाहता था
कि वह स्त्री
अपने से आए।
एक दिन
अचानक उसे पता
चला कि उस
स्त्री का, नादिर
का जो सिपाही
है, उसका
द्वारपाल जो
है, उससे
प्रेम है।
नादिर रात
पहुंचा और जब
उसने अपनी आंख
से उन दोनों
को आलिंगन में
देख लिया तो
उसने उनको वहीं
बंधवाया,
महल
बुलवाया।
दोनों को नग्न
किया, आलिंगन
में बांध कर
सामने एक खंभे
से बंधवा दिया।
दोनों आलिंगन
में बंधे हैं
खंभे से।
बड़ा
गहरा मजाक
हुआ। और बड़ी
कठिन सजा हो
गई। ये दोनों
प्रेमी
एक-दूसरे के
पास होने को तड़पते थे।
चोरी से कभी
मिल पाते थे; क्योंकि
नादिर का डर
भी था; खतरा
भी था। सब
खतरे उठा कर
मिलते थे क्षण
भर को तो
स्वर्ग मालूम
होता था। अब
दोनों नग्न
एक-दूसरे की बाहों में
खंभे से बंधे
खड़े थे।
घड़ी, दो
घड़ी के बाद ही
एक-दूसरे के
शरीर से बदबू
आने लगी; एक-दूसरे
की तरफ देखने
का मन न रहा।
जब कहीं बंधा
ही हो कोई
आदमी किसी के
साथ तो फिर
देखने को मन
नहीं रह जाता।
विवाह में यही
परिणाम होता
है। दो आदमी
बंधे हैं
एक-दूसरे से।
थोड़े दिन में घबड़ाहट हो
जाती है शुरू।
विवाह बड़ी
मजाक है, नादिर
जैसी मजाक है।
कहते हैं कि
पंद्रह घंटे
बाद...। पेशाब
भी बह गया, मल-मूत्र
हो गया, बदबू
फैल गई। बहुत
भयंकर मजाक हो
गई। सब सौंदर्य
खो गया। सब
स्वर्ग नष्ट
हो गया; नरक
हो गया।
पंद्रह घंटे
बाद नादिर ने
दोनों को छुड़वा
दिया। कहानी
कहती है कि वे
दोनों फिर कभी
एक-दूसरे को
नहीं देखे। जो
वहां से भागे,
उस खंभे से,
फिर कभी
जीवन में
दुबारा नहीं
मिले।
क्या
हुआ?
जिसे सुख
जाना था, वह
दुख में परिणत
हो गया। किसी
भी सुख को जरा
ज्यादा खींच
दो, दुख हो
जाएगा; जरा
सा ज्यादा
खींच दो।
लेकिन जो दुख
हो सकता है, उसका अर्थ
हुआ कि वह दुख
रहा ही होगा।
नहीं तो हो
कैसे जाएगा? क्वांटिटी के बढ़ने से
क्वालिटी अगर
बदलती हो, परिमाण
के बढ़ने से, घटने से अगर
गुण बदलता हो
तो उसका अर्थ
है कि गुण
छिपा हुआ रहा
ही होगा। आपको
प्रतीत नहीं
हो रहा था, क्योंकि
मात्रा कम थी।
मात्रा सघन हो
गई, आपको
प्रतीत होने
लगा। किसी भी
दुख की मात्रा
को भी बदल दो
तो सुख हो
जाता है। सुख
की मात्रा को
भी बदल दो तो
दुख हो जाता
है। दुख का भी
अभ्यास कर लो
तो सुख हो
जाता है। दुख
सुख हो जाते
हैं; सुख
दुख हो जाते
हैं। फासले
शायद शब्दों
के हैं; यथार्थ
का फासला नहीं
है।
लाओत्से
कहता है, हां
और न में कोई
फर्क नहीं है।
अगर
तुम अपने
ज्ञान को एक
तरफ रख दो और
फिर तुम जीवन
के तथ्य में
प्रवेश करो तो
तुम पाओगे कि
हां नहीं हो
जाता है और
नहीं हां हो
जाता है। जिंदगी
बड़ी बदलाहट
है। यहां जिसे
हम कहते हैं
विधायक, वह
कभी भी बदल
जाता है, नकारात्मक
हो जाता है।
जिसे हम सुबह
कहते हैं, वही
सांझ हो जाती
है। जिसे हम
सुख कहते हैं,
वही दुख हो
जाता है।
इसका
अर्थ यह हुआ
कि सुख और दुख
यथार्थ से बाहर
खींच लिए गए
शब्द हैं।
यथार्थ दोनों
के बीच एक है।
हमारा सारा
ज्ञान नाम
देने का ज्ञान
है,
चीजों को
नाम देने का
ज्ञान है। जब
हम चीजों को
नाम दे देते
हैं तो हम
समझते हैं
ज्ञान हो गया।
हम बता देते
हैं कि यह दुख
है, यह सुख
है। हम समझते
हैं कि हम सब
समझ गए।
नाम के
नीचे जो
यथार्थ है, उसकी
प्रतीति!
लेकिन उसकी
प्रतीति
उन्हें ही हो
सकती है जो सब
सिखावन को
छोड़ने को
तैयार हों।
लाओत्से
कहता है, "शुभ
और अशुभ के
बीच भी फासला
क्या है?'
हां और
न तो ठीक है, लाओत्से
कहता है, शुभ
और अशुभ, जिसे
हम कहते हैं
पुण्य और पाप,
उसके बीच भी
फासला क्या है?
क्या है
पुण्य, क्या
है पाप? कठिन
है यह बात
थोड़ी। और घबड़ाहट
होती है।
क्योंकि
लाओत्से का
चिंतन
अति-नैतिक
चिंतन है। और
गहन जैसे ही
चिंतन होगा, अति-नैतिक
हो जाएगा।
हम
कहते हैं, यह
कृत्य शुभ है
और यह कृत्य
अशुभ है, और
ऐसा करना
पुण्य है और
वैसा करना पाप
है। और निश्चित
ही हम बांट कर
जीते हैं।
सुविधा हो जाती
है जीने में, अन्यथा बड़ी
कठिनाई हो
जाए। अन्यथा
बड़ी कठिनाई हो
जाए। तो हम
बांट कर चलते
हैं कि दान
पुण्य है, चोरी
पाप है। दया
शुभ है, क्रूरता-कठोरता
अशुभ है। सच
बोलना शुभ है,
झूठ बोलना
अशुभ है।
जिंदगी में हम
ऐसा बांट कर
चलते हैं।
जरूरी है, उपयोगी
है।
लेकिन
लाओत्से गहरे
सवाल उठाता
है। वह यह कहता
है,
फर्क क्या
है? वह
कहता है, कौन
सी चीज है
जिसको तुम कह
सकते हो कि
सदा शुभ है? और कौन सी
चीज है जिसे
तुम कह सकते
हो कि सदा अशुभ
है? अशुभ
शुभ होते देखे
जाते हैं; शुभ
अशुभ हो जाते
हैं। ठीक वैसे
ही, जैसे
सुख दुख बदल
जाते हैं।
समझें, आप
अपने पड़ोसी की
सहायता करते
चले जाते हैं।
दया करते हैं,
पैसे से
सहायता पहुंचाते
हैं, सब
तरह से सेवा
करते हैं।
लेकिन आपने
कभी खयाल किया?
शायद कभी
खयाल में भी
आया हो तो भी
पूरी बात नहीं
निरीक्षण हो
पाती है। मेरे
पास बहुत लोग
आते हैं, वे
कहते हैं, हमने
फलां आदमी के
साथ इतना
अच्छा किया और
वह हमारे साथ
बुरा कर रहा
है। आम अनुभव
है यह कि नेकी
का फल बदी से
मिलता है।
लेकिन तब हम यह
समझते हैं कि
वह आदमी ही
बुरा है।
मैंने भला
किया, वह
बुरा कर रहा
है; क्योंकि
वह आदमी बुरा
है।
लेकिन
यह सत्य नहीं
है। असल में, जिसके
साथ भी आप भला
करते हैं, आपका
भला करना भी
इतना बोझिल हो
जाता है, भारी
हो जाता है
दूसरे पर कि
उसे बदला
चुकाना जरूरी
हो जाता है।
जब एक आदमी
किसी के साथ
भला करता है
तो वह उसके
अहंकार को चोट
पहुंचाता है
और खुद के अहंकार
को ऊपर करता
है। मैं भला
कर रहा हूं!
दूसरा दीन हो
जाता है; मैं
श्रेष्ठ हो
जाता हूं। तो
दूसरा मुझे
ऊपर से
धन्यवाद देता है
कि आपकी बड़ी
कृपा है कि
आपने इतना
मेरे लिए किया;
लेकिन भीतर
से मेरा
अहंकार भी
उसको कांटे की
तरह चुभता है।
वह भी चाहता
है कि कभी ऐसा
मौका मिले कि
हम भी
तुम्हारे साथ
भला कर सकें; कभी ऐसा
मौका मिले कि
तुम नीचे और
हम ऊपर; कभी
हम श्रेष्ठता
से छाती फुला
कर खड़े हों और
तुम हाथ जोड़
कर कहो कि बड़ी
कृपा है!
अगर आप
उसको ऐसा मौका
मिलने ही न
दें,
आप भला किए
ही चले जाएं, उसको भला
करने का मौका
ही न दें, तो
वह आदमी आपसे
बुरा भी कर
सकता है।
क्योंकि आपका
भला उस पर
इतना बोझिल हो
जाए। अब दो ही
उपाय हैं उसके
पास। या तो वह
कुछ भला आपके
साथ करे और
आपको नीचे
बिठा दे; और
या फिर अगर आप
कोई मौका ही न
दें...क्योंकि
भला करना
महंगा काम है,
सभी के लिए
सुविधापूर्ण
नहीं है; बुरा
करना सस्ता
काम है, सभी
कर सकते हैं।
तो अगर
मैं एक आदमी
को पैसे की
सहायता
पहुंचाए चला
जा रहा हूं तो
जरूरी नहीं है
कि कभी ऐसी
हालत हो जाए
कि मुझे पैसा
उससे मांगना
पड़े। जरूरी
नहीं है।
क्योंकि
जिनके पास है
उनके पास और
इकट्ठा होता
चला जाता है
और जिनके पास
नहीं है उनसे
और छिनता चला
जाता है। वह
आदमी भी चाहता
है कि कभी
मुझे दान करे।
वह मौका न
मिले तो फिर
क्या करे वह
आदमी? बुरा
कोई भी कर
सकता है; बुरा
सस्ता काम है।
वह कुछ मेरे
लिए बुरा करे और
मुझे नीचा
दिखाए, मेरे
संबंध में कुछ
अफवाहें उड़ाए,
मेरे संबंध
में कुछ निंदा
चलाए, कोई
उपाय करे--कोई
उपाय करे कि
मैं नीचे हो
जाऊं! जिस दिन
उपाय करके वह
मुझे नीचा
दिखा देगा, बैलेंस हो
जाएगा। हमारा
निबटारा हो
जाएगा; लेन-देन
बराबर हो
जाएगा।
नीत्शे
ने बहुत ही
कठोर व्यंग्य
किया है जीसस पर।
क्योंकि जीसस
ने कहा है कि
तुम्हारे गाल
पर जो एक
चांटा मारे, तुम
दूसरा गाल
उसके सामने कर
देना। हम
कहेंगे कि
इससे ज्यादा
श्रेष्ठ
सिद्धांत और
क्या होगा!
नीत्शे ने कहा
है, ऐसा
अपमान भूल कर
मत करना किसी
का कि कोई
आदमी तुम्हारे
गाल पर एक
चांटा मारे तो
तुम दूसरा उसके
सामने मत कर
देना। नहीं तो
तुम तो ईश्वर
हो जाओगे और
वह कीड़ा हो
जाएगा। और यह
क्षम्य नहीं
है। अच्छा हो
कि तुम भी एक
करारा चांटा
उसको मार देना,
तुम कम से
कम दोनों आदमी
तो रहोगे।
दूसरे को भी
आदमी होने की
इज्जत देना।
जीसस
की ऐसी आलोचना
किसी दूसरे
व्यक्ति ने नहीं
की है। लेकिन
कोई दूसरा कर
भी नहीं सकता।
नीत्शे की
हैसियत का
आदमी चाहिए।
वह ठीक जीसस की
हैसियत का
आदमी है।
लेकिन इसका
मतलब क्या हुआ? इसका
मतलब हुआ कि शुभ
भी अशुभ हो
सकता है। आपने
मेरे गाल पर
चांटा मारा और
मैंने दूसरा
आपके सामने कर
दिया; बड़ा
शुभ कार्य कर
रहा हूं मैं।
लेकिन यह अशुभ
हो सकता है, यह अपमानजनक
हो सकता है।
शायद यही
सम्मानपूर्ण
होता कि मैं
एक चांटा आपको
मारता और हम
बराबर हो गए
होते। उसमें
आपकी इज्जत
थी।
क्या
है शुभ? क्या
है अशुभ?
जीसस
ने कहा है, कनफ्यूशियस ने भी कहा है,
महाभारत
में भी वही
सूत्र है, सारी
दुनिया के
धर्मों ने
उसको आधार
माना है कि
तुम दूसरे के
साथ वही करना
जो तुम चाहो
कि दूसरा
तुम्हारे साथ
करे। यह शुभ
की परिभाषा
है। लेकिन
नीत्शे ने कहा
है कि यह
जरूरी नहीं है;
स्वाद
अलग-अलग भी
होते हैं।
जरूरी नहीं है,
रुचियां भिन्न होती
हैं। जरूरी
नहीं है कि
तुम जो चाहते
हो दूसरा
तुम्हारे साथ
करे, वही
तुम उसके साथ
करो। क्योंकि
उसकी रुचि भिन्न
हो सकती है, वह चाहता ही
न हो कि कोई
उसके साथ ऐसा
करे। यह जरा
कठिन है; थोड़ा
जटिल है।
बर्नार्ड
शॉ ने उसको
ठीक मजाक पर, सरल
ढंग पर रखा
है। उसने कहा
है कि मैं
चाहता हूं कि
आप मेरा चुंबन
करें, इसलिए
मैं आपका
चुंबन करूं? तो आपको
सिद्धांत समझ
में आ जाएगा।
जीसस कहते हैं,
तुम वही
करना दूसरे के
साथ, जैसा
तुम चाहते हो
कि दूसरा
तुम्हारे साथ
करे।
बर्नार्ड शॉ
कहता है कि मैं
चाहता हूं कि
आप मेरा चुंबन
करें तो मैं आपका
चुंबन करूं? जरूरी नहीं
है चुंबन
लौटे। फिर
क्या होगा?
शुभ और
अशुभ इतना
आसान नहीं कि
बांट कर रखे
जा सकें। सब
श्रेणियां, जो
आदमी ने बनाई
हैं, बचकानी
हैं। कामचलाऊ
हैं, लेकिन
बचकानी हैं।
गहन चिंतन तो
कहता है कि शुभ
और अशुभ एक ही
बात हैं। और
इसलिए जो
जानता है--दूसरों
से सीख कर
नहीं, जो
अपने भीतर से
जानता
है--उसके लिए
कोई चीज शुभ
और अशुभ नहीं
होती। सहज
जीता है; उससे
जो हो जाता है,
वही शुभ है।
इस
फर्क को आप
समझ लें। एक
तो व्यक्ति है, जो
दूसरों से
सीखता है:
क्या शुभ है, क्या अशुभ
है। नियम तय
हो जाते हैं
कि यह करो, यह
मत करो। कमांडमेंट्स
हैं, आदेश
हैं।
धर्मग्रंथ
कहते हैं कि
यह करना ठीक है,
यह करना ठीक
नहीं है। आपने
याद कर लिया, उसके अनुसार
आपने अपना
जीवन बना
लिया। आप शुभ करते
चले जाते हैं;
अशुभ से आप
बचते चले जाते
हैं। लेकिन
जरूरी नहीं कि
आपका जीवन शुभ
हो। क्यों? क्योंकि
जीवन एक तरल
प्रवाह है।
उसमें कुछ भी नहीं
कहा जा सकता।
अब
नीत्शे की बात
आपने सुनी।
अगर जीसस की
ही बात अकेली
सुनी हो तो
लगेगा कि इससे
ज्यादा सही और
क्या हो सकता
है! लेकिन
नीत्शे जो कह
रहा है, वह भी
सही है। वह भी
दूसरा पहलू
है।
इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है कि
नैतिक पुरुष, जिनको
हम नैतिक
पुरुष कहते
हैं, दूसरों
के प्रति बहुत
अपमानजनक हो
जाते हैं। और
इसलिए नैतिक
व्यक्ति के
पास रहने में
एक तरह का बोझ
मालूम पड़ता है,
हलकापन मालूम
नहीं पड़ता।
क्योंकि
नैतिक
व्यक्ति की मौजूदगी
ही आपको अशुभ
करार दे देती
है। नैतिक व्यक्ति
की आंख आपको
हर क्षण
निंदित करती
रहती है कि आप
गलत कर रहे
हैं। वह ठीक
कर रहा है, आप
गलत कर रहे
हैं।
छोटी-छोटी बात
में भी उसका निर्णय
है कि क्या
ठीक है और
क्या गलत है।
इसलिए नैतिक
व्यक्ति एक
तरह का स्ट्रेन
खड़ा करता है।
इसलिए नैतिक
व्यक्ति का
साथ-संग कोई
पसंद नहीं
करता। नैतिक
व्यक्ति के
साथ होना कठिन
मामला है; क्योंकि
प्रतिपल छोटी
और बड़ी बात पर,
हर चीज पर
ठीक और गलत
होने का लेबल
लगा है।
धार्मिक
व्यक्ति बहुत
और तरह का व्यक्ति
है। धार्मिक
व्यक्ति के
पास होना एक आनंद
होगा।
क्योंकि
धार्मिक
व्यक्ति के
पास कुछ तय
नहीं है कि
ठीक और गलत
क्या है।
धार्मिक
व्यक्ति के
पास तो एक
सहजता है जीवन
की। किसी क्षण
में कुछ बात
ठीक हो सकती
है;
दूसरी
परिस्थिति
में वही बात
गलत हो सकती
है।
जीसस
को अगर नीत्शे
चांटा मारे और
जीसस उत्तर न
दें तो अशुभ
होगा।
क्योंकि
नीत्शे
निश्चित मानेगा
कि यह अपमान
किया गया, मुझे
इस योग्य भी
नहीं समझा गया
कि मेरा चांटा
वापस किया
जाए। और इसके
लिए नीत्शे
जीसस को कभी
माफ नहीं कर
सकेगा। यह हद
हो गई! यह अपने
आपको महामानव
दिखाने की
चेष्टा--हद हो
गई! नीत्शे
धन्यवाद भी दे
सकता है चांटा
खाकर। और तब
कह सकता है कि
ठीक, आदमी
से आदमी की
तरह व्यवहार
हुआ।
पौरुष
हार गया है
सिकंदर से।
सिकंदर के
सामने खड़ा है, जंजीरों में बंधा
है। सिकंदर
उससे पूछता है
अपने सिंहासन
पर बैठ कर कि
मैं कैसा
व्यवहार करूं?
तो पौरुष ने
कहा कि जैसा
एक सम्राट
दूसरे सम्राट
के साथ करता
है। और तब
सिकंदर को बड़ी
कठिनाई खड़ी हो
गई। पौरुष को
छोड़ना ही पड़ा,
जंजीर
तत्काल तुड़वा
ही देनी पड़ी।
क्योंकि
पौरुष ने कहा
कि जैसा एक
सम्राट दूसरे
के साथ करता
है, वैसा
व्यवहार करो;
एक आदमी
कैसा दूसरे
आदमी के साथ
व्यवहार करता है,
वैसा
व्यवहार करो।
वैसी
अवस्था में तो
अपने आपको ऊपर
रखने की चेष्टा
भी अशुभ हो
जाएगी। न, तुमसे
चांटा मारा ही
न जा सके; तुम्हें
पता ही न चले
और तुम्हारा
गाल दूसरा
सामने आ जाए; यह तुम्हारी
चेष्टा न हो, यह तुम्हारा
विचार न हो, यह तुम्हारा
सिद्धांत न हो,
ऐसा तुमने
चेष्टा करके
किया न हो, बस
ऐसा ही तुमसे
हो जाए, तो
यह धार्मिक
व्यवहार
होगा। ऐसा
तुमने चेष्टा
करके किया हो
तो यह नैतिक
व्यवहार
होगा। और
नैतिक व्यवहार
में शुभ और
अशुभ का फासला
होता है। धार्मिक
व्यवहार में
शुभ और अशुभ
का कोई फासला
नहीं होता।
धार्मिक
व्यक्ति जीता
है सहजता से।
जो उसे स्वाभाविक
है,
वैसा
प्रवाहित
होता है।
नैतिक
व्यक्ति प्रतिपल
तय करता है:
क्या करना और
क्या नहीं
करना। ध्यान
रहे, जिसको
तय करना पड़ता
है कि क्या
करना और क्या
नहीं करना, उसके पास
अभी आत्मा
नहीं है। उसके
पास अभी शिक्षाओं
का समूह है, नैतिक
दृष्टि है; लेकिन
धार्मिक
अनुभव नहीं
है।
लाओत्से
कहता है, "शुभ
और अशुभ के
बीच फासला
क्या है?'
तुम्हारा
ज्ञान ही बस
फासला है।
"लोग
जिससे डरते हैं,
उससे डरना
ही चाहिए।
लेकिन अफसोस
कि जागरण की सुबह
अभी भी बहुत
दूर है। कितनी
दूर है!'
लाओत्से
यह नहीं कह
रहा है कि
आपको जो मौज
आए,
करने लगें।
कहता है, लोग
जिससे डरते
हैं, उससे
डरना ही चाहिए;
क्योंकि
लोगों के बीच
रहना है। लोग
जिसे बुरा मानते
हैं, उसे
बुरा मानना ही
चाहिए। लोग
जिसे भला कहते
हैं, उसे
भला कहना ही
चाहिए। मगर यह
अभिनय से
ज्यादा न हो, यह आत्मा न
बने। लोग
जिससे डरते
हैं, उससे
डरना ही
चाहिए। ठीक है
बिलकुल।
लेकिन उसी को
जीवन का परम
सत्य मत जान
लेना।
क्योंकि लोग
जिससे डरते
हैं, उससे
डरो; जो
लोग कहते हैं
ठीक है, उसे
करो; जो
लोग कहते हैं
कि ठीक नहीं
है, उसे मत
करो; अगर
तुम इसमें
पूरे भी उतर
गए, परिपूर्ण
भी हो गए, तो
भी लाओत्से
कहता है, लेकिन
अफसोस कि
जागरण की सुबह
अभी भी कितनी
दूर है! तुमने
अगर लोगों की
नीति के पूरे
मापदंड भी
पूरे कर दिए; तुमने चोरी
न की, हिंसा
न की, व्यभिचार
न किया; तुमने
दया की, दान
किया, अहिंसा
की; लोगों
के समस्त
नैतिक मापदंड
पूरे कर दिए, तो भी
लाओत्से कहता
है, अफसोस
कि जागरण की
सुबह अभी भी
कितनी दूर है!
तुम अगर पूरे
नैतिक भी हो
गए तो भी अभी
धर्म की पहली
किरण नहीं
फूटी है।
इसका
यह मतलब नहीं
कि लाओत्से
कहता है कि
नीति को छोड़ देना।
वह यही कहता
है कि नीति को
अंतिम मत समझ
लेना। वह यह
नहीं कहता कि
नीति व्यर्थ
है। वह यह
कहता है कि
नीति
अपर्याप्त
है। वह यह
नहीं कहता कि
नीति को छोड़
कर अनैतिक हो
जाना। वह कहता
है कि नैतिक
रहना, लेकिन
जानना उसे
केवल जीवन की
सुविधा, कनवीनिएंस;
उसको सत्य
मत समझ लेना।
और उसको ही
पर्याप्त मत
समझ लेना कि
बात पूरी हो
गई। चूंकि मैं
चोरी नहीं
करता, चूंकि
मैं झूठ नहीं
बोलता, चूंकि
मैं किसी को
अपमानित नहीं
करता, चूंकि
किसी से कलह
नहीं करता, इसलिए ठीक
है, बात
समाप्त हो गई,
पहुंच गया
मैं परम सत्य
को, ऐसा मत
समझ लेना।
नीति
सामाजिक
व्यवस्था
है--सिर्फ
व्यवस्था। धर्म
जागतिक सत्य
की खोज है। तो
नीति समाज-समाज
में अलग-अलग
होगी। जो यहां
नैतिक है, वह
दो गांव छोड़ने
के बाद नैतिक
न हो। सारी
दुनिया में
हजार तरह की
नीतियां हैं।
एक कबीले में
जो बात बिलकुल
नैतिक है, दूसरे
कबीले में
बिलकुल
अनैतिक हो
जाती है। एक
बात जिसे हम
सोच भी नहीं
सकते कि कोई
करेगा, कहीं
दूसरी जगह
नैतिक मानी
जाती है; करना
कर्तव्य समझा
जाता है।
एक
कबीला है
अफ्रीका में।
अगर पिता मर
जाए तो बड़े
बेटे को मां
के साथ शादी
करना नैतिक
है। और अगर
बेटा इनकार
करे तो अनैतिक
है। उनकी भी
दलील है। सभी
नीतियों की
दलीलें होती हैं।
वे कहते हैं
कि अब मां
बूढ़ी हो रही
है तो अगर
बेटा अपनी
जवानी उसके
लिए कुर्बान
नहीं कर सकता
तो कौन करेगा? यह
कर्तव्य है।
और अगर हम ठीक
से सोचें तो
बेटा एक जवान
लड़की के साथ
शादी करना छोड़
कर अपनी मां
से शादी करने
को तैयार होता
है तो त्याग
तो निश्चित
है। अगर हम
उसी कबीले में
पैदा होते और
हमें कुछ और बाहर
की दुनिया का
पता न होता तो
यही कर्तव्य था।
और जो बेटा यह
नहीं करेगा, उसको पूरा
गांव, पूरा
कबीला निंदा
करेगा कि यह
लड़का अपनी मां
का भी समय पर न
हो सका।
हमें
बहुत बेहूदी
लगेगी बात, सोचने
के बाहर लगेगी,
एकदम
अनैतिक
लगेगी। इससे
ज्यादा
अनैतिक और क्या
होगा कि बेटा
मां से शादी
करे? हमारी
अपनी नीति है,
उनकी अपनी
नीति है।
नीतियां हजार
हैं। धर्म से
उसका कोई
संबंध नहीं
है। अपनी सुविधा
है, अपनी
व्यवस्था है।
नैतिकता अगर
कोई पूरी भी निभा
ले तो भी उस
सत्य की तरफ
यात्रा शुरू
नहीं होती, जिसकी तलाश
है। हां, समाज
के साथ एक एडजस्टमेंट,
समाज के साथ
एक समायोजन हो
जाता है।
अनैतिक आदमी
को समाज के
साथ तकलीफ
होती है, बेचैनी
होती है; क्योंकि
पूरा समाज
उसके खिलाफ
पड़ता है। वह
क्या कर रहा
है, ठीक है
या गलत है, इसका
बहुत मूल्य
नहीं है।
लेकिन असमायोजन
होता है, मैल-एडजस्टमेंट
हो जाता है; असुविधा
होती है, कष्ट
होता है। समाज
उसको दंड भी
देगा; क्योंकि
जो आदमी समाज
की व्यवस्था
के प्रतिकूल
चलेगा, वह
आदमी खतरनाक
है समाज के
लिए। अगर ऐसे
लोगों को चलने
दिया जाए तो
समाज की सारी
व्यवस्था
जीर्ण-शीर्ण हो
जाएगी। तो उसे
दंड देना
जरूरी है। जो
समाज की मान
कर चलेगा, समाज
उसको आदर देगा;
स्वभावतः
उसको
पुरस्कार
देगा। लेकिन
इससे धर्म का
कोई संबंध
नहीं है।
लाओत्से
कहता है, "लोग
जिससे डरते
हैं, उससे
डरना ही
चाहिए।'
नैतिक
होना ठीक है।
"लेकिन
अफसोस कि
जागरण की सुबह
अभी भी कितनी
दूर है!'
और अगर
तुम पूरे
नैतिक भी हो
गए तो भी
जागरण की सुबह
बहुत दूर है।
जागरण
की सुबह किसे
मिलती है?
लाओत्से
दूसरे हिस्से
में कहता है, "दुनिया
के लोग मजे कर
रहे हैं, मानो
वे यज्ञ के
भोज में शरीक
हों। मानो वे
वसंत ऋतु में
खुली छत पर
खड़े हों। मैं
अकेला ही शांत
और सौम्य हूं,
जैसे मुझे
कोई काम ही न
हो। मैं उस
नवजात शिशु जैसा
हूं जो अभी
मुस्कुरा भी
नहीं सकता। या
वह बंजारा हूं,
जिसका कोई
घर न हो।'
धार्मिक
आदमी को ऐसा
प्रतीत होगा।
दुनिया के लोग
मजे कर रहे हैं, यह
व्यंग्य है
गहरा। और
लाओत्से तीखे
व्यंग्य कर
सकता है। वह
कह रहा है, दुनिया
के लोग मजे कर
रहे हैं; दुनिया
के लोग जिसे
मजा समझते हैं,
वह कर रहे
हैं। एक अकेला
मैं ही अभागा
हूं कि मजे के
बाहर पड़ गया
हूं। वे सब ऐसे
प्रतीत होते
हैं जैसे किसी
उत्सव के भोज
में सम्मिलित
हुए हैं।
प्रतिपल भोज
चल रहा है, उत्सव
चल रहा है।
ऐसा लगता है
कि वसंत की
ऋतु है और वे
सब खुली छत पर
आनंदित हैं, उन पर वसंत
बरस रहा है।
मैं अकेला ही
शांत और सौम्य
हूं, जैसे
मुझे कोई काम
ही न हो। इस
बड़े व्यापार
में, इस
बड़े उत्सव में,
इस बड़े जगत
में, जहां
सब तरफ मौज और
मजा चल रहा है,
एक मैं
बेकाम मालूम
पड़ता हूं।
अंग्रेजी
के शब्द बहुत
कीमती हैं: आई अलोन एम माइल्ड
लाइक वन अनएंप्लायड, लाइक
ए न्यू बॉर्न
बेब दैट कैन
नॉट यट स्माइल, अनअटैच्ड लाइक वन विदाउट
ए होम। मैं
अकेला ही शांत
और सौम्य हूं।
न तो इस मजे में
मुझे कुछ मजा
मालूम होता है,
न इस उत्सव
में मुझे कोई
उत्सव दिखाई
पड़ता है। और
अगर यही लोगों
का एकमात्र
व्यवसाय है तो
मैं अनएंप्लायड
हूं। अगर यह
मजा करना, यह
मौज, यह
उत्सव ही अगर
एकमात्र धंधा
है तो मैं
बिलकुल बिना
धंधे के हूं।
मेरे पास कोई
धंधा नहीं है।
जिसे
लोग मजा कह
रहे हैं, मौज
कह रहे हैं, वह लाओत्से
को उनकी समस्त
पीड़ाओं
का, उनके
दुखों का आधार
है। लाओत्से
देखेगा तो आपके
सब सुख और
आपके सब दुख
उसे जुड़े हुए
दिखाई पड़ते
हैं। आपको
दिखाई नहीं
पड़ते हैं। आप
समझते हैं, सुख अलग बात
है, दुख
अलग बात है।
आप समझते हैं,
सुख इकट्ठा
कर लो और दुख
को फेंक दो
काट कर। लाओत्से
जब देखता है
तो वह देखता
है, तुम जब
सुख को इकट्ठा
करते हो, तब
तुम्हें पता
नहीं कि तुम
अपने दुख
इकट्ठे कर रहे
हो। और जब तुम
मजा कर रहे हो,
तभी
तुम्हारी
उदासी सघन
होती जा रही
है। और यह भी
संभव है कि
तुम मजा सिर्फ
इसीलिए कर रहे
हो, ताकि
तुम अपनी
उदासी को भूल
सको।
और
अक्सर ऐसा है।
जो लोग हंसते
हुए दिखाई
पड़ते हैं, वे
वे ही लोग हैं,
जिनके भीतर
सिवाय रुदन के
और कुछ भी
नहीं है, आंसुओं
के सिवाय कुछ
भी नहीं है।
मगर वे हंसते
हैं खिलखिला
कर। हंसते हैं
खिलखिला कर, किसी और को
धोखा देने के
लिए नहीं; अपनी
ही खिलखिलाहट
की आवाज अपने
को ही धोखा दे
देती है। कभी
आपने देखा है,
गली में, अकेले में, अंधेरे में
जाते हों तो
आदमी खुद ही
सीटी बजाने
लगता है। अपनी
ही सीटी की
आवाज अंधेरे
में सुनाई
पड़ती है, लगता
है अकेले नहीं
हैं। गाना
गाने लगता है।
अपनी ही आवाज
सुनाई पड़ती है,
हिम्मत आ
जाती है; लगता
है अकेले नहीं
हैं।
आदमी
धोखा देने में
बहुत कुशल है।
जब आप हंसते
हैं,
जरूरी नहीं
कि किसी और को
धोखा दे रहे
हों। और को भी
दे रहे हों, दूसरी बात
है; लेकिन
अपने को भी दे
रहे हो सकते
हैं। हंसते
हैं, हंसी
की आवाज सुनाई
पड़ती है; लगता
है बड़े खुश
हैं। लोगों के
भीतर झांकें--और
दुख के ढेर
हैं। और उन
दुखों के ढेर
पर भी बैठ कर
लोग हंसते
रहते हैं। यह
चमत्कार है।
इसलिए आदमी
अकेला होने
में डरता है।
क्योंकि अकेले
में हंसिएगा
भी कैसे? दुख
दिखाई पड़ने
शुरू हो जाते
हैं। दूसरा हो
तो आदमी भुला
लेता है; दूसरे
के साथ बातचीत
में डुबा
लेता है अपने
को। हंस लेता
है। अकेला
होता है तो
दुख दिखाई
पड़ने लगते
हैं। सब भीतर
की पीड़ाएं
उभर कर सामने
आ जाती हैं।
सब आंसू साफ
हो जाते हैं।
इसलिए कोई
आदमी अकेला
नहीं रहना
चाहता। अकेले
में कोई आदमी
अपने साथ रहने
को राजी नहीं
दिखाई पड़ता
है। क्यों? क्योंकि
अपने को कैसे हंसिए?
कितनी देर हंसिए?
जो भीतर है,
वह दिखाई
पड़ेगा। दूसरे
में उलझ जाते
हैं, व्यस्त
हो जाते हैं, तो खुद को
भूलने में
आसानी हो जाती
है।
हम सब
एक-दूसरे को
भुलाने के लिए
सहयोगी हैं; एक-दूसरे
को पारस्परिक
सहयोग देते
रहते हैं। हम
आपका दुख भुलाते
हैं, आप
हमारा दुख भुलाते
हैं। मित्रों
का यही लक्षण
है। कहते हैं
न, मित्र
वही जो दुख
में काम आए।
पता नहीं, और
तरह काम आते
हैं मित्र कि
नहीं, लेकिन
एक-दूसरे का
दुख भुलाने
में काम जरूर
आते हैं।
लाओत्से
कहता है, दुनिया
के लोग मजा कर
रहे हैं, मानो
किसी यज्ञ के
भोज में शरीक
हुए हों, या
समझो कि वसंत
उनके ऊपर ही
बरस रहा हो।
एक अकेला मैं
चुपचाप खड़ा
हूं। एक अकेला
मैं ही सौम्य
मालूम पड़ता
हूं। न कोई
मजा मुझे
दिखाई पड़ता है,
न कोई उत्सव
मेरी समझ में
आता है। एक
अकेला मैं ही
दूर पड़ गया
हूं, भीड़
के बाहर पड़
गया हूं, अजनबी
हूं। लगता है
जैसे बेकार
हूं।
और ऐसा
लाओत्से को ही
लगता हो, ऐसा
नहीं। दूसरे
लोग भी ऐसे
लोगों से आकर
कहते हैं कि
क्या जीवन
बेकार गंवा
रहे हैं! अगर
आप चुपचाप
बैठे हैं तो
लोग पूछते हैं
कि क्यों समय
गंवा रहे हैं!
अगर आप शांत
हैं तो लोग
समझते हैं
दुखी हैं। अगर
आप सौम्य हैं
तो लोग समझते
हैं कि क्या
हुआ? कोई
कडुवा अनुभव?
कोई फ्रस्ट्रेशन?
कोई विषाद?
अगर आप
ध्यान के लिए
बैठे हैं तो
लोग समझते हैं
कि शायद जीवन
में सफलता हाथ
नहीं लगी, अब
ध्यान करने
लगे हैं। अगर
आप संन्यस्त
हो रहे हैं तो
लोग समझते हैं
कि बेचारा, संसार में
कुछ न मिल सका
तो अब संन्यास
की तरफ जा रहा
है।
तो
लाओत्से को
खुद ही लगा हो, ऐसा
नहीं। हजारों
लोगों ने
लाओत्से से
कहा होगा कि
क्या निठल्ले,
व्यर्थ। कुछ
करो! तो
लाओत्से ठीक
कह रहा है, अनुभव
की बात कह रहा
है कि एक
अकेला मैं ही
बेकाम मालूम
पड़ता हूं।
सारा जगत काम
में संलग्न है।
सारे लोग कहीं
पहुंच रहे हैं,
कोई परपज,
कोई लक्ष्य
उनके सामने
है। एक मैं ही
बेकार हूं।
कहीं मुझे
पहुंचना नहीं,
कोई मेरी
जल्दी नहीं, कोई लक्ष्य
नहीं जिसे
पूरा करना हो।
मेरी हालत ऐसी
है, उस
नवजात शिशु
जैसी, जो
अभी मुस्कुरा
भी नहीं सकता।
यह बड़ी
समझने की बात
है। बच्चा तभी
मुस्कुराना
सीखता है--मनसविद
इस पर काफी
काम करते
हैं--जब बच्चा
मां को धोखा देना
शुरू करता है।
उसी दिन से
बच्चे में पोलिटीशियन
पैदा हो गया, जब
बच्चा
मुस्कुराता
है। बच्चे के
पास कुछ देने
को नहीं है।
कुछ देने को
नहीं है; सब
कुछ उसे लेना
ही लेना है।
मां का दूध भी
लेना है, मां
का प्रेम भी
लेना है, मां
की गर्मी भी
लेनी है। सब
कुछ लेना ही
लेना है। उसके
पास देने को
कुछ भी नहीं है।
उसके पास कोई
सिक्का नहीं
है जो वह मां
को दे सके।
थोड़े
ही दिन में
बच्चा खोज
लेता है कि
उसके चेहरे का
खिंच जाना, मुस्कुरा
जाना मां के
लिए आह्लाद से
भर देता है।
एक चीज उसके
पास मिल गई; वह दे सकता
है। अब वह मां
को दे सकता
है। अब लेन-देन
शुरू हुआ। अब
वह मां को देख
कर मुस्कुरा
देगा, और
मां आनंदित
है। पोलिटीशियन
पैदा हुआ; बच्चे
ने राजनीति
शुरू की।
बच्चे को
मुस्कुराने
का अभी और कोई
अर्थ नहीं है,
सिर्फ मां
को परसुएड
करता है। समझ
गया है कि जब
मुस्कुराता
है तो मां
प्रसन्न होती
है, मां
प्रसन्न होती
है तो देती
है। इसलिए
बच्चा जब
नाराज हो, तो
मां लाख उपाय
करे, मुस्कुराएगा
नहीं। अपनी
मुस्कान को
रोकेगा, बदला
लेगा। अगर वह
नाराज है तो
मुस्कुराएगा
नहीं। उसकी
मुस्कान का
मतलब है, वह
राजी है, प्रसन्न
है, वह मां
के प्रति खुश
है।
लाओत्से
कहता है, मेरी
हालत वैसी है,
उस नवजात शिशु
जैसी, जो
अभी मुस्कुरा
भी नहीं सकता,
जिसे जीवन
की राजनीति का
कोई भी अनुभव
नहीं है, जो
अभी पहला
सिक्का भी
जगत-व्यवहार
का नहीं सीखा
है।
मुस्कुराना
बच्चे का पहला
सांसारिक कदम
है। वहां से
उसने कदम रखना
शुरू कर दिया।
अब वह और
बातें सीखेगा।
लेकिन उसने एक
बात सीख ली।
उसने एक बात
सीख ली कि वह
दूसरे को सुख
दे सकता है।
और दूसरे का सुख
रोक भी सकता
है। अगर वह न
मुस्कुराए तो
मां को दुखी
भी कर सकता
है। और अगर मुस्कुराए
तो सुखी भी कर
सकता है।
दूसरे व्यक्ति
को संचालित
करने की
क्षमता उसे आ
गई। अब वह बहुत
कुछ सीखेगा
जिंदगी में।
और
सारी जिंदगी
हम यही सीखते
हैं कि दूसरे
को कैसे
संचालित
करें। और जो
आदमी जितने
ज्यादा लोगों
को संचालित कर
सकता है, उतना
बड़ा आदमी हो
जाता है। अगर
आप करोड़ों
लोगों को
संचालित करते
हैं तो आप महानेता
हैं। इसलिए
मैंने कहा, बच्चे ने
राजनीति का
पहला
पाठ--दूसरे को
कैसे संचालित
करना, कैसे
प्रभावित
करना। बच्चा
जानता है, घर
में अगर
मेहमान भी आए
हुए हों तो वह
घर भर को खुश
कर सकता है
जरा सा
मुस्कुरा कर।
वह दुखी कर
सकता है। उस
पर बहुत कुछ
निर्भर है। वह
भी कुछ कर
सकता है।
लाओत्से
कहता है, मेरी
दशा वैसी है, उस बच्चे
जैसी, जो
अभी मुस्कुरा
भी नहीं सकता।
मुझे इस जगत
का कोई सिक्का,
इस जगत को
प्रभावित
करने की कोई
वृत्ति, इस
जगत को
संचालित करने
की कोई
शक्ति--नहीं, यह सब मेरे
पास नहीं है।
मैं बिलकुल
बाहर पड़ गया
हूं। मैं
बिलकुल अजनबी
हूं।
"या एक
ऐसा बंजारा
हूं, जिसका
कोई घर न हो।'
चलता
हूं,
उठता हूं, बैठता हूं; लेकिन न तो
कहीं पहुंचना
है, न कोई
मंजिल है, न
कोई घर है।
बेघर हूं। ठीक
संन्यास का
यही अर्थ है:
बेघर! जिसका कोई
घर नहीं है।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि जो घर
छोड़ कर भाग
गया। जिसका घर
हो,
वह छोड़ कर
भाग भी सकता
है। जिसका घर
न हो, वह
छोड़ कर भी
कहां भाग
जाएगा? बेघर
एक आंतरिक दशा
है, होमलेसनेस एक आंतरिक
दशा है। लेकिन
हम हर दशा को
धोखा करने के
लिए इंतजाम कर
लेते हैं। एक घर
है, उसे
मैं मानता हूं
मेरा घर है; वह मान्यता
ही गलत है।
फिर मैं दूसरी
मान्यता खड़ी
करता हूं कि
अब मैं इस घर
का त्याग करता
हूं। फिर मैं
जाकर प्रचार
करता हूं कि
मैंने घर का
त्याग कर
दिया। वह घर, पहली बात, कभी मेरा था
ही नहीं।
लाओत्से
कहता है, मैं
एक बंजारा हूं,
जिसका कोई
घर नहीं है।
यह थोड़ा समझने
जैसा है।
क्योंकि
लाओत्से
संन्यासी भी
नहीं है। लाओत्से
ने कभी कोई
संन्यास नहीं
लिया।
लाओत्से ने
कभी कोई
संन्यास की
घोषणा नहीं
की। लाओत्से ने
कभी कुछ
त्यागा नहीं,
छोड़ा नहीं।
क्योंकि
लाओत्से कहता
है, मेरा
कुछ हो तो मैं
छोड़ भी सकूं, मेरा कुछ हो
तो मैं त्याग
भी सकूं; मैं
तो वैसा हूं, घुमक्कड़, आवारा, खानाबदोश,
जिसका न कोई
घर है, न
कोई ठिकाना
है।
इसको
अगर हम भीतरी
अर्थों में
समझें तो इसका
अर्थ हुआ कि
ऐसा व्यक्ति
कहीं पहुंचने
के लिए उत्सुक
नहीं है; कहीं
जाने की कोई
त्वरा, कोई
आकांक्षा, कोई
अभीप्सा, कोई
इच्छा नहीं
है। कहीं कोई
मंजिल नहीं है,
जहां
पहुंचना है।
जहां बैठा है,
वहीं उसकी
मंजिल है।
जहां खड़ा है, वहीं उसका
मुकाम है। हट
गया तो हटना
ही उसकी मंजिल
हो गई। ऐसा
व्यक्ति
प्रतिपल सिद्धावस्था
में है। ऐसे
व्यक्ति को
साधक होने का
सवाल ही नहीं
है।
तो
लाओत्से कहता
है कि इस मौज
से भरे हुए
संसार में...।
और यह व्यंग्य
है;
क्योंकि इस
पूरे मौज से
भरे संसार में,
तथाकथित
मौज से भरे
संसार में, लाओत्से
जैसा एकाध
आदमी ही मौज
को उपलब्ध होता
है; बाकी
लोग सिर्फ
धोखे में होते
हैं। और कहता
है कि ऐसे
जैसे किसी भोज
में शरीक हुए
हों। लेकिन सच
तो यह है कि इस
जगत में हमारे
सब भोज सिर्फ वंचनाएं
हैं। लाओत्से
जैसे लोग ही
इस जीवन के
भोज में शरीक
होते हैं। और
कहता है, जैसे
उनके ऊपर वसंत
बरस रहा हो, ऐसा लगता
है। सचाई
बिलकुल उलटी
है। सिर्फ लाओत्से
जैसे लोग वसंत
में जीते हैं।
हम सिर्फ खयाल
में होते हैं,
सपने में
होते हैं।
जीते हैं पतझड़
में, सपनों
में होते हैं
वसंत के। जीते
हैं दुख में, मौज का आवरण
होता है। लगता
है कि बड़ा
आनंद ले रहे
हैं; और
सिर्फ दुख
इकट्ठा करते
हैं। लगता है
कि बड़े व्यस्त
हैं काम में, लेकिन सचाई
यह है कि
हमारी सारी
व्यस्तता
अपने से भागने
का एक उपाय, यह एस्केप
है।
मनसविद
कहते हैं कि
अगर आपसे काम
छीन लिया जाए
तो आप बड़ी
मुश्किल में
पड़ेंगे।
हालांकि आप
रोज रोते हैं
कि इस काम से
छुटकारा हो
जाए तो थोड़ी
शांति की सांस
लें। रोज!
लेकिन आपका
रोना भी आपका
रस है। सांझ
आप लौटते हैं
दफ्तर से और
कहते हैं कि
कब होगा
छुटकारा! अगर
आदमी के पास
पेट न होता तो
आनंद ही आनंद
होता। यह
नौकरी, यह
धंधा, यह
सुबह से सांझ
तक का रोना।
लेकिन जब आप
यह अपनी कथा
सुना रहे होते
हैं, तब
आपको भी पता
नहीं कि आप
कितनी
प्रसन्नता से
सुना रहे हैं!
आप कितने
प्रसन्न हैं,
आपको कितना
रस आ रहा है।
अगर कल
ऐसा हो जाए कि
ठीक,
आप शांति से
घर बैठिए,
खाइए, पीजिए, मौज करिए, काम आपसे
छीन लेते हैं,
तो मनसविद
कहते हैं कि
इस जमीन पर
दस-पांच आदमी
खोजने मुश्किल
हो जाएंगे जो
बिना काम के
आनंदित रह सकें।
पागल हो जाएंगे
आप और एकदम
घबड़ा जाएंगे
कि अब क्या
करें। और फिर
अपने ऊपर ही
गिर जाएंगे, क्योंकि अब
अपने साथ ही
रहना पड़ेगा।
काम एक छुटकारा
है आपको। एक
काम से दूसरे
में लग जाते हैं,
उससे अपने
को
देखने-परखने
का मौका नहीं
आता। न इसकी
ही चिंता करने
की सुविधा समय
मिलता है कि
हम क्या कर
रहे हैं इस
जीवन का? अपने
साथ क्या कर
रहे हैं? क्या
हो रहा है? कहां
जा रहे हैं? इस सब का
मौका नहीं
मिलता।
व्यस्त--एक
दौड़ से दूसरी
दौड़, दूसरी
से तीसरी।
अमरीका
में लोग कहते
हैं कि
शनिवार-रविवार
लोग छुट्टी
मनाते हैं।
लेकिन छुट्टी
मनाना उनका
इतना बड़ा काम
है,
जितना कि
पूरे सप्ताह
भी काम नहीं
होता। तब वे
दूर
समुद्रतटों
पर या पहाड़ों
पर हजारों-सैकड़ों
मील की यात्रा
करके भागे हुए
पहुंचते हैं--सैकड़ों
कारों के बीच
फंसे हुए।
जिनसे वे भाग
कर जा रहे हैं,
वे सब उनके
साथ भागे जा
रहे हैं। पूरी
बस्ती बीच पर
पहुंच गई। सब
उपद्रव वहां
खड़ा हो गया।
घंटे, दो-चार
घंटे वहां इस
भीड़-भाड़ में
घूम-फिर करके फिर
वे भाग रहे
हैं घर की
तरफ। छुट्टी
के दिन भी
आदमी छुट्टी
नहीं मना
सकता। बड़ा
कठिन है, छुट्टी
मनाना बड़ा
कठिन है। बड़ा
कठिन काम है।
तो छुट्टी के
दिन भी आप
तरकीबें खोज
लेते हैं--छुट्टी
को मारने की, काटने की।
तरकीबें हैं;
काम कोई खोज
लेंगे, उसमें
उलझ जाएंगे।
अमरीका
में वे कहते
हैं कि दो दिन
लोग छुट्टी मनाते
हैं;
फिर छुट्टी
से इतने थक
जाते हैं कि
दो दिन आराम
करते हैं। फिर
दो दिन नई
छुट्टी कहां
मनानी, इसका
चिंतन-विचार
करते हैं। फिर
दो दिन छुट्टी
मनाते हैं। और
ऐसा उनका
सिलसिला चलता
रहता है।
फुर्सत
आपको हो, आज
अमरीका में
सर्वाधिक
फुर्सत है, लेकिन सबसे
कम समय लोगों
के पास है।
उलटा मालूम
पड़ता है। पहली
दफे
मनुष्य-जाति
उस जगह आई है कि
अब फुर्सत हो
सकती है।
सप्ताह में दो
दिन की छुट्टी,
पांच-छह
घंटे का
दिन--वह भी आफिशियल
रिकार्ड पर; पांच घंटे
कौन काम करता
है! घंटे, दो
घंटे का काम
दिन में; सुविधा,
समय। और फिर
भी अमरीका में
सबसे कम समय
आदमी के पास
है। एक क्षण
खड़े होकर
देखने का समय
नहीं कि वह
कहीं खड़े होकर
एक क्षण देख
ले। भागा हुआ है।
मनसविद कहते
हैं कि आदमी
रिटायर होता
है,
काम से
विश्राम को
जाता है, तो
उसकी उम्र घट
जाती है। अगर
वह काम में
रहता तो दस
साल ज्यादा
जिंदा रहता।
अब वह दस साल
कम जिंदा
रहेगा। क्या
हो गया? जिंदगी
भर आदमी सोचता
है कि वह दिन
कब आए जब सब काम
से निवृत्त हो
जाएं, शांति
से घर बैठें।
और जब वह
शांति से अपनी
आरामकुर्सी
में बैठता है,
तब उसे पता
चलता है कि अब
क्या करें!
क्योंकि अब न
दफ्तर है, न
दुकान है, न
दफ्तर के
कर्मचारी हैं,
न नीचे-ऊपर
के अफसर हैं, न अब कोई
नमस्कार करता
सड़क पर, न
अब कोई चिंता
करता। लोग ऐसे
भूल जाते हैं,
जो निवृत्त
हुआ, निवृत्त
हुआ। अब उसका
किससे
लेना-देना है?
बच्चे तब तक
बड़े हो गए
होते हैं, वे
अपने संसार
में उलझ गए
होते हैं--उसी
नासमझी में, जिसमें बाप
निवृत्त होकर
घर बैठे हैं, वे लग गए
होते हैं।
उनको समय नहीं
है, सुविधा
नहीं है। अब
यह बाप
निवृत्त होकर
बैठे हैं; अब
यह क्या करें?
तो
अमरीका में
उन्होंने
वृद्ध लोगों
के लिए बड़े-बड़े
आश्रम
स्थापित किए
हैं। और बड़े
मजे की घटनाएं
वहां घट रही
हैं। वहां
बूढ़े और बूढ़ियां
पुनः प्रेम
में पड़ जाते
हैं।
वृद्ध-आश्रम!
क्या करेंगे
वहां?
मगर एक
लिहाज से
अच्छा है।
हमारे मुल्क
में भी वृद्ध-आश्रम
खड़े हैं, एक-दो
को मैं जानता
हूं
वृद्ध-आश्रम
को। तो हमारे
यहां तो वृद्ध
स्त्री-पुरुष
को भी पास रखना
असंभव है। तो
यहां एक मुल्क
के
वृद्ध-आश्रम को
मैं जानता
हूं। एक मेरे
मित्र ने काफी
रुपए खर्च
करके एक
वृद्ध-आश्रम
खड़ा किया हुआ
है। वे मुझसे
कहते हैं कि
इसका मुझसे
किसी तरह
छुटकारा हो
जाए इस आश्रम
का; क्योंकि
कोई
सत्तर-पचहत्तर
वृद्ध हैं और
वे सब इतना
उपद्रव मचाते
हैं। सोच ही
सकते हैं, सत्तर-पचहत्तर
वृद्ध! एक ही
घर में वृद्ध
हो तो आपको
पता है कि
क्या कर सकता
है! उसका भी
कोई कसूर नहीं
है। काम की
आदत है जिंदगी
भर की, और
अब बेकाम है।
तो वह काम
तैयार करता
है। वह जाल
रचता है, षडयंत्र
खड? करता
है बैठे-बैठे।
वह हर चीज में
निंदा निकालता
है, हर चीज
में सुझाव
देता है, हर
चीज में सलाह
देता है। वह
घर भर के
दिमाग को चलाने
की कोशिश करता
है।
सत्तर-पचहत्तर
वृद्ध एक जगह
इकट्ठे कर लिए
हैं। वे बताते
हैं कि हम
इतनी मुसीबत
में पड़ गए हैं
जिसका कोई
हिसाब ही नहीं
है। फिर
बच्चों को
डांटा भी जा
सकता है, वृद्धों
को डांटा भी
नहीं जा सकता।
वे सब अनुभवी
हैं, ज्ञानी
हैं, वे
कोई मानने
वाले नहीं
हैं। अमरीका
में फिर भी
बेहतर है, वे
वृद्ध और वृद्धाओं
को साथ रख
देते हैं तो
उपद्रव थोड़े
कम हो जाते हैं।
वह फिर से जाल
शुरू हो जाता
है।
आदमी
काम के बिना
रह नहीं सकता।
मरते दम तक काम
चाहिए। क्यों? काम
हमारे लिए एक
पलायन है, अपने
से बचने का
ढंग है। काम
एक नशा है, एक
शराब है, जिसको
पीकर हम अपने
को भूले रहते
हैं। नशा छीन
लो, मुश्किल
में पड़ जाते
हैं।
तो
लाओत्से कहता
है,
सब व्यस्त
हैं, सारा
संसार काम में
लगा है; एक
मैं ही अकेला
बेकाम, अनएंप्लायड,
मेरे पास
कोई काम नहीं
है, कोई
धंधा नहीं है।
एक नवजात शिशु
जैसा, जो
अभी मुस्कुरा
भी नहीं सकता;
एक बंजारा,
जिसका कोई
घर न हो।
धार्मिक
व्यक्ति ऐसा
ही अजनबी
व्यक्ति है--आउटसाइडर
है।
आज
इतना ही। फिर
कल हम बात
करेंगे। रुकें
पांच मिनट; कीर्तन
करें; उसके
बाद जाएं।
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