मेरे
प्रिय आत्मन् ,
पहले
चरण की बात
सुबह मैंने
कही। शरीर की
शुद्धि कैसे
संभव है, उस
पर थोड़ी-सी
बातें आपको
बतायीं।
दूसरी पर्त मनुष्य
के
व्यक्तित्व
की, उसके
विचार की है।
शरीर शुद्ध हो,
विचार
शुद्ध
हो--तीसरी
पर्त भाव की
है--और भाव शुद्ध
हो, तो
साधना की
परिधि तैयार
होती है। ये
तीन बातें भी
सध जाएं, तो
जीवन में बहुत
अभिनव आनंद का,
शांति का
जन्म हो जाता
है। ये तीन
बातें भी सध जाएं,
तो जीवन का
नया जन्म हो
जाता है।
लेकिन
यह परिधि की
साधना है। एक
अर्थ में यह बहिरंग
साधना है।
अंतरंग साधना
और भी गहरी
है। उसमें
शरीर को, विचार
को और भाव को
हम शून्य करते
हैं; शुद्ध
करते हैं, उसमें
शून्य करते
हैं। अभी शरीर
को शुद्ध करते
हैं, उसमें
शरीर का त्याग
ही करते हैं।
उसमें शरीर नहीं
है, इस
अवस्था में
प्रवेश करते
हैं। विचार
नहीं है, इस
अवस्था में
प्रवेश करते
हैं। भाव नहीं
है, इस
अवस्था में
प्रवेश करते
हैं। पर उसके
पूर्व, परिधि
के रूप में
अशुद्ध का
त्याग करते
हैं।
शरीर
के संबंध में
मैंने आपको
कहा। अब विचार
के संबंध में
विचार करें।
विचार की
अशुद्धि क्या
है? विचार भी
तरंगों की
भांति हैं। और
विचार भी मनुष्य
के चित्त पर
अपना प्रभाव
शुभ या अशुभ
के लिए छोड़ते
हैं। जो
व्यक्ति जिन
विचारों से
आंदोलित होता
है, उसका
व्यक्तित्व
वैसा ही
निर्मित हो
जाता है। जो
व्यक्ति जिन
विचारों से
आंदोलित होता
है, उसका
व्यक्तित्व
वैसा ही
निर्मित हो
जाता है। जो
व्यक्ति
सौंदर्य का
विचार करेगा,
जिस
व्यक्ति की
चेतना निरंतर
सौंदर्य के
निकट चिंतन और
मनन करेगी, उसके
व्यक्तित्व
में एक
सौंदर्य का
जन्म हो जाना
बिलकुल
स्वाभाविक
है। जो
व्यक्ति
शिवत्व के
संबंध में, शुभ के
संबंध में
विचार करेगा
और उसकी चेतना
उस केंद्र पर
परिभ्रमण
करेगी, उसके
जीवन में शुभ
का पैदा हो
जाना
आश्चर्यजनक
नहीं है। जो
सत्य का चिंतन
करेगा, सत्य
का मनन करेगा,
उसके जीवन
में सत्य का
अवतरण हो जाना
सहज संभव है।
तो इस
संबंध में मैं
आपसे यह कहूं
कि आप अपने बाबत
विचार करें, आप किस चीज
पर निरंतर
चिंतन करते
हैं? किस
चीज के संबंध
में आप निरंतर
चिंतन करते
हैं?
हममें
से अधिक लोग
या तो धन के
संबंध में
विचार करते
हैं, या यश के
संबंध में
विचार करते
हैं, या
काम के संबंध
में विचार
करते हैं।
चीन
में बहुत समय
हुआ, एक राजा
हुआ। वह अपने
समुद्रत्तट
के राज्य की सीमा
को देखने गया।
वह अपने वजीर
को भी साथ ले गया
था। वे दोनों
पहाड़ की चोटी
पर खड़े होकर
दूर तक फैले
समुद्र को
देखने लगे।
अनेक-अनेक
जहाज उस समुद्र
में चल रहे थे,
आ रहे थे, जा रहे थे।
उस राजा ने
कहा अपने
मंत्री को, 'कितने जहाज
आ रहे हैं और
कितने जहाज जा
रहे हैं!' उस
मंत्री ने कहा,
'राजन, अगर
सत्य पूछें, तो केवल तीन
जहाज आ रहे
हैं और तीन ही
जहाज जा रहे हैं।'
राजा ने
पूछा, 'तीन?
अनेक
दिखायी पड़ते
हैं। क्या
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ते?' उसने
कहा, 'मैंने
तीन ही जहाज
जाने हैं--एक
यश का जहाज है,
एक धन का
जहाज है, एक
काम का जहाज
है। और इन तीन
जहाजों पर
सबकी यात्रा
चलती है।'
यह सच
है। हमारे
विचार की
यात्रा इन तीन
जहाजों पर ही
चलती है। और
जो इन तीन पर
चल रहा है, वह अशुद्ध
विचार में है।
जो इन तीन से
नीचे उतर आए, वह शुद्ध
विचार में
प्रवेश करता
है।
तो यह
प्रत्येक के
लिए विचारणीय
है कि उसका केंद्रीय
चिंतन क्या है? उसका घाव क्या
है मन का, जहां
सारी चीजें
घूमती हैं? क्योंकि
चौबीस घंटे
में जिस बात
पर उसका चित्त
बार-बार लौट
आता हो, वह
उसकी
केंद्रीय
कमजोरी होगी।
तो यह हरेक सोचे,
क्या धन पर
लौट आता है? क्या सेक्स
पर लौट आता है?
क्या यश पर
लौट आता है? क्या आपका
चिंतन इनमें
से किसी एक पर
लौट आता है? क्या असत्य
पर लौट आता है?
बेईमानी पर
लौट आता है? धोखा देने
पर लौट आता है?
ये सब उनके
गौण हिस्से
हैं। तीन
केंद्र तो वही
हैं। उन तीन
पर अगर आपका
चित्त चिंतन
करता है, तो
आप अशुद्ध
विचार की
स्थिति में
हैं। इसे अशुद्ध
हम इसलिए कह
रहे हैं कि इस
भांति का
विचार करके आप
जीवन-सत्य को
उपलब्ध नहीं
हो सकेंगे।
शुद्ध
विचार का अर्थ
होगा, जिसको
हम अपने देश
में सत्यम्
शिवम्
सुंदरम् कहते
हैं। जिसे हम
कहते हैं सत्य,
शिव और
सुंदर। ये तीन
ही शुभ विचार
के केंद्र हैं।
काम, यश और
धन, ये
अशुभ विचार के
केंद्र हैं। सत्य,
शिव और
सुंदर, ये
शुद्ध विचार
के केंद्र
हैं।
कितना
आप सत्य के
संबंध में
चिंतन करते
हैं? करते हैं
चिंतन सत्य के
संबंध में? कभी सोचते
हैं, सत्य
क्या है? किन्हीं
एकांत क्षणों
में आपका मन
इससे आंदोलित
होता है? कभी
यह बात आपके
मन को पीड़ित
करती है कि
सत्य क्या है?
कभी आपके मन
को होता है, जानें कि
सुंदर क्या है?
कभी आपके मन
को होता है कि
जानें कि शुभ
क्या है?
अगर ये
विचार आपके मन
को आंदोलित
नहीं करते हैं, तो आपकी
विचार-स्थिति
अशुद्ध है और
उस अशुद्ध विचार-स्थिति
में समाधि में
प्रवेश नहीं
होगा।
अशुद्ध
विचार बाहर ले
जाता है और
शुद्ध विचार
भीतर लाता है।
अशुद्ध विचार
की दिशा
बहिर्गामी है
और अधोगामी
है। और शुभ
विचार या
शुद्ध विचार
की दिशा अंतर्गामी
है और
ऊर्ध्वगामी
है। यह असंभव
है कि कोई
व्यक्ति सत्य
का विचार करे, सुंदर का
विचार करे, शुभ का
विचार करे--यह
असंभव है कि
वह इनका विचार
करे, तो
विचार
करते-करते ही
उसके जीवन में
इनकी छाप, इनका
अंकन और इसकी
छाया न पड़ने
लगे।
गांधी
जी जेल में
पीछे बंद थे।
वे निरंतर
सोचते थे सत्य
के संबंध में, अपरिग्रह के
संबंध में, अनासक्ति के
संबंध में। उन
दिनों सुबह के
नाश्ते में वे
दस खजूर फुलाकर
लेते थे। उसको
पानी में
डालकर दस खजूर
लेते थे।
वल्लभ भाई
पटेल उनके साथ
जेल में थे। उन्होंने
देखा, दस
खजूर भी कोई
नाश्ता हुआ? इतने से
क्या होगा? तो
उन्होंने--वे
ही फुलाते थे
उन खजूरों
को--उन्होंने
एक दिन पंद्रह
खजूर फुला
दिए। और उन्होंने
कहा, 'पता
भी क्या चलेगा
इस बूढ़े आदमी
को कि कितने
थे, दस थे
कि पंद्रह थे!
ऐसे खा लेंगे।'
गांधी
जी ने देखा कि
कुछ खजूर
ज्यादा हैं।
उन्होंने कहा
कि 'वल्लभ
भाई, इनकी
गिनती करो।' गिनती की, तो वे
पंद्रह थे।
गांधी जी ने
कहा, 'ये तो
पंद्रह हैं।'
वल्लभ भाई
ने कहा, 'अरे
दस और पंद्रह
में क्या फर्क
है?' गांधी
जी दो क्षण
आंख बंद करके
बैठ गए और
सोचते रहे।
उन्होंने कहा,
'वल्लभ भाई,
तुमने मुझे
बड़ा सूत्र दे
दिया। तुमने
कहा, दस और
पंद्रह में
क्या फर्क है?
मेरी समझ
में आ गया कि
दस और पांच
में भी कोई फर्क
नहीं है। आज
से हम पांच ही
लेंगे।' गांधी
जी ने कहा, 'आज
से हम पांच ही
लेंगे। तुमने
गजब की बात कह
दी कि दस और
पंद्रह में
कोई फर्क नहीं
है। तो पांच
और दस में भी
कोई फर्क नहीं
है। आज से हम
पांच ही
लेंगे।'
वल्लभ
भाई तो घबरा
गए। उन्होंने
कहा, 'हम तो
इसलिए कि थोड़ा
नाश्ता
ज्यादा हो
जाएगा आपका। यह
हमें खयाल न
था कि इस तरह
आप सोचेंगे।'
गांधी जी ने
कहा, 'जो
निरंतर
अपरिग्रह पर
सोच रहा है, उसको बुद्धि
ऐसे ही
सूझेगी। जो
निरंतर यह सोच
रहा है कि
कितना कम से
कम हो जाए, उसकी
बुद्धि ऐसा ही
उत्तर देगी।
जो निरंतर सोच
रहा है, ज्यादा
से ज्यादा
कैसे हो जाए, उसे दस और
पंद्रह में
फर्क नहीं
होगा। जो सोच
रहा है, कम
से कम कैसे हो
जाए, उसे
पांच और दस
में फर्क नहीं
होगा।'
तो आप
जो चिंतन करते
हैं, वह आपकी
छोटी-छोटी
जीवनचर्या
में प्रकट
होना शुरू हो
जाएगा। एक और
घटना आपको
कहूं।
गांधी
जी सुबह पानी
गर्म करके
उसमें नीबू और
शहद डालकर
लेते थे।
महादेव देसाई
उनके निकट थे।
वह एक दिन
पानी में शहद
और नीबू डालकर
उन्होंने
रखा। वह गर्म
पानी था।
उबलती हुई
उससे भाप निकलती
थी। जब गांधी
जी आए, तो
कोई पांच मिनट
बाद उनको पीने
को दिया। गांधी
जी उसे दो
क्षण देखते
रहे और फिर
उन्होंने कहा,
'अच्छा हुआ
होता, इसे
ढंक देते।' महादेव
देसाई ने कहा,
'पांच मिनट
में क्या
बिगड़ता है। और
फिर मैं देख
ही रहा हूं, इसमें कुछ
भी नहीं गिरा।'
गांधी जी ने
कहा, 'कुछ
गिरने का
प्रश्न नहीं
है। इससे गर्म
भाप उठ रही है,
कुछ न कुछ
कीटाणुओं को
व्यर्थ ही
नुकसान पहुंचा
होगा।' गांधी
जी ने कहा, 'ढंकने
का और गिर
जाने का उतना
प्रश्न नहीं
है। लेकिन
इससे गर्म भाप
निकल रही है।
वायु के बहुत-से
कीटाणुओं को
व्यर्थ ही
नुकसान
पहुंचा होगा।
कोई कारण न था,
उसे हम बचा
सकते थे।'
जो
अहिंसा पर
निरंतर चिंतन
कर रहा है, यह
स्वाभाविक है
कि उसको यह वृत्ति
और बोध आ जाए।
यानि मैं यह
कह रहा हूं कि
आप जब किन्हीं
चीजों पर
निरंतर चिंतन
करेंगे, तो
आप जीवनचर्या
में छोटी-छोटी
बातों में पाएंगे
कि फर्क हो
जाता है।
सुबह
यहां एक मित्र
ने आपको खबर
दी। उन्होंने कहा, 'यह बहुत दुख
की बात है कि
बहुत-से लोगों
को हम दो बार
कह चुके, फिर
भी वे अभी तक
नहीं आए हैं
और दस मिनट की
देर हो गई।' उन्होंने
कहा कि यह
बहुत दुख की
बात है कि कुछ लोगों
को हम दो बार
कह चुके हैं, लेकिन वे
अभी तक नहीं
आए हैं। अगर
मुझे यह बात कहनी
पड़े, तो
मैं यह कहूंगा,
'यह बहुत
खुशी की बात
है कि दो ही
बार कहने से
इतने लोग आ गए
हैं।' और
मैं यह कहूंगा
कि 'यह और
भी ज्यादा
खुशी की बात
होगी कि जो
नहीं आए हैं, वे भी आ
जाएं।' यह
अहिंसात्मक
ढंग होगा और
वह हिंसात्मक
ढंग था। उसमें
हिंसा है।
तो मैं
यह कह रहा हूं
कि अगर आप
विचार करेंगे, शुद्ध चिंतन
के थोड़े-से
केंद्र बनाएंगे,
तो आप
पाएंगे, आपकी
छोटी-छोटी
चीजों में
अंतर पड़ना
शुरू हो जाएगा।
आपकी वाणी तक
अहिंसक हो
जाएगी। आपका
उठना-बैठना
अहिंसक हो
जाएगा। आपके
चिंतन के केंद्र
आपके जीवन को
प्रभावित
करेंगे। यह
स्वाभाविक
है। जो जैसा
विचारता है, वैसा हो
जाता है।
विचार
बड़ी अदभुत
शक्ति है। तो
आप क्या विचार
रहे हैं
निरंतर, इस
पर बहुत कुछ
निर्भर है।
अगर आप निरंतर
धन के संबंध
में विचार रहे
हैं और समाधि
के प्रयोग कर
रहे हैं, तो
दिशा विपरीत
है। वह ऐसा ही
है, जैसे
हमने एक ही
बैलगाड़ी में
दोनों तरफ बैल
जोत दिए हों।
तो वह बैलगाड़ी
टूट जाएगी उन
बैलों के
खींचने से, लेकिन आगे
नहीं बढ़ेगी।
विचार
की दिशा शुद्ध
हो, तो आप
पाएंगे, बड़ी
छोटी-छोटी
चीजों में
अंतर पड़ना
शुरू हो जाता
है। बहुत
बड़ी-बड़ी बातें
नहीं हैं जीवन
में; जीवन
बड़ी छोटी-छोटी
बातों से बनता
है। जीवन बड़ी
छोटी-छोटी
घटनाओं से
बनता है। आप
कैसे उठते हैं,
कैसे बैठते
हैं, कैसे
बोलते हैं, क्या बोलते
हैं, इस पर
बहुत कुछ
निर्भर होता
है। बहुत कुछ
निर्भर होता
है! और इन सारी
बातों का जो
केंद्र है, जहां से इन
सबका जन्म
होता है, वह
विचार है।
तो
विचार को
सत्योन्मुख, शिवोन्मुख
और
सौंदर्योन्मुख
होना चाहिए। निरंतर
जीवन में यह
स्मरण बना रहे
कि हम सत्य का चिंतन
करें। समय जब
मिले, तो
हम सत्य पर
थोड़ा विचार
करें, सौंदर्य
पर थोड़ा विचार
करें, शुभ
पर थोड़ा विचार
करें। और इसके
पहले कि हम कोई
काम करने में
प्रवृत्त हों,
एक क्षण रुक
जाएं और सोचें
कि हम जो
करेंगे, वह
सत्य, सुंदर
और शुभ के
अनुकूल होगा
या प्रतिकूल
होगा? जब
कोई विचार मन
में चलने लगे,
तो हम सोचें
कि यह जो धारा
चल रही है, यह
विचार की धारा
शुभ के, सत्य
के, सुंदर
के अनुकूल है
या कि
प्रतिकूल है?
यदि यह
प्रतिकूल है, तो इस धारा
को खंडित कर
दें। इसका साथ
छोड़ें, यह
धारा लाभ की
नहीं है। यह
जीवन को गङ्ढे
में ले जाएगी।
यह जीवन को
नीचे ले
जाएगी। तो
इसको स्मरणपूर्वक
देखें कि आपकी
विचार की
पर्तों की
धारा कैसी है!
और उसे साहस
से, प्रयास
से और श्रम से
और
संकल्पपूर्वक
शुभ और सत्य
की ओर उन्मुख
करें।
अनेक
बार ऐसा लगेगा
कि हम तय भी नहीं
कर पाएंगे कि
सत्य क्या है? अनेक बार
ऐसा लगेगा कि
हम तय भी नहीं
कर पाएंगे कि
शुभ क्या है? हो सकता है, आप तय न कर
पाएं। लेकिन
आपने विचार
किया, तय
करने की
चेष्टा की, यह भी काफी
मूल्यवान है
और आपमें फर्क
लाएगा। और जो
निरंतर चिंतन
करेगा, वह
धीरे-धीरे उस दिशा
को अनुभव कर
लेता है कि
उसे पता चले
कि शुभ क्या
है, या
सत्य क्या है।
प्रत्येक
विचार को, प्रत्येक
वाणी को, प्रत्येक
क्रिया को
करने के पूर्व
एक क्षण रुक
जाएं, इतनी
जल्दी कुछ भी
नहीं है। और
देखें कि मैं
जो कर रहा हूं,
उससे क्या
प्रकट हो रहा
है? उसमें
क्या जाहिर हो
रहा है? उसमें
कौन-सी घटना
घट रही है? इसका
सतत चिंतन
साधक को जरूरी
है।
तो मैं
पहली तो
बुनियादी जो
विचार-शुद्धि
की बात है, वह यह है कि
हमारी दिशा के
केंद्र क्या
हैं चिंतन के!
अगर वे केंद्र
आपमें नहीं
हैं, जिनकी
मैं बात कर
रहा हूं, तो
उन केंद्रों
को जगाना
होगा।
आप
जानकर हैरान
होंगे, अगर
सत्य, शिव
या सुंदर में
से एक भी
केंद्र आपमें
जग जाए, तो
दो केंद्र
अपने आप जगने
शुरू हो
जाएंगे। और यह
भी मैं आपको
उल्लेख कर दूं
कि तीन तरह के
लोग होते हैं
जगत में। एक
वे लोग होते
हैं, जिनके
भीतर सत्य के
केंद्र के
विकसित होने
की शीघ्र
संभावना होती
है। एक वे लोग
होते हैं, जिनके
भीतर शुभ के
केंद्र के
विकसित होने
की शीघ्र
संभावना होती
है। और एक वे
लोग होते हैं,
जिनके भीतर
सौंदर्य के
विकसित होने
की शीघ्र संभावना
होती है।
यह हो
सकता है, आपमें
से सबके
केंद्र अलग
हों। लेकिन
अगर एक केंद्र
भी जग जाए, तो
दो अपने आप
जगने शुरू हो
जाते हैं। अगर
कोई व्यक्ति
सौंदर्य को
ठीक से प्रेम
करने लगे, तो
असत्य नहीं
बोल सकता।
क्योंकि
असत्य बोलना
बड़ी असुंदर
बात है, बड़ी
कुरूप बात है।
अगर कोई
व्यक्ति
सुंदर को ठीक
से प्रेम करने
लगे, तो
अशुभ कृत्य
नहीं कर सकता
है, क्योंकि
अशुभ कृत्य
कुरूप होता
है। यानि वह इसलिए
चोरी नहीं कर
सकता है कि
चोरी करना बड़ा
कुरूप कृत्य
है। तो अगर
उसकी सौंदर्य
के प्रति भी
पूरी
आकांक्षा
पैदा हो जाए, तो भी बहुत
कुछ हो जाएगा।
एक बार
गांधी जी
रवीन्द्रनाथ
के यहां
मेहमान थे।
रवीन्द्रनाथ
बूढ़े हो गए
थे। वे तो
सौंदर्य के
साधक थे। सत्य
से और शुभ से
उन्हें कोई
मतलब न था। इस
अर्थ में मतलब
नहीं था कि वे
उनकी सीधी
दिशा नहीं थे।
वे सौंदर्य के
साधक थे।
गांधी जी वहां
मेहमान थे।
संध्या को
दोनों घूमने
निकलने को थे, तो
रवीन्द्रनाथ
ने कहा, 'दो
क्षण रुकें, मैं थोड़ा
बाल संवारकर
आया।'
गांधी
जी ने कहा, क्या बेहूदी
बात! बाल
संवारना!
गांधी जी उनको
साफ ही कर
चुके थे, इसलिए
संवारने की
झंझट ही खतम
हो गयी। और इस
बुढ़ापे में
बाल संवारना!
यह तो बड़ी
अजीब और गांधी
जी के लिए बड़ी
असोचनीय बात
थी। वे बड़े
गुस्से में
खड़े रहे, लेकिन
अब
रवीन्द्रनाथ
को कुछ कह भी
नहीं सकते थे।
रवीन्द्रनाथ
भीतर गए। दो
मिनट बीते, पांच मिनट
बीते, दस
मिनट बीते।
गांधी जी
हैरान हुए कि
ये कैसे बाल
संवारे जा रहे
हैं! उन्होंने
खिड़की से झांका,
तो वे आदमकद
आईने के सामने
खड़े हैं और
बाल संवारे ही
चले जाते हैं।
गांधी जी की
बरदाश्त के
बाहर हुआ। उन्होंने
कहा कि 'मैं
समझ नहीं पा
रहा हूं, यह
आप क्या कर
रहे हैं? घूमने
का वक्त निकला
जा रहा है। और
बाल भी क्या
संवारने? और
इस बुढ़ापे में
बाल क्या
संवारने?'
रवीन्द्रनाथ
बाहर आए। और
रवीन्द्रनाथ
ने कहा, 'जब
मैं युवा था, तो बिना
संवारे भी चल
जाता था; और
अब मैं हो गया
बूढ़ा, अब
बिना संवारे
नहीं चलेगा।'
रवीन्द्रनाथ
ने कहा, 'जब
मैं युवा था, तो बिना बाल
संवारे भी चल
जाता था; अब
मैं हो गया
बूढ़ा, इसलिए
बिना संवारे
नहीं चलेगा।
और यह न सोचें
कि मैं सुंदर
होने को
उत्सुक हूं।
केवल इतना ही
है कि किसी को
कुरूप दिखकर
उसको दुख देने
का कारण न
बनूं।' रवीन्द्रनाथ
ने कहा कि 'यह
न सोचें कि
मैं सुंदर
दिखने को
उत्सुक हूं।
यह देह जिसको
मैं सुंदर
बनाकर घूम रहा
हूं, कल
राख हो ही
जाने वाली है।
कल यह चिता पर
चढ़ेगी और जल
जाएगी, वह
मैं जानता
हूं। लेकिन
किसी की आंख
में कुरूपता
खटके न, किसी
को दुख का
कारण न बन
जाऊं, इसलिए
यह सारी
उत्सुकता है।'
यह
सौंदर्य का
साधक, यूं
सोचेगा।
कुरूपता
दूसरे के लिए
प्रतिहिंसा
है। फिर वह
कुरूपता किसी
भी तरह की हो, फिर चाहे वह
व्यवहार की हो
और चाहे वाणी
की हो और चाहे
कैसी हो।
तो मैं
आपको यह
कहूंगा कि अगर
आपमें सुंदर
होने की
उत्सुकता है, तो पूरी तरह
सुंदर हो
जाइए। पूरी
तरह सुंदर हो
जाइए कि
सर्वांग जीवन
सुंदर हो जाए।
तो मैं यह
नहीं कहता कि
जो बाल संवार
रहे हैं, वे
बुरा कर रहे
हैं। नहीं, मैं उनसे
यही कहता हूं
कि बाल जरूर
संवारें, और
भी बहुत कुछ
है जो संवार
लें। मैं नहीं
कहता, आप
आभूषण पहनकर
निकले हैं, तो बुरा कर
रहे हैं। मैं
यह कहता हूं, आभूषण पहने
हैं, यह तो
अच्छा किया, लेकिन सच्चे
आभूषण भी पहन
लें। मैं यह
नहीं कहता कि
आप शुभ्र
वस्त्र पहनकर
आए हैं, तो
बुरा किया।
बहुत अच्छा
किया। शुभ्र
वस्त्र पहने,
यह तो ठीक
ही किया, शुभ्र
अंतस भी हो
जाए।
तो
सुंदर को पूरा
साधें, तो
आप पाएंगे कि
सत्य और शुभ
उसमें अपने आप
समाविष्ट हो
जाएंगे। जो
शिवत्व को
साधेगा, वह
भी सुंदर को
और सत्य को
उपलब्ध हो
जाएगा। जो
सत्य को
साधेगा, वह
भी दोनों को
उपलब्ध हो
जाएगा। वह भी
दोनों को
उपलब्ध हो
जाएगा।
इन तीन
में से कोई भी
आपकी दिशा हो, कोई भी आपकी
रुचि का
केंद्र बनता
हो, उसको
केंद्र बना
लें और अपने
विचार को उसकी
परिधि पर
घूमने दें और
उससे
अंतःप्रभावित
होने दें। एक
केंद्र चुनें
इन तीन में से
और उसे साधें।
और जीवन की
सर्वांगीण--सर्वांगीण--विधियों
में, व्यवहारों
में, आचार
में और
व्यवहार में
उसे साधें। तो
आप धीरे-धीरे
एक अदभुत बात
अनुभव करेंगे,
जैसे-जैसे
वह केंद्र
सधने लगेगा, वैसे-वैसे
आपके जीवन की
विकृतियां और
अशुद्ध विचार
विलीन होने
लगेंगे।
मैं
आपको यह नहीं
कहता हूं बहुत
जोर से कि आप धन
का चिंतन
छोड़ें। मैं
आपसे यह कहता
हूं, आप शुभ का,
सुंदर का और
सत्य का चिंतन
प्रारंभ
करें। जब आप
सुंदर का
चिंतन
प्रारंभ
करेंगे, तो
आप धन का
चिंतन नहीं कर
सकेंगे, क्योंकि
धन के चिंतन
से ज्यादा
कुरूप और कोई
स्थिति नहीं है।
जब आप सुंदर
का चिंतन
करेंगे, तो
आप सेक्स का
चिंतन नहीं कर
सकते हैं, क्योंकि
उससे ज्यादा
कुरूप चित्त
की और कोई स्थिति
नहीं है।
तो मैं
पाजिटिवली, विधायक रूप
से यह कहता
हूं कि शुभ, शुद्ध विचार
के किसी
केंद्र पर अपनी
ऊर्जा को और
अपनी शक्ति को
संलग्न होने दें।
आप पाएंगे, आपकी शक्ति
व्यर्थ के
केंद्रों से
सरकती चली आ
रही है, उसने
वहां से हाथ
छोड़ दिए हैं।
स्मरणपूर्वक
जो अशुद्ध है, उसे छोड़ना
और
स्मरणपूर्वक
जो शुद्ध है, उस पर अपने
को थिर करना
और स्थापित
करना है। विचार
शुद्ध होगा, तो जीवन में
फिर बहुत गहरी
गति होगी। यह
विचार की मूल
बात है।
विचार-शुद्धि
के लिए विचार
की यह मूल बात
है। फिर कुछ
और बातें हैं,
जो गौण हैं।
वह भी मैं
आपको स्मरण
दिला दूं।
विचार
के शुद्ध होने
के लिए
महत्वपूर्ण
है कि आप यह
जानें कि आपके
भीतर सारे विचार
बाहर से आते
हैं। कोई
विचार आपके
भीतर नहीं
होता। सारे
विचार आपके
पास बाहर से
आते हैं।
विचार की
खूंटियां
भीतर होती हैं, विचार बाहर
से आते हैं।
यह जरा समझ
लें। विचार
बाहर से आते
हैं, खूंटियां
भीतर होती
हैं।
अगर
किसी व्यक्ति
ने धन का
चिंतन किया है, तो धन के
विचार तो बाहर
से आते हैं, केवल धन के
विचार करने की
जो कामना है, उसकी खूंटी
भर भीतर होती
है। विचार
बाहर से आकर
उस खूंटी पर
टंग जाते हैं।
जो सेक्स का
चिंतन करता है,
सेक्स की
खूंटी तो भीतर
होती है, विचार
बाहर से आकर
उस पर टंग
जाते हैं। जो
जिस बात का
चिंतन करता है,
उसकी सिर्फ
खूंटी भीतर
होती है, विचार
हमेशा बाहर से
आकर टंग जाते
हैं। आपके पास
जितने विचार
हैं, वे सब
बाहर से आए
हुए हैं।
विचार
की शुद्धि के
लिए यह जानना
जरूरी है कि विचार, जो बाहर से
हमारे भीतर आ
रहे हैं, वे
अविवेकपूर्ण
रीति से भीतर
न आएं। हम सजग हों
और जिसको भीतर
आने देना
चाहते हों, वही हमारे
भीतर आए। शेष
को हम बाहर
फेंक दें।
मैं
अभी पीछे कहता
था, अगर मेरे
घर में कोई
कचरा फेंक
देगा, तो
मैं उससे
झगड़ने जाऊंगा;
लेकिन मेरे
दिमाग में अगर
कोई कचरा
फेंकता है, तो मैं
झगड़ने नहीं
जाता। अगर आप
रास्ते पर मुझे
मिलें और मैं
एक फिल्म की
कहानी आपको
सुनाने लगूं,
तो आपको कोई
दिक्कत नहीं
होती। और अगर
मैं घर में
जाकर आपके
थोड़ा कचरा
फेंक आऊं, तो
आप कहेंगे, आपने यह
क्या किया? कानून के
विपरीत है। और
मैं आपके
दिमाग में कचरा
डालूं, एक
फिल्म की
कहानी सुनाऊं,
तो आप बड़े
मजे से बैठकर
सुनते रहते
हैं!
अभी
हमको यह पता
नहीं है कि
दिमाग में भी
कचरे फेंके जा
सकते हैं। और
हम सारे लोग
एक-दूसरे के
ऐसे दुश्मन
हैं कि
एक-दूसरे के
दिमाग में कचरा
फेंकते रहते
हैं। जिनको आप
मित्र समझते
हैं, वे आपके
साथ क्या कर
रहे हैं? उनसे
बड़ा
दर्ुव्यवहार
और कोई नहीं
कर सकता। इससे
दुश्मन बेहतर;
कम से कम
आपके दिमाग
में कुछ नहीं
फेंकता, क्योंकि
आपसे
मिलता-जुलता
नहीं है।
हम सब
एक-दूसरे के
दिमाग में
कचरा डाल रहे
हैं। और हम
इतने सोए हुए
लोग हैं कि
हमें पता ही
नहीं होता कि
हम क्या ले
रहे हैं। हम
सबको स्वीकार
कर लेते हैं।
हम
धर्मशालाओं
की तरह हैं, जिनमें कोई
रखवाला नहीं
है और जिन पर
कोई द्वारपाल
नहीं बैठा हुआ
है कि कौन
ठहरे और कौन न
ठहरे। उसमें
जो भी आए--आदमी
या जानवर, या
चोर या
बेईमान--वह सब
ठहरे। और जब
उसका मन हो, तब चला जाए; और न मन हो, तो बराबर
रहा आए।
मन को
धर्मशाला
नहीं होना
चाहिए। अगर मन
धर्मशाला होगा, सुरक्षित
नहीं होगा, तो अशुद्ध
विचार से
छुटकारा
मुश्किल है।
तो स्मरणपूर्वक
मन के ऊपर
पहरा होना
चाहिए। शुद्ध
विचार के लिए
दूसरी जरूरत
है कि मन पर
पहरा हो, एक
वाचफुलनेस
हो। हम जागे, सजग पहरेदार
हों कि हमारे
भीतर क्या आता
है! जो व्यर्थ
है, उसे
इनकार कर दें।
मैं
अभी एक सफर
में था। मैं
था और मेरे
साथ मेरे
कंपार्टमेंट
में एक सज्जन
और थे। वे
मुझसे कुछ
बातचीत करना
चाहते होंगे।
जैसे ही मैं
बैठा, उन्होंने
सिगरेट
निकालकर मुझे
दी। मैंने कहा,
'क्षमा करें,
मैं नहीं
लूंगा।' उन्होंने
सिगरेट अंदर
रख ली। फिर
थोड़ी देर बाद
उन्होंने पान
निकाला और
मुझसे कहा, 'लीजिए।' मैंने
कहा, 'माफ
करें। मैं
नहीं लूंगा।'
वे फिर पान
रखकर बैठ गए।
फिर उन्होंने
अपना अखबार
उठाया, बोले,
'इसको
पढ़िएगा?' मैंने
कहा, 'क्षमा
करें, मैं
नहीं पढूंगा।'
वे बोले, 'बड़ा मुश्किल
है। हम आपको
कुछ भी देते
हैं, आप
नहीं लेते
हैं!' वे
मुझसे बोले, 'हम आपको कुछ
भी देते हैं, आप कुछ भी
नहीं लेते!' मैंने कहा
कि 'जो कुछ
भी ले लेते
हैं, वे
नासमझ हैं। और
आप जो दे रहे
हैं, मैं
कोशिश करूंगा
कि आपसे भी
छिन जाए। मैं
तो उसे नहीं
लूंगा, आपसे
भी छिन जाए, यह कोशिश
करूंगा।'
आप
क्या करते हैं, अगर खाली
बैठे हैं? अखबार
उठाकर पढ़ने
लगेंगे, क्योंकि
खाली बैठे
हैं! तो खाली
बैठे रहना बेहतर
है, बजाय
कचरा इकट्ठा
करने से। खाली
बैठे रहना बुरा
नहीं है। कुछ
ऐसे पागल हैं,
जो यह कहते
हैं कि कुछ न
कुछ करना न
करने से अच्छा
है। यह गलत
है। कुछ भी
गलत करने से न
करना हमेशा
बेहतर है। कुछ
हैं, जो
कहते हैं कि
कुछ न कुछ
करते रहना कुछ
भी न करने से
बेहतर है। मैं
आपसे कहता हूं,
कुछ भी न
करना कुछ भी
गलत-सलत करने
से हमेशा बेहतर
है। क्योंकि
उस वक्त कम से
कम आप कुछ खो
तो नहीं रहे।
उस वक्त कम से
कम कुछ व्यर्थ
तो इकट्ठा
नहीं कर रहे
हैं।
तो
इसकी एक
सजगता। विचार
के आंतरिक
संक्रमण में
हम सजग हों, तो विचार को
शुद्ध रखना
कठिन नहीं है।
अशुद्ध विचार
को पहचान लेना
कठिन नहीं है।
वे विचार, जो
आपके भीतर
जाकर
उत्तेजना
पैदा करते हों,
अशुद्ध
हैं। वे विचार,
जो आपके
भीतर जाकर
शांति के झरने
पैदा करते हों,
शुद्ध हैं।
वे विचार, जो
आपके भीतर
जाकर
आनंदोन्मुख
करते हों, शुभ
हैं। वे विचार,
जो आपके
भीतर जाकर
किसी तरह की
बेचैनी, चिंता,
एंग्जाइटी
पैदा करते हों,
वे अशुभ
हैं। तो उन
विचारों से
अपने को
बचाएं। और अपने
मन के सजग
पहरेदार बनें,
तो
विचार-शुद्धि
की तरफ
संक्रमण होता
है।
और
तीसरी बात--इस
जगत में जैसे
अशुभ विचार के
आवर्तन बाहर
चल रहे हैं और
अशुभ विचार की
आंधियां बाहर
बह रही हैं, और अशुभ
विचार का धुआं
आपके चित्त
में प्रवेश करता
है और आपको
घेर लेता है; बहुत ज्यादा
अशुभ विचार
हैं इस जगत
में, बहुत
उनकी आंधियां
हैं; लेकिन
यह न भूलें, कुछ
छोटे-छोटे शुभ
विचार के दीए
भी हैं, वे
भी टिमटिमा
रहे हैं। कुछ
शुद्ध विचार
की छोटी-छोटी
लहरें हैं, वे भी जीवित
हैं। इस पूरे
अंधकार के
विराट सागर
में कुछ
प्रकाश की
किरणें भी
हैं। उनका
सान्निध्य
खोजें। उसको
हम सत्संग
कहते हैं।
इस
बहुत अंधेरे
से भरी हुई
दुनिया में
बिलकुल अंधेरा
नहीं है, कुछ
दीए
हैं--मिट्टी
के ही सही। और
छोटी उनकी लौ
हो, तो भी
सही। लेकिन वे
भी हैं। उनका
हम सान्निध्य
खोजें।
क्योंकि जो
जलते हुए
दीयों के करीब
अपने बुझे दीए
को ले जाएगा, बहुत संभव
है, उसकी
ज्योति जो कि
बुझी-बुझी है,
उन दूसरे
दीयों के
सान्निध्य
में
पुनरुज्जीवित
हो जाए। बहुत
संभव है कि वह
अपने धुओं को
खो दे और लपट
बन जाए।
सान्निध्य
खोजें उन
किरणों का, जो कि सत्य
के लिए, शुभ
के लिए और
सुंदर के लिए
हैं। उसके सान्निध्य
में अपने को
ले जाएं। उन
विचारों के, उन विचार
पुरुषों के, उन वैचारिक
तरंगों के
आवर्त में
अपने को ले जाएं,
जहां यह
संभव हो।
यह तीन
प्रकार से
संभव हो सकता
है: शुभ और
सदविचारों के
करीब; शुभ
और सदपुरुषों
के करीब; और
सबसे ज्यादा
और सबसे
महत्वपूर्ण, प्रकृति के
सान्निध्य
में।
प्रकृति
कोई अशुभ
विचार नहीं
देती है। अगर
आप आकाश को
बैठकर देखें, सिर्फ देखते
रहें, आकाश
आपमें कुछ
अशुभ पैदा
नहीं करेगा, बल्कि आपका
सारा कचरा
थोड़ी देर में
क्षीण हो जाएगा
और आप पाएंगे
कि आप आकाश को
देखते-देखते आकाश
के साथ एक हो
गए हैं। एक
पहाड़ से गिरते
हुए झरने को
देखते-देखते
आप पाएंगे कि
आप पहाड़ का
झरना हो गए
हैं। एक हरियाली
से भरे हुए वन
को
देखते-देखते
आप पाएंगे कि
आप भी एक
दरख्त हो गए
हैं।
एक
साधु हुआ।
उससे एक
व्यक्ति ने
जाकर पूछा कि 'मैं
सत्य को जानना
चाहता हूं, कैसे जानूं?'
उसने कहा, 'अभी बहुत
लोग हैं। कभी
अकेले में
आना।' वह
दिनभर नहीं
आया, वह
सांझ को आया, जब कोई भी
नहीं था। दीए
जल गए थे, रात
हो गयी थी, साधु
अकेला था, अपना
दरवाजा बंद
करने को था।
उस आदमी ने
कहा, 'ठहरें,
अब कोई भी
नहीं है। आप
आए हुए लोगों
को विदा करके
दरवाजा बंद कर
रहे हैं। मैं
बाहर ही रुका
था कि जब सब
विदा हो जाएंगे,
मैं भीतर
प्रवेश
करूंगा। अब
मैं आ गया। अब
मैं पूछना
चाहता हूं, मैं शांत
कैसे हो जाऊं
और परमात्मा
को कैसे उपलब्ध
हो जाऊं?'
उसने
कहा, 'बाहर आओ।
यह झोपड़े के
भीतर नहीं हो
सकेगा। क्योंकि
यहां जो दीया
जलाया है, वह
आदमी का जलाया
हुआ है। और यह
झोपड़ी के भीतर
नहीं हो सकेगा,
क्योंकि यह
जो झोपड़ी है, आदमी की
बनायी हुई है।
बाहर आएं। एक
बड़ी दुनिया भी
है, जो
किसी की बनायी
हुई नहीं है
या कि
परमात्मा की
बनायी हुई है।
बाहर आएं, वहां
मनुष्य का
सृजन कुछ भी
नहीं है। वहां
मनुष्य की कोई
छाप नहीं है।'
और आप
स्मरण रखें, अकेला
मनुष्य ऐसा
प्राणी है, जो अशुभ
छापें छोड़ता
है। और कोई
अशुभ छापें नहीं
छोड़ता।
वे
बाहर आए। वहां
बांस के दरख्त
थे और चांद ऊपर
खिला हुआ था, ऊपर ऊगा हुआ
था। वह साधु
उन दरख्तों के
पास जाकर खड़ा
हो गया--एक
मिनट, दो
मिनट, दस
मिनट, पंद्रह
मिनट। उस आदमी
ने पूछा, 'कुछ
बोलिए भी तो!
आप चुपचाप खड़े
हैं, इससे
हम क्या
समझेंगे!' उसने
कहा, 'अगर
तुम समझ सकते,
तो समझ
जाते। तुम भी
चुपचाप खड़े हो
जाओ। और हम बांस
का एक दरख्त
हो गए हैं और
तुम भी हो
जाओ।' वह
बोला, 'यह
तो बड़ा
मुश्किल है।'
उस
साधु ने कहा, 'यही हमारी
साधना है।
बांसों के पास
खड़े-खड़े हम
थोड़ी देर में
भूल जाते हैं
कि हम अलग
हैं। और हम
बांस ही हो
जाते हैं। और
चांद को
देखते-देखते
हम थोड़ी देर
में भूल जाते
हैं कि हम अलग
हैं और हम
चांद ही हो
जाते हैं।'
और
प्रकृति के
सान्निध्य
में जो इतना
तादात्म्य
खोज लेता है, उसके विचार
अदभुत रूप से
शुद्ध होने
लगते हैं।
उसके विचार की
अशुद्धि
विलीन होने
लगती है। तो
तीन रास्ते
हैं। सदविचार,
और
सदविचारों की
अनंत धाराएं
हैं। और
सदपुरुष। वे
कभी समाप्त
नहीं हैं, वे
हमेशा मौजूद
हैं।
लेकिन
हम कुछ ऐसे
अंधे हैं कि
हम केवल
मुरदों के
पूजने के आदी
हैं। और हम
ऐसे अंधे हैं
कि जीवित कोई
व्यक्ति
हमारे लिए कभी
सद हो ही नहीं
सकता। सिर्फ
मुरदे हमारे लिए
सद होते हैं।
और मुरदों से
सत्संग बड़ा
मुश्किल है।
और दुनिया में
जितने धर्म
हैं, वे सब
मुरदों के
पूजक हैं।
जीवित का पूजक
करीब-करीब कोई
भी नहीं है।
और वे सब मरे
हुओं को पूजते
हैं। और सबको
यह भ्रम है कि
जितने सदपुरुष
होने थे, वे
सब हो चुके, आगे कोई भी
नहीं होगा। और
सबको यह भ्रम
है कि जो
जीवित हो, वह
सद कैसे हो
सकता है!
हमेशा
जमीन पर
सदपुरुष
उपलब्ध हैं।
वे जगह-जगह
मौजूद हैं। आंखें
हों, तो
पहचाने जा
सकते हैं। और
फिर बड़ी बात
तो यह है कि
अगर वे पूरे
सद न भी हों
आपकी तुलना
में और आपकी
कल्पना में, तो भी आपको
उनके असद से
क्या लेना है?
एक
फकीर था। उसने
कहा कि 'मैंने
आज तक जिनके
पास भी गया, सबसे सीखा।'
किसी ने
पूछा, 'यह
कैसे हो सकता
है? एक चोर
से क्या
सीखिएगा?' उसने
कहा, 'एक
बार ऐसा हुआ, हम एक चोर के
घर में मेहमान
थे। और ऐसा
हुआ कि उस चोर
के घर हम एक
महीना मेहमान
थे। वह रोज
रात को चोरी
करने निकलता
और तीन बजे, चार बजे
वापस लौटता।
हम उससे पूछते,
कहो कुछ हुआ?
वह हंसकर
कहता, आज
तो कुछ नहीं हुआ,
शायद कल हो।
एक महीना वह
चोरी नहीं कर
पाया। कभी
दरवाजे पर
सैनिक मिल गया,
कभी लोग घर
में जगे थे, कभी ताला
नहीं तोड़ पाया,
कभी भीतर भी
घुसा, खजाने
तक नहीं पहुंच
पाया। और वह
चोर रोज रात को
थका हुआ लौटता
और हम उससे
पूछते कि कहो,
कुछ हुआ? वह कहता, आज
तो नहीं हुआ, लेकिन कल
शायद हो। हमने
उससे यह सीख
लिया। हमने
सीख लिया कि
जब आज न हो, तो
फिक्र मत
करना। याद
रखना कि कल हो
सकता है।'
'और
एक चोर जो
चोरी करने गया
है, निपट
खराब काम करने
गया है, वह
भी इतनी आशा
से भरा है।' तो उस फकीर
ने कहा, 'उन
दिनों हम
परमात्मा की
तलाश में थे, हम परमात्मा
की चोरी में
लगे थे। हम भी
वहां दीवालें
खटखटा रहे थे
और दरवाजे
टटोल रहे थे, कोई रास्ता
नहीं मिलता
था। हम थक गए
थे और निराश
हो गए थे और
हमने सोचा था,
फिजूल है सब,
छोड़ें।
लेकिन उस चोर
ने हमको बचा
लिया। और उसने
कहा, आज
नहीं हुआ, कल
शायद होगा। और
हमने यह सूत्र
बना लिया कि
आज नहीं होगा,
तो कल शायद
होगा। और फिर
वह दिन आया कि
बात घटित हुई।
चोर ने चोरी
कर ली और हमने
भी परमात्मा चुरा
लिया।'
तो
सवाल यह नहीं
है कि आप
सदपुरुष से ही
सीखेंगे।
सवाल यह है कि
सीखने की
बुद्धि और समझ
हो, तो इस
सारे जगत में
सदपुरुष भरे
हुए हैं। और
अगर वह न हो, तो महावीर
के करीब से भी
लोग निकले हैं,
जिन्होंने
समझा कि यह
कोई लफंगा है,
कोई नंगा
है। न मालूम
कौन है! पागल
है। महावीर के
करीब से लोग
निकले हैं। और
आप जो सुनते
हैं, लोग
कहते हैं, फलां
आदमी
नंगा-लुच्चा
है, यह
सबसे पहले महावीर
के लिए
प्रयुक्त हुआ
शब्द है।
क्योंकि वे
नंगे थे और
केश लुंच करते
थे, इसलिए
नंगे-लुच्चे
कहलाते थे।
लोग कहते थे, 'नंगा-लुच्चा
है।' अब वह
शब्द गाली है
आज। अगर आपसे
कोई कह देगा, आप गुस्से
में आ जाएंगे।
लेकिन वह नग्न
और केश लुंच
करने वाले
साधु महावीर
के लिए सबसे
पहले
प्रयुक्त हुआ
था।
तो
महावीर के
करीब से
निकलने वाले
लोग थे, जिन्होंने
समझा कि न
मालूम कौन
फालतू आदमी
है! ऐसे लोग थे,
जिन्होंने
उनको मारा, ठोंका और
समझा कि यह
कोई बेईमान है,
कोई ठग है, कोई जासूस
है।
ऐसे
लोग हुए, जो
महावीर को
नहीं समझ सके।
ऐसे लोग हुए, जिन्होंने
क्राइस्ट को
सूली पर लटका
दिया, यह
समझकर कि यह
तो झूठ बातें
बोलता है। ऐसे
लोग हुए, जिन्होंने
सुकरात को जहर
पिला दिया। और
वे लोग उस दिन
हुए, ऐसा
मत सोचना, वे
सब आपके भीतर
मौजूद हैं। ये
ही लोग थे।
अभी आपको मौका
मिल जाए, तो
सुकरात को जहर
पिला देंगे; और मौका मिल
जाए, तो
क्राइस्ट को
सूली पर लटका
देंगे; और
मौका मिल जाए,
तो महावीर
को देखकर आप
हंसने लगेंगे
कि यह कैसा
पागल आदमी है!
लेकिन चूंकि
वे मर गए, मुरदों
को आप पूज
लेते हैं, उनसे
कोई दिक्कत
नहीं है। जो
जिंदा हैं, उनको पूजना
बड़ा मुश्किल
है; उनको मानना,
उनको समझना
बड़ा मुश्किल
है।
तो अगर
सद की खोज हो, तो यह सारा
जगत
सदपुरुषों से
हमेशा भरा हुआ
है। ऐसा कभी
नहीं हुआ है, न कभी होगा।
और जिस दिन यह
हो जाएगा कि
सदपुरुषों की
परंपरा खंडित
हो जाएगी, उस
दिन आगे कोई
सदपुरुष नहीं
हो सकेगा।
क्योंकि वह
धारा ही टूट
जाएगी, वह
रेगिस्तान
में विलीन हो
जाएगी। मोटी
और पतली हमेशा
बह रही है वह
धारा। उससे
परिचित होना,
संबंधित
होना। और उसके
लिए रास्ता यह
नहीं है कि
आपको कोई जब
बिलकुल ही परम
व्यक्ति
मिलेगा, तब
आप समझेंगे।
आपकी आंख खुली
रखें।
छोटी-छोटी
घटनाओं में
समझना हो सकता
है।
एक बात
मैं पढ़ता था
एक साधु के
बाबत। वे साठ
वर्ष की उम्र
तक व्यवसाय
करते रहे।
उनका नाम, घर का नाम
राजा बाबू था।
वृद्ध हो गए, तो भी लोग
उन्हें राजा
बाबू कहते। एक
दिन सुबह-सुबह
वे घूमने
निकले थे।
सुबह अभी सूरज
नहीं ऊगा है, वे गांव के
बाहर घूमने गए
हैं। एक
स्त्री अपने
घर में एक
बच्चे को जगा
रही है। वह
उससे कह रही है
कि 'राजा
बाबू! कब तक
सोए रहोगे? अब सुबह हो
गयी, उठो।'
वे बाहर छड़ी
लिए हुए चले
जा रहे थे, उन्हें
सुनायी पड़ा कि
'राजा
बाबू! कब तक
सोए रहोगे? अब तो सुबह
हो गयी, अब
तो उठो।' और
उन्होंने यह
सुना और वे
वापस लौट आए
और उन्होंने
घर जाकर कहा
कि 'अब
मुश्किल है, आज उपदेश
मिल गया। आज
सुनायी पड़ गया
कि राजा बाबू,
कब तक सोए
रहोगे! अब तो
सुबह भी हो
गयी, अब
उठो।' तो
उन्होंने कहा,
'आज तो बस
बात समाप्त हो
गयी।'
अब यह
किसी स्त्री
ने न मालूम
किस बच्चे को
सुबह उठाने के
लिए कहा था, लेकिन जिसके
पास आंख थी, उसके लिए
उपदेश बन गया।
और यह हो सकता
है कि कोई
आपको ही उपदेश
दे रहा हो और
आपके पास कान
और आंख न हों, और आप बैठे
सुनते रहें, और समझें कि
शायद किसी और
से कहता होगा।
तो सद
का संपर्क, सद की
आकांक्षा, सद
की तलाश, अन्वेषण
और सदविचारों
का जीवन में
प्रवेश, प्रकृति
का सान्निध्य,
ये सदविचार
के लिए, शुद्ध
विचार के लिए
उपयोगी
शर्तें और
भूमिकाएं
हैं।
ये
थोड़ी-सी बातें
मैंने
विचार-शुद्धि
के लिए कहीं, इसको एक
अनिवार्य अंग
समझकर प्रयोग
करना है जीवनभर।
कोई आज और कल
की बात नहीं
है। कोई
धर्मों के शिविर
नहीं हो सकते
कि तीन दिन
में बात आयी
और समाप्त हो
गयी। धर्मों
की कोई ऐसी
ट्रेनिंग नहीं
हो सकती कि
तीन दिन हम
मिले और मामला
खतम हो गया।
अधर्म ऐसी
बीमारी है कि
जीवनभर चलती
है, इसलिए
धर्म का शिविर
भी जीवनभर ही
चलाना पड़ेगा।
कोई रास्ता
नहीं है। तो
उसे जीवनभर
प्रयोग करना
होगा।
भाव के
संबंध में कल
मैं बात
करूंगा कि
भाव-शुद्धि के
लिए हम क्या
करें। अब
रात्रि के
ध्यान के लिए
थोड़ी-सी बात
समझ लें और
फिर हम रात्रि
के ध्यान के
लिए बैठेंगे।
रात्रि
के ध्यान के
लिए सबसे पहले
तो हम संकल्प
करेंगे, जैसा
सुबह के ध्यान
में किया।
पांच बार
संकल्प
करेंगे। फिर
पांच बार के
बाद थोड़ी देर
तक जैसे सुबह
भाव किया, वैसा
भाव करेंगे।
उसके बाद सब
लोग लेट
जाएंगे। सब
लोग पहले ही
से लेट
जाएंगे।
अपनी-अपनी जगह
पर चुपचाप लेट
जाएंगे।
लेटने के बाद अंधकार
हो जाएगा। फिर
हम अपने शरीर
को शिथिल करेंगे।
पीछे जो शिविर
में थे, वहां
हमने शरीर को
इकट्ठा शिथिल
किया था। हो सकता
है, कुछ
लोगों का
इकट्ठा शिथिल
नहीं हो पाता
है, इसलिए
उनके लिए और
सरल रास्ता
मैं सुझाता
हूं।
शरीर
में योग की
दृष्टि से सात
चक्र होते हैं।
शरीर में योग
की दृष्टि से
सात चक्र होते
हैं। उन सात
चक्रों में से
पांच का
प्रयोग हम इस ध्यान
के लिए
करेंगे। सबसे
जो प्राथमिक
चक्र है, वह
मूलाधार
कहलाता है, वह
जननेंद्रिय
के करीब होता
है। वह पहला
चक्र है, जिसका
हम प्रयोग
करेंगे अभी इस
रात्रि के ध्यान
में। दूसरा
चक्र है, स्वाधिष्ठान
चक्र। वह नाभि
के करीब मान
ले सकते हैं।
अभी कल्पना
में समझ लें।
जननेंद्रिय के
करीब जो चक्र
है, उसका
नाम मूलाधार।
नाभि के पास
जो चक्र है, उसका नाम
स्वाधिष्ठान।
और ऊपर चलें, हृदय के पास
जो चक्र है, उसका नाम
अनाहत। और ऊपर
चलें, माथे
के पास जो
चक्र है, उसका
नाम आज्ञा। और
ऊपर चलें, चोटी
के पास जो
चक्र है, उसका
नाम सहस्रार।
इन
पांच का हम
उपयोग
करेंगे। यूं
चक्र तो सात हैं, और भी
ज्यादा हैं।
इन पांच का हम
उपयोग करेंगे
और इनके उपयोग
के साथ हम
शरीर को
शिथिलता की तरफ
ले जाएंगे। और
आप हैरान होंगे,
मूलाधार जो
चक्र है, उसका
नियंत्रण
आपके पैरों पर
है। हम सुझाव
देंगे
मूलाधार चक्र
को। जब आप लेट
जाएंगे, तो
मैं कहूंगा, मूलाधार
चक्र पर ध्यान
को ले जाइए।
तो आप अपने
भीतर
जननेंद्रिय
के करीब
मूलाधार चक्र
के पास ध्यान
को ले जाएंगे,
वहां बोध
रखेंगे। फिर
मैं कहूंगा, मूलाधार
चक्र को शिथिल
छोड़ दीजिए और
उसके साथ ही
दोनों टांगों
को शिथिल छोड़
दीजिए। आप
भीतर भाव
करेंगे कि
मूलाधार चक्र
शिथिल हो रहा
है, मूलाधार
चक्र शिथिल हो
रहा है और पैर
शिथिल होते जा
रहे हैं। आप
थोड़ी ही देर
में पाएंगे कि
पैर दोनों
मुरदे की तरह
लटककर शिथिल
हो गए हैं।
जब पैर
शिथिल हो
जाएंगे, तो
हम ऊपर की तरफ
बढ़ेंगे, दूसरे
चक्र
स्वाधिष्ठान
को नाभि के
पास। मैं कहूंगा,
ध्यान को
नाभि के पास
ले आएं, तो
आप अपनी
कल्पना में
नाभि के पास
भीतर ध्यान को
लाएंगे। और हम
वहां कहेंगे
कि
स्वाधिष्ठान
चक्र शिथिल हो
रहा है और पेट
का सारा यंत्र
शिथिल हो रहा
है। उसको अनुभव
करते ही वह
सारा यंत्र
धीरे-धीरे
शिथिल हो
जाएगा।
फिर हम
और ऊपर बढ़ेंगे
और हृदय के
पास आएंगे और मैं
कहूंगा, अनाहत
चक्र शिथिल हो
रहा है। तब आप
हृदय को शिथिल
छोड़ेंगे और
अनाहत पर
ध्यान रखेंगे,
उस जगह, हृदय
के पास और
भावना करेंगे
कि अनाहत
शिथिल हो रहा
है, तो
छाती का पूरा
का पूरा यंत्र
और संस्थान
शिथिल हो
जाएगा।
फिर हम
ऊपर आएंगे और
माथे के पास
दोनों आंखों के
बीच में आज्ञा
चक्र है, उसका
अंदर भाव
करेंगे कि
आज्ञा के पास
हमारा ध्यान
है, दृष्टि
है। और मैं
कहूंगा, आज्ञा
चक्र शिथिल हो
रहा है और
मस्तिष्क
शिथिल हो रहा
है। उसके साथ
सारा
मस्तिष्क, गर्दन,
सारे सिर का
हिस्सा एकदम
शिथिल हो
जाएगा। तब आपको
सिर्फ चोटी के
पास थोड़ी-सी
धक-धक और भार
मालूम पड़ेगा,
सारा शरीर
शिथिल हो
जाएगा। सिर्फ
चोटी के पास आपको
थोड़ा-सा भार
और धक-धक
मालूम पड़ेगा।
अंतिम
रूप से मैं
कहूंगा, सहस्रार
चक्र--तब आप
सिर के ऊपर
ध्यान ले जाएंगे
चोटी के
पास--वह शिथिल
हो रहा है। और
उसके साथ सारा
मस्तिष्क
शिथिल हो रहा
है। तब भाव
करने से आप
पाएंगे कि
भीतर भी सब
शिथिल हो
जाएगा।
इसको
लंबी
प्रक्रिया
में किया, ताकि यह
हरेक के लिए
हो ही जाए कि
उसका शरीर
बिलकुल मृत हो
जाए। इन पांच
चक्रों पर
सुझाव दूंगा।
और जब यह सब शिथिल
हो जाएगा, तब
मैं आपसे
कहूंगा कि अब
शरीर बिलकुल
मुरदा हो गया,
अब उसको छोड़
दें, तो
उसे बिलकुल
छोड़ दें। शरीर
मुरदा हो गया
है। फिर मैं
कहूंगा, श्वास
आपकी शिथिल हो
रही है, शांत
हो रही है।
थोड़ी देर उसका
सुझाव दूंगा।
उसके बाद
सुझाव दूंगा
कि मन बिलकुल
शून्य हो रहा
है। ये तीन
सुझाव
देंगे--पहले
चक्रों के लिए,
दूसरा
प्राण-श्वास
के लिए और
तीसरा विचार
के लिए।
इस
पूरी
प्रक्रिया
में करने के
बाद आपसे कहूंगा, दस मिनट के
लिए सब शून्य
हो गया। उस
शून्य में आप
भीतर पड़े हुए,
सिर्फ बोध
मात्र आपका
रहेगा, एक
ज्योति जलती
रहेगी बोध की
और आप चुपचाप
पड़े रहेंगे।
सिर्फ वह बोध
मात्र रहेगा,
सिर्फ होश
भर रहेगा कि
मैं पड़ा हूं।
इसमें यह हो
सकता है कि
शरीर जब
बिलकुल
मुरदा-सा
मालूम होने
लगे--जो कि मालूम
होगा, क्योंकि
चक्रों के
प्रयोग के साथ
शरीर एकदम मुरदा
होगा--तो
घबराना नहीं
है किसी को।
अगर ऐसा लगने
लगे कि शरीर
बिलकुल मुरदा
है, तो
घबराना नहीं
है। यह बड़ा
शुभ है। यह
बहुत शुभ है।
जो जीते जी
अपने शरीर के
मुरदा होने को
अनुभव कर लेगा,
वह
धीरे-धीरे
मृत्यु के भय
से मुक्त हो
जाता है। तो
उसमें घबराना
नहीं है। कोई
भी अनुभूति
मालूम हो, कोई
प्रकाश, आलोक
मालूम हो, शांति
मालूम हो, उसको
चुपचाप देखते
रहना है और
शांत शून्य
में पड़े रहना
है। यह
अनिवार्य है,
इन तीन
प्रक्रियाओं
में--संकल्प, भाव और फिर
ध्यान--यह
रात्रि का ध्यान
होगा।
मैं
समझता हूं, आप मेरी बात
समझ गए होंगे।
तो अब सब इतने
दूर बैठ जाएं
लोग कि पहले
तो हम अपनी
जगह बना लें
कि आप लेट
सकेंगे। सब
इतने दूर बैठ
जाएं। सारी जगह
का उपयोग कर
लें। कोई बैठा
हुआ नहीं
रहेगा।
आज
इतना ही।
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