अध्याय
19 : सूत्र 2
स्वयं
को जानो
लेकिन
ये तीनों ही
बाह्य हैं और
अपर्याप्त हैं;
लोगों
को संबल के
लिए कुछ और भी
चाहिए:
(इसके
लिए) तुम अपने
सरल स्व का
उदघाटन करो,
अपने
मूल स्वभाव का
आलिंगन करो,
अपनी
स्वार्थपरता
त्यागो,
अपनी
वासनाओं को
क्षीण करो।
बुद्धिमत्ता
और ज्ञान, मानवता
और न्याय, चालाकी
और उपयोगिता,
इन सब को
छोड़ देना
नकारात्मक
है। इनका
छोड़ना जरूरी
है, लेकिन
काफी नहीं; आवश्यक है, लेकिन
पर्याप्त
नहीं। विधायक
को भी प्रकट
करना होगा, पाजिटिव को भी प्रकट
करना होगा।
जैसे
कोई
बीमारियों को
छोड़ दे, इतना
स्वस्थ होने
के लिए काफी
नहीं है; जरूरी
है।
बीमारियां न
हों, तो
स्वस्थ होना
आसान है।
बीमारियां
हों, तो
स्वस्थ होना
मुश्किल है।
लेकिन
बीमारियों का
न होना ही
स्वास्थ्य
नहीं है।
स्वास्थ्य की
अपनी विधायक
स्थिति है।
जैसे बीमारी
में एक पीड़ा
है, वैसे
स्वास्थ्य
में एक आनंद
है। तो जब
बीमारियां न
हों, तो आप
दुख के तो
बाहर हो जाते
हैं, लेकिन
आनंद में
प्रविष्ट
नहीं हो जाते।
और दुख के
बाहर हो जाना
आनंद के साथ
एक हो जाना
नहीं है। ये
दोनों
पर्यायवाची
नहीं हैं।
आनंद एक आंतरिक
कल्याण और
मंगल और एक
आंतरिक
प्रफुल्लता का,
अकारण
प्रफुल्लता
का अनावरण है।
लाओत्से
ने जिन तीन
बातों को कहा, वे
बीमारियों की
तरह हैं। सब
बीमारियां
बाहर से आती
हैं, और
स्वास्थ्य
भीतर से।
बीमारियां
आक्रमण हैं और
स्वास्थ्य
स्वभाव है।
हमारे शब्द
स्वास्थ्य का
भी मतलब यही
होता है।
स्वास्थ्य का
अर्थ होता है:
स्वयं में
स्थित हो
जाना।
तंदुरुस्ती
में वह बात
नहीं है और न
अंग्रेजी के
हेल्थ में वह बात
है।
स्वास्थ्य एक
आध्यात्मिक
शब्द भी है।
उसका अर्थ है
स्वयं में ठहर
जाना।
इसे
थोड़ा हम समझ
लें,
तो इस सूत्र
में प्रवेश बहुत
आसान हो जाए।
जब बीमारी
होती है, तो
आप अपने से
बाहर चले जाते
हैं। पैर में
कांटा गड़ता
है, तो
सारी चेतना
पैर के कांटे
के पास घूमने
लगती है। सिर
में दर्द होता
है, तो
चेतना सिर के
पास घूमने
लगती है। शरीर
में पीड़ा होती
है, तो
चेतना शरीर के
आस-पास मंडराती
है। जहां दुख
होता है, जहां
पीड़ा होती है,
वहां चेतना
को तत्काल दौड़
कर जाना पड़ता
है।
इसलिए
बीमार आदमी को
समझना बहुत
मुश्किल है कि
वह शरीर नहीं
है। बीमार
आदमी को यह
समझना बहुत
मुश्किल है कि
वह आत्मा है, शरीर
नहीं। और अगर
आप भी न समझ
पाते हों, तो
जानना कि आप
बीमार हैं।
इसलिए जो
जितना बीमार
होता है, उतना
कम आत्मवादी
रह जाता है, शरीरवादी हो जाता है।
क्योंकि शरीर
का ही पता
चलता है रुग्णता
में, आत्मा
का कोई पता
नहीं चलता।
रुग्णता में
सारा ध्यान ही
रोग पर अटक
जाता है, पीड़ा
पर अटक जाता
है। और रोगी
मन की एक ही
इच्छा होती है
कि किसी तरह
पीड़ा से
छुटकारा हो
जाए। आनंद
मिले, ऐसी
आकांक्षा
नहीं होती; पीड़ा से
छुटकारा हो
जाए, इतना
भी बहुत मालूम
पड़ता है।
लेकिन
पीड़ा से छूट
जाना आनंदित
हो जाना नहीं
है। जैसे पीड़ा
बाहर ले जाती
है,
ऐसे आनंद
भीतर ले जाता
है। एक आदमी
अपने मकान के
बाहर न जाए, रास्तों पर
न भटके, दूर
पृथ्वी पर न
घूमे; लेकिन
इससे आप यह मत
समझ लेना कि
वह भीतर प्रविष्ट
हो गया। वह
अपने द्वार पर
भी खड़ा रह जा
सकता है। जो
आदमी द्वार पर
खड़ा है, वह
बाहर भी नहीं
है, वह
भीतर भी नहीं
है। जो आदमी
दुख में नहीं
है, वह
द्वार पर खड़ा
हो जाता है।
दुख में भी
नहीं है, आनंद
में भी नहीं
है। अगर भीतर
जाए, तो
आनंद में
प्रवेश होगा;
अगर बाहर
जाए, तो
दुख में
प्रवेश होगा।
दोनों के बीच
में खड़ा हो
जाए, तो
सिर्फ उदास हो
जाएगा। न वहां
दुख का कोई खिंचाव
रहेगा, न
वहां आनंद का
कोई नृत्य
रहेगा; सिर्फ
एक उदास तटस्थता
पैदा हो
जाएगी।
लाओत्से
कहता है, अगर
ये तीन
बीमारियां
छोड़ दी जाएं, जो कि जरूरी
हैं छोड़ देनी,
तो फिर भीतर
प्रवेश हो
सकता है।
लेकिन इन तीन को
छोड़ कर कोई यह
न समझे कि
मंजिल आ गई।
यह सिर्फ नकार
हुआ, निषेध
हुआ। जो गलत
था, वह
हमने छोड़ा।
लेकिन अभी सही
को नहीं पा
लिया। गलत को
छोड़ देना ही
सही को पा
लेना नहीं है।
सही का पा
लेना अलग ही
आयाम है, एक
अलग ही यात्रा
है। लेकिन जो
गलत को पकड़े
हैं, वे
सही को न पा
सकेंगे; हालांकि
जिन्होंने
गलत को छोड़
दिया, उन्होंने
सही को पा
लिया, ऐसा
भी समझने का
कोई कारण नहीं
है। गलत को पकड़ा
हुआ आदमी तो
सही पाएगा ही
नहीं; वह
तो छोड़ना
जरूरी है।
लेकिन गलत को
छोड़ कर ही कोई
अगर ठहर जाए, तो भी सही को
नहीं पा
सकेगा।
इस
सूत्र में
लाओत्से जीवन
की विधायकता, पाजिटिविटी,
वह जो
आंतरिक
स्वास्थ्य है,
उसे प्रकट
करने की बात
करता है।
"लेकिन
ये तीनों ही
बाह्य और
अपर्याप्त
हैं; लोगों
को संबल के
लिए भी कुछ
चाहिए।'
असल
में,
इन तीनों को
लोग पकड़ते
ही इसलिए हैं
कि लोगों को
संबल चाहिए, सहारा
चाहिए। और जब
हम उनके संबल
छीनते हैं, तो उन्हें
कठिनाई होती
है। क्योंकि
बिना सहारे के
वे कैसे
रहेंगे? एक
आदमी ज्ञान
इकट्ठा करने
के लिए जी रहा
है। ज्ञान
इकट्ठा होता
जाता है; और
वह आदमी सोचता
है, मैं बढ़
रहा हूं, विकसित
हो रहा हूं, कुछ पा रहा
हूं। यह उसका
संबल है। एक
आदमी मानवता,
नीति, न्याय,
धर्म के लिए
जीता है, सेवा
करता है; वह
उसका संबल है।
एक आदमी
उपयोगिता के
लिए, धन के
लिए, यश के
लिए, पद के
लिए जीता रहता
है; वह
उसका संबल है।
ये सारे लोग
एक सहारे को
लेकर जी रहे
हैं।
और
लाओत्से कहता
है,
तीनों को
छोड़ दो।
बेसहारा होने
की बड़ी कठिनाई
है। फिर हमें
ऐसा लगेगा, फिर जीएं
कैसे? फिर
करें क्या? गलत छोड़
दिया, हाथ
खाली हो जाते
हैं। तो
लाओत्से कहता
है, इन
खाली हाथों को
किसी संबल की
जरूरत है।
लेकिन अगर वह
संबल भी बाहर
का हुआ, तो
इन तीन जैसा
ही होगा। वह
संबल आंतरिक
होना चाहिए।
वह अपना ही
होना चाहिए, निज का होना
चाहिए।
इसलिए
कहता है, "इसके
लिए तुम अपने
सरल स्व को उदघाटित
करो, अपने
मूल स्वभाव का
आलिंगन करो, अपनी स्वार्थपरता
त्यागो, अपनी
वासनाओं को
क्षीण करो।'
इनमें
से एक-एक
हिस्से को हम
समझें: "अपने
सरल स्व को उदघाटित
करो।'
जब
बाहर से हाथ
खाली हो गए
हों और चेतना
के लिए बाहर
कोई विषय, कोई
आब्जेक्ट
न रह गया हो, तो चेतना की
पूरी धारा स्व
पर गिराई जा
सकती है। जब
आंखें बाहर न
देखती हों, तो आंखों की
देखने की पूरी
क्षमता भीतर
घुमाई जा सकती
है। और जब
प्राण बाहर
कुछ पाने को
आतुर न हों, तो प्राणों
की सारी
गत्यात्मकता,
उनकी सारी
ऊर्जा भीतर की
यात्रा पर
संलग्न की जा
सकती है।
स्व के
उदघाटन का
अर्थ है:
तुम्हारी सारी
इंद्रियां जो
अब तक बाहर की
यात्रा पर थीं, तुम्हारा
सारा मन जो अब
तक किसी दूर
की चीज को पाने
के लिए
लालायित था, तुम्हारा
ध्यान जो अब
तक स्वयं को
छोड़ कर और सब
चीजों के पीछे
भागता था, उसे
अब अपने पर ही
नियोजित करो।
इसे हम ऐसा समझें।
अगर ये तीन
चीजें छूट गई
हों, तो ही
इसे समझना और
करना संभव हो
पाएगा।
आंख
बंद करके आप
बैठते हैं, लेकिन
चीजें तो बाहर
की ही दिखाई
पड़ती रहती हैं।
आंख भी बंद है,
लेकिन
दिखता तो
संसार ही है।
आंख बंद है, तो भी भीतर
तो कुछ नहीं
दिखता। बाहर
की ही छबियां,
बाहर के ही
चित्र दिखाई
पड़ते रहते हैं।
कान भी बंद कर
लें, तो भी
आवाज बाहर की
ही सुनाई पड़ती
है। ध्यान को
बाहर से खींच
लें, तो भी
ध्यान बाहर ही
भागता रहता
है। वह तीन चीजों
के कारण! वे जो
तीन हमारे
बाहर के संबल
हैं, वे
अभी टूटे नहीं
हैं। बार-बार
निरंतर
अभ्यास के
कारण, सतत
जन्मों-जन्मों
की आदत के
कारण मन
वहीं-वहीं भाग
जाता है।
लाओत्से
कहता है, ये
तीन टूट जाएं,
तो फिर सारी
इंद्रियों को
भीतर प्रवेश
दिलाया जा
सकता है।
आंख
बंद करके बैठें
और एक ही बात
खयाल रखें, बाहर
की कोई चीज
नहीं
देखेंगे।
आएंगे चित्र बाहर
के, आदत के
कारण, तो
जानते रहें कि
ये चित्र बाहर
के हैं और मैं
देखने को राजी
नहीं। मेरी
तैयारी देखने
की नहीं है।
मेरा कोई रस
नहीं है, मेरा
कोई आकर्षण
नहीं है। अगर
आप इतना कर
सकें कि भीतर
पहले रस का
संबंध तोड़ लें
बाहर के चित्रों
से, तो
शीघ्र ही आप
पाएंगे, बाहर
के चित्र आने
कम हो गए। वे
आते ही इसलिए
हैं कि आप
बुलाते हैं।
मन में
कोई भी मेहमान
बिना बुलाया
हुआ नहीं है।
मन में कोई भी
अतिथि ऐसे ही
नहीं आ गया है, जबर्दस्ती
नहीं आ गया
है। आपका
निमंत्रण है। हो
सकता है, निमंत्रण
देकर आप भी
भूल गए हों।
हो सकता है, निमंत्रण
देकर आप बदल
गए हों। हो
सकता है, आपको
खयाल भी न हो
कि कब किस
अचेतन क्षण
में निमंत्रण
दिया था।
लेकिन आपके मन
में जो भी आता
है, वह
आपका बुलाया
हुआ है। और
आपके मन में
एक भी घटना
ऐसी नहीं घटती,
जिसके लिए
आपके
अतिरिक्त कोई
और जिम्मेवार
हो।
अगर
रात सपने में
आप हत्याएं
करते हैं, बलात्कार
करते हैं, तो
वे आपने करने
चाहे हैं
इसीलिए! अपने
से भी छिपा
लिया होगा, खुद को भी
धोखा दे दिया
होगा। और सुबह
उठ कर आप कहते
हैं, सिर्फ
सपने थे।
सपनों का क्या?
लेकिन सपने
आपके हैं। और
सपने अकारण
नहीं हैं। और
सपने बुलाए
हुए हैं; सपने
निर्मित हैं;
आपने ही सिरजे
हैं। इसलिए सपनों
का क्या, ऐसा
कभी मत कहना।
सपने आपकी झलक
हैं, आपकी
खबर हैं, आपके
मन की पर्तों
की खबर हैं।
यह मन है आपके
पास। दिन में
आप इसे झुठला
देते हैं, रात
यह मन फिर काम
करने लगता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर सपने न
आएं,
तो आप पागल
हो जाएंगे। और
ठीक कहते हैं।
क्योंकि सपने
में, दिन
भर में जो-जो
आप छिपा लेते
हैं, दबा
लेते हैं, रात
उसका निकास हो
जाता है, रेचन,
कैथार्सिस
हो जाती है।
पहले हम सोचते
थे कि अगर एक
आदमी को
ज्यादा दिन तक
न सोने दिया
जाए, तो वह
पागल हो
जाएगा। लेकिन
अब
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, असली
कारण नींद की
कमी के कारण
आदमी पागल
नहीं होता, नींद न आए तो
सपने नहीं देख
पाता, इसलिए
पागल हो जाता
है। और
उन्होंने
बहुत प्रयोग
किए हैं और अब
यह एक
प्रमाणित
सत्य है।
रात
में आप कई दफे
सपने देखते
हैं। कोई बारह
शृंखलाएं
होती हैं
सपनों की रात
में। आप बारह
बार सपने में
प्रवेश करते
हैं। बीच-बीच
में छोटे-छोटे
समय में आप
सपने के बाहर
होते हैं और
नींद में होते
हैं। तो
वैज्ञानिकों
ने इस पर
प्रयोग किए
हैं सैकड़ों
लोगों पर।
क्योंकि अब
बाहर से जाना
जा सकता है कि
कब आप सपना
देखते हैं और
कब आप सपना
नहीं देखते; आपकी
आंख की गति
बता देती है।
तो आपकी आंख
की गति को
नापने का
यंत्र लगा
रहता है। जब
आप सपना देखते
हैं, तो
आपकी पुतली
वैसे ही चलने
लगती है जैसे
फिल्म को
देखते वक्त
चलती है।
क्योंकि सपना
एक फिल्म है।
आपकी पुतली की
गति बता देती
है कि आप देख
रहे हैं सपना।
जब फिल्म नहीं
चलती, सपना
नहीं होता, पुतली ठहर
जाती है। तो
पुतली की गति
बता देती है
कि कब आदमी
सपना देख रहा
है, कब
सपना नहीं देख
रहा है।
तो
वैज्ञानिकों
ने लोगों को
सुला कर
महीनों, वर्षों
तक प्रयोग किए
हैं। जब आदमी
सपना देख रहा
है, तब
उसको रोक देना,
जगा देना; जब भी रात
में सपना देखे,
तब उसे जगा
देना। सात दिन
में वह आदमी
पागल होने के
करीब पहुंचने
लगता है। जब
सपना न देखे, नींद ले रहा
हो, तब
जगाना सात दिन
तक। कोई असर
नहीं होता, बिलकुल
स्वस्थ रहता
है; कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
तो
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
असली कारण, नींद
की कमी से कोई
परेशान नहीं
होता। परेशान
होता है सपने
न देख पाने
से। क्योंकि
दिन भर में जो
कचरा आपने
इकट्ठा किया
है अचेतन में,
वह अगर न
निकल पाए, इकट्ठा
होता चला जाए,
तो वही आपकी
विक्षिप्तता
बन जाएगा।
सपने
अकारण नहीं
हैं। आपके हैं, आप
ही हैं आपके
सपनों में। तो
अगर आप आंख
बंद करते हैं और
चित्र आने
शुरू हो जाते
हैं, तो
आपका रस है
उनमें, इसलिए
आते हैं।
रस को
तोड़ दें। पहला
काम रस तोड़ने
का करें। रस-भंग
करना पहला काम
है। इस स्व
उदघाटन के लिए, रस-भंग
पहला काम है।
चित्र आएं, देखें, रसहीन
हो जाएं, निष्क्रिय
हो जाएं, पैसिव
हो जाएं।
देखते रहें कि
ठीक है। जैसे
एक आदमी फिल्म
देख रहा हो और
अभी-अभी
डाक्टर ने
उसको आकर कहा
हो कि
तुम्हारी जांच
से पता चला कि
कैंसर की ही
बीमारी
तुम्हें है।
अब भी वह
फिल्म देखता
रहेगा; लेकिन
सब रस खो गया।
अब भी चित्र
की तस्वीर चलती
रहेगी पर्दे
पर और आंखें
देखती रहेंगी;
लेकिन भीतर
सब खो गया।
ऐसे ही जिस
व्यक्ति को इन
तीन चीजों से
अपना तोड़ना हो
जाएगा, उसका
रस खो जाएगा।
पुरानी आदत से
चित्र चलेंगे,
लेकिन रस
नहीं होगा।
विरस
हो जाएं
चित्रों में।
और जैसे ही यह
विरसता बढ़ेगी, चित्र
कम होते
जाएंगे, बीच
में गैप और
अंतराल आने
लगेंगे। और जब
अंतराल आएगा,
तब आप अचानक
पाएंगे कि
आपका ध्यान
अपने पर पड़ रहा
है, आपकी
ज्योति स्वयं
के ऊपर पड़ रही
है, आपका
दीया आपको उदघाटित
कर रहा है। यह
दीया वही है
जिसने दूसरों
को उदघाटित
किया था अब
तक। जब दूसरे
मौजूद नहीं
होते, तो
दीए की ज्योति
स्वयं पर पड़नी
शुरू हो जाती
है।
कान
बंद करके बैठ
जाएं, आवाजें
बाहर की ही
सुनाई पड़ेंगी,
मित्रों से
हुई बातचीत के
टुकड़े कानों
में तैर
जाएंगे, कोई
गीत की कड़ी
गूंज उठेगी।
विरस होकर
सुनते रहें, रस न लें।
कड़ी कान में गूंजे, लेकिन
आपके भीतर अनुगूंज
न पैदा हो, आप
उसे
गुनगुनाने न
लगें। कान में
ही गूंजे,
आप न गुनगुनाएं,
आप बेरस
होकर सुनते
रहें। थोड़ी
देर में कान
शांत हो
जाएंगे, थोड़े
दिन में कान
शांत हो
जाएंगे। जिस
दिन कान
बिलकुल शांत
होंगे, बाहर
की कोई आवाज न
होगी, उस
दिन भीतर का
सन्नाटा पहली
दफा कानों में
सुनाई पड़ने
लगेगा।
प्रत्येक
इंद्रिय को
भीतर की तरफ मोड़ा जा
सकता है।
सुगंध! भीतर
की भी एक
सुगंध है, उसका
हमें कोई पता
नहीं। शायद
वही असली
सुगंध है।
लेकिन बाहर की
सुगंधें
हमारे
नासापुटों को
भर देती हैं।
फिर हमें याद
ही नहीं रहता
कि कोई आत्मा
की भी सुगंध
है, कोई
सुवास भीतर की
भी है। सारी
इंद्रियों का
अनुभव भीतर हो
सकता है।
क्योंकि--इंद्रियों
को ठीक से समझ
लें--इंद्रियां
दोहरे रास्ते
हैं, डबल-वे
ट्रैफिक हैं।
इंद्रिय आपसे
भी जुड़ी है भीतर
और बाहर संसार
से भी जुड़ी
है। इसीलिए तो
संसार की खबर
आप तक लाती
है। आपसे न
जुड़ी हो, तो
संसार की खबर
आप तक नहीं आ
सकती। लेकिन
हम इंद्रियों
का उपयोग
वन-वे ट्रैफिक
की तरह कर रहे
हैं। हम सिर्फ
संसार की ही
खबरें ले रहे
हैं। हमने
उनसे भीतर की
कभी कोई खबर
नहीं ली।
लाओत्से
कहता है, सहज
स्व का उदघाटन
करें।
जैसे
प्रकृति का
उदघाटन हुआ है, जैसे
बाहर आकाश
दिखाई पड़ा है,
चांदत्तारे दिखाई पड़े
हैं, फूल
खिले हैं, बाहर
चेहरे दिखाई
पड़े हैं, यह
विराट
विस्तार बाहर
का अनुभव हुआ
है; ठीक
ऐसा ही विराट
गहन विस्तार
भीतर भी है।
ध्यान को
रूपांतरित
करना पड़े। यह
जो बाहर गया
ध्यान है, इसे
भीतर बुला
लेना
पड़े--अपने घर
की ओर वापसी। उस
वापसी यात्रा
का जो पड़ाव
है आखिरी, वहां
स्वयं का बोध,
स्वयं का
ज्ञान, उदघाटन--जो
भी हम कहना
चाहें, कहें।
"इसके
लिए तुम अपने
सहज स्व का
उदघाटन करो।'
सहज
लाओत्से
छोड़ता नहीं।
लाओत्से की
सहज पर वैसी
ही पकड़ है, जैसी
कबीर की। कबीर
कहते हैं:
साधो, सहज
समाधि भली।
कबीर के सारे
गीतों में सहज
की वही पकड़ है,
जो लाओत्से
की सहज पर है।
इस सहज शब्द
को भी हम ध्यान
में ले लें।
स्व की
कोई धारणा अगर
बना कर कोई
भीतर जाए, तो
वह सहज स्व न
होगा। समझें,
मैं आपके
पास आऊं मिलने
और आपके संबंध
में कोई धारणा
पहले से बना
कर आऊं, तय
कर लूं कि भले
आदमी हैं, साधु
हैं, सज्जन
हैं, ऐसी
कोई धारणा
लेकर आऊं। तो
आपको मैं अपनी
धारणा की ओट
से देखूंगा।
और जो भी मुझे
आप दिखाई पड़ेंगे,
वह आपका सहज
रूप न होगा।
उसमें मेरी
धारणा मिश्रित
हो जाएगी। हो
सकता है, आप
मुझे बहुत बड़े
साधु मालूम
पड़ें। वैसे आप
हों न, सिर्फ
मेरी धारणा की
ही
अतिशयोक्ति
हो। क्योंकि
जब मैं तय करके
आता हूं कि आप
साधु हैं, तो
मैं आपमें वही
देखता हूं, जो मेरी
धारणा को
सिद्ध करे।
मेरा चुनाव
शुरू हो जाता
है। आपमें जो
गलत है, वह
फिर मुझे
दिखाई नहीं
पड़ेगा। आपमें
जो ठीक है, वह
दिखाई पड़ेगा।
और ठीक को मैं
इकट्ठा करता जाऊंगा।
और मेरी धारणा
मजबूत होगी, फैलेगी, फूल
जाएगी। मेरे
भीतर आप एक
बड़े साधु की
तरह प्रकट
होंगे। वह
आपकी सहजता हो
या न हो, यह
दूसरी बात है।
मैं
पहले से ही तय
करके आता हूं
कि आप बुरे
आदमी हैं, मैं
आप में से
बुरे को चुन
लूंगा। जब हम
धारणा से
देखते हैं, तो हम चुनाव
करते हैं।
सत्य फिर हमें
दिखाई नहीं
पड़ता। फिर
सत्य में से
हम चुन लेते
हैं, जो
हमारे अनुकूल
हो। अगर बुद्ध
के संबंध में
भी कोई आपसे
कह दे कि वे
आदमी बुरे हैं
और आपकी धारणा
मजबूत हो जाए,
फिर आप
बुद्ध के पास
जाएं, आपको
बुद्ध का कोई
पता नहीं
चलेगा। आप
अपने ही बुरे
आदमी को सिद्ध
करके वापस लौट
आएंगे।
मनुष्य की बड़ी
से बड़ी कठिनाई
यही है कि वह
जो मान लेता
है, वह
सिद्ध भी हो
जाता है। वह
जो विश्वास कर
लेता है, वह
तथ्य भी बन
जाता है।
हमारे
विश्वास ही
हमें सत्य की
तरह प्रतीत
होने लगते
हैं। और हम सब
धारणाएं बना
कर चलते हैं।
हम अपने संबंध
में भी धारणा
बना कर चलते
हैं।
लाओत्से
या कबीर या
सहज की जिनकी
धारणा है, वे
सब कहते हैं
कि सहज स्व का
उदघाटन का
अर्थ है कि
तुम इस भीतर
के सत्य के
संबंध में कोई
धारणा बना कर
मत जाना। नहीं
तो उसी धारणा
का तुम अनुभव
कर लोगे। एक
आदमी सोच कर
जाता है कि
वहां ऐसा होगा,
ऐसा होगा, ऐसा होगा।
ऐसा मान कर
जाता है। फिर
वैसा होने लगेगा।
वह होना सत्य
नहीं है। वह
उसकी अपनी ही
धारणा का खेल
है। वह उसके
अपने मन का ही
प्रपंच है। वह
उसकी ही लीला,
उसका ही
विस्तार है।
और हम
सभी लोग आत्मा
के संबंध में
धारणा बना कर
बैठे हुए हैं।
कोई आदमी मान
कर बैठा हुआ
है कि आत्मा
का ऐसा रूप
होगा; कोई मान
कर बैठा है, ऐसा रंग
होगा; कोई
मान कर बैठा
है, ऐसा
अनुभव होगा; कोई मान कर
बैठा है, ऐसी
प्रतीति
होगी। उन
मान्यताओं को
लेकर अगर आप
अपने भीतर गए,
तो आपको जो
प्रतीति होगी,
वह आत्मा की
नहीं है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
इस स्व के
संबंध में कोई
धारणा मत
बनाना, कोई
कंसेप्शन
लेकर मत जाना,
खाली जाना।
खाली आंख लेकर
जाना। आंख पर
कोई चश्मा लगा
कर मत जाना।
अन्यथा आत्मा
में वही रंग
दिखाई पड़ने
लगेगा, जो
चश्मे का रंग
है।
इसीलिए
तो दुनिया में
इतने धर्मों
के लोग और
इतने अलग-अलग
तरह के अनुभव
को उपलब्ध हो
जाते हैं। वे
अनुभव वास्तविक
नहीं हैं।
उनकी आंखों के
रंग हैं, वे ही
रंग वे देख
लेते हैं अपने
भीतर भी। और
भीतर की एक
कठिनाई है कि
वहां आप अकेले
ही जा सकते
हैं। इसलिए
कोई के साथ आप
चेक नहीं कर
सकते, किसी
के साथ आप
तुलना नहीं कर
सकते। और किसी
से आप पूछ
नहीं सकते कि
यह सही है या
गलत है। अगर आप
बाजार में
जाएं और कोई
चीज आपको पीली
दिखाई पड़ती हो
और किसी को
पीली न दिखाई
पड़ती हो, तो
आपको शक हो
सकता है कि
शायद आपको
पीलिया हो गया
हो। लेकिन
भीतर की
दुनिया में आप
अकेले हैं; वहां धारणा
बड़ी खतरनाक
है। क्योंकि
दूसरे से कोई
तुलना नहीं हो
सकती। वहां
दूसरा कुछ भी
नहीं कह सकता
कि आपको क्या
दिखाई पड़ता है
और क्या दिखाई
नहीं पड़ता।
वहां आप निपट
अकेले हैं।
उस
निपट अकेलेपन
के कारण
रत्ती-रत्ती
धारणा को छोड़
कर ही भीतर
जाना जरूरी
है। नहीं तो
वहां फिर
भ्रांति को
सुधारने का
कोई भी उपाय
नहीं है। बाहर
के जगत में तो हम
दूसरों से भी
तौल कर सकते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने बेटे को
लेकर शराबघर
में गया है।
दोनों शराब
पीते हैं और
मुल्ला ज्ञान
भी देता जाता
है। अपने बेटे
से कहता है कि
हमेशा रुक
जाना चाहिए
शराब पीने से।
सीमा तुझे बता
देता हूं। इस
सीमा के आगे
कभी मत बढ़ना।
देख,
उस टेबल पर
दो आदमी बैठे
हुए हैं। जब
वे चार दिखाई
पड़ने लगें, तब रुक जाना
चाहिए। उसके
बेटे ने टेबल
की तरफ देखा
और उसने कहा, वहां एक ही
बैठा हुआ है!
नसरुद्दीन
आगे खुद ही जा
चुके हैं, एक
उन्हें दो
दिखाई पड़ने
लगा है। और वे
बेटे को समझा
रहे हैं कि जब
दो चार दिखाई
पड़ने लगें।
लेकिन
यहां उपाय है
कि बेटा देख
सका कि एक ही आदमी
है वहां। बाहर
के जगत में
उपाय है कि हम
तौल सकें, इसलिए
विज्ञान नियम
निर्धारित कर
पाता है। धर्म
नियम निर्धारित
नहीं कर पाता,
क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति
अकेला प्रवेश
करता है। और
ऐसे व्यक्ति
बहुत कम हैं
इस पृथ्वी पर,
जो धारणाशून्य
होकर प्रवेश
करते हैं। कभी
कोई बुद्ध, कभी कोई
लाओत्से, कभी
मुश्किल से
कोई आदमी धारणाशून्य
होकर प्रवेश
करता है। नहीं
तो हिंदू की
तरह ही आप
भीतर चले जाते
हैं, मुसलमान
की तरह भीतर
चले जाते हैं,
ईसाई की तरह
भीतर चले जाते
हैं। आप
धारणाओं का
सारा बोझ लेकर
भीतर चले जाते
हैं। सारी शिक्षाएं
और सारा
दृष्टिकोण
साथ लेकर चले
जाते हैं। फिर
आप भीतर वही
देख लेते हैं,
जो आपकी
दृष्टि ने मान
रखा है। भीतर
भ्रम के बड़े
उपाय हैं; क्योंकि
दूसरा वहां
कोई भी नहीं
है।
इसलिए
लाओत्से जोर
देकर बार-बार
कहता है: सहज स्व।
सहज से उसका
मतलब है: धारणारहित
देखा गया, धारणाशून्य देखा गया।
लाओत्से तो
कहेगा, तुम
यह भी मान कर
भीतर मत जाना
कि वहां आत्मा
है। इसको भी
मान कर मत
जाना।
क्योंकि यह
मानना भी एक
धारणा है।
बुद्ध
से कोई पूछता
है आकर कि
आत्मा है या
नहीं? तो
बुद्ध कहते
हैं, तुम
जाओ भीतर और
जानो। अगर मैं
कहूं नहीं है,
तो भी गलत
होगा; अगर
मैं कहूं है, तो भी गलत
होगा। उस आदमी
ने कहा, दोनों
कैसे गलत हो
सकते हैं? दो
में से एक गलत
हो सकता है।
दोनों कैसे
गलत हो सकते
हैं? बुद्ध
ने कहा, दोनों
ही गलत होंगे।
क्योंकि
दोनों ही हालत
में मैं
तुम्हें एक
धारणा दे
दूंगा अनुभव
के पहले, एक
दृष्टि दे
दूंगा। अगर
तुम मान कर
भीतर गए कि
आत्मा है, और
आत्मा न भी हो,
तो तुम
अनुभव कर
लोगे। और अगर
तुम मान कर ही
चले कि आत्मा
नहीं है, तो
आत्मा हो भी, तो तुम्हें
उसकी कोई खबर
न मिलेगी।
आदमी
अपनी ही
धारणाओं में
बंध जाता है; धारणाओं
के कैप्सूल
में बिलकुल
बंद हो जाता है।
फिर बाहर
निकलने का
उपाय नहीं रह
जाता। बड़े से
बड़ा कारागृह
धारणाओं का
कारागृह है।
तो लाओत्से तो
कहेगा, बुद्ध
कहेंगे कि तुम
यह भी मत मानो
कि आत्मा है।
तुम मानो ही
मत कुछ। तुम
सिर्फ भीतर
जाओ; जो हो,
उसे जान
लेना; जो
मिले, उसे
देख लेना। उस
अपरिचित को
तुम पहले से
परिचित मत
बनाओ। और उस
अज्ञात को तुम
ज्ञान के आवरण
मत दो। और जो
अनजाना है, उसे अनजाना
ही रहने दो।
इसके पहले कि
तुम जानो, उसके
संबंध में कुछ
भी जानना उचित
नहीं है। सहज
स्व का यह
अर्थ है।
इसलिए
बुद्ध ने
ईश्वर, आत्मा,
इनकी बात ही
नहीं की। बहुत
लोगों को
बुद्ध नास्तिक
मालूम पड़े।
स्वाभाविक था
मालूम पड़ना।
लगा कि यह
आदमी महा
नास्तिक है, क्योंकि
आत्मा तक को
नहीं मानता।
ईश्वर को न
माने, तब
तक भी चल सकता
है, कम से
कम आत्मा को
तो माने। यह
आदमी आत्मा तक
को नहीं
मानता। बुद्ध
कहते थे, मैं
सिर्फ शून्य
को मानता हूं।
बड़े
मजे की बात है, शून्य
की आप कोई
धारणा नहीं
बना सकते। या
कि बना सकते
हैं? अगर
आप शून्य की
धारणा बना
सकते हैं, तो
वह शून्य न
होगा। जिसकी
धारणा बन जाए,
वह वस्तु
है। शून्य का
कोई आकार है
कि आप धारणा
बना लेंगे? आप परमात्मा
की धारणा बना
सकते हैं। बना
ली हैं हमने।
इतनी
मूर्तियां
निर्मित की
हैं, इतने
आकार निर्मित
किए हैं।
आत्मा की
धारणा आप बना
लेंगे।
हमने
धारणाएं बनाई
हैं और बड़ी
मजेदार
धारणाएं तक
बनाई हैं। कोई
मानता है कि
आत्मा अंगूठे
के आकार की
है। कोई मानता
है कि आत्मा
ठीक शरीर के
आकार की है।
कोई मानता है
कि आत्मा का
तरल आकार है।
तो जैसे शरीर
में प्रवेश
करती है, वैसे
ही आकार की हो
जाती है। जैसे
पानी को गिलास
में डाला, तो
गिलास; और
लोटे में डाला,
तो लोटे का
आकार ले लिया।
ऐसे ही आत्मा लिक्विड
है। आदमी के
शरीर में होती
है, तो
आदमी के शरीर
की होती है; चींटी के
शरीर में चली
जाती है, तो
चींटी के शरीर
जैसी हो जाती
है; हाथी
के शरीर में
चली जाती है, तो हाथी के
शरीर जैसी हो
जाती है।
लेकिन
शून्य की क्या
धारणा? शून्य
का अर्थ ही है
कि जिसकी कोई
धारणा न बना सके।
तो
बुद्ध ने कहा, अगर
तुम मेरा
भरोसा, मेरा
विश्वास, मेरी
श्रद्धा ही
पूछते हो; तो
मेरी श्रद्धा
सिर्फ एक चीज
में
है--शून्यता, एम्पटीनेस। क्यों
मेरी आस्था
शून्यता में है?
क्योंकि
तुम इसकी
धारणा न बना
सकोगे। तो मैं
तुमसे कहता
हूं कि भीतर
तुम्हारे
आत्मा है या नहीं,
मुझे पता
नहीं। शून्य
जरूर है। तुम
उस शून्य में
प्रवेश कर
जाओ। मुझसे मत
पूछो कि कैसा
शून्य? क्योंकि
शून्य कैसा
नहीं होता।
शून्य का अर्थ
ही है कि
जिसके बाबत
कुछ भी न कहा
जा सके। जो है
ही नहीं, तो
कहा कैसे जा
सकेगा? जिसका
कोई रंग नहीं
है, आकार
नहीं है, रूप
नहीं है।
लाओत्से
कहता है, सहज
स्व का उदघाटन
करो।
छोड़ो
धार्मिकों की
बातें, जिन्होंने
कहा है कि
आत्मा ऐसी है
और वैसी है। छोड़ो
पंडितों की
बातें, जिन्होंने
निरूपण किया
है कि आत्मा
कैसी है और
कैसी नहीं है।
सब धारणाएं छोड़ो।
आत्मा के
संबंध में जो
भी तुम्हारे
खयाल हैं, वे
छोड़ दो; और
भीतर प्रवेश
करो, ताकि
जो है, उसका
उदघाटन हो
सके। और जो है,
उसका
उदघाटन तभी
होता है, जब
हम उसके संबंध
में कोई बिना
विचार लिए
भीतर प्रवेश
करते हैं।
"तुम
अपने सरल स्व
का उदघाटन करो,
अपने मूल
स्वभाव का
आलिंगन करो।'
पूछो
मत किसी से कि
तुम्हारा
स्वभाव क्या
है?
पूछने गए कि
भटके। पूछने
गए कि किसी ने
तुम्हारी
धारणा बना दी।
पूछने गए कि
उलझे। आलिंगन
ही करो। पूछने
मत जाओ, सोचने
मत जाओ, खोजने
मत जाओ। उतर ही
जाओ भीतर
उसमें। स्वाद
ही ले लो
उसका।
बुद्ध
ने कहा है, सागर
को कोई कहीं
से भी चखे, वह
नमकीन है। कोई
किसी युग में,
किसी काल
में, किसी
स्थान में
सागर को चखे, वह नमकीन
है। उस भीतर
के शून्य को
जब भी कोई चखता
है, जब भी
उसका स्वाद
लेता है, तो
उसका स्वाद एक
ही है। लेकिन
वह स्वाद
गूंगे का गुड़
है, उसे
कहा भी नहीं
जा सकता।
क्योंकि आदमी
के पास कोई
शब्द नहीं है
उसे बताने को
कि वह स्वाद
मीठा है या
नमकीन है या
कैसा है। वह
स्वाद इतना बड़ा
है कि हमारे
सब शब्द छोटे
पड़ जाते हैं।
तो पूछने मत
जाओ। उतर ही
जाओ स्वयं
में। जो निकट
है, उसका
आलिंगन ही कर
लो। उसमें डूब
जाओ।
लेकिन
हम उसे भी
खोजने बाहर
जाते हैं। अगर
हमें आत्मा भी
खोजनी है, तो
भी हम बाहर
जाते हैं।
हमें अपने को
भी खोजना है, तो भी हम
किसी से पूछते
हैं। अपना पता
भी हमें दूसरे
से ही पूछना
पड़ता है। अपनी
खबर भी हमें दूसरे
से ही पूछनी
पड़ती है। इससे
ज्यादा
बेहोशी और
क्या हो सकती
है?
लेकिन
जब भी हम
दूसरे से
पूछने जाएंगे, हमारे
स्व का जो
अनुभव है, वह
मिश्रित हो
जाएगा। और जब
भी हम दूसरे
को मान
लेंगे...। और
दूसरे को
मानने की बड़ी
इच्छा होती है
अज्ञान में; क्योंकि
सस्ता मिलता
है ज्ञान, मुफ्त
मिलता है। कोई
दे देता है और
हम ले लेते हैं।
अपना ज्ञान
पाना हो, तब
तो श्रम और तप
और यात्रा
करनी पड़ती है।
किसी का कहा
हुआ, तो
कोई अड़चन
नहीं। मुफ्त
मिल जाता है, हम स्वीकार
कर लेते हैं।
यह जो
दूसरे से
पूछ-पूछ कर
हमने अपने
संबंध में जान
रखा है, यह
काम नहीं
पड़ेगा, अगर
सत्य की खोज
करनी है। इसे
हटा ही देना
पड़ेगा।
निर्भार हो
जाना जरूरी है
समस्त
धारणाओं से।
और भीतर ऐसे
प्रवेश करना
है, जैसे
एक अचानक आपकी
नौका डूब गई
और आप एक अज्ञात
द्वीप पर
पहुंच गए, जहां
का आपको कुछ
भी पता नहीं
है, कोई
नक्शा आपके
पास नहीं है।
एक-एक कदम रख
कर ही खोजना
पड़ेगा कि क्या
है? जहां
का आपको कोई
भी पता नहीं
है, ऐसे
अज्ञात द्वीप
पर राबिन्सन
क्रूसो
की तरह आप गिर
गए। एक-एक कदम
रख कर ही पता
चलेगा--क्या
है?
सहज
स्व का अर्थ
है: वहां
पहुंचें बिना
नक्शे लिए, बिना
शास्त्र लिए,
अज्ञात
द्वीप पर पहुंच
जाएं और एक-एक
कदम चलें और
खोजें, तो
ही जैसी
स्थिति है
भीतर, वह
प्रतीत होगी,
उसका स्वाद
मिलेगा।
अन्यथा बड़े
मजे हैं, स्वाद
भी सजेस्ट
किए जा सकते
हैं। स्वाद भी
झूठे हो सकते
हैं। स्वाद भी
बाहर से
निर्मित किए
जा सकते हैं।
अगर
आपने कभी किसी
हिप्नोटिस्ट
को प्रयोग
करते देखा
हो...। न देखा हो, तो
घर में अपने
बच्चों पर
प्रयोग करके
देख सकते हैं।
एक बच्चे को
सुला दें और
पांच मिनट उसको
कहते रहें कि
वह गहरी
बेहोशी में
डूब रहा है, गहरी बेहोशी
में डूब रहा
है। बच्चे तो
सरल होते हैं;
पांच मिनट
में वह मान
लेगा कि डूब
रहा है, डूब
रहा है; वह
डूब जाएगा। और
बच्चे ही नहीं,
सौ में से
तीस प्रतिशत
लोग सरलता से
सम्मोहित हो
जाते हैं। अगर
आप दस आदमियों
को पकड़ कर सम्मोहित
करें, तो
तीन को
सम्मोहित
करने में कोई
भी सफल हो जाएगा।
कोई भी। इसमें
किसी कला की
और किसी शक्ति
की कोई जरूरत
नहीं है। दस
में से तीन
आदमी
सम्मोहित
होने को तैयार
ही हैं।
एक
बच्चे को लिटा
दें और कहें
कि बेहोश होता
जा रहा है।
पांच मिनट में
वह बेहोश हो
जाएगा। फिर
उसके मुंह के
पास प्याज ले
जाएं और कहें
कि एक सेव का
टुकड़ा
तुम्हारे
मुंह में डाल
रहे हैं, बहुत
स्वादिष्ट
है। और प्याज
उसके मुंह में
डाल दें। और
वह बच्चा
कहेगा कि बहुत
स्वादिष्ट
सेव है। उसको
प्याज की बास भी
नहीं आएगी।
उसे स्वाद सेव
का ही आएगा।
लेकिन
आप सोचते
होंगे कि यह
तो खैर
सम्मोहन की
बात हुई।
लेकिन आपने जब
कभी पहली दफा
सिगरेट पी थी, तो
आपको कैसा
स्वाद आया था,
खयाल है? लेकिन जब
इतने लोग पी
रहे हैं, तो
जरूर स्वाद
अच्छा आ ही
रहा होगा। यह
सम्मोहन है।
आपने जब पहली
दफा काफी पी
थी, तो
आपको स्वाद
कैसा आया था?
लेकिन
स्वाद को पैदा
करने वाले
कहते हैं कि
स्वाद कल्टीवेट
करना होता है।
काफी पहली दफा
पीएंगे, तो
तिक्त लगेगी
ही, कड़वी लगेगी ही।
इसमें काफी का
कसूर नहीं है;
आप
असंस्कृत हैं,
अनकल्चर्ड हैं। स्वाद कल्टीवेट
हो जाएगा।
पीते रहें!
महीने, दो
महीने में
काफी के बिना
जीना मुश्किल
हो जाएगा।
काफी
स्वादिष्ट
मालूम होने
लगेगी। क्या
हुआ महीने भर
में बार-बार
पीकर? आपने
अपने को ही
सम्मोहित कर
लिया। और काफी
के एडवरटाइजमेंट
करने वालों ने
आपको
सम्मोहित कर
दिया। और आपसे
पहले जो
सम्मोहित हो
चुके हैं, उन्होंने
भी आपको
दीक्षा में
सहायता दी और
आपको
सम्मोहित कर
दिया। अब आपको
काफी बड़ी
स्वादिष्ट
मालूम पड़ती
है।
वह जो
स्वाद है, झूठा
है। वह स्वाद
सच्चा नहीं
है। भीतर का
स्वाद भी झूठा
हो सकता है।
इसीलिए
लाओत्से कहता
है कि सहज स्व
का आलिंगन
करना। भीतर का
स्वाद भी झूठा
हो सकता है।
आप
किसी महावीर
के प्रभाव में
आ गए। और
महावीर जैसे
व्यक्तियों
का प्रभाव तो
है ही। उनसे
प्रभावित हो
जाना जरा भी
कठिन नहीं है।
उनसे
प्रभावित न
होना ही कठिन
है। फिर उनका
आनंद और उनका
संगीत और उनकी
सुगंध, उस सब
में डूब गए।
फिर उनके शब्द,
वे पकड़ लिए।
फिर उन शब्दों
को पकड़ कर आप
भीतर गए। आपको
भी वही स्वाद
आ सकता है।
लेकिन वह स्वाद
सच्चा नहीं
होगा। वह
स्वाद काफी का
ही स्वाद है।
वह सीख लिया
है आपने। वे
शब्द आपके भीतर
गूंज गए हैं।
वह महावीर की
प्रतिमा आप में
प्रतिष्ठित
हो गई है।
महावीर का भाव
आपको पकड़ गया।
आप उसी
सम्मोहन में
जी लेंगे।
लेकिन वह
अनुभव
आत्म-अनुभव
नहीं है।
महावीर भी
कहते हैं कि
वह अनुभव
आत्म-अनुभव
नहीं है। महावीर
ने अपने
शिष्यों से
कहा है कि जब
तक तुम मुझे न
छोड़ दो, तब
तक तुम स्वयं
को न पा
सकोगे।
मुझे
छोड़ने का क्या
अर्थ है
महावीर का? अर्थ
है कि मेरे
शब्द
तुम्हारे लिए
प्रेरणा तो
बनें, लेकिन
तुम्हारे लिए
दृष्टि न बन
जाएं। मेरे शब्द
तुम्हारी
प्यास तो जगाएं,
लेकिन मेरे
शब्द
तुम्हारे लिए
जल न बन जाएं।
इस फर्क को
ठीक से समझ
लेना जरूरी
है। मेरे शब्द
तुम्हारे लिए
प्यास तो जगाएं,
लेकिन मेरे
शब्द
तुम्हारे लिए
जल न बन जाएं।
कहीं ऐसा न हो
कि मेरे
शब्दों का ही
जल लेकर तुम तृप्त
हो जाओ। तो
तुम अपने जल
से वंचित ही
रह जाओगे।
तो
आध्यात्मिक
जीवन में
प्रभावित
होने का भी मूल्य
है और
अप्रभावित
बने रहने का
भी मूल्य है।
प्यास जगने के
लिए तत्परता
भी चाहिए; और
शब्द पकड़ न
जाएं, शब्द
बोझ न बन जाएं,
इसकी
जागरूकता भी
चाहिए।
लाओत्से
कहता है, "सजग,
सहज अपनी
आत्मा का
आलिंगन करो।
अपनी स्वार्थपरता
त्यागो, अपनी
वासनाओं को
क्षीण करो।'
यहां स्वार्थपरता
का क्या अर्थ
होगा? यहां
वही अर्थ नहीं
है, जो
आमतौर से हम सेल्फिशनेस
का लेते हैं।
क्योंकि उन
चीजों को तो
वह पहले ही
छोड़ने को कह
चुका है। जब
बुद्धिमत्ता
छोड़ने को कह
चुका और जब
उपयोगिता
छोड़ने को कह
चुका, तो स्वार्थपरता
का अब वही
अर्थ नहीं है,
जो हम लेते
हैं। यहां स्वार्थपरता
का गहरा अर्थ
है। हमारी स्वार्थपरता
तो उपयोगिता
में ही छूट
गई। वह जो यूटिलिटेरियन,
हर चीज में
उपयोग देखने
की दृष्टि थी,
वह छूट गई, तो हमारी स्वार्थपरता
छूट गई। यहां सेल्फिशनेस
का क्या अर्थ
है? अगर हम
यहां ठीक से
समझें, तो
यहां अर्थ है:
सेल्फ-सेंटर्डनेस,
स्व-केंद्रितता।
स्वार्थपरता
अर्थात
स्व-केंद्रितता।
साधारण
आदमी के जीवन
की पीड़ा यही
है कि वह हमेशा
स्वार्थ से
जीता है। अगर
वह प्रेम भी
करता है किसी
को,
तो उसका कोई
मतलब होता है।
उसका मतलब ही
उसके जीवन को
नष्ट कर देता
है। हम सब मतलबी
हैं। और हमारे
मतलब के बड़े
सूक्ष्म रास्ते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन एक नगर
के धनपति के
द्वार पर
दस्तक दे रहा
है। धनपति
बाहर आया।
मुल्ला ने कहा, एक
आदमी बड़ी
तकलीफ में है,
ऋण से दबा
जा रहा है, मरा
जा रहा है; कुछ
सहायता करो!
उस आदमी ने एक
रुपया निकाल
कर नसरुद्दीन
को दिया और
कहा कि अच्छे
खयाल हैं, नेक
इरादे हैं, जरूर उसकी
सहायता करो।
मुल्ला जब सीढ़ियां
उतर रहा था, तब उस अमीर
ने कहा कि एक
मिनट, क्या
मैं पूछ सकता
हूं वह कौन
आदमी है जो ऋण
से दबा जा रहा
है? मुल्ला
ने कहा, मैं
ही।
पंद्रह
दिन बाद
मुल्ला ने फिर
उसी आदमी के
दरवाजे पर
दस्तक दी।
उसने मुल्ला
को बड़े गौर से
देखा और
व्यंग्य किया
कि मालूम होता
है,
फिर कोई
आदमी ऋण से
दबा जा रहा
है। मुल्ला ने
कहा कि बिलकुल
ठीक समझे आप।
बहुत गरीब
आदमी है, उस
आदमी ने कहा।
मुल्ला ने कहा,
बिलकुल ठीक
समझे आप। उसने
कहा, और
मैं समझता हूं
कि वह ऋण से
दबे हुए आदमी
तुम ही हो।
मुल्ला ने कहा,
आप बिलकुल
गलत समझे। इस
बार वह आदमी
मैं नहीं हूं।
उस आदमी ने
कहा कि मैं
खुश हुआ यह
बात सुन कर।
और उसने दो
रुपए मुल्ला
को भेंट किए।
और जब मुल्ला
फिर सीढ़ियां
उतर रहा था, तब उसने कहा,
क्या मैं
पूछ सकता हूं
कि पिछली बार
तो मैं समझ
गया कि
तुम्हारी
उदारता की
प्रेरणा कहां
से निकली थी; इस बार
तुम्हारी
इतनी उदारता
और इतनी दया
और इतनी सेवा
का क्या कारण
है? मुल्ला
ने कहा, इस
बार ऋणदाता
मैं हूं। ऋणी
कोई और है
गरीब, ऋणदाता
मैं हूं। और
वह बिलकुल
चुका नहीं पा
रहा है पैसे, उसके लिए
पैसे इकट्ठे
कर रहा हूं।
आप
समझे? पहली
दफा मैं था
ऋणी, दबा
जा रहा था ऋण
में, किसी
के पैसे
चुकाने थे; इसलिए
मांगने आया
था। इस बार
मैं ऋणदाता
हूं; कोई
और ऋण से दबा
जा रहा है।
उसको मेरे
पैसे चुकाने
हैं और चुका
नहीं पा रहा
है; उसके
लिए पैसे
इकट्ठे कर रहा
हूं।
अगर
आदमी की हम
सेवाओं के
भीतर भी
प्रवेश करें, तो
हम स्वार्थ
पाएंगे। हम
जैसे जीते हैं,
वह स्वार्थ
है।
लेकिन
एक आदमी बाजार, संसार,
गृहस्थी, सब छोड़ कर हट
गया। जंगल में
खड़ा है एक
वृक्ष के नीचे।
उसका क्या
स्वार्थ है? उसकी तो कोई सेल्फिशनेस
नहीं है। वह
तो हट ही गया
संसार से।
लाओत्से उसके
लिए कह रहा है
यह सूत्र कि
जो आत्मा को
खोजने गया है,
वह भी मैं
अपने को खोज
लूं, मैं
अपने को पा
लूं, मेरा
मोक्ष हो जाए,
मैं आनंद को
उपलब्ध हो
जाऊं, मेरे
जीवन में दुख
न रह जाए, यह
भी सेल्फसेंटर्डनेस
है। यह भी
स्वार्थ है।
यह पारलौकिक
स्वार्थ होगा;
लेकिन यह
स्वार्थ नहीं
है, ऐसा
नहीं कहा जा
सकता। यह आदमी
भी स्वार्थी
है, यह
आदमी भी अपनी
ही फिक्र में
लगा है।
लाओत्से
कहता है, इसको
भी छोड़ दो; क्योंकि
यह भी स्वयं
को जानने में
बाधा है।
क्यों
बाधा है? अगर
स्वयं के
जानने में भी
मेरा कोई इनवेस्टमेंट
है, अगर
मुझे लगता है
कि स्वयं को
जान कर मैं
आनंद को पा
लूंगा, तो
मेरी
उत्सुकता
स्वयं को
जानने में
नहीं, आनंद
को पाने में
है--एक बात।
अगर आनंद मुझे
स्वयं को बिना
जाने मिल जाए,
तो मैं इस
उपद्रव में
कभी नहीं
पडूंगा। या
कोई अगर मुझसे
यह कह दे कि
स्वयं को तो
तुम जान लोगे,
लेकिन आनंद
नहीं पा सकोगे
स्वयं को
जानने से...।
सुना
है मैंने, जुन्नून एक सूफी
फकीर अपने
गुरु के पास
गया। उसके गुरु
ने पूछा कि
तुम किस लिए
आए हो, एक
प्रश्न में
ठीक-ठीक मुझे
कह दो। ज्यादा
बातचीत मैं
पसंद नहीं
करता हूं। तुम
एक ही प्रश्न
में अपनी सारी
जिज्ञासा
मुझे कह दो। जुन्नून
रात भर सोचता
रहा। सुबह
गुरु ने
बुलाया। जुन्नून
ने कहा कि मैं
अपने को जानना
चाहता हूं। जुन्नून
के गुरु ने
कहा, अगर
अपने को जानना
अत्यंत कष्टपूर्ण
हो, और अपने
को जान कर अगर
तुम दुख में
पड़ जाओ, तो
भी तुम अपने
निर्णय पर दृढ़
हो? जुन्नून ने कहा, मैं
तो आनंद पाने
के लिए स्वयं
को जानना
चाहता हूं। तो
उसके गुरु ने
कहा, तुम
फिर से सोच कर
आओ। तब तुम
कहो कि मैं
आनंद पाना
चाहता हूं।
स्वयं को
जानना चाहता
हूं, यह
क्यों कहते हो?
तुम्हारा
लक्ष्य अगर
आनंद को पाना
है और अगर आनंद
बिना स्वयं को
जाने मिल सकता
हो, तो
स्वयं को
जानने से
तुम्हें क्या
प्रयोजन है?
नीत्शे
ने तो यहां तक
कहा है कि लोग
धर्मों के चक्कर
में इसीलिए
पड़े हैं कि
उनको खयाल है
कि धर्म से
आनंद मिल
जाएगा। न
परमात्मा से
किसी को मतलब
है,
न आत्मा से
किसी को मतलब
है, न सत्य
से किसी को
मतलब है। अगर
लोगों को पता
चल जाए कि
परमात्मा और
आनंद का कोई
लेना-देना नहीं
है, तो
संसारी और
धार्मिक
आदमियों में
फर्क खोजना
मुश्किल हो
जाए। जिस तरफ
संसारी दौड़
रहे हैं, उसी
तरफ धार्मिक
भी दौड़ने
लगें। अभी अगर
वे विपरीत
दौड़ते दिखाई
पड़ते हैं, तो
दिशाओं में
फर्क हो, लक्ष्यों
में फर्क नहीं
है--आनंद!
सांसारिक सोचता
है, इससे
आनंद मिलेगा।
एक आदमी धन
इकट्ठा कर रहा
है; क्योंकि
सोचता है, धन
इकट्ठा करने
से आनंद
मिलेगा। एक
आदमी प्रार्थना
कर रहा है; क्योंकि
सोचता है, प्रार्थना
करने से आनंद
मिलेगा। ये
दोनों आदमी
कितने ही उलटे
खड़े दिखाई
पड़ें, ये
उलटे नहीं हैं,
ये विपरीत
नहीं हैं। इन
दोनों की
बुद्धि बिलकुल
एक सी है। और
इनकी यात्रा
में जरा भी
फर्क नहीं है।
लाओत्से
कहता है, स्वार्थपरता छोड़ो।
अगर तुम स्वयं
को जानना
चाहते हो और
सरल, सहज
स्व का अनुभव
करना चाहते हो,
तो इस स्वयं
को जानने में
कोई आकांक्षा
न हो कि मैं यह
पा लूंगा, कि
मैं यह पा
लूंगा, कि
मैं यह पा
लूंगा। इसमें
पाने का कोई
खयाल न हो।
इसमें
तुम्हारा
निजी कोई हित
का खयाल न हो।
यह बड़ा
कठिन है।
हमारे
स्वार्थ को
संसार से हटा
कर मोक्ष पर
लगाना कठिन
नहीं है।
हमारे लोभ को
धन से हटा कर
धर्म पर लगाना
जरा भी कठिन
नहीं है। सरल
है। बल्कि सच
तो यह है कि
जितना बड़ा
लोभी हो, उतनी
जल्दी
धार्मिक हो
जाता है।
क्योंकि बहुत
जल्दी उसे
समझाया जा
सकता है कि यह
तुम क्या ठीकरे
इकट्ठे कर रहे
हो सोने-चांदी
के? जब
मरोगे, तो
ये काम न
पड़ेंगे। अगर
असली संपदा
चाहिए, तो
दान करो; जो
मरने के बाद
भी काम पड़ेगी।
अगर आप
छोटे-मोटे
लोभी हैं, तो
आप कहेंगे, चलेगा; मरने
तक भी हम
तृप्त हैं, मरने के बाद
का देखेंगे।
अगर आप बड़े
लोभी हैं और ग्रीड बड़ी
भयंकर है, तो
आप जरूर हिसाब
लगाएंगे कि
मरने के बाद
अगर ये काम
नहीं पड़ते, तो इनमें से
कुछ को उन
सिक्कों में
बदल लो, जो
मरने के बाद
काम पड़ते हैं।
दान कर दो।
बड़े लोभी बड़ी
जल्दी
धार्मिक हो
जाते हैं।
कंजूस बड़ी
जल्दी
धार्मिक हो
जाते हैं।
इससे उनमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता; सिर्फ
उनके लोभ को
एक नया आयाम
और मिल जाता
है, और
विस्तार हो
जाता है।
लेकिन
धर्म के जगत
में वे ही
प्रवेश करते
हैं,
जिनका कोई
भी लोभ नहीं
है। जिनको
इतना भी लोभ नहीं
है कि आनंद भी
मिलेगा, कि
मोक्ष मिलेगा,
कि स्वर्ग
मिलेगा।
लाओत्से
कहता है, स्वार्थपरता छोड़ो।
यहां स्वार्थपरता
उस दूसरे तल
की है, क्योंकि
आत्मज्ञान के
साथ इसकी बात
की जा रही है।
यह भी मत सोचो
कि तुम्हें
आनंद मिलेगा।
कौन जानता
है--मिले, न
मिले? कौन
कह सकता है, क्या मिलेगा?
कोई पक्का
नहीं है। कोई
आश्वासन नहीं
दे सकता। कोई
सुरक्षा नहीं
है, कोई
गारंटी नहीं
है। तुम सिर्फ
इसीलिए जानने
चलो कि तुम हो,
और अपने को
न जानना बड़ी
एब्सर्डिटी
है, बड़ी
बेहूदगी है।
मैं हूं और
मुझे पता नहीं
कि मैं कौन
हूं! सिर्फ
इसीलिए तुम
जानने चलो कि
तुम्हें पता
ही नहीं कि
तुम कौन हो और
तुम हो। इसमें
कोई और
स्वार्थ मत जोड़ो।
इसमें यह मत
कहो कि जान
लूंगा, तो
आनंद मिलेगा;
जान लूंगा,
तो अमृतत्व
मिल जाएगा; जान लूंगा, तो फिर कोई
दुख न रह
जाएगा; जान
लूंगा, तो
मोक्ष की परम
शांति मिलेगी;
जान लूंगा,
तो निर्वाण
मिल जाएगा।
न, जानने
के साथ कुछ
मिलने को मत जोड़ो।
क्योंकि जो
मिलने को जोड़
रहा है, वह
जान ही न
पाएगा।
क्योंकि
जिसकी अभी
आकांक्षा कुछ
पाने की लगी
है, वह अभी
अपने से बाहर
ही घूमेगा, भीतर नहीं आ
सकता। भीतर तो
वही आता है, जिसकी कोई
आकांक्षा
नहीं रह गई।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"स्वार्थपरता त्यागो,
अपनी
वासनाओं को
क्षीण करो।'
निश्चित
ही ये वासनाएं
आध्यात्मिक
आदमी की
वासनाएं हैं।
सांसारिक आदमी
की वासनाएं तो
समाप्त हो गईं
पहले सूत्रों
में। ये
आध्यात्मिक
आदमी की
वासनाएं हैं। स्प्रिचुअल
डिजायर्स, आध्यात्मिक
वासनाएं--यह
शब्द उलटा
मालूम पड़ेगा,
कंट्राडिक्टरी
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि हम कभी
सोचते नहीं कि
आध्यात्मिक
वासना भी होती
है!
आध्यात्मिक
वासना भी होती
है। और जब तक
आध्यात्मिक
वासना है, तब
तक अध्यात्म
का कोई जन्म
नहीं होता है।
जिनको हम
संन्यासी
कहते हैं, उनमें
अधिक लोग
सांसारिक
वासना छोड़
देते हैं, आध्यात्मिक
वासना पकड़
लेते हैं।
वास्तविक संन्यासी
वही है, जिसकी
कोई वासना
नहीं है--न
सांसारिक, न
आध्यात्मिक।
जीसस
के मरने की
घड़ी करीब आ
गई। उस रात वे पकड़े जाने
को हैं। आखिरी
क्षण है; शिष्य
विदा हो रहे
हैं। एक शिष्य
पूछता है कि आखिरी
वक्त है, अब
जाते वक्त
इतना तो बता
दें कि स्वर्ग
के राज्य में,
जिसका आपने
हमें आश्वासन
दिया है, किंगडम
ऑफ गॉड, उसमें
आप तो
परमात्मा के
बगल में
बैठेंगे, हम
लोगों की
जगहें क्या
होंगी? ठीक
है, परमात्मा
सिंहासन पर
होगा, आप
उसके बेटे हैं,
बगल में
होंगे। हम लोग
आपके संत हैं,
हम लोग कहां
बैठेंगे?
शायद
ईश्वर के
राज्य शब्द को
सुन कर ही लोभ
के कारण ये
लोग जीसस के
पास इकट्ठे हो
गए हैं। वहां
परम आनंद होगा, वही
इनकी वासना बन
गई है। संसार
को ये छोड़ सके हैं
एक सौदे की
तरह। एक बार्गेन
है।
और
तथाकथित
धार्मिक लोग
समझाते रहते
हैं चौबीस
घंटे कि संसार
में क्या रखा
है! क्षणभंगुर
है। कोई उनसे
पूछे कि अगर
क्षणभंगुर न
हो,
तब? तब
सब कुछ रखा है?
कहते हैं, इस आदमी के
शरीर में क्या
रखा है!
हड्डी-मांस-मज्जा
है। कहीं
सोना-चांदी हो
भीतर, फिर?
कि आदमी में
क्या रखा है, यह मर जाएगा
कल! अगर यह न
मरे, तो? वे किस बात
को आपके भीतर
जगा रहे हैं? वे सिर्फ
आपके लोभ को, आपकी वासना
को बदल रहे
हैं। वे कह
रहे हैं, इसमें
क्या रखा है!
उनका वासना से
कोई विरोध नहीं
है। जहां आप
वासना को लगाए
हैं, वह
जगह
क्षणभंगुर है,
वहां से हटाओ,
शाश्वत की
तरफ लगाओ।
लेकिन वासना
को नहीं मिटाने
की कोशिश है।
लाओत्से
जैसे लोग विषय
बदलने को नहीं
कहते, वासना
ही मिटा देने
को कहते हैं।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लें।
मैं धन के
पीछे दौड़ रहा
हूं। कोई मुझे
समझाता है, क्या
पागलपन कर रहे
हो, धन में
क्या रखा है? कल मर जाओगे,
मौत बड़ी चीज
है, धन से
भी बड़ी चीज
है। धन मिले
कि न मिले; मौत
का मिलना
बिलकुल पक्का
है। वह मुझे
डरा देता है।
कहता है, कल
मर जाओगे, कल
का भरोसा नहीं
है। और तुम धन
के पीछे दौड़
रहे हो। अगर
दौड़ना ही है, तो उसके
पीछे दौड़ो,
जो असली धन
है। भगवान के
पीछे दौड़ो।
मेरा लोभ
डगमगाता है।
मुझे भी दिखता
है कि धन पा भी
लूंगा, तो
क्या होगा? मौत तो
आएगी। अगर मौत
को भी रिश्वत
दी जा सके, तो
धन काम पड़
सकता है।
लेकिन मौत अब
तक रिश्वत लेती
देखी नहीं गई।
तो मौत से बच
नहीं सकूंगा,
तो फिर क्या
करूं? भगवान
के लिए दौडूं।
मगर दौड़ जारी
रहेगी। विषय
बदल जाएगा, दौड़ जारी
रहेगी।
लक्ष्य बदल
जाएगा, वासना
जारी रहेगी।
लाओत्से
जैसे लोग कहते
हैं,
दौड़ो ही मत। यह
नहीं कहते कि
संसार फिजूल
है, इसलिए
मत दौड?ो; और परमात्मा
सार्थक है, इसलिए दौड़ो।
ये तो स्वार्थ
की ही बातें
हैं। यह तो स्वार्थपरता
ही हुई। इसका
तो मतलब यह
हुआ कि जो
ज्यादा चालाक
हैं, वे
परमात्मा को
पाने की कोशिश
करते हैं; जो
कम चालाक हैं,
वे धन को पाने
की कोशिश करते
हैं। इसका
मतलब तो साफ
है कि जो गणित
में कुशल हैं,
होशियार
हैं, वे इन
छोटी बातों
में नहीं
पड़ते। जो
बच्चे हैं, नासमझ हैं, वे छोटी
बातों में पड़
जाते हैं।
क्या मकान बना
रहे हो जमीन
पर, मोक्ष
में बनाओ।
वहां टिकेगा
चट्टान पर। और
यहां रेत है।
तो जो रेत में
बनाते हैं, वे नासमझ
हैं। और जो
चट्टानों पर
बनाते हैं, वे समझदार
हैं। तब तो यह
सारा का सारा
मामला कम
चालाक और
ज्यादा चालाक
लोगों का हुआ।
इसलिए
लाओत्से बहुत
जोर देकर कहता
है,
चालाकी छोड़ो,
स्वार्थपरता छोड़ो, वासनाओं को
क्षीण करो।
आध्यात्मिक
अर्थ में, अगर
वासना रह गई
है किसी भी
दिशा में, तो
भटकन जारी
रहेगी। ठहर
जाओ, दौड़ो ही मत।
वासना
का अर्थ क्या
है?
वासना का
अर्थ है:
दौड़ना, भागना।
वासना का अर्थ
है: पाने को
कहीं कुछ दूर
है। मैं यहां
हूं, पाने
को कुछ वहां
है; दोनों
के बीच फासला
है। उस फासले
को पूरा करने
का नाम वासना
है। मैं यहां
हूं, आप
वहां हैं; मुझे
आपको पाना है;
मेरे आपके
बीच डिस्टेंस
है, फासला
है। इस फासले
को पूरा करना
है। कब कर पाऊंगा,
पता नहीं।
लेकिन मन में
अभी कर लेता
हूं। मन में
अभी कर लेता
हूं। महल कब
बनेगा, पता
नहीं; मन
में अभी बना
लेता हूं। महल
में कब रहूंगा,
पता नहीं; मन में अभी
रहना शुरू कर
देता हूं।
वासना फासले
को दूर करने
का उपाय है।
वासना मेरे और
मेरी इच्छा का
जो लक्ष्य है,
उसके बीच
सेतु बनाना
है। यद्यपि
सेतु इंद्रधनुष
का सेतु है।
दिखता भर है, बनता कभी भी
नहीं।
तो जो
वासना से भरा
है,
वह कभी
स्वयं में
नहीं ठहर
सकता। वह
हमेशा कहीं और,
कहीं और, कहीं और
होगा--समव्हेयर
एल्स।
सिर्फ स्वयं
में नहीं हो
सकता, और
कहीं भी हो
सकता है। जहां
वासना होगी, वहीं दौड़ा
हुआ होगा। अगर
कोई वासना न
हो, तो आप
खड़े हुए होंगे,
अपने में
होंगे, स्वस्थ
होंगे, स्वयं
में स्थित हो
जाएंगे। अगर
आपको कुछ भी
पाना नहीं है,
एक क्षण को
भी ऐसी स्थिति
आ जाए कि कुछ
पाना नहीं है,
तो आप दौड़े
कहां होंगे? आप ठहर गए
होंगे। वह
स्थिति ही
समाधि है।
वासना है अपने
से बाहर
दौड़ना। इसलिए
निर्वासना स्व-ज्ञान
का अनिवार्य
आधार है।
लाओत्से
कहता है, "वासनाओं
को क्षीण करो।'
लेकिन
हमें बहुत घबड़ाहट
होगी। वासना
बदलने को कोई
कहे,
हम राजी
हैं। कोई कहे,
छोड़ो, पृथ्वी की
स्त्रियों
में क्या रखा
है? स्वर्ग
में अप्सराएं
हैं! चित्त
बहुत प्रफुल्लित
होता है।
लेकिन
स्त्रियों की
जगह अप्सराएं
रखना जरूरी
है। क्या पी
रहे हो यहां
साधारण सी
शराब? बहिश्त
में झरने हैं
शराब के! नहाओ,
धोओ, डूबो, जो भी करना
है, करो।
और ध्यान रहे,
अगर झरनों
में पीना है
बहिश्त के, तो यह
चुल्लू-चुल्लू
पीना छोड़ना
पड़ेगा। यह सौदा
है। जो चालाक
हैं, वे इस
सौदे के लिए
तैयार हो जाते
हैं।
इसलिए
कई दफे मैं
देखता हूं कि
शराबी भी कई
दफे भोला
दिखाई पड़ता है, लेकिन
साधु उतना
भोला नहीं
दिखाई पड़ता।
हैरानी की बात
है, होना
नहीं चाहिए
ऐसा। लेकिन
शराबी में एक
भोलापन दिखाई
पड़ता है।
नासमझ है, हिसाब
का बिलकुल पता
नहीं है कि
क्या कर रहा है।
बहिश्त के
चश्मे छोड़ रहा
है और यहां
क्यू लगा कर
शराबघर के
सामने खड़ा है।
जो होशियार
हैं, वे
यहां क्यू
नहीं लगा रहे
हैं। वे माला
फेर रहे हैं।
वे तैयारी कर
रहे हैं कि जब
कूदना ही है, तो झरने पर
ही कब्जा कर
लेंगे। यह
क्या छोटे-छोटे...।
मगर यह
सौदा है। और
सौदे का धर्म
से कोई भी संबंध
नहीं है। सौदे
की वृत्ति ही
स्वार्थ है।
और सौदे में वासना
छिपी ही हुई
है। किसलिए
कर रहे हैं
पूजा? किसलिए कर रहे हैं
ध्यान? किसलिए कर रहे हैं
त्याग? किसलिए कर रहे हैं
दान? अगर
आपके पास कोई
भी उत्तर है
कि इसलिए, तो
आपकी वासना
शेष है।
अगर आप
कहते हैं कि
कोई कारण नहीं
है;
कोई कारण
नहीं है, आगे
पाने के लिए
कोई सौदा नहीं
है। लेकिन
प्रार्थना
करना अपने आप
में ही
पर्याप्त
आनंद है। आगे
कोई पाने की
बात नहीं है।
प्रार्थना ही
आनंद है। देने
में सुख है।
देने से सुख
मिलेगा, तो
वासना है। और
देने में सुख
है, तो
धर्म है। देने
से सुख मिलेगा
कभी, तो
सौदा है। और
देना ही सुख
है। और आगे
कोई लेन-देन
नहीं है। इससे
हम कोई हिसाब
न रखेंगे कि इतना
हमने दिया।
इससे हम किसी
स्वर्ग का
आयोजन नहीं
करते। और अगर
कल नरक में भी
डाल दिए जाएंगे,
तो हमारे मन
में शिकायत न
होगी कि मैंने
इतना दिया था
और मुझे नरक?
दिया
था,
उसका आनंद
देने में ही
मिल गया है।
हिसाब चुकता
हो गया।
प्रार्थना की
थी; जो
प्रार्थना से
मिल सकता था, उसी क्षण
मिल गया है।
और जिसको उस
क्षण नहीं मिला
है, उसे
कभी नहीं
मिलेगा।
क्योंकि इस
जगत में प्रत्येक
कार्य का कारण
साथ ही जुड़ा
हुआ है। अभी हाथ
आग में
डालूंगा, अभी
जल जाऊंगा।
अभी नहीं जला
हूं, तो
कभी नहीं जलूंगा।
प्रार्थना
अभी की है, तो
जो आनंद बरसना
था, वह
प्रार्थना
करने में ही
बरस गया। उस
प्रार्थना के
कृत्य के बाहर
कोई उपलब्धि
नहीं है। अगर
कोई उपलब्धि
की धारणा है, तो
प्रार्थना भी
एक वासना है।
इसे जरा कठिन
होगा समझना।
और अगर
उपलब्धि की
कोई धारणा
नहीं है, तो
प्रत्येक
कृत्य
प्रार्थना हो
जाता है। प्रत्येक
कृत्य करने
में ही पूरा
हो गया है।
कोई हिसाब
लेकर हम आगे
नहीं चलते। जो
क्षण बीत गया,
उसके साथ
हमारे सब
संबंध समाप्त
हो गए। कोई सौदा
बाकी नहीं रहा
है। उस क्षण
में कुछ ऐसा
नहीं है, जो
अगले क्षण में
हम मांग करें।
सांसारिक
आदमी सौदा कर
रहा है। इसलिए
जो भी आदमी
सौदा कर रहा
है,
वह संसार
में है। वह
स्वर्ग का
सौदा है कि
मोक्ष का, इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता।
आध्यात्मिक
आदमी सौदा
नहीं कर रहा
है। जी रहा है
एक-एक क्षण को
उसकी समग्रता
में।
तो
लाओत्से कहता
है,
वासनाओं को
क्षीण करो।
क्योंकि
वासनाएं तुम्हें
कभी सौदे की
दुनिया के ऊपर
न उठने देंगी।
तब तुम कुछ भी
करोगे, किसी
दृष्टि से
करोगे कि क्या
मिलेगा?
उमर खय्याम
से कोई पूछता
है कि तुमने
इतने गीत गाए--किसलिए? तो
उमर खय्याम
कहता है, पूछो
जाकर, वह
जो फूल खिला
है गुलाब का, उससे--किसलिए?
पूछो रात
में उगे हुए
तारों से--किसलिए?
पूछो हवाओं
से कि तुम
इतने-इतने
जन्मों से बह रही
हो--किसलिए?
प्रकृति
में कहीं कोई
प्रयोजन नहीं
है। सिर्फ
आदमी की वासना
को छोड़ कर
कहीं कोई
प्रयोजन नहीं
है;
कहीं कोई परपज नहीं
है। और आदमी
में तो दो ही
तरह के लोग परपजलेस,
प्रयोजनमुक्त होते हैं।
एक जिनको हम
पागल कहते हैं;
और एक जिनको
हम परमहंस
कहते हैं। एक
जिनको हम कहते
हैं कि इनकी
बुद्धि डगमगा
गई; एक
जिनको हम कहते
हैं कि ये
बुद्धि के पार
चले गए। इसलिए
पागलों में और
परमहंसों
में थोड़ी सी
समानता होती
है। कोई एक
गुणधर्म बराबर
होता है। और
वह गुणधर्म है
परपजलेसनेस,
प्रयोजनरिक्तता।
लाओत्से
कहता है, छोड़ो स्वार्थपरता,
छोड़ो प्रयोजन, छोड़ो सौदा, छोड़ो वासना, तो
तुम स्वयं के
सहज स्वभाव को
आलिंगन कर
सकोगे, अपने
में प्रतिष्ठित
हो सकोगे। और
इस प्रतिष्ठा
के अतिरिक्त कहीं
कोई धर्म नहीं
है।
लेकिन
हम तो बड़ी से
बड़ी चीज को भी
एक ही भाषा में
सोचते हैं।
मेरे पास लोग
आते हैं। वे
कहते हैं, ध्यान
से क्या
मिलेगा? पहली
बात, ध्यान
से क्या
मिलेगा?
उनको
क्या कहूं कि
ध्यान से क्या
मिलेगा? एक ही
उत्तर सही हो
सकता है कि
ध्यान से
ध्यान मिलेगा।
मगर यह बेकार
है। यह तो टोटोलाजी
मालूम पड़ेगी।
इससे क्या हल
हुआ? वे
फिर पूछेंगे
कि ध्यान से
जो ध्यान
मिलेगा, उससे
क्या मिलेगा?
वे कोई नगद
रुपए में
चाहते हैं
उत्तर कि यह
मिलेगा।
इसलिए
महर्षि महेश
योगी की बात पश्चिम
में काफी
लोगों को
प्रभावित की।
क्योंकि
उन्होंने
बहुत नगदी
उत्तर दिए।
उन्होंने कहा, धन
भी मिलेगा, स्वास्थ्य
भी मिलेगा, सफलता भी
मिलेगी। फिर
अमरीका को
जंची बात, सौदा
बिलकुल साफ
है। ध्यान से
धन भी मिलेगा,
सफलता भी
मिलेगी। जो भी
करोगे, उसी
में सफल हो जाओगे।
तब फिर इसको
बाजार में
बेचा जा सकता
है।
लाओत्से
जैसे आदमियों
को बाजार में
नहीं बेचा जा
सकता। उनसे
पूछो, क्या
मिलेगा? तो
वे कहेंगे कि
अभी तुम इस
योग्य भी नहीं
कि तुम्हें
उत्तर दिया
जाए। तुम पूछ
क्या रहे हो? तुम पूछ रहे
हो, प्रेम
से क्या
मिलेगा? तो
तुम प्रेम के
संबंध में
उत्तर पाने के
भी अधिकारी नहीं
हो। तुम जाओ
और कौड़ियां
बीनो और
इकट्ठी करो।
जो आदमी पूछता
है कि प्रेम
से क्या
मिलेगा, उसको
उत्तर देना
चाहिए? और
क्या उत्तर वह
समझ पाएगा? और क्या
उत्तर का कोई
भी अर्थ निकल
पाएगा? व्यर्थ
होगा।
लोग
पूछते हैं, ध्यान
से क्या
मिलेगा? प्रार्थना
से क्या
मिलेगा? धर्म
से क्या
मिलेगा? उन्हें
पता ही नहीं
है कि जब कोई
व्यक्ति मिलने
की भाषा छोड़ता
है, तभी
धर्म में
प्रवेश होता
है। जब तक वह
पूछता है, क्या
मिलेगा, क्या
मिलेगा, क्या
मिलेगा, तब
तक वह संसार
में दौड़ता
है।
लेकिन
हमको अगर कोई
भरोसा दिलवा
दे कि मिलेगा, वहां
भी कुछ मिलेगा,
तो फिर हम
वहां भी दौड़ने
को तत्पर हो
जाते हैं। दौड़
चाहिए! ठहरने
से मन घबड़ाता
है। इसलिए
लाओत्से जैसे
लोग बहुत
भयभीत करवा देते
हैं।
कनफ्यूशियस
बहुत भयभीत
होकर लाओत्से
के पास से
लौटा था। और
जब उसके
शिष्यों ने
पूछा कि कैसा
था यह आदमी? तो
कनफ्यूशियस
ने कहा, वह
कोई आदमी नहीं
है। वह एक
खतरनाक सिंह
की भांति है।
उसके पास जाओ,
तो
रोआं-रोआं कंप
जाता है, पसीना
आ जाता है। वह
कोई आदमी नहीं
है, वह एक
सिंह है। उस
तरफ जाना ही
मत। वह भीतर
आत्मा तक को
कंपा देता है।
वह इस ढंग से
देखता है। एक
क्षण उसकी आंख
अगर रुक जाए
ऊपर, तो
प्राण का
रोआं-रोआं
कंपने लगता
है।
कंपने
ही लगेगा; क्योंकि
लाओत्से जो कह
रहा है, वह
आत्यंतिक है,
अल्टीमेट
है। वह
क्षुद्र
बातों पर
रुकने के लिए
राजी नहीं है।
वह क्षुद्र
बातों के
उत्तर भी नहीं
देगा। वह यह भी
नहीं कहेगा कि
तुम्हें
ध्यान से
शांति मिलेगी।
क्या है मूल्य
अशांति का? शांति ही
चाहिए, तो ट्रैंक्वेलाइजर
से मिल जाएगी।
क्यों ध्यान
के पीछे पड़ते
हैं! शांति
चाहिए, तो
नशा करके लेट
जाइए।
लेकिन
ध्यान की तलाश
में भी लोग
आते हैं, कोई
शांति के लिए
आ रहा है, कोई
स्वास्थ्य के
लिए आ रहा है। तरहत्तरह
के लोग, लेकिन
वासनाएं लेकर
ही आते हैं।
मंदिरों को भी
हम वेश्यालयों
से भिन्न
व्यवहार नहीं
करते, वहां
भी हम वासना
लेकर ही पहुंच
जाते हैं। और जहां
हम वासना लेकर
पहुंचते हैं,
वहीं
वेश्यालय हो
जाता है।
क्योंकि
खरीदने की
इच्छा है वहां
भी। वहां भी
हम मंदिर में
भी रुपए को जोर
से पटक कर कुछ
खरीदने
पहुंचे हैं
आवाज करके।
मंदिर में भी
लोग रुपया
धीरे से नहीं
रखते--देखा
आपने? ऐसा
जोर से पटकते
हैं कि खनक की
आवाज सब दीवारें
सुन लें और
अगर परमात्मा
कहीं हो, तो
उसको भी पता
चल जाए कि एक
रुपया फेंका
है नगद। अब
वहां भी हम
खरीदने जा रहे
हैं।
बोधिधर्म
भारत के बाहर
गया। और जब वह
चीन पहुंचा, तो
वहां के
सम्राट ने कहा
कि मैंने
हजारों विहार
बनवाए; लाखों
भिक्षुओं को
मैं भिक्षा
देता हूं रोज;
बुद्ध के
समस्त
शास्त्रों का
मैंने चीनी
भाषा में
अनुवाद करवाया
है; लाखों
प्रतियां
मुफ्त बंटवाई
हैं; धर्म
का मैंने बड़ा
प्रचार किया
है; हे
बोधिधर्म, इस
सब से मुझे
क्या लाभ होगा?
मुझे क्या
मिलेगा इसका
पुरस्कार? इसका
प्रतिफल क्या
है?
उसने
गलत आदमी से
पूछ लिया। और
भिक्षु थे
लाखों, जो
उसकी भिक्षा
पर पलते थे।
वे कहते थे, तुम पर
परमात्मा की
बड़ी कृपा है।
तुम्हारा मोक्ष
सुनिश्चित
है। हे सम्राट,
तुम जैसा
सम्राट
पृथ्वी पर कभी
न हुआ और न कभी होगा।
तुम धर्म के
परम मंगल को
पाओगे। तुम पर
आशीष बरस रहे
हैं बुद्धों
के। तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ते, देवता
फूल बरसाते
हैं तुम पर।
उसने सोचा कि
बोधिधर्म भी
ऐसा ही भिक्षु
है। गलती हो
गई। बोधिधर्म
जैसे आदमी
कभी-कभी होते
हैं, इसलिए
गलती हो जाती
है।
बोधिधर्म
ने कहा, बंद
कर बकवास! अगर
पहले कुछ
मिलता भी, तो
अब कुछ नहीं
मिलेगा। तूने
मांगा कि खो
दिया। सम्राट
तो बेचैन हो
गया। हजारों
भिक्षुओं की
भीड़ के सामने
बोधिधर्म ने
कहा कि कुछ भी
नहीं मिलेगा।
फिर भी उसने
सोचा कि कुछ
गलती हो गई
समझने में बोधिधर्म
के या मेरे।
उसने कहा, इतना
मैंने किया, फल कुछ भी
नहीं!
बोधिधर्म ने
कहा, फल की
आकांक्षा पाप
है। किया, भूल
जा! इस बोझ को
मत ढो, नहीं
तो इसी बोझ से
डूब मरेगा।
पाप के बोझ से
ही लोग नहीं
डूबते, पुण्य
के बोझ से भी
डूब जाते हैं।
बोझ डुबाता है।
और पाप से तो
आदमी छूटना भी
चाहता है; पुण्य
को तो कस कर
पकड़ लेता है।
यह पत्थर है
तेरे गले में;
इसको छोड़
दे।
लेकिन
सम्राट वू को
यह बात पसंद न
पड़ी। हमारी वासनाओं
को यह बात
पसंद पड़ भी
नहीं सकती।
इतना किया, बेकार!
सम्राट वू को
पसंद न पड़ी, तो बोधिधर्म
ने कहा कि मैं
तेरे राज्य
में प्रवेश
नहीं करूंगा,
वापस लौट
जाता हूं।
क्योंकि मैं
तो सोच कर यह आया
था कि तूने
धर्म को समझ
लिया होगा, इसलिए तू
धर्म के फैलाव
में आनंदित हो
रहा है। मैं
यह सोच कर
नहीं आया था
कि तू धर्म के
साथ भी सौदा
कर रहा है।
मैं वापस लौट
जाता हूं।
और
बोधिधर्म वू
के साम्राज्य
में प्रवेश
नहीं किया, नदी
के पार रुक
गया। वू को
बड़ी बेचैनी
हुई, सम्राट
को। बड़े दिनों
से प्रतीक्षा
की थी इस आदमी
की। यह बुद्ध
की या लाओत्से
की हैसियत का आदमी
था। और उसने
इस भांति
निराश कर
दिया। उसने सब
जार-जार कर
दिया उसकी
आकांक्षाओं
को। अगर यह एक
सील-मुहर लगा
देता और कह
देता, हां
सम्राट वू, तेरा मोक्ष
बिलकुल
निश्चित है; सिद्ध-शिला
पर तेरे लिए
सब आसन बिछ
गया है; तेरे
पहुंचने भर की
देर है। द्वार
खुले हैं; स्वागत
के लिए
बैंड-बाजे सब
तैयार हैं। तो
वू बहुत प्रसन्न
होता।
हमारी
वासनाएं ही
अगर हमारी
प्रसन्नता
हैं,
तो धर्म के
जगत में हमारे
लिए कोई
प्रवेश नहीं
है। अगर
निर्वासना
होना ही हमारी
प्रसन्नता है,
तो ही
प्रवेश हो
सकता है।
निर्वासना
धर्म के लिए
बहुत
विचारणीय है।
क्षुद्र
वासनाओं के
त्याग की बात
नहीं है। गहन
वासनाएं मन को
पकड़े हुए
हैं।
बुद्ध
के पास एक
आदमी आता है
और वह कहता है, मैं
ध्यान करूं, साधना करूं,
आप जैसा कब
तक हो जाऊंगा?
बुद्ध ने
कहा, जब तक
तुझे यह खयाल
रहेगा कि मेरे
जैसा कब तक हो
जाएगा, तब
तक होना
मुश्किल है।
यही खयाल बाधा
है। इस खयाल
को छोड़ दे।
ध्यान कर। इस
खयाल से, इस
वासना से नहीं
कि बुद्ध जैसा
कब तक हो जाऊंगा।
बुद्ध
से कोई आकर
पूछता है कि
आपके इन दस
हजार भिक्षुओं
में कितने लोग
ऐसे हैं, जो आप
जैसे हो गए? तो बुद्ध
कहते हैं, बहुत
लोग हैं। तो
वह आदमी कहता
है, लेकिन
उनका कुछ पता
नहीं चलता। तो
बुद्ध कहते हैं,
उनको खुद
अपना पता नहीं
रहा है। तो वह
आदमी पूछता है,
लेकिन आपका
तो पता चलता
है और आप जैसा
तो कोई नहीं
दिखाई पड़ता!
बुद्ध ने बड़े
मजे की बात
कही। बुद्ध ने
कहा कि मैंने
शिक्षक होने
के लिए कुछ
पाप-कर्म
पिछले जन्म
में किए थे, वे पूरे कर
रहा हूं।
शिक्षक होने
के लिए--टु बी ए
टीचर--वे
पाप-कर्म
मैंने किए थे।
जैनों
में तो पूरा
सिद्धांत है
उसके लिए कि
कुछ कर्मों के
कारण व्यक्ति
को तीर्थंकर
का जन्म मिलता
है--कुछ
कर्मों के
कारण। कुछ
कर्मों का
आखिरी बंधन
उसको
तीर्थंकर बनाता
है। और तब
अपना बंधन
काटने के लिए
उसे लोगों को
समझाना पड़ता
है।
तो
बुद्ध ने कहा, मैंने
कुछ कर्म किए
थे कि शिक्षक
होने का उपद्रव
मुझे झेलना
पड़ेगा। वह मैं
झेल रहा हूं।
अपने-अपने किए
का फल है।
उन्होंने
नहीं किया था।
वे बिलकुल खो
गए हैं और
शून्य हो गए
हैं। समझाने
के लिए भी
उनके भीतर कोई
नहीं है कि जो समझाए।
सब खो गया है।
और जब
इतना सब खो
जाता
है--वासना
नहीं, कोई
स्वार्थ
नहीं--तब जिस
शून्य का उदय
होता है, वही
स्वभाव है, वही ताओ है।
आज
इतना ही। कल
हम शेष बात
करेंगे। रुकें, पांच
मिनट कीर्तन
करें।
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