दिनांक 25 जनवरी
1978;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र
:
सर्वानृते
किमितिवेन्नैव
बुद्धधानत्त्वात्।।36।।
प्रकृत्यन्तरालादवैकार्यचित्त्वेनानुवर्तमानत्वात्।।37।।
तत्पष्ठिगृहपीठवत्।।38।।
मिथेपेक्षणादुभयम्।।39।।
चैत्याचितोर्नत्रितीयम्।।40।।
एक दृष्टि
पूर्व—सूत्रों
पर।
शांडिल्य
ने कहा— भक्ति परम
दशा है। परम दशा
यानी भगवत्ता।
जंहा भक्त और भगवान
में भेद न रह जाए।
जब तक भेद है, तब
तक अज्ञान है।
जब तक दूरी है,
तब तक मिलने
की प्यास, मिलने
की पीड़ा कायम रहेगी।
इंचभर भी दूरी
हो, तो दुख मौजूद
रहेगा।
सारी दूरी
मिट जाए, भक्त
भगवान में लीन
हो जाए, भगवान
भक्त में लीन हो
जाए—जैसे नदी सागर
में गिर गयी और
अब कोई अंतराल
न रहा, नदी सागर
हो गयी और सागर
नदी हो गया—ऐसी
परम दशा का नाम
भगवत्ता है। जहां
भक्त भी नहीं और
भगवान भी नहीं।
जहां दुई समाप्त
हुई, द्वैत
मिटा।
ऐसी
परम दशा में स्वभावत:
श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि
की कोई आवश्यकता
नहीं रह जाती।
न जप, न तप; न मंत्र, न
तंत्र; न विधि,
न विधान। भक्ति
अंतिम सिद्धि है।
उसके पार कुछ पाने
को नहीं है। इसलिए
पाने के साधनों
का कोई प्रयोजन
भी नहीं है। शांडिल्य
ने भक्त को परमहंस
कहा। पा लिया जो
पाना था, अब
पाने को कुछ भी
नहीं है। इसलिए
भक्त की सारी यात्रा
समाप्त हो गयी।
तीर्थ आ गया, यात्रा समाप्त
हो गयी।
भक्ति के
बाद फिर कुछ करने
की बात ही नहीं
उठती। फिर भक्त
सिर्फ आनंदमग्न
हो जीता है। फिर
उसका जीवन एक उत्सव
है, साधना नहीं।
समझ लेना
इसे ठीक से।
भक्ति का
जीवन उत्सव का
जीवन है, साधना
का जीवन नहीं।
प्रयास नहीं प्रसाद।
इस सिद्धि को ही
शांडिल्य ऐश्वर्य
कहते हैं।
‘तामैंश्वर्थ्यपदा
काश्यप: परत्वात्।
काश्यप
ने भी उसे ऐश्वर्यपदा
कहा है। उस घड़ी
में सारे जगत का
ऐश्वर्य तुम्हारा
है। सारी गरिमा, सारा
गौरव, सारा
वैभव। चांद—तारे
तुम्हारे हैं।
सूरज और पृथ्वी
तुम्हारी है। वृक्ष
और पशु—पक्षी तुम्हारे
हैं। क्योंकि तुम
नहीं रहे। जब तक
तुम थे, तब तक
बाधा थी। अब अधिकार
करने वाला चूंकि
कोई नहीं रहा,
अधिकार है।
इस बात को
खयाल में लेना।
जब तक तुम
चाहते हो मालिक
हो जाऊं, तब तक तुम
मालिक न हो सकोगे।
मालिक होने की
भावना में ही मालकियत
नहीं है, इस
बात की घोषणा छिपी
है। तुम मालिक
होना चाहते हो,
यही बताता है
कि तुम अभी मालिक
नहीं हो। मालिक
होने की चाह में
तुम्हारी दीनता
छिपी है। जो पद
के लिए दौड़ता है,
उसके भीतर हीनता
की ग्रंथि होगी।
जो धन के लिए दौड़ता
है, वह निर्धन
होगा। जो सुंदर
होना चाहता है,
वह निश्चित ही
कुरूप होगा। तुम
वही तो पाना चाहते
हो जो तुम्हारे
पास नहीं है।
स्वामी
राम अपने को बादशाह
कहते थे। अमरीका
गये तो किसी ने
पूछा—आप के पास
कुछ भी नहीं और
बादशाह! दो लंगोटिया
हैं आपके पास, भिक्षा
का पात्र है आपके
पास, यह आपकी
बादशाहत है! यह
आपका साम्राज्य
है! राम ने कहा कि
इन्हीं के कारण
थोड़ी साम्राज्य
मे बाधा है। इन्हीं
के कारण साम्राज्य
पूरा—पूरा नहीं
है। और कोई अड़चन
नहीं रही, ये
दो लंगोटिया है
और यह भिक्षापात्र
है, इसी से थोड़ा
मेरे सम्राट होने
में कमी रह गई।
इतने पर मैं अभी
अधिकार रखना चाहता
हूं। जितने पर
अधिकार रखना चाहता
हूं; उतनी ही
मेरी दीनता
इसलिए हमने
बुद्ध और महावीर
को सम्राट कहा, जो
भिखारी हो गये।
और भिखारियों और
सम्राटों में हमने
कोई फर्क नहीं
पाया। भिखारी भी
मांगता है, सम्राट भी मागते
हैं। बड़े से बड़े
सम्राट में भी
भिखमंगापन कायम
रहता है। भिखमंगेपन
का अर्थ होता है
—अभी मांग कायम
है; अभी कुछ
सिद्ध करके दिखाना
है; अभी कुछ
कमी खलती है, अखरती है।
भक्त
की वह दशा परम ऐश्वर्य
की दशा है। ऐश्वर्यपदा
है। सब छोड़ा कि
सब पाया। अपने
को गंवाया कि परमात्मा
को पाया। इधर बूंद
मिटी नहीं कि उधर
सारे सागसे से
एक हो गयी। इधर
बीज टूटा नहीं
कि वृक्ष हुआ।
इधर तुम मरे नहीं, मिटे
नहीं कि उधर तुम
शाश्वत के साथ
एक हुए, कि अमृत
तुम्हारा हुआ।
काश्यप ठीक ही
कहते है—
‘तामैंश्वर्थ्यपदा
काश्यप: परत्वात्।
और यह सिद्धि
ऐश्वर्य की ही
सिद्धि नहीं है
कि बाहर के विराट
पर तुम्हारा साम्राज्य
फैल गया, यह आत्म
सिद्धि भी है।
यह और भी समझ लेने
की बात है। जिस
दिन तुम अपने को
खोते हो, उसी
दिन अपने को पाते
हो। खोये बिना
कोई पाना नहीं
है। जितना अपने
को पकड़ते हो, उतना गंवाते
हो। जितना जोर
से पकड़ते हो, उतने ही सिकुड़
जाते हो। निर्भय
हो, जाने दो,
छोड़ो; जो
जाना है, जाने
दो; जो तुम्हारे
छोड़ने पर भी बच
रहे, वही आत्मा
है;जो बिना
बचाये बच रहे,
जिसे तुम छोड़ना
भी चाहो और न छोड़
सको, वही आत्मा
है। जो तुम्हारे
छोड़ने से छूट जाए,
वह छाया थी,
आत्मा नहीं थी;
माया थी, आत्मा नहीं थी।
यह परम ऐश्वर्य
बाहर का ही नहीं
है,
भीतर का भी है।
अंतर और बाहर यहा
एक हो गये है।
आत्मैकपरा
बादरायण:।
इसलिए बादरायण
ने कहा कि वह परम
दशा आत्मपर है।
वह स्वयं की परम
अनुभूति है; सर्व
की और स्वयं की
काश्यप ने सर्व
पर जोर दिया, बादरायण ने स्वयं
पर जोर दिया। यह
उसी एक सत्य को
कहने के दो ढंग
हैं। काश्यप ने
कहा—ईश्वर ही बचता
है; बादरायण
ने कहा— भक्त ही
बचता है। बूंद
जब सागर में गिरती
है तो तुम यह भी
कह सकते हो कि बूंद
अब सागर हो गयी,
और तुम यह भी
कह सकते हो कि सागर
अब बूंद हो गया।
दोनों बातें सही
हैं। वह स्थिति
वस्तुत: दोनों
है, क्योंकि
वहा दोनों का मिलन
है। वहा रेखाएं
समाप्त हो गयीं,
सीमाएं विलीन
हो गयीं, क्योंकि
भक्त और भगवान
अब दो नहीं है।
भक्त को ध्यान
में रखें तो वह
स्थिति है आत्मपरा,
भगवान को ध्यान
में रखें तो वह
स्थिति है ऐश्वर्यपदा।
शांडिल्य ने इसलिए
निष्कर्ष दिया—उभयपरा
शांडिल्य:। वह
दोनों है, उभयपर
है। एक ही सिक्के
के दो पहलू है— भक्त
और भगवान एक ही
सिक्के के दो पहलू
है। न तो
भक्त के बिना भगवान
है, न भगवान
के बिना भक्त है।
यहूदी
फकीर बालसेन अपनी
प्रार्थनाओं में
कहता था—मुझे तुम्हारी
जरूरत है, सच,
लेकिन तुम्हें
भी मेरी जरूरत
है। तुम्हारे बिना
मैं न हो सकूंगा
भगवान, यह सच,
लेकिन मेरे बिना
तुम भी कैसे हो
सकोगे? भक्त
के बिना भगवान
का क्या अर्थ होगा?
गुरु के बिना
शिष्य का कोई अर्थ
नहीं है, शिष्य
के बिना गुरु का
कोई अर्थ नहीं
है। अर्थ उभय है।
दोनों मिलकर अर्थ
को पैदा करते हैं।
दोनों का मिलन
जंहा होता है,
वहीं अर्थ की
उत्पत्ति होती
है।
‘उभयपरा
शांडिल्य: शब्दोपपत्तिभ्याम्।
इनको दो
कहो,
ठीक नहीं;एक की तरफ से कहो,
अधूरा है। शांडिल्य
ने बड़ा समन्वय
का सूत्र साधा।
समन्वय में कहा—दोनों
बातें ठीक हैं;दोनों महर्षि
हैं, काश्यप
भी और बादरायण
भी, दोनों सही
हैं, मगर दोनो
से भी ज्यादा सही
बात यह होगी कि
हम एक पर जोर न दें।
सब जोर एकागी हो
जाते हैं। एकागी
जोर असत्य हो जाते
हैं। हम संतुलन
रखें, समन्वय
रखें, दोनों
तराजू बराबर हों।
जंहा दोनों तराजू
बराबर होते हैं,
उस संतुलन मे
ही सत्य की अभिव्यक्ति
होती है। इसलिए
शांडिल्य ने काश्यप
और बादरायण दोनों
से ऊंची छलाग ली,
अर्थात वह उभय
है; दोनों है
और दोनो नहीं है;
दोनों है और
दोनों के पार है।
वह परम ऐश्वर्य
की दशा है, जिसको
शब्दों में कहना
कठिन। शब्दों में
कहा कि असत्य होना
शुरू हो जाता है।
शब्दों में कहा
तो एक को चुनना
पड़ेगा। एक को चुना
तो दूसरे का निषेध
हो जाता है। उसे
तो मौन में ही कहा
जा सकता है। उसे
तो मस्ती और मादकता
में कहा जा सकता
है। उसे तो भक्त
जब लीन होकर नाचता
है तब उसके नृत्य
में पढ़ना। जब कोई
दीवाना अपना एकतारा
बजाता है तब उसके
एकतारे के नाद
में सुनना। जब
कोई भक्त उस परम
रस में लीन होकर
खो जाता है, अपना होश—हवास
गंवा देता है,
बेखुद हो जाता
है, तब उसकी
बेखुदी मे पढ़ना।
जब भक्त बोलेगा,
सिद्धात की भाषा
में कहेगा, तब थोड़ी अड़चन
हो जाएगी। क्योंकि
शब्दो की सीमा
है।
इतनी बात
खयाल में रहे तो
आज के सूत्र समझ
में आने आसान होगें।
पहला सूत्र—
‘सर्व अनृते
किम इति चेत न एवं
बुद्धधानत्यात्।
सब छोड़ देने
पर फिर उसकी क्या
आवश्यकता है! आवश्यकता
अवश्य है; क्योंकि
बुद्धि बहुत प्रकार
की होती है। ' शांडिल्य संभावित
शंकाओं का उत्तर
दे रहे है। वे कहते
है—यह शंका उठ सकती
है किसी के मन में
कि जब सब छोड़ दिया
तब परमात्मा को
पाया, अब सब
छोड़ देने के बाद
ऐश्वर्य की चर्चा
क्यों उठायी जा
रही है? सब तो
छोड़ दिया, ऐश्वर्य
भी छोड़ दिया, सारी पकड़ छोड़
दी, सारा परिग्रह
छोड़ दिया, अब
जब सब छोड़ दिया
और परमात्मा का
मिलन हुआ, तो
अब शांडिल्य ऐश्वर्य
की बात क्यों उठा
रहे हैं? सूत्र
पूरे हो गये है।
जहां भक्त भगवान
हो गया, वहा
ये सूत्र समाप्त
हो जाने चाहिए,
किसी के मन में
यह संदेह—शंका
उठ सकती है। यह
सार्थक शंका है।
संगत है, उपयोगी
है। शांडिल्य इसकी
संभावना को मानकर
उत्तर देते हैं।
वे कहते
है—आवश्यकता अवश्य
है,
क्योंकि बुद्धि
बहुत प्रकार की
होती है। ये सूत्र
किसी एक ही प्रकार
की बुद्धि के लिए
नहीं लिखे जा रहे
है। ये सूत्र मनुष्य
की समस्त बुद्धियों
की संभावनाओं को
मानकर लिखे जा
रहे है। ये सूत्र
सब के लिए लिखे
जा रहे हैं, किसी एक वर्ग
के लिए नहीं। एक
वर्ग है जो कहेगा—जब
शून्य आ गया, जब सत्य आ गया
और जब अब कहते हैं
इसके पार जानने
की कोई जरूरत नहीं
है, न अब तंत्र,
न मंत्र, न योग, न तप,
न श्रवण—मनन—निदिध्यासन,
कुछ भी नहीं
बचा, सब साधन
समाप्त हो गये,
तो अब चुप हो
जाना चाहिए। इसलिए
बहुत से संत जानकर
चुप हो गये। फिर
बोले नहीं। फिर
बोलना असंगत है।
लेकिन शांडिल्य
चुप नहीं हैं।
यह अवस्था आ गयी,
अब वे इस अवस्था
का वर्णन करते
हैं। और यह भी कहते
हैं कि अवस्था
का वर्णन हो नहीं
सकता, वर्णन
के अतीत है।
मैंने तुम्हें
कल कहा था, या
परसों, पश्चिम
के बड़े विचारक
विटगिस्टीन ने
कहा है—जों न कहा
जा सके, उसे
कहना ही नहीं।
नहीं तो भूल होगी।
जो न कहा जा सके,
उसके संबंध में
चुप ही रह जाना।
दैट व्हिच कैन
नाट बी सेड शुड
नाट बी सेड। जब
नहीं कहा जा सकता,
तो फिर कहने
की भूल करोगे तो
कुछ न कुछ गलती
हो जाएगी।
लाओत्सु
जिंदगीभर चुप रहा, अस्सी
साल का हो गया था
तब तक उसने एक शब्द
नहीं लिखा, लोग पूछते और
वह टालता; जितना
पूछते उतना टालता,
जितना टालता
उतना लोग पूछते
कि जरूर कुछ पा
लिया है, गुमसुम
होकर बैठ गया है।
कबीर जैसा रहा
होगा लाओत्सु।
कबीर ने कहा न कि
जब मिल गया रतन,
गांठ गठियायो,
जल्दी से अपनी
गांठ बाधकर सम्हालकर
रख लिया, अब
उसको बार—बार क्या
खोलना और लोगों
को दिखाना! मिल
गया मिल गया, सम्हाल लिया,
रख लिया भीतर
गांठ बांधकर।
अस्सी साल
की उस में लाओत्सु
देश का त्याग करके
चला हिमालय की
तरफ। हिमालय से
सुंदर जगह कहां
होगी अंतिम समाधि
के लिए! कहते हैं
मार्ग में चीन
को छोड़ते समय चीन
की अंतिम सीमा
पर द्वारपालों
ने रोक लिया और
द्वारपालों ने
कहा कि ऐसे नहीं
जाने देंगे। जो
तुमने जाना है, लिख
दो, तो बाहर
जाने देंगे। सम्राट
की खबर हमें आयी
है कि लाओत्सु
भाग न जाए। तो हम
तुम्हें निकलने
न देंगे देश के
बाहर। इस मजबूरी
में उन पहरेदारों
के तंबू में बैठकर
तीन दिन तक लाओत्सु
ने ताओ—तेह—किग
नाम की किताब लिखी—छोटी
सी किताब है। अदभुत
किताब है। पहला
ही सूत्र लिखा—जों
कहा जा सकता है,
वह सत्य नहीं।
मजबूरी में कहना
पड़ रहा है, लेकिन
ध्यान रखना जो
कहा जा सकता है
वह सत्य नहीं होता।
सत्य तो सदा अनकहा
रह जाता है।
शांडिल्य
कहते हैं ऐसे लोग
हुए हैं, जो चुप
रह गये। उन्होंने
उस परम ऐश्वर्य
की कोई बात नहीं
की। उस परम ऐश्वर्य
के सामने अवाक
हो गये। हृदय की
धड़कन बंद हो गयी,
सांस ठहर गयी।
वाणी खो गयी; गूंगे हो गये;गूंगे का गुड़
हो गया सत्य। ऐसे
बहुत लोग हुए हैं
जो चुप हो गये।
जो चुप हो गये,
हो गये। उनके
लिए वही स्वाभाविक
रहा होगा। शांडिल्य
कहते है—लेकिन
बुद्धियां बहुत
प्रकार की हैं।
एक बुद्धि का यह
प्रकार है जो मौन
हो गयी। जिसने
फिर मोक्ष का वर्णन
नहीं किया। यह
जानकर कि नहीं
किया जा सकता वर्णन,
बात ही नहीं
उठायी। मगर दूसरी
एक बुद्धि भी है
जो यह जानकर कि
वर्णन नहीं किया
जा सकता, चुनौती
को स्वीकार कर
लेती है;और
इसीलिए वर्णन करने
में लग जाती है
कि वर्णन नहीं
किया जा सकता।
वर्णन करना ही
होगा। जिसका वर्णन
किया जा सकता है,
उसका वर्णन क्या
करना? जिसका
नहीं किया जा सकता
उसी का करना है।
चुनौती वहा है।
प्रतिभा के लिए
मौका और अवसर वहा
है। जो बातें कही
जा सकती है, उनको क्या कहना?
यही फर्क
है कवि और ऋषि का।
कवि उन बातों को
कहता है जो कही
जा सकती है। कठिन
हों भला कहना, लेकिन
कही जा सकती हैं।
ऋषि उन बातों को
कहता है जो मौलिक
रूप से कही ही नहीं
जा सकतीं। कहने
का जिन से कोई संबंध
ही नहीं बनता।
ऋषि असंभव को करने
की चेष्टा करता
है। यही उसकी गरिमा
है।
अच्छे थे
वे लोग जो चुप रह
गये। मगर अगर सभी
जानने वाले चुप
रह गये होते तो
मनुष्य जाति का
बड़ा भयंकर दुर्भाग्य
होता। तो शांडिल्य
के सूत्र तुम्हारे
पास न होते, तो
उपनिषद तुम्हारे
पास न होते, तो कुरान तुम्हारे
पास न होती, तो धम्मपद तुम्हारे
पास न होता। तो
तुम्हारे पास कुछ
भी महत्वपूर्ण
न होता। और जरा
सोचो, अगर कुरान
न हो, बाइबिल
न हो, वेद न हों,
धम्मपद न हो,
गीता न हो, उपनिषद न हो;खजुराहो और कोणार्क
के मंदिर न हों;अजंता—एलोरा
की गुफाएं न हों,
तो तुम्हारे
पास क्या बचेगा?
बीथोवन का संगीत
न हो, माइकल
एंजिलो की मूर्तियां
न हों, तो तुम्हारे
पास क्या बचेगा?
एक सौ नाम मनुष्य
जाति के इतिहास
से निकाल लो और
मनुष्य जाति का
सारा इतिहास दो
कौड़ी हो जाता है।
ये वे ही सौ नाम
हैं जिन्होंने
असंभव को प्रकट
करने की कोशिश
की है। फिर चाहे
पत्थर मे खोदा
हो, चाहे संगीत
के स्वरों में
छेड़ा हो, चाहे
चित्रों में आका
हो, चाहे गीतो
में गाया हो, चाहे शब्दों
में बांधा हो,
इस से कुछ फर्क
नहीं पड़ता, ये तो अलग—अलग
माध्यम हैं।
बुद्ध ने
जो धम्मपद में
कहा है, वही किसी
ने अजंता—एलोरा
मे कहा है। वात्स्यायन
ने जो काम—सूत्र
में कहा है, वही किसी ने खजुराहो
के पत्थरों में
कहा है। किसी ने
वीणा पर बजाया
है और किसी ने तूलिका
उठाकर चित्रों
में रंगा है। ये
माध्यम हैं अलग—अलग।
लेकिन उसके कहने
की अथक चेष्टा
चलती रही है जो
नहीं कहा जा सकता।
जो अभिव्यक्ति
योग्य नहीं है
उसने बड़ी चुनौती
दी है। उसकी चुनौती
में ही मनुष्य
जाति में प्रतिभा
प्रगटी है। उसकी
चुनौती जिन्होंने
स्वीकार की है,
वे अपूर्व थे।
वे सुपुत्र थे।
जो चुप रह गये,
उनका कुछ कसूर
नहीं;भेद हैं
बुद्धियों के।
शांडिल्य
कहते है—ऐश्वर्य
की बात करनी तो
कठिन है, परमात्मा
को शब्दों में
उतारना तो कठिन
है, फिर भी मैं
कहूंगा। यह चुनौती
मैं खाली न जाने
दूंगा। यह अवसर
ऐसे ही नहीं खो
जाए, बोलूंगा।
तुतलाहट ही क्यो
न हो बोलना, तुकबंदी ही क्यों
न हो—तुकबदी ही
सही, तुतलाहट
ही सही—शायद किसी
के कान में वे तुतलाहट
से भरे हूए शब्द
भी पड़ जाएं और मधुरस
घोल जाएं; शायद
कोई सोया जाग जाए;
शायद कोई बंद
आंख खुले, और
देखे। संसार के
वैभव में भागते
हुए आदमी को इस
वैभव की खबर मिल
जाए शायद और उसके
मन मे सवाल उठे
कि मैं जिसको वैभव
समझ रहा हूं;वह तो वैभव ही
नहीं है? मैंने
जिसको अब तक ऐश्वर्य
समझा है, वह
ऐश्वर्य नहीं है,
असली ऐश्वर्य
तो कहीं और है।
पता चले तो ही तो
लोग यात्रा पर
निकलते हैं। कोई
कहे कि जरा और आगे
बढ़ों, सोने
की खदान है, जरा और कि हीरे
की खदान है, तो आदमी खोज पर
निकलता है। फिर
सौ में से निन्यानबे
न जाएं खोज पर,
कोई फिकर नहीं,
एक भी अगर गया
तो भी पर्याप्त
है। श्रृंखला जारी
रहती है। करोड़ों—करोड़ों
लोगों में एक आदमी
भी सत्य को पाता
रहे तो सत्य का
झरना बहता रहता
है। और जिनको प्यास
लगे, उनके लिए
जलस्रोत उपलब्ध
होते है।
शांडिल्य
कहते है—आवश्यकता
अवश्य है, क्योंकि
बुद्धि बहुत प्रकार
की होती है। यह
एक तरफ से मैंने
बात कही, दूसरी
तरफ से भी समझ लेनी
चाहिए। ऐसे भी
लोग हैं जो मौन
से समझ लेंगे।
मगर वे बहुत विरल
है। बुद्धि बहुत
प्रकार की होती
है। ऐसे लोग हैं
जो मौन से ही समझेगे।
जिनके लिए चुप्पी
ही संदेश होगी।
जब बुद्ध चुप बैठे
होंगे, तभी
कुछ लोग बुद्ध
के साथ संवाद कर
पाएंगे।
ऐसा
हुआ,
एक आदमी आया
बुद्ध के पास,
भर दुपहरी थी,
और उसने आकर
बुद्ध को कहा कि
मेरे कुछ प्रश्न
हैं और मैं पूछना
चाहता हूं;मैं
ज्यादा देर ठहर
भी नहीं सकता,
मैं जल्दी में
हूं —और जल्दी में
तो सभी हैं, समय भागा जा रहा
है, कल का भरोसा
नहीं है। इसलिए
आप टालना मत, मुझे उत्तर अभी
चाहिए। और यह भी
आप से निवेदन कर
दूं कि मुझे शब्दों
में उत्तर नहीं
चाहिए, मुझे
तो आप असली चीज
कह दें, असली
चीज दिखा दें,
एक झरोखा खोल
दें; एक झलक
हो जाए, दरस—परस
करवा दें। और उसकी
आंखों से आंसू
बहने लगे।
बुद्ध ने
आखें बंद कर लीं।
आनंद जो उनके पास
बैठा था बड़ा हैरान
हुआ कि अब यह मामला
कैसे हल होगा? यह
आदमी कहता है —शब्द
में कहें मत, दरस—परस करवा
दें! हमें सुनते—सुनते
वर्षो हो गये तब
दरस—परस नहीं हुआ
और यह इतनी जल्दी
मे है! अधैर्य की
भी एक सीमा होती
है! और बुद्ध कुछ
क्षण चुप रहे,
फिर उन्होंने
आंख खोली, उस
आदमी ने झुककर
चरण छुए और कहा—आप
की बड़ी अनुकंपा
है। मैं धन्यभाग!
आप ने बड़ी कृपा
की मैं किन शब्दों
मे धन्यवाद करूं?
याद रखूंगा यह
क्षण। यह भूले
न भूलेगा। यह मेरे
जीवन की सबसे बड़ी
संपदा है। यह मेरे
भीतर दीये की तरह
जलेगा। मौत के
क्षण में भी यह
मेरे साथ होगा।
मैं अनुगृहीत हूं।
और वह आदमी झुकता
है और झुकता है
और झुकता है।
आनंद और
चकित होता है।
उसके जाते
ही वह बुद्ध से
पूछता है—यह मामला
क्या है? हुआ क्या?
मैं भी बैठा
था, मुझे तो
कोई दरस—परस नहीं
हुआ। कुछ दिखायी
भी नहीं पड़ा, कुछ... और आप ने कुछ
कहा भी नहीं, आप आंख बंद करके
बैठ गये, वह
आदमी बैठा रोता
रहा, और इतनी
जल्दबाजी में लेन—देन
हो गया! न इस हाथ
से उस हाथ में कुछ
चीज गयी, न कुछ
मुझे दिखायी पड़ा,
और मैं भर अकेला
यहां था जो ठीक—ठीक
आंख खोले बैठा
था—आप भी आंख बंद
किये थे, उस
आदमी की आखें भी
आधी बंद थीं। बुद्ध
ने कहा—आनंद, मुझे याद है भलीभांति...
आनंद बुद्ध का
चचेरा भाई था,
दोनों साथ—साथ
बड़े हुए थे—आनंद
बड़ा भाई था—साथ—साथ
खेले थे, साथ—साथ
घुड़सवारी की थी,
शिकार किये थे,
साथ—साथ गुरुकुल
में रहे थे... बुद्ध
ने कहा मुझे भलीभांति
पता है आनंद, बचपन में तुझे
घोड़ों का बड़ा शौक
था, इसलिए तुझे
उसी प्रतीक मे
कहता हूं—
ऐसे घोड़े
होते हैं कि मारो
और मारो तो भी चलते
नहीं। आनंद ने
कहा—यह बात सच है।
ऐसे घोड़े मैं जानता
हूं। और ऐसे भी
घोड़े होते हैं
आनंद, कि मारो तो
चलते हैं, न
मारो तो नहीं चलते।
और ऐसे भी घोड़े
होते हैं आनंद,
कि मारने की
जरूरत नहीं होती,
सिर्फ कोड़ा फटकारना
पड़ता है। और ऐसे
भी घोड़े होते हैं
आनंद कि कोड़ा फटकारना
भी नहीं पड़ता,
कोड़े की मौजूदगी
काफी है। और तूने
ऐसे भी घोड़े शायद
देखे होंगे कि
कोड़े की मौजूदगी
की भी जरूरत नहीं,
कोड़े की छाया
काफी है। ऐसे कुलीन
घोड़े भी होते हैं
कि कोड़े की छाया
काफी है। आनंद
ने कहा—यह बात मेरी
समझ में आती है।
वह तो भूल ही गया
इस आदमी को, वह तो घोड़ों की
बात उसकी समझ मे
आयी—घोड़ों का प्रेमी
था। बुद्ध ने कहा—यह
ऐसा ही घोड़ा था,
इसको सिर्फ छाया
काफी है;फटकारना
भी नहीं पड़ा, कोड़ा दिखाना
भी नहीं पड़ा, सिर्फ छाया।
इधर मैंने आंख
क्या बंद कीं कि
उधर उसने आखें
खोल लीं। लेन—देन
हो गया है। मौन
ही मौन में हो गया
है। यह संतरण मौन
है।
तो ऐसे लोग
हैं जो मौन मे समझ
लेंगे। मगर बहुत
विरले हैं ऐसे
लोग। फिर जो लोग
मौन में समझ लेंगे, उनके
लिए किसी के द्वारा
बताया जाना आवश्यक
नहीं है। अगर यह
आदमी बुद्ध के
पास न आता, तो
भी समझकर ही मरता।
यह आदमी बिना समझे
नहीं मर सकता था।
हो सकता था किसी
वृक्ष के पास बैठकर
समझ जाता—क्योंकि
वृक्ष भी मौन हैं।
और हो सकता था किसी
पहाड़ की कंदरा
में बैठकर समझ
जाता—क्योंकि पहाड़
भी मौन हैं। और
हो सकता था चांद
को देखकर समझ जाता—क्योंकि
चांद भी मौन है।
यह आदमी देर—अबेर
समझ ही जाता। बुद्ध
के पास आने से चलो
घटना जल्दी घट
गयी। मगर यह आदमी
समझता तो जरूर।
जो इतने जल्दी
समझ गया, जो
इतनी त्वरा से
समझा, इतनी
तीव्रता से समझा,
इसके भीतर गहन
प्यास थी। यह आदमी
निन्यानबे डिग्री
पर उबलता हुआ पानी
था। जरा सा धक्का
कि सौ डिग्री हो
गया और उड़ गया।
शायद बुद्ध के
पास न आता तो दो—चार
साल लग जाते—या
दो—चार जन्म—लेकिन
क्या मूल्य है
दो—चार जन्मों
का भी इस लंबे विस्तार
में? दो पल से
ज्यादा मूल्य नहीं।
मगर यह पहुंच तो
जाता।
शांडिल्य
कहते है—ऐसे लोग
हैं जो मौन से समझ
लेंगे। मगर वे
तो विरले है। जो
कोड़े की छाया से
चलेंगे ऐसे घोड़े
तो विरले है। अधिक
तो ऐसे हैं जिन्हें
शब्दों की जरूरत
होगी। फिर शब्दों
के मारे—मारे भी
कहां चलते है? उनके
लिए कहना होगा,
उनके लिए बोलना
होगा। और वे ही
बहुमत में हैं,
जो शब्दों से
भी कहने पर नहीं
समझ पाएंगे। जो
शब्दों से कहने
पर नहीं समझ पाते,
वे मौन को तो
कैसे समझेगे?
इसलिए बुद्धियां
अलग—अलग प्रकार
की हैं।
फिर और भी
बात समझ लेना, इस
सूत्र मे कई बातें
आ गयी है।
कुछ लोग
है जो ईश्वर में
उत्सुक हैं ऐश्वर्य
मे नहीं;और कुछ
लोग हैं जो ऐश्वर्य
में उत्सुक हैं,
ईश्वर में नहीं।
जो लोग ईश्वर में
उत्सुक हैं, उन से अगर ऐश्वर्य
की बात न करो तो
चलेगा। ऐश्वर्य
ईश्वर की छाया
है। आ ही जाएगा।
जीसस का प्रसिद्ध
वचन है;सीक
यू फर्स्ट द किंग्डम
आफ गाड, देन
आल एल्म शैल बी
ऐडेड अनटू यू।
पहले तुम प्रभु
को खोज लो—या प्रभु
के राज्य को खोज
लो—फिर शेष सब वैभव,
सारी संपदाएं
अपने आप पीछे से
चली आएंगी। मगर
पहले प्रभु को
खोज लो। ऐसे लोग
है जो ईश्वर में
उत्सुक हैं, उन्हें ईश्वर
की चर्चा काफी
है। ऐश्वर्य की
चर्चा आवश्यकता
नहीं। वे कहेंगे
—व्यर्थ समय क्यों
खराब करते हैं,
बात पूरी हो
गयी।
लेकिन ऐसे
भी लोग है—और यह
दूसरा वर्ग बड़ा
है—जो अगर ईश्वर
में भी उत्सुक
होते हैं तो इसीलिए
उत्सुक होते हैं
कि उनकी उत्सुकता
ऐश्वर्य में है।
वे प्रभु में उत्सुक
होते है क्योंकि
प्रभुता में उनकी
उत्सुकता है। उनकी
उत्सुकता को भी
ध्यान में रखना
जरूरी है। और उनकी
संख्या बड़ी है।
संसार मे आदमी
धन को खोजता है—खोजता
है और नहीं पाता—तब
यही धन की खोज ध्यान
की खोज बन जाती
है। बाहर खोज लिया, नहीं
पाया, अब सोचता
है भीतर खोजें;
मगर खोज तो धन
की ही है। बाहर
हार गया है तो अब
भीतर चलता है,
कहता है—चलो
ठीक है, कोई
जगह छूट न जाए,
कोई दिशा छूट
न जाए।
आदमी बाहर
प्रभुता खोजता
है,
बाहर पद खोजता
है, फिर हार
जाता है—क्योंकि
बाहर किस को कब
पद मिलता है? जिनको नहीं मिलता
उनको तो नहीं मिलता,
जिनको मिलता
है उनको भी कहां
मिलता है? बाहर
के सब पद थोथे है।
दिखावा बड़ा है,
भीतर कुछ भी
नहीं है। छाछ भी
हाथ नहीं आती।
शोरगुल बहुत मचता
है, परिणाम
कुछ भी नहीं है।
एक न एक दिन
आदमी को यह बात
समझ में आ जाती
है कि पद बाहर का
मिलता नहीं। मिल
जाए तो भी कुछ मिलता
नहीं। उस दिन आदमी
परमपद को खोजने
निकलता है। लेकिन
खोजता परमपद को
है,
परम ऐश्वर्य
को। उस आदमी के
लिए ईश्वर गौण
है, ऐश्वर्य
प्रमुख है। खोजने
निकलता है ऐश्वर्य
को, मिल जाता
है ईश्वर—छाया
की तरह यह दूसरी
बात है।
इसलिए शांडिल्य
कहते है—यह चर्चा
ऐश्वर्य की करनी
होगी। यह अधिक
लोगों के काम की
है। सब छोड़ देने
पर इस ऐश्वर्य
की चर्चा की जरूरत
क्या है, कोई पूछे
तो शांडिल्य कहते
है—जरूरत है;क्योंकि बुद्धि
बहुत प्रकार की
होती है। और सदगुरु
वही है जो सब प्रकार
की बुद्धि के लिए
सूत्र दे जाए।
गुरु और
सदगुरु का फर्क
क्या है?
गुरु का
अर्थ होता है, जो
एक प्रकार की बुद्धि
के लिए सूत्र दे
जाए। उसकी सीमा
है। वह एक तरह की
बात कह जाता है,
उतनी बात जिनकी
समझ में पड़ती है
उतने थोड़े से लोग
उसके पीछे चल पड़ते
हैं। सदगुरु कभी—कभी
होता है। सदगुरु
का अर्थ होता है,
जो मनुष्य मात्र
के लिए बात कह जाए।
जो किसी को छोड़े
ही नहीं। जिसकी
बाहें इतनी बड़ी
हों कि सभी समा
जाएं—स्त्री और
पुरुष, सक्रिय
और निष्किय, कर्मठ और निष्किय,
बुद्धिमान और
भाविक, तर्कयुक्त
और प्रेम से भरे,
सब समा जाएं,
जिसकी बांहों
में सब आ जाएं;
जिसकी बांहों
में किसी के लिए
इनकार ही न हो।
बुद्ध ने बोला।
वर्षो तक स्त्रियों
को दीक्षा नहीं
दी। इनकार करते
रहे। वह मार्ग
पुरुषों के लिए
था। उसमें स्त्रियों
की जगह नहीं है।
स्त्रियों का थोड़ा
भय भी है। और जब
मजबूरी में, बहुत आग्रह करने
पर बुद्ध ने दीक्षा
भी दी स्त्रियों
को, तो यह कहकर
दी कि मेरा धर्म
पांच हजार साल
चलता, अब केवल
पांच सौ साल चलेगा,
क्योंकि स्त्रियों
की मौजूदगी मेरे
धर्म को भ्रष्ट
कर देगी।
बुद्ध के
सूत्र मौलिक रूप
से पुरुष के लिए
काम के हैं, क्योंकि
प्रेम की वहा कोई
जगह नहीं है। प्रीति
का वहा कोई उपाय
नहीं है। और स्त्रैण—चित्त
तो प्रीति के बिना
परमात्मा की तरफ
जा ही नहीं सकता।
तो खतरा है, बुद्ध गलत नहीं
कह रहे हैं, बुद्ध ठीक ही
कह रहे है। बुद्ध
का भय साफ है कि
मैंने स्त्रियों
को ले लिया है।
और मार्ग पुरुषों
का है, और स्त्रियां
बिना प्रीति के
रह नहीं सकतीं,
तो आज नहीं कल
स्त्रियां अपनी
प्रीति को डालना
शुरू कर देंगी
इस मार्ग पर और
यह मार्ग शुद्ध
ध्यान का है, प्रेम का और प्रार्थना
का नहीं है। और
स्त्रियों ने प्रीति
डाल दी, उन्होंने
बुद्ध पर ही प्रीति
डाल दी, उन्होंने
बुद्ध की ही पूजा
शुरू कर दी—स्त्री
बिना पूजा के नहीं
रह सकती। पुरुष
को पूजा करना बड़ा
कठिन मालूम पड़ता
है, झुकना कठिन
मालूम पड़ता है,
उसका अहंकार
आड़े आता है। विरला
है पुरुष जो झुक
जाए।
समर्पण
अगर कभी पुरुष
करता भी है तो बड़े
बेमन से करता है।
बहुत सोच—विचार
करता है, करना कि
नहीं करना। स्त्री
के लिए समर्पण
सुगम है; संकल्प
कठिन है। दोनों
का मनोविज्ञान
अलग है। पुरुष
का मनोविज्ञान
है संकल्प का विज्ञान
। लड़ना हो, जूझना
हो, युद्ध पर
जाना हो, सैनिक
बनना हो, वह
तैयार है। वह बात
उससे मेल खाती
है, तालमेल
है। स्त्री को
समर्पण करना हो,
कहीं झुकना हो,
तो स्त्री में
लोच है। इसलिए
स्त्रियों को हमने
कहा है—वे लताओं
की भांति है। पुरुष
वृक्षों की भांति
हैं। स्त्री में
लोच है। लता को
कहीं न कहीं झुकना
ही है, कहीं
न कहीं सहारा लेना
ही है। बुद्ध के
मार्ग पर परमात्मा
की तो धारणा ही
नहीं थी, इसलिए
परमात्मा का तो
सहारा नहीं था,
तो स्त्रियों
ने बुद्ध को ही
परमात्मा में रूपांतरित
कर दिया। बुद्ध
भगवान हो गये।
एक नया रूप
बुद्ध— धर्म का
प्रकट हुआ स्त्रियों
के प्रवेश से —महायान।
वह कभी प्रकट न
हुआ होता। हीनयान
बुद्ध का मौलिक
रूप है। महायान
स्त्रियों की अनुकंपा
है! लेकिन स्त्रियों
के आने से बुद्ध
के ध्यान की प्रक्रियाएं
तो डावाडोल हो
गयीं।
कृष्ण के
मार्ग पर कोई अड़चन
नहीं है। कृष्ण
के मार्ग पर पुरुष
को जाने में थोड़ी
अड़चन है। पुरुष
जाता है तो थोड़ा
सा संकोच करता
और झिझकता। स्त्री
नाचते चली जाती
है। तुम देखते
हो न,
कृष्ण के रास
की इतनी कथाएं
हैं, उनके भक्तो
में पुरुष भी थे,
गोपाल भी थे,
मगर तुमने रास
में देखा होगा
स्त्रियों को ही
नाचते। एकाध गोपाल
भी दाढ़ी—मूछधारी
वहा दिखायी नहीं
पड़ते। सब स्त्रियां
हैं। ऐसा नहीं
कि कुछ गोपाल न
रहे होंगे। लेकिन
उनको भी दाढ़ी—मूंछ
की तरह चित्रित
नहीं किया है,
क्योंकि वे उतने
ही स्त्रैण—चित्त
रहे होंगे जितनी
स्त्रियां।
पश्चिम
बंगाल में एक छोटा—सा
संप्रदाय अब भी
जीवित है —राधा
संप्रदाय। उसमे
पुरुष भी अपने
को स्त्री मानता
है,
और जब कृष्ण
की पूजा करना है
तो स्त्री के वेश
में करता है, स्त्री के कपड़े
पहनकर करता है।
और रात जब सोता
है तो कृष्ण की
मूर्ति को अपनी
छाती से लगाकर
सोता है। कृष्ण
के साथ तो गोपी
बने बिना कोई उपाय
नहीं है। कृष्ण
के साथ तो स्त्रैण
हुए बिना कोई उपाय
नहीं है। वहा तो
नाता प्रीति का
और प्रार्थना का
है। पुरुष कृष्ण
के मार्ग पर जाएगा
तो भ्रष्ट कर देगा
वैसे ही, जैसे
बुद्ध के मार्ग
को स्त्रियों ने
भ्रष्ट कर दिया।
गुरु का
अर्थ होता है, जिसने
एक दिशा दी है,
एक सुनिश्चित
दिशा दी है। उस
सुनिश्चित दिशा
मे जितने लोग जा
सकते हैं, वे
जा सकते हैं;जो नहीं जा सकते,
वह उनके लिए
मार्ग नहीं है,
वे कहीं और तलाशें।
सदगुरु मैं उसे
कहता हूं जिसकी
बाहें इतनी बड़ी
हैं कि स्त्री
हों कि पुरुष,
कि कर्म में
रस रखने वाले लोग
हों कि अकर्म में,
कि बुद्धि में
जीने वाले लोग
हों कि हृदय में;जितने ढंग की
जीवन—प्रक्रियाएं
हैं, शैलियां
हैं, सबके लिए
उपाय हो, सबका
स्वीकार हो। गुरु
तो बहुत होते हैं,
सदगुरु कभी—कभी
होते हैं।
शांडिल्य
सदगुरु हैं।
इसलिए शांडिल्य
कहते है—मेरे भक्ति
के मार्ग में अगर
तुम योग साधते
हो,
उसका उपयोग कर
लेंगे। चित्त—शुद्धि
के लिए उपयोग हो
जाएगा। अगर तुम
ज्ञान साधते हो,
उसका उपयोग कर
लेंगे। तुम्हारी
जिज्ञासा को प्रगाढ़
करने में, तुम्हारी
प्यास को निखार
करने में, तुम्हारी
उत्कंठा को अभीप्सा
बनाने में उसका
उपयोग कर लेंगे।
आओ, सब आओ, किसी के लिए निषेध
नहीं है, वर्जना
नहीं है। इसलिए
शांडिल्य कहते
हैं कि बहुत प्रकार
की बुद्धिया हैं
और मैं सब के लिए
बोल रहा हूं।
प्रकृति
अंतरालात इव कार्य
चित्त सत्त्वेन
अनुवर्तमानत्वात्।
'प्रकृति
से अलग रहकर चित्त—सत्ता
की स्वतंत्र अधिकारिता
सिद्ध है। '
भक्त और
भगवान एक हो जाते
हैं,
संसार और निर्वाण
एक हो जाते हैं,
पदार्थ और चैतन्य
एक हो जाते हैं,
देह और आत्मा
एक हो जाते हैं,
द्वंद्व समाप्त
हो जाता है। ऐसी
उदघोषणा शांडिल्य
ने की है। शंका
उठेगी। शंका उठ
सकती है। प्रकृति
से अलग रहकर चित्त—सत्ता
की स्वतंत्र अधिकारिता
है या नहीं?
प्रकृति
और पुरुष दो शब्दों
को ठीक से समझ लें।
ये भारतीय मनीषा
के बड़े ही विचारणीय
शब्द है। प्रकृति
का अर्थ होता है, वह
जो स्त्री—तत्व
समाया है जगत में।
पुरुष का अर्थ
होता है, पुरुष—तत्व।
जगत संकल्प और
समर्पण के मेल
से बना है। अंग्रेजी
में प्रकृति के
लिए, पदार्थ
के लिए शब्द है—मैंटर।
तुम जानकर चकित
होओगे कि मैंटर
संस्कृत की मूल
धातु मातृ से बना
है —माता। उसी से
मदर भी बना है,
उसी से मैंटर
भी बना है। मैंटर
यानी स्त्रैण,
वह जो मातृ शक्ति
है, वह जो मां
है—प्रकृति यानी
मां। पुरुष तत्व
यानी संकल्प का
तत्व, विचार
का तत्व। प्रकृति
यानी प्रीति का
तत्व, ये दोनों
है।
एक बहुत
पुरानी असीरियन
किताब घोषणा करती
है;परमात्मा अकेला
था और अपने को जानना
चाहता था, अपने
को जानने के लिए
उसने स्वयं को
दो में विभाजित
किया—जानने के
लिए। जानने के
लिए विभाजन जरूरी
है। क्योंकि जब
भी तुम कुछ जानना
चाहो तो जानने
वाले को जाने जाने
से अलग होना चाहिए।
तुम अपने चेहरे
को भी जानना चाहो
तो दर्पण की जरूरत
पड़ेगी। तुम्हारा
चेहरा है, जान
क्यों नहीं लेते
सीधा—सीधा, दर्पण की क्या
जरूरत है? दर्पण
की जरूरत पड़ेगी,
तो अपने चेहरे
का प्रतिबिंब देख
सकोगे।
प्रकृति
दर्पण है, जहां
पुरुष अपने को
देखता। बिना दूसरे
से संबंधित हुए,
बिना किसी गहरे
आतरिक संबंध के
तुम अपने को जानने
मे समर्थ नहीं
हो पाते।
इसलिए कृष्णमूर्ति
ठीक कहते हैं कि
संबंध दर्पण है।
संबंधित होकर ही
बोध होता है। वह
जो पहाड़ की तरफ
भाग जाता है, वह
दर्पण तोड़कर भाग
रहा है, उसे
पहाड़ पर अपने चेहरे
का पता कैसे चलेगा?
वह आंख बंद करके
बैठ सकता है, लेकिन आत्मबोध
को उपलब्ध नहीं
होगा। आत्मबोध
तो यहा है जहां
लोग हैं, जंहा
हजार तरह के चलते—फिरते
आईने है—चारों
तरफ चल रहे हैं,
आईने ही आईने
घूम रहे हैं, तुम जंहा देखो
वहीं तुम्हें अपना
चेहरा दिखायी पड़ेगा।
किसी आईने मे तुम
क्रोधित दिखायी
पड़ते हो, यह
भी तुम्हारी पहचान
है। और किसी आईने
में तुम बड़े प्रसन्न
दिखायी पड़ते हो,
यह भी तुम्हारी
पहचान है। ये सब
तुम्हारे चेहरे
हैं। और तुम्हारे
अनंत चेहरे है।
और उन सब चेहरों
को पहचानना जरूरी
है। इन सब चेहरों
को पहचान लो तो
तुम्हारे भीतर
जो चेहरों के पार
है, उसकी पहचान
हो सके। जंगल में
भाग जाओगे, क्या जानोगे?
गुफा में बैठ
जाओगे, क्या
जानोगे? दर्पण
तोड़कर चले आए।
समाज दर्पण है।
असीरियन
कथा ठीक है कि परमात्मा
अकेला था और अपने
को जानना चाहता
था,
इसलिए उसने अपने
को दो में तोड़ा।
पदार्थ और चेतना
मे तोड़ा। चेतना
यानी देखने वाली
और पदार्थ अर्थात
जिस में देखा जाना
है। इसलिए हिंदू
मनीषा ने स्त्री—पुरुष
को अलग नहीं किया—कभी
अलग नहीं किया।
बौद्ध और जैन इस
अर्थ मे एकागी
हैं। उनकी विचार—दृष्टि
मे थोड़ी कमी है।
महावीर अकेले खड़े
हैं, लेकिन
राम के साथ सीता
है। इतना ही नहीं,
जब भी हिंदू
राम और सीता का
नाम लेते हैं तो
पहले सीता का नाम
लेते है —सीताराम
कहते हैं। राधाकृष्ण
कहते हैं शंकर—शिव—पार्वती
साथ है। विष्णु
और लक्ष्मी साथ
है। हिंदू मनीषा
ने स्त्री—पुरुष
को साथ—साथ देखा
है, पुरुष प्रकृति
को साथ—साथ देखा
है। दोनों संयुक्त
हैं। और दोनो को
अलग करने की कोई
जरूरत नहीं। यद्यपि
अलग किये जा सकते
हैं।
जैन चेतना
को अलग कर लेते
हैं प्रकृति से;वे
कहते है—प्रकृति
से मुक्त हो जाना
मोक्ष है। तुम
शुद्ध चैतन्य रह
जाओ और प्रकृति
से तुम्हारा कोई
संबंध न रह जाए,
तो सब बंधन समाप्त
हो गये। हिंदू
मनीषा कहती है—जब
तुम्हे बंधनों
में बंधन मालूम
न पड़े, तब मोक्ष
है। जब तुम्हें
जंजीरें भी आभूषण
मालूम पड़े, तब मोक्ष है।
जब काटे भी फूल
हो जाएं, तब
मोक्ष है। जब पदार्थ
भी परमात्मा हो
जाए, तब मोक्ष
है।
लेकिन भेद
किया जा सकता है
और इसलिए शांडिल्य
का यह सूत्र समझना—
'प्रकृति से अलग
रहकर चित्त—दशा
की स्वतंत्र अधिकारिता
सिद्ध है। ' अगर कोई चाहे
तो अपने को प्रकृति
से अलग कर सकता
है और शुद्ध चैतन्य
में ठहर सकता है
और मान ले सकता
है कि मैं सिर्फ
चेतना हूं मात्र
चेतना हूं। यह
संभावना है, इसीलिए तो जैन
और बौद्ध जैसी
जीवन—दृष्टिया
पैदा हो सकीं।
कि यह संभावना
है कि तुम दर्पण
को छोड़कर गुफा
में बैठ जाओ, यह संभावना है।
इस संभावना को
शांडिल्य स्वीकार
करते हैं। लेकिन
यह संभावना निषेध
की संभावना है,
नकार की। यह
निगेटिव है। इसलिए
जैन—विचार नकारात्मक
है। उसमें विधेय
नहीं है। सिकोड़
देता है, फैलाता
नही। जैन—मुनि
उदास हो जाता है,
पंगु हो जाता
है, हाथ—पैर
कट गये। जैन—मुनि
नाच नहीं सकता,
वीणा लेकर गीत
नहीं गा सकता;जैन—मुनि में
मस्ती और मादकता
नहीं हो सकती,
उस तरह की सारी
बातों का निषेध
है, उसे तो सूखना
है जब उसमे एक फूल
न लगे और एक हरा
पत्ता भी न बचे।
जब वह ग्रीष्म
में खड़े हुए एक
सूखे—रूखे वृक्ष
की भांति हो जाए,
जिसमें हरियाली
नहीं आती, तब
उसके मानने वाले
कहते है—अब कुछ
हुआ। तब वे कहते
है—यह वैराग्य
है।
यह विराग
नकारात्मक है।
यह विराग आत्मघाती
है। निश्चित ही
इसमें शांति मिलती
है,
क्योंकि अशांति
के सारे कारणों
से आदमी दूर हट
गया। चिंता चली
जाती है, निश्चितता
आती है, लेकिन
आनंद नहीं आता।
शांति और
आनंद के फर्क को
खयाल में रखना।
शांति केवल
दुख का अभाव है।
आनंद सिर्फ दुख
का अभाव नहीं है, सुख
का अवतरण भी है।
बुद्ध ने कहा—मोक्ष
यानी दुख—निरोध।
आनंद की बात नहीं
की। क्यों आनंद
की बात नहीं की?
नकार की प्रक्रिया
मे आनंद के लिए
कोई जगह नहीं है।
नकार की प्रक्रिया
ज्यादा से ज्यादा
शांति और शून्यता
तक ले जाती है,
उसके पार गति
नहीं है;उसके
पार तो विधेय चाहिए;नहीं के साथ तुम
इतने जा सकते हो,
उसके आगे तो
हा चाहिए। मगर
यह संभावना है
कि तुम चाहो तो
साक्षी बन जाओ,
दूर खड़े हो जाओ,
तुम शुद्ध चेतना
के साथ ही अपना
संबंध रखो और सारे
संबंध प्रकृति
से तोड़ दो।
प्रकृति
के भय के कारण ही
आदमी स्त्री से
भयभीत है;क्योंकि
स्त्री प्रतिनिधि
है प्रकृति की।
अब यह तुम
हैरान होओगे जानकर
कि कितने शास्त्र
गालियां देते है
स्त्री को। और
ये ऐसे लोग गालियां
देते हैं जिनसे
गालियों की आशा
नहीं की जानी चाहिए।
स्त्री नर्क का
द्वार है। स्त्री
पाप है। एक भी स्त्री
ने ऐसी बात पुरुषों
के संबंध में अभी
तक नहीं कही है।
प्रीति इस तरह
की बात कह ही नहीं
सकती, प्रीति में
स्वीकार होता है—हालांकि
जितना नर्क स्त्रियों
ने पुरुषों को
दिया है, उससे
ज्यादा ही नर्क
पुरुषो ने स्त्रियों
को दिया होगा,
कम नहीं दिया
है, क्योंकि
पुरुष के हाथ में
ताकत है, बल
है, शोषण है।
पुरुष ने ज्यादा
सताया है स्त्रियों
को। फिर भी किसी
स्त्री ने नहीं
कहा कि पुरुष नर्क
का द्वार है। स्त्रियों
ने कहा—पुरुष,
पति परमात्मा
है। और इधर तुम्हारे
साधु—संत है—जिनको
तुम साधु —संत कहते
हो—वे लिखे चले
जाते है, दोहराए
चले जाते हैं।
स्त्री नर्क का
द्वार है।
तुलसीदास
ने स्त्री को जोड़
दिया है पशुओं
के साथ, गंवारों
के साथ, शूद्रों
के साथ और कहा—ये
सब ताड़न के अधिकारी।
इन सब को सताना
ही चाहिए। इनको
न सताओ तो ठीक नहीं।
इनके साथ सताने
का व्यवहार ही
उचित व्यवहार है।
स्त्री से इतना
भय क्या है? स्त्री से भय
इसी बात का है कि
तुम नकार करके
भाग रहे हो। और
नकार में कोई भी
जीएगा तो भयभीत
जीएगा। स्वीकार
में अभय है, नकार में भय है।
क्योंकि जिस चीज
को तुमने इनकार
किया है, वह
तुम्हारा पीछा
करेगी। तुम जरा
कोशिश करके देखो,
किसी चीज से
इनकार करके देखो,
वही तुम्हारा
पीछा करेगी। उपवास
कर लो। उपवास का
अर्थ हुआ, भोजन
को नकार किया,
भूख को नकार
किया कि आज भोजन
नहीं लेंगे। तो
दिनभर तुम भोजन
की ही सोचोगे।
चौबीस घंटे एक
ही विचार चलेगा—
भोजन, भोजन,
भोजन।
जिस चीज
का नकार करोगे, वही—वही
उठकर चेतना मे
आएगी और जब चेतना
में बहुत बार उठकर
आएगी तो स्वभावत:
तुमको डर पैदा
होगा कि स्त्री
नर्क का द्वार
है। स्त्री नर्क
का द्वार नहीं
है, तुम्हारा
निषेध स्त्री को
बार—बार तुम्हारे
चित्त में ला रहा
है। चूंकि स्त्रियों
ने कभी पुरुष का
निषेध नहीं किया,
इसलिए उनको पता
ही नहीं चला कि
पुरुष नर्क का
द्वार है। जब स्त्री
भी पुरुष का निषेध
करेगी, उसको
भी पता चलेगा नर्क
का द्वार है। लेकिन
स्त्री में निषेध
की वृत्ति नहीं
है, स्वीकार
का भाव है, अंगीकार
का भाव है। स्त्री
के पास पुरुष से
ज्यादा बड़ा हृदय
है, ज्यादा
उदार हृदय है।
प्रीति स्वभावत:
तर्क से ज्यादा
उदार होती है।
और समर्पण संकल्प
से ज्यादा उदार
होता है। लेकिन
समझ लेना, प्रकृति
से अलग रहकर चित्त—सत्ता
की स्वतंत्र अधिकारिता
सिद्ध हो सकती
है, इसलिए निषेध
के मार्ग पैदा
होते हैं।
'उनकी स्थिति
घर के भीतर की पीढ़ी
की भांति है। '
‘तत् प्रतिष्ठा
गृह पीठवत्।
ऐसे जो निषेध
के मार्ग हैं, वे
यह कहते हैं कि
प्रकृति से कुछ
लेना—देना नहीं
है। स्थिति ऐसी
है जैसे कोई आदमी
अपने घर में कुर्सी
पर बैठा हो;जब कुर्सी पर
बैठा है आदमी तो
इसका यह मतलब नहीं
है कि उसको सदा
कुर्सी पर ही बैठा
रहना पड़ेगा कि
वह कुर्सी नहीं
छोड़ सकता, या
कि कुर्सी उससे
जुड़ी है, कि
जंहा जाएगा वहा
कुर्सी भी जाएगी।
वह अभी उठ खड़ा हो
तो कुर्सी छूट
जाएगी। कुर्सी
छूट सकती है। प्रकृति
और पुरुष का संबंध
ऐसा है कि पुरुष
चाहे तो प्रकृति
को छोड़ सकता है।
जैसे नदी—नाव—संयोग
है। नाव नदी से
अलग की जा सकती
है। नदी नाव से
अलग की जा सकती
है।
ये जो निषेध
के मार्ग हैं, वे
कहते हैं पुरुष
और प्रकृति का
संबंध ऐसा है जैसे—तत्
प्रतिष्ठा गृहपीठवत्।
जैसे कोई आदमी
अपने घर में पीढ़ी
पर बैठा हुआ है।
जब तक बैठा है,
ठीक है;जब
छोड़ना चाहे तब
छोड़ सकता है। पीढ़ी
उस के पीछे भागेगी
नहीं। काश इतनी
आसान बात होती।
काश नकार को सिद्ध
करने वाले लोगों
की बात इतनी सरल
होती। तुम जब स्त्री
को छोड़कर जाओगे
तो तुम पीढ़ी को
छोड़कर जा रहे
हो, इस भ्रांति
में मत पड़ना। पीढ़ी
तो बाहर है, स्त्री तुम्हारे
भीतर है। तुम जहां
जाओगे वहा साथ
चली जाएगी। प्रकृति
पुरुष के साथ संयुक्त
है। यद्यपि पुरुष
चाहे तो इस तरह
के एहसास कर सकता
है कि मैं अलग हूं।
उन्हीं एहसास के
कारण नकारवादी
मार्गो को दुनिया
में जन्म मिला।
शांडिल्य
कहते हैं—
‘मिथ उपेक्षणात्
उभयम्।
'दोनों
ही इसके कारण रूप
है। '
शांडिल्य
कहते है—एक का ही
कारण नहीं है।
इस संसार का कारण
सिर्फ प्रकृति
ही नहीं है। इस
संसार का कारण
प्रकृति और पुरुष
दोनों हैं। इसलिए
एक को छोड़ने से
नहीं बनेगा। दोनों
के ऊपर उठने से
बनेगा।
इस बात को
समझना।
जब तुम भाग
जाते हो जंगल अपनी
पत्नी को छोड़कर, तब
तुम यह कोशिश कर
रहे हो कि मैं सिर्फ
पुरुष हूं और पुरुष
ही रहूंगा और स्त्री
से संबंध तोड़ता
हूं। स्त्री की
गुलामी बहुत हो
चुकी, अब नहीं
करूंगा; परतंत्रता
बहुत झेल ली, अब नहीं झेलूगा;
अब मैं अपने
पुरुष होने की
घोषणा करता हूं।
लेकिन तुम पुरुष
की भांति स्त्री
से कभी मुक्त न
हो सकोगे। स्त्री
के पास रहो, स्त्री से दूर
रहो। पुरुष की
भांति तुम स्त्री
से मुक्त न हो सकोगे,
क्योंकि पुरुष
की परिभाषा ही
स्त्री से बनती
है। पुरुष की परिभाषा
प्रकृति से बनती
है।
लेकिन एक
उपाय है कि तुम
दोनों के पार हो
जाओ। शांडिल्य
का सूत्र अदभुत
है। शांडिल्य यह
कह रहे है कि ऐसा
एक उपाय है—न तुम
स्त्री रह जाओ, न पुरुष;
न पुरुष, न प्रकृति;न चैतन्य, न पदार्थ। दोनों
के पार होने का
उपाय है, वही
भक्ति है।
ज्ञान एक
से छूटना चाहता
है और एक को पकड़ना
चाहता है—ज्ञान
में चुनाव है।
भक्ति में कोई
चुनाव नहीं। भक्ति
दोनों से मुक्त
हो जाना चाहती
है। दोनों के पार
देखती है। भगवत्ता
का अर्थ है : जंहा
पुरुष ने अपनी
पुरुषता खो दी
और स्त्री ने अपनी
स्त्रैणता खो दी।
जंहा स्त्री और
पुरुष दोनों अलग—अलग
नहीं रहे—अर्द्धनारीश्वर।
जंहा स्त्री—पुरुष
दोनों संयुक्त
हो गये।
इसलिए मैं
तुमसे कहता हूं
कि संभोग के किन्हीं—किन्हीं
क्षणों मे तुम्हें
परमात्मा का अनुभव
होता है। जब स्त्री
और पुरुष एक ऐसी
मिलन की घड़ी में
होते हैं जब न तो
पुरुष को याद होती
है कि मैं पुरुष
हूं और न स्त्री
को याद रह जाती
है कि मैं स्त्री
हूं;जंहा दोनों के
बीच एकात्म सध
जाता है, जंहा
दोनों के भीतर
सेतु बन जाता है,
जंहा दोनों संयुक्त
हो जाते है— क्षणभर
को घटती है यह घटना;प्रेमियों मे
कभी—कभी क्षणभर
को यह घटना घटती
है, जब द्वंद्व
मिट जाता है, द्वैत खो जाता
है और एक एक क्षण
को उमगता है, फिर खो जाता है।
इसलिए तो आदमी
कामवासना के लिए
इतना दीवाना है।
वह जो एक का अनुभव
होता है, वह
इतना प्यारा है।
संभोग का रस वस्तुत:
संभोग का रस नहीं
है, समाधि का
रस है। और जिस दिन
तुम यह पहचान लोगे,
उस दिन से तुम
संभोग के ऊपर जाने
लगोगे। तब तुम
असली समाधि खोजने
लगोगे। ऐसी समाधि
जहां पुरुष और
प्रकृति सदा को
एक हो जाते हैं।
'दोनों
ही इसके कारण रूप
हैं। '
मिथ उपेक्षणात्
उभयम्। '
इसलिए एक
को जिम्मेवार मत
ठहराना। एक को
जिम्मेवार ठहराना
अत्यंत नासमझी
की बात है। पुरुष
यह कहे कि स्त्री
नर्क का द्वार
है,
यह बात ऐसी ही
मूढ़ता की है जैसे
कोई स्त्री कहे—पुरुष
नर्क का द्वार
है। कोई नर्क का
द्वार नहीं है।
तुम ने एक—दूसरे
को भिन्न—भिन्न
माना है, उसी
में नर्क का द्वार
है। जिस दिन तुम
दोनों को एक मानोगे,
उसी एकता में
स्वर्ग का द्वार
है।
और यह
सिर्फ स्त्री—पुरुष
के ही एक होने की
बात नहीं है, जीवन
के सारे द्वंद्वों
को एक करने की बात
है। नकार और विधेय
एक हो जाने चाहिए,
दृश्य और अदृश्य
एक हो जाने चाहिए,
रात और दिन एक
हो जाने चाहिए,
जीवन और मरण
एक हो जाना चाहिए,
सुख और दुख एक
हो जाने चाहिए,
स्वर्ग और नर्क
एक हो जाना चाहिए,
जंहा—जहां द्वंद्व
है वहीं—वहीं निद्व
द्व दशा हो जाना
चाहिए। जब कोई
द्वंद्व न बचे,
निद्व द्व अद्वैत
का साम्राज्य हो,
वहीं मोक्ष है,
वहीं भगवत्ता
है।
चैत्य? अचितो
न त्रितीयम्।
'प्रकृति
और ब्रह्म में
कोई भी विभिन्नता
नहीं। '
यह उदघोषणा
सुनो—
चैत्य? अचितो
न त्रितीयम्।
प्रकृति
और ब्रह्म में
कोई भी विभिन्नता
नहीं। दोनों एक
हैं। तुमने भिन्न
माना है, वहीं अड़चन
है। संसार और निर्वाण
एक हैं। जैसा झेन
फकीर कहते हैं।
झेन फकीरों ने
तो बहुत बाद में
कहा, शांडिल्य
की उदघोषणा बड़ी
पुरानी है—चैत्य?
अचितो न त्रितीयम्,
प्रकृति और ब्रह्म
में जरा भी भेद
नहीं; अभिन्न
हैं।
परमात्मा
और उसकी सृष्टि
दो नहीं है। स्रष्टा
और सृष्टि दो नहीं
हैं। सृष्टि स्रष्टा
का नृत्य है। सृष्टि
के प्रत्येक पहलू
पर उसकी छाप है।
हर कण पर उसका हस्ताक्षर
है। सारे रंग उसके
हैं,
सारा इंद्रधनुष
उसका है। कीचड़
से लेकर कमल तक
सब नीचाइया, सब ऊंचाइयां
उसकी है। कीचड़
भी उसकी, कमल
भी उसका। कीचड़
की निंदा मत करना,
कमल की प्रशंसा
मत करना। कीचड़
की निंदा करोगे
तो ही कमल की प्रशंसा
कर सकोगे। कमल
की प्रशंसा करोगे
तो कीचड़ की निंदा
करनी ही पड़ेगी।
सब उसका है, यहां कैसी निंदा,
कैसी प्रशंसा?
कीचड़ भी उसकी
है—और कीचड़ मे कमल
छिपा है—और कमल
भी उसका है—कमल
फिर गिरेगा और
कीचड़ हो जाएगा।
जिस व्यक्ति
को कमल और कीचड़
मे एक ही दिखायी
पड़ने लगे, उसने
जाना, उसने
पहचाना, वह
आत्मविद हुआ,
सर्वविद भी हुआ।
और निश्चित ही
ऐसे व्यक्ति का
सारा ऐश्वर्य—तामैंश्वर्थ्यपदा—सब
कुछ उसका है। कीचड़
से लेकर कमल तक
सब उसका है। क्षुद्र
से लेकर विराट
तक सब उसका है।
अणु से लेकर परमात्मा
तक सब उसका है।
इस जानने
में वह विस्फोट
घटित होता है, जंहा
तुम्हारी सब दीनता
और हीनता मिट जाती
है—सब दीनता और
हीनता मान्यता
की है—जंहा सारा
डर मिट जाता, सारा भय मिट जाता।
अब अगर
तुम तुम्हारा संन्यासी
और तुम्हारा मुनि
और त्यागी भी भयभीत
हो—ससारी भयभीत
है,
समझ में आता
है; संसारी
भयभीत है कि कोई
उसका धन न चुरा
ले, संसारी
भयभीत है कि कहीं
बाजार में घाटा
न लग जाए, संसारी
भयभीत है कि कहीं
कोई चोरी न कर ले
जाए, संसारी
भयभीत है कि पत्नी
छोड़कर न चली जाए,
संसारी के हजार
भय हैं। तुमने
देखे, तुम्हारे
संन्यासी के कितने
भय हैं? वह तथाकथित
साधु और मुनि के
कितने भय हैं?
वह भी मरा जा
रहा है, परेशान
है कि कहीं पुण्य
न खो जाए, कहीं
कुछ पाप न हो जाए;व्रत किया है,
टूट न जाए;नियम बांधा है,
खंडित न हो जाए;उपवास किया है,
ये भोजन के खयाल
सता रहे हैं; स्त्री को छोड़
आया है, वासना
मन में पकड़ती है,
ये सारी बातें
उसे भी भयभीत किये
हैं।
सच तो यह
है कि तुम से भी
ज्यादा डरा हुआ
तुम्हारा मुनि
है। कंप रहा है।
चौबीस घंटे भयभीत
है। न दिन में ठीक
से रह पाता, न रात
ठीक से सो पाता
है। रात और डरता
है कि कहीं कोई
सपना न आ जाए, सपने में कोई
सुंदर स्त्री न
दिख जाए, सपने
में कहीं धन की
आकांक्षा न आ जाए।
और जिन—जिन से भागा
है, वे सब सपने
की प्रतीक्षा कर
रहे हैं। वे कहते
है —तुम जरा आंख
बंद करो, जरा
विश्राम करो तो
हम आएं। जिन—जिन
को छोड़ आया है,
वे सब द्वार
पर ही खड़े हैं।
जरा सा मौका मिलेगा,
भीतर आ जाएंगे।
यह तो अजीब
बात हुई, संसारी
भी भयभीत है और
त्यागी भी भयभीत
है, तो फिर अभय
को कौन उपलब्ध
होगा? अभय को
वही उपलब्ध हो
सकता है जिसने
जाना कि संसार
और परमात्मा दो
नहीं हैं फिर कोई
भय नहीं है। जिसने
जाना कि जीवन भी
उसका, मरण भी
उसका, फिर कोई
भय नहीं है। जिसने
प्रकृति और पुरुष
का एकात्म जाना,
फिर कोई भय नहीं
है।
‘चैत्य?
अचितो न त्रितीयम्।
शांडिल्य
के इस सूत्र को
जितना हृदय में
ले जा सको उतना
उपयोगी होगा। कठिन
है इसे समझना।
क्योंकि हमें सदियों—सदियों
तक गलत बातें सिखायी
गयी हैं। हमें
सदियों—सदियों
तक निंदा का जहर
पिलाया गया है।
हम जहर से भर गये
हैं। हमारे रगों
में अब खून नहीं
बहता, जहर बहता
है। पंडित—पुरोहितों
ने इतना जहर भर
दिया है कि जब कभी
कोई सत्य का पदार्पण
होता है तो हमारी
आखें झप जाती है।
हम सुन भी लेते
हैं तो समझ नहीं
पाते। समझ भी लेते
हैं तो पकड़ नहीं
पाते। पकड़ भी लेते
हैं तो कभी जीवन
में नहीं उतार
पाते। और जब तक
ये सत्य जीवन में
उतर न जाएं, तब तक भरोसा मत
करना कि समझ लिये।
बौद्धिक समझ समझ
नहीं है।
जब ये सत्य
तुम्हारे जीवन
के अनुभव हो जाते
हैं,
जब तुम ऐसा अनुभव
करोगे शांडिल्य
ने जैसा अनुभव
किया, जब तुम्हारे
भीतर भी यह उदघोष
उठेगा कि नहीं
सब एक है; पदार्थ
और प्रकृति, परमेश्वर और
पुरुष नाम हैं; पुरुष है भीतर
का नाम, प्रकृति
है बाहर का नाम;
पुरुष है अंतर्यात्रा,
प्रकृति है बहिर्यात्रा; पुरुष है साक्षीभाव,
स्त्री है विस्मय—विमुग्धता,
लवलीनता; पुरुष है ध्यान,
स्त्री है प्रीति—
धन्यभागी है वह
जिसके ध्यान में
प्रीति की गंध
होती है और जिसकी
प्रीति में ध्यान
का प्रकाश होता
है। जिस दिन तुम
इस भांति ध्यान
कर सकोगे कि ध्यान
तुम्हारा प्रीति
के विपरीत न पड़े,
और जिस दिन तुम
इस भांति प्रीति
कर सकोगे कि प्रीति
तुम्हारे ध्यान
का खंडन न हो, उस दिन तुम आए
मंदिर के द्वार
पर, उस दिन तुम
ठीक जगह आए, उस दिन तुम्हें
तुम्हारा तीर्थ
मिला, उस दिन
तुम्हें तुम्हारा
तीथ कर मिला।
और यही मैं
तुम से कह रहा हूं
कि तुम्हारा प्रेम
और तुम्हारा ध्यान
संयुक्त हो जाए।
ध्यान करो तो ध्यान
में प्रीति का
राग और रंग हो।
प्रीति का अनुराग
हो। ध्यान रूखा—सूखा
न हो,
ध्यान मरुस्थल
जैसा न हो, ध्यान
में प्रीति के
फूल खिलें, प्रेम के झरने
बहे, ध्यान
मस्ती से भरा हुआ
हो, ध्यान की
अपनी मधुशाला हो,
नाच हो, गान
हो, ध्यान जीवन—विपरीत,
जीवन—निषेधक
न हो, आह्लाद
हो, आनंद हो।
और अगर तुम प्रीति
करो, अगर तुम
भक्ति में उतरों,
तो तुम्हारी
भक्ति मूढ़ता न
हो, अंधविश्वास
न हो, उस में
ध्यान का दीया
जलता हो, उसमें
ध्यान का प्रकाश
हो, उसमें साक्षीभाव
रहे। यह परम समन्वय
है। इसके पार और
कोई समन्वय नहीं
है, क्योंकि
यहां प्रकृति और
पुरुष मिल जाते
हैं; जहां ध्यान
और प्रेम मिल जाते
हैं।
जहां ध्यान
और प्रेम मिलते
हैं,
वहां दृश्य और
अदृश्य एक हो जाते
हैं, वहां समय
और शाश्वत एक हो
जाते हैं, वहां
लहर और सागर का
द्वंद्व समाप्त
हो जाता है। तब
तुम जानते हो कि
लहर सागर है और
सागर लहर है। फिर
तुम चुनाव नहीं
करते, फिर तुम
निर्विकल्प हो
जाते हो। चुनाव
करने को नहीं बचता,
विकल्प ही नहीं
बचते, वहां
निर्विकल्प समाधि
लग जाती है; वहां सब समाधान
हो गया। अब कीचड़
हो तो तुम्हें
कमल दिखायी पड़ता
है। अब कमल हो,
तो तुम जानते
हो कीचड़ है। अब
न कहीं राग लगता,
न कहीं विराग।
अब हर हालत से तुम
जैसा है, उसे
जानते हों—यथावत्,
यथाभूतं। जैसा
है, तुम वैसा
ही जानते हो। तुम्हें
सब दिखायी पड़ता
है। उस सब दिखायी
पड़ने में, उस
दर्शन में मुक्ति
है। फिर तुम पर
कोई बंधन नहीं
रह जाते।
‘चैत्य?
अचितो न त्रितीयम्।
प्रकृति
और ब्रह्म में
कोई भी विभिन्नता
नहीं है। स्त्री—पुरुष
में कोई विभिन्नता
नहीं है। प्रेम
और ध्यान में कोई
विभिन्नता नहीं
है।
आज इतना
ही।
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