पउड़ी:
2
हुकमी
होवन आकार
हुकमी न कहिया
जाए।
हुकमी
होवन जीअ
हुकमी मिलै
बड़िआई।
हुकमी
उत्तम नीचु
हुकमी लिखि
दुख सुख
पाईअहि।
इकना
हुकमी बख्शीस
इकि हुकमी सदा
भवाईअहि।
हुकमी
अंदर सभु को
बाहर हुकुम न
कोय।
'नानक'
हुकमी जे
बुझे त हऊ मैं
कहे न कोय।
पउड़ी: 3
गावै
को ताणु होवै
किसे ताणु।
गावै को दाति
जाणै
निसाणु।।
गावै
को गुण
वड़िआइया
चारु।
गावै
को साजि करे
तनु खेह। गावै को
जीअ लै फिरि
देह।।
गावै
को जापै दिसे
दूरि। गावै को
वेखै हादरा हदूरि।।
कथना
कथी न आवै
तोटि। कथि कथि
कथी कोटि कोटि
कोटि।।
देदा
दे लैदे थकि
पाहि। जुगा
जुगंतरि खाहा
खाहि।।
हुकमी
हुकमु चलाए
राह। 'नानक'
विगसै
बेपरवाह।।
जीवन
को जीने के दो
ढंग हैं। एक
ढंग है संघर्ष
का, एक ढंग है
समर्पण का।
संघर्ष का
अर्थ है, मेरी
मर्जी समग्र
की मर्जी से
अलग। समर्पण
का अर्थ है, मैं समग्र
का एक अंग
हूं। मेरी
मर्जी के अलग
होने का कोई
सवाल नहीं।
मैं अगर अलग
हूं, संघर्ष
स्वाभाविक
है। मैं अगर
इस विराट के
साथ एक हूं, समर्पण
स्वाभाविक
है। संघर्ष
लाएगा तनाव, अशांति, चिंता।
समर्पण:
शून्यता, शांति,
आनंद और
अंततः परम
ज्ञान।
संघर्ष से
बढ़ेगा अहंकार,
समर्पण से
मिटेगा।
संसारी वही है
जो संघर्ष कर
रहा है।
धार्मिक वही
है जिसने
संघर्ष छोड़ा और
समर्पण किया।
मंदिर, गुरुद्वारे,
मस्जिद
जाने से धर्म
का कोई संबंध
नहीं। अगर तुम्हारी
वृत्ति
संघर्ष की है,
अगर तुम लड़
रहे हो
परमात्मा से,
अगर तुम
अपनी इच्छा
पूरी कराना
चाहते
हो--चाहे
प्रार्थना से
ही सही, पूजा
से ही सही--अगर
तुम्हारी
अपनी कोई
इच्छा है, तो
तुम अधार्मिक
हो।
जब
तुम्हारी
अपनी कोई चाह
नहीं, जब
उसकी चाह ही
तुम्हारी चाह
है। जहां वह
ले जाए वही
तुम्हारी
मंजिल है, तुम्हारी
अलग कोई मंजिल
नहीं। जैसा वह
चलाए वही
तुम्हारी गति
है, तुम्हारी
अपनी कोई
आकांक्षा
नहीं। तुम
निर्णय लेते
ही नहीं। तुम
तैरते भी नहीं,
तुम तिरते
हो...।
आकाश
में कभी
देखें! चील
बहुत ऊंचाई पर
उठ जाती है।
फिर पंख भी
नहीं हिलाती।
फिर पंखों को
फैला देती है
और हवा में
तिरती है।
वैसी ही तिरने
की दशा जब
तुम्हारी
चेतना में आ
जाती है, तब
समर्पण। तब
तुम पंख भी
नहीं हिलाते।
तब तुम उसकी
हवाओं पर तिर
जाते हो। तब
तुम निर्भार हो
जाते हो।
क्योंकि भार
संघर्ष से
पैदा होता है।
भार प्रतिरोध
से पैदा होता
है। जितना तुम
लड़ते हो उतना
तुम भारी हो
जाते हो, जितने
भारी होते हो
उतने नीचे गिर
जाते हो।
जितना तुम लड़ते
नहीं उतने
हल्के हो जाते
हो, जितने
हल्के होते हो
उतने ऊंचे उठ
जाते हो।
और अगर
तुम पूरी तरह
संघर्ष छोड़ दो
तो तुम्हारी
वही ऊंचाई है, जो परमात्मा
की। ऊंचाई का
एक ही अर्थ
है--निर्भार
हो जाना। और
अहंकार पत्थर
की तरह लटका
है तुम्हारे
गले में।
जितना तुम
लड़ोगे उतना ही
अहंकार
बढ़ेगा।
ऐसा
हुआ कि नानक
एक गांव के
बाहर आ कर
ठहरे। वह गांव
सूफियों का
गांव था। उनका
बड़ा केंद्र था।
वहां बड़े सूफी
थे, गुरु थे।
पूरी बस्ती ही
सूफियों की
थी। खबर मिली
सूफियों के
गुरु को, तो
उसने सुबह ही
सुबह नानक के
लिए एक कप में
भर कर दूध
भेजा। दूध
लबालब था। एक
बूंद भी और न
समा सकती थी।
नानक गांव के
बाहर ठहरे थे
एक कुएं के तट
पर। उन्होंने
पास की झाड़ी
से एक फूल तोड़
कर उस दूध की प्याली
में डाल दिया।
फूल तिर गया।
फूल का वजन क्या!
उसने जगह न
मांगी। वह सतह
पर तिर गया।
और प्याली
वापस भेज दी।
नानक का शिष्य
मरदाना बहुत
हैरान हुआ कि
मामला क्या है?
उसने पूछा
कि मैं कुछ
समझा नहीं।
क्या रहस्य है?
यह हुआ क्या?
तो
नानक ने कहा
कि सूफियों के
गुरु ने खबर
भेजी थी कि
गांव में बहुत
ज्ञानी हैं, अब और जगह
नहीं। मैंने
खबर वापस भेज
दी है कि मेरा
कोई भार नहीं
है। मैं जगह मांगूंगा
ही नहीं, फूल
की तरह तिर
जाऊंगा।
जो
निर्भार है
वही ज्ञानी
है। जिसमें
वजन है, अभी
अज्ञान है। और
जब तुममें वजन
होता है तब तुमसे
दूसरे को चोट
पहुंचती है।
जब तुम निर्भार
हो जाते हो, तब तुम्हारे
जीवन का ढंग
ऐसा होता है
कि उस ढंग से
चोट पहुंचनी
असंभव हो जाती
है। अहिंसा
अपने आप फलती
है। प्रेम अपने
आप लगता है।
कोई प्रेम को
लगा नहीं
सकता। और न
कोई करुणा को
आरोपित कर
सकता है। अगर
तुम निर्भार
हो जाओ, तो
ये सब घटनाएं
अपने से घटती
हैं। जैसे
आदमी के पीछे
छाया चलती है,
ऐसे भारी
आदमी के पीछे
घृणा, हिंसा,
वैमनस्य, क्रोध, हत्या
चलती है। हलके
मनुष्य के
पीछे प्रेम, करुणा, दया,
प्रार्थना
अपने आप चलती
है। इसलिए
मौलिक सवाल
भीतर से
अहंकार को
गिरा देने का
है।
कैसे
तुम गिराओगे
अहंकार को? एक ही उपाय
है। वेदों ने
उस उपाय को ऋत
कहा है।
लाओत्से ने उस
उपाय को ताओ
कहा है। बुद्ध
ने धम्म, महावीर
ने धर्म, नानक
का शब्द है
हुकुम, उसकी
आज्ञा। उसकी
आज्ञा से जो
चलने लगा, जो
अपनी तरफ से
हिलता-डुलता
भी नहीं है, जिसका अपना
कोई भाव नहीं,
कोई चाह
नहीं, जो
अपने को
आरोपित नहीं
करना चाहता, वह उसके
हुक्म में आ
गया। यही
धार्मिक आदमी
है।
और जो
उसके हुक्म
में आ गया, वह सब पा
गया। कुछ पाने
को बचता नहीं।
क्योंकि उसके
हुक्म को
मानना, उसके
हृदय तक पहुंच
जाने का द्वार
है। अपने को
ही मानना, उससे
दूर हटते जाना
है। अपने को
मानना है कि तुमने
परमात्मा की
तरफ पीठ कर ली।
उसकी आज्ञा को
माना कि
तुम्हारा मुख
परमात्मा की
तरफ हो गया।
तुम सूरज की
तरफ पीठ कर के
जीवन भर भागते
रहो तो भी
अंधेरे में
रहोगे। और तुम
सूरज की तरफ
मुंह इसी क्षण
कर लो तो
जन्मों-जन्मों
का अंधेरा कट
जाएगा।
परमात्मा
के सन्मुख
होने का एक ही
उपाय है और वह
यह है कि तुम
अपनी मर्जी
छोड़ दो। तुम
तैरो मत, बहो।
तुम तिरो; वह
काफी है। तुम
अकारण ही बोझ
ले रहे हो।
और
तुम्हारी
सफलताएं-असफलताएं
तुम्हारे अहंकार
के ही रोग
हैं। और
तुम्हारी
हालत वैसी है, जैसा मैंने
सुना है कि एक
रथ गुजर रहा
था। और एक
मक्खी उसके
पहिए की कील
पर बैठी थी।
बड़ी धूल उठती
थी। रथ बड़ा
था। बारह घोड़े
जुते थे। बड़ी
भयंकर आवाज, बड़ी धूल
उठती थी। उस
मक्खी ने
आसपास देखा और
कहा कि आज मैं
बड़ी धूल उड़ा
रही हूं। रथ
से उड़ रही है
धूल। मक्खी
कील पर बैठी
है, पर सोच
रही है, आज
मैं बड़ी धूल
उड़ा रही हूं।
और जब इतनी
धूल उड़ा रही
हूं तो इतनी
ही बड़ी हूं।
तुम
सफल भी होते
हो उसके ही
कारण। जो भी
तुम पाते हो
उसके ही कारण।
तुम रथ पर
बैठी एक मक्खी
से ज्यादा
नहीं हो। भूल
कर यह मत
सोचना कि इतनी
धूल मैं उड़ा
रहा हूं। धूल
है तो उसके रथ
की है। यात्रा
है तो उसके रथ
की है। लेकिन
तुम अपने को
बीच में मत ले
लेना।
तुमने
सुनी होगी बात
उस छिपकली की, कि मित्रों
ने उसे
निमंत्रित
किया था और
कहा कि आओ आज
थोड़ा जंगल में
घूम आएं। उस
छिपकली ने कहा
कि जाना
मुश्किल है।
क्योंकि इस
छप्पर को कौन
सम्हालेगा? छप्पर गिर
जाएगा तो
जिम्मेवारी
मेरे ऊपर
होगी। छिपकली
सोचती है कि
छप्पर को महल
के वही
सम्हाले हुए
है। छिपकली को
लगता भी होगा।
तुमने
सुनी होगी
कहानी कि एक
बूढ़ी औरत के
पास एक मुर्गा
था। वह सुबह
बांग देता था
तभी सूरज उगता
था। बूढ़ी अकड़
गई। और उसने
गांव में
लोगों को खबर
कर दी कि
मुझसे जरा
सोच-समझ कर
व्यवहार करना।
ढंग और इज्जत
से। क्योंकि
अगर मैं चली
गई अपने
मुर्गे को ले
कर दूसरे गांव
तो याद रखना, सूरज इस
गांव में कभी
उगेगा ही
नहीं। मेरा
मुर्गा जब
बांग देता है
तभी सूरज उगता
है।
और बात
सच ही थी कि
रोज ही मुर्गा
बांग देता था
तभी सूरज उगता
था। गांव के
लोग हंसे। लोगों
ने मजाक उड़ाई
कि तू पागल हो
गई। तो बूढ़ी
नाराजगी में
दूसरे गांव
चली गई।
मुर्गे ने
बांग दी और
दूसरे गांव
में सूरज उगा।
तो बूढ़ी ने
कहा, अब
रोएंगे। अब
बैठे होंगे
छाती
पीटेंगे। न रहा
मुर्गा, न
उगेगा सूरज।
तुम्हारे
तर्क भी...बूढ़ी
का तर्क भी है
तो बहुत साफ।
क्योंकि ऐसा
कभी नहीं हुआ
कि मुर्गे के
बांग दिए बिना
सूरज उगा हो।
लेकिन बात
बिलकुल उलटी
है। सूरज उगता
है इसलिए
मुर्गा बांग
देता है। बांग
देने के कारण
सूरज नहीं
उगते। लेकिन
बूढ़ी को कौन
समझाए? तुमको
कौन समझाए? बूढ़ी दूसरे
गांव चली गई
और उसने देखा
कि सूरज अब
यहां उग रहा
है। और जब
यहां उग रहा
है तो हर गांव
में कैसे
उगेगा?
तुम
अपनी छोटी
बुद्धि से
छोटे दायरे
में सोचते हो।
तुम्हारे
कारण
परमात्मा
नहीं है, परमात्मा
के कारण तुम
हो। यह श्वास
तुम्हारे कारण
नहीं चल रही
है, उसके
कारण चल रही
है।
प्रार्थना भी
तुम नहीं करते
हो, वही
तुम्हारे
भीतर
प्रार्थना
बनता है।
इस भाव
को खयाल में
ले लें, तो
नानक के ये
बड़े बहुमूल्य
शब्द समझ में
आ जाएंगे।
एक-एक शब्द
कीमती है।
हुकमी
होवन आकार
हुकमी न कहिया
जाए।
'हुक्म
से आकार की
उत्पत्ति
हुई। हुक्म को
शब्दों में
नहीं कहा जा
सकता।'
हुक्म
का अर्थ ठीक
से समझ
लेना--दि
कास्मिक ला।
वह जो सारे
जीवन को चलाने
वाला महानियम
है, हुक्म का
वही अर्थ है।
'हुक्म
से ही जीवों
की उत्पत्ति
हुई। हुक्म से
बड़ाई मिलती
है।'
हुकमी
होवन आकार
हुकमी न कहिया
जाए।
हुकमी
होवन जीअ हुकमी
मिलै बड़िआई।
जब तुम
जीतो, तो यह
मत सोचना कि
मैं जीत रहा
हूं। और अगर
तुम जीत में
ही न सोचोगे
कि मैं जीत
रहा हूं, तो
हार में भी
तुम पाओगे कि
मैं नहीं हार
रहा हूं। वही
जीतता है, वही
हारता है।
उसका ही खेल
है। इसलिए
हिंदू इस पूरे
जगत को लीला
कहते हैं।
लीला का मतलब
है, हारता
भी वही, जीतता
भी वही। इस
हाथ से जीतता
है, उस हाथ
से हारता है।
लेकिन जीतने
और हारने वाले
बीच में ही
सोच लेते हैं;
जो उपकरण
हैं, जो
निमित्त हैं,
जो साधन हैं,
वे समझ लेते
हैं, हम
कर्ता हैं।
कृष्ण
अर्जुन को
गीता में कह
रहे हैं कि तू
व्यर्थ बीच में
अपने को मत
ले। वही कर
रहा है, वही
करवा रहा है।
युद्ध उसका
आयोजन है।
जिनको मारना
है वह मारेगा।
जिनको बचाना
है वह बचाएगा।
तू यह मत सोच
कि तू मारने
वाला है और तू
बचाने वाला
है। कृष्ण
पूरी गीता में
जो कहते हैं, वही नानक इन
शब्दों में कह
रहे हैं।
हुकमी
होवन जीअ
हुकमी मिलै
बड़िआई।
हुकमी
उत्तम नीचु...।
'वही
छोटे-बड़े को
पैदा कर रहा
है।'
यह
थोड़ा सोचने
जैसा है। अगर
वही छोटे-बड़े
को पैदा कर
रहा है, तो
फिर कोई छोटा
नहीं कोई बड़ा
नहीं।
क्योंकि दोनों
का बनाने वाला
वही है। तुमने
एक छोटी सी मूर्ति
बनाई, तुमने
एक बड़ी मूर्ति
बनाई; बनाने
वाले तुम ही
हो। जब कर्ता
एक है, तो
कौन छोटा कौन
बड़ा? जब
दोनों में
उसका ही हाथ
लगा है--लेकिन
हम सोचते हैं
मैं छोटा, मैं
बड़ा, और
जीवन भर हम
पीड़ा उठाते
हैं। और तुम
इतने बड़े कभी
भी न हो पाओगे
कि तुम तृप्त
हो जाओ। अगर तुमने
रूप को देखा, अपने आकार
को देखा, तो
तुम कभी इतने
बड़े न हो
सकोगे कि
तृप्त हो जाओ।
आकार तो छोटा
ही होगा, कितना
ही बड़ा क्यों
न हो।
लेकिन
अगर तुमने
निराकार के
हाथ अपने आकार
में देखे, तब तुम
तत्क्षण बड़े
हो गए। बनाने
वाला वही है।
एक छोटे से
घास को भी वही
बनाता है। और
दूर आकाश को
छूते देवदार
के वृक्ष को
भी वही बनाता
है। अगर दोनों
के पीछे उसी
का हाथ है, फिर
कौन बड़ा कौन
छोटा? उसी
की हार है, उसी
की जीत है।
फिर हम सब
शतरंज के
मोहरे हैं। जीते
तो वह, हारे
तो वह। बड़ाई
मिले तो उसे, बुराई मिले
तो उसे।
ध्यान
रखना, तुमने
बहुत बार
भक्तों के वचन
सुने होंगे, पढ़े होंगे।
अनेक भक्त
तुमने पाए
होंगे; कहते
हैं, बड़ाई
तेरी, बुराई
मेरी। ऊपर से
देखने पर बहुत
अच्छा लगता है।
वे कहते हैं
कि जो-जो भला
है, तेरा; जो-जो बुरा
है, मेरा।
लगता है बड़े
विनम्र हैं।
लेकिन अगर बुराई
तुम्हारी तो
भलाई उसकी
कैसे हो सकेगी?
यह विनम्रता
झूठी है। यह
विनम्रता
वास्तविक
नहीं है।
क्योंकि
वास्तविक
विनम्रता तो
सभी दे देगी, कुछ भी न
बचाएगी।
तुमने अपने
अहंकार के लिए
थोड़ा सहारा
फिर बचा लिया।
और तुम कितना
ही ऊपर-ऊपर से
कहो कि बड़ाई
तेरी और बुराई
मेरी, लेकिन
जब बुराई मेरी
है तो बड़ाई
तेरी होगी कैसे?
असफलता
मेरी और सफलता
तेरी? यह
बात थोथी है।
या तो दोनों
मेरे होंगे, या तो दोनों
तेरे होंगे।
इसलिए
झूठी
विनम्रता और
सच्ची
विनम्रता में बड़ा
फर्क है। झूठी
विनम्रता
कहती है कि
मैं तो आपके
पैरों की धूल
हूं, लेकिन
हूं जरूर। और
जब कोई आदमी
कहता है, मैं
आपके पैरों की
धूल हूं, तब
उसकी आंखों
में देखना। वह
आपसे अपेक्षा
कर रहा है कि
आप भी कहो कि
नहीं-नहीं; आप और कैसे? मैं आपके
पैरों की धूल
हूं। उसकी
आंखों में चाह
है। और अगर आप
मान लो कि
बिलकुल ठीक कह
रहे हैं, यही
तो मेरा विचार
है; तो वह
आदमी सदा के
लिए दुश्मन हो
जाएगा। और कभी
आपको माफ न कर
सकेगा।
बड़ाई
भी उसकी, बुराई
भी उसकी। हम
बीच में आते
ही नहीं हैं।
हम तो बांस की
पोंगरी हो गए।
वह गीत जैसा
गाए उसका।
इतनी भी अकड़
क्यों अपनी
बचा कर रखना
कि अगर भूलचूक
होगी तो
मेरी--तब तो
मैं बच गया। तब
तो थोड़ा सा
मैंने अपने को
बचा लिया। और
मैं ऐसा रोग
है कि तुम
थोड़ा-सा बचाओ,
वह पूरा बच
जाता है। या
तो उसे पूरा
छोड़ो, या
वह पूरा बचता
है। तुम उसकी
रत्ती भी बचाओ,
तो वह पूरा
का पूरा बचा
हुआ है। वह
कहीं गया नहीं।
तुमने छिपाया
है।
नानक
कहते हैं, 'हुक्म से आकार
की उत्पत्ति
हुई। हुक्म को
शब्दों में कहा
नहीं जा सकता
है।'
जीवन
में जो भी
महत्वपूर्ण
है उसे शब्दों
में नहीं कहा
जा सकता। और
हुक्म तो सबसे
महत्वपूर्ण
बात है। उसके
पार तो कुछ भी
नहीं है। शब्द
तो कामचलाऊ
हैं। साधारण
जीवन का काम
चल जाता है।
लेकिन
असाधारण को
शब्दों में
प्रकट करने का
कोई उपाय नहीं
है। उपाय न
होने के कई
कारण हैं, वे समझ लेने
चाहिए।
एक--उस
अलौकिक की
प्रतीति मौन
में होती है।
और जिसे हम
मौन में जानते
हैं उसे शब्द
में कैसे कहेंगे? शब्द और मौन
विपरीत हैं।
जब उसका अनुभव
होता है तब
भीतर कोई शब्द
नहीं होते। तब
परम सन्नाटा
होता है। उस
परम सन्नाटे
में उसकी
प्रतीति होती
है। तो जिसको
शून्य में
जाना है, उसको
शब्दों में
कैसे
बांधिएगा? माध्यम
बदल गया।
शून्य अलग
माध्यम है।
शून्य निराकार
का माध्यम है।
शब्द आकार
हैं। सब शब्द
आकार देते
हैं। तो
निराकार को
आकार में कैसे
बांधिएगा?
इसलिए
जिन्होंने भी
जाना है, उन्हें
बड़ी अड़चन है।
कैसे कहें उसे?
ऐसा ही समझो
कि तुमने एक
सुंदर संगीत
सुना, और
तुम किसी बहरे
को समझाना
चाहते हो...।
सूफियों
की एक पुरानी
कहानी है। ऐसा
हुआ कि एक
चरवाहा अपनी
भेड़ों को एक
पहाड़ के
किनारे पर चरा
रहा था। दोपहर
हो गई। राह
देखते-देखते
थक गया, उसकी
पत्नी भोजन ले
कर न आयी। ऐसा
तो कभी न हुआ था।
भूख उसे जोर
से लगी थी।
फिर उसे चिंता
भी पकड़ी कि
कहीं पत्नी
बीमार तो नहीं
हो गई। कोई दुर्घटना
तो नहीं हो
गई। ऐसा कभी
हुआ ही न था। लेकिन
वह था बिलकुल
वज्र बधिर।
सुन नहीं सकता
था। उसने
आसपास देखा कि
कोई आदमी हो।
देखा कि एक
लकड़हारा लकड़ी
काट रहा है।
वह झाड़ पर चढ़ा
था। वह उसके
नीचे पहुंचा।
उसने कहा, मेरे
भाई! जरा मेरी
भेड़ों का
ध्यान रखना।
मैं जरा घर हो
आऊं। पत्नी
भोजन नहीं
लायी है। दौड़ कर
अभी ले आऊंगा।
वह
आदमी भी बहरा
था, जो लकड़ी
काट रहा था।
उसने कहा, जा-जा!
हमारे पास
बातचीत का कोई
वक्त नहीं है।
मैं अपने काम
में लगा हूं, तुझे बातचीत
की सूझी।
तो जब
उसने कहा, जा-जा! तो यह
समझा कि वह कह
रहा है कि जा, तू अपनी
रोटी ले आ।
मैं तेरी
भेड़-बकरी की
फिक्र कर
लूंगा।
यह
भागा हुआ घर
गया। रोटी ले
कर आया। लौट
कर उसने अपनी
भेड़ों की गिनती
की, बराबर
थी। धन्यवाद
देने गया कि
आदमी बड़ा प्यारा
है, अच्छा
है, ईमानदार
है, फिक्र
रखी, एक भी
भेड़ न भटकी।
फिर उसको खयाल
आया, धन्यवाद
कोरा क्या
देना? एक
लंगड़ी भेड़ थी
उसके पास, उसे
आज नहीं कल
काटना ही था।
सोचा, यह
इसे भेंट कर
दें।
वह
लंगड़ी भेड़ ले
कर आया। उसने
कहा, मेरे भाई,
बड़े-बड़े
धन्यवाद।
तुम्हारी बड़ी
कृपा। यह भेड़ स्वीकार
कर लो। ऐसे भी
इसे काटना ही
था।
दूसरे
बहरे ने कहा, तेरा क्या
मतलब? मैंने
तेरी भेड़
लंगड़ी की?
विवाद
बढ़ गया।
क्योंकि वह एक
चिल्ला रहा था, मैंने तेरी
भेड़ देखी
नहीं। मुझे
मतलब क्या? और दूसरा कह
रहा था, मेरे
भाई, इसको
स्वीकार कर
लो। पर दोनों
बहरे थे और
बड़ी कठिनाई
थी।
एक
राहगीर एक
घोड़े पर, एक
चोर जो घोड़े
को चुरा कर जा
रहा था, वह
रास्ता भटक
गया था। वह इन
दो आदमियों से
पूछने आया था।
इन दोनों ने
उसको पकड़
लिया। वह भी
बहरा था। वह
समझा कि पकड़े
गए! ये ही घोड़े
के मालिक हैं।
ये दोनों उससे
कहने लगे कि
भाई, जरा
उसको समझा दो
कि मैं भेड़ दे
रहा हूं और यह
नाहक नाराज हो
रहा है, चिल्ला
रहा है।
और वह
दूसरा बोला कि
मैंने इसकी
भेड़ों को छुआ भी
नहीं। लंगड़े
होने का कोई
सवाल नहीं। उस
तीसरे ने कहा, भाई, घोड़ा
जिसका भी हो
ले लो। मुझसे
जो भूल हो गई, मुझे माफ
करो।
यह
विवाद चल ही
रहा था और कोई
रास्ता नहीं
दिखाई पड़ता
था। क्योंकि
कोई किसी की
सुन ही नहीं रहा
था। तब एक
सूफी फकीर
वहां से गुजर
रहा है, उसे
तीनों ने पकड़
लिया और कहा
कि हमारा
मामला सुलझा
दो। उसने मौन
की कसम ले रखी
थी। जीवन भर
के लिए चुप हो
गया था। समझ
लिया उसने
तीनों का
मामला। लेकिन
अब करे क्या? तो पहले
उसने जो घोड़े
पर सवार चोर
था उसकी आंखों
में गौर से
देखा। उसने
इतनी गौर से
देखा कि थोड़ी
ही देर में
घोड़े का चोर
बेचैन होने
लगा कि यह
आदमी या तो
सम्मोहित कर
रहा है, या
क्या इरादे
हैं? वह
इतना घबड़ा गया
कि छलांग लगा
कर अपने घोड़े
पर चढ़ा और भाग
गया।
तब उस
सूफी फकीर ने
दूसरे आदमी की
आंखों में देखा, जो भेड़ों का
मालिक था।
उसको भी लगा
कि यह आदमी तो
बेहोश कर
देगा। देखे ही
जाता है अपलक।
वह जल्दी से
सिर झुका कर
अपनी भेड़ों को
खदेड़ कर अपने
घर की तरफ चल
पड़ा।
तब
उसने तीसरे की
तरफ देखा। वह
तीसरा भी डरा।
उसकी आंख बड़ी
तेजस्वी थी।
जो लोग चुप
रहते हैं बहुत
देर तक उनकी
आंखों में एक
अलग तेज आ
जाता है।
क्योंकि सारी
ऊर्जा इकट्ठी
होती है और आंख
ही अभिव्यक्ति
का माध्यम रह
जाती है। जब
उसने गौर से
देखा उस तीसरे
की तरफ, वह
भी डरा। उसने
अपनी लकड़ी का
बंडल बांधा और
भागा। सूफी
हंसता हुआ
अपने रास्ते
पर चला गया। सूफी
ने मामला हल
कर लिया तीन
बहरों का बिना
बोले।
यही
संतों की
तकलीफ है
हमारे साथ।
तीन बहरे नहीं
हैं यहां, तीन अरब
बहरे हैं। और
जो भी हम कह
रहे हैं वह सब संगत-असंगत,
उसमें कुछ
भी नहीं है।
कोई किसी की
नहीं समझ रहा
है। जिंदगी
में संवाद तो
हो ही नहीं
रहा है, विवाद
चल रहे हैं।
संत क्या करें?
जिन्होंने
मौन रहना सीख
लिया है, वे
क्या करें? बोलने का
कोई उपाय नहीं
है। वे कितना
ही बोलें। वह
सूफी फकीर
कितना ही
बोलता तो भी
वे तीन बहरे
कुछ समझ न
पाते। तीन की
जगह चार
उपद्रव वहां
हो जाते। उसने
सिर्फ आंख से
गौर से उन्हें
देखा।
संतों
ने सिर्फ
तुम्हारी तरफ
गौर से देखा
है और हल करने
की कोशिश की
है। और जो
उनके भीतर समाया
है, वह
तुम्हारी
आंखों में
उंडेलना चाहा
है। इसलिए
साधु-संगत की
बात करते हैं
नानक। कि
साधुओं के साथ
रहो अगर समझना
है, जो
उन्होंने
जाना है।
संगति करो, सत्संग करो।
सुनने-कहने से
बहुत न होगा।
कुछ कहा जाएगा,
कुछ तुम
समझोगे; लोग
बहरे हैं। कुछ
बताया जाएगा,
कुछ तुम
देखोगे; लोग
अंधे हैं। तुम
अपनी
व्याख्या
करोगे, तुम
शब्दों को
अपने अर्थ दे
दोगे।
नानक
कहते हैं, हुकमी न
कहिया जाए।
वह कहा
नहीं जा सकता।
फिर भी इशारे
किए जा सकते
हैं। ये इशारे
हैं। यह कहना
नहीं है, ये
इशारे हैं। इन
शब्दों में वह
हुक्म नहीं है।
ये शब्द तो
मील के किनारे
लगे पत्थर की
तरह हैं। ये
बता रहे हैं कि
चले जाओ, आगे
है मंजिल।
लेकिन बहुत से
लोग मील के
पत्थर को पकड़
कर बैठ जाते
हैं।
वह तुम
भी कर सकते
हो। तुम भी कर
सकते हो कि
रोज सुबह उठ
कर जपुजी का
पाठ करो। और
उसको दोहराते
रहो। और
कंठस्थ कर लो।
तुमने मील का
पत्थर पकड़
लिया। यह तो
इशारा है। इसे
कंठस्थ करने
से कुछ भी न
होगा। इसमें
जिस तरफ इशारा
है उस तरफ
चलना पड़ेगा।
यात्रा करनी
पड़ेगी। धर्म
एक यात्रा है।
तुम चाहे
जपुजी को पकड़ो, चाहे गीता
को, चाहे
कुरान को, अगर
तुम पकड़ कर
बैठ गए, तो
तुमने मील के
पत्थर को छाती
से लगा लिया।
समझो और आगे
बढ़ो।
जैसे-जैसे तुम
आगे बढ़ोगे
वैसे-वैसे राज
प्रकट होगा।
'हुक्म
को शब्दों में
नहीं कहा जा
सकता। हुक्म से
ही जीवों की
उत्पत्ति
होती है।
हुक्म से ही
बड़ाई मिलती
है। हुक्म से
ही कोई छोटा
है, कोई
बड़ा है। हुक्म
से ही सुख-दुख
की प्राप्ति होती
है।'
थोड़ा
सोचो, जब
तुम्हें दुख
मिलता है तो
तुम किसी को
जिम्मेवार
ठहराते हो।
अगर
जिम्मेवार ही
ठहराना है तो
हुक्म को
जिम्मेवार
ठहराओ। पति
दुखी है तो सोचता
है कि पत्नी
जिम्मेवार
है। पत्नी
दुखी है तो
सोचती है, पति
जिम्मेवार
है। बाप दुखी
है तो सोचता
है, बेटा
जिम्मेवार
है। अगर
जिम्मेवारी
ही देनी है, तो परमात्मा
को दो। उससे
छोटे में काम
न चलेगा।
लेकिन
बड़ा मजा है।
तुम जब भी
दुखी हो, तो
अपने आसपास
जिम्मेवारी
किसी के कंधे
पर टांग देते
हो। और जब तुम
भी सुखी हो तब
तुम खुद मानते
हो कि मेरे ही
कारण मैं सुखी
हूं।
यह
तर्क किस
भांति का है? सुखी हो तब
तुम अपने कारण
और दुखी हो तब
किन्हीं और के
कारण! इस वजह
से न तो तुम
दुख को हल कर
पाते हो और न
तुम सुख का
राज खोज पाते
हो। क्योंकि
दोनों हालत
में तुम गलत
हो। न तो
दूसरा जिम्मेवार
है दुख के लिए
और न तुम
जिम्मेवार हो
सुख के लिए।
दोनों के पीछे
परमात्मा
जिम्मेवार
है। और अगर एक
ही हाथ से
सुख-दुख आ रहे
हैं तो उनमें
भेद क्या करना!
फर्क क्या
करना!
एक
मुसलमान
बादशाह हुआ।
उसका एक गुलाम
था। गुलाम से
उसे बड़ा प्रेम
था, बड़ा लगाव
था। वह बड़ा
स्वामिभक्त
था। एक दिन दोनों
जंगल से
गुजरते थे। एक
वृक्ष में एक
ही फल लगा था।
सम्राट ने फल
तोड़ा। जैसी
उसकी आदत थी, उसने एक कली
काटी और गुलाम
को दी। गुलाम
ने चखी और
उसने कहा, मालिक,
एक कली और।
और
गुलाम मांगता
ही गया। फिर
एक ही कली हाथ
में बची।
सम्राट ने कहा, इतना
स्वादिष्ट है?
गुलाम ने
झपट्टा मार कर
वह एक कली भी
छीननी चाही।
सम्राट
ने कहा, यह
हद हो गई!
मैंने तुझे
पूरा फल दे
दिया, और
दूसरा फल भी
नहीं है। और
अगर इतना
स्वादिष्ट है,
तो कुछ मुझे
भी चखने दे।
उस
गुलाम ने कहा
कि नहीं, स्वादिष्ट
बहुत है और
मुझे मेरे सुख
से वंचित न
करें, दे
दें। लेकिन
सम्राट ने चख
ली। वह फल बिलकुल
जहर था। मीठा
होना तो दूर, उसके एक
टुकड़े को
लीलना
मुश्किल था।
सम्राट ने कहा,
पागल! तू
मुस्कुरा रहा
है, और इस
जहर को तू खा
गया? तू ने
कहा क्यों
नहीं?
उस
गुलाम ने कहा, जिन हाथों
से इतने सुख
मिले हों और
जिन हाथों से
इतने
स्वादिष्ट फल
चखे हों, एक
कड़वे फल की
शिकायत?
फलों
का हिसाब ही
छोड़ दिया, हाथ का
हिसाब है।
जिस
दिन तुम देख
पाओगे कि
परमात्मा के
ही हाथ से दुख
भी मिलता है, उस दिन तुम
उसे दुख कैसे
कहोगे? तुम
उसे दुख कह
पाते हो अभी, क्योंकि तुम
हाथ को नहीं
देख रहे हो।
जिस दिन तुम
देख पाओगे सुख
भी उसका दुख
भी उसका, सुख-दुख
दोनों का रूप
खो जाएगा। न
सुख सुख जैसा
लगेगा, न
दुख दुख जैसा
लगेगा। और जिस
दिन सुख-दुख
एक हो जाते
हैं, उसी
दिन आनंद की
घटना घटती है।
जब तुम्हें
सुख-दुख का
द्वैत नहीं रह
जाता, तब
अद्वैत उतरता
है, तब
आनंद उतरता है,
तब तुम
आनंदित हो
जाओगे।
नहीं!
किसी को, पड़ोस
में, पति
को, पत्नी
को, मित्र
को, भाई को,
दोस्त को, दुश्मन को
दोषी मत
ठहराना। सब
दोषों का
मालिक वह है।
और जब खुशी आए,
सफलता मिले,
तो अपने को,
अपने
अहंकार को मत
भरना। सब
सफलताओं, सब
स्वादिष्ट
फलों का मालिक
भी वही है।
अगर तुम सब
उसी पर छोड़ दो,
तो सब खो
जाएगा। सिर्फ
आनंद शेष रह
जाता है।
'हुक्म
से कोई ऊंचा
कोई नीचा, हुक्म
से सुख-दुख की
प्राप्ति, हुक्म
से ही कोई
प्रसाद को
उपलब्ध होता
है। हुक्म से
ही कोई आवागमन
में भटकता है।
सभी कोई हुक्म
के अंदर हैं।
हुक्म के बाहर
कोई भी नहीं।
नानक कहते हैं,
जो इस हुक्म
को समझ लेता
है वह अहंकार
से मुक्त हो जाता
है।'
नानक
हुकमी जे बुझे
त हऊ मैं कहे न
कोय।
कि
जिसने यह सार
की बात समझ ली
कि सब उसी का
है, तो मैं
कहने को बचता
ही कौन है?
इसे
थोड़ा समझें।
तुम अहंकार को
अनेक बार छोड़ना
भी चाहते हो, क्योंकि
उससे पीड़ा
मिलती है। फिर
भी छोड़ नहीं
पाते। क्या
कारण होगा? क्योंकि उसी
से तुम्हें
सुख भी मिलता
है, इसलिए
अड़चन है।
अहंकार से दुख
मिलता है, यह
जाहिर है।
क्योंकि जब
कोई गाली देता
है, पीड़ा
होती है। वह
पीड़ा अहंकार
को होती है।
तुम छोड़ना भी
चाहते हो।
मुझसे
लोग आते हैं, पूछते हैं
कि दुख को
कैसे छोड़ें? और यह भी
कहते हैं कि
समझ में आता
है, अहंकार
ही दुख है।
कैसे छोड़ें? मैं उनसे
कहता हूं, कैसे
का सवाल ही
नहीं है। अगर
तुम्हें सच
में दिखाई
पड़ता है
अहंकार दुख है,
तो तुम छोड़
ही देते।
पूछना क्या है?
लेकिन
बात उलझी हुई
है। कोई गाली
देता है, अहंकार
को दुख मिलता
है, तुम
छोड़ना चाहते
हो। लेकिन कोई
फूलमाला पहनाता
है तब अहंकार
को सुख मिलता
है। अहंकार
आधा तुम छोड़ना
चाहते हो, आधा
तुम बचाना
चाहते हो। उसी
को निंदा
अखरती है, उसी
को प्रशंसा
सुख देती है।
भूल हो जाती
है तो चोट
लगती है, ठीक
बात घट जाती
है तो भली
लगती है। लोग
निंदा करते
हैं चारों तरफ,
अपमान करते
हैं, खलता
है। लोग
प्रशंसा करते
हैं, यशगान
करते हैं, गीत
गाते हैं, गुणगान
करते हैं, बड़ा
भला लगता है।
दोनों ही
घटनाएं
अहंकार को घट
रही हैं।
और
तुम्हारी
मुसीबत यह है
कि तुम अगर
अहंकार छोड़ो
तो दुख भी मिट जाएगा, सुख भी मिट
जाएगा। सुख को
तुम बचाना
चाहते हो, दुख
को तुम मिटाना
चाहते हो। यह
कभी हुआ नहीं,
कभी होगा
नहीं। दोनों
ही साथ
जाएंगे। एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। एक
पहलू को तुम
बचाना चाहते
हो, दूसरे
को फेंक देना
चाहते हो। यह
कैसे होगा! फेंकते
हो, उठा
लेते हो।
क्योंकि यह
दूसरा पहलू भी
हाथ से जाता
है। हाथ में
रखते हो, फेंकना
चाहते हो।
क्योंकि वह
दुख वाला पहलू
भी हाथ में रह
जाता है।
अहंकार
को समझो। सुख
भी वही देता
है, दुख भी
वही देता है।
और अगर तुम
दोनों
परमात्मा पर
छोड़ दो--जहां
से कि
वास्तविक
स्रोत है जीवन
का--अगर तुम सब
उसी पर छोड़ दो,
तो
तुम्हारे मैं
को बचने की
जगह कहां रह
जाएगी? तुम
कैसे कहोगे
मैं हूं?
मैं
कृत्यों का
जोड़ है। तुमने
जो-जो किया है, उसका इकट्ठा
जोड़ मैं। मैं
कोई वस्तु
नहीं है। सिर्फ
बहुत-बहुत
कृत्यों की
जोड़ी हुई
धारणा है।
तुम्हारा
अतीत, तुमने
जो-जो किया है,
उसका जोड़
अहंकार है।
अगर सारा
कर्तृत्व तुम
छोड़ दो, और
तुम कह दो, कर्ता
तू है--कर्ता
पुरुख। मैं
केवल माध्यम
हूं। फिर कैसे
अहंकार? जो
उसने करवाया
वह मैंने
किया। जो उसने
नहीं करवाया
वह मैंने नहीं
किया। पापी
बनाया तो पापी।
इसे
थोड़ा समझो, क्योंकि नानक
बड़ी अनूठी बात
कह रहे हैं।
वे यह कह रहे
हैं, हुक्म
से ही कोई
प्रसाद को
उपलब्ध होता
है, ज्ञान
को। और हुक्म
से ही आवागमन
में भटकता है।
नानक यह कह
रहे हैं कि
अगर तुम पापी
हो, तो भी
मत सोचो कि
मैं पापी हूं।
क्योंकि उसकी मर्जी।
यह खतरनाक बात
है। क्योंकि
तुम कहोगे, ऐसे तो लोग
पाप करने
लगेंगे। और
लोग कहेंगे, उसकी मर्जी।
लेकिन
यही तो मजा है
कि जिसने जान
लिया उसकी मर्जी, उससे फिर जो
भी होता है
वही पुण्य है।
जब तक तुम
नहीं जानते हो
उसकी मर्जी, तभी तक
तुम्हारे
उसके बीच एक
कलह चल रही
है। उस कलह
में ही पाप का
जन्म है। उस
कलह से ही
सारा दुख खुद
को और दूसरे
को देने की
स्थिति बनती
है। जिस दिन
तुमने सब उस
पर छोड़ दिया, उसी दिन पाप
तिरोहित हो
जाता है। पाप
तुम्हारे और
परमात्मा के
बीच हो रहे
संघर्ष का फल
है। लेकिन
छोड़ना पड़ेगा
उसे।
नानक
कहते हैं, वह भी उसी के
द्वारा हो रहा
है। तुम पापी
हो तो वही, तुम
पुण्यात्मा
हो तो वही। न
तो तुम सोचो
कि पुण्य
मैंने किया है,
और न तुम
सोचो कि पाप
मैंने किया
है। मैंने किया
है, यही
बात भ्रांति
है। एक ही
अज्ञान
है--मैंने किया
है। और एक ही
ज्ञान
है--कर्ता
पुरुख। कि वह पुरुष
कर्ता है, मैं
केवल माध्यम
हूं।
'हुक्म
से बाहर कोई
भी नहीं, सभी
कोई हुक्म के
अंदर हैं।'
हुकमी
अंदर सभु को
बाहर हुकुम न
कोय।
और
नानक कहते हैं, 'जो उस हुक्म
को समझता है, वह अहंकार
से मुक्त हो
जाता है। कोई
उसके बल का
गान करते हैं,
जिनमें
गुणगान करने
का बल है। कोई
उसके दान का
गीत गाते हैं,
और दान को
उसका प्रतीक
मानते हैं।
कोई उसके गुण
और सुंदर
बड़ाइयों को
गाते हैं। कोई
उस विद्या को
गाते हैं
जिसका विचार
कठिन है। कोई
यह गाते हैं
कि वह शरीर
रचता है और
उसे फिर खाक
कर देता है।
कोई गाते हैं
कि जीव फिर
उससे ही देह
ग्रहण करता
है। कोई गाते
हैं कि वह
बहुत दूर
दिखाई देता
है। और कोई
गाते हैं कि
वह हमें देखता
है और
सर्वव्यापी
है। उसके गुणगान
का अंत नहीं
आता, यद्यपि
करोड़ों लोग
करोड़ों ढंग से
कथन करते हैं।
दाता देता ही
चला जाता है, लेने वाले
लेते-लेते थक
जाते हैं।
युग-युगांतर
से जीव उसको
भोग रहे हैं, पर उसका अंत
नहीं। वह
हुकमी हुक्म
से पथ-निर्देश
करता है। नानक
कहते हैं, वह
बेपरवाह है और
आनंदित है।'
हजारों
वर्णन हैं
उसके और सब
अधूरे हैं।
अधूरा मनुष्य
पूरे का वर्णन
कैसे कर सकेगा? अधूरा
मनुष्य जो भी
कहेगा वह
अधूरा होगा।
अंशी की खबर
अंश से कैसे
मिलेगी? अंश
जो भी कहेगा
वह अंश की ही
समझ होगी।
परमाणु परमात्मा
को कैसे
जानेगा? जानेगा
भी, तो भी
परमाणु की ही
बुद्धि होगी।
तो जो
गीत गा सकते
हैं वे उसके
गुणों का गीत
गाते हैं, लेकिन फिर
भी वह जो
अज्ञात है, अज्ञात ही
रह जाता है।
उपनिषद थक गए,
गीता थक गई,
कुरान थक
गया, बाइबिल
थक गई। वह
अनिर्वचनीय
है, अनिर्वचनीय
ही बना है। अब
तक हम उसका
पूरा गुणगान
नहीं कर पाए।
सब शास्त्र
अधूरे हैं, होंगे ही।
अनिवार्यतः
होंगे।
क्योंकि सभी शास्त्र
मनुष्य की
चेष्टाएं हैं
उस अनंत को प्रकट
करने की।
सूर्य
निकला है, चित्रकार
उसका चित्र
बनाता है।
कितना ही ठीक
बनाए तो भी उस
चित्र से
रोशनी तो न
मिलेगी। और
अंधेरे में रख
कर तुम बैठ
जाओ तो तुम इस
आशा में मत
रहना कि घर
प्रकाश से भर
जाएगा। कोई
कवि उस सुबह
के निकलते
सूरज का मधुर
से मधुर गीत
गाए, उसके
गीत में बड़ी
गंभीरता हो, उसके गीत
में बड़ी गहराई
हो, उसका
गीत हृदय को
छुए, तुम
उस गीत को
गाते रहना
अंधेरे में
बैठ कर तो भी
रोशनी न
मिलेगी।
परमात्मा
के संबंध में
गाए गए गीत, रचे गए
चित्र, बस
ऐसे ही हैं।
सब चित्र
अधूरे हैं। सब
गीत अधूरे
हैं। कोई गीत
पूरा उसे कह न
पाएगा।
क्योंकि किसी
भी गीत में हम
उसकी जीवंतता
को न उतार
पाएंगे। शब्द
थोथे हैं, थोथे
ही रहेंगे।
तुम्हें
प्यास लगी हो
तो शब्द पानी
से न बुझेगी।
तुम्हें भूख
लगी हो तो शब्द
अग्नि पर रोटी
न पकेगी। और
तुम्हें
परमात्मा की
अभीप्सा पैदा
हो गई हो तो
शब्द
परमात्मा
काफी नहीं है;
काफी
उन्हीं को है,
जिन्हें
अभीप्सा नहीं
है।
इसको
ठीक से समझ
लो। अगर
तुम्हें
प्यास नहीं लगी
है तो शब्द
पानी भी काफी
है, एच टू ओ
भी काफी है।
अगर प्यास लगी
है तब अड़चन शुरू
होती है। तब न
तो एच टू ओ काम
देगा, न
पानी काम देगा,
न जल काम
देगा, न
वाटर काम
देगा। तुम
दुनिया भर के
सब शब्द इकट्ठे
कर लो। कोई
तीन हजार
भाषाएं हैं।
तीन हजार शब्द
पानी के लिए
हैं। सब
इकट्ठे कर लो,
उनको कंठ से
बांध लो, तो
भी बूंद प्यास
उनसे न
बुझेगी।
लेकिन अगर प्यास
न लगी हो तो
तुम शब्दों से
खेल सकते हो।
दर्शनशास्त्र
उन लोगों का
खेल है
जिन्हें प्यास
नहीं लगी है।
और धर्म उनकी
यात्रा है
जिन्हें
प्यास लगी है।
इसलिए दर्शनशास्त्र
शब्दों से
खेलता है।
धर्म शब्दों
से नहीं
खेलता। धर्म
तो शब्दों का
इशारा जिस तरफ
है, उस
यात्रा पर
जाता है।
सरोवर की तलाश
है; सरोवर
शब्द का क्या
करेंगे? जीवन
की खोज है; जीवन
शब्द से क्या
होगा?
कोई गा
नहीं पाया उसे
पूरा। कोई बता
नहीं पाया उसे
पूरा। उसकी सब
मूर्तियां
अधूरी हैं।
कोई उसे बना
नहीं पाया
पूरा। बनाएगा
भी कैसे?
थोड़ा
इसे समझो।
दर्शनशास्त्रियों
के सामने एक
बड़ा गहन सवाल
रहा है। और वह
सवाल है कि
अगर एक यात्री
हिंदुस्तान
आता है, तो
हिंदुस्तान
का नक्शा हम
उसे दे देते
हैं। वह जेब
में रख लेता
है नक्शा। हिंदुस्तान
को तो जेब में
न रख सकोगे, वह नक्शा
जेब में रख
लेता है। उस
नक्शे से हिंदुस्तान
का मेल क्या
है? क्या
वह नक्शा
हिंदुस्तान
जैसा है? अगर
हिंदुस्तान
जैसा है तो
हिंदुस्तान
जैसा बड़ा
होगा। और अगर
हिंदुस्तान
जैसा नहीं है
तो उसे
हिंदुस्तान
का नक्शा
क्यों कहते हो?
नक्शे का
उपयोग क्या है?
अगर वह
बिलकुल
हिंदुस्तान
जैसा हो तो
उसका कुछ
उपयोग ही
नहीं।
क्योंकि उसको
जेब में न ले जा
सकोगे। उसको
कार में बैठ
कर उपयोग न कर
सकोगे। वह
दूसरा
हिंदुस्तान
हो जाएगा। और
अगर वह हिंदुस्तान
जैसा नहीं है,
तो बड़ी
हैरानी की बात
है, वह काम
कैसे आता है?
नक्शा
प्रतीक है। वह
ठीक
हिंदुस्तान
जैसा नहीं है, फिर भी
हिंदुस्तान
के संबंध में
रेखाओं के माध्यम
से कुछ इंगित
करता है, इशारे
करता है। तुम
पूरा
हिंदुस्तान
घूम कर भी
हिंदुस्तान
का नक्शा कहीं
न देख पाओगे।
जहां भी जाओगे,
हिंदुस्तान
मिलेगा, नक्शा
नहीं। लेकिन
अगर नक्शा पास
है, तो
यात्रा सुगम
हो जाएगी।
लेकिन नक्शे
को मान कर
चलना पड़ेगा।
नक्शे को छाती
से रख कर
बैठने से कुछ
भी न होगा।
और
दुनिया भर के
धार्मिक लोग
नक्शों को
छाती से रख कर
बैठ गए हैं।
जैसे नक्शा सब
कुछ है।
धर्मशास्त्र
नक्शा है, मूर्तियां
नक्शे हैं, मंदिर नक्शे
हैं। उनमें
कुछ इशारे
छिपे हैं। अगर
इशारे चूक
जाएं, तो
नक्शे बोझ
हैं। हिंदू
अपने नक्शे ढो
रहा है, मुसलमान
अपने नक्शे ढो
रहा है। न
हिंदू यात्रा
कर रहा है, न
मुसलमान
यात्रा कर रहा
है। नक्शे इतने
हो गए हैं कि
यात्रा अब हो
ही नहीं सकती।
या तो नक्शों
को ढोओ--तो तुम
चल नहीं सकते।
नक्शे
संक्षिप्त
चाहिए, छोटे
चाहिए। और
नक्शों की
पूजा करने का
कोई अर्थ नहीं
है। उनका
उपयोग करना
है।
नानक
ने हिंदू और
मुसलमान
दोनों नक्शों
में जो सार था
उसको निचोड़
लिया। नानक को
न तो तुम
हिंदू कह सकते
हो, न तुम
मुसलमान कह
सकते हो। नानक
दोनों हैं, या दोनों
नहीं हैं। और
नानक को समझने
में लोगों को
बड़ी मुश्किल
हुई। नानक के
संबंध में
पुरानी उक्ति
है--
बाबा
नानक शाह फकीर, हिंदू का
गुरु मुसलमान
का पीर।
वे
दोनों हैं।
उनके दो खास
शिष्य
हैं--मर्दाना
और बाला। एक
मुसलमान, एक
हिंदू। न
हिंदू मंदिर
में उनको जगह
है, न
मुसलमान की
मस्जिद में
उनको जगह है।
दोनों जगह
संदेह है कि
यह आदमी है
किस जगह पर? इसको हम किस
कोटि में रखें?
कहां
बिठाएं?
जो भी
महत्वपूर्ण
था हिंदू में, और जो भी
महत्वपूर्ण
था मुसलमान
में, उन
दोनों नदियों
का संगम है
नानक। जो भी
सार था...इसलिए
सिक्ख न तो
हिंदू है, न
मुसलमान। या
तो वह दोनों
है और या
दोनों नहीं
है। वह एक
संगम है।
यह जो
संगम है, इस
संगम को समझना
और कठिन हो
जाता है।
क्योंकि एक
नदी का
साफ-सुथरा
नक्शा होता
है। अब यह दो
नदियों का
नक्शा इकट्ठा
मिल गया।
इसलिए कुछ वचन
खबर देते हैं
इस्लाम की, कुछ वचन खबर
देते हैं
हिंदुओं की।
और दोनों मिल
कर और धूमिल
हो जाते हैं।
यह धूमिलता
तभी हटेगी, जब कोई
प्रयोग में
उतरेगा। तो
धीरे-धीरे बात
साफ होती
जाएगी। अगर
तुमने छाती पर
रख लिए शास्त्र,
जैसा कि हो
गया है, सिक्ख
पूज रहा है
शास्त्रों
को। इसलिए
ग्रंथ ही गुरु
हो गया। और
बड़े मजे की
बात है कि हम
भूलों को कैसे
पुनरुक्त
करते हैं!
नानक
मक्का गए, तो मक्का के
प्रधान
पुरोहित ने आ
कर उनको कहा कि
अपने पैर
दूसरी दिशा
में करो।
तुम्हारे पैर
पवित्र पत्थर
की तरफ, काबा
की तरफ हैं।
तो कहानी है
कि नानक ने
कहा, परमात्मा
जहां न हो, वहां
मेरे पैर कर
दो। कहानी तो
यह है कि
जहां-जहां
उनके पैर किए
गए वहां-वहां
काबा हट गया।
लेकिन यह
प्रतीक है।
अर्थ इतना ही
है कि तुम पैर
कहीं भी करोगे,
वहीं
परमात्मा है।
तो पैर कहां
करोगे? वह
सब ओर है।
स्वर्ण
मंदिर अमृतसर
में मुझे
निमंत्रण दिया
कि मैं आऊं।
मैं गया। मैं
तो कोई टोपी
नहीं लगाता, तो दरवाजे
पर ही
उन्होंने कहा
कि यह तो बहुत
मुश्किल है।
आपको सिर पर
कपड़ा बांधना
ही पड़ेगा। यह
तो परमात्मा
का मंदिर है।
इसमें सिर पर
टोपी चाहिए।
तो मैंने उनसे
कहा, तुम
भूल गए कि
नानक के साथ
काबा में क्या
हुआ था! तो अभी
जहां मैं खड़ा
हूं बिना टोपी
लगाए, वहां
परमात्मा
नहीं है? वहां
मंदिर नहीं है?
पर भूलें
वही की वही
दोहर जाती
हैं। तो मैंने
उनसे कहा, मुझे
बताओ वह जगह, जहां मैं
बिना टोपी
लगाए रह सकता
हूं। और तुम
भी तो स्नान
करते होओगे, तब पगड़ी
निकाल देते
होओगे। उस
वक्त
परमात्मा का
अपमान होता
होगा! तुम भी
तो रात सोते
होओगे, तब
पगड़ी अलग कर
देते होओगे।
उस वक्त
परमात्मा का
अपमान होता
होगा!
तो
आदमी की
नासमझियां
वही की वही
हैं। बुद्ध कुछ
कहें, बुद्ध
को मानने वाला
सब लीपपोत
देता है। नानक
कुछ कहें, नानक
को मानने वाला
सब लीपपोत
देता है। फिर
वही जाल शुरू
हो जाता है।
क्योंकि आदमी
की नासमझी में
कोई फर्क
नहीं। उसके
बहरेपन में
कोई फर्क नहीं
है। सुन लेता
है, अपने
मतलब निकाल
लेता है। अपने
मतलब से चलता
है, जो
सुना है उसके
अनुभव से
नहीं।
ये जो
शब्द हैं, नानक कहते
हैं, कोई
कितने ही गीत
गाए, उसे
कोई पूरा नहीं
कर पाया।
अलग-अलग लोग
उसके अलग-अलग
गीत गाते हैं।
क्योंकि
अलग-अलग लोग
अलग-अलग तरफ
से उसकी तरफ
पहुंचते हैं।
उनके गीतों
में कोई विरोध
भी नहीं है।
कितना ही
विरोध दिखाई
पड़े, वेद भी
वही कहते हैं
जो कुरान कहता
है। लेकिन
मुहम्मद के
पहुंचने का
ढंग और; याज्ञवल्क्य
के पहुंचने का
ढंग और। बुद्ध
भी वही कहते
हैं जो नानक
कहते हैं, लेकिन
पहुंचने का
ढंग और।
अनंत
द्वार हैं
उसके। तुम
जहां से भी
जाओ वहीं उसका
द्वार है। और
तब तुम अपने
द्वार का वर्णन
करोगे। और तुम
जिस मार्ग से
जाओगे उस
मार्ग का
वर्णन करोगे।
दूसरा जिस
मार्ग से
पहुंचा है
उसका वर्णन
करेगा। फिर
मार्ग से ही
फर्क नहीं
पड़ता।
तुम्हारी समझ, तुम्हारी
दृष्टि, तुम्हारी
भावदशा...।
एक
बगीचे में कवि
आता है तो गीत
गाता है। चित्रकार
आता है तो
चित्र बनाता
है। फूलों का
सौदागर आता है
तो फूलों के
दाम के संबंध
में सोचता है, व्यवसाय की
बात सोचता है।
वैज्ञानिक आ
जाएगा तो
फूलों का
विश्लेषण
करके देखेगा
कि उनके रासायनिक
तत्व क्या
हैं। कोई आदमी
जो नशे में भरा
हो वह गुजर
जाएगा, उसे
फूल दिखाई ही
नहीं पड़ेंगे।
वह बगीचे से
गुजरा है, इसका
भी पता नहीं
चलेगा। तुम जो
भी देखोगे वह तुम्हारी
खिड़की से देखा
गया है।
तुम्हारी खिड़की
का आकार उस पर
छा जाएगा।
नानक
कहते हैं, कोई उसके बल
का गान गाते
हैं कि वह महा
शक्तिशाली है,
परम
शक्तिशाली है,
ओम्नीपोटेंट--सर्व
शक्तिशाली
है। कोई उसके
दान का गीत
गाते हैं कि
वह परमदाता।
कोई उसके गुण
और सौंदर्य का
बखान करते हैं
कि वह परम
सौंदर्य। कोई
उसे कहते हैं
सत्य, कोई
उसे कहते हैं
शिव, कोई
उसे कहते हैं
सुंदर।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
मैंने तो उसे
सौंदर्य में
पाया। इससे
परमात्मा के
संबंध में कोई
खबर नहीं
मिलती, इससे
रवींद्रनाथ
के संबंध में
खबर मिलती है।
गांधी कहते
हैं कि वह
मेरे लिए सत्य
है, ट्रुथ
इज गाड। इससे
परमात्मा के
संबंध में कोई
खबर नहीं
मिलती, गांधी
के संबंध में
खबर मिलती है।
रवींद्रनाथ
कवि हैं। कवि
को सौंदर्य
में परमात्मा
है--परम
सौंदर्य! गांधी
कवि नहीं हैं,
गांधी से कम
कवि आदमी
खोजना
मुश्किल है।
वे बिलकुल
हिसाबी-किताबी
हैं। काव्य
नहीं, गणित।
तो गणित की
दृष्टि से
देखने पर
परमात्मा
सत्य है।
प्रेम की
दृष्टि से
देखने पर
प्रेमी, प्रियतम,
प्यारा।
किस
दृष्टि से हम
देखते हैं? हमारी
दृष्टि की खबर
मिलती है
उससे। वह सभी
है एक साथ, और
कोई भी नहीं
है। इसलिए
महावीर का एक
बहुत अदभुत
प्रयोग है
चिंतन के
संबंध में कि
जब तक तुम्हारी
दृष्टि न छूट
जाए, तब तक
तुम उसे न जान
सकोगे।
क्योंकि तुम
जो भी जानोगे
वह तुम्हारी
दृष्टि होगी।
महावीर उसको
कहते हैं, नय
दृष्टि। और
दर्शन तब
मिलेगा जब सब
दृष्टि छूट
जाए।
लेकिन
तब तुम चुप हो
जाओगे।
क्योंकि बिना
दृष्टि के
बोलोगे कैसे? जब कोई भी
दृष्टि न होगी
तब तुम उसी
जैसे हो जाओगे।
तब बोलोगे
कैसे? तब
तुम उतने ही
विस्तीर्ण हो
जाओगे। तब तुम
आकाश के साथ
लीन हो जाओगे।
तुम बोलोगे
कैसे? तुम
अलग ही न
रहोगे। सब
दृष्टियां
अलग होने वाले
की दृष्टियां
हैं।
इसलिए
नानक सब की
दृष्टियां
गिनाते हैं।
वे यह कह रहे
हैं कि ये सभी
ठीक हैं और
फिर भी कोई पूरा
ठीक नहीं है।
और जब कोई
अधूरे को पूरे
ठीक होने का
दावा करता है
तभी भ्रांति
हो जाती है।
संप्रदाय
का अर्थ है, तुमने अधूरी
दृष्टि को
पूरा होने का
दावा कर दिया।
संप्रदाय को
धर्म कहने का
अर्थ है कि
तुमने अधूरी
दृष्टि को
पूरी होने की
घोषणा कर दी, कि बस यही
दृष्टि पूरी
है। इसलिए एक
संप्रदाय दूसरे
संप्रदाय के
विरोध में है।
सभी संप्रदाय
धर्म की
दृष्टियां
हैं। और कोई
संप्रदाय
धर्म नहीं है।
अगर हम सभी
संभव
संप्रदायों
को मिला दें, तो धर्म
पैदा होगा। जो
संप्रदाय हुए
हैं, जो
हैं, और जो
होंगे...अगर हम
सभी
दृष्टियों को
इकट्ठा कर दें,
तो धर्म
होगा। कोई
संप्रदाय
धर्म नहीं है।
संप्रदाय
शब्द बड़ा
अच्छा है।
संप्रदाय का
अर्थ है, मार्ग।
संप्रदाय का
अर्थ है, पहुंचने
का रास्ता।
धर्म का अर्थ
है, मंजिल।
मंजिल एक, मार्ग
अनेक हैं।
नानक
कहते हैं, कोई बल का
गान करता। कोई
गुण का गान
करता। कोई उसके
दान का गीत
गाता। कोई
उसके सौंदर्य
की चर्चा
करता। कोई उस
विद्या का
वर्णन करता है
जिसका विचार
कठिन है। कोई
यह गाते हैं
कि उसने शरीर
रचा। फिर वही
शरीर को
मिटाता है।
कोई कहते हैं
जीव फिर उससे
ही देह ग्रहण
करता है। कोई
कहते हैं वह
बहुत दूर
दिखाई देता
है। कोई कहते
हैं वह बहुत
निकट है। कोई
गाते हैं वह
हमें देखता है
और
सर्वव्यापी
है। उसके
गुणगान का अंत
नहीं आता।
कथना
कथी न आवै
तोटि।
'कहते-कहते
थक जाते हैं
और उसके
गुणगान का कोई
अंत नहीं आता।'
कथि
कथि कथी कोटि
कोटि कोटि।
'करोड़,
करोड़, करोड़
बार कहने पर
भी वह अनकहा
ही पीछे छूट
जाता है। दाता
देता ही चला
जाता है। लेने
वाले लेते-लेते
थक जाते हैं।'
यह बड़ा
महत्वपूर्ण
वचन है। जीवन
वही देता है। श्वास
वही चलाता है।
धड़कन में वही
धड़कता है। वह
देता चला जाता
है। उसके देने
में कोई
पारावार नहीं
है। उत्तर में
हमसे कुछ
मांगता भी
नहीं है।
इसलिए
तो जीवन
तुम्हें
सस्ता मालूम
पड़ता है और
चीजें महंगी
मालूम पड़ती
हैं। तुम जीवन
गंवाने को कभी
भी राजी हो, धन गंवाने
को नहीं।
क्योंकि धन
लगता है बड़ी
मुश्किल चीज
है। जीवन तो
मुफ्त में
मिलता है। वह
तुम्हें जो भी
दिया है, मुफ्त
है। उसके बदले
में तुमने कुछ
भी नहीं दिया
है।
और जिस
दिन तुम्हें
यह एहसास होना
शुरू होगा कि
जो भी मुझे
मिला है उसमें
मेरी पात्रता
क्या है? अगर
मैं न होता तो
हर्ज क्या था?
तुम्हारे
भीतर जो जीवन
की संभावना
बनी है और तुम्हारे
भीतर चेतना का
जो फूल खिला
है, अगर न
खिलता तो तुम
किससे शिकायत
करते? और
तुम्हारी
क्या योग्यता
है कि तुम्हें
जीवन मिले? तुमने किस
भांति इसे अर्जित
किया है?
हर
छोटी-छोटी चीज
के लिए
योग्यता
चाहिए। तुम एक
दफ्तर में
क्लर्क हो, उसके लिए
योग्यता
चाहिए। तुम एक
स्कूल में मास्टर
हो, उसके
लिए योग्यता
चाहिए। तुम
उसे अर्जित
करते हो।
तुमने जीवन के
लिए क्या
अर्जित किया?
कैसे
अर्जित किया
है?
वह दान
है। वह तुम्हें
ऐसे ही मिला
है, तुम्हारी
कोई पात्रता
के कारण नहीं।
और जिस दिन
तुम्हें यह
प्रतीति होगी,
उस दिन
प्रार्थना का
जन्म होगा। उस
दिन तुम कहोगे
मैं क्या करूं?
मैं कैसे
धन्यभाग्य
प्रकट करूं? मैं कैसे
तेरे ऋण को
चुकाऊं? प्रार्थना
मांग नहीं है।
प्रार्थना जो
पहले से ही
मिला है उसका
धन्यवाद है।
और ये प्रार्थना
के दो भेद
हैं।
तुम जब
जाते हो मंदिर
तो तुम और
मांगने जाते हो।
तुम्हारी
प्रार्थना
झूठी है। नानक
भी जाते हैं।
वे धन्यवाद
देने जाते
हैं। वे कहने
जाते हैं, जो तूने
दिया है वह
भरोसे के बाहर
है। कोई कारण
नहीं मेरे
भीतर कि मुझे
मिले। कोई
मेरी योग्यता
नहीं। न मिले,
शिकायत
करने का कोई
उपाय नहीं। और
तू देता चला
जाता है।
परमात्मा
औघड़ दानी है, अस्तित्व
दिए चला जाता
है। और हम? हमसे
ज्यादा
कृतघ्न लोग
खोजने कठिन
हैं। हम धन्यवाद
भी नहीं दे
सकते। उसके
देने का अंत
नहीं है और हमारी
कृतघ्नता का
कोई अंत नहीं।
हम कृतज्ञता
भी प्रगट नहीं
कर सकते। हम
यह भी नहीं कह
सकते कि
धन्यवाद! कि
हम आभारी हैं!
कि तेरा
शुक्रिया!
उतना भी हमसे
नहीं होता।
उतने में भी
हमें बड़ी
कठिनाई मालूम
पड़ती है।
हमारा कंठ
अवरुद्ध हो
जाता है।
तुम
क्षुद्र
बातों के लिए
धन्यवाद दे
देते हो।
तुम्हारा
रुमाल गिर जाए
और कोई उठा कर
दे दे, तो
तुम उससे कहते
हो, धन्यवाद।
और जिसने
तुम्हें जीवन
दिया है, तुम
उसके लिए
धन्यवाद देने
भी कभी नहीं
गए। और जब भी
तुम गए हो, शिकायत
ले कर गए हो।
जब भी तुम गए
हो, तब तुम
बताने गए हो
कि क्या-क्या
तू गलत कर रहा
है! कि मेरा
लड़का बीमार
पड़ा है, कि
मेरी पत्नी
दर्ुव्यवहार
कर रही है, कि
धंधा ठीक नहीं
चल रहा है।
और तुम
अपनी
शिकायतों को
जब बहुत बढ़ा
लेते हो, तब
तुम्हारी
शिकायतों का
अंतिम जोड़ यह
होता है कि
तुम कहते हो, तू है ही
नहीं।
क्योंकि अगर
है, तो ये चीजें
पूरी कर।
नास्तिकता
का अर्थ है, तुम्हारी
शिकायतें
इतनी बढ़ गईं
कि अब तुम परमात्मा
को मान नहीं
सकते।
तुम्हारी
शिकायतों के
कारण तुम
परमात्मा की
हत्या कर देते
हो। आस्तिकता
का क्या अर्थ
है? आस्तिकता
का अर्थ है, तुम्हारा
अहोभाव इतना
बढ़ गया, तुम्हारा
धन्यभाव इतना
बढ़ गया, तुम
इतनी
कृतज्ञता से
भर गए हो कि वह
तुम्हें सब
जगह दिखाई
पड़ने लगता है।
हर तरफ उसका
हाथ, हर
जगह उसकी
प्रतीति, हर
जगह उसका
एहसास होने
लगता है।
आस्तिकता धन्यवाद
की परम स्थिति
है।
नास्तिकता
शिकायत का
आखिरी रूप है।
जब
नानक यह कह
रहे हैं कि दाता
देता ही चला
जाता है। लेने
वाले लेते-लेते
थक जाते हैं, लेकिन दाता
नहीं थकता।
युग-युगांतर
से जीव उसका
भोग कर रहे
हैं, पर
उसका अंत नहीं
है...।
तुम
उसे कितना ही
भोगो, तुम
उसे चुका न
पाओगे।
तुम्हारा भोग
ऐसे ही है
जैसे कोई
चम्मच ले कर
सागर के
किनारे बैठा हो
और चम्मच से
सागर को खाली
कर रहा हो। यह
भी हो सकता है
कि कभी न कभी
वह सागर को
खाली कर
ले--क्योंकि
चम्मच की भी
सीमा है और
सागर की भी
सीमा है--लेकिन
तुम परमात्मा
को खाली न कर
पाओगे, क्योंकि
उसकी कोई सीमा
नहीं।
अनंत
काल से तुम
भोग रहे हो।
अनेक रूपों
में तुम भोग
रहे हो और
तुम्हारे
हृदय से
धन्यवाद की आवाज
भी नहीं उठी!
तुमने एक बार
आकाश की तरफ
आंखें उठा कर
न कहा कि मैं
धन्यभागी हूं
और तूने जो दिया
है वह अपरंपार
है। जब भी तुम
उसके पास गए, शिकायत ले
कर गए। और जब
भी तुमने कुछ
कहा, नाराजगी
जाहिर की। जब
भी तुम गए, तुमने
ऐसा बताया कि
तुम्हारी
योग्यता
ज्यादा है और
तुम्हें मिला
कम है।
कुछ
दिन हुए, एक
बड़े अधिकारी
दिल्ली से
मुझे मिलने
आए। बड़े से
बड़े पद पर
हैं। लेकिन
जितने बड़े पद
पर हों, उतनी
शिकायत बढ़
जाती है।
क्योंकि वे
सोचते हैं, उनको अब
मंत्री होना
चाहिए।
प्रधानमंत्री
होना चाहिए।
वे मुझसे कहने
लगे, और सब
तो ठीक है, कोई
रास्ता बताएं
जिससे कि मेरे
साथ जीवन में जो
अन्याय हुआ है,
उसको मैं
सहने में
समर्थ हो
जाऊं। अन्याय
क्या हुआ है? अन्याय यह
हुआ है कि जो
मुझे मिलना
चाहिए था वह
नहीं मिला।
जिस पद के मैं
योग्य हूं
उससे नीचे रह गया।
सभी को
ऐसा लगता है।
इसलिए हर आदमी
इसी दुख में
जीता है कि जो
मुझे मिलना
चाहिए था वह
नहीं मिला।
मैं योग्य तो
था कि वाइस
चांसलर हो
जाता, और
पड़ा हूं एक
स्कूल में
मास्टर हो कर।
योग्य तो था
कि मालिक हो
जाता, बना
हूं चपरासी।
और यह स्थिति
सदा बनी रहती
है। इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। जो
प्रधानमंत्री
बन जाता है वह
भी सोच रहा है
कि अब मेरी
योग्यता तो इससे
भी बड़ी है, लेकिन
अब विस्तार का
कोई उपाय नहीं
दिखाई पड़ता कि
मैं सारी
दुनिया का
मालिक कैसे हो
जाऊं!
तुम
सिकंदरों को
तृप्त नहीं कर
सकते। और सभी
सिकंदर हैं, छोटे-मोटे, बड़े; लेकिन
सभी सिकंदर
हैं। सभी की
बड़ी आकांक्षा
है। और
आकांक्षा
तुमसे आगे
जाती है। तुम
हमेशा पीछे
रहते हो। और
योग्यता
तुम्हें सदा
ज्यादा मालूम
पड़ती है। यह
अधार्मिक
आदमी का लक्षण
है।
धार्मिक
आदमी का लक्षण
यह है कि जो
मिल जाए, वह
मेरी योग्यता
से ज्यादा है।
थोड़ा सोचो, देखो। जो
तुम्हें मिला
है, वह
तुम्हारी
योग्यता से
ज्यादा है या
कम? वह सदा
ज्यादा है। वह
सदा ही ज्यादा
है। क्योंकि
कुछ भी हमने
अर्जित नहीं
किया है। यह
विराट जीवन
हमें यूं ही
मिला है दान
में। हमने
मांगा तक नहीं
था, बिना
मांगे मिला
है। फिर भी
अहोभाव पैदा
नहीं होता।
नानक
कह रहे हैं कि
उसको युग-युग
तक भोग कर भी हम
चुका नहीं
पाते। वह
हुकमी हुक्म
से पथ-निर्देश
करता है। यह
बड़ी गहरी चाबी
है। और नानक
के विचार का
बड़ा
महत्वपूर्ण
हिस्सा उसमें
छिपा है। वह
यह है--
हुकमी
हुकमु चलाए
राह।
'वह
हुक्म से
दुनिया को चला
रहा है।'
और
हमेशा
तुम्हें
हुक्म देता
है। अगर
तुम्हारे पास
थोड़ी भी सुनने
की समझ हो तो
तुम उसके हुक्म
को समझ सकते
हो। और उसके
अनुसार चल
सकते हो। तुम
सुनते ही
नहीं।
तुम
चोरी करने
जाते हो, वह
भीतर से तुमसे
कहता है, मत
करो। एक बार
कहता है, दो
बार कहता है, हजार बार
कहता है। तुम
जाते ही जाते
हो, तुम
करते ही जाते
हो। फिर
धीरे-धीरे वह
आवाज भीतर
धीमी होती
जाती है। तुम
बहरे हो जाते
हो। फिर
तुम्हें वह
सुनाई भी नहीं
पड़ती। फिर भी
वह आवाज दिए
जाता है। तुम
ऐसा पापी न
खोज सकोगे, जिसके भीतर
आवाज खो गई हो,
हुक्म खो
गया हो। तुम
ऐसा बुरा आदमी
न खोज सकोगे, जिसको वह अब
भी आवाज न दे
रहा हो। वह
कभी थकता नहीं
और कभी निराश
नहीं होता।
तुम कितना ही
बुरा करो, परमात्मा
तुमसे निराश
नहीं है। और
वह कभी तुम्हें
इस स्थिति में
नहीं मान लेता
कि अब कुछ भी
नहीं हो सकता।
तुम असाध्य
कभी भी नहीं
हो उसके लिए।
तुम्हारा रोग
कितना ही बढ़
जाए, उसका
इलाज संभव है।
परमात्मा की
अनंत आशा, अनंत
संभावना है।
वह तुमसे कभी
निराश नहीं होता।
ऐसा
हुआ; एक सूफी
फकीर हुआ, बायजीद।
उसके पड़ोस में
एक आदमी था, जो बड़ा बुरा
आदमी था।
लुटेरा, चोर,
बेईमान, दगाबाज,
हत्यारा, सब तरह के
पाप उसने किए
थे। पूरा गांव
उससे त्रस्त
था। एक दिन
बायजीद ने
प्रार्थना
की। परमात्मा
से कहा, मैंने
तुझ से कभी
कुछ नहीं
मांगा। लेकिन
यह आदमी अब
बहुत ज्यादा
उपद्रव कर रहा
है। इस आदमी को
हटा ले। तो
बायजीद ने
भीतर से आवाज
सुनी कि मैं
उससे नहीं थका,
तो तू उससे क्यों
थक गया है? और
मुझे जब अब भी
उस पर भरोसा
है, तो तू
भी भरोसा रख।
कितने
ही पाप तुमने
किए हों, कितने
ही जन्मों तक,
परमात्मा
को तुम थका
नहीं सकते। न
भोग से चुका
सकते हो, न
पाप से थका
सकते हो। वह
अब भी आवाज
दिए जाता है।
वह कभी निराश
नहीं होता। और
अगर तुम जरा
शांत हो कर
सुनो, तो
उसकी धीमी
आवाज तुम्हें
सुनाई पड़ेगी।
और जब भी तुम
कुछ करते हो, वह आवाज
तुम्हें
निर्देश देती
है।
नानक
कह रहे हैं, 'वह हुकमी
हुक्म से
पथ-निर्देश
करता है।'
इसलिए
तो वे उसको
हुकमी कह रहे
हैं। क्योंकि
उसका हुक्म
आता है।
तुम्हारे
गहरे चेतन में
छिपा हुआ जो
अंतःकरण है, तुम्हारे
हृदय में दबा
हुआ जो
अंतःकरण है, वह उसकी
आवाज का यंत्र
है। वहां से
वह बोलता है।
कुछ भी करने
के पहले, आंख
बंद करके पहले
उसकी आवाज सुन
लेना। और अगर
तुम उसकी आवाज
के अनुसार चले,
तो
तुम्हारे
जीवन में आनंद
की अपरंपार
वर्षा होगी।
अगर तुम उसके
विपरीत चले तो
तुम नर्क अपने
हाथ निर्मित
कर लोगे। अगर
तुमने आवाज न
सुनी तो तुमने
पीठ कर दी।
तुम बड़ा
खतरनाक कदम ले
रहे हो। कुछ
भी करने के
पहले, और
कुछ भी निर्णय
करने के पहले,
आंख बंद
करके उससे पूछ
लेना। यही तो
सारे ध्यान का
सूत्र है कि
पहले हम
पूछेंगे, पहले
हम हुक्म
खोजेंगे, फिर
हम चलेंगे। एक
भी कदम हम
बिना हुक्म के
न उठाएंगे।
आंख बंद करके
उसकी आवाज
पहले सुनेंगे।
हम अपनी आवाज
से न चलेंगे, उसकी आवाज
से चलेंगे।
और एक
दफे तुम्हें
यह कुंजी मिल
जाए, तो यह
कुंजी अनंत
द्वार खोल
देती है। और
यह कुंजी
तुम्हारे
भीतर है। हर
बच्चा ले कर
आता है। लेकिन
बुद्धि का हम
विकास करवाते
हैं, अंतःकरण
का कोई विकास
नहीं। वह
कांसियन्स, अंतःकरण
अधूरा रहा
जाता है, अविकसित
रह जाता है।
और उसके ऊपर
हम बुद्धि के
इतने विचार
थोप देते हैं,
इतनी बड़ी
पर्त लगा देते
हैं कि आवाज गूंजती
भी रहे तो
हमें पता नहीं
चलती।
भीतर
की इस आवाज को
सुनने की कला
ही ध्यान है। उसके
हुक्म का पता
लगाना जरूरी
है। वह क्या
चाहता है? उसकी क्या
मर्जी है?
'वह
हुकमी हुक्म
से पथ-निर्देश
करता है।'
और
नानक कहते
हैं--
हुकमी
हुकमु चलाए
राह। नानक
विगसै
बेपरवाह।।
नानक
कहते हैं, 'वह बेपरवाह
है और आनंदित
है।'
एक तो
परवाह का अर्थ
होता है
चिंता। वह
तुम्हें दिए
जाता है, लेकिन
दे कर कोई
अपेक्षा नहीं
करता। कोई
उत्तर नहीं
चाहता। आवाज
दिए जाता है, तुम सुनो या
न सुनो, दिए
जाता है।
परवाह नहीं
करता इस बात
की कि तुम
नहीं सुन रहे
हो। बंद करो, बहुत हो गया,
इस आदमी को
हटा लो।
परमात्मा
को तुम चिंतित
नहीं कर सकते।
इसलिए जिस
व्यक्ति को भी
परमात्मा की
प्रतीति होने लगती
है, तुम उसे
भी चिंतित
नहीं कर सकते।
ही विल बी बोथ
साइमलटेनियसली
कंसर्न्ड एंड
अनकंसर्न्ड।
वह तुम्हारी
परवाह भी
करेगा और
बेपरवाह भी
होगा। तुम उसे
चिंतित नहीं
कर सकते।
इधर
मैं हूं। न
मालूम कितने
लोगों की
परवाह करता
हूं, फिर भी
बेपरवाह हूं।
तुम आते हो
अपना दुख ले कर,
मैं पूरी
परवाह करता
हूं, लेकिन
तुम उससे मुझे
चिंतित नहीं
कर देते। तुम्हारे
दुख से मैं
दुखी नहीं हो
जाता। क्योंकि
अगर तुम्हारे
दुख से मैं
दुखी हो जाऊं
तो फिर मैं
तुम्हें साथ
ही न दे
पाऊंगा।
जरूरी है कि
तुम्हारे दुख
को मैं
सहानुभूति से
समझूं, तुम्हारे
दुख के लिए
उपाय करूं, उपाय सोचूं,
लेकिन
परवाह मुझे
पैदा न हो।
तुम्हारी
चिंता मुझे न
पकड़े। और यह
भी जरूरी है
कि कल जो
मैंने
तुम्हें
बताया है, तुम
न करो, तो
मुझमें
नाराजगी न आए,
कि मैंने
इतनी परवाह ली
और तुमने नहीं
किया। तुम जब
कल आओ बिना
किए--और आओगे
ही बिना
किए--तो फिर
तुम्हारी
परवाह लूं, लेकिन मैं
बेपरवाह
रहूं।
परमात्मा
को सारे जगत
की परवाह है, और बेपरवाह
है। वह सदा
राजी है
तुम्हें
उठाने को, लेकिन
किसी जल्दी
में नहीं है।
और तुम अगर
सोचते हो कि
कुछ देर और
भटकने का मजा
लेना है, तो
वह बेपरवाह
है। उसकी
परवाह का अंत
नहीं है, लेकिन
उसकी परवाह
अनासक्त है।
और इसीलिए तो
वह आनंदित है,
नहीं तो अब
तक किस हालत
में हो जाता!
पागल हो जाता।
तुम सोचो, तुम
सरीखे कितने
लोग! और कितने
तरह के
उपद्रव! और
परमात्मा एक
और तुम अनेक!
तुम सबने उसे
कभी का पागल
कर दिया होता।
अस्तित्व
बेपरवाह हो, तो ही पागल
होने से बच
सकता है।
लेकिन
बेपरवाह का
अर्थ
इनडिफरेंस
नहीं है, उपेक्षा
नहीं है। यह
बड़ा सूक्ष्म है।
तुम्हारे
प्रति पूरी की
पूरी चेष्टा
है। तुम्हें
बदलने, रूपांतरित
करने, तुम्हें
उठाने का पूरा
भाव है। लेकिन
भाव अनाक्रामक
है। वह आक्रमण
नहीं करेगा।
वह प्रतीक्षा
करेगा। ऐसे ही,
जैसे सूरज
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक दे रहा
है, किरणें
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक दे रही
हैं, और
तुम दरवाजा
बंद किए अंदर
बैठे हो तो
सूरज जबर्दस्ती
नहीं घुसेगा,
रुकेगा। और
ऐसा भी नहीं
कि नाराज हो
कर लौट जाए।
कि अब इस आदमी
का दरवाजा बंद
है, चलो।
अब कभी यहां
नहीं आना।
रुकेगा, तुम
जब दरवाजा
खोलोगे, तब
प्रवेश कर
जाएगा।
परमात्मा
तुम्हारे लिए चिंतित
है, अस्तित्व
तुम्हारे लिए
चिंतित है।
होगा ही। क्योंकि
अस्तित्व
तुम्हें पैदा
करता है। अस्तित्व
तुम्हें
विकसित करता
है। अस्तित्व
की बड़ी
आकांक्षाएं
हैं तुममें।
अस्तित्व की बड़ी
अभीप्साएं
हैं तुममें।
अस्तित्व
तुम्हारे
भीतर से चेतन
होने की
चेष्टा कर रहा
है। अस्तित्व
तुम्हारे
भीतर से
बुद्धत्व पाने
की चेष्टा कर
रहा है।
परमात्मा
तुम्हारे भीतर
कुछ फूल लाने
के प्रयास में
लगा है।
लेकिन
अगर तुम देरी
कर रहे हो तो
उससे वह चिंतित
नहीं होगा, परेशान नहीं
होगा। वह
अस्पर्शित
रहेगा। तुम उसकी
न सुनोगे, न
सुनोगे, न
सुनोगे, भटकोगे,
और सब करोगे
सिवाय उसकी
सुनने के, तो
भी वह इससे
पीड़ित और
परेशान न
होगा।
तो अगर
तुम समझ सको
दोनों बातें
एक साथ, तभी
तुम समझ सकते
हो कि
अस्तित्व
आनंद से भरा है।
परमात्मा
आनंद है।
नानक
कहते हैं, हुकमी हुकमु
चलाए राह।
देता है हुक्म,
राह बताता
है। फिर भी, नानक विगसै
बेपरवाह।
लेकिन फिर भी
बेपरवाह है।
और परम आनंद
में विकसित
होता रहता है।
खिलता रहता है
उसका फूल।
कठिन
है हमें।
क्योंकि दो
बातें हमें
आसान दिखाई
पड़ती हैं; या तो हम
परवाह करते
हैं तो चिंता
पैदा होती है,
या परवाह
छोड़ दें तो
चिंता छूट
जाती है। इसीलिए
तो हमने संसार
और संन्यास को
अलग-अलग कर लिया
है। क्योंकि
अगर घर में
रहेंगे, परवाह
करेंगे, तो
परवाह करते
हुए बेपरवाह
कैसे होंगे? पत्नी की
फिक्र होगी, बीमार होगी
तो चिंता
पकड़ेगी, रात
सो न सकेंगे।
बच्चा रुग्ण
होगा तो फिक्र
पकड़ेगी, चिंता
पकड़ेगी, इलाज
करना पड़ेगा।
और नहीं ठीक
हो सकेगा तो
पीड़ा होगी। तो
हम भाग जाते
हैं। न दिखाई
पड़ेंगे
पत्नी-बच्चे,
भूल
जाएंगे। जो
आंख से ओझल
हुआ, वह
चित्त से भी
भूल जाता है।
तो भाग जाते
हैं पहाड़। पीठ
कर लेते हैं।
धीरे-धीरे
विस्मृति हो जाएगी।
दो
बातें हमें
दिखाई पड़ती
हैं। अगर हम
संसार में
रहेंगे तो
परवाह
करेंगे।
परवाह करेंगे
तो चिंता
होगी। चिंता
में आनंद का
कोई उपाय
नहीं। तो फिर
हम ऐसा करें
कि बेपरवाह हो
जाएं। छोड़ कर
भाग जाएं।
वहां चिंता न
होगी, तो
आनंद की
संभावना
बढ़ेगी।
लेकिन
यह परमात्मा
का मार्ग
नहीं। इसलिए
नानक गृहस्थ
बने रहे और
संन्यस्त भी।
फिक्र भी करते
रहे और
बेफिक्र भी।
और यही कला है, और यही
साधना है कि
तुम चिंता भी
पूरी लेते हो और
निश्चिंत बने
रहते हो।
बाहर-बाहर सब
करते हो, भीतर-भीतर
कुछ नहीं
छूता। बेटे की
फिक्र लेते हो,
पढ़ाते हो; बिगड़ जाए तो,
न पढ़ पाए तो,
हार जाए
तो...तो इससे
चिंता पैदा
नहीं होती।
और जब
तक तुम दोनों
को न जोड़
दो--संसार में
रहते हुए
संन्यस्त न हो
जाओ--तब तक तुम
परमात्मा तक न
पहुंच सकोगे।
क्योंकि
परमात्मा का
भी ढंग यही
है। वह संसार
में छिपा हुआ
और संन्यस्त
है। जो उसका
ढंग है, छोटी
मात्रा में
वही ढंग
तुम्हारा चाहिए।
तभी तुम उस तक
पहुंच पाओगे।
बच्चा
बीमार है तो
दवा दो, पूरी
चिंता लो, लेकिन
चिंतित होने
की क्या जरूरत
है? पूरी
फिक्र करो, परवाह पूरी
करो, लेकिन
इससे भीतर की
बेपरवाही को
मिटाने का क्या
कारण है? बाहर-बाहर
संसार में, भीतर-भीतर
परमात्मा
में। परिधि
छूती रहे संसार
को, केंद्र
बना रहे
अछूता। यही
सार है।
इसीलिए
नानक से लोग
बड़े परेशान
थे। क्योंकि वे
थे गृहस्थ और
कपड़े-लत्ते
पहन लिए थे
संन्यासी
जैसे। लोग समझ
ही न पाते कि
मामला क्या है? हिंदू पूछते
कि तुम गृहस्थ
हो कि
संन्यासी? कि
तुम बातें
संन्यासी की
करते हो, तुम्हारा
ढंग-डोल
संन्यासी का,
फिर घर, बच्चे-पत्नी?
तुम घर वापस
भी लौट जाते
हो, बच्चा
भी हुआ है, गांव
लौट कर तुम
खेती-बाड़ी भी
करते हो। तुम
किस भांति के
संन्यासी हो?
स्मरण
रहे, वही उनसे
मुसलमान
पूछते--कि
तुम्हारा भेष
तो फकीरी का
है, फिर
तुमने
घर-गृहस्थी
छोड़ क्यों न
दी? अनेक
जगह, अनेक
गुरुओं ने
उनसे कहा कि
तुम सब छोड़ कर
अब हमारे
शिष्य हो जाओ।
छोड़ दो सब।
लेकिन नानक उस
मामले में कभी
भी फर्क नहीं
लाए। वे सब के
बीच रहते हुए
सब के बाहर
रहने की ही
कला को साधते
रहे। और वही
परमात्मा का
ढंग है। और
वही साधक का
ढंग होना चाहिए।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि आप
क्या कर रहे
हैं? गृहस्थों
को संन्यासी
के कपड़े दे
रहे हैं?
परमात्मा
का ढंग यही
है। वह इस
संसार में है
और नहीं है।
और यही
तुम्हारा
सूत्र भी होना
चाहिए।
हुकमी
हुकमु चलाए
राह। नानक
विगसै
बेपरवाह।।
विकास
कर रहा है, आनंदित हो
रहा है, प्रफुल्लित
हो रहा है, फूल
की तरह खिल
रहा है, फिर
भी कोई परवाह
नहीं। फिक्र
करता है
तुम्हारी, लेकिन
चिंतित नहीं
है।
इसे
तुम थोड़ा
प्रयोग करोगे
तो ही समझ में
आ सकेगा। इसे
थोड़ा जिंदगी
में प्रयोग
करो। दूकान जाओ, काम करो, लेकिन
दूर भी बने
रहो। तुम्हारे
काम और
तुम्हारे
होने में एक
फासला बना रहे।
काम अभिनय हो
जाए, नाटक
हो जाए, लीला
हो जाए। तुम
कर्ता न रहो।
बस! सूत्र सध
गया। तुम
अभिनेता हो
जाओ। अभिनय की
कला तुम्हारे
पूरे जीवन का
सूत्र बन जाए।
क्योंकि वही
परमात्मा के
होने का ढंग
है। वही
तुम्हारा
साधना-पथ
होगा।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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