चौथा
प्रवचन
14
मार्च 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
1--मैं
क्या करूं? कैसे
प्रार्थना
करूं? कैसे
अर्चना करूं?
2--आपने
कहा : 'न मैं पूर्ण
हूं और न संत'। इससे मुझे
बड़ा सदमा लगा।
मैं रातभर सो
भी न
सका।
3--संन्यास
लेने में
अहंकार ही
सबसे बड़ी बाधा
है; तो
इसको कैसे
हटाया जा सकता
है?
4--आप
शास्त्र—शान
का विरोध
क्यों करते
हैं?
5--गरीब
जानके हमको न
तुम भुला
देना
तुम्हीं
ने दर्द दिया
है तुम्हीं
दवा देना
पहला
प्रश्न : मैं
क्या करूं? कैसे
प्रार्थना
करूं? कैसे
अर्चना करूं?
प्रार्थना
क्रिया नहीं
है, कर्म
नहीं है।
कर्ता का भाव
ही प्रार्थना
में बाधा है।
प्रार्थना
अक्रिया है।
की नहीं जाती,
सिर्फ होने
दी जाती है।
प्रार्थना
ऐसे है जैसे
नींद। लाने की
कोशिश करोगे,
आना
मुश्किल हो
जाएगा। भूलों
नींद की बात, पड़े रहो
बिस्तर पर, आएगी अपने
से।
प्रार्थना
आती है, लायी
नहीं जाती। इस
बुनियादी बात
को खूब खयाल
में रख लेना।
भक्त
कुछ कर नहीं
सकता, करना
उसके बस में
नहीं है। करना
ही वश में हो
तो भक्ति की
कोई जरूरत
नहीं है।
भक्ति असहाय
अवस्था है।
बेसहारा! जब
व्यक्ति अपने
को पाता है अब
मेरे किये कुछ
भी न होगा, कुछ
भी न होगा, मेरा
सारा करना गिर
गया, हार
गया, मेरा
कर्ता पुंछ
गया, मिट
गया, वैसी
शून्य अवस्था
में, जब
करने को कुछ
भी नहीं सूझता,
आंखें अपने—
आप आंसुओ से
भर आती हैं, वही
प्रार्थना है।
वे आंसू ही
फूल हैं, चढ़ाने
योग्य।
रुदन
उठेगा, गान
भी उठेगा, मगर
तुम्हें खींच—खींच
कर लाना नहीं
है, उठने
देना है।
तुम्हारे
भीतर से
उमगेगी
प्रार्थना, जैसे
वृक्षों में
पत्ते निकलते
हैं और फूल खिलते
हैं। ऐसे
तुम्हारे
प्राणों में
पत्ते
खिलेंगे, फूल
खिलेंगे, तुम
हरे हो उठोगे,
कोई गीत
जन्मेगा, कोई
एक कड़ी
गूंजेगी। वही
मंत्र है। जो
दूसरे ने दिया,
वह मंत्र
नहीं है। जो
तुमने पाया, जो तुम्हें
मिला, जो
परमात्मा से
मिला, वह
मंत्र है।
तुम
पूछते हो, 'मैं क्या
करूं? करना
छोड़ो। किये—
किये खूब भरमे,
कर—कर के
खूब भटके, करने
के कारण ही
भटके, अब
जागो। अब एक
बात समझो कि
तुम्हारे
किये कुछ भी न
होगा। जैसे
सांस अपने से
चलती है—तुम
थोड़े ही चलाते
हों—खून अपने
से बहता है—तुम
थोड़े ही बहाते
हों—हृदय अपने
से धड़कता है—तुम
थोड़े ही
धड़काते हो! सब
अपने से हो
रहा है, तुम
अपने को बीच
में मत लाओ।
तुम हट जाओ, तुम रास्ता
दे दो। तुम
गिर पड़ो तुम
मिट जाओ। तुम
करने की बात
ही विस्मरण कर
दो। और तब तुम
एक दिन अचानक
पाओगे, होने
का जन्म हुआ।
फिर
प्रार्थना
कैसी होगी, कहना कठिन
है। प्रत्येक
की अलग— अलग
होगी। किस ढंग
की सुगंध
तुम्हारे
भीतर उठेगी, कैसे पत्ते
खिलेंगे, कैसे
फूल—सब पौधे
अलग हैं! किसी
पर गुलाब
खिलेगा, किसी
पर चंपा, किसी
पर चमेली, मगर
एक बात समान
होगी—खिलावट
होगी। उस
खिलावट का नाम
प्रार्थना है।
तुम
पूछते हो—क्या
करूं? कैसे
करूं? प्रार्थना
की कोई विधि
नहीं है।
प्रेम की कहीं
विधि हुई है!
जहा विधि आयी,
वहां
कृत्रिमता
आयी। तुम
प्रेम करना
सीखते थोड़े ही
हो, अभ्यास
थोड़े ही करते
हो— और अभ्यास
किया हुआ
प्रेम अभिनय
होगा, वास्तविक
नहीं होगा।
मगर प्रेम के
अभ्यास की
जरूरत नहीं, तुम जन्मे
हो प्रेम की
क्षमता के साथ।
तुम लाए हो
अपने प्राणों
में वह स्वर, वह पड़ा ही है,
जरा अवसर
चाहिए। और
अवसर क्या है?
इतना ही कि
तुम्हारा
बाहर का
शोरगुल थोड़ा
बंद हो।
तो
करने के नाम
पर नकारात्मक
करना है।
जैसे
एक आदमी को, मैं फिर याद
दिलाऊं, सोना
है। वह क्या
करे? सोने
के लिए कोई
अभ्यास करे? व्यायाम करे?
उछल—कूद करे?
आसन लगाए? जो भी करेगा,
उसे नींद
में बाधा पड़
जाएगी। लेकिन
फिर भी कुछ
किया जा सकता
है; वह
करना नहीं है।
कमरे का
प्रकाश बुझा
सकता है। उससे
सहारा मिलेगा
दरवाजे—खिड़किया
बंद कर सकता
है। पर्दे
गिरा दे सकता
है। उससे
सहारा मिलेगा।
विश्राम की
अवस्था के लिए
अंधेरा
उपयोगी है।
द्वार—दरवाजे
बंद हों, अंधेरा
हो, बाहर
का शोरगुल न
आता हो, यह
सहयोगी है, मगर नींद तो
अपने से घटेगी।
ऐसी ही
प्रार्थना है।
तुम
बाहर के
शोरगुल से थोड़ा
अपने को
निश्चित कर लो, चौबीस घंटे
में एक घडी
खोज लो, द्वार—दरवाजे
बंद कर दो, बैठ
जाओ, भूलो
जगत को, प्रतीक्षा
करो अज्ञात की;
धैर्य रखो;
आज नहीं
होगा, कोई
चिंता नहीं; आज नहीं खोद
पाए कुआ, थोड़ी
ही दूर तक गये,
थोड़ी
मिट्टी—पत्थर
निकाला, मगर
फिर भी काम
शुरू हो गया, कुआ खुदना
शुरू हो गया, कल थोड़ा और
खुदेगा, परसों
थोड़ा और
खुदेगा, एक
दिन तुम पाओगे
जलधार फूट गयी।
जल्दबाजी न
करो। मैं
तुम्हारी
व्यथा समझता
हूं।
भावाकुल
मन की कौन कहे
मजबूरी।
बोल
उठी है मेरे
स्वर में
तेरी
कौन कहानी,
कौन
जगी मेरी
ध्वनियों में
तेरी
पीर पुरानी,
अंगों
में रोमाच हुआ, क्यों
कोर
नयन के भीगे,
भावाकुल
मन की कौन कहे
मजबूरी।
किसी
दिन आंखें भीग
जाएंगी। 'कोर
नयन के भींगे '
भाव की धारा
बहेगी।
यद्यपि उस
धारा को तुम
विधि मत कहना,
क्योंकि वह
प्रत्येक की
भिन्न होगी, अलग—अलग
होगी। सबके आंसुओ
का स्वाद अलग
है। सब की
मुस्कुराहट
का ढंग अलग है।
सबके प्रेम की
शैली भिन्न है।
यही तो
व्यक्ति की
गरिमा है।
इसलिए सबको
प्रार्थनाएं
भी अलग होंगी।
दुनिया
में
प्रार्थना मर
गयी है, क्योंकि
प्रार्थना
सिखायी गयी है।
हिंदुओं ने एक
तरह की
प्रार्थना
सीख ली है, बस
वही दोहराए जा
रहे हैं।
मुसलमानों ने
एक तरह की
प्रार्थना
सीख ली है, वही
दोहराए जा रहे
हैं।
व्यक्तियों
को पोंछ कर
हटा दिया गया
है, विधियां
थमा दी गयी
हैं। विधिया
झूठी हो जाती
हैं। और जब भी
तुम बाहर से
सीखी कोई
प्रार्थना दोहराओगे,
तुम्हारे
भीतर की
प्रार्थना
अजन्मी रह
जाएगी।
भावाकुल
मन की कौन कहे
मजबूरी।
बोल
उठी है मेरे
स्वर में
तेरी
कौन कहानी,
कौन
जगी मेरी
ध्वनियों में
तेरी
पीर पुरानी,
अंगों
में रोमांच
हुआ,
क्यों
कोर नयन के
भीगे,
भावाकुल
मन की कौन कहे
मजबूरी।
मैंने अपना
आधा जीवन
गाकर
गीत गंवाया
शब्दों
का उत्साह
पदों ने मेरे
बहुत कमाया मोती
की लड़ियां तो
केवल तूने इन
पर वारी, निर्धन
की झोली आज
गयी भर पूरी।
भावाकुल
मन की कौन कहे
मजबूरी।
फिर भी
तुम कह न
पाओगे जो हुआ
है। तुम किसी
दूसरे को बता
न पाओगे जो
हुआ है। तुम
किसी को समझा
न पाओगे जो
हुआ है।
समझाने जाओगे
और उलझ जाओगे।
' भावाकुल मन
की कौन कहे
मजबूरी'।
तुमने जो गीत
गाये, वे
तो कचरा; जो
गीत परमात्मा
तुमसे गाता है,
वही, वही
सार्थक है।
मैंने अपना
आधा जीवन
गाकर
गीत गंवाया, शब्दों का
उत्साह पदों
ने मेरे बहुत
कमाया, मोती
की लडिया तो
केवल तूने इन
पर वारी,
जब
उसका
संस्पर्श
मिलता है, तभी
तुम्हारी
मिट्टी सोना
होती है। मोती
की लडिया तो
केवल तूने इन
पर वारी निर्धन
की झोली आज
गयी भर पूरी।
भावाकुल
मन की कौन कहे
मजबूरी।
क्षणभंगुर
होता है जग
में यह रागों
का नाता,
सुखी
वही है जो
बीती को चलता
है बिसराता,
और
दुखी है फुतइr ढूंढता जो
अपनी साधों की,
रह
जाती हैं जो
उर के बीच
अधूरी
भावाकुल
मन की कौन कहे
मजबूरी।
प्रार्थना
के नाम पर तुम
कुछ मांगना मत।
तुम किसी
अधूरी वासना
को पूरा करने
की आकांक्षा मत
करना। वही लोग
करते हैं।
प्रार्थना
नहीं करते हैं।
भिखमंगापन
उनकी
प्रार्थना
में प्रकट
होता है। यह
मिल जाए, वह
मिल जाए, ऐसा
हो जाए, वैसा
हो जाए। अगर
तुमने कुछ भी
मांगा, तो
तुमने
प्रार्थना
गंदी की, अपवित्र
की। तुमने
अपनी
प्रार्थना
में वासना
जोडी कि तुमने
प्रार्थना के
पंख काट दिये
और प्रार्थना
के गले में
पत्थर बांध
दिये। वह
पक्षी फिर
उडेगा नहीं, यहीं
तडूफाएगा, यहीं
गिरेगा, यहीं
मरेगा। इतना
ही खयाल रखना,
प्रार्थना
में माग न हो।
कुछ भी मत मांगना,
परमात्मा
को भी मत मांगना—क्योकि
मांग तो बस
मांग है; मांगा
कि चूके।
अब बड़े
दुख की बात है
कि प्रार्थना
शब्द का अर्थ
ही मांगना है।
मांगनेवाले
को हम
प्रार्थी
कहते हैं।
सदियों से
प्रार्थना के
नाम पर मांगा
गया है। इसलिए
प्रार्थना का
शब्द ही गलत
हो गया, शब्द
ही विकृत हो
गया, उसका
अर्थ ही मांगना
हो गया। और
इसलिए
प्रार्थना
कभी खिल नहीं पाती।
तुम सिर्फ
किसी उन्मेष
में आंदोलित
होना, किसी
उमंग में
डोलना, मांगना
कुछ भी मत।
बिना मतों
मिलता है, मताने
से चूक जाता
है। तुम न मांगोगे
तो सब मिलेगा।
तुम मांगोगे
तो कुछ भी न
मिलेगा। और जब
कुछ भी न
मिलेगा तो
विषाद घिरेगा।
और जब बिन मतों
मिलता है, प्रसाद
बरसता है, तो
आल्हाद का
जन्म होता है।
मैं
क्या करूं? कैसे
प्रार्थना
करूं? कैसे
अर्चना करूं?
'कैसे ' शब्द
को बिदा कर दो।
तुम निष्किय
में गति करे।
बैठ रहो घड़ीभर
न सोचो कि
क्या करना है,
बैठ रहो धड़ी
भर। पक्षी गीत
गाते हों, सुनो;
सूरज की
किरणें
तुम्हारे ऊपर
नाचती हों, अनुभव करो; हवा का
झोंका आता हो
तुम्हारे
वस्त्रों को
कंपा जाता हो,
नचा जाता हो,
अनुभव करो;
बस बैठे रहो।
तुम चकित
होओगे यह
जानकर कि अगर
तुम बैठ सको घड़ीभर,
बिना किसी
व्यस्तता के,
प्रार्थना
एक दिन
तुम्हारे
भीतर ऐसे ही
जन्म जाएगी, कि चमत्कार!
लेकिन
तुम जब पूछते
हों—कैसे, तो तुम्हें
पता नहीं कि
तुम क्या पूछ
रहे हो। तो
तुम पूछ रहे
हो कि चलो ठीक
है, प्रार्थना
के लिए
बैठेंगे, लेकिन
व्यस्तता के
लिए कुछ तो दे
दें। माला
फेरें? मंत्र
जपें? पूजा
का थाल सजाएं?
आरती
उतारें? तुम
चाहते हो, कुछ
व्यस्तता के लिए
उपाय दे दो।
तुम बिना किये
नहीं रह सकते।
करना
तुम्हारी
बीमारी है, तुम्हारा
पागलपन है।
दुकान करोगे,
अखबार
पढ़ोगे, कुछ
उठा—धरी करते
रहोगे।
प्रार्थना
में भी तुम चाहते
हो, कुछ
करने को रहे।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं, कुछ
आलंबन तो
चाहिए।
क्योंकि
चाहिए आलंबन?
किसलिए
चाहिए आलंबन?
आलंबन के
सहारे मन जीता
है; और सब
आलंबन मन को
बचा रखते हैं;
आलंबन
हटाना है, देना
ही नहीं है।
सब आलंबन छीन
लो! हटा दो
मालाएं! हटा
दो पूजा के थाल!
मूर्तियों को
बिसरा दो! बैठ
रहो, कोई
आलंबन मत दो।
मन घूमेगा, विक्षिप्त
की तरह; पागल
की तरह चीखेगा,
पुकारेगा
कि कुछ काम
चाहिए। तुमने
कहानी सुनी है
न बच्चों की
कि एक आदमी ने
बड़ी मेहनत से,
तंत्र—मंत्र—टोटके
से एक प्रेत
को जगा लिया।
प्रेत तो जग
गया और उसने
कहा, आपकी
सेवा में सदा
हाजिर रहूंगा,
लेकिन एक
बात खयाल रखना—मुझे
काम चाहिए
चौबीस घंटा काम
चाहिए; अगर
जरा भी मुझे
काम नहीं मिला,
मैं
तुम्हारी
गर्दन मरोड़
दूंगा। मैं
बिना काम के
नहीं रह सकता।
बिना काम मुझे
एक क्षण कठिन
हो जाता है।
फिर मैं कुछ
का कुछ कर
दूंगा। वह
आदमी तो बड़ा
खुश हुआ, उसने
कहा, इसीलिए
तो तुझे जगाया
है कि हजारों
काम पड़े हैं, मेरे, जो
हो नहीं पाते,
जो मैं नहीं
कर पाता, वही
तो तुझसे
करवाने हैं, तू फिक्र मत
कर, यही तो
मैं चाहता हूं
ऐसा ही सेवक
चाहिए था।
मगर
जल्दी ही गड़बड़
हो गयी।
क्योंकि वह
काम दे और वह
भूत उसे क्षण
न लगे और पूरा
कर दे। महल
बनाओ। वह महल
बना दे। वह
खड़ा है क्षण
भर बाद कि महल
बन गया। जल्दी
ही काम चुक
गये—काम ही
कितने हैं!
महल भी बन गये, किले भी खड़े
हो गये, स्वर्ण
अशर्फियों के
ढेर भी लग गये,
सुंदर
स्त्रिया भी आ
गयीं, भोजन
के थाल भी सज
गये; अभी
घड़ी भी नहीं
बीती, उसने
सब निपटारा कर
दिया। वह आदमी
बड़ा घबड़ाया।
उसे एकदम सूझे
ही न कि अब काम
इसे क्या दूं?
अब यही
मुश्किल हो
गयी कि काम
इसे क्या दूं?
क्योंकि
काम न दूं तो
यह गर्दन दबा
दे। वह भूत आ—
आकर खड़ा हो
जाए। वह आदमी
एक फकीर के
पास गया। उसने
कहा, कुछ
रास्ता बताओ,
मैं बड़ी
झंझट में पड़
गया हूं। उस
फकीर ने पास में
पड़ी एक नसैनी
उसे दे दी और
कहा, इसे
जमीन में गाड़
दे और उस भूत
से कह—पहले
ऊपर जा, फिर
नीचे आ। फिर
ऊपर जा, फिर
नीचे आ। अब
तेरे पास कोई
खास काम हो
करवाने का तो
करवा लेना, अन्यथा
नसेनी बता
देना। वह
नसेनी गड़ा दी
गयी अमान में,
भूत को काम
मिल गया—वह
बड़ा प्रसन्न;
ऊपर जाए, नीचे आए, अब
उसका कोई अंत
नहीं है, चलता
रहे। जब जरूरत
हो उस आदमी को
किसी काम की
वह काम करवा
ले, अन्यथा
वह नसेनी बता
दे।
मन की
ही कहानी है
यह। मन को काम
चाहिए। वह जो
तुम माला
फेरते हो, वह नसेनी है।
फेरे जा रहे
हैं गुरिये पर
गुरिये, इधर
से उधर तक, फिर
वे एक सौ आठ हो
गये, फिर
फेरो, फिर
फेरो! कोई
मंत्र का जाप
कर रहा है, वह
कहता है, एक
करोड़ दफे जाप
करना है। कोई
बैठा राम—राम
लिख रहा है, वह नसेनी है।
चढ़ ते रहो, उतरते रहो।
काम मिल जाता
है; मगर
काम से कहीं
राम मिला है? राम तो
मिलता है
निष्काम दशा
में। जब चित्त
में कोई
व्यस्तता
नहीं होती।
प्रार्थना
अव्यस्तता का
नाम है। वही
ध्यान का अर्थ
है, वही
प्रार्थना का
अर्थ है।
'कैसे'
को भूलो!
तेईस घडी उलझे
रहो—चढो नसेनी,
उतरो नसेनी—एक
घडी भूल जाओ
नसेनी को, बैठ
जाओ खाली होकर,
कुछ भी न
करो।
नयन
तुम्हारे चरण—कमल
में अर्ध्य
चढा फिर—फिर
भर आते।
कब
प्रसन्न, अवसन्न
हुए कब,
है कोई
जिसने यह जाना?
नहीं
तुम्हारी
मुखमुद्रा
ने
सीखा
इसका भेद
बताना,
ज्ञात
मुझे, पर, अब तक मेरी
पूर्ण
नहीं पूजा हो
पायी
नयन
तुम्हारे चरण—कमल
में
अर्ध्य
चढा फिर—फिर
भर आते।
यह
मेरा
दुर्भाग्य नहीं
है
जो आंसू
की धार बहाता,
कस
उसको अपनी सांसों
में
अब तो
मैं संगीत
बनाता,
और
सुनाता उनको
जिनको
दुख—दर्दों
ने अपनाया है,
मेरे
ऐसे यत्न
तुम्हारे
पास
भला कैसे आ
पाते।
नयन
तुम्हारे चरण—कमल
में
अर्ध्य
चढा फिर—फिर
भर आते।
इस जल—कण
माला का मतलब
साफ यहीं
तक हो पाया है,
ऐसा
लगता दूर कहीं
से
भार
हृदय ढोकर आया
है,
अनायास, अनजाना, प्रयोजन—
हीन
समर्पण करके
तुमको
अंतर
का कुछ श्रम
कम होता
औ ' कुछ—कुछ
लोचन हलकाते।
नयन
तुम्हारे चरण—कमल
में
अर्ध्य
चढा फिर—फिर
भर आते।
बैठो!
और तुम पाओगे— आंसू
भरे, आंखें ड़बड़बायी,
हृदय नाचा,
रोमांच हुआ,
कोई दूर का
संगीत सुनायी
पडा, कोई अज्ञात
की गंध
तुम्हारे
नासापुटों
में उतरी। यह
होता है। यह यहां
अनेक को हो
रहा है। कोई
कारण नहीं कि
तुम्हें
क्यों न हो? तुम कभी
बैठे ही नहीं
अव्यस्त होकर,
तुमने कभी
खाली होने का
अवसर नहीं दिया,
तुम कभी
रिक्त नहीं
हुए इसीलिए
रिक्त रह गये
हो।
प्रार्थना
यानी रिक्त हो
जाओ। और तुम
परमात्मा से
भर उठोगे।
परमात्मा
प्रतिपल
उत्सुक है कि
तुम्हारे भीतर
राह बनाए। तुम
राह देते नहीं।
तुम नसेनी चढ़
ते—उतरते। तुम
कुछ न कुछ
उपद्रव करते
रहते। उस
उपद्रव को तुम
बड़े अच्छे—अच्छे
नाम देते हो, कहते हो—
आलंबन!
प्रार्थना
निरालंब दशा
है।
प्रार्थना
निराधार
अवस्था है।
प्रार्थना
निराकार
अवस्था है।
घटती है, घटायी
नहीं जाती।
दूसरा
प्रश्न :
मैं
तो आपको पूर्ण
मानता हूं और
संत भी। लेकिन
आपने कहा, 'न मैं पूर्ण
हूं और न संत'। इससे मुझे
बड़ा सदमा लगा।
मैं रात भर सो
भी न सका।
सदमा
लगाना मेरा
धंधा है।
नींद
तुम्हारी रात
में ही टूटे, दिन में भी
टूटे, ऐसी
मेरी आकांक्षा
है। नींद टूट
ही जाए! सो
लिये बहुत, सदियों सो
लिये, इसलिए
जितने उपाय हो
सकें उतने
उपाय से तुम्हें
सदमे पहुंचाता
हूं। समझोगे,
तो उन्हीं
सदमों के
सहारे जागरण
को साध लोगे।
नहीं समझोगे,
तो व्यर्थ
परेशानी में
पड़ जाओगे। जो
दे रहा हूं वह
औषधि है—समझो
तो औषधि, नहीं
समझे तो
व्याधि बन
जाएगी। मैंने
कहा—न मैं
पूर्ण हूं और
न संत। वह
इसलिए कहा कि
जब तक पूर्ण
का बोध है, तब
तक अपूर्ण से
छुटकारा नहीं।
यह तो द्वंद्व
का ही खेल है—पूर्ण—
अपूर्ण, संत—
असंत, साधु—
असाधु, पाप—पुण्य,
भला—बुरा, यह सब
द्वंद्व का ही
खेल है। पहुंच
गया जो, वह
न तो पूर्ण
होता है, न
अपूर्ण होता
है, वह न तो
संत होता है न
असंत होता है,
वह न तो शुभ
होता है, न
अशुभ होता है।
पहुंच गया जो,
जाना जिसने,
जागा जो, वह अचानक
पाता है कि
सारे द्वंद्व
विसर्जित हो
गये। अब
द्वंद्व कहां?
इस निद्व तु
अवस्था को ही
मैं भगवत्ता
कहता हूं।
भगवत्ता
उन थोड़े—से
शब्दों में से
एक है, जिसका
विपरीत नहीं
है। संत भी
भगवत्ता में
है, असंत भी
भगवत्ता में
है। लेकिन
असंत ने असंत
से अपना
तादात्म्य कर
रखा है और संत
ने संत से
अपना
तादात्म्य कर
रखा है। दोनों
ने अपनी भ्रांतिया
बना लीं।
ऐसा
समझो कि तुम
हो तो नग्न, नग्न
तुम्हारा
स्वभाव है।
फिर किसी ने
एक ढंग के
वस्त्र पहन
रखे हैं—सुंदर,
बहुमूल्य, हीरे—
जवाहरात जड़े—
और उसने
इन्हीं
वस्त्रों के
साथ अपना
तादात्म्य कर
लिया और वह
सोचता है मैं
यही हूं—ये
सुंदर वस्त्र,
ये
बहुमूल्य
वस्त्र! और
फिर किसी ने
दीन—दरिद्र
वस्त्र पहन
रखे हैं—भिखमंगे
के—उसने उनसे
अपना
तादात्म्य
बना लिया है
कि मैं यही
वस्त्र हूं
मैं यही दीन, दुख, दारिद्रध।
दोनों अपनी
परम पवित्रता
को, अपनी
परम नग्नता को
भूल गये हैं।
ऐसी ही दशा
साधु— असाधु
की है। साधु
सोचता है, मैंने
जो अच्छे
कृत्य किये
हैं—वह मैं
हूं। असाधु
सोचता है, मैंने
जो बुरे कृत्य
किये हैं वह
मैं हूं। मगर
दोनों
कृत्यों से
अपने को जोड़
रहे हैं। और
तुम कृत्य
नहीं हो, तुम
कर्ता नहीं हो।
तुम साक्षी
मात्र हो।
साक्षी के
सामने अच्छा
कृत्य, बुरा
कृत्य, दोनों
उसके सामने
हैं, वह उन
दोनों के पार
है। इसलिए
साक्षी न तो
पूर्ण होता है,
न अपूर्ण
होता है; न
शुभ होता है, न अशुभ होता
है। जब मैंने
कहा कि मैं
पूर्ण नहीं
हूं र तो मैं इतना
ही कह रहा हूं
कि मैं सिर्फ
साक्षी हूं।
साक्षी किसी
अनुभव के साथ
अपने को जोड़ता
नहीं। अगर जोड़
ले, तो
कर्ता हो जाता
है, पतन हो गया।
न तो साक्षी
कह सकता है
मैं दुखी हूं
र न कह सकता है
मैं सुखी हूं।
सुख—दुख दोनों
अनुभव हैं। न
तो साक्षी कह
सकता है मैं
अज्ञानी हूं न
कह सकता है
मैं ज्ञानी
हूं। दोनों
अनुभव हैं।
साक्षी का
अर्थ होता है,
अब कोई
अनुभव की जकड़
न रही, सब
अनुभव दूर खड़े
रह गये, सारे
अनुभवों के
बंधन टूट गये।
फिर
साक्षी को
क्या कहोगे?
पूर्ण
कहोगे? संत
कहोगे? असंत
कहोगे? तुम
बेचैन हो गये
होओगे, क्योंकि
तुम्हें
साक्षी की कोई
अनुभूति नहीं
है। लोग अपने
ही अनुभव से
अर्थ करते हैं।
स्वाभाविक है।
मैंने सुना, एक स्त्री—बड़ी
प्रसिद्ध
गायिका थी वह—
अपने जन्मदिन
पर देर तक गीत
गाती थी। एक
बार वह रात को
अपने जन्मदिन
पर गाना गा
रही थी, तो
उसका गाना
बहुत लंबा हो
गया। मस्ती
में डूब गयी
और गाती ही
रही, गाती
ही रही। आखिर
जब वह गाना
खत्म करने लगी
तो उसके अंतिम
बोल थे 'यह
कौन आया', ' यह
कौन आया'? उस
समय
प्रातःकाल के
चार बज रहे थे,
बाहर से
आवाज आयी—दूधवाला
आया जी!
दूधवाले ने
समझा—यह कौन
आया, यह
कौन आया? अपना
अर्थ लिया।
मैं एक
घर में मेहमान
था। उस घर के
एक छोटे—से
बच्चे से मेरी
दोस्ती हो गयी।
उससे मैंने
पूछा कि तुझे
पता है, तेरी
भाभी तुझे बार—बार
कहती है—लाला,
लाला; लाला
क्यों कहती है?
उसने कहा, इसमें क्या
कठिनाई है, बिलकुल सीधी
बात है, मैं
उसे चीजें ला—ला
के देता हूं
तो वह मुझे
कहती—ला, ला!
उसका
अपना अर्थ है।
प्रत्येक
व्यक्ति का
अपना तल है
अर्थ करने का।
मुझे सुनते
वक्त तुम्हें
बहुत सावधानी
बरतनी पड़ेगी।
मैं तुमसे वह
कह रहा हूं जो
तुम्हारे
अनुभव में अभी
नहीं है।
इसलिए
तुम्हें बड़ी
अड़चनें भी हो
सकती हैं।
एक
दूसरे मित्र
ने इसी तरह का
प्रश्न पूछा
है, वह भी इसी
संदर्भ में
समझ लेना उचित
है।
आपने
हिंदू— धर्म
और अन्य
धर्मों को
बेकार और
पागलपन कहा है।
गुरु तेग
बहादुर, गुरु
गोबिंदसिंह
ने हिंदू—
धर्म की रक्षा
के लिए
कुर्बानिया
दी हैं। यहां
तक कि अपने
बच्चों तक को
शहीद करवा
दिया। क्या यह
पग़ालपन था? इस तरह से आप
हमारे गुरुओं
की निंदा कर
रहे हैं। पूछा
है निहालसिंह,
पंजाब ने।
भाई
मेरे! गलत जगह
आ गये तुम।
तुम नाहक
पंजाबियों की
बदनामी
करवाओगे। ऐसे
ही बदनामी
बहुत है।
तुम्हारी समझ
का तल है! गुरु
तेगबहादुर ने
और गुरु
गोबिंदसिंह
ने हिंदू—
धर्म की रक्षा
के लिए कुछ भी
नहीं किया, कभी नहीं
किया। अगर कुछ
किया तो धर्म
के लिए किया; हिंदू— धर्म
से कुछ लेना—देना
नहीं है।
जिन्होंने
जाना है, उनके
लिए हिंदू
मुसलमान, ईसाई,
इनमें फर्क
नहीं रह जाता।
जिन्होंने
जाना है, उनको
भी अगर ये
विशेषण
मूल्यवान रह
जाएं, तो
उन्होंने
जाना ही नहीं।
ये विशेषण तो
ऊपर की खोलें
हैं, इनके
भीतर का असली
राज— धर्म—तों
एक है।
परमात्मा एक
है। नानक ने
कहा : इक ओंकार
सतनाम।
लेकिन
अनेक भाषायें
हैं, आदमियों
के अनेक
रास्ते हैं उस
परमात्मा तक पहुंचने
के, अनेक
विधि—विधान
हैं, अनेक
लोगो की अनेक
शैलिया हैं, उसके कारण
हजार
विश्लेषण हो
गये हैं, हजार
विशेषण हो गये
हैं। लेकिन जो
जानता है, वह
धर्म के लिए
अपने को
समर्पित करता
है। हिंदू के
लिए नहीं।
हिंदू तो राजनीति
का नाम है।
जैसे मुसलमान
राजनीति का
नाम है, जैसे
सिक्ख
राजनीति का
नाम है। धर्म
बड़ी अलग बात
है। ये तो
वस्त्र हैं
धर्मों के।
किसी ने
गुरुद्वार
बना लिया है, ये एक ढंग है,
किसी ने
मंदिर बना
लिया है, किसी
ने मस्जिद बना
ली है। लेकिन
मंदिर, मस्जिद
और गुरुद्वारा
के भीतर जिसकी
पूजा की जा
रही है वह एक
है।
गुरुग्रंथ
में जो पढ़ा जा
रहा है और वेद
में जो पढ़ा जा
रहा है, गीता
और कुरान में
जो पढ़ा जा रहा
है, शब्द
तो अलग— अलग
हैं, निश्चित
अलग— अलग हैं, लेकिन जिस
तरफ उन शब्दों
के इशारे हैं,
वह एक है।
जिसको वह एक
दिखायी पड़ता
है, उसे
मैं कहता हूं—वह
पागल नहीं।
जिसे अनेक
दिखायी पड़ता
है, वह
पागल है।
हिंदू—
धर्म में दो
शब्द हैं—हिंदू
और धर्म। अगर
हिंदू पर बहुत
जोर है, तो
तुम पागल हो।
अगर धर्म पर
बहुत जोर है, तो तुम
बुद्धिमान हो।
और जैसे— जैसे
धर्म पर जोर
बढ़ेगा, हिंदू
पर जोर कम
होता जाएगा।
एक दिन तुम
पाओगे, हिंदू
तो बिदा हो
गया, धर्म
रह गया। अगर
हिंदू पर बहुत
जोर दिया, तो
तुम पाओगे, धर्म तो
धीरे— धीरे
बिदा होने लगा,
हिंदू रह
गया। एक दिन
तुम पाओगे, धर्म समाप्त
हो गया, हिंदू
बचा।
हिंदू—
धर्म दो
दिशाएं खोल
रहा है : एक
धर्म की और एक
हिंदू की। अगर
हिंदू की राह
पकड़ी, तो
राजनीति में
पड़ जाओगे।
कहीं जाकर
समाप्त होओगे,
वह राजनीति
होगी। अगर
धर्म की राह
पकड़ी, तो
अध्यात्म में
उतर जाओगे; कहीं पहुंच
जाओगे एक दिन,
वहां हिंदू
नहीं बचेगा, मुसलमान
नहीं बचेगा, ईसाई नहीं
बचेगा। तो तुम
मेरी बात नहीं
समझ पाते, तुम
कुछ का कुछ
समझ लेते हो।
जरूर तेग
बहादुर और
गोबिंद सिंह...
कुर्बानियां
दी हैं। लेकिन
ये
कुर्बानियां
हिंदू की शरण
में नहीं हैं।
ये
कुर्बानियां
उस परमात्मा
के लिए हैं।
जान पर
खेलते हैं
अहले—वफा
आशिकी
दिल्लगी नहीं
होती
हिंदू
ईसाई, मुसलमान,
सिक्ख, इन
शब्दों में मत
अटक जानना।
अन्यथा
तुम्हारी
हालत ऐसी हो
गयी कि दवा तो
भूल गये, बोतल
को पकड़ लिया।
फिर बोतल को
लगाये रखो
छाती से, कुछ
हल होनेवाला
नहीं है। दवा
बोतल से और है।
दवा पीओ, बोतल
फेंको। इसलिए
कहता हूं कि
हिंदू— धर्म, मुसलमान—
धर्म सब
पागलपन है।
बोतल को पकड़े
हुए हैं, इसलिए
कहता हूं।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
बोतल के भीतर
जो औषधि है, वह पग़ालपन
है। बोतल से
औषधि तुम्हें
अलग दिखायी
पड़ने लगे, इसकी
मैं पूरी
चेष्टा कर रहा
हूं। तुम भूल
ही गये औषधि
को, तुम
बोतल में भटक
गये हो।
रोके
जो रास्ते में
सो रहजन से कम
नहीं
जो फूल
हो कि खारे
बयाबां चले
चलो
बोतलों
ने तुम्हें
रोक लिया है, विशेषणों ने
तुम्हें रोक
लिया है, शब्दों
ने तुम्हें
रोक लिया है।
रोके
जो रास्ते में
सो रहजन से कम
नहीं
और जो
भी तुम्हें
रोक ले चीज
तुम्हारी
बढ़ती से, तुम्हारे
विकास से; सागर
तक पहुंचने से
जो भी अटका दे,
उसे दुश्मन
जानना। मंदिर
रोक रहा है, मस्जिद रोक
रही है, पंडित
रोक रहा है, मौलवी रोक
रहा है। जो भी
रोके, उससे
छूटना।
तुम्हें सागर
खोजना है।
देखते
हो—तुम तो
काशी जाते हो
बहुत—गंगा
काशी में
रुकती है? तुम जिसके
लिए काशी जाते
हो, वह
काशी में नहीं
रुकती। वह
भागी जा रही
है, उसे
सागर तक
पहुंचना है।
काशी से गुजर
जाती है, काशी
में रुक नहीं
जाती, नहीं
तो गंदा ड़बरा
हो जाती।
तुम्हें भी
काशी से गुजर
जाना है। और
काबा से भी, और कैलाश से
भी। सतर तक
पहुंचना है।
परमात्मा को
पाना है! हां, कभी—कभी ऐसी
मन की दशा
होती है जब
तुम अज्ञानी
होते हो, तब
ठीक है, मंदिर
का भी उपयोग
कर लेना, मस्जिद
का भी उपयोग
कर लेना, गुरुद्वारा
का भी उपयोग
कर लेना। मगर
वहा अटक मत
जाना। इतनी
याद बनी ही
रहे कि ये
साधन हैं, साध्य
नहीं। जिसने
साधन को साध्य
समझा उसे मैं
पागल कहता हूं।
लेकिन
मेरी भाषा और
तुम्हारी
भाषा में फर्क
होना
स्वाभाविक है।
इसलिए
तुम्हें अड़चन
हो जाएगी।
तुम्हें लग
रहा है कि
तुम्हारे
गुरुओं की निंदा
हो गयी। और
मैं जो कह रहा
हूं वह वही कह
रहा हूं जो
तुम्हारे
गुरुओं ने कहा
था। अगर वे
गुरु थे, मैं
वही कह रहा
हूं जो
उन्होंने कहा
था। अगर
उन्होंने
जाना था, तो
मैं जानकर कह
रहा हूं। शब्द
अलग होंगे, ढंग अलग
होंगे।
और
खयाल रखो, यह पाठशाला
नहीं है, यह
विश्वविद्यालय
है। यहां क, ख, ग, की
बात मत करो।
फिर तुम कहीं
और खोजो। और
छोटी—छोटी
पाठशालाएं
हैं जहा क, ख,
ग, से
शुरू होता है,
जहां पढ़ाया
जाता है— 'ग'
गधा का, 'ग'
गणेश जी का,
वहा तुम जाओ।
यहां हम सब
गधे और सब
गणेशजी को
छोड्कर आगे बढ़
रहे हैं। यहां
उनके लिए जगह
है जो काशी
छोड्कर सतर तक
जाने की
तैयारी रखते
हैं। जो कहें—काशी
कैसे छोड़े, काशी तो
पवित्र भूमि
है, तो ड़बरे
बन जाएंगे।
तुम्हें बहुत
बार अड़चन होती
है, मैं
जानता हूं।
कुछ कहानियां
तुमसे कहूं—क्योंकि
निहालचंद
पंजाब से हैं,
कहानियां
शायद समझ लें।
एक
आदमी ने बड़ी
कोशिशों के
बाद ब्लैक
मार्केट से घी
के दस कनस्तर
खरीदे और अपने
नौकर को अकेले
में ले जाकर
कहा, किसी को
कानोंकान खबर
न हो, बगीचे
में एक गड्डा
खोदकर उसमें
यह घी छिपा दो।
थोड़ी देर बाद
नौकर वापस आया
और बोला—साहब,
आपने कहा था
सो गड्डा
खोदकर घी तो
छिपा दिया, अब इन
खाली
डिब्बों का
क्या करूं?
दूसरी
कहानी—
एक
इंस्पेक्टर
महोदय एक स्कूल
में मुआइना
करने गये। एक
कक्षा में
विद्यार्थी
बहुत शोर मचा
रहे थे।
इंस्पेक्टर
महोदय ने उस
कक्षा के
अध्यापक को पास
बुलाया और कहा—क्या
बात है, मास्टर
जी? लगता
है ये बच्चे
आप से ड़रते
नहीं हैं? तो
मैं ही इनसे
कौन—सा ड़रता
हूं मास्टर जी
ने तपाक से
उत्तर दिया।
तीसरी
कहानी—
एक
उच्च
जिलाधिकारी
शाम को क्लब
में आए। अन्य
अधिकारी
मित्रों के
बीच बैठते हुए
उन्होंने
अपनी जेब से
अपनी फोटो
निकाली और
पूछा, जरा
देखना यार!
मेरी पत्नी
कहती है कि
फोटो में तुम
बेवकूफ
दिखायी देते
हो। एक
अधिकारी ने
फोटो हाथ में
लेकर गौर से
देखा और बोला—नहीं
साहब, फोटो
में तो आप
बिलकुल
बेवकूफ
दिखायी नहीं
देते।
हमारी
समझ के तल
होते हैं।
यहां
सदगुरुओं ने
जो कहा है
उसका गुणगान
हो रहा है। और
तुम सोच रहे
हो कि निंदा
हो रही है।
तुम अपनी
कृपाण
इत्यादि लेकर
मत आ जाना, कि यहां
सदगुरुओं की
निंदा हो रही
है! तुम जरा
धीरज रखना!
तुम कहीं
चिल्ला मत
देना— 'वाह
गुरुजी का
खालसा,' 'वाह
गुरुजी की फतह'!
मुझे
सुनते वक्त
बहुत धीरज और
सहानुभूति की
जरूरत है।
अन्यथा
नासमझी होगी।
लाभ नहीं होगा, हानि हो
जाएगी। तुम
कुछ लेने आए
हो, बिना
लिये चले
जाओगे, खाली
हाथ चले जाओगे।
और तुम्हीं
जिम्मेवार
होओगे। मैं
तुम्हारी
झोली पूरी भर
देने को तैयार
हूं। लेकिन कम
से कम तुम्हें
मेरे साथ थोड़ा
धैर्य रखना
होगा।
तुम्हें मेरे
रंग—ढंग समझने
होंगे।
तुम्हें मेरी
भाषा से थोड़ी
पहचान बनानी
होगी।
एक
साहित्यिक
डाँक्टर अपने रोगी
से बोला—रात्रि
को निद्रादेवी
आयी थी क्या? अपढ़ रोगी
बोला— 'के
मालूम, साहब;
मैं तो बीनै
जानूं कोई
नहीं। अर
दूसरा, मैं
तो सूत्यो था।
क्या मालूम, साहब मैं तो
जानता भी नहीं।
और दूसरी बात,
मैं तो सो
रहा था। तो
निद्रादेवी
आयीं कि नहीं,
क्या पता!
सदमे
खाओ, जागो! चोट
तुम्हें पहुंचाता
हूं। लेकिन
तुम अपनी चोट
को यह मत समझ
लेना कि मैंने
वह चोट अतीत
में हुए
सदगुरूओं को
पहूंचायी।
तुम्हें चोट
पहुचा रहा हूं।
क्योंकि
तुम्हें
जगाना है।
तुम्हें चोट
पहुंचाने के
लिए कभी—कभी
मुझे ऐसे सख्त
शब्दों का भी
उपयोग करना पड़ता
है जो मैं
स्वयं चाहूंगा
कि न करता तो
अच्छा था।
लेकिन कोई और
उपाय दिखायी
नहीं पड़ता। जब
तक मैं
शास्त्रों के
खिलाफ न बोलूं?
तब तक तुम
जागते नहीं।
मुझे पीड़ा भी
होती है।
क्योंकि मैं
जो कह रहा हूं
वह शास्त्र है।
लेकिन जब तक
मैं शास्त्र
के खिलाफ न
बोलूं? तुम
अपने शास्त्र
को छाती से लगाए
बैठे हो। मुझे
शास्त्र के
प्रति सम्मान
है, इसलिए
शास्त्र के
खिलाफ भी
बोलता हूं।
शास्त्र
तुमसे छूट जाए
तो शास्त्र
में जो छिपा
है, वह
प्रकट हो। कभी
मंदिर— मस्जिद
के खिलाफ
बोलता हूं।
चाहता हूं कि
यह पृथ्वी
मंदिर बन जाए,
इसलिए, कि
मस्जिद बन जाए,
इसलिए। कभी
तुमसे कहता
हूं कि छोड़ दो
सब यह हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख,
जैन, बौद्धों
की बकवास!
क्योंकि तुम
व्यर्थ में उलझ
गये हो, सार्थक
भूल ही गया है।
यह बकवास छूट
जाए तो
तुम्हें
सार्थक
दिखायी पड़ जाए।
वह
सार्थक वही है
जो नानक ने
कहा, कबीर ने
कहा, बुद्ध
ने कहा, महावीर
ने कहा। वह
दूसरा हो ही
नहीं सकता।
मैं लाख उपाय
करूं, तो
भी तुमसे कुछ
ऐसा नहीं कह
सकता जो पहले
जानने वालों
ने नहीं कहा
है। सब कहा जा
चुका है।
लेकिन अब
तुम्हारे हाथ
में अंगार
नहीं है, राख
है। और यह भी
मैं जानता हूं
कि राख अंगार
से ही पैदा
होती है। कभी
अंगार रहा
होगा। जब नानक
ने अपनी बात
वही, तो
उसमें अंगार
था।
जिन्होंने
झेली थी, वे
अदभुत लोग थे।
तुम वे नहीं
हो— आज जो अपने
को सिक्ख कहते
हैं, तुम
नहीं झेल पाते
नानक को।
जिन्होंने
झेली थी वे
अदभुत लोग थे।
तुम जैसे लोग
तो नानक के
खिलाफ थे।
यह बड़े
मजे की बात है।
जो आज
अपने को सिक्ख
कहते हैं, इस तरह के
लोग तो नानक
के खिलाफ थे।
क्योंकि इस
तरह के लोग तब
गीता से बंधे
थे, कुरान
से बंधे थे।
नानक ने जब
पहली दफा अपनी
बात कही, तब
स्वभावत:
तुम्हें गीता
से भी छुड़ाया,
कुरान से भी
छुड़ाया। गीता
के भी और
कुरान के भी
जो मोही थे, उनके मन को
चोट पड़ी होगी।
वैसी ही चोट
जैसी तुम्हें
यहां पड़ रही
है। तिलमिला
गये होंगे।
नाराज हो गये
होंगे। पूछा
होगा तो क्या
हमारे
रामचंद्र जी
गलत थे? कृष्णचंद्रजी
गलत थे? तो
कुरान गलत? लेकिन नानक
वही कह रहे
हैं जो कुरान
में कहा गया
है और जो गीता
में कहा गया
है। लेकिन अब
नयी भाषा दे
रहे हैं।
पुरानी भाषा
विकृत हो गयी—तुम्हारे
हाथ में बहुत
दिन रह ली; तुम्हें
तो नहीं बदल
पायी, तुमने
उसे बदल लिया।
राख हो गयी।
अब उस राख से
छुटकारा
चाहिए। फिर
अंगारा!
अंगारा
तो वही झेलता
है जिसमें
हिम्मत हो।
जलने की
हिम्मत हो।
मिटने की
हिम्मत हो।
जिन्होंने
झेला, वे
पहले सिक्ख थे।
'सिक्ख' शब्द जानते
हो शिष्य से
आया है! वे
झुके।
उन्होंने
स्वीकार किया।
फिर पीछे जो सिक्ख
हुए, वे तो
सिर्फ
पैदाइशी सिक्ख
हैं। अब
मजबूरी है।
ऐसे अनेक सीक्खों
को मैं जानता
हूं छुटकारा
चाहते हैं केश
से भी, दाढ़ी
से भी! मगर अब
क्या करें! सिक्ख
घर में पैदा
हुए हैं। तो
खींचना पड़ता
है, परंपरा
है। लेकिन
शिष्यत्व
कहीं भी नहीं
है अब, राख
ही राख रह गयी
है। अब अगर
नानक फिर आएं,
तो तुम उनसे
राजी न हो
सकोगे। और मैं
तुमसे जो कह
रहा हूं वह
वही कह रहा
हूं जो नानक
फिर आएं तो
तुमसे कहेंगे।
अब की बार
नानक आएं तो
गुरुग्रंथ
साहब से तुम्हें
छुड़ाना होगा।
तुम्हें फिर
अड़चन होगी। यह
सदा होता रहा।
जीसस
को यहूदियों
ने मार डाला, क्योंकि
जीसस ने जो
बात कही वह
वही थी जो
मूसा ने कही
थी। जीसस का
मूसा से
अपूर्व प्रेम
था। तुम जानकर
यह हैरान
होओगे कि जीसस
सूली से बच गये
थे। कैसे बच
गये यह तो
लंबी कथा है, लेकिन इतना
तय है कि सूली
से बच गये थे।
सूली से बचकर
जीसस कहां गये?
सूली से
बचकर जीसस
भारत की तरफ
आए—कश्मीर आए।
क्यों आए
कश्मीर? सिर्फ
इसलिए आए कि
कश्मीर में
मूसा की लाश
गड़ी है। मूसा
की देह कश्मीर
में है। मूसा
की तलाश में
आए। उन्हीं की
कब्र के पास
कहीं सो जाने
के मन से आए।
मूसा के प्रति
ऐसी चाहत थी।
लेकिन जो जीवन
भर किया, वह
ऐसा था कि
मूसा को
माननेवालों
ने सूली लगा दी
थी। सूली में
कुछ व्यवस्था
बन गयी, जीसस
बच सके। जिस
आदमी ने सूली
दी, जो
गवर्नर जनरल
था, वह
चाहता नहीं था
कि सूली दे—पांटियस
पायलट जीसस से
प्रभावित हो
गया था। वह
रोमन था, यहूदी
नहीं था; उसे
कोई विरोध भी
नहीं था जीसस
से। रोम का
साम्राज्य था
इजराइल पर, वह गवर्नर
था रोम का, वह
चाहता था जीसस
को बचा ले, उसने
बहुत कोशिश भी
की। उसका पत्र
पाया गया है
जिसमें उसने
जीसस की बड़ी
प्रशंसा की है।
लेकिन यहूदियों
ने बड़ा जोर
मारा।
उन्होंने कहा
कि अगर तुम
नहीं जीसस को
सूली दोगे तो
हम सम्राट से
प्रार्थना
करेंगे कि गवर्नर
को बदला जाए।
इतनी झंझट में
वह भी नहीं
पड़ना चाहता था,
अपना पद वह
भी नहीं खोना
चाहता था। और
यहूदी एकमत से
जीसस को सूली
देना चाहते थे।
इसलिए पाटियस
पायलट ने इस
ढंग से सूली
दी कि जीसस बच
जाएं।
उन
दिनों जिस ढंग
से सूली दी
जाती थी, उसमें
आदमी को मरने
में कम से कम
तीन दिन से सात
दिन लगते थे।
बड़ी पीड़ादायी
थी। हाथों में
कीले ठोंक
दिये जाते थे,
पैर में
कीले ठोंक
दिये जाते थे
और लटका दिया एक
तख्ते पर।
आदमी एकदम
नहीं मरता।
इतनी जल्दी
नहीं मर सकता।
हाथ और पैर
में कोई मरने
की बात नहीं
है। खून बहता,
खून सूख
जाता, बहना
बंद हो जाता, आदमी लटका
है—तीन से
लेकर सात दिन
मरने में लगते
थे। पाटियस
पायलट ने एक
तरकीब की।
उसने
शुक्रवार की
शाम को, जब
दोपहर ढलती थी
तब जीसस को
सूली दी।
यक्षइदयों का
नियम है कि
कोई भी
व्यक्ति शनिवार
को सूली पर न
लटका रहे—उनका
पवित्र दिन है।
यह होशियारी
की पाटियस
पायलट ने, वह
चाहता था जीसस
को बचा लेना।
उसने सूली ऐसे
मौके पर दी कि
सांझ के पहले,
सूरज ढलने
के पहले जीसस
को सूली से
उतार लेना पड़ा।
बेहोश हालत
में वे उतार
लिये गये। वे
मरे नहीं थे।
फिर उन्हें एक
गुफा में रख
दिया गया और
गुफा उनके एक
बहुत
महत्वपूर्ण
शिष्य के
जिम्मे सौंप
दी गयी। मलहम—पट्टियां
की गयीं, इलाज
किया गया और
जीसस सुबह
होने के पहले
वहा से भाग
गये। लेकिन मन
में उनके एक
ही आशा थी—जाकर
मूसा की कब्र
के करीब
विश्राम करना
है!
इसके
पहले मूसा भी
कश्मीर आकर
मरे। कश्मीर
मरने लायक जगह
है। पृथ्वी पर
स्वर्ग है।
जीसस उनकी
तलाश में आए
उसी रास्ते से।
कश्मीरी
मूलतः यहूदी
हैं।
कश्मीरियों
का मूल उत्स
यहूदी है।
जीसस काफी
वर्षों तक जिए
कश्मीर में।
उनकी कब्र भी
कश्मीर में
बनी।
जीसस
ने वही कहा जो
मूसा ने कहा
था, लेकिन यहूदियों
ने सूली लगा
दी। अगर जीसस
फिर लौट कर
आएं, तो अब
की बार ईसाई
उन्हें सूली
लगाएंगे।
सत्य
सदा सूली पर।
झूठ सदा
सिंहासन पर।
क्योंकि झूठ
तुम्हारी
फिकिर करता है; तुम्हें जो
रुचे, वही
कहता है; तुम्हें
जो भाये, वही
कहता है—तुम्हें
चोट नहीं
पहुंचाता।
तुम्हें
फुसलाता है, तुम्हें
मलहम—पट्टी
करता है; तुम्हें
सांत्वना
देता। झूठ
तुम्हारी
सेवा में रत
होता है।
चूंकि झूठ
तुम्हारी
सेवा में रत
होता है, इसलिए
तुम झूठ से
बड़े राजी और
प्रसन्न होते
हो। सत्य
तुम्हारी
सेवा में रत
नहीं है सत्य
तो सत्य की
सेवा में रत
है। तुम्हें
चोटें
पहुंचती हैं।
आईना
मुंह पे बुरा
और भला कहता
है
सच ये
है, साफ जो
होता है साफ
कहता है
फिर
चाहे नानक हों, चाहे कबीर, आईने हैं, दर्पण हैं।
तुम अगर मेरे
आईने में झांकोगे
तो सोचकर, समझकर
झांकना। आईने
पर नाराज मत
हो जाना, क्योंकि
आईना सिर्फ
तुम्हारी
शक्ल बताएगा।
अब अगर आईने
में बंदर झांकेगा
तो बंदर ही
दिखायी पड़ेगा—कोई
देवता दिखायी
नहीं पड़ सकता,
यह खयाल रखना।
और बंदर को जब
आईने में बंदर
दिखायी पड़ेगा
तो बंदर नाराज
हो जाए, यह
भी स्वाभाविक
है। आईने को
तोड़ने—फोड़ने
को तैयार हो
जाए, यह भी
स्वाभाविक है।
तुम्हें चोट
लगती है मुझसे,
चोट
तुम्हें लगनी
ही चाहिए। मगर
चोट इसलिए ही
है कि तुम
जागो। चोट
तुम्हें किसी
तरह से अपमान
करने के लिए
नहीं है, चोट
तुम्हारा
सम्मान है।
इसलिए फिर
कहूं—मेरी बात
को बहुत धीरज
से, बहुत शांति
से समझने की
कोशिश करना, जल्दी
निष्कर्ष मत
लेना।
पहले
मित्र ने कहा, मैं तो आपको
पूर्ण मानता
हूं और संत भी।
लेकिन आपने
कहा कि न मैं
पूर्ण हूं और
न संत। इससे
मुझे बहुत
सदमा लगा; मैं
रात भर सो भी न
सका। जब मैंने
कहा कि न मैं
पूर्ण हूं र न
संत, तुम्हें
सोचना था, तुम्हें
पुनर्विचार
करना था, तुम्हारी
अपनी धारणाएं
एक तरफ रख
देनी थीं।
लेकिन
तुम्हारी
धारणाओं को
चोट लगी। तुम
अगर मानते हो
कि मैं संत
हूं और मैंने
कहा मैं संत
नहीं हूं तो
तुम्हारी
धारणा को चोट
लगी, तुम्हारे
अहंकार को चोट
लगी। तुम मेरे
शिष्य इसीलिए
हो गये हो कि
तुम मुझे संत
मानते थे और
अब मैं ही कह
रहा हूं कि
मैं संत नहीं
हूं तो बड़ी
मुश्किल की
बात हो गयी। कहां
झंझट में तुम
पड़ गये!
तुम्हारे
अहंकार को बड़ी
तृप्ति मिल
रही थी कि तुम
किसी संत के
शिष्य हो गये
हो और अब वह
तृप्ति कैसे
मिलेगी?
तुम
थोड़ा समझना।
जब मैंने कहा
है कि मैं संत
नहीं हूं तो
जरूर कोई बात
कही होगी जो
संतत्व से भी
ऊपर जाती है।
कुछ बात कही
होगी जो
पूर्णत्व से
भी ऊपर जाती है।
मैं तुम्हें
ऊपर की यात्रा
पर ले चला हूं।
तुम जितना
समझने लगोगे, उतने ऊपर की
बात कहूंगा।
इसलिए मेरी
बातों में
तुम्हें
विरोधाभास मिलेगा,
क्योंकि
मैं तुम्हारे
साथ तुम्हें
आगे बढ़ाने की
कोशिश में लगा
हूं। एक—एक
सीढ़ी तुम चढ़ते
हो, जो
सीढ़ी तुम चढ़
जाते हो, वह
मैं इनकार कर
देता हूं ताकि
आगे की सीढ़ी
पर बढ़ो। हर
सीढ़ी तुमसे
छीन लेनी है, ताकि तुम
बढ़ते ही जाओ।
और एक दिन उस
अनंत में
प्रवेश कर जाओ
जहा कोई सीढ़िया
नहीं जहां
केवल छलांग
होती है।
तीसरा
प्रश्न :
संन्यास
लेने में
अहंकार ही
सबसे बड़ी बाधा
है। तो इसको
कैसे हटाया जा
सकता है?
अहंभाव
जाता नहीं।
हटाने से
जाएगा भी नहीं।
हटाएगा कौन; जो हटाता है
वही तो अहंकार
है। अगर हटा
दिया किसी तरह,
तो
विनम्रता का
अहंकार पैदा
हो जाएगा और
कुछ भी न होगा।
एक अकड़ हो
जाएगी कि मुझ—जैसा
विनम्र कोई भी
नहीं। देखो
मैं कितना
सीधा—सादा, कितना झुका
हुआ, समर्पित!
यह नया अहंकार
होगा। तुम जो
भी करोगे, उससे
अहंकार बढ़ेगा—तुम्हारे
करने से
अहंकार घट ही
नहीं सकता।
अहंकार नयी
शक्लें ले
सकता है, नये
रूप ले सकता
है, नये
वेश—परिधान ले
सकता है, लेकिन
अहंकार
मिटेगा नहीं।
फिर
क्या करना है? अहंकार को
समझो, मिटाने
की जल्दी करो
ही मत। जल्दी
क्या है? अहंकार
को समझो कि
क्या है। जो
आदमी मिटाने
की कोशिश करता
है, वह
समझने की
कोशिश से बच
रहा है। और
बिना समझे
अहंकार जाता
नहीं।
अहंकार
मिटाया नहीं
जाता, जब
समझ का दीया
जल जाता है तो
अहंकार नहीं
पाया जाता।
जैसे दीया जला
कि अंधेरा गया।
अहंकार
अंधेरा है।
तुम
पूछते हो, संन्यास
लेने में
अहंकार सबसे
बडी बाधा है।
तो इसको हटाया
कैसे जा सकता
है?' हटाने
का तो मतलब यह
हुआ कि तुम
मानते हो कि
अहंकार कुछ है।
अहंकार कुछ भी
नहीं है, भ्रांति
है। इसको हटा
नहीं सकते। भ्रांति
को कोई कैसे
हटायेगा! समझो
राह पर तुमने
एक रस्सी पड़ी
देखी और
तुम्हें
अंधेरे में
दिखायी पडा कि
सांप है; और
किसी ने तुमसे
कहा कि व्यर्थ
भागे जा रहे हो,
कहा भागे जा
रहे हो, वहा
कोई सांप—वांप
नहीं है, मुझे
भलीभांति पता
है, मैंने
दिन के उजाले
में देखा है, रस्सी पड़ी
है; सच तो
यह है कि मैंने
ही फेंकी है, तुम मेरी
बात का भरोसा
करो, वहा
कोई सांप—वांप
नहीं है। तुम
कहते हो, अच्छा
मान लिया कि
सांप नहीं है,
मगर अब सांप
को हटाया कैसे
जाए? तो
मैं बंदूक
लेने जा रहा
हूं; कि
तलवार उठाने
जा रहा हूं।
तो तुम समझे
ही नहीं।
अहंकार हटाया
कैसे जाए इसका
मतलब हुआ कि
अहंकार है, कोई
वास्तविक
पदार्थ है
अहंकार।
अहंकार कोई
वास्तविक
पदार्थ नहीं
है, भ्रांति
है। तुमने
अपने को ठीक
से नहीं देखा,
इसलिए जैसा
तुम अपने को
समझ रहे हो, वह भ्रांति
है। जब ठीक से
देखोगे, अचानक
पाओगे—अहंकार
नहीं है, आत्मा
है; अहंकार
नहीं है, परमात्मा
है। इस जिंदगी
को गौर से
समझने की
कोशिश करो।
अहंकार ने किन
बातों का
सहारा लिया है,
उनकी जरा
परख करो।
मैंने
पूछा जो
जिंदगी क्या
है
हाथ से
गिरके जाम टूट
गया
तुमने
जिंदगी का
सहारा लिया
अहंकार के लिए, और जिंदगी
क्या है? रेत
पर खींची गयी
लकीरें। या
रेत पर बनाये
गये महल। या
कागज की नाव।
इस जिंदगी पर
इतने इतरा रहे
हो! जो अभी है
और अभी नहीं
हो जाएगी। इस
जिंदगी का
सहारा लेकर
अहंकार को खड़ा
कर रहे हो।
मैंने
पूछा जो
जिंदगी क्या
है
हाथ से
गिरके जाम टूट
गया
यह तो
टूट जानेवाली
बात है।
जिंदगी को ठीक
से पहचानो, यह
क्षणभंगुर है,
पानी का
बबूला है। फिर
अकडू कहा? अकडू
तभी तक है जब
तक तुम सोचते
हो— जिंदगी
कुछ
टिकनेवाली
चीज है। वही
चार तिनके
पयामे—कफस थे
जिन्हें
हम समझते रहे
आशियाना
चार
तिनके!
वही
चार तिनके
पयामे—कफस थे
जिन्हें
हम समझते रहे
आशियाना
जिनको
तुम घर समझ
रहे हो, वही
कब्र बन जाएगी।
वे ही चार
तिनके
तुम्हारा कफन
बन जाएंगे
जिनको तुमने
आशियाना समझा
है। जरा
जिंदगी को गौर
से देखो। यहां
सब तो मर रहा
है। यहां सब
तो धू—धू कर जल
रहा है। यहां
हर चीज तो
मृत्यु के
मुंह में चली
जा रही है। हम
सब तो मृत्यु
के मुंह में
सरक रहे हैं।
कतार लगी है, लोग मृत्यु
में डूबते जा
रहे हैं, बिदा
होते जा रहे
हैं। इस
जिंदगी में है
क्या जिसके
सहारे तुम
अस्मिता को
संग्रहीत
करते हो? कहते
हो मैं हूं?
यूं
तसल्ली दे रहे
हैं हम दिले—बीमार
को
जिस
तरह थामें कोई
गिरती हुई
दीवार को
दीवार
तो अपने से
गिर रही है, तुम पूछते
हो—इसको गिराए
कैसे? यह
तो दीवार गिर
ही रही है, तुम
थामो भर मत, जरा दूर खड़े
होकर देखो।
यूं
तसल्ली दे रहे
हैं हम दिले—बीमार
को
जिस
तरह थामें कोई
गिरती हुई
दीवार को
अहंकार
की कोई
वास्तविकता
नहीं है। फिर
अहंकार की
क्या
व्याख्या
करें? अहंकार
की व्याख्या
इस भांति समझो।
तुम बाहर देख
रहे हो, तो
अहंकार है; तुम भीतर
देखोगे, अहंकार
विदा हो जाएगा।
ध्यान में लगो,
अहंकार से
लड़ने की फिकिर
ही छोड़ो।
अहंकार से
लड़ना वैसे ही
है जैसे कोई
अंधेरे से लड़े
और अंधेरे को
धक्के दे और
निकालना चाहे।
नहीं, मैं
कहता हूं—तुम
दीया जलाओ, ध्यान में
लगो, प्रार्थना
में लगो, दीया
जलाओ, भीतर
मुड़ो; आंख
बंद करो और
भीतर देखना
शुरू करो—क्या
है? तुम एक
बात पाओगे, अहंकार कभी
न पाओगे। और
जहा अहंकार
नहीं है, वहीं
परमात्मा है।
परमात्मा
तुम्हारा
वास्तविक
स्वरूप है, अहंकार
तुम्हारी
भ्रांति है।
जैसे सांप में
रस्सी देख ली
किसी ने, या
रस्सी में
सांप देख लिया
किसी ने, ऐसे
अहंकार
भ्रांति है।
कुछ न कुछ देख
लिया है। जो
है, उसके
वैसा ही देख
लेना, परमात्म—
अनुभव है।
और
निश्चित ही
संन्यास लेने
में अहंकार
सबसे बड़ी बाधा
है। लेकिन
संन्यास
अहंकार से
मुक्त होने
में सबसे बड़ा
साधक है। ये
दोनों बातें
खयाल में रखो।
इन दोनों में
से चुनो। ये
दोनों
संभावनाएं
खुलती है। अगर
तुम संन्यास
की तरफ झुकने
लगे तो अहंकार
से मुक्त होने
लगोगे। अगर
तुम अहंकार की
तरफ झुकने लगे
तो संन्यास लेना
कठिन होता
जाएगा। इसलिए
मैं कहता हूं—
अहंकार बाधा
है। इसका यह
मतलब नहीं है
कि जब अहंकार
तुम्हारा मिटेगा
तब तुम
संन्यास ले
सकोगे। यह
चुनाव है। तुम
एक दोराहे पर
खड़े हो, जहां
एक राह अहंकार
की तरफ जाती
है, एक
संन्यास की
तरफ जाती है।
एक पर ही चला
जा सकता है।
इसलिए मैं
कहता हूं
अहंकार बाधा
है। अगर
अहंकार को
चुना और
अहंकार के
रास्ते पर चले,
तो
संन्यासी न हो
सकोगे। अगर
संन्यास के
रास्ते पर चले,
तो अहंकारी
न हो सकोगे।
लेकिन तुम्हारा
मन बड़ा
होशियार है।
तुम संन्यास
लेने से ड़रते
भी होओगे, संन्यास
लेने से बचना
भी चाहते
होओगे, तुम्हें
मेरी बात में
सहारा मिल गया,
तुमने सुना
कि अरे, अहंकार
बाधा है; तब
तो बात मिल
गयी—कुंजी मिल
गयी— अब
संन्यास कैसे
लें? जब तक
अहंकार न मिटे
तब तक संन्यास
कैसे लेंगे? और अहंकार
पहले मिटना
चाहिए, फिर
सोचेंगे
संन्यास की
बात। न मिटेगा
अहंकार, न
लेंगे
संन्यास।
झंझट मिटी। न
रहा बांस न
बजेगी
बांसुरी।
तुम
मेरी बात से
अपने मतलब मत
निकालो। जब
मैंने कहा है
कि अहंकार
बाधा है, तो
मैंने सिर्फ
इतना ही कहा
कि अगर तुम अहंकार
चुनते हो तो
संन्यास न चुन
सकोगे। अगर
संन्यास
चुनते हो, तो
फिर अहंकार न
चुन सकोगे। ये
दोनों विपरीत
हैं। इनमें से
एक को ही
सम्हाल सकते
हो, दोनों
को साथ नहीं
सम्हाल सकते।
अब तुम्हारे
हाथ में है, क्या चुनते
हो? दोनों
रास्ते खुले
हैं। अगर सच
में ही अहंकार
से मुक्त होना
चाहते हो, संन्यास
चुनो। और अभी
अहंकार है, यह भी सच है।
लेकिन
संन्यास को
चुनते ही
रूपांतरण की
क्रिया शुरू
हो जाएगी।
बीमार हो, माना
लेकिन औषधि न
लोगे तो
बीमारी
मिटेगी कैसे?
और यह
भी ध्यान रखना
कि बीमारी
औषधि के काम
करने में बाधा
डालती है।
इसीलिए तो समय
लगता है। कोई
एकाध घूंट
औषधि पी लेने
से तो बीमारी
नहीं मिट जाती, महीनों दवा
लेनी पड़ती है
तब धीरे—धीरे
बीमारी जाती
है। दवा में
और बीमारी में
संघर्ष होगा।
मगर तुम कहोगे
कि जब तक मैं
बीमार हूं दवा
कैसे पीऊं? क्योंकि
बीमारी दवा के
काम में बाधा
डालती है। मैं
तो दवा तब
पीऊंगा जब
बीमारी मिट
जाएगी। लेकिन
तब दवा किसलिए
पियोगे? फिर
पागल हो गये
हो! फिर और
बीमार होना
है! अहंकार
मिट गया, फिर
संन्यास का
क्या करोगे? संन्यास
औषधि है, अहंकार
व्याधि है। और
अहंकार
अड़चनें
डालेगा
संन्यास की
प्रक्रिया
में। लेकिन
औषधि को अगर
लिया और लेते
ही रहे, तो
आज नहीं कल, कल नहीं
परसों, रोग
हारेगा, निरोग
तुम हो सकोगे,
हिम्मत करो!
अहंकार बाधा
इतनी नहीं डाल
रहा है जितनी
तुम सोच रहे
हो। क्योंकि
जिन्होंने
संन्यास लिया
है, उनके
लिए भी यही
सवाल था।
तुम्हारे लिए
भी वही सवाल
है। अहंकार को
किनारे हटाओ
और छलांग लो।
अहंकार
से भी ज्यादा
बड़ी बाधा भय
है। तुम ड़रते
होओगे—लोग
क्या कहेंगे? लोग हंसेंगे,
कहेंगे—पागल
हो गये, सम्मोहित
हो गये; भले—
चंगे गये थे, यह क्या हो
गया? सत्संग
करने गये थे, यह क्या हो
गया? तुम
लोगों से ड़रे
हुए हो। तुम
जरा शांत
बैठकर सोचना,
कल्पना
करना कि तुमने
संन्यास ले
लिया। गैरिक
वस्त्र पहन कर,
माला डालकर,
पागल बनकर
अपने गांव
पहुंचे—जरा
कल्पना करना—स्टेशन
पर उतरे हो, स्टेशन
मास्टर पूछता
है—अरे, क्या
हो गया! कुली
हंसता है, कि
भई ये कैसे कपड़े
पहन लिये, ये
तो कुलियों के
कपड़े हैं! ये
तो हम पहनते
हैं। यह आपको
क्या हो गया? तांगावाला
नीचे से ऊपर
तक देखेगा। आप
ही हैं क्या—पूछेगा!
अच्छे— भले
गये थे दस दिन
पहले, अब
क्या हुआ? और
मन कहने लगेगा—क्या
करें, स्टेशन
जाकर कपड़े बदल
लें? क्योंकि
अभी तो बस्ती
की शुरुआत भी
नहीं हुई है!
अभी तो सारा
गांव चौंकेगा!
अभी तो भीड़
इकट्ठी हो
जाएगी बाजार
पहुंचते ही!
लोग हजार तरह
की सलाह देंगे—लोग
सलाह तो मुफ्त
देते हैं।
जिन्हें कुछ
स्वाद नहीं है
संन्यास जैसी
किसी बात का, कोई अनुभव
नहीं है, वे
भी कहेंगे कि
यह क्या किया?
जिनको तुम
सलाह देते थे,
वे तुम्हें
सलाह देने
आएंगे।
जरा आज
बैठकर दो घड़ी
इसकी पूरी
कल्पना करना।
फिर
पत्नी मिलेगी
घर, वह एकदम
छाती पीट कर
रोने लगेगी।
क्योंकि वह
सोचेगी—हों
गये संन्यासी!
संन्यास की
उसकी पुरानी
धारणा है।
संन्यासी हो
गये मतलब
स्त्री विधवा
हो गयी। वह
छाती पीटने
लगेगी, वह
चूड़िया फोड़ने लगेगी,
वह कहेगी—मामला
खत्म हो गया!
तुम लाख समझाओ
कि यह और तरह का
संन्यास है, वह कहेगी कि
संन्यास भी
कहीं तरह— तरह
के हुए हैं!
अगर तुम अपनी
पत्नी को
समझाने के लिए
उसका हाथ-हाथ
में लोगे तो
वह झिड़क देगी,
वह कहेगी—यह
क्या करते हो,
संन्यासी
होकर और
स्त्री को
छूते हो! अब घर
के बाहर ही
रहो। अब जो हो
गया हो गया, अब जाओ। अब
तुम्हारा कोई
घर—द्वार नहीं
है।
इसकी
सारी कल्पना
करना बैठ कर
आज। उससे
तुम्हें पता
चल जाएगा कि
असली अड़चन
क्या हो रही
है। उस कल्पना
से ही तुम्हें
सूत्र मिल
जाएगा। सिर्फ
भय है! अहंकार
इत्यादि की
आडू में मत छिपो, सिर्फ भय है।
सिर्फ एक साहस
चाहिए, पागल
होने का साहस,
फिर तुम
संन्यासी हो
सकते हो। यह
दीवानापन है।
यह दीवानों का
काम है। यह
मस्तों का काम
है। ये
पियक्कड़ों का
काम है। यह
बुद्धिमानों
का काम नहीं
है। यह
होशियारों का
काम नहीं है, चालबाजों का
काम नहीं है।
हालांकि
ज्यादा देर
नहीं चलेगा यह
उपद्रव। दो—चार
दिन रहेगी, खबर रहेगी, लते विचार
करेंगे, बात
करेंगे, पूछेंगे,
फिर सब
रास्ते पर आ
जाते हैं। फिर
अपनी सब
दुनिया चलने
लगती है जैसे
चलती थी। कोई
जिंदगी भर यह
सवाल नहीं
रहनेवाला है।
एक सप्ताह
ज्यादा से
ज्यादा!
क्योंकि गांव
में दूसरी
घटनाएं भी तो
घटती हैं। फिर
और घटनाएं
घटती हैं, लोग
उनमें उलझ
जाते हैं।
किसी की पत्नी
भाग गयी, किसी
के घर डाका पड़
गया, कोई
चुनाव हार गया,
फिर अब
तुम्हारी ही
बात लिए थोड़े
बैठे रहेंगे!
फिर दो—चार— आठ
दिन बाद
तुम्हें कोई
फिक्र नहीं
करेगा, कि
ठीक है, बात
समाप्त हो गयी।
स्वीकार कर
लिये जाओगे।
तुम
खयाल रखना, तुम तो मर भी
जाओगे तो भी
लोग कितने दिन
तुम्हारी बात
करेंगे! तुम
मर भी जाओगे
तो कौन—सा
काम कितनी देर
अटकेगा? रो—
धो कर लोग
निपट लेते हैं,
फिर सब शुरू
हो जाता है।
लोगों को जीना
है आखिर। अब
तुम मर गये, तुम्हारा तो
छुटकारा हुआ,
उनको तो
जीना है आखिर।
दुकान भी खुलेगी—दों—चार
दिन बंद रहेगी,
फिर खुलेगी,
कोई और
चलाएगा।
पत्नी भी
मुस्कुराकी।
कितने दिन
रोएगी? आखिर
उसे जीना है।
रो—रोकर कोई
कितने दिन जी
सकता है? बच्चे
भी फिर
नाचेंगे, फिर
खेलेंगे, फिर
कूदेंगे।
दुनिया चलती
रहती है। तुम
मर भी जाओ तो
भी चलती रहती
है।
संन्यास
से कुछ अटक
जानेवाला
नहीं है। अगर, तुम्हारे
जीवन में क्रांति
आ जाएगी।
संन्यास का
अर्थ यही होता
है : मरने के
पहले मर जाना।
और दुनिया में
इस तरह जीने
लगना जैसे तुम
हो ही नहीं।
अपूर्व आनंद
है उस घड़ी का
जब तुम दुनिया
में ऐसे जीने
लगते हो जैसे
हो ही नहीं।
दुनिया मैं
होते हो और
दुनिया
तुम्हारे
भीतर नहीं
होती।
चौथा
प्रश्न :
आप
शास्त्र—ज्ञान
का विरोध
क्यों करते
हैं?
क्योंकि
शास्त्र—ज्ञान
ज्ञान नहीं है, इसलिए।
ज्ञान तो
स्वयं पाना
होता है, उधार
नहीं होता, इसलिए। तुम
दूसरों के
शब्दों में मत
उलझे रह जाना
इसलिए। समझो,
मेरे ही
शब्द
तुम्हारे लिए
शास्त्र से
ज्यादा नहीं।
इनके भी मैं
विरोध में हूं।
ऐसा नहीं है
कि मैं कृष्ण
के शब्दों के
विरोध में हूं,
कि कबीर के
शब्दों के
विरोध में हूं
मैं अपने शब्दों
के भी विरोध
में हूं। तुम
मेरे शब्दों
को ही पकड़ कर
मत बैठ जाना।
अगर शब्दों को
पकड़ कर बैठ
गये, तो
तुम भटक गये।
शब्द कहा ले
जाएंगे!
शब्द ' भोजन' से
पेट तो नहीं
भरता और शब्द 'पानी' से
प्यास भी नहीं
बुझती। और
शब्द ' आग' से तुम आंच न
ले सकोगे।
शब्द तो शब्द
हैं, संकेत
हैं, प्रतीक
हैं। यथार्थ
उनमें नहीं है।
उनसे इशारा लो
और यथार्थ की
खोज में लग
जाओ। तो एक
दिन जब तुम
सत्य को
जानोगे, तो
ज्ञान होगा।
ज्ञान तुम्हारे
और सत्य के
बीच घटनेवाला
है, तुम्हारे
और शास्त्र के
बीच नहीं।
तुम्हारे और
शास्त्र के
बीच जो घटता
है वह स्मृति
है, ज्ञान
नहीं।
और वही
भेद साफ समझ
लेना। स्मृति
ज्ञान नहीं है।
शास्त्र
कंठस्थ कर
लिया तो तुम
तोते हो गये।
तुम ठीक—ठीक
दोहराने लगे
गीता, तो भी
तुम कृष्ण तो
नहीं हो जाओगे
गीता दोहराने
से। तुम यह तो
नहीं कहोगे कि
अब मैं ठीक
वही तो बोल रहा
हूं जो कृष्ण
ने बोला था।
अब फर्क क्या
रहा? मात्रा
का भी भेद
नहीं है, ठीक—ठीक
वही बोल रहा
हूं जो कृष्ण
ने बोला था, जैसा बोला
था वैसा ही
बोल रहा हूं।
लेकिन क्या
तुम इससे कृष्ण
हो गये! ये
शब्द स्मृति
हैं। कृष्ण के
भीतर से आ रहे
थे, तुम्हारे
भीतर से नहीं
आ रहे हैं।
तुम्हारे
हृदय में इनकी
कोई जडें नहीं
है। कल मैं एक
हास्य की
कविता पढ रहा
था—
बिना
पंख मंड़राना
प्रभुजी
अजब
कबूतरखाना
पढ़े
सो पंडित लिखे
सो खंडित
मंडित
छापाखाना
कोरा कागज
लिखि—लिखि
बहि गये
गुनि—जन
वेद पुराना
सोधो
भवसागर तरि
जाना
पोथी
ऊपर पोथी बैठी
पोथिन
नहीं ठिकाना
बाचनवाले
बाचि न पायें
भौचक
जग बौराना
प्रभुजी
मूरख मन
पतियाना
बिना
सूंड़ के
गणपति डोले,
डिम—डिम
डिमिक सुजाना
गांठ—फांस
बिन ज्ञान—गठरिया
अपनेहि
हाथ बिकाना
साधो
यह जग है
बेगाना
आढ़त—बाढत
देखि धुरंधर
फुदकि
फुदकि
इतराना
जगमग
चोला ड़गमग
खोला
पारि
उतर कहं जाना
यह जग
सागर माहि
बिलाना
बिना
पंख मंड़राना
प्रभुजी
अजब
कबूतरखाना
बिना
पंख मंड़राने
की कोशिश चल
रही है। अजब
कबूतरखाना!
पंख तुम्हारे
भीतर ऊगने
चाहिए। किसी
और के पंखों
से तुम कैसे
उड़ोगे? किसी
और की आंखों
से तुम कैसे
देखोगे? मेरी
आंख तुम्हें
उपलब्ध है, लेकिन फिर
भी तुम मेरी आंख
से तो न देख
सकोगे।
देखोगे तो
अपनी ही आंख
से। ज्यादा से
ज्यादा मेरी आंख
पर भरोसा कर
सकते हो, लेकिन
भरोसा थोड़े ही
ज्ञान है।
विश्वास कर
सकते हो, लेकिन
विश्वास थोड़े
ही अनुभव है।
प्रत्यभिज्ञा
कैसे होगी? प्रतीति
कैसे होगी? स्वानुभव
कैसे होगा? और स्वानुभव
स्वतंत्रता
है। इसीलिए
शास्त्र—
ज्ञान के
विरोध में हूं।
लेकिन
मैं जानता हूं
कि दुनिया में
बहुत हैं जो
शास्त्र—ज्ञान
के विरोध में
नहीं हैं।
पंडित हैं, पुरोहित हैं,
वे कैसे
शास्त्र—
ज्ञान के
विरोध में हो
सकते हैं! वे
खुद भी शास्त्र
ही हैं। ज्ञान
तो वहा भी
नहीं है।
उन्होंने भी
पढ़ा है, वही
तुम्हें समझा
रहे हैं।
उन्होंने भी
जाना नहीं है।
वे भी
तुम्हारे
जैसे अंधे हैं।
अंधा अंधा
ठेलिया दोनों
कूप पड़त। संभल
कर चलना जरा।
उन अंधों को
सिर्फ इसी बात
की कोशिश है
कि किस तरह
अपनी किताब
तुम्हें बेच
दें। मैंने
सुना, दिल्ली
में एक आदमी
बस से टकराकर
गिर पड़ा। लोग
उसे चारों ओर
से घेर कर खड़े
थे। इतने में
उसे होश आया, उसने पूछा, भाई मैं कहा
हूं? भीड़
में से तुरंत
एक आदमी ने एक
किताब उसकी और
बढ़ायी और कहा—यह
लीजिए 'दिल्ली
गाइड़', कीमत
सिर्फ एक
रुपया।
किताब
बेचनेवाले
लोग हैं। उनकी
उत्सुकता
इतनी ही है कि
तुम उनकी
किताब मान लो, कि तुम उनकी
किताब के पीछे
खड़े हो जाओ, कि तुम भी
उनके शब्दों
में भरोसा कर
लो।
शब्दों
के व्यवसाय से
सावधान होना।
शब्द सत्य की
खोज में बड़ी
बाधा बन जाते
हैं। बनने तो
चाहिए साधक, बन नहीं
पाते साधक।
तुम उन्हीं
में बैठ जाते
हो। तुम सोच
लेते हो 'प्रेम'
शब्द सीख
लिया तो प्रेम
आ गया। और 'प्रार्थना'
शब्द सीख
लिया तो
प्रार्थना आ
गयी। 'परमात्मा'
शब्द को
दोहराने लगे
तोते की तरह
तो परमात्मा मिल
गया। ये सस्ती
बात हो गयी, बड़ी सस्ती
बात हो गयी।
जीवन इतने
सस्ते हाथ
नहीं आता।
जीवन के लिए
कीमत चुकानी
पड़ती है।
पांचवा
प्रश्न :
गरीब
जान के हमको न
तुम भुला
देना
तुम्हें
ने दर्द दिया
है तुम्हीं
दवा देना
दर्द
में ही दवा है।
दर्द के
अतिरिक्त और
कोई दवा नहीं
है। इसीलिए तो
मैंने तुमसे
कहा कि विरह
में मिलना
छिपा है। आंसुओ
में
मुस्कुराहट
छिपी है। अगर
तुम हृदय
पूर्वक रो सको, तो मिलन हो
जाए। तुम दर्द
ही नहीं उठने
देते, वही
तकलीफ है। वही
अड़चन है। तुम
दवा की तलाश
में हो, और
दवा दर्द की
गहराई में है।
इसलिए
तो तुमसे बार—बार
कहता हूं—रोओ, पुकारों, चीखो, तड़फो—मछली
की तरह तड़फो; जैसे मछली
को किसी ने
सागर से खींच
कर किनारे पर
पटक दिया हो।
तुम ऐसी ही
मछली हो जिसका
सागर खो गया
है और संसार
की कड़ी धूप और
गर्म रेत में
तुम पड़े हो।
तड़फो, दवा
की तलाश मत
करो। पुकारों,
उछलों—कूदो।
उसी उछल—कूद
से सागर में
वापस लौट जाने
की व्यवस्था
है। जिस दिन
दर्द इतना
गहरा हो जाए
कि दर्द ही
बचे और दर्दी
न बचे, उसी
दिन दवा हो
जाती है। दर्द
का हद से गुजर
जाना है दवा
हो जाना।
अंगूर
में थी मय यह
पानी की चंद
बूंदें
जिस
दिन से खिंच
गयी है तलवार
हो गयी।
आदमी
और आदमी में
इतना फर्क पड़
जाता है। एक
साधारण
संसारी है और
एक भक्त। इतना
फर्क पड़ जाता
है जैसे, ' अंगूर
में थी मय यह पानी
की चंद बूंदें'
जब तक अंगूर
में रहती है
शराब तो कुछ
भी नहीं है, पानी की चंद
बूंद; 'जिस
दिन से खिंच
गयी हैं तलवार
हो गयीं' जब
तक तुम छोटी—मोटी
पीड़ाओं में
पड़े हो, तुम
पानी की चंद
बूंद हो। धन
के लिए रो रहे,
यह भी कोई
रोना है! आंसू
जैसी कीमती
चीज धन जैसी
बेकीमत चीज के
लिए गंवा रहे
हो! यह भी कोई
रोना है।
पत्नी मर गयी,
पति मर गया
और तुम रो रहे
हो, यह भी
कोई रोना है!
क्योंकि जो
मरना ही था, वह मर गया, वह मरने ही
वाला था। यहां
सब मरणधर्मा
है। अमृत के
लिए रोओ।
मरणधर्मा के
लिए रोकर तुम
व्यर्थ ही
अपना समय खराब
कर रहे हो।
अपनी आंखें
गला रहे हो।
मकान गिर गया
और तुम रो रहे
हो। यहां सब
मकान गिर जाने
हैं। यहां कोई
मकान
टिकनेवाला
नहीं। यहां सब
मकान खंड़हर
हो जानेवाले
हैं। तुम किन
चीजों के लिए
रो रहे हो! आंसू
जैसी
बहुमूल्य चीज
कहा गंवा रहे
हो! इनसे तो हीरे
खरीदे जा सकते
हैं, तुम
कंकड़—पत्थरों
में गिरा रहे
हो।
अंगूर
में थी मय यह
पानी की चंद
बूंदें
जिस
दिन से खिंच
गयीं हैं
तलवार हो गयीं।
जिस
दिन से
तुम्हारे आंसू
परमात्मा की
तलाश में निकल
पडेंगे, तुम्हारे
भीतर तलवार
पैदा हो जाएगी।
तुम पर धार
आएगी।
तुम्हारे
भीतर प्रतिभा
का आविर्भाव
होगा। दर्द को
दबाओ मत।
देखते हो, दवा
शब्द बड़ा
अच्छा है, उसका
मतलब ही होता
है—'दबाना'
दर्द को
दबाओ मत, दवा
की तलाश मत
करो। दर्द को
उभासे। दर्द
को जगाओ। फिर
इतनी जल्दी
क्या है? जिस
दिन पकेगा फल
उसी दिन
गिरेगा। इतना
अधैर्य क्यों
है?
तुझको
पा लेने में
यह बेताब
कैफियत कहा,
जिंदगी
वो है, जो
तेरी जुस्तजू
में कट जाए।
उसकी
प्रार्थना
में, उसकी
तलाश में उसकी
इंतजारी में,
'जिंदगी वो
है जो तेरी
जुस्तजु में
कट जाए'।
पाने की इतनी
जल्दी मत करो।
पाना तो हो
जाएगा। विरह
का भी आनंद है।
यह दर्द भी
मीठा है। इस
दर्द की मिठास
अभी लो। एक
दफा मिलन हो
गया, फिर
यह दर्द की
मिठास दुबारा
नहीं संभव
होगी। इस दर्द
की मिठास को
भोग लो। यह
दर्द तुम्हें
मिटाएगा यह
दर्द तुम्हें गलाएगा।
यह दर्द
तुम्हें
समाप्त कर
देगा। उसी
समाप्ति में
तो दवा है, उसी
समाप्ति में
तो मिलन है।
मगर एक
ही बात खयाल
रखो। मिटने
में बुराई
नहीं है। अगर
विराट के लिए
मिट रहे हो तो
सौभाग्य है।
क्षुद्र के
लिए मत मिटना।
तुझको
बर्बाद तो
होना था ही
बहरहाल 'खुमार'
नाजकर
नाज कि उसने
तुझे बर्बाद
किया।
परमात्मा
के लिए अगर
बर्बाद हो जाओ
तो और सौभाग्य
क्या होगा? इस दर्द को
दबाओ मत। मेरा
काम ही यही है
कि तुम्हारा
दर्द उकसाऊं,
जगाऊं।
तुम्हारे
हृदय को छेडूं।
तुम्हारे आंसुओ
को गतिमान
करूं।
तुम्हारी
प्यास को
उकसाऊं, अग्नि
बनाऊं। जिस
दिन तुम्हारा
दर्द
परिपूर्णता
पर पहुंचेगा,
उसी घडी, ठीक उसी घडी,
एक क्षण की
भी फिर देर
नहीं होती।
विरह का पूर्ण
हो जाना मिलन
की शुरुआत है।
इसलिए जल्दी
नहीं। अभी तो
परमात्मा से
कहो—
सुर न
मधुर हो पाये,
उर की
वीणा को कुछ
और कसो ना।
मैंने
तो हर तार
तुम्हारे
हाथों
में, प्रिय, सौंप दिया
है
काल
बतायेगा यह
मैंने
गलत
किया या ठीक
किया है
मेरा
भाग समाप्त
मगर
आरंभ
तुम्हारा अब
होता है,
सूर न
मधुर हो पाये,
उर की
वीणा को कुछ
और कसो ना।
सुर
अभी तो कहो—और
दर्द चाहिए,
दवा
नहीं, और
तडूपाओ।
न मधुर
हो पाये,
उर की
वीणा को कुछ
और कसो ना।
जगती के
जय—जय कारो की
किस
दिन मुझको चाह
रही है,
दुनिया
के हंसने की
मुझको
कौड़ी
भर परवाह नहीं
है,
लेकिन
हर संकेत
तुम्हारा
मुझे
मरण जीवन, कुछ दोनों
से भी
ऊपर, तुम तो
मेरी
त्रुटियों पर
इस भांति हंसो
ना।
न मधुर
हो पाये, उर
की वीणा को
कुछ और कसो ना।
सुर तुम
पर भी आरोप कि
मेरी
झकारो
में आग नहीं
है,
जिसका
छू जग जाग न
उठता
वह कुछ
हो, अनुराग
नहीं है,
तुमने
मुझे छुआ, छेडा भी
और दूर
के दूर रहे भी
उर के
बीच बसे हो
मेरे, सुर
के भी तो बीच
बसो ना।
सुर न
मधुर हो पाये, उर की वीणा
को कुछ और कसो
ना।
सुर न
मधुर हो पाये, उर की वीणा
को कुछ और कसो
ना।
जल्दी
नहीं, अधैर्य
नहीं; अभी
तो दर्द को और
मांगो, अभी
दवा नहीं। अभी
तो दर्द के
लिए झोली और
फैलाओ।
अभी तो
दर्द को गिरने
दो,
अभी तो
दर्द को बरसने
दो
मेघ
बनकर—ऐसा कि
बाढ आ जाए
दर्द की।
सुर न
मधुर हो पाये, उर की वीणा
को कुछ और कसो
ना।
अभी तो
पुकारो कि
मेरी वीणा को
और कसो।
अभी तो
पुकारो—मुझे
और जलाओ, दग्ध
करो।
इसी
दग्धता में
दवा है।
अंतिम
प्रश्न :
क्षमा
करें, एक
बात पूछना
चाहता हूं जो
बहुत दिनों से
मेरे मन में
हैं। आप सहित
सभी महापुरुष
जो जिंदा हैं,
कभी इकट्ठे
क्यों नहीं
होते?
'जनता
पार्टी' बनानी
है! इकट्ठा
किसलिए? सिंहों
के नहिं लेहडे,
संत चलैं न
जमात। इकट्ठा
होना भेडों की
आदत है। और
भेडें जरूर
सोचती होंगी
मन में कि
मामला क्या है,
हम तो कैसे
घसर—पसर चलते
हैं, एक—दूसरे
में मिले—जुले
चलते हैं, सिंहों
की इस तरह की
एकता, इस
तरह का
इकट्ठापन
क्यों नहीं
होता? जरूरत
नहीं है। आदमी
इकट्ठा भय के
कारण होता है।
समझना थोड़ा।
जितना
भयभीत होगा
आदमी उतना भीड़
का हिस्सा
बनना चाहता है।
भीड़ में
सुरक्षा
मालूम होती है।
इसीलिए तो तुम
हिंदू हो, मुसलमान हो,
ईसाई हो।
तुम कोई धर्म
के लिए थोडे
ही हिंदू हो।
हिंदू तुम
सिर्फ इसलिए
हो कि हिंदुओं
की इतनी बडी भीड़,
इसके साथ
तुम सुरक्षित
हो। बीस करोड़,
चालीस करोड़,
साठ करोड़,
अस्सी करोड़—करोडों
की भीड़ में
तुम्हें बड़ा
आश्वासन
मिलता है। अब
अस्सी करोड़
भेडें चल रही
हैं, उसमें
तुम भी हो, तुम्हें
खतरा नहीं
मालूम होता है।
खतरा कहा? इतने
संगी—साथी हैं।
यही कमजोर
दुनिया में
राजनीति पैदा
करवाते हैं।
दुनिया ऐसी
चाहिए जहा
प्रत्येक
व्यक्ति व्यक्ति
हो। जहा न
पार्टिया हों,
न धर्म हो, न संगठन हों।
दुनिया का वही
दिन सौभाग्य
का दिन होगा, जहा
प्रत्येक
व्यक्ति होगा।
कोई हिंदू हो,
क्यों
मुसलमान हो, क्यों ईसाई
हो? कोई
क्यों किसी भीड़
का हिस्सा बने?
स्वयं हो।
तुम
पूछते हो—
क्षमा करें, एक बात
पूछता हूं जो
बहुत दिनों से
मेरे मन में
है। आप सहित
सभी महापुरुष
जो जिंदा हैं,
कभी इकट्ठे
क्यों नहीं
होते। पहली तो
बात, कोई
प्रयोजन नहीं
है। इकट्ठा
होकर करेंगे
क्या! किसी से
लड़ना—झगड़ना है—कि
संगठन में
शक्ति है! सब
इकट्ठे हो
जाएं तो किसी
से लड़ना है।
फिर अगर दो
संत मिलें भी,
तो क्या
कहेंगे एक—दूसरे
से? क्या
बोलेंगे? क्या
बतिया के? मौन
बैठे रहेंगे।
ऐसा
कभी—कभी हुआ
है। फरीद और
कबीर का मिलना
हो गया था।
हुआ तो नहीं
होता अगर फरीद
और कबीर पर
छोड़ गया होता।
शिष्यों की
वजह से हो गया।
फरीद यात्रा
पर था और कबीर
के आश्रम के
पास से यात्रा
गुजर रही थी, फरीद के
शिष्यों ने
कहा कि बड़ा
शुभ होगा; विश्राम
तो कहीं करना
ही पड़ेगा, रात
आगे के गांव
में ठहरेंगे,
तो कबीर के
आश्रम में ही
क्यों न ठहर
जाएं? कबीर
के शिष्यों को
खबर मिली, वे
भी बड़े उत्सुक
हो गये।
उन्होंने
कबीर से कहा
कि फरीद
निकलते हैं, हम निमंत्रण
क्यों न करें?
आप दोनों
साथ बैठेंगे,
हमारा बड़ा
सौभाग्य होगा!
कुछ फूल
झड़ेंगे दोनों
के बीच, हमें
भी सुगंध
मिलेगी। कबीर
ने कहा—ठीक।
और फरीद ने भी
कहा—ठीक।
दो दिन
साथ रहे, एक
शब्द नहीं
बोले। न कबीर
बोले, न
फरीद बोले। एक—दूसरे
को देखा, मस्ती
में बैठे रहे।
शिष्य तो बड़े
ऊबे। क्योंकि
उनकी
उत्सुकता तो
इसमें थी कि
दोनों बोलें।
कुछ खंड़न—मंड़न
हो, कुछ
चर्चा चले, तो कुछ मजा
आए। कुछ बात
में से बात
निकले, कुछ
विवाद हों—कौन
बड़ा संत, कौन
छोटा, कौन
पहुंचा, कौन
नहीं पहुंचा;
आज पक्का ही
हो जाए! बड़ी
उत्सुकता से
बैठे रहे। मगर
कब तक बैठे
रहें! घड़ी, दो
घड़ी, चार
घड़ी, फिर
ऊब होने लगी।
फिर एक—दूसरे
की तरफ देखने
लगे कि यह
क्या तमाशा
हुआ? यह तो
बड़ी बेचैनी की
बात हो गयी।
दो दिन के बाद
बिदाई हो गयी।
कबीर गाव बाहर
आकर फरीद को
छोड़ भी गये, गले भी मिले,
बात न हुई
सो न हुई।
शब्द न बोला न
बोला गया सो न
बोला गया।
बिदा
होते ही से
दोनों के
शिष्य अपने
गुरुओं पर टूट
पड़े। फरीद के
शिष्यों ने
पकड़ लिया कि
हद हो गयी! हमें
समझाते हैं आप
रोज, आपकी
वाणी कहां खो
गयी? कबीर
से कुछ तो
कहना था! फरीद
ने कहा—जों
बोलता, वह
अज्ञानी। दो
दर्पण सामने
रखे हों, तो
क्या
प्रतिबिंब
बने? दो
शून्य पास
बैठे हों, तो
कैसे शब्द
निर्मित हो? जो बोलता सो अज्ञानी,
फरीद ने कहा।
तुम क्या
चाहते हो मैं
बोल कर अपनी
फजीहत करवाता।
कबीर के
शिष्यों ने
पूछा— आप चुप
क्यों रहे? आपकी वाणी
में तो ऐसा ओज,
फरीद को भी
तो थोड़ा रस
देते! हम पर तो
आप रोज लुटाते
हैं। पर कबीर
ने कहा कि
फरीद को तो
मिल ही गया है।
जो मैं तुम पर
लुटाता हूं र
वह फरीद को
मिल गया है।
जहा मैं हूं
वहा फरीद हैं।
हम दोनों एक
जगह खड़े हैं।
देखकर हम
भौंचक्के रह
गये। हम दो ही
नहीं हैं, हम
एक ही हैं।
इसलिए क्या
कहना, किससे
कहना? अब
अकेला आदमी
बैठ कर बात
करे, कबीर
ने कहा, तो
पागल नहीं
कहोगे उसको? कोई अकेला
बैठा अपने से
ही बातें कर
रहा है—जवाब
भी खुद ही दे, प्रश्न भी
खुद ही उठाये,
उसी को तो
पागल कहते हैं।
तो कबीर ने
कहा—क्या तुम
मुझे पागल
बनवाना चाहते
थे? हम दो
थे नहीं।
इसलिए
संतों को
मिलने की कोई
जरूरत नहीं
उठती। संत अलग
नहीं है कि
मिलना पड़े। 'जनता
पार्टी' असंतों
से बनती है, संतों से
नहीं बनती।
फिर प्रत्येक
संत की अपनी
अनूठी आभा है,
अपना
व्यक्तित्व
है, अपनी
भाषा है, अपना
ढंग है। और यह
वैविध्य
सुंदर है। जरा
सोचो कि
दुनिया में
सिर्फ कृष्ण
ही हुए होते, बुद्ध न हुए
होते, तो
दुनिया बड़ी
दरिद्र होती।
या बुद्ध ही
हुए होते और
मुहम्मद न हुए
होते, तो
दुनिया बड़ी
दरिद्र होती।
यह दुनिया में
इतनी जो संपदा
है अध्यात्म
की यह इसीलिए
है कि इतने
भिन्न—भिन्न
लोग हुए। एक
ही सत्य को
जानकर
उन्होंने
इतने भिन्न—भिन्न
नाच नाचे, इतने
भिन्न—भिन्न
गीत गाए।
उनमें
अनूठापन है।
इस अनूठेपन को
मिलाया नहीं
जा सकता। इसको
मिलाने से
दोनों का
अनूठापन खराब
हो जाएगा।
इसलिए मिलन की
कोई जरूरत
नहीं है।
दुनिया
में तीन तरह
के मिलन संभव
हैं। दो
ज्ञानियों का
मिलन, जैसा
कबीर और फरीद
का हुआ। यह
कभी—कभी हो
पाता है। और
इसका कोई मतलब
नहीं है।
बुद्ध और
महावीर अनेक
बार एक ही
गांव में ठहरे
और मिलन नहीं
हुआ। एक बार
तो एक ही
धर्मशाला में
ठहरे और मिलन
नहीं हुआ।
बौद्धों को भी
थोड़ी बेचैनी
होती है कि
क्यों नहीं
हुआ? जैनों
को भी थोड़ी
बेचैनी होती
है—क्यों नहीं
हुआ? जो
अहंकारी जैन
हैं वह सोचते
हैं कि बुद्ध
अज्ञानी थे
इसलिए महावीर
नहीं मिले। जो
अहंकारी
बौद्ध हैं वे
सोचते हैं—क्या
मिलना महावीर
से, वह
अज्ञानी थे।
इसलिए बुद्ध
उनसे नहीं
मिले। लेकिन
बुद्ध जिंदगी
भर तो और तरह
के हजारों अज्ञानियों
से मिलते रहे,
महावीर का
अज्ञान ही ऐसा
क्या विशिष्ट
था? और
महावीर भी अज्ञानियों
से खूब मिलते
रहे, नहीं
तो इन जैनियों
को कहां से
मिलते? बुद्ध
को ही क्यों
छोड़ दिया? यह
अहंकार की बात
है। या कुछ
सोचते हैं कि
दोनों में
इतना विरोध था,
दुश्मनी थी,
इसलिए नहीं
मिले। वह बात
भी मूढ़ता की
है। भेद तो है,
विरोध नहीं।
इसको
खयाल में
रखाना, भेद
विरोध नहीं है।
चंपा अपने ढंग
से खिली है और
चमेली अपने
ढंग से— भेद तो
है, विरोध
नहीं है। भेद
तो खूब है। अब
कहां गुलाब का
फूल और कहां
गेंदे का फूल,
भेद तो बहुत
है। मगर दोनों
फूल हैं। फूल
यानी फूलें
हैं, खिले
हैं। दोनों
नाच रहे हैं
हवाओं में और
दोनों ने सूरज
से बातें की
हैं और दोनों
ने रंग बिखेरा
है और दोनों
ने अपनी गंध
लुटा दी है।
जो जिसके पास
था, लूटा
दिया है।
दोनों रिक्त
हाथ हैं। सब
लुटा कर खड़े
हैं। मस्ती
में खड़े हैं।
अपना गीत गा
लिया गया है, अब
परमतृप्ति है।
फूल के
पास तुमने
देखी हैं एक
परम तृप्ति! इसीलिए
तो फूल इतना
आकर्षक मालूम
होता है।
आकर्षण क्या
है? रंग ही
नहीं है
आकर्षण, क्योंकि
रंग तो
प्लास्टिक के
फूल में भी
होता है, कागज
के फूल में भी
होता है—शायद
और भी अच्छा
रंग हो सकता
है; सुगंध
ही नहीं है, क्योंकि
कागज के फूल
पर भी हम इत्र
छिड़क दे सकते
हैं। फिर क्या
है फूल में जो
आकर्षित करता
है? फूल
तृप्त है। अब
की दफे जब फूल
को देखो, तो
खयाल करना।
वृक्ष आनंदित
है; मंजिल
आ गयी, खिलाव
हो गया, जो
छिपा था प्रकट
हो गया, अप्रकट
प्रकट हो गया,
अभिव्यंजना
हो गयी आत्मा
की, अपना
गीत गा लिया, अब तृप्ति
है, अब कोई
भागदौड़ नहीं,
आपाधापी
नहीं। फूल में
यह है राज।
फिर फूल चाहे
गेंदे का, चाहे
गुलाब का, चाहे
चमेत्नी का, चाहे चंपा
का; फिर
चाहे फूल घास
का और चाहे
बड़ा कमल कोई
भेद नहीं पड़ता।
भेद बहुत है, विरोध जरा
भी नहीं है।
तो जो
सोचते हैं
महावीर और
बुद्ध में
विरोध था, इसलिए नहीं
मिले, वे
गलत सोचते हैं।
विरोध तो हो
ही नहीं सकता।
लेकिन भेद
अज्ञानियों
को बहुत बार
विरोध जैसा
मालूम पड़ता है।
दोनों अपना—
अपना गीत गा
रहे हैं।
दोनों के गीत
की शैली इतनी
भिन्न है, भाषा
इतनी भिन्न है,
ढंग इतना
भिन्न है कि
स्वभावत: लगता
है कि दोनों
में कुछ विरोध
है। इसलिए
नहीं मिले कि
विरोध था, तो
दोनों की
निंदा हो
जाएगी और
दोनों
अज्ञानी सिद्ध
होंगे।
लेकिन
फिर क्यों
नहीं मिले?
मुझसे
जैनों ने भी
पूछा है, बौद्धों
ने भी पूछा है
कि फिर क्यों
नहीं मिले? मेरा उत्तर
कुछ और है।
मेरा उत्तर
यही है कि
मिलने को वहां
दो व्यक्ति थे
ही नहीं।
किससे मिलते?
कौन मिलता?
किससे
मिलता? वहा
एक ही था।
मिलन के लिए
दो चाहिए।
उतनी दूरी भी
नहीं थी।
इसलिए नहीं
मिले। नहीं
मिलने का और
कोई भी कारण
नहीं। मिलने
की कोई जरूरत
भी नहीं थी।
महावीर ने पा
लिया था मिलना
क्या था, बुद्ध
ने पा लिया था
मिलना क्या था,
लेकिन ऐसा
पागलपन चलता
है। मिलाने की
कोशिश
शिष्यों में
रहती है।
सिर्फ
जिज्ञासा, कुतूहल!
पता नहीं क्या
घटे! कुछ भी न
घटेगा। दो
शून्य पास
आएंगे और एक
शून्य हो
जाएगा। जरा भी
आवाज न होगी, सरसराहट भी
न होगी, सन्नाटा
हो जाएगा। दो
समाधिस्थ
पुरुष जब पास
होंगे, तो
कुछ घटना
घटेगी। दो
अकर्ता जब एक—दूसरे
के पास होंगे
तो कोई कृत्य
नहीं घटेगा।
तो एक
मिलन हो सकता
है, दो
ज्ञानियों का,
जो की
व्यर्थ है।
दूसरा एक मिलन
होता है दो
अज्ञानियों
का, वह भी
व्यर्थ है।
क्योंकि
उसमें मारा—मारी
काफी होती है,
लेकिन
परिणाम कुछ
नहीं होता। दो
अज्ञानी
बातचीत तो
बहुत करते हैं,
मगर एक—दूसरे
की सुनते ही
नहीं। दो
ज्ञानी
बातचीत ही
नहीं करते, पर एक—दूसरे
की सुन लेते
हैं। बिना
बोले बात सुन
ली जाती है।
बिना बोले समझ
ली जाती है।
दो अज्ञानी
बकवास तो बहुत
करते हैं,
लेकिन
कौन किसको सुन
रहा है? अपनी—
अपनी हाकते।
यह दूसरा मिलन।
ये दोनों मिलन
बेकार हैं। दो
अज्ञानियों
का मिलन बेकार
है, दो
ज्ञानियों का
मिलन बेकार है।
सार्थक
तो मिलन है
अज्ञानी और
ज्ञानी का।
क्योंकि वहा
कुछ घट सकता
है। वह तीसरा
मिलन है। बस
ये तीन ही तरह
के मिलन हो
सकते हैं। जब
ज्ञानी और
अज्ञानी का
मिलन हाता हैं
तो शिष्य और
गुरु की घटना
घटती है। तो
कुछ घटता है।
क्योंकि
ज्ञानी की तरफ
से धारा बहती
है और अज्ञानी
अगर लेने को
तैयार हो उस
धारा को
आत्मसात करने
को, तो
रूपातरित हो
जाता है।
आज इतना
ही।
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