पांचवां
प्रवचन
15
मार्च 1978;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सूत्र :
नामेति
जैमिनि:
सम्भवात्।। 61।।
अत्राड़;गप्रयोगाणां
यथाकालसम्भवो
गुहादिवत्।। 62।।
ईश्वर
तुष्टेरेकोऽपि
बली।। 63।।
अबन्धोऽर्पणस्य
मुखम्।। 64।।
ध्यानवनियमस्तु
दृष्टसौकर्यात्।।
65।।
भक्ति
एक छलांग है।
इसलिए साधन और
साध्य का भेद
केवल बौद्धिक
भेद है। विचार
के लिए
अनिवार्य है।
अनुभव में ऐसी
कोई सीमा—साधन
अलग, साध्य
अलग, इस भांति
नहीं है। बीज
कब वृक्ष बनता
है, कौन
रेखा खींचेगा?
गौणी— भक्ति
कब पराभक्ति
हो जाती है, कैसे निर्णय
लोगे? कोई
मापदंड़ नहीं
है। गौणी—भक्ति
पराभक्ति का
ही प्रारंभ है।
और पराभक्ति
गौणी— भक्ति
का ही अंत है।
बच्चा कब जवान
हो जाता है, जवान कब
बूढ़ा हो जाता
है? जीवन
में रेखाएं
नहीं। सब
रेखाएं
कल्पित हैं।
जीवन अखंड़ है।
रेखामुक्त है,
सीमातीत है।
भक्ति छलांग
है।
लेकिन, विभाजन की
सार्थकता
जरूर है।
अस्तित्व
नहीं है, पर
सार्थकता है।
समझने के लिए
उपयोगी है।
शुरुआत तो
गौणी— भक्ति
से ही करनी
होगी। शुरुआत
तो टटोलने से
ही करनी होगी।
एक दिन टटोलते—टटोलते
उससे मिलन हो
जाता है।
प्रारंभ तो
विरह से ही
होगा; लेकिन
विरह मिलन से
अलग नहीं है।
अस्तित्वगत
अनुभव में
विरह मिलन की
ही शुरुआत है।
वे विपरीत
नहीं हैं और न
ही भिन्न हैं।
विरह मिलन की
शुरुआत है। और
मिलन विरह का
अंत है। वे
जुड़े हैं।
जैसे दो पंख
पक्षी के जुड़े
हैं, जैसे
तुम्हारे दो पैर
जुड़े हैं ऐसे
वे संयुक्त
हैं। लेकिन
आचार्यों ने
रेखाबद्ध
विचार करने के
लिए विभाजन
किया है।
विभाजन के साथ
ही उपद्रव
शुरू हो जाता
है। जैसे ही
विभाजन करोगे
वैसे ही सवाल
उठता है—कौन
प्रमुख है? कौन प्रमुख
नहीं है!
गौणी—
भक्ति का अर्थ
होता है— भजन, कीर्तन, नाम—स्मरण,
प्रभु की
महिमा का
गुणगान, श्रवण,
सत्संग।
कुछ आचार्य
कहते हैं, यही
प्रमुख है। और
उनकी बात में
भी बल है।
क्योंकि वे
कहते हैं, इनके
बिना, इन
बीजों के
३इाब।ना
वृक्ष तो कभी
होगा नहीं। इन
बीजों के बिना
वृक्ष पर फूल
कभी खिलेंगे नहीं।
तो जो आधार है
वह प्रमुख है।
फिर आज
के सूत्र उन
दूसरे
आचार्यों के
संबंध में हैं।
नाम :
इति जैमिनि :
सम्भवात्।।
' आचार्य
जैमिनी गौणी—
भक्ति को
प्रधान नहीं
कहते, और—
और स्थानों
में उसका नाम
मात्र ही लिया
गया है '।
जैमिनी ने
गौणी— भक्ति
को प्रधान
नहीं कहा। उस
बात में भी
सत्य है।
क्योंकि बीज
का कोई मूल्य
अपने में क्या
है? मूल्य
यही है कि कभी
फूल हो सकेंगे।
मूल्य तो फूल
का ही है। बीज
को भी हम
सम्हाल कर
रखते हैं तो
फल के लिए।
बीज के लिए ही
नहीं। इस जीवन
को भी हम
सम्हाल कर
रखते हैं तो
इसके भीतर
परमात्मा की तलाश
के लिए। इसका
अपने में कोई
मूल्य नहीं है।
इस जगत में
मूल्य तो
अंततः उसका ही
है जिसके लिए
हम साधन को
सम्हालते हैं।
जैमिनी
भी ठीक ही
कहते हैं कि
शिखर ही
मूल्यवान है, आधार नहीं।
शिखर के लिए
ही तो आधार
रखते हैं।
आधार के लिए
तो कोई आधार
नहीं रखता।
बुनियाद रखने
के लिए तो कोई
बुनियाद नहीं
रखता।
शिलान्यास
करते हैं
बुनियाद का, लेकिन
लक्ष्य तो यही
है कि मंदिर
उठेगा, शिखर
चढ़ेगा, धूप
में चमकेंगे
स्वर्ण कलश।
उस शिखर के
लिए ही शुरुआत
है। तो जैमिनी
भी ठीक ही
कहते हैं। मगर
दोनों में बड़ा
विवाद हो गया
है। शास्त्र
विभाजित हो
गये हैं। जहा
शब्द आया, वहां
विवाद आया। और
जहा विभाजन
आया, वहा
द्वैत आया।
अगर तुम
अविभाज्य को
देख सको तो
विभाजन में मत
पड़ना। शांडिल्य
की जीवन
दृष्टि बड़ी
समन्वयी है। शांडिल्य
का स्वयं का
सूत्र यही है
कि दोनों
जरूरी हैं, दोनों, अनिवार्य
हैं, क्योंकि
वस्तुत: दोनों
अलग नहीं हैं।
इसके पहले कि शांडिल्य
के सूत्र में
तुम प्रवेश
करो, कुछ
बातें खयाल
में ले लेना।
जब तुम
किसी यात्रा
पर निकलते हो
तो जो पहला कदम
उठाते हो, पहले कदम से
मंजिल नहीं
मिल जाती। यह
तो सच है।
लेकिन
लाओत्सु का
प्रसिद्ध वचन
है—एक—एक कदम
से ही तो
हजारों मील का
फासला तय होता
है। तो जब
तुमने पहला
कदम उठाया तो
मंजिल तो नहीं
मिली, लेकिन
क्या निश्चित
रूप से कह
सकते हो के
मंजिल नहीं
मिली! एक कदम
तो मंजिल करीब
आयी। एक कदम
करीब आयी, इतनी
तो मिली। फिर
दूसरा कदम
उठाओगे, उतनी
और मिल जाएगी।
और एक कदम ही
तो एक बार में
उठाया जा सकता
है। एक—एक कदम,
एक—एक कदम
चल कर आदमी
हजारों मील की
यात्रा पूरी कर
लेता है।
तो जो
गौर से देखेगा
वह कहेगा—पहले
कदम में मंजिल
मिली भी नहीं
और मिली भी।
दो में से
किसी भी एक
बात को पकड़
लेने में भ्रांति
हो जाएगी। जो
कहेगा पहले
कदम में ही
मंजिल मिल गयी, वह फिर
दूसरा कदम
क्यों उठाएगा?
मंजिल मिल
ही गयी, बात
समाप्त हो गयी।
वह वहीं बैठ
जाएगा। ऐसे
बहुत लोग बैठ
गये हैं
मंदिरों में,
मस्जिदों
में। वे
कीर्तन ही कर
रहे हैं। उससे
आगे बात उठी
ही नहीं।
श्रवण ही चल
रहा है! सत्संग
ही हो रहा है!
सदियों बीत
गयीं, जनम—जनम
बीत गये, नाम—स्मरण
ही चल रहा है!
माला ही फेरी
जा रही है! मंत्र—पाठ
ही किया जा
रहा है! पूजा, प्रार्थना,
यज्ञ—हवन, उसी में
संलग्न हैं।
पहले कदम पर
बैठ गये इन
लोगों को खयाल
में रखना।
इसलिए
यह कहना उचित
नहीं है कि
पहले कदम पर
मंजिल मिल गयी।
लेकिन यह कहना
भी उचित नहीं
है कि पहले
कदम पर मंजिल
नहीं मिलती।
क्योंकि अगर, पहले कदम पर
मंजिल नहीं
मिलती, तो
आदमी पहला कदम
उठाए क्यों? छोड़ दो पहला
कदम। और पहला
छोड़ दिया तो
दूसरा कैसे
उठेगा? पहले
के बाद दूसरा
है। इसलिए कुछ
लोग हैं
जिन्होंने
पहला कदम भी
नहीं उठाया है।
वे कहते हैं, कदम उठाने
से क्या होगा,
कोई मंजिल
तो मिलती नहीं।
भजन—कीर्तन
करने से क्या
होगा? भगवान
भजन— कीर्तन
से मिलता है!
उन्होंने भजन—कीर्तन
भी नहीं किया।
कुछ ने भजन—कीर्तन
को सब मान कर
वहीं डेरा डाल
दिया है। ऐसे
दो तरह के भ्रांति
से भरे हुए
लोग हैं।
शांडिल्य
कहना चाहते है
कि दोनों भ्रांतियों
में मत पड़ना।
दोनों सत्यों
को समझने की
कोशिश करना।
दोनों सत्य एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
पहला कदम अंश
है मंजिल का।
दूसरे कदम पर
और अंश, तीसरे
कदम पर और अंश,
एक दिन कदम
पूरे होते
जाएंगे और
मंजिल मिलती चली
जाएगी। लेकिन
हमारी जीवन—
धारणाएं सदा
ऐसी होती हैं।
तुम जिस दिन
से पैदा हुए
उसी दिन से
मरने भी लगे
हो लेकिन यह
तुम्हें खयाल
में नहीं आता।
जिस दिन बच्चा
एक दिन का हो
गया, उस
दिन बच्चा एक
दिन कम हो गया
उसके जीवन का।
बच्चे ने पहली
सांस ली कि एक
सांस कम हो
गयी। सरकने
लगा मौत की
तरफ। तो जो
जानते हैं वे
कहेंगे कि
जन्म में ही
मृत्यु भी घट
गयी। घटना
शुरू हो गयी।
पहली सांस
अंतिम सांस भी
है। हालांकि
हम जानते हैं
कि पहली सांस
पहली सांस है,
अंतिम कैसे
हो सकती है? जीवन को जब
तुम पहचानोगे
तो ये गुत्थी
तुम्हें हर
जगह मिलेगी।
पहला अंतिम है;
साधन में
साध्य छिपा है।
और फिर भी
पहला अंतिम
नहीं है और
साधन साधन है,
साध्य नहीं
है। इन दोनों
को जो एक साथ
पकड़ लेता है, उसे भक्ति
की छलांग
दिखायी पड़नी
शुरू होती है।
पश्चिम
के बहुत बड़े
विचारक
अँल्डुअस
हक्सले ने एक
किताब लिखी है—साधन—साध्य, 'एंड्स ऐंड़
मीन्स '।
बहुत ऊहापोह
किया है कि
कौन मूल्यवान
है—साधन कि
साध्य? दोनों
संयुक्त हैं,
अलग नहीं
हैं। इसलिए
उनकी
मूल्यवत्ता
को अलग— अलग
नहीं आका जा
सकता। कौन
मूल्यवान हैं
तुम्हारी देह
में—पैर
मूल्यवान हैं
कि हाथ? आंखें
मूल्यवान हैं
कि कान? बायीं
आंख मूल्यवान
है कि दायीं आंख?
मस्तिष्क
मूल्यवान है
कि हृदय? कौन
मूल्यवान है?
तुम एक
संयुक्तता हो।
तुम एक
समग्रता हो।
सभी उस
समग्रता के
अनिवार्य
हिस्से हैं। न
किसी का मूल्य
कम है, न
किसी का मूल्य
ज्यादा है। उन
सबके होने में
ही तुम्हारा
होना है। आंखें
नहीं होंगी तो
आंखों का काम
पैर न कर
सकेंगे। और
पैर नहीं
होंगे तो
पैरों का काम आंख
नहीं कर सकती।
यही भ्रांति
तो इस देश के
पूरे जीवन पर
छा गयी।
ब्राह्मणों
को हमने कहा—वें
सिर हैं; शूद्रों
को हमने कहा—वें
पैर हैं। बस, पैर हैं तो
वे गौण हो गये।
ब्राह्मण सिर
हैं, वे
मूल्यवान हो
गये। लेकिन
सिर को काट कर
रख दो अलग, उसका
क्या मूल्य रह
जाता है!
ब्राह्मण को
अलग काट दिया,
वह भी
मुर्दा हो गया,
शूद्र को
अलग काट दिया,
वह भी
मुर्दा हो गया।
यह दृष्टि गलत
है। पैर और
सिर, दोनों
एक संयुक्त
व्यक्तित्व
के अंग हैं, दोनों
अनिवार्य हैं।
कोई कम नहीं, कोई ज्यादा
नहीं।
शांडिल्य
कहते हैं—
अत्र अड़; गप्रयोगणा
यथाकालसम्भव:
गृहादिवत्।।
'इस
स्थान पर गृह
आदि के
अंगस्थान की
भांति यथाकाल
में काप्रयोग
मात्र समझना
चाहिए। '
सब अंग हैं।
साधन भी
जिन्हें हम
कहते हैं, वे
अंग हैं, और
साध्य भी जिसे
हम कहते हैं
वे भी अंग हैं।
असली बात
दोनों के पार
है। या असली
बात में दोनों
समाहित है।
असली बात
दोनों के जोड़
से बनती है।
तुम क्या हो? तुम्हारे
हाथ, तुम्हारे
पैर, तुम्हारी
आंख, तुम्हारे
कान, तुम्हारा
स्वाद, तुम
इन सबका जोड़
हो। और इनके
जोड़ से थोड़ा
अधिक भी।
इस भेद
को भी खयाल
में ले लेना।
यही भेद है
चेतन और अचेतन
का।
चेतन
अपने अंश का
जोड़ मात्र
नहीं होता।
अपने अंशों के
जोड़ से थोड़ा
ज्यादा होता
है। अचेतन
अपने अंगों का
जोड़ मात्र
होता है। जोड़
से ज्यादा
नहीं होता।
जैसे
समझो, एक
कार है। इसके
सब अंग अलग कर
लो, तो
पीछे कोई कार
की आत्मा नहीं
बचती। फिर
अंगों को जोड़
दो, कार
फिर खड़ी हो
जाती है। अंग
अलग कर लो, कार
बिखर जाती है।
कार सिर्फ
अपने अंगों का
जोड़ है, उसके
भीतर कोई
आत्मा नहीं है।
यंत्र है।
यहीं फर्क है
जीवन का और
अंगों का।
आदमी के हाथ, पैर, सिर
अलग कर लो, फिर
तुम लाख जोड़ो
तो भी आदमी
वापिस नहीं
लौटता। कार तो
वापिस लौट आती
है, आदमी
क्यों वापिस
नहीं लौटता? अगर आदमी भी
यंत्र मात्र
होता, तो
लौटना चाहिए
था। यही
प्रमाण है कि
आदमी यंत्र
नहीं है, आत्मा
है। कुछ खो
गया, जो
अंगों के पार
था, अंगों
से ज्यादा था;
अंगों के
कारण यहां रुका
था, ठहरा
था; तुमने
अंग अलग कर
लिये, वह
उड़ गया। अंग
तो पिंजड़ा है,
पक्षी उड़
गया। पक्षी
अदृश्य
तुमने
पिंजड़े के सब
अंग अलग कर
लिये, पक्षी
मुक्त हो गया,
उड़ गया। अब
तुमने पिंजड़े
के सब अंग जोड़
दिये, पिंजड़ा
बन गया, लेकिन
अब उसमें
श्वास नहीं है,
हृदय की
धड़कन नहीं है,
आंखें
देखती नहीं है,
कान सुनते
नहीं हैं।
आत्मा खो गयी।
चैतन्य
का अर्थ यही
होता है—अपने
जोड़ों से
ज्यादा। सारे
अंगों के जोड़
से कुछ ज्यादा
जो है, वही
चैतन्य है।
इसलिए तो आदमी
में गणित नहीं
आता। क्योंकि
यह बात गणित
के बाहर हो
गयी। अगर दो
और दो को जोड़ो,
तो चार क्या
है, दो और
दो का जोड़ है।
इससे ज्यादा
नहीं है। गणित
में आदमी नहीं
आता। गणित में
जीवन नहीं आता।
जीवन गणित के
बाहर छुप जाता
है। कौन—सी
चीज बाहर छूट
जाती है? वह
समग्रता है, वह आत्मा है।
व्यक्ति के
भीतर उसको हम
आत्मा कहते
हैं, और जब
हम सारी
समष्टि के
भीतर उसको
अनुभव कर लेते
हैं तो उसे
परमात्मा
कहते हैं।
शांडिल्य
कहते हैं, अंगमात्र
हैं। सब शांडिल्य
की दृष्टि
समन्यवग्राही
है। शांडिल्य
मात्र आचार्य
नहीं हैं, शांडिल्य
अनुभोक्ता
हैं। शांडिल्य
मात्र
दार्शनिक
नहीं हैं।
दार्शनिक
होते तो उसी
विवाद में पड़े
होते कि कौन
प्रमुख, कौन
गौण?
फिर एक
और मजा है।
गौणी— भक्ति
अगर सच में ही
केवल
साधनमात्र है, तो तब भक्त
पहुंच जाता तब
समाप्त हो
जानी चाहिए, लेकिन
समाप्त नहीं
होती। मीरा
पाकर भी तो
गाती रही।
पाकर भी तो
गुनगुनाती
रही। पाकर भी
तो नाचती रही।
अगर यह उपकरण
मात्र था, तो
जब पहुंच गये
तो समाप्त हो
जाना चाहिए।
अगर यह रास्ता
ही था जिससे
हम मंजिल पर
पहुंचते हैं,
तो जब मंजिल
पर पहुंच गये
तो रास्ता
समाप्त हो गया।
अब रास्ते पर
चलने का क्या
प्रयोजन? लेकिन
भक्तों के
जीवन को गौर
से देखो। वे
पहले भी गाते
थे और पीछे भी
गाते हैं। हालांकि
गीत बदल गया।
गीत के भीतर
का अर्थ बदल
गया। गीत के
भीतर की भाव—
भंगिमा बदल
गयी। मगर गीत
जारी है। पहले
मीरा विरह में
गाती थी; अभी
मिलन नहीं हुआ
था, तड़पती
थी। अब मिलन
हो गया, उसके
आनंद में गाती
है। मगर गीत
तो जारी है।
कीर्तन जारी
है, भजन
जारी है, सत्संग
जारी है।
पहले
गुरु के पास
जाता है भक्त
सत्य की खोज
में, फिर गुरु
के पास जाता
है अनुग्रह के
भाव में, लेकिन
जाना जारी
रहता है। जाना
नहीं रुकता।
अगर गुरु केवल
साधनमात्र हो,
तो जब मिल
गया तो
नमस्कार! बात
समाप्त हो गयी।
अब गुरु के
पास जाकर क्या
करना है? लेकिन
भक्त गुरु के
पास पीछे भी
जाता है। जाने
का अर्थ बदल
गया। जाने के
भीतर का सार
बदल गया। पहले
आता था खोजने।
अब धन्यवाद
देने आता है।
पहले भी झुकता
था कि शायद
झुकने से
मिलेगा, अब
इसलिए झुकता
है कि मिल गया
है। तो अब न
झुके कैसे चले?
धन्यवाद
में झुकता है,
अनुग्रह
में झुकता है।
जो
बाहर से देखता
है उसकी समझ
में न आएगा।
क्योंकि
झुकना झुकना
एक जैसा है।
चाहे तुम
मताने के लिए
झुकों और चाहे
धन्यवाद देने
के लिए झुकों, झुकने की
प्रक्रिया
बाहर से एक
जैसी है। फिर
तुम्हें याद
दिला दूं यही
फर्क है जड़ और
चेतन में। जड़
जैसा बाहर से
होता है वैसे
ही भीतर से
होता है।
चैतन्य को तुम
बाहर से ही न
समझ पाओगे।
क्योंकि बाहर
कई बार एक—सी
घटना होती है
और भीतर सब
भेद होता है।
दो भक्त अपने
भगवान के लिए
झुक रहे हैं, दो भक्त मंदिर
में बैठे गीत
गा रहे हैं, गीत भी एक हो
सकता है, मूर्ति
भी एक हो सकती
है, उनका
डोलना भी एक
हो सकता है, फिर भी भेद
हो। बाहर कोई
भेद न हो, रत्ती
भर भी भेद न हो,
फिर हो सकता
है, एक अभी
खोज रहा है और
एक को मिल गया
है। एक अभी
टटोल रहा है
और एक भर गया
है। एक अभी
खाली है, इसलिए
रो रहा है—उसकी
आंख से भी आंसू
बह रहे हैं— और
एक भर गया है
इसलिए रो रहा
है—क्योंकि अब
आंसुओ के
अतिरिक्त और
कैसे धन्यवाद
दे? एक के आंसू
दुख के आंसू
हैं, एक के आंसू
सुख के आंसू
हैं, मगर आंसू
तो आंसू हैं।
अगर तुम आंसुओ
को इकट्ठा कर
लो दोनों के
और चले जाओ 'केमिस्ट' की दुकान पर
परीक्षा
करवाने, तो
दोनों एक—से
मिलेंगे।
दोनों में नमक
का स्वाद होगा।
दोनों में एक—सा
रासायनिक
द्रव्य होगा,
कोई भेद न
होगा।
बाहर
से जो एक—जैसा
रहे और फिर भी
भीतर भेद पड़
जाए, वह
चैतन्य का
लक्षण है।
इसलिए
कृत्यों का
मूल्य नहीं
होता, कृत्य
के पीछे जो
खड़ा है उसका
मूल्य होता है।
तुम क्या करते
हो, इसका
मूल्य कम है, तुम क्या हो,
इसका मूल्य
ज्यादा है।
शांडिल्य
ठीक कहते हैं—अंग
की भांति हैं।
न तो शिखर का
कोई बड़ा मूल्य
है और न
बुनियाद का कोई
बड़ा मूल्य है।
दोनों ने
मिलकर मंदिर
बनाया है।
मंदिर का
मूल्य है।
मंदिर न तो
बिना शिखर के
हो सकता है, न बिना बुनियाद
के हो सकता है।
वह जो मंदिर
की समग्रता है,
उसका मूल्य
है। इसलिए इस
विवाद में मत
पड़ना। मंदिर
की समग्रता को
खयाल में रखना।
फिर
विद्वानों ने
विचार उठाया
है कि साधन तो
कोई कई कहे
हैं, उन सब
साधनों में
कौन प्रमुख के
हैं? चलो
यह भी छोड़ दो
कि साधन और
साध्य दोनों
एक ही समान
मूल्य हैं, तो सवाल
उठता है कि
साधन तो बहुत
हैं, उनमें
कौन प्रमुख है?
भजन है, कीर्तन
है, नाम—स्मरण
है, श्रवण
है, मनन है,
ध्यान है, सत्संग है, सेवा है, पूजा
है, अर्चना
है, यश—हवन
है, साधन
तो बहुत है—बुद्धि
सदा प्रश्न
उठा लेती है
और बुद्धि प्रश्न
में ही उलझ
जाती है—इनमें
प्रमुख कौन है?
हम क्या
साधें? ये
सभी तो नहीं
साधने पड़ेंगे?
ये सभी के
साधने में तो
बड़ी उलझन हो
जाएगी। हम
क्या करें? अनेक— अनेक
साधनों में
कौन—सा साधन
प्रमुख है?
यह
प्रश्न हमें
सार्थक लगेगा।
जो भी खोजने
चला है, उसको
भी लगेगा कि
यह बात तो साफ
होनी चाहिए कि
कौन—से साधन
से पहुंचना
होता है! यह
बात फिर गलत
हो गयी। यह
वैसे ही हो
गया कि जैसे
एक गांव में
तुम बैलगाड़ी
से भी जा सकते
हो और हाथी पर
भी जा सकते हो और
घोड़े पर भी जा
सकते हो और
पैदल भी जा
सकते हो, ट्रेन
भी पकड़ सकते
हो, हवाई
जहाज से भी उड़
सकते हो। अब
इनमें कौन
प्रमुख है? सभी पहुंचा
देते हैं। फिर
अपनी— अपनी
मौज! फिर किसी
को घुड़सवारी
पसंद है; लाख
हवाई जहाज
जल्दी पहुंचा
देता हो लेकिन
घुड़सवारी का
अपना आनंद है।
और किसी को
पैदल चलने में
रस है। पैदल
चलने का आनंद
अलग है। हवाई
जहाज पहुंचा
देगा, लेकिन
पैदल चलने का
मुकाबला नहीं
हो सकता!
जिन
पर्वतों पर
कुछ वर्षों
पहले तक बसें
नहीं जाती थीं, तब तक उन तक
पहुंचने का
मजा और था।
क्योंकि चलने
में एक साधना
होती थी।
कैलाश की लोग
यात्रा करते
या बद्री—केदार
की, तब
चलना एक साधना
थी। जीवन को
दाव पर लगाना
था। पुराने
दिनों में तो
तीर्थयात्री
का मतलब होता
था कि अब
लौटेगा कि
नहीं लौटेगा?
तो घर के
लोग बिदा ही
दे देते थे—
आखिरी बिदा।
कि शायद लौटना
हो ही नहीं।
घर के लोग रो—
धो लेते थे।
तीर्थयात्रा
पर कोई जा रहा
है, मतलब
वह करीब— करीब
महायात्रा पर
जा रहा है। अब
क्या पता
लौटेगा कि
नहीं?—जंगल
थे, पहाड़
थे, जंगली
पशु थे; डाकू
थे, हत्यारे
थे; कहां गिर
जाएगा, कहां
खो जाएगा, इसकी
खबर भी फिर
मिलेगी या
नहीं मिलेगी,
यह भी पक्का
नहीं था, बिदा
दे देते थे, अंतिम बिदा
दे देते थे।
लौटना करीब—करीब
असंभव होता था।
कोई लौट आता, तो वह संयोग
की बात थी। न
लौटता, स्वीकार
था। लेकिन तब
का आनंद और था।
उन सारे खतरों
और चुनौतियों
के बीच चलने
में बात और थी।
फिर पहुंचने
का मजा भी और
था। अब
तुम एक जगह से
हवाई जहाज पर
सवार हुए—हेलिकॉप्टर
पर— और जाकर
बद्री—केदार
में तुमको
उतार दिया।
तुमने कोई
मूल्य नहीं
चुकाया। तुम
बद्री—केदार
तो पहुंच गये,
लेकिन बिना
मूल्य चुकाए
पहुंच गये।
अगर तुम्हें
बद्री—केदार
में वैसी शांति
अनुभव न हो
जैसी हजारों—हजारों
साल में लोगों
को हुई है, तो
तुम कुछ चकित
होना तुमने उस
शांति के लिए
कुछ चुकाया
नहीं तुमने
मुफ्त पा ली
तुम्हें राह
में पड़ी हुई
मिल गयी मत।।।।
तुम्हारा
बद्री— केदार
बंबई और
कलकत्ते से
भिन्न नहीं
होगा। कितना
हम चुकाते हैं,
इस पर सब
निर्भर करता
है। साधन बहुत
हैं। कोई न
गौण हैं और न
कोई प्रधान
हैं। शांडिल्य
ठीक सूत्र
कहते हैं।
वे
कहते हैं—
ईश्वर तुष्टे:
एक : अपि बली।।
'ईश्वर
के
प्रीत्यर्थ
एकमात्र साधन
भी बलवान है '। बस उसके
प्रेम में
किया जाए इतनी
शर्त है।
प्रेम में
किया जाए तो
कोई भी साधन
पर्याप्त बलवान
है। नाम स्मरण
हो, प्रेम
से हों—बस
काफी है।
लेकिन तुमने
नाम—स्मरण तो
किया होगा, लेकिन प्रेम
से शायद ही
किया हो।
इसलिए काम
नहीं आया। लोग
नाम— स्मरण
करते हैं भय
से। भय से
किया नाम—स्मरण
खो जाएगा। वह
नाम— स्मरण
नहीं है। लोग
मरते हैं तब
नाम—स्मरण
करते हैं।
जबान लड़खड़ाने
लगती है, श्वास
खोने लगती है,
तब नाम—स्मरण
करते हैं। वह
मौत के भय में
कर रहे हैं, जीवन के
आनंद में नहीं।
लोग हारते हैं
तब नाम— स्मरण
करते हैं। जब
जीतते हैं तब
तो भूल जाते
हैं। सुख में
कौन याद करता
है प्रभु को? दुख में लोग
याद करते हैं।
दुख में याद
करते हैं, इसीलिए
याद प्रभु तक
नहीं पहुंचती।
तुम्हारी याद
ही झूठी है।
सुख में जो
याद करे, उसकी
याद पहुंच
जाती है।
सूत्र है—'परमात्मा
के
प्रीत्यर्थ' प्रभु के
प्रेम में। शांडिल्य
की दृष्टि बडी
साफ है।
विवादी नहीं
है, विचारक
की सूत्र—, नहीं
है, चिंतक
की नहीं है, अनुभोक्ता
की है। अनुभव
से उन्होंने
जाना है कि जो
भी साधन प्रेम
से पकड़ लिया
जाए, वही
पहुंचा देता
है। प्रेम
पहुंचाता है,
साधन तो
केवल सहारा है।
और जिसके साथ
प्रेम जुड़
जाए, वही
साधन अति
बलवान हो जाता
है।
अब
समझो!
तुम यहां
मुझे सुनने
बैठे हो। यह
सुनना भी हो
सकता है, यह
श्रवण भी हो
सकता है।
सुनने का मतलब
इतना ही हुआ
कि तुम्हारे
पास कान है और
कान खराब नहीं
है। तो जो मैं
कह रहा हूं वह
तुम्हें
सुनायी पड़
रहा है। श्रवण
बडी और बात है!
श्रवण का अर्थ
है, कान से
ही नहीं सुनी
जा रही है बात,
हृदय से
सुनी जा रही
है। हृदय में
भी कान ऊग आएं
हों। तुम कान
ही कान हो गये
हो। तुम्हारा
रोआं—रोआं सुन
रहा है।
तुम्हारा कण—कण
तरंगित हो रहा
है। तुम्हारे
भीतर रोमांच
हो रहा है।
तुम सुन ही
नहीं रहे, पी
रहे हो। सुन
ही नहीं रहे, जी रहे हो।
एक—एक शब्द जो
कहा जा रहा है,
वह
तुम्हारे
भीतर तृप्ति
बन रहा है, तुम्हारे
भीतर प्रसाद
की तरह उतर
रहा है। शब्द
ही नहीं सुन
रहे हो तुम
मेरी
उपस्थिति को
भी पी रहे हो।
तो यह श्रवण
होगा। अगर
मुझसे प्रेम
है, तो यह
संभव हो पाएगा।
अब यहां
तुम देखते हो, बहुत—से
विदेशी
संन्यासी
बैठे हैं, जो
मेरी भाषा का
एक शब्द नहीं
समझ रहे हैं।
मगर तुम यह मत
सोचना कि वे
श्रवण नहीं कर
रहे हैं।
श्रवण का भाषा
से कोई संबंध
नहीं है। यह
भी हो सकता है
कि तुम जो
मेरी भाषा समझ
रहे हो, श्रवण
न कर रहे हो।
और यह भी हो
सकता है कि
कोई जो मेरी
भाषा नहीं सुन
रहा है, श्रवण
कर रहा हो।
श्रवण
बडी और बात है, गहरी बात है।
अगर मेरे
प्रति प्रेम
है, अगर
तुम्हारी आंखें
प्रेम से भरी
मुझ पर टिकी
हैं, तो
घटना घट रही
है, तो
तुम्हारा
हृदय मेरे हाथ
डोल रहा है; तो तुम्हारी
श्वास धीरे—धीरे
मेरी श्वास की
गति में बंध
जाएगी। तो तुम
धीरे—धीरे भूल
जाओगे कि तुम
पृथक हो। इधर
बोलनेवाला
अलग और
सुननेवाला
अलग, तो
सुनना हो रहा
है। जहा
बोलनेवाला और
सुननेवाला एक
हो जाते हैं, जहा उनका
तादात्म्य हो
जाता है, जहा
दोनों की
भावदशा एक हो
जाती है, उस
घडी श्रवण
शुरू होता है।
जब कोई प्रेम
से सुनता है
तो श्रवण शुरू
होता है। बस
श्रवण हो जाए,
प्रेम से
भरा हो, पर्याप्त
है। भजन हो
जाए, प्रेम
से भरा हो, पर्याप्त
है।
याद
तुम्हारी
लेकर सोया,
याद
तुम्हारी
लेकर जागा।
सच है, दिन की रंग—रंगीली
दुनिया
ने मुझको
बहकाया
सच, मैंने हर
फूल—कली के
ऊपर
अपने को ड़हकाया,
किंतु
अंधेरा छा
जाने पर
अपनी
कथा से तन—मन
ढक
याद
तुम्हारी
लेकर सोया,
याद
तुम्हारी
लेकर जागा
सत्य—कल्पना
में बसुधा पर
बहुत, युगों से
बहस हुई है
मगर
तुम्हारी अधर—सुधा
से
मेरी
भीगी पलक हुई
है,
कंड़
लगाया तुमने
तब तो,
कंठस्थल
से राग उमड़ता
इतने
कुछ को सपना
समझूं
तो है
मुझसा कौन
अभागा।
याद
तुम्हारी
लेकर सोया,
याद
तुम्हारी
लेकर जागा।
सत्संग
का अर्थ है, एक याद
तुम्हारा
पीछा करने लगे।
गुरु पा लेने
का अर्थ है, गुरु की
सुगंध
तुम्हें घेरे रहे,
घेरे रहे।
जागो तो घेरे
रहे, सोओ
तो घेरे रहे।
दुनिया के
हजार काम में
उलझे रहो, तो
भी तुम जानते
हो कि भीतर
किसी की याद
तुम्हारे
हृदय में बनी
है। ऐसी याद
हो, ऐसा
प्रेम से भरा
हुआ हृदय हो, तो फिर कोई
भी साधन बलवान
हो जाता है।
साधन बलवान
नहीं होते और
साधन बलहीन
नहीं होते।
प्रेम जिस
साधन में पड़
जाए, उसी
में जीवन पड़
जाता है। और
जिस साधन में
प्रेम न हो, वही जीवन रहित
हो जाता है।
इसलिए
अक्सर ऐसा हो
जाता है, कोई
तुमसे कहता है
कि कृष्ण को
पूजो, मुझे
देखते नहीं
मैं कितना
आल्हादित हो
रहा हूं कृष्ण
को पूज कर।
तुम भी लोभ
में पड़ते हो, सोचते हो
शायद कृष्ण की
पूजा से कुछ
होता होगा।
ध्यान रखना, कृष्ण का
इसमें कुछ हाथ
नहीं है, यह
कृष्ण की पूजा
करनेवाले में
ही सब कुछ
छिपा है—उसके
प्रेम में
छिपा है। उसने
कृष्ण की
मूर्ति पर
अपने प्रेम को
उंडेल दिया, अब वह
मूर्ति जीवंत
हो गयी। उसने
इतना प्रेम
उंडेल दिया है
कि अब वह मूर्ति
पत्थर नहीं
रही, पाषाण
नहीं रही, उसमें
प्राण आ गये।
उसने अपने
हृदय की धड़कन
मूर्ति में रख
दी है। इसका
नाम भाव—प्रतिष्ठा
है। अब मूर्ति
की तरफ से वह
स्वयं श्वास
लेता है। यह
मूर्ति उसके
लिए मूर्ति
नहीं है, तुम्हारे
लिए मूर्ति है,
उसके लिए
मूर्ति नहीं
है, उसके
लिए इतनी
जीवंत है
जितना वह
स्वयं भी जीवंत
नहीं है। उसने
अपना सब
निछावर कर
दिया है।
और तब
उसके सामने
मूर्ति का एक
अप्रतिम रूप
प्रकट होता है।
उसकी आंख के
सामने मूर्ति
साकार हो उठती
है। वह कृष्ण
से बोलता है, बतियाता है।
प्रश्न करता,
उत्तर भी
लेता— और
ध्यान रखना, सब उसके
भीतर हो रहा
है। प्रश्न भी
उसका है, उत्तर
भी उसका है।
लेकिन फिर भी
एक क्रांति घट
रही है।
प्रश्न उसके
मन का है, उत्तर
उसकी आत्मा से
आ रहा है। और
वही आत्मा
कृष्ण है।
लेकिन उसने
अपनी आत्मा को
एक सहारा दे
दिया कृष्ण का।
अब कृष्ण के
बहाने उसकी
आत्मा बोल
सकती है।
कृष्ण का आधार
दे दिया। उसका
केंद्र उसकी
ही परिधि से
बोल रहा है।
परिधि का
प्रश्न है, केंद्र का
उत्तर है।
लेकिन अब
उत्तर पकड़ने
की उसे सुविधा
हो गयी है, क्योंकि
वहा कृष्ण
सामने हैं।
कृष्ण के
दर्पण से
उत्तर झलककर
लौटता है, तो
उसे यह भय
नहीं होता कि
मेरा उत्तर है।
उत्तर उसका ही
है। लेकिन
इतना
आत्मविश्वास
नहीं है कि
अपने उत्तर को
स्वयं खोज ले।
एक बहाने की, एक निमित्त
की जरूरत है।
जो
सीधा उत्तर
सकता है अपने
भीतर, उसे
भी उतर मिल
जाएगा। लेकिन
उसे सदा एक
संदेह रहेगा
कि पता नहीं
मेरा उत्तर है,
कहां तक ठीक
हो? हो
सकता है मेरे
मन ने धोखा
दिया हो। हो
सकता है मैंने
गढ़ लिया हो।
हो सकता है जो
मैं चाहता था
वैसा मैंने
सोच लिया हो; मेरी वासना
इसके भीतर
छिपी हो। ये
सारी शंकाएं
उठेगी। तुम
जानकर चकित
होओगे, सदगुरु
तुमसे वही
कहता है, केवल
वही कहता है, जो अगर तुम
गौर से खोजते
तो अपने भीतर
ही पा लेते।
सदगुरु दर्पण
है। वह
तुम्हारे
अंतस्तम को
झलका देता है।
लेकिन उसमें
जब झलक मिलती
है, तुम्हें
भरोसा आता है।
तुम
निश्चितता से
चल सकते हो
तुम्हें एक
सुरक्षा
मालूम होती है
कि कोई मजबूत
हाथ मुझे पकड़े
हुए हैं, मैं
अकेला नहीं
हूं। यह
निश्चितता
यात्रा को गति
दे देती है, प्राण दे
देती है।
जहां
भी तुम प्रीति
को उंडेल दोगे, वहीं क्रांति
घट जाती है।
प्रेम क्रांति
है। प्रेम
पत्थर को
रूपांतरित कर
देता है। और
जहा प्रेम
नहीं है, वहा
जीवंत
व्यक्ति भी
पत्थर होकर रह
जाता है।
तुमने देखा? जिस व्यक्ति
से तुम्हारा
प्रेम नहीं है,
वह व्यक्ति
है या नहीं है,
तुम्हें
कोई अंतर नहीं
पड़ता। पड़ोस
में कोई मर
गया, तुम
सुन भी लेते
हो, कहते
हो बुरा हुआ, मगर वह भी सब
औपचारिक है।
तुम्हारे
भीतर कोई रेखा
नहीं खिंचती।
लेकिन तुमने
अगर किसी
पत्थर की
मूर्ति को भी प्रेम
किया और वह
टूट गयी, तो
तुम रोओगे।
तुम्हारा
हृदय टुकड़े—टुकड़े
हो जाएगा।
जीवन वहीं
होता है जहा
तुम्हारा
प्रेम होता है।
जीवन वहीं
दिखायी पड़ता
है जहा तुम
प्रेम की आंख
से देखते हो।
नहीं तो कहीं
जीवन दिखायी
नहीं पड़ता।
शांडिल्य
कहते हैं, प्रेम को
जिस साधन में
डाल दतौ—उन्होंने
बड़ा रूपांतर
कर दिया, साधनों
के बीच विवाद
नहीं रखा कि
कौन साधन ठीक
है। क्योंकि
कोई कहता है
कीर्तन ठीक है,
कीर्तन से
पहुंचना होगा।
कोई कहता है, कीर्तन से
क्या होगा? तुम्हारी ही
आवाज, तुम्हीं
गुनगुनाते
रहोगे। नाचने
से क्या होगा?
तुम्हारे
ही पैर, तुम्हीं
नाचते रहोगे।
अज्ञानी
नाचेगा, नाचने
से ज्ञानी
कैसे हो जाएगा?
अज्ञानी
गीत गाएगा, गीत गाने से
तानी कैसे हो जाएगा?
अज्ञान से
गीत जन्म रहा
है, अज्ञान
से नृत्य पैदा
हो रहा है, वह
अज्ञान को
मिटाएगा कैसे?
जो अज्ञान
से पैदा होता
है, वह
अज्ञान को
कैसे मिटाएगा?
तो वह कहेगा,
नहीं, कीर्तन
से कुछ भी
नहीं होगा, सत्संग करो।
सदगुरु के पास
बैठो। सत्संग
प्रमुख है।
लेकिन
तुम सदगुरु के
पास बैठ सकते
हो और फिर भी
दूर रह सकते
हो। सदगुरु को
देखना कहां
आसान है? आमने—सामने
खड़े होकर भी
तो चूकना हो
जाता है। आंख
में आंख डाल
कर बुद्ध
तुम्हें
देखते हैं और
चूकना हो जाता
है। तुम नहीं
देख पाते।
तुम्हें
भरोसा ही नहीं
आता।
तुम्हारी
जिंदगी
संदेहों से, शंकाओं से
भरी है।
तुम्हें हजार
शंकाएं उठती
हैं।
तुम्हारी
हजार धारणाएं
बीच में बाधा
बनती हैं।
बुद्ध
तुम्हारे पास
से गुजर जाते
हैं, तुम
वैसे के वैसे
रह जाते हो, तुम्हारे
भीतर कुछ भी
डोलता नहीं, तुम्हारे
भीतर कोई रोमांच
नहीं होता।
तुम्हारे
भीतर कोई खबर
ही नहीं पड़ती।
बुद्ध अदृश्य
ही रहे आते
हैं।
तुम्हारे लिए
दृश्य नहीं हो
पाते। सत्संग
से भी क्या होगा? सुनते रहो
बैठे हुए! बार—बार
सुनते—सुनते—सुनते—सुनते
धीरे— धीरे
सुनना भी भूल
जाएगा। वही—वही
सुनते—सुनते
तुम सोचोगे अब
सुनने में भी
क्या सार है?
इसीलिए
तो लोग
मंदिरों में
तुम्हें सोते
हुए मिलेंगे।
धर्मसभाओं
में सोते
मिलेंगे।
उन्हें पहले
ही से पता है
कि वही
रामकथा! उन्हें
सब पता है कि
आगे क्या होगा।
उसमें कुछ
फर्क भी नहीं
होता। तुम
थोड़ा सोचो, एक ही फिल्म
अगर तुम्हें
बार—बार देखनी
पड़े, तुम
कितने दिन तक
जागे हुए देख
सकोगे? एक
बार दो बार, तीन बार, फिर
तुम्हें सब
पता है कि आगे
क्या
होनेवाला है।
जिस उपन्यास
को तुमने एक
बार पढ़ लिया
उसे कितनी बार
पढ़ सकोगे? लोग
रामकथा को बार—बार
पढ़ रहे हैं।
क्या पढ़ रहे
होंगे? अब
पढ़ नहीं रहे
हैं, अब
सिर्फ अंधे की
तरह, बहरे
की तरह दोहराए
चले जा रहे
हैं। अब उनके
भीतर कोई अर्थ
पैदा नहीं
होता। अब उनके
भीतर कोई तरंग
पैदा नहीं
होती। एक जड़
स्थिति हो गयी
है। लोगों को
शास्त्र
कंठस्थ हो गये
हैं। ऐसे ही
सदगुरु के पास
बैठ—बैठ कर
उसकी बातें
कंठस्थ हो
जाएंगी। फिर
तुम सुनते भी रहोगे
और सुनोगे भी
नहीं और सोए
भी रहोगे।
सत्संग
से क्या होगा?
तो
दूसरी तरफ लोग
हैं जो कहते
हैं, सत्संग
से कुछ भी
नहीं होगा।
पूजा करो आरती
उतारो, अर्चना
के थाल सजाओ; कुछ करो, सुनने
से क्या होगा?
इनमें
विवाद चलता
रहा है।
लेकिन शांडिल्य
ने ठीक किया, उस विवाद को
एक झटके में
तोड़ दिया। यही
ज्ञानी की कला
है। एक झटके
में विवाद को
तोड़ दिया!
सारा रूप बदल
दिया। नया
अर्थ दे दिया।
अर्थ यह दिया— ईश्वर
तुष्टे: एक :
अपि बली।।
'ईश्वर
के
प्रीत्यर्थ
एकमात्र साधन
ही बलवान है '।
उसके
प्रेम की असली
बात है।
मेरी
कैदे—मुहब्बत
से निकल सकता
नहीं
तू
तेरी सूरत दिल
में है, तेरा
तसव्वुर दिल
में है।
मुझसे
तुम दामन
बचाकर जाओगे
आखिर कहां,
याद आ
सकता हूं मैं, दिल में समा
सकता हूं मैं।
और
ध्यान रखना, जितना तुम
परमात्मा को
अपने दिल में
समा लोगे, उतने
ही तुम
परमात्मा के
दिल में समा जाते
हो। एक अनुपात
है। इस अनुपात
में कभी भेद
नहीं पड़ता।
तुम जितनी
उसकी याद करते
हो उतनी ही
दूसरी तरफ से
भी याद शुरू
हो जाती है।
परमात्मा तो
तुम जो करते
हो उसी का
प्रतिफलन है।
तुम उसकी याद
करते हो, तो
उस तरफ से
ध्वनियां
उठने लगती हैं।
यह अस्तित्व
प्रतिपल तुम
जो उसके साथ
करते हो वही
दोहरा देता है।
अगर तुम
गालिया बकते
हो, तो
गालिया तुम पर
लौट कर गिर
जाती हैं। अगर
तुम प्रेम
फैलाते हो, तो प्रेम
तुम पर बरस
जाता है।
ध्यान रखना जो
तुम्हें
मिलता है, खोजबीन
करोगे तो तुम
पाओगे तुमने
इस जगत को वही
दिया था। वही
तुम्हें
मिलता है। इसे
सिद्धांत की भाषा
में कहो तो—कर्म
का सिद्धांत ।
ऐसा ही
नहीं है कि
परमात्मा वहा
बैठा है, जो
हिसाब लगा रहा
है कि तुमने
कितनी चोरी की
और कितना 'ब्लैक
मार्केट' किया
कितनी रिश्वत
खायी, कितनी
बेईमानी की? इस सब का
हिसाब कौन
रखेगा? नहीं,
इस हिसाब की
जरूरत भी नहीं
है। तुम जो
करते हो, जगत
अनिवार्यरूपेण
उसे तुम्हें
पर लौटा देता
है। तुम्हारा
कृत्य
तुम्हारा
भविष्य हो
जाता है।
जिसने आनंद के
भाव से भरकर
परमात्मा को
स्मरण किया है,
उसके ऊपर
परमात्मा सब
तरफ से बरसने
लगेगा।
तुम
बुझाओ प्यास
मेरी या जलाए
फिर तुम्हारी
याद।
स्वर्ण—चांदी
के कटोरों में
भरा था
झलमलाता नीर
मैं
झुका सहसा
पिपासाकुल
मगर फिर हो
गया गंभीर—
भेद
पानी और पानी
प्यास में औ' प्यास में
भी भेद,
तुम
बुझाओ प्यास
मेरी या जलाए
फिर तुम्हारी
याद।
पंखुरी
पर ओस की दो बूंद
में भी डूबता
है कौन,
उस घडी
की ही
प्रतीक्षा मैं
कभी गाता, कभी हूं मौन,
जब
अमृत सागर
सुनेगा, सिर
धुनेगा फेन बन
साकार
औ' करेंगे
सिंधु हाला औ'
हलाहल के
प्रणय—संवाद।
तुम
बुझाओ प्यास
मेरी या जलाए
फिर तुम्हारी
याद।
भक्त
कहता है, दो
ही उपाय हैं
अब— तुम बुझाओ
प्यास मेरी या
जलाए फिर
तुम्हारी याद।
या तो
बुझा दो मेरी
प्यास को या
ऐसा जला दो
मेरी प्यास को
कि मैं उसी
में राख हो
जाऊं। मगर ये
दो बातें दो
नहीं हैं। जब
तुम अपनी
प्यास को इतना
जगा लोगे कि
उसी में राख
हो जाओ, तभी
प्यास बुझती
है। प्यास का
पूरा हो जाना
प्यास का बुझ
जाना है। दर्द
का पूरा हो
जाना दर्द का
दवा हो जाना
है। जब तक
प्यास अधूरी
है तभी तक
भटकाव है।
ईश्वर के
प्रति प्रेम
ऐसा हो कि तुम
मिटने को तैयार
हो, तो इसी
घडी मिलन हो
सकता है। कीमत
तो चुकानी ही
पडेगी।
लोग
सस्ते में
चाहते हैं—लोग
पूछते हैं—ईश्वर
कहा है, हम
ईश्वर को
देखना चाहते
हैं। मैं उनसे
पूछता हूं तुम
ईश्वर को पाने
के लिए चुकाना
क्या चाहते हो?
जब भी मुझसे
कोई आकर पूछता
है, ईश्वर
को दिखा दें, तो मैं कहता
हूं ईश्वर तो
दिख जाएगा, कोई बडी बात
नहीं है, वह
तो सरल बात है,
असली सवाल
यह है—तुम चुकाने
को क्या तैयार
हो? कहते
हैं चुकाना, चुकाना क्या
है, ईश्वर
को देखना भर
है। चुकाने की
जरा तैयारी
नहीं है। अगर
उनसे कहो कि
एक घड़ी बैठ कर
गीत गुनगुना
लिया करें रोज
उसकी याद में,
वह कहते हैं
यह न हो सकेगा,
समय कहां है?
उनसे कहो कि
नाच लिया करो
कभी, वह
कहेंगे—लोग
हंसेंगे।
पत्नी—बाल—बच्चे
हैं, प्रतिष्ठा
का सवाल है।
उनसे कहो कुछ
भी न किया करो,
एक घंटा बैठ
जाया करो आंख
बंद करके, भूल
जाया करो बाहर
के जगत को
थोड़ी देर के
लिए, वे
कहते हैं—यह
कैसे हो सकता
है। विचार
कहीं बंद हुए
हैं? विचार
बंद हो ही
नहीं सकते
हैं! वे मानकर
ही बैठे हैं।
कचरा
विचारों को भी
छोड़ने की
तैयारी नहीं
है जिनमें
तुम्हारा कुछ
जाएगा नहीं।
जिनके होने से
तुम्हें कुछ
मिला भी नहीं
है। सिनेमा
जाने को उसके
पास समय है, होटल में
बैठने को उनके
पास समय है, ताश खेलने
को उनके पास
समय हैं, व्यर्थ
की बकवास करने
को उनके पास
समय है, अखबार
पढ़ने को उनके
पास समय है, लेकिन अगर
ध्यान की बात
करो तत्क्षण
उनका उत्तर
आता है—समय
कहां है? रोटी—रोजी
कमाएं कि
ध्यान करें? यह बात वे
नहीं पूछते कि
सिनेमा जाते
समय समय कहां
है। तुम देखते
हो, सिनेमा
के सामने कतार
लगी रहती है—उन्हें
लोगों की
जिनसे ध्यान
का कहो तो वे
कहते हैं समय
नहीं है।
ठीक
बात खयाल में
ले लेना, परमात्मा
को पाने के
लिए हम कुछ
चुकाने को राजी
नहीं हैं। एक
भी घड़ी शांत
बैठने के लिए
राजी हैं। हम
चाहते हैं
मुक्त मिलना
चाहिए। इसलिए
इस सदी में
परमात्मा खो
गया है।
परमात्मा तो
उतना ही है
जितना पहले था,
लेकिन दाम
चुकानेवाले
लोग खो गये
हैं, खरीददार
नहीं रहे।
मुफ्त चाहते
हैं।
परमात्मा खुद
उनके द्वार पर
आए, उनके
चरण दबाए और
कहे कि मुझे
देख लो। तो भी
शायद वे
कहेंगे कि समय
कहां है, फिर
आना, अभी
और हजार काम
पड़े हैं। मेरे
देखे
परमात्मा को
केवल वे ही
लोग देख पाते
हैं जो चुकाने
की हिम्मत
रखते हैं।
' अबैध:
अर्पणस्य
मुखम्।।
अर्पण
से बंधन मुक्त
हो जाता हैं।
' बड़े
बहुमूल्य
सूत्र हैं। शांडिल्य
कह रहे हैं कि
अगर तुम प्रेम
में अर्पित हो
जाओ, फिर
सारे कर्मों
के बंधन
समाप्त हो
जाते हैं। तुम
एक बार भी
अपने को
समर्पित कर दो,
कह दो कि
मैं तेरा हूं;
अब तू जो
करवाएगा, करूंगा,
तू जो नहीं
करवाएगा, नहीं
करूंगा; बूरा
तेरा, भला
तेरा; साधुता
तेरी, असाधुता
तेरी; अब
मैं तेरा हूं;
अब मैं 'नहीं'
कहना छोड़ता
हूं; अब
मैं सिर्फ 'हां' ही
कहूंगा; तू
आज्ञा देना और
मैं 'हां' कहूंगा; तू
पूरब ले जाए
तो पूरब, तू
पश्चिम ले जाए
तो पश्चिम; तू जहा ले
जाए, जाऊंगा;
तू नर्क भेज
दे तो नर्क
जाऊंगा, शिकायत
नहीं होगी; अब मैं तेरे
हाथों में
अपने को
सौंपता हूं; ऐसा जिसने
कहा, ऐसा
जिसने भीतर से
किया, उसके
जीवन में रूपांतरण
हो जाता है।
क्या
रूपांतरण हो
जाता है?
कर्ताभाव
समाप्त हो
जाता है तुम
कर्ता नहीं रहे, परमात्मा
कर्ता हो गया।
तुम कौन रहे
अब? तुम एक
कठपुतली हो
गये।
भक्ति
का सारा सार
कठपुतली के
नाच में है।
देखी, कठपुतली
का नाच देखा? भीतर छिपा
रहता है उनको
नचानेवाला।
उसके हाथ में
कठपूतलियों
के धागे रहते
हैं।
कठपुतलिया
रोती हैं, गाती
हैं, नाचती
हैं, लड़ती—झगड़ती,
प्रेम भी
करतीं, सब
चलता है, लेकिन
कठपुतली का
अपना कुछ भी
नहीं।
कठपुतली किसी
के इशारे पर
नाच रही है।
भक्ति का सार—सूत्र
इतना है कि
कठपुतली हो
जाओ। यह कहना
छोड़ दो कि मैं
करूंगा, कि
मेरे किये कुछ
हो सकता है।
जहा मैं गया, कर्ताभाव
गया, वहीं
कर्म भी गया।
फिर परमात्मा
सम्हाल लेता
है। उस क्षण
से ही जीवन
में प्रसाद की
वर्षा शुरू हो
जाती है।
दुनिया ऐसी ही
चलती है, तुम
जो करते हो
वही काम जारी
रहता है, मगर
फिर भी सब बदल
जाता है। अब
तुम कर्ता
नहीं रह जाते।
सफलता मिलती
है तो तुम यह
नहीं कहते कि
मैं सफल हुआ; देखो, मैं
कुछ खास।
असफलता मिलती
है तो तुम
रोते नहीं, तुम यह नहीं
कहते कि मैं
असफल हो गया, आत्महत्या
कर लूंगा। अब
सुख और दुख
में भेद नहीं
रह जाता।
सुख—दुख
में भेद क्या
है?
जब तक
तुम कर्ता हो
तब तक भेद है।
सफलता— असफलता
में भेद क्या
है? जब तक मैं
करनेवाला हूं
तब तक भेद है।
जब मैं
करनेवाला
नहीं, तो
सफलता हो तो
उसकी, असफलता
हो तो उसकी।
कठपुतली को
जिता दे कि
हरा दे, कठपुतली
को क्या देना—देना
है? गिरा
दे कि उठा दे, राजसिंहासन
पर बैठा दे कि
सूली पर लटका
दे, कठपुतली
को क्या लेना—देना
है?
' अबंध
अर्पणस्य
मुखम्।।
अर्पण
से बंधन—मुक्ति
हो जाती हैं।
' अर्पित
तुमको मेरी
आशा,
और
निराशा, और
पिपासा।
पंख
उगे थे मेरे
जिस दिन
तुमने
कंधे सहलाए थे,
जिस—जिस
दिशि—पथ पर
मैं विहरा
एक
तुम्हारे
बतलाए थे,
विचरण
को सौ ठौर,
बसेरे
को केवल गलबाह
तुम्हारी
अर्पित तुमको
मेरी
आशा, और निराशा, और पिपासा।
नाम
तुम्हारा ले
लूं मेरे
स्वप्नों
की नामावलि
पूरी,
तुम
जिससे संबद्ध
नहीं वह
काम
अधूरा, बात
अधूरी
तुम
जिसमें डोले
वह जीवन,
तुम
जिसमें बोले
वह वाणी,
मुर्दा—मूक
नहीं तो मेरे
सब
अरमान, सभी
अभिलाषा।
अर्पित
तुमको मेरी
आशा,
और
निराशा, और
पिपासा।
तुमसे
क्या पाने को
तरसा
करता
हूं कैसे
बतलाऊं,
तुमको
क्या देने को
आकुल
रहता
हूं कैसे
जतलाऊं,
यह चमड़े
की जीभ पकड़
कब
पाती है
मेरे भावों को,
इन
गीतों में
पंगु स्वर्ग
में
नर्तन
करनेवाली
भाषा।
अर्पित
तुमको मेरी
आशा,
और
निराशा और
पिपासा।
सब
अर्पित— आशा, निराशा, पिपासा।
अब अर्पित—
अंधेरा, प्रकाश,
सुख—दुख आकांक्षा
ए, विषाद, सब अर्पित।
अर्पित तुमको
मेरी आशा, और
निराशा, और
पिपासा। कुछ
बचाना मत। यह
मत सोचना कि
अच्छा— अच्छा
अर्पित करें।
वह भी अहंकार
है। साधुता
अर्पित करें।
वह भी अहंकार
है। फूल ही
फूल मत ले
जाना प्रभु के
चरणों में अन्यथा
चुक हो जाएगी।
तुम्हारे
काटो का क्या
होगा? लोग
फूल ही फूल
चढाते हैं।
मैं एक
गांव में बहुत
दिन तक रहा।
मैंने एक बड़ा
बगीचा लगा रखा
था। मेरे पड़ोस
के एक वृद्ध
सज्जन रोज
सुबह आ जाते थे—थोड़े
फूल चाहिए, मंदिर जा
रहा हूं। उनको
मैंने कई बार
फूल तोड़ते
देखा। एक दिन
मैंने उनसे
कहा, कभी
कांटे भी ले
जाओ।
उन्होंने कहा,
आप कहते
क्या है? कांटे!
किस शास्त्र
में लिखा है
कांटे चढ़ाने
की बात।
मैंने
उनसे कहा, ऐसा कोई
शास्त्र ही
नहीं है
जिसमें यह न
लिखा हो।
इशारे हैं
शास्त्रों
में, सीधा—
सीधा शायद न
भी लिखा हो, लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं—कांटे भी
ले जाओ।
क्योंकि फूल
तो तुम चढ़ा
दोगे, तुम्हारे
कांटो का क्या
होगा? स्वर्ग
तो तुम चढ़ा दोगे,
तुम्हारे
नर्क का क्या
होगा? अपने
देवता को तो
चढ़ा दोगे, अपने
दानव का क्या
होगा! वह
तुम्हारे पास
बचा रह जाएगा।
तुम उसी में
जकड़ जाओगे। सब
चढ़ा दो! अब यह
भी भेद क्या
करना जब चढ़ाने
ही गये हो! सब
उसका है। ऐसे
भी उसका है, तुम चढ़ाओ या
न चढ़ाओ, ऐसे
भी उसका है।
लेकिन चढ़ा दो
तो तुम्हारे
जीवन में बड़ा
फर्क पड़ जाएगा।
'त्वदीयं
वस्तु
तुध्यमेव
समर्पये'।
तेरी चीज तुझे
ही समर्पित।
ऐसे भी
तुम्हारी
नहीं है।
तुम्हारे पास
है क्या देने
को? तुम उसके
हो, तुम्हारे
पास देने को
हो भी क्या
सकता है? लेकिन
तुमने अकड़ बना
ली है। जो
तुम्हारा
नहीं है, उस
पर तुमने अपने
होने का कब्जा
कर रखा है।
तुमने जमीन पर
रेखाएं खींच
दीं कि यह
मेरी जमीन, यह मेरा देश,
यह मेरा घर,
यह मेरी
पत्नी, यह
मेरा बेटा—यें
तुम्हारी
खींची हुई
लकीरें हैं, सब गैर
कानूनी हैं।
क्योंकि सब
उसका है।
तुम्हारा यहां
कुछ भी नहीं
है। यहां मेरा—तेरा
ही संसार है।
अर्पित
तुमको मेरी
आशा,
और
निराशा, और
पिपासा।
पंख
उगे थे मेरे
जिस दिन
तुमने
कंधे सहलाए थे,
उसके
ही कंधे
सहलाने पर पंख
उगते हैं। वही
श्वास लेता है
तो तुम श्वास
लेते हो। वही
धड़कता है तो
तुम्हारा
हृदय धड़कता है।
वही तुम्हारा
जीवन है—जीवन
का जीवन।
जिस—जिस
दिशि—पथ पर
मैं विहरा
एक
तुम्हारे
बतलाए थे,
तुम
चाहे जानो और
चाहे न जानो, वही
तुम्हारे
धागों को खींच
रहा है। और
जहां—जहा तुम
विहरे हो, जिन—जिन
रास्तों पर
तुम चले हो, उसके ही
बतलाए चले हो।
लेकिन तुम
अपनी अकड़ बना सकते
हो।
मैंने
सुना है, एक
पत्थरों की
ढेरी लगी थी
एक राजमहल के
पास, एक
बच्चा खेलता
हुआ निकला, उसने एक
पत्थर उठाकर
राजमहल की
खिड़की की तरफ
फेंका। फेंका
तो बच्चे ने
था, लेकिन
पत्थर का भी
अहंकार होता
है। पत्थर जब
ढेरी से ऊपर
उठने लगा तो
उसने आसपास पड़े
हुए पत्थरों
से कहा—मित्रों,
मैं जरा
यात्रा को जा
रहा हूं। नीचे
पड़े पत्थर
ईर्ष्या से
दबे रह गये।
तड़पे, हिले—डुले,
मगर हिल—डुल
भी न सके।
सोचा, यह
विशिष्ट
पत्थर है—अवतारी,
असाधारण, हम तो उड़ ही
नहीं सकते।
उड़ने की आकांक्षा
किस
में नहीं होती?
पत्थर भी
आकाश में उड़ना
चाहते हैं। वे
भी चांद—तारों
से बात करना
चाहते हैं। वे
भी सूरज की
यात्रा पर
निकलना चाहते
हैं। पंख की आकांक्षा
किसको नहीं
होती? तुम
भी सपने देखते
हो रात तब पंख
उग आते हैं और आकाश
में उड़ते हो।
पत्थर भी सपने
देखते हैं।
उड़ने का मजा
ऐसा है! उड़ने
की मुक्ति ऐसी
है! खुले आकाश
का आनंद ऐसा
है! उड़ना यानी
स्वतंत्रता।
कोई बंधन नहीं,
सारा आकाश
तुम्हारा है।
कशमशाए, दुखी
हुए, ईर्ष्या
से जले, पड़े
रह गये। पत्थर
तो उठा, जाकर
महल की खिड़की
से टकराया, कांच
चकनाचूर हो
गया। अब जब
पत्थर कांच से
टकराता है तो
काच चकनाचूर
हो जाता है।
पत्थर
चकनाचूर करता
नहीं है, करना
नहीं पड़ता
पत्थर को कुछ।
यह दोनों का
स्वभाव ऐसा है
कि पत्थर के
टकराने से काच
चकनाचूर हो
जाता है इसमें
पत्थर का कोई
कृत्य नहीं है।
लेकिन
पत्थर हंसा और
उसने कहा—मैंने
लाख बार कहा
है, मेरे
रास्ते में
कोई भी न आए।
जो आएगा, चकनाचूर
हो जाएगा।
यही
तुमने किया है।
सोचना, यही
तुमने कहा है।
ऐसे ही तुम भी
जिए हो। यह
संयोग ही है, इसमें कुछ
गौरव नहीं है
पत्थर का—पत्थर
पत्थर है, कांच
कांच है, बस
इतनी बात है।
कांच कोमल है,
पत्थर कठोर
है, इतनी
बात है। न
पत्थर के किये
कुछ हो रहा है,
न कांच के
किये कुछ हो
रहा है, स्वभावगत
सब हो रहा है।
कांच
तो छितरकर टूट
गया, पत्थर
जाकर महल के
भीतर कालीन पर
गिरा।
बहुमूल्य
ईरानी कालीन!
मालूम पत्थर
ने कहा? पत्थर
ने कहा—यात्री
की, लंबी
यात्रा की, थक भी गया, थोड़ा
विश्राम करूं।
गिरा है, लेकिन
कहता है—विश्राम
करूं! नौकरी
से तुम निकाले
भी जाते हो तो
तुम कहते हों—इस्तीफा
दे दिया है।
चुनाव हार
जाते हो, तुम
कहते हों—राजनीति
का त्याग कर
दिया, संन्यास
ले लिया।
महल के
द्वार पर खड़े
नौकर ने आवाज
सुनी, कांच
के टूटने की, पत्थर के
गिरने की, वह
भागा, भीतर
आया। उसने
पत्थर को हाथ
में उठाया—फेंकने
के लिए—लेकिन
पत्थर ने कहा
कि बड़े भले
लोग हैं, मेरे
स्वागत में न
केवल कालीन
बिछा रखे थे, बल्कि सेवक
भी लगा रखे
हैं। नौकर ने
पत्थर को
उठाकर वापिस
खिड़की से नीचे
फेंक दिया।
मालूम है
पत्थर ने क्या
कहां? पत्थर
ने कहा—बहुत
दिन हो गये घर
छोड़े, मित्रों
की याद भी
बहुत आती है, अब वापिस
चलूं! और जब
पत्थर वापिस
गिर रहा था अपनी
ढेरी पर, तो
उसने कहा—मित्रो,
तुम्हारी
बड़ी याद आती
थी। ऐसे तो
महलों में
निवास किया, राजाओं के
हाथों में उठा,
सम्राटों
से मुलाकात
हुई, मगर
फिर भी अपना
घर, अपने
लोग, अपना
देश—मातृभूमि—बड़ी
याद आती थी, मैं वापिस आ
गया। उस सब को
छोड़—छाड़ दिया।
ऐसी
जिंदगी है
तुम्हारी।
कौन हाथ
तुम्हें
जिंदगी में
फेंक देता है, तुम्हें पता
नहीं। क्यों
तुम एक दिन
जन्म जाते हो,
तुम्हें
पता नहीं। कौन
तुम्हें
जन्मा देता है,
तुम्हें
पता नहीं।
क्यों कुछ पता
नहीं। मगर तुम
कहते हो—मेरा
जीवन, मेरा
जन्म! जैसे
तुम्हारा
इसमें कुछ हाथ
हो। जैसे
तुमने निर्णय
लिया हो! जैसे
तुमसे पूछ कर
किया गया हो।
जैसे तुम्हें
पता हो।
फिर
कौन तुम्हारे
भीतर आकांक्षाएं
जगाता है, कौन वासनाएं
जगाता है, तुम्हें
कुछ पता नहीं।
लेकिन तुम
कहते हों—मैं
यह करके
रहूंगा। मुझे
संगीतज्ञ
बनना है; मैं
दुनिया को
दिखाकर
रहूंगा कि
मुझे संगीतज्ञ
बनना है।
किसने
तुम्हारे
भीतर आकांक्षा
उठायी
है संगीतज्ञ
बनने की? तुमने?
तुम्हारे
बस के बाहर है।
उठी है, तुमने
उठते पाया है
इस वासना को।
कि तुमने पाया
कि बड़ा धन
कमाऊंगा, कि
एक सुंदर
स्त्री पानी
है, कि एक
सुंदर पुरुष
पाना है, मगर
ये सारी आकांक्षाएं
तुम्हारे
भीतर उठी हैं।
इन्हें तुमने
उठाया नहीं है,
तुम इनके
मालिक नहीं हो।
ये किस गहराई
से आती हैं, तुम्हें कुछ
पता नहीं। यह
कौन धागे खींच
रहा है, तुम्हें
कुछ पता नहीं;
कौन
तुम्हें लड़ा
रहा है जीवन
के संघर्ष में,
कौन
तुम्हें विजय
की आकांक्षा से भर
रहा है, कौन
तुम्हें
महत्वाकांक्षा
दे रहा है, तुम्हें
कुछ पता नहीं।
यह खेल जो तुम
खेल रहे हो, तुम्हारा
लिखा हुआ नहीं
है। यह पार्ट
जो तुम अदा कर
रहे हो, यह
तुम्हारा
लिखा हुआ नहीं
है। यह तुम जो
हो रहे हो, यह
तुम्हारी ही
बात नहीं है, कोई बड़ा राज
पीछे छुपा है,
जो बिलकुल अज्ञात
है, अंधेरे
में पड़ा है।
भक्त
इस बात को ठीक
से देखता है, समझता है।
इस समझ से ही
अर्पण पैदा
होता है। इस
समझ में ही
अर्पण घट जाता
है। उसे
दिखायी पड़
जाता है कि
मैं हूं ही
कहां! न— मालूम
कौन अज्ञात ले
आया है, न—मालूम
कौन अज्ञात
श्वास ले रहा
है, न—
मालूम कौन
अज्ञात एक दिन
उठा ले जाएगा—जैसा
आया था वैसे
चला जाऊंगा—न—मालूम
कौन अज्ञात न—मालूम
किन—किन
यात्राओं पर
भेज रहा है; जब तक भेज
रहा है, जा
रहा हूं। जिस
दिन रोक लगा, रुक जाऊंगा;
न संसार
मेरा है, न
संन्यास मेरा
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे पूछते
हैं कि
संन्यास लेने
की आकांक्षा हो रही
है, ले लें,
या न लें? मैं उनसे
कहता हूं—तुम्हारे
हाथ में है? तो तुम समझे
ही नहीं
संन्यास का
अर्थ। तुम
निर्णायक
बनोगे तो
संन्यास चूक
गया।
कौन
अज्ञात
तुम्हारे
भीतर यह आकांक्षा
उठा
रहा है कि अब
संन्यास ले? छोड़ दो उसके
हाथों में, लेने दो उसे
संन्यास
तुम्हारे
द्वारा—वही
संन्यास लेता
है तुम्हारे
द्वारा, वही
संन्यास छोड़
संसार में
जाता है
तुम्हारा
द्वारा। सब
खेल उसका, सब
द्वंद्व उसके,
सारी लीला
उसकी।
ऐसी
प्रतीति जब
होने लगती है।
और सत्संग में
यही हो जाए तो
बस सत्संग
पूरा हुआ।
किसी के पास
बैठकर यह बात
तुम्हारी समझ
में उतर जाए
कि तुम नहीं
हो, परमात्मा
है। फिर यह
कहना ही बात
फिजूल होगी कि
अर्पित करता
हूं। कौन है
अर्पित
करनेवाला? किसको
करेगा? अर्पण
हो जाते हो
तुम, करना
नहीं पड़ता। यह
कोई घोषणा
नहीं करनी कि
आज से मैं
अपने को परमात्मा
में अर्पित
करता हूं। एक
दिन तुम समझ—समझ
कर पाते हो—हो
गया अर्पण! आज
से तुम नहीं
हो, परमात्मा
है!
नाम
तुम्हारा ले
लूं मेरे
स्वप्नों
की नामावलि
पूरी
तुम
जिससे संबद्ध
नहीं वह
काम
अधूरा, बात
अधूरी
तुम
जिसमें बोले
वह वाणी
तुम
जिसमें डोले
वह जीवन
मुर्दा—मूक
नहीं तो मेरे
सब
अरमान, सभी
अभिलाषा।
अर्पित
तुमको मेरी
आशा,
और
निराशा और
पिपासा।
सब
अर्पित हैं।
सब काटे—फूल, स्वर्ग—नर्क,
अंधेरा—रोशनी,
अच्छा बुरा,
पाप—पुण्य,
सब अर्पित
है। अबंध
: अर्पणस्य
मुखम्।।
और ऐसा
जो अर्पित है, वह मुक्त हो
गया। वह
जीवनमुक्त है।
यह
सूत्र ख्याल
में लेना। यह
सूत्र सार—सूत्र
है। यह एक
सूत्र काफी है।
इस एक सूत्र
के सहारे
तुम्हारा
सारा जीवन नया
हो सकता है, तुम्हारा
नया जन्म हो
सकता है : तुम
द्विज हो सकते
हो। क्या
मेरा है जो आज
नहीं है तेरा।
मेरी
अंजलि के
कुसुमों में
प्रिय
तेरी गलमाला,
मेरे
हाथों के दीपक
से,
तेरा
घर उजियाला,
अगरु—गंध
तेरे आंगन में
दग्ध
हुआ उर मेरा,
क्या
मेरा है जो आज
नहीं है तेरा।
मैं
जागा या तूने
अपने
सरसिज—से
दृग खोले,
मेरा
स्वर फूटा या
तेरे
भाव—विहंगम
बोले मेरा
भाग्य—उदय
है तेरी
ऊषा का
वातायन,
अरुण
किरण के शर
हैं मेरे,
तेरा
सुभग सबेरा
क्या
मेरा है
जो आज
नहीं है तेरा।
अर्पित
होते ही तुम
पाओगे। जो
तुम्हारा है, सब उसका है।
और तब एक
दूसरी क्रांति
घटती है, कि
उसका जो है, वह सब
तुम्हारा है।
एक बार दो, तो
मिले। एक बार
लुटा दो तो पा
लो। मिटो, तो
हो जाओ।
क्या
मेरा है जो आज
नहीं है तेरा।
यह
तुम्हें एक
दिन अनुभव
करना पडे। तो
एक दिन वह
अपूर्व घटना
भी घटती है जब
तुम अनुभव
करोगे—
क्या
तेरा है जो आज
नहीं है मेरा।
तुम
अपनी
क्षुद्रता
उसमें
समर्पित कर दो, तो उसकी
विराटता
तुम्हारी हो
जाती है। तुम
खोओगे नहीं।
यह सौदा करने
जैसा है।
सिर्फ नासमझ ड़रे
रहते हैं। तुम
अपना छोटा—सा आंगन
छोडोगे, उसका
सारा आकाश
तुम्हारा हो
जाएगा। तुम
अपनी छोटी—सी
दुनिया
छोडेगे, उसका
सारा
ब्रह्मांड़
तुम्हारा हो
जाएगा। तुम
छोडोगे ना—कुछ
पा लोगे सब
कुछ।
रामकृष्ण
के पास एक
आदमी आया और
उसने रामकृष्ण
से कहा कि आप
का त्याग महान
है। रामकृष्ण
कहे—चुप!
दुबारा ऐसी
भूलकर बात मत
कहना। त्यागी
तू है, हम तो
भोगी हैं!
अपूर्व बात रामकृष्ण
ने कही। वह
आदमी थोड़ा चौंका,
रामकृष्ण
के शिष्य भी
थोडे चौंके कि
यह वह क्या कह
रहे हैं, होश
में हैं? उस
आदमी को जब कि
सभी जानते हैं,
वह नगर का
सबसे बड़ा
धनपति, सबसे
बड़ा कंजूस, उसको कह रहे
हैं। त्यागी
तुम हो, भोगी
मैं हूं। उस
आदमी ने भी
कहा कि आप भी
क्या मजाक कर
रहे हैं? मैं
और त्यागी? नहीं—नहीं, त्यागी आप
हैं, मैं
तो भोगी हूं।
रामकृष्ण ने
कहा इसमें मैं
राजी नहीं हो
सकता।
क्योंकि तूने
क्षुद्र को
पकडा है, विराट
को छोडा है, तो त्यागी
तू। हमने
विराट को पाया,
क्षुद्र का
छोडा, हम
त्यागी कैसे?
कोई कौडी छोड़
दे और कोहिनूर
पकड़ ले, उसको
त्यागी कहोगे?
कोई कौडी पकड़
ले और कोहिनूर
छोड़ दे, वह
है त्यागी। रामकृष्ण
ने ठीक कहा।
वह बात बिलकुल
सच है।
मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं—योग
तुम्हें परम
भोग पर ले
जाता है। जब
तक तुम भोगी
हो, तब
तुम्हें भोग
का पता ही कहा
है? भोगी
भोगी है ही
नहीं, जानता
ही नहीं, भोगी
बड़ा त्यागी
है। क्षुद्र
को पकडे है, विराट को
चूका है।
सीमित को पकडे
हैं, असीम
से वंचित है।
मृत को पकडे
हैं, अमृत
बरस रहा है, नहीं पीता।
मृत्यु की
अंधेरी गली
में सरक रहा
है, अमृत
की रोशनी
मौजूद है, अमृत
का आकाश खुला
है, वहा
पंख ही न
फैलाता। मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं कि
योगी परम भोगी
है। क्योंकि
परमात्मा को
भोगने से बड़ा
और क्या भोग
होगा?
क्या
मेरा है जो आज
नहीं है तेरा।
तुम
इतना कहो; तुम इतना
जीओ।
मेरी
अंजलि के
कुसुमों में
प्रिय
तेरी गलमाला,
तुम्हारे
हाथ में जो
फूल हैं, उन्हें
तुम अपने हाथ
के मत समझो, उसके गले की
माला समझो। मेरे
हाथों के दीपक
से
तेरा
घर उजियाला
तुम
अपने दीयों को
अपने लिए मत
जलाओ, उसके
घर को उजियाला
करो। सब उसका
है। तुम्हारा
घर भी उसका है।
अगरु—गंध
तेरे आंगन में
दग्ध
हुआ उर मेरा,
तुम
अपने को ऐसे
जला दो—अगरु
और गंध जलाने
से कुछ भी न
होगा, हृदय
को जला दो।
अगरु—गंध तेरे
आंगन में
दग्ध
हुआ उर मेरा,
क्या
मेरा है जो आज
नहीं है तेरा।
और तब
सब रूप बदल
जाएगा।
तुम्हारे
भीतर एक
अपूर्व भाव
उठेगा—क्या
तेरा है जो आज
नहीं है मेरा।
मैं को गवांओ
तो सब
तुम्हारा हो
जाता है। जीसस
ने कहा है :
धन्यभागी हैं
वे जो मिटने
को तैयार हैं, क्योंकि
केवल वे ही
हैं जो बचेंगे।
अभागे हैं वे
जो अपने को
बचाते हैं।
जिसने अपने को
बचाया, उसने
अपने को
गंवाया।
मैं
जागा या तूने
अपने
सरसिस—से
दृग खोले,
जरा
सोचना इस पर, इस पर ध्यान
करना—
मैं
जागा या तूने
अपने
सरसिस—से
दृग खोले,
तुम्हारे
भीतर कौन
जागता है? वही जागता
है। सब जागरण
उसका है, सब
चैतन्य उसका
है। जब सुबह
तुम आंख खोलते
हो तो तुम यह
सोचो ही मत कि
तुमने आंख
खोली, उसने
ही तुम्हारे
भीतर आंख खोली।
उसने ही श्वास
ली, उसने
ही जीवन लिया,
उसने ही आंख
खोली। रात आंख
बंद करके
विश्राम करता
है, सुबह आंख
खोलकर वही काम
पर निकल जाता
है। जिस दिन
तुम अपने को
ऐसा समझने
लगोगे, उस
दिन अर्पित
हुए।
मैं
जागा या तूने
अपने
सरसिस—से
दृग खोले,
मेरा
स्वर फूटा या
तेरे
भाग—विहंगम
बोले,
तुम
क्या गाओगे!
सब गीत उसके
हैं। और जहां
तुम आ जाते हो, वहीं
विसंगति है।
रवींद्रनाथ
से किसी ने
कहा— आपने
इतने प्यारे
गीत गाए।
रवींद्रनाथ
ने कहा कि
मैंने जो— जो
गाए, वे
प्यारे नहीं है।
जहां—जहां मैं
आया, वहीं—वहीं
गीत का छंद
टूटा गया। जहा
तुम छंद पाओ, वहां मैं
नहीं हूं। सब
छंद उसका है।
कूलरिज, एक महाकवि, मरा तो
हजारों
कविताएं
अधूरी घर में
मिली। उसके
मित्र तो सदा
से जानते थे
कि वह अधूरी
कविताएं लिख
कर रखता जाता
है, रखता
जाता है थोड़ी
बहुत नहीं, हजारों।
उसके मित्रों
ने उससे हमेशा
कहा था कि
पूरी क्यों
नहीं करते? कूलरिज कहता
कि मैं कैसे
पूरा करूं? जितनी उतरी
उतनी उतरी।
जितनी उसने
गायी उतनी
गायी। मैंने
पूरी करने की
कोशिश की है
कभी—कभी, लेकिन
तब मैंने पाया
कि जो मैं जोड़
देता हूं उससे
सब खराब हो
जाता है। एक
ही पंक्ति
अधूरी है किसी
कविता में, एक ही
पंक्ति रह गयी
है, एक
पंक्ति और जुड़
जाए तो पूरी
हो जाए कविता।
कूलरिज ने कहा
कि मैंने एक
पंक्ति जोड़कर
देखी, बहुत
तरह से कोशिश
की है, लेकिन
मेरी पंक्ति
अलग रह जाती
है। वे जो
पंक्तिया
उतरी हैं, जिनका
अवतरण हुआ है,
उनमें गंध
और है—उनमें
उस लोक की गंध
है। जो मैं
जोड़ देता हूं, वह थेगड़ा—सा
मालूम होता है।
ऐसा
हुआ।
रवींद्रनाथ
ने गीतांजलि
का अंग्रेजी
में अनुवाद
किया। तो थोड़ा
संकोच उनको था
कि अंग्रेजी
अपनी भाषा
नहीं है, अनुवाद
पता नहीं ठीक
हुआ है या
नहीं हुआ है।
तो उन्होंने
सी. एफ.
एंडूचूज को
अपना अनुवाद दिखलाया।
एंडूचज ने कहा—
अनुवाद तो सब
ठीक हुआ है, सिर्फ चार
जगह थोड़ी
व्याकरण की
दृष्टि से चूक
है। एंडूचजू
पंडित थे, विद्वान
थे; और
उन्होंने जो
शब्द सुझाए वे
रवींद्रनाथ
को भी जंच गये,
कि ठीक हैं।
उन्होंने
शब्द बदल लिये।
फिर लंदन में—रवींद्रनाथ
ने लंदन के
कवियों को
इकट्ठा किया
अपनी गीतांजलि
सुनाने के लिए;
ईट्स नाम के
एक कवि के घर
छोटी—सी बैठक
हुई कवियों की
और
रवींद्रनाथ
ने अपनी गीतांजलि
सुनायी, लोग
भावविभोर हो
गये। लेकिन
ईट्स बीच में
खड़ा हो गया और
उसने कहा कि और
सब तो ठीक है, लेकिन तीन—चार
जगह अड़चन है।
रवींद्रनाथ
ने कहा—कौन—सी
जगहें हैं जहा
अड़चन है? वे
वे ही जगहें
थीं जो सी. एफ.
एंडूचूज ने
सुझायी थीं।
रवींद्रनाथ
भरोसा ही नहीं
कर सके कि यह
संभव है।
रवींद्रनाथ
ने कहा—आपने
पहचाना कैसे? उन्होंने
कहा कि छंद
भंग हो गया है।
पत्थर की तरह
आ गयी हैं कुछ
बातें।
रवींद्रनाथ
ने अपने शब्द
जो उन्होंने
पहले रखे थे, दोहराए।
ईट्स ने कहा
कि ये ठीक हैं—
भाषा की
दृष्टि से गलत
होंगे, छंद
की दृष्टि से
ठीक हैं; इनको
ही रहने दो; इनमें
प्रवाह है, ये पत्थर की
तरह नहीं आए
हैं। इनमें एक
तरंगायित
सुसंबद्धता
है, एक
संगीत है, एक
संगति है। मेरा
स्वर फूटा या
तेरे
भाव—विहंगम
बोले,
अर्पित
व्यक्ति धीरे—धीरे
अनुभव करने
लगता है—बोलता
तो वही बोलता, मैं बांस की
पोगरी हूं।
कबीर ने वही
कहा है कि मैं
तो बांस की
पोगरी। तू गाए
तो गाए, तू
चुप रहे तो
चुप।
मेरा
स्वर फूटा या
तेरे
भाव—विहंगम
बोले
मेरा
भाग्य—उदय है
तेरी
ऊषा का
वातायन
अरुण
किरण के शर
हैं मेरे,
तेरा
सुभग सबेरा।
क्या
मेरा है जो आज
नहीं है तेरा।
' अबैध:
अर्पणस्य
मुखम्।।
अर्पण
से बंधन—मुक्ति
हो जाती है। '
खयाल
में आया सूत्र? कुछ अर्पण
करना नहीं है।
सब उसका ही है।
अभी भी उसका
है। जब तुम
सोच रहे हो
मेरा है, तब
भी उसका है।
तुम्हारा
दावा झूठा है।
झूठे दावे को
हटा लेना है।
बस इतना ही
फर्क पड़ने वाला
है। उस झूठे
दावे के हटते
ही जीवन में
एक नयी अवस्था,
एक प्रभात
होता है।
तुम्हारे
भीतर से
परमात्मा
जीता है। यही
मुक्त की दशा
है। तुम नहीं
जीते, फिर
तुम्हारा
बंधन क्या? फिर जो
करवाता है, तुम करते हो।
कुछ दिन भी
जरा इस पर
ध्यान करना—जों
करवाता है, वही करते हो!
और इससे फर्क
नहीं पड़ता कि
तुम जो कर रहे
हो उसमें कुछ
फर्क पड़ेगा; दुकान जाते
थे अब भी
जाओगे; कुछ
परमात्मा ऐसा
नहीं है कि वह
सभी हिमालय को
गुफा में ले
जानेवाला है—उसका
संसार कैसे
चलेगा? कुछ
ऐसा नहीं है
कि परमात्मा
पर तुम सब छोड़
दोगे तो
तुम्हारी
पत्नी और
बच्चों से
तुम्हें छुड़ा
देगा।
महात्माओं ने
छुड़ाया है।
परमात्मा ने
नहीं छुड़ाया
है।
महात्माओं से
बचना।
महात्माओं ने
बहुत हत्या की
है।
महात्माओं के
ऊपर भारी दोष
है। उन्होंने
परमात्मा के
संसार को
विकृत किया है।
उन्होंने
जिंदा पति के
रहते पत्निया
विधवा करवा दी
हैं, जिंदा
बाप के रहते
बच्चों को
अनाथ करवा
दिया है।
मुझसे
लोग आकर पूछते
हैं कि यह
कैसा संन्यास
है आपका, कि
आदमी घर में
रह रहा है? पत्नी
भी, बच्चे
भी, यह
कैसा संन्यास
है आपका?
कल्याण
के एक मित्र
ने संन्यास
लिया। वे बंबई
बिचारे काम
करने आते थे।
मेरे पास आए
एक दिन अपनी
पत्नी को लेकर, कहा अब इसको
भी संन्यास दे
दें। मैंने
पूछा मामला
क्या है? उन्होंने
कहा, मामला
यह है कि इसके
साथ मैं कहीं
जाता हूं तो लोग
बड़ी शक की नजर
से देखते हैं कि
संन्यासी
किसकी स्त्री
को भगा ले आया?
कई लोग
पूछते हैं कि
यह बाई कौन है?
और इस तरह
पूछते हैं
जैसे कि मैं
कोई अपराध कर रहा
हूं। और अगर
मैं कहता हूं
मेरी पत्नी है,
तो वे मुझे
इस तरह से
देखते हैं कि
तुम होश में हो,
पागल तो
नहीं हो? संन्यासी,
पत्नी कैसे?
मैंने कहा—ठीक,
इसका भी
संन्यास कर
देते हैं।
एक
सप्ताह बाद
अपने बेटे को
भी लेकर आए, छोटे बच्चे
को, कि अब
इसको भी
संन्यास दे
दें। कहा—इसका
क्या मामला है?
उन्होंने
कहा—अब हम
दोनों इसके
साथ कहीं जाते
हैं, तो
लोग सोचते हैं
कि किसी के
बच्चे को ले
भागे! खबरें
तो उड़ती रहती
हैं न कि साधु
किसी के बच्चे
को लेकर भाग
गये, बच्चों
को उड़ाया जा
रहा है। तो
उन्होंने कहा—कल
बड़ी झंझट हो
गयी, ट्रेन
में बैठे थे, एक
पुलिसवाला आ
गया, उसने
का कि नीचे
उतरो, थाने
चलो, यह
बच्चा किसका
है? कहां
ले जा रहे हो?
धारणा
बन गयी है कि
संन्यासी का
मतलब होता है—
भगोड़ा।
पलायनवादी सब
छोड़—छाड़ कर
चला जाए।
संन्यासी का
यह अर्थ नहीं
होता।
संन्यासी का
अर्थ होता है, सब उस पर छोड़
दे। छोड़—छाड़
कर न चला जाए!
छोड़—छाड़ कर
क्या जाना? वह तो फिर
नया अहंकार
हुआ कि मैं
छोड़ कर जा रहा हूं
र मैं
संन्यासी। वह
तो फिर नयी
बंधन की, व्यवस्था
हो गयी। नयी
जंजीरें ढाल
लीं तुमने। और
ध्यान रखना, पुरानी
जंजीरें
बेहतर थीं, नयी ज्यादा
खतरनाक हैं।
क्योंकि पहला
अहंकार स्थूल
था, अब बड़ा
सूक्ष्म
अहंकार हो गया।
कि मैं सब छोड़
दिया! लाखों
पर लात मार दी!
पत्नी—बच्चे
छोड़ दिये, संसार
छोड़ दिया, मैंने
बड़ा काम कर के
दिखाया है।
तुम भगवान के
सामने और भी
बड़े दावेदार
हो गये, तुम्हारा
दावा नहीं
मिटा। अब अगर
भगवान
तुम्हें मिल
जाए तो तुम
हजार शिकायतें
करोगे—कि
अन्याय हो रहा
है मेरे साथ, मैंने इतना
छोड़ दिया और
अभी तक मेरा
मोक्ष नहीं
हुआ है। अभी
तक स्वर्ग का
कुछ पता नहीं
है, अभी तक
अप्सराएं
नहीं मिलीं। कहां
है अप्सराएं?
कहां हैं
झरने शराब के?
बहिश्त कहां
है? और
क्या चाहिए अब,
सब तो छुड़वा
दिया! सब तो
दाव पर लगा
दिया, बचा
तो कुछ भी
नहीं है।
कुछ भी
दाव पर नहीं
लगा है। तुमने
कुछ छोड़ा भी
नहीं।
छोड़ने
का अर्थ होता
है—परमात्मा
पर सब छोड़ना।
परमात्मा फिर
जैसे जिआए! वह
अगर कहे कि घर
में रहो, पत्नी
के साथ रहो, बच्चे के
साथ रहो, तो
ठीक! और यही
मेरी दृष्टि
में क्रांति
है। तुम सब उस
पर छोड़ दो।
दुकान करवाए
तो दुकान ठीक।
कबीर
ज्ञान को
उपलब्ध हो गये, समाधि को
उपलब्ध हो गये,
लेकिन कपड़ा
बुनते रहे।
जुलाहे थे सो
जुलाहे रहे।
शिष्यों ने
बहुत बार कहा
कि हमें बड़ा
अशोभन लगता है,
हमें बड़ी
पीड़ा होती है,
कि हमारा
गुरु और दिनभर
कपड़ा बुनता
रहे। आप छोड़ते
क्यों नहीं? हम भोजन
देंगे, व्यवस्था
सब हम करेंगे,
हम हमेशा
तैयार हैं सेवा
के लिए, आप
छोड़ते क्यों
नहीं? कबीर
कहते हैं—लेकिन
वह छुड्वाए तो
छोडूं! वह तो
मेरे कपड़े बुनने
से बिलकुल
राजी है। उसकी
तरफ से तो
इशारा ही नहीं
आता। वह तो
मेरे कपड़ों से
बड़ा प्रसन्न
है। और जब मैं
बाजार ले जाता
हूं अपने कपड़े
बेचने तो वह
बड़े खुश होकर
खरीदता है।
राम खरीदने
आते हैं—कबीर
कहते थे। और
मैं न बनाऊंगा
तो उनके लिए
इतने सुंदर
कपड़े कौन
बनाएगा? 'झीनी
झीनी बीनी
चदरिया'।
वे चादर बुनते
हैं और गीत
गाते हैं। चादर
ही नहीं बुनते,
चादर में
गीत बुनते हैं।
चादर ही नहीं
बुनते, चादर
में समरस
बुनते हैं। यह
चादर और है।
अब यह चादर ही
नहीं है, यह
अर्पित
व्यक्ति के
हाथ से बुनी
गयी चादर है।
काम वही जारी
रहा। गोरा
कुम्हार
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया,
लेकिन
कुम्हार ही
रहा, घड़े
बनाता ही रहा।
तुलाधर वैश्य
की कथा आती है।
शान को उपलब्ध
हो गया है, ब्रह्मज्ञान
को, लेकिन
तौलता रहा; तराजू पर
बैठा रहा, जो
काम जारी था
जारी रहा।
जिसने
अपने को
अर्पित कर
दिया, अब
उसकी कोई मंशा
नहीं है। अब
जो परमात्मा
करवायेगा
करवायेगा।
नहीं
करवायेगा तो
नहीं
करवायेगा।
लेकिन अपनी
तरफ से अब हम
कुछ भी न
करेंगे। जो
उसकी तरफ से
आता रहेगा, उसे होने
देंगे, हम
उसके सहयोगी
रहेंगे, हम
उसके लिए
निमित्त
रहेंगे।
कृष्य की गीता
का कुल सार
इतना है—इस
सूत्र में आ
गया— अबैध:
अर्पणस्य
मुखम्। इतनी
ही बात कृष्य
ने उतनी लंबी
गीता में कही है,
जो शांडिल्य
ने एक सूत्र
में कह दिया।
अर्जुन को यही
समझाया है कि
तू अर्पित हो
जा, सब उस
पर छोड़ दे, तू
निमित्तमात्र
रह जा; वह
युद्ध करवाए
तो युद्ध कर, वह जो करवाए
सो कर, तू
अपने को बीच
में न ला। तू
निर्णायक मत
बन। तेरा
निर्णायक
बनना ही तेरा
संसारी होना
है। तू
अनिर्णायक हो
गया, सिर्फ
ग्राहक रह गया
है उसके
संदेशों का—वही
संन्यास है।
' ध्याव
नियम : तु
दृष्टिसौकर्यात्।।
जिस
भाव से ध्यान
करने से नेत्र
तृप्त होते हों, उसी भाव के
चिंतन करने का
नाम ध्यान है।
'महत्वपूर्ण
सूत्र है, खयाल
में लेना।
अधिकतर
लोग ध्यान, पूजापाठ, प्रार्थना
जबरदस्ती
आरोपित करते
हैं। वह उचित
नहीं है।
जबरदस्ती
आरोपण से कुछ
भी न होगा।
सहज स्वभाव का
प्रवाह होना
चाहिए। लेकिन
उपद्रव इसलिए
हो गया है कि
जन्म के साथ तुम्हें
धर्म भी पिला
दिया गया है।
मां ने दूध के
साथ तुम्हें
धर्म भी मिला
दिया है। कोई
आदमी जैन— घर
में पैदा हुआ
है, अब
इसके भीतर हो
सकता है भक्ति
की उमंग सहज
हो, मगर यह
महावीर के
सामने नाचे तो
कैसे नाचे? वह महावीर
नग्न खड़े हैं,
वहा नृत्य
का कोई अर्थ
नहीं है। यह
महावीर के
सामने गीत गाए
तो कैसे गाए? वह गीत
बिलकुल
बेमौजू मालूम
होता है। गीत
कृष्ण के
सामने गाया जा
सकता है, और
कृष्ण के
सामने नाचा जा
सकता है।
जरा
सोचो, अगर
मीरा महावीर
की भक्त हो, तो नाचे
कैसे? पैर
कट जाएंगे।
लेकिन कोई
कृष्ण के घर
में पैदा हुआ
है, कृष्ण
को माननेवाले
लोगों के घर
में पैदा हुआ है
और हो सकता है
उसको नाचने और
गीत और भजन और
कीर्तन में
कोई रस न हो; उसे रस हो कि
शात बैठ जाए
जैसे बुद्ध
बैठ गये। कि
शांत खड़ा हो
जाए जैसे
महावीर खड़े
हैं। मगर अड़चन
आ गयी है।
तुम्हारे सहज
स्वभाव को
देखकर
तुम्हारा धर्म
नहीं है।
तुम्हारा
धर्म तो
सायोगिक है।
किसी घर में
पैदा हो गये, धर्म
तुम्हारा
पकड़ा दिया गया।
जिस
व्यक्ति को सच
में ही
परमात्मा की
तलाश करनी हो, उसे अपने
स्वभाव की
पहले तलाश
करनी होती है,
कि मेरी
स्वाभाविक, सहज रस की
धारा किस तरफ
बहती है!
जिसने अपने स्वभाव
को ठीक से समझ
लिया, उसके
लिए कठिनाई न
रह जाएगी।
'जिस
भाव से ध्यान
करने से नेत्र
तृप्त होते हों,'
दोनों तरह
नेत्र, बाहर
के नेत्र और
भीतर के नेत्र।
अब कोई हो
सकता है कृष्ण
के रूप में
एकदम तल्लीन
हो जाए। और यह
भी हो सकता है
किसी को कृष्ण
का रूप देखकर
बड़ा कष्ट हो।
कोई सोचने लगे
कि यह कैसा
भगवान! यह मोर—मुकुट
बाधे खड़ा है।
यह तो बड़े राग
की दशा है। यह
सजावट, यह
श्रृंगार, इसमें
वीतराग कहां
है? यह गोपिया
का नृत्य, यह
स्त्रियों का
जमघट चारों
तरफ यह
रासलीला, यह
कैसा भगवान है।
इसलिए
जैनों ने
कृष्ण को
भगवान नहीं
माना। कैसे
मान सकते हैं? उनकी धारणा
में वीतरागता
भगवत्ता है।
और ऐसा नहीं
है कि उनकी
धारणा गलत है।
एक तरह के लोग
हैं इस दुनिया
में जिनके लिए
वीतरागता ही
भगवत्ता है।
और एक तरह के
ऐसे लोग भी
हैं इस जगत
में जिनके लिए
राग का पूर्ण
हो जाना
भगवत्ता है।
इस जगत में
भिन्न—भिन्न
तरह के लोग
हैं। यहां
बहुत तरह के
फूल खिलते हैं
इस बगीचे में।
और इस बगीचे
की गरिमा है, गौरव है।
यहां गुलाब ही
गुलाब खिलते
होते तो लोग
गुलाब से ऊब
गये होते। यहां
चंपा, जूही,
चमेली, और
भी हजार तरह
के फूल खिलते
हैं। नये रंग,
नये ढंग।
अपने पसंद को
ठीक से सोच
लेना।
शांडिल्य
कहते है, जिससे
तुम्हारी
बाहर की आंखें
तृप्त हों, उसी से
तुम्हारी
भीतर की आंखें
भी तृप्त
होंगी, खयाल
रखना। इसलिए
और कोई
धारणाओं को
बीच में मत
आने देना।
जिससे
तुम्हारा लग
जाए हृदय, लग
जाने देना। चल
पड़ना। फिर
दुनिया कुछ भी
कहे! दुनिया
की फिक्र मत
करना। जिससे
तुम्हें रस
बहे, उसी
से तुम
पहुंचोगे।
रसधार में सम्मिलित
हो जाओगे तो
परमात्मा के
सागर तक पहुंचोगे।
'जिस
भाव से ध्यान
करने से नेत्र
तृप्त हों, उसी भाव से
चिंतन करने का
नाम ध्यान है'। पहले बाहर
फिर भीतर।
पहले बाहर के
नेत्र तृप्त
हों— और नेत्र
तो सिर्फ
प्रतीक हैं, संकेत मात्र।
यहां
मेरे पास इतने
तरह के लोग
हैं। किसी को
विपस्सना ठीक
पड़ती है। शात
बैठना। किसी
को विपस्सना
ऐसी लगती है
कि यह कहां के
कारागृह में
फंस गये? किसी
को सूफी—नृत्य
आनंद देता
मालूम पड़ता है।
नाच गीत!
अपनी
अवस्था को
पहले जांच
लेना।
क्योंकि
तुम्हें जाना
है परमात्मा
तक। ऐसी कोई
बात मत चुन
लेना जो
तुम्हारे ऊपर
जबरदस्ती
मालूम पड़े। और
अक्सर ऐसा हो
गया है कि लोग
ऐसी बातें
चुनते हैं जो
जबरदस्ती है।
अक्सर ऐसी
बातें चुनते
हैं, जिनमें
जबरदस्ती है।
क्योंकि
जबरदस्ती के
कारण उनको ऐसा
लगता है—कुछ
तपश्चर्या कर
रहे हैं।
मूढ़ता कर रहे
हो, तपश्चर्या
नहीं! कुछ लोग
सिर के बल
सिर्फ इसलिए
खड़े हैं कि
सिर के बल खड़े
होने में बड़ा
कष्ट होता है।
कष्ट के कारण
ही चुन लिया
है। क्योंकि
धारणा यह बैठी
है कि कष्ट से
ही परमात्मा
मिलेगा। पागल
हो तुम।
परमात्मा को
पाने के लिए
किसी तरह के
कष्ट उठाने की
आवश्यकता
नहीं है। अगर
तुम कष्ट
उठाते हो, तो
उसका केवल
इतना ही कारण
है कि तुम
अपने स्वभाव
के विपरीत
जाते हो; इसलिए
कष्ट उठाते हो।
और
परमात्मा को
पाना हो तो
स्वभाव के
अनुकूल जाना
जरूरी है।
जैसे— जैसे
परमात्मा के
पास जाओगे, सुख बढ़ेगा, कष्ट कम
होगा; जीवन
में धीरे—धीरे
एक शांति की
आभा उतरेगी, एक आनंदमग्न
भाव आएगा, एक
मस्ती आएगी।
लेकिन
लोगों ने
कष्टप्रद
बातों को चुन
लिया है। उससे
एक लाभ होता
है, अहंकार
की तृप्ति
होती है। कोई
उपवास कर रहा
है, उससे
अहंकार तृप्त
होता है कि
देखो, तुम
खाने के पीछे
दीवाने हो, मरे जाते हो,
एक मैं हूं
कि आज तीस दिन
से उपवासा
बैठा हूं। अब
झुकों मेरे
पैर में! अब
करो नमस्कार!
अब निकालो
शोभायात्रा, कि मुनि
महाराज ने तीस
दिन का उपवास
किया? अगर
उपवास से किसी
को आनंद आ रहा
है, तो
शोभायात्रा
की क्या जरूरत
है? अगर
उपवास से किसी
को आनंद आ रहा
है, तो उनके
चरणों में
झुकने की क्या
जरूरत है? लोग
चरणों में तभी
झुकते है यहां
जब उन्हें लगता
है कि बेचारा
बड़ा कष्ट उठा
रहा है! बड़ी
तपश्चर्या चल
रही है।
परमात्मा
की तलाश में
तपश्चर्या
तुम्हारी भूलों
के कारण है।
तुम्हारी
गलतियों के
कारण है। तुम
कष्ट उठाते हो
तो अपनी
नासमझी के
कारण उठाते हो।
लेकिन
परमात्मा के
मार्ग पर सुख
ही सुख है।
ठीक कहते हैं
रामकृष्ण, कि मैं भोगी
हूं। मैं भी
तुमसे कहता
हूं—मैं भोगी
हूं। और मैं
तुम्हें भी
महाभोगी
बनाना चाहता
हूं।
अपने
को कष्ट देना
मनोवैज्ञानिक
रूप से रोग है, तुम जाकर मनोवैज्ञानिकों
से पूछो!
उन्होंने एक
बीमारी को नाम
ही दे रखा है—मैसोचिज्म।
ऐसे लोग हैं
दुनिया में जो
अपने को कष्ट
देने में रस
लेते हैं; जो
अपने जीवन में
घाव बनाने में
रस लेते हैं, अपने को
परेशान करने
में रस लेते
हैं।
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं। एक
तो जो दूसरे
को परेशान
करने में रस
लेते हैं और
एक वे जो अपने
को परेशान
करने में रस
लेते हैं—दोनों
बीमार हैं। न
तो दूसरे को
परेशान करने
की कोई जरूरत
है, न खुद को
परेशान करने
की कोई जरूरत
है। अपने
स्वभाव को ठीक
से पहचान लो
और सहज की दिशा
में यात्रा
करो। तुम
निश्चित
पहुंच जाओगे।
तुम पहुंचे
हुए हो, सिर्फ
स्वभाव को
पहचानने की
बात है।
' ध्यान
नियम: तु
दृष्टसौकर्यात्।।
' जिससे
तुम्हारे
नेत्र तृप्त
हों, जिससे
तुम्हारे
प्राण तृप्त
हों, वही
ध्यान है। वही
मार्ग है।
जिससे सुख
अहर्निश बढ़े,
दिन—दिन बढ़े,
दिन दूना
रात चौगुना
बढ़े वही ध्यान
है।
इस
सूत्र की क्रांति
समझते हो? यह तुम्हारे
जीवन के सारे
रोगों से
मुक्ति दिला
देगा। काश
फ्रायड़ ने
सूत्र को पढ़ा
होता, तो
वह धार्मिकों
के खिलाफ इतनी
बातें न लिखता
जितनी उसने
लिखीं।
क्योंकि उसे
धार्मिकों का
केवल उतना ही
पता था जितना
ईसाई फकीर
अपने को सताते
रहे हैं। कोई
अपनी आंखें
फोड़ लेता है।
कोई अपनी
जननेंद्रिय
काट लेता है।
कोई अपने कान
फाड़ लेता है।
कोई अपने शरीर
को सुखा लेता
है। कोई धूप
में ही खड़ा
रहता है। कोई
काटो की सेज
बिछाकर लेटा
हुआ है। ये
भगवान को पाने
के उपाय हो
रहे हैं। किसी
ने त्रिशूल
अपने मुंह में
छेद लिया है।
कोई खड़ा है तो
वर्षों से खड़ा
ही है, बैठता
नहीं है। कोई
रात में सोता
नहीं है, जाग
ही रहा है। ये
रुग्णचित्त
की अवस्थाएं।
ये विक्षिप्त
लोग हैं। इनकी
मानसिक
चिकित्सा की जरूरत
है। इनकी शोभायात्राए
मत निकालो, इनको
अस्पतालों
में भरती
करवाओ। इनको 'इलेक्ट्रिक
शॉक' दिलवाओ।
इनकी बुद्धि
विकृत है। यह
तपश्चर्या
नहीं हो रही
है, ये
केवल अपने को
दुख देने में
मजा ले रहे
हैं।
मगर
दूसरों को भी
मजा आता है।
क्योंकि
दूसरे भी
दुखवादी हैं।
दूसरे जब अपने
को दुख देते
हैं, तुमको भी
मजा आता है।
तुम भी देखने
चले जाते हो।
तुम्हें भी बड़ा
रस आता है।
तुम सुखी आदमी
को देखकर
प्रसन्न नहीं
होते, तुम
सुखी आदमी को
देखकर थोडे
नाराज हो जाते
हो। तुम दुखी
आदमी को देखकर
प्रसन्न होते
हो, क्योंकि
दुखी आदमी से
तुम्हें एक
बात पता चलती
है कि इससे तो
हम ही ज्यादा
सुखी हैं। एक
राहत मिलती है,
कि चलो हम
बेहतर तो! जब
सुखी आदमी
मिलता है तो तुम्हें
ईर्ष्या जगती
है।
सुखी
के साथ आनंदित
होना कठिन है!
इसीलिए सुखी
व्यक्तियों
की पूजा नहीं
हुई। दुखी
व्यक्तियों
की पूजा चलती
रही है।
मैं
तुम्हें
संन्यास की एक
नयी दृष्टि दे
रहा हूं। सुख
त्याज्य नहीं
है। सुख का ही
सूत्र
तुम्हें
परमात्मा की
तरफ ले जाएगा।
अपने स्वभाव
के अनुकूल जो
हो, वही करो।
क्योंकि
स्वभाव
परमात्मा है।
आज
इतना ही।
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