अध्याय
33
आत्म-बोध
जो
दूसरों को
जानता है वह
विद्वान है;
और
जो स्वयं को
जानता है वह
ज्ञानी।
जो
दूसरों को
जीतता है वह
पहलवान है;
और
जो स्वयं को
जीतता है वह
शक्तिशाली।
जो
संतुष्ट है वह
धनवान है;
और
जो दृढ़मति
है वह संकल्पवान।
जो
अपने केंद्र
से जुड़ा रहता
है वह
मृत्युंजय है।
और
जो मर कर
जीवित है वह
चिर-जीवन
को उपलब्ध
होता है।
ताओ
है सागर की
भांति। नदियां
सागर से पैदा
होती हैं और
सागर में पुनः
खो जाती हैं।
ताओ से अर्थ
है उस मूल
उदगम का, जहां
से जीवन पैदा होता
है; और उस
अंतिम
विश्राम का भी,
जहां जीवन
विलीन हो जाता
है। ताओ आदि
भी है और अंत
भी। प्रारंभ
भी वही है और
समाप्ति भी
वही।
यह जो
ताओ का केंद्र
है या धर्म का
या सत्य का, इसे
हम जन्म के
साथ ही लेकर
पैदा होते हैं;
वह हमारे
जन्म के पहले
भी मौजूद है।
और उसे हम
अपने साथ लेकर
ही मरते हैं; वह मृत्यु
के बाद भी
हमारे साथ
यात्रा पर
होता है। जो
हमारे भीतर न
कभी जन्मता है
और न कभी मरता
है, वही
धर्म है। और
उसे जान लेना
ही जानने
योग्य है।
इस
सूत्र में उस
आंतरिक
केंद्र की तरफ
बहुत बहुमूल्य
इशारे हैं।
पहला
इशारा: "जो दूसरों
को जानता है
वह विद्वान है; और
जो स्वयं को
जानता है वह
ज्ञानी।'
दूसरों
को जानना बहुत
आसान है।
क्योंकि दूसरों
को जानने के
लिए
इंद्रियां
काम में आ
जाती हैं। आंख
है मेरे पास, मैं
आपको देख सकता
हूं। लेकिन यह
देखने वाली आंख
स्वयं को
देखने के काम
न आएगी। कान हैं
मेरे पास, मैं
आपको सुन सकता
हूं। लेकिन ये
कान स्वयं को
सुनने के काम
न आएंगे। हाथ
हैं मेरे पास,
मैं आपको छू
सकता हूं।
लेकिन मेरे ही
हाथ हैं, मैं
स्वयं को छूने
में असमर्थ
हूं।
इंद्रियां
दूसरे को
जानने का
द्वार हैं।
इंद्रियां हमें
उपलब्ध हैं; हम दूसरे को सहजता
से जान लेते
हैं।
और
दूसरे को
जानने की इस
दौड़ में हम यह
भूल ही जाते
हैं कि हम
स्वयं से
अनजान रह गए।
स्वयं के संबंध
में भी जो हम
जानते हैं, वह
भी हम दूसरों
के द्वारा ही
जानते हैं।
अगर आप सोचते
हैं कि आप
सुंदर हैं, तो यह
दूसरों ने
आपसे कहा है; कि आप सोचते
हैं कि आप
विचारशील हैं,
यह भी
दूसरों ने
आपसे कहा है; कि आप सोचते
हैं कि आप
बुद्धिहीन
हैं, तो यह
भी दूसरों ने
आपको समझाया
है। आपकी स्वयं
के संबंध में
जो जानकारी है
वह दूसरे के
माध्यम से है,
दूसरे के
द्वारा
उपलब्ध हुई
है।
इसलिए
हम स्वयं की
जानकारी पर भी
दूसरे पर
निर्भर रहते
हैं,
और दूसरे से
भयभीत भी रहते
हैं। अगर मेरा
सौंदर्य आपके
ऊपर निर्भर है
तो मैं भयभीत
रहूंगा। क्योंकि
आपकी नजर की
जरा सी बदलाहट,
और मेरा
सौंदर्य खो
जाएगा। और अगर
मेरी बुद्धिमानी
आपके आधार पर
बनी है, आप
कभी भी ईंटें
बुनियाद की
खींच ले सकते
हैं और मेरी
बुद्धिमत्ता
खो जाएगी। मेरी
प्रतिष्ठा
में अगर आप
कारण हैं तो
वह कोई प्रतिष्ठा
ही नहीं, वह
गुलामी है।
अगर मेरी
प्रतिष्ठा
किसी पर भी निर्भर
है तो मैं
उसका गुलाम
हूं। और
गुलामी की
क्या
प्रतिष्ठा हो
सकती है? स्वयं
के संबंध में
भी हम दूसरे
के माध्यम से
जानते हैं।
इसलिए स्वयं
के संबंध में जो
भी हम जानते
हैं, वह
गलत है।
फिर और
भी कारण समझ
लेने जरूरी
हैं। मैं आपको
जान सकता हूं; मेरे
पास
इंद्रियां
हैं, मन
है। आंख से
देख सकता हूं,
मन से सोच
सकता हूं।
लेकिन स्वयं
को जानने में
न तो
इंद्रियां
काम आएंगी, न तो आंख काम
आएगी और न
मेरा मन ही
काम आएगा। क्योंकि
दूसरे के
संबंध में
सोचा जा सकता
है, स्वयं
के संबंध में
कुछ भी सोचा
नहीं जा सकता।
और जब तक आप
सोचते हैं तब
तक स्वयं से
कोई संबंध
नहीं हो सकता।
क्योंकि जब तक
आप सोचते हैं
तब तक आप
स्वयं के बाहर
होते हैं। विचार
जब तक मौजूद
होता है तब तक
आप अपने
आंतरिक केंद्र
पर नहीं हैं, परिधि पर
घूम रहे हैं।
क्योंकि
विचार भी एक
बेचैनी है; विचार एक
तनाव है। कहें
कि विचार एक
तरह का ज्वर
है, एक
बुखार है, एक
आंतरिक
उद्वेग है।
इसलिए अगर
विचार तेज चल रहे
हों तो रात आप
सो नहीं सकते;
क्योंकि
विचार
विश्राम नहीं
है। और स्वयं
के आंतरिक
केंद्र पर तो
परम विश्राम
की अवस्था में
ही कोई
पहुंचता है।
जितना तनाव
होता है, उतनी
दूरी होती है।
इसलिए
पागल स्वयं से
सर्वाधिक दूर
होता है। पागलपन
का अर्थ ही यह
है कि आपसे अब
स्वयं के सारे
संबंध छूट गए।
अब आपकी कोई
भी जड़ अपने
केंद्र में न
रही। अब आप उखड़
गए,
अपरूटेड--जमीन
से जड़ें अलग
हो गईं। पागल
अपने से
सर्वाधिक दूर
है, क्योंकि
पागल का विचार
एक क्षण को भी
बंद नहीं होता,
चलता ही
रहता है सतत।
आप भी अपने से
उसी मात्रा
में दूर हैं
जिस मात्रा
में आपके भीतर
मौन की कमी
है।
विचार
से मैं दूसरे
को जान सकता
हूं,
लेकिन
विचार से
स्वयं को नहीं
जान सकता।
इसलिए
सब
बुद्धिमत्ता, जिसको
लाओत्से ने
कहा है
विद्वत्ता, विचार पर
निर्भर होती
है। और ज्ञान
निर्विचार पर
निर्भर होता
है। इसलिए हम
बुद्ध को
विद्वान नहीं
कह सकते, महावीर
को विद्वान
नहीं कह सकते।
अरिस्टोटल
विद्वान है, प्लेटो विद्वान
है। बुद्ध और
महावीर
विद्वान नहीं
हैं, ज्ञानी
हैं।
जो
फर्क
है--विद्वत्ता
विचार का जोड़
है;
और ज्ञान
निर्विचार की
स्फुरणा है, जहां सब
इंद्रियां
शांत होती
हैं। क्योंकि
इंद्रियों से
दूसरे को जान
सकते हैं। और
जब तक इंद्रियां
अशांत हों तब
तक बाधा डालेंगी;
क्योंकि
उनकी अशांति
बाहर ले
जाएगी।
इंद्रियों की
अशांति बाहर
ले जाएगी; वे
बाहर जाने
वाले द्वार
हैं।
जब तक
मन चल रहा है
तब तक भी स्वयं
को न जान
सकेंगे।
क्योंकि मन का
चलना परिधि पर
रोके रखेगा।
जब इंद्रियां
चुप हो गईं और
मन भी मौन हो
गया,
और जब भीतर
कोई गति न रही,
किसी तरह का
हलन-चलन न रहा,
कोई स्पंदन
न रहा, कोई
लहर न रही, जब
भीतर आप मात्र
रह गए, जहां
कुछ भी नहीं
हो रहा है, कोई
कर्म नहीं हो
रहा है भीतर, पूर्ण अकर्म
हो गया, उस
क्षण में आपको
अपने केंद्र
से विच्युत
करने को कोई
भी न रहा; कोई
लहर आपको बाहर
नहीं खींच
सकती। उस क्षण
ज्ञान का जन्म
है।
विद्वान
होना हो, शास्त्र
सहयोगी हैं, शिक्षण
उपयोगी है, सीखना जरूरी
है। ज्ञानी
होना हो, शास्त्र
खतरनाक हैं, बाधा हैं; शिक्षा
व्यर्थ ही
नहीं, हानिकर
है। सीखने की
कोई सुविधा
नहीं है। अनसीखना
करना होता है।
लघनग
नहीं, अनलघनग;
जो सीखा है
उसे भी भूल
जाना होता है;
जो जाना है
उसका भी त्याग
कर देना होता
है।
और
ध्यान रहे, जगत
में ज्ञान का
त्याग बड़ा
मुश्किल है। धन
छोड़ा जा सकता
है; पद
छोड़ा जा सकता
है। क्योंकि
पद को छोड़ने
में भी बड़े पद
के मिलने की
आशा है, और
धन को छोड़ने
में भी महाधन
को पाने की
संभावना है।
क्योंकि धनी
भी सोचता है
मन में कि गरीब
सुखी है। धनी
भी--सच तो यह है
धनी ही--गरीब
तो कभी नहीं
सोचता कि गरीब
भी सुखी है।
धनी अक्सर
सोचता है कि
गरीबी में बड़ा
सुख है। ठीक
वैसे ही जैसा
गरीब सोचता है
कि अमीरी में
बड़ा सुख है।
जो हमारे पास
नहीं उसमें सुख
दिखाई पड़ता
है।
लेकिन
एक बड़े मजे की
बात है कि अगर
गरीब सोचता है
कि अमीरी में
सुख है, तो
ज्ञानी--तथाकथित
विद्वान, ज्ञानी
नहीं कहना
चाहिए--वे
उसको समझाते
हैं कि तू पागल
है। लेकिन जब
धनी सोचता है
कि गरीबी में
सुख है, तो
ये ही महात्मागण
उसको नहीं
समझाते कि तू
भी पागल है।
बात दोनों की
एक सी है: जो
उनके पास नहीं
है उसमें सुख
दिखाई पड़ता
है। न तो
गरीबी में सुख
है, न धनी
होने में सुख
है। सुख सदा
आशा है--वहां, जहां हम
नहीं हैं। और
जहां हम हो
जाते हैं वहीं
दुख हो जाता
है।
धनी धन
छोड़ सकता है, क्योंकि
गरीबी में सुख
की आशा बनी
है। पद छोड़े
जा सकते हैं, क्योंकि
पदों को छोड़
कर भी बड़ी
प्रतिष्ठा
मिलती है। सच
तो यह है कि
पदों को छोड़
कर ही प्रतिष्ठा
मिलती है। जो
प्रतिष्ठा
पाने की कला
जानता है वह
पद को छोड़
देगा।
क्योंकि पद
छोड़ते से ही
आपको लगता है
कि यह आदमी पद
से बड़ा हो
गया। नहीं तो
छोड़ कैसे सकता?
छोटा आदमी
तो पद को पकड़ता
है। यह पद को
लात मार सकता
है, सिंहासन
को लात मार
सकता है; यह
आदमी सिंहासन
से बड़ा हो
गया। लेकिन जो
छोड़ रहा है वह
भी गणित जमा
सकता है, उसको
भी पता है कि
छोड़ने में भी
लाभ है। धन
छोड़ने में
अड़चन ज्यादा
नहीं है; पद
छोड़ने में
कठिनाई
ज्यादा नहीं
है। लेकिन ज्ञान
छोड़ने में बड़ी
कठिनाई है; क्योंकि
अज्ञान में
कोई भी आशा
नहीं बंधती।
और
लाओत्से जैसे
थोड़े से परम
ज्ञानियों को
छोड़ कर अज्ञान
की कोई शिक्षा
भी नहीं देता।
अज्ञान से ही
तो हम परेशान
हैं;
तो ज्ञान से
अपने को भर
रहे हैं। यह
जो ज्ञान से
भरना है, यह
आपको विद्वान
बना देगा। तो
विद्वान वह
अज्ञानी है
जिसने अपने को
उधार ज्ञान से
भर लिया।
अज्ञान मिटता
नहीं, सिर्फ
दबता है। जैसे
आप नग्न हैं
और वस्त्र पहन
लिए; तो
नग्नता मिटती
नहीं, सिर्फ
ढंकती है;
अब किसी को
दिखाई नहीं
पड़ती। और किसी
को न दिखाई
पड़े यह तो ठीक
ही है, आपको
भी दिखाई नहीं
पड़ती, जो
कि चमत्कार
है। क्योंकि
कपड़े आपके
बाहर हैं, दूसरों
की आंखों पर
हैं कपड़े; आपके
ऊपर नहीं हैं।
वेटिकन
का पोप जब
किसी को मिलता
है तो विशेष वस्त्र
पहनने होते
हैं।
स्त्रियां
हों तो सिर ढांकना
होता है; पुरुष
हों तो सिर
ढांकना होता
है। खास तरह
के कपड़े, सादे,
पहन कर
प्रवेश करना
होता है। एक
बारह अमरीकनों
की मंडली
वेटिकन के पोप
के दर्शन के
लिए गई। तो
जिस आदमी ने
उन्हें समझाया
कि आप कैसे
कपड़े पहनें,
कैसे भीतर
खड़े हों, कैसे
नमस्कार करें,
वह भी उनको
समझाने से
थोड़ा व्यथित
था। और उसने
भी कहा कि
क्षमा करना, मजबूरी है, मैं इसी काम
पर नियुक्त
हूं, यही
मेरी
रोटी-रोजी है,
लेकिन
लोगों को समझाते-समझाते
मैं परेशान हो
गया हूं और
मेरे मन में
भी कभी होता
है कि इससे तो
बेहतर होता एक
पट्टी पोप की
आंख पर ही
बांध दी जाती;
वह सरल होती
बजाय इतना
उपद्रव करने
के।
लेकिन
यह इतना बड़ा
उपद्रव भी
दूसरे की आंख
पर पट्टी का
ही काम करता
है,
इससे
ज्यादा का काम
नहीं करता।
पट्टी बड़ी है;
लेकिन आंख
दूसरे की है, उसको भर
रुकावट डालती
है, उसको
पता नहीं चलता
कि आप नग्न
हैं। लेकिन आप
तो नग्न हैं
ही। विद्वान
भी दूसरे की
आंखों में
विद्वान
मालूम पड़ता है,
अपने भीतर
तो अज्ञानी ही
होगा, नग्न
ही होगा।
लेकिन जैसा आप
चमत्कार कर
लेते हैं और
कपड़े पहन कर
सोचते हैं आप
नग्न नहीं, वैसा ही
पंडित भी
चमत्कार कर
लेता है, शब्दों
को ओढ़ कर
सोचता है कि
अब अज्ञान
समाप्त हुआ, अब मैं
ज्ञानी हुआ।
और इन शब्दों
में एक भी उसका
अनुभूत नहीं
है; इसमें
से कुछ भी
उसने जाना
नहीं है; इसमें
से किसी का भी
उसे स्वाद
नहीं मिला। ये
सब कोरे, उधार,
निर्जीव, नपुंसक शब्द
हैं। क्योंकि
शब्द में
प्राण तो पड़ता
है अनुभूति
से। शास्त्र
से शब्द
इकट्ठे कर लिए
जा सकते हैं।
सरल काम है।
स्मृति सजाई जा
सकती है। जरा
भी कठिन नहीं
है। छोटे-छोटे
बच्चे कर लेते
हैं, और
बूढ़ों से
ज्यादा अच्छा
कर लेते हैं।
यह सब
बाहर से
इकट्ठा किया
हुआ बाहर को
ही प्रभावित
कर सकता है, इसे
स्मरण रखें।
तो पंडित आपको
प्रभावित कर सकता
है; शायद
ज्ञानी से आप
प्रभावित न भी
हों। क्योंकि
बड़े मजे की
बात है कि
जमीन पर
ज्ञानियों को
तो बहुत बार
सूली लगी, पंडितों
को कभी नहीं
लगी।
ज्ञानियों पर
तो पत्थर बहुत
बार फेंके गए,
लेकिन
पंडितों को
किसी ने पत्थर
नहीं मारा। ज्ञानियों
को तो बड़ी
कठिनाइयां भोगनी
पड़ीं, लेकिन
पंडितों को
कोई कठिनाई का
सवाल नहीं है।
ज्ञानियों ने
बड़ी निंदा
झेली, सब
तरह की निंदा
झेली, लेकिन
पंडित को कोई
निंदा नहीं
झेलनी पड़ती।
कारण क्या है?
पंडित
के पास जो
ज्ञान है उससे
आप प्रभावित
होते हैं। वह
बाहर से आया
है,
और बाहर के
लोगों को
प्रभावित
करता है।
ज्ञानी के पास
जो ज्ञान है
वह बाहर से
नहीं आया, वह
भीतर से आया
है। वह अनूठा
है, नया है,
अद्वितीय
है। वह ताजा
है, कुंआरा
है। उससे आपकी
कोई पहचान
नहीं। तो जब
ज्ञानी से
आपकी मुलाकात
होती है तो आप
बेचैनी में पड़
जाते हैं। आप
उसको ठीक से
समझ नहीं पाते,
या समझने की
कोशिश में
हमेशा गलत समझ
पाते हैं।
क्योंकि वह जो
कह रहा है
इतना नया है
कि आपकी बुद्धि,
आपकी
जानकारी, उससे
उसका कोई तालमेल
नहीं बैठता।
वह कुछ ऐसी
बात कह रहा है
जिससे आपका
कभी कोई संबंध
नहीं रहा।
तो
ज्ञानी अजनबी
मालूम पड़ता
है। पंडित
आपका ही आदमी
है। जैसे आप
हैं वैसा ही
वह है। आप में
और उसमें जो
फर्क है वह
मात्रा का है, गुण
का नहीं है।
आप थोड़ा कम
जानते हैं, वह थोड़ा
ज्यादा जानता
है; लेकिन
एक ही कतार
में खड़े हैं।
वह क्यू में
थोड़ा आगे है, आप थोड़े
पीछे हैं।
उससे कोई
दुश्मनी नहीं
मालूम होती, उससे गहरी
मैत्री मालूम
होती है।
ज्ञानी से सदा
दुश्मनी
मालूम होती है,
क्योंकि वह
आपकी पंक्ति
में खड़ा ही
नहीं है। और
वह जो भी कहता
है वह खतरनाक
मालूम होता
है। क्योंकि
वह जो भी कहता
है उससे आपका
जो भवन है वह
गिरता है। वह
जो भी कहता है उससे
आपका ज्ञान
अज्ञान सिद्ध
होता है। वह
जो भी कहता है
उससे आपकी
जानकारी
व्यर्थ होती
है। वह आपसे
छीनता है। वह
आपको तोड़ता
है। वह आपको
मिटाता है।
ज्ञानी सदा
विध्वंसक मालूम
होता है।
पंडित हमेशा निर्माणकारी
मालूम होता
है। क्योंकि
वह सिर्फ आपको
आगे बढ़ाता है।
वह आप में कुछ
जोड़ता है।
पंडित आपको कुछ
देता हुआ
मालूम पड़ता है;
ज्ञानी
आपसे कुछ
छीनता हुआ
मालूम पड़ता
है।
इसलिए
ज्ञानी के पास
केवल वे ही
लोग टिक सकते हैं
जो अति साहसी
हैं,
जो कि निपट
अज्ञानी होने
को तैयार हैं।
लेकिन अगर आप
ज्ञान की तलाश
में गए हैं तो
पंडित ठीक जगह
है। वह आपको
ज्ञान देगा।
वहां से आप
ज्ञान इकट्ठा
कर ले सकते
हैं। अगर आप
ज्ञानी के पास
गए हैं तो आप
मुश्किल में
पड़ेंगे। पहले
तो वह आपसे
छीन लेगा सब
कुछ--जो भी आपके
पास है। वह
आपको सब भांति
निर्धन कर
देगा; वह
भीतर से आपको
सब भांति
दरिद्र कर
देगा। जीसस ने
शब्द उपयोग
किया है: पुअर
इन स्पिरिट।
वह आपकी आत्मा
तक को गरीब कर
देगा। लेकिन
उसी गरीबी से,
उसी परम
दारिद्रय से,
उसी परम
अज्ञान से
ज्ञान का जन्म
होता है।
यह बड़ा
विरोधाभासी
है। क्योंकि
हम तो सोचते
हैं ज्ञान एक संग्रह
है। ज्ञान
संग्रह नहीं
है;
जो भी
संग्रह है वह
विद्वत्ता है,
पांडित्य
है, बौद्धिक
कुशलता है, होशियारी है,
चालाकी है।
ज्ञान का उससे
कोई लेना-देना
नहीं है।
ज्ञान तो एक
जन्म है; संग्रह
नहीं। जैसे
मां के पेट
में बच्चा
जन्मता है, वैसा ज्ञान
भी एक जन्म
है। बच्चे को
आप संगृहीत
नहीं कर सकते
कि कहीं से एक
टांग खरीद लाए,
कहीं से एक
हाथ खरीद लाए,
कहीं से एक
सिर इकट्ठा कर
लिया; फिर
सब जोड़ कर
तैयार कर
लिया। ऐसा अगर
बच्चा आप जोड़
कर तैयार कर
लें तो वह
जैसा मुर्दा
होगा वैसा ही
पंडित का
ज्ञान होता
है। कहीं से
वह पैर ले आया
है, कहीं
से हाथ ले आया
है, कहीं
से सिर ले आया
है; उसने
ठीक प्रतिमा
निर्मित कर ली
है। लेकिन प्रतिमा
मुर्दा है, क्योंकि
जीवन को जन्म
देना संग्रह
से नहीं होता।
और जैसे मां
को गुजरना
पड़ता है एक
पीड़ा से, ठीक
वैसे ही
ज्ञानी को भी
गुजरना पड़ता
है। ज्ञानी की
तलाश एक पीड़ा
है, एक
आत्म-प्रसव
है। इस
आत्म-प्रसव का
पहला चरण है
यह समझ लेना
कि जो भी बाहर
से जाना गया
है वह ज्ञान
नहीं है।
यह समझ
भी बड़ी
मुश्किल है।
क्योंकि
तत्काल हमें
लगता है हम
दरिद्र हो गए।
क्योंकि जो भी
हम जानते हैं
वह सब बाहर से
जाना हुआ है।
कभी आप सोचते
हैं एकांत में
कि आप जो भी
जानते हैं
उसमें कुछ भी
आपका है? भय
लगता है, ऐसी
बात ही सोचने
से भय लगता
है। क्योंकि
आप सोचेंगे तो
पसीना आना
शुरू हो जाएगा;
हाथ-पैर
भीतर कंपने
लगेंगे। कुछ
भी नहीं है जाना
हुआ अपना। इतनी
दरिद्रता में
जी रहे हैं।
लेकिन वह
ज्ञान एक वहम,
एक भ्रम
पैदा कर देता
है। उस भ्रम
से ऐसा लगता है
हम कुछ जानते
हैं। और बड़े
मजे की बात है,
जैसा दूसरे
हमें ज्ञान
देते रहते हैं,
वह उधार
ज्ञान हम
इकट्ठा करके
हम भी दूसरों
को देते रहते
हैं। पीढ़ी
दर पीढ़ी
यह मूढ़ता
चलती ही चली
जाती है। कोई
बीच में रुक
कर यह नहीं
कहता कि मुझे
कुछ पता नहीं
है।
इधर
मैं देखता
हूं। अभी एक
जैन मुनि को
कुछ दिनों
पहले कोई मेरे
पास ले आया
था। दो भक्त
उनके साथ थे।
मुनि ने इशारा
किया कि आप
बाहर जाएं, मुझे
साधना के
संबंध में कुछ
एकांत बातें करनी
हैं। भक्त
बाहर चले गए।
मुनि ने मुझसे
पूछा कि जो आप
कहते हैं वही
मैं भी कहता
हूं, लेकिन
मेरा प्रभाव
क्यों नहीं
पड़ता? कुछ
रास्ता
बताइए। मैंने
उनसे कहा कि
जो आप कहते
हैं, वह हो
सकता है, मुझसे
भी बेहतर कहते
हों। लेकिन जब
तक आप प्रभाव
डालना चाहते
हैं, तब तक
बात सब व्यर्थ
है, तब तक
उत्सुकता
आपकी दूसरे
में है, स्वयं
में नहीं है।
आखिर प्रभाव
डालने की आकांक्षा
क्या है? क्यों
प्रभाव डालना
चाहते हैं? प्रभावित
क्यों करना
चाहते हैं
किसी को? और
किसी के
प्रभावित
होने से क्या
होगा आंतरिक
लाभ? अहंकार
बढ़ेगा। लेकिन
वह आंतरिक लाभ
नहीं है, हानि
है। अकड़ बढ़ेगी।
लेकिन वह अकड़
सहयोगी नहीं
है, बाधा
है।
तो
मैंने उनसे
कहा,
कुछ ऐसा
करिए कि दूसरे
बिलकुल आपसे
अप्रभावित हो
जाएं। दूसरे
को प्रभावित
करने की
चेष्टा आप
साधना कह रहे
थे अपने
भक्तों से कि
मुझे साधना के
संबंध में कुछ
पूछना है। यह
साधना है? और
निश्चित ही
आपको अपना कोई
पता नहीं है, इसलिए आप
दूसरे को
प्रभावित कर
रहे हैं। क्यों
हम दूसरे को
प्रभावित
करना चाहते
हैं? ताकि
उसकी आंखों से
हमें हमारा
पता चल सके कि हम
कुछ हैं।
जब
दूसरा
प्रभावित
होता है और
उसकी आंख में
चमक आती है तो
वह चमक हमें
प्राण देती
है। वैसे हम
निष्प्राण
हैं। उससे मजा
आता है, रस
आता है, शक्ति
मिलती है। वह
बड़ा अदभुत
वाइटामिन है।
वैसा
वैज्ञानिक
अभी कोई
वाइटामिन
नहीं खोज पाए।
जो दूसरे की
आंख में जो
चमक आती है तो
जो वाइटेलिटी,
जो प्राण
आपको मिलता है,
वैसा अभी तक
कोई वाइटामिन
नहीं खोजा जा
सका।
दूसरे
में उत्सुकता, मैंने
उनसे कहा, इसी
बात का सबूत
है कि आपको
अपना कोई भी
पता नहीं है
और आप दूसरों
की आंखों से
पता लगा कर
अपना परिचय
निर्मित करना
चाहते हैं कि
मैं कौन हूं।
पंडित
दूसरे को
प्रभावित
करके सोचता है
मैं ज्ञानी हो
गया। अगर मैं
न जानता होता
तो लोग
प्रभावित
कैसे होते? लोग
प्रभावित हो
रहे हैं; निश्चित
ही मैं जानता
हूं। उसके
जानने का बोध भी
लोगों के
प्रभावित
होने पर
निर्भर करता
है। ज्ञानी का
भी प्रभाव
होता है।
लेकिन ज्ञानी का
प्रभाव
ज्ञानी की
आकांक्षा
नहीं है। ज्ञानी
का प्रभाव ज्ञानी
का सहज परिणाम
है। जैसे आदमी
चलता है तो धूप
में छाया बनती
है, ज्ञानी
जब लोगों के
बीच चलता है
तो उसकी छाया पड़ती
है। पड़ेगी ही।
पर वह छाया
ज्ञानी की
चेष्टा नहीं
है। पंडित की
चेष्टा है।
पंडित का सारा
रस इसमें है
कि दूसरे
प्रभावित हो
जाएं।
लाओत्से
कहता है, "जो
दूसरों को
जानता है वह
विद्वान है।'
और
पंडित
भली-भांति
दूसरों को
जानता है। सच
तो यह है कि वह
दूसरों को ही
जानता है। और
दूसरों को
जानने के कुछ
फायदे हैं।
क्योंकि
दूसरों को मैनीपुलेट
किया जा सकता
है,
दूसरों को
चलाया जा सकता
है, नचाया
जा सकता है, अगर आप उन्हें
जानते हैं।
डेल कार्नेगी
की बड़ी
प्रसिद्ध
किताब है--हाउ
टु इनफ्लुएंस
पीपुल, लोगों
को कैसे
प्रभावित
करें। आज सारे
जमीन पर ऐसी
हजारों
पुस्तकें
लिखी जा रही
हैं कि दूसरों
को कैसे
प्रभावित
करें, दूसरों
के साथ कैसे
सफल हों।
निश्चित ही, दूसरे के
साथ सफल होना है
तो दूसरे को
जानना जरूरी
है। और दूसरे
को जानना जरा
भी कठिन नहीं
है। लेकिन
स्वयं को जानना
अति कठिन है।
और मैंने अभी
तक ऐसी कोई
किताब नहीं
देखी जो कहती
हो: हाउ टु इनफ्लुएंस
योरसेल्फ।
हाउ टु इनफ्लुएंस
अदर्स, कैसे दूसरों
को प्रभावित
करें। लेकिन
कैसे स्वयं को
प्रभावित
करें? कैसे
स्वयं को
जानें? उसमें
कुछ रस ही
नहीं है किसी
को। कारण क्या
होगा?
एक
भ्रांति है
हमारे मन में
कि स्वयं को
तो हम जानते
ही हैं। रह
गया दूसरा, वह
अनजाना है, उसे जानना
है। इस
भ्रांति को
तोड़ना जरूरी
है। आप स्वयं
को नहीं जानते
हैं; दूसरे
को भला
थोड़ा-बहुत
जानते हों, अपने को
बिलकुल नहीं
जानते। लेकिन
तब एक और अजीब
घटना घटती है।
जो अपने को ही
नहीं जानता, वस्तुतः
क्या वह दूसरे
को जान सकेगा?
यह जरा
और गहरे में
उतरने की बात
है। जो अपने को
ही नहीं जानता, उसको
दूसरे का भी
जानना कितना
सार्थक और
अर्थपूर्ण हो
सकता है।
जिसकी अपने
संबंध में भी
कोई अनुभूति
नहीं है, उसकी
दूसरे के
संबंध में जो
भी जानकारी
होगी, वह
भी छिछली ही
होगी। वह भी
दूसरे के गहरे
में तो प्रवेश
नहीं कर
पाएगा। उसके
आस-पास घूम
सकता है, उसके
संबंध में कुछ
जान सकता है; उसको नहीं
जान सकता।
उसका चेहरा
कैसा है, जान
सकता है; उसकी
आंखें कैसी
हैं, जान
सकता है; उसका
व्यवहार कैसा
है, जान
सकता है।
आधुनिक
मनोविज्ञान
में एक स्कूल
का नाम बिहेवियरिस्ट
है,
व्यवहारवादी। इन
मनोवैज्ञानिकों
की धारणा है
कि आदमी के पास
आत्मा जैसी
कोई चीज नहीं;
सिर्फ उसका
व्यवहार ही सब
कुछ है, भीतर
कुछ है ही
नहीं। बस वह
बाहर जो करता
है उसी के जोड़
का नाम आत्मा
है। तो अगर आप
आदमी का पूरा
व्यवहार जान
लें तो व्यवहारवादी
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, आपने
आदमी को जान
लिया। आप क्या
करते हैं, वही
आप हैं। अगर
आपके करने को
पूरा समझ लिया
तो बात खत्म हो
गई। भीतर कुछ
है ही नहीं।
अगर ठीक से
समझें तो
ईश्वर का
इनकार करना
इतनी बड़ी
नास्तिकता नहीं
है जितनी बड़ी
नास्तिकता व्यवहारवाद
है। क्योंकि
वह यह कह रहा
है कि सिर्फ
कृत्य, जो
आप कर रहे
हैं।
लेकिन
ऐसा मत सोचना
कि व्यवहारवादी
कोई नई धारणा
है। आप में से
सौ में से
निन्यानबे
लोग व्यवहारवादी
हैं। आप भी
व्यक्ति को
उसके कृत्य से
पहचानते हैं, और
तो कोई पहचान
नहीं है। आप
देखते हैं एक
आदमी चोरी कर
रहा है, इसलिए
चोर है; और
एक आदमी पूजा
कर रहा है, इसलिए
संत है। आप भी
देखते हैं कि
क्या कर रहा है।
क्या है, यह
तो दिखाई पड़ता
नहीं। चोर के
भीतर क्या है,
यह तो दिखाई
पड़ता नहीं।
संत के भीतर
क्या है, यह
तो दिखाई पड़ता
नहीं। चोर
चोरी कर रहा
है, यह
दिखाई पड़ता
है। संत
प्रार्थना कर
रहा है, यह
दिखाई पड़ता
है। और हो
सकता है संत
प्रार्थना
करते समय चोर
हो और चोर
चोरी करते समय
संत हो। लेकिन
वह बड़ी
मुश्किल बात
है। वह
पहचानना बहुत
कठिन है।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला नसरुद्दीन
मरने के करीब
था। तो उसने
एक रात, जब कि
चिकित्सक कह
चुके कि अब कल
सुबह तक बचना बहुत
मुश्किल है, परमात्मा से
प्रार्थना की
कि मैंने
जिंदगी भर
प्रार्थनाएं
कीं, कभी
कोई पूरी नहीं
हुई; अब यह
आखिरी वक्त भी
करीब आ गया; एक आखिरी
प्रार्थना तो
कम से कम पूरी
कर दो! और वह
प्रार्थना यह
है कि मरने के
पहले मुझे
देखने मिल जाए
स्वर्ग और नरक,
ताकि मैं तय
कर सकूं कि
कहां जाना
उचित है।
वह
आदमी
बुद्धिमान था; सब
कदम सोच-समझ
कर उठाने
चाहिए।
नींद
लगी और उसने
देखा कि वह
स्वर्ग के
द्वार पर खड़ा
है। प्रार्थना
पूरी हो गई है, स्वीकृत
हो गई है।
उसने भीतर
प्रवेश किया।
वह देख कर बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया।
क्योंकि जैसा सुना
था, शास्त्रों
में पढ़ा था कि
वहां शराब के
चश्मे बहते
हैं और
अप्सराएं और
सुंदर
स्त्रियां और कल्पवृक्ष
जिनके नीचे
बैठ कर सभी
इच्छाएं तत्क्षण
पूरी हो जाती
हैं, वे
वहां कुछ भी
दिखाई न पड़े।
और बड़ा
सन्नाटा था, बड़ा बेरौनक
सन्नाटा था।
और लोग कुछ भी
नहीं कर रहे
थे। कोई ध्यान
कर रहा था, कोई
पूजा कर रहा
था, कोई
प्रार्थना कर
रहा था, जो
कि बड़ी घबड़ाने
वाली बात थी।
चौबीस घंटे, उसने लोगों
से पूछा कि
क्या बस यही
यहां होता रहता
है? बस
यहां तो कोई
पूजा करता
रहता है, कोई
प्रार्थना
करता रहता है,
कोई ध्यान
करता रहता है,
कोई
शीर्षासन
करता है, कोई
साधना। बस यही
चलता है
स्वर्ग में?
तो
उसने कहा कि
अच्छा हुआ, सोचा
मन में कि
परमात्मा से
पहले ही पूछ
लिया; यह
तो बड़ा खतरनाक
स्वर्ग मालूम
होता है। नरक! स्वर्ग
हट गया आंख के
सामने से, दूसरा
द्वार खुला।
और वह नरक के
सामने खड़ा है।
द्वार खुलते
ही ताजी हवाएं,
संगीत का
स्वर, नृत्य;
देखा तो
स्वर्ग तो
यहां था। उसने
कहा कि बड़ा धोखा
चल रहा है
जमीन पर। बड़ा
राग-रंग था, बड़ी मौज थी।
उसने सोचा कि
अच्छा हुआ जो
पहले ही पूछ
लिया; स्वर्ग
तो यहां है।
फिर
उसकी नींद लग
गई और सुबह वह
मर गया। मर कर
जब उसकी आत्मा
यम के दफ्तर
में पहुंची तो
वहां पूछा गया
कि नसरुद्दीन, कहां
जाना चाहते हो?
नसरुद्दीन मुस्कुराया;
यम भी
मुस्कुराया। नसरुद्दीन
मुस्कुराया
कि तुम मुझे
धोखा न दे
सकोगे, मैं
तो देख चुका
हूं कि कहां
जाना है। और नसरुद्दीन
ने समझा कि यम
इसलिए
मुस्कुरा रहा
है कि मुझे कुछ
पता नहीं है। नसरुद्दीन
ने कहा कि मैं
नरक जाना
चाहता हूं।
फिर भी यम मुस्कुराता
रहा। तब उसे
जरा बेचैनी
हुई कि बात
क्या है। उसने
कहा कि सुना, मैं नरक
जाना चाहता
हूं। यम ने
कहा कि
निश्चित, तुम
नरक जाओ। मगर
यह कोई अनूठी
बात नहीं है; अक्सर लोग
नरक ही जाना
चाहते हैं। नसरुद्दीन
ने कहा, अनूठी
बात नहीं है!
फिर
नरक भेज दिया
गया। जैसे ही
नरक के द्वार
पर प्रवेश
किया तो बड़ा
हैरान हुआ, चार
शैतान के
शिष्यों ने उस
पर हमला बोल
दिया। उसकी
मार-पिटाई
शुरू हो गई।
वे उसे घसीटने
लगे एक कड़ाहे
की तरफ जहां
आग जल रही थी।
उसने कहा कि
अरे, और
अभी आधी रात
की ही बात है, और जब मैं
आया था। यहां
तो सब हालत
बदल गई। यह तो
फिर वही जो
पुराने
ग्रंथों में
लिखा है, वही
हो रहा है। तो
शैतान ने कहा
कि जब तुम आए
थे पहली दफा, यू हैड कम एज
ए टूरिस्ट, तब आप एक
अतिथि-यात्री
की तरह आए थे।
तो वह इतना
हिस्सा हमने
आप लोगों को
देखने के लिए
बना रखा है।
यह असली नरक
है।
आदमी
जो व्यवहार से
दिखाई पड़ रहा
है,
वह असली
आदमी नहीं है;
वह आपको
दिखाने के लिए
उसने बना रखा
है। वह जो आप
कर रहे हैं, वह आप असली
नहीं हैं। उस
करने में
दूसरे पर ध्यान
है। पूजा कर
रहे हैं, प्रार्थना
कर रहे हैं, तप कर रहे
हैं, यह कर
रहे हैं, वह
कर रहे हैं; आप जो भी कर
रहे हैं, वह
आपका असली
हिस्सा नहीं
है। करने में
तो धोखा दिया
जा सकता है।
व्यवहार
आत्मा नहीं
है। और दूसरे
को तो धोखा दे
ही सकते हैं, अपने को
धोखा दे सकते
हैं। क्योंकि
करते-करते आपको
भी भरोसा हो
जाता है कि जो
मैंने किया है
वही मैं हूं।
लोग अपने
कर्मों के जोड़
को अपनी आत्मा
समझ लेते हैं।
कर्मों का जोड़
आत्मा नहीं
है। कर्मों का
जोड़ तो आत्मा
पर पड़ी धूल
है। वह गंदी
हो सकती है, वह सुगंधित
हो सकती है, यह दूसरी
बात है। लेकिन
वह धूल है जो
इकट्ठी हो गई
है।
यह जो
आप दूसरे के
संबंध में
जानते हैं वह
भी दूसरे को
जानना नहीं है; वह
भी दूसरे का
व्यवहार
जानना है।
लेकिन इस
जानकारी का
नाम लाओत्से
कहता है
विद्वत्ता
है। विद्वान
होने से बचना
और विद्वान
होने से
सावधान रहना!
अज्ञानी भी
सुने गए हैं
कि पहुंच गए
अंतिम सत्य तक,
लेकिन
विद्वान कभी
नहीं सुने गए।
और विद्वान भी
तभी पहुंचता
है जब वह पुनः
अज्ञानी होने
का साहस जुटा
लेता है।
"और जो
स्वयं को
जानता है वह
ज्ञानी।'
स्वयं
को जानना क्या
है?
किसी भी
कृत्य से इसका
संबंध नहीं है,
क्योंकि
सभी कृत्य
बहिर्मुखी
हैं। आप जो भी
करते हैं वह
बाहर जाता है।
कोई करना भीतर
नहीं लाता।
कृत्य मात्र
बाहर जाते
हैं। जैसे
पानी नीचे की
तरफ बहता है
ऐसे कृत्य
बाहर की तरफ
बहता है। वह
कृत्य का
स्वभाव है। तो
आप जो भी करते हैं
उससे स्वयं का
ज्ञान न होगा।
ऐसा कोई क्षण
आपको खोजना
पड़ेगा जब आप
कुछ भी नहीं
करते; उसी
का नाम ध्यान
है। ऐसा क्षण
जब आप कुछ
नहीं करते, मात्र होते
हैं, जस्ट बीइंग, सिर्फ
होते हैं। अगर
इतना सा शब्द
आपके खयाल में
आ जाए, सिर्फ
होना, और
आप एक क्षण को
भी चौबीस घंटे
में इस होने
की तलाश कर
लें, जब आप
कुछ भी नहीं
करते, न
शरीर कुछ करता
है, न मन
कुछ करता है; आप सिर्फ
होते हैं।
श्वास चलती है;
शरीर में
खून बहता है; वह आपको
नहीं करना
होता।
ध्यान
रहे,
जो आपके
बिना किए होता
है वह होता
रहेगा। खून बहता
रहेगा, पाचन
चलता रहेगा, श्वास चलती
रहेगी, हृदय
धड़कता
रहेगा, उसमें
आपको कुछ करना
भी नहीं पड़ता।
ऐसे भी आप कोई
हृदय को धड़काते
नहीं, खून
को चलाते नहीं;
वह चल रहा
है। वह
प्रकृति का
हिस्सा है। जो
प्राकृतिक है
वह आपके भीतर
चलता है। और
जो-जो आपने
निर्मित किया
है वह सब बंद
हो जाता है।
उस मौन
क्षण में आपको
पहली दफा अपने
से परिचय होता
है। उस परिचय
के लिए आंखों
की कोई जरूरत नहीं, हाथों
की कोई जरूरत
नहीं, कानों
की कोई जरूरत
नहीं। उस
परिचय के लिए
किसी इंद्रिय
की कोई जरूरत
नहीं। वह
परिचय अतींद्रिय
है। उस परिचय
के लिए मन की
भी कोई जरूरत
नहीं, क्योंकि
मन भी बाहर की
व्यवस्था
रखने का उपाय है।
बाहर कुछ भी
करना हो तो मन
की जरूरत है।
भीतर कुछ भी, मन की जरा भी
जरूरत नहीं
है। मन हमारा
दूसरे से
संबंध है।
दूसरे से हमारा
जो संबंधों का
जाल है उसकी
फैकल्टी, उसका
यंत्र है
हमारे भीतर
मन। स्वयं से
तो कोई संबंध
का सवाल ही
नहीं उठता।
वहां तो दो
नहीं हैं जहां
संबंध की
जरूरत हो।
वहां तो अकेले
ही हम
हैं--असंग, असंबंधित,
अकेले।
महावीर ने उस
अवस्था को
कैवल्य कहा है
अकेलेपन की वजह
से, कि
वहां सिर्फ
अकेलापन है, वहां कोई भी
नहीं है जिससे
संबंधित हुआ
जा सके।
इस
कैवल्य के
क्षण में, जब
सारा कृत्य
बंद हो गया हो,
सिर्फ
प्राकृतिक
क्रियाएं चल
रही हों और आप
सिर्फ हों, क्या होगा? अनूठी
घटनाएं घटती
हैं। क्योंकि
इस क्षण में भविष्य
समाप्त हो जाता
है, अतीत
विलीन हो जाता
है; सिर्फ
वर्तमान रह
जाता है। इस
क्षण में, दूसरों
ने जो भी आपके
संबंध में कहा
है, वह सब
खो जाता है।
इस क्षण में, जो भी आपने
शास्त्रों से,
अन्यों से
जाना है, वह
सब विलीन हो
जाता है। इस
क्षण में तो
आप जीवन-ज्योति
के साथ ही
होते हैं। इस
समय, आत्मा
क्या है, यह
सोचना नहीं
पड़ता; क्योंकि
सोचना तो तभी
पड़ता है जब आप
जानते नहीं।
सोचते हम उसी
संबंध में हैं
जिसे हम नहीं
जानते। इस
संबंध में तो
साक्षात्कार
होता है, इस
क्षण में तो
हम आमने-सामने
होते हैं।
यह जो
आमना-सामना है, यह
जो
आत्म-साक्षात्कार
है, लाओत्से
या उपनिषद, या बुद्ध या
महावीर या
कृष्ण इसको ही
ज्ञान का क्षण
कहते
हैं--मोमेंट
ऑफ नोइंग।
बाकी सब कचरा
है।
विद्वत्ता
कचरा और कचरे
का संग्रह है।
"जो
स्वयं को
जानता है वह
ज्ञानी।'
और जब
तक आप स्वयं
को न जान लें
तब तक जानना
कि आप अज्ञानी
हैं। क्योंकि
यह ध्यान अगर
बना रहे कि आप
अज्ञानी हैं
तो विद्वत्ता
का उपद्रव
आपके भीतर
पैदा न हो पाएगा।
अगर यह स्मरण
बना रहे कि
मुझे पता नहीं
है तो पता
करने की
चेष्टा जारी
रहेगी।
इस
मुल्क में यह
दुर्घटना
घटी। अब उसे उलटाने का
कोई उपाय नहीं
है। इस मुल्क
में यह बड़ी दुर्घटना
घटी है, और वह
यह है कि हमें
जीवन के सभी
सत्यों का पता
है--आत्मा का, ब्रह्म का।
ऐसा कुछ नहीं
है जिसका हमें
पता न हो।
यहां हम पैदा
होते हैं, श्वास
हम पीछे लेते
हैं, ब्रह्मज्ञान
पहले मिल जाता
है। यहां सभी
को ब्रह्मज्ञान
है। इसलिए यह
मुल्क जितना
अधार्मिक
होता जा रहा
है, उसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
लेकिन अधार्मिक
होने का कारण
न तो
पाश्चात्य
शिक्षा है, अधार्मिक
होने का कारण
न तो कम्युनिज्म
का प्रभाव है,
अधार्मिक
होने का कारण
कोई
नास्तिकता की हवाएं
नहीं हैं; अधार्मिक
होने का कारण
पांडित्य का
बोझ है।
हर आदमी
को पता है, इसलिए
खोज बंद हो
गई। इसलिए कोई
खोज पर नहीं निकलता।
आपको मालूम ही
है पहले से ही,
तो अब खोजना
क्या है? अब
खोज का कोई
अर्थ ही नहीं
है। उपनिषद
कंठस्थ हैं, गीता कंठस्थ
है; रोज
उसका पाठ चल
रहा है।
परीक्षा में
आप उत्तीर्ण
हो सकते हैं।
धर्म की कोई भी
परीक्षा हो, आपको असफल
करना मुश्किल
है। आपको सब
पता ही है।
यह सब
पता का जो भाव
पैदा हो गया
है,
यह भाव खोज
में बाधा बन
गया है। और
इससे अज्ञान
की जो शुद्धता
है, वह
नष्ट हो गई
है। अज्ञान की
शुद्धता बड़ी
कीमत की चीज
है। अज्ञान का
भाव विनम्र
करता है, खोज
के लिए तत्पर
करता है, द्वार
खोलता है।
हमारे सब
द्वार बंद
हैं। हमारे सब
बंद द्वारों
पर शास्त्रों
की कतार लग गई
है। कोई गीता
से बंद किए है,
कोई कुरान
से, कोई
बाइबिल से।
कोई महावीर की
मूर्ति अटका
कर दरवाजे को
बंद किए हुए
है कि वहां
दरवाजा न खुल
जाए।
लाओत्से
का यह विचार
खयाल में रख
लेना कि जब तक
आपको स्वयं का
कोई अनुभव
नहीं है, तब तक
सब ज्ञान
व्यर्थ है। और
उसको ज्ञान आप
मानना मत।
"जो
दूसरों को
जीतता है वह
पहलवान है; और जो स्वयं
को जीतता है
वह
शक्तिशाली।'
दूसरों
को जो जीतता
है उसके पास
शरीर की शक्ति
है;
स्वयं को जो
जीतता है उसके
पास आत्मा की
शक्ति है।
दूसरे को
जीतना बहुत
कठिन नहीं है।
दूसरे के
जीतने के लिए
सिर्फ आपको
थोड़ा ज्यादा
पशु होना
जरूरी है; और
कुछ जरूरी
नहीं है।
पहलवान का
मतलब है कि जो
आपसे ज्यादा
पाशविक है, जिसके पास
शरीर जंगली
जानवर का है।
दूसरे को जीतने
के लिए पशु
होना जरूरी
है। और जितनी
पाशविकता आप में
हो, आप
उतना दूसरे को
जीत सकते
हैं--तोड़ने की,
विध्वंस की,
हिंसा की।
स्वयं को
जीतने के लिए
बहुत मामला और
है। वहां पशु
की शक्ति काम
न आएगी। वहां
शरीर की शक्ति
भी काम न
आएगी। सच तो
यह है कि वहां
शक्ति काम ही
न आएगी।
इसे
थोड़ा समझ लें।
क्योंकि
शक्ति का
उपयोग ही दबाना
है। स्वयं को
जीतने के लिए
शक्ति काम ही
न आएगी। दूसरे
को जीतने के
लिए शक्ति के
अलावा और कुछ
काम न आएगा।
तो दूसरे को
जीतने का जितना
उपाय है वह सब
शक्ति का
फैलाव है। अगर
हम सब तरह की
शक्तियों को
देखें। व्यक्ति
अगर
शक्तिशाली है
तो दूसरों को दबाएगा, उनकी
गर्दन पर सवार
हो जाएगा।
राज्य अगर
शक्तिशाली है
तो पड़ोसियों
को हड़प
लेगा। जिसके
पास ताकत है
वह गैरत्ताकतवर
को, कम
ताकतवर को
सताएगा; उसकी
छाती पर सवार
हो जाएगा। यह
ताकत बहुत रूपों
की हो सकती
है। लेकिन
शक्ति का स्वभाव
है कब्जा करना,
दबाना, सताना,
डॉमिनेशन।
भीतर
आत्मा को भी
लोग शक्ति के
द्वारा ही
पाने की कोशिश
करते हैं, तब
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
जिस तरह
पहलवान दूसरे
से लड़ते हैं
ऐसे ही कुछ
लोग अपने से
लड़ते हैं।
अपने से लड़ने
की जरूरत ही
नहीं है।
क्योंकि वहां
लड़ाई का कोई
सवाल नहीं है।
वहां लड़ाई से
कुछ भी पाया नहीं
जा सकता।
आपने
देखा है, जानते
हैं कि लोग, साधना में
लगे हुए लोग
अपने शरीर को सताने में
लग जाते हैं, वे अपने ही
साथ पहलवानी
कर रहे हैं।
अगर वे साधु न
होते तो शैतान
होते, वे
किसी और को
सता रहे होते।
एक कम से कम
उनकी बड़ी कृपा
है कि वे खुद
को ही सता रहे
हैं। सताते वे
जरूर; उनका
रस सताने
में है। अब वे
अपने ही शरीर
पर दुश्मन की
तरह हावी हो
गए हैं।
ऐसे
साधुओं के
संप्रदाय रहे
हैं जो कांटों
पर लेटे हैं, अंगारों
पर चल रहे
हैं। ईसाइयों
में एक संप्रदाय
था साधुओं का
जो रोज सुबह
अपने को कोड़े
मारेगा। और जो
जितने ज्यादा कोड़े
मारता, उतना
बड़ा तपस्वी।
एक ऐसा
संप्रदाय रहा
है जो जूते
पहनेगा, जिनमें
भीतर खीले
लगे होंगे, जो पैर में
छिदे रहें।
कमर में पट्टा
बांधेगा, उस
पट्टे में खीले
लगे रहेंगे, जो घाव बना
दें। और जितने
ज्यादा खीले
वाला साधु, उतना बड़ा
तपस्वी।
आपको
इसमें दिक्कत
होती है।
लेकिन आप भी
यही काम कर
रहे हैं।
लेकिन जिस काम
से आप परिचित
हैं,
आदी हैं, वह आपको
दिखाई नहीं
पड़ता। अगर
साधु मोटर में
चल कर आ रहा है,
खतम। पैदल
चल कर आ रहा है,
चरणों में
आपने सिर रख
दिया। आप कर
क्या रहे हैं,
आपको पता है?
अगर साधु
ठीक दोनों
वक्त भोजन खा
रहा है, समाप्त।
आपका संबंध
टूट गया। साधु
भूखा मर रहा
है, आप सिर
पर लिए घूम
रहे हैं। आप
कर क्या रहे
हैं? जूतों
में खीले
ठोक रहे हैं; कमर में। वे खीले बहुत
साफ थे और
ईमानदार। ये खीले बहुत
बेईमान हैं, और दिखाई भी
नहीं पड़ते।
मगर इससे आप
परिचित हो गए
हैं, आदी
हो गए हैं।
आप
साधु को सुख
में देख लें
तो फौरन असाधु
हो जाते हैं।
साधु का दुख
में होना
जरूरी है।
क्या कारण
होगा? यह दुखवाद
का क्या कारण
होगा? जितना
सता रहा हो
साधु अपने को,
उतना साधु
मालूम पड़ता
है। अगर अपने बाल
नोच कर उखाड़
रहा है, तो
लगता है कि
हां, तपस्वी
है। नग्न खड़ा
है धूप, बरसात
में, तो
लगता है
तपस्वी है।
भूखा मर रहा
है, तो
लगता है
तपस्वी है। जब
उसके शरीर में
हड्डियां-हड्डियां
रह जाएं और
सारा शरीर
कृशकाय होकर
पीला दिखाई
पड़ने लगे, तब
आप कहते हैं
कि अब तपश्चर्या
का प्रभाव!
तपश्चर्या का
तेज अब प्रकट
हुआ! वह जो
पीलापन प्रकट
होता है
मृत्यु के करीब,
उसको आप
तपश्चर्या का
तेज! जब सारा
शरीर मुर्दा
हो जाता है, सिर्फ आंखें
ही बचती हैं, तब आप कहते
हैं क्या
ज्योति! पर आप
कर क्या रहे हैं?
आपकी
आकांक्षा
क्या है? आप
पर प्रभाव किस
चीज का पड़ रहा
है?
दुख का
प्रभाव पड़ रहा
है। कोई अपने
को सता रहा है, आप
उसमें रस ले
रहे हैं। और
चूंकि वह अपने
में सताने
वाला भी आपके
रस में उत्सुक
है, वह
अपने सताने
को बढ़ाए
चला जाता है।
क्योंकि
जितना वह अपने
को सताता है, उतना आपका
आदर बढ़ता है, उतना उसके
अहंकार की
तृप्ति होती
है।
एक बार
आप तय कर लें
कि एक महीने
भर के लिए इस
मुल्क में हम
किसी खुद को सताने
वाले आदमी को
आदर नहीं
देंगे, आपके
सौ में से
निन्यानबे
तपस्वी खोजे
नहीं मिलेंगे,
भाग
जाएंगे।
क्योंकि वे
आपके आदर पर
जी रहे हैं।
वे अपने को
सता रहे हैं।
ध्यान रहे, उसका
पाप-कर्म आपको
भी लगेगा।
क्योंकि
जिम्मेवार आप
भी हैं। वे
खुद ही अपने
को नहीं सता
रहे हैं, आप
भी हाथ बंटा
रहे हैं। वे
जो भी कर रहे
हैं, उसमें
आप भी सहयोगी
और साथी हैं।
शायद आप न आदर
दें तो वह
उपद्रव बंद हो
जाए। और
अहंकार सब कुछ
कर सकता है।
दूसरे
से लोग लड़ते
हैं,
समझ में आने
वाली बात है।
दूसरे को
जीतने का एक
ही उपाय है:
उससे लड़ना और
उससे ज्यादा
ताकत प्रकट
करना। लेकिन
स्वयं को
जीतने का उपाय
लड़ना नहीं है।
यह आप बाहर की
भाषा को भीतर
ला रहे हैं।
और जो बाहर
सफल होता है
वह भीतर सफल
होगा, इस
भ्रांति में
मत पड़ना।
जो बाहर सफल
होता है वह
भीतर असफल
होगा, क्योंकि
दिशाएं
बिलकुल
विपरीत हैं।
और जो गणित
बाहर कारगर है
वह गणित भीतर
बिलकुल कारगर
नहीं है।
इसलिए
जो लोग बाहर
की लड़ाई को
अनुभव किए
हैं--और हम सब
अनुभव किए
हैं।
जन्मों-जन्मों
तक जो जीवन का
संघर्ष है, उसमें
हमने जाना है
कि ताकतवर
जीतता है, कमजोर
हारता है, हिंसा
जीतती है; तो
हम दूसरे के
साथ हिंसा
करते रहे हैं।
फिर हमें खयाल
आता है स्वयं
को जानने, स्वयं
को जीतने का।
कठिनाई है
हमारी भाषा की,
क्योंकि
भाषा भी हमारी
हिंसा से भरी
है। हम दूसरे
को जीतते हैं
तो हमने भाषा
में यह भी
कहना शुरू
किया: स्वयं
को जीतना।
स्वयं को
जीतना मजबूरी
का शब्द है, क्योंकि और
कोई शब्द नहीं
है। अन्यथा यह
शब्द ठीक नहीं
है। क्योंकि
यहां जीत का
सवाल ही नहीं
है। जीत का
सवाल ही हिंसा
और शक्ति से
जुड़ा हुआ है।
भीतर तो वही
व्यक्ति
जीतता है, या
भीतर तो वही
व्यक्ति सफल
होता है, भीतर
तो वही जानने
में पहुंच
पाता है, ज्ञान
में पहुंच
पाता है, जो
लड़ता ही नहीं,
जो शक्ति का
उपयोग ही नहीं
करता, जो
शक्ति को
बिलकुल
निरुपयोगी
छोड़ देता है।
इसे
थोड़ा समझें।
क्योंकि
शक्ति जब
उपयोग की जाती
है तो क्षीण
होती है।
इसलिए बाहर जो
भी लड़ता है वह
रोज क्षीण
होता है। वह
भला आज आपकी
गर्दन पर सवार
हो जाए, लेकिन
गर्दन पर सवार
होने में उसने
शक्ति खोई है,
क्योंकि
शक्ति का
उपयोग किया
है। गर्दन पर
सवार होने के
पहले वह जितना
शक्तिशाली था
उतना अब नहीं
है, मात्रा
कम हो गई है।
इसलिए अगर
नीचे का आदमी,
जो नीचे गिर
पड़ा है, होशियार
हो, तो
लड़ने की जरूरत
नहीं है, वह
दूसरे आदमी को
ही लड़ा कर
हरा दे सकता
है।
तो
जापान में ताओ
के प्रभाव में
एक कला विकसित
हुई है, जूडो। जूडो
इस बात की कला
है कि जब आप पर
कोई हमला करे
तो आप उसको उकसाएं
कि वह हमला करे,
आप उसको सब
भांति उकसाएं
कि वह पागल हो
जाए, और आप
शांत रहें। और
जब वह हमला
करे तो आप
उसके हमले को
पी जाएं। वह
आपको घूंसा
मारे तो आपका हाथ
भी रेसिस्ट
न करे, आप
हाथ भी अकड़ाएं
न कि उसके
घूंसे को
रोकना है। आप
हाथ को गद्दी की
तरह, तकिए
की तरह बना
लें कि उसका
घूंसा हाथ पी
जाए। जूडो
की कला कहती
है कि उसके
घूंसे से जो
ताकत आ रही थी
वह आपका हाथ
पी लेगा।
और यह
सच है।
क्योंकि जब आप
हाथ को रोक
लेते हैं
शक्ति से, तो
आपकी हड्डी जो
टूट जाती है
वह उसकी ताकत
से नहीं टूटती,
आपके रेसिस्टेंस
से टूटती है।
आपका जो अकड़ापन
है वह तोड़
देता है। अगर
आप बिलकुल अकड़े
न हों...।
देखें, एक
शराबी सड़क पर
गिर पड़ता है।
आप गिर कर
देखें! आप
हड्डी-पसली
तोड़ कर घर आ
जाएंगे।
शराबी जरूर
कोई कला जानता
है जो आप नहीं
जानते।
क्योंकि वे कई
दफे गिर रहे
हैं, और
कुछ नहीं हो
रहा; सुबह
वे फिर दफ्तर
चले जा रहे
हैं मजे से। न
कोई हड्डी
टूटी, न
कोई बात हुई।
आखिर शराबी
कौन सी कला
जानता है जो
आप नहीं जानते?
और वे
बेहोशी में
गिरे थे, उनकी
ज्यादा
हड्डियां टूटनी
चाहिए थीं। आप
होश में गिरे
हैं, आपकी
हड्डियां
नहीं टूटनी
थीं।
लेकिन
जब आप होश में
होते हैं तो
गिरते वक्त आप
रेसिस्टेंस
से भर जाते
हैं;
आप अकड़ जाते
हैं। आप बचाव
की कोशिश करने
लगते हैं। उस
कोशिश में और
जमीन की टक्कर
में हड्डी टूट
जाती है।
शराबी को पता
ही नहीं है कि
वे गिर रहे
हैं, कि
जमीन उन पर
गिर रही है, या कुछ हो
रहा है। वे
ऐसे गिरते हैं,
इतनी सरलता
से, बिना
किसी विरोध के,
कि जमीन
उन्हें
नुकसान नहीं
पहुंचा पाती।
भीतर
जो यात्रा है
वह यात्रा
बाहर की
यात्रा से
बिलकुल भिन्न
है। बाहर आप
लड़ेंगे, आपकी
शक्ति क्षीण
हो रही है, आप
कमजोर हो रहे
हैं। आप दिखाई
पड़ेंगे जीत कर
कि बड़े
शक्तिशाली हो
गए हैं; लेकिन
आप कमजोर हो
गए हैं, आपने
कुछ खोया है।
भीतर आप शक्ति
का बिलकुल उपयोग
न करें। कोई
उपयोग की
जरूरत भी नहीं
है। शक्ति को
मौजूद रहने
दें, और
आपकी शक्ति
भीतर बढ़ती
जाएगी। बिना
उपयोग किए हुए
शक्ति एक
आंतरिक संपदा
बन जाती है, और बिना
उपयोग किए हुए
शक्ति शांति
बन जाती है।
शक्ति का जो
बिना उपयोग
किया हुआ रूप
है उसका नाम
ही शांति है।
शांति कोई
नपुंसकता
नहीं है। वह
कोई कमजोरी का
नाम नहीं है; वह महाशक्ति
का नाम है।
लेकिन जिसका
उपयोग नहीं
किया गया, जिसने
अपना घर नहीं
छोड़ा, जो
अपने घर में
ही विराजमान
है, जो
बाहर नहीं गई;
जिसमें
तरंगें नहीं
उठीं, ऐसी
झील है।
महाशक्ति
उपलब्ध होती
है, लेकिन
वह शक्ति
उपयोग से
उपलब्ध नहीं
होती, अनुपयोग
से।
इसलिए
लाओत्से का
सारा जोर
नॉन-एक्शन पर
है। वह कहता
है कि तुम
जितना क्रिया
को शांत कर दो, उतने
महाशक्तिशाली
हो जाओगे। और
इस महाशक्ति
में स्वयं का
जानना और स्वयं
की जीत अपने
आप घटित हो
जाती है। यह
कोई लड़ाई नहीं
है। यह तो
सिर्फ शक्ति
की मौजूदगी में
घट जाता है।
जैसे
सूरज निकलता
है और फूल खिल
जाते हैं; कोई
सूरज को आकर
फूलों को
खिलाना नहीं
पड़ता। सूरज
निकलता है, पक्षी गीत
गाने लगते हैं;
कोई एक-एक
पक्षी के कंठ
को खटखटाना
नहीं पड़ता कि
अब गीत गाओ।
सूरज कुछ करता
ही नहीं; उसकी
मौजूदगी, और
जीवन संचरित
हो जाता है।
जिस
दिन आपके भीतर
आप सिर्फ
मौजूद होते
हैं--शांत
मौजूद, जस्ट योर
प्रेजेंस, सिर्फ
उपस्थिति--आपकी
उपस्थिति में
जो महाशक्ति
प्रकट हो जाती
है, विजय
घट जाती है।
भीतर की विजय
कोई संघर्ष
नहीं है। भीतर
की विजय कोई
युद्ध नहीं
है। भीतर की
विजय कोई दमन
नहीं है।
लाओत्से
कहता है, "जो
दूसरों को
जीतता है वह
पहलवान है; और जो स्वयं
को जीतता है
वह
शक्तिशाली।'
जो
दूसरों को
जीतता है वह
व्यर्थ ही
अपनी शक्ति खो
रहा है। आखिर
में उसके हाथ
खाली रह
जाएंगे। आखिर
में वह पाएगा, उसकी
मुट्ठियों
में सिवाय राख
के और कुछ भी
नहीं है। और
जो स्वयं को
जीत लेता है
वही वस्तुतः
शक्ति का
उपयोग कर रहा
है। उसने
जीवन-ऊर्जा में
जो भी छिपा था
मूल्यवान, सुंदर,
सत्य, वह
सभी पा लिया
है।
आप दो
तरह का उपयोग
कर सकते हैं
शक्ति का: एक
तो बाहर
दूसरों को
जीतने में और
एक भीतर स्वयं
को जीतने में।
दोनों का गणित
अलग है और
दोनों का
तंत्र अलग है, दोनों
के काम का ढंग
अलग है। बाहर
शक्ति को हिंसात्मक
होना पड़ता है;
भीतर शक्ति
को
अहिंसात्मक
होना पड़ता है।
बाहर शक्ति
विध्वंस करती
है; भीतर
शक्ति
सृजनात्मक हो
जाती
है--आत्म-सृजन,
स्वयं का
आविष्कार।
लेकिन
भाषा की
मजबूरी है। हम
जो बाहर के
लिए उपयोग
करते हैं वही
भीतर के लिए
उपयोग करना
पड़ता है।
लेकिन आप फर्क
समझ लेंगे। यह
कोई जीत नहीं
है,
क्योंकि
यहां न कोई
हारने को है
भीतर और न कोई जीतने
को है। यहां
दो नहीं हैं
कि हार-जीत हो
सके। इसलिए जो
लड़ने में लग
जाता है वह
द्वंद्व में
पड़ जाता है।
और उसका
द्वंद्व उसे
और भी रुग्ण
कर देता है। द्वंद्वग्रस्त
संन्यासी, साधक,
योगी चौबीस
घंटे एक ही
काम में लगा
है, अपने
से लड़ने के
काम में लगा
है। इस काम
में कभी भी
विजय आती
नहीं। कौन
जीतेगा? कौन
हारेगा? वहां
दो नहीं हैं।
और इस लड़ने
में वह अपनी
शक्ति खो रहा
है।
इधर
मैंने अनुभव
किया। एक युवक
मेरे पास आए।
कोई दस-पंद्रह
वर्ष होते
होंगे। उस समय
उनकी उम्र कोई
पैंतीस-चालीस
के बीच में
रही होगी। साधक!
बड़ी तीव्रता
से खोज में
लगे हुए!
उन्होंने
मुझसे पूछा कि
अभी तक मैं
अपने को
कामवासना से
रोक रहा हूं, लड़
रहा हूं, ब्रह्मचर्य
को साधने की
कोशिश कर रहा
हूं। क्या मैं
इसमें सफल हो जाऊंगा? मैंने उनसे
कहा कि
पैंतालीस साल
तक तो सफलता का
आसार रहेगा, पैंतालीस
साल के बाद
हार शुरू हो
जाएगी।
उन्होंने कहा,
आप क्या
कहते हैं!
मेरे गुरु ने
तो मुझे कहा
है कि यह थोड़े
ही दिन का
उपद्रव है; जवानी चली
जाएगी, झंझट
खत्म हो
जाएगी। तो
मैंने कहा कि
जब तुम पैंतालीस
के हो जाओ तब
फिर तुम मेरे
पास आ जाना।
अब वे
पैंतालीस के
होकर मेरे पास
आए थे। वे कहने
लगे कि आपने
ठीक कहा था।
मुसीबत बढ़नी
शुरू हो गई। पूछने
लगे कि मेरी
समझ में नहीं
आता इसका गणित
क्या है? क्योंकि
तीस साल में
इतनी मुसीबत
नहीं थी, अब
पैंतालीस में
उससे ज्यादा
हो रही है।
तो
मैंने उनसे
कहा कि तीस
साल में
तुम्हारे पास
लड़ने की शक्ति
ज्यादा थी; पैंतालीस
साल में कम हो
गई। और जिससे
तुम लड़ रहे हो
वह शक्ति उतनी
की उतनी है।
तुम लड़-लड़ कर
चुक रहे हो, कामवासना को
दबा-दबा कर
परेशान हो रहे
हो। वह दबाने
वाला कमजोर
होता जा रहा
है और वासना
अपनी जगह पड़ी
है।
पैंतालीस
साल के बाद
ब्रह्मचारियों
को बड़ा कष्ट
शुरू होता है।
और असली तकलीफ
तो साठ के बाद
शुरू होती है।
इसलिए आमतौर
से लोग सोचते
हैं कि अब तो
साठ साल का हो
गया फलां आदमी
और अभी तक
परेशान है!
असली परेशानी
ही तब शुरू
होती है।
क्योंकि वह
दबाने वाली
ताकत क्षीण हो
गई;
वह लड़ने
वाला कमजोर हो
गया; लड़-लड़
कर हार गया, थक गया। वह
जो दबाता था, हार चुका है;
और जिसको
दबाता था, वह
ताजा है। जो
लोग कामवासना
को भोग लेते
हैं वे शायद
साठ साल में
कामवासना के
बाहर भी हो जाएं,
लेकिन जो
लड़ते रहते हैं
वे मरते दम तक
बाहर नहीं हो
पाते।
क्योंकि उनकी
कामवासना
जवान ही बनी
रहती है। वे
तो बूढ़े हो जाते
हैं, वे तो
थक जाते हैं, टूट जाते
हैं, और
वासना बड़ी
ताकतवर बनी
रहती है। तब
बेचैनी शुरू
होती है, तकलीफ
शुरू होती है।
लड़ कर
भीतर आप सिर्फ
उपद्रव कर
सकते हैं, और
जीवन, समय
और अवसर खो
सकते हैं।
लड़ने का सवाल
नहीं है; समझ
का सवाल है।
लड़ने की बात
ही गलत है; द्वंद्व
खड़ा करना ही
गलत है। ऐसा
भी सोचना कि
इसे रोकना है,
गलत है।
क्योंकि जिसे
आप रोक रहे
हैं वह भी आप हैं,
और जो रोक
रहा है वह भी
आप हैं। यह
ऐसा है जैसे मैं
अपने दोनों
हाथों को लड़ाने
लगूं। कौन
जीतेगा, बायां
या दायां? कोई
भी नहीं जीत
सकता।
हां, यह
हो सकता है कि
मैं एक ऐसी
परंपरा में
पला होऊं जहां
मैंने सुन रखा
हो कि दायां
हाथ गलत
है--जहां
मैंने सुन रखा
हो कि दायां
हाथ गलत या
बायां गलत, एक ठीक है और
एक गलत है--तो
मैं पूरा का
पूरा वजन अपना
उस हाथ पर रख
लूंगा जो ठीक
मैंने सुन रखा
है, और जो
हाथ गलत है
उसको वजन नहीं
दूंगा। लेकिन
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
वह हाथ मेरा
ही है। और वजन
दूं या न दूं, चाहे मैं
अपनी ताकत
पूरी दाईं तरफ
से लगाऊं तो
भी बायां मेरा
है, और मैं
न भी लगाऊं तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता। और मजे
की बात यह है
कि जब मैं
ताकत बाएं हाथ
को न दूंगा और
दाएं हाथ को
दूंगा, तो
थोड़ी देर में
दायां हाथ थक
जाएगा और
बायां ताजा
रहेगा।
क्योंकि
जिसको ताकत दी
गई है वही थकेगा,
बायां थकेगा
नहीं। और आखिर
मैं पाऊंगा कि
बायां जीत
जाएगा। जरा सी
ताकत, और
बायां दाएं को
नीचे कर देगा।
इसलिए
ब्रह्मचर्य
में लड़ने वाले
लोगों पर कामवासना
क्षण भर में
जीत जाती है; उसमें
देर नहीं
लगती। भोगी को
प्रभावित
करना बहुत
मुश्किल है।
इंद्र
भोगियों के
पास जरा अप्सराओं
को भेज कर
देखे; वे
बैठे अपनी
सिगरेट ही
पीते रहेंगे।
मगर ऋषि-मुनि
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाते
हैं, एकदम
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
उनको हिलाने में
दिक्कत ही
नहीं होती।
खूबी अप्सराओं
की नहीं है, खूबी
ऋषि-मुनियों
की है। वे जिस
बुरी तरह दबा कर
बैठे हैं, जिससे
दबाया है वह
कमजोर हो गया
और जिसको दबाया
है वह ताकत से
भरा है। और
अप्सराएं
भेजने की कोई
जरूरत नहीं है,
कोई भी
स्त्री काम
करेगी। और वह
जो ऋषि-मुनियों
को अप्सराएं
बहुत सुंदर
दिखाई पड़ी हैं,
वे
अप्सराएं
सुंदर थीं, इसका पक्का
सबूत नहीं है;
ऋषि-मुनियों
की वासना प्रगाढ़
थी, इसका
सबूत है। वह प्रगाढ़
वासना किसी भी
चीज को सुंदर
कर देती है।
स्त्री होना
काफी है। प्रोजेक्शन
है सौंदर्य तो,
वह भीतर का
प्रक्षेपण है
बाहर।
भोगियों के
पास भेजना
बहुत मुश्किल
है।
इसीलिए
आजकल इंद्र ने
भेजना बिलकुल
बंद कर दिया
है। आपको कहीं
अप्सराएं
दिखाई न
पड़ेंगी। क्योंकि
किसको भेजिए? कोई
डिगाने
को है ही
नहीं। कोई अकड़
कर बैठा ही
नहीं है जिसको
हिलाना हो।
लोग इतने हिल
चुके हैं कि
अप्सरा को देख
कर सो
जाएंगे--इतने
थके-मांदे
बैठे हैं।
भोगी भ्रष्ट
नहीं होता।
आपने कभी
भ्रष्ट भोगी
शब्द सुना है?
भ्रष्ट
योगी शब्द
सार्थक है।
कारण क्या
होगा?
संघर्ष, लड़ाई
की दृष्टि, अंतर-जगत
में घातक है।
और साधक को
सावधान होने
की जरूरत है
कि भीतर वह
लड़ना शुरू न
कर दे और भीतर
किसी तरह का
द्वंद्व खड़ा न
करे, दुश्मन
खड़ा न करे।
भीतर जो भी है
उसे आत्मसात कर
ले अपने में।
कामवासना है
तो भी मेरी है;
क्रोध है तो
भी मेरा है; जो भी है
भीतर वह मैं
हूं। मेरा है
कहना भी ठीक नहीं,
मैं हूं। और
उस सबके साथ
मुझे एक आत्म,
एक आत्मिक
संबंध; और
उस सबके साथ
एक गहरी
मैत्री, एक
आत्मीयता, एक
निकटता, एक
अपनापन
निर्मित करना
है। और
जैसे-जैसे यह
आत्मीयता
इकट्ठी होने
लगती है
वैसे-वैसे
वासना की जो
शक्ति बाहर
बहती है, वह
बाहर न बह कर
भीतर बहने
लगती है।
अभी
वासना की
शक्ति बाहर
बहती है, क्योंकि
रस आपका बाहर
है। और जब रस
आपका भीतर
होता है तो
यही शक्ति
भीतर बहने
लगती है। जो
वासना अभी काम
बन जाती है वही
वासना राम भी
बन जाती है।
सिर्फ अंतर है
उसके बाहर और
भीतर बहने का।
अभी मैं दूसरे
में उत्सुक
हूं तो मेरी
वासना की
शक्ति उस तरफ
बहती है। और
जब मैं अपने
में उत्सुक
हूं और स्वयं
की खोज में
लीन हूं तो
वही शक्ति मेरी
तरफ बहने लगती
है। लेकिन वह
बहेगी तब जब
मैत्री का एक
द्वार खुला हो;
वह बहेगी तब
जब मैत्री की
एक रेखा खिंची
हो जिससे वह
भीतर आ जाए।
दुश्मन की तरह
वह भीतर नहीं
आ सकती है।
दुश्मन की तरह
उसके लिए कोई
निमंत्रण
नहीं है।
अगर
कोई व्यक्ति
अपनी प्रकृति
की सारी शक्तियों
को सहज आनंद
से स्वीकार कर
ले,
परमात्मा
की देन मान कर
अहोभाव से
स्वीकार कर ले,
तो वह पाएगा
कि वासनाओं को
जीतने की
जरूरत नहीं
है। जीतने की
बात ही फिजूल
है। अपनी ही
वासनाओं को
खुद जीतने का
क्या सवाल है?
मेरी ही
वासनाएं हैं।
मैं उन्हें
बाहर की तरफ
ले जाता हूं; वे बाहर
जाती हैं। मैं
भीतर में
उत्सुक हो गया;
वे भीतर आनी
शुरू हो जाती
हैं। और जब
अपनी ही वासनाओं
की ऊर्जा भीतर
की तरफ बहनी
शुरू होती है
और जब कामना
आत्म-कामना
बनती है, तब
जिनको हमने
आप्तकाम कहा
है, उस अवस्था
की उपलब्धि
होती है।
आप्तकाम का
अर्थ है: जिसकी
सारी
कामवासना
अंतर्मुखी हो
गई, जो
अपनी
कामवासना का
स्वयं ही
लक्ष्य हो गया,
और जिसकी
सारी नदियां
अब किसी और
सागर की तरफ
नहीं जातीं, अपने भीतर
के सागर में
ही गिर जाती
हैं।
"जो
संतुष्ट है वह
धनवान है; जो
दृढ़मति
है वह संकल्पवान
है। जो अपने
केंद्र से
जुड़ा है वह
मृत्युंजय है;
और जो मर कर
जीवित है वह
चिर-जीवन को
उपलब्ध होता
है।'
जो
संतुष्ट है वह
धनवान है। इस
वचन को हम
बहुत सुनते
हैं;
लोकोक्ति
बन गया। लेकिन
हम समझते हैं,
इसमें शक
है। लोग
समझाते हैं, वे भी समझते
हैं, इसमें
शक है। संतोष
बड़ा धन है और
संतुष्ट व्यक्ति
सदा सुखी है, ऐसा हम
सुनते हैं। और
कोई दुखी होता
है तो उसको भी
हम कहते हैं:
संतोष रखो; क्योंकि
संतोष से बड़ा
सुख मिलता है।
ध्यान रहे, संतोष से
सुख मिलता है,
यह बात गलत
है। संतुष्ट
व्यक्ति सुखी
होता है, यह
बात सही है; लेकिन संतोष
से सुख मिलता
है, यह बात
गलत है।
इस
फर्क को आप
समझ लेंगे तो
इस सूत्र का
रहस्य खयाल
में आ जाएगा।
संतोष
से सुख मिलता
है,
ऐसा हम
समझाते हैं।
कोई दुखी है, परेशान है; हम कहते हैं,
संतुष्ट
रहो, संतोष
से सुख मिलेगा;
संतोष से
बड़ा धन नहीं
है। आप कह
क्या रहे हैं?
आप यह कह
रहे हैं कि
तेरे लोभ को
तू संतोष की
तरफ लगा; क्योंकि
संतोष से सुख
मिलेगा। और तू
सुख चाहता है
तो संतुष्ट हो
जा। लेकिन
ध्यान सुख पर
है; पाना
सुख है। और
मजा यह है कि
वह दुखी
इसीलिए हो रहा
है कि वह कोई
सुख पाना चाह
रहा था जो उसे
नहीं मिला है।
अब उसके दुख
का कारण क्या
है? उसके
दुख का कारण
यह है कि वह
सुख चाहता था
कोई, जो
नहीं मिला है,
इसलिए दुखी
है। सुख चाहने
के कारण दुखी
है। और हम
उससे कह रहे
हैं, सुख
तुझे चाहिए हो
तो संतुष्ट हो
जा। हम संतुष्ट
होने की भी
बात इसलिए कह
रहे हैं कि तू
ताकि सुख पा
सके। सुख की
वासना को हम जलाए हुए
हैं; उसको
हम तेल दे रहे
हैं; उस लौ
को हम और उकसा
रहे हैं। उसी
के कारण वह दुखी
है।
तो
ध्यान रहे, संतोष
से सुख मिलेगा,
यह बात गलत
है। हां, संतुष्ट
जो है वह सुखी
है, यह बात
सच है। संतोष
कारण नहीं है
और सुख कार्य
नहीं है।
संतोष, सुख
के बीच जो
संबंध है, वह
कार्य-कारण का
नहीं है कि आप
संतुष्ट हो जाएं
तो आप सुखी हो
जाएं। संतोष
और सुख के बीच
जो संबंध है
वह वैसा है
जैसा आपके और
आपकी छाया के
बीच है। वह
कार्य-कारण का
नहीं है। जहां
आप हैं वहां
आपकी छाया है।
सुख संतोष की
छाया है, उसका
फल नहीं है।
इसलिए जो आदमी
सुखी होने के लिए
संतुष्ट होगा
वह न तो
संतुष्ट होगा
और न सुखी
होगा।
क्योंकि उसका
ध्यान ही गलत
है। सुख की
जहां कामना है
वहां संतोष हो
ही नहीं सकता।
संतोष का मतलब
ही यह है कि
सुख की हमारी
कोई मांग नहीं
है। संतोष का
मतलब यह है कि
जो हमारे पास
है उसमें सुख
भोगने की कला
हम जानते हैं।
इसको फर्क को
समझ लें।
संतोष का मतलब
है सुख की कला;
जहां भी हम
हैं, जो भी
हमारे पास है,
उसमें सुख
लेने की कला।
इपीकुरस
यूनान का सबसे
बड़ा
भौतिकवादी
दार्शनिक हुआ, ठीक
चार्वाक
जैसा। पर न तो
चार्वाक को
लोग समझ पाए
अब तक और न इपीकुरस
को समझ पाए। इपीकुरस
कहता है कि
सुखी रहो।
हमें लगता है
कि भोगवादी
है। पर इपीकुरस
कुछ बात ही
बड़ी गजब की कह
रहा है। वह यह
कह रहा है कि
जो भी है
उसमें सुख ले
लो पूरा। वही
चार्वाक ने भी
कहा है कि जो
भी तुम्हारे
हाथ में है उससे
पूरा सुख निचोड़
लो; सुख को
आगे पर मत
टालो।
क्योंकि जो
समय खो जाएगा
उसे तुम पा न
सकोगे। और
टालने की आदत
अगर बन गई तो
तुम टालते ही
चले जाओगे, तुम कभी सुख
पा न सकोगे।
संतुष्ट
होने का मतलब
यह है कि जो
तुम्हारे पास
है उससे तुम
इतना सुख ले
लो कि संतोष
झर जाए, भर
जाए। तुम टालो
मत आगे। और
तुम संतुष्ट
होने की कोशिश
करोगे ताकि कल
सुख मिले, तो
तुम न संतुष्ट
हो सकते हो, न सुख पा
सकते हो। तुम
सुख आज ही पा
लो; तुम
संतुष्ट हो
जाओगे।
क्योंकि जब
सुख भविष्य
में नहीं होता
तो असंतुष्ट
होने का कारण
नहीं रह जाता।
भविष्य का सुख
असंतुष्ट
होने का कारण
है। भविष्य की
अपेक्षा फ्रस्ट्रेशन
का, विषाद
का कारण है।
इपीकुरस से
मिलने यूनान
का सम्राट गया
था। देख कर
दंग हुआ। उसने
भी सोचा था, यह
नास्तिक इपीकुरस!
न ईश्वर को
मानता, न
आत्मा को
मानता, सिर्फ
आनंद को मानता
है; बिलकुल,
निपट
नास्तिक है!
तो सोचा था
उसने, पता
नहीं यह क्या
कर रहा होगा।
जब वे पहुंचे
वहां तो बहुत
हैरान हुए। इपीकुरस
का बगीचा था
जिसमें उसके
शिष्य और वह
रहता था।
सम्राट ने उसे
देखा तो वह
इतना शांत
मालूम पड़ा
जैसा कि
ईश्वरवादी
कोई साधु कभी
दिखाई नहीं
पड़ा था। वह
बहुत खुश हुआ
उसके आनंद को
देख कर। उनके
पास कुछ
ज्यादा नहीं
था; लेकिन
जो भी था वे
उसके बीच ऐसे
रह रहे थे
जैसे सम्राट
हों।
सम्राट
ने कहा कि मैं
कुछ भेंट
भेजना चाहता हूं।
डरता था
सम्राट--कि इपीकुरस
से कहना कि
भेंट भेजना
चाहता हूं, जो
भौतिकवादी, पता नहीं, साम्राज्य
ही मांग
ले--डरता था।
तो उसने कहा, फिर भी उसने
कहा कि आप जो
कहें, मैं
भेज दूं। तो इपीकुरस
बड़े सोच में
पड़ गया। उसके
माथे पर, कहते
हैं, पहली
दफा चिंता आई।
उसने आंखें
बंद कर लीं; उसके माथे
पर बल पड़ गए।
और सम्राट ने
कहा कि आप इतने
दुखी क्यों
हुए जा रहे
हैं?
तो इपीकुरस
ने कहा, जरा
मुश्किल है, क्योंकि हम
भविष्य का कोई
विचार नहीं
करते। और आप
कहते हैं कुछ
मांग लो, कुछ
आप भेजना
चाहते हैं। तो
बड़ी मुश्किल
में आपने डाल
दिया। हमारे
पास जो है हम
उसमें आनंद
लेते हैं, और
जो हमारे पास
नहीं है उसका
हम विचार नहीं
करते। अब
इसमें मुझे
विचार करना
पड़ेगा, जो
मेरे पास नहीं
है, आपसे
मांगने का।
तो
उसने कहा कि
एक ही रास्ता
है। एक
नया-नया आदमी
आज ही आश्रम
में भरती हुआ
है। वह अभी
इतना निष्णात
नहीं हुआ आनंद
में,
उससे हम पूछ
लें। मगर वह
जो नया-नया
आश्रम में आया
था, इपीकुरस के ही आश्रम
में आया था, सोच-समझ कर
आया था। उसने
भी बहुत
सोच-समझ कर यह कहा
कि आप ऐसा
करें, थोड़ा
मक्खन भेज दें;
यहां रोटियां
बिना मक्खन की
हैं।
सम्राट
ने मक्खन भेजा
नहीं, वह मक्खन
साथ लेकर आया।
वह देखना
चाहता था कि
मक्खन का कैसा
स्वागत होता
है। उस दिन
आश्रम में ऐसा
था जैसे
स्वर्ग उतर
आया हो। वे सब
नाचे, आनंदित
हुए; मक्खन
रोटी पर था! वह
सम्राट अपने
संस्मरणों में
लिखवाया है कि
मुझे भरोसा
नहीं आता कि
मैंने जो देखा
वह सत्य था या
स्वप्न।
क्योंकि मेरे
पास सब कुछ है
और मैं इतना
आनंदित नहीं
हूं और उस रात
सिर्फ रोटी पर
मक्खन था और
वे सब इतने
आनंदित थे!
जो है
उसमें सुख
लेने की कला
संतोष है।
संतोष का मतलब
समझ लें।
संतोष कोई
अपने आपको
समझा लेना
नहीं है, कोई
कंसोलेशन
नहीं है, कि
अपने मन को समझा
लिया कि नहीं
है अपने पास
तो अब उसकी
क्या मांग
करना। जो नहीं
है वह नहीं है,
जो है इसी
में भगवान को
धन्यवाद दो।
वैसे मन में
लगा ही है कि
वह होना चाहिए
था। क्योंकि
जो नहीं है, उसका भी
क्या विचार
करना? जो
नहीं है उसका
कोई विचार
नहीं, और
जो है उसका रस;
उस रस में
लीन हो जाने
से संतोष
जन्मता है। और
संतोष सुख है,
संतोष धन
है।
असंतुष्ट
सदा निर्धन है, उसके
पास कितना ही
हो; क्योंकि
वह जो है उसका
तो हिसाब ही
नहीं रखता, वह तो जो
नहीं है उसका
हिसाब रखता
है। तो असंतुष्ट
सदा निर्धन है,
क्योंकि
अभाव का हिसाब
रखता है, वह
जो नहीं है
उसका हिसाब
है। संतुष्ट
धनवान है, क्योंकि
वह उसका ही
हिसाब रखता है
जो है। और जो
है वह इतना है
कि आपने कभी
उसका हिसाब
नहीं रखा, इसलिए
आपको पता नहीं
है।
सुना
है,
एक सूफी
फकीर से एक
युवक ने कहा
कि मैं आत्महत्या
कर लेना चाहता
हूं, क्योंकि
जिंदगी में
कोई रस नहीं; मेरे पास
कुछ भी नहीं
है। उस फकीर
ने कहा, तू
घबड़ा मत। एक
सम्राट से
मेरी पहचान
है। और जो
तेरे पास है, तुझे परख
नहीं, लेकिन
मुझे परख है; मैं बिकवा
दूंगा। उसने
कहा कि मेरे
पास कुछ है ही
नहीं, बिकवा क्या देंगे?
देखते हैं,
खाली हूं
बिलकुल, झोला
भी मेरे पास
नहीं है
जिसमें कुछ रख
सकूं। उसने कहा,
तू फिक्र न
कर, मेरे
साथ आ। वह उसे
महल के दरवाजे
पर ले गया। भीतर
से लौट कर आया
और उसने कहा
कि एक लाख अगर
दिलवा दूं तो
क्या खयाल है?
पर उसने कहा
कि बेच कौन सी
चीज रहे हैं? उस सूफी
फकीर ने कहा
कि तेरी आंखों
का सौदा कर
आया हूं।
सम्राट कहता
है, एक लाख
में खरीद
लेंगे दोनों।
उसने कहा, क्या
कहते हैं? आंख?
वह दस लाख
में भी मांगता
हो तो मैं बेच
नहीं सकता
हूं। वह सूफी
फकीर कहने लगा,
अभी तू कह
रहा था मेरे
पास कुछ है
नहीं और अब तू दस
लाख में आंख
बेचने को
तैयार नहीं
है। मैं तेरा
कान भी बिकवा
सकता हूं, तेरे
दांत भी बिकवा
सकता हूं; और
भी कई चीजें
हैं जो मैं बिकवा
सकता हूं। तू
बोल, ग्राहक
मेरी नजर में
हैं सब तरफ।
करोड़ों रुपए के
ढेर लगवा
दूंगा तेरे
पास। उस आदमी
ने कहा कि तू
और खतरनाक है।
इससे तो मैं
मर जाता वह
बेहतर था।
आपसे कहां
मेरी मुलाकात
हो गई!
आपके
पास जो है
उसका आपको तब
तक पता नहीं
जब तक वह छीन न
लिया जाए। यह
बड़े मजे की
बात है। आपकी आंख
चली जाए, तब
आपको पता चलता
है आंख थी। कई
लोगों को मर
कर पता चलता
है कि हम
जिंदा थे; उसके
पहले उनको पता
ही नहीं चलता।
जो आपके पास
है वह दिखता
ही नहीं, उसका
हिसाब ही
नहीं। वह
हमारी आदत ही
नहीं है।
संतोष
का अर्थ है: जो
है उसका रस, उसका
बोध। असंतोष
का अर्थ है: जो
नहीं है उसका रस,
उसका बोध।
और संतोष धन
है।
"और जो
दृढ़मति
है वह संकल्पवान
है। ही हू इज़
डिटरमिंड
हैज स्ट्रेंग्थ
ऑफ विल।'
जो
निश्चय करने
की क्षमता
रखता है। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता कि
निश्चय क्या
है। निश्चय की
क्षमता! आपके
पास बिलकुल
निश्चय की
क्षमता नहीं
है। अगर आप यह
भी निश्चय
करें कि इस
अंगुली को
पांच मिनट तक सीधा
रखेंगे, आप
हजार दफे हिला
लेंगे। इतना
भी कि एक दो
मिनट मैं आंख
खुली रखूंगा,
तो बस आंख
जवाब देने
लगेगी। आप
हजार कारण
निकाल लेंगे
और आंख को झपका
लेंगे।
डिसीसिवनेस! कि
कोई निर्णय
लिया तो उस
निर्णय को
टिकने देना।
निर्णय के
टिकने देने
में आप इकट्ठे
होते हैं; संकल्प
पैदा होता है।
सच कहें तो
आत्मा पैदा होती
है। चाहे वह
कितना ही छोटी
बात क्यों न
हो; छोटी
और बड़ी बात का
सवाल नहीं है।
जब आप किसी बात
पर एक निर्णय
लेते हैं--और
निर्णय लेते
ही विकल्प का
कोई सवाल नहीं
रह जाता; बात
समाप्त हो गई;
अब लौटने का
कोई उपाय न
रहा। ऐसी
भाव-दशा में आप
इकट्ठे हो
जाते हैं; आप
टूट नहीं
सकते।
लेकिन
अभी आप छोटा
सा भी निर्णय
लेते हैं, तो
जब आप निर्णय
ले रहे हैं तब
भी आप
भलीभांति जानते
हैं कि यह
चलने वाला
नहीं है। यह
बड़े मजे की
बात है! जब आप
ले रहे हैं तब
भी आप जानते
हैं कि यह
चलने वाला
नहीं है। यह
जो भीतर से कह
रहा है कि
चलने वाला
नहीं है, यही
उसको मिटाएगा,
यही उसको तोड़ेगा।
सुना
है मैंने कि
विवेकानंद का
एक प्रवचन एक
बूढ़ी औरत ने
सुना। वह भागी
हुई घर गई।
क्योंकि विवेकानंद
ने बाइबिल का
एक वचन उद्धृत
किया था और
कहा था कि फेथ
कैन मूव माउंटेन्स, विश्वास
से पहाड़ भी
हटाए जा सकते
हैं। उस बूढ़ी
औरत के मकान
के पीछे एक
पहाड़ी थी। तो
उसने सोचा कि
हद हो गई, अब
तक इसका अपने
को पता ही
नहीं था। अगर
विश्वास से
पहाड़ी हटाई जा
सकती है, हटाओ इस
पहाड़ी को! वह
भागी हुई घर
पहुंची। उसने
खिड़की से
आखिरी बार
पहाड़ी को देखा,
क्योंकि
फिर जब
प्रार्थना कर
चुकेगी तो
पहाड़ी हट चुकी
होगी। फिर
उसने खिड़की बंद
की और
प्रार्थना की,
और फिर उठ
कर देखा, पहाड़ी
वहीं की वहीं
थी। उसने कहा,
हमें पहले
से ही पता था
कि ऐसे कहीं
कोई पहाड़ियां
हटती हैं!
पहले
से ही पता था!
तो फेथ का
क्या मतलब
होता है? और
मैं आपसे कहता
हूं, पहाड़ी
हट सकती थी; उस बूढ़ी औरत
के कारण ही न
हटी। भीतर, निश्चित ही,
श्रद्धा
पहाड़ को हटा
सकती है; पहाड़ों
से भी बड़ी
चीजें हैं, उनको हटा
सकती है।
लेकिन
श्रद्धा का
मतलब होता है:
एकजुट, एक
भाव; जहां
कोई द्वंद्व
नहीं भीतर, जहां कोई
दूसरा स्वर
नहीं। ध्यान
रखना, वह
जो दूसरा स्वर
है वह उपद्रव
है। जब आप
किसी के साथ
विवाह कर रहे
हैं तब भी आप
भीतर तलाक का
फार्म भर रहे
हैं। जब आप
किसी से प्रेम
कर रहे हैं तब
भी आपको पता
है कि आप जो कह
रहे हैं यह सच
नहीं हो सकता;
यह है नहीं।
मित्रता का एक
हाथ बढ़ा रहे
हैं और दूसरा
हाथ दुश्मनी
के लिए तैयार
रखा हुआ है। टूटे
हुए हैं, खंड-खंड
हैं। यह खंडित
व्यक्तित्व
जो है, यही
दरिद्रता है।
अखंड
व्यक्तित्व
समृद्धि है।
"जो दृढ़मति है
वही संकल्पवान
है। और जो
अपने केंद्र
से जुड़ा रहता
है वह मृत्युंजय
है।'
जिसने
अपने केंद्र
के साथ अपना
संबंध स्थापित
कर लिया, नहीं
टूटने दिया, जिसकी जड़ें
नहीं उखड़ीं
स्वयं के
केंद्र से, उसकी कोई
मृत्यु नहीं
है। क्योंकि
मृत्यु केवल
परिधि की है, केंद्र की
मृत्यु नहीं
है। मृत्यु
केवल आपके व्यक्तित्व
की है, आपकी
कभी भी नहीं
है। मरते हैं
आप इसलिए कि
आप जिससे अपने
को जोड़े हैं
वह मरणधर्मा
है। और जो
आपके भीतर
अमृत है उस पर
आपका कोई ध्यान
नहीं है।
यह जो
स्वयं की
अंतर्यात्रा
है--विद्वत्ता
को अलग करें, ज्ञान
को ध्यान में
लें; दूसरे
को जीतने की
चिंता छोड़ें,
स्वयं की
विजय की
यात्रा पर निकलें;
धन धन में
नहीं, संतोष
में है, और
संकल्प में है,
निर्णयात्मक
बुद्धि में है,
आपकी आत्मा
में है, ऐसी
दृष्टि हो और
ऐसी यात्रा
हो--तो आप अपने
केंद्र से
पुनः जुड़
जाएंगे। जुड़े
ही हुए हैं।
स्मरण आ जाएगा,
प्रत्यभिज्ञा
हो जाएगी। और
उस
प्रत्यभिज्ञा
का अर्थ है कि
आप मृत्युंजय
हैं।
"और जो
मर कर जीवित
है वह
चिर-जीवन को
उपलब्ध होता
है।'
और
आपको अपनी
परिधि पर मरना
होगा, तो ही आप
अपने भीतर
छिपे चिर-जीवन
को जान सकेंगे।
आपको अपनी
इंद्रियों से
मरना होगा, तो आप अपने
अतींद्रिय
जीवन को जान
सकेंगे। आपको
अपने मन में
मरना होगा, तो आप अपने
आत्मा के अमृत
को जान
सकेंगे।
जीसस
ने कहा है, जो
बचाएगा
अपने को वह खो
देगा, और
जो खोने को
राजी है उसको
मिटाने का कोई
भी उपाय नहीं है।
मरने
की कला भी सीखनी
चाहिए, तो ही
हम जीवन के
परम रहस्य को
जान पाते हैं।
मरने की कला
का अर्थ है
परिधि पर, बाहर,
दूसरों की
तरफ से मर
जाना। सिर्फ
एक ही बिंदु जीवन
का रह जाए, वह
मेरे भीतर के
चैतन्य का
केंद्र, और
सब तरफ से मैं
अपने को समेट
लूं और मर
जाऊं। एक क्षण
को भी यह घटना
घट जाए कि
बाहर की
दुनिया समाप्त
हो गई, सब
मर गया, सब
मरघट है, और
सिर्फ मेरी एक
ज्योति जलती
रह गई, फिर
मेरे लिए
मृत्यु नहीं
है। फिर मैं
वापस लौट आऊंगा,
इस मुर्दों
की दुनिया में
वापस आ जाऊंगा,
लेकिन फिर
मैं मरने वाला
नहीं। एक क्षण
का भी अनुभव
हो जाए स्वयं
के स्रोत का
तो अमृत उपलब्ध
हो गया।
अमृत
की खोज लोग
करते हैं कि
कहीं अमृत मिल
जाए! कहीं
पारे में छिपा
हो,
किसी रसायन
में छिपा हो।
एक बूढ़े सज्जन
को मैं जानता
रहा हूं।
जैसे-जैसे
उनकी मौत करीब
आती है वे और पगलाते
जाते हैं। वे
जब भी मुझे
मिलने आते थे
बस वह एक ही
उनकी बात थी
कि अमृत जैसी
कोई चीज है? किस
रसायन-विधि से
आदमी सदा
जीवित रह सकता
है, वह
बताइए।
मैं
उनको कहा कि
आपको तो मरना
ही होगा।
क्योंकि जिस
जगह आप अमरत्व
खोज रहे हैं
वहां तो
मृत्यु ही है।
कोई
रसायन-विधि
अमरत्व नहीं
दे सकती है।
लंबाई दे सकती
है जिंदगी को, अमरत्व
नहीं दे सकती
है। और लंबाई
से कुछ हल नहीं
होता; लंबाई
से मुसीबत
बढ़ती है।
क्योंकि
जितनी लंबाई
होती है उतनी
ही मौत ज्यादा
दिनों तक पीछा
करती है। जो
आदमी एक ही
साल की उम्र
में मर गया, उसको शायद
मौत का पता ही
नहीं। लेकिन
जो आदमी सौ
साल में मरेगा,
उसने सौ साल
मौत को अनुभव
किया। सौ साल
डरा, बामुश्किल
मर रहा है।
आपको
पता है, अभी
अमरीका में
उन्होंने एक
सर्वे किया।
तो उन्होंने
देखा कि
पैंतीस साल की
उम्र में सौ
आदमियों में
से केवल बीस
आदमी आत्मा की
अमरता में
भरोसा करते
हैं। सौ में
से केवल बीस, पैंतीस साल
की उम्र में!
पचास साल की
उम्र में सौ
में से चालीस
भरोसा करते
हैं। सत्तर
साल की उम्र
में सौ में से
अस्सी भरोसा
करने लगते
हैं। और सौ
साल के ऊपर
उन्हें जितने
आदमी मिले
उनमें एक भी
आदमी नहीं
मिला जो आत्मा
की अमरता में
भरोसा न करता
हो। जैसे-जैसे
मौत डराने
लगती है, वैसे-वैसे
आत्मा अमर है,
ऐसा भरोसा
आदमी करने
लगता है।
पैंतीस साल की
उम्र में अकड़
होती है; मौत
का कोई भय नहीं
होता। सौ साल
में सभी की
कमर झुक जाती
है; मौत
काफी प्रगाढ़
हो जाती है।
मैं
उनको कहता था
कि आप बाहर मत
खोजें; बाहर
खोजने से कोई
कभी अमृत को
उपलब्ध नहीं
होता। अमृत
जरूर मिल सकता
है, लेकिन
वह रसायन में
नहीं है। वह
किसी वनस्पति में
नहीं छिपा है।
और वह किसी अल्केमी
की कला में
नहीं छिपा है।
अमृत जरूर उपलब्ध
है, लेकिन
वह स्वयं के
भीतर है, और
वह उसे उपलब्ध
होता है जो मर
कर जीवित है, जो बाहर की
परिधि पर मर
जाता है और
सिर्फ भीतर के
जीवन में जीता
है।
"वह
चिर-जीवन को
उपलब्ध होता
है।'
पांच
मिनट कीर्तन
करें और फिर
जाएं।
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