अध्याय
25 : खंड 2
चार
शाश्वत आदर्श
इसलिए:
ताओ महान है,
स्वर्ग
महान है,
पृथ्वी
महान है,
सम्राट
भी महान है।
ब्रह्मांड
के ये चार
महान हैं,
और
सम्राट उनमें
से एक है।
मनुष्य
अपने को
पृथ्वी के
अनुरूप बनाता
है;
पृथ्वी
अपने को
स्वर्ग के
अनुरूप बनाती
है;
स्वर्ग
अपने को ताओ
के अनुरूप
बनाता है;
और
ताओ अपने को
स्वभाव के
अनुरूप बनाता
है।
लाओत्से
ने चार आदर्श
बताए हैं।
"ताओ
महान है, स्वर्ग
महान है, पृथ्वी
महान है और
सम्राट भी।'
पहले
इन चारों का
लाओत्से का अर्थ
समझ लें।
ताओ
परम आदर्श है।
उसके पार फिर
कुछ भी नहीं। ताओ
का अर्थ है
जीवन के
आत्यंतिक
नियम के अनुसार
हो जाना, कोई
विरोध न रह
जाए अस्तित्व
में और स्वयं
में।
हमारा
जीवन जैसा है, प्रतिपल
विरोध है। हम
जीते कम, जीवन
से लड़ते
ज्यादा हैं।
जीवन हमारे
लिए एक संघर्ष
है, एक स्ट्रगल
है, एक
छीना-झपटी है।
एक प्रसाद
नहीं, एक
अनुकंपा नहीं,
एक द्वंद्व
है। जो भी
हमें पाना है,
वह हमें
छीनना है, झपटना
है। अगर हम न झपटें, न
छीनें, तो
खो जाएगा। और
हमें लगता है
ऐसा कि जो
जितना छीन
लेते हैं, उतना
ज्यादा पा
जाते हैं। और
जो खड़े रह
जाते हैं, छीनते
नहीं, संघर्ष
नहीं करते, युद्ध में
नहीं उतरते, वे हार जाते
हैं।
लाओत्से
की दृष्टि
बिलकुल
विपरीत है।
लाओत्से कहता
है,
जो छीनेगा,
झपटेगा,
वह और कुछ
भला पा ले, जीवन
से वंचित रह
जाएगा। धन पा
ले, यश पा
ले, पद पा
ले, लेकिन
जीवन से वंचित
रह जाएगा। और
जब कोई जीवन
को चुका कर पद
पा लेता है तो
उससे दयनीय
कोई भी नहीं
होता। और जब
जीवन की कीमत
पर कोई धन कमा
लेता है तो
उससे ज्यादा
दरिद्र कोई
नहीं होता। और
जो जीवन को
बेच कर यश
कमाता है, आखिर
में पाता है, हाथ में राख
के सिवाय कुछ
भी नहीं है।
अंततः जीवन के
मूल्य पर कुछ
भी पाया गया, पाया गया
सिद्ध नहीं
होता, खोया
गया सिद्ध
होता है।
लाओत्से कहता
है, जीवन
को पाना हो तो
छीना-झपटी
उसका उपाय
नहीं है।
फिर
क्या उपाय है? उपाय
है ताओ के
अनुकूल होते
चले जाना; उपाय
है जीवन की वह
जो सरिता है, जो धारा है, उसमें तैरना
नहीं बल्कि
बहना, उससे
लड़ना नहीं, उसके साथ एक
हो जाना, और
वह सरिता जहां
ले जाए वहीं
चले जाना।
क्योंकि
जिनका जीवन पर
भरोसा नहीं है,
उनका फिर
किसी चीज पर
भरोसा नहीं हो
सकता। जीवन
आपको जन्म
देता है, जीवन
आपकी श्वास है,
जीवन आपके
हृदय की धड़कन
है। अगर आपका
जीवन पर भी
भरोसा नहीं है,
जिससे आपका
हृदय धड़कता
है और जो आपके
खून में बहता
है और जो आपकी
श्वास में
सरकता है, अगर
उस पर भी
भरोसा नहीं है,
तो फिर आपका
किसी पर भरोसा
नहीं हो सकता।
अगर लाओत्से
को हम समझें
तो लाओत्से के
लिए श्रद्धा
का यही अर्थ
है। यह अर्थ
बड़ा गहरा है--जीवन
के प्रति
भरोसा, ट्रस्ट
इन लाइफ।
लाओत्से
नहीं कहता
ईश्वर में
विश्वास करो।
ईश्वर का हमें
कोई पता भी
नहीं है। और
जिसका पता ही
नहीं है, उसमें
विश्वास कैसे
होगा? और
होगा भी तो
झूठा होगा।
इसलिए
जगत में दो
तरह के लोग
हैं:
अविश्वासी और
झूठे
विश्वासी।
तीसरे तरह का
आदमी खोजना
मुश्किल है।
और अविश्वासी
ज्यादा
ईमानदार हैं
झूठे विश्वासियों
से। क्योंकि
अविश्वासी आज
नहीं कल
विश्वास पर
पहुंच भी सकता
है;
लेकिन झूठे
विश्वासी कभी
विश्वास पर
नहीं पहुंच
सकते।
क्योंकि झूठे विश्वासियों
को तो यह खयाल
है कि उनमें
श्रद्धा है
ही। जिस ईश्वर
को आप जानते
नहीं, उसमें
श्रद्धा हो
नहीं सकती।
कितना ही झुठलाएं
और कितना ही
समझाएं अपने
को, कितना
ही अपने ऊपर
सिद्धांतों
का आवरण ओढ़ें
और कितना ही
अपने हृदय को
दबाएं और
कितनी ही अपनी
बुद्धि को
कहें कि संदेह
मत उठा, लेकिन
जिसे आप जानते
नहीं हैं उस पर
आपकी श्रद्धा
हो नहीं सकती।
श्रद्धा आप कर
सकते हैं, लेकिन
श्रद्धा हो
नहीं सकती।
गहरे में
अश्रद्धा
मौजूद ही
रहेगी।
केंद्र पर
अश्रद्धा मौजूद
ही रहेगी।
और
परिधि की
श्रद्धा का
कोई भी मूल्य
नहीं। जब तक
कि आत्मगत न
हो,
जब तक कि
भीतर तक उसका
तीर प्रवेश न
कर जाए, जब
तक आपके भीतर
ऐसी कोई जगह न
रह जाए जहां
तक श्रद्धा
प्रविष्ट न
हुई हो, सब
कुछ श्रद्धा
से भर जाए, रोआं-रोआं
प्राणों का, संदेह की एक
जरा सी सुविधा
न रह जाए, तब
तक श्रद्धा का
कोई मूल्य
नहीं। हम
श्रद्धा के
वस्त्र ओढ़े
हुए होते हैं,
आत्मा
हमारी
अश्रद्धा की
होती है।
इसलिए
आस्तिक से
आस्तिक आदमी
को थोड़ा खरोंचें
तो अश्रद्धा
निकल आएगी।
जिंदगी में
खरोंच कभी-कभी
अपने आप लग
जाती है और
अश्रद्धा
निकल आती है।
दुख आता है और
आदमी कहने
लगता है, ईश्वर
का भरोसा
डगमगा गया।
खरोंच
लगी--पराजय हो
गई, हानि
हो गई, सफलता
न मिली--खरोंच
लगी, श्रद्धा
डगमगा जाती
है। और इसी
कारण, जिनको
हम श्रद्धालु
कहते हैं, वे
श्रद्धा के
संबंध में बात
करने से भी
भयभीत होते
हैं। नास्तिक
से चर्चा करने
में भी उनकी
आत्मा
थर्राती है।
क्या डर हो
सकता है
नास्तिक से
आस्तिक को?
यह बड़े
मजे की बात है
कि नास्तिक
आस्तिकों से चर्चा
करने में नहीं
घबड़ाते, आस्तिक
नास्तिकों से
चर्चा करने
में घबड़ाते
हैं। निश्चित
ही, नास्तिक
की अश्रद्धा
आस्तिक की
श्रद्धा से ज्यादा
मजबूत मालूम
होती है।
नास्तिक का
संदेह ज्यादा
प्रामाणिक
मालूम होता है
आस्तिक के
विश्वास से।
और कोई छोटा
सा नास्तिक भी
आपकी
आस्तिकता को
हिला दे सकता
है। सच यह है
कि आप आस्तिक
हैं नहीं।
आस्था इतनी
सस्ती नहीं।
मां के साथ
दूध पीने में
नहीं मिलती, न मां के खून
से आती है, न
समाज के
शिक्षण से
मिलती है, न
धर्मशास्त्रों
से मिलती है।
आस्था इतनी
सस्ती बात
नहीं। और हम
एक ऐसा असंभव
कृत्य करने
में लगे हैं
हजारों वर्ष
से: उस पर
श्रद्धा करना
चाहते हैं
जिसे हम जानते
ही नहीं। और तर्क
हमारा बड़ा
मजेदार है।
जिसे हम जानते
नहीं, उस
पर हम श्रद्धा
इसलिए करना
चाहते हैं
ताकि हम उसे
जान सकें।
आस्तिक लोगों
को समझाते हुए
सुनाई पड़ते
हैं कि अगर
श्रद्धा करोगे
तो ही जान
पाओगे। और मजा
यह है कि
श्रद्धा बिना
जाने हो नहीं
सकती है। यह
सारा भवन ही
बेबुनियाद
है। जान कर ही
श्रद्धा हो
सकती है। न जाने
तो संदेह बना
ही रहेगा।
संदेह का मतलब
ही इतना है, अगर हम गहरे
में खोज करें
तो संदेह का
मतलब ही इतना
है कि आपको
पता नहीं है
इसलिए संदेह
है। संदेह
अज्ञान है।
इसलिए
अज्ञान में
श्रद्धा तो हो
ही नहीं सकती।
और अगर अज्ञान
में भी
श्रद्धा हो
जाए तो इसका
मतलब हुआ कि
फिर ज्ञान में
भी संदेह हो
सकता है।
अज्ञान में
अगर श्रद्धा
हो सकती है तो
फिर ज्ञान में
क्या होगा? फिर
ज्ञान के लिए
कुछ बचा ही
नहीं। अज्ञान
के साथ होता
है संदेह।
अज्ञान टूट
जाए तो संदेह
टूट जाता है।
ज्ञान के साथ
आती है
श्रद्धा। ज्ञान
का आगमन हो तो
श्रद्धा छाया
की तरह प्रवेश
करती है।
इसे हम
ऐसा समझें कि
संदेह भीतर के
अज्ञान का सिर्फ
संकेत है, सूचक
है। श्रद्धा
भीतर के ज्ञान
की सूचक है। ज्ञान
और अज्ञान तो
होते हैं भीतर,
सूचनाएं
बाहर तक आती
हैं। संदेह
सूचना है। श्रद्धा
भी एक सूचना
है। जो ऊपर की
सूचनाओं को बदल
लेता है, वह
अपने को धोखा
दे रहा है।
भीतर तो है
अज्ञान, संदेह
की खबर आ रही
है; और आप
अपने ऊपर, अपने
वस्त्रों में
श्रद्धा-श्रद्धा
राम-नाम लिख
कर चदरिया ओढ़
लेते हैं। वह
भीतर से संदेह
आता ही चला
जाएगा। आपके
चादर पर लिखा
राम-नाम उस
संदेह को मिटा
नहीं पाएगा।
वह संदेह आथेंटिक
है, प्रामाणिक
है। वह आपसे
उठ रहा है। और
यह चदरिया आप
बाजार से खरीद
लाए हैं, इसे
ऊपर से आपने ढांक
लिया। इससे
दूसरे को धोखा
हो सकता है।
लेकिन सच तो
यह है, दूसरे
को भी धोखा
होने की कोई
जरूरत नहीं
है। क्योंकि
जिसके भीतर से
राम उठ रहा हो,
चादर
महत्वपूर्ण न
रह जाएगी। और
अगर ओढ़ने
वाले को चादर
बहुत
महत्वपूर्ण
है तो दूसरे
को भी धोखे
में पड़ने की
कोई जरूरत
नहीं है। यह
अपने ही संदेह
को ढांकने की
व्यवस्था है।
लेकिन
दूसरा धोखे
में पड़ भी जाए, मजा
तो यह है कि हम
खुद भी धोखे
में पड़ जाते
हैं। अपने ही
ऊपर ओढ़ी
हुई चादर को
देख कर कहते
हैं कि
श्रद्धा से भरे
हुए हैं हम।
सब तथाकथित श्रद्धाओं
के भीतर संदेह
का कीड़ा होता
है। और जब तक
वह मिट न जाए, तब तक
श्रद्धा का
कोई आगमन नहीं
है।
इसलिए
हमने सारी
दुनिया को
सिखा-सिखा कर
कि ईश्वर पर
भरोसा करो, ईश्वर
पर भरोसा करो,
धर्म को हम
नहीं ला पाए; केवल लोगों
को बेईमान बना
पाए हैं। जिस
पर भरोसा किया
कैसे जा सके, जिसे हम
जानते न हों; उस पर भरोसे
की शिक्षण
दे-दे कर हमने
लोगों को झूठे
धार्मिक
बनाने में
सफलता पा ली
है। इसलिए
सारी जमीन
धार्मिक--और
एक धार्मिक
आदमी नहीं। सब
धार्मिकता ओढ़ी हुई।
लेकिन
धार्मिक आदमी
अभी भी
चिल्लाए चले
जाते हैं, वे
कहते हैं, हर
बच्चे को दूध
के साथ धर्म
पिला दो। उनको
डर लगा रहता
है पूरे वक्त
कि जरा बच्चे
में अपनी
बुद्धि आई कि
फिर चदरिया ओढ़ाना
बहुत मुश्किल
हो जाएगा। वह
बुद्धि भीतर
से सवाल उठाने
लगेगी। तो
इसके पहले कि
बुद्धि जगे,
तुम जहर डाल
दो, तुम्हें
जो पिलाना हो
पिला दो, उसको
इतने गहरे में
पड़ जाने दो कि
कल उसकी
बुद्धि भी
सवाल उठाए तो भी
उसे ऐसा लगे
कि भीतर से
नहीं आ रहा
है। और उसकी
झूठी श्रद्धा,
जो बाहर से
डाली गई है, वह इतने
गहरे में जड़
जमा ले कि उसे
धोखा होने लगे
कि भीतर से आ
रही है। इसलिए
हम छोटे-छोटे
अबोध बच्चों
के साथ जो बड़े
से बड़ा अपराध
कर सकते हैं, वह करते
हैं। हम
उन्हें ज्ञान
के मार्ग पर
नहीं ले जाते,
हम उन्हें
विश्वास के
मार्ग पर ले
जाते हैं। विश्वास
धोखा है ज्ञान
का। विश्वास
श्रद्धा नहीं
है। विश्वास
अंधापन है।
श्रद्धा आंख
का नाम है। इस
जगत में जो
गहरी से गहरी
आंख हो सकती है,
वह श्रद्धा
है।
लाओत्से
ईश्वर की बात
नहीं करता। और
लाओत्से की
चिंतना बहुत
वैज्ञानिक
है। और अगर
कभी इस जमीन
पर कोई धर्म
आता हो तो उसे
कहीं लाओत्से
की सीढ़ियों से
आना पड़ेगा।
बाकी सीढ़ियां
असफल साबित
हुई हैं।
लाओत्से
कहता है, ईश्वर
से तो क्या
संबंध होगा
आपका? इतना
दूर है मामला।
निकट से शुरू
करो। दूर की
बात मत करो, निकट से
शुरू करो। कल
दूर भी पहुंच
सकते हो, लेकिन
यात्रा निकट
से शुरू करो।
जीवन
निकटतम है। और
अगर मेरा जीवन
पर ही भरोसा
नहीं है, उससे
भी मैं
छीना-झपटी कर
रहा हूं, तो
फिर मेरा कोई
भरोसा किसी पर
नहीं हो सकता।
जीवन तो हमारे
रग-रग में
समाया हुआ है।
जीवन तो हम
हैं; जीवन
के कारण हम
हैं। जीवन का
होना ही हमारा
होना है।
हमारे होने
में जीवन छिपा
है। इस पर भी
हमारा भरोसा
नहीं है। ऐसा
जो गैर-भरोसा
है, वह
तोड़ा जा सकता
है। क्योंकि
जीवन से परिचय
कोई दूर की
बात नहीं है, किसी आकाश
में बैठे
ईश्वर की बात
नहीं है। यहां
रग-रग में
दौड़ते हुए
जीवन की बात
है। इससे संबंध
बन सकता है।
लाओत्से
चार आदर्शों
की बात करता
है। और एक-एक
क्रम से वे
आदर्श हम
समझें, तो
अंततः हम जो
निकटतम है और
दूरतम मालूम
पड़ता है, उस
तक पहुंच सकते
हैं।
कहता है, "ताओ
महान है, स्वर्ग
महान है, पृथ्वी
महान है, सम्राट
महान है।'
ये सीढ़ियां
हैं। ताओ है
श्रेष्ठतम, अंतिम।
लेकिन ताओ
हमारी पकड़ के
बहुत दूर है।
हमारे हाथ
वहां तक पहुंच
नहीं पाएंगे।
यद्यपि वह
हमारे हाथों
के भीतर भी
छिपा है, लेकिन
यह उस दिन की
बात है जब
हमारी पहचान
हो जाएगी
उससे। अभी तो
ताओ बहुत दूर
है।
दूसरी
सीढ़ी पर
लाओत्से रखता
है स्वर्ग।
स्वर्ग का
अर्थ है आनंद
का सूत्र।
स्वर्ग का
अर्थ है महासुख।
ताओ तो हमारे
लिए दूर है, लेकिन
सुख, आनंद,
उतना दूर
नहीं है। उसकी
थोड़ी सी भनक
कभी हमारे कान
में पड़ी है, कभी अचानक
सुबह आंख खुली
है और आकाश
में आखिरी
तारा डूबता
हुआ देखा
है--और कोई चीज
हृदय के भीतर
कंपित हो गई
है। वह स्वर्ग
है। कभी काले
बादल आकाश में
घिरे हैं और
झील के किनारे
उनकी छाया झील
में बन गई
है--और आपके
भीतर भी कोई
प्रतिबिंबित हो
उठा है एक
क्षण को। कि
अंधेरी रात
में, अमावस
में, रात
की सांय-सांय
आपके हृदय को
स्पर्श कर गई
है--कोई वीणा
भीतर किसी तार
पर चोट पड़ गई
क्षण भर को।
ऐसे क्षण शायद
जीवन में
दस-पांच हों।
उन क्षणों में
हमें स्वर्ग
की जरा सी झलक
मिलती है।
किसी के प्रेम
में क्षण भर
को सब भूल गया
है जगत और वह
प्रेम का क्षण
ही शाश्वत
होकर ठहर गया
है। घड़ी बंद
हो गई, समय
रुक गया, और
लगा, सब खो
गया है। बस
प्रेम की एक...।
शायद उस क्षण
के लिए हम सब
दान कर सकते
हैं, सब
खोने को तैयार
हो सकते हैं।
ऐसे कुछ क्षण
में आकस्मिक
हमें स्वर्ग
की झलक मिलती
है।
झलक कह
रहा हूं, स्वर्ग
का हमें पता
नहीं है।
स्वर्ग भी
हमसे बहुत दूर
है। स्वर्ग से
लाओत्से का
अर्थ है आनंद
का सूत्र। ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है जो
ताओ की खोज कर
रहा हो, सत्य
की खोज कर रहा
हो; लेकिन
ऐसा आदमी भी
खोजना
मुश्किल है जो
आनंद की खोज न
कर रहा हो।
ताओ बहुत दूर
है। कभी कोई बुद्ध,
कभी कोई
महावीर सत्य
में उत्सुक
होता है। लेकिन
बुद्ध के पास
जो लोग आते
हैं और बुद्ध
के अनुगमन में
जो चलते हैं, वे भी सत्य
में उत्सुक
नहीं होते; वे बुद्ध के
आनंद में
उत्सुक होते
हैं। वह नंबर
दो की सीढ़ी
है।
बुद्ध
के पास सारिपुत्त
आया है। तो सारिपुत्त
कहता है, भगवान,
कैसे ऐसा ही
आनंद मुझे
मिले?
बुद्ध
जब तलाश कर
रहे थे गुरु
की,
तब वे अनेक
गुरुओं के पास
गए हैं। लेकिन
वे पूछते हैं
कि सत्य क्या
है? एक
योगी ने
उन्हें कहा, आनंद को
खोजो।
बुद्ध
ने कहा, अगर
सत्य को पाकर
आनंद मिलता हो
तो ठीक; सत्य
को पाकर आनंद
खोता हो तो भी
ठीक। क्योंकि
झूठे आनंद में
समय को व्यर्थ
करने की मेरी
इच्छा नहीं
है। अगर असत्य
के साथ आनंद
मिलता हो तो
मैं लेने को
राजी नहीं
हूं। क्योंकि
असत्य आनंद का
क्या अर्थ? वह एक
स्वप्न होगा।
आनंद अगर सत्य
हो तो ही सार्थक
है। इसलिए
आनंद की बात
छोड़ देता हूं;
सत्य की ही
बात काफी है।
सत्य क्या है?
लेकिन सारिपुत्त
बुद्ध के पास
आया है तो वह
पूछता है, आपको
जो आनंद मिला,
वह आनंद
हमें कैसे मिल
जाए?
आनंद
हमारी समझ में
आ सकता है। वह
भी काफी दूर है।
और जब भी हम
आनंद की बात
करते हैं, तो
हमारा मतलब
सुख होता है, आनंद नहीं
होता। हमारे भाषाकोश
में भी आनंद
का अर्थ सुख
लिखा होता है।
सुख सिर्फ
आनंद की झलक
है, आनंद
नहीं। जैसे
आकाश में चांद
हो और झील में हमने
चांद को देख
लिया हो; तो
वह जो झील का
चांद है वह
सुख है और
आकाश का जो चांद
है वह आनंद
है।
लेकिन
झील के चांद
का क्या है? जरा
सा एक कंकड़
पड़ जाए झील
में, छार-छार
हो जाएगा। वह
चांद
टुकड़े-टुकड़े
होकर बिखर
जाएगा। एक
छोटा सा कंकड़
उस चांद को
मिटा देगा। एक
मछली की छलांग,
और झील का
दर्पण कंप
जाएगा, वह
चांद खंड-खंड
हो जाएगा।
हमारा
सुख ऐसा ही
है। जरा सा कंकड़, सब
छार-छार हो
जाता है। जरा
सी एक मछली की
छलांग, सब
टूट जाता है।
और हम छाती
पीटते रह जाते
हैं कि सब सुख
खो गया। सुख
हमारा आनंद की
झलक है, प्रतिबिंब
है।
लेकिन
जब भी हम, जिस
आदमी ने देखा
ही न हो चांद, जब भी देखा
हो झील में ही
देखा हो, तो
हम चांद की
बात करें तो
वह अपनी झील
का चांद समझे,
इसमें कुछ
अनहोना नहीं
है। लेकिन फिर
भी, झील का
चांद ही सही, चांद से
किसी तरह जुड़ा
है। इसीलिए
आनंद की बात
हमें थोड़ी सी
समझ में आ
सकती है। हम
सुख से जुड़े
हैं। पर आनंद
भी बहुत दूर
है। और दूर इस
कारण भी है कि
आनंद की पहली
शर्त है जो, बहुत कठिन
है। और वह यह
है कि जब तक हम
सुख का त्याग
न करें। स्वभावतः
जो आदमी झील
के चांद को
छोड़ने को राजी
न हो, उसकी
आंखें आकाश के
चांद की तरफ उठेंगी भी
कैसे? झील
के चांद को ही
जो चांद समझ
रहा हो और
वहां से आंखें
हटाने को राजी
न हो, वह
आकाश के चांद
की तरफ देखेगा
कैसे? माना
कि झील का
चांद आकाश के
चांद से जुड़ा
है, लेकिन
विपरीत है। सब
प्रतिबिंब
विपरीत होते हैं।
रिफ्लेक्शन
है, उलटा
है।
इसलिए
अगर हम इस झील
के चांद की
तलाश में लगे
रहें तो एक
बात पक्की है
कि आकाश का
चांद हमें कभी
भी नहीं
मिलेगा। हमें
इसके विपरीत
चलना होगा।
इसके हम जितने
उलटे यात्रा
करेंगे, उतना
हम आकाश के
चांद के पास
पहुंचेंगे।
तप का यही
अर्थ है। सुख
की विपरीत
यात्रा है वह।
चांद की खोज
है, झील के
चांद का त्याग
है। तो यद्यपि
हमें समझ में
आता है आनंद, लेकिन जिसके
कारण समझ में
आता है, वही
बाधा भी है।
सुख ही समझने
का कारण है; सुख ही
हमारी बाधा है,
अड़चन है।
आनंद को पाना
हो तो सुख
छोड़ना पड़े।
दुख को
हम सब छोड़ना
चाहते हैं।
बड़े मजे की
बात है, दुख
को हम छोड़ना
चाहते हैं और
दुख हमें कभी
नहीं छोड़ता।
सुख को हम पकड़ना
चाहते हैं और
सुख को हम कभी
पकड़ नहीं
पाते। लेकिन
कितनी बार यह
अनुभव होता है,
पर इस अनुभव
से हम कोई
निष्कर्ष
नहीं निकालते।
दुख को हम
छोड़ना चाहते
हैं और छोड़
नहीं पाते; सुख को हम पकड़ना
चाहते हैं और
पकड़ नहीं
पाते।
तप
इससे उलटा
प्रयोग है। तप
इस बात का
प्रयोग है कि
अब तक सुख को पकड़ने की
कोशिश की और
नहीं पकड़ पाए, अब
सुख को छोड?ेंगे; अब तक दुख से
छूटने की
कोशिश की और
दुख को नहीं छोड़
पाए, अब
दुख को पकड़ेंगे।
और बड़े मजे की
बात है कि
जैसे सुख को पकड़ने से
सुख नहीं पकड़
में आता, दुख
पकड़ने से
दुख पकड़ में
नहीं आता। और
जैसे दुख को
छोड़ने से दुख
नहीं छूटता, वैसे ही सुख
को छोड़ने से
सुख नहीं छूटता।
असल में, जिसे
हम पकड़ना
चाहते हैं, वही छूट
जाता है। और
जिसे हम छोड़
देते हैं, वह
हमारे पकड़ के
भीतर आ जाता
है।
लेकिन
यह उलटा नियम
अनेक-अनेक बार
अनुभव में आने
पर भी हम कभी
इसका विज्ञान
नहीं बना
पाते। वही
विज्ञान धर्म
है। सामान्य
आदमी के अनुभव
में और वैज्ञानिक
के अनुभव में
इतना ही फर्क
है। आपको अनुभव
होते हैं, अनुभव
आणविक रह जाते
हैं--एक अनुभव,
दो अनुभव, तीन अनुभव।
वैज्ञानिक
बुद्धि तीन
अनुभव के बीच
जो सार-सूत्र
है, उसको
खोज लेती है; अनुभव को
छोड़ देती है।
जिंदगी में
मुझे हजार अनुभव
हों, लेकिन
उनकी राशि
इकट्ठी करता
चला जाऊं, आणविक
राशि हो, सब
पर लगा दूं एक,
दो, हजार
अनुभव हुए; लेकिन हजार
अनुभव जिस
नियम के कारण
हो रहे हैं, उसका अगर
पता न लगा पाऊं,
तो मैं खोजी
नहीं हूं।
वैज्ञानिक
बुद्धि का इतना
ही अर्थ है कि
हजार जो अनुभव
हुए, उनका
सार-सूत्र हम
खोज लें।
न्यूटन
के पहले भी
वृक्ष से फल
जमीन पर गिरता
था। और सेब का
फल! बड़ा
पुराना
इतिहास है
उसका, अदम को
भी ईव ने जो
पहला फल तोड़
कर दिया था, वह सेब का फल
था। तो अदम के
जमाने से लेकर
सदा सेब का फल
जमीन पर गिरता
रहा। लेकिन
गुरुत्वाकर्षण
का नियम
न्यूटन निकाल
पाया। फल रोज
गिरते थे।
हजारों लोगों
ने फलों को
गिरता देखा। यह
अनुभव नियम
नहीं बन पाया।
लेकिन न्यूटन
ने पहली दफे
पूछा कि यह फल
नीचे ही क्यों
गिरता है?
यह
पागलपन का
सवाल है।
वैज्ञानिक
हमेशा पागलपन
का सवाल पूछते
हैं। सामान्य
आदमी नहीं पूछते; इसलिए
सामान्य आदमी
सामान्य आदमी रह
जाते हैं। यह
बिलकुल
पागलपन का
सवाल है न्यूटन
का यह पूछना
कि फल नीचे ही
क्यों गिरता
है? हम
बुद्धिमान
लोग कहते कि
तुम्हारी
बुद्धि तो ठीक
है? फल
नीचे गिरता ही
है, बात
खतम हो गई।
इसमें और क्या
पूछने का है? लेकिन
न्यूटन ने कहा
कि सभी फल
नीचे गिरते
हैं; जरूर नीचे
गिरने में कोई
राज होना
चाहिए। जमीन
खींचती है, नहीं तो फल
नीचे नहीं गिर
सकते हैं। तो
जमीन के
खींचने का
नियम--फिर सब
फल बेकार हो
गए; गिरे
हों, न
गिरे हों; पत्थर
गिरे हों, न
गिरे हों; सब
खतम हो गए--सब
गिरने के सब
अनुभवों में
से एक सार ग्रेविटेशन
का, गुरुत्वाकर्षण
का हाथ में आ
गया।
धर्म
भी एक विज्ञान
है,
अंतस जीवन
का। जितना सुख
को पकड़ो, पकड़
में नहीं आता;
जितना दुख
से भागो, भाग नहीं
पाते; दुख
को छोड़ो, छूटता नहीं;
सुख को पकड़ो,
पकड़ में
नहीं आता।
कितने-कितने
जन्मों का आदमी
का अनुभव है, लेकिन वही
हम कभी पूछते नहीं
कि इसके पीछे
कारण क्या
होगा? क्या
बात है कि
जिसे पकड़ते
हैं वह पकड़
में नहीं आता
और जिसे छोड़ते
हैं वह छूटता
नहीं? छोड़ने
की कोशिश
निमंत्रण
मालूम पड़ती है,
छोड़ने की
कोशिश बुलावा
है। पकड़ने
की कोशिश, मालूम
होता है, जिसे
हम पकड़ना
चाहते हैं उसे
रिपेल
करती है, उसे
हटाती है।
इसे
जीवन में जरा
चेष्टा करके
देखें। किसी
को भुलाना
चाहते हैं मन
से,
जितना भुलाएंगे
उतना मुश्किल
हो जाएगा, जितना
भुलाएंगे
उतनी याद
आएगी। भुलाने
की कोशिश भी
एक ढंग की याद
है। बैठे हैं
आंख बंद करके,
भुला रहे
हैं। मगर
भुलाना भी याद
करना है। तो जिसे
भुलाना चाहते
हैं, वह
भूलता नहीं
है। और कभी
इससे उलटा
करके देखें, प्रयासपूर्वक किसी की याद
करके देखें।
और आप पाएंगे,
याद हाथ से
छूट गई। आंख
बंद कर लें, जिस चेहरे
को आप खूब
प्रेम करते
हैं, उसे
पूरी तरह याद
करें, पूरा
एकाग्र करें,
सारी ताकत
लगा दें कि वह
चेहरा कैसा
है। पहली दफे
आपको पता
चलेगा, आपके
खुद के प्रेमी
या प्रेयसी का
चेहरा आपकी याद
में नहीं पकड़ता।
आप चकित हो
जाएंगे कि जो
चेहरा इतना
निकट है, जो
सपनों में
छाया रहता है,
वह इस भांति
क्यों खो गया
है? अपनी
मां का चेहरा
भी याद करना
आसान नहीं है
कोशिश से। कोशिश
करके देखेंगे,
तब आपको पता
चलेगा कि खो
गया चेहरा।
रेखाएं डगमगा
जाएंगी, धुंधला
हो जाएगा; चेहरा
खो जाएगा।
जिसकी
चेष्टा से याद
करेंगे, वह खो
क्यों जाता है?
शायद आपकी
चेष्टा
विकर्षण बन
जाती है।
जिसको चेष्टा
से आप भुलाना
चाहते हैं, वह याद
क्यों आ जाता
है? कोई
विपरीत नियम
काम कर रहा है,
लॉ ऑफ
रिवर्स
इफेक्ट काम कर
रहा है।
विपरीत परिणाम
आ जाते हैं।
इसको
जो समझ लेगा, वह
फिर दुख को
हटाना न
चाहेगा, वह
फिर सुख को
बुलाना न
चाहेगा। और जो
दुख को हटाता
नहीं और सुख
को बुलाता
नहीं, वह
आनंद में
प्रवेश कर
जाता है।
आनंद का
मतलब ही यह है, अब
दुख आते नहीं,
सुख जाता
नहीं। आनंद का
मतलब ही इतना
है कि अब दुख
आते नहीं, सुख
जाता नहीं।
लेकिन यह एक
बहुत कीमिया
है, एक
अल्केमी है, एक भीतरी
रसायन है।
हम
अपने ही हाथों
नियम के
विपरीत चल कर
दुख निर्मित
करते हैं। और
हम अपने ही
हाथों नियम के
विपरीत चल कर
सुख को नष्ट
करते हैं। अगर
हम आदमियों को
देखें और उनकी
जिंदगी में झांकें, तो
हर आदमी अपने
लिए दुख के गङ्ढे
खोद रहा है।
हर आदमी! उसको
जरा भी पता
नहीं है कि वह
क्या कर रहा
है। वह गङ्ढे
खोद रहा है।
जब वह गङ्ढे
में गिरता है,
तब उसको पता
चलता है। और
तब वह
चिल्लाता है
कि न मालूम
किस दुष्ट ने
यह गङ्ढा
खोद दिया! हर
आदमी दुख को
बुला रहा है
और हर आदमी
सुख को तोड़
रहा है। और जब
उसका सुख
खंड-खंड होकर
बिखर जाता है,
तब वह छाती
पीटता है कि
कौन दुश्मन
मेरे पीछे पड़ा
है! प्रकृति
निर्दय मालूम
होती है!
परमात्मा कठोर
है! लेकिन आप
इस गहरे नियम
को समझ लें तो
आप जो गङ्ढे
अपने लिए
खोदते हैं वे
बंद हो जाएंगे
और अपने हाथ
जो आप सुख की
प्रतिमा
खंडित करते
हैं वह बंद हो
जाएगी।
दूर है
लेकिन आनंद
भी। जो सुख और
दुख दोनों के
पार है, वह भी
दूर है।
तीसरा
सूत्र
लाओत्से कहता
है,
और आपके पास
लाता है, "दि
अर्थ इज़
ग्रेट, पृथ्वी
महान है।'
आनंद
भी बहुत दूर
है। पृथ्वी से
अर्थ सुख का है।
आनंद बहुत दूर
है;
उस तक भी हम
नहीं जा सकते।
पृथ्वी बहुत ग्रॉस, पृथ्वी
का मतलब है
बहुत स्थूल।
सूक्ष्म है
आनंद तो, ताओ
सूक्ष्मतम
है। पृथ्वी है
पदार्थ; ठोस
है। सुख को हम
पकड़ पाते हैं।
सुख स्थूल है,
और हमारी
आंखों में आ
जाता है, हमारे
हाथों में आ
जाता है, हमारे
जाल में पड़
जाता है।
लेकिन सच में
क्या सुख भी
हमारे हाथ में
पड़ पाता है? थोड़ा गौर से
देखें, तो
पड़ता हुआ
मालूम पड़ता है,
कभी पड़ नहीं
पाता। बस
करीब-करीब
होता है, कभी
हम पा नहीं
पाते उसे भी।
सुख भी हमारी
आशा है, अनुभव
नहीं।
कठिन
होगी बात। हम
सबको यह तो
खयाल होता ही
है,
इसमें भी
बड़ा भरोसा
रहता है कि कम
से कम सुख का तो
अनुभव है, न
सही आनंद का।
सुख का भी
हमें अनुभव
नहीं है, सिर्फ
आशा है। सुख
हमेशा कल
मिलने वाला
होता है, आज
कभी नहीं
मिलता।
करीब-करीब
होता है, पहुंचे-पहुंचे,
ऐसा लगता है
बस क्षण भर की
देरी और है कि
पहुंचे जाते
हैं। लेकिन
कभी आपने खयाल
किया कि जब भी
आप पहुंचते
हैं, हताशा
हाथ लगती है, निराशा हाथ
लगती है। जिसे
चाहा था, जिसे
सोचा था, जिसे
खोजा था, वह
हमेशा डिसअपाइंटिंग,
हमेशा
अपेक्षा
तोड़ने वाला
सिद्ध होता
है। सब सुख डिसइल्यूजनमेंट
सिद्ध होते
हैं। जाकर
भ्रम टूट जाता
है।
कितनी
आशा की थी कि
मित्र घर आ
रहा है, पता
नहीं कितना सुख
होगा! और फिर
मित्र आ जाता
है, और
कहीं कुछ नहीं
होता। फिर घड़ी,
दो घड़ी
व्यर्थ की
बातें
करके--कि कैसे
हो, कैसे
नहीं हो--घड़ी, दो घड़ी के
बाद पता लगता
है, इस
आदमी के लिए
इतनी रास्ता
देखी थी! सब
खतम हो गया, राख हाथ लगी!
मित्र घर आ
गया, कुछ
और नहीं आया।
दिन, दो
दिन के बाद
लगता है, कब
यह आदमी चला
जाए। और ऐसा
नहीं है कि यह
कोई नया अनुभव
है। दो महीने
बाद इसी आदमी
की फिर हम ऐसे
ही रास्ता
देखेंगे। और
दो महीने पहले
भी ऐसे ही देख
चुके हैं।
आदमी अनुभव से
कुछ निष्कर्ष
नहीं लेता।
सुख
हमारी आशाओं
में है। उनका
लगता है कि बस
अब मिला ही
जाता है।
इंद्रधनुष
जैसे हैं, दूर-दूर
तो बनते हैं, पास जाओ खो
जाते हैं।
निकट पहुंचो
पकड़ने को
इंद्रधनुष को,
कुछ पकड़
नहीं आता। पकड़
भी आए तो थोड़ी
सी शायद पानी
की बूंदें हाथ
को छू जाएं और
सब समाप्त हो जाए।
वे रंग जो इस
शान से आकाश
में तने थे, उनकी छाप भी,
हलकी सी छाप
भी हाथ पर
नहीं पड़ती।
करीब-करीब सुख
इंद्रधनुष
जैसा है। वह
भी हमारा
अनुभव नहीं, हमारी आशा
है। सोचते हैं
कि मिलेगा; मिलता नहीं
है। और आदमी
इतना होशियार
है कि कभी-कभी
ऐसा भी सोचने
लगता है बाद
में कि मिला
था।
इसे
थोड़ा समझ लें।
मिलता कभी नहीं
है। या तो
सोचता है
मिलेगा--भविष्य।
और या फिर
कभी-कभी पीछे
लौट कर सोचता
है कि मिला
था--अतीत।
लेकिन
वर्तमान में
सुख का कोई
संस्पर्श नहीं
होता। कभी
आपको ऐसा कोई
आदमी मिला है
जिसने आपसे
कहा हो मैं
सुखी हूं? हां,
ऐसे आदमी
आपको मिलेंगे,
वे कहेंगे
मैं सुखी था।
ऐसे आदमी आपको
मिलेंगे कि
ज्यादा देर
नहीं है, मैं
सुखी हो जाने
वाला हूं। ऐसा
आदमी आपको नहीं
मिल सकता जो
कहे, अभी, यहीं मैं
सुखी हूं, इसी
क्षण मैं सुखी
हूं। और अगर
इसी क्षण सुखी
नहीं है कोई
तो वह अपने को
धोखा दे रहा
है। लेकिन
धोखे जरूरी
हैं। क्योंकि
जहां सुख भी न
हो और सुख की
आशा भी न हो तो
आदमी जीए कैसे?
धोखे बड़े
आवश्यक हैं।
माना कि झूठे
हैं, लेकिन
जीने के लिए
सहारे हैं।
बूढ़ा
आदमी कहता है, बचपन
स्वर्ग था।
बच्चे से पूछो,
तब पता
चलेगा। बच्चे
से पूछो, तब
सब बूढ़े झूठे
मालूम
पड़ेंगे।
क्योंकि एक बच्चा
नहीं कहता कि
यह बचपन
स्वर्ग है। सब
बच्चे जल्दी
में हैं कि
कैसे जवान हो
जाएं। स्वर्ग
जवानी में
मालूम पड़ता
है। बच्चे
कमजोर मालूम
पड़ते हैं।
बच्चों से
पूछो।
आप
अपने बचपन की
याद मत करना, वह
झूठी है; आपने
खड़ी कर ली है।
वह कल्टीवेटेड
है, वह
आपकी संयोजित
है। आप याद
नहीं कर सकते
अपने बचपन की।
आप अपने बचपन
की जब याद करते
हैं तो आपने
जो कविताएं
वगैरह पढ़ी हैं
बचपन के संबंध
में, वे आप
समझते हैं
आपके बचपन के
बाबत हैं।
सच तो
यह है कि मनसविद
कहते हैं कि
आदमी चार साल
की उम्र के
पहले का स्मरण
नहीं कर पाता।
और उसका कारण
यह है कि चार साल
का जीवन बच्चे
का इतना दुखद
है कि उस
स्मृति को
रखना मनुष्य
के लिए हितकर
नहीं है।
इसलिए आदमी
भूल जाता है।
आपको याद आती
है पीछे लौट
कर तो ज्यादा
से ज्यादा चार
साल। बहुत
बुद्धिमान
हुए तो तीन
साल तक आपको
स्मरण आएगा।
लेकिन वे तीन
साल बिलकुल ब्लैंक हो
जाते हैं, भूल
जाते हैं।
क्या हो गया? मनसविद कहते हैं कि
जब अति दुख
होता है मन
में तो उसकी स्मृति
रखनी उचित
नहीं है; इसलिए
मन उसकी
स्मृति को
पोंछ डालता
है। खतरनाक है,
वह स्मृति
पत्थर की तरह
छाती पर बैठ
जाएगी। इसलिए
मन की आयोजना
है कि अति दुख
हो, उसे
भुला देते हैं
हम। वह अचेतन
में डूब जाता
है।
हां, बच्चे
को बेहोश किया
जाए, हिप्नोटाइज किया जाए, सम्मोहित
किया जाए, तो
याद आ जाती
है। लेकिन
सम्मोहन में
कोई बच्चा
नहीं कहता कि
मैं स्वर्ग
में था। और सब
बूढ़े कहते हैं
कि हम स्वर्ग
में थे, बचपन
बड़ा सुखद था।
असल में, आपको
बचपन का अब
कोई खयाल नहीं
रह गया। यह
बचपन आपने
निर्मित किया
हुआ है।
पहले
आदमी भविष्य
में सुख को
रखता है, जब तक
उम्र शेष रहती
है। और जब मौत
करीब आने लगती
है तो भविष्य
तो समाप्त हो
जाता है, भविष्य
में तो सिर्फ
मौत दिखाई
पड़ती है; इसलिए
आदमी पीछे
अपने सुख को
रखने लगता है।
एक बात पक्की
है कि जहां
आदमी है, वहां
सुख नहीं
होता। फिर
पीछे रख लेता
है। फिर वह
सोचता है, कैसा
आनंद था! ऐसा
लगता है, बचपन
में सभी कुछ
आनंद था।
अगर
बचपन इतना
आनंदपूर्ण हो
तो बच्चे बचपन
छोड़ने से
इनकार कर दें।
लेकिन बच्चे
जल्दी बड़े होना
चाहते हैं।
यहां तक कि
बच्चे जितने
बड़े होते हैं, उससे
भी ज्यादा
अपने को बड़ा
बताना चाहते
हैं। क्योंकि
बड़ों के पास
ताकत मालूम
पड़ती है, स्वर्ग
मालूम पड़ता है,
सुख मालूम
पड़ता है; नियंत्रण,
मालकियत, सब उनके पास
मालूम पड़ती
है। बच्चा तो
एकदम दीन-हीन,
कमजोर
मालूम पड़ता
है। उसको लगता
है कैसे जल्दी,
जल्दी-जल्दी
बड़ा हो जाए।
इसलिए बच्चे
बड़ों की आदतें
सीख लेते हैं।
अगर
छोटे बच्चे
सिगरेट पीते
हैं तो इसका
कारण यह नहीं
कि बच्चों को
सिगरेट में
कोई भी सुख मिलता
है। जरा भी
नहीं मिलता।
बच्चों को बड़ी
तकलीफ मिलती
है। क्योंकि
सिगरेट और
बच्चे को कोई
तरह का सुख
नहीं दे सकती।
सिगरेट से सुख
लेने के लिए
जरा ज्यादा
उम्र की मूढ़ता
चाहिए। बच्चा
इतना मूढ़
नहीं होता।
अभी इतनी ताजी
कली है उसके
मन की कि
सिगरेट का
धुआं सिर्फ
दुख ही दे
सकता है। लेकिन
बच्चा उस दुख
को झेल लेता
है,
कोई फिक्र
नहीं; क्योंकि
सिगरेट पीते
ही पावरफुल
मालूम होता
है। वे जितने
लोग सिगरेट पी
रहे हैं, फिल्म
अभिनेता हैं,
राजनेता
हैं, सड़कों
पर ताकतवर लोग
हैं, अपनी
गाड़ी में बैठे
हुए सिगरेट पी
रहे हैं। वह
बच्चा जब
सिगरेट अपने
मुंह पर रख
लेता है, बचपन
खो गया। अब वह
बड़ों की
दुनिया का
भागीदार हो
गया, हिस्सेदार
हो गया। बच्चे
सिगरेट पीना
सीखते हैं, क्योंकि
सिगरेट जो है,
वह
पावर-सिंबल
है।
अनेक
बच्चे हैं, मनसविद
उनके बाबत
जानकारी रखते
हैं, जो
जाकर जल्दी दाढ़ी-मूंछ
बढ़ाना चाहते
हैं। पिता घर
न हों तो उनके रेजर का
उपयोग करके
जल्दी किसी
तरह दाढ़ी-मूंछ
आ जाए। कोई बच्चा
बच्चा रहने को
राजी नहीं है।
भागना चाहता
है बचपन से।
स्कूल
कारागृह से
ज्यादा नहीं मालूम
होता। शिक्षक
समाज में सबसे
बड़े चुने हुए
दुष्ट मालूम
पड़ते हैं। और
यह खयाल
बच्चों का कुछ
दूर तक सही भी
हो सकता है।
क्योंकि
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
शिक्षक होने
की जिनमें
वृत्ति होती
है, वे असल
में डॉमिनेट
करना चाहते
हैं, वे
लोगों पर रुआब
बांधना चाहते
हैं। इसलिए कम
तनख्वाह में
भी शिक्षक
राजी रहता है।
क्योंकि जो रस
मिल रहा है, वह बहुत
दूसरा है। वह
किसी हिटलर, किसी
नेपोलियन से
कम नहीं है
अपनी क्लास
में। सारी
दुनिया का सम्राट
मालूम होता
है।
बच्चों
से अगर उनके
दुख कभी पूछे
जाएं तो बूढ़ों
को यह भ्रम
छोड़ देना
पड़ेगा कि बचपन
एक स्वर्ग था।
जहां चौबीस
घंटे
परतंत्रता
अनुभव होती है--यह
मत करो, यह मत
करो, यह मत
करो। जहां
मां-बाप "मत
करो' में
इतना रस लेते
मालूम पड़ते
हैं कि कई बार
तो माताएं यह
भी फिक्र नहीं
करतीं कि
बच्चा क्या कर
रहा है, उसके
पहले ही कहती
हैं: मत करो!
सबके मन में
अहंकार की
तृप्ति अधूरी
रह जाती है, वासना अधूरी
रह जाती है।
सब अपने
अहंकार को तृप्त
करने के लिए
चारों तरफ
उपाय खोजते
हैं। बच्चों
से ज्यादा
सुगम उपाय और
सस्ता उपाय
दूसरा नहीं
है। एक स्त्री
के पास चार-आठ
बच्चे हैं तो
फिर समझो कि
उसके अहंकार
को अब इससे ज्यादा
और पुष्टि का
कोई दूसरा
उपाय नहीं है।
पुष्ट हो
जाएगा उसका
अहंकार। हर
चीज में आखिरी
वचन उसका है।
यह जो
पीछे से खयाल
आता है कि सुख
था,
यह धोखा है।
न तो सुख पीछे
हुआ है, और
न आगे है; सुख
होता है सदा
अभी। और जो
उसकी कला
जानता है, वह
अभी सुखी होता
है।
वानगॉग
से कोई पूछ
रहा है कि
तुम्हारा
सबसे श्रेष्ठ
चित्र कौन सा
है?
तो वानगॉग
ने कहा, यह
जो मैं अभी
पेंट कर रहा
हूं। वह जो
पेंट कर रहा
था, यही।
वह आदमी
पंद्रह दिन
बाद वापस आया
देखने कि अब
यह क्या कहता
है। तब वानगॉग
दूसरा चित्र
पेंट कर रहा
था। और उस
आदमी ने पूछा
कि तुम्हारा
श्रेष्ठतम
चित्र? उसने
कहा, यही।
वानगॉग का यह
उत्तर सुन कर
उस आदमी ने कहा,
लेकिन
पंद्रह दिन
पहले वह दूसरा
चित्र जो पूरा
हो गया, तुमने
उसके बाबत कहा
था। वानगॉग ने
कहा, वह गए
जमाने की बात
हो गई, उससे
क्या
लेना-देना? मैं अभी
सुखी हूं।
जो अभी
सुखी होता है, अतीत
बेमानी हो
जाता है। आपके
लिए अतीत में
जो मूल्य
मालूम पड़ता है,
वह वर्तमान
के दुख के
कारण। आप इतने
दुखी हैं कि
अब और कोई
उपाय नहीं है।
पीछे सुख को
बना लेते हैं,
आगे सुख को
बना लेते हैं।
ऐसे जिंदगी
आगे-पीछे में
डोलती चली
जाती है। एक
झूठा ब्रिज, सेतु बना
लेते हैं; उस
पर यात्रा
होती चली जाती
है। और
प्रतिपल जो
वास्तविक जगत
है, वह
चूकता चला
जाता है।
जो
आदमी सुखी है, वह
अभी सुखी है।
और जो आदमी
सुखी है, इसी
क्षण जगत के
शिखर पर सुखी
है। लेकिन आप
यह मत समझना
कि अगले क्षण
वह दुखी हो
जाएगा। उसके
शिखर कभी छोटे
नहीं होते। हर
क्षण उसका
शिखर है, पीक
है। और उसकी
कोई तुलना
नहीं है
आगे-पीछे से।
जब भी अतीत
आपको याद आए, समझना
वर्तमान दुखी
है। जब भी
भविष्य आपको
खींचे, समझना
वर्तमान दुखी
है। जब
वर्तमान सुखी
होता है, अतीत
खो जाता है, भविष्य मिट
जाता है। जब
सुख होता है, तो क्षण
शाश्वत हो
जाता है।
लाओत्से
कहता है, तीसरा
महान तत्व है
पृथ्वी, सुख।
लेकिन वह भी
हमारी आशा है,
वह भी हमें
कामना है मिले,
वासना है
मिले।
चौथी
निकटतम जो
हमारे बात है, लाओत्से
कहता है, "सम्राट
भी महान है।'
सम्राट
लाओत्से के
लिए अहंकार का
प्रतीक है, ईगो
का। ताओ बहुत
दूर, आनंद
भी काफी दूर, सुख भी
मिला-मिला
मालूम पड़ता है,
मिलता नहीं;
लेकिन हर
आदमी अपने को
सम्राट तो
मानता ही है।
यह मिला हुआ
है। हर आदमी
सम्राट तो है
ही, चाहे
प्रजा कोई भी
न हो। इससे
कोई बहुत फर्क
नहीं पड़ता।
राजा होने के
लिए राज्य का
होना जरूरी
नहीं है।
लेकिन हर आदमी
अपने भीतर
राजा तो है
ही। और हर
आदमी
छोटी-मोटी
किंगडम भी बना
ही लेता है।
सड़क पर जो
भिखारी है, उसका भी
अपना राज्य है,
उसकी भी टेरीटरी
है। उसकी टेरीटरी
में दूसरा
भिखारी नहीं
प्रवेश कर
सकता। उसकी अपनी
सीमाएं हैं, दंगा-फसाद
हो जाएगा। वह
भिखारी नहीं
है एकदम, उसकी
भी अपनी
सीमाएं, राज्य।
नंगे से नंगा
खड़ा आदमी भी
किसी छोटे-मोटे
राज्य का राजा
है।
हमारे
निकटतम जो बात
है,
वह है
अहंकार। यह
हमें मिला हुआ
है। इसमें हम
जीते हैं।
इसमें ही हम
जीए चले जाते
हैं। अहंकार
का मतलब क्या
है? सम्राट
का मतलब क्या
है?
अहंकार
का मतलब है, मैं
केंद्र हूं
सारे
अस्तित्व का। चांदत्तारे
मेरे लिए
घूमते हैं, हवाएं मेरे लिए
बहती हैं, नदियां
मेरे लिए
दौड़ती हैं, पशु-पक्षी
मेरे लिए गीत
गाते हैं। जो
कुछ भी हो रहा
है कहीं, मैं
केंद्र हूं।
मेरे लिए हो
रहा है। जिस
दिन मैं नहीं,
उस दिन सब
बिखर जाएगा।
जिस दिन मैं
नहीं था, उस
दिन कुछ भी
नहीं था। जिस
दिन मैं
मरूंगा, मैं
नहीं मरूंगा,
अस्तित्व
समाप्त हो
जाएगा, प्रलय
हो जाएगी। यह
तो बड़ा अच्छा
है कि कब्र से
लौटने का मौका
लोगों को नहीं
मिलता। उनको
ऐसा सदमा
पहुंचे कि मौत
से भी बड़ी
दुर्घटना
घटे। कोई
राजनेता अगर
लौट कर देख ले
कि मेरे बिना
भी दुनिया चल
रही है! और जब
मैं मरा था तो
इन्हीं लोगों
ने कहा था कि
अब यह क्षति
कभी पूरी नहीं
होगी--अपूर्णीय!
और कहीं कोई
चर्चा ही नहीं
है कि मेरी
खाली जगह का
क्या हुआ?
इस जगत
में जगह खाली
होती ही नहीं; आदमी
पहले से तैयार
होते हैं। इधर
राजनेता मरता
है, उसके
पहले सीढ़ियां
लगाए हुए लोग
तैयार होते
हैं उसकी
कुर्सी पर बैठ
जाने को। ये
वे ही लोग हैं,
जो दूसरे
दिन सुबह कहते
हैं कि अपूर्णीय
क्षति हो गई।
ये वे ही लोग
हैं, ये ही
पूर्ति कर
देंगे। इस जगत
में किसी भी
आदमी के हटने
से कोई जगह
खाली नहीं
होती। अहंकार
मानता है कि
मेरे हटते ही
से जो छिद्र
हो जाएगा इस
जगत में, वह
कभी नहीं भरा
जा सकेगा।
अहंकार मानता
है कि मैं इस
जगत में
अपरिहार्य
हूं, अनिवार्य
हूं, मेरे
बिना कुछ भी
नहीं हो सकता।
कभी
सोचें मन में
कि आप नहीं
होंगे, तब भी
पूर्णिमा का
चांद निकलेगा;
कैसी उदासी
छा जाती है! आप
नहीं होंगे, तब भी यह
सागर ऐसी ही
गर्जन करेगा!
और आप नहीं होंगे,
और सुबह
पक्षी गीत गाएंगे!
कैसी उदासी छा
जाती है। यह
खयाल आ जाएगा
तो पक्षी का
गीत भी सुन कर
बड़ी पीड़ा होगी;
चांद को
आकाश में देख
कर हृदय पर
सदमा पहुंचेगा
कि मैं नहीं
होऊंगा और फिर
भी सब ऐसे ही
होता रहेगा।
इसका मतलब यह
है कि मेरे
होने न होने से
कोई भी फर्क
नहीं पड़ता।
मैं था या
नहीं था, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
लेकिन
अहंकार यह
मानने को राजी
नहीं है। अहंकार
का मतलब यह है
कि मैं इस
अस्तित्व में
कुछ हूं, जिसका
मूल्य है, वजन
है। और मेरे
बिना यह
अस्तित्व
रीता-रीता, खाली-खाली
हो जाएगा। मैं
ही इस जगत का
नमक हूं, मेरे
बिना सब
रोना-रोना हो
जाएगा। यह
हमारे निकटतम
है। यह हमारी भावदशा
है।
अहंकार
हमारी स्थिति
है;
ताओ हमारी
मंजिल है।
अहंकार में हम
खड़े हैं; ताओ
तक हमें
पहुंचना है।
लेकिन अहंकार
झूठी स्थिति
है।
लाओत्से
कहता है, "ब्रह्मांड
के ये चार
महान हैं।' साथ कहता है,
"और सम्राट
भी उनमें एक
है।'
इसे भी
गिना देना जरूरी
है,
क्योंकि
इसके बिना फिर
हम यात्रा
शुरू न कर पाएंगे।
इसलिए कहता है,
सम्राट भी
उनमें एक है।
हम यहीं खड़े
हैं। यह हमारी
स्थिति है।
लेकिन
महान कहना
अहंकार को जरा
हैरानी की बात
मालूम पड़ेगी।
ताओ को महान
कहना समझ में
आ सकता है, अहंकार
को महान कहना?
लेकिन इसे
थोड़ा समझ लें।
अहंकार भी
महान है इस
अर्थों में कि
उसकी भी कोई
सीमा नहीं है।
और कितना ही बड़ा
हो जाए, कोई
तृप्ति नहीं
है। और कुछ भी
पा ले, कभी
आप्तकाम नहीं
होता, भरता
नहीं है। दुष्पूर
है। इस अर्थ
में महान है।
ऐसा एबिस, ऐसी
खाई है कि
जिसमें कितना
ही डालते चले
जाएं, कोई
अंतर नहीं
पड़ता। अहंकार
निगेटिव अर्थ
में महान है, नकारात्मक
अर्थ में महान
है। झूठ है, इसलिए असीम
है। सत्य
इसलिए असीम है
कि असीम होना
उसका स्वभाव
है। झूठ इसलिए
असीम होता है
कि वह है ही
नहीं। जो है
ही नहीं, उसकी
सीमा कैसे
होगी? जो
नहीं है, वह
असीम होता है।
जो है, वह
भी असीम होता
है। लेकिन जो
है, उसकी
असीमता
विधायक होती
है; जो
नहीं है, उसकी
असीमता
नकारात्मक
होती है।
इसलिए
नहीं गिनना
चाहता है
लाओत्से, फिर
भी गिनता है; कहता है, और
सम्राट भी
उनमें से एक
है। ये चार
हैं महान तत्व,
और यह
अहंकार भी
उनमें से एक
है।
आज तक
किसी का
अहंकार भर
नहीं पाया।
कभी भरेगा भी
नहीं। कोई
उसके भरने का
उपाय भी नहीं
है। आप उसको
जितना दें, उतनी
उसकी मांग बढ़
जाती है।
मांगना उसका
स्वभाव है।
जितना आप उसको
देते हैं, उतना
उसका स्वभाव
और मांगता चला
जाता है। मजे की
बात है, अहंकार
को जो मिल
जाता है वह
व्यर्थ हो
जाता है, और
जो नहीं मिलता
वही सार्थक
होता है।
अहंकार जहां
पहुंच जाता है,
अंधा हो
जाता है; और
जहां नहीं
पहुंचता, वहां
उसकी आंखें
टंगी रहती
हैं।
आप भी
कहीं पहुंच गए
हैं। सभी कहीं
पहुंच गए हैं।
लेकिन जो जहां
है,
वहां तृप्त
नहीं है। अगर
आप डिप्टी
मिनिस्टर हैं
तो परेशान। जब
नहीं थे, तब
भी परेशान थे।
तब सिर्फ एम.एल.ए.
थे। जब एम.एल.ए.
नहीं थे, तब
भी परेशान थे।
तब एक साधारण
नागरिक थे।
साधारण
नागरिक से बड़ी
चेष्टा की, एम.एल.ए. हो गए। सोचा
था सब भर
जाएगा। जाकर
पाया, एम.एल.ए. होना भी कोई
होना है जब तक
कि डिप्टी
मिनिस्टर न हो
जाएं! फिर डिप्टी
मिनिस्टर--बड़ी
दौड़-धूप, बड़ी
मेहनत--डिप्टी
मिनिस्टर हो
गए हैं। अब
डिप्टी
मिनिस्टर हो
गए हैं, उपमंत्री
हो गए हैं, लेकिन
अब मिनिस्टरशिप
नहीं दिखाई
पड़ती, सिर्फ
डिप्टीशिप
खटकती है। वह
जो डिप्टी है
वह अखरता है, मन को चोट
देता है, कीले
की तरह चुभता
है कि डिप्टी
होना भी कोई होना
है, कम से
कम मिनिस्टर
तो चाहिए।
मिनिस्टर
होते ही चीफ
मिनिस्टर अखरने
और खलने
लगता है। और
यात्रा चलती
चली जाती है।
जो
आदमी जहां है, वहीं
अतृप्त होता
है। यह अहंकार
का लक्षण है। और
जहां नहीं है,
वहां के लिए
सोचता है, तृप्त
हो सकूंगा। इन
चार के बीच
हमारी जीवन की
व्यवस्था है।
लाओत्से
कहता है, "मनुष्य
अपने को
पृथ्वी के
अनुरूप बनाता
है।'
पृथ्वी--सुख।
मनुष्य अपने
को पृथ्वी के
अनुरूप बनाता
है। मनुष्य
पूरे समय
कोशिश कर रहा
है,
सुखी हो
जाए। सारी
कोशिश यही है।
आप कुछ भी कर
रहे हों, इससे
फर्क नहीं
पड़ता कि आप
क्या कर रहे
हैं; एक
बात तय है, आप
सुखी होने की
कोशिश कर रहे
हैं। यह पूछना
जरूरी नहीं है
कि आप क्या कर
रहे हैं--चोरी
कर रहे हैं, कि साधुता
कर रहे हैं, कि ईमानदारी
कर रहे हैं, कि बेईमानी
कर रहे हैं--जो भी
कर रहे हैं।
यह बड़े मजे की
बात है कि
बेईमान और
ईमानदार, साधु
और असाधु, सबकी
खोज एक है। सब
सुख खोज रहे
हैं। यह दूसरी
बात है कि कोई
बेईमानी से
सोचता है कि
मिल जाएगा, कोई
ईमानदारी से
सोचता है कि
मिल जाएगा। यह
उनकी समझ का
फर्क है, लेकिन
खोज में कोई
अंतर नहीं है।
मिलेगा, नहीं
मिलेगा, यह
भी दूसरी बात
है। लेकिन खोज
सुख के लिए
है।
हर
आदमी सुख खोज
रहा है; और हर
आदमी दुख पा
रहा है। और हर
आदमी तेजी से
सुख की तरफ
दौड़ रहा है, और हर आदमी
तेजी से दुख
के गर्त में
गिरा जा रहा
है।
"मनुष्य
अपने को
पृथ्वी के
अनुरूप बनाता
है।'
मनुष्य
पूरे वक्त
कोशिश कर रहा
है कि मैं
कैसे सुख के
अनुरूप हो
जाऊं। लेकिन
क्या है अड़चन? यह
सुख नाराज
क्यों है
मनुष्य पर? इतनी चेष्टा
असफल क्यों हो
जाती है? मनुष्य
सुखी क्यों
नहीं हो पाता?
और
दुर्घटना यह
है कि मनुष्य
जितना निकट
पहुंचता
मालूम पड़ता है,
उतना दुखी
होता जाता है।
हम जितने पीछे
लौटें, जितना
अशिष्ट समाज
हो, असभ्य
समाज हो, प्रिमिटिव हो, सुख
के साधन न हों,
वह कम दुखी
मालूम पड़ता
है। होना उलटा
चाहिए। हम
ज्यादा सुखी
होने चाहिए; आदिम लोग
ज्यादा दुखी
होने चाहिए।
लेकिन उलटा
मालूम पड़ता है,
हम ज्यादा
दुखी और वे
ज्यादा सुखी
मालूम पड़ते
हैं। क्या हो
गया है? हमारे
दुख का इतना
घनापन क्यों
है? इतनी
त्वरा क्यों
है? हमारा
दुख इतना
बुखार की तरह
हमारी छाती पर
क्यों है?
हमारे
पास सुख के
बहुत साधन हो
गए हैं। और
इतने साधन के
बाद हमें समझ
में आता है, सुख
बिलकुल भी
नहीं मिल रहा
है। इससे
हमारी बेचैनी
बढ़ गई है। एक गरीब
आदमी है, भिखमंगा
है, सड़क पर
भीख मांग रहा
है; सोचता
है, महल
मिल जाए तो
सुख मिलेगा।
महल सिर्फ
उनके लिए होते
हैं, जो
महलों में
नहीं होते।
महल सिर्फ
उनके लिए होते
हैं, जो
महलों में
नहीं होते।
उनके लिए
महलों की जो
महिमा है, उसका
कोई अंत नहीं
है।
फिर एक
दिन यह
भिखमंगा महल
में पहुंच
जाता है; तब
इसे पहली दफे
पता चलता है, महल तिरोहित
हो गया। वह जो महिमावान
महल था, जो
रास्ते पर सोकर
सपने में देखा
था, जो सदा
मन को घेरे
रहा, आच्छादित
किए रहा, जिसके
लिए सब तरह की
यात्राएं कीं
और बामुश्किल
इस महल में
प्रवेश किया,
वह महल यह
नहीं है। वह
महल कोई और
था।
असली
महल सपनों के
महल को तोड़
देते हैं।
असलियत सदा ही
सपनों को
तोड़ने वाली
सिद्ध होती
है। सपनों की
नावें असलियत
के तट से लग कर
टुकड़े-टुकड़े
हो जाती हैं।
इसलिए हम इतने
दुखी हैं! हमने
सब महल पा लिए, जो
गरीब आदमी
पाना चाहता
था।
इसलिए
अगर अमरीका
भारत से
ज्यादा दुखी
मालूम पड़े तो
हैरानी की बात
नहीं है। और
अगर अमरीका के
आदमी को लगता
हो कि ध्यान
कैसे पाऊं? और
धर्म कैसे पाऊं?
और कैसे
ऋषिकेश
पहुंचूं? और
कैसे साधना
करूं? तो
हमको लगता है,
पागल तो
नहीं हो गए
हैं ये लोग! वे
जो ऋषिकेश में
रहते हैं, उनको
लगता है, जरूर
इनका दिमाग
फिर गया है।
क्योंकि वे
जिंदगी से
वहां रह रहे
हैं और उन्हें
कुछ भी नहीं हुआ
है। ये अमरीका
से लोग भागे
क्यों चले आ
रहे हैं
ऋषिकेश की तरफ?
इनको वह महल
मिल गया है, जो अभी
ऋषिकेश के
लोगों को
मिलने की देरी
है। इस महल को
पाकर इनके सब
सपने टूट गए
हैं।
सुख जब
उपस्थित हो
जाता है, तब
हमें पता चलता
है कि वह मिला
नहीं। यह बड़ी
कठिन बात हो
गई। जब मिलता
नहीं, तब
भी दुख देता
है; जब मिल
जाता है, तब
भी दुख देता
है। बुद्ध ने
इसे देख कर इस
जगत का स्वभाव
कहा कि दुख है
इस जगत का
स्वभाव। जो मिल
जाए वह दुख
देता है; जो
न मिले वह दुख
देता है। जिस
स्त्री को
चाहो; न
मिले, जिंदगी
भर दुख होता
है। मजनू से
पूछो, दुखी
है। पर उनको
पता नहीं कि
लैला मिल जाती
तो कितना दुख
होता। वह उनसे
पूछो जिनको
मिल जाती है।
जिनको मिल
जाती है, वे
तलाक के दफ्तर
में खड़े हुए
हैं--तलाक
कैसे हो!
डाइवोर्स
चाहिए! जिनको
नहीं मिलती, वे कविताएं
गा रहे हैं, आंसू बहा
रहे हैं। पता
नहीं इनमें
दुखी कौन है?
एक बात
तय है कि जो
नहीं मिलता वह
भी दुख देता है, जो
मिल जाता है
वह भी दुख
देता है। और
शायद इन दोनों
दुखों में
पहला बेहतर
है। कम से कम आशा
तो बनी रहती
है। दूसरे में
आशा भी टूट
जाती है।
लेकिन इसका
राज क्या है? इतनी सुख की
तलाश और सुख
हाथ में क्यों
नहीं? इसका
राज?
लाओत्से
बड़ी अदभुत बात
कहता है।
लाओत्से कहता
है,
"मनुष्य
अपने को
पृथ्वी के
अनुरूप बना
रहा है; और
पृथ्वी अपने
को स्वर्ग के
अनुरूप बना
रही है।'
यह
तकलीफ है।
इसलिए मिलन
कभी नहीं हो
पाता। आप
जिसके पीछे
दौड़ रहे हैं, वह
किसी और चीज
के पीछे दौड़
रहा है। वह
आपकी तरफ दौड़
ही नहीं रहा
है। इसलिए आप
तकलीफ में हैं।
यह जरा
सूक्ष्म है।
मैं आपको पाना
चाहता हूं और
आप किसी और को
पाना चाहते
हैं। तो यह
मिलन होगा
कैसे? इस
मिलन का एक ही
रास्ता है कि
मैं उसे पाने
में लग जाऊं, जिसे आप
पाना चाहते
हैं। तो यह
मिलन हो सकता
है। नहीं तो
यह मिलन नहीं
हो सकता। और
अगर मैं आपको
पकड़ भी लूं तो
आप छूट कर भागेंगे;
क्योंकि आप मुझसे
मिलने को
उत्सुक नहीं
हैं। आप कहीं
और जाना चाहते
हैं।
लाओत्से
कहता है, "मनुष्य
अपने को
पृथ्वी के
अनुरूप बनाना
चाहता है; पृथ्वी
अपने को
स्वर्ग के
अनुरूप बनाना
चाहती है; स्वर्ग
अपने को ताओ
के अनुरूप
बनाना चाहता
है; और ताओ
अपने को
स्वभाव के
अनुरूप बनाना चाहता
है।'
यह
उपद्रव है।
यहां जिसके
पीछे हम भाग
रहे हैं, वह
कहीं और भाग
रहा है। तो जब
तक हम उसको न
पकड़ लें जिसकी
तरफ सब कुछ
भाग रहा है, तब तक हम कुछ
भी न पकड़
पाएंगे।
पृथ्वी
अपने को
स्वर्ग के
अनुरूप बनाना
चाहती है, इसका
क्या अर्थ है?
इसका अर्थ
है कि जहां-जहां
हमें सुख
दिखाई पड़ता है,
जहां-जहां
हमें सुख की
झलक मिलती है,
जहां-जहां
हमें लगता है
सुख है, जिस
बिंदु पर सुख
हमें घनीभूत
दिखाई पड़ता है,
उस बिंदु के
लिए सुख
व्यर्थ हो
गया। जो मिल
जाता है, वह
व्यर्थ हो
जाता है। वह
बिंदु आनंद की
तरफ यात्रा कर
रहा है। वह
बिंदु आनंद
होना चाहता
है। कठिनाई है
अब। वह बिंदु
आनंद होना
चाहता है।
पृथ्वी
स्वर्ग बनना
चाहती है। अगर
आप आनंद की
तरफ यात्रा कर
रहे हैं तो
आपका सुख से
मिलन हो
जाएगा।
क्योंकि तब आप
दोनों के
लक्ष्य एक हो
जाते हैं।
इसलिए
मजे की बात है, जो
आनंद की तरफ
जाता है वह
सुख को पा
लेता है, और
जो सुख की तरफ
जाता है वह
सिर्फ दुख को
पाता है।
बुद्ध की
आंखों में सुख
की झलक है।
महावीर के
चलने में सुख
की हवा है।
महावीर बैठते
हैं तो लगता
है कोई सुख
बैठा, उठते
हैं तो लगता
है कोई सुख
उठा। उनके
होने में एक
भीनी सुगंध है
सुख की। वह
चारों तरफ बरस
रही है। वही
सुख तो हमें
आकर्षित करता
है, हमें
खींचता है। तो
हम सोचते हैं,
हम भी
महावीर जैसे
हो जाएं, यह
सुख हमें कैसे
मिल जाए!
लेकिन
महावीर को यह
सुख मिल रहा
है आनंदित होने
से,
आनंद की
यात्रा पर
निकल जाने से।
वे प्रतिपल आनंद
को पाने की कोशिश
में लगे हों
तो यह सुख मिल
रहा है। अगर
हम सुख पाने
की कोशिश में
लगे हैं, हमें
दुख मिलेगा।
इसलिए महावीर
के पीछे चलने वाले
साधु-संन्यासियों
को देखो, दुखी
बैठे हैं। यह
बड़ी हैरानी की
बात है, महावीर
की प्रतिमा
देखो और एकाध
जैन मुनि को देखो
उसके साथ रख
कर। तब
तुम्हें पता
लगेगा कि
दुश्मन हैं
दोनों? क्या
बात है? महावीर
की
प्रतिमा--इससे
ज्यादा सुंदर
काया खोजनी
मुश्किल है।
महावीर की
काया ऐसी
सुंदर है कि
फिर दूसरी
काया उसके साथ
रखनी मुश्किल
है। और काया
इतनी सुंदर थी,
इसीलिए तो
महावीर नग्न
खड़े हो सके।
कुरूप आदमी
नग्न कैसे खड़ा
हो?
असल
में,
वस्त्र
सौंदर्य को
नहीं बढ़ाते, सिर्फ
कुरूपता को ढांकते
हैं। इसलिए
ध्यान रखना, जब सौंदर्य
बढ़ेगा, तो
लोगों के शरीर
उघड़ने
लगेंगे। जहां
सौंदर्य
जितना ज्यादा
होगा, शरीर
उतने उघड़
जाएंगे। अगर
पश्चिम की
स्त्रियां
शरीर को ज्यादा
उघाड़ रही हैं
और भारत की
स्त्रियों को
बेचैनी होती
है तो सोच
लें। उसमें कहींर्
ईष्या काम कर
रही है, और
कोई मामला
नहीं है। शरीर
सुंदर होगा तो
ढांकना कोई
अर्थ नहीं
रखता।
महावीर
का शरीर तो
अति सुंदर है।
और उनकी काया
तो ऐसी है
जैसे मूर्ति
बनाने के लिए
ही बनी हो।
मूर्ति बनाने
वाले को भी
दिक्कत होती
होगी। मूर्ति
सदा थोड़ी फीकी
मालूम पड़ती
होगी, क्योंकि
इतनी जिंदा तो
नहीं हो सकती।
यह एक तरफ
महावीर है, इसकी
श्वास-श्वास
में सुख है।
और दूसरी तरफ
उनके पीछे
चलने वाला
साधु है। वह
जितना उपवास
कर-कर के, शरीर
को सुखा-सुखा
कर पीला पड़ता
जाता है, जितना
वह पीला, पीतल
जैसा लगने
लगता है, वैसा
उसके भक्त
कहते हैं कि
कैसे तप की
आभा प्रकट हो
रही है! तपे
दुख वाला
पीलापन
स्वर्णिम मालूम
पड़ता है।
जैसे-जैसे
शरीर सूखता
जाता है और
प्राण केवल
आंखों में
टंके रह जाते
हैं, लोग
समझते हैं, आंखें तो
देखो! अब और
कुछ बचा नहीं
है देखने को।
लोग कहते हैं,
आंखें तो
देखो, कैसा
तेज प्रकट हो
रहा है। यह
तेज नहीं, यह
आखिरी झलक है
दीए के बुझने
के पहले की।
महावीर
के पास एक सुख
है,
एक छाया है;
जैसे बरगद
के नीचे छाया
होती है, वैसे
ही उस छाया के
पास कोई आए, तो जैसे दूर
की यात्रा की
थकान मिट जाए,
हजार-हजार
लोग उनके पास बैठें तो
शीतल हो जाएं।
लेकिन उसका
कारण है कि वे
कुछ और खोजने
में लगे हैं।
सुख बाई-प्रोडक्ट
है; वह खोज
नहीं है उनकी।
जो सुख को
खोजने उनके पास
आया, वह
तपस्वी के दुख
में पड़ जाएगा।
क्योंकि तब वह
महावीर की नकल
करेगा; वह
सोचेगा, जो-जो
महावीर कर रहे
हैं वह-वह मैं
करूं, तो
यह सुख मुझे
मिल जाएगा।
सुख इमीटेटिव
है। आपको
दिखता है कि
किसी के हाथ
में एक छल्ला
दिखाई पड़ जाता
है हीरे का।
तो लगता है, पता नहीं
कितना सुख मिल
रहा है इसको।
अब यह हीरे का
छल्ला मेरे
हाथ में हो जाए
तो मुझे भी
सुख मिल जाए।
छल्ला हीरे का
हो, या
किसी और चीज
का हो, मिलते
ही सिर्फ बोझ
का अनुभव होता
है, बंधन
हो जाता है।
महावीर कुछ और
खोज रहे हैं।
जहां-जहां
हमें झलक
दिखाई पड़ती
है...। अगर आपको रात
के सन्नाटे में
सुख की झलक
दिखाई पड़ती है, तो
उसका अर्थ है
रात किसी अपने
से बड़े सूत्र
के साथ एक हो
गई है। अगर
आपको चांद से
झलक मिलती है
किसी शीतलता
की तो उसका
अर्थ है यह
पूर्णिमा का
चांद किसी बड़े
सूत्र के साथ
एक हो गया है। अगर
आप जंगल में
जाते हैं और
हरियाली आपको
मोह लेती है
और मन नाचने
लगता है तो
उसका अर्थ है
यह जंगल किसी
आनंद के सूत्र
में डूबा हुआ
है। इसके उस
डूबने से यह
सुख पैदा हो
रहा है।
"यह
पृथ्वी अपने
को स्वर्ग के
अनुरूप बनाती
है।'
पृथ्वी, चारों
तरफ जो है, पदार्थ,
वह सब अपने
को स्वर्ग
बनाने में लगा
हुआ है। एक छोटा
सा बीज भी
अंकुरित होकर
फूल बनना
चाहता है। एक
छोटा सा बीज
भी पृथ्वी से
स्वर्ग बनना
चाहता है।
चारों तरफ
चेष्टा चल रही
है। आदमी पृथ्वी
के अनुरूप
बनाने की
कोशिश में ही
भटकता है।
लेकिन
पृथ्वी भी
स्वर्ग को
उपलब्ध हो
नहीं पाती।
फूल खिलते हैं
और मुरझाते
हैं। चांद
पूरा हो जाता
है और फिर
घटने लगता है।
यहां कोई चीज
शाश्वत नहीं
हो पाती।
पृथ्वी भी अपने
को स्वर्ग बना
नहीं पाती।
क्योंकि
स्वर्ग अपने
को ताओ के
अनुरूप बना
रहा है।
स्वर्ग भी किसी
और की तलाश
में है।
हमें
स्वर्ग का कोई
पता नहीं है, इसलिए
मुश्किल
होगा। पृथ्वी
तक समझ आसान
है कि पृथ्वी
भी स्वर्ग
बनना चाहती
है। इसलिए
कहीं-कहीं, कश्मीर में
हम कहते हैं, पृथ्वी का
स्वर्ग। कुछ
खिल गया है।
झीलें, आकाश,
पहाड़, पर्वत,
वृक्ष, सबमें
कोई चीज खिल
गई है--कुछ जो
पृथ्वी के दूसरे
हिस्सों में मुर्झायी
है--तो लगता है
कि यहां
स्वर्ग है। वह
झलक है एक।
लेकिन स्वर्ग
का हमें कोई
पता नहीं है।
पृथ्वी भी
स्वर्ग को
उपलब्ध हो
नहीं पाती, सिर्फ कोशिश
करती रहती है
पाने की।
क्योंकि स्वर्ग
ताओ के अनुरूप
होना चाह रहा
है।
समझने
के लिए ऐसा
खयाल कर लें
कि जिसे हम
जानते हैं, यह
अस्तित्व का
अंत नहीं है।
जिस पृथ्वी को
हम जानते हैं,
यह जीवन की
समाप्ति नहीं
है। और पृथ्वियां
हैं, और
तारे हैं, और
ग्रह हैं, और
उपग्रह हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
कोई पचास हजार
पृथ्वियों
पर जीवन की
संभावना है।
कोई तीन अरब महासूर्य
हैं। यह हमारा
तो एक छोटा सा
सूरज का
परिवार है। इस
तरह के तीन
अरब सूर्य-परिवार
हैं। और हमारा
सूरज तो बहुत मीडियाकर,
मध्यस्थ, मध्यमवर्गीय
सूरज है। इससे
साठ-साठ हजार गुने बड़े
सूर्य हैं।
बड़ा विस्तार
है।
महावीर
ने,
बुद्ध ने, लाओत्से ने,
कृष्ण ने इस
पृथ्वी से
ज्यादा सुख के
तल अनुभव करने
वाले
ग्रहों-उपग्रहों
की चर्चा की
है--उनका नाम
स्वर्ग
है--इससे भी
जहां जीवन
श्रेष्ठतर हो
गया है, इससे
भी जहां जीवन
ज्यादा खिल
गया है! ऐसा
समझें हम, एक
कली अधखिली रह
गई हो, एक
कली खिल गई हो,
एक कली फूल
बन गई हो! अगर
बहुत पृथ्वियां
हैं, तो
कोई पृथ्वी अभी
सिकुड़ी पड़ी
होगी, कोई
पृथ्वी खिल
रही होगी, कोई
बहुत खिल गई
होगी, कहीं
चेतना ने नए
आयाम पा लिए
होंगे।
स्वर्ग का
मतलब इतना
है--ऐसी पृथ्वियां,
ऐसे जीवन के
तल इस
ब्रह्मांड
में, जहां
सुख उपलब्ध हो
गया है, जहां
सुख स्थिति बन
गई है। यहां
दुख स्थिति है,
सुख आशा है।
वहां सुख
स्थिति बन गई
है।
लेकिन
वहां भी जहां
सुख स्थिति बन
गई है, जहां
आनंद बरस गया
है, वहां
भी अभी थोड़ी
सी यात्रा शेष
है। क्योंकि जब
तक हम कहते
हैं, मैं
आनंदित हूं, तब तक भी मैं
और आनंद में
थोड़ा सा फासला
बना रहता है।
उतना फासला भी
कष्टपूर्ण
है, उतने
फासले में भी
बेचैनी है, उतनी दूरी
भी अखरती है।
लाओत्से
कहता है, "स्वर्ग
अपने को ताओ
के अनुरूप बना
रहे हैं।'
वे
स्वर्ग भी दौड़
रहे हैं; वे उस
परम नियति में
प्रवेश कर
जाना चाहते
हैं, उस
नियम के साथ
एक हो जाना
चाहते हैं, जो सभी
नियमों का
आधार है।
लेकिन उनकी
दौड़ भी तब तक
पूरी न हो
पाएगी।
क्योंकि ताओ
भी--यह थोड़ा
अंतिम, कठिन
बात है--
"ताओ
भी अपने को
स्वभाव के
अनुरूप बनाने
में लगा है।'
जिस
ताओ की हम बात
कर सकते हैं, वह
ताओ वास्तविक
नहीं, सिद्धांत
हो जाता है।
जिस ताओ की हम
कल्पना कर
सकते हैं, जो
कंसीवेबल
है, जिसकी हम
धारणा बना
सकते हैं, वह
भी हमारी
धारणा हो जाता
है। वैसी
धारणा का ताओ
भी अंतिम नहीं
है। अंतिम तो
वह ताओ है, जहां
सब धारणाएं
गिर जाती हैं
और सिर्फ
स्वभाव, होना
मात्र, जस्ट
एक्झिस्टेंस
शेष रह जाता
है। ताओ भी
सिर्फ रह जाए
होने मात्र
में, होना
मात्र ही जहां
अंत हो जाए!
इसे
थोड़ा समझ लें।
एक
अंग्रेजी में
शब्द है बिकमिंग, होने
की दौड़। और एक
शब्द है बीइंग,
होना
मात्र। जब तक
दौड़ है, तब
तक दुख है।
अगर ताओ भी
स्वभाव के
अनुकूल होना
चाह रहा है तो
दुख शेष
रहेगा।
क्योंकि होना
तो सदा भविष्य
में होगा, अभी
तो नहीं हो
सकता। समय
लगेगा। कुछ
यात्रा करनी
पड़ेगी। बीइंग,
अस्तित्व, सत्य अभी
है।
मिलारेपा, तिब्बत
का एक फकीर, अपने गुरु
मारपा के पास
गया। मारपा
आंख बंद किए
बैठा था।
मिलारेपा ने
कहा कि क्या
आप भीतर प्रवेश
कर रहे हैं? एक भीतरी
यात्रा पर हैं?
मारपा
ने आंख खोली
और उसने कहा, यात्राएं
सब समाप्त हो
गईं। नहीं, मैं भीतर
प्रवेश नहीं
कर रहा हूं, मैं भीतर
हूं। प्रवेश
तो वह करता है
जो बाहर हो।
मारपा ने कहा,
मैं कुछ भी
नहीं कर रहा
हूं, मैं
केवल हूं।
यह जो
होना मात्र है, इसका
नाम स्वभाव
है। स्वभाव
में फिर कोई
यात्रा नहीं
है, कोई
भविष्य नहीं
है, कहीं
जाना नहीं है।
इसका यह मतलब
नहीं है कि जाना
नहीं होगा।
इसका यह मतलब
भी नहीं है कि
भविष्य नहीं
होगा। इसका
केवल इतना
मतलब है कि यात्रा
नहीं होगी, दौड़ नहीं
होगी, पहुंचने
की कोई वासना
नहीं होगी, कामना नहीं
होगी। जहां सब
कामनाएं गिर
जाती हैं, जहां
सब होने के
स्वप्न बिखर
जाते हैं, जहां
होने से तथाता
हो जाती है, एकता हो
जाती है।
लाओत्से
कहता है, इसका
अर्थ हुआ कि
चाहे कोई कहीं
भी यात्रा कर रहा
हो, किसी
भी दिशा में, अंतिम
यात्रा
स्वभाव की
दिशा में हो
रही है। इसलिए
जो व्यक्ति इस
सूत्र को समझ
ले और सीधा स्वभाव
की यात्रा में
लग जाए, वह
जीवन में जो
भी पाने योग्य
है, उसे पा
लेगा। और जीवन
में जो भी
पाने योग्य नहीं
है, वह
अपने आप गिर
जाएगा, तिरोहित
हो जाएगा। जो
व्यक्ति बीच
की यात्राएं चुनेंगे, वे कष्ट में
रहेंगे।
क्योंकि
जिससे मिलने
वे जा रहे हैं,
वह खुद यात्रा
पर है।
ऐसा
समझो कि आप
बंबई से
दिल्ली की
यात्रा पर निकलते
हैं। दिल्ली
पहुंच जाते
हैं आप, क्योंकि
दिल्ली की
स्टेशन एक जगह
ठहरी है। अगर
दिल्ली की
स्टेशन भी
यात्रा पर हो
तो फिर बहुत
मुश्किल है।
फिर आप पहुंच
नहीं पाएंगे।
वह तो दिल्ली
ठहरी है, इसलिए
आप दिल्ली
पहुंच जाते
हैं।
लेकिन
जीवन में सब
यात्रा पर हैं; वहां
कोई ठहरा हुआ
नहीं है।
सिर्फ स्वभाव
ठहरा हुआ है।
तो जो स्वभाव
की तरफ जाता
है, वही
केवल पहुंचता
है। बाकी लोग
भटकते हैं। उनके
पीछे दौड़ते
हैं, जो
खुद ही दौड़
रहे हैं।
आखिरी
बात।
लाओत्से
ने ताओ परंपरा
में सदगुरु
की परिभाषा की
है। और कहा, सदगुरु
वह है जो कहीं
जा नहीं रहा
है। अगर कहीं
जा रहा है तो
वह गुरु नहीं
है। अगर उसे
कुछ पाने को
शेष है तो वह
गुरु नहीं है।
अगर कुछ होने
को शेष है तो
वह गुरु नहीं
है। और जो ऐसे
गुरु के पीछे
चल पड़े जो
कहीं जा रहा
है, मुश्किल
में पड़ेगा।
मुश्किल में पड़ना
अनिवार्य है।
क्योंकि आपने
जो मंजिल चुनी
है, वह
मंजिल नहीं
है। मंजिल का
अर्थ है वह
बिंदु इस
अस्तित्व के
बीच, जो
सदा शाश्वत
रूप से वहीं
है। सब चीजें
उसकी तरह जा
रही हैं, वह
किसी की तरफ
नहीं जा रहा
है।
इसका
अर्थ हुआ कि
अगर हम स्वभाव
की तरफ जा रहे
हैं,
उस सबको छोड़
रहे हैं जो
कृत्रिम है, उस सबको छोड़
रहे हैं जो
चेष्टित है, उस सबको छोड़
रहे हैं जो
प्रयास से है,
उस सबको छोड़
रहे हैं जो
दूर है, वरन
उसमें डूब रहे
हैं जो हमारे
भीतर ही मौजूद
है। स्वभाव
भीतर ही मौजूद
है। सुख को
बाहर खोजना
पड़ता है। आनंद
को भी बाहर
खोजना पड़ता
है। सत्य की
खोज में भी
लोग न मालूम
कहां-कहां
जाते हैं।
सिर्फ स्वभाव
भीतर है।
स्वभाव का
अर्थ: जो आप
अभी हैं, इसी
क्षण हैं। अगर
दौड़ें न, रुक जाएं, तो उससे
मिलन हो जाए।
अगर दौड़ते
रहें, तो
उससे चूकते
चले जाएं।
तीन
शब्दों में
लाओत्से को हम
संक्षिप्त
में रख लें।
लाओत्से कहता
है,
जो खोजेगा
वह खो देगा।
अगर पाना है
तो पाने की कोशिश
मत करो।
क्योंकि जो
दूर है, उसे
पाने के लिए
चलना पड़ता है।
और जो भीतर ही
है, उसे
पाने के लिए
रुक जाने के
सिवाय और कोई
उपाय नहीं है।
आज
इतना ही। रुकें, कीर्तन
करें, फिर
जाएं।
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