दिनांक
23 जूलाई, 1977;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
दीपक
बारा नाम का, महल भया
उजियार।।
महल
भया उजियार, नाम का तेज विराजा।
सब्द
किया परकास, मानसर ऊपर छाजा।।
दसों
दिसा भई सुद्ध, बुद्ध भई
निर्मल साची।
छूटी
कुमति की गांठ, सुमति परगट
होय नाची।।
होत
छतीसो
राग, दाग तिर्गुन
का छूटा।
पूरन
प्रगटे
भाग, करम
का कलसा
फूटा।।
पलटू
अंधियारी
मिटी, बाती
दीन्ही
बार।
दीपक
बारा नाम का, महल भया
उजियार। 4।।
हाथ
जोरि आगे मिलैं, लै-लै भेंट
अमीर।।
लै-लै
भेंट अमीर, नाम का तेज विराजा।
सब
कोऊ रगरै
नाक, आइकै
परजा-राजा।।
सकलदार
मैं नहीं, नीच फिर
जाति हमारी।
गोड़ धोय षटकरम, वरन पीवै
लै
चारी।।
बिन
लसकर बिन
फौज, मुलुक में फिर
दुहाई।
जन-महिमा
सतनाम, आपु
में सरस
बढ़ाई।।
सत्तनाम
के लिहे
से पलटू भया
गंभीर।
संत
सासना सहत हैं
जैसे सहत
कपास।।
जैसे
सहत कपास, नाय
चरखी में ओटै।
रुई
धर जब तुनै
हाथ से दोउ निभोटै।।
रोम-रोम
अलगाय पकरिकै
धुनिया धूनी।
पिउनी बहं दै
कात, सूत
ले जुलहा बूनी।।
धोबी
भट्टी पर धरी, कुंदीगर
मुगरी मारी।
दरजी
टुक टुक फारि
जोरिकै
किया तयारी।।
परस्वारथ
के कारने
दुःख सहै पलटूदास।
संत
सासना सहत हैं, जैसे सहत
कपास।।6।।
जीवन
में दुःख है।
इस दुःख के
साथ दो उपाय
हैं। एक तो है
इसे भूल जाना
और एक है इससे
जाग जाना। भूलने
की विधि, भूलने
की सारी
विधियों का
नाम संसार है।
जागने की
विधि-- और
जागने की एक
ही विधि
है--उसका नाम
है ध्यान, भक्ति,
योग।
दुःख
है, तो शराब
से भूला जा
सकता है, संभोग
में भूला जा
सकता है, संगीत
में भूला जा
सकता है, और-और
....। लेकिन
भूलने से कुछ
बात मिटती तो
नहीं; बात
तो अपनी जगह
बनी रहती है।
भूलने से तुम
मिटते हो, बात
नहीं मिटती
है। भूलने से
दुःख नहीं
मिटता--तुम
मिटते हो।
भूलने से
धीरे-धीरे तुम
मूच्र्छित
होते चले जाते
हो; तुम्हारें चैतन्य में
प्रकाश की जगह
अंधकार हो
जाता है।
जितना भूलोगे
उतना ही भरमोगे,
क्योंकि
उतना ही
अंधेरा हो
जाएगा। भूलने
का मतलब ही
अंधेरा होता है--चैतन्य
का खो जाना।
पी ली शराब, दुःख थे
हजार, चिंताएं
थीं, संताप
थे, संकट
थे, बोझ
खड़े थे सामने
सवाल थे जो हल
न होते थे, समस्याएं
थीं जो समाधान
मांगती थी और
समाधान दिखाई
न पड़ते थे--पी
ली शराबः न
रहे कोई दुःख,
न रही कोई
समस्या, भूल-भाल
गए। लेकिन
भूले कैसे? कीमत क्या
चुकाई? कीमत
चुकाई कि
चैतन्य को
गंवाया; आत्मा
को काट कर
फेंका। तुम
मुर्दा हो गए।
तुम जड़ हुए।
ऐसे
आदमी अपने
दुःख को
भुलाने के लिए
धीरे-धीरे
अपने को तोड़ता-
मिटाता है। धन
में भूलो
तो भी शराब
है। धन का मद
भी होता है--
धन-मद। जेब गरम
होती है तो
नशा होता है।
पद में भूलो
तो शराब--
पद-मद। जो पद
पर बैठ जाता
है, उसकी अकड़
देखते हो! जो
पद से उतर
जाता, उसकी
हालत देखते
हो!
पद मद
है। वह भी
शराब है। और
अकसर मजे की
बात है कि
राजनीतिज्ञ, सारी दुनिया
में, जैसे
ही पद पर
पहुंचते हैं,
शराब बंद
करना चाहते
हैं। और सबसे
बड़ी शराब वे
ही पी रहे
हैं। सबसे बड़ी
शराब सत्ता की
है। और
अंगूरों से जो
निकलती है वह
तो बहुत
साधारण है, घड़ी-दो-घड़ी
में उतर जाती
है। यह जो
सत्ता से निकलती
है, इसका
नशा बड़ा गहरा
है और बड़े दूर
तक जाता है। जो
खुद नशे में
डूबे हैं वे
दूसरों को नशे
में नहीं
डूबने देना
चाहते।
लेकिन
आदमी उपाय
खोजता रहता है, सदियां हो
गयी हैं।
शास्त्रों ने
कहा शराब मत पीयो।
संतों ने कहा
शराब मत पीयो।
लेकिन आदमी की
तकलीफ तो समझो,
आदमी शराब
पीता क्यों है?
आदमी की
जिंदगी में
दुःख है। दुःख
इतना है कि या
तो भुलाए या
स्वयं जागे।
और ये दोनों
प्रक्रियाएं
बड़ी विपरीत
हैं। और
भुलाना सस्ता
है। भुलाना तो
बाजार में
खरीदा जा सकता
है; काऊंटर पर बिकता है;
एक प्याली
शराब में आ
जाता है।
जगाना तो बहुत
कठिन है।
जगाना तो बड़ी
साधना है। तो
या तो शराब या
साधना।
इसलिए
धर्मों ने
शराब का विरोध
किया है--शराब के
कारण नहीं।
क्योंकि शराब
प्रतियोगी है
ध्यान की। इस
भेद को समझना।
जब
राजनीतिज्ञ
शराब का विरोध
करता है तो
उसे कुछ भी
पता नहीं वह
क्या कह रहा
है। वह शायद
राजनीति की ही
बातें कर रहा
हो। लेकिन जब
धर्म शराब के
विरोध में कुछ
कहता है तो
उसके कारण बड़े
अनूठे हैं, बड़े और हैं।
धर्म इसलिए
शराब का विरोध
करता है कि शराब
झूठा धर्म है।
शराब नकली
सिक्का है।
अगर भूलना है
तो भूलने का
असली उपाय तो
एक हैः जागना।
क्योंकि
जागते ही दुःख
मिट जाता है; भूलने की
जरूरत ही नहीं
रह जाती। दुःख
समाप्त हो
जाता है। कमरे
में अंधेरा
घिरा है।
तुमने नशा पी
लिया, तुम
भूल गए कि
अंधेरा है।
लेकिन अंधेरा
अपनी जगह है।
धर्म कहता है
दीया जला लो, फिर अंधेरा
है ही नहीं।
फिर अंधेरा
समाप्त हुआ।
मय-गुलफाम
भी है, साजे-इसरत भी है, साकी
भी
मगर
मुश्किल है आशोबे
हकीकत से गुज़र
जाना।
--फूल
जैसी सुंदर
शराब है, सुख
का संगीत है, सुंदर साकी
भी है, शराब
पिलानेवाली
भी है; मगर
मुश्किल है आशोबे
हकीकत से गुजर
जाना। लेकिन
फिर भी जीवन
की जो पीड़ा है,
वास्तविकता
की जो पीड़ा है,
यथार्थ का
जो कष्ट है, उससे मुक्त
हो जाना, उससे
बिना दुःखी
हुए गुजर जाना
बहुत कठिन है,
असंभव है।
कठिन नहीं, असंभव ही
है। रोज-रोज भुलाओगे, रोज-रोज
दुःख अपनी जगह
खड़ा हो जाएगा।
तो या तो शराब पीयो या
परमात्मा को पीयो।
फिर
शराब बहुत
किस्म की
है--पद की, मद
की, धन की, यश की, नाम
की, प्रतिष्ठा
की। फिर
शराबें बहुत
किस्म की हैं।
मगर वे सब
अलग-अलग ढंग
ही हैं शराब
के। अलग-अलग
दुकानों पर
बिकती हैं, बस इतना ही
फर्क है। अगर
चुनाव करना हो
तो दो में ही
करना होता है।
इसलिए
दुनिया में दो
ही तरह के लोग
हैं--संसारी
और संन्यासी।
संसारी का
अर्थ है, जो
अभी इस चेष्टा
में संलग्न है
कि भुला लूंगा,
कोई न कोई
रास्ता खोज
लूंगा कि भूल
जाएगी बात; और थोड़ा धन
होगा, और
थोड़ा बड़ा मकान
होगा, और
सुंदर स्त्री
होगी, बच्चा
पैदा हो जाएगा,
लड़के की
नौकरी लग
जाएगी, बच्चे
की शादी हो
जाएगी, बच्चों
के बच्चे
होंगे--कुछ
रास्ता होगा
कि मैं भूल जाऊंगा
और यह झंझट
मिट जाएगी।
झंझट
को भूलने में
संसारी और
झंझट खड़ी करता
जाता है।
इसलिए
ज्ञानियों ने
संसार को
प्रपंच कहा
है। मिटाने के
लिए चलते हो, और बन जाता
है। सुलझाने
चलते हो, और
उलझ जाता है।
जितना
सुलझाने की
कोशिश करते हो
उतनी ही गांठ
उलझती जाती है;
उतनी ही
मुश्किलें
खड़ी होती चली
जाती हैं। एक समाधान
खोजते हो, एक
समाधान से दस
समस्याएं और
खड़ी हो जाती
हैं। और जो एक
जिसे हल करने
चले थे वह तो
अपनी जगह बनी
रहती है, दस
नई खड़ी हो
जाती हैं। ऐसे
विस्तार होता
चला जाता है।
मरते-मरते तक
आदमी अपने ही
जाल में फंस
जाता है। उसने
ही रचा था।
उसने ही ये गङ्ढे
खोदे थे। उसने
बड़ी आशा से ये
जंजीरें ढाली
थीं। उसे खयाल
भी न था कि ये
मेरे ही हाथ
में पड़
जाएंगी।
मैंने
सुना है रोम
में एक बहुत
प्रसिद्ध
लोहार हुआ।
उसकी
प्रसिद्धि
सारी दुनिया
में थी, क्योंकि
वह जो भी
बनाता था वह
चीज बेजोड़
होती थी। उस
लोहार की
दुकान पर बनी
तलवार का कोई
सानी न था। और
उस लोहार की
दुकान पर के
सामानों का
सारे जगत् में
आदर था; दूर-दूर
के बाजारों
में उसकी
चीजें बिकती
थीं, उसका
नाम बिकता था।
फिर रोम पर
हमला हुआ। और
रोम में जितने
प्रतिष्ठित
लोग थे, पकड़
लिए गए। रोम
हार गया। वह
लोहार भी पकड़
लिया गया। वह
तो काफी
ख्यातिलब्ध
आदमी था। उसके
बड़े कारखाने
थे। और उसके
पास बड़ी
धन-सम्पत्ति
थी, बड़ी
प्रतिष्ठा
थी। वह भी पकड़
लिया गया। तीस
रोम के
प्रतिष्ठित
जो सर्वशत्तिमान
आदमी थे
पकड़ कर
दुश्मनों ने जंजीरों
और बेड़ियों
में बांध कर
पहाड़ों में
फेंक दिया
मरने के लिए।
जो उनतीस थे
वे तो रो रहे
थे, लेकिन
वह लोहार शांत
था। आखिर उन
उनतीसों ने
पूछा कि तुम
शांत हो, हमें
फेंका जा रहा
है जंगली
जानवरों के
खाने के लिए!
उसने कहा, फिक्र
मत करो, मैं
लोहार हूं।
जिंदगी भर
मैंने बेड़ियां
और हथकड़ियां
बनाई हैं, मैं
खोलना भी
जानता हूं।
तुम घबड़ाओ
मत। एक दफा
इनको फेंककर
चले जाने दो, मैं खुद भी
छूट जाऊंगा,
तुम्हें भी
छोड़ लूंगा।
तुम डरो मत।
तो
लोगों को
हिम्मत आ गई, आशा आ गई।
बात तो सच थी, उससे बड़ा
कोई कारीगर न
था। जरूर जिंदगीभर
ही लोहे के
साथ खेल खेला
है, तो
जंजीरें न खोल
सकेगा! खोल
लेगा। यह बात
भरोसे की थी।
फिर दुश्मन
उन्हें
फेंककर गङ्ढों
में, चले
गए। वे सब
घिसट कर किसी
तरह उस लोहार
के पास
पहुंचे। पर वह
लोहार रो रहा
था। उन्होंने
पूछा कि मामला
क्या है? तुम
और रो
रहे हो? और
हमने तो तुम
पर भरोसा किया
था। और हम तो
तुम्हारी आशा
से जीते रहे
अब तक। हम तो मर
ही गए होते।
तुम क्यों रो
रहे हो? हुआ
क्या? अब
तक तो तुम
प्रसन्न थे।
उसने
कहा कि मैं रो
रहा हूं इसलिए
कि मैंने जब गौर
से जंजीरें
देखीं तो उन
पर मेरे ही
हस्ताक्षर
हैं, वे मेरी
ही बनाई हुई
हैं। मेरी
बनाई जंजीरें तो
टूट ही नहीं
सकतीं। ये
किसी और की
बनाई होती तो
मैंने तोड़ दी
होतीं। लेकिन
यही तो मेरी कुशलता
है कि मेरी
बनाई जंजीर
टूट ही नहीं
सकती। असंभव
है। यह नहीं
हो सकता। मरना
ही होगा।
उस
लोहार की
कहानी जब
मैंने पढ़ी तो
मुझे याद आयाः
यह तो हर
संसारी आदमी
की कहानी है। आखीर में
तुम एक दिन
पाओगे कि
तुम्हारी ही जंजीरों
में फंसकर तुम
मर गए। तुमने
बड़ी कुशलता से
उनको ढाला था।
तुम्हारे
हस्ताक्षर उन
पर हैं। तुम
भलीभांति
पहचान लोगे कि
यह अपने ही
हाथ का जाल
है। इस पूरे
सिद्धांत का
नाम कर्म है।
तुम ही बनाते
हो। तुम्हीं
ये सींखचे
ढालते हो। तुम्हीं
ये पिंजरे
बनाते हो। फिर
कब तुम इनमें
बंद हो जाते
हो, कब द्वार
गिर जाता है, कब ताले पड़
जाते हैं, तुम्हें
समझ में नहीं
आता। ताले भी
तुम्हारे बनाए
हुए हैं। शायद
तुमने किसी और
कारण से दरवाजा
लगा लिया
था--सुरक्षा
के लिए। लेकिन
अब खुलता
नहीं। शायद
हाथ में तुमने
जंजीरें पहन
ली थीं, आभूषण
समझ कर। अब जब
पहचान आई है
तो अब खुलती नहीं,
क्योंकि
आभूषण तो नहीं
जंजीरें थीं।
जिनको
तुमने मित्र
समझा था वे
शत्रु सिद्ध
हुए हैं। और
जिनको तुमने
सोचा था कि
जीवन के मार्ग
को प्रशस्त
करने के लिए
बना रहे है, उनसे ही नरक
का रास्ता
प्रशस्त हुआ।
कहावत
हैः नरक का
रास्ता शुभ
आकांक्षाओं
से भरा पड़ा
है।
अच्छी-अच्छी आकांक्षाएं
करके ही तो
आदमी नरक का
रास्ता तय
करता है। नरक
का रास्ता
तुम्हारे
सपनों से ही
पटा है। तुम्हारी
योजनाओं के
पत्थर ही नरक से
रास्ते पर लगे
हैं; उन्हीं
से नरक का
रास्ता बना
है।
एक तो
संसारी है जो
दुःख को
भुलाने के
उपाय करता है।
और एक
संन्यासी है
जो दुःख को
भुलाने के
उपाय नहीं
करता--जो अपने
को जगाने के
उपाय करता है।
बड़ा
क्रांतिकारी
फर्क है। बात
क्रांति की हो
गई। जिसको यह
बात दिखाई
पड़ने लगी कि
असली सवाल यह
नहीं कि बाहर
दुःख है; असली
सवाल यह है कि
मैं अंधा हूं
कि मैं सोया हूं, कि
मैं मूच्र्छित हूं, कि
मैं बेहोश
हूं। असली
सवाल यह नहीं
है कि मुझे
बाहर सुख
क्यों नहीं
मिल रहा है; असली सवाल
यह है कि मेरे
भीतर सुख का
संगीत अभी
नहीं बज रहा
है।
बाहर
से सुख मिलता
ही नहीं। भीतर
बजे संगीत तो
बाहर भी उठती
हैं तरंगें।
भीतर उठें
लहरें तो बाहर
तक भी उन
लहरों का नाद
पहुंचता है।
लेकिन बाहर से
कभी सुख नहीं
मिलता। सुख होता
है तो भीतर
होता है। और
जब तक तुम
भीतर के प्रति
न जागे, तब
तक दुःख ही
पाओगे--और नए
दुःख, और
नए दुःख। आदमी
दुःख ही बदलता
रहता है।
एक
पश्चिम का
विचारक, आस्कर वाइल्ड, जब
मरा तो उसने
अंतिम दिन
अपनी डायरी
में लिखा है
कि जीवन भर का
मेरा अनुभव
सार-निचोड़
इतने में है
कि एक दुःख से
मैं दूसरा
दुःख बदलता
रहा। एक दुःख
से थक गया तो
दूसरे को पकड़
लिया। इस आशा
में कि शायद
यहां सुख
होगा। फिर उसमें
भी दुःख पाया।
उससे थक गया
तो तीसरा पकड़
लिया। लेकिन जिंदगीभर
का निचोड़
यह है कि एक
दुःख से मैं
दूसरे दुःख पर
जाता रहा।
फ्राम वन
न्यूसेंस टू
एन अदर
न्यूसेंस। एक उपद्रव
से बचे नहीं
कि दूसरा
उपद्रव रच
लिया।
जिस
दिन तुम्हें
यह समझ में आ
जाता है कि
बाहर तो उपद्रव
ही है, उत्सव
भीतर है; जिस
दिन यह समझ
में आ जाता है
बाहर अर्थात्
दुःख; जिस
दिन तुम्हारी
अंतर भाषा में
बाहर का अर्थ दुःख
हो जाता है और
भीतर का अर्थ
सुख हो जाता है--उस
दिन क्रांति
घटती है। उस
दिन तुम भी
पलटू हो गए, पलट गए। उस
दिन रूपांतर
हुआ। उस दिन
लौट पड़े घर की
तरफ। अभी भागे
जाते थे
दूर-दूर-दूर, कहीं और
स्वर्ग था।
फिर लौट पड़े।
और जो लौट पड़ा
उसे स्वर्ग
अपने ही भीतर
मिल जाता है।
संयास
का अर्थ है
अंतर्यात्रा।
ये आज
के सूत्र
तुम्हारे
जीवन को संसार
से संन्यास की
तरफ लाने में
बड़े बहुमूल्य
मील के पत्थर
सिद्ध हो सकते
हैं। एक-एक
सूत्र को
ध्यान से
समझना।
"दीपक बारा
नाम का, महल
भया उजियार।।
महल
भया उजियार, नाम का तेज विराजा।'
पहली बातः भीतर
कोई दीया
जलाना है। उसे
तुम क्या नाम
देते हो, फर्क
नहीं पड़ता।
बुद्ध कहते
हैं शून्य का
दीया। और शंकर
कहते हैं
ब्रह्म का दीया।
और मध्ययुग के
संत नानक, कबीर,
दादू, पलटू,
दरिया, वे
सब कहते हैंः
नाम का दीया।
नाम का
अर्थ समझो।
नाम का
अर्थ होता हैः
प्रभु-स्मरण।
नाम का अर्थ
होता हैः उसकी
याद, जिक्र, सुरति, स्मृति,
स्मरण।
परमात्मा
भीतर विराजमान
है, हम
उसकी स्मृति
खो गए हैं।
परमात्मा
हमने नहीं
खोया है।
भूलकर भी मत
सोचना कि
तुमने परमात्मा
खोया है, क्योंकि
परमात्मा तुम
खो दोगे तो
फिर श्वास ही
न ले सकोगे।
श्वास ही वही
ले रहा है।
भूलकर भी मत
सोचना कि
परमात्मा
खोया जा सकता
है। क्योंकि
जो खोया जा सके
वह परमात्मा
नहीं है।
परमात्मा
तुम्हारा
स्वभाव है।
तुम्हारे
रोम-रोम में
वही धड़कता
है। तुम्हारे
कण-कण में वही
जीवित है। तुम
वही हो।
तत्त्वमसि
श्वेतकेतु!
उद्दालक
ने अपने बेटे
को कहा हैः तू
वही है, श्वेतकेतु!
मगर
हमें याद नहीं
है। विस्मरण
हुआ है। भूल
गए हैं।
एक
सम्राट का
बेटा बिगड़
गया। गलत
संग-साथ में पड़
गया। बाप
नाराज हो गया।
बाप ने सिर्फ
धमकी के लिए
कहा कि तुझे
निकाल बाहर कर
दूंगा; या
तो अपने को
ठीक कर ले या
मेरा महल छोड़
दे। सोचा नहीं
था बाप ने कि
लड़का महल छोड़
देगा। छोटा ही
लड़का था।
लेकिन लड़के ने
महल छोड़ दिया।
बाप का ही तो
बेटा था, सम्राट
का बेटा था, जिद्दी था।
फिर तो बाप ने
बहुत खोजा, उसका कुछ
पता न चले।
वर्षों बीत
गए। बाप बूढ़ा;
रोते-रोते
उसकी आंखें धुंधिया
गईं। एक ही
बेटा था। उसका
ही यह सारा
साम्राज्य
था। पछताता था
बहुत कि मैंने
किस दुर्दिन में,
किस दुर्भाग्य
के क्षण में
यह वचन बोल
दिया कि तुझे
निकाल बाहर कर
दूंगा!
ऐसे
कोई बीस साल
बीत गए और एक
दिन उसने देखा
कि महल के
सामने एक
भिखारी खड़ा
है। और बाप
एकदम पहचान
गया। उसकी
आंखों में
जैसे फिर से
ज्योति आ गई।
यह तो उसका ही
बेटा है।
लेकिन बीस
साल! बेटा तो
बिल्कुल भूल
चुका कि वह
सम्राट का
बेटा है। बीस
साल का
भिखमंगापन
किसको न भुला
देगा! बीस साल
द्वार-द्वार, गांव-गांव
रोटी के टुकड़े
मांगता फिरा।
बीस साल का
भिखमंगापन
पर्त-पर्त
जमता गया, भूल
ही गई यह बात
कि कभी मैं
सम्राट था।
किसको याद
रहेगी! भुलानी
भी पड़ती है, नहीं तो
भिखमंगापन
बड़ा कठिन हो
जाएगा, भारी
हो जाएगा।
सम्राट होकर
भीख मांगना
बहुत कठिन हो
जाएगा।
जगह-जगह दुतकारे
जाना; कुत्ते
की तरह लोग
व्यवहार करें;
द्वार-द्वार
कहा जाए, "आगे
हट जाओ'--भीतर
का सम्राट
होगा तो वह
तलवार निकाल
लेगा। तो भीतर
के सम्राट को
तो धुंधला करना
ही पड़ा था, उसे
भूल ही जाना
पड़ा था। यही
उचित था, यही
व्यवहारिक था
कि यह बात भूल
जाओ।
और
कैसे याद
रखोगे? जब
चौबीस घंटे
याद एक ही बात
की दिलवाई
जा रही हो
चारों तरफ से
कि भिखमंगे
हो, लफंगे हो, आवारा
हो, चोर हो,
बेईमान हो;
कोई द्वार
पर टिकने नहीं
देता, कोई वृक्ष
के नीचे बैठने
नहीं देता, कोई ठहरने
नहीं देता--"लो
रोटी, आगे
बढ़ जाओ'-- मुश्किल
से रोटी मिलती
है। टूटा-फूटा
पात्र! फटे-पुराने
वस्त्र! नए
वस्त्र भी बीस
वर्षों में
नहीं खरीद
पाया।
दुर्गंध से
भरा हुआ शरीर।
भूल ही गए वे
दिन--सुगंध के,
महल के, शान
के, सुविधा
के, गौरव-गरिमा
के। वे सब भूल
गए। बीस साल
की धूल इतनी
जम गई दर्पण
पर कि अब
दर्पण में कोई
प्रतिबिंब
नहीं बने।
तो
बेटे को तो
कुछ पता नहीं, वह तो ऐसे ही
भीख मांगता
हुआ इस गांव
में भी आ गया
है, जैसे
और गांवों में
गया था। यह भी
और गांवों जैसा
गांव है।
लेकिन बाप ने
देखा खिड़की से
यह तो उसका
बेटा है।
नाक-नक्श सब
पहचान में आता
है। धूल कितनी
जम गई हो, बाप
की आंखों को
धोखा नहीं
दिया जा सका।
बेटा भूल जाए,
बाप नहीं
भूल पाता है।
मूल स्रोत
नहीं भूल पाता
है। उद्गम
नहीं भूल पाता
है। उसने अपने
वजीर को
बुलाया कि
क्या करूं? वजीर ने कहा,
ज़रा संभल कर काम
करना। अगर
एकदम कहा तो
यह बात इतनी
बड़ी हो जाएगी
कि इसे भरोसा
नहीं आएगा। यह
बिल्कुल भूल
गया है, नहीं
तो इस द्वार
पर आता ही
नहीं। इसे याद
नहीं है। यह
भीख मांगने
खड़ा है। थोड़े
सोच-समझ कर कदम
उठाना। अगर
एकदम से कहा
कि तू मेरा
बेटा है, तो
यह भरोसा नहीं
करेगा, यह
तुम पर संदेह
करेगा। थोड़े
धीरे-धीरे कदम,
क्रमशः।
तो बाप
ने पूछा, क्या
किया जाए? तो
उसने कहा, ऐसा
करो कि उसे बुलाओ।
उसे बुलाने की
कोशिश की तो
वह भागने लगा।
उसे महल के
भीतर बुलाया
तो महल के
बाहर भागने लगा।
नौकर उसके
पीछे दौड़ाए
तो उसने कहा
कि ना भाई, मुझे
भीतर नहीं
जाना। मैं
गरीब आदमी, मुझे छोड़ो।
मैं गलती हो
गई कि महल में
आ गया, राजा
के दरबार में
आ गया। मैं तो
भीख मांगता हूं।
मुझे भीतर
जाने की कोई
जरूरत नहीं।
वह तो
बहुत डरा कि
सजा मिले कि
कारागृह में
डाला जाए कि
पता नहीं क्या
अड़चन आ जाए!
लेकिन नौकरों
ने समझाया कि
मालिक तुम्हें
नौकरी देना
चाहता है, उसे दया आ गई
है। तो वह
आया। लेकिन वह
महल के भीतर
कदम न रखता
था। महल के
बाहर ही
झाड़ू-बुहारी लगाने
का उसे काम दे
दिया। फिर
धीरे-धीरे जब
वह
झाड़ू-बुहारी
लगाने लगा और
महल से थोड़ा
परिचित होने
लगा, और
थोड़ी
पदोन्नति की
गई, फिर
थोड़ी
पदोन्नति की
गई। फिर महल
के भीतर भी आने
लगा। फिर उसके
कपड़े भी बदलवाए
गए। फिर उसको नहलवाया
भी गया। और वह
धीरे-धीरे
राजी होने
लगा। ऐसे बढ़ते-बढ़ते
वर्षों में
उसे वजीर के
पद पर लाया गया।
और जब वह वजीर
के पद पर आ गया
तब सम्राट ने
एक दिन बुला
कर कहा कि तू
मेरा बेटा है।
तब वह राजी हो
गया। तब उसे
भरोसा आ गया।
इतनी सीढ़ियां
चढ़नी
पड़ीं। यह बात
पहले दिन ही
कही जा सकती
थी।
तुमसे
मैं कहता हूं, तुम
परमात्मा हो।
तुम्हें
भरोसा नहीं
आता। तुम कहते
हो कि
सिद्धांत की
बात होगी; मगर
मैं और
परमात्मा! मैं
तुमसे रोज
कहता हूं, तुम्हें
भरोसा नहीं
आता। इसलिए
तुमसे कहता हूंः
ध्यान करो, भक्ति करो।
चलो झाड़ू
बुहारी से
शुरू करो। ऐसे
तो अभी हो
सकती है बात, मगर तुम
राजी नहीं।
ऐसे तो एक
क्षण खोने की
जरूरत नहीं
है। ऐसे तो
क्रमिक विकास
की कोई आवश्यकता
नहीं है। एक छलांग
में हो सकती
है। मगर
तुम्हें
भरोसा नहीं आता,
तो मैं कहता
हूं चलो
झाड़ू-बुहारी
लगाओ। फिर धीरे-धीरे
पदोन्नति
होगी। फिर
धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
बढ़ना। फिर एक
दिन जब आखिरी
घड़ी आ जाएगी, वजीर की जगह
आ जाओगे, जब
समाधि की
थोड़ी-सी झलक
पास आने लगेगी,
ध्यान की
स्फुरणा होने
लगेगी, तब
यही बात एक
क्षण में तुम
स्वीकार कर
लोगे। तब इस
बात में
श्रद्धा आ
जाएगी।
नाम का
अर्थ होता हैः
स्मृति।
स्मृति का
अर्थ होता है
कि हमें याद
था कभी, फिर
हम भूल गए। हर
बच्चा
परमात्मा की
स्मृति से भरा
होता है।
लेकिन उसे
स्मृति होती
है, ऐसा
कहना भी ठीक
नहीं।
क्योंकि अभी
विस्मृति ही
नहीं हुई तो
स्मृति कैसे
होगी? इस
जटिलता को
थोड़ा समझना।
बच्चे
शांत होते
हैं। छोटा
बच्चा है
तुम्हारा, तुम्हारा
बेटा है या
बेटी है--शांत
है। मगर उसकी
शांति अभी बड़ी
अचेतन शांति
है। क्योंकि
अशांति उसने
जानी नहीं है।
अशांति को जाने
बिना शांति की
परिभाषा नहीं
बनती। जिसने अंधेरा
नहीं जाना
उसके प्रकाश
के जानने का
बहुत ज्यादा
प्रमाण नहीं
है। अंधेरे को
जानेगा तो
प्रकाश की
परिभाषा
उठेगी। यह बड़ी
बेबूझ पहेली
है, लेकिन
जीवन की
अनिवार्य
पहेलियों में
से एक है। समझ
लो तो काम पड़
सकती है।
यहां
भटके बिना कोई
परमात्मा तक
पहुंच ही नहीं
सकता।
परमात्मा में
तो हम होते ही
हैं, लेकिन
भटक कर
पहुंचते हैं।
भटकना होता है
पहुंचने के
लिए। जैसे
मछली सागर में
पैदा होती है
तो सागर में
ही जीती है, उसे पता ही
नहीं होता
सागर कहां है।
कैसे पता हो? सागर से कभी
छूटी नहीं, पता कैसे हो?
पता होने के
लिए थोड़ी दूरी
होनी चाहिए।
पता होने के
लिए थोड़ी बिछड़न
होनी चाहिए, वियोग होना
चाहिए। वियोग
हुआ नहीं कभी,
सागर में ही
पैदा हुई, सागर
में ही बड़ी
हुई, सागर
में ही रही, सागर ही
सारा जीवन, अहर्निश--कैसे
पता चले कि
सागर कहां है?
एक मछुआ उसे
पकड़ ले, तब
उसे याद आती
है। सागर
छूटते ही सागर
की याद आती
है। तड़पती
है घाट पर।
सागर में डूब
जाना चाहती है
फिर। अब अगर
सागर में
पहुंच जाए तो
परम आनंद को
उपलब्ध होगी।
यह वही सागर
है। जिसमें वह
घड़ीभर
पहले थी।
लेकिन कभी
आनंद न जाना
था।
बच्चे
वहीं हैं, जहां संत
पहुंचते हैं।
लेकिन बच्चों
को कुछ आनंद
का पता नहीं
है; संतों
को पता होता
है। संत ऐसी मछलियां
हैं जो घाट पर तड़प लिए, रेत में तड़प
लिए। फिर, फिर
डुबकी लगी।
नाम का
अर्थ होता हैः
जो भूल गया
उसकी याद। नाम
का अर्थ होता
है ः जो सागर
खो गया उसमें
पुनः प्रवेश।
नाम का अर्थ
होता हैः
सुरति, याद
का लौट आना।
"दीपक बारा
नाम का, महल
भया उजियार।'
और
जैसे ही
स्मृति जगती
है कि मैं कौन
हूं, वैसे ही
उजियारा हो
जाता है। और उजियारे
के साथ ही जो
कल झोंपड़ी
जैसा लगता था
वह महल हो
जाता है। संत
महल में ही
रहते हैं। झोंपड़ी
में रहे तो भी
महल में ही
रहते हैं।
नंगे रहें तो
भी सम्राटों
के पास वैसे
वस्त्र नहीं
हैं। भूखे रहे
तो भी उन जैसा
कोई तृप्त
नहीं है।
अग्नि में जले
तो भी उनके
भीतर कुछ जलता
नहीं; वहां
सब शीतल बना
रहता है।
कांटे उन पर बरसते
रहें तो भी
उनके भीतर का
कमल खिला ही
रहता है।
"दीपक बारा
नाम का, महल
भया उजियारा'
समझ
लेना। पलटू के
पास कोई महल
वगैरह नहीं
था। लेकिन
कहते हैंः
महल भया
उजियार!
उजियारा होते
ही महल हो
जाता है। झोंपड़ा
भी महल हो
जाता है। एक
क्षण में
दीनता-हीनता खो
जाती है। एक
क्षण में
दरिद्रता खो
जाती है। एक
क्षण में आदमी
सम्राट हो
जाता है।
सम्राट तुम थे
ही; सिर्फ
याद की बात
थी।
भूली-बिसरी
याद वापिस लौट
आई।
"दीपक बारा
नाम का. . . .
यह नाम
का दीया कैसे
जले? कैसे
जलाओ? यह
प्रकाश कैसे प्रकटे? खोए हो तुम
हजार बातों
में। तुम खोए
हो हजार जिन
बातों में, उसी में
तुम्हारी जीवन-ऊर्जा
व्यय हो रही
है। वही जीवन
ऊर्जा अगर न
खोए तो प्रकाश
की तरह प्रकट
हो जाती है।
थोड़ा मन धन
में लगा है, थोड़ा मन पद
में लगा है, थोड़ा मन प्रतिष्ठता
में लगा है, थोड़ा
दूकान में, थोड़ा बाजार
में थोड़ा
घर-गृहस्थी
में--ऐसे मन हजार
खंडों में
बंटा है।
देखा
तुमने, सूरज
की किरणें
पड़ती हैं तो
आग पैदा नहीं
होती! फिर एक
कांच का टुकड़ा
लेकर उन्हीं
किरणों को इकट्ठा
कर लो और वे ही
किरणें
इकट्ठी हो कर
एक कागज पर गिरें,
. . . अलग-अलग
गिरती थीं, छितरी-छितरी
गिरती थीं तो
कुछ आग पैदा
नहीं होती थी।
उन्हीं को एक
कांच के टुकड़े
से इकट्ठा कर
लो और गिरें
कागज पर तो, आग पैदा हो
जाती है।
तुम्हारे
पास ज्योति
पैदा करने का
उपाय है। तुम्हारे
पास ज्योति की
क्षमता है।
लेकिन तुम्हारी
ज्योति की
क्षमता बहुत
दिशाओं में
बंटी है। एक
टुकड़ा यहां, एक टुकड़ा
वहां--तुम
हजार टुकड़े
हो। ये हजार
टुकड़े इकट्ठे
हो जाएं, एकाग्र
हो जाएं। यह
तुम्हारी दौड़
जो अनंत-अनंत
दिशाओं में चल
रही है, रुक
जाए और
तुम्हारी एक
ही दौड़ हो
जाए--अंतर्दिशा
में। जैसे ही
सारी
जीवन-ऊर्जा एक
दिशा में
दौड़ती है, तो
ज्योति जल
जाती है।
प्रभु
का नाम तो
केवल बहाना
है। इसलिए
पतंजलि ने योगशास्त्र
में कहा कि यह
तो एक उपाय
है। यह तो एक
खूंटी है जिस
पर तुम अपने
सारे खंडों को
टांग सको और
अखंड हो सको!
ईश्वर है या
नहीं, इसकी
फिक्र मत करो।
किसी भी बहाने
टांग दो। महावीर
ने बिना ईश्वर
को माने टांग
दिया तो भी बात
घट गई। बुद्ध
ने बिना आत्मा
को माने टांग
दिया तो भी
बात घट गई।
मानने की बात
का कुछ सवाल
नहीं है; खूंटी
मिल जाए, खूंटी
पर टांग दो; खीली लगी हो
खीली पर टांग
दो; खीली
भी न हो तो
दरवाजे के
कोने पर टांग
दो। सवाल
टांगने का है।
जैसे ही तुम
इकट्ठे हो
जाते हो--किसी
बहाने, किसी
निमित्त से, तुम्हारे
खंड अखंड हो
जाते हैं--
वैसे ही दीया
जल जाता है।
"दीपक बारा
नाम का, महल
भया उजियार।।
महल
भया उजियार, नाम का तेज विराजा।'
वह जो
संतों में
तुम्हें तेज
दिखाई पड़ता है, वह संतों का
नहीं है, वह
परमात्मा का
है। वह उनका
नहीं है। वे
तो मिट
गए--इसलिए है।
वे तो जगह
खाली कर गए।
वे तो अब कहीं
भी नहीं हैं।
संत का
अर्थ होता हैः
व्यक्ति का
अभाव हो गया।
अहंकार गया।
खाली बांस की
पोंगरी रह गई
अब। अब भीतर
कुछ भी नहीं
है, खालीपन
है। उसी
खालीपन से
परमात्मा के
स्वर प्रकट
होते हैं।
"महल
भया उजियार, नाम का तेज विराजा।'
इसलिए
कोई संतपुरुष
ऐसा नहीं
कहेंगे कि यह
मेरा तेज है।
यह परमात्मा
का तेज है। और
अगर कोई कभी
कहेगा मेरा
तेज है तो
"मेरे' से
वह परमात्मा
ही बोल रहा है,
संत नहीं
बोल रहा है।
अगर कृष्ण ने
कहा कि मामेकं
शरणं
ब्रज, आ जा
मेरी शरण--तो
वे जिस "मैं' की बात कर
रहे हैं वह
कृष्ण का "मैं'
नहीं है, वह परमात्मा
का "मैं' है।
जब जीसस ने
कहा "मै' ही
हूं मार्ग, मैं ही हूं
द्वार, मैं
ही हूं सत्य', तो यह जीसस
का "मैं' नहीं
है। जीसस का
"मैं' तो
इतनी हिम्मत
कहां कर सकेगा?
कोई "मैं' इतनी हिम्मत
नहीं कर सकता।
"मैं' तो
बड़ी कमजोर चीज
है। झूठी चीज
है, इतनी
हिम्मत हो भी
कैसे सकती है!
यह तो परमात्मा
ही बोला।
इसलिए
हम कहते हैं
वेद के जो वचन
उतरे वे परमात्मा
से उतरे; ऋषि
तो केवल मार्ग
बने। वचन
अपौरुषेय
हैं। गीता
कृष्ण से उतरी,
कही तो
परमात्मा ने।
और बाइबिल के
अपूर्व वचन जीसस
से आए हैं। ये
बांसुरियां
अलग-अलग हैं
लेकिन जिसने
गीत गाया है, वह एक ही है।
बांसुरियां
अलग-अलग हैं, इसलिए
स्वर-भेद भी
हो गया है।
बांसुरियां
अलग-अलग हैं
तो बांसुरियों
के ढंग
अलग-अलग हैं।
भाषा अलग-अलग
है, शैली
अलग-अलग है।
मगर जो
झांकेगा इस
बांसुरी के
खालीपन के पार
खोजेगा ओंठ, खोजेगा
किसके प्राण संगीतबद्ध
होकर बह रहे
हैं, तो एक
को ही पाएगा।
"महल भया
उजियार, नाम
का तेज विराजा।'
तो
पलटू कहते हैं, अब मैं तो
रहा नहीं, और
यह मैं जब तक
था तब तक तो झोंपड़ा
था। मेरे कारण
झोंपड़ा
था। मैं जब तक
था तब तक दीन
था, दुःखी
था, दरिद्र
था। मेरे कारण
दुःख था, दीनता
थी, दरिद्रता
थी। इधर मैं
गया इधर झोंपड़ा
महल हो गया।
और अब तो तेज विराजा है,
क्षमा करना,
मेरा नहीं
है। वह तो
उसकी याद का
तेज विराजा
है।
और ऐसा
तेज तुममें भी
विराज सकता है, क्योंकि तुम
भी उससे इतने
ही जुड़े हो।
ये फूल तुम
में भी खिल
सकते हैं, क्योंकि
तुम परमात्मा
की पृथ्वी से
उसी तरह
संयुक्त हो जैसे
पलटू का वृक्ष
संयुक्त है या
कि बुद्ध का, या कि नानक
का या कि कबीर
का या कि
मुहम्मद का। तुम्हें
याद भूल गई है
कि अपनी जड़ों
की, बस
इतना ही भेद
है। पलटू को
याद आ गई है
अपनी जड़ों की।
"सब्द किया परकास,
मानसर ऊपर छाजा।'
सुनते
हो यह अपूर्व
वचन! सब्द
किया परकास. . . .।
वह
बोला और
प्रकाश हो गया
है। लेकिन वह
बोलता तभी है
जब तुम नहीं
बोलते। एक ही
शर्त पूरी करनी
है कि तुम न
बोलो, तो
प्रभु बोले।
दोनों साथ
नहीं बोल
सकते। आदमी और
परमात्मा के
बीच कभी
डॉयलॉग नहीं
होता। आदमी
बोलता है, परमात्मा
चुप रहता है।
ठीक ही है, जब
आदमी बोल रहा
है तो
परमात्मा
सुनता है। जब आदमी
चुप होता है
तो परमात्मा
बोलता है।
इसलिए
तुम अपनी
प्रार्थनाओं
में बहुत
बोलना मत। तुम
बोले तो
परमात्मा को
तुम कभी न सुन
पाओगे। और तुम
बोले तो
बोलोगे भी
क्या? तुम
अपने उसी कूड़े-कर्कट
को दोहराते
रहोगे। तुम
अंधेरे के साथ
ही खेल और रास
रचाते रहोगे।
"सब्द
किया परकास'. . . .
. । प्रभु जब
बोलता है, तब
उसका नाद होता
है, तब
प्रकाश होता
है। तो अब यह
समझना। सारे
संतों ने "सब्द'
पर जोर दिया
है। और सारे
संतों ने
निःशब्द पर जोर
दिया है। तो
कभी-कभी उलझन
होती है
सोचने-विचारनेवाले
को कि मामला
क्या हैः कभी
निःशब्द पर
जोर देते, कभी
शब्द पर! शब्द
परमात्मा का;
निःशब्द
तुम्हारा--इतना
खयाल रहे तो
फिर अड़चन न
आएगी। दो अलग
तलों की बात
हो रही है।
तुम चुप हो
जाओ। तुम
निःशब्द हो
जाओ। तुम बोलो
ही मत।
तुम्हारे
भीतर मौन
हो--तुम मुनि
हो जाओ। घड़ी
दो घड़ी भी अगर
दिन में तुम
मौन में उतर
जाओ तो वहीं
से तुम पाओगे
ः सब्द
किया परकास! उसका
स्वर, उसकी
स्वर-लहरी
बहने लगती है।
धीमा स्वर है
वह। तुम्हारा
बाजार का
कोलाहल अगर
जारी रहा तो सुनाई
न पड़ेगा। अति
सूक्ष्म है वह
स्वर।
तुम्हारी
स्थूल बकवास
जारी रही तो
वह कहीं भी खो
जाएगा।
"सब्द किया परकास,
मानसर ऊपर छाजा।'
और
जैसे
मानसरोवर पर
कमल खिलते हैं
न, ऐसे जब
तुम्हारे
भीतर निःशब्द
का मानसरोवर होगा;
निःशब्द की
शांति, शून्य
होगा, लहर
भी न उठती
होगी
तुम्हारे
मानसरोवर पर,
तब उसके
शब्द उतरते
हैं और कमल बन
जाते हैं। इसलिए
कहता हूं, यह
बड़ा प्यारा
वचन है।
"सब्द किया परकास,
मानसर ऊपर छाजा।'
मेरा
मानसरोवर
है--कमल उसके
खिले हैं। मैं
तो सिर्फ चुप
हो गया, तरंगहीन
निस्तब्ध हो
गया--कमल उसके
खिले हैं। कमल
उसके हैं, सुगंध
उसकी है। मैंने
तो सिर्फ जगह
दी है, मैंने
तो सिर्फ
मार्ग साफ कर
दिया है। मैं
बीच में नहीं
खड़ा हुआ हूं, मैं अटकाया
नहीं हूं उसे
बस। इतनी ही
मेरी कुशलता
है कि मैं हट
गया हूं, कि
मैं द्वार पर
अटक कर खड़ा
नहीं हूं।
झरना तो उसका
है, मैं
चट्टान नहीं
बना हूं--और
झरना बहने लगा
है।
तुम
मानसरोवर
बनो।
ध्यान
की सारी
प्रक्रियाएं
और कुछ नहीं
करती--तुम्हें
मानसरोवर
बनाती हैं; तुम्हें निस्तंरग
बनाती हैं।
धीरे-धीरे
शब्द और विचार
की तरंगें
शांत होती
जाएं। तुम एक
जैसी जगह आ
जाओ जहां तुम्हारे
भीतर कोई बोलनेवाला
न बचे; अबोल
हो जाए; सन्नाटा
हो जाए; अतल
सन्नाटा हो
जाए। एक छोर
से दूसरे छोर
तक कहीं भी
कोई लहर न
उठती हो। उसी
क्षण
तुम्हारे ऊपर,
तुम्हारी
छाती पर, तुम्हारे
मानसर पर
अपूर्व कमल खिलने
लगेंगे, जो
कभी नहीं
खिले। और
उन्हीं कमलों
की तलाश है; उसी सुवास
की तलाश है; उसी आनंद की. .
.।
"सब्द किया परकास,
मानसर ऊपर छाजा।
दसों
दिसा भई सुद्ध, बुद्ध भई
निर्मल साची।'
पलटू
यह कह रहे हैं
कि अपने किए
तो बहुत कोशिश
की थी कि
शुद्ध हो जाऊं; नहीं हो
पाया। अपने
किए तो कितनी
चेष्टा की थी
कि बुराई मिट
जाए, चोरी
मिटे, लोभ
मिटे, मान-मत्सर
मिटे। अपने
किए तो कितनी
चेष्टा न की
थी कि सज्जन
बनूं, संत
बनूं, अहिंसा
आ जाए, दया
हो, करुणा
हो, पाप
जाए, पुण्य
आए! अपने किए
तो कितनी
चेष्टा नहीं
की थी, और
किए-किए भी
मैं शुद्ध न
हो सका था।
"मैं' तो
कभी शुद्ध
होता ही नहीं।
"मैं' का
होना ही
अशुद्धि में
है। "मैं' तो
कीड़ा ही अशुद्धि
का है। "मैं' तो अशुद्धि
में ही जीता
है। अशुद्धि
उसका भोजन है।
इसलिए "मैं' कभी शुद्ध
नहीं हो सकता।
तो जब
तक तुम अपने
को शुद्ध करने
में लगे हो, तब तक तुम
शुद्ध न हो
पाओगे, क्योंकि
तुम तो
बचोगे--और
तुम्हारा
बचना ही अशुद्धि
है। और
तुम्हारी
दुर्गंध दसों
दिशाओं में
भरती रहेगी।
शुद्धि तो
परमात्मा की
मौजूदगी से
होती है।
शुद्धि तो
उसके आने मात्र
से हो जाती
है। जैसे
प्रकाश के आते
ही अंधेरा चला
जाता है, ऐसे
ही उसके आते
ही शुद्धि हो
जाती है, अशुद्धि
खो जाती है।
"दसों
दिसा भई सुद्ध'. . . .। इस कमल के
खिलते ही दसों
दिशाएं अचानक
शुद्ध हो गईं।
चमत्कार हुआ।
सभी संतों को
इस चमत्कार का
अनुभव है।
इसलिए तो तुम
जब उनसे जाकर
पूछते हो कि
आप ऐसे शुद्ध
कैसे हुए, तो
उनके पास कोई
उत्तर नहीं
है। शुद्ध वे
अपनी तरफ से
हुए भी नहीं
हैं। और जो
तुमसे कहते
हों हम कैसे
शुद्ध हुए, जानना अभी
शुद्ध हुए भी
नहीं हैं।
अपनी चेष्टा
से कोई शुद्ध
नहीं होता।
अपनी चेष्टा
से शुद्ध होना
ऐसा ही है
जैसे कोई अपने
जूते के बंद
पकड़ कर अपने
को उठाने की
कोशिश करे।
तुम्हारी
चेष्टा अंततः
तुम्हारी
चेष्टा है।
तुम ही अशुद्ध
हो तो
तुम्हारी
चेष्टा से
शुद्धि कैसे
होगी? यह
असंभव है। यह
नहीं हो सकता।
इसके होने का
कोई उपाय नहीं
है।
फिर
कैसे आदमी
शुद्ध होता है? आदमी जरूर
शुद्ध होता
है। शुद्ध
आदमी जमीन पर हुए
हैं। थोड़े सही,
लेकिन
शुद्ध आदमी
जमीन पर हुए
हैं। उनके
कारण ही
मनुष्य की
गरिमा है।
उनके कारण ही
मनुष्य के
जीवन में कुछ
नमक है। उनके
कारण ही
मनुष्य के
जीवन में कुछ
काव्य है, कुछ
संगीत है, कुछ
सौरभ है, कुछ
सौंदर्य है।
मगर जो कभी
शुद्ध हुआ
है--वह अपने को
हटाकर, अपने
को गिरा कर।
इधर तुम गिरे,
उधर
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर उठा।
"दसों
दिसा भई सुद्ध, बुद्ध
भई निर्मल साची।'
और कितनी
चेष्टा करते
थे और नहीं
होता था और आज
अचानक हो गया, अनायास हो
गया, प्रसाद-रूप
हो गया।
"बुद्ध भई
निर्मल साची'। बुद्धि
निर्मल भी हो
गई और सारा मल
खो गया। और
सत्य भी हो गई,
प्रामाणिक
भी हो गई। अब
तो वही कहती
है जो है। अब
तो वैसा ही
कहती है जैसा
है। जस का तस।
जैसे का तैसा
कह देती है।
अब कहीं कुछ
खोट न रही।
"छूटी
कुमति की गांठ'.
. . .। और अब तक
जो गांठ बंधी
थी कुमति की, छूटे न
छूटती थी; जितना
छुड़ाते
थे, और बंधती
जाती थी, और
जटिल होती
जाती थी।
"छूटी
कुमति की गांठ,
सुमति परगट
होय नाची'।
और अब
गांठ खुल गईं
कुमति की और
ठीक उसकी जगह
सुमति का
नृत्य शुरू
हुआ है। सुमति
परगट होय
नाची।
प्रफुल्लित
हो रही है
सुमति। नाच रही
है सुमति।
उत्सव हो रहा
है सुमति का।
अब
कुमति और
सुमति में जो
ऊर्जा है वह
तो एक ही है--मति।
मति का अर्थ
होता हैः बोध।
कुमति में भी
वही बोध है।
सुमति में भी
वही बोध है।
कुमति में गलत
संबंध है, मैं से बंधा
है, तो
गांठ बंध गई।
सुमति में
परमात्मा से जुड गया है
तो गांठ खुल
गई, नाच
शुरू हो गया।
तुम
अपने से अपने
को तोड़ो और
प्रभु से जोड़ो।
अपने पर बहुत
भरोसा मत रखो
कि मेरे किए
कुछ हो जाएगा।
तुम्हारे किए
होता तो हो
गया होता।
कितने जन्मों
से तुम कोशिश
कर रहे हो, अभी तक हुआ
नहीं। कब
तुम्हें समझ
आएगी, कि
तुम्हारे किए
नहीं होगा।
तुम्हारे किए
ही सब उलझा
है। तुम
परमात्मा से जोड़ो। तुम
उसका हाथ गह
लो।
"होत
छतीसो
राग'. . .। और पलटू
कहते हैंः
अजीब बात है
मैं तो राग
इत्यादि
जानता ही
नहीं। वणिक थे
पलटू तो, दुकानदार
थे। राग
इत्यादि कहां
पता! अगर तुम जानते
भी होंगे तो
एक जो कलदार
की खनक होती
है उसी राग को
जानते थे; और
तो कोई संगीत
जानते नहीं
थे। और आज
अचानक क्या
हुआ है! आकाश
टूट पड़ा है।
अनिर्वचनीय!
"होत छतीसो
राग, दाग तिर्गुन
का छूटा।'
एक
अपूर्व संगति, एक अपूर्व
संगीत, एक
अहोभाव! "
दाग
तिर्गुन
का छूटासत्व, रज, तम
तीनों छूट गए।
अब यह
थोड़ा समझने का
है। तुम अगर
कोशिश करोगे तो
तम से बहुत
चेष्टा करो तो
रज में आ सकते
हो। और बहुत
चेष्टा करो रज
से तो सत्व
में जा सकते
हो; सत्व में
अटक जाओगे, उसके पार न
जा सकोगे।
बुरा आदमी
बहुत चेष्टा करे
तो सज्जन हो
सकता है।
दुर्जन सज्जन
हो सकता है।
चोर दानी हो
सकता है। यह
कोई बहुत अड़चन
की बात नहीं
है। मगर चोर
के पीछे जो
बात थी वही दानी
के पीछे रहेगी,
फर्क न
पड़ेगा। उलटा
करने लगा दानी।
चोर दूसरों की
जेब से निकाल
लाता था; दानी
अपनी जेब से
दूसरों की जेब
में डालने लगा।
व्यवसाय का
ढंग बदल गया।
पहले दूसरे की
जेब से अपनी
जेब में डालता
था और अब वह
अपनी जेब से दूसरे
की जेब में
डालता है--मगर
नजर तो धन पर
ही लगी है। और
हिसाब अभी भी जेबों पर ही
चल रहा है।
अब तुम
चोर पर बड़े
नाराज होते
हो। चोर भी
काम वही करता
है। एक जेब से
निकालता है, दूसरी में
डालता है।
तुम्हारी से
निकालता है और
अपनी में डाला
लेता है। और
दानी भी यही
काम करता है; एक जेब से
निकालता है और
दूसरी में डाल
देता है--अपनी
से निकालता है,
तुम्हारी
में डाल देता
है। तुम दानी
की प्रशंसा
करते
हो--क्यों? क्योंकि
दानी
तुम्हारी जेब
में डाल देता
है। तुम दानी
की प्रशंसा
करते हो, क्योंकि
दानी तुम्हें
बिना चोर बनाए
तुम्हें चोर
होने का फायदा
दे देता है।
और तो कुछ नहीं।
तुम भी
निकालना
चाहते थे उसकी
जेब से, वह
खुद ही दे
देता है। तुम
कहते हो, धन्यभाग, बड़े सज्जन
आदमी हो! कष्ट
न दिया हमें।
मगर
चोर और दानी
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। चोर को
भी धन में
मूल्य मालूम
होता है और
दानी को भी धन
में मूल्य
मालूम होता
है। चोर
प्रसन्न होता
है जब बहुत
चुरा लेता है; दानी प्रसन्न
होता है जब
बहुत दान दे
देता है। लेकिन
"बहुत' क्या?
कौन-सी चीज
बहुत? वह
धन ही बहुत।
हर हालत में
धन का ही
मूल्य है।
तो
चेष्टा अगर
करोगे तो
दुर्जन से
सज्जन हो जाओगे।
लेकिन
तुम्हारा
मौलिक आधार
नहीं बदला। तुम्हारी
बुनियाद वही
रही। जिस
बुनियाद पर वेश्यागृह
का मकान खड़ा
था उसी
बुनियाद पर
तुमने मंदिर
बनाया। लेकिन
बुनियाद वही
रही। इसलिए
दानी की भी
अकड़ होती
है--बड़ी अकड़
होती है!
कभी-कभी तो चोर
विनम्र होते
हैं और दानी
विनम्र नहीं
होते। चोर को
तो थोड़ा डर भी रहता
है कि मैं चोर
हूं: दानी को
क्या डर है? दानी तो
परमात्मा के
सामने भी अकड़
कर खड़ा हो
जाता है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी मरा, स्वर्ग
पहुंचा। बड़ी
अकड़ से भीतर
गया। परमात्मा
ने पूछा कि
इतनी अकड़ से
चले आ रहे हो, आखिर ऐसा
किया क्या है?
क्योंकि
करनेवाले
इतनी अकड़ से
आते हैं। तो
परमात्मा तो
जानता ही होगा,
सनातन काल
से देखता है।
चोर अगर आते
भी हैं तो सिर
झुका करके आते
हैं, कुछ
थोड़ी-सी
विनम्रता
होती है। दानी
रहा होगा यह
आदमी। किया
क्या है?
तो उस
आदमी ने क्या
किया है? उसने
अपने दान की
कथा बताई।
कहानी बड़ी
मजेदार है।
उसने कहा कि
मैंने तीन
पैसे एक औरत
को दिए थे।
तुम सोचोगे कि
तीन पैसे में
इतनी अकड़! मगर
तुम जितना भी
दोगे वह
परमात्मा के
सामने तीन
पैसे से
ज्यादा का होने
वाला नहीं है।
तुमने तीन करोड़
दे दिए थे, लेकिन
तुम्हारे तीन करोड़ उस परमावस्था
के सामने तीन
पैसे भी तो
नहीं हैं।
इसलिए ठीक ही
कहती है कहानी
कि उस आदमी ने
कहा कि मैंने
तीन पैसे एक
गरीब को दिए
थे। परमात्मा
भी थोड़ा उलझन
में पड़ा कि अब
क्या करना!
दिए थे, यह
सच है।
खाते-बही दिखवाए,
इतने दिए
थे। तो उसने
अपने सलाहकार
से पूछा कि
भाई क्या करना
इसके साथ? तीन
पैसे इसने दिए
थे।
तो
सलाहकार ने
कहा, इसको तीन
पैसे वापिस
करो। नरक भेजो,
और क्या
करना? लेकिन
जाएगा तो नरक
ही।
वह जो
अकड़ है वह तो
नरक ही ले
जाएगी।
चोर
शायद कभी
परमात्मा के
दरवाजे पर
पहुंच भी जाए, दानी नहीं
पहुंच सकता।
और तुम इतना
ही कह सकते हो
कि दुर्जन से
सज्जन बन जाओ।
और भी एक
चेष्टा तुम कर
सकते हो कि
तुम सज्जन से
भी ऊपर उठने
लगो और साधु
बन जाओ।
सत्त्व यानी
साधु।
ये तीन
शब्द समझो।
दुर्जन, जो
बुरा करता है;
भले की कभी
सोचता भी
नहीं। सज्जन,
जो भला करता
है यद्यपि
बुरे की सोचता
है। साधु, जिसने
बुरे के सोचने
को भी तोड़
डाला है; जो
बुरे की सोचता
भी नहीं; जिसने
अपने बुरे
सोचने को
बिल्कुल ही
अपने से काट
कर फेंक दिया
है; जो भला
ही करता है, भला ही
सोचता है और
चौबीस घंटे
भलाई में ही
अपने को लगाए
रखता है।
लेकिन साधु भी
डरा रहता है।
क्योंकि जो
उसने काट कर
फेंक दिया है,
वह काटता
थोड़े ही है।
तुम
कुछ काट कर
फेंक ही नहीं
सकते। अगर
तुमने कामवासना
दबा ली है तो
दबा भर ली है, वह मौजूद
है। ज़रा-सा
उकसावा ज़रा-सी
प्रेरणा कहीं
से मिल जाए, ज़रा-सी
पुलक आ जाए, वह फिर जग
जाएगी।
वर्षों के बाद
जग जाएगी। तुमने
क्रोध अगर दबा
दिया है तो
दबाने से कुछ
कट नहीं जाता।
वह पड़ा है
तुम्हारे घर
के भीतर अंधेरे
कक्ष में।
वहां तुम नहीं
जाते इसलिए
तुम्हें पता
नहीं चलता; लेकिन वह
पड़ा है, वह
प्रतीक्षा कर
रहा है। कभी
भी मौका
मिलेगा वह
प्रकट हो
जाएगा।
सदियों पड़ा
रहे तो भी
निर्जीव नहीं
होता।
तो
साधु अपने
बहुत-से अंगों
को काट डालता
है। साधु अपंग
हो जाते हैं।
तुम अपने
साधुओं को देख
लो, बिल्कुल
अपंग हो जाते
हैं। कोई
मंदिर में बंद
बैठा है, वह
बाहर आने में
डरता है।
क्योंकि बाहर
आए तो बाहर
दुनिया है।
दुनिया का
मतलब होता है चुनौतियां।
दुनिया का
अर्थ होता है
वहां हजार तरह
के प्रलोभन और
हजार तरह की
वासनाएं हवा
में घूम रही
हैं। वहां घबड़ाता
है आने में।
या हिमालय पर
बैठ गया है
गुफा में जाकर,
वहां से
नीचे नहीं
उतरता। सब तरह
से तुम्हारा साधु
भयभीत है।
लेकिन यह भी
कोई साधुता
हुई जिसमें
इतना भय हो?
महावीर
ने तो कहा है
अभय के बिना
कोई सत्य को जान
न सकेगा। और
तुम्हारा
साधु तो बड़ा
भयभीत है। जैन
साधुओं को अकेला
चलने की भी
आज्ञा नहीं है, क्योंकि
अकेले में कोई
आदमी गड़बड़ कर
ले! तो नजर
रखते हैं।
पांच आदमी चला
दिए, जत्था
चला दिया पांच
का। तो चार
नजर रखते हैं।
यह भी कोई बात
हुई? ये
कोई चोर चल
रहे हैं कि
साधु चल रहे
हैं? ऐसे
तो चोर भी
इतना चार
पुलिसवालों
के बीच में
नहीं चलते।
मगर जैन साधु
के लिए नियम
है कि वह
अकेला न रहे।
एकांतसेवी
में खतरा है।
क्योंकि
अकेला रहे, कुछ गड़बड़ कर
ले! देखे कहीं
मौका, कोई
देखनेवाला भी
नहीं है, अकेले
मिल गए हैं, चलो कर गुजरो।
तो चार के साथ
चला देते हैं।
मगर यह
नजर रखने की
बात, तो यह
साधुता कैसी
है? यह भी
व्यवस्था ही
हुई। यह तो
जबरदस्ती कोड़े
के बल से किसी
बच्चे को शांत
बिठा दिया
है--लोभ या भय
के कारण। मगर
भीतर आग जल
रही है--धू-धू
कर आग जल रही
है। और यह कोई
न कोई उपाय
निकाल लेगा। जब
आग जल रही है
तो रास्ता खोजेगी।
वहीं से तो
धुंआ
निकलेगा।
आदमी
अपने बस से
दुर्जन से
सज्जन हो जाए, या और बहुत
अथक चेष्टा
करे तो सज्जन
से साधु हो
जाए--मगर संत
कभी नहीं हो
पाता। संत
अपने किए होता
ही नहीं। संत
मनुष्य के
कृत्य के बाहर
है। संत तो
परमात्मा के
प्रसाद से
होता है।
"होत
छतीसो
राग, दाग तिर्गुन
का छूटा।'
कैसी अद्भुत
बात कही है कि
त्रिगुण का
दाग छूट गया।
इस त्रिगुण
में तम तो
सम्मिलित है
ही, रज भी
सम्मिलित है,
सत्व भी
सम्मिलित है।
दुर्जनता गई,
सज्जनता गई,
साधुता
गई--ये दाग ही
छूट गए। जब तक
तुम साधु हो तब
तक असाधुता
कहीं बची है; नहीं तो
साधु कैसे, साधु किसलिए?
संत का
अर्थ है जिसके
भीतर कुछ भी न
बचा। वह जो
तीन का जाल था, वह जो तीन का
त्रिशूल छिदा
था आत्मा में,
वह अलग हो
गया। मगर यह
प्रभु-कृपा से
ही होता है, यह
प्रभु-प्रसाद
से ही होता
है।
"होत छतीसो
राग, दाग तिर्गुन
का छूटा।
पूरन
प्रकटे
भाग, करम का
कलसा फूटा।।'
कितनी
चेष्टा हमने
की है--पलटू
कहते
हैं--अपने कर्मों
को बदलने की, लेकिन कलसा
लंबा था, पुराना
था, भारी
था, जन्मों-जन्मों
का था। अगर
तुम अपने
कर्मों को बदलते
चलोगे तो कब
बदल पाओगे? थोड़ा सोचो
भी, कितने
कर्म तुमने
किए
हैं--कितने
पाप, कितने
पुण्य, कितनी
चोरियां, कितने
झूठ, कितने
अनंत-अनंत
जन्मों में
तुमने अनंत
पाप किए हैं, अगर उनका
एक-एक का
हिसाब
तुम्हें देना
पड़े और एक-एक
के मुकाबले
तुम्हें कोई
शुभ कर्म करना
पड़े, तो कब छूटोगे? तब तो अनंत
काल बीत जाएगा
और तुम छूटोगे
नहीं। और यह
अनंत काल जो
बीतेगा, इसमें
भी कुछ करोगे
न, इसमें
बैठे थोड़े ही
रहोगे! तो वह
जो करोगे, फिर
आगे के लिए
जाल बनता
जाएगा। और तब
यह बात दुष्चक्र
की हो गई।
इसके बाहर
कैसे निकलना
है? एक
क्षण भी तो
बिना किए नहीं
रह सकते।
श्वास भी लो
तो कर्म हो
रहा है। बोलो
तो कर्म हो
रहा है। श्वास
भी लो तो कोई
कीड़े-मकोड़े
मर रहे हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं, एक चुंबन
लेने में कोई
एक लाख कीटाणु
मर जाते हैं।
एक शब्द बोले,
ओंठ खुला, बंद हुआ, तो
बहुत से
कीटाणु मर गए।
चले
हवा में तो
कीटाणु मर गए।
जमीन पर चले
तो कीटाणु मर
गए। भोजन
करोगे तो
हिंसा होगी।
कपड़े पहनोगे
तो हिंसा
होगी। नंगे
रहोगे तो
हिंसा होगी।
यहां कुछ बिना
किए तो एक
क्षण भी जीया
नहीं जा सकता।
जीवन तो कृत्य
की धारा है।
और अनंत
जन्मों से यह
धारा चल रही
है, सबका
हिसाब-किताब
चुकाना है।
कैसे चुकेगा?
तो फिर
मोक्ष तो हो
ही नहीं सकता
है। फिर निर्वाण
की आशा छोड़ो।
लेकिन आशा छोड़ने
की जरूरत नहीं
है, क्योंकि
तुम्हारे किए
मोक्ष नहीं
होता। तुम्हारे
किए केवल
संसार होता
है। तुम जो भी
करोगे उससे
संसार ही होता
है। जिस दिन
तुम करना छोड़
देते हो, समर्पित
हो जाते--तुम कहतेः अब
तू कर, तेरी
मर्जी; अब
मैं कुछ भी न
करूंगा; तू
जो करवाएगा, करूंगा; चोरी
करवाएगा, चोरी
करूंगा; भजन
करवाएगा, भजन
करूंगा; अपनी
तरफ से बीच
में लाऊंगा
ही नहीं; तेरी
जो मर्जी बुरा
बनाएगा तो
बुरा बनूंगा,
भला बनाएगा
तो भला बनूंगा;
न तो मैं
भले के लिए
कोई अकड़ लूंगा
न बुरे के लिए
कोई पश्चाताप
लूंगा . .
.।
समझें
इस बात को।
"कृत्य के लिए
मैं अपने
कर्ता को
निर्मित न
करूंगा। तू
जान। तू कर्ता
है। हम तो बस
जो आज्ञा दे
देगा वही करते
रहेंगे।' --ऐसी
भक्त की दशा
है।
"पूरन
प्रकटे
भाग'. . . .। और
ऐसे समर्पण की
स्थिति में
भाग्य का
पूर्ण चांद
निकलता है।
पूरन प्रकटे
भाग! कोशिश
करने से तो
थोड़ा-बहुत
आदमी भाग को
प्रकट कर ले
तो बहुत है!
दूज का चांद
हो जाए तो
बहुत है; पूर्णिमा
का चांद कभी
नहीं हो पाता।
दूज का हो जाए
तो बहुत है।
अपनी चेष्टा
कितनी--चम्मच
जैसी! इससे
सागर उलीचने
चले हो!
"पूरन
प्रगटे
भाग, करम
का कलसा फूटा।'
और यह
जो भाग्य का
पूर्ण प्रकट
हो जाना है, यह जो
परमात्मा का
पूरा बरस जाना
है, इसका
दूसरा सहज
परिणाम हो गया
कि वह जो कलसा
था, वह जो
भांडा था, वह
जो सिर पर घड़ा
लिए चल रहे थे
जन्म-जन्म के
कर्मों का, वह फूट गया।
"पलटू
अंधियारी
मिटी, बाती
दीन्ही
बार।'
सब
अंधकार मिट
गया, दीया जल
उठा, ज्योति
प्रगटी।
"दीपक बारा
नाम का, महल
भया उजियार।'
"हाथ जोरि
आगे मिलैं,
लै लै भेंट
अमीर।'
और
पलटू कहते हैं
कि मैं गरीब
आदमी, राम
का मोदी, राम
का बनिया, कभी
कुछ और किया
नहीं, तराजू
संभालना भर
जानता था।
बेचता रहा
सामान गांव के
छोटे से बाजार
में--नंगा जलालपुर।
गरीबों का
गांव रहा होगा,
इसलिए
"नंगा जलालपुर'। बड़े-बड़े
धनपति, बड़े
यशस्वी आगे
आ-आ कर भेंट
ले-ले कर
मुझसे मिलते
हैं! हैरानी
होती है।
मुझमें**ऱ्**तो
ऐसा कोई गुण
नहीं था।
यह
भक्त की दशा
है। मुझमें तो
कभी ऐसे कोई
गुण की बात ही
नहीं थी। यह
हो क्या गया!
यह कौन मेरे
भीतर प्रकट हो
रहा है जिसको
यह नमस्कार की
जा रही है।
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं। कोई
आदमी पद पर पहुंच
जाता है, तुम
उसको नमस्कार
करते हो तो वह
समझता है तुम उसको
नमस्कार कर
रहे हो। कौन
उसको नमस्कार
करता है! वी०
वी० गिरि को
कोई नमस्कार
करता है? वे
बेचारे खुद ही
प्रचार करते
फिरते हैं कि
मैं अभी भी जवान
हूं और अभी भी
काम में आ
सकता हूं देश
के सेवा करने
को। मगर कोई
सेवा लेने में
भी उत्सुक नही
हैं। देने
वालों की भी
सेवा लेने को
कोई उत्सुक
नहीं है!
पद पर
जो है उसे यह
भ्रांति होती
है कि लोग मुझे
नमस्कार कर
रहे हैं। पद
पर से उतरते
ही पता चलता
है कि यह भ्रांति
थी। लोग पद को
नमस्कार करते
हैं। तो जो राजनेता
पद पर होता है, देखो उसके
स्वागत-समारंभ!
लाखों का
खर्च। लाखों
की भीड़-भाड़।
लोग ऐसे चले
आते हैं जैसे
परमात्मा का
अवतरण हुआ हो।
फिर वह आदमी
पद पर नहीं रहा,
कोई देखता
भी नहीं। फिर
उन्हीं सज्जन
को तुम अपना
सामान ढोते
हुए और स्टेशन
पर देखोगे।
अपना टांगा
खुद ही खोज
रहे हैं। कोई
लेने भी नहीं
आता। लोग बचकर
निकल जाते हैं
कि भई इनसे
बचो; अब
इनका सत्संग
करना खतरनाक
है, इनसे
नमस्कार करना
भी खतरनाक है,
क्योंकि
इनके विरोधी
अब सत्ता में
हैं, अब
झंझट की बात
है। इनकी
खुशामद करते
थे, गुलामी
करते थे, इनकी
बड़ी स्तुति के
गीत गाते थे।
अब इनसे लोग आंखें
चुराते हैं।
तो एक
तो ऐसे लोग
हैं जो सोचते
हैं पद पर
होने से उनको
लोग नमस्कार
कर रहे हैं।
यह राजनीतिज्ञ
की भ्रांति
है। और एक
धार्मिक आदमी
है कि उसे
दिखाई पड़ता
हैः बड़ी
हैरानी की बात
है, मैं तो
कुछ हूं ही
नहीं, मैं
तो ना-कुछ, नाचीज!
यह हुआ क्या
है, लोग
क्या पागल हो
गए हैं! "हाथ जोरि आगे मिलैं, लै-लै भेंट अमीर।
इनको हुआ क्या
नासमझों
को! मुझ गरीब
आदमी को, जिसमें
न कोई गुण है, न कोई लक्षण
है, न कोई
योग्यता है, न कोई कला
है।
"लै-लै भेंट अमीर, नाम का तेज विराजा।'
पलटू
कहते हैंः
जरूर कुछ बात
उसी की है, उसका तेज विराजा
है! ये उसी को
नमस्कार कर
रहे हैं। ये
प्रभु को नमस्कार
कर रहे हैं, मैं तो
निमित्त
मात्र हूं, ये मुझे
नमस्कार नहीं
कर रहे हैं।
"लै-लै भेंट अमीर, नाम का तेज विराजा।
सब कोऊ रगरै
नाक, आइकै
परजा-राजा।।
सकलदार
मैं नहीं, नीच फिर
जाति हमारी।
पलटू
कहते हैंः
न तो मेरे पास
कोई सौंदर्य
है. . . सकलदार
मैं नहीं।
मेरे पास कोई
सुंदर चेहरा
भी नहीं। कोई
सौंदर्य भी
नहीं है।
साधारण जैसा
आदमी हूं।
"सकलदार मैं नहीं, नीच फिर
जाति हमारी।'
फिर
हमारा कोई
वर्ण बहुत
ऊंचा नहीं कि
मैं कोई
ब्राह्मण हूं
कि लोग मेरे
पैर छुएं।
"गोड़ धोय षटकरम,
वरन पीवै
लै चारी।'
और यह
मामला क्या
हुआ जा रहा है
कि लोग आते
हैं, चारों
वर्णों के लोग
आते हैं, षटकर्मों को करने
वाले ज्ञानी
आते हैं और
मेरे पैर धो
कर पानी पीते
हैं! जरूर यह
बात मेरी नहीं
है। नाम का
तेज विराजा।
ये मेरे पैर
नहीं छू रहे
और न ये मेरे
पैर धो रहे
हैं। इन्हें
कुछ दिखाई पड़
रहा है।
इन्हें वही
दिखाई पड़ने
लगा है जो
मुझे भीतर
दिखाई पड़ रहा
है।
यह
धार्मिक आदमी
का लक्षण है।
"बिन लसकर
बिन फौज, मुलुक
में फिरी
दुहाई।'
--न
मेरे पास फौज
है न फोटो है, मगर सारे
देश में मेरी
दुहाई की
दुंदुभी पिट
रही है!
"जन-महिमा सतनाम,
आपु में सरस
बढ़ाई।'
तेरे
नाम की महिमा
अपार है! हमने
तो कुछ इतना ही
किया कि तेरी
याद की और यह
क्या हो गया!
हमने तो कुछ
इतना ही किया
कि तुझे स्मरण
किया; विस्मरण
किया था, स्मरण
किया!
"जन-महिमा सतनाम,
आपु में सरस
बढ़ाई।
सत्तनाम
के लिहे
से, पलटू भया
गंभीर।
हाथ
जोरि आगे मिलैं, लै-लै भेंट
अमीर।।'
"गंभीर' का
अर्थ समझना।
गंभीर का अर्थ
वैसा नहीं है
जैसा आमतौर से
आज हो गया है।
गंभीर का अर्थ
होता है बड़े
गंभीर हैं, बड़े "सीरियस'! नहीं,
ऐसा गंभीर
का अर्थ नहीं
है। गंभीर का
मौलिक अर्थ
हैः गहरे, गहन।
पलटू कहते हैं
कि मैं बड़ा
गहरा हो गया।
तेरी मौजूदगी
क्या आई, मैं
गहरा हो गया!
मैं अपूर्व
रूप से गहरा
हो गया। एक
गहनता आ गई, जो मुझमें
कभी थी नहीं।
मैं तो
छिछला-छिछला
था। मैं तो
ऊपर-ऊपर था, मैं तो सतह
पर था।
"सत्तनाम के लिहे
से पलटू भया
गंभीर।
हाथ
जोरि आगे मिलैं, लै-लै भेंट
अमीर।।'
"संत सासना
सहत हैं, जैसे सहत
कपास।।
जैसे
सहत कपास, नाय
चरखी में औटे।'
यह वचन
समझना। संत सासना सहत
हैं...संत कष्ट
सहते हैं, जैसे सहत
कपास। जैसे
कपास बहुत-सी
तकलीफों से
गुजरता है।
लेकिन "सासना'
शब्द का एक
अर्थ कष्ट भी
होता है, मौलिक
अर्थ कुछ और
होता है।
मौलिक अर्थ तो
होता हैः शासन,
अनुशासन, साधना।
कष्ट
दो तरह के हैं
जगत् में। एक
तो कष्ट, जो
तुम सहना नहीं
चाहते और सहते
हो। उससे जीवन
टूटता है। और
एक कष्ट, जो
तुम स्वयं
अंगीकार करते
हो, उससे
जीवन निर्मित
होता है। और
यह बात बड़े
काम की है।
इसे याद अगर
रख सको तो तुम
कष्टों का स्वरूप
बदल सकते हो।
जो कष्ट
तुम्हें
विध्वंस कर
जाएंगे
उन्हीं को तुम
सृजनात्मक
बना सकते हो।
उन्हें
स्वीकार करो,
उनका उपयोग
करो। जब दुःख
आए तो तुम उसे
साधना बनाओ।
तुम उसे भी
जागने का उपाय
बनाओ। दुःख में
आदमी बड़ी
सुविधा से
जागता है। सुख
में आदमी सो
जाते हैं। अगर
ज़रा-सी भी
बुद्धि हो तो
दुःख में तो
आदमी सो ही
कैसे सकता है?
चादर ओढ़ कर
नहीं सो सकते दुःख
में। इस मौके
का उपयोग कर
लो।
"संत सासना
सहत हैं
जैसे सहत
कपास।'
जैसे
कपास को बड़े
कष्टों से
गुजरना पड़ता
है, लेकिन वे
सारे कष्ट
कपास को इस
योग्य बना
देते हैं कि
कभी वह
सम्राटों का
वस्त्र बने, सम्राटों के
अंग छुए, ढाके की
मलमल बने। ऐसे
ही व्यक्ति भी
धीरे-धीरे कष्टों
का अगर ठीक से
उपयोग करे तो
परमात्मा के अंग
छूने के योग्य
हो जाता है।
"संत सासना
सहत हैं
जैसे सहत
कपास।
जैसे
सहत कपास, नाय
चरखी में ओटै।'
कपास
को चरखी में
ओटना पड़ता है।
"रुई घर जब तुनै
हाथ से दोउ निभोटै।'
और
फिर दोनों
हाथों से तोड़ता
है, तोड़ा
जाता है।
"रोम-रोम अलगाय
पकरिकै
धुनिया धूनी।'
और
एक-एक रेशे को
अलग करता है
धुनिया धूनी
में धुन-धुन
कर।
"पिउनी बहं दै
कात'. . . . .।
फिर
पूनी को बढ़े
हुए नाखून में
छेद करके
उसमें से
बारीक-बारीक
सूत निकालता
है।
"पिउनी बहं दै
कात सूत ले जुलहा
बूनी।'
फिर
जुलाहा बुनाई
करता है।
"धोबी
भट्टी पर धरी'.
. . .। फिर धोबी
है कि भट्टी
पर धरता है। . .
."कुंदीगर मुगरी
मारी।' फिर
मुगरियों
से पीटा जाता
है--सफाई के
लिए, शुद्धता
के लिए।
"दरजी टुक
टुक फारि,
जोरिकै किया तयारी।'
फिर
दरजी काटता है, फाड़ता है, फिर
कहीं वस्त्र
बनता है।
वस्त्र-- जो
सम्राटों के
अंग लग जाए।
ऐसा ही
संत का जीवन
है। जीवन की
हरेक स्थिति का
वह उपयोग कर
लेता है। दुःख
का भी उपयोग
कर लेता है।
दुःख को शासन
बना लेता है, आत्मानुशासन
बना लेता है।
मेरी
हस्ती का
मुहब्बत में फना
हो जाना
वो
मेरा नाजिस-ए-अरबाग-ए-वफा
हो जाना
उनको
हम
जिंदा-ए-जावेद
कहा करते हैं
जानते
हैं जो
मुहब्बत में
फना हो जाना।
केवल
वे ही लोग
अमरत्व को
उपलब्ध होते
हैं।.....
उनको
हम
जिंदा-ए-जावेद
कहा करते हैं
जानते
हैं जो
मुहब्बत में
फना हो जाना।
जो प्रेम
में मर जाना
जानते हैं, जो प्रेम
में मिट जाना
चाहते हैं, जो प्रेम
में शून्य हो
जाना जानते
हैं--वे ही अमरत्व
को उपलब्ध
होते हैं। तो
भक्त तो अपने
को मिटा डालता
है, जैसे
कपास सब तरफ
से मिट जाता
है।
वे जो
मिटने की सारी
प्रक्रियाएं
हैं, वे ही
बनने की प्रक्रियाएं
हैं। तुम
मिटने को
मिटना मत
समझना। मिटना समझे तो तुम बचने लगोगे
मिटना समझे तो
कष्ट। फिर
कष्ट से बचने
के लिए भुलाने
का उपाय--शराब,
सौंदर्य, संगीत। अगर
कष्ट को कष्ट
न समझे; समझा
कि परमात्मा
धुन रहा है, रेशे-रेशे
अलग कर रहा है,
कि
परमात्मा धो
रहा है; यह
जो मुगरी से
पीटा जा रहा
हूं, यह
मेरी सफाई हो
रही है, मुझसे
कूड़ा-कचरा
अलग किया जा
रहा है। यह जो
मैं चरखी में
रौंदा जा रहा
हूं, यह
इसीलिए है
ताकि मेरे
भीतर छिपा हुआ
जो रहस्य है, वह प्रकट हो
जाए; मेरे
भीतर जो छिपा
हुआ प्रकाश है
वह प्रकटे।
मेरा कमल उठे,
खिले। मेरी
सुवास प्रकट
हो।
जिसने
इस भांति ले
लिया उसने
दुःख का
अनुशासन बना
लिया। उसके
जीवन में
क्रांति
निश्चित हो जाएगी।
फिर वह दुःख
से भागता नहीं, दुःख से
बचता नहीं, दुःख को भुलाता
नहीं--दुःख के
अवसर का उपयोग
कर लेता है; दुःख को
चुनौती बना
लेता है।
"परस्वारथ के कारने
दुःख सहै पलटूदास।
संत
सासना सहत हैं, जैसे सहत
कपास।।'
और संत
के जीवन में
दो तरह के
दुःख हैं।
पहले--संतत्व
के घटने के
पहले। वह बहुत
तरह के दुःख झेलता
है। दुःख तो
सभी को हैं।
ऐसा नहीं कि
संत को ही
दुःख है; दुःख
तो तुम्हें भी
है, सबको
है। लेकिन तुम
उनसे बचना
चाहते हो; संत
उन्हें
अंगीकार करता
है, स्वीकार
करता है, अहोभाव
से स्वीकार
करता है। यह
भी प्रभु की
मर्जी। यह भी
प्रभु की भेंट
है।
काश
तुम दुःख को
भी प्रभु की
भेंट समझ लो
तो अनुशासन
पैदा हो
जाएगा। फिर
फिर तुम्हारे
भीतर नाराजगी
न रह जाएगी।
और तुम्हारे
भीतर क्रोध न
रह जाएगा और
शिकायत न रह जाएगी।
और तुम्हारे
भीतर से
प्रार्थना
उठेगी।
बीज को
जमीन में
डालते हैं।
बीज को अगर
पता न हो--कैसे
पता होगा कि
वृक्ष बननेवाला
है, खिलेंगे
फूल, आकाश
में उठेंगी
शाखाएं, घने
पत्ते आएंगे,
वसंत आएगा,
हवाएं नाचेंगी,
पक्षी
घोंसले बनाएंगे,
सूरज की
किरणों से
बातें होंगी,
चांदत्तारों से गुफ्तगू
होगी--यह सब तो
उसे पता नहीं
है। जब तुम
बीज को डालते
हो जमीन में
तो बीज तो तड़पता
होगा कि यह
किस कष्ट में
मुझे डाला जा
रहा है, यह
क्यों मुझे
मिट्टी में
दबाया जा रहा
है? अभी तो
मैं जिंदा हूं,
क्यों मेरी
कब्र खोदी जा
रही है? उसे
तो लगता होगा
यह कब्र हो
गई। उसे पता
नहीं कि इसी
कब्र से उसका
जीवन
निकलेगा। यही
मृत्यु उसके
नए जीवन की
शुरुआत है।
ठीक
ऐसे ही हमारे
जीवन के कष्ट
हैं। संसारी
उनसे बचता है; संन्यासी
उन्हें
अंगीकार करता
है--सौभाग्यपूर्वक,
धन्यवादपूर्वक,
कृतज्ञता
से, उनको
भेंट मान लेता
है।
तुम ज़रा कुछ
दिन प्रयोग
करके देखो। जब
अब की बार
दुःख आए, कोई
भी दुःख आए, कैसा भी
दुःख आए, शरीर
का कि मन का, उसे भेंट की
तरह स्वीकार
करके देखो और
तुम पाओगे
चमत्कार हुआ।
उस दुःख की
सारी
गुणवत्ता बदल
गई। उसका सारा
रूपांतरण हो
गया। वह दुःख
कुछ का कुछ हो
गया।
प्रयोग
करके देखना, क्योंकि यह
तो बात प्रयोग
करने की है।
जो भी दुःख आए
उसे स्वीकार
कर लेना कि
प्रभु ने भेजा
तो जरूर
निखारता होगा,
मांजता होगा, साफ
करता होगा।
याद रखना पलटू
के ये वचन;
संत
सासना सहत हैं, जैसे सहत
कपास।।
जैसे
सहत कपास, नाय
चरखी में ओटै।
रुई
घर जब तुनै
हाथ से दोउ निभोटै।।
रोम-रोम
अलगाय पकरिकै
धुनिया धूनी।
पिउनी बहं दै
कात, सूत ले जुलहा बूनी।।
धोबी
भट्टी पर धरी, कुंदीगर
मुगरी मारी।
दरजी
टुक टुक फारि, जोरिकै किया तयारी।।
खयाल
रखना, इतनी
तैयारी करनी
पड़ेगी।
जब
स्वर्णकार
सोने को डालता
होगा आग में
तो सोना भी तड़पता
होगा कि यह
कौन-सा कष्ट
मुझे दिया जा
रहा है! लेकिन
आग में पड़कर
ही तो सोना
कुंदन बनता है, शुद्ध होता
है, कचरा
जलता है। दुःख
के बिना कोई
कभी निखरता नहीं।
मुझसे
कभी-कभी लोग
आकर पूछते हैं
कि परमात्मा
अगर है तो
दुनिया में
इतना दुःख
क्यों है? उनका प्रश्न
सार्थक मालूम
होता है; तर्क
के जगत् में
तो बिल्कुल
सार्थक मालूम
होता है। असल
में वे यह कह
रहे हैं कि
अगर इतना दुःख
है तो
परमात्मा हो
ही नहीं सकता;
या अगर
परमात्मा है
तो यह दुःख
बेबूझ है, यह
नहीं होना
चाहिए।
क्योंकि लोग
कहते हैं परमात्मा
दयालु है, रहमान
है, रहीम
है, कृपालु
है। तो फिर
परमात्मा जब
इतना रहमान है
तो इतना दुःख
क्यों है? वे
एक तार्किक
सवाल उठा रहे
हैं। वे यह कह
रहे हैं कि
अगर यह दुःख
है तो साफ है
कि या तो
परमात्मा
रहमान नहीं है,
शैतान है; और या फिर
परमात्मा है
ही नहीं। यह
जगत् केवल एक
दुर्घटना
मात्र है, एक
संयोग मात्र,
हो गया है।
इसके पीछे कोई
चलनेवाला
नहीं है। इसके
पीछे कोई
रखवाला नहीं
है। इसके पीछे
कोई नहीं है
जो इसकी चिंता
करता हो। अगर
चिंता करनेवाला
परमात्मा हो
तो इतना दुःख
क्यों है? और
या वे कहते
हैं कि अगर
परमात्मा है
तो फिर समझाइए
कि दुःख का
क्या कारण है?
पिता अपने
बच्चों को
दुःख तो नहीं
देना चाहता।
मां अपने बेटे
को दुःख तो
नहीं देना
चाहती। और यह
परमात्मा
पिता है हमारा,
तो दुःख
क्यों है?
उनकी
बात तर्क के
तल पर बड़ी सही
है, मगर जीवन
और अस्तित्व
के तल पर बड़ी
नासमझी से भरी
है। इसीलिए
दुःख है कि
परमात्मा है।
मैं जब उन्हें
यह उत्तर देता
हूं तो वे
बहुत चौंकते
हैं। मैं कहता
हूं, इसीलिए
दुःख है कि
परमात्मा है।
मां बहुत कष्ट
देती है
बच्चों को और
बाप भी बहुत
कष्ट देता है।
यह तुमसे
किसने कहा कि
बाप कष्ट नहीं
देता है और
किसने कहा कि मां
कष्ट नहीं
देती। हां, मां कष्ट
करुणा के कारण
ही देती है।
हजार बार बच्चे
नाराज होते
हैं; हजार
बार मां मारती
है। हजार बार
जाना चाहते हैं
कहीं, नहीं
जाने देती। आग
में हाथ डालना
चाहते हैं, किसी को
खींचना पड़ता
है। बच्चे
बच्चे हैं। सच
तो यह है कि
कौन बच्चे अपने
मां-बाप को
माफ कर पाते
है! चोट बनी
रहती है कि
बहुत सताया जब
छोटे थे।
परमात्मा
है, इसीलिए
दुःख है। यह
दुःख
तुम्हारे
निखार के लिए
है। यह दुःख
औषधि-रूप है। कड़वी है
औषधि, माना;
मगर
औषधियां कड़वी
होती है।
मिठाइयां नहीं
हैं औषधियां।
जहर को जहर से
मारना होता है।
कांटे को
कांटे से
निकालना होता
है।
तुम्हारे
जीवन में बड़ा
अंधकार है।
धुन-धुन कर उसे
अलग करना
होगा।
तुम्हारे
जीवन में बड़ा
अहंकार है।
उसकी खोल
मजबूत है।
तुम्हें
मिट्टी में
डाल कर कूटना
होगा ताकि
अहंकार की खोल
मिट जाए तो
तुम्हारे
भीतर से पौधा, तुम्हारे
भीतर छिपी हुई
संभावना
प्रकट हो जाए।
तो एक
तो संत दुःख
झेलता है। मगर
उसका भाव बड़ा अनूठा
है। एक तुम
दुःख झेलते हो; तुम्हारा
भाव बड़ा क्रोध
से भरा है।
तुम दुःख झेलते
हो--बड़े
प्रतिरोध से
लड़ते-लड़ते, जूझते-जूझते।
संत झेलता
है--स्वीकार
से, समर्पण
से, अहोभाव
से।
तुम
दुःख ऐसे
झेलते हो जैसे
बड़े वृक्ष
तूफान में खड़े
रहते हैं अकड़
कर, जिद से, लड़ते हैं; और जब कभी
गिर जाते हैं
तो फिर उठ
नहीं पाते। संत
ऐसे दुःख
झेलता है जैसे
घास के पौधे।
आया तूफान, घास का पौधा
पूर्व गिर गया
तो पूर्व गिर
जाता है; पश्चिम
गिरा दिया तो
पश्चिम गिर
जाता है। जहां
गिरा दिया, गिर गया। घर
का पौधा रेसिस्ट
नहीं करता, प्रतिशोध
नहीं लेता, प्रतिरोध
नहीं करता।
झगड़ने की
वृत्ति नहीं है
उसकी; झुक
जाता है। यह
झुकना ही
समर्पण है। और
झुकने में बड़ा
मजा है। गिर
तो जाता है, लेकिन जैसे
ही तूफान चला
जाता है, बड़े
वृक्ष गिर गए
सो गिर गए, फिर
नहीं उठ सकते;
घास का पौधा
फिर उठ आता
है--और भी
लहलहाता हुआ,
पहले से भी
ज्यादा ताजा।
धूल झाड़ गया
तूफान ले गया कूड़ा-करकट
जो आस-पास लग
गया होगा
जिंदगी में
ताजा होकर
पौधा फिर ख्ड़ा हो गया।
तूफान उसे तोड़
नहीं पाया।
क्योंकि जिसे
झुकने की कला
आती है, उसे
कोई भी नहीं
तोड़ पाता।
सिर्फ
अहंकारी
टूटते हैं; विनम्र नहीं
टूटते हैं।
निरहंकारी को
कैसे तोड़ोगे?
उसे झुकने
की कला आती
है।
पूर्व
के सारे
शास्त्र और
पूर्व के सारे
धर्म झुकने की
कला सिखाते
हैं। घास के
जैसे ही रहो। अकड़े हुए
देवदारू के
वृक्ष बन कर
मत खड़े हो
जाओ। यह अकड़
महंगी पड़ेगी।
गिरे तो फिर
उठ न सकोगे।
तो
अहंकार है. . .
संसारी लड़ता
है। संन्यासी
झुकता है।
एक तो
यह स्थिति है।
फिर जब संतत्व
उपलब्ध हो जाता
है, तब
दूसरे तरह के
कष्ट शुरू
होते हैं, फिर
समाज कष्ट
देना शुरू
करता है। उन
कष्टों का
संसारी को बिल्कुल
पता नहीं है।
परमात्मा जो
कष्ट देता है
वे तो संसारी
और संन्यासी
दोनों को
बराबर है।
फर्क
संन्यासी और
संसारी की
भाव-दशा में
है, कैसे
उन्हें
स्वीकार किया
जाए।
संन्यासी अहोभाव
से स्वीकार
करता है, आलिंगन
लेता है।
क्योंकि
परमात्मा की
भेंट है, और
कोई उपाय है
भी नहीं
स्वीकार करने
का; यही
ठीक मार्ग है।
नाच कर, धन्य-भाग
से, प्रसाद-रूप!
संसारी लड़ता
है। यहां तक
तो बात बराबर
है कि दोनों
को दुःख होते
हैं। फर्क
यहां से शुरू
होता है कि
संन्यासी
स्वीकार-भाव
से लेता है।
फिर एक
दूसरा दुःख है
जो केवल संत
को ही होता है, संन्यासी को
ही होता है।
वह संसारी को
नहीं होता। वह
दुःख है समाज
के द्वारा।
"परस्वारथ के कारने
दुःख सहे पलटूदास।
संत
सासना सहत हैं
जैसे सहत
कपास।।'
जैसे
ही किसी
व्यक्ति में
परमात्मा का
तेज विराजता
है कि उस व्यक्ति
के जीवन में
अपूर्व
विद्रोह घटता
है, क्रांति
घटती है। उसके
शब्द-शब्द में
अंगार हो जाते
हैं। यह समाज
उन अंगारों को
बरदाश्त नहीं
कर पाता; उन
शब्दों की चोट
सह नहीं पाता।
यह संसार संतों
का सदा विरोधी
हो जाता है।
तो सुकरात को
जहर पिला देता
है। जीसस को
सूली लटका
देता है।
मंसूर के
अंग-अंग काट
कर मार डालता
है। इसको भी
संत बड़े आनंद
से सहते हैं।
"परस्वारथ के कारने'.
. . .। पहले तो
दुःख सहे कि निखरें; अब जब निखर
गए तो ये जो न निखरे लोग
हैं इनको
नाराजगी शुरू
होती है।
स्वभावतः
इनको बड़ीर्
ईष्या पकड़ती
है, बड़ा
कष्ट होता है
कि कोई हमसे
पहले जाग गया
और हम सो रहे
हैं। और कोई
परमात्मा को
पा लिया और
हमने नहीं
पाया! मिटा
देंगे इसे! इस
सबूत को मिटा
देंगे। यह प्रमाण
न रहने देंगे।
जीसस
को जब
यहूदियों ने
सूली दी तो
क्या किया? परमात्मा का
प्रमाण
मिटाना चाहा।
एक को नहीं मिलेगा।
सुकरात को जब
लोगों ने जहर
पिलाया तो किसलिए?
क्योंकि
शब्द को
बरदाश्त न कर
सके। लोग झूठ
में जीते हैं।
तुम्हारी
सारी जिंदगी
झूठ से भरी है।
और जब कोई
आदमी सच बोलनेवाला
खड़ा हो जाता
है तो तुम्हें
बड़ी अड़चन होती
है। तुम्हें
वह बड़ी दिक्कत
में डाल देता
है। अगर वह
ठीक है तो तुम
सब गलत हो। और
तुम सब गलत हो,
यह मानना
तुम्हारे
अहंकार को
संभव नहीं। तो
यही उचित है
कि वह एक ही
गलत होगा। उस
एक को हटा दो।
उसे मिटा दो।
उसकी चमकती
हुई जिंदगी
तुम्हारे
अंधकार से भरे
घरों के लिए
बड़ी कठिन हो
जाती है। उसकी
चमकती
हुई जिंदगी के
कारण तुम्हें अपने
अंधकार में
रहना कठिन हो
जाता है वह
तुम्हें बाहर
खींचने लगता
है। पुकार उठने
लगती है। तुम
उसे सताने
भी लगते हो।
"परस्वारथ के कारने
दुःख सहे पलटूदास।' पलटूदास कहते हैं, एक तो दुःख
वह सहा, वह
परमात्मा ने
भेजा था भेंट
की तरह; और
दूसरा दुःख
इसलिए सहना
पड़ता है कि जब
आनंद मिलता है
तो उसके साथ ही
संदेश भी
मिलता है कि
इसे बांटो। जब
सत्य मिलता है
तो उसके साथ
यह भी
अनिवार्य रूप
से घटता है कि
इस सत्य को
पहुंचाओ उन तक
जो असत्य में खड़े
हैं। इसलिए परस्वारथ
के कारने .
. . . . अब दूसरे के
लिए, जो
भटक रहे हैं
अंधेरे में, उनको भी खबर
मिल जाए। मुझे
मिल गई, उन्हें
भी मिल जाए।
माना कि वे
सिर तोड़ेंगे।
माना कि वे
नाराज होंगे।
माना कि वे
कोई धन्यवाद
नहीं देंगे।
संतों
को कब धन्यवाद
दिया हमने! हम
सदा नाराज हुए
हैं। और अगर
हमने धन्यवाद
भी दिया तो
उनके मर जाने
के बाद दिया। मर
जाने के बाद
सुविधा है।
बुद्ध जा चुके, अब तुम उनकी
पूजा करो, कोई
हर्जा नहीं
है। वह सत्य
तो जा चुका, अब राख पड़ी
रह गई है, अब
इसकी पूजा
करते रहो।
लोग
राख की पूजा
करते रहते हैं, अंगार से
डरते हैं।
स्वाभाविक
है। अंगार जला
देगा; राख
तो जलाएगी
नहीं।
जीसस
को सूली दी और
अब जीसस के
नाम पर कितने
चर्च हैं दुनिया
में! सुकरात
को जहर दे कर
मार डाला और
पच्चीस सौ साल
हो गए सुकरात
की याद करते
लोग, कितनी
याद करते हैं!
और तुमसे मैं
कहता हूं, सुकरात
फिर आए तो तुम
फिर मारोगे।
क्योंकि तुम्हारा
झूठ फिर अड़चन
में पड़ जाएगा।
हुआ
आज दुश्मन
जमाना मेरा
मेरी
साफगोई खता हो
गई
ढले
गम सभी अशआर
में मेरे
सजा
मेरे हक में जजा हो गई।
हुआ
आज दुश्मन
जमाना मेरा
मेरी
साफगोई खता हो
गई।
वह जो
सच है, साफगोई,
वह जैसे को
वैसा ही कह
देना है--उसे
कोई भी क्षमा
नहीं करता।
सत्य को कोई
क्षमा नहीं
करता सत्य पर
लोग बड़े नाराज
हो जाते हैं।
कोई नहीं
चाहता कि
तुम्हारी
नग्नता प्रकट
की जाए। और
कोई नहीं
चाहता कि
तुम्हारे झूठ
खोल कर तुम्हारे
सामने रखे
जाएं।
और कोई नहीं
चाहता कि
तुम्हारे
घावों की
तुम्हें याद
दिलाई जाए, और तुम्हारी
मूढ़ताओं
की और
तुम्हारे
अज्ञान की
बातें
तुम्हें समझाई
जाएं। कोई
नहीं चाहता।
अब ये पलटूदास
अगर तुम्हें
मिल जाएं और
कहें कि अजहूं
चेत गंवार, तो तुम
नाराज हो
जाओगे कि मुझे
नाराज कह रहे
हो! होश में हो?
किसको
गंवार कह रहे
हो?
पलटूदास
कहते हैं : अब
चेतो, बहुत
हो गई गंवारी।
एक
दूसरे वचन में
उन्होंने कहा
हैः "अवसर न चूक
भौंदू'! तुम को
नाराजगी हो ही
जाएगी कि भौंदू
कह रहे हो! मैं
पढ़ा-लिखा आदमी
प्रतिष्ठित
आदमी--तुम
मुझको भौंदू
कह रहे हो!
मगर वे
ठीक ही कह रहे
हैं। वे यही
कह रहे हैं कि पढ़-लिख
तो तूने लिया, लेकिन जाना
कुछ नहीं है।
धन तो कमा
लिया, और
भीतर निर्धन
हैं। पद तो
मिल गया, असली
पद कब खोजेगा?
अवसर न चूक भौंदू! यह भौंदूपन
मत कर! बाहर का
कुछ काम नहीं
आएगा। बस भीतर
को जो पा लेता
है वही समझदार
है; नहीं
तो सब गंवार
है।
लेकिन
संत के लिए तो
अनिवार्य है
कि जो उसने जाना
है वह कहे। जब
फूल गंध से भर
जाता है तो
गंध प्रकट
होती है चाहे हवाएं
स्वीकार करें
और न करें। जब
बादल भर जाते
हैं जल से तो बरसते हैं, चाहे पृथ्वी
प्यासी हो
चाहे न हो। जब
दीया जलता है
तो रोशनी
प्रकट होती है,
चाहे
अंधेरा नाराज
हो चाहे राजी
हो।
हुआ
आज दुश्मन
जमाना मेरा
मेरी
साफगोई खता हो
गई।
वही
अक्षम्य
अपराध हो जाता
है, सत्य को
कह देना। मगर
सत्य को कहना
ही होगा। वह
संत की मजबूरी
है।
बुद्ध
ने कहा कि
प्रज्ञा के
साथ-साथ करुणा
अनिवार्य रूप
से आती है; वे साथ ही
आते हैं। वे
एक ही सिक्के
के दो पहलू हैं।
इधर बोध हुआ
उधर करुणा आई।
करुणा का मतलब
हैः परस्वारथ
के कारने. .
.। अब वे जो
दूसरे अंधेरे
में भटक रहे
हैं। उनको भी
प्रकाश की तरफ
लाना होगा, यद्यपि वे
विरोध
करेंगे। वे
अपने ही हित
की बात नहीं
सुनेंगे। वे
अपने ही हित
की बात सुनानेवाले
को क्षमा भी
नहीं करेंगे।
यह सब ठीक है।
ढले
गम सभी अशआर
में मेरे
सजा
मेरे हक में जजा हो गई।
लेकिन
संत तो इस सजा
को भी अपने
लिए उत्सव मानता
है, जजा मानता है, पुरस्कार
मानता है। वह
तो कहता है कि
परमात्मा ने
इतना काम
मुझसे ले
लिया!
मंसूर
को जब सूली
हुई, उसके जब
हाथ काटे गए
और जब उसके
पैर काटे गए, इसके पहले
कि वे गर्दन
काटते, उसने
सिर आकाश की
तरफ उठाया और
वह खिलखिला कर
हंसा। उसने जब
सिर आकाश की
तरफ उठाया तो
लाख आदमी
इकट्ठे हो गए
थे उसको फांसी
देने के लिए और
देखने के लिए।
उन्होंने भी
सिर ऊपर उठाया
कि देख क्या
रहा है यह! जब
किसी के
हाथ-पैर कट
रहे हों तो यह
आकाश की तरफ
क्या देख रहा
है और फिर
हंसता क्यों
है? एक
आदमी ने भीड़
में से पूछा
कि मंसूर बात
क्या है, तुम
मारे जा रहे
हो, हंस
क्यों रहे हो
और तुमने सिर
क्यों ऊपर
उठाया?
मंसूर
ने कहाः
इसलिए कि चलो
मेरी मौत के
बहाने ही सही, थोड़ी देर को
तुम भी सिर
ऊपर उठा लो।
मैंने सिर ऊपर
उठाया इसलिए
कि तुम्हारा
चलो इसी बहाने
थोड़ी देर की
ही सही, एक
बार तो तुम
आकाश की तरफ
देख लो! इतना
भी हो गया तो
बस मेरा काम
पूरा हो गया!
और हंसा मैं
इसलिए कि
परमात्मा
तेरे भी
रास्ते अनूठे
हैं इन लोगों
को समझाने के!
लाख आदमी मुझे
कभी देखने वैसे
आते भी नहीं, मैं गरीब
आदमी हूं, कौन
आता है! तेरी
भी खूब
तरकीबें हैं
लोगों को जगाने
की! अब मंसूर
को देखने
बुलवा दिया
लाख आदमियों
को। चलो मेरे
पैर कटेंगे,
हाथ कटेंगे,
मेरी जान
जाएगी; लेकिन
तुम्हारे
भीतर मैं याद
बनकर रह जाऊंगा,
इसलिए हंसा
कि तेरी भी
तरकीबें खूब
हैं!
और
कहते हैं उन
लाख लोगों में
से अनेक लोगों
की जिंदगी में
मंसूर का बीज
पड़ गया। जिन
लोगों ने वह
हंसी देखी थी, भूलते भी
कैसे! मरते
वक्त कोई
हंसता है इस
तरह! हाथ-पैर
काटे जाते हों,
हंसता है
कोई इस तरह! वह
तस्वीर फिर
भूले न भुलाई
गई! फिर बहुत
चाहा होगा कि
हटा दें इस
तस्वीर को, मगर वह
बार-बार सपनों
में आई होगी।
सुबह-सांझ आई
होगी। बैठे
होंगे तो याद
आई होगी।
मस्जिद में गए
होंगे तो याद
आई होगी।
कुरान पलटा
होगा तो याद
आई होगी। याद
आई होगी। याद
आई होगी वे हंसती
हुई आंखें, वह हंसता
हुआ चेहरा!
मौत के सामने
हंसता हुआ!
निश्चित ही यह
तभी हो सकता
है जब किसी ने अमृत
को जाना हो।
ढले
गम सभी अशआर
में मेरे।
तो संत
के तो सारे
दुःख, अपने
दुःख तो उसने
धन्यवाद बना
लिए ये; अब
वे जो समाज
देता है, इनको
भी वह गीत बना
लेता है।
ढले
गम सभी अशआर
में मेरे।
गीत
बना लेता है, जो भी दुःख
आते हैं, सबसे
गीत बना लेता
है, सब की
प्रार्थनाएं
ढाल लेता है।
सजा
मेरे हक में जजा हो गई।
और सजाएं
पुरस्कार बन
जाती हैं।
बनाने की कला
आनी चाहिए, तो दंड भी
पुरस्कार हो
जाते हैं और
रातें, अंधेरी
रातें सुबह की
जन्मदात्री
हो जाती हैं।
और दुःखों
से परम सुख का
जन्म हो जाता
है।
ये
हमें दुःख
दुःख जैसे
इसीलिए मालूम
पड़ते हैं कि
हमारा अहंकार
खड़ा है। अगर
अहंकार न हो
तो दुःख है ही
नहीं।
तुमने
कभी देखा, पैर में चोट
लगी हो या घाव
हो गया हो या
फोड़ा हो गया
हो, तो उस
दिन दिनभर
पैर में चोट
लगती है।
कुर्सी के पास
से निकलते तो
कुर्सी लग
जाती है। परदे
के पास से निकलें
तो परदा उलझ
जाता है पैर
में। बच्चा आ
जाता है, पैर
पर खड़ा हो
जाता है। तुम
बड़े हैरान
होते हो कि
मामला क्या
है! रोज
दरवाजे से
निकलते हो, परदा नहीं
अटकता था; आज
परदा अटक गया।
छू गया घाव को,
दर्द दे
गया। रोज
कुर्सी से
उठते-बैठते हो
हजार बार, कभी
पैर में चोट
नहीं लगती; आज कुर्सी
के पैर ने भी
धोखा दे दिया।
यह बच्चा रोज
तुमसे मिलने
आता है, तुम्हारा
बच्चा है और
आज तुम्हारे
पैर पर चढ़कर
खड़ा हो गया
है। यह बात
क्या है? आज
दर्द है तो
वहीं चोट
क्यों लगती है?
आज बात सिर्फ
इतनी है कि
रोज बच्चा, यह रोज ही
खड़ा होता था, मगर तुम्हें
खयाल नहीं आया,
क्योंकि
वहां दर्द
नहीं था। और
यह परदा भी कई बार
तुम्हारे पैर
में उलझ गया
था; आज कुछ
खास आयोजन से
नहीं उलझा है।
परदे को पता
भी क्या! मगर
तब तुम्हें
पता न चला था।
यह कुर्सी का
पैर भी कई दफे आड़े आ गया
था। यह फाइल
भी कई दफे हाथ
से छूट गई थी
और पैर पर गिर
पड़ी थी, लेकिन
तुम्हें इसकी
याद भी नहीं
है। क्योंकि पैर
में दर्द ही न
था तो पता ही न
चला था।
मैं यह
कहना चाह रहा
हूं कि
तुम्हें दुःख
का पता चलता
है क्योंकि
भीतर अहंकार
का घाव है। जिस
दिन अहंकार
गया उस दिन
कोई दुःख पता
नहीं चलता।
परमात्मा दे, समाज दे, लोग
दें, अपने
दें, पराए
दें--कहीं से
भी आए, पता
नहीं चलता।
तुम्हारे
भीतर घाव नहीं
होता तो चोट
नहीं होती।
तेरे
जब्र की
इंतिहा ही
नहीं
मेरे
सब्र की
इंतिहा हो गई।
--"तेरे
अत्याचार का
कोई अंत ही
नहीं है।' तुम्हें
ऐसे ही लगता
है।
तेरे
जब्र की
इंतिहा ही
नहीं
मेरे
सब्र की
इंतिहा हो गई।
--" और
मेरा संतोष
चुका जा रहा
है, मेरा
धीरज चुका जा
रहा है और
तेरे
अत्याचार का
कोई अंत नहीं'
ऐसा
तुम्हें लगता
है।
नहीं
छोड़ पाया मैं
अपनी खुदी
हां
अकसर यह मुझसे
खता हो गई।
बस, लेकिन असली
खता एक है, भूल
एक है।
नहीं
छोड़ पाया मैं
अपनी खुदी
हां, अकसर यह
मुझसे खता हो
गई।
मगर
वही खता, वही
भूल बड़ी से
बड़ी भूल है, सब भूलों की
भूल है। एक
खुदी चली जाए,
एक अहंकार
चला जाए, फिर
तो दुःख भी
सौभाग्य है।
और अहंकार बना
रहे तो सुख भी
सौभाग्य नहीं
है। अहंकार
चला जाए तो
कांटे भी फूल
हैं। और
अहंकार बना
रहे तो फूल भी
कांटे हो जाते
हैं।
आज
इतना ही।
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