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गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

ध्‍यान--सूत्र (ओशो) प्रवचन--02

शरीर-शुद्धि के अंतरंग सूत्र—(प्रवचन—दूसरा)


मेरे प्रिय आत्मन्,

रात्रि को साधना की प्रारंभिक भूमिका कैसे बने, उस संबंध में थोड़ी-सी बातें आपसे कही हैं। साधना की जो दृष्टि मेरे मन में है, वह किन्हीं शास्त्रों पर, किन्हीं ग्रंथों पर, किसी विशेष संप्रदाय पर आधारित नहीं है। जैसा मैंने अपने भीतर चलकर जाना है, उन रास्तों की बात भर आपसे कर रहा हूं। इसलिए मेरी बात कोई सैद्धांतिक बात नहीं है। उस पर जब मैं आपसे कह रहा हूं कि आप चलें और देखें, तो मुझे रत्तीभर भी ऐसा खयाल नहीं है कि आप चलेंगे, तो जो पाने की आपकी कल्पना है, उसे आप नहीं पा सकेंगे। इसलिए यह आश्वासन और विश्वास है कि जिन रास्तों पर मैंने प्रवेश करके देखा है, केवल उनकी ही आपसे बात कर रहा हूं।
एक बहुत पीड़ा और संताप के समय को मैंने गुजारा। बहुत चेष्टा के, बहुत प्रयत्न के समय को गुजारा। उस समय बहुत कोशिश, बहुत प्रयत्न करता था अंतस प्रवेश के। बहुत रास्तों से, बहुत पद्धतियों से उस तरफ जाने की बड़ी संलग्न चेष्टा की।
बहुत पीड़ा के दिन थे और बहुत दुख और परेशानी के दिन थे। लेकिन सतत प्रयास से, और जैसे पर्वत से कोई झरना गिरता हो और गिरता ही चला जाए, तो नीचे की चट्टानें भी टूट जाती हैं, वैसे ही सतत प्रयास से किसी क्षण में कोई प्रवेश हुआ। उस प्रवेश को जिस रास्ते से मैंने संभव पाया, सिर्फ उसी रास्ते की आपसे बात कर रहा हूं। और इसलिए बहुत आश्वासन और बहुत विश्वास से आपको कह सकता हूं कि यदि प्रयोग किया, तो परिणाम सुनिश्चित है। तब एक दुख था, तब एक पीड़ा थी, अब वैसा कोई दुख और वैसी कोई पीड़ा मेरे भीतर नहीं है।
कल मुझे कोई पूछता था कि इतनी समस्याएं लोग आपके सामने रखते हैं, तो आप परेशान नहीं होते? मैंने उन्हें कहा, समस्या अपनी न हो, तो परेशानी का कोई कारण नहीं होता। समस्या दूसरे की हो, तो कोई परेशानी नहीं होती है। समस्या अपनी हो, तो परेशानी शुरू हो जाती है। मेरी कोई समस्या इस अर्थों में नहीं है। लेकिन एक नए तरह का दुख अब जीवन में प्रविष्ट हो गया। और वह दुख यह है कि मैं अपने चारों तरफ जिन लोगों को भी देखता हूं, उन्हें इतनी परेशानी में और इतनी पीड़ा में अनुभव करता हूं, जब कि मुझे लगता है, उनके हल इतने आसान हैं! जब कि मुझे लगता है कि वे द्वार खटखटाएंगे और द्वार खुल जाएगा; और वे द्वार पर खड़े ही रो रहे हैं! तो एक बहुत नए किस्म के दुख और पीड़ा का अनुभव होता है।
एक छोटी-सी पारसी कहानी मैं पढ़ता था। एक अंधा आदमी और उसका एक मित्र एक रेगिस्तान को पार करते थे। वे दोनों अलग-अलग यात्रा पर निकले थे, रास्ते में मिलना हो गया और वह आंख वाला आदमी उस अंधे आदमी को अपने साथ ले लिया। वे कुछ दिन साथ-साथ चले, उनमें मैत्री घनी हो गयी।
एक दिन सुबह अंधा आदमी पहले उठ गया, सुबह उसकी नींद पहले खुल गयी। उसने टटोलकर अपनी लकड़ी ढूंढी। मरुस्थल की रात थी और ठंड के दिन थे। लकड़ी तो उसे नहीं मिली, एक सांप पड़ा हुआ था, जो ठंड के मारे एकदम सिकुड़कर कड़ा हो गया था। उसने उसे उठा लिया। उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि मेरी लकड़ी तो खो गयी, लेकिन उससे बहुत ज्यादा बेहतर, बहुत चिकनी और बहुत सुंदर लकड़ी मुझे तुमने दे दी। उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि तुम बड़े कृपालु हो। उसने उसी लकड़ी से अपने आंख वाले मित्र को धक्का दिया और उठाने की कोशिश की कि उठो, सुबह हो गयी है।
वह आंख वाला मित्र उठा। देखकर घबड़ा गया और उसने कहा कि 'तुम यह क्या हाथ में पकड़े हुए हो? इसे एकदम छोड़ दो। यह सांप है और जीवन के लिए खतरनाक हो जाएगा।' वह अंधा आदमी बोला, 'मित्र,र् ईष्या के वश तुम मेरी इस सुंदर लकड़ी को सांप बता रहे हो! चाहते हो कि मैं इसे छोड़ दूं, तो तुम इसे उठा लो। अंधा जरूर हूं, लेकिन इतना नासमझ नहीं हूं।'
उस आंख वाले आदमी ने कहा, 'पागल हो गए हो? उसे एकदम छोड़ दो। वह सांप है और जीवन का खतरा है।' अंधा आदमी हंसा और बोला, 'तुम इतने दिन मेरे साथ रहे, लेकिन यह न समझ पाए कि मैं भी समझदार हूं। मेरी लकड़ी खो गयी है और परमात्मा ने एक बहुत सुंदर लकड़ी मुझे दे दी है, तो तुम उसे सांप बता रहे हो।'
वह अंधा आदमी गुस्से में, मित्र की इसर् ईष्या और जलन को देखकर, अपने रास्ते पर चल पड़ा। थोड़ी देर में सूरज निकला और उस सांप की सिकुड़न समाप्त हो गयी, उसकी सर्दी मिट गयी। उसमें फिर प्राण का संचार हुआ और उसने उस अंधे आदमी को काट लिया।
मैं जिस दुख की आपको बात कह रहा हूं, वह वही दुख है, जो उस सुबह उस आंख वाले आदमी को उस अंधे मित्र के प्रति हुआ होगा। वैसे ही एक दुख, हमें चारों तरफ जो लोग दिखायी पड़ते हैं, उनके प्रति मुझे अनुभव होता है। वे हाथ में जो लिए हैं, वह लकड़ी नहीं है। वे हाथ में जो लिए हैं, वह सांप है। लेकिन अगर मैं उनको कहूं कि यह सांप है, तो शायद उनके मन में हो, न मालूम किसर् ईष्या के वश, न मालूम किस कारण हमारी लकड़ियों को सांप बताया जा रहा है।
यह मैं किसी और के लिए नहीं कह रहा हूं, यह मैं आपके लिए कह रहा हूं। ऐसा मत सोचना कि आपके पड़ोस में जो बैठे हैं, उनके लिए कह रहा हूं। बिलकुल आपके लिए कह रहा हूं। और आपके सबके हाथों में मुझे सांप दिखायी पड़ते हैं। और आप जिनको भी सहारे समझे हुए हैं और लकड़ियां समझे हुए हैं, वे कोई सहारे नहीं हैं और कोई लकड़ियां नहीं हैं।
लेकिन इसके पहले कि आप रास्ता छोड़कर चले जाएं और समझें कि मैंनेर् ईष्यावश आपकी लकड़ी छीनने के लिए कोई बात कही है, इसलिए एकदम उसे सांप नहीं कहता हूं। आहिस्ता-आहिस्ता आपको समझाने की कोशिश करता हूं कि जो आप पकड़े हुए हैं, वह गलत है। बल्कि यह भी नहीं कहता हूं कि जो पकड़े हुए हैं, गलत है। यही कहता हूं कि कुछ और भी श्रेष्ठ है, जो पकड़ा जा सकता है। किसी और विराट आनंद को पकड़ा जा सकता है। जीवन में किन्हीं और बड़े सत्यों को पकड़ा जा सकता है। जो आप पकड़े हैं, वह आपको डुबाने का कारण हो जाएगा।
जीवनभर हम जो करते हैं, वही हमें डुबा देता है, सारे जीवन को नष्ट कर देता है। और जब जीवन नष्ट हो जाता है, समाप्त हो जाता है, तब हमें जो पीड़ा और परेशानी पकड़ती है मृत्यु के क्षण में, अंतिम दिनों में जो मनुष्य को कष्ट पकड़ लेता है, जो संताप पकड़ लेता है, वह यही होता है कि एक बहुत अदभुत जीवन को मैंने व्यर्थ खो दिया।
तो आज की सुबह मैं सबसे पहले तो यह बात कहूं कि जिस प्यास के लिए मैंने रात को आपको कहा था, वह तभी पैदा होगी आपमें, जब आपको यह दिखाई पड़े और यह अनुभव हो कि जिस जीवन को आप जी रहे हैं, वह एकदम गलत है। उस प्यास का जन्म तभी होगा, जब आप समझें कि आप जिस जीवन को जी रहे हैं, वह गलत है और सार्थक नहीं है।
और क्या यह बहुत कठिन बात है समझ लेना? क्या आप सोचते हैं, जो आप इकट्ठा कर रहे हैं, वह सच में संपत्ति है? क्या आप सोचते हैं कि जो आप इकट्ठा कर रहे हैं, उससे आपको जीवन उपलब्ध होगा? क्या आप सोचते हैं कि जो श्रम आप कर रहे हैं, जिन दिशाओं में, उन दिशाओं में आप रेत पर और पानी पर महल खड़े कर रहे हैं या कि किसी चट्टान पर नींव रख रहे हैं? इसे थोड़ा विचारना, इस पर थोड़ा मनन करना जरूरी है।
जो लोग भी थोड़ा-सा चिंतन और मनन करेंगे जीवन के संबंध में, उनकी प्यास जगनी शुरू हो जाएगी। सत्य की प्यास चिंतन और मनन से पैदा होती है। हममें से बहुत कम लोग जीवन के संबंध में सोचते हैं--बहुत कम लोग। अधिक लोग इस तरह जीते हैं, जैसे कोई लकड़ी के टुकड़े को नदी में बहा दे और वह बहा चला जाए। और लहरें उसे जहां ले जाएं, वहां चला जाए। किनारों पर ले जाएं, तो किनारों पर चला जाए; और मझधार में ले आएं, तो मझधार में आ जाए, जिसका अपना कोई जीवन नहीं होता। एक लकड़ी के टुकड़े की तरह हममें से अधिक लोग जीते हैं। समय और परिस्थितियां जहां ले जाती हैं, हम चले जाते हैं।
जीवन पर मनन और चिंतन इस बात की सूचना बनेगा कि क्या आपको एक लकड़ी के टुकड़े की तरह होना है, जो नदी में बहे? क्या आपको एक सूखे हुए पत्ते की तरह होना है, जिसे हवाएं जहां ले जाएं, वहां चला जाए? या आपको एक व्यक्ति बनना है, एक इंडिविजुअल, एक व्यक्ति और एक सचेतन व्यक्ति, जिसकी अपनी जीवन की दिशा है, जिसने तय किया कि कहां जाना और कहां पहुंचना; और जिसने तय किया कि क्या बनना और क्या होना। जिसने अपने जीवन को अपने हाथ में लिया है और उसके निर्माण को अपने हाथ में लिया है।
मनुष्य की सबसे बड़ी कृति स्वयं मनुष्य है। और मनुष्य का सबसे बड़ा सृजन स्वयं का निर्माण है। और आप कुछ भी बनाएं, वह बनाना किसी काम का नहीं है। वह सब पानी पर खींची गयी लकीरों की तरह एक दिन मिट जाएगा। जो आप अपने भीतर निर्मित करेंगे और अपने को बनाएंगे, तो आप एक चट्टान पर, एक लोहे की चट्टान पर कुछ लिख रहे हैं, जिसके कि फिर निशान कभी मिटते नहीं हैं; जो कि अमिट रूप से आपके साथ होगा।
तो अपने जीवन के बाबत यह विचार करें, आप एक लकड़ी के टुकड़े तो नहीं हैं, जो नदी में बह रहा है? आप दरख्त से पतझड़ में गिर गए एक पत्ते तो नहीं हैं, जो हवाओं में उड़ रहा है? और आप विचार करेंगे, तो आपको दिखायी पड़ेगा, आप एक लकड़ी के टुकड़े हैं; और आपको दिखायी पड़ेगा, पतझड़ में गिर गए एक पत्ते हैं, जिसे हवाएं कहीं भी उड़ा रही हैं। अभी सड़कें उन पत्तों से भरी हुई हैं। और वे पत्ते, जहां भी हवाएं आती हैं, वहीं सरक जाते हैं। आपने जिंदगी में सचेतन विकास किया है, या केवल हवा के धक्कों पर उड़ते रहे हैं? और अगर हवा के धक्कों पर उड़ते रहे हैं, तो क्या कहीं पहुंच सकेंगे? क्या कोई कभी इस तरह पहुंचा है?
जीवन में एक सचेतन लक्ष्य न हो, तो कोई कहीं पहुंचता नहीं। सचेतन लक्ष्य की प्यास इस बात से पैदा होगी कि आप चिंतन करें और मनन करें और विचार करें।
बुद्ध के बाबत आपने सुना होगा। उन्हें जिस बात से विराग हुआ, जिस बात से वे विराग के जीवन में प्रविष्ट हुए, जिस बात से उन्हें सत्य की आकांक्षा पैदा हुई, वह कहानी बड़ी प्रचलित है, बड़ी अर्थपूर्ण है। उनके मां-बाप ने, बचपन में ही उनको कहा गया कि यह व्यक्ति या तो बहुत बड़ा सम्राट होगा, चक्रवर्ती होगा या बहुत बड़ा संन्यासी होगा। उनके पिता ने सारी व्यवस्था की उनकी सुख-सुविधा की कि उन्हें कोई दुख दिखायी भी न पड़े, जिससे कि संन्यास पैदा हो। उनके पिता ने उनके लिए मकान बनवाए, उस समय की सारी कला और कौशल सहित। उन्होंने सारी व्यवस्था की बगीचों की। हर मौसम के लिए अलग भवन बनाया और आज्ञा दी परिचारकों को कि एक कुम्हलाया हुआ फूल भी गौतम को दिखायी न पड़े, सिद्धार्थ को दिखायी न पड़े। उसे यह खयाल न आ जाए कहीं कि फूल मुर्झा जाता है, कहीं मैं तो न मुर्झा जाऊंगा?
तो रात उनके बगीचे से सारे कुम्हलाए फूल और पत्ते अलग कर दिए जाते थे। जो दरख्त थोड़े भी कमजोर हो जाते, वे उखाड़कर अलग कर दिए जाते थे। उनके आस-पास युवक और युवतियां इकट्ठी थीं, कोई वृद्ध नहीं प्रवेश पाता था; कहीं सिद्धार्थ को यह विचार न उठ आए कि लोग बूढ़े हो जाते हैं, कहीं मैं तो बूढ़ा न हो जाऊंगा? जब तक वे युवा हुए, उन्हें पता नहीं था कि मृत्यु भी होती है। उन तक कोई खबर मृत्यु की नहीं पहुंचायी जाती थी। उनके गांव में लोग मरते भी हैं, इससे उन्हें बिलकुल अपरिचित रखा गया; कहीं उन्हें यह चिंतन पैदा न हो जाए कि लोग मरते हैं, तो मैं भी तो नहीं मर जाऊंगा?
मैं चिंतन का मतलब समझा रहा हूं। चिंतन का मतलब यह है कि चारों तरफ जो घटित हो रहा है, उस पर विचार करिए। मृत्यु घटित हो रही है, तो सोचिए कि मैं तो नहीं मर जाऊंगा? बुढ़ापा घटित हो रहा है, तो सोचिए कि मैं तो बूढ़ा नहीं हो जाऊंगा?
चिंतन न पैदा हो जाए बुद्ध में, इसलिए उनके पिता ने सारा उपाय किया। और मैं चाहता हूं कि आप सारा उपाय करें कि चिंतन पैदा हो जाए। उन्होंने उपाय किया कि चिंतन पैदा न हो जाए, लेकिन चिंतन पैदा हुआ।
एक दिन बुद्ध गांव से निकले और राह पर उन्होंने देखा, एक बूढ़ा आदमी चला आता है। उन्होंने अपने सारथी को पूछा, 'इस आदमी को क्या हो गया है? ऐसा आदमी भी होता है?' सारथी ने कहा, 'झूठ मैं कैसे बोलूं? हर आदमी अंत में ऐसा ही हो जाता है।' बुद्ध ने तत्क्षण पूछा, 'मैं भी?' उस सारथी ने कहा, 'भगवन, झूठ मैं कैसे कहूं? कोई भी अपवाद नहीं है।' बुद्ध ने कहा, 'वापस लौट चलो। मैं बूढ़ा हो गया।' बुद्ध ने कहा, 'वापस लौट चलो, मैं बूढ़ा हो गया। अगर कल हो ही जाना है, तो बात समाप्त हो गयी।'
इसको मैं चिंतन कहता हूं।
लेकिन सारथी ने कहा, 'हम एक युवक महोत्सव में जा रहे हैं। सारे गांव के लोग प्रतीक्षा करेंगे, इसलिए चलें।' बुद्ध ने कहा, 'अब चलने में कोई रस न रहा। युवक महोत्सव व्यर्थ है, क्योंकि बुढ़ापा आता है।' लेकिन वे गए। और आगे बढ़े और उन्होंने देखा, एक अर्थी लिए जाते हैं लोग, कोई मर गया है। बुद्ध ने पूछा, 'यह क्या हुआ? ये लोग क्या करते हैं? ये कंधों पर किस चीज को लिए हैं?' सारथी ने कहा, 'कैसे कहूं! आज्ञा नहीं। लेकिन असत्य न बोल सकूंगा। यह आदमी मर गया। एक आदमी मर गया है, उसे लोग लिए जाते हैं।' बुद्ध ने पूछा, 'मरना क्या है?' और उन्हें पहली दफा पता चला, एक दिन जीवन की सरिता सूख जाती है और आदमी मर जाता है। बुद्ध ने कहा, 'अब बिलकुल वापस लौट चलो। मैं मर गया। यह आदमी नहीं मरा, मैं मर गया।'
इसको मैं चिंतन कहता हूं। वह आदमी चिंतन और मनन में समर्थ हुआ है, जिसने दूसरे पर जो घटा है, उससे समझा और जाना है कि वह उस पर भी घटित होगा। वे लोग अंधे हैं, जो चारों तरफ जो घटित हो रहा है, उसे नहीं देख रहे हैं। और इस अर्थ में हम सब अंधे हैं। और इसलिए मैंने वह कहानी कही, अंधे आदमी की, जो सांप को हाथ में लिए चलता है।
इसलिए आपके लिए पहली जो बहुत महत्वपूर्ण बात है, वह यह कि आंख खोलकर चारों तरफ देखिए, क्या घटित हो रहा है! और उस घटित होने से चिंतन पैदा होगा, मनन पैदा होगा। और वह मनन प्यास देगा और किसी विराट सत्य को जानने की।
यह, इस पीड़ा को बहुत मैंने अनुभव किया। वह पीड़ा गयी; और उसके जाने में जिन सीढ़ियों को मुझे दिखायी पड़ना शुरू हुआ, उन सीढ़ियों में पहली सीढ़ी की आज मैं चर्चा करूंगा।
ऐसा मुझे दिखायी पड़ता है कि परम जीवन या परमात्मा या आत्मा या सत्य को पाने के लिए दो बातें जरूरी हैं। एक बात तो जरूरी है, जो परिधि की जरूरत है। समझें, साधना की परिधि। और एक बात जरूरी है, जिसको हम कहेंगे साधना का केंद्र। साधना की परिधि और साधना का केंद्र। या साधना का शरीर और साधना की आत्मा। साधना की परिधि पर आज मैं चर्चा करूंगा; और कल साधना की आत्मा पर या साधना के केंद्र पर; और परसों साधना के परिणाम पर। ये तीन ही बातें हैं--साधना की परिधि, साधना का केंद्र और साधना का परिणाम। या यूं कह सकते हैं कि साधना की भूमिका, साधना और साधना की सिद्धि।
साधना की भूमिका या साधना की परिधि में आपकी जो परिधि है, वही संबंधित होती है। आपके व्यक्तित्व की परिधि आपका शरीर है। साधना की परिधि भी आपका शरीर है। साधना का बिलकुल प्रारंभिक चरण आपके शरीर पर रखना होता है।
इसलिए एक बात स्मरण रखें कि शरीर के संबंध में अगर सुनी-सुनायी कोई बुरी भावना मन में हो, उसे फेंक दें। शरीर मात्र साधन है, संसार का भी और सत्य का भी। शरीर न शत्रु है, न मित्र है; शरीर मात्र साधन है। आप चाहें तो उससे पाप करें और चाहें तो पुण्य करें। चाहें तो संसार में प्रविष्ट हो जाएं और चाहें तो परमात्मा में प्रवेश पा लें। शरीर मात्र साधन है। उसके संबंध में कोई दुर्भाव मन में न रखें। ऐसी बहुत-सी बातें प्रचलित हो गयी हैं कि शरीर दुश्मन है, और शरीर पाप है, और शरीर बुरा है, और शत्रु है, और इसका दमन करना है। वे मैं आपको कहूं, गलत हैं। न शरीर शत्रु है, न शरीर मित्र है। आप उसका जैसा उपयोग करते हैं, वही वह साबित हो जाता है। और इसलिए शरीर बड़ा अदभुत है! शरीर बड़ा अदभुत है। दुनिया में जो भी बुरा हुआ है, वह भी शरीर से हुआ है; और जो भी शुभ हुआ है, वह भी शरीर से हुआ है। शरीर केवल एक उपकरण है, एक यंत्र है।
साधना भी जरूरी है कि शरीर से शुरू हो, क्योंकि बिना इस यंत्र को व्यवस्थित किए आगे कोई भी नहीं बढ़ सकता। शरीर को बिना व्यवस्थित किए कोई आगे नहीं बढ़ सकता। तो पहला चरण है, शरीर-शुद्धि। शरीर जितना शुद्ध होगा, उतना अंतस में प्रवेश में सहयोगी हो जाएगा।
शरीर-शुद्धि के क्या अर्थ हैं? शरीर-शुद्धि का पहला तो अर्थ है, शरीर के भीतर, शरीर के संस्थान में, शरीर के यंत्र में कोई भी रुकावट, कोई भी ग्रंथि, कोई भी कांप्लेक्स न हो, तब शरीर शुद्ध होता है।
समझें, शरीर में कैसे कांप्लेक्स और ग्रंथियां पैदा होती हैं। अगर शरीर बिलकुल निर्ग्रंथ हो, उसमें कोई ग्रंथि न हो, उसमें कोई उलझन न हो, शरीर में कहीं कोई अटकाव न हो, तो शरीर शुद्ध स्थिति में होता है और अंतस प्रवेश में सहयोगी हो जाता है। अगर आप बहुत क्रुद्ध होंगे, क्रोध करेंगे और क्रोध को प्रकट न कर पाएंगे, तो उस क्रोध की जो ऊष्मा और गर्मी पैदा होगी, वह शरीर के किसी अंग में ग्रंथि पैदा कर देगी।
आपने देखा होगा, क्रोध में हिस्टीरिया आ सकता है, क्रोध में कोई बीमारी आ सकती है। भय में कोई बीमारी आ सकती है। अभी जो सारे प्रयोग चलते हैं स्वास्थ्य के ऊपर, उनसे ज्ञात होता है कि सौ बीमारियों में कोई पचास बीमारियां शरीर में नहीं होतीं, मन में होती हैं। लेकिन मन की बीमारियां शरीर में ग्रंथि पैदा कर देती हैं। और शरीर में अगर ग्रंथियां पैदा हो जाएं, शरीर में अगर गांठें पैदा हो जाएं, तो शरीर का संस्थान जकड़ जाता है और अशुद्ध हो जाता है।
तो शरीर-शुद्धि के लिए सारे योग ने, सारे धर्मों ने बड़े अदभुत और क्रांतिकारी प्रयोग किए हैं। और उन प्रयोगों को थोड़ा समझना जरूरी है। और अगर अपने शरीर पर आप करते हैं, तो आप थोड़े ही दिनों में हैरान हो जाएंगे, यह शरीर तो बड़ी अदभुत जगह है, बड़ी अदभुत बात है। और तब यह आपको शत्रु न मालूम होगा, बल्कि मंदिर मालूम होगा, जिसके भीतर परमात्मा विराजमान है। तब यह दुश्मन नहीं मालूम होगा, यह बड़ा साथी मालूम होगा और आप इसके प्रति अनुगृहीत होंगे। क्योंकि शरीर आपका नहीं है, पदार्थ से बना है। आप भिन्न हैं और शरीर भिन्न है। फिर भी आप इसका अदभुत उपयोग कर सकते हैं। और तब आप शरीर के प्रति बड़ा ग्रेटिटयूड, बड़ी कृतज्ञता अनुभव करेंगे कि शरीर इतना साथ दे रहा है!
तो शरीर में ग्रंथियां पैदा न हों, यह शरीर-शुद्धि के लिए पहला चरण है। पर शरीर में हमारे बहुत ग्रंथियां हैं। अब जैसे मैं आपको कहूं, अभी कुछ दिन हुए, एक व्यक्ति मेरे पास आए। वे मुझसे बोले कि 'मैं बहुत दिन से कुछ किसी धर्म की साधना करता हूं। मन बड़ा शांत हो गया है।' मैंने उनसे कहा कि 'मुझे आपका मन शांत दिखायी नहीं पड़ता।' वे बोले, 'आप कैसे कह सकते हैं?' मैंने उनसे कहा कि 'जितनी देर से आप आए हैं, आपके दोनों पैर इतने हिल रहे हैं।' वे दोनों पैरों को, बैठे हैं और जोर से हिला रहे हैं। मैंने उनसे कहा, 'यह असंभव है कि मन शांत हो और पैर इस भांति हिलें।'
शरीर में जो भी कंपन हैं, वे मन के कंपन से पैदा होते हैं। मन का कंपन जितना कम होने लगता है, शरीर उतना थिर मालूम होने लगेगा। ये बुद्ध और महावीर की मूर्तियां, जो बिलकुल पत्थर जैसी मालूम होती हैं, ये आदमी भी बैठे होते, तो भी ऐसे ही मालूम होते थे। ये मूर्तियां ही पत्थर जैसी नहीं मालूम होतीं, इन आदमियों को भी आपने देखा होता, तो ये बिलकुल पत्थर जैसे मालूम होते। हमने इनकी पत्थर की मूर्तियां व्यर्थ ही नहीं बनायीं, उसके पीछे कारण था। ये बिलकुल पत्थर जैसे ही मालूम होने लगे थे। इनके भीतर कंपन विलीन हो गए थे। या कि कंपन सार्थक थे, जब उनकी जरूरत थी, होते थे; अन्यथा वे विलीन थे।
आप जब पैर हिला रहे हैं, तो आपके भीतर अशांति से जो एनर्जी पैदा हो रही है, जो शक्ति पैदा हो रही है, उसे निकालने का कोई रास्ता न पाकर, पैर में कंपित होकर वह निकल रही है। जब एक आदमी क्रोध में होता है, उसके दांत भिंच जाते हैं और मुट्ठियां बंध जाती हैं। क्यों? उसकी आंखों में खून उतर आता है। क्यों? आखिर मुट्ठियां बंधने से क्या प्रयोजन है? अगर आप अकेले में भी किसी पर क्रुद्ध होंगे, तो भी मुट्ठियां बंध जाएंगी। वहां तो कोई मारने को भी नहीं, जिसको आप मारें। लेकिन जो शक्ति क्रोध से पैदा हो रही है, उसका निष्कासन कैसे होगा? हाथ के स्नायु खिंचकर उस शक्ति को व्यय कर देते हैं।
सभ्यता ने बहुत दिक्कत पैदा कर दी है। असभ्य आदमी का शरीर हमसे ज्यादा शुद्ध होता है। एक जंगली आदमी का शरीर हमसे बहुत शुद्ध होता है, उसमें ग्रंथियां नहीं होतीं, क्योंकि उसके भावावेग वह सहज प्रकट कर देता है। लेकिन हम अपने भावावेगों को दबा लेते हैं।
समझ लीजिए, आप दफ्तर में हैं और मालिक ने कुछ कहा। आपको क्रोध तो आया, लेकिन आप मुट्ठियां नहीं भींच सकते। वह जो शक्ति पैदा हुई है, उसका क्या होगा? शक्ति नष्ट नहीं होती, स्मरण रखिए। कोई शक्ति नष्ट नहीं होती। अगर आपने मुझे गाली दी और मुझे क्रोध आ गया, लेकिन यहां इतने लोग थे कि मैं उसे प्रकट नहीं कर सका, न मैं दांत भींच सका, न मैं हाथ खींच सका, न मैं गाली बक सका, न मैं गुस्से में कूद सका, न मैं पत्थर उठा सका। तो उस शक्ति का क्या होगा, जो मेरे भीतर पैदा हो गयी? वह शक्ति मेरे शरीर के किसी अंग को क्रिपल्ड कर देगी। और उसको क्रिपल्ड करने में, उसको विकृत करने में व्यय हो जाएगी। एक ग्रंथि पैदा होगी।
शरीर की ग्रंथियों का मेरा मतलब यह है। शरीर में हमारे बहुत ग्रंथियां पैदा हो जाती हैं। और आप शायद हैरान होंगे, आप कहेंगे, ऐसी तो हमें कुछ ग्रंथियां पता नहीं हैं! तो मैं आपको एक प्रयोग करने को कहता हूं। आप देखें, फिर आपको पता चलेगा कि कितनी ग्रंथियां हैं।
क्या आपने कभी खयाल किया है कि अकेले किसी कमरे में आप जोर से दांत बिचकाने लगे हैं, या आईने में जीभ दिखाने लगे हैं, या गुस्से से आंख फाड़ने लगे हैं! और आप अपने पर भी हंसे होंगे कि यह मैं क्या कर रहा हूं! हो सकता है, स्नानगृह में आप नहा रहे हैं और आप अचानक कूदे हैं। आप हैरान होंगे कि मैं क्यों कूदा हूं? या मैंने आईने में देखकर दांत क्यों बिचकाए हैं? या मेरा जोर से गुनगुनाने का मन क्यों हुआ है?
मैं आपको कहूं, किसी दिन आधा घंटे को सप्ताह में एक एकांत कमरे में बंद हो जाएं और आपका शरीर जो करना चाहे, करने दें। आप बहुत हैरान होंगे। हो सकता है, शरीर आपका नाचे। जो करना चाहे, करने दें। आप उसे बिलकुल न रोकें। और आप बहुत हैरान होंगे। हो सकता है, शरीर आपका नाचे। हो सकता है, आप कूदें। हो सकता है, आप चिल्लाएं। हो सकता है, आप किसी काल्पनिक दुश्मन पर टूट पड़ें। यह हो सकता है। और तब आपको पता चलेगा कि यह क्या हो रहा है! ये सारी ग्रंथियां हैं, जो दबी हुई हैं और मौजूद हैं और निकलना चाहती हैं, लेकिन समाज नहीं निकलने देता है और आप भी नहीं निकलने देते हैं।
ऐसा शरीर बहुत-सी ग्रंथियों का घर बना हुआ है। और जो शरीर ग्रंथियों से भरा हुआ है, वह शरीर शुद्ध नहीं होता, वह भीतर प्रवेश नहीं कर सकता। तो योग का पहला चरण होता है, शरीर-शुद्धि। और शरीर-शुद्धि का पहला चरण है, शरीर की ग्रंथियों का विसर्जन। तो नयी ग्रंथियां तो बनाएं नहीं और पुरानी ग्रंथियां विसर्जन करने का उपाय करें। और उसके उपाय के लिए जरूरी है कि महीने में एक बार, दो बार अकेले कमरे में बंद हो जाएं और शरीर जैसा करना चाहे, करने दें। अगर कपड़े फेंककर और नग्न नाचने का मन हो, तो नाचें और सारे कपड़े फेंक दें।
और आप हैरान होंगे, आधा घंटे की उस उछलकूद के बाद आप बहुत रिलैक्स्ड, बहुत शांत, बहुत स्वस्थ अनुभव करेंगे। यह बात बहुत अजीब लगेगी, लेकिन आप बहुत शांत अनुभव करेंगे। और आपको बहुत हैरानी होगी कि यह शांति कैसे आ गयी? आप जो व्यायाम करते हैं, या घूमने चले जाते हैं, उसके बाद जो आपको हलकापन लगता है, उसका कारण क्या है? उसका कारण यह है कि बहुत-सी ग्रंथियां उसमें विसर्जित होती हैं।
आपको पता है, आपका लड़ने का जो मन होता है लोगों से, उलझने का जो मन होता है, उसका कारण क्या है? आपके भीतर बहुत-सी शक्तियां ग्रंथियों की तरह मौजूद हैं, वे विसर्जित होना चाहती हैं। इसलिए आप बिलकुल उत्सुक होते हैं कि कोई मिल जाए और कुछ हो जाए!
जब युद्ध का समय आता है--पिछले दो महायुद्ध हुए, उन महायुद्धों में आप जो सुबह से अखबार पढ़ते हैं बहुत उत्सुकता से। और सारी दुनिया में बड़ी खूबियों की बातें घटित होती हैं। युद्ध के समय दो बातें घटित हुईं। दुनिया में आत्महत्याएं एकदम कम हो गयी थीं; आपको शायद पता नहीं होगा। पिछला महायुद्ध हुआ, उसके पहले पहला महायुद्ध हुआ, मनोवैज्ञानिक बहुत हैरान हुए कि आत्महत्याएं कम क्यों हो गयीं? एकदम आत्महत्याएं कम हो गयीं। जब तक युद्ध चला, आत्महत्याएं नहीं हुईं। सारी दुनिया में उनका अनुपात एकदम गिर गया। इसका कारण क्या था? और मनोवैज्ञानिक बहुत परेशान हुए! उन दिनों खून भी नहीं हुए, आत्महत्याएं भी नहीं हुईं; और एक बड़ी बात हुई, मानसिक बीमारों की संख्या कम रही युद्ध के समय में।
तो अंततः यह समझ में आया कि युद्ध की जो खबरें थीं, जो जोश-खरोश था, उसमें मनुष्य की बहुत-सी ग्रंथियां विसर्जित हुईं और उतनी ग्रंथियों ने उसको बचाया। जैसे कि युद्ध की खबरें आप सुनते हैं, तो आप किसी न किसी तरह उसमें संलग्न हो जाते हैं। आपका क्रोध--समझ लीजिए, आप गुस्से में आ गए हैं, अगर आप हिटलर के प्रति गुस्से में आ गए हैं, तो लोग हिटलर की मूर्ति बनाकर जला देंगे, नारे लगाएंगे, चिल्लाएंगे, घर में बैठकर हिटलर को गालियां देंगे। एक काल्पनिक दुश्मन! हिटलर तो मौजूद नहीं है आपके सामने। और उसमें आपकी बहुत-सी ग्रंथियां विसर्जित होंगी। और उसका परिणाम यह होगा कि आपको मानसिक स्वास्थ्य मिलेगा।
इसलिए आप हैरान होंगे, हम चाहते हैं कि युद्ध न हो, लेकिन भीतर से हमारा कोई मन चाहता है कि युद्ध हो। युद्ध के वक्त लोग काफी खुश नजर आते हैं! हालांकि खतरा बहुत उपद्रव का होता है, लेकिन लोग खुश नजर आते हैं।
अभी हिंदुस्तान पर चीन का हमला हुआ। आपमें एकदम से जो शक्ति का संचार हुआ था, आप समझते हैं, उसका कारण क्या था? उसका कारण था, आपकी बहुत-सी ग्रंथियां जो शरीर में बंधी थीं, वे उस गुस्से में निकलीं और आप हलके हुए।
और जब तक दुनिया में ऐसे लोग हैं, जिनके शरीर अशुद्ध हैं, तब तक युद्ध से नहीं बचा जा सकता। युद्ध तब समाप्त होंगे, जब लोगों के शरीर इतने शुद्ध होंगे कि उनके पास कोई ग्रंथियां युद्ध में विसर्जित करने को नहीं होंगी। यानि आपको मैं यह कह रहा हूं, यह बहुत अजीब-सा लगेगा, लेकिन जब तक लोगों के शरीर शुद्ध स्थिति में नहीं हैं, दुनिया से युद्ध बंद नहीं हो सकते। कोई कितनी ही कोशिश करे, युद्ध का मजा रहेगा।
आपको भी लड़ने में मजा आता है। इसे जरा विचार करना। आपको लड़ने में मजा आता है। वह लड़ाई चाहे किसी तल की हो, चाहे श्वेतांबर दिगंबर जैन से लड़ता हो और चाहे हिंदू मुसलमान से लड़ता हो, वह लड़ाई का कोई तल हो।
आप हैरान होंगे। आप देखते हैं कि एक-एक छोटा धर्म बनता है, उसमें बीस-बीस संप्रदाय बन जाते हैं! फिर एक-एक संप्रदाय में छोटे-छोटे संप्रदाय बन जाते हैं! क्या कारण है?
लोगों के शरीर अशुद्ध हैं और ग्रंथियों से भरे हैं। और उनको लड़ने के लिए कोई भी बहाना चाहिए। वे कोई छोटा-सा बहाना लेंगे और लड़ेंगे। और लड़ने से उनको राहत मिलेगी, उनको हलकापन आएगा।
शरीर-शुद्धि प्राथमिक चरण है साधना का। तो आपके लिए मैं दो बातें कहता हूं। पुरानी जो ग्रंथियां हैं, उनको विसर्जित करने का तो उपाय यह है कि आप एकांत में बिलकुल जंगली हो जाएं। यानि छोड़ दें सारा खयाल, कमरा बंद कर लें। और सारी पर्तें, जो आपने जबरदस्ती अपने ऊपर लाद रखी हैं, वे सब छोड़ दें। और फिर होने दें; शरीर क्या करता है, उसे देखें आप। वह नाचता है, कूदता है, गिरकर पड़ा रह जाता है, घूंसे तानता है, किसी काल्पनिक दुश्मन को मारता है, छुरी मारता है, गोली चलाता है; क्या करता है, उसे देखें और चुपचाप उसे करने दें।
आप एक दो महीने के प्रयोग में बहुत हैरान हो जाएंगे। आप पाएंगे, आपके शरीर ने एक अदभुत सरलता, सात्विकता और शुद्धि को उपलब्ध किया है। उसका विसर्जन होगा। पुरानी ग्रंथियों की निर्जरा होगी।
जो पुराने साधक जंगलों में चले जाते थे और एकांत पसंद करते थे और नहीं चाहते थे कि भीड़ में आएं, उसका कुल सबसे बड़े कारणों में एक कारण यह भी था। उन एकांत में आपको पता नहीं, महावीर ने क्या किया! आपको पता नहीं है, बुद्ध ने क्या किया! आपको पता नहीं, मोहम्मद ने क्या किया! कोई किताबें नहीं कहतीं कि उन्होंने क्या किया। उन पहाड़ों पर जब वे थे, तो वे क्या कर रहे थे? तो मैं आपको कहता हूं कि यह हो नहीं सकता है कि उन्होंने यह न किया हो कि उन्होंने शरीर की ग्रंथियां विसर्जित न की हों। महावीर को तो हम निर्ग्रंथ कहते हैं। और उसका मैं जो अर्थ करता हूं, यही करता हूं, सारी ग्रंथियां क्षीण जिसकी हो गयी हैं।
और सारी ग्रंथियों का प्रारंभिक चरण शरीर है। तो शरीर की ग्रंथियां जो पीछे पकड़ी हैं, उनको विसर्जित करना है। आपको पहले अजीब-सा लगेगा। अगर आपको जोर से हंसी आए अपने इस काम पर कि मैं यह क्या पागलपन कर रहा हूं कि कूद रहा हूं, तो जोर से हंसिए। अगर आपको खूब रोना आए, तो जोर से रोइए।
आप बहुत हैरान होंगे। अगर आपको अभी मैं यहां कह दूं कि आप बिलकुल छोड़ दें अपना खयाल, तो आपमें से कई लोग रोने लगेंगे और कई लोग जोर से हंसने लगेंगे। कभी कोई रुदन, जो आना चाहा होगा, वह भीतर दबा रह गया है, वह निकलेगा। और कभी कोई हंसी, जो फूट पड़नी चाही थी लेकिन रोक ली गयी है, वह कहीं ग्रंथि बनकर रुकी हुई है, वह अब निकलेगी। बहुत एब्सर्ड मालूम होगा कि यह क्या हो रहा है, लेकिन यह होगा। इसका, इसका एकांत में प्रयोग करें शरीर-शुद्धि के लिए। जो पुरानी हमारे ऊपर ग्रंथियां हैं, वे हलकी होंगी।
दूसरी बात, नयी ग्रंथियां न बनें, इसका प्रयोग करें। यह तो पुरानी ग्रंथियों के विसर्जन के लिए मैंने कहा। नयी ग्रंथियां हम रोज बनाए चले जा रहे हैं। आपको मैंने कोई एक अपशब्द कह दिया और आपको क्रोध उठा, लेकिन सभ्यता और शिष्टता आपको उस क्रोध को प्रकट नहीं करने देगी। एक शक्ति का पुंज आपके भीतर घूमेगा। वह कहां जाएगा? वह किन्हीं नसों को सिकोड़कर, इरछा-तिरछा करके बैठ जाएगा। इसलिए क्रोधी आदमी के चेहरे में, आंखों में और शांत आदमी के चेहरे में और आंखों में फर्क होता है। क्योंकि वहां किसी क्रोध के वेग ने किसी चीज को विकृत नहीं किया है। और शरीर तब अपने परिपूर्ण सौंदर्य को उपलब्ध होता है, जब उसमें कोई ग्रंथियां नहीं होती हैं। यानि शरीर के सौंदर्य का कोई और मतलब ही नहीं है। आंखें तब बड़ी सुंदर हो जाती हैं। तब कुरूप से कुरूप शरीर भी सुंदर दिखने लगता है।
गांधी का शरीर कुरूप था, जब वे युवा थे। लेकिन जैसे-जैसे वे बूढ़े होते गए, उनमें एक अभिनव सौंदर्य आया, जो बहुत अदभुत था। वह सौंदर्य शरीर का नहीं था, वह ग्रंथियों के क्षीण होने का था। उसे कम लोग पहचाने और समझे होंगे। गांधी कुरूप थे, इसमें कोई शक नहीं है। तो गांधी का शरीर किसी भी सौंदर्य के मापदंड से सुंदर नहीं था। और अगर आप उनके पुराने चित्र देखेंगे, तो बचपन उनका कुरूप है, जवानी उनकी कुरूप है। लेकिन जैसे-जैसे वे बूढ़े होते हैं, वे कुछ सुंदर होते जाते हैं! बुढ़ापे में तो आदमी और असुंदर होता है, पर वे सुंदर होते जा रहे हैं।
और अगर जीवन का ठीक विकास हो, तो जवानी उतनी सुंदर नहीं होती, जितना बुढ़ापा होता है। क्योंकि जवानी में बड़े वेग होते हैं, बुढ़ापा बड़ा निरावेग हो जाता है। अगर ठीक से विकास हो, तो बुढ़ापा सुंदरतम क्षण है जीवन का, क्योंकि उस वक्त सारे वेग क्षीण हो जाते हैं। और सारी ग्रंथियां विलीन होनी चाहिए, अगर ठीक विकास हो।
इसलिए अगर आप खयाल करेंगे, कैसे यह हमारी विकृति इकट्ठी होती है शरीर के वेग की? मैंने आपको अपमानजनक शब्द कहा, आपमें क्रोध उठा। एक शक्ति पैदा हुई। और शक्ति नष्ट नहीं होती। कोई शक्ति नष्ट नहीं होती। अब उसका कोई उपयोग होना चाहिए। अगर उसका उपयोग नहीं होगा, तो वह आपको विकृत करके नष्ट हो जाएगी। तो उपयोग करिए। कैसे उपयोग करिएगा?
अगर समझ लीजिए, आपको क्रोध आ रहा है और आप दफ्तर में बैठे हुए हैं, और आपको बहुत जोर से क्रोध आया है और आप उसको प्रकट नहीं कर सकते, आप एक काम करिए। उस शक्ति को, जो पैदा हुई है, एक क्रिएटिव ट्रांसफार्मेशन करिए उसका। अपने दोनों पैरों को जोर से सिकोड़िए। वे पैर किसी को दिखायी नहीं पड़ रहे हैं। आप उन दोनों पैरों की सारी मसल्स को जोर से सिकोड़िए, जितना सिकोड़ सकें; स्टिफ करिए, पूरा खींचते जाइए। जब आपकी बिलकुल सामर्थ्य के बाहर हो जाए खींचना, तब उनको एकदम से रिलैक्स कर दीजिए।
आप हैरान होंगे, क्रोध निष्कासित हो गया है। और आपके पैर की मसल्स सुंदर हो जाएंगी, व्यायाम भी हो गया। वह जो क्रोध का वेग उठा था, उसने कुछ विकृत नहीं किया, बल्कि आपके पैर को सुंदर करके चला गया। तो आपके शरीर के जो अंग कमजोर हों, उनको क्रोध के माध्यम से सुंदर कर लीजिए, स्वस्थ कर लीजिए। क्योंकि वह जो एनर्जी पैदा हुई है, उसका क्रिएटिव, उसका सृजनात्मक उपयोग हो जाएगा।
अगर आपके हाथ कमजोर हैं, आप दोनों हाथों को जोर से भींचिए। वह सारी शक्ति जो क्रोध की पैदा हुई है, उन हाथों में लगेगी। अगर आपका पेट कमजोर है, तो सारी पेट की आंतों को अंदर सिकोड़िए। और उस क्रोध की शक्ति को, भावों में कल्पित करिए कि वह जाकर पेट की सारी नसों को सिकोड़ने में व्यय हो रही है। और आप हैरान होंगे, आप एक दो मिनट बाद पाएंगे कि क्रोध विलीन है और शक्ति उपयुक्त हो गयी है, शक्ति का प्रयोग हो गया।
शक्ति हमेशा तटस्थ है। यानि क्रोध की जो शक्ति पैदा हो रही है, वह बुरी नहीं है, उसका क्रोध की तरह उपयोग हो रहा है। उसका दूसरा उपयोग करिए। और जो उसका दूसरा उपयोग नहीं करेगा, वह शक्ति तो काम करेगी ही। वह शक्ति तो बिना काम के नहीं जाने वाली है। वह शक्ति तो काम करेगी ही। अगर हम उसका उपयोग सीख लेंगे, तो वह हमारे जीवन को क्रांति दे देगी।
तो पुरानी ग्रंथियों की निर्जरा और नयी ग्रंथियों का सृजनात्मक उपयोग शरीर-शुद्धि के लिए दो प्राथमिक चरण हैं। ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। सारे योग के आसन मूलतः शरीर के सृजनात्मक उपयोग के लिए हैं। प्राणायाम शरीर की शक्तियों का सृजनात्मक उपयोग करने के लिए है।
जो व्यक्ति अपने शरीर की शक्तियों का सृजनात्मक उपयोग नहीं करेगा, वे शक्तियां, जो कि वरदान हो सकती थीं, उसके लिए अभिशाप हो जाएंगी। हम सब अपनी ही शक्तियों से पीड़ित हैं--अगर आप समझें--हम सब अपनी ही शक्तियों से पीड़ित हैं। यानि हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे पास शक्तियां हैं।
जीसस क्राइस्ट के जीवन में एक उल्लेख है। वे एक गांव से निकले। उन्होंने एक आदमी को एक छत पर जोर से गालियां बकते, अश्लील बातें बकते हुए देखा। वे सीढ़ियां चढ़कर उसके पास गए और उन्होंने उससे कहा कि 'मेरे मित्र, यह तुम क्या कर रहे हो? और अपने जीवन को इस अश्लील बकवास में क्यों खर्च कर रहे हो? प्रतीत होता है, तुमने शराब पी ली है।' उस आदमी ने आंख खोली, उसने ईसा को पहचाना। उसने उठकर ईसा के हाथ जोड़े। और उसने कहा कि 'मेरे प्रभु, मैं तो बिलकुल बीमार था, मैं तो बिलकुल मरणासन्न था। तुमने अपने आशीर्वाद से मुझे ठीक कर दिया था। क्या तुम भूल गए? और अब मैं परिपूर्ण स्वस्थ हूं, लेकिन इस स्वास्थ्य का क्या करूं? तो शराब पी लेते हैं।' ईसा बहुत हैरान हुए। उसने कहा कि 'अब मैं परिपूर्ण स्वस्थ हूं। इस स्वास्थ्य का क्या करूं? तो अब शराब पी लेते हैं। जो बनता है, वह करते हैं।'
ईसा बहुत दुखी नीचे उतरे। वे गांव में अंदर गए, तो एक आदमी को उन्होंने एक वेश्या के पीछे भागते हुए देखा। तो उन्होंने उसे रोका और उन्होंने कहा कि 'मित्र, अपनी आंखों का यह क्या उपयोग कर रहे हो?' उसने ईसा को पहचाना और उसने कहा, 'आप भूल गए? मैं तो अंधा था, आपने हाथ रखकर मेरी आंखें एक दफा ठीक कर दी थीं। अब इन आंखों का क्या करूं?'
ईसा बहुत दुखी मन उस गांव से वापस लौटते थे। एक आदमी गांव के बाहर छाती पीटकर रो रहा था। ईसा ने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा कि 'क्यों रो रहे हो? जीवन में बहुत आनंद है। जीवन रोने के लिए नहीं है।' उसने ईसा को पहचाना और उसने कहा, 'अरे, भूल गए! मैं मर गया था और कब्र में लोग मुझे ले जा रहे थे, तुमने अपने जादू से मुझे जिंदा कर दिया था। अब इस जीवन का मैं क्या करूं?'
यह कहानी बिलकुल काल्पनिक और झूठी-सी मालूम होती है, लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हम इस जीवन का क्या कर रहे हैं? हमारे पास जीवन में जो भी शक्तियां मिली हैं, उन सबसे हम स्वयं अपना डिस्ट्रक्शन, उनसे हम स्वयं अपना विनाश कर रहे हैं।
जीवन के दो ही रास्ते हैं। जो शक्तियां आपके शरीर और मन में हैं, उनका विनाश कर लें, यही नर्क का रास्ता है। और जो शक्तियां और ऊर्जाएं, जो एनर्जीज आपके भीतर हैं, उनका सृजनात्मक उपयोग कर लें, यही स्वर्ग का रास्ता है। सृजन स्वर्ग है और विनाश नर्क है। अपनी शक्तियों का जो सृजनात्मक, सारी शक्तियों का सृजनात्मक उपयोग कर ले, उसने स्वर्ग की तरफ चरण रखने शुरू कर दिए। और जो अपनी शक्तियों का विनाशात्मक उपयोग कर ले, वह नर्क की तरफ जा रहा है। और कोई मतलब नहीं है।
आप अपने से पूछें, आप क्या कर रहे हैं? जब एक आदमी क्रोध से भरता है, तो आप समझते हैं, कितनी शक्ति, कितनी डायनेमिक फोर्स उसमें पैदा होती है? क्या आपको पता है, एक कमजोर आदमी भी क्रोध में आकर एक ऐसी चट्टान उठा सकता है, जो कि वह कभी शांत क्षणों में उठाने की कल्पना नहीं कर सकता था? क्या आपको पता है, एक क्रुद्ध आदमी अपने से बहुत बलिष्ठ शांत आदमी को क्षणों में परास्त कर सकता है?
एक दफा जापान में ऐसा हुआ। वहां एक वर्ग होता है समुराई, वहां के क्षत्रिय हैं वे। उनका धंधा तलवार है। और जीवन-मरना वही उनका शौक है। एक समुराई बहुत बड़ा सैनिक था, बहुत बड़ा सेनापति था। उसकी पत्नी से, उसके घर में जो नौकर था, उसका प्रेम हो गया। वहां यह रिवाज था कि अगर किसी की पत्नी से किसी का प्रेम हो जाए, तो वह उसे द्वंद्व-युद्ध के लिए ललकारे। तो दो में से एक मर जाएगा, जो शेष रहेगा, पत्नी से उसका विवाह हो जाएगा या पत्नी उसकी होगी। उसके नौकर का समुराई, एक बहुत बड़े सेनापति की पत्नी से प्रेम हो गया।
सेनापति ने कहा, पागल, अब द्वंद्व-युद्ध के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। अब हम लड़ेंगे। अब तू कल तलवार लेकर सुबह आ जा। वह तो बड़ा घबराया। वह तो तलवार का मास्टर था, वह तो अदभुत कुशल आदमी था, जो मालिक था। यह बेचारा नौकर, घर में झाडू-बुहारी लगाता था, यह क्या तलवार चलाता! इसने तलवार कभी छुई नहीं थी। इसने उससे कहा कि 'मैं कैसे तलवार उठाऊंगा?' लेकिन उसने कहा, 'अब इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। अब रास्ता यही है कि तुम कल तलवार लेकर आ जाओ।
वह घर गया, उसने रातभर सोचा। इसके सिवाय कोई रास्ता ही नहीं था। उसने सुबह तलवार उठायी। उसने कभी इसके पहले जिंदगी में तलवार नहीं उठायी थी। उसने सुबह तलवार उठायी, वह तलवार लेकर पहुंचा। लोग देखकर दंग रह गए। वह तो जैसे आग का अंगारा था, जब वह तलवार लेकर वहां पहुंचा। वह सेनापति थोड़ा घबराया। और उसने पूछा कि 'तुम तलवार उठाना भी जानते हो?' वह बिलकुल गलत ही पकड़े हुए था। उसने कहा, 'अब कोई सवाल नहीं है। अब मरना ही है। और मरना ही है, तो मारने की एक कोशिश करेंगे। तो मरना तय है, अब एक मारने की कोशिश करेंगे।'
और वह बड़ा अजीब द्वंद्व-युद्ध हुआ। उसमें सेनापति मारा गया और वह नौकर जीता। उसमें इस वजह से कि अब मरना ही है और कोई रास्ता नहीं है, अदभुत ऊर्जा और शक्ति पैदा हुई। वह तलवार चलाना बिलकुल नहीं जानता था। उसने बिलकुल ही गलत वार किए। बिलकुल ही गलत! जो कि उसके ही विपरीत थे। लेकिन उसके वार देखकर, उसके क्रोध को और उसकी स्थिति को देखकर, सेनापति पीछे हटने लगा। उसकी सारी कुशलता व्यर्थ हो गयी। क्योंकि वह बिलकुल शांत लड़ रहा था। उसे कोई--कोई खास बात नहीं थी। उसके लिए लड़ाई बिलकुल साधारण-सी बात थी। वह पीछे हटने लगा। और उस ऊर्जा में उसकी मृत्यु हुई, उसे मरना पड़ा। और वह आदमी जीता, जो कि बिलकुल ही नासमझ था, जो उस कला को भी नहीं जानता था।
क्रोध में या ऐसे किसी भी वेग में आपके भीतर बहुत शक्ति उत्पन्न होती है। आपके सारे कण, आपके शरीर में जितने लिविंग सेल्स हैं, जितने जीवित कोष्ठ हैं, वे सबके सब अपनी शक्ति का दान करते हैं। और आपके शरीर में बहुत-से संरक्षित कोश हैं शक्ति के। वे हमेशा सुरक्षा के लिए, सेफ्टी मेजर्स हैं, वे सामान्यतया काम में नहीं आते।
अगर आपको हम कहें, दौड़िए प्रतियोगिता में, आप कितने ही तेज दौड़िए, आप उतने तेज कभी नहीं दौड़ सकते, जितना एक आदमी आपके पीछे बंदूक लेकर लगा हो, तब आप दौड़ेंगे। तो सवाल यह है कि आप अपनी चेष्टा से बहुत दौड़े प्रतियोगिता में, लेकिन आप उतने कभी नहीं दौड़ सकते, जब एक आदमी बंदूक लेकर लगा हो। उस वक्त जो सेफ्टी मेजर्स हैं आपके भीतर, आपके शरीर में जो ग्रंथियां शक्ति को रखे हुए हैं जरूरत के लिए, वे अपनी शक्ति को खून में छोड़ देती हैं। उस वक्त आपका शरीर बड़ी शक्ति से आप्लावित हो जाता है। अगर उस शक्ति का उपयोग सृजनात्मक न हो, तो वह शक्ति आपको ही खंडित करेगी और आपको ही तोड़ देगी।
इस दुनिया में अशक्त लोग पाप नहीं करते हैं, शक्तिशाली लोग पाप करते हैं। और मजबूरी में! उनकी शक्ति उन्हें पाप करवाती है। इस दुनिया में अशक्त लोग बुरे काम नहीं करते। इस दुनिया में शक्तिशाली लोग बुरे काम करने को मजबूर हो जाते हैं, क्योंकि शक्ति का सृजनात्मक उपयोग उन्हें पता नहीं है। इसलिए जितने अपराधी हैं, जितने पापी हैं, उन्हें आप शक्ति का स्रोत समझिए। और अगर उन्हें संपर्क मिल जाए, तो उनकी सारी शक्तियां अदभुत रूप से परिवर्तित हो जाती हैं।
इसलिए आपको पता होगा, धार्मिक इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जब कि पापी क्षणभर में पुण्यात्मा हो गए हैं। और उसका कुल कारण इतना है कि शक्तियां बहुत थीं, केवल ट्रांसफार्मेशन की बात थी, एक जादू का संपर्क चाहिए था और सब बदल जाएगा।
अंगुलीमाल ने इतनी हत्याएं कीं। उसने एक हजार लोगों की हत्या करने का व्रत लिया था। उसने नौ सौ निन्यानबे लोगों की हत्या करके माला पहन ली थी। उसे आखिरी आदमी चाहिए था। जिस जगह खबर हो जाती थी कि अंगुलीमाल है, वहां रास्ते निर्जन हो जाते थे, क्योंकि वहां कौन चलता! वह तो देखता ही नहीं था, विचार ही नहीं करता था। जो आया, उसकी हत्या करता था। खुद बादशाह प्रसेनजित जो था बिहार का, वह डरता था। उसकी छाती कंप जाती थी अंगुलीमाल का नाम सुनकर। उसने बड़े सैनिक वहां भेजे, लेकिन अंगुलीमाल पर कोई कब्जा नहीं हुआ।
बुद्ध उस पहाड़ से निकलते थे। लोगों ने, गांव के लोगों ने कहा, 'इधर मत जाइए। आप एक निहत्थे भिक्षु हैं, अंगुलीमाल हत्या कर देगा!' बुद्ध ने कहा, 'हम तो जो रास्ता चुनते हैं, उस पर चलते हैं। और किसी की वजह से उसको नहीं बदलते हैं। और अगर अंगुलीमाल यहां है, तो हमारी और भी जरूरत हो गयी है कि हम वहां जाएं। अब देखना यह है कि अंगुलीमाल हमें मारता है या हम अंगुलीमाल को मारते हैं।' तो लोगों ने कहा, 'बड़ी पागलपन की बात है। आपके पास कुछ भी नहीं है, आप अंगुलीमाल को मारिएगा? निहत्थे, कमजोर बुद्ध और अंगुलीमाल बड़ा बिलकुल दैत्य जैसा आदमी!' बुद्ध ने कहा, 'अब देखना यह है कि अंगुलीमाल बुद्ध को मारता है या बुद्ध अंगुलीमाल को मारते हैं। और हम तो जो रास्ता चुनते हैं, उस पर चलते हैं। और यह और भी सौभाग्य कि अंगुलीमाल से मिलना हो जाएगा। अनायास यह मौका आ गया!'
बुद्ध वहां गए। अंगुलीमाल ने अपनी टेकरी पर से देखा कि एक निहत्था भिक्षु शांत रास्ते पर चला आ रहा है। उसने वहीं से चिल्लाकर कहा कि 'देखो, यहां मत आओ। सिर्फ इसलिए कह रहा हूं कि तुम संन्यासी हो। वापस लौट जाओ। इतनी दया आ गयी तुम्हारी चाल देखकर। धीमे-धीमे चले आ रहे हो। तुम लौट जाओ, आगे मत बढ़ो। क्योंकि हम किसी पर दया करने के आदी नहीं हैं, हत्या कर देंगे।' बुद्ध ने कहा, 'हम भी किसी की दया करने के आदी नहीं हैं।' बुद्ध ने कहा, 'हम भी किसी की दया करने के आदी नहीं हैं। और जहां चुनौती हो, वहां तो संन्यासी पीछे कैसे लौटेगा? तो हम तो आते हैं, तुम भी आओ।'
अंगुलीमाल बहुत हैरान हुआ। यह आदमी पागल है! उसने अपना फरसा उठाया और वह नीचे उतरा। जब वह बुद्ध के पास पहुंचा, तो बुद्ध से उसने कहा कि 'अपने हाथ से अपनी मृत्यु मोल ले रहे हो!' बुद्ध ने कहा, 'इसके पहले कि तुम मुझे मारो, एक छोटा-सा काम करो। यह जो सामने वृक्ष है, इसके चार पत्ते तोड़ दो।' उसने अपने फरसे को मारा, एक डगाल तोड़ दी। और उसने कहा, 'ये रहे चार क्या, चार हजार!'
बुद्ध ने कहा, 'अब एक छोटा काम और करो। इसके पहले कि तुम मुझे मारो, इनको वापस इसी दरख्त में जोड़ दो।' वह आदमी बोला कि 'यह तो मुश्किल है।' तो बुद्ध ने कहा, 'तोड़ना तो बच्चा भी कर देता। जोड़ना! तोड़ना तो बच्चा भी कर देता; जोड़ना जो कर सके, उसमें पुरुष है, उसमें पुरुषार्थ है। तुम बहुत कमजोर आदमी हो। तुम सिर्फ तोड़ सकते हो। तुम यह खयाल छोड़ दो कि तुम बड़े शक्तिशाली हो। एक पत्ता नहीं जोड़ सकते!'
उसने एक क्षण गौर से सोचा। उसने कहा, 'यह तो जरूर है। क्या पत्ता जोड़ने का भी कोई रास्ता हो सकता है?' बुद्ध ने कहा, 'है। हम उसी रास्ते पर चल रहे हैं।' उसने गौर से देखा और उसके स्वाभिमान को पहली दफा यह पता चला, मारने में कोई मतलब नहीं है। मारना कमजोर भी कर सकता है। तो उसने कहा, 'मैं तो कमजोर नहीं हूं। मैं अब क्या करूं?' बुद्ध ने कहा, 'मेरे पीछे आओ।'
वह उस दिन भिक्षा मांगने गांव में गया। भिक्षु हो गया वह, गांव में भिक्षा मांगने गया। लोगों ने--सब लोग डर के मारे अपने मकानों पर चढ़ गए और उसको पत्थर मारे। वह नीचे गिर पड़ा लहूलुहान। उस पर पत्थर पड़ रहे हैं। बुद्ध उसके पास आए और उससे कहा, 'अंगुलीमाल, ब्राह्मण अंगुलीमाल, उठो! आज तुमने पुरुषार्थ को सिद्ध कर दिया। जब उनके पत्थर तुम्हारे ऊपर पड़ रहे थे, तो तुम्हारे हृदय में जरा भी क्रोध नहीं आया। और जब तुम्हारे शरीर से लहू गिरने लगा और तुम जमीन पर गिर गए, तब भी तुम्हारे हृदय में उनके प्रति प्रेम ही भरा हुआ था। तुमने अपने पुरुष को सिद्ध कर दिया। और तुम ब्राह्मण हो गए।'
प्रसेनजित को खबर लगी, तो वह मिलने आया बुद्ध से कि अंगुलीमाल परिवर्तित हुआ है! वह आकर बैठा। उसने कहा, 'हम सुनते हैं कि अंगुलीमाल साधु हो गए हैं। क्या मैं उनके दर्शन कर सकता हूं?' बुद्ध बोले, 'जो बगल में भिक्षु मेरे बैठे हुए हैं, वह अंगुलीमाल हैं।' प्रसेनजित ने सुना, उसके हाथ-पैर कंप गए। नाम तो पुराना था और डर वही था उस आदमी का। अंगुलीमाल ने कहा, 'मत डरो। वह आदमी गया। वह शक्ति जो उस आदमी की थी, परिवर्तित हो गयी। अब हम दूसरे रास्ते पर हैं। अब तुम हमें मार डालो, तो हमारे मन से तुम्हारे प्रति कोई--कोई अशुभ आकांक्षा नहीं उठेगी।'
जब बुद्ध से लोगों ने पूछा कि इतना बड़ा पापी कैसे परिवर्तित हुआ! तो बुद्ध ने कहा, 'पाप और पुण्य का प्रश्न नहीं है, शक्ति के परिवर्तन का प्रश्न है।'
इस दुनिया में कोई बुरा नहीं है और इस दुनिया में कोई भला नहीं है; केवल शक्ति की दिशाएं हैं। हमारे भीतर बहुत शक्ति है इस शरीर में। इस शरीर की शक्तियों का सृजनात्मक उपयोग!
तो एक तो मैंने कहा कि जब भावावेश उठे, तो आप शरीर के किसी अंग से उस भावावेश का उपयोग कर लें, उसे एक्सरसाइज में उपयोग कर लें। दूसरी बात, अपने जीवन में कुछ सृजनात्मक काम सीखें। हम सब गैर सृजनात्मक हैं।
पुराने दिन थे--कल मैं बात करता था रात--पुराने दिन थे, एक गांव में एक आदमी जूता बनाता था। और कोई उसके जूते को पहनता था, तो वह गौरव से कहता था, मेरा बनाया हुआ जूता है। एक सृजन का आनंद था। एक आदमी गाड़ी का चाक बनाता था, तो मेरा बनाया हुआ है।
आज दुनिया में सृजन का कोई आनंद नहीं रह गया है। आपका बनाया हुआ कुछ भी नहीं है। आपका बनाया हुआ कुछ भी नहीं है। यह दुनिया जैसी है, उसमें आदमी का बनाया हुआ अब कुछ भी नहीं रह जाएगा। उसका परिणाम यह हुआ है कि जो सृजनात्मक आनंद था आपका, वह विलीन हो गया है। और अगर वह विलीन हो जाएगा, तो शक्तियों का क्या होगा? वे विनाश की तरफ उत्सुक होंगी। स्वाभाविक शक्ति का कुछ न कुछ होगा, या तो विनाश होगा या सृजन होगा।
तो जीवन में कोई सृजनात्मक काम भी करें। सृजनात्मक मतलब, जो सिर्फ आप अपने आनंद के लिए निर्मित कर रहे हैं। एक मूर्ति बनाएं, तो कोई हर्ज नहीं। एक गीत लिखें, एक गीत गाएं, एक सितार को बजाएं, तो कोई हर्ज नहीं। उसे करें सिर्फ आनंद के लिए, व्यवसाय के लिए नहीं। जीवन में एक काम चुनें, जो आपका आनंद है, जो आपका व्यवसाय नहीं है। तो आपकी बहुत-सी शक्तियों का विनाशात्मक रुख परिवर्तित होगा और वे सृजन में लगेंगी।
भावावेशों को रोकने के लिए मैंने कहा। और यह सामान्य जीवन को सृजनात्मक दृष्टि दें। कोई फिक्र नहीं, घर में एक बगिया लगाएं और उन फूलों को प्रेम करें और उनका आनंद लें। कोई फिक्र नहीं, एक पत्थर को घिसकर छोटी-सी मूर्ति बनाएं। हर आदमी जो समझदार है, आजीविका के अतिरिक्त कुछ समय सृजन के लिए देगा। और जो नहीं देगा, वह गलती में पड़ जाएगा, उसका जीवन खराब हो जाएगा।
एक छोटा-सा गीत लिखें। कोई फिक्र नहीं, एक अस्पताल में जाएं और कुछ मरीजों को दो-दो फूल दे आएं। कोई फिक्र नहीं है, रास्ते पर कोई भिखमंगा मिल जाए, दो क्षण उसे गले लगा लें। कोई फिक्र नहीं है, कुछ सृजनात्मक करें, जो सिर्फ आनंद है आपका और जिसमें आपको कुछ लेना नहीं है, कुछ देना नहीं है। जिसे कर लेना ही आपका आनंद है।
तो जीवन में कुछ एक बिंदु चुनें, जिसे सिर्फ कर लेना आपका आनंद है। आपकी सारी शक्तियां उस तरफ उन्मुख होंगी और विनाश के लिए आपके पास शक्तियां नहीं बचेंगी। जो आदमी जितना सृजनात्मक होगा, उतना ही उसका क्रोध, उसका सेक्स विलीन हो जाएगा। ये असृजनात्मक आदमी के लक्षण हैं। आपके पास बहुत शक्ति है, वह कहां जाएगी? वह सेक्स से निकलेगी, कामवासना से निकलेगी। निकलना जरूरी है।
जो दुनिया में बहुत बड़े-बड़े सृजनात्मक मूर्तिकार, चित्रकार या कवि हुए हैं, उनके अविवाहित रह जाने का और कोई रहस्य नहीं है। कुल इतना ही रहस्य है कि वह सारी शक्ति उनकी सृजन में विलीन हो गयी, वह ट्रांसफार्म हो गयी, सब्लिमेट हो गयी। अगर वह वहां सब्लिमेट न होती, तो बहुत निम्नतल के सृजन में व्यय होती, संतति के सृजन में। तो वह बच्चे पैदा करने में व्यय होती। वही शक्ति, जो कि किन्हीं अमर काव्यों के, अमर चित्रों के निर्माण में व्यय हो गयी।
तो जीवन में शक्ति का सब्लिमेशन, उसका उद्दातीकरण बहुत जरूरी है। तो एक यह स्मरण रखें। शरीर की संपूर्ण शुद्धि के लिए जीवन में कुछ सृजनात्मक होने की चेष्टा करें। सृजनात्मक मनुष्य ही केवल धार्मिक हो सकता है; और कोई मनुष्य धार्मिक नहीं हो सकता।
शरीर-शुद्धि के लिए ये बुनियादी बातें मैंने आपसे कहीं, बहुत बुनियादी। अब बहुत गौण बातें। ये बहुत बुनियादी बातें हैं। इनको जो सम्हालता है, गौण बातें अपने आप सम्हल जाएंगी। बहुत गौण बातों में यह है, जिसको हम अपने मुल्क में आहार कहते हैं, वह शरीर-शुद्धि में उपयोगी है। आपका शरीर तो बिलकुल भौतिक संस्थान है। उसमें आप जो डालते हैं, उसके परिणाम होने स्वाभाविक हैं। अगर मैं शराब पी लूंगा, तो मेरे शरीर के सेल बेहोश हो जाएंगे। यह बिलकुल स्वाभाविक है। और अगर शरीर मेरा बेहोश है, तो उस बेहोशी का परिणाम मेरे मन पर पड़ेगा।
मन और शरीर बहुत अलग-अलग नहीं हैं, बहुत संयुक्त हैं। हमारा जो व्यक्तित्व है, वह शरीर और मन, ऐसा अलग-अलग नहीं है। शरीर-मन ऐसा इकट्ठा। वह साइकोसोमैटिक है। उसमें हमारा शरीर और मन इकट्ठा है। शरीर का ही अत्यंत सूक्ष्म हिस्सा मन है और मन का ही अत्यंत स्थूल हिस्सा शरीर है। इसे यूं समझिए, ये दोनों बिलकुल अलग-अलग चीजें नहीं हैं।
इसलिए जो शरीर में घटित होगा, उसके परिणाम मन में प्रतिध्वनित होते हैं। और जो मन में घटित होता है, उसके परिणाम शरीर तक आ जाते हैं। अगर मन बीमार है, शरीर ज्यादा देर स्वस्थ नहीं रहेगा। अगर शरीर बीमार है, तो मन ज्यादा देर स्वस्थ नहीं रह सकेगा। ये खबरें एक-दूसरे में सुनी और समझी जाती हैं। इसलिए जो लोग मन को स्वस्थ रखने का उपाय समझ लेते हैं, वे शरीर के बाबत मुफ्त में बहुत-सा स्वास्थ्य उपलब्ध कर लेते हैं। जिसके लिए वे कोई कमाते नहीं हैं, जिसके लिए वे कोई प्रयास नहीं करते हैं।
शरीर और मन संयुक्त घटना है। शरीर पर जो होगा, वह मन पर होगा। इसलिए आपके अपने आहार में, आपके भोजन में आपको थोड़ा विवेकपूर्ण होना जरूरी है।
पहली बात, वह इतना ज्यादा न हो कि शरीर उसके कारण आलस्य से भरता हो। आलस्य अशुद्धि है। वह ऐसा न हो कि शरीर उत्तेजना से भरता हो। उत्तेजना अशुद्धि है। क्योंकि उत्तेजना ग्रंथियां पैदा करेगी। वह ऐसा न हो कि शरीर क्षीण होता हो, क्योंकि क्षीणता कमजोरी है। और शक्ति अगर उत्पन्न न होगी, तो परमात्मा की तरफ विकास भी नहीं हो सकता। शक्ति पैदा हो, लेकिन शक्ति उत्तेजक न हो, ऐसा आहार होना चाहिए। शक्ति पैदा हो, लेकिन वह इतनी न हो कि शरीर उसके कारण आलस्य से भर जाए।
अगर आपने जरूरत से ज्यादा भोजन किया है, तो सारे शरीर की शक्ति उसको पचाने में लग जाती है, शरीर में आलस्य छा जाता है। शरीर में आलस्य छाने का और कोई मतलब नहीं है। सारी शक्ति पचाने में लगती है, तो शरीर आलस्य से भर जाता है। आलस्य इस बात की सूचना है कि भोजन जरूरत से ज्यादा हो गया।
भोजन के बाद आलस्य नहीं, स्फूर्ति आनी चाहिए। यानि स्वाभाविक है। भूख लगी थी, फिर भोजन किया, तो स्फूर्ति आनी चाहिए, क्योंकि शक्ति उत्पन्न होने का स्रोत भीतर गया। लेकिन आपको तो आलस्य आता है। आलस्य इस बात का मतलब है कि आपने इतना भोजन कर लिया कि अब शरीर की सारी शक्ति उसको पचाएगी, तो शरीर अपनी सारी शक्ति को खींचकर पेट में ले जाएगा और सब तरफ से शक्ति क्षीण होने से आलस्य आ जाएगा।
तो भोजन स्फूर्ति दे, तब सम्यक है। भोजन उत्तेजना न दे, तब सम्यक है। भोजन मादकता न दे, तब सम्यक है।
तो तीन बातें स्मरण रखें: भोजन सुस्ती न दे, तो वह शुद्ध है; भोजन उत्तेजना न दे, तो वह शुद्ध है; और भोजन मादकता न दे, तो वह शुद्ध है। ये मोटी बातें हैं। और आपको इतना नासमझ मैं नहीं मानता कि इनके विस्तार में चर्चा करने की जरूरत है। इनको आप समझेंगे और अपने ढंग से इनको व्यवस्थित करेंगे।
दूसरी बात गौण बातों में, शरीर के लिए थोड़ा-सा व्यायाम अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि शरीर जिन तत्वों से मिलकर बना है, वे तत्व व्यायाम के समय में विस्तार पाते हैं। व्यायाम का मतलब, विस्तार। संकोच के विपरीत है व्यायाम शब्द। व्यायाम का अर्थ है विस्तार। जब आप दौड़ते हैं, तो आपके सारे कण और सारे लिविंग सेल्स, पूरे जीवित कोष्ठ विस्तृत होते हैं, फैलते हैं। और जब वे फैलते हैं, तो आपको स्वास्थ्य का अनुभव होता है। जब वे सिकुड़ते हैं, तो बीमारी का अनुभव होता है। जब आपकी श्वास पूरे के पूरे प्राण के फेफड़े को खोलती है और सारे कार्बन डाइआक्साइड को बाहर फेंकती है, तो आपकी खून की गति बढ़ती है। और खून की गति बढ़ती है, तो शरीर की सारी अशुद्धियां दूर होती हैं। इसलिए योग ने शरीर-शौच को, शरीर की परिपूर्ण शुद्धि को बहुत अनिवार्य नियमों के अंतर्गत रखा है। तो थोड़ा व्यायाम।
अति विश्राम नुकसान करता है, अति व्यायाम भी नुकसान करता है। इसलिए अति व्यायाम को नहीं कह रहा हूं। अति व्यायाम नहीं, थोड़ा, सम्यक व्यायाम कि जिससे आपको स्वास्थ्य का बोध हो। और अति विश्राम नहीं, थोड़ा विश्राम भी। जितना व्यायाम, उतना विश्राम।
इस सदी में व्यायाम भी नहीं है और विश्राम भी नहीं है। हम बहुत अजीब हालत में हैं। आप व्यायाम तो करते नहीं, आप विश्राम भी नहीं करते। जिसको आप विश्राम कहते हैं, वह विश्राम नहीं है। आप पड़े हैं, करवटें बदल रहे हैं, वह विश्राम नहीं है। एक गहरी प्रगाढ़ निद्रा! जिसमें कि सारा शरीर सो जाए और उसके सारे काम का जो भी बोझ और भार उस पर पड़ा है, वह सब विलीन हो जाए।
क्या आपने कभी खयाल किया, अगर आप सुबह बहुत अस्वस्थ उठे हैं और तबियत ताजी नहीं है, तो आपका व्यवहार स्वस्थ नहीं होता! अगर आपको नींद अच्छी नहीं हुई और सुबह एक भिखारी आपसे भीख मांगने आया है, बहुत असंभव है कि आप उसे भीख दे सकें। और अगर आप रात बहुत गहरी नींद सोए हैं और किसी ने हाथ बढ़ाए हैं, तो बहुत असंभव है कि आप अपने हाथ को देने से रोक सकें।
इसलिए भिखारी सुबह आपके घर मांगने आते हैं, शाम को नहीं आते हैं। क्योंकि सुबह संभावना मिलने की है, शाम को कोई संभावना नहीं है। यह बहुत मनोवैज्ञानिक है। भिखारी यूं ही नहीं सुबह आपके घर आ रहा है। शाम को नहीं आता है। शाम को कोई मतलब नहीं है। शाम को आप इतने थके और शरीर इतना गलत हालत में होगा कि आप शायद ही किसी को कुछ दे सकें। इसलिए वह सुबह आता है। अभी सूरज ऊग रहा है, आप नहाए होंगे, किसी ने घर में प्रार्थना की होगी। और वह बाहर आकर बैठा है। अभी इनकार करना बहुत मुश्किल होगा।
शरीर को ठीक विश्राम मिले, तो आपका व्यवहार बदलता है। इसलिए हमने आहार और विहार को संयुक्त माना है हमेशा से। जैसा आहार होगा, जैसा विहार होगा, अगर उन दोनों में सात्विकता होगी, तो जीवन में बड़ी गति और बड़ा आंतरिक प्रवेश होना शुरू होता है।
स्वास्थ्य की एक भूमिका बहुत जरूरी है। और उसके लिए सम्यक आहार, सम्यक व्यायाम और सम्यक विश्राम, इनको आप बुनियादी हिस्से मानें।
विश्राम भी करने के लिए कुछ समझ चाहिए, जैसा व्यायाम करने के लिए कुछ समझ चाहिए। विश्राम करने के लिए समझ चाहिए, शरीर को छोड़ने की समझ चाहिए। वह हम रात्रि को जब ध्यान करेंगे, तो उससे आपको समझ में आएगा कि उस ध्यान के बाद अगर आप विश्राम करते हैं, तो विश्राम वास्तविक होगा।
हो सकता है, यहां कुछ मित्र हों, जो शारीरिक रूप से बहुत व्यायाम न कर सकते हों, न जा सकते हों जंगल और पहाड़ न चढ़ सकते हों, उनके लिए मैं एक दूसरा प्रयोग कहता हूं। वे केवल पंद्रह मिनट को सुबह उठकर स्नान करने के बाद एकांत कमरे में लेट जाएं, आंख बंद कर लें और कल्पना करें कि मैं पहाड़ियां चढ़ रहा हूं और दौड़ रहा हूं। सिर्फ कल्पना करें, कुछ न करें। वृद्ध हैं, वे नहीं जा सकते हैं। या ऐसी जगह हैं कि वहां घूमने नहीं जा सकते हैं। तो एकांत कमरे में लेट जाएं, आंख बंद कर लें और कल्पना करें कि मैं जा रहा हूं, एक पहाड़ चढ़ रहा हूं और दौड़ रहा हूं। धूप तेज है और मैं भागा चला जा रहा हूं। मेरी श्वास जोर से बढ़ रही है।
और आप हैरान होंगे, आपकी श्वास बढ़ने लगेगी। और आपकी इमेजिनेशन, आपकी कल्पना जितनी प्रगाढ़ होती जाएगी, आप पंद्रह मिनट में पाएंगे कि जो घूमने का फायदा था, वह मिल गया है। आप पंद्रह मिनट बाद बिलकुल ताजे, व्यायाम करके उठ आएंगे। जरूरी नहीं है कि आप व्यायाम करने जाएं। शरीर के अणुओं को पता चलना चाहिए कि व्यायाम हो रहा है, तो वे तैयार हो जाते हैं। यानि वे उसी स्थिति में आ जाते हैं, जिस स्थिति में वस्तुतः आप चले होते तब आते। वे उसी स्थिति में आ जाते हैं।
क्या आपने कभी खयाल नहीं किया, स्वप्न में घबड़ा गए हों, तो उठने के बाद भी हृदय कंपता रहता है। क्यों? स्वप्न की घबड?ाहट तो बड़ी झूठी थी, लेकिन हृदय क्यों कंप रहा है? जागने पर भी क्यों कंप रहा है? हृदय तो कंप गया, हृदय को बिलकुल पता नहीं है कि यह स्वप्न में घटना घटी कि सच में घटना घटी। हृदय को तो पता है कि घटना घटी, बस।
तो अगर आप इमेजिनेशन में भी व्यायाम करते हैं, तो फायदा उतना ही हो जाता है, जितना कि वस्तुतः व्यायाम करिए। कोई भेद नहीं पड़ता। इसलिए जो बहुत समझदार थे इस मामले में, उन्होंने बड़ी अदभुत तरकीबें निकाल ली थीं। अगर उन्हें आप एक जेल में भी बंद कर दें, तो उनके स्वास्थ्य को कोई नुकसान नहीं पड़ेगा। क्योंकि वे पंद्रह मिनट विश्राम करके और व्यायाम कर लेंगे।
तो इसको भी करके देखें। जो नहीं जा सकते हैं, नहीं जाने की स्थितियों में हैं, वे इसका प्रयोग करें। और निद्रा के लिए रात्रि का जो ध्यान है, उसके बाद निद्रा करें। शरीर ऐसे शुद्ध होगा। और शरीर शुद्ध होगा, तो शरीर की शुद्धि भी अपने आप में एक अदभुत आनंद है। और उस आनंद में फिर और अंतस प्रवेश होता है। यह पहला चरण हुआ।
दूसरे दो चरण हैं भूमिका के, विचार-शुद्धि और भाव-शुद्धि। उनकी मैं बात करूंगा।
तीन चरण होंगे परिधि के--शरीर-शुद्धि, विचार-शुद्धि, भाव-शुद्धि। और तीन चरण होंगे केंद्र के--शरीर-शून्यता, विचार-शून्यता और भाव-शून्यता। ये छः चरण जब पूरे होते हैं, तो समाधि घटित होती है। तो उनकी हम क्रमशः इन तीन दिनों में बात करेंगे। यह बात काफी होगी। इस पर आप विचार करेंगे, समझेंगे और इसका प्रयोग करेंगे। क्योंकि मैं जो कुछ कह रहा हूं, वह सब प्रयोग करने की बात है। प्रयोग करेंगे, तो ही उसका अर्थ खुलेगा, अन्यथा मेरी बातचीत से उसका कोई अर्थ नहीं खुलता।
अब हम सुबह का ध्यान करेंगे और फिर विदा होंगे। सुबह के ध्यान के लिए थोड़ी-सी बात आपको कह दूं। सुबह के ध्यान का पहला चरण तो वही होगा, जिसको हमने रात्रि में संकल्प कहा। पांच बार हम संकल्प की स्थिति करेंगे। उसके बाद, जब संकल्प हम कर चुके होंगे, दो मिनट तक धीमी श्वास लेकर बैठे रहेंगे। उसके बाद हम भावना करेंगे। पहले संकल्प, फिर भावना और फिर ध्यान। ऐसे तीन चरण होंगे सुबह के लिए।
संकल्प, रात्रि को जैसा मैंने कहा, वैसा। श्वास को पूरा गहरा अंदर ले जाएंगे। जब श्वास अंदर जाने लगेगी, तब मन में यह भाव करेंगे कि मैं संकल्प करता हूं कि मेरा ध्यान में प्रवेश होकर रहेगा। मैं ध्यान में प्रविष्ट होऊंगा। इस भाव को करते रहेंगे, जब श्वास अंदर जाएगी और पूरे फेफड़ों में भरेगी। पूरी भर लेनी है, जितनी आपसे बन सके। फिर उसे एक सेकेंड, दो सेकेंड, जितनी देर आप रोक सकें, रोके रखना है। जब श्वास को आप ले जाते हैं, पूरा ले जाएं, फिर उसे थोड़ी देर रोकें। जिन्हें योग ने पूरक, कुंभक और रेचक कहा है, वही प्रक्रिया है। श्वास को पूरा अंदर ले जाएं, फिर उसे रोकें और इस पूरे वक्त संकल्प करते रहें, मन में वही संकल्प गूंजता रहे। फिर पूरी श्वास को बाहर फेंकें, मन में वही संकल्प गूंजता रहे। फिर थोड़ा रुकें और मन में वही संकल्प गूंजता रहे।
इस भांति आपके पूरे अंतस चेतन मन तक, अंतःकरण तक यह संकल्प प्रविष्ट हो जाएगा। आपके पूरे व्यक्तित्व को पता चल जाएगा कि निर्णय हुआ है कि ध्यान में प्रवेश करना है। तो आपको पूरे व्यक्तित्व का सहयोग मिलेगा। अन्यथा आप ऊपर ही घूमते रहेंगे, उससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा बहुत।
तो पहले तो संकल्प, फिर भावना। संकल्प के बाद भावना--जो मैंने कल आपको कही--आशा, आनंद, विश्वास, वह दो मिनट तक करेंगे। दो मिनट तक अपने सारे शरीर को अनुभव करेंगे कि आप बहुत स्वास्थ्य से भरे हुए हैं, बहुत आनंद का अनुभव कर रहे हैं, सारे शरीर के कण-कण प्रफुल्ल हो गए हैं और बड़ी आशा की स्थिति है। कुछ होगा।
संकल्प। फिर यह भावना कि मेरे चारों तरफ अत्यंत शांति है, मेरे भीतर अत्यंत आनंद है, मेरे भीतर अत्यंत आशा है और मेरे शरीर का कण-कण उन्मुख है और उत्सुक है और प्रफुल्ल है, इसका भाव करेंगे। उसके बाद फिर सुबह का ध्यान करेंगे।
सुबह के ध्यान में रीढ़ को सीधा रखना है। बिना हिले-डुले आराम से बैठ जाना है। सारे शरीर के कंपन को छोड़ देना है, रीढ़ को सीधा कर लेना है। आंख को बंद कर लेना है। फिर धीमी श्वास लेनी है, बहुत आहिस्ता श्वास लेनी है और आहिस्ता ही श्वास छोड़ देनी है। श्वास को देखना है। भीतर आंख बंद किए हुए श्वास को देखते रहना है, वह भीतर गई और बाहर गई।
श्वास को देखने के दो उपाय हैं। एक तो है एबडोमेन पर देखना, जहां पेट ऊंचा-नीचा होता है। और दूसरा है नाक के पास, जहां श्वास छूती है, वहां देखना। जिसको जहां सुविधाजनक मालूम पड़े, वहां देखे।
अधिक लोगों को सुविधाजनक पड़ेगा कि वे नाक के पास देखें। श्वास अंदर प्रविष्ट होगी, नाक को लगती है, फिर निकलेगी, फिर लगती है। उसी स्थान को आप देखें कि श्वास लगी, अंदर गयी; श्वास लगी, बाहर गयी। जो लोग पीछे प्रयोग किए हैं नाभि का, उनको नाभि का सुविधाजनक मालूम पड़ता हो, वे नाभि के पास देखें कि पेट ऊपर उठा, नीचे गिरा। जहां जिसको ठीक लगे, वहां उस प्रयोग को कर ले। सिर्फ दस मिनट तक श्वास को देखता रहे।
तो अब हम बैठें सुबह के प्रयोग के लिए। सब लोग फासले पर हो जाएं। एक-दूसरे का बोध मिट जाए, छूना मिट जाए, सब इतने फासले पर हो जाएं।
आज इतना ही।

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