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गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--055

प्रकाश का चुराना ज्ञानोपलब्धि है--(प्रवचन--पचपनवां)
अध्याय 27 : खंड 1

प्रकाशोपलब्धि

एक कुशल धावक पदचिह्न नहीं छोड़ता है।

एक बढ़िया वक्तव्य प्रतिवाद के लिए दोषरहित होता है।

एक कुशल गणक को गणित्र की जरूरत नहीं होती।

ठीक से बंद हुए द्वार में

और किसी प्रकार का बोल्ट लगाना अनावश्यक है,

फिर भी उसे खोला नहीं जा सकता।

ठीक से बंधी गांठ के लिए रस्सी की कोई जरूरत नहीं है,

फिर भी उसे अनबंधा नहीं किया जा सकता।

संत लोगों का कल्याण करने में सक्षम हैं;

इसी कारण उनके लिए कोई परित्यक्त नहीं है।

संत सभी चीजों की परख रखते हैं;

इसी कारण उनके लिए कुछ भी त्याज्य नहीं है।

-- इसे ही प्रकाश का चुराना या ज्ञानोपलब्धि कहते हैं।


लाओत्से ने ज्ञानोपलब्धि को प्रकाश का चुराना कहा है। दो शब्द चोरी के संबंध में समझ लें।
चोरी एक कला है। और अगर हम नैतिक चिंतना में न जाएं, तो बड़ी कठिन कला है। चोरी का अर्थ है, इस भांति कुछ करना कि संसार में कहीं भी किसी को पता न चले। पता चल जाए तो चोर कुशल नहीं है। आपके घर में भी चोर प्रवेश करता है। दिन के उजाले में भी जिन चीजों को खोजना आपको मुश्किल पड़ता है, रात के अंधेरे में भी अपरिचित घर में जरा सी आवाज किए बिना चोर वही सब खोज लेता है। आपको पता भी नहीं चल पाता। अगर चोर अपने चिह्न पीछे छोड़ जाए तो उसका अर्थ हुआ कि चोर अभी कुशल नहीं है; अभी सीखता ही होगा। अभी चोर नहीं हो पाया है।
लाओत्से सत्य की, प्रकाश की उपलब्धि को भी कहता है एक चोरी--इसी कारण। अगर किसी को पता चल जाए कि आप सत्य खोज रहे हैं तो वह पता चलना भी बाधा बन जाएगी।
जीसस ने कहा है कि तुम्हारा दायां हाथ क्या करता है, तुम्हारे बाएं हाथ को पता न चले। तुम्हारी प्रार्थना इतनी मौन हो कि सिवाय परमात्मा के और किसी को सुनाई न पड़े।
लेकिन हमारी प्रार्थनाएं परमात्मा को सुनाई पड़ती हों या न पड़ती हों, लेकिन पास-पड़ोस मुहल्ले में सभी को सुनाई पड़ जाती हैं। शायद परमात्मा से हमें इतना प्रयोजन भी नहीं है; पड़ोसी सुन लें, यह ज्यादा जरूरी है, तात्कालिक उपयोगी है। तो आदमी धर्म ऐसे करता है, डुंडी पीट कर। बड़े मजे की बात है, अधर्म हम चोरी-चोरी, छिपे-छिपे करते हैं और धर्म हम बड़े प्रकट होकर करते हैं।
लाओत्से, जीसस या बुद्ध ऐसे लोग हैं, वे कहते हैं, जैसे पाप को चोरी-चोरी, छिपे-छिपे करते हो, वैसे ही पुण्य को करना। बड़े उलटे लोग हैं। वे कहते हैं, पाप ही करना हो तो प्रकट होकर करना और पुण्य करना हो तो चोरी-छिपे कर लेना। क्योंकि पाप अगर कोई प्रकट होकर करे तो नहीं कर पाता है।
इसे थोड़ा समझ लें। पाप अगर कोई प्रकट होकर करे तो नहीं कर पाता है। पाप को छिपाना जरूरी है; क्योंकि पाप अहंकार के विपरीत है। और पुण्य अगर कोई प्रकट होकर करे तो भी नहीं कर पाता है; क्योंकि पुण्य प्रकट होकर अहंकार का भोजन बन जाता है। पुण्य तो चोरी-छिपे ही किया जा सकता है, पाप भी चोरी-छिपे ही किया जा सकता है। जो न करना हो, उसे प्रकट होकर करना चाहिए। और जो करना हो, उसे चोरी-छिपे कर लेना चाहिए। अगर पाप न करना हो तो प्रकट होकर करना; फिर पाप नहीं हो पाएगा। और अगर पुण्य न करना हो, सिर्फ धोखा देना हो करने का, तो प्रकट होकर करना। तो पुण्य न हो पाएगा। लेकिन लोग जानते हैं कि उन्हें पाप तो करना ही है, इसलिए चोरी-छिपे कर लेते हैं। और लोग जानते हैं कि पुण्य का तो प्रचार भर हो जाए कि किया तो काफी है; करना किसी को भी नहीं है। इसलिए लोग पुण्य को प्रकट होकर करते हैं।
लाओत्से कहता है, जिन्हें परमात्मा के मंदिर में प्रवेश करना है, उन्हें चोर के कदमों की चाल सीखनी चाहिए। आवाज न हो, निशान न छूटे, कहीं कोई पता भी न हो। बैंड-बाजे बजा कर, स्वागत-समारोह से, जलसों में, शोभायात्रा निकाल कर उस मंदिर में कोई प्रवेश नहीं है। कोई कितनी ही प्रदक्षिणाएं करता रहे उस मंदिर की शोभायात्राओं में, उस मंदिर में प्रवेश नहीं है। उसमें तो कोई कभी चोरी-छिपे प्रवेश पाता है। कोई कभी जब जगत में एक पत्ते को भी खबर नहीं होती, कोई उस मौन क्षण में, निबिड़ क्षण में, प्रविष्ट हो जाता है। यह जरा कठिन है। दूसरे को खबर न हो इतना ही नहीं, उस परमात्मा के मंदिर में प्रवेश जब होता है, तो खुद को भी खबर नहीं होती, इतनी भी आवाज नहीं होती। हो जाता है प्रवेश, तभी पता चलता है कि प्रवेश हो गया। अगर खुद को भी पता चल रहा हो कि प्रवेश हो रहा है तो समझना कि कल्पना चल रही है। मन धोखा दे रहा होगा। परमात्मा में डूब कर ही पता चलता है कि डूब गए। डूबते क्षण में भी पता नहीं चलता, क्योंकि उतना भी पता चल जाए तो रुकावट हो जाएगी। पता पड़ना बाधा है। क्योंकि आपका चेतन मन और आपका अहंकार खड़ा हो गया, जैसे ही पता चला।
इसे थोड़ा ऐसा देखें। कोई क्षण है और आपको लग रहा है बड़े आनंदित हैं। जैसे ही चेतन हो जाते हैं आप कि आनंदित हूं, आनंद खो जाएगा। ध्यान कर रहे हैं और अचानक आपको पता चला कि ध्यान हुआ, कि आप पाएंगे ध्यान खो गया। किसी के गहरे प्रेम में हैं और आपको पता चला कि मैं प्रेम में हूं, और आप पाएंगे कि वह बात खो गई, वह सुगंध विलीन हो गई। जीवन का जो गहनतम है, वह चुपचाप मौन में घटित होता है। शब्द बनते ही तिरोहित हो जाता है। फिर हमारे हाथ में शब्द रह जाते हैं--परमात्मा, प्रेम, प्रार्थना, ध्यान, आनंद--शब्द रह जाते हैं। वह जो अनुभव था, वह खो जाता है।
लाओत्से तो कहता है कि जब भी कोई चीज पूर्णता के निकट पहुंचती है, तो चुप हो जाती है।
इसे हम एक-दो ताओइस्ट कहानियों से समझें। एक कहानी मुझे बहुत प्रीतिकर रही है।
एक सम्राट ने अपने दरबार के सब से बड़े धनुर्विद को कहा कि अब तुझसे बड़ा धनुर्विद कोई भी नहीं है। तो तू घोषणा कर दे राज्य में और अगर कोई प्रतिवादी न उठे तो मैं तुझे राज्य का सबसे बड़ा धनुर्धर घोषित कर दूं। द्वार पर जो द्वारपाल खड़ा था, वह हंसा। क्योंकि धनुर्विद ने कहा कि घोषणा का क्या सवाल है, घोषणा कल की जा सकती है। कोई धनुर्विद नहीं है, जो मेरी प्रतियोगिता में उतर सके। द्वारपाल हंसा तो धनुर्विद को हैरानी हुई। लौटते में उस बूढ़े द्वारपाल से उसने पूछा, तुम हंसे क्यों? उसने कहा कि मैं इसलिए हंसा कि तुम्हें अभी धनुर्विद्या का आता ही क्या है? एक आदमी को मैं जानता हूं। तुम पहले उससे मिल लो, फिर पीछे घोषणा करना।
पर उस धनुर्विद ने कहा कि ऐसा आदमी हो कैसे सकता है जिसका मुझे पता न हो? मैं इतना बड़ा धनुर्विद!
उस द्वारपाल ने कहा कि जो तुमसे भी बड़ा धनुर्विद है, उसका किसी को भी पता नहीं होगा। यह पता करने और कराने की जो चेष्टा है, यह सब छोटे मन के खेल हैं। तुम रुको। जल्दी मत करना, मुसीबत में पड़ जाओगे। मैं उस आदमी का पता तुम्हें दे देता हूं। तुम वहां चले जाओ।
वह धनुर्विद उस आदमी का पता लगाते गया, एक जंगल की तलहटी में वह आदमी रहता था। तीन दिन उसके पास रहा, तब उसे पता चला कि अभी तो यात्रा धनुर्विद्या की शुरू भी नहीं हुई। तीन साल उस आदमी के चरणों में बैठ कर उसने धनुर्विद्या सीखी। लेकिन तब मन ही मन में उसे डर भी लगने लगा। अब पुराना आश्वासन न रहा कि मुझसे बड़ा धनुर्विद कोई नहीं है। यह साधारण सा आदमी लकड़ियां बेचता था गांव में, यह इतना बड़ा धनुर्विद था। और इसके बाबत किसी को खबर भी नहीं है। पता नहीं कितने और छिपे हुए लोग हों!
लेकिन तीन वर्ष उसके पास रह कर उसका आश्वासन लौट आया। वह आदमी अदभुत था। उसके हाथ में कोई भी चीज जाकर तीर बन जाती थी। वह लकड़ी का टुकड़ा भी फेंक दे तो तीर हो जाता था। वह इतना कुशल था कि लड़की के एक छोटे से टुकड़े को फेंक कर किसी के प्राण ले सकता था। वह चोट ऐसी बारीक और ऐसी सूक्ष्म जगह पर पड़ती थी कि उतनी चोट काफी थी। खून की एक बूंद न गिरे और आदमी मर जाए। तीन वर्ष में उसने सब सीख लिया। तब उसे लगा कि अब मैं घोषणा कर सकता हूं। लेकिन अब उसे एक ही कठिनाई थी कि यह जो गुरु है उसका, इसके रहते मैं चाहे घोषणा भी कर दूं--और यह गुरु ऐसा नहीं है कि प्रतिवाद करने आएगा--लेकिन इसकी मौजूदगी मेरे मन में तो बनी रहेगी कि मैं नंबर दो हूं। तो उसने सोचा कि इसको खतम करके ही चलूं।
सुबह लकड़ी काट कर गुरु लौट रहा था। एक वृक्ष की आड़ में छिप कर उसने तीर मारा--उसके शिष्य ने। गुरु तो चुपचाप लकड़ियां काट कर लौट रहा था, उसके हाथ में तो कुछ था भी नहीं। तीर उसने आते देखा तो उसने लकड़ी के बंडल से एक छोटी सी लकड़ी निकाल कर फेंकी। वह लकड़ी का टुकड़ा तीर से टकराया और तीर वापस लौट पड़ा और जाकर शिष्य की छाती में छिद गया। भागा हुआ गुरु आया, उसने तीर निकाला और उसने कहा कि यह एक बात भर तुझे सिखाने से मैंने रोक रखी थी, क्योंकि शिष्य से गुरु को सावधान होना ही चाहिए। क्योंकि अंतिम खतरा उसी से हो सकता है। लेकिन अब मैंने वह भी तुझे बता दिया। और अब तुझे मुझे मारने की जरूरत नहीं। तू समझ कि मैं मर गया। तू अब जा सकता है। मैं एक लकड़हारा हूं और अब धनुर्विद्या मैंने छोड़ दी आज से। लेकिन जाने के पहले एक ध्यान रखना, मेरा गुरु अभी जीवित है। और मेरे पास तो तीन साल में सीख लेना काफी है, उसके पास तीस जन्म भी कम होंगे। घोषणा करे, उसके पहले दर्शन कम से कम उसके कर लेना।
उसके प्राणों पर तो निराशा छा गई। ऐसा लगा कि इस जगत में प्रथम धनुर्विद होना असंभव मालूम होता है। कहां है तुम्हारा गुरु और उसकी खूबी क्या है? क्योंकि तुम्हें देखने के बाद अब कल्पना में भी नहीं आता कि और ज्यादा खूबी क्या हो सकती है।
उसके गुरु ने कहा कि अभी भी मुझे लकड़ी का एक टुकड़ा तो फेंकना ही पड़ा। इतनी भी आवाज, इतनी भी चेष्टा, इतनी भी वस्तु का उपयोग मेरी धनुर्विद्या की कमी है। मेरे उस गुरु की आंख भी तीर को लौटा दे सकती थी, उसका भाव भी तीर को लौटा दे सकता था। तू पर्वत पर जा। मैं ठिकाना बताए देता हूं। वहां तू खोजना।
वह आदमी पर्वत की यात्रा किया। उसकी सारी महत्वाकांक्षाएं धूल-धूसरित हो गई हैं। उस पर्वत पर सिवाय एक बूढ़े आदमी के कोई भी नहीं था जिसकी कमर झुक गई थी। उसने उस बूढ़े आदमी से पूछा कि मैंने सुना है कि यहां कोई एक बहुत प्रख्यात धनुर्विद रहता है। मैं उसके दर्शन करने आया हूं। उस बूढ़े आदमी ने इस युवक की तरफ देखा और कहा कि जिसकी तुम खोज करने आए हो, वह मैं ही हूं। लेकिन अगर तुम धनुर्विद्या सीखना चाहते हो तो गले में धनुष क्यों टांग रखा है?
उस आदमी ने कहा, धनुष क्यों टांग रखा है! धनुर्विद्या धनुष के बिना सीखी कैसी जा सकेगी?
तो उस बूढ़े ने कहा, जब धनुर्विद्या आ जाती है, तो धनुष की कोई भी जरूरत नहीं रहती। यह तो जरूरत तभी तक है, जब तक विद्या नहीं आती। और जब संगीत पूरा हो जाता है, तो संगीतज्ञ वीणा को तोड़ देता है। क्योंकि वीणा तब बाधा बन जाती है। अगर अभी भी वीणा की जरूरत हो तो उसका मतलब है, संगीतज्ञ का भरोसा अपने पर अभी नहीं आया। अभी संगीत आत्मा से नहीं उठता। अभी किसी इंस्ट्रूमेंट, किसी साधन की जरूरत है। जब साध्य पूरा हो जाता है, साधन तोड़ दिए जाते हैं। फिर भी तू आ गया है तो ठीक। तू सोचता है, तेरे निशाने अचूक हैं?
उस युवक ने कहा कि बिलकुल अचूक हैं। सौ में सौ निशाने मेरे लगते हैं। अब इससे ज्यादा और क्या हो सकता है? सीमा आ गई, अगर सौ प्रतिशत निशाने लगते हों और एक निशाना न चूकता हो।
वह बूढ़ा हंसा। और उसने कहा कि यह तो सब बच्चों का खेल है। प्रतिशत का हिसाब बच्चों का खेल है। तू मेरे साथ आ। और वह बूढ़ा उसे पर्वत के किनार पर ले गया, जहां नीचे भयंकर मीलों गहरा गङ्ढ है और एक शिलाखंड गङ्ढ के ऊपर फैलता हुआ चला गया है। वह बूढ़ा सरक कर, चल कर--जिसकी आधी कमर झुकी हुई है--जाकर उस पत्थर के किनारे खड़ा हो गया। उसका आधा पैर का पंजा खड्ड में झुक गया, सिर्फ आधे पैर के बल वह उस खड्ड पर खड़ा है, जहां एक सांस चूक जाए तो वह सदा के लिए खो जाए। उसने इस युवक को कहा कि अब तू भी आ करीब और ठीक ऐसे ही मेरे पास खड़ा हो जा!
उस युवक ने कहा कि मेरी हिम्मत नहीं पड़ती, हाथ-पैर कंपते हैं।
उस बूढ़े ने कहा, जब हाथ-पैर कंपते हैं, तो निशाना सधा हुआ हो कैसे सकता है? अगर हाथ कंपता है, तो तीर तो हाथ से ही छूटेगा, कंप जाएगा। तेरे निशाने लग जाते होंगे; क्योंकि जो आब्जेक्ट तू चुनता है, काफी बड़े हैं। एक तोते को तूने चुन लिया। तोता काफी बड़ी चीज है। अगर तेरा हाथ थोड़ा कंप भी रहा हो तो भी तोता मर जाएगा। लेकिन तू अगर घबड़ाता है और कंपता है और तेरा हाथ कंपता है, तो ध्यान रख, तेरे भीतर आत्मा भी कंपती होगी। वह कंपन कितना ही सूक्ष्म हो, वह कंपन जब खो जाता है, तब कोई धनुर्विद होता है। और जब वह कंपन खो जाता है, तब धनुष-बाण की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती।
उस बूढ़े ने आंखें ऊपर उठाईं। एक पक्षियों की, तीस पक्षियों की कतार जाती थी। उसकी आंख के ऊपर और नीचे गिरते ही तीसों पक्षी नीचे आकर गिर गए। उस बूढ़े ने कहा कि यह खयाल--जब आत्मा कंपती न हो--कि नीचे गिर जाओ, काफी है। यह भाव तीर बन जाते हैं।
यह एक लाओत्सियन पुरानी कथा है। इस सूत्र को समझने में आसानी होगी।
कहता है लाओत्से, "एक कुशल धावक पदचिह्न नहीं छोड़ता है।'
जो दौड़ने में कुशल है, अगर उसके पदचिह्न बन जाते हों तो कुशलता की कमी है। जमीन पर हम चलते हैं तो पदचिह्न बनते ही हैं। लेकिन पक्षी आकाश में उड़ते हैं तो कोई पदचिह्न नहीं बनता। कुशलता जितनी गहरी होती जाती है, उतनी आकाश जैसी होती जाती है। कुशलता जितनी गहरी होती जाती है, उतनी सूक्ष्म हो जाती है, स्थूल नहीं रह जाती। स्थूल में पदचिह्न बनते हैं, सूक्ष्म में कोई पदचिह्न नहीं बनते। और जितना सूक्ष्म हो जाता है अस्तित्व, उतना ही पीछे कोई निशान नहीं छूट जाता। अगर आप जमीन पर दौड़ेंगे तो पदचिह्न बनेंगे। लेकिन दौड़ने का एक ऐसा ढंग भी है कि दौड़ भी हो जाए और कहीं कोई पदचिह्न भी न छूटे।
च्वांगत्से ने, लाओत्से के शिष्य ने कहा है कि जब तुम पानी से गुजरो और तुम्हारे पैर को पानी न छुए, तभी तुम समझना कि तुम संत हुए, उसके पहले नहीं। और ऐसा मत करना कि किनारे बैठे रहो और पैर सूखे रहें तो तुम सोचो कि संत हो गए हो, क्योंकि पैर पर पानी नहीं है। पानी से गुजरना और पैर को पानी न छुए, तो ही जानना कि संत हो गए हो।
जटिल है बात थोड़ी। एक आदमी संसार छोड़ कर भाग जाता है--पानी छोड़ कर भाग जाता है, किनारे बैठ जाता है। फिर पैर सूखे रहते हैं। इसमें कुछ गुण नहीं है, पैर सूखे रहेंगे ही। लेकिन यही आदमी बीच बाजार में खड़ा है, घर में खड़ा है, पत्नी-बच्चों के साथ खड़ा है, धन-दौलत के बीच खड़ा है; जहां सब उपद्रव चल रहा है, वहां खड़ा है, और इसके पैर नहीं भीगते हैं; तभी जानना की संतत्व फलित हुआ है।
संत की परीक्षा संसार है। संसार के बाहर संतत्व तो बिलकुल आसान चीज है। लेकिन वह संतत्व नपुंसक है, इंपोटेंट है। जहां कोई गाली नहीं देने आता, वहां क्रोध के न उठने का क्या अर्थ है? या जहां जो भी आता है, प्रशंसा करता आता है, वहां क्रोध के न उठने का क्या अर्थ है? जहां उत्तेजनाएं नहीं हैं, टेंपटेशंस नहीं हैं, जहां वासनाओं को भीतर से बाहर खींच लेने की कोई सुविधा नहीं है, वहां अगर वासनाएं थिर मालूम पड़ती हों तो आश्चर्य क्या है? लेकिन जहां सारी सुविधाएं हों, सारी उत्तेजनाएं हों, जहां प्रतिपल आघात पड़ता हो प्राणों पर, जहां सोई हुई वासना को खींच लेने के सब उपाय बाहर काम कर रहे हों और भीतर से कोई वासना न आती हो, तभी--जब पानी से गुजरो और पैर न छुए पानी को, पानी न छुए पैर को, तभी--तभी जानना कि संतत्व।
तो पानी और पैर के बीच में जो अंतराल है, वहीं संतत्व है।
कमल का पत्ता है। वह खिला रहता है पानी में। पानी की बूंद भी उस पर पड़ जाएं तो भी छूती नहीं। एक अंतराल है, पत्ते और बूंद के बीच में एक फासला है। बूंद लाख उपाय करे, तो भी उस अंतराल को पार नहीं कर पाती। वह अंतराल ही संतत्व है। बूंद गिर जाती है, पत्ते को पता ही नहीं चलता। बूंद आती है, चली जाती है, पत्ते को पता ही नहीं चलता। बूंद खुद वजनी हो जाती है, पत्ता झुक जाता है और बूंद नीचे गिर जाती है। बूंद हलकी होती है, बनी रहती है; बूंद भारी हो जाती है, गिर जाती है। यह बूंद का अपना ही काम है; पत्ते का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन कमल का पत्ता अगर कहे कि मैं सरोवर को छोडूंगा, क्योंकि पानी यहां मुझे बहुत छूता है, गीला कर जाता है, तो फिर जानना कि वह पत्ता कमल का नहीं है। कमल के पत्ते को अंतर ही नहीं पड़ता वह बाहर है या भीतर, वह पानी में है या पानी के बाहर। क्योंकि पानी के भीतर होकर भी पानी के बाहर होने का उपाय उसे पता है। इसलिए बाहर भागने का कोई अर्थ नहीं है, कोई संगति नहीं है।
लाओत्से कहता है, "एक कुशल धावक पदचिह्न नहीं छोड़ता।'
इसे थोड़ा समझें। जितनी तेजी से आप दौड़ेंगे, उतना ही कम स्पर्श होगा जमीन का। इसको अंतिम, चरम की अवस्था पर ले जाएं। अगर तेजी आपकी बढ़ती ही चली जाए तो जमीन से स्पर्श कम होता जाएगा। जब आप धीमे चलते हैं, पैर पूरा जमीन पर बैठता है--छूता है, उठता है, फिर जमीन को छूता है। जब आप तेजी से दौड़ते हैं, जमीन को कम छूता है। अगर तेजी और बढ़ती चली जाए...।
अभी वैज्ञानिक ऐसी गाड़ियां, ऐसी कारें ईजाद किए हैं, जो एक विशेष गति पकड़ने पर जमीन से ऊपर उठ जाएंगी। क्योंकि उतनी गति पर जमीन को छूना असंभव हो जाएगा। तो जल्दी ही, जल्दी ही, जैसे कि हवाई जहाज एक विशेष गति पर टेक ऑफ लेता है, एक विशेष गति को पकड़ने के बाद जमीन छोड़ देता है, ठीक वैसे ही कारें भी एक खास गति लेने के बाद जमीन से एक फीट ऊपर उठ जाएंगी। फिर रास्तों की खराबी निष्प्रयोजन हो जाएगी, उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। रास्ते कैसे भी हों, गाड़ी को कोई अंतर नहीं पड़ेगा। रास्ता न भी हो तो भी गाड़ी को कोई अंतर नहीं पड़ेगा। एक फीट का फासला उस गति पर बना ही रहेगा। तो सिर्फ फासला पकड़ने के लिए रन-ओवर की जरूरत होगी; उतरने के लिए। लेकिन बीच की यात्रा बिना कठिनाई के, बिना रास्तों के की जा सकती है। लेकिन तब कार आपके घर के सामने से निकल गई हो, तो भी चिह्न नहीं छोड़ेगी
यह उदाहरण के लिए कहता हूं। ठीक ऐसे ही अंतस-चेतना में भी गतियां हैं। कुशल धावक जब चेतना में इतनी गति ले आता है, तो फिर कोई चिह्न नहीं छूटते। कोई चिह्न नहीं छूटते। आप पर चिह्न छूटते हैं, उसका कारण संसार नहीं है, आपकी गति बहुत कम है। एक आदमी शराब पीता है। शराब के चिह्न छूटेंगे। स्वभावतः हम सोचते है, शराब में खराबी है। इतना आसान मामला नहीं है। शराब के चिह्न छूटते हैं, शराब की बेहोशी छूटती है; क्योंकि शराब की गति और इस आदमी की चेतना की गति में जो अंतर है, वही कारण है। इस आदमी की चेतना की गति शराब से ज्यादा नहीं है; शराब से नीची है। शराब ओवरपावर कर लेती है, आच्छादित कर लेती है।
तंत्र ने बहुत प्रयोग किए हैं नशों के ऊपर। और तंत्र ने चेतना की गति को बढ़ाने के अनूठे-अनूठे उपाय खोजे हैं। इसलिए किसी तांत्रिक को कितनी ही शराब पिला दो, कोई भी बेहोशी नहीं आएगी। क्योंकि चेतना की गति शराब की गति से सदा ऊपर है। शराब ऊपर जाकर स्पर्श नहीं कर सकती, केवल नीचे उतर कर स्पर्श कर सकती है। जब आपकी चेतना की गति धीमी होती है, शराब की तीव्र होती है, तब आपको स्पर्श करती है।
तंत्र ने संभोग के लिए अनेक-अनेक विधियां निकाली हैं। और तांत्रिक संभोग करते हुए भी काम से दूर बना रह सकता है। यह जटिल बात है। क्योंकि जब कामवासना आपको पकड़ती है, तो आपकी आत्मा की गति बिलकुल खो जाती है, कामवासना की ही गति रह जाती है। इसलिए आप उससे आंदोलित होते हैं। अगर आपकी चेतना की गति ज्यादा हो तो कामवासना नीचे पड़ जाएगी।
हमारी हालत ऐसी है, हमेशा हमने आकाश में बादल देखे हैं--अपने से ऊपर। जब कभी आप हवाई जहाज में उड़ रहे हों, तब आपको पहली दफे पता चलता है कि बादल नीचे भी हो सकते हैं। जब बादल आपके ऊपर होते हैं, तो उनकी वर्षा आपके ऊपर गिरेगी। और जब बादल आपके नीचे होते हैं, तो आप अछूते रह सकते हैं। उनकी वर्षा से कोई अंतर नहीं पड़ता है।
यह थोड़ी जटिल बात है कि चेतना की गति क्या है? उसकी गति है। इसे हम थोड़े से खयाल लें तो हमारी समझ में आ जाए। आप भी चेतना की बहुत गतियों से परिचित हैं, लेकिन आपने कभी निरीक्षण नहीं किया है। आपने यह बात सुनी होगी कि अगर कोई आदमी पानी में डूबता है, तो एक क्षण में पूरे जीवन की कहानी उसके सामने गुजर जाती है। यह सिर्फ खयाल नहीं है, वैज्ञानिक है। लेकिन एक आदमी सत्तर साल जीया और जिस जिंदगी को जीने में सत्तर साल लगे, एक क्षण में, एक डुबकी के क्षण में, जब कि मौत करीब होती है, सत्तर साल एकदम से कैसे घूम जाते होंगे?
सत्तर साल लगे इसलिए कि जीवन-चेतना की गति बहुत धीमी थी। बैलगाड़ी की रफ्तार से आप चल रहे थे। लेकिन मौत के क्षण में, वह जो शिथिलता है, वह जो तमस है, वह जो बोझ था आलस्य का, वह सब टूट गया। मौत ने सब तोड़ दिया। साधारणतः भी मौत आती है, लेकिन ऐसा नहीं होता; क्योंकि मौत का आपको पता नहीं होता। अपनी खाट पर मरता है आदमी आमतौर से। तो खाट पर मरने वाले को कोई पता नहीं होता कि वह मर रहा है। इसलिए चेतना में त्वरा नहीं आती। नदी में डूब कर जो आदमी मर रहा है, वह जानता है कि मर रहा हूं, क्षण भर की देर है और मैं गया। यह बोध उसकी चेतना को त्वरा दे देता है, गति दे देता है। वह जो बैलगाड़ी की रफ्तार से चलने वाली चेतना थी, पहली दफा उसको पंख लग जाते हैं, हवाई जहाज की गति से चलती है। इसलिए जो सत्तर साल जीने में लगा, वह एक क्षण में देखने में आ जाता है। एक क्षण में सब देख लिया जाता है।
छोड़ें! क्योंकि पानी में मरने का आपको कोई अनुभव नहीं है। लेकिन कभी आपने खयाल किया है कि टेबल पर बैठे-बैठे झुक गए और एक झपकी आ गई; और झपकी में आपने एक स्वप्न देखा। स्वप्न लंबा हो सकता है कि आप किसी के प्रेम में पड़ गए, विवाह हो गया, बच्चे हो गए। बच्चों का विवाह कर रहे थे, तब जोर की शहनाई बज गई और नींद खुल गई। घड़ी में देखते हैं तो लगता है कि एक मिनट बीता है। पर एक मिनट में इतनी घटना का घट जाना कैसे संभव है? अगर आप, जो-जो आपने सपने में देखा, उसका विवरण भी बताएं, तो भी एक मिनट से ज्यादा वक्त लगेगा। और सपने में आपको ऐसा नहीं लगा कि चीजें बड़ी जल्दी घट रही हैं; व्यवस्था से, समय से घट रही हैं। इस एक मिनट में आपने कोई तीस साल--प्रेम, विवाह, बच्चे, उनका विवाह--कोई तीस साल का फासला पूरा किया है। और आपको एक क्षण को भी सपने में ऐसा नहीं लगा कि चीजें कुछ जल्दी घट रही हैं, कि कैलेंडर को कोई जल्दी-जल्दी फाड़े जा रहा है, जैसा कि फिल्म में दिखाना पड़ता है उनको--कैलेंडर उड़ा जा रहा है, तारीख एकदम बदली जा रही है। ऐसा भी कोई भाव स्वप्न में नहीं होता। चीजें अपनी गति से घट रही हैं। लेकिन एक मिनट में यह कैसे घट जाता है?
वैज्ञानिक बहुत चिंतित रहे हैं। क्योंकि यह टाइम, समय का इस भांति घट जाना बड़ी मुश्किलें खड़ी करता है। इसके मतलब दो ही हो सकते हैं। इसका मतलब एक तो यह हो सकता है कि जब हम जागते हैं तो हम दूसरे समय में होते हैं जिसकी रफ्तार अलग है, और जब हम सोते हैं तो हम दूसरे समय में होते हैं जिसकी रफ्तार अलग है। लेकिन दो समय को मानने में बड़ी अड़चनें हैं, वैज्ञानिक चिंतन की अड़चनें हैं। और अभी तक वैज्ञानिक साफ नहीं कर पाए कि यह मामला क्या होगा।
इसे हम दूसरी तरफ से देखें, योग की तरफ से, तो यह मामला इतना जटिल नहीं है। समय तो एक ही है, लेकिन समय में घूमने वाली चेतना की रफ्तार बदलने से फर्क पड़ता है। जागते में भी वही समय है, सोते में भी वही समय है। लेकिन जागते में आपकी चेतना बैलगाड़ी की रफ्तार से चलती है। क्यों? क्योंकि जागते में सारा संसार अवरोध है। अगर जागते में मुझे आपके घर आना है तो तीन मील का फासला मुझे पार करना ही पड़ेगा। लेकिन स्वप्न में कोई अवरोध नहीं है। इधर मैंने चाहा, उधर मैं आपके घर पहुंच गया। वह तीन मील का जो फासला था स्थूल, वह बाधा नहीं डालता। जाग्रत में सारा जगत बाधा है। हर तरफ बाधाएं हैं--दीवार बाधा है, रास्ते बाधा हैं, लोग बाधा हैं--सब तरह की बाधाएं हैं। स्वप्न में निर्बाध हैं आप। आप अकेले हैं, सब खो गया। जगत है कोरा और आप अकेले हैं; कहीं कोई रेसिस्टेंस नहीं है। इसलिए आपकी चेतना तीर की रफ्तार से चल पाती है।
यह जो चेतना की रफ्तार है, इसकी वजह से, जो तीस साल में घटता, वह एक मिनट में घट जाता है। चेतना की रफ्तार के कारण बड़ी चीजें संभव हो जाती हैं। आदमी सत्तर साल जीता है। कुछ पशु हैं जो दस साल जीते हैं। कोई पशु हैं जो पांच साल जीते हैं। कुछ कीड़े-पतिंगे हैं जो घड़ी भर जीते हैं। कुछ और छोटे जीवाणु हैं जो क्षण भर जीते हैं। कुछ और छोटे जीवाणु हैं कि आप अपनी सांस लेते हैं और छोड़ते हैं, उतने में उनका जन्म, प्रेम, संतान, मृत्यु, सब हो जाता है। लेकिन यह कैसे होता होगा? इतने छोटे, अल्प काल में यह सब कैसे होता होगा?
चेतना की रफ्तार का सवाल है। जितनी चेतना की रफ्तार होगी, उतने कम समय की जरूरत होगी। जितनी कम चेतना की रफ्तार होगी, उतने ज्यादा समय की जरूरत होगी। और चेतना की रफ्तार पर अब तक वैज्ञानिक अर्थों में कुछ नहीं हो सका। लेकिन योगियों ने बहुत कुछ किया है।
लाओत्से का यह कहना कि कुशल धावक पदचिह्न नहीं छोड़ता, सिर्फ इसी बात को कहने का दूसरा ढंग है कि चेतना जब त्वरा में दौड़ती है, तीव्रता में दौड़ती है, जब उसकी गति तेज हो जाती है, तो उसके कोई चिह्न आस-पास नहीं छूटते। जितना धीमे सरकने वाली चेतना हो, उतने चिह्न छोड़ती है। इसका मतलब यह होगा कि जिनको हम इतिहास में पढ़ते हैं, ये आमतौर से धीमे सरकने वाली चेतनाएं हैं। चंगीज, तैमूर, हिटलर, नेपोलियन, स्टैलिन, बहुत धीमी सरकने वाली चेतनाएं हैं। यह भी हो सकता है--हुआ ही है--कि जो हमारे बीच बहुत प्रकाश की गति से चलने वाली चेतनाएं थीं, उनका हमें कोई पता ही नहीं है। क्योंकि उनका पता हमें नहीं हो सकता।
यहां हम बैठे हैं। मैं आपसे बोल रहा हूं तो मेरी आवाज आपको सुनाई पड़ती है। लेकिन आप यह मत सोचना कि यही एक आवाज यहां है। यहां बड़ी तेज आवाजें भी आपके पास से गुजर रही हैं। लेकिन वे इतनी तेज हैं कि आपके कान उन्हें पकड़ नहीं पाते। और जीवन के लिए जरूरी भी है कि अगर आप उनको पकड़ पाएं तो आप पागल हो जाएंगे। क्योंकि फिर उनको ऑन-ऑफ करने का कोई उपाय आपके शरीर में नहीं है। यहां से अनंत आवाजें आपके पास से गुजर रही हैं। लेकिन आपको उनका कोई पता नहीं है। जब रात में आप कहते हैं कि बिलकुल सन्नाटा है, तब आपके लिए सन्नाटा है; अस्तित्व में अनंत आवाजें--भयंकर, प्रचंड आवाजें--आपके पास से गुजर रही हैं। आपके कान समर्थ नहीं हैं। आपके कान की एक सीमा है, एक खास वेवलेंथ में आपके कान आवाज को पकड़ते हैं। उसके पार आपको कुछ पता नहीं है।
हम देखते हैं; तो प्रकाश की भी एक विशेष सीमा हम देखते हैं। उसके पार बड़े-बड़े प्रकाश के प्रचंड झंझावात हमारे पास से गुजर रहे हैं, वे हमें दिखाई नहीं पड़ते। अभी-अभी विज्ञान को खयाल में आना शुरू हुआ कि जो हम देखते हैं, वह सब नहीं है, बहुत थोड़ा है। जो अनदिखा रह जाता है, वह बहुत ज्यादा है। जो हम सुनते हैं, वह सब नहीं है। जो हम सुनते हैं, वह अत्यल्प है। जो अनसुना रह जाता है, वह महान है। लेकिन क्यों हमारी सुनाई में नहीं आता? क्योंकि उसकी गति तीव्र है। उसकी गति इतनी तीव्र है कि हम पर उसका कोई चिह्न नहीं छूटता। हम अछूते ही खड़े रह जाते हैं।
ऐसा समझें, एक बिजली का पंखा घूम रहा है। जब वह धीमा घूमता है, तब आपको तीन पंखुड़ियां दिखाई पड़ती हैं। जब वह और तेजी से घूमने लगता है तो आपको पंखुड़ियां नहीं दिखाई पड़तीं। यह भी हो सकता है, एक ही पंखुड़ी घूम रही हो; यह भी हो सकता है, दो घूम रही हों; यह भी हो सकता है, तीन घूम रही हों। अब आप पंखुड़ी का अंदाज नहीं कर सकते। अगर वह और तेजी से घूमे तो धीरे-धीरे धुंधला होता जाएगा। जितना तेज घूमेगा, उतना धुंधला होता जाएगा। अगर वह इतनी तेजी से घूमे जितनी तेजी से प्रकाश की किरण चलती है तो आपको दिखाई नहीं पड़ेगा। लेकिन--यह तो हम समझ सकते हैं कि शायद दिखाई न पड़े--लेकिन अगर वह इतनी तेजी से घूमे और आप अपना हाथ उसमें डाल दें तो? इतनी तेजी से घूमे कि हमें दिखाई न पड़े और हम अपना हाथ उसमें डाल दें तो क्या होगा? हाथ तो कट जाएगा, लेकिन हमें कारण बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेगा कि कारण क्या था कट जाने का।
हमारे जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं घट रही हैं जब अदृश्य कारण हमें काटते हैं। हमें दिखाई नहीं पड़ता, तो हम समझ नहीं पाते कि क्या हो रहा है। या जो हम समझते हैं, वह गलत होता है। हम कुछ और कारण सोच लेते हैं कि इससे हो रहा है, उससे हो रहा है। त्वरा से शक्तियां हमारे चारों तरफ घूमती हैं। उनका चिह्न तभी हम पर छूटता है, जब हम उनके आड़े पड़ जाते हैं। अन्यथा उनका हमें कोई स्पर्श भी नहीं होता।
लाओत्से कहता है, "कुशल धावक पदचिह्न नहीं छोड़ता।'
अगर छोड़ता है तो समझना कि अभी दौड़ बहुत धीमी है।
"एक बढ़िया वक्तव्य प्रतिवाद के लिए दोषरहित होता है।'
जब किसी वक्तव्य में दोष खोजा जा सके, तो समझना चाहिए कि वक्तव्य अधूरा है, पूरा नहीं है। लेकिन बड़ी कठिनाई है। अगर वक्तव्य पूरा हो तो आपकी समझ में न आएगा। अगर वक्तव्य आपकी समझ में आए तो अधूरा होगा। और अधूरे में दोष खोजे जा सकते हैं। क्योंकि वक्तव्य अगर पूरा होगा तो आपकी समझ पर भी कोई चिह्न नहीं छूटेगा। इसलिए अक्सर लोग कहते हैं कि--अगर कोई ऊंची बात कही जाए तो वे कहते हैं--सिर के ऊपर से गुजर गई। वह सिर के ऊपर से इसलिए गुजर जाती है कि आप पर उसका कोई चिह्न छूटता मालूम नहीं पड़ता। आपकी बुद्धि उसे कहीं से भी पकड़ नहीं पाती, कहीं से भी कोई संबंध नहीं जुड़ता। सुनते हैं, और जैसे नहीं सुना। आया और गया, और जैसे आया ही न हो। या जैसे किसी स्वप्न में सुना हो, जिसकी प्रतिध्वनि रह गई, जो बिलकुल समझ के बाहर है।
इसलिए वक्तव्य अगर पूरा हो तो उसमें दोष नहीं खोजा जा सकता। लेकिन वक्तव्य अगर पूरा हो तो समझना ही मुश्किल हो जाता है। जैसे महावीर के वक्तव्य बहुत कम समझे जा सके हैं; क्योंकि वक्तव्य पूरे होने के करीब-करीब हैं। करीब-करीब इतने हैं कि महावीर के संबंध में जो कथा है, वह बड़ी मधुर है। वह यह है कि महावीर बोलते नहीं थे, चुप बैठे रहते थे, लोग सुनते थे। यह कथा बहुत मीठी है। और कथा ही नहीं है।
अगर वक्तव्य को पूर्ण करना हो तो वाणी का उपयोग नहीं किया जा सकता। क्योंकि वाणी तो आदमी की ईजाद है, और अधूरी है। शब्दों का उपयोग नहीं किया जा सकता। क्योंकि सब शब्द, कितने ही उचित हों, फिर भी दोषपूर्ण हैं। असल में, जो चीज भी आघात से उत्पन्न होती है, उसमें दोष होगा। और शब्द एक आघात है--ओंठ का, कंठ का। संघर्ष है। और जो भी चीज संघर्ष से पैदा हो, वह दोषपूर्ण होगी। वह पूर्ण नहीं हो सकती।
एक ऐसा नाद भी है मौन का, जिसे हम कहते हैं अनाहत। अनाहत का अर्थ है जो आघात से उत्पन्न न हुआ हो, आहत न हो, जो किसी चीज के टकराने से पैदा न हुआ हो। जो किसी की टक्कर से पैदा होगा, उसमें दोष होगा। लेकिन शब्द तो टक्कर से ही पैदा होते हैं। तो एक ऐसा स्वर भी है मौन का जो अनाहत है, जो आहत नहीं है, जो किसी चीज की चोट से पैदा नहीं होता।
तो महावीर के संबंध में कहा जाता है, वे चुप रहे और चुप्पी से बोले, मौन रहे और मौन से बोले। लेकिन तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। समझेगा कौन उन्हें? इसलिए कहते हैं कि महावीर के ग्यारह गणधर थे, उनके ग्यारह निकटतम शिष्य थे, वे उन्हें समझे। फिर उन्होंने लोगों को वाणी से कहा। अब इसमें बड़े उपद्रव हैं। क्योंकि जो समझने वाले ग्यारह गणधर थे, उनमें कोई भी महावीर की हैसियत का व्यक्ति न था। इसलिए महावीर ने जितना मौन से कहा, उसका एक अंश उन्होंने समझा। फिर जो अंश उन्होंने समझा, उसका एक अंश ही वे लोगों से शब्दों में कह पाए। और जो एक अंश लोगों ने सुना, उसका भी एक अंश उनकी बुद्धि पकड़ पाई।
लेकिन ऐसा महावीर के साथ ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। ऐसा प्रत्येक मनीषी जब बोलता है, तो यही होता है। इस घटना में हमें विभाजन करना आसान होता है। लेकिन जब किसी को भी--लाओत्से को, बुद्ध को, महावीर को--किसी को भी सत्य का अनुभव होता है, तो वह पूर्ण होता है। वह वक्तव्य पूरा है। वहां कोई दोष नहीं होता। लेकिन इस वक्तव्य को, इस घटना को, इस तथ्य को, जो अनुभव में आता है, जैसे ही महावीर खुद भी अपने भीतर शब्द देना शुरू करते हैं, गणधर के हाथ में बात पहुंच गई। मन अब उसको शब्द देगा। तो जो आत्मा ने जाना, उसका एक अंश मन को समझ में आएगा। अब यह मन उसे प्रकट करेगा वाणी से बाहर। तो मन जितना समझ पाता है, उतना भी शब्द नहीं बोल पाते। फिर ये शब्द आपके पास पहुंचते हैं। फिर इन शब्दों में से जितना आप समझ पाते हैं, उतना आप पकड़ लेते हैं। सत्य जो जाना गया था, और सत्य जो संवादित हुआ, इसमें जमीन-आसमान का फर्क हो जाता है।
इसलिए सत्य बोलने वालों को सदा ही अड़चन होती है। और वह यह कि जो बोला जा सकता है, वह सत्य होता नहीं। और जो बोलना चाहते हैं, वह बोला नहीं जा सकता। इन दोनों के बीच कहीं समझौता करना पड़ता है। सभी शास्त्र इसी समझौते के परिणाम हैं। इसलिए शास्त्र सहयोगी भी हैं और खतरनाक भी। अगर कोई इसको समझ कर चले कि शास्त्रों में बहुत अल्प ध्वनि आ पाई है वक्तव्य की, तो सहयोगी हैं। और अगर कोई समझे कि शास्त्र सत्य है, तो खतरनाक हैं।
लाओत्से कहता है, वक्तव्य जब पूर्ण होता है, तो उसमें प्रतिवाद के लिए कोई उपाय नहीं।
लेकिन आपने कोई ऐसा वक्तव्य सुना है, जिसका प्रतिवाद न किया जा सके? किसी ने कहा, ईश्वर है। क्या अड़चन है? आप कह सकते हैं, ईश्वर नहीं है। किसी ने कहा, आत्मा है; आप कह सकते हैं, नहीं है। किसी ने कहा कि मैं आनंद में हूं; आप कह सकते हैं, हमें शक है। आपने ऐसा कोई वक्तव्य सुना है कभी, जिसका प्रतिवाद न किया जा सके? नहीं सुना है। क्या ऐसा कोई वक्तव्य कभी दिया ही नहीं गया है, जिसका प्रतिवाद न किया जा सके? नहीं, ऐसे बहुत वक्तव्य दिए गए हैं। अड़चन है थोड़ी। ऐसे बहुत वक्तव्य दिए गए हैं, जिनका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। लेकिन आपने अब तक ऐसा कोई वक्तव्य नहीं सुना है, जिसका प्रतिवाद न किया जा सके।
इसका क्या मतलब हुआ? यह तो बड़ी विरोधाभासी बात हो गई। इसका मतलब यह है कि अगर आप प्रतिवाद कर पाते हैं तो उसका कुल कारण इतना है कि जो वक्तव्य दिया गया, उसको आप समझ नहीं पाते; और जो आप समझते हैं, उसका प्रतिवाद करते हैं। जो वक्तव्य दिया गया है, उसे आप समझ नहीं पाते। समझ पाएं तो ऐसे वक्तव्य दिए गए हैं जिनका प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। लेकिन जो आप समझ पाते हैं, उसका प्रतिवाद किया जा सकता है। आप अपनी ही समझ का प्रतिवाद करते रह सकते हैं।
लाओत्से कहता है, ऐसे वक्तव्य हैं, जो पूर्ण हैं।
लेकिन वक्तव्य पूर्ण कब होता है? क्या शब्दों की कुशलता से, व्याकरण की व्यवस्था से वक्तव्य पूर्ण होता है? क्या जिसमें कोई व्याकरण की भूल-चूक न हो, शब्द-शास्त्र पूर्ण हो, वह वक्तव्य पूर्ण होता है? लाओत्से के हिसाब से नहीं। लाओत्से के हिसाब से वह वक्तव्य पूर्ण है--चाहे उसमें व्याकरण की भूलें हो, शब्द गलत हों--वह वक्तव्य पूर्ण है जो अनुभव से निःसृत होता है।
दो तरह के वक्तव्य हैं। एक, जो वक्तव्यों से निःसृत होते हैं; और दूसरे, जो अनुभवों से। आप कहते हैं, ईश्वर है। यह आपके अनुभव से नहीं आता। यह किसी ने आपको कहा है, उसके वक्तव्य से आपके भीतर निर्मित होता है। यह वक्तव्यों की प्रतिध्वनि है, आपके अनुभव का निर्झर नहीं। आपके अनुभव से इसका जन्म नहीं है। सुने हुए शब्दों का संकलन है। सुना है आपने, उसे आप दोहरा देते हैं। यह स्मृति है, ज्ञान नहीं।
आपके अनुभव से जब कोई वक्तव्य आता है, सीधा, प्रत्यक्ष, आपके भीतर से जन्मता है, तब पूर्ण होता है। और तब हो सकता है व्याकरण सहायता न दे; तब हो सकता है भाषा टूटी-फूटी हो। अक्सर होगा। क्योंकि वक्तव्य इतना बड़ा होता है कि भाषा का जो भवन है, छोटा पड़ जाता है। उस वक्तव्य को भीतर ढालते हैं तो भवन खंडहर हो जाता है। वक्तव्य इतना बड़ा होता है कि सब शब्दों को तोड़-मरोड़ डालता है।
गुरजिएफ ऐसी भाषा बोलता था, जिसमें कोई व्याकरण ही न था। उसकी अंग्रेजी समझनी तो बड़ी मुश्किल बात थी। वे ही लोग समझ सकते थे, जो वर्षों से उसे सुन रहे थे और हिसाब रखते थे कि उसका क्या मतलब होगा। लेकिन फिर भी पश्चिम के श्रेष्ठतम ज्ञानी उसके चरणों में बैठे। पावेल ने लिखा है कि उसके शब्द सुन कर ऐसी कठिनाई होती थी कि कोई हथौड़े मार रहा है। लेकिन फिर भी उसके पास जाने का मोह नहीं छूटता था। वह जो कह रहा था, वह तो बिलकुल ही अजीब था; लेकिन वह जो कहने वाला भीतर था, वह खींचता था, वह पकड़ता था।
उसकी पहली किताब जो उसने वर्षों लिखी और लिखवाई, इस सदी की श्रेष्ठतम किताबों में एक है: आल एंड एवरीथिंग। मगर इससे ज्यादा बेबूझ किताब कभी नहीं लिखी गई। एक मित्र को उसने अमरीका में कहा था कि कुछ मित्रों को बुलाना और किताब पढ़ी जाएगी। क्योंकि वर्षों तक उसने किताब छापी नहीं, वह छापने योग्य थी भी नहीं। भाषा गोल-गोल है। और कभी-कभी तो एक पूरे पृष्ठ पर एक ही वाक्य फैलता चला जाता है। और पीछे लौट कर दुबारा वाक्य पढ़ना पड़ता है कि इसने वाक्य के शुरू में क्या कहा था और वाक्य के बाद में क्या कहता है। फिर कोई तालमेल नहीं मालूम पड़ता। और ऐसा लगता है कि अगर उसको एक मतलब की बात कहनी हो तो कम से कम हजार बेमतलब की बातें पहले कहता है और फिर वह एक मतलब की बात कहता है। वर्षों तक उसके मित्र इकट्ठे होते, किताब का एक पन्ना पढ़ा जाता, और फिर वह कहता, कैसा लगा? कुछ समझ में न आता।
अमरीका में किसी मित्र को उसने कहा था कि दस-पांच लोगों को बुला लेना; किताब पढ़ी जाएगी। चूंकि किताब छपी नहीं थी, बहुत लोग उत्सुक थे। तो अमरीका का एक बहुत बड़ा बिहेवियरिस्ट मनोवैज्ञानिक वाटसन भी उस बैठक में मौजूद था। वह बहुत विचारशील आदमी था। और इस सदी के मनोविज्ञान में एक अलग परंपरा को, फ्रायड से बिलकुल अलग चलाने वाले जन्मदाताओं में से एक था। उसका मानना है कि आदमी सिर्फ एक यंत्र है, कोई आत्मा वगैरह नहीं है। और उसने बड़े गहरे काम किए इस दिशा में। वाटसन भी था। उसको तो बड़ी मुश्किल हो गई। और भी पांच-सात लोग थे। लेकिन और किसी की तो हिम्मत न पड़ी; लेकिन जो आदमी कहता है आत्मा ही नहीं है, उसकी हिम्मत तो पड़ ही सकती है। उसने खड़े होकर कहा कि महाशय गुरजिएफ, या तो आप हमारे साथ कोई मजाक कर रहे हैं! यह जो पढ़ा जा रहा है, यह क्या है? या तो आप जान-बूझ कर कोई मजाक कर रहे हैं, और या फिर हम किसी पागलखाने में बैठे हैं। कृपा करके यह किताब बंद की जाए और कुछ बातचीत हो, जिसमें कुछ अर्थ हो।
गुरजिएफ बहुत हंसा और उसने कहा कि बातचीत भी मेरी ही होगी और यह किताब भी मेरी ही है। और जिस ढंग से तुम अर्थ खोजने के आदी हो, उस ढंग से मेरी बातचीत में कोई भी अर्थ नहीं है। मैं किसी ऐसी जगह से बोल रहा हूं, जहां मुझे पता है कि मैं क्या बोल रहा हूं; लेकिन शब्द छोटे पड़ जाते हैं। और जब मैं उनको शब्दों में रखता हूं, तब मुझे लगता है सब फीका हो गया।
और ये इतने जो बेबूझ शब्द हैं, इतनी जो लंबी किताब है...एक हजार पृष्ठ की किताब है। और जब पहली दफे गुरजिएफ ने छापी, तो उसके नौ सौ पन्ने जुड़े हुए थे, कटवाए नहीं थे। सिर्फ सौ पन्ने की भूमिका कटी हुई थी और खुली थी। और एक वक्तव्य था भूमिका के साथ कि अगर आप सौ पन्ने पढ़ कर भी सोचें कि आगे पढ़ेंगे, आगे पढ़ने वाले हैं, तो पन्ने काटें, अन्यथा किताब को दूकानदार को वापस कर दें।
लेकिन सौ पन्ने के आगे जाना बहुत मुश्किल है। और मैं समझता हूं कि जमीन पर दस-बारह आदमी खोजने मुश्किल हैं, जिन्होंने गुरजिएफ की पूरी किताब ईमानदारी से पढ़ी हो। बहुत मुश्किल मामला है। क्योंकि पांच सौ पन्ने पढ़ जाएं, जब कहीं एकाध वाक्य ऐसा लगता है कि इसमें कुछ मतलब है। मतलब तो सब में है, लेकिन मतलब इतना ज्यादा है कि शब्द छोटे पड़ जाते हैं। वह ऐसे ही जैसे कि एक बड़े आदमी को छोटे बच्चे के कपड़े पहना दिए हैं, और वह एक मजाक मालूम पड़े। शरीर उसका कहीं से भी निकल-निकल पड़ता हो कपड़ों से। और कपड़े कपड़े न मालूम पड़ें, बल्कि जंजीरें मालूम पड़ें।
भाषा, व्याकरण वक्तव्य को पूर्ण नहीं बनाती। सुडौल बनाती है, सुरुचिपूर्ण बनाती है, स्वादिष्ट भी बनाती है; लेकिन पूर्ण नहीं बनाती। वक्तव्य तो पूर्ण होता है उस भीतर के प्रकाश से, जो शब्दों की कंदील के बाहर निकलता है। अगर कंदील थोड़ी भी गंदी हो, थोड़ी भी अस्पष्ट हो, तो वह प्रकाश भी अस्पष्ट हो जाता है। लेकिन कंदील कितनी ही स्वच्छ हो तो भी वह प्रकाश पूरा प्रकट नहीं हो पाता। क्योंकि कांच कितना ही स्वच्छ और ट्रांसपैरेंट क्यों न हो, फिर भी एक बाधा है।
"एक बढ़िया वक्तव्य प्रतिवाद के लिए दोषरहित होता है। एक कुशल गणक को गणित्र की जरूरत नहीं रहती।'
आप जोड़ते हैं दो और दो, तो आपको ऐसा जोड़ना नहीं पड़ता अंगुलियों पर कि एक, दो, तीन, चार; एक छोटे बच्चे को जोड़ना पड़ता है। छोटे बच्चे की अंगुलियां जोर से पकड़ लो, वे जोड़ न पाएंगे। क्योंकि जब तक अंगुलियों को गति न मिले, उनको कठिनाई हो जाएगी।
आदिम कौमें हैं, जिनके पास दस से ज्यादा की संख्या नहीं है। दस के बाद उनको फिर एक, दो से शुरू करना पड़ता है। और अगर सौ, दो सौ की संख्या में कोई चीज पड़ी हो तो फिर वे संख्या गिनते ही नहीं। फिर वे कहते हैं: ढेर, असंख्य। फिर उसमें कोई संख्या नहीं रह जाती। क्योंकि गिनने का जो गणित्र है उनका, वे अंगुलियां हैं। ऐसे तो हमारा सारा गणित ही अंगुलियों पर ही खड़ा है। इसलिए हमारे दस के आंकड़े बुनियाद में हैं। क्योंकि दस अंगुलियां हैं आदमी को, और कोई कारण नहीं है। दस डिजिट--एक से लेकर दस तक। और फिर इसके बाद ग्यारह पुनरुक्ति है। फिर इक्कीस पुनरुक्ति है। असल में, आदमी पहले अंगुलियों पर ही गिनता रहा है। तो दस तक तो गिन लेता था, फिर से शुरू करना पड़ेगा एक से। ग्यारह भी फिर से शुरू करना है। इक्कीस फिर से शुरू करना है। दस में हमारी भी संख्या पूरी हो जाती है। अंगुलियों की वजह से हमारा गणित दस के डिजिट और आंकड़ों पर खड़ा है।
लेकिन जब आप गणित में कुशल हो जाते हैं, तो आपको ऐसा गिनना नहीं पड़ता कि दो और दो चार। दो और दो किसी ने कहे कि आपको भीतर चार हो जाते हैं। लेकिन दो-दो में तो आसान है, कोई बड़ी लंबी संख्या बोल दे, दस-बारह आंकड़ों की संख्या बोल दे और कह दे कि गुणा करो इसमें दस-बारह आंकड़ों की संख्या से। तब आपको गणित्र का उपयोग करना पड़े। कोई न कोई विधि का उपयोग करना पड़े।
लेकिन रामानुजम था, वह इसमें भी उपयोग नहीं करेगा। जब रामानुजम पहली दफा आक्सफोर्ड ले जाया गया और आक्सफोर्ड के प्रोफेसर हार्डी ने, जो वहां गणित के बड़े से बड़े ज्ञानी व्यक्ति थे, ऐसे सवाल रामानुजम को दिए जिनको बड़े से बड़ा गणितज्ञ भी पांच घंटे से पहले में हल नहीं कर सकता--उनको हल करने की विधि ही उतना वक्त लेगी, इतने बड़े आंकड़े थे--और हार्डी लिख भी नहीं पाया तख्ते पर और रामानुजम ने उत्तर बोला। तो हार्डी ने कहा कि पहली दफा मुझे गणितज्ञ दिखाई पड़ा। अब तक जो थे, वे सब बच्चे थे, अंगुलियों पर गिन रहे थे--अंगुलियां कितनी ही बड़ी हो जाएं! हार्डी ने कहा, मैं भी बच्चा मालूम पड़ा जो कि आंकड़े गिनता है अंगुलियों पर--अंगुलियां कितनी ही बड़ी हो जाएं! हार्डी इधर सवाल बोलें, उधर उत्तर आ जाए। यह क्या हो रहा था? यह ज्यादा पढ़ा-लिखा लड़का नहीं था। मैट्रिक फेल था। यह पश्चिम के गणित के लिए एक बड़ा भारी प्रश्नचिह्न बन गया कि यह हो क्या रहा है? इसका मस्तिष्क क्या कर रहा है? इसके मस्तिष्क की गति कैसी है?
रामानुजम बीमार था। टी.बी. से मरा। हार्डी उसे देखने आए थे हास्पिटल में। गाड़ी बाहर खड़ी करके भीतर आए। रामानुजम ने ऐसा बाहर देखा, गाड़ी पर जो नंबर था, रामानुजम ने कहा कि हार्डी, यह नंबर सबसे कठिन नंबर है गणित के लिए। और उस नंबर के संबंध में उसने कुछ बातें कहीं। हार्डी, रामानुजम के मरने के बाद सात साल मेहनत करता रहा, कि उसने जो मरते वक्त नंबर देख कर कहा था, वह कहां तक सही है। सात साल में नतीजे निकाल पाया कि उसने जो कहा था, वह सही है। सात साल की लंबी मेहनत? और हार्डी कोई छोटा-मोटा गणितज्ञ नहीं है। इस सदी के श्रेष्ठतम गणितज्ञों में एक है।
लाओत्से कहता है, लेकिन अगर कुशल हो गणक, अगर गणित की प्रतिभा हो, तो फिर सहारों की जरूरत नहीं पड़ती। ये सब सहारे हैं। तब क्या बिना सहारों के हल हो जाता है सवाल?
हमारे लिए कठिन है, क्योंकि यह बात इंटयूटिव है। हम तो जो भी करते हैं वह बुद्धि से करते हैं। बुद्धि को सहारा चाहिए। लेकिन बुद्धि के पीछे एक प्रज्ञा भी है, जो बिना सहारे के करती है। बुद्धि तो चलती है चींटी की चाल और प्रज्ञा छलांग लेती है। प्रज्ञा में विधि नहीं होती, मेथड नहीं होता। बुद्धि में मेथड होता है, विधि होती है। बुद्धि को कुछ भी करना है तो वह एक-एक कदम चल कर, पूरी विधि करेगी, तो ही नतीजे पर पहुंच पाएगी। बुद्धि के लिए नतीजा एक लंबी प्रोसेस, एक लंबी प्रक्रिया है। उसके पीछे एक प्रज्ञा है, जिसको बर्गसन ने इंटयूशन कहा है। वह प्रज्ञा किसी विधि से नहीं चलती, सिर्फ छलांग लेती है। प्रथम से अंतिम पर सीधी पहुंच जाती है; बीच की विधि होती ही नहीं।
अब तो वैज्ञानिक भी कहते हैं कि जो श्रेष्ठतम खोजें हैं, वे बुद्धि के द्वारा नहीं होतीं, वे प्रज्ञा के द्वारा होती हैं। क्योंकि जिसका हमें पता ही नहीं है, उसकी विधि हम कर कैसे सकते हैं? विधि बाद में हो सकती है। जिसका हमें पता ही नहीं है, उसकी विधि हम कर कैसे सकते हैं? इसलिए इस जगत में जो भी बड़ी से बड़ी विज्ञान की खोजें हुई हैं, वे सब छलांगें हैं।
मैडम क्यूरी को नोबल प्राइज मिली एक छलांग पर। वह एक गणित हल कर रही थी, जो हल नहीं होता था। वह परेशान हो गई थी, वह हताश हो गई थी। और उस जगह आ गई थी, जहां उसने एक दिन सांझ को--कई रातें और कई दिन खराब करने के बाद--सब कागज-पत्र बंद करके टेबल के भीतर डाल दिए और उसने कहा, इस झंझट को ही छोड़ देना है। रात वह सो गई।
सुबह उठ कर वह बहुत हैरान हुई, टेबल पर जो लेटरपैड पड़ा था, उस पर उत्तर लिखा हुआ था, जिसकी वह तलाश में थी। कठिनाई और बढ़ गई, क्योंकि अक्षर उसी के थे। और तब उसने विचारा तो उसे खयाल आया एक स्वप्न का--कि रात उसे स्वप्न आया था कि वह उठी है और कुछ टेबल पर लिख रही है।
वह स्वप्न नहीं था; वह वस्तुतः उठी थी और टेबल पर लिख गई थी। विधि तो बुद्धि ने पूरी कर ली थी महीनों तक, और हल नहीं आता था। यह हल कहां से आया? और यही हल उसकी नोबल प्राइज का कारण बना। फिर बुद्धि ने प्रोसेस कर ली पीछे। जब हल हाथ में लग गया--सवाल हाथ में था ही, उत्तर भी हाथ लग गया--तो फिर बुद्धि ने बीच की कड़ी पूरी कर लीं। और वे कड़ी सही साबित हुईं।
इसको बर्गसन कहता है इंटयूशन। वह कहता है, इंटयूशन एक छलांग है--चींटी की तरह नहीं, मेंढक की तरह। चींटी सरकती है और चलती है, और मेंढक छलांग लेता है। बुद्धि चलती है और सरकती है, प्रज्ञा छलांग लेती है।
जब लाओत्से कहता है कि कुशलता पूरी, तो उसका अर्थ प्रज्ञा से होता है। आपने एक सवाल लाओत्से से पूछा। अगर आप बर्ट्रेंड रसेल से पूछेंगे तो वह सोचेगा। लाओत्से सोचेगा नहीं, सिर्फ उत्तर देगा। वह एक छलांग है। उसमें कोई प्रोसेस नहीं है। अगर प्रोसेस भी करनी है तो पीछे की जा सकती है। बुद्धि के लिए प्रोसेस पहले है, प्रक्रिया, प्रज्ञा के लिए प्रक्रिया बाद में है।
लेकिन यह बात बर्गसन की, लाओत्से की और अनंत-अनंत अंतःप्रज्ञावादियों की अब तक वैज्ञानिक नहीं हो सकी थी, क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि छलांग भी एक प्रोसेस है। मेंढक छलांग लेता है तो भी बीच का रास्ता छोड़ थोड़े ही देता है। तेजी से निकलता है, बस इतनी ही बात है। हवा में से निकलता है, मगर निकलता तो है ही। बीच की विधि से निकलता तो है ही। चींटी भी निकलती है, वह जमीन से निकलती है। यह मेंढक कितनी ही तेजी से छलांग ले ले, लेकिन बीच के हिस्से में होता तो है। और इसके भी स्टेप्स तो हैं ही। यह विज्ञान को अड़चन थी कि प्रज्ञा भी अगर छलांग लेती है तो उसका मतलब इतना ही है कि कुछ तेजी से कोई घटना घट जाती है। लेकिन घटती तो है ही। प्रक्रिया होती है।
लेकिन अभी नवीनतम फिजिक्स की खोजों ने विज्ञान के इस सवाल को, इस संदेह को मिटा दिया। इस सदी की जो सबसे बड़ी चमत्कारपूर्ण घटना घटी है फिजिक्स में, वह यह है कि जैसे ही हम अणु का विस्फोट करते हैं और इलेक्ट्रांस पर पहुंचते हैं, तो एक बहुत अनूठी घटना घटती है, जो कि संभवतः आने वाली सदी में नए विज्ञान का आधार बनेगी। वह घटना यह है कि प्रत्येक अणु के बीच में एक तो न्यूक्लियस है, एक बीच का केंद्र है, और उसके आस-पास घूमते हुए इलेक्ट्रान हैं। वह जो परिधि है, वह सबसे बड़ा चमत्कार है। इलेक्ट्रान अ नाम के स्थान पर है, फिर ब नाम के स्थान पर है, फिर स नाम के स्थान पर है। लेकिन बीच में नहीं पाया जाता; अ और ब के बीच में होता ही नहीं। अ पर मिलता है, फिर थोड़ी दूर चल कर ब पर मिलता है, फिर थोड़ी दूर चल कर स पर मिलता है; लेकिन अ, ब और स के बीच में जो खाली जगह है, वहां होता ही नहीं। तो विज्ञान कहता है, वह अ से ब पर पहुंचता कैसे है? क्योंकि बीच में होता ही नहीं। मेंढक तो बीच में भी होता है, अ से ब पर कूदता है, बीच में होता है। लेकिन यह इलेक्ट्रान अ से जब ब पर जाता है, तो बीच में होता ही नहीं। अ पर होता है, देन इट डिसएपीयर्स, तब वह खो जाता है, फिर अगेन इट एपीयर्स, वह ब पर फिर प्रकट होता है।
इससे एक बहुत अनूठी कल्पना--अभी तो कल्पना है, लेकिन सभी कल्पनाएं पीछे सत्य हो जाती हैं--एक अनूठी कल्पना हाथ में आई है। और वह यह कि अगर हमें आदमी को दूर की यात्रा पर भेजना है, तो चांद तक पहुंचना तो बहुत अड़चन की बात नहीं थी। बहुत अड़चन की थी, लेकिन फिर भी बहुत अड़चन की न थी; क्योंकि चांद बहुत फासले पर नहीं है। अगर हम अपने निकटतम तारे पर भी पहुंचना चाहें तो एक आदमी की जिंदगी कम है। वह बीच में ही मर जाएगा। तो इसका मतलब यह हुआ कि हम कुछ भी उपाय कर लें...। और अभी हमारे जो साधन हैं पहुंचने के, वे इतने तीव्र भी नहीं हैं। लेकिन कितने ही तीव्र हो जाएं, क्योंकि अधिकतम तीव्रता जो गति की है वह प्रकाश की है, उससे बड़ी कोई गति अभी तक नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं, प्रकाश की गति के यान बन जाएं, एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की रफ्तार से चलें, तो भी जो निकटतम तारा है वह हमसे चालीस प्रकाश वर्ष दूर है। मतलब अगर इतनी रफ्तार से आदमी जाए तो चालीस साल में पहुंचेगा और चालीस साल में वापस आएगा। अस्सी साल में आशा नहीं है उसकी कि वह बचे। और अगर वह बच भी जाए तो जिन्होंने भेजा था उनसे उसकी मुलाकात न होगी। और जिनसे उनकी मुलाकात होगी--हिप्पी और इन सबसे--वे उसको कुछ समझेंगे नहीं कि काहे के लिए आए हैं? क्या प्रयोजन है? कहां गए थे?
इस घटना से एक कल्पना पैदा हुई। और वह कल्पना यह है कि अगर हमें कभी भी इतने दूर की यात्रा करनी तो उसका उपाय यान नहीं है, कोई माध्यम नहीं है, प्रोसेस नहीं है--छलांग! बड़ा मुश्किल मामला है। वैज्ञानिक कहते हैं आज नहीं कल--अभी कल्पना है--हम एक ऐसा यंत्र खोज लेंगे कि एक आदमी को उस यंत्र में रख दें, एंड ही डिसएपीयर्स फ्रॉम हियर, वह यहां से विलीन हो गया, एंड देन ही एपीयर्स ऑन ए प्लैनेट, ऑन ए स्टार। और बीच की प्रोसेस गोल, बीच में कोई उपाय नहीं। यहां से अप्रकट हो जाता है, शून्य हो जाता है, और वहां प्रकट हो जाता है। जब तक हम ऐसा कोई उपाय न खोज लें, तब तक तारों तक नहीं पहुंचा जा सकता।
लेकिन आदमी पहुंच कर रहेगा। कोई उपाय खोजा जा सकता है। और अगर इलेक्ट्रान एक जगह से विलीन हो जाता है और दूसरी जगह प्रकट हो जाता है, तो आदमी भी इलेक्ट्रान का जोड़ है, इसलिए अड़चन नहीं है। गणित में अड़चन नहीं है। यह हो सकता है। क्योंकि अगर इलेक्ट्रान कर ही रहे हैं सदा से यह, तो आज नहीं कल आदमी भी क्यों न कर सके? तब हमें पहली दफे छलांग का पता चलेगा कि छलांग क्या है।
लेकिन प्रज्ञावादी सदा से कहते रहे हैं कि जो पूर्णता है, वह प्रज्ञा की है। बुद्धि तो हिसाब लगाती है। हिसाब में भूल-चूक हो सकती है। जहां हिसाब ही नहीं है और निष्कर्ष सीधा है, वहीं, वहीं पूर्णता संभव है।
"ठीक से बंद हुए द्वार में और किसी प्रकार का बोल्ट लगाना अनावश्यक है; फिर भी उसे खोला नहीं जा सकता।'
लेकिन हम जीवन में हमेशा एक के ऊपर एक ताले लगाए चले जाते हैं। उसका कारण है, भीतर हम असुरक्षित हैं। कितने ही ताले लगाएं, कोई अंतर नहीं पड़ता। तालों पर ताले लगाए चले जाते हैं, कोई अंतर नहीं पड़ता। असुरक्षा भीतर है।
लाओत्से कहता है, जो ठीक से सुरक्षित है, कुछ भी हो जाए जगत में, वह असुरक्षित नहीं होता।
और ठीक से सुरक्षा क्या है? ठीक से सुरक्षित वही है--वह नहीं जिसने सब सुरक्षा के इंतजाम कर लिए, वह नहीं। आपने दरवाजे पर ताला लगा लिया, खिड़कियों पर ताले लगा दिए, सब कर लिया, फिर भी आप सुरक्षित नहीं हैं। सब ताले तोड़े जा सकते हैं। क्योंकि जिस बुद्धि से ताले लगते हैं, वही बुद्धि बाहर भी है। और ध्यान रहे, लगाने वालों से खोलने वालों के पास सदा ज्यादा बुद्धि होती है। कम बुद्धि वाले लगाने का काम करते हैं, क्योंकि डरे रहते हैं। ज्यादा बुद्धि वाले खोलने का काम करते हैं। इसलिए कितने ही ताले लगाओ, कोई खोल लेगा।
हुडनी ने पश्चिम में सब तरह के ताले खोल कर बताए। ऐसा कोई ताला नहीं था, जो हुडनी नहीं खोल लेगा। और बिना चाबी के। और हुडनी कोई साईंबाबा नहीं था। और हुडनी कहता था कि मेरे हाथ में कोई मंत्र नहीं है, कोई सिद्धि नहीं है। मैं सिर्फ कुशल हूं। हुडनी बहुत ईमानदार आदमी था। इतने ईमानदार आदमी भारत के चमत्कारी साधुओं में भी खोजना मुश्किल हैं। हुडनी ने कहा कि मैं सिर्फ कुशल हूं; बस। ट्रिक्स हैं।
हुडनी पर सब तरह के तालों का प्रयोग किया गया। सिर्फ एक बार वह असफल हुआ; और वह इसलिए हुआ कि दरवाजा खुला था और ताला डाला नहीं गया था। और इसलिए वह नहीं निकल पाया। एक बार झंझट में पड़ गया। ऐसे तो हजारों जेलखानों में, पश्चिम के सारे बड़े जेलखानों में उस पर प्रयोग किए गए। पुलिस के पास जितने उपाय थे, सब उपाय किए गए। और इतना कम समय उसको दिया गया खोलने का कि चाबी भी हो तो भी नहीं खोल सकते। चाबी भी तो समय लेगी न ताले को खोलने में! आखिर ताले में चाबी को जाना; और फिर ताला अगर उलझा हुआ हो और होशियारी से बनाया गया हो और गणित का उसमें हिसाब हो, तो बहुत मुश्किल है। समय तो लगेगा। उसको बांध कर डाल दिया है पानी के भीतर, अब जितनी देर वह पानी के भीतर सांस ले सकता है, उतना ही समय है। जितनी देर सांस रोक सकता है, कुछ सेकेंड। और हर ताले को वह पानी के भीतर से खोल कर बाहर आ जाएगा। हर हथकड़ी को उसने खोल कर बता दिया। हर जेलखाने के बाहर आकर खड़ा हो गया। और उसने कहा कि मैं कोई चमत्कारी नहीं हूं, मेरे पास कोई चमत्कार नहीं, कोई सिद्धि नहीं। मैं सिर्फ कुशल हूं।
सिर्फ एक बार दिक्कत में पड़ गया; मजाक हो गई। जब सब ताले वह खोल चुका, तो स्काटलैंड यार्ड ने एक मजाक किया। दरवाजे के भीतर उसको जेल में बंद किया और दरवाजा अटकाया, ताला लगाया नहीं। वह मुश्किल में पड़ गया। वह बेचारा लगा कर अपना मन ताला खोलने की सोचता रहा होगा। ताला था नहीं; खोलने का कोई उपाय नहीं था। अटक गया, पहली दफा, एक ही दफा।
आप कितना ही इंतजाम कर लें बाहर, सब इंतजाम तोड़ा जा सकता है। और आप भी जानते हैं कि जो इंतजाम किया जा सकता है, वह तोड़ा जा सकता है। इसलिए भय बना ही रहता है, असुरक्षा बनी ही रहती है। फिर जितना आप इंतजाम कर लेते हैं, उतनी असुरक्षा बढ़ जाती है। होता यह है कि किस पर करिए भरोसा? एक पहरेदार दरवाजे पर खड़ा कर दिया। अब पहरेदार पर एक पहरेदार खड़ा करना पड़े; उस पर एक पहरेदार खड़ा करना पड़े। कहां किस पर करिए भरोसा? और आखिरी आदमी तो खतरनाक रहेगा ही। एक कड़ी तो आपको असुरक्षित रखनी ही पड़ेगी।
इसलिए लाओत्से कहता है कि ये सारे जो इंतजाम पर इंतजाम हैं, सुरक्षा पर सुरक्षा है, यह बेमानी है। एक ही सुरक्षा है। और वह सुरक्षा है: पूरी तरह असुरक्षा को स्वीकार कर लेना। पूरी तरह असुरक्षा को स्वीकार कर लेना। जिसने मान ही लिया कि असुरक्षित हूं, अब कोई भय न रहा। यह उस हालत में आ गया, जिसमें हुडनी आ गया। दरवाजा खुला ही था और खोल न पाया। जो आदमी असुरक्षित है, उसकी इस जगत में कोई असुरक्षा नहीं है। असुरक्षा का भय ही समाप्त हो गया।
ऐसा नहीं है कि उसकी मौत नहीं होगी। और ऐसा भी नहीं है कि कोई उसको छुरा मार दे तो वह नहीं मरेगा। मौत भी होगी, मरेगा भी; लेकिन असुरक्षा का कोई भय नहीं है। मौत भी उसे प्रियतम का मिलन होगी और छुरा भी उसी की भेंट। इससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। जो असुरक्षित होने को राजी है, उसकी सुरक्षा पूर्ण है। जो सुरक्षा की चेष्टा में लगा रहेगा, उसकी असुरक्षा बढ़ती चली जाती है।
"ठीक से बंधी गांठ के लिए रस्सी की कोई जरूरत नहीं है; फिर भी उसे अनबंधा नहीं किया जा सकता। संत लोगों का कल्याण करने में सक्षम हैं; इसी कारण उनके लिए कोई परित्यक्त नहीं है।'
यह थोड़ी सी सूक्ष्म बात है। लाओत्से कहता है कि संतों के लिए कोई आदमी इतना बुरा नहीं है कि संत न हो सके।
"देयरफोर दि सेज इज़ गुड एट हेल्पिंग मैन, फॉर दैट रीजन देयर इज़ नो वन रिजेक्टेड एज यूजलेस'
अगर कोई संत आपसे कहे कि तुम पापी हो और तुम्हें मैं स्वीकार नहीं कर सकता, तो समझना कि वह संत नहीं है। यह तो ऐसा ही हुआ कि एक डाक्टर किसी मरीज को कहे कि तुम मरीज हो, तुम्हें मैं कैसे स्वीकार कर सकता हूं? मरीज के लिए ही उसका होना है। संत का होना ही उसके लिए है, जो कि जीवन में भटक गया, खो गया। लेकिन अगर संत कहे कि तुम अपात्र हो तो जानना कि संत स्वयं अपात्र है। अपात्रता की भाषा संत की भाषा नहीं है। अपात्रता की भाषा उन कमजोर साधुओं की भाषा है, जो लोगों को बदलने की कीमिया जिनके पास नहीं है। तो वे उनको ही चुनते हैं, जो पात्र हैं। पात्र का मतलब यह कि जिनको बदलने के लिए उनको कुछ भी न करना पड़ेगा।
एक गांव में बुद्ध आए हैं। और रास्ते में जब वे आ रहे थे, तो गांव की वेश्या दूसरे गांव जा रही थी। और उसने बुद्ध को कहा कि आप गांव जा रहे हैं; वर्षों से मैं प्रतीक्षा करती थी। और आज मजबूरी है कि मुझे दूसरे गांव जाना पड़ रहा है। लेकिन सांझ होते-होते हर हालत में लौट आऊंगी। तो जब तक मैं न लौट आऊं, बोलना मत।
सारा गांव इकट्ठा हो गया। पंडित, पुजारी, ज्ञानी, सब आकर बैठ गए। और बुद्ध बार-बार देखने लगे--वह वेश्या अब तक नहीं आई है। आखिर एक आदमी ने कहा, आप शुरू क्यों नहीं करते, सब तो आ चुके हैं। गांव में जो भी आने योग्य थे, सब आ चुके हैं। अब किसकी प्रतीक्षा है? बुद्ध ने कहा कि किसी की प्रतीक्षा है। जिसके लिए बोलने मैं आया हूं, वह अभी मौजूद नहीं। लोगों ने चारों तरफ देखा, कोई ऐसा आदमी गांव में नहीं था जो धार्मिक हो और मौजूद न हो। कोई प्रतिष्ठित आदमी ऐसा न था जो गांव में हो और मौजूद न हो। किसकी प्रतीक्षा है?
और तब अचानक वेश्या आई और बुद्ध ने बोलना शुरू किया। गांव बड़ा चिंतित हो गया। बोलने के बाद गांव के लोगों ने बुद्ध से कहा, क्या आप इस वेश्या की प्रतीक्षा कर रहे थे? इस अपात्र की? बुद्ध ने कहा, जो पात्र हैं, वे मेरे बिना भी तर जाएंगे। जो अपात्र हैं, उनके लिए ही मैं रुका हूं। लेकिन ध्यान रहे, जो अपने को पात्र मानता है, समझता है, उससे बड़ा अपात्र नहीं होता। और जो मानता है कि मैं अपात्र हूं, यह मानना ही उसकी पात्रता बन जाती है। यह विनम्रता उसके लिए द्वार बन जाती है।
संत किसी के लिए परित्यक्त नहीं करते। कोई भी निरुपयोगी नहीं है।
इससे भी गहरी बात दूसरे सूत्र में है, "संत सभी चीजों की परख रखते हैं; इसी कारण उनके लिए कुछ भी त्याज्य नहीं है।'
यह और भी कठिन है।
"ही इज़ गुड एट सेविंग थिंग्स; फॉर दैट रीजन देयर इज़ नथिंग रिजेक्टेड'
जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसका संत उपयोग करना नहीं जानते। उन्हें जहर दे दें, वे उसकी औषधि बना लेंगे। उन्हें जहर दे दें, वे उसकी औषधि बना लेंगे। उनके पास क्रोध हो, वे उसमें से दया का फूल खिला लेंगे। उनके पास कामवासना हो, उसी में ब्रह्मचर्य की सुगंध उठेगी। उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे वे त्यागते हैं। रूपांतरित करते हैं, ट्रांसफार्म करते हैं।
दो तरह के लोग हैं इस जगत में। एक वे, जो अपने को काट-काट कर सोचते हैं कि आत्मा को पा लेंगे। तो जो-जो उन्हें गलत लगता है, उसे काटते चले जाते हैं। लेकिन उन्हें पता नहीं, जो उन्हें गलत लगता है, उसे काट कर वे अपनी ही ऊर्जा को काट रहे हैं। और सब काटने के बाद--अपना क्रोध काट दें, अपना सेक्स काट दें, अपना लोभ काट दें--सब काट दें, और तब आपको पता चलेगा आप बचे ही नहीं।
काटने का ढंग आत्मघाती है, स्युसाइडल है। रूपांतरण वास्तविक धर्म है। संत रूपांतरित करते हैं, जो भी उनके पास है। इस विराट अस्तित्व ने उन्हें जो भी दिया है, उसे वे सौभाग्य मान कर स्वीकार करते हैं। और उसमें जो छिपा है, उसे प्रकट करने की कोशिश करते हैं।
ऐसा किया जा सकता है अब कि आदमी को हम सेक्स से बिलकुल मुक्त कर सकते हैं वैज्ञानिक विधि से। अब कोई कठिनाई नहीं है। हम आदमी को बिलकुल क्रोधहीन कर सकते हैं वैज्ञानिक विधि से। क्योंकि क्रोध को पैदा होने के लिए कुछ रासायनिक तत्व जरूरी हैं। वे रासायनिक तत्व बहुत थोड़े से हैं। खून में उनको बाहर निकाला जा सकता है। आप क्रोध नहीं कर पाएंगे फिर।
पावलव कुत्तों पर काम कर रहा था। उसने कुत्तों के भीतर जिन-जिन केमिकल्स से क्रोध जन्मता है, उनको अलग निकाल लिया। फिर कुत्ते को आप कितना ही मारें, कल तक जो शेर की तरह हमलावर था, वह आज बैठा रहेगा, पूंछ हिलाता रहेगा। लेकिन उस कुत्ते के चेहरे से सब रौनक भी खो जाती है। उसकी आंखें धूमिल हो जाती हैं। वह एक मशीन की भांति हो जाता है। जो क्रोध भी नहीं कर सकता, उसमें सब निस्तेज हो जाता है।
संत क्रोध को तेज बना लेते हैं। वह ऊर्जा है। इस जगत में सभी ऊर्जाएं हैं। उनका हम क्या उपयोग करते हैं, इस पर निर्भर करता है। इस जगत की कोई ऊर्जा बुरी नहीं, कोई ऊर्जा भली नहीं; कोई शुभ नहीं, कोई अशुभ नहीं। इसलिए यह मत कहना कि कामवासना पाप है, यह मत कहना कि क्रोध पाप है, यह मत कहना कि लोभ पाप है। इतना ही कहना कि लोभ ऊर्जा है, कामवासना ऊर्जा है, क्रोध ऊर्जा है, शक्ति है। इस शक्ति का उपयोग पाप हो सकता है, इस शक्ति का उपयोग पुण्य हो सकता है। शक्ति निष्पक्ष है। उपयोग आपकी चेतना पर निर्भर है। जो नासमझ हैं, वे शक्तियों से लड़ते हैं। जो समझदार हैं, वे चेतना को रूपांतरित करते हैं। और चेतना के प्रति रूपांतरण के साथ शक्तियां ऊपर उठती चली जाती हैं। और जिनको कल हमने नरक की लपटें समझा था, वे ही एक दिन स्वर्ग के फूल बन जाती हैं।
लाओत्से कहता है, "इसे ही प्रकाश का चुराना--इस ट्रांसफार्मेशन को, यह जो अंतर-रूपांतरण है--इसको ही प्रकाश का चुराना कहते हैं। दिस इज़ काल्ड स्टीलिंग दि लाइट।'

आज इतना ही। कीर्तन करें, फिर जाएं।


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