छठवां
प्रवचन
16
मार्च 1978;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्न
सार :
1--उस
फूल का रंग उड़
के सिर्फ बू
रह जाए
सर जाए
तो जाए आबरू
रह जाए
साबित
हो मेरी नफी
से तेरा इकबाल
मैं
इतना मिटू कि
सिर्फ तू रह
जाए
2--आवन
कहि गये अजहूं
न आए लीन्हीं
न मोरी खबरिया',
इतना
कहने की इजाजत
मांगता हूं।
3--रुदन
और ध्यान का
क्या संबंध है?
4--भक्ति
को आप प्रेम
की उपमा क्यों
देते हैं?
पहला
प्रश्न :
उस
फूल का रंग उड़
के सिर्फ बू
रह जाए
सर
जाए तो जाए
आबरू रह जाए
साबित
हो मेरी नफी
से तेरा इकबाल
मैं
इतना मिटू कि सिर्फ
तू रह जाए
बू भी बची
तो तुम बच
जाओगे। उतना
भी बचाया कि
सब बच जाएगा। 'मैं'
मिटना
ही नहीं चाहता।
वह नये—नये
रास्ते खोजता
है बचने के।
उस फूल
का रंग उड़ के
सिर्फ बू रह
जाए
लेकिन
बू क्यों? बू भी
तुम्हारी
होगी, बदबू
होगी। मिटने
ही चले हो तो
पूरे से कम
में काम नहीं
चलेगा।
सर जाए
तो जाए आबरू
रह जाए
आबरू!
सर और किसको
कहते हैं? सर जाने का
मतलब यह थोडे
ही होता है कि
यह तुम्हारा
शरीर पर जो
सिर लगा है यह
कट जाए। आबरू
ही सिर है। वह
जो इज्जत; अभिमान;
वह जो मैं
का भाव है—मेरी
प्रतिष्ठा, मेरा
सम्मान! असली
तो बचा लिया, नकली छोड़
रहे हो। बू तो
बचा ली, फूल
छोड़ रहे हो।
फूल का मूल्य
ही बू की वजह
से था। और
आबरू ही तो
तुम्हारा सिर
है। सिर बचे
तो बचने दो, आबरू जानी
चाहिए। फूल
पडा भी रहे तो
पडा रहे, बू
जानी चाहिए।
तुम अहंकार का
सार तो बचाने
के लिए
उत्सुकता रखते
हो—
उस फूल
का रंग उड़ के
सिर्फ बू रह
जाए
—क्यों? तुम जब तक
पूरे ही शून्य
न हो जाओगे, तब तक
परमात्मा का
आगमन नहीं है।
सर जाए
तो जाए आबरू
रह जाए
साबित
हो मेरी नफी
से तेरा इकबाल
तुम
कुछ भी साबित
करोगे तो तुम
ही साबित
होओगे, और
कुछ साबित न
होगा।
तुम्हारे सब
दावे, तुम्हारे
सब
प्रमाण
तुम्हारे
अहंकार को ही
प्रामाणित
करेंगे।
तुम्हारे
द्वारा
परमात्मा
सिद्ध
होनेवाला नहीं
है। तुम
मिटोगे तो
परमात्मा
सिद्ध है ही।
तुम हटो, राह
दो। परमात्मा
को न लाना है, न प्रमाणित
करना है, न
सिद्ध करना है,
न खोजना है;
परमात्मा
है ही। सिर्फ
तुम्हारा
अहंकार पर्दा
बना है।
परमात्मा पर
पर्दा नहीं
बना है, तुम्हारी
आंख पर ही
अहंकार का
पर्दा पड़ा है।
बस वह पर्दा
हट जाए!
लेकिन
तुम पर्दे को
बचा रहे हो।
तुम कहते हो, 'साबित हो
मेरी नफी से
तेरा इकबाल'! परमात्मा की
महिमा भी
तुम्हारे
द्वारा सिद्ध
होनी चाहिए!
परमात्मा की
घोषणा
तुम्हारे माध्यम
से होनी
चाहिए! तुम
सिद्ध करोगे
परमात्मा को।
लेकिन
निश्चित ही जो
सिद्ध करेगा,
वह सिद्ध
जिसे किया
उससे बड़ा हो
जाता है—स्वभावतः
तुम्हारे
बिना
परमात्मा
सिद्ध नहीं हो
सकता, तुम
पर निर्भर हो
गया। तुम उसके
तर्क हो; तुम
उसके गवाह हो;
तुम्हारे
बिना दो कौड़ी
का है
परमात्मा।
तुम उसे मूल्य
दे रहे हो।
स्वभावत:
तुमने बड़े
पीछे के
दरवाजे से
अपने को मूल्य
दे लिया।
अहंकार की
आदतें ऐसी
सूक्ष्म हैं
कि जाता ही नहीं।
नये—नये उपाय
खोज लेता है।
एक दरवाजा बंद
करो, दूसरा
खोल लेता है।
स्थूल से हटाओ,
सूक्ष्म
में प्रवेश कर
जाता है। चेतन
से हटाओ, अचेतन
को पकड़ लेता
है। दिन में
विदा करो, रात
लौट आता है।
जागने में दूर
रखो, नींद
सपने में उतर
आता है।
अहंकार के
रास्ते बड़े
सूक्ष्म हैं।
तुम्हें उसे
पूरा—पूरा
समझना होगा।
नहीं तो
तुम्हारी
लड़ाई व्यर्थ
होगी।
अहंकार
एक ही भाषा
जानता है—
अपने को बचाने
की। तुम्हें
उसे उड्मूल से
उखाड़ना होगा। मैंने
सुना है, एक
भिखारी को
लाटरी का टिकट
खरीदते देखकर
एक पत्रकार ने
उत्सुकतावश
पूछा—बाबा, अगर
तुम्हारा
पहला इनाम
निकल आया तो
उस पैसे का
क्या करोगे? उस भिखारी
ने कहा—बेटा, कार
खरीदूंगा।
पैदल भीख मांगते—मांगते
मेरी टांगे
टूट जाती हैं।
मगर
भीख तो वह मांगेगा
ही। भीख तो
उसकी आदत है।
भीख तो उसका
स्वभाव हो गया।
कार में बैठकर
भीख मांगेगा, लेकिन भीख
मांगेगा।
अहंकार
की भाषा को
ठीक से पहचानो, जल्दी नहीं
करो मिटाने की।
इतना आसान काम
नहीं है जितना
तुमने समझा है।
दुरूह है, बड़ा
बारीक है और
नाजुक है। और
अति जागरूकता
से कोई अपने
भीतर जाएगा तो
ही किसी दिन
अहंकार से
छुटकारा पा
सकेगा। खूब
रोशनी चाहिए
भीतर—ध्यान की—
और खूब
विनम्रता
चाहिए भीतर
प्रार्थना की।
असहाय अवस्था
का भाव चाहिए।
और जल्दी किसी
चीज को पकड़ मत
लेना। अन्यथा
एक रोग छूटता
है, दूसरा
रोग पकड़ जाता
है। मगर पकड़
जारी रहती है।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
केमिस्ट की
दुकान पर गया,
और
दुकानदार से
मुल्ला ने कहा—याद
है, कल मैं
आप के पास से, यहां से
स्याही के दाग
दूर करनेवाली
एक दवा ले गया था।
दुकानदार ने
कहा, हां
मुल्ला, भलीभांति
याद है; क्या
दूसरी शीशी
चाहिए—मुल्ला
ने कहा—नहीं, उस दवा का
दाग
मिटानेवाली
दवा हो तो दे
दीजिए।
स्याही
का दाग तो मिट
गया, अब दवा का
दाग रह गया!
इसका अंत कहां
होगा? इसका
अंत कैसे होगा?
जल्दबाजी
की कोई जरूरत
नहीं है। ' मैं'
को मिटाने
की भी चेष्टा
में मत लगो।
क्योंकि 'मैं'
इतना कुशल
कारीगर है कि
तुम 'मैं' को मिटाने
में लगोगे, मैं
मिटनेवाले के
पीछे छिप
जाएगा। और एक
दिन अहंकार
उठेगा कि देखो
मैंने अपना
मैं मिटा दिया,
अब मैं
निरहकारी हो
गया, मुझसा
विनम्र कौन है?
यह घोषणा
अहंकार की ही
है।
भीतर
जागो, अहंकार
के रास्तों को
देखो, पहचानो
लड़ने की कोई
जरूरत नहीं है।
लड़े कि हारे!
अगर हारना हो
तो लड़ना। फिर
अहंकार कैसे
जाएगा?
अहंकार
जाता है मात्र
जागरण से।
जैसे अंधेरा
जाता है रोशनी
के जला लेने
से। कोई
अंधेरे को
धक्का थोड़े ही
देना पड़ता है, कोई तलवार
उठाकर अंधेरे
को काटना थोड़े
ही पड़ता है, कोई अंधेरे
से मल्लयुद्ध
थोड़े ही करना
होता है! अगर
कोई आदमी
अंधेरे से
मल्लयुद्ध
करने लगे, ताल
ठोंककर और लग
जाए लड़ने, तो
तुम सोचते हो
जीतेगा कभी? मर जाएगा, लड़—लड़कर मर
जाएगा और
अंधेरे का बाल
बाका न होगा।
और स्वभावत:
जब आदमी लड़—लड़कर
बार—बार
हारेगा तो
सोचेगा कि मैं
कमजोर हूं
अंधेरा
महाशक्तिशाली
है। मगर सच्ची
बात कुछ और है।
अंधेरा है ही
नहीं इसलिए
आदमी नहीं जीत
पा रहा है।
अंधेरा होता
तो तलवार से
काट देते।
अंधेरा होता
तो धक्के
मारकर निकाल
देते अंधेरा
है नहीं।
अनुपस्थिति
का नाम है।
प्रकाश का
अभाव है। तुम
एक छोटा—सा
दिया जलाओ, या कि एक
मोमबत्ती और
अंधेरा गया।
तुम्हारी
चेष्टा
मोमबत्ती
जलाने में
लगनी चाहिए, अंधेरे से
लड़ने में नहीं।
और यही
बुनियादी भेद
है नास्तिक और
आस्तिक का।
नास्तिक
लड़ने में लग
जाता है, नकार
में लग जाता
है। इसको
मिटाओ उसको
मिटाओ; इसको
त्यागो; इसको
छोड़ो, उसको
छोड़ो। यह मेरी
नास्तिक की
परिभाषा है।
मेरी नास्तिक
की परिभाषा
तुम्हारी
नास्तिक की
परिभाषा जैसी
नहीं है। तुम
कहते हो जो
ईश्वर को नहीं
मानता है, वह
नास्तिक है।
यह बात सच
नहीं है।
क्योंकि
महावीर ने
ईश्वर को नहीं
माना और वे परम
आस्तिक थे।
बुद्ध ने
ईश्वर को नहीं
माना, लेकिन
बुद्ध से बड़ा
आस्तिक तुम
कहीं पा सकोगे?
और करोड़ों
लोग ईश्वर को
मानते हैं और
जरा इनकी जिंदगी
में झांकों, कहां
आस्तिकता है?
इसलिए
तुम्हारी यह
धारणा और
तुम्हारी यह
परिभाषा कि जो
ईश्वर को नहीं
मानता वह
नास्तिक है, गलत हो चुकी
है। या जो
ईश्वर को
मानता है वह
आस्तिक है, वह भी गलत हो
चुकी है। अब
नयी परिभाषा
चाहिए।
मैं
तुम्हें नयी
परिभाषा देता
हूं। जो नकार
पर जीता है, जो नहीं
करके जीता है
वह नास्तिक है।
जो हां— भाव से
जीता है, आस्था
से, श्रद्धा
से, स्वीकार
से, वही
आस्तिक है।
फिर ईश्वर को
मानो या न
मानो, गौण
बात है। जिसने
अस्तित्व को
ही कहना सीख
लिया वह ईश्वर
को जान ही
लेगा कहे या न
कहे। और जिसने
ना कहने की
भाषा सीखी, वह मरेगा, वह तड़पेगा, परेशान होगा,
कभी अनुभव न
कर पाएगा।
नकार
में अहंकार
बचता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, जिस दिन
बच्चा अपने मां—बाप
को इनकार करना
शुरू करे, समझना
उसी दिन से
अहंकार की
शुरुआत है। एक
घड़ी आती है
ऐसी—कोई तीन—चार
साल की उस में—जब
बच्चा पहली
दफा अपने मां—बाप
को इनकार करना
शुरू करता है।
वही घड़ी
अहंकार के
जन्म की घड़ी
है। अब तक जो
मां कहती थी, मानता था; जो कहा जाता
था, चुपचाप
स्वीकारता था।
अब तक एक
श्रद्धा थी, अब श्रद्धा
गयी। अब लड़ाई
शुरू हुई। मां
कहती यहां
बैठो, वह
कहता है यहां
नहीं बैठूंगा।
यह करो, वह
कहता है यह
नहीं करूंगा।
सच तो यह है कि
बच्चे से तुम
जो कहोगे करो,
उसको
छोड्कर सब
करेगा। अब
अहंकार
उद्दाम वेग ले
रहा है। अब
अहंकार की
तरंग उठनी
शुरू हो गयी
है। अब बच्चा
यह कह रहा है
कि मैं भी कुछ
हूं। मैं हूं
और ऐसी आसानी
से अपनी जमीन
नहीं दे दूंगा,
ऐसी आसानी
से झुक नहीं
जाऊंगा। तुम
जब भी नहीं
कहते हों—किसी
भी चीज से—तो
अहंकार मजबूत
होता है। इसलिए मैं
तुम्हें यह
चौंकानेवाली
बात कहूं कि
तुम्हारे जो
लोग संन्यास
के नाम पर भाग
गये हैं, परिवार
को, पत्नी
को, बच्चों
को, मां—बाप
को छोड्कर, वे सब
नास्तिक हैं।
उन्होंने
इनकार किया है।
उन्होंने
परमात्मा ने
जो दिया था
उसे स्वीकार
नहीं किया है।
परम आस्तिक
वही है जो सब
स्वीकार करता
है। सुख भी, दुख भी, सफलता
भी, असफलता
भी। काटे भी
यहां बहुत हैं,
फूल भी यहां
हैं। जो दोनों
स्वीकार करता
है। रात और
दिन, जीवन
और मरण सबको
अंगीकार करता
है, और
कहता है जो
परमात्मा ने
दिया है उसमें
कुछ राज होगा।
मैं इनकार
करनेवाला कौन?
जिसकी हां
समग्र है। इसी
ही में दिया
जलना शुरू
होता है। इसी हां
में भीतर
रोशनी पैदा
होती है। इसी
आस्तिकता में
भीतर मंदिर
बनता है, प्रतिमा
प्रकट होती है।
और तब तुम
पाओगे उस
रोशनी में
अहंकार कहीं
खोजे भी नहीं
मिलता। जैसे
दिया जलाकर
कोई अपने कमरे
में जाए, और
अंधेरे को
खोजे कि कहां
अंधेरा है, और न पाए, और
लौटकर कहे कि
अंधेरा नहीं
है। वैसी ही
बात होगी है
जिस दिन तुम
जप्ताकर
ध्यानपूर्वक
भीतर जाओगे, अहंकार
पाओगे नहीं।
अन्यथा इसी
तरह की झंझट होगी।
उस फूल
का रंग उड़के
सिर्फ बू रह
जाए
सर जाए
तो जाए आबरू
रह जाए
साबित
हो मेरी नफी
से तेरा इकबाल
मैं
इतना मिटू कि
सिर्फ तू रह
जाए
यह
मिटने की बात
सिर्फ बात है।
क्योंकि जहा
मैं मिट गया, वहा तू भी न
रह जाएगा। मैं
के बिना तू का
क्या अर्थ
होगा? तू
का सारा अर्थ 'मैं' में
छिपा है। मैं
और तू दो अलग—
अलग शब्द नहीं
हैं, एक ही
शब्द के दो
पहलू हैं। जहा
मैं है, वहां
तू है। जहां
तू है, वहां
मैं है। अगर
मैं सचमुच चला
जाए तो तू भी
चला गया। तू
कैसे कहोगे
फिर? कौन
कहेगा? किसको
कहेगा? कैसे
कहेगा? मैं
के गिरते ही
तू भी गिर
जाता है। भक्त
के मिटते ही
भगवान भी विदा
हो जाता है।
फिर जो शेष रह
जाता है, वही
असली भगवत्ता
है।
जब तक
भक्त है और
भगवान है, तब तक जानना
असली भगवत्ता
घटित नहीं हुई।
जब तक तुम्हें
लगता है मैं
हूं और तू है—या
तुम्हें ऐसा
भी लगने लगा
कि मैं नहीं
हूं तू है; लेकिन
मैं नहीं हूं
यह कौन कह रहा
है? यह तो
वैसी ही मूढ़ता
की बात हुई
जैसा हुआ—
मुल्ला
नसरुद्दीन
होटल में बैठा
गपशप था।
बातचीत में
अपनी प्रशंसा
करने लगा और
कहने लगा कि
मुझसे ज्यादा
उदार इस नगर
में कोई भी
नहीं है।
मित्रों ने
कहा यह भी
तुमने खूब
कहीं! हमने तो उदारता
के कभी कोई
लक्षण नहीं
देखे। कभी ऐसा
भी नहीं हुआ
कि तुमने हमें
घर भोजन के लिए
निमंत्रण
किया हो।
मुल्ला ने कहा, अभी चलो, इसी
वक्त चलो। तीस—पैंतीस
आदमी, पूरी
होटल साथ हो
ली। जैसे—जैसे
घर के पास
पहुंचा वैसे—
वैसे घबड़ाया—जैसा
कि हर पति
घबड़ाता है।
दरवाजे पर
रोककर कहा कि
तुम जरा ठहरो
भाई, तुम
तो जानते ही
हो घर—
गृहस्थी वाला
आदमी हूं
पत्नी है घर
में, पहले
जरा उसको राजी
कर लूं। तीस—
पैंतीस लोगों
को आधी रात
लेकर घर आ गया
हूं भोजन
करवाने। तुम
समझ सकते हो
मेरी मुसीबत।
वह एकदम टूट
पड़ेगी। जरा
उसे राजी कर
लूं? तुम
जरा रुको।
मुल्ला
नसरुद्दीन
भीतर गया और
फिर आधी घड़ी
बीत गयी, निकले
ही न। घंटा
बीतने लगा, रात बहुत
लंबी होने लगी,
मित्रों ने
कहा यह तो हद
हो गयी, यह
आदमी भीतर गया
तो बाहर नहीं
आता।
उन्होंने
दरवाजा
खटखटाया।
मुल्ला ने
अपनी पत्नी को
इतना समझाया
कि गलती हो
गयी मुझसे, इनको लिवा
लाया हूं अब
तू जाकर इनसे
कह दे मुल्ला
घर पर ही नहीं
हैं। पत्नी
बाहर आयी, उसने
कहा—किसलिए
खड़े हैं यहां
आप लोग? नसरुद्दीन
घर पर नहीं
हैं।
उन्होंने कहा,
अरे यह हद
हो गयी, हमारे
साथ ही आए थे, हमने उन्हें
भीतर जाते
देखा है।
पत्नी थोड़ी
झिझकी कि अब
कहे तो क्या
कहे? मुल्ला
घर के भीतर है।
मुल्ला खिड़की
के पास खड़ा
हुआ सुन रहा
है कान—लगाकर
कि मित्र क्या
विवाद कर रहे
हैं? मित्र
ज्यादा विवाद
करने लगे तो
उसने खिड़की खोलकर
कहा कि सुनो
जी, आधी
रात किसी
स्त्री से
विवाद करते
शर्म नहीं आती।
यह हो सकता है
कि नसरुद्दीन
तुम्हारे साथ
आया हो, लेकिन
पीछे के
दरवाजे से भी
कहीं जा सकता
है।
अब यह
खुद
नसरुद्दीन कह
रहा है!
तुम
अपने घर में
बैठकर यह नहीं
कह सकते कि
मैं घर में नहीं
हूं। अगर
कहोगे तो उसका
मतलब सिर्फ
होगा कि तुम
घर में हो।
मैं
इतना मिटू कि
सिर्फ तू रह
जाए
तुम यह
नहीं कह सकते, कि मैं मिट
गया हूं।
क्योंकि कौन
कहेगा कि मैं
मिट गया हूं।
कि मैं इतना
मिट गया हूं!
इसका तो मतलब
हुआ कि अभी
थोड़ा—बहुत शेष
रह गया है।
इतना तो
मात्रा है।
समग्ररूपेण
जब कोई मिट जाता
है तो वहां
कहने को कोई
भी नहीं बचता।
और जहां मैं
नहीं बचता, वहा तू कैसे
बचेगा? वे
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं—मैं और तू।
दोनों गिर
जाते हैं, तब
जो बचता है
उसे समाधि कहो,
निर्वाण
कहो, मोक्ष
कहो। वहा न
भक्त है, न
भगवान है।
उसको शांडिल्य
ने पराभक्ति
कहा है।
दूसरा
प्रश्न :
मैं
यह तो नहीं कह
सकता कि आप
मुझे भूल गये, लेकिन
' आवन
कहि गये अजहूं
न आए,
लीनी
न मोरी खबरिया',
यह
कहने की इजाजत
मांगता हूं।
'मोरी
खबरिया'! वह
'मैं' ही
पीछा करता है।
तुम कब
जागोगे!! तुम
कब देखोगे कि 'मैं' के
कारण ही
परमात्मा
भीतर नहीं आ
पा रहा है! तुम
चाहते हो कि
परमात्मा भी
तुम्हारी खबर
ले। तू उसे भी
अपनी सेवा में
नियुक्त कर
देना चाहते हो।
तुम बातें
करते हो कि
मैं तुम्हारा
चरण सेवक, इत्यादि—इत्यादि,
लेकिन भीतर आकांक्षा
यही रखते हो
कि राह देख
रहे हैं कि कब
आओ और चरण की
सेवा करो। कब
मेरी खबर लो।
तब तक
तुम्हारी खबर
नहीं ली जा
सकती, जब तक
तुम हो।
तुम्हारी खबर
उसी दिन से ली
जाएगी जिस दिन
से मिटोगे। जब
तक तुम हो तब
तक तुम्हारी
खबर लेने की
आवश्यकता भी
नहीं है तुम
खुद ही खबर ले
रहे तुम— हो।
तुम परमात्मा
को मौका ही
नहीं दे रहे
हो।
मैंने
सुना है, कृष्ण
वैकुंठ में
भोजन करने
बैठे हैं। और
बीच में उठ
गये हाथ का
कौर छोड्कर उठ
गये, भागे
द्वार की तरफ।
रुक्मिणी ने
कहा—कहां जाते
हैं आप? उत्तर
भी नहीं दिया,
इतनी
जल्दबाजी
दिखायी जैसे
घर में आग लग
गयी हो। और
दरवाजे पर
ठिठक गये, एक
क्षण रुके, वापिस लौटकर
थाली पर बैठकर
भोजन करने लगे।
रुक्मिणी ने
कहा, तुमने
मुझे और उलझा
दिया। ऐसे
भागे जैसे घर
में आग लग गयी
हो। मैं पूछी
थी कि कहां
जाते हो तो
जवाब न दिया।
फिर गये भी
कहीं नहीं, द्वार से ही
ठिठके लौट आए।
कृष्ण ने कहा—ऐसा
हुआ, मेरा
एक भक्त जमीन
पर एक गाव में
से गुजर रहा है।
लोग उसे पत्थर
मार रहे हैं, उसके सिर से
खून बह रहा है।
लेकिन वह मस्त
अपना एकतारा
बजा रहा है और
मेरी धुन गा
रहा है। उसे
पता नहीं है
कि क्या हो
रहा है? लोग
पत्थर मार रहे
हैं, लोग
गालिया दे रहे
हैं, लोग
उसे अपमानित
कर रहे हैं, और उसे कुछ
पता नहीं है, वह अपनी
मस्ती में है,
उसका
एकतारा बज ही
रहा है। उसका
गीत टूटा ही
नहीं। उसकी
कड़ी खंडित
नहीं हुई।
उसका भाव
अहर्निश मेरी
तरफ बह रहा है।
इसलिए भागा था,
मेरी जरूरत
थी। इतना जो
असहाय हो, तो
मुझे भागना ही
पड़े! इसलिए
तेरे प्रश्न
का उत्तर न दे
सका, क्षमा
करना।
रुक्मिणी ने
कहा, फिर
लौट कैसे आए? कृष्ण ने
कहा, लौटना
इसलिए पड़ा कि
जब तक मैं
दरवाजे तक
पहुंचा तब तक
उसने वीणा तो
एक तरफ पटक दी,
उसने खुद ही
पत्थर उठा
लिये हैं। अब
यह खुद जवाब
दे रहा है। अब
मेरी कोई
जरूरत न रही!
तुम जब तक
अपनी खबर खुद
ले रहे हो, तब
तक परमात्मा
तुम्हारी खबर
ले इसकी कोई
जरूरत भी नहीं
है। तुम जब
परिपूर्ण
असहाय अवस्था
में पहुंच जाओगे,
जब तुम
कहोगे कि अब
असमर्थ हूं जब
तुम्हारा
अपने ऊपर जरा
भी निर्भर
रहने का भाव न
रह जाएगा, जब
तुम एक छोटे
बच्चे की भांति
रोओगे, जिसकी
मां खो गयी है और
तुम्हें कुछ
भी न सूझेगा
सिवाय रुदन के,
कुछ भी न
सूझेगा सिवाय
पुकारने के, उसी क्षण
खबर ली जाती है।
परमात्मा
तुम्हारे साथ—साथ
है लेकिन
तुम्हारे
रास्ते पर
अंधेरा है।
अंधेरे का
कारण तुम हो।
सूरज निकला है
और तुम आंख
बंद किये खड़े
हो। फिर भी
तुम कहते हो
कि मेरे लिए
सूरज क्यों नहीं
निकला? सूरज
सबके लिए
निकला है।
लेकिन कोई आंख
बंद किये खड़ा
है, सूरज
करे भी तो
क्या करे? तुम्हारी
शिकायत
सार्थक मालूम
होती है।
जबकि
तुम खुद हो
हमसफर मेरे
क्यों
अंधेरा है
राहगुजारों
पर
जबकि
तुम मेरे साथ
चल रहे हो, जबकि तुम
मेरे संगी—साथी
हो, जबकि
तुम मेरे हृदय
में धड़क रहे
हो, तो फिर
रास्ते पर
अंधेरी क्यों
है? परमात्मा
सब तरफ व्यापक
है। फिर
तुम्हारी
जिंदगी
अंधेरा क्यों
है? तुमने आंखें
बंद कर रखी
हैं। सूरज के
निकलने से ही
क्या होगा, आंख भी तो
खुली चाहिए।
तुम्हारा
हृदय भी खुला
चाहिए! यह 'मैं'
तुम्हारे
हृदय पर
चट्टान की तरह
पडा है और तुम्हारे
भावों के झरने
को बहने नहीं
देता। रोओ थोड़ा।
शिकायत न करो,
और असहाय हो
जाओ। टूटो
थोडे और, गिरो
थोडे और, हारो
थोडे और। जिस
घडी तुम
सर्वहारा हो
जाओगे उसी घडी
क्रांति घटती
है।
दर्दे—फूरकत
की हद नहीं अब
तो
चैन
दिल को नहीं
किसी करवट।
जब ऐसा
होगा, तड़पोगे
मछली की भांति।
तट पर फेंकी
गयी मछली की
भांति, जब
प्यास
परिपूर्ण होगी
और लपटें ही
लपटें रह
जाएंगी जीवन
मैं; कोई
सहारा न
दिखेगा; कोई
सुरक्षा न
दिखेगी; जब
यह अपनी
परिपूर्णता
पर पहुंच जाता
है, दुख
तभी टूटता है।
और फिर एक
क्षण को भी
जुदाई नहीं
होती। आंख
खोलो तो भी
परमात्मा
दिखायी पड़ता
है, आंख
बंद करो तो भी
परमात्मा
दिखायी पड़ता
है। एक दफे
दिखायी पड़
जाए, फिर आंख
बंद किये भी
दिखायी पड़ता
है।
हमें
क्यों जुदाई
का गम हो तुझे
हम
तसव्वुर
में शामो—सहर
देखते हैं
फिर
तुम चाहे आंख
बंद करो, चाहे
खोलो। उसकी
मौजूदगी बनी
ही रहती है।
वह तुम्हारे
तसब्यूर में
छा जाता है।
वह तुम्हारे
तन—प्राण में
समाता है। मगर
एक बार उसके
दर्शन होना
चाहिए। तो अभी
तो शिकायत
छोडो, प्रार्थना
करो।
एक यही
अरमान गीत बन
प्रिय तुमको
अर्पित हो जाऊं।
जड़ जग
के उपहार सभी
हैं धार आंसुओ
की बिन बानी,
शब्द
नहीं कह पाते
तुमसे मेरे मन
की मर्म कहानी,
उर की
आग राग ही
केवल कंठस्थल
में लेकर चलता,
एक
यही अरमान गीत
बन प्रिय
तुमको अर्पित
हो जाऊं।
जान—समझ
मैं तुमको
लूंगा यह मेरा
अभिमान कभी था,
अब
अनुभव यह
बतलाता है मैं
कितना नादान
कभी था,
योग
कभी स्वर मेरा
होगा विवश उसे
तुम दोहराओगे,
बहुत
यही है अगर तुम्हारे
अंधसे से
परिचित हो
जाऊं।
एक यही
अरमान गीत बन
प्रिय तुमको
अर्पित हो जाऊं।
कितने
सपने कितनी
आशा कितने
आयोजन, आकर्षण,
बिखर
गया है सबके
ऊपर टुकडे—टुकडे
होकर जीवन,
सिर पर
सफर खडा है
लंबा फैला सब
सामान पडा है,
अंतर्ध्वनि
का तार मिले
तो एक जगह
संचित हो जाऊं।
एक यही
अरमान गीत बन
प्रिय तुमको
अर्पित हो जाऊं।
प्रार्थना
करो, पुकारो।
जानने की, पाने
की भाषा छोडो।
जानने में भी
अस्मिता है।
पाने में भी
अहंकार है।
तुम तो कहो—मैं
कैसे पा
सकूंगा तुझे!
मैं कैसे जान
सकूंगा तुझे!
तू ही जनाए तो
जानूं। तू ही
आ जाए तो पा
लूं। मेरे
किये कुछ भी न
होगा। तेरे
किये ही कुछ
हो सकता है।
ऐसा समग्रता
से, एक
ध्वनि से
तुम्हारे
भीतर से
प्रार्थना
उठे, निश्चित
पूरी हो जाती
है।
अंतर्ध्वनि
का तार मिले
तो एक जगह
संचित हो जाऊं।
अगर
तुम्हारे
सारे प्राण इस
एक ही
प्रार्थना में
आकर संयुक्त
हो जाएं, एक
स्वर बन जाएं,
फिर शिकायत
की जरूरत न
होगी।
परमात्मा बरस
रहा है, अहर्निश।
जब आता है तो
बूंद की तरह
नहीं आता, बाढ
की तरह आता है।
तुम समा न
पाओगे। तुम
सम्हाल न
पाओगे। लेकिन
हमें तो बूंद
भी नहीं मिली
है, बाढ़ का
हम क्या भरोसा
करें! शिकायत
में कहीं यह
स्वर होता है
कि तेरी तरफ
से कुछ अन्याय
हो रहा है।
यही मैं जोर
देकर तुमने
कहना चाहता
हूं र उसकी
तरफ से कोई
अन्याय नहीं
हो रहा है।
इसलिए शिकायत
गलत हो जाती
है। भूल अगर
कहीं हो रही
है, हमारी
तरफ से हो रही
है। हमने अभी
पुकारा ही
नहीं।
तुम
जरा फिर से आंख
बंद करके
बैठकर सोचना, तुमने सच
परमात्मा को
पुकारा है? जब कभी तुम
पुकारे भी हो,
तब भी
तुम्हारी
अंतर्ध्वनि
के सारे तार
पुकारे हैं? तुमने एकजुट
होकर पुकारा
है? जब
तुमने कभी
प्रार्थना भी
की है तो
प्रार्थना
तुम्हारे
पूरे तन—प्राण
पर छा गयी थी
या और हजार
काम भीतर चलते
थे? तुम्हारा
गोरखधंधा, तुम्हारा
मन, तुम्हारे
विचार, सब
चलते थे, उसीमें
एक प्रार्थना
भी थी? जब
तुम मंदिर गये
हो, संसार
भूल गया है? यह कि तुम
संसार को सब
भांति अपन
भीतर लिये मंदिर
पहुंच गये हो?
जब तुम
मस्जिद में
झुके हो, तो
तुम सच में
झुके थे? या
केवल शरीर की
कवायत कर ली
थी?
गौर से
देखोगे तो तुम
अपनी
प्रार्थना का
थोथापन पाओगे, उसका अन्याय
नहीं। तुम
अपनी पूजा की
व्यर्थता
पाओगे, उसका
अन्याय नहीं।
या कि तुमने
तोतों की तरह
प्रार्थनाएं
रट ली है और
तुम उन्हीं को
दोहराए जा रहे
हो। तुमने
अपनी
प्रार्थना तक
नहीं खोजी है।
तुम
प्रार्थना तक
उधार दोहरा
रहे हो। जिस
दिन यह उधारी
बंद होगी—और
इसकी कोई
फिकिर न करो
कि तुम्हारी
प्रार्थना
अगर तुम्हीं
बनाओगे, अगर
तुम्हारी
प्रार्थना
तुम्हीं से
जन्मेगी तो
शायद इतनी
सुंदर न हो, फिकिर न करो।
परमात्मा
प्रार्थना के
सौंदर्य और
शब्दों का
हिसाब नहीं
रखता है।
प्रार्थना के
भाव भर गिने
जाते हैं। न
शब्द गिने
जाने, न
व्याकरण की
फिकर की जाती,
न भाषा की।
परमात्मा तो
सिर्फ भाव
सुनता है। मौन
भाव भी उस तक
पहुंच जाते
हैं। और तुम
कितना ही
चिल्लाओ, लाख
शोरगुल मचाओ,
अगर
तुम्हारा
हृदय भीतर
नहीं है तो
परमात्मा
बहरे की तरह
रहेगा।
तुम्हारे
स्वर उस तक
नहीं पहुंचे
हैं, नहीं
पहुंचेंगे।
शिकायत
का भाव छोड़ो!
शिकायत बाधा
है। अगर
परमात्मा न
आता हो तो
इतना ही जानना
कि अभी मुझमें
कहीं भूल—चूक, अभी मैं
तैयार नहीं।
अपने पर ही
काम करो। अपने
को और निखारो।
अपने को और
स्वच्छ करो।
इतना
सुनिश्चित है—यही
तो सारे भक्ति—शास्त्र
का आधार है—कि
जिस दिन
तुम्हारी
प्रार्थना
३सम्य।करूपेण
पूर्ण हो
जाएगी, उसी
क्षण
परमात्मा उतर
आता है। पर्दा
हटे तुम्हारी आंख
से, रोशनी
सदा से मौजूद
है।
तीसरा
प्रश्न :
भक्त
रोते क्यों
हैं? रुदन
और ध्यान का
क्या संबंध है?
रोएं न
तो भक्त और
करें क्या? छोटे बच्चे
क्यों रोते
हैं जब उन्हें
भूख लगती है? जब प्यास
लगती है तब
झूले में पड़ा
बच्चा क्यों
रोता है? इसीलिए
भक्त रोते हैं।
भक्त इस
अस्तित्व को
पुकार रहे हैं,
और इस
अस्तित्व के
सामने भक्त
वैसे ही असहाय
हैं जैसे छोटा
बच्चा असहाय
है। शायद उससे
भी ज्यादा
असहाय हैं इस
विराट को देखते
हो? इस
विराट के
सामने हमारी
सामर्थ्य
क्या है? इस
अनंत को देखते
हो? इस
अनंत के सामने
हम कहां हैं, कौन हैं, क्या
हैं? हम कण
भी तो नहीं
हैं। इस कण की
बिसात क्या है?
यह कण रोए न
तो और क्या
करे? असहाय
अवस्था में, अंधेरे में,
जन्मों—जन्मों
से भटका हुआ
भक्त और क्या
करें?
न
पिरोते जो
रिश्त—ए—गम
में
दिल के
टुकड़े बिखर
गये होते
यही
पुकार, यही
आंसू तो बाधे
हुए हैं। न
पिरोते जो
रिश्त—ए—गम
में। एक विराग
जगत से उठना
शुरू होता है,
और साथ ही
एक राग
परमात्मा की
तरफ उठना शुरू
होता है। एक
ही साथ दोनों
बातें घटती
हैं। जगत
व्यर्थ
दिखायी पड़ने
लगता है और जो
सार्थक है
उसकी तलाश
शुरू होती है।
जो व्यर्थ है
वह तो दिखायी
पड़ता है और जो
सार्थक है
उसका कुछ पता
नहीं चलता; व्यर्थ हाथ
से छूटने लगता
है और सार्थक
की कोई खबर
नहीं; एक
अंतराल खड़ा हो
जाता है, उसी
अंतराल में
भक्त रोता है।
जिसको
कल तक जीवन
समझा था वह तो
जीवन नहीं है, यह सिद्ध हो
गया। धन के
पीछे दौड़े और
ठीकरे पाए। पद
के पीछे दौड़े,
सिवाय
परेशानियों
के और कुछ भी न
मिला। जिसको
संपदा समझा, वह विपदा थी।
जिस दिन यह
दिखायी पड़
जाता है उस
दिन जगत तो व्यर्थ
हो गया, जो
दिखायी पड़ रहा
है वह व्यर्थ
हो गया और जो
सार्थक होगा,
वह दिखायी
नहीं पड़ रहा
है— भक्त रोए न
तो और क्या
करे? इस
अंतराल में आंसू
के सिवा और
क्या उपाय है?
इस अंतराल
को आंसू ही
जोड़ सकते हैं
और सेतु बन
सकते हैं।
जो
तेरी बज्म से
उठा वे इस तरह
उठा
किसी
की आंख में आंसु
किसीके दामन
में
आंसू
ही आंसू हो
जाएंगे— आंख
में और दामन
में। इस जगत
की सच्चाई को
देखोगे तो और
क्या करोगे? बड़ी हैरानी
मालूम होगी।
बड़ी बिबूचन
होगी। जो मिल
सकता है वह
बेकार है और
जो बेकार नहीं
है, उसका
पता नहीं है, ठिकाना नहीं
है, कहां
है, है भी
या नहीं! एक
रिक्तता पैदा
हो जाती है।
उस रिक्तता
में आंसुओ का
जन्म है।
मुझे
जब होश आता है
तो यह महसूस
करता हूं
अभी उठ
कर गये हो तुम
मेरी आगोशे—वीरा
से
फिर भक्त
दो कारणों से
रोता है। एक
तो कारण, जब
संसार व्यर्थ
हो जाता है और
परमात्मा
दिखायी नहीं
पड़ता है। अब
तक जिन
वासनाओं के
सहारे जी लिये
थे, वे उखड़
गयीं। अब तक
जिन आशाओं के
सहारे जी लिये
थे, अब
उनमें कुछ सार
न रहा। हाथ
एकदम राख से
भर गये। इसलिए
रोता है। फिर
एक और दशा भी
है। जब भक्त
को परमात्मा
की झलकें
मिलने लगती
हैं, लेकिन
झलकें मिलती
हैं और खो
जाती हैं; मिलती
हैं और खो
जाती है; यह
दिखी झलक और
गयी, बिजली
की कौंध की
तरह। फिर और
भी रोता है।
और जार—जार
रोता है। अब
सत्य का स्वाद
भी लग गया, लेकिन
पेट नहीं भरा।
तो
पहले चरण पर
भक्त रोता है—संसार
व्यर्थ हो गया, सार्थक की
कोई खबर नहीं।
दूसरे चरण पर
भक्त रोता है—सार्थक
की खबर मिलने
लगी, मगर
मिलन कब होगा?
जब तक खबर न
मिली थी तब तक
तो रोने में
इतना बल नहीं
था, क्योंकि
भीतर एक संदेह
तो रहेगा ही
कि पता नहीं
मैं जिसके लिए
रो रहा हूं वह
है भी या नहीं;
अब तो
दिखायी भी
पड़ने लगा कि
जिसके लिए मैं
रो रहा हूं वह
है और फिर भी
हाथ चूक—चूक
जाते हैं, फिर
भी मैं बढ़ता
हूं बढ़ता हूं
और नहीं पहुंच
पाता, एक
बूंद कंठ में
भी उतर गयी, अब भक्त और
रोता है।
अब
रोने में बड़ी
गहराई आ जाती
है।
मुझे
जब होश आता है
तो यह महसूस
करता हूं
अभी
उठकर गये हो
तुम मेरे
आगोशे—वीरा से
अभी—
अभी उठ गये
तुम मेरी गोद
से। अभी— अभी
मेरे हृदय में
थे, अभी— अभी
तुम चले गये।
अभी— अभी पास
थे, अब फिर
दूर हो गये—फिर
अनंत दूरी; फिर तुम
लापता, फिर
पता नहीं
तुम्हारा
मकान कहां है,
कहां
तुम्हें
खोजूं? यह
भी पता नहीं
है कैसे यह
क्षणभर को
तुम्हारा
मिलना हुआ था,
तुम बिना
कुछ सूत्र
बताए आए और
बिना कुछ
सूत्र बताए
चले गये। यह
दूसरी गहराई
है।
फिर एक
तीसरी, अंतिम
भक्त के रोने
की गहराई है।
जब भगवान मिल
ही जाता है, पूरा—पूरा
मिल जाता है, छूटता नहीं,
तब अनुग्रह
में रोता है
भक्त, तब
आह्लाद में
रोता है भक्त।
फिर आह्लाद
इतना होता है
कि शब्द ओछे
मालूम पड़ते
हैं, सिर्फ
आंसू ही कह
सकते हैं। मगर
इन सब आंसुओ
के गुणधर्म
अलग हैं। पहले
रोता है—
असहाय अवस्था
में। फिर रोता
है—स्वाद लग
गया, अनुभूति
की थोड़ी— थोड़ी
किरण उतरने
लगी। फिर रोता
है— अनुभव हो
गया। अब
अनुग्रह में
और क्या करे?
तो तुम
भक्त को पहले
भी रोते पाओगे, बाद में भी
रोते पाओगे।
और इसलिए
प्रश्न
सार्थक है कि
भक्त रोते
क्यों हैं? और रुदन और
ध्यान का क्या
संबंध है?
रुदन
और ध्यान का
तो कोई संबंध
नहीं है, लेकिन
रुदन और
प्रार्थना का
संबंध जरूर है।
ये दो अलग
मार्ग हैं।
ध्यानी नहीं
रोता। महावीर
कभी रोए, ऐसी
किसी घटना का
उल्लेख नहीं
है। या बुद्ध
कभी रोए, ऐसी
घटना का कोई
उल्लेख नहीं
है। इतनी नहीं
रोता, ध्यानी
नहीं रोता।
क्योंकि
ध्यानी की
सारी प्रक्रिया
बुद्धि को
निखारने की है।
इसीलिए तो
गौतम
सिद्धार्थ को
हमने बुद्ध
कहा।
उन्होंने
बुद्धि को
पूरा—पूरा
निखार लिया।
यह प्रक्रिया
अलग है। ध्यान
की प्रक्रिया
विचार—मुक्ति
की प्रक्रिया
है और भक्ति
की प्रक्रिया
भाव को जगाने
की प्रक्रिया
है। आंसू
मस्तिष्क से
नहीं आते, आंसू
हृदय से आते
हैं, उनका
स्रोत हृदय
में है। इसलिए
ध्यान नहीं
रोता। उसका
सारा काम
मस्तिष्क में
हैं। वहा से आंसू
आने का कोई
कारण नहीं है।
ध्यानी की आंखें
तो आंसुओ से
बिलकुल रिक्त
हो जाती हैं।
लेकिन भक्त
रोता है। मीरा
रोती है, चैतन्य
रोते हैं, सहजो
रोती है। और
रोने के ये
तीन तल हैं।
प्रार्थना से
संबंध है आंसुओ
का।
और
ध्यान रखना, दुनिया में
बहुत थोडे
लोगों ने
ध्यान के द्वारा
परमात्मा को
पाया, अधिक
लोगों ने भाव
के द्वारा
परमात्मा को
पाया है।
ध्यान के
द्वारा
परमात्मा को
पाना ऐसा ही
है जैसे कोई
सिर के पीछे
से हाथ घुमा
कर और कान को
पकडे; या
नाक को पकडे।
लंबी यात्रा
है। भक्ति
सुगम है, सीधी
यात्रा है।
नाक पकड़नी है
तो सीधी नाक
पकड़ लो। पूरे
सिर के पीछे
से हाथ को
घुमाकर लाओगे
फिर नाक
पकडोगे? ध्यानी
बड़े उपक्रम
में लग जाता
है। भक्त
सिर्फ रोता है
और पा लेता है।
भक्त सिर्फ
पुकारता है और
पा लेता है।
अगर भक्ति की
संभावना हो तो
ध्यानी बनने
की व्यर्थ
झंझट में पड़ना
ही मत। अगर
ऐसा लगे कि
मेरे भीतर भाव
उठते ही नहीं,
संवेदना
उठती ही नहीं,
छूता ही
नहीं मेरे
हृदय को कुछ, तो ही ध्यान
की तरफ जाना।
जिनका हृदय
बिलकुल
रेगिस्तान हो
गया हो, उनके
लिए ध्यान का
मार्ग है।
जिनके हृदय
में अभी थोड़ी
संभावना हो, जलस्रोत
बहते हों, हरियाली
हो, फूल
खिल सकते हो, उन्हें
ध्यान तक जाने
की कोई भी
जरूरत नहीं है।
वे भक्ति में
डूब जाएं।
आज
मल्हार कहीं
तुम छेड़े
मेरे
नयन भरे आते
हैं।
तुमने
आहें भरी कि
मुझे था
झंझा
के झोंकों ने
घेरा,
तुम
मुस्काये थे
कि जुन्हाई
में था
डूब
गया मन मेरा,
तुम जब
मौन हुए थे
मैंने
सूनेपन
का दिल देखा
था
आज
मल्हार कहीं
तुम छेड़े
मेरे
नयन भरे आते
हैं।
हंसता
हूं तो उनकी
अंजलि
रिक्त
नहीं होती
कलियों से
मुखरित
हो पथ उनका
सुरभित
होगा
पंखुडियों से,
पलकों!
सूख न जाना
देखो
राग न
उनका रुकने
पाए,
किस
मरु को मधुबन
करने को
आज न
जाने वे गाते
हैं
आज
मल्हार कहीं
तुम छेड़े
मेरे
नयन भरे आते
हैं।
सुनो
गौर से, सुनो
शांत होकर, मल्हार छिड़ी
ही हुई है।
आज
मल्हार कहीं
तुम छेड़े
मेरे
नयन भरे आते
हैं।
भक्त
ऐसा कोमल हो
जाता है, ऐसा
नाजुक हो जाता
है, ऐसा
स्त्रैण हो
जाता है कि
पक्षी गीत
गाता है और
भक्त की आंख
भर आती हैं; गुलाब की
झाड़ी पर फूल
खिलता है और
भक्त की आंखें
भर आती हैं; कोयल कुहू—कुहू
करती है और
भक्त रोने
लगता है; पपीहा
पुकारता है पी
को और भक्त
डोलने लगता है;
हवाएं
वृक्षों से
सरसराती
निकलती हैं और
भक्त रोने
लगता है; चांद
को देखे कि
सूरज को, जहा
आंख उठाता है
वहीं उसकी
मल्हार
सुनायी पड़ती
है।
आज
मल्हार कहीं
तुम छेड़े
मेरे
नयन भरे आते
हैं।
पलकों!
सूख न जाना
देखो
राग न
उनका रूकने
पाए,
भक्त
और भगवान के
बीच यही संबंध
है। भगवान की
तरप से राग
छिड़ा है, भक्त
की तरफ से आंखें
आंसुओ से भरी
हैं। यही सेतु
है। उस तरफ से
राग, इस
तरह से आंसुओ
से भरी आंखें।
पलकों! सूख न
जाना देखो।
राग न
उनका रुकने
पाए,
किस
मरु को मधुबन
करने को
आज न
जाने वे गाते
हैं।
आज
मल्हार कहीं
तुम छेड़े मेरे
नयन
भरे आते हैं।
रोओ।
रोने
में कंजूसी मत
करना।
रोने
में क्या लगता
है तुम्हारा? लेकिन लोगों
की आंखें सूख
गयी हैं। लोग
तर्क के
मरुस्थल हो
गये हैं।
रोनेवाला
व्यक्ति तो
उन्हें लगता
है कि कुछ गलत
है, कुछ
पागल है, कुछ
बुद्धिहीन है।
इस धारणा ने
ही लोगों को
इस जगत में
परमात्मा से
वंचित करा
दिया है।
क्योंकि
निन्यानबे
प्रतिशत लते
हृदय से ही परमात्मा
की तरफ जा
सकते हैं। और
हृदय स्वीकार
नहीं है। हृदय
अंगीकार नहीं
है। हृदय की
भाषा को कोई
मानने को
तैयार नहीं है।
तुम भी जब
रोने लगते हो
तो तुम भी
सोचते हो कोई देख
न ले। अपनी आंख
जल्दी से पोंछ
लेते हो, रोक
लेते हो आंसुओ
को, पी
जाते हो; कोई
देख न ले, लोग
क्या कहेंगे?
पहले तो
तुम्हें यह
सिखाया गया कि
अगर तुम पुरुष
हो तो रोना ही
मत क्योंकि यह
स्त्रैण
कृत्य है।
छोटे—छोटे
बच्चों को हम
कहते हैं कि
क्या रो रहा
है, क्या
तू लड़की है? तुम जानकर
चकित होओगे, मनोवैज्ञानिक
क्या कहते हैं
इस संबंध में?
उनकी खोजें
क्या हैं? उनके
खोजें ये हैं
कि आदमी, पुरुष
भी रोना सीख
ले फिर से—सीखना
पड़ेगा उसे—तो
दुनिया में
बहुत—सा
पग़ालपन कम हो
जाए।
पुरुष
दो गुना
ज्यादा पागल
होते हैं
स्त्रियों की
बजाय, यह
तुम्हें पता
है? और
पुरुष दो गुना
आत्महत्या
करते हैं
स्त्रियों की
बजाय, यह
तुम्हें पता
है? और
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कारण
क्या होगा इतने
बड़े भेद का? कारण सिर्फ
यही है, स्त्री
अभी भी रोना
भूल नहीं गयी
है। थोड़ा—सा
रो लेती है।
रो लेती है, हल्की हो
जाती है। उसके
रोने में कोई
बड़ा अध्यात्म
नहीं है, क्षुद्र
बातों में
रोती रहती है,
मगर फिर भी
हल्की तो हो
ही जाती है।
काश! उसके आंसुओ
को ठीक दिशा
मिल जाए, तो
वह हल्की ही न
हो उसे पंख लग
जाएं।
पुरुष
को रोना सीखना
ही पड़ेगा। और
गलत तुम्हें
समझाया गया है
कि रोना मत, तुम पुरुष
हो। क्योंकि
प्रकृति ने
भेद नहीं किया
है। जितने आंसुओ
की ग्रंथि
स्त्री की आंखों
में हैं, उतने
ही आंसुओ की
ग्रंथि पुरुष
की आंखों में
हैं। इसलिए
प्रकृति ने तो
भेद बिलकुल
नहीं किया है।
तुम्हारी आंखें
उतनी ही रोने
को बनी हैं
जितनी स्त्री
की।
इस
संबंध में कोई
भेद नहीं है।
स्त्री रो
लेती है तो
भार उतर जाता
है। मगर भार
ही उतारने का
काम लिया इतनी
महिमापूर्ण
घटना से, आंसुओ
से, तो कुछ
ज्यादा काम
नहीं लिया। आंसू
तो परमात्मा
की तरफ इशारा
बन सकते हैं।
क्षुद्र के
लिए मत रोओ, विराट के
लिए रोओ। और
कंजूसी मत करो।
और छिपाओ मत आंसुओ
को। तुम्हारे
पास हृदय है, इसमें कुछ
अपमान नहीं है,
सम्मान है।
एक बात
खयाल रखना, मस्तिष्क तो
आज नहीं कल
मशीन के पास
भी होगा—हो ही
गया है, कम्प्यूटर
बन ही गये हैं,
जो आदमी की
बुद्धि से
ज्यादा ठीक
काम कर रहे हैं—एक
बात
सुनिश्चित है
कि मशीन के
पास हृदय कभी नहीं
होगा। हम ऐसी
मशीन कभी भी न
बना पाएंगे जो
भाव अनुभव कर
सके। विचार का
गणित
बिठानेवाली
मशीनें तो बन
गयी हैं, तुमसे
ज्यादा ठीक से
जोड़—घटाना
करती हैं, तुमसे
ज्यादा अच्छी
उनकी स्मृति
है, बड़े
से बड़े
गणितज्ञ जो
सवाल घंटों
में पूरा करे
वह मशीन क्षण
मैं पूरा कर
देती है।
इसलिए विचार
तो मशीन भी कर
सकेगी, लेकिन
भाव मशीन न कर
सकेगी।
मनुष्य
की महिमा उसके
भाव में है।
उसके भाव के
कारण ही वह
मनुष्य है।
इसलिए जितनी
भावुकता हो, उतने तुम
ज्यादा
मनुष्य हो। और
भाव ही भाव बह
जाए तुम्हारे
जीवन में तो
प्रार्थना का
जन्म हो गया।
और फिर
परमात्मा के
सामने न रोओगे
तो कहा रोओगे?
अगर उस
द्वार पर भी न
रो सके तो फिर
कहा रोओगे? न रोने का
मतलब होता है,
अकडू। मैं
और रोऊं!
परमात्मा के
सामने भी अकडू
लेकर जाओगे? वहा तो छोटे
बच्चे हो जाओ।
मेरे
उर की पीर
पुरातन
तुम न
हरोगे कौन हलो?
किसका
भार लिए मन
भारी
जगती
में यह बात
अजानी
कौन
अभाव कि ये मन
सुनना
दुनिया
की यह मौन
कहानी
किंतु
मुखर हैं जिससे
मेरे
गायन—गायन, अक्षर—अक्षर
मेरे
उर की पीर
पुरातन
तुम न
हरोगे कौन हलो?
सर—सरिता, निर्झर धरती
के
मेरी
प्यास परखने
आए,
देख
मुझे प्यासा
का प्यासा
वे
भरमाए, वे
शरमाए,
और छोर
नभमंड़ल घेरे
हे
पावस के पागल
जलधर
मेरे
अंतर के सतर
को
तुम न
भरोगे कौन
भरेगा?
मेरे
उर की पीर
पुरातन
तुम न
हरोगे कौन हरेगा?
वहां
तो रोओ; वहा
तो पुकारो। और
ध्यान रखना, आज शायद तुम
पीडा में
पुकारोगे, कल
तुम्हारी
पीड़ा
रूपातरित हो
जाएगी और आनंद
के अश्रु
तुम्हारे
भीतर जन्मने
लगेंगे। पीडा
में पुकार है,
उपलब्धि
में अंत है।
आंसू
दोनों ही तरफ
से होंगे।
पहले इसलिए कि
तुम रिक्त हो, इसलिए कि
तुम भर गये हो।
बहो आंसुओ में।
तुम्हारा
कल्मष ले
जाएंगे आंसू।
तुम्हारी धूल
झाडू देंगे।
वैज्ञानिक
से पूछो कि आंसू
का उपयोग क्या
है? तो
वैज्ञानिक
कहता है, आंख
पर धूल न जमने
पाए, यह आंसू
का उपयोग है।
इसलिए जरा—सी
कंकरी चली
जाती है आंखों
में, तत्क्षण
आंसू आ जाते
हैं। आंसू का
मतलब यह होता
है, कि आंख
पानी बहा रही
है ताकि कंकर
बह जाए।
प्रतिपल
तुम्हारी पलक
झपकी है।
तुम्हें पता
है पलक झपक कर
क्या करती है?
पल आर्द्र
है, उसकी
आर्द्रता के
कारण वह
तुम्हारी आंख
को पोंछ जाती
है। जैसे गीले
कपड़े से कोई
चीज पोंछ दी
गयी हो। तो आंख
जाती रहती है,
स्वच्छ
रहती है, धूल
नहीं जमने
पाती है। यह
तो वैज्ञानिक
कहता है बाहर
की बात। भक्त
से भीतर की
बात पूछो। वह
कहता है, भीतर
की आंख भी धुल
जाती है आंसुओ
से। बाहर की आंखें
तो धुलती ही
है, भीतर
की आंख जिसको
तीसरा नेत्र
हो, शिवनेत्र
कहो—वह धुलता
है। और सुनते
भी कई बार
अनुभव किया
होगा, अगर
हृदयपूर्वक
तुम रो लिये
तो पत्थर उतर
जाते हैं सिर
से। कुछ हलका
हो जाता है।
तुम भार रहित
हो जाते हो।
इस कला
को फिर जगाओ।
तुम्हें भुला
दी गयी है कला—संस्कृति
के नाम पर, सभ्यता के
नाम पर। अकड़
तुम्हें सिखा
दी गयी है! काश!
तुम रो सको तो तुम
पिघलना शुरू
हो जाओ। और
पिघलने में ही
प्रार्थना है।
चौथा
प्रश्न :
भक्ति
को आप प्रेम
की उपमा क्यों
देते हैं? क्या कोई और
सम्यक उपमा
नहीं है?
प्रेम
भक्ति के लिए
उपमा ही नहीं
है, प्रेम
भक्ति के लिए
ऊर्जा है।
उपमा ही नहीं
है। तुम्हें
समझाने के लिए
ही नहीं कह
रहा हूं कि प्रेम
भक्ति है।
प्रेम भक्ति
है! यह प्रेम
की ही ऊर्जा
है तुम्हारे
भीतर जो आज
नहीं कल भक्ति
में
रूपांतरित होगी।
प्रेम बीज है,
भक्ति
अंकुरण हो गया,
बीज टूट गया।
जब भी तुमने
किसी को प्रेम
किया है तो
तुम्हें थोड़ी—सी
प्रार्थना की
झलक मिली ही
है। इसीलिए तो
प्रेम
करनेवालों को
लोग पागल समझ
लेते हैं।
क्योंकि जब
तुम्हारा
किसी से प्रेम
हो जाता है तो
तुम्हें
दूसरे में ऐसा
कुछ दिखायी
पड़ने लगता है
जो किसी को
दिखायी नहीं
पड़ता। एक
स्त्री के
प्रेम में तुम
पड़े, कि एक
पुरुष के
प्रेम में तुम
पड़े, और
तुम्हें
स्त्री में
एकदम देवी
दिखायी पड़ने
लगती है—जो
किसी को
दिखायी नहीं
पड़ती। स्त्री
को एकदम
तुममें देवता
दिखायी पड़ने
लगता है जो
तुमको भी
दिखायी नहीं
पड़ता।
तुम्हें
चौंक नहीं हुई
कभी—कभी? जब
किसी स्त्री
ने कहा कि आप
तो मेरे देवता
हैं और
तुम्हारे
चरणों में गिर
गयी हूं।
तुम्हें
विचार नहीं
उठा कि मैं और
देवता! मुझे
भी पता नहीं
है। तुम जब
किसी स्त्री
के आगे झुके
हो अपने प्रेम
की प्रार्थना
लेकर, जब
तुमने किसी
स्त्री को
प्रेम से भरकर
देखा है, तो
तुम्हें
उसमें कुछ
अलौकिक
दिखायी पड़ा है,
तभी।
तुम्हें कुछ
झलक मिली है
परमात्मा की।
यह झलक जल्दी
ही खो जाती है,
ज्यादा देर
टिकती नहीं, क्योंकि झलक
ही है, इसको
तुमने कमाया
नहीं है; और
प्राकृतिक है,
आध्यात्मिक
नहीं है, इसलिए
ज्यादा देर
टिकेगी नहीं।
इसलिए
सभी प्रेमी
अंत में जीवन
ने अनुभव करते
हैं कि उन्हें
धोखा दिया गया।
थोड़े दिन तक
जिससे तुमने
प्रेम किया
उसमें परमात्मा
दिखायी पड़ता
है, फिर
जल्दी ही आदमी
दिखायी पड़ेगा—कितनी
देर तक
परमात्मा
दिखायी पड़ेगा?
कभी— कभी एक
स्त्री से मिल
लिए, कभी—कभार,
तो ठीक, लेकिन
जब चौबीस घंटे
उसके साथ
रहोगे तो
असलियत तो
जमीन की है।
वह कभी नाराज
भी होगी, कभी
चीखेगी—चिल्लाएगी
भी, कभी
सामान भी तुम
पर फेंकेगी, कभी तुम भी
उसे मारने पर
उतारू हो
जाओगे, क्रोध
भी करोगे, झगड़ा—झंझट
भी होगा। तब
तुम्हें शक
होने लगता है
कि मामला क्या
है? मुझे
देवी दिखायी
पड़ी थी, यह
महादेवी
सिद्ध हो रही
है। स्त्री को
भी शक होने
लगता है कि
मैंने देवता देखा
था और यह तो
साधारण आदमी
सिद्ध हो रहा
है। धोखा दिया
गया।
नहीं, किसी ने
किसी को धोखा
नहीं दिया; किसी ने
किसी को
बेईमानी नहीं
की है। लेकिन
प्रेम में एक
झलक मिल जाती
है भक्ति की
और तुम दूसरे
को दिव्य मान
बैठते हो।
प्रेम में एक
झरोखा खुलता
है—प्राकृतिक झरोखा—लेकिन
वह ज्यादा देर
स्थायी नहीं
हो सकता। ऐसा
ही समझो कि
बिजली कौंधी
आकाश में, अब
इसमें तुम कोई
किताब थोड़े ही
पढ़ सकोगे? वही
बिजली
तुम्हारे घर
में भी है, रोशनी
कर रही है, फिर
तुम किताब पढ़ो,
या जो
तुम्हें करना
हो करो। दोनों
बिजलियां हैं,
लेकिन आकाश
की बिजली
प्राकृतिक
घटना है, तुम्हारे
घर में जो
बिजली पंखा
चलाती है, दिये
जलाती है, उसे
तुमने बांध
लिया, उसे
तुमने अपने बस
में कर लिया।
उसे बस में
करने के लिए
तुम्हें बड़ी
साधना करनी
पड़ी।
प्रेम
प्राकृतिक
कौंध है। उसी
कौंध को जब
कोई धीरे—धीरे
निरंतर
अभ्यास से
अपने बस में
कर लेता है, तो भक्ति का
जन्म होता है।
फिर दिया भीतर
जलता है, फिर
रोशनी उसकी
सदा रहती है।
फिर ऐसा नहीं
होता कि
तुम्हें किसी
एक स्त्री में
भगवान दिखायी
पड़े, किसी
एक पुरुष में
भगवान दिखायी
पड़े, फिर
तो तुम्हें
ऐसा होने
लगेगा कि
तुम्हें भीतर
रोशनी जलती है
तो तुम जहां
भी देखते हो
वही भगवान
दिखायी पड़ता
है। प्रेम है
किसी एक में
कभी—कभार
भगवान का
दिखायी पड़
जाना, भक्ति
है सब में
सर्वत्र सदा
भगवान का
दिखायी पड़ना।
लेकिन उपमा ही
नहीं है।
और अगर
तुम यह सोचो
कि सिर्फ उपमा
भी है तो भी इससे
बेहतर कोई
उपमा नहीं हो
सकती।
क्योंकि
प्रेम से
ज्यादा और इस
जगत में ऐसा कोई
तत्व नहीं है
जिसके द्वारा
हम भक्ति को
समझा सकें।
तुम्हारे
अनुभव में और
कोई ऐसी घटना
नहीं है जिसके
द्वारा हम
भक्ति की तरफ इशारा
कर सकें। ऐसा
ही समझो कि
तुम एक देश
में रहते हो
जहा कमल का
फूल नहीं
खिलता; कमल
का फूल नहीं
होता। वहां
समझो गेंदे के
ही फूल होते
हैं। और कोई
आया है परदेश
से कमल के
फूलों की खबर
लेकर, वह
तुम से पूछता
है कि कमल का
फूल कैसा होता
है? वह
क्या कहे
तुमसे? गेंदे
के फूल और कमल
के फूल में
बड़ा फर्क है।
लेकिन
उसके पास एक
ही उपाय है कि
वह तुमसे कहे कि
थोड़ा—सा गेंदे
के फूल से
तुम्हें
अनुभव हो सकता
है। ऐसा ही
फूल होता है, बहुत बड़ा
होता है, बहुत
सुगंधित होता
है। बहुत कोमल
होता है, जल
पर तैरता है, और ऐसा
तैरता है कि
जल पर होता है
और जल उसे छू भी
नहीं पाता।
लेकिन क्या यह
उपमा जिसने
दोनों जाने
हैं—प्रेम और
भक्ति, गेंदे
का फूल और कमल
का फूल—उसे
ठीक मालूम
पड़ेगी? उसे
ठीक मालूम ही
पड़ेगी। लेकिन
फिर भी
जिन्होंने
गेंदे के फूल
ही जाने हैं
उनको समझाने
का और क्या
उपाय है।
तुमने प्रेम
जाना है थोड़ा
सा मां से, पिता
से, बेटे
से, पत्नी
से, भाई से,
मित्रों से—तुमने
प्रेम की थोड़ी—
थोड़ी झलकें
पायी हैं, तुम्हारे
जीवन में जो
सबसे ऊंची
घटना है वह प्रेम
है— भक्ति के
लिहाज से
प्रेम सबसे
नीची घटना है,
मगर
तुम्हारे
जीवन में जो
सबसे ऊंची
घटना है वह
प्रेम है—तो
तुम्हारी
सबसे ऊंची
घटना से ही
भक्ति को समझाया
जा सकता है।
और किसी तरह
समझाने से
भ्रांति हो
जाएगी। अगर
तुम
प्रेमियों के
वचन सुनो तो
तुम्हें समझ
में आएगा।
यह दूर
की वादी से
किसने मुझे
सदा दी
एक आग
मेरे दिल में
मुहब्बत की
लगा दी
फूलों
की बहार और
सितारों की
जवानी
हर चीज
तेरे मस्त
तबस्सुम पै
लुटा दी
यह कौन
मेरे रूह की
गहराइयों में
झूमा
उजड़ी
हुई बस्ती यह
मेरी किसने
बसा दी
यह बात
जिसे दिल ने
छिपाया था
बामुश्किल
दुनिया
को मेरी मस्त
निगाहों ने
बता दी
फिर
उठने लगे रूह
से रंगीन
शरारे
फिर
हिज़ की रूदाद
पपीहे ने सुना
दी
फिर कर
दिया मदहोश
मुझे होश में
लाकर
फिर
मस्त निगाहों
ने निगाहों को
पिला दी
यह
गाया तो प्रेम
में है, प्रेम
का गीत है। पर
क्या इससे
तुम्हें
भक्ति की थोड़ी
झलक नहीं
मिलती?
फिर कर
दिया मदहोश
मुझे होश में
लाकर
फिर
मस्त निगाहों
ने निगाहों को
पिला दी
माना
अभी और बहुत
ऊंचे जाना
होगा, यह
ऊंची से ऊंची
पहाडी है जिस
पर तुम खड़े
हो सकते हो, मगर इस पर
अगर तुम खड़े
हो जाओ तो
तुम्हें दूर
का आकाश
दिखायी पडेगा।
उस निगाहे—मस्त
से जब बज्म
में आती हूं
मैं
कैफोरंगो
नूर को दुनिया
पे छा जाती
हूं मैं
चाहती
तो हूं कि
मौजों से रहूं
दामनकशा
किश्ती—ए—गम
हूं भंवर में
फिर भी आ जाती
हूं मैं
सुबह
तक ठहरा नजर
आता है दौरे
आस्मां
जब
तसब्यूर में
तेरे रातों को
खो जाती हूं
मैं
जाम गिर
पड़ता है साकी
थरथरा जाता
हैं हाथ
तेरी आंखें
देखकर नशे में
आ जाती हूं
मैं
यह गीत
तो प्रेम का
है, लेकिन
क्या इससे
तुम्हें कुछ
खबर नहीं
मिलती?
जाम
गिर पड़ता है
साकी थरथरा
जाते हैं हाथ
तेरी आंखें
देखकर नशे में
आ जाती हूं
मैं
यही तो
शिष्य और गुरु
के बीच घटता
है, तब उसे हम
श्रद्धा कहते
हैं।
जाम
गिर पड़ता है
साकी थरथरा
जाते हैं हाथ
तेरी आंखें
देखकर नशे में
आ जाती हूं
मैं
और यही
फिर एक दिन
भक्त और भगवान
के बीच घटता है, उसे हम
भक्ति कहते
हैं। रोज—रोज
आकाश बड़ा
होता जाता है।
प्रेम ऐसा है
जैसे
तुम्हारा
छोटा—सा घर का आंगन।
अब घर के आंगन
से आकाश की
क्या उपमा? क्या तुलना
मगर फिर भी एक
बात तो मानोगे
न कि तुम्हारे
छोटे—से आंगन
में भी जो
उतरा है, वह
भी आकाश ही है।
तुम्हारा
छोटा—सा आंगन
आकाश नहीं है,
आकाश बहुत बड़ा
है, और भेद
तुम्हारे आंगन
और आकाश में
परिणाम का ही
नहीं, गुण
का भी है।
लेकिन फिर भी
जो उतरा है
तुम्हारे
छोटे—से आंगन
में, वह भी
तो आकाश ही है।
एक छोटे—से
सागर की बूंद,
जरा—सी बूंद,
माना कि
सागर नहीं है
और इसमें तुम
चाहोगे बड़े
जहाज चलाने तो
न चला पाओगे, इसमें तुम
डुबकी भी
लगाना चाहोगे
तो न लगा
पाओगे, लेकिन
फिर भी इसे
इनकार नहीं
किया जा सकता
कि यह छोटी—सी
बूंद भी सागर
की ही बूंद है
और इस छोटी—सी
बूंद में सागर
का सारा राज
छिपा है।
वैज्ञानिक
कहते हैं अगर
हम सागर की एक
बूंद को पूरा—पूरा
समझ लें तो
हमने पूरे
सागर को समझ
लिया। एक बूंद
को समझ लेने
से पूरा सागर
समझ में आ जाएगा।
निश्चित आ
जाएगा। सूत्र
तो वहा है, संक्षिप्त
है। प्रेम में
सारा राज छिपा
है। इसलिए मैं
जब प्रेम से
तुलना देता
हूं भक्ति की,
तो तुलना तो
है ही, उपमा
तो है ही, लेकिन
एकमात्र उपमा
ही नहीं है, प्रेम में
कुछ—कुछ भक्ति
का अंश उतरा
है। और कुछ—कुछ
प्रेम का अंश
भक्ति में सदा
शेष रहता है।
दोनों जैसे
जुडे हैं।
प्रेम ऐसा है
जैसे जमीन में
गड़ा है और
भक्ति ऐसी है
जैसे आकाश में
उड़ती है।
प्रेम ऐसा है
जैसे तुमने पिंजड़े
में पक्षी को
बंद कर रखा है,
और भक्ति
ऐसी है जैसे पिंजड़े
से पक्षी उड़
गया। खुले
आकाश को फिर
उसने पा लिया
है।
मगर
मैं जानता हूं
कि प्रश्न
तुम्हारे मन
में क्यों उठा
है? प्रश्न
इसलिए उठा है
कि सदियों—सदियों
से तुम्हारे
तथाकथित
धार्मिक
लोगों ने
प्रेम की
निंदा की है, प्रेम को
गर्हित बताया
है, प्रेम
को कुत्सित
कहा है। प्रेम
पाप है ऐसी
घोषणा की है।
इसलिए
तुम्हारे मन
में यह सवाल
उठा है कि मैं कोई
और उपमा चुन
लूं तो अच्छा।
तुम्हारे मन
में प्रेम की
कहीं निंदा
होगी।
तुम्हारे मन
में प्रेम का
कहीं
अस्वीकार होगा।
तुम्हारे मन
में प्रेम से
कहीं भय है।
और तुम्हारी बात
भी मैं समझता
हूं तुम्हारे
तथाकथित महात्माओं
की बात भी मैं
समझता हूं।
लेकिन, जिसको
प्रेम में भय
है उसने प्रेम
को समझा नहीं
है, प्रेम
की नासमझी के
कारण भय पैदा
हुआ है। जो आंगन
से भयभीत है, वह आंगन को
समझा नहीं है।
आंगन में
दीवालें भी
थीं और आंगन
में आकाश भी
था, उसने
दीवालों पर
ज्यादा ध्यान
दे दिया और
आकाश को भूल
गया। मैं
चाहता हूं तुम
आकाश पर
ज्यादा ध्यान
दो, दीवालों
को भूलो।
दीवालें तो
हैं और रहेंगी।
आदमी शरीर की
दीवाल में है
तब तक दीवालें
रहती हैं, तब
तक दिवाले
नहीं मिटती
हैं। कैसे
मिटेगी, तुम्हारी
ही दीवाल नहीं
मिट रही है तो
और कैसे तुम
दीवालें मिटा
पाओगे? तुम
भाग जाओगे
हिमालय में
लेकिन शरीर से
कहां भाग कर
जाओगे?
अच्छा
यही हो कि तुम
दीवालों को
ज्यादा महत्व न
दो, उपेक्षा
करो। रहने दो
दीवालें आंगन
के चारों तरफ,
कोई चिंता
की बात नहीं
है, लेकिन आंगन
आकाश की तरफ
खुला है, आकाश
आंगन की तरफ
खुला है, उसे
स्मरण करो—उसी
द्वार से
मुक्त हो
सकोगे।
मेरे
मन में प्रेम
का बड़ा सम्मान
है। और मैं उस
आदमी को अभागा
मानता हूं
जिसको जीवन
में प्रेम का
अनुभव नहीं है।
जिसने प्रेम
ही न जाना वह
परमात्मा को
नहीं जान
पाएगा। लाख
करे उपाय। फिर
उसके उपाय
बुनियादी रूप
से गलत होंगे।
क्यों गलत
होंगे? वह
उपाय ही क्यों
करेगा? उसके
उपाय भय पर
आधारित होंगे
या लोभ पर।
दुनिया
में दो ही
चीजें कारगर
हैं—या तो
प्रेम, या
भय। लोभ भय का
ही अंग है, दान
प्रेम का अंग
है। या तो लोग
भयभीत होकर
परमात्मा की
तरफ जाते हैं—महात्माओं
को यही सस्ता
मालूम पड़ा कि
लोगों को
भयभीत कर दो, ड़रा दो।
नर्क। कहीं भी
नहीं है नर्क।
और अगर कहीं
है, तो
तुम्हारे
भीतर है। बाहर
तो नहीं है।
उसकी कोई
भूगोल नहीं है।
लेकिन ड़रा दो
कि नर्क में
सडोगे अगर भगवान
की प्रार्थना
न की। अगर
मंदिर न गये, तो नर्क की
आग में डाले
जाओगे, नर्क
के कीड़े बनोगे।
और नर्क के
खूब बीभत्स
चित्र खींचे।
उनसे लोग घबड़ा
गये। और जब यह
चित्र खींचे
गये— आज से
पांच हजार साल
पहले—जब लोग
बड़े भोले—
भाले थे, बहुत
घबड़ा गये
होंगे। आज का
आदमी तो इतना
भोला— भाला
नहीं, वह
तो कहेगा—होगा
जब देखेंगे।
और अभी कौन
मरे जा रहे
हैं। और मर भी
गये तो फिर
वहां देख
लेंगे। आखिर
हम तो वहां
रहेंगे, सब
नर्क के लोगों
को इकट्ठा कर
लेंगे, ऐसा
कोई आसान थोड़े
ही है! कुछ ना
कुछ उपद्रव खड़ा
करेंगे—हड़ताल,
घेराव; उलट
देंगे सत्ता
को वहां। आज
का आदमी तो
चालाक है।
लेकिन
जब नर्क की
कहानियां गढ़ी
गयीं तब आदमी
बड़ा सरल था।
आदमी
प्रभावित हो
जाता था।
निर्दोष था
आदमी। सीधा—सादा
था, भोला—
भाला था। जैसे
छोटे बच्चे
होते हैं।
छोटे बच्चे को
भूत की कहानी
सुना दो, वह
कहता है अब मैं
सो नहीं सकता,
वह अपनी मां
के पास ही
बैठा, वह
कहता अब मैं
जा नहीं सकता
अंधेरे में
मुझे ड़र लगता
है। अब मां
लाख उसे समझाए
कि सिर्फ
कहानी थी, मगर
अब उसकी समझ
में नहीं आता
कि यह कहानी
थी। अब वह
कहता है—मैं
तेरे ही पास
सोऊंगा। अब
उसे छोटी—छोटी
चीज ड़राती है।
पांच हजार साल
पहले लोग भोले—
भाले थे, प्राकृतिक
थे। तब उन्हें
खूब ड़रवा
दिया, चालबाज
लोगों ने, बेईमान
लोगों ने।
इसको मैं
बेईमानी कहता
हूं। इस भय के
कारण वे जाकर
थरथर कांपने
लगे, मंदिरों
की
प्रार्थनाएं
करने लगे, पूजा
करने लगे, अर्चना
करने लगे, घुटनों
पर खड़े हो गये।
लेकिन इसके
पीछे भय था।
और ध्यान रखना,
जहा भय है
वहा प्रेम
पैदा नहीं
होता।
भय और
प्रेम विपरीत
हैं। तुमने
भगवान की
प्रार्थना तो
की लेकिन यह
प्रार्थना के
पीछे भय था
सिर्फ। तुम जो
भगवान को
मानते हो वह
तुम्हारे भय
का ही विस्तार
है। और अगर भय
का विस्तार है
तो परमात्मा
से तुम्हारा
कभी संबंध न
हो सकेगा।
उससे संबंध तो
प्रेम के कारण
हो सकता है।
तुम जीवन के
दुखों से घबड़ा
गये, जीवन की
परेशानियों
से घबड़ा गये, चिंताओं से
घबड़ा गये, मौत
से घबड़ा गये, मौत आती है, इसलिए तुम
जाकर हाथ
जोड़कर खड़े हो गये।
तुम्हारी
प्रार्थना
झूठी है। यह
प्रार्थना है
ही नहीं।
एक और
प्रार्थना है
जो जीवन के
आनंद से पैदा
होती है। जो
जीवन में सुख, जीवन की शांति,
जीवन में
खिलते अनेक
फूलों के
प्रति
कृतज्ञता से
पैदा होती है।
तुम्हें
परमात्मा ने
जीवन दिया है,
इसलिए तुम
धन्यवाद देने
गये। यह और
तरह की
प्रार्थना है।
और परमात्मा
तुम्हें कल
मार डालेगा, मौत आ रही है,
इसलिए तुम
प्रार्थना
करने गये, यह
और ही तरह की
प्रार्थना है।
यह बिलकुल अलग—
अलग
प्रार्थनाएं
हैं। पहली
प्रार्थना जो
तुमने
परमात्मा के
जाकर की कि
तूने मुझे
जीवन दिया, मैं धन्यभागी
हूं तूने मुझ
पर इतनी कृपा
की, इतना
प्रसाद
बरसाया; तूने
चांद—तारे
बनाए, तूने
इतने फूल
खिलाए, तूने
जगत को इतनी
हरियाली से
भरा, तूने
इतने प्यारे
लोग बनाए, तूने
मुस्कुराहट
की सुविधा दी,
तूने अदभुत आंसू
बनाए, इस
सब के लिए तुम
धन्यवाद देने
गये हो, शिकायत
करने नहीं गये
हो, यह
प्रार्थना
अलग ही बात है—यही
प्रार्थना है!
तुम कहने गये
हो कि मैं अनुगृहीत
हूं; मेरे
धन्यवाद, मेरे
हजारों
धन्यवाद
स्वीकार कर; मैं कैसे
उऋण हो सकूंगा
तुझसे; मेरी
कोई पात्रता
नहीं थी, तूने
इतना अपूर्व
जीवन दिया, इतना अमूल्य
जीव दिया, मुझे
अपात्र पर
इतनी अनुकंपा!
इस भेद को
फर्क करना।
मैं ऐसा ही
धर्म सिखाता
हूं जो
तुम्हारे
अहोभाव से उठे।
फिर एक
धर्म है जो भय
भर खड़ा है। वह
कहता है—ड़रो; सब गलत है; यह भी पाप वह
भी पाप, यह
भी मत करो, वह
भी मत करो; वह
तुम्हें इतना
संकीर्ण कर
देता है और
इतना घबड़ा
देता है कि
तुम जाकर
कंपने लगते हो
मंदिर में।
तुम्हारे
कंपन में आनंद
नहीं है। कैसे
होगा? तुम्हारे
कंपन में
अहोभाव कैसे
होगा? गहरे
में तुम ऐसे
परमात्मा को
प्रेम कैसे कर
सकोगे जो
मृत्यु दे रहा
है, बीमारी
दे रहा है, गरीबी
दे रहा है; जो
नर्क बना रहा
है, ऐसे
परमात्मा को
तुम कैसे
प्रेम कर
सकोगे? गहरे
में तुम घृणा
करोगे। कहो
कुछ भी लेकिन
गहरे में तुम
अगर मौका मिल
जाए तो ऐसे
परमात्मा की
गर्दन दबा दोगे।
क्यों उसने
नर्क बनाया? क्यों इतना
दुख? क्यों
इतनी
कामवासना का
जाल फैलाया? क्यों इतने
बंधन? नहीं,
ऐसे
परमात्मा को
तुम आनंद से
स्वीकार नहीं
कर रहे हो।
तुम्हारे
तथाकथित
धर्मगुरुओं
ने शोषण किया है।
तुम्हारे भय
का शोषण किया
है। भय के नाम
पर नर्क। और
फिर तुम्हें
लोभ भी दिया
है कि अगर हम
जो कहते हैं
वैसा करोगे, तो स्वर्ग
का पुरस्कार।
यह सामान्य
प्रक्रिया है
लोगों को जबरदस्ती
किसी दिशा में
लगाने की—विपरीत
जाओगे तो दंड़
पाओगे, अनुकूल
रहो तो
पुरस्कार
पाओगे। यह लोभ
और भय के बीच
आदमी को
फंसाना है।
मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं—न
तो कोई नर्क
हैं न कोई
स्वर्ग है।
नर्क और
स्वर्ग चित्त
की अवस्थाएं
हैं। अगर
तुमने प्रेम
किया तो तुम
स्वर्ग में हो, अगर तुमने
घृणा की तो
तुम नर्क में
हो। अगर तुमने
करुणा की तो
तुम स्वर्ग में हो, अगर तुमने
क्रोध किया तो
तुम नर्क में
हो। तुम किस
नर्क की
कल्पना कर रहे
हो जहा आग
जलेगी! क्रोध
में रोज जलती
है। यह तो
प्रतीक है। और
जब तुम किसी
को प्रेम से
कुछ देते हो, भेंट करते
हो, तब तुम
स्वर्ग में हो
जाते हो। तब
स्वर्ग की
शीतल हवा बहती
है। तब स्वर्ग
की पावन सुगंध
तुम्हारे पास
होती है। दो
और देखो। किसी
को सताओ और
नर्क! किसी को
बचाओ और
स्वर्ग।
तुमने
बचाने का सुख
नहीं जाना? कोई नदी में
डूब रहा हो और
तुम जाकर बचा
लेते हो। एक
आह्लाद भर
जाता है।
तुम्हारे
जीवन में कृतार्थता
होता है या
तुम एक गीत
रचो जो भी है।
तुमसे भी कुछ ऐसा
हुआ। एक कृता
का भाव। इस
गीत को
गुनगुनाएगा, खुशी से
भरेगा, इस
कल्पना से ही
तुम्हारे
भीतर बड़ा आनंद
होता है—इसलिए
स्रष्टा
आनंदित रहते
हैं। कोई
चित्र बनाता
है, कोई
मूर्ति बनाता
है कोई गीत
रचता है, कोई
संगीत छेड़ता
है।
क्या
आनंद है। क्या
आनंद होगा
संगीत छेड़ने
का? कोई
आनंदित हो
जाएगा, कोई
डोलेगा मस्ती
में। तुम बांट
रहे हो कुछ।
प्रेम बांटना
है, प्रेम
दान है। प्रेम
देना है। और
जब तुम बिना
मतों देते हो,
बिना कुछ मगांने
की शर्त लगाकर
देते हो, तो
प्रेम धीरे—
धीरे
प्रार्थना
बनने लगा। जब
तुम सिर्फ
देते हो, बेशर्त,
उस दिन
तुम्हारा
प्रेम बड़ी
ऊंचाइयां
लेने लगता है।
और इसी प्रेम
से एक दिन
परमात्मा का
अनुभव शुरू
होता है।
तुम्हारे
प्रश्न का
कारण मैं
जानता हूं।
तुम ड़र रहे
हो। तुम्हारे
महात्माओं, ने सिखाया
है—प्रेम से
बचना, प्रेम
बंधन है।
प्रेम में
फंसे कि गये।
प्रेम में
उलझे कि संसार
में पड़े। मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं—प्रेम
बंधन है या
मुक्ति, तुम
पर निर्भर है।
प्रेम अपने
में न बंधन है,
न मुक्ति है।
प्रेम तो ऐसा
समझो कि राह
के बीच में
पड़ा हुआ एक
पत्थर है।
चाहो तो इसकी
वजह से रुक
जाओ, और
चाहो तो इस पर
चढ़ जाओ और
इसकी सीढ़ी बना
लो। प्रेम को
सीढ़ी बनाओगे
तो परमात्मा
में पहुंच जाओगे।
और पत्थर
देखकर वहीं
बैठ गये रोकर
कि अब क्या करना,
अब तो अटक
गये, तो
नर्क में पड़
जाओगे। प्रेम
चुनौती है।
बड़ा पत्थर है,
समझ चाहिए
तो चढ़ पाओगे।
लेकिन समझ
पैदा की जा
सकती है। समझ
पैदा करने का
ही उपाय धर्म
है।
लेकिन
गलत धारणाओं
को सदियों—सदियों
तक दोहराया
गया है। तो
तुम्हारे मन
में ऐसा भाव
पैदा हो गया
है कि प्रेम
तो सांसारिक
बात है। और
भक्ति असांसारिक
बात है, आध्यात्मिक
बात है। इसलिए
मेरी बातें
तुम्हें कभी—कभी
अड़चन मालूम
पड़ती है।
मैं
संसार में और
अध्यात्म में
कोई विरोध नहीं
देखता। एक
तारतम्य है।
अध्यात्म इसी
संसार का आगे
फैलाव है।
सीढ़ी दर सीढ़ी
अध्यात्म इसी
संसार का
अंतिम शिखर है।
जड़ में और फूल
में तुम कोई
भेद देखते हो? हालांकि भेद
तो साफ है।
अगर किसी
वृक्ष की जड़ें
तुम्हारे
सामने रख दी
जाएं और उसका
फूल सामने रख
दिया जाए, तो
तुम भरोसा न
कर पाओगे कि
ये फूल इन
जड़ों से पैदा
हो सकते हैं।
जड़ें तो कुरूप
होती है, गंदी
मिट्टी में
दबी होती हैं—कहां
फूल, कहां
जड़? फूल
कैसा सुंदर है,
अलौकिक, जैसे
उतरा हो
परियों के लोक
से, इस जगत
का नहीं मालूम
होता, और
जड़ें कुरूप और
भद्दी, इरछी—तिरछी,
गंदी! जड़ें
तो अंधेरे में
रहने की आदी
हैं और फूल
सूरज के साथ
गुफ्तगू करता
है, जड़ें
तो नीचे—नीचे
सरकती जाती
हैं पाताल की
तरफ फूल आकाश
की तरफ उठता
है, बड़ा
भेद है दोनों
में—मगर फिर
भी क्या
तुम्हें यह
बात दिखायी
नहीं पड़ती कि
फूल जड़ों के
बिना नहीं हो
सकेगा? और
अगर फूल न हो
तो जड़ों के
होने की कोई
सार्थकता
नहीं है। फूल
जड़ों की ही
तृप्ति है।
जड़ें इसी फूल
को लाने के
लिए जमीन में
सरक रही हैं।
इसी फूल को
लाने की आकांक्षा
में
जड़ें कुरूप हो
गयी हैं।
अंधेरे में रह
रही हैं—जमीन
से रस पाना है
तो जमीन के
भीतर जाना
पड़ेगा मगर रस
पाने की आकांक्षा
इसीलिए
है कि फूल
पैदा हो जाए
एक दिन। जड़ों
का सौभाग्य
जिस दिन फूल
खिलता है, जड़ें
सार्थक हो गयीं,
कृतकृत्य
हो गयीं। और
यह फूल भी
जड़ों के
विपरीत नहीं
हो सकता क्योंकि
जड़ों के बिना
इसका क्या
अस्तित्व है?
जड़ों से ही
रसधार पाता है,
जीवन पाता
है। उन्हीं
जड़ों पर
निर्भर है।
मैं
अध्यात्म को
और संसार को
ऐसा ही मानता
हूं जड़ और फूल
की तरह। संसार
जड़ है, अध्यात्म
फूल है। ये
भिन्न तो बहुत
मालूम होते
हैं लेकिन
भीतर जुड़े हैं।
प्रेम को मैं
जड़ कहता हूं
और प्रार्थना
को फूल कहता
हूं। काम को
मैं जड़ कहता
हूं र राम को
मैं फूल कहता
हूं। और दोनों
के भीतर एक ही
रसधार बह रही
है। एक ही
तारतम्य है।
एक ही सिलसिला
है। वह सिलसिला
दिख जाए जिसको
उसको मैं
समझदार कहता
हूं। जिसको वह
सिलसिला न
दिखायी पड़े, वह जड़ों से
लड़ने लगेगा
फूलों को पाने
की आकांक्षा में।
जड़ें काटने
लगेग। इधर
जड़ें कटेगी, इधर फूल
कुम्हला
जाएंगे।
इसलिए
तुम्हारे
तथाकथित
भगोड़े
संन्यासी परमात्मा
को नहीं पा
पाते हैं।
जड़ें ही काट
दीं तो फूल कहां?
मेरी
बात तुम्हें
अड़चन की मालूम
पड़ती है, तुम्हें
समझ में भी
नहीं आती है, क्योंकि
इतनी बार
तुम्हें
पुरानी बात
कही गयी हैं, इतनी बार
कही गयी हैं
कि तुम भूल ही
गये कि उसमें
सचाई है या
नहीं? अडोल्फ
हिटलर ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है, किसी
भी झूठ को
दोहराते रहो,
दोहराते
रहो, दोहराते
रहो, वह सच
हो जाता है।
बस दोहराते
रहो, फिकिर
ही मत करो कि
कोई मानता है
कि नहीं मानता,
दोहराते
रहो, और एक
न एक दिन वह सच
हो जाएगा।
क्योंकि लोग
जो बात बहुत
दिन दोहरायी
गयी है उसीको
सच मानते तुम
हिंदू हो? कैसे
तुमने जाना? जन्म के साथ
तुम लेकर कोई
सर्टिफिकेट न
आये थे। मगर
किसी ने
तुम्हारे
कानों
में दुहराना
शुरू कर दिया,
पैदा होते
ही से कि तुम
हिंदू हो। तुम
जा भी नहीं
सकते थे अपने
बल, तुम्हें
मंदिर ले जाया
गया। तुम
हिंदू हो, तुम
मुसलमान हो, तुम सिख हो, तुम ईसाई हो,
यह बात
दोहरायी गयी
दोहरायी गयी,
दोहरायी
गयी, यह
प्राणों में
उतर गयी। इसके
पहले कि
बुद्धि पैदा
होती उसके
पहले ही इस
बात ने
तुम्हारे
भीतर जड़ें जमा
लीं। अब तुम
सोचते हों—मैं
हिंदू हूं। अब
तुम सोचते हो—मैं
मुसलमान हूं।
अब तुम सोचते
हो—मैं
हिंदुस्तानी
हूं, चीनी
हूं जापानी
हूं।
एक
मित्र ने
प्रश्न पूछा
है। पंजाब से
ही हैं वह भी।
मैं थोड़ा
हैरान हूं।
उन्होंने
पूछा है कि
अगर कोई देश
हमला कर दे तो
आप क्या
करेंगे? गुरु
गोविंद सिंह
ने तो तलवार
उठायी थी। आप
तलवार
उठाएंगे? देश
की रक्षा कैसे
होगी?
देश
होने ही नहीं
चाहिए। जब तक
देश है तब तक
उपद्रव है। तब
तक रक्षा करो
या न करो, उपद्रव
जारी रहते हैं।
मेरी दृष्टि
तुम्हारी समझ
में नहीं आती।
मैं यह कह रहा
हूं—देश होने
ही नहीं
चाहिए! देश का
होना गलत है!
अब तक यह तो
चलता रहा है
कि रक्षा करो,
लड़ो, तलवार
उठाओ इसके
पक्ष में, उसके
पक्ष में। हल
क्या है? तीन
हजार साल में
आदमी ने पांच
हजार लड़ाइयां
लड़ी हैं। फल
क्या है? लड़कर
भी क्या मिल
गया है? तलवार
उठाओ तो क्या
मिलता है, तलवार
न उठाओ तो
क्या मिलता है?
न तलवार
उठाने से कुछ
मिला है, न
तलवार न उठाने
से कुछ मिला
है। आदमी वैसा
का वैसा तकलीफ
में है। एक
सीधी बात
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ती कि ये सीमाएं
समाप्त करो!
ये सीमाएं
उपद्रव है? देश होने
नहीं चाहिए।
सारी पृथ्वी
एक है। तुम
देखते नहीं, रोज—रोज यह
होता है।
अभी
१९४७ के पहले लाहौर
पर मुसीबत आती
तो हम सब
उत्सुक होते, रक्षा के
लिए जाते—लाहौर
हमारा देश था।
अब अगर लाहौर
पर बम गिरे तो
हम बड़े खुश
होंगे कि
अच्छा हो रहा
है! अच्छा फल
मिल रहा है! अब लाहौर
हमारा देश
नहीं है। लाहौर
वहीं के वहीं
है। सिर्फ बीच
में एक रेखा
खिंच गयी। वह
रेखा भी जमीन
पर नहीं खिंची
है, वह
रेखा भी नक्शे
पर खिंचती है।
आदमी नक्शा
बनाता हैं, रेखाएं खींच
लेता है, उन
रेखाओं पर
लड़ता है, मरता
है।
नहीं, मैं तलवार
नहीं उठाऊंगा।
तलवार बहुत
उठायी जा चुकी।
मेरी तलवार
किसी और बात
के लिए उठी है,
किसी बड़ी
सूक्ष्म बात
के लिए उठी है,
इसलिए
तलवार भी
सूक्ष्म है।
स्थूल तलवार
मेरे हाथ में
नहीं है।
लेकिन बड़ी
सूक्ष्म
तलवार मेरे
हाथ में निश्चित
है। अब मैं
किसी देश के
पक्ष और
विपक्ष में
तलवार नहीं
उठाए खड़ा हूं।
मैं तो लकीरों
के खिलाफ
तलवार उठाए
खड़ा हूं।
लकीरें मिटनी
चाहिए। जमीन
पर कोई लकीर
नहीं होनी
चाहिए। न कोई
देश अलग होना
चाहिए, न
कोई जाति अलग
होनी चाहिए।
यह सारी
पृथ्वी हमारी
है, हम
इसके हैं। जिस
दिन दुनिया
में यह संभव
होगा, उसी
दिन युद्ध बंद
होंगे। नहीं
तो लाख तुम
चिल्लाओ कि
युद्ध नहीं
होने चाहिए
युद्ध होते ही
रहेंगे। लाख
तुम कहो कि हम शांति
चाहते हैं।
कहोगे शांति चाहते
हैं मगर
तैयारी युद्ध की
करोगे। अब
यह देश तो
अहिंसावादी
है। लेकिन
तैयारी क्या
चलती है? कहीं
अहिंसक तैयार
किये जा रहे
हैं? वही
फौजें कवायत
कर रही हैं, वही 'लेफ्ट—राइट'
चल रहा है।
अणुबम बनाने
की कोशिश चल
रही है। गांधीजी
का जयजयकार भी
चल रहा है।
महात्मा
गांधी की पूजा
चल रही है, अणुबम
बनाने का उपाय
भी चल रहा है।
जहां अणुबम बन
रहा है वहा भी
महात्मा
गांधी की
तस्वीर टंगी
होगी। उनकी
सेवा में ही
बन रहा है। जब
तक लकीरें हैं
तब तक कठिनाई
रहेगी।
मैंने
सुना है, जब
हिंदुस्तान
और पाकिस्तान
बंटे तो सारा
देश तो बंट
गया, एक पगलखाना
दोनों देशों
की ठीक सीमा
पर पड़ता था।
और पगलखाने को
लेने को कोई
भी खास उत्सुक
भी नहीं था न
इधर के नेता
उत्सुक थे, न उधर के
नेता उत्सुक
थे। कहीं जाए,
पागलखाने
से किसको लेना—देना
था। लेकिन फिर
भी कुछ निर्णय
तो होना चाहिए,
रेखा कहां
से जाएं? रेखा
बिलकुल
पागलखाने के
बीच में जाती
थी।
अधिकारियों
ने कहा—यह
पागलखाना कहां
जाएगा? फिर
यही निर्णय
हुआ कि पागलों
से ही पूछ
लिया जो कि
तुम कहां जाना
चाहते हो।
पागल इकट्ठे
किये गये।
पागलों को
बहुत समझाया
गया कि तुम
कहां जाना चाहते
हो? तुम
साफ—साफ कह दो।
वो पागल कहें
कि हम तो यहीं
रहना चाहते
हैं।
अधिकारियों
ने सिर पीट—पीट
लिया कि तुम
समझो जी। मगर
होंगे पंजाबी!
उन्होंने कहा,
तुम हम तो
यहीं रहेंगे।
सत श्री अकाल,
हम तो यहीं
रहेंगे। हमें
जाना ही नहीं
कहीं। और वे
भी ठीक कह रहे
थे। क्योंकि
वे कहते थे—जाएं
क्यों? हम
पाकिस्तान
क्यों जाएं, हिंदुस्तान
क्यों जाएं? हम तो यहां
मजे में हैं।
फिर उनको
समझाया
अधिकारियों
ने कि कोई
कहीं जाएगा
नहीं भाई, यह
तो सिर्फ लकीर
खींचने की बात
है। तुम यहीं
रहोगे। मगर
तुम्हें
पाकिस्तान
में रहना है
कि हिंदुस्तान
में।
उन्होंने कहा—यह
और हद हो गयी!
हम तो समझते
थे हम पागल
हैं, अब
तुम पागल
मालूम पड़ते हो।
अगर रहेंगे
यहीं, तो
फिर
पाकिस्तान
क्या, हिंदुस्तान
क्या? अब
जाना ही कहीं
नहीं है तो
जाने की बकवास
क्यों? न
समझा सके
पागलखाने के
लोगों को।
फिर
यही रास्ता था
कि बीच से
पागलखाना दो
हिस्सों में बांट
दिया जाए। तो
एक दीवाल उठा
दी गयी बीच
में। तब से
आधा
पाकिस्तान
में चला गया
पागलखाना, आधा
पागलखाना
हिंदुस्तान
में आ गया।
मगर पागल अभी
भी बीच की
दीवाल पर कभी—कभी
चढ़ जाते हैं
और एक—दूसरे
से बात करते
हैं, और
कहते हैं— भाई,
बड़ी अजीब
बात है, तुम
भी वहीं, हम
भी वहीं, मगर
तुम
पाकिस्तानी
हो गये, हम
हिंदुस्तानी
हो गये! यह बड़ा,
यह समस्या
हल नहीं होती।
जहा तुम हो, तुम वहीं हो,
जहां हम हैं,
हम वहीं हैं,
सब वहीं के
वहीं हैं, सब
वैसा का वैसा
है, लेकिन
तुम अब हमारे
न रहे, हम
तुम्हारे न
रहे। सिर्फ एक
बीच में दीवाल
खिंच गयी।
जमीन से देशों
की सीमाएं
जानी चाहिए।
धर्मों की
सीमाएं जानी
चाहिए।
जातियों की
सीमाएं जानी
चाहिए।
सीमाएं जानी
चाहिए। मेरी
तलवार भी उठी
है। मगर वह
सूक्ष्म
तलवार है। वह
तलवार सीमाओं
के खिलाफ उठी
है। न मैं
हिंदुस्तानी
हूं न मैं
पाकिस्तानी
हूं; न मैं
हिंदू हूं,
न मुसलमान हूं;
न मैं जैन, न मैं बौद्ध।
और मैं चाहता
हूं इस दुनिया
में इस तरह के
लोग बढ़ते जाएं,
बढ़ते जाएं,
जो किसी
सीमा में अपने
को आबद्ध न
मानते हो।
इसी
तरह के लोगों
को मैं
संन्यासी कह
रहा हूं।
उन
मित्रों ने यह
भी पूछा है कि
आपके ये संन्यासी
क्या करेंगे
अगर देश पर
हमला हो जाए?
तुम्हें
पता है ये
संन्यासी एक
देश के नहीं
हैं। यहां
करीब—करीब
सारी दुनिया
से संन्यासी
हैं। इनका कौन—
सा देश है? इनका कोई
देश नहीं है।
ये पहली दफा
विश्व के
नागरिक पैदा
हो रहे हैं।
ये किसी देश
के पक्ष और
विपक्ष में
नहीं है। लेकिन
तुम समझ नहीं
पाते, तुम्हारी
जड़ता पुराने
दिनों से चली
आ रही हैं।
पहले कभी
किसीने तलवार
उठायी थी, तो
तुम सोचते हो
अभी भी तलवार
से काम चलेगा।
न तब काम चला, न अब काम
चलनेवाला है।
और अब दुनिया
बहुत छोटी हो
गयी है, अब
दुनिया बहुत
करीब आ गयी है
अब भाईचारा
फैलना चाहिए।
और मैं यह
नहीं कहता कि 'हिंदू—मुस्लिम
भाई— भाई', क्योंकि
वह बकवास भी
कुछ काम नहीं
आती। मैं कहता
हूं—हिंदू भी
हिंदू नहीं, मुसलमान—मुसलमान
नहीं; तो
भाई— भाई हो
सकेंगे। 'हिंदू—मुस्लिम
भाई— भाई,' 'हिंदू—हिंदू
रहे, मुसलमान—
मुसलमान रहे
और दोनों भाई—
भाई, यह भी
काम नहीं चलता।
वह तो वही हुआ
कि कहीं के
वहीं रहे, फिर
जाना कहां है!
अभी
तुम देखते थे
न, पहले
चीनी—हिंदी
भाई— भाई हुआ
करते थे, फिर
बीच में आठ—दस
साल बंद हो
गया भाई— भाई, अब फिर होने
लगे। अभी कल
अखबार मैंने
देखा कि 'चीनी—हिंदी
भाई— भाई'।_अब फिर, अब
झंझट खड़ी करनी
है। भाईचारा
तभी संभव है
जब तुम अपना
हिंदूपन छोड़ो,
मैं अपना
मुसलमानपन
छोडूं तो भाई—
भाई पैदा होते
हैं। मैं
मुसलमान रहूं
र तुम हिंदू
रहो, कैसे
भाई— भाई? तुम्हारे
हिंदू होने की
घोषणा में, मेरे
मुसलमान होने
की घोषणा में
भाईपन समाप्त
हो गया।
यहां हम
एक नयी दुनिया
का सपना देख
रहे हैं। यह
बिलकुल बीज है।
यह कब वृक्ष
बनेगा, कहना
कठिन है।
लेकिन तुम
पुरानी बातों
को यहां बीच
में मत लाओ।
मैं यहां किसी
पुरानी बात को
सिद्ध करने के
लिए नहीं बैठा
हूं। मेरी
उत्सुकता
भविष्य में है,
अतीत में
नहीं है। और
तुम मुझे न
समझ पाते होओ,
तो थोड़ा और
समझने की
कोशिश करो, और ध्यान
करो, और
प्रार्थना
करो। मगर अपनी
नासमझी के
प्रश्न मेरे
पास मत लाओ।
उनमें समय
खराब मत करो।
अब
उन्हीं सज्जन
ने पूछा है कि
आपने यह कह
दिया कि जनता
पार्टी में सब
असंत हैं।
मैंने तो कहा
नहीं।
उन्होंने सुन
लिया होगा।
मैं तो कुछ और
ही कह रहा था।
मैं तो यह कह
रहा था कि
संतों को
इकट्ठा करके क्या
कोई जनता
पार्टी बनानी
है? उन्होंने
सुन लिया कुछ
और। उन्होंने
सुन लिया कि
मैं यह कह रहा
हूं कि जनता
पार्टी में सब
असंत हैं। तुम
क्या सुन लेते
हो!! मैं कैसे
कह सकता हूं
जनता पार्टी
में सब असंत
हैं। महात्मा
मोरारजी
देसाई, असंत
हो सकते हैं? और बाबा
चरणसिंह असंत
हो सकते हैं? बात बिलकुल
गलत है, सब
महात्मा वहा
हैं? अब
महात्मा
मोरारजी
देसाई में कोई
भी कमी है महात्मा
होने की? परमहंस
अवस्था में
हैं, स्वमूत्र—पान
करते हैं।
स्वमूत्र—पान
तो सिर्फ
परमहंस ही
करते हैं। यह
तो आखिरी
ऊंचाई है शान
की। मैंने कभी
कहा नहीं कि
असंत हैं कोई।
लेकिन तुमने
सुन लिया होगा।
अब तुम पंजाबी
ही नहीं हो, जनता पार्टी
में भी हो और
झंझट है!
दुबले और दो असाढ़!
करेला और नीम
चढ़ा!
थोड़ी
बुद्धि को निखारो।
मुझे सुनते
समय जल्दी—जल्दी
निष्कर्ष मत
लो और जल्दी—जल्दी
सवाल भी मत
खड़े करो। सोचो, विचारो। यहां
कोशिश यह है
कि तुम्हारे
भीतर सोच—विचार
का जन्म हो।
तुम सोचना—विचारना
ही नहीं चाहते।
तुम मान लेने
को आतुर हो।
तुम बुद्धि को
जरा— सा भी
श्रम नहीं
देना चाहते।
तुमने अपनी
धारणाएं पकड़
रखी हैं, तुम
उन्हीं को
पकड़े रखना
चाहते हो। और
मैं यह भी
नहीं कह रहा, अगर तुम्हें
इन धारणाओं से
आनंद मिल रहा
हो तो मेरे
भाई, यहां
आए किसलिए? तुम अपनी
धारणाओं में
आनंद लो! तुम
मस्त हो अपनी
धारणा में तो
मैं कहता हूं—
भगवान
तुम्हें सुखी
रखे।
तुम यहां
आए हो, उसका
अर्थ ही यही
है कि तुम
अपनी धारणाओं
में आनंदित
नहीं हो। तुम
तलाश कर रहे
हो। नहीं तो
यहां आने की
क्या जरूरत थी?
तुम यहां आए
हो, उसका
मतलब ही यह है
कि तुम जो अब
तक मानते रहे
हो उससे
तृप्ति नहीं
हो रही है।
उससे तृप्ति
भी नहीं हो
रही है लेकिन
उसको छोड़ने की
भी हिम्मत
नहीं कर पाते
हो। सोचने का
भी साहस नहीं
कर पाते हो।
तो फिर क्या
होगा?
अगर
तुम ठीक ही हो
तो मैं नहीं
कहता कि तुम
बदलों। मैं
कौन हूं जो
तुम्हें
बदलूं? तुम्हीं
निर्णायक हो।
अगर तुम्हें
लगता है कि
मैं बिलकुल
ठीक हूं तो
बात खतम हो
गयी, तुम
मेरे जैसे
आदमियों के
पास आओ ही मत।
क्योंकि यहां
उनको आना
चाहिए जो
बदलना चाहते हैं।
तुम प्रसन्न
हो, हम
प्रसन्न
तुम्हारी
प्रसन्नता
में। तुम अपने
मस्त रहो अपनी
मस्ती में।
तुम उठाओ अपनी
तलवार और
अभ्यास करो।
तुम्हें जो
करना हो करो। यहां
क्यों आए हो? इतना कष्ट
क्यों किया; इतनी
कृपा नहीं
करनी चाहिए।!
अगर यहां आए
हो तो उसका
अर्थ ही यह है
कि तुम्हारी
धारणाएं कहीं
तुम्हारे
जीवन को
रूपातरित
नहीं कर रही
हैं। तुम जीवन
को जैसा चाहो
वैसा नहीं बना
पा रही हैं।
तुम्हारे
जीवन में कहीं
कोई कमी रह
गयी है। अगर
कमी रह गयी है
तो फिर मेरी
सहायता ले
सकते हो। फिर
भी मैं यह
नहीं कहता हूं
कि जो मैं
कहूं उसे मान
ही लो। इतना
ही कहता हूं—उस
पर सोचो, विचारो,
ध्यान करो।
अगर तुम उस पर
सोचोगे, विचारोगे,
ध्यान
करोगे और
तुमने यह भी
पाया कि जो
मैंने कहा था
वह गलत था, तो
भी काम हो गया।
इतना सोचा, विचारा, ध्यान
किया, वही
असली काम है।
असली सवाल यह
नहीं है कि
तुम मेरी
बातें मान लो,
असली सवाल
यह है कि
तुम्हारी
बुद्धि धारा
प्रवाहित हो
जाए।
इस भेद
को खयाल में
लेना।
जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं वह तो
केवल एक उपाय
है ताकि
तुम्हारे
भीतर अवरुद्ध
चिंतन मुक्त
हो जाए। इसलिए
बहुत बार तुम
पर चोट भी
करता हूं। उस
चोट का केवल
इतना ही कारण
है कि उसी चोट
में शायद तुम आँख
खोलो। उसी चोट
में शायद तुम
थोड़े जागो। वह
चोट तुम मेरे
दुश्मन हो
इसलिए नहीं कर
रहा हूं। मेरा
कोई दुश्मन
नहीं है। वह
चोट इसलिए भी
नहीं कर रहा
हूं कि मैं
कोई किसी
धारणा के
विपरीत लड़ रहा
हूं। उस चोट
का मौलिक आधार
सिर्फ इतना ही
है कि तुम्हारी
अवरुद्ध हो
गयी है चिंतन
की धारा, तुमने
सोच—विचार बंद
कर दिया है।
तुम उधार
स्वीकार में
पड़ गये हो।
अगर तुमने
मेरी भी बातें
बिना सोचे—विचारे
मान लीं तो
कोई फायदा न
हुआ मेरे पास
आने का।
क्योंकि उसका
मतलब हुआ तुम
फिर उधार के
उधार रहे।
यहां
तीन तरह के लोग
मेरे पास आते
हैं। एक, जो
अपनी धारणाएं
छोड़ते ही नहीं।
वे खाली के
खाली जाते हैं।
दूसरे, जो
अपनी धारणा
बिलकुल एक
क्षण में छोड़
देते हैं और
जल्दी से मेरी
बात पकड़ लेते
हैं। वे भी
खाली के खाली
जाते हैं। जो
मुझसे राजी हो
जाते हैं बिना
झंझट किये, वे भी खाली
जाते हैं। और
जो मुझसे
नाराज ही रहते
हैं, बिना
सोच समझे, वे
भी खाली जाते
हैं। तीसरे
तरह का
व्यक्ति मेरे
पास आकर भरता
है। वह सोच—विचार
करता है कि जो
मैंने कहा
उसकी कितनी
दूर तक महत्ता
हो सकती है।
वह अपनी
धारणाओं को
फिर
पुनर्परीक्षण
करता है, फिर
उघाड़ता है
अपने हृदय को,
फिर खोजता
है और
ईमानदारी से
खोजता है। कोई
पक्षपात नहीं
करता कि मेरी
पुरानी धारणा है
इसलिए मैं
कैसे छोडूं। न
तो पुराने के
कारण पक्षपात
करता है, न
नये को जल्दी
मान लेने की
अधीरता
दिखाता है। शांति
से सोचता—विचारता
है। बस मेरा
काम पूरा हो
गया। तुमने
मेरी बात मानी
कि नहीं मानी,
यह सवाल ही
नहीं है।
तुमने सोचा, विचारा, तुमने
ध्यान किया, तुम्हारे
भीतर अवरुद्ध
चिंतन मुक्त
हो गया, तुम्हारी
गंगा फिर सागर
की तरफ बहने
लगी। तुम मेरी
मानो न मानो
इसमें कुछ रखा
नहीं है। मुझे
तुम्हें
मनाने से कोई
रस ही नहीं है।
लेकिन तुम जाग
जाओ, इसमें
जरूर रस है।
फिर जलकर
तुम्हें जो
ठीक लगे, करना।
सोए—सोए
जी लिये हो, अब जागकर
जीओ। जागकर
चलो। और मैं
जानता हूं कि
जागा हुआ आदमी
हिंदू नहीं हो
सकता, मुसलमान
नहीं हो सकता,
भारतीय
नहीं हो सकता,
अमरीकी
नहीं हो सकता।
जागा हुआ आदमी
सिर्फ आदमी
होता है, चैतन्य
होता है। और
जागा हुआ आदमी
सब तरफ एक ही
परमात्मा का
आवास देखता है,
ब्राह्मण
नहीं हो सकता,
शूद्र नहीं
हो सकता। जागा
हुआ आदमी धीरे—
धीरे अनुभव
करता है एक का
ही खेल हो रहा
है, एक का
ही विस्तार है,
उस एक के
विस्तार में
लीन हो जाता
है। उसे परम
आनंद, परम
अमृत का अनुभव
होता है। मैं
तुम्हें
द्वार खोल रहा
हूं। तुम उस
द्वार में
झांकों।
लेकिन
तुम्हारी
धारणाएं तुम्हें
झांकने नहीं
देती। तुम
कहते हों—मैं
कैसे झांक
सकता हूं? मैं
तो यह माने
पहले से बैठा
हूं। अगर
तुम्हारे
मानने से
तुम्हारे
जीवन में रस बह
रहा है, तो
बिलकुल ठीक है।
फिर मेरी
बातें सुनना
ही मत, क्योंकि
इनसे और
व्याघात हो
जाएगा। फिर
ऐसे लोगों के
पास मत जाना।
लेकिन
तुम आए हो, यह इस बात का
सबूत है कि
तुम जो मानते
रहे हो उससे
तुम्हारी
क्षुधा नहीं
मिट रही है।
तुमने जो पकड़
रखा है, उससे
तुम्हारे
जीवन की संपदा
नहीं बढ़ी है।
इसलिए तुम
टटोल रहे हो
कि कहीं असली
धन मिल जाए।
और मैं तुमसे
कहता हूं—
असली धन मिल
सकता है। लेकिन
हाथ खाली तो
करो। असली धन
झेलने के लिए
हाथ के कंकड़—पत्थर
तो छोड़ो। अगर
तुम कहते हो
ये कंकड़ पत्थर
नहीं हीरे हैं,
तो मैं कहता
भी नहीं कि
छोड़ो।
क्योंकि मैं
कौन हूं? तुम्हारा
नियंत्रण मैं
अपने हाथ में
नहीं लेना
चाहता। जो
मेरे
संन्यासी हैं,
उनका भी
नियंत्रण
मेरे हाथ में
नहीं है। मेरे
संन्यासी
होने का इतना
ही अर्थ है कि
उन्होंने अब
अपने जीवन को
स्वयं जीना
शुरू कर दिया
है। मैंने
उन्हें कुछ
आज्ञा नहीं दी
है कि तुम यह करो,
यह मत करो; ऐसे उठो, वैसे
बैठो; यह
खाओ, वह
पीओ; यहां
जाओ, वहां
मत जाओ; मैंने
कुछ नहीं उनसे
कहा है। मैंने
उन्हीं कोई
अनुशासन दिया
ही नहीं है।
मैंने उन्हें
सिर्फ चिंतन
की एक दिशा दी
है, ध्यान
का एक भाव
दिया है। फिर
अपना जीवन तुम
निर्णय करो।
और सभी
बातें सभी के
लिए योग्य
होती भी नहीं।
किसी आदमी को
तीन बजे रात
जग जाना ठीक
पड़ता है, वह
दिनभर ज्यादा
ताजा रहता है,
तो उसके लिए
बिलकुल ठीक है।
एक दूसरा आदमी
तीन बजे रात
जग जाता है वह दिन
भर उदास रहता
है और दिनभर
जंभाई लेता है,
उसके लिए
बिलकुल गलत है।
इसलिए मैं कोई
नियम देता भी
नहीं। किसी
आदमी को एक
भोजन
स्वास्थ्यकर
होता है, किसी
को दूसरा भोजन
स्वास्थ्यकर
होता है।
इसलिए मैं
कैसे निर्णय
करूं कि तुम
क्या भोजन करो?
इतना ही मैं
कह सकता हूं,
अपने सुख की
परीक्षा करते
रहो कि यह
भोजन करने से
मेरी शांति, मेरा सुख, मेरा
स्वास्थ्य बढ़ता
है तो यह ठीक
है। कितने बजे
उठ आने से
सुबह मेरा दिन
ताजगी में और
आनंद में
बीतता है, प्रभु
का स्मरण सरल
होता है? तो
ठीक है। नहीं
तो अड़चन खडी
हो जाती है।
अगर मैंने बता
दिया कि तीन
बजे रात सभी
को उठना है
ब्रह्ममुहूर्त
में, तो
बहुत लोग
दिक्कत में पड़
जाएंगे। कुछ
लोग जिनको तीन
बजे नींद खुल
जाती है, बड़े
आनंदित होंगे।
वे कहेंगे कि
देखो, हम
हैं असली
संन्यासी! तुम
अभी सात बजे
तक सो रहे हो? और गुरु ने
क्या कहा? तो
वे सात बजे
सोनेवाले को
पापी करार दे
देंगे। वह सात
बजे सोनेवाला
अपराधी समझने
लगेगा, वह
सोचेगा, मुझे
नर्क जाना
पडेगा। हद हो
गयी! कहीं कोई
सात बजे तक
सोने से नर्क
जाता है?
मेरे
संन्यासी मुझसे
पूछते हैं—हम
कब उठें? मैं
कहता हूं जब
तुम उठो तब
ब्रह्ममुहूर्त।
सात बजे उठो
तो वह
तुम्हारा
ब्रह्ममुहूर्त
है। तीन बजे
उठो तो वह
तुम्हारा
ब्रह्ममुहूर्त
है।
ब्रह्ममुहूर्त,
जब तम जगो
तब। जब
तुम्हारे
भीतर ब्रह्म
जगने को कहे, जग जाना। जब
तक तुम्हारा
ब्रह्म कहे कि
अभी और थोडे
पडे रहो, एक
करवट और सही, तो तुम
ब्रह्म की
सुनना, मेरी
मत सुनना। मैं
बीच में बाधा
नहीं डालना
चाहता हूं।
मैं तुम्हें
अनुशासन नहीं
देता हूं
स्वतंत्रता
देता हूं।
इसलिए
मेरी बातों को
सुनो, समझो,
मानने की
कोई आवश्यकता
नहीं है।
इसलिए न मानने
की कोई जल्दी
भी न करो।
साक्षीभाव से;
कुछ काम का
मिल जाए, ले
लेना, कुछ
काम का न मिले,
मत लेना।
लेकिन इस तरह
के व्यर्थ
प्रश्न मत
उठाओ। इसमें
समय मत गवांओ।
क्योंकि समय,
तुम चाहो
सार्थक
प्रश्न पूछ लो
और तुम चाहो
व्यर्थ
प्रश्न पूछ लो।
फिर एक आदमी
व्यर्थ सवाल
पूछ लेता है, इतने सारे
लोगों का सब
समय खराब होता
है। इसलिए इन
सबके प्रति भी
थोड़ी करुणा
रखो, ध्यान
रखो।
आज
इतना ही।
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