प्रश्न-सार
1--ताओ
की परिभाषा
क्या है?
2--आप
तो इतना बोलते
हैं!
3-- अस्तित्व
में
स्वतंत्रता
का स्थान क्या
है?
4-- प्रकृति
सदा प्रसन्न
है तो मेरी
प्रसन्नता में
फर्क क्यों?
5-- शैली
और शब्द के
अलावा अंतर
क्या है?
बहुत
से प्रश्न
हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है, ताओ की
परिभाषा क्या
है?
उसी
की परिभाषा का
हम प्रयास कर
रहे हैं। और
सारा प्रयास
पूरा हो जाने
पर भी परिभाषा
उसकी समझ में
आएगी नहीं।
क्योंकि जब
समझाने का
सारा प्रयास
भी पूरा हो
जाता है, तब
भी ताओ
परिभाषा के
बाहर छूट जाता
है। वह तो जब
आप उसका
प्रयोग भी
करेंगे, तभी
समझ में आएगी।
जैसे
प्रेम को
समझाया जाए; कितना ही
समझाया जाए, जब तक आप
प्रेम में उतर
न जाएंगे, तब
तक उसे नहीं
जान पाएंगे।
प्रेम की कोई
भी परिभाषा
प्रेम को
प्रकट न कर
पाएगी; प्रेम
का अनुभव ही
उसे प्रकट
करेगा। फिर भी
प्रेम की
परिभाषा करने
की कोशिश की
जाती है। इसलिए
नहीं कि आप
उससे प्रेम को
जान लेंगे, बल्कि
इसीलिए कि
शायद प्रेम को
जानने की प्यास
उससे पैदा
होगी।
तो अगर
ताओ को समझने
की कोशिश में
आपको ताओ की परिभाषा
समझ में न आए
तो यह उचित ही
है। लेकिन ताओ
को समझने की
प्यास जग जाए
तो किसी दिन
उसके अनुभव
में उतरा जा सकता
है। जिन्हें
अनुभव हुआ है, वे भी
परिभाषा कर
सकेंगे, ऐसा
नहीं है।
जिन्हें
अनुभव हुआ है,
वे खुद तो
जान लेंगे, लेकिन दूसरे
को बताते समय
वही कठिनाई
खड़ी हो जाएगी।
अनुभव कहे
नहीं जा सकते।
इशारे हो सकते
हैं। लेकिन शब्दों
में प्रकट
करने का कोई
उपाय नहीं है।
और जितना बड़ा
हो अनुभव, उतनी
ही असमर्थता
हो जाती है।
ताओ
बड़े से बड़ा
अनुभव है।
उससे बड़ा कोई
अनुभव नहीं
है।
ताओ
शब्द का अर्थ
होता है धर्म।
ताओ शब्द का अर्थ
होता है वह
परम नियम, जिसके आधार
पर पूरा
अस्तित्व
चलता है। तो
जब तक हम
अस्तित्व में
न डूबें
और उस परम
नियम के साथ
एक न हो जाएं, तब तक हमारी
समझ में आएगा
नहीं। सागर के
किनारे खड़े
होकर लहरों को
समझा जा सकता
है। दूर की समझ
परिचय ही होगी,
ज्ञान
नहीं। जिसे
सागर को ही
जानना हो, उसे
सागर में
डूबना होगा, डुबकी लगानी
होगी। और वह
डुबकी भी ऐसी
नहीं कि आप
सागर से अलग
बने रहें। वह
डुबकी ऐसी
चाहिए जैसे
नमक का पुतला
सागर में कूद
जाए, फिर
लौट न सके, नमक
उसका पिघल जाए,
बह जाए, सागर
के साथ एक हो
जाए। तभी सागर
को जाना जा सकेगा।
तो अगर
शब्द की ही
जानने की
इच्छा हो तो
ताओ का अनुवाद
होगा धर्म, परम नियम, अस्तित्व का
मूल आधार।
जिसको वेदों
ने ऋत कहा है, वही ताओ का
अर्थ है।
लेकिन यह शब्द
का अर्थ हुआ।
इसे जान लेने
से कुछ जान
लिया, ऐसा
जो मानता है, वह भ्रांति
में पड़ेगा। यह
सिर्फ इशारा
हुआ, यात्रा
की तरफ जाने
के लिए पहला।
यात्रा पर निकलना
जरूरी है।
फिर
परिभाषा का
क्या अर्थ
होता है?
परिभाषा
का अर्थ होता
है किसी एक
चीज को किसी दूसरी
चीज के द्वारा
बताना। किसी
एक चीज को किसी
दूसरी चीज के
द्वारा
बताना। जैसे
कि अगर आपने
नीलगाय नहीं
देखी है जो
हिमालय की तराइयों
में होती है, तो हम कह
सकते हैं, वह
गाय जैसा एक
जानवर है। तो
थोड़ी सी समझ
आई, थोड़ा
सा खयाल आया।
लेकिन ताओ या
धर्म तो अकेला
ही अनुभव है।
उस जैसा कोई
दूसरा अनुभव
नहीं है, जिससे
इशारा किया जा
सके; कोई
दूसरा अनुभव
नहीं है जिससे
हम कह सकें--उस जैसा।
फिर
ताओ तो जटिल, गहनतम अनुभूति
है। छोटे-मोटे
जीवन के अनुभव
भी परिभाष्य
नहीं हैं, डिफाइनेबल नहीं हैं।
अगर कोई आपसे
पूछ ले कि
पीला रंग क्या
है तो आप क्या
कहेंगे? क्योंकि
पीले रंग जैसा
कोई और रंग तो
होता नहीं। और
अगर पीले रंग
जैसा कोई रंग
होगा तो वह पीला
ही होगा। पीले
रंग की क्या
परिभाषा
करिएगा?
इस सदी
के बहुत बड़े
विचारक जी.ई.मूर
ने, जिसने डेफिनीशन
पर, परिभाषा
पर सर्वाधिक
काम किया है, दो, ढाई
सौ पृष्ठों
में चर्चा
करने के बाद
यह कहा है कि
व्हाट इज़ यलो इज़
इनडिफाइनेबल,
पीला क्या
है उसकी
परिभाषा नहीं
हो सकती। पीला
पीला है, यलो इज़
यलो।
मगर यह
कोई बात हुई? इसको तर्कशास्त्री
कहते हैं टोटोलाजी।
इसका मतलब तो
हुआ, जब आप
कहते हैं यलो
इज़ यलो,
पीला पीला
है, तो
इसका मतलब हुआ
कि आपने
परिभाषा करने
से इनकार कर
दिया। पीला
क्या है, हम
यह पूछ रहे
हैं। आप कहते
है, पीला
पीला है। यह
तो कोई उत्तर
न हुआ। यह तो
बात वहीं के
वहीं रह गई।
जी.ई.मूर
ने कहा है कि
जितना
परिभाष्य है, वह सब जोड़
है।
जैसे
कि कोई अगर
पूछे, पानी
क्या है? तो
हम कह सकते
हैं, हाइड्रोजन
और आक्सीजन का
जोड़ है--एच टू
ओ। यह परिभाषा
हो गई पानी
की। क्योंकि
पानी दो चीजों
का जोड़ है, इसलिए
दो को तोड़ कर
हम बता सकते
हैं कि पानी
यह है। जितनी
चीजें कई
चीजों का जोड़
हैं, उनकी
परिभाषा आसान
है। लेकिन अब
कोई पूछे, आक्सीजन
क्या है? तो
अड़चन होगी; क्योंकि
आक्सीजन किसी
चीज का जोड़
नहीं है। लेकिन
फिर भी तोड़ा
जा सकता है।
अब हमने
परमाणु को तोड़
लिया तो हम कह
सकते हैं कि
इतने इलेक्ट्रान,
इतने न्यूट्रान,
इनका जोड़
है। नीचे
उतरते जाएं; जब एक ही चीज
रह जाएगी, तो
तोड़ा भी नहीं
जा सकता।
ताओ
आखिरी बिंदु
है, जिसको
तोड़ने का कोई
उपाय नहीं है।
धर्म आखिरी अनुभव
है, आत्यंतिक,
अल्टीमेट; उसकी कोई
परिभाषा नहीं
हो सकती।
लेकिन उसका अनुभव
हो सकता है।
माना कि पीले
की कोई
परिभाषा नहीं
हो सकती, लेकिन
इसका यह मतलब
नहीं है कि
पीले का अनुभव
नहीं हो सकता।
आप पीले का
अनुभव रोज
करते हैं, कोई
अड़चन नहीं है।
अगर आप
जिद्द कर
लें कि पहले
परिभाषा, फिर
अनुभव करूंगा,
तो फिर
अनुभव भी बंद
हो जाएगा। आप
पहले अनुभव करते
हैं प्रेम का।
कोई आदमी पूछे
कि पहले मैं
परिभाषा कर
लूं, समझ
लूं ठीक से, फिर उतरूंगा,
क्योंकि
अनजाने
रास्ते पर
नहीं उतरना है,
तो वह प्रेम
के रास्ते पर
कभी भी नहीं
उतरेगा। आप
समय का उपयोग
करते हैं रोज।
लेकिन कोई आपसे
पूछ ले समय की
परिभाषा, तब
आप कठिनाई में
पड़ जाएंगे।
अगस्टीन
ने कहा है कि
मुझसे पूछो मत
तो मैं जानता
हूं, और मुझसे
पूछा कि मैं
मुश्किल में
पड़ जाता हूं।
जानना
कुछ ऐसी बात
है, जिसके
लिए परिभाषा
जरूरी नहीं
है। तो ताओ
जानना होगा; और जान कर भी
ताओ गूंगे का
गुड़ ही रहेगा।
कबीर ने कहा
है कि पूछो मत
मुझसे कि वह
क्या है। रास्ता
पूछ लो, कैसे
उस तक मैं
पहुंचा, वह
मैं तुम्हें
बता दूं। तुम
भी पहुंच जाओ,
तुम भी जान
लो। मुझसे मत
पूछो कि वह
क्या है। क्योंकि
वह मुझसे भी
बड़ा है, उसे
प्रकट करने का
कोई उपाय नहीं
है।
तो हम
क्या कर रहे
हैं? ताओ के
संबंध में जो
चर्चा कर रहे
हैं, यह
चर्चा ताओ के
इर्द-गिर्द है,
ताओ के
आस-पास है। हम
एक वर्तुल में
घूम रहे हैं
ताओ के
आस-पास। कहीं
कोई चीज आपके
हृदय पर चोट
कर जाए और आप
भीतर केंद्र
में प्रवेश कर
जाएं! सारी
चर्चा परिधि
पर है, सर्कमफरेंस पर है--इस आशा
में कि कोई
परिधि का
बिंदु आपके लिए
द्वार बन
जाएगा और आप
भीतर प्रवेश
कर जाएंगे और
केंद्र पर
पहुंच जाएंगे।
लेकिन अगर आप
परिधि पर ही
केंद्र को चाहते
हों तो वह
असंभव है।
आपको जाना
पड़ेगा।
आदमी
का मन ऐसा है
कि वह एक कदम
उठाने के पहले
भी सब कुछ तय
कर लेना चाहता
है। सुरक्षा
इसमें मालूम
होती है कि सब
साफ हो
जाए--मैं कहां
जा रहा हूं, क्यों जा
रहा हूं, क्या
रास्ता है, क्या परिणाम
होगा, कितना
लाभ है, कितनी
हानि है--सब तय
हो जाए तो
आदमी कदम
उठाता है। जो
सब तय करके
कदम उठाता है,
वह कभी ताओ
तक, धर्म
तक नहीं
पहुंचेगा।
क्योंकि धर्म
तक पहुंचते ही
वे हैं जो कैलकुलेटिव
नहीं हैं, जो
हिसाब नहीं
लगाते।
हिसाबी तो
संसार से जुड़े
रहते हैं; गैर-हिसाबी
धर्म में
प्रवेश करते
हैं।
कोई
परिभाषा नहीं
है। कोई
परिभाषा कभी
की नहीं गई
है। कभी की भी
नहीं जाएगी।
लेकिन ध्यान रहे, इससे निराश
हो जाने की
कोई जरूरत
नहीं है। यह केवल
इस बात की
सूचना है कि
अनुभव, अनुभव
से ही जाना जा
सकता है।
शेख
फरीद एक
मुसलमान सूफी
फकीर हुआ। कोई
उसके पास गया
है ईश्वर की
परिभाषा
पूछने।
ईश्वर
हो, कि धर्म
हो, कि
आत्मा हो, कि
सत्य हो, इससे
कोई बहुत फर्क
नहीं पड़ता। ये
सब शब्द हैं
उसके लिए, जिसको
नहीं कहा जा
सकता।
उस
आदमी ने शेख
फरीद से पूछा
कि कुछ मुझे
भी अपने अनुभव
की बात बताओ।
शेख
फरीद के पास
एक डंडा पड़ा
था। उसने डंडा
उस आदमी के
पैर पर मार
दिया। पैर में
चोट लगी, उस
आदमी ने चीख
मारी और कहा
कि यह आप क्या
करते हैं, मुझे
बहुत दर्द हो
रहा है।
शेख
फरीद ने कहा, दर्द
तुम्हें हो
रहा है, थोड़ा
मुझे बताओ कि
क्या हो रहा
है?
वह
आदमी बड़ी
मुश्किल में
पड़ा। शेख फरीद
ने कहा, मैं
कैसे मानूं कि
तुम्हें दर्द
हो रहा है? और
क्या है दर्द?
वह आदमी बड़ी
बेचैनी में
पड़ा; कुछ
बता नहीं सका।
शेख
फरीद ने कहा, पागल, उठा
डंडा और मार
मुझे! डंडा
पड़ा है, उठा
और मार मुझे!
बताने की
फिक्र छोड़।
मुझे भी दर्द
होगा, मैं
भी जान लूंगा।
यही
रास्ता है।
दर्द होगा तो
जान सकेंगे।
धर्म होगा तो
जान सकेंगे।
एक
मित्र ने पूछा
कि कल आपने
कहा संत
अत्यंत अल्पभाषी
होते हैं; लेकिन आप तो
इतना अधिक
बोलते हैं!
ठीक
पूछा है; थोड़ा
सोचना पड़े।
मैं जो बोलता
हूं, वह
अल्प ही है; आपको ज्यादा
मालूम पड़ता
होगा।
क्योंकि जो मैं
बोलना चाहता
हूं, उससे तौलता हूं
तो अल्प है; जो आप समझ
सकते हैं, उससे
तौलूं तो
बहुत ज्यादा
है। कम और
ज्यादा
सापेक्ष शब्द
हैं। उनमें
सीधा कोई अर्थ
नहीं होता, किसी तुलना
में अर्थ होता
है। जो मैं
बोलना चाहता
हूं, उस
लिहाज से जो
मैंने बोला है,
वह कुछ भी
नहीं है। जो
आप समझ सकते
हैं, उस
लिहाज से जो
मैंने बोला है,
वह बहुत
ज्यादा है।
मेरी तरफ से
वह अल्प ही है।
लाओत्से
ने ऐसा नहीं
कहा कि संत जो
बोलते हैं, वह सुनने
वालों की तरफ
से अल्प होता
है; वह
संतों की तरफ
से अल्प होता
है। सुनने
वालों को बहुत
ज्यादा हो
सकता है।
एक
मित्र ने पूछा
है, आप कहते
हैं समस्त
अस्तित्व
इकट्ठा, संयुक्त,
अद्वैत है,
और उसमें जो
भेद दिखता है
वह अहंकार का
खेल है। इस
संदर्भ में
मनुष्य की
स्वतंत्रता, जिसकी कल
आपने यहां
चर्चा की, बहुत
दुर्बल हो
जाती है। यहां
तो नियतिवाद
ही अधिक संगत
दिखता है।
समस्त द्वारा
संचालित व्यक्ति
स्वतंत्र
कैसे हो सकता
है, इसे
स्पष्ट करें।
हमारी
सारी अड़चन
शब्दों की है।
जैसे, हम
विपरीत
शब्दों में
सोचने के आदी
हैं। हम सोचते
हैं, या तो
मनुष्य
स्वतंत्र है या
परतंत्र है।
अगर स्वतंत्र
है तो पृथक
होना चाहिए और
समस्त का उसके
ऊपर कोई
अधिकार नहीं होना
चाहिए। अगर
समस्त का
अधिकार है
उसके ऊपर, और
समस्त ही का
वह एक अंश
मात्र है, तो
परतंत्र हो
गया, फिर
स्वतंत्र
कैसे होगा?
लेकिन
स्वतंत्र हो
या परतंत्र, इन दोनों के
बीच एक बात
हमने मान रखी
है वह यह कि
मनुष्य पृथक है--दोनों
के बीच! जब हम
कहते हैं कोई
स्वतंत्र है,
तो उसका
मतलब हुआ कि
पृथक है, लेकिन
समस्त की
शक्ति के बाहर
है। जब हम
कहते हैं
परतंत्र है, तो उसका
अर्थ हुआ कि
पृथक है, लेकिन
समस्त की
शक्ति के भीतर
है।
लाओत्से
कहता है, पृथक
है ही नहीं।
इसलिए
स्वतंत्रता
और परतंत्रता
का कोई अर्थ
नहीं है। पृथक
है ही नहीं। मनुष्य
प्रकृति ही है,
या मनुष्य
परमात्मा ही
है। जब हम दो
मानें परमात्मा
को और मनुष्य
को, तो
स्वतंत्रता
का और
परतंत्रता का
सवाल उठता है।
परमात्मा
दूसरा हो तो
हम उसके खिलाफ
स्वतंत्र हो
सकते हैं, या
उसके अनुगत
होकर परतंत्र
हो सकते हैं।
लेकिन अगर हम
परमात्मा के
साथ एक ही हैं
तो स्वतंत्रता
और परतंत्रता
का हमारी भाषा
में जो अर्थ
होता है, वह
खो गया।
अगर
परमात्मा के
साथ हम एक ही
हैं और
परमात्मा के
अतिरिक्त कोई
भी दूसरा नहीं
है, तो
परमात्मा
स्वतंत्र है,
ऐसा कहना
ठीक नहीं; परमात्मा
स्वतंत्रता
है। इसमें
फर्क है। स्वतंत्र
तो हमें किसी
के खिलाफ होना
पड़ता है। स्वतंत्रता
हमारा स्वभाव
होता है।
परमात्मा स्वतंत्र
नहीं है; क्योंकि
स्वतंत्र का
तो मतलब हुआ
कि कोई और है
जिसके विपरीत
वह स्वतंत्र
है, जिससे
वह स्वतंत्र
है। परमात्मा
अकेला है। कोई
दूसरा नहीं है,
जो उसे
परतंत्र कर
सके या
स्वतंत्र कर
सके। उसका
स्वभाव ही
स्वतंत्रता
है। उसके
अलावा कोई दूसरा
है ही नहीं।
गॉड इज़
नाट फ्री, गॉड
इज़ फ्रीडम।
और हम उसके
साथ एक हैं; इसलिए हम भी
स्वतंत्रता
हैं। मनुष्य
स्वतंत्र है,
ऐसा नहीं, मनुष्य भी
स्वतंत्रता
है। कोई है
नहीं जो उसे परतंत्र
कर सके; कोई
है नहीं जो
उसे स्वतंत्र
कर सके।
ध्यान
रखें, जब
कोई आपको
स्वतंत्र
करता है, तब
भी आप परतंत्र
ही होते हैं; क्योंकि
किसी ने आपको
स्वतंत्र
किया। जो स्वतंत्रता
दी जाती है, वह
स्वतंत्रता
नहीं है। वह
परतंत्रता का
ही एक उदार
रूप है।
स्वतंत्रता
किसी पर
निर्भर न होने
का नाम है।
लेकिन तब सवाल
उठता है कि
फिर तो आदमी
नियतिवाद में
घिर जाएगा।
प्रकृति सब कुछ
कर रही है!
आदमी?
लेकिन
हम एक बात
माने चले ही
जाते हैं कि
आदमी अलग है।
तो फिर नियति
खड़ी हो जाएगी, भाग्य खड़ा
हो जाएगा।
आदमी कहेगा, मैं क्या कर
सकता हूं, जो
परमात्मा
करता है वही।
लेकिन
लाओत्से कहता
है कि तुम जिस
दिन जानोगे, पाओगे तुम
हो ही नहीं।
तो यह सवाल ही
नहीं उठता कि
तुम क्या कर
सकते हो।
परमात्मा जो
कर रहा है, वही
तुम कर रहे
हो। नियति
इसमें नहीं
है।
नियति
में पुनः, डेस्टिनी
में, भाग्य
में पुनः हमने
भेद स्वीकार
कर लिया। हमने
मान लिया कि
मैं भी हूं, और परमात्मा
मेरे भाग्य को
निर्धारित कर
रहा है। मैं
अलग हूं, वह
निर्धारक है।
लाओत्से की
बात को ठीक से
समझें, अद्वैत
की बात को ठीक
से समझें, तो
नियति का भी
कोई सवाल नहीं
है। क्योंकि
कोई मेरा
भाग्य-निर्माता
नहीं है।
मुझसे पृथक कोई
है नहीं। तो
कौन मेरे
भाग्य का
निर्णय करे? मैं समस्त
के साथ एक
हूं। और इस
समस्त के साथ
ऐक्य का नाम
ही मोक्ष है।
इसलिए हमने
स्वतंत्रता
शब्द का भारत
में उपयोग
नहीं किया।
क्योंकि
स्वतंत्रता
में भाव बना रहता
है कि कोई
स्वतंत्र
करने वाला है।
हमने शब्द
उपयोग किया
है--मोक्ष, मुक्ति।
और हमने कहा
है, मोक्ष
जो है वह
आत्मा का
स्वभाव है।
नियति, परतंत्रता,
स्वतंत्रता,
सब शब्द
व्यर्थ हो
जाते हैं, अगर
हम प्रकृति के
साथ एक हैं।
एक बूंद नदी
के साथ बही जा
रही है। अगर
वह बूंद कहे
कि मुझे नदी
के साथ बहना
पड़ रहा है तो परतंत्र
हो गई। अगर वह
बूंद कहे कि
मैं अपनी इच्छा
से नदी के साथ
बह रही हूं तो
स्वतंत्र हो गई।
और अगर वह
बूंद कहे कि
मैं नदी हूं
तो मुक्त हो
गई। वह जो
मुक्तता है, वह एकता का
नाम है। अब
नदी कोई और है
ही नहीं, जिससे
कोई संबंध
बनाया जाए
स्वतंत्रता
का या परतंत्रता
का। कोई दूसरा
नहीं है, जिससे
हमारा संबंध
बने। संबंध खो
गए, मैं ही
हूं। अपने से
ही कोई
स्वतंत्र और
परतंत्र कैसे
होगा? अपने
से ही कोई
स्वतंत्र और
परतंत्र कैसे
होगा?
अगर आप
इस पृथ्वी पर
बिलकुल अकेले
हों, इस
अस्तित्व में
बिलकुल अकेले
हों, समझें
कि सब खो गया, आप अकेले
हैं अस्तित्व
में, उस
समय आप
स्वतंत्र
होंगे कि
परतंत्र
होंगे? उस
समय आप क्या
कहेंगे, आप
स्वतंत्र हैं
या परतंत्र
हैं? दोनों
बात व्यर्थ हो
जाएंगी। आप
मुक्त होंगे।
यह मुक्तता
आपकी निजता
होगी, आपका
अंतर-भाव
होगा।
हमारी
स्वतंत्रता
तो परतंत्रता
का ही एक रूप है।
और हमारी
परतंत्रता भी
स्वतंत्रता
का एक रूप है।
उन दोनों में
बहुत फासला
नहीं है। एक आदमी
घर में है तो
हम कहते हैं
स्वतंत्र है
और जेल में है
तो हम कहते
हैं परतंत्र
है। कहां
स्वतंत्रता
समाप्त होती
है, कहां
परतंत्रता
शुरू होती है,
कहना
मुश्किल है।
और जो घर में
है, वह भी
कितना
स्वतंत्र है?
क्योंकि
बुद्ध घर से
भाग गए, क्योंकि
घर उन्हें
परतंत्रता
मालूम पड़ी। आप
नहीं भागे हैं,
परतंत्रता
के आदी हो गए
होंगे। जेल के
भी लोग आदी हो
जाते हैं।
फ्रेंच रिवोल्यूशन
के वक्त बैस्तील
के किले को
तोड़ दिया
क्रांतिकारियों
ने; कैदी थे
वहां बंद, उनको
निकाल बाहर कर
दिया। कोई
चालीस साल, कोई पचास
साल से कैदी
था। आजन्म
कैदियों का निवास
था वहां। आधे
कैदी सांझ
वापस लौट आए।
और उन्होंने
कहा, बाहर
हमें अच्छा
नहीं लगता।
जो
आदमी चालीस
साल जेलखाने
में रहा हो, बाहर की
दुनिया खतम हो
गई। चालीस
साल! बाहर की दुनिया
मर गई, वह
बाहर की
दुनिया के लिए
मर गया। न
उसका कोई पहचानने
वाला है; न
कोई मित्र है,
न कोई शत्रु
है। और बाहर
सब अजीब सा
लगने लगा। और
बाहर जाकर
रोटी भी कमानी
पड़ेगी। वह
परतंत्रता
मालूम पड़ने
लगी। जेलखाने
में रोटी सुबह
ठीक वक्त पर
मिल जाती है।
कोई चिंता
नहीं है, कोई
जिम्मेवारी
नहीं है। बाहर
जाकर उस आदमी
को फिक्र करनी
पड़ी कि छप्पर
कहां है, जिसके
नीचे मैं
सोऊं। जेलखाने
में छप्पर
निर्मित था, उसे उसकी चिंता
नहीं थी। जब
वर्षा आती, तो जेलखाने
के अधिकारी
छप्पर को ठीक
करते थे। कोई
चिंता न थी।
यह जेल बड़ी
स्वतंत्रता
थी। और फिर
बड़ी तकलीफ हुई
कि हाथ में जो
बड़ी-बड़ी
जंजीरें पड़ी थीं,
पैर में जो बेड़ियां
पड़ी थीं चालीस
साल तक, उनके
बिना कैदी सो
न सके बाहर, नींद न आई। लगा
कि कुछ-कुछ
खाली है, कुछ
खो रहा है।
उन्होंने आकर
कहा कि बिना जंजीरों
के अब हम सो
नहीं सकते।
उनके बिना ऐसा
लगता है हाथ
नंगा हो गया
है। आभूषण थे
वे जंजीरें।
कौन
जाने, आपके
आभूषण
जंजीरें हैं
या क्या हैं!
उनके बिना आप
भी न सो
सकेंगे। क्या
है
स्वतंत्रता
और क्या है
परतंत्रता? मात्राओं के
भेद हैं।
जिसके आप आदी
हो गए हैं, उसको
आप समझते हैं
स्वतंत्रता।
लेकिन हमारी स्वतंत्रता
और परतंत्रता
दोनों में
हमारा अहंकार
मौजूद है।
ताओ, धर्म, संन्यास,
जो भी हम
नाम दें, मुक्ति
है--न
स्वतंत्रता, न
परतंत्रता।
इसे एक
दूसरी तरफ से
समझ लें तो
खयाल में आ
जाएगा। हम
जीते हैं द्वंद्व
में। या तो
होते हैं दुख
में, या सुख
में। तो हम
पूछते हैं, जब परमात्मा
में हम होंगे
तो सुख होगा
कि दुख?
दोनों
नहीं होंगे।
हमारा सुख और
दुख एक ही चीज
के भेद हैं।
इसलिए हमें एक
नया शब्द गढ़ना
पड़ा: आनंद।
आनंद का अर्थ
सुख नहीं है।
आनंद का अर्थ
है: सुख-दुख दोनों
का अभाव।
हालांकि जब हम
सुनते हैं
आनंद, तो
हमें सुख का
ही खयाल आता
है। और जब हम
आनंद की तलाश
करते हैं, तब
भी हम सुख की
ही खोज कर रहे
होते हैं।
हमारे मन में
आनंद का अर्थ
होता है महासुख।
हमारे मन में
आनंद का अर्थ
होता है, जहां
दुख बिलकुल
नहीं है।
हमारे मन में
आनंद का अर्थ
होता है, जहां
सुख शाश्वत
है। यह सब गलत
है। ये सब गलत
बातें हैं। जब
तक सुख है, तब
तक आनंद हो न
सकेगा।
क्योंकि सुख
के साथ दुख
जुड़ा ही
रहेगा। आनंद
है अभाव--सुख
का भी, दुख
का भी। इसलिए
बुद्ध ने आनंद
शब्द का भी
उपयोग नहीं
किया।
क्योंकि यह भ्रामक
है; इससे
सुख की झलक
मिलती है।
इससे सुख की
झलक मिलती है।
तो बुद्ध ने
शांति शब्द का
प्रयोग किया।
सब शांत हो
गया है--सुख भी,
दुख भी। सब
उत्तेजना खो
गई है।
लेकिन
सभी शब्दों के
साथ अड़चन खड़ी
रहेगी। क्योंकि
हमारे सब शब्द
द्वैत में
चलते हैं।
शांति है तो
अशांति है; उसके विपरीत
हमारे मन में
खयाल उठता है।
ठीक
ऐसे ही
स्वतंत्रता-परतंत्रता, दोनों जहां
खो जाती हैं, वहां मुक्ति
है, वहां
मोक्ष है।
मोक्ष
स्वतंत्रता
नहीं है, परतंत्रता
भी नहीं है; दोनों के
पार उठ जाना
है, दोनों
का अतिक्रमण
है। और जब
व्यक्ति एक हो
जाता है अस्तित्व
के साथ, तो
अकेला ही हो
जाता है, अकेला
ही बच रहता
है। तब वह कह
पाता है: अहं
ब्रह्मास्मि,
मैं ही
ब्रह्म हूं।
अब कोई दूसरा
न रहा। इसलिए
द्वैत के सब
शब्द व्यर्थ
हो जाते हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि मैं
प्रकृति के
साथ अंतरतम
तादात्म्य के
साथ चलूं, बाह्यतम तादात्म्य
के साथ चलूं
या प्रतिकूल
चलूं, तीनों
परिस्थितियों
में प्रकृति
समान रूप से
प्रसन्न है; कोई भी एक
परिस्थिति का
चुनाव करने को
मैं संपूर्ण
रूप से
स्वतंत्र हूं;
फिर तीनों
चुनाव में
मेरी
प्रसन्नता
में फर्क
क्यों पड़ेगा?
फर्क
पड़ेगा, क्योंकि
तीनों के
अलग-अलग अनुभव
हैं। ऐसा समझें,
जमीन में
गुरुत्वाकर्षण
है; आप
रास्ते पर
चलते हैं; आप
सीधे चलते हैं,
नहीं गिरते
हैं।
स्वतंत्र हैं
आप; आप
चाहें आड़े-तिरछे
चलें और गिर
जाएं।
गुरुत्वाकर्षण
नहीं कहेगा कि
आड़े-तिरछे
मत चलो। आड़े-तिरछे
चलें, गिर
जाएं, टांग
टूट जाए, दर्द
हो, तकलीफ
हो। जब आप आड़े
होकर गिरते
हैं जमीन पर, तब भी वही
गुरुत्वाकर्षण
काम करता है, जब आप खड़े चल
रहे थे, तब
काम करता था।
कोई फर्क नहीं
है। वही नियम
काम कर रहा
है। नियम
निरपेक्ष भाव
से काम कर रहा
है। आपने गलती
की चलने में, या गलत का
चुनाव किया, चोट खाएंगे।
ठीक का चुनाव
किया, चोट
नहीं खाएंगे।
सुख का
अर्थ ही क्या
है? सुख का
अर्थ है: नियम
के अनुकूल।
दुख का अर्थ है:
नियम के
प्रतिकूल।
नियम
निष्पक्ष है।
आपने जहर पी
लिया; प्रकृति
आपको मार
डालेगी। आप
बीमार हैं; जहर की एक
मात्रा ली; बीमारी मर
जाएगी, आप
स्वस्थ हो
जाएंगे। पानी
भी आप ज्यादा
पी लें तो जहर
हो जाएगा। तो
पानी पीने में
भी संयम रखना
पड़ता है; शराब
पीने में ही
नहीं। पानी भी
ज्यादा पी लें
तो मौत आ
जाएगी। पानी
निष्पक्ष है।
कोई पानी आपसे
कहता नहीं
कितना पीएं।
वह स्वतंत्रता
आपकी है।
लेकिन पानी की
एक प्रकृति
है। अगर आप
नियम के
अनुकूल
पीएंगे, सुखदायी
हो जाएगा; नियम
के बाहर
जाएंगे, दुखदायी
हो जाएगा।
नियम
के अनुकूल सुख
है; नियम के
प्रतिकूल दुख
है। तो जब भी
आप दुख पाते
हैं, जान
लेना कि कहीं
नियम के
प्रतिकूल पड़
गए हैं। और
किसी कारण कोई
दुख नहीं
पाता।
विज्ञान इसीलिए
कहता है कि हम
आदमी के लिए
ज्यादा सुख
जुटा लेंगे; क्योंकि हम
उन नियमों की
खोज करते चले
जाते हैं
जिनको जान
लेने पर तुम
प्रतिकूल
व्यवहार नहीं
करोगे। और तो
कोई विज्ञान
की खोज नहीं
है; इतनी
ही खोज है कि
हम नियम को खोजते
चले जाते हैं,
तुम्हें
बताते चले
जाते हैं कि
यह है नियम, अब तुम
अनुकूल चलोगे
तो सुख होगा, अनुकूल नहीं
चलोगे तो दुख
हो जाएगा।
नहीं जानने से
नियम, हम
कई बार
प्रतिकूल चल
जाते हैं।
लेकिन एक बात
पक्की है, जानते
हों नियम या न
जानते हों, दुख बता
देगा कि हम प्रतिकूल
चले हैं, सुख
बता देगा कि
हम अनुकूल चले
हैं।
तो
लाओत्से कहता
है कि चाहे
ताओ के अनुकूल, चाहे बाह्य
सूत्रों के
अनुकूल और
चाहे प्रतिकूल,
प्रकृति हर
हाल प्रसन्न
है। जब आप
गिरते हैं और
आपकी टांग टूट
जाती है, तो
गुरुत्वाकर्षण
कोई दुखी नहीं
होता, आप
दुखी होते
हैं। कोई ग्रेविटेशन
को कोई पीड़ा
नहीं होती। जब
आप जहर पीकर
मर जाते हैं, तो जहर कोई
दुखी नहीं
होता। न कोई
प्रकृति आंसू
बहाती है। कोई
प्रयोजन नहीं
है। आप
स्वतंत्र थे।
आपने जो चाहा,
वह किया।
फिर जो परिणाम
होगा, वह
होगा। इसे समझ
लें ठीक से।
आप कर्म करने
को स्वतंत्र
हैं, परिणाम
में स्वतंत्र
नहीं हैं।
परिणाम तो आपने
किया कर्म और
आप बंध गए।
मोहम्मद
से अली ने
पूछा है कि
हमारी
स्वतंत्रता
कितनी है? तो मोहम्मद
ने कहा, तू
एक पैर ऊपर
उठा कर खड़ा हो
जा! तो वह
बांया पैर ऊपर
उठा कर खड़ा हो
गया। मोहम्मद
ने कहा, अब
तू दायां भी
ऊपर उठा ले।
अली ने कहा, आप भी क्या
मजाक करते
हैं! दायां
मैं कैसे उठा सकता
हूं? मैं
तो बायां उठा
कर बंध गया; अब दायां
नहीं उठ सकता।
तो मोहम्मद ने
कहा, अगर
तू पहले दायां
उठाता तो उठा
सकता था? उसने
कहा, बिलकुल
उठा सकता था।
क्योंकि तब तक
मैं बंधा नहीं
था; कोई
मैंने कर्म
नहीं किया था।
दायां उठाता
तो बंध जाता, फिर बायां
नहीं उठा
सकता। तो
मोहम्मद ने
कहा, करने
को तुम
स्वतंत्र हो;
लेकिन हर
कर्म बंधन दे
जाएगा--हर
कर्म!
इसलिए
हम अपने मुल्क
में कर्म को
बंधन कहे हैं
और अकर्म को
मुक्ति कहे
हैं। क्योंकि
जब भी मैं कुछ
करूंगा तो बंध
ही जाऊंगा; किया कि
बंधा।
क्योंकि जो
मैंने किया है
उसके परिणाम
होंगे। और वे
परिणाम नियम
के अनुसार होंगे,
मेरे
अनुसार नहीं।
मैं झाड़ से
कूदने को
स्वतंत्र हूं,
लेकिन टांग टूटेगी।
उसके लिए
स्वतंत्र
नहीं हूं कि
नहीं टूटेगी
कि टूटेगी।
आप हवाई जहाज
से कूदें,
आपकी मर्जी!
कोई रोकेगा
नहीं इस संसार
में। लेकिन
फिर पैर टूट
जाएं, हड्डी-हड्डी
चूर-चूर हो
जाए, तो
फिर इसके लिए
किसी को दोष
मत देना।
क्योंकि वह
आपके ही कर्म
का फल है, वह
आपकी ही
स्वतंत्रता
का चुनाव है।
जहर पीने को
मैं स्वतंत्र
हूं, लेकिन
फिर मैं यह नहीं
कह सकता कि अब
मैं मरूंगा भी
नहीं।
कर्म
के लिए
व्यक्ति
स्वतंत्र है।
स्वतंत्रता
का अर्थ ही
कर्म की
स्वतंत्रता
है, परिणाम
की
स्वतंत्रता
नहीं। अगर
परिणाम की भी
स्वतंत्रता
हो तो जगत एक
अराजकता होगा,
अनार्की। कासमास
नहीं रह
जाएगा।
क्योंकि मैं पीऊं जहर
और अमृत का
परिणाम पाऊं;
गिरूं आकाश से और
जमीन पर मजे
से चलने लगूं;
दुख के उपाय
करूं और सुख पाऊं; तब
तो जगत एक
अराजकता
होगा। तब तो
जगत में फिर कुछ
भी तय करना
मुश्किल हो
जाएगा। कुछ भी
तय करना
मुश्किल हो
जाएगा। लेकिन
जगत अराजकता
नहीं है, नियम
है। ताओ का यही
अर्थ है, जगत
एक नियम है, जगत ताओ है।
उस नियम के दो
पहलू हैं। एक
पहलू है, आप
स्वतंत्र हैं
सदा चुनने को,
क्या करना
चाहते हैं।
लेकिन करते ही
आप नियम के
अंतर्गत आ गए।
और करते ही
परिणाम
सुनिश्चित हो
गया।
इसलिए
बुद्ध ने, महावीर ने, लाओत्से ने,
सभी ने यह
कहा है कि जब
तक कर्म जारी
है, तब तक
पूर्ण मुक्ति
नहीं हो सकती।
पूर्ण मुक्ति
का अर्थ होगा
पूर्ण अकर्म।
इस अकर्म को
साधने के कई
उपाय हैं।
लाओत्से
का उपाय यह है
कि तुम
प्रकृति के
साथ अपना
फासला छोड़ दो।
तुम यह भूल ही
जाओ कि तुम कर्म
करते हो। कहो
परमात्मा को
कि तू ही करता
है, तू ही
भोगता है; हम
नहीं हैं
मौजूद। तुम
स्वतंत्र हो
गए। तब न तुम
चुनते हो करते
वक्त; और न
तुम भोगते
वक्त। दोनों
हालत में
परमात्मा
चुनता है, परमात्मा
भोगता है। या
हम कहें:
समस्त सृष्टि चुनती
है, समस्त
सृष्टि भोगती
है। मैं बाहर
हो गया। मैं मौजूद
न रहा। यह
मुक्ति हो गई।
लेकिन
जैसे ही मैं
चुनता हूं, वैसे ही
चुनाव का
अनिवार्य
परिणाम होगा।
उस परिणाम को
मुझे भोगना
पड़ेगा। मैंने
चुना, इसलिए
मुझे भोगना
पड़ेगा।
अपना-अपना
कर्म भोगना ही
पड़ेगा। उससे अनभोगे
निकल जाने का
कोई उपाय नहीं
है। कोई उपाय
नहीं है।
बुद्ध की
मृत्यु हुई
विषाक्त भोजन
से। तो आनंद
ने उनसे पूछा
कि इस आदमी ने
बहुत बुरा
किया, अज्ञान
में ही सही, लेकिन आपको
विषाक्त भोजन
करा दिया! भूल
से ही हुआ था, जान कर नहीं
हुआ था। फूड पायजन से
बुद्ध की
मृत्यु हुई।
अनजाने हो गया
था। गरीब आदमी
था, कुकुरमुत्ते
इकट्ठे करके सुखाए थे; उनमें जहर
था। उनकी
सब्जी बनाई
थी। बुद्ध की
उस सब्जी के
खाने से
मृत्यु हुई।
बुद्ध
ने क्या कहा? बुद्ध ने
कहा, आनंद,
उसकी भूल वह
जाने! लेकिन
यह जहर से
मेरी मृत्यु
का होना मेरे
ही किन्हीं
कर्मों का फल
है। उससे कुछ
इसका
लेना-देना
नहीं है। वह
संयोग मात्र
है। मैंने कुछ
किया होगा, उससे मैं
बंधा हूं।
उससे छुटकारा
हुआ, आनंद!
शायद अब मेरे
किए हुए का
मुझ पर कोई
बोझ नहीं है।
अब मैं बिलकुल
अनकिया हो गया;
अब सब
समाप्त हो
गया। शायद इसी
के लिए अब तक
मैं जिंदा भी
था। यह मेरी
मृत्यु नहीं
है, यह
मेरा विसर्जन
है। अब सब
लेना-देना
समाप्त हो
गया। जो मैंने
किया था, वह
सब पूरा हो
गया। और तुम
इस आदमी के
प्रति कोई
दुर्भाव मत
लेना; क्योंकि
वह दुर्भाव
तुम्हारा
कर्म हो जाएगा।
और उस कर्म का
फल तुम्हें
भोगना पड़ेगा,
इस आदमी को
नहीं।
तो
आनंद ने पूछा, हम क्या
करें? क्योंकि
आदमी बिना किए
नहीं रह सकता।
कुछ तो करें!
अगर दुर्भाव न
करें, इसकी
खिलाफत न करें,
जाकर इसकी
निंदा न करें,
तो हम क्या
करें?
तो
बुद्ध ने कहा, तुम एक घंटा
हाथ में लेकर
गांव में डुंडी
पीटो और
कहो कि यह
आदमी धन्यभागी
है; क्योंकि
बुद्ध को
अंतिम भोजन
देने का
सौभाग्य इसे
मिला। तुम जाओ,
गांव में
शोरगुल मचाओ
कि यह आदमी धन्यभागी
है कि बुद्ध
को अंतिम भोजन
देने का
सौभाग्य इसे
मिला। यह उतना
ही धन्यभागी
है, जितनी
बुद्ध की मां
थी; क्योंकि
उसे प्रथम
भोजन देने का
सौभाग्य मिला
था। तुम जाओ!
आनंद
ने कहा, लेकिन
यह भी कर्म
होगा।
तो बुद्ध
ने कहा, यह
भी कर्म है, लेकिन तुम
कर्म से बच
नहीं सकते।
अगर तुम पहला
कर्म करोगे, उस आदमी की
निंदा करोगे,
अपमान
करोगे, तो
दुख पाओगे। वह
नियम के
प्रतिकूल है।
और अगर तुम उस
आदमी की इस
घड़ी में भी
प्रशंसा
करोगे तो तुम
नियम के
अनुकूल हो, तुम सुख
पाओगे। दोनों
ही कर्म हैं।
आनंद तो दोनों
से न मिलेगा।
अगर तुम कुछ
भी न करो, बिलकुल
शांत रह जाओ, तो तुम
मुक्त हो
जाओगे, तो
तुम आनंद को
पा सकते हो।
जब भी
हम चुनते हैं, तो या तो हम
विधायक चुनते
हैं या
नकारात्मक चुनते
हैं। या तो हम
किसी की निंदा
करते हैं, या
किसी की प्रशंसा
करते हैं। या
तो हम किसी को
सुख देने जाते
हैं, या
किसी को दुख
देने जाते
हैं। जब भी हम
कोई कर्म करते
हैं तो हमने
चुनाव कर
लिया। उस
चुनाव से सुख
या दुख फलित
होंगे। अगर
दुख फलित हो
तो समझना कि
नियम के
प्रतिकूल
चुना। अगर सुख
फलित हो तो
समझना कि नियम
के अनुकूल
चुना। अगर
आपको दुख ही
दुख होते हों
तो समझना कि
आपकी जिंदगी
नियम के
प्रतिकूल
चुनने में चल
रही है।
लोग
कहते हैं कि
दुख ही दुख
हैं। एक सज्जन
आए थे कुछ दिन
हुए कि मैं
दुख ही दुख
में पड़ा हूं।
आपसे एक ही
बात पूछने आया
हूं कि
ज्योतिषी
कहते हैं कि
मेरे पीछे शनि
देवता लगे हैं; उनसे कब
मेरा छुटकारा
होगा?
किसी
के पीछे कोई
शनि देवता
नहीं लगे हैं।
अगर शनि देवता
आपको दुख देने
का काम कर रहे
हैं तो शनि
देवता की क्या
गति होगी? उन्हें किस
नरक में डालिएगा!
इतने लोगों को
दुख देने का
धंधा जो कर
रहे हैं, उनका
क्या होगा? कोई आपके
पीछे नहीं लगा
है; आप ही
अपने पीछे लगे
हैं। और शनि
देवता का अर्थ
है कि आप नियम
के प्रतिकूल
चुनते चले जा
रहे हैं; दुख
भोगते रहे हैं,
दुख भोग रहे
हैं।
आपका
दुख आपकी
जिम्मेवारी
है, आपका सुख
आपकी
जिम्मेवारी
है। अगर बहुत
दुख होता है
तो समझ लेना
कि आपके सोचने,
चुनने, जीने
के ढंग गलत
हैं। वे नियम
के प्रतिकूल
हैं। दुख
सिर्फ सूचन
है। और दुख
बड़ा अच्छा
सूचन है।
प्रकृति ने
इंतजाम किया
है, दुख से
आपको सूचना
मिलती है कि
आप कहीं नियम
के बाहर चले
गए हैं। लेकिन
हम बड़े पागल
हैं, हम
दुख को मिटाने
की कोशिश करते
हैं, नियम
के भीतर लौटने
की कोशिश नहीं
करते। और अक्सर
ऐसा होता है
कि दुख को
मिटाने की
कोशिश हम ही
करते हैं जो
नियम के
प्रतिकूल चले
गए हैं। हम
दुख को मिटाने
की कोशिश में
और नियम के
प्रतिकूल चले
जाते हैं। तब
हम एक दुख से
दस दुख पैदा
कर लेते हैं।
और हम इसी
कोशिश में लगे
रहते हैं कि
हर दुख को
मिटाने को...हम
कभी वापस लौट
कर नहीं देखते
कि दुख सूचक
है कि मैं नियम
के प्रतिकूल
जी रहा हूं, इसलिए नियम
के अनुकूल हो
जाऊं, दुख
विलीन हो
जाएगा। हम दुख
को विलीन करने
की कोशिश करते
हैं, नियम
के अनुकूल
होने की नहीं।
तब दुख तो
विलीन नहीं
होता; एक
दुख के दस दुख
हो जाते हैं, दस के हजार
हो जाते हैं।
सब
आदमी
दुख-शून्य
पैदा होते हैं
और दुख से भरे
हुए मरते हैं।
लेकिन वे ही
अपने हाथ से
फैलाए चले
जाते हैं। वह
जो फैलाव है, वह जो
विस्तार है, वह इसी गणित
को न जानने का
परिणाम है। जब
भी दुख हो, तब
दुख की फिक्र
छोड़ना, तत्काल
अपने पूरे
जीवन का
निरीक्षण
करना, पूरे
जीवन पर एक
पुनरावलोकन
कि कहां मैं
नियम के
प्रतिकूल चला
गया हूं। यह
बड़े मजे की
बात है और
मनुष्य के
अधिकतम दुखों
का कारण यही
है।
एक
मित्र हैं, शराब पीते
हैं। बीस साल
से पत्नी उनके
पीछे पड़ी है, कि शराब मत पीयो। यही
कलह का सूत्र
हो गया। बीस
साल जिंदगी के
इसी उपद्रव
में उलझ गए।
पत्नी भी कहती
है कि पति
अच्छे हैं, सब तरह
अच्छे हैं, भले हैं; बस
यह एक शराब, यही कष्ट का
कारण है। इस
एक शराब के
कारण सब खराब
हो गया। पति
नहीं छोड़ पाते
हैं। तो मैंने
पत्नी को कहा
कि एक काम कर!
बीस साल तुझे
कहते हो गए, कुछ छूटा
नहीं। अब तू
तीन महीने के
लिए कहना छोड़
दे। बाद में, तीन महीने
बाद तेरे पति
से मैं बात
करूं।
पांच-सात
दिन बाद पत्नी
ने मुझे आकर
कहा कि बड़ा मुश्किल
है; जैसे
उनकी शराब
पीने की आदत
है, वैसे
ही मुझे
उन्हें छेड़ने
और रोकने की।
बिना रोके मैं
नहीं रह सकती।
अब यह
बड़ा मजा है।
कौन शराब पी
रहा है, तय
करना मुश्किल
है। अब मैं
सोचता हूं कि
अगर पति
हिम्मत करे और
शराब छोड़ दे
तो पत्नी
मुश्किल में
पड़ जाएगी।
पहली दफे
जिंदगी में
दुख आएगा। अभी
तक दुख रहा, अब एक नया
दुख शुरू होगा।
अब पत्नी दुख
उठा रही
है--बहुत दुख
उठा रही
है--लेकिन इस
दुख उठाने का
कारण वह समझती
है कि पति
शराब पीते हैं
इसलिए मैं दुख
उठा रही हूं।
उसे पता नहीं
है कि यह कारण
नहीं है। यह
कारण नहीं है।
क्योंकि पति
अगर शराब बंद
भी कर दें तो
भी वह दुख
उठाएगी। यह
कारण नहीं है।
और अगर पति
शराब न पीते
तो भी वह दुख
उठाती।
क्योंकि दुख
उठाने का कारण
कुछ दूसरा है।
वह नियम की
प्रतिकूलता
है।
जब भी
एक व्यक्ति
दूसरे पर किसी
तरह की मालकियत
करता है, तब
प्रकृति के
नियम के
प्रतिकूल जा
रहा है। वह
दुख उठाएगा।
जब भी एक
व्यक्ति
दूसरे व्यक्ति
को डॉमिनेट
करता है, तब
वह दुख
उठाएगा।
क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति
स्वतंत्रता
है। और जब भी
कोई व्यक्ति
किसी को
परतंत्र करने
की कोशिश करता
है, तो
नियम के
प्रतिकूल जा
रहा है। वह
दुख उठाएगा।
और जो लोग भले
कामों में
अधिकार करने
की कोशिश करते
हैं, वे और
ज्यादा दुख
उठाएंगे।
क्योंकि उनको
दिखाई ही नहीं
पड़ेगा कि हम
कुछ गलत कर
रहे हैं। अब
पत्नी को दिखाई
पड़ना
मुश्किल है कि
मैं कुछ गलत
कर रही हूं।
साफ है कि वह
ठीक कर रही है
कि पति की
शराब छुड़वा
रही है।
बीमारी हो
सकती है, दुख-दर्द
आ सकता है, सब
कुछ हो सकता
है शराब के कारण,
इसलिए
अच्छा काम कर
रही है।
लेकिन
ध्यान रखना, अच्छे काम
से दुख होता
नहीं। एक ही
कसौटी है: आप
अच्छा काम अगर
कर रहे हैं तो
उसका परिणाम
सुख होगा।
लेकिन बीस साल
अच्छा काम
करने का परिणाम
अगर दुख ही
दुख है तो
अच्छे सिर्फ
शब्द हैं, असली
चीज भीतर कुछ
और है। यह शराब
सिर्फ बहाना
है।
मैंने
सुना है एक
स्त्री को
कहते हुए कि
मेरे पति में
कोई दुर्गुण
नहीं है, और
इस वजह से मैं,
इस वजह से
मैं दुखी हूं।
अगर
आपको बिलकुल
संत पति मिल
जाए, तो दुख का
अंत न रहेगा।
क्योंकि उसको
काबू में रखने
का कोई उपाय न
रहा। उसको
कहां से डराओ,
कहां से धमकाओ,
कहां से
कब्जा करो, कहां से
गर्दन दबाओ; कुछ भी न
रहा। इसलिए एक
मजे की घटना
है कि संत पतियों
को आज तक
पत्नियों ने
कभी बरदाश्त
नहीं किया।
चोर, बेईमान,
बदमाश पति
भी चलेगा; क्योंकि
उसमें एक रस
है। बेईमान, शराबी, चोर,
कुछ भी हो, चलेगा।
क्योंकि पत्नी
ऊपर है, अपर
हैंड है। पति
डरा हुआ घर
में प्रवेश
करता है; तैयार
है कि कुछ
उपदेश
मिलेगा।
लेकिन दुख कौन
उठा रहा है?
और बड़े
मजे की बात है
कि जब एक
पत्नी चेष्टा
में लगी है कि
पति अच्छा हो
जाए तो शायद
वही जिम्मेवार
बन जाए उसके
बुरा होने का।
क्यों? क्योंकि
पति को यह
अपनी
स्वतंत्रता
पर हमला है।
यह सवाल शराब
का नहीं रह
गया। यह सवाल
रह गया कि कौन
किसकी मानता
है! यह पत्नी
अगर कहना छोड़
दे--बिलकुल
छोड़ दे--तो
शायद पति को
भी जितना मजा
शराब पीने में
आ रहा है, उतना
न आए। क्योंकि
शराब पीकर वे
पत्नी को ठिकाने
लगा रहे हैं, उसको रास्ते
पर लगा रहे
हैं। वे बता
रहे हैं कि
मालिक कौन है!
चिल्लाते रहो,
लेकिन
मालिक कौन है!
यह
शराब मालकियत
के बीच उपद्रव
का केंद्र बन
गई है। पत्नी
कहे चली जाएगी; क्योंकि यही
मालकियत का
ढंग है। पति
पीए चला जाएगा;
क्योंकि
उसको भी अपनी
मालकियत
सिद्ध करनी
है। पति भी
दुख पाएगा; पति भी दुख
पा रहा है बीस
साल से। दुख
पाएगा ही; क्योंकि
वह भी शराब के
द्वारा
मालकियत
सिद्ध करने की
कोशिश कर रहा
है। और पत्नी
से ज्यादा दुख
पाएगा; क्योंकि
पत्नी एक ही
नियम का
उल्लंघन कर
रही है, पति
दो नियमों का
उल्लंघन कर
रहा है। पत्नी
एक नियम का
उल्लंघन कर
रही है कि
स्वतंत्रता पर
बाधा डाल रही
है। पति दो
नियमों का
उल्लंघन कर
रहा है। एक तो
स्वतंत्रता
को शराब पीकर
सिद्ध करने की
कोशिश कर रहा
है; आत्मघात,
स्युसाइड कर रहा है।
क्योंकि जहर
पीकर कोई अपनी
स्वतंत्रता
सिद्ध कर रहा
हो तो वह
दोहरे उपद्रव
कर रहा है। यह
शराब पीकर जो
दुष्परिणाम होंगे,
वे भी उसे
भोगने
पड़ेंगे।
लेकिन इन दुष्परिणामों
को भी वह भोगेगा,
और कभी यह
नहीं सोचेगा,
उसके मन में
यही रहेगा, सदा यही
रहेगा कि यह
स्त्री एक
उपद्रव है; कोई दूसरी
स्त्री होती
तो शायद सब
ठीक हो जाता।
नहीं, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ने वाला था।
स्त्री मात्र
यही करेगी।
क्योंकि
पुरुष और
स्त्री के बीच
जो कलह का
मौलिक कारण है,
वह यही है
कि वे
एक-दूसरे पर
अधिकार जमाने
की कोशिश कर
रहे हैं। और
जहां अधिकार
की चेष्टा है,
वहां प्रेम
की हत्या हो
जाती है। और
तब दुख घना हो
जाता है।
हम सब
जो दुख भोगते
हैं, अगर थोड़ी
खोज करेंगे तो
कहीं न कहीं
हम पाएंगे कि
कोई कारण है।
और वह कारण
सदा किसी गहरे
नियम के
विपरीत जाने
से हो रहा है।
लेकिन हम दुख
मिटाने की
कोशिश करते
हैं। आदमी
अपनी पत्नी बदल
सकता है।
पत्नी अपना
पति बदल सकती
है। यह सब हो
सकता है।
लेकिन इससे
दुख का कोई
अंत नहीं
होगा। क्योंकि
हम वही के वही
बने रहेंगे।
वह शनि हमारा
पीछा करेगा; क्योंकि वह
शनि हम ही
हैं। वह कोई
दूसरा होता तो
उससे छुटकारे
का उपाय था।
कोई पूजा-पाठ
करवा लेते, कोई मंत्रत्तंत्र
करवा लेते, और छुटकारा
हो जाता। इतना
आसान छुटकारा
नहीं है। आप
ही हैं अपना
नरक, आप ही
हैं अपना
स्वर्ग।
लेकिन
इस बात को हम
बचाने की
कोशिश करते
हैं। हम किसी
और पर डालना
चाहते हैं। जब
एक ज्योतिषी
आपको बता देता
है कि शनि
आपके पीछे पड़ा
है, आपके सिर
से बोझ उतर
जाता है। यह
कोई और दुष्ट पीछे
पड़ा है, उसको
ठीक करना है।
उसको रास्ते
पर लगाने का
कोई उपाय करना
है--पूजा से
करें, समझा-बुझा
कर करें, मंत्रत्तंत्र से करें।
मगर एक बात
पक्की हो गई
कि आप जिम्मेवार
नहीं हैं।
ज्योतिषियों
को हाथ दिखाने
से जो आपको
सुख मिलता है,
उसका और कोई
कारण नहीं है।
आप जिम्मेवार
नहीं हैं।
भाग्य, हाथ
की रेखाएं, विधि की
रेखाएं, कोई
और जिम्मेवार
है। कहीं भी
मेरी
जिम्मेवारी
मुझसे उतर जाए
तो हलकापन
लगता है।
लेकिन
वह हलकापन
आपको सुख नहीं
देगा; वह और
गहरे दुखों
में ले जाएगा;
क्योंकि आप
ही जिम्मेवार
हैं। और यह हलकेपन
का अनुभव होते
से ही आप नया बोझ
रखने के लिए
स्वतंत्र हो
गए। अब आप फिर
वही करते
जाएंगे, जो
आप कर रहे थे।
स्वतंत्र
है आदमी कर्म
करने को, फल
भोगने को
नहीं।
श्रीकृष्ण
ने कहा है, कर्म तू कर
और फल मुझ पर
छोड़ दे। तू
अगर फल भी खुद पकड़ता है
तो तू मुसीबत
में पड़ेगा; क्योंकि फल
तेरे हाथ में
नहीं है। फल
की आकांक्षा
मत कर, तू
कर्म कर। फल
की आकांक्षा
मत कर।
क्योंकि फल की
आकांक्षा
तुझे गलत दिशा
में ले जाएगी।
फल तेरे हाथ
में नहीं है।
कर्म तेरे हाथ
में है। और
अगर कर्म का
फल दुखद आता
है तो तुझे
जानना चाहिए
कि तुझे कर्म
बदलना है, फल
नहीं। अगर
कर्म का फल सुखद
आता है तो
तुझे जानना
चाहिए कि तू
इस कर्म की
दिशा में जा
सकता है।
लेकिन
एक घटना घटती
है। जो आदमी
दुख में पड़ा है, वह सुख की
तरफ जाना
चाहता
है--स्वभावतः।
लेकिन जो सुख
में पड़ जाता
है, वह सुख
से भी ऊपर
उठना चाहता
है--स्वभावतः।
दुखी आदमी सुख
की तरफ जाना
चाहता है; इसलिए
उसे नियम की
प्रतिकूलता
छोड़ कर अनुकूलता
पकड़नी
चाहिए। सुखी
आदमी सुख से
भी फिर ऊब
जाता है। सुखी
आदमी को सुख
भी फिर बासा
मालूम पड़ने
लगता है। सुखी
आदमी को फिर
सुख में भी
स्वाद नहीं आता।
रोज-रोज
मीठा-मीठा
खाते-खाते
मीठा भी कड़वा
मालूम पड?ने
लगता है। सुख
से जब आदमी ऊब
जाता है, तब
वह तीसरे आयाम
में प्रवेश
करता है। तब न
नियम की
अनुकूलता, न
प्रतिकूलता; क्योंकि
अनुकूलता-प्रतिकूलता
दोनों में मैं
मौजूद हूं। तब
वह अपने को ही
नियम में
विसर्जित कर
देता है। तब
वह न नियम के
अनुकूल होता है,
न प्रतिकूल;
नियम के साथ
एक हो जाता
है। और यह
नियम के साथ
एक हो जाना ताओ
है। तब वह
कहता है कि अब
तक मैं कर्म
चुनता था, अब
मैं कर्म भी
नहीं चुनता।
तो
कृष्ण कहते
हैं कि तू फल
की आकांक्षा
छोड़, कर्म किए
जा; दुख
तुझे नहीं
होगा।
लाओत्से कहता
है, तू
कर्म भी छोड़
और विश्व के
साथ एक हो जा; फिर तुझे
सुख भी नहीं
होगा। दुख भी
नहीं होगा; सुख भी नहीं
होगा। फिर ये
द्वंद्व के
सारे अनुभव खो
जाएंगे, और
अद्वैत के
आनंद का
प्रारंभ।
उस एक
को संत पकड़
लेते हैं, लाओत्से
कहता है। वे
दो को छोड़
देते हैं और
एक को पकड़
लेते हैं।
एक
मित्र ने
प्रश्न नहीं
पूछा है, जैसे मैंने
उनसे कुछ पूछा
हो, उन्होंने
जवाब दिया है।
संक्षेप में
लाओत्से ने
बहुत अच्छी
बातें कही
हैं...।
लाओत्से
ने अच्छी
बातें नहीं
कही हैं; बड़ी
खतरनाक बातें
कही हैं।
अच्छी बातें
उन्हें कहते
हैं, जिनसे
सांत्वना
मिले। खतरनाक
बातें उन्हें कहते
हैं, जिनसे
आपको मिटना
पड़े, मरना
पड़े, टूटना
पड़े, और
नया होना पड़े।
लाओत्से ने
अच्छी बातें
नहीं कही हैं;
बहुत
खतरनाक, बहुत
डेंजरस
बातें कही
हैं। लाओत्से
ने आपको
सुलाने के लिए
कोई लोरी नहीं
गाई है।
लाओत्से ने
आपको जगाने की
चेष्टा की है।
और जगाने की
चेष्टा हमेशा
दुखद होती है।
लेकिन आप कहते
हैं, लाओत्से
ने अच्छी
बातें कही हैं;
यह आप अपने
को समझा रहे
हैं। जिन
बातों को आप अच्छा
समझते होंगे,
उनको आपने
लाओत्से में
सुन लिया
होगा। आगे पता
चलता है।
परंतु
शैली और
शब्दों के
अंतर के अलावा
ऐसी कौन सी नई
बात लाओत्से
ने कही है, जो वेदों और
उपनिषदों में
ही क्यों, गीता
में भी न कही
गई हो?
जानकार
हैं बड़े। वेद
भी जानते हैं, गीता भी
जानते हैं, उपनिषद भी
जानते हैं।
इतना जान कर
यहां कैसे आ
गए? इतना
सब जान लेने
के बाद कुछ
जानने को बचता
नहीं है। कुछ
अर्थ नहीं है
अब और जानने
का आपके लिए।
शैली
और शब्दों का
भेद उन्हें
दिखाई पड़ रहा
है। बहुत गहरे
भेद हैं! और
बड़ा भेद तो
यही है कि
लाओत्से समस्त
ज्ञान के
विपरीत है, वह चाहे वेद
का ज्ञान हो, चाहे गीता
का, चाहे
उपनिषद का।
समस्त
पांडित्य के
विपरीत है।
आपके विपरीत
है। आप जो
गीता, उपनिषद
और वेद को बीच
में ले आए हैं,
उसके कारण
आप लाओत्से को
समझ ही न सके
होंगे। मैं
इधर लाओत्से
की बात बोलता
होऊंगा, वहां
आपके भीतर वेद
की ऋचाएं
उठती रही
होंगी। उस
धुएं में सब
गड़बड़ हो गया होगा,
कनफ्यूज हो गया
होगा। पंडितजन
अति
कनफ्यूज्ड
होते हैं।
क्योंकि वे
कभी किसी बात
को सीधा नहीं सुन
पाते। उनके
पास ज्ञान तो
पहले से ही
होता है। यह
नई बात भी
जाकर उसी
ज्ञान के ढेर
में गिरती है।
उस ढेर में जो
आवाजें होती
हैं, वही
उनको सुनाई
पड़ती हैं; यह
बात सुनाई
नहीं पड़ती। तो
स्वभावतः
उनको फिर
दिखाई पड़ेगा
कि ठीक है, शब्दों
का ही भेद है।
और क्या है?
यह
अपने को समझा
लेने की कोशिश
है। अगर आप
गीता को, उपनिषद
को और वेद को
समझ ही गए
होते, तब
तो ठीक था। तब
तो शब्दों का
भी भेद नहीं
है। तब तो
शब्दों का भी
भेद न दिखाई
पड़ता; शैली
का भी भेद न
दिखाई पड़ता।
तब तो भेद ही न
दिखाई पड़ता।
लेकिन अभी भेद
दिखाई पड़ रहा
है; शब्दों
का दिखाई पड़
रहा है, शैली
का दिखाई पड़
रहा है। भीतर
के अर्थ का
कोई पता है? क्या है
अर्थ भीतर?
शब्द
और शैली का
भेद है। संसार
का कोई भी
आदमी कभी भी
कोई मौलिक बात, कोई नई बात
कह सका है
क्या?
फिर
ध्यान रखना, वेद भी
मौलिक बात न
कह सकेंगे, गीता भी न कह
सकेगी, उपनिषद
भी न कह
सकेंगे। फिर
तो कोई बात
मौलिक रहेगी
ही नहीं।
इसे
थोड़ा समझें।
धर्म बड़ी जटिल
बात है। धर्म
के संबंध में
दोनों बातें
कही जा सकती
हैं। कभी धर्म
के संबंध में
कोई मौलिक बात
नहीं कही जा सकती--एक।
और धर्म के
संबंध में सदा
ही मौलिक बातें
कही जाती हैं--दो।
धर्म के संबंध
में कोई मौलिक
बात नहीं कही
जा सकती; क्योंकि
वह जिस अनुभव
से आती है, वह
अनुभव शाश्वत,
सनातन का
है। चाहे कोई
बुद्ध, चाहे
कोई कृष्ण, चाहे कोई
लाओत्से, जब
भी कोई उस
अनुभव को
पहुंचता है, तो वह अनुभव
एक है। और
पहुंचने वाला
उस तक पहुंचते-पहुंचते
मिट जाता है, जिससे भेद
पैदा होता है।
वह
पहुंचते-पहुंचते
मिट जाता है, समाप्त हो
जाता है।
इसलिए धर्म के
संबंध में कभी
कोई मौलिक बात
नहीं कही जा
सकती।
लेकिन
ध्यान रखना, यह बात उनके
लिए है, अगर
कृष्ण
लाओत्से को
सुनें, या
लाओत्से
बुद्ध को सुने,
तो लाओत्से समझेगा
कि कोई मौलिक
बात नहीं कही
जा सकती। लेकिन
आप ऐसा समझ
लें तो
मुश्किल में
पड़ेंगे। आपके
लिए तो हर बात
धर्म की मौलिक
है। क्योंकि आपको
तो उसका कोई
अनुभव नहीं
है।
इसलिए
दूसरी बात भी
सत्य है, पहले
जैसी ही, कि
धर्म के संबंध
में सदा ही
मौलिक बात कही
जाती है। क्योंकि
जब कोई बुद्ध
बोलता है, तो
यह बिलकुल नई
बात है। नई
किस अर्थ में?
नई इस अर्थ
में कि
जिन्हें वेद
कंठस्थ हैं, उन्हें इसका
कोई भी पता
नहीं है; जिन्हें
गीता कंठस्थ
है, उन्हें
इसका कोई भी
पता नहीं है।
यह बात बिलकुल
मौलिक है।
कृष्ण के लिए
मौलिक नहीं
है। लेकिन
कृष्ण बुद्ध
को सुनने भी
नहीं आते हैं।
बुद्ध
और महावीर एक
ही गांव में
कई बार ठहरे; मिलना नहीं
हुआ। एक बार
तो एक ही
धर्मशाला में,
एक कमरे में
बुद्ध और एक
में महावीर
ठहरे। आधी
धर्मशाला में
बुद्ध का डेरा,
आधी
धर्मशाला में
महावीर का
डेरा। लेकिन
मिलना नहीं
हुआ। बड़े
विचार की बात
रही है। कई को
लगता है कि यह
तो बड़ी बुरी
बात है, दो
भले आदमियों
को मिलना
चाहिए। भले
आदमी वे थे
नहीं--जिनको
हम भले आदमी
कहते हैं--बड़े
खतरनाक आदमी
थे। और मिलने
का कोई कारण
नहीं था; क्योंकि
दोनों उसी जगह
खड़े थे। दोनों
तो मिट गए थे; एक ही जगह
खड़े थे। मिलता
कौन? मिलने
का भी क्या
उपाय है? और
क्या अर्थ है?
तो अगर
कृष्ण सुनने
जाएं लाओत्से
को तो कोई मौलिक
बात नहीं है।
लेकिन कृष्ण
सुनने नहीं
जाते। और
कृष्ण अगर
सुनने जाएं तो
उसका मतलब है
कि अभी भी खोज
जारी है। अभी
कृष्ण को पता
नहीं चला होगा; अभी भी पता
लगा रहे हैं।
लेकिन आपके
लिए तो सब बातें
मौलिक हैं।
क्योंकि जो
आपके पास होती
हैं, वे
बासी होती हैं,
आपके अनुभव
की नहीं होती
हैं। इसलिए जब
भी कोई धर्म
का पुरुष पैदा
होता है, तब
वह जो भी कहता
है, वह
मौलिक होता
है। और यही तो
मजा है। इसलिए
एक दुर्घटना
घटती है कि
पुराने धर्म
को मानने वाले
लोग, जब भी
कोई धर्म की
ज्योति पैदा
होती है, उसके
तत्काल खिलाफ
हो जाते हैं।
जीसस
ने कोई नई बात
नहीं कही थी।
यहूदी शास्त्रों
में सब लिखा
हुआ था, जो
जीसस ने कहा।
यहूदी पैगंबर
पहले जान चुके
थे, कह
चुके थे, जो
जीसस ने कहा।
और जीसस ने
खुद ने भी कहा
है कि मैं
किसी का खंडन
करने नहीं आया
हूं। मैं वही
कहने आया हूं,
जो सदा कहा
गया है। और
जीसस ने खुद
कहा--यहूदियों
का बड़े से बड़ा
पैगंबर था
अब्राहम--तो
जीसस ने कहा
है, अब्राहम
बोला, उसके
पहले भी मैं
था। मैं कोई
नया नहीं हूं।
लेकिन फिर भी यहूदी
जीसस को सूली
दिए; क्योंकि
यहूदियों को
जीसस की बातें
बड़ी नई मालूम
पड़ीं। क्या
मामला है? जीसस
कहते हैं, मैं
कोई नई बात
नहीं कह रहा
हूं। लेकिन
यहूदियों को
जीसस की बातें
नई क्यों
मालूम पड़ती
हैं? और
यहूदियों को
शास्त्रों का
ठीक अध्ययन
है। उनके पास
पंडित हैं, पुरोहित हैं,
बड़े ज्ञानी
हैं। वे सब
जानते हैं।
उन्होंने कहा
कि नहीं, ये
बातें आदमी
गड़बड़ कह रहा
है। क्या
मामला है? और
यह आदमी खुद
कहता है कि
मैं वही कह
रहा हूं। और
ये जानकार हैं,
जो कह रहे
हैं। और जीसस
से ज्यादा
जानकार हैं।
जीसस बहुत पढ़े-लिखे
आदमी नहीं हैं।
वे जो पंडित, जिन्होंने
जीसस को सूली
दी, जीसस
से बहुत
ज्यादा कुशल
और योग्य
थे--जानकारी
में। जीसस
उनसे जीत नहीं
सकते थे।
उन्हें रत्ती-रत्ती
ज्ञान कंठस्थ
था। एक-एक बात
उन्हें याद
थी। फिर क्या
बात हो गई?
उनके
पास सब बासा
था, कंठस्थ
था, शब्द
थे, अनुभव
कोई भी न था।
जिनके पास
शब्द हैं, उनके
लिए अनुभव सदा
मौलिक है। सदा
मौलिक है। जिनके
पास शास्त्र
ही हैं सिर्फ,
उनके लिए
अनुभव सदा
मौलिक है।
लेकिन जिनके
पास अनुभव है;
उनके लिए तो
पुराने और नए
का फासला गिर
जाता है।
इस
आखिरी बात को
समझ लें। असल
में, सब
द्वंद्व, जैसा
मैंने कहा, सुख और दुख
का; जैसा
मैंने कहा, शांति और
अशांति का, स्वतंत्रता
और परतंत्रता
का; वैसे
ही इस द्वंद्व
को भी समझ लें,
नए और
पुराने का।
सत्य न तो नया
है और न
पुराना।
क्योंकि नई
चीज वही होती
है, जो कभी
पुरानी हो
सके। और
पुराने का
मतलब ही यह
होता है कि कभी
नया रहा होगा।
आज जो नया है, कल पुराना
हो जाएगा। आज
जो पुराना है,
कल नया था।
सत्य न तो नया
है और न
पुराना। क्योंकि
सत्य न तो
पुराना हो
सकता है और न
नया हो सकता
है। इसलिए
सत्य को हम
कहते हैं
सनातन; उसको
हम कहते हैं
शाश्वत; उसको
हम कहते हैं, जो सदा है।
तो
सत्य के संबंध
में कोई मौलिक
नहीं हो सकता।
लेकिन सत्य के
संबंध में कोई
प्राचीन भी
नहीं हो सकता।
सत्य का अनुभव
समय के बाहर
है। नया और पुराना
समय के भीतर
घटते हैं।
सत्य कोई कपड़े
जैसा नहीं है; कल नया था, आज पुराना
हो गया। सत्य
आपकी आत्मा
है।
कभी
आपने खयाल किया
कि आपकी आत्मा
कब पुरानी हो
जाती है? कभी
आंख बंद करके
सोचा कि आपकी
आत्मा की उम्र
कितनी है? कितनी
पुरानी, कितनी
नई? एकदम
भीतर जाकर
खाली हो
जाएंगे। शरीर
की उम्र मालूम
होती है; शरीर
में
नया-पुराना
मालूम होता
है। भीतर तो कुछ
नया नहीं है, कोई पुराना
नहीं है। भीतर
तो कुछ है, बस
है--न नया, न
पुराना। या
कहें कि रोज
नया और रोज
पुराना।
सत्य
का अनुभव न तो
नया है, न
पुराना। और
ध्यान रखना, अनुभव की
बात कह रहा
हूं। शब्द तो
पुराने पड़ जाते
हैं; शब्द
नए होते हैं।
कृष्ण के शब्द
पुराने पड़ गए।
महावीर के
शब्द पुराने
पड़ गए। जिस
दिन महावीर ने
कहे थे, उस
दिन नए थे। उस
दिन वेद के
शब्द पुराने
थे। जिस दिन
बुद्ध बोले, उस दिन शब्द
नए थे, आज
तो पुराने पड़
गए। जिस दिन
बुद्ध बोले, वेद के शब्द
पुराने थे, बुद्ध के नए
थे। शब्द
पुराने और नए
हो जाते हैं, सत्य तो
पुराना और नया
नहीं होता। और
इसीलिए
उपद्रव पैदा
होता है।
जिनके पास
शब्दों की भीड़
होती है, उनके
पास सब पुराना
होता है। और
जब किसी का सत्य
का अनुभव
प्रकट होता है
तो वह बिलकुल
नया होता है।
और इस कारण
संघर्ष हो
जाता है।
इस जगत
में धार्मिक
आदमी का
संघर्ष
अधार्मिक आदमी
से नहीं है।
इस जगत में वास्तविक
संघर्ष
धार्मिक आदमी
का धार्मिक
पंडित-पुरोहित
से है।
अधार्मिक से
कोई झगड़ा
नहीं है।
अधार्मिक तो
कहता है, हम
बाहर हैं, इसमें
हम लेन-देन
में नहीं हैं।
धर्म के दो वर्ग
हैं। एक, जिनके
पास शब्दों की
शृंखला है, बासे शब्दों का
संग्रह है। और
एक, जिनके
पास अनुभव की
ताजी किरण है।
इनके बीच, इनके
बीच सारा
संघर्ष है।
अगर
आपको समझना हो
लाओत्से को तो
कृष्ण को, महावीर को, बुद्ध को
विदा दे दें।
विदा दे देने
का मतलब कोई
दुश्मन हो
जाना नहीं है।
विदा दे देने
का मतलब है, फिलहाल उनको
कहें कि भीतर
शोरगुल न मचाएं,
उनको अलग
करें। आप सीधे
लाओत्से को
समझें। और अगर
आपको कृष्ण को
समझना हो किसी
दिन तो
लाओत्से को विदा
दे दें। उसे
हट जाने दें, उसे बीच में
मत आने दें।
क्योंकि वे
बड़े अनूठे लोग
हैं। उनके
सबके शब्द
अपने, अनूठे
हैं, निज
हैं। उनकी
पहुंच, उनकी
यात्रा का पथ,
उनकी आंखें
बड़ी
भिन्न-भिन्न
हैं। उनका
अनुभव एक है; लेकिन अनुभव
तो आपको उस
दिन समझ में
आएगा, जब
आपको अनुभव
होगा, उसके
पहले नहीं।
उससे पहले एक
के शब्द को
दूसरे के बीच
में मत आने
दें।
नहीं
तो दो उपाय
हैं। दो उपाय
हैं, एक तो
उपाय यह है कि
जब आप लाओत्से
को सुनें, तो
आपको लगे कि
वेद गलत, कृष्ण
गलत, बुद्ध
गलत। पकड़ो
लाओत्से को, छोड़ो इनको। एक तो
उपाय यह है।
हिम्मतवर कोई
आदमी हो, साहसी
हो, एडवेंचरस हो, यह
करेगा। यह गलत
है। इतनी
जल्दी नहीं।
समझें। और
लाओत्से क्या
कहता है, उसको
प्रयोग करें।
कृष्ण को गलत
कहने से प्रयोग
नहीं होगा।
महावीर को छोड़
देने से
प्रयोग नहीं
हो जाएगा। लाओत्से
क्या कहता है,
उसका
प्रयोग करें।
जिस दिन
प्रयोग पूरा
होगा, उस
दिन आप पाएंगे
कि लाओत्से के
सही होने में कृष्ण,
महावीर, बुद्ध
सब सही हो गए।
एक सही हो जाए
अनुभव से, सब
सही हो जाते
हैं।
लेकिन
हम होशियार
लोग हैं। अनुभव
की झंझट में
नहीं पड़ते।
ऊपर ही
हेर-फेर कर
लेते हैं, लेबल बदल
देते हैं--हटाओ
यह लेबल, अब
दूसरा लगा लो।
भीतर का कंटेंट
वही का वही
बना रहता है।
उसमें कभी कोई
फर्क नहीं
होते। कभी
लाओत्से का
लेबल जंचा तो
वह लगा लिया; कभी नहीं
जंचा तो हटा
दिया। बड़ी
जल्दी करते
हैं।
एक
मित्र मेरे
पास आए।
दो-चार दिन से
ध्यान शुरू
किया था। जिस
दिन लाओत्से
का सूत्र आया
कि ध्यान की
भी कोई जरूरत
नहीं है
क्योंकि
ध्यान भी
क्रिया है, वे मेरे पास
आए और
उन्होंने कहा
कि बड़ा अच्छा हुआ,
हम दो-चार
दिन से ही
शुरू किए थे, छोड़ दिया।
एक
मित्र संन्यास
लेने आने वाले
थे। एक दिन
पहले कह कर गए
थे कि कल सुबह
आकर मैं
संन्यास में
प्रवेश करता
हूं। लेकिन
उसी दिन शाम
को लाओत्से का
सूत्र था, जिसमें
मैंने कहा कि
लाओत्से ने
कभी संन्यास नहीं
लिया। वे फिर
दूसरे दिन आए
ही नहीं। वे समझ
गए, बात
ठीक हो गई।
आदमी
बहुत चालाक
है। जिन मित्र
ने ध्यान छोड़
दिया चार दिन
करके, मैंने
उनसे पूछा, लाओत्से को
समझ कर और
क्या छोड़ दिया?
उन्होंने
कहा, और तो
कुछ नहीं, ध्यान
से ही शुरू
करता हूं।
ध्यान
को अभी पकड़ा
भी नहीं था, पाया भी
नहीं था; छोड़ना
तो बहुत
मुश्किल है।
जो तुम्हारे
पास हो, वही
छोड़ा जा सकता
है। मैंने
उनसे पूछा, ध्यान
तुम्हें मिल
गया? उन्होंने
कहा, अभी
तीन-चार दिन
से ही शुरू
किया है। जो
है ही नहीं, उसे छोड़
दिया। छोड़ना
चाहते होंगे,
लाओत्से
बहाना बन गया।
हम बड़े
होशियार लोग
हैं। संन्यास
लेने में डर
लग रहा होगा, लाओत्से ने
हिम्मत दे दी
कि ठीक, संन्यास
की क्या जरूरत
है! अपने डर को
लाओत्से के
ज्ञान से जोड़
लिया। यह
ज्ञान नहीं
है। यह डर ही
है, भय ही
है। इस सब
बेईमानी को
ध्यान में
रखना जरूरी
है।
तो मैं
कहता हूं कि
छोड़ दें कृष्ण
को, बुद्ध को,
महावीर को;
जब लाओत्से
को समझ रहे
हैं तो लाओत्से
को समझ लें।
और अगर
लाओत्से ठीक
लगता हो तो
समग्रता से
उसके प्रयोग
में उतर जाएं।
एक दिन आप
पाएंगे, बुद्ध
छूटे नहीं, कृष्ण छूटे
नहीं, सब
पा लिए। कृष्ण
ठीक लगते हों,
कृष्ण को चल
पड़ें। लेकिन
चलें।
अक्सर
हम ऐसे लोग
हैं, रास्ते
के किनारे
बैठे हैं और
वहीं बैठ कर
बदलते रहते
हैं--कौन
अच्छा लगता है,
कौन बुरा
लगता है। चलते
नहीं हैं। और
हमारी बदलाहट
भी हम तभी
करते हैं, जब
हमें ऐसा डर
लगता है कि अब
कोई हमें चला
ही देगा। उस
वक्त हम बदल
लेते हैं कि
अब दूसरे को पकड़
लेना ठीक है, जो अभी
आश्वासन देता
हो कि बैठे
रहो।
आदमी आत्मवंचक
है। और इस जगत
में हम दूसरे
को कोई धोखा
नहीं दे पाते, अपने को
जीवन भर देते
हैं, जन्मों-जन्मों
देते हैं। और
हम इतने कुशल
हैं कि अपने
मतलब का अर्थ
निकाल लेते
हैं।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी शराब
पीता था।
कुरान का बड़ा
भक्त था। उससे
किसी फकीर ने
पूछा कि तुम
कुरान के इतने
भक्त हो और
शराब पीते हो? उस आदमी ने
कुरान खोली और
कहा कि देखो, कुरान में
क्या लिखा है!
कुरान में
लिखा है, शराब
पीने से
प्रारंभ करो
और तुम्हारा
अंत नरक में
होगा। उसने
कहा, यह
वाक्य देखो!
उस फकीर ने
कहा, यह
वाक्य दिखाई
पड़ रहा है, लेकिन
तुम्हारे
खिलाफ है।
उसने कहा, लेकिन
मैं अभी आधे
वाक्य तक ही
पहुंचा हूं।
शराब पीना
शुरू करो, यह
कुरान का आदेश
है। और मेरा
अभी पूरा
वाक्य मानने
का सामर्थ्य
नहीं है।
लेकिन जितना
बने, उतना
तो मानना ही
चाहिए। कोशिश
करते-करते दूसरे
आधे हिस्से तक
भी कभी, आप
लोगों की कृपा
रही, पहुंच
जाऊंगा।
हम सब
बहुत होशियार
हैं। हम चुन
लेते हैं, क्या हमारे
मतलब का है।
और तब हम धोखा
खा जाते हैं।
लाओत्से
को समझना है
तो मन को साफ
कर लें सब जानकारी
से; कृष्ण को
समझना है तो
मन को साफ कर
लें सब जानकारी
से। उनको समझ
लें; और
समझ लें करने
के लिए।
पंडित
समझता है
तुलना करने के
लिए, करने के
लिए नहीं। वह
समझता है कि
ठीक, अच्छा
लाओत्से ने यह
कहा, कृष्ण
ने क्या कहा, बुद्ध ने
क्या कहा।
किसने क्या
कहा, वह
इसका हिसाब
लगाता है।
बुद्ध
कहते थे कि
मेरे गांव में
एक आदमी था जो रास्ते
के किनारे बैठ
कर रोज सुबह
जंगल जाती हुई
गाय-भैंसों को
गिनता था, सांझ आती
गाय-भैंसों को
गिनता था।
मैंने उससे पूछा
कि तू बड़ा
हिसाब लगाता
है, बात
क्या है? उसने
कहा कि इतनी
गाएं सुबह गईं,
इतनी सांझ
लौटीं। बुद्ध
ने पूछा, इसमें
तेरी कितनी
हैं? उसने
कहा, मेरी
तो एक भी
नहीं। ये तो
गांव की हैं, मैं तो ऐसे
बैठ कर गिनती
करता रहता
हूं। तो बुद्ध
ने कहा कि वह
आदमी मुझे कई
बार जिंदगी
में मिलता है,
बहुत-बहुत
रूपों में।
कुछ
लोग हिसाब
लगाते रहते
हैं--वेद ने
क्या कहा, कुरान ने
क्या कहा, बाइबिल
ने क्या कहा।
आपकी गाएं
कितनी हैं? आपका अनुभव
कितना है? ऐसा
किसने क्या
कहा, और
किसने किसके
विपरीत कहा और
अनुकूल कहा, और कौन
किसके साथ एक
है, और
किसकी शैली
भिन्न है, और
किसके शब्द
भिन्न हैं, इस सब गोरखधंधे
से क्या मिलने
वाला है?
आज
इतना ही। अब
पांच मिनट
कीर्तन करें।
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