प्रश्न-सार
1-क्या
रुकने के लिए
दौड़ना जरूरी
नहीं?
2-सांसारिक
और
आध्यात्मिक
वासना में भेद
क्या?
4-आत्म-हीनता
और
आत्म-विश्वास
क्यों?
5-क्या
ऐसी शिक्षा
संभव है जो
आवरण न बने?
6-जिज्ञासा
के लिए क्या
पूर्व-ज्ञान
आवश्यक नहीं
है?
8-हम
धार्मिक ही
क्यों हों?
एक
मित्र ने पूछा
है: क्या
रुकने के लिए
दौड़ना जरूरी
नहीं है?
जरूरी
है। लेकिन आप
दौड़ ही रहे
हैं। आप काफी
दौड़ लिए हैं।
लंबे जन्मों
की दौड़ आपके
पीछे है; उसका
ही आप परिणाम
हैं। अब और
दौड़ना जरूरी
नहीं है; अब
रुकना जरूरी
है। लेकिन
हमारा मन खुद
को धोखा देने
के लिए बहुत
तरकीबें
निकाल लेता
है।
एक
धर्मगुरु ने
छोटे बच्चों
को बहुत
समझाया कि पाप
से मुक्त होना
हो,
तो
प्रायश्चित्त
करना चाहिए, प्रार्थना
करनी चाहिए, परमात्मा के
समक्ष अपना
अपराध
स्वीकार करना चाहिए,
कसम लेनी
चाहिए कि
दुबारा ऐसा
अपराध नहीं
करेंगे। बहुत
समझाने के बाद
उसने बच्चों
से पूछा कि
पाप से मुक्त
होने के लिए
क्या जरूरी है?
तो एक
छोटे बच्चे ने
कहा,
पाप करना
जरूरी है।
निश्चित
ही,
पाप से
मुक्त होने के
लिए पाप करना
तो जरूरी है
ही। लेकिन पाप
करने से ही
कोई मुक्त
नहीं हो
जाएगा। पाप
करने के बाद
कुछ और भी
करना होगा।
निश्चित ही, रुकने के
लिए दौड़ना
जरूरी है।
लेकिन दौड़ने
से ही कोई
नहीं रुक
जाएगा। और दौड़
तो चल ही रही
है। जिसे हम
जीवन कहते हैं,
वह दौड़ है।
इसलिए अपने मन
को ऐसा मत
समझाना कि मैं
रुकने के लिए दौड़
रहा हूं।
रुकने को हम
भविष्य के लिए
स्थगित कर
सकते हैं--कि
अभी दौड़ लें
काफी, फिर रुकेंगे।
लेकिन दौड़ हम
काफी लिए हैं।
देर वैसे ही
काफी हो चुकी
है।
यह हो
सकता है, हमारा
मन अभी दौड़ने
से न भरा हो।
मन कभी भरता भी
नहीं। जो भर
जाए, वह मन
ही नहीं है।
मन तो दौड़ाता
ही रहेगा। एक
दिशा बदलेगा,
दूसरी दिशा
बदलेगा। एक
लक्ष्य
बदलेगा, दूसरा
लक्ष्य
बदलेगा। मन तो
दौड़ाता
ही रहेगा।
लेकिन
अगर यह दौड़
दुख हो, संताप
हो, पीड़ा
हो? और है।
दौड़ सिवाय दुख
के और कुछ हो
नहीं सकती। लेकिन
हमारे मन की
तर्कणा यह है
कि हम सोचते
हैं, दुख
इसलिए है कि
हम थोड़ा धीमे
दौड़ रहे हैं।
जरा जोर से दौड़ें,
तो पहुंच
जाएं मंजिल पर;
दुख क्यों
हो! या हम
सोचते हैं कि
दुख इसलिए है कि
दूसरे हम से
तेज दौड़ रहे
हैं, वे
पहले पहुंच
जाते हैं और
हम चूक जाते
हैं। या हम
सोचते हैं कि
दौड़ तो बिलकुल
ठीक है; रास्ता
हमने गलत चुन
लिया है, जिस
पर हम दौड़ रहे
हैं। जो ठीक
रास्ता चुन
लेते हैं, वे
पहुंच जाते
हैं। या हम
सोचते हैं कि
दौड़ तो ठीक ही
है, रास्ता
भी ठीक है; लेकिन
जो हम पाना
चाहते हैं, विषय हमारी
वासना का, शायद
वह गलत है। धन
को बदल लें
धर्म से, संसार
को बदल लें
अध्यात्म से,
तो फिर दौड़
पूरी हो सकती
है।
नहीं
होगी। दौड़ ही
गलत है। न तो
रास्ते गलत हैं, न
दौड़ने वाला
गलत है, न
दौड़ने का ढंग
और गति गलत है,
और न जिसके
लिए हम दौड़
रहे हैं वह
लक्ष्य गलत है।
दौड़ ही गलत
है।
अगर
लाओत्से को
ठीक से समझें, तो
लाओत्से कहता
है, सक्रियता
ही भूल है।
दौड़ ही गलत
है। रुक जाना और
विश्राम और
निष्क्रिय
में डूब जाना
ही सही है।
इसलिए कोई सही
दौड़ नहीं
होती।
लाओत्से के हिसाब
से कोई सही
दौड़ नहीं
होती। दौड़
मात्र गलत है।
रुकना मात्र
सही है। कोई
रुकना गलत
नहीं होता; लाओत्से के
हिसाब से कोई
रुकना गलत
नहीं होता।
क्योंकि कोई
दौड़ सही नहीं
होती। सभी सक्रियताएं
गलत हैं।
निष्क्रियता
ही परम स्वभाव
है।
एक
दूसरे मित्र
ने पूछा है कि
आप सांसारिक
वासना को और
आध्यात्मिक
वासना को एक
ही कह रहे हैं!
सांसारिक
वासना तो
क्षुद्र चीज
है। आध्यात्मिक
वासना तो बहुत
ऊंची, महत्व
की बात है। और
आध्यात्मिक
वासना पानी हो,
तो
सांसारिक
वासना छोड़नी
पड़ती है।
लाओत्से
को अगर
समझेंगे, तो
लाओत्से कहता
है, कोई
वासना
सांसारिक
नहीं होती, कोई वासना
आध्यात्मिक
नहीं होती।
वासना संसार
है और
निर्वासना
अध्यात्म है।
इसलिए
सांसारिक
वासना का कोई
मतलब नहीं
होता। और
आध्यात्मिक
वासना का भी
कोई मतलब नहीं
होता। वासना
ही संसार है।
तो जब तक आप
वासना में हैं,
तब तक आप
संसार में
हैं। वह वासना
मोक्ष को पाने
की हो, तो
भी आप
सांसारिक
हैं। और जब आप
वासना में नहीं
हैं, तब
चाहे आप संसार
में ही हों, आप मोक्ष
में हैं।
इसे
ऐसा समझें कि
वासना का
संबंध विषयों
से,
आब्जेक्ट्स
से नहीं है।
वासना का
संबंध, क्या
आप मांगते हैं,
इससे नहीं
है; मांगते
हैं, इससे
है। आप क्या
मांगते हैं, यह असंगत है,
इररेलेवेंट है। धन
मांगते हैं, धर्म मांगते
हैं; यश
मांगते हैं कि
मोक्ष मांगते
हैं; मांगते
हैं जब तक, तब
तक आप संसार
में हैं। जहां
आप नहीं
मांगते, आप
मोक्ष में
हैं। इसलिए
मोक्ष मांगा
नहीं जा सकता।
जो नहीं
मांगता है, वह मोक्ष को
पा जाता है।
मोक्ष की
वासना नहीं हो
सकती। जिसकी
वासना छूट
जाती है, वह
मुक्त हो जाता
है।
तो
मोक्ष किसी
वासना का
परिणाम नहीं
है। किसी दौड़
की अंतिम
मंजिल नहीं है
मोक्ष। किसी
भी दौड़ में
रुक जाने का
नाम मोक्ष है।
किसी भी दौड़ में
कोई ठहर जाए, वह
मुक्त हो गया।
तो मोक्ष किसी
यात्रा का गंतव्य
नहीं है, अंत
नहीं है। जहां
रास्ता
समाप्त होता
है, वह मंजिल
नहीं है
मोक्ष। जहां
दौड़ नहीं रह
जाती, वहीं
मोक्ष है। तो
जहां भी आप
रुक जाएं, रास्ते
पर ही इसी
वक्त रुक जाएं,
वहीं मोक्ष
है। जब भी
चेतना ठहर
जाती है...। और वासना
में चेतना कभी
नहीं ठहरती।
वासना का अर्थ
ही है, चेतना
दौड़ती रहेगी।
इसलिए
लाओत्से
सांसारिक और
आध्यात्मिक
वासनाएं नहीं
मानता। इसलिए
आध्यात्मिक
लोगों को
लाओत्से से
बड़ी परेशानी
होती है; क्योंकि
वे अपने मन
में मान कर
बैठे हैं कि
हमने
सांसारिक
वासना छोड़ दी
और ऊंची वासना
पकड़ ली। कोई
वासना ऊंची
नहीं होती।
कोई जहर ऊंचा
नहीं होता।
कोई पाप ऊंचा
नहीं होता। जहर
बस जहर है।
वासना वासना
है। हां, एक
खतरा है। ऊंचा
जहर तो नहीं
होता, शुद्ध
और अशुद्ध जहर
हो सकता है।
मिलावट हो, तो अशुद्ध
होता है।
मिलावट न हो, तो शुद्ध
होता है।
संसार की
वासना अशुद्ध
जहर है। मोक्ष
की वासना
शुद्ध जहर है।
इससे
उन मित्र को
परेशानी हुई
कि आप
आध्यात्मिक
वासना को
सांसारिक
वासना से बुरी
कह रहे हैं!
कारण
है कहने का।
क्योंकि
संसार और
वासना के साथ
तो तालमेल है; संसार
में वासना तो
संगत है।
मोक्ष के साथ
वासना का कोई
तालमेल ही
नहीं है; बिलकुल
असंगत है। तो
संसार और
वासना में तो
एक संगीत है; क्योंकि संसार
हो ही नहीं
सकता वासना के
बिना। लेकिन
मोक्ष और
वासना में तो
कोई लेन-देन
नहीं है।
इसलिए
जो आदमी मोक्ष
की वासना में
पड़ा है, वह
बिलकुल शुद्ध
जहर में पड़ा
हुआ है। वहां
कुछ है ही
नहीं। एक दफा
संसार में
दौड़ने वाला
संसार को पा
भी ले, मोक्ष
के लिए दौड़ने
वाला मोक्ष को
कभी नहीं पा
सकता। धन की
तरफ दौड़ने वाला,
धन की वासना
करने वाला धन
को पा ले, इसमें
कोई बड़ी
आश्चर्य की
बात नहीं है।
सभी पा लेते
हैं। लेकिन
मोक्ष की तरफ
दौड़ने वाले ने
कभी मोक्ष
नहीं पाया है।
वह असंभव है।
इसलिए
जो आदमी वासना
को मोक्ष की
तरफ लगाता है, वह
तो बहुत
खतरनाक काम कर
रहा है। वह तो
वासना को ऐसी
जगह लगा रहा
है कि वह कभी
भी सफल नहीं
हो सकती।
संसार में तो
सफल हो भी
सकती है।
संसार में
वासना सफल भी
होती है, असफल
भी होती है।
कोई पा लेता
है, कोई
नहीं पाता है।
मोक्ष में
वासना की
सफलता का उपाय
ही नहीं है। क्योंकि
मोक्ष का अर्थ
ही निर्वासना
है। मोक्ष और
वासना में
कहीं कोई
संबंध नहीं जुड़ता।
इसलिए
सांसारिक
उतनी बड़ी भूल
में नहीं है
जितना
तथाकथित
आध्यात्मिक
भूल में है, क्योंकि
वह जो खोज रहा
है वह संभव
है। और आध्यात्मिक
जो खोज रहा है,
वह असंभव
है। तो एक
आदमी अगर बाजार
में बैठ कर धन
और यश खोज रहा
है, असंभव
की तलाश नहीं
है वह, संभव
है। लेकिन एक
आदमी मंदिर
में बैठ कर
परमात्मा को
खोज रहा है, एक आदमी वन
में बैठ कर
मोक्ष को खोज
रहा है, वह
असंभव को खोज
रहा है।
असल
में,
परमात्मा
खोजा नहीं
जाता; जब
खोज बंद हो
जाती है, तो
वह यहीं मौजूद
है। खोज के
कारण ही वह
दिखाई नहीं पड़ता।
जैसे एक आदमी
तेजी से दौड़
रहा हो इस कमरे
में और खोज
रहा हो, उसकी
दौड़ के कारण
ही चीज दिखाई
न पड़ती हो।
उसकी तेज इतनी
हो दौड़ कि कुछ
दिखाई न पड़ता
हो।
जैसे
एक आदमी बैलगाड़ी
में सफर करता
है,
तो आस-पास
के दृश्य दिखाई
पड़ते हैं। फिर
हवाई जहाज में
सफर करता है, तो डिटेल्स
खो जाते हैं।
फूल नहीं
दिखाई पड़ते, वृक्ष नहीं
दिखाई पड़ते; जंगल दिखाई
पड़ते हैं।
विस्तार खो
जाता है। सूक्ष्मताएं
खो जाती हैं।
फिर एक आदमी
राकेट में
यात्रा करता
है, तब
जंगल भी खो
जाते हैं, तब
कुछ दिखाई नहीं
पड़ता। जितनी
हो जाती है
तेज गति, उतनी
ही दृष्टि
अंधी हो जाती
है। फिर कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। जितनी
हो जाती है
तेज दौड़ वासना
की, उतनी
ही आंखें अंधी
हो जाती हैं।
दौड़ का धुआं और
दौड़ की धूल
इतनी भर जाती
है, कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता।
और
जिसको हम खोज
रहे हैं, वह
केवल तभी
दिखाई पड़ता है
जब आंखों पर
कोई धुआं न हो,
कोई धूल न
हो, इतना
विश्राम में
हो मन कि जरा
सी भी चहल-पहल
न हो, जरा
सी भी तरंग न
हो बाधा डालने
को। सब हो
शून्य, मन
बिलकुल झील की
तरह शांत हो; तत्क्षण
उसकी तस्वीर,
तत्क्षण
उसका
प्रतिबिंब बन
जाता है।
तत्क्षण वह दिखाई
पड़ने लगता है।
तो
लाओत्से कहता
है,
वासना
संसार है।
इसलिए कोई
वासना
आध्यात्मिक
नहीं होती। और
जो वासना को
अध्यात्म का
रंग देते हैं,
वे अपने को
बड़े से बड़ा
धोखा दे रहे
हैं। सांसारिक
क्षम्य हैं, तथाकथित
आध्यात्मिक
अक्षम्य हैं।
क्योंकि उन्होंने
संसार की विधि
को, और
परमात्मा पर
लगाया हुआ है।
विधि संसार की
है, ढंग
संसार का है, और आकांक्षा
परमात्मा की
है। वासना, लोभ सब
सांसारिक है,
और इच्छा
परमात्मा की
है।
हम
संसार को
परमात्मा की
तरफ नहीं मोड़
सकते। हम
सांसारिक
वृत्तियों को
अध्यात्म की
तरफ नहीं मोड़
सकते।
सांसारिक वृत्तियां
विलीन हो जाएं
तो जो शेष रह
जाता है, वही
अध्यात्म है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि लाओत्से
ने जिस शुद्ध परम
सत्य की चर्चा
की है, धारणा
मात्र को
प्रक्षेप
माना है और
स्वभाव में ले
जाने में
धारणा मात्र
से बाधा पड़ती
है; इस
परिप्रेक्ष्य
में क्या धर्म
या सत्य सदा
हम साधारण
लोगों की
पहुंच के बाहर
ही रहेगा? और
क्या लाओत्से
कथित सरल, सहज
स्वभाव का
आलिंगन अति
दुर्लभ ही बना
रहेगा?
साधारण
मनुष्य की पकड़
के बिलकुल
बाहर नहीं है; जिसको
असाधारण होने
का भ्रम है, उसकी पकड़ के
बाहर है।
साधारण आदमी
बड़ी दुर्लभ बात
है। उसे खोजना
बहुत मुश्किल
है। असाधारण
तो सभी हैं।
एक-एक से पूछ
कर देख लें, सभी असाधारण
हैं। ऐसा आदमी
कभी आपको मिला
है, जो
साधारण हो?
और अगर
कभी कोई कहता
भी है कि मैं
साधारण हूं, तो
वह कहता है, मैं अति
साधारण हूं।
अति साधारण का
मतलब: साधारणों
में भी मैं
असाधारण हूं।
हर आदमी अपने
को असाधारण
मान कर चलता
है। साधारण
कोई भी नहीं
अपने को मान
कर चलता।
लाओत्से
कहता है, साधारण
हो जाओ और तुम
पा लोगे।
तुम्हारा
असाधारण होना
ही तुम्हारी
बाधा है।
असाधारणता
क्या है हमारी? कोई
आदमी धन
ज्यादा कमा
लेता है, तो
असाधारण है।
कोई आदमी ज्ञान
ज्यादा
इकट्ठा कर
लेता है, तो
असाधारण है।
कोई आदमी
त्याग ज्यादा
कर लेता है, तो असाधारण
है। कभी आपने
खयाल किया, हमारी
असाधारणता
हमारे करने की
मात्रा पर निर्भर
होती है। तो
जो जितना कर
लेता है, उतना
असाधारण हो
जाता है।
और
लाओत्से कहता
है,
न करने से
पाया जाएगा वह
सत्य। इसलिए
असाधारण तो
उसे कभी नहीं
पा सकते; क्योंकि
असाधारण का
अर्थ ही होता
है, जिन्होंने
कुछ किया है।
साधारण उसे पा
लेंगे, जिन्होंने
कुछ भी नहीं
किया है।
लेकिन साधारण
आदमी खोजना
अति दुर्लभ
है। यह बड़े
मजे की बात है,
सबसे
साधारण धारणा
यही है कि
प्रत्येक
आदमी अपने को
असाधारण
मानता है। कहे,
न कहे; बताए,
न बताए; अपने
भीतर हर आदमी
मानता है, वही
केंद्र है
सारे विश्व
का। हर आदमी
अपने को मानता
है कि वह
अपवाद है, नियम
नहीं। हर आदमी
अपने को गौरीशंकर
का शिखर मानता
है; और इस
शिखर को सिद्ध
करने में
सक्रिय रहता है।
जो सिद्ध नहीं
कर पाते हैं, उन्हें बड़ी
पीड़ा होती है,
बड़ी ग्लानि,
बड़ी दीनता
होती है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि आत्महीनता, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स
क्यों पैदा
होता है?
इसीलिए
पैदा होता है, आप
मानते तो हैं
अपने को गौरीशंकर
और सिद्ध नहीं
कर पाते। आप
मानते तो हैं
कि जगत के
केंद्र हैं, लेकिन सिद्ध
नहीं कर पाते।
फिर हीनता
पैदा होती है।
हीनता पैदा ही
उन्हें होती
है, जिनके
मन में
श्रेष्ठ होने
का भाव है।
उलटा लगेगा; लेकिन हमने
जीवन को ऐसा
ही उलटा कर
लिया है कि उसमें
सीधी-साफ
बातें कहनी
हों, तो
उलटी मालूम
होती हैं। जिस
आदमी को भी
श्रेष्ठ होने
का भाव है, उसे
हीनता का बोध
पैदा हो
जाएगा। उसे
लगेगा मैं कुछ
भी नहीं हूं, क्योंकि
मानता है वह
इतना अपने को
और उतना सिद्ध
नहीं कर पाता
है। फिर पीड़ा पकड़ती है
मन को कि मैं
कुछ भी न कर
पाया।
एक
मित्र ने पूछा
है कि मुझमें
आत्मविश्वास
नहीं है; वह
कैसे पैदा हो?
पैदा
करना ही मत।
आत्म-विश्वास
पैदा करने का
मतलब ही क्या
होता है? मैं
कुछ हूं! मैं
कुछ करके दिखा
दूंगा!
आत्म-विश्वास
का मतलब यह
होता है कि
मैं साधारण
नहीं हूं, असाधारण
हूं। और हूं
ही नहीं, सिद्ध
कर सकता हूं।
सभी पागल
आत्म-विश्वासी
होते हैं।
पागलों के
आत्म-विश्वास
को डिगाना बहुत
मुश्किल है।
अगर एक पागल
अपने को
नेपोलियन
मानता है, तो
सारी दुनिया
भी उसको हिला
नहीं सकती कि
तुम नेपोलियन
नहीं हो। उसका
भरोसा अपने पर
पक्का है।
आत्म-विश्वास
की जरूरत क्या
है?
क्यों
परेशानी होती
है कि
आत्म-विश्वास
नहीं है? क्योंकि
तुलना है मन
में कि दूसरा
आदमी अपने पर
ज्यादा
विश्वास करता
है, वह सफल
हो रहा है; मैं
अपने पर
विश्वास नहीं
कर पाता, मैं
सफल नहीं हो
पा रहा हूं।
वह इतना कमा
रहा है; मैं
इतना कम कमा
रहा हूं। वह सीढ़ियां चढ़ता जा
रहा है, राजधानी
निकट आती जा रही
है; मैं
बिलकुल पीछे
पड़ा हुआ हूं। पिछड़ गया
हूं।
आत्म-विश्वास
कैसे पैदा हो?
कैसे अपने
को बलवान
बनाऊं? क्या
मतलब हुआ? आत्म-विश्वास
का मतलब हुआ
कि आप दूसरे
से अपनी तुलना
कर रहे हैं और
इसलिए परेशान
हो रहे हैं।
आप आप
हैं,
दूसरा
दूसरा है। अगर
आप जमीन पर
अकेले होते, तो क्या कभी
आपको पता चलता
कि
आत्म-विश्वास
की कमी है? अगर
आप अकेले होते
पृथ्वी पर, तो क्या
आपको पता चलता
कि मुझमें
हीनता का भाव
है, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स
है? कुछ भी
पता न चलता।
तब आप साधारण
होते। साधारण
का मतलब, आपको
यह भी पता न
चलता कि आप
साधारण हैं।
सिर्फ होते।
जिसको यह भी
पता चलता है
कि मैं साधारण
हूं, उसने
असाधारण होना
शुरू कर दिया।
आप हैं, इतना
काफी है।
आत्म-विश्वास
की जरूरत नहीं
है, आत्मा
पर्याप्त है।
आप हैं। क्यों
तौलते हैं दूसरे
से?
फिर
दिक्कतें खड़ी
होंगी। किसी
की नाक आपसे
बेहतर है, दीनता
पैदा हो
जाएगी। किसी
की आंख आपसे
बेहतर है, दीनता
पैदा हो
जाएगी। किसी
की लंबाई
ज्यादा है, दीनता पैदा
हो जाएगी।
किसी ने मकान
बड़ा बना लिया,
दीनता पैदा
हो जाएगी। फिर
हजार दीनताएं
पैदा हो
जाएंगी। फिर
जितने लोग
आपको दिखाई पड़ेंगे,
उतनी दीनताएं
आपके भीतर
पैदा हो जाएंगी।
उनका जोड़
इकट्ठा हो
जाएगा। और
आपकी मान्यता
है कि आप हैं गौरीशंकर!
अब बड़ी कठिनाई
खड़ी होगी। आप
हैं जगत के
सबसे बड़े शिखर;
और हर आदमी
जो मिलता है, वह बता जाता
है कि आप एक
खाई हैं, एक
खड्ड हैं। तो
आपकी यह
स्थिति कि
खड्ड-खाई चारों
तरफ और आपका
यह भाव कि मैं
हूं गौरीशंकर
का शिखर, इन
दोनों के बीच
जो खिंचाव
पैदा होगा, वही आदमी की
बीमारी है।
वही रोग है, जिसमें हर
आदमी सड़
जाता है, मर
जाता है, मिट
जाता है।
दूसरे से
तौलते क्यों
हैं?
बोकोजू
से किसी ने
आकर पूछा है
कि मैं शांत
नहीं हूं, आप
शांत हैं। मैं
अशांत हूं, आप शांत हैं;
मैं कैसे आप
जैसा हो जाऊं?
बोकोजू ने
कहा, अगर
मैं भी किसी
से पूछता कि
मैं कैसे आप
जैसा हो जाऊं,
तो कभी का
अशांत हो गया
होता। एक ही
तरकीब है मेरी
कि मैंने किसी
से कभी पूछा
नहीं कि मैं
तुम जैसा कैसे
हो जाऊं। मैं
जैसा हूं, हूं।
तुम जैसे हो, तुम हो।
इनमें मैंने
कभी कुछ और
बदलाहट न
चाही।
उस
आदमी ने कहा
कि मुझे ऊंची
बातों की
जरूरत नहीं; मुझे
सीधा रास्ता
बता दें। आप
हैं शांत, मैं
हूं अशांत; मैं शांत
कैसे हो जाऊं?
बोकोजू ने
कहा, तू
रुक; जरा
लोग चले जाएं,
तो तुझे बताऊं।
फिर लोग आए, गए; दिन
बीत गया, सांझ
होने लगी। उस
आदमी ने कहा, अब तो बहुत
देर भी हो गई; अब जल्दी
मुझे बता दें।
बोकोजू उसे
लेकर बाहर आया
और उसने कहा
कि देख, मेरे
मकान के पीछे
एक छोटा वृक्ष
है और एक बड़ा वृक्ष
है। वर्षों हो
गए मुझे इस
मकान में रहते,
मैंने कभी
छोटे वृक्ष को
बड़े वृक्ष से
पूछते नहीं
देखा कि तू
बड़ा है, मैं
छोटा हूं; मैं
बड़ा कैसे हो
जाऊं? इसलिए
बड़ी शांति है।
बड़ा बड़ा है, होगा बड़ा; छोटा छोटा
है। और यह भी
हम आदमी सोचते
हैं कि यह
छोटा है और यह
बड़ा है। छोटे
को छोटे होने
का पता नहीं
है; बड़े को
बड़े होने का
पता नहीं है।
इसलिए बड़ा सन्नाटा
है; कभी कोई
विवाद नहीं, कोई संघर्ष
नहीं, कोई
उपद्रव नहीं।
मैं मैं हूं, तू तू है। और
यह तू छोड़ दे
खयाल कि तू
दूसरे जैसा
कैसे हो जाए।
वह
आदमी बोला कि
कैसे छोड़ दूं? मैं
बहुत अशांत
हूं! बोकोजू
ने कहा कि
तेरी अशांति
का कारण मैं
तुझे बता रहा
हूं। दूसरे से
जो अपने को तौलेगा,
वह अशांत
रहेगा ही।
लाओत्से
कहता है, अपने
को स्वीकार कर
लो।
अस्वीकृति
में ही सारा
उपद्रव है। और
हममें से कोई
अपने को
स्वीकार नहीं
करता, कोई
नहीं। और जो
जितना अपने को
अस्वीकार
करता है, उतना
बड़ा महात्मा
मालूम होता
है। हममें से
कोई अपने को
स्वीकार नहीं
करता। हम सब
अपने दुश्मन
हैं। हमारा बस
चले, तो हम
सब काट-पीट कर
अलग कर दें
अपने में से।
हम
सबको दूसरे
स्वीकार हैं, स्वयं
की कोई
स्वीकृति
नहीं है। और
जिनको हम स्वीकार
कर रहे हैं, जरा उनकी
तरफ झांक कर
देखो। वे भी
अपने को स्वीकार
नहीं किए हुए
हैं; वे
दूसरों को स्वीकार
कर रहे हैं।
अगर एक-एक
आदमी का मन
खोल कर सामने
रखा जा सके, तो एक ही
बीमारी
मिलेगी कि कोई
अपने को
स्वीकार नहीं
करता है--कोई!
और जो अपने को
स्वीकार करता
है, उसकी
फिर कोई
बीमारी नहीं
है। क्योंकि
जहां तुलना
नहीं है, वहां
दीनता कैसी, हीनता कैसी,
श्रेष्ठता कैसी?
असाधारण
कौन, साधारण
कौन?
वह तो
अच्छा है कि
हम आदमियों से
ही तुलना करते
हैं। नहीं तो
गुलाब में
गुलाब का फूल
खिला है, हम
छाती पीटें
कि हममें अब
तक एक फूल भी
नहीं खिला!
बड़े हीन हो गए!
आकाश में चांद
निकला है; हम
आंसू बहा रहे
हैं कि ऐसी
रोशनी कभी
हमारे चेहरे
से न निकली! वह
तो अच्छा है
कि हमने अपनी
बीमारी आदमी
तक ही सीमित
रखी है। अगर
हम फैला लें, तो हमें कोई
भी दीन-हीन कर
जाएगा। एक
छोटी सी तितली
उड़ रही होगी, और उसके
पंखों का रंग
हमें हीन कर
जाएगा। एक हिरण
दौड़ रहा होगा,
और उसकी गति
और उसकी चमक
हमें दीन कर
जाएगी। सड़क के
किनारे एक
छोटा सा पत्थर
चमक रहा होगा
वर्षा में, और उसकी चमक
हमें फीका कर
जाएगी। तो
अच्छा है कि
हम आदमियों से
ही तौलते हैं।
तौलेंगे, तो
दीन हो
जाएंगे।
दोहरी बीमारी
है। खुद को माने
बैठे हैं शिखर;
और फिर
तौलते हैं, तो दीनता
पैदा होती है।
तो दो स्थितियां
तनाव की बन
जाती हैं। गङ्ढ
दिखाई पड़ता है
वस्तुतः और
कल्पना में
दिखाई पड़ता है
शिखर। दोनों
के बीच कहीं
कोई तालमेल नहीं
बैठता। जीवन
इसी में टूट
जाता है।
लाओत्से
कहेगा कि
साधारण हो, इससे
शुभ और कुछ भी
नहीं।
स्वीकार कर लो
अपनी साधारणता।
लेकिन
हर कोई हमें
समझा रहा है, कुछ
बन कर दिखाओ!
यह बन जाओ, वह
बन जाओ; ऐसे
बन जाओ, वैसे
बन जाओ। बचपन
से मां-बाप
पीछे पड़े हैं,
कुछ बन कर
दिखाओ।
शिक्षक पीछे
पड़े हैं, कुछ
बन कर दिखाओ।
क्या साधारण
ही रह जाओगे? संसार में
आए हो, कुछ
करके दिखाओ।
बड़े
आश्चर्य की
बात है, जिन्होंने
करके दिखाया
है, वे कब्रों
में पड़े हैं
वैसे ही।
जिन्होंने
नहीं करके दिखाया,
वे भी
विश्राम कर
रहे हैं कब्रों
में। और
कब्रें कोई
फर्क नहीं
करतीं कि
तुमने कुछ
करके दिखाया
था कि कुछ
करके नहीं
दिखाया था। और
करके
जिन्होंने
दिखाया है, क्या है
उसका परिणाम?
सपने में जैसे
हम कुछ कर लें,
ऐसा ही जीवन
में कुछ करना
है। सुबह जाग
कर सब मिट
जाता है। पानी
पर खींची गई
रेखाओं सा सब
खो जाता है।
लेकिन हर एक
पीछे पड़ा है, कुछ करके
दिखाओ।
क्योंकि करने
को हम मानते
हैं कोई गुण
है।
लाओत्से
कहता है, न
करना गुण है।
इसका
यह मतलब नहीं
कि लाओत्से
कहता है, कुछ
करो मत। इसका
यह मतलब नहीं
है कि रोटी
कमाने मत जाओ।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
नौकरी मत करो।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
हाथ-पैर मत
हिलाओ।
लाओत्से कहता
है कि न करने
में ठहरे रहो।
न करना
तुम्हारा
केंद्र रहे।
और तुम्हारा
जो करना निकले,
वह करने की दौड़
से नहीं, न
करने की
स्वीकृति से
निकले। तो
तुम्हारी वासनाएं
अपने आप कम
होंगी।
आवश्यकताएं
रह जाएंगी, वासनाएं खो
जाएंगी।
जरूरतें रह
जाएंगी। और आदमी
की जरूरत इतनी
कम है कि
जिसका कोई
हिसाब नहीं; और आदमी की
वासना इतनी
ज्यादा है कि
जिसका कोई अंत
नहीं।
लाओत्से
कहता है, अगर
तुम साधारण
अपने स्वभाव
में जीओ, तो तुम उतना
कर लोगे जितनी
तुम्हारी
जरूरत है।
पशु-पक्षी भी
कर लेते हैं।
आदमी कुछ ऐसा
कमजोर नहीं
है। वे भी
अपने लिए जुटा
लेते हैं। लेकिन
पशु करने से
पीड़ित नहीं
हैं। करते
जरूर हैं, करने
से पीड़ित नहीं
हैं। कोई पशु
कुछ होने की
कोशिश में
नहीं लगा है।
सभी मोर एक जैसे
मोर हैं। सभी
तोते एक जैसे
तोते हैं। अपना
खा लेते हैं, पी लेते हैं,
सो लेते हैं,
गीत गा लेते
हैं, नाच
लेते हैं, आकाश
में उड़ लेते
हैं। कोई
साधारण नहीं
है, कोई
असाधारण नहीं
है। कोई छोटा
नहीं है, कोई
बड़ा नहीं है।
करते तो वे भी
हैं; लेकिन
करने में कोई
दौड़ नहीं है।
और करने के पीछे
सब कुछ लगा
देने का कोई
पागलपन भी
नहीं है।
आदमी
भर पागल है।
आदमी का करना
महत्वपूर्ण
हो गया है
उसके विश्राम
से भी ज्यादा।
हम करते ही किसलिए
हैं?
आदमी करता
इसलिए है कि
कभी विश्राम
कर सके। और
अंत यह होता
है कि विश्राम
का मौका ही
नहीं आता और
करते-करते ही
समाप्त हो
जाता है।
लक्ष्य क्या
है?
डायोजनीज
विश्राम कर
रहा है अपनी
रेत में पड़ा हुआ।
नग्न है।
सिकंदर उससे
मिलने गया है।
और सिकंदर
कहता है कि
इतनी मौज!
इतना आनंद!
फिर भी मैं
पूछता हूं कि
मैं तुम्हारे
लिए कुछ कर
सकूं, तो मुझे
कहो।
डायोजनीज
ने कहा कि
थोड़ा हट कर
खड़े हो जाओ।
सूरज की रोशनी
आती थी, तुम
बाधा बन गए
हो। और ज्यादा
तुम क्या कर
सकोगे? हम
बड़े मजे में
थे, रोशनी
पड़ती थी सुबह
की ताजी, तुम
जरा बीच में आ
गए। जरा हट
जाओ।
सिकंदर
को बड़ी
मुश्किल
मालूम पड़ी। वह
सोचता था कुछ
करके दिखाएगा
डायोजनीज को।
कर सकता था, धन
के अंबार लगा
सकता था। और
डायोजनीज ने
क्या मांगा? सिकंदर ने
कहा, डायोजनीज,
तुझे पता
नहीं कि मैं
कौन हूं! मैं
हूं महान सिकंदर;
कुछ मांग
ले। डायोजनीज
ने कहा, तुम्हारी
बड़ी कृपा है
कि तुम हट गए।
इससे बड़ी और
क्या बात हो
सकती है कि
मेरे और सूरज
के बीच अब कोई
भी नहीं है।
यह
आवश्यकता
वाला आदमी है, वासना
वाला नहीं।
इतनी
आवश्यकता थी,
इतनी जरूरत
थी कि बीच से
हट जाओ। बात
खतम हो गई। ये
पक्षियों
जैसा जी रहा
है यह आदमी।
उतने ही
निसर्ग में, उतनी ही
सरलता में।
सिकंदर
से डायोजनीज
पूछता है, क्या
इरादे हैं? सिकंदर कहता
है, दुनिया
जीतूं! दुनिया
जीतना चाहता
हूं, सारी
दुनिया जीतना
चाहता हूं।
डायोजनीज पूछता
है, फिर
क्या करोगे? सिकंदर कहता
है, फिर
विश्राम
करूंगा। और
डायोजनीज खूब
खिलखिला कर
हंसता है।
सिकंदर पूछता
है, क्यों
हंसते हो? डायोजनीज
ने कहा, हम
अभी विश्राम
कर रहे हैं।
विश्राम करने
के लिए दुनिया
जीतना, हमें
कुछ समझ नहीं
आया। अगर
विश्राम ही
लक्ष्य है, तो डायोजनीज
अभी विश्राम
कर रहा है। और
दुनिया जीतने
का इससे कोई
संबंध नहीं
है। लेकिन सिकंदर,
तुम भूल में
हो, विश्राम
तुम कर न
सकोगे।
क्योंकि
तुम्हें गणित
का ही पता
नहीं है। जिसे
विश्राम करना
है, वह
दुनिया जीतने
क्यों जाएगा?
क्योंकि
अगर दुनिया
जीत कर ही
विश्राम हो
सकता होता, तो डायोजनीज
विश्राम कैसे
करता? कोई
संबंध नहीं है,
कोई
कार्य-कारण का
संबंध नहीं
है। और मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
कभी विश्राम न
कर सकोगे। और
तुम सिर्फ
भ्रम में हो
कि विश्राम
करूंगा। तुम
मर जाओगे ऐसे
ही
दौड़ते-दौड़ते।
और
सिकंदर ऐसे ही
दौड़ते-दौड़ते
मर गया।
हम सब
भी सोचते हैं, कभी
विश्राम
करेंगे।
सोचते हैं, ये-ये
शर्तें पूरी
हो जाएं, तो
फिर हम
विश्राम
करेंगे। ऐसा
भी हो सकता है
कि वे शर्तें
पूरी हो जाएं।
लेकिन तब तक
काम करना आपके
लिए ऐसी
विक्षिप्तता
हो चुकी होगी
कि जिस दिन
आपका बिस्तर
बन कर तैयार
होगा, उस
दिन तक आपकी
नींद खो गई
होगी। और जब
तक आप भोजन
जुटा पाएंगे,
तब तक भूख
मर चुकी होगी।
क्योंकि भोजन
जुटाने में आदमी
भूख की
कुर्बानी चढ़ा
देता है। और
अच्छा बिस्तर
जुटाने में
आदमी नींद को
समाप्त कर
डालता है; नींद
को चढ़ा देता
है बलिवेदी पर
कि एक अच्छा बिस्तर
मिल जाए। और
अच्छा बिस्तर
इसलिए मिल जाए
कि उस पर सो
सके। फिर जब
बिस्तर मिल
जाता है, तो
नींद नहीं
होती। जब भोजन
मिल जाता है, तो भूख नहीं
होती।
इस
दुनिया में दो
तरह के दरिद्र
लोग हैं। एक, जिनके
पास भूख है, भोजन नहीं।
एक, जिनके
पास भोजन है, भूख नहीं।
बर्नार्ड शॉ
ने कहा है कि
दुनिया में दो
जातियां हैं--हैव्स एंड
हैव नाट्स।
गलत है वह
बात। दुनिया
में दो
जातियां
हैं--हैव नाट्स
एंड हैव नाट्स।
क्योंकि किसी
के पास भोजन
है, तो भूख
नहीं है। किसी
के पास भूख है,
तो भोजन
नहीं है। और
ध्यान रहे, इन दोनों
में दरिद्र वह
ज्यादा है, जिसके पास
भोजन है और
भूख नहीं।
क्योंकि भोजन बाहरी
चीज है, भूख
भीतरी चीज है।
और भोजन तो
मांगा भी जा
सकता है, चुराया
भी जा सकता
है। भूख मांगी
भी नहीं जा सकती,
चुराई भी
नहीं जा सकती।
जिसके पास
भोजन है और भूख
नहीं, उसके
पास भीतर कुछ
मर गया है और
बाहर कुछ इकट्ठा
हो गया है। और
मजा यह है कि
बाहर यह
इकट्ठा उसने
किया ही इसलिए
था कि वह भीतर
जो है, उसका
आनंद ले सके।
लेकिन उसे ही
बेच डाला
बाजार में।
जिसे बचाने
निकले थे, उसे
बेच डाला। और
आदमी निरंतर
इस भूल से
गुजरता है।
आवश्यकता
रह जाएगी, अगर
आदमी
निष्क्रियता
में प्रवेश कर
जाए। सक्रियता
नहीं खो जाएगी,
लेकिन
सक्रियता
आवश्यकता के
अनुपात में हो
जाएगी। उससे
ज्यादा नहीं।
और यह जो निष्क्रिय
को भीतर जान
लेने वाला
आदमी है, यह
साधारण हो
जाएगा। यह
विक्षिप्तता
की बातें छोड़
देगा कि मैं
सिकंदर हो
जाऊं, कि
नेपोलियन हो
जाऊं, कि
हिटलर हो जाऊं,
या बुद्ध हो
जाऊं, महावीर
हो जाऊं। नहीं,
यह कुछ भी
नहीं होना
चाहेगा। यह जो
है, वह
काफी है।
मार्टिन
लूथर ने मरते
वक्त कहा है
कि परमात्मा
से मिलने जा
रहा हूं।
जिंदगी भर
मैंने कोशिश
की कि जीसस
क्राइस्ट हो
जाऊं। और अब
मुझे खयाल आता
है कि परमात्मा
मुझसे यह नहीं
पूछेगा कि तुम
जीसस क्राइस्ट
क्यों नहीं हो
सके?
वह मुझसे
पूछेगा, तुम
मार्टिन लूथर
क्यों नहीं हो
सके? जीसस
क्राइस्ट से
क्या
लेना-देना था?
जीसस
क्राइस्ट
जीसस
क्राइस्ट
जाने उनका होना।
मैं था लूथर।
तो अब मुझे
खयाल आता है
कि जिंदगी तो
मैंने जीसस
जैसा होने में
लगाई। परमात्मा
मुझसे पूछेगा
कि तुम लूथर
क्यों न हो
सके? जो
तुम हो सकते
थे, वह तुम
क्यों न हो
सके? और जो
तुम थे ही
नहीं, उस
होने में
तुमने समय
क्यों व्यतीत
किया?
परमात्मा
किसी से भी
नहीं पूछेगा
कि तुम बुद्ध
क्यों नहीं
बने,
महावीर
क्यों नहीं
बने, कृष्ण
क्यों नहीं
बने? वह
यही पूछेगा कि
तुम जो हो
सकते थे, वह
भी तुम क्यों
न हो सके?
नहीं
हो पाते हम, क्योंकि
हम कुछ और
होने में लगे
हैं। जो हम हो
सकते हैं, वह
हम हो नहीं
पाते। और जो
हम हो नहीं
सकते हैं, वह
हम होने में
लगे रहते हैं।
ऐसे जीवन चूक
जाता है। सारा
अवसर खो जाता
है। फिर दीनता
पैदा होगी, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स
पैदा होगी, आत्मग्लानि
होगी। लगेगा:
मैं कुछ भी नहीं
हूं। उदासी
घेर लेगी, विषाद
पकड़ लेगा। और
जिंदगी एक बोझ
हो जाएगी, एक
नृत्य नहीं।
लाओत्से
जो कह रहा है, वह
एक नृत्य का
जीवन है, लेकिन
सहज। और जब
मैं कहता हूं
कि लाओत्से जो
कह रहा है, वह
एक नृत्य का
जीवन है; तो
वह यह नहीं कह
रहा है कि तुम निजिंस्की
जैसे नाचो, कि तुम कोई
बहुत बड़े
नृत्यकार, कि
तुम कोई उदयशंकर
हो जाओ। तुम
नाच सको आनंद
से, यह
काफी है। टेढ़ा-मेढ़ा
ही सही
तुम्हारा
नाच--तुम्हारा
हो, आथेंटिक हो, प्रामाणिक
हो। जरूरत
नहीं है कि
तुम्हारे पास
कोई तानसेन के
स्वर हों।
तुम्हारा
अपना स्वर हो,
अपने ही
हृदय से उठा।
न हो राग
उसमें, न
हो काव्य
उसमें, कुछ
भी न हो; बस
एक अस्तित्व
की मांग है कि
वह तुम्हारा
हो, प्रामाणिक
रूप से
तुम्हारा हो।
और
परमात्मा के
सारे आनंद की
वर्षा उस पर
हो जाती है, जो
प्रामाणिक
रूप से स्वयं
है।
तो
लाओत्से की
सारी चिंतना
असाधारण
व्यक्ति के लिए
नहीं है। और
दूसरी
धार्मिक
परंपराओं में
असाधारण
व्यक्ति का
बड़ा मूल्य है।
लाओत्से के लिए
तो साधारण
व्यक्ति का ही
मूल्य है। ऐसे
हो जाओ, जैसे
हो ही नहीं।
तुम्हारा पता
भी किसी को
क्यों चले?
तो यह
प्रश्न
सार्थक मालूम
पड़ सकता है
तथाकथित
धार्मिक चिंतनाओं
के संदर्भ में, जहां
कहा जाता है:
यह हो जाओ, यह
हो जाओ, यह
हो जाओ।
व्यर्थ है
तुम्हारा
जीवन। तुम्हारा
जीवन सदा
व्यर्थ है।
किसी और का
जीवन सार्थक
है; तुम
वैसे हो जाओ।
लाओत्से
कहता है, तुम
सार्थकता हो
स्वयं! तुम हो;
यह काफी है
कि परमात्मा
ने तुम्हें
अंगीकार किया
है। तुम हो; यह पर्याप्त
है कि
परमात्मा
तुम्हारे
पीछे खड़ा है; उतना ही
जितना बुद्ध
के, उतना
ही जितना
लाओत्से के।
तुम्हें उतनी
ही श्वास देता
है, जरा सी
भी कंजूसी
नहीं है।
तुम्हें उतनी
ही हृदय की धड़कनें
देता है, जरा
सा भी भेदभाव
नहीं है। तुम
पर से सूरज जब
गुजरता है, तो ऐसा नहीं
कि अपनी
किरणें सिकोड़
लेता है। और
तुम्हारे पास
से हवा जब
गुजरती है, तो ऐसा नहीं
कि संकोच कर
लेती है कि
कहां छोटे से
आदमी के पास
से गुजरना पड़
रहा है! पूरा
अस्तित्व
तुम्हें उसी
तरह अंगीकार
करता है, जैसे
किसी और को।
लेकिन
तुम ही अपने
को अंगीकार
नहीं करते, तब
अस्तित्व भी
क्या कर सकता
है!
लाओत्से
कहता है, असाधारण-साधारण
की बात ही
बकवास है, तुलना
ही व्यर्थ है,
कंपेरिजन
ही अर्थहीन
है। कोई ऐसा
है, कोई
वैसा है; इनमें
नीचे-ऊपर कोई
नहीं है।
भिन्नताएं हैं,
श्रेष्ठताएं नहीं हैं
जगत में।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें। जगत
में श्रेष्ठताएं
और हीनताएं
नहीं हैं; जगत
में
भिन्नताएं
हैं। बुद्ध
तुमसे भिन्न हैं।
ऊंचे-नीचे की
बात बिलकुल
फिजूल है। और
अगर वे खिल
सके हैं फूल
की भांति, तो
इसीलिए कि
उनकी किसी से
कोई तुलना
उनके मन में
नहीं है। वे
किसी से ऊंचे
नहीं होना चाहते,
किसी से
नीचे नहीं
होना चाहते।
दूसरा उनकी दृष्टि
में ही नहीं
है। वे अपने
को खोल लिए
हैं।
और
तुम्हारी
तकलीफ यही है
कि तुम्हें
बुद्ध परेशान
कर रहे हैं, महावीर
परेशान कर रहे
हैं, कृष्ण
परेशान कर रहे
हैं, क्राइस्ट
परेशान कर रहे
हैं। कैसे मैं
कुछ और हो जाऊं,
जो मैं नहीं
हूं--यही नरक
है। कैसे मैं
वही हो जाऊं, जो मैं
हूं--यही
स्वर्ग है। और
जिस दिन यह
खयाल ही मिट
जाता है, यह
होने की बात
ही, बिकमिंग की बात ही
मिट जाती है
कि मैं कुछ हो
जाऊं; जो
हूं, हूं; जिस दिन
बीइंग ही रह
जाती है, उस
दिन मोक्ष है।
लाओत्से
तो साधारण
आदमी के बड़े
पक्ष में है।
वह महामानवों
के पक्ष में
नहीं है। वह
मनुष्य के
पक्ष में है, विशेषणहीन मनुष्य के
पक्ष में है; नोबडी, जिस पर कोई
विशेषण नहीं,
उसके पक्ष
में है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि हमारी
सारी शिक्षा, सभ्यता
और संस्कृति
स्वभाव पर
आवरण बन जाते
हैं। तो क्या
ऐसी शिक्षा
नहीं हो सकती
जो हमारे
स्वभाव पर
आवरण न बने, वरन उसके
उदघाटन में
सहयोगी हो जाए?
शिक्षा
का अर्थ ही
होता है, जो
बाहर से दी
जाए, कोई
और दे।
संस्कार का
अर्थ यह होता
है, बाहर
से डाले जाएं,
कोई डाले।
तो गहरे अर्थ
में सभी शिक्षाएं
और सभी
संस्कार
स्वभाव पर
आवरण बनेंगे।
इतना ही हो
सकता है कि
कुछ आवरण बहुत
जटिल हों, कुछ
आवरण कम जटिल
हों। इतना ही
हो सकता है कि
कुछ आवरण लोहे
के बन जाएं और
कुछ आवरण हवा
के आवरण हों।
आवरण तो होंगे
ही।
इस बात
को ठीक से समझ
लें।
शिक्षा
संसार के लिए
जरूरी है। अगर
संसार में जीना
है,
संसार में
चलना है, वासना
में दौड़ना है,
सक्रिय
होना है, तो
शिक्षा जरूरी
है। शिक्षा
सक्रियता का
प्रबंध है।
इसलिए जो
जितना
शिक्षित है, उतना
सक्रियता के
जगत में सफल
होता हुआ
मालूम पड़ता
है। जो जितना अशिक्षित
है, उतने
सक्रियता के
द्वार-दरवाजे
बंद हो जाते हैं।
शिक्षा
सक्रियता की टेक्नालाजी
है।
लेकिन
स्वभाव में
जाने के लिए
किसी शिक्षा
की कोई जरूरत
नहीं है।
स्वभाव में
जाने के लिए
तो जो भी
शिक्षा मिली
हो,
उसको छोड़ने
का साहस
चाहिए। जो भी
शिक्षा मिली हो,
उसे छोड़ने
का साहस
चाहिए। इसे हम
ऐसा समझें, इस प्रश्न
को हम ऐसा
रखें, तो
खयाल में आ
जाए।
लाओत्से
कहता है कि
वस्त्र
मनुष्य की
नग्नता को
छिपा लेते
हैं। हम पूछ
सकते हैं, माना
कि वस्त्र
नग्नता को
छिपा लेते हैं,
क्या ऐसे
कोई वस्त्र
नहीं हो सकते
जो नग्नता को
न छिपाएं?
वस्त्र
तो कैसे भी
हों,
नग्नता को छिपाएंगे;
छिपाने की
मात्रा में
फर्क हो सकता
है। कांच के
वस्त्र बनाए
जा सकते हैं, ट्रांसपैरेंट;
वे बहुत कम छिपाएंगे।
लेकिन फिर भी छिपाएंगे।
और नग्न किसी
को होना हो, तो कैसे भी
वस्त्र हों, उसे उतार कर
रख देने
होंगे। चाहे वे
लोहे के हों
और चाहे कांच
के हों, चाहे
उनके पार
दिखाई पड़ता हो
और चाहे पार
दिखाई न पड़ता
हो। वस्त्र तो
हटा ही देने
होंगे, तो
ही नग्नता
प्रकट होगी।
स्वभाव
हमारी आंतरिक
नग्नता है।
संस्कृति, सभ्यता,
शिक्षा
हमारे वस्त्र
हैं। उन
वस्त्रों में
हम दब जाते
हैं। धीरे-धीरे
वस्त्र इतने
उपयोगी सिद्ध
होते हैं कि हम
भूल ही जाते
हैं कि
वस्त्रों के
अलावा भी हमारा
कोई होना है।
भीतर की बात
तो हम छोड़ दें,
बाहर भी ऐसा
हो जाता है।
अगर आप भी
अपने आपको रास्ते
में नग्न मिल
जाएं, तो
पहचान न
पाएंगे। या कि
आप सोचते हैं
पहचान लेंगे?
अचानक एक
दिन आप अपने
दरवाजे से निकलें
और आप ही अपने
को दरवाजे पर
नग्न मिल
जाएं! आप नहीं
पहचान
पाएंगे। हम
अपने को भी
अपने वस्त्रों
से ही पहचानते
हैं।
जर्मन कनसनट्रेशन
कैंप्स
में बड़ी
हैरानी अनेक
लोगों को
अनुभव हुई।
क्योंकि जब नाजी
लोगों को पकड़ते
थे,
तो पहला काम
यह करते कि
उनके सारे
वस्त्र, उनके
सब सामान छीन
लेते। फिर
उनके सिर, दाढ़ी, मूंछ
सब घोट देते।
तो एक मनसविद
फ्रैंकेल
ने लिखा है...।
वह एक बड़ा
डाक्टर, बड़ा
मनसविद
है। वह भी
पकड़ा गया, यहूदी
है। उसके साथ
पांच सौ लोग पकड़े गए, उसके ही
गांव के लोग
थे। सब परिचित
थे; कोई
वकील था, कोई
जज था, कोई
चिकित्सक था,
कोई शिक्षक
था, कोई
कोई था। उन
पांच सौ ही
लोगों के सिर मूंड़ दिए
गए; उनके
सब वस्त्र, कपड़े, सब
निकाल लिए गए;
चश्मा-घड़ी
सब सामान अलग
कर लिया गया।
फ्रैंकेल ने
लिखा है कि जब
हम पांच सौ ही
नग्न खड़े हुए, तो
कोई किसी को
पहचान न पाए।
समझ में ही न
आए कि ये कौन
लोग खड़े हैं!
और फ्रैंकेल
ने लिखा है कि
जब मैं खुद
आईने के सामने
खड़ा हुआ--सिर
घुटा, नग्न--तो
मुझे भरोसा न
आया कि यह मैं
ही हूं।
आपकी
अपनी जो
आइडेंटिटी है, आपका
जो अपना
तादात्म्य है,
वह आपके
वस्त्र हैं
बाहर भी। जरा
देखें, एक
मजिस्ट्रेट
को और एक चोर
को नग्न खड़ा
कर दें; फिर
बता दें, कौन
मजिस्ट्रेट
है और कौन चोर
है। हो सकता
है, नग्न
चोर ही शान से
खड़ा हो और
मजिस्ट्रेट
चोर मालूम
पड़े। सारी
गरिमा खो जाए
मजिस्ट्रेट
की; क्योंकि
वह गरिमा
वस्त्रों की
है। इसलिए वस्त्रों
पर हमारा इतना
मूल्य है। एक
सम्राट के
वस्त्र छीन
लें; सब
छिन जाता है।
बाहर
ही ऐसा होता, तो
ठीक था; भीतर
भी ऐसा ही है।
भीतर के
वस्त्र महीन
हैं, सूक्ष्म
हैं, पता
नहीं चलता।
शिक्षा है।
आपकी शिक्षा
छीन लें, तो
आप में और
आपके नौकर में
कहीं कोई फर्क
रह जाए? आप
दस-पांच साल
विश्वविद्यालय
में ज्यादा
देर बैठे हैं,
वह जरा कम
देर बैठा है; पर उसने
कितना फर्क ला
दिया है! आप
सुसंस्कृत हैं,
वह असभ्य
है। आप जहां
जाएंगे, लोग
नमस्कार
करेंगे। वह
जहां से भी
गुजरेगा, कोई
उसे देखेगा भी
नहीं।
कभी
आपने यह खयाल
किया कि आपके
कमरे में एक
मेहमान आए, तो
एक आदमी भीतर
आता है। और जब
आपका नौकर उस
कमरे में आता
है, जाता
है, तो
आपको पता भी
नहीं चलता कि
कोई आदमी भीतर
आया और गया।
नौकर कोई आदमी
थोड़े ही है।
नौकर कोई आदमी
नहीं है। फर्क
क्या है आपकी
आदमियत में और
उसकी आदमियत
में? इतना
ही कि आप
स्कूल की
बेंचों पर थोड़ी
देर ज्यादा
बैठे। इतना ही
कि आपके पास
जो वस्त्र हैं
अपने को
छिपाने के, वे जरा
कीमती हैं।
आपकी नग्नता
जरा कीमती वस्त्रों
में छिपी है
और उसकी
नग्नता जरा
दरिद्र वस्त्रों
में छिपी है।
लाओत्से
कहता है, सभी
शिक्षा
वस्त्र
निर्मित करती
है--भीतर आत्मा
पर, स्वभाव
पर। सभी
संस्कार, जो
मैं हूं, उसको
दबा देते हैं।
वह कहता है, इन सभी
संस्कारों को
छोड़ कर स्वयं
को जाना जाता
है।
निश्चित
ही,
ऐसी
संस्कृति हो
सकती है, जो
इतने जोर से
दबा दे कि
छुटकारे का
उपाय न छोड़े।
ऐसी भी
संस्कृति हो
सकती है, जो
साथ-साथ
छुटकारा भी
सिखाए। आपको
ऐसे कपड़े भी पहनाए जा
सकते हैं, जिनको
निकालना
मुश्किल हो
जाए। और ऐसे
कपड़े भी पहनाए
जा सकते हैं
कि आप क्षण
में उनके बाहर
निकल जाएं।
जो
संस्कृति ऐसी
शिक्षा देती
है और ऐसे
संस्कार देती
है,
जिनके बाहर
निकलना जरा भी
मुसीबत न हो, वह संस्कृति
धार्मिक है।
और जो संस्कृति
ऐसे वस्त्र
देती है कि वे
वस्त्र नहीं,
चमड़ी की तरह
पकड़ जाते हैं,
छोड़ते नहीं
फिर, छूटना
मुश्किल हो
जाता है, उनके
बाहर निकलने
में बड़ी अड़चन
हो जाती है, वह संस्कृति
अधार्मिक है।
धार्मिक
संस्कृति वह
है, जो
स्वयं से
छूटने का उपाय
भी देती है।
धार्मिक संस्कृति
वह है, जो
आपको संस्कार
भी देती है और
संस्कार के
बाहर जाने का
मार्ग भी देती
है। लेकिन
संस्कार तो
सभी बांधेंगे।
साथ में बाहर
निकलने का
मार्ग भी हो
सकता है; होना
चाहिए। अगर हो,
तो
संस्कृति
धार्मिक हो
जाती है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि
पूर्व-धारणा
बना कर स्वयं
में प्रवेश
करने पर सरल
स्व का उदघाटन
संभव नहीं।
बताएं कि
पूर्व-धारणा
के बिना
स्व-बोध के
प्रति
प्रवृत्ति
संभव है क्या? क्या
जिज्ञासा का
मूल कारण वस्तुत्तत्व
का
पूर्व-ज्ञान
नहीं है?
इसको
ही कहते हैं
पूर्व-धारणा।
यह प्रश्न
पूर्व-धारणा
से भरा हुआ
है।
जैसे
वे कहते हैं, "पूर्व-धारणा
बना कर स्वयं
में प्रवेश
करना संभव
नहीं।'
यह
माना हुआ हो
गया। प्रवेश
करके देखा है? यह
धारणा बना ली
बिना प्रवेश
किए कि संभव
नहीं। अब संभव
बहुत मुश्किल
होगा। यह
धारणा ही रुकावट
डालेगी कि
संभव नहीं। जो
संभव नहीं है,
उसका
प्रयास ही क्यों
करिएगा।
असंभव है, दरवाजा
बंद कर लिया।
अब कठिन हो
जाएगा।
धारणामुक्त
होने का अर्थ
है कि बिना
जाने मन को
खुला रखें, बांधें
मत। संभव है
या असंभव है, ऐसा निर्णय
न करें।
प्रयोग करें,
निर्णय न
करें। अनुभव
करें, निर्णय
न करें। अनुभव
से ही निर्णय
को आने दें। निर्णय
से अनुभव को
मत निकालें।
क्योंकि अगर पहले
ही तय कर लिया,
तो फिर
प्रयोग की
वैज्ञानिकता
समाप्त हो गई।
आप तो पहले ही
तय कर लिए हैं
कि क्या होने
वाला है। अब
जानने को कुछ
बचा नहीं। और
अब आपका यह जो
मन है, पूरी
कोशिश करेगा
वही सिद्ध
करने का जो
इसने मान लिया
है। हम सब
अपने मन को
सिद्ध करने
में लगे रहते
हैं। जो मान
लेते हैं, वह
सही निकले, बड़ी खुशी
होती है।
एक
मित्र मेरे
पास आए थे।
उन्होंने कहा, गीता
में आपको सुना,
तब तो मन को
बड़ी खुशी हुई।
अभी लाओत्से
में सुनते हैं,
तो उतनी
खुशी नहीं
होती, बल्कि
थोड़ी बेचैनी होती
है।
गीता
में सुना, तो
मन को खुशी
हुई होगी; क्योंकि
गीता पहले से
ही माने बैठे
थे। तो लगा
होगा कि ठीक
वही कह रहे
हैं, जो
मैं मानता
हूं। चित्त को
बड़ी शांति
मिलती है।
मेरे अहंकार
में एक और ईंट
जुड़ गई। मकान
और थोड़ा बड़ा
हुआ। अगर कोई
ऐसी बात पता
चले कि मकान
की एक ईंट
खिसक गई और
नींव हिलने
लगी, तो
बेचैनी होती
है। हम सत्य
की तलाश में
थोड़े ही हैं; हम अपने ही
मन की तलाश
में हैं।
हमारा मन सिद्ध
हो जाए; और
सब बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, कबीर
हमारे गवाही
हो जाएं।
गवाही, अदालत
में जैसे आदमी
गवाहियां
खड़ी कर देता
है कि ये बारह
गवाह खड़े हैं
मेरे; ऐसा
हमारा भी मन
है कि महावीर,
बुद्ध, कृष्ण,
क्राइस्ट, हमारे गवाह
की तरह खड़े हो
जाएं और कहें
कि तुम बिलकुल
ठीक हो। तुम
ठीक हो, यह
सारे लोग कह
दें, तो
चित्त बड़ा
प्रसन्न होता
है।
लेकिन
ये लोग बड़े
गड़बड़ हैं। यह
आपको ठीक करने
की इन्हें जरा
भी चिंता नहीं
है। जो ठीक है, वही
ठीक है; चाहे
उसमें आपको
मिटना ही
क्यों न पड़े।
लेकिन ध्यान
रखें, उनकी
दया बड़ी है।
अगर आपको ठीक
कह दें, तो
आप बीमार ही
बने रहोगे।
आपकी बीमारी
और बढ़ेगी।
समर्थित हो
जाएगी, तो
और बढ़ेगी।
आप कोई भी
धारणा जब तय
ही कर लेते
हैं, तो
फिर सत्य की
खोज उसी क्षण
बंद हो गई।
सत्य की तरफ
जाने का अर्थ
ही है कि मैं
निष्पक्ष जा
रहा हूं।
लेकिन
उन मित्र ने
पूछा है कि
अगर हम इसको
मान ही न लें
कि आत्मा भीतर
है,
तो आत्मा को
जानने की
प्रवृत्ति ही
क्यों पैदा
होगी?
उनका
खयाल है कि
जिज्ञासा तभी
पैदा होती है, जब
हमें पता हो
कि कुछ है।
लेकिन
जिज्ञासा यह भी
तो हो सकती है
कि हमारे मन
में खयाल उठे
कि कुछ है या
कुछ नहीं है? आप इस कमरे
के बाहर से
निकले; इस
कमरे के भीतर
क्या है, इसके
जानने की
जिज्ञासा हो
सकती है बिना
यह जाने कि
क्या है। सच
तो यह है कि
अगर आपको पक्का
ही पहले से
भरोसा हो गया
है कि कमरे के
भीतर क्या है,
तो
जिज्ञासा की
कोई जरूरत न
रह गई। जितना
बड़ा भरोसा, उतनी कम
जिज्ञासा। और
अगर श्रद्धा
पूर्ण है बिना
जाने, तो
जिज्ञासा की
कोई आवश्यकता
ही न रही।
क्या
जरूरत है? अगर
आपको पता ही
है कि भीतर
आत्मा है और
महावीर, बुद्ध
और सब खोज-खोज
कर कह गए, अब
हम और किसलिए
मेहनत करें? और एक दफा
पता चल गया, बात खतम हो
गई कि है भीतर,
हम दूसरा
काम करें। इसी
में क्यों समय
लगाएं? अगर
आपको पक्का ही
पता चल गया, तो जिज्ञासा
मर जाएगी।
नहीं, आपको
कुछ भी पता
नहीं कि भीतर
क्या है। एक घुप्प
अंधकार है।
ओर-छोर पता
नहीं चलते।
कोई पहचान
नहीं मालूम
होती। क्या है
भीतर? है
भी कुछ या
नहीं है? मृत्यु
है या अमृत? वहां कोई है
भी या सिर्फ
एक शून्य है? तब जिज्ञासा
पैदा होती है।
जिज्ञासा
का अर्थ है:
जहां आप अवाक
खड़े हैं और आपको
कुछ भी पता
नहीं है। जहां
धारणा है, वहां
आप अवाक नहीं
हैं; आपको
पता है ही।
इसलिए धारणा
वाले लोग
जिज्ञासु
नहीं होते।
जिज्ञासा की
तो
परिपूर्णता
तभी है, जब
धारणा की परम
शून्यता हो।
जिस मात्रा
में धारणा, उस मात्रा
में जिज्ञासा
कम हो जाएगी।
इसलिए
बच्चे
जिज्ञासु
होते हैं, देखा
है; बूढ़े
जिज्ञासु
नहीं होते।
क्या कारण है?
बच्चे ऐसे
प्रश्न पूछते
हैं कि
बड़े-बड़े बूढ़े
भी उनका जवाब
नहीं दे पाते।
बच्चे
जिज्ञासु होते
हैं, क्योंकि
धारणा उनकी
कोई भी नहीं
है। बूढ़े की जिज्ञासा
समाप्त हो
जाती है, धारणा
ही धारणाओं का
ढेर लग गया
होता है, जिज्ञासा
बिलकुल नहीं
रह जाती। बूढ़े
भी उसी जगत
में खड़े होते
हैं, बच्चे
भी उसी जगत
में खड़े हैं; लेकिन बूढ़ों
को कोई
जिज्ञासा
पैदा नहीं
होती। सुबह
सूरज निकलता
है; बूढ़ा
भी देखता है, बच्चा भी
देखता है।
बच्चे को
तत्काल
जिज्ञासा
पैदा होती
है--क्या है? पक्षी गीत
गाता है।
बच्चे को
जिज्ञासा
होती है--क्या
है? बूढ़े
को कोई
जिज्ञासा
नहीं होती।
अगर बच्चा पूछता
भी है, तो
वह कहता है, चुप रहो! जब
बड़े हो जाओगे,
जान लोगे।
इसको
खुद भी बड़े
होकर पता नहीं
चला है। मगर
एक बात इसको
पता चल गई है
कि बड़े
होते-होते
जिज्ञासा मर
जाती है।
पूछेगा ही
नहीं, जानने
का कोई सवाल
नहीं है। यह
बेटा भी कल
बूढ़ा होकर
अपने बेटे से
कहेगा कि घबड़ाओ
मत, अभी
तुम्हारी
उम्र कम है, जब उम्र बड़ी
हो जाएगी, सब
जान लोगे।
लेकिन जिनकी
उम्र बड़ी है, उनको क्या
पता है? कुछ
पता नहीं है।
सिर्फ उनकी
जिज्ञासा मर
गई। उनकी जो
ताजगी थी
पूछने की, वह
खो गई। जो
खोजने की
आकांक्षा थी,
वह मर गई।
ढेर
सिद्धांतों
के उनके पास
हो गए। हर चीज
का उत्तर उनके
पास है।
प्रश्न उनके
पास एक भी
नहीं है, उत्तर
उनके पास सब
हैं। प्रश्न
उनके बिलकुल खो
गए हैं।
जानकारी बहुत
उनके पास हो
गई है।
इसलिए
बूढ़े के भीतर
शरीर ही बूढ़ा
हो जाए, यह तो
स्वाभाविक
है। लेकिन यह
आत्मा का बूढ़ा
हो जाना है।
शरीर तो बूढ़ा
हो, यह
स्वाभाविक
है। लेकिन अगर
किसी बूढ़े के
भीतर शरीर
बूढ़ा हो और
बच्चे जैसी
जिज्ञासा
जारी रहे, तो
बुढ़ापे से
ज्यादा सुंदर
और घटना जगत
में दूसरी
नहीं है।
क्योंकि तब
बच्चे जैसी
ताजी ओस सुबह
की भीतर होती
है। और जिंदगी
के अनुभव कचरे
की तरह दबा
नहीं पाते और
जिंदगी की धारणाएं
राख नहीं बन
पातीं, तो
वैसे बूढ़े की
आंखों में
बच्चा झांकता
है। और जिस
दिन अनुभव हो
बूढ़े का और
जिज्ञासा हो
बच्चे की, उस
दिन व्यक्ति
सत्य के
निकटतम होता
है।
लेकिन
हमारी तकलीफ
यह है कि हम
सोचते हैं कि
अगर हमें पहले
से पता ही
नहीं है, तो हम
खोजने ही
क्यों जाएंगे?
खोजने
जाने का मतलब
ही यह होता है
कि पता नहीं है, इसलिए
हम खोजने जाते
हैं। धारणा
हत्या है स्वयं
की और सत्य से
बचने का उपाय
है।
कहा है
उन्होंने, "क्या
जिज्ञासा का
मूल कारण वस्तुत्तत्व
का
पूर्व-ज्ञान
नहीं है?'
अगर
पूर्व-ज्ञान
ही है, तो
जिज्ञासा तो
फिर मूढ़ता
होगी। ज्ञान
के भी पूर्व
ज्ञान कैसे हो
सकता है? ज्ञान
होगा, तभी!
और जब ज्ञान
होगा, तो
जिज्ञासा खो
जाएगी।
खतरा
यही है कि
बिना ज्ञान
हुए भी
जिज्ञासा खो
सकती है, अगर
हम दूसरों के
ज्ञान को अपना
ज्ञान मान लें।
उसे हम
पूर्व-ज्ञान
कहते हैं।
महावीर कहते हैं
कि आत्मा है
अनंत वीर्य, अनंत आनंद, अनंत ज्ञान;
ऐसी है, ऐसी
है, ऐसी
है। यह उनका
ज्ञान है।
हमारे लिए यह
पूर्व-ज्ञान
बन सकता है।
इस
पूर्व-ज्ञान
का मतलब क्या
हुआ? इसका
मतलब हुआ, यह
महावीर का
ज्ञान है; हमें
तो कुछ पता
नहीं इस आत्मा
का। लेकिन
महावीर के
शब्दों को हम
स्वीकार कर
लेते हैं।
महावीर
के शब्दों को
कितने लोग
स्वीकार किए हुए
हैं;
उनमें से
कौन महावीर की
खोज पर जाता
है? बुद्ध
को कितने
करोड़ों लोग
मानते हैं; लेकिन कौन
बुद्ध जैसा
खोजता है? वह
तो भला हो कि
बुद्ध को कोई
और बुद्ध नहीं
मिला
पूर्व-ज्ञान
देने वाला।
खुद ही खोजा, तो पाया।
सत्य स्वयं की
खोज से मिलता
है। इतना
सस्ता नहीं है
कि दूसरे से
मिल जाए।
हां, दूसरे
से ज्ञान मिल
सकता है।
लाओत्से उस
ज्ञान को ही
कहता है, छोड़ो!
यह बुद्धिमत्ता
छोड़ो, जो
उधार है।
पूछा
है,
"क्या
स्व-बोध
आनंद-रूप नहीं
है? यदि है,
तो स्व-बोध
को आनंद-रूप
मानने में
आपको संकोच क्यों
है? श्रुतियां तो आत्मा को
स्पष्ट रूप से
आनंद-स्वरूप
मानती हैं।'
श्रुतियां
मानती होंगी।
जिन्होंने
कहा होगा, उन्होंने
जाना होगा। जिन्होंने
जाना है, उन
सभी ने कहा है
कि वह
आनंद-रूप है।
लेकिन खतरा तो
वहां शुरू
होता है कि
जिन्होंने
नहीं जाना वे
भी मान लेते
हैं कि वह
आनंद-रूप है।
खतरा जानने
वालों का नहीं
है, खतरा
सुनने वालों
के साथ है। आप
भी मान कर बैठ जाते
हैं कि
आनंद-रूप है।
आपको न आनंद
का पता है कि
आनंद क्या है,
आनंद-रूप का
क्या अर्थ
होगा! न आत्मा
का पता है कि
आत्मा क्या
है! न आनंद का
पता है कि
आनंद क्या है!
लेकिन यह
वाक्य बड़ा सुरुचिकर
लगता है कि
आत्मा
आनंद-रूप है।
इसका अर्थ क्या
होगा?
दुख
आपने जाना है।
सुख की कभी
कोई झलक पाई
होगी। आनंद की
तो कोई झलक
आपको नहीं है।
तो जब भी आप
समझते हैं कि
आत्मा
आनंद-रूप है, आप
सोचते हैं, खूब सुख, सदा
सुख रहेगा, ऐसी कुछ
होगी। आपके
लिए आनंद का
अर्थ सुख का ही
विस्तार हो
सकता है। सघन
सुख होगा, कभी
समाप्त न होने
वाला सुख
होगा--यही
आपकी धारणा हो
सकती है।
आनंद
का सुख से
उतना ही संबंध
है,
जितना दुख
से। दोनों से
कोई संबंध
नहीं है। आत्मा
का भी पता
नहीं, आनंद
का भी पता
नहीं; लेकिन
शब्द
सुनते-सुनते
लगता है कि
पता हो गया--आत्मा
आनंद है। इसको
दोहराते रहें
बैठ कर: आत्मा
आनंद है, आत्मा
आनंद है। उससे
कुछ भी नहीं
होगा।
लाओत्से
की दृष्टि यह
नहीं है कि
आत्मा आनंद नहीं
है। लाओत्से
यह कह रहा है
कि हम कुछ न
कहेंगे कि
आत्मा क्या
है। तुम्हीं
जाओ और जानो।
हम इतना ही
कहेंगे कि तुम
कैसे जा सकते
हो। हम यह न
कहेंगे कि
जाने पर
तुम्हें क्या
मिलेगा। क्योंकि
तुम इतने
धोखेबाज हो कि
बिना जाए यहीं
बैठ कर रटने
लगोगे कि
आत्मा आनंद है, आत्मा
आनंद है। और
बार-बार
पुनरुक्त
करके अपने को
ही सम्मोहित
कर लोगे और यह
भूल ही जाओगे
कि तुम पहुंचे
नहीं हो, तुम्हें
कुछ भी पता
नहीं है।
सत्य
क्या है, इसे
कहने से आपको
शब्द सुनाई
पड़ते हैं, सत्य
सुनाई नहीं
पड़ता। शब्द
सुनाई पड़ते
हैं, और
बार-बार सुनने
से शब्द
परिचित हो
जाते हैं। और
परिचित शब्द
खतरनाक हैं।
यहूदियों
में एक प्रथा
है और कीमती
प्रथा है कि
परमात्मा का
नाम न लिया
जाए। तो
यहूदियों ने
परमात्मा का
जो नाम रखा है:
वह है याहवेह।
उस शब्द का
इतना ही मतलब
होता है कि
जिसका कोई नाम
नहीं है।
क्योंकि नाम
बार-बार
दोहराने से
कहीं ऐसा भ्रम
न पैदा हो जाए
कि तुम जानते
हो। और याहवेह, जिस
शब्द का अर्थ
इतना ही होता
है कि जिसका
कोई नाम नहीं,
इसका भी
उपयोग नहीं
करना है। नहीं
तो यही नाम बन
जाएगा।
आदमी
के लिए तकलीफें
हैं। और उन तकलीफों
को जो समझते
हैं,
वे नहीं
कहेंगे कि
क्या है आत्मा;
वे इतना ही
कहेंगे कि
कैसे तुम जा
सकते हो, जाओ।
अंधे से क्या
फायदा है कहने
का कि प्रकाश
क्या है। इतना
ही काफी है कि
क्या है इलाज,
क्या है
औषधि कि आंखें
खुल जाएं। और
खतरा है यह कि
अंधे को आप
बता दें कि
प्रकाश यह है
और अंधा भी
सुन ले।
क्योंकि अंधा
बहरा तो नहीं
है, सुनता
है। बल्कि सच
यह है कि आंख
वालों से अंधे
ज्यादा सुनते
हैं।
खयाल
किया आपने, अंधों
के कान तेज हो
जाते हैं। आंख
की ताकत भी कान
को ही मिल
जाती है। तो
अंधे सुनने
में बड़े कुशल
हो जाते हैं।
अंधों की
स्मृति भी
ज्यादा होती
है आंख वालों
से। क्योंकि
आंख से बनती
हैं हमारी कोई
नब्बे प्रतिशत
स्मृतियां।
वह काम बंद हो
जाता है। तो
सारी स्मृति
की शक्ति कान
को मिल जाती
है। तो अंधे
की स्मृति भी
बड़ी तीव्र
होती है।
तो
अंधे को अगर
कोई बता दे कि
प्रकाश क्या
है,
तो वह सुन
भी लेगा, समझ
भी लेगा, समझेगा
कि समझ लिया, कंठस्थ कर
लेगा, स्मृति
मजबूत हो
जाएगी। वह भूल
ही जाएगा कि
मैं अंधा हूं
और प्रकाश से
मेरा कोई
संबंध नहीं है,
और न मेरी
प्रकाश से कोई
पहचान है, आंख
वाले कहते हैं
कि प्रकाश ऐसा
है। इन मित्र
ने लिखा है, श्रुतियां कहती हैं...।
आंख वाले कहते
हैं कि प्रकाश
ऐसा है। आंख
वालों के कहने
से क्या संबंध
है? आंख
चाहिए। और
खतरा यही है
कि अंधे भी
कंठस्थ कर
लेते हैं।
इसलिए
लाओत्से नहीं
चर्चा करता कि
आत्मा क्या है, क्या
नहीं है। वह
इतना ही कहता
है, कैसे
आंख की
चिकित्सा हो
सकती है। बस
वह चिकित्सा
हो जाए, तो
काफी है।
एक
मित्र ने पूछा
है,
हम धार्मिक
ही क्यों हों,
जब न आदि का
पता है, न
अंत का, न
ईश्वर-आत्मा
का कोई पता है?
बुद्ध
पुरुष कहते
हैं जिस सत्य
की बात, यदि
वह सत्य है, तो वे सभी को
उसका अनुभव
क्यों नहीं
करवा पाते हैं?
कोई नहीं
कहता आपसे कि
आप धार्मिक
हों। कम से कम
लाओत्से तो
नहीं कहेगा।
क्योंकि
धार्मिक लोगों
ने इतने
उपद्रव किए
हैं कि आप न
हों,
तो अच्छा
है। लाओत्से
नहीं कहता कि
धार्मिक हों।
लाओत्से तो
इतना ही कहता
है कि जो आप
हैं, वही
हों।
आप पूछ
सकते हैं कि
वही हम क्यों
हों?
क्योंकि
वही आप हो
सकते हैं। और
कुछ होने का उपाय
नहीं है। हां, और
कुछ होने की
आप कोशिश कर
सकते हैं। उस
कोशिश में
जीवन व्यर्थ
हो सकता है।
लेकिन
आप कह सकते
हैं कि हम
जीवन को
व्यर्थ क्यों
न करें?
कोई
आपको रोक नहीं
सकता। और
इसीलिए बुद्ध
पुरुष भी हार
जाते हैं और
आपको सत्य का
ज्ञान नहीं
करवा पाते।
क्योंकि आप
कहते हैं, हम
सत्य का ज्ञान
क्यों करें? बुद्ध पुरुष
भी क्या कर
सकते हैं! कह
सकते हैं। जो
आनंद उन्हें
उपलब्ध हुआ है,
जो शांति
उन्होंने पाई
है, जो
प्रकाश
उन्हें मिला
है, उसकी
प्यास जगाने
की चेष्टा कर
सकते हैं। वे
प्रकाश तो
नहीं दे सकते,
लेकिन
प्यास जगाने
की चेष्टा कर
सकते हैं।
लेकिन
आप यह भी कह
सकते हैं कि
क्यों हमारी
प्यास जगाने
की चेष्टा कर
रहे हैं?
लेकिन
आप थोड़ा समझने
की कोशिश
करें। अगर आप
धार्मिक नहीं
होना चाहते
हैं,
आप यहां
पहुंच कैसे गए?
आपको यह
प्रश्न पूछने
का खयाल क्यों
आया? कोई
बेचैनी है
भीतर, जो
आपको यहां तक
ले आई, और
आपने इतनी
कृपा की और
प्रश्न लिखा।
इतना कष्ट
उठाया। कोई
बेचैनी है
भीतर। एक बात
तय है कि आप
कुछ खोज रहे
हैं। नहीं तो
आने का कोई
कारण नहीं है,
प्रश्न
पूछने का कोई
कारण नहीं है।
कोई खोज है।
आप
क्या खोज रहे
हैं?
बुद्ध उसी
को धर्म कहते
हैं, लाओत्से
उसी को ताओ
कहते हैं।
आपको पता हो
या न पता हो, आप धर्म खोज
रहे हैं। आपको
यह भी पता
नहीं है कि आप
क्या खोज रहे
हैं।
थोड़ा
अपने भीतर
जांच-पड़ताल
करें: क्या है
आकांक्षा? क्या
है तलाश? हमें
यह भी तो पता
नहीं कि हम
कौन हैं, क्यों
हैं, किस
वजह से हैं? हमारा होना
बिलकुल अकारण
मालूम होता
है। इस पृथ्वी
पर जैसे अचानक
फेंक दिए गए
हैं। क्यों हैं?
बेचैनी है
भीतर। और वह
बेचैनी तब तक
समाप्त न होगी,
जब तक इस
अस्तित्व के
भीतर अपनी
जड़ों का हमें अनुभव
न हो जाए। जब
तक हम इस
अस्तित्व और
अपने बीच एक
संबंध को न
जान लें, तब
तक हमें
बेचैनी जारी
रहेगी।
धार्मिक
होने का और
क्या अर्थ है? शब्दों
में जाने की
कोई जरूरत
नहीं है।
धार्मिक होने
का इतना ही
अर्थ है: वह
आदमी जिसने
अस्तित्व और
अपने बीच
संबंध खोज
लिया, जिसने
विराट और अपने
बीच नाता खोज
लिया, जो
अब इस जगत में
एक परदेशी, अजनबी, स्ट्रैंजर नहीं है। यह
जगत उसका
परिवार हो
गया। ये चांदत्तारे
और सूरज उसका
परिवार हो गए।
अब वह अपने घर
में है।
धार्मिक होने
का क्या मतलब
है? धार्मिक
होने का मतलब
है कि हम कहीं
परदेश में
नहीं भटक रहे
हैं, हम
किन्हीं
अजनबी लोगों
के बीच में
नहीं हैं; यह
जगत हमारा घर
है।
लेकिन
मकान घर नहीं
होता। मकान तो
सभी हैं। कौन
सा मकान घर
होता है आपका? जिसके
बीच और आपके
बीच एक आत्मैक्य
स्थापित हो
जाता है, जिसके
बीच और आपके
बीच एक आंतरिक
मिलन हो जाता
है, तब
मकान घर हो
जाता है।
अधार्मिक
आदमी संसार
में रहता है
और धार्मिक
आदमी
परमात्मा
में। संसार और
उसके बीच एक संबंध,
गहन संबंध
हो जाता है।
उसके भीतर के
हृदय की वीणा
पर जगत की सब
चीजें संगीत
उठाने लगती
हैं। सूरज फिर
पराया नहीं
है। और चांदत्तारे
फिर दूर नहीं
हैं। सभी कुछ
अपना है। और
यह सारा विराट
ब्रह्मांड
अपना घर है।
ऐसी जो
प्रतीति है, वह
धार्मिकता
है।
अगर आप
इस जगत में एक
परिवार को खोज
रहे हैं, एक
प्रेम को, तो
आप धर्म को
खोज रहे हैं।
अगर आप एक
व्यक्ति के भी
प्रेम में
पड़ते हैं, तो
आपने जगत के
एक हिस्से को
धार्मिक बना
लिया। फिर जितना
जिसका बड़ा है
परिवार, उतना
है उसका गहन
आनंद।
कुछ
लोग ऐसे हैं
कि वे ही उनका
अकेला परिवार
हैं। कहीं
उनका कोई
नाता-रिश्ता
नहीं है। फिर
अगर ऐसे लोगों
को लगने लगता
है कि हम आउटसाइडर
हैं...।
कोलिन विल्सन ने
एक किताब लिखी
है--दि आउटसाइडर।
इस युग के लिए
प्रतीक-किताब
है। इस युग
में हर आदमी
को लगता है कि
मैं एक अजनबी
हूं। क्यों
हूं?
किससे मेरा
क्या संबंध है?
कौन मेरा, मैं किसका? कहीं कोई
दिखाई नहीं
पड़ता जोड़। उखड़े-उखड़े
लोग, जैसे
वृक्ष को जमीन
से उखाड़
दिया हो और
हवा में लटका
दिया हो, वैसे
हम हैं।
धार्मिक
होने का अर्थ
है,
जड़ों की
खोज। सिमोन
वेल ने एक
किताब लिखी
है--दि नीड फॉर
दि रूट्स।
इस सदी में
थोड़े से
धार्मिक
व्यक्तियों
में वह महिला
भी एक थी।
उसने लिखा है
कि धर्म जो है,
वह जड़ों की
तलाश है। यह
जो लटका हुआ
आकाश में, अधर
में लटका हुआ
वृक्ष
है--सूखता हुआ,
कुम्हलाता
हुआ, तड़पता
हुआ--इसको
वापस जगह देनी
है जमीन में।
इसको फिर इसकी
जड़ें मिल जाएं,
यह फिर हरा
हो जाए, इसमें
फिर फूल आने
लगें।
धार्मिक होने
का अर्थ है:
अपनी ही खोज, अपने और जगत
के बीच किसी
संबंध की खोज।
अपने और जगत
के बीच किसी
गहन प्रेम की
खोज।
मैं
नहीं कहता कि
आप धार्मिक हो
जाएं। लेकिन
इस जमीन पर एक
भी ऐसा आदमी
नहीं है, जो
धार्मिक नहीं
होना चाह रहा
है, भला वह
इनकार ही
क्यों न कर
रहा हो। एक
आदमी ऐसा
खोजना
मुश्किल है, जो धार्मिक
न होना चाह
रहा हो। धर्म
को वह शब्द
क्या देता हो,
यह उसकी
मर्जी। वह
अपनी
आकांक्षा को
क्या
रूप-आकृति
देता हो, यह
भी उसकी
मर्जी। लेकिन
मुझे अब तक
ऐसा एक आदमी
नहीं मिला, जो धार्मिक
होने की तलाश
में नहीं है।
जिसको हम
नास्तिक कहते
हैं, वह भी
तलाश में है।
असल
में,
आदमी की
तलाश ही यही
है कि वह इस
जगत में कोई
असंगत और
व्यर्थता तो
नहीं है? इस
जगत में कोई उखड़ी हुई
चीज, व्यर्थ
की चीज तो
नहीं है? इस
जगत में उसके
होने की कोई
अर्थवत्ता है
या नहीं, कोई
सिग्नीफिकेंस?
वह है, तो
इस विराट में
उसका कोई
मूल्य है? इस
जगत में मूल्य
की खोज धर्म
है। आप हैं, आपका कोई
मूल्य है इस
जगत में? कीमत
हो सकती है; मूल्य कोई
है आपका इस
जगत में?
अगर
आपका कोई
मूल्य है, तो
उसका अर्थ हुआ
कि यह जगत
आपके भीतर से
विकसित हो रहा
है; यह
विराट चेतना
की धारा आपके
भीतर से
विकासमान हो
रही है। यह
पूरा जगत आपको
चाहता है; आपके
हुए बिना
अधूरा होता।
आप न होते, तो
यह जगत अधूरा
होता, कुछ
कमी होती, कुछ
खाली जगह
होती। आपने इस
जगत को भरा
है। इस जगत और
आपके बीच कोई
गहरा लेन-देन
है। प्रतिपल
यह जगत आपको
दे रहा है और
आपसे ले रहा
है। आप और जगत
के बीच एक
गहरा अंतर्मिलन
है। इस अंतर्मिलन
की खोज ही
धर्म है।
पर मैं
नहीं कहता कि
आप धार्मिक हो
जाएं। दुनिया
में कोई किसी
के कहने से
कभी धार्मिक
नहीं हुआ है।
बल्कि इतने
लोग जो
अधार्मिक
दिखाई पड़ते
हैं,
यह बहुत
चेष्टा करने
का फल है।
चार्ल्स
डार्विन ने
अपने
आत्म-संस्मरणों
में एक बड़ी
हैरानी की बात
लिखी है। उसने
लिखा है, कुछ
चीजें ऐसी हैं
कि जो चेष्टा
करने से विपरीत
परिणाम लाती
हैं। उसने
कहीं यह पढ़ा
था। वह तो
वैज्ञानिक आदमी
था डार्विन।
उसने सोचा, बिना प्रयोग
किए कैसे...!
तो
उसने अपने
पड़ोस के दस
जवान लड़कों को
बुलाया। सुंघनी
होती है नाक
में सूंघने
की। वह उन
दसों के सामने
रखी और उनसे
कहा कि मैं
तुमसे पूछता
हूं,
तुमने कभी
यह नास, यह सुंघनी
सूंघ कर देखी
है? उन सब
ने कहा, हमें
अनुभव है, बड़े
जोर से छींकें
आती हैं। तो
डार्विन ने
कहा कि मैंने
ये दस नगद
सोने के
सिक्के रखे
हैं। जिसको भी
छींक आ जाएगी सुंघनी
लेने पर, नगद
एक सोने का
सिक्का उसे
दूंगा।
उन
दसों ने सुंघनी
ली,
बड़ी कोशिश
की छींक को
लाने की, रुपया
सामने रखा था,
छींक है कि
नहीं आती है।
आंख से आंसू
बहते हैं, मुंह
लाल हो जाता
है; लेकिन
छींक है कि
नहीं आती है।
दस में से एक
भी सफल नहीं
हुआ छींक लाने
में।
आप भी
सफल न होंगे; छींक
लाने की कोशिश
करें। छींक
आती है, लाई
नहीं जाती।
धार्मिक
होना होता है; कोई
आपको धार्मिक
बना नहीं
सकता। इसलिए धर्मगुरुओं
ने मिला कर
पृथ्वी को
अधार्मिक बना
दिया है। धर्मगुरुओं
की चेष्टाओं
का फल यह है कि
किसी को छींक
ही नहीं आती।
सब लाने की
कोशिश में लगे
हैं। लेकिन मेकेनिज्म
है। कुछ चीजें
हैं, जो
सहज हों, तो
ही होती हैं।
चेष्टा से हों,
नहीं होती
हैं।
और
लाओत्से
इसलिए सहज पर
जोर देता है।
वह कहता है, यह
जो परम सत्य
है जीवन का, यह सहज होता
है। तुम जितने
सहज हो जाओगे,
यह छलांग लग
जाएगी। तुम
जितनी चेष्टा
करोगे, उतनी
यह छलांग
असंभव है।
आज
इतना ही। रुकें, पांच
मिनट कीर्तन
करें, और
फिर जाएं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें