दिनांक 22 जनवरी
1978;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्न
सार :
1--शुभ क्या
है, अशुभ क्या
है? फिर शुभाशुभ
के पार क्या है?
2--जीवन दुख
है, फिर भी आदमी
जागता नहीं। जीवन
के नर्क के बावजूद
आदमी जीए किस तरह
चले जाता ?
3--जिसे चाहो
वह ठुकराता क्यों
है?
4--ज्ञान, ध्यान और योग
के मुकाबले में
भक्ति अधिक परंपराग्रस्त
और रूढ़िवादी क्यों?
5--आपने अपने
प्रेमी और प्रेयसी
में भी परमात्मा
ही देखने को कहा,
यह मेरी समझ
में नहीं आया।
शरीर के नाते—रिश्ते
व वासना के संबंधों
में कहा परमात्मा!
पहला
प्रश्न :
शुभ क्या
है और अशुभ क्या
है? फिर शुभाशुभ
के पार क्या है?
शुभ का कोई
संबंध नीति से
नहीं है। नीतियां
अनेक हैं, शुभ
एक है। हिंदू की
नीति एक, मुसलमान
की नीति दूसरी,
जैन की नीति
तीसरी। इसलिए नीतियां
तो मान्यताएं है।
बदलती रहती हैं।
उनका कोई शाश्वत
मूल्य नहीं है।
जो कल अनैतिक था,
आज नैतिक हो
सकता है। जो आज
नैतिक है, कल
अनैतिक हो जाएगा।
जैसे, महाभारत युधिष्ठिर
को धर्मराज कहता
है, और धर्मराज
जूआ खेलने में
जरा भी संकोच अनुभव
नहीं करते। जूआ
अनैतिक नहीं था।
उन दिनों जूआ नैतिक
था। धर्मराज के
धर्मराज होने में
जूआ खेलने से कोई
बाधा नहीं आती।
और छोटे—मोटे जूआरी
भी न रहे होंगे,
सब लगा दिया—सब
ही नहीं लगा दिया,
पत्नी भी लगा
दी।
पत्नी कोई
संपत्ति नहीं है,
पत्नी के पास
उतनी ही आत्मा
है जितनी पति के
पास। किसी को कोई
हक नहीं है कि पत्नी
को या पति को दाव
पर लगा दे। दाव
पर लगाने का मतलब
है कि पत्नी के
बेचने का हक था।
इस देश में तो लोग
ही कहते है—स्त्री—संपत्ति।
यह बड़ी अनैतिक
बात है आज। आज धर्मराज
को धर्मराज कहना
बहुत मुश्किल होगा।
अगर धर्मराज धर्मराज
हैं तो फिर अधर्मराज
कौन? यह बात
ही बेहूदी है,
असंस्कृत है,
पर उस दिन स्वीकार
थी, कोई अड़चन
न थी।
आज जो नैतिक
है, कल अनैतिक
हो जाएगा। नीति
बदलती है। इसलिए
नीति के साथ शुभ
को एक मत समझ लेना।
शुभ शाश्वत है।
शुभ न हिंदू का,
न मुसलमान का,
न जैन का, न ईसाई का, शुभ तो परमात्मा
से संबंधित होने
का नाम है। शुभ
सासारिक धारणा
नहीं है, न सामाजिक
धारणा है। शुभ
तो अंतस—छंद की
प्रतीति है। शांडिल्य
से पूछो, या
अष्टावक्र से,
या मुझ से, उत्तर यही होगा
कि जिस बात से तुम्हारे
भीतर के छंद में
सहयोग मिले, वह शुभ। और जिस
बात से तुम्हारे
भीतर के छंद में
बाधा पड़े, वह
अशुभ। जिससे तुम्हारा
अंतस गीत बढ़े वह
शुभ, जिससे
तुम्हारा अंतस
गीत छिन्न—छिन्न
हो, खंडित हो,
वह अशुभ। जिससे
तुम समाधि के करीब
आओ, वह शुभ,
और जिससे तुम
समाधि से दूर जाओ,
वह अशुभ। कसौटी
भीतर है, कसौटी
बाहर नहीं है।
किसी ने पूछा
है—क्या मांसाहार
शुभ है, या अशुभ?
कसौटी भीतर
है। अगर मांसाहार
से तुम्हारा ध्यान
बढ़ता हो, तो
शुभ है। अगर मासाहार
से ध्यान में बाधा
पड़ती हो, तो
अशुभ है। यह भी
पूछा है कि मोहम्मद
तो मांसाहार करते
थे, क्राइस्ट
तो मांसाहार करते
थे, फिर भी समाधि
को उपलब्ध हुए।
तुम क्राइस्ट और
मोहम्मद की चिंता
मत करो;न महावीर
और बुद्ध की चिंता
करो;क्योंकि
वे बाहर हैं; तुम अपना छंद
देखो। कौन जाने
महावीर पहुंचे
कि नहीं पहुंचे,
और कौन जाने
मोहम्मद पहुंचे
कि नहीं पहुंचे?
वह तो मान्यता
की बात है। उस के
लिए और कोई प्रमाण
नहीं है। वह तो
विश्वास की बात
है। एक बात सुनिश्चित
हो सकती है कि तुम
जिससे पहुंचो,
वह शुभ। तुम
अपने भीतर परखो।
मांसाहार करते
समय तुम्हारी वृत्ति
वैसी ही होती है
जैसी शाकाहार करते
समय? यह देखो।
बस वहीं परखो।
बाहर से बहाने
मत खोजो।
यह बहाना
है। मांसाहार करना
चाहते होओगे,
तो बहाना खोज
रहे हो कि मोहम्मद
पहुंच गये, तो मैं क्यों
नहीं पहुंच जाऊंगा?
इस तरह अपने
को समझाओ मत, परखो, प्रयोग
करो। मैं प्रयोग
का पक्षपाती हूं;
विश्वास का नहीं।
तुम्हारा जीवन
ही निर्धारक होगा।
तुम अगर पाओ कि
मांसाहार करने
के बाद चित्त शांत
होता है, चित्त
मे उद्वेग कम हो
जाते हैं, क्रोध
कम हो जाता है,
हिंसा कम हो
जाती है, ईर्ष्या
कम हो जाती है,
अहंकार कम हो
जाता है, तो
फिक्र छोड़ो महावीरों
की, और बुद्धों
की, तुम मांसाहार
करो। और अगर तुम
पाओ कि मांसाहार
करने से द्वेष
बढ़ता है, घृणा
बढ़ती है, वैमनस्य
बढ़ता है, जीवन
में उत्पन्न होता
है गलत, जीवन
के संबंध विषाक्त
होते हैं, तो
फिर फिकर छोड़ो
क्राइस्ट की और
मोहम्मद की, वे जानें उनका,
तुम अपनी फिकर
करो। तुम पाओगे
कि मासाहार करने
से अड़चन आती है।
और मैं यह
नहीं कहता हूं
कि मासाहार करने
वाला समाधिस्थ
नहीं हो सकता है।
समाधिस्थ हो सकता
है। लेकिन फिजूल
की अड़चनें। ऐसे
समझो कि कोई आदमी
पहाड़ चढ़ रहा है,
गले से एक पत्थर
बाधे हुए है। चढ़
सकता है, कोई
अड़चन नहीं है,
ऐसी अड़चन नहीं
है, असंभव नहीं
हो गयी है बात,
पत्थर बाधकर
भी कोई चढ़ सकता
है;लेकिन इसलिए
तुम पत्थर बांधकर
चढ़ों, यह तो
कोई तर्क न हुआ।
अपना ही बोझ चढ़ा
लो तो बहुत है,
पत्थर और किसलिए
बांधते हो? फिर कोई चढ़ गया
होगा, रहा होगा
कोई राममूर्ति
जैसा कि छाती पर
पत्थर तुड़वा लिये
होंगे। लेकिन तुम्हारे
पास वैसी छाती
है? पत्थर शायद
ही टूटे, छाती
टूट जाएगी।
फिर व्यक्ति—व्यक्ति
अलग है। किसी के
भीतर एक तत्व जाकर
आनंद उत्पन्न करता
है, किसी के
भीतर विषाद उत्पन्न
करता है। व्यक्ति
को परख भीतर से
लेनी चाहिए। स्वयं
के अतिरिक्त कहीं
और कोई कसौटी नहीं
है।
तुम पूछते
हो—शुभ क्या है? शुभ,
तुम्हारे छंद
मे बढ़ती जिससे
हो। वही खाओ, वही पीओ, वही
उठो, वही बोलो,
वही चलो, जिससे तुम्हारा
भीतर का छंद बढ़े।
जिससे भीतर की
वीणा ठीक से बजे।
जिससे तुम्हारे
जीवन में एक उल्हास,
एक हल्कापन,
जिससे तुम्हें
पंख लगें और तुम
उड़ सको। अष्टावक्र
का शरीर आठ जगह
से टेढ़ा था—इसलिए
उनका नाम अष्टावक्र—तुम
यह तो नहीं पूछते
कि मैं भी अपने
शरीर को आठ जगह
से टेढ़ा करूं,
क्योंकि अष्टावक्र
तो पहुंच गये आठ
जगह से टेढ़े थे—ऊंट
जैसे रहे होंगे
—इस कारण तुम अपने
शरीर को आठ जगह
से टेढ़ा तो न करोगे!
और मैं यह नहीं
कहता हूं कि अष्टावक्र
नहीं पहुंचे। जरूर
पहुंचे। मगर यह
फिजूल झंझट किसलिए
लेनी! भले—चंगे
पहुंच सकते हो,
तो आठ जगह से
शरीर को तिरछा
क्यों करना? जहां सुगमता
से पहुंचा जा सके,
वहा व्यर्थ की
बाधाएं क्यों खड़ी
करना?
शराब पीने
वाले भी पहुंच
जाते हैं। इससे
शराब पीने मत लग
जाना। शराब पीने
वाला पहुंचता है—शराब
पीने के कारण नहीं, शराब
पीने के बावजूद।
मांसाहारी भी पहुंचता
है —मांसाहार के
कारण नहीं, मांसाहार के
बावजूद। अष्टावक्र
पहुंचते हैं,
आठ जगह से टेढ़े
होने के कारण नहीं,
आठ जगह से टेढ़े
होने के बावजूद।
आठ जगह से टेढ़े
होने के कारण तो
हजार तरह की अड़चनें
आती ही हैं। तुम
सौभाग्यशाली हो
अगर उन अड़चनों
से बच जाओ। और फिर
मैं दोहरा दूं
कि मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि जिसने
मांसाहार किया
वह नहीं पहुंचा।
नहीं तो राम भी
नहीं पहुंचेंगे—
क्षत्रिय घर में
पैदा हुए थे। और
रामकृष्ण भी नहीं
पहुंचेंगे, क्योंकि बंगाली
घर मे मछली तो चलेगी!
बिना मछली के कहीं
बंगाली का भोजन
होता है? फिर
तो बहुत कम लोग
पहुंचेंगे, सारी पृथ्वी
तो मांसाहारियों
से भरी है। लेकिन तुम
सौभाग्यशाली हो
अगर शाकाहारी होने
की सुविधा हो।
क्योंकि शाकाहार
तुम्हारी देह को
निर्मल रखेगा,
मन को ताजा और
स्वच्छ रखेगा।
शाकाहार तुम्हें
हल्का—फुल्का रखेगा।
तुम भारी न हो जाओगे।
तुमने देखा, शाकाहारी पशु—पक्षी
दिनभर भोजन करते
हैं। मांसाहारी
सिंह एक ही बार
चौबीस घंटे में।
क्यों? मांसाहार
इतना भारी है कि
चौबीस घंटे पचाने
में लग जाते हैं।
बंदर बैठा है वृक्ष
पर वह शाकाहारी
है, वह दिनभर
चलाते ही रहता
है, जो मिल जाए।
क्यों? शाकाहार
हल्का है। पत्थर
की तरह नहीं पड़
जाता है। और देह
जब भी भारी होगी,
तब आकाश में
उड़ना कठिन होगा।
देह जब भी भारी
होगी, तब ध्यान
की ऊंचाइयां छूना
कठिन होगा—असंभव
नहीं कह रहा हूं;कठिन।
तुमने देखा
नहीं, जब तुम
खूब भोजन कर लेते
हो तो नींद आने
लगती है। उससे
थोड़ा सा समझो।
जब बहुत भोजन कर
लिया तो नींद क्यों
आती है? जाग्रत
रहना कठिन हो जाता
है। शरीर इतना
भारी हो गया कि
सोना चाहता है।
बहुत भोजन कर लेने
के बाद ध्यान करने
नहीं बैठ सकोगे।
ध्यान करोगे,
झपकी खाओगे,
नींद आ जाएगी।
इसलिए तो लोगो
ने उपवास की प्रक्रिया
खोजी। हल्के पेट,
खाली पेट जैसा
ध्यान लग सकता
है, वैसा भरे
पेट नहीं लग सकता।
तुमने भी देखा
है, तुमने सोचा
नहीं है जीवन के
बाबत, जिस दिन
बिना भोजन किये
रात सोओ, तुम्हें
पता चल जाएगा,
नींद नहीं आती;नींद मुश्किल
हो जाती है। नींद
के लिए भोजन जरूरी
है। ध्यान तो नींद
से विपरीत दशा
है। ध्यान जागरण
की दशा है। तो मैं
तुम से यह नहीं
कहता कि तुम भूखे
रहो, क्योंकि
ज्यादा दिन भूखे
रहोगे तो घातक
हो जाएगा। मैं
तुम से यह भी नहीं
कहता कि तुम बहुत
भारी भोजन करो।
मैं तुम से यही
कहता हूं —सम्यक
आहार। इतना करो,
जिससे शरीर आनंद
से चले, नाचता
हुआ चले; न ज्यादा,
न कम। और ध्यान
रखो, क्योंकि
तुम जो भी कर रहे
हो उसके परिणाम
हैं।
एक आदमी
किसी पशु की हत्या
करके भोजन कर रहा
है,
यह भोजन बहुत
महंगा हो गया।
पशु की हत्या करने
में इसे कठोर तो
हो ही जाना पड़ेगा।
फिर चाहे कोई और
इसके लिए करे,
इसे पता तो है
कि मेरे लिए की
जा रही है। एक प्राण
नष्ट किया जा रहा
है, एक देह खंडित
की जा रही है। तुम
कर पा रहे हो, सिर्फ भोजन के
लिए, और भोजन
जब कि और ढंग से
भी हो सकता था,
अपरिहार्य नहीं
थी यह हत्या, यह बचायी जा सकती
थी, तो तुम कठोर
हो रहे हो। अब इस
कठोर हृदय मे करुणा
कैसे पैदा होगी?
यह ऐसा ही हो
गया कि झरने के
मार्ग में एक चट्टान
रख दी। हा, कभी—कभी
झरना चट्टान को
तोड़कर भी बह आता
है—ऐसा ही मोहम्मद
में हुआ होगा,
झरना चट्टान
को तोड़कर बह आया।
लेकिन सदा ऐसा
नहीं होगा। मोहम्मद
का झरना बड़ा रहा
होगा। छोटी—मोटी
चट्टान की परवाह
नहीं की। अब कौन
जाने तुम्हारा
झरना कितना बड़ा
है? हो सकता
है छोटा—मोटा झरना
हो, पत्थर रोक
ही दे सदा को। झरना
बंद ही रह जाए,
बहे न, सागर
तक पहुंचे न, तुम्हारा जीवन
व्यर्थ हो जाए।
सदा अपने
भीतर जाचो, परखो,
शुभ क्या है
जिससे तुम्हारा
जीवन—छंद सधे,
जीवन—वीणा से
स्वर उठें। जितने
संगीतपूर्ण हो
सके, तुम्हारी
श्वास—प्रश्वास
जितनी संगीत से
भर सके, उतना
शुभ। शास्त्रों
से मत तौलना, अपने भीतर के
संगीत से परखना।
और एक बार तुम्हें
यह कसौटी हाथ लग
जाए, तो जल्दी
ही तुम अनुभव करने
लगोगे कि जीवन
में क्रांति होनी
शुरू हो गयी। क्योंकि
जानकर कौन अपने
पैर पर कुल्हाड़ी
मारता है? जानकर
कोई नहीं मारता।
अनजाने चोट लग
जाए, एक बात।
तुमने पूछा—और
अशुभ क्या है? अशुभ,
शुभ से जो विपरीत
है, जिससे तुम्हारा
छंद भंग होता है,
जिससे तुम्हारे
भीतर का रस छिन्न—भिन्न
होता है, जिससे
तुम्हारे भीतर
की वीणा के तार
टूट जाते हैं,
वही अशुभ है।
तुम देखो, किसी
से झूठ बोले, झूठ बोलते ही
तुम्हारे भीतर
के तार संगीत पैदा
नहीं करते। झूठ
बोलो और तुम देखो,
झूठ बोलते ही
तुम सिकुड़ जाते
हो; भयभीत हो
जाते हो; डर
जाते हो—पकड़े तो
नहीं जाओगे? आज नहीं कल झूठ
किसी की पकड़ में
तो न आ जाएगा? फिर एक झूठ बोलो
तो उस झूठ को बचाने
के लिए हजार झूठ
बोलने पड़ते हैं।
फिर पकड़े जाने
की संभावना भी
बढ़ती जाती है।
जितनी पकड़े जाने
की संभावना बढ़ती
है, उतना भय
बढ़ता है। जितना
भय बढ़ता है, उतना झूठ बढ़ता
है। जितना झूठ
बढ़ता है, और
पकड़े जाने की संभावना
बढ़ती है। तुम फंस
गये एक जाल में।
अपने ही हाथ से
जाल बुना, मकड़ी
खुद ही फंस गयी
अपने जाल में।
फिर निकलने का
रास्ता नहीं सूझता।
क्योंकि इतने झूठ
बोल चुके हो, अब अगर सच बोले
तो सारा जीवन अस्त—व्यस्त
हो जाएगा। एक और
सही, एक और सही।
एक झूठ बोलो, फिर
झूठ की बड़ी संताने
है—झूठ संतान—नियमन
नहीं मानता। सत्य
की संतान नहीं
होती। सत्य ब्रह्मचारी
है। एक सत्य बोलो,
पूरा हो गया—अपने
में पूरा होता
है, अब किसी
और सहारे की जरूरत
नहीं होती। और
सत्य बोलकर निश्चित
सो सकते हो, चिंता नहीं पकड़ती।
सत्य की सुरक्षा
नहीं करनी पड़ती।
सत्य के लिए आयोजन
नहीं करना पड़ता
बचाने का। सत्य
अपना प्रमाण है।
सत्य के साथ हृदय
निर्भार होता है।
सत्य के साथ मन
मौज में होता है।
सत्य के साथ अभय
होता है। और जंहा
अभय है, और जंहा
मन मुक्त है, वहा संगीत है,
वहां छंद है।
उसी छंद में शुभ
है। अशुभ का अर्थ
हुआ, ऐसा कुछ
मत करो जिससे तुम
सिकुड़ते हो। ऐसा
कुछ मत करो जिससे
तुम्हें अपने को
छिपाना पड़ता है।
ऐसा कुछ मत करो
जिसके कारण तुम
नग्न नहीं हो सकते।
ऐसा कुछ मत करो
जिसके कारण तुम्हें
अवरोध खड़े करने
पड़े। बस इतना ही
ध्यान रहे।
मैं तुम्हें
मूल कुंजी की बात
कर रहा हूं? विस्तार
की बात नहीं कर
रहा हूं। मैं तुम्हें
कोई गिना नहीं
रहा हूं कि यह—यह
बातें शुभ हैं
और यह—यह बातें
अशुभ है। क्योंकि
गिनती हो नहीं
सकती, जीवन
विराट है बहुत
बड़ा है जीवन। दस
आशाएं हैं यहूदियों
की। मगर ऐसा मौका
आ जाता है, ग्यारहवीं
की जरूरत पड़ती
है। तब क्या करोगे,
फिर तो तुम्हीं
निर्णय करोगे!
दस आशाओं में कहीं
दुनिया समाप्त
होती है? यहा
रोज प्रतिपल नयी
आशा की जरूरत पड़ती
है। इसलिए बजाय
इसके कि मैं तुम्हें
फेहरिस्त दूं कि
यह करना शुभ है
और यह करना शुभ
है और यह करना शुभ
नहीं है, मैं
तुम्हें सिर्फ
रोशनी दे रहा हूं
कि यह दीया सम्हालो।
इस दीये में तुम्हें
जो मार्ग दिखायी
पड़े, वह शुभ
है, और जंहा
दीवाल दिखायी पड़े
वहां से मत जाना—जाओगे
ही क्यों? वहा
सिर टूटेगा।
सदगुरुओं
ने सिद्धात नहीं
दिये हैं, सदगुरुओं
ने दृष्टि दी है।
सिद्धात थोड़ी दूर
काम पड़ सकते हैं।
ऐसा समझो एक अंधा
आदमी तुम से पूछता
है कि मुझे स्टेशन
जाना है, कैसे
जाऊं? तुम उसे
सब समझा देते हो
कि पहले बाएं रास्ते
से चलना मील भर,
फिर दाएं मुंडू
जाना, फिर मील
भर चलना, फिर
बाएं मुड़ जाना;
तुम उसे सब समझा
देते हो; फिर
भी पक्का नहीं
है कि अंधा पहुंच
पाएगा— अंधा आखिर
अंधा है। कब मील
पूरा हुआ, कैसे
जानेगा? आधा
मील पर ही मुड़ जाए,
कि डेढ़ मील तक
चलता चला जाए! सदगुरु
अंधे को सूचनाएं
नहीं देते, सदगुरु कहते
है—यह अंजन लो,
आंख पर आज लो,
इससे तुम्हें
दिखायी पड़ेगा।
फिर तुम खुद ही
जानोगे, राह
के किनारे पत्थर
लगे हैं वह इशारा
बताते है कि स्टेशन
कितनी दूर, तुम खुद ही पहुंच
जाओगे। दृष्टि
चाहिए।
मैं तुमसे
दृष्टि की बात
कर रहा हूं। तुम
इस तरह से अपने
जीवन की परीक्षा
में लग जाओ—जो भी
करते हो, इतनी ही
बात सोचकर करो
कि इससे मेरा संगीत
गहन होगा? बस।
अगर संगीत गहन
होता है, फिकर
छोड़ो दुनिया के
शास्त्रों की और
फिकर छोड़ो दुनिया
के सिद्धातो की,
उनका कोई मूल्य
नहीं है; वे
तुम्हारे लिए बनाये
भी नहीं गये, जिनके लिए बनाये
गये थे वे लोग अब
हैं भी नहीं।
कोई
वेद में जाकर अपना
सिद्धात खोजता
है। वेद पांच हजार
साल पहले लिखे
गये— और अगर लोकमान्य
तिलक की माने तो
पनचानबे हजार साल
पहले लिखे गये।
अगर लोकमान्य तिलक
सही हैं, तो वेद
उतने ही व्यर्थ
हो गये, ज्यादा
व्यर्थ हो गये,
क्योंकि पनचानबे
हजार साल पहले
जिस आदमी से कहे
गये थे वह आदमी
अब नहीं है। पांच
हजार साल भी काफी
समय हो गया, जिंदगी बहुत
बदल गयी है। जिंदगी
ने नये रूप ले लिये
हैं, नये मोड़
ले लिये हैं। जिन
मोड़ों का कोई पता
नहीं था वेद लिखने
वालों को—हो भी
नहीं सकता था—इन
नये मोड़ों पर नयी
घटनाएं घट गयी
हैं।
अब जैसे
समझो, जैन—मुनि
वाहन में नहीं
चलता। यह बात महावीर
के समय में समझ
में आती थी, क्योंकि वाहन
का मतलब था घोड़े
जुते होंगे, बैल जुते होंगे—बैलगाड़ी
होगी, कि घोड़ागाड़ी
होगी, और तो
कोई वाहन था नहीं।
बैलों पर कोड़े
पड़ेंगे। महावीर
ने कहा—यह हिंसा
है। अपने पैर से
जितना बन सके,
चल लो। यह ज्यादती
है। यह बैल पर सवार
होना, यह घोड़े
पर सवार होना ज्यादती
है। यह तुम इन निरीह
पशुओं के साथ अन्याय
कर रहे हो। यह बात
समझ में आती है।
इससे भीतर का छंद
टूटेगा।
जब भी तुम
किसी को गुलाम
बनाओगे, वह चाहे
पशु हो, चाहे
पक्षी हो, चाहे
मनुष्य हो, जब भी तुम किसी
को गुलाम बनाओगे,
तुमने अपनी ही
गुलामी का जाल
रचा। तुमने जब
किसी के लिए गड्डा
खोदा, गड्डा
तुम्हारे लिए खुदा।
आखिर बैल का भी
तो प्राण है, आत्मा है, संवेदना है! तुम
मजे से बैठे हो,
तुम को बैल ढो
रहा है—जैसे बैल
सिर्फ तुम्हें
ढोने के लिए पैदा
हुआ है! अगर बैलों
की दुनिया होती,
तो तुम बैलों
को ढोते तुम जुते
होते।
यह तो बात
ठीक थी, लेकिन
अब जैन—मुनि कार
में भी नहीं बैठ
सकता—क्योंकि वाहन
का इनकार है। अब
महावीर को कार
का कुछ पता नहीं
था कि एक दिन ऐसी
घड़ी आ जाएगी कि
न घोड़ा जुतेगा,
न बैल जुतेगा—हार्स
तो चला जाएगा,
हार्स पावर आएगा—इसका
कुछ पता नहीं था।
अब यह जैन—मुनि
अभी भी पैदल चल
रहा है। अब यह बात
जरा मूढ़ता की हो
गयी। अब कार में
चलने में कोई अड़चन
नहीं, कोई हिंसा
नहीं। लेकिन घबड़ाहट
लगती है उसे, उसके शास्त्र
में लिखा है। शास्त्र
के विपरीत कैसे
जाए?
शास्त्र
सदा पैर की जंजीर
हो जाते हैं। समय
बीता कि पैर की
जंजीर हुए। फिर
उन में तुम देखोगे
तो उलझोगे। और
दो ही उपाय बचते
हैं फिर। एक उपाय
तो बचता है, उनकी
मानकर चलो और मूढ़
रहो। और दूसरा
उपाय यह बचता है
कि उन को ऊपर—ऊपर
मानते रहो और भीतर—
भीतर मत मानो,
तब पाखंडी हो
जाते हो। दोनो
हालत में हानि
होती है। अब तो
आकाश में उड़ता
है हवाई जंहाज,
पैदल चलकर जितनी
हिंसा होती है
उतनी हिंसा भी
नहीं होती। पैदल
भी चलोगे तो पैर
तो जमीन पर पड़ता
है न, कीड़े—मकोड़े,
छोटे—मोटे जीव—जंतु
तो दबते ही हैं!
महावीर ने उसकी
भी चिंता की है—सूखी
जमीन में चलना,
गीली जमीन में
मत चलना; वर्षा
में मत चलना;इसलिए वर्षा
में जैन—मुनि नहीं
चलते। लेकिन हवाई
जंहाज में उड़ो।
जमीन से कोई संबंध
ही न रहा। हेलिकाप्टर
में जाओ। न पैर
पड़ेगा जमीन पर,
न कोई कीड़ा मरेगा।
फिर वर्षा हो कि
गर्मी, कोई
अंतर नहीं पड़ता।
लेकिन जैन—मुनि
अटका है, क्योंकि
वाहन है। वह शब्द
जान ले रहा है—यह
भी वाहन है, और वाहन का विरोध
है! मैंने सिर्फ
उदाहरण के लिए
तुम से कहा।
शास्त्र
सदा रुकावट का
कारण हो जाते है।
और निर्बुद्धि
के लिए तो बहुत
ज्यादा रुकावट
के कारण हो जाते
है। गले की फासी
लग जाती है, जीना
असंभव हो जाता
है। महावीर ने
कहा—रात भोजन मत
करना। ठीक कहा,
बिजली का उन्हें
कुछ पता नहीं था।
रात अभी भी तुम
जाओ इस देश को गांवो
में —ठेठ देहातों
में जहां बिजली
नहीं है, जंहा
केरोसिन का तेल
भी मिलना मुश्किल
है;इतनी सामर्थ्य
भी नहीं है कि केरोसिन
का तेल खरीदें—लोग
अंधेरे में भोजन
करते हैं। महावीर
ने जब कहा तो सारे
लोग अंधेरे में
भोजन कर रहे होंगे।
अंधेरे मे भोजन
करना जरूर खतरनाक
है। खुद के लिए
भी, कीड़े—मकोड़ों
के लिए भी;पतिंगों
के लिए भी, मच्छरों
के लिए भी, और
हिंसा हो जाएगी।
हिंसा भी होगी
और विषाक्त भी
हो सकता है भोजन।
लेकिन आज तो दिन
की रोशनी रात में
भी उपलब्ध है।
दिन से भी ज्यादा
रोशनी चाहो तो
उतनी उपलब्ध हो
सकती है। अब यह
बात व्यर्थ हो
गयी। मगर रात्रि
भोजन का निषेध
है, इसलिए रात्रि
भोजन नहीं किया
जा सकता।
तुम अपने
छंद से परखो। आंख
खोलकर देखो, अपने
जीवन की जांच करते
रहो, जहां तुम्हें
लगे कि यह बात मेरे
आनंद से जुड़ती
है और इससे मेरा
आनंद विकासमान
होगा, वही शुभ।
और जिससे तुम्हारा
आनंद खंडित होता
है, वही अशुभ।
फिर पूछा
है—शुभाशुभ के
पार क्या है? छंद
बंधे तो शुभ, छंद टूटे तो अशुभ,
और जब छंद ऐसा
हो जाए कि टूटने
की संभावना ही
न रहे, तुम ही
छंद हो जाओ, छंद तुम्हारी
नियति हो जाए,
तुम्हारा स्वभाव
हो जाए, तब शुभाशुभ
के पार। फिर चिंता
की भी जरूरत नहीं
कि क्या करूं,
क्या न करूं?
फिर उस छंद से
जो होता है, वह सब ठीक ही होता
है।
साधु और
संत की परिभाषा
में यही भेद है।
असाधु वह, जो
अशुभ करता है।
साधु वह, जो
शुभ करता है। संत
वह, जिससे शुभ
होता है, अशुभ
नहीं होता—करने
के पार चले गये।
करने में तो सोचना
पड़ता है —ऐसा करूं
या न करूं? निर्णय
लेना पड़ता है,
विकल्प होता
है। विकल्प मे
कभी भूल भी हो सकती
है। विकल्प मे
कभी चूक भी हो सकती
है। आखिर विचार
से ही किया जा रहा
है, विचार में
भ्रांतियां हैं।
संत की दशा का अर्थ
होता है—अब न शुभ
की चिंता है, न अशुभ की चिंता
है। छंद ऐसा बंधा
है कि अब टूट ही
नहीं सकता।
तुम संत
को नर्क में भी
फेंक दो तो भी वह
स्वर्ग में होगा।
छंद ऐसा बंधा है
कि अब नर्क भी उसे
तोड़ नहीं सकता।
तुम संत को बाजार
में बिठा दो, तो
भी उसके ध्यान
में भंग नहीं है।
छंद ऐसा बंधा है,
अब हिमालय की
गुफा पर ही बैठने
की कोई जरूरत नहीं
है। अब डर ही नहीं
रहा। अब छंद से
भेद नहीं रहा कि
मैं अलग और छंद
अलग, सम्हाले
रहूं। अब संगीतज्ञ
अलग नहीं है, अब संगीतज्ञ
अपना संगीत हो
गया। वह आखिरी
दशा है। उसी को
परमहंस कहा है।
उसी को शांडिल्य
ने भक्ति कहा है,
परम भक्ति,
जहां भक्त और
भगवान एक हो जाते
है—पराभक्ति जंहा
भक्त और भगवान
एक हो गए, फिर
कौन सी चिंता कि
ऐसा करूं कि वैसा
करूं करने वाला
रहा ही नहीं, अब भगवान करता
है।
अब तुम तो
मिट ही गये। अब
तो भूल हो ही नहीं
सकती, क्योंकि
बुनियादी भूल मिट
गयी—मैं होने की
भूल ही मिट गयी।
उस मैं से और—और
भूलें पैदा होती
थीं। अब चिंता
की कोई जरूरत नहीं,
अब निश्चित होकर
जी सकते हो। इसलिए
उस परमदशा में
संत बालवत हो जाता
है।
छोटे बच्चे
जैसा हो जाता है—न
कुछ शुभ है, न कुछ
अशुभ है। उसे पता
ही नहीं कि क्या
शुभ है, क्या
अशुभ है।
दूसरा
प्रश्न :
जीवन दुख
है,
फिर भी आदमी
जागता नहीं। जीवन
के नर्क के बावजूद
भी आदमी जीए किस
तरह चले जाता है?
जरूर विचार
उठता है। इतना
दुख है! बुद्धपुरुष
चिल्ला—चिल्लाकर
कहते हैं, मकानों
की मुंडेर पर चढ़कर
कहते हैं कि दुख
है, जीवन दुख
है, जागो। लोग
बुद्धों की सुन
लेते, उनके
चरणों पर दो फूल
भी चढ़ा देते कि
महाराज, ठीक
ही कहते होओगे,
मगर अभी मैं
जल्दी में हूं,
दुकान जाना है;अभी मैं जल्दी
में हूं;चुनाव
लड़ना है; अभी
मैं जल्दी में
हूं; विवाह
करना है। इन सबसे
निपट लूं, फिर
कभी आऊंगा निश्चित
होकर, जरूर
आऊंगा, चरणों
में बैठूंगा,
सुनूंगा, आप कहते है तो
ठीक ही कहते होगे।
लेकिन तुम्हारी
आखें कहती हैं
कि बुद्ध ठीक नहीं
कह रहे है। तुम्हारे
प्राण कहते हैं
कि बुद्ध ठीक नहीं
कह रहे है। तुम्हें
अभी जीवन में आशा
है।
तुम सोचते
हो कि हां, माना
कि अब तक जीवन मे
दुख पाए, लेकिन
कल भी पाऊंगा,
ऐसी क्या अनिवार्यता
है! कल चीजें बदल
भी सकती हैं। आज
तक हारा, कल
जीत भी सकता हूं।
आज तक नहीं मिला,
कल मिल भी सकता
है। नहीं मिला;इसका कारण यही
होगा कि मैंने
ठीक से प्रयास
नहीं किया। नहीं
मिला, इसका
कारण यही होगा
कि मैंने अपने
सारे जीवन को दाव
पर नहीं लगाया।
नहीं मिला तो इसीलिए
कि दूसरे ज्यादा
चालबाज थे, पा गये, मैं
सीधा—साधा आदमी
था, खड़ा रह गया।
कल जुगत बिठाऊंगा,
यत्न करूंगा,
कल सब दाव पर
लगाऊंगा। कल की
आशा चलाये जाती
है। और कल कभी आता
नहीं। और आशा मिटती
नहीं।
दुख तो है, सभी
के अनुभव में है।
लेकिन अनुभव पर
आशा की विजय होती
है। अनुभव तो अतीत
का है, आशा भविष्य
की है, यह खूबी
है। अनुभव अतीत
का है, अतीत
तो हो गया, ठीक;यह कैसे माने
कि हमारा भविष्य
हमारे अतीत की
ही पुनरुक्ति होगा?
मन मानने को
नहीं होता कि हमारा
भविष्य हमारी अतीत
की ही पुनरुक्ति
होगा। और हम ऐसी
कहानियां भी सुनते
हैं और ऐसी कहानिया
हम बच्चों को कहते
भी है।
गजनी का
मोहम्मद भारत आया।
वह सत्रह बार हार
गया,
सत्रहवीं बार
हारकर जब वह भाग
गया था और एक गुफा
मे छिपा बैठा था,
उस ने देखा एक
मकड़ी जाला बुन
रही है। बैठा था,
कुछ और काम भी
न था तो देखता रहा।
संयोग की बात कि
सत्रह बार धागा
टूट गया और मकड़ी
गिर गयी और अठारहवीं
बार चढ़ी और धागा
सम्हल गया और जाला
बन गया। बैठे —बैठे
गजनी को लगा कि
मैं भी सत्रह बार
हारा, कौन जाने
अठारहवीं बार जीत
जाऊं? मकड़ी
नहीं हारी, मैं क्यों हार
गया हूं? उठ
आया, बाहर निकल
आया, फिर जूझ
पडा। हम बच्चों
को समझाते हैं
कि अठारहवीं बार
गजनी जीता;तो
घबड़ाओ मत, उत्साह
मत खोओ, लड़े
जाओ। लेकिन हम
कभी यह नहीं पूछते
कि गजनी जीतकर
भी क्या जीता?
जो हारकर हालत
थी, क्या जीतकर
बदली? क्या
गजनी सुखी हुआ?
क्या गजनी ने
आनंद जाना? क्या गजनी ने
आत्मा पहचानी?
क्या गजनी को
समाधि का सुख मिला?
मिला क्या?
हारकर जैसा मरता
और धूल में गिरता,
वैसा ही जीतकर
भी मरा और धूल मे
गिरा;तो जीत
जीत थी कहा? जीत में जीत कहा
है?
हम उदाहरण
देते हैं लोगों
को,
क्योंकि हम सभी
को महत्वाकाक्षा
में चलाए रखना
चाहते हैं। स्कूल
में शिक्षक समझाते
है—हारो मत, आज हार गये, कल जीतोगे। मगर
कोई यह नहीं पूछता
कि जीत जो जाते
हैं, उन में
जीतता क्या है?
हारों में और
जीतो में भेद क्या
है? दोनों एक
से उदास और रिक्त
और खाली। दोनों
के भीतर की वीणा
खंडित। दोनो के
प्राण सूने, दोनों के प्राण
में गंदगी। और
अक्सर ऐसा हो जाता
है कि जीते आदमी
की हार हारे आदमी
से ज्यादा होती
है—इसे थोड़ा समझना—क्योकि
हारे आदमी को अभी
लगता है कि शायद
जीत जाऊंगा, जीते आदमी को
तो पक्का पता चल
जाता है कि जीतकर
भी जीत होती नहीं।
इसीलिए तो बुद्ध
और महावीर, राजपुत्र, महलों को छोड़कर,
साम्राज्यो
को छोड़कर चले
गये। क्योंकि देखा
कि महलों में भी
महल नहीं है, और धन में भी धन
नहीं है, और
यश मे भी कुछ मिलता
नहीं, सब कोरी
बातचीत है, सब अफवाहें हैं।
कितने लोग तुम्हें
जानते हैं, इससे क्या होगा?
दस लोग जानते
हैं, दस हजार
लोग जानते है,
कि दस लाख, कि दस करोड़, इससे क्या होगा?
तुम्हारे जीवन
में इससे क्या
रूपांतरण होगा?
तुम कैसे बदल
जाओगे इस बात से
कि बहुत लोग तुम्हें
जानते हैं? यश से भी क्या
होता है? भीतर
तो आदमी दरिद्र
का दरिद्र! धन मिले
तो दरिद्र, यश मिले तो दरिद्र,
पद मिले तो दरिद्र।
तुम जरा पद वालों
की आंख में झांककर
तो देखो, तुम
जरा धनी की आत्मा
को टटोलकर तो देखो,
तुम जिनको विजेता
कहते हो जरा उनकी
हार को तो देखो
कि किस बुरी तरह
हार गये हैं! लेकिन
आशा है।
एक दो नहीं
छब्बीस दिये
एक—एक करके
जलाये मैंने
इक दिया
नाम का आजादी के
उसने जलते
हुए ओठों से कहा
चाहे जिस
मुल्क से गेहूं
मांगों
हाथ फैलाने
की आजादी
एक दिया
नाम का खुशहाली
के
उसके जलते
ही यह मालूम हुआ
कितनी बदहाली
है
पेट खाली
है मेरा, जेब मेरी
खाली है
एक दिया
नाम का यकजदी के
रोशनी उसकी
जहां तक पहुंची
कौम को लड़ते—झगड़ते
देखा
मां के आचल
में हैं जितने
पैबंद सबको एक
साथ उघडूते देखा
दूर से बीबी
ने झल्ला कर कहा
तेल महंगा
भी है, मिलता भी
नहीं
क्यों दीए
इतने जला रखे हैं
अपने घर
में न झरोखा न मुंडेर
ताक सपनों
के सजा रखे हैं
आया गुस्से
का एक ऐसा
झोंका बुझ
गये सारे दीये
ही मगर एक
दिया नाम है जिसका
उम्मीद
झिलमिलाता
ही चला जाता है
उम्मीद, आशा,
कल्पना, आने
वाला कल बीते कल
से भिन्न होगा;
जो आज तक नहीं
हुआ, कल होगा;
ऐसी आशा को संजोये
आदमी चलता जाता
है। इसलिए दुख
भी हैं और फिर भी
आदमी जागता नहीं।
एक दिया नाम जिसका
उम्मीद। जितने
जल्दी यह दीया
बुझ जाए, उतना
अच्छा। जितने जल्दी
तुम आशा के पार
हो जाओ, उतना
अच्छा।
मुझ से लोग
संन्यास की परिभाषा
पूछते हैं, उनसे
में कहता हूं—आशा
के जो पार हो गया।
तुम थोड़ा चौंकोगे,
अष्टावक्र ने
भी यही परिभाषा
की है। कहा है—ज्ञानी
वही, जो निराशा
से भर गया। निराशा!
हम तो इस शब्द से
ही डरते हैं। यह
शब्द ही हमें घबड़ाता
है—निराशा! यह शब्द
बड़ा बहुमूल्य है।
निर, आशा—जिसकी
अब कोई आशा नहीं।
जिसने सब देख लिया,
सब पहचान लिया,
आशा का दीया
जिसका बुझ गया।
जिसकी आंख खुल
गयीं और जिसने
देखा कि यहां रेत
ही रेत है, इस
रेत से तेल निकाला
न जा सकेगा। यहा
रेगिस्तान ही रेगिस्तान
हैं, यहां कोई
मरूद्यान नहीं।
और जो दिखते थे
मरूद्यान, वे
भी मेरी कल्पनाएं
थीं। जो ऐसा आशा
के पार हो गया।
तुम जिसको
निराशा कहते हो, वही
मेरी निराशा नहीं
है, वही अष्टावक्र
की निराशा नहीं
है।
फर्क
समझ लेना।
तुम्हारा
भाषाकोश और अष्टावक्र
का भाषाकोश निश्चित
ही अलग होने वाला
है। तुम निराशा
कब कहते हो? जब
तुम्हारी कोई आशा
टूटती है तब निराशा
कहते हो। अष्टावक्र
कहते है—जब सब आशाओं
से मुक्ति हो गयी,
तब निराशा। एक
आशा टूटी, तुम
दूसरी बना लेते
हो। इस स्त्री
से नहीं मिल सका
सुख, तुम तत्क्षण
दूसरी स्त्री की
तलाश मे लग गये।
इस धंधे से नहीं
मिला लाभ, तुम
दूसरा धंधा खोजने
लगे। इस गाव में
नहीं मिला सुख,
तुम दूसरे गांव
की तरफ चले। आशा
एक तरफ टूटती है,
तुम तत्थण दूसरी
तरफ सजा लेते हो।
दिया बुझ नहीं
पाता कि तुम दूसरा
दिया जला लेते
हो—एक दिया जिसका
नाम उम्मीद। अष्टावक्र
कहते है—उस स्थिति
को निराशा, जब तुम्हें यह
दिखायी पड़ गया
कि आशा मात्र व्यर्थ
है, आशा मात्र।
यह आशा, वह आशा
नहीं, आशा मात्र
दुराशा है। दुष्पूर
है। कभी घटती नहीं
सिर्फ भरमाती है।
उस क्षण में क्रांति
हो जाती है। उस
क्षण में तुम्हारे
जीवन में एक नयी
किरण उतरती है।
वही संन्यास है।
संसार के पार से
कुछ आया।
संसार यानी
आशा का फैलाव।
संन्यास यानी संसार
के आशा के फैलावों
में कुछ उतरा पार
से,
तुम्हें दिखायी
पड़ने लगा, तुम्हें
चीजें जैसी हैं
वैसी समझ में आने
लगीं। और यह मत
समझ लेना कि जिसको
अष्टावक्र निराशा
कहते हैं वैसा
आदमी निराश होकर
बैठ जाता है। जिसकी
आशा ही नहीं रही,
उसकी निराशा
भी क्या रहेगी!
वह दोनों से मुक्त
हो गया। उदास नहीं
हो जाता, अब
उदासी का कोई कारण
ही नहीं रहा। यहा
कोई चीज फलती ही
नहीं, फूलती
ही नहीं, उदास
क्या होना है?
यहां अपेक्षा
करनी ही व्यर्थ
है, तो अपेक्षा
के टूटने का कारण
भी समाप्त हो गया।
ऐसा आदमी न दुखी
होता, न सुखी।
ऐसा आदमी शांत
हो जाता
है। ऐसे आदमी के
जीवन में शांति
का रस बहता है।
उस शांति के रस
का ही नाम आनंद
है।
तुम आनंद
से अक्सर सुख समझ
लेते हो, वह तुम्हारी
भूल है। तुम आनंद
में अक्सर सुख
आरोपित कर लेते
हो, वह भी तुम्हारी
आशा है। एक दिया
जिसका नाम उम्मीद।
आनंद का अर्थ होता
है—शांति, परम
शांति। न दुख रहा,
न सुख रहा, सब तरंगे सुख—दुख
की समाप्त हो गयीं,
निस्तरंग हो
गयी चेतना।
पूछा तुमने—जीवन
दुख है। तुम्हें
नहीं दिखायी पड़ा
है ऐसा अभी। ऐसा
तुमने सुना बुद्धों
को कहते कि जीवन
दुख है, यह तुम्हारी
अपनी प्रतीति नहीं,
अपना साक्षात्कार
नहीं। यह काम नहीं
आएगा। यह उधार
वचन तुम्हारी छाती
में काटा सा चुभेगा,
फूल नहीं बनेगा।
उधार वचन काटे
बन जाते हैं, छाती में चुभते
है, चुभाते
हैं, घाव बनाते
हैं, लेकिन
उनसे जीवन में
आनंद की वर्षा
नहीं होती। तुमने
जाना जीवन दुख
है कि तुमने सुना
बुद्धों को कहते?
कि तुमने मान
लिया कि बुद्ध
कहते तो ठीक ही
कहते होंगे? क्यों कहेंगे
गलत? जानकर
कहा है तो ठीक ही
कहते होंगे। यह
ऐसे ही है जैसे
किसीने मान लिया
कि आग जलाती है
क्योंकि और लोग
कहते हैं कि आग
जलाती है।
दूसरों
का कहा हुआ कि आग
जलाती है और अपना
जाना हुआ कि आग
जलाती है, इसमें
तुम्हें भेद दिखता
है या नहीं? अपना जाना हुआ
क्रांति कर देता
है। तब आदमी कहते
हैं, दूध का
जला छाछ भी फूंक—फूंककर
पीने लगता है।
खुद जला हो। तुमने
जाना कि जीवन दुख
है? यह तुम्हारी
पहचान? यह तुम्हारी
प्रत्यभिज्ञा?
यह तुम्हारी
अनुभव—संपदा?
अगर तुमने जाना,
तो आशा गयी।
फिर तुम यह न पूछोगे
कि आदमी फिर क्यों
चला जाता है? और आदमी की क्या
पूछते हो, आदमी
यानी कौन? अपनी
पूछो। किस आदमी
की पूछ रहे हो,
दूसरों की?
यह भांति भी
छोड़ो। दूसरों के
लिए प्रश्न मत
पूछो। दूसरों की
दूसरे जानें। तुम्हारी
चिंता इतनी ही
बहुत कि तुम अपने
प्रश्न हल कर लो,
अपनी समस्याएं
हल कर लो, दूसरों
की कहा हल करने
बैठोगे! तुम रुको,
आदमी को चलने
दो।
यह आदमी
कौन?
इसका न तो नाम,
न पता, न ठिकाना,
यह तो सिर्फ
एक शब्द है—आदमी।
तुम्हें आदमी कभी
मिला? नहीं
आदमी तुम्हें कभी
नहीं मिला। आदमी
मिलते है, आदमी
कभी नहीं मिलता।
राम मिलते हैं,
कृष्ण मिलते
हैं, बुद्ध
मिलते है, हजार
तरह के आदमी मिलते
है, मगर आदमी
कभी नहीं मिलता।
आदमी तो केवल एक
शब्द है, संशामात्र।
यह आदमी तो चलता
रहेगा, जिसकी
तुम बात कर रहे
हो। जो जाग जाएंगे,
वे चुपचाप इस
व्यर्थ के पागलपन
से हट जाएंगे।
जो जाग गये, वे किनारे उतर
गये, उन्होंने
पगडंडियां पकड़
लीं और प्रभु तक
पहुंच गये। जो
सोए हैं, वे
इस राजपथ पर—अंधेरे
राजपथ पर— भीड़ के
साथ भेड़ों की भांति
चलते रहेंगे। तुम
इनकी चिंता मत
करो। और तुम चाहो
भी तो भी इन्हें
इनके मार्ग से
हटा नहीं सकते।
और तुम्हें हक
भी नहीं है। अगर
इन्होंने यही तय
किया है कि यही
इनका जीवन है,
तो ये हकदार
हैं कि ये इसीको
जीवन माने और इसी
भांति चलें।
तुम हट जाओ।
शायद तुम्हें हटते
देखकर किसी सोये
की नींद टूटे।
शायद तुम्हें हटते
देखकर, तुम्हारे
जीवन में खिलते
फूल देखकर, किसी के नासापुटों
में सुगंध भर जाए,
और कोई खिंचा
चला आए, वह बात
दूसरी है, मगर
तुम दूसरे को हटाने
की चेष्टा मत करना।
अक्सर ऐसी शुभ
चेष्टाओं का ही
बड़ा दुष्परिणाम
हुआ है। तुम जबर्दस्ती
लोगों को खींच
लेते हो धर्म की
तरफ—वे भागते संसार
की तरफ, तुम
खींचते धर्म की
तरफ। इससे संसार
के प्रति उनका
विराग पैदा नहीं
होता, सिर्फ
तुम्हारे धर्म
के प्रति खीझ पैदा
होती है। बाप जबर्दस्ती
बेटे को मंदिर
ले जा रहा है। अभी
बेटा बाजार भी
नहीं पहुंचा,
बाजार का दुख
भी नहीं झेला और
तुम मंदिर ले चले!
अभी बेटा बीमार
भी नहीं हुआ और
तुम चिकित्सक के
घर तक ले चले! दवा
इस को जंचेगी,
रुचेगी? तुमने
उपचार शुरू कर
दिया!
धर्म तो
उपचार है। जब संसार
व्यर्थ दिखायी
पड़ता है, तब धर्म
में सार्थकता दिखायी
पड़ती है। अब छोटा
सा बच्चा घर में
पैदा हुआ, तुम
चले मंदिर, मस्जिद, गिरजा
लेकर। बप्तिस्मा
करवा लाएं, कि जनेऊ पहना
दें, कि क्या
न करवा दें, कि राम—नाम इसके
कान में डलवा दें,
कि कान फुकवा
दें—हजार तरह की
मूढ्ताएं। तुम
सिर्फ इस बच्चे
को सदा के लिए धर्म
से तोड़े दे रहे
हो।
मेरे पास
न मालूम कितने
लोगों ने आकर यह
कहा है —ईसाइयों
ने मुझ से आकर कहा
है—कि चर्च में
हमारे मन में ईसा
के प्रति नफरत
भरदी। क्यूं? क्योंकि
बचपन से जबर्दस्ती
थोपा गया, आग्रहपूर्वक
थोपा गया।
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने
बेटे से बोला कि
तू जा, यह मटकी ले
जा और कुएं से पानी
भर ला। और इसके
पहले कि जाए, जरा मेरे पास
आ। और जब वह उसके
पास आया तो उसने
एक जोर का तमाचा
उस लड़के को मारा।
एक मेहमान घर में
बैठे थे, वह
तो कुछ समझा ही
नहीं यह राज! उन्होंने
कहा— भई, यह हद
हो गयी! अभी बेटे
ने कोई कसूर भी
नहीं किया, मैं घंटेभर से
यहा बैठा हूं;यह चाटा किस बात
का? मुल्ला
ने कहा, यह चाटा
इस बात का कि घड़ा
मत फोड़ना। मगर
उसने कहा—अभी घड़ा
इसने फोड़ा नहीं!
मुल्ला ने कहा,
फिर फोड़ ही दे
फिर फायदा क्या?
मगर अगर बेटे
में थोड़े भी प्राण
होंगे, तो जरूर
फोड़कर आएगा। फोड़ना
ही पड़ेगा। अगर
बेटा बिलकुल गोबरगणेश
हो तो बात अलग।
नहीं तो बेटा निश्चित
जाकर इस घड़े को
फोड़ देगा कुएं
पर। यह तो हद हो
गयी, अभी घड़ा
फोड़ा नहीं और सजा
मिल गयी! अभी बीमारी
न थी और दवा मिल
गयी।
तुम्हारे
मंदिर—मस्जिद तुम्हारे
मन में धर्म के
प्रति आदर पैदा
नहीं कर पाते, अनादर
पैदा करवाते हैं।
मंदिर और मस्जिद
तो किसी को खोजते
हुए जाना पड़ता
है—बड़ी लालसा से,
बड़ी अभीप्सा
से। मंदिर और मस्जिद
को तो टटोलना पड़ता
है, सरक—सरककर।
जीवन के अनेक—अनेक
कष्ट और काटो को
झेलकर मंदिर का
फूल दिखायी पड़ता
है, नहीं तो
नहीं दिखायी पड़ता।
जीवन के अंधेरे
में खूब भोगकर
भुक्तभोगी को ही
मंदिर का दीया
जलता हुआ दिखायी
पड़ता है। जिसने
जीवन का अंधकार
नहीं देखा, उसको तुम मंदिर
के दीये की तरफ
ले चले? जिसने
अंधकार नहीं जाना,
उसे प्रकाश का
अनुभव कैसे होगा?
तो मैं तुम
से कहना चाहता
हूं कि तुम्हे
अगर जीवन मे दुख
दिखायी पड़ गया
है;तो तुम फिक्र
छोड़ो औरो की, तुम उतरो, तुम डुबकी लो,
तुम आशा का जाल
तोड़ो, तुम जागो।
बस वही एक दीया
तुम्हें बुझाना
होगा। और उस एक
दीये के बुझाते
ही सूरज निकल आएगा।
'एक दिया नाम
जिसका उम्मीद'। उस एक दीये को
तुम बुझा दो और
अचानक तुम पाओगे
सुबह हो गयी। इधर
आशा का दीया बुझा,
उधर आत्मा का
सूरज निकला।
तीसरा
प्रश्न :
भगवान, जिसे
चाहो वह ठुकराता
क्यों है?
क्योंकि
प्रत्येक व्यक्ति
को आत्मरक्षा का
अधिकार है। तुम्हारी
चाहना, दूसरा
भागता होगा, कि बचो भाई, यह आदमी आया! क्योंकि
जंहा—जंहा लोगों
ने चाहत देखी है,
वहीं—वहीं बंधन
पाए। और जहां—जंहा
किसी के प्रेम
में पड़े, वहीं
फासी लगी।
तुम्हारा
प्रेम है क्या? बस
वैसा ही है जैसा
मछलीमार मछली पकड़ने
के लिए काटे पर
आटा लगाता है।
मछली फंस जाती
है, आटे के कारण।
मछलीमार का प्रयोजन
मछली को आटा खिलाना
नहीं है; मछलीमार
का प्रयोजन—आटा
खाने में काटा
फंस जाए उसके मुंह
में, बस। आटा
तो तरकीब है। तुम
पूछते हो—जिसे
चाहो वह ठुकराता
क्यो है;तुम्हारे
चाहने में काटा
है। तुम सोचते
हो—आटा ही आटा है।
लेकिन तुम जरा
गौर से विचारो,
तुमने जिसको
चाहा उसका जीवन
दुखमय बना दिया
या नहीं? जिसने
तुम्हें चाहा,
उसने तुम्हारा
जीवन दुखमय बना
दिया या नहीं?
इस प्रेम के
नाम पर जो चलता
है, इसमें फूल
तो कभी—कभार खिलते
हैं, काटे ही
काटे पलते हैं।
कभी सौ में एकाध
मौके पर कभी फूल
की झलक मिली हो
तो मिली हो, निन्यानबे मौकों
पर तो काटा चुभा
और बुरी तरह चुभा
और नासूर बना गया,
और घाव छोड़ गया।
तुम्हारी चाहत
शुद्ध नहीं है,
इसलिए लोग बचना
चाहते हैं।
तुम यह मत
समझो कि लोग कुछ
गलत है। प्रश्न
पूछने वाले की
मर्जी यही है कि
लोग कुछ गलत हैं, कि
मैं तो इतना प्रेम
का थाल सजाकर आता
हूं और लोग चले,
एकदम भागे—पुलिस
को बुलाने लगते
है—और मैं तो सिर्फ
प्रेम का थाल सजाकर
आया था। मैं तो
कहता था, आरती
उतारूंगा आपकी।
आप चले क्यों?
तुम्हारे प्रेम
के थाल में जहर
है। हर वासना में
जहर है। तुम अपनी
वासना को प्रार्थना
बनाओ, फिर कोई
नहीं भागेगा। फिर
लोग तुम्हें खोजते
आएंगे; तुम्हारे
पास बैठकर शांति
पाएंगे, तुम्हारी
छाया मे विश्राम
पाएंगे; तुम्हारी
आंख उन पर पड़ जाएगी,
वे धन्यभागी
हो जाएंगे। तुम
अपनी वासना को
प्रार्थना बनाओ।
क्या मतलब
है मेरा वासना
को प्रार्थना बनाने
से?
वासना में जो
ईर्ष्या है, उसे जाने दो;
वासना में जो
द्वेष है, उसे
जाने दो; वासना
में दूसरे के शोषण
करने की जो आकांक्षा
है, उसे जाने
दो; वासना में
दूसरे का मालिक
बनने की जो वृत्ति
है, उसे जाने
दो; और तब तुम्हारी
वासना शुद्ध होकर
प्रार्थना बन जाएगी।
तब तुम दोगे और
उत्तर में कुछ
भी न मांगोगे।
तब तुम प्रेम दोगे,
उत्तर में कुछ
भी न मांगोगे।
तब तुम्हारे प्रेम
मे सिर्फ आटा होगा,
काटा नहीं होगा।
ये कुछ छोटी—छोटी
घटनाएं समझें।
मुल्ला
नसरुद्दीन से उसके
मित्र चंदूलाल
ने पूछा—मुल्ला, अगर
तुम शादी ही करना
चाहते हो तो उसी
लड़की से क्यों
नहीं कर लेते जिसके
साथ रोज शाम को
सागर की सैर करने
जाते हो? मुल्ला
ने कहा—अगर मैं
उसी से शादी कर
लूंगा, तब मेरी
शामे कैसे कटेगी?
जिससे शादी
की,
उससे झंझट हो
जाती है;उससे
सब प्रेम का नाता
टूट जाता है, यह बड़े मजे की
बात है। प्रेम
का नाता जिससे
बनाया, विवाह
किया, शादी
की—वह प्रेम का
नाता है —मगर जिससे
विवाह किया, उससे प्रेम का
नाता टूट जाता
है। यह बड़ी अजीब
दुनिया है। यह
बड़ी चमत्कार से
भरी दुनिया है।
प्रेम का नाता
बनाते ही प्रेम
टूट जाता है। क्योंकि
प्रेम के नाम पर
जो सब सांप—बिच्छू
छिपे बैठे थे अभी
तक पिटारे में,
सब निकलना शुरू
हो जाते है। इधर
विवाह की बासुरी
बजी कि उधर निकले
सब सांप—बिच्छू।
वे सब जो छिपे पड़े
थे, कहते थे—बच्चू
जरा रुको, जरा
ठहरो, ठीक समय
आने दो, एक बार
गठबंधन हो जाने
दो, एक बार छूटना
मुश्किल हो जाए,
फिर असलियत प्रकट
होती है। तुम्हारा
भी सब रोग बाहर
आता है, जिससे
तुमने प्रेम किया
उसका भी सब रोग
बाहर आता है, धीर— धीरे पति—पत्नी
के बीच सिवाय रोग
के आदान—प्रदान
के और कुछ भी नहीं
होता।
मुल्ला
नसरुद्दीन से किसीने
पूछा—प्रेम के
विषय में आपका
क्या अनुभव है? मुल्ला
ने कहा—यही, दो बार निराशा।
पहली बार इसलिए
कि एक स्त्री ने
न कहा, और दूसरी
बार इसलिए कि दूसरी
स्त्री ने हा कहा।
हर हालत मे निराशा
है। स्त्री मिल
जाए तो निराशा,
स्त्री न मिले
तो निराशा। पुरुष
मिल जाए तो निराशा,
न मिले तो निराशा।
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी
उससे कह रही थी—मैं
अपने नए पड़ोसियो
से तंग आ चुकी हूं;हमेशा
आपस में लड़ाई—झगड़ा
करते रहते हैं।
मुल्ला ने कहा—एक
समय ऐसा भी था जब
ये दोनों एक—दूसरे
से बेहद प्यार
करते थे। पत्नी
ने पूछा—फिर क्या
हुआ? मुल्ला
ने कहा—फिर, फिर दोनों की
शादी हो गयी।
और मुल्ला
से किसी ने पूछा—तुमने
कैसे उस औरत से
विवाह करने का
निश्चय कर लिया
है?
वह सुंदर हो
सही, मगर तुम्हें
पता है नसरुद्दीन,
उसके पिछले पांचों
पति पागलखाने में
हैं! मुल्ला ने
कहा—छोड़ो, मुझे
डरवाने से रहे,
शायद तुम्हें
भी पता नहीं है
कि बंदा पागलखाने
से लौट चुका है।
अब मुझे कोई पागलखाना
भेज नहीं सकता।
अब तुम पूछते
हो—जिसे चाहो वह
ठुकराता क्यों
है?
पागलखाने न जाना
चाहता होगा। अनुभव
जीवन का आदमी को
डरा देता है। बुद्धिमान
होगा, जो तुम्हें
ठुकरा देता है।
तुम अपने प्रेम
को परखो, फिर
से देखो। तुम्हारे
प्रेम में कुछ
गलत छिपा है। तुम्हारे
प्रेम के वस्त्रों
में जंजीरें है।
प्रेम का आवरण
है, भीतर कुछ
और है। तुम किसी
के मालिक होना
चाहते हो? तुम
किसी पर कब्जा
करना चाहते हो?
तुम किसी को
वस्तु की तरह उपयोग
करना चाहते हो?
कोई नहीं चाहता
कि उसका उपयोग
किया जाए। क्योंकि
जब भी किसी का,
उपयोग किया जाता
है, उसका अपमान
होता है। कोई नहीं
चाहता कि कोई उसका
मालिक हो;क्योंकि
जब भी कोई किसी
का मालिक हो बैठता
है, तब उस व्यक्ति
को अपनी आत्मा
को खोना पड़ता है।
कोई नहीं चाहता
कि परतंत्र हो—प्रेम
तो लोग चाहते हैं
लेकिन परतंत्रता
नहीं चाहते हैं,
और तुम्हारे
सब प्रेम में परतंत्रता
छिपी हुई है। वह
अनिवार्य शर्त
है। वह ऐसी शर्त
है कि लोग डरने
लगे हैं, लोग
भयभीत होने लगे
हैं, लोग घबड़ाने
लगे हैं।
तुम अपने
प्रेम को शुद्ध
करो। तुम उसे प्रार्थना
बनाओ। तुम दो और
मांगने की इच्छा
मत करो। और तुम
जिसे दो, उस पर कब्जा
न करो। और तुम जिसे
दो, उस से अपेक्षा
धन्यवाद की भी
मत करो। उतनी अपेक्षा
भी सौदा है। और
तुम दो क्योंकि
तुम्हारे पास है।
और मैं तुम से कहता
हूं कि तुम अगर
दोगे, तो हजार
गुना तुम्हारे
पास आएगा—मगर मागो
मत। भिखमंगों के
पास नहीं आता है,
सम्राटों के
पास आता है। जो
मागते हैं उनके
पास नहीं आता।
तुम मांगो ही मत।
एक बार यह भी तो
प्रयोग करके देखो
कि तुम चाहो और
दो, मगर मांगो
मत। नेकी कर और
कुएं में डाल।
पीछे लौटकर ही
मत देखो, धन्यवाद
की भी प्रतीक्षा
मत करो। और तुम
पाओगे, कितने
लोग तुम्हारे निकट
आते हैं! कितने
लोग तुम्हारे प्रेम
के लिए आतुर हैं!
कितने लोग तुम्हारे
पास बैठना चाहते
है! कितने लोग तुम्हारी
मौजूदगी से अनुगृहीत
हैं!
मगर अभी
तुम्हारी मौजूदगी
बड़ी जहर भरी है।
अभी जब भी तुम हाथ
फैलाते हो, दूसरे
डरने लगते हैं,
क्योंकि तुम्हारे
हाथ में उन्हें
फासी का फंदा दिखायी
पड़ता है।
चौथा
प्रश्न :
ज्ञान, ध्यान
और योग के मुकाबले
में भक्ति अधिक
परंपराग्रस्त
और रूढ़िवादी क्यों
हो जाती?
प्रश्न
महत्वपूर्ण है।
पहली बात, भक्ति
स्त्रैण हृदय की
भंगिमा है। पुरुष
भी जब भक्त होता
है तो उसमें स्त्रैण
माधुर्य आ जाता
है। चैतन्य में
तुम्हें दिखायी
पड़ेगा, वही
माधुर्य जो मीरा
मे है। वही स्त्रैण
कोमलता, वही
सुकुमारता, वही सौदर्य।
पुरुष में
थोड़ी पुरुषता होती
है,
थोड़ी कठोरता
होती है, थोड़ा
पाषाण होता है।
पुरुष में थोड़ी
आक्रमक वृत्ति
होती है। पुरुष
में थोड़ा अहंकार
होता है। पुरुष
बहिर्गामी होता
है। स्त्री ग्राहक
होती है, ग्रहणशील
होती है—क्योंकि
स्त्री यानी गर्भ—आक्रमक
नहीं होती। स्त्री
अतिथि का सत्कार
करने को द्वार
खोलकर खड़ी होती
भक्त भी ऐसा ही
होता है। परमात्मा
के लिए द्वार खोलकर
खड़ा हो जाता है।
भक्त भी
ऐसा ही होता है, परमात्मा
के लिए गर्भ बन
जाता है। परमात्मा
को पुकारता है
भक्त, खोजता
नहीं। ज्ञानी,
ध्यानी, योगी
परमात्मा को खोजता
है, वह पुरुष
की वृत्तियां है—खोज।
वह जाता पहाड़ों
में, पर्वतों
में, वह बड़ी
यात्राएं करता
है, वह परमात्मा
को खोजने निकलता
है। भक्त शांत
बैठ जाता है, आनंदमग्न हो
डोलता है और कहता
है—जब तुम्हारी
मर्जी हो, जब
पाओ कि मैं पात्र
हूं;आ जाना,
मेरे द्वार खुले
हैं। मैं तुम्हें
कहा खोजूं? खोजना भी चाहूं
तो कैसे खोजूं?
तुम्हारा घर
कहा है, तुम्हारा
पता कहा है? तुम्हारा नाम
क्या? मेरी
तो कोई पहचान नहीं
तुम से, पहले
तो मिलना हुआ नहीं।
तुम मिल भी जाओगे
तो मैं पहचान न
पाऊंगा कि तुम
ही मिल गये। तुम्हीं
आओ, मैं अवश
हू; मैं असहाय
हूं; मैं रो
सकता हूं — भक्त
रोता है, ज्ञानी
खोजता है। भक्त
विक्रल होता है,
तानी उपाय करता
ज्ञानी
मानता है, मेरे
किये कुछ हो जाएगा।
वही मान्यता पुरुष
की मान्यता है।
भक्त कहता है—मेरे
किये क्या होगा?
मेरे किये ही
तो सब अनकिया हुआ
है। मैं ही तो बाधा
हूं। तो भक्त अपने
मैं को गिरा देता
है, समर्पित
हो जाता है। प्रतीक्षा
करता है —भक्ति
यानी प्रतीक्षा।
भक्ति यानी प्रार्थना।
बस प्रतीक्षा और
प्रार्थना। भक्त
के पास और कोई उपाय
नहीं, आंसू।
रोता, अपने
हृदय को उघाड़ता,
पुकारता—गहन
प्यास से भरकर—और
प्रतीक्षा करता।
भक्त के
पास परमात्मा आता
है। आना ही पड़ता
है। जब पुकार पूरी
हो जाती है और जब
प्यास गहन हो जाती
है,
तो आना ही पड़ता
है। यह अस्तित्व
तुम्हारे प्रति
उपेक्षा से भरा
हुआ नहीं है। इस
अस्तित्व से तुम
जन्मे हो, यह
तुम्हारी मां है।
और जब बच्चा पुकारेगा
तो मां आएगी। पुकार
सच्ची हो, पुकार
झूठी न हो, पुकार
मे वंचना न हो,
पुकार किसी छुद्र
बात के लिए न हो—व्यर्थ
बातों के लिए मत
पुकारना। क्योंकि
तुम्हारी व्यर्थ
बातें ही तुम्हारी
पुकार को खराब
कर देती हैं। अब
तुम बैठे हो और
तुम्हें सिगरेट
पीनी है, अब
परमात्मा को मत
पुकारना कि जरा
आ जाओ, वह पैकिट
पड़ा है उधर, उठाकर दे दो! मगर
तुम्हारी सब प्रार्थनाएं
ऐसी ही हैं कि पत्नी
बीमार है, इसे
ठीक करो। कि नौकरी
नहीं लगती, मुझे नौकरी लगाओ।
कि धंधा नहीं चलता,
मेरा धंधा चलाओ।
ये सब ऐसे ही है
जैसे सिगरेट का
बाक्स पड़ा है उधर,
और मैं तो भक्त
हूं उठूं कैसे?
तुम्हीं आ जाओ
और उठाकर दे दो
और अगर न आए, तो याद रखना फिर
कभी प्रार्थना
न करूंगा। फिर
मेरा भरोसा ही
टूट जाएगा। फिर
मेरी श्रद्धा ही
खंडित हो जाएगी।
एक अवसर देता हूं
अपने को सिद्ध
कर लो!
यह भक्ति
नहीं है। भक्ति
कुछ नहीं मांगती।
भक्ति कहती है—तुम्हारी
मौजूदगी, तुम्हारी
कृपा की एक किरण,
बस काफी है,
अनंत— अनंत काल
के लिए तृप्त कर
जाएगी। तुम्हारा
एक झरोखा खुल जाए,
तुम्हारा एक
झोंका आ जाए, एक बूंद मेरे
कंठ में गिर जाए
तुम्हारी, बस
सदा के लिए मैं
तृप्त हो जाऊंगा,
कुछ और नहीं
चाहिए। तो यह पहले
समझो कि भक्ति
है स्त्रैणभाव।
इसलिए भक्ति परंपरागत
और रूढ़िगत दिखायी
पड़ती है। क्योंकि
स्त्रियां बड़ी
सहज हैं, प्राकृतिक
हैं। इसलिए शास्त्रो
ने स्त्री को प्रकृति
कहा है, पुरुष
के विपरीत। प्रकृति
तुम देखते हो कितनी
परंपराग्रस्त
है? प्रकृति
में तुमने कभी
देखा कुछ बदलते?
सब वही है। सब
वैसा ही है।
प्रकृति
का वर्तुल एक गति
से घूमता रहता।
वर्षा आई, फिर
सर्दी आएगी, फिर गर्मी आएगी,
फिर वर्षा आ
जाएगी—एक वर्तुल
है। ऐसा ही सदा
हुआ, ऐसा ही
सदा होता रहा,
ऐसा ही सदा होता
रहेगा। वसंत आया
और फूल खिल गये।
और पतझड़ में पत्ते
गिर गये। ऐसा ही
सदा होता रहा,
ऐसा ही सदा होता
है, ऐसा ही सदा
होगा। इसको ही
लाओत्सु ने ताओ
कहा है, और वेदों
ने ऋत। इसको ही
बुद्ध ने धम्म
कहा है।
भक्त तो
प्राकृतिक है।
जैसे सुबह होती
है,
सूरज निकलता
है, प्रकाश
फैलता है, तारे
खो जाते हैं; सांझ होती है,
सूरज डूबता है,
प्रकाश खो जाता
है, तारे उग
आते हैं। ऐसा सदा
से होता रहा है।
ऐसी ही भक्ति है—शाश्वत,
सनातन। अगर दुनिया
में कोई सनातन
धर्म है, तो
भक्ति। हिंदू से
सनातन धर्म का
कुछ लेना—देना
नहीं है। सनातन
धर्म तो एक है — भक्ति
ध्यान विद्रोही
है, भक्ति सनातन
है। ध्यानी नयी—नयी
विधियां खोजता
है, क्योंकि
ध्यान में विधियां
होती हैं; जंहा
विधियां होती हैं,
वहा नयी खोजी
जा सकती हैं। भक्ति
में कोई विधि नहीं
है। भक्ति तो निर्विधि
है। जहां विधि
नहीं है, वहा
नयी विधि कहां
से लाओगे? भक्ति
तो भाव है, विधि
नहीं है।
तुमने कभी
सोचा कि प्रेम
कितना परंपरागत
है?
ज्ञान परंपरागत
नहीं होता। ज्ञान
बढ़ता है, फैलता
है। बहुत सी बाते
थीं जो बुद्ध को
पता नहीं थीं,
वे आइंस्टीन
को पता हैं। और
बहुत सी बातें
हैं जो महावीर
को पता नहीं थीं,
वे एडिंग्टन
को पता हैं। आदमी
ज्ञान में रोज—रोज
नयी राशि बढ़ाता
जाता है। लेकिन
क्या तुम सोचते
हो कि प्रेम में
ऐसी कुछ बातें
थीं जो मीरा को
पता नहीं थीं और
आइंस्टीन को पता
हैं? गलत। प्रेम
के संबंध मे पहले
प्रेमी को जो पता
था, वही अंतिम
प्रेमी को भी पता
होगा। कोई फर्क
नहीं पड़ेगा। प्रेम
सनातन है। ज्ञान
बदलता है।
इसलिए ज्ञान
सामायिक होता है।
जो आज ज्ञान है, कल
अज्ञान हो जाएगा।
ज्ञान का कोई भरोसा
नहीं है, ज्ञान
तो पानी पर खींची
लकीर है। प्रेम
पत्थर पर खींची
लकीर है, मिटती
नहीं। प्रेम ही
है जो शाश्वत है।
ज्ञान तो तुम देखते
हो, कितनी जल्दी
बदलता है! अब तो
हालत ऐसी हो गयी
है, इतनी तेजी
से ज्ञान बदलता
है कि जब तक विश्वविद्यालय
की किताब में ज्ञान
पहुंचता है, तब तक वह तिथि—बाह्य
हो जाता है, आउट आफ डेट हो
जाता है। तुम जानकर
यह हैरान होओगे
कि पश्चिम में
अब विज्ञान की बड़ी—बड़ी
किताबें नहीं लिखी
जातीं—लिखी नहीं
जा सकतीं—क्योंकि
जब तक तुम
बड़ी किताब लिखो—बड़ी
किताब लिखने मे
समय लगता है—तब
तक तुम जो लिख रहे
हो, वह कुटा—पिटा
हो जाएगा। विज्ञान
के तो छोटे—छोटे
लेख लिखे जाते
हैं, विज्ञान
के पीरियाडिकल्स
होते हैं, क्योंकि
विज्ञान खुद ही पीरियाडिकल
है। उसकी तो पत्रिकाएं
होती है—जल्दी
छापो। वैज्ञानिक
पेपर पढ़ता है,
किताब नहीं—कुछ
पन्ने। क्योंकि
इसके पहले कि पुराना
पड़ जाए, कह दो।
तुम्हारे कहते—कहते
भी पुराना पड़ सकता
है। ज्ञान तो रोज
बदलता है। इसलिए
ज्ञान पर कोई भरोसा
करना मत। क्योंकि
जो अभी ठीक है,
वह कल सही नहीं
रह जाएगा। नयी
दवा आ गयी और डाक्टर
कितने भरोसे से
तुम्हें दवा देता
है, और कहता
है कि बस, यह
दवा काम करेगी!
और छह महीने बाद
जाओ, वही डाक्टर
दूसरी दवा दे रहा
है। उससे पूछो—
भई, छह महीने
पहले का क्या हुआ?
वह दवा जो बहुत
काम करती थी, क्या हुई? वह कहता है—वह
पुरानी पड़ गयी,
अब वह काम नहीं
करती। जो अब काम
नहीं करती, वह छह महीने पहले
कैसे काम करती
थी? और जो अब
काम कर रही है,
छह महीने बाद
की कहानी क्या
होगी? ज्ञान
का कोई भरोसा नहीं
है, ज्ञान पानी
पर बना हुआ बबूला
है। रोज बनता है,
रोज मिटता है।
प्रेम शाश्वत है।
इसलिए भक्ति
में तुम्हें लगेगा
ऐसा स्वभावत: कि
भक्ति मे क्यो
परंपरागत मालूम
होता है? मीरा कहे
भी तो क्या कहे।
जो प्रेमियों ने
सदा कहा है, वही कहेगी। हा,
तानी आविष्कार
कर सकते हैं। तानी
नयी—नयी ईजादें
कर सकते हैं। मगर
ईजाद आदमी की है,
पिट जाएगी। और
प्रेम परमात्मा
का है। कितना ही
पुराना हो, फिर भी पुराना
नहीं होता।
तुम इसे
ऐसा समझो कि ज्ञान
जल्दी ही पुराना
पड़ जाता है, क्योकि
नया होता है। भक्ति
पुरानी नहीं पड़ती,
सदा नयी रहती
है, क्योंकि
नये—पुराने का
कोई संबंध ही भक्ति
से नहीं जुड़ता।
कुछ चीजें
जीवन के आधार है।
उन आधारों को रोज—रोज
नहीं बदला जा सकता, नहीं
तो जीवन गिर जाए।
भक्ति वैसा ही
आधार है।
इसलिए तुम्हें
यह प्रतीति हो
सकती है कि भक्ति
मे रूढ़ि मालूम
पड़ती है। रूढ़ि
नहीं है वह —रूढ़ि
शब्द ज्ञानियों
का है—शाश्वतता
है,
सनातनता है।
उसके विपरीत तुम
हो तो रूढ़ि कहोगे।
अगर उसको समझोगे
और उसे आशय में
पड़ोगे, तो तुम
उसे कहोगे—सनातन
था।
सनातन का
अर्थ समझ लेना।
सनातन का अर्थ
होता है, जो न तो
कभी नया था, और न कभी पुराना
होगा, जो सदा
है। जो नया है,
वह पुराना होगा,
जो पुराना है,
वह कभी नया था।
नया पुराना होता
रहता है, पुराना
नया होता रहता
है। तुम देखते
नहीं, रोज ऐसी
बातें होती रहती
हैं। एक चीज कुछ
दिन फैशन मे रहती
है, फिर पुरानी
पड़ जाती है, फिर खो जाती है,
दस—बीस साल बाद
फिर लौट आती है।
आखिर करोगे क्या?
फिर नयी हो जाती
है। फिर कुछ दिन,
फिर पुरानी हो
जाती है।
तुम गौर
से देखो, फैशन में
क्या होता है?
एक ढंग के कपड़े
आज फैशन में हैं,
कल पुराने पड़
गये। फेंक मत देना,
सम्हालकर रख
लेना। दस साल बाद
तुम पाओगे फिर
फैशन में आ गए।
सौ साल बाद किसी
ओबेराय में विंटेज
कपड़ों की प्रतियोगिता
होगी, तब तुम
लेकर अपना कोट
पहुंच जाना कि
यह सौ साल पुराना
है! देखते नहीं
कि कोई अपनी फोर्ड—टी
मॉडल, अब उन्नीस
सौ चौबीस की लिये
खड़ा है। विंटेज
कार! अब उसकी बड़ी
कीमत है। बड़ी पुरानी
गाड़ी है! अब वह बड़ी
नयी मालूम पड़ती
है कि उन्नीस सौ
चौबीस की गाड़ियां
कहीं दिखायी तो
पड़ती नहीं, वे तो सब खो गयीं,
अब किसी एकाध
के पास बची है,
किसी के कबाड़खाने
में पड़ी है, वह किसी तरह ठोंक—पीटकर
उसे ले आता है;बड़ी नयी मालूम
पड़ती है! लोग देखने
जाते हैं। पश्चिम
में कीमत बढ़ती
जा रही है पुरानी
गाड़ियों की। जितनी
पुरानी गाड़ी,
उतना पैसा लाती
है। आदमी करे क्या,
बैठा—ठाला आदमी
करे क्या! फैशन
बदल लेता, कपड़े
बदल लेता, मकान
के ढंग बदल लेता,
फिर चीजें बदलकर
फिर वही की वही
हो जाती हैं। जो
नया है, वह पुराना
होता रहता है,
जो पुराना है,
वह नया होता
रहता है—जल मे उठी
तरंगें हैं।
भक्ति तो
जल है, तरंग नहीं।
ज्ञान तरंग है।
तरंगें उठती रहती
हैं सागर में सागर
तो वही है।
आखिरी
प्रश्न :
आप ने कहा—अपने
प्रेमी, अपनी
प्रेयसी में भी
परमात्मा ही देखो।
यह मेरी समझ में
नहीं आया। प्रेम
मैंने भी किया
है, लेकिन अपनी
प्रेयसी मे परमात्मा
देखना असंभव मालूम
होता है। शरीर
के नाते—रिश्ते
में कहा परमात्मा?
वासना के संबंधों
में कहां परमात्मा?
प्रेम तुम
ने किया नहीं, कुछ
और किया होगा।
उस को प्रेम पुकारा
होगा। प्रेम तुम
ने जाना नहीं।
प्रेम का लेबिल
रहा होगा, अंदर
कुछ और रहा होगा।
क्योंकि प्रेम
तो जिस से हो जाए,
उसी में परमात्मा
दिखायी पड़ता है—दिखायी
पड़ना ही चाहिए;वही प्रेम का
प्रमाण है। तुम्हें
जिससे प्रेम हो
जाए, उसमें
परमात्मा की झलक
दिखायी पड़नी ही
चाहिए। अगर न दिखायी
पड़े तो वासना होगी,
कामना होगी,
प्रेम नहीं।
प्रेम तो द्वार
है जिससे परमात्मा
झलकता है। पत्थर
से प्रेम हो जाए
तो पत्थर मूर्ति
बन जाती है। आदमी
से प्रेम हो जाए
तो आदमी में परमात्मा
की झलक आने लगती
है। अपने बच्चे
से प्रेम हो जाए
तो तुम अपने घर
में ही कृष्ण—कन्हैया
को फिर नाचते देखोगे।
फिर पैरों में
पैजना बांधकर तुम
उन्हें खेलते—कूदते
देखोगे। फिर वही
खेल, जो यशोदा
ने कृष्ण का देखा
होगा, कोई भी
मां देख सकती है,
बच्चे से प्रेम
होना चाहिए।
और यही तो
प्रेमियों का अनुभव
है। इसीलिए तो
प्रेमी पागल मालूम
होते हैं। क्योंकि
किसी दूसरे को
तो दिखायी नहीं
पड़ता। कोई आदमी
किसी स्त्री के
प्रेम मे पड़ गया, फिर
उसको लोग पागल
समझते हैं, क्योंकि वह ऐसी
बातें करता है
उस स्त्री के संबंध
में कि लोग इधर—उधर
मुंह करके हंसते
हैं, वे कहते
हैं, इसका दिमाग
खराब हो गया है।
साधारण स्त्री
और यह ऐसी बातें
कर रहा है बढ़ा—चढ़ाकर,
होश में नहीं
है।
मजनू पागल
था लैला के लिए।
उसके गांव के राजा
ने उसे बुलाया, क्योंकि
उसकी हालत बिगड़ती
गयी, बिगड़ती
गयी, गांव भर
उसकी चर्चा करता,
पागल भी लोग
उसे कहते, दीवाना
भी कहते और दया
भी खाते। आखिर
राजा ने उसे बुलाया
और कहा—तू इस लैला
के पीछे पड़ा है,
मैं तेरी लैला
को जानता हूं;
सच तो यह है कि
तेरा इतना लगाव
देखकर मैं भी उत्सुक
हो गया था कि देखूं
यह लैला है कौन?
मगर पाया कि
एक साधारण सी स्त्री;
तू व्यर्थ परेशान
हो रहा है। तुझ
पर मुझे दया आती
है। तू महल के सामने
से रोता निकलता
है, जब देख तेरे
आंसू गिरते रहते
हैं, हर गली
तूने भर दी है गांव
कीं—लैला लैला।
मुझे तुझ पर इतनी
दया आती है कि तू
मेरे राजमहल से
कोई भी स्त्री
चुन ले।
उसने बारह
युवतियां खड़ी करवा
दीं। सुंदरतम स्त्रियां
थीं राजमहल में, देश
की सुंदरतम स्त्रियां
थीं। मजनू से कहा—चुन
ले। मजनू उनके
पास गया, एक—एक
को इनकार करता
गया, फिर आखिर
में बोला—लेकिन
इनमें लैला तो
कोई भी नहीं। राजा
हंसा, उसने
कहा—तू पागल है,
तू निश्चित पागल
है, लोग ठीक
ही कहते हैं। लैला
इनके सामने कुछ
भी नहीं, और
मैंने तेरी लैला
को देखा है, और मैं ज्यादा
अनुभवी हूं, जिंदगी में मैंने
बहुत सुंदर स्त्रियां
जानी हैं, तूने
अभी जाना क्या,
जवान छोकरा है!
मजनू ने कहा—आप
कहते हैं ठीक ही
कहते होंगे, लेकिन लैला को
देखने के लिए मजनू
की नजर चाहिए,
उसके बिना कोई
लैला को देख ही
नहीं सकता। आपके
पास मेरी आंख कहां?
आपने अपनी आंख
से देखा होगा।
मेरी आंख से देखें,
तब लैला दिखायी
पड़ेगी।
इसलिए प्रेमी
पागल मालूम होता
है,
क्योंकि किसी
और को तो दिखायी
नहीं पड़ता, प्रेमी को न मालूम
क्या—क्या दिखायी
पड़ता है? तुमने
प्रेमियों की कविताएं
देखी हैं?
सुनो एक—दों
गीत। एक—
दोस्त मैं
दामन बचाता किस
तरह
मुझसे शाने—जल्वाफर्माई
न पूछ
किस तरह
वह सामने आई न पूछ
उसका हुस्न
और उसकी रानाई
न पूछ
वह हिजाब—आलूदा
अंगड़ाई न पूछ
दिल न कदमों
पर लुटाता किस
तरह
वह तबस्तुम, वह
तरन्नुम, वह
शबाब
वे निगाहें, वे
अदाएं, वह हिजाब
उसके आरिज
में लहकता है गुलाब
उसकी आंखों
में बरसती है शराब
पीके बेखुद
हो न जाता किस तरह
दोस्त मैं
अपना दामन बचाता
किस तरह
उसके ओठों
पर जब आती है हंसी
फैल जाती
है फजा में चांदनी
वह है चलती—फिरती
जूही की कली
वह है हंसती—मुस्कुराती
बांसुरी
गीत उल्फत
के न गाता किस तरह
दोस्त मैं
अपना दामन बचाता
किस तरह
ढूंढता
था हुस्न उसका
तख्तों—ताज
मांगती
थी उसकी रानाई
खिराज
सोहनी का
नाज,
राधा का मिजाज
चाहती थी
कर ले मेरे दिल
पे राज
मैं भला
आखें चुराता किस
तरह
दोस्त मैं
दामन बचाता किस
तरह
दिल पे हंस
कर तीर खाना ही
पड़ा
उसके आगे
सर झुकाना ही पड़ा
होश मजबूरन
गंवाना ही पड़ा
जक का खिरमन
जलाना ही पड़ा
और जलाता
तो बुझाता किस
तरह
दोस्त मैं
दामन बचाता किस
तरह
प्रेम जहां
होगा, वहां अपूर्व
दिखायी पड़ने लगेगा।
वहां साधारण विलीन
हो जाता है, वहां हर चीज असाधारण
हो जाती है। वहां
साधारण सी आखें
कमल के फूल हो जाते
हैं। साधारण सी
देह में दीप्ति
विराजमान हो जाती
है। प्रेम तुम्हें
आंख देता है। उस
आंख के कारण गहराई
आती है। गहराई
के कारण हर एक के
भीतर छिपा परमात्मा
दिखायी पड़ता है।
जिससे तुम्हारा
प्रेम है, उसमें
तुम्हें परमात्मा
दिखायी पड़ने लगता
है।
प्रेमी
पागल नहीं है, प्रेमी
के पास नयी तरह
की आंख है जो गहरे
में देख पाती है।
भक्त ऐसा प्रेमी
है, जो एक के
प्रेम में नहीं,
सबके प्रेम में
पड़ गया। जो समग्र
के प्रेम में पड़
गया। इसलिए वृक्षों
में भी उसे वही
दिखायी पड़ता है,
पत्थरों में
उसे वही दिखायी
पड़ता है, लोगों
में भी वही दिखायी
पड़ता है, उसके
अतिरिक्त और कोई
दिखायी ही नहीं
पड़ता। अपने भीतर
भी वही, अपने
बाहर भी वही।
नहीं, तुमने
प्रेम किया ही
नहीं होगा। तुमने
कुछ और किया, तुम उसे प्रेम
समझ बैठे। तुमने
अपने अहंकार को
सजाया होगा, अहंकार को गंवाया
न होगा। अगर तुमने
प्रेम से अहंकार
को सजाया, तो
चूक जाओगे अगर
प्रेम में अहंकार
को गंवाया, तो तुम्हें ध्यान
की पहली झलक मिलेगी।
तुम पर निर्भर
है सब। तुम जानते
ही नहीं कि प्रेम
का अर्थ होता है
अपने को गंवाना।
और जहां अपने को
गंवाया, वहीं
से तो प्रार्थना
की शुरुआत है।
इस दूसरे
गीत को सुनो—
फिर तुम्हें
लिख दूं धरा के
भाल पर
फिर तुम्हें
रच दूं गगन के गाल
पर
हो गये मुझको
बहुत से दिन तुम्हारी
छवि संवारे
झर गये कितने
धरा के फूल, नभ
के नील तारे
भूल बैठे
रात—दिन आलोक की
पगडंडियों को
भूल बैठी
है नदी सौंदर्य
से जकड़े किनारे
फिर तरंगों
को तुम्हारी बांह
दूं
फिर कमल—वन
को तुम्हारी छाह
दूं
है समय छिछला, बहुत
ओछा, नशे के
ज्वार जैसा
स्वम्न
मेरा गुरु—गहन
है जागरण के सार
जैसा
मुक्त, चिर
निब ध में मेरे
उदय की भव्यता
हो
इन घृणा
के कंटकों में
तुम दया की दिव्यता
हो
रागबंधों
का तुम्हें सत्कार
दूं
पूर्ण अर्पण
का अकंपित प्यार
दूं
शुक्लवर्णी
ऋतु तुम्हीं में
औक दूं
छोर सुषमा
के तुम्हीं में
टाक दूं
मैं तुम्हें
बांधू गिरा के
प्राण से
रूप—श्री
लालित्य के दिनमान
से
फिर तुम्हें
लिख दूं धरा के
भाल पर
फिर तुम्हें
रच दूं गगन के गाल
पर
जब तुम किसीके
प्रेम में पड़ोगे, तो
वहां से तुम्हें
पहली भनक मिलेगी
अस्तित्व के रहस्य
की; वहा से तुम्हें
पहली खबर मिलेगी
कि जीवन ऊपर—ऊपर
नहीं है; जो
ऊपर से दिखायी
देता है, उस
पर समाप्त नहीं
है। जीवन की और—और
गहराइयां हैं।
जीवन के और—और तल
हैं। दृश्य पर
समाप्त नहीं है
जीवन, अदृश्य
है। प्रेमी को
अदृश्य की भनक
पड़नी शुरू होती
है। उसे शून्य
के स्वर सुनायी
पड़ने लगते हैं।
उसे दूसरे के हृदय
की ऊष्मा अनुभव
होने लगती है।
दो प्रेमी दो देहों
का मिलन नहीं हैं;
जहां दो देहें
ही मिलती हैं,
वहां तो केवल
काम है, प्रेम
नहीं; जहां
दो मन मिलते हैं,
वहां प्रेम की
शुरुआत है। और
जहां दो आत्माएं
मिल जाती हैं,
वहां प्रेम की
पूर्णता है, वहां भक्ति है।
तुम
पूछते, आपने कहा
अपने प्रेमी,
अपनी प्रेयसी
में भी परमात्मा
ही देखो। अगर प्रेमी
और प्रेयसी में
न देख सकोगे, तो फिर कहां देखोगे?
फिर तो जगत खाली
है। फिर तो जगत
कोरा है। वहीं
खोजो, वहीं
मंदिर है, उन्हीं
सीढ़ियों पर सिर
झुकाओ। प्रेम में
डूबो, वहीं
से कुरान की आयतें
उठेंगी और वेद
के स्वर। वहीं
मीरा जगेगी, वहीं शांडिल्य
के सूत्र सत्य
होंगे।
तुम कहते, यह
मेरी समझ में नहीं
आया। प्रेम मैंने
भी किया है, लेकिन अपनी प्रेयसी
में परमात्मा देखना
असंभव मालूम होता
है। फिर कहां संभव
होगा? फिर कैसे
संभव होगा? फिर तुम्हारे
लिए नास्तिक होने
के अतिरिक्त और
कोई उपाय न रह जाएगा।
जो प्रेम में हार
गया, वही नास्तिक
है। जो प्रेम में
पराजित हुआ, वही नास्तिक
है। जब प्रेम में
भी नहीं मिला,
तो स्वभावत:
तुम कहोगे कि है
ही नहीं। प्रेम
सबसे ऊंची उड़ान
है। उतनी ऊंची
उड़ान की और फिर
भी उसकी कोई झलक
न मिली, तो फिर
कहां मिलेगा?
शरीर के
नाते—रिश्ते में
कहौ परमात्मा है? परमात्मा
शरीर में बसा है।
नहीं तो शरीर ही
नहीं होगा। नहीं
तो लाश में और जीवित
आदमी में फर्क
क्या है? यही
फर्क है कि एक में
अभी परमात्मा चलता,
बोलता, उठता,
सोचता, एक
में परमात्मा विदा
हो गया। एक में
घर खाली, एक
में घर मालिक से
भरा है। एक दीया
जलता है रोशनी
है, और एक दीया
बुझा है। जंहा
तक दीयों का संबंध
है, दोनों एक
जैसे लेकिन रोशनी
के संबंध में भेद
पड़ गया है।
हर जीवित
व्यक्ति में जीवन
है। जीवन यानी
परमात्मा। जीवन
यानी ज्योति। जहां
वृक्ष जी रहा है, वहा
परमात्मा है। जहां
गति है, वहां
परमात्मा है। तुम
कहते—शरीर के नाते
—रिश्ते में कहौ
परमात्मा? परमात्मा
का ही नाता—रिश्ता
है। सबसे छोटा
है, पहली सीढ़ी
है उस बड़ी यात्रा
की, लेकिन है
तो उसी बड़ी यात्रा
की पहली सीढ़ी।
पहला सोपान भी,
है तो सोपान।
उस पर रुक मत जाना,
मगर उसकी निंदा
भी मत करना। उस
पर चढ़ना और पार
जाना।
वासना के
संबंधों में कहां
परमात्मा है? वासना
कीचड़ भरी है, सच मगर कीचड़ से
कमल पैदा होते
हैं। और वासना
से ही प्रार्थना
के फूल खिलते हैं।
आज इतना
ही।
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