दूसरा
प्रवचन
12
मार्च 1978;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्न
सार :
1--मेरे
प्रति लोगों
की क्या धारणा
होगी, इससे
सदा भयभीत
रहता हूं। अब
संन्यास लेना
है, लेकिन
भय के कारण
रुका हूं।
क्या करूं?
2--गीता
में कृष्ण
द्वारा अपने
बार—बार आने
में निमित्त रूप
बताए गये तीन
कारणों को
क्या आप पूरा
कर रहे हैं? क्योंकि आप
अपने को भगवान
कहते हैं।
3--आप
अपने को भगवान
क्यों कहते
हैं? क्या
आप सबको पैदा
कर रहे हैं?
4--क्या
इस जगत में
प्रेम का असफल
होना
अनिवार्य ही
है? परमात्मा
के प्रति राग
है भक्ति
पहला
प्रश्न :
मैं
सदा भयभीत
रहता हूं—खासकर
लोगों की मेरे
प्रति क्या
धारणा होगी, इससे। अब
संन्यास भी
लेना है, लेकिन
भय के कारण
रुका हूं।
क्या करूं?
भय
नहीं है मूल
में, मूल में
अहंकार है।
दूसरों की
धारणा क्या
होगी मेरे
प्रति इसका इतना
ही अर्थ है कि
दूसरे मुझे
ऐसा समझें, वैसा न
समझें; बुद्धिमान
समझें, विक्षिप्त
न समझ लें।
लोगों की
धारणा मेरे
प्रति इस ढंग
की ही होनी
चाहिए तो ही
मेरा अहंकार
सधेगा। अगर
लोगों की
धारणा बदल गयी
तो मेरे
अहंकार का
क्या होगा? अहंकार
दूसरों पर
निर्भर है।
उनके हाथ में
है तुम्हारी
कुंजी।
अहंकार के
प्राण
तुम्हारे हाथ
में नहीं है, दूसरों के
हाथ में हैं; जब चाहें तब
दबा देंगे तो
तो तुम मर
जाओगे। इससे
भय है। तुमने
अपने प्राण
दूसरों में रख
दिये हैं।
तुमने बच्चों
की कहानियां
पढी है? कोई
सम्राट है, उसने अपने
प्राण तोते
में रख दिये
हैं। सम्राट
को नहीं मारा
जा सकता लेकिन
कोई तोते की
गर्दन मरोड़
दे तो सम्राट
मरेगा। ऐसे ही
अहंकार ने
अपने प्राण
दूसरों के
मंतव्यों में
रख दिये हैं। भीड़
क्या कहेगी? इसीलिए भीड़
के अनुकूल चलो,
ताकि भीड़
तुम्हारे
अनुकूल रहे।
जैसा भीड़ कहे,
वैसे उठो, वैसे बैठो—
भेड़—चाल
चलो। अपनी चाल
मत चलना; भीड़
पसंद नहीं
करती
तुम्हारी चाल।
क्योंकि
तुम्हारी चाल
का मतलब होता
है, तुम
बगावती हो, विद्रोही हो;
तुम अपने
होने की घोषणा
कर रहे हो। यह भीड़
बर्दाश्त
नहीं करती। भीड़
कायरों की है।
कायर किसी
हिम्मतवर को
बर्दाश्त
नहीं करते।
क्योंकि उस
हिम्मतवर के
कारण उन्हें
अपना कायर पन
दिखायी पड़ता
है। वे तुमसे
बदला लेंगे।
वे तुम्हें
पागल कहेंगे,
विक्षिप्त
कहेंगे, सिरफिरा
कहेंगे। सो ड़र
लगता है।
क्योंकि
तुम्हारी
प्रतिष्ठा
उनके हाथ में
है। गौर
से समझना, यह
भय नहीं है।
भय गौण है, मूल
में अहंकार है।
और जब तक किसी
प्रश्न को ठीक—ठीक
न पकड़ लिया
जाए तब तक
उसका हल नहीं
होता। तुम भय
समझते रहे तो
तुम इसका हल
कभी न कर पाओगे।
क्योंकि
भय सिर्फ
लक्षण है, मूल रोग
नहीं। रोग का
उपचार किया जा
सकता है, लक्षणों
का उपचार नहीं
होता। और जो
लक्षणों का
उपचार करता
रहेगा, ऊपर—ऊपर
उपचार में
उलझा रहेगा, भीतर— भीतर
रोग बढ़ता
रहेगा। क्यों ड़रते
हो किसी से? लोग तुम्हें
पागल ही
समझेंगे न!
समझने दो। लोग
तुम्हारी
प्रतिष्ठा न
करेंगे, न
करने दो। उनकी
प्रतिष्ठा का
मूल्य भी
कितना है? यह
नासमझों की
भीड़ अगर
तुम्हें
बुद्धिमान भी समझती
है तो इन
नासमझों के
समझने का
कितना मूल्य
है? इनकी
प्रतिष्ठा तो
दो कौड़ी की भी
तो नहीं है! और
बदले में ये
तुमसे सब ले
लेते हैं, तुम्हारी
आत्मा ले लेते
हैं। तुम्हें
फिर इनके
अनुसार चलना
पड़ता है, लकीर
के फकीर होकर
चलना पड़ता है।
फिर न कभी तुम
मस्ती में डोल
सकते हो, न
परमात्मा को
खोज करते हो, न सत्य को खोज
सकते हो।
क्योंकि भीड़
कहती है, सत्य
मिल ही चुका
है, कृष्य
ने गीता में
दे दिया है, अब तुम्हें
और खोज की
क्या जरूरत है?
गीता पढ़ो, गीता
गुनगुनाओ, गीता
रटो, तोते
हो जाओ। या
भीड़ कहती है, बाइबिल में
सत्य है, अब
तुम्हें और
क्या करना है?
यीशु मसीह
ने सारे संसार
के लिए दुख
झेल लिया, अब
तुम्हें किसी
और तपश्चर्या
की जरूरत नहीं
है। यीशु मसीह
ने सूली पर
अपने को लटका
दिया, अब
तुम्हें सूली
पर लटकने की
जरूरत नहीं है।
तुम तो यीशु
का नाम जपो, यीशु का गुण
गाओ।
भीड़
तुम्हें इस
तरह की बातें
कहती है कि हम
जो मानते रहे
हैं, वैसा
मानकर चलो।
भीड़ कहती है, शंका मत
उठाना, संदेह
मत उठाना। भीड़
कहती है, अपना
सिर मत उठाना,
गुलाम रहो।
भीड़ गुलामी
आरोपित करती
है। और जो
जितनी सुगमता
से गुलाम होने
को राजी होता
है उसे उतना
आदर देती है, उसी अनुपात
में आदर देती
है। अब यह बड़े
मजे की बात है,
जीसस को तो
सूली लगी, लेकिन
जीसस के पीछे
चलने वाले
पादरी को सूली
नहीं लगती, सम्मान
मिलता है।
जीसस बगावती
थे। भीड़ ने
उन्हें
बरदाश्त नहीं
किया। पादरी—पुरोहित
बगावती नहीं
है, भीड़ के
बड़े काम का है।
वह भीड़ को बांधकर
रखता है। उसका
लते सम्मान
करते हैं।
असली संतों को
सूली लग जाती
है, गालिया
मिलती हैं, अपमान मिलता
है, नकली
संत पूजे जाते
हैं। यह तुम
देख सकते हो।
नकली क्यों
पूजा जाता है?
नकली
में खतरा नहीं
है। आग नहीं
है, राख ही
राख है। उसे
तुम छुओगे तो
जलोगे नहीं, उससे
तुम्हारे
जीवन में
चिनगारी नहीं
पड़ेगी। उससे
तुम्हारे
जीवन में कोई
रूपांतरण
नहीं होगा।
नकली
सांत्वना है,
संक्रांति
नहीं। इसलिए
नकली को आदर
दिया जाता है,
असली का
अपमान किया
जाता है, निंदा
की जाती है।
हजार लांछन
लगाये जाते
हैं। सत्य सदा
सूली पर रहा
है, और
असत्य
सिंहासन पर
अगर तुम
सिंहासन
चाहते हो, तो
फिर तुम्हें
गुलाम होना
पड़ेगा। अगर
तुम सत्य
चाहते हो तो
तुम्हें साहस
चाहिए। और एक
ही साहस है
जगत में, अपने
अहंकार को छोड़
देने का साहस।
फिर तुम मुक्त
हो गये। फिर
दुनिया में
कोई तुम्हें
बौध नहीं सकता।
तुमने जड़ ही
काट दी; तुमने
सारी गुलामी
के आधार गिरा दिये।
और यह
तुम्हारे हाथ
में है; जिस
दिन तुमने सोच
लिया कि ठीक
है, भीड़ को
जो सोचना हो
सोचे, मुझे
जैसे जीना है,
वैसे
जीऊंगा, यह
मेरी जिंदगी
है और मुझे
मिली है, और
ईश्वर के
सामने मैं
उत्तरदायी
होऊंगा।
हसीद
फकीर झूसिया
मर रहा था।
यहूदी फकीर था।
एक बूढ़े यहूदी
ने उसके पास
आकर कहा, परमात्मा
से सुलह कर ली
न? झूसिया
ने आंख खोली
और कहा :
परमात्मा से
मेरा कोई झगड़ा
ही नहीं था, झगड़ा तो भीड़
से था। बगावती
फकीर था! बूढ़े
ने दया से कहा
होगा कि परमात्मा
से सुलह कर ली
न! झूसिया ने
कहा, परमात्मा
से मेरा कभी
झगड़ा ही नहीं
हुआ, झगड़ा
भीड़ से था। और
भीड़ से क्या
सुलह करनी है?
चार दिन की
जिंदगी में
क्या भीड़ से
सुलह करनी है?
सम्मानित
जीए कि
अपमानित जीए,
फूल मिले कि
पत्थर मिले, क्या फर्क
पड़ता है? यह
दो दिन की
कहानी है। यह
तो पानी पर
खींची लकीर है,
मिट जाएगी।
रही परमात्मा
की बात, उससे
मेरा कोई झगड़ा
नहीं। उस बूढ़े
ने फिर भी
करुणावश कहा,
मोजेज का
स्मरण करो, वही रक्षक
हैं, मृत्यु
करीब है।
झूसिया
हंसने लगा। और
झूसिया ने कहा
कि मैं मर रहा
हूं अब तो
मोजेज को मेरे
बीच में मत
लाओ, अब तो
मुझे
परमात्मा के
आमने—सामने
सीधा होने दो।
मरने के बाद
परमात्मा
मुझसे यह नहीं
पूछेगा कि तुम
मोजेज क्यों नहीं
थे? वह
मुझसे पूछेगा,
झूसिया तुम
झूसिया क्यों
नहीं थे? उत्तर
मुझे देना
पड़ेगा, मुझे
जीवन दिया था,
इसका तुमने
क्या किया? तुम इस जीवन
में क्या फल
लेकर आए? कौन—सी
परिपक्वता
तुमने पायी? कौन—सी
गरिमा जानी? कौन— से सत्य
का उदघाटन
किया? कौन—सा
अनुभव लाए हो?
वह मुझसे यह
नहीं पूछेगा
कि तुम मोजेज
क्यों नहीं बन
गये? मोजेज
बनने उसने
मुझे भेजा
नहीं था, उसने
मुझे भेजा है
झूसिया बनने।
मोजेज को मेरे
बीच में मत
लाओ। मरते
वक्त तो मुझे
अकेला मरने दो।
भीड़ न
तुम्हें
अकेले जीने
देती है, न
अकेले मरने
देती है। तुम
मर रहे हो और
भीड़ तुम्हें
गंगाजल पिला
रही है। तुम
मर रहे हो और
भीड़ तुम्हारे
कान में राम—नाम
जप रही है।
तुम मर रहे हो
और
सत्यनारायण
की कथा सुनायी
जा रही है।
तुम्हें मरने
भी नहीं देती
अकेले में भीड़,
तुम्हें
जीने भी नहीं
देती भीड़।
संन्यास
का केवल इतना
ही अर्थ है, इस बात की
घोषणा कि अब
मैं इसकी
चिंता नहीं करूंगा
कि भीड़ सम्मान
देगी कि अपमान
देगी, अब
मैं अपने ढंग
से जीऊंगा।
गलत तो गलत
सही, ठीक
तो ठीक सही, लेकिन जो
जीवन मुझे
मिला है, उसे
मैं अपने ढंग
से जीऊंगा। और
मैं तुमसे
कहता हूं,
अगर कोई अपने
ढंग से गलत भी
जीए तो ठीक तक
पहुंच जाता है।
और दूसरों के
ढंग से ठीक भी
जीए तो ठीक तक
नहीं पहुंचता।
क्योंकि
दूसरों के ढंग
से ठीक जीने
में कोई प्राण
नहीं होते, तुम्हारा
अंतर का साथ
नहीं होता; बोझ की तरह
तुम जीते हो।
हिंदू भीड़ में
पैदा हुए हो
तो जाते हो
मंदिर, राम
की पूजा कर
आते हो, लेकिन
तुम्हारे
हृदय की यह
उमंग नहीं है।
नाचते तुम वहा
नहीं गये हो।
ईसाई घर में
पैदा हुए हो
तो चर्च में
चक्कर लगा आते
हो। लगाना
पड़ता है। एक
औपचारिकता है,
एक कर्तव्य
है, निभाना
है। मां—बाप ने
थोप दिया है
तुम्हारे सिर
पर, उसे
पूरा करना है।
लेकिन इसका
क्या मूल्य हो
सकता है?
जो
आदमी मंदिर
में गया है, और केवल देह
से गया है, और
जिसकी आत्मा
बाजार में
भटकती है; जो
प्रार्थना
दोहरा रहा है
लेकिन जिसके
चित में और
हजार तरंगें
और विचार उठ
रहे हैं; जो
झुक रहा है
मंदिर की
मूर्ति के
सामने, लेकिन
पीछे लौटकर
देख रहा है कि
कोई जूता न चुरा
ले जाए... मैंने
एक आदमी को
झुकते देखा
मंदिर में, और पीछे
लौटते देखा कि
वह पीछे लौट—लौट
कर देख रहा है;
मैंने पूछा,
तुम लौट कर
क्या देखते हो?
उसने कहा कि
नये जूते पहन
कर आ गया हूं
कोई ले न जाए।
तो मैंने कहा
कि तुम सिर भी
उसी तरफ कर लो,
क्योंकि
तुम झुक जूते
के लिए रहे हो;
प्रार्थना
तुम्हारी
बिलकुल झूठी
है! तुम जूते
को ही सामने
रखकर क्यों
नहीं झुक लेते?
तुमसे
मुसलमान
बेहतर हैं!
नमाज पढ़ने
जाते हैं, दुखों,
जूते को
सामने रख लेते
हैं। जूता कोई
ले न जाए! खुदा
के लिए झुक
रहे हैं! अभी कल
ही मैं एक
चित्र देख रहा
था, कोई दस
हजार आदमी
नमाज पढ़ रहे
हैं, दस
हजार जूते
अपने— अपने
सामने रखे हुए
हैं। वहीं
झुके हैं, जूतों
में झुके हैं।
यह झूठ है।
इसमें सत्य की
सुगंध नहीं।
यह व्यवहार
होगा, इससे
समाज चलता
होगा, लेकिन
इससे सत्य की
यात्रा नहीं
होती।
भीड़ को
पता भी क्या
है कि संन्यास
क्या है? संन्यास
पूछना है, उनसे
पूछो जो
संन्यासी हैं।
संगीत समझना
है, उनसे
समझो जो संगीत
जानते हैं। और
ध्यान की खबर
लेनी है तो
उनसे लो, जिन्होंने
ध्यान में
उतरने का साहस
किया है, जिन्होंने
ध्यान की
गहराइयां छुई
हैं। बाजार
में एक किरानी
बैठा है, वह
कहता है, संन्यास
में मत उलझ
जाना, यह
सब सम्मोहन है।
न वह कभी उलझा,
न उसने कभी
जाना; इस
दुकान से कभी
उठा नहीं, इस
दुकान से बाहर
गया नहीं। यह
दुकान
सम्मोहन नहीं
है, यह
रुपये इकट्ठे करते
जाने में
सम्मोहन नहीं
है, यह
सत्य है! यह
रुपये इकट्ठे
करना और मर
जाना, यह
सत्य है। और
ध्यान की
चिंता में
लगना, व्यर्थ
की बातों में
पड़ना है! तुम
किससे पूछते
हो?
सांस
तेजाब की तरह
जलकर
ऐसी
कौंधी है सारे
सीने में
छाले—
छाले— से पड़
गये जैसे
जर्ब—सी
चिर गयी है
सीने में
सुनके
नादान दोस्त
का ताना
'क्यू
न गम रास
आएंगे उसको
जिसको
दौलत मिले
बदौलते—दिल'
ऐसे
लोगों का क्या
करे कोई
नोंच
देते हैं जर्द
चंपा को
जरें
सोने के ढूंढा
करते हैं
और
खुशबू—वह उनकी
चीज नहीं
जिसको
फूल की पहचान
हो उससे फूल
की बात करना।
ऐसे
लोगों का क्या
करे कोई
नोंच
देते हैं जर्द
चंपा को
जरें
सोने के ढूंढा
करते हैं
और
खुशबू—वह उनकी
चीज नहीं
जिन्होंने
फूलों से
प्रेम न किया
हो, उनके
आधार पर तुम
फूलों को
खोजने
निकलोगे तो वे
तुम्हें पागल
कहेंगे ही। यह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
जिन्होंने
सोने के
अतिरिक्त और
किसी चीज में
मूल्य नहीं
जाना, जिन्होंने
सोने में ही
सारा सार देखा,
उनसे तुम
सत्य की बातें
करोगे, संन्यास
की बातें
करोगे, वे
तुम्हें पागल
न समझेंगे तो
और क्या
समझेंगे? इसमें
कुछ एतराज की
बात भी नहीं
है, यह
बिलकुल ठीक है,
यह जैसा
होना चाहिए
वैसा ही है।
ऐसे
लोगों का क्या
करे कोई
नोंच
देते हैं जर्द
चंपा को जरें
सोने
के ढूंढा करते
हैं
और
खुशबू—वह उनकी
चीज नहीं
भय
नहीं है, भीतर
अहंकार है।
अहंकार ही ड़रता
है। इसे तुम
समझ लो, बहुत
ठीक से समझ लो।
जब तुम मृत्यु
से भी ड़रते
हो तब भी
अहंकार के
कारण ही ड़रते
हो। मृत्यु का
कोई ड़र नहीं
होता। मृत्यु
तक का कोई ड़र
नहीं होता।
मृत्यु को
जाना ही नहीं
है, उससे ड़रोगे
कैसे? ड़र
तो जानी—पहचानी
चीज से होता
है। कहावत है,
दूध का जला
छाछ भी फूंक—फूंक
कर पीता है।
लेकिन कम से
कम दूध का जला
तो होना चाहिए।
तुमने मृत्यु
जानी ही नहीं,
तुम मृत्यु
में जले ही
नहीं, तुम्हें
मृत्यु की कोई
खबर ही नहीं; वह अज्ञात, वह अनजान, सुखद है या
दुखद, इसका
भी कुछ पता
नहीं है, ड़रोगे
कैसे? भयभीत
कैसे होओगे? कौन जाने
वरदान हो।
अभिशाप है
इसका निश्चय
क्या है? एक भी मरे
हुए आदमी ने
लौटकर तो कहा
नहीं कि मृत्यु
दुख देती है, कि मृत्यु
तुम्हें
पीडाएं देगी,
संताप देगी;
कि मृत्यु
तुम्हारी
छाती में भाले
भोंकेगी, एक
ने भी तो
लौटकर नहीं
कहा है।
मृत्यु तो
अपरिचित है।
अपरिचित का भय
कैसे? देखा
नहीं तुमने, छोटा बच्चा
सांप से नहीं ड़रता।
उसे पता नहीं
है कि सांप
क्या करेगा? वह सांप को
पकड़कर खेलने
लगेगा। छोटा
बच्चा आग से
नहीं ड़रता।
उसे पता नहीं
है! पता हो तो
भय होता है।
तो जब लोग
कहते हैं, मुझे
मृत्यु का भय
है, तो वे
असल में कुछ
और कहते हैं, ठीक—ठीक समझ
नहीं पा रहे
हैं कि क्या
स्थिति है। वे
यह नहीं कहते
मुझे मृत्यु
का ड़र है, वे
सिर्फ इतना ही
कहते हैं, मुझे
मेरे मिट जाने
का ड़र है।
लेकिन
तुम्हारे
भीतर जो मिट
सकता है तत्व,
वह अहंकार
है—और तो कोई
मिटनेवाली
चीज नहीं। देह
मिट्टी में
मिल जाएगी, मिटेगी नहीं।
श्वास हवा में
लीन हो जाएगी,
मिटेगी
नहीं। आग-आग
में चली जाएगी,
पानी पाने
में, मिटेगा
कुछ भी नहीं।
और तुम्हारे
भीतर जो
अंतरात्मा है,
उससे
तुम्हारी
पहचान नहीं है,
वह भी
मिटनेवालीनहीं
है।
जिन्होंने
उसे जाना, उन्होंने
निरपवाद रूप
से सदियों—सदियों
में एक ही बात
कही है कि वह
शाश्वत है, अमृत है।
कृष्ण ने कहा
है : 'न
हन्यते
हन्यमाने
शरीरे। ' शरीर
के मरने से
उसका मरना
नहीं है। 'नैनं
दहति पावक:। ' 'नैनं
छिंदन्ति
शास्त्राणि'। 'नैनं
दहति पावक:। ' नहीं जलती
जलाने से, नहीं
छिदती
शस्त्रों के
भोंक देने से।
वह अमर है।
फिर
मरता कौन है?
सिर्फ
यह झूठा अहंकार।
यह जो तुमने
अपनी धारणा
बना ली है कि
मैं कौन हूं—यह
नाम, यह रूप, यह यश, यह
पद—प्रतिष्ठा,
यह मैं, बस
यही मरता है।
मृत्यु के भय
में भी छिपा
अहंकार है।
समस्त भय के
भीतर छिपा हुआ
अहंकार है। और
अगर तुम इसी
भय और अहंकार
में जीए तो
निश्चित तुम
बडी भयभीत दशा
में जी रहे हो।
तुम कुछ भी न
जान पाओगे, जो मृत्यु
के पार है।
जोखिम
तो उठानी
होगी! और
संन्यास
जोखिम है।
नजर
नवाज नजारा
बदल न जाए
कहीं
जरा सी
बात है मुंह
से निकल न जाए
कहीं
वह
देखते हैं तो
लगता है नींव
हिलती है
मेरे
बयान को बंदिश
निगल न जाए
कहीं
यूं मुझको
खुद पै बहुत
ऐतबार है
लेकिन
ये
बर्फ आंच के
आगे पिघल न
जाए कहीं
चले
हवा तो
किवाडों को
बंद कर लेना
ये
गर्म राख शरारों
में ढल न जाए
कहीं
तमाम
रात तेरे
मैकदे में मय
पी है
तमाम
उस नशे में
निकल न जाए
कहीं
कभी
मचान पै चढ़ ने
की आरजू उभरी
कभी ये
ड़र कि ये
सीढी फिसल न
जाए कहीं
जब भी
नया कदम
उठाओगे, जब
भी अज्ञात में
उतरोगे, अनजान
सागर में नाव
खोलोगे, तो
थोड़ा कंपन तो
स्वाभाविक है।
क्योंकि शात
छूटता है, शात
किनारा छूटता
है, अज्ञात
सागर में चले।
लेकिन इसी
कंपन के कारण
रुक जाओगे? यही किनारा
तुम्हारी कब्र
बन जाएगा। उस
किनारे को कब
पाओगे? फिर
यही क्षुद्र
जगत तुम्हारा
सब कुछ हो
जाएगा। फिर
विराट की खोज
पर कब निकलोगे?
फिर इन्हीं
सीमाओं में
दबे—दबे
समाप्त हो
जाओगे। असीम
से पहचान करनी
है, नहीं
करनी है? और
असीम में ही
सुरक्षा है। अज्ञात
को जान लेने
में ही अमरत्व
का स्वाद है।
संन्यास
तो केवल एक
भाव— भंगिमा
है कि मैं
यात्रा पर
जाता हूं कि
मुझे जो शात
है उसे दाव पर
लगाता हूं
अज्ञात की तलाश
में जाता हूं।
जान लिया इस
किनारे को, पहचान लिया,
कुछ पाया
नहीं। देख
लिये नाते—रिश्ते,
देख ली धन—दौलत,
देख ली पद—प्रतिष्ठा,
सब राख ही
राख है। ऐसी
प्रतीति जब
तुम्हें सघन
हो जाती है तो
फिर यहां
रोकने को क्या
है? फिर
तुम यात्रा पर
जा सकते हो।
संन्यास
यात्रा है। और
जो संन्यास की
यात्रा पर
जाता है। वही
जीवित होता है।
नहीं तो लोग
मुर्दे की तरह
जीते हैं।
फिर
धीरे—धीरे यहां
का मौसम बदलने
लगा है।
वातावरण
सो रहा था अब आंख
मलने लगा है
पिछले
सफर की न पूछो, टूटा हुआ एक
रथ है
जो रुक
गया था कहीं
पर, फिर साथ
चलने लगा है
हमको
पता भी नहीं
था, वह आग
ठंडी पड़ी थी
जिस आग
पर आज पानी
सहसा उबलने
लगा है
जो
आदमी मर चुके
थे, मौजूद
हैं इस सभा
में
हर एक
सच कल्पना से
आगे निकलने
लगा है।
ये
जिनको तुम
संन्यासियों
की तरह देख
रहे हो, ये
भी तुम्हारी
तरह मरे हुए
थे। इन्होंने
हिम्मत की है,
राख झाडू दी
है।
इसीलिए
तो संन्यास के
लिए गैरिक रंग
चुना है।
गैरिक अग्नि
का रंग है, जो राख झाडू
देता है, और
अंगारे को उभार
लेता है; जो
व्यर्थ को
अपने से झाड़ता
जाता है, और
सार्थक को
उभारता जाता
है; जो
धीरे-धीरे सांयोगिक
को छोड़ देता
है, और
शाश्वत को पकड़
लेता है।
हिम्मत तो
चाहिए ही, साहस
तो चाहिए ही।
एक ही
भूल है जगत
में, सत्य की
खोज न करना; ड़रो तो
उससे ड़रो। और
तो कुछ भूल
नहीं है। और
थोड़ा कम कमाया,
कि ज्यादा
कमाया, दस
लोगों ने
नमस्कार की
रास्ते पर की
सौ लोगों ने
नमस्कार की, इसका मूल्य
क्या है? सारा
गांव तुम्हें
नमस्कार करता
रहे, इसको
तुम कहां ले
जाओगे? इससे
संपदा नहीं
बनेगी। जब मौत
आएगी, तो
इससे तुम अपना
बचाव न कर
सकोगे। यह सब
तो यहीं पड़ा
रह जाएगा—यें
नमस्कारें, ये धन, ये
दौलत, ये
लोगों के खयाल
तुम्हारे
संबंध में।
मैं एक
फकीर को जानता
हूं। बूढ़े
आदमी थे। अब
तो मर गये।
मैं जब छोटा
था तब उनसे
मेरी पहचान
हुई। उनकी एक
बात मुझे रुच
गयी, इसी से
मेरा उनसे
संबंध बना। वे
जब सभा में
बोलते थे तो
किसी को ताली
नहीं बजाने
देते थे। अगर
कभी लोग ताली
बजा दें तो वे
बड़े नाराज हो
जाते थे। जब
मैंने पहली
दफा यह देखा
तो मैं बहुत
हैरान हुआ, क्योंकि
बोलनेवाला
चाहता है लते
ताली बजाएं।
बोलता ही
इसलिए है कि
लोग ताली
बजाएं।
तालियां बजे,
इसका
इंतजाम करके
आता है।
स्टेलिन तो
अपनी सभा में
अपना छपा हुआ
व्याख्यान
बंटवा देता था,
उसमें जगह—जगह
कहां—कहां
तालियां
बजानी हैं, उसका भी
संकेत रहता था।
तो लोग पढ़
लेते थे और
जहा—जहा ताली
बजानी है, वहां
ताली बजानी
पड़ती थी। इस
फकीर को मैंने
नाराज होते
देखा तो मैंने
पूछा, मैं
उत्सुक हो गया,
मैंने पूछा
: बात क्या है? उन्होंने
कहा : बात यह है
कि नासमझों की
ताली का मूल्य
कितना? अगर
ये ताली बजाते
हैं तो इसका
मतलब है, मैंने
जरूर कोई गलत
बात कही होगी।
सही बात में
तो ये ताली
बजा ही नहीं
सकते हैं, सही
का इन्हें पता
ही नहीं है।
यह बात
मुझे रुच गयी; यह बात बड़ी
प्यारी लगी।
यह आदमी कुछ
जानता है।
इसने कहा कि
ये नासमझ जब
भी ताली बजाते
हैं तो मुझे
नाराजगी होती
है। नाराजगी
यह होती है कि
जरूर मैंने
कोई गलत बात
कह दी। इन पर
नाराज नहीं
होता, अपने
पर नाराज होता
हूं कि जरूर
कोई बात कह दी
जो इनकी
बुद्धि को भी
जंच रही है।
जिनके पास
बुद्धि है ही
नहीं, इनको
जंच रही है।
तो मैंने जरूर
कोई
बुद्धिहीनता
की बात कह दी।
उससे दुखी
होता हूं; उससे
नाराज होता
हूं। सत्य तो
इनकी समझ में
आएगा क्या? असत्य में
पगे हैं, असत्य
ही समझ में
आता है।
छोड़ो इनकी
फिक्र और
ख्याल से समझ
लो, भय ऊपर—ऊपर
है, भीतर
अहंकार है।
जिस दिन
अहंकार को
उतारकर रख
दोगे, फिर
क्या फिक्र? लोग पागल ही
कहेंगे न, तो
कहने दो।
इन्होंने
बुद्ध को पागल
कहा है।
इन्होंने
कबीर को पागल
कहा है।
इन्होंने
सुकरात को
पागल कहा है।
तुम
सौभाग्यशाली
हो, अगर ये
तुम्हें भी पागल
कहें। तुम
धन्यभागियों
की परंपरा के
हिस्से हो जाओगे।
तुम बुद्ध, महावीर और
कृष्य की
शृंखला में
खड़े हो जाओगे;
वे सब पागल
थे। इस भीड़ ने
उन सब को ही पागल
कहां है। और
यह भीड़ बड़ी
अदभुत है।
पहले पागल
कहती है, फिर
जब आदमी मर
जाता है तो पूजा
करती है। यह
भीड़ मुर्दों
की पूजा करती
है। जीवंत का
विरोध करती है।
यह इसकी सदा
की आदत है।
दूसरा
प्रश्न :
गीता
में कृष्य ने
कहा है कि जब—जब
धरती पर संकट
आता है, मैं
अवतार लेता
हूं। अवतार
लेने के तीन
कारण बताए हैं।
पहला, साधुओं
को रक्षा करना।
दूसरा, धर्म
की स्थापना
करना। तीसरा,
पापियों को दंड़
देना।
अर्थात् ये
तीन कार्य
करने के लिए
भगवान धरती पर
आते हैं। आप
अपने को भगवान
कहते हैं।
क्या आप ये
तीनों कार्य
कर रहे हैं?
पहली
बात। पूछा
तुमने, 'गीता
में कृष्य ने
कहा कि जब—जब
धरती पर संकट
आता है'; धरती
पर कभी भी ऐसा
कोई समय है जब
संकट नहीं है?
धरती संकट
है। यहां होना
संकट में होना
है। कब ऐसा
समय था जब
संकट नहीं था?
ऐसी कोई
किताब आज तक
नहीं पायी जा
सकी है, दुनिया
के इतिहास में,
जिसमें
लिखा हो कि इस
समय धरती पर
संकट नहीं है।
सभी किताबें
कहती हैं कि
बड़ा संकट है। हालांकि
सभी किताबें
कहती हैं कि
पहले संकट
नहीं था।
लेकिन वह पहले
कब था? क्योंकि
उस समय की
किताबें कहती
हैं कि संकट था।
तुम चकित
होओगे यह
जानकर, संकट
सदा से रहा है।
संकट
धरती का
स्वभाव है।
होना ही चाहिए।
क्योंकि धरती
छोड़नी है; धरती से
मुक्त होना है।
यहां अगर संकट
न होगा तो
धरती छोड़ोगे
किसीलिए? धरती
से मुक्त
किसलिए होओगे?
यहां अगर
संकट न होगा
तो धर्म की
कोई जरूरत ही
न रह जाएगी।
बीमारी ही न
होगी तो औषधि
की क्या जरूरत
होगी?
थोड़ा
सोचो। धर्म की
सदा जरूरत है, क्योंकि
संकट सदा है; आदमी सदा
बीमार है। तुम
सोचते हो, कभी
कोई ऐसा युग
था, सतयुग,
जब लोग
बीमार नहीं थे;
कोई युग था,
रामराज्य, जब लोग
बीमार नहीं थे।
जरा राम की
कहानी देखो!
राम के पिता
खुद ही बीमार
मालूम पड़ते
हैं। एक जवान
औरत के प्रेम
में बेटे को
निकाल दिया।
अन्याय किया।
यह सतयुग था? रावण ही तो
नहीं था उस
दिन अकेला, बहुत रावण
थे; रावण
के संगी—साथी
भी थे।
स्त्रियां उस
दिन भी चुरायी
जाती थीं।
झगड़े उस दिन
भी खड़े होते
थे। युद्ध उस
दिन भी होते
थे। कौन—सी
हालत बेहतर थी?
क्या था
जिसके गुणगान
करते हो? अगर
गौर से देखने
जाओगे और
ईमानदारी से
जांच करोगे तो
तुम पाओगे, रामराज्य भी
रामराज्य
नहीं था।
रामराज्य इस
धरती पर कभी
रहा ही नहीं, कल्पना में
है आदमी के।
होना चाहिए, आशा है, मगर
फलता कभी नहीं।
कृष्य
जब थे, तब
कौन—सा इस जगत
में आनंद था? युद्ध था; भयंकर युद्ध
हुआ। तुम कोई
स्मरण कर सकते
हो? और
पीछे लौटो—परशुराम!
तो कोई दुनिया
में शांति रही
होगी? परशुराम
ने फरसा लेकर
पृथ्वी को
अनेक बार क्षत्रियों
से समाप्त कर
दिया, खाली
कर दिया; विधवाएं
ही विधवाएं
छोड़ी। बुरे
आदमी तो बुरे
होते ही होंगे,
भले आदमी भी
बहुत भले नहीं
थे। परशुराम
कोई बहुत भले
आदमी नहीं
मालूम पड़ते हैं!
तुम किस जमाने
की बात कर रहे
हो?
बुद्ध
को गालिया
मिलीं, पत्थर
मिले। महावीर
को गांव—गांव
से हटाया गया,
निकाला गया,
कानों में
खीले ठोके गये।
ये भले लोग थे?
दुनिया में
संकट नहीं था?
मेरे
देखे, पृथ्वी
संकट है।
इसलिए यह बात
तो फिजूल है।
किसने कही, मुझे कुछ प्रयोजन
नहीं है। और
ध्यान रखना, कृष्य ने
कुछ कहा हो तो
कृष्य को खोजो
उनसे उत्तर लो।
मैं उनके लिए
उत्तरदायी
नहीं हूं। मैं
कौन हूं जो
उनके लिए
उत्तर दूं? कृष्य को
पकड़ो, उन
पर अदालत में
मुकदमा चलाओ।
मैं जो कह रहा
हूं उसके लिये
उत्तरदायी
हूं। मैं जो
कह रहा हूं
उसके लिए
कृष्ण कैसे
उत्तरदायी हो
सकते हैं? लेकिन
लोग इस ढंग से
पूछते हैं
जैसे कि कृष्य
ने कुछ कह
दिया, तो
उसके लिए मैं
उत्तरदायी
हूं या कोई भी
उत्तरदायी है।
कृष्य ने जो
कहा वह कृष्य
जानें। तुम
उनसे झगडू
लेना, कहीं
मिल जाएं—शायद
इसीलिए मिलते
भी नहीं, तुमसे
ड़रते होंगे;
तुमसे
भयभीत होते
होंगे कि हजार
सवाल तुम खड़े करोगे।
तुम
कहते हो, 'गीता
में कृष्य ने
कहा है कि जब—जब
धरती पर संकट
आता है' मैं
तुमसे कहता
हूं धरती पर
सदा संकट है।
आता नहीं, जाता
नहीं, धरती
संकट है। छ:
हजार साल
पुरानी चीन
में किताब
मिली है, ऐतिहासिक
आधार पर सबसे
ज्यादा
पुरानी है, उसमें जो
भूमिका है, वह तुम
पढ़ोगे तो चकित
हो जाओगे।
भूमिका ऐसी
लगती है, जैसे
आज के सुबह के
अखबार में
निकली हो।
भूमिका के
शब्द अगर
सुनोगे तो तुम
मान ही न सकोगे
कि छ: हजार साल
पुरानी है
भूमिका में
लिखा है कि
बेटे अपने मा—बाप
का आदर नहीं
करते हैं। यह कैसा
दुखद युग आ
गया है। शिष्य
गुरु की नहीं
मानते। यह किन
पापों का फल
मनुष्य भोग
रहा है।
स्त्रिया
सती
नहीं रहीं, व्यभिचार
फैला है।
अनाचार है, झूठ है, रिश्वतखोरी
है। ये सारी
बातें हैं। तो
ऐसा लगता है
जैसे दिल्ली
का कोई अखबार
आज ही सुबह
छपा हो! राजा
भी भरोसे
योग्य नहीं
रहा, तो
प्रजा का क्या
होगा? यह छ:
हजार साल
पुरानी किताब!
आदमी वैसा का
वैसा है।
तुम्हें भ्रांति
इसलिए पैदा
होती है कि
तुम सोचते हो
कि वैसा कैसे
है? आज का
आदमी कार
चाहता है। यह
बात सच है कि
कार आज से छ:
हजार साल पहले
नहीं थी, लेकिन
छ: हजार साल
पहले जो था, उसकी चाह
इतनी ही थी; फर्क क्या
पड़ता है? बैलगाड़ी
चाहता था आदमी,
शानदार
छकड़े की गाड़ी
चाहता था। आज
फिएट गाड़ी
चाहता है; तब
एक छकड़ा गाड़ी
चाहता था। चाह
तो वही है। कल
हवाई जहाज चाहने
लगेगा उससे
क्या फर्क
पड़ता है? चाह
के विषय बदल
गये हैं, चाह
नहीं बदल गयी
है। वेश्याएं
आज ही तो नहीं
होती हैं, तब
भी होती थीं।
और जमीन पर ही
नहीं होतीं, स्वर्ग में
भी होती हैं—उनको
तुम अप्सराएं
कहते हो। जिन
ऋषि—मुनियों
ने स्वर्ग की
कल्पना की है,
वे स्वर्ग
में भी
वेश्याओं को
नहीं छोड़ सके;
वेश्या ऐसा
अनिवार्य अंग
थी कि होनी ही
चाहिए। और यहां
ही लोग एक—दूसरे
से
प्रतिस्पर्धा
नहीं करते हैं।
तुम कहानियां
पढ़ते हो
पुराणों में
कि जब भी कोई
ऋषि—महर्षि
ज्ञान की
गहराई में
उतरता है, तप
में उतरता है,
इंद्र का
सिंहासन डोलने
लेता है।
क्यों इंद्र
का सिंहासन
डोलने लगता है?
क्या इंद्र
बेचैन हो जाता
है?
यह वही
की वही कथा है, इसमें फर्क कहां
है? जो रोज
हो रहा है। और
फिर इंद्र
करता क्या है?
इंद्र वही
करता है जो
राजनीतिज्ञ
अभी कर रहे हैं।
इंद्र भेज
देता है दो
खूबसूरत
औरतों को कि
जाकर नाचो, ऋषि को
भड़काओ, उपद्रव,
और फोटो
निकलवा लेना,
अखबार में
छपवा देना कि
भ्रष्ट है।
रिश्वत दे दो।
किसी तरह लालच—लोभ,
किसी तरह
इसमें
कामवासना जगा
दो। अब यह बड़े
मजे की बात है
कि जो इंद्र
भेजता है इन
वेश्याओं को,
अब इसमें
कोई पाप नहीं
लगता। पुराण
इसकी कोई बात
ही नहीं कहते
कि इसमें कुछ
पाप लगता है
कि नहीं लगता।
ये ऋषि तो
भ्रष्ट हो गये,
लेकिन
भ्रष्ट जिसने
करवाया, उसका
जुम्मा? और
यह ऋषि भी खूब
हैं कि दो
स्त्रिया आकर
नाचने लगती
हैं कि भ्रष्ट
हो जाता है।
जैसे भ्रष्ट
होने को ही
बैठे थे।
प्रतीक्षा ही
कर रहे थे कि
हे इंद्र, अब
भेजो; कि
इतनी देर
क्यों हो रही
है, अब
भेजो, अभी
तक तुम्हारा
सिंहासन नहीं
कंपा?
आदमी
वैसा का वैसा
है। वही
स्पर्धा
विश्वामित्र
और वशिष्ठ में
है, जो आज
चलती है। वही
संघर्ष
अहंकार का, वही दौड़ वही
हिंसा, सब
वही का वही है।
तुम जरा
पुराने
शास्त्रों
में जो
शिक्षाएं दी
गयी हैं, उनको
गौर से देख लो।
सब शास्त्र
कहते हैं, चोरी
मत करो। इनका
मतलब है, तब
चोरी होती थी
जब शास्त्र
लिखा गया।
नहीं तो पागल
थे शास्त्र
लिखनेवाले कि
चोरी मत करो? सब शास्त्र
कहते हैं, झूठ
मत बोलो। साफ
है कि लोग झूठ
बोलते थे। सब
शास्त्र कहते
हैं, हिंसा
मत करो। साफ
है कि लोग
हिंसक थे। सब
शास्त्र कहते
हैं, व्यभिचार
मत करो। साफ
है कि लोग
व्यभिचारी थे।
और क्या साफ
होगा? जो
लोग करते हैं
उसीको तो
रोकने के लिए
शास्त्र
सूचना देता है।
अगर लोग
व्यभिचारी थे
ही नहीं, लोग
चोर थे ही
नहीं, झूठ
बोलते ही नहीं
थे, तो ये
शास्त्र
लिखनेवालों
का दिमाग खराब
था, ये
पागलों ने
लिखे होंगे।
चिकित्सक तभी
औषधि का नाम
लिखता है, 'प्रसक्रिप्श्न'
देता है
तुम्हें, नुस्खा
देता है, जब
तुम बीमार
होते हो। कौन—सा
फर्क पड़ा है? वही की वही
बात है।
तुम
कहते हो, 'गीता
में कृष्ण ने
कहा है, जब—
जब धरती पर
संकट आता है'; संकट, मैं
तुमसे कहता
हूं सदा है।
धरती संकट है।
यहां होना
संकट है। आता
नहीं, जाता
नहीं। 'तब—
तब मैं अवतार
लेता हूं।
अवतार लेने के
तीन कारण बताए
हैं। साधुओं
की रक्षा करना।
' पहली बात,
साधुता में
ही रक्षा है, किसी और के
आने की जरूरत
नहीं है। जो
साधुता अपने—
आप अपनी रक्षा
न कर सके, वह
साधुता नहीं
है साधुता का
मतलब क्या
होता है? बड़ी
नपुंसक
साधुता हुई कि
कृष्ण को आना
पड़े साधुओं की
रक्षा करने।
फिर साधुता का
अर्थ क्या हुआ?
साधुता में
बल क्या है? यह तो असाधु
से कमजोर हुई।
असाधु तो अपनी
रक्षा खुद कर
लेता है। और
साधु के लिए
कृष्ण को आना
पड़ता है! ये
साधु बड़े
नपुंसक रहे
होंगे।
साधुता में
रक्षा है।
सत्य में बल
है। सत्यमेव
जयते। अगर यह
सच है कि कि
सत्य जीतता है
तो कृष्ण की क्या
जरूरत है? सत्य
बलशाली है, असत्य कमजोर
है, अपने—आप
हारता है। हार
ही जाता है।
हारेगा ही।
उसके असत्य
होने में उसकी
हार छिपी है।
प्रेम जीतता
है, घृणा
हारती है।
मैत्री जीतती
है, वैर
हारता है। ये
साधुता के
सूत्र हैं।
तुम कह
रहे हो कि
कृष्ण तब
अवतार लेते
हैं जब साधुओं
की रक्षा करने
का सवाल उठता
है। असल में
ये बातें
साधुओं ने लिख
रखी हैं—नपुंसक
साधुओं ने। ये
साधु—वाधु
नहीं हैं। ये
असाधु से भी
कमजोर हैं।
इनका सत्य बिलकुल
लचर है, दो
कौड़ी का है।
सच्चाइयां
कुछ और हैं।
रामायण कहती
है कि
रामचंद्र जी
साधुओं की रक्षा
के लिए दक्षिण
भारत गये।
बकवास है। वे
साधु—वाधु
नहीं थे, सब
'पोलिटिकल
एजेंट' थे।
वे राम की
सेवा में
संयुक्त थे और
वहां जासूसी
कर रहे थे।
दक्षिण में
रावण के खिलाफ।
साधु—वाधु
इसमें कुछ
नहीं थे।
साधुओं के लिए
क्या रक्षा की
जरूरत है? कृष्ण
की तो कोई
जरूरत नहीं
आने की। उसका
सत्य ही उसकी
रक्षा है।
लेकिन
ये तरकीबें
हैं, ये बहुत
पुरानी
राजनीति की
तरकीबें हैं।
ईसाइयत का
इतिहास कहता
है कि ईसाई
पहले अपने पादरी
को भेजते हैं
किसी देश में
बाइबिल लेकर फिर
उसकी रक्षा के
लिए तलवारें
लेकर आ जाते
हैं। जब वह
बाइबिल लेकर
आता है उनका पादरी,
तब तुम्हें
लगता है, कोई
हर्जा नहीं है।
लेकिन फिर
उसकी रक्षा के
लिए तलवार
लेकर पीछे
सिपाही आ जाते
हैं, कि
साधु की रक्षा
करनी है! इस
तरह की भी
खबरें उपलब्ध
हैं कि
ईसाइयों ने
अपने साधुओं
को भेजकर वहां
लोगों को
भड़काकर अपने
साधुओं पर चोट
भी करवायी, ताकि फिर वे
सैनिक भेज
सकें। और पीछे
सैनिक आकर
सफाया करता है।
वस्तुत: जो
साधु है, उसे
कृष्ण के आने
की कोई
प्रतीक्षा
नहीं, न
कोई जरूरत है।
वस्तुत:
जो साधु है, उसके भीतर
तो परमात्मा
का अवतरण हो
गया, अब और
कृष्ण की क्या
जरूरत है? साधु
का मतलब क्या
होता है? जिसको
प्रभु का
साक्षात हुआ।
जिसको प्रभु
का साक्षात
हुआ वही तो
साधु है।
जिसने सत्य
जाना वही तो
साधु है। जो सरल
हुआ वही तो
साधु है। तो
मैं तुमसे
नहीं कहता कि
साधु की रक्षा
के लिए किसी
कृष्ण के आने
की जरूरत है।
नाहक कष्ट न
करें। कोई
आवश्यकता
नहीं है। साधु
अपनी रक्षा है।
और तुम
कहते हो, 'धर्म
की स्थापना
करने'।
धर्म की
स्थापना नहीं
की जाती है।
और न कभी धर्म
स्थापित होता
है, न
अस्थापित
होता है। धर्म
तो वही है जो
शाश्वत है।
कृष्ण थोड़े ही
धर्म की
स्थापना करते
हैं। धर्म तो
इस जगत का
नियम है। धर्म
ने इस जगत को
धारण किया है—इसलिए
उसको 'धर्म'
कहते हैं।
जैसे आग जलाती
है और गर्म है,
ऐसा ही इस
अस्तित्व का
स्वभाव धर्म
है। धर्म यानी
स्वभाव। किसी
को आकर
स्थापना थोड़े
ही करनी पड़ती
है। तो कृष्ण
के पहले क्या
मामला था? धर्म
नहीं था? कृष्ण
ने स्थापना की?
फिर कृष्ण
के बाद क्या
हुआ? धर्म
समाप्त हो गया?
धर्म तो इस
जगत को
संभालने वाले
सूत्र का नाम है।
लेकिन
तुम्हारे मन
में कुछ और
बातें हैं; हिंदू—धर्म
की रक्षा!
हिंदू—धर्म
धर्म नहीं है,
और न
मुसलमान—धर्म
धर्म है, ये
तो सब
राजनीतियो के
जाल हैं। धर्म
तो एक ही है, न वह हिंदू
है, न
मुसलमान है, न ईसाई है, न जैन है, न
बौद्ध है।
धर्म तो वह है,
जब तुम अपने
भीतर
परिपूर्ण शांति
में उतरते हो
तो अनुभव करते
हो, उस
अनुभूति का
नाम धर्म है।
जब तुम अपने
अंतरतम में
डूब जाते हो
तो जिसका तुम्हें
स्वाद मिलता
है, उसका
नाम धर्म है।
लेकिन हिंदू—धर्म
को रक्षा की
जरूरत मालूम
होती है; इस्लाम
को रक्षा की
जरूरत मालूम
होती है; ईसाई
को रक्षा की
जरूरत मालूम
होती है; ये
धर्म नहीं हैं।
तो मैं
तुमसे कहता
हूं : धर्म तो
सदा है। जो
सदा है उसी का
नाम धर्म है।
उसकी न कोई
स्थापना करनी
होती है, न
कभी कोई उसे
मिटा सकता है।
उसका मिटना
संभव ही नहीं
है। अगर धर्म
मिट जाए तो हम
सब बिखर जाएं।
अगर धर्म मिट
जाए तो चांद—तारे
न चलें, सूरज
न निकले, पानी
न बहे, हवा
न उठे, फूल
न खिलें, पक्षी
न गाएं, लोग
न हों। धर्म
टूटा कि सब
टूट जाए। धर्म
तो सबको जोड़े
हुए है। धर्म
तो वह धागा है
जिसमें सब, सारे फूलों
को अपने में
गूंथा हुआ है
और माला बनी
है। यह सारा
अस्तित्व
गुंथा है।
जिससे गुंथा
है, उस
सूत्र का नाम
धर्म है।
कृष्ण
इत्यादि की
कोई जरूरत
नहीं है कि
इसको स्थापित
करें। कृष्ण
धर्म को
स्थापित करने
नहीं आते हैं,
जो धर्म है
उसको जानने से
कोई कृष्ण
होता है; जो
धर्म है उसको
पहचान लेने से
कोई कृष्ण
होता है; जो
धर्म है उसके
साथ पूरा—पूरा
संगीत—बद्ध हो
जाने से कोई
कृष्ण होता है।
कृष्ण
को धर्म की
स्थापना करने
की कोई जरूरत
नहीं है। यह
पंडित—पुरोहितों
ने लिखा होगा।
कृष्ण
ऐसा नहीं कह
सकते। तीसरी
बात तुम कहते
हो, पापियों
को दंड़ देना।
पाप में स्वयं
ही दंड़ निहित
है। जब तुम
पाप करते हो, उसी करने
में तुम्हें
दुख मिल जाता
है। दुख के
लिए
प्रतीक्षा
थोड़े ही करनी
पड़ती है कि
कृष्ण आएंगे
जब तुम्हें दंड़
देंगे। चोरी
तुम करोगे, बेईमानी तुम
करोगे, झूठ
तुम बोलोगे, हिंसा—हत्या
तुम करोगे, फिर कृष्ण
आएंगे डंडा
लेकर और तुमको
दंड़ देंगे? इसमें तो
बड़ी झंझट होगी।
और उन पर भी तो
कुछ दया करो।
कृष्ण
यही धंधा करते
रहें? कृष्ण
कोई पुलिस
वाले हैं? कृष्ण
पर थोड़ा तो
सदभाव लाओ।
नहीं, इस जगत की
व्यवस्था ऐसी
है कि तुमने गलती
की कि दंड़
मिला। आग में
हाथ डालते हो,
जल जाता है
न! ऐसा थोड़े ही
है कि आग में
हाथ डाला, फिर
बैठे हैं हाथ
डाले, फिर
आए कृष्ण, उन्होंने
कहा : क्यों जी,
तुमने आग
में हाथ क्यों
डाला? अब
हम तुम्हें
जलाएंगे। अगर
ऐसा होता हो
तो तो बड़ी
झंझट हो जाए
बड़ी मुश्किल हो
जाए। आग में
हाथ डालने से
जलना हो जाता
है। तुम जरा
सोचो, जब
तुम क्रोध
करते हो तो जल
जाते हो या
नहीं? और
क्या दंड़
चाहिए? क्रोध
में आग है और
क्रोध में
नर्क है। भोग
लिया नर्क
तुमने। तो मैं
तुम्हें यह
कहना चाहता
हूं कि मेरी
दृष्टि में
पुण्य का फल
पुण्य में छिपा
है, पाप का
दंड़ पाप में
छिपा है। यही
धर्म है। यहां
जो शुभ करता
है, शुभ
पाता है। और यहां
जो अशुभ करता
है, अशुभ
पाता है। जहर
पीओगे, मर
जाओगे। अमृत
पीओगे, अमृत
हो जाओगे। बीच
में किसी की
कोई आवश्यकता
नहीं है। ये
जो नियम हैं, यह जो ऋत है, इसीका नाम
धर्म है।
तो तुम
पूछ रहे हो— ' अर्थात ये
तीन कार्य
करने के लिए
भगवान धरती पर
आते हैं। ' तो
यह भगवान
तुम्हारे
वहीं से नहीं
कर सकते ये
कार्य? इनमें
इतनी भी अकल
नहीं है कि
टेलिफोन लगवा
लें। अकल
बिलकुल बेंच
बैठे हैं? इसके
लिए धरती पर
आना पड़ता है? ये तुम्हारी
धारणाएं हैं।
इसलिए मैंने
कहा, कृष्ण
से मिलना हो
तो तुम उनसे
पूछ लेना।
मेरी कोई
जिम्मेवारी
नहीं है। मैं
अपनी बात कहता
हूं और अपनी
बात के लिए
उत्तर देने को
तैयार हूं।
अब तुम
पूछते हो कि
आप अपने को
भगवान कहते
हैं; क्या आप
ये तीनों
कार्य कर रहे
हैं? मैं
इन तीनों कार्यों
को करने योग्य
मानता ही नहीं।
और अपने को
भगवान इसलिए
नहीं कहता हूं
कि मैं भगवान
हूं और तुम
भगवान नहीं हो।
अपने को भगवान
इसलिए कहता
हूं कि यहां
सब भगवान है, यहां भगवान
होने के
अतिरिक्त
उपाय ही नहीं
है। भगवान
होने में मैं
किसी
विशिष्टता की
घोषणा नहीं कर
रहा हूं। उसी
से तुम्हें
कष्ट होता है;
तुम्हें
पीड़ा यही है
कि एक आदमी ने
अपने को भगवान
कह दिया, फिर
हमारा क्या
होगा? तो
हम आदमी ही रह
गये और आप
भगवान हो गये!
जब मैं भगवान
कह रहा हूं तो
यही कह रहा
हूं कि आदमी
भगवान है, पौधे
भगवान
हैं, पक्षी
भगवान हैं, पशु भगवान
हैं; भगवत्ता
हमारा सहज
स्वभाव है।
भगवान होना
हमारी कोई
विशिष्ट बात
नहीं है। यह
हमारा
सामान्य गुण—
धर्म है। तुम
इसे पहचानो; मैंने इसे
पहचान लिया है,
बस इतना ही
फर्क होगा।
तुम भी इसमें
जागो; मैं
इसमें जाग गया
हूं। और मैं
जो तुमसे कहता
हूं कि मैं
भगवान हूं इसमें
कुछ घोषणा
नहीं है, न
कोई दावा है।
यह सिर्फ
इसलिए कहता
हूं ताकि
तुम्हें भी
याद दिला सकूं
कि देखो, तुम्हारे
जैसे ही हड्डी—मास—
मज्जा का
व्यक्ति
भगवान हो सकता
है, तुम
क्यों नहीं हो
सकते? तुम्हारे
जैसी ही भुख
लगती है मुझे,
प्यास लगती
है मुझे, तुम्हारे
जैसा ही जीवन
है, तुम्हारे
जैसे ही मेरी
मौत होगी; बिलकुल
तुम जैसा हूं
तुमसे जरा भी
भिन्नता की घोषणा
नहीं कर रहा
हूं। भगवान
कहने के पीछे
इतना ही राज
है कि तुम्हें
याद दिला रहा
हूं कि तुम
झूठी बातों
में पड़ गये हो।
तुम
कहते हो, भगवान
वह है जो आकर
ये तीन कार्य
करता है। तो
कृष्ण आए थे, साधुओं की
रक्षा हुई? कहां हैं वे
साधु जिनकी
रक्षा हुई? धर्म की
स्थापना हुई?
कृष्ण के
बाद जितना
अधर्म इस देश
में फैला, कभी
नहीं फैला था।
क्योंकि
भयंकर युद्ध
हुआ। और
दूसरों की तो
छोड़ दो, कृष्ण
के अनुयायी, यदुवंशी, इस भयंकर
तरह से लड़े एक—दूसरे
से, उन्होंने
सब विनाश कर
डाला। कृष्ण
के द्वारा
पापियों को दंड़
मिला? कौन—से
पापियों को दंड़
मिला गया? तुम
कहोगे कि मिला,
कौरवों को
मिला। कौरव
पापी थे! और
तुम्हारे
धर्मराज
युधिष्ठिर? यह जुआ खेल
रहे हैं, यह
पापी नहीं हैं?
और ऐसे ही
जुआ नहीं खेल
रहे हैं, अपनी
औरत तक को जुए
में दाव पर
लगा रहे हैं, ये पापी
नहीं हैं? इनको
दंड़ कब मिला?
कैसे मिला?
इनको
धर्मराज कह
रहे हो! जरा
जाकर अपनी
औरतों को दाव
पर तो लगाकर
देखो। जेल में
सडोगे। वहां
यह नहीं कह
सकोगे कि हम
धर्मराज हैं,
हम
युधिष्ठिर
हैं, यह
हमारे साथ
क्या अन्याय
हो रहा है? हे
भगवान! आओ, हमारी
रक्षा करो!
धर्मराज की
रक्षा तो करनी
ही चाहिए। यह तुम
देखते हो, यह
जो कौरवों—पांड़वों
की बीच झंझट
थी, इस झंझट
में तुम सोचते
हो कौरव ही
जिम्मेवार थे?
तो तुम गलत
सोचते हो।
इसमें पांड़व
उतने ही
जिम्मेवार थे।
धर्मराज में
धर्म जैसा कुछ
नहीं मालूम
होता। और ये
पांच पुरुष एक
स्त्री के पति
बन गये हैं, इसमें
तुम्हें कुछ
धर्म मालूम
होता है? इन्होंने
एक अबला को
बिलकुल वेश्या
में
रूपांतरित कर
दिया है, इसमें
तुम्हें कुछ
धर्म मालूम
होता है? और
ये किसलिए
इतने आतुर थे?
राज्य के
लिए आतुर थे।
जैसा
दुर्योधन
आतुर था, वैसे
ही ये भी आतुर
थे कि राज्य
हमारा हो।
राज्य हमारा
हो, इसमें
तुम्हें कुछ
धर्म मालूम
होता है? वही
बल, वही
अहंकार, वही
मालकियत, वही
कब्जे की आकांक्षा
! इसमें
तुम्हें धर्म—जैसा
क्या मालूम
होता है? ये
कोई साधु थे? ये एक ही
जैसे थे। वे
निश्चित ही
चचेरे भाई थे?
इनमें कुछ
फर्क नहीं था।
तुम
अगर अपनी
कथाओं को ठीक
से समझोगे तो
तुम बड़े हैरान
हो जाओगे।
और फिर
उसके बाद हुआ
क्या? महाभारत
के बाद इस देश
का ऐसा पतन
हुआ कि यह अभी
तक नहीं
सम्हला है।
महाभारत के
बाद यह देश
सम्हला ही
नहीं।
महाभारत के
बाद इस देश ने
वह ऊंचाई कभी
पायी ही नहीं।
और तुम सोचते
हो, कृष्ण
जब आते हैं तो
साधुओं की
रक्षा होती है,
धर्म की
स्थापना होती
है, पापियों
को दंड़ मिलता
है। यह तो जब
कृष्ण आए थे
तब भी नहीं
हुआ, आगे
की व्यर्थ
आशाओं में मत
पड़ो।
मैं जब
कहता हूं
तुमसे, तो
मेरे कहने का
प्रयोजन बहुत
ही भिन्न है।
लेकिन तुमने
और बातें सुनी
हैं, उनसे
तुम्हारा मन
भरा है, इसलिए
तुम मेरी बात
नहीं समझ पाते।
कृष्ण जब कहते
हैं कि मैं
भगवान हूं तब
तुम्हें अड़चन
नहीं होती।
क्यों
तुम्हें अड़चन
नहीं होती? पहली तो बात
यह है, कृष्ण
से इतना फासला
हो गया है कि
अब तुम उन्हें
हड्डी—मांस—मज्जा
के मनुष्य की
तरह नहीं देख
पाते। इतनी
कहानियां जुड़
गयी हैं उनके
आसपास, इतनी
भव्य प्रतिमा
निर्मित कर ली
गयी है कि अब
तुम उनमें
मनुष्य नहीं
देख पाते।
लेकिन कृष्ण
तुम जैसे
मनुष्य थे।
तुम मान लेते
हो वह भगवान
हैं, लेकिन
अर्जुन ने भी
मान नहीं लिया
था। दुर्योधन
ने तो कभी
नहीं माना था।
नहीं तो युद्ध
ही न होता
लाखों लोग
कृष्ण को भगवान
नहीं मानते थे;
चालबाज, कूटनीतिज्ञ
मानते थे। जो
मौजूद थे
उन्होंने
कृष्ण को
भगवान नहीं माना।
तुम मान लेते
हो, क्योंकि
तुम्हें अब
असली कृष्ण का
कुछ हिसाब नहीं
है। मौजूद
होते तो न मान
पाते।
तुम्हारी
स्त्री से
छेड़खानी करते
कृष्ण तो न मान
पाते कि भगवान
हैं। किसी तुम
भी और की
स्त्री से की
होगी, तुम्हें
लेना—देना
क्या है?
तुम्हारी
पत्नी नहा रही
होती और उसके
कपड़े उठाकर
झाडू पर बैठ
जाते तो तुम
पूजा और ही
अर्थ में करते
उनकी! मराठी
अर्थ में
शिक्षा देते
उनको! वही
किया था जो
लोग मौजूद थे
उन्होंने।
लेकिन
तुम्हारे लिए
भगवान हैं। अब
बात बहुत दूर
हो गयी। पांच
हजार साल बीत
गये, पांच
हजार साल में
हजारों
कहानियां बीच
में खड़ी हो
गयी, परदे
पर परदे हो
गये। अब तुम
कृष्ण को देख
सकते हो दिव्य।
मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं
कहानियों के
आधार पर किसी
को दिव्य
देखने से कुछ
लाभ नहीं होता, क्योंकि वे
कहानियां
झूठी हैं।
दिव्यता को यहां
देखो, अभी
देखो, सामान्य
में देखो।
क्योंकि
सामान्य में
दिव्यता को
देख सको, तो
ही तुम्हारी
दिव्यता
मुक्त हो सकती
है। मैं अगर
तुमसे कह रहा
हूं कि मैं
भगवान हूं, तो
इसमें मेरा
कोई दावा नहीं
है; इसमें
मुझे कोई रस
ही नहीं है।
अगर रस है तो
तुममें है। और
जब तक तुममें
मेरा रस है तब
तक मैं कहूंगा
कि मैं भगवान
हूं। जिस दिन
मैं देखूंगा
कि कोई सार
नहीं है तुम में
रस लेने में, तुम्हें ही
रस नहीं है
तुम में तो कब
तक मैं रस लूं?
उसी दिन
भगवान कहना
बंद कर दूंगा।
उसमें कोई प्रयोजन
नहीं है। मुझे
कुछ लेना—देना
नहीं। मैं जो
हूं हूं।
भगवान कहूं र
न कहूं र इससे
क्या फर्क
पड़ता है? लेकिन
अभी मुझे तुम
में रस है।
अभी और थोड़ी
कोशिश करूंगा।
अभी तुम्हें
और याद दिलाने
की चेष्टा
करूंगा। शायद
इसी बहाने
तुम्हें याद आ
जाए। लेकिन
तुम यह मान नहीं
सकते कि तुम
भगवान हो। यही
तुम्हारे
जीवन में
भगवत्ता और
तुम्हारे बीच
बाधा है कि
मान नहीं सकते
कि तुम भगवान
हो। तुम्हें
लगता है, मुझ
जैसा पापी और
भगवान! मुझ
जैसा जुआरी और
तुम भगवान!
मुझ जैसा
शराबी और
भगवान! मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
शराब पीते हो
तब इतना ही
फर्क पड़ता है
कि भगवान शराब
पी रहे हैं, और कुछ फर्क
नहीं पड़ता। जब
तुम जुआ खेलते
हो तो इतना ही
है कि भगवान
जुआ खेल रहे
हैं।
तुम्हारी
भगवत्ता
अछूती रहती है।
तुम्हारे
कृत्य
तुम्हारी
भगवत्ता को
नहीं छूते हैं।
तुम्हारे सब
कृत्य स्वप्न
जैसे हैं।
जैसे रात
स्वप्न देखा
तुमने और तुम
भिखारी हो गये;
लेकिन जब आंख
खुलती है सुबह
तो तुम पाते
हो कि तुम
भिखारी नहीं
हो, अपने
बिस्तर पर सोए
हो। तुम्हारे
सारे कृत्य
स्वप्न जैसे
हैं, यही
माया के सिद्धांत
का
अर्थ है।
तुमने चोरी की,
तुमने शराब
पी, तुमने
अच्छा किया, तुमने बुरा
किया, तुमने
मंदिर बनवाया,
तुमने
पुण्य किया, दान किया, सब—सब के सब
तुम्हारे
भीतर उठे एक
स्वप्न की भांति
हैं। जागोगे
जिस दिन उस
दिन तुम पाओगे,
भगवत्ता
तुम्हारी है।
तुम भगवान हो।
कुछ और
बातें इस
प्रश्न के
संबंध में।
पहली
बात, तुमने
कहा है कि
अवतार तब होता
है जब ये तीन
काम उसे करने
होते हैं।
परमात्मा का
अवतरण होता है,
अवतार नहीं
होता। अवतार
का तो मतलब
होता है, कि
बस कृष्ण में
हुआ, राम
में हुआ—गिनती
का। तो दस
अवतार हुए, कि चौबीस, या जितनी
गिनती तुमने
मान रखी है
उतने अवतार होंगे।
फिर बाकी? बाकी
वंचित रह
जाएंगे। इसलिए
मैं कहता हूं :
परमात्मा का
अवतार नहीं होता,
अवतरण होता
है। जो भी
समाधि में
पहुंचता है, वही
परमात्मा का
अवतार हो जाता
है। करोड़ों
लोग पहुंचे
हैं। करोड़ों
लोग
पहुंचेंगे।
और प्रत्येक
व्यक्ति का यह
स्वरूपसिद्ध
अधिकार है, जिस दिन
चाहे और अपने
भीतर समाधि को
जन्मा ले, उस
दिन वह भी
अवतार हो
जाएगा।
फिर
अवतार का कारण
कोई हेतु नहीं
होता, कि यह
काम करने के
लिए। जब तक
कर्ता का भाव
है, तब तक कहां
कोई अवतार? यह तो कर्ता
का ही भाव हुआ
कि ये काम
करने हैं, इसलिए।
इसमें तो हेतु
हुआ, इसमें
तो वासना हुई।
नहीं, अवतरण
तब होता है जब
सब हेतु
समाप्त हो
जाते हैं; सब
वासनाएं गिर
जाती हैं; भीतर
कोई करने का
कारण ही नहीं
रह जाता। जहा
कर्ता समाप्त
हो जाता है, वहां अवतरण
होता है।
तो
मेरी धारणाएं
अलग हैं। तुम
और शास्त्रों
को मेरे बीच
में मत लाओ।
और जब मैं इन
शास्त्रों पर
भी बोलता हूं
तब भी तुम
ध्यान रखना कि
मैं अपने पर
ही बोलता हूं।
मेरी धारणाएं
मेरी हैं। मैं
तुम्हें अपनी
धारणाएं समझा
रहा हूं। मुझे
इससे कुछ
प्रयोजन नहीं
है कि कृष्ण
का क्या अर्थ
था, क्या
नहीं था।
इसमें माथा—पच्ची
करने में
मुझे। रस ही
नहीं है। मैं
कोई पंडित
नहीं हूं, न
कोई
व्याख्याकार
हूं। मेरे पास
अपना अनुभव है,
वह मैं
तुम्हें दे
रहा हूं।
इसमें
कोई हेतु नहीं
है। न तो किसी
साधु की रक्षा
करनी है मुझे
क्योंकि
जिसको अभी
साधु— असाधु
में फर्क हो, वह अभी
अवतार ही नहीं
है। द्वंद्व
जिसके मन में
हो, वह कहां
अवतार? मैं
उस व्यक्ति को
कहता हूं
परमात्मा, जिसके
भीतर से
द्वंद्व गया,
न अब साधु
है कोई, न
असाधु; न
कुछ पाप, न
कुछ पुण्य; न कुछ धर्म, न कुछ अधर्म।
यह द्वंद्व
गया, यह
विरोध गया, यह द्वैत
गया, सब
अद्वय हो गया।
सब लीला है, सब एक है।
मेरे देखे राम
के बिना रावण
नहीं हो सकता
है और रावण के
बिना राम नहीं
हो सकते। अगर
रावण को नष्ट
कर दोगे तो
राम को भी
नष्ट कर दोगे।
इसे
समझ लेना।
जरा
सोचो, रावण
को अलग कर लो
राम की कथा से,
फिर कितने
राम बचेंगे? क्या बच
रहेगा? रावण
को अलग करते
ही कथा गिर
जाएगी। रावण
के बिना राम
की कथा खड़ी
नहीं हो सकती।
राम के बिना
रावण की कथा
खड़ी नहीं हो
सकती। दोनों
एक—दूसरे पर
निर्भर हैं।
अगर दोनों एक—दूसरे
पर इतने
निर्भर हैं, तो तुम उनको
अलग— अलग मत
करो। पाप और
पुण्य एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं; धर्म
और अधर्म भी, साधु— असाधु
भी। जैसे दिन
और रात हैं, जैसे काटा
और फूल हैं, जैसे स्त्री
और पुरुष हैं,
ऐसे सारे
द्वंद्व एक—दूसरे
को संभाले हुए
हैं। इस जगत
में कभी ऐसा
नहीं होगा कि
सिर्फ भलाई बचे।
भलाई अकेली
नहीं बच सकती
है; बुराई
बचेगी। बुराई
के साथ ही
भलाई बच सकती
है। और
बड़े चमत्कार
की बात है कि
दोनों में सदा
संतुलन रहता
है। जितनी
भलाई होगी, उतनी बुराई
होगी। जितनी
बुराई होगी, उतनी भलाई
होगी। संतुलन
कभी नहीं
टूटता है। यहां
राम और रावण
दोनों सदा हैं।
यही तो जगत का
द्वंद्व है।
इसी को तो
मैंने पृथ्वी
का संकट कहा।
लेकिन अगर
अवतार भी
देखता है कि
यह साधु, इसको
बचाना, यह
असाधु, इसको
मारना, तो
वह अभी अवतार
नहीं है। अभी
उसे असली बात
दिखायी नहीं
पड़ी। अभी उसे
यह नहीं
दिखायी पड़ा कि
दोनों के पीछे
एक ही
परमात्मा
छिपा है। उसे
अभी एक का
अनुभव नहीं
हुआ है।
मुझे न
तो साधु को
बचाना है, न असाधु को
मिटाना है। न
पुण्य फैलाना
है, न पाप
को मिटाना है।
न धर्म की
स्थापना करनी
है, न
अधर्म को
उखाड़ना है।
फिर
मुझे क्या
करना है? मुझे
तुम्हें याद
दिलानी है कि
दो जब तक हैं, तब तक भ्रांति
है, सपना
है, माया
है, द्वंद्व
है। इन दो के
बीच एक को देख
लो। एक को
देखते ही
मुक्ति है, निर्वाण है।
तीसरा प्रश्न
भी उन्हीं
मित्र का है; वैसे का
वैसा है।
पूछनेवाले
हैं, देवराज
खुराना, पंजाब।
ऐसे प्रश्न
पंजाब में से
ही आ सकते हैं।
पंजाबियों की
बुद्धिमत्ता
तो जग—जाहिर
है।
तीसरा
प्रश्न है :
नानक
अपने को प्रभु
का दास कहते
थे। कबीर भी
प्रभु के भक्त
थे। बुद्ध और
महावीर ने भी
कभी भगवान
होने का दावा
नहीं किया।
यीशु मसीह ने
भी अपने को
ईश्वर का
इकलौता बेटा
कहा था। आप भी
उन्हें की तरह
एक पूर्ण संत
हैं, फिर
आप अपने को
भगवान क्यों
कहते हैं? भगवान
तो वह है जो सब
को पैदा कर
रहा है। क्या
आप सबको पैदा
कर रहे हैं?
देखा!
इसलिए मैंने
कहा कि ऐसा
प्रश्न पंजाब
से ही आ सकता
है। थोड़ा
समझने की
कोशिश करो।
शायद नानक ने
इसलिए अपने को
भगवान नहीं
कहा होगा, पंजाबियों
के ड़र के
कारण! कि इन
मूढों से सिर
कौन मारेगा? जरा नानक पर
दया करो। नानक
कोई भले
आदमियों के
बीच में नहीं
थे। झगड़ा—फसाद
खड़ा हो जाए, लट्ठ निकल
आएं। नानक ने
अपने को नहीं
कहा कि मैं
भगवान हूं र इसका
यह अर्थ नहीं
है कि नानक ने
नहीं जाना कि
मैं भगवान हूं।
नानक ने जाना,
खूब जाना; उसीको जानकर
तो वे नानक
हुए, उसीको
जानकर तो वे
गुरु हुए।
गुरु
का अर्थ क्या
होता है? जिसने
अनुभव लिया है
कि मैं भगवान
के साथ एक हूं।
जिसने अनुभव
कर लिया, वही
तो तुम्हें
अनुभव करवा
सकता है उस
एकता का।
लेकिन कहा
नहीं कि मैं
भगवान हूं; यह दुर्दिन
की बात है।
कहा नहीं, सुननेवालों
का खयाल रखा
होगा, उनकी
जड़ता को देखा
होगा। लेकिन
कृष्ण ने तो
कहा कि मैं भगवान
हूं। क्यों
कृष्ण कह सके?
कारण था
सुननेवाला
अर्जुन, एक
सुसंस्कृत
प्रतिभा, एक
मेधावी
व्यक्ति, जो
समझ सकेगा।
गंवारों से
नहीं बोल रहे
थे। गीता की
जो ऊंचाइयां
हैं वे इसलिए
हैं कि जिससे
बोल रहे थे, वह एक
समझनेवाला
मित्र था, समझने
के लिए चेष्टा
कर रहा था, सहानुभूतिपूर्ण
था। नानक भीड़—भीड़
में घूम रहे
थे, गांव—गांव
घूम रहे थे, लोगों से
बोल रहे थे।
मैं भी
कोई पंद्रह
वर्षों तक गांव—गांव
घूमा हूं।
उसमें पंजाब
भी मेरा
हिस्सा था
घूमने का।
पंजाब मैं
काफी गया हूं।
गांव—गांव
घूमकर मुझे यह
लगा कि जिस
तरह के लोगों
से बोलना हो, उस तरह से
बोलना पड़ता है;
समझौते
करने पड़ते हैं।
इसलिए मैंने
जाना बंद कर
दिया। अब मुझे
जो बोलना है
वह बोलूंगा, जिसे सुनने
आना है, उसे
आना चाहिए।
समझौता उसे
करना हो तो कर
ले, अब मैं
समझौता नहीं
करूंगा।
क्योंकि जो तल
होता है लोगों
का उस तल की ही
बात करनी पड़ेगी।
इसलिए मैं
पसंद नहीं
करता हूं कि
मेरे सामने गैर—संन्यासी
बैठे। इसलिए
गैर—संन्यासियों
को पीछे
बिठाता हूं।
उसका कारण है।
उसका कुल कारण
इतना है, जो
मुझे सुनते
रहे हैं, जिन्होंने
मुझे समझा है,
जिन्होंने
मुझे चाहा है,
जिनसे मेरा
हृदय जुड़ा है,
वे मेरे
सामने हों, तो मैं
ज्यादा
ऊंचाइयां ले
पाता हूं; तो
मैं वही कह
पाता हूं जो
कहने का मेरा
मन है। अगर
सामने ऐसे लते
बैठे हों जो
जम्हाइयां ले रहे
हैं, इस
तरह बैठे हों
कि पता नहीं
क्यों आ गये
हैं, कि कहां
फंस गये, कि
इतनी देर तो
दुकान ही कर
ली होती, या
बार—बार घड़ी
देख रहे हैं
कि दफ्तर चले
जाएं, उस
तरह के लोग
अगर मेरे
सामने बैठे
हों तो मुझे
बार—बार नीचे
खींच ले आते
हैं। फिर मैं
उड़ान नहीं ले
पाता, फिर
उन पर मुझे
ध्यान रखना
पड़ता है, नहीं
तो उनका डेढ़
घंटा व्यर्थ
जाएगा। उनके
मतलब की कुछ
बात कहूं र
उनकी बुद्धि
में आ सके ऐसी कुछ
बात कहूं। तुम
पूछते हो, नानक
ने अपने को
भगवान क्यों
नहीं कहा? तुम्हारी
वजह से।
देवराज
खुराना, तुम
रहे होओगे।
तुम्हें
देखकर
उन्होंने कहा
होगा, अब
क्या कहना? अब किससे
कहना?
'कबीर
भी अपने को
प्रभु का भक्त
कहते थे'।
नहीं, तुम्हें
पता नहीं है।
कबीर अपने को
प्रभु का भक्त
कहते थे, जब
खोज कर रहे थे;
जब खोज पूरी
हो गयी, तब
नहीं। तब तो
कहा है :
हेरत
हेरत हे सखी, रह्या कबीर
हेराइ
बुंद
समानी समुद
में, सो कत
हेरी जाइ
फिर तो
और ऊंची उड़ान
ली :
हेरत
हेरत हे सखी, रह्या कबीर
हेराइ
समुद
समाना बुंद
में, सो कत
हेरी जाइ
समुद्र, विराट आकर
बूंद में समा
गया। और क्या
मतलब होता है
भगवान का? बुद्धि
इतनी जड़ है कि
तुम सिर्फ
शब्द को ही समझोगे,
इशारे न
समझोगे? कबीर
कहते हैं :
बूंद में सागर
आकर समा गया
है; कबीर
तो गया, अब
सतर ही बचा है।
और क्या अर्थ
होता है भगवान
को खोज लेने
का? कबीर
ने कहा है : एक
दिन था कि मैं
परमात्मा को खोजता
घूमता था, अब
ऐसा दिन आ गया
है कि
परमात्मा
मेरे पीछे—पीछे
चलता है, कहता
है : कबीर, कबीर!
और क्या मतलब
होता है? तुम
पूछते हो, ' और
महावीर, बुद्ध
ने कभी भगवान
होने का दावा
नहीं किया। ' तुम्हें पता
नहीं है।
महावीर ने कहा
है : ' अप्पा
सो परमप्पा', आत्मा
परमात्मा है।
और क्या कहना
है? जिसने
आत्मा को जाना
उसने
परमात्मा को
जाना। महावीर
ने तो कहा है, और कोई
परमात्मा है
ही नहीं।
इसलिए महावीर
ने भगवान को
नहीं माना, कि कोई
दुनिया को
बनानेवाला
भगवान है। महावीर
ने तो कहा है, जो स्वयं को
जान लेता है, वह भगवान है।
भगवत्ता आत्म—
अनुभूति का
नाम है।
और
तुम्हें
बुद्ध का भी
कुछ पता नहीं।
क्योंकि
बुद्ध ने कहा
है कि मैंने
वह सब पा लिया
जो पाया जा
सकता है, अब
पाने को कुछ
भी नहीं बचा।
मैंने
परिपूर्ण
सम्यक संबोधि
पा ली। मैं उस
जगह आ गया, जहा
सब जान लिया
गया है। भगवान
का और क्या
अर्थ होता है?
संक्षिप्त
शब्द में
इन्हीं सारी
बातों को कहने
का ढंग है।
तुम
कहते हो, 'यीशु
मसीह ने भी
अपने को ईश्वर
का इकलौता
बेटा कहा है '। उससे मैं
राजी नहीं
होता। इकलौता
बेटा कहना गलत
बात है। क्योंकि
फिर तुम किसके
बेटे हो? नाजायज?
अगर जीसस
ईश्वर के
इकलौते बेटे
हैं, तो
तुम किसके
बेटे हो? वह
तो बात गलत है।
उससे मैं राजी
नहीं हूं। वह
तो उन्होंने
गलत बात कहीं।
उससे तुम भी
राजी मत होना।
क्योंकि उसका
मतलब यह होता
है कि जीसस भर
उनके बेटे हैं।
और तुम? मैं
कहता हूं र
तुम सब उसके
बेटे हो।
लेकिन बेटे
में थोड़ा
फासला रह जाता
है। उतना
फासला भी
क्यों रखना।
बेटा बाप नहीं
है, फासला
है। इतना
फासला भी
क्यों बचाना
चाहते हो? तुम
उस परमस्रोत
के साथ एक
क्यों नहीं
होना चाहते?
जीसस
को भी कहने का
कारण था। इतना
फासला बनाकर
रखा, यहूदियों
की वजह से।
यहूदी तो यह
भी बर्दाश्त
नहीं कर सके
कि जीसस ईश्वर
के बेटे हैं।
ईश्वर हैं, यह तो कहने
पर बिलकुल
बर्दाश्त
नहीं कर सकते
थे। यह
लप्तेगें की
जड़ताओं के
कारण इस तरह
की बातें कहनी
पड़ी। लेकिन
बहुत जगह जीसस
ने सूचना दे
दी है अपने
शिष्यों को, कि मेरा
पिता और मैं
एक हैं। तुमने
अगर मुझे देख
लिया तो मेरे
पिता को देख लिया।
यह वचन है।
जिसने मुझे
चाहा, उसने
परमात्मा को
चाह लिया।
लेकिन
इकलौता बेटा
शब्द मुझे
पसंद नहीं है।
वह जीसस ने
कहा भी नहीं
है। ईसाइयों
ने गढ़ा है।
ईसाइयों को
गढ़ना पड़ा।
क्योंकि
ईसाइयों को ड़र
लगा कि अगर कई
बेटे हों, तो झंझट—
झगड़ा होगा; फिर बंटवारा
होगा, फिर
पूंजी बटेगी।
और ईसाइयों का
दिल है कि
सारी दुनिया
ईसाई हो जाए।
अगर कृष्य भी
ईश्वर के बेटे
हैं, और
बुद्ध भी और
महावीर भी और
मुहम्मद भी, तो फिर झंझट
होगी। फिर यह
जमीन बटेगी।
फिर तुम यह
नहीं कह सकते
कि सारी जमीन
ईसाइयत हो जाए।
फिर हिंदू भी
रहेंगे, मुसलमान
भी रहेंगे, बौद्ध भी
रहेंगे। इनको
इनकार करने के
लिए ईसाइयों
ने यह कहानी गढ़ी
कि ईश्वर का
इकलौता बेटा!
इस तरह
की कहानियां
सभी धर्मों ने
गढ़ी हैं। वे
मनुष्य के
ओछेपन से पैदा
होती हैं।
जैसे हिंदू
कहते हैं, ईश्वर ने बस
एक ही किताब
लिखी है—वेद।
वह भी वही की
वही बात है; ताकि बाइबिल
गलत हो जाए, कुरान गलत
हो जाए, धम्मपद
गलत हो जाए।
वही की वही
तरकीब है।
ईश्वर का बेटा
एक ही है, ताकि
बाकी सब बेटे
नाजायज हो गये।
ये तरकीबें
चालबाजिया
हैं, इनसे
सावधान हो जाओ।
कुरान भी उसकी
किताब है, बाइबिल
भी उसकी किताब
है, वेद भी
उसकी किताब है।
असल में तो जब
भी सत्य
उतरेगा, उसी
का होगा। किसी
और का हो सकता
है? और
कृष्य भी उसी
के बेटे हैं, और बुद्ध भी।
और कृष्ण और
बुद्ध और
क्राइस्ट ही
नहीं, तुम
भी उसी के
बेटे हो, उसी
की बेटी हो।
क्योंकि और कहां
से आओगे? वही
मूलस्रोत है।
लेकिन एक और
ऊंची ऊंचाई है,
जो
उपनिषदों ने
छुई, जब
कहा : ' अहं
ब्रह्मास्मि',
मैं ब्रह्म
हूं। बेटा बाप
में लीन हो
गया। 'बूंद
समानी समुद
में, समुद
समाना बुंद
में'। कब
तक दूरी रखोगे?
लीन क्यों
नहीं हो जाते?
यीशु
मसीह ने भी
अपने को ईश्वर
का इकलौता
बेटा कहा था।
आप भी उन्हीं
की तरह एक
पूर्ण संत हैं।
न तो मैं
पूर्ण हूं। और
न मैं संत हूं।
मैं ठीक तुम
जैसा अपूर्ण
आदमी हूं। मैं
इस बात को
दोहराना
चाहता हूं।
तभी मेरी बात
समझ पाओगे।
पूर्ण हूं संत
हूं बस तुमने
दूर करना शुरू
किया। तुमने
कहा, हम हम हैं,
तुम— आप आप हैं।
आपकी बातें
सुनेंगे, आपकी
पुजा कर लेंगे,
आपके चरणों
में सिर झुका
देंगे, मगर
आपकी बातें
मानेंगे नहीं—
आप आप हैं, हम
हम हैं, हम
तो अपने ही
ढंग से जीएंगे,
हम तो कीड़े—मकोड़े
की तरह ही
सरकेंगे। हम
आकाश में नहीं
उड़ सकते। आप
पूर्ण संत हैं।
नहीं, मैं
पूर्ण संत
नहीं हूं। मैं
ठीक तुम जैसा
हूं। मेरा
सारभूत संदेश
यही है कि ठीक
तुम जैसा हूं
और फिर भी मैं
कहता हूं मैं
भगवान हूं।
ताकि तुम्हें
याद मैं दिल
सकूं कि तुम
भी भगवान हो।
और यह याद तुम्हारे
भीतर सघन हो
जाए तो क्रांति
हो जाएगी, आग
जलेगी, सब
भस्मीभूत हो
जाएंगे
तुम्हारे
स्वप्न। यह आग
इतनी बड़ी है।
लेकिन
तुम पूर्णता
थोपना चाहोगे
मेरे ऊपर, तुम संतत्व
थोपना चाहोगे।
ये तुम्हारी
तरकीबें हैं;
तुम्हारे
दूर करने के
उपाय हैं।
जीतना दूर बन
सके तुम करना
चाहोगे। अभी
तुम कह रहे हो,
पूर्ण संत
हो, जब मैं
मर जाऊंगा, तुम कहोगे—
भगवान! तब
बिलकुल फासला
कर दिया।
ईश्वर के
अवतार! बात
खत्म कर दी।
तुमने
छुटकारा कर
लिया। तुम
भागे अपनी
दुकान में, कि अब ईश्वर
के अवतार से
अपना क्या
लेना—देना? मंदिर में
बिठा दो, कभी
पूजा कर लेंगे
वर्ष में एक
दिन; कभी
जाकर प्रसाद
चढ़ा देंगे, बांट देंगे।
लेकिन, बस
छुटकारा हो
गया। तुमने
कृष्ण की सुनी?
तुमने राम
की सुनी? तुमने
बुद्ध की सुनी?
तुमने उनको
भगवान कहकर
छुटकारा पा
लिया।
और मरने के
बाद तुम भगवान
कहकर छुटकारा पाते
हो।
इसलिए
मैं खुद, अभी
जिंदा मैं
तुमसे कह रहा
हूं कि मैं
भगवान हूं।
छुटकारा पाने
का मैं उपाय
नहीं छोड़ रहा
हूं। और तुमसे
जिंदा में कह
देना चाहता
हूं ताकि यह
बात कायम—रिकार्ड
पर रहे, कि
मैं संत नहीं
हूं मैं पूर्ण
नहीं हूं मैं
ठीक तुम जैसा
आदमी हूं; और
फिर भी कहता
हूं—मैं भगवान
हूं। और चाहता
हूं कि तुम भी
उदघोषणा करो
कि तुम भी भगवान
हो।
भगवान
होने के लिए न
तो पूर्ण होना
जरूरी है, न संत होना
जरूरी है।
भगवान हम हैं।
सिर्फ जानना
जरूरी है। इस
भेद को खयाल
में लो। भगवान
कोई लक्ष्य
नहीं है आगे, भविष्य में,
कि चढ़ेंगे,
पहुंचेंगे,
बड़ी यात्रा
करेंगे, तपश्चर्या,
यह, वह, फिर एक दिन
पहुंच पाएंगे।
भगवान कोई
गौरीशंकर का
शिखर नहीं है।
भगवान
तुम्हारी
अंतर्दशा है।
तुम भगवान हो।
इसका तुम्हें
बोध नहीं है।
बस इसकी
प्रत्यभिज्ञा
करनी है, इसकी
पहचान करनी है।
मंजिलों
के करीब होकर
भी
मंजिलों
की है जुस्तजू
बाकी
तुम
करीब हो, तुम
वहीं
विराजमान हो,
मंजिल मिली
हुई है। मगर
तुम तलाश रहे
हो, इसलिए
खो रहे हो।
रोको तलाश, झांको भीतर,
और पा लो।
और
ध्यान रखना, ऐसा नहीं है
कि कभी—कभी
किसी एकाध को
भगवान होना है।
यहां कुछ कंजूसी
नहीं है; यह
अस्तित्व
कंजूस है ही
नहीं। तुम
इतने घबड़ाओ मत।
तुम कहते हो
कि अब सभी
भगवान हो
जाएंगे, ऐसा
कैसे हो सकता
है? यहां
सभी वृक्षों
में फूल खिल
रहे हैं, ऐसा
कैसे हो रहा
है? यहां
सभी प्राणों
में हृदय धड़क
रहा है, ऐसा
कैसे हो रहा
है? ऐसे ही
तुम सब भगवान
भी हो जाओगे। लेकिन
कई अड़चनें हैं।
हिंदू को ड़र
लगता है, अगर
मैं कहूं कि
मैं भगवान हूं
तो वह कहता है,
फिर हमारे
कृष्ण और
हमारे राम!
उनका दावेदार
पैदा हो गया? उनके भीतर
राजनीति पैदा
होती है। जैन
को अड़चन होती
है। र्तीथकर
कर तो चौबीस
ही हुए, बस
उसके बाद खत्म
कर दिया
उन्होंने
सिलसिला, उसके
बाद कोई र्तीथकर
हो नहीं सकता,
कोई भगवान
हो नहीं सकता।
पच्चीसवां वे
कैसे स्वीकार
करें; और
मैं कहता हूं
पच्चीसवें पर
रुकने की
जरूरत नहीं है,
कहीं रुकने
की जरूरत नहीं
है, हर
दीया जलना
चाहिए, सब
दीये जलने
चाहिए।
मैकदे
पर तश्नगी छा
जाएगी।
एक
मैकश भी अगर
प्यासा रहा
इस
मधुशाला में
कोई प्यासा
नहीं रहना
चाहिए; एक
भी प्यासा
नहीं रहना
चाहिए। जिस
दिन यह सारा
जगत भगवत्ता
में होकर
नाचेगा, उस
दिन आएगा
रामराज्य; जिस
दिन सब राम
होंगे, उस
दिन आएगा
रामराज्य।
किसी राम के
आने से नहीं
आता। राम तो
कई बार आए और
गये। उससे
रामराज्य
नहीं आता। जब
तुम्हारे
सबके भीतर राम
की सुगंध
उठेगी! राम का
मंत्र नहीं
जपो, राम
की सुगंध उठने
दो। भगवान—
भगवान कहकर मत
पुकारो,
भगवान
हो जाओ।
जहां आंसू
गिरे इक चश्मए—जमजम
वहां उबला
पड़ी
बुनियाद काबे
की, जहां
मैंने जबीं रख
दी
तुम
जिस दिन इस
भगवत्ता के
भाव से भरोगे, जहा
तुम्हारे आंसू
गिर जाएंगे, वहां चश्मए—जमजम,
वहा अमृत का
झरना फूट
पड़ेगा। और
जहां तुम सिर
झुका दोगे, वहां काबा
बन जाएगा; जहां
तुम बैठोगे, वहां तीर्थ!
इस उदघोषणा को
करने के लिए
ही मैं कुछ कह
रहा हूं।
तुम
पूछते हो कि
भगवान तो वह
है जो सबको
पैदा कर रहा
है।
भगवान
वह नहीं है जो
सबको पैदा कर
रहा है। जरा
उस पर भी तो
दया करो! अब तक
घबड़ा गया होगा।
अब तक परेशान
हो गया होगा।
अब तक थक गया
होगा।
तुम्हें पैदा
करते—करते
कितना समय हो
गया? हार गया
होगा; उदास
हो गया होगा; या पागल हो
गया होगा।
भगवान वह नहीं
है जो तुम्हें
पैदा कर रहा
है। भगवान
स्रष्टा नहीं
है, वह
धारणा छोड़ो।
भगवान इस
सृष्टि का
आधार है।
भगवान सृष्टि
है। वही फूल
में खिल रहा
है; वही
मनुष्य में
बोल रहा है; वही पत्थर
में सो रहा है।
भगवान अलग
नहीं है। ऐसा
नहीं है भगवान
जैसे
मूर्तिकार
मूर्ति बनाता
है। फिर
मूर्ति बन गयी
तो मूर्तिकार
अलग हो गया, मूर्ति अलग
हो गयी। भगवान
ऐसे है जैसे
नृत्यकार, नर्तक,
नाचता है तो
नृत्य रहता है,
नाच बंद हुआ
कि नृत्य भी
गया। नृत्य को
और नर्तक को
अलग नहीं कर
सकते हो।
इसलिए तो हमने
नटराज की
प्रतिमा
बनायी। जो लोग
कहते हैं, भगवान
कुम्हार की
तरह है, घड़े
की तरह
तुम्हें ढाल
रहा है, उन्हें
कुछ पता नहीं
है। भगवान
नटराज है। तुम
उसका नृत्य हो।
उससे अलग नहीं
हो। तुम्हें
पैदा नहीं कर
रहा है, तुम्हारे
भीतर पैदा हुआ
है।
इस भेद
को खयाल में
लेना। यह भेद
बुनियादी है।
जो मुझे समझना
चाहते हैं, उन्हें यह
समझ लेना
पड़ेगा। भगवान
ने तुम्हें
पैदा नहीं
किया है, भगवान
तुम्हारे
भीतर पैदा हुआ
है। भगवान ने
तुम्हें
बनाया नहीं है,
तुम बना है।
और तुम्हारे
भीतर ही नहीं,
इतना विराट
है कि तुममें
कैसे चुक
जाएगा? इसलिए
वृक्षों में,
पौधों में,
पत्थरों
में, चांद—तारों
में, सब
में वही हुआ
है, अनेक—
अनेक रूपों
में, अनेक
ढंगों में।
सतर के किनारे
जाओ, सतर
में उठती
लहरों को देखो।
सागर लहरों को
पैदा नहीं कर
रहा है, सतर
लहरा रहा है।
अगर सागर
लहरों को पैदा
करता हो, तो
दो— चार लहरों
को बीनकर और
गट्ठर बांधकर
घर ले आना। न
ला सकोगे।
सागर से लहरें
अलग नहीं की
जा सकती।
इसलिए यह कहना
ठीक नहीं है
कि सागर लहरों
को पैदा कर
रहा है; ठीक
यही होगा कहना
कि सागर लहरों
में लहरा रहा
है। ठीक ऐसा
ही अस्तित्व
है। यहां
स्रष्टा
सृष्टि में
लहरा रहा है।
यह दृष्टि
तुम्हें साफ
हो तो ही मेरी
बातें तुम्हें
समझ में आ
सकेंगी।
अन्यथा तुम
बचकाने
प्रश्न पूछते
रहोगे।
तुम
पूछ रहे हो कि
क्या आप सबको
पैदा कर रहे
हैं? मैं ऐसी
झंझट क्यों
लूंगा? मुझे
क्या लेना—
देना किसी को
पैदा करने से?
कोई पैदा
नहीं कर रहा
है, कोई
कर्ता की तरह
अलग नहीं बैठा
है। यह जो
विराट ऊर्जा
है अस्तित्व
की, यही
भगवत्ता है।
सृष्टि की
क्रिया हो रही
है, लेकिन
स्रष्टा कोई
भी नहीं है।
सृजन की
क्रिया घट रही
है, लेकिन
घटा कोई भी
नहीं रहा है।
यही तो इसका
रहस्य है, यही
तो इसकी
अपूर्व गरिमा
है। यहां कोई
बनानेवाला
नहीं है, और
चीजें बन रही
हैं। स्रष्टा
स्वयं अनेक—
अनेक रूपों
में ढल रहा है।
सृजन शक्ति है
परमात्मा, स्रष्टा
नहीं। वह भाषा
गलत है। लेकिन
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ रहा है, क्योंकि
तुम धारणाओं
में जकड़े बैठे
हो। तुम सोच
रहे हो, ऊपर
कहीं कोई बैठा
है, वह
सारा काम चला
रहा है—कोई
बड़ा इंजीनियर,
कि कोई बड़ा
यंत्रविद।
तुम्हारी
धारणा बच्चों
की धारणा है।
हैरान
हूं क्यों
मुझको दिखायी
नहीं देते
सुनता
हूं मेरी बज्म
में वह आए हुए
हैं
दिखायी
दे नहीं सकता, जब तक
तुम्हारी ये
धारणाएं न गिर
जाएं। ये
धारणाएं जाएं
तो तुम्हें
दिखायी दे।
बुद्ध का बड़ा
प्रसिद्ध वचन
है कि जब मेरी
दृष्टि
बिलकुल
निर्मल हुई तो
मुझे कुछ
दिखायी नहीं
पड़ा; बस
दृष्टि
निर्मल रह गयी,
कोई दिखायी
नहीं पड़ा। कोई
परमात्मा
नहीं, कोई
विषय नहीं; दृष्टि जब
मेरी निर्मल
हुई, शुद्ध
हुई, तो कोई
दिखायी नहीं
पड़ा। फिर क्या
हुआ? दृष्टि
की इस शुद्धता
में दृष्टि ने
अपने को जाना।
द्रष्टा को
कोई दिखायी
नहीं पड़ा, द्रष्टा
को द्रष्टा का
अनुभव हुआ।
इसको
आत्मज्ञान
कहा है, समाधि
कहा है, निर्वाण
कहा है।
तुम
जिस दिन अपने
भीतर छिपे हुए
द्रष्टा को देख
लोगे, उसी
दिन तुम हसोगे
कि तुम कहां
खोजने चल पड़े
थे? दूर
जाने की जरूरत
न थी। कहीं
जाने की जरूरत
न थी। जाने की
जरूरत न थी।
सिर्फ शात
होकर भीतर देख
लेने की जरूरत
थी।
मैंने
देखा और पाया।
मैं तुमसे
कहता हूं,
तुम भी देखो
और पा लो। तुम
सिद्धातों
में मत उलझे
रहो।
चौथा
प्रश्न :
क्या
इस जगत में
प्रेम का असफल
होना
अनिवार्य ही
है?
इस जगत
का प्रेम तो
चैतन्य
कीर्ति, असफल
होगा ही। उसकी
असफलता से ही
उस जगत का
प्रेम
जन्मेगा। बीज
तो टूटेगा ही,
तभी तो
वृक्ष का जन्म
होगा। अंडा तो
फूटेगा ही, तभी तो
पक्षी पंख
पसारेगा और
उड़ेगा। इस जगत
का प्रेम तो
बीज है। पत्नी
का प्रेम, पति
का प्रेम; भाई
का, बहन का,
पिता का, मा का, इस
जगत के सारे
प्रेम बस
प्रेम की
शिक्षणशाला हैं।
यहां से प्रेम
का सूत्र सीख
लो, लेकिन यहां
का प्रेम सफल
होने वाला
नहीं है, टूटेगा
ही। टूटना ही
चाहिए। वही
सौभाग्य है!
और जब इस जगत
का प्रेम टूट
जाएगा, और
इस जगत का
प्रेम तुमने
मुक्त कर लिया,
इस जगत के
विषय से तुम
बाहर हो गये, तो वही
प्रेम
परमात्मा की
तरफ बहना शुरू
होता है। वही
प्रेम भक्ति
बनता है। वही
प्रेम
प्रार्थना
बनता है।
हमारी इच्छा
होती है कभी
टूटे न।
कभी
तिलिस्म न
टूटे मेरी
उमीदों का
मेरी
नजर पै यही
परदाए—शराब
रहे
हम तो
चाहते ही यही
है कि यह परदा
पड़ा रहे, टूटे
न। यह जादू न
टूटे! लेकिन
यह जादू
टूटेगा, ही,
क्योंकि यह
जादू है, सत्य
नहीं है।
कितनी देर
चलाओगे? जिती
देर चलाओगे
उतना ही
पछताओगे।
जितनी जल्दी
टूट जाए, उतना
सौभाग्य है।
क्योंकि यहां
से आंखें
मुक्त हों तो आंखें
आकाश की तरफ
उठें; बाहर
से मुक्त हों
तो भीतर की
तरफ जाएं।
हद्दे—तलब
में गम की कड़ी
धूप ही मिली
जुल्फों
की छाव चाह
रहे थे किसी से
हम
यहां
कोई जुल्फों
की छाव नहीं
मिलती, यहां
तो कड़ी धूप ही
मिलती है।
यहां तो तुम
जिसको प्रेम करोगे
उसीसे दुख
पाओगे। यहां
प्रेमी दुखी
ही होता है।
सुख के सपने
देखता है!
जितने सपने
देखता है, उतने
ही बुरी तरह
सपने टूटते
हैं। इसीलिए
तो बहुत—से
लोगों ने तय
कर लिया है कि
सपने ही न
देखेंगे।
प्रेम का सपना
न देखेंगे, विवाह कर
लेंगे। न
रहेगा सपना, न टूटेगा
कभी। इसीलिए
तो लोग विवाह
पर राजी हो
गये। समझदार
लोगों ने
प्रेम को हटा
दिया, उन्होंने
विवाह के लिए
राजी कर लिया
लोगों को।
लेकिन
विवाह का खतरा
है एक—सपना
नहीं टूटेगा, यही खतरा है।
सपना टूटना ही
चाहिए। सपना
होना चाहिए और
टूटना चाहिए।
बड़ा सपना देखो,
ड़रो मत; मगर टूटेगा,
यह याद रखो।
रूमानी सपने
देखो, मगर
टूटेंगे, यह
याद रखो। यहां
जुल्फों की
छाव मिलती ही
नहीं, यहां
हर जुल्फ की
छाव में धूप
मिलती है, कड़ी
धूप मिलती है।
दागे—दिल
से भी रोशनी न
मिली
यह
दिया भी जला
के देख लिया
जलाओ
दिया। जलाना
उचित है।
इसलिए मैं
प्रेम के
खिलाफ नहीं
हूं। और इसलिए
मेरी बातें
तुम्हें बड़ी
बेबूझ मालूम
पड़ती है।
तुम्हारे
तथाकथित
संतों ने
तुमसे कहा है, प्रेम के
विपरीत हो जाओ।
मैं प्रेम के
विपरीत नहीं
हूं। मैं कहता
हूं : प्रेम
करो, देखो,
जानो, जलो!
हालांकि
प्रेम का सपना
टूटेगा। और अगर ठीक
से तोड़ना हो
सपना, तो
ठीक से उसमें
जाना जरूरी है।
भोग में
उतरोगे तो ही
योग का जन्म
होगा; राग
में जलोगे तो विराग
की सुगंध
उठेगी। जो रण
में नहीं जला
वह विराग से
वंचित रह जाएगा
और जिसने भोग
की पीड़ा नहीं
जानी, वह
योग का रस
कैसे पीएगा?
इसलिए
मेरी बातें
तुम्हें बहुत
बार उल्टी मालूम
पड़ती हैं।
मैं कहता हूं
अगर योगी बनना
है तो भोगी
बनने से ड़रना
मत। भोग ही
लेना। उसी भोग
के विषाद में
से तो योग का
सूत्रपात है।
जब तुम देखोगे, देखोगे, देखोगे,
दुख पाओगे,
जलोगे, तड़पोगे,
जब सब तरह
से देखोगे— ' दागे—दिल से
भी रोशनी न
मिली, यह
दीया भी जला
के देख लिया, ' जब रोशनी
मिलेगी नहीं,
अंधेरा बना
ही रहेगा, बना
ही रहेगा, एक
दिन तुम
सोचोगे कि मैं
जो दीया जला
रहा हूं वह
दीया जलने
वाला दीया
नहीं है, अब
मैं तलाश करूं
उस दीये की जो
जलता है। और
वह दीया सदा
से जल रहा है।
जरा लौटोगे
पीछे और उसे
जलता हुआ
पाओगे। वह
दीया तुम हो।
बुझ
गये आरजू के
सब चिराग
एक
अंधेरा है
चारसू बाकी
और जब
वासना के
चिराग बुझ
जाएंगे तो
निश्चित गहन
अंधकार में पड़ोगे।
उसी गहन
अंधकार में से
तलाश पैदा
होती है, आदमी
टटोलना शुरू
करता है।
इसलिए ड़रो
मत। कच्चे मत
प्रार्थना
में उतना, अन्यथा
तुम्हारी
प्रार्थना भी
कच्ची रह जाएगी।
प्रार्थना का
गुणधर्म
तुम्हारे
अनुभव पर होता
है। जिसने
संसार को ठीक
से देख लिया, और काटो में
चुभ गया है, और जार—जार
हो गया है, और
घाव—घाव हो
गया है, और
जिसने सब तरफ
से अनुभव कर
लिया और अपने
अनुभव से जान
लिया कि संसार
असार है—शास्त्रों
में लिखा है, इसलिए नहीं;
कोई ज्ञानी
ने कहा है, इसलिए
नहीं; नानक—कबीर
ने दोहराया है,
इसलिए नहीं;
अपने अनुभव
से गवाह हो गया
कि हा, संसार
असार है—बस, इसी क्षण
में क्रांति
घटती है, संन्यास
का जन्म होता
है।
कहीं
पे धूप की चांदर
बिछाके बैठ
गये
कहीं
पे शाम
सिरहाने लगा
के बैठ गये
खड़े
हुए थे अलावों
की आंच लेने
को
सब
अपनी— अपनी
हथेली जला के
बैठ गये
दुकानदार
तो मेले में
लुट गये यारो
तमाशबीन
दुकानें लगा
के बैठ गये
ये
सोचकर कि
दरख्तों में
छाव होती है
यहां
बबूल के साये
में आके बैठ
गये
इस
संसार को तुम
बबूल का वृक्ष
पाओगे। देर—
अबेर यह अनुभव
आएगा ही।
यह
सोचकर कि
दरख्तों में
छाव होती है
यहां
बबूल के साये
में आके बैठ
गये
लेकिन
तुम्हारे
अनुभव से ही
यह बात उठनी
चाहिए। उधार
अनुभव काम
नहीं आएगा।
उधार शान कूडा—करकट
है, उसे
जितनी जल्दी
फेंक दो उतना
बेहतर! अपना थोड़ा —सा शान
पर्याप्त है—एक
कण भी अपने
ज्ञान का
पर्याप्त है—रोशनी
के लिए! और
शास्त्रों का
बोझ जरा भी
काम नहीं आता।
शास्त्र से
बचो! शास्त्र
को हटाओ। जीवन
को जीओ।
यह
जीवन सपना है, यह टूटेगा।
इसके टूटने
में ही हित है।
इसके टूटने
में सौभाग्य
है, वरदान
है। क्योंकि
यह सपना टूटे
तो परमात्मा
से मिलन हो; यह विराग
जगे संसार से,
तो
परमात्मा से
राग जगे।
दो तरह
के लोग हैं।
जिनका संसार
से राग है, उनको
परमात्मा से
विराग होता है;
क्योंकि
राग और विराग
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
जिन्होंने
संसार की तरफ
मुंह कर लिया,
परमात्मा
की तरफ पीठ हो
गयी। संसार के
सम्मुख हो गये,
परमात्मा
से विमुख हो
गये। संसार के
प्रति राग, परमात्मा के
प्रति विराग।
जिस दिन संसार
के प्रति
विराग होगा, उस दिन तुम
एकदम
रूपातरित हो
जाओगे। उस दिन
तुम पाओगे, परमात्मा के
प्रति राग का
जन्म हो गया।
उस राग का नाम
ही भक्ति है।
अथातो
भक्ति
जिज्ञासा।
आज
इतना ही।
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