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शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--068

ताओ का स्वाद सादा है—(प्रवचन—अड़ष्‍ठवां)
अध्याय 35

ताओ की शांति

महान प्रतीक को धारण करो,
और समस्त संसार
अनुगमन करता है;
और बिना हानि उठाए
अनुगमन करता है;
और स्वास्थ्य, शांति और
व्यवस्था को उपलब्ध होता है।
अच्छी वस्तुएं खाने को दो,
और राही ठहर जाता है।
लेकिन ताओ का स्वाद
बिलकुल सादा है।
देखें, और यह अदृश्य है;
सुनें, और यह अश्राव्य है।
प्रयोग करने पर इसकी
आपूर्ति कभी चुकती नहीं है।

लाओत्से की दृष्टि में शिक्षक वही है जिसे शिक्षा देनी न पड़े, जिसकी मौजूदगी शिक्षा बन जाए; गुरु वही है जिसे आदर मांगना न पड़े, जिसे आदर वैसे ही सहज उपलब्ध हो जैसे नदियां सागर की तरफ बहती हैं। ऐसी सहजता ही जीवन में क्रांति ला सकती है।

शिक्षक शिक्षा देना चाहता है; गुरु अपना गुरुत्व दिखाना चाहता है; पिता बेटे को बदलना चाहता है; समाज-सुधारक समाज को नया रूप देना चाहते हैं। उनकी आकांक्षाएं शुभ हैं, लेकिन वे सफल नहीं हो पाते। न केवल वे सफल नहीं हो पाते, बल्कि वे भयंकर रूप से हानिपूर्ण सिद्ध होते हैं। क्योंकि जब कोई किसी को बदलना चाहता है तो वह उसकी बदलाहट में बाधा बन जाता है। और जितना ही आग्रह होता है बदलने का उतना ही बदलना मुश्किल हो जाता है।
आग्रह आक्रमण है। अच्छे पिता अक्सर ही अच्छे बेटों को जन्म नहीं दे पाते। उनका अच्छा होना, और अपने बेटे को भी अच्छा बनाने का आग्रह, बेटों की विकृति बन जाती है। जो समाज बहुत आग्रह करता है शुभ होने का, उसका शुभ पाखंड हो जाता है और भीतर अशुभ की धाराएं बहने लगती हैं। जिस चीज का निषेध किया जाता है उसमें रस पैदा हो जाता है, और जिस चीज को जबरदस्ती थोपने की कोशिश की जाती है उसमें विरस पैदा हो जाता है। ये मनोवैज्ञानिक सत्य आज पश्चिम की मनस की खोज में स्पष्ट होते चले जाते हैं।
लेकिन लाओत्से अभी भी अप्रतिम है, अभी भी लाओत्से की बात पूरी समझ में मनुष्य को नहीं आ सकी है। लाओत्से यह कह रहा है कि शुभ लाने की चेष्टा से अशुभ आता है; अच्छा बनाने की कोशिश बुरा बनने का कारण बन जाती है। परिणाम विपरीत होते हैं। इसको हम ठीक से समझ लें तो फिर इस सूत्र में प्रवेश हो जाएगा।
जब मैं किसी को अच्छा बनाने की कोशिश करता हूं, तो इस पूरी कोशिश की व्याख्या समझ लें, इस पूरी कोशिश का एक-एक ताना-बाना समझ लें। जब मैं किसी को अच्छा बनाने की कोशिश करता हूं तो पहली तो बात यह कि मैं अपने को अच्छा मानता हूं जो कि गहन अहंकार है, और दूसरा कि मैं दूसरे को बुरा मानता हूं जो कि अपमान है। और जितना ही मैं आग्रह करता हूं दूसरे को अच्छा बनाने का उतना ही मैं उसे अपमानित करता हूं; मेरी चेष्टा उसकी गहन निंदा बन जाती है। और अपमान प्रतिकार चाहता है, अपमान बदला लेना चाहता है। तो जिसे मैं अपमानित कर रहा हूं इस सूक्ष्म विधि से वह मुझ से बदला लेगा। और बदले का सबसे सरल उपाय यह है कि जो मैं चाहता हूं वह भर वह न होने दे; उससे विपरीत करके दिखा दे। तो बेटे बाप के विपरीत चल जाते हैं; शिष्य गुरुओं को सब भांति खंडित कर देते हैं; अनुयायी नेताओं को बुरी तरह पराजित कर देते हैं।
इधर हमने देखा, महात्मा गांधी की अथक चेष्टा थी, लोग अच्छे हो जाएं; और उन्होंने अपने अनुयायियों को अच्छा बनाने की भरपूर कोशिश की। लेकिन उन्हें लाओत्से का कोई भी पता नहीं था। और जो परिणाम हुआ वह हमारे सामने है कि उनका अनुयायी, ठीक वह जो चाहते थे, उससे विपरीत हुआ। इसके लिए सभी लोग अनुयायियों को जिम्मेवार ठहराएंगे, लाओत्से जिम्मेवार नहीं ठहराता, मैं भी जिम्मेवार नहीं ठहराता। क्योंकि भूल शिक्षक की है। लेकिन वह भूल दिखाई हमें नहीं पड़ेगी। क्योंकि हम भी यह धारणा मान कर चलते हैं कि महात्मा गांधी ने तो अथक चेष्टा की लोगों को अच्छा बनाने की; अगर लोग नहीं अच्छे बने तो लोगों का कसूर है।
लेकिन लाओत्से यह कहता है कि शिक्षक की बुनियादी भूल है। जहां आग्रह होता है, जहां दूसरे को ठीक करने की चेष्टा होती है, वह चेष्टा विपरीत परिणाम लाती है। और ऐसा नहीं कि विपरीत परिणाम अनुयायियों पर हुए, उनकी खुद की संतान पर भी विपरीत परिणाम हुआ। जो वे चाहते थे उससे उलटा हुआ। चाह में कुछ भूल न थी, लेकिन उन्हें जीवन के गहन इस सत्य का जैसे पता नहीं है कि आग्रह आक्रमण है, और चाहे दूसरा कहे या न कहे, भीतर अपमानित होता है।
जैसे ही मैं किसी को अच्छा करने की कोशिश करता हूं, एक बात तो मैंने कह दी कि तुम बुरे हो। और यह मैं सीधा कह देता तो शायद इतनी चोट न लगती, लेकिन मैं यह परोक्ष कहता हूं कि तुम्हें अच्छा होना है, तुम्हें अच्छा बनना है। यह तो मैं कह रहा हूं कि तुम जैसे हो वैसे स्वीकृत नहीं हो; तुम कटो, छंटो, निखरो, तो मैं स्वीकार कर सकूंगा। मेरे स्वीकार में शर्त है: जैसा मैं चाहता हूं वैसे तुम हो जाओ।
एक तो मैंने मान ही लिया कि मैं ठीक हूं और दूसरी अब मैं यह कोशिश कर रहा हूं कि तुम गलत हो। और यह एक गहरी हिंसा है। दूसरे को मारना बड़ी स्थूल हिंसा है; दूसरे को बदलना बड़ी गहन हिंसा है, बड़ी सूक्ष्म हिंसा है। मैं आपका हाथ काट डालूं, यह बहुत बड़ी हिंसा नहीं है; लेकिन मैं आपके व्यक्तित्व को काटूं--चाहे भली इच्छा से ही, चाहे मैं आपको लाभ पहुंचाने के लिए ही, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। बड़े मजे की तो बात यह है कि जितने लोग भी दूसरों को लाभ पहुंचाना चाहते हैं अक्सर तो लाभ पहुंचाना असली बात नहीं होती, दूसरे को बदलने, तोड़ने, काटने का रस असली बात होती है। और बड़ा सूक्ष्म मजा है कि दूसरे को मैं अपने अनुकूल ढाल रहा हूं। जैसा मैं हूं, जैसा मैं समझता हूं ठीक है, वैसा मैं दूसरे को बना रहा हूं। यह दूसरे की आत्मा का अपमान है।
तो शिक्षक, आदर्शवादी, महात्मा, साधु-संन्यासी, नेता, क्रांतिकारी, समाज-सुधारक समाज को बदल नहीं पाते, और विकृत कर जाते हैं। और उनके पीछे जो छाया आती है वह अत्यंत पतन की होती है। जब भी कोई महापुरुष लोगों को बदलने की कोशिश करता है तो उसके पीछे एक अंधकार की धारा अनिवार्यरूपेण पैदा हो जाती है।
लाओत्से कहता है कि तुम दूसरे को बदलना मत। तुम अपने स्वभाव में जीना। और अगर तुम्हारे स्वभाव में कुछ भी मूल्यवान है तो दूसरे उसकी उपस्थिति में बदलना शुरू हो जाएंगे। यह बदलाहट तुम्हारा आग्रह न होगी; इस बदलाहट में तुम्हारी चेष्टा न होगी; इस बदलाहट में तुम सचेतन रूप से सक्रिय भी नहीं होओगे। दूसरा ही सक्रिय होगा, दूसरा ही यत्न करेगा; लेकिन तुम सिर्फ एक मौन उपस्थिति, एक मौन प्रेरणा रहोगे।
उस प्रेरणा में कोई उपाय तुम्हारी तरफ से नहीं है। और जब कोई सिर्फ उपस्थिति होता है--एक आनंद की, एक उत्सव की, एक समाधि की, एक ध्यान की--तो दूसरे भी उसकी तरफ बहने शुरू हो जाते हैं। इस बहाव में वे दूसरे ही पहल करते हैं। यह उनकी अपनी निजी चेष्टा होती है। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है ऐसे जहां भी आनंद होता है वहां व्यक्ति बहने शुरू हो जाते हैं। न तो सागर निमंत्रण देता, न बुलाता; नदियां भागी चली जाती हैं। खींचता भी नहीं, नदियां अपनी स्वेच्छा से ही भागी चली जाती हैं।
और जब कोई स्वेच्छा से शिष्य बनता है और जब कोई स्वेच्छा से परिवर्तित होता है तो वास्तविक परिवर्तन घटित होता है। और उस परिवर्तन की घटना में कोई हानि नहीं होती। अन्यथा एक तो यह संभावना है कि जब कोई आपको बदलने की कोशिश करे, निर्माण करने की कोशिश करे, तो आप बगावती हो जाएं और विपरीत चले जाएं। एक तो यह संभावना है। अगर आप साहसी हैं और आपके पास थोड़ा बल है विद्रोह का तो आप बगावती हो जाएंगे। अगर आप इतने साहसी नहीं हैं और विद्रोह का बल नहीं है तो आप पाखंडी हो जाएंगे। वह भी बड़ा खतरा है। आप ऊपर-ऊपर से, जो भी कहा गया है, सिखाया गया है, पूरा कर देंगे; और भीतर उबलते रहेंगे और जलते रहेंगे। ऊपर से ब्रह्मचर्य हो जाएगा; भीतर कामवासना होगी। ऊपर से अहिंसा हो जाएगी; भीतर सब तरह की हिंसा होगी। ऊपर से सब शुभ दिखाई पड़ने लगेगा और भीतर सब अशुभ दब जाएगा। यह और भी रुग्ण अवस्था है। इससे तो बगावती बेहतर है। वह कम से कम ईमानदार है।
तो महात्माओं के पीछे दो तरह के लोग छूट जाते हैं। या तो वे लोग जो महात्माओं के ठीक विपरीत चल पड़ते हैं, या वे लोग जो महात्माओं की मान कर चल पड़ते हैं और पाखंडी हो जाते हैं। इसलिए धार्मिक समाज अक्सर पाखंडी समाज होता है। होना नहीं चाहिए। यह सारी दुनिया में चिंता की बात है कि भारत जैसा देश, जहां इतने धर्मगुरु हुए हों, वह इतना पाखंडी क्यों है? इतने धर्मगुरु और इतने सुधारक और इतने विचारक और इतने संत, और भारत का आदमी इतना पाखंडी क्यों है?
इसमें कुछ उलझन नहीं होनी चाहिए। इतने सुधारने वालों के कारण ही भारत पाखंडी है। उन्होंने इतना समझा दिया है कि क्या ठीक है, और उन्होंने इतना थोप दिया है कि क्या ठीक है, कि आपकी हिम्मत भी नहीं कि आप कह दें कि यह गलत है। आप उसको आरोपण कर लेते हैं। आपके पास साहस भी नहीं है कि उसके विपरीत चले जाएं और तोड़ दें सारा पाखंड। वह भी आपकी हिम्मत नहीं है। आप उसको थोप लेते हैं अपने ऊपर, लेकिन भीतर आप पीछे के दरवाजे खोल लेते हैं जहां से आप बिलकुल उलटे आदमी होते हैं।
तो एक आपकी शक्ल होती है मंदिर में; वह आपकी असली शक्ल नहीं है। एक शक्ल होती है आपकी असली, वह मंदिर में कभी दिखाई नहीं पड़ती। और वह जो मंदिर में दिखाई पड़ती है वह बिलकुल ओढ़ी हुई है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है। उसे आप भी जानते हैं कि वह ओढ़ी हुई है, वह दिखावे के लिए है। वह एक सामाजिक व्यवहार है; वह आपका असली व्यक्तित्व नहीं है। और जब ऐसा दोहरा व्यक्तित्व हो जाता है...।
पाखंड का अर्थ ही यही है कि जो असली है वह भीतर छिपा है, जो नकली है वह ऊपर ओढ़ा हुआ है। और इन दोनों के बीच सतत कलह और संघर्ष चलता रहता है। अगर आपके चित्त में बहुत अशांति है तो उस अशांति का नब्बे प्रतिशत कारण तो आपका पाखंड है। और आप लाख ध्यान करें और लाख योग साधें, वह पाखंड जब तक नहीं छूटता तब तक शांति की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि योग साधने से वह पाखंड नहीं छूट जाएगा। और आप कितनी ही पूजा-प्रार्थना करें, उससे वह पाखंड नहीं छूट जाएगा। इस सत्य को समझना ही पड़ेगा कि मेरे भीतर मैंने दो हिस्से बना रखे हैं। एक, जो बिलकुल झूठा है; जिसको मैं कहता हूं कि ठीक है, लेकिन कभी जिसको मैं उपयोग नहीं करता, कभी जिसका व्यवहार नहीं करता। और एक, जिसका मैं व्यवहार करता हूं, जिसको मैं गलत कहता हूं। बड़ी अजीब स्थिति है। जो भी मैं करता हूं उसको मैं गलत कहता हूं और जिसको भी मैं ठीक कहता हूं उसको मैं करता नहीं हूं। और जो मैं करता हूं वही मैं हूं; जो मैं कहता हूं उसका कोई मूल्य नहीं है।
यह पाखंड अनिवार्य है। क्योंकि जहां बदलने की कोशिश की जाती है वहां दो ही परिणाम होते हैं, या तो बगावत या पाखंड। और जब भी पाखंड बहुत ज्यादा हो जाता है तो फिर बगावत पैदा हो जाती है। आज अगर अमरीका और यूरोप में बगावत है तो उस बगावत का कारण है। ईसाइयत ने दो हजार साल तक जो पाखंड पैदा किया है उसके खिलाफ वह बगावत है। तो ठीक विपरीत स्थिति बन गई है।
इस मुल्क में भी आज नहीं कल भयंकर विस्फोट होगा। चीन में जो विस्फोट हुआ है वह कनफ्यूशियस उसका कारण है। माओत्से तुंग की सफलता असलियत में माओत्से तुंग की सफलता नहीं है। कनफ्यूशियस और उसकी परंपरा ने चीन के ऊपर जो जबरदस्त ढांचा व्यक्तित्व का थोप दिया था, वह इतना भारी हो गया था कि उसे तोड़ना जरूरी था। जब भी कोई चीज अतिशय हो जाएगी तो टूट जाएगी। आज जगह-जगह नीति के ढांचे टूट रहे हैं; उनका कारण इतना ही है कि वे नीति के ढांचे पाखंड हैं। लाओत्से इनके जरा भी समर्थन में नहीं है। उसकी धर्म की दृष्टि बिलकुल ही अलग है। हम इस सूत्र में प्रवेश करें तो हमें खयाल में आए।
"महान प्रतीक को धारण करो, होल्ड दि ग्रेट सिंबल, और समस्त संसार अनुगमन करता है, एंड आल दि वर्ल्ड फालोज'
क्या है वह महा प्रतीक? ताओ उसका नाम है, या कहें धर्म, या कहें स्वभाव। स्वभाव से हमें समझने में आसानी होगी। क्या है तुम्हारा स्वभाव, उस स्वभाव को ही सम्हाले रहो। और वह स्वभाव कष्ट में भी ले जाए तो कष्ट में जाओ, और वह स्वभाव तुम्हें मुसीबत में डाल दे तो मुसीबत में पड़ो। क्योंकि वह मुसीबत भी निखारने वाली सिद्ध होगी। और वह कष्ट भी तुम्हें ताजा करेगा और तुम्हें जीवन देगा। लेकिन स्वभाव को मत छोड़ो; उस महा प्रतीक को पकड़े रहो। स्वभाव से प्रतिकूल मत होओ, चाहे कितना ही कोई लाभ दिखाई पड़ रहा हो। और स्वभाव से जरा भी मत हटो, चाहे कितनी ही हानि दिखाई पड़ती हो।
लाओत्से की दृष्टि में यही साधना है कि जो मेरा स्वभाव है, मैं उसका अनुगमन करूंगा। बहुत कठिन है, बहुत कठोर है; क्योंकि पूरा समाज पाखंड से भरा है। और जहां सारे लोग पाखंड से भरे हों और जहां सब कुछ झूठ हो गया हो, वहां एक व्यक्ति अपने स्वभाव का अनुगमन करे तो कठिनाई में पड़ेगा। स्वाभाविक। क्योंकि वह ऐसी भाषा बोलने लगेगा और ऐसा जीवन जीने लगेगा कि जिसका किसी से तालमेल नहीं खाएगा
मैं एक कहानी पढ़ रहा था। लाओत्से को पढ़ कर किसी ने वह कहानी लिखी हुई मालूम पड़ती है। कहानी का पात्र है, वह इतना प्रभावित हो जाता है लाओत्से के स्वभाव की बात से कि वह अचानक सारा पाखंड छोड़ देता है, और जो स्वाभाविक है वैसा ही करने लगता है। घंटे भी नहीं बीत पाते कि लोगों को शक हो जाता है कि वह पागल हो गया। पत्नी अस्पताल में भर्ती करवाती है। वह बहुत कहता है कि मैं पागल नहीं हो गया हूं, मैं केवल सच्चा हो गया हूं। तो जिस आदमी को मैं कहना चाहता था कि तू बेईमान है, उसको सदा से जानता था कि वह बेईमान है और सदा से कहना चाहता था कि बेईमान है; अब तक कहा नहीं था, अब तक उसकी ईमानदारी की प्रशंसा की थी। अब मैंने सच-सच कह दिया; मैं सिर्फ सच्चा हो गया हूं। लेकिन कोई उसकी सुनता नहीं। लोग समझते हैं कि उसके दिमाग में कुछ गड़बड़ हो गई है। लोग बहुत बुरा मानते हैं; क्योंकि वह, जैसी बात उसे ठीक लगती है, वैसी कहनी शुरू कर देता है। तो वह अपने घर बैठा रहता है। लोग उसे देखने आते हैं कि उसकी तबीयत खराब है। तो पहले तो लोग चौंकते थे जब वह सच्ची बातें कह देता था, लेकिन अब वे मुस्कुराते हैं। क्योंकि सब राजी हो गए हैं, मान लिया है कि इसका दिमाग खराब हो गया है। उसे अंततः पागलखाने जाना पड़ता है।
अगर आप, जैसी समाज की व्यवस्था है, उसमें अचानक सच्चे हो जाएं तो आप इतनी मुसीबत में पाएंगे जितना कि पागल भी नहीं पा सकता है। क्योंकि जिस पत्नी से आप जिंदगी भर से कह रहे थे कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, तेरे बिना जी नहीं सकता, उससे आप क्या कहिएगा? जिस पति से आप कह रहे थे कि तुम परमात्मा हो और व्यवहार जिंदगी भर उससे ऐसा ही कर रहे थे जैसे वह शैतान हो, उसको क्या कहिएगा? अगर चौबीस घंटे के लिए भी आप ठीक सच्चे हो जाएं तो आप पाएंगे कि आप जिंदा नहीं रह सकते। बड़ी कठिनाई हो जाएगी।
इमर्सन ने अपने एक पत्र में लिखा है कि मैं सुनता हूं, पढ़ता हूं कि सत्य होना चाहिए; लेकिन मैं जानता हूं कि अगर लोग सत्य का अनुगमन करें तो दुनिया में दो मित्र भी खोजना मुश्किल हो जाएंगे। मित्रता ही असंभव हो जाएगी। प्रेम बिलकुल असंभव हो जाएगा; क्योंकि सब झूठ पर खड़ा है।
आपका प्रेम, आपकी दोस्ती, आपके संबंध सब झूठ पर खड़े हैं। यह बड़े मजे की बात है कि दुनिया भर के शिक्षक सत्य की शिक्षा दे रहे हैं और हमारी सारी जीवन-व्यवस्था असत्य पर खड़ी हुई है। और अगर हम चौबीस घंटे के लिए तय कर लें कि सत्य से जीएंगे तो या तो आपकी हत्या कर दी जाए, या आपको पागलखाने में बंद कर दिया जाए, या लोग आप पर हंसने लगें कि आपका दिमाग खराब हो गया है। ये भी उनकी व्यवस्थाएं हैं सुरक्षा की। जब वे हंसेंगे कि आप पागल हो गए हैं तो वह आपको पागल नहीं कह रहे हैं, वे हंस कर अपनी सुरक्षा कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि इनकी बात को कोई ध्यान देने की जरूरत नहीं है। वे यह कह रहे हैं कि जब आदमी पागल ही हो गया तो अब इससे कुछ आशा ही नहीं है; यह कुछ भी कह सकता है।
लाओत्से की साधना कठिन है। क्योंकि जैसे ही आप अपने स्वभाव में सरकना शुरू करेंगे, आप पाएंगे कि आपका सारा व्यक्तित्व झूठा है। जगह-जगह से आपको हटना पड़ेगा। आप मुस्कुराते झूठे हैं, आप रोते झूठे हैं।
मैं लोगों को देखता हूं, किसी के घर में कोई मर गया है, वे जाकर वहां ऐसी शक्ल बना लेते हैं एक क्षण में! बाहर तक वे हंसते हुए सिगरेट पीते आ रहे थे; सिगरेट झड़ा कर वे एकदम, शक्ल उनकी बिलकुल उदास हो जाती है; भीतर जाकर वे उदासी की बातें कर लेते हैं; बाहर आकर फिर वे हंस रहे हैं, गपशप कर रहे हैं; सिनेमागृह की ओर जा रहे हैं। बीच में जैसा उन्होंने जो उदासी ओढ़ी थी वह जैसे कुछ बात ही न थी।
आंसू निकाल लेते हैं लोग झूठे; मुस्कुरा लेते हैं। वह सब चिपकाई हुई मुस्कुराहट है, ऊपर से पेंट की हुई। फिर धीरे-धीरे वे भूल ही जाते हैं कि असली मुस्कुराहट क्या है। इतना अभ्यास हो जाता है झूठी मुस्कुराहट का कि जब असली भी आना चाहिए तो झूठी आ जाती है। वह अभ्यास का हिस्सा हो जाती है। आंसू जब असली भी आना चाहिए तब भी उनको पता नहीं चलता कि असली कहां से लाएं; क्योंकि नकली के लाने की धारा, आदत, यांत्रिक आदत बन गई होती है। इस पर थोड़ा विचार करें तो आपको खयाल में आएगा कि लाओत्से की साधना अति जटिल होगी, कठिन होगी, महातप होगी।
"महान प्रतीक को धारण करो, और समस्त संसार अनुगमन करता है।'
लेकिन उसके अंतिम परिणाम अभूतपूर्व हैं, अदभुत हैं। एक बार कोई व्यक्ति अपने स्वभाव में उतरने लगे तो पहली घटना तो यह होगी कि सारे लोग उसके विपरीत हो जाएंगे। कारण? क्योंकि आप झूठ हुए ही इसलिए हैं, ताकि कोई आपके विपरीत न हो जाए। इसे थोड़ा समझ लें।
आपने सारा ढांचा झूठा इसलिए खड़ा किया है कि सबसे बनी रहे; कहीं कुछ बिगाड़ न हो जाए। सबसे बनाए रखने में आपने अपने से बिगाड़ कर लिया है। सबको सम्हालने में, पता नहीं सब सम्हले हैं या नहीं सम्हले, आप जरूर बिलकुल असंतुलित हो गए हैं। आप सम्हले हुए नहीं रहे हैं। सब प्रसन्न रहें आपके आस-पास, सब खुश रहें; हालांकि कोई खुश नहीं है आपके आस-पास; लेकिन इस चेष्टा में एक बात जरूर घटी है कि आप स्वाभाविक नहीं रह गए हैं। और बिना स्वभाविक हुए कोई प्रसन्न नहीं हो सकता। प्रसन्नता स्वभाव के साथ मेल से पैदा होती है; प्रफुल्लता स्वभाव के साथ एकतान होने से पैदा होती है।
तो जैसे ही आप स्वाभाविक होने की कोशिश करेंगे वैसे ही आप पाएंगे कि जहां-जहां आपने ताने-बाने बुने थे--सबको सम्हालने के थे--वे सब टूटने लगे, वे सब शिथिल होने लगे। जिस-जिस को सम्हाला था वह दूर हटने लगा। वह सम्हालना भी सिर्फ कामचलाऊ था, उससे काम चलता था; कुछ सम्हला नहीं था।
स्वभाव के प्रतीक को जैसे ही कोई धारण करेगा, पहला तो परिणाम यह होगा कि लोग उसके विपरीत होने लगेंगे। अगर वह डर गया तो वापस अपनी खोल को ओढ़ लेगा। अगर नहीं डरा और स्वभाव में चलता ही चला गया तो यह विरोध ज्यादा दिन नहीं टिकेगा। यह विरोध तो उसकी पुरानी झूठ के कारण पैदा हो रहा है। जैसे-जैसे लोग राजी होते जाएंगे, समझते जाएंगे, जैसे-जैसे लोग उसके स्वभाव, उसके आनंद, उसकी शांति से परिचित होने लगेंगे, वैसे-वैसे विरोध गिर जाएगा। और इस विरोध के गिरने के बाद अनुगमन पैदा होता है; और तब लोग उसके पीछे चलने लगेंगे।
अभी आप लोगों को पीछे चलाने की कोशिश करते हैं; कोई आपके पीछे चलता नहीं। आपको भला खयाल हो कि लोग आपके पीछे चल रहे हैं, उनको यह खयाल होता है कि आप उनके पीछे चल रहे हैं। लेकिन जिस दिन कोई व्यक्ति अपने स्वभाव में थिर होता है उस दिन अपने आप लोग पीछे चलना शुरू हो जाते हैं। क्योंकि वह अपूर्व धारा पैदा हो गई उसके भीतर, वह महा चुंबक उपलब्ध हो गया उसे, जिससे लोग खिंचने शुरू हो जाते हैं।
लेकिन उस घटना के पहले विरोध होगा। और उस घटना के पहले जो साथ थे वे साथ छोड़ देंगे। उस घटना के पहले जो अपने थे वे पराए हो जाएंगे। क्योंकि उनसे सारा संबंध झूठ का था; वह जबरदस्ती था। वह किसी भय और लोभ के कारण था। आप अपने संबंधों को सोचें कि आपके संबंध किस तरह से खड़े हुए हैं। पति पत्नी से डरा हुआ है, इसलिए प्रेम किए चला जाता है। पत्नी डरी हुई है भविष्य से, आशंकित है--क्या होगा जीवन का; कहां भोजन, कहां रोटी, कहां मकान--वह पति की सेवा किए जाती है। लेकिन दोनों के बीच कोई, वह निसर्ग की कोई अनुभूति, कोई प्रेम का कोई स्फुरण नहीं है। और हम डराए जाते हैं एक-दूसरे को, क्योंकि हम जानते हैं यही हमारा संबंध है। या तो भय या लोभ, बस दो के आधार पर हम जीते हैं। इसलिए साथ चलते हुए लोग मालूम पड़ते हैं, लेकिन सिर्फ घिसटते हैं; कोई किसी के साथ नहीं चलता।
साथ तो कोई तभी चल सकता है जब कोई लोभ और कोई भय न रह जाए; जब सिर्फ दो प्रकृतियां मेल खाती हों और इसलिए साथ चलती हों। तब लाओत्से कहता है कि सारा संसार अनुगमन करता है।
लेकिन आप यह मत सोचना अपने मन में कि यह तरकीब अच्छी है सबसे अनुगमन करवाने की। अगर आप इस कारण स्वभाव की बात से प्रभावित हुए तो आप स्वभाव को कभी उपलब्ध न हो पाएंगे। स्वभाव को तो वही उपलब्ध होता है जो दूसरे की चिंता ही नहीं करता कि वह पीछे चलेगा कि नहीं चलेगा, कि साथी होगा कि दुश्मन हो जाएगा; दूसरे की जो चिंता ही छोड़ देता है।
बहुत बार लाओत्से के ऊपर स्वार्थी होने का आरोप लगाया गया। उस आरोप में थोड़ी सच्चाई है। क्योंकि लाओत्से कहता है कि तुम अगर ठीक से स्वभाव में हो जाओ--उसको ही वह कहता है ठीक स्वार्थ--तो सब घटना घटनी शुरू हो जाएगी। तुम दूसरे की चिंता ही मत करो, क्योंकि दूसरे की चिंता से ही सारा उपद्रव पैदा हो रहा है।
यह जरा जटिल है। क्योंकि हमारे मन में परोपकार की इतनी धारणा बैठी हुई है, और सब एक-दूसरे का उपकार करने में इस बुरी तरह लगे हुए हैं। और उनका उपकार दूसरे को बिलकुल नष्ट कर देता है। इसे हम थोड़ा समझें। क्योंकि एक धारणा मजबूत हो तो उससे बिलकुल प्रतिकूल धारणा समझ में आनी कठिन हो जाती है।
पति सोच रहा है कि वह पत्नी के लिए सब कुछ कर रहा है। पत्नी सोच रही है कि वह अपना जीवन गंवा रही है पति के लिए। दोनों मिल कर सोच रहे हैं कि हम बच्चों के लिए जी रहे हैं। कोई अपने लिए नहीं जी रहा है। और जो अपने लिए नहीं जी रहा है उसके पास जीवन ही नहीं होता; वह दूसरे के लिए कैसे जीएगा? इसलिए खतरे होंगे। पति सोच रहा है, पत्नी के लिए मेहनत कर रहा है, तो पत्नी से बदला लेता रहेगा स्वभावतः। क्योंकि जिंदगी गंवा रहा है वह पत्नी के लिए। तो इसका बदला कौन लेगा? तो पत्नी पर वह क्रोध और रोष और दुष्टता जाहिर करता रहेगा। पत्नी सोच रही है, उसने अपना शरीर, अपना जीवन, अपना सब कुछ गंवा दिया इस पति के लिए; वह इससे बदला लेती रहेगी। और दोनों मिल कर बच्चों की गर्दन को कसे हैं; वे कहते हैं, हम तुम्हारे लिए जी रहे हैं, नहीं तो हमें जीने की कोई बात ही नहीं है।
तुम्हें जीने की कोई बात नहीं है? तुम्हारे बाप और मां तुम्हारे लिए जीए; उनको भी जीने की कोई बात नहीं थी। उनके बाप और मां उनके लिए जीए। और ये बच्चे भी खुद नहीं जीएंगे; ये अपने बच्चों के लिए जीएंगे। इस संसार में कोई अपने लिए जीएगा ही नहीं तो जीवन कहां फलित होगा?
तो ये मां-बाप बच्चों से बदला लेते रहेंगे; इन पर क्रोध आता ही रहेगा। अब तक मैंने एक ऐसा मां-बाप नहीं देखा जो बच्चों पर क्रोध न कर रहा हो। लेकिन क्रोध का कारण बच्चे नहीं हैं; क्रोध का कारण यह है कि मेरी जिंदगी तुम्हारे लिए खराब हो रही है। मैं मर जाऊंगा मेहनत कर-कर के और तुम मजा करोगे।
वे भी मजा नहीं करेंगे; आपकी कृपा ऐसी है कि आप उनको बिगाड़ कर रहेंगे। यहां कोई मजा तो कर ही नहीं सकता; मजा यहां पाप है। तो ये मां-बाप बच्चों से बदला लेते रहेंगे।
और ध्यान रहे, बच्चों को यह कभी समझ में नहीं आएगा कि आप हमारे लिए जीए, क्योंकि आपके पास जीवन ही नहीं था। और बच्चों को सिर्फ इतना ही समझ में आएगा कि कितना आपने क्रोध किया, कितना उनको सताया, कितना परेशान किया। आखिर में बच्चों को याद रह जाएगी आपकी दुष्टता, और आपको याद रह जाएगा आपकी कुर्बानी। और इन दोनों में कोई तालमेल नहीं है। बुढ़ापे में आप कहते रहोगे कि मैंने कुर्बानी की है; और बच्चे जानते हैं कि सिवाय तुमने सताने के और कुछ भी नहीं किया। बच्चे बूढ़ों से बदला लेते हैं, क्योंकि बच्चे बचपन में तो बदला नहीं ले सकते। कमजोर हैं, असहाय हैं; आप पर निर्भर हैं। आप उनको सता लेते हैं। फिर जब आप बूढ़े होते हैं तो बच्चे आपको सताना शुरू कर देते हैं।
सारी दुनिया में बूढ़े बच्चों से परेशान हैं, क्योंकि जैसे ही बूढ़े हुए आप, और बच्चे आपका तिरस्कार करने लगते हैं और आपको सताना शुरू करते हैं। वे भी ढंग निकाल लेते हैं। यह ठीक वही बदला वापस लौटा रहा है। यह वर्तुल पूरा हो रहा है। बूढ़े बहुत दुखी होते हैं कि बच्चे हमारे साथ क्या व्यवहार कर रहे हैं! पर उन्हें पता नहीं कि उन्होंने बच्चों के साथ क्या व्यवहार किया था। उनको याद है कुर्बानी कि उन्होंने जिंदगी इन्हीं के लिए नष्ट कर दी। इन दोनों भाषाओं का कहीं कोई मेल नहीं है।
लेकिन अगर ठीक से समझें तो जो आदमी दूसरे के लिए जिंदगी नष्ट करेगा वह आदमी खतरनाक है। क्योंकि उसमें जो शहीदगी पैदा हो गई कि मैं शहीद हो गया हूं, वह बदला लेगा। तो यह जो मार्टरडम है, यह जो शहीदगी है, यह सबसे बड़ा पाप है जगत में। इस भाषा में कभी भी मत सोचना कि मैं दूसरे के लिए जीऊं। क्योंकि आप खतरनाक हैं, आप दूसरे को नुकसान पहुंचाएंगे। आप सिर्फ अपने लिए जीएं, और आपके जीवन में इतनी सुगंध हो--वह तभी होगी जब आप अपने लिए जीएंगे।
पति अपने लिए जी रहा है; उसके अपने लिए जीने से जो आनंद फलेगा वह पत्नी को भी मिलेगा, वह ज्योति उसके ऊपर भी पड़ेगी। लेकिन पति कभी यह नहीं कहेगा कि मैं तेरे लिए जीया। मैं जीया अपने लिए, और अगर मेरे जीवन में बाढ़ आई और मेरे जीवन में धाराएं ज्यादा हो गईं और अतिरेक हो गया मेरा आनंद तो तुझ तक भी पहुंचा। लेकिन मैं तेरे लिए नहीं जीया, जीया मैं अपने ही लिए। और पत्नी अपने लिए जी रही है; और उसके पास जब ज्यादा होती है तो वह बांटती है। और जो ले लेता है, उसकी वह अनुगृहीत होगी। क्योंकि जब कोई भार से भर जाता है आनंद के तब जो भी उसके आनंद को बंटा लेता है, वह उसे निर्भार करता है। और ये मां-बाप दोनों आनंद से जी रहे हैं, अपने आनंद के लिए; इनकी छाया में बच्चों को भी बहुत आनंद मिलेगा। और ये बच्चे अनुगृहीत रहेंगे इनके बुढ़ापे तक, क्योंकि इनके पास जो छाया और जो सुगंध अनुभव हुई थी। और इन मां-बाप को कभी बुढ़ापे में यह खयाल नहीं रहेगा कि हमने अपनी जिंदगी तुम्हारे लिए बर्बाद की। इसलिए बदला लेने का कोई सवाल नहीं है। और जहां बदला लेने का कोई सवाल नहीं है वहां बहुत कुछ प्रत्युत्तर में मिलता है।
इस जगत में जो मांगता है उसे कुछ भी नहीं मिलता। जो नहीं मांगता है और अपने आनंद से देता है, किसी सिद्धांत के कारण नहीं, किसी कर्तव्य के कारण नहीं, जो देता है इसलिए कि उसके पास इतना ज्यादा है कि देने में वह सुख पाता है, उसको बहुत आनंद उपलब्ध होता है।
लाओत्से की शिक्षा अति स्वार्थी है। पर मैं मानता हूं कि अगर दुनिया उसकी शिक्षा के करीब आ जाए तो दुनिया में इतना परार्थ होगा जिसका हिसाब नहीं। हम सब परोपकारवादी हैं, और दुनिया में इतना उपद्रव मचा है और इतना स्वार्थ है जिसका कोई हिसाब नहीं। विपरीत परिणाम हो जाता है। दूसरे की चिंता छोड़ कर अपनी ही चिंता कर लें ठीक से। पर हमारे मन में बड़ा डर लगता है। अपनी चिंता? यह तो बात बुरी है। चिंता सदा दूसरे की करनी चाहिए। देश के लिए कुर्बान हो जाओ! पति के लिए कुर्बान हो जाओ! बेटे-बच्चों के लिए कुर्बान हो जाओ! जैसे आप सिर्फ कुर्बानी के बकरे हो; आपको सिवाय कुर्बान होने के कोई काम ही नहीं है। कहीं न कहीं कुर्बान हो जाओ, और आपकी सार्थकता हो गई। कहीं न कहीं किसी बलिवेदी पर अपना सिर रख दो, और झंझट खत्म हो गई; आपका जीवन पूर्णता को उपलब्ध हो गया।
कुर्बानी की बात ही बेहूदी है। और वह जिन्होंने खोजी है उन्होंने एक बहुत झूठा जाल खड़ा कर रखा है। जाल इतना बड़ा है और इतना प्राचीन है कि उसमें से बाहर सिर उठा कर देखना भी बहुत मुश्किल होता है। मैं भी आपसे कहता हूं, अपने स्वार्थ की अगर आप ठीक से चिंता कर लें तो आपसे किसी को कोई हानि न होगी। और आपके जीवन से परोपकार सहज ही बहेगा। और सहज बहे तो ही शुभ है; चेष्टा से बहाना पड़े तो अशुभ है।
"महान प्रतीक को धारण करो, और समस्त संसार अनुगमन करता है। और बिना हानि उठाए अनुगमन करता है।'
यह वचन बहुत अनूठा है: "और बिना हानि उठाए अनुगमन करता है; फालोज विदाउट मीटिंग हार्म'
क्योंकि अनुगमन तो करवाया जा सकता है; लेकिन तब हानि होती है। सारे नेता हानि पहुंचाते हैं, क्योंकि सारे नेता का रस है कि कोई अनुगमन करे। नेता को अनुयायी में कोई रस नहीं है वस्तुतः, लोग उसका अनुगमन करें इसमें रस है। और लोग अनुगमन करें इसमें रस इसलिए है कि जितने ज्यादा अनुयायी उतना बड़ा वह नेता! उसके अहंकार की तृप्ति इसमें है कि कितने लोग उसके पीछे चल रहे हैं। जितनी बड़ी संख्या उसके पीछे चले, वह उतना बड़ा है; उतना अहंकार तृप्त होता है।
इसलिए आप देखते हैं, शांति के समय में बड़े नेता पैदा नहीं होते; अशांति के समय में बड़े नेता पैदा होते हैं। क्योंकि अशांति के समय में लोग इतने भयभीत हो जाते हैं कि वे किसी का सहारा चाहते हैं। समझ लें कि भारत में स्वतंत्रता का संग्राम था तो बड़े नेता पैदा हुए। कोई स्वतंत्र देश में इतने बड़े नेता पैदा नहीं होते जितने गुलाम देश में पैदा होते हैं। उसका कारण है। क्योंकि गुलामों की भीड़ स्वतंत्र होना चाहती है; कोई भी सहारा दे तो उसके पीछे चल सकती है। लेकिन दुनिया के जितने बड़े नेता पैदा होते हैं सब युद्ध के समय में पैदा होते हैं; शांति के समय में कोई बड़ा नेता पैदा नहीं होता। इंग्लैंड चर्चिल को पैदा करके दिखाए! तो दूसरा महायुद्ध फिर से लड़ना पड़े तो चर्चिल पैदा हो सकता है। दि गॉल ने स्टैलिन की मृत्यु पर कहा था कि दुनिया का बड़े नेताओं का काल समाप्त हो गया, स्टैलिन की मृत्यु के साथ। निश्चित ही, स्टैलिन था, रूजवेल्ट था, हिटलर था और चर्चिल था--बड़े लोग थे।
पर ये सारे बड़े लोग युद्ध से पैदा हुए थे। चाहे गांधी हों, चाहे नेहरू हों, ये सारे बड़े लोग संघर्ष से पैदा होते हैं। जब अशांति होती है, और लोग परेशान होते हैं, और लोगों को कोई का सहारा चाहिए, कोई जिसके वे पीछे चल सकें। जब युद्ध नहीं होता तो लोग अपने पैरों पर खड़े रहते हैं; किसी के पीछे चलने की उनको चिंता नहीं होती। जब कोई भय नहीं होता तो वे किसी का सहारा नहीं पकड़ते
इसलिए अगर दुनिया में बिलकुल शांति हो जाए तो दुनिया से नेता विदा हो जाएंगे। शांत दुनिया में नेता बिलकुल नहीं होंगे। इसलिए मैं आपसे कहता हूं, जब तक नेता हैं तब तक शांति नहीं हो सकती। और नेता कितनी ही शांति की बात करें वे शांति ला नहीं सकते; क्योंकि शांति उनके विपरीत है। वे युद्ध ही लाएंगे। वे बातें करेंगे कि युद्ध नहीं चाहिए; और इतने जोश में आ जाएंगे कि युद्ध नहीं चाहिए कि मौका लगे तो युद्ध नहीं चाहिए के लिए युद्ध करेंगे; मगर युद्ध के बिना नेता नहीं जी सकते। जहां युद्ध समाप्त होता है वहां नेतागिरी समाप्त हो जाती है। राजनीति ही समाप्त हो जाती है अगर अशांति न हो।
तो अशांति बनी ही रहनी चाहिए, कारण कुछ भी हों; अशांति खड़ी रहनी चाहिए, कोई भी बहाना हो। बहाने सच भी मालूम पड़ें--बहाने सच ही होते हैं--लेकिन असली बात बहाना नहीं होती, असली बात नेतृत्व होता है। लोग मुसीबत में हैं; नेता को मुसीबत से मतलब नहीं है, नेता को मतलब इस बात से है कि मुसीबत में जो लोग हैं वे उसके पीछे चल सकते हैं। इसलिए जो सुविधा में है, मौज में है, वह किसी के पीछे नहीं चलता। परेशानी आई कि आप डरे। आपका अकेला होना मुश्किल होने लगा; अपने पैरों पर भरोसा न रहा। तो आप किसी के पीछे चलते हैं। और जहां पीछे चलाने का यह रस कायम रहेगा वहां मुसीबतें निर्मित होती ही रहेंगी। क्योंकि मुसीबतें बिलकुल जरूरी हैं। अभी यह भारत-पाकिस्तान का युद्ध हुआ तो इंदिरा सबको पार कर गई। नेहरू भी थोड़े फीके पड़ गए। पड़ ही जाएंगे। जहां युद्ध है, लोग भयभीत हुए, कि भयभीत लोग भीड़ में इकट्ठे हो जाते हैं। युद्ध गया...।
इसलिए आप देखते हैं, जब युद्ध होता है तो लोग कहते हैं, देश में बड़ी एकता आ जाती है। एकता वगैरह कुछ नहीं आती। भयभीत लोग अकेले खड़े नहीं रह सकते; दूसरे का सहारा चाहिए। भीड़ में चारों तरफ घिर कर खड़े होते हैं, भरोसा आ जाता है--हम कोई अकेले नहीं हैं। इसलिए जब भी उपद्रव होता है, देश में एकता मालूम पड़ती है। जब भी उपद्रव हट जाता है, बिलकुल एकता समाप्त हो जाती है। अगर पूरे मुल्क पर खतरा हो तो फिर महाराष्ट्रियन और गुजराती में कोई झगड़ा नहीं है; फिर हिंदी-भाषी में और तमिल-भाषी में कोई झगड़ा नहीं है। दोनों डरे हुए हैं। अभी ये झगड़े काम के नहीं हैं; ये अलग कर देंगे वे। अभी इकट्ठे खड़े हो जाएंगे। शांति आ गई; झगड़े वापस लौट आएंगे।
अगर इस बात को हम ठीक से समझ लें तो नेतृत्व की अनिवार्य जरूरत है कि लोग अशांत हों, दुखी हों, गरीब हों, परेशान हों। वे बिलकुल खुशहाल हो जाएं तो नेतृत्व नष्ट हो जाएगा। अनुगमन तो करवाया जा सकता है बहुत तरकीबों से, लेकिन उनकी हानियां हैं।
और सब नेता अनुयायियों की बुद्धि को नुकसान पहुंचाने वाले होते हैं। क्योंकि जब भी कोई नेता बुरी तरह छा जाता है आपके भय और लोभ का शोषण करके तो वह आपकी चेतना को नुकसान पहुंचाता है। वह आपको सचेत नहीं करता; वह आपको बेहोश करता है। वह असल में आपसे यह कहता है कि फिक्र मत करो, तुम्हें करने की कोई जरूरत नहीं; तुम सब मुझ पर छोड़ दो, मैं कर लूंगा। और आप डरे हुए होते हैं, इसलिए लगता है कि ठीक है, कोई और सम्हाल ले सारी जिम्मेवारी तो अच्छा है। नेता जिम्मेवारी सम्हाल लेता है। कोई नेता जिम्मेवारी पूरी नहीं कर पाता; लेकिन सम्हाल लेता है। सम्हालने से वह बड़ा हो जाता है; उसके अहंकार की तृप्ति हो जाती है। लेकिन वह हानि पहुंचाता है। क्योंकि लोगों का चैतन्य बढ़ना चाहिए, घटना नहीं चाहिए। उनका दायित्व बढ़ना चाहिए, घटना नहीं चाहिए। उनका होश बढ़ना चाहिए, घटना नहीं चाहिए। और अपनी समस्याओं को खुद हल करने की हिम्मत बढ़नी चाहिए, कम नहीं होनी चाहिए।
इसलिए असली गुरु वह नहीं है जो आपकी समस्याएं अपने सिर पर ले लेता है। असली गुरु वह है जो आपकी समस्याएं जरा भी अपने सिर पर नहीं लेता, और आपको इस स्थिति में छोड़ता है कि आप इस योग्य बन जाएं कि अपनी समस्याएं हल कर लें। क्योंकि समस्याएं आप हल करेंगे तो ही आपका विकास है। कोई समस्या दूसरा हल कर देगा तो आपका कोई विकास नहीं है। दूसरे के हल के द्वारा समस्या भला हल हो जाए, आपकी हानि हो गई। आप एक विकास के अवसर से चूक गए। इसलिए जो नेता जिम्मेवारी ले लेते हैं, जो गुरु जिम्मेवारी ले लेते हैं, वे नुकसान पहुंचाते हैं।
लाओत्से कहता है, "और बिना हानि उठाए अनुगमन करता है।'
अगर कोई व्यक्ति अपने स्वभाव में लीन हो जाए तो लोग उसके पीछे चलते हैं, लेकिन उनकी कोई हानि नहीं होती। ऐसे व्यक्ति के पीछे चलने से उनको जरा भी हानि नहीं होती; उनको लाभ ही होता है।
लेकिन जब कोई नेता पीछे चलवाता है तब हानि होती है। स्वभाव को उपलब्ध व्यक्ति किसी को अनुयायी बनाने के लिए उत्सुक नहीं होता; कोई पीछे चले, इसमें भी उत्सुक नहीं होता। कोई उसकी माने, इसमें भी उत्सुक नहीं होता। स्वभाव को उपलब्ध व्यक्ति तो अपने आनंद में लीन होता है। उसके आनंद की हवा में कोई बह कर आ जाए, और उसकी सुगंध किसी को पकड़ ले, और उसके भीतर का संगीत किसी के हृदय में तान छेड़ दे, वह गौण बात है; उससे कोई लेना-देना नहीं है।
"और बिना हानि उठाए अनुगमन करता है; और स्वास्थ्य, शांति और व्यवस्था को उपलब्ध होता है।'
वे लोग जो पीछे चलते हैं, स्वभाव को उपलब्ध व्यक्ति के पीछे चलते हैं, वे स्वास्थ्य, शांति और व्यवस्था को उपलब्ध होते हैं। लेकिन कला यही है कि न तो वह स्वास्थ्य की चिंता करता है आपके, और न आपकी शांति की चिंता करता है, और न आपको व्यवस्था देता है।
लाओत्से की बात बड़ी कंट्राडिक्टरी है, बड़ी विरोधाभासी है। लाओत्से कहता है, व्यवस्थापकों ने जगत में अव्यवस्था पैदा कर रखी है। वे जो व्यवस्था करने में लगे हुए हैं कि सब व्यवस्थित कर देना है, उनके कारण अव्यवस्था खड़ी हो जाती है। क्योंकि उनकी व्यवस्था आरोपण होती है, और कोई भी अपने स्वभाव में नहीं रह पाता। वे इतना थोप देते हैं बाहर का ढांचा कि भीतर की आत्मा कुचल जाती है। वे व्यवस्था भी जमा देते हैं, लेकिन वह ऊपर-ऊपर होती है, जबरदस्ती होती है, परतंत्रता जैसी होती है। और ज्यादा देर नहीं टिक पाती; स्वभाव उसको तोड़ डालता है। और जब व्यवस्था स्वभाव से टकरा कर टूटती है तो अव्यवस्था आ जाती है। वास्तविक व्यवस्था वही है जो कि बिना किए, बिना थोपे आती हो।
आप यहां चुप बैठे हैं। कोई आपसे कह नहीं रहा है कि आप चुप बैठें; कोई यहां डंडा लेकर नहीं खड़ा है कि आप शांत रहें। इधर मैं देखता हूं, धार्मिक सभाओं में महात्मागणों को हर दो-चार वचन के बाद बोलना पड़ता है, अब शांत रहिए, अब चुप हो जाइए। और अगर यह नहीं हो पाता तो बोलो सिया रामचंद्र की जय! तो एक क्षण को लोग जय बोल कर कम से कम, उतना उपद्रव मच जाता है, तो थोड़ी देर को शांति हो जाती है। आश्चर्यजनक है! और धर्मगुरुओं को यह नहीं दिखाई पड़ता कि लोगों की अशांति यह कह रही है कि आप बंद करो, मत बोलो; कोई सुनने को राजी नहीं।
व्यवस्था बिठाने की जरूरत क्या है? जहां भी लोग स्वभाव का कोई स्वर सुनते हैं, चुप हो जाते हैं। चुप न होते हों तो बोलने वाले को चुप हो जाना चाहिए। सीधी बात है। व्यवस्था बिठाने का कोई सवाल नहीं है। आप चुप हैं, यह चुप्पी में एक व्यवस्था है जो व्यवस्था आपसे आ रही है। उस व्यवस्था को कोई ला नहीं रहा है। अगर लाई जाए तो आपके भीतर बेचैनी शुरू हो जाएगी। आप बैठे भी रहेंगे तो करवट बदलते रहेंगे, क्योंकि लाई गई व्यवस्था...आपके भीतर से तो कुछ और हो रहा था; ऊपर से कुछ और करना पड़ रहा है। आप थक जाएंगे; आपकी जीवन-ऊर्जा को कुंठा मालूम पड़ेगी, दमन मालूम पड़ेगा।
आप देखते हैं, स्कूल से बच्चे छूटते हैं तो किस तरह छूटते हैं! जैसे कारागृह से छूटे हों। कितने प्रसन्न होते हैं! उनकी प्रसन्नता में ही उनकी स्लेट टूट जाती है, किताबें फट जाती हैं, बस्ता फेंक देते हैं। एकदम आनंदित हो जाते हैं। लेकिन हम कर क्या रहे हैं उनके साथ? छह घंटे जबरदस्ती व्यवस्था बिठाए हुए हैं। डंडे के बल पर व्यवस्था बिठाए हुए हैं। इसलिए अगर आज सारी दुनिया में विश्वविद्यालय जलाए जा रहे हैं, कालेजों में आग लगाई जा रही है, तो आप यह मत समझना कि सिर्फ बच्चे ही जिम्मेवार हैं। यह तो होने ही वाला था। क्योंकि जो आप कर रहे हैं बच्चों के साथ वह जबरदस्ती है। उस जबरदस्ती का प्रतिकार होने वाला था।
पहले नहीं हुआ, क्योंकि बहुत थोड़े स्कूल थे, बहुत थोड़े कालेज थे। बड़ा समूह शिक्षित नहीं किया जा रहा था। और जो लोग शिक्षा लेने जाते थे वे उन घरों के थे जिनके पास साधन-सामग्री थी; पैसा, सुविधा, जमीन-जायदाद थी। उन घरों के बच्चे विश्वविद्यालयों और स्कूलों में पढ़ रहे थे। जिनके पास सुविधा है वे बगावती नहीं होते; क्योंकि बगावत में उनका नुकसान होगा, कुछ खोएगा। लेकिन जिनके पास कुछ नहीं है वे बगावती हो जाते हैं। उनसे आप कुछ छीन नहीं सकते; उनका कुछ भी नष्ट नहीं होता। और जिनके पास है उनका नुकसान होता है; और जिनके पास नहीं है उनका कोई नुकसान नहीं होता।
माक्र्स ने कहा है कि दुनिया के मजदूरो, इकट्ठे हो जाओ! क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए सिवाय जंजीरों के और कुछ भी नहीं है। तो डर क्या है?
तो सारी दुनिया में सार्वभौम शिक्षा! सब को शिक्षित होना चाहिए। स्वभावतः, विश्वविद्यालयों और कालेजों, स्कूलों में वे सारे बच्चे इकट्ठे हो गए हैं जिनके पास कुछ नहीं है। और उनको आप छह घंटे जबरदस्ती बिठाए हुए हैं, और उनके पास खोने को कुछ नहीं है। और छह घंटे की सजा, और यह बीस-पच्चीस साल तक सजा चलती है। इसका उपद्रव है। इस जबरदस्त व्यवस्था में से अव्यवस्था पैदा हो रही है। कोई विश्वविद्यालय बिना जले बच नहीं सकता। इस सदी के पूरे होते-होते ये बच्चे सारे विश्वविद्यालय, सब कालेजों को मिट्टी में मिला देंगे। और आपके पास कुछ उपाय नहीं। क्योंकि आप जो भी सोचते हैं वह गलत सोचते हैं।
उपाय एक ही है कि कालेज और विश्वविद्यालय से व्यवस्था हट जाए और सहज व्यवस्था आए। वह तो हमारी संभावना के बाहर है। हम सोच ही नहीं सकते कि सहज व्यवस्था कैसे आ सकती है। क्योंकि उसका तो अर्थ होगा कि सारा ढांचा बदले जीवन का। क्योंकि शिक्षक सहज व्यवस्था ला सकता है, अगर वह सच में शिक्षक हो। लेकिन सच में शिक्षक कौन है? सौ में एक शिक्षक भी सच में नहीं है। निन्यानबे नौकरी करने गए हैं, जैसे वे कोई और नौकरी करने गए होते। और सच तो यह है कि आखिर में वे शिक्षक की नौकरी करने जाते हैं जब कोई नौकरी नहीं मिलती। पहले वे कोशिश करते हैं कि सब-इंस्पेक्टर हो जाएं, कि किसी दफ्तर में मैनेजर हो जाएं, कि हेड क्लर्क हो जाएं। जब कुछ भी नहीं हो पाते तब मजबूरी में वे शिक्षक हो जाते हैं। यह शिक्षक जो सब-इंस्पेक्टर होने गया था, यह अव्यवस्था पैदा करवाएगा। क्योंकि यह व्यवस्था लाने की इतनी चेष्टा करेगा कि सबके भीतर की ऊर्जा को दबा देगा। वह दबी हुई ऊर्जा विस्फोट बन जाएगी।
लाओत्से कहता है, एक और भी व्यवस्था है--स्वभाव की। और जब कोई ऐसे व्यक्ति का अनुगमन करता है, लाओत्से कहता है, अगर संसार ऐसे व्यक्ति के अनुगमन में लीन हो जाए तो स्वास्थ्य, शांति और व्यवस्था सहज ही उपलब्ध हो जाती है।
स्वास्थ्य क्या है? अपने साथ एक लयबद्धता, अपने साथ एक गहरी मैत्री, अपने भीतर कहीं भी कोई अराजकता न हो; अपने भीतर कोई कलह न हो; एक राजीपन कि सब ठीक है; एक भाव कि सब ठीक है; ऐसा स्वर-स्वर में, श्वास-श्वास में एक गूंज, कि कुछ भी गलत नहीं है। पर यह तभी होता है जब कोई स्वभाव में लीन होने लगता है। और अगर आप ऐसे व्यक्ति के पीछे चल पड़े जो स्वभाव में डूबा हुआ है तो आप ज्यादा दिन बच न पाएंगे। यह स्वभाव में डूबना संक्रामक है।
इस संदर्भ में आपको एक शब्द का अर्थ समझा दूं। हमारे पास एक बहुत मीठा शब्द है, सत्संग। उसको साधु-संन्यासी बुरी तरह खराब कर दिए हैं। सत्संग का मतलब यह नहीं होता कि वहां जाकर गुरु कुछ समझा रहा है और आप कुछ समझ रहे हैं। सत्संग का सिर्फ मतलब होता है कि गुरु है और आप हैं; सिर्फ गुरु मौजूद है और आप उसके पास मौजूद हैं। यह पास होने का नाम सत्संग है; सिर्फ पास होने का नाम, निकट होने का नाम, समीपता का नाम। सत्संग का अर्थ कोई बौद्धिक शिक्षा नहीं है; सत्संग का अर्थ एक आत्मिक सामीप्य है। कोई जो अपने स्वभाव को उपलब्ध हुआ है, उसके पास बैठ कर आपके भीतर भी वही धुन बजने लगेगी जो उसके भीतर बज रही है।
लेकिन बड़ा अदभुत है। आप गुरु के पास जाएं तो गुरु--गुरु खुद, अगर चुप बैठे तो आपके सत्संग में हो जाएगा--वह चुप बैठ नहीं सकता। कुछ बोलना चाहिए उसे। क्योंकि बोल कर वह आपसे बचता है। आपको पता नहीं कि भाषा एक बचाव की तरकीब है। जिस व्यक्ति का सत्संग आप नहीं करना चाहते उससे आप बातचीत शुरू कर देते हैं। क्योंकि बातचीत से एक दीवाल बन जाती है बीच में। अगर पति पत्नी का सत्संग नहीं करना चाहता तो वह चर्चा शुरू कर देगा; वह कुछ भी बात करेगा। आप सबको अनुभव है कि आप बात करेंगे कुछ भी, ताकि निकटता का पता न चले। कुछ भी बात करो। प्रेमी चुप बैठ सकते हैं, पति-पत्नी पास में चुप नहीं बैठ सकते। प्रेमी अक्सर चुप बैठ जाते हैं। बात करने का मन नहीं होता, क्योंकि निकट होने का मन होता है। जब निकट होने का मन होता है तो बात करने का मन नहीं होता। और जब निकट से बचने का मन होता है तो आदमी बात करता है। बातचीत एक सुरक्षा है, एक तरकीब है, जिससे हम एक पर्दा खड़ा कर लेते हैं और ओट में हो जाते हैं।
सत्संग का अर्थ है ऐसे व्यक्ति के पास चले जाना जो स्वभाव को उपलब्ध है। और उसके स्वभाव की तरंगें आप को भी छुएंगी, और शायद उसके मौन में आप भी मौन हो जाएंगे। वह जिस आनंद में नहा रहा है, आप पर भी कुछ बूंदें पड़ जाएंगी। वह जहां खड़ा है वहां की थोड़ी सी झलक आपको भी मिल जाएगी।
ऐसा ही दूसरा शब्द है हमारे पास, दर्शन। इस दर्शन के लिए दुनिया की किसी भाषा में अनुवाद करना आसान नहीं है। दुनिया की किसी भाषा में ऐसा शब्द नहीं है। सत्संग तो पास होने का नाम है। पर अगर, जो व्यक्ति स्वभाव को उपलब्ध हुआ है, उसकी दृष्टि भी आप पर पड़ जाए या आपकी दृष्टि उस पर पड़ जाए तो उतने में भी एक संबंध स्थापित हो जाता है; एक क्षण को एक धारा, एक लहर आपको बहा ले जाती है।
तो पश्चिम के लोग आते हैं, वे नहीं समझ पाते। वे नहीं समझ पाते कि किसी गुरु के दर्शन को जाने का क्या मतलब? जब तक कि बातचीत न हो, इंटरव्यू न हो, कुछ चर्चा न हो, कुछ प्रश्न-उत्तर न हो, तो दर्शन का क्या मतलब? सिर्फ देखना? तो देख कर क्या फायदा? उनका कहना ठीक है। क्योंकि साधारणतः देख कर क्या फायदा होगा? तो तस्वीर ही देख सकते हैं हम।
लेकिन इस मुल्क को पता है कि दर्शन का बड़ा अदभुत फायदा है। लेकिन वह फायदा तभी है जब दूसरा व्यक्ति स्वभाव को उपलब्ध हो। वह ऐसे ही है जैसे कि आप एक पहाड़ के पास जाएं और एक गहन खाई में झांक कर देखें। तो खाई में झांकते वक्त आपको पता है, जो आप कंप जाते हैं, वह कंपन किस बात से आता है? अभी खाई में आप गिर नहीं गए हैं; सिर्फ झांका है। लेकिन खाई की गहराई आपके भीतर की गहराई को जन्मा देती है। एक प्रतिफलन हो जाता है; आप कंप जाते हैं, उस गहराई से डर जाते हैं। जब कोई स्वभाव को उपलब्ध होता है तो उसके पास जाना एक मानवीय खाई के पास जाना है; एक चैतन्य की खाई--जहां एक अंतहीन गङ्ढ है, एक शून्य है। उसका एक क्षण भी दर्शन, और आप फिर वही नहीं होंगे जो आप थे।
लेकिन इस सब की कला थी, कैसे सत्संग करें और कैसे दर्शन करें। अब तो जाते भी हैं आप गुरु के पास तो पैर छुआ और भागे। शायद आपने ठीक से देखा ही नहीं; एक कर्तव्य था, वह निभाया, पूरा किया। शायद आपने झांका ही नहीं। थोड़ी देर बैठ जाएं और सिर्फ देखते रहें।
और ध्यान रहे, यह गुरु की परीक्षा है आपके लिए कि जिस गुरु के पास सिर्फ उसको देखने से आप शांत होने लगें, समझना कि वही आपके लिए गुरु है। जिस गुरु के पास बैठ कर आप अचानक ध्यान में उतर जाएं, समझना कि वही आपके लिए गुरु है। वह क्या कहता है, यह सवाल नहीं है। वह क्या है? और उस क्या है की गंध आपको मिल सकती है अगर आप थोड़े से जाकर शांति से बैठ जाएं।
तो गुरु की तलाश का उपाय ही एक है कि उसके दर्शन से ही आपको कुछ होना चाहिए, उसकी मौजूदगी से आपको कुछ होना चाहिए। इसके पहले कि वह बोले, और उसकी खबर आप में पहुंच जानी चाहिए। इसके पहले कि वह हिले, और आपके भीतर कुछ हिल जाना चाहिए।
लाओत्से कहता है, "बिना हानि उठाए संसार अनुगमन करता है; स्वास्थ्य, शांति और व्यवस्था को उपलब्ध होता है। अच्छी वस्तुएं खाने को दो, राही ठहर जाता है, मेहमान रुक जाता है। लेकिन ताओ का स्वाद बिलकुल सादा है।'
इसलिए ताओ के पास शायद ही कभी कोई मेहमान रुकता है। स्वाद बिलकुल सादा है। लाओत्से कहता है कि ताओ में न तो कोई तर्क है, न कोई तीव्र उत्तेजना है, न कोई भय की प्रतारणा है, न कोई लोभ का आकर्षण है। ताओ कहता नहीं कि तुम अगर पुण्य करो, दान करो, तो स्वर्ग पाओगे। ताओ कहता नहीं कि तुमने अगर पाप किया, चोरी की, बेईमानी की, तो नर्क में सड़ोगे। ताओ तुम्हें डराता नहीं और ताओ तुम्हें प्रलोभित भी नहीं करता। ताओ तुम्हें कोई आश्वासन नहीं देता कि भविष्य में ऐसा होगा अगर तुमने माना, और नहीं माना तो ऐसा होगा। ताओ के पास कोई लोभ और भय की व्यवस्था नहीं है। इसलिए उसका स्वाद बिलकुल सादा है।
आदमी धार्मिक बनता है--अक्सर, सौ में निन्यानबे मौके पर--भय या लोभ के कारण। या तो डरता है तो ईश्वर का सहारा मांगता है और या फिर लोभ सताता है तो ईश्वर का सहारा मांगता है। हमारा ईश्वर लोभ और भय का ही फल है। जब भी तुम मंदिर में गए हो तो पूछना अपने से कि किसलिए आए हो। तो तुम या तो भय को सरकता हुआ पाओगे या लोभ को उठा हुआ पाओगे। और अगर तुम दो में से एक भी पाओ तो मंदिर जानना कि व्यर्थ है जाना; घर लौट आना वापस। अगर मंदिर जाते वक्त न तो भय की कोई लहर भीतर हो, न लोभ की कोई लहर भीतर हो, तो ही समझना कि मंदिर में तुम्हारा प्रवेश होगा।
मंदिर नाम के मकान में प्रवेश करना तो बहुत आसान है। पशु-पक्षी, मक्खियां भी काफी अभी वर्षा में प्रवेश कर गई हैं। उसके लिए प्रवेश करने का कोई सवाल नहीं है। मकान में तो, मंदिर वाले मकान में तुम जा सकते हो, आ सकते हो। लेकिन मंदिर मकान नहीं है। मंदिर एक घटना है, मंदिर एक अनुभव है। और उस अनुभव में तुम तभी प्रवेश कर सकोगे जब तुम्हारे भीतर ये दो चीजें न हों। लेकिन ये दो ही चीजें अगर हट जाएं तो जमीन पर धार्मिक आदमी खोजना मुश्किल है।
रसेल ने कहा है कि दुनिया में अगर सुख आ जाए तब मैं समझूं कि कोई धार्मिक हो। ठीक कहता है। धार्मिक आदमी जैसे हैं, उनको सोचने से रसेल की बात करीब-करीब ठीक लगती है। तो वह कहता है, दुनिया में दुख है इसलिए लोग धार्मिक हैं। लोग परेशान हैं इसलिए लोग धार्मिक हैं। लोग सुखी हो जाएं तो फिर कोई धार्मिक हो! उसकी बात में थोड़ी सच्चाई मालूम पड़ती है। क्योंकि सुख में आप भी स्मरण नहीं करते; दुख में स्मरण करते हैं। जितना दुख बढ़ता है उतने आप आस्तिक होने लगते हैं। और जितना सुख बढ़ता है उतने नास्तिक होने लगते हैं।
यह दुनिया अगर नास्तिक हो गई है तो इसमें बहुत बड़ा कारण तो यही है कि दुनिया में विज्ञान ने बहुत से दुख कम कर दिए हैं। तो डर के मौके बहुत कम हो गए हैं। अगर पीछे लौटें ऋग्वेद के समय में तो ऋग्वेद का जो रूप है उससे लगता है हर चीज डरा रही है। आकाश में बादल गरजने लगें तो डर लगेगा, बिजली चमकने लगी तो डर लगेगा। हर चीज डराने वाली है। क्योंकि किसी चीज का कुछ वश नहीं है आदमी का। बाढ़ आ जाए तो डर लगेगा; वर्षा न हो तो डर लगेगा; ज्यादा हो जाए तो डर लगेगा; रात का अंधेरा भी डराएगा। सभी चीजें डर पैदा करेंगी।
अभी आने वाले कुछ दिनों में सूर्य का ग्रहण लगने वाला है। तो अफ्रीका की सरकारों को--क्योंकि अफ्रीका में पूरा ग्रहण रहेगा, ऐसा हजारों वर्ष के बाद होता है--तो अफ्रीकी सरकारों को खबर करनी पड़ी है आदिवासियों के लिए, जगह-जगह संदेशवाहक भेजने पड़े हैं कि तुम घबड़ाना मत, दुनिया का अंत नहीं हो रहा है। नहीं तो जंगलों में आदिवासी हैं अफ्रीका के, वे देख कर कि सूरज दिन में अचानक समाप्त हो गया, घबड़ाहट से ही मर जाएंगे; वे समझेंगे कि दुनिया का अंत आ गया। और उनकी लोककथाओं में ऐसा है कि जब अंत आएगा तो सूरज जल्दी दोपहर में एकदम से बुझ जाएगा; जब बुझ जाएगा सूरज तो अंत आ जाएगा। तो कहीं वे घबड़ा न जाएं, कहीं कोई आत्महत्या न कर लें, इसलिए अफ्रीकी सरकार ने जगह-जगह सूचनाएं भिजवाईं कि तुम डरना मत, यह सिर्फ ग्रहण है।
वह अफ्रीका में अब भी आदमी तीन-चार हजार साल पुराना है। भय था हर चीज का। भय था तो हर भय से भगवान याद आता था। भय कम होता चला गया। न अब जंगली जानवर आप पर हमला कर रहा है; चारों तरफ से आप सुरक्षित मालूम पड़ते हैं; सीमेंट-कांक्रीट के मकान में कहीं कुछ भय नहीं मालूम पड़ता। सब रोशनी हाथ में मालूम पड़ती है। भगवान का डर कम हो गया है; भगवान का स्मरण कम हो गया है।
लाओत्से न तो भय देता है, न लोभ देता है। इसलिए उसका स्वाद बड़ा सादा है। वह तो सिर्फ सहज होने को कहता है। क्योंकि सहज होना ही एकमात्र होने का ढंग है। बाकी सारे उपद्रव हैं।
"अच्छी वस्तुएं खाने को दो, राही ठहर जाता है। लेकिन ताओ का स्वाद बिलकुल सादा है।'
धर्मग्रंथ बड़ी अच्छी-अच्छी बातें खाने को देते हैं। वे कहते हैं, स्वर्ग में क्या-क्या सुख होंगे; उसका विस्तीर्ण ब्योरा बताते हैं। कभी-कभी तो ऐसा ब्योरा बताते हैं जो बाद में बहुत बेहूदा मालूम पड़ता है।
एक धर्मग्रंथ ऐसे समय में रचा गया, जब उस मुल्क में होमोसेक्सुअलिटी, समलैंगिकता बहुत तेजी पर थी। तो पुरुष लड़कों को भी प्रेम करते थे; और ज्यादा दीवाने थे जवान लड़कों के, बजाय जवान लड़कियों के। यह धर्मग्रंथ उस समय रचा गया जब उस मुल्क में इस तरह की विकृत मनोदशा थी। तो स्वर्ग में इसका भी इंतजाम किया है कि वहां छोकरे भी उपलब्ध होंगे। वहां छोकरियां तो उपलब्ध होंगी ही, वहां सुंदर छोकरे भी उपलब्ध होंगे।
आदमी का मन है! तो सारा स्वाद स्थापित किया है स्वर्ग में, और सारा भय स्थापित किया है नरक में। इसलिए सभी समाजों के नरक अलग-अलग हैं, क्योंकि सभी के भय अलग-अलग हैं। सभी के स्वर्ग भी अलग-अलग हैं, क्योंकि सभी के सुख भी अलग-अलग हैं। जैसे तिब्बती स्वर्ग है तो वहां सूरज प्रगाढ़ होकर चमकता है; क्योंकि तिब्बत परेशान है सर्दी से। नरक में बर्फ जमी है; स्वर्ग में सूरज चमकता है। हमारे नरक में हम बर्फ का इंतजाम नहीं कर सकते, नहीं तो ऋषि-मुनि बहुत आनंद लेंगे बर्फ का वहां। नरक में हम आग जलाते हैं, क्योंकि हम आग से परेशान हैं। स्वर्ग में शीतल हवाएं हैं, वातानुकूलित है स्वर्ग। वह जो हमारा दुख है उसको हम नरक में डाल देते हैं; जो हमारा सुख है उसे हम स्वर्ग में डाल देते हैं। तिब्बतियों के स्वर्ग में बर्फ बिलकुल नहीं है; धूप ही धूप है, खुला आकाश है। और हमारे स्वर्ग में हमको बर्फ का थोड़ा इंतजाम करना ही पड़े।
लाओत्से कहता है, लेकिन ताओ बिलकुल सादा है। हम न कोई अतीत, न कोई भविष्य देते; न कोई सुख, न दुख का आश्वासन देते। हम इतना ही कहते हैं कि तुम जो हो अगर तुम वही हो जाओ तो तुम्हारे जीवन की पूर्णता है और तुम्हारे जीवन का पूरा अर्थ है। और तुम्हारे जीवन में अकारण तुम जो दुख पैदा कर लेते हो, वे नहीं होंगे, और सहज ही जो सुख प्रवाहित होना चाहिए वह प्रवाहित हो जाएगा।
आदमी को छोड़ कर कोई भी स्वभाव से च्युत नहीं होता। सारी प्रकृति स्वभाव में जीती है। लेकिन उसका स्वभाव में जीना एक मजबूरी है, क्योंकि प्रकृति के पास इतना बोध नहीं है कि वह स्वभाव के बाहर जा सके। सिर्फ आदमी स्वभाव के बाहर जा सकता है। लेकिन यह एक बड़ी संभावना भी है, एक बड़ा खतरा भी। बड़ा खतरा है कि हम स्वभाव के बाहर जाकर बहुत दुख पाते हैं; लेकिन एक बड़ी संभावना भी कि हम वापस लौट सकते हैं।
निश्चित ही, हम जितना दुख पाते हैं उतना कोई पशु नहीं पाता। हम दुख के बिलकुल आखिरी नरक तक जा सकते हैं; कोई पशु नहीं जा सकता। लेकिन हम लौट भी सकते हैं; और लौट कर हम जो आनंद पा सकते हैं वह भी कोई पशु नहीं पा सकता। पशु सुख पा सकते हैं, लेकिन उनका सुख का बोध भी नहीं है। वे दुख नहीं पा सकते, क्योंकि वे स्वभाव से विपरीत नहीं जा सकते। हम स्वभाव से विपरीत जाकर दुख की आखिरी पराकाष्ठा पा सकते हैं, और वापस लौट कर आनंद की परम अनुभूति भी पा सकते हैं। ताओ तो सिर्फ नियम को स्पष्ट कर देता है। वह यह भी नहीं कहता कि ऐसा करो ही। वह इतना ही कहता है: ऐसा है।
बुद्ध की वाणी में अक्सर ऐसे वचन हैं। बुद्ध से कोई पूछता है कि हम क्या करें? तो बुद्ध नहीं कहते कि क्या करो; बुद्ध कहते हैं, मैं तो इतना ही बता देता हूं कि ऐसा करने से ऐसा होगा और ऐसा करने से ऐसा होगा; मैं यह नहीं कहता कि तुम क्या करो। अगर तुम वासना में हो तो दुख होगा; अगर तुम निर्वासना में हो तो सुख होगा। मैं नहीं कहता कि तुम निर्वासना करो या वासना करो; मैं तो सिर्फ नियम कहता हूं। बुद्ध ने भी इसलिए परमात्मा की बात नहीं की; स्वर्ग-नरक की बात नहीं की; सिर्फ धर्म की बात की कि मैं सिर्फ धर्म कहता हूं कि ऐसा-ऐसा कारण मौजूद हो जाए तो दुख होता है; ऐसा-ऐसा कारण मौजूद हो जाए तो सुख होता है। अब तुम जानो। मैं बीमारी कहता हूं, इलाज कहता हूं। फिर तुम्हें बीमार रहना है तो तुम बीमार रहो; और तुम्हें इलाज करना है तो तुम इलाज करो। न तो मैं निंदा करता हूं कि तुम बीमार रहो तो तुम्हारी निंदा। वह तुम्हारी स्वतंत्रता है। न मैं प्रशंसा करता हूं कि तुम स्वस्थ हो जाओ तो तुम्हारा कोई समादर हो। वह भी तुम्हारी स्वतंत्रता।
ताओ भी कोई किसी तरह के वायदे नहीं करता है।
"ताओ का स्वाद बिलकुल सादा है। देखें, और यह अदृश्य है। सुनें, और यह अश्राव्य है। पर प्रयोग करने पर इसकी आपूर्ति कभी चुकती नहीं।'
स्वाद है सादा, इतना सादा कि कहना चाहिए स्वाद है ही नहीं। सादे का अर्थ ही यह होता है कि स्वाद का पता न चले। जब तक पता चलता है स्वाद का तब तक उसमें कुछ न कुछ गैर-सादगी है। क्योंकि चोट का ही पता चलता है, उत्तेजना का पता चलता है। इसलिए जिनको स्वाद लेना है वे सब तरह की उत्तेजना पैदा करते हैं; भोजन में मिर्च डालेंगे, कुछ करेंगे जिससे उत्तेजना पैदा हो। उत्तेजना हो तो स्वाद का पता चलता है; उत्तेजना न हो तो स्वाद का कोई पता नहीं चलता। अगर स्वाद बिलकुल सादा है तो उसका पता ही नहीं चलेगा।
"देखें, और ताओ अदृश्य है।'
आंखों से उसे देख न पाएंगे; कहीं भी दिखाई न पड़ेगा। और सब कुछ दिखाई पड़ जाएगा, सिर्फ धर्म दिखाई नहीं पड़ेगा। क्योंकि वह सबके भीतर का छिपा हुआ नियम है। सब उसी से चलता है, लेकिन वह अप्रकट। ठीक वैसे ही जैसे वृक्ष दिखाई पड़ता है और जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं। मेरा हाथ दिखाई पड़ता है, मेरी आंखें दिखाई पड़ती हैं; लेकिन मैं दिखाई नहीं पड़ता। वह जितना मूल है उतना ही गहन में छिपा होता है, और जितना अनिवार्य है उतना ही ऊपर नहीं होता। सभी महत्वपूर्ण चीजें गहन अंधकार में छिपी होती हैं। और जीवन के सब रहस्य दबे होते हैं गहरे में, गर्भ में; प्रकट और ऊपर नहीं होते। प्रकट तो ऊपर वही होता है जो शरीर है, आत्मा नहीं। प्रकट तो वही होता है जो अभिव्यक्ति है; प्रकट तो वही होता है जो आकार है; प्रकट तो वही होता है जो परिधि है। केंद्र तो सदा अप्रकट होता है।
"देखें, और वह अदृश्य है। सुनें, और वह अश्राव्य।'
सुनेंगे तो सुनाई नहीं पड़ेगा। देखेंगे तो दिखाई नहीं पड़ेगा। छुएंगे तो छू न सकेंगे। स्वाद लेंगे तो उसका कोई स्वाद नहीं।
"लेकिन प्रयोग करने पर उसकी आपूर्ति कभी चुकती नहीं।'
लेकिन जो उसमें डूबने लगता है, फिर वह अनंत है, फिर उसकी पूर्ति कभी चुकती नहीं। फिर उसका कितना ही भोग करें, उसका कोई अंत नहीं है। फिर ऐसा कोई क्षण नहीं आता जब कहें कि वह चुक गया। फिर वह कभी भी चुकता नहीं। इसे हम दो तरह से समझ लें। एक तो वह इसलिए स्वाद उसका अनुभव में नहीं आता, क्योंकि उसमें कोई उत्तेजना नहीं है। और वह इसलिए दिखाई नहीं पड़ता कि वह जीवन का आंतरिक केंद्र है, परिधि नहीं है। और वह इसलिए सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि सुनाई पड़ने में भी आघात की जरूरत है। सब शब्द आघात से पैदा होते हैं। शब्द मात्र में थोड़ा आघात तो होगा ही। ध्वनि पैदा होगी तो दो चीजें टकराएंगी तभी पैदा होगी। लेकिन उससे दूसरा कोई है ही नहीं; वह अकेला ही है। अस्तित्व अकेला है। वह किससे टकराए जिससे आघात पैदा हो?
इसलिए हमने अपने मुल्क में उस स्थिति को अनाहत नाद कहा है। अनाहत नाद का अर्थ है कि बिना आघात के, बिना आहत जो ध्वनि है, उसका जब आवाज सुनाई पड़ना शुरू हो जाता है। ये सब शब्द काव्य हैं; वह सुनाई नहीं पड़ता कभी भी। लेकिन भाषा की मजबूरी है। तो वह जब सुनाई पड़ना शुरू हो जाता है जो कि सुना नहीं जाता, और जब वह दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है जो कि दिखाई नहीं पड़ता, और जब उसका स्वाद अनुभव में आने लगता है जिसका कोई स्वाद नहीं है, तब व्यक्ति स्वभाव को उपलब्ध हुआ। क्या करना होगा?
आंखों का उपयोग करेंगे तो उससे संबंध नहीं जुड़ता। इसलिए आंखों का उपयोग छोड़ दें। जब उसकी तलाश में हों तो आंखों का उपयोग न करें। पर हम आंखों का उपयोग करते हैं। जब आंख खोलते हैं तब तो करते ही हैं, जब आंख बंद करते हैं तब भी जारी रहता है उपयोग। हम कुछ न कुछ देखते ही रहते हैं। आंख बंद करके भी देखना बंद नहीं होता; सपने देखते रहते हैं। आंख बंद किए, और कुछ न कुछ तैरने लगता है। वह जो बाहर की दुनिया ने आघात छोड़े हैं भीतर, चित्र छोड़े हैं, वे तैरने लगते हैं। कल्पना का जाल शुरू हो जाता है; पर्दे पर सब चलने लगता है। देखना बंद नहीं होता। सुनना भी बंद कर देते हैं, बाहर की आवाज भी सुनाई न पड़े, तो भीतर की आवाजें जो हमने इकट्ठी कर ली हैं जन्मों-जन्मों में, वे आवाजें गूंजने लगती हैं। भीतर का कोलाहल है। लेकिन अगर उस आंतरिक, आत्यंतिक केंद्र से संबंध स्थापित करना हो तो आंखें बिलकुल बंद हो जानी चाहिए। पलकें खुली रहें या बंद, यह सवाल नहीं है; लेकिन देखने की प्रक्रिया बंद हो जानी चाहिए। कान खुले रहें या बंद, यह सवाल नहीं है; लेकिन कोलाहल बिलकुल बंद हो जाना चाहिए।
जब इंद्रियों के सभी हलन-चलन बंद हो जाते हैं तो उस आंतरिक केंद्र की प्रतीति शुरू होती है; उसका स्वाद--या उसका दर्शन या उसका श्रवण, कुछ भी कहें--उससे हमारा पहला संबंध बनना शुरू होता है। और उससे जिसका संबंध बन गया वह अनंत खजाने का मालिक हो गया। फिर उसकी आपूर्ति कभी चुकती नहीं; फिर आप उसको चुका नहीं सकते।
इस जगत में सभी चीजें चुक जाती हैं। बड़े से बड़े सम्राट का खजाना भी सीमित है। बड़े से बड़े ज्ञानी की समझ भी सीमित है। बड़े से बड़े शक्तिशाली पुरुष की शक्ति भी सीमित है। इस जगत में हम कुछ भी पा लें, वह चुक ही जाएगा। इस जगत में न चुकने वाला कुछ भी नहीं है। लेकिन भीतर के, ताओ के, धर्म के जगत में--अभिव्यक्ति को छोड़ दें, केंद्र के जगत में; परिधि से हट जाएं, मूल के जगत में--सभी कुछ अनंत है; फिर उसे चुकाया नहीं जा सकता। उस आनंद को समाप्त नहीं किया जा सकता। फिर ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जहां हम कह सकें कि जो पाया था वह चुक गया। अनंत में हमारा प्रवेश है, अपने ही स्वभाव में डूबते अनंत से हमारा संबंध जुड़ जाता है।
यह भी कहना ठीक नहीं कि संबंध जुड़ जाता है; क्योंकि हम उससे जुड़े ही हुए हैं। पर हमारा ध्यान उस तरफ नहीं है। सारा उपद्रव एक ही बात में सीमित है कि हमारा ध्यान उस तरफ नहीं है जहां हमारा खजाना है। हमारा ध्यान उस तरफ है जहां हमारा खजाना नहीं है। तो हम चांद पर जाने की सोचते हैं, मंगल पर उतरने की सोचते हैं; अपने पर जाने की बिलकुल नहीं सोचते, अपने में उतरने की कभी भी नहीं सोचते। हमें खयाल है कि वह तो हम हैं ही। वहीं हमारी गहरी से गहरी भ्रांति है। तो हम भटकते हैं सब तरफ।
मैंने सुना है कि एक आदमी पहली दफा शिकार के लिए जंगल में जा रहा था। पहली दफा जा रहा था तो बहुत डरा हुआ भी था। सब इंतजाम कर रहा था। तो वह एक दुकान पर गया था जहां शिकार का सब सामान मिलता था। तो उसने सब चीजें खरीद लीं; खास वेश-भूषा, जूते, और भी जो इंतजाम शिकार के लिए जरूरी था वह सब खरीद लिया। उसने एक कंपास भी खरीदा; कहीं भटक जाए घने जंगल में तो यात्रा का बोध हो सके, दिशा का पता चल सके, कहां है, कहां से आ रहा है। जब उसने कंपास का डब्बा खोला तो वह जरा सोच में पड़ गया। और सब चीजें तो ठीक थीं, एक चीज उसकी समझ में बिलकुल नहीं आती थी। कंपास में एक छोटा सा आईना भी रखा था। तो उसने दुकानदार को पूछा कि और सब तो ठीक है, लेकिन कंपास में आईने की क्या जरूरत? तो उस दुकानदार ने कहा कि इसमें देखने से आपको पता चल जाएगा कि कौन खो गया है। और तो सब दिशा वगैरह तो ठीक है, लेकिन इसका भी तो पता होना चाहिए कौन खो गया है। नहीं तो दिशा की जानकारी क्या करेगी?
वह शायद मजाक ही रही हो, पर गहरी मजाक है। आप भी खो गए हैं। और अक्सर आप पूछते हैं: दिशा, जीवन का लक्ष्य, उद्देश्य क्या है? मेरे पास लोग आते हैं, यह सवाल अक्सर लेकर आते हैं कि जीवन का उद्देश्य क्या है? लक्ष्य क्या है? हम कहां जा रहे हैं? कहां जाना चाहिए?
यह सब फिजूल बकवास है। पहले आईने में देखना चाहिए, कौन खो गया है? कहां जाना है, क्या होना है, यह तो पीछे की बात है, इसका तो पता चल जाएगा। किसको जाना है? अपना ही पता नहीं है और जीवन के लक्ष्य की चिंता होती है। मैं कौन हूं, इसका भी कोई बोध नहीं है। मैं हूं भी या नहीं, इसका भी कोई अनुभव नहीं है।
ताओ उस मूल की तरफ यात्रा है जहां मैं उससे परिचित हो जाऊं जो मैं हूं। उसके लिए जरूरी है कि मैं बाहर से संबंध बनाने के जितने मैंने उपाय किए हैं, जितने सेतु निर्मित किए हैं, जितने द्वार निर्मित किए हैं दूसरे से संबंधित होने के, वे सारे द्वार बंद कर दूं, ताकि मेरी ऊर्जा जो दूसरे की तरफ जाती है वह दूसरे की तरफ न जाए और मेरी तरफ आए। हम बोलते हैं, दूसरे से संबंधित होने के लिए; वाणी दूसरे से एक संबंध है। भाषा एक सेतु है। भाषा न हो तो दूसरे से हमारा कोई संबंध नहीं हो सकता। लेकिन भाषा दूसरे से सेतु है; अपने से संबंधित होने के लिए भाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। पर आंख बंद कर लें तो भी भाषा चलती ही चली जाती है। शब्द घूमते रहते हैं, विक्षिप्त की तरह शब्द घूमते रहते हैं। उनको बंद करना होगा। वे बंद हो जाएंगे तो अपने से संबंध होगा।
भाषा है दूसरे से संबंध का मार्ग; मौन है अपने से संबंध का मार्ग। आंखें दूसरे को देखने के लिए हैं; अपने को देखने के लिए आंखों की कोई जरूरत नहीं है। अंधा भी अपने को देख सकता है; अपने को देखने के लिए आंख का कोई लेना-देना नहीं है।
तो आंख का काम बंद करना होगा। सारी इंद्रियों का काम शांत हो जाए, सारी इंद्रियां विश्राम को उपलब्ध हो जाएं, तो ताओ की झलक मिलनी शुरू होती है। और एक बार उसकी झलक मिल जाए तो फिर खोती नहीं। फिर हम कितने ही संसार में दूर निकल जाएं तो भी हम उससे दूर नहीं जाते। फिर हम दुकान पर हों कि मंदिर में हों, कि भीड़ में हों कि अकेले में हों, उससे हमारा नाता बना ही रहता है। उसकी सुरति, उसकी स्मृति चलती ही रहती है। और उसकी स्मृति चलती रहे तो वह जो हम गलत करते हैं, वह अपने आप होना बंद हो जाता है। उसकी स्मृति चलती रहे तो हमसे जो रास्ते चूक जाते हैं, हम भटक जाते हैं, वे अपने आप बंद हो जाते हैं। उसकी स्मृति बनी रहे, उसकी धुन भीतर गूंजती रहे, तो जीवन में सहज रूपांतरण होने लगता है। जो व्यर्थ है वह गिर जाता है; जो सार्थक है वह फलने लगता है। जो गलत है वह होता ही नहीं; जो ठीक है वही होता है।
ताओ से संबंध जुड़ जाए तो नीति साधनी नहीं पड़ती, सध जाती है।

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