।8 जनवरी, ।977,
श्री ओशो आश्रम,
कोरेगांव,
पूना
पहला
प्रश्न :
आपने कहा कि
ज्ञानी
स्पदरहित हो
जाता है और आपने
यह भी कहा कि
जिस में
स्पंदन नहीं
है वह चीज मृत
है। कृपापूर्वक
समझाएं कि
स्पंदनरहित
होकर ज्ञानी
पुरुष कैसे
जीवित रहते
हैं।
एक और भी
स्पंदन है, और एक और भी
जीवन है, जहां
अस्मिता तो
नहीं है लेकिन
अस्तित्व है;
जहां मैं तो
नहीं हूं
परमात्मा है। जहां
अहंकार तो मर
गया, जा
चुका, अतीत
हो गया, लेकिन
अहंकार के पार
भी एक जीवन है,
एक स्पंदन
है। वस्तुत:
तो वही जीवन
है।
तो ज्ञानी
एक अर्थ में
तो मृत हो
जाता है, और
एक अर्थ में
परम रूप से
जीवित हो जाता
है। इस अर्थ
में मृत हो
जाता है कि अब
अपने ही माध्यम
से परमात्मा
को जीता है, स्वयं को
नहीं। इस अर्थ
में मृत हो
जाता है कि अब
अहंकार की तो कब
बन गई। अब
खुदी तो न रही,
खुदा है। और
खुदा भरपूर है।
अब परमात्मा
बहता है।
ज्ञानी तो
बांस की
पोंगरी हो गया।
प्रभु गाता है
तो गीत पैदा
होता है।
बांसुरी खुद
नहीं गाती, लेकिन बांसुरी
का भी गीत है।
बांसुरी से
गीत पैदा होता
है। बांसुरी
माध्यम बनती
है, बाधा
नहीं डालती।
जीसस के
जीवन में इस
बात की
ठीक-ठीक
व्याख्या है।
इस तरफ सूली
लगी, उस तरफ
नवजीवन मिला।
एक हाथ सूली
लगी, एक
हाथ मृत्यु
लगी, दूसरे
हाथ महाजीवन
मिला, पुनरुज्जीवन
मिला। यही
समस्त
ज्ञानियों की
कथा है।
प्रश्न
स्वाभाविक है।
अष्टावक्र
कहते हैं, स्पंदनशन्य
हो जाता है
ज्ञानी। अपनी
कोई स्पंदना
नहीं रह जाती।
अपनी कोई
कामना न रही
तो स्पंदन
कैसे होगा? अपनी कोई
वासना न रही
तो अब बुलबुले
कैसे उठेंगे?
अपना कोई
भाव ही न रहा, कोई दौड़ न
रही, कोई
आपा- धापी न
रही, कहीं
पहुंचना न रहा,
कहीं जाना न
रहा तो अब
कैसा स्पंदन!
लेकिन परमात्मा
जा रहा है।
परमात्मा
गतिमान है, परमात्मा
गति है, गत्यात्मकता
है।
ज्ञानी तो
मिट गया अपने
तईं, अब
परमात्मा हुआ।
जब बीज टूट
जाता है तभी
तो अंकुर पैदा
होता है। तो
बीज की मृत्यु
पौधे का जीवन है।
अगर बीज बचा
रहे तो पौधा
नहीं पैदा हो
सकेगा।
ज्ञानी मिटता
है, पिघलता
है, खो
जाता है तो
परमात्मा के
लिए मार्ग
बनता है।
साधो, हम चौसर की
गोटी !'
कोई
गोरी कोई काली
कोई
बड़ी कोई छोटी!
इस
खाने से उस
खाने तक
चमराने
से ठकुराने तक
खेले
काल खिलाड़ी
सबकी
गहे हाथ में
चोटी!
साधो, हम चौसर की
गोटी!
कोई
पिट कर कोई बस
कर
कोई
रोकर कोई हंस
कर
सभी
खेलें ढीठ खेल
यह
चाहे
मिले न रोटी!
कभी
पट हर कौड़ी
आवे
कभी
अचानक पी पड़
जावे
नीड़
बनाए एक फेंक
तो
दूजी हरे
लंगोटी!
एकेक
दांव कि एकेक
फंदा
एकेक
घर है
गोरखधंधा
हर
तकदीर यहां है
जैसे
कूकर
के मुंह बोटी!
बिछी
बिछात जमा जब
तक फड़
तब
तक ही यह सारी
भगदड़
फिर
तो एक खलीता
सबकी
बांधे गठरी
मोटी!
साधो, हम चौसर की
गोटी!
जैसे ही
दिखाई पड़ना
शुरू होता है, जो भीतर
छिपा है, जिसका
असली स्पंदन
है, जो
वस्तुत: हमारे
माध्यम से जी
रहा है, तो
हम चौसर की
गोटी हो जाते
हैं। कोई छोटी,
कोई बड़ी, कोई गरीब, कोई अमीर, कोई ज्ञानी,
कोई
अज्ञानी; लेकिन
हम चौसर की
गोटी हो जाते
हैं। खेल किसी
और का चल रहा
है, बिछात
किसी और ने
बिछाई है।
हारेगा कोई, जीतेगा कोई।
हम तो चौसर की
गोटी हैं। न
हमारी कोई हार
है, न
हमारी कोई जीत
है।
ज्ञानी ऐसे
जीने लगता है
जैसे सूखा पता
हवा में। जहां
ले जाए हवा।
पूरब तो पूरब, पश्चिम तो
पश्चिम। साधो,
हम चौसर की
गोटी! अब अपनी
कोई आकाशा
नहीं है। कहीं
जाने. का अपना
कोई मंतव्य
नहीं है, कोई
योजना नहीं है।
इसलिए न कोई
विषाद है, न
कोई हर्ष का
उन्माद है। एक
परम शांति है।
स्पंदन कहां?
अपना
स्पंदन गया।
अपने ही साथ
गया।
अब वे दिन गए
जब अहंकार
सपने बुनता था।
और अहंकार
हार-जीत की
बड़ी योजनाएं
बनाता था। और
अहंकार डरता
था, घबड़ाता
था, सुरक्षा
के आयोजन करता
था। वे दिन गए।
वहां तो मौत
हो गई। अहंकार
तो अब राख है।
वह ज्योति तो
हमने फूंक दी
और बुझा दी।
अब तो एक ऐसी
ज्योति का
अवतरण हुआ जो
न बुझती, न
कभी जन्मती।
शाश्वत का
अवतरण हुआ। अब
शाश्वत का
स्पंदन है।
तो ज्ञानी
एक अर्थ में
मर जाता और एक
अर्थ में केवल
ज्ञानी ही
जीता है, तुम
सब मरे हो।
कबीर ने कहा
है, 'साधो ई
मुर्दन के
गांव।' ये
सब मुर्दे हैं
यहां। इनमें
कोई जिंदा
नहीं है।
जीसस ने एक
सुबह झील पर
एक मछुए के
कंधे पर हाथ रखा
और कहा कि कब
तक मछलियां
पकड़ता रहेगा? अरे, कुछ
और भी पकड़ना
है कि मछलियां
ही पकड़ते रहना
है? मेरे
पास आ, मेरे
साथ चल। मैं
तुझे कुछ बड़े
फंदे फेंकना सिखा
दूं जिनमें
मछलिया तो
क्या, आदमी
फंस जाए। आदमी
तो क्या, परमात्मा
फंस जाए।
मछुआ भोला-
भाला आदमी था; न पढ़ा न लिखा।
उसने जीसस की आंखों
में देखा, भरोसा
आ गया।
पढ़ा-लिखा होता
तो संदेह उठता।
सोच-विचार का
आदमी होता तो
कहता
विचारूंगा, यह क्या बात
है, कंधे
से हाथ हटाओ!
ऐसे कहीं कोई किसी
के पीछे चलता?
लेकिन जीसस
की आंखों में
झांका सरलता
से; भरोसा
आ गया। ये आंखें
झूठ बोल नहीं
सरकती। यह
चेहरा प्रमाण
था। जाल फेंक
दिया वहीं।
जीसस के पीछे
हो लिया।
वे गाव के
बाहर भी न
निकले थे कि
एक आदमी भागा
हुआ आया और
उसने मछुए से
कहा, पागल!
कहां जा रहा
है? तेरे
पिता की
मृत्यु हो गई।
पिता बीमार थे,
कभी भी जा
सकते थे। उस
आदमी ने जीसस
से कहा, क्षमा
करें, मैं
तो आता था
लेकिन भाग्य
ने अड़चन डाल
दी। मुझे थोड़े
दिन की आज्ञा
दे दें-स्व
सप्ताह, आधा
सप्ताह। पिता
का अंतिम
संस्कार कर
आऊं और आ जाऊं।
जीसस ने कहा, छोड़। गांव
में काफी
मुर्दे हैं, वे मुर्दे
को जला लेंगे।
तू मेरे पीछे
आ।
साधो ई
मुर्दन के
गाव! एक अर्थ
में तुम
बिलकुल मरे
हुए हो।
तुम्हारा
जीवन भी क्या
जीवन! है क्या
वहा? मुट्ठी
जब तक बाधे हो
तब तक लगता है,
है कुछ। जरा
खोल कर तो
देखो। लोग
कहते हैं, बंधी
लाख की, खुली
खाक की। ठीक
ही कहते हैं।
बाधे रहो तो
भरोसा रहता है,
कुछ है।
तिजोड़ी खोल कर
मत देखना। और
कभी इधर-उधर
झांकना मत
अपने जीवन में,
अन्यथा
घबड़ाहट होगी।
है तो कुछ भी
नहीं। व्यर्थ
ही शोरगुल
मचाए हो : गौर
से देखोगे तो
पाओगे, क्या
है जीवन? यह
रोज उठ आना, रोज भोजन कर
लेना, रोज
कपड़े बदल लेना,
रोज दफ्तर
हो आना, दुकान
हो आना, कारखाने
हो आना; फिर
सांझ लौट आना,
फिर सो जाना,
फिर सुबह
वही।
इस चके में
घूमने का नाम
जीवन है? यह
भी कोई जीवन
है? ऐसा
जीवन तो पशु
भी जी रहा है।
और तुमसे
बेहतर जी रहा
है। और ऐसा जीवन
तो वृक्ष भी
जी रहे हैं।
वे भी भोजन कर
लेते हैं, पानी
पी लेते हैं, रात सो जाते
हैं, सुबह
फिर जाग आते
हैं। और तुमसे
बेहतर जी रहे
हैं-निश्चित।
तुमसे ज्यादा
हरे- भरे हैं।
कभी-कभी उनमें
फूल लगते हैं,
तुममें तो
कभी फूल भी
नहीं लगते।
कभी-कभी उनसे
अपूर्व सुगंध
उठती है, तुमसे
तो सिवाय
दुर्गंध के और
कुछ भी नहीं
उठता। क्रोध
उठता है, घृणा
उठती है, हिंसा
उठती है।
प्रेम की तो
तुम बातें
करते हो, उठता
कहां है? करुणा
तो शास्त्रों
में लिखी है, अनुभव कहां
है? परमात्मा
तो सुना हुआ
कोरा शब्द है,
पहचान कहां?
मुलाकात
कहां है? जीवन
तुम्हारा
जीवन कहां है?
यह जो जीवन
जैसा दिखाई
पड़ता और जीवन
नहीं है, यही
मिट जाता है।
फिर एक और
जीवन पैदा
होता है जो
अभी दिखाई भी
नहीं पड़ता, अभी अदृश्य
है। वही जीवन
जीवन है।
ठीक पूछते
हो। एक भांति
तो साधु मर
जाता है, एक
भांति साधु जी
जाता।
तुम्हारी तरह
मर जाता, और
एक नए, बिलकुल
अभिनव रूप में
जीवन का
पदार्पण होता
है। कहो उसे
परमात्मा, मोक्ष,
निर्वाण-जो
मर्जी हो।
दूसरा
प्रश्न :
अनेक
बुद्धपुरुष
हुए, जैसे
बुद्ध, महावीर,
नानक, रामकृष्ण
परमहंस, रमण
महर्षि और
स्वयं आप, इन
सबके कोई गुरु
नहीं थे। ऐसा
क्यों? इस
पर कुछ समझाने
की कृपा करें।
इनके
गुरु नहीं थे, ऐसा कहना
शायद ठीक नहीं।
यही कहना उचित
है कि सारा
अस्तित्व
इनका गुरु था।
जिनकी हिम्मत
इतनी नहीं है
कि सारे
अस्तित्व को
गुरु बना सकें,
उनको फिर
एकाध आदमी को
गुरु बनाना
पड़ेगा; वह
कंजूसी के
कारण। न सबको
बना सको, कम
से कम एक को
बना लो। शायद
एक से ही
झरोखा खुले।
फिर धीरे-
धीरे हिम्मत
बढ़े, स्वाद
लग जाए, साहस
बढ़े तो तुम
औरों को भी
बना लो। ऊपर
से देखने में
ऐसा लगता है
कि बुद्ध का
कोई गुरु नहीं
था। लेकिन अगर
गहरे से
देखोगे तो ऐसा
पता चलेगा, बुद्ध ने
किसी को गुरु
नहीं बनाया
क्योंकि जब
सारा
अस्तित्व ही
गुरु हो तब
किसको गुरु
बनाना!
नदी-पहाड़, चांद-तारे,
पौधे, पशु-पक्षी
सभी गुरु हैं।
सूफी फकीर
हुआ हसन; मरते
वक्त किसी ने
पूछा कि तेरे
गुरु कौन थे? उसने कहा, मत पूछो। वह
बात मत छेड़ो।
तुम समझ न
पाओगे। अब
मेरे पास
ज्यादा समय भी
नहीं है। मैं
मरने के करीब
हूं ज्यादा
समझा भी न
सकूंगा।
उत्सुक हो गए
लोग।
उन्होंने कहा,
अब जा ही
रहे हो, यह
उलझन मत छोड़
जाओ, वरना
हम सदा
पछताएंगे।
जरा से में कह
दो। अभी तो
कुछ सांसें
बाकी हैं।
उसने कहा, इतना ही
समझो कि एक
नदी के किनारे
बैठा था और एक
कुत्ता आया।
बड़ा प्यासा था,
हांफ रहा था।
नदी में झांक
कर देखा, वहां
उसे दूसरा
कुत्ता दिखाई
पड़ा। घबड़ा गया।
भौंका, तो
दूसरा कुत्ता
भौंका। लेकिन
प्यास बड़ी थी।
प्यास ऐसी थी
कि भय के
बावजूद भी उसे
नदी में कूदना
ही पड़ा। वह
हिम्मत करके..
.कई बार रुका, कंपा, और फिर
कूद ही गया।
कूदते ही नदी
में जो कुत्ता
दिखाई पड़ता था
वह विलीन हो
गया। वह तो था
तो नहीं, वह
तो केवल उसकी
ही छाया थी।
नदी के
किनारे बैठे
देख रहा था, मैंने उसे
नमस्कार किया।
वह मेरा पहला
गुरु था। फिर
तो बहुत गुरु
हुए। उस दिन
मैंने जान
लिया कि जीवन
में जहां-जहां
भय है, अपनी
ही छाया है।
और प्यास ऐसी
होनी चाहिए कि
भय के बावजूद
उतर जाओ।
मेरे पास
लोग आते हैं; वे कहते हैं,
संन्यास तो
लेना है लेकिन
भय लगता है।
जब भय न लगेगा
तब लेंगे। फिर
कभी न लेंगे।
ऐसी कभी घड़ी
आएगी, जब
भय न लगेगा? भय के
बावजूद लेंगे
तो ही लेंगे।
तुम सोचते हो,
जिन्होंने
लिया उनको भय
नहीं लगता? वे भी तुम
जैसे आदमी हैं,
उन्हें भी
भय लगता है।
लेकिन इतना ही
फर्क है कि
उन्होंने कहा,
ठीक है, भय
लगता रहे, लेंगे;
लेकर
रहेंगे। उनकी
प्यास गहरी है।
डर तो लगता है,
लेकिन
प्यास इतनी
गहरी है कि
करो भी क्या? डरो या प्यासे
मरो; दो
में चुनाव
करना है।
प्यास इतनी
गहरी है कि भय
को एक तरफ रख
देना पड़ता है।
और जो भय को एक
तरफ रख देता
है उसका ही भय
मिटता है। भय
अनुभव से
मिटेगा। और
तुम कहते हो, अनुभव हम
तभी लेंगे जब
भय मिट जाए।
तब बड़ी
मुश्किल हो गई।
तुमने एक ऐसी
शर्त लगा दी
जो कि कभी
पूरी नहीं हो
सकती।
मुल्ला
नसरुद्दीन
तैरना सीखना
चाहता था। तो
किसी पड़ोसी ने
कहा, यह कोई
बड़ी बात नहीं।
इतना शोरगुल
क्यों मचाते
हो? आओ
मेरे साथ, मैं
सिखा देता हूं।
गए नदी के
किनारे। सीडी
पर ही काई जमी
थी, मुल्ला
का पैर फिसल
गया और धड़ाम
से गिरा।
गिरते ही उठा
और भागा घर की
तरफ। वह जो
सिखाने ले गया
था-जो
उस्ताद-उसने
कहा, अरे, कहां भागे
जा रहे हो? सीखना
नहीं है? मुल्ला
ने कहा, अब
जब तैरना सीख
लूंगा तभी नदी
के पास आऊंगा।
यह तो झंझट है।
पैर फिसल गया,
चारों खाने
चित्त हो गए, और कहीं नदी
में गिर जाते
तो जान से हाथ
धो बैठते।
तेरा क्या
भरोसा! वक्त
पर काम आए, न
आए। अब आऊंगा
नदी के पास, लेकिन तैरना
सीखकर।
अब तैरना
कोई
गद्दे-तकियों
पर थोड़े ही
सीखता है।
कितना ही
हाथ-पैर पटको
अपने गद्दे पर
लेट कर-सुविधा
तो है, खतरा
कोई भी नहीं
है, लेकिन
जहां खतरा
नहीं वहां सीख
कहां? खतरे
में ही सीख है।
खतरे में ही
अनुभव है।
जितना बड़ा
खतरा है, जितनी
बड़ी चुनौती है
उतनी ही बड़ी
संपदा छिपी है।
अब तुमने
अगर यह कसम ले
ली कि जब तक
तैरना न सीख लेंगे, नदी न आएंगे,
तुम तैरना
कभी सीखोगे ही
नहीं। तैरना
सीखना हो तो
बिना तैरना
जाने नदी में
उतरने की हिम्मत
रखनी पड़ती है।
और किसी पर
भरोसा करना
पड़ता है। जो
भी तुम्हें
सिखाने जाएगा
उस पर भरोसा
करना पड़ेगा।
भरोसे का कोई
कारण नहीं है;
क्योंकि
क्या पता, जब
तुम डूबने लगो,
यह आदमी
बचाए कि भाग
जाए। जब तुम
डूबने लगो तो
यह आदमी काम
आए कि न आए! यह तो
तुम जब तक
डूबो न, तब
तक पता कैसे
चलेगा? हो
सकता है
दूसरों को भी
इसने बचाया हो
लेकिन तुमको
बचाएगा इसकी
क्या कसौटी है?
दूसरे ठीक
ही कहते हैं
इसका क्या
सबूत है? और
दूसरे इसके ही
नौकर-चाकर
नहीं हैं इसका
क्या पक्का
प्रमाण है? यह तुम्हें
ही फंसाने को
सारा जाल
फैलाया हो, तुम्हें ही
डुबाने को, इसके संबंध
में तुम कैसे
निश्चित हो
सकते हो?
भय तो रहेगा।
और फिर नदी तो
दिखाई पड़ती है, नदी में
तैरना सिखाने
वाला जो
उस्ताद है, तुम उसके
संबंध में
प्रमाणपत्र
भी इकट्ठे कर सकते
हो। तुम नदी
के किनारे
जाकर भी देख
सकते हो, औरों
को सिखा रहा
है, और भी सीख
गए हैं। लेकिन
जीवन की जो
नदी है वह तो
बड़ी अदृश्य है।
और परमात्मा
का जो सागर है वह
तो दिखाई नहीं
पड़ता। उस
अनदेखे, अनजाने
में, अपरिचित
में तो कोई
प्रमाण भी काम
नहीं आने वाला।
वहां तो कोई
अकेला-अकेला
जाता है। तुम
किसी जाते हुए
को देख तो न
पाओगे।
मेरे पास इतने
लोग हैं, उनमें
से जो जा रहे
हैं उन्हें
तुम पहचान तो
न पाओगे।
उनमें से जो
नहीं जा रहे
हैं उन्हें भी
तुम न पहचान
पाओगे। वह तो
तुम जाओगे तभी
पहचान होगी।
तुम जाओगे तो
ही पहली दफा
तुम किसी को
जाते हुए
देखोगे। ही, खुद के जाने
के बाद तुम
दूसरों को भी
पहचानने
लगोगे कि
कौन-कौन गए।
क्योंकि जो
सुवास
तुम्हारे
भीतर उठेगी
वही सुवास
तुम्हें
उनमें भी
दिखाई पड़ने
लगेगी। जो आभा
तुम्हारी आंखों
में आ जाएगी, जो गुंजन
तुम्हारे
प्राणों में
होने लगेगा, एक दफा वहां
सुन लिया तो
फिर किसी के
भी हृदय के
पास से सुनाई
पड़ने लगेगा।
जो हमने अपने
भीतर नहीं
जाना है वह हम
कभी भी न जान
सकेंगे।
हसन ने कहा, कुत्ते को
देख कर मैं यह
समझ गया कि भय
को एक तरफ
रखना होगा। एक
बात समझ में आ
गई कि अगर
परमात्मा
मुझे नहीं मिल
रहा है तो एक
ही बात है, मेरी
प्यास काफी
नहीं है। मेरी
प्यास अधूरी
है। और कुत्ता
भी हिम्मत कर
गया तो हसन ने
कहा, मैंने
कहा, उठ
हसन, अब
हिम्मत कर। इस
कुत्ते से कुछ
सीख।
किसी ने
बायजीद को
पूछा-स्थ
दूसरे सूफी
फकीर को-कि
तुम्हारा
गुरु? तो
बायजीद ने कहा,
एक गाव से
गुजरता था। एक
छोटा सा बच्चा
एक दीये को
जला कर ले जा
रहा था मजार
पर चढ़ाने। दिन
भर से मुझे
कोई मिला नहीं
था जिसको मैं
कुछ समझाता, जिसको मैं
कुछ ज्ञान
देता। ज्ञान
मेरे पास भी
नहीं था।
जिनके पास
नहीं होता
उनको देने की
बड़ी आकांक्षा
पैदा होती है।
क्योंकि देने
में उनको थोड़ा
सा भरोसा आता
है कि है; और
तो कुछ पक्का
नहीं है। जब
वे किसी दूसरे
को सलाह देते
हैं तभी
बुद्धिमान
होते हैं, बाकी
समय तो बुद्ध
होते हैं। उस
सलाह को देते
वक्त ही थोड़ी
सी झलक मिलती
है कि ही, मैं
भी कुछ जानता
हूं।
तो पकड़ लिया
सूफी फकीर ने
उस लड़के को और
फूंक मार कर
उसका दीया
बुझा दिया। और
बायजीद ने कहा, मैंने पूछा
उस लड़के को कि
बेटे, बता,
अभी- अभी
दीया जलता था,
ज्योति
कहां गई अब? उस लड़के ने
कहा, जलाए
दीया; जला
कर देखें। वह
भागा और माचिस
ले आया और
उसने दीया
जलाया और कहा,
मुझे बताएं,
ज्योति अब
कहां से आ गई? जहां से आती
वहीं चली जाती।
न तो आते वक्त
पता चलता कि
कहां से आती, न जाते वक्त
पता चलता कि
कहां जाती।
बायजीद ने
कहा कि उस
छोटे से बच्चे
ने मुझे बोध
दे दिया कि
मुझे अभी कुछ
भी पता' नहीं।
इस छोटे बच्चे
को भी सिखाने
की मेरी कोई
योग्यता नहीं।
हार गया इससे।
उस दिन से
सिखाना बंद कर
दिया। अब तो
जान लूंगा तभी
सिखाऊंगा। वह
छोटा बच्चा मेरा
गुरु हो गया।
जिनमें
इतना साहस है
कि सारे
अस्तित्व को
गुरु बना लें, उनके लिए
फिर एक गुरु
बनाने की
जरूरत नहीं।
लेकिन तुममें
तो इतना भी
साहस नहीं है
कि तुम एक को
गुरु बना सको,
सबको तो तुम
कैसे गुरु बना
सकोगे?
और धोखा मत
देना अपने को।
क्योंकि धोखा
बड़ा आसान है
और मन बड़ा
चालाक है। मन
कह सकता है, हम एक को
गुरु इसीलिए
नहीं बनाते
क्योंकि हम तो
सबको गुरु
मानते हैं। यह
कहीं एक गुरु
से बचने की
तरकीब न हो, बस इतना तुम
खयाल रखना।
जिंदगी
तुम्हारी है;
गंवाओ या
पाओ, तुम
जिम्मेवार हो।
धोखा दो या
बचो, तुम्हारा
काम है, किसी
और का इसमें
कुछ लेना-देना
नहीं है। इतना
ही खयाल रखना
कि यह एक को
गुरु न बनाने
के पीछे कहीं
ऐसा न हो कि
बचना चाह रहे
हो। बहाना
अच्छा खोज
लिया कि हमारे
तो सब गुरु हैं।
अगर हों, तो
इससे शुभ कुछ
भी नहीं। अगर
न हों तो यह
धारणा बड़ी
खतरनाक हो
जाएगी।
साहस हो तो हर
जगह से शिक्षण
मिल जाता है।
सीखने की कला
आती हो तो हर
द्वार से मंदिर
मिल जाता है
और हर मार्ग
से मंजिल मिल
जाती है।
सीखना न आता
हो, शिष्य
होने की कला न
आती हो, सीखने
लायक मन मुक्त
न हो, पक्षपात
से घिरा हो, सिद्धातों
से दबा हो तो
फिर तो
तुम्हें
सदगुरु मिल जाए
बुद्ध और
अष्टावक्र
जैसा ? । तो
भी तुम बच
जाओगे। तो भी
तुम रास्ता
काट कर निकल
जाओगे। कोई न
कोई तुम खोज
लोगे।
शायद
इसीलिए
प्रश्न मन में
उठा है कि
बुद्ध के कोई
गुरु नहीं, महावीर के
कोई गुरु नहीं,
नानक के कोई
गुरु नहीं तो
हम ही क्यों
गुरु बनाएं?
हां, अगर
नानक और बुद्ध
और महावीर
जैसे गुरु बना
सको, फिर
कोई जरूरत
नहीं। यह सारा
विराट
अस्तित्व-
क्षुद्र से
लेकर विराट तक
सब तुम्हारे
लिए गुरु हो जाए,
सब चरण
तुम्हारे लिए
प्रभु के चरण
हो जाएं, फिर
कोई अड़चन नहीं।
यह न हो सके
तो कम से कम एक
झरोखा खोलो।
कम से कम एक
खिड़की खोलो।
खिड़की से कोई
बहुत बड़ा आकाश
दिखाई नहीं
पड़ेगा, छोटा
सा आकाश। दिखाई
पड़ेगा। लेकिन
छोटा सा आकाश
स्वाद बनेगा।
खिडकी खोली तो
आकाश का
निमंत्रण
मिलेगा। आकाश
का विराट
फैलाव खिड़की
के चौखटे में
कसा हुआ दिखाई
पड़ेगा। वह
चौखटा खिड़की
का है, आकाश
का नहीं। आकाश
पर कोई फ्रेम
नहीं है। कोई
चौखटा नहीं
जड़ा है। आकाश
तो बिना चौखटे
के है। थोड़ी
सी झलक तो आएगी
आकाश की खिड़की
से। सूरज की
किरणें
उतरेंगी, हवा
के नये झोंके
आएंगे, फूलों
की गंध आएगी, आकाश में
उड़ते
पक्षियों का
दर्शन होगा, शायद तुम भी
अपने पिंजड़े
को छोड़ कर
उड़ने के लिए आतुर
हो जाओ। प्यास
जागे।
बस, गुरु के
पास इतना ही
तो होना है।
गुरु यानी
परमात्मा में एक
झरोखा। गुरु के
माध्यम से तुम
परमात्मा को
देखने में
कुशल हो जाओगे।
एक बार कुशल
हो गए तो सारा
अस्तित्व
तुम्हारा
गुरु हो जाएगा।
फिर तुम एक ही
खिड़की से
क्यों देखोगे?
फिर कंजूसी
क्या? फिर
तुम सब
खिड़कियां
खोलोगे, फिर
तुम सब द्वार
खोलोगे। फिर
तुम पूरब में
ही क्यों अटके
रहोगे? फिर
पश्चिम की खिड़की
भी खोलोगे।
फिर तुम पश्चिम
में ही क्यों
उलझे रहोगे? फिर तुम
दक्षिण की भी
खिड़की खोलोगे।
क्योंकि जब
पूरब इतना
सुंदर है तो
पश्चिम भी होगा,
तो दक्षिण
भी होगा, तो
उत्तर भी होगा।
तब सब आयाम
तुम खोलोगे।
फिर एक दिन तो
तुम कहोगे, इस घर के
बाहर चलें।
खिड़कियों से
काम नहीं चलता।
जब घर के भीतर
से आकाश इतना
सुंदर है तो
ठीक आकाश के
नीचे जब खड़े
होंगे तब
अपूर्व
सौंदर्य की
वर्षा होगी।
उस दिन पूरा
अस्तित्व तुम्हारा
गुरु हो गया।
मगर सौ में
निन्यानबे
मौकों पर
तुम्हें पहले एक
खिड़की खोलनी
पडेगी।
तीसरा
प्रश्न :
आप कहते हैं
कि जिस चीज
में भी रस हो
उसे पूरा भोग
लेना चाहिए।
लेकिन रस तो
अंधा बनाता
है।
रस
कैसे अंधा
बनाएगा ?उपनिषद
कहते हैं, परमात्मा
का रूप रस : 'रसो
वै सः।' वह
तो रसरूप है।
रस कैसे अंधा
बनाएगा?
नहीं, कुछ
और बात होगी।
तुम अंधे हो।
तुम कहीं भी
बहाना खोजते
हो, किसने
अंधा बना दिया।
कोई अंधा नहीं
बना रहा
तुम्हें। तुम आंख
बंद किए बैठे
हो। न रस अंधा
बना रहा है, न धन अंधा
बना रहा है, न संसार
अंधा बना रहा
है। कोई अंधा
नहीं बना रहा।
कोई कैसे अंधा
बनाएगा? अंधे
तुम हो, आंख
बंद किए बैठे
हो।
लेकिन यह
मानने की
हिम्मत भी
तुममें नहीं
है कि मैं आंख
बंद किए बैठा
हूं। तो तुम
बहाने खोज रहे
हो। तुम कहते
हो क्या करें, कामवासना ने
अंधा कर दिया
है। क्या करें,
धन की वासना
ने अंधा कर
दिया। क्या
करें, यह
संसार में
उलझे हैं, इससे
अंधे हुए जा
रहे हैं। बात
उल्टी है, तुम
अंधे हो इसलिए
संसार में
उलझे हो। धन
अंधा नहीं कर
रहा है, तुम
अंधे हो इसलिए
धन को पकड़े
बैठे हो। रस
अंधा नहीं कर
रहा है, रस
तो तुम्हें
अभी मिला ही
कहां? जरा
पूछो फिर से
अपने से, रस
पाया है? हां
ऐसा दूर-दूर
झलक दिखाई पड़ी
है। कभी किसी
सुंदर स्त्री
में-दूर से; पास आकर तो
विरस हो जाता
है सब।
एक आदमी
अकेला था। ऊब
गया अकेलेपन
से तो उसने
प्रभु से
प्रार्थना की
कि एक सुंदर
स्त्री भेज दो।
सच में सुंदर
हो, साधारण
स्त्री नहीं
चाहिए।
क्लियोपैट्रा
हो कि मरलिन
मनरो हो, सच
में सुंदर हो।
कि सोफिया लॉरिन
हो, सच में
सुंदर हो। लेकिन
प्रभु ने भी
खूब मजाक की।
प्रभु ने कहा,
फांसी का
फंदा न भेज
दूं? आदमी
.नाराज हो गया,
उसने कहा यह
भी कोई बात
हुई? हम
मांगते हैं
सुंदर स्त्री,
तुम कहते
तने, फांसी
का फंदा। ऐसा
न शास्त्रों
में लिखा, न
कभी तुमने ऐसा
किसी भक्त को
कहा। यह तुम
बात क्या कहते
हो? मैं तो
कहता हूं
सिर्फ सुंदर
स्त्री भेज दो।
फांसी का फंदा
क्या करना? कोई मुझे
फांसी लगानी!
खैर, सुंदर
स्त्री आ गई।
लेकिन तीन दिन
के भीतर ही उस
आदमी को पता
चला कि यह तो
फांसी का फंदा
हो गया। प्रभु
ठीक ही कहते
थे। मैं मांग
तो स्त्री रहा
था, लेकिन
मांग फांसी का
फंदा ही रहा
था। समझा नहीं।
बात उन्होंने
बड़ी
सधुक्कड़ी
भाषा में कही
थी, उलटबासी
कही थी।
घबड़ाने लगा।
सात दिन में
ही परेशान हो
गया। सात दिन
बाद तो याद
आने लगे वे दिन,
जब अकेला था,
कितने
सुंदर थे!
कितने सुखद
थे!
आदमी अदभुत
है। जो खो
जाता है वह
सुंदर मालूम
पड़ता है। जो
नहीं मिलता नह
सुंदर मालूम
पड़ता है। जो
मिल जाता है
वह तो काटे की
तरह गड़ता है।
आखिर रसने
प्रभु से कहा
क्षमा करें, भूल हो गई।
अज्ञानी हूं
माफ कर दें।
एक तलवार भेज
दें। सोचा मन
में, इस
स्त्री का
खातमा कर दूं
तो फिर पुराने
दिनों की
शांति, वही
एकांत, वही
मौज, वही
मस्ती। फिर
निश्चित होकर
रहेंगे।
लेकिन फिर
प्रभु ने कहा, तलवार? अरे
तो फांसी का
फंदा ही न भेज
दूं? वह आदमी
फिर नाराज हो
गया। उसने कहा,
यह एक भेज
दिया फांसी का
फंदा, अभी भी
तुम्हारा मन
नहीं भरा? मैं
कहता हूं
सिर्फ एक
अच्छी तलवार
भेज दो धारवाली।
खैर नहीं
माना, तलवार
आ गई। उसने
पत्नी को मार
डाला। सोचता
था वह तो,
पत्नी की को
मार कर आनंद
से रहेगा
लेकिन पकड़ा
गया। फांसी की
सजा हुई। जब
फांसी के
तख्ते पर उसे
ले जाने लगे
तब वह हंसने
लगा
खिलखिलाकर।
जल्लादों ने
पूछा, 'रात
क्या है? दिमांग
खराब हो गया? फांसी के
तख्ते पर कोई
हंसता? उसने
कहा, अरे हंस
रहा हूं इसलिए
कि यह भी खूब
मजा रहा।
परमात्मा तो
पहले ही से कह
रहा था
वार-बार :
फांसी का फंदा
भेज दूं? फांसी
का फंदा भेज दूं?
मैंने समझा
नहीं। मान
लेता पहले ही
तो इतनी
झंझटों से तो
बच जाता।
जो मिल जाए
वही फांसी का
फंदा हो जाता
है। आस्कर
वाइल्ड ने कहा
है, धन्यभागी
हैं वे
जिन्हें उनकी
चाहत की
स्त्री नहीं
मिलती। मिल गई
कि मुश्किल हो
गई। मजनू अभी
भी चिल्ला रहे
हैं, 'लैला,
लैला।’ चिल्लाते
रहेंगे। और
बड़ी मस्ती में
हैं। मिल जाती
तो पता चलता।
जिनको लैला
मिल गई उनसे
पूछो।
जो तुम्हें
मिल जाता है
वहीं से रस खो
जाता है। धनी
से पूछो, धन
में रस है? गरीब
को है रस यह
बात सच है।
गरीब को एक ही
रस है : धन।
नहीं मिला; दूर है।
अमीर से पूछो
जिसको मिल गया
है। वह बड़ा
हैरान होता है
कि लोग इतने
पागल क्यों हैं?
आखिर बुद्ध
और महावीर
अपने राजमहल
छोड़ कर चले क्यों
गए? रस
नहीं था, नहीं
मिला। जो पद
पर नहीं है, उसे बड़ा रस
होता है कि
किसी तरह पद
पर हो जाऊं।
जो पद पर हैं
उनसे पूछो, फांसी लग गई
है। लौट भी
नहीं सकते।
किस मुंह से
लौटें? बड़ी
जद्दोजहद
करके तो चढ़े, अब उतरने
में भी दिक्कत
मालूम होती है
कि लोग कहेंगे,
अरे! इतनी
मेहनत से गए
थे, अब
क्या मामला है?
यह भी
स्वीकार करने
का मन नहीं
होता कि हम
मूढ़ थे, अज्ञानी
थे, इसलिए
पद की आकांक्षा
की।
रस है कहां? रस तुमने जाना?
उपनिषद
कहते हैं : 'रसो
वै स।’ प्रभु
का स्वभाव
रसपूर्ण है।
रस ही वह है।
रस उसका दूसरा
नाम है। और
तुम कहते हो, रस तो अंधा
बनाता है।
नहीं, रस
तो हृदय की भी आंखें
खोल देता है।
रस हो तब! रस तो
मिलता ही तब
है जब मन चला
जाता है। मन
कहां रस पैदा
होने देगा? मन तो हर चीज
को विरस कर
रहा है। रस तो
मिलता ही तब
है जब ध्यान
का पात्र
तैयार हो जाता
है। रस तो आंख
वालों को ही
मिलता है। रस
अंधा नहीं
बनाता, तुम
अंधे हो इसलिए
रस नहीं मिलता।
आंख खोलो, रस
ही रस है। रस
का सागर भरा
है। सब तरफ रस
ही लहरें ले
रहा है। इन
वृक्षों की
हरियाली में,
चांद-तारों
की रोशनी में,
इन
पक्षियों के
कलरव में रस
ही लहरें ले
रहा है। रसो
वै सः।
नहीं, तुमने
कुछ गलत बातें
पकड़ रखी हैं।
और जिनने
तुम्हें
समझाया है वे
तुम जैसे ही अंधे
हैं। न उन्हें
रस मिला है, न तुम्हें
रस मिला है।
अंधे अंधों का
नेतृत्व कर रहे
हैं।’ अंधा
अंधा ठेलिया,
दोनों कूप
पड़ंत।’ मगर
अंधे भी क्या
करें? किसी
न किसी का हाथ
पकड़ लेते हैं।
मैंने सुना, एक अंधी
स्त्री
न्यूयॉर्क के
एक रास्ते पर
रास्ता पार करने
के लिए खड़ी थी।
प्रतीक्षा कर
रही थी कि कोई
आ जाए और राह
पार करवा दे।
तभी किसी ने
उसके कंधे पर
हाथ रखा। और
जिसने कंधे पर
हाथ रखा उसने
कहा, क्या
हम दोनों साथ-
साथ रास्ता
पार कर सकते
हैं? उस
स्त्री ने कहा,
मैं
प्रतीक्षा ही
कर रही थी। आओ।
दोनों ने
हाथ में हाथ
डाला और पार
हुए। जब उस
तरफ पहुंच गए
तो स्त्री ने
कहा, बहुत-बहुत
धन्यवाद कि
आपने मुझे रास्ता
पार करवाया।
वह आदमी
घबड़ाया। उसने
कहा, क्या
मतलब? धन्यवाद
तो मुझे देना
चाहिए। मैं
अंधा हूं
रास्ता तो
तुमने मुझे
पार करवाया।
तब तो दोनों
घबड़ा गए, पसीना
आ गया। रास्ता
तो पार हो गए
थे, लेकिन
तब पता चला, दोनों अंधे
थे।
अंधों को
पता भी कैसे
चले कि हम
किसी अंधे के
पीछे चल रहे
हैं? कतारें
लगी हैं। क्यू
लगे हुए हैं।
तुम अपने आगे वाले
को पकड़े हो, आगे वाला
अपने आगेवाले
को पकड़े हुए
है। सबसे आगे
कोई महाअंधा
महात्मा की
तरह चल रहा है।
चले जा रहे
हैं। न
तुम्हें पता
है, न
तुम्हारे
आगेवाले को
पता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन नमाज
पढ़ने गया था।
होगा ईद का
उत्सव या कोई
धार्मिक
त्यौहार।
हजारों लोग
नमाज पढ़ रहे
थे। उसकी कमीज
उसके पाजामा
में उलझी थी।
तो पीछे वाले
आदमी को जरा
अच्छा नहीं
लगा तो उसने
झटका देकर
कमीज को ठीक
कर दिया। उसने
सोचा कि मामला
कुछ है। उसने
सामनेवाले
आदमी: को...। उसकी
कमीज में झटका
दिया। उस आदमी
ने पूछा, क्या
बात है? झटका
क्यों देते हो?
उसने कहा, भाई मेरे
पीछेवाले से
पूछो। मैं तो
समझा कि रिवाज
होगा। इस
मस्जिद में
पहले कभी आया
नहीं।
हम कर रहे
हैं एक-दूसरे
का अनुकरण। रस
तो पाया कहां
है? रस से तो
तुम्हारी
पहचान कहां
हुई है? रस
मिले तो प्रभु
मिले। रस पा
लिया तो सब पा
लिया।
नहीं, आंखें
खोलो। और कोई
तुम्हें अंधा
नहीं बना रहा
है। कोई
तुम्हें अंधा
बना नहीं सकता
है। किसी की
सामर्थ्य
नहीं तुम्हें
अंधा बनाने की।
सिर्फ
तुम्हारी
समर्थ्य है।
तुम चाहो तो
अनंतकाल तक
अंधे रह सकते
हो। यह
तुम्हारा
निर्णय है।
तुमने तय कर
रखा है आंख न
खोलने का, तुम्हारी
मर्जी। लेकिन
दोष किसी और
को मत दो। ये
तरकीबें छोड़ो।
तुम क्रोधी
हो, दूसरे को
दोष देते हो
कि इस आदमी ने
क्रोध करवा
दिया। इसने।gk
ऐसी बात कही
कि हमको क्रोध
आ गया। अगर
तुम अक्रोधी
होते, यह
कितनी ही बात
कहता तो भी
क्रोध न आता।
तुम जरा खाली
कुएं में डालो
रस्सी बांध कर
बाल्टी, और
खूब खडूखडाओ,
और खूब
खींचो जितनी
मर्जी हो, पानी
भर कर न आएगा।
बाल्टी खाली
जाएगी, खाली
लौट आएगी।
जिसके भीतर
क्रोध नहीं
उसे गाली दो, डालो बाल्टी,
खूब
खडूखडाओ गाली
को, खाली
लौट आएगी।
जिसके भीतर
क्रोध भरा है
उसमें से ही
क्रोध आता।
गाली ज्यादा
से ज्यादा
निमित्त हो
जाती।
और अगर तुम
मनोवैज्ञानिकों
से पूछो तो वे
तो कुछ और बड़ी
बात कहते हैं।
वे पा यह कहते
हैं कि अगर
तुम्हें कोई
क्रोध न दिलवाए
और क्रोध
तुम्हारे
भीतर भरा हो
तो तुम कुछ न
कुछ बहाना खोज
कर उसे बाहर
निकाल कर
रहोगे।
बाल्टी भी कोई
न डाले तो भी
कुआं जो भरा
है वह उछल रहा
है। वह तरकीब
खोजेगा कोई न
कोई। किसी
बहाने चढ़ कर
पानी बाहर
आएगा।
तुमने भी कई
दफा देखा होगा, खुजलाहट
उठती है कि हो
जाए किसी से
टक्कर। अब यह
भी कोई...! कुछ
भीतर से उमगने
लगता है, लड़ने
को फिरने लगते
हो। वही घड़ी
तुम्हें पता
होगी, जब
तुम चाहते हो
कि कहो, आ
बैल सींग मार।
कोई बैल सींग
न मारे तो
नाराजगी होती
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन शांत
बैठा था अपने
घर में। और
पत्नी एकदम उस
पर टूट पड़ी और
कहा कि अब तुम
मुझे और न
भड़काओ। अरे, नसरुद्दीन
ने कहा, हद
हो गई। मैं
अपना शांत
बैठा अपना
हुक्का
गुड़गुड़ा रहा हूं
एक शब्द नहीं
बोला। शब्द न
निकले इसलिए
हुक्के को
मुंह में डाले
बैठा हूं और
तू कहती है और
न भड़काओ। बात
क्या है? उसने
कहा, इसीलिए
तो! इसीलिए कि
तुम इतने चुप
बैठे हो कि इससे
भड़कावा पैदा
होता है। बोलो
कुछ। चुप
बैठने का मतलब?
बैठे-बैठे
हुक्का
गुड़गुड़ा रहे
हो और मैं
यहां मौजूद
हूं!
आदमी न बोले
तो फंसता, बोले तो
फंसता। लोग
तैयार हैं।
लोग उबले बैठे
हैं, कोई
भी बहाना
चाहिए। बहाना
न मिले तो
बहाने की तलाश
में निकलते हैं।
अगर बिलकुल भी
बहाना न मिले,
कोई बहाने
का उपाय भी न
हो, अगर
तुम उन्हें
स्थ कमरे में
बिठा दो तो
तुम भी चकित
हो जाओगे...।
मनोवैज्ञानिकों
ने प्रयोग किए
हैं। किसी
आदमी को सात
दिन के लिए
एकांत में रख
दिया। भोजन
सरका देते हैं
दरवाजे से, कोई बोलता
नहीं, कोई
चालता नहीं।
सब इंतजाम है।
शांति से रहे,
स्नान करे,
भोजन करे, विश्राम करे।
मगर उस आदमी
से कहा है कि
वह रोज लिखता
रहे कि कब उसे
क्रोध आया। अब
क्रोध का कोई
कारण ही नहीं
है, लेकिन
आदमी डायरी
में लिखता है
कि क्रोध आया
आज शाम को।
कोई कारण न था
तो अतीत में
से कोई कारण
खोज लिया, कि
तीस साल पहले
फला आदमी ने
गाली दी थी।
वह अभी भी जल
उठता है।
तुम बहाने
खोज रहे हो।
अंधे तुम हो।
अंधे तुम होना
चाहते हो।
अंधे होने में
तुम्हारा
स्वार्थ
तुमने समझ रखा
है। तुमने
न्यस्त
स्वार्थ बना
रखा है। तुम
सोचते हो यही
एक होने का
ढंग है। फिर
तुम कभी कहते, रस ने अंधा
बना दिया।
क्या करें, इस स्त्री
ने अंधा बना
दिया। क्या
करें, इस
पुरुष ने अंधा
बना दिया।
क्या करें, रास्ते पर
धन पड़ा था
इसलिए चोरी का
मन हो गया।
क्या बातें
कर रहे हो? चोरी का मन
था इसलिए
रास्ते पर पड़ा
धन दिखाई पड़ा,
अन्यथा
दिखाई भी न
पड़ता। पड़ा
रहता। चोर न
होते तो दिखाई
भी न पड़ता।
चोर हो।
रास्ते पर पड़े
धन ने तो भीतर
जो पड़ा था
उसको उभार
दिया। और जरा
देखो, रास्ते
पर पड़ा हुआ धन
निर्जीव है।
निर्जीव ने
तुम्हें
चलायमान कर
दिया? तो
तुम निर्जीव
से भी गए-बीते
हो गए।
एक दिन
मुल्ला
नसरुद्दीन
मेरे साथ राह
पर चल रहा था।
एकदम दौड़ा, किनारे पर
जाकर झुका, कुछ उठाया
और फिर बड़ा
गुस्सा होकर
उसे फेंका और
गालियां देने
लगा। मैंने
पूछा, बात
क्या हुई बड़े
मियां? तो
उसने कहा, अगर
यह आदमी मुझे
मिल जाए जो
अठन्नी की तरह
धूकता है तो
इसकी गर्दन
काट दूं। किसी
ने खखार कर
यूका है, वह
उनको अठन्नी
मालूम पड़ रही
है। अब वह
उसकी गर्दन
काटने को
तैयार है! तुम
अंधे हो। कोई
तुम्हें अंधा
नहीं बना रहा
है। रस प्रभु
का स्वभाव है,
परमात्मा
का जीवन है।
रस अभी
तुम्हें मिला
नहीं।
खोलो आंख, रस मिलेगा।
और जब रस
मिलता है तो
जीवन धन्य
होता है।
चौथा
प्रश्न :
न तो कोई प्रश्न
निर्धारित कर
पाता हूं और न
कोई उत्तर पाने
की ही लालसा
है। आपको
सुन-सुन कर
तथा कुछ अपने
अनुभव से मुझे
लगता है कि
सारे
प्रश्नोत्तर, अध्यात्म, संन्यास, बौद्धिकता,
गुरूडम, सब
व्यर्थ की
बकवास है
क्योंकि सब
कुछ उसी की इच्छा
से होता है।
फिर भी मन में
एक अजीब सी
बेचैनी बनी
रहती है।
कृपया
मार्गदर्शन करें।
अब
यह बेचैनी भी
उसी की इच्छा
से हो रही
होगी! इतनी सी
बात समझ में
नहीं आती? बड़ी-बड़ी
बातें समझ में
आ गईं :
संन्यास, अध्यात्म,
ध्यान, सब
बकवास है।
इतने बड़े
ज्ञानी हो गए,
और यह जो मन
में बेचैनी
बनी है, यह
समझ में नहीं
आती! यह सब उसी
की इच्छा से
हो रहा है तो
यह बेचैनी भी
उसी की इच्छा
से हो रही
होगी, इसको
स्वीकार कर लो।
इस बेचैनी से
बेचैन होने का
क्या कारण है?
कहते हो, सब उसी की
इच्छा से हो
रहा है। तो
फिर क्या बचा?
अब जो करवाए
वह करो। जो हो
उसे देखो।
नहीं, लेकिन
तुम हो चालबाज।
ध्यान तो करना
नहीं चाहते, तो कहते, जब
उसकी इच्छा से
होगा, होगा।
संन्यास तो
तुम लेने में
डरते हो, कायर
हो। तो कहते
हो, यह सब
तो बकवास।
लेकिन यह मन
की बेचैनी
कैसे मिटे
इसकी तरकीब खोज
रहे हो। इन
बेईमानियो का
ठीक-ठीक
साक्षात्कार
करो।
मन की बेचैनी
मिटाने को ही
संन्यास है।
मन की बेचैनी
मिटाने का ही
उपाय ध्यान है।
मन मिटे इसी
का नाम तो
अध्यात्म है।
और इनको तुम
बकवास कह रहे
हो। अब
तुम्हारी
मर्जी। तो फिर
मन की बेचैनी
को हटाने का
कोई उपाय नहीं।
औषधि को तो
बकवास कह रहे
हो, फिर कहते
हो बीमारी है,
अब इसका
क्या करें? अब बीमारी
को सम्हाली।
पूजा करो इसकी।
मंदिर बनाओ; उसमें रख कर
मन की बेचैनी,
घंटे बजाओ,
आरती उतारो।
क्या करोगे और
औषधि तो बकवास
है! और औषधि का
प्रयोग
किया? प्रयोग
करके कह रहे
हो? ध्यान
करके कह रहे
हो? अध्यात्म
में उतर कर कह
रहे हो? संन्यास
का कोई अनुभव
है?'
बच्चों
जैसी बातें न
करो। बिना
अनुभव के तो
कुछ मत कहो।
जिसका अनुभव
नहीं उस संबंध
में तो
वक्तव्य मत दो।
जिसका अनुभव
नहीं है उस
संबंध में चुप
रहो। अपने
अनुभव की सीमा
के बाहर जाकर
कोई बात मत कहो, अन्यथा वही
बात तुम्हारी
गर्दन पर
फांसी बन जाएगी।
अब तुम
पूछते हो, 'फिर भी मन
में एक अजीब
सी बेचैनी बनी
रहती है।
कृपया
मार्गदर्शन
करें।’
अब क्या खाक!
मार्गदर्शन
का उपाय नहीं
छोड़ा तुमने
कोई। क्योंकि
जो भी मैं
कहूंगा वह सब
बकवास है।
क्योंकि वह या
तो अध्यात्म
की कोटि में
आएगा, या
ध्यान की कोटि
में, या
संन्यास की
कोटि में। जो
भी मैं
कहूंगा...।
जरा प्रश्न
करनेवाले का
प्रश्न ठीक से
समझें, क्योंकि
ऐसी स्थिति
बहुत लोगों की
है।
'न तो कोई
प्रश्न
निर्धारित कर
पाता हूं और न
कोई उत्तर
पाने की लालसा
है। फिर भी
मार्गदर्शन...।’
तुम्हें
अगर कोई उत्तर
भी दे तो भी
तुम धन्यवाद देने
को भी तैयार
नहीं हो, इसलिए
कह रहे हो यह
बात : कि न कोई
उत्तर पाने की
लालसा है। तो
जब उत्तर पाने
की लालसा ही न
रही तो तुम
मार्गदर्शन
कैसे लोगे? उत्तर पाने
की लालसा हो, अभीप्सा हो,
मुमुक्षा
हो, गहरी
प्यास हो, तो
ही उत्तर लोगे;
नहीं तो
उत्तर कैसे
लोगे? मेरा
दिया उत्तर
व्यर्थ जाएगा।
तुमसे कहीं
संबंध न बनेगा।
और तुम कहते
हो, 'आपको
सुन-सुन कर
तथा कुछ अपने
अनुभव से...।’ मुझे तो
तुमने सुना ही
नहीं है। यहां
बैठे भला होओ
तुम, मगर
अगर मुझे सुना
होता तो जीवन
रूपांतरित हो
जाता। यह मन
की बेचैनी
अपने आप चली
गई होती। मुझे
सुना होता तो
ध्यान लग जाता।
मुझे सुना
होता तो
अध्यात्म का
रस आ जाता।
मुझे सुना
होता तो
संन्यास उतर
आता। मुझे तो
तुमने, सुना
नहीं है। हा, तुमने कुछ
सुन लिया होगा,
जो तुम
सुनना चाहते
हो।
मन बड़ा चाल बाज
है। और उसकी
चालबाजिया बडी
सूक्ष्म हैं।
वह वही सुन लेता
है जो सुनना
चाहता है।
मतलब की बात
सुन लेता है।
जो नहीं सुनना
है, नहीं
सुनता।
मुल्ला
नसरुद्दीन से
मैंने एक दिन
पूछा कि नसरुद्दीन,
तू कुरान
रोज पड़ता है
फिर भी तूशराब
पीए चला जाता
है? कुरान
में तो साफ
लिखा है शराब
के खिलाफ।
उसने कहा, बिलकुल
लिखा है।
लेकिन
अपनी-अपनी
सामर्थ्य से
जितना कर सकता
हूं करता हूं।
मैंने कहा, मैं कुछ
समझा नहीं। तो
उसने कहा कि
देखें, कुरान
में लिखा है : 'शराब
पीयोगे यदि तो
दोजख में
पड़ोगे।’ तो
अभी मैं आधे
ही वचन तक
पहुंचा हूं- 'शराब
पीयोगे..।’ इससे
आगे अभी मेरी
सामर्थ्य
नहीं है।
धीरे- धीरे
जाऊंगा। आगे
भी जाऊंगा मगर
अभी तो 'शराब
पीयोगे' इतने
तक.. .इतने तक रस
आ रहा है। यह
भी कुरान की
ही आज्ञा है।
मैं कोई कुरान
के विपरीत
नहीं चल रहा
हूं।
आदमी बड़ा
चालबाज है।
तुम यहां सुन
रहे हो
अष्टावक्र को।
अष्टावक्र
कहते हैं, न संन्यास
की जरूरत, न
ध्यान की
जरूरत, न
अध्यात्म की
जरूरत, न
शास्त्र की, न गुरु की।
तुम बड़े
प्रसन्न हो
रहे होओगे।
तुम कह रहे
होओगे, वाह!
यह तो हम सदा
ही कहते थे कि
किसी चीज की
कोई जरूरत
नहीं। लेकिन
तुम
अष्टावक्र को
नहीं समझ रहे।
अष्टावक्र
की बात बड़ी
ऊंची है।
अष्टावक्र कह
रहे हैं, सीडी
की कोई जरूरत
नहीं है
क्योंकि छत पर
पहुंच गए हैं।
और तुम खड़े हो
नीचे, तलघरे
में। और तुम
सुन कर बड़े
प्रसन्न हो
रहे हो कि
सीडी की कोई
जरूरत नहीं है।
तुम्हें तो
सीढ़ी की जरूरत
है। हां, एक
दिन सीडी की
जरूरत नहीं रह
जाएगी। वह
सौभाग्य का
दिन भी आएगा
कभी, लेकिन
सीडी से गुजर
कर ही आएगा; और कोई उपाय
नहीं है।
तुम तो अभी
वहां पड़े हो जहां
ध्यान भी
दुस्तर है।
ध्यान के अतीत
जाना तो अभी
कल्पना के
बाहर है। अभी
तो तुम विचार
में पड़े हो, विकृत विचार
में पड़े हो।
अष्टावक्र
निर्विचार की
अवस्था से बोल
रहे हैं कि
विचार की कोई
जरूरत नहीं।
विचार की कोई
जरूरत नहीं
इसलिए ध्यान
की भी कोई
जरूरत नहीं।
समझने की
कोशिश करना।
वे कह रहे हैं
कि विचार जब
होता है तो
ध्यान की जरूरत
होती है।
विचार बीमारी
है, ध्यान
औषधि। जब
विचार की ही
कोई जरूरत
नहीं है ऐसा
समझ गए तो फिर
ध्यान की भी
कोई जरूरत
नहीं। लेकिन
तुम क्या
करोगे? विचार
में तो रहे
आओगे और ध्यान
की जरूरत नहीं
है उतना समझ
लोगे। विचार
इससे मिटेगा
नहीं।
अगर ध्यान
की जरूरत नहीं
है, ऐसा
तुम्हारी समझ
में पूरा-पूरा
उतर गया तो इसका
अर्थ है, इसके
पहले यह
तुम्हारी समझ
में उतर चुका
होगा कि विचार
की कोई जरूरत
नहीं। जब
विचार की कोई
जरूरत नहीं तो
फिर ध्यान की
भी कोई जरूरत
नहीं। इतना
खयाल रखना।
इसको कसौटी
मान कर रखना।
इसलिए झंझट आ
रही है।
'ध्यान, अध्यात्म, संन्यास, सब व्यर्थ
की बकवास हैं,
और मन में
फिर भी एक
अजीब सी
बेचैनी बनी
रहती है।’
वह बनी ही
रहेगी।
क्योंकि तुम
बड़ी ऊंची बात
ले उड़े। जमीन
पर सरक रहे हो।
आकाश का सपना
देख लिया। कह
दिया, पंखों
की कोई जरूरत
नहीं। उड़ न
पाओगे, फिर
घसिटते ही
रहोगे।
इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूं विचार की
कोई जरूरत नहीं
है। लेकिन
विचार से कैसे
छूटोगे? अगर
समझ इतनी गहरी
हो, इतनी
प्रगाढ़ हो, ऐसी धारवान
हो कि इतनी
बात सुन कर ही
तुम विचार को
छोड़ दो, तब
तो फिर ध्यान
की भी कोई
जरूरत नहीं, बात खतम हो
गई। लेकिन तब
मन में बेचैनी
न रहेगी। बात
ही समाप्त हो
गई। मन ही
समाप्त हो गया,
बेचैनी
कहां होगी? न रहा बास, न बजेगी बांसुरी।
लेकिन अगर
इतनी बात सुन
कर हल न हो और
मन में बेचैनी
बनी रहे तो
तुम्हारे लिए
ध्यान की
जरूरत है। तुम
ध्यान के
माध्यम से ही
एक दिन मन की
बेचैनी के पार
होओगे। और मन
के जब पार
होओगे तब
ध्यान की बोतल
और विचार की
बीमारी, दोनों
कचरेघर में
फेंक देना।
फिर दवाइयां
अपने साथ लिए
मत फिरना। फिर
इनकी कोई
जरूरत न रह
जाएगीं। तब
तुम्हारे लिए
अष्टावक्र का
अर्थ प्रकट होगा।
कल मैंने
तुमसे कहा कि
दो तरह की
संभावनाएं हैं
: श्रावक और
साधु। जो सुन
कर ही पहुंच
जाए, सुनते ही
पहुंच जाए, सुनने में
और पहुंचने
में क्षण भर
का जिसे फर्क
न रहे, इधर
बात समझी कि
हो गई-जिसके
पास ऐसी
प्रगाढ़ मेधा
हो उसके लिए
तो साधु बनने
की कोई जरूरत
नहीं। वह तो
साधु हो ही
गया। लेकिन
ऐसा न हो पाए, मन में
बेचैनी बनी
रहे तो फिर
साधु की
प्रक्रिया से
गुजरना पड़ेगा।
फिर धीरे-
धीरे काटना
पड़ेगा। जो एक
ही तलवार की
चोट में नहीं
कटता है, वह
फिर धीरे- धीरे
काटना पड़ेगा।
उस धीरे- धीरे
काटने का नाम
ही साधना है।
तुम अपने को
समझ लेना।
तुम्हारी मन
की बेचैनी ही
खबर देती है
कि तुम्हें
धीरे-धीरे
काटना पड़ेगा।
अध्यात्म, संन्यास, ध्यान, गुरु,
सबसे
तुम्हें
गुजरना पड़ेगा।
और देर मत
करो। क्योंकि
कुछ पक्का
नहीं है, आज हो,
कल न हो जाओ।
देर मत करो, समय का कुछ
भरोसा नहीं है।
और जो गया समय
वह तो लौटता
नहीं। और जो आ
रहा है आगे वह
आएगा, नहीं
आएगा, इसकी
कोई
सुनिश्चितता
नहीं है। यही
क्षण
तुम्हारे हाथ
में है। चाहे
बेचैन हो लो, चाहे ध्यान
में उतर जाओ।
चाहे संसार
में भटक लो, चाहे संन्यास
में उठ जाओ।
यही क्षण
तुम्हारे हाथ
में है; या
तो अभी या कभी
नहीं। कल के
लिए मत सोचना
कि सोचेंगे, कल कर लेंगे।
क्या शबाब
था कि फूल-फूल
प्यार कर उठा
क्या सुरूप
था कि देख
आईना सिहर उठा
इस तरफ जमीन
और आसमां उधर
उठा
थाम कर जिगर
उठा कि जो
मिला नजर उठा
एक दिन मगर यहां
ऐसी कुछ हवा
चली
लुट गई
कली-कली कि
घुट गई
गली-गली
और हम
लुटे-लुटे
वक्त से
पिटे-पिटे
सांस की
शराब का खुमार
देखते रहे
कारवां
गुजर गया
गुबार देखते
रहे
जल्दी ही
पिट जाओगे।
वक्त सभी को
पीट कर रख
देता है।
जल्दी ही लुट
जाओगे। वक्त
का लुटेरा
किसी की चिंता
नहीं करता, सभी को लूट
लेता है। वक्त
का लुटेरा न
कोई कानून
मानता, न
कोई राज्य
मानता, न
कोई सरकार
मानता। वक्त
का लुटेरा लूट
ही रहा है, काट
ही रहा है
तुम्हारे
जीवन की जड़ों
को।
और हम
लुटे-लुटे
वक्त से
पिटे-पिटे
सांस की
शराब का खुमार
देखते रहे
कारवां
गुजर गया
गुबार देखते
रहे
जल्दी ही यह
जीवन का
कारवां जा
चुका होगा।
राह पर केवल
धूल के गुबार
रह जाएंगे।
अरथी उठेगी
जल्दी। और तब
तुम यह न कह
सकोगे कि अरथी
इत्यादि बकवास, खयाल रखना।
तब तुम यह न कह
सकोगे कि अरथी
इत्यादि
बकवास। तब तुम
यह न कह सकोगे,
यह मौत
इत्यादि बकवास।
तब तुम्हारी
बड़ी दुर्गति
हो जाएगी।
इसके पहले कि
समय चुक जाए, इसके पहले
कि अवसर चुक
जाए, कुछ
कर लो, कुछ
भर लो। यह
झोली खाली की
खाली न रह जाए।
और मैं
तुमसे कहता
हूं कि अगर
तुम ध्यान में
उतर सको-ज्ञान
में उतर जाओ
सीधे, बड़ा
शुभ। सौ में
कोई एकाध उतर
पाता है सीधा,
निन्यानबे
को ध्यान से
ही जाना पड़ता।
इसलिए तो
अष्टावक्र का
इतना
महिमावान
शास्त्र कभी
भी बहुत लोगों
के काम नहीं आ
सका; आ
नहीं सकता। वह
बहुत चुनिंदा
लोगों के लिए
है। वह
सामान्य रूप
से किसी काम
का नहीं है।
कोई अलबर्ट
आइंस्टीन, कोई
गौतम बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई मोहम्मद,
कोई जीसस, बस ऐसे
लोगों के काम
का है।
इने-गिने
अंगुलियों पर
गिने जा सकें
जो, ऐसे
थोड़े से लोगों
के काम का है।
इसलिए
शास्त्र
अनूठा है
लेकिन बहुत
लोग इस शास्त्र
का शस्त्र न
बना पाए कि
जिससे जीवन का
जाल कट जाता।
जीवन का जाल
काटने के लिए
तुम्हें अपनी सामर्थ्य
से ही चलना
पड़ेगा।
तुम्हें अपने
को ही देख कर
चलना पड़ेगा।
अष्टावक्र को
सुनते- सुनते
तुम ज्ञान को
उपलब्ध हो जाओ, तुम्हारे मन
की बेचैनी मिट
जाए शुभ हुआ।
फिर किसी
संन्यास की
कोई जरूरत
नहीं। मगर
कसौटी समझना
मन की बेचैनी
को। अगर
बेचैनी न कटे
तो समझ लेना
कि अकेले
ज्ञान से कुछ
तुम्हारे लिए
होने वाला
नहीं है।
तुम्हें
ध्यान से जाना
पड़ेगा। फिर
बचाव मत करना;
फिर ध्यान
में उतरना।
अगर ध्यान
में उतर सके
तो एक दिन
विचार कट जाएंगे।
जिस दिन विचार
कट गए उस दिन
ध्यान भी
व्यर्थ हुआ।
पैर में काटा
लग जाता है, दूसरे काटे
से हम उसे
निकाल लेते
हैं। फिर
दोनों कीटों
को फेंक देते
हैं। फिर
दूसरे कांटे
से जो हमने
निकाला है उसे
सम्हाल कर
थोड़े ही खीसे
में रख लेते
हैं। उसकी
पूजा थोड़े ही
करते हैं कि
यह काटा बड़ा
उपकारी है।
त्राता!
तारणहार! फिर
उसको भी फेंक
देते हैं।
कांटा तो
कांटा ही है।
इसको भी पास
रखने में खतरा
है। यह भी गड़
सकता है। और
खीसे में रखा
तो छाती में
गड़ेगा। दोनों
को फेंक देते
हैं।
विचार
कांटा है, ध्यान भी
कांटा है।
ध्यान के
कांटे से
विचार के
कांटे को
निकाल लेते
हैं, फिर
दोनों को विदा
कर देते
हैं-नमस्कार।
अगर ध्यान घुट
सका तो विचार
और ध्यान
दोनों चले
जाएंगे। फिर
उस दिन तुम
जानोगे कि
संन्यास क्या
है, अध्यात्म
क्या है।
'जहां मन
नहीं वहां
अध्यात्म के
फूल खिलते हैं,
कमल खिलते
हैं। जहां मन
नहीं वहां
संन्यास की
सुवास बिखरती
है। अभी तुम
ऐसी बातें न
कहो। ये बातें
छोटे मुंह बड़ी
बातें हो जाती
हैं।
अष्टावक्र
कहते हैं ठीक;
तुम मत कहो।
तुम्हें अगर
कहनी हैं तो
अपने मन को
जांच कर कहो।
फिर बेचैनी
बीच में मत
लाओ; और
फिर
मार्गदर्शन
मत पूछो।
पांचवां
प्रश्न :
कल आपने कहा, 'निर्बल के
बल राम। हारे
को हरिनाम।’ परंतु कुछ
दिन पूर्व
आपने कहा था
कि परमात्मा
के सामने
भिखारी की तरह
नहीं, वरन
सम्राट की तरह
ही जाया जा
सकता है।
कृपया विरोधाभास
को स्पष्ट
करें।
विरोधाभास
तुम्हें
दिखाई पड़ते
हैं, क्योंकि
तुम्हारे पास
अविरोध को
देखने की समझ
नहीं है।
तुम्हारे पास
वैसी आंख नहीं
है जो अविरोध
को देख ले। तो
तत्क्षण हर
चीज
विरोधाभासी
हो जाती है।
तुमने देखी
नहीं कि चीज
विरोधाभासी
हुई नहीं।
समझने की
कोशिश करो :
निर्बल के बल
राम। लेकिन
निर्बल का
मतलब भिखारी
नहीं होता। और
निर्बल के बल
राम-जिस
निर्बलता में
राम मिल जाते
हों वह
निर्बलता
भिखमंगापन
नहीं हो सकती।
वह निर्बलता
तो साम्राज्य
का द्वार हुई।
निर्बल के बल
राम का अर्थ
है, जिसने
अपने अहंकार
के बल को छोड़
दिया। जिसने
कहा, अब
मेरा कोई बल
नहीं।
इससे कुछ बल
थोड़े ही मिट
जाता है। इससे
ही पहली दफा
बल पैदा होता
है। तुम्हारा
अहंकार ही तो
तुम्हें मारे
डाल रहा है।
वही तो तुम्हारी
छाती पर बंधा
हुआ पत्थर है, गर्दन में
बंधी फांसी है।
बल कहां है
तुम्हारे
अहंकार में? सिर्फ बल का
दंभ है। बल
कहां है? क्या
कर लोगे
तुम्हारे
अहंकार से? सिकंदर और
नेपोलियन और
चंगीज और
तैमूर क्या कर
पाते हैं? सारा
बल धरा रह
जाता है। सारा
बल पड़ा रह
जाता है। मौत
का झोंका आता
है और सब हवा
निकल जाती है।
गुब्बारा फूट
जाता है।
जितना बड़ा
अहंकार उतने
ही जल्दी
गुब्बारा फूट
जाता है। देखा, छोटे बच्चे
फुग्गे को हवा
भरते जाते, भरते जाते।
गुब्बारा बड़ा
होता जाता।
जैसे-जैसे
गुब्बारा बड़ा
होता है
वैसे-वैसे फूटने
के करीब आ रहा
है। जब
गुब्बारा
पूरा बड़ा हो
जाता है तो
फूट जाता है।
नेपोलियन और
सिकंदर फूले
हुए गुब्बारे
हैं।
तुम्हारा
अहंकार है
क्या? बल
क्या है
तुम्हारे
अहंकार में? तुम्हारे
अहंकार से
होता क्या है?
कुछ भी तो
नहीं होता।
निर्बल के
बल राम का
अर्थ है, जिस
व्यक्ति ने
अपनी अस्मिता
का दंभ छोड़ा, अहंकार का
भाव छोड़ा। इस
तरफ से निर्बल
हुआ। क्योंकि
अब तक जिसको
बल माना था वह
बल गया। लेकिन
वस्तुत: थोड़े
ही निर्बल हुआ।
यही तो अर्थ
है निर्बल के
बल राम। जैसे
ही अपना बल
गया कि राम का
बल पैदा हुआ।
राम का बल
तुम्हारे
भीतर छिपा है,
तुम्हारे
प्राणों में
दबा है। इधर
ऊपर से तुमने
अहंकार का
गुब्बारा
छोड़ा कि बस
आया।
रवींद्रनाथ
ने एक कविता
लिखी है, प्यारी
है। लिखा है
अपनी कविता
में कि एक रात
बजरे पर था।
पूर्णिमा की
रात, पूरा
चांद आकाश में।
बड़ी लुभावनी
रात। चांद की
बरसती रात। और
वे अपनी नाव
पर अपने बजरे
में अंदर बैठे
हैं। कोई
किताब पढ़ रहे
हैं। सौंदर्य
के संबंध में
सौंदर्यशास्त्र
की कोई किताब
पढ़ रहे हैं।
एक छोटी सी
मोमबत्ती जला
रखी है, उसका
पीला
टिमटिमाता
प्रकाश-उसी
में वे पढ़ रहे
हैं। आधी रात
गए किताब पूरी
हुई। फूंक मार
कर मोमबत्ती
बुझा दी।
मोमबत्ती बुझाते
ही चकित खड़े
रह गए। द्वार
से, खिड़की
से, रंध्र-रंध्र
से बजरे की, चांद की
रोशनी भीतर आ
गई। अपूर्व!
नाच उठे। फिर
रोने लगे।
क्योंकि तब
याद आया कि
सौंदर्य बाहर
बरस रहा है।
चांद द्वार पर
खड़ा है। और
मैं इस
मोमबत्ती को
जलाए, इसके
गंदे से
प्रकाश में
सौंदर्यशास्त्र
पढ़ रहा हूं।
सौंदर्य
द्वार पर खड़ा
है और मैं
किताब में सौंदर्य
खोज रहा हूं।
और इस
मोमबत्ती के
धीमे से
प्रकाश ने
चांद की रोशनी
को भीतर आने
से रोक दिया
है।
तुमने कभी
देखा? छोटा
सा प्रकाश
मोमबत्ती का,
चांद भीतर
नहीं आता।
मोमबत्ती बुझ
गई, भर गया
चांद भीतर, सब तरफ से
दौड़ आया।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है, वह घड़ी मेरे
जीवन में बड़ी
शुभ घड़ी हो गई।
उस दिन मैंने
जाना, ऐसी
ही अहंकार की
मोमबत्ती है।
जब तक जलती
रहती है तब तक
प्रभु का
प्रकाश द्वार
पर खड़ा रहता
है, भीतर
नहीं आ पाता।
फूंक मार कर
बुझा दो यह
मोमबत्ती, दौड़ा
चला आता प्रभु।
निर्बल के बल
राम।
इसका मतलब
यह नहीं है कि
जब तुम निर्बल
हो जाते हो तो
तुम भिखारी हो
जाते हो।
निर्बल होते
ही तुम सम्राट
हो जाते हो।
जीसस के वचन
हैं : 'ब्लेसेड
आर द मीक, फॉर
दे शैल
इनहेरिट द
अर्थ; फॉर
देअर्स इज द
किंगडम ऑफ गॉड।’
धन्यभागी
हैं निर्बल।
उन्हीं का है
सारा जगत और
वे ही हैं
प्रभु के राज्य
के मालिक।
सम्राट हो
जाता है आदमी
निर्बल होकर।
तो मैं तुमसे
फिर कहता हूं
भिखारी की तरह
परमात्मा के द्वार
पर मत जाना।
भिखारी का
मतलब है, अहंकारी
की तरह
परमात्मा के
द्वार पर मत
जाना। अहंकार
भिखमंगा है।
मांग ही मल तो
है अहंकार के
पास, और
क्या है? धन
दो, पद दो, प्रतिष्ठा
दो, कुर्सी
दो। अंहकार के
पास और क्या है?
दो, दो, दो! मांगता ही
चला जाता। और
मिले, और
मिले, और
मिले। मांगता
ही चला जाता।
मंगना है, भिखमंगा
है।
सम्राट कौन? जिसकी मांग
चली गई, जो
मांगता नहीं,
वही सम्राट
है। और
मांगेगा कौन
नहीं? जिसको
राम मिल जाएं
वही नहीं
मांगेगा; बाकी
तो मांगते ही
रहेंगे। राम
को पाकर फिर
क्या मांगने
को बचा? और
राम मिलते
केवल उसी को, जो निर्बल
है। धन्यभागी
हैं निर्बल।
सम्राट हो
जाते हैं वे।
उनकी
निर्बलता बल
है-निर्बल के
बल राम।
लेकिन तुम
जरूर
विरोधाभास
देख लिए होओगे।
क्योंकि जब
मैंने कहा, सम्राट की
तरह जाओ तो
तुम्हारे
अहंकार ने कहा
कि सुनो!
सुनते हो? अकड़
कर चलना है अब।
कोई भिखमंगे
की तरह नहीं
जाना है। झंडा
ऊंचा रहे
हमारा! अब
अक्ल कर जाना
है। अब
परमात्मा पर
हमला बोलना है,
कोई ऐसे भिखारी
की तरह नहीं
जाना।
बैंड-बाजे
लेकर जाना है।
उसको भी बता
देना है कि
कोई आ रहा है।
तुम यह समझे
होओगे, जब
मैंने कहा कि
सम्राट की तरह
जाओ। सम्राट
की तरह जाने
का अर्थ है, कोई मांग
लेकर मत जाओ। मांग
छोड़ कर जाओ।
और मांग अगर
सब छूट जाए तो
अहंकार नहीं
बचेगा। क्योंकि
अहंकार मांग
पर ही जीता है।
अहंकार मंगना
है, भिखारी
है।
लेकिन तुम
कुछ का कुछ
समझ लेते हो
यह मैं जानता
हूं। तुम कुछ
का कुछ समझने
के लिए मजबूर
हो। जैसे ही
मैंने कहा, सम्राट की
तरह जाओ, तुम्हारी
रीढ़ सीधी हो
गई होगी। तुम
अकड़ कर बैठ गए
होओगे। तुमने
कहा कि बात
कही पते की।
अरे, मैं
और भिखमंगे की
तरह जाऊं? अब
रास्ता मिल
गया।
तुम तबसे ही
अकड़ कर चल रहे
हो। कृपा करके
रीढ़ जरा ठीक
करो। यह मैंने
कहा नहीं है।
तुम जो सुन
लेते हो, जरूरी
नहीं है कि
मैंने कहा हो।
जो मैंने कहा
है, जरूरी
नहीं है कि
तुमने सुना हो।
इसलिए जल्दी
मत करना
निष्कर्ष
लेने की। बहुत
सोच-विचार कर
लेना। बार-बार
सुन लेना। सब
तरह से
जांच-परख कर
लेना। अन्यथा
तुम धोखा खा
जाओगे।
निर्बल के
बल राम, हारे
को हरिनाम। जो
हार गया है, उसका ही
हरिनाम। अब
हारे से तुम क्या
अर्थ लेते हो?
हारे से यह
मतलब नही है
कि लोमड़ी उछली
और अंगूरों का
गुच्छा न पा
सकी। उसने
चारों तरफ
देखा, कोई
नहीं देख रहा
है, चल पड़ी।
एक खरगोश छिपा
देख रहा था एक
झाड़ी में।
उसने कहा, मौसी,
क्या मामला
है? उछलीं,
पहुंच नहीं
पाईं? अब यह
तो अहंकार को
चोट लगती थी
लोमड़ी को।
लोमड़ी ने कहा,
अरे कुछ भी
नहीं। कुछ मामला
नहीं। अंगूर
खट्टे हैं, पहुंचने
योग्य ही नहीं
हैं।
एक तो यह हार
है। इस हार की
बात नहीं कर
रहा हूं। कि
तुमने धन पाना
चाहा और पहुंच
नहीं सके तो तुमने
कहा, मार दी
लात। था ही
नहीं धन तो
लात क्या खाक
मारी! लात
मारने का
हकदार तो वही
है जिसके पास
हो।
इस विफलता को
नहीं कह रहा
हूं हारना कि
होना तो चाहते
थे राष्ट्रपति, न हो पाए
म्युनिसिपल
के मेंबर, सोचा
कि अरे, कुछ
नहीं रखा पद
इत्यादि में।
एकदम शास्त्र
पढ़ने लगे, सत्संग
करने लगे।
कहने लगे कि
इसमें कुछ
नहीं रखा। यह
सब दौड़- धाप
व्यर्थ की
बकवास है। मैं
तो
आध्यात्मिक
हो गया। दौड़ते
थे स्त्री के
पीछे, नहीं
पा सके स्त्री
को क्योंकि और
भी प्रतियोगी
थे तो सोच
लिया कि कुछ
रखा नहीं।
स्त्रियां
हैं क्या? हड्डी-मास-मज्जा
का ढेर है; खून-कफ
इत्यादि भरा
पड़ा है; ऐसी-
ऐसी बातें
सोचने लगे।
ऐसा सोच कर मन
को समझा लिया,
मह
खट्टेहैं।
शास्त्रों
में लिखी हैं
ऐसी बातें।
ये पहले तरह
के, इन हारे
लोगों ने लिखी
होंगी। इनके
लिए नहीं कह
रहा हूं हारे
को हरिनाम। ये
तो हार ही गए।
ये तो हरिनाम
भी क्या खाक
लेंगे! इनको
तो जीवन का
स्वाद ही नहीं
मिला। यह जो
लोमड़ी चली गई
है उचक कर और
नहीं पहुंच सकी
अंगूरों तक, क्या तुम
सोचते हो इसके
मन में अहो की
याद न आएगी? खरगोश को
धोखा दे दे।
शायद खरगोश ने
मान भी लिया
हो। खरगोश
भोले- भाले
धार्मिक लोग!
मान लिया हो।
श्रद्धालु जन!
स्वीकार कर
लिया हो कि
ठीक कहती है, और खट्टे
हैं। लेकिन
खुद को कैसे
धोखा देगी? खुद तो
जानती है उछली
थी, पहुंच
न सकी। स्वाद
ही नहीं लिया
तो खट्टे होने
का पक्का कैसे
हो सकता है? रात सपने
में फिर
उछलेगी। ये अण
इसके मन में
चक्कर
काटेंगे।
वही तो
तुम्हारे
साधु-संन्यासियों
का होता है।
स्त्री छोड़ कर
भाग गए, स्त्री
चक्कर काट रही
है। जितने
सपने
तुम्हारे
साधु-संन्यासी
स्त्रियों के
देखते हैं
उतना कोई नहीं
देखता।
गृहस्थ तो
देखते ही नहीं।
गृहस्थों को
कहां फुरसत
स्त्री का
सपना देखने
की! दिन भर
सताती है, रात
तो छुटकारा
मिले।
जिनके पास
धन है वह धन का
सपना नहीं
देखते, भिखमंगे
देखते हैं।
जिनके पास पद
है वे पद का
सपना नहीं
देखते, पदहीन
देखते हैं। जो
नहीं है उसका
सपना देखा
जाता है।
जिसका स्वाद
नहीं लिया
उसकी
आकांक्षा बनी
रहती है।
नहीं, इस
तरह के हारे
हुए लोगों के
लिए नहीं कह
रहा हूं। फिर
किस तरह के
हारे हुए लोग? एक और तरह की
हार है। एक तो
विफलता है जो
विफलता से
मिलती है। और एक
ऐसी विफलता है
जो सफलता से मिलती
है। जब एक
आदमी सफल हो जाता
है; और
अचानक पाता है
सफलता तो मिल
गई और हाथ में
राख है। अंगुर
पहुंच गए हाथ,
तोड़ लिए चख
भी लिए और कुछ
भी न पाया।
प्लास्टिक के
अगर थे। अंगुर
थे ही नहीं, धोखा था। धन
पा लिया, ढेर
लगा लिया और
अचानक पाया, कुछ भी नहीं
है। भीतर तो
हम निर्धन के
निर्धन रह गए
हैं। बड़े पद
पर बैठ गए और
पाया कि क्या
हुआ? हम तो
वही के वही
हैं। जमीन पर
बैठे थे तो
वही थे, कुर्सी
पर बैठ गए तो
वही हैं। कुछ
फर्क तोहुआ
नहीं। सारी
दुनिया में
नाम फैल गया, सब लोग जानने
लगे, क्या
हुआ? कुछ
भी तो न मिला।
यह वाहवाही
मिली, लेकिन
न इससे पेट
भरता, न
आत्मा भरती।
यह सब ऊपर-ऊपर
हो गया, भीतर
तो हम खाली के
खाली रह गए।
एक विफलता
है जो विफलता
से मिलती है, उसकी मैं
बात नहीं कर
रहा। वह भी
कोई विफलता है?
वैसा विफल
आदमी जब
संन्यास ले
लेता है तो वह
नपुंसक का
ब्रह्मचर्य
है। नपुंसक
कसम खा ले कि
ब्रह्मचर्य
ले लिया। वह
ऐसा नपुंसक का
ब्रह्मचर्य
है। नहीं, उसकी
मैं बात नहीं
कर रहा। मैं
कोई और ही बात
कर रहा हूं।
ऐसी विफलता जो
सफलता से
मिलती है। ऐसी
निर्धनता जो
धन के पाने पर
पता चलती है।
सब पा लिया और
अचानक लगता है,
सब असार।
स्वाद ले लिया
और पाया कि
अगर खट्टे हैं।
और खट्टे ही
रहते हैं, पकते
ही नहीं। इस
संसार का कोई
अगर कभी नहीं
पकता, खट्टा
ही रहता है।
इस स्वाद के
बाद फिर सपना
नहीं आता; फिर वासना
नहीं जागती।
इस स्वाद के
बाद संसार
छोड़ना नहीं
पड़ता, छूट
जाता है। पहले
हारेपन में
छोड़ना पड़ता है,
चेष्टा
करनी पड़ती है।
दूसरे हार में
छूट जाता है
बिना चेष्टा
के, बिना
प्रयत्न के, अकृत्रिम
रूप से, सहज
रूप से छूट
जाता है। जान
लिया, छूट
गया। जानना ही
क्रांति बन
जाती है।
ऐसे
व्यक्ति को
मैं कहता हूं :
हारे को
हरिनाम। और तब
हरिनाम उठता
है। इस हार
में हरिनाम
उठता है।
अहंकार तो गिर
गया हार में, संसार तो
गिर गया हार
में, अब
उठता हरिनाम।
ऐसा आदमी
विषाद में
नहीं लेता हरि
का नाम। ऐसा
आदमी संसार
व्यर्थ हो गया
इस आनंदभाव से
डोल कर हरि का
नाम लेता है।
ऐसे आदमी का
हरिनाम
रसविमुग्धता
से उठता है। देख
लिया, बाहर
कुछ भी नहीं
है, अब
भीतर लौटता है।
और रस ही रस की
धार बहती है।
इसी को मैं
सम्राट कहता
हूं। लेकिन
तुम्हारी
कठिनाई भी मैं
समझता हूं।
तुम्हें
विरोधाभास
दिखाई पड़ता है
क्योंकि तुम
बुद्धि से
सुनते हो।
बुद्धि हर चीज
में
विरोधाभास
देखती है।
क्योंकि बुद्धि
का उपाय ही हर
चीज को
टुक्कों में
तोड़ देना है।
जैसे कांच के
टुक्ते के
प्रिज्य से
गुजर कर किरण
सात रंगों में
टूट जाती है, ऐसे ही
बुद्धि से हर
चीज गुजर कर
दो में टूट जाती
है, द्वैत
हो जाता है, दुई पैदा हो
जाती है। बुद्धि
से कोई भी चीज
निकली तो दो
पैदा हुए तत्क्षण
पैदा हुए। है
तो एक, बुद्धि
हर चीज को दो
कर देती है।
जीवन को
देखने-समझने
का एक और ढंग
है बुद्धि से
अतिरिक्त-हृदय
का; विचार के
अतिरिक्त
प्रेम का।
प्यार अगर
थामता न पथ
में
उंगली इस
बीमार उमर की
हर पीड़ा
वेश्या बन
जाती
हर आंसू
-आवारा होता
मन तो मौसम-सा
चंचल है
सबका होकर
भी न किसी का
अभी सुबह का
अभी शाम का
अभी रुदन का
अभी हंसी का
जीवन क्या
है? एक बात जो
इतनी सिर्फ
समझ में आए
कहे इसे वह
भी पछताए
सुने इसे वह
भी पछताए
मगर यही
अनबूझ पहेली
शिशु-सी
सरल-सहज बन
जाती
अगर तर्क को
छोड़, भावना
के संग किया
गुजारा होता
हर घर आंगन
रंगमंच है
और हरेक सास
कठपुतली
प्यार
सिर्फ वह डोर
कि जिस पर
नाचे बादल
नाचे बिजली
तुम चाहे
विश्वास न लाओ
लेकिन मैं
तो यही कहूंगा
प्यार न
होता धरती पर
तो
सारा जग
बंजारा होता
प्यार अगर
थामता न पथ
में
उंगली इस
बीमार उमर की
हर पीड़ा वेश्या
बन जाती
हर आंसू
आवारा होता
खयाल करो, बुद्धि
वेश्या है।
उसका कोई
भरोसा नहीं।
कभी यह कहती, कभी वह कहती
है। बुद्धि से
कभी कोई
निश्चय होता
ही नहीं।
बुद्धि आवारा
है। बुद्धि
पतिव्रता
नहीं है। कभी
सुबह के साथ, कभी शाम के
साथ। कभी एक, कभी
दो-बुद्धि
डोलती ही रहती
है। बुद्धि
डावाडोलपन है।
बुद्धि कभी
थिर नहीं होती।
तो बुद्धि एक
में से भी दो
अर्थ निकाल
लेती है, तभी
तो डोल सकती
है; नहीं
तो डोल न
सकेगी। एक और
भी ढंग है
जीवन को देखने
का, वह है
प्रेम; वह
है हृदय। तुम
मुझे सुनते हो,
तुम बुद्धि
से सुनोगे तो
तुम्हें रोज-रोज
विरोधाभास
मिलेंगे।
तुम्हें
पंक्ति-पंक्ति
पर विरोधाभास
मिलेंगे।
तुम्हें
कदम-कदम पर, पग-पग पर
विरोधाभास
मिलेंगे। अगर
तुमने बुद्धि
से सुना तो
तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे। एक और
ढंग है प्रेम
से सुनने का।
प्रेम का अर्थ
है, जहां
दो एक हो जाते
हैं। जहां सब
विरोधाभास खो
जाते हैं।
जहां एक स्वर
बजता, एक
नाद रह जाता।
जहां एक ही
अर्थ गूंजता।
और मैं एक ही
बात कह रहा
हूं-कितने ही
ढंग से कहूं
और कितने ही
शब्दों में
कहूं। कभी
भक्ति के नाम
से कहूं कभी
ज्ञान के नाम
से कहूं कभी
ध्यान के नाम
से, कभी योग
के नाम से, लेकिन
मैं एक ही बात
कह रहा हूं।
तुमने अगर
प्रेम से सुना
तो तुम उस एक
को ही सुन
पाओगे। और तब
तुम्हारे
सामने अर्थ
जैसे होने
चाहिए वैसे प्रकट
होंगे।
अब
सीधी-सीधी बात
है कि मैं हर
बार कहता हूं
हारे को
हरिनाम। और
कितनी बार
तुमसे मैंने
कहा है, निर्बल
के बल राम। और
कितनी वार
तुमसे मैंने
कहा है, भिखारी
की तरह मत
जाना, सम्राट
की तरह जाना।
तुमने काश, इसे हृदय से
सुना होता तो
तुम्हारे
सामने अर्थ
प्रकट हो जाता।
जो अर्थ मैंने
तुमसे अभी कहा
वह तुम भी खोज
ले सकते थे
अगर प्रेम से
सुना होता।
लेकिन तुम
सुनते हो
खोपड़ी से। तुम
तैयार ही रहते
हो कि कोई चीज
ऐसी दिखाई पड़
जाए जिसमें
विरोध है। तो
फिर तुम जरा
भी चेष्टा
नहीं करते
सेतु बनाने का,
कि दोनों के
बीच कोई सेतु
जरूर होगा। जब
मैंने कहा है
तो जरूर कोई
सेतु होगा।
सेतु को
खोजें। सेतु
को खोजने में
लगो। पहले
अपने भीतर
सेतु को खोजो।
जब न खोज सको तब
पूछो। और मैं
तुमसे कहता
हूं सेतु तुम
धीरे- धीरे खोजने
लगोगे और
तुम्हें
विरोध समाप्त
होने लगेंगे।
तुम्हें मेरी
असंगतियों
में संगति का
स्वर सुनाई
पड़ने लगेगा।
क्योंकि
असंगति हो
नहीं सकती।
मैं जहां से
बोल रहा हूं
वहां एक
का
ही वास है।
कभी एक रंग
में ढालता, कभी दूसरे
रंग में डालता।
कभी एक गीत
में
गुनगुनाता, कभी दूसरे
गीत में
गुनगुनाता।
ये भेद
शब्दों के
होते हैं।
मेरे भीतर एक
का ही निवास
है। वही एक
अनेक शब्दों
में प्रकट हो
रहा है। इसे
तुम स्मरण रखो।
इसे बार-बार
भूल मत जाओ।
और हर विरोध
के बीच जब
तुम्हें
विरोध दिखाई
पड़े तो बड़े
ध्यान को
पुकारों।
शांत होकर
बैठो, खोजो,
कहीं सेतु
होगा। और तुम
सेतु को पा
लोगे। और उस
सेतु को पा
लेने से
तुम्हारे
भीतर एक और तरह
की समझ का
दीया जलेगा, जिसको हम
प्रेम कहते
हैं।
आखिरी
प्रश्न :
हे री सखि
बतलाओ मुझे
पी की
मनभावन की
बतिया
गुणहीन
मलिन शरीर
मेरा
कुछ
हार-सिंगार
किया ही नहीं
नहीं जानूं
मैं प्रेम की
बात कोई
मेरी कांपत
है डर से
छतिया
पिया अंदर
महल विराज रहे
घर-काजन मैं
अटकाय रही
नहीं एक
घड़ी-पत्न संग
किया
बिरथा सब
बीत गई रतिया
पिया सोवत
ऊंची अटारिन
में
जहां जीव
परीत की गम ही
नहीं
किस मारग
होय के जाय
मिलूं
किस भाति
बनाए लिखूं पतिया
मैं इस भजन
के साथ खो
जाता हूं।
कृपा कर मुझे
इसका भावार्थ
समझाएं।
खोजाने
में ही
भावार्थ है।
समझने की बात
नहीं है, खो
जाने की ही
बात है।
समझोगे तो
अर्थ खो जाएगा।
समझो ही मत।
डूबो।
जिसने पूछा
है, विचार की जगह
भावपूर्ण
व्यक्ति हैं।
जिसने पूछा है,
ध्यान की
जगह भजन उनके
लिए मार्ग
होगा। डुबकी
लगाओ। समझ
इत्यादि की
बकवास छोड़ो।
जिसको डूबना
आता हो वह
फिक्र छोड़
सकता है समझने
की। जिसको
डूबना न आता
हो वह समझे।
क्योंकि फिर
वह समझ-समझ कर
ही डूब सकेगा;
वह इंच-इंच
बढ़ेगा।
इसका अर्थ
मत पूछो।
लेकिन इसका
सार समझने
जैसा है।
'हे री सखि
बतलाओ मुझे
पी की
मनभावन की
बतिया।’
प्रेमी सदा
यही पूछ रहा
है; एक ही बात
पूछ रहा है कि
उस प्रिय की
कुछ खबर दो, कहां है? कहां
छिपा है? कहां
खोजें? उसका
पता क्या है? उसके संबंध
में कुछ बात
करो।
सत्संग का
यही अर्थ होता
है : जहां उस
परमप्रिय की
बात चलती हो।
जहां बैठ कर
चार दीवाने उस
परमप्रिय के
गीत गाते हों, स्तुति करते
हों। जहां चार
दीवाने मिल
बैठते हों
वहीं मंदिर बन
जाता है। जहां
चार दीवाने
परमात्मा की
चर्चा करते
हों वहीं
शास्त्र
जन्मने लगते
हैं। मंदिर
ईंट-पत्थर के
मकानों में
नहीं है, मंदिर
तो वहा है
जहां चार पागल
बैठ कर प्रभु
की चर्चा करते
हैं, आंसू
बहाते हैं।
'हे री सखि
बतलाओ मुझे
पी की
मनभावन की
बतिया
गुणहीन
मलिन शरीर
मेरा
कुछ
हार-सिंगार
किया ही नहीं'
और प्रेमी
को तो सदा ऐसा
लगता है कि
मैं अपात्र हूं।
क्या तो गुण
है मेरा? स्वच्छ
भी नहीं हूं
बड़ा मलिन हूं।
प्रेमी का कोई
अहंकार तो
नहीं होता।
अहंकार तो
पंडित का, ज्ञानी
का होता है।
वह कहता है
इतने शास्त्र
जानता हूं
इतनी पूजा की,
इतना पाठ
किया, इतने
मंत्रजाप किए,
इतनी माला
फेरी, वह
हिसाब रखता है।
भक्त तो कहता
है, मैंने
कुछ भी नहीं
किया।
'गुणहीन
मलिन शरीर
मेरा
कुछ
हार-सिंगार
किया ही नहीं
नहीं जानूं
मैं प्रेम की
बात कोई
मेरी कांपत
है डर से
छतिया'
और भक्त तो
कहता है कि
अगर प्रभु
मुझे मिल जाएगा
तो मैं घबड़ाता
हूं। क्या
कहूंगा? क्योंकि
मुझे प्रेम का
तो कुछ पता ही
नहीं। प्रेमी
सदा ही यही
कहता है कि
मुझे प्रेम का
पता नहीं। और
ज्ञानी सदा
कहता है कि
मुझे प्रेम का
पता है। जिसको
पता नहीं है
वह कहता है
पता है, और
जिसको पता है
वह कहता है
पता नहीं।
उपनिषद
कहते हैं, जो कहे कि
मैं ईश्वर को
जानता हूं
जानना कि नहीं
जानता। सुकरात
ने कहा है, जब
मैंने जाना तो
जाना कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं।
प्रेम सदा
अनुभव करता है
कि मैं कुछ भी
नहीं जानता।
'नहीं
जानूं मैं
प्रेम की बात
कोई
मेरी कांपत
है डर से
छतिया
पिया
अंदर महल
विराज रहे
घर-काजन मैं
अटकाय रही'
और यह भी
प्रेमी जानता
है कि परमात्मा
दूर नहीं है।
'पिया
अंदर महल
विराज रहे।’
यहीं छिपा
है। भीतर ही
छिपा है। दूर
हो कैसे सकता
है? प्राणों
के प्राण में
बसा है, रचा
है, पचा है।
दूर हो कैसे
सकता है? श्वास-श्वास
में वही है।
फिर उलझन क्या
है? उलझन
इतनी ही है-
'घर-काजन
मैं अटकाय रही'
मैं बाहर
अटका हूं
प्रभु भीतर
बसा है। प्रभु
अपने ही घर
में बैठा है
और मैं घर के
बाहर के कामों
में उलझा हूं।
हजार
व्यस्तताएं
हैं, उनमें
उलझा हूं।
'पिया
अंदर महल
विराज रहे
घर-काजन मैं
अटकाय रही
नहीं एक
घड़ी-पल संग
किया
बिरथा सब
बीत गई रतिया'
जीसस के
जीवन में एक
उल्लेख है, वे एक घर में
मेहमान हुए, मैरी और
मार्था के
घर-दो बहनें।
मार्था तो काम
में लग गई। घर
की सफाई करनी,
भोजन बनाना,
जीसस घर में
मेहमान हैं।
और मैरी जीसस
के चरणों में
बैठ रही, उनके
पैर दबाने लगी।
मार्था
बार-बार उसे
बुलाने लगी कि
मैरी, तैयारी
करो, मेहमान
घर में हैं।
इतना बड़ा
मेहमान आया, भोजन बनाओ।
और भी मेहमान
आते होंगे, जीसस के
शिष्य आते
होंगे, तैयारी
करो। लेकिन वह
तो विमुग्ध
बैठी। वह तो
जीसस के पैर
दबा रही है।
आखिर जब
बार-बार
मार्था ने कहा
तो जीसस ने
कहा, मार्था
सुन। तू
तैयारी कर, मैरी तैयारी
न कर सकेगी।
तू उलझ, मैरी
न उलझ सकेगी।
जब मेहमान घर
में है तो
मैरी और कहीं
नहीं हो सकती।
वह भी घर में
है, वह भी
भीतर है। मैं
उसकी आंखों
में देख रहा
हूं। अब उसकी
सुध-बुध नहीं
है उसे। अब ये
सारी बातें कि
घर की तैयारी
करनी, भोजन
बनाना, लोग
आते होंगे, यह करना, सब्जी
काटनी, बिस्तर
लगाने, ये
सब बातें उससे
न हो सकेंगी।
यह जो जीसस
के जीवन में
उल्लेख है... और
जीसस ने कहा, तू उसे छोड।
तू तैयारी कर।
जो तुझे ठीक
लगता है, तू
कर। जो उसे
ठीक लग रहा है
उसे करने दे।
तुम अपने-अपने
हिसाब से जीयो।
ये मैरी और
मार्था
परमात्मा की
तरफ दो दृष्टिकोण
हैं। एक तो है, हम बाहर
उलझे हैं, तैयारी
कर रहे हैं, कामधाम में
लगे हैं। वह
तैयारी भी
परमात्मा से
ही मिलने की
तैयारी है। वह
भी मेहमान के
लिए ही हो रही
है। लेकिन
तैयारी में
इतने व्यस्त
हो गए हैं कि
मेहमान ही भूल
गया। वह
मार्था आकर
बैठी ही नहीं
जीसस के पास।
वह काम में ही
उलझी रही। वह
मेहमान का
स्वागत तो
करती रही
लेकिन मेहमान
से वंचित रही।
जीसस घर में
आए और चले गए, और मार्था
सूखी की सूखी
रही। मैरी भर
गई। उसने पी
लिया। उसने
पूरा रस पी
लिया।
'पिया
अंदर महल
विराज रहे
घर-काजन मैं
अटकाय रही
नहीं एक
घड़ी-पल संग
किया
बिरथा सब
बीत गई रतिया'
और भक्त
कहता है कि
मैं जानता हूं
कि तुम भीतर ही
बैठे हो और
मैं बाहर उलझा
हूं। व्यर्थ
है मेरा यह
सारा उलझना।
तुमसे संग-साथ
कर लिया होता
तो यह रात
सुहागरात हो
गई होती।
लेकिन यह रात
अंधकारपूर्ण
हो गई, विषाद
की हो गई, संताप
की हो गई। इस
रात में केवल
दुखस्वम्म
देखे। और तुम
घर में ही
विराजे थे। एक
दिन पछताता है
भक्त। प्रेमी
पछताता है। इस
पछतावे का ही
उल्लेख है।’पिया सोवत
ऊंची अटारिन
में
जहां जीव
परीत की गम ही
नहीं
किस मारग
होय के जाय
मिलूं
किस भांति
बनाय लिखूं
पतिया'
भक्त पूछता
है, ऊंची
अटारी पर
प्रभु का वास
है, बड़े
ऊंचे आयाम में।
'जहां जीव
परीत की गम ही
नहीं'
जहां जाने
का जीव को कोई
रास्ता नहीं
सूझता। जीव जा
भी नहीं सकता
उस ऊंचाई पर।
जीव रहता ही
नीचाई पर है।
उस ऊंचाई पर
जाना हो तो
जीव को छोड़
देना पड़ता। वह
त्याग जरूरी
है।
जीव यानी
मैं- भाव। मैं-भाव
में बंध गया
परमात्मा ही
जीवकहलाता।
परिभाषित
परमात्मा जीव।
आंगन में बंध
गया आकाश जीव।
दीवाल में घिर
गया सूरज का
प्रकाश जीव।
नहीं, जीव
तो जा नहीं
सकता। परिधि
तोड़नी पड़ेगी।
घड़े को फोड़ना
पड़ेगा ताकि
घड़े के भीतर
का आकाश बाहर
के आकाश से
मिल जाए। जीव
ही बाधा है।
इसलिए कहा कि
जीव परीत की
गम ही नहीं।
कोई रास्ता
नहीं मिलता
जीव को, कोई
उपाय नहीं।
'किस मारग
होय के जाय
मिलूं
किस भांति
बनाय लिखूं
पतिया'
मिलने का एक
ही मार्ग है
और वह हे, मिटना।
कभी मनुष्य
परमात्मा से
मिलता नहीं।
इसे ठीक से
सुन लेना। कभी
मनुष्य
परमात्मा से
मिलता नहीं।
जब परमात्मा
होता है तो
मनुष्य नहीं
होता, जब
मनुष्य होता
है तो
परमात्मा
नहीं होता।
दोनों कभी
आमने-सामने
खड़े नहीं होते।
कबीर ने कहा
है, 'जब तक
मैं था, तू
नहीं, अब
तू है, मैं
नाहिं।’ यह
भी खूब मजा
हुआ, कबीर
ने कहा, मैं
खोजने निकला
था तुझे, जब
तक मैं था, तू
न मिला। और अब
तू मिला है तो
मैं नहीं हूं।
यह मिलन कैसा
हुआ? यह
मिलन तो हुआ
ही नहीं। मिलन
हुआ लेकिन दो
का नहीं, एक
का ही।
'प्रेम
गली अति
सांकरी', कबीर
ने कहा है, 'ता
में दो न समाय।’
यह
परमात्मा से
जो मिलन है, यह ऐसा मिलन
नहीं है जैसे
कि तुम एक
आदमी से मिल
लिए, मित्र
से मिल लिए।
पत्नी पति से
मिल गई, पति
पत्नी से मिल
गया, मां
बेटे से मिल
गई। ऐसा मिलन
नहीं है
परमात्मा से।
यह परमात्मा
से मिलन ऐसा
है जैसे नदी
सागर से मिल
गई। नदी मिटती
तो मिलती।
'किस मारग
होय के जाय
मिलूं
नहीं, तुम
तो न मिल
सकोगे। इसलिए
मैंने तुमसे
कहा कि अगर
तुम भजन
करते-करते खो
जाते हो तो बस
अर्थ मिल
जाएगा वहीं।
तुम फिक्र
छोड़ो। अब कुछ
और जानना
जरूरी नहीं है।
खो जाओ। इतने
भी मत बचो।
अर्थ जानने को
भी मत बचो।
बिलकुल खो जाओ।
डुबकी लगा लो।
एक दिन ऐसा
होगा कि भजन
करने के पहले
तुम थे, भजन
करने में खो
गए, कई बार
भजन होगा, फिर
तुम वापस लौट
कर हो जाओगे।
फिर-फिर खोओगे,
फिर-फिर हो
जाओगे। एक दिन
ऐसा भी होगा, खोओगे, भजन
तो समाप्त हो
जाएगा, तुम
खोए ही रहोगे।
तुम लौट न
सकोगे। बस, उस दिन
मिलना हो जाता
है। उस दिन
लिख दी पाती।
उस दिन पता
मिल गया।
डूबते रहो।
डूबने का
अभ्यास करते
रहो, डुबकी
लगाते रहो। आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों, किसी न किसी
दिन वह
सौभाग्य की
घड़ी आ जाएगी, जब तुम
डूबोगे एक बार
और फिर उबरोगे
नहीं। तुम
जहां बिलकुल न
बचोगे, वहीं
तुम पाओगे, जो बच रहा है
वही परमात्मा
है।
तन से तो सब
भांति बिलग तुम
लेकिन मन से
दूर नहीं हो
हाथ न परसे
चरण सलोने
पांव न जानी
गैल तुम्हारी
दृगन न देखी
बाकी चितवन
अधर न चूमी
लट कजरारी
चिकने
खुदरे गोरे
काले
'छलकन ओ
बेछलकन वाले
घट को तो तुम निपट
निगुण पर
पनिहारिन से
दूर नहीं हो
तन से तो सब
भांति बिलग तुम
लेकिन मन से
दूर नहीं हो
प्रभु बहुत पास
है, जरा भी दूर
नहीं। प्रेम
में ही छिपा है।
तुम प्रेम को उघाड़
लो और प्रभु को
पालोगे। और जिस
र्दिन तुमने
अपने भीतर प्रभु
को पा लिया उस दिन
तुम आँख खोलकर
पाओगे कि सब जगह
वही है। सब जगह,
जगह-जगह वही
है। कोई और दूसरा
नहीं है?
हर
दर्पण तेरा
दर्पण है
हर चितवन
तेरी चितवन है
मैं किसी
नयन का नीर
बनूं
तुझको ही
अर्ध्य चढ़ाता
हूं
काले तन या
गोरे तन की
मैले मन या
उजले मन की
चांदी सोने
या चंदन की
औगुन गुन की
या निर्गुन की
पावन हो या
कि अपावन हो
भावन हो या
कि अभावन हो
पूरब की हो
या पश्चिम की
उत्तर की हो
या दक्षिण की
हर मूरत
तेरी मूरत है
हर सूरत
तेरी सूरत है
मैं चाहे
जिसकी मांग
भरूं
तेरा ही
व्याह रचाता
हूं
हर दर्पण
तेरा दर्पण है
हर चितवन
तेरी चितवन है
मैं किसी
नयन का नीर
बनूं
तुझको ही
अर्ध्य चढ़ाता
हूं
आज इतना
ही।
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