दिनांक
24 जूलाई, 1977;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
।--आप
कहते हैं कि
शिष्य गुरु को
नहीं खोज सकता; गुरु ही
शिष्य को
खोजता है।
लेकिन कोई
शिष्य यह कैसे
समझे कि उसे
सद्गुरु ने
खोजा है?
2—हेतु
के साथ
प्रधानमंत्री
के चरण छूने
में और हेतु
के साथ संत के
चरण छूने में
क्या कुछ भी
फर्क नहीं है?
3—सुबह
और शाम, रात
और दिन आपका
ही खयाल उठता
है। घरवाले
पागल कहते
हैं। प्रभु, एक धक्का और
दें कि गहरे
ध्यान में डूबूं
और आपसे
छुटकारा हो।
4—आप
तो बड़ी सरलता
और सहजता से
कह देते हैं कि
दुःखी तुम
अपने कारण हो, चाहो तो
दुःख से मुक्त
हो जाओ। आपके
लिए तो बात
छोटी-सी है; पर इस
छोटी-सी बात
को आप से
सुन-सुन कर भी
हम क्यों नहीं
समझ पाते हैं?
5—चौरासी
कोटि योनियों
का अभिप्राय
कृपा करके समझाइए
और हमें भय से
मुक्त करिए।
पहला
प्रश्न :
आप
कहते हैं कि
शिष्य गुरु को
नहीं खोज सकता; गुरु ही
शिष्य को
खोजता है।
लेकिन कोई
शिष्य यह कैसे
समझे कि उसे
सद्गुरु ने
खोजा है?
पहली
बात, यह थोड़ी
अटपटी मालूम
होती है कि
शिष्य गुरु को
नहीं खोज
सकता।
साधारणतः हम
यही सोचते हैं
कि शिष्य गुरु
को खोजता है।
लेकिन यह संभव
नहीं है।
शिष्य को तो
कुछ भी पता
नहीं है, खोजेगा
कैसे? शिष्य
को तो यह भी
पता नहीं है
कि सत्य क्या
है, असत्य
क्या है? शिष्य
को यह भी पता
नहीं है कि
कौन सद्गुरु
कौन असद्गुरु?
शिष्य को
अपना ही
पता-ठिकाना
नहीं है। और
शिष्य अगर
अपने हिसाब से
खोजेगा-- और
अपने ही हिसाब
से खोज सकता
है, और तो
कोई हिसाब
नहीं है--तो
गलत को ही
खोजेगा।
शिष्य
ने जब गुरु
खोजा तो गलत
गुरु खोजा।
शिष्य ठीक खोज
ही नहीं सकता।
ठीक दृष्टि
चाहिए न! आंखें
कहां हैं अभी
जो ठीक को देख
लें? तो शिष्य
खोजेगा
परंपरागत ढंग
से। अगर जैन
घर में पैदा
हुआ है, जैन
मुनि को
खोजेगा। फिर
चाहे उसके
द्वार के सामने
ही एक मुसलमान
फकीर, पहुंचा
हुआ फकीर खड़ा
रहे, तो भी
उसे नहीं खोज
सकेगा।
क्योंकि उसके
पास बंधी
लकीरें हैं।
अगर दिगंबर
हैं . . . तो
ज्ञानी को
नग्न होना
चाहिए--और यह
फकीर कपड़े
पहने खड़ा है।
बात अटक गई।
अगर हिंदू है
तो हिंदू को
खोजेगा। अगर
मुसलमान है तो
मुसलमान को
खोजेगा। बंधे
हुए लक्षण
उसके हाथ में हैं।
आंख तो नहीं
है, देखने
की क्षमता तो
नहीं है कि
आर-पार हृदय
में देख ले, कि झांक ले
कहां घटना घटी
है, कहां
कौन जागा है।
जागने
की पहचान तो
तभी आएगी जब
थोड़ी-सी जागरण
की किरण
तुम्हारे
भीतर भी आए।
रोशनी का थोड़ा
स्वाद मिले तो
वे जो परम
रोशनी से
मंडित हो गए
हैं, पहचान
में आ जाएंगे।
जल थोड़ा एक
घूंट ही क्यों
न पीया हो,
फिर सारे जल
की पहचान आ गई;
फिर सागरों
की भी पहचान आ
गई। क्योंकि
एक घूंट जल
में भी जल के
पूरे लक्षण आ
जाते हैं।
लेकिन
साधारणतः
अज्ञान की दशा
में, तो हम
शास्त्र से
खोजेंगे, परंपरा
से खोजेंगे, सुनी बातों
से खोजेंगे; जिस घर में
पैदा हुए हैं,
जैसे
संस्कार मिले
हैं, उससे
खोजेंगे।
इसीलिए तो
महावीर को
हिंदू न खोज
पाए। महावीर
मौजूद रहे, हिंदुओं से
कोई संबंध न
बन सका। बुद्ध
को जैन न खोज
पाए; बुद्ध
मौजूद रहे, जैनों से
कोई संबंध न
बन सका।
रामकृष्ण
जिंदा थे, कोई
दूसरा नहीं
पहुंचा; जो
काली के भक्त
थे वही पहुंच
पाए। रमण
जीवित थे, कौन
गया? वे ही
गए जो
परंपरागत रूप
से पहुंच सकते
थे।
खयाल
करना, पहले
तो तुम
परंपरागत रूप
से खोजोगे,
तो सत्य को
खोज न पाओगे।
और अगर कभी
भूल-चूक से परंपरा
में भी कोई
सत्य को
उपलब्ध
व्यक्ति पैदा
हुआ, तो भी
तुम उसे थोड़े
ही देख पाओगे,
सिर्फ
लक्षणों का
हिसाब रखोगेः
कब उठता कब
बैठता; क्या
खाता क्या
पीता--यही
तुम्हारा
गणित होगा।
अगर तुम हिंदू
होने के कारण
रमण के पास भी
पहुंच गए, तो
भी रमण को न
देख पाओगे; तुम हिंदू
को देखोगे।
ऐसा
समझो कि तुम
अपने
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
देख सकते। तुम
जहां जाओगे, अपनी ही
शक्ल देखोगे।
तो गुरु कैसे खोजोगे?
इसलिए
इस बात को समझ
लेना कि गुरु
ही खोजता है।
मगर खोज का
मतलब यह नहीं
है कि गुरु
खोजता हुआ
तुम्हारे पास
आएगा। खोजने
तो तुम्हें ही
निकलना पड़ता
है। एक घाट से
दूसरे घाट, एक गुरु से
दूसरे गुरु, एक द्वार से
दूसरे
द्वार--खोजने
तो तुम्हें ही
निकलना पड़ता
है। कुआं
तुम्हारे पास
नहीं आता है; प्यासे को
ही जाना पड़ता
है। लेकिन जब
तुम किसी गुरु
की नजर में आ
जाओगे . . . इतना
तुम्हें करना
ही पड़ेगा कि
गुरु की नजर
में पड़ जाओ।
और उसे अगर
लगा कि पात्र
हो, तो
उंडेल देगा।
वही खोजने का
मतलब है। उसे
अगर लगा कि
तैयार हो तो
दे देगा
धक्का। उसे
अगर लगा अभी
तैयार नहीं हो,
तो चुप रह
जाएगा; तुम्हें
गुजर जाने देगा;
तुम्हें
कहीं और चले
जाने देगा; प्रतीक्षा
करेगा कि जब
तैयार हो जाओ
तब आ जाना।
पूछते
हो : "शिष्य
कोई कैसे समझे
कि सद्गुरु ने
खोजा है?' समझने
की बात ही
नहीं है यह।
जब सद्गुरु की
आंख तुम्हारी
आंख में पड़
जाती है तो
बात हो जाती है।
यह प्रेम जैसी
बात है, समझ
जैसी बात नहीं
है।
तुम
कैसे समझते हो
कि कोई स्त्री
तुम्हारे प्रेम
में पड़ गयी? तुम कैसे
समझते हो कोई
पुरुष
तुम्हारे
प्रेम में पड़
गया? कैसे
समझते हो? समझने
का वहां कुछ
भी नहीं है।
जब गुरु प्रेम
से तुम्हारी
आंख में झांकता
है तो
तुम्हारे
हृदय में
सुगबुगाहट
पैदा हो जाती
है। वह समझ की
बात ही नहीं
है। मस्तिष्क
में नहीं घटती
घटना; घटना
हृदय में घटती
है। जहां समझ
इत्यादि की बातें
चल रही हैं, वहां नहीं
घटती; तर्क
के तल पर नहीं
घटती, प्रेम
के तल पर घटती
है।
शिष्य
और गुरु के
बीच जो नाता
है वह हृदय और
हृदय का है--दो आत्माओं
का है। यह बात
जब घटती है तो
पहचान में आ
ही जाती है; इससे बचने
का कोई उपाय
नहीं है।
अगर
तुम मेरी बात
समझो तो मैं
ऐसा कहूंगाः
जब गुरु
तुम्हें चुनेगा
तो तुम कैसे
बचोगे समझने
से? असंभव है
बचना !वे
आंखें तुमसे
कह जाएंगी। वह
भाव तुमसे कह
जाएगा। गुरु
की उपस्थिति
तुमसे कह
जाएगी कि तुम
अंगीकार हो गए
हो; किसी
ने तुम्हें
चाहा है और
किसी ने बड़ी
विराट ऊंचाई
से चाहा है।
उसकी चाहत में
ही तुम्हारी
आंखें शिखरों
की तरफ उठने
लगेंगी। किसी
ने तुम्हें
पुकारा है और
अनंत की दूरी
से पुकारा है
और उसकी पुकार
में ही
तुम्हारे भीतर
हजार फूल खिलने
लगेंगे।
मगर यह
बात समझ की
नहीं है, फिर
भी दोहरा दूं।
यह घटना घटेगी
भाव के तल पर, समझ के तल पर
नहीं।
मस्तिष्क का
इसमें कुछ लेना-देना
नहीं है। और
अगर तुमने
बहुत जिद की
मस्तिष्क से
समझने की, तो
शायद तुम चूक
ही जाओ। गुरु
चुन भी लेता
है बहुत बार
और फिर भी
शिष्य चूक
सकता है, अगर
वह अपनी खोपड़ी
ही लड़ाता
रहा; अगर
उसने अपने
हृदय की न
सुनी, तो
चूक भी हो
जाती है। ऐसा
जरूरी नहीं है
कि गुरु चुने
और तुम चुन ही
लिए जाओ।
दुर्भाग्य के बहुत
द्वार हैं; सौभाग्य का
एक द्वार है।
पहुंचने के
बहुत द्वार
नहीं हैं; भटक
जाने के बहुत
द्वार हैं।
पहुंचने का एक
मार्ग है; भटक
जाने के हजार
मार्ग हैं।
भूल-चूक होना
बहुत संभव है।
एक तो गुरु के
पास पहुंचना
करीब-करीब
असंभव-सा
मालूम होता
है। पहुंच भी
जाओ तो उन
आंखों की भाषा
को समझ पाओगे?
समझने से
मेरा मतलब : हृदय को
आंदोलित होने
दोगे। कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि हृदय को
बंद रखो, हृदय
को दूर रखो और
बुद्धि को बीच
में ले जाओ। और
बुद्धि से
सोचो तो चूक
जाओगे। समझने
की कोशिश की
तो बिना समझे
लौट जाओगे।
अगर समझने की
फिक्र नहीं की,
यही
श्रद्धा का
अर्थ है।
श्रद्धा
का अर्थ है :
समझने की
चिंता अब नहीं
है; अब होने
का भाव उठा
है। समझ-समझ
कर तो देख
लिया, क्या
समझ पाए? कितना
तो रगड़ा
सिर को
पत्थरों से, कोई चमक
पैदा नहीं
हुई।
यह
लेकिन, स्थिति
वैसी ही है
जैसी प्रेम
की। जब तुम
किसी के प्रेम
में पड़ जाते
हो तो तुम
क्या उत्तर दे
पाते हो? निरुत्तर
खड़े रह जाते
हो। कोई तुमसे
पूछेः
"क्यों? कैसे?
क्या कारण
है प्रेम का? तुम कहोगे, अकारण है।
हो गया। बस
पाया कि हो
गया। कोई चीज गूंज
गई हृदय में!
कोई अंकुरण हो
गया! कुछ पुलक समा
गई!
जैसे
प्रेम पहचाना
जाता है वैसे
ही गुरु की आंख
पहचानी जाती
है।
जीवन
एक श्लोक है
जिसका सबसे
सीधा भाष्य
प्यार है
प्राण-प्राण
जिसकी धड़कन है, कंठ-कंठ
जिसकी पुकार
है
जीवन
एक श्लोक है
जिसका सबसे
सीधा भाष्य
प्यार है।
प्रथम
शब्द पर्याय
जन्म का और
अंतिम संदर्भ
मरण का
एक
यही है मंत्र
कि जिसको
दोहराता जग
बार-बार है।
बहुत
तलों पर एक ही
मंत्र
दोहराया जाता
है। शरीर के
तल पर भी यही
मंत्र
दोहराया जाता
है--प्रेम का।
मन के तल पर भी
यही मंत्र
दोहराया जाता है--
प्रेम का।
आत्मा के तल
पर भी यही
मंत्र दोहराया
जाता प्रेम का
जब तुम किसी
से कामाविष्ठ
हो जाते हो, तो शरीर के
तल पर से प्रेम
घटता है; और
जब तुम किसी
के प्रेम में
आंदोलित हो
जाते हो, तो
मन के तल पर; और जब तुम
किसी की भक्ति
में आंदोलित
हो जाते हो, तो आत्मा के
तल पर। मगर
मंत्र एक ही
है; तल
अलग-अलग हैं।
घाटियों में
गीत गाया था
तो कामवासना
थी। घाटियों
से उठे, शिखर
तक नहीं पहुंचे
अभी, लेकिन
मध्य में आ गएः
घाटी से दूर
भी हो गए, शिखर
के पास भी हो
गए, लेकिन
अभी शिखर पर
पहुंचे नहीं।
फिर वही मंत्र
दोहराया। यह
जो मध्य की
यात्रा से
दोहराया गया
मंत्र है, यही
प्रेम है। फिर
शिखर पर पहुंच
गए, मंत्र
वही है--और अब
शिखर की
उत्तुंग
ऊंचाई पर जहां
बादलों से
शिखर मुलाकात
करता है और
जहां चांदत्तारों
से गुफ्तगू
होती है। वहां
फिर यही मंत्र
दोहराया।
मंत्र तो वही
है। तो अब
श्रद्धा, प्रार्थना,
भक्ति. ..
जीवन
एक श्लोक है
जिसका सबसे
सीधा भाष्य
प्यार है
प्राण-प्राण
जिसकी धड़कन है
कंठ-कंठ जिसकी
पुकार है
प्रथम
शब्द पर्याय
है जन्म का और
अंतिम संदर्भ
मरण का
एक
यही है मंत्र
कि जिसको
दोहराता जग
बार-बार है।
संसार
में भी तुम आए
हो तो प्रेम
के कारण और संसार
से बाहर भी
तुम जाओगे तो
प्रेम के
कारण। संसार
में आए हो--घाटीवाला
प्रेम ले आया
है; अंधेरे
में उतार लाया
है। संसार के
बाहर जाओगे
निर्वाण में,
मोक्ष में,
तो शिखरों
का प्रेम बाहर
ले जाएगा।
लेकिन प्रेम
ही लाता है।
और प्रेम ही
ले जाता है।
यह तो सीधी-सी,
बहुत
सीधी-सी बात
है। जिस द्वार
से तुम इस जगह आ
गए हो, उसी
द्वार से
वापिस भी आ
जाओगे। आने और
जाने के द्वार
अलग नहीं होते।
जिस रास्ते
में तुम यहां
तक आए हो अपने घर
से, उसी
रास्ते पर
वापिस अपने घर
जाओगे।
रास्ता वही
होगा। फर्क
सिर्फ एक होगा,
और कुछ
ज्यादा फर्क न
होगा--तुम्हारी
दिशा विपरीत
होगी। यहां
आते समय मुंह
मेरी तरफ था, जाते समय
पीठ मेरी तरफ
होगी। बस इतना
ही फर्क होगा।
रास्ता वही, पैर वही, तुम
वही, सब
कुछ
वही--सिर्फ
इतना-सा फर्क
होगा।
पलटू
के गुरु ने
"पलटू' नाम
दिया है शिष्य
को--पलट गया।
जिस रास्ते से
संसार में आया
था, उससे
उलटा चल पड़ा।
घूम गया। ठीक
विपरीत दिशा में
चल पड़ा।
प्रेम
ही लाया है; प्रेम ही ले
जाएगा। प्रेम
ने ही बांधा
है; प्रेम
ही मुक्त भी
करेगा। बहुत
बार तर्क यह
कहता है कि
जिसने बांधा
है, वह
कैसे मुक्त
करेगा? बस
वही तुम्हारी
भूल हो जाएगी।
जिसने बांधा है
वही करेगा
मुक्त--वही
मुक्त कर सकता
है, और तो
कोई कैसे
मुक्त करेगा?
जहर ने मारा
है, जहर ही जिलाएगा।
इसलिए जहर ही
मौत भी बनती
है, बीमारी
भी, और जहर
ही औषधि भी।
छोटा
प्रेम ले आया
है; बड़ा
प्रेम बाहर ले
जाएगा।
संकुचित
प्रेम ने कारागृह
बना दिया है; विराट का
प्रेम मुक्त
आकाश दे देगा।
कैसे पहचानोगे
कि गुरु के
पास बात घटी।
सिर खाली हो
जाए और हृदय
भर जाए तो
पहचान जाओगे। अजीब-से
लक्षण
तुम्हें दे
रहा हूं, क्योंकि
तुमने लक्षण
कुछ और सुने
हैं। तुमने लक्षण
इस बात के
सुने हैं कि
गुरु कैसा हो।
एक बार भोजन
करे, ब्रह्ममुहूर्त
में उठे, पूजा-पाठ
करे कि ध्यान
करे, कि
ऐसे कपड़े पहने,
कि ऐसा बोले,
ऐसा न बोले।
तुमने लक्षण
गुरु के सुने
हैं। मैं
तुम्हें जो
लक्षण दे रहा
हूं वे तुम्हारे
हृदय के भीतर घटेंगे।
सिर हलका होने
लगेगा।
गुरु
वही जिसके पास
ज्ञान मिट जाए; जो तुम्हें
ज्ञान से
मुक्त कर दे
और प्रेम से भर
दे। और जब
प्रेम से भरते
हो तो असली
ज्ञान आता है।
प्रेम बिना तो
ज्ञान है, कचरा
है, धूल-धवांस
है, दो कौड़ी
का है।
किताबें
पढ़ीं, मन का मंथन
किया
खूब
सोचा-समझा और
जांचा
लेकिन
ज्ञान का
रास्ता मुझे
रास नहीं आता
है।
बिल्कुल
शुद्ध हिंदी
में पुकारता
हूं
तब
भी आराध्य पास
नहीं आता है
चारों
ओर से हारा
हुआ
मैं
पराजय का गीत
गाता हूं
अपना
टूटा हुआ
अहंकार
तुम्हारे
चरणों पर चढ़ाता
हूं
अपना
यह ज्ञान
वापिस लो
और
देवता, मुझे
मुक्ति दो!
अपना
यह ज्ञान
वापिस लो, और देवता, मुझे मुक्ति
दो!
प्रेम
से तुम आए हो, प्रेम से
तुम जाओगे।
ज्ञान ने
तुम्हें अटकाया
है। न तो
ज्ञान के कारण
तुम संसार में
आए हो और न
ज्ञान के कारण
तुम संसार से
जा सकोगे। जिस
कारण आए ही
नहीं उस कारण
जाओगे कैसे?
प्रेम
लाता।
प्रेम
ले जाता।
ज्ञान
अटकाता।
अब यह
बहुत मजे की
बात है, थोड़ा
समझना। ज्ञान
न तो ठीक से
संसार में
उतरने देता और
न परमात्मा
में उतरने
देता। ज्ञान सिर्फ
अटकाता है।
ज्ञान का काम
अटकाव है।
इसलिए जिनके
सिर में बहुत
ज्ञान का कचरा
भर जाता है, वे संसार
में भी कहां
जी पाते हैं; न पत्नी को
प्रेम कर पाते,
न बच्चों को
प्रेम कर
पाते। वह
ज्ञान का कचरा
प्रेम नहीं
करने देता। न
जिंदगी के
राग-रंग में
सम्मिलित हो
जाते हैं; रुखे-सूखे
रह जाते हैं।
ज्ञान वहां भी
अटका लेता है।
फिर यही
व्यक्ति कभी
मंदिर भी जाते
हैं तो वहां
प्रार्थना का
रस नहीं उतर
पाता। वही
ज्ञान वहां भी
अटका लेता है।
कभी इनको
संयोग से गुरु
भी मिल जाए तो
वहां भी वही
ज्ञान अटका
लेता है।
जहां
तुम जाओगे, ज्ञान दीवाल
है।
प्रेम
ने जरूर उतारा
है संसार में; प्रेम ही ले
जाएगा। ज्ञान
ने न उतारा है,
न ज्ञान ले
जा सकता है।
ज्ञान से
ज्यादा व्यर्थ
और कुछ भी
नहीं है।
ज्ञान से
ज्यादा और
अज्ञान की कोई
भी दशा नहीं
है।
तो
गुरु वह है
जिसके पास
जाकर ज्ञान का
बोझ कम होने
लगे। "रंजी
सास्तर
ग्यान की' . . .वह जो कचरा-कूड़ा है
शास्त्र-ज्ञान
का, दरिया
कहते हैं, उसे
झाड़ दे, अलग
कर दे, नहला
दे तुम्हें; जिसके प्रेम
में नहाकर
तुम जानकारी
की धूल से
मुक्त हो जाओ।
और विरोधाभास
यही है कि जिस
दिन जानकारी
झड़ जाती है, उस दिन
जानना घटता
है। शास्त्र
तो खो जाते
हैं, शब्द
तो खो जाते
हैं, शून्य
विराजमान हो
जाता है।
लेकिन वही
शून्य तुम्हारा
पहली दफा
दर्शन का
द्वार बनता
है। उसी शून्य
से तुम पहली
दफे देखते हो।
"गिरह हमारा
सुन्न में, अनहद में विसराम'। वहीं पहली
दफा घर बसता
है--शून्य
में। और उस अनहद
में विश्राम
मिलता है।
तो
गुरु को कैसे पहचानोगे
कि उसने चुन
लिया? सिर
खाली होने
लगे। गुरु
ज्ञान नहीं
देता। जो ज्ञान
देता है, वह
शिक्षक। जो
ज्ञान ले लेता
है, वह
गुरु। जो
तुम्हारी
खोपड़ी को थोड़ी
और जानकारी से
भर देता है, वह शिक्षक, वह
विद्यालय। और
जहां
तुम्हारी
खोपड़ी से सारा
ज्ञान हटा
दिया जाता है
और तुम्हारे
चित्त की सलेट
खाली की जाती
है, पोंछी
जाती है; जो
सारी
स्मृतियां
छीन लेता
है--वही गुरु।
क्योंकि जब
सारी स्मृति
हट जाती है तो सुमिरण का
जन्म होता है।
अभी
कितनी
स्मृतियां
हैं! तुम्हारी
इतनी स्मृतियों
के कारण उस एक
की स्मृति नहीं
आ रही; वह एक
भीड़ में खो
गया है। बाजार
है, दुकान
है, बच्चे
हैं, पत्नी
है, शास्त्र
हैं, हिंदू
हैं, मुसलमान
हैं, ईसाई
हैं--और ज्ञान
बढ़ता गया है।
स्वभावतः जैसे-जैसे
यात्री
यात्रा करता
है, उतनी
धूल वस्त्रों
पर जमती जाती
है। पांच हजार
साल पहले आदमी
के सिर पर
इतना बोझ नहीं
था जितना आज
है। पांच हजार
साल बाद और भी करोड़ गुना
हो जाएगा।
ज्ञान बढ़ता
जाता है। और
जैसे-जैसे
ज्ञान बढ़ता है,
प्रेम कम
होता जाता है।
जैसे-जैसे
ज्ञान का बोझ
बढ़ता है
वैसे-वैसे
हृदय मरता
जाता है। कुछ
ऐसा लगता है
कि मस्तिष्क
शोषण कर लेता
है हृदय की
सारी ऊर्जा
का। मस्तिष्क
जैसे एक कैंसर
की गांठ हो
जाता है, सारी
जीवन-- ऊर्जा
को पीने लगता
है। मस्तिष्क एक
तानाशाह है; वह सबका अपशोषण
कर लेता है।
गुरु
के पास आओगे
तो गुरु
सर्जरी है।
तुम्हें उसने
चुन लिया, इसका मतलब
होगा कि उसने
कटाई शुरू कर
दी। गुरु के
पास आओगे तो
वह तुम्हारे
मस्तिष्क को तोड़ेगा, खंड-खंड
करेगा, बिखरा
देगा। जहां
तुम्हारा सिर
खंड-खंड होकर गिरा
दिया जाए, वहां
जानना कि चुन
लिए गए। और उस
सिर के टूट जाने
में ही
तुम्हारे
भीतर हृदय में
पल्लव आएंगे,
फूल
खिलेंगे।
समझने
की बात नहीं
है। भाव की
बात है।
भाव-दशा है।
और कभी भूल
नहीं होती।
पंडित चूक
जाते हों, अन्यथा भूल
नहीं होती।
इसलिए अकसर
ऐसा होता है
कि जब सद्गुरु
पृथ्वी पर
होते हैं तो
पंडित चूक
जाते हैं। सहज,
निष्कपट मन
के लोग, सरलचित्त
लोग, भोले-भाले
लोग लाभ ले
लेते हैं।
अब तुम
सोचते हो कि पलटूदास
से काशी के
पंडित जाकर और
चरणों में सिर
झुकाएंगे? कठिन है । . . .
कि मुसलमान
दरिया के
चरणों में सिर
झुकाएंगे?
कठिन है। . . .
कि जुलाहा
कबीर के चरणों
में सिर झुकाएंगे,
कठिन है।
काशी के सारे
पंडित कबीर से
नाराज थे।
नाराज होने का
कारण था। यह
आदमी जुलाहा
और हजारों लोग,
सीधे-साधे,
भोले-भाले
लोग इसके
चरणों में सिर
रखते हैं, इसे
परमात्मा
मानते हैं।
पंडितों को यह
बात अखर
जानेवाली बात
थी : परमात्मा
और जुलाहे में
उतरेगा? परमात्मा
तो किसी शुद्ध
ब्राह्मण में
उतरता है।
चारों वेद का
पाठ करनेवाले
ब्राह्मण में
उतरता तो समझ
में आनेवाली
बात थी।
लेकिन
परमात्मा के
अनूठे ढंग
हैं। वह
वेद-भेद की
फिक्र नहीं
करता। तुम
कितना वेद
जानते हो, इसकी चिंता
नहीं करता।
तुम्हारे
भीतर कितना अपूर्व
प्रेम है, वहां
उतर आता है।
परमात्मा
प्रेम का भूखा
है, ज्ञान
का नहीं। . . .तो
कबीर के हृदय
में उतर आया है।
पंडित परेशान
हैं; कष्टपूर्ण है उनकी
स्थिति।
जुलाहे के
जीवन में ऐसी
ज्योति जली, वे देखना भी
नहीं चाहते, मानना भी
नहीं चाहते; देख भी लें
तो आंख बचाना
चाहते हैं।
काशी
के पंडित भर
वंचित रह गए; कबीर का यह
अपूर्व जो लाभ
था, सिर्फ
पंडित चूके।
सीधे-साधे
भोले-भाले लोग,
जिनके पास
यह
हिसाब-किताब
नहीं था कि
वेद जाने कि न
जाने, कि
हिंदू हो कि
मुसलमान हो, वे
सीधे-साधे लोग
खिंचे
चले आए; जैसे
चुंबक के पास
लोहे के कण खिंचे
चले आते हैं।
उन्होंने लाभ
ले लिया। वे
इस अमृत को पी
गए।
यह सदा
से हुआ है। और
ऐसा लगता है
कि दुर्भाग्य
. . . यह सदा ऐसा ही
होगा
दुर्भाग्य
से। जानकार अपनी
जानकारी के
कारण इंच भर
सरक नहीं
पाता। उसका
न्यस्त
स्वार्थ है।
उसकी जानकारी
बाधा डालती
है। अज्ञानी
उतर जाता है
अज्ञात में; कोई जानकारी
तो है नहीं; कुछ भय भी
नहीं, कुछ
खोता भी नहीं।
जिनके
मन में बड़ी
धारणाएं हैं; पूर्व-धारणाएं
हैं, वे
कहीं भी नहीं
जा पाते, क्योंकि
पूर्व-धारणाएं
सभी जगह
अवरुद्ध कर देती
हैं। तुमने
अगर पहले से
ही कुछ तय कर
रखा है कि
सद्गुरु ऐसा
होना चाहिए, तो तुम चूकोगे
सद्गुरु से।
अभी तुम्हें
सद्गुरु मिला
नहीं, तुम्हें
पता कैसे कि
कैसा होना
चाहिए? तुम
अभी खुली आंख
रखो, अभी
पक्षपात-मुक्त
रहो; अभी
तो कहा कि
देखेंगे, होगा
तो जोड़ लेंगे
संबंध; बनेगा
संबंध तो उतर
जाएंगे। खोने
को है भी क्या,
घबड़ाहट क्या है? ज्यादा
से ज्यादा इतना
ही हो सकता है
न कि कोई आदमी
के तुम प्रेम
में पड़ जाओगे
और वह सद्गुरु
न होगा। इतनी
ही ज्यादा से
ज्यादा भूल हो
सकती है। पर
मैं तुमसे कहता
हूं कि अगर
तुम असद्गुरु
के भी
परिपूर्ण
प्रेम में पड़
जाओ तो
तुम्हें सद्गुरु
मिल गया।
क्योंकि
प्रेम
सद्गुरु है।
तुम वहां से
भी पहुंच
जाओगे। और तुम
सद्गुरु के
पास भी बैठे
रहो और प्रेम
में न पड़ो,
तो कहीं न
पहुंचोगे
क्योंकि असली
बात ही चूकी
जा रही है।
प्रेम
मिट्टी को भी
सोना बना लेता
है और प्रेम
के अभाव में
सोना भी
मिट्टी की तरह
रह जाता है।
दूसरा
प्रश्न :
हेतु
के साथ प्रधानमंत्री
के चरण छूने
में और हेतु
के साथ संत के चरण
छूने में क्या
कुछ भी फर्क
नहीं है?
आत्यंतिक
अर्थों में तो
कुछ भी फर्क
नहीं है।
जहां
हेतु है वहां
वासना है।
जहां वासना है
वहां झुकना
कैसा; वहां
झुकना धोखा
है। फिर तुम
किसके सामने
झुकते हो, इससे
कुछ भेद नहीं
पड़ता। तुम
प्रधानमंत्री
के सामने झुकोगे,
क्योंकि
उससे कुछ
मिलने की आशा
है। तुम किसी
संत के सामने झुकोगे, क्योंकि
उससे भी कुछ
मिलने की आशा
है। मगर मिलने
की आशा से झुक
रहे हो। तुम
अपने लोभ के
ही सामने झुक
रहे हो।
शक्तिशाली
के सामने झुक
जाते हो, क्योंकि
उसके पास जगत्
की सत्ता है।
और संत के
सामने झुक
जाते हो, क्योंकि
लगता है इसके
पास परमात्मा
की सत्ता है, परमात्मा की
शक्ति है।
लेकिन तुम झुक
किसलिए
रहे हो? तुम्हारा
कोई हेतु है? तुम कुछ
मांगने के लिए
झुक रहे हो? अगर तुम कुछ
मांगने के लिए
झुक रहे हो तो
तुम्हारे
झुकाव में लोभ
है। फिर तुम
कहां झुकते हो
. . . परमात्मा के
सामने भी झुको
तो कोई फर्क
नहीं पड़ता।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
जिनकी
प्रार्थना
में मांग है, उनकी
प्रार्थना
जन्म के पहले
ही मर गई।
परमात्मा से
मांगना ही मत।
वह परमात्मा
का अपमान है।
तुम्हारी
प्रार्थना भी
खराब हो गई और
तुमने परमात्मा
का भी अपमान
किया। और उलटा
पाप लगा। इससे
तो न
प्रार्थना
करते तो बेहतर
था।
परमात्मा
की प्रार्थना
का तो अर्थ
यही होता है
कि अकारण
झुके। अहैतुकी!
अब तुम्हारा
कोई हेतु नहीं
है। झुकने में
मजा आया, इसलिए
झुके। स्वान्तः
सुखाय
तुलसी रघुनाथगाथा।
मजा आया। स्वान्तः
सुखाय।
कुछ और नहीं
मांगना है। यह
झुकने में ही
आनंद आया।
अकारण। कोई
लक्ष्य नहीं।
कोई उद्देश्य
नहीं।
उद्देश्य आया
कि गंदगी आई।
उद्देश्य आया
कि संसार आया।
हेतु अर्थात्
संसार।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
कविता-पाठ कर
रहे थे।
धीरे-धीरे
श्रोता खिसक गए
एक-एक करके।
मगर मुल्ला
अपनी कविता
सुनाने में
इतने मस्त थे
कि उन्हें इस
बात का अहसास
ही न हुआ।
कविता समाप्त
कर चुके तो
उन्हें होश आया।
श्रोता के नाम
पर एक ही
व्यक्ति
मौजूद था। मुल्ला
गद्गद्
हो गए और उसकी
लगे प्रशंसा
करने। वह
व्यक्ति
अनायास अपनी
प्रशंसा सुनकर
खीझ उठा और
बोला : अजी, बस करिए, जनाब,
मैं आपकी
कविता सुनने
नहीं रुका रहा;
आप बस में
से मेरा
सूटकेस उतार
लाए थे और मैं
आपका। आप मेरा
वापिस कर
दीजिए और यह
रहा आपका। मैं
यही राह देख
रहा हूं कि कब
आप कविता खत्म
करो। और भी
मुझे काम हैं।
अब यह
जो आदमी
सूटकेस बदलने
के कारण बैठ
कर कविता सुन
रहा है, यह
कविता सुन रहा
होगा? यह
गालियां दे
रहा होगा कि
बंद करो, कहां
की बकवास लगा
रखी है! और भी
काम हैं। हेतु
है इसका, तो
काव्य से चूकेगा।
तुमने
अगर हेतु से
गुलाब के फूल
की तरफ देखा
तो तुम गुलाब
के फूल से चूक गए।तुम
अगर माली हो
और बाजार में
फूल बेचने का
काम करते हो
और तुमने फूल
गुलाब का देखा
और तुमने देखा
ठीक है चार
आने मिल
जाएंगे कि आठ
आने मिल जाएंगे--तुम
चूक गए गुलाब
के फूल से। आठ
आने बीच में आ
गए। वे आठ आने
से ज्याद
मूल्यवान हैं; गुलाब का
फूल पीछे पड़
गया। इस गुलाब
के फूल में जो
अपूर्व घटा था,
जो
परमात्मा
उतरा था, जो
परमात्मा ने क्षणभर को
झलक मारी थी, वह तुम चूक
गए--आठ आने में
चूक गए।
गुलाब
का फूल देखना
हो तो बिना
किसी हेतु के
देखना; न
बेचना है न
तोड़ना है।
इतना भी नहीं
की परमात्मा
के चरणों में चढ़ाना है; तब भी चूक
जाओगे। तब भी
तुम इस गुलाब
के फूल को देखने
से चूके। तब
भी तुम इस
परमात्मा को
देखने से
चूके।
जहां
हेतु आया वहां
भूल हुई। जीवन
में कुछ हिस्से
रखो जो हेतु
से मुक्त हों।
वे ही क्षण
प्रार्थना के, वे ही क्षण
ध्यान के, वे
ही क्षण
परमात्मा के,
सुमिरण के, सूरति के। घड़ी आधा
घड़ी के तो
हेतु छोड़ो!
बाजार, बाजार,
बाजार; पाना,
पाना, पाना--और
हर चीज के
पीछे हिसाब!
नमस्कार भी
लोग करते हैं
तो हिसाब से
करते हैं! सिर
भी उतना ही झुकाते
हैं जितना
मतलब होता है।
उस आदमी के सामने
झुकाते हैं
जिससे मतलब
होता है। जब
मतलब निकल गया,
फिर कोई सिर
नहीं झुकाता;
फिर आदमी से
कन्नी काट
जाते हैं; फिर
आंख बचाकर
निकल जाते हैं
कि अब कोई
नमस्कार न
करना पड़े फिर
इन सज्जन से।
बात ही खत्म
हो गई।
तुमने
भी देखा होगा, अपने ही
भीतर देखा
होगा--नमस्कार
भी मतलब से! तुमने
देखा, छोटे-मोटे
गांव में अगर
जाओ तो अभी भी,
देहात में,
लोग "जयराम
जी' कर
लेते
हैं--बिना
कारण! तुम्हें
जानते भी नहीं,
तुमसे कोई
पहचान भी
नहीं। तुमसे
कुछ लेना-देना
भी नहीं। एक
अजनबी आदमी
गांव से निकल
रहा है और देखोगे
कई लोग उससे जयराम जी
कर लेते हैं।
शहर में यह नहीं
होता। शहर में
लोग ज्यादा
समझदार हो गए
हैं कि जिससे
मतलब नहीं
उससे जयराम
जी क्या करना!
अपना कुछ
लेना-देना
नहीं है। यह आदमी
अपने रास्ते
जा रहा है, हम
अपने रास्ते
जा रहे हैं, जयराम जी क्यों
करना? सिर
भी क्यों
हिलाना? हाथ
भी क्यों
उठाना? शहर
में लोग
ज्यादा समझदार
हो गए हैं।
गांव में लोग
अभी भी नासमझ हैं।
नासमझ यानी
अभी भी
भोले-भाले।
मगर
गांव की बात
में कुछ खूबी
है। जब गांव
में लोग बिना
कारण जयराम
जी कर लेते
हैं तो वे यह
कह रहे हैं कि
कम से कम जयराम
जी तो बिना
कारण करो! और
सब कर लेना
कारण से . . . कि जिसकी
जेब गरम हो
उसको नमस्कार
करेंगे, तो
फिर तुमने जयराम
जी नहीं की।
"जयराम जी' शब्द
को सुनते हो!
दुनिया में
बहुत तरह के
नमस्कार के
ढंग हैं; लेकिन
जैसा ढंग भारत
के पास है
वैसा किसी के पास
नहीं। कोई
कहता है "गुड र्मानिग' (सुबह अच्छी
है) ; मगर यह
भी कोई बहुत
बड़ी बात नहीं
हुई। यह कोई
बहुत बड़ी बात
नहीं हुई। लेकिन
यह अनूठा है
भारत का हिसाब
: राम की जय! यह
राम को याद
करने का एक
उपाय हो गया।
एक अजनबी आदमी
गुजरता है; तुम उससे
कहते हो "जयराम
जी'; तुम
उससे कहते हो,
"भाई, राम
की जय!
तुम्हारे
कारण मुझे राम
की याद आ गई, तुम्हारा भी
धन्यवाद। तुम
क्या निकल आए,
राम की याद
का एक मौका
मिल गया!' एक
अकारण बात को
राम की स्मृति
का आधार बना
लिया।
जब तुम
"जयराम
जी' कहते हो
किसी को तुम
यह कहते हो कि
तुम्हारे भीतर
बैठे हुए राम
को नमस्कार
करता हूं। तुम
अजनबी हो, लेकिन
तुम्हारा
"राम' थोड़े
ही अजनबी है; उससे तो मैं
उतना ही जुड़ा
हूं जितने तुम
जुड़े। यह
तुम्हारा
चेहरा-मोहरा न
पहचाना हुआ हो;
तुम्हारा
नाम-पता-ठिकाना
मुझे मालूम
नहीं है; तुम
कौन हो, क्या
नहीं हो, कुछ
लेना-देना भी
नहीं
है--लेकिन एक
बात पक्की है
कि तुम कोई भी
हो, राम तो
हो ही। स्त्री
हो कि पुरुष
हो, कि
हिंदू हो कि
मुसलमान हो, कि काले हो
कि गोरे हो, कि अच्छे हो
कि बुरे, चोर
हो सज्जन हो, साधु हो--कौन
हो, इससे
कुछ मतलब नहीं
है। ये सब गौण
बातें हैं। ये
सब तो नाटक के
हिस्से हैं।
मगर एक बात
पक्की है कि
तुम राम हो।
अभी चाहे तुम
चोर बन गए हो
चाहे साधु बन
गए हो और चाहे
तुमने बड़ा दान
किया हो और
चाहे बड़े
नुकसान किए
हों लोगों के,
अभी तुमने
कोई भी पार्ट
अदा किया हो, हमें
तुम्हारे
पार्ट से कुछ
लेना-देना
नहीं है। परदे
के पीछे तुम
राम हो। हम
उसकी याद करते
हैं और
तुम्हें भी
उसकी याद
दिलाते हैं।
और यह
याद काफी है। स्वान्तः सुखाय।
शहर का
आदमी गांव
जाता है तो
थोड़ी-सी
परेशानी अनुभव
करता है कि ऐरे-गैरे-नत्थुखैरों
को जयराम
जी करनी पड़ती
है! क्या मतलब? किसलिए?
उसका सब काम
हिसाब का हो
गया है।
पूछा
है तुमने कि
"हेतु के साथ
प्रधानमंत्री
के चरण छूने
में और हेतु के
साथ संत के
चरण छूने में
क्या कुछ भी
फर्क नहीं है?' ज़रा
भी फर्क नहीं
है। साधारणतः
तुम्हें फर्क
दिखाई पड़ता
है। तुम कहते
हो, संत के
चरण तो हम
पारलौकिक
संपदा के लिए
छूते हैं!
प्रधानमंत्री
के चरण तो
छूते हैं कि
चलो लड़के की
नौकरी लगा
देना; कि ज़रा बढ़ौतरी
करवा देना; कि अब रिटायरमेंट
की उम्र आ रही
है, पांच
एक साल और
सरका देना
आगे। कुछ मतलब
है। इस संसार
की कोई संपदा।
लेकिन संत के
चरण तो हम परलोक
की संपदा के
लिए छूते हैं,
तो फर्क
होना
चाहिए--ऐसा
तुम्हारा
तर्क कहता है।
लेकिन ज़रा
भी फर्क नहीं
है। संपदा तो
संपदा--इस संसार
की कि उस
संसार की।
संपदा से लगाव,
तो लगाव।
चाह यहां की
या वहां की, कोई फर्क
नहीं पड़ता।
चाह तो चाह, चाह तो
फांसी का
फंदा।
संत के
चरण अहोभाव से
छूना, हेतु
से नहीं। संत
के चरण उसी
भाव से छूना
कि धन्यभाग
मेरे, कि
किसी ऐसे
व्यक्ति को
देखना-मिलना
हो गया--किसी
ऐसे व्यक्ति
से दो क्षण को
आंखें चार हो
गईं जिसके
भीतर
परमात्मा
परिपूर्ण से
प्रकट हुआ है,
कम से कम
मुझसे ज्यादा
प्रकट हुआ है!
मेरा ही भविष्य,
मैं जो कल
हो सकता हूं, मुझे आज इस
संत में दिखाई
पड़ गया!
बस
इतना काफी है।
धन्यवाद के
लिए चरण छूना; कृतज्ञता के
भाव से चरण
छूना। भविष्य
की कोई
आकांक्षा न हो,
यह वर्तमान
का क्षण ही
परम सुंदर है।
आशीर्वाद भी
मत मांगना।
मांगा कि
चूके। अगर
नहीं मांगा तो
आशीर्वाद
मिलता है।
तुम
थोड़े हैरान
होओगे। तुमने
अगर आशीर्वाद
मांगा और कहा
संत से कि
मेरे सिर पर
हाथ रखकर, आशीर्वाद दे
दें, तो
किस बात के
लिए आशीर्वाद
मांगते हो? संत की
मौजूदगी काफी
आशीर्वाद
नहीं है? और
क्या
आशीर्वाद
मांगते हो? फिर
आशीर्वाद में
वासना आ गई
पीछे से सरक
कर, कि
उम्र लंबी हो
जाए कि बीमारी
छूट जाए, कि
लड़की की शादी
हो जाए, कि
मकान बन जाए, कि स्वर्ग
में जगह मिल
जाए, कि
नरक न जाना
पड़े--आशीर्वाद
दे दो। आगे का
हिसाब करने
लगे। यह
वर्तमान के
क्षण से चूक
गए। यह जो परम
क्षण था, इस
क्षण में जो
डुबकी लग सकती
थी, इस
शांत मनुष्य
के साथ थोड़ी
देर एक होने
का जो मौका
मिला
था--वंचित हो
गए। तुम आगे
भाग निकले।
तुमने कहा, आशीर्वाद
दो। तुम
भविष्य को ले
आए। भविष्य को
लाए कि वर्तमान
से चूके।
संत की
मौजूदगी
आशीर्वाद है।
मांगना नहीं
पड़ता। जो
मांगता है वह
चूक जाता है।
जो नहीं मांगता
उसे मिलता है।
मिलता ही है।
संत के पास बैठे
कि मिल ही
गया। फूल के
पास से गुजरोगे
तो नासापुटों
में गंध भर ही
जाएगी। और
रोशनी के पास
से गुजरोगे
तो आंखों में
किरणें चमकेंगी।
यह संत का
तूरा बज रहा
है। अठपहरा
बाजे। इसके
भीतर संगीत
गूंज रहा है।
तुम किस
आशीर्वाद को
मांग रहे हो? दो क्षण बैठ
जाओ। सत्संग
करो। दो क्षण
इस आदमी के
साथ हो लो; इसकी
रौ में बह लो; इसकी लहर के
साथ लहर बन
जाओ। दो क्षण
को जाने दो
तुम्हारा
संसार हेतुओं
से भरा हुआ और
व्यवसाय से
भरा हुआ, और
यह चाहूं और
वह चाहूं, और
यह हो और वह न
हो। छोड़ो
वे सब चिंताएं,
जंजाल! दो
क्षण को इस
आदमी के साथ
हो लो। यह आदमी
सब चिंताएं और
जंजाल छोड़कर
किस परम आनंद
के भाव में
विराजमान है!
अनहद में विसराम!
इस आदमी का
अनहद में
विश्राम हो
रहा है, थोड़ी
देर तुम भी तो
अनहद में
उतरो। वही
आशीर्वाद है।
मौन
प्रार्थनाएं
जल्दी
पहुंचती हैं
ईश्वर तक
क्योंकि
मुक्त होती
हैं वे शब्दों
के बोझ से।
हेतु
की तो बात ही
छोड़ दो। हेतु
तो बड़ा भारी
पत्थर बांध
दिया तुमने
छाती पर। अब
यह पक्षी उड़ न
पाएगा प्रार्थना
का। शब्द तक
भारी हो जाते
हैं। असली
प्रार्थनाएं
तो हेतु से ही
मुक्त नहीं
होतीं, शब्दों
से भी मुक्त
होती हैं; वासना
से तो मुक्त
होती ही हैं, वचन से भी
मुक्त होती
हैं, वाणी
से भी मुक्त
होती हैं।
संत के
पास बैठो, आंसू आ जाएं
तुम्हारी आंख
में--समझ में
आता है। . . .कि गद्गद्
होकर डोलने
लगो--समझ में
आता है। नाचने
लगो--समझ में
आता है। मगर
क्या बोलने को
है? क्या
कहने को है? सुनने को
भला हो, कहने
को तो कुछ भी
नहीं है।
इसलिए
जो वास्तविक
प्रार्थनाएं
हैं वे परमात्मा
को सुनती हैं, परमात्मा से
बोलती नहीं।
मंदिर में कभी
गए, मस्जिद
में कभी गए, बैठ गए!
परमात्मा को
मौका दो बोलने
का। वहां भी
तुम अपनी
बकवास लगाए
हुए हो! वहां
भी तुमने खोल
लिए अपने
खाते-बही!
वहां भी तुम
अपने हेतु और
संसार को ले
आए! वहां तो कम
से कम चुप हो
जाओ! गहन
निस्तब्ध!
सुनो!
परमात्मा अगर
बोले तो सुनो;
अगर
परमात्मा चुप
रहे तो उसकी
चुप्पी को
सुनो। और जो
परमात्मा के
साथ करते हो
वही संत के साथ
करो।
क्योंकि
संत और क्या
है? संत तो
मिट गया; अपनी
तरफ से तो
समाप्त हो गया
है; अपनी
तरफ से तो
नहीं बचा है।
यही तो संत का
अर्थ है। संत
का अर्थ होता
है : जो स्वयं
तो मिट गया और
अब सत्य ही
बचा। सत् ही बचा--वही
संत।
यह
"संत' शब्द
बड़ा प्यारा है;
सत् से
निर्मित हुआ
है। जो अपने
तो अंत पर आ गया,
जिसने अपने
को तो समाप्त
कर डाला, जिसका
मैं-भाव तो
गया और अब
केवल सत्-भाव,
सत्ता
मात्र बची।
संत तो
जीता-जागता
मंदिर है; चलता-फिरता
परमात्मा है।
शायद तुम
वृक्षों में न
देख पाओ, अभी
तुम्हारी
आंखें इतनी
योग्य नहीं
हैं; फूलों
में न देख पाओ,
क्योंकि
तुम्हारी
आंखें इतनी
अभी योग्य नहीं
हैं; चांदत्तारों में न देख
पाओ; नदी
पहाड़ों में न
देख पाओ, क्योंकि
वह भाषा तुमने
सीखी नहीं।
इसे भी अभी पहले
तुम एक आदमी
में देखो, क्योंकि
आदमी की भाषा
तुम्हारे
करीब है। किसी
आदमी में पहले
संतत्व को
देखो। वहां से
सीखो; धीरे-धीरे
भाषा आ जाएगी,
तो फिर तो
तुम्हें सब
तरफ दिखाई
पड़ने लगेगा।
जिस दिन
तुम्हें ठीक
से दिखाई
पड़ेगा, उस
दिन असंतत्व
तो मिट ही
जाता है जगत्
से; फिर तो
जो भी है, परमात्मा
है; जो भी
हैं, सभी
संतत्व में
विराजमान
हैं। उन्हें
भी पता न हो, तो भी कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। तभी तो
कोई कह पाता है
हर किसी से "जयराम जी',
राम की जय हो!
तीसरा
प्रश्न :
सुबह
और शाम, रात
और दिन आपका
ही खयाल उठता
है। घरवाले
पागल कहते
हैं। प्रभु, एक धक्का और
दें कि गहरे
ध्यान में डूबूं
और आपसे
छुटकारा हो।
पूछा
है मनोहरलाल
ने।
पहली
तो बात, मनोहरलाल,
अभी पूरे
पागल नहीं।
अभी बड़ी
होशियारी से
चल रहे हो। घरवाले
पागल कहते
होंगे; मैं
तुम्हें अभी
पागल नहीं
कहता। अभी तो
मेरे रंग में
नहीं रंगे, अभी
संन्यासी तक
नहीं हुए। बड़े
होशियार हो, समझदार हो।
घरवालों ने ज़रा जल्दी
पागल कहना
शुरू कर दिया
है। घरवालों
की समझ भी
कितनी है! अभी
तुम कुनकुने
हो और घरवाले
कह रहे हैं, उबलने लगे!
तुम्हारे
घरवाले
बिल्कुल ठंडे
होंगे बरफ की
तरह, इसलिए
तुम्हारी कुनकुनाहट
उनको उबलती
हुई मालूम
होती है।
तुलना से ही तो
मालूम होता है
न!
मेरे
देखे तो अभी
तुम बिल्कुल
कुनकुने हो।
अभी उबले ही
नहीं और तुम
भाप बनने की
योजना कर रहे
हो! धक्का
दूंगा जरूर, लेकिन थोड़ा
और पागलपन
बढ़ने दो।
क्योंकि मैं धक्का
मारूं और
तुम अगर पूरे
पागल न होओ तो
तुम भाग ही
जाओगे। फिर
तुम मेरे पास
भी न आओगे। तो
मुझे भी सोच-समझ
कर धक्का
मारना पड़ता है
कि यह आदमी
भाग ही तो
नहीं जाएगा।
अभी मनोहरलाल, तुम्हारे
भागने की
संभावना है।
तुम कहते
हो : "सुबह और
शाम, रात और
दिन आपका ही
खयाल उठता है।'
उठता है
जरूर, मगर
बहुत
मंदा-मंदा।
उससे कुछ फर्क
नहीं हो रहा
है। वह भी एक
तरह का विलास
है। मेरा खयाल
कर लेने में
क्या अड़चन है!
दांव पर कुछ
भी नहीं लगाते
हो! कभी-कभी
मेरा नाम याद
कर लेते होओगे,
ठीक है।
मेरी बातें
अच्छी लगती
हैं, वह भी
ठीक है। लेकिन
मेरी बातें
करोगे कब? अगर
अच्छी लगती
हैं तो करो।
क्योंकि करने
से ही प्रमाण
मिलेगा कि
अच्छी लगीं।
नहीं तो एक तरह
का मनोरंजन
है। सुन लिया,
पढ़ लिया, एक बौद्धिक
विलास हुआ।
इससे कुछ सार
नहीं होने का
है।
और
घरवाले पागल
इसलिए कहते
हैं कि तुम
मेरी बातें
करते होओगे, विवाद करते
होओगे, मेरी
बातें समझाने
की कोशिश करते
होओगे। मैं तुमको
तब पागल
कहूंगा जब तुम
मेरी
बातों-जैसे हो
जाओ।
समझने-समझाने
की बात है।
किसको कौन
समझा पाया है!
अब तुम ही
देखो न, मनोहरलाल,
मैं तुमको
अभी नहीं समझा
पाया; तुम
किसको समझाओगे?
तुम, मुझे
सुनते-सुनते
इतने वर्ष हो
गए और अभी मनोहरलाल
के मनोहरलाल
बने हो! मुझे
नाम तो बदलने
दो। पागल ही
होना है तो
कम-से-कम
गैरिक
वस्त्रों में
शुरुआत करो। इससे
थोड़ा प्रमाण
मिलेगा कि हुए
पागल। इससे शुरुआत
होगी।
पूछते
हो : "सुबह-शाम, रात-दिन
आपका खयाल
उठता है। घर
वाले पागल
कहते हैं।'
घरवाले
तो जब भी तुम ज़रा
अन्यथा होने
लगोगे, पागल
कहना शुरू कर
देते हैं। वह
उनकी तरकीब है
तुम्हें और
आगे न जाने
देने की। वह
तुम्हारे रास्ते
में पत्थर
लगाने की
तरकीब है।
क्योंकि आदमी
दुनिया में
अगर किसी चीज
से बहुत डरता है
तो वह पागल
होने से डरता
है : "और सब ठीक
है; मगर
कम-से-कम पागल
तो न हो जाऊं!' वे तुम्हें
डरा रहे हैं।
घरवाले
यानी कौन?--जहां तक
घरवाली। और मनोहरलाल
की घर वाली भी
यहां मौजूद है,
इसलिए . . .।
तुम "घरवाले' कह रहे हो, लेकिन जहां
तक मेरी समझ
है--"घरवाली'। पत्नियां
बहुत डरी रहती
हैं कि पति
कहीं ज़रा
सीमा के बाहर
न चले जाएं।
उनको बड़ा भय
बना रहता है।
क्योंकि
पत्नियों को
सारी चिंता
सुरक्षा की
रहती है कि
कहीं और ज़रा
आगे गए, पता
नहीं और क्या
कर गुजरें!
भाग ही जाएं, छोड़ दें।
बच्चे का क्या
हो, मेरा
क्या हो, घर-द्वार
का क्या हो!
और ऐसा
नहीं है कि पत्नियां
ही डरती हैं; अगर पत्नियां
बहुत ज्यादा
रस लेने लगती
हैं परमात्मा
में तो पति
डरने लगते
हैं। तो पति
बाधा डालने
लगते हैं। पति
तो बाधा डालते
हैं, वह
बहुत स्थूल
प्रकार की
होती है--कि
सिर तोड़ दूंगा,
टांग तोड़
दूंगा अगर
यहां से गई।
वह स्थूल प्रकार
की होती है; स्थूल
बुद्धि होती
है पतियों
की। मेरे पास
स्त्रियां
आती हैं; वे
कहती हैं कि
पति ने कह
दिया है कि अब
अगर गई तो
टांग तोड़
देंगे। पत्नियां
तुम्हारी
टांग तो नहीं
तोड़ सकतीं; वे तरकीब
सूक्ष्म
उपयोग करती
हैं। वे कहती
हैं : "पागल हो
रहे हो! पागल
हो जाओगे!' वे
तुमको घबड़ाती
हैं। वे
मनोवैज्ञानिक
भय पैदा करती
हैं। टांग
नहीं तोड़तीं,
वे
तुम्हारी
आत्मा ही तोड़
देती हैं। पत्नियां
ज्यादा
सूक्ष्म हैं,
ज्यादा
होशियार हैं।
वे तुम्हें
भयभीत किए रखती
हैं। फिर, यह
एक भय
स्वाभाविक
है। पति-पत्नी
के बीच एक लगाव
है, एक
गहरा संबंध
है। जैसे ही
उन दो में से, जोड़े में से
कोई एक किसी
गुरु में
उत्सुक हो जाए,
तो एक नया
लगाव पैदा
होता है जो
पुराने लगाव से
भी ज्यादा
मजबूत है; वह
बड़ी घबड़ाने
की बात है।
तुम्हारी
पत्नी, तुम
किसी दूसरी
स्त्री से भी
थोड़े संबंधित
हो जाओ तो भी
इतनी न घबड़ाएगी,
क्योंकि
आखिर स्त्री
स्त्री है, निपट लेंगे;
लेकिन तुम
किसी गुरु से
संबंधित होने
लगो तो बहुत घबड़ाहट
पैदा होती है
कि यह मामला
हाथ के बाहर
जा रहा है, यह
निपटने के
बाहर जा रहा
है। और जब तुम
किसी गुरु में
उत्सुक होने
शुरू हो जाते
हो तो तुम्हारे
सारे प्राण
खिंचते हैं
जैसे चुंबक
खींच रहा हो।
तो पत्नी बेचैन
हो जाए, स्वाभाविक
है; क्योंकि
कल तक तुमने
उसी को चुंबक
जाना था, आज
तुमने एक नया
चुंबक खोज
लिया और बड़ा
शक्तिशाली
चुंबक खोज
लिया! अब
पत्नी गौण
मालूम होती है;
पत्नी को
छोड़कर भी जा
सकते हो, ऐसी
हालत आ गई। या
पति को छोड़कर
पत्नी जा सकती
है, ऐसी
हालत आ गई। तो
सारा
भयाक्रांत हो
जाता है मन।
उस भयाक्रांत
मन के द्वारा
ये सब आयोजन
किए जाते हैं।
वह समझाएगी
कि तुम पागल
हो गए। पति समझाएगा
कि तेरा दिमाग
खराब हो गया
है, तुझे
समझ नहीं है
कुछ।
स्त्रियां
भोली-भाली होती
हैं। तू किसके
सम्मोहन में
पड़ गई है?
इसलिए
घरवालों ने
कहना शुरू कर
दिया होगा कि
तुम पागल हो
गए। मगर अगर
तुम सच में ही
पागल होना
चाहते हो तो
उनसे कह देना
कि सौभाग्य
मेरा, तो
उनसे कह देना
कि अब तुम भी
हो जाओ।
और कुछ
प्रमाण दो।
आखिर बेचारे
इतना कहते हैं
कि तुम पागल
हो गए हो, तुम
प्रमाण ही
नहीं देते!
आखिर उनका मन
भी तो दुःखता
होगा कि हम
कहे ही चले
जाते हैं और
ये कोई प्रमाण
ही नहीं देते;
मनोहरलाल मनोहरलाल
ही बने हुए
हैं। तुम कुछ
प्रमाण दो। इस
बार लौट कर जब
जाओ जालंधर तो
गैरिक
वस्त्रों में
पहुंच जाओ।
कहना, भई
आप सब कहते थे
कि पागल हो गए
तो मैंने सोचा
अब कब तक आपकी बात
झुठलानी।
अब हो गया।
और
धीरे-धीरे
इसमें आगे बढ़ो, धक्का भी
लगेगा। मगर
तुम इतना तो
दिखाओ कि तुम
धक्का सह
सकोगे? कपड़ों
से शुरू करो, तब आत्मा
में धक्का
लगे। अ ब स से
शुरू करो। एकदम
गहरे सागर में
उतर जाने की
मत सोचो। पहले
किनारे पर
थोड़े उथले में
तैरना सीख लो।
"प्रभु,
एक धक्का और
दें कि गहरे
ध्यान में डूबूं
और आपसे
छुटकारा हो।
अगर
मुझसे
छुटकारा
चाहिए तो
मुझमें डूबना
पड़ेगा। और कोई
छुटकारे का
उपाय नहीं है।
अब यह तुमने
जो बात पूछी
है, यह बड़ी
अड़चन की है।
अगर मुझसे
छुटकारा
चाहिए तो
मुझमें डूबना
होगा। पूरा
डूबना होगा।
मुझमें पूरे
डूब कर ही तुम
मुझसे मुक्त
हो जाओगे। और
अगर तुम मुझसे
छुटकारा पाने
के लिए ध्यान
इत्यादि करते
हो . . . क्योंकि
तुम पूछ रहे हो
कि "गहरे
ध्यान में डूबूं,
ताकि आपसे
छुटकारा हो' . . . तो ध्यान
में भी न डूब
पाओगे। यह कोई
ध्यान होगा, जिसमें
मुझसे छूटने
के लिए ध्यान
में जाओगे यह
ध्यान नहीं लगेगा।
मेरी याद वहां
भी आती रहेगी।
कैसे छुटकारा
होगा? यह
तो एक तरह का
दमन होगा।
तुम
मुझसे छूटना
चाहते हो, क्योंकि
घरवाले पागल न
कहें। तुम
मुझसे छूटना
चाहते हो कि
दुनिया
तुम्हें
बुद्धिमान
समझे। तुम
मुझसे छूटना
चाहते हो, ताकि
यह जो दिन-रात
तुम्हें याद
आती है न आए। तुम
मुझसे डरे हुए
हो। तुम मुझसे
घबड़ाए
हुए हो।
तुम्हें लगता
है कि आज नहीं
कल जो लोग कह
रहे हैं, यह
हो ही जाएगा, मैं पागल हो
ही जाऊंगा।
इससे तुम
मुझसे छूटना
चाहते हो।
इसके लिए तुम
ध्यान तक करने
को तैयार हो।
मगर यह ध्यान
करने का ठीक
कारण न हुआ।
सम्यक् हेतु न
हुआ।
कैसे
तुम ध्यान
करोगे? ऐसे
तो बहुत लोग
कर रहे हैं।
कोई धन से
छूटना चाहता
है; वह
जाकर मंदिर
में बैठकर
ध्यान करता
है। धन ही धन
याद आता है, रुपयों की
कतार निकलती
है, आंखों
के चारों तरफ
धन के ढेर लग
जाते हैं। कोई
स्त्री से
छूटना चाहता
है; अब वह
जाकर बैठा है
मस्जिद में और
सिर मार रहा है;
नमाज पढ़ रहा
है। मगर जैसे
ही नमाज पढ़ता
है, स्त्री
और सुंदर, और
सुंदर होकर
खड़ी हो जाती
है। अप्सराएं
प्रकट होने
लगती हैं। हूरें
उतरने लगती
हैं बहिश्त
से।
तुम्हारे
ऋषि-मुनियों
की सारी कथाएं
इसी से भरी
हैं--अप्सराएं
चली आ रही हैं, आकाश से
उतरती, घूंघर
बजाती। क्या
मामला है? स्त्रियों
से छूटने गए
थे****)१०श्**ष्ठ**इ२५५)२५५****।
अगर
तुम मुझसे
छूटने के लिए
ध्यान में गए
तो मैं
तुम्हें घेर
लूंगा बुरी
तरह से, सब
तरफ से। फिर
मैं ही मैं
याद आऊंगा।
फिर ध्यान में
तुम बिल्कुल पगलाने
लगोगे। अगर
मुझसे सच में
मुक्त होना हो
तो एक ही उपाय
है : मुझमें
डूब जाओ।
डूबते ही
मुक्ति है।
क्योंकि फिर
क्या मुक्त
होना है! यह
भागने की
चेष्टा क्या?
भाग कर
जाओगे कहां? अब जाना हो
भी नहीं सकता।
उस जगह के तो
पार गए हो मनोहरलाल,
जहां से भाग
सकते थे। आगे
न जाओ तो अटके
रह जाओगे।
नीम
पागल की हालत
बड़ी खराब हालत
है। या तो पूरे
पागल हो जाओ
या पूरे
गैर-पागल हो
जाओ। मगर नीम
पागल की हालत
बड़ी खराब हालत
है।
अब
तुम्हारी
हालत नीम पागल
की है। कुछ तो
पूर्णता
करो--या इस तरफ
या उस तरफ। बीच
में मत अटको।
या इस किनारे
या उस किनारे।
यह मझधार में
मत खड़े रहो।
फिर
इतनी घबड़ाहट
क्या है? मैं
तुमसे क्या
छीन लूंगा? तुम्हारे
पास है क्या
जिसको बचाने
के लिए तुम मुझसे
छूटना चाहते
हो। यह कौन है
जो बचना चाहता
है? यह
तुम्हारा
अहंकार ही
होगा जो बचना
चाहता है।
इसको बचाकर
क्या करोगे? इसी के साथ
तो
जन्मों-जन्मों
से चल रहे हो, बचा-बचा कर
भी मिला क्या
है?
एक
मौका मिला है
तुम्हें कि
अपने अहंकार
को कहीं जाकर डुबा सकते
हो। यह गहराई
तुम्हारे
सामने खड़ी है।
एक डुबकी लगा
कर देखो। तुम
तो बचोगे; अहंकार चला
जाएगा। तुम
जैसे नहीं
बचोगे; तुम
परमात्मा
जैसे बचोगे।
बाहर आओगे, तुम पाओगे
निकल गया सब
रंग-रोगन, जो
ऊपर से
चिपकाया हुआ
था; बह गए
वे रंग, बचा
असली
रूप--स्वरूप!
चौथा
प्रश्न :
आप
तो बड़ी सरलता
और सहजता से
कह देते हैं
कि दुःखी तुम
अपने कारण हो, चाहो तो
दुःख से मुक्त
हो जाओ; कि
अपने ही बनाए
जालों में
फंसे हो, चाहो
तो निकल आओ।
आपके लिए तो
बात बड़ी
छोटी-सी है; पर इस
छोटी-सी बात
को आप से
सुन-सुन कर भी
हम क्यों नहीं
समझ पाते हैं?
कृपा करके
कहिए।
दुःख
दुःख है, ऐसा
तुमने अभी
जाना नहीं।
अभी तुम्हें
दुःख में सुख
का भ्रम बना
हुआ है, इसलिए
तुम सुन-सुन
कर भी नहीं
समझ पाते।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि वह जो
दूर दिखाई पड़
रही है, मृग-मरीचिका
है; वह जो
मरूद्यान
दिखाई पड़ रहा
है मरुस्थल
में, है
नहीं, सिर्फ
भ्रांति है।
मेरी बात तुम
सुन लेते हो; लेकिन
तुम्हारी
आंखें तो कहती
हैं हमें दिखाई
पड़ रहा है। और
दिखाई तो पड़
ही रहा है।
मैं तुम्हें
याद दिलाता
हूं कि इस तरह
तो तुम्हारी
आंखों ने तुम्हें
पहले भी धोखा
दिया था। और
बहुत पड?ावों पर
भी तुमको
दिखाई पड़ा था
मरूद्यान और
तब भी तुमसे
किसी ने कहा
था कि
मरूद्यान है
नहीं, सिर्फ
आंख का धोखा
है; सिर्फ
मृग-मरीचिका है,
दिखाई पड़ता
है, है
नहीं। तब भी
तुमने यह कहा
था, लेकिन
हमें तो दिखाई
पड़ता है। इतने
बार के अनुभव
के बाद तुम सीखे
नहीं।
तुम्हारा मन
कहता है कि हो
सकता है : इतने
सब अनुभवों
में हम गलत थे,
कौन जाने इस
बार सही हों!
ऐसी दुविधा
है। तुम्हें
लगता है, इस
बार शायद हो
जाए! इस
स्त्री से सुख
नहीं मिला, उस स्त्री
से सुख नहीं
मिला; लेकिन
यह जो तीसरी
स्त्री है, शायद इससे
मिल जाए, कौन
जाने! इससे तो
अभी तक हमने
जाना नहीं। एक
स्त्री से थक
गए, दो
स्त्रियों से
थक गए, हजार
स्त्रियों से
थक गए; लेकिन
पृथ्वी तो और
अनंत
स्त्रियों से
भरी है, शायद
कोई स्त्री हो
जिससे मिल
जाए! शायद कोई
जिसके लिए तुम
बनाए गए हो!
हर
आदमी को यह
भ्रांति है कि
कोई एक स्त्री
है कहीं जिसके
लिए वह बनाया
गया है और जो
उसके लिए बनाई
गई है; जब
मिलन हो जाएगा
तब रसधार
बहेगी। वह
मिलन कभी होता
नहीं--वह कभी
हुआ ही नहीं।
मगर भ्रांति
तो बनी रहती
है। स्त्री से
मुक्त नहीं हो
पाते तुम। एक
से मुक्त हो
जाते हो, दूसरी
से मुक्त हो
जाते हो, तीसरी
से मुक्त हो
जाते
हो--लेकिन
स्त्री से मुक्त
नहीं हो पाते।
अभी तुम्हें
यह तो दिखाई पड़ा
कि यह अ नाम की
स्त्री ने
दुःख दिया, यह ब नाम की
स्त्री ने
दुःख दिया, यह स नाम की
स्त्री ने
दुःख
दिया--लेकिन
स्त्री मात्र
दुःख देती है
या पुरुष
मात्र दुःख
देता है या
संबंध मात्र
दुःख देता है,
इस बात का
तुम्हें बोध
नहीं हुआ।
इसलिए
मैं कहता हूं, तुम सुन भी
लेते हो।
किसी-किसी उड़ान
के क्षण में
जब तुम मेरे
साथ उड़ने
लगते हो आकाश
में, तो
झलक भी मारता
है सत्य कि
शायद ठीक ही
होगा। मगर
"शायद' बना
ही रहता है।
होगा ही, ऐसा
ही है--ऐसा
सुनिश्चय
नहीं बन पाता।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
से उसकी
प्रेमिका कह
रही थी : विवाह
के बाद मैं
तुम्हारे सभी
दुःख बांट लूंगी।
मुल्ला ने कहा
: परंतु मैं
दुःखी कहां
हूं?उस
प्रेमिका ने
कहा : मैं
विवाह के बाद
की बात कर रही
हूं।
जीवन
में जो सबसे
बड़ी कठिनाई है
समझने की, वह--आशा
भ्रामक है--यह
समझने की है।
आशा नए-नए स्वप्न
सजाए जाती है।
तो एक
तो यह, कि
तुम सुनते हो
मेरी बात।
तुम्हें
मुझसे लगाव है,
तो तुम्हें
मेरी बात में
सत्य की भी
झलक मालूम
होती है।
लेकिन
तुम्हें अपने
से लगाव है, वह ज्यादा
है। मुझसे
तुम्हें लगाव
है, वह अभी
इतना ज्यादा
नहीं है कि
जितना लगाव
तुम्हें अपने
से है। तुम
ऐसा मत समझना
कि मनोहरलाल
को ही ऐसा है।
सभी को ऐसा
है--सभी "लालों'
को ऐसा है।
तुम्हें अपने
से लगाव
ज्यादा है। मुझसे
लगाव है, सच;
मगर वह इतना
नहीं है कि
तुम्हें
जितना अपने से
है। इसलिए जब
भी निर्णय
होगा जिंदगी
में, तुम
सदा अपने तईं
निर्णय करोगे;
तुम मेरा
निर्णय न मान
सकोगे।
कठिनाई वहां
है। और वहीं
संघर्ष होना
है। गुरु और
शिष्य के बीच
वहीं युद्ध
है।
तुमने
देखा न, महाभारत
का युद्ध हुआ,
वह नकली
युद्ध है, उसमें
कुछ खास नहीं
है; असली
युद्ध तो
कृष्ण और
अर्जुन के बीच
हुआ, वह रथ
पर, जिससे
गीता पैदा हुई,
मंथन
निकला। असली
युद्ध तो उनके
बीच हुआ। बाकी
तो ठीक था, लोग
मारे गए--वैसे
ही मर जाते।
कोई न भी
मारता तो भी
मर जाते। वे
मरने ही थे; कोई अभी तक
जिंदा नहीं
रहते। तो वह
तो कोई खास बात
न थी; होनी
ही थी, हो
गई। इस तरह
मरे कि उस तरह
मरे, खाट
पर मरे कि
युद्ध के
मैदान में
मरे-- इससे क्या
बहुत भेद पड़ता
है! असली
युद्ध दूसरा
ही हुआ। असली
महाभारत मेरे
देखे रथ के
ऊपर
हुआ--कृष्ण और
अर्जुन के बीच
हुआ। वह बड़ी
महत्त्वपूर्ण
घटना घटी। उस
युद्ध में
अर्जुन हार
गया, वह
उसका सौभाग्य
था; अगर
जीत जाता तो
दुर्भाग्य ही
होता। जीत भी
सकता था।
बहुत
बार
दुर्भाग्य से
शिष्य जीत जाता
है, तो भटक
जाता है। गुरु
की जीत में ही
तुम्हारी जीत
है। संघर्ष
यही है कि
गुरु को चुनें
कि अपने को
चुनें; अपने
को बचाएं
कि गुरु को बचाएं।
जैसे ही तुम
गुरु के पास
आए, यह
उपद्रव शुरू
होता है कि
किसको बचाना,
किसकी
सुनना, किसकी
मानना?
मैं
तुमसे इतना ही
कहता हूं कि
अपनी मानकर तो
तुम इतने दिन
चले हो, अब
कब तक और अपनी
ही मान कर
चलोगे? अजहूं
चेत गंवार!
इतने दिन
मानने के बाद
मिला क्या है,
हाथलाई क्या है? हाथ
में क्या है? रिक्त, घड़ा
खाली है।
भर-भर कर थक गए
हो कुछ भरा
नहीं है--ज़रा
भी नहीं भरा
है। दौड़-दौड़
कर थक गए हो, बूंद भी
नहीं मिली है।
तृप्ति तो दूर,
तृप्ति की
बूंद भी नहीं
मिली। तृप्ति
के सरोवर तो
बहुत दूर।
सपनों ही
सपनों में
चलते रहे हो।
बुद्धिमान
वही है जो यह
सत्य देख ले
कि अब तक मैं
भटका और भटकने
का कारण यह है
कि मैंने अपनी
मानी। अब मैं
किसी की मानूं, जो मुझसे
बिल्कुल अन्य
हो, जो
मुझसे
बिल्कुल भिन्न
हो। जहां मुझे
मरूद्यान
दिखता है वहां
उसे कुछ भी न
दिखाई पड़ता हो,
उसकी
मानूं। जहां
मुझे माया के
हजार प्रलोभन मालूम
पड़ते हैं, उसे
कोई प्रलोभन न
मालूम पड़ता हो,
उसकी
मानूं। अपने
तईं तो खूब चल
लिया, थोड़े
दिन किसी और
की मान कर चल
लूं।
अर्जुन
को हारने दो, कृष्ण को
जीतने दो। तो
बात बड़ी सरल
है, अभी हो
जाए। लेकिन
तुम सोचते हो
कि तुम जीत जाओ,
तो बात सरल
कभी भी न हो
पाएगी।
फिर
तीसरा भी कारण
है। तुम अभी
तक खाली हाथ
नहीं बैठे रहे
हो; कुछ न कुछ
करते रहे हो।
तो बहुत-सी
चीजें अधूरी
पड़ी हैं; सच
तो यह है सभी
अधूरा पड़ा है।
क्या पूरा
होता है!
संसार में कभी
कुछ पूरा नहीं
होता।
परमात्मा में
कभी कुछ अधूरा
नहीं और संसार
में कभी कुछ
पूरा नहीं।
यहां कोई
कहानी कभी इति
पर कहां आती
है! फिल्में
खत्म हो जाती
हैं : दि एंड।
मगर जिंदगी
में कौन कहानी
कभी इति पर आती
है! कोई कहानी
इति पर नहीं आती।
मध्य में शुरू
होती है, मध्य
में ही अंत हो
जाती है।
अचानक शुरू हो
जाती है।
एक
बच्चा पैदा
हुआ, अचानक
कहानी शुरू हो
गई--अधूरे में
शुरू हो गई।
जिंदगी चल रही
थी। हजारों
लोग जिंदा थे,
लाखों लोग
जिंदा थे। जाल
फैला हुआ था, वह बच्चा उस
जाल में आ
गया। इन
हजारों
कहानियों में
एक कहानी और
जुड़ गई। मगर
ये कहानियां
तो चल ही रही
थीं, यह
बच्चा इन्हीं
कहानियों का
हिस्सा
बनेगा। इसकी
मां की एक
कहानी थी, इसके
बाप की एक
कहानी थी; उनकी
कहानियों में
यह हिस्सा बन
गया। यह अचानक
उनकी कहानी
में प्रविष्ट
हो गया।
ऐसा ही
समझो कि एक नाटक
चल रहा हो, तुम दर्शक
की जगह बैठे
थे, फिर
अचानक बीच में
उठे और चले गए
मंच पर। वहां राम
और सीता बात
कर रहे हैं, रामलीला चल
रही है, तुम
बीच-बीच में
बोलने लगे।
तुम्हें
भगाया जाएगा,
क्योंकि
कोई मंच यह
बर्दाश्त
नहीं करेगा कि
यह क्या मामला
है! आप कैसे आ
गए! वह मैनेजर दौड़ेगा, पर्दा गिराएगा,
तुम्हें
निकाल बाहर
करेगा।
लेकिन
जिंदगी में
ऐसा ही चल रहा
है। पति-पत्नी
की बात चल रही
थी, आप अचानक
आ गए। यह बेटा
पैदा हो गया।
अब इनको न किसी
ने पार्ट दिया
है, न किसी
ने बुलाया है।
कोई इनकी
प्रतीक्षा भी
नहीं कर रहा
था। बर्थ कंट्रोल
के भी उपाय
किए जा रहे थे
और ये आ गए।
नसबंदी भी काम
नहीं आई और ये
आ गए। अब
इन्होंने सब हिस्सा
बदल दिया। एक
छोटा-सा बच्चा
सारी कहानी को
बदल देता है।
क्योंकि छोटा
बच्चा कुछ छोटी-मोटी
घटना नहीं है।
वह सारी कहानी
बदल देगा। अब
रात बाप को
सोने नहीं
देगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन कह रहा
था अपनी पत्नी
से कि मालूम
होता है कि
सुबह हो गई है, अब उठूं।
पत्नी ने कहा :"कैसे
पता चला? अभी
तो अंधेरा है!'
उसने कहा कि
बेटा सो गया, सुबह हो गई।
रातभर तो इसके
मारे मैं नहीं
सो पाता।
सुबह
होते-होते
सोते हैं बेटे
भी खूब तरकीब
से, रात तो
उपद्रव मचाते
हैं। अब यह
रातभर का थका-मांदा
दफ्तर जाएगा,
कभी मालिक
से झंझट हो
जाएगी, झगड़ा हो जाएगा।
किसी को पता
भी नहीं चलेगा
कि बेटे ने
रातभर नहीं
सोने दिया, उसने इसके
दफ्तर को भी
बदल दिया।
मालिक से झगड़ा
हो गया, नौकरी
खत्म हो गई, गांव बदलना
पड़ा। यह सब
चलेगा। पत्नी
धीरे-धीरे पति
की फिक्र छोड़
कर बेटे की
फिक्र करेगी।
स्वभावतः
बेटे को ज्यादा
फिक्र की
जरूरत है; पति
धीरे-धीरे
धीरे-धीरे
धीरे-धीरे
हाशिए में पड़
जाएगा। कभी
वक्त बचेगा तो
उसकी फिक्र कर
लेगी।
इसलिए
कोई पति बेटों
को पसंद नहीं
करता, क्योंकि
उनके आते ही
पत्नी पति की
रह ही नहीं
जाती। जैसे ही
मां बनी
स्त्री, वह
बेटे की हुई।
अब पति . . . ठीक
हैं; वे रह
गए, उनकी
हैसियत एक
नौकर-चाकर की
रह गई। और यह
बेटा सब तरह
से तानाशाह
होता है। छोटे
बच्चे बड़े तानाशाह
होते हैं; हर
मांग पूरी
होनी
चाहिए--इसी
वक्त पूरी होनी
चाहिए! . . .यह
सारी जिंदगी
की कहानी को
बदल देगा।
ऐसे
बीच में अचानक
कहानी आ जाती
है और फिर एक दिन
अचानक खत्म हो
जाती है। मगर
हमेशा बीच
में। कोई चीज
कभी पूरी नहीं
होती।
तो तुम
जब मेरी बात
सुनते हो तो
तुम्हारी
कहानी तो चल
रही है। तुमने
बहुत-से जाल
बो रखे हैं; बहुत-सी
दुकानें चला
रखी हैं, बहुत-से
व्यवसाय कर
रखे हैं। उन
सबमें तुमने खूब
अपनी
जीवन-ऊर्जा
न्यस्त की है,
इंवैस्ट की है।
अचानक मेरी
बात सुनकर अगर
तुम्हें ठीक
लग जाए तो
उसका मतलब हुआ
कि अब तक
तुमने जो किया
सब व्यर्थ
गया। अगर मेरी
बात ठीक लग
जाए, तो
तुम्हारा
व्यवसाय जो
तुमने अब तक
किया था, किसी
भी ढंग का, तुमने
अब तक जीवन के
नाम पर जो-जो
व्यापार किए थे,
जो-जो संबंध
बनाए थे, जो-जो
आशाएं
योजनाएं बनाई
थीं, वे सब
व्यर्थ हो
गईं। इतनी
हिम्मत बहुत
कम लोगों में
होती है। वे
कहते हैं, कुछ
तो बचा लो, इतनी
जिंदगी लगाई
है, तीस
साल हो गए कि
चालीस साल कि
पचास साल से
इस धुन में
लगा हुआ था ...।
एक
मित्र मेरे
पास आते हैं।
वे कोई
पंद्रह-बीस
साल से चीफ
मिनिस्टर
होने की कोशिश
कर रहे हैं।
मिनिस्टर तक
पहुंच गए हैं।
वे कहते हैं
कि आपकी बात
भी मुझे
बिल्कुल ठीक
लगती है, और
मैं आपको
भरोसा दिलाता
हूं कि एक दफे
चीफ मिनिस्टर
भर हो जाऊं, फिर मैं
संन्यास ले
लूंगा। मगर एक
दफे चीफ मिनिस्टर
. . . आखिर तीस साल
से मेहनत कर
रहा हूं।
1947 से ले
कर, जब से देश
आजाद हुआ, वे
मेहनत कर रहे
हैं। और कहते
हैं कि अब
बिल्कुल
पहुंच गया हूं,
करीब ही है
मामला, कभी
भी घट जाए। अब
ये तीस साल जो
उन्होंने न्यस्त
कर दिए हैं, इनसे मोह हो
गया है। वे
कहते हैं कि
छोड़ना तो यह
तो मुझे समझ
में आता है।
और यह समझ में
आता है कि कुछ
सार नहीं है।
मिनिस्टर
होकर देख लिया,
कुछ सार
नहीं है। मगर
तीस साल से
मेहनत कर रहा हूं,
अब इसको
पूरा कर लेने
दें, चीफ
मिनिस्टर हो
कर देख लेने
दें।
कहते
हैं, मालूम भी
है मुझे कि
उसमें भी कुछ
सार नहीं है, क्योंकि जब
मिनिस्ट्री
में कुछ नहीं
मिला . . . । पहले
वे डिप्टी
मिनिस्टर थे,
तब वे
मिनिस्टर
होने के पीछे
पड़े थे।
डिप्टी मिनिस्टर
थे, तब
कहते थे, डिप्टी
मिनिस्ट्री
में कुछ सार
नहीं। फिर मिनिस्टर
हो गए, अब
कहते हैं
इसमें कुछ सार
नहीं।
मैंने
उनसे कहा, तुम चीफ
मिनिस्टर
होकर भी यही
कहोगे। और फिर
तुमको भी नशा चढ़ेगा कि
अब प्राइम
मिनिस्टर ही
क्यों न हो
जाएं। और
तुम्हारी तो
अभी कुछ उम्र
भी नहीं है, अब देखो मोरारजी
तो बयासी के
हुए और पहुंच
गए। अगर किसी
मुर्दे को भी
कब्र में खबर
मिल जाए कि इलेक्शन
हो रहा है तो
वह उठ कर खड़े
हो जाएं, चुनाव
लड़ने लगें कि
चलो एक दफे तो
कोशिश कर लें
और . . . ।
मरते
दम तक
महत्त्वाकांक्षा
नहीं जाती।
तो
उनको मैंने
कहा कि
तुम्हारी तो
अभी ज्यादा
उम्र भी नहीं
है। पचास ही
साल की उम्र
है, अगर
कोशिश करते
रहो तो बयासी
तक तुम भी
पहुंच ही
जाओगे, क्योंकि
धक्के
खाते-खाते . . . ।
कहावत है न :
सौ-सौ जूता खाएं,
तमाशा घुस
कर देखें।
पड़ने दो जूते,
कोई फिक्र
नहीं। लेकिन
एक दफा घुस कर
तमाशा देख
लें। तो तुम
भी देख लोगे
घुस कर तमाशा,
लेकिन छोड़ोगे
कब?
वे
कहते हैं, आपकी बात भी
मुझे जंचती
है और जूते भी
मैं काफी खा
रहा हूं और
काफी खा लिए
हैं। मगर . . . पर
वह "मगर' बड़ा
अटका देता है।
वे कहते हैं, तीस साल
खराब किए, आप
यह भी तो सोचो,
अब साल छः
महीने की बात
और है।
तो
तुमने जो
न्यस्त किया
है वह तुम्हें
अटकाता है।
तुम कहते हो :
इतना जीवन
दांव पर लगाया, अब करीब आने
को हूं। और
हमेशा ही सब
करीब आने को
हैं, खयाल
रखना। यही तो
मजा है जिंदगी
का, यही तो
प्रलोभन है कि
सदा लगता है :
अब आए, अब
आए, आता ही
है, होता
ही है! आज नहीं
हुआ तो कल हो
जाने ही वाला
है! कल सुबह और
देख लें! ऐसे
आशा सरकती
जाती है। और
पीछे जो
उपद्रव खड़े कर
रखे हैं, उनको
पूरा करने का
मन बना रहता
है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
का नौकर उससे
कह रहा था : बड़े
मियां, मोची
कह रहा है कि
जूते की
मरम्मत के
पैसे उसे अभी तक
नहीं मिले।
मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहाः
ठीक है, उससे
कह देना कि
उसकी बारी आने
पर मिल जाएंगे;
अभी तो मुझे
जूते के दाम
ही चुकाने
हैं।
ऐसी
उलझनें हैं।
अभी जूते ही
के दाम नहीं
चुके; अब
मोची ने
सुधारा है
जूता, उसका
तो अभी सवाल
ही कहां उठता
है! अभी तो
पंक्तिबद्ध
जब आएगा नंबर,
देख लेंगे।
तो
तुम्हारे
पीछे एक क्यू
लगा है हजारों
उलझनों का।
तुम्हें मेरी
बात सुनाई भी
पड़ती है, समझ
भी पड़ती है, फिर भी समझ
नहीं पड़ पाती।
साहस नहीं है
तुममें इतना
कि तुम
एकबारगी
पर्दा गिरा दो
और कहो कि ठीक
है यह नाटक, हो चुका। और
जब तक तुम अधूरे
में रोकने को
राजी नहीं हो,
कभी नहीं
रोक पाओगे; तुम मर
जाओगे; यह
नाटक जारी
रहेगा; मरते
दम तक भी यह
बना रहेगा।
तुम
क्या सोचते हो
मरते दम तक
ऐसी कोई घड़ी आ
जाएगी जब तक
तुम पाओगे सब
काम सुलझ गया? यह कभी नहीं
होनेवाला।
अपनी उलझन से
किसी तरह बचे
तो बेटे-बेटियां
पैदा हो
जाएंगे, उनकी
उलझनें; उनसे
बचे तो पोते
पैदा हो
जाएंगे, उनकी
उलझन। उलझन तो
जारी रहती है।
एक दिन मौत आ
जाती है।
इसके
पहले कि मौत
आए, संन्यास
को आने दो।
इसके पहले कि
मौत आए, समाधि
को आने दो। और
ध्यान रखना, मौत पूछकर
नहीं आती। यही
अड़चन है। मौत
तुमसे पूछती
ही नहीं, इसलिए
आती है। अगर
मौत भी पूछकर
आती होती तो कोई
मरता ही नहीं।
तुम ज़रा सोचो
मेरी बात पर।
अगर मौत भी
पूछकर आती
होती, एक
चिट्ठी लिख
देती आने के
पहले कि अब
मेरा आने का
खयाल है, आपका
क्या विचार है?
तुम कहते, ज़रा
ठहर माई! अभी
तो सब उलझन
पड़ी है, सुलझा
लेने दे। एक
साल दो साल की
बात है, चीफ
मिनिस्टर तो
हो जाने दे।
फिर आ जाना।
ऐसी क्या
जल्दी पड़ी है?
अभी और
इत्ते लोग हैं,
उनको उठाकर
ले जा। जो चीफ
मिनिस्टर है,
उसको उठाकर
ले जा, तो
फिर मेरा भी
नंबर आ जाए।
लेकिन
मौत पूछकर
नहीं आती।
इसलिए आती है; नहीं तो आ ही
नहीं सकती थी।
समाधि
के साथ झंझट
है; तुम बुलाओगे
तो आएगी। मौत
बिना बुलाए
आती है। समाधि
बुलाए-बुलाए
भी मुश्किल से
आती है। तुम पुकारोगे
तो आएगी। बिना
बुलाए मेहमान
दो कौड़ी
के होते हैं।
असली
मेहमानों को
बुलाना हो तो बड़ा
आयोजन करना
होता है; निमंत्रण
भेजने पड़ते
हैं; समझाना-बुझाना
होता है; आने
के लिए राजी
करना होता है।
जितना बड़ा
मेहमान बुलाओगे
उतनी ही
प्रतीक्षा और
प्रार्थना।
समाधि को बुलाते
हो? यह मैं
जो तुमसे कह
रहा हूं सब
समाधि को
बुलाने का
आयोजन है। यह
सब तुम्हें
मैं सिखा रहा
हूं कि कैसे
पाती लिखो
समाधि को, कैसे
पत्र लिखो, कैसे
प्रेम-पत्र
लिखो
परमात्मा को
कि वह आ जाए।
तुम कहते हो :
जरूर लिखेंगे,
मगर आज नहीं,
कल लिखेंगे;
अभी थोड़े
दिन संसार को
और . . .।
और
मेरी बात तुम
गलत भी नहीं
कह सकते, क्योंकि
तुम्हारा
अनुभव भी कहता
है कि मेरी बात
सही है।
तुम्हारी
अड़चन यह है :
तुम्हारा
अनुभव भी कहता
है कि यह बात
तो मेरी सही
है, जो मैं
कह रहा हूं
ठीक ही कह रहा
हूं कि यहां
कुछ है नहीं।
तुम्हारा
अनुभव भी कहता
है। लेकिन तुम्हारी
आशा और
तुम्हारे
अनुभव में मेल
नहीं है, कभी
नहीं होता।
आशा हमेशा
अनुभव के
विपरीत जाती
है। अनुभव कुछ
कहता है, आशा
कुछ कहती है।
आशा अनुभव से
उलटी बातें
बोलती है। वह
कहती है कल तक
दुःख मिला यह
सच है; लेकिन
कल भी मिलेगा
इसका क्या
पक्का है? कल
सुख मिल सकता
है, थोड़ी
तो और कोशिश
कर लो। जिस दिन
तुम्हें मेरी
बात ठीक-ठीक
समझ में आ
जाए--ठीक-ठीक
समझने से मेरा
मतलब है जिस
दिन दांव
लगाने को राजी
हो जाओ--उस दिन
तुम समझ पाओगेः
फुगां को
वस्ल में आराम
क्या हो
जुदाई
का तसव्वर
बंध रहा है
तब तो
तुम सुख में
भी आराम न
पाओगे।
आनेवाले सुख
की तो बात छोड़ो; आ गए सुख में
भी तुम आराम न
पाओगे।
फुगां को
वस्ल में आराम
क्या हो
जुदाई
का तसव्वर
बंध रहा है।
तब तुम
जानोगे : यह जो
मिलन हुआ है, इसमें भी
क्या खाक आराम,
क्योंकि
विदाई का क्षण
करीब आ रहा
है। अभी तो जो
मिला नहीं है
उसकी आशा में
जी रहे हो। और
समझ जब आती है
तो जो मिल भी
जाता है, उसमें
भी आशा नहीं
रहती; उसकी
भी विदाई का
क्षण करीब आए
जा रहा है, जल्दी
विदा होना
पड़ेगा। रात आ
गई, सुबह
होगी। सुबह हो
गई, सांझ
होगी। जिंदगी
बदलती चली
जाती है। यहां
कोई चीज थिर
नहीं है। सब
बदल रहा है।
इस सारे बदलते
हुए वर्तुल के
बीच में सिर्फ
एक चीज थिर
है--समाधि, चैतन्य,
साक्षी। उस
एक को पा लो, तो तुमने सब
पा लिया। उस
एक को गंवाया
तो सब गंवाया।
पांचवां
प्रश्न :
आपने
हमें बहुत डरा
दिया है।
चौरासी कोटि
योनियों में
भटकने के बाद
जीवन-चक्र का
आरा केवल एक
बार ही
मनुष्य-रूप
में आता है और
इस बार में मूर्च्छा
एवं अज्ञानवश भगवद्स्वरूप
होने की
संभावना खो
जाए और खो
जाने की पूरी
व्यवस्था है, तो क्या
पुनः चौरासी
कोटि योनियों
में भटकना
पड़ेगा? चौरासी
कोटि योनियों
का अभिप्राय
कृपा करके समझाइए
और हमें भय से
मुक्त करिए।
भय
से मुक्त मैं
तुम्हें नहीं
कर सकता, तुम
ही कर सकते
हो। भय
वास्तविक है।
तुम चाहोगे कि
मैं तुमसे कह
दूं कि नहीं
जी, कोई
चिंता की बात
नहीं है, चौरासी
कोटि योनियां
वगैरह नहीं
होतीं--ताकि
तुम निर्भार
हो जाओ और लग जाओ
अपनी वासनाओं
की दौड़ में
फिर।
नहीं, यह मैं
तुमसे नहीं कह
सकता। ऐसा ही
है। सत्य यही
है कि यह जो
वर्तुल है, यह घूम रहा
है। तुमने अगर
मनुष्य होने
का लाभ न
उठाया तो तुम
मनुष्य होने
का हक खो देते
हो। यह
सीधा-सा गणित
है। आखिर
मनुष्य होने
का हक तुम्हें
मिला है--किसी
कारण से।
बुद्ध
से किसी ने
पूछा--एक युवक
आया, संन्यस्त
होना चाहता
था--उसने पूछा
कि आपको देखकर,
राह पर आपको
चलते देखकर, आपकी यह प्रसादपूर्ण
कांति, आपका
यह अपूर्व
अपार्थिव
सौंदर्य--मेरे
मन में भी बड़ी
गहन आकांक्षा
उठी है। मगर
मैंने कभी
इसके पहले
संन्यास का
सोचा भी नहीं
था। और मैं
कभी धर्म
इत्यादि में
उत्सुक भी
नहीं रहा।
पंडित-पुरोहितों
से मैं ज़रा
दूर ही दूर
रहा। मेरे
पिता और मेरी
भी मुझे अगर
कभी ले जाना
चाहते हैं तो
मैं बच जाता
हूं हजार
बहाने करके।
पंडितों की बातें
सुन कर मुझे
सिर्फ
सिरदर्द हो
जाता है और ऊब
आती है। मगर
आपको देखकर
मैं बड़ा
आंदोलित हो
गया हूं और एक
भाव उठता है
भीतर कि मैं
दीक्षित हो
जाऊं। मगर यह
मेरी समझ में
नहीं आता कि अनायास!
पीछे कोई
सिलसिला नहीं
है, कोई
श्रृंखला
नहीं है।
अनायास! इतनी
बड़ी बात होने
की मेरे मन
में कैसे
कामना आ गई!
बुद्ध
ने आंख बंद की
और उसे कहा :
"युवक, तुझे
पता नहीं, तू
पिछले जन्म
में हाथी था।
जंगल में आग
लग गई थी और तू
भागा जा रहा
था। सारे
पशु-पक्षी
भागे जा रहे
थे। थका-मांदा
तू एक वृक्ष
के नीचे थोड़ी
देर विश्राम
करने को खड़ा
हो गया। तेरे
पैर थक गए थे
और एक पैर के
नीचे कांटा चुभ रहा था,
तो तूने वह
पैर ऊपर
उठाया। जिस
बीच तूने पैर
ऊपर उठाया उसी
बीच एक खरगोश
तेरे उस पैर
के नीचे आकर
बैठ गया। तूने
नीचे नहीं
देखा। वह घड़ी
ऐसी थी कि
सारा जंगल आग
से लगा था। वह
मौका ऐसा था
कि तुझे एक
बात दिखाई पड़ी
: हम सभी जीवन
के लिए भागे
जा रहे हैं: यह
खरगोश भी
बेचारा भागा
जा रहा है।
मैं थक गया, मैं बड़ा
हाथी हूं, तो
यह भी थक गया
है। और यह किस
निश्चिंतता
से मेरे पैर
के नीचे बैठा
है जो मैंने
उठाया हुआ है;
अब मैं
रखूंगा पैर
नीचे तो यह मर
जाएगा।
"वह
घड़ी ऐसी थी कि
तू अपने जीवन
के लिए इतना
उत्सुक था, तेरी जीवेष्णा
इतनी प्रबल थी
कि बच जाऊं, कि तुझे यह
लगा कि जैसे
मैं बचना
चाहता हूं
वैसे सभी बचना
चाहते हैं।
तुझे बड़ा बोध
हुआ। और तू
पैर वैसा ही
उठाए खड़ा रहा
और वह खरगोश
नीचे
निश्चिंत बैठा
रहा। जब खरगोश
हट गया तब
तूने पैर नीचे
रखा। लेकिन
पैर अकड़ गया
था। तू नीचे न
रख पाया, गिर
पड़ा। खरगोश तो
बच कर निकल
गया लेकिन तू
उस जंगल में
लगी आग में जल
कर मर गया।
लेकिन मरते
वक्त तेरे मन
में बड़ी
तृप्ति थी, एक बड़ी
शांति थी, एक
अपूर्व
उल्लास था, एक आनंद का
भाव था कि
मैंने खरगोश
को नहीं मारा;
चलो मैं मर
गया, ठीक।
उसका फल है कि
तू मनुष्य
हुआ।'
बुद्ध
ने कहा : तूने
वह जो करुणा
दिखाई, उस
करुणा के कारण
तू मनुष्य
हुआ। उसी
करुणा के कारण
तेरे भीतर यह
बीज पड़ गया।
बुद्ध
कहते थे :
जिसके जीवन
में करुणा हो
उसके जीवन में
प्रज्ञा आती
है, बोध आता
है। और जिसके
जीवन में
प्रज्ञा हो
उसके जीवन में
करुणा आती है।
ये एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। तो
जो व्यक्ति
ध्यान को
उपलब्ध होकर
प्रज्ञा को
उपलब्ध होता
है उसके जीवन
में महाकरुणा
आ जाती है। और
जिसके जीवन
में महाकरुणा
आ जाती है। और
जिसके जीवन
में करुणा की
थोड़ी-सी भी
गंध हो, वह
आज नहीं कल
समाधि में
उत्सुक हो ही
जाएगा। उस
करुणा के कारण
आज राह पर
चलते मुझे देखकर
तेरे मन में
यह भाव उठा।
यह अकारण नहीं
है, इसके
पीछे
श्रृंखला है।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
मनुष्य हो, यह अकारण
नहीं है। कुछ
किया होगा।
कुछ हुआ होगा।
अनंत अनंतयात्रा-पथ
पर तुमने
अर्जन किया है
मनुष्यत्व।
यह अर्जित है।
लेकिन यह अवसर
अवसर ही है।
यह तुम्हारी
कोई शाश्वत
संपदा नहीं
है। तुम इसके
मालिक नहीं हो
गए हो। यह
क्षणभंगुर
है। यह आज है
और कल चला
जाएगा। जैसे
अर्जित किया
है वैसे ही
गंवा भी सकते
हो।
अगर एक
हाथी करुणा के
कारण मनुष्य
हो सकता है, तो एक
मनुष्य
कठोरता के
कारण हाथी हो
सकता है। यह
तो सीधा गणित
है। अगर एक
हाथी करुणा के
कारण मनुष्य
होने की क्षमता,
पात्रता
पैदा कर लेता
है, तो तुम
कठोरता के
कारण, हिंसा
के कारण, क्रूरता
के कारण पशु
होने की
क्षमता में
उतर ही जाओगे।
जाओगे कहां और?
वर्तुल घूम
जाएगा। चाक
घूम गया। आरा
नीचे जाने
लगा। फिर लंबी
यात्रा है, क्योंकि आरा
तभी वापिस
लौटेगा जब
पूरा चाक घूम
जाएगा।
यह जो
चौरासी
कोटियों की
बात है, यह
एकदम
अवैज्ञानिक
नहीं है। और
यह चौरासी करोड़
योनियों की जो
बात है, यह
केवल कोई
पौराणिक आंकड़ा
भी नहीं है।
ऐसा ही है। अब
तो वैज्ञानिक
धीरे-धीरे
धीरे-धीरे खोज
करते-करते इस
नतीजे पर पहुंच
रहे हैं कि
हिंदुओं का आंकड़ा
शायद सही
सिद्ध होगा।
इतनी ही
कोटियां हैं।
अभी तक इतनी
पूरी नहीं हो
पाई हैं; लेकिन
रोज खोज हो
रही है। पहले
तो ईसाई हंसते
थे कि चौरासी करोड़!
चौरासी करोड़
योनियां
दिखाई कहां
पड़ती हैं? चलो
होंगी लाख, दो लाख, पचास
लाख, करोड़ मान लो; मगर
चौरासी करोड़
योनियां
दिखाई कहां
पड़ती हैं? लेकिन
अब संख्या
करोड़ों में हो
गई है। क्योंकि
बहुत योनियां
हैं जो अदृश्य
हैं। बहुत-से
छोटे कीटाणु
हैं, सूक्ष्म
कीटाणु हैं जो
अदृश्य हैं।
अब उनकी भी
गणना हो रही
है। धीरे-धीरे
करोड़ों पर
संख्या पहुंच
गई है। और तब
तो
वैज्ञानिकों
को लगता है कि
शायद हिंदुओं
का आंकड़ा
चौरासी करोड़
सही सिद्ध हो
जाए। कम तो
नहीं होंगी, ज्यादा भला
हों। इतनी बात
अब साफ हो गई
है। जितनी
नवीनतम शोधें
हुई हैं, उनसे
बात साफ हो गई
है कि
प्राणियों के
होने के ढंग
ज्यादा तो हो
सकते हैं, कम
नहीं हो सकते।
अभी आंकड़ा
पूरा नहीं हुआ
है, लेकिन
हो जाएगा आंकड़ा
पूरा।
यह
पूरा वर्तुल
है। ये चौरासी
करोड़ आरे
हैं और इनका
पूरा चाक है।
यह चाक पूरा
घूमता है। एक
बार तुम
मनुष्य होने
के आरे पर ऊपर
आए, शिखर बने
. . . मनुष्य शिखर
है। अगर वहां
से छलांग लगा
ली तो लगा ली।
क्योंकि वहां
थोड़ा बोध
है--बहुत थोड़ा!
मनुष्य होने
में ही इतना
थोड़ा बोध है
कि यहां से भी चूक
जाते हो। तो
फिर और हाथी, घोड़े, कुत्ते
होने में तो
बोध और खो
जाएगा। फिर
वहां से तो
चूकना
निश्चित ही
है।
तो मैं
तुम्हें भय से
मुक्त नहीं कर
सकता--तुम्हीं
भय से मुक्त
कर सकते हो।
मत चूको, भय
खत्म हुआ। भय
का उपयोग कर
लो। इसको भय
क्यों समझे हो?
इसको सत्य
समझो।
ऐसा ही
समझो कि तुम
जा रहे हो एक
रास्ते पर, मैं तुमसे
कहता हूं बाएं
तरफ एक गङ्ढा
है। तुम कहते
हो, मार
डाला। अब हम
क्या करें? हमें भय से
मुक्त करिए; कहिए कि गङ्ढा
नहीं है।
मैं तो
कह दूं कि गङ्ढा
नहीं है, लेकिन
इससे गङ्ढा
सुनेगा नहीं
और गङ्ढा
मिटेगा नहीं।
मेरे कहने से
खतरा बढ़
जाएगा। मैं कह
दूं कि गङ्ढा
नहीं है, जाओ
बेटा, मजे
से जाओ, गीत
गाते हुए जाओ,
फिल्मी धुन
गाना; कोई गङ्ढा
वगैरह नहीं है;
यह तो
तुम्हें
डराने के लिए
कहा था--अब तुम
जरूर गिरोगे।
गङ्ढा
है। दोनों तरफ
है। रास्ता
संकरा है।
रस्सी की तरह
पतला है। जैसे
रस्सी पर चलते
नट को देखा है
न--अब गिरा तब
गिरा--ऐसा ही
जीवन है। खतरा
यहां है ही।
इसको भय मत
समझो। यह
सच्चाई है। इस
सच्चाई का
उपयोग कर लो।
इस सच्चाई के
ऊपर उठ जाओ।
इस
मनुष्य-जीवन
के अवसर को
खोओ मत। अजहूं
चेत गंवार! अब
भी जागो!
यह अवसर बड़ा
बहुमूल्य है।
तुम जैसे गंवा
रहे हो, इसलिए
बेचारे पलटूदास
को कहना पड़ता
है "गंवार'--जैसे तुम
गंवा रहे हो।
जो गंवाए
सो गंवार। तुम
किस चीज में
लगा रहे हो यह
अवसर को? कोई
स्त्री के
पीछे दौड़ रहा
है, कोई
पुरुष के पीछे
दौड़ रहा है, कोई धन के
पीछे, कोई
पद के पीछे।
लेकिन यही तो
तुम
जन्मों-जन्मों
में, कोटियों-कोटियों
में, अलग-अलग
योनियों में
करते रहे हो।
वहां भी यही
सब चलता है।
तुमने
देखी बंदरों
की एक जमात!
उनमें एक
राष्ट्रपति
होता है--सबसे
ज्यादा
उपद्रवी, झंझटी,
झगड़ैल,
मारने-पीटने
को तैयार, डरवाने
में कुशल। वह
अगुआ होता है।
बाकी सब उससे
डरते हैं। फिर
अगर तुम
बंदरों को गौर
से देखो, जिन्होंने
अध्ययन किया
है बंदरों को,
तो वे कहते
हैं बंदरों
में पूरी की
पूरी राजनीति
होती है, पूरा
कैबिनेट
पाओगे, पूरा
मंत्रिमंडल।
वह जो एक सबसे
ज्यादा दुष्ट,
उसके आसपास
दस-पांच का एक
गिरोह, जो
उसके सलाहकार,
और फिर उसके
बाद और, और
फिर उसके बाद
और। और तुम
उनमें बराबर
वर्ण भी
पाओगे। कुछ
हैं जो काम
शूद्र के ही
करते हैं। कुछ
हैं जो काम
सिर्फ
ब्राह्मण का
ही करते हैं, वे सिर्फ
सलाह-मश्वरा
देते हैं; कोई
झगड़ा-झांसा
आ जाए, तो
मार्ग सुझाते
हैं। कुछ हैं
जो क्षत्रिय
का काम करते
हैं; झगड़ा-झांसा हो तो
लड़ने को तैयार
हैं--जवान, मजबूत।
और
स्त्री-बच्चे
हैं, उनकी
सब सुरक्षा
करते हैं। जब
बंदरों का
गिरोह चलता है
तो
स्त्री-बच्चे
बीच में चलते
हैं; अगुआ
आगे चलता है।
स्त्री-बच्चों
को घेर कर क्षत्रिय
चलते हैं।
ठीक
बंदरों में
तुम पूरे
मनुष्य की
राजनीति पाओगे।
तुम नई दिल्ली
के सब रंग-ढंग
बंदरों में पा
सकते हो। तो
पार्लियामेंट
में अगर थोड़ा बंदरपन हो
जाता है, तो
बहुत चिंता मत
किया करें, वह होने ही
वाला है। अगर माराधापी
हो जाती है, खींचतान हो
जाती है, एक-दूसरे
को धक्कम-धुक्की
हो जाती है, तो वह होने
ही वाली है।
राजनीतिक से
इससे ज्यादा
की आशा की भी
नहीं जा सकती।
राजनीति है ही
वही जंगलीपन,
वही जानवर
की
वृत्ति--कैसे
दूसरे का
मालिक हो जाऊं!
जब तक
तुम दूसरे के
मालिक होना
चाहते हो तब
तक तुम
पशु-वृत्ति से
जी रहे हो।
जिस दिन तुम
अपने मालिक
होना चाहते हो, उस दिन तुम
सच में मनुष्य
हुए। स्वयं की
मालकियत की
खोज धर्म; दूसरे
की मालकियत की
खोज राजनीति
है।
फिर धन
इकट्ठा कर रहे
हो, तो धन भी
इकट्ठा करके
क्या होगा? सब पड़ा रह
जाएगा। सब ठाठ
पड़ा रह जाएगा
जब बांध चलेगा
बनजारा। तो
तुम अवसर खो
रहे हो।
परमात्मा की
संपत्ति
सामने पड़ी है,
उसकी गांठ
नहीं बांधते,
उसकी गठरी
नहीं बांधते,
और कूड़ा-कर्कट
बांध रहे हो! . .
.तो अगर पलटू
गंवार कहते हैं
तो नाराज मत
होना, सच्चाई
ही कहते हैं।
और तुम
खड़े-खड़े ही
देख रहे हो।
असली चीज के
संबंध में तो
दूर-दूर खड़े
देखते हो, नकली
चीज में एकदम
दौड़ पड़ते हो।
व्यर्थ को तो इकट्ठा
करते हो, सार्थक
की चिंता ही
नहीं है। और
जिंदगी बीती जाती
है। और हाथ से
समय खोया जाता
है, एक-एक
पल बहा जाता
है। जल्दी ही
मौत द्वार पर
खड़ी हो जाएगी।
इसके
पहले कि मौत
द्वार पर खड़ी
हो जाए, जो
समझदार है वह
समाधि को
द्वार पर खड़ा
कर लेगा। मौत
के पहले समाधि,
यह लक्ष्य
होगा समझदार
का। और जिसको
समाधि पहले
मिल गई मौत के ,
उसकी मौत
होती ही नहीं;
वह अमृत को
उपलब्ध हो
जाता है। अमृतस्य
पुत्रः--वेद
कहते हैं--वह
अमृत का पुत्र
हो जाता है।
तो मैं
तुम्हें भय से
मुक्त कैसे
करूं? भय से
मुक्त होने का
एक ही उपाय है
कि समाधि को उपलब्ध
हो जाओ। बस
ध्यान में ही
भय मरेगा। क्योंकि
समाधि में ही
मृत्यु
मरेगी। जब तक
मृत्यु है तब
तक भय रहेगा।
तो मृत्यु के
पार जाओ, अमृत
का रस ले लो।
अमृत बनो।
अमृत
बन सकते हो।
वह तुम्हारी
संभावना है।
उसे पुकारो!
उसे आह्वान
करो! उसे जगाओ!
चेतो!
तुम
मनुष्य हो, परमात्मा हो
सकते हो। और
अगर परमात्मा
नहीं हुए तो
पशु होने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं है।
मनुष्य
संक्रमण है।
मनुष्य पुल
है। या तो इस पार
जाओ; या उस
पार जाओ
मनुष्य होने
में टिक नहीं
सकते।
अकबर
ने एक नगर
बसाया था : फतेहपुर
सीकरी। उस नगर
को जोड़ने
वाला जो पुल
है, उस पुल पर
वह एक वचन
लिखना चाहता
था। बड़ी खोजबीन
की उसके
पंडितों ने कि
कोई ऐसा वचन
मिल जाए। बहुत
वचन खोजे
गए, फिर
जीसस का एक
वचन उसे पसंद
आया। मुसलमान
बहुत प्रसन्न
तो नहीं थे, क्योंकि वे
चाहते थे, मुहम्मद
का वचन हो।
हिंदू पंडित
भी उसके दरबार
में थे, वे
भी बहुत
प्रसन्न नहीं
थे, क्योंकि
वे चाहते थे
कि कोई उपनिषद
और वेद से मिले।
मगर वह वचन सच
में बहुमूल्य
था। वह वचन है
कि "यह जीवन एक
पुल की भांति
है, इससे
गुजर जाना, इस पर घर मत
बनाना'।
पुल पर
कोई घर थोड़े
ही बनाता है!
मनुष्य तो केवल
संक्रमण है, सेतु है; एक
तरफ पशु है, दूसरी तरफ
परमात्मा है।
मनुष्य तो बीच
की सीढ़ी है।
इससे गुजर
जाना, इस
पर घर मत
बनाना।
क्योंकि इस पर
अगर रुके तो नीचे
गिरोगे। या तो
नीचे गिरो या
ऊपर जाओ। यहां
रुकना हो नहीं
सकता।
इतना
ही मतलब है इस
बात का कि
चौरासी कोटि
योनियों में
भटकना पड़ेगा।
ठीक ही किया
है संतों ने
कि तुम्हें
साफ-साफ कह
दिया है। गङ्ढे
हैं और गिर कर
लौटना आसान
नहीं हुआ; बोध था, तब
आसान नहीं
हुआ--गङ्ढे
में गिर गए, फिर तो अबोध
हो जाओगे। फिर
तो बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। फिर तो
प्रकृति की
प्रक्रिया से
ही घूमते-घूमते
लंबी यात्रा
के बाद शायद
दुबारा आओ अनंत
काल में। अभी
बागडोर हाथ
में ली जा
सकती है। अभी
न ली . . .।
पशुओं
के हाथ में
अपनी बागडोर
नहीं है।
मनुष्य के हाथ
में अपनी
बागडोर है।
भय से
मुक्त होने का
एक ही उपाय है
कि तुम इस भय का
उपयोग कर लो; इसका
सृजनात्मक
उपयोग कर लो।
समाधि को बुला
लो--समाधान हो
जाएगा। सब
समस्याएं मिट
जाएंगी। भक्ति
हो, प्रार्थना
हो कि ध्यान
हो, किसी
भी मार्ग से
उस चित्त-दशा
को खोज लो :
गिरह हमारा सुन्न
में, अनहद
में विसराम!
आज
इतना ही।
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