अध्याय
22 : खंड 1
संघर्ष
की व्यर्थता
झुकना
है सुरक्षा।
और
झुकना ही है
सीधा
होने का
मार्ग।
खाली
होना है भरे
जाना।
और
टूटना, टुकड़े-टुकड़े
हो
जाना
ही है
पुनरुज्जीवन।
अभाव
है संपदा।
संपत्ति
है विपत्ति और
विभ्रम।
इसलिए
संत उस एक का
ही
आलिंगन करते
हैं;
और
बन जाते हैं
संसार का
आदर्श।
एक
अनूठी घटना
दिखाई पड़ती है
संसार में।
सभी सफल होना
चाहते हैं; और
सभी असफल हो
जाते हैं।
नहीं है कोई
जो सुख न चाहता
हो; और ऐसा
भी कोई नहीं
है जो चाह-चाह
कर भी सिवाय दुख
के कुछ और
पाता हो। जीना
चाहते हैं सभी;
और सभी मर
जाते हैं।
जरूर कहीं कोई
जीवन का गहरा
नियम अपरिचित
रह जाता है; उसका यह
दुष्परिणाम
है।
एक
व्यक्ति असफल
होता हो तो
जिम्मेवारी
उसकी हो सकती
है। लेकिन जब
जगत में सभी
सफलता चाहने
वाले असफल हो
जाते हों तो
जिम्मेवारी
व्यक्तियों
की नहीं रह
जाती। कहीं
जीवन का कोई
बुनियादी
नियम ही चूक
रहा है। एक
व्यक्ति सुख
चाहता हो और
दुख में पड़
जाता हो, समझ
ले सकते हैं
कि उसकी भूल
होगी। लेकिन
जहां सभी सुख
चाहने वाले
दुख में पड़
जाते हों, वहां
व्यक्तियों
पर जिम्मा
नहीं थोपा जा
सकता। जीवन के
नियम को ही
समझने में सभी
की समान भूल हो
रही है।
लाओत्से का यह
सूत्र इस
बुनियादी भूल
से संबंधित
है।
लाओत्से
कहता है, जो
जीतने की
कोशिश करेगा,
वह हारेगा।
हम
इसलिए नहीं
हारते हैं कि
कमजोर हैं; हम
इसलिए हारते
हैं कि हम
जीतने की
कोशिश करते
हैं। इसे थोड़ा
हम समझ लें।
क्योंकि
मनुष्य-जाति
का जो बुनियादी
भ्रांत तर्क
है, वह इस
पर ही निर्भर
है। हारता हूं
मैं तो सोचता
हूं, कमजोर
था। तो शक्ति
और बढ़ा लूं तो
जीत जाऊंगा।
तो शक्ति को
हम बढ़ाने में
लगे रहते हैं।
लेकिन कितनी
ही शक्ति आ
जाए आदमी के
हाथ, अंततः
हार ही हाथ लगती
है; जीत
उपलब्ध नहीं
हो पाती।
सिकंदर हारा
हुआ मरता है, नेपोलियन
हारा हुआ मरता
है; सभी
हारे हुए मरते
हैं। कमजोर तो
हारते ही हैं,
शक्तिशाली
भी हारे हुए
मरते हैं। तो
तर्क, कि
शक्ति ज्यादा
होगी तो हम
जीत जाएंगे, गलत है।
लाओत्से
कहता है, जीतना
चाहोगे तो हारोगे।
हार का कारण
जीतने की
इच्छा में
छिपा है, शक्ति
की कमी में
नहीं। असल में,
जो जीतना
चाहता है, उसके
मन को हम
समझें। जो
जीतना चाहता
है, पहली
तो बात एक
उसने स्वीकार
कर ली कि
हारने की भी
संभावना है।
जो जीतना
चाहता है, उसने
यह भी स्वीकार
कर लिया कि
जीतना बहुत
मुश्किल है।
जो जीतना
चाहता है, उसने
यह भी स्वीकार
कर लिया कि
मेरी जीत
दूसरों पर
निर्भर
करेगी।
क्योंकि जीत
अपने पर निर्भर
नहीं करती; कोई हारेगा
तो मैं जीतूंगा।
तो जीत में
दूसरे की
गुलामी छिपी
है। सब जीतने
वाले हारने
वालों के
अनुगृहीत
होना चाहिए; क्योंकि उनके
बिना वे न जीत
सकेंगे। और जो
जीत दूसरे पर
निर्भर है, उसे हम जीत
कह सकते हैं? अगर मेरी
जीत भी आप पर
निर्भर है तो
आप मेरी जीत
के भी मालिक
हो गए। आपकी
मुट्ठी में
बंद है फिर
मेरी चाबी। आप
हारेंगे तो
मैं जीतूंगा।
और यह जगत है
विराट और बड़ा।
और कितनी ही
बड़ी शक्ति हो
हमारे पास, सदा क्षुद्र
है--इस जगत की
शक्तियों को
देख कर। और
कितने ही हम
हाथ-पैर तड़पाएं,
हम इस जगत
की शक्ति से
ज्यादा न हो
सकेंगे। हम इसके
हिस्से हैं, छोटे से
हिस्से हैं।
हम हारेंगे
ही।
और
जैसे ही किसी
व्यक्ति ने
जीतना चाहने
की वासना पैदा
की,
एक बात उसने
और स्वीकार कर
ली कि अभी वह
हारा हुआ है। मनसविद
कहते हैं कि
जो हीन-ग्रंथि
से पीड़ित होते
हैं, इनफीरियारिटी कांप्लेक्स
से पीड़ित होते
हैं, वे ही
केवल जीत में
उत्सुक होते
हैं, महत्वाकांक्षी
हो जाते हैं।
महत्वाकांक्षा
हीन व्यक्ति
का लक्षण है।
जैसे दवाई की
तरफ बीमार
आदमी जाता है,
ऐसे ही
महत्वाकांक्षा
की तरफ हीन
आदमी जाता है।
इसलिए
एक अजीब घटना
घटती है। एडलर
ने पश्चिम में, इस
सदी में, इस
संबंध में
गहरे से गहरा
काम किया है।
एडलर का कहना
है कि जो लोग
भी जीवन में
किसी बड़ी कमी से
पीड़ित होते
हैं, वे
लोग उस कमी की
परिपूर्ति के
लिए कोई कांप्लीमेंटरी
रास्ता खोज
लेते हैं।
जैसे लेनिन
कुर्सी पर बैठता
था तो उसके
पैर जमीन को
नहीं छूते थे।
पैर बहुत छोटे
थे, ऊपर का
हिस्सा बड़ा
था। और एडलर
का कहना है कि
यह घटना ही
लेनिन को बड़े
से बड़े पद की
तलाश में ले
गई। बड़ी से
बड़ी कुर्सी पर
बैठ कर उसने
दिखा दिया कि
पैर चाहे जमीन
न छूते हों, लेकिन ऐसी
कोई कुर्सी
नहीं है जिस
पर मैं न बैठ
सकूं। कठिनाई
उसकी यह थी कि
वह किसी भी
कुर्सी पर
नहीं बैठ सकता
था। किसी छोटी
सी कुर्सी पर
भी बैठता
सामान्य किसी
के घर में तो
उसे बेचैनी
शुरू हो जाती।
उसके पैर छोटे
थे और लटक
जाते थे। एडलर
कहता है कि
लेनिन के लिए
यही कमी उसकी
महत्वाकांक्षा
बन गई। उसने
कहा, कोई
फिक्र नहीं, तुम्हारी कुर्सियां
बड़ी हैं और
मेरे पैर छोटे
पड़ते हैं; लेकिन
मैं तुम्हें
बता दूंगा, जगत को, कि
ऐसी कोई भी
कुर्सी नहीं
है जिस पर मैं
न बैठ सकूं।
किसी भी
कुर्सी पर वह
ठीक से बैठ
नहीं सकता था,
यही अभाव
दौड़ बन गई।
एडलर
ने,
दुनिया के
जिनको हम
बड़े-बड़े लोग
कहते हैं, उनका
गहरा अध्ययन
किया है। और
हर बड़े आदमी
में, जिसको
हम बड़ा आदमी
कहते हैं, उसने
वह कमी खोज
निकाली है जो
उसकी
महत्वाकांक्षा
का कारण है।
यह
स्वाभाविक
है। इसलिए
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
अंधा आदमी
अपने कानों की
शक्ति को बढ़ा
लेता है। बढ़ा
ही लेगा। आंख
का काम भी उसे
कान से ही
लेना है। इसलिए
अंधों के पास
कान अच्छे हो
जाते हैं। और
अगर अंधे
संगीतज्ञ
होते हैं तो
कोई और कारण नहीं
है;
कान अच्छे
हो जाते हैं।
यह कभी
आपने खयाल
किया कि कुरूप
व्यक्ति अपनी
कुरूपता को
छिपाने के लिए
न मालूम कितनी
सुंदर चीजों
का निर्माण कर
लेता है। अगर
आप दुनिया के
चित्रकारों
को देखें, जिन्होंने
सुंदरतम
रचनाएं रची
हैं, तो आप
हैरान हो
जाएंगे, उनके
खुद के चेहरे
सुंदर नहीं
हैं।
ऐसा
हुआ,
एक गांव में
मैं घर में
मेहमान था
किसी के और अखिल
भारतीय
कवयित्री
सम्मेलन वहां
हो रहा था। तो
जिन मित्र के
घर मैं ठहरा
था, उन्होंने
कहा, आप भी
चलेंगे? भारत
भर से कोई बीस
महिला कवि
इकट्ठी हुई
हैं। मैंने
कहा, मैं
तो नहीं जाऊंगा,
एक बात आप
खयाल करके
लौटना--बीस महिलाएं
जो वहां हैं, उनमें कोई
एकाध सुंदर है
या नहीं? वे
थोड़े हैरान
हुए कि मैं
उनसे ऐसा पूछूंगा।
लेकिन लौट कर
वे और हैरान
हुए।
उन्होंने कहा,
आश्चर्य, आपने पूछा
तब मैं थोड़ा
हैरान हुआ था;
वहां जाकर
मैं और हैरान
हुआ, वे
बीस ही
महिलाएं
कुरूप थीं।
महिला
जब सुंदर होती
है तो कविता
वगैरह करने
में नहीं
पड़ती। इसलिए
दुनिया में
सुंदर
महिलाओं ने
कुछ नहीं किया
है। कंपेनसेशन
नहीं है।
सौंदर्य काफी
है;
किसी और चीज
से पूरा करने
का विचार नहीं
उठता।
एडलर
का कहना है कि
इस दुनिया में
जो ठीक-ठीक स्वस्थ
व्यक्ति हैं, वे
किसी महत्वाकांक्षा
के पद पर नहीं
पहुंच सकते।
सिर्फ रुग्ण,
बीमार, पंगु
व्यक्ति ही
महत्वाकांक्षा
के पदों पर पहुंच
सकते हैं।
इसमें
सचाई है।
इसमें दूर तक
सचाई है। जो
कम है हमारे
भीतर, उसे हम
पूरा करना
चाहते हैं, ओवर कंपेनसेट
करना चाहते
हैं; ताकि
सारी कमी ढंक
जाए, परिपूर्ति
हो जाए। जब
कोई व्यक्ति
जीतने की
आकांक्षा से
भरता है तो
उसका मतलब है
कि वह जानता
है गहरे में
कि मैं हारा
हुआ आदमी हूं।
यह उलटा दिखाई
पड़ेगा। लेकिन
एडलर ने तो
अभी खोजा, लाओत्से
इसे ढाई हजार
साल पहले अपने
सूत्र में
लिखा है।
लाओत्से
कहता है, अगर
जीतना चाहते हो
तो जीतने की
कोशिश मत
करना। वह हार
की शुरुआत है।
अगर जीतना
चाहते हो तो
जीतने की
वासना ही
तुम्हारी
सबसे बड़ी
शत्रु है। वही
सिद्ध कर रही
है कि तुम
जीतने योग्य
भी नहीं हो।
वही सिद्ध कर
रही है कि तुम
गहरी हीनता के
गङ्ढे से
भरे हो। वही
सिद्ध कर रही
है कि तुम रुग्ण
हो, पंगु
हो; कहीं
कोई पक्षाघात
है तुम्हारी
आत्मा में।
यह
किसी और आयाम
से भी हम
समझें तो खयाल
में आ जाए।
अभी
कुछ
वैज्ञानिक
प्रस्तावित
कर रहे हैं कि डार्विन
का खयाल था कि
आदमी इसीलिए
विकसित हो सका
दूसरे पशुओं
से,
क्योंकि वह
ज्यादा
बुद्धिमान है,
ज्यादा रैशनल
है; इसलिए
जो संघर्ष है
प्रकृति का, उसमें आदमी
जीत गया और
पशु हार गए।
अब तक यह बात
ठीक मालूम
पड़ती रही है।
लेकिन अब
नवीनतम शोधें
इस पर संदेह
पैदा करती
हैं। और वे
कहती हैं कि आदमी
का यह जो
विकसित, तथाकथित
विकसित, सो-काल्ड
विकसित रूप
दिखाई पड़ता है,
यह आदमी के
ज्यादा
शक्तिशाली, ज्यादा
बुद्धिमान, ज्यादा
श्रेष्ठ होने
के कारण नहीं
है। बल्कि इसका
बुनियादी
कारण है कि इस
पृथ्वी पर
आदमी का बच्चा
सब से असहाय
पैदा होता है,
सब से हेल्पलेस।
अगर आदमी के
बच्चे को मां
और बाप पालें
और पोसें
नहीं और समाज
चिंता न करे
तो आदमियत बच
ही नहीं सकती।
सभी जानवरों
के बच्चे आदमी
के बच्चे से
ज्यादा
शक्तिशाली
पैदा होते हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
आदमी का बच्चा
अगर जानवर की
तरह
शक्तिशाली
पैदा करना हो
तो कम से कम मां
के गर्भ में
उसे इक्कीस
महीने रहना
चाहिए। लेकिन
तब वह पैदा
नहीं हो सकेगा, मां
मर जाएगी।
क्योंकि वह
इतना बड़ा हो
जाएगा कि उसके
जन्म का उपाय
नहीं है।
इसलिए अगर ठीक
से समझें तो
सारे पशुओं को
देखते हुए
मनुष्य के सब
जन्म गर्भपात
हैं, एबार्शन हैं।
क्योंकि
बच्चा अधूरा
पैदा होता है,
एबार्शन का मतलब यह
है। नौ महीने
में बच्चा
अधूरा पैदा होता
है। अभी बहुत
सी चीजें, जो
उसमें होनी
चाहिए, नहीं
हैं। अभी वे
विकसित
होंगी।
और फिर
भी अगर हम गौर
से देखें तो
घोड़े का बच्चा
है--पैदा हुआ, और
चलने लगा, दौड़ने
लगा। आदमी के
बच्चे को चलने
में अभी वर्षों
लगेंगे।
पशुओं के
बच्चे हैं, उठे और अपने
जीवन की तलाश
में चल पड़े, आजीविका
खोजने लगे।
आदमी के बच्चे
को आजीविका
खोजने में
पच्चीस वर्ष
लगेंगे।
आदमी
का बच्चा जगत
में सबसे
ज्यादा कमजोर
प्राणी है। और
चूंकि आदमी
कमजोर है, इसलिए
उसने ओवर-कंपेनसेट
कर डाला, उसने
सब जानवरों को
पिछड़ा दिया।
उसने सब चीजों
की परिपूर्ति
कर ली। आदमी
के नाखून
जानवरों के
नाखून से तौलें
तो पता चलेगा।
अगर आप जानवर
से सीधा लड़ें
तो आदमी से
ज्यादा कमजोर
जानवर जमीन पर
खोजना मुश्किल
है। उसके दांत,
उसके नाखून
आपको क्षण भर
में चीर-फाड़
कर रख देंगे।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
नाखून की
पूर्ति आदमी
ने इतनी दूर
तक की--छुरी, तलवार, एटमबम
तक चली गई। वह
नाखून की
पूर्ति है। वह
बढ़ाए चला
गया अपने नाखूनों
को। वह अपने
दांतों को बढ़ाए
चला गया। कभी
आपने देखा है,
जब एक टैंक
युद्ध की तरफ
जाता है तो
आपने टैंक के
दांत देखे हैं?
वे आदमी के
दांत हैं, जो
जानवरों से
कमजोर हैं।
ओवर-कंपेनसेशन
हो गया। हमने
और बड़े दांत
मशीन में पैदा
करके जानवरों
को मिट्टी में
मिला दिया।
नवीनतम
शोधें यह
कहती हैं कि
आदमी का जिसको
हम विकास कहते
हैं,
वह शायद
उसकी हीनता, कमजोरी, असहाय
अवस्था का
परिणाम है।
जो हो, एक
बात तय है कि
ऊपर उठने की
आकांक्षा
नीचे गिरे होने
का सबूत है।
जो नीचे गिरा
हुआ है ही
नहीं, वह
ऊपर उठना न
चाहेगा। जो
अपने में
आश्वस्त है, वह किसी
दूसरे को
आश्वासन
दिलाने न
जाएगा। जिसका
अपने पर भरोसा
है, वह
अपने भरोसे को
पाने के लिए
दूसरे को
हराने के
उपद्रव में न
पड़ेगा। हम
संघर्ष करते
हैं कुछ सिद्ध
करने को; लड़ते
हैं कुछ सिद्ध
करने को कि
मैं कुछ हूं।
यह इस बात की
सूचना है कि
मुझे
भलीभांति पता
है कि मैं कुछ
भी नहीं हूं।
वह जो नोबडीनेस
का, ना-कुछ
होने का भाव
है, वही
हमारी तड़पन
बन जाता है कि
हम सिद्ध करें
जगत में कि
मैं कुछ हूं।
लेकिन
कितना ही हम
सिद्ध करें, वह
जो ना-कुछ
होने का भीतर
छिपा हुआ बोध
है, वह दब
जाएगा, नष्ट
नहीं हो सकता।
और कितना ही
हम जीतते चले जाएं,
भय बना ही
रहेगा कि कोई
और शक्तिशाली
होगा जो मुझे
पराजित कर
सकता है। और
मुझे अपनी
शक्ति बढ़ाते
ही रहनी होगी।
और किसी भी
स्थिति में यह
स्थिति नहीं
बन सकती कि
मेरा मूल जो
भय था, भीतर
की हीनता थी, वह मिट जाए।
एक चक्कर है, एक दुश्चक्र,
एक वीसियस
सर्किल है। वह
दुश्चक्र
ऐसा है कि जो
मूल चीज है, उसको तो हम
स्वीकार कर
लेते हैं; फिर
उसके विपरीत
कुछ करने में
लग जाते हैं।
मेरे
पैर में एक
घाव है। उसको
तो मैं नहीं
मिटाता; आपकी
आंखों में घाव
न दिखाई पड़े, इसलिए
मलहम-पट्टी कर
लेता हूं। वह
मलहम-पट्टी, आपकी आंखों
में घाव न
दिखाई पड़े, इसलिए है।
उस मलहम-पट्टी
में वह औषधि
नहीं है, जो
मेरे घाव को
ठीक करे। वह
मलहम-पट्टी
मैं अपने घाव
पर नहीं, आपकी
आंखों पर कर
रहा हूं। आपको
मैं धोखा दे
दूंगा; मेरा
घाव बढ़ता चला
जाएगा। आज
नहीं कल, घाव
की मवाद पट्टी
को फोड़ कर
बाहर आ जाएगी।
तब और मोटा
पलस्तर मुझे
करना होगा।
धीरे-धीरे मैं
पलस्तरों में
घिर जाऊंगा
और भीतर सब
घाव ही घाव हो
जाएगा; क्योंकि
मेरी पूरी
चेष्टा यह है
कि किसी को मेरा
घाव पता न चले।
लाओत्से
जैसे लोग आपके
घाव को आमूल
रूपांतरित
करना चाहते
हैं। वे कहते
हैं कि हीनता मिटनी
चाहिए; विजय
को पाने की
कोई जरूरत
नहीं है। मैं
कुछ हूं, इसका
पता चलना
चाहिए; इसे
दूसरों के
सामने सिद्ध
करने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। और कितना
ही सिद्ध करो,
अगर भीतर
मुझे पता नहीं
है कि मैं हूं,
कुछ हूं, तो मैं
कितना ही
दूसरों को
समझा लूं, आखिर
में मैं
पाऊंगा कि मैं
वहीं का वहीं
खड़ा हूं।
दूसरे भला
राजी हो जाएं,
लेकिन मेरे
भीतर का कंपन
तो कायम
रहेगा। जो आदमी
सड़क पर खड़ा था
कल, आज
राष्ट्रपति
हो गया हो; तो
भी उसके भीतर
की घबड़ाहट
और हीनता वही
की वही रहेगी।
आज वह कम
प्रकट करेगा,
क्योंकि
उसके पास
शक्ति का
आयोजन है
चारों तरफ।
इसलिए आज वह
आपके सामने
प्रकट नहीं
करेगा, आपके
सामने उसकी
कमजोरी छिपी
रहेगी। लेकिन
खुद के सामने
तो जाहिर
रहेगी।
इसलिए
एक बड़ी अजीब
घटना घटती है।
जब आदमी बहुत
धन इकट्ठा कर
लेता है, तब
उसे पहली दफे
पता चलता है
कि मैं कितना
दरिद्र हूं।
और जब आदमी के
चारों तरफ
फौज-फांटा
खड़ा हो जाता
है और भारी
शक्ति इकट्ठी
हो जाती है, तब उसे पता
चलता है कि
मैं कितना
कमजोर हूं। यह
और तीव्रता से
पता चलता है; क्योंकि
कंट्रास्ट
मिल जाता है।
जैसे किसी ने
काली दीवार पर
सफेद खड़िए
से लकीर खींच
दी हो। और भी
ज्यादा प्रगाढ़
होकर दिखाई
पड़ती है
कमजोरी।
लेकिन
हमारा तर्क यह
है कि हम और
लोगों को हराएं, और
लोगों को मिटाएं,
और लोगों को
समाप्त कर दें,
तो मैं
शक्तिशाली और
विजेता हो जाऊंगा।
मनुष्य के मन
की यह
बुनियादी भूल
है। इस भूल के
खिलाफ यह सूत्र
है।
"झुकना
है सुरक्षा।
टु यील्ड इज़ टु बी प्रिजर्व्ड
होल।'
झुकना
है सुरक्षा।
अगर बचना है
तो झुक जाओ।
कभी
देखा है, जोर
की आंधी आती
है--और
लाओत्से को
मानने वाले चित्रकारों
ने इस घटना के
बहुत-बहुत
चित्र बनाए
हैं--जोर की
आंधी आती है, बड़ा वृक्ष
अकड़ कर खड़ा रह
जाता है। न
केवल अकड़ कर, बल्कि आंधी
से लड़ता है।
छोटे-छोटे
पौधे, घास
के तिनके झुक
जाते हैं।
क्षण भर बाद
आंधी जा चुकी
होगी, बहुत
से बड़े वृक्ष
गिर चुके
होंगे, जड़ें
उखड़ गई होंगी,
छोटे घास के
तिनके वापस
अपनी जगह खड़े
हो गए होंगे।
लाओत्से
कहता है, पूछो
राज जीवन का
छोटे घास के
तिनकों से, जिनको बड़ी
से बड़ी आंधी उखाड़ नहीं
पाती। क्या है
उनका राज? पूरे
के पूरे
सुरक्षित रह
जाते हैं।
इतने कमजोर कि
जरा सा झोंका
हवा का उन्हें
तोड़ दे; लेकिन
भयंकर
झंझावात चलता
है और उनकी
जड़ें भी नहीं हिलतीं।
और जरा सी
उनकी जड़ें
हैं! और
बड़े-बड़े वृक्ष,
जिनकी गहरी
जड़े हैं जमीन
में, वे भूमिसात
हो जाते हैं।
पूछो, उन
बड़े वृक्षों
की भूल क्या
थी? उन बड़े
वृक्षों ने
लड़ना चाहा; उन बड़े
वृक्षों ने
जीतना चाहा; उन बड़े
वृक्षों ने
झंझावात से
युद्ध मोल
लिया। उन बड़े
वृक्षों ने
कहा, हम
कुछ हैं। वे
छोटे घास के
तिनके चुपचाप
झुक गए।
"टु यील्ड इज़
टु बी प्रिजर्व्ड
होल।'
झुक
गए। उन्होंने
कोई झगड़ा
ही न लिया।
उन्होंने
झंझावात को
दुश्मन ही न माना।
उन्होंने
झंझावात को
प्रेम से
अंगीकार कर
लिया।
उन्होंने खेल
समझा, युद्ध न
समझा। उन्होंने
कहा, ठीक
है, बह
जाओ।
उन्होंने
रास्ता दे
दिया।
अगर
ठीक से समझें
तो बड़े वृक्ष
जरूर अपने
भीतर हीनता से
भरे रहे
होंगे। वे
रास्ता न दे
सके। उन्हें
लगा कि यह
इज्जत का सवाल
है। उनकी इज्जत
बड़ी कमजोर रही
होगी। उन्हें
लगा होगा कि
यह झंझावात
हमें उखाड़ने
आया है। कौन
झंझावात किसे उखाड़ने
आता है? झंझावात
अपनी गति से
बहता है। आंधी
को कोई प्रयोजन
है बड़े से या
छोटे से? आंधी
अपनी गति से
बहती है, अपने
ताओ में, अपने
स्वभाव में
बहती है। किसी
को तोड़ने, उखाड़ने, मिटाने का
कोई सवाल नहीं
है। लेकिन बड़े
वृक्ष भीतर
हीन रहे होंगे,
डरे रहे
होंगे। इज्जत
का सवाल होगा,
रिस्पेक्टबिलिटी का सवाल
होगा। लोग
क्या कहेंगे?
चारों तरफ
लोग क्या हंसी
उड़ाएंगे?
उन्होंने
इसे चुनौती
समझा।
झंझावात का जो
स्वभाव था, इसे अकारण
बड़े वृक्षों
ने चुनौती
समझा, चैलेंज
समझा।
झंझावात
को किसी के
लिए कोई
चुनौती नहीं थी।
वृक्ष न होते
तो भी झंझावात
ऐसे ही बहता।
यह वृक्ष न
होगा, तब भी
आंधियां बहेंगी।
यह वृक्ष नहीं
था, तब भी
आंधियां बहती
थीं। आंधियों
को वृक्षों से
क्या
लेना-देना? लेकिन वृक्ष
का अपना
अहंकार आड़
में आ गया। और
वृक्ष ने सोचा
कि मुझे, जो
मैं इतना बड़ा
हूं, चुनौती
है; लडूंगा,
जीत कर
बताऊंगा।
आंधी टूट कर
रहेगी।
कभी
कोई आंधी नहीं
टूटती, वृक्ष
ही टूटता है।
फिर बड़ा वृक्ष
टकराता है। टकराता
है, तो
जड़ें हिल जाती
हैं। ध्यान
रखना, टकराने
से हिल जाती
हैं, आंधी
से नहीं। वह
जो रेसिस्टेंस
है वृक्ष का, वह जो
प्रतिरोध है,
वही अपनी
जड़ों पर
आत्महत्या हो
जाती है।
वृक्ष गिरता
है आंधी के
कारण नहीं।
क्योंकि
छोटे-छोटे पौधे
नहीं गिरते तो
वृक्ष को
गिरने का क्या
कारण था? वृक्ष
गिरता है
प्रतिरोध के
कारण, विरोध
के कारण, संघर्ष
के कारण, लड़ने
की वृत्ति के
कारण। विजय की
आकांक्षा से गिरता
है। उखड़ जाती
हैं जड़ें, वृक्ष
भूमिसात
हो जाता है।
और जो
लड़ कर गिरता
है,
वह उठने की
क्षमता खो
देता है। जो
लड़ कर गिरता है,
वह उठने की
क्षमता खो
देता है; क्योंकि
जड़ें ही टूट
जाती हैं जो
फिर उठा सकती
थीं। छोटे
पौधे झुक जाते
हैं। आंधी
गुजर जाती है,
बड़ी-बड़ी
आंधियां गुजर
जाती हैं। और
छोटे पौधे फिर
खड़े हैं, मुस्कुरा
रहे हैं--वैसे
के वैसे जीवित,
शायद और भी
जीवित। यह
आंधी का जो
संस्पर्श है उन्हें,
और जीवन दे
गया। यह जो
आंधी उनके ऊपर
से बह गई, उनकी
धूल-धवांस
भी हटा गई। यह
जो आंधी उनके
पास से गुजर
गई, इसमें
वे स्नान कर
लिए। सद्यःस्नात,
वे पुनः खड़े
हो गए हैं। यह
आंधी उनके लिए
शत्रु न रही, मित्र हो
गई। यह आंधी
उन्हें जीवन
की एक पुलक दे
गई, एक
जीवन का अनुभव
दे गई। यह
आंधी उनके ऊपर
से गुजरी
मित्र की तरह।
जैसे कोई रात
चादर ओढ़ कर सो
जाए, ऐसे
वे आंधी को ओढ़
कर सो गए।
चुनौती नहीं
थी आंधी उनके
लिए; संघर्ष
नहीं था।
आंधी
जा चुकी है, वे
छोटे पौधे
वापस अपनी जगह
खड़े हैं--और भी
ज्यादा
प्रसन्न, और
भी ज्यादा
अनुभव से भरे।
और उनकी जड़ें
और भी मजबूत
हो गई हैं।
क्योंकि हर
अनुभव जड़ों को
मजबूत कर जाता
है। वे और
आश्वस्त हो गए
हैं, अपने
होने से और
आनंदित हो गए
हैं। और इस
जगत के साथ
उन्होंने एक
गहरी मैत्री
भी साध ली।
आंधी भी उनका
कुछ बिगाड़ती
नहीं; आंधी
भी उन्हें बना
जाती है, सहला
जाती है।
लाओत्से
कहता है, "झुकना
है सूत्र
सुरक्षा का, टु यील्ड
इज़ टु बी प्रिजर्व्ड
होल।'
इसे हम
और पहलुओं से
भी देखें।
देखा है, रोज
छोटे बच्चे
गिर जाते हैं;
चोट नहीं
खाते हमारे
जैसी। हम भी
कभी छोटे बच्चों
की तरह थे और
गिरते थे और
चोट नहीं खाते
थे। एक बड़े
आदमी को एक
बच्चे की तरह
चौबीस घंटे गिरा
कर देखें, तब
आपको पता
चलेगा। सब
हड्डी-पसली
टूट जाएगी, जगह-जगह फ्रैक्चर
हो जाएंगे।
होना तो उलटा
चाहिए था।
बच्चे की
हड्डी तो है
कमजोर, कोमल;
आपकी हड्डी
तो ज्यादा
मजबूत, ज्यादा
शक्तिशाली
है। बच्चा
गिरता है, उठता
है, खेलने
लगता है। आप
गिरते हैं, सीधा
एंबुलेंस में
सवार होते
हैं। क्या, फर्क क्या
है? अगर
शक्ति ही विजय
है और शक्ति
ही सुरक्षा है
तो बच्चे की
हड्डियां टूटनी
चाहिए, आपकी
नहीं।
छोड़ें
बच्चे को। कभी
देखा है शराबी
को रास्ते पर
गिर जाते? आप
जरा गिर कर
देखें। जो
शराब नहीं
पीते हैं, साधु
हैं भले, जरा
गिर कर देखें
शराबी की तरह
रास्ते पर। तब
आपको पता
चलेगा कि
शराबी भी क्या
चमत्कार कर रहा
है। रोज गिरता
है, रोज
सुबह घर पहुंच
जाता है। न
हड्डी टूटती
है, न कुछ
होता है। इस
शराबी में
क्या राज है? वह बच्चे
वाला ही राज
है। यह
लाओत्से का ही
सूत्र है। असल
में बच्चे को
पता नहीं है
कि वह गिर रहा
है। वह झुक
जाता है। वह
गिरने में
राजी हो जाता
है; रेसिस्ट नहीं करता।
शराबी का भी
राज वही है।
जब वह गिरता
है तो वह
बेहोश है, उसे
होश ही नहीं
है कि वह गिर
रहा है। वह
मजे से गिर
जाता है।
गिरते
वक्त आपको होश
होता है कि
मैं गिरा। आप विरोध
करते हैं कि गिरूं न।
वह जो जमीन की
गुरुत्वाकर्षण
की शक्ति है, ग्रेविटेशन है, वह
खींचती है
नीचे आंधी की
तरह। और आप
उठते हैं ऊपर
कि नहीं गिरूंगा।
इस कशमकश में
हड्डियां टूट
जाती हैं। रेसिस्टेंस
है। वही रेसिस्टेंस,
वही
प्रतिरोध, जो
बड़ा वृक्ष
आंधी को देता
है, आप भी
समझदार होकर
पृथ्वी के
गुरुत्वाकर्षण
को देते हैं।
लाओत्से
कहता है, गिर
जाओ। जब गिर ही
रहे हो, यील्ड;
तब लड़ो
मत, तब गिर
ही जाओ। अपनी
तरफ से गिर
जाओ। साथ दो।
और हड्डियां
नहीं टूटेंगी।
वह
बच्चा अनजाने, उसे
कुछ पता नहीं
क्या हो रहा
है, झुक
जाता है।
बच्चा छोटे
पौधे की तरह
व्यवहार करता
है। शराबी भी
छोटे पौधे की
तरह व्यवहार करता
है। होश नहीं
है इसलिए। यही
शराबी होश में
दोपहर में
गिरेगा, तब
चोट खाएगा।
और यही रात
पीकर नाली में
पड़ा रहेगा, सड़क पर गिर
जाएगा, और
चोट नहीं खाएगा।
कई बार
ऐसा होता है
कि गाड़ी उलट
जाती है, कार
उलट जाती है, छोटे बच्चे
बच जाते हैं।
लोग समझते हैं,
भगवान बड़ा
दयालु है। अगर
भगवान दयालु
है तो बड़ों को
बचाना चाहिए,
इन पर
ज्यादा मेहनत
हो चुकी है, ज्यादा
खर्चा हो चुका
है। यह धंधा
दया का नहीं
है। एक बच्चे
पर जिस पर अभी
पचास साल खर्च
होंगे, तब
इस लायक हो
पाएगा, या
नालायक हो
पाएगा। जिस पर
पचास साल खर्च
हो चुके हैं, पहले इसे
बचाना चाहिए। इसमें
काफी इनवेस्टमेंट
है। लेकिन यह
मर जाता है।
छोटे बच्चे बच
जाते हैं।
नहीं, भगवान
का कुछ इसमें
हाथ नहीं है।
छोटे बच्चे बच
जाते हैं, क्योंकि
यील्ड कर
जाते हैं; जो
भी हो रहा है, उसमें साथी
हो जाते हैं; उसके विरोध
में खड़े नहीं
होते। उसको
शत्रुता से
नहीं लेते।
उसको मित्रता
से ले लेते
हैं। ले लेते
हैं, होश
ही नहीं है
इसलिए।
संत
इसी को होश से
करता है। जो
बच्चे अनजाने
में करते हैं, जो
शराबी बेहोशी
में करता है, संत इसी को
होश में करता
है।
चीन और
जापान, दोनों
मुल्कों में
लाओत्से के
आधार पर युद्ध
की कई कला और
कई कौशल
विकसित हुए
हैं--जुजुत्सु,
जूडो। उनका सारा
सीक्रेट, सारा
राज यही सूत्र
है--यील्ड।
जब दुश्मन चोट
करे, प्रतिरोध
मत करो, झुक
जाओ। कभी इसका
प्रयोग करके
देखें। कोई आपको
जोर से घूंसा
मारे, तब
आप घूंसे के
खिलाफ बचाव मत
करें; घूंसे
को आत्मसात
करने के लिए
तैयार हो जाएं,
पी जाएं। और
आप पाएंगे, जिसने घूंसा
मारा, उसकी
हड्डी टूट गई।
जिसने घूंसा
मारा, उसकी
हड्डी टूट गई।
जुजुत्सु की
कला कहती है
कि अगर तुम
प्रतिरोध न
करो तो तुम
सदा जीते हुए
हो। इसलिए अगर
जुजुत्सु
जानने वाले
आदमी से आप
पहलवानी करें
तो आप हार
जाएंगे।
हारेंगे ही
नहीं, हाथ-पैर
तोड़ लेंगे।
क्योंकि आप
चोट करेंगे और
वह सिर्फ चोट
को पीएगा।
उसकी शक्ति तो
जरा भी नष्ट
नहीं होगी; आप पांच-सात
चोटें करके
हीन हो
जाएंगे। आपकी
शक्ति नष्ट हो
रही है। बल्कि
जुजुत्सु
की गहरी कला
यह है कि जब
कोई आपको
घूंसा मारता है,
अगर आप शांति
से स्वीकार कर
लें तो उसके
घूंसे की सारी
ऊर्जा आपको
उपलब्ध हो
जाती है। आप
लड़ें न, तो
उसके घूंसे
में जितनी
शक्ति व्यय
हुई उतनी शक्ति
आपके शरीर में
रूपांतरित हो
जाती है। आप
उसे पी गए।
दस-पांच घूंसे
उसे मार लेने
दें, वह
अपने आप थक
जाएगा, अपने
आप गिर जाएगा।
और यह
जो मैं कह रहा
हूं,
जुजुत्सु कोई
अध्यात्म
नहीं है। यह
तो सीधी-सीधी
कला है लड़ने
की। और जुजुत्सु
की खूबी है कि
छोटा बच्चा भी
बड़े पहलवान से
लड़ सकता है।
क्योंकि
शक्ति का कोई
सवाल नहीं है;
यील्ड करने का
सवाल है, झुकने
का सवाल है, आत्मसात
करने का। दो
शब्द समझ लें:
प्रतिरोध और
अप्रतिरोध, रेसिस्टेंस और नॉन-रेसिस्टेंस।
अगर आप
प्रतिरोध
करते हैं तो
आप हार
जाएंगे। अगर
आप अप्रतिरोध
में जीते हैं
तो आप नहीं हार
सकते।
आंधियां निकल
जाएंगी, आप
वापस खड़े हो
जाएंगे।
"झुकना
है सुरक्षा।'
लाओत्से
कहता है, मुझे
कभी कोई हरा न
सका, क्योंकि
मैं हारा ही
हुआ हूं। कैसा
मजेदार हो मामला,
आप लाओत्से
से लड़ने चले
जाएं, वह
तत्काल चारों
खाने चित्त
लेट जाएगा।
कहेगा, ऊपर
बैठ जाएं। जीत
गए, गांव
में डंका पीट
दें। आप बड़े मूढ़ मालूम
पड़ेंगे। आप
वैसे ही मालूम
पड़ेंगे जैसे कभी
छोटा बच्चा
अपने बाप से
कुश्ती लड़ता
है और बाप
नीचे लेट जाता
है और छोटा बच्चा
ऊपर छाती पर
चढ़ जाता है।
और छोटा बच्चा
चिल्लाता है
खुशी में कि
जीत गए। और
बाप जानता है
कि कौन जीत
रहा है, कि
कौन जिता रहा
है।
लाओत्से
कहता है, मैं
कभी हराया न
जा सका, क्योंकि
हम हारे ही
हुए हैं। तुम
आओ, हम तैयार
हैं। लाओत्से
कहता है, मेरा
कभी अपमान
नहीं हुआ; क्योंकि
मैंने कभी उस
जगह कदम भी न
रखा, जहां
सम्मान की
अपेक्षा थी।
मुझे कभी किसी
सभा से बाहर
नहीं निकाला
गया; क्योंकि
मैं बैठता ही
वहां हूं, जहां
से और बाहर
निकालने का
उपाय नहीं है।
एक सभा
में लाओत्से
गया है। तो
जहां लोगों ने
जूते उतार दिए
हैं,
वह वहीं
बाहर बैठ गया
है। बहुत लोग
कहते हैं कि
अंदर चलें, मंच पर चलें,
भीतर बैठें।
लाओत्से कहता
है कि नहीं, वहां से
मैंने कई को
निकाले जाते
देखा है। हम यहीं
बैठे हैं; तुम
हमारा कुछ भी
न कर सकोगे।
घटना
मुझे याद आती
है;
मुल्ला नसरुद्दीन
एक सभा में
गया। सदा उसकी
आदत थी नंबर
एक होने की।
जरा देर से
पहुंचा था, जैसा कि बड़े
आदमियों को
पहुंचना
चाहिए। बड़े आदमी
जान कर देर से
पहुंचते हैं।
क्योंकि छोटे आदमियों
को अगर राह न
दिखलाई जाए
थोड़ी-बहुत तो
बड़ा आदमी बड़ा
ही क्या! थोड़ी
देर से पहुंचा
था। लेकिन उस
दिन कुछ गड़बड़
हो गई। गांव
के बाहर से एक
विद्वान आ गया
था; वह सभा
पर बैठा हुआ
था; व्याख्यान
चल रहा था।
मुल्ला नसरुद्दीन
जब पहुंचा तो
श्रोता मग्न
थे, सुन
रहे थे। वह
पीछे बैठ गया।
और तो कोई
उपाय न था।
बैठ कर उसने
अपनी
कहानियां
लोगों से कहनी
शुरू कर दीं।
थोड़ी ही देर
में, उसकी
कहानियां ऐसी
थीं कि लोग मुड़ते
गए। आखिर
सभापति को
चिल्ला कर
कहना पड़ा कि नसरुद्दीन,
यह शोभा
नहीं देता।
तुम्हें खयाल
होना चाहिए कि
इस सभा का
सभापति मैं
हूं। नसरुद्दीन
ने कहा, यह
खयाल आपका
भ्रम है। मेरी
तो सदा की
मान्यता यह है
कि जहां मैं
बैठता हूं, वही जगह
अध्यक्ष की
जगह है। जहां
मैं बैठता हूं,
वही जगह
अध्यक्ष की
जगह है। जो
समझदार हैं, वे मुझे
पहले ही
अध्यक्ष की
जगह बैठा देते
हैं। जो नासमझदार
हैं, उनकी
सभा गड़बड़ होती
है। इस गांव
में मैं ही अध्यक्ष
हूं।
हमारा
तर्क भी यही
है,
जो नसरुद्दीन
का तर्क है।
लाओत्से से हम
राजी न होंगे।
हमारा मन
कहेगा, यह
भी कोई बात
हुई कि जहां
लोगों ने जूते
उतार दिए हैं,
वहां बैठ
गया। होना तो
ऐसा चाहिए कि
जहां बैठे, वहीं
अध्यक्ष का पद
आ जाए। हमारा
भी मन यही कहेगा।
आदमी की
नासमझी का वही
तर्क है।
लाओत्से
के चिंतन का
जो मौलिक आधार
है,
वह यही है
कि तुम जीतने
जाने की वासना
से मत भरना; आखिर में
हारे हुए
लौटोगे। तुम
अपेक्षा ही मत
करना प्रशंसा
की; अन्यथा
तुम निंदा
पाओगे। ऐसा
नहीं है कि
तुम अपेक्षा न
करोगे तो लोग
निंदा करेंगे
ही नहीं। लेकिन
तब उनकी निंदा
तुम्हें छुएगी
नहीं। तुम
अपेक्षा नहीं
करोगे तो भी
लोग निंदा कर
सकते हैं।
लेकिन तब
तुम्हें उनकी
निंदा छुएगी
नहीं।
छूती
क्यों है
निंदा? कहां
छूती है? प्रशंसा
की जहां
आकांक्षा
होती है, वहीं
निंदा छूती है,
वहीं घाव
है। इच्छा
होती है कि
नमस्कार करो,
और आप एक
पत्थर फेंक कर
मार गए। सोचा
था फूल लाएंगे,
और वह पत्थर
ले आए। वह जो
घाव है, पत्थर
से नहीं लगता,
ध्यान रखना;
वह जो फूल
की आकांक्षा
थी, उसकी
वजह से ही जो
कोमलता भीतर
पैदा हो गई, उस पर ही घाव
बनता है पत्थर
का। आकांक्षा
न थी फूल की तो
कोई पत्थर भी
मार जाए तो
सिर्फ दया आएगी
कि बेचारा
क्यों मेहनत
कर रहा है!
व्यर्थ इसका
उपाय है, नाहक
की इसकी
चेष्टा है।
बुद्ध
पर कोई थूक
गया है। तो
उन्होंने
पोंछ लिया
अपनी चादर से
और उस आदमी से
कहा,
कुछ और कहना
है कि बात
पूरी हो गई? आनंद बहुत
आगबबूला हो
गया, पास
में ही बैठा
था। उसने कहा,
यह सीमा के
बाहर है बात।
हद हो गई, यह
आदमी थूकता
है। हमें
आज्ञा दें, इस आदमी को
बदला चुकाया
जाना जरूरी
है।
बुद्ध
ने कहा, आनंद,
तुम समझते
नहीं। जब आदमी
कुछ कहना
चाहता है तो
कई बार भाषा
बड़ी कमजोर
पड़ती है। यह
आदमी इतने क्रोध
में है कि
शब्द और
गालियां
बेकार हैं; यह थूक कर कह
रहा है। यह
कुछ करके कह
रहा है। जब कोई
बहुत प्रेम
में होता है, गले लगा
लेता है। अब
यह भी कहना
बेकार है कि
मैं बहुत
प्रेम में
हूं। जब आदमी
के शब्द कमजोर
पड़ जाते हैं
तो कृत्य उसे
जाहिर करता
है। आनंद, तू
नाहक नाराज हो
रहा है। इस
बेचारे को देख,
इसका क्रोध
बिलकुल उबल
रहा है।
उबल तो
क्रोध आनंद का
भी रहा था।
बुद्ध ने आनंद
से कहा, लेकिन
यह आदमी माफ
किया जा सकता
है, क्योंकि
इसे जीवन के
रहस्यों का
कुछ भी पता नहीं
है। तुझे माफ
करना मुझे भी
मुश्किल
पड़ेगा। और फिर
मजे की बात
आनंद, कि
गलती इसने की
है--अगर गलती
भी की
है--लेकिन तू
अपने को दंड
क्यों दे रहा
है? इसका
कोई संबंध ही
नहीं है। यह
आदमी मेरे ऊपर
थूका है। गलती
भी अगर इसने
की है, तो
इसने की है।
तू आगबबूला
होकर अपने को
क्यों जला रहा
है?
बुद्ध
ने कहा है, दूसरों
की गलतियों के
लिए लोग अपने
को काफी दंड
देते हैं। दूसरों
की गलतियों के
लिए।
लेकिन
हमारे खयाल
में नहीं
बैठता।
मुल्ला नसरुद्दीन
के पास कोई
पूछने आया है।
गांव में
अकेला लिखा-पढ़ा
आदमी है, जैसे
कि लिखे-पढ़े
होते हैं। खुद
भी लिखता है
तो पीछे खुद
भी ठीक से पढ़
नहीं पाता।
मगर गांव में
अकेला ही है।
और अकेला होने
से कोई
प्रतिस्पर्धा,
प्रतियोगिता
भी नहीं है।
एक आदमी ने
आकर पूछा है
कि मुझे कोई
आदेश दें, कोई
धर्म की आज्ञा
दें, कोई
नियम मुझे
बताएं, जिस
पर चल कर मैं
भी सार्थक हो
सकूं। नसरुद्दीन
ने बहुत सोचा
और फिर जो कहा,
वह पिटा-पिटाया
एक सिद्धांत
था, जो कि
विचारक अक्सर
सोच-सोच कर
कहते रहते
हैं। वही, जो
हजार दफे कहा
गया है। नसरुद्दीन
ने बहुत सोच
कर उसको कहा
कि एक सूत्र
पर जीवन को
चलाओ: डोंट
गेट एंग्री, कभी क्रोधित
मत होओ।
या तो
वह आदमी मूढ़
था,
या बहरा था,
या उसकी समझ
में नहीं पड़ा,
या उसने
सुना, नहीं
सुना। उसने
फिर कहा कि वह तो
ठीक है; कोई
ऐसी चीज बताएं
कि जीवन बदल
जाए। मुल्ला
ने जोर से कहा
कि बता दिया
एक दफा, ठीक
से याद कर लो, डोंट गेट एंग्री,
क्रोधित मत
होओ।
लेकिन
वह आदमी मूढ़
था,
कि बहरा था,
कि क्या था,
कि वह नहीं
समझा और उसने
कहा कि अब आ ही
गया हूं इतनी
दूर तो कोई एक
ऐसा गोल्डन
रूल, कोई
ऐसा
स्वर्ण-सूत्र
कि जिंदगी बदल
जाए। मुल्ला
ने डंडा उठा
कर उसके सिर
पर दे दिया और
कहा कि हजार
दफे कह चुका, डोंट गेट
एंग्री।
शायद
मुल्ला को
खयाल भी नहीं
आया होगा कि
क्या हुआ जा
रहा है। हमारे
खुद के
सिद्धांत भी
हमारे काम तो
नहीं पड़ते।
हमारी सलाह
हमारे ही काम
नहीं पड़ती।
सलाह देना
बहुत बुद्धिमानी
की बात नहीं
है। कोई भी दे
देता है। अपनी
सलाह को भी
पूरा करना अति
कठिन है।
बुद्ध
ने आनंद से
कहा कि तू
इतने दिन से
मेरे साथ है, तू
अब तक इतनी सी
छोटी बात नहीं
समझ पाया!
आनंद तो आग से
भर गया है।
उसने बुद्ध से
कहा, अभी
आप क्या कहते
हैं, मुझे
कुछ सुनाई
नहीं पड़ता। जब
तक यह आदमी
यहां बैठा हुआ
है, जिसने
आपके ऊपर थूका
है, तब तक
मैं होश-हवास
में नहीं हूं।
बुद्ध ने कहा,
आनंद, वह
भी होश-हवास
में नहीं है।
नहीं तो थूकता
क्यों? तू
भी होश-हवास
में नहीं है; क्योंकि मैं
तुझे कहता हूं,
तू कहता है
मुझे कुछ समझ
में सुनाई
नहीं पड़ता।
तुम दो पागलों
के बीच मेरी
क्या गति है, इस पर भी तो
सोचो।
जीवन
कुछ गहन
सूत्रों पर
खड़ा है। उनका
खयाल न हो तो
कितना ही हम
उनको
सिद्धांतों
की तरह मान
लें,
हम उनके
विपरीत
व्यवहार किए
चले जाते हैं।
लाओत्से का यह
सूत्र तो परम
सूत्र है, सुरक्षा
का अर्थ है
झुक जाना।
लेकिन यह अति
कठिन है। यह
बहुत कठिन है।
यह क्रोध न
करना ही बहुत
कठिन पड़ता है,
जो कि बहुत
साधारण सा
सूत्र है। झुक
जाना सुरक्षा
है, यह तो
बहुत उलटा
मालूम पड़ता है,
पैराडाक्सिकल मालूम पड़ता
है। जीतना है तो
हार जाओ; सम्मान
पाना है तो
सम्मान चाहो
ही मत। यह तो बहुत
उलटा है।
लेकिन
जितने गहरे हम
जीवन में
जाएंगे, उतने
उलटे सूत्र
हमको
मिलेंगे।
उसका कारण यह नहीं
है कि वे उलटे
हैं। उसका
कारण है कि हम
सिर के बल खड़े
हैं; हमें
उलटे दिखाई
पड़ते हैं। हम
सिर के बल खड़े
हैं। हमारे
पूरे जीवन की
चिंतना उलटी
है। दुख भी
पाते हैं उसके
कारण, फिर
भी हमें खयाल
नहीं आता कि
हम सिर के बल
खड़े हैं। और
नहीं आने का
कारण है कि
आस-पास हमारे
जो लोग हैं, वे भी सिर के
बल खड़े हैं।
ऐसा समझें कि
किसी गांव में
आप पहुंच जाएं
महायोगियों
के, जहां
सभी शीर्षासन
कर रहे हों।
तो अगर आप में थोड़ी
भी बुद्धि हो
तो आपको भी
उलटा खड़ा हो
जाना चाहिए।
अन्यथा आप
उलटे आदमी
मालूम
पड़ेंगे।
जीसस
के पास कोई
आया है और
उसने जीसस से
कहा कि आपकी
बातें उलटी
मालूम पड़ती
हैं। जीसस ने
कहा,
मालूम
पड़ेंगी ही; क्योंकि तुम
सिर के बल खड़े
हो।
लेकिन
तुम्हें याद
भी नहीं आएगा; क्योंकि
तुम्हारे
चारों तरफ भी
लोग वैसे ही खड़े
हैं। पुरानी पीढ़ी
मरते-मरते नई पीढ़ी को
सिर के बल खड़ा
होना सिखा
जाती है।
संक्रामक है
बीमारी, एक-दूसरे
को पकड़ती
चली जाती है।
फिर इन उलटे
खड़े लोगों में
अगर सफल होना
हो तो उलटा खड़ा
होना जरूरी
है।
इसलिए
लाओत्से का
सूत्र उलटा
दिखाई पड़ता
है। अन्यथा
सीधा है। अगर
प्रशंसा चाही
तो निंदा मिलेगी।
नहीं चाही
प्रशंसा तो भी
मिल सकती है; लेकिन
छुएगी
नहीं। पर
क्यों? प्रशंसा
चाही तो निंदा
क्यों मिलेगी?
क्या कारण
है? क्या
हर्ज है
प्रशंसा
चाहने में? निंदा क्यों
मिलेगी?
उसके
कारण हैं; क्योंकि
आपके आस-पास
जो लोग हैं, उनका भी
तर्क यही है।
इसे हम थोड़ा
समझ लें। मैं
भी प्रशंसा
चाहता हूं; आप भी
प्रशंसा
चाहते हैं; आपका पड़ोसी
भी प्रशंसा
चाहता है; सारा
संसार प्रशंसा
चाहता है।
जहां सभी लोग
प्रशंसा
चाहते हैं, वहां जो
आदमी भी
प्रशंसा
चाहने की
चेष्टा में आगे
बढ़ेगा, वे
सारे लोग उसकी
निंदा शुरू कर
देंगे। क्योंकि
खुद को जो ऊपर
ले जाना चाहते
हैं, वे
दूसरे को नीचे
रखें, यह
अनिवार्य है,
आवश्यक है।
अगर ऐसे हर
किसी को मैं
ऊपर जाने दूं
तो मेरी अपनी
संभावनाएं खो
रहा हूं।
और इस
जगत में ऊपर
कम स्थान होते
जाते हैं। जितने
ऊपर जाइए, उतना
स्थान कम।
पहाड़ की चोटी
है, पिरामिड
की तरह है यह
जगत। यहां
जितने ऊपर जाइए,
उतने स्थान
कम होते चले
जाते हैं। और
जितने ऊपर
जाइए, उतने
दुश्मन बढ़ते
चले जाते हैं।
जो आदमी
बिलकुल शिखर
पर पहुंचता है,
सारा संसार
उसका दुश्मन
हो जाएगा। और
सारा संसार
चाहेगा कि तुम
जमीन पर आओ।
और सारा संसार
साथी हो जाएगा
आपको जमीन पर
उतारने में।
उन सबके आपस
की कलह हैं, वह अलग बात
है। लेकिन
मैक्यावेली
ने लिखा है कि
अपने शत्रु का
शत्रु अपना
मित्र है। ठीक
है। जिस आदमी
को नीचे
गिराना है, सब गिराने
वाले इकट्ठे
हो जाएंगे।
हालांकि बात
अलग है, कल
यह जब गिर
जाएगा, तो
ये आपस में
फिर लड़ेंगे।
क्योंकि फिर
सवाल उठेगा कि
कौन ऊपर उठे।
देखा, पिछले
महायुद्ध में
क्या हुआ? जो
सदा के दुश्मन
थे, वे मित्र
हो गए। कोई
सोच सकता था
कि स्टैलिन और
चर्चिल और
रूजवेल्ट साथ
खड़े हो सकते
हैं! कल्पना के
बाहर था।
लेकिन हिटलर
जरा सीमा के
बाहर चला जा
रहा था। वह
बिलकुल शिखर
पर ही होने की
कोशिश कर रहा
था। तब तो
रूजवेल्ट, चर्चिल
और स्टैलिन को
साथ खड़े होने
में कोई कठिनाई
न आई। एकदम
मित्र बन गए।
लेकिन यह बात
जाहिर थी कि
हिटलर के मरते
ही यह मित्रता
तत्क्षण टूट जाएगी।
यह मित्रता
ज्यादा देर
नहीं टिक
सकती। यह
मित्रता तो
सिर्फ हिटलर
की वजह से थी।
हिटलर के मरते
ही खतम हो गई।
दूसरे
महायुद्ध में
जो मित्र थे, युद्ध के
हटते ही शत्रु
हो गए। रूस और
अमरीका फिर
शत्रुता में
खड़े हो गए।
चीन
कम्युनिस्ट
है;
कोई सोच
नहीं सकता कि
अमरीका से
कैसे मित्रता बन
सकती है।
लेकिन बिलकुल
सहज है, नियम
से है; बनेगी।
बननी ही
चाहिए।
क्योंकि अपने
शत्रु का
शत्रु। चीन और
रूस के बीच
जरा सी भी कलह
अगर खड़ी होती
है तो अमरीका
और चीन के बीच
मैत्री बन
जाएगी।
तो इस
जगत में जो
आदमी प्रशंसा
की आकांक्षा
करता है, सभी
प्रशंसा
चाहने वाले
उसके शत्रु हो
जाएंगे। वे सब
उसको नीचे
खींचने की
कोशिश
करेंगे। वे
निंदा
करेंगे।
और
ध्यान रहे, किसी
की प्रशंसा
करनी बहुत
मुश्किल काम
है और निंदा करनी
बहुत आसान काम
है। क्योंकि
जब भी आप किसी की
प्रशंसा करो,
लोग
पूछेंगे, प्रमाण
क्या है? लेकिन
आप किसी की
निंदा करो, कोई प्रमाण
नहीं पूछेगा
कि प्रमाण
क्या है। क्यों?
क्योंकि हम
चाहते ही हैं
कि निंदा सही
हो।
अपनी
प्रशंसा का हम
प्रमाण नहीं
मांगते; दूसरे
की निंदा का
हम प्रमाण
नहीं मांगते।
अपनी निंदा का
हम प्रमाण
मांगते हैं; दूसरे की
प्रशंसा का
प्रमाण
मांगते हैं।
प्रमाण क्या
है? गवाह
कौन है?
अगर
कोई आपसे आकर
कहता है कि
फलां आदमी
बहुत ईमानदार
है,
तो आप कहते
हैं, प्रमाण
क्या है? अभी
बेईमानी का
मौका न मिला
होगा। या
तुम्हारे पास
सबूत क्या है?
और अगर यह
आदमी सबूत भी
ले आए तो हम
सोचेंगे कि यह
आदमी खुद भी
लाने वाला
ईमानदार है या
नहीं? या
जरूर कोई
साजिश होगी, कोई षडयंत्र
होगा, कोई
हाथ होगा।
नहीं तो कोई
किसी की
प्रशंसा क्यों
करेगा?
कोई
आपसे आकर कहे
कि फलां आदमी
बेईमान है, चोर
है। आप कहते
हैं, मैं
पहले ही जानता
था, यह
होगा ही। इसके
लिए कोई
प्रमाण की
आवश्यकता नहीं
है।
तो जो
व्यक्ति
प्रशंसा
चाहेगा, वह
सारे जगत से
निंदा को
आमंत्रित कर
लेगा। अपनी ही
तरफ से
निमंत्रण
बुला रहा है।
फिर जितना वह
सिद्ध करने की
कोशिश करेगा,
उतने ही
दूसरे लोग भी
कोशिश करेंगे
कि तुम गलत
हो। इस सूत्र
का शीर्षक है: फ्यूटिलिटी
ऑफ कनटेंशन,
दावे की
व्यर्थता। जब
आप दावा करोगे
तो सारी दुनिया
दावा करेगी कि
गलत हो। और
बड़ा कठिन है दावे
को बचा लेना।
कोई उपाय नहीं
है। वे सिद्ध कर
ही देंगे कि
आप गलत हो। और
एक और बड़े मजे
की बात है कि
एक बार दावा
गलत हो जाए, सही या गलत, फिर उसे कभी
भी झुठलाया
नहीं जा सकता।
हमारे
हृदय में
इच्छा यह है
कि मेरे सिवाय
कोई भी ठीक
नहीं है, यह हम
जानते हैं।
अरब में वे
कहते हैं, ईश्वर
हर आदमी को
बना कर एक
मजाक कर देता
है, उसके
कान में कह
देता
है--तुमसे
बेहतर आदमी
मैंने बनाया
ही नहीं। सभी
से कह देता है,
यही खराबी
है। और
प्राइवेट में
कह देता है, इसलिए कोई
दूसरे को पता
नहीं है कि
दूसरे को भी
यही कहा हुआ
है। वे सभी यह
खयाल लेकर
जिंदगी भर
चलते हैं कि
मुझसे बेहतर
आदमी जगत में
दूसरा नहीं
है। और सभी यह
खयाल लेकर
चलते हैं।
तो
लाओत्से का
सूत्र हमारे
खयाल में आ
सकता है, "झुकना
है सुरक्षा।
झुकना ही है
सीधा होने का
मार्ग।'
अगर
किसी व्यक्ति
को सीधा, सादा,
सरल, ऋजु
व्यक्तित्व
चाहिए हो तो
उसे झुकने की
कला सीख लेनी
चाहिए। हम सब अकड़ने की
कला सीखते
हैं। हम कहते
हैं कि अगर
हमें सीधा
रहना है, रीढ़
के बल खड़े
रहना है, तो
झुकना मत, चाहे
टूट जाना। सब शिक्षाएं
समझाती हैं कि
झुकना मत, चाहे
टूट जाना। हम
बड़ा आदमी उसको
कहते हैं कि वह
झुका नहीं, भला टूट
गया। अहंकार
का सूत्र यही
है, झुकना
मत, टूट
जाना।
लेकिन
जीवन का यह
सूत्र नहीं
है। ध्यान है
आपको, बच्चों
के सब अंग
कोमल होते हैं,
झुकने वाले
होते हैं।
बूढ़े के सब
अंग सख्त हो जाते
हैं, झुकते
नहीं हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
बूढ़े के मरने
का जो
बुनियादी
कारण है, वह
उम्र नहीं है,
अंगों का
सख्त हो जाना
है। अगर बूढ़े
के अंग भी इतने
ही कोमल बनाए
रखे जा सकें, जैसे बच्चे
के, तो
मृत्यु का कोई
बायोलाजिकल
कारण नहीं है।
यह जान
कर आपको
हैरानी होगी
कि अभी तक
वैज्ञानिक यह
नहीं समझ पाए
कि आदमी क्यों
मरता है। क्योंकि
जहां तक शरीर
का संबंध है, ऐसा
कोई कारण नहीं
दिखाई पड़ता कि
आदमी बहुत-बहुत
समय तक क्यों
न जी सके।
सिर्फ एक बात
दिखाई पड़ती है
कि धीरे-धीरे
अंग सख्त होते
चले जाते हैं।
वह जो नमनीयता
है, फ्लेक्सिबिलिटी है, वह खो
जाती है। वह नमनीयता
का खो जाना ही
मृत्यु का
कारण बनता है।
जितना सख्त हो
जाता है सब
भीतर, उतनी
ही मौत करीब आ
जाती है।
जितना भीतर सब
होता है नमनीय,
तरल, उतनी
मृत्यु दूर
है।
यह जो
शरीर के संबंध
में सही है, मनुष्य
की अंतरात्मा
के संबंध में
और भी ज्यादा
सही है। जो
झुकने के लिए
जितना राजी है,
उतने अमृत
को उपलब्ध हो
जाता है। और
जो झुकने से
बिलकुल इनकार
कर देता है, वह तत्क्षण
मृत्यु को
उपलब्ध हो
जाता है। यह
दूसरी बात है
कि हम मरे हुए
भी जी सकते
हैं; और
आत्मा मरी-मरी
रहे, शरीर
ढो सकता है।
अकड़ मौत है
आध्यात्मिक
अर्थों में। नमनीयता
जीवन है।
लाओत्से
कहता है, "और
झुकना है सीधा
होने का
मार्ग। टु बी
बेंट इज़
टु बिकम स्ट्रेट।'
उलटी
बातें हैं न। झुकोगे तो
लोग कहेंगे, ऐसे
बार-बार झुकोगे,
आदत हो
जाएगी झुकने
की, फिर
सीधे कैसे हो
सकोगे? इसलिए
सीधे रहो, झुको
मत। लेकिन
खयाल है आपको,
इसको कोशिश
करके देखें, झुकें मत, सीधे
रहें। एक
चौबीस घंटे
बिलकुल न
झुकाएं शरीर
को, सीधा
रखें; और
तब आपको पता
लगेगा कि बस, अब मौत आती
है। नहीं, झुकने
से कोई झुकता
नहीं है; हर
बार झुक कर
सीधे होने की
ताकत
पुनरुज्जीवित
होती है।
इसको
समझ लें। दिन
भर आप जागते
हैं। वह तो
अच्छा है कि
कोई समझाने
आपको नहीं आता
कि सोएं
मत,
नहीं तो
सुबह जागेंगे
कैसे? अगर
सो ही गए! और
कुछ हैं ऐसे
लोग जो सोने से
डरते हैं कि
सुबह जागेंगे
कैसे? मनोवैज्ञानिकों
के पास बहुत
से लोग पहुंच
जाते हैं, जिनको
यह भय रहता
है। और बीमारी
सख्त होती है कभी
तब तो अनेक
लोग डरते हैं
सोने से।
क्योंकि लगता
है पता नहीं, फिर उठ पाए, न उठ पाए। कम
से कम
जागते-जागते
तो मरें।
कहीं सोते में
ही मर गए तो
पता भी नहीं
चलेगा कि मर
गए। जिंदा रहने
का तो कभी पता
चला ही नहीं; यह मरने का
भी पता नहीं
चलेगा। दोनों
ही बातें चूक
गईं।
लेकिन
कोई आपसे कहता
नहीं कि सोओ
मत,
नहीं तो
जागोगे कैसे।
हालांकि सोना
उलटी प्रक्रिया
है; सोना
बिलकुल उलटा
है जागने से।
लेकिन कभी
खयाल किया कि
जो आदमी जितना
गहरा सोता है,
उतना गहरा
जागता है, उतना
चैतन्य जागता
है। रात जितनी
गहरी होती है
नींद, सुबह
उतना गहरा
होता है
जागरण।
आपको
एक बीमारी का
तो पता होगा, अनिद्रा
का, कि रात
अनेक लोग हैं
जो सो नहीं
पाते। लेकिन उनको
भी यह खयाल
नहीं है कि जब
रात वे सो
नहीं पाते तो
दिन वे जाग भी
नहीं पाते
हैं। वह दूसरी
बात उनके खयाल
में नहीं है।
अनिद्रा की
जिसको बीमारी
है, उसको अजागरण की
बीमारी भी
होगी। वह खयाल
में नहीं आती
उसे। क्योंकि
नींद की गहराई
पर जागने की
गहराई निर्भर
है। जितनी
गहरी होगी
नींद, जितनी
तल-स्पर्शी
होगी, उतना
ही सुबह गहरा
जागरण होगा।
अगर रात नींद
उथली, सुबह
जागरण उथला।
अगर रात नींद
बिलकुल नहीं,
तो सुबह
सिर्फ आपकी
आंखें खुल गई
हैं, आप
जागे नहीं
हैं।
रात
आदमी आंखें
बंद कर लेता
है;
आंखें बंद
कर लेने से
कोई सोने का
संबंध है? हम
सब सोचते हैं
कि आंख बंद कर
ली तो सो गए।
नहीं, नींद
आती है तो आंख
बंद होती है।
आंख बंद करने से
दुनिया में
कोई नहीं सो
सकता। आंखें
बंद किए पड़े
रहिए रात भर।
नींद नहीं आती
तो आंख बंद करने
का नाम नींद
नहीं है। तो
ठीक दूसरी बात
भी खयाल रख
लें, सुबह
आंख खोल ली, उसका नाम
जागरण नहीं
है। क्योंकि
जागरण का
अनुपात
निर्भर करता
है नींद की
गहराई पर।
इसे और
तरह से देखें।
एक आदमी दिन
भर मेहनत करता
है। जितनी
उसकी मेहनत
होती है, उतना
गहरा उसका
विश्राम हो
जाता है। कई
लोग सोचते हैं
कि दिन भर
विश्राम करते
रहें तो विश्राम
का अच्छा
अभ्यास रहेगा,
तो रात काफी
गहरा विश्राम
हो जाएगा। वे
गए, उनको
विश्राम कभी
नहीं होगा।
बल्कि उनको
रात बिस्तर पर
व्यायाम करना
पड़ेगा।
क्योंकि जितना
व्यायाम करने
से बच गए हैं, वह कौन
करेगा? और
सुबह वे थके
हुए उठेंगे; क्योंकि रात
भर जब व्यायाम
करेंगे, तो
सुबह थके हुए
उठेंगे ही।
उनकी जिंदगी
में दुष्टचक्र
पैदा हो गया।
वे
सोचते हैं कि
विश्राम
ज्यादा
करेंगे तो ज्यादा
विश्राम
उपलब्ध हो
जाएगा।
जिंदगी उलटे, विपरीत
के सूत्र से
चलती है; वह
जो अपोजिट
पोलर है, जो
ध्रुवीयता है
विरोध की, उससे
चलती है। अगर
गहरा विश्राम
चाहिए, गहरा
श्रम चाहिए।
गहरे श्रम में
उतर जाएं, विश्राम
अपने आप आ
जाएगा। गहरी
नींद में चले
जाएं, जागरण
अपने आप आ
जाएगा। ठीक से
जाग लें, नींद
अपने आप आ
जाएगी। अगर
आपको रात नींद
न आती हो तो
मैं नहीं
कहूंगा कि
नींद लाने का
उपाय करें।
मैं आपसे
कहूंगा दौड़ें
और मकान के
सौ-पचास चक्कर
लगा आएं। नींद
न आने का मतलब
इतना है कि आपने
कोई श्रम नहीं
किया, आप
जागे नहीं। दौड़ें, एक
सौ चक्कर मकान
के लगा आएं।
फिर आपको नींद
लाना न पड़ेगी,
आ जाएगी।
लाओत्से
कहता है, "और
झुकना ही है
सीधा होने का
मार्ग।'
इस
भ्रांति में
मत पड़ना
कि अकड़ कर खड़े
रहें तो सीधे
हो जाएंगे।
अकड़ जाएंगे, लकवा
लग जाएगा, पैरालिसिस
हो जाएगी।
पैरालिसिस का
नाम सीधा होना
नहीं है। जो
झुकने में
जितना कुशल है,
उसके खड़े
होने में उतनी
जीवंतता होती
है, स्वास्थ्य
होता है। जीवन
के समस्त तलों
पर झुकना
सीखना तो आप
खड़े हो
जाएंगे।
लेकिन
हम हर जगह हर
आदमी अकड़ा हुआ
है और अपने को
बचा रहा है कि
कहीं झुकना न
पड़े,
कहीं झुकना
न पड़े। सभी इस
कोशिश में लगे
हैं, सभी
अकड़ गए हैं, फ्रोजन हो गए हैं।
अब उनमें खून
नहीं बहता। सब
अकड़े खड़े हुए
हैं। इसलिए
एक-दूसरे से
मिल भी नहीं
सकते, मैत्री
भी संभव नहीं
है। प्रेम
असंभव हो गया
है। निकट आना
मुश्किल है।
यह जो हमारे
अकड़े होने की
दुर्दशा है आज,
उसका कारण
वह सूत्र
हमारे खयाल
में बैठा हुआ
है: झुकना ही
मत, टूट
जाना। मिट
जाना, लेकिन
झुकना मत।
लेकिन
ध्यान रहे, हमारा
मिटना भी
मुर्दा होगा
और हमारा
टूटना भी
सिर्फ
विध्वंस
होगा।
इस सूत्र
में आगे
लाओत्से कहता
है,
"खाली होना
है भरे जाना।
टु बी हालो
इज़ टु बी फिल्ड।'
वर्षा
होती है।
पहाड़ों पर भी
होती है, खड्डों
में भी होती
है। पहाड़ खाली
के खाली रह जाते
हैं, खड्डे
झील बन जाते
हैं। खड्डे भर
जाते हैं, खाली
थे इसलिए। और
पहाड़ खाली रह
जाते हैं; क्योंकि
पहले से ही
भरे हुए थे।
पहाड़ पर भी उतनी
ही वर्षा होती
है। कोई गङ्ढों
पर वर्षा
विशेष कृपा
नहीं करती। सच
तो यह है कि गङ्ढे
पहाड़ पर गिरे
पानी को भी
खींच लेते हैं,
अपने में भर
लेते हैं।
क्या है उनकी
ताकत? खाली
होना उनकी
ताकत है।
लाओत्से
कहता है, जो जितने
खाली हैं, इस
जगत में जो
परमात्मा का
प्रसाद है, उतना ही
ज्यादा उनमें
भर जाएगा। जो
अहंकारी हैं,
अकड़े खड़े
हैं पहाड़ों की
तरह, वे
खड़े रह
जाएंगे। जो
खाली हैं, वे
भर जाएंगे।
इसका
मतलब यह हुआ
कि हमें खाली
करने की कला
आनी चाहिए।
भरने की हम
फिक्र न करें।
हम सब भरने की
फिक्र करते
हैं। खाली
करना, हमें डर
लगता है। भरे
चले जाते हैं;
कूड़ा, कबाड़, कचरा, सब
भरे चले जाते
हैं। इकट्ठा
करे चले जाते
हैं, जो
मिल जाए।
बर्नार्ड शॉ
ने कहीं कहा
है कि कई चीजें
मैं फेंक सकता
हूं अपने घर
की; लेकिन
इसीलिए नहीं
फेंकता कि
कहीं दूसरे न उठा
लें। वह भी
फिक्र है। ऐसे
बेकार हो गई
हैं, कोई
मतलब नहीं है;
लेकिन
दूसरे इकट्ठा
कर लें तो
उनका ढेर बड़ा
हो जाए। तो
इकट्ठा करता
चला जाता है
आदमी।
कभी
आपने सोचा है, आप
क्या-क्या
इकट्ठा करते
रहते हैं? क्यों
करते रहते हैं?
कुछ लोगों
को और कुछ
नहीं तो वे
डाक टिकट
इकट्ठी कर रहे
हैं, पोस्टल
स्टैम्प
इकट्ठे कर रहे
हैं। पूछें उनको,
क्या हो गया
है?
लेकिन
कोई फर्क नहीं
है। एक आदमी
रुपए इकट्ठा कर
रहा है; उसको
हम पागल नहीं
कहेंगे। एक
आदमी डाक टिकट
इकट्ठी कर रहा
है; एक
आदमी कुछ और
इकट्ठा कर रहा
है। इकट्ठा
करना
विचारणीय है;
क्या
इकट्ठा कर रहे
हैं, यह
बड़ा सवाल नहीं
है। इकट्ठा
करना! हम अपने
को भर रहे
हैं। खाली न
रह जाएं; कहीं
ऐसा न हो कि
मौत आए और पाए
कि बिलकुल
खाली हैं, कोई
फर्नीचर ही
नहीं पास में।
तो हम सब कूड़ा-कबाड़
इकट्ठा करके
मौत के वक्त
कहेंगे कि
देखो, इतना
सब सामान इकट्ठा
कर लिया।
लेकिन
आप खाली ही रह
जाएंगे। यह सब
सामान आपको
खाली रखने का
कारण बनेगा।
जिस आदमी को
भरना है, उसे
अपने को खाली
करना आना
चाहिए। खाली
करने का मतलब
यह है कि आदमी
के भीतर स्पेस
चाहिए, जगह
चाहिए। जो भी
विराट उतर
सकता है, उसको
जगह चाहिए।
हमारे भीतर अगर
परमात्मा आना
भी चाहे तो
जगह कहां है? है कोई जगह
थोड़ी-बहुत
जहां उससे
कहें कि कृपा करके
आप यहां बैठ
जाइए? खुद
के बैठने की
जगह नहीं है, खुद अपने
बाहर खड़े हैं,
कि भीतर तो
कोई जगह है
नहीं। अपने
बाहर-बाहर घूमते
हैं, कि
भीतर तो कोई
जगह है नहीं।
परमात्मा मिल
भी जाए और कहे
कि आते हैं
आपके घर में, तो वहां
स्थान कहां है?
जीवन
का जो भी परम
रहस्य है, वह
खुद को खाली
करने की कला
में निहित है।
इसे हम
ऐसा समझें।
अगर आप पूछें
शरीर-शास्त्री
से...और अगर आप
लाओत्से से
पूछें, तो
शरीर-शास्त्री
की जो अब की
समझ है, वह
वही कहती है
जो लाओत्से
कहता है। आपने
कभी खयाल किया
है कि आप
श्वास जब लेते
हैं तो आप
लेती श्वास पर
जोर देते हैं
कि जाती श्वास
पर?
लाओत्से
कहता है, खाली
करने वाली
श्वास पर जोर
देना। लेने की
फिक्र ही मत
करना, वह
अपने से आ
जाएगी। उसकी
आपको क्या
चिंता करनी है?
आप सिर्फ
श्वास को उलीच
कर बाहर कर
देना। आप
श्वास लेना मत
अपनी तरफ से।
वह काम
परमात्मा कर
लेगा, वह
प्रकृति कर
लेगी। आप
सिर्फ खाली कर
दो।
जीवन
में जो परम
रहस्य है
स्वास्थ्य का, वह
इतने से फर्क
से भी हल हो
जाता है। अगर
कोई व्यक्ति
सिर्फ श्वास
को खाली करे
और लेने का काम
न करे, आने
दे अपने से, तो उसे
अपूर्व
स्वास्थ्य
उपलब्ध हो
जाएगा। आप सीढ़ियां
चढ़ते हैं;
थक जाते
हैं। अब की
दफे ऐसा करना
कि सीढ़ियां
चढ़ते
वक्त सिर्फ
श्वास छोड़ना,
लेना मत। और
आप नहीं थकेंगे।
सीढ़ियां चढ़ते वक्त
सिर्फ श्वास
छोड़ना, खाली
कर देना बाहर;
और लेते
वक्त आप फिक्र
मत करना, शरीर
को लेने देना।
और आप पाएंगे,
आप कितनी ही
सीढ़ियां
चढ़ सकते हैं, और नहीं थकेंगे।
क्या हो गया? जब आप श्वास
लेते हैं तो
भीतर की जो
गंदी श्वास है
वह तो भीतर ही
भरी रह जाती
है, आप ऊपर
से श्वास ले
लेते हैं। वह
ऊपर से ही वापस
चली जाती है।
भीतर की गंदी
तो भीतर भरी
ही रहती है।
वह भीतर की गंदी
श्वास, वह
कार्बन डायआक्साइड
ही आपकी हजार
बीमारी, कमजोरी
और सब चीजों
का कारण है।
लेकिन
हमारा जोर
लेने पर क्यों
है?
वह हमारी
वृत्ति के
कारण है। हम
हर चीज को लेना
चाहते हैं, छोड़ना किसी
चीज को भी
नहीं चाहते। एक
आध्यात्मिक कांस्टीपेशन
है। कोई चीज
छोड़ना नहीं
चाहते, मल-मूत्र
भी छोड़ना नहीं
चाहते; उसको
भी सम्हाल कर
रखे हुए हैं।
एक
वैज्ञानिक
विचारक है
पश्चिम में, मेथियास
अलेक्जेंडर।
उसने सारी
जिंदगी लोगों
की कब्जियत पर
काम किया है।
और वह कहता है
कि कब्जियत
मानसिक कंजूसी
का परिणाम है;
शारीरिक
उसका कारण
नहीं है। जो
लोग कुछ भी
नहीं छोड़ना
चाहते, आखिर
में वे मल भी
नहीं छोड़ना
चाहते हैं।
फ्रायड
ने तो बहुत
अजीब प्रतीक
खोजा है; एकदम
से कठिन मालूम
पड़ता है। वह
कहता है, सोने
को पकड़ना
और मल को पकड़ना
एक ही
प्रक्रिया के
हिस्से हैं।
और पीला रंग
सोने का और मल
का पीला रंग, वह कहता है, महत्वपूर्ण
है। फ्रायड ने
तो बहुत मेहनत
की है बच्चों
पर। क्योंकि
बच्चे...। मां
और बाप सब छुड़वाने
की कोशिश करते
हैं बच्चे से
कि जा, शरीर
को साफ कर, मल
को बाहर
निकाल! लेकिन
बच्चे को एक
बात समझ में आ
जाती है कि एक
चीज ऐसी है
जिसमें वह
मां-बाप का भी
विद्रोह शुरू
से ही कर सकता
है। तो वह
नहीं जाता। वह
कहता है कि
नहीं, कोई
खयाल ही नहीं
है। वह रोकता
है, वह
मां-बाप को
बताता है कि
तुम क्या
समझते हो, एक
चीज तो कम से
कम मेरे पास
भी है जो मैं
ही कर सकता
हूं और तुम
करवा नहीं
सकते!
फ्रायड
कहता है, ट्रॉमैटिक हो जाती है
यह घटना।
बच्चे की पहली
ताकत उसके पास
यही है। और तो
कोई ताकत भी
नहीं है गरीब
पर। और
मां-बाप पर सब
कुछ है; वे
हर कुछ कर
सकते हैं।
बच्चे के पास
एक ताकत है; मां-बाप को
प्रसन्न कर
सकता है। अगर
वह चला जाए
पाखाना, मां-बाप
को प्रसन्न कर
देता है। न
जाए, घर भर
में चिंता खड़ी
कर देता है।
वह दो दिन सम्हाल
ले, संयमी
हो जाए, सब
को बेचैन कर
डाला उसने।
उसके हाथ में
एक ताकत आ गई।
यह बच्चा सीख
रहा है चीजों
का रोकना। फिर
जिंदगी भर
इसका संबंध
गहरा होता चला
जाएगा; हर
चीज को रोकने
की वृत्ति
होती चली
जाएगी।
कंजूस
आदमी अक्सर
कब्जियत से
भरे होंगे। जो
आदमी सहज
चीजें दे सकता
है,
बांट सकता
है, वह
कब्जियत का
शिकार नहीं
होगा। जुड़े
हैं हमारे
जीवन में एक आरगैनिक
यूनिटी है; सब चीजें
जुड़ी हैं, अलग
अलग नहीं
हैं। छोटी सी
चीज भी जुड़ी
है, बहुत
छोटी सी चीज
भी जुड़ी है।
आप
खाना खा रहे
हैं। लोग भरते
चले जाते हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
चबाते क्यों
नहीं लोग? भरते
क्यों चले
जाते हैं? चबाएंगे तो देरी
लगेगी। भरने
की इतनी जल्दी
है, भर
लेना है। अगर
आप ठीक से चबाएं
तो आपको कम से
कम एक कौर
बयालीस बार
चबाना ही पड़ेगा।
तभी वह ठीक से
चबा। लेकिन
बयालीस बार एक
कौर? सोच
कर ऐसा लगेगा
कि जिंदगी फिर
चबाने में ही चली
जाएगी। भर दो।
आपको पता ही
नहीं है कि
पेट के पास
फिर कोई दांत
नहीं हैं। और
पेट सिर्फ एक
तरह की चमड़ी
है। और पेट के
पास उसे पचाने
का कोई उपाय
नहीं है। ऊपर
से भरते चले
जाओ, नीचे
से निकलने मत
दो। और ये
दोनों एक साथ
होंगी घटनाएं
तो आदमी की
जिंदगी एक
कचरे का ढेर हो
जाती है।
यह मैं
इसलिए कह रहा
हूं कि सब
चीजें जुड़ी
हैं। जो आदमी
ठीक से नहीं चबाएगा, वह
हिंसक हो
जाएगा। उसका
व्यवहार
हिंसक हो जाएगा।
क्योंकि जो
आदमी ठीक से चबा
लेगा, उसकी
हिंसा की बड़ी
मात्रा चबाने
में निकल जाती
है। ठीक से
चबाने वाले
लोग मिलनसार
होंगे। ठीक से
नहीं चबाने
वाले लोग
मिलनसार नहीं
होंगे। जो ठीक
से चबा लेगा, उसका क्रोध
कम हो जाएगा।
क्योंकि दांत
हमारे हिंसा
के साधन हैं।
जो ठीक से
नहीं चबाएगा,
वह कहीं और
क्रोध
निकालेगा, वह
किसी और को
चबाने के लिए
तैयार रहेगा।
और
भरने की जल्दी
है कि भरते
चले जाओ। यह
आपको हैरानी
होगी जान कर
कि यूनान में, जब
सभ्य था यूनान,
अपनी ऊंचाई
पर पहुंचा, तो लोग खाने
की टेबल पर
साथ में एक
पक्षी का पंख
भी रखते थे।
जैसे दांत साफ
करने के लिए
हम कुछ लकड़ियां
रखते हैं, ऐसे
वे हर एक टेबल
पर खाने वाले
के साथ एक
पक्षी का पंख
रखते थे। वह
था--गटको, फिर पंख को
करके वोमिट
कर दो, फिर
और खा लो।
नीरो सम्राट
दिन में आठ-दस
दफे खाना खाता
था। दो डाक्टर
रख छोड़े थे।
वह खाना खाएगा,
डाक्टर
उसको उलटी
करवा देंगे; वह फिर अपनी
टेबल पर आकर
खाना खाने बैठ
जाएगा। भरते
जाओ। क्या
कारण है ऐसा
हमें भरने का?
यह क्या
पागलपन है?
मैं
घरों में जाता
हूं,
कभी अमीरों
के घर में
पहुंच जाता
हूं तो वहां समझ
में नहीं पड़ता
कि वे रहते
कहां होंगे!
सब भरा हुआ
है। सब भरा
हुआ है।
निकलने का भी
रास्ता नहीं
है। कैसे निकल
कर बाहर आते
हैं, कैसे
भीतर जाते हैं,
कुछ पता
नहीं। मगर यह
घर का ही सबूत
नहीं है, यह
भीतर मन का भी
सबूत है।
क्योंकि
हमारे घर हमारे
मन हैं। और
हमारा मन
हमारा घर है, उसका ही
फैलाव है।
लाओत्से
कहता है, "खाली
होना है भरे
जाना।'
तुम
अपने को भीतर
से खाली करने
की सोचो; भरने
का काम
प्रकृति पर
छोड़ दो। वह
सदा भर देती
है। तुम सिर्फ
गङ्ढे
बनाओ, तुम
सिर्फ खाली
करो, तुम
सिर्फ खाली
करो।
"और
टूटना, टुकड़े-टुकड़े
हो जाना है
पुनरुज्जीवन।'
और घबड़ाओ
मत कि टूट जाऊंगा।
और घबड़ाओ
मत कि मिट जाऊंगा।
और घबड़ाओ
मत कि मर जाऊंगा।
क्योंकि मरना
नए जीवन की
शुरुआत है।
जन्म शुरुआत
है मृत्यु की
और मृत्यु
पुनः शुरुआत
है जन्म की।
टूटने से मत घबड़ाओ।
टूटने को
तैयार रहो।
क्योंकि तुम
टूट सकोगे तो
नए हो जाओगे।
नए होने का
ढंग एक ही है
कि हम बिखरना
भी जानें, टूटना
भी जानें, समाप्त
होना भी
जानें।
हम पकड़
कर रखना चाहते
हैं अपने को, कि
कुछ मिटे न, कुछ टूट न
जाए। हम जीवन
की प्रक्रिया
के विपरीत चल
रहे हैं। यह
जीवन की पूरी
प्रक्रिया एक
वर्तुल है। एक
नदी सागर में
गिरती है।
सागर में धूप
और सूरज की
किरणें भाप
बनाती हैं। वह
भाप फिर आकर
पहाड़ पर वर्षा
कर जाती है।
फिर गंगोत्री
में भर जाता
है पानी। फिर
गंगा बहने
लगती है। फिर गंगा
जाकर सागर में
गिर जाती है।
एक वर्तुल है।
गंगा अगर सागर
में गिरते
वक्त कहे कि
अगर मैं सागर
में गिरूं
और बिखरूं
तो नष्ट हो
जाऊंगी, गंगा
अपने को रोक
ले, न जाए
सागर में
गिरने। उस दिन
गंगा मर
जाएगी।
क्योंकि पुनरुज्जीवन
का उपाय नहीं
रह जाएगा।
गंगा को सागर
में खोना ही
चाहिए। वही
उसके नए होने
का उपाय है।
फिर ताजी हो
जाएगी।
और
ध्यान रखें, इतनी
यात्रा में
गंगा गंदी हो
जाती
है--स्वभावतः।
सागर उसे फिर
नया और ताजा
कर देता है। बिखर
जाती है, सब
रूप खो जाता
है। फिर
निमज्जित हो
जाती है मूल
में। फिर धूप,
फिर बादल
बनते हैं। इन
बादलों में
गंदगी नहीं चढ़
सकती। बादल
शुद्धतम होकर
आकाश में आ
जाते हैं। फिर
हिमालय पर बरस
जाते हैं। फिर
गंगोत्री नई
और ताजी है।
फिर यात्रा
शुरू हो जाती
है।
लाओत्से
कहता है, जीवन
एक वर्तुल
यात्रा है।
टूटना पुनः
होने का उपाय
है; मिटना
नए जीवन की
शुरुआत है; मृत्यु नया
गर्भाधान है।
इसलिए घबड़ाओ
मत कि टूट
जाएंगे; टुकड़े-टुकड़े
हो जाएंगे; अगर झुकेंगे,
मिट जाएंगे;
अगर खाली
रहेंगे, क्या
भरोसा, भरे
गए, न भरे
गए; किस पर
विश्वास करें?
अपनी रक्षा
अपने ही हाथ
करनी है! ऐसा
बचाने की कोशिश
जिसने की, वह
सड़
जाएगा। उसकी
गति अवरुद्ध
हो जाएगी। गति
का सूत्र है:
मिटने की सदा
तैयारी। जीवन
का महासूत्र
है: प्रतिपल
मरने की
तैयारी, प्रतिपल
मरते जाना, प्रतिपल
मरते जाना।
बायजीद
रात जब विदा
होता अपने
शिष्यों से तो
रोज नमस्कार
करता और कहता, शायद
सुबह मिलना हो,
न हो मिलना,
आखिरी
प्रणाम! यह
रोज आखिरी
नमस्कार! सुबह
उठ कर कहता कि
फिर एक मौका
मिला नमस्कार
का। शिष्यों
ने कई बार
बायजीद को कहा
कि आप यह क्या
करते हैं रोज
रात को? बायजीद
कहता कि रोज
रात मृत्यु में
जाने की
तैयारी होनी
चाहिए। और तभी
तो मैं सुबह
इतना ताजा
उठता हूं; क्योंकि
तुम सिर्फ
सोते हो, मैं
मर भी जाता
हूं। इतना
गहरा उतर जाता
हूं, सब
छोड़ देता हूं
जीवन को।
इसलिए
बायजीद की
ताजगी पाना
बहुत मुश्किल
है। सुबह
बायजीद जब
उठता तो वैसे
ही जैसे नया
बच्चा जन्मा
हो। उसकी
आंखों में वही
निर्दोष भाव
होता।
क्योंकि सांझ
जो मर सकता है, सुबह
वह फिर से
पुनरुज्जीवित
हो जाता है।
हम तो रात
नींद में भी
अपने को पकड़े
रहते हैं कि
कहीं खिसक न
जाएं, सम्हाले
रखते हैं कि
कहीं कोई गड़बड़
न हो जाए। तो
सुबह हम वैसे
ही उठते हैं, जैसे हम रात
भर सोते हैं।
"अभाव
है संपदा।
संपत्ति है
विपत्ति और
विभ्रम।'
अभाव
है संपदा, न
होना संपत्ति
है। होना
विपत्ति है।
लाओत्से कहता
है, जितना
ज्यादा
तुम्हारे पास
होगा, उतनी
तुम अड़चन और
मुसीबत में
रहोगे।
क्योंकि भोग
तो तुम उसे
पाओगे ही नहीं,
सिर्फ पहरा
दे पाओगे। और
जितना ज्यादा
होता जाएगा, उतनी
तुम्हारी
चिंता का
विस्तार होता
चला जाएगा।
जिसके पास कुछ
भी नहीं है, वह प्रतिपल
भारहीन, निर्भार
होकर जी पाता
है।
पांपेई का
नगर जला, सारा
गांव भागा।
जो-जो बन सका
जिससे ले
जाते। ज्वालामुखी
फूट पड़ा आधी
रात। कोई अपनी
तिजोरी ले जा
रहा है। कोई
अपने कागजात
ले जा रहा है।
कोई अपने
बच्चे को, कोई
अपनी पत्नी
को। जिसको जो,
जिस पर
सुविधा थी, वह लेकर
भागा। और सभी
दुखी हैं। सभी
दुखी हैं, क्योंकि
सभी का बहुत
कुछ छूट गया
है। आग इतनी अचानक
थी और क्षण भर
रुकना
मुश्किल था कि
जो हाथ में लगा,
वह लेकर
भागा। सभी रो
रहे हैं।
सिर्फ एक आदमी
पांपेई
के नगर में
नहीं रो रहा
है, अरिस्टीपस नाम का एक
आदमी नहीं रो
रहा है। तीन
बजा है रात का;
अपनी छड़ी
लिए उसी भीड़
में--पूरे नगर
के लाखों लोग
अपना सामान
लेकर भाग रहे
हैं--वह अपनी
छड़ी लिए जा
रहा है।
अनेक
लोग उससे कहते
हैं,
अरिस्टीपस,
कुछ बचा
नहीं पाए? अरिस्टीपस कहता है, कुछ
था ही नहीं।
हम इकट्ठा
करने की झंझट
में ही नहीं
पड़े, बचाने
की भी कोई
झंझट नहीं
रही। सारे लोग
भाग रहे हैं
और अरिस्टीपस
टहल रहा है।
लोग उससे
पूछते हैं कि
तू भाग नहीं
रहा? अरिस्टीपस कहता है कि इतने
वक्त हम रोज
ही सुबह घूमने
जाते हैं। वह
अपनी छड़ी लिए
घूमने जा रहा
है। चिंतित
नहीं हो? पीछे
तुम्हारा
मकान? अरिस्टीपस कहता है, अपने
सिवाय अपने
पास और कुछ भी
नहीं है।
अपने
सिवाय अपने
पास और कुछ भी
नहीं है, यह
अर्थ है अभाव
का। अपने
सिवाय अपने
पास और कुछ भी
नहीं है। और
इसलिए मौत भी अरिस्टीपस
से कुछ छीन न
पाएगी। इसका
यह मतलब नहीं
है कि आपके
पास कुछ भी न
हो। इसका यह
मतलब भी नहीं
है कि अरिस्टीपस
के पास भी कुछ
न था। कम से कम
छड़ी तो थी ही।
इसका मतलब कुल
इतना है कि वह
जो परिग्रह का
भाव है कि
मेरे पास यह
है, यह है, यह है, वही
दुख का कारण
बनेगा। क्या
है, क्या
नहीं, यह
महत्वपूर्ण
नहीं है। भीतर
संपत्ति को पकड़ने की
जो वृत्ति है,
कि मेरे पास
है, मेरा
है, वही
दुख का कारण
बनेगा। और वही
चिंताओं का
जन्म है।
"अभाव
है संपदा।'
कुछ भी
नहीं है; तो
उसी के साथ
सारी चिंताएं
भी विलीन हो
गईं। यह एक
आंतरिक दशा
है।
एक
छोटी सी कहानी, जो
मुझे बहुत
प्रीतिकर रही
है। एक सम्राट
एक साधु के
प्रेम में पड़
गया। साधु था
भी अदभुत। मोह
बढ़ता गया
सम्राट का।
आखिर सम्राट
ने एक दिन कहा
कि इस वृक्ष
के नीचे न पड़े
रहें, मेरे
महल में चलें।
साधु उठ कर
तत्क्षण खड़ा
हो गया। उसने
कहा, चलो।
सम्राट
बड़ा चिंतित
हुआ। सोचा था, साधु
कहेगा, कहां
संसार में
उलझाते हो!
महल? हम
महल नहीं जा
सकते; हम
सब त्याग कर
दिए हैं।
सम्राट भी
प्रसन्न होता
अगर साधु ऐसा
कहता। और
सम्राट और जोर
से आग्रह करता
कि नहीं
महाराज, चलना
ही पड़ेगा। पैर
पकड़ता, हाथ-पैर
जोड़ता और
सोचता, महा
तपस्वी है।
साधु
खड़ा ही हो
गया। भिक्षा
का पात्र उठा
लिया, जो
थोड़े-बहुत
पोटली में
बंधे हुए
कपड़े-लत्ते थे
दो-चार, वे
कंधे पर टांग
लिए और कहा, कहां है
रास्ता?
सम्राट
के बिलकुल
प्राण निकल
गए। उसने कहा, कहां
नासमझ, किस
साधारण आदमी
के पीछे मैंने
इतने दिन गंवाए!
यह तो तैयार
ही बैठे थे।
प्रतीक्षा ही
थी। सिर्फ
हमारी राह ही
देख रहे थे।
हम भी बुद्धू
निकले।
लेकिन
अब कह ही चुके
थे,
फंस ही गए
थे, तो
रास्ता भी
बताना पड़ा, लेकिन बड़े
बेमन से। महल
पहुंचते-पहुंचते
साधु तो विदा
ही हो चुका
था। साधु तो
बचा ही
नहीं--उसी
क्षण, जब
साधु खड़ा हो
गया चलने के
लिए। अब तो एक
जबर्दस्ती का
मेहमान था, बिना बुलाया
मेहमान।
लेकिन अब कह
दिया था सम्राट
को तो उसे
ठहराना था।
उसे ठहरा
दिया। परीक्षा
की दृष्टि से
ही श्रेष्ठतम
जो भवन था, उसमें
ही ठहराया।
अच्छे से
अच्छे जो भोजन
थे, वही
व्यवस्था की।
अच्छे से
अच्छे कपड़े!
और साधु गजब
का था--साधु था
ही नहीं
सम्राट की
नजरों में--जो
भी कहता, करने
को राजी हो
जाता। कहा, ये कपड़े छोड़
दो, वह
उतार कर
तत्काल खड़ा हो
गया। कीमती
वेशभूषा पहना
दी, पहन
लिया। बड़े
शानदार
बिस्तरों पर
सोने को कहा, मजे से सो
गया। सुंदरतम
स्त्रियां
सेवा में लगाईं,
पैर फैला
दिए। सम्राट
ने कहा कि बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। एक
दफा तो यह न
कहे!
पंद्रह
दिन में ही
सम्राट ऊब गया
और घबड़ा गया।
एक दिन सुबह
आकर उसने कहा, महाराज,
बहुत हो
गया। मुझमें
और आप में कोई
फर्क ही नहीं
है। साधु ने
कहा, फर्क?
जानना कठिन
है। लेकिन अगर
जानना चाहते
हो तो मेरे
पीछे आओ। साधु
ने कपड़े
सम्राट के
वापस उतार कर
रख दिए, अपने
कपड़े पहन लिए,
अपना डंडा
उठा लिया, अपनी
झोली, अपना
भिक्षा-पात्र,
बाहर निकल
आया महल के।
सम्राट
पीछे-पीछे
चला। नदी आ
गई। सम्राट ने
कहा, अब
बता दें। उस
फकीर ने कहा, जरा नदी के
उस पार। नदी
के पार भी
निकल गया। सम्राट
बोला, अब
बता दें वह
भेद। उसने कहा,
थोड़ा और
आगे। राज्य की
सीमा आ गई।
सम्राट ने कहा,
अब? उस
फकीर ने कहा, अब मैं पीछे
नहीं जाना
चाहता; अब
तुम भी मेरे
साथ ही चलो।
सम्राट ने कहा,
यह कैसे हो
सकता है? मेरा
महल है पीछे; मेरा राज्य
है। उस फकीर
ने कहा, अगर
तुम्हें समझ
में आ सके
फर्क तो समझ
लेना। मेरा
कोई महल पीछे
नहीं है, मेरा
कोई राज्य
पीछे नहीं है।
मैं तुम्हारे
महल में था, लेकिन
तुम्हारा महल
मुझमें नहीं
है।
सम्राट
पैर पकड़ लिया
और कहा कि
महाराज, बड़ी
भूल हो गई।
साधु ने कहा, लौट चल सकता
हूं, कोई
हर्जा मुझे
नहीं है।
लेकिन तुम फिर
मुसीबत में पड़
जाओगे। अब तुम
लौट ही जाओ, मुझे कोई
अड़चन नहीं है,
वापस...।
जैसे ही उस
साधु ने कहा
वापस, सम्राट
का पसीना छूट
गया। साधु ने
कहा, फिर
तुम पूछोगे कि
महाराज, फर्क
क्या है? मुझे
तुम जाने ही
दो, ताकि
तुम्हें फर्क
याद रहे।
अन्यथा और कोई
कारण मेरे
जाने का नहीं
है। वापस चल
सकता हूं।
क्या
है आपके पास, यह
सवाल नहीं है;
कितना आपके
भीतर चला गया
है, यही
सवाल है। भीतर
न गया हो तो आप
खाली हैं। अभाव
है। उस अभाव
में ही
विश्रांति है,
आनंद है, मुक्ति है।
"इसलिए
संत उस एक का
ही आलिंगन
करते हैं; और
बन जाते हैं
संसार का
आदर्श।'
इस एक
नियम का, एक
ताओ का, इस
खाली होने के
सूत्र का, इस
झुक जाने की
कला का, इस
मिट जाने की
तैयारी का, इस एक नियम
का पालन करते
हैं; और बन
जाते हैं संसार
का आदर्श।
बनना
नहीं चाहते
संसार का
आदर्श, नहीं
तो कभी नहीं
बन पाएंगे। जो
बनना चाहते हैं,
वे कभी नहीं
बन पाते। जो
इन कलाओं को
जानता है जीवन
की, वह
अनजाने संसार
का आदर्श बन
जाता है।
आज
इतना ही।
कीर्तन करें, फिर
जाएं।
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