ऊणोदरी
एवं वृत्ति-
संक्षेप—(प्रवचन—ग्यारहवां)
दिनांक
28 अगस्त, 1971;
प्रथम
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल,
बम्बई
धम्म-सूत्र:
धम्मो
मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा
संजमो तवो।
देवा
वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया
मणो ।।
धर्म
सर्वश्रेष्ठ
मंगल है। (कौन
सा धर्म?) अहिंसा,
संयम और तपरूप
धर्म। जिस
मनुष्य का मन
उक्त धर्म में
सदा संलग्न
रहता है, उसे
देवता भी
नमस्कार करते
हैं।
अनशन
के बाद महावीर
ने दूसरा बाहयत्तप
ऊणोदरी
कहा है। ऊणोदरी
का अर्थ है :
अपूर्ण भोजन, अपूर्ण
आहार।
आश्चर्य होगा
कि अनशन के
बाद ऊणोदरी
के लिए क्यों
महावीर ने कहा
है! अनशन का
अर्थ तो है निराहार।
अगर ऊणोदरी
को कहना भी था
तो अनशन के
पहले कहना था,
थोड़ा आहार।
और आमतौर से
जो लोग भी
अनशन का अभ्यास
करते हैं वे
पहले ऊणोदरी
का अभ्यास
करते हैं। वे
पहले आहार को
कम करने की
कोशिश करते
हैं।
जब आहार
कम में सुविधा
हो जाती है, आदत हो जाती
है तभी वे
अनशन का
प्रयोग करते
हैं और वह
बिलकुल ही गलत
है। महा वीर
ने जानकर ही पहले
अनशन कहा और
फिर ऊणोदरी
कहा। ऊणोदरी
का अभ्यास
आसान है।
लेकिन एक बार ऊणोदरी का
अभ्यास हो जाए
तो अभ्यास हो
जाने के बाद
अनशन का कोई
अर्थ, कोई
प्रयोजन नहीं
रह जाता। वह
मैंने आपसे कल
कहा कि अनशन तो
जितना
आकस्मिक हो और
जितना अभ्यासशून्य
हो, जितना प्रयत्नरहित
हो, जितना
अव्यवस्थित
और अराजक हो, उतनी ही बड़ी
छलांग भीतर
दिखाई पड़ती
है।
ऊणोदरी को
द्वितीय
नम्बर महावीर
ने दिया है, उसका
कारण समझ लेना
जरूरी है। ऊणोदरी
शब्द का तो
इतना ही अर्थ
होता है कि
जितना पेट मांगे
उतना नहीं
देना। लेकिन
आपको यह पता
ही नहीं है कि
पेट कितना
मांगता है। और
अकसर जितना
मांगता है वह
पेट नहीं
मांगता है, वह आपकी आदत
मांगती है। और
आदत में और
स्वभाव में
फर्क न हो तो
अत्यंत कठिन
हो जाएगी बात।
जब रोज आपको
भूख लगती है, तो आप इस
भ्रम में मत
रहना कि भूख
लगती है। स्वाभाविक
भूख तो बहुत
मुश्किल से
लगती है; नियम
से बंधी हुई
भूख रोज लग
आती है।
जीव
विज्ञानी
कहते हैं, बायोलाजिस्ट कहते हैं कि
आदमी के भीतर
एक बायोलाजिकल
क्लाक है,
आदमी के
भीतर एक जैविक
घड़ी है। लेकिन
आदमी के भीतर
एक हैबिट क्लाक
भी है, आदत
की घड़ी भी है।
और जीव
विज्ञानी जिस
घड़ी की बात
करते हैं, जो
हमारे गहरे
में है उसके
ऊपर हमारी आदत
की घड़ी जो
हमने अभ्यास
से निर्मित कर
ली है। इस पृथ्वी
पर ऐसे कबीले
हैं, जो
दिन में एक ही
बार भोजन करते
हैं, हजारों
वर्ष से। और
जब उन्हें
पहली बार पता
चला कि ऐसे
लोग भी हैं जो
दिन में दो
बार भोजन करते
हैं तो वे
बहुत हैरान
हुए। उनकी समझ
में ही नहीं
आया कि दिन
में दो बार
भोजन करने का
क्या प्रयोजन
होता है! इस
पृथ्वी पर ऐसे
कबीले हैं जो
दिन में दो
बार भोजन कर
रहे हैं हजारों
वर्षो से। ऐसे
भी कबीले हैं
जो दिन में
पांच बार भी भोजन
कर रहे हैं।
इसका बायोलाजिकल,
जैविक जगत
से कोई संबंध
नहीं है।
हमारी आदतों की
बात है। आदतें
हम निर्मित कर
लेते हैं इसलिए
आदतें हमारा
दूसरा स्वभाव
बन जाती हैं।
और हमारा फिर
पहला
प्राथमिक
स्वभाव आदतों
के जाल के
नीचे ढंक जाता
है।
झेन
फकीर बोकोजू
से किसी ने
पूछा कि
तुम्हारी साधना
क्या है? उसने
कहा—जब मुझे
भूख लगती है
तब मैं भोजन
करता हूं। और जब
मुझे नींद आती
है तब मैं सो
जाता हूं। और
जब मेरी नींद
टूटती है तब
मैं जग जाता
हूं। उस आदमी
ने कहा—यह भी
कोई साधना है,
यह तो हम
सभी करते हैं!
बोकोजू ने कहा—काश,
तुम सभी यह
कर लो तो इस
पृथ्वी पर
बुद्धों की गिनती
करना मुश्किल
हो जाए। यह
तुम नहीं करते
हो। तुम्हें
जब भूख नहीं
लगती, तब
भी तुम खाते
हो। और जब
तुम्हें भूख
लगती है तब भी
तुम हो सकता
है, न खाते
हो। और जब
तुम्हें नींद
नहीं आती, तब
तुम सो जाते
हो। और यह भी
हो सकता है कि
जब तुम्हें
नींद आती हो
तब तुम न सोते
हो। और जब तुम्हारी
नींद नहीं
टूटती तब तुम
उसे तोड़ लेते
हो, और जब टूटनी
चाहिए तब तुम
सोए रह जाते
हो। यह विकृति
हमारे भीतर
दोहरी
प्रक्रियाओं
से हो जाती
है। एक तो हमारा
स्वभाव है, जैसा
प्रकृति ने
हमें निर्मित
किया। प्रकृति
सदा सन्तुलित
है। प्रकृति
उतना ही
मांगती है
जितनी जरूरत
है। आदतों का
कोई अन्त नहीं
है। आदतें
अभ्यास है, और अभ्यास
से कितना ही
मांगा जा सकता
है।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला नसरुद्दीन
के गांव में
एक प्रतियोगिता
हुई कि कौन
आदमी सबसे
ज्यादा भोजन
कर सकता है।
मुल्ला ने सभी
प्रतियोगियों
को बहुत पीछे
छोड़ दिया। कोई
बीस रोटी पर
रुक गया , कोई
पच्चीस रोटी
पर रुक गया, कोई तीस
रोटी पर रुक
गया। फिर लोग घबराने
लगे क्योंकि
मुल्ला पचास
रोटी पर चल
रहा था, और
लोग रुक गये थे।
लोगों ने कहा—मुल्ला,
अब तुम जीत
ही गए हो। अब
तुम अकारण
अपने को परेशान
मत करो, अब
तुम रुको।
मुल्ला ने कहा—मैं
एक ही शर्त पर
रुक सकता हूं
कि मेरे घर
कोई खबर न
पहुंचाए, नहीं
तो मेरा सांझ
का भोजन पत्नी
नहीं देगी। यह
खबर घर तक न
जाए कि मैं
पचास रोटी खा
गया, नहीं
तो सांझ का
भोजन गड़बड़ हो
जाएगा।
आप इस
पेट को
अप्राकृतिक
रूप से भी भर
सकते हैं, विक्षिप्त
रूप से भी भर
सकते हैं। पेट
को ही नहीं, यहां उदर
केवल
सांकेतिक है।
हमारी
प्रत्येक इंद्रिय
का उदर है; हमारी
प्रत्येक
इंद्रिय का
पेट है। और आप
प्रत्येक
इंद्रिय के उदर
को जरूरत से
ज्यादा भर
सकते हैं।
जितना देखने
की जरूरत नहीं
है उतना हम
देखते हैं।
जितना सुनने
की जरूरत नहीं
है उतना हम
सुनते हैं। और
इसका परिणाम
बड़ा अदभुत
होता है। वह
परिणाम यह
होता है कि
जितना ज्यादा
हम सुनते हैं
उतने ही सुनने
की क्षमता और
संवेदनशीलता
कम हो जाती है;
इसलिए
तृप्ति भी
नहीं मिलती
है। और जब
तृप्ति नहीं
मिलती तो विसियस
सर्किल पैदा
होता है। हम
सोचते हैं और
ज्यादा देखें
तो तृप्ति
मिलेगी। और
ज्यादा खाएं
तो तृप्ति
मिलेगी।
जितना ज्यादा
खाते हैं उतना
ही वह जो
स्वभाव की भूख
है, वह
दबती और नष्ट
होती है। और
वही तृप्त हो
सकती है। और
जब वह दब जाती
है, नष्ट
हो जाती है, विस्मृत हो
जाती है तो
आपकी जो आदत
की भूख है, वह
कभी तृप्त
नहीं हो सकती
है क्योंकि
उसकी तृप्ति
का कोई अंत
नहीं है।
निरंतर
हम सुनते हैं
कि वासनाओं का
कोई अंत नहीं
है। लेकिन
सच्चाई यह है
कि स्वभाव में
जो भी वासनाएं
हैं,
उन सबका अंत
नहीं है। आदत
से जो वासनाएं
हम निर्मित
करते हैं उनका
कोई अंत नहीं
है। इसलिए किसी
जानवर को आप
बीमारी में
खाने के लिए
राजी नहीं कर
सकते। जो
होशियार
जानवर हैं वे
तो जरा बीमार
होंगे कि वामिट
कर देंगे, वह
जो पेट में है
उसे बाहर फेंक
देंगे। वे
प्रकृति से
जीते हैं, आदमी
आदत से जीता
है और आदत से
जीने के कारण
हम अपने को
रोज-रोज
अस्वाभाविक
करते चले जाते
हैं। यह
अस्वाभाविक
होना इतना
ज्यादा हो
जाता है कि
हमें याद ही
नहीं रहता है
कि हमारी
प्राकृतिक आकांक्षाएं
क्या हैं!
तो बायोलाजिस्ट
जिस जीव घड़ी
की बात करते
हैं,
वह हमारे
भीतर है। पर
हम उसकी सुनें
तब! वह हमें
कहती है—कब
भूख लगी है; वह हमें
कहती है कि कब
सो जाना है; वह हमें
कहती है कि कब
उठ आना है।
लेकिन हम उसकी
सुनते नहीं, हम उसके ऊपर
अपनी
व्यवस्था
देते हैं। तो ऊणोदरी
बहुत कठिन है।
कठिन इस लिहा
ज से है कि
आपको पहले तो
यही पता नहीं
कि स्वाभाविक भूख
कितनी है। तो
पहले तो
स्वाभाविक
भूख खोजनी
पड़े। इसीलिए
अनशन को पहले
रखा है। अनशन
आपकी
स्वाभाविक
भूख को खोजने
में सहयोगी
होगा। जब आप
बिलकुल भूखे
रहेंगे —जब भूखे
रहेंगे, लेकिन
इस संकल्प पर
आप पीछे
चलेंगे तो आप
थोड़े ही समय
में पाएंगे कि
आदत की भूख तो
भूल गई क्योंकि
वह असली भूख न
थी। वह दो चार
दिन पुकार कर आवाज
दे दी कि भूख
लगी है, ठीक
समय पर। फिर
दो-चार दिन आप
उसकी नहीं
सुनेंगे, वह
शांत हो
जाएगी। फिर
आपके भीतर से
स्वाभाविक
भूख आवाज
देगी। जब आप
उसकी भी नहीं
सुनेंगे तभी
आपके भीतर का
यंत्र
रूपांतरित होगा
और आप स्वयं
को पचाने के
काम में
लगेंगे।
तो
पहले आदत की
भूख टूटेगी।
वह तीन दिन
में टूट जाती
है,
चार दिन में
टूट जाती है; एक दो दिन
किसी को आगे
पीछे लगता है।
फिर स्वाभाविक
भूख की
व्यवस्था टूटेगी
और तब आप
दूसरी
व्यवस्था पर
जाएंगे।
लेकिन अनशन
में आपको पता
चल जाएगा कि
झूठी आवाज
क्या थी और
सच्ची आवाज
क्या थी।
क्योंकि झूठी
आ वाज मानसिक
होगी। ध्यान
रहे, सेरिब्रल होगी। जब
आपको झूठी भूख
लगेगी तो मन
कहेगा कि भूख
लगी है। और जब
असली भूख
लगेगी तो पूरे
शरीर का रोयां-रोयां
कहेगा कि भूख
लगी है। अगर
झूठी भूख लगी
है, अगर आप
बारह बजे रोज
दोपहर भोजन
करते हैं तो ठीक
बारह बजे लग
जाएगी। लेकिन
अगर किसी ने
घड़ी एक घंटा
आगे पीछे कर
दी हो तो घड़ी
में जब बारह बजेंगे तब
लग जाएगी।
आपको पता नहीं
होना चाहिए कि
अब एक बज गया
है, और घड़ी
में बारह ही
बजे हों, तो
आप एक बजे तक
बिना भूख लगे
रह जाएंगे।
क्योंकि आदत
की, मन की
भूख मानसिक है,
शारीरिक
नहीं है। वह
बाहर की घड़ी
देखती रहती है,
बारह बज गए,
भूख लग गई।
ग्यारह ही बजे
हों असली में
लेकिन घड़ी में
बारह बजा दिए
गए हों तो
आपकी भूख का
क्रम तत्काल
पैदा हो जाएगा
कि भूख लग
गयी। मानसिक
भूख मानसिक है;
झूठी भूख
मानसिक है। वह
मन से लगती है,
शरीर से
नहीं। तीन चार
दिन के अनशन
में मानसिक
भूख की
व्यवस्था टूट
जाती है।
शारीरिक भूख
शुरू होती है।
आपको पहली दफा
लगता है कि
शरीर से भूख आ
रही है। इसको
हम और तरह से
देख सकते हैं।
मनुष्य
को छोड़कर सारे
पशु और
पक्षियों की
यौन व्यवस्था
सावधिक है। एक
विशेष मौसम
में वे यौन
पीड़ित होते
हैं,
कामातुर
होते हैं; बाकी
वर्षभर
नहीं होते।
सिर्फ आदमी
अकेला जानवर
है जो वर्षभर
काम पीड़ित
होता है। यह
काम पीड़ा
मानसिक है, मेंटल है।
अगर आदमी भी
स्वाभाविक हो
तो वह भी एक
सीमा में, एक
समय पर कामातुर
होगा; शेष
समय कामातुरता
नहीं होगी।
लेकिन आदमी ने
सभी
स्वाभाविक
व्यवस्था के
ऊपर मानसिक
व्यवस्था जड़
दी है। सभी चीजों
के ऊपर उसने
अपना इंतजाम
अलग से कर
लिया है। वह
अलग इंतजाम
हमारे जीवन की
विकृति है, और हमारी विक्षिप्तता
है। न तो आपको
पता चलता है
कि आप में कामवासना
जगी है, वह
स्वाभाविक है,
बायोलाजिकल है या साइकोलाजिकल
है! आपको पता
नहीं चलता
क्योंकि बायोलाजिकल
कामवासना को
आपने जाना ही
नहीं है। इसके
पहले कि वह
जगती, मानसिक
कामवासना जग
जाती है।
छोटे-छोटे
बच्चे जो कि
चौदह वर्ष में
जाकर बायोलाजिकली
मेच्योर
होंगे, जैविक
अथो में कामवा सना
के योग्य
होंगे, लेकिन
चौदह वर्ष के
पहले ही
मानसिक वासना
के वे बहुत
पहले योग्य और
समर्थ हो गए
होते हैं।
सुना
है मैंने कि
एक बूढ़ी औरत
अपने नाती-पोतों
को लेकर
अजायबघर में
गयी। वहां स्टार्क
नाम के पक्षी
के बाबत यूरोप
में कथा है, बच्चों
को समझाने के
लिए कि जब घर
में बच्चे पैदा
होते हैं तो
बड़े-बूढ़ों से
बच्चे पूछते
हैं कि बच्चे
कहां से आए? तो बड़े-बूढ़े
कहते हैं—यह स्टार्क
पक्षी ले आया।
वहां अजायबघर
में स्टार्क
पक्षी के पा स
वह बूढ़ी गयी।
उन बच्चों ने
पूछा—यह
कौन-सा पक्षी
है? उस
बूढ़ी ने कहा—यह
वही पक्षी है
जो बच्चों को
लाता है।
छोटे-छोटे
बच्चे हैं, वे एक दूसरे
की तरफ देखकर
हंसे, और एक
बच्चे ने अपने
पड़ौसी
बच्चे से कहा
कि क्या इस ना
समझ बूढ़ी को
हम असली राज
बता दें? मे
वी टैल हर
दि रियल
सीक्रेट, दिस
पुअर ओल्ड
लेडी। इसको
अभी तक पता
नहीं इस गरीब
को, यह अभी स्टार्क
पक्षी से समझ
रही है कि
बच्चे आते
हैं।
चारों
तरफ की हवा, चारों
तरफ का
वातावरण बहुत
छोटे-छोटे
बच्चों के मन
में एक मानसिक
कामातुरता
को जगा देता
है। फिर यह
मानसिक कामातुरता
उनके ऊपर हावी
हो जाती है, यह जीवनभर
पीछा करती है।
और उन्हें पता
ही नहीं चलेगा
कि जो बायोलाजिकल
अर्ज थी, वह
जो जैविक
वासना थी, वह
उठ ही नहीं
पायी, या
जब उठी तब
उन्हें पता
नहीं चला। और
तब एक अदभुत
घटना घटेगी, और वह अदभुत
घटना यह है कि
वे कभी तृप्त
न होंगे।
क्योंकि
मानसिक
कामवासना कभी
तृप्त नहीं हो
सकती है, जो
वास्तविक
नहीं है वह
तृप्त नहीं हो
सकता। असली
भूख तृप्त हो
सकती है; झूठी
भूख तृप्त
नहीं हो सकती।
इसलिए
वासनाएं तो
तृप्त हो सकती
हैं लेकिन
हमारे द्वारा
जो कल्टीवेटेड
डिजायर्स
हैं, हमने
ही जो आयोजन
कर ली हैं
वासनाएं, वे
कभी तृप्त
नहीं हो
सकतीं।
इसलिए
पशु-पक्षी, वे
भी वासनाओं
में जीते हैं,
लेकिन
हमारे जैसे
तना वग्रस्त
नहीं हैं। कोई
तनाव नहीं
दिखाई पड़ता
उनमें। गाय की
आंख में झांककर
देखिए, वह
कोई
निर्वासना को
उपलब्ध नहीं
हो गयी है, कोई
ऋमुनि
नहीं हो गई है,
कोई तीर्थकर
नहीं हो गयी
है, पर
उसकी आंखों
में वही सरलता
होती है जो तीर्थकर
की आंखों में
होती है। बात
क्या है? वह
तो वासना में
जी रही है।
लेकिन फिर भी
उसकी वासना
प्राकृतिक
है।
प्राकृतिक
वासना तनाव नहीं
लाती है। ऊपर
नहीं ले जा
सकती
प्राकृतिक
वासना, लेकिन
नीचे भी नहीं
गिराती। ऊपर
जाना हो तो प्राकृतिक
वासना से ऊपर
उठना होता है।
लेकिन अगर
नीचे गिरना हो
तो प्राकृतिक
वासना के ऊपर
अप्राकृतिक
वासना को
स्थापित करना
होता है।
तो
अनशन को
महावीर ने
पहले कहा था
कि झूठी भूख टूट
जाए,
असली भूख का
पता चल जाए, जब रोयां-रोयां
पुकारने लगे।
आपको प्यास
लगती है।
जरूरी नहीं है
कि वह प्यास
असली हो। हो
सकता है अखबार
में कोके
का ऐडवरटाइजमेंट
देखकर लगी हो।
जरूरी नहीं है
कि वह प्यास
वास्तविक हो।
अखबार में
देखकर भी—लिव्वा
लिटिल हाट लग
गयी हो। वैज्ञानिक,
विशेषकर
विज्ञापन
विशेषज्ञ
भली-भांति
जानते हैं कि
आपको झूठी प्यासें
पकड़ायी
जा सकती हैं
और वे आपको
झूठी प्यासें
पकड़ा रहे हैं।
आज जमीन पर
जितनी चीजें
बिक रही हैं, उनकी कोई
जरूरत नहीं
है। आज
करीब-करीब
दुनिया की
पचास प्रतिशत इंडसटरी
उन जरूरतों को
पूरा करने में
लगी हैं जो
जरूरतें हैं
ही नहीं। पर वे
पैदा की जा
सकती हैं।
आदमी को राजी
किया जा सकता
है कि जरूरतें
हैं। और एक
दफा उसके मन
में खयाल आ
जाए कि जरूरत
है, तो
जरूरत बन जाती
है।
प्यास
तो आपको पता
ही नहीं है, वह
तो कभी
रेगिस्तान
में कल्पना
करें कि किसी रेगिस्तान
में भटक गए
हैं आप। पानी
का कोई पता नहीं
है। तब आपको
प्यास लगेगी,
वह आपके
रोएं-रोएं की
प्यास होगी।
वह आपके शरीर
का कण-कण मांगेगा।
वह मानसिक
नहीं हो सकता,
वह किसी
अखबार के
विज्ञापन को
पढ़कर नहीं लगी
होगी। तो अनशन
आपके भीतर
वास्तविक को उघाड़ने
में सहयोगी
होगा। और जब
वास्तविक उघड़
जाए तो महावीर
कहते हैं, ऊणोदरी।
जब वास्तविक उघड़ जाए तो
वास्तविक से
कम लेना।
जितनी
वास्तविक—अवास्तविक
भूख को तो
पूरा करना ही
मत, वह तो
खतरनाक है।
वास्तविक भूख
का जब पता चल जाए
तब वास्तविक
भूख से भी
थोड़ा कम लेना,
थोड़ी जगह
खाली रखना। इस
खाली रखने में
क्या राज हो
सकता है? आदमी
के मन के नियम
समझना जरूरी
है।
हमारे
मन के नियम
ऐसे हैं कि हम
जब भी कोई काम
में लगते हैं, या
किसी वासना की
तृप्ति में या
किसी भूख की तृप्ति
में लगते हैं,
तब एक सीमा
हम पार करते
हैं। वहां तक
भूख या वासना
ऐच्छिक होती
है, वालंटरी होती है। उस
सीमा के बाद नानवालंटरी
हो जाती है।
जैसे हम पानी
को गर्म करते
हैं। पानी सौ डिग्री
पर जाकर भाप
बनता है।
लेकिन अगर आप
निन्यानबे
डिग्री पर रुक
जाएं तो पानी
वापस पानी ही
ठण्डा हो
जाएगा। लेकिन
अगर आप सौ डिग्री
के बाद रुकना
चाहें तो फिर
पानी वापस नहीं
लौटेगा, वह
भाप बन चुका
होगा। एक
डिग्री का
फासला फिर लौटने
नहीं देगा, फिर नो-रिटर्न
प्वाइंट आ
जाता है। अगर
आप सौ डिग्री
के पहले
निन्यानबे
डिग्री पर रुक
गए तो पानी गर्म
होकर फिर ठंडा
होकर पानी रह
जाएगा। भाप नहीं
बनेगा। आप रुक
सकते हैं, अभी
रुकने का उपाय
है। सौ डिग्री
के बाद अगर आप
रुकते हैं तो
पानी भाप बन
चुका होगा।
फिर पानी आपको
मिलेगा नहीं।
आपके हाथ के
बाहर बात हो
गयी।
जब आप
क्रोध के
विचार से भरते
हैं,
तब भी एक
डिग्री आती है,
उसके पहले
आप रुक सकते
थे। उस डिग्री
के बाद आप
नहीं रुक
सकेंगे
क्योंकि आपके
भीतर वालंटरी
मेकेनिज्म
जब अपनी
वृत्ति को नानवालंटरी
मेकेनिज्म
को सौंप देता
है, फिर
आपके रुकने के
बाहर बात हो
जाती है। इसे
ठीक से समझ
लें। जब
ऐच्छिक यंत्र
सबसे पहले
आपके भीतर कोई
भी चीज इच्छा
की भांति शुरू
होती है। एक
सीमा है, अगर
आप इच्छा को बढ़ाए ही
चले गए तो एक
सीमा पर इच्छा
का यंत्र आपके
भीतर जो आपकी
इच्छा के बाहर
चलनेवाला
यंत्र है, उसको
सौंप देता है।
उसके हाथ में
जाने के बाद आप
नहीं रोक
सकते। अगर आप
क्रोध एक सीमा
के पहले रोक
लिए तो रोक
लिए, एक
सीमा के बाद
क्रोध नहीं
रोका जा सकेगा,
वह प्रगट
होकर रहेगा।
अगर आपने
कामवासना को एक
सीमा पर रोक
लिया तो ठीक, अन्यथा एक
सीमा के बाद
कामवासना आ पके
ऐच्छिक यंत्र
के बाहर हो
जाएगी। फिर आप
उसको नहीं रोक
सकते। फिर आप
विक्षिप्त की
तरह उसको पूरा
करके ही
रहेंगे, फिर
उसे रोकना
मुश्किल है।
ऊणोदरी का
अर्थ है—ऐच्छिक
यंत्र से
अनैच्छिक
यंत्र के हाथ
में जब जाती
है कोई बात तो
उसी सीमा पर
रुक जाना। इसका
मतलब इतना ही
नहीं है केवल
कि आप तीन
रोटी रोज खाते
हैं तो आज ढाई
रोटी खा लेंगे
तो ऊणोदरी
हो जाएगी।
नहीं, ऊणोदरी का अर्थ है —
इच्छा के भीतर
रुक जाना, आपकी
सामर्थ्य के
भीतर रुक जाना
। अपनी सामर्थ्य
के बाहर किसी
बात को न जाने
देना, क्योंकि
आपकी
सामर्थ्य के
बाहर जाते ही
आप गुलाम हो
जाते हैं। फिर
आप मालिक नहीं
रह जाते।
लेकिन मन पूरी
कोशिश करेगा
कि क्लाइमेक्स
तक ले चलो, किसी
भी चीज को
उसके चरम तक
ले चलो।
क्योंकि मन को
तब तक तृप्ति
नहीं मालूम
पड़ती जब तक
कोई चीज चरम
पर न पहुंच
जाये। और मजा
यह है कि चरम
पर पहुंच जाने
के बाद सिवाय
विषाद, फ्रसटरेशन के कुछ हाथ
नहीं लगता।
तृप्ति हाथ
नहीं लगती।
अगर मन ने
भोजन के संबंध
में सोचना
शुरू किया तो
वह उस सीमा तक
खायेगा जहां
तक खा सकता
है। और फिर
दुखी, परेशान
और पीड़ित
होगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने बुढ़ापे
में अपने गांव
में मजिसटरेट
हो गया। पहला
जो मुकदमा
उसके हाथ में
आया वह एक
आदमी का था जो
करीब-करीब
नग्न, सिर्फ अंडरवियर
पहने अदालत
में आकर खड़ा
हुआ । और उसने
कहा कि मैं
लूट लिया गया
हूं और
तुम्हारे
गांव के पास ही
लूटा गया हूं।
मुल्ला
ने कहा—मेरे
गांव के पास
ही लूटे गए हो? क्या-क्या
तुम्हा
रा लूट लिया
गया है?
उसने
सब फेहरिश्त
बतायी।
मुल्ला ने कहा—लेकिन
जहां तक मैं
देख सकता हूं, तुम
अंडरवियर
पहने हुए हो।
उसने
कहा—हां, मैं अंडरवियर
पहने हुए हूं।
मुल्ला
ने कहा—मेरी
अदालत
तुम्हारा
मुकदमा लेने
से इनकार करती
है। वी नैवर
डू ऐनीथिंग
हाफ-हाटर्डली
एण्ड पार्शियली।
हमारे गांव
में कोई आदमी
आधा काम नहीं
करता, न आधे
हृदय से काम
करता है। अगर
हमारे गांव में
लूटे गये थे
तो अंडरवियर
भी निकाल लिया
गया होता। तुम
किसी और गांव
के आदमियों के
द्वारा लूटे
गए हो।
तुम्हारा मुकदमा
लेने से मैं
इनकार करता
हूं। ऐसा कभी
हमारे गांव
में हुआ ही
नहीं है। जब
भी हम कोई काम
करते हैं, हम
पूरा ही करते
हैं।
जिस
गांव में हम
रहते हैं —
इच्छाओं के
जिस गांव में
हम रहते हैं
वहां भी हम
पूरा ही काम
करते हैं।
वहां भी इंच
भर हम पहले
नहीं लौटते।
और चरम के बाद
सिवाय विषाद
के कुछ हाथ
नहीं लगता।
लेकिन जैसे ही
हम किसी वासना
में बढ़ना शुरू
करते हैं, वासना
खींचती है, और जितना हम
आगे बढ़ते हैं,
उसके
खींचने की
शक्ति बढ़ती
जाती है और हम
कमजोर होते
चले जाते हैं।
महावीर
कहते हैं—चरम
पर पहुंचने के
पहले रुक
जाना। उसका
मतलब यह है कि
जब किसी को
क्रोध इतना आ
गया हो कि वह
हाथ उठाकर आपको
चोट ही मारने
लगे—तब महावीर
कहते हैं—जब
हाथ दूसरे के
सिर के करीब
ही पहुंच जाए
तब रुक जाना।
तब तुम्हारी
मालकियत का
तुम्हें अनुभव
होगा। उस वक्त
रुकना
सर्वाधिक
कठिन है। बहुत
कठिन है। उस
वक्त मन कहेगा—अब
क्या रुकना?
मुसलमान
खलीफा अली के
संबंध में एक
बहुत अदभुत
घटना है।
युद्ध के
मैदान में लड़
रहा है। वर्षो
से यह युद्ध
चल रहा है। वह
घड़ी आ गयी जब
उसने अपने
दुश्मन को
नीचे गिरा
लिया और उसकी
छाती पर बैठ
गया और उसने
अपना भाला
उठाया और उसकी
छाती में
भोंकने को है।
एक क्षण की और
देर थी कि
भाला दुश्मन
की छाती में आरपार
हो जाता। उस
दुश्मन की, जो
वर्षो से
परेशान किए
हुए था और इसी
क्षण की
प्रतीक्षा थी
अली को। लेकिन
उस नीचे पड़े
दुश्मन ने, जैसे ही
भाला अली ने
भोंकने के लिए
उठाया, अली
के मुंह पर
थूक दिया। अली
ने अपना मुंह
पर पड़ा थूक
पोंछ लिया, भाला वापस
अपने स्थान पर
रख दिया, और
उस आदमी से
कहा कि कल अब
हम फिर
लड़ेंगे। पर उस
आदमी ने कहा—यह
मौका अली तुम
चूक रहे हो।
मैं तुम्हारी
जगह होता तो
नहीं चूक सकता
था। इसकी तुम वर्षो
से प्रतीक्षा
करते थे। मैं
भी प्रतीक्षा
करता था।
संयोग कि तुम
ऊपर हो, मैं
नीचे हूं।
प्रतीक्षा
मेरी भी यही
थी। अगर तुम्हारी
जगह मैं होता
तो यह उठा हुआ
भाला वापस
नहीं लौट सकता
था। इसी के
लिए तो दो
वर्ष से परेशान
हैं। तुम
क्यों छोड़ कर
जा रहे हो?
अली ने
कहा—मुझे
मुहम्मद की
आज्ञा है कि
अगर हिंसा भी
करो तो क्रोध
में मत करना।
हिंसा भी करो
तो क्रोध में
मत करना। एक तो
हिंसा करना मत
और अगर हिंसा
भी करो तो
क्रोध में मत
करना। अभी तक
मैं शान्ति से
लड़ रहा था।
लेकिन तेरा
मेरे ऊपर थूक
देना, मेरे मन
में क्रोध उठ
आया। अब कल हम
फिर लड़ेंगे।
अभी तक मैं
शान्ति से लड़
रहा था, अभी
तक कोई क्रोध
की आग न थी।
ठीक था, सब
ठीक था।
निपटारा करना
था, कर रहा
था। हल
निकालना था, निकाल रहा
था। लेकिन कोई
क्रोध की लपट
न थी। लेकिन
तूने थूककर
क्रोध की लपट
पैदा कर दी।
अब अगर इस
वक्त मैं तुझे
मारता हूं तो
यह मारना
व्यक्तिगत और
निजी है। मैं
मार रहा हूं
अब। अब यह
लड़ाई किसी
सिद्धान्त की
लड़ाई नहीं है।
इसलिए अब कल
फिर लड़ेंगे।
कल तो
वह लड़ाई नहीं
हुई क्योंकि
उस आदमी ने अली
के पैर पकड़ लिए।
उसने कहा—मैं
सोच भी नहीं
सकता था कि वर्षो
के दुश्मन की
छाती के पास
आया हुआ भाला
किसी भी कारण
से ला ट सकता
है,
और ऐसे समय
में तो लौट ही
नहीं सकता जब
मैंने थूका था,
तब तो और
जोर से चला
गया होता।
मन के
नियम हैं। ऊणोदरी
का अर्थ है—जहां
मन सर्वाधिक
जोर मारे, उसी
सीमा से वापस
लौट जाएं।
जहां मन कहे
कि एक और, और
जहां
सर्वाधिक जोर
मारता हो। अब
इस सन्तुलन को
खोजना पड़ेगा।
इसे रोज-रोज
प्रयोग करके
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
भीतर खोज लेगा
कि कब मन बहुत
जोर मारता है,
और कब इच्छा
के बाहर बात
हो जाती है।
फिर ऐसा नहीं
होता कि आप
मार रहे हैं, ऐसा होता है
कि आपसे मारा
जा रहा है।
फिर ऐसा नहीं
होता कि आपने
चांटा मारा, फिर ऐसा
होता है कि अब
आप चांटा मारने
से रुक ही न
सकते थे। वही
जगह लौट आने
की है, वही ऊण की जगह
है। वहीं से
वापस लौट आने
का नाम है अपूर्ण
पर छूट जाना।
ऊणोदरी का
अर्थ है—अपूर्ण
रह जाए उदर, पूरा
न भर पाए। तो
आप चार रोटी
खाते हैं, तीन
खा लें तो
उससे कुछ ऊणोदरी
नहीं हो
जाएगी। पहले
वास्तविक भूख
खोज लें, फिर
वास्तविक भूख
को खोजकर भोजन
करने बैठें।
किसी भी
इंद्रिय का
भोजन हो, यह
सवाल नहीं है।
फिल्म देखने
आप गए हैं।
नब्बे
प्रतिशत
फिल्म आपने
देख ली है, तभी
असली वक्त आता
है जब छोड़ना
बहुत मुश्किल
हो जाता है
क्योंकि अन्त
क्या होगा!
लोग उपन्यास
पढ़ते हैं, तो
अधिक लोग पहले
अंत पढ़ लेते
हैं कि अंत
क्या होगा!
इतनी
जिज्ञासा मन
की होती है
अंत की । पहले
अन्त पढ़ लेते
हैं, फिर
शुरू करते
हैं। लेकिन
उपन्यास पढ़
रहे हैं और दो
पन्ने रह गए
हैं और डिटेक्टिव
कथा है और अब
इन दो पन्नों
में ही सारा
राज खुलने को
है, और आप
रुक जाएं तो ऊणोदरी
है। ठहर जाएं,
मन बहुत
धक्के मारेगा
कि अब तो मौका
ही आया था जानने
का। यह इतनी
देर तो हम
केवल भटक रहे
थे, अब राज
खुलने के करीब
था। डिटेक्टिव
कथा थी, अब
तो राज खुलता।
अभी रुक जाएं
और भूल जाएं।
फिल्म
देख रहे हैं, आखिरी
क्षण आ गया
है। अभी सब
चीजें क्लाइमेक्स
को छूएंगी।
उठ जाएं और
लौटकर याद भी
न आए कि अंत
क्या हुआ होगा।
किसी से पूछने
को भी न जाएं
कि अंत क्या हुआ।
ऐसे चुपचाप
उठकर चले जाएं,
जैसे अंत हो
गया। ऊणोदरी
का अर्थ आपके
खयाल में
दिलाना चाहता
हूं। ऐसे उठकर
चले जाएं अंत
होने के पहले,
जैसे अंत हो
गया। तो आपको
अपने मन पर एक
नए ढंग का
काबू आना शुरू
हो जाएगा। एक
नई शक्ति आपको
अनुभव होगी।
आपकी सारी
शक्ति की
क्षीणता, आपकी
शक्ति का खोना,
डिस्सीपेशन,
आपकी शक्ति
का रोज-रोज
व्यर्थ नष्ट
होना, आपकी
मन की इस आदत
के कारण है जो
हर चीज को
पूर्ण पर ले
जाने की कोशिश
में लगी है। महावीर
कहते हैं—पूर्ण
पर जाना ही
मत। उसके एक
क्षण पहले, एक डिग्री
पहले रुक
जाना। तो
तुम्हारी
शक्ति जो
पूर्ण को, चरम
को छूकर
बिखरती है आ र
खोती है, वह
नहीं बिखरेगी,
नहीं खोएगी।
तुम
निन्यानबे
डिग्री पर
वापस लौट आओगे,
भाप नहीं बन
पाओगे।
तुम्हारी
शक्ति फिर
संगृहीत हो
जाएगी।
तुम्हारे हाथ
में होगी, और
तुम धीरे-धीरे
अपनी शक्ति के
मालिक हो जाओगे।
इसे सब
तरफ प्रयोग
किया जा सकता
है। प्रत्येक इंद्रिय
का उदर है, प्रत्येक
इंद्रिय का
अपना पेट है, और प्रत्येक
इंद्रिय मांग
करती है कि
मेरी भूख को
पूरा करो। कान
कहते हैं संगीत
सुनो; आंख
कहती है
सौंदर्य देखो;
हाथ कहते
हैं कुछ
स्पर्श करो।
सब इंद्रियां
मांग करती हैं
कि हमें भरो।
प्रत्येक
इंद्रिय पर ऊण पर ठहर
जाना इंद्रिय
विजय का मार्ग
है। बिलकुल
ठहर जाना आसान
है। ध्यान रहे,
किसी उपन्यास
को बिलकुल न पढ़ना आसान
है। नहीं पढ़ा
बात खत्म हो
गयी। लेकिन किसी
उपन्यास को
अंत के पहले
तक पढ़कर रुक
जाना ज्यादा
कठिन है।
इसलिए ऊणोदरी
को नम्बर दो
पर रखा है।
किसी फिल्म को
न देखने में
इतनी अड़चन
नहीं है; लेकिन
किसी फिल्म को
देखकर और अंत
के पहले ही उठ
जाने में
ज्यादा अड़चन
है। किसी को
प्रेम ही नहीं
किया, इसमें
ज्यादा अड़चन
नहीं है; लेकिन
प्रेम अपनी
चरम सीमा पर
पहुंचे, उसके
पहले वापस लौट
जाना अति कठिन
है। उस वक्त
आप विवश हो
जाएंगे, आब्सेस्ड हो जाएंगे, उस वक्त तो
ऐसा लगेगा कि
चीज को पूरा
हो जाने दो।
जो भी हो रहा है
उसे पूरा हो
जाने दो। इस
वृत्ति पर
संयम मनुष्य
की शक्तियों
को बचाने की
अत्यंत
वैज्ञानिक
व्यवस्था है।
ऊणोदरी
अनशन का ही
प्रयोग है
लेकिन थोड़ा
कठिन है।
आमतौर से आपने
सुना और समझा
होगा कि ऊणोदरी
सरल प्रयोग
है।,,
जिससे अनशन
नहीं बन सकता
वह ऊणोदरी
करे। मैं आपसे
कहता हूं —ऊणोदरी
अनशन से कठिन
प्रयोग है।
जिससे अनशन बन
सकता है, वही
ऊणोदरी
कर सकता है।
महावीर
का तीसरा
सूत्र है, वृत्ति-संक्षेप।
वृत्ति-
संक्षेप से
परंपरागत जो
अर्थ लिया
जाता है वह यह
है कि अपनी
वृत्तियों और
वासनाओं को सिकोड़ना।
अगर दस कपड़ों
से काम चल
सकता है तो
ग्यारह पास
में न रखना।
अगर एक बार
भोजन से काम
चल सकता है तो
दो बार भोजन न
करना। ऐसा
साधारण अर्थ
है, लेकिन वह
अर्थ केन्द्र
से संबंधित न
होकर केवल
परिधि से
संबंधित है।
नहीं, महावीर
का अर्थ गहरा
है और दूसरा
है। इसे थोड़ा
गहरे में
समझना पड़ेगा।
वृत्ति-संक्षेप
एक प्रक्रिया
है। आपके भीतर
प्रत्येक
वृत्ति का केन्द्र
है—जैसे, सेक्स
का एक केन्द्र
है, भूख का
एक केन्द्र
है, प्रेम
का एक केन्द्र
है, बुद्धि
का एक केन्द्र
है। लेकिन
साधारणतः
हमारे सा रे केन्द्र
कंफयूज्ड
हैं क्योंकि
एक केन्द्र
का काम दूसरे केन्द्र
से हम लेते
रहते हैं।
दूसरे का
तीसरे से लेते
रहते हैं। काम
भी नहीं हो
पाता है, और
केन्द्र की
शक्ति भी व्यय
और व्यर्थ
नष्ट होती है।
गुरजिएफ कहा
करता था—गुरजिएफ
ने
वृत्ति-संक्षेप
के प्रयोग को
बहुत आधारभूत
बनाया था अपनी
साधना में।
गुरजिएफ कहा
करता था कि
पहले तो तुम
अपने
प्रत्येक केन्द्र
को स्पष्ट कर
लो और
प्रत्येक केन्द्र
के काम को उसी
को सौंप दो, दूसरे केन्द्र
से काम मत लो।
अब जैसे
कामवासना है
तो उसका अपना केन्द्र
है प्रकृति
में, लेकिन
आप मन से उस केन्द्र
का काम लेते
हैं, सेरिब्रल हो जाता है
सेक्स, मन
में ही सोचते
रहते हैं।
कभी-कभी तो
इतना से िरब्रल
हो जाता है कि
वास्तविक
कामवासना
उतना रस नहीं
देती, जितना
कामवासना का
चिंतन रस देता
है। अब यह बहुत
अजीब बात है।
यह ऐसा हुआ है
कि वास्तविक
भोजन रस नहीं
देता, जितना
भोजन का
चिन्तन रस
देता है। यह
ऐसे हुआ है कि
पहाड़ पर जाने
में उतना मजा
नहीं आता
जितना घर
बैठकर पहाड़ पर
जाने के संबंध
में सोचने में,
सपने देखने
में मजा आता
है।
और हम
प्रत्येक केन्द्र
को ट्रांसफर
करते हैं, दूसरे
केन्द्र पर
सरका देते हैं;
इससे खतरे
होते हैं। दो
खतरे होते हैं—एक
खतरा तो यह
होता है कि
जिस केन्द्र
का काम नहीं
है, अगर उस
पर हम कोई
दूसरा काम डाल
देते हैं तो
वह उसे पूरी
तरह तो कर
नहीं सकता, वह उसका काम
नहीं है। वह
कभी नहीं कर
सकता। इसलिए
सदा अतृप्त
बना रहेगा, तृप्त कभी
नहीं हो सकता
है। कहीं
बुद्धि से सोच-सोचकर
भूख तृप्त हो
सकती है? कहीं
कामवासना का चितन कामवासना
को तृप्त कर
सकता है? कैसे
करेगा, वह
उस केन्द्र
का काम ही
नहीं है। वह
तो ऐसा है
जैसे कोई आदमी
सिर के बल
चलने की कोशिश
करे। काम पैर
का है, वह
सिर से चलने
की कोशिश करे।
तो दोहरे
दुष्परिणाम
होंगे। जिस केन्द्र
से आप दूसरे केन्द्र
का काम ले रहे
हैं, वह कर
नहीं सकता है,
एक। जो वह
कर सकता था वह
भी नहीं कर
पाएगा। क्योंकि
आप उसको ऐसे
काम में लगा
रहे हैं, उसकी
शक्ति उसमें
व्यय हो तो जो
वह कर सकता था,
नहीं कर
पाएगा। और जिस
केन्द्र से
आपने का म छीन
लिया है, उस
पर शक्ति
इकट्ठी होती
रहेगी। वह
धीरे-धीरे विक्षिप्त
होने लगेगा, क्योंकि
उससे आप काम
नहीं ले रहे
हैं। आप पूरे
के पूरे कंफयूज्ड
हो जाएंगे। आप
का
व्यक्तित्व
एक उलझाव हो
जाएगा, एक
सुलझाव नहीं।
गुरजिएफ
कहता था—प्रत्येक
केन्द्र को
उसके काम पर
सीमित कर दो।
महा वीर का
वृत्ति-संक्षेप
से यही अर्थ
है। प्रत्येक
वृत्ति को
उसके केन्द्र
पर संक्षिप्त
कर दो, उसके केन्द्र
के आसपास मत
फैलने दो, मत
भटकने दो। तो
व्यक्तित्व
में एक सुगढ़ता
आती है, स्पष्टता
आती है और आप
कुछ भी करने
में समर्थ हो
पाते हैं।
अन्यथा हमारी
सारी
वृत्तियां करीब-करीब
बुद्धि के
आसपास इकट्ठी
हो गयी हैं। तो
बुद्धि जिस
काम को कर
सकती है वह
नहीं कर पाती
है, क्योंकि
आप उससे दूसरे
काम ले रहे
हैं। और जो काम
आप ले रहे हैं
वह बुद्धि कर
नहीं सकती क्योंकि
वह उसकी
प्रकृति के
बाहर है, वह
उसका काम नहीं
है। इस दुनिया
में जो इतनी बुद्धिहीनता
है उसका कारण
यह नहीं है कि
इतने बुद्धिहीन
आदमी पैदा
होते हैं। इस
दुनिया में जो
इतनी स्टुपिडिटी
दिखाई पड़ती है,
इतनी जड़ता
दिखाई पड़ती है,
उसका यह
कारण नहीं है
कि इतने
बुद्धि रिक्त
लोग पैदा होते
हैं, उसका
कुल कारण इतना
है कि बुद्धि जो
काम कर सकती
है वह आप उससे
लेते नहीं। जो
नहीं कर सकती
है वह आप उससे
लेते हैं।
बुद्धि
धीरे-धीरे मंद
होती चली जाती
है।
थोड़ा
सोचें—कितने
आदमी दुनिया
में लंगड़े हैं, या
कितने आदमी
दुनिया में
अंधे हैं, या
कितने आदमी
दुनिया में
बहरे हैं? अगर
दुनिया में
बुद्धू भी
होंगे तो वही
अनुपात होगा,
उससे
ज्यादा नहीं
हो सकता।
लेकिन बुद्धू
बहुत दिखाई
पड़ते हैं।
बुद्धि
नाममात्र को
पता नहीं
चलती। क्या
कारण हो सकता
है, इतनी
बुद्धि की कमी
का? इसकी
कमी का कारण
यह नहीं है कि
बुद्धि कम है,
इसकी कमी का
कुल कारण इतना
है कि बुद्धि
से जो काम
लेना था वह
आपने लिया
नहीं, जो
नहीं लेना था
वह आपने लिया
है। इससे
बुद्धि
धीरे-धीरे जड़ता
को उपलब्ध हो
जाती है। मनसविद
कहते हैं कि
प्रत्येक
व्यक्ति
प्रतिभा लेकर पैदा
होता है, और
प्रत्येक
व्यक्ति जड़
होकर मरता है।
बच्चे प्रतिभाशाली
पैदा होते हैं
और बूढ़े प्रतिभाहीन
मरते हैं।
होना उल्टा
चाहिए कि
जितनी
प्रतिभा लेकर
बच्चा पैदा हुआ
था उसमें और
निखार आता, अनुभव उसमें
और रंग जोड़ते।
जीवन की
यात्रा उसको
और प्रगाढ़
करती। पर यह
नहीं होता।
पिछले
महायुद्ध में
दस लाख
सैनिकों का
बुद्धि माप
किया गया तो
पाया गया कि साढ़े तेरह
वर्ष उनकी
मानसिक आयु थी
— मानसिक आयु साढ़े तेरह
वर्ष थी। उनकी
उम्र पचास साल
होगी शरीर से, किसी
की चालीस होगी,
किसी की तीस
होगी और तब
बहुत हैरान
करनेवाला निष्कर्ष
अनुभव में आया
कि शरीर तो
बढ़ता जाता है
और बुद्धि
मालूम होती है,
तेरह-चौदह
के करीब ठहर
जाती है। उसके
बाद नहीं
बढ़ती।
मगर यह
औसत है। इस
औसत में
बुद्धिमान
सम्मिलित हैं।
यह औसत वैसे
ही है जैसे
हिन्दुस्तान
में आम आदमी
की औसत आमदनी
का पता लगाया
जाए तो उसमें बिड़ला भी
और डालमियां
भी और साहू भी
सब सम्मिलित
होंगे। और जो
औसत निकलेगी
वह आम आदमी की
औसत नहीं है
क्योंकि उसमें
धनपति भी सम्मिलित
होंगे। अगर हम
धनपतियों
को अलग कर दें
और आम आदमी की
औसत पता लगाएं
तो बहुत कम
पायी जायेगी, वह
बहुत कम हो
जाएगी। नेहरू
और लोहिया के
बीच वही विवाद
वर्षो तक चलता
रहा
पार्लियामेंट
में। क्योंकि
नेहरू जितना
बताते थे, लोहिया
उससे बहुत कम
बताते थे।
लोहिया कहते थे—पांच-दस
आदमियों को
छोड़ दें, ये
औसत आदमी नहीं
हैं, इनका
क्या हिसाब
रखना है! फिर
बाकी को सोच
लें तो फिर
बाकी के पास
तो नए पैसे
में ही आमदनी
रह जाती है।
फिर कोई आमदनी
नहीं रह जाती।
लेकिन अगर
सबकी आमदनी
बांट दी जाए
तो ठीक है।
सबके पास
आमदनी दिखाई
पड़ती है, वह
है नहीं।
यह जो
तेरह-साढ़े
तेरह वर्ष
उम्र है, इसमें
आइंस्टीन भी
संयुक्त हो
जाता है, इसमें
बट्रेड
रसल भी
संयुक्त हो
जाता है। यह
औसत है। इसमें
वे सारे लोग
सम्मिलित हो
जाते हैं जो
शिखर छूते हैं
बुद्धि का।
इसमें बुद्धिहीनों
के पास भी औसत
में थोड़ा-सा
हिस्सा आ जाता
है। इसमें
शिखर के लोगों
को छोड़ दें।
अगर जमीन पर
सौ अदमियों
को छोड़ दिया
जाए किसी भी
युग में तो आम
आदमी के पास
बुद्धि की
मात्रा इतनी
कम रह जाती है
कि उसको गणना
करने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। उससे कुछ
नहीं होता।
उससे इतना ही
होता है, आप
अपने घर से दफतर
चले जाते हैं,
दफतर से घर आ जाते
हैं। उससे
इतना ही होता
है कि दफतर
का आप ट्रिक
सीख लेते हैं
कि क्या क्या
करना है। उतना
करके लौट आते
है। घर में भी
आप ट्रिक
सीख लेते हैं।
कि क्या-क्या
बोलना, उतना
बोलकर आप
अपना काम चला
लेते हैं। यह
तो मशीन भी कर
सकती है, और
आ पसे बेहतर
ढंग से कर
सकती है।
इसलिए जहां भी
मशीन और आदमी
में काम्पटीशन
होता है, आदमी
हार जाता है।
जहां भी मशीन
से प्रतियोगिता
हुई कि आप गए।
मशीन से आप
कहीं नहीं जीत
सकते। जिस दिन
आपकी जिस सीमा
में मशीन से
प्रतियोगिता
होती है, उसी
दिन आदमी
बेकार हो जाते
हैं।
अब
अमरीका के
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
बीस साल के
भीतर आदमी के
लिए कोई काम
नहीं रह जाएगा
क्योंकि
मशीनें सभी
काम ज्यादा
बेहतर ढंग से
कर सकती हैं।
और सबसे बड़ा
सवाल जो उनके
सा मने है
वह यही है कि
बीस साल बाद
हम आदमी का
क्या करेंगे
और इससे क्या
काम लेंगे? अगर
यह बेकाम हो
जाएगा तो
उपद्रव
करेगा। इससे कुछ
न कुछ तो काम
लेना ही
पड़ेगा। हो
सकता है काम
ऐसे लेना पड़े
इस आदमी से
जैसा घर-घर
में बच्चे
उपद्रव करते
हैं तब खिलौने
पकड़ाकर
काम लिया जाता
है। बस इतना
ही काम लेना
पड?गा कि
कुछ खिलौने
आपको पकड़ाने
पड़ें। जिनमें
आप घुंघरू
वगैरह बजाते
रहें। वह आपके
लिए जरा बड़े
ढंग के खिलौने
होंगे।
बिलकुल बच्चे जैसे
नहीं होंगे, क्योंकि
उसमें आप
नाराज होंगे।
बाकी
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
बच्चों के खिलौनों
में और बड़े
आदमियों के
खिलौनों में
सिर्फ कीमत का
फर्क होता है, और
कोई फर्क नहीं
होता। वह गुड़िया
से खेलते रहते
हैं, आप एक
स्त्री से
खेलते रहते
हैं। जरा कीमत
का फर्क होता
है। यह जरा
महंगा खिलौना
है। बाकी खेल
वही है।
वृत्ति-संक्षेप
का अर्थ है—दो
कारणों से
वृत्ति-संक्षेप
पर महावीर का
जोर है—एक तो
प्रत्येक काम
को,
प्रत्येक
वृत्ति को
उसके केन्द्र
पर कंसंट्रेट
कर देना है।
सबसे पहली तो
जरूरत इसलिए
है कि जो
वृत्ति अपने केन्द्र
पर संग्रहीत
हो जाती है, कंसंट्रेट हो जाती है, एकाग्र हो
जाती है, आपको
उसके
वास्तविक
अनुभव मिलने
शुरू होते हैं।
और वास्तविक
अनुभव से
मुक्त हो जाना
बहुत आसान है।
यह वास्तविक
अनुभव बहुत
दुखद है। स्त्री
की कल्पना से
मुक्त होना
बहुत कठिन है,
क्योंकि धन
के ढेर से
मुक्त हो जाना
बहुत आसान है।
कल्पना से
मुक्त होना
कठिन है
क्योंकि कल्पना
कहीं फ्रसटरेट
ही नहीं होती,
कल्पना तो
दौड़ती चली
जाती है, कोई
अंत ही नहीं
आता। कहीं ऐसा
नहीं होता
जहां कल्पना
थक जाए, टूट
जाए, हार
जाए।
वास्तविकता
का तो हर जगह
अंत आ जाता है।
हर चीज टूट
जाती है।
प्रत्येक
वृत्ति अपने केन्द्र
पर आ जाए तो
इतनी सघन हो
जाती है कि
आपको उसके वास्तविक,
एक्चुअल अनुभव होने
शुरू होते
हैं। और जितना
वास्तविक
अनुभव हो उतनी
ही जल्दी
छुटकारा है, क्योंकि
उसमें कोई रस
नहीं रह जाता।
आपको पता चलता
है, वह
सिर्फ पागल मन
की दौड़ थी, कुछ
रस था नहीं।
आपने सोचा था,
कल्पना की
थी, कोई रस
था नहीं।
एक
अनूठी घटना
अमेरिका में
इधर पिछले दस वर्षो
में घटना शुरू
हुई है।
हिप्पी और
बीटल और बीटनिक, इनके
कारण एक अनूठी
घटना शुरू हुई
है। वह यह है
कि पहली दफे
हिप्पियों ने कामवा सना
को मुक्त भाव
से भोगने का
प्रयोग किया—मुक्त
भाव से।
जिन्होंने यह
प्रयोग दस साल
पहले शुरू
किया था, उन्होंने
सोचा था, बड़ा
आनंद उपलब्ध
होगा।
क्योंकि
जितनी स्त्रियां
चाहिए, या
जितने पुरुष
चाहिए, जितने
संबंध बनाने
हैं उतने
संबंध बनाने
की स्वतंत्रता
है। कोई ऊपरी
बाधा नहीं है,
कोई कानून
नहीं है, कोई
अदालत नहीं है,
कोई ऊपरी
बाधा नहीं है,
दो
व्यक्तियों
की निजी
स्वतंत्रता
है। लेकिन दस
साल में जो
सबसे हैरानी
का अनुभव
हिप्पियों को
हुआ है वह यह
कि सेक्स
बिलकुल ही
बेमानी मालूम
पड़ने लगा, मीनिंगलैस। उसमें कोई
मतलब ही नहीं
रहा।
दस
हजार साल
पति-पत्नियों
वाली दुनिया
में सेक्स मीनिंगफुल
बना रहा , और दस
साल में
पति-पत्नी का
हिसाब छोड़ दें,
और सेक्स मीनिंगलैस
हो जाता है।
बात क्या है? बहुत तरह के
प्रयोग
हिप्पियों ने
किए और सब
प्रयोग बेमानी
हो जाते।
ग्रुप मैरिज—
कि आठ लड़के और
आठ लड़कियां
शादी कर लेते
हैं — ग्रुप
मैरिज, एक
दूसरे ग्रुप
से मैरिज कर
रहा है, एक
व्यक्ति
दूसरे
व्यक्ति से
नहीं। अब
इनमें से जो
जिससे राजी
होगा, जिस
तरह राजी होगा,
जिस तरह भी
होगा — यह पति
का ग्रुप है
दस का या आठ का,
या पत्नी का
आठ का, ये
दोनों ग्रुप
इकट्ठे हो गए,
अब यह एक
फैमिली है। अब
इसमें सब पति
हैं, सब पत्नियां
हैं। ग्रुप
सेक्स ने इस
बुरी तरह
अनुभव दिए कि
अभी मैं एक
अनुभवी
व्यक्ति का, जो इन सारे
अनुभवों से
गुजरा, संस्मरण
पढ़ रहा था। तो
उसने लिखा कि
अगर सेक्स में
रस वापस
लौटाना है तो
वह पति-पत्नी
वाली दुनिया
बेहतर थी।
सेक्स में रस
वापस लौटाना —
आप सोचते
होंगे, ये
अनैतिक हैं।
आप सोचते
होंगे, यह
सब अनीति चल
रही है। लेकिन
आप हैरान
होंगे कि जब
भी कोई अनुभव
पूरे रूप से
मिलता है तो
आप उसके बाहर
हो जाते हैं।
असल में सेक्स
में रस बचाने
के लिए परिवार
और दाम्पत्य
और विवाह की
व्यवस्था है।
ध्यान रहे, जिन मुल्कों
में
स्त्रियां
बुक ओढ़ती
हैं, उस
मुल्क में
जितनी
स्त्रियां
सुंदर होती हैं
उतनी उस मुल्क
में नहीं
होतीं, जहां
बुक नहीं ओढ़तीं।
नसरुद्दीन की
जब शादी हुई
और पत्नी का
बुर्का उसने
पहली दफे उघा
ड़ा तो वह
घबरा गया।
क्योंकि बुक
में ही देखा
था इसको। बड़े
सौंदर्य की
कल्पनाएं की
थीं। और जैसे
सभी बुक उघाड़ने
पर सौंदर्य
बिदा हो जाता
है,
ऐसा ही बिदा
हो गया। घबरा
गया। मुसलमान
रिवाज है कि
पत्नी पति के
घर आकर पहली
बार यह पूछती
है उससे कि
मुझे तुम
किन-किन के
सामने बुर्का उघाड़ने की
आज्ञा देते हो?
पत्नी ने
पूछा। नसरुद्दीन
ने कहा—जब तक
कि तू मेरे
सामने न उघाड़े
और किसी के भी
सामने उघाड़।
इतना ही ध्यान
रखना कि अब
दुबारा दर्शन
मुझे मत देना।
जो
चीजें उघड़
जाती हैं, अर्थहीन
हो जाती हैं।
जो चीजें ढंकी
रह जाती हैं, अर्थपूर्ण
हो जाती हैं।
आपने शरीर के
जिन-जिन अंगों
को ढांक
लिया है उनको
अर्थ दिया है।
ढांक-ढांककर
आप अर्थ दे
रहे हैं। आप
सोच रहे हैं, ढांककर आप बचा रहे
हैं, लेकिन
सत्य यह है कि ढांककर आप
अर्थ दे रहे
हैं—यू आर क्रिएटिंग
मीनिंग।
कोई चीज ढांक
लो उसमें अर्थ
पैदा हो जाता
है। क्योंकि
कोई भी चीज ढांक
लो, आसपास
जो बुद्धुओं
की जमात है वह उघाड़ने को
उत्सुक हो
जाते हैं। उघाड़ने
की कोशिश में
अर्थ आ जाता
है। जितना उघाड़ने
की कोशिश चलती
है, उतनी
ढांकने की
कोशिश चलती
है। फिर अर्थ
बढ़ता चला जाता
है। चीजें अगर
सीधी और साफ
खुल जाएं तो
अर्थहीन हो
जाती हैं।
अमरीका
ने पहली दफा
समाज पैदा
किया है जो
समाज सेक्स से
मुक्त एक अर्थ
में हो गया कि
उसमें अर्थ
नहीं दिखाई पड़
रहा। लेकिन
इससे बड़ी
परेशानी पैदा हुई
है,
और इसलिए अब
नए अर्थ खोजे
जा रहे हैं। एल्रएस्रडी्र
में, मारिज्युआना में, और
तरह के ड्रग्स
में अर्थ खोजे
जा रहे हैं।
क्योंकि अब
सेक्स से तो
कोई तृप्ति
होती नहीं, सेक्स में
तो कुछ मतलब
ही नहीं रहा।
वह तो बेमानी
बात हो गयी।
अब हमें और
कोई सेंसेशन
और कोई
अनुभूतियां
चा हिए।
और अमरीका लाख
उपाय करे, ड्रग्स
नहीं रोके जा
सकते, कोई
विज्ञापन
नहीं होता है एल्रएस्रडी्र
का। लेकिन
घर-घर में
पहुंचा जा रहा
है। कोई विज्ञापन
नहीं है, कोई
अखबारों में
खबर नहीं है
कि आप एल्रएस्रडी्र
जरूर पियो।
लेकिन एक-एक
यूनिवर्सिटी
के कैम्पस
पर एक-एक
विद्यार्थी
के पास पहुंचा
जा रहा है।
अमरीका तब तक
सफल नहीं होगा—कानून
बना डाले, विरोध
किया है, अदालतें
मुकदमें
चला रही हैं, सजाएं दी गयी हैं—एल्रएस्रडी्र
के प्रचार के
लिए जो सबसे
बड़ा पुरोहित
था वहां, तिमोथी लेरी, उसको
सजा दे दी
आजीवन की—लेकिन
इससे रुकेगा
नहीं, जब
तक आप सेक्स
का मीनिंग
वापस नहीं
लौटा लेंगे
अमरीका में, तब तक
ड्रग्स नहीं
रुक सकते।
क्योंकि आदमी
बिना मीनिंग
के नहीं जी
सकता। और या
फिर कोई आत्मा
का, परमात्मा
का मीनिंग
खड़ा करे। कोई
नया अर्थ, जिसकी
खोज में आदमी
निकल जाए। कोई
नए शिखर, जिन
पर वह चढ़ जाए।
एक
शिखर है आदमी
के पास संभोग
का,
वह उसकी
तलाश में
भटकता रहता
है। और वह
इतना सुरक्षित
और व्यवस्थित
है कि वह कभी
भी यह अनुभव
नहीं कर पाता
कि वह व्यर्थ
है। अगर उसकी
पत्नी व्यर्थ
हो जाती है, पति व्यर्थ
हो जाता है तो
भी और
स्त्रियां
हैं जो सार्थक
बनी रहती हैं।
पद पर फिल्म
की स्त्रियां
हैं, जो
सार्थक बनी
रहती हैं। कोई
न कोई है जहां
अर्थ बना रहता
है, वह उस
अर्थ की तलाश
में लगा रहता
है, उस खोज
में लगा रहता
है, जिंदगी
खो देता है।
महावीर
कहते हैं—वृत्ति-संक्षेप—यह
बड़ी
वैज्ञानिक
बात है। इसका
एक अर्थ तो यह
है कि
प्रत्येक
वृत्ति, प्रत्येक
वृत्ति उसकी टोटल
इंटेंसिटी
में जीयी जा
सकेगी। और जिस
वृत्ति को भी
आप उसकी
समग्रता में
जीते हैं, वह
व्यर्थ हो
जाती है। और
वृत्तियों का
व्यर्थ हो
जाना जरूरी है
आत्मदर्शन के
पूर्व। दूसरी
बात—सारी
वृत्तियां मन
को घेर लेती
हैं क्योंकि आप
मन से ही सारा
काम करते हैं।
भोजन भी मन से
करना पड़ता है;
संभोग भी मन
से करना पड़ता
है; कपड़े
भी मन से
पहनने पड़ते
हैं; कार
भी मन से
चलानी पड़ती है;
दफतर भी मन से—सारा
काम बुद्धि को
घेर लेता है
इसलिए बुद्धि निर्बल
और निर्वीर्य
हो जाती है, इतना काम उस
पर हो जाता
है। इतना
बाहरी काम हो जाता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी ने
उससे कहा है
कि अपने मालिक
से कहो कि कुछ
तनख्वाह बढ़ाए।
बहुत दिन हो
गए,
कोई
तनख्वाह नहीं
बढ़ी। मुल्ला
ने कहा—मैं
कहता हूं, लेकिन
वह सुनकर टाल
देता है। उसकी
पत्नी ने कहा—तुम
जाकर बताओ, उसको कि
तुम्हारी मां
बीमार है, उसके
इलाज की जरूरत
है। तुम्हारे
पिता को लकवा
लग गया है, उनकी
सेवा की जरूरत
है। तुम्हारी
सास भी तुम्हारे
पास रहती है।
तुम्हारे
इतने बच्चे
हैं, इनकी
शिक्षा का
सवाल है।
तुम्हारे पास
अपना मकान
नहीं है, तुम्हें
मकान बनाना
है। ऐसी उसने
बड़ी फेहरिस्त
बतायी।
मुल्ला
दूसरे दिन बड़ा
प्रसन्न लौटा दफतर से।
उसकी पत्नी ने
कहा —क्या
तनख्वाह बढ़
गयी है? मुल्ला
ने कहा—नहीं, मेरे मालिक
ने कहा—यू हैव
टू मच आउटसाइड
एक्टिविटीज।
नौकरी खत्म कर
दी। तुम दफतर
का काम कब
करोगे? जब
इतना
तुम्हारा सब
काम है—सास भी
घर में है तो दफतर का
काम कब करोगे?
उसने
छुट्टी दे दी।
बुद्धि
के ऊपर इतना
ज्यादा काम है
कि बुद्धि अपना
काम कब करेगी।
उसको सब तरफ
से बोझिल किए
हुए हैं, वह
अपना काम कब
करेगी? तो
आप
बुद्धिमत्ता
का कोई काम
जीवन में नहीं
कर पाते।
बुद्धि से आप
नींद का ही
काम लेते हैं।
कभी धन कमाने
का काम करते
हैं, कभी
शादी करने का
काम करते हैं,
कभी रेडियो
सुनने का काम
करते हैं।
लेकिन बुद्धि
की
बुद्धिमत्ता,
बुद्धि का
अपना निजी काम
क्या है? बुद्धि
का निजी काम
ध्यान है। जब
बुद्धि अपने में
ठहरती है, जब
बुद्धि अपने
में रुकती है,
तो विसडम,
बुद्धिमत्ता
आती है और तब
पहली दफे जीवन
को आप और ढंग
से देख पाते
हैं, एक
बुद्धिमान की
आंखों से।
लेकिन वह मौका
नहीं आ पाता।
बहुत ज्यादा
काम है। वह
उसी में दबी-दबी
नष्ट हो जा ती
है। जो आपके
पास
श्रेष्ठतम बिन्दु
है काम का, उससे
आप बहुत
निकृष्ट काम
ले रहे हैं।
जो आपके पास
श्रेष्ठतम
शक्ति है, उससे
आप ऐसे काम ले
रहे हैं, जिनको
कि सुई से कर
सकते थे, उनका
काम आप तलवार
से ले रहे
हैं। तलवार से
लेने की वजह
से सुई से जो
हो सकता था, वह भी नहीं
हो पाता। और
तलवार जो कर
सकती थी, उसका
तो कोई सवाल
ही नहीं है, वह सुई के
काम में उलझी
हुई होती है।
वृत्ति-संक्षेप
का अर्थ है—प्रत्येक
वृत्ति को
उसके अपने केन्द्र
पर संक्षिप्त
करो। उसे
फैलने मत दो।
भूख लगे तो
पेट से लगने
दो भूख, बुद्धि
से मत लगने
दो। बुद्धि को
कह दो—तु
चुप रह। कितना
बजा है, फिक्र
छोड़। पेट खबर
देगा न, कि
भूख लगी है, तब हम सुन
लेंगे। सोने
का काम करना
है तो बुद्धि
को मत करने
दो। नींद आएगी
तो खुद ही खबर
देगी, शरीर
खबर देगा तब
सो जाना। नींद
तोड़नी हो
तो भी बुद्धि
को काम मत दो
कि वह अलार्म
भरकर रख दें।
जब नींद टूटेगी
तब टूट जाएगी।
उसको टूटने दो
स्वयं। नींद
के यंत्र को
अपना काम करने
दो; भोजन
के यंत्र को
अपना काम करने
दो; कामवासना
के यंत्र को
अपना काम करने
दो। शरीर के
सारे काम स्पेशलाइज्ड
हैं, उनके
अपने-अपने में
चले जाने दो।
उनको सबको इकट्ठा
मत करो, अन्यथा
वे सब विकृत
हो जाएंगे और
उनको सम्भालना
कठिन हो
जाएगा।
और मजे
की बात यह है
कि जिस केन्द्र
पर काम पहुंच
जाता है, बुद्धि
का इतना काम
है कि वह केन्द्र
अपना काम को
समग्रता से
करे ताकि उसका
केन्द्र का
काम किसी
दूसरे केन्द्र
पर न फैलने
पाए। बुद्धि
इतना देखे तो
पर्याप्त है,
तो बुद्धि
नियंता हो
जाती है।
वह
कंट्रोलर हो
जाती है। वह
मध्य में बैठ
जाती है और
मालिक हो जाती
है,
उसकी नजर सब
इंद्रियों पर
हो जाती है।
और प्रत्येक
इंद्रिय अपना
काम करे, यही
उसकी दृष्टि
हो जाती है।
जैसे ही कोई
इंद्रिय अपना
काम करती है, बुद्धि देख
पाती है कि उस
काम में कुछ
रस मिलता है या
नहीं मिलता है,
तो जो
व्यर्थ काम
हैं वे बन्द
होने शुरू हो
जाते हैं। जो
सार्थक काम
हैं वे बढ़ने
शुरू हो जाते
हैं। बहुत
शीघ्र वह वक्त
आ जाता है—जब
आपके जीवन से
व्यर्थ गिर
जाता है और
गिराना नहीं
पड़ता है। और
सार्थक बच
रहता है, बचाना
नहीं पड़ता।
आपके जीवन से
कांटे गिर जाते
हैं, फूल
बच जाते हैं।
इसके लिए कुछ
करना नहीं
पड़ता है।
बुद्धि का
सिर्फ देखना
ही पर्याप्त
होता है। उसका
साथी होना
पर्याप्त
होता है।
साक्षी होना
ही बुद्धि का
स्वभाव है।
वही उसका काम है।
बुद्धि किसी की
मीन्स
नहीं है, किसी
का साधन नहीं
है। वह स्वयं
साध्य है। सभी
इंद्रियां
अपने अनुभव को
बुद्धि को दे
दें, लेकिन
कोई इंद्रिय
अपने काम को
बुद्धि से न
ले पाए, यह
वृत्ति-संक्षेप
का अर्थ है।
निश्चित
ही इसका
परिणाम होगा।
इसका परिणाम होगा
कि जब
प्रत्येक केन्द्र
अपना काम
करेगा तो आपके
बहुत से काम
जो बाहर के
जगत में फैलाव
लाते थे, वे
गिरने शुरू हो
जाएंगे, वे
सिकुड़ने
शुरू हो
जाएंगे, बिना
आपके प्रयत्न
के। आपको धन
की दौड़ छोड़नी
नहीं पड़ेगी, आप अचानक
पाएंगे, उसमें
जो-जो व्यर्थ
है वह छूट
गया। आपको बड़ा
मकान बनाने का
पागलपन छोड़ना
नहीं पड़ेगा, आपको दिख
जाएगा कि
कितना मकान
आपके लिए
जरूरी है।
उससे ज्यादा
व्यर्थ हो
गया। आपको
कपड़ों का ढेर
लगाने का
पागलपन नहीं
हो जाएगा, आब्सेशन नहीं हो
जाएगा, आप
गिनती करके
मजा न लेने
लगेंगे कि अब
तीन सौ साड़ी
पूरी हो गयीं,
अब चार सौ साड़ी पूरी
हुई हैं, अब
पांच सौ साड़ी
पूरी हो गयीं।
आ पकी बुद्धि
आपको कहेगी—पांच
सौ साड़ी पहनिएगा
कब? लेकिन
आदमी अदभूत
है।
मैंने
सुना है कि दो
सेल्समैन आपस
में एक दिन बात
कर रहे थे। एक
सेल्समैन बड़ी
बातें कर रहा था
कि आज मैंने
इतनी बिक्री
की। एक आदमी
एक ही टाई
खरीदने आया था, मैंने
उसको छह टाई
बेच दी। दूसरे
ने कहा—दिस इज
नथिंग, यह कुछ भी
नहीं है। एक
औरत अपने मरे
हुए पति के लिए
सूट खरीदने
आयी थी, मैने
उसे दो सूट
बेच दिये। एक
औरत अपने मरे
हुए पति के
लिये कपड़े
खरीदने आयी थी,
मैंने उसे
दो जोड़े कपड़े
बेच दिए।
मैंने कहा—यह
दूसरा और भी ज्यादा
जंचता है
और कभी-कभी
बदलने के लिए
बिलकुल ठीक
रहेंगे।
कोई
औरत ले जा
सकती है दो
जोड़े, क्योंकि
जिंदगी हमारी
कीमत से जीती
है, बुद्धि
से नहीं जीती
है। वह पति मर
गया है, यह
सवाल थोड़े ही
है। और पति को
दूसरा जोड़ा
पहनने का मौका
कभी नहीं आएगा,
यह भी सवाल
नहीं है।
लेकिन दूसरा
जोड़ा भी जंच
रहा है, और
दो जोड़े — तो मन
का एक रस है।
करीब-करीब हम
सब यही कर रहे
हैं। कौन
पहनेगा, कब
पहनेगा, इसका
सवाल नहीं है।
कितना? वह
महत्वपूर्ण
है। कौन खाएगा,
कब खाएगा,
इसका सवाल
नहीं है।
कितना? मात्रा
ही अपने आप
में मूल्यवान
हो गयी है। उपयोग
जैसे कुछ भी
नहीं है, संख्या
ही उपयोगी हो
गयी है। कितनी
संख्या हम बता
सकते हैं, उसका
उपयोग है।
मैं
घरों में जाता
हूं,
देखता हूं
कोई आदमी सौ
जूते के जोड़े
रखे हुए है।
इससे तो बेहतर
यही है, आदमी
चमार हो जाए।
गिनती का मजा
लेता रहे। यह नाहक,
अकारण चमार
बना हुआ है मुफत।
गिनती ही करनी
है न! तो चमार
हो जाए, जोड़े
गिनता रहे।
नए-नए जोड़े
रोज आते
जाएंगे उसको
बड़ी तृप्ति
मिलेगी। अब यह
आदमी बुद्धि
से चमार है।
सौ जोड़े का
क्या करिएगा?
नहीं, लेकिन
सौ जोड़े की
प्रतिष्ठा
है। जिसके पास
है उसके मन
में तो है ही, जिसके पास
नहीं है वह
पीड़ित है कि
हमारे पास सौ
जोड़े जूते नहीं
हैं। चमारी
में भी
प्रतियोगिता
है। वह दूसरा
हमसे ज्यादा
चमार हुआ जा
रहा है, हम
बिलकुल पिछड़े
जा रहे हैं।
महावीर-वाणी
भाग ः १
सौ
जोड़े जूते हम
पर कब होंगे? अकसर
ऐसा होता है
कि जूते के
जोड़ तो इकट्ठे
हो जाते हैं, लेकिन
जोड़े-जूते
इकट्ठा करने
में पैर इस
योग्य नहीं रह
जाते कि चल भी
पाएं। और सौ
पर कोई संख्या
रुकती नहीं
है।
तिब्बत
में एक पुरानी
कथा है कि दो
भाई हैं। पिता
मर गया है, तो
उनके पास सौ
घोड़े थे। घोड़े
का काम था।
सवारियों को
लाने-ले जाने
का काम था। तो
पिता मरते वक्त
बड़े भाई को कह
गया कि तू
बुद्धिमान है,
छोटा तो अभी
छोटा है। तू
अपनी मर्जी से
जैसा भी
बंटवारा करना
चाहे, कर
देना। तो बड़े
भाई ने
बंटवारा कर
दिया। निन्यानबे
घोड़े उसने रख
लिए, एक
घोड़ा छोटे भाई
को दे दिया। आस-पास
के लोग चौंके
भी। पड़ोसियों
ने कहा भी कि
यह तुम क्या
कर रहे हो? तो
बड़े भाई ने
कहा कि मामला
ऐसा है, यह
अभी छोटा है, समझ कम है।
निन्यानबे
कैसे सम्भालेगा?
तो मैं
निन्यानबे ले
लेता हूं, एक
उसे दे देता
हूं।
ठीक
छोटा भी थोड़े
दिन में बड़ा
हो गया, लेकिन
वह एक से काफी
प्रसन्न था, एक से काम चल
जाता था। वह
खुद ही नौकर
नहीं रखने
पड़ते थे, अलग
इंतजाम नहीं
करना पड़ता था—वह
खुद ही सईस की
तरह चला जाता
था। यात्रा
करवा आता था
लोगों के लिए।
उसका भोजन का
काम चल जाता
था। लेकिन बड़ा
भाई बड़ा
परेशान था।
निन्यानबे
घोड़े थे, निन्यानबे
चक्कर थे।
नौकर रखने
पड़ते। अस्तबल
बनाना पड़ता।
कभी कोई घोड़ा
बीमार हो जा
ता, कभी
कुछ हो जाता।
कभी कोई घोड़ा
भाग जाता, कभी
कोई नौकर न
लौटता। रात हो
जाती, देर
हो जाती, वह
जागता, वह
बहुत परेशान
था।
एक दिन
आकर उसने अपने
छोटे भाई को
कहा कि तुझसे
मेरी एक
प्रार्थना है
कि तेरा जो एक
घोड़ा है वह भी
तू मुझे दे
दे। उसने कहा—क्यों? तो
उस बड़े भाई ने
कहा—तेरे पास
एक ही घोड़ा है,
नहीं भी रहा
तो कुछ ज्यादा
नहीं खो
जाएगा। मेरे
पास
निन्यानबे
हैं, अगर
एक मुझे और
मिल जाए तो सौ
हो जाएंगे। पर
मेरे लिए बड़ा
सवाल है।
क्योंकि मेरे
पास निन्यानबे
हैं। एक मिलते
ही पूरी
सेंचुरी, पूरे
सौ हो जाएंगे।
तो मेरी
प्रतिष्ठा आ र
इज्जत का सवाल
है। अपने बाप
के पास सौ
घोड़े थे, कम-से-कम
बाप की इज्जत
का भी इसमें
सवाल जुड़ा हुआ
है। छोटे भाई
ने कहा, आ प
यह घोड़ा भी ले
जाएं।
क्योंकि मेरा
अनुभव यह है
कि निन्यानबे
में आपको मैं
बड़ी तकलीफ में
देखता हूं, तो मैं सोचता
हूं, एक
में भी
निन्यानबे
बंटे नहीं, लेकिन थोड़ी
बहुत तकलीफ तो
होगी ही। यह
भी आप ले
जाएं।
तो वह
छोटा उस दिन
से इतने आनन्द
में हो गया क्योंकि
अब वह खुद ही
घोड़े का काम
करने लगा। अब
तक कभी घोड़ा
बीमार पड़ता था, कभी
दवा लानी पड़ती
थी; कभी
घोड़ा राजी
नहीं होता था
जाने को; कभी
थककर बैठ
जाता था। हजार
पंचायतें
होती थीं। वह
भी बात खत्म
हो गयी। अब तक
घोड़े की नौकरी
करनी पड़ती थी।
उसकी लगाम पकड़कर
चलानी पड़ती थी,
वह बात भी
खत्म हो गयी।
अपना मालिक हो
गया। अब वह
खुद ही बोझ ले
लेता, लोगों
को कंधे पर
बिठा लेता और
यात्रा
कराता। लेकिन
बड़ा बहुत
परेशान हो
गया। वह बीमार
ही रहने लगा।
क्योंकि सा में से
अब कहीं एकाध
कम न हो जाए, कोई घोड़ा मर
न जाए, कोई
घोड़ा खो न जाए,
नहीं तो बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी।
मारपा
यह कहानी अकसर
कहा करता था—एक
तिब्बती फकीर
था—वह अकसर यह
कहानी कहा
करता था। और
वह कहता था—मैंने
दो ही तरह के
आदमी देखे—एक, वे
जो वस्तुओं पर
इतना भरोसा कर
लेते हैं कि उनकी
वजह से ही
परेशान हो
जाते हैं। और
एक वे, जो
अपने पर इतने
भरोसे से भरे
होते हैं कि
वस्तुएं
उन्हें
परेशान नहीं
कर पातीं। दो
ही तरह के लोग
हैं इस पृथ्वी
पर। दूसरी तरह
के लोग बहुत
कम हैं इसलिए
पृथ्वी पर
आनंद बहुत कम है।
पहले तरह के
लोग बहुत हैं,
इसलिए
पृथ्वी पर दुख
बहुत है।
वृत्ति-संक्षेप
का अर्थ सीधा
नहीं है यह कि
आप अपने
परिग्रह को कम
करें। जब भीतर
आपकी वृत्ति
संक्षिप्त होती
है तो बाहर
परिग्रह कम हो
जाता है।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि आप सब
छोड़कर भाग
जाएं, तो आप
बदल जाएंगे—जरूरी
नहीं है।
क्योंकि
चीजें छोड़ने
से अगर आप बदल
सकें तो चीजें
बहुत कीमती हो
जाती हैं। अगर
चीजें छोड़ने
से मैं बदल
जाता हूं तो
चीजें बहुत
कीमती हो जाती
हैं। और अगर
चीजें छोड़ने
से मुझे मोक्ष
मिलता है तो
ठीक है, मोक्ष
का भी सौदा हो
जाता है।
चीजों की ही
कीमत चुकाकर
मोक्ष मिल
जाता है। अगर
एक मकान छोड़ने
से, एक
पत्नी और एक
बेटे को छोड़
देने से मुझे
मोक्ष मिल
जाता है, तो
मोक्ष की कीमत
कितनी हुई? इतनी ही
कीमत हुई
जितनी मकान की
हो सकती है, एक पत्नी की,
एक बेटे की
हो सकती है।
अगर मैं चीजें
छोड़ने से
त्यागी हो
जाता हूं तो
ठीक है। चीजें
छोड़ने से लोग
त्यागी हो
जाते हैं, चीजें
होने से भोगी
हो जाते हैं।
लेकिन चीजों का
मूल्य, उसकी
वेल्यू तो
कायम रहती है।
फिर जिसके पास
चीज नहीं हो, वह त्यागी
कैसे होगा ? जिसके पास
छोड़ने का महल
नहीं हो, वह
महात्यागी
कैसे होगा? बड़ी मुश्किल
है, पहले
महल होना
चाहिए।
नसरुद्दीन से
किसी ने पूछा
है कि मोक्ष
जाने का मार्ग
क्या है? तो नसरुद्दीन
ने कहा—यू मस्ट
सिन फर्स्ट।
पहले पाप करो।
उसने
कहा—यह क्या
पागलपन की बात
है?
तुम मोक्ष
जाने का
रास्ता बता
रहे हो कि
नर्क जाने का?
नसरुद्दीन ने
कहा कि जब पाप
नहीं करोगे तो
पश्चाताप कैसे
करोगे? आ र जब
पश्चाताप
नहीं करोगे तो
मोक्ष जाओगे
कैसे? और
जब पाप नहीं
करोगे तो
भगवान तुम पर
दया कैसे
करेगा, और
जब दया नहीं
करेगा तो कुछ
होगा ही नहीं बिना
उसकी दया के।
पहले पाप करो,
तब
पश्चात्ताप
करो, तब
भगवान दया
करेगा, तब
स्वर्ग का
द्वार खुलेगा,
तुम भीतर
प्रवेश कर
जाओगे। तो जो
एसेंशियल चीज
है, नसरुद्दीन ने कहा वह
पाप है। उसके
बिना कुछ भी
नहीं हो सकता,
वही हम सबकी
भी बुद्धि है।
एसेंशियल
चीज,
वस्तुएं हैं।
पहले इकट्ठी
करो, फिर
त्याग करो।
अगर त्याग न
करोगे तो
मोक्ष कैसे
जाओगे? लेकिन
त्याग करोगे
कैसे, अगर
इकट्ठी न
करोगे? तो
पहले इकट्ठी
करो, फिर
त्याग करो, फिर मोक्ष
जाओ। मगर
जाओगे
वस्तुओं से ही
मोक्ष। वस्तुओं
पर ही चढ़कर
मोक्ष जाना
होगा। तो फिर
मोक्ष कम कीमती
हो गया है, वस्तुएं
ही ज्यादा
कीमती हो गयीं
हैं। क्योंकि
जो पहुंचा दे,
उसी की कीमत
है।
कबीर
ने कहा—गुरु
गोविंद दोऊ
खड़े,
काके लागूं
पांव। गुरु और
गोविंद दोनों
ही एक दिन
सामने खड़े हो
गए हैं, अब
किसके पैर
लगूं? तो
फिर कबीर ने
सोचा कि गुरु
के ही पैर
लगना ठीक है
क्योंकि उसी
से गोविंद का
पता चलेगा।
तो अगर
वस्तुओं से
मोक्ष जाना है
तो वस्तुओं की
ही शरणागति
जाना पड़ेगा, तो
उनके ही पैर पड़ों
क्योंकि उनसे
ही मोक्ष
मिलेगा। न
करोगे त्याग,
न मिलेगा
मोक्ष। त्याग
क्या करोगे? कुछ होना
चाहिए, तब
त्याग करोगे।
तब फिर
वस्तुओं का
मूल्य थिर है,
अपनी जगह।
भोगी के लिए
भी, त्यागी
के लिए भी।
नहीं, महावीर
का यह अर्थ
नहीं है।
महावीर वस्तु
को मूल्य नहीं
दे सकते।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
महावीर का यह
अर्थ नहीं है
कि वस्तुओं के
त्याग का नाम
वृत्ति-संक्षेप
है। महावीर
वस्तुओं को मूल्य
दे ही नहीं
सकते। इतना भी
मूल्य नहीं दे
सकते कि उनके
त्याग का कोई
अर्थ है। नहीं,
महावीर का
आंतरिक
प्रयोग है।
भीतर वृत्ति-केन्द्र
पर ठहर जाए तो
बाहर फैलाव
अपने आप बन्द
हो जाता है।
वैसे ही, जैसे
हमने एक दीया
जलाया हो और
अगर हम उसकी
बाती को भीतर
नीचे की तरफ
कम कर दें तो बाहर
प्रकाश का
घेरा कम हो
जाता है। जहां
दीये की बाती
छोटी होती
जाती है वहां
प्रकाश का घेरा
कम होता जाता
है। लेकिन आप
सोचते हों कि
प्रकाश का
घेरा कम करके
हम दीये की
बाती छोटी कर लेंगे
तो आप बड़ी
गलती में हैं।
कभी नहीं होगा,
आप धोखा दे
सकते हैं।
धोखा देने की तरकीब?
तरकीब यह है
कि आप अपनी
आंख बन्द करते
चले जाएं, दीया
उतना ही जलता
रहेगा, प्रकाश
उतना ही पड़ता
रहेगा। आप
अपनी आंख
धीरे-धीरे
बन्द करते चले
जाएं। आप
बिलकुल
अंधेरे में
बैठ सकते हैं,
लेकिन वह
धोखा है और
आंख खोलेंगे
और पाएंगे दीये
का वर्तुल, प्रका श उतना का
उतना है।
क्योंकि दीये
का वर्तुल मूल
नहीं है, मूल
उसकी बाती है।
उसकी बाती
नीचे छोटी
होती जाए तो
बाहर प्रकाश
का वर्तुल
छोटा होता
जाता है। बाती
डूब जाए, शून्य
हो जाए तो
वर्तुल खो
जाता है।
हम
सबके भीतर, जो
बाहर फैलाव
दिखाई पड़ता है
— हमारे भीतर
उसकी बा ती
है। प्रत्येक
हमारे केन्द्र
पर, वासना
के केन्द्र
पर, हम
कितना फैलाव
कर रहे हैं, उससे बाहर
फैलता है।
बाहर तो सिर्फ
प्रदर्शन है।
असली बात तो
भीतर है। भीतर
सिकुड़ाव
हो जाता है, बाहर सब
सिकुड़ जाता
है। ध्यान रहे,
जो बाहर से सिकुड़ने
में लगता है
वह गलत, बिलकुल
गलत मार्ग से
चल रहा है। वह
परेशान होगा,
पहुंचेगा
कहीं भी नहीं।
हालांकि
कुछ लोग
परेशानी को तप
समझ लेते हैं।
जो परेशानी को
तप समझ लेते
हैं,
उनकी
नासमझी का कोई
हिसाब नहीं
है। तप से
ज्यादा आनंद
नहीं है, लेकिन
तप को लोग
परेशानी समझ
लेते हैं क्योंकि
परेशानी यही
है, उनको
दस कपड़े चाहिए
थे, उन्होंने
नौ रख लिया, वे बड़े
परेशान हैं।
परेशानी उतनी
ही है जितना दस
में मजा था।
दस के मजे का
अनुपात ही
परेशानी बन
जाएगा। दस में
कम हो गया तो
परेशानी शुरू हो
गयी। अब वह
परेशानी को तप
समझ रहे हैं।
परेशानी तप
नहीं है।
यह
मैंने मुल्ला
की पत्नी की
बात आपसे की।
यह उसने जानकर
उस स्त्री से
शादी की। गांवभर
में खबर थी कि
वह बहुत दुष्ट
है,
कलहपूर्ण है। चालीस
साल तक उससे
कोई शादी
करनेवाला
नहीं मिला था।
और जब नसरुद्दीन
ने खबर की कि
मैं उससे शादी
करता हूं, तो
मित्रों ने
कहा—तू पागल
तो नहीं हो
गया है नसरुद्दीन?
इस औरत को
कोई शादी
करनेवाला
नहीं मिला है।
यह खतरनाक है,
तेरी गर्दन
दबा देगी। यह
तेरे प्राण ले
लेगी; यह
तुझे जीने न
देगी; तू
बहुत मुश्किल
में पड़ जाएगा।
नसरुद्दीन ने
कहा—मैं भी
चालीस साल तक
अविवाहित
रहा।
अविवाहित रहने
में मैंने
बहुत पाप कर
लिए। इससे
शादी करके मैं
प्रायश्चित
करना चाहता
हूं। दिस इज
गोइंग टु
बी ए पिनांस।
यह एक तप है।
जानकर कर रहा
हूं। लेकिन
पश्चाताप तो
करना पड़ेगा न।
स्त्रियों से
इतना सुख पाया, जब
इतना ही दुख
पाऊंगा, तब
तो हल होगा न!
और यह स्त्री
जितना दुख दे
सकती है, शायद
दूसरी न दे
सके। यह बड़ी
अदभुत है। नसरुद्दीन
ने शादी कर
ली। मित्रों
ने बहुत
समझाया, न
माना।
लेकिन नसरुद्दीन
की पत्नी के
पास खबर पहुंच
गयी कि नसरुद्दीन
ने इस लिए
शादी की है
ताकि यह
स्त्री उसको सताए और
उसका तप हो
जाए। और उसने
कहा,
भूल में न
रहो। तुम मेरे
ऊपर चढ़कर
स्वर्ग न जा
सकोगे। मैं
किसी का साधन
नहीं बन सकती।
आज से मैंने, कलह बन्द।
कहते हैं वह
स्त्री नसरुद्दीन
से जिंदगीभर
न लड़ी। उसको
नर्क जाना ही
पड़ा, नहीं
लड़ी। उसने कहा—मुझे
तुम साधन
बनाना चाहते
हो, स्वर्ग
जाने का? यह
नहीं होगा। यह
कभी नहीं हो
सकता, तुम
नरक जाकर ही
रहोगे। वह इसी
जमीन पर नरक
पैदा करती, उसने पैदा
नहीं किया।
उसने अगले का
इंतजाम कर दिया।
आप किस
चीज को साधन
बनाकर जाना
चाहते हैं
स्वयं तक? वस्तुओं
को? अपरिग्रह
को? बाहर
से रोककर अपने
को, संभालकर?
वह नहीं
होगा। आप
परेशान भला हो
जाएं, तप
नहीं होगा।
परेशानी तप
नहीं है। तप
तो बड़ा आनन्द
है और तपस्वी
के आनंद का
कोई हिसाब
नहीं है।
वस्तुएं दुख
हैं। लेकिन यह
दुख तभी पता चलेगा
आपको जब आपकी
वृत्ति के केन्द्र
पर आप अनुभव
करेंगे और दुख
पाएंगे और सुख
की कोई रेखा न
दिखाई पड़ेगी।
अंधेरा ही
अंधेरा पाएंगे,
कोई प्रकाश
की ज्योति न
दिखाई पड़ेगी।
कांटे ही
कांटे पाएंगे,
कोई फूल
खिलता न दिखाई
पड़ेगा। भीतरभीतर
केन्द्र
व्यर्थ हो
जाएगा, बाहर
से आभामण्डल
तिरोहित हो
जाएगा। अचानक
आप पाएंगे, बाहर अब कोई
अर्थ नहीं रह
गया । लोगों
को दिखायी
पड़ेगा। आपने
बाहर कुछ छोड़
दिया। आप बाहर
कुछ भी न छोड़ेंगे,
भीतर कुछ
टूट गया। भीतर
कोई ज्योति ही
बुझ गई। तो
एक-एक केन्द्र
पर उसकी
वृत्ति को ठहरा
देना और
बुद्धि को सजग
रखकर देखना कि
उस वृत्ति के
अनुभव क्या
हैं।
बहुत
आदमी के संबंध
में जो बड़े से
बड़ा आश्चर्य
है वह यह है कि जिस
चीज को आप आज
कहते हैं कि
कल मुझे मिल
जाए तो सुख
मिलेगा, कल जब
वह चीज मिलती
है तो आप कभी
तौल नहीं करते
कि कल मैंने
कितना सुख
सोचा था, वह
मिला या नहीं
मिला! बड़ा
आश्चर्य है।
यह भी बड़ा
आश्चर्य है कि
उससे दुख
मिलता है, फिर
भी दूसरे दिन
आप फिर उसी की
चाह करने लगते
हैं और कभी
नहीं सोचते कि
कल पाकर इसे
दुख पाया था, अब मैं फिर
दुख की तलाश
में जाता हूं।
हम कभी तौलते
ही नहीं, बुद्धि
का वही काम है,
वही हम नहीं
लेते उससे।
वही काम है कि
जिस चीज में
सोचा था कि
सुख मिलेगा, उसमें मिला?
जिस चीज में
सोचा था सुख
मिलेगा उसमें
दुख मिला, यह
अनुभव में आता
है और इस
अनुभव को हम
याद नहीं रखते
और जिसमें दुख
मिला उसको फिर
दुबारा चाहने
लगते हैं।
ऐसे
जिंदगी सिर्फ
एक कोल्हू के
बैल जैसी हो
जाती है। बस
एक ही रास्ते
पर घूमते रहते
हैं। कोई गति
नहीं, कहीं
कोई पहुंचना
नहीं होता। घूमते-घूमते
मर जाते हैं।
जहां पैदा
होते हैं, उसी
जमीन पर
खड़े-खड़े मर
जाते हैं।
कहीं एक इंच आगे
नहीं बढ़ पाते।
बढ़ भी नहीं
पाएंगे।
क्योंकि बढ़ने
की जो
सम्भावना थी
वह आपकी
बुद्धिमत्ता
से थी, आपकी
विसडम से
थी, आपकी
प्रज्ञा में
थी। वह तो
प्रज्ञा कभी
विकसित नहीं
होती।
तो
महावीर
वृत्ति-संक्षेप
पर जोर देते
हैं ताकि
प्रत्येक
वृत्ति
अपनी-अपनी
निखार तीव्रता
में,
अपनी प्योरिटी
में अनुभव में
आ जाए और
अनुभव कह जाए
दुख है, कि
दुख है वहां, सुख नहीं।
और बुद्धि इस
अनुभव को
संग्रहीत करे,
बुद्धि इस
अनुभव को जिए
और पिए और इस
बुद्धि के
रोएं-रोएं में
यह समा जाए तो
आपके भीतर वृत्तियों
से ऊपर आपकी
प्रज्ञा, आपकी
बुद्धिमत्ता
उठने लगेगी।
और जैसे-जैसे बुद्धिमत्ता
ऊपर उठती है, वैसे-वैसे
वृत्तियां सिकुड़ती
जाती हैं। इधर
वृत्तियां सिकुड़ती
हैं, इधर
बुद्धिमत्ता
ऊपर उठती है।
और बाहर परिग्रह
कम होता चला
जाता है। जैसे
बुद्धिमत्ता
ऊपर उठती है
वैसे संसार
बाहर कम होता
चला जाता है।
जिस दिन आपकी
समग्र शक्ति
वृत्तियों से
मुक्त होकर
बुद्धि को मिल
जा ती है, उसी
दिन आप मुक्त
हो जाते हैं।
जिस दिन आपकी
सारी शक्ति
वृत्तियों से
मुक्त होकर
प्रज्ञा के
साथ खड़ी हो जाती
है, उसी
दिन आप मुक्त
हो जाते हैं।
जिस
दिन कामवासना
की शक्ति भी
बुद्धि को मिल
जाती है; जिस
दिन लोभ की
शक्ति भी
बुद्धि को मिल
जाती है; जिस
दिन क्रोध की
शक्ति भी
बुद्धि को मिल
जाती है; जिस
दिन मोह की
शक्ति भी
बुद्धि को मिल
जाती है; जिस
दिन समस्त
शक्तियां बुद्धि
की तरफ
प्रवाहित
होने लगती हैं;
जैसे नदियां
सागर की तरफ
जा रही हों, उस दिन
बुद्धि का
महासागर आपके
भीतर फलित होता
है। उस
महासागर का
आनंद, उस
महासागर की
प्रतीति और
अनुभूति दुख
की नहीं है, परेशानी की
नहीं है, वह
परम आनंद की
है। वह
प्रफुल्लता
की है। वह किसी
फूल के खिल
जाने जैसी है।
वह किसी दीये
के जल जाने
जैसी है। वह
कहीं मृतक में
जैसे जीवन आ
जाए, ऐसी
है।
आज
इतना ही।
कल
आगे के नियम
पर बात
करेंगे।
लेकिन उठें
न। जो कीर्तन
के लिए आना
चाहते हैं वे
ऊपर आ जाएं।
पांच मिनट
कीर्तन करें, फिर
जाएं।
thank you guruji
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