(ऋषिविर
शांडिल्य) -ओशो
प्रवेश
से पूर्व
'पूछा
तुमने, कैसा
धर्म इस पृथ्वी
पर आप लाना
चाहते हैं?
जीवन—
स्वीकार का
धर्म। परम
स्वीकार का
धर्म।
चूंकि
जीवन—
अस्वीकार की
बातें बहुत
प्रचलित रही
हैं, इसलिये
स्वभावत: लोग देह
के विपरीत हो
गए। अपने शरीर
को ही सताने
में संलग्न हो
गए। और यह देह
परमात्मा का
मंदिर है। मैं
इस देह की
प्रतिष्ठा
करना चाहता
हूं। और चूंकि
लोग संसार के
विपरीत हो गए,
देह के
विपरीत हो गए,
इसलिए देह
के सारे
सबंधों के
विपरीत हो गए।
भूल हो गई।
देह के
ऐसे सबंध हैं, जिनसे मुक्त
होना है। और
देह के ऐसे
सबंध हैं, जिनमें
और गहरे जाना
है। प्रेम ऐसा
ही सबंध है।
प्रेम में
गहराई बढ़ना
चाहिए। घृणा
में गहराई
घटनी चाहिए।
घृणा से तुम
मुक्त हो सको,
तो सैभाग्य।
लेकिन अगर
प्रेम से
मुक्त हो गए
तो दुर्भाग्य!
और मजा यह है
कि अगर
तुम्हें घृणा
से मुक्त होना
हो तो सरल
रास्ता यह है
कि प्रेम से
भी मुक्त हो
जाओ। और
तुम्हारे अब
तक के साधु—संन्यासियों
ने सरल रास्ता
पकड़ लिया। न
रहेगा बांस न
बजेगी
बांसुरी!
लेकिन बांस और
बांसुरी में
बड़ा फर्क है।
बांसुरी बजनी
चाहिए। बांस
से बांसुरी
बनती है, लेकिन
बांसुरी बड़ा
रूपांतरण है।
बांसुरी
सिर्फ बांस
नहीं है।
बांसुरी में
क्रांति घट गई।
तुम अभी बांस
जैसे हो, बांसुरी
बन सकते हो। घृणा से
भयभीत हो गए
लोग। क्रोध से
भयभीत हो गए।
भाग गए जंगलों
में। जब कोई
रहेगा ही नहीं
पास, तो न
घृणा होगी, न क्रोध
होगा। यह तो
ठीक, लेकिन
प्रेम का क्या
होगा? प्रेम
भी नहीं होगा।
इसलिए
तुम्हारे
तथाकथित
महात्मा
प्रेम शून्य
हो गए। प्रेम
रिक्त हो गए।
उनके प्रेम की
रस धार सुख गई।
वे मरूस्थल की
भांति हो गए।
और वहीं चूक
हो गई।
परमात्मा तो
मिला नहीं, संसार जरूर
खो गया। सत्य
तो मिला नहीं,
इतना ही हुआ
कि जहा सत्य
मिल सकता था, जहा सत्य को
खोजा जा सकता
था, जहा
चुनौती थी
पाने की, उस
चुनौती से बच
गए। एक तरह की शांति
मिली—लेकिन वह
मुर्दा, मरघट
की। एक और शांति
है—उत्सव की, जीवन उपवन
की। मैं उसी शांति
के धर्म को
लाना चाहता
हूं।
तुम
जीवन को
अंगीकार करो, देह को
अंगीकार करो।
परमात्मा ने
जो दिया है, सब अंगीकार
करो। उसने
दिया है तो
उसमें कुछ राज
छिपा होगा ही!
इस वीणा को
फेंक मत देना,
इसमें
संगीत छिपा है।
इसे बांस मत
समझ लेना, इसमें
बांसुरी बनने
की क्षमता है।
जल्दी छोड़—छाड़
कर भाग मत जाना।
तलाश करना। हालांकि
तलाश बहुत
कठिन है। होनी
ही चाहिए।
क्योंकि तलाश
के लिए कीमत
चुकानी पड़ती
है। जो खोजने
जाएगा, वह
पाएगा। इसी
जीवन में
खोजना है।
परमात्मा ने
संसार बनाया
कभी, ऐसा
मत सोचो।
परमात्मा
संसार रोज बना
रहा है, प्रतिपल
बना रहा है।
तो यह धारणा तुम्हारी
गलत है कि
परमात्मा ने
सृष्टि की।
परमात्मा
सृष्टि कर रहा
है। और अगर
तुम मेरी बात
और भी
ठीक से पकड़ना
चाहो, तो
मैं कहता हूं :
परमात्मा कोई
अलग व्यक्ति नहीं
है कि बैठा है
और बना रहा है
चीजों को।
कुम्हार नहीं
है कि घड़े बना
रहा है। नर्तक
है—नाच रहा है।
उसका नाच उसका
अंग है। इन सब
फूलों में, पत्तों में,
सागरों में,
सरोवरों
में उसका नाच
है। तुममें, मुझमें, बुद्ध—महावीर
में—उसका नाच
है। उसकी
भावभगिमाए
हैं। उसकी अलग—
अलग मुद्राएं
हैं। इनमें
पहचानों!
तो मैं
भगोड़े धर्म से
छुटकारा
दिलाना चाहता
हूं। देह
स्वीकृत हो—देह
मंदिर बने।
प्रेम
स्वीकृत हों—प्रेम
पूजा बने।
संसार का
सम्मान हो, क्योंकि
उसमें
स्रष्टा छिपा
है। अभी भी
उसके हाथ काम
कर रहे हैं।
अगर तुम जरा
संसार में
गहरा प्रवेश
करोगे तो उसके
हाथ का स्पर्श
तुम्हें मिल
जाएगा, उसका
हाथ तुम्हारे
हाथ में आ
जाएगा। तो मूल्यों
का एक
पुनर्मूल्यांकन
करना है। सारे
मूल्यों का
पुनर्मूल्याकन
करना है। और
पृथ्वी आज
तैयार हो गई
है इस घटना के
लिए। क्योंकि
पांच हजार साल
के दमनकारी धर्मों
ने, पलायनवादी
धर्मों ने
मनुष्य को
काफी सजग कर
दिया है।
मनुष्य तैयार
है कि अब कुछ
नया आविर्भाव
होना चाहिए।
लोग
प्रतीक्षा कर
रहे हैं, लोग
आतुरता से राह
देख रहे हैं, कि परमात्मा
का कोई नया
अवतरण होना
चाहिए। कोई नई
भाषा मिलनी
चाहिए धर्म को।
और चूंकि ऐसी
भाषा नहीं मिल
पा रही है, और
ऐसा नया अवतरण
नहीं हो पा
रहा है, और
लोगों को
दिखाई नहीं पड़
रहा है कि
कैसे धार्मिक
हों, तो
गलत धर्म पैदा
हो रहे हैं।
वे भी खोज की
वजह से पैदा
हो रहे हैं।
आदमी के भीतर
अनिवार्य तड़प
है। और तड़प
गहरी हो गई है।
क्योंकि सब
पुराने धर्म
फीके पड़ गए
हैं। तो
मनुष्य बडी
आतुरता से
प्रतीक्षा कर
रहा है : कोई नई
किरण उतरे।
इसलिए
मैंने कहा कि
यह गैरिक आग
फैलती जाए सारी
दुनिया में तो
नई किरण उतर
सकती है। और
इस तरह का
संन्यास ही अब
भविष्य का
संन्यास हो
सकता है।
भगोडा
संन्यास नही
हो सकता। जीवन
को अंगीकार
करने वाला
संन्यास ही
भविष्य में
स्वीकृत हो
सकता है। और
मैं कोई कारण
नहीं देखता
हूं कि कहीं
भागकर जाने की
जरूरत है। तुम
जहा हो, वहीं
अगर तुमने
हृदयपूर्वक
पुकारा तो
परमात्मा आता
है। असली बात
हृदयपूर्वक
पुकारने की है।
ओशो
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