पउड़ी: 12
मंनै
की गति कही न जाइ। जे को
कहै पिछै पछुताइ।।
कागद
कलम न लिखणहारू।
मंनै का बहि करनि
विचारू।।
ऐसा
नामु निरंजनु
होइ। जे को मंनि
जाणै मनि
कोइ।।
पउड़ी: 13
मंनै
सुरति होवै
मनि बुधि।
मंनै सगल
भवन की सुधि।।
मंनै मुहि चोटा
न खाइ। मंनै जम के
साथ न जाइ।।
ऐसा
नामु निरंजनु
होइ। जे को मंनि
जाणै मनि
कोइ।।
पउड़ी: 14
मंनै मारग ठाक न
पाइ। मंनै
पति सिउ परगटु जाइ।।
मंनै मगु न चलै
पंथु। मंनै धरम
सेती सनबंधु।।
ऐसा
नामु निरंजनु
होइ। जे को मंनि
जाणै मनि
कोइ।।
पउड़ी: 15
मंनै पावहि मोखु
दुआरु। मंनै परवारै
साधारु।।
मंनै तरै तारे
गुरु सिख। मंनै
नानक भवहि
न भिख।।
मनन
शब्द को
समझें। विचार
और मनन दोनों
ही मन की
क्रियाएं हैं, पर दोनों
बड़ी भिन्न
हैं। भिन्न ही
नहीं, वरन
विपरीत भी।
एक तैरने
वाले को
देखें--एक
स्थान से
दूसरे स्थान
पर जाता है, लेकिन रहता
नदी की सतह पर
है। अ से ब, ब
से स स्थान
बदलता है, गहराई
नहीं बदलती।
फिर पानी में
डुबकी लगाने वाले
को देखें--वह
भी स्थान
बदलता है, लेकिन
गहराई बदलती
है; अ से अ
एक, अ दो, अ तीन--एक ही
स्थान पर गहरा
उतरता है
डुबकी लगाने
वाला। तैरने
वाला एक स्थान
से दूसरे
स्थान पर जाता
है, गहराई
में नहीं जाता
है।
विचार
तैरने जैसा है, मनन डुबकी
जैसा है।
विचार में एक
शब्द से दूसरे
शब्द पर हम
जाते हैं; मनन
में एक ही
शब्द की गहराई
में जाते हैं।
स्थान नहीं
बदलता, गहराई
बदलती है।
विचार
रेखाबद्ध
प्रक्रिया है, सतह वही बनी
रहती है। तुम
चाहे दुकान की
बात सोचो, चाहे
मोक्ष की; सतह
में कोई फर्क
नहीं पड़ता, रहते तुम
पानी की सतह
पर ही हो। तुम
चाहे परमात्मा
के संबंध में
सोचो और चाहे
पत्नी के, सोच
की सतह वही
बनी रहती है।
मनन से
सतह की जगह
गहराई में
यात्रा शुरू
होती है। मनन
में एक ही
शब्द को उसकी
समस्तता में, उसके गहरे
तलों तक
प्रवेश करने
की चेष्टा करनी
होती है।
मनन ही
मंत्र है। इसे
ठीक से समझ
लें तो यह पूरा
सूत्र साफ हो
जाएगा। और
नानक की सारी
शिक्षाओं का
सार मनन है।
इसलिए तो एक नाम
ओंकार--बस उस
एक ओंकार के
नाम को, एक
सतनाम को अपने
शिष्यों को वे
देते रहे।
उस पर
सोचना नहीं है, उसमें डूबना
है। उस पर
विचार नहीं
करना है, उसकी
गहराई में
डुबकी लगानी
है। एक ही नाम
गूंजता
रहेगा--ॐ, ॐ,
ॐ, ॐ...और
जैसे-जैसे नाम
की गूंज बढ़ेगी,
वैसे-वैसे
तुम्हारी
गहराई का तल
बदलेगा।
तीन तल
हैं। पहले सोच्चार, तुम जोर से
उच्चार करते
हो ओंकार
का--ॐ...। ओंठ का प्रयोग
होता है, बाहर
वाणी गूंजती
है; इसको
हम वाणी का तल
कहें। फिर तुम
ओंठ बंद कर लेते
हो, जीभ भी
नहीं हिलाते,
मन में ही
गूंज होती
है--ॐ...। यह
दूसरा तल है।
यह पहले तल से
गहरा है।
इसमें शरीर का
उपयोग नहीं हो
रहा। ओंठ, जीभ
सब बंद हैं, सिर्फ मन का
उपयोग हो रहा
है। तुम एक
सीढ़ी नीचे उतर
गए। फिर तीसरी
सीढ़ी है, जहां
मन का भी
उपयोग नहीं हो
रहा है; जहां
तुम ओंकार की
ध्वनि नहीं
करते, तुम
सिर्फ चुप हो
कर सुनते हो
और ध्वनि गूंजती
है। तब मन भी
गया। जैसे ही
मन गया, मनन
हुआ। मनन यानी
मन का न हो
जाना। जहां मन
न हुआ, वहां
मनन शुरू हुआ।
सबसे
पहले, तुम्हारे
भीतर ओंकार की
ध्वनि गूंजती
है जन्म के
साथ। तुम्हें
बच्चे
प्रसन्न दिखाई
पड़ते
हैं--अकारण; अपने झूले
में पड़े
टांगें फेंक
रहे हैं, हाथ
हिला रहे हैं,
मुस्कुरा
रहे हैं।
माताएं समझती
हैं कि शायद पिछले
जन्म की कोई
स्मृति आ रही
है तो आनंदित हो
रहे हैं।
क्योंकि कोई
कारण तो नहीं
है आनंदित
होने का--न कोई
चुनाव जीता है,
न कोई धन
कमा लिया है, न कोई
प्रतिष्ठा पा
ली है; अपने
झूले में पड़े,
अभी यात्रा
शुरू ही नहीं
हुई; अभी
प्रसन्नता
क्या है? मनस्विद भी बड़ी
चिंता करते
रहे हैं कि
बच्चे की
प्रसन्नता का
कारण क्या है?
जहां तक
मनस्विदों की
समझ जाती है, वे मानते
हैं कि
शारीरिक
स्वास्थ्य
है। क्योंकि
बच्चा
प्रसन्न है, क्योंकि
शरीर से
स्वस्थ है।
लेकिन
जहां तक
योगियों की
खोज ले जाती
है, वहां
कारण दूसरा
है। शरीर का
स्वास्थ्य
काफी नहीं है।
भीतर ओंकार का
नाद गूंज रहा
है, एक
मधुर संगीत
भीतर गूंज रहा
है; जो
बच्चा सुनता
है, उसकी
तारी लग जाती
है। सुनता है,
मुस्कुराता
है, आनंदित
होता है।
स्वास्थ्य तो
बाद में भी
रहेगा, लेकिन
यह प्रसन्नता
खो जाएगी।
पीछे भी स्वस्थ
रहेगा, लेकिन
यह नाद खो
जाएगा। ओंकार
की ध्वनि को
सुनना
मुश्किल हो
जाएगा, क्योंकि
शब्दों की
पर्त उसे घेर
लेगी।
ध्वनि--एक
ओंकार
सतनाम--वह
पहली घटना है।
वहां जीवन का
स्रोत है। फिर
शब्दों का
जमाव है। वह हमारी
शिक्षा, संस्कार,
समाज, सभ्यता!
फिर तीसरी
पर्त है, शब्दों
का
उच्चारण--बोलना,
बातचीत, वार्तालाप।
जब तुम बोल
रहे हो, तब
तुम अपने से
सबसे ज्यादा
दूर हो। इसलिए
तो नानक कहते
हैं कि पहले
सुनना सीख लो;
क्योंकि जब
तुम सुन रहे
हो, तब तुम
मध्य में हो।
तब तुम बोलने
की तरफ भी जा
सकते हो और
चाहो तो शून्य
की तरफ भी जा
सकते हो। तुम
बीच में खड़े
हो।
तीन स्थितियां
हुईं--ओंकार
की स्थिति, उच्चार की
स्थिति और
दोनों के मध्य
में भाव और
विचार की
स्थिति। जब
तुम सुन रहे
हो--श्रवण--तब तुम
भाव और विचार
की स्थिति के
बीच में खड़े
हो। अभी तुम दोनों
तरफ झुक सकते
हो, दाएं
या बाएं। जो
तुमने सुना, अगर तुम
दूसरे को
बताने निकल
पड़े, तो
तुम वार्ता
में उतर गए।
जो तुमने सुना,
अगर तुम
उसको गुनने
लगे, मनन
करने लगे, तो
तुम शून्य में
चले गए। और
बारीक है
फासला। और हर
व्यक्ति को
अपने भीतर
फासले को ठीक
से समझ कर
संतुलन को
व्यवस्था
देनी पड़ती है।
मनन
उसी क्षण शुरू
हो जाता है, जब तुम किसी
एक शब्द की
गहराई में
उतरने लगते हो।
और कोई भी
शब्द काम दे
सकता है।
लेकिन ओंकार
से सुंदर कोई
शब्द नहीं, क्योंकि वह
शुद्ध ध्वनि
है। अल्लाह भी
काम देता है, राम भी काम
देता है, कृष्ण
भी काम देता
है। और कोई ये
बड़े-बड़े नाम
लेने की जरूरत
नहीं है।
अंग्रेजी के
महाकवि टेनिसन
ने लिखा है कि
मैं अपना ही
नाम दुहरा
लेता हूं और
तारी लग जाती
है; टेनिसन...टेनिसन...टेनिसन...उससे
भी लग जाएगी।
कोई भी
एक शब्द की
गहराई में तुम
उतरोगे तो धीरे-धीरे
शब्द छूट
जाएगा। और
धीरे-धीरे
जैसे-जैसे
शब्द छूटेगा, वैसे-वैसे
मनन शुरू हो
जाएगा। शब्द
तो छूट जाता
है। सभी मंत्र
छूट जाते हैं।
तभी तो
महामंत्र का उदघोष
होता है जब
मंत्र छूट
जाते हैं।
क्योंकि मंत्र
तो तुम्हारे
ही मन की, तुम्हारी
ही पकड़ है।
महामंत्र तो
गूंज ही रहा है।
तो मंत्र
महामंत्र में
नहीं ले जाता,
मंत्र तो
तुम्हें केवल
चुप करवाता
है। महामंत्र
सुनाई पड़ने
लगता है।
और सभी
मंत्र
तुम्हें
सुनने की कला
सिखाते हैं।
और सभी मंत्र
तुम्हें
तैरने की जगह
डुबकी लगाना
सिखाते हैं।
एक स्थान से
दूसरे स्थान
पर कब तक जाते
रहोगे? एक जन्म
से दूसरे जन्म
तक कब तक जाते
रहोगे? एक
घटना से दूसरी
घटना को कब तक
बदलते रहोगे?
एक
परिस्थिति से
दूसरी
परिस्थिति तक
कब तक तुम्हारी
यात्रा जारी
रहेगी? कब
वह शुभ क्षण
आएगा जब तुम
जहां हो, उसी
की गहराई में
डुबकी लगाओगे,
कहीं और न
जाओगे? मनन
उसी क्षण
घटेगा। इस बात
को खयाल में
रख कर नानक का
सूत्र समझने की
कोशिश करें।
'मनन
की गति कही
नहीं जा सकती।'
मंनै
की गति कही न जाइ। जे को
कहै पिछै पछुताइ।।
'मनन
की गति कही
नहीं जा सकती।
और जो इसे
कहता है, पीछे
पछताता है।'
क्यों? मनन की गति
इसलिए नहीं
कही जा सकती
कि पहली तो
बात यह है कि
वह गति ही
नहीं है, वह
अगति है। वहां
यात्रा शुरू
नहीं हो रही, बंद हो रही
है। वह हमें
गति जैसी लगती
है।
तुमने
कभी देखा, तुम ट्रेन
में जब चलते
हो तो तुम्हें
लगता है कि
वृक्ष भागे जा
रहे हैं। भाग
तुम रहे हो, लगता है
वृक्ष भागे जा
रहे हैं।
तुम्हारी सदा
की गति के
कारण जब मन
ठहरने लगता है,
तब भी
तुम्हें ऐसा
लगता है कि यह
भी गति है। लेकिन
जब तुम ठहर ही
जाओगे, जब
तुम्हारी
गाड़ी बिलकुल
रुक जाएगी, तब अचानक
तुम पाओगे कि
सब वृक्ष-पहाड़
भी रुक गए। वे
भाग ही नहीं
रहे थे।
तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है, वह कभी
चला ही नहीं
है। उसने कभी
एक कदम नहीं
उठाया। उसने कोई
यात्रा नहीं
की।
तीर्थयात्रा
भी नहीं की।
वह कहीं गया
ही नहीं घर के
बाहर। वह सदा
से वहीं है।
मन
भागता रहा है
और मन की गति
इतनी तीव्र है
कि वह जो न
भागा हुआ है, वह भी भागा
हुआ मालूम
पड़ता है। जब
मन रुकने लगता
है, वह भी
रुकने लगता
है। जब मन
बिलकुल रुक
जाता है, मन
पाता है कि सब
रुका हुआ है।
गति को तो कहा
जा सकता है, अगति को
कैसे कहोगे? कहां से
कहां गए, इसकी
तो चर्चा हो
सकती है।
इसलिए तो
यात्री किताबें
लिख सकते हैं।
लेकिन जो आदमी
घर में ही बैठा
रहा, वह
क्या लिखेगा!
कहीं गया ही
नहीं, कुछ
घटना ही न घटी,
कोई
परिस्थिति ही
न बदली, कहने
को क्या है?
अशांत
आदमी की
जिंदगी की
कहानी तुम लिख
सकते हो, शांत
आदमी की
जिंदगी की
कहानी क्या लिखोगे!
कहानी ही नहीं
है।
उपन्यासकार, नाटककार, साहित्यकार,
सभी का
अनुभव है कि
जिंदगी तो
बुरे आदमी की
होती है।
अच्छे आदमी की
क्या जिंदगी!
इसलिए अगर तुम
अच्छे आदमी के
आधार पर कोई
उपन्यास लिखो
तो वह लिखा ही
न जा सकेगा।
उसकी जिंदगी में
कुछ नहीं
होता। इसलिए
सभी कहानियां
बुरे आदमी के
आसपास लिखनी
पड़ती हैं।
तुम यह
मत समझना कि
रामायण राम के
आसपास है, वह रावण के
आसपास है।
रावण ही असली
नायक है, राम
तो नंबर दो
हैं। रावण को
हटा दो फिर
तुम राम की
कथा लिखो! न
जाए सीता चोरी,
न हो सब
उपद्रव--सब
कथा शांत है!
राम की क्या
कोई कथा है!
तुम परमात्मा
की क्या कथा लिखोगे? वह जैसा था, वैसा ही रहा
है। उसमें कभी
भी रूपांतर
नहीं हुआ; कहानी
बनी ही नहीं।
इसलिए तो
परमात्मा की
कोई आत्मकथा
नहीं है। उसके
संबंध में हम
कुछ भी नहीं
लिख सकते।
लिखने के लिए
यात्रा जरूरी
है।
विचार
के संबंध में
बहुत कुछ लिखा
जा सकता है; निर्विचार
के संबंध में
क्या लिखोगे!
निर्विचार के
संबंध में
क्या कहोगे!
जो भी कहोगे, वह गलत
होगा। पीछे
पछताओगे।
इसलिए
ज्ञानी जब भी
बोलते हैं, तभी पछताते
हैं। क्योंकि
बोलते ही
उन्हें लगता
है कि जो कहना
था, वह कह
नहीं पाए; और
जो नहीं कहना
था, वह कह
दिया। जो कहना
था, जो
समझाना था, वह सुनने
वाला समझ नहीं
पाया है। जो
वह समझ गया, वह प्रयोजन
न था।
इसलिए
लाओत्से कहते
हैं कि सत्य
के संबंध में कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता; और
कुछ भी कहा, असत्य हो
जाएगा। जितना
तुम जानोगे, उतना ही तुम
पाओगे कि कहना
मुश्किल है।
एक-एक शब्द
कहना कठिन हो
जाता है; क्योंकि
तुम्हारे
भीतर कसौटी है,
जिससे तुम जांचते
हो। हर शब्द
ओछा मालूम
पड़ता है, बहुत
छोटा मालूम
पड़ता है। बहुत
बड़ा घटा है, शब्द में
समाता नहीं।
बड़ा आकाश मिल
गया है और शब्द
की छोटी-छोटी कैपसूल
में उसे भरना
है। वह भरता
नहीं।
और फिर
जब तुम बोलते
हो, तब
पछतावा और भी
बढ़ जाता है।
क्योंकि
सुनने वाले तक
जो बात पहुंचती
है, वह कुछ
और ही है। जो
तुमने कही थी,
उसका सब राग,
उसका सब रंग
बदल गया, उसकी
वेशभूषा बदल
गयी। तुमने
दिया था हीरा,
देने में ही
पत्थर हो गया।
तुमने दिया था
असली सिक्का,
हस्तांतरण
में ही खोटा
हो गया। वह
दूसरे के पास
पहुंचते ही, तुम उसकी
आंखों में जो
देखते हो, पाते
हो कि वह तो
नहीं पहुंचा
जो तुमने दिया
था, कुछ और
पहुंच गया। और
अब यही वह
दूसरा आदमी ढोता
रहेगा।
ऐसे ही
तो संप्रदाय
चल रहे हैं।
ऐसे ही तो हजारों
की भीड़ चल रही
है। जो कभी
नहीं दिया गया
था, उसे वे ढो
रहे हैं। अगर
महावीर लौट
आएं तो जैनियों
को देख कर
छाती पीटेंगे।
अगर बुद्ध लौट
आएं तो
बौद्धों पर रोएंगे।
अगर जीसस लौट
आएं तो लड़ाई
फिर वही की
वही शुरू हो
जाएगी कि जो
यहूदियों से
थी, वही
ईसाइयों से
शुरू हो
जाएगी।
क्योंकि जो उन्होंने
कहा था, वह
तो जैसे
पहुंचा ही
नहीं; कुछ
और ही पहुंच
गया। नानक अगर
लौट आएं तो
जितना नाराज
सिक्ख पर
होंगे, उतना
किसी और पर
नहीं।
क्योंकि किसी
और से क्या
नाराज होना!
जिनसे कहा था,
उन पर ही
नाराज हुआ जा
सकता है।
क्योंकि वे कुछ
और ही ढो रहे
हैं।
हम बड़े
होशियार हैं।
नानक जैसा
व्यक्ति जब बोलता
है, तब हम
अपने अर्थ
उसमें जोड़
लेते हैं, अपने
मतलब के अर्थ!
हम नानक के
अनुसार अपने
को नहीं ढालते,
हम नानक के
शब्दों को
अपने अनुसार
ढाल लेते हैं।
यह हमारी
तरकीब है।
इससे सब ठीक
हो जाता है।
दो ही
उपाय हैं।
मैंने
सुना है, एक
बहुत बड़ी
धनपति महिला
थी। थोड़े
झक्की स्वभाव
की थी। बड़ी
कलात्मक रुचि
की थी और हर
चीज के संबंध
में बड़ी
जिद्दी थी।
उसके पास एक
ऐश-ट्रे थी, जो कि एक दिन
गिर गयी। बड़ी
बहुमूल्य थी,
बड़ी कीमती
थी। और वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ गयी। उसने
कलाकारों को
बुलाया और
उसने कहा कि
बिलकुल
ऐश-ट्रे जैसी
थी वैसी ही
बना दो।
क्योंकि उसने
ऐश-ट्रे के
हिसाब से अपना
पूरा कक्ष
सजाया हुआ था।
उसी रंग की
दीवालें थीं।
उसी रंग का
फर्श था। उसी
रंग के पर्दे
थे। ऐश-ट्रे
आधार थी; वह
आत्मा थी उस
पूरे घर की।
अनेक
चित्रकारों
ने कोशिश की।
लेकिन बड़ी मुश्किल
थी। ठीक, बिलकुल
ठीक रंग का
मेल नहीं बैठ
पाता था। आखिर
एक चित्रकार
ने कहा कि मैं
बना दूंगा, लेकिन मुझे
समय चाहिए और
बीच में कोई
बाधा न दे; जब
सब पूरा हो
जाए तभी तुम
भीतर आओ। तो
एक महीना उसने
ले लिया।
महिला भी
हैरान हुई कि
एक महीना!
ऐश-ट्रे को!
उसने कहा कि
अब उसमें इतने
दिन तुमने
कोशिश कर ली, इतने लोग
मेहनत कर लिए,
अब मुझे
वक्त दो।
एक
महीना वह अंदर
घुसा रहा।
महिला अंदर
आयी, तृप्त हो
गयी। बिलकुल
मिला दिया था
उसने सब। बाद
में किसी
चित्रकार ने
उस चित्रकार
से पूछा, जो
सफल हो गया था,
कि भई, हम
सब असफल हो गए;
तुमने
सफलता कैसे
पायी? उसने
कहा कि मैंने
पहले ऐश-ट्रे
तैयार की और फिर
उसी रंग में
सब दीवालें
पेंट कर दीं।
वे सब के सब
दीवालों के
हिसाब से
ऐश-ट्रे को
पेंट करने की
कोशिश कर रहे
थे। वह असंभव
मामला था।
जरा-सा भी
फर्क रह जाता
था तो बस गड़बड़
हो जाती थी।
नानक
तुमसे बोलते
हैं, तो दो ही
उपाय हैं। एक
तो यह है कि
तुम नानक के रंग
में ढल जाओ तो
तृप्ति मिले,
नहीं तो
बेचैनी
रहेगी। नानक
जैसे व्यक्ति
के पास बेचैनी
शुरू होगी; क्योंकि तुम
आग के पास हो।
या तो तुम जल
जाओ। जैसे
नानक जल गए, ऐसे तुम जल
जाओ। जैसे
नानक राख हो
गए, ऐसे
राख तुम हो
जाओ। जैसे
नानक दास हो
गए, ऐसे
दास तुम हो
जाओ। जैसे
नानक खो गए, ऐसे तुम खो
जाओ। बूंद गिर
जाए सागर में।
एक उपाय तो यह
कि तुम नानक
के रंग में
रंग जाओ।
अगर यह
न हो सके तो
दूसरा उपाय यह
है कि नानक जो कहते
हैं, उसको तुम
अपने रंग में
रंग लो। दूसरा
सरल है, बिलकुल
सरल है। इसलिए
तो जो कहा
जाता है, हम
वही नहीं
सुनते; हम
जो सुनना चाहते
हैं, वही
सुनते हैं। जो
बताया जाता है,
हम उसमें से
वही अर्थ
निकाल लेते
हैं, जो
हमारे अनुकूल
है। हम सत्य
के पक्ष में
खड़े नहीं होते,
हम सत्य को
ही अपने पक्ष
में खड़ा कर
लेते हैं। हम
सत्य के साथ
नहीं जाते, हम सत्य को
ही अपने पीछे
लाते हैं।
और यही
फर्क है असली
खोजी और नकली
खोजी में।
असली खोजी
सत्य के पीछे
जाने को तैयार
होता है--चाहे
सत्य कहीं भी
ले जाए; चाहे
कोई भी परिणाम
हो; चाहे
जीवन गंवाना
पड़े; चाहे
सब खो
जाए--सत्य का
खोजी सत्य के
पीछे जाता है।
सब गंवाने को
तैयार है।
दूसरा भी सत्य
का खोजी--जो
धोखे में है, धोखेबाज
है--वह सत्य के
पीछे नहीं
जाता, वह
सत्य को अपने
पीछे लाता है।
और जब भी तुम
सत्य को अपने
पीछे लाते हो,
तभी वह
असत्य हो जाता
है।
तुम्हारे
पीछे सत्य
कैसे आएगा? तुम्हारे
पीछे असत्य ही
आ सकता है।
क्योंकि तुम
असत्य हो, तुम्हारी
छाया असत्य
होगी। तुम
चाहो तो सत्य
के पीछे जा
सकते हो, लेकिन
सत्य
तुम्हारे
पीछे नहीं आ
सकता। सत्य तुम्हारी
धारणाओं में न
समाएगा।
सत्य
तुम्हारे
बर्तनों में न
आएगा। सत्य तुम्हारे
मस्तिष्क के
लिए काफी बड़ा
है। और सत्य तुम्हारे
पीछे कैसे हो
सकता है?
इसलिए
नानक कहते
हैं--
मंनै
की गति कही न जाइ। जे को
कहै पिछै पछुताइ।।
'वह
जो कहता है, पीछे पछताता
है।'
एक और
कारण भी ध्यान
में रख लेना
चाहिए, उस
कारण भी
पछतावा होता
है, जो
मैंने
शुरू-शुरू में
कहा। जब भी
तुम मनन के करीब
पहुंचने
लगोगे, तभी
तुम मध्य में
आ जाओगे। वहां
से दो गतियां हैं।
या तो तुम दूसरों
को बताने निकल
पड़ो तो
तुम पछताओगे।
इसलिए जब भी
दूसरे को
बताने का खयाल
उठे, गुरु
से पूछ लेना।
गुरु जब तक न
कहे, मत
बताने जाना
किसी को।
क्योंकि तुम
अपने पर भरोसा
मत करना।
अहंकार
के खेल बड़े
सूक्ष्म हैं!
जरा-सा मिला नहीं
कि वह बहुत की
घोषणा करने
लगता है। मुट्ठी-भर
मिला नहीं कि
वह पूरे आकाश
का दावा कर
देता है।
जरा-सी झलक आई
नहीं कि तुमने
कहा कि सूरज
उग गया। बूंद
भी टपकी नहीं
कि तुम सागर की
चर्चा करने
लगे। और फिर
चर्चा में
चर्चा बढ़ती
चली जाती है।
फिर धीरे-धीरे
चर्चा में
बूंद भी खो
जाती है, झलक
भी मिट जाती
है, लोग
थोथे पंडित हो
कर रह जाते
हैं। बहुत
जानते हैं, बिना जाने।
बहुत कहते हैं,
बिना अनुभव
किए। अगर तुम
उनके जीवन में
बहुत गौर से
देखो तो तुम
पाओगे कि जो
वे कहते हैं, उसके ठीक
विपरीत चलते
हैं।
एक
ट्रेन में ऐसा
हुआ। गाड़ी छूट
गयी थी और मुल्ला
नसरुद्दीन
भाग कर चढ़ने
की कोशिश कर
रहा था। डंडा
भी उसने पकड़
लिया। एक पैर
भी पायदान पर
रख दिया। तभी
गार्ड ने उसे नीचे
खींच लिया और
कहा कि बड़े
मियां, चलती
गाड़ी में चढ़ना
जुर्म है; नीचे
उतरें।
मुल्ला उतर
गया। फिर गाड़ी
करीब-करीब
निकलने के
करीब थी
प्लेटफार्म
के बाहर, तब
गार्ड का डब्बा
आया। गार्ड
छलांग लगा कर
अपने डब्बे में
चढ़ने
लगा। मुल्ला
ने झटक कर
उसको नीचे पटक
लिया और कहा, बड़े मियां, दूसरों को
मना करते हो
और खुद वही
काम करते हो!
पंडित
की अवस्था ऐसी
ही है। वह जो
दूसरों को कह
रहा है, उसमें
सिर्फ कहने का
रस है। उसमें
जीवन की सरिता
नहीं बह रही
है। वह उसका
अपना अनुभव
नहीं है। और
यह खतरा सदा
है।
जब तुम
मध्य में आओगे, उच्चार को छोड़ोगे, शब्द में ठहरोगे--वहां
से दो मार्ग
खुलते हैं। एक
मार्ग है पंडित
होने का।
क्योंकि अब
तुम शब्द के
मालिक हो जाओगे।
अब तुम शब्द
में खड़े हो।
तुमने एक पर्त
पार कर ली है।
तुमने कुछ
थोड़ी भनक भी
पायी है। अब तुम्हारे
सामने दो
मार्ग हैं, एक तो
ज्ञानी का और
एक पंडित का।
पंडित का मार्ग
है कि तुम फिर
बाहर चले जाओ
उच्चार की
दुनिया में, समझाने लगो।
ज्ञानी का
मार्ग है कि
अब तुम शब्द
को भी छोड़ दो, पूर्ण अनुच्चार
में लीन हो जाओ।
इसलिए गुरु जब
तक न कहे, दूसरे
को बताने मत
जाना।
बुद्ध
का एक शिष्य
पूर्ण काश्यप
हुआ। वह ज्ञान
को उपलब्ध हो
गया, लेकिन
चुपचाप बुद्ध
के पीछे छाया
की तरह चलता रहा।
वर्ष भर बाद, उसकी
उपलब्धि के
वर्ष भर बाद
बुद्ध ने उसे
बुलाया कि अब
तू मेरी छाया
की तरह क्यों
भटक रहा है? अब तू जा! और
जो तूने जाना
है, लोगों
को बता। पूर्ण
ने कहा, मैं
आपकी आज्ञा की
प्रतीक्षा
करता था।
क्योंकि मन का
क्या भरोसा!
बताने में
कहीं रस आ जाए
और जो
बामुश्किल
पाया है, कहीं
बताने में खो
जाए! कहीं अकड़
आ जाए, कहीं
अहंकार
निर्मित होने
लगे कि मैं
जानता हूं।
ज्ञान
को पाना कठिन
है, खोना
आसान है।
क्योंकि बड़ा
सूक्ष्म
मार्ग है। भटक
सकते हो जरा
में।
तो
पूर्ण काश्यप
ने कहा, जब
आप समझेंगे कि
बता सकता हूं,
तब आप खुद
ही कहेंगे।
इसलिए मैं चुप
था।
गुरु
जब तक न कहे, तब तक बताने
मत जाना, नहीं
तो पछताओगे।
और पछतावा
भारी होगा कि
करीब-करीब
पहुंचते थे किनारे
के और भटक गए।
नाव लगने को
ही थी फिर
किनारा दूर हो
गया। हाथ
पहुंचने के ही
करीब थे कि तुम
किसी और दूसरी
बात में लीन
हो गए।
पांडित्य
आखिरी
प्रलोभन है, क्योंकि
अहंकार आखिरी
प्रलोभन है।
नानक
कहते हैं--
मंनै
की गति कही न जाइ। जे को
कहै पिछै पछुताइ।।
'मनन
की गति कहीं
नहीं जा सकती।
जो इसे कहता
है, वह
पीछे पछताता
है। न कागज है
न कलम है, न
लिखने वाला है
जो मनन की
स्थिति पर
विचार कर सके।'
कहेगा
कौन? क्योंकि
जैसे-जैसे मनन
गहरा होता है,
वैसे-वैसे
कर्ता तो खोता
जाता है, मन
तो समाप्त
होने लगता है।
मनन मन की
मृत्यु है।
मन कह
सकता है, लिख
सकता है, बोल
सकता है, बता
सकता है। मन
की सारी
कुशलता बताने
की है। तो तुम
जो नहीं भी
जानते हो, वह
भी मन बता
सकता है। और
बार-बार बता
कर तुम इस भ्रांति
में भी पड़
सकते हो कि
मैं जानता
हूं। क्योंकि
जिस बात को
तुम बार-बार
बताते हो, तुम
भूल ही जाते
हो कि मैंने
भी इसे जाना
या नहीं!
तुम्हें लगने
लगता है, मैं
भी जानता हूं।
सोचना, क्या
तुम वे ही
बातें कहते हो
जो तुम जानते
हो? या वे
बातें भी कहते
हो जो तुम
जानते नहीं?
तुम
जानते हो
परमात्मा को? नहीं जानते,
तो तुम मत
कहना किसी से
कि है। तुमने
जाना सत्य को?
नहीं जानते
हो, तो मत
बताना किसी को
कि है।
क्योंकि खतरा
यह नहीं है कि
दूसरा
भ्रांति में
पड़ेगा, खतरा
यह है कि
बार-बार दुहरा
कर तुम खुद ही
भ्रांति में
पड़ जाओगे।
बार-बार
पुनरुक्ति
करने से
तुम्हें यह
भरोसा आ जाएगा
कि मैं जानता
हूं।
और यह
बड़ी
सूक्ष्म...एक
बार यह खयाल आ
गया कि मैं जानता
हूं, बिना
जाने, तो
फिर तुम्हारी
नौका कभी भी
किनारे न लग
पाएगी। सोए को
तो जगाया जा
सकता है; लेकिन
जागा हुआ जो
पड़ा है, उसे
फिर कैसे जगाएं!
अज्ञानी को
उठाया जा सकता
है; लेकिन
ज्ञानी जो बना
खड़ा है, उसे
कैसे उठाएं!
तुम फिर उनके
पास जाने से
ही बचोगे, जहां
तुम्हारा
अज्ञान प्रगट
होता हो। तुम
उनके ही पास
जाओगे, जहां
तुम्हारा
ज्ञान मजबूत
होता हो।
पंडित
अज्ञानी को
खोजेगा।
पंडित ज्ञानी
से बचेगा। अगर
नानक गांव आ
जाएं तो पंडित
गांव छोड़ कर
भाग जाएगा।
क्योंकि
पंडित को डर
एक ही है कि
कहीं कोई वह
स्थिति न दिखा
दे, जो असली
स्थिति है।
कहीं कोई
पर्दा न उघाड़
दे।
बामुश्किल
पर्दे को
सम्हाल पाए, बामुश्किल
स्थिति बनी है
कहने की कि हम
जानते हैं, कोई इसे उखाड़
न दे। और यह
इतनी कमजोर है,
क्योंकि
झूठी है, कमजोर
होगी ही। यह
तोड़ी जा सकती
है जरा सी ही
चोट से।
नानक
कहते हैं, जहां न कागज,
न कलम, न
लिखने वाला है,
तो मन की
स्थिति तो
वहां रही नहीं,
मनन पर
विचार कौन
करे! और मनन की
कौन खबर लाए!
'वह
निरंजन नाम ही
ऐसा है कि जो
कोई मनन करता
है, उसका
मन ही जानता
है।'
बस, तुम जानोगे!
गूंगे का गुड़
हो जाएगा और
कह न पाओगे, ओंठ बंद हो
जाएंगे।
अवरुद्ध हो
जाएगा कंठ। हृदय
भर जाएगा।
इतना भर जाएगा
कि तुम रो
सकोगे, हंस
सकोगे, कह
न सकोगे। लोग
तुम्हें पागल
समझेंगे, पंडित
नहीं।
क्योंकि
तुम्हारे
भीतर इतना भरा
होगा कि
तुम्हारे
रोएं-रोएं से छलकेगा।
तुम नाच सकोगे,
तुम गा
सकोगे; लेकिन
तुम कह न
सकोगे।
इसलिए
तो नानक गाए
चले जाते हैं।
मरदाना बजाए चला
जाता है; नानक
गाए चले जाते
हैं। जब भी
नानक से कोई
कुछ पूछता तो
वे मरदाना को
इशारा कर देते
कि शुरू कर दे
वाद्य; और
कहते, सुनो!
और गीत शुरू
हो जाता। नानक
ने यह सब गाया
है, कहा
नहीं है।
अगर
तुम ज्ञानी के
वचन को ठीक से
समझो तो तुम पाओगे
कि अगर वह
कहता भी हो, तो भी गाता
है। तुम एक
काव्य उसमें
पाओगे। वह अगर
बैठा भी है, तो भी नाचता
है। तुम एक
नृत्य उसमें
पाओगे। और तुम
पाओगे कि उसके
आसपास की हवा
में एक नशा है--नशा,
जो सुलाता
नहीं, जगाता
है। नशा, जो
विस्मृति में
नहीं ले जाता,
सुरति को
लाता है। और
अगर तुम राजी
हो उसके साथ
बहने को तो वह
तुम्हें बड़े
अज्ञात तटों
की तरफ ले
जाएगा। अगर
तुम उतरने को
राजी हो उसके
साथ सागर में
तो वह तुम्हें
बड़ी दूर की
यात्रा पर ले
जाएगा--आखिरी
यात्रा पर, जहां सब
यात्राएं
समाप्त हो
जाती हैं।
लेकिन
ज्ञानी के पास
जो सुर है, वह वक्ता का
कम और गायक का
ज्यादा है। वह
बोलने वाला कम,
गाने वाला
ज्यादा है।
क्योंकि जो
पाया है, वह
बोल कर तो कहा
ही नहीं जा
सकता है। गीत
शायद उसकी भनक
दे दे। शायद
थोड़ी-सी गीत
में उसकी झलक
आ जाए। शायद
तुम मस्त हो
जाओ।
गुरजिएफ
कहा करता था
कि कला दो तरह
की होती है।
एक कला तो
साधारण कला है, जिसमें
चित्रकार, मूर्तिकार,
संगीतज्ञ
अपने मनोभाव
प्रकट करता
है। जैसे पिकासो;
बड़े से बड़े
चित्रकार हों
तो भी अपने
मनोभाव प्रकट
करते हैं। जो
उनकी मनोदशा
है, उसे
चित्र में, गीत में बांधते
हैं। यह
साधारण कला
है। इसे
गुरजिएफ सब्जेक्टिव
आर्ट कहता
है--विषयीगत।
और दूसरी कला
को वह आब्जेक्टिव
आर्ट कहता
है--विषयगत।
वह कहता है, ताजमहल
दूसरे तरह की
कला है; या अजंता-एलोरा
की गुफाएं
दूसरे तरह की
कलाएं हैं। इन
कलाओं में जो
चित्रकार है,
मूर्तिकार
है, वह
अपना कोई भाव
प्रकट नहीं कर
रहा है। इन
कलाओं में वह
सिर्फ एक
स्थिति पैदा
कर रहा है। उस स्थिति
के माध्यम से
देखने वाले
में कोई भाव पैदा
होगा।
बुद्ध
की एक प्रतिमा
है। तुम उसे
अगर देखते भी रहो--अगर
सच में ही आब्जेक्टिव
आर्ट हो, जिसने
बनाया है उसने
बुद्धत्व को
जाना हो--तो प्रतिमा
को
देखते-देखते
तुम्हें तारी
लग जाएगी।
प्रतिमा को
देखते-देखते-देखते
तुम पाओगे कि
तुम अपने ही
भीतर किसी
गहरी खाई में
उतर गए, किसी
गहराई में चले
गए। प्रतिमा
को देखते-देखते
ही डुबकी लग
जाएगी।
प्रतिमा मनन
हो जाएगी।
मंदिरों
में
प्रतिमाएं
हमने ऐसे ही
नहीं रखी थीं!
वे आब्जेक्टिव
आर्ट...। संगीत
हमने ऐसे ही
नहीं पैदा
किया था, संगीत
पहले तो समाधि
से ही जन्मा।
पहले संगीत के
जन्मदाता तो
समाधिस्थ
पुरुष थे।
उन्होंने
भीतर ओंकार का
नाद सुना। फिर
उस नाद को
उन्होंने
खोजा कि कैसे उस
नाद की
प्रतिलिपि
बाहर पैदा की
जा सकती है।
ताकि जिन्हें
उस भीतर के
नाद का पता
नहीं, वह
शायद बाहर के
नाद से ही
थोड़ा उन्हें
स्वाद लग जाए!
मंदिर में हम
प्रसाद
बांटते हैं।
मंदिर आने के
लिए कोई न आए, शायद प्रसाद
के लिए ही आ
जाए! छोटे
बच्चे तो कम
से कम पहुंच
ही जाते हैं।
चलो प्रसाद के
बहाने ही सही;
लेकिन
मंदिर में आना
भी मूल्यवान
है। शायद बाहर
की धुन ही
थोड़ा-सा
प्रसाद बन जाए
और उस धुन में
तुम्हें भीतर
की याद आ जाए।
संगीत में जो
रस है, वह
समाधि की ही
झलक का है।
नृत्य हमने
पैदा किए थे, वे आब्जेक्टिव
आर्ट थे। उनको
देखते-देखते
तुम अचानक
किसी और लोक
में भीतर खो
जाओगे, नाव
तट से छूट
जाएगी।
नानक
के संबंध में
यह स्मरण रखना
कि नानक जो भी
कहे हैं, वह
गाया है
उन्होंने। जो
भी कहना चाहा
है, उसे
नाद के साथ
पहुंचाया है।
क्योंकि असली चीज
नाद है। जो कह
रहे हैं, वह
असली बात नहीं
है, वह तो
बहाना है।
तुम्हारे
भीतर स्वर गुंजाना
है। और अगर
स्वर ठीक से
गूंजने लगे तो
तुम्हारे
भीतर जो विचार
की प्रक्रिया
है, वह
छिन्न-भिन्न
हो जाएगी और
तुम दूसरे तल
पर पहुंच
जाओगे शब्द
के। और अगर
तुम राजी हो
बहने को, अगर
तुम किनारे से
जकड़े नहीं हो,
अगर तुमने
किनारे को
पागल की तरह
पकड़ नहीं रखा
है, अगर
तुम छोड़ने की
हिम्मत रखते
हो, तो
तीसरी घटना भी
घट जाएगी। मनन
पैदा हो जाएगा।
कहते
हैं नानक, मनन पर कौन
क्या कहे! न
कागज, न
कलम, न
लिखने वाला; मनन की
स्थिति पर
विचार कौन करे!
'पर
वह नाम निरंजन
ही ऐसा है कि
जो कोई मनन
करता है, उसका
मन ही जानता
है।'
वह
गूंगे का गुड़
है, जो चख
लेता है, वह
जानता है। फिर
जिंदगी भर
भूलता नहीं, अनंत जन्मों
तक नहीं भूलता,
अनंत काल तक
नहीं भूलता।
एक बार स्वाद
आ गया उसका तो
वह स्वाद
तुमसे बड़ा है,
तुम उसे भूल
न सकोगे। वह
स्वाद इतना
बड़ा है कि तुम
उस स्वाद में
समा जाओगे; वह स्वाद
तुममें न समाएगा।
वह स्वाद सागर
जैसा है, तुम
बूंद जैसे
उसमें खो
जाओगे।
अगर
ठीक से समझो
तो परमात्मा
का तुम स्वाद
कैसे लोगे!
परमात्मा ही
तुम्हारा
स्वाद ले लेता
है, अगर तुम
राजी हो। तुम
उस स्वाद में
लीन हो जाते
हो, डूब
जाते हो, एकतानता सध जाती है।
वह नाम निरंजन
ही ऐसा है।
'मनन
से ही मन और
बुद्धि में
सुरति-स्मरण
का उदय होता
है।'
जैसे-जैसे
तुम
वार्तालाप
में जाते हो, वैसे-वैसे
स्मृति खो
जाती है।
तुमने कभी
सोचा हो न
सोचा हो, अब
सोचना, निरीक्षण
करना--तुम्हारी
जिंदगी के
अधिकतम उपद्रव
तुम्हारे
बोलने से पैदा
होते हैं, नब्बे
प्रतिशत, उससे
भी ज्यादा।
तुम अगर न
बोलो तो नब्बे
प्रतिशत
उपद्रव तो
तुम्हारे
तत्क्षण गिर
जाएं। तुम कुछ
बोलते हो और
उलझन में पड़ते
हो।
क्या
हो जाता है
बोलने से? क्योंकि बोलने
की अवस्था में
सबसे कम
स्मृति रहती
है, सबसे
कम
सुरति--अवेयरनेस!
क्योंकि
बोलने में ध्यान
दूसरे पर होता
है; अपने
पर ध्यान चूक
जाता है। जब
तुम बोलते हो,
तब तुम
दूसरे की तरफ
जा रहे हो, तुम्हारा
तीर दूसरे की
तरफ जा रहा
है। तो तीर का
पिछला हिस्सा
अपनी तरफ होता
है, तीर का
फल दूसरे की
तरफ होता है।
चेतना एक तीर है।
वह दूसरे को
देखती है।
जिससे तुम बोल
रहे हो, उस
पर ध्यान होता
है। अपने पर
ध्यान चूक
जाता है। और
इसलिए उस
गैर-भान की
अवस्था में
तुमसे बातें
निकल जाती हैं,
जिनके लिए
तुम जन्मों तक
पछताते हो।
तुम
किसी स्त्री
से कह बैठे कि
मैं तुझे
प्रेम करता
हूं। यह कभी
सोच कर भी
नहीं गए थे।
यह पहले कभी
खयाल में भी
नहीं आया था।
बात-बात में
बात हो गयी।
अब फंसे! अब
इससे लौटना
मुश्किल हो
गया। अब इस
बात से और
बातें
निकलेंगी।
जैसे पत्तों
में पत्ते लगते
जाते हैं, वैसे बात
में बात लगती
जाती है। अब
चल पड़े तुम एक
यात्रा पर।
तुमने
कभी खयाल नहीं
किया है। खयाल
करोगे तो साफ
हो जाएगा कि
जीवन की सारी
झंझटों की कड़ियां
शब्दों से
शुरू होती
हैं। और फिर
एक शब्द जब बोल
दिया तो फिर
अहंकार जकड़
लेता है कि अब
उसकी पूर्ति
करनी भी जरूरी
है।
तुम एक
स्त्री को
प्रेम करते
हो। तुम उससे
कहते हो, जन्मों-जन्मों
तुझे प्रेम
करूंगा। क्षण
का तुम्हें
भरोसा नहीं, कल का तुम
विश्वास नहीं
दिला सकते। कल
सुबह क्या
होगा, कोई
जानता नहीं।
लेकिन अभी तुम
जन्मों-जन्मों
के लिए बात कह
रहे हो। अगर
तुम जरा भी
होश में हो तो
तुम इतना ही
कहोगे कि इस
क्षण मुझे
प्रेम मालूम
पड़ता है, कल
का क्या पता? लेकिन उससे
अहंकार को रस
न आएगा।
क्योंकि जब तुम्हें
प्रेम पता
चलता है तो
तुम सोचते हो,
अब सदा
प्रेम
करूंगा। 'सदा'
का तुम्हें
पता है, क्या
अर्थ होता है?
हर स्थिति
में तुम प्रेम
कर सकोगे?
मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी उससे
पूछ रही थी कि
अब तुम पहले
जैसा मुझे
प्रेम नहीं
करते; मैं
बूढ़ी हो गई
हूं, इसीलिए?
शरीर मेरा
जर्जर हो गया
है, इसीलिए?
झुर्रियां
पड़ गई हैं, इसीलिए?
और याद है
तुम्हें
धर्मगुरु के
सामने तुमने कहा
था कि सुख-दुख
में साथ
देंगे!
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा, सुख-दुख
में साथ देंगे;
बुढ़ापे का
किसने कहा था?
तो सुख-दुख
में तो साथ दे
ही रहे हैं।
बुढ़ापे की बात
ही नहीं उठी
थी।
तुम आज
जब कह रहे हो
तो तुम्हें
पता है कि सदा
का कितना अर्थ
होता है? उसमें
कितनी चीजें
छिपी हैं? लेकिन
आज तुम कह
दोगे, कल
फिर इस आश्वासन
को पूरा करने
में मुश्किल
पड़ेगी। न पूरा
कर पाओगे तो
पछताओगे, पूरा
करोगे तो दुखी
होओगे।
क्योंकि जब
प्रेम हाथ से
छूट जाएगा, नहीं बचेगा,
तब तुम क्या
करोगे? कैसे
उसे
जबर्दस्ती
लाओगे? तब
एक प्रवंचना
का जाल शुरू
होता है।
अगर
व्यक्ति अपने
शब्द का होश
रख सके, जो
कि कठिन है, शब्द के तल
पर कठिन है; क्योंकि
शब्द के तल पर
तुम्हारी नजर
दूसरे पर है, इसलिए अपना
होश तुम कैसे
रखोगे? सिर्फ
बुद्धों के
लिए बोलना ठीक
है। क्योंकि उन्होंने
अपने जीवन की
साधना से दो
फल वाला तीर
पैदा कर लिया
है। उनके पास
ऐसी चेतना
है--उसी चेतना
का नाम सुरति
है--जब तीर में
दो फल हैं, दूसरे
की तरफ, अपनी
तरफ। जब चेतना
दोनों तरफ एक
साथ देख पाती
है; जब
चेतना तुममें
बातचीत करने
में खो नहीं
जाती, सजग
बनी रहती है; बोलने वाला
बोलता रहता है,
साक्षी
भीतर खड़ा रहता
है; तब एक
भी शब्द
तुम्हें किसी
झंझट में न ले
जाएगा।
अन्यथा शब्द
तुम्हें झंझट
में ले जाएंगे।
एक
सूफी कहानी
है। गुरु ने
चार शिष्यों
को मौन के लिए
भेजा। सांझ हो
गयी। मस्जिद
में चारों बैठे
हैं। दीया
नहीं जलाया
किसी ने। नौकर
पास से गुजरता
था। तो एक ने
कहा, ऐ भाई, रात हुई जा
रही है, दीया
जला दे। दूसरे
ने कहा, तुम
बोल गए और
गुरु ने मना
किया था! और
तीसरे ने कहा,
क्या कर रहे
हो? तुम भी
बोल गए! गुरु
ने मना किया
था। और चौथे
ने कहा, हम
ही ठीक; हम
अभी तक नहीं
बोले।
बोलने
में एक
विस्मरण है।
यह कहानी
तुम्हें हंसने
जैसी लगती है, तुम्हारी ही
कहानी है। तुम
चुप बैठो, तब
पता चलेगा कि
बोलने का
कितना मन होने
लगता है। तुम
चुप बैठो, तब
पता चलेगा कि
भीतर तुम किस
तरह बोलने
लगते हो। और
बाहर कोई भी
बहाना मिल जाए
कि सुरति खो जाओगे।
कहानी
का मतलब क्या
है? कहानी का
मतलब है, उन
चारों में से
किसी को स्मरण
न रहा कि हम
चुप होने के लिए
यहां बैठे
हैं। और कहानी
का मतलब है कि
जब नौकर निकला
पास से, दूसरा
आया, ध्यान
दूसरे पर गया,
सुरति चूक
गयी।
नानक
कहते हैं, मनन से ही मन
और बुद्धि में
सुरति उदय
होती है।
सुरति
शब्द बड़ा
प्यारा है। यह
बुद्ध के
सम्यक स्मरण
से आता है।
बुद्ध ने बड़ा
जोर दिया स्मृति
पर--राइट माइंडफुलनेस
पर--कि तुम जो
भी करो, स्मरणपूर्वक करना। बोलो
तो स्मरणपूर्वक
बोलना। चलो तो
स्मरणपूर्वक
चलना। आंख भी
हिलाओ, पलक
भी हिले--स्मरणपूर्वक।
होश खो कर मत
करना कुछ।
क्योंकि जो
तुम होश खो कर
करोगे, वही
पाप है। और जो
तुम होश खो कर
करोगे, उससे
ही तुम अपने
से दूर निकलते
जाते हो। अपने
पास आने की एक
ही विधि है कि
तुम ज्यादा से
ज्यादा होश
सम्हालना।
कैसी भी
परिस्थिति हो,
तुम एक चीज
मत खोना--सब खो
जाने देना--वह
है होश! घर में
आग लगी हो तो
भी तुम
होशपूर्वक घर
के बाहर
निकलना।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर
ने एक संस्मरण
लिखा है कि
उनको वाइसराय
ने सम्मान के
लिए बुलाया
था। गरीब आदमी
थे। पुराना
बंगाली ढंग का
कुरता, कमीज,
धोती पहनते
थे।
फटे-पुराने
कपड़े थे।
मित्रों ने
कहा कि
वाइसराय की
सभा में इन
कपड़ों में जाना
उचित नहीं, अच्छे कपड़े
बना देते हैं।
बात उनको भी
जंची। एक-दो
दफे इनकार भी
किया। लेकिन
फिर उनको भी
लगा कि ठीक
नहीं है, तो
कपड़े बनवा
लिए।
कल
सुबह वाइसराय
की सभा में
जाने को हैं, उसके एक दिन
पहले की घटना
है। सांझ को
लौटते थे बगीचे
से टहल कर।
सामने ही एक
मुसलमान अपने
कपड़े पहने
हुए--चूड़ीदार
पायजामा, शेरवानी,
हाथ में छड़ी
लिए--बड़े शौक
से शाम की
चहलकदमी करते
हुए जा रहा है
घर वापस। एक
आदमी भागा हुआ
आया और उसने कहा,
मीर साहिब,
आपके घर में
आग लग गयी, जल्दी
करिए। लेकिन
वह वैसे ही
चलता रहा, चाल
में जरा भी
फर्क न
आया--जरा भी!
जैसे नौकर आया
ही नहीं, जैसे
नौकर ने कुछ
कहा ही नहीं; जैसे कुछ भी
नहीं हुआ हो; वह जैसा था, ठीक वैसा ही
रहा। सुर जरा
भी न बदला
उसका। नौकर
समझा कि शायद
मालिक ने सुना
नहीं; क्योंकि
आग लगने का
मामला है।
उसने कहा कि
आप समझे या
नहीं? सुना
आपने या नहीं?
किस विचार
में खोए हैं? मकान में आग
लग गयी!
नौकर
कंप रहा है, पसीना-पसीना
है, बड़ा
उत्तेजित है।
और नौकर है!
उसका कुछ भी
नहीं जल रहा
है। उस
मुसलमान ने
कहा, सुन
लिया! लेकिन
मकान में आग
लग गयी, इस
वजह से क्या
जिंदगी भर की
चाल बदल दें? आते हैं।
ईश्वरचंद्र
पीछे ही थे।
उन्होंने
सुना तो बड़े
हैरान हुए। तो
उन्होंने भी
सोचा कि जिंदगी
भर के कपड़े
बदलें
वाइसराय के
लिए! और यह एक
आदमी है...वह
वैसे ही...! पीछे
गए उसके।
देखें, यह
आदमी अनूठा
है। वह आदमी
वैसे ही गया, जैसे वह रोज
जाता था। वही
चाल रही, वही
छड़ी का हिलना
रहा। घर पहुंच
गया। आग लगी है।
उसने नौकरों
से कह दिया कि बुझाओ! और
स्वयं बाहर
खड़ा रहा। सब
इंतजाम कर
दिया, लेकिन
उस आदमी में
रत्ती भर भी
फर्क नहीं है।
ईश्वरचंद्र
ने लिखा है कि
मेरा हृदय
श्रद्धा से
झुक गया। ऐसा
आदमी तो मैंने
देखा नहीं।
यह किस
चीज को सम्हाल
रहा है? उसका
नाम सुरति है;
उसका नाम
स्मृति है। यह
एक बात को
सम्हाले हुए
है कि अपने
होश को नहीं
खोना है। जो
हो रहा है, हो
रहा है। जो
किया जा सकता
है, वह कर
रहे हैं। जो
करने योग्य है,
वह किया
जाएगा। लेकिन
स्मृति कभी भी
खोने योग्य
नहीं है। इस
दुनिया में
ऐसी कोई भी
चीज नहीं है
इतनी
मूल्यवान, जिसके
लिए तुम सुरति
को खोओ।
लेकिन
तुम छोटी-छोटी
चीजों में खो
देते हो। एक
रुपए का नोट गिर
गया, और देखो
तुम कैसे पगला
जाते हो। एकदम
ढूंढ़ रहे हैं
पागल की तरह!
जहां नहीं हो
सकता, वहां
भी ढूंढ़ रहे
हो।
किसी
आदमी को देखो!
घर में उसकी
कोई चीज खो
गयी। चीज बड़ी
हो, वह छोटा
सा डिब्बा भी
खोल कर देख
रहा है कि शायद...।
तुम स्मृति को
खोने को तैयार
ही हो। खोने
को तैयार हो, यह कहना भी
शायद ठीक
नहीं।
तुम्हारे पास
है ही नहीं, तुम खोओगे
क्या? तुम
मूर्च्छित...।
नानक
कहते हैं, 'मनन से मन और
बुद्धि में
सुरति का उदय
होता है।'
जैसे-जैसे
ओंकार गहरा
बैठता है, पहले
तुम्हारा उच्चार
बंद होता है, वैसे ही तीर
भीतर की तरफ मुड़ता है।
क्योंकि अब
बाहर कोई न
रहा, जिससे
बोलना है।
बोलना यानी
बाहर से संबंध
बनाना। बोलना
यानी सेतु।
उससे हम दूसरे
तक जाते हैं।
वह संवाद है।
वह दूसरे और
हमारे बीच का
नाता है। वह
तोड़ लिया।
नहीं बोलना।
चुप हो गए।
चुप का
अर्थ है, यात्रा
उल्टी हो गयी।
तीर वापस
लौटा। अंतर्यात्रा
शुरू हुई। उसी
वक्त से
स्मृति की
पहली झलक आनी
शुरू हो
जाएगी। तुम
पाओगे, तुम
हो। तुम पहली
दफा जाग कर
पाओगे कि मैं
हूं। अब तक सब
दिखायी पड़ता
था, तुम भर
नहीं दिखायी
पड़ते थे। तुम
भर छाया में खड़े
थे। दीया तले
अंधेरा था। अब
तुम जागोगे।
फिर जैसे-जैसे
गहराई बैठेगी
ओंकार की, मनन
शब्द पर आएगा,
वैसे-वैसे
सजगता बढ़ेगी--उसी
अनुपात में।
तुम
ऐसा समझो, जैसे तराजू
के दो पलड़े
हैं। एक पलड़ा
ऊपर उठता है
तो दूसरा उसी
अनुपात में
नीचे आता है।
जिस अनुपात
में तुम भीतर
जाते हो, उसी
अनुपात में
सुरति बढ़ती
है। और तीसरे
तल पर जहां
शब्द भी खो
जाता है, सिर्फ
ओंकार की
ध्वनि रह जाती
है, नाद रह
जाता है--एक
ओंकार
सतनाम--वहां
अचानक परिपूर्ण
सुरति हो जाती
है! तुम जाग कर
खड़े होते हो, जैसे हजारों
साल की नींद
टूट गयी।
अंधेरा गया, प्रकाश आया।
जन्मों-जन्मों
से तुम जैसे
सोए थे और एक
सपना देख रहे
थे। सपना
विच्छिन्न हो
गया, सुबह
हो गयी। भोर
हुई।
ब्रह्ममुहूर्त
पहली दफा आया!
'मनन
से ही सभी
भुवनों की
सुधि आती है।
मनन से ही
मुंह में मार
नहीं खानी
पड़ती। मनन से
ही यम के साथ
नहीं जाना
पड़ता। वह नाम
निरंजन ही ऐसा
है कि जो कोई
मनन करता है, उसका मन ही
जानता है।'
मंनै
सुरति होवै
मनि बुधि।
मंनै सगल
भवन की सुधि।।
मंनै मुहि चोटा
न खाइ। मंनै जम के
साथ न जाइ।।
ऐसा नामु निरंजनु
होइ। जे को मंनि
जाणै मनि
कोइ।।
जिस
दिन तुम जागते
हो, उस दिन
तुम्हें पता
चलता है कि यह
अनंत आकाश, ये भुवन, यह
अस्तित्व, यह
परमात्मा की
अनंत लीला
पहली दफे
तुम्हें दिखायी
पड़ती है। जब
तक तुम अपनी
ही वासना में
खोए थे, अपने
ही मन में
डूबे थे, तब
तक तुम्हें
कुछ भी दिखायी
नहीं पड़ता था;
तुम अंधे
थे। मन अंधापन
है; मनन है
आंख का खुल
जाना।
नानक
कहते हैं, 'मनन से ही
सभी भुवनों की
सुधि आती है।'
ये
अनंत लोक, सब प्रकट हो
जाते हैं।
जीवन अपनी
परिपूर्ण महिमा
में प्रकट
होता है। तब
तुम देख पाते
हो रत्ती-रत्ती
में उसके
हस्ताक्षर, पत्ते-पत्ते
पर उसका नाम, रोएं-रोएं
में उसकी धुन,
हवा के
झोंके-झोंके
में उसी का
गीत। तब यह
जीवन, तब
यह अस्तित्व
पूरा का पूरा
उसकी महिमा को
प्रकट करता
है।
अभी
तुम पूछते हो, जीवन में
क्या है? लोग
पूछते हैं, क्या है
अर्थ जीवन का?
क्या
प्रयोजन है? क्यों हम
पैदा किए गए
हैं? लोग
पूछते हैं, किसलिए जिंदा रहें?
पश्चिम
के बहुत बड़े
विचारक
मार्शल ने लिखा
है कि जिंदगी
में एक ही तो
सवाल है और वह
है
आत्महत्या।
कि हम किसलिए
जिंदा रहें? क्यों न हम
आत्महत्या कर
लें?
यह
बेहोशी की
आखिरी अवस्था
है, जहां
आत्महत्या
घटित होती है,
जहां तुम
जीवन के
बहुमूल्य
उपहार को फेंक
देते हो वापस।
क्योंकि
तुम्हें कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ता उसमें।
और
इससे विपरीत
एक घटना घटती
है, जब तुम
जागते हो। तब
इतनी महिमा है,
इतनी
अपरंपार
महिमा है!
उसके भुवन
खुलते चले जाते
हैं; पर्त-पर्त
चारों तरफ
रहस्य खड़ा हो
जाता है। तब
तुम्हें जीवन
का अर्थ, जीवन
का
आनंद--जिसको
हमने समाधि
कहा है--उस क्षण
तुम जानते हो
कि क्यों जीवन
है।
अभी
तुम जान ही
नहीं सकते।
अभी तुम कितना
ही पूछो, कोई
कितना ही कहे,
कोई कह दे
कि परमात्मा
को पाना जीवन
का लक्ष्य है,
तो भी कुछ
हल नहीं होता।
समाधि को पाना
जीवन का
लक्ष्य है, तो भी कुछ हल
नहीं होता।
बात कुछ जंचती
नहीं है। बात
जंच ही नहीं
सकती। जंचेगी
तब जब सुधि
आएगी। ये नानक,
बुद्ध, कबीर,
ये तुम्हें
तब तक न जंचेंगे,
जब तक सुधि
न आएगी। तब तक
ये जंचेंगे
कि होंगे, ठीक
है, कहते
होंगे कुछ!
आमतौर से तो
तुम समझते हो
कि ये लोग--कुछ
दिमाग इनका
ठीक नहीं।
अपना दिमाग तुम
ठीक समझते हो
और तुम्हारे
दिमाग से तुम
पहुंचे कहां?
तुम्हारे
दिमाग से तुम
आत्महत्या के
करीब पहुंच
रहे हो। कैसे
खतम कर लें!
कुछ सार नहीं
मालूम पड़ता।
कैसे फेंक दें
इस बहुमूल्य
उपलब्धि को जो
जीवन है! इस
भेंट को हम
कैसे लौटा
दें!
जैसे
ही जागते हो, वैसे ही
जीवन का रहस्य
खुलना शुरू हो
जाता है। फूल
खिलता है, उसकी
पंखुड़ी-पंखुड़ी
अनंत आनंद बन
जाती है।
'मनन
से ही मुंह
में मार नहीं
खानी पड़ती।'
नानक
तो सीधे-सादे
गांव के
ग्रामीण हैं।
पर जो बात कह
रहे हैं, वह
बड़े पते की
है। वे यह कह
रहे हैं कि
अगर तुमने मनन
से कुछ बोला
तो तुम्हें
कभी अपने
शब्दों पर
लौटना नहीं
पड़ता वापस, पीछे नहीं
जाना पड़ता।
अगर मनन से ही
तुम्हारा शब्द
निकला तो
तुम्हें कभी
अपने शब्दों
को थूक कर
नहीं चाटना
पड़ता; नहीं
तो रोज चाटना
पड़ेगा। रोज थूकोगे, रोज चाटोगे।
रोज मुंह पर
मार खानी
पड़ेगी।
क्योंकि तुम
जो बोल रहे हो,
वह बेहोशी
में बोल रहे
हो। तुम जो
बोल रहे हो, वह अहंकार
की निद्रा में
बोल रहे हो।
तुम्हारा
बोलना नींद
में बोला गया
है। तुम होश
में नहीं हो
कि क्या तुम
कह रहे हो।
क्या तुम कर
रहे हो, उसका
तुम्हें कुछ
पता नहीं है।
कहां तुम जा
रहे हो, क्यों
तुम जा रहे हो,
तुम्हें
कुछ पता नहीं है।
तो तुम्हें
रोज ही मुंह
पर मार खानी
पड़ेगी।
आज तुम
कहोगे कि
प्रेम करता
हूं और कल तुम
सुबह पाओगे कि
प्रेम
तिरोहित हो
गया। अभी तुम
चाहते हो कि
हत्या कर दूं, घड़ी भर बाद
तुम चाहोगे कि
कैसे इस आदमी
को जिला लूं
वापस! बड़ी भूल
हो गयी। अभी
तुम कुछ कहते
हो, घड़ी भर
बाद कुछ हो
जाता है।
तुम्हारा कोई
भरोसा नहीं।
तुम बदलता हुआ
मौसम हो।
तुम्हारे
भीतर कोई भी
तत्व थिर नहीं
है, क्रिस्टलाइज्ड नहीं है।
तुम्हें
प्रतिक्षण
मुंह पर मार
खानी पड़ेगी।
नानक
कहते हैं, 'मनन से ही
मुंह पर मार
नहीं खानी
पड़ती और मनन से
ही यम के साथ
नहीं जाना
पड़ता।'
मरते
तो सभी हैं, लेकिन सभी
यम के साथ
नहीं जाते। यह
एक प्रतीक है।
इसे थोड़ा समझ
लें। मरते सभी
हैं, लेकिन
कभी-कभी कोई स्मरणपूर्वक
मरता है। बस
फिर यम के साथ
नहीं जाना
पड़ता। जब तक
तुम विस्मरण
में मरते हो, तब तक
तुम्हें यम के
साथ जाना
पड़ता। यम का
अर्थ है, भय।
जब आदमी
बेहोशी में
मरता
है--जिसकी
जिंदगी भर
बेहोशी में
बीती--तो मरते
वक्त कंपता है,
रोता है, चीखता है, चिल्लाता है,
अपने को
किसी तरह
बचाना चाहता
है। आखिरी दम
तक पकड़ रखना
चाहता है सांस
को कि किसी
तरह बच जाऊं।
कोई भी बहाना!
कोई भी बचा ले!
रोता है, गिड़गिड़ाता है। यह जो
सारे भय की
दशा है, यह
जो भय का काला
मुंह है, यह
जो भैंसे पर
सवार भय
है--इसका नाम
यम है।
लेकिन
जो आदमी स्मरण
से मरता है, जिसके भीतर
कोई भय नहीं, जिसने जीवन
को जाग कर
देखा, उसका
भय चला जाता
है। तब वह
पाता है कि
मृत्यु तो
जीवन की
परिपूर्णता है,
अंत नहीं।
और मृत्यु भय
नहीं है, वह
परमात्मा का
द्वार है। वह
पाता है कि
मृत्यु तो
आमंत्रण है; वह तो उसमें
लीन हो जाने
की प्रक्रिया
है। तब वह न घबड़ाता
है, न वह
कंपता है, न
वह रोता है, न वह
चिल्लाता है।
तब वह
आनंदमग्न उस
परम सौंदर्य
में प्रवेश
करता है। तब
वह अपने प्रिय
से मिलने जैसे
जा रहा हो।
नानक
जिस दिन मरे, उस दिन उनके
ओंठों पर जो
शब्द थे, वे
बड़े कीमती
हैं। नानक ने
कहा, फूल
खिल गए हैं!
वसंत आ गया है!
वृक्षों पर
बड़ा गीतों का
कलकल नाद है!
किस
जगत की वे बात
कर रहे हैं? लोगों ने
समझा कि वे
जिस गांव में
पैदा हुए थे, वह मौसम था
फूलों के आने
का और वृक्षों
पर पक्षियों
की कलकलाहट
का, उसी की
बात कर रहे
हैं। मरते
वक्त बचपन की
याद आ गयी। और
नानक पर लिखने
वाले सभी
लोगों ने यही
भूल की है। यह
मैं तुमसे
पहली बार कहता
हूं कि इसका
उनके गांव से
कोई संबंध न
था। यह संयोग की
बात थी कि
मौसम वसंत का
था। उनके गांव
में भी फूल
खिले होंगे, वृक्षों में
नए पत्ते आ गए
थे और पक्षी
कलरव कर रहे
थे। यह ठीक
है। यह संयोग
की बात है।
लेकिन नानक
मरते वक्त
जन्म को याद
करेंगे? नानक
मरते समय कुछ
और देख रहे
हैं। प्रतीक
तो इसी जगत के
उपयोग करना
पड़ेंगे, क्योंकि
जिनसे वे कह
रहे हैं...।
आखिरी घड़ी में
वे एक परम
सौंदर्य में
प्रवेश कर रहे
हैं, जहां
फूल खिले हैं,
जो कभी नहीं
मुरझाते; जहां
पक्षियों के
गीत सदा ही गूंजते
रहते हैं; जहां
शाश्वत है
सौंदर्य।
जैसे
ही कोई
व्यक्ति जीवन
को जाग कर
जीता है, मृत्यु
परिसमाप्ति
नहीं है, परिपूर्णता
है। मृत्यु
अंत नहीं है, परम फूल है।
जीवन की परम
अवस्था है।
मृत्यु में हम
कुछ खोते नहीं,
कुछ पाते
हैं। इस तरफ
द्वार बंद
होता है, उस
तरफ द्वार
खुलता है।
ज्ञानी नाचता
हुआ जाता है, गाता हुआ
जाता है।
अज्ञानी रोता
हुआ जाता है, चिल्लाता
हुआ जाता है।
अज्ञानी
यमदूत के साथ
जाता है, अपने
ही कारण। कोई
यम नहीं है।
कोई भैंसे पर
सवार यम
तुम्हारे पास
नहीं आता।
तुम्हारा भय तुम्हारा
यम है। तुम
अभय हो गए, फिर
परमात्मा खुद
अपनी बांहें
फैलाता है।
तुम जो
हो, वैसा ही
तुम्हारा
मृत्यु का
अनुभव होगा। इसलिए
मृत्यु कसौटी
है। आदमी कैसा
मरता है, इससे
पता चलता है
कि कैसा जीया।
अगर प्रफुल्लित
मरता है, शांत
मरता है, आनंदभाव, अहोभाव से
मरता है, तो
सारा जीवन
कीमती था, मूल्यवान
था। यह
पूर्णाहुति
है। अगर
रोता-चिल्लाता
मरता है तो
जीवन एक संताप
था, नर्क
था।
इसलिए
नानक कहते हैं, 'मनन से ही यम
के साथ नहीं
जाना पड़ता। वह
नाम निरंजन ही
ऐसा है कि जो
कोई मनन करता
है, उसका
मन ही जानता
है। मनन से ही
मार्ग में बाधा
नहीं आती। मनन
से ही कोई
प्रतिष्ठा के
साथ विदा होता
है। मनन से ही
कोई मार्ग से
नहीं भटकता।
मनन से ही
धर्म से संबंध
बनता है। वह
नाम निरंजन ही
ऐसा है कि जो
कोई मनन करता
है, उसका
मन ही जानता
है।'
मंनै मारग ठाक न
पाइ। मंनै
पति सिउ परगटु जाइ।।
मंनै मगु न चलै
पंथु। मंनै धरम
सेती सनबंधु।।
ऐसा नामु निरंजनु
होइ। जे को मंनि
जाणै मनि
कोइ।।
बाधाएं
तुम्हारे
बाहर नहीं हैं, बाधाएं तुम्हारे
भीतर हैं। और
तुम्हारे
भीतर बाधाएं हैं,
क्योंकि
तुम
मूर्च्छित
हो। और बाधाओं
को मिटाने का
और कोई उपाय
नहीं है। अगर
तुम एक-एक बाधा
को मिटाने में
लग जाओगे, तो
तुम कभी न
मिटा पाओगे।
बाधाओं को
मिटाने का एक
ही मार्ग है
कि तुम भीतर
जाग जाओ; सभी
बाधाएं खो जाती
हैं।
ऐसा
समझो कि
तुम्हारा घर
है अंधेरे से
भरा। तुम आते
हो, हर
कोने-कातर में
डर मालूम पड़ता
है कि पता नहीं,
प्रेत हों,
भूत हों, चोर हों, डाकू-लुटेरे
हों, हत्यारे
हों। पूरा घर
है, बड़ा
भवन है, कोने-कोने
में भय है।
हजार तरह के
भय हैं। तुम एक-एक
भय से कैसे जीतोगे?
कितने चोर
हैं, कितने
धोखेबाज हैं,
कितने
लुटेरे हैं, कितने
हत्यारे हैं,
क्या पता!
सांप हैं, बिच्छू
हैं, जहर
है, क्या
पता! अंधेरे
में क्या छिपा
है! तुमने अगर एक-एक
से निपटने की
कोशिश की तो
तुम हारोगे।
नहीं, एक-एक से
निपटा नहीं जा
सकता। निपटने
का एक ही उपाय
है कि तुम
दीया जला लो।
एक दीए के
जलने से सारे
भय समाप्त हो
जाते हैं, घर
प्रकाशित हो
जाता है। फिर
जो भी है, तुम
देख लेते हो।
फिर जो भी तुम
देख लेते हो, उससे निपटने
का मार्ग बन
जाता है।
सच तो
यह है, जैसा
बुद्ध ने कहा
है कि अंधेरे
घर में चोर आकर्षित
होते हैं। घर
में दीया जलता
हो तो चोर उस
घर से बच कर
निकलते हैं।
जिस घर पर कोई
पहरा नहीं है,
चोर और
लुटेरे और
डाकू और
हत्यारे उस
तरफ आते हैं।
जिस घर पर
पहरेदार है, उससे वे जरा
दूर ही चलते
हैं। भीतर
दीया जल रहा
हो और सुरति
का पहरेदार
खड़ा हो तो
तुम्हारे भीतर
कोई बाधा नहीं
आती, अन्यथा
सब बाधाएं आती
हैं।
एक दिन
सुबह-सुबह
मुल्ला नसरुद्दीन
ने मुझे आ कर
कहा कि अब कुछ
करना ही होगा, मैं बहुत
परेशान हूं।
और एक चिट्ठी
मेरे हाथ में
दी। किसी की
चिट्ठी थी, जिसमें लिखा
था कि नसरुद्दीन,
अगर तुमने
मेरी स्त्री
का पीछा करना
बंद नहीं किया
तो तीन दिन के
भीतर गोली मार
दूंगा। नसरुद्दीन
ने कहा, बोलो,
क्या करें!
मैंने कहा कि
इसमें इतना
उलझने की जरूरत
क्या है? उसकी
स्त्री का
पीछा करना बंद
कर दो। नसरुद्दीन
ने कहा, किसकी
स्त्री का
पीछा करना बंद
कर दें? नाम
तो लिखा ही
नहीं। अब कोई
एक स्त्री हो
तो पीछा बंद
कर दूं।
एक
बाधा हो तो
मिटा दो, बाधाएं
अनंत हैं।
अनंत
स्त्रियों का
पीछा चल रहा
है। अनंत
कामनाएं हैं।
एक को मिटाओ,
दस खड़ी हो
जाती हैं। एक
से बचो दस बन
जाती हैं। अगर
तुम ऐसा एक-एक
से उलझते रहे
तो तुम कभी भी
पार न पा
सकोगे। कुछ
विधि चाहिए, जो अकेली
सारी बाधाओं
का अंत कर दे।
वही विधि जो बता
दे, वह
गुरु। वही गुर
जो समझा दे, वह गुरु।
तो
नानक कहते हैं, 'मनन से
मार्ग में
बाधा नहीं
आती।'
तुम
जपो ओंकार, पहुंच जाने
दो ओंकार को
अजपा की
स्थिति तक, फिर
तुम्हारी
आंखें खुल
जाती हैं।
मार्ग में बाधा
नहीं आती, क्योंकि
बाधाएं तुम
खुद ही खड़ी
करते थे। कोई
और तुम्हारा
शत्रु नहीं है,
जिसे हटा
दिया जाए। तुम
ही अपने शत्रु
हो। तुम्हारी
मूर्च्छा ही
तुम्हारी
शत्रु है।
उसके ही कारण
तुम उलझे हो।
और तुम कितना
ही सम्हाल कर
चलो, तुम
नयी बाधाएं
खड़ी करते
रहोगे।
दुनिया
में नियंत्रण
रखने वाले लोग
हैं, संयम
रखने वाले लोग
हैं, क्या
फर्क पड़ता है!
किसी तरह
सम्हाल कर
चलते हैं।
संयम अंत नहीं
है, सुरति
अंत है। संयम
का मतलब यह है
कि किसी तरह अपने
को सम्हाल कर
चल रहे हैं कि
भटक न जाएं। लेकिन
भटकने का सुर
तो भीतर गूंज
रहा है, वह
कभी भी भटका
देगा। किसी
तरह चलते
रहोगे सम्हाल
कर, किसी
भी दिन घाट से
नीचे उतार
देगा, रास्ते
के नीचे उतार
लेगा। मौके की
बात है। और
संयमी आदमी
सदा डरा रहेगा,
क्योंकि
भीतर तो असंयम
उबल रहा है।
नानक
कह रहे हैं, 'मनन से
मार्ग में
बाधा नहीं
आती। मनन से
कोई प्रतिष्ठा
के साथ विदा
होता है।'
इस
प्रतिष्ठा से
तुम यह मत
समझना कि
सरकार इक्कीस
तोपें छोड़ती
हैं, कि जुलूस
दो मील लंबा
होता है, कि
आकाश से हवाई
जहाज से फूल
बरसाए जाते
हैं, कि
सभी अखबारों
के मुखपृष्ठ
पर तुम्हारी
फोटो छपती है।
इस प्रतिष्ठा
से नानक का
कोई संबंध
नहीं है। यह
प्रतिष्ठा है
भी नहीं।
एक और
प्रतिष्ठा है
जो दूसरों पर
निर्भर नहीं होती।
जो दूसरे पर
निर्भर है, वह क्या
प्रतिष्ठा! एक
और प्रतिष्ठा
है जो आंतरिक
गरिमा की है।
प्रतिष्ठा से
वह आदमी विदा
होता है, जिसको
मृत्यु
परमात्मा का
मिलन मालूम
होती है। वह आनंदभाव
से, अहोभाव
से विदा होता
है। वह जीवन
को धन्यवाद
देता हुआ विदा
होता है। वह
चारों तरफ
अनुग्रह के भाव
से विदा होता
है। तुम उसके
अनुग्रह की
छाप उसके
चेहरे पर
पाओगे, उसके
रोएं-रोएं पर
लिखी पाओगे।
चाहे उसे कोई
पहुंचाए न, चाहे वह
रास्ते के
किनारे किसी
झाड़ के नीचे
मर गया हो, पशु-पक्षी
उसे खा जाएं, लेकिन उसकी
प्रतिष्ठा
है। वह
प्रतिष्ठा
आंतरिक गरिमा
है।
मृत्यु
भय नहीं है, तब तुम
प्रतिष्ठा से
विदा होते हो।
मृत्यु अगर भय
है तो तुम
प्रतिष्ठा से
विदा नहीं हो
सकते। कैसे
विदा होओगे
प्रतिष्ठा से?
रोते, गिड़गिड़ाते,
भीख मांगते,
कितने ही
लोग तुम्हें
पहुंचा दें, इससे क्या
फर्क पड़ता है!
कितने ही लोग
बैंड-बाजे बजा
दें, इससे
क्या फर्क
पड़ता है। उनके
बैंड-बाजे के
शोरगुल में
तुम्हारा दुख
न छिपेगा,
बरसते फूलों के
नीचे
तुम्हारी सड़ती
हुई गंध न छिपेगी।
उनकी गरजती
तोपों के भीतर
तुम्हारे
भीतर का जो तुमुल
संताप था, वह
न छिपेगा।
तुम्हारी मौत
अप्रतिष्ठित
रहेगी।
जब
नानक कहते हैं
कि मनन से ही
कोई
प्रतिष्ठा के
साथ विदा होता
है, तो वे
कहते हैं कि
आत्म-प्रतिष्ठा
से, एक
भीतरी सम्मान,
अहोभाव से।
'मनन
से ही मार्ग
से नहीं
भटकता। मनन से
ही धर्म से
संबंध बनता
है।'
शास्त्र
कितना ही पढ़ो, धर्म से
संबंध न
बनेगा। मंदिर,
मस्जिद, गुरुद्वारा,
कोई धर्म से
संबंध न जोड़
पाएगा।
क्योंकि तुम्हीं
तो
गुरुद्वारा
जाओगे--सोए, मूर्च्छित!
तुम जो दुकान
पर बैठे थे, वही
गुरुद्वारा
जाएगा।
तुम्हारा ढंग
बदलना चाहिए।
तुम्हारा ढंग
बदल जाए तो सब
बदल गया।
अन्यथा, तुम
सब करते
रहोगे...।
नानक
हरिद्वार गए
और एक घटना
घटी।
पितृ-पक्ष चलता
था और लोग
कुएं पर पानी
भर कर आकाश
में अपने
पुरखों को भेज
रहे थे। नानक
ने भी बाल्टी
उठा ली, कुएं
से पानी भरा
और लोग तो
पूरब की तरफ
मुंह करके भेज
रहे थे, उन्होंने
पश्चिम की तरफ
बाल्टी उलटानी
शुरू कर दी।
और जोर से कहा,
पहुंच मेरे
खेत में। जब
दस-पांच
बाल्टी डाल चुके
और सब जगह
खराब कर दी, पानी से भर
दी, तो
लोगों ने पूछा
कि आप यह कर
क्या रहे हैं?
आपका दिमाग
ठीक है? और
पुरखों को जो
पानी चढ़ाया
जाता है, वह
सूर्य की तरफ,
पूर्व की
तरफ, आप यह
पश्चिम की तरफ
उलटा धंधा कर
रहे हैं! और यह
क्या कहते हैं
कि पहुंच मेरे
खेत में? कहां
खेत है
तुम्हारा?
नानक
ने कहा, यहां
से कोई दो सौ
मील दूर है।
लोग हंसने
लगे। उन्होंने
कहा, तुम
पागल हो; शक
तो हमें पहले
ही हुआ था।
कहीं दो सौ
मील दूर यह
पानी पहुंच
सकता है? नानक
ने कहा, तुम्हारे
पुरखे कितनी
दूर हैं? उन्होंने
कहा कि वे तो
अनंत दूरी पर
हैं। तो नानक
ने कहा कि जब
अनंत दूरी तक
पहुंच रहा है,
तो दो सौ
मील फासला
क्या बहुत बड़ा
है! जब तुम्हारे
पुरखों तक
पहुंच जाएगा
तो हमारे खेत
तक भी पहुंच
जाएगा।
नानक
क्या कह रहे
हैं? नानक यह
कह रहे हैं, थोड़ा चेतो!
तुम क्या कर
रहे हो? थोड़ा
होश संभालो!
कहां पानी ढाल
रहे हो? इस
तरह की मूढ़ताओं
से क्या होगा?
लेकिन
सारा धर्म इस
तरह की मूढ़ताओं
से भरा है।
कोई पुरखों को
पानी पहुंचा
रहा है, कोई
गंगाओं
में स्नान कर
रहा है कि पाप
धुल जाएंगे, कोई पत्थर
की मूर्तियों
के सामने बिना
किसी भाव के, बिना किसी
अर्चना के, सिर झुकाए
बैठा है और
मांग कर रहा
है संसार की।
धर्म के नाम
पर हजार तरह
की मूढ़ताएं
प्रचलित हैं।
इसलिए
नानक कहते हैं, न तो
शास्त्र से
मिलेगा, न
संप्रदाय से
मिलेगा, न
अंधे अनुकरण
से मिलेगा।
धर्म का संबंध
होता ही तब है,
जब कोई
व्यक्ति मनन
को उपलब्ध
होता है।
जब कोई
व्यक्ति जाग
जाता है, भीतर
सुरति आती है।
बस जहां से
ओंकार का नाद
शुरू होता है,
वहीं से
धर्म का संबंध
शुरू होता है।
जिस दिन तुम
समर्थ हो
जाओगे नाद को
सुनने में, करने वाले
नहीं रहोगे, सिर्फ सुनने
वाले, और
भीतर नाद हो
रहा है, और
तुम आह्लादित
हो, तुम
साक्षी हो, तुम द्रष्टा
हो--उसी दिन
तुम्हारा
धर्म से संबंध
जुड़ जाएगा।
निश्चित ही यह
धर्म मजहब
नहीं हो सकता।
यह धर्म रिलीजन
नहीं हो सकता।
इस धर्म का
वही अर्थ है
जो बुद्ध के
धम्म का। इस
धर्म का वही
अर्थ है जो
महावीर के
धर्म का।
धर्म
का अर्थ है, स्वभाव। जो
लाओत्से का
अर्थ है ताओ
से, वही
धर्म से अर्थ
है नानक का।
तुम अपने
स्वभाव से जुड़
जाओगे। और
स्वभाव में हो
जाना ही परमात्मा
में हो जाना
है। स्वभाव से
हट जाना, खो
जाना है।
स्वभाव में
लौट आना, वापस
घर पहुंच जाना
है।
'वह
नाम निरंजन ही
ऐसा है कि जो
कोई मनन करता
है, उसका
मन ही जानता
है।'
'मनन
से ही
मोक्ष-द्वार
की प्राप्ति
होती है। मनन
से ही परिवार
को बचा लिया
जाता है। मनन
से ही गुरु तरता
है और शिष्य
को तारता
है। नानक कहते
हैं, मनन
से ही भिक्षा
के लिए नहीं
भटकना पड़ता।
वह नाम निरंजन
ही ऐसा है कि
जो कोई मनन
करता है, उसका
मन ही जानता
है।'
मंनै पावहि मोख दुआरु। मंनै परवारै
साधारु।।
मंनै तरै तारे
गुरु सिख। मंनै
नानक भवहि
न भिख।।
ऐसा नामु निरंजनु
होइ। जे को मंनि
जाणै मनि
कोइ।।
द्वार
तुम्हारे
भीतर है, भटकाव
तुम्हारे
भीतर है।
बाधाएं
तुम्हारे भीतर
हैं, मार्ग
तुम्हारे
भीतर है।
सिर्फ दीया जल
जाए तो तुम
दोनों को देख
लोगे--क्या है
असत्य, क्या
है सत्य। दीया
जल जाए तो तुम
देख लोगे कि कामना
है असत्य और कामना
का अनुकरण है
संसार। दीया
जल जाए तो तुम देख
लोगे, अकामना
है सत्य और
अकामना है
मोक्ष का
द्वार।
तुम बंधते हो, क्योंकि तुम
मांगते हो।
मांग है बंधन।
तुम नहीं बंधोगे,
अगर तुम
मांगोगे
नहीं। जब तक
तुम मांगते
रहोगे, तुम
बंधते
रहोगे। तुमने
न मालूम कितनी
जंजीर गढ़
ली हैं।
तुम्हारी हर
मांग जंजीर बन
जाती है। तुमने
मांगा कि तुम
फंसे। तुमने
मांगा कि तुम कारागृह
में प्रविष्ट
हुए। और तुम
मांगते ही चले
जाते हो, तो
कारागृह
मजबूत होता
चला जाता है।
नानक
कहते हैं कि
मनन से ही
मोक्ष-द्वार
की प्राप्ति
होती है।
क्योंकि जैसे
ही तुम जागे, साफ दिखलायी
पड़ जाता है--न
मांगोगे, न
बंधोगे; न आकांक्षा
होगी, न
बंधन होगा; न चाह होगी, न जंजीरें
होंगी। और जब
कोई चाह नहीं,
मोक्ष का
द्वार खुल
गया। अचाह
मोक्ष का
द्वार है।
'मनन
से ही परिवार
को बचा लिया
जाता है।'
किस
परिवार की बात
करते हैं नानक? निश्चित ही
उस परिवार की
तो नहीं करते
हैं--पत्नी, बच्चे, भाई-बहन--क्योंकि
वह तो नानक भी
नहीं बचा सके।
वह तो कोई
नहीं बचा सका।
वह तो परिवार
है ही नहीं।
एक और परिवार
है--गुरु और
शिष्य का
परिवार। वही
परिवार है।
क्योंकि वहीं
प्रेम अपने शुद्धतम
रूप में घटित
होता है; क्योंकि
वहीं प्रेम
अचाह से घटित
होता है; वहां
प्रेम अकारण
घटित होता है।
पिता
से प्रेम होता
है, क्योंकि
उसने जन्म
दिया है, कारण
है। पत्नी से
प्रेम होता है,
क्योंकि
शरीर की वासना
है, कारण
है। बेटे से
प्रेम होता है,
बुढ़ापे का
सहारा है; आशा
है, कारण
है। गुरु से
क्या संबंध? इसलिए तो
जगत में गुरु
खोजना बहुत
मुश्किल हो जाता
है, क्योंकि
अकारण प्रेम
खोजना है। बस
प्रेम है, कोई
कारण नहीं। न
उससे कोई आशा
है, न कोई
आकांक्षा है।
अगर तुम आशा
और आकांक्षा से
गुरु के पास
गए तो परिवार
न बन सकोगे
उसके। उसके
पास तो तुम्हें
अकारण ही जाना
होगा। कारण से
तो तुम संसार
में बहुत भटक
लिए हो, क्या
पाया? बिना
किसी कारण के,
सहज भाव से,
बस हो गया!
इसलिए
तो श्रद्धा को
अंधी कहा है।
अंधी दिखती है
सोचने वालों
को। वे पूछते
हैं, क्यों इस
आदमी के पीछे
पागल हो? मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, उनके
घर के लोग
कहते हैं, क्यों
रजनीश के पीछे
पागल हो? दिमाग
खराब हो गया
है?
वे
निश्चित ही
पागल हैं। और
सच कहा जाए तो
ठीक ही कहते
हैं घर के लोग
कि दिमाग खराब
हो गया है। वह
दिमाग जिससे
संसार चलता है, निश्चित ही
खराब हो गया
है। एक नया
प्रेम बना है।
और इस नए
प्रेम के लिए
कोई तर्क नहीं
दे सकते हो।
किसी को सिद्ध
भी नहीं कर
सकते कि इस
प्रेम में कोई
कारण है।
सिद्ध करने
में उनको खुद
ही लगेगा कि
असंभव है।
नानक
कहते हैं कि
मनन से ही
परिवार को बचा
लिया जाता है।
एक
गुरु का एक
परिवार
निर्मित होता
है। और जब वह
परिवार
संप्रदाय बन
जाता है, तब
नुकसान शुरू
हो जाता है; जब तक वह
परिवार रहता
है, तब तक
एक बात। जब
बुद्ध पैदा
होते हैं तो
हजारों लोग
उनके परिवार
में सम्मिलित
होते हैं। नानक
पैदा होते हैं,
हजारों लोग
उनके परिवार
में सम्मिलित
होते हैं। जो
लोग नानक के
परिवार में
सम्मिलित
होते हैं, यह
सम्मिलित
होना ही बड़ी
भारी घटना है।
क्योंकि यह
अकारण-जगत में
प्रवेश है, अकारण प्रेम
में प्रवेश
है। यह नानक
का रंग और रस
लग गया। यह
धुन पकड़ गयी।
यह पागल हुए
जा रहे हैं।
लेकिन
फिर नानक विदा
हो जाएंगे। जो
परिवार में
अपनी
स्वेच्छा से
सम्मिलित हुए
थे, वे विदा
हो जाएंगे।
फिर उनके
बच्चे और बेटे
भी सिक्ख
रहेंगे, वह
संप्रदाय है।
क्योंकि जिस
प्रेम को
तुमने नहीं
चुना, वह
तुम्हें
रूपांतरित
नहीं कर सकता।
नानक को चुनना
बड़ी क्रांति
है। फिर सिक्ख
के घर में पैदा
होना और अपने
को सिक्ख
मानना कोई
क्रांति नहीं है।
मुसलमान
के घर में
मुसलमान पैदा
होता है; हिंदू
के घर में
हिंदू; जैन
के घर में जैन;
सिक्ख के घर
में सिक्ख।
संप्रदाय का
अर्थ है, जो
तुम्हें जन्म
से मिले। और
परिवार का
अर्थ है, जो
तुमने अपनी
स्वेच्छा से
चुना हो।
धार्मिक व्यक्ति
हमेशा
स्वेच्छा से चुनेगा।
अधार्मिक
व्यक्ति
सांप्रदायिक
होगा, जन्म
से चुनेगा।
तुम
जन्म से जैन
हो, कोई
हिंदू है, कोई
बौद्ध है।
लेकिन जन्म से
कोई हिंदू, जैन, बौद्ध,
सिक्ख हो
सकता है? जन्म
से खून मिल
सकता है, हड्डी-मांस-मज्जा
मिल सकती है।
आत्मा कैसे मिलेगी?
और
इसलिए दुनिया
में एक बड़ी अनबूझ
घटना घटती
रहती है कि जब
गुरु जिंदा
होता है, तब
एक रोशनी होती
है, जिसमें
वह खुद भी तिरता
है और दूसरों
को भी तैराता
है। जब गुरु
जिंदा होता है,
तब एक जीवंत
घटना घटती है!
फिर गुरु विदा
हो जाता है, वे जो
प्राथमिक--जिन्होंने
अपने जीवन की चढ़ोत्तरी
की थी, जिन्होंने
अपने जीवन को
भेंट किया था,
दांव पर
लगाया था--वे
विदा हो जाते
हैं। तब उनके
घर में बच्चे
पैदा होते
हैं। ये बच्चे
फिर सिक्ख
होंगे, जैन
होंगे, बौद्ध
होंगे। धर्म
से इनका कोई
संबंध न होगा।
एक बात
ठीक से समझ
लेना, धर्म
व्यक्ति का
अपना निर्णय
है। जन्म से कोई
धार्मिक नहीं
हो सकता। उस
निर्णय से जो
परिवार बनता
है...।
नानक
कहते हैं, 'मनन से ही
परिवार बचा
लिया जाता है।
मनन से ही गुरु
तरता है
और शिष्य को तारता है।'
नानक
कहते हैं, 'मनन से ही
भिक्षा के लिए
नहीं भटकना
पड़ता।'
जैसे-जैसे
मनन गहरा होता
है, मांगना
ही छूट जाता
है। संसार
क्या है? भिक्षा
के लिए भटकना
है। तुम गौर
करो कि तुम क्या
कर रहे हो? तुम
मांग रहे हो।
चौबीस घंटे
मांग जारी है।
तुम भिखारी
हो।
नानक
कहते हैं, 'मनन से ही
भिक्षा के लिए
नहीं भटकना
पड़ता।'
मनन से
आदमी सम्राट
हो जाता है, शहंशाह हो
जाता है, बादशाह
हो जाता है।
मनन उसे मुक्त
कर देता है
भिक्षा से।
मनन से वह मिल
जाता है, जिसके
पार पाने को
कुछ बचता
नहीं। मनन से
परमात्मा मिल
जाता है, फिर
और क्या
मांगना है? आखिरी मंजिल
आ गयी! अब आगे
कुछ मांगने को
कहां है? सब
मिल गया! कुछ
शेष कहां रहा?
समाधि मिल
गयी, सब मिल
गया!
भिक्षा-वृत्ति
छूट जाती है।
'वह
नाम निरंजन ही
ऐसा है कि जो
कोई मनन करता
है, उसका
मन ही जानता
है।'
ऐसा नामु निरंजनु
होइ। जे को मंनि
जाणै मनि
कोइ।।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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