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सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--062

युद्ध अनिवार्य हो तो शांत प्रतिरोध ही नीति है—(प्रवचन—बासठवां)

अध्याय 31 : खंड 1

अनिष्ट के शस्त्रास्त्र

सैनिक, सबसे बढ़ कर, अनिष्ट के औजार होते हैं,
और लोग उनसे घृणा करते हैं।
इसलिए, ताओ से युक्त धार्मिक पुरुष उनसे बचता है।
सज्जन असैनिक जीवन में वामपक्ष अर्थात
शुभ के लक्षण की ओर झुकता है;
लेकिन युद्ध के मौकों पर वह दक्षिणपक्ष अर्थात
अशुभ के लक्षण की ओर मुड़ जाता है।
सैनिक अनिष्ट के शस्त्र-अस्त्र होते हैं,
वे सज्जनों के लिए शस्त्र नहीं हो सकते।
जब सैनिकों का उपयोग अनिवार्य हो जाए,
तब शांत प्रतिरोध ही सर्वश्रेष्ठ नीति है।

स सूत्र को समझने के लिए कुछ प्रारंभिक बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बात: वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी का सारा विकास अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा हुआ है; मनुष्य की सारी प्रगति हिंसा के कारण हुई है।
और मनुष्य अगर सारे पशुओं में जीत पाया है, तो बुद्धिमानी के कारण नहीं, ज्यादा हिंसा करने की क्षमता के कारण। ऐसे वैज्ञानिक भी हैं, जो कहते हैं, मनुष्य की बुद्धि हिंसा करने के कारण ही विकसित हुई है।
इसे थोड़ा हम समझ लें, क्योंकि लाओत्से की बात इसके बिलकुल विपरीत है। तभी इसके ठीक आमने-सामने लाओत्से की बात समझना आसान भी होगा, उचित भी।
शायद आपको पता न हो, डार्विन से लेकर जे.बी.एस.हाल्डेन तक जिन लोगों ने विकास के संबंध में गहन अध्ययन किया है, वे एक बहुत अजीब नतीजे पर पहुंचे हैं। और वह नतीजा यह है कि आदमी का सारा विकास उसके अंगूठे के कारण हुआ। सुन कर थोड़ी हैरानी होगी, लेकिन बात में सचाई है। अकेला आदमी ही ऐसा पशु है, जिसका अंगूठा उसकी अंगुलियों के विपरीत काम कर सकता है। जैसे आपका पैर का अंगूठा है, वह अंगुलियों के विपरीत काम नहीं कर सकता; इसलिए पैर से आप कोई चीज पकड़ नहीं सकते। और जब पकड़ ही नहीं सकते, तो फेंक नहीं सकते। आदमी के हाथ का अंगूठा अंगुलियों के विपरीत काम करता है--अंगुलियां एक दिशा से और अंगूठा दूसरी दिशा से। इस विरोध के कारण आप हाथ में कोई चीज पकड़ सकते हैं। और इस विरोध के कारण ही आप किसी चीज को फेंक सकते हैं। फेंकने की ताकत ही अस्त्र-शस्त्र का निर्माण बनती है।
कोई जानवर शस्त्रों का उपयोग नहीं कर सकता; क्योंकि पकड़ ही नहीं सकता। और जब पकड़ ही नहीं सकता, तो फेंक भी नहीं सकता। जो जानवर उपयोग कर सकते हैं अंगूठे का, जैसे बंदर, चिम्पांजी, बबून--बंदरों की जातियां हैं। इसलिए वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी और बंदर सजातीय हैं। क्योंकि उनके पास भी अंगूठा है, जो अंगुलियों के विपरीत थोड़ा सा काम कर सकता है। ज्यादा नहीं। आदमी के मुकाबले गतिमान नहीं है, लेकिन थोड़ी-बहुत चीजें वे पकड़ सकते हैं; थोड़ी दूर तक चीजें फेंक भी सकते हैं।
आदमी का अंगूठा उसकी हिंसा का आधार है। वैसे आदमी कमजोर है। यह भी हम ठीक से समझ लें कि आदमी को इतने हिंसक होने की क्या जरूरत पड़ गई होगी। क्योंकि आदमी से ज्यादा हिंसक कोई पशु नहीं है। कोई पशु खेल में हिंसा नहीं करता; सिर्फ आदमी शिकार करता है और खेल में हिंसा करता है। कोई पशु अपनी ही जाति में हिंसा नहीं करता; आदमी आदमी को मारने में बड़ा रस लेता है। कोई पशु अकारण हिंसा नहीं करता; आदमी अकारण हिंसा करता है, और पीछे कारण खोज लेता है। पशुओं में कोई बड़े युद्ध नहीं होते, कोई विश्वयुद्ध नहीं होते। होने की कोई संभावना नहीं है।
क्या कारण है आदमी के इतने हिंसक हो जाने का? और क्या कारण है आदमी के अस्त्र-शस्त्र की खोज का?
कारण बड़ा अजीब है--वह भी खयाल में नहीं आता--क्योंकि आदमी कमजोर है। सारे पशुओं में आदमी कमजोर से कमजोर पशु है। अगर निहत्थे आप एक कुत्ते से भी लड़ें तो नहीं लड़ सकते। न तो आपके पास उतने मजबूत दांत हैं और न उतने नुकीले नाखून। जानवरों के पास दांत और नाखून उनके अस्त्र-शस्त्र हैं, उनके औजार हैं। आदमी बिलकुल कमजोर है। निहत्था आदमी किसी जानवर से जीत नहीं सकता। यही कमजोरी हिंसा की खोज बन गई। क्योंकि आदमी के पास नाखून न थे, इसलिए उसे छुरीत्तलवारें बनानी पड़ीं। वे नाखून की पूरक हैं। आदमी के पास इतने बड़े दांत न थे जितने पशुओं के पास थे, तो उसे औजार के दांत बनाने पड़े, जो पशुओं की छाती में घुस जाएं, उनका कलेजा बाहर खींच लें।
आदमी कमजोर है, इसलिए हिंसक हो गया। यह बड़े मजे की बात है। इसका मतलब यह होगा कि जब तक आदमी की भीतरी कमजोरी न मिट जाए, तब तक वह अहिंसक नहीं हो सकता। और तब इसका मतलब भी यह हुआ कि जितना बड़ा हिंसक आदमी हो, समझना कि उतना भीतर कमजोर है। और इसका यह भी मतलब हुआ कि जितना शक्तिशाली मनुष्य होगा, उतना अहिंसक हो जाएगा।
भय के कारण हिंसा पैदा हुई। आदमी भयभीत है, तो उसने हिंसा खोजी। और उसके पास हाथ थे, अंगूठा था, कमजोर मनोदशा थी--उसने चीजें फेंक कर मारनी शुरू कर दीं। उसके अस्त्र-शस्त्रों की खोज शुरू हो गई। फिर आदमी ने पत्थर के औजार से लेकर एटम बम तक की यात्रा की।
यह भी थोड़ा समझने जैसा है कि जैसे-जैसे आदमी के पास ताकतवर अस्त्र-शस्त्र बनते चले गए, वैसा-वैसा आदमी और कमजोर होता चला गया। आज से दस हजार साल पहले की कब्रों में अगर हम आदमी को देखें, तो वह शरीर की दृष्टि से हमसे बहुत मजबूत था। हमारे पास एटम बम हैं। अगर हम दस हजार साल के पहले के आदमी से युद्ध करें, तो वह हमसे जीत नहीं सकेगा। बाकी वह हमसे शरीर में मजबूत था। अगर हम अस्त्र-शस्त्रों को अलग कर दें और निहत्था लड़ें, तो हम पीछे के आदमियों से जीत नहीं सकते। आज भी जो जंगल में आदिवासी रह रहा है, उससे हम जीत नहीं सकते। शारीरिक रूप से वह ताकतवर है। क्यों?
एक दुष्ट-चक्र है। कमजोर आदमी कमजोरी के कारण हिंसा के अस्त्र खोजता है। फिर हिंसा के अस्त्र जितने मिल जाते हैं, उतनी ही ताकत की जरूरत कम होती चली जाती है, तो वह कमजोर होता चला जाता है। जिस दिन हमारे पास सब तरह के स्वचालित यंत्र होंगे, उस दिन आदमी बिलकुल कमजोर होगा।
जो लोग पैदल चलते थे, उनके मुकाबले हमारे पैर कमजोर हैं। होंगे ही। क्योंकि हम पैदल तो चलने का कोई काम ही नहीं कर रहे हैं। पैर का कोई उपयोग नहीं है। जिन चीजों का उपयोग खोता चला जाता है, वे कमजोर होती चली जाती हैं। अब हमने कंप्यूटर खोज लिया है। जल्दी ही आदमी के मस्तिष्क की ज्यादा जरूरत नहीं रह जाएगी, और आदमी का मस्तिष्क भी कमजोर होता चला जाएगा। जिस चीज का हम यंत्र बना लेते हैं, उसकी फिर हमारे शरीर में कोई जरूरत नहीं रह जाती।
कमजोरी के कारण आदमी हिंसक हुआ। हिंसक होने के कारण और कमजोर होता चला गया। एक तरफ बड़ी ताकत है हमारे हाथ में कि हम लाखों लोगों को एक सेकेंड में मिटा दें; और दूसरी तरफ हम इतने निहत्थे हैं कि एक छोटा सा जानवर भी हम पर हमला कर दे तो हम सीधा उससे जीत नहीं सकते। हमारा बड़े से बड़ा सेनापति भी निहत्था जीत नहीं सकता एक साधारण जंगली पशु से।
ये तथ्य खयाल में ले लेने जरूरी हैं। सब हिंसा परिपूरक है कमजोरी की।
पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक एडलर ने इस सदी में बहुत महत्वपूर्ण विचार प्रस्तावित किया था। और वह था कि जिंदगी निरंतर परिपूरक की खोज करती है। इसलिए जिन लोगों में कोई कमी होती है, वे उस कमी की पूर्ति के लिए कुछ ईजाद करते हैं। अक्सर यह होता है--अक्सर--कि जो लोग किसी दृष्टि से हीन अनुभव करते हैं अपने को, वे किसी दूसरी दिशा में श्रेष्ठ होने की कोशिश करके पूर्ति कर लेते हैं। कुरूप आदमी हो, तो वह किसी दूसरी दिशा में अपनी कुरूपता की पूर्ति खोजता है--वह बड़ा कवि हो जाए, कि बड़ा चित्रकार हो जाए, कि बड़ा संगीतज्ञ हो जाए, कि बड़ा नेता हो जाए--वह कुछ हो जाए, ताकि उसको ऐसा न लगे कि मैं हीन हूं।
दुनिया के राजनीतिज्ञों का जीवन अगर हम खोजें तो बड़ी आश्चर्य की बात मालूम पड़ेगी। वे किसी न किसी रूप में बहुत हीनता से पीड़ित थे। लेनिन के पैर, कुर्सी पर बैठता था, तो जमीन तक नहीं पहुंचते थे। पैर उसके छोटे थे, ऊपर का हिस्सा बड़ा था। और बचपन से लोग उससे कहते रहे थे कि तुम क्या करोगे जिंदगी में, तुम साधारण सी कुर्सी पर भी बैठ नहीं सकते हो! तो उसने सोवियत रूस के सिंहासन पर बैठ कर दिखला दिया कि साधारण कुर्सी तो कुछ भी नहीं है, मैं बड़े से बड़े सिंहासन पर बैठ सकता हूं।
मनसविद कहते हैं कि वह जो पैर जमीन को नहीं छूते थे, वह जो हीनता थी, लेनिन सदा पैर छिपा कर बैठता था। जब वह सिंहासन पर बैठ गया--तब भी--तब भी वह किसी के सामने कुर्सी पर एकदम से नहीं बैठ सकता था; क्योंकि पैर उसके ऊपर उठ जाते थे। वह उसके लिए दीनता की बात थी। वह उसके लिए कठिनाई हो गई।
हिटलर के संबंध में अब वैज्ञानिकों ने जो खोज-बीन की हैं, वे बहुत सी बातें बताती हैं। वह अनेक तरह की बीमारियों से परेशान था और उन सारी बीमारियों की परेशानी और हीनता उसे पागल बना दी। वह किसी दूसरी दिशा में सिद्ध करके बता देगा कि वह हीन नहीं है।
जो भी इनफीरियारिटी से, हीनता से पीड़ित होते हैं, वे किसी दिशा में सुपीरियर, श्रेष्ठ सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। इस लिहाज से मनुष्य सबसे ज्यादा हीन पशु है--भौतिक शक्ति में। और उसने सब पशुओं से श्रेष्ठ होने की कोशिश करके अपने को सिद्ध भी कर दिया है कि वह श्रेष्ठ है। और जिन-जिन चीजों की कमी थी, उसने परिपूर्ति कर ली है। हाथ कमजोर थे, तो उसने अस्त्र बना लिए। शरीर कमजोर था, तो उसने मकान बना लिए, किले बना लिए। उसने सब तरह से अपनी सुरक्षा की है। वैज्ञानिक कहते हैं कि इसी हिंसा के बल पर, आदमी जो है आज तक, वह बन पाया है। पर इसके अब खतरे भी हैं। यह बात सच है कि आदमी जो भी बन पाया है, वह हिंसा के कारण ही बन पाया है। अगर लाओत्से या महावीर या बुद्ध ने आज से बीस हजार साल पहले आदमी को अहिंसा समझा दी होती और आदमी मान लिया होता, तो आदमी आज कहीं होता ही नहीं। अगर जंगल के आदमी को अहिंसा समझाने वाले लोग मिल गए होते, तो जंगली जानवर उसे कभी का साफ कर चुके होते।
इसलिए आज से बीस हजार साल पहले कोई महावीर पैदा नहीं हुआ। हो भी नहीं सकता था। ध्यान रहे, महावीर के पैदा होने के लिए वह स्थिति जरूरी है, जब हिंसा जरूरी न रह गई हो। तभी अहिंसा की बात की जा सकती है। इसलिए महावीर के इसके पहले पैदा होने का कोई उपाय नहीं। न लाओत्से का। खयाल करें, लाओत्से, महावीर, बुद्ध, सुकरात, अरस्तू, प्लेटो, सभी का समय एक है। सारी जमीन पर यह आज से पच्चीस सौ साल पहले ये लोग पैदा हुए। इनको और पीछे नहीं हटाया जा सकता है। क्योंकि पीछे तो अहिंसा की बात ही करने का कोई अर्थ नहीं हो सकता था; पीछे तो हिंसा जीवन की अनिवार्यता थी।
लेकिन जो अनिवार्यता थी कल, वही बाद में कठिनाई बन जाएगी।
आज वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी ने कोई दस लाख साल में हिंसा से अपने को विजेता घोषित किया; पशुओं को हरा डाला और वह एकछत्र मालिक हो गया। दस लाख साल में उसके जीवाणुओं की आदत हिंसा की हो गई। अब हिंसा की कोई जरूरत नहीं है; लेकिन उसकी आदत हिंसा की है। यही आज की तकलीफ है।
आज की सारी बड़ी से बड़ी पीड़ा यही है कि आपकी बनावट जिस रास्ते से हुई है, वह रास्ता समाप्त हो गया। अब न तो आप जंगली जानवरों से लड़ रहे हैं; न आप अंधेरी रात में किसी गुहा में बैठे हुए हैं। न आज आपके दांत और नाखून की कोई जरूरत है। और उनके विस्तार का तो कोई काम नहीं है। लेकिन आदमी के सेल्स, उसके शरीर के जीवाणुओं में बिल्ट-इन, बना हुआ प्रोग्राम है। दस लाख साल में आपके जीवाणुओं ने जो सीखा है, वे आपकी जिंदगी में भूल नहीं सकते। उनको दस लाख साल लगेंगे भूलने में।
तो जो लोग विज्ञान की तरह से सोचते हैं, जैसे स्किनर और दूसरे विचारक, वे कहते हैं, आदमी को अहिंसक बनाने का तब तक कोई उपाय नहीं, जब तक हम उसके जेनेटिक, उसके जीवाणुओं के मूल आधार को न बदल दें। तब तक आदमी को अहिंसक बनाने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि आदमी पैदा ही होता है, हिंसा का प्रोग्राम उसमें छिपा हुआ है, ब्लू-प्रिंट उसके भीतर है। जंगल नहीं रहा, संघर्ष नहीं रहा, हिंसा का उपयोग नहीं रहा; लेकिन आदमी की बनावट, उसके शरीर का ढांचा हिंसा के लिए है, उसकी ग्रंथियां हिंसा के लिए हैं। उसकी सारी संरचना हिंसक की है। और इसीलिए जिंदगी में बड़ी तकलीफ है।
वह तकलीफ यह है कि आप हिंसा करना चाहते हैं और कर नहीं पाते। तब आप भीतर उबलते हैं, परेशान होते हैं, जैसे एक ज्वालामुखी भीतर जल रहा हो। फिर यह ज्वालामुखी आपकी पूरी जिंदगी को विषाक्त कर देता है। क्योंकि यह जहां नहीं जरूरत थी, वहां भी आग गिर जाती है आपके हाथ से। न भी गिराएं तो भीतर जलती है।
दो बातें घटित होती हैं। एक तो आप जलते हुए लावा बन जाते हैं। इसलिए आप ऐसा मत सोचना कि आप कभी-कभी क्रोध करते हैं। सचाई उलटी है; आप सदा ही क्रोध में होते हैं, कभी-कभी ज्यादा प्रकट हो जाता है, कभी-कभी छिपाए रखते हैं। शांत होना मुश्किल है आपके लिए, आप अशांत ही होते हैं। लेकिन जब बहुत अशांत हो जाते हैं, तब आपको पता चलता है। असल में, बुखार में रहने की आपकी आदत है।
अगर आप गौर करें तो आप पाएंगे कि आप चौबीस घंटे क्रोध में हैं, और तलाश में हैं कि कहां से क्रोध बाहर निकल जाए। चौबीस घंटे आपके भीतर हिंसा का रस है--छोटे बच्चे से लेकर बूढ़े तक। छोटा बच्चा भी, एक चींटा चल रहा हो, उसको तोड़-मरोड़ कर नष्ट कर देगा। स्कूल चला जा रहा है, कुत्ते को पत्थर मार देगा। उसे हो क्या रहा है उसके भीतर?
यह बच्चा जंगल में पैदा होना चाहिए था। इसके भीतर के सेल को कोई खबर नहीं है कि अब जंगल में नहीं है। इसका भीतर का सेल बिलकुल आपकी शिक्षा, संस्कृति से अपरिचित है। वह अपना काम पूरा कर रहा है। उसे कोई प्रयोजन नहीं है कि दुनिया बदल गई है चारों तरफ। उसी हिंसा के कारण बदल गई है; लेकिन वह हिंसा गहरी बैठ गई है। स्किनर कहता है, कोई आशा नहीं है, जब तक हम आदमी की जनन-प्रक्रिया को न बदल दें और उसके मूल सेल में प्रवेश करके हिंसा के तत्वों को अलग न कर दें।
लेकिन वह अभी शायद जल्दी आसान नहीं होगा। अभी हमने एटम में प्रवेश किया है; वह मृत अणु है। और जीवित अणु में प्रवेश करने में अभी बहुत समय लगेगा। क्योंकि जीवित अणु को तोड़ते ही वह मृत हो जाता है। जब तक हम ऐसी कला न खोज लें वैज्ञानिक कि जीवित अणु टूट कर भी मृत न हो, तब तक हम उसे बदल न सकेंगे।
लेकिन ज्यादा देर नहीं लगेगी। सौ साल ज्यादा से ज्यादा, और बीस साल कम से कम। इस सदी के पूरे होते-होते आसार हैं कि हम आदमी के जीवाणु को तोड़ लेंगे, जैसे हमने अणु को तोड़ लिया।
लेकिन इतने से बात हल नहीं होती। तब बड़े खतरे हैं। अगर हम जीवाणु को बदल सकते हैं तो हम आदमी को ही नष्ट कर देंगे। क्योंकि जीवाणु को बदलने का मतलब यह हुआ कि हम जैसे आदमी चाहेंगे वैसे आदमी पैदा करेंगे। कौन चाहेगा? कौन निर्णय करेगा कैसे आदमी हों?
निश्चित ही, राजनीतिज्ञ निर्णय करेंगे; ताकत उनके हाथ में है। राजनीतिज्ञ पसंद नहीं करेंगे कि बुद्धिमान लोग पैदा हों। क्योंकि समाज जितना बुद्धिहीन हो, राजनीतिज्ञ उतना ही बड़ा मालूम पड़ता है। राजनीतिज्ञ नहीं चाहेगा कि बहुत स्वतंत्र विचार के लोग पैदा हों। क्योंकि स्वतंत्र विचार विद्रोह का जन्मदाता है। राजनीतिज्ञ चाहेगा आज्ञाकारी, अनुशासनबद्ध गुलाम पैदा हों। और अगर आदमी के जेनेटिक सेल को बदला जा सके, तो राजनीतिज्ञ अपने अनुयायियों की एक जमात पैदा कर लेगा, जिसमें गुलाम आदमी होंगे जिनके पास कोई आत्मा नहीं होगी। ज्यादा कुशल होंगे, लेकिन आदमी होने की बात विलीन हो गई होगी। यंत्रवत होंगे।
शायद हम इसके लिए राजी भी न हों कि यह किया जाए। तब क्या उपाय है?
लाओत्से, महावीर और बुद्ध जो कहते हैं अहिंसा की बात, उनकी बात में सार तो है। क्योंकि मनुष्य हिंसा के द्वारा पशु से ऊपर उठा और मनुष्य हुआ। अब हिंसा के ही द्वारा और ऊपर उठने का कोई उपाय नहीं है। पशुओं का युद्ध ही समाप्त हो चुका है। आदमी और पशु के बीच अब कोई संघर्ष नहीं है। अब तो संघर्ष आदमी और आदमी के बीच है। इसीलिए आदमी आदमी के साथ हिंसा कर रहा है। क्योंकि हिंसा उसे करनी है। पशुओं से कोई संघर्ष नहीं रहा, और संघर्ष करने की वृत्ति उसके भीतर है, तो आदमी आदमी से लड़ता है। बहाने करता है--कभी हिंदू-मुसलमान से, कभी ईसाई-मुसलमान से, कभी कम्युनिस्ट-गैर-कम्युनिस्ट से, कभी हिंदुस्तान-पाकिस्तान से, कभी अमरीका-वियतनाम से--ये सब बहाने हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से तो आदमी लड़ना चाहता है। क्योंकि लड़े बिना उसे राहत नहीं मिलती। वह बेचैन है भीतर। और किससे लड़ने जाए? या तो पशुओं से लड़ता रहे।
इसलिए एक आप मजे की बात देखेंगे। पशुओं के शिकारी आमतौर से भले आदमी होते हैं। अगर आपकी शिकारी से दोस्ती है, तो आप पाएंगे, वह बहुत मिलनसार और अच्छा आदमी है। क्योंकि सारी हिंसा वह पशुओं के साथ निकाल लेता है; आदमियों के साथ हिंसा निकालने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जिनको हम सज्जन कहते हैं, जो चींटी भी न दबाएंगे, वे भले आदमी नहीं मालूम होते। उनके साथ रहना दुखद मालूम होगा। उनके साथ घंटे भर रहना बोर्डम, ऊब पैदा करेगा। अगर उनके साथ महीने भर रहना पड़े तो आप आत्महत्या का विचार करने लगेंगे। सज्जनों से दूर ही रहना अच्छा मालूम पड़ता है। वे भारी पड़ते हैं; वे भारी पड़ते हैं। क्यों?
उबलती हुई हिंसा उनके भीतर भरी है। वही उनका बोझ है। और वे तरकीबों से उसे निकालते रहते हैं। वे आपको न मारेंगे लकड़ी उठा कर, लेकिन विचारों से आप पर हमला करते रहेंगे। वे आपकी छाती में छुरा नहीं भोंकेंगे, लेकिन ऐसे शब्द भोंक देंगे जो छुरे से भी गहरे चले जाते हैं। वे आपको गाली न देंगे, लेकिन तरकीब से बता देंगे कि आप आदमी, अभी आदमी नहीं हो।
सभी साधु--तथाकथित--यही समझा रहे हैं लोगों को कि तुम पतित हो, पापी हो, अपराधी हो। उनका सारा खेल ही एक है कि दूसरा अपराधी सिद्ध हो जाए। दूसरे को नीचा दिखाने में उनकी हिंसा निकल रही है। हिंसा बहुत रूपों में निकल सकती है। दूसरे को चोट पहुंचाना अनेक तरह से हो सकता है। एक नजर निंदा की, और हिंसा हो जाती है। एक साधु-महात्मा के पास आप सिगरेट पीते चले जाएं, तब उनकी नजर देखें। तब वह नजर बता देगी कि तलवार इतनी बुरी तरह नहीं काटती।
मैंने सुना है कि पुरी के शंकराचार्य से एक आदमी मिलने गया। पुरी के शंकराचार्य की प्रशंसा में लिखे गए एक लेख में मैंने पढ़ा। जिसने लिखा है, उसने जरा भी नहीं सोचा कि क्या लिख रहा है। बीस-पच्चीस लोग, उनके भक्त, पास बैठे थे। उस आदमी ने शंकराचार्य से पूछा कि ब्रह्म को कैसे पाया जाए, कुछ रास्ता बताएं। शंकराचार्य ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा। वह आदमी फुल पैंट, शर्ट पहने हुए था। वह अपराध की बात थी। उसके उत्तर में शंकराचार्य ने कहा कि जनेऊ, यज्ञोपवीत पहने हुए हो?
वह आदमी डर गया; नहीं पहने हुए था। तो शंकराचार्य ने कहा, तो तुम समझते हो कि ऋषि-मुनि हमारे नासमझ थे? बिना यज्ञोपवीत के और ब्रह्मज्ञान की खोज शुरू कर दी!
वे बीस-पच्चीस जो नासमझ वहां इकट्ठे होंगे, वे बड़े प्रसन्न हुए होंगे; क्योंकि वे यज्ञोपवीत पहने हुए थे। और वह आदमी अचानक निंदित...। उस आदमी को लगा होगा, जमीन फट जाए तो मैं समा जाऊं। यह कहां फंस गया! यह प्रश्न मैंने कहां से पूछा!
लेकिन अभी तो यह शुरुआत थी। शंकराचार्य ने कहा, मैं यह भी पूछना चाहता हूं कि पेशाब खड़े होकर करते हो कि बैठ कर? क्योंकि फुल पैंट पहने हुए हो, बैठ कर करना बहुत मुश्किल पड़ेगा। खड़े होकर पेशाब करते हो और ब्रह्मज्ञान की कोशिश कर रहे हो?
इसको क्या कहिएगा? इससे बड़ी हिंसा और कुछ हो सकती है? इस आदमी के साथ जो दर्ुव्यवहार हुआ है, वह सिर्फ सज्जन ही कर सकते हैं ऐसा दर्ुव्यवहार! लेकिन हमें पता नहीं चलता कि दूसरे को बुरा दिखाने की चेष्टा में जो रस है, वही हिंसा है। दूसरे को नीचा दिखाने की चेष्टा में जो रस है, वही हिंसा है।
आदमी हिंसा से पशुओं से जीता। और हिंसा अगर बनी रही तो आदमी अपने से ही हार जाएगा। आज जो खतरा है, वह हिंसा के कारण ही है। क्योंकि हमारे पास इतने साधन हो गए हैं कि अगर हिंसा की हमारी वृत्ति जारी रहती है तो आदमी इस जमीन पर ज्यादा देर नहीं रहेगा। हम अपना आखिरी अध्याय लिख रहे हैं। इतिहास आखिरी किनारे खड़ा है। हिंसा से ही हम जीत कर आए हैं, लेकिन अब हिंसा ही हमारी मौत बनेगी। क्योंकि वह जो आदत हमने सीख ली है, उसके दो परिणाम हो रहे हैं।
एक तो हमें रोज हिंसा चाहिए। खयाल करें, हर पंद्रह वर्ष में हमें एक बड़ा युद्ध चाहिए। दस-पंद्रह साल में हम इतनी हिंसा इकट्ठी कर लेते हैं कि बड़ा युद्ध न हो तो निकास नहीं होता। और एक-एक आदमी को दो, चार, आठ दिन में क्रोध और हिंसा का उपाय चाहिए। नहीं तो आग जलने लगती है और आदमी बुखार से ग्रस्त हो जाता है। निकास चाहिए! तो हम निकालते रहते हैं। यह जो इकट्ठी होती हिंसा है, यह कितने रूपों में आज निकल रही है, उसे देखें। नाम, बहाने; विद्यार्थी शिक्षकों पर निकाल रहे हैं; बेटे बाप पर निकाल रहे हैं। पुरुष सदा से स्त्रियों पर निकालते रहे हैं; अब पश्चिम में स्त्रियां पुरुषों पर निकाल रही हैं। ऐसा समझ में पड़ता है कि कारण न भी हो...।
अभी मैं एक हिप्पी-विचारक की एक किताब पढ़ रहा हूं। किताब का नाम है: डू इट। किताब में लेखक ने सुझाव दिया है कि जो भी कानून हो, उसे तोड़ो। इसकी फिक्र मत करो कि क्यों तोड़ रहे हो। तोड़ना ही लक्ष्य है। जिसको भी मना किया जाता हो, वह काम करो; इसकी फिक्र मत करो कि उसका क्या फल होगा। उसे तोड़ना ही लक्ष्य है। लेखक ने सुझाव दिया है: किताबें जला दो, बाइबिल जला दो, चर्चों में आग लगा दो, यूनिवर्सिटीज को फूंक डालो! क्यों? तो वह कहता है, क्यों का सवाल नहीं है। आग क्रांति है। और हमें सब जला डालना है, ताकि हम सब फिर से शुरू कर सकें।
उसने एक बड़ी मजे की बात कही है। उसने यह कहा है कि हमें कुछ चीज शुरू करने का मौका ही नहीं बचने दिया लोगों ने। पुराने लोग सभी कुछ कर गए हैं। हमें कुछ करने का मौका नहीं है। सब जला दो! ताकि हम फिर से शुरुआत कर सकें।
यह जो युवक कह रहा है, यह कोई एक युवक की बात नहीं है। आज यूरोप और अमरीका में लाखों युवक इस बात से राजी हैं। बड़ी अजीब बातें!
अभी मैं एक छोटी पुस्तिका देख रहा था, जिसमें सुझाव दिया गया है कि तुम्हें जो पहली साध्वी मिले, उसके साथ व्यभिचार करो। जो पहली नन, साध्वी मिल जाए, उसके साथ तत्काल व्यभिचार करो। क्यों?
उस लेखक ने कहा है कि दुनिया ने गरीबों की क्रांतियां देखी हैं अब तक। तो गरीब कुछ पाने के लिए क्रांति करता है, स्वभावतः। अमरीका उस क्रांति को देखेगा, जो अमीरों के लड़कों की क्रांति है। वे कुछ पाने को क्रांति नहीं करते; कुछ मिटाने को, कुछ खोने को, नष्ट करने को क्रांति करते हैं।
तो अभी कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के कैंपस में उन्होंने एक राल्स रायस गाड़ी नई खरीद कर आग लगाई, होली जलाई। खरीद कर नई गाड़ी। और जब पत्रकारों ने पूछा कि तुम क्या कर रहे हो? तो उन्होंने कहा, हम सिर्फ तुम्हारे सिंबल को, तुम्हारे प्रतीक को, राल्स रायस को आग लगा रहे हैं। न्यूयार्क एक्सचेंज में जाकर लड़कों ने डालर के नोटों में आग लगाई और डालर लुटाए। लोगों ने पूछा कि यह तुम क्या कर रहे हो? तो उन्होंने कहा कि हम तुम्हारे प्रतीक को नष्ट कर रहे हैं। किसलिए नष्ट कर रहे हो? क्रोधित हैं, हम सिर्फ क्रुद्ध हैं।
हमारी समझ में नहीं आ सकती यह बात; लेकिन जल्दी आ जाएगी समझ में। क्योंकि अगर क्रोध बौखला जाए और कारण न मिले तो क्या करेगा? बच्चे स्कूल तोड़ रहे हैं, फर्नीचर मिटा रहे हैं, कांच तोड़ रहे हैं। हम सोचते हैं, शायद कोई वजह है। कोई वजह नहीं है। आदमी हिंसक है। और आदमी को हिंसा के अब उपाय नहीं हैं।
मनसविद कहते हैं कि जो लोग लकड़ी काटते हैं जंगल में, पत्थर तोड़ते हैं, उनकी हिंसा पत्थर तोड़ने, लकड़ी काटने में निकल जाती है। जब सांझ को आठ घंटे लकड़ी काट कर कोई लौटता है, तो पत्नी से प्रेम से मिलता है, बच्चों के साथ गपशप करता है। उसकी हिंसा वह जंगल में निकाल आया है। लेकिन एक आदमी आठ घंटे दफ्तर में बैठ कर घर चला आ रहा है। हिंसा कहीं निकली नहीं, भरा हुआ आ रहा है। यह घर निकालेगा। यह रास्ते खोजेगा घर जाते ही से कि इसकी हिंसा निकल जानी चाहिए। जो आदमी पत्थर तोड़ रहा है, उसकी हिंसा निकल रही है। पत्थर तोड़ने वाला आदमी अचानक पत्थर नहीं तोड़े तो कुछ और तोड़ेगा। तोड़े बिना उसे मजा नहीं आएगा।
एक तो परिणाम यह हो रहा है कि हिंसा उबल कर व्यर्थ, अकारण टूटती है। और दूसरा परिणाम यह हो रहा है कि यह जो अकारण टूटती हिंसा है, इसकी मौजूदगी के कारण भीतर के सब रस-स्रोत विषाक्त हो जाते हैं। आदमी प्रेम भी करता है तो उसमें भी हिंसा समाविष्ट हो जाती है। आदमी किसी को गले भी लगाता है तो उसमें भी दूसरे को मरोड़ डालने का, तोड़ डालने का भाव समाविष्ट हो जाता है। क्योंकि जो भीतर छिपा है, वह सब तरफ छा जाएगा।
इसलिए अगर दो प्रेमियों को प्रेम करते देखें, और अगर वे थोड़े ईमानदार हों और अपने को समझते हों, तो वे भी समझ पाएंगे कि उनके प्रेम में भी थोड़ी हिंसा है। दो प्रेमी चुंबन लेते-लेते एक-दूसरे को काटने भी लगेंगे, दांत भी गड़ा देंगे। वात्स्यायन ने तो, दांत गड़ाया नहीं जिसने, उसने प्रेम किया ही नहीं, ऐसा लिखा है। जब तक दांत के निशान न छूट जाएं प्रेयसी पर या प्रेमी पर, तब तक भी कोई प्रेम है! वात्स्यायन ने तो लिखा है कि नाखून कैसे बना कर रखना चाहिए प्रेमी को कि जब वह मांस में गड़ा दे, तो निशान छूट जाएं, रक्त प्रकट हो जाए। नख-दंश प्रेम की प्रक्रियाओं में एक बात उसने बताई।
अभी वात्स्यायन की किताब पश्चिम में काफी पढ़ी जा रही है। पूरब में तो अब कोई पढ़ता नहीं है। उसका कारण है। पूरब में यह किताब तब लिखी गई थी, जब हम भी समृद्ध थे। और हमारी भी हिंसा कहीं मौका नहीं पाती थी, तो हमने प्रेम में भी निकाली थी हिंसा। आज वात्स्यायन और पंडित कोक की किताबें सारी दुनिया की भाषाओं में अनुवादित होकर प्रचारित हो रही हैं। और पश्चिम के लोग आह्लादित होते हैं पढ़ कर वात्स्यायन को कि गजब के लोग थे हिंदू भी! क्या-क्या प्रेम की तरकीबें उन्होंने हजारों साल पहले निकाल दी थीं!
लेकिन नाखून का गड़ाना किस अर्थ में प्रेम हो सकता है? इसी अर्थ में हो सकता है कि प्रेम के बहाने थोड़ी सी हिंसा बह गई। तो फिर आदमी होशियार है। फ्रांस में हुआ मार्क्विस दि सादे, तो उसने सोचा जब नाखून गड़ाने से इतना प्रेम होता है, तो फिर उसने तैयार कर लिए लोहे के नाखून! और वह अपने पास एक छोटी सी थैली रखता था, जिसमें कोड़ा, लोहे के नाखून और और औजार रखता था--प्रेम के औजार। और बड़ा मजा तो यह है कि प्रेयसियां उसकी बहुत थीं; मार्क्विस था। और उसकी प्रेयसियों का कहना है कि जिसने मार्क्विस दि सादे का प्रेम पा लिया, फिर दूसरे का प्रेम फीका मालूम पड़ेगा। पड़ेगा ही। क्योंकि वह नग्न करके कोड़े मारता और लोहे के नाखून शरीर में गड़ाता। और स्त्रियों ने कहा है कि पहले तो यह बहुत घबड़ाने वाली बात मालूम पड़ती, लेकिन पीछे इसमें रस आने लगता। और उसकी इस हिंसा से, उसके कोड़े के मारने से, उसके लोहे के नाखून गड़ाने से पैशन जागता, वासना जाग कर उद्दाम हो जाती।
यह मार्क्विस दि सादे विक्षिप्त है, पागल है। लेकिन सभी लोग थोड़ी-बहुत मात्रा में वैसे ही हैं। कोई लोहे के नाखून खोज लाता है, यह सिर्फ आविष्कारक बुद्धि है। कोई अपने ही नाखून से काम चलाता है, यह जरा गैर-आविष्कारक बुद्धि है। और अगर इस हिंसा को लोग प्रेम में रोक लेते हैं तो फिर यह दूसरे मार्गों से निकलती है। इसलिए पति-पत्नी दिन-रात लड़ते रहते हैं। मां-बाप, बेटे-मां, बेटे-पिता दिन-रात लड़ते रहते हैं। यह संघर्ष भी इसी कारण है कि वह जो हिंसा भीतर भरी है, उसे निकास का कोई भी उपाय नहीं है, वह कहीं भी बह रही है। अब झरना कहीं भी फूट कर बह रहा है।
मनुष्य तब तक मनुष्य नहीं हो पाएगा, जब तक वह इस भीतर की हिंसा से मुक्त न हो जाए। दो उपाय हैं। एक तो स्किनर और दूसरे वैज्ञानिक जो कहते हैं कि हम आदमी के सेल को बदल दें। वह तो कुछ हितकर मालूम नहीं पड़ता। हो भी सके तो भी करने योग्य नहीं है; क्योंकि उसके साथ ही आदमी मर जाएगा।
आदमी के भीतर जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना घटती है, वह स्वेच्छा से घटती है। और जब स्वेच्छा का कोई उपाय न हो, तो जो भी घटता है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। अगर आप क्रोध को स्वेच्छा से छोड़ देते हैं, तो आप में करुणा पैदा होती है। और अगर क्रोध के सेल और हारमोन अलग कर दिए जाएं और ग्रंथियां काट दी जाएं, तो आपमें करुणा पैदा नहीं होती, सिर्फ आप क्रोध की दृष्टि से नपुंसक हो जाते हैं।
इस फर्क को ठीक से समझ लें। अगर क्रोध के ऊपर कोई स्वेच्छा से उठता है तो क्रोध की शक्ति ही करुणा बनती है। अगर क्रोध को कोई काट ही डालता है सिर्फ शरीर के तल पर तो भीतर चित्त और आत्मा के तल पर तो क्रोध की ग्रंथि मौजूद ही रहेगी। शरीर के तल पर कट जाने से सिर्फ आप वैसी हालत में हो जाएंगे कि एक आदमी हमला करना चाहे, उसके हमने दोनों हाथ काट दिए हों, तो हमला न कर सके। आपकी हालत वैसी हो जाएगी, जैसे एक व्यक्ति को हम ब्रह्मचारी कहें, क्योंकि हमने उसके वीर्य का सारा संस्थान काट डाला। वह ब्रह्मचारी नहीं है। उसके ब्रह्मचर्य का कोई अर्थ ही नहीं है। और वह ब्रह्मचारी होना भी चाहे तो अब बहुत मुश्किल है होना। क्योंकि अब वह जगह ही न रही, जिसके ऊपर उठ कर वह स्वेच्छा की घोषणा कर सकता था।
इसलिए बुद्ध, महावीर और लाओत्से कहते हैं कि इसकी संभावना है कि आदमी स्वेच्छा से ऊपर उठ सके। और जिस दिन आदमी स्वेच्छा से अपनी हिंसा के ऊपर उठता है, उसी दिन वस्तुतः आदमी का जन्म होता है। जब तक हम हिंसा से भरे हैं, हम एक तरह के पशु हैं, जो पशुओं से लड़ता रहा है। जिस दिन हम हिंसा से शून्य होते हैं, मुक्त होते हैं, उस दिन हम पशुओं के बाहर निकल जाते हैं। उस दिन हम पशु नहीं रह जाते।
इसलिए अब हम लाओत्से के सूत्र को समझने की कोशिश करें।
लाओत्से कहता है, "सैनिक, सबसे बढ़ कर, अनिष्ट के औजार हैं।'
क्यों सैनिक को अनिष्ट का औजार कहा जाए? इसीलिए कि हिंसा पशुता है। अगर हिंसा पशुता है, तो ही सैनिक अनिष्ट का औजार है। अगर हिंसा पशुता नहीं है, तो फिर सैनिक अनिष्ट का औजार नहीं, बल्कि श्रेष्ठ का साधन है।
नीत्शे ने कहा है; क्योंकि नीत्शे बिलकुल उलटा सोचता है। नीत्शे सोचता है, सैनिक मनुष्य के जीवन का सर्वश्रेष्ठ फूल है। तो नीत्शे कहता है कि सैनिक को देख कर मेरी आत्मा विस्तीर्ण हो जाती है, फैल जाती है; साधु को देख कर सिकुड़ जाती है। नीत्शे कहता है कि मैंने इस जगत में जो सबसे श्रेष्ठ संगीत सुना है, वह वही है जब सैनिक अपनी नंगी तलवारों को लेकर धूप में अपने पैरों की लयबद्ध आवाज करते हुए गुजरते हैं। उनके पैरों की जो लयबद्ध आवाज है, वही श्रेष्ठतम संगीत है। क्योंकि उसके साथ ही जगता है पुरुष, उसके साथ ही जगता है पौरुष, उसके साथ ही जगती है शक्ति की आकांक्षा। नीत्शे कहता है, शक्ति को पाने की आकांक्षा ही मनुष्य की आत्मा है।
अगर हम नीत्शे के व्यक्तित्व में भी उतरें तो भी बड़ी हैरानी होगी। नीत्शे कमजोर आदमी था, और दर्शन उसने लिखा है शक्ति का। नीत्शे बिलकुल कमजोर आदमी था, लेकिन बात करता है वह: विल टु पावर। वह कहता है, शक्ति पा लेना ही एकमात्र लक्ष्य है जीवन का। और आदमी वह कमजोर था; जिंदगी के अधिक दिन बीमार था।
एडलर ठीक कहता है कि लोग अपनी हीनता की परिपूर्ति कर लेते हैं। नीत्शे कमजोर है, और शक्ति की बात करता है। और हमने महावीर और बुद्ध और लाओत्से से ज्यादा शक्तिशाली आदमी नहीं देखे, और वे अहिंसा की बात कर रहे हैं। असल में, शक्तिशाली शक्ति की बात ही क्यों करेगा; कमजोर ही शक्ति की बात करता है। जो हमारे पास नहीं है, वही हम चाहते हैं। जो हमारे पास नहीं है, उसे ही हम मांगते हैं।
नीत्शे की दृष्टि में सैनिक श्रेष्ठतम है। और नीत्शे की फिलासफी का परिणाम हुआ कि हिटलर पैदा हो सका और सारी दुनिया दूसरे महायुद्ध से गुजरी। उस युद्ध का असली श्रेय या अपयश, नाम या बदनामी, हिटलर की नहीं है; उसकी असली जड़ नीत्शे में है। हिटलर अपने तकिए के पास नीत्शे की किताब सदा रखे रहता था। किताब का नाम है: विल टु पावर। और हिटलर ने कहा है कि जब भी मन मेरा डरने लगता है, या डांवाडोल होने लगता है, तत्काल मैं नीत्शे की किताब उठा कर एक कोई भी पन्ना पढ़ लेता हूं, प्राण फिर भर जाते हैं भीतर, ओज फिर लौट आता है, बल फिर साथ खड़ा हो जाता है।
नीत्शे कहता है, सैनिक है श्रेष्ठतम फूल, और हिंसा है मनुष्य का कर्तव्य। जो हिंसा से विमुख है, वह मनुष्य ही न रहा। इसलिए जीसस को, बुद्ध को, नीत्शे कहता है, ये स्त्रैण हैं। ये भी कोई पुरुष हैं जो प्रेम की और करुणा की बात कर रहे हैं! ये कमजोर लोग हैं, नीत्शे कहता है। और ये अपनी कमजोरी के लिए दर्शन-शास्त्र रच रहे हैं। ये स्वीकार नहीं करना चाहते।
नीत्शे कहता है, जीसस कहते हैं कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटे मारे, दूसरा उसके सामने कर दो। नीत्शे कहता है, यह सिर्फ तरकीब है अपनी कमजोरी को छिपाने की। दूसरा तो तुम्हें करना ही पड़ेगा; तुम इतने कमजोर हो। न करोगे तो तुम्हारा दुश्मन तुम्हारा दूसरा सामने कर लेगा। तो नीत्शे कहता है, कमजोर भी अपनी फिलासफी, अपना तत्वदर्शन निर्मित करता है। और वह यह अपने को समझाना चाहता है कि तुमने मुझे मारा नहीं, मैंने ही तुम्हें मारने का मौका दिया है; मैं खुद ही अपना मुंह तुम्हारे सामने किए दे रहा हूं। इस भांति वह सांत्वना खोजता है।
तो नीत्शे के लिए यह सूत्र तो बहुत हैरानी का होता। अगर उसने ताओ तेह किंग पढ़ा होता, तो वह फाड़ कर फेंक देता किताब, आग लगा देता। क्योंकि लाओत्से कहता है, सैनिक सबसे बढ़ कर अनिष्ट के औजार होते हैं। क्योंकि सैनिक का मतलब यह है कि जिसे हमने हिंसा के लिए तैयार किया है--व्यवसायी हिंसक, प्रोफेशनल। हमने एक धंधे के लिए ही उसको तैयार किया है, एक खास काम के लिए तैयार किया है कि वह हिंसा करे।
सैनिक को हम तैयार इस तरह करते हैं कि उसमें कोई मानवीय गुण न रह जाए। सैनिक का सारा प्रशिक्षण ऐसा है कि उसके भीतर मस्तिष्क न रह जाए, हृदय न रह जाए; वह यंत्र हो जाए। इसलिए हम सालों तक उससे कोई और काम नहीं लेते। हम क्या करवाते हैं? हम उसको लेफ्ट-राइट परेड करवाते रहते हैं। घंटों--बाएं घूमो, दाएं घूमो; बाएं घूमो, दाएं घूमो; बायां पैर ऊंचा करो, दायां नीचा करो! हम क्या करवा रहे हैं उससे? वर्षों तक हम उससे यह क्यों करवा रहे हैं?
इसके पीछे एक पूरा मनोविज्ञान है। क्योंकि जो आदमी वर्षों तक बाएं घूमो, दाएं घूमो करता रहेगा, वह धीरे-धीरे कंडीशंड हो जाएगा। आज्ञा, और उसके भीतर कोई विचार नहीं उठेगा, कृत्य। आज्ञा और कृत्य के भीतर विचार नहीं होगा। बाएं घूमो! तो सैनिक सोचता नहीं कि मैं घूमूं या न घूमूं? या कि घूमने का कोई लाभ है? या क्यों व्यर्थ घुमा रहे हो? , इस सबकी सुविधा उसे नहीं है। उसे सिर्फ घूमना है। तो जब उससे कहा जाता है: गोली चलाओ! तो वह चलाता है। तब वह सोच नहीं सकता कि मैं क्यों चलाऊं? या सामने जिसे मैं मार रहा हूं, उसे मारना जायज है? या मैं कौन हूं जो उसे मारूं? और मैं क्या पा रहा हूं मार कर?
कोई सौ रुपए, दो सौ रुपए की महीने की नौकरी पा रहा है एक सैनिक। अपनी रोटी के लिए वह हत्या का धंधा कर रहा है। वह हजार लोगों को काट सकता है। जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटम गिराया, उससे बाद में जब पूछा गया, तो उसने कहा कि मैंने तो सिर्फ आज्ञा का पालन किया, मेरा और कोई जिम्मा नहीं है। जब उस आदमी से पूछा गया कि तुम रात सो सके हिरोशिमा पर एटम गिरा कर? तो उसने कहा, मैं बिलकुल आनंद से सोया, क्योंकि मैं अपना काम पूरा कर आया था। डयूटी पूरी हो गई थी, फिर मैं सो गया।
वहां एक लाख बीस हजार आदमी जल कर राख हो गए--इस आदमी के गिराने से। अगर यह आदमी सोचे कि मैं पा क्या रहा हूं--तीन सौ रुपए महीना, कि पांच सौ रुपए महीना--कि मैं रोटी ही तो कमा रहा हूं, रोटी तो भिखमंगे भी सड़क पर भीख मांग कर कमा लेते हैं, तो मैं एक लाख बीस हजार आदमियों की हत्या करने का रोटी कमाने के लिए कारण बनूं? तो शायद यह आदमी कहे कि नहीं, यह आज्ञा मानने से मैं इनकार करता हूं। लेकिन यह मौका नहीं आएगा। अगर हम किसी आदमी को सीधा एटम बम गिराने भेज दें तो आएगा। इसलिए वर्षों हम इसको लेफ्ट-राइट कराते हैं, इसके सोचने की क्षमता को मारते हैं, इसके भीतर बुद्धि को क्षीण करते हैं। यह यंत्रवत हो जाता है।
विलियम जेम्स मजाक में कहा करता था कि एक दिन ऐसा हुआ कि वह एक होटल में बैठ कर अपने मित्रों से कुछ बात कर रहा था। बड़ा मनोवैज्ञानिक था अमरीका का और वह कह रहा था कि आदमी कैसे संस्कारित, कंडीशंड हो जाता है। और तभी एक रिटायर्ड सैनिक सड़क से गुजर रहा था अंडे अपने सिर पर लिए। और विलियम जेम्स ने एक जिंदा उदाहरण देने के लिए चिल्ला कर कहा, अटेंशन! सावधान!
वह आदमी, जो कि रिटायर्ड था कोई दस साल से, उसकी अंडे की टोकरी नीचे गिर गई और वह अटेंशन खड़ा हो गया। जब वह खड़ा हो गया, तब उसे समझ में आया कि अरे! बहुत नाराज हुआ और उसने कहा, क्या मजाक करते हैं, सब अंडे फूट गए।
पर विलियम जेम्स ने कहा कि तुम्हें हक था, तुम अटेंशन न करते। पर उसने कहा कि वह हक तो हम खो चुके। दस साल हो गए छोड़े हुए नौकरी, लेकिन यंत्रवत। तुमने कहा तो सोचने का मौका ही नहीं रहा कि...। नहीं करने का सवाल ही नहीं उठता। और हमने किया, यह कहना ठीक नहीं है; अटेंशन हो गया--यंत्रवत।
तो सैनिक की तैयारी है यंत्रवत।
मनुष्य का जो सर्वाधिक पतन हो सकता है, वह यंत्र है। पशु मनुष्य का पतन नहीं है, बड़ा पतन नहीं है। आदमी दो सीढ़ियां नीचे गिर सकता है; आदमी चाहे तो पशु हो सकता है। लेकिन पशु की भी एक गरिमा है। क्योंकि पशु भी सोचता तो है थोड़ा; पशु भी अनुभव तो करता है थोड़ा; पशु भी निर्णय तो लेता है कभी। आपका कुत्ता है; उसे भूख भी लगी हो, लेकिन आप बेमन से दुतकार कर रोटी डाल दें, तो वह भी रोटी खाने को तैयार नहीं होगा। वह जो दुतकारा है, वह दीवार बन गया। वह तैयार नहीं होगा। वह भी कुछ अनुभव करता है, कुछ सोचता है, कुछ निर्णय लेता है। उससे भी बड़ा पतन है यंत्रवत हो जाना। तब कोई निर्णय का सवाल ही नहीं रहता।
इसलिए लाओत्से कहता है, सैनिक अनिष्ट का साधन है। क्योंकि वह मनुष्य की अधिकतम पतन की अवस्था है। यह तो बड़ी बुरी बात लाओत्से कह रहा है। क्योंकि फिर क्या होगा हमारे सेनापतियों का? हमारे नेपोलियन, हमारे सिकंदर, हमारा सारा इतिहास तो सैनिकों का इतिहास है। इतिहास में जो चमकदार नाम हैं, वे सैनिकों के नाम हैं।
लेकिन हमारा सारा इतिहास हिंसा का इतिहास है। और हमारा सारा इतिहास आदमियत का नहीं है; हमारा सारा इतिहास, आदमी अभी भी पशु है, इस बात का इतिहास है। स्वभावतः, उसमें सैनिक श्रेष्ठ मालूम पड़ता है। उसमें सैनिक के तगमे चमकते हैं। उसकी बांहों पर लगी रंगीन पट्टियां इंद्रधनुष बन जाती हैं--पूरे इतिहास पर।
लाओत्से कहता है, सैनिक अनिष्ट के औजार हैं; क्योंकि व्यवसायी हिंसक हैं वे। इससे तो गैर-व्यवसायी हिंसक भी ठीक हैं। अगर कोई आदमी आपका अपमान करे और आप क्रोध से भर जाएं, तो इस क्रोध में भी एक गरिमा है। लेकिन व्यवसायी हिंसक क्रोध से भी नहीं भरता और हत्या करता है। सैनिक को क्रोध का कोई कारण नहीं है। वह सिर्फ धंधे में है, वह अपना काम कर रहा है।
सैनिक और वेश्या में बड़ी निकटता है। वेश्या शरीर को दे देती है बिना किसी भाव के। कोई प्रेम नहीं है, कोई घृणा नहीं है; बड़ी तटस्थता है। इसीलिए तो पैसे पर शरीर को बेचा जा सकता है। वेश्या को हम सब पापी कहते हैं। लेकिन वेश्या का कसूर क्या है? कि वह अपने शरीर को पैसे पर बेच रही है, यही कसूर है न! सैनिक क्या कर रहा है? वह भी अपने शरीर को पैसे पर बेच रहा है। और अगर दोनों में चुनना हो तो वेश्या बेहतर है। क्योंकि वेश्या सिर्फ अपने शरीर को बेच रही है, किसी दूसरे के शरीर की हत्या नहीं कर रही। सैनिक अपने शरीर को बेच रहा है दूसरे की हत्या करने के लिए। लेकिन वेश्या अपमानित है और सैनिक सम्मानित है। वेश्या से किसी को क्या बड़ा नुकसान पहुंचा है?
विचारशील लोग कहते हैं कि वेश्याओं के कारण बहुत से परिवार बचे हैं; नुकसान तो किसी को पहुंचा नहीं। असल में, वेश्याएं न हों, तो सतियों का होना बहुत मुश्किल हो जाए। वहां वेश्या है, तो घर में पत्नी सती बनी रहती है। और पत्नी भी बहुत डरती नहीं पुरुष के वेश्या के पास जाने से; पत्नी डरती है पड़ोसिन के पास जाने से। क्यों? क्योंकि वेश्या से कोई खतरा नहीं है; क्योंकि कोई लगाव नहीं है, कोई इनवाल्वमेंट नहीं है। पुरुष जाएगा और आ जाएगा। वेश्या के पास जाना एक बिलकुल तटस्थ प्रक्रिया है। वह पैसे का ही संबंध है। लेकिन पड़ोसिन के पास अगर पुरुष चला जाएगा तो लौटना फिर आसान नहीं है। क्योंकि पैसे का संबंध नहीं है; भाव का संबंध बन जाएगा।
इसलिए वेश्याओं से किसी को कोई चिंता नहीं है। पुराने राजा-महाराजाओं की औरतें पास में बैठ कर, और वेश्याओं को राजा नचाता रहता, और वे भी देखती रहतीं। उससे कोई अड़चन न थी। क्योंकि उससे सती होने में कोई बाधा नहीं पड़ती। बल्कि जो लोग समाज की गहराई में खोज करते हैं, वे कहते हैं, उससे सुविधा बनती है। सुविधा यह बनती है कि समाज व्यवस्थित चलता जाता है। कुछ स्त्रियों के शरीर बिकते रहते हैं; समाज का घाव सब तरफ नहीं फूटता, कुछ स्त्रियां उस घाव को अपने ऊपर ले लेती हैं। वह जो बीमारी सब तरफ फैल जाती, वह सब तरफ नहीं फैलती; उसकी धाराएं बन जाती हैं।
जैसे हमारे घर का गंदा पानी नालियों से बह जाता है। तो नालियां आपके घर की सफाई के लिए जरूरी हैं; नहीं तो पूरी सड़कों पर पानी फैल जाएगा। वे वेश्याएं नालियों का काम कर जाती हैं। और जो गंदगी घर-घर में इकट्ठी होती है, वह वहां से बह जाती है। जब तक घर में गंदगी होती है, तब तक वेश्या रहेगी। जिस दिन घर का संबंध ही पति और पत्नी का प्रेम का गहन संबंध हो जाएगा, कोई गंदगी पैदा न होगी, तभी वेश्या मिटेगी। नहीं तो वेश्या मिटाई नहीं जा सकती। क्योंकि वह जरूरत है।
लेकिन वेश्या को हम पापी कहते हैं। और वेश्या आ जाए तो हमारे मन में तत्क्षण निंदा आ जाती है। लेकिन सैनिक को...सैनिक क्या कर रहा है? सैनिक भी शरीर बेच रहा है रोटी के लिए, और साथ में दूसरे के शरीरों की भी हत्या कर रहा है।
लाओत्से कहता है, "सैनिक अनिष्ट के औजार होते हैं। और लोग उनसे घृणा करते हैं।'
लेकिन इसे थोड़ा हम समझ लें, कि लोग साधारणतः सैनिक से घृणा करते हैं; साधारणतः पुलिसवाले को कोई अच्छी नजर से नहीं देखता। जब तक आप सुरक्षित हैं और शांत हैं और जिंदगी में कोई तकलीफ नहीं, तो पुलिस को और सैनिक को कोई अच्छी नजर से नहीं देखता। लेकिन जैसे ही तकलीफ होती है, वैसे ही पुलिस ही आपका रक्षक हो जाता है। जैसे ही बेचैनी फैलती है, युद्ध की आशंका होती है, सैनिक ही आपका सब कुछ हो जाता है। इसलिए सैनिक सदा उत्सुक रहते हैं कि युद्ध चलता रहे। और पुलिसवाला भी सदा उत्सुक रहता है कि कुछ उपद्रव होता रहे। क्योंकि जब उपद्रव होता है, तभी वह सम्मानित है। जैसे ही उपद्रव खोया, वह खो जाता है।
अभी आपने देखा, हिंदुस्तान-पाकिस्तान का थोड़े दिन युद्ध हुआ, तो सेनापतियों के नाम अखबारों में सुर्खियां बन गए। धीरे-धीरे अब कम होते जा रहे हैं वे नाम, लेकिन अभी भी चल रहे हैं। साल, छह महीने कोई उपद्रव न हुआ, आप भूल जाएंगे कि कौन है सेनापति।
सैनिक की प्रतिष्ठा तभी है, जब उपद्रव चल रहा हो; अन्यथा लोग घृणा करते हैं। क्योंकि लोग भी भीतर अनुभव तो करते हैं कि यह हिंसा का व्यवसाय, यह हत्या का धंधा, सब तरह से गलत है। फिर भी कभी-कभी हम इसे ठीक मानते हैं। अगर एक आदमी किसी की हत्या कर दे तो वह अपराधी है और फांसी की सजा होती है। और एक आदमी युद्ध में हजारों की हत्या कर दे तो सम्मानित होता है। मरने की बात तो एक ही है; मारने की बात तो एक ही है। लेकिन कभी वही अपराध है, और कभी वही सम्मान बन जाता है। तो गहरे में तो हम जानते हैं कि सैनिक कोई शुभ लक्षण नहीं है।
इसलिए लाओत्से कहता है, "और लोग उनसे घृणा करते हैं। ताओ से युक्त धार्मिक पुरुष उनसे बचता है।'
हमने सुना है कि धार्मिक पुरुष वेश्या से बचता है। लेकिन कभी आपने यह भी सुना कि धार्मिक पुरुष सैनिक से बचता है? नहीं, आपके खयाल में नहीं होगा। लेकिन लाओत्से ठीक कह रहा है। वेश्या से भी ज्यादा सैनिक से बचना जरूरी है धार्मिक पुरुष का। क्योंकि सैनिक का प्रयोजन ही एक है कि आदमी अभी आदमी नहीं हुआ, इसलिए उसकी जरूरत है। वह सबूत है हमारे पशु होने का।
आपके लिए जेल की जरूरत है, सिपाही की जरूरत है, अदालत की जरूरत है, मजिस्ट्रेट की जरूरत है। ये सब प्रतीक हैं हमारे चोर-बेईमान होने के। मजिस्ट्रेट अकड़ कर अपनी कुर्सियों पर बैठे हुए हैं; वे हमारी बेईमानी के प्रतीक हैं। उनकी कोई जरूरत नहीं है, जिस दिन हम बेईमान नहीं हैं। सैनिक खड़ा है चौरस्ते पर; वह आपके चोर होने का, धोखेबाज होने का, नियमहीन होने का सबूत है। अगर वह चौरस्ते पर नहीं है तो आप फिर फिक्र करने वाले नहीं हैं कि आप कार कैसी चला रहे हैं--बाएं जा रहे हैं, कि दाएं जा रहे हैं, कि क्या कर रहे हैं। वह वहां खड़ा है; वह आपके भीतर जो गलत है, उसका प्रतीक है। जिस दिन आदमी बेहतर होगा, उस दिन पुलिसवाले की चौरस्ते पर कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। जिस दिन आदमी सच में ही आदमी होगा, उस दिन अदालतें खो जानी चाहिए।
मगर हम देखते हैं, हमारे राज्यों में अदालत का जो मकान होता है, वह सबसे शानदार होता है। हाईकोर्ट जाकर देखते हैं! पीछे आने वाला आदमी इतिहास में लिखेगा कि कैसे अपराधी लोग रहे होंगे कि अदालतों के इतने-इतने बड़े मकान बनाते थे! अदालतों के इतने-इतने बड़े मकान बनाने की जरूरत क्या है? अदालत कोई गौरव है? कि अदालत कोई कलात्मक कृति है? कि अदालत कोई संस्कृति का प्रतीक है? अदालत तो हमारे भीतर वह जो पशु छिपा है, उसकी जरूरत है।
लेकिन कोई आदमी अगर जस्टिस हो जाए, चीफ जस्टिस हो जाए, तो हम समझते हैं और क्या होने जैसा बचता है! फलां आदमी चीफ जस्टिस हो गया! उसे पता नहीं कि वह दूसरा छोर है हमारे चोरों, अपराधियों, हत्यारों का; और उनके ऊपर ही खड़ा है। जिस दिन वे खो जाएंगे, वह भी खो जाएगा।
कानून बताता है कि लोग अच्छे नहीं हैं। जितना ज्यादा कानून, उतना बुरा समाज! जितनी ज्यादा कानून की जरूरत, उतना बेहूदा समाज! कानून बढ़ते जाते हैं हमारे रोज, तो उससे डर लगता है कि कहीं आदमी और बुरा तो नहीं होता जाता है! क्योंकि कल दस कानून थे तो आज बीस हैं, कल तीस हो जाते हैं। कानून रोज बढ़ते जाते हैं। बढ़ता हुआ कानून बताता है कि आदमी बिगड़ते चले जाते हैं।
लाओत्से कहता है, ताओ से युक्त धार्मिक पुरुष सैनिक से भी बचता है। क्योंकि सैनिक, आदमी के पीछे, अतीत की घटना है; पशुओं से संघर्ष की घटना है। सैनिक, आदमी का भविष्य नहीं है, अतीत है। और भविष्य में सैनिक नहीं होना चाहिए।
"सज्जन असैनिक जीवन में वामपक्ष अर्थात शुभ के लक्षण की ओर झुकता है।'
चीन में वामपक्ष को शुभ का लक्षण, प्रतीक माना जाता है।
"सज्जन असैनिक जीवन में वामपक्ष, शुभ के लक्षण की ओर झुकता है; लेकिन युद्ध के मौकों पर वह दक्षिणपक्ष अर्थात अशुभ के लक्षण की ओर झुक जाता है।'
आप साधारणतः हत्या पसंद नहीं करते, लेकिन युद्ध के समय में पसंद करते हैं। पसंद ही नहीं करते, जो जितनी ज्यादा हत्या कर आए उसे उतना सम्मानित करते हैं। हत्यारा आदृत हो जाता है। साधारण जीवन में आप हत्या के विरोधी हैं; युद्ध के समय आपका सारा रुख बदल जाता है। आप और ही तरह के आदमी हो जाते हैं।
तो लाओत्से कहता है कि शांत जीवन में सज्जन आदमी शुभ की तरफ होता है, अशांत और युद्ध के क्षणों में वह भी अशुभ की ओर झुक जाता है। अशुभ तो अशुभ रहते ही हैं, युद्ध के समय में जो सज्जन थे वे भी अशुभ की ओर झुक जाते हैं।
इसलिए युद्ध का समय मनुष्य के जीवन में, समाज के जीवन में, धर्म की दृष्टि से पतन का समय है। युद्ध के समय में बहुत सी बुराइयां सहज स्वीकृत हो जाती हैं, जिनका हम कभी वैसे खयाल भी नहीं करते। पिछले महायुद्ध में ऐसा हुआ कि जब हजारों सैनिक अपने घरों को छोड़ कर युद्ध पर गए। तो जैसा भारत में हुआ कि स्टेशन-स्टेशन पर हम सैनिक का स्वागत करने लगे, फूलमालाएं पहनाने लगे, मिठाइयां भेंट करने लगे, कि स्वेटर और कपड़े और ऊनी कपड़े भेंट करने लगे--कुछ हम भेंट करने गए। लेकिन आपको शायद पता न हो कि पिछले महायुद्ध में स्त्रियों ने, लड़कियों ने सैनिकों को जाकर स्टेशनों पर अपने शरीर भी भेंट किए। एक लिहाज से तो अगर भेंट ही करना हो, तो क्या स्वेटर भेंट कर रहे हैं! स्त्रियों ने अपने शरीर भी भेंट किए; क्योंकि जो मरने-मारने जा रहा है, उसे सब कुछ दिया जाए। जो स्त्रियां कभी सोच भी नहीं सकती थीं--क्योंकि वे साधारण स्त्रियां थीं, कोई वेश्याएं नहीं थीं--जो सोच भी नहीं सकती थीं किसी पुरुष का संसर्ग, उन्होंने अनजान, अपरिचित लोगों को शरीर दिए। क्या हुआ?
युद्ध सारे मूल्यों को उलटा देता है। जो मूल्य कल तक प्रतिष्ठित थे वे नीचे गिर जाते हैं, और जो अप्रतिष्ठित थे वे ऊपर आ जाते हैं। युद्ध एक उत्पात की स्थिति है। इसलिए जितने ज्यादा युद्ध होते हैं, समाज की गति धर्म की ओर उतनी ही कम हो जाती है।
पिछले पांच हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध हुए। हिसाब लगा कर देखा जाए तो ऐसा दिन खोजना मुश्किल है, जब जमीन पर कहीं न कहीं युद्ध न हो रहा हो। युद्ध हो ही रहा है, युद्ध चल ही रहा है। कहीं न कहीं हम आदमी को मार रहे हैं, और मर रहे हैं। आदमी मरने और मारने के लिए है?
फिर हम बड़े-बड़े लक्ष्य खड़े करते हैं। और उन लक्ष्यों के कारण ही सज्जन पुरुष भी युद्ध में सैनिक की तरफ झुक जाता है। तब हिंसा छिप जाती है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। क्योंकि हमारे जीवन की व्यवस्था का बहुत नाजुक पहलू है कि जब भी हमें बुराई करनी होती है, तो हम बहुत अच्छे, रंगीन पर्दों की ओट में उसे छिपा देते हैं। क्योंकि बुराई को सीधा करना मुश्किल है। और अगर हम बड़े नारे लगाएं और बड़ी आदर्शों की बात करें, तो फिर बुराई करना आसान हो जाती है। इसलिए कोई भी युद्ध बिना आदर्श के नहीं होता। यह कहा जा सकता है कि जब तक दुनिया में आदर्श हैं, युद्ध से बचना मुश्किल है। आदर्श बदल जाते हैं, लेकिन युद्ध नहीं बदलता, युद्ध जारी रहता है। आदर्श की आड़ में बुरा करना कितना आसान है, इसे थोड़ा खयाल करें।
अगर आप एक मस्जिद जला रहे हैं, और यह धार्मिक कृत्य समझ में आए; या एक मंदिर तोड़ रहे हैं, और यह जेहाद हो; तो फिर मंदिर को तोड़ने में, आग लगाने में, निर्दोष पुजारी को काट डालने में आपके मन में जरा भी ग्लानि न होगी। क्यों? क्योंकि जो आप कर रहे हैं, वह दिखाई ही नहीं पड़ता; आदर्श दिखाई पड़ता है। मुसलमानों ने इतने मंदिर जला डाले, इतनी मूर्तियां तोड़ डालीं, इतने निर्दोष लोगों की हत्या कर दी--जेहाद! उनका धर्मगुरु उनसे कह रहा है कि यह धर्मयुद्ध है! अगर जीते, तो यहीं सुख पाओगे। अगर मर गए युद्ध में, तो स्वर्ग में, बहिश्त में परमात्मा का आशीर्वाद मिलेगा। तो फिर आसान है मामला। अगर कुरान हाथ में हो, बाइबिल हाथ में हो, या गीता हाथ में हो, तो छुरा भोंकना बहुत आसान है। क्यों? क्योंकि छुरा फिर छोटी चीज हो जाती है; बड़ी चीज कुरान, बड़ी चीज बाइबिल। अब कोई डर नहीं है। अब किया जा सकता है।
अभी हमारे मुल्क में आजादी के बाद लाखों लोग काटे गए। हिंदुओं ने काटे, मुसलमानों ने काटे। जिन्होंने काटे, वह हम ही लोग थे। कभी सोच भी नहीं सकते थे कि यह आदमी, जो दुकान करता है, स्कूल में मास्टरी करता है, या पढ़ता है, या लकड़ी काटता है, या घास बेचता है, यह आदमी कभी हत्या करेगा! इसको कभी कोई सोच भी नहीं सकता था। इसी ने हत्या की। और यह कैसे कर सका? क्योंकि इसकी हमने कभी कल्पना भी न की थी कि यह आदमी किसी को काट भी सकता है। इसने काटा। क्या हुआ?
बड़ा आदर्श! फिर आदमी के पागल होने में कठिनाई नहीं होती। युद्ध आदर्शों की आड़ में चलते हैं।
दूसरा महायुद्ध चला। हिटलर लड़ा रहा था अपने लोगों को, क्योंकि सारी दुनिया में श्रेष्ठ मनुष्य पैदा करना है, सुपर मैन, महामानव पैदा करना है। तो जर्मन खून में उसने लहर भर दी। जर्मन खून इस आदर्श के पीछे दीवाना हो गया कि ठीक, सारी पृथ्वी को स्वर्ग बना देंगे, नार्डिक जाति को बचा लेंगे, जो श्रेष्ठतम है उसी को बचने देंगे, निकृष्ट को विदा कर देंगे। एक सर्जिकल आपरेशन था, एक गलत को हटा देना है, ठीक को स्थापित करना है। यह बड़ा ऊंचा लक्ष्य था। इसके लिए कोई मरे-मारे, सब उचित था। तो जर्मन लड़ रहे थे।
इंग्लैंड, अमरीका और रूस इसलिए लड़ रहे थे कि दुनिया को फासिज्म से बचाना है, नाजिज्म से बचाना है। यह फासिज्म हत्या है लोकतंत्र की, फासिज्म हत्या है समाजवाद की, फासिज्म हत्या है स्वतंत्रता की; इससे बचाना है। तो इंग्लैंड का जवान लड़ रहा था, अमरीका का जवान लड़ रहा था, रूस का जवान लड़ रहा था--कि दुनिया एक गर्त में जा रही है पाप के, उससे उसे बचाना है।
बड़े आदर्श! आदमी फिर कुछ भी कर सकता है। आदर्श न हो, नग्न सत्य सामने हो, तो युद्ध आदमी कर नहीं सकता। इसलिए कोई युद्ध सीधा नहीं होता। सिद्धांत, शास्त्र, आइडियोलाजी जरूरी है बीच में।
इसलिए जब तक दुनिया में आदमी सिद्धांतों में बटे हैं, तब तक कोई न कोई युद्ध कभी भी करवाया जा सकता है। और जब तक दुनिया में लोग कहते हैं कि मेरा विचार ठीक और तुम्हारा गलत, तब तक कभी भी तलवार निकाली जा सकती है। क्योंकि आखिरी निर्णय कैसे हो कि किसका विचार ठीक? तर्क निर्णय नहीं कर पाता। वर्षों लग जाते हैं और तर्क से कुछ सिद्ध नहीं होता। तलवार जल्दी सिद्ध कर देती है। जो हार जाता है उसका सिद्धांत गलत, और जो जीत जाता है उसका सिद्धांत सही।
यह हैरानी की बात है। आपने सूत्र सुना होगा, हम तो अपने राष्ट्र का प्रतीक बना रखे हैं उस सूत्र को: सत्यमेव जयते, सत्य सदा जीतता है। लेकिन हालत उलटी दिखती है। जो जीत जाता है, वह सत्य मालूम पड़ता है; जो हार जाता है, वह असत्य मालूम पड़ता है। सत्य सदा जीतता है, इसका तो कुछ पक्का पता नहीं चलता। लेकिन जो जीत जाता है, उसको आप असत्य नहीं कह सकते, इतना पक्का है। वह सत्य हो जाता है।
थोड़ा सोचें। अगर हिटलर जीत जाता दूसरे महायुद्ध में, तो चर्चिल, स्टैलिन, रूजवेल्ट कहां होते आज? उनकी गिनती पागलों में होती। स्टैलिन, रूजवेल्ट, चर्चिल जीत गए, हिटलर हार गया, तो हिटलर की गिनती पागलों में है। हालांकि दोनों ही पागल हैं। जो जीत जाए, वह लगता है ठीक, जो हार जाए, वह पागल। असल में, बिना पागल हुए राजनीतिज्ञ होना मुश्किल है। थोड़े नट-बोल्ट भीतर ढीले होने ही चाहिए, तो ही आदमी को राजनीति का बुखार चढ़ता है। फिर उसमें जो बड़े पागल होते हैं, वे जीत जाते हैं; जो छोटे रहते हैं, वे हार जाते हैं। पर जो हार जाते हैं, वे इतिहास नहीं बनाते; जो जीत जाते हैं, वे इतिहास बनाते हैं।
इसलिए सब इतिहास झूठा है। क्योंकि हारा हुआ आदमी तो बना ही नहीं पाता। थोड़ा सोचें कि रावण जीत जाता और राम हार गए होते। रामायण होती आपके पास? कभी नहीं हो सकती थी। क्योंकि रावण ने कोई वाल्मीकि खोजा होता, कोई तुलसीदास रावण को मिले होते, सारी कथा और होती! सारी कथा और होती; क्योंकि जो जीत जाता है, उसके इर्द-गिर्द चापलूस इकट्ठे होते हैं, कवि इकट्ठे होते हैं, खुशामदखोर इकट्ठे होते हैं, वे इतिहास रचते हैं। जो हार जाता है, उसकी तरफ तो कोई हाथ उठाने को भी राजी नहीं रह जाता। तो इसलिए इतिहास सब झूठा है। इतिहास सच हो नहीं सकता; क्योंकि कौन बनाता है, इस पर निर्भर करता है।
स्टैलिन ने सारे रूस को निर्मित किया। और स्टैलिन के मरते ही ख्रुश्चेव ने स्टैलिन के नाम को इतिहास से मिटा दिया। रूस की इतिहास की किताबों में स्टैलिन का नाम नहीं है अब। फोटो नहीं है। जिन जगह पर स्टैलिन की फोटो लेनिन के साथ थी, वहां-वहां लेनिन की बची है फोटो, स्टैलिन की काट दी गई। आपको पता हो, न हो, लेनिन की कब्र--कब्र नहीं कहना चाहिए--लेनिन की जहां समाधि है, जहां उसकी लाश रखी है अभी भी, क्रेमलिन के चौराहे पर, उसके बगल में ही स्टैलिन की लाश भी रखी गई थी। फिर जब ख्रुश्चेव ताकत में आया, तो वह लाश वहां से हटवा दी गई। इतिहास से नाम काट दिया गया। रूस के बच्चे स्कूल में, रूस के बच्चों को पता ही नहीं कि स्टैलिन भी हुआ है।
अब बड़ा कठिन है। यही काम स्टैलिन ने किया था। जब स्टैलिन ताकत में आया, तो जहां-जहां ट्राटस्की के चित्र थे, वे हटा दिए गए। क्योंकि लेनिन के बाद नंबर दो की ताकत का आदमी ट्राटस्की था। तो जगह-जगह उसके चित्र थे, किताबों में उल्लेख था, अखबारों में उल्लेख था, इतिहास में उल्लेख था। वह सब जगह से पोंछ दिया गया। जो स्टैलिन ने ट्राटस्की के लिए किया था, वह ख्रुश्चेव ने स्टैलिन के लिए किया। और अब जो हैं, वे ख्रुश्चेव के साथ वही कर रहे हैं। इतिहास का तय करना बहुत मुश्किल है। हजार साल बाद जिनके हाथ में किताबें लगेंगी, जिनमें स्टैलिन का नाम भी न होगा, वे कैसे समझेंगे कि स्टैलिन ने क्या किया था? या जो किताबें होंगी, उनमें लिखा होगा कि स्टैलिन पागल था, विक्षिप्त था, हत्यारा था। तो वे यही समझेंगे।
अंग्रेजों ने शिवाजी के लिए लिखा है कि वह लुटेरा था। अगर अंग्रेज हिंदुस्तान में बने रहते तो शिवाजी लुटेरे रहते; कोई और उपाय नहीं था। अंग्रेज चले गए तो शिवाजी अब लुटेरे नहीं हैं; अब शिवाजी की हम जगह-जगह मूर्तियां खड़ी कर रहे हैं। अब शिवाजी महाराष्ट्र-नायक हैं।
पर बड़ी कठिनाई है, कौन सच कह रहा है? कौन इतिहास बना रहा है? जो जीतता चला जाता है, वह इतिहास बनाता चला जाता है। हार सब पोंछ देती है।
लाओत्से कहता है कि सज्जन आदमी भी युद्ध के क्षण में असत्य की तरफ झुक जाता है, गलत की तरफ झुक जाता है। क्योंकि प्रचार, हवा, आदर्श, सज्जन को भी उलझा देते हैं। जिनको हम अच्छे आदमी कहते हैं, वे भी प्रार्थनाएं करने लगते हैं। और कभी तो बड़ी मजेदार प्रार्थनाएं हो जाती हैं। क्योंकि दूसरे महायुद्ध में दोनों तरफ ईसाई थे, इसलिए पोप बड़ी मुश्किल में पड़ा कि प्रार्थना किसके लिए करे। और तब जर्मनी का चर्च टूट गया और जर्मनी के प्रधान पुरोहित ने जर्मनी के लिए प्रार्थना की कि परमात्मा हिटलर को जिताए। और इंग्लैंड के चर्च ने इंग्लैंड के लिए प्रार्थना की कि परमात्मा इंग्लैंड को जिताए। और परमात्मा इंग्लैंड को ही जिताएगा, क्योंकि इंग्लैंड सत्य के पक्ष में है। और वही जर्मन पुरोहित भी कह रहा था कि हिटलर ही जीतेगा; क्योंकि हिटलर जो है, वह वस्तुतः ईश्वर का संदेशवाहक है।
अब अगर दो ईश्वर हों, तब भी चल जाए। यह तो एक ही ईश्वर से प्रार्थना हो रही है। और वह भी हिंदू-मुसलमान का ईश्वर हो, तो भी समझें; ईसाइयों के एक ही ईश्वर से प्रार्थना चल रही है। लेकिन भला आदमी भी...। अब यह पुरोहित कोई बुरा आदमी नहीं है; यह कोई किसी की हत्या करने वाला आदमी भी नहीं है। यह कोई किसी को चोट भी नहीं पहुंचाएगा; जरा किसी के पैर में कांटा गड़ जाए, तो उसे निकालने की, सेवा करने की इसकी तत्परता है। यह भी भला आदमी है। लेकिन यह भी उलझ जाता है। यह भी उलझ जाता है।
यहां हिंदुस्तान में कोई युद्ध की हवा चलती है, तो जिनको हम अहिंसक कहें, वे भी जोश में आ जाते हैं। फिर उनकी अहिंसा वगैरह सब विलीन हो जाती है। फिर उनको भी पता नहीं रहता कि खून बुद्धि से ज्यादा जोर मार रहा है, और बुद्धि एक तरफ रह गई और खून छलांग मार रहा है। और वे बातें करने लगते हैं युद्ध की।
लाओत्से कहता है, युद्ध इसलिए बहुत बुरा है कि भला भी उसमें बुरा जैसा हो जाता है। सारे मूल्य उलटे हो जाते हैं।
"सैनिक अनिष्ट के शस्त्र-अस्त्र हैं, वे सज्जनों के शस्त्र नहीं हो सकते। जब सैनिकों का उपयोग अनिवार्य हो जाए, तब शांत प्रतिरोध ही सर्वश्रेष्ठ नीति है।'
"सैनिक अनिष्ट के शस्त्र-अस्त्र हैं।'
यह थोड़ा सोचने जैसा है। क्योंकि हम ऐसा कभी नहीं सोचते। हमारा सोचना कुछ और है।
एक गांव में मैं था। वहां कुछ दंगा-फसाद की हवा थी; हिंदू-मुसलमानों में तनाव था। तो हिंदू मेरे पास आए; उन्होंने कहा, आप अपने वक्तव्य में कहें कि आततायियों को तो नष्ट करने के लिए भगवान ने भी कृष्ण ने आज्ञा दी है कि आततायी को तो नष्ट कर देना चाहिए।
मैंने कहा कि मुझे पक्का पता नहीं कि आततायी कौन है। आततायी को नष्ट कर देना चाहिए, यह कृष्ण ने कहा है। लेकिन तुम्हारे पास कोई कसौटी है कि तुम जानो कि आततायी कौन है? उन्होंने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है; मुसलमान आततायी हैं।
अगर यह सिद्ध ही है कि मुसलमान आततायी हैं, तब तो ठीक है। लेकिन यह सिद्ध कौन कर रहा है? यह हिंदू सिद्ध कर रहे हैं।
मैंने उनसे पूछा, मुसलमानों से पूछा? उन्होंने कहा, उनसे क्या पूछना है! तो मैंने उनको कहा, अगर मुसलमान मेरे पास आएं, क्योंकि न मैं हिंदू हूं, न मैं मुसलमान हूं, अगर वे मेरे पास आएं और वे कहें कि काफिरों को तो नष्ट करने की आज्ञा कुरान में दी हुई है। तो मैं उनसे पूछूंगा कि काफिर कौन है? अगर सिद्ध है कि हिंदू काफिर हैं, तब तो कोई मामला ही नहीं है। मगर हिंदुओं से पूछा? वे भी राजी नहीं होंगे पूछने, कि काफिरों से क्या पूछना है! हम मान कर ही बैठे हैं। तो फिर ठीक है, मुसलमान समझते हैं कि तुम गलत हो, हिंदू समझते हैं कि मुसलमान गलत हैं। कौन तय करे?
एक बात पक्की है, जो आदमी सदा देखता है कि दूसरा गलत है और मैं ठीक हूं, वह गलत होगा। यह गलत आदमी का लक्षण है असल में। सही आदमी बहुत विचार करता है, इसके पहले कि दूसरे को गलत कहे, अपने गलत होने की सारी संभावनाओं को सोच लेता है कि कहीं मैं गलत तो नहीं हूं। बुरा आदमी इस झंझट में नहीं पड़ता। वह मान कर चलता है कि दूसरा गलत है। मुसलमान गलत होते हैं, ऐसा नहीं है; मुसलमान गलत होते ही हैं, इसमें कुछ और सोच-विचार की जरूरत नहीं है। उनका मुसलमान होना उनके गलत होने के लिए काफी है। ऐसे ही हिंदू का हिंदू होना काफिर होने के लिए काफी है।
फिर जब मुसलमान हिंसा करता है, तो वह नहीं मानेगा कि हिंसा हर हालत में अनिष्ट का साधन है। वह कहेगा कि हिंदू जब हिंसा करते हैं, तब अनिष्ट का साधन है। और जब हम कर रहे हैं, तो काफिर का नाश करना, यह कहीं अनिष्ट है? यह तो इष्ट है।
इसलिए सभी युद्धखोर अपनी हिंसा को इष्ट मानते हैं, दूसरे की हिंसा को अनिष्ट मानते हैं।
लाओत्से कहता है, सैनिक हर हालत में, हिंसा हर हालत में अनिष्ट का साधन है। कौन उपयोग करता है, इससे सवाल नहीं है; हर हालत में अनिष्ट का साधन है। अच्छा आदमी भी उपयोग करे, तो भी उससे अनिष्ट ही होता है; बुरा आदमी करे, तो भी अनिष्ट होता है। साधन ही अनिष्ट का है। तब फिर अच्छा आदमी क्या करे?
हिंसा उसका शस्त्र नहीं हो सकती। सैनिक सज्जन के लिए शस्त्र नहीं हो सकते। इसलिए जब तक कोई राष्ट्र वस्तुतः समस्त सैन्य शक्ति का विसर्जन नहीं करता, तब तक सुसंस्कृत कहने का अधिकारी नहीं है। कोई राष्ट्र जब तक सैनिक को रखता है, तब तक वह सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी नहीं है।
लेकिन कोई राष्ट्र यह हिम्मत नहीं जुटा सकता कि सैनिक को विदा कर दे। मजबूरियां हैं। क्योंकि चारों तरफ जो लोग इकट्ठे हैं, वे तत्काल दौड़ पड़ेंगे, वे तत्काल मुल्क को पी जाएंगे। यह भय है। तो सज्जन भी क्या कर सकता है? सैनिक को अपना साधन न भी माने, लेकिन अगर असज्जन उस पर हमला करे, तो वह क्या कर सकता है? हमले का प्रतिरोध तो करना पड़ेगा। क्योंकि अगर प्रतिरोध न किया जाए तो यह भी असज्जन को सहयोग है, यह भी बुराई को साथ देना है।
समझें कि जीसस ने कहा है कि दूसरा गाल सामने कर दें। लेकिन सामने अगर आदमी बुरा है, तो मैं उसके लिए सहयोगी हो रहा हूं। और यह भी हो सकता है, मैं उसकी आदत बिगाड़ रहा हूं। और कल वह किसी और को भी चांटा मारेगा इसी आशा में कि दूसरा गाल भी आता ही होगा।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन एक काफी हाउस के सामने बैठ कर रोज गपशप किया करता था। एक छोटा बच्चा, शरारती बच्चा रोज की आदत बना लिया कि वह आता और मुल्ला की पगड़ी में हाथ मार कर भाग जाता। पगड़ी नीचे गिर जाती, मुल्ला अपनी पगड़ी फिर ऊपर रख लेता। अनेक बार लोगों ने कहा कि मुल्ला, एक दफे इस लड़के को डांट दो। यह भी क्या बेतुकी बात है! और इस लड़के की कोई ताकत है? एक दफा जोर से इसको चांटा लगा दो, दुबारा नहीं लौटेगा। मुल्ला ने कहा, ठहरो, हमारे भी अपने रास्ते हैं।
फिर एक दिन ऐसा हुआ--यह वर्षों की आदत हो गई, यह रोज का नियम हो गया कि वह लड़का मुल्ला की पगड़ी गिरा जाता--एक दिन ऐसा हुआ कि एक पठान सैनिक उधर बैठा हुआ था, उस जगह, शाम का वक्त, जहां मुल्ला शाम को रोज बैठते थे। मुल्ला आकर दूसरी जगह बैठ कर देख रहा था। वह लड़का आया, उसने पगड़ी पर एक हाथ मारा। पठान ने तलवार निकाल कर उसकी गर्दन काट दी। मुल्ला ने कहा, देखा! हम रास्ता देख रहे थे। इसका अभ्यास पक्का हो गया था; अब यह होने ही वाला था कभी।
इस हत्या में पठान से ज्यादा मुल्ला का हाथ है। पठान दिखेगा अपराधी, मगर वह बेचारा केवल एक लंबी शृंखला की आखिरी कड़ी है। उनका कोई इसमें ज्यादा हाथ नहीं है। ज्यादा हाथ तो उस आदमी का है, जो साल भर पगड़ी गिरवा रहा था, और अभ्यास करवा रहा था।
तो यह भी हो सकता है--जिंदगी जटिल है और वहां जड़ नियम काम नहीं करते--कि एक गाल पर आप चांटा मारें, दूसरा आपके सामने कर दूं, जरूरी नहीं है कि यह हितकर ही हो। मैं आपकी आदत भी बिगाड़ रहा हूं। और इसमें किसी दिन आपकी गर्दन भी कट सकती है। और जिम्मा मेरा भी होगा।
तो सज्जन क्या करे? अगर वह सैनिक पर भरोसा करे और तलवार का भरोसा करे, तो अनिष्ट का सहयोगी होता है। अगर वह न कुछ करे, तो भी अनिष्ट का सहयोगी होता है।
तो लाओत्से कहता है उसके पास एक ही उपाय है। इस बुरी दुनिया में उसके पास एक ही उपाय है।
"दि बेस्ट पालिसी इज़ काम रेस्ट्रेंट'
शांत प्रतिरोध, शांत, संयमित प्रतिरोध ही उसके पास एकमात्र उपाय है। वह विरोध तो करे ही, अगर जरूरत पड़े तो वह तलवार भी लेकर विरोध करे और हिंसा का भी उपाय करे और जरूरत पड़े तो सैनिक को लेकर भी विरोध करे; लेकिन शांत रहे। यह शर्त है। तलवार तो बुरे आदमी के हाथ में भी होती है, अच्छे आदमी के हाथ में भी होती है। तलवार का कोई फर्क नहीं है। लेकिन बुरा आदमी भीतर शांत नहीं होता; अच्छा आदमी भीतर शांत होगा। और अगर वह शांत नहीं है, तो सिद्धांतों की बकवास न करे, समझे कि मैं भी बुरा आदमी हूं।
एक कहानी, और मैं आज की बात पूरी करूं।
मुसलमान खलीफा हुआ, उमर। बड़ी मीठी घटना है उसकी जिंदगी में। दस साल तक एक दुश्मन से युद्ध चलता रहा। दस साल में न मालूम कितनी हत्या, न मालूम कितने गांव जलाए गए! और न मालूम कितने लोग मरे, कितनी धन-जन की हानि हुई! फिर दस साल बाद एक मुकाबले में आमने-सामने उमर अपने दुश्मन के पड़ गया। और एक ही दांव में उमर ने दुश्मन के घोड़े को काट दिया। दुश्मन नीचे गिर पड़ा। उमर छलांग लगा कर उसकी छाती पर बैठ गया और उसने अपना भाला निकाला उसकी छाती में भोंक देने को। दुश्मन नीचे पड़ा था, असहाय; एक क्षण, और मौत घट जाएगी! दुश्मन ने आखिरी मौका नहीं चूका; इसके पहले कि भाला उसकी छाती में जाए, उसने उमर के मुंह पर थूक दिया। उमर ने भाला वापस लौटा लिया, उठ कर खड़ा हो गया।
उसके दुश्मन ने कहा, मैं समझा नहीं। क्या बात है? ऐसा मौका मैं नहीं छोड़ सकता था।
उमर ने कहा, बात खतम हो गई। मुझे क्रोध आ गया, तुम्हारे थूकने से मुझे क्रोध आ गया। और कसम है मेरी कि शांत ही लडूं तो ही लडूंगा। अशांत हो गया आज। कल सुबह फिर लड़ेंगे।
यह तो खतम हो गया। क्योंकि वह दुश्मन पैर पर गिर पड़ा। उसने कहा, मैं सोच भी नहीं सकता, यह मौका छोड़ा ही नहीं जा सकता। दस साल से जिस दुश्मन के पीछे तुम थे और जिसके पीछे मैं था; दस साल का लंबा उपद्रव और आज फैसला हुआ जाता था। यह भी तुम क्या बात कर रहे हो उमर कि क्रोध हो गया? क्या यह युद्ध बिना क्रोध के चल रहा था?
उमर ने कहा, मेरा कोई क्रोध न था, एक शांत प्रतिरोध था। तुम पागल थे लड़ने को, कोई और उपाय नहीं था, तो मैं लड़ रहा था। लेकिन लड़ने में कोई रस नहीं था। आज व्यक्तिगत रस हो गया लड़ने में। तुमने जब थूका, तो क्षण भर को मुझे लगा कि भोंक दो! लेकिन तब मैं भोंक रहा था--उमर। दस साल सब विलीन हो गए। तुम बुरे आदमी हो, इसलिए मारना; तुम नुकसान कर रहे हो लोगों का, इसलिए मारना; यह सब सवाल न रहा। तुमने मेरे मुंह पर थूका, सारी बात इस पर अटक गई, इस छोटे से थूक के दाग पर। तो फिर रुक जाना जरूरी हो गया। क्योंकि कसम है मेरी कि शांत लड़ सकूं तो ही लडूंगा। क्योंकि अगर अशांत होकर लड़ रहा हूं तो फायदा ही क्या है? दो बुरे आदमियों के लड़ने से हल भी क्या है? कोई जीतेगा, हर हालत में बुराई जीतेगी। फिर मेरी उत्सुकता नहीं है।
लाओत्से कहता है, "शांत प्रतिरोध ही सर्वश्रेष्ठ नीति है।'
अगर ऐसी स्थिति आ जाए कि युद्ध में उतरना पड़े, सैनिक बनना पड़े, तलवार उठानी पड़े, तो भी वह जो धर्मिष्ठ व्यक्ति है, वह निरंतर अव्यक्तिगत, निरंतर शांत, निरंतर शून्य, निरंतर अपनी तरफ से अलिप्त, लड़ने में बिना रस लिए, युद्ध में उतरेगा।
यही कोशिश कृष्ण की अर्जुन के लिए है कि वह ऐसा हो जाए--संन्यासी, सैनिक एक साथ। तो ही सैनिक का जो विष है, जो जहर है, वह विलीन हो जाता है।
संन्यासी का अमृत अगर सैनिक पर गिर जाए, उसका जहर विलीन हो जाता है।

आज इतना ही। कीर्तन करें; और फिर जाएं।


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