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मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

महावीर वाणी-(प्रवचन-14)

प्रायश्र्चित : पहला अंतर तप—(प्रवचन—चौदहवां)

   दिनांक 31 अगस्‍त, 1971,
प्रथम पर्युषण व्‍याख्‍यानमाला,
पाटकर हाल, बम्‍बई

धम्म-सूत्र

 धम्मो मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा संजमो तवो
देवा वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया मणो ।।

 धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन सा धर्म?) अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।

प के छह बाहय अंगों की हमने चर्चा की है, आज से अंतरत्तपों के संबंध में बात करेंगे। महावीर ने पहला अंतरत्तप कहा है -- प्रायश्चित। पहले तो हम समझ लें कि प्रायश्चित क्या नहीं हैं तो आ सान होगा समझना कि प्रायश्चित क्या है? अब कठिनाई और भी बढ़ गयी है क्योंकि प्रायश्चित जो नहीं है वही हम समझते रहे हैं कि प्रायश्चित है। शब्दकोषों में खोजने जाएंगे तो लिखा है कि प्रायश्चित का अर्थ है -- पश्चात्ताप, रिपेंटेंस। प्रायश्चित का वह अर्थ नहीं है। पश्चात्ताप और प्रायश्चित में इतना अंतर है जितना जमीन और आसमान में।

पश्चात्ताप का अर्थ है--जो आपने किया है उसके लिए पछतावा; लेकिन जो आप हैं उसके लिए पछतावा नहीं, जो आपने किया है उसके लिए पछतावा। आपने चोरी की है तो आप पछता लेते हैं चोरी के लिए। आपने हिंसा की है तो आप पछता लेते हैं हिंसा के लिए। आपने बेईमानी की है तो पछता लेते हैं बेईमानी के लिए। आपके लिए नहीं, आप तो ठीक हैं। आप ठीक आदमी से एक छोटी-सी भूल हो गयी थी कर्म में, उसे आपने पश्चात्ताप करके पोंछ दिया।
इसलिए पश्चाताप अहंकार को बचाने की प्रक्रिया है। क्योंकि अगर भूलें आपके पास बहुत इकट्ठी हो जाएं तो आपके अहंकार को चोट लगनी शुरू होगी--कि मैं बुरा आदमी हूं, कि मैंने गाली दी। कि मैं बुरा आदमी हूं, कि मैंने क्रोध किया। आप हैं बहुत अच्छे आदमी--गाली आप दे नहीं सकते हैं, किसी परिस्थिति में निकल गयी होगी। आप पछता लेते हैं और फिर से अच्छे आदमी हो जाते हैं। पश्चात्ताप आपको बदलता नहीं, जो आप हैं वही रखने की व्यवस्था है। इसलिए रोज आप पश्चात्ताप करेंगे और रोज आप पाएंगे कि आप वही कर रहे हैं जिसके लिए कल पछताए थे। पश्चात्ताप आपके बीइंग, आपकी अन्तरात्मा में कोई अंतर नहीं लाता, सिर्फ आपके कृत्यों में कहीं भूल थी, और भूल भी इसलिए मालूम पड़ती है कि उससे आप अपनी इमेज को, अपनी प्रतिमा को जो आपने समझ रखी है, बनाने में असमर्थ हो जाते हैं।
मैं एक अच्छा आदमी हूं, ऐसी मैं, मेरी अपनी प्रतिमा बनाता हूं।  िफर इस अच्छे आदमी के मुंह से एक गाली निकल जाती है, तो मेरे ही सामने मेरी प्रतिमा खंडित होती है। मैं पछताना शुरू करता हूं कि यह कैसे हुआ कि मैंने गाली दी। मैं कहना शुरू करता हूं कि मेरे बावजूद यह हो गया, इन्सपाइट आफ मी। यह मैं चाहता नहीं था और हो गया। ऐसा मैं कर नहीं सकता हूं और हो गया--किसी परिस्थिति के दबाव में, किसी क्षण के आवेश में। ऐसा मैं हूं नहीं कि जिससे गाली निकले, और गाली निकल गयी। मैं पछता लेता हूं। गाली का जो क्षोभ था वह बिदा हो जाता है। मैं अपनी जगह वापस लौट आता हूं जहां मैं गाली के पहले था पश्चात्ताप वहीं ला देता है वापस जहां मैं गाली के पहले था। लेकिन ध्यान रखें, जहां मैं गाली के पहले था, उसी में से गा ली निकली थी। मैं फिर उसी जगह वापस लौट आया। उससे फिर गाली निकलेगी।
पी.डी. आस्पेंस्की ने एक बहुत अदभुत किताब लिखी है--दि सटरेंज लाइफ आफ इवान ओसोकिन, इवान ओसोकिन का विचित्र जीवन। इवान ओसोकिन एक जादूगर फकीर के पास गया और इवान ओसोकिन ने कहा कि मैं आदमी तो अच्छा हूं। मैंने अपने भीतर आज तक एक भी बुराई न पायी। लेकिन फिर भी मुझसे कुछ भूलें हो गयी हैं। वे भूलें अज्ञानवश हुइ। नहीं जानता था कोई चीज, और भूल हो गयी। रास्ते पर जा रहा हूं, गङ्ढे में गिर पड़ा क्योंकि रास्ता अपरिचित था। मैं गिरनेवाला व्यक्ति नहीं हूं। अज्ञान की भूल का मतलब यह होता है, परिस्थिति अज्ञात थी। कोई घटना घट गयी, वह मैं घटाना नहीं चाहता था। कौन गङ्ढे में गिरना चाहता है? मैं गिरनेवाला आदमी नहीं हूं। गङ्ढा था, अंधेरा था , रास्ता अपरिचित था, या किसी ने धक्का दे दिया, मैं गिर गया। अगर मुझे दुबारा उसी रास्ते पर चलने का मौका मिले तो मैं तुम्हें बता सकता हूं कि मैं उस रास्ते पर चलूंगा और गङ्ढे में नहीं गिरूंगा
उस फकीर ने कहा कि एक मौका दो मैं तुम्हारी बारह वर्ष उम्र कम किए देता हूं। अब तुम बारह वर्ष बाद आना। और उसने ओसोकिन की उम्र बारह वर्ष कम कर दी। वह एक जादूगर है, उसने उसकी उम्र बारह वर्ष कम कर दी। ओसोकिन उससे वायदा करके गया है कि तुम देखोगे कि बारह वर्ष बाद मैं दूसरा ही आदमी हूं। यही मैं चाहता था कि मुझे एक अवसर और मिल जाए, इसलिए ताकि जो भूलें मुझसे अज्ञान में हो गयी हैं, वे दुबारा न हों।
बारह वर्ष बाद ओसोकिन रोता हुआ उस फकीर के पास आया और उसने कहा--क्षमा करना। वह गलती रास्ते की नहीं थी, मेरी ही थी क्योंकि मैंने फिर वही भूलें दोहराई हैं, मैंने फिर वही किया है जो मैंने पहले किया था। आश्चर्य ! मैं फिर वही जिया हूं जो पहले जिया था।
उस फकीर ने कहा--मैं जानता था, यही होगा। क्योंकि भूलें कर्म में नहीं होतीं--प्राणों की गहराई में, अस्तित्व में होती हैं। उम्र बदल दो तो कर्म फिर से तुम कर लोगे, लेकिन तुम ही करोगे न! यू विल डू इट अगेन एंड यू बीइंग द सेम। तुम वही होओगे, तुम्हीं वही करोगे फिर से; फिर वही हो जाएगा, जो पहले हुआ था।
ईवान ओसोकिन की जिंदगी ही विचित्र नहीं है, इस अर्थ में हम सबकी  िजंदगी विचित्र है। हालांकि कोई जादूगर हमारी उम्र कम नहीं करता, लेकिन जिंदगी हर बार हमें न मालूम कितनी बार मौका देती है। ऐसा नहीं है कि क्रोध का मौका आपको एक ही बार आता है और परिस्थिति एक ही बार आती है। नहीं, इसी जिंदगी में हजार बार आती है, वही होती है और फिर आप वही करते हैं। इससे बचने के लिए आप अपने को धोखा देते हैं कि परिस्थिति हर बार भिन्न है। क्योंकि एक बात तो पक्की है, आप वही हैं। अगर परिस्थिति भिन्न नहीं है तो दोष स्वयं पर आ जाएगा। इसलिए आप हर बार कहते हैं--परिस्थिति भिन्न है, इसलिए फिर करना पड़ा। लेकिन जो जानते हैं, वे कहते हैं कि परिस्थिति का सवाल नहीं है, सवा ल आप ही हैं--यू आर द प्राब्लम। और एक जिंदगी नहीं अनेक जिंदगी मिलती हैं, और हम फिर वही दोहराते हैं, फिर वही दोहरा ते हैं, फिर वही दोहराते हैं।
महावीर के पास कोई साधक आता था तो वे उसे पिछले जन्म के स्मरण में ले जाते थे, सिर्फ इसीलिए ताकि वह देख ले कि वह कितनी बार यही सब दोहरा चुका है और यह कहना बंद कर दे कि मेरे कर्म की भूल है और यह जान ले कि भूल मेरी है। पश्चात्ताप, कर्म गलत हुआ, इससे संबंधित है। प्रायश्चित, मैं गलत हूं, इस बोध से संबंधित है। और ये दोनों बातें बहुत भिन्न हैं, इसमें जमीन आसमान का फर्क है। पश्चात्ताप करनेवाला वही का वही बना रहता है और प्रायश्चित करनेवाले को अपनी जीवन चेतना रूपांतरित कर देनी होती है। सवाल यह नहीं है कि मैंने क्रोध किया तो मैं पछता लूं। सवाल यह है कि मुझसे क्रोध हो सका तो मैं दूसरा आदमी हो जाऊं, ऐसा आदमी जिससे क्रोध न हो सके--प्रायश्चित का यह अर्थ है। ट्रांसफमशन आफ द लेवल आफ द बीइंग। यह सवाल नहीं है कि मैंने कल क्रोध किया था, आज मैं नहीं करूंगा। सवाल यह है--कल मुझसे क्रोध हुआ था, मैं कल के ही जीवन तल पर आज भी हूं। वही चेतना मेरी आज भी है। पश्चात्ताप करनेवाला कल के लिए क्षमा मांग लेगा। हर वर्ष हम मांगते हैं मिच्छामि दुक्कड़म, हर वर्ष हम मांगते हैं, क्षमा कर दे । पिछले वर्ष भी मांगा था , उसके पहले भी क्षमा मांगी थी। कब वह दिन आएगा जब कि क्षमा मांगने का अवसर न रह जाए। कि मांगते ही रहेंगे। और जानते हैं भली-भांति कि जहां से क्षमा मांगी जा रही है वहां कोई रूपांतरण नहीं है। वह आदमी वही है जो पिछले वर्ष था।
एक मित्र पिछले पूरे वर्ष से मेरे संबंध में अनूठी कहानियां प्रचारित करते हैं। अब यह पर्युषण पूरे हुए तो उनका कल पत्र आया कि मुझे क्षमा कर दें। ऐसा नहीं कि मैंने जाने अनजाने अपराध किए हों, उनके लिए क्षमा कर दें--पत्र में लिखा है, मैंने अपराध किए हैं, उनके लिए क्षमा कर दें, और मैं हृदय की गहराई से क्षमा मांगता हूं। लेकिन मैं जानता हूं कि पत्र लिखने के बाद उन्होंने वही काम पुनः जारी कर दिया होगा। क्योंकि पत्र लिखने से वह रूपांतरण नहीं हो जानेवाला है। क्षमा मांग लेने से आप नहीं बदल जाएंगे, आप फिर वही होंगे। सच तो यह है--जो क्षमा मांग लेने से आप नहीं बदल जाएंगे, आप फिर वही होंगे। सच तो यह है--जो क्षमा मांग रहा है वही आदमी है जिसने अपराध किया है। प्रायश्चित वाला तो हो सकता है क्षमा न भी मांगे, क्योंकि वह अनुभव करे, अब मैं वह आदमी ही नहीं हूं कि जिसने अपराध किया था, अब मैं दूसरा आदमी हूं। वह जाकर इतनी खबर दे दे कि वह आदमी जो तुम्हें गाली दे गया था, मर गया है। मैं दूसरा आदमी हूं। अगर आपके मन को अच्छा लगे तो मैं उसकी तरफ से आपसे क्षमा मांग लूं, क्योंकि मैं उसकी जगह हूं। अन्यथा मेरा कोई लेना देना नहीं है, वह आदमी मर चुका है।
प्रायश्चित का अर्थ है--मृत्यु उस आदमी की जो भूल कर रहा था, उस चेतना की जिससे भूल हो रही थी। पश्चात्ताप का अर्थ है--उस चेतना का पुनर्जीवन जिससे भूल हो रही है। फिर से रास्ता साफ करना, फिर से पुनः वहीं पहुंच जाना जहां हम खड़े थे और जहां से भूल होती थी--उसी जगह फिर खड़ा हो जाना। पैर थोड़े डगमगा जाते हैं अपराध करके, भूल करके। फिर उन पैरों को मजबूत करना हो तो क्षमा सहयोगी होती है। ध्यान रहे, लोग इसलिए क्षमा नहीं मांगते कि वे समझ गए हैं कि उनसे अपराध हो गया, वे इसलिए क्षमा मांगते हैं कि यह अपराध का भाव उनकी प्रतिमा को खंडित करता है। वे इसलिए क्षमा नहीं मांगते हैं कि आपको चोट पहुंची है, क्योंकि वे कल फिर चोट पहुंचाना जारी रखते हैं। वे इसलिए क्षमा मांगते हैं कि अपराध के भाव से उनकी प्रतिमा को चोट पहुंची है। वे उसे सुधार लेते हैं। हम सबका एक सेल्फ इमेज है। सच नहीं है वह जरा भी, लेकिन वही हमारा असली है।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को कंधे पर लेकर सुबह घूमने निकला है। सुंदर है उसका बेटा। जो भी रास्ते पर देखता है वह रुककर ठहर जाता है और कहता है, सुंदर है। नसरुद्दीन कहता है--दिस इज़ नथिंग। यू मस्ट सी हिज़ पिक्चर। यह कुछ नहीं है, इसका चित्र देखो, तब तुम्हें पता चलेगा। जो भी नसरुद्दीन से कहता है--सुंदर है यह तुम्हारा बेटा; वह कहता है--दिस इज़ नथिंग। यू मस्ट सी हिज़ पिक्चर। यह तो कुछ भी नहीं है। इसकी पिक्चर देखो घर आकर अल्बम में, तब तुमको पता चलेगा।
वह ठीक कह रहा है। हम सब भी जानते हैं कि हम तो कुछ भी नहीं हैं, लेकिन हमारी तस्वीर, वह जो हमारे चित्त के अलबम में है, उसको देखो। उसको ही हम दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं। उसको ही हम दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं। वह तस्वीर बड़ी और है। वह वही नहीं है जो हम हैं। इसलिए जब उस तस्वीर पर कोई दाग पड़ जाता है और हमें लगता है कि दाग पड़ रहा
है तो दाग को हम पोंछ लेते हैं। पश्चात्ताप स्याही सोख का काम करता है। वह प्रायश्चित नहीं है, प्रायश्चित तो तस्वीर को फाड़कर फेंक देगा और कहेगा--यह मैं हूं ही नहीं, जिसको मैं थोप रहा हूं निरंतर। पश्चात्ताप सिर्फ स्याही के धब्बे को अलग कर देगा। और अगर आप कुशल हुए तो स्याही के धब्बे को इस ढंग से बना देंगे कि वह तस्वीर का हिस्सा और श्रृंगार बन जाए। न कुशल हुए तो पोंछने की कोशिश करेंगे, इसमें थोड़ी-बहुत तस्वीर खराब भी हो सकती है।
अगर आपने रवींद्रनाथ की कभी हाथ से लिखी, हस्तलिखित प्रतिलिपियां, उनकी हस्तलिखित पांडुलिपियां देखी हैं तो आप बहुत चकित होंगे। रवीनद्रनाथ से कहीं अगर कोई भूल अक्षर में हो जाए तो वे उसको ऐसे नहीं काटते थे, वे उसे काटकर वहां एक चित्र बना देते और कागज को सजा देते। तो उनकी पांडुलिपियां सजी पड़ी हैं। जहां उन्होंने काटा है, वहां सजा दिया है। अच्छा है, पांडुलिपि में करना बुरा नहीं है, आंख को सोहता है। लेकिन आदमी जिदगी में भी यही करता है। वह पश्चात्ताप धब्बों को चित्र बनाने की कोशिश या धब्बों को पोंछ डालने की कोशिश है। पश्चात्ताप प्रायश्चित नहीं है, लेकिन हम सब तो पश्चात्ताप को ही प्रायश्चित समझते हैं।
पश्चात्ताप बहुत साधारण-सी घटना है, जो मन का नियम है। मन के नियम को थोड़ा समझ लें कि पश्चात्ताप पैदा सबको होता है। यह मन का सामान्य नियम है। प्रायश्चित साधना है। अगर महावीर प्रायश्चित का अर्थ पश्चात्ताप करते हों तो यह तो कोई बात ही न हुई।
यह तो सभी को होता है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है जो पछताता न हो। अगर आप खोजकर ले आएं, तो वह आदमी ऐसे ही हो सकता है जैसा महावीर हो। बाकी आदमी मिलना मुश्किल है जो पछताता न हो। पश्चात्ताप तो जीवन का सहज क्रम है। हर आदमी पश्चात्ताप करता है। तो इसको साधना में गिनाने की क्या जरूरत है? पश्चात्ताप साधना नहीं, मन का नियम है। मन का यह नियम है कि मन एक अति से दूसरी अति पर डोल जाता है। तो मन के इस नियम में थोड़े गहरे प्रवेश कर जाएं तो पश्चात्ताप समझ में आ जाए। फिर प्रायश्चित की तरफ ध्यान उठ सकता है।
आपका किसी से प्रेम है तो आप उस आदमी में चुनाव करते हैं और वही-वही देखते हैं जो प्रेम को मजबूत करे--सिलेक्टिव। कोई आदमी किसी आदमी को पूरा नहीं देखता। देख ले तो जिंदगी बदल जाए, उसकी खुद की भी बदल जाए। हम सब चुनाव करते हैं। जिसे मैं प्रेम करता हूं उसमें मैं वे वे हिस्से देखता हूं जो मेरे प्रेम को मजबूत करते हैं और कहते हैं कि मैंने चुनाव ठीक किया है। आदमी प्रेम के योग्य है। प्रेम किया ही जाता ऐसे आदमी से, ऐसा आदमी है। लेकिन यह पूरा आदमी नहीं है। यह मन अपने को चुनाव कर रहा है। जैसे मैं किसी कमरे में जाऊं और सफेद रंगों को चुन लूं और काले रंगों को छोड़ दूं। आज नहीं कल मैं सफेद रंगों से ऊब जाऊंगा क्योंकि मन जिस चीज से भी परिचित होता जाता है, ऊब जाता है। आज नहीं कल मैं ऊब जाऊंगा इस सौंदर्य की सिलेक्टिव, एक चुनाव की गयी प्रतिमा से। और जैसे मैं ऊबने लगूंगा वैसे ही वह जो असुंदर मैंने छोड़ दिया था, दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। वह तभी तक नहीं दिखता था, वह तो है ही।
सुन्दरतम व्यक्ति में भी असुंदर हिस्से हैं। असुंदरतम व्यक्ति में भी सौंदर्य छिपा है। जीवन बनता ही है विरोध से, जीवन की सारी व्यवस्था ही विरोध पर खड़ी होती है। काले बादलों में ही बिजली नहीं छिपी होती, हर बिजली की चमक के पीछे काला बादल भी होता है। और हर अंधेरी रात के बाद ही सुबह पैदा नहीं होती, हर सुबह के बाद काली रात आ जाती है। हर दुख में खुशी ही नहीं छिपी है, हर खुशी के भीतर से दुख का अंकुर भी निकलेगा। जीवन ऐसे ही बहता है जैसे नदी दो किनारों के बीच बहती है। और एक किनारे के साथ नहीं बह सकती। भला दूसरा किनारा आपको न दिखाई पड़ता हो, या आप न देखना चाहते हों, लेकिन जब इस किनारे से ऊब जाएंगे तो दूसरा किनारा ही आपका डेरा बनेगा।
तो जब आप एक व्यक्ति में सौंदर्य देखना शुरू करते हैं तो आप चुनाव कर लेते हैं एक किनारे का। भूल जाते हैं--नदी दो किनारों में बहती है। दूसरा किनारा भी है। उस दूसरे के किनारे के बिना न तो नदी हो सकती है, न यह किनारा हो सकता है। अकेला किनारा कहीं होता है? किनारे का मतलब यह होता है कि वह दूसरे का जोड़ है। पर आप चुनाव कर लेते हैं। फिर आज नहीं कल सौंदर्य से थक जाएंगे। सब चीजें थका देती हैं, सब चीजें उबा देती हैं। मन चाहता है--रोज नया, रोज नया। फिर पुराना उबाने लगता है। फिर जब पुराना उबा देता है तो जो हिस्से आपने छोड़ दिए थे पहले चुनाव में वे प्रगट होने लगते हैं। दूसरा किनारा दिखाई पड़ता है और जिसके प्रति आप प्रेम से भरे थे, उसी के प्रति घृणा से भर जाते हैं। जिसके प्रति आप श्रद्धा से भरे थे, उसीके प्रति अश्रद्धा से भर जाते हैं। जिसको आप भगवान कहने गए थे उसी को आप शैतान कहने जा सकते हैं। इसमें कोई अड़चन नहीं है। जिससे आपने कहा था--तेरे बिना जी न सकेंगे; उससे ही आप कह सकते हैं अब तेरे साथ न जी सकेंगे।
मन द्वंद्व में चलता है, क्योंकि चुनाव करता है। इसलिए जिसे द्वंद्व के बाहर होना है उसे चुनाव रहित होना पड़े, च्वाइसलैस होना पड़े। चुनता ही नहीं है--काला है तो उसे भी देखता है, सफेद है तो उसे भी देखता है और मान लेता है कि काला हो नहीं सकता सफेद के बिना, सफेद हो नहीं सकता काले के बिना--फिर उस आदमी की दृष्टि में कभी परिवर्तन नहीं होता। मैं चकित होता हूं। सब संबंध परविर्तित होते हैं। एक आदमी मेरे पास आता है, इतनी श्रद्धा और इतनी भक्ति से भरकर आता है कि कभी सोचा भी नहीं जा सकता कि यह आदमी कभी विपरीत चला जाएगा। लेकिन मैं जानता हूं कि इसकी श्रद्धा और भक्ति चुनाव है। यह विपरीत जा सकता है। जब यह विपरीत जाने लगता है तो दूसरे लोग मेरे पास आकर कहते हैं कि यह कैसे संभव है। आपके जो इतना निकट है, आपको जो इतनी भक्ति देता है वह आपके विपरीत जा रहा है। उनको पता नहीं कि यह बिलकुल नियमानुसार हो रहा है। यह बिलकुल नियमानुसार हो रहा है। एक किनारा उसने चुना था, अब वह उस किनारे को छोड़कर दूसरा चुनेगा। और पहले किनारे को जब चुना था तब भी आपने अपने को तर्क दे लिए थे कि मैं सही हूं और दूसरे किनारे को चुनते वक्त भी आप अपने को तर्क दे लेंगे कि आप सही हैं।
और मैं आपसे कहता हूं कि एक किनारे को चुनना गलत है। वह किनारा कौन-सा है, यह सवाल नहीं है। वह तर्क क्या है, यह सवाल नहीं है। जब कोई आकर मुझे भगवान मानने लगता है तब भी मैं जानता हूं, वह एक किनारे को चुन रहा है। वह चुनाव गलत है। एक किनारे को चुन लेना गलत है। यह सवाल नहीं है कि वह क्या तर्क अपने को दे रहा है। वही आदमी कल मुझे शैतान मान लेगा और तब भी तर्क खोज लेगा! मैं नहीं कहता कि उसका शैतान ही मान लेना गलत है। मैं कहता हूं उसका चुनाव गलत है। वह पूरे को नहीं देख रहा।
चुनेगा तो बदलेगा। जहां तक चुनाव है वहां तक परिवर्तन होगा। जब आप क्रोध में होते हैं तब आप एक हिस्सा चुन लेते हैं अपने व्यक्तित्व का--वह जो क्रोध करनेवाला है। जब क्रोध निकल जाता है, बिदा हो जाता है तब आप अपने व्यक्तित्व का दूसरा हिस्सा चुनते हैं जो पश्चात्ताप करनेवाला है। क्रोध कर लेते हैं एक हिस्से से, वह एक चुनाव था, आपकी प्रतिमा का एक रूप था। फिर पश्चात्ताप कर लेते हैं, वह आपकी प्रतिमा का दूसरा चुनाव है। किनारों के बीच नाव बहती रहती है। आपकी नदी बहती रहती है। आप यात्रा करते रहते हैं। कभी इस किनारे लगा देते हैं नाव को, कभी उस किनारे लगा देते हैं।
प्रायश्चित दो किनारों के बीच चुनाव नहीं है। प्रायश्चित बहुत अदभुत घटना है। पश्चात्ताप देख लेता है, कर्म की कोई भूल है। प्रायश्चित देखता है, मैं गलत हूं। कर्म नहीं, क्योंकि कर्म क्या गलत होगा! गलत आदमी से गलत कर्म निकलते हैं, कर्म कभी गलत नहीं होते। गलत आदमी से गलत कर्म निकलते हैं। बबूल के कांटे गलत नहीं होते, वे बबूल की आत्मा से निकलते हैं। कांटे क्या गलत होंगे! वे बबूल की आत्मा से निकलते हैं। लेकिन बबूल जब अपने कांटों को देखता है तो कहता है कि दुखी हूं। वृक्ष तो मैं ऐसा नहीं हूं कि मुझसे कांटे निकलें। परिस्थिति ने निकाल दिए होंगे। या अपने को समझाए कि हो सकता है कि कुछ लोगों के भोजन के लिए मैंने ये कांटे निकाले हों--कि ऊंट हैं, बकरियां हैं, वे भोजन कर सकें, नहीं तो भूखे मर जाएंगे। ऐसे मुझमें कांटे का क्या सवाल है! कांटे भी निकलते हैं तो किसी की करुणा से निकलते हैं।
क्रोध भी आता है आपको तो किसी को बदलने के लिए आता है। कि उस आदमी को बदलना पड़ेगा न! दया के कारण आप क्रोध करते हैं। बाप कर रहा है बेटे पर, मां कर रही बेटी पर--दया के कारण, करुणा के कारण कि इसको बदलना है, नहीं तो बिगड़ जाएगा। और मजा यह है कि सब क्रोध के बाद कहीं कोई सुधार दिखाई नहीं पड़ता। सारी दुनिया क्रोध करती आ रही है। सब इस खयाल में क्रोध कर रहे हैं कि नहीं तो लोग बिगड़ जाएंगे, और लोग हैं कि बिगड़ते ही चले जा रहे हैं। कोई किसी में अंतर नहीं दिखाई पड़ता है। नहीं, मालूम ऐसा होता है कि क्रोध का संबंध दूसरे को सुधारना कम, यह दूसरे को सुधारना अपने क्रोध के लिए तर्क खोजना ज्यादा है। यह दूसरा भी कल बड़े होकर यही तर्क खोजेगा और रेशनलाइज करेगा। यह भी अपने बच्चों को ऐसे ही सुधारेगा
ये जो कर्म हैं, इन पर जिनका ध्यान है वे पश्चात्ताप से आगे नहीं बढ़ेंगे और पश्चात्ताप आगे बढ़ना ही नहीं है--पीछे लौटना है एक कदम, फिर एक कदम वापिस; फिर एक कदम आगे, फिर एक कदम पीछे। फिर क्रोध किया, फिर पैर उठाकर पीछे रख लिया; फिर क्रोध किया, फिर पैर उठाकर पीछे रख लिया। यह एक ही जगह पर दा ड़ने जैसी क्रिया है, कहीं जाती नहीं। पश्चात्ताप से सजग हों, पश्चात्ताप आपको बदलेगा नहीं; बदलने का धोखा देता है। क्योंकि जब पश्चात्ताप के क्षण में आप होते हैं तो आप अपने सारे अच्छे गुण चुन लेते हैं। जब आप कहते हैं--मिच्छामि दुक्कड़म, तब आप एक प्रतिमा होते हैं साक्षात क्षमा की। मगर आप बाइलिंग्वल हैं, द्विभाषी हैं। वह दूसरी भाषा भीतर छिपी बैठी है। वह अगर दूसरा आदमी कह देगा कि अच्छा आप तो मानते हो लेकिन मैं नहीं मानता क्योंकि मैंने कोई अपराध आपकी तरफ किया नहीं; तो उसी वक्त दूसरी भाषा आपके भीतर सक्रिय हो जाए कि यह आदमी दुष्ट है। मैंने क्षमा मांगी और इसने क्षमा भी नहीं मांगी। या आप किसी से कहें कि मैं क्षमा मांगता हूं और वह कह दे कि किया क्षमा। तो पीड़ा शुरू हो जाएगी तत्काल। दूसरी भाषा आ जाएगी।
सुना है मैंने कि एक चूहा अपने बिल के बाहर घूम रहा था। अचानक पैरों की आवाज सुनी--परिचित थी, बिल्ली की मालूम पड़ती थी--घबराकर अपने बिल के भीतर चला गया। लेकिन जैसे ही भीतर गया , चकित हुआ। बाहर तो कुत्ता भोंक रहा था -- भों-भों। चूहा बाहर आया। तत्काल बिल्ली के मुंह में चला गया। चारों तरफ देखा, कुत्ता कहीं भी नहीं था। चूहे ने पूछा कि तू मुझे मार डाल, उसमें कोई हर्जा नहीं, लेकिन एक बात और मरते हुए प्राणी की एक जिज्ञासा को पूरा कर दे। वह कुत्ता कहां गया? बिल्ली ने कहा--यहां कोई कुत्ता नहीं है। यू नो, इट पेइज़ टु बी बाइलिंग्वल। मैं कुत्ते की आवाज करती हूं, हूं बिल्ली एण्ड इट पेइज़ तुम फंस गए मेरे चक्कर में, नहीं तो तुम फंसते नहीं। द्विभाषी हूं, कुत्ते की भाषा बोलती हूं, हूं बिल्ली। इससे चूहे बड़ी आसानी से फंसते हैं।
हम सब बाइलिंग्वल हैं, द्विभाषी हैं, दो-दो भाषा जानते हैं। बोलने की भाषा और है, होने की भाषा और है। पूरे वक्त दो किनारों के बीच चलता रहता है। पश्चात्ताप करके आप बड़े प्रसन्न होते हैं, जैसा क्रोध करके बहुत दुखी और विषाद को उपलब्ध होते हैं। क्रोध करके विषाद आता है कि ऐसा बुरा आदमी मैं नहीं था। पश्चात्ताप करके चित्त प्रफुल्लित होता है, देखो कितना अच्छा आदमी हूं। अहंकार पुनर्प्रतिष्ठित हुआ। नहीं, प्रायश्चित का अर्थ--भूल कर्म में नहीं है, भूल मुझमें है, गलत मैं हूं।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने क्लब के बाहर निकल रहा है। एक आदमी एक कोट को पहनने की कोशिश कर रहा है क्लाक रूम से। मुल्ला उससे कहता है कि आप बड़े गलत आदमी हैं। मुल्ला से उसने कहा --मैंने तो कुछ किया ही नहीं! मैं अपना कोट पहन रहा हूं। मुल्ला ने कहा--इसीलिए तो मैं कहता हूं कि आप गलत आदमी हैं। यह कोट मुल्ला नसरुद्दीन का है। उस आदमी ने कहा--यह मुल्ला नसरुद्दीन कौन है? मुल्ला ने कहा--यह मुल्ला नसरुद्दीन मैं हूं, आप मेरा कोट पहन रहे हैं। तो उस आदमी ने कहा कि नासमझ! ऐसा क्यों नहीं कहता कि मैं गलत कोट पहन रहा हूं, ऐसा क्यों कहता है कि मैं गलत आदमी हूं। मुल्ला ने कहा, गलत आदमी ही गलत कोट पहनते हैं।
जब आप कोई गलत काम करते हैं तो आप चाहते हैं कोई ज्यादा से ज्यादा इतना कहे कि आपसे गलत काम हो गया। वह यह न कहे कि आप गलत आदमी हैं, क्योंकि काम की तो बड़ी छोटी सीमा है, एक क्षण में निपट जाएगा। आप! आप तो पूरे जीवन पर आरोपित हैं। अगर कोई कहे--आप गलत हैं, तो यह जीवनभर के लिए निन्दा हो गयी। अगर कर्म गलत है, एक क्षण की बात है, इससे विपरीत कर्म किया जा सकता है। किए को अनकिया किया जा सकता है, डन को अनडन किया जा सकता है। किए के लिए माफी मांगी जा सकती है। किए के विपरीत किया जा सकता है। कर्म के ऊपर दोष देने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन वही आदमी प्रायश्चित को उपलब्ध होता है। जो कहता--गलत कोट मैं नहीं पहन रहा, मैं गलत आदमी हूं। लेकिन तब प्राणों में बड़ा मंथन होता है।
तब सवाल यह नहीं है कि मैंने कौन-कौन-से काम गलत किए; तब सवाल यह है कि चूंकि मैं गलत हूं इसलिए मैंने जो भी किया होगा, वह गलत होगा। तब चुनाव भी नहीं है कि कौन-सा गलत किया और मैंने कौन-सा ठीक किया। जब मैं गलत हूं तो मैंने जो भी किया होगा वह गलत किया होगा। बेहोश आदमी शराब पिए हुए रास्ते पर लड़खड़ाता है। वह यह नहीं कहता कि मेरे कौन-कौन-से पैर लड़खड़ाए, या कहेगा? और कौन-से पैर मेरे ठीक पड़े और कौन-से पैर मेरे लड़खड़ाए? जब वह होश में आएगा तब वह कहेगा कि मैं बेहोश था, मेरे सभी पैर लड़खड़ाए। वे जो ठीक पड़ते मालूम पड़ते थे वे भी गलती से ही ठीक पड़े होंगे क्योंकि ठीक पड़ने का तो कोई उपाय नहीं, क्योंकि मैं शराब पिए था। हम भीतर एक गहरे नशे में होते हैं, और वह गहरा नशा यह है कि हम, एक अर्थ में हम हैं ही नहीं, बिलकुल सोए हुए हैं।
प्रायश्चित को महावीर ने क्यों अंतरत्तप का पहला हिस्सा बनाया? क्योंकि वही व्यक्ति अंतर्यात्रा पर निकल सकेगा जो कर्म की गलती को छोड़कर स्वयं की गलती देखना शुरू करेगा। देखिए, तीन तरह के लोग हैं--एक वे लोग हैं जो दूसरे की गलती देखते हैं; एक वे लोग हैं जो कर्म की गलती देखते हैं; एक वे लोग हैं जो स्वयं की गलती देखते हैं। जो दूसरे की गलती देखते हैं वे तो पश्चात्ताप भी नहीं करते। जो कर्म की गलती देखते हैं वे पश्चात्ताप करते हैं। जो स्वयं की गलती देखते हैं, वे प्रायश्चित में उतरते हैं। जब दूसरा ही गलत है तब तो पश्चात्ताप का कोई सवाल ही नहीं है।
लेकिन ध्यान रहे, दूसरा कभी भी गलत नहीं होता। इस अर्थ में कभी गलत नहीं होता। इसे बड़ा कठिन होगा समझना कि दूसरा कभी भी गलत नहीं होता। अंतर्यात्रा के पथिक को यह समझ लेना होगा कि दूसरा कभी भी गलत नहीं होता है। आप कहेंगे--आप कैसी बात कर रहे हैं क्योंकि मैं गलत होता हूं तो मैं दूसरे के लिए तो दूसरा हूं ही! और अगर दूसरा गलत नहीं होता तो फिर तो मैं कैसे गलत होऊंगा? जब मैं कह रहा हूं--दूसरा कभी गलत नहीं होता तो इसलिए कह रहा हूं इसलिए नहीं कि दूसरा गलत नहीं होता, दूसरा गलत होता है, लेकिन स्वयं के लिए, आप गलत होते हैं स्वयं के लिए  दूसरे के लिए आप गलत नहीं हो सकते।
आप महावीर के पास जाएं तब आपको तत्काल पता चल जाएगा। आप गाली दें, महावीर में गाली ऐसे गूंजेगी जैसे किसी घाटी में गूंजे और विलीन हो जाए। आप महावीर को क्रोधित न करवा पाएंगे। और तब बड़े हैरानी की बात है कि अगर आप क्रोधी आदमी हैं तो आपको और ज्यादा क्रोध आएगा कि दूसरा आदमी क्रोधित तक नहीं हुआ। तो और क्रोध आएगा। जीसस को सूली पर लटकाना पड़ा क्योंकि यह आदमी उन लोगों के सामने अपना दूसरा गाल करता रहा, जो चांटा मारने आए थे। उनका क्रोध भयंकर होता चला गया। अगर यह भी उनको एक चांटा मार देता तो जीसस को सूली पर लटकाने की कोई जरूरत न पड़ती। बात निपट गयी होती। समान तल पर आ गए होते। फिर तो कोई कठिनाई न थी।
एनी बीसेंट जे.कृष्णमूर्ति को कैमिबरज और आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के अलग-अलग कालेजों में भर्ती कराने के लिए घूम रही थी, पढ़ने के लिए। लेकिन कोई कालेज का प्रिंसिपल कृष्णमूर्ति को लेने को राजी नहीं हुआ। जिस कालेज में भी एनी बीसेंट गयी, एनी बीसेंट ने कहा कि यह साक्षात भगवान का अवतार है, यह दिव्य पुरुष है। इनमें वर्ल्ड टीचर, जगत-गुरु का जन्म होने को है।
उन प्रिंसिपल्स ने कहा कि क्षमा करें, इतनी विशिष्टता आप उन्हें दे रही हैं कि हम कालेज में भर्ती नहीं कर सकेंगे। एनी बीसेंट ने कहा--क्यों? तो उन्होंने कहा--इसलिए भर्ती न कर सकेंगे कि एक तो इस बच्चे को परेशानी होगी इतनी महत्ता का बोझ लेकर चलने में, और दूसरे लड़के भी इसको परेशान करेंगे। इसको कठिनाई पड़ेगी इतनी गरिमा लेकर चलने में, और दूसरे लड़के इसको परेशान करेंगे। यह शांति से न पढ़ पाएगा, शांति से न जी पाएगा। इस लिए हम इसे न लेंगे।
लेकिन सभी प्रिंसिपलों ने एक खास कालेज का नाम बताया कि आप वहां चली जाओ, वह कालेज भर्ती कर लेगा।
एनी बीसेंट बहुत हैरान थी, फिर आखिर जब कोई कालेज में जगह नहीं मिली क्योंकि वह कालेज अच्छा कालेज नहीं था, जिसका लोग नाम लेते थे, उसकी प्रतिष्ठा नहीं थी। एनी बीसेंट को जब कोई उपाय न रहा तो वह कृष्णमूर्ति को लेकर उस कालेज में गयी। उस कालेज के प्रिंसिपल ने कहा--खुशी से भर्ती हो जाओ, मजे से भर्ती हो जाओ; बिकाज़ इन अवर कालेज एवरीवन इज ए गाड। एवरीवन विल ट्रीट यू इक्वली। कोई दिक्कत न आएगी। इधर सभी लड़के भगवान हैं हमारे कालेज में। कोई कठिनाई न आएगी बल्कि तुमको दिक्कत यही हो सकती है कि कई इसमें बिगर गाड्स हैं, वे तुमको दबाएंगे, तुमको छोटा गाड सिद्ध करेंगे। तुम जरा इसके लिए सावधान रहना। बाकी और कोई अड़चन नहीं है। दे विल ट्रीट यू इक्वली। समान व्यवहार करेंगे।
यह जो, हम जो व्यवहार कर रहे हैं दूसरे से, वह दूसरे पर कम निर्भर है, हम पर ज्यादा निर्भर है। हमें लगता ऐसा ही है कि दूसरे पर निर्भर है, वही हमारी भ्रांति है, वह हम पर ही निर्भर है। हम ही उसे उकसाते हैं जाने अनजाने। और जब दूसरा उसे करने लगता है तो लगता है वह दूसरे से आ रहा है। अब जिस कालेज में हरेक लड़का अपने को भगवान समझता है, उस कालेज में कोई दिक्कत नहीं है प्रिंसिपल को। वह कहता है--कोई अड़चन न आएगी। लेकिन जिस का लेज में ऐसा नहीं है, उसका प्रिंसिपल भयभीत हो रहा है कि इससे अड़चन खड़ी होगी। आसान नहीं होगा यह, कृष्णमूर्ति का यहां रहना। यह अड़चन बनेगी।
महावीर के पास आप जाएंगे तो आपको कठिनाई आएगी, अगर महावीर आपके साथ समानता का व्यवहार करेंगे तो कठिनाई न आएगी। आप गाली दें महावीर को और महावीर भी आपको गाली दे दें तो आप ज्यादा प्रसन्न घर लौटेंगे क्योंकि बराबर सिद्ध हुए। अगर महावीर गाली न दें और मुस्कुरा दें तो आप रातभर बेचैन रहेंगे घर कि यह आदमी कुछ ऊपर मालूम पड़ता है, इसको नीचे लाना पड़ेगा। तो इसलिए कई बार तो ऐसा हुआ है कि बहुत साधुओं ने सिर्फ इसलिए गाली दी कि आपको उनको नीचे लाने की व्यर्थ कोशिश न करनी पड़े। आप हैरान होंगे, यह जगत बहुत अजीब है। कई साधुओं को इसलिए आपके साथ दुरुव्यवहार करना पड़ा ताकि आपको उनके साथ दुरुव्यवहार न करना पड़े। रामकृष्ण गाली देते थे, ठीक मां-बहन की गाली देते थे। और ढेर फक्कड़ साधु गालियां देते रहे, पत्थर मारते रहे, और सिर्फ इसलिए कि आपको कष्ट न उठाना पड़े उनको फांसी वगैरह देने का--आप पर दया करके, यही समझकर।
और यह बड़े मजे की बात है, अब तक ऐसे किसी साधु को फांसी नहीं दी गयी, जिसने गाली दी हो और पत्थर फेंके हों। यह आपको पता है? पूरे इतिहास में मनुष्य जाति के! सुकरात को जहर पिला देते हैं, महावीर को पत्थर मारते हैं, बुद्ध को परेशान करते हैं। हत्या की अनेक कोशिशें की जाती हैं बुद्ध की--चट्टान सरका दी जा ती है, पागल हाथी छोड़ दिया जाता है। जीसस को सूली पर लटकाते हैं, मंसूर को काट डालते हैं। लेकिन ऐसा एक भी उल्लेख नहीं है कि आपने उस साधु के साथ दुरुव्यवहार किया हो जिसने आपके साथ दुरुव्यवहार किया हो। यह बड़े मजे की बात है। यह बड़ा ऐतिहासिक तथ्य है। बात क्या है? असल में जो आपको गाली देता है, यू ट्रीट हिम इक्वली। बात खत्म हो गयी। वह आदमी इतना ऊपर नहीं, जिसको फांसी-वांसी लगानी पड़े, नीचे लाना पड़े। अपने ही जैसा है, चलेगा। तो कई कुशल साधु सिर्फ इसलिए गाली देने को मजबूर हुए कि आपको नाहक परेशानी में न पड़ना पड़े, क्योंकि फांसी लगाने में परेशानी साधु को कम होती है, आपको ज्यादा होती है। बड़ा इंतजाम करना पड़ता है।
दूसरा गलत नहीं है इस स्मरण से ही अंतर्यात्रा शुरू होती है। अगर दूसरा गलत है, तब तो अंतर्यात्रा शुरू ही नहीं होगी। दूसरा गलत है या नहीं, यह सवाल नहीं है; दूसरा गलत है, यह दृष्टि गलत है। दूसरा गलत है या नहीं, इस तर्क में आप पड़ेंगे तो कभी दूसरा सही मालूम पड़ेगा, कभी गलत मालूम पड़ेगा। चुनाव शुरू हो जाएगा । दूसरा सही है या गलत है, यह साधक की दृष्टि नहीं है। मैं गलत हूं या नहीं, यह ठहराना साधक की दृष्टि नहीं है। मैं गलत हूं, यह सुनिश्चित मानकर चल पड़ना साधक की दृष्टि है। प्रायश्चित तब शुरू होता है जब मैं मानता हूं, मैं गलत हूं। सच तो यह है कि जब तक मैं हूं तब तक मैं गलत होऊंगा ही। होना ही गलत है, वह जो अस्मिता है, वह जो इगो--"मैं हूं'--वही मेरी गलती है। मेरा होना ही मेरी गलती है। जब तक "मैं नहीं' न हो जाऊं तब तक प्रायश्चित फलित नहीं होगा। और जिस दिन मैं नहीं हो जाता हूं, शून्यवत हो जाता हूं उसी दिन मेरी चेतना रूपांतरित होती है और नए लोक में प्रवेश करती है।
फिर भी ऐसा नहीं है कि ऐसी रूपांतरित चेतना में आपको गलतियां न मिल जाएं। क्योंकि गलतियां आप अपने कारण खोजते हैं। एक बात पक्की है कि ऐसी चेतना को आप में गलतियां मिलनी बंद हो जाएंगी। इसलिए तो ऐसी चेतनाएं आपसे कह सकीं कि आप परमात्मा हैं, आप शुद्ध आत्मा हैं, आपके भीतर मोक्ष छिपा है। द किंगडम आफ गाड इज विदिन यू। इसलिए जीसस जुदास के पैर पड़ सके। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि जुदास ने तीस रुपये में जीसस को बेच दिया है सूली पर लटकाने के लिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई अंतर ही नहीं पड़ता क्योंकि जिस आदमी ने अपने को बदला हुआ पाया, उसको फिर किसी में कहीं कोई गलती नहीं दिखाई पड़ती। और ज्यादा से ज्यादा अगर उसे कुछ दिखाई पड़ता है तो इतना ही दिखाई पड़ता है कि आप बेहोश हो, और बेहोश आदमी को क्या गलत ठहराना। बेहोश आदमी जो भी करता है, गलत होता है, लेकिन होशवाला आदमी बेहोश आदमी को क्या गलत ठहराए!।
बहुत मजेदार घटनाएं घटती हैं, और होशवाले आदमियों ने अपने संस्मरण नहीं लिखे, वे लिखें तो बड़े अदभुत होंगे। बेहोश आदमियों के बीच जीना होशवाले आदमी को इतना सटरेंज मामला है, इतना विचित्र है, लेकिन किसी ने अपना संस्मरण लिखाया नहीं क्योंकि आप उस पर भरोसा न कर सकेंगे कि ऐसा हो सकता है। ऐसे ही जैसे आपको एक पागलखाने में बंद कर दिया जाए और आप पागल न हों, तब जो जो घटनाएं आपके जीवन में घटेंगी उनसे विचित्र घटनाएं कहीं भी नहीं घट सकतीं। और अगर आप बाहर आकर कहेंगे तो कोई भरोसा नहीं कर सकता कि ऐसा हो सकता है। पागल भरोसा नहीं करेंगे क्योंकि वे पागल हैं। गैर पागल भरोसा नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें पागलों का कोई पता नहीं। और आप दोनों हालत में रह लिए, आप पागल नहीं थे और पागलों के बीच में रहे।
एक वृद्ध साधक--सरल, सीधे आदमी हैं। कोई सोच भी नहीं सकता कि उनमें कहीं कोई पर्तें दबी होंगी, सबके भीतर पर्तें दबी हैं। वे गहरे ध्यान में अभी आजोल आश्रम में थे। एक दिन ध्यान में अच्छी गहराई में गए, और गहराई में गए इसीलिए यह घटना घटी, नहीं तो घटती नहीं; अन्यथा सीधा-सादापन था। उन्होंने आनंद मधु को बाहर निकलकर सुबह कहा कि मैं इसी वक्त बम्बई जा रहा हूं। मुझे रजनीश की आज ही हत्या कर देनी है। मेरा उनसे इस जन्म में कोई संबंध नहीं, सिवाय इसके कि उन्होंने मुझसे संन्यास लिया है। वह भी एक क्षणभर का मिलना हुआ, इससे ज्यादा कोई संबंध नहीं। पिछले जन्मों को याद करने की मैंने बहुत कोशिश की, कोई याद नहीं पड़ता है कि उनसे मेरा कोई संबंध रहा हो। शांत, सीधे आदमी हैं। समस्त जीवन को छोड़कर साधना की दिशा में गए, और गहरे गए, इसलिए यह घटना घटी। नहीं तो ऊपर से तो शांत, सीधे हैं। तो क्या हुआ? मधु परेशान हुई। वे एकदम तैयार हैं, हत्या करने जाना है। सामने ही मेरा चित्र रखा था, वह चित्र उसने सामने रख दिया और कहा--पहले इसे फाड़ डालें, पहले इस चित्र की हत्या कर दें फिर आप जाएं। चित्त दूसरे किनारे पर तत्काल चला गया, वे बेहोश होकर गिर पड़े। रोए, पछताए। कुछ किया नहीं है अभी, वह चित्र भी नहीं फाड़ा
गहरे तल पर कहीं हिंसा का कोई आवरण सबके भीतर है। तो जितने गहरे जाएंगे, उतना हिंसा का आवरण मिलेगा। और हिंसा जब शुद्ध प्रगट होती है तो अकारण प्रगट होती है। अशुद्ध हिंसा है जो कारण खोजकर प्रगट होती है। अकारण मैं कहता हूंजब आप कारण खोजकर क्रोधित होते हैं, तो उसका मतलब है क्रोध अभी बहुत गहरे तल पर नहीं है आपके। जब गहरे तल पर क्रोध होता है, तब आप अकारण क्रोधित होते हैं। अभी तो कारण मिलता है तब क्रोधित होते हैं, तब आप क्रोधित होते हैं इसलिए फौरन कारण खोजते हैं। गहरी पर्तें हैं।
अभी एक युवक मेरे पास अपनी हिंसा पर प्रयोग कर रहा था। अब हर भाव की सात पर्तें होती हैं मनुष्य के भीतर सात शरीरों की पर्तें होती हैं--सेवन बाडी की, वैसे हर भाव की सात पर्तें होती हैं। ऊपर से गाली दे लेते हैं, ऊपर से पश्चात्ताप कर लेते हैं, इससे कुछ नहीं हो जाता है। भीतर की पर्तें वैसी की वैसी बनी रहती हैं--सुरक्षित। और जितने गहरे उतरते हैं उतने अकारण भाव प्रगट होने शुरू होते हैं। जब गहरी सातवीं पर्त पर पहुंचते हैं तो कोई कारण नहीं रह जाता।
उस युवक को हिंसा ही तकलीफ थी। अपने पिता की हत्या करने का खयाल है, अपनी मां की हत्या करने का खयाल है। अब मैं जानता था जो अपनी मां और पिता की हत्या करने के खयाल से भरा है, अगर वह मेरा शिष्य बना तो मैं फादर इमेज हो जाऊंगा। आज नहीं कल वह मेरी हत्या करने के खयाल से भरेगा। क्योंकि गुरु को भक्तों ने जब कहा है कि गुरु पिता है और गुरु माता है और गुरु ब्रह्म है, अकारण नहीं कहा है। फादर इमेज, गुरु जो है। जब एक व्यक्ति किसी के चरणों में सिर रखता है और उसे गुरु मान लेता है, तो वही पिता हो गया, वही मां हो गया। लेकिन ध्यान रहे, पिता के प्रति उसके जो खयाल थे वही अब इस पर आरोपित होंगे। उसका, जिन्होंने कहा है--तुम पिता हो, तुम माता हो उन्हें कुछ पता नहीं। जब एक आदमी मुझसे आकर कहता है कि आप ही माता, आप ही पिता, आप ही ब्रह्म, आप ही सब कुछ; तब मैं जानता हूं, अब मैं फंसा।
फंसा इसलिए कि अब तक इसकी जितनी भी धारणाएं थीं, अब मेरी तरफ होंगी। इसको कोई भी पता नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं--पागलखाने में होने का अनुभव कैसा होता है, इसको कुछ भी पता नहीं। यह तो बहुत सदभाव से कह रहा है, बहुत आनंद भाव से, अहोभाव से। इसमें क्या बुराई हो सकती है। कितनी श्रद्धा से साष्टांग वह युवक मेरे चरणों में पड़ा है और कहता है कि आप ही सब कुछ हैं। लेकिन कल ही वह मुझे सब बताकर के गया है कि वह पिता की हत्या करना चाहता है। मैं जानता हूं आज नहीं कल....। अभी कल मुझे एक मित्र ने आकर खबर दी कि वह कहता है कि मेरी हत्या कर देगा। तो वे घबरा गए--जिनको खबर मिली वे। उन्होंने कहा कि यह क्या मामला है, पागलों के बीच रहने का?
एक और मजेदार घटना अभी घट रही है, तो आपको कहूं। एक युवती मेरे पास ध्यान कर रही थी--और यह घटना इतनी महिलाओं को घटी है कि कह देना अच्छा होगा क्योंकि कहीं न कहीं इस संबंध में खबर पहुंचेगी। और पागल आपको कोई खबर दें तो आप भी उतने ही पागल होने से जल्दी भरोसा कर लेते हैं, पकड़ लेते हैं। अब एक महिला दिल्ली में रहती है, वह मुझे वहां से लिखती है कि रात दो बजे, रात आप सशरीर मुझसे संभोग करते हैं, दिल्ली में आकर, ठीक है! दिल्ली में रहती है, इसलिए कोई झंझट नहीं है, इसलिए कोई अड़चन नहीं है।
एक महिला ने मुझे आकर कहा कि मुझे पक्का स्मरण आने लगा है कि मैं पिछले जन्म की आपकी पत्नी हूं। मैंने कहा--होगा, अब इसमें छिपाने जैसी बात नहीं है, बड़े गौरव की बात है। तो जाकर उसने और को बताया, उसने दूसरी महिला को बताया। यह महिला तो ग्रामीण है, ज्यादा समझदार नहीं है, भोली-भाली है। जिसको बताया वह तो यूनिवर्सिटी की ग्रेज्युएट है, पढ़ी लिखी महिला है, बड़े परिवार की है। वह महिला मेरे पास आयी और उसने कहा कि यह क्या नासमझी की बात कर रही है, वह औरत। यह नहीं हो सकता, यह बिलकुल गलत है। तो मैंने कहा कि तुमने ठीक सोचा, उसे समझा देना।
उसने कहा--मैंने उसे समझाया, लेकिन वह मानने को राजी नहीं है। वह कहती है मुझे पक्का भरोसा है, मुझे स्मरण है। मैंने उसे बहुत समझाया, उस दूसरी स्त्री ने मुझे कहा--लेकिन वह मानने को रा जी नहीं है। लेकिन यह बात गलत है, यह प्रचलित नहीं होनी चाहिए। भूल से मैंने एक बात पूछ ली उससे, तो बड़ी मुश्किल हो गयी। भूल से मैंने उस स्त्री से पूछा कि मान लो वह मानने को राजी नहीं होती तो तेरा क्या पक्का प्रमाण है कि वह गलत कहती है। वह बोली--इसलिए कि पिछले जन्म में तो मैं आपकी औरत थी। इसलिए दो दो कैसे हो सकती हैं। अब कुछ कहने का मामला ही न रहा, अब बात ही खत्म हो गयी। अब इससे बड़ा प्रमाण हो भी क्या सकता है? पागलों के बीच बड़ा मुश्किल है, बड़ा मुश्किल है, अत्यंत कठिन है।
तो मैंने कहा--वह स्त्री तो दिल्ली में है, इसलिए कोई दिक्कत नहीं है। अभी एक अमरीकन लड़की मेरे पास ध्यान कर रही थी दो महीने से। उसने मुझे चार-छह महीने के बाद कहा कि जब आपके पा स आकर बैठती हूं, आंखें बंद करती हूं तो मुझे ऐसा लगता है कि आप मुझसे संभोग कर रहे हैं। मैंने कहा--कोई फिक्र न करो, संभोग का जो भाव आए, उसको भी भीतर ले जाने की कोशिश करो। वह जो ऊर्जा उठे, उसको भी ऊपर की यात्रा पर ले जाओ। तो उसने मुझसे कहा कि आप मुझे हर दो दिन में कम-से-कम दस दस मिनट पास बैठने का मौका दे दें, क्योंकि यह इतना रसपूर्ण है कि संभोग में भी मुझे रस चला गया।
मेरे सामने दो ही विकल्प हैं, या तो मैं उसको इनकार कर दूं, क्योंकि यह खतरा मोल लेना है। लेकिन यह भी मैं देख रहा हूं कि उसको इनकार करना भी गलत है क्योंकि उसे सच में ही परिवर्तन हो रहा है। और अगर संभोग अंतर्मुखी हो जाए तो बड़ी क्रांति घटित होती है।
वह दो महीने मेरे पास प्रयोग करती थी, लेकिन मैंने उससे कहा, ध्यान रखना, इन दो महीने में भूलकर भी शारीरिक संभोग मत करना। वह अपने पति के साथ है। मैंने पूछा कि कितने संभोग करती हो? उसने कहा--सप्ताह में कम-से-कम दो तीन, इससे कम में तो नहीं चल सकता। वह पति तो मानने को राजी नहीं है। तो मैंने कहा कि संभोग चल रहा है, वहां तक तो ठीक है, कल तू गर्भवती हो जाए तो मैं जिम्मेवार न हो जाऊं! यह होनेवाला है। उसने कहा--नहीं, यह कैसी बात?
और यही हुआ। अभी कल मुझे किसी ने आकर खबर दी कि उसका पति कहता है कि वह मुझसे गर्भवती हो गयी है। ये बड़े मजे की बातें हैं। लेकिन पागलों के बीच जीना भी बड़ा क िठन है। उनके बीच जीना अति कठिन है। इतनी भीड़ है उनकी। पर उनको मैं गलत नहीं कहता। उनको मैं गलत नहीं कहता।
गलत वे नहीं हैं, सिर्फ बेहोश हैं। वे क्या कर रहे हैं, उन्हें पता नहीं है, वे क्या कर रहे हैं, उन्हें पता नहीं। क्या हो रहा है, वह उन्हें पता नहीं। वे क्या प्रोजेक्ट कर रहे हैं, क्या सोच रहे हैं, क्या मान रहे हैं, इसका उन्हें कोई पता नहीं है। तो वे बिलकुल बेहोश हैं। वह युवती मेरे एक मित्र के घर में ठहरी तो मुझे दूसरे मित्रों ने कहा कि निकलवाओ वहां से। मैंने कहा--यह तो सवाल ही नहीं है। अभी तो वह और मुसीबत में है, उसे वहां से निकलवाना ठीक नहीं है, उसे वहां रहने दो। तकलीफ होगी। उसे वहां रहने दो। किसी ने कहा--पुलिस को दे देना चाहिए। मैंने कहा--यह बिलकुल पागलपन की बात है। पुलिस क्या करेगी? पुलिस का क्या लेना-देना है उस बात से? अब वह जो युवक कहता फिरता है कि मेरी हत्या कर दें, अगर वह कल मेरी हत्या कर दे तो भी गलत नहीं है। तो भी गलत नहीं है। सिर्फ बेहोश है, सोया हुआ है। और वह सोने में जो भी कर सकता था, कर रहा है।
ध्यान रहे, हमारे चित्त की दो दशाएं हैं--एक सोयी हुई चेतना है हमारी और एक जाग्रत चेतना है। प्रायश्चित जाग्रत चेतना का लक्षण है, पश्चात्ताप सोयी हुई चेतना का लक्षण है। यह युवक कल आकर मुझसे माफी मांग जाएगा, इसका कोई मतलब नहीं है। आज जो कह रहा है उसका भी कोई मतलब नहीं है, कल यह माफी मांग जाएगा उसका भी कोई मतलब नहीं है। इससे कोई संबंध नहीं है। यह माफी मांगना भी उसी नींद से आ रहा है, यह क्रोध भी उसी नींद से आ रहा है। यह स्त्री गर्भवती समझ रही है मेरे द्वारा हो गयी। यह जिस नींद से आ रहा है, कल उसी नींद से कुछ आ र भी आ सकता है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। गलत, सही इसमें चुनाव नहीं है, ये सिर्फ सोए हुए लोग हैं। और सोया हुआ आदमी जो कर सकता है, वह कर रहा है।
अभी सोए हुए आदमी के प्रति पश्चात्ताप की शिक्षा से कुछ भी न होगा ।इसे स्मरण दिलाना जरूरी है कि यह सवाल नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो, सवाल यह है कि तुम क्या हो? तुम भीतर क्या हो, तुम उसी को बाहर फैलाए चले जाते हो। और वही तुम देखने लगते हो। और जितना कोई गहरा उतरेगा उतनी ही अकारण भावनाएं प्रक्षिप्त होती हैं और सजीव और साकार मालूम होने लगती हैं। और जब वह साकार मालूम होने लगती हैं तो फिर ठीक हैं, जो हम देखना चाहते हैं वह हम देख लेते हैं। ध्यान रहे, हम वह नहीं देखते जो है, हम वह देख लेते हैं जो हम देखना चाहते हैं या देख सकते हैं। ध्यान रहे, हम वह नहीं सुनते जो कहा जाता है, हम वह सुन लेते हैं जो हम सुनना चाहते हैं, या हम सुन सकते हैं। हम चुनाव कर रहे हैं।जिंदगी अनंत है, उसमें से हम चुनाव कर रहे हैं। हम भी अनंत हैं, उसमें से भी हम चुनाव कर रहे हैं। कभी हम चुन लेते हैं क्रोध करने की वृत्ति; कभी चुन लेते हैं पश्चात्ताप की वृत्ति, कभी घृणा की, कभी प्रेम की, और हम दोनों हालत में सोए आदमी हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
एक रात जोर से शराबघर के मालिक की टेलीफोन की घंटी बजने लगी--दो बजे रात, गुस्से में परेशान, नींद टूट गयी। घंटी उठायी, फोन उठाया। पूछा, कौन है? उसने कहा, मुल्ला नसरुद्दीन। क्या चाहते हो दो बजे रात? उसने कहा, मैं यही पूछना चाहता हूं कि शराब घर खुलेगा कब? व्हेन डू यू ओपन। उसने कहा, यह भी कोई बात है, तू रोज का ग्राहक। दस बजे सुबह खुलता है, यह भी दो बजे रात फोन करके पूछने की कोई जरुरत है? वह गुस्से में फोन पटककर फिर सो गया।
चार बजे फिर फोन की घंटी बजी। उठाया। कौन है? उसने कहा, मुल्ला नसरुद्दीन। कब तक खोलोगे दरवाजे? मालिक ने कहा, मालूम होता है तू ज्यादा पी गया है या पागल हो गया है। अभी चा र ही बजे हैं, दस बजे खुलनेवाला है।अगर तू दस बजे आया भी तो तुझे घुसने नहीं दूंगा। आई विल नाट अलाउ यू इन। मुल्ला ने कहा, हू वांट्स टु कम इन। आइ वांट टु गो आउट। मैं तो भीतर बंद हूं। और खोलो जल्दी, नहीं तो मैं पीता चला जा रहा हूं। अभी तो मुझे पता चल रहा है कि बाहर भीतर में फर्क है।
थोड़ी देर में वह भी पता नहीं चलेगा। अभी तो मुझे फोन नंबर याद है। थोड़ी देर में वह भी नहीं रहेगा। अभी तो मैं बता सकता हूं, मैं मुल्ला नसरुद्दीन हूं। थोड़ी देर में वह भी नहीं बता सकूंगा । जल्दी खोलो
हम सब ऐसी तंद्रा में हैं, जहां पता भी नहीं चलता कि बाहर क्या है, भीतर क्या है। मैं कौन हूं, यह भी पता नहीं चलता। कहां जाना चाह रहे हैं, यह भी पता नहीं चलता। कहां से आ रहे हैं, यह भी पता नहीं चलता। क्या प्रयोजन है, किसलिए जी रहे हैं? कुछ पता नहीं चलता है। एक बेहोशी है--एक गहरी बेहोशी। उस बेहोशी में हाथ पैर मारे चले जाते हैं। उस हाथ पैर मारने को हम कर्म कहते हैं। कभी किसी को गलत लग जाता है तो माफी मांग लेते हैं; कभी किसी को लगने से कोई प्रसन्न हो जाता है तो कहते हैं--प्रेम कर रहे हैं। कभी लग जाता है, चोट खा जाता है, वह आदमी नाराज हो जाता है तो कह देते हैं--माफ करना, गलती हो गयी। हाथ वही है, अंधेरे में मारे जा रहे हैं। कभी ठीक, कभी गलत, ऐसा लगता मालूम पड़ता है, लेकिन हाथ बेहोश हैं, वे सदा ही गलत हैं।
प्रायश्चित में उतरना हो तो जान लेना कि मैं गलत हूं; मैं सोया हुआ हूं। गलत का मतलब, सोया हुआ हूं, बेहोश हूं। मुझे कुछ भी पता नहीं है कि मेरे पैर कहां पड़ रहे हैं, क्यों पड़ रहे हैं। आपको पता है, आप क्या कर रहे हैं? कभी एक दफा झकझोरकर अपने को खड़े होकर आपने सोचा है दो मिनट कि क्या कर रहे हैं इस जिंदगी में आप? यह क्या हो रहा है आपसे? इसीलिए आए हैं? यही है अर्थ? अगर जोर से झकझोरा तो एक सेकेंड के लिए आपको लगेगा कि सारी जिंदगी व्यर्थ मालूम पड़ती है।
प्रायश्चित में वही उतर सकता है जो अपने को झकझोरकर पूछ सके कि क्या है अर्थ? इस जिंदगी का मतलब क्या है जो मैं जी रहा हूं? यह सुबह से शाम तक का चक्कर; यह क्रोध और घृणा का चक्कर; यह प्रेम और घृणा का चक्कर; यह क्षमा और दुश्मनी का चक्कर यह सब क्या है? यह धन और यह यश और यह अहंकार और यह पद और मर्यादा, यह सब क्या है? इसमें कोई अर्थ है? कि मैंने जो कुछ भी किया है इसमें मैं किसी तरफ बढ़ रहा हूं, कहीं पहुंच रहा हूं? कोई यात्रा हो रही है? कोई मंजिल करीब आती मालूम पड़ रही है? या मैं चक्कर की तरफ घूम रहा हूं? इन छह बाहय तपों के बाद यह आसान हो जाएगा। संलीनता के बाद यह आसान हो जाता है कि जब आपकी शक्ति आपके भीतर बैठ गयी है, तब आप झकझोर सकते हैं और पूछ सकते हैं उसको जगाकर कि यह मैं क्या कर रहा हूं? यह ठीक है? यही है? यह कर लेने से मैं तृप्त हो जाऊंगा, संतुष्ट हो जाऊंगा?
आप मर जाएंगे, आपको लगता है--जब तक जीते हैं--बड़ी जगह खाली हो जाएगी। कितने काम बंद हो जाएंगे! कितना विराट चक्कर आप चला रहे थे, लेकिन कब्रिस्तान भरे पड़े हुए हैं, ऐसे लोगों से जो सोचते थे कि उनके बिना दुनिया न चलेगी। दुनिया ही न चलेगी, सब शांत, चांद सूरज सब रुक जाएंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन को किसी ने पूछा है कि अगर दुनिया मिट जाए तो तुम्हारा क्या खयाल है? तो उसने पूछा कि कौन-सी दुनिया? दो तरह से दुनिया मिटती है। उस आदमी ने कहा, हद हो गयी ! यह कोई नया सिद्धांत निकाला है तुमने? दुनिया एक ही तरह से मिट सकती है। नसरुद्दीन ने कहा--दो तरह से मिटेगी--एक दिन, जिस दिन मैं मरूंगा, दुनिया मिटेगी। और एक दुनिया मिट जाए, वह दूसरा ढंग है।
हम सब यही सोच रहे हैं कि जिस दिन मैं मरूंगा, दुनिया मिट जाएगी।
मुल्ला मर गया, उसे लोग कब्र में विदा करके वापस लौट रहे हैं। तो रास्ते पर एक अजनबी मिला है और उस अजनबी ने पूछा कि व्हाट वाज द कम्पलेंट? मर गया नसरुद्दीन, तकलीफ क्या थी? शिकायत क्या थी? जिस आदमी से पूछा, उसने कहा--देयर वाज़ नो कम्पलेंट, देयर इज़ नो कम्पलेंटएवरीवन इज़ कम्पलीटली, थारोली सैटिस्फाइड। कोई शिकायत नहीं है। सब संतुष्ट हैं।
मर गया, अच्छा हुआ। गांव का उपद्रव छूटा।
नसरुद्दीन ऐसा नहीं सोच सकता था कभी। वह तो कह रहा था, एक दफा दुनिया तब मरेगी, जब मैं मरूंगा। प्रलय तो हो गयी असली, जिस दिन मैं मर गया।
हम सब जो कर रहे हैं, सोच रहे हैं, उस करने में कोई बड़ा भारी प्राण है, कोई बहुत बड़ा अर्थ है -- पानी पर लकीरें खींच रहे हैं और सोच रहे हैं; रेत पर नाम लिख रहे हैं और सोच रहे हैं; का गजों के महल बना रहे हैं और सोच रहे हैं। खो जाते हैं आप किसी को पता भी नहीं चलता कि कब खो गए। मिट जाते हैं आप किसी को पता भी नहीं चलता कि कब मिट गए। संलीनता के बाद साधक अपने भीतर रुककर पूछे कि मैं जो कर रहा हूं इसका कोई भी अर्थ है? मैं जो हूं इसका कोई अर्थ है? मैं कल मिट जाऊंगा, एवरीवन विल बी कम्पलीटली सैटिस्फाइड, सब लोग संतुष्ट होंगे।
एक दफा दिल्ली में एक सर्कस के दो शेर छूट गए। भागे तो रास्ते पर सा थ छूट गया। सात दिन बाद मिले तो एक तो सात दिन से भूखा था, बहुत परेशान था, एक पुलिया के नीचे छिपा रहा था। कुछ नहीं मिला उसको, खाने को भी कुछ नहीं मिला, परेशान हो गया। और छिपे-छिपे जान निकल गयी। दूसरा लेकिन तगड़ा, स्वस्थ दिखाई पड़ रहा था, मजबूत दिखाई पड़ रहा था। पहले सिंह ने पूछा कि मैं तो बड़ी मुसीबत में दिन गुजार रहा हूं। किसी तरह सर्कस वापस पहुंच जाऊं, इसका ही रास्ता खोज रहा हूं। वह रास्ता भी नहीं मिल रहा है। मर गए, सात दिन भूखे रहे। तुम तो बड़े प्रसन्न, ताजे और स्वस्थ दिखाई पड़ रहे हो। कहां छिपे रहे?
उसने कहा--"मैं तो पार्लियामेंट हाउस में छिपा था।'
"खतरनाक जगह तुम गए? वहां इतना पुलिस का पहरा है, वहां भोजन कैसे मिला?'
उसने कहा--"मैं रोज एक मिनिस्टर को प्राप्त करता रहा।'
"यह तो बहुत डेंजरस काम है। फंस जाओगे।'
तो उसने कहा कि नहीं, जैसे ही मिनिस्टर नदारद होता है, एवरीवन इज़ कंपलीटली सैटिस्फाइड। कोई झंझट नहीं होती है। नो वन लिसिन्स हिम। कोई कभी भी अनुभव नहीं करता। वह जगह इतनी बढ़िया है कि वहां जितने लोग हैं, किसी को भी प्राप्त कर जाओ, बाकी लोग प्रसन्न होते हैं। तुम भी वहीं चले चलो। वहां अपने दो क्या पूरे सर्कस के सब शेर आ जाएं तो भी भोजन है और काफी दिन तक रहेगा क्योंकि भोजन खुद पार्लियामेंट हाउस में आने को उत्सुक है, पूरे मुल्क से भोजन आता ही रहेगा। इधर हम कितना ही कम करें, भोजन खुद उत्सुक है। खर्च करके परेशानी उठाकर आता रहेगा। भोजन, उनके लिए भोजन ही है जिनको आप एम.पी. वगैरह कहते हैं। भोजन हैं। पार्लियामेंट हाउस में तस्वीरें लटक रही हैं उन सब लोगों की जो सोचते हैं उनके बिना दुनिया रुक जाएगी, चांदत्तारे गति बंद कर देंगे। कुछ नहीं रुकता। कुछ पता ही नहीं चलता इस जगत में आप कब खो जाते हैं।
निश्चित ही आपके किए हुए का कोई भी मूल्य नहीं है, जिसका पता चलता हो। पर दूसरे के लिए मूल्य हो या न हो, यह पूछना साधक के लिए जरूरी है कि मेरे लिए कोई मूल्य है? यह जो कुछ भी कर रहा हूं, इसकी क्या आंतरिक अर्थवत्ता है? व्हाट इज़ इट्स इनर सिग्नीफिकेंस? इसकी महत्ता और गरिमा क्या है भीतर? यह खयाल आ जाए तो आप प्रायश्चित की दुनिया में प्रवेश करेंगे।
प्रायश्चित की दुनिया क्या है, यह मैं आपसे कहूं। प्रायश्चित की दुनिया यह है कि मैं जैसा भी हूं, सोया हुआ हूं, मैं अपने को जगाने का निर्णय लेता हूं। प्रायश्चित जागरण का संकल्प है। पश्चात्ताप, सोए में की गयी गलतियों का सोए में ही क्षमा याचना है, क्षमा मांगना है। प्रायश्चित सोए हुए व्यक्तित्व को जगाने का निर्णय है, संकल्प है। मैंने जो भी किया है आज तक, वह गलत था क्योंकि मैं गलत हूं। अब मैं अपने को बदलता हूं--कमो को नहीं, एक्शन को नहीं, बीइंग को। अब मैं अपने को बदलता हूं, अब मैं दूसरा होने की कोशिश करता हूं। क्या प्रायश्चित का यह अर्थ आपके खयाल में आता है? यह खयाल में आए तो आप साधक बन जाएंगे। यह खयाल में न आए तो आप साधारण गृहस्थ होंगे। पश्चात्ताप करते रहेंगे और वही काम दोहराते रहेंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर के लोगों ने यह देखकर कि इसके तर्क बड़े पागल होते जा रहे हैं, कुछ अजीब बातें कहता है। कहता है लाजिकल, कहता तर्कयुक्त है। पागल का भी अपना लाजिक होता है। ध्यान रहे, कई दफे तो पागल बड़े लाजीशियन होते हैं। बड़े तर्कयुक्त होते हैं। अगर आपने किसी पागल से तर्क किया है तो एक बात पक्की है--एक बात पक्की है कि आप उसे कनव्हिंस न कर पाएंगे। इस बात की सम्भावना है कि वह आपको कनव्हिंस कर ले। मगर इसकी कोई सम्भावना नहीं कि आप उसको कनव्हिंस कर पाएं। क्योंकि पागल का तर्क एब्सल्यूट होता है, पूर्ण होता है।
मुल्ला के तर्क ऐसे होते जा रहे हैं कि घर के लोग, मित्र, परेशान हो गए हैं। एक दिन मुल्ला गांव के धर्मशास्त्री से बात कर रहा है। धर्मशास्त्री ने कहा--कोई सत्य ऐसा नहीं है जिसे हम पूर्णता से घोषणा कर सकें। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि जो आप कह रहे हैं क्या यह पूर्ण सत्य है? उसने कहा--निश्चित, डेफिनेटिली। मुल्ला ने कहा--सब गड़बड़ हो गया। आप यह कह रहे हैं--"किसी सत्य को हम पूर्णता से घोषित नहीं कर सकते और अब आप ही कह रहे हैं--"यह सत्य पूर्ण है'
मुल्ला को मनोचिकित्सक के पास ले जाया गया क्योंकि गांवभर परेशान हो गया है उसके तको से। मनोचिकित्सक ने सालभर इलाज किया। कहते हैं कि सालभर में मुल्ला ठीक हो गया। जिस दिन मुल्ला ठीक हुआ, मनोचिकित्सक ने बड़ी खुशी मनायी। और उसने कहा--आज तुम ठीक हो गए हो, यह मेरी बड़ी सफलता है क्योंकि तुम जैसे आदमी को ठीक करना असम्भव कार्य था। इस जिंदगी में किसी को ठीक न किया तो चलेगा। चलो इस खुशी में हम बाहर चलें--फूल खिले हैं, पक्षी गीत गा रहे हैं, सूरज निकला है, सुबह सुंदर है--इस खुशी में हम थोड़ा पहाड़ की तरफ चलें।
वे दोनों पहाड़ की तरफ गए। मुल्ला हांफने लगा, और चिकित्सक है कि भागा चला जा रहा है तेजी से। आखिर मुल्ला ने कहा कि रुको भई। बहुत हो गया। अगर हमारा दिमाग खराब होता तो हम तुम्हारे साथ दौड़ भी लेते। लेकिन अब ठीक हो गया हूं। तुम्हीं कहते हो, तो अब इतना ज्यादा नहीं। तो उस चिकित्सक ने कहा -- मील के पत्थर को देखो, कितने दूर आए। अभी कोई ज्यादा दूर नहीं आए। मुल्ला ने देखा और कहा--दस मील। उस चिकित्सक ने कहा--इट इज़ नाट सो बैड। टु ईच इट कम्स टु ओनली फाइव माइल्स। पांच मील हमको, पांच मील तुमको। लौटने में ज्यादा दिक्कत नहीं है। मतलब यह है कि नसरुद्दीन तो ठीक हो गए, सालभर में चिकित्सक पागल हो गया। दस मील है लौटना, कोई हर्जा नहीं, पांच-पांच मील पड़ता है एक-एक के हिस्से में। ज्यादा बुरा नहीं है।
पागल को राजी करना मुश्किल है। सम्भावना यही है कि पागल आपको रा जी कर ले। क्योंकि पागल पूरा अपनी तरफ तर्क का जाल बनाकर रखता है। रीज़न्स नहीं हैं वे, रेशनलाइजेशन हैं, तर्काभा स हैं। तर्क नहीं हैं वे, तर्काभास हैं। लेकिन वह बनाकर रखता है।
रूजवेल्ट की पत्नी ने एक संस्मरण लिखा है, इलनौर रूजवेल्ट ने। रूजवेल्ट राषटरपति हुआ उसके पहले गवर्नर था अमरीका के एक राज्य में। गवर्नर की पत्नी होने की हैसियत से इलनौर रूजवेल्ट एक दिन पागलखाने के निरीक्षण को गयी। एक आदमी ने दरवाजे पर उसका स्वागत किया। उसने समझा कि वह सुपरिन्टेंडेंट है। वह आदमी उसे ले गया। उसने तीन घण्टे पागलखाने के एक-एक पागल के संबंध में जो केस, हिसटरी, जो ब्यौरा दिया, विवरण दिया, इलनौर हैरान हो गयी। उसने चलते वक्त उससे कहा कि तुम आश्चर्यजनक हो -- तुम्हारी जानकारी, पागलपन के संबंध में तुम्हारा अनुभव, तुम्हारा अध्ययन। तुम जितने बुद्धिमान आदमी से मैं कभी मिली नहीं।
उस आदमी ने कहा--माफ करिए, आप कुछ गलती में हैं। आई एम नाट ए सुपरिन्टेंडेंट, आई एम वन आफ इन्मेट्स। मैं कोई सुपरिन्टेंडेंट नहीं। सुपरिन्टेंडेंट आज बाहर गया है। मैं तो इसी पागलखाने में एक पागल हूं।
इलनौर ने कहा--तुम और पागल! तुम जैसा स्वस्थ आदमी मैंने नहीं देखा। किसने तुम्हें पागल किया है?
उसने कहा--यही तो मैं समझा रहा हूं, आज सात साल हो गए समझाते, लेकिन कोई सुनता नहीं। कोई मानने को राजी नहीं। अब कोई पागल कहे, मैं पागल नहीं, कौन मानने को राजी है। सुपरिन्टेंडेंट कहता है कि सभी पागल यही कहते हैं कि हम पागल नहीं हैं। इसमें क्या खास बात है?
रूजवेल्ट की पत्नी ने कहा--यह तो बहुत बुरा मामला है। तुम घबराओ मत, मैं जाकर गवर्नर को आज ही कहूंगी, कल ही तुम्हारी छुट्टी हो जाएगी। तुम एकदम स्वस्थ आदमी हो साधारण नहीं, असाधारण रूप से बुद्धिमान आदमी हो। तुमको कौन पागल कहता है? अगर तुम पागल हो तो हम सब पागल हैं।
पागल ने कहा--यही तो मैं समझाता हूं, लेकिन कोई मानता नहीं।
इलनौर ने कहा कि तुम बिलकुल बेफिक्र रहो। मैं आज ही जाकर बात करती हूं। कल सुबह ही तुम मुक्त हो जाओगे। नमस्कार करके, धन्यवाद देकर इलनौर मुड़ी, उस पागल ने उचककर जोर से लात मा री इलनौर की पीठ पर। सात-आठ सीढ़ियां वह नीचे धड़ाम से जाकर गिरी। बहुत घबराकर उठी।
उसने कहा--तुमने यह क्या किया? यह तुमने किया क्या?
उस पागल ने कहा--जस्ट टु रिमाइंड यू। भूल मत जाना। गवर्नर को कह देना कि कल सुबहजस्ट टु रिमाइंड यू।
मगर वह तीन घण्टे पर पानी फिर गया। तो तीन घण्टे जो वह बोल रहा था , उसमें क्या वह ठीक बोल सकता है? सवाल यह है। क्या उस तीन घण्टे में वह ठीक बोल सकता है? नहीं, वह ठीक बोलने का सिर्फ आभास पैदा कर सकता है--आभास, फैलिसी। तर्काभास पैदा कर सकता है। लेकिन असलियत यह नहीं हो सकती कि जो वह बोल रहा है वह ठीक हो। ऐसा दिखाई पड़ सकता है कि बिलकुल ठीक है। आप पकड़ न पाएं कि उसमें गलती कहां है, यह दूसरी बात है। लेकिन कोई न कोई घड़ी वह प्रगट कर देगा।
सोया हुआ आदमी भी इसी तरह कर रहा है। दिनभर बिलकुल ठीक है, जरा क्रोध नहीं कर रहा है। अचानक एक रसीद कर देता है चांटा अपने लड़के को कि तू देर से क्यों आया? आप नहीं समझते, आप कहते हैं यह आदमी बिलकुल ठीक है, बाकी वक्त तो ठीक ही रहता है। यह इसका चांटा बताता है कि बाकी वक्त यह सिर्फ तर्काभास पैदा करता है। यह ठीक नहीं रहता, यह ठीक रह नहीं सकता। क्योंकि उस ठीक आदमी से जो यह निकल रहा है, यह निकल नहीं सकता। एक आदमी एकदम छाती में छुरा मार देता है, किसी को हम कहते हैं कल तक बिलकुल भला आदमी था--एकदम भला आदमी था। माना कि बिलकुल भला था, लेकिन वह आभास था। सोया हुआ आदमी अच्छे का सिर्फ आभास पैदा करता है। बुरा होना उसकी नियति है। वह उससे प्रगट होगा ही। क्षण दो क्षण रोक सकता है, इधर-उधर डांवांडोल कर सकता है, लेकिन वह उससे प्रगट होगा ही।
क्या आपको पता है कि आप अपने को पूरे वक्त संभालकर चलते हैं? जो आपके भीतर है उसको दबाकर चलते हैं? जो आप कहना चाहते हैं वह नहीं कहते, कुछ और कहते हैं। जो आप बताना चाहते हैं नहीं बताते, कुछ और बताते हैं। लेकिन कभी-कभी वह उभर जाता है। हवा का कोई झोंका और कपड़ा उठ जाता है, भीतर जो है वह दिख जाता है, कोई परिस्थिति। तब आप कहते हैं, यह कर्म की भूल है, परिस्थिति की नहीं। परिस्थिति ने तो केवल अवसर दिया है कि आपके भीतर जो आप छिपा-छिपाकर चल रहे थे वह प्रगट हो गया।
प्रायश्चित तब शुरू होगा जब आप जैसे हैं, अपने को वैसा जानें। छिपाएं मत, ढांकें मत, तो आप पाएंगे, आप उबलते हुए लावा हैं, ज्वालामुखी हैं। ये सब बहाने हैं आपके, ये टीम-टाम हैं। ये ऊपर से चिपकाये हुए पलस्तर हैं, ये बहुत पतले हैं। यह सिर्फ दिखावा है। इस दिखावे के भीतर जो आप हैं, उसको आप स्वीकार करें।
प्रायश्चित का पहला सूत्र--जो आप हैं--बुरे भले, निंदा-योग्य, पा पी, बेईमान--एक्सेप्ट इट। आप ऐसे हैं। तथ्य की स्वीकृति प्रायश्चित है। तथ्य गलती से हो गया, इसको पोंछ देना पश्चात्ताप है। तथ्य हुआ, होता ही है मुझसे; जैसा मैं आदमी हूं, यही मुझसे होता--इसकी स्वीकृति प्रायश्चित का प्रारंभ है। स्वीकार, आ र पूर्ण स्वीकार, कहीं भी कोई चुनाव नहीं। क्योंकि चुनाव आपने किया तो आप बदलते रहेंगे। आज यह, कल वह, परसों वह, आपकी बदलाहट जारी रहेगी। प्रायश्चित पूर्ण स्वीकार है, मैं ऐसा हूं। मैं चोर हूं, तो मैं चोर हूं। मैं बेईमान हूं तो मैं बेईमान हूं । नहीं जरूरत है कि आप घोषणा करने जाएं कि मैं बेईमान हूं क्योंकि अकसर ऐसा होता है कि अगर आप घोषणा करें कि मैं बेईमान हूं तो लोग समझेंगे कि बड़े ईमानदार हैं। मुझे लोगों ने भगवान कहना शुरू किया। मैं चुप रहा बहुत दिन तक, मैंने सोचा कि मैं कहूं कि भगवान नहीं हूं तो उनका और पक्का भरोसा बैठ जाएगा कि यही तो लक्षण है भगवान का, कि वह इनकार करे। वह इनकार करे कि मैं नहीं हूं।
हमारा मन बड़ा अजीब है। अगर आपको किसी को सच में ही बेईमानी करके धोखा देना हो तो आप पहले उसको बता दें कि मैं बहुत बुरा आदमी हूं, मैं बहुत बेईमान हूं। वह आप पर ज्यादा भरोसा करेगा, आप बेईमानी ज्यादा आसानी से कर सकेंगे। और जब आप घोषणा करते हैं कि बेईमान हूं तब देखना कि इसमें कोई रस तो नहीं आ रहा है, क्योंकि दूसरे के सामने घोषणा में इसमें भी रस आ सकता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि लियो टालस्टाय ने अपनी आत्मकथा में जितने पाप लिखे हैं, उतने उसने किए नहीं थे। उसमें बहुत से पाप कल्पित हैं, जो उसने घोषणा करने के लिए लिखे। किए नहीं थे, आप सोच सकते हैं? पुण्यों की कोई घोषणा करे कि मैंने इतना दान किया तो आप कहेंगे कि यह घोषणा हो सकती है। लेकिन कोई कहे कि मैंने इतनी चोरी की, यह भी घोषणा हो सकती है? कोई ऐसा करेगा? आपने कभी सोचा है कि कोई अपने पाप की भी चर्चा करेगा, इतने जोर से? नहीं, पापी करते हैं। लेकिन टालस्टाय जैसे लोग नहीं करते। जेलखाने में आप जाइए, जिसने दस रुपए की चोरी की है, वह कहता है दस लाख का डाका डाला। क्योंकि दस की भी कोई चोरी करने का मतलब है? तो दस के ही चोर हैं! यह कोई मतलब नहीं है।
एक कैदी कारागृह में प्रविष्ट हुआ। दूसरे कैदी ने, जो वहां सीखचों से टिककर बैठा था, उसने कहा--कितने दिन की सजा? उसने कहा कि चालीस साल की सजा। तो उसने कहा कि तू दरवाजे के पास बैठ। हम दीवार के पास रहेंगे। पहले आदमी ने पूछा, "क्यों?' उसने कहा--हमको पचहत्तर साल की सजा मिली है। तो तेरा मौका पहले आएगा निकलने का। सिक्खड़ मालूम पड़ता है। चालीस साल की कुल! छोटा-मोटा काम किया! हमको पचहत्तर सा ल की सजा है। हम दीवार के पास रहेंगे, तू दरवाजे के पास। तेरा मौका निकलने का पहले आएगा। चालीस साल ही का तो मा मला है। हमको और आगे पैंतीस साल रहना है। इसका मतलब है कि उन्होंने मास्टरी सिद्ध कर दी कि अब तू इस कमरे में शिष्य बनकर रह।
तो जेलखानों में तो घोषणा चलती है। लेकिन यह कभी खयाल नहीं आता साधारणतः कि साधु-संतों ने भी जितने पापों की चर्चा की है, उतने वस्तुतः किए हैं। या पाप की घोषणा में भी रस हो सकता है?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं -- रस हो सकता है। इस हिसाब से हिसाब नहीं लगाए गए हैं कभी। गांधी की आत्मकथा का कभी न हो, कोई नहीं, कोई आकाश में सुनने वाला नहीं जिससे तुम कहो कि मेरे पाप क्षमा कर देना। कोई क्षमा करेगा नहीं, कोई है नहीं। चिल्लाना मत, घोषणा से कुछ भी न होगा। दया की भिक्षा मत मांगना , क्योंकि कोई दया नहीं हो सकती। कोई दया करनेवाला नहीं है।
प्रायश्चित--नहीं, दूसरे के समक्ष नहीं, अपने ही समक्ष अपने नरक की स्वीकृति है। और जब पूर्ण स्वीकृति होती है भीतर, तो उस पूर्ण स्वीकृति से ही रूपांतरण शुरू हो जाता है। यह बहुत कठिन मा लूम पड़ेगा कि पूर्ण स्वीकृति से क्यों शुरू हो जाता है? जैसे ही कोई व्यक्ति अपने को पूरा स्वीकार करता है--उसकी पुरानी इमेज, उसकी पुरानी प्रतिमा खण्ड-खण्ड होकर गिर जाती है, राख हो जाती है। और अब वह जैसा अपने को पाता है, ऐसा अपने को क्षणभर भी देख नहीं सकता, बदलेगा ही और उपाय नहीं है। जैसे घर में आग लग गई हो और पता चल गया कि आग लग गई, तब आप यह न कहेंगे कि अब हम सोचेंगे, बाहर निकलना है कि नहीं। तब आप यह न कहेंगे कि गुरु खोजेंगे, कि मार्ग क्या है? तब आप यह न कहेंगे कि पहले बाहर कुछ है भी पाने योग्य कि हम घर छोड़कर निकल जाएं और बाहर भी कुछ न मिले। ये सब उस आदमी की बातें हैं जिसके मन में कहीं-न-कहीं खयाल बना है कि घर में कोई आग नहीं लगी। एक बार दिख जाएं लपटें चारों तरफ, आदमी बाहर हो जाता है। जम्प, छलांग लग जाती है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी का आपरेशन हुआ। तो जब उसे आपरेशन की टेबल पर लिटाया गया तो खिड़कियों के बाहर वृक्षों में फूल खिले हुए हैं, इंद्रधनुष फैला हुआ है। जब उसका आपरेशन हो गया और उसके मुंह से कपड़ा उठाया गया तो उसने देखा कि सब पद बंद हैं, खिड़कियां, द्वार-दरवाजे बंद हैं, तो उसने मुल्ला से पूछा कि सुंदर सुबह थी, क्या सांझ हो गई या रात हो गई? इतनी देर लग गई? मुल्ला ने कहा--रात नहीं हुई है, पांच मिनट हुआ। तो उसने कहा--ये दरवाजे क्यों बंद हैं? तो मुल्ला ने कहा--बाहर के मकान में आग लग गई है। और हम डरे कि अगर कहीं तू होश में आए और एकदम देखे आग लगी, तो समझे कि नरक में पहुंच गए हैं। इसलिए हमने खिड़कियां बंद कर दीं कि नरक में आग जलती रहती है तो तू कहीं यह न सोच ले कि मर गए, खत्म। कभी ऐसा हो जाता है कि सोच लिया कि मर गए तो आदमी मर भी जाता है। तो मुल्ला ने कहा--यह मैंने बंद की हैं खिड़कियां, और मकान में आग लग गयी है बाहर।
मुल्ला के खुद के जीवन में ऐसा घटा कि वह बेहोश हो गया और लोगों ने समझा कि मर गया। उसकी अर्थी बांध ही रहे थे कि वह होश में आ गया। लोगों ने कहा--अरे, तुम मरे नहीं! मुल्ला ने कहा--मैं मरा नहीं, और जितनी देर तुम समझ रहे थे कि मैं मर गया, उतनी देर भी मैं मरा हुआ नहीं था। मुझे पता था कि मैं जिंदा हूं। तो उन्होंने कहा--तुम बिलकुल बेहोश थे, तुम्हें पता कैसे हो सकता है। क्या तुम्हें पता था? क्या प्रमाण तुम्हारे भीतर था कि तुम जिंदा हो? उसने कहा--प्रमाण यह था कि मैं भूखा था, मुझे भूख लगी थी। अगर स्वर्ग में पहुंच गया होता तो कल्पवृक्ष के नीचे भूख खत्म हो गई होती। और पैर में मुझे ठंडक लग रही थी। अगर नरक में पहुंच गया होता तो वहां ठंडक कहां है, और दो ही जगहें हैं जाने को। मुझे पता था कि मैं जिंदा हूं।
मुल्ला के गांव का एक नास्तिक मर गया--वह अकेला नास्तिक था। वह मर गया तो मुल्ला उसको बिदा करने गया। वह लेटा हुआ है। सूट सुंदर उसे पहना दिया गया था, टाई-वाई बांध दी गयी थी--सब बिलकुल तैयार। मुल्ला ने बड़े दुख से कहा, पुअर मैन! थारोली ड्रेस्ड एंड नो व्हेअर टु गो? नास्तिक था, न नरक जा सकता था, न स्वर्ग। क्योंकि मानता ही नहीं। तो मुल्ला ने कहा--इतने बिलकुल तैयार लेटे हो, गरीब बेचारा और जाना उसको कहीं भी नहीं है।
वह जो हमारे भीतर आग है, नरक है, जहां हम खड़े ही हैं। नरक जाने को जगह नहीं है कोई, वहां हम खड़े हुए हैं, वह हमारी
स्थिति है। स्वर्ग कोई स्थान नहीं है। इसलिए महावीर पहले आदमी हैं इस पृथ्वी पर जिन्होंने कहा कि स्वर्ग और नरक मनोदशाएं हैं, माइंड स्टेट्स हैं, चित्तदशाएं हैं। मोक्ष कोई स्थान नहीं है इसलिए महावीर ने कहा कि वह स्थान के बाहर है--बियाण्ड स्पेस। वह कोई स्थान नहीं है, वह सिर्फ एक अवस्था है। लेकिन जहां हम खड़े हैं, वह नरक है। इस नरक की प्रतीति जितनी स्पष्ट हो जाए उतने आप प्रायश्चित में उतरेंगे। और जितनी प्रगाढ़--इनटेंस हो जाए, कि आग जलने लगे आपके चारों तरफ तो छलांग लग जाएगी। और रूपांतरण शुरू हो जाएगा।
उस छलांग के पांच सूत्र हम कल से धीरे-धीरे शुरू करेंगे। यह पहला सूत्र है और ठीक से समझ लेना जरूरी है। संलीनता जैसे अंतिम सूत्र है बाहयत्तप का, और कीमती है, उसके बाद ही प्रा यश्चित हो सकता है। प्रायश्चित बहुत कीमती है क्योंकि वह पहला सूत्र है अंतरत्तप का। अगर आप प्रायश्चित नहीं कर सकते तो अंतरत्तप में कोई प्रवेश नहीं है, वह द्वार है।

आज इतना ही।
रुकें पांच मिनट, कीर्तन करें!



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