दिनांक 19
जनवरी, ।977;
श्री ओशो
आश्रम
कोरगांव
पार्क पूना,
सूत्र:
विषयद्वीपिनो
वीक्ष्य
चकिता
शरणार्थिन:।
विशंति
झटिति क्रोड
निरोधैकाग्न्यसिद्धये।।
22।।।
निर्वासन
हरि
दृष्टत्वा
तूष्णीं
विषयदतिन।
पलायंते
न शक्तास्ते
सेवते
कृतचाटव।।
222।।
न
मुक्तिकारिका
धते निशको
युक्तमानस:।
पश्यन्धृण्वन्स्पृशनजघ्रन्नश्नन्नास्ते
यथासुखम्।।
223।।
वस्तु
श्रवणमात्रेण
शुद्धबुद्धिर्निराकु
ल:।
नैवाचारमनाचारमौदास्य
वा
प्रपश्यति।।
224।।
यदा
यत्कर्तुमायाति
तदा
तत्कुरुते
ऋजु:।
शुभं
वाप्यशुभं
वापि तस्य
चेष्टा हि
बालवत्।। 225।।
स्वातब्यात्
सुखमान्नोति
स्वातंन्याल्लभते
परम।
स्वातष्यान्निर्वृतिं
गच्छेत्
स्वातंव्वात्
परमं पदम-।।
226।।
विषयद्वीपिनो
वीक्ष्य चकित? शरणार्थिन:।
विशति
झटिति क्रोड
निरोधैकाग्न्यसिद्धये।।
विषयरूपी
बाघ को देख कर भयभीत
हुआ मनुष्य
शरण की खोज
में शीघ्र ही
चित्त-निरोध
और एकाग्रता
की सिद्धि के
लिए पहाड़ की
गुफा में
प्रवेश करता
है।’
जीवन
कठिन है। जीवन
सरल नहीं है।
बड़ी समस्याएं
हैं; हल होती
मालूम नहीं
पड़ती। जल्दी
ही आदमी थक
जाता और हार
जाता। और हारे
को पलायन है।
हारा हुआ भागने
लगता है।
समस्याएं
भागने से भी
हल नहीं होतीं।
लेकिन भगोड़े
को एक आश्वासन,
एक
सांत्वना
मिलती है कि
कम से कम
समस्याओं से
दूर हो गया।
लेकिन जो
व्यक्ति
समस्याओं से
दूर हो गया, यह व्यक्ति,
समस्याओं
के मध्य में
जो विकास' हो
सकता था उससे
भी वंचित हो
जाता है।
इस सत्य को
खूब मनपूर्वक
समझ लेना।
क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति के मन
में भगोड़ापन
छिपा बैठा है।
भय छिपा है तो
भगोड़ापन छिपा
है। भय है तो
भीतर हम कायर
हैं। जहां
देखते 'हैं
कि जीत होना
मुश्किल है
वहीं से भागने
का मन होने
लगता है।
भागने को हम
खूब सुंदर
बनाने की कोशिश
करते हैं।
भागने को हम
संन्यास कहते
हैं। भागने को
हम बड़ा समादर
देते हैं।
भगोड़ों की हम
पूजा करते हैं,
उनके चरण
छूते हैं।
भगोड़ों को हम
महात्मा कहते
हैं। हमारे
भीतर जो भगोड़ा
बैठा है, यह
सब उसी भगोड़े
के लिए ऊपर
साज—श्रृंगार
बिठाना है।
हमारे भीतर जो
भय बैठा है, कायर बैठा
है उस कायर के
लिए आभूषण
पहनाने हैं।
ये तरकीबें
हैं हमारे मन
की। लेकिन एक
बात खयाल रखना, भगोड़ों ने
कभी कुछ पाया
नहीं। मिलेगा
जो भी, वह
मिलेगा
चुनौतियों के
स्वीकार से।
जीवन में
कठिनाइयां
हैं जरूर, लेकिन
कठिनाइयां
सप्रयोजन हैं।
समस्याएं हैं
जरूर, जटिल
जाल है
समस्याओं का,
लेकिन वहीं
तो चुनौती है।
उसी जाल को
सुलझाने में
तो तुम्हारी
प्रज्ञा का
जन्म होगा।
भाग गए तो
प्रज्ञा से
वंचित रह
जाओगे।
इसलिए तो
तुम्हारे
भगोड़े
संन्यासी
गुफाओं में
भला बैठ जाएं
लेकिन उनके
जीवन में तुम
प्रतिभा, मेधा,
सृजनात्मकता,
तेजस्विता
नहीं पाओगे।
उनको देखना हो
तो तुम अभी
कुंभ मेले जा
सकते हो, वहा
तुम्हें सब 'तरह के
मूढ़ों की जमात
मिल जाएगी ।
प्रकार—प्रकार
के मूढ़ प्रकार—प्रकार
की वेशभूषा
में मिल
जाएंगे। उनकी
पूजा
करनेवालों की
भी लाखों की
भीड़ मिल जाएगी।
पूजा करने
वालों के पास
भी कोई
प्रतिभा नहीं
है और जिनकी
पूजा की जा
रही है उनकी
भी कोई क्षमता
नहीं है।
हम सबके
भीतर यह
संभावना है
इसलिए
अष्टावक्र सावधान
करते हैं। यह
सूत्र
तुम्हें
सावधान बनाने
को है। मन
बहुत बार करता
है कि जहां
जीत न होती हो
वहां से हट
जाना अच्छा।
तुमने देखा, लोग ताश
खेलते हैं; अगर हारने
की नौबत आ जाए
तो बाजी उलट
देते हैं।
क्रोध में आ
जाते, तख्ता
उलट देते हैं।
खेलना ही नहीं
है, धोखा
हो गया। कुछ
भी अनर्गल
बोलने लगते
हैं। ताश के
पत्ते खेल रहे
थे, कोई
बहुत बड़ा काम
भी न कर रहे थे,
लेकिन वहां
भी हारने की
सामर्थ्य
नहीं है।
और जो हारने
को तैयार नहीं
है वह कभी जीत
भी न सकेगा।
हार से गुजरने
की जिसकी
तैयारी है वही
जीत के सूत्र
सीख पाता है।
हार के रास्ते
पर ही जीत के
सूत्र बिखरे
पड़े हैं। ये
जो हार के
कांटे हैं
इन्हीं के बीच
विजय के फूल
भी खिले हैं।
तुम गुलाब के
काटो से भाग
गए तो तुम
गुलाब के
फूलों से भी
वंचित रह
जाओगे। एक बात
पक्की है कि
काटी से भाग
गए तो कीटों
से जो पीड़ा
होती थी वह
तुम्हारे
जीवन में न
होगी, लेकिन
फूलों से जो
सुख की वर्षा
होती थी उससे भी
वंचित रह
जाओगे। चूंकि
इस जगत में
अधिक लोग दुखी
हैं इसलिए जब
किसी आदमी को
देखते हैं
दुखी नहीं है,
इसके जीवन
में कांटे
नहीं चुभे, तो पूजा
करने लगते हैं।
लेकिन यह भी
कोई उपलब्धि हुई?
काटों का न होना
कोई उपलब्धि है?
फूल खिलते तो
उपलब्धि थी।
कीटों का न
होना तो केवल
नकारात्मक है,
विधायक कहा
है? परमात्मा
की उपस्थिति
नहीं है यहां।
संसार अनुपस्थित
हो गया है
लेकिन
परमात्मा की
उपस्थिति
नहीं है।
परमात्मा की
उपस्थिति तो
उसी को उपलब्ध
होती है जो
संसार की
सीढ़ियां चढ़ता
है। वे सीढ़िया
जटिल हैं, अंगारों
से पटी हैं, जलाती हैं, लेकिन उसी
जलने में से
तो निखार आता
है। आग से
गुजर कर ही तो
सोना कुंदन
बनता है। आग
से भाग जाए जो
सोना, उसको
तुम संन्यासी
कहोगे?
भगोड़ा
संन्यासी हो
ही नहीं सकता।
पलायनवादी
संन्यासी हो
ही नहीं सकता।
संन्यासी तो
यही है जो
संसार में हो
और संसार का न
हो। यही
अष्टावक्र की
मूल धारणा है, यहां?ामेरी
मूल धारणा है।
मुझसे लोग
आकर कहते हैं, आप संन्यास
दे देते हैं
और लोगों को
संसार छोड़ने
को नहीं कहते?
मैं कहता
हूं संसारी थे
तब, संन्यास
नहीं लिया था
तब अगर संसार
छोड़ भी देते
तो क्षमा
योग्य थे। अब
तो छोड़ने का
उपाय न रहा।
संन्यास का
अर्थ ही है
भगोड़ेपन का
त्याग। अब तो
जूझेंगे। अब
तो गहरी डुबकी
लगाएंगे
संसार में।
क्योंकि यह
संसार के सागर
में डुबकी लगा
कर ही मिलते
हैं हीरे—मोती।
जो इस सागर से
भागा डर कर कि
कहीं डूब न
जाएं, वह
रेत में पड़ी
हुई शखिया और
सीप बीन ले
भला, हीरे—मोती
नहीं पाएगा।
उतने सस्ते
में मिलते ही
नहीं हीरे—मोती।
मूल्य तो
चुकाओगे न!
मूल्य तो
चुकाना ही
पड़ेगा।
यह संसार
परमात्मा को
पाने के लिए
चुकाया गया मूल्य
है। इसकी हर
समस्या समाधि
के लिए चुकाई
गई व्यवस्था
है। समस्या से
गुजर कर
समाधान
उपलब्ध होगा।’समस्या
तो केवल अवसर
है, परीक्षा
है, कसौटी
है। कोई
विद्यार्थी
परीक्षा से
भाग जाए तो
तुम उसकी पूजा
तो नहीं करते।
यह जीवन तो
परीक्षा है।
इससे जो भाग
गए हैं, छोड़ो,
उन भगोड़ों
का आदर छोड़ो।
क्योंकि उस
आदर के कारण
तुम्हारे
भीतर का भगोड़ा
भी मरता नहीं।
वह आदर
तुम्हारे
भीतर के भगोड़े
को भी जगाए रखता
है, जिंदा
रखता है। तुम
आदर उसी का
करते हो जैसे
तुम होना
चाहते हो, इस
पर खयाल रखना।
आदर ऐसे ही
थोड़े ही करता
है कोई किसी
का! जैसे तुम
होना चाहते हो
उसी का तुम
आदर करते हो।
अगर तुम
भगोड़ों का आदर
करते हो तो
भगोड़ा तुम्हारे
भीतर बैठा है,
प्रतीक्षा
में है ठीक
अवसर की। मौका
पाकर भाग खड़ा
होगा।
लेकिन यह
भागना भय पर
आधारित है। भय
यानी कायरता।
सूत्र
है :
विषयद्वीपिनो
वीक्ष्य चकित? शरणार्थिन:।
विषयरूपी
बाघ को देख कर
भयभीत हुआ
मनुष्य शरण की
खोज में
शरणार्थी हो
जाता।
शरणार्थी
होना कोई सुखद
बात नहीं है।
ये जो गुफाओं
में बैठे हैं, रिफ्यूजी
हैं। भाग गए।
शरणार्थी हैं।
दया के पात्र
हैं। पूजा के
पात्र जरा भी
नहीं। इनकी
चिकित्साकी
जरूरत है।
इन्हें फिर
कोई हिम्मत दे।
इनकी बुझती
ज्योति को फिर
कोई जलाए।
इनके चुकते
स्नेह को फिर
कोई भरे। इनका
दीया फिर
जगमगाए।
इन्हें फिर
कोई खींच कर
लाए कि आओ, जहां
परीक्षा है
वहीं कसौटी है।
भागो मत। जूझो।
उतरो जीवन के संग्राम
में। डर क्या
है? खोने
को क्या है? तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है वह खोया
नहीं जा सकता।
तुम हो क्या मूलत? चैतन्य। तो चैतन्य
को तो खोया नहीं
जा सकता। और
चैतन्य को
जगाना हो तो
असुविधा में
ही जगाया जा
सकता है, सुविधा
में तो सो
जाता है। जंगल
में चले गए
जहां कोई
अशांति नहीं
है, बैठ गए
गुफा में।
जहां कोई विषय
तुम्हारी
वासना को
प्रज्वलित नहीं
करते, प्रलोभित
नहीं करते, उत्तेजित
नहीं करते।
धीरे— धीरे
वासना सो जाएगी;
मिटेगी
नहीं। जिस दिन
लौटोगे उसी
दिन तुम पाओगे
वासना फिर जाग
गई। बीज पड़े
रहेंगे, समय
पाकर फिर, मौसम
पाकर फिर
अंकुरित हो
जाएंगे।
तो जो एक
दुफे भाग गया
वह फिर लौटने
में घबड़ाता है।
उसे कोलाहल
परेशान करता
है। यह कोई
ध्यान हुआ कि
कोलाहल
परेशान करने
लगे? ध्यान तो
वही है कि
कोलाहल में भी
अखंडित रहे।
ध्यान तो वही
है कि बीच
बाजार में भी
अखंडित रहे।
चले शोरगुल, चले संसार, और तुम्हारे
भीतर कुछ भी न
चले। सब चुप
और मौन रहे।
शरणार्थी
मत बनना।
'विषयरूपी
बाघ को देख कर
भयभीत हुआ...।’
अब यह जो
विषयरूपी बाघ
है, यह जो कामना,
वासना का
बाघ है, यह
तुम्हारे
बाहर होता तो
भाग भी जाते; इसे थोड़ा
समझना। यह
तुम्हारे
भीतर है, भागोगे
कहां? अपने
से कैसे
भागोगे?
यह तो ऐसे ही
हुआ जैसे कोई
अपनी ही छाया
से भाग रहा हो।
वह जहां जाएगा, छाया वहा
रहेगी; कितनी
ही तेजी से
भागो। ऐसा हो
सकता है कि
तुम किसी
वृक्ष की छाया
में बैठ जाओ
तो छाया दिखाई
न पड़े। यह हो
सकता है, लेकिन
जब धूप में
उतरोगे तब
छाया दिखाई
पड़ने लगेगी।
जब तुम वृक्ष
की छाया में
विश्राम कर
रहे हो तब
छाया भी
विश्राम कर
रही है। धूप
में आते ही
फिर प्रकट हो
जाएगी। छाया
तो तुम्हारे
साथ लगी है।
छाया भी
लेकिन बाहर है, यह विषय का
जो स्वर है, यह तो
तुम्हारे
भीतर है। इससे
तुम भागोगे
कहां? तुम
स्त्री से भाग
सकते हो, पुरुष
से भाग सकते
हो। लेकिन
कामवासना से
कैसे भागोगे?
कामवासना
तो तुम्हारे
अंतस्तल में
बैठी है। ही, यह हो सकता
है, स्त्री
से भाग जाओ तो
कामवासना को
उठने का अवसर
न मिले; सोई
पड़ी रहे, बीजरूप
में पड़ी रहे।
जब भी कभी
स्त्री से
मिलन होगा तभी
फिर जाग जाएगी।
इसीलिए तो
तुम्हारे
साधु—संन्यासी
स्त्रियों से
इतने घबड़ाते
हैं। घबड़ाने
का कारण है।
अभी भी बीज
दग्ध नहीं हुआ।
धन से हट जाओ
तो वासना पड़ी
रह जाएगी।
उपकरण चाहिए
वासना के
प्रकट होने के
लिए। खूंटी
चाहिए जहां
वासना टैग सके।
खूंटी तोड़ दी
तो वासना को
टंगने को, जगह न रही।
लेकिन जब भी
कहीं खूंटी
मिलेगी वहीं
घबड़ाहट आ
जाएगी; वहीं
मम डांवाडोल
होने लगेगा।
इसलिए
तुम्हारे
साधु—संत रुपए—पैसे
से डरते हैं।
अब यह मूढ़ता
देखते हो? रुपये—पैसे
से डरना!
रुपये—पैसे
में कुछ भी
नहीं है यह भी
कहते, और
डरते भी। अगर
कुछ भी नहीं
तो डर कैसा?
एक तरफ कहते
हैं, कि
स्त्री में
क्या रखा! और
डरते भी। अगर
कुछ भी नहीं
रखा है तो डर
कैसा? डर
तो बताता है
कि कुछ होगा।
डर तो बताता
है, भीतर प्रलोभन
है, भीतर
वासना है।
यह जो
विषयरूपी
शत्रु है, यह तुम्हारे
बाहर होता तो
बड़े उपाय थे।
भाग जाते दूर।
छोड़ जाते इसे
यहीं। यह
तुम्हारे
बाहर नहीं, पहली बात।
यह तुम्हारे
भीतर है। अपने
से कैसे
भागोगे? अपने
को बदलो; भागने
से कुछ भी न
होगा। जागो, भागने से
कुछ भी न होगा।
इसलिए मैं
कहता हूं भागो
मत, जागो।
जागने से
मिटेगा। भीतर
की ज्योति जब
जलेगी
प्रगाढ़ता से
तो तुम अचानक
पाओगे, वह
जो विषयरूपी
बाघ था, बाघ
था ही नहीं।
भय थे। व्यर्थ
के भय थे।
कल्पना के जाल
थे। कहीं कुछ
था ही नहीं।
सच में जो
ज्ञान को
उपलब्ध होता
है वह ऐसा
नहीं कहता, स्त्री में
कुछ नहीं, —वह
ऐसा कहता है, वासना में
कुछ नहीं।
फर्क को खयाल
में रखना।
इसको कसौटी
समझ लेना। जब
कोई कहे, स्त्री
में कुछ नहीं,
तो समझ लेना
अभी स्त्री
में कुछ है।
जब कोई कहे, पुरुष में
क्या रखा है? तो समझ लेना,
पुरुष मैं
कुछ रखा है। जब
कोई कहे, धन
में क्या रखा
है? तो समझ
लेना कि धन
में अभी भी
कुछ बचा है।
यह समझा रहा
है अपने को।
लेकिन जब कोई
कहे, वासना
में क्या रखा
है? तब
मुक्त हुआ।।
वासना भीतर
है, स्त्री
बाहर है।
पुरुष बाहर है,
कामना भीतर
है। जब कोई
कहे, कामना
में क्या रखा
है? देख लिया,
कुछ भी न
पाया। दीया
जला कर देख
लिया। खोज
लिया कोना—कोना
मन का। एक—एक
कातर में, कोने
में रोशनी ले
जाकर देख ली, कुछ भी न
पाया। तब...।
मैंने सुना
है, एक गुफा
एक पहाड़ की
कंदरा में
छिपी थी—सदियों
से, सदियों—
सदियों से; अनंतकाल से।
गुफाओं की आदत
छिपा होना होता
है। अंधेरे में
ही रही थी।
कुछ ऐसी आडू
में छिपी थी
पत्थरों और
चट्टानों के,
कि सूरज की
एक किरण भी
कभी भीतर
प्रवेश न कर
पाई थी। सूरज
रोज द्वार पर
दस्तक देता
लेकिन गुफा
सुनती न। सूरज
को भी दया आने
लगी कि बेचारी
गुफा जन्मों—जन्मों
से बस अंधेरे
में रही है।
इसे रोशनी का
कुछ पता ही
नहीं। एक दिन
सूरज ने जोर
से आवाज दी।
ऐसी सूरज की
आदत नहीं कि
जोर से आवाज
दे। लेकिन
बहुत दया आ गई
होगी। जन्मों—जन्मों
से गुफा
अंधेरे में
पड़ी है। तो
सूरज ने कहा, बाहर निकल
पागल! देख, बाहर
कैसी रोशनी है।
फूल खिले, पक्षी
गीत गाते, किरणों
का जाल फैला
है। और मैं
तेरे द्वार पर
खड़ा हूं और
बार—बार दस्तक
देता हूं। तू
बहरी है? बाहर
आ।
गुफा ने कहा, मुझे
विश्वास नहीं
आता। किस गुफा
को कब विश्वास
आया सूरज की
आवाज पर? जब
मैं तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देता
हूं तुम भी
कहते हो
विश्वास नहीं
आता। कौन जाने
कोई धोखा देने
आया हो, कोई
लूटने आया हो।
गुफा के पास
कुछ है भी
नहीं और लूटे
जाने का डर है!
लेकिन सूरज
रोज दस्तक
देता रहा।
आखिर एक दिन
गुफा को आना
ही पड़ा। सोचा, एक दिन चल कर
जरा झांक कर
देख लें। न तो
फूलों का
भरोसा था कि
फूल हो सकते
हैं; क्योंकि
जो देखा न हो
उसका भरोसा
कैसे? न
रोशनी का
भरोसा था; क्योंकि
रोशनी जानी ही
न थी। तो
रोशनी का
अनुभव न हो, आभास भी न
हुआ हो तो
प्रत्यभिज्ञा
कैसे हो? पहचान
कैसे हो? आकांक्षा
कैसे जगे? उसी
को तो हम
चाहते हैं
जिसका थोड़ा
स्वाद लिया हो।
न भरोसा था कि
पक्षियों के
गीत होते हैं।
पक्षियों का
ही पता न था।
गुफा तो बस
अपने अंधेरे...
अपने अंधेरे...
अपने अंधेरे
में डूबी रही
थी। उस दिन
बाहर आई डरती—डरती,
सकुचाती।
तुम्हें जब
मैं देखता हूं
संन्यास में
उतरते तो मुझे
उस गुफा की
याद आती है—डरते—डरते, सकुचाते।
ऐसे आते हो कि
अगर जरा लगे
कि बात गड़बड़
है तो खिसक
जाओ। सम्हाल—सम्हाल
कर कदम रखते
हो। लौटने का
उपाय तोड़ते
नहीं। लौटने
की पूरी
व्यवस्था
रखते हो कि
अगर कुछ धोखाधड़ी
हो तो लौट
जाएं।
ऐसी गुफा आई, आई तो चौंक
गई। आई तो
रोने लगी। आई
तो आंख आंसुओ
से भर गई।
छाती पीटने
लगी कि जनम—जनम
मैंने अंधेरे
में गुजारा।
तुमने दया
पहले क्यों न
की? तुमने
पहले क्यों न
पुकारा?
देखते हो? सूरज रोज
दस्तक दे रहा
था, अब
गुफा सूरज को
ही उत्तरदायी
ठहराती हे कि
पहले क्यों न
पुकारा?
सूरज ने कहा, छोड़, जो
गया सो गया।
बीता सो बीता।
अभी भी बहुत
पड़ा है।
अनंतकाल बाकी
है, तू सुख
से जी। अब
बाहर आ। गुफा
ने कहा, आऊंगी
बाहर लेकिन
तुम भी कभी
मेरे भीतर आओ।
जैसे मैंने
प्रकाश नहीं
जाना, हो
सकता है, जिस
अंधेरे को
मैंने जाना, तुमने न
जाना हो। सूरज
ने उसका
निमंत्रण
माना, वह
उसकी गुफा में
गया। गुफा तो
चौंक कर रह गई।
वहां अंधेरा
था नहीं।
गुफा कहने
लगी, यह हुआ
क्या? यह
हुआ कैसे? क्योंकि
अंधेरा सदा था।
एक दिन, दो
दिन की बात
नहीं, जन्मों—जन्मों
से मैंने
अंधेरा जाना।
यह हुआ क्या? आज अंधेरा
गया कहां? सूरज
जब बाहर विदा
हो गया तब फिर
अंधेरा था।
गुफा ने फिर
उसे निमंत्रण
दिया। सूरज ने
कहा, पागल! तू
मुझे अंधेरे
से मुकाबला न
करवा सकेगी, क्योंकि
जहां मैं हूं
वहां अंधेरा
नहीं है। मैं
आया कि अंधेरा
गया। अंधेरा
कुछ है थोड़े
ही, मेरा
अभाव है। तो
मेरा भाव और
मेरा अभाव साथ—साथ
थोड़े ही हो
सकते हैं।
अंधेरा मेरी
अनुपस्थिति
है। तो मेरी
उपस्थिति और
मेरी
अनुपस्थिति
साथ— साथ थोड़े
ही हो सकती है।
मैं जब भी
आऊंगा, अंधेरा
नहीं होगा।
वासना बोध
की
अनुपस्थिति
है। बोध आया, वासना गई।
जब तक बोध
नहीं है तब तक
वासना है।
वासना से मत
भागो। इसलिए
कहता हूं भागो
मत, जागो।
जगाओ, भीतर
जो सोया है
उसे। मन से
घबड़ाओ मत। मन
की मौजूदगी
कुछ भी खंडित
नहीं कर सकती
है। शरणार्थी
मत बनो, विजेता
बनो। जगाओ
अपने को।
लेकिन आदमी
सोया ही चला
जाता। मरते दम
तक, मौत भी
आ जाती है तो
भी आदमी सोया
ही रहता।
मैंने सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
बहुत का हो
गया। सिर गंजा
हो गया तो
दवाइयों की
तलाश करता फिरता
था कि किसी
तरह बाल उग
आएं। किसी
महात्मा के
प्रसाद से, जड़ी—बूटी के
उपयोग से
बामुश्किल
चार बाल निकल
आए—चार बाल! वह
पहुंच गया
नाईबाड़े
हजामत बनवाने।
नाई चौंका।
उसने कहा, बड़े
मियां, बाल
गिनूं या काटू?
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
बहुत शरमाते
हुए कहा, काले
कर दो।
चार
बाल उग आए हैं
उनको भी काले
करने का मन है!
आदमी अंत तक
भी छोड़ नहीं
पाता। मौत
द्वार पर आ
जाती है और
मोह नहीं
छूटता।
यमदेवता
द्वार पर
दस्तक देने
लगते हैं और
कामदेवता के
साथ दोस्ती
नहीं छूटती।
जागो!
और दो तरह के
लोग हैं
दुनिया में।
एक हैं, जो
कामवासना में
पड़े रहते हैं
नाली में पड़े
कीड़ों की तरह।
सड़ते रहते हैं।
और एक हैं जो
भागते हैं। न
भागने वाला
पहुंचता है और
न डूबने वाला
पहुंचता है; जागने वाला
पहुंचता है।
जागने वाला
जहां भी हो
वहीं से पहुंच
जाता है।
जागने की सीडी
तुम जहां खड़े
हो वहीं से
परमात्मा से
जुड़ जाती है।
'विषयरूपी
बाघ को देख कर
भयभीत हुआ
मनुष्य शरण की
खोज में शीघ्र
ही चित्त—निरोध
और एकाग्रता
की सिद्धि के
लिए पहाड़ की गुफा
में प्रवेश
करता है।’ अगर
किसी गुफा में
जाना हो तो
अंतर्गुफा
में जाना। और चित्त—निरोध
में मत पड़ना।
क्योंकि
जबरदस्ती
चित्त का
निरोध किया
जाए.. .जो तुम
जबरदस्ती
करोगे वह कभी
भी नहीं होगा।
जीवन
जबरदस्ती
मानता ही नहीं।
जीवन तो केवल
सरलता और
सहजता का
निमंत्रण मानता
है। जबरदस्ती
कुछ भी नहीं
होता यहां।
तुम क्रोध
को जबरदस्ती
दबा लो, मुस्कुराहट
को ऊपर से पोत
दो, मुखौटा
ओढ़ लो खुशी का,
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
भीतर क्रोध
उबलता रहता है,
जलता रहता
है।
ब्रह्मचर्य
की कसमें खा
लो लेकिन भीतर
आधी वासना की
चलती रहती है।
तुम जितना
संयम करोगे
ऊपर से, तुम
भीतर उतना ही
पाओगे उतनी ही
झंझट बढ़ती जाती
है। संयम से
कोई झंझट से
मुक्त नहीं
होता। यह
सस्ता उपाय
काम नहीं आता।
ये तरकीबें
कभी काम नहीं
आईं। लेकिन ये
सुगम मालूम
पड़ती हैं।
जबरदस्ती
आदमी को सुगम
मालूम पड़ती है
क्योंकि आदमी
बहुत हिंसक है।
दूसरों के साथ
तुमने हिंसा
की है। फिर
जिस दिन तुम
अपने को बदलने
की आकांक्षा
से भरते हो तो
अपने साथ
हिंसा शुरू कर
देते हो; उसी
का नाम चित्त—निरोध
है। ऐसी हिंसा
से कुछ भी न
होगा।
मैंने सुना
है, बरसात की
एक रात में
रेल के फाटक
पर पार करते वक्त
एक व्यक्ति
दुर्घटना से
बाल—बाल बच
गया। उसने
गुस्से में
आकर रेल्वे पर
मुकदमा दायर कर
दिया। सिग्नल—मैन
ने गवाही में
कहा, मैंने
तो खूब बत्ती
हिलाई थी। जब
मुकदमा जीत कर
सिग्नल—मैन
बाहर आया तो
स्टेशन—मास्टर
ने उसकी पीठ
ठोंकी और कहा,
शाबास।
मैंने तो समझा
था कि तुम
वकील की जिरह
से घबड़ा जाओगे।
लेकिन तुम गजब
के हिम्मत के
आदमी हो। तुम
कहते ही गए बार—बार
कि मैंने तो
बत्ती खूब
हिलाई थी, मैंने
तो बत्ती खूब
हिलाई थी। तुम
डटे रहे अपनी
बात पर।
सिग्नल—मैन
बोला, नहीं
साहब। मैं जरा
भी नहीं
घबड़ाया यह बात
तो ठीक है।
हां, अगर वकील ने
पूछा होता कि
बत्ती जल रही
थी या नहीं? तब उस समय
जवाब देना
मेरे लिए कठिन
हो जाता।
अब तुम बिना
जली बत्ती
हिलाते रहो, इससे कुछ
होने वाला
नहीं है।
निरोध बिना
जली बत्ती का
हिलाना है।
भीतर कुछ भी
नहीं है। बोध
में बत्ती
हिलानी भी न
पड़ेगी; प्रकाश
काफी है।
प्रकाश के साथ
ही क्रांति
घटती है।
निरोध से
प्रकाश तो आता
नहीं। समझो इस
बात को।
कहीं उलटी
तरफ से जीवन
को पकड़ना शुरू
किया तो चूकते
चले जाओगे।
मगर उलटी तरफ
से पकड़ने के
पीछे कारण है।
क्योंकि जब भी
हमने किसी
व्यक्ति के
जीवन में संयम
का महापर्व
घटते देखा तो
हमसे भूल हो
गई। हमारे
तर्क में भूल
है। हमारे
गणित में भूल
है।
महावीर को हमने
देखा तो देखा, महा शांति
को उपलब्ध, परम शांति
को उपलब्ध। और
साथ में हमने
देखा, जीवन
में बड़ा संयम
है। तो हमने
सोचा कि संयम
करने से शांति
मिली होगी। हम
अशांत हैं; शांति हम भी
चाहते हैं।
कैसे शांति को
पाएं इसकी
तलाश करते हैं।
महावीर को
देखा, देखा
शांति है, संयम
है। शाति हमें
चाहिए। संयम —
की तो हमें भी
चिंता नहीं है,
शांति हमें
चाहिए। तो अब
साफ बात हो गई
कि शांति तो
हमारे जीवन में
नहीं है और
संयम भी हमारे
जीवन में नहीं
है। तो गणित
हमारा बैठा कि
महावीर के
जीवन में शांति
है और संयम; संयम से ही
शांति घटी
होगी।
बात बिलकुल
उल्टी है।
शांति पहले
घटी है, संयम
पीछे आया है।
शांति कारण है,
संयम
परिणाम है।
हमने समझा, शांति
परिणाम है, संयम कारण
है। यहां भूल
हो गई। और इस
भूल हो जाने
के पीछे भी
कारण है।
क्योंकि संयम
ऊपर से दिखाई
पड़ता है, पकड़
में आता है।
महावीर चलते
हैं तो बड़े
होशपूर्वक
चलते हैं।
बैठते हैं तो
होशपूर्वक
बैठते हैं।
करवट भी नहीं
बदलते रात; कि कहीं
करवट बदलने से
कोई कीड़ा—मकौड़ा
पीछे आ गया हो
तो दब कर मर न
जाए। हर काम
बड़े
बोधपूर्वक
करते हैं।
हमें क्या
दिखाई पड़ा? हमें दिखाई
पड़ा, महावीर
करवट नहीं
बदलते।
महावीर के
भीतर जो बोध
है वह तो हमें
दिखाई पड़ता
नहीं, करवट
नहीं बदलते यह
दिखाई पड़ता है।
यह ऊपरी बात
है। यह दिखाई
पड़ जाती है।
रात भर महावीर
करवट नहीं
बदलते। तो
हमने सोचा, हम भी करवट न
बदलें। तो तुम
भी करवट बिना
बदले पड़े हो।
तुम्हें
सिर्फ तकलीफ
होती है करवट न
बदलने में और
कुछ नहीं होता।
करवट न बदलने
का तुम सिर्फ
अभ्यास कर
लेते हों—स्व
तरह की कसरत।
तुम सर्कसी हो
जाते हो। इससे
और कुछ नहीं
होता। अभ्यास
रोज—रोज करोगे
तो ठीक है, बिना
करवट बदले पड़े
रहोगे। यह कोई
बड़ी बात थोड़े
ही है!
लेकिन क्या
करवट न बदलने
से बोध का
जन्म होगा? तुम बिना
जली बत्ती के
लालटेन हिला
रहे हो।
महावीर के
जीवन में बोध
पहले घटा है।
बोध घट जाने
से करवट नहीं
बदलते। बोध घट
जाने से रात
भोजन नहीं
करते । बोध के
घटने से! तुम
भी रात भोजन
नहीं करते, बोध तो नहीं
घटता। जैन
कितने समय से
रात भोजन नहीं
कर रहे हैं।
कौन सा बोध
घटा है?
तुमने बाहर
की तरफ से
पकड़ा। तुमने
बाहर से सोचा, बाहर से
पकड़ेंगे तो
भीतर पहुंच
जाएंगे। बात
और थी; भीतर
पहले घटता है,
तब बाहर
घटता है। बाहर
गौण है, भीतर
प्रमुख है।
केंद्र पर
पहले घटता है,
तब परिधि पर
घटता है। वह
जो रोशनी तुम
देखते हो
लालटेन के आस—पास,
वह आस—पास
पहले नहीं
घटती। पहले
भीतर दीया
जलता है, ज्योति
जलती है।
ज्योति में
पहले घटती है,
फिर बाहर
फैलती है।
अंतःकरण पहले
बदलता है, फिर
आचरण बदलता है।
लेकिन आचरण
हमें दिखाई
पड़ता है।
अंतःकरण तो
महावीर के
भीतर छिपा है।
वह तो महावीर
जानते हैं या
महावीर जैसे
जो होंगे वे
जानते हैं।
हमें लालटेन
के भीतर जलती
हुई ज्योति तो
' दिखाई
नहीं पड़ती, बाहर पड़ता
हुआ प्रकाश
दिखाई पड़ता है।
वह आचरण है, संयम है,'नियम,
व्रत, उसको
हम पकड़ लेते
हैं। वहीं चूक
हो जाती।
क्रांति
भीतर से बाहर
की तरफ है, बाहर से
भीतर की तरफ
नहीं। तुम
कारण और कार्य
की ठीक—ठीक
बात समझ लेना।
कहीं ऐसा न हो
कि तुम कार्य
को कारण समझ
लो और कारण को
कार्य समझ लो।
तो फिर जीवन
भर भटकोगे और
कभी भी ठीक
जगह न पहुंच
पाओगे।
'विषयरूपी
बाघ को देख कर
भयभीत हुआ
मनुष्य शरण की
खोज में शीघ्र
ही चित्त—निरोध
और एकाग्रता
की सिद्धि के
लिए पहाड़ की गुफा
में प्रवेश
करता है।’ चित्त
के निरोध के
लिए, दबाने
के लिए, चित्त
को बांधने के
लिए, व्यवस्था
में लाने के
लिए, चित्त
को जंजीरें
पहनाने के लिए,
चित्त को
कारागृह में
धकाने के लिए,
लेकिन कुछ
इससे होता
नहीं। चित्त
बंध भी जाता
है तो भी तुम
मुक्त नहीं होते।
चित्त बंध
जाता है तो
तुम भी बंध
जाते हो, खयाल
रखना। तुम
जिसको
संन्यासी
कहते हो वह
तुमसे ज्यादा बंधन
में पड़ा है।
तुम जरा आंख
खोल कर तो
देखो। तुम जरा
जाकर जैन मुनि
को तो देखो।
वह तुमसे
ज्यादा बंधन
में पड़ा है।
तुम्हारी तो
थोड़ी—बहुत
स्वतंत्रता
भी है। उसकी
तो कोई
स्वतंत्रता
नहीं है। होना
तो उलटा चाहिए
कि संन्यासी
परम स्वतंत्र
हो।
स्वतंत्रता
ही तो
संन्यासी का
स्वाद होना चाहिए।
स्वतंत्रता
ही तो
संन्यासी की
परिभाषा होनी चाहिए।
और क्या
परिभाषा हणोई? परम स्वातंत्र्य।
लेकिन
तुम्हारे
तथाकथित साधु—मुनि
स्वतंत्र हैं?
तुमसे
ज्यादा
परतंत्र हैं।
तुम्हारे
हाथों में
परतंत्र हैं।
जैन
मुनि मुझे खबर
भेजते हैं कि
मिलने आना
चाहते हैं
लेकिन श्रावक
नहीं आने देते।
कहते हैं कि
श्रावक नहीं
आने देते।
क्या करें? हद हो गई! मुनि
को श्रावक
नहीं आने देते।
तो गुलाम कौन
हुआ, मालिक
कौन हुआ? मुनि
के पीछे
श्रावक जाएं
यह तो समझ में
आता है लेकिन
मुनि श्रावक
के पीछे जा
रहे हैं। और
डरते हैं, क्योंकि
रोटी—रोजी उन
पर निर्भर, मान—सम्मान
उन पर निर्भर,
पद—प्रतिष्ठा
उन पर निर्भर।
उनकी मर्यादा
से जरा यहां—वहां
हुए कि सब गई
पद—मर्यादा, सब
प्रतिष्ठा।
वे जो कल तक
तुम्हारे पैर
छूते थे, तुम्हारा
सिर काटने को
उतारू हो
जाएंगे।
अनुयायी
देखते रहते
हैं कि अपना
साधु, अपने
महाराज
व्यवस्था से
चल रहे हैं न! आंख
रखते हैं। कुछ
भूल—चूक तो
नहीं कर रहे
हैं न! कुछ नियम
व्रतभंग तो
नहीं हो रहा? सब तरफ से
जांच—पड़ताल
रखते हैं।
अनुयायी
कारागृह बन
जाते हैं। और
इन्होंने
चित्त—निरोध
किया; ये
दोहरी झंझट
में पड़ गए। एक
तो उन्होंने
अपने चित्त को
बांध—बाध कर
खुद को बांध
लिया।
क्योंकि
इन्हें अभी
पता ही नहीं
कि चित्त के पार
भी इनका कोई
होना है। अभी
आत्मा को तो
इन्होंने
जाना नहीं।
आत्मा को जान
लेते तो फिर
चित्त को
बांधने की जरूरत
ही नहीं पड़ती।
आत्मा के
जानते ही
चित्त बांधना
नहीं पड़ता, चित्त अनुगत
हो जाता है।
आत्मा के उदभव
के साथ ही
चित्त झुक
जाता है। ये
जबरदस्ती के
झुकाव काम
नहीं पड़ेंगे।
यह सारा जिस्म
झुक कर बोझ से
दोहरा हुआ
होगा
मैं सजदे
में नहीं था, आपको धोखा
हुआ होगा
अब कोई दुख
और पीड़ा में
झुक जाए और
तुम समझो कि नमाज
पढ़ रहा है, कि पूजा कर
रहा है।
यह सारा
जिस्म झुक कर
बोझ से दोहरा
हुआ होगा
मैं सजदे
में नहीं था, आपको धोखा
हुआ होगा
ये अधिक लोग
जो
प्रार्थनाओं
में झुक रहे
हैं, गौर से
देखना, दुख
के कारण बोझ
से दोहरे हुए
जा रहे हैं।
ये
प्रार्थनाएं
नहीं हैं।
इनमें प्रार्थनाओं
का कोई जरा सा
भी स्फुरण
नहीं है।
प्रार्थनाओं
की जरा सी भी
गंध नहीं है।
दुख और पीड़ा
में झुके हैं।
डर, भय, कंपते
हुए झुके हैं।
यह आनंद—अनुभूति
नहीं है। और न
आनंद में हुआ
समर्पण है, न अहोभाव
में झुक गए
सिर हैं ये।
गौर से देखना
शरीर ही झुका
है, मन अभी
भी अकड़ा खड़ा
है। और
जबरदस्ती मन
को भी झुका दो
तो भी कुछ न
होगा; जब
तक कि आत्मा
का जागरण न हो।
उस जागरण के
सूत्र हैं ये।
निर्वासन
हरि दृष्ट्वा
तूव्यीं
विषयदतिन।
पलायते
न शक्तास्ते
सेवते
कृतचाटव:।।
'वासनारहित
पुरुषसिंह को
देख कर
विषयरूपी हाथी
चुपचाप भाग
जाते हैं, या
वे असमर्थ
होकर उसकी
चाटुकार की
तरह सेवा करने
लगते हैं।’
यह.. .यही पकड़
लेने जैसी बात
है।
'वासनारहित
पुरुषसिंह को
देख कर
विषयरूपी
हाथी चुपचाप
भाग जाते हैं।’
विषयरूपी
हाथी कहा
अष्टावक्र ने।
क्योंकि
दिखाई बहुत
बड़े पड़ते हैं,
बड़े हैं
नहीं।
एक लोमड़ी
सुबह—सुबह
निकली अपनी
गुफा से। उगता
सूरज! उसकी
बड़ी छाया बनी।
लोमड़ी ने सोचा, आज तो
नाश्ते में एक
ऊंट की जरूरत
पड़ेगी। छाया
देखी अपनी तो
स्वभावत: सोचा
कि ऊंट से कम में
काम न चलेगा।
खोजती रही ऊंट
को। ऊंट को
खोजते—खोजते
दोपहर हो गई।
अब कहीं
लोमडियां ऊंट
को खोज सकती
हैं! और खोज भी
लें तो क्या
करेंगी?
दोपहर हो गई, सूरज सिर पर
आ गया तो उसने
सोचा, अब
तो दोपहर भी
हुई जा रही है,
नाश्ते का
वक्त भी निकला
जा रहा है।
नीचे गौर से
देखा, छाया
सिकुड़ कर
बिलकुल नीचे आ
गई। तो उसने
सोचा, अब
तो एक चींटी
भी मिल जाए तो
भी काम चल
जाएगा।
ये छायाएं
जो तुम्हारी
वासना की बन
रही हैं, ये
बहुत बड़ी हैं।
हाथी की तरह
बड़ी हैं। और
इनको तुम पूरा
करने चले हो, ऊंट की तलाश
कर रहे हो। एक
दिन पाओगे, समय तो ढल
गया, नाश्ता
भी न हुआ, ऊंट
भी न मिला। तब
गौर से नीचे
देखोगे तो
पाओगे, छाया
बिलकुल भी
नहीं बन रही
है।
वासना
सिर्फ एक
भुलावा है, एक दौड़ है।
दौड़ते रहो, दौड़ाए रखती
है। रुक जाओ, गौर से देखो,
थम जाती है।
समझ लो, विसर्जित
हो जाती है।
'वासनारहित
पुरुषसिंह को
देख कर
विषयरूपी हाथी
चुपचाप भाग
जाते हैं। या
वे असमर्थ
होकर उसकी
चाटुकार की
तरह सेवा करने
लगते हैं।’
यही मेरा
अर्थ था, जब
मैंने तुमसे
कहा, अनुगत
हो जाती है
वासना, अनुगत
हो जाता है मन।
तुम जागो तो
जरा! फिर मन को कब्जा
नहीं करना
पड़ता, मन
खुद ही झुक
जाता है। मन
कहता है, हुकुम!
आज्ञा! क्या
कर लाऊं? आप
जो कहें। मन
तुम्हारे साथ
हो जाता है।
मालिक आ जाए...।
देखा? बच्चे
क्लास में
शोरगुल कर रहे
हों, उछलकूद
कर रहे हों और
शिक्षक आ जाए,
एकदम
सन्नाटा हो
जाता है, किताबें
खुल जाती हैं।
बच्चे
किताबें पढ़ने
लगे, जैसे
अभी कुछ हो ही
नहीं रहा था।
एक क्षण पहले
जो सब शोरगुल
मचा था, सब
खो गया।
शिक्षक आ गया।
ऐसी ही घटना
घटती है। नौकर
बकवास कर रहे
हों, शोरगुल
मचा रहे हों
और मालिक आ
जाए सब बकवास
बंद हो जाती
है। ऐसी ही
घटना घटती है
भीतर भी। अभी
मन मालिक बना बैठा
है, सिंहासन
पर बैठा है।
क्योंकि सिहासन
पर जिसको बैठना
चाहिए वह बेहोश
पड़ा है। जिसका
सिंहासन है उसने
दावा नहीं किया
है। तो अभी नौकर—
चाकर सिंहासन
पर बैठे हैं
और उनमें बड़ी
कलह मच रही है।
क्योंकि एक—दूसरे
को खींचतान कर
रहे हैं कि मुझे
बैठने दो, कि
मुझे बैठने दो।
मन में हजार
वासनाएं हैं।
सभी वासनाएं
कहती हैं, मुझे
सिंहासन पर
बैठने दो।
मालिक के आते
ही वे सब
सिंहासन छोड़
कर हाथ जोड़ कर
खड़े हो जाते
हैं, चाटुकार
की तरह सेवा
करने लगते हैं।
पलायते
न शक्तास्ते
सेवंते
कृतचाटव।
या तो भाग ही
जाती हैं ये
छायाएं, या
फिर सेवा में
रत हो जाती
हैं। असली बात
है, वासनारहित
पुरुषसिंह।
लेकिन क्या
करें? यह
वासनारहित
पुरुषसिंह
कैसे पैदा हो?
यह सोया हुआ
सिंह कैसे
जागे? कैसे
हुंकार करे? यह सिंहनाद
कैसे हो?
भगोड़ों से न
होगा।
क्योंकि
भगोड़ों ने तो
मान ही लिया, हम कमजोर
हैं। जिसने
मान लिया
कमजोर हैं, वह कमजोर रह
जाएगा।
तुम्हारी
मान्यता
तुम्हारा
जीवन बन जाती
है। जैसा
मानोगे वैसे
हो जाओगे।
बुद्ध ने कहा
है, सोच—विचार
कर मानना
क्योंकि तुम
जो मानोगे वही
हो जाओगे।
पुरानी
बाइबल कहती है, एज ए मैन
थिकेथ—जैसा
आदमी सोचता, बस वैसा ही
हो जाता। सोच—समझ
कर मानना।
इसलिए मैं
कहता हूं
भागना मत।
क्योंकि
भागने में यह
मान्यता है कि
मैं कमजोर हूं
लड़ न सकूंगा।
धन जीत लेगा, पद जीत लेगा,
शरीर जीत
लेगा। यह
संसार बड़ा है,
विराट है।
यह जाल बहुत
बलवान है, मैं
बहुत कमजोर
हूं। इसलिए तो
आदमी भागता है।
भागे कि तुमने
अपने को कमजोर
मान लिया। मान
लिया कमजोर, हो गए कमजोर।
फिर तुम्हसि
धारणा ही
तुम्हारा
जीवन बन जाएगी।
और गुफाओं में
बैठ कर तुम
अपने को क्षमा
न कर पाओगे।
क्योंकि
हमेशा यह बात
खलेगी कि भाग
आए। हमेशा यह
बात चुभेगी कि
जीत न पाए।
हमेंशा यह बात
मन को काटेगी
कि तुम डरपोक,
कायर। साहस
काफी न था।
नहीं, लड़ी।
घबड़ाओ मत। यह
संसार तुमसे
छोटा है। और
यह मन
तुम्हारा
नौकर है। और
ये वासनाएं
जितनी बड़ी
तुमने समझ रखी
हैं बड़ी नहीं
हैं, सुबह
लोमड़ी की बनी
छाया है।
दोपहर होते—होते
छाया सिकुड़
जाएगी। समझ
आते—आते, दोपहर
आते—आते, प्रौढ़ता
आते— आते यह
छाया बड़ी छोटी
हो जाती, विलीन
हो जाती।
यह
पुरुषसिंह
कैसे जागे? पहली तो बात
यह है कि भीतर
छिपी हुई इस
आत्मा के
सिंहत्व को
स्वीकार करो।
इसकी उदघोषणा
करो कि मालिक
मैं हूं। तुम
जरा देखो यह
उदघोषणा करके
कि मालिक मैं
हूं। और इस
तरह जीना शुरू
करो कि मालिक
तुम हो। मन
फिर भी
खींचेगा
पुरानी आदत के
वश, लेकिन
मन से कह देना
कि मालिक मैं
हूं। मन से
लड़ना भी मत, क्योंकि
लड़ने का मतलब
है कि तुम
मालिक न रहे।
एक सिंह को
एक गधे ने
चुनौती दे दी
कि मुझसे निपट
ले। सिंह
चुपचाप सरक
गया। एक लोमड़ी
छुपी देखती थी, उसने कहा कि
बात क्या है? एक गधे ने
चुनौती दी और
आप जा रहे हैं?
सिंह ने कहा,
मामला ऐसा
है, गधे की
चुनौती
स्वीकार करने
का मतलब मैं
भी गधा। वह तो
गधा है ही।
उसकी चुनौती
से ही जाहिर
हो रहा है। किसको
चुनौती दे रहा
है? पागल
हुआ है, मरने
फिर रहा है।
फिर दूसरी बात
भी है कि गधे
की चुनौती मान
कर उससे लड़ना
अपने को नीचे
गिराना है।
गधे की चुनौती
को मानने का
मतलब ही यह
होता है कि
मैं भी उसी तल
का हूं। जीत
तो जाऊंगा
निश्चित ही, इसमें कोई
मामला ही नहीं
है। जीतने में
कोई अड़चन नहीं
है। एक झपट्टे
में इसका
सफाया हो
जाएगा। मैं
जीत जाऊंगा तो
भी प्रशंसा
थोड़े ही होगी
कुछ! लोग यही
कहेंगे क्या
जीते, गधे
से जीते! और
कहीं भूल—चूक
यह गधा जीत
गया तो सदा—
सदा के लिए
बदनामी हो
जाएगी, इसलिए
भागा जा रहा
हूं। इसलिए
चुपचाप सरका
जा रहा हूं कि
इस.. .यह चुनौती
स्वीकार करने
जैसी नहीं है।
मैं सिंह
हूं यह स्मरण
रखना जरूरी है।
मन खींचेगा।
मन चुनौतियां
देगा। तुमने
अगर अपने
मालिक होने की
घोषणा कर दी, तुम कहना कि
ठीक है, तू
चुतौती दिए जा,
हम स्वीकार
नहीं करते। न
हम लड़ेंगे
तुझसे, न
हम तेरी
मानेंगे। तू
चिल्लाता रह।
कुत्ते
भौंकते रहते
हैं, हाथी
गुजर जाता है।
तू चिल्लाता
रह।
और तुम चकित
होओगे, थोड़े
दिन अगर तुम
मन को
चिल्लाता छोड़
दो, धीरे—
धीरे उसका कंठ
सूख जाता।
धीरे— धीरे वह
चिल्लाना बंद
कर देता। और
जिस दिन मन
चिल्लाना बंद
कर देता है उस
दिन.. .उस दिन ही
अंतर्गुफा
में प्रवेश
हुआ। बाहर की
कोई गुफा काम
न आएगी। बाहर
शरण लेने से
कुछ अर्थ नहीं
होगा।
महावीर ने
कहा है, अशरण
हो जाओ। बाहर
शरण लेना ही
मत। अशरण हुए
तो ही आत्मशरण
मिलती है।
'वासनारहित
पुरुषसिंह को
देख कर
विषयरूपी हाथी
चुपचाप भाग
जाते हैं, या
वे असमर्थ
होकर उसकी
चाटुकार की
तरह सेवा करने
लगते हैं।’
'शंकारहित
और युक्त
मनवाला पुरुष
यम—नियमादि
मुक्तिकारी
योग को आग्रह
के साथ नहीं
ग्रहण करता है,
लेकिन वह
देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता
हुआ, सूंघता
हुआ, खाता
हुआ
सुखपूर्वक
रहता है।’
इस सूत्र को
खूब ध्यान
करना।
न
मुक्तिकारिका
धते निशको
युक्तमानस:।
पश्कन्श्रृण्वन्स्पृशनइजघ्रन्नश्नन्नास्ते
यथासुखम्।।
जिसको अपने
सिंह होने में
शंका न रही, जिसको अपने
आत्मा होने
में शंका न
रही, जिसने
जरा सा इस
भीतर के
अंतर्जगत का
स्वाद लिया, जो थोड़ा—सा
भी जागा—
विवेक में, ध्यान में, समाधि में।
शकारहित—जो
निशंक हुआ।
निशंकों
युक्तमानस:।
और जिसका मन
युक्त हुआ।
ये दो बातें
समझना। एक तो
हमें अपने
होने पर ही
शंका है। भला
हम कितना ही
कहते हों कि
मैं आत्मा हूं
कि मेरी कोई
मृत्यु नहीं, मगर हमें इस
पर भरोसा नहीं।
हम कहते जरूर
हैं; कहते
भी हैं, मान
भी लेना चाहते
हैं। भरोसा
करना चाहते
हैं, भरोसा
है नहीं।
भरोसा करना
चाहते 'हैं
क्योंकि मौत
से डर लगता है।
मृत्यु से
घबड़ाहट होती
है। तो हम मान
लेते हैं, आत्मा
अमर है। जहां
हम पढ़ते हैं
किसी शास्त्र
में, आत्मा
अमर है—हिम्मत
आती है कि ठीक;
होनी चाहिए
आत्मा अमर।
मगर निशंक
नहीं है यह
बात।
मैं एक पड़ोस
में बहुत
दिनों तक रहा।
एक घर में कोई
मर गया तो मैं
गया। वहा
मैंने देखा कि
एक दूसरे
पड़ोसी समझा
रहे हैं लोगों
को कि क्या
रोते हो, क्या
घबड़ाते हो? किसी की
पत्नी मर गई
है, वे
समझा रहे हैं
कि आत्मा तो
अमर है। मैं
बड़ा प्रभावित
हुआ कि यह
आदमी जानकार
होना चाहिए।
संयोग की बात,
तीन—चार
महीने बाद
उनकी पत्नी चल
बसी।
पत्नियों का
क्या भरोसा, कब चल बसें!
तो मैं बड़ी
उत्सुकता से
उनके घर गया
कि अब तो यह
आदमी
प्रसन्नता से
बैठा होगा, या खंजड़ी
बजा रहा होगा।
पत्नी को विदा
दे रहा होगा।
लेकिन वे रो
रहे थे सज्जन।
मैंने कहा, भई बात क्या
है? दूसरे
की पत्नी मर
गई तब तुम
समझा रहे थे, आत्मा अमर
है। वे कहने
लगे अपने आसू
पोंछ कर, अरे
ये समझाने की
बातें हैं। जब
अपनी मर जाए
तब पता चलता
है।
मैं बैठा
रहा। थोड़ी देर
बाद देखा कि
जिन सज्जन की
पत्नी मर गई
थी पहले, वे
आ गए और इनको
समझाने लगे कि
क्या रोते हो?
आत्मा तो
अमर है।
ऐसा चलता
लेन—देन।
पारस्परिक
सांत्वना! तुम
हमको समझा
देते, हम
तुम्हें समझा
देते। न
तुम्हें पता,
न हमें पता।
लोग मान लेते
हैं। लेकिन
मान लेने का
अर्थ निशंक हो
जाना नहीं है।
मान तो हम वही
बात लेते हैं
जो हम मान
लेना चाहते
हैं। इस फर्क
को खयाल में
रखना। यह देश
है, इस देश
में आत्मा की
अमरता का
सिद्धात
सनातन से चला
आ रहा है। और
इस देश से
ज्यादा कायर
देश खोजना मुश्किल
है। अब यह बड़े
आश्चर्य की
बात है। यह
होना नहीं
चाहिए।
क्योंकि जिस
देश में आत्मा
की अमरता मानी
जाती हो, उस
देश को तो
कायर होना ही
नहीं चाहिए।
लेकिन पश्चिम
के लोग आकर
हुकूमत कर गए,
जो आत्मा को
नहीं मानते, नास्तिक हैं।
जो मानते हैं
कि एक दफे मरे
तो मरे; फिर
कुछ बचना नहीं
है। वे आकर
आत्मवादियों
पर हुकूमत कर
गए। और
आत्मवादी डर
कर अपने—अपने
घर में छिपे
रहे। वहीं बैठ
कर अपने
उपनिषद पढ़ते
रहे कि आत्मा
अमर है।
आत्मा अमर
है तो फिर भय
क्या है? जिस
आदमी को निशंक
रूप से पता चल
गया आत्मा अमर
है, उसके
तो सब भय
निरसन हो गए।
उसके तो सारे
भय गए। अब
क्या भय है? अब तो मौत भी
आए तो कोई भय
नहीं है। ऐसे
आदमी को
परतंत्र' तो
बनाया ही नहीं
जा सकता। ऐसे
देश को तो
परतंत्र
बनाया ही नहीं
जा सकता जो
मानता हो, आत्मा
अमर है।
लेकिन
मामला कुछ और
है। हम मानते
ही इसलिए
आत्मा को अमर
हैं कि हम कायर
हैं। हममें
इतनी भी
हिम्मत नहीं
कि हम सीधी—सीधी
बात मान लें, भई, हमें
पता नहीं।
जहां तक दिखाई
पड़ता है वहां
तक तो यही
मालूम पड़ता है
कि आदमी मरा
कि खतम हुआ।
और हम भी
मरेंगे तो खतम
हो जाएंगे।
इतनी भी
हिम्मत नहीं
है हममें
स्वीकार करने
की। हम बचना
चाहते हैं।
आत्मा की
अमरता हमारे लिए
शरण बन जाती
है। हम कहते
हैं, नहीं,
शरीर मरेगा,
मन मरेगा, मैं तो
रहूंगा। हम
किसी तरह अपने
को बचा लेते
हैं। लेकिन यह
कोई निशंक
अवस्था नहीं
है। इसलिए
इसका जीवन में
कोई परिणाम
नहीं होता।
तो पहली तो
बात है, शंकारहित—निःशंको।
यह तुम्हारा
अनुभव होना
चाहिए, उपनिषद
की सिखावन से
काम न चलेगा।
दोहराएं लाख
कृष्ण, और
दोहराएं लाख
महावीर, इससे
कुछ काम न
चलेगा। बुद्ध
कुछ भी कहें, इससे क्या
होगा? जब
तक तुम्हारे
भीतर का बुद्ध
जाग कर गवाही
न दे। जब तक
तुम न कह सको
कि हां, ऐसा
मेरा भी अनुभव
है। जब तक तुम
न कह सको कि
ऐसा मैं भी
कहता हूं अपने
अनुभव के आधार
पर, अपनी
प्रतीति के, अपने
साक्षात के
आधार पर कि
मेरे भीतर जो
है, वह
शाश्वत है।
लेकिन तब
तुम यह भी
पाओगे कि जो
शाश्वत है वह
तुम नहीं हो।
तुम तो अहंकार
हो। तुम तो
मरोगे। तुम तो
जाओगे। तुम
बचने वाले
नहीं हो।
तुम्हारा
शरीर जाएगा, तुम्हारा मन
जाएगा। इन
दोनों के पार
कोई तुम्हारे
भीतर छिपा है
जिससे
तुम्हारी अभी
तक पहचान भी
नहीं हुई। वही
बचेगा। और वह
तुमसे बिलकुल
अन्यथा है, तुमसे
बिलकुल भिन्न
है। तुम्हें
उसकी झलक भी
नहीं मिली है।
तुमने सपने
में भी उसका
स्वप्न नहीं
देखा है।
शंकारहित
कैसे होओगे? कैसे यह
निशंक अवस्था
होगी? कठिन
तो नहीं होनी
चाहिए यह बात,
क्योंकि जो
भीतर ही है
उसको जानना
अगर इतना कठिन
है तो फिर और
क्या जानना
सरल होगा? कठिन
तो नहीं होनी
चाहिए। तुमने
शायद भीतर
जाने का उपाय
ही नहीं किया।
शायद तुम कभी
घड़ी भर को
बैठते ही नहीं।
घड़ी भर को मन
की तरंगों को शांत
होने नहीं
देते। जलाए
रहते हो मन
में आग, ईंधन
डालते रहते हो।
दौड़ाए रखते हो
मन के चाक को।
चलाए रखते हो
मन के चाक को।
कभी मौका नहीं
देते कि चाक
रुके और तुम
कील को पहचान
लो। वह जो कील
है, जिस पर
चाक घूमता है,
वह नहीं
घूमती।
देखते? हिंदुस्तान
में बड़ा अदभुत
नाम है। कहते
हैं, चलती
का नाम गाड़ी।
अब गाड़ी का
मतलब होता है,
गड़ी हुई।
चलती का नाम
गाड़ी? चलती
का नाम तो
गाड़ी नहीं
होना चाहिए।
गाड़ी का मतलब
गड़ी हुई। गड़ी
हुई चीज तो
चलती नहीं।
चलती हुई चीज
तो गाड़ी नहीं
हो सकती।
लेकिन फिर भी
चलती को गाड़ी
कहते हैं।
कारण? क्योंकि
चाक असली चीज
नहीं है गाड़ी
में, असली
चीज कील है, और कील गड़ी
है। चाक चलता
है, कील
नहीं चलती।
चाक हजारों
मील चल लेगा, कील जहां की
तहां है, जैसी
की तैसी। उस
कील के कारण
गाड़ी को गाड़ी
कहते हैं, चाक
के कारण नहीं
कहते। चाक तो
गौण है। असली
चीज तो कील है,
उस पर ही
चाक घूमता है।
कील केंद्र है,
चाक परिधि
है।
तुम्हारे
भीतर भी कील
है जिस पर
जीवन का चाक घूमता
है, जीवन—चक्र
चलता। जीवन—चक्र
के बहुत से
आरे हैं, वे
ही तुम्हारी
वासनाएं हैं।
लेकिन सब के
भीतर छिपी हुई
एक कील है— अचल,
कभी चली
नहीं; अकंप,
कभी कंपी
नहीं। वही कील
तुम्हारी
आत्मा है।
जरा बैठो
कभी। थोड़ा समय
निकालो अपने
लिए भी। सब
समय औरों में
मत गंवा दो।
धन में कुछ
लगता है, काम
में कुछ लगता
है, पत्नी—बच्चों
में कुछ लगता
है; हर्ज नहीं,
लगने दो।
कुछतो अपने लिए
बचा लो। घड़ी
भर अपने लिए बचा
लो। तेईस घंटे
दे दो संसार
को, एक
घंटा अपने लिए
बचा लो। और एक
घंटा सिर्फ एक
ही काम करो कि आंख
बंद करके चाक
को ठहरने दो।
मत दो इसको
सहारा।
तुम्हारे
सहारे चलता है।
तुम ईंधन देते
हो तो चलता है।
तुम हाथ खींच
लोगे, रुकने
लगेगा। शायद
थोड़ी देर
चलेगा—मोमेंटम,
पुरानी गति
के कारण, लेकिन
फिर धीरे—
धीरे रुकेगा।
दो—चार
महीने अगर तुम
एक घंटा सिर्फ
बैठते ही गए बैठते
ही गए—जल्दी
भी मत करना, धैर्य रखना।
सिर्फ एक घंटा
रोज बैठते गए,
आंख बंद
करके बैठ गए
दीवाल से टिक
कर और कुछ भी न
किया, कुछ
भी न किया—दो—चार—छह
महीने के बाद
तुम अचानक
पाओगे, चाक
अपने आप ठहरने
लगा। एक दिन
साल—छह महीने के
बाद तुम
पाओगे...। और
साल—छह महीने
कोई वक्त है
इस अनंतकाल की
यात्रा में? कुछ भी तो
नहीं। क्षण भर
भी नहीं। साल—छह
महीने में
किसी दिन तुम
पाओगे कि चाक
ठहरा है और
कील पहचान में
आ गई। उसी दिन
निशंक हुए।
उसी दिन जान
लिया जो जानने
योग्य है, पहचान
लिया जो
पहचानने
योग्य है। फिर
चलाओ खूब चाक।
अब कील भूल
नहीं सकती। अब
चलते चाक में
भी पता रहेगा।
अब दौड़ो, भागो,
यात्राएं करो
संसारों की; और तुम
जानते रहोगे
कि भीतर कील
ठहरी हुई है।’शंकारहित और
युक्त मन
वाला...।’
उसी कील के
अनुभव से
तुम्हारे
भीतर
संयुक्तता
आती है, योग
आता है, इंटिग्रेशन
आता है। जिसने
अपनी कील नहीं
देखी वह तो
भीड़ है। एक मन
कुछ कहता है, दूसरा मन
कुछ कहता है, तीसरा मन
कुछ कहता है।
महावीर ने
विशेष शब्द
उपयोग किया है
इस अवस्था के
लिए :
बहुचित्तवान।
आधुनिक
मनोविज्ञान
एक शब्द उपयोग
करता है : पॉलीसाइकिक।
इस शब्द का
ठीक—ठीक
अनुवाद
बहुचित्तवान
है, जो
महावीर ने दो
हजार साल पहले,
ढाई हजार
साल पहले
उपयोग किया।
जब तक तुमने
अपनी कील नहीं
देखी, जब तक
तुमने एक को
नहीं देखा है
अपने भीतर तब
तक तुम अनेक
के साथ उलझे
रहोगे। मन
अनेक है, आत्मा
एक है। उस एक
को जान कर ही
व्यक्ति
संयुक्त होता
है।
न
मुक्तिकारिका
धत्ते निशको
युक्तमानस:।
'और ऐसा जो
युक्त मनवाला
पुरुष है, शंकारहित,
यम—नियमादि
मुक्तिकारी
योग को आग्रह
के साथ नहीं
ग्रहण करता।’
यह खयाल में
रखना। ऐसे
व्यक्ति के
जीवन में यम—नियम
पाओगे तुम, लेकिन आग्रह
न पाओगे।
चेष्टा करके
यम—नियम नहीं
साधता। यम—नियम
सधते हैं सहज,
बिना किसी
आग्रह के। कोई
हठ नहीं, कोई
जबरदस्ती
नहीं।
ऐसा ही समझो
कि आंख वाला
आदमी कमरे के
बाहर जाना
चाहता है तो
दरवाजे से
निकल जाता है।
ऐसा पहले खड़े
होकर कसम थोड़े
ही खाता है कि
आज मैं कसम
खाता हूं कि
दरवाजे से ही
निकलूंगा और दीवाल
से निकलने की
कोशिश न
करूंगा। ऐसी
कोई कसम थोड़े
ही खाता है!
दरवाजे से
चुपचाप निकल
जाता है। अंधा
आदमी जब उठता
है तो तय करता
है कि दरवाजे
से निकलना है।
दरवाजे से ही
निकलना है।
पूछता है, दरवाजा कहां
है? पूछ कर
भी फिर अपनी
लकड़ी से
टटोलता है कि
दरवाजा कहां
है। क्योंकि
डर है, अंधा
है, कहीं
दीवाल से न
निकलने की
कोशिश कर ले; कहीं दीवाल
से न टकरा जाए।
अंधा आदमी
आग्रहपूर्वक
दरवाजे से
निकलने का
प्रयास करता
है। आंख वाला
आदमी चुपचाप
निकल जाता है।
सोचता भी नहीं
कि दरवाजा
कहां है। जिसको
दिखाई पड़ता है
वह सोचेगा
क्यों? सिर्फ
अधे सोचते हैं।
आंख वाले
सोचते ही नहीं।
सोचने की
जरूरत क्या है?
सोचना तो
अंधों के हाथ
की लकड़ी है; उससे टटोलते
हैं। कोई बैठा
है और कहता है,
ईश्वर के
संबंध में सोच
रहे हैं। क्या
खाक सोचोगे!
ईश्वर कोई
सोचने की बात
है? ईश्वर
तो देखने की
बात है। इसलिए
तो हम ईश्वर
की तरफ जो
यात्रा है
उसको दर्शन
कहते हैं, विचार
नहीं कहते।
पश्चिम में जो
शब्द है
फिलॉसफी, वह
ठीक—ठीक शब्द
नहीं है दर्शन
के लिए।
भारतीय दर्शन
को भारतीय
फिलॉसफी नहीं
कहना चाहिए।
क्योंकि
फिलॉसफी का
अर्थ होता है
सोच—विचार, चिंतन—मनन।
दर्शन का अर्थ
होता है, देखना।
ये शब्द बड़े
अलग हैं।
दर्शन का अर्थ
होता है, आंख
का खुल जाना, दृष्टि का
मिल जाना, द्रष्टा
का जाग जाना।
ही, जब तक
दर्शन नहीं
हुआ तब तक सोच—विचार
है। जब तक सोच—विचार
है तब तक
शकाएं—कुशंकाए
हैं। जब तक
शंकाए—कुशंकाए
हैं तब तक तुम
एक भीड़ हो, बहुचित्तवान
हो, तुम एक
नहीं, संयुक्त
नहीं।
'.. .यम—नियमादि
योग को आग्रह
के साथ नहीं
ग्रहण करता है।’
ग्रहण करता
ही नहीं; आग्रह
का प्रश्न ही
नहीं उठता है।
'.. .लेकिन
वह देखता हुआ,
सुनता हुआ,
स्पर्श
करता हुआ, सूंघता
हुआ, खाता
हुआ
सुखपूर्वक
रहता है।’
वह जीवन की
सब छोटी—छोटी
क्रियाओं में
सरलता से जीता
है। देखता हुआ
देखता है, सुनता हुआ
सुनता है।
देखना, झेन
फकीर जो कहते
हैं...। बोकोजू
से किसी ने
पूछा कि
तुम्हारी
साधना क्या है?
तो उसने कहा,
जब भूख लगती
है तब भोजन करता
और जब नींद
आती है तब सो जाता।
तो उस आदमी ने
कहा, यह कोई
साधना हुई? यह तो हम भी करते
है, यह तो
सभी करते हैं,
नींद आई तब
सो गए, भूख
लगी तब खा
लिया। बोकोजू
ने कहा कि
नहीं, कभी—कभी
कोई बिरला
करता है। तुम
भोजन करते हो
और हजार काम
साथ में और भी
करते हो। भोजन
कर रहे हो और
दुकान भी चला
रहे हो खोपड़ी
में। भोजने कर
रहे और बाजार में
भी हो। भोजन कर
रहे और किसी कोरिश्वत
भी दे रहे हो।
भोजन कर रहे
और हजार विचार
कर रहे हो।
भोजन— तो डाले
जा रहे हो
यंत्रवत, और
भीतर मन हजार
दुनियाओं में
दौड़ रहा है, हजार
योजनाएं बना
रहा है।
जब तुम सोते
हो तब सोते भी
कहां? सपने
देखते हो। न
मालूम कितनी
भाग— दौड़, कितनी
आपाधापी नींद में
भी चलती रहती है।
नींद में भी तुम
अपने घर नही
आते। दिन में
भागे रहते, रात में भी
भागे रहते।
तुम्हारा मन
तो सदा
चलायमान ही
रहता है।
बोकोजू ने कहा,
नहीं जब मैं
भोजन करता तो
बस भोजन करता।
और बोकोजू ने
कहा, जब
भूख लगती तब
भोजन करता।
तुम्हें भूख
भी नहीं लगती तो
भी भोजन करते।
समय हो गया तो
भोजन करते।
करना चाहिए
भोजन तो भोजन
करते। भूख का
कोई संबंध नहीं
है तुम्हारे
भोजन से, तुम्हारी
व्यवस्था का
संबंध है। कभी
भूख भी लगती
तो भोजन नहीं
करते, क्योंकि
उपवास कर रहे
हो। तुम
प्रकृति की
थोड़े ही
सुनते! कभी
बिना जरूरत के
भोजन डालते, कभी जरूरत
होती तो भोजन
नहीं डालते।
बड़े अजीब हो।
कभी कहते
पर्यूषण आ गए,
अभी व्रत
करना है। अब
यह पेट को भूख
लगती है, तुम
भोजन नहीं
करते। और रोज
ऐसा करते कि
पेट को भूख
नहीं लगी तो
भी भोजन डाले
जाते। पेट भर
जाता हैतो भी
नहीं सुनते।
पेट कहने भी
लगता है, अब
क्षमा करो।
दर्द भी होने
लगता है, कहता
है क्षमा करो,
लेकिन तुम
कहते, थोड़ा
और।
मैंने सुना
है मधुरा के
एक पंडे के
संबंध में; किसी के घर
भोजन करने गए।
इतना भोजन कर
गए, इतना
भोजन कर गए कि
गाड़ी पर डाल
कर उनको घर
लाना पड़ा। जब
घर आए तो उनकी
पत्नी ने कहा
कि चलो कोई
बात नहीं। ऐसा
तो मेरे पिता
के साथ भी
होता था। यह
कोई नई बात
नहीं। यह गोली
ले लो। तो
उन्होंने कहा,
अरे पागल, अगर गोली ही
खाने की जगह
होती तो एक
लड्ड और न खा
जाते? जगह
है कहां? एक
गोली की भी
जगह नहीं छोड़ी।
तो तुम
इक्या भी कर
लेते हो। मेरे
एक मित्र हैं, लेखक हैं।
उनकी शादी हुई
तो जिस घर में
गए—देहाती हैं—जिस
घर में शादी
हुई, वह
बड़ा
संस्कारशील, कुलीन घर है।
छोटी—छोटी
पूड़ी! तो वे एक
पूड़ी का एक ही
कौर कर जाएं।
उनकी पत्नी को
शर्म आने लगी।
पहली ही दफा
विवाह के बाद
आए थे पत्नी
को लेने। तो
उसने ऐसा कोने
से छिप कर
इशारा किया दो
अंगुलियों का।
इशारा किया कि
दो टुक्के
करके तो कम से
कम खाओ। वे
समझे कि शायद
इस घर में दो
पूड़ी एक साथ
खाई जाती हैं।
सो उन्होंने
दो पूड़ियों का
एक कौर बना
लिया। मुझे
कहते थे कि
बड़ी बदनामी
हुई। बोकोजू
कहता है, जब
भूख लगती है
तब भोजन करता
हूं और तब
सिर्फ भोजन
करता हूं। और
जब नींद आती
है तब, और
केवल तब ही
सोता हूं। और
तब केवल सोता
हूं।
यही इस
सूत्र का अर्थ
है। यह सूत्र
बड़ा अदभुत है।
'.. .लेकिन
वह देखता हुआ
देखता, सुनता
हुआ सुनता, स्पर्श करता
हुआ स्पर्श
करता, सूंघता
हुआ सूंघता, खाता हुआ
खाता
सुखपूर्वक
रहता है।’
उसके जीवन
में कोई दमन
नहीं है, कोई
जबरदस्ती
नहीं है, कोई
आत्महिसा
नहीं है, कोई
कठोरता नहीं
है, कोई तप—तपश्चर्या
नहीं है। न तो
भोग है उसके
जीवन में, 2
न योग है उसके
जीवन में।
उसके जीवन में
बड़ी सरलता है।
पश्गश्थृण्वन्स्पृशनइजघ्रन्नश्नन्नास्ते
यथासुखम्।।
ऐसा सब
क्रियाओं में
होता हुआ
सुखपूर्वक
जीता है।
डोलता नहीं
अपनी कील से।
चाक चलता रहता, वह अपनी कील
पर थिर रहता।
वह अपने में
ठहरा रहता। और
यह भी खयाल
रखना कि उसकी
सारी
प्रक्रिया बोध
मात्र है। जब
देखता तो
बेहोशी में
नहीं देखता, होशपूर्वक
देखता। फर्क
समझो! भगोड़ा
कहता है, स्त्री
को देखना मत।
ज्ञानी कहता
है, होशपूर्वक
देखना।
बुद्ध के
जीवन में एक
उल्लेख है। एक
भिक्षु
यात्रा को जा
रहा है। उस
भिक्षु ने
बुद्ध को कहा
कि प्रभु, मार्ग के
लिए कोई
निर्देश हों
तो मुझे दे
दें; क्योंकि
महीनों दूर
रहूंगा, पूछ
भी न सकूंगा।
तो बुद्ध ने
कहा, एक
काम करना।
रास्ते पर
स्त्री मिले
तो देखना मत, आंख नीचे
करके निकल
जाना। वह
भिक्षु बोला,
जैसी आज्ञा।
लेकिन
बुद्ध का
दूसरा शिष्य
आनंद बैठा था।
और आनंद की
बड़ी कृपा है
मनुष्य जाति
पर। क्योंकि
उसने बड़े
अनूठे, वक्त—बेवक्त,
बेबूझ, कभी
असंगत— अनर्गल
प्रश्न भी
पूछे। उसने
कहा, प्रभु
रुके। कभी—कभी
ऐसा भी हो
सकता है कि
देखना पड़े या
देख कर ही तो
पता चलेगा कि
स्त्री है, फिर आंख
झुकानी। पहले
से तो पता
कैसे चल जाएगा?
आखिर.. .पहले
तो देख ही लेंगे
कि स्त्री आ
रही है। अब तो
देख ही चुके।
आप कहते हैं, स्त्री को
देख कर आंख
नीचे झुका
लेना, मगर
देख तो चुके
ही, उस
हालत में क्या
करना?
तो बुद्ध ने
कहा, अगर देख
चुके हो, कोई
हर्ज नहीं, छूना मत।
आनंद ने कहा, और कभी ऐसा
भी हो सकता है
कि छूना पड़े।
अब एक स्त्री
गिर गई हो
रास्ते पर और
हमारे सिवाय
कोई नहीं। उसे
उठाएं, न
उठाएं? आप
कहते हैं, करुणा,
दया—क्या
हुआ करुणा—दया
का? तो
बुद्ध ने कहा,
ठीक, ऐसी
कोई घड़ी आ जाए
तो छू लेना, मगर होश
रखना।
बुद्ध ने
कहा, असली बात
तो होश रखना
है। यह भिक्षु
कमजोर है, इससे
मैंरे कहा, देखनामत।
थोड़ा हिम्मतवर
आदमी हो तो उससे
मैं यह भी नहीं
कहता कि देखना
मत। और थोड़ा
हिम्मतवर हो,
उससे मैं यह
भी नहीं कहता
कि छूना मत।
और थोड़ा
हिम्मतवर हो
तो उसे मैं
कुछ भी आज्ञा नहीं
देता। लेकिन
एक ही बात—होश
रखना।
ऐसा हुआ, एक बार
वर्षाकाल
शुरू होने के
पहले एक
भिक्षु राह से
गुजर रहा था
और एक वेश्या
ने उससे
निवेदन किया
कि इस
वर्षाकाल
मेरे घर रुक जाएं।
उस भिक्षु ने
कहा, मैं
अपने गुरु को
पूछ लूं। उसने
यह भी न कहा कि
तू वेश्या है।
उसने यह भी न
कहा कि तेरे
घर और मेरा
रुकना कैसे बन
सकता है? उसने
कुछ भी न कहा।
उसने कहा, मेरे
गुरु को मैं
पूछ आऊं। अगर
आज्ञा हुई तो
रुक जाऊंगा।
वह गया और
उसने भरी सभा
में खड़े होकर
बुद्ध से पूछा
कि एक वेश्या
राह पर मल गई
और कहने लगी
कि इस
वर्षाकाल
मेरे घर रुक
जाएं। आपसे
पूछता हूं।
जैसी आज्ञा!
बुद्ध ने कहा, रुक जाओ।
बड़ा तहलका मच
गया। बड़े
भिक्षु नाराज
हो गए। यह तो
कई की इच्छा
थी। इनमें से
तो कई आतुर थे
कि ऐसा कुछ
घटे। वे तो
खड़े हो गए।
उन्होंने कहा,
यह बात गलत
है। सदा तो आप
कहते हैं, देखना
नहीं, छूना
नहीं और
वेश्या के घर
में रुकने की
आज्ञा दे रहे
हैं?
बुद्ध ने
कहा, यह
भिक्षु ऐसा है
कि अगर वेश्या
के घर में
रुकेगा तो
वेश्या को डरना
चाहिए; इस
भिक्षु को
डरने का कोई
कारण नहीं है।
खैर, चार
महीने बाद तय
होगी बात, अभी
तो रुक।
वह भिक्षु
रुक गया। रोज—रोज
खबरें लाने
लगे दूसरे
भिक्षु कि सब
गड़बड़ हो रहा
है। रात सुनते
हैं, दो बजे
रात तक वेश्या
नाचती थी, वह
बैठ कर देखता
रहा। कि सुनते
हैं कि वह खान—पान
भी सब
अस्तव्यस्त
हो गया है। कि
सुनते हैं, एक ही कमरे
में सो रहा है।
ऐसा रोज—रोज
बुद्ध सुनते,
मुस्कुरा
कर रह जाते।
उन्होंने कहा,
चार महीने
रुको तो! चार
महीने बाद
आएगा।
चार महीने
बाद भिक्षु
आया, उसके पीछे
वेश्या भी आई।
वेश्या, इसके
पहले कि
भिक्षु कुछ
कहे, बुद्ध
के चरणों में
गिरी। उसने
कहा कि मुझे
दीक्षा दे दें।
इस भिक्षु को
भेज कर मेरे घर,
आपने मेरी मुक्ति
का उपाय भेज
दिया। मैंने
सब उपाय करके देख
लिए इसे
भटकाने के, मगर अपूर्व
है यह भिक्षु।
मैंने नाच
देखने को कहा
तो इसने इनकार
न किया। मैं सोचती
थी कि भिक्षु
कहेगा, मैं
संन्यासी, नाच
देखूं? कभी
नहीं! जो कुछ मैंने
इसे कहा, यह
चुपचाप कहने
लगा कि ठीक।
मगर इसके भीतर
कुछ ऐसी जलती
रोशनी है कि
इसके पास होकर
मुझे स्मरण भी
नहीं रहता था
कि मैं वेश्या
हूं। इसकी
मौजूदगी में मैं
भी किसी ऊंचे
आकाश में उड़ने
लगती थी। मैं
इसे नीचे न
उतार पाई, यह
मुझे ऊपर ले
गया। मैं इसे
गिरा न पाई, इसने मुझे
उठा लिया। इस
भिक्षु को
मेरे घर भेज
कर आपने मुझ
पर बड़ी कृपा
की। मुझे
दीक्षा दे दें,
बात खतम हो
गई। यह संसार
समाप्त हो गया।
जैसी जागृति
इसके भीतर है,
जब तक ऐसी
जागृति मेरे
भीतर न हो जाए
तब तक जीवन
व्यर्थ है। यह
दीया मेरा भी
जलना चाहिए।
बुद्ध ने
अपने और
भिक्षुओं से
कहा, कहो क्या
कहते हो? तुम
रोज—रोज खबरें
लाते थे। मैं
तुमसे कहता था,
थोड़ा धीरज
रखो। इस
भिक्षु पर
मुझे भरोसा है।
इसका जागरण हो
गया है। यह
जाग्रत रह
सकता है। असली
बात जागरण है।
गहरी बात
जागरण है।
आखिरी बात
जागरण है।
तो
अष्टावक्र
कहते हैं :
न
मुक्तिकारिका
धत्ते निशको
युक्तमानस:।
पश्यश्रुण्वन्स्पृशनइजघ्रन्नश्नन्नास्ते
यथासुखम्।।
देखो, सुनो,
खाओ, पीयो,
रहो संसार
मे — जागे हुए, सुखपूर्वक।
भागो, मत भोगो
मत। भोगो मत, त्यागो मत।
जागो! उसी
जागरण से परम
सिद्धि फलित
होती है।
भाग गए तो भी
कल्पना पीछा
करेगी। जाग गए
तो फिर कल्पना
बचती ही नहीं।
तुमकी
निहारता हूं
सुबह से
ऋतंभरा
अब
शाम हो रही है
मगर मन नहीं
भरा
या
धूप में अठखेलियां
हर रोज करती
है
एक
छाया सीढ़ियां
चढ़ती—उतरती है
मैं
तुम्हें छूकर
जरा—सा छेड़
देता हूं
और
गीली पाँखुरी
से ओस झरती है
तुम
कहीं पर झील
हो, मैं एक
नौका हूं
इस
तरह की कल्पना
मन में उभरती
है
तुम दूर बैठ
गए जाकर, कुछ
फर्क न पड़ेगा।
नई—नई
कल्पनाएं मन
में उभरेगी ।
तुमको
निहारता हूं
सुबह से
ऋतंभरा
दूर बैठे
पहाड़ पर भी
तुम उसको ही
निहारोगे जिसको
छोड़ कर भाग गए।
उसी को
निहारोगे, और क्या
करोगे? जिसे
छोड़ कर भागे
हो वही
तुम्हारा
पीछा करेगा।
तुमको
निहारता हूं
सुबह से
ऋतंभरा
अब
शाम हो रही है
मगर मन नहीं
भरा
या
धूप में अठखेलियां
हर रोज करती
है
एक
छाया सीढ़ियां
चढ़ती—उतरती है
नहीं कोई
वास्तविक रहा
तो छायाएं
सीढ़ियां चढ़ेंगी—उतरेंगी, सपने उठेंगे,
कल्पनाएं
जगेंगी।
मैं
तुम्हें छूकर
जरा सा छेड़
देता हूं
और तुम
कल्पनाओं को
छूने लगोगे।
तुमने ऋषि—मुनियों
की कथाएं पढ़ी
हैं, अप्सराएं
सताती हैं।
अप्सराएं
कहां से आएंगी?
अप्सराएं
होती नहीं। ये
ऋषि—मुनि
जिनको भाग गए
हैं छोड्कर, उनकी ही
कल्पनाएं हैं।
छायाएं
सीढ़ियां चढ़ती—उतरती
हैं। कोई नहीं
सता रहा।
अप्सराओं को
क्या पड़ी
तुम्हारे
विश्वामित्रों
को सताने के
लिए! अप्सराओं
को फुरसत कहां?
देवताओं से
फुरसत मिले तब
तो वे इन... और
ऋषि—मुनियों
को बेचारों
को! नाहक सूख
गए जिनके देह,
हड्डी—मास
सब खो गया, अस्थि—पंजर
रह गए जो, इन
पर अप्सराओं
को इतना क्या
मोह आता होगा!
अप्सराएं
इन्हें देख कर
डरें, यह
तो समझ में
आता—कि बाबा आ
रहे हैं। मगर
अप्सराएं
इनको सताने आएं
नग्न होकर
इनके आस— पास
नाचे।
मगर बात में
रहस्य है। ये
अप्सराएं
इनके मन की ही
छायाएं हैं।
स्त्रियों को
छोड़ कर भाग गए
हैं, स्त्रियां
मन में बसी रह
गई है।
एक
छाया सीढ़ियां
चढ़ती—उतरती है
मैं
तुम्हें छूकर
जरा—सा छेड़
देता हूं
और
गीली पांखुरी
से ओस झरती है
तुम
कहीं पर झील
हो, मैं एक
नौका हूं
इस
तरह की कल्पना
मन में उभरती
है
और
कल्पनाओं पर
कल्पनाएं
उभरती रहेंगी।
जिससे तुम
भागे हो उससे
तुम कभी छूट न
पाओगे। उससे
तुम सदा के
लिए बंधे रह
जाओगे। भागने
में ही बंधन
हो गया। भागने
में ही गाठ
बंध गई। भागने
में ही तुमने बता
दिया कि जीत
नहीं सके, हार गए।
जिससे हार गए
उससे हारे
रहोगे; बार—बार
हारना होगा।
अष्टावक्र
उस पक्ष में
नहीं हैं। वे
कहते हैं, 'यथार्थ सत्य
के श्रवण
मात्र से
शुद्ध—बुद्धि
और स्वस्थ
चित्त हुआ
पुरुष न आचार
को, न
अनाचार को, न उदासीनता
को देखता है।’
वस्तुश्रवणमात्रेण...।
मैं तुमसे
रोज कहेता रहा
हूं प्रज्ञा
प्रखर हो तो
सुनने मात्र
से, श्रवणमात्रेण।
वस्तुश्रवणमात्रेण
शुद्धबुद्धिर्निराकुल:।
जिसकी
बुद्धि शुद्ध हो, निराकुल हो,
तरंगें न उठ
रही हों वस्तु
श्रवणमात्रेण—बस
सुन लिया सत्य
को कि हो गई
बात, घट गई बात।
कुछ करने को
शेष नहीं रह
जाता है।
नैवाचारमनाचारमौदास्य
वा प्रपश्यति।
और ऐसे
व्यक्ति के
जीवन में, जहां चित्त
स्वस्थ है, शुद्ध है
बुद्धि, सत्य
के श्रवण
मात्र से, सिर्फ
सत्य के आघात
मात्र से, सत्य
के संवेदन
मात्र से जो
मुक्त हुआ है;
किसी आग्रह,
हठ, योग,
नियम, व्रत
इत्यादि से
नहीं, बोध
मात्र से जो
मुक्त हुआ है;
ऐसे
व्यक्ति के
जीवन में न तो
आचार होता, न अनाचार
होता। इतना ही
नहीं, उदासीनता
भी नहीं होती।
ये तीन
बातें हैं
साधारणत:। एक
आदमी है
अनाचार में
भरा हुआ, जिसको
हम कहते हैं
भोगी। दूसरा
व्यक्ति है
आचार से भरा
हुआ, उसको
हम् कहते हैं
योगी। इन
दोनों के ऊपर
एक व्यक्ति है
उदासीन जिसके जीवन
में अब न आचार
रहा, न
अनाचार रहा; जो दोनों से
हट कर एकदम
उदासीन हो गया
है। यह तीसरी
अवस्था है।
अष्टावक्र
कहते हैं, एक
चौथी अवस्था
भी है, उदासीन
भी नहीं। यह
चौथी अवस्था
बड़ी अपूर्व है।
समझें।
अनाचार में जो
पड़ा है, वह
जो गलत है
उसको भोग रहा
है। आचार में
जो पड़ा है, वह
जो ठीक है
उसको भोग रहा
है। दोनों का
चुनाव है।
अनाचारी आधे
को चुन लिया, आधे को छोड़
दिया। आचारी
ने दूसरे आधे
को चुन लिया, पहले आधे को
छोड़ दिया।
लेकिन पूरा
सत्य दोनों के
हाथ में नहीं
है। इस बात को
देख कर उदासीन
ने दोनों को छोड़
दिया लेकिन
उसके हाथ में
भी पूरा सत्य नहीं
है। उदासीन तो
नकारात्मक .
अवस्था है। वह
बैठ गया तटस्थ
होकर। उसने
धारा में बहना
छोड़ दिया।
एक चौथी
अवस्था है—न
आचार, न
अनाचार, न
उदासिनता।
जीवन खड़ा है
व्यक्ति। न तो
तय करता है कि
आचरण से
रहूंगा, न
तय करता है कि
अनाचरण में ही
अपने जीवन को
डाल कर रहूंगा।
तुमने खयाल
किया, साधुओं
के भी संकल्प
होते हैं, असाधुओं
के भी। साधु
कहता है, जो
शुभ है वही
करूंगा। और
असाधु कहता है,
देखें कौन
क्या बिगाड़ता
है, अशुभ
को करके
रहेंगे।
अगर तुम
कारागृह में
जाओ तो
तुम्हें पता
चलेगा।
कारागृह में
बंद लोग अपने
अपराधों को भी
बढ़ा—चढ़ा कर
बताते हैं।
क्योंकि वहां
तो अपराधी ही
अपराधी हैं।
वहां तो
अहंकार को
तृप्त करने का
एक ही उपाय है।
कोई कहता है, मैंने दो
आदमी मारे। वह
कहता, यह
क्या रखा! अरे
ऐसे बीसों मार
चुका। कोई
कहता है, लाख
रुपये का डाका
डाला। वह कहता
है, यह भी
कोई डाका है? अरे यह तो
हमारे घर में
बच्चे कर लेते
हैं। ऐसे करोड़
का डाका डाला
है।
मैंने सुना
है, एक
कारागृह में
एक आदमी
प्रविष्ट हुआ।
एक कोठरी में
उसे ले जाया
गया। कोठरी
में जो पहले
से ही कारागृह
में बंद आदमी
था, उसने
पूछा, कितने
दिन की सजा
हुई? इस
आदमी ने कहा, दो साल की।
उसने कहा, तू
वहीं दरवाजे
के पास अपना
डेरा रख।
जल्दी तेरे को
निकल जाना है।
इधर हमको तीस
साल रहना है।
उसकी अकड़!
वहीं रख डेरा
दरवाजे के पास।
ऐसे ही कोई
सिक्सडू
मालूम होता।
नौसिखुआ! चले
आए! करना— धरना नही
आता कुछ। अभी वही
रह। तेरे जाने
का वक्त तो जल्दी
आजाएगा। दो साल
ही हैं न कुल? इधर तीस साल रहना
है। तो दादा गुरु...।
कारागृह में
लोग अपने पाप
का भी बखान
करते हैं जोर
से। बड़ा करके
बढ़ा— चढ़ा कर
अतिशयोक्ति
करते। ठीक
वैसा ही जैसा
कि तुम रुपया
दान दे आते तो
हजार बताते हो।
एक सज्जन
मेरे पास आए, पत्नी उनके
साथ थी। पत्नी
ने अपने पति
की प्रशंसा गे
कहा कि बड़े दानी
हैं। शायद
आपने इनका नाम
सुना हो, न
हो, एक लाख
रुपया दान कर
चुके अब तक।
पति ने ऐसा
धक्का मारा
हाथ से और कहा,
एक लाख दस
हजार। यह कोई
बात है! वह दस
हजार की चोट
लग गई उनको कि
दस हजार भूले
ना रही है, क्या
मामला है?
आदमी शुभ की
भी घोषणा करके
अहंकार को भर
लेता है, अशुभ
की घोषणा करके
भी अहंकार को
भर लेता है।
शुभ के भी
जिद्दी हैं और
अशुभ के भी
जिद्दी हैं। फिर
इन दोनों को
छोड़ कर भी बैठ
गए उदासीन लोग
हैं जिनके
चेहरे पर
मक्खियां
उड़ने लगती हैं।
उदासी आ गई।
वे कहते हैं
कि अब कुछ रस
नहीं है।
अच्छे—बुरे
में कुछ रस
नहीं है। बैठ
गए तटस्थ हो
गए।
लेकिन
अष्टावक्र
कहते हैं, इन तीनों के
पार एक
वास्तविक
चित्तदशा है।
उदासीनता तो
अच्छी बात
नहीं।
अस्तित्व तो
उत्सव है। इस
उत्सव में
उदासीनता तो
प्रभु का
अपमान है।
यहां फूल खिले
हैं, सूरज
उगा है, पक्षी
गीत गा रहे
हैं, नाचो।
यहां उदासीन
होना तो प्रभु
ने यह जो जगत
दिया, उस
प्रभु का अपमान
है। इस
अस्तित्व ने
जो इतना अवसर
दिया इसमें
उदासीन न होकर
बैठ गए? यह
तो तौहीन है।
यह बात ठीक
नहीं। उत्सव
चाहिए जीवन
में, उदासीनता
नहीं। और
उत्सव ऐसा
चाहिए कि
जिसमें कोई
आग्रह न हो।
क्षण—क्षण
जीयो
निराग्रह से।
न तो तय करो कि
शुभ करेंगे, न तय करो कि
अशुभ करेंगे;
जो
परमात्मा
करवा ले। जो
उसकी मर्जी।
उसकी मर्जी पर
छोड़ दो। जो भी
करेंगे, बोधपूर्वक
करेंगे। और जो
वह करवा लेगा
उसमें राजी
रहेंगे। ऐसी
परम राजीपन की
दशा चौथी दशा
है।
'धीर पुरुष,
जब जो कुछ
शुभ अथवा अशुभ
करने को आ
पड़ता है उसे सहजता
के साथ करता
है...।’
खयाल रखना, शुभ या अशुभ।
अष्टावक्र का
मुकाबला नहीं।
अष्टावक्र की
क्रांति का
कोई मुकाबला
नहीं।
अष्टावक्र
अतुलनीय हैं।
' धीरपुरुष,
जब जो कुछ
शुभ अथवा अशुभ
करने को आ
पड़ता है उसे सहजता
के साथ करता
है, क्योंकि
उसका व्यवहार
बालवत है।’
शुभ आ जाए, शुभ करवा ले
प्रभु तो शुभ;
अशुभ करवा
ले तो अशुभ।
वह चुनाव नहीं
करता।
यही तो
कृष्य अर्जुन
से कह रहे हैं
कि अगर प्रभु
की मर्जी है
कि युद्ध हो
तो तू लड़। अब
तू कौन है बीच
में कहने वाला
कि यह अशुभ है, हिंसा हो
जाएगी, पाप
हो जाएगा? तू
कौन बीच में
आने वाला? तू
निमित्त
मात्र है। अर्जुन
से कृष्ण कहते
हैं, ये जो
सामने खड़े लोग
हैं, मैं
देखता हूं ये
मारे जा चुके
हैं। तू तो
निमित्त
मात्र है।
इनकी मौत तो
घट चुकी। मैं
जरा आगे की
देख रहा हूं
इनकी मौत हो
चुकी है। घड़ी—दों
घड़ी की बात है।
ये मारे जा
चुके हैं। तू
निमित्त
मात्र है।
तेरे कंधे पर
रख कर गांडीव
चला कि किसी
और के कंधे पर
रख कर चला, कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। ये मारे
जा चुके। तू
यह मत सोच कि
तू इन्हें
मारने वाला है।
तू कर्ता मत
बन।
और तू कौन है
बीच में सोचे
कि क्या शुभ, क्या अशुभ? यह भी जरा
समझने की बात
है। क्योंकि
तुम कभी शुभ करो
और हो जाता है
अशुभ। और तुम
कभी अशुभ करो
और हो जाता है
शुभ।
चीन में ऐसा
हुआ कि एक
आदमी के सिर
में दर्द था—कोई
चार हजार साल
पुरानी कथा है—बडा
दर्द था और
जीवन भर से
दर्द था। और
एक दुश्मन ने
छिप कर उसे
तीर मार दिया।
उसके पैर में
तीर लगा और
दर्द चला गया।
बड़ी हैरानी
हुई। तीर तो
निकल गया, वह आदमी बच
भी गया, लेकिन
दर्द चला गया।
इसी आदमी के
अनुभव से चीन
में एक
शास्त्र का जन्म
हुआ :
अकुपंक्यर।
इससे यह पता
चला कि दर्द
तो उसके सिर
में था लेकिन
असली उलझन
उसके पैर में
थी। उसके पैर
में विद्युत
का प्रवाह अटक
गया था, उसका
परिणाम सिर
में हो रहा था।
सिर के इलाज
करने से कुछ
भी नहीं हो
सकता था। उसके
पैर में जो
विद्युत का
प्रवाह अटक
गया था वह तीर
के लगने से
संयोगवशांत
खुल गया। तब
से अकुपंज्जर
पैदा हुआ।
अकुपंस्वर
बड़ी अनूठी
औषधि है।
तुम्हारे
बाएं हाथ में
दर्द हो, वे
दाएं हाथ का इलाज
करें।
तुम्हारे सिर
में दर्द है, वे पैर के
अंगूठे का
इलाज करें और
ठीक कर दें।
और इलाज भी
कुछ नहीं है
सिर्फ थोड़ा सा
एक सुई चु२ग
दी। उस सुई के
चुभाने से
जीवन की ऊर्जा
का जो प्रवाह
है, उसको
बदल देते हैं।
अब इस आदमी
ने तो तीर
मारा था अशुभ
के लिए, लेकिन
हो गया शुभ। न
केवल उस आदमी
के जीवन में
शुभ हो गया, उसका सिर—दर्द
चला गया, चार
हजार साल में
करोड़ों लोगों
ने लाभ लिया
अकुपंक्वर से।
वह सब लाभ उसी
आदमी के ऊपर
जाता है जिसने
तीर मारा था।
लेकिन उसकी
आकांक्षा तो
बुरी थी, वह
तो अशुभ करने
चला था।
कभी तुम शुभ
करने जाते हो
और अशुभ हो
जाता है। तुम
सब अच्छा कर
रहे थे और सब
गड़बड़ हो जाता
है। अक्सर ऐसा
होता है कि
बाप बेटे को
बहुत अच्छा
बनाना चाहता
है इसी कारण
बेटा बुरा हो
जाता है।
तुम्हारी
ज्यादा
चेष्टा
खतरनाक होती
है। गांधी
जैसा अच्छा
बाप पाना
मुश्किल है।
गांधी ने अपने
पहले बेटे को
बरबाद कर दिया, हरिदास को।
गांधी ने ही
बरबाद किया।
उसको इतना
अच्छा बनाने
का.. .उनको तो
महात्मा होने
की धुन सवार
थी, उसको
भी महात्मा
बनाना है।
तुम्हें
महात्मा बनना
है, तुम
बनो। कोई मना
नहीं कर रहा
है। लेकिन
दूसरे पर तो
मत थोपो।
दूसरे का मौका
आने दो। जब
उसको मौका
आएगा, आएगा।
वे हरिदास
को जबरदस्ती
महात्मा
बनाने में लग
गए। हरिदास को
इस तरह
महात्मा
बनाया
उन्होंने कि हरिदास
के भीतर बगावत
पैदा हो गई।
उसने बुरी तरह
बदला लिया।
बदला लेने में
अपने को भी
नष्ट कर लिया।
जो—जो गांधी
कहते थे उससे
उल्टा करने
लगा। शराब
पीने लगा, वेश्यागामी
हो गया और
आखिर में
मुसलमान हो गया—।
क्योंकि गांधी
कहते थे, हिंदू—मुस्लिम
सब एक; तो
उसने कहा, अब
यह आखिरी चोट
भी करके देख
लें। वह
मुसलमान हो
गया। हरिदास गांधी
से अब्दुल्ला
गांधी हो गया।
और जब गांधी
को खबर मिली
कि हरिदास
मुसलमान हो।
होता है, क्षण
भर बाद ठीक हो
जा सकता है।
और जो क्षण भर
पहले ठीक
मालूम गया तो
उनको बड़ा सदमा
पहुंचा। जब यह
खबर हरिदास को
मिली तो वह
हंसा,! होता
था, क्षण
भर बाद गलत हो
सकता है। कुछ
कहा नहीं जा
सकता। इसलिए
इस उसने कहा
कि अरे, सदमा!
हिंदू—मुस्लिम
सब एक, अल्ला——
नाम—.'' सदमा
क्या? तो
बात सब बकवास
थी, ऊपर—ऊपर
थी! सदमे की
क्या बात है? मैं मुसलमान
हो गया तो कुछ
बुरा हो गया? तो वह जो
हिंदू—मुस्लिम
एक है, सब
राजनीति ही थी?
वह कुछ गहरी
बात नहीं थी।
गांधी ने
अच्छा बनाने
की कोशिश की।
लेकिन कोई
किसी के अच्छा
बनाने से थोड़े
ही अच्छा बनता
है! अक्सर ऐसा
होता है, अच्छे
बाप के बेटे
बिगड़ जाते हैं।
अक्सर ऐसा
होता है।
क्योंकि
चारों तरफ से
उनकी गर्दन
कसने की कोशिश
की जाती है कि
अच्छे बनो।
जबरदस्ती
दुनिया में
कहीं अच्छाई
होती है? अच्छाई
तो
स्वतंत्रता
में फलती है।
तो तुम
अच्छा करो, बुरा हो
जाता है। बुरा
करो, कभी
अच्छा हो जाता
है। तो
तुम्हारे
करने का क्या
भरोसा? परमात्मा
पर छोड़ दो।
फिर जो अभी
अच्छा लगता है, क्षण भर बाद
बुरा हो सकता
है। क्योंकि
जगत की कथा तो
चलती चली जाती
है। इसमें हर
चीज बदलती
रहती है। तुम
एक कुएं के
पास से निकलते
थे, कोई
गिर पड़ा, तुमने
उसको निकाल कर
बचा लिया। वह
आदमी गया गांव
में, किसी
की हत्या कर
दी। अब तुम
जिम्मेवार हो
या नहीं? न
तुम बचाते, न यह हत्या
होती। अब यह
बड़ी मुश्किल
हो गई। तुमने
हत्या के लिए
बचाया भी नहीं।
तुम तो बड़ी
दया कर रहे थे।
इसलिए
तेरापंथी जैन
कहते हैं, बचाना ही मत।
वह जो कुएं
में पड़ा है, पड़ा रहने दो,
तुम अपने
रास्ते जाओ।
क्योंकि
बचाया और कहीं
उसने जाकर
किसी की हत्या
कर दी। फिर? कोई प्यासा
मर रहा है और
तुम्हारे पास
पानी है तो
तेरापंथी
कहते हैं, पानी
भी मत पिलाना।
क्योंकि क्या
पता? पानी
पिला कर ठीक
हो जाए, रात
किसी के घर
डाका डाल दे।
फिर कौन
जिम्मेवार? इसलिए तुम
उदासीन रहना।
तुम अपने चले
जाना अपने
रास्ते पर। वह
अपना कर्म भोग
रहा है, तुम
अपना कर्म
भोगो। बीच में
बाधा डालो मत।
लेकिन यह तो
बड़ी कठोरता हो
जाएगी। और यह
तो आदमियत से
बड़ा नीचे
गिरना हो
जाएगा। तो फिर
क्या उपाय है? अष्टावक्र
का सुझाव
ज्यादा कारगर
है।
अष्टावक्र
कहते हैं, जो जिस क्षण
में प्रभु
करवा ले वह कर
लो। तुम कर्ता
मत बनो। तुम
कह दो, निमित्त
मात्र हूं।
योजना भी मत
रखो कि मैं
यही करूंगा और
यह न करूंगा।
यह ठीक, यह
गलत, ऐसा
हिसाब भी मत
रखी। यह जगत
इतना
रहस्यपूर्ण
है कि क्या
गलत, क्या
ठीक! और यह कथा
इतनी लंबी है
कि जो अभी गलत मालूम
होता है,
क्षण भर बाद
ठीक हो जा
सकता है। और
क्षण भर पहले
ठीक मालूम
होता था। क्षण
भर बाद गलत हो
सकता है। कुछ
कहा नहीं जा
सकता। इसलिए
इस अंजान विराट
लीला में तुम
निमित मात्र
हो।
' धीरपुरुष
जब जो कुछ शुभ
अथवा अशुभ
करने को आ पड़ता
है उसे सहजता
के साथ करता
है...।’
वह उसमें
अड़चन नहीं
लेता। वह
निमित्त बन
जाता है। वह
कहता है, ठीक।’क्योंकि
उसका व्यवहार
बालवत है।’
यदा
यत्कर्तुमायाति
तदा
तत्कुरुते
ऋजु:।
सरलता से, ऋजुता से, सहजता से, बिना कोई
बोझ लिए—कि
शुभ कर रहा
हूं इसकी अकड़
लिए, कि
अशुभ कर रहा
हूं इसकी अकड़
लिए, कि
पुण्य किया कि
पाप किया—किसी
तरह का अहंकार
बिना लिए और
किसी तरह का पश्चात्ताप
बिना लिए।
प्रभु ने जो
करवाया, किया।
जो हुआ, हुआ।
न पीछे लौट कर
देखता है, न
आगे की योजना
करता है। क्षण
में जो हो
जाता है, हो
जाता है।’
यदा
यत्कर्तुमायाति
तदा
तत्कुरुते
ऋजु:।
शुभं
वाप्यशुभं
वापि तस्य
चेष्टा हि
बालवत्।।
और छोटे
बच्चे की तरह
सरल। छोटे
बच्चे में
देखा? क्षण—
क्षण जीता है।
वही उसका
सौंदर्य है।
क्षण में
तुमसे नाराज
हो गया और
कहने लगा, अब
तुम्हारा
चेहरा भी कभी
न देखेंगे।
कट्टी हो गई।
बात खतम हो गई।
और क्षण भर
बाद तुम्हारी
गोदी में आ
बैठा और हंस
रहा है। और
बात ही भूल
गया।
ऐसा बालवत।
शुभ—अशुभ में
हिसाब नहीं है।
क्रोध और
प्रेम में भी
हिसाब नहीं है।
जो क्षण में
होता है, पूरे
भाव से कर
लेता है। फिर
क्षण के साथ
ही विदा हो
जाती है बात।
ऐसा क्षण—
क्षण
रूपांतरित, क्षण— क्षण
प्रवाहमान, क्षण—क्षण
सरितवत, ऐसा
जो व्यक्ति है
उसको ही
अष्टावक्र
साधु कहते हैं।
उसी को सरल।
साधु यानी सरल,
ऋजु।
' धीरपुरुष
स्वतंत्रता
से सुख को
प्राप्त होता
है, स्वतंत्रता
से परम को
प्राप्त होता
है, स्वतंत्रता
से नित्य सुख
को प्राप्त
होता है, और
स्वतंत्रता
से परमपद को
प्राप्त होता
है।’
स्वतंत्रता
अष्टावक्र का
सारसूत्र है; अष्टावक्र
की कुंजी।
कृष्णमूर्ति
की एक किताब
है : 'द फर्स्ट
एंड लास्ट
फ्रीडम', पहली
और अंतिम
स्वतंत्रता।
इस एक सूत्र
की व्याख्या
है पूरी किताब।
या पूरी किताब
को इस एक
सूत्र में
समाया जा सकता
है। यह सूत्र
अदभुत है।
स्वातंभ्यात्सुखमाम्नोति
स्वातंत्रात्
लभते परम्।
स्वातव्यान्निर्वृति
गच्छेत्
स्वातंत्रात्
परमं पदम्।।
' धीरपुरुष
स्वतंत्रता
से सुख को
प्राप्त होता है...।’
पराधीनता
में तो सुख
कहा? फिर
पराधीनता
दूसरे की हो
या अपनी ही
थोपी हुई, पराधीनता
में तो सुख
कहां? पराधीनता
में तो दुख ही
है। जंजीरें
दूसरे ने
पहनाई हों कि
खुद पहन ली हों,
इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। पंख
किसी और ने
काटे हों कि
खुद कटवा दिए
हों, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता।
परतंत्रता
में दुख है, क्योंकि
परतंत्रता
में सीमा बंध
जाती है। असीम
में सुख है।
इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं, स्वातंत्रात्सुखमाम्नोति।
एक ही सुख है
जगत में, वह
है स्वतंत्र
हो जाना। तो
समस्त
मर्यादाओं से,
समस्त
सीमाओं से, समस्त यम—
नियम, समस्त
जप—तप, साधना
मात्र से
स्वतंत्र हो
जाना है।
यह तो आधा
हुआ
स्वतंत्रता
का हिस्सा—नकारात्मक
हिस्सा किस—किस
चीज से
स्वतंत्र हो
जाना है। और
फिर किसमें
स्वतंत्र हो
जाना है—बोध
में। बंधनों
से स्वतंत्र
हो जाना है, यह तो
स्वतंत्रता
का नकारात्मक
हिस्सा है।
फिर बोध में, जागृति में,
साक्षीभाव
में स्वतंत्र
हो जाना, यह
स्वतंत्रता
का विधायक
हिस्सा है।
नकारात्मक
स्वतंत्रता
ही अगर हो तो
तुम स्वच्छंद
हो जाओगे, उच्छृंखल के
अर्थ में। जब
तक विधायक
स्वतंत्रता न
हो तब तक तुम
स्वच्छंद न हो
पाओगे, अष्टावक्र
के अर्थ में।
तो स्वतंत्रता
के दो पहलू
खयाल रखना—जिससे
स्वतंत्र
होना है और
जिसके लिए
स्वतंत्र
होना है।
दोनों बातें
अगर मिल जाएं
तो तुम्हारे
भीतर का स्वयं
का छंद प्रकट
होगा।
स्वच्छंदता
प्रकट होगी।
तुम्हारे
भीतर छिपा गीत
फूटेगा।
तुम्हारा
झरना बहेगा।
तुम्हारा कमल
खिलेगा।
स्वातव्यात्सुखमान्नोति
स्वातंच्यात्
लभते परम्।
और इसी
स्वतंत्रता
में परम ज्ञान
का जन्म होता
है। उस परम का, अल्टिमेट का,
आखिरी का, जिसके पार
फिर कुछ जानने
को नहीं रह
जाता, उसका
बोध होता है।
वह ज्ञान कोई
बाहर नहीं है,
वह
तुम्हारा
आत्म—साक्षात्कार
है। जहां कोई
बंधन न रहे, जहां सब
बंधन
विसर्जित हुए
और जहां
तुम्हारे भीतर
की ज्योति
मुक्त हुई और
तुम्हारी
ज्योति प्रकट
हुई, वहां
तुम्हारे
भीतर परम
ज्ञान की घटना
घटी। परम
कैवल्य कहो, परम सत्य
कहो, आत्मा
कहो, परात्पर
ब्रह्म कहो, जो नाम देना
हो। लेकिन परम
है उसका नाम।
परम का अर्थ
है, इसके
पार अब कुछ भी
नहीं। चरम आ
गया। आखिरी आ
गया। इसके पार
न पाने को कुछ
है, न
जानने को कुछ
है। और जब तक
यह परम न जान
लिया जाए तब
तक जीवन की दौड़
नहीं मिटती।
स्वातंत्रान्निर्वृतिं
गच्छेत्..।
और
स्वतंत्रता
में ही
व्यक्ति
निर्वाण में प्रवेश
करता।
स्वतंत्रता
में ही स्वयं
से मुक्ति हो
जाती।
स्वतंत्रता
में ही अहंकार
जलता और बुझ
जाता।
मोमबत्ती बुझ
जाती, सूरज
प्रकट हो जाता।
स्वातव्यान्निर्वृति
गच्छेत्
स्वातंव्वात्
परमं पदम्।
और
स्वतंत्रता
में ही
व्यक्ति
परमपद पर विराजमान
हो जाता, परमात्मा
हो जाता। इसी
घड़ी में
अलहिल्लाज
मंसूर ने
घोषणा की थी. अनलहक।
मैं सत्य हूं।
इसी घड़ी में
जीसस ने कहा.
मैं और मेरा
परमात्मा एक
है। इसी घड़ी
में उपनिषदों
ने कहा, 'अहं
ब्रह्मास्मि।’
इसी घड़ी की
ओर इशारा किया
है उद्दालक ने,
जब अपने
बेटे
श्वेतकेतु को
कहा, 'तत्वमसि।
वह तू ही है।
तू ही वह है।’
यह परमपद है, जहां
व्यक्ति अपने
भीतर छिपे
परमात्मा को
प्रकाशमान हो
जाने देता।
जहां अपने
भीतर जो छिपी
संपदा थी
जन्मों—जन्मों
की, अनंत
काल की, वह
खजाना खुलता
है। जहां भीतर
का कोहिनूर
प्रकट होता है।
वहां तुम
मनुष्य नहीं
रह जाते, वहां
तुम विभु हो
जाते, प्रभु
हो जाते।
इस
स्वतंत्रता
के अर्थ को
ठीक से गृहीत
कर लेना, क्योंकि
लोग केवल
स्वतंत्रता
का अर्थ नकारात्मक
मानते हैं। वे
कहते हैं, मत
मानो कुछ, स्वतंत्रता
हो गई। इतने
से नहीं होती।
इतने से
उच्छृंखलता
होती। मत मानो
कुछ, यह
स्वतंत्रता
का अनिवार्य
चरण है, इतना
काफी नहीं है।
इतना जरूरी तो
है, लेकिन
इससे आगे जाओ।
आगे का अर्थ
है, भीतर
प्रकाश को
उपलब्ध होओ।
दूसरों ने
जो प्रकाश दिए
हैं उनको तो
छोड़ दो; क्योंकि
उनके कारण
स्वयं के
प्रकाश को
पाने में बाधा
पड़ रही है, लेकिन
सिर्फ उनको
बुझा कर मत
बैठ जाना।
नहीं तो कुछ
थोड़ी—बहुत
रोशनी थी, वह
भी गई। अपनी
तो जागी न, बाहर
से जो मिलती
थी वह भी गई।
खुद का बोध
जब तक पैदा न
हो जाए तब तक
तुम बाहर से
जो बोध मिल
रहा है, मजबूरी
में उसको मान
कर चलना ही
पड़ेगा; अन्यथा
तुम और बुरी
तरह भटक जाओगे।
ये दोनों
बातें साथ—साथ
घटती हैं। ये
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
बाहर की
मानो मत, भीतर
की जानो। जिस
दिन भीतर की
जानने लगोगे,
उस दिन बाहर
की मानने की
जरूरत ही न रह
गई। और ऐसा
नहीं है कि उस
घड़ी में तुम
अपराधी हो जाओगे।
ऐसा भी नहीं
है कि उस घड़ी
में तुम समाज—विपरीत
हो जाओगे। ऐसा
भी नहीं कि उस
घड़ी में तुम
सारी
मर्यादाएं
तोड़ दोगे।
लेकिन अब
मर्यादाएं
नये ढंग से
पूरी होंगी।
अब तुम्हारे
अपने अनुभव से
पूरी होंगी।
तुम अब भी
वही अपने को
करते हुए
पाओगे जो वस्तुत:
शुभ है। लेकिन
अब समाज की
धारणाओं के
अनुसार नहीं, अब परमात्मा
को अपने में
बहने दोगे।
कभी— कभी ऐसा
होता है कि जो
इस घड़ी में
अशुभ मालूम होता
है वह आगे की
घड़ी में शुभ
हो जाता है।
अब तुम
परमात्मा को
अपने से बहने
दोगे। तुम
कहोगे, जो
तेरी मर्जी।
तू अंत को
जानता, तू
प्रथम को
जानता। हमें न
प्रथम का पता,
न अंत का
पता। हमें तो
कहानी की बीच
की थोड़ी सी
झलक है। इस
थोड़ी सी झलक
के आधार पर हम
पूरा निर्णय
नहीं कर सकते।
तू पूरा
निर्णय जानता
है। तू जानता
है कहां से
आना हो रहा है
चैतन्य का, कहा जाना हो
रहा है। तुझे
पूरे का पता
है। उस पूरे
के संदर्भ में
तू जो करवाए, शुभ है; फिर
चाहे इस क्षण
में अशुभ ही
क्यों न मालूम
पड़ता हो।
ऐसी
प्रतीति जब
गहन हो जाती
और व्यक्ति
समर्पित हो
जाता समष्टि
को, तब जीवन
में परम
क्रांति का
क्षण आता। इस
आमूल क्रांति
को ही धर्म
कहते हैं।
धर्म
शास्त्रों
में नहीं है, स्वयं के
संगीत के साथ
बहने में है।
धर्म का अर्थ
ही स्वभाव है।
और इस स्वभाव
को पाने की
व्यवस्था
स्वतंत्रता
है।
अपने को
बांधो मत, खोलो।
पिंजरों के
सींखचों से
अपने को जकड़ो
मत। उड़ो। खुला
आकाश
तुम्हारा है।
तुम आकाश हो।
इससे कम पर
राजी मत हो
जाना। जब तक
पूरे आकाश पर
तुम्हारे पंख
न फैल जाएं तब
तक बढ़ते ही
जाना है, तब
तक चलते ही
जाना है।
बुद्ध ने
कहा है अपने
भिक्षुओं को. 'चरैवेति,
चरैवेति।’
चलते जाओ, चलते जाओ, जब तक परमपद
न आ जाए। जब तक
आखिरी मंजिल न
आ जाए तब तक
कोई पड़ाव नहीं।
रुक लेना, रात
भर विश्राम कर
लेना, लेकिन
ध्यान रखना, सुबह चल
पड़ना। और किसी
पड़ाव से इतना
मोह मत बना लेना
कि उसी को
मंजिल मानने
लगो। ऐसे हर
पड़ाव से
स्वतंत्र
होते, हर
नियम से मुक्त
होते, एक
दिन परम
मुक्ति फलित
होती है।
स्वतंत्रता
प्रथम चीज है
और
स्वतंत्रता
अंतिम।
स्वातव्यात्सुखमाम्मोति
स्वातंप्यात्
लभते परम्।
स्वातंत्रान्निर्वृतिं
गच्छेत्
स्वातंत्रात्
परमं पदम्।।
आज
इतना ही।
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