दिनांक 21 जनवरी, 1977;
श्री
रजनीश आश्रम,
कोरेगांवपार्क
पूना।
अष्टावक्रउवाच।
अकर्तृत्वमभोक्तृत्व
वात्मनो
मन्यते यदा।
तदा
क्षीणा
भवंत्येव
समस्ताश्चित्तवृत्तय:।।227।।
उच्छृंखलाप्यकृतिका
स्थितिर्धीरस्य
सजते।
न
तु
संस्पृहचित्तस्य
शांतिर्मूढुस्य
कृत्रिमा।।228।।
विलसन्ति
महाभोगैर्विशन्ति
गिरिगह्वरान्।
निरस्तकल्पना
धीरा अबद्धा
मुकाबुद्धय:।।229।।
श्रोत्रिय
देवता
तीर्थमंगनां
अति प्रियम्।
दृष्ट्वासम्पूज्य
धीरस्यनकापिहृदिवासना।।23०।।
भृत्यै:
पुत्रै:
कलत्रैश्च
दौहित्रैश्चापि
गोत्रजै:।
विहस्यधिक्कृतोयोगीनयातिविकृतिमनाक्।।231।।
संतुष्टोऽपि
न संतुष्ट:
खिन्नोऽपि न च
खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशां
तां तां
तादृशा व
जानन्ते।।232।।
कर्तव्यतैव
संसारो न तां
पश्यन्ति
सूरय।
शून्याकारा
निराकारा
निर्विकारा
निरामयाः।।233।।
एक
पुरानी चीनी कथा
है, जंगल
में कोई
लकड़हारा
लकड़ियां
काटता था। अचानक
देखा कि उसके पीछे
आकर खड़ा हो गया
है एक बारहसिंगा—सुंदर,
अति सुंदर,
अति स्वस्थ।
लकड़हारे ने
अपनी
कुल्हाड़ी
उसके सिर पर
मार दी।
बारहसिंगा मर
गया। तब लकड़ हारा
डरा; कहीं
पकड़ा न जाए।
क्योंकि वह
राजा का
सुरक्षित वन
था और शिकार की
मनाही थी। तो
उसने एक गड्डे
में छिपा दिया
उस बारहसिंगे
को, ऊपर से
मिट्टी डाल दी
और वृक्ष के
नीचे विश्राम
करने लगा।
अब
लकड़ियां
काटने की कोई
जरूरत न थी।
काफी पैसे मिल
जाएंगे
बारहसिंगे को
बेचकर। सांझ
जब सूरज ढल जाएगा
और अंधेरा उतर
आएगा तब निकाल
कर बारहसिंगे
को अपने घर ले
जाएगा। अभी तो
दोपहर थी।
वह
वृक्ष के नीचे
विश्राम करने
लगा और उसकी
झपकी लग गई।
जब उठा तो
सूरज ढल चुका
था और अंधेरा
फैल रहा था।
बहुत खोजा
लेकिन वह
गड्डा मिला
नहीं, जहां
बारहसिंगे को
गड़ा दिया था।
तब उसे संदेह
होने लगा कि
हो न हो, मैंने
स्वप्न में
देखा है। कहीं
ऐसे
बारहसिंगे
पीछे आकर खड़े
होते हैं! आदमी
को देख कर भाग
जाते हैं, मीलों
दूर से भाग
जाते हैं।
जरूर मैंने
स्वप्न में
देखा है और
मैं व्यर्थ ही
परेशान हो रहा
हूं।
हंसता
हुआ, अपने
पर ही हंसता
हुआ घर की तरफ
वापस लौटने
लगा। यह भी
खूब मूढ़ता
हुई! राह में
एक दूसरा आदमी
मिला तो उसने
अपनी कथा उससे
कही कि ऐसा
मैंने स्वप्न
में देखा। और
फिर मैं पागल,
उस गड्डे को
खोजने लगा।
उस
दूसरे आदमी को
हुआ, हो न
हो इस आदमी ने
वस्तुत:
बारहसिंगा
मारा है।
लकड़हारा तो घर
चला गया, वह
आदमी जंगल में
खोजने गया और
उसने
बारहसिंगा
खोज लिया।
चोरी—छिपे वह
अपने घर
पहुंचा। उसने
अपनी पत्नी को
सारी कथा कही
कि ऐसा लकड़हारे
ने मुझे कहा
और उसने यह भी
कहा कि स्वप्न
देखा है। अब मैं
कैसे मानूं कि
स्वप्न देखा
है? स्वप्न
कहीं सच होते
हैं? यह
बारहसिंगा
सामने मौजूद
है। तो स्वप्न
नहीं देखा
होगा, सच
में ही हुआ
होगा।
लेकिन
पत्नी ने कहा, तुम पागल
हो। तुम दोपहर
को सोए तो
नहीं थे जंगल
में? उसने
कहा, मैं
सोया था, झपकी
ली थी। तो
उसने कहा, तुमने
हो न हो
लकड़हारे का
सपना देखा है।
और सपने में
लकड़हारा
तुम्हें
दिखाई पड़ा। तो
वह आदमी कहने
लगा, अगर
लकड़हारा सपने
में देखा है
तो यह
बारहसिंगा तो
मौजूद है न!
तो
उसकी स्त्री
ने कहा, ज्ञानी कहते
हैं, सपने
में और सत्य
में फर्क कहां?
सपने भी सच
होते हैं और
जिसको हम सच
कहते हैं, वह
भी झूठ होता
है। हो गया
होगा सपना सच।
निश्चित हो
गया वह आदमी।
अपराध का एक
भाव था कि
लकड़हारे को
धोखा दिया, वह भी चला
गया।
रात
लकड़हारे ने एक
सपना देखा कि
उस आदमी ने जंगल
में जाकर खोज
लिया गड्डा।
और वह
बारहसिंगे को
घर ले गया। वह
आधी रात उठकर
उसके घर।
पहुंच गया।
दरवाजा
खटखटाया।
दरवाजा खोला
तो बारहसिंगा आंगन
में पड़ा था।
तो उसने कहा, यह तो बड़ा
धोखा दिया
तुमने। मैंने
सपना देखा, तुम्हें
निकालते देखा
और बारहसिंगा
तुम्हारे
द्वार पर पड़ा
है। ऐसी
बेईमानी तो
नहीं करनी थी।
मुकदमा
अदालत में गया।
मजिस्ट्रेट
बड़ा मुश्किल
में पड़ा।
मजिस्ट्रेट
ने कहा, अब यह बड़ी
उलझन की बात
है। लकड़हारा
सोचता है कि
उसने सपना
देखा था।
तुम्हारी
पत्नी कहती है
कि तुमने सपना
देखा कि
लकड़हारा देखा
था। अब
लकड़हारा कहता
है कि सपने
में उसने देखा
कि तुम
बारहसिंगा ले
आए। जो हो, इस
पंचायत में
मैं न पड़गा।
यह कानून के
भीतर आता भी
नहीं सपनों का
निर्णय। एक
बात सच है कि
बारहसिंगा है,
सो आधा—आधा
तुम बांट लो।
यह
फाइल राजा के
पास पहुंची
दस्तखत के लिए, स्वीकृति
के लिए। राजा
खूब हंसने लगा।
उसने कहा, यह
भी खूब रही।
मालूम होता है
इस न्यायाधीश
का दिमाग फिर
गया है। इसने
यह पूरा
मुकदमा सपने
में देखा है।
उसने अपने
वजीर को बुला
कर कहा कि
इसको सुलझाना
पड़ेगा।
वजीर
ने कहा, देखिए, ज्ञानी
कहते हैं, जिसको
हम सच कहते
हैं वह सपना
है। और अब तक
कोई पक्का
नहीं कर पाया
है कि क्या सपना
है और क्या सच
है। और जो
जानते थे
प्राचीन
पुरुष—
लाओत्सु जैसे,
वे अब मौजूद
नहीं दुर्भाग्य
से, जो तय
कर सके कि क्या
सपना उगेर करा
सच। यह हमारी
सामर्थ्य के
बाहर है।
न्यायाधीश ने
जो निर्णय।rदया, उगार
चुपचाप रवीकृति
दे दें। इस
उलइान में पड़े
मत। क्योंकि
केवल जानी
पुरुष ही तय
कर सकते हैं कि
क्या सच है और
क्या सपना है।
मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं जानी
पुरुष ही तय
कर सकते हैं
कि क्या सपना
है और क्या सच
है। लेकिन हम
क्यों नहीं तय
कर पाते? हम चूकते
क्यों चले
जाते हैं? हम
चूकते चले
जाते हैं
क्योंकि हम
सोचते हैं, जो देखा
उसमें ही तय
करना है। जो
देखा उसमें
क्या सच और जो
देखा उसमें
क्या झूठ।
दिन
में देखा वह
सच हम कहते
हैं, रात
जो देखा वह
झूठ। जाग कर
जो देखा वह सच,
सोकर जो
देखा वह झूठ। आंख
खुली रख कर जो
देखा वह सच, आंख बंद रख
कर देखा जो
झूठ। सबके साथ
जो देखा सच, अकेले में
जो देखा वह
झूठ। लेकिन हम
एक बात कभी
नहीं सोचते कि
हम देखे और देखे
में ही तौल
करते रहते हैं।
ज्ञानी
कहते हैं, जिसने
देखा वह सच, जो देखा वह
सब झूठ—जाग कर
देखा कि सोकर
देखा, अकेले
में देखा कि
भीड़ में देखा,
आंख खुली थी
कि आंख बंद थी—जो
भी देखा वह सब
झूठ। देखा
देखा सो झूठ।
जिसने देखा, बस वही सच।
द्रष्टा
सत्य और दृष्य
झूठ।
दो
दृश्यों में
तय नहीं करना
है कि क्या सच
और क्या झूठ, 'द्रष्टा
और दृश्य में तय
करना है।
द्रष्टा का
हमें कुछ पता
नहीं है।
अष्टावक्र
का यह पूरा
संदेश
द्रष्टा की
खोज है। कैसे
हम उसे खोज
लें जो सबका
देखने वाला है।
तुम
अगर कभी
परमात्मा को
भी खोजते हो
तो फिर एक
दृश्य की
भांति खोजने। लगते
हो। तुम कहते
हो,
संसार तो देख
लिया झूठ,
अब परमात्मा
के दर्शन करने
है। मगर दर्शन
से तुम छूटते
नहीं, दृश्य
से तुम छूटते
नहीं। धन देख
लिया, अब
परमात्मा को
देखना है।
प्रेम देख
लिया, संसार
देख लिया, संसार
का फैलाव देख
लिया, अब
संसार के
बनाने वाले को
देखना है; मगर
देखना है अब
भी। जब तक
देखना है तब
तक तुम झूठ
में ही रहोगे।
तुम्हारी
दुकानें झूठ
हैं।
तुम्हारे
मंदिर भी झूठ
हैं, तुम्हारे
खाते—बही झूठ
हैं, तुम्हारे
शास्त्र भी
झूठ।
जहां
तक दृश्य पर
नजर अटकी है
वहा तक झूठ का
फैलाव है। जिस
दिन तुमने तय
किया अब उसे
देखें जिसने
सब देखा, अब अपने को
देखें, उस
दिन तुम घर
लौटे। उस दिन
क्रांति घटी।
उस दिन
रूपांतरण हुआ।
द्रष्टा की
तरफ जो यात्रा
है वही धर्म
है।
ये
सारे सूत्र
द्रष्टा की तरफ
ले जाने वाले
सूत्र हैं।
और उस
के वजीर ने
राजा से ठीक
ही कहा कि अब
वे प्राचीन
पुरुष न रहे, वे विरले
लोग—चीन की
कथा है इसलिए
उसने लाओत्सु
का नाम लिया, भारत की
होती तो
अष्टावक्र का
नाम लेता।
विरले हैं वे
लोग और
दुर्भाग्य से
कभी—कभी होते
हैं; मुश्किल
से कभी होते
हैं, जो
जानते हैं कि
क्या सत्य है
और क्या सपना
है।
अष्टावक्र
ऐसे विरले
लोगों में एक
हैं। एक—एक
सूत्र को
स्वर्ण का
मानना। एक—एक
सूत्र को हृदय
में गहरे रखना,
सम्हाल कर
रखना। इससे
बहुमूल्य
मनुष्य के
चैतन्य में
कभी घटा नहीं
है।
पहला
सूत्र :
अकर्तृत्वमभोक्तृत्व
स्वात्मनो
मन्यते यदा।
तदा
क्षीणा
भवंन्येव
समस्ताश्चित्तवृत्तय।।
'जब
मनुष्य अपनी
आत्मा के
अकर्तापन और
अभोक्तापन को
मानता है तब
उसकी संपूर्ण
चित्तवृत्तियां
निश्चयपूर्वक
नाश को
प्राप्त होती
हैं।’
दृश्य
में हम उलझे
क्यों हैं? दृश्य
में हम उलझे
हैं क्योंकि
दृश्य में ही
सुविधा है
कर्ता के होने
की, भोक्ता
के होने की।
जब तक हम
कर्ता होना
चाहते हैं तब
तक हम द्रष्टा
न हो सकेंगे।
क्योंकिं जो
कर्ता होना
चाहता है वह
तो द्रष्टा हो
ही नहीं सकता।
वे आयाम
विपरीत हैं।
वे आयाम एक
साथ नहीं रहते।
अंधेरे और
प्रकाश की
भांति हैं।
प्रकाश ले आए,
अंधेरा चला
गया। ऐसे ही
जिस दिन
साक्षी आएगा,
कर्ता चला
जाएगा। या
कर्ता चला जाए
तो साक्षी आ
जाए। दोनों
साथ नहीं होते।
और
हमारा रस
भोक्ता होने
में है। दृश्य
को हम देखना
क्यों चाहते
हैं? यह
दृश्य की इतनी
लीला में हम
उलझते क्यों
हैं? क्योंकि
हमें लगता है,
देखने में
ही भोग है।
तुम
देखो संसार को
देखने से तुम
नहीं चुकते तो
फिल्म देखने
चले जाते हो। जानते
हो भलीभांति
कि पर्दे पर
कुछ भी नहीं
है। ना—कुछ के
लिए तीन घंटे
बैठे रहते हो।
कुछ भी नहीं
है पर्दे पर।
भलीभांति
जानते हो, फिर भी
भूल— भूल जाते
हो। रो भी
लेते हो हंस
भी लेते हो।
रूमाल आंसुओ
से गीले हो
जाते हैं।
तरंगित हो
लेते हो, प्रसन्न
हो लेते हो, दुखी हो
लेते हो। तीन
घंटे भूल ही
जाते हो।
जहां—जहां
टेलीविजन फैल
गया है वहां
लोग घंटों.. .अमरीकन
आंकड़े मैं पढ़
रहा था
प्रत्येक
अमरीकन कम से
कम छह घंटे
प्रतिदिन
टेलीविजन देख
रहा है—छह
घंटे! छोटे—छोटे
से बच्चे से
लेकर बड़े—बड़े
तक बचकाने हैं।
तुम देख क्या
रहे हो?
ज्ञानी
कहते हैं
संसार झूठ है, तुम झूठ
में भी सच देख
लेते हो। तुम
पर्दे पर जहां
कुछ भी नहीं
है धूप—छाया
का खेल है, आंदोलित
हो जाते हो, सुखी—दुखी
हो जाते हो सब
भाति अपने को
विस्मरण कर देते
हो। फिल्म में
जाकर बैठ जाने
का सुख क्या
है? थोड़ी
देर को तुम
भूल जाते हो।
फिल्म एक तरह
की शराब है।
दृश्य इतना
जकड़ लेता है
तुम्हें कि
कर्ता बिलकुल
संलग्न हो
जाता है, भोक्ता
संलग्न हो
जाता है और
साक्षी भूल
जाता है। उस
विस्मरण में
ही शराब है।
तीन घंटे बाद
जब तुम जागते
हो उस विस्मरण
से जो फिल्म
तुम्हें सुला
देती है तीन
घंटे के लिए
अपने
साक्षीभाव
में, उसी
को तुम अच्छी
फिल्म कहते हो।
जिस फिल्म में
तुम्हें अपनी
याद बार—बार आ जाती
है तुम कहते
हो, कुछ
मतलब की नहीं
है। जिस
उपन्यास में
तुम भूल जाते
हो अपने को
पढ़ते समय, कहते
हो, अदभुत
कथा है।
अदभुत
तुम कहते उसको
हो जिसमें
शराब झरती है, जहां तुम
भूल जाते हो, जहां
विस्मरण होता
है। जहां
स्मरण आता है
वहीं तुम कहते
हो कथा में
कुछ सार नहीं,
डुबा नहीं
पाती। बार—बार
अपनी याद आ
जाती है।
'जब
मनुष्य अपनी
आत्मा के
अकर्तापन और
अभोक्तापन को
मानता है तब
उसकी संपूर्ण
चित्तवृत्तिया
निश्चयपूर्वक
नाश को
प्राप्त होती
हैं।’
जानने
योग्य मानने
योग्य, होने योग्य
एक ही बात है
और वह है, अकर्तापन
और अभोक्तापन।
अकर्तापन, अभोक्तापन
एक ही सिक्के
के दो पहलू हैं।
भोक्ता
और कर्ता साथ—साथ
होते हैं। जो
भोक्ता है वही
कर्ता बन जाता
है। जो कर्ता
बनता है वही
भोक्ता बन
जाता है। एक
दूसरे को
सम्हालते हैं।
जो इन
दोनों से
मुक्त हो जाता
है उसकी
चित्तवृतिया
निश्चयपूर्वक
नाश को उपलब्ध
होती हैं। फिर
उसे निरोध
नहीं करना
पड़ता, चेष्टा
नहीं करनी
पड़ती। कैसे
अपनी
चित्तवृत्तियों
को त्याग दूं
इसके लिए कोई
उपाय नहीं
करना पड़ता।
ऐसा जान कर, ऐसा देख कर, ऐसा समझ कर
कि मैं केवल
साक्षी हूं
चित्तवृत्तियां
अपने से ही
शांत हो जाती
हैं।
साक्षी
के साथ मन
जीता नहीं।
साक्षी के साथ
मन की तरंगें
खो जाती हैं।
और मन की
तरंगों का खो
जाना ही तो
फिर परमात्मा
की तरंगों का
उठना है। जहां
तुम्हारा मन
गया वहीं
प्रभु आया।
इधर तुम विदा
हुए, उधर
प्रभु का
पदार्पण हुआ।
तुम करो खाली
सिंहासन तो
प्रभु आ जाता
है।
तुम
अकड़ कर बैठे
हो, कर्ता—
भोक्ता बने
बैठे हो। तुम
किसी तरह अगर
छूटते भी हो
संसार से तो
भी तुम कर्ता—
भोक्तापन से
नहीं छूटते।
फिर तुम कहते
हो स्वर्ग
चाहिए। वहां
भी भोगेंगे।
भोग जारी है।
अगर तुम संसार
से छूटते भी
हो तुम कहते
हो, तप
करेंगे, ध्यान
करेंगे; जप
करेंगे, पूजा,
प्रार्थना,
यज्ञ, हवन,
करेंगे; लेकिन
करेंगे।
कर्तापन फिर
भी जारी रहा।
समस्त
धर्मों का जो
अंतिम निचोड़
है वह है, ऐसी घड़ियों
को पा लेना जब
न तो और न कुछ
करते, जब
तुम बस हो।
होने में
भोक्ता की
तरंग उठी
तुम
भोगते. कि चूक
गए, कर्ता
की तरंग उठी
कि चूक गए।
होने में कोई
तरंग न उठी, बहने लगा रस।
रसों वै सः!
वहीं आनंद की
धार, वहीं
अमृत की धार
उपलब्ध हुई।
इसे
समझो। रात तुम
सपना देखते हो, तुम
भलीभांति
जानते हो झूठ
है। रात नहीं,
सुबह जागकर
जानते हो कि
झूठ है। रात
जान लो तो तुम
प्रबुद्ध
पुरुष हो जाओ,
बुद्ध हो
जाओ। रात तो
तुम फिर भूल
जाते हो। यह
तुम्हारी
पुरानी आदत है
दृश्य में भूल
जाने की।
फिल्म में भूल
जाते हो, टी.
वी. पर देखते—देखते
भूल जाते हो, किताब पढ़ते—पढ़ते
भूल जाते हो।
रात सपना
देखते हो, अपनी
ही कल्पना का
जाल, वहा
भूल जाते हो।
और लगता है सब
सच है, सब
ठीक है।
बिलकुल असंगत
बातें भी ठीक
लगती हैं। जो
जरा भी संभव
नहीं है वह भी
ठीक लगता है।
एक
पत्थर पड़ा है
राह के किनारे, पास तुम
पहुंचते हो, अचानक पत्थर
उचक कर खरगोश
हो जाता है, फिर भी
तुम्हें कोई
अड़चन नहीं आती।
घोड़ा चला आ
रहा है, बदल
कर पत्नी हो
जाती है, तुम्हें
कुछ अड़चन नहीं
मालूम होती।
तुम यह भी
नहीं सोचते एक
क्षण को, यह
कैसे हो सकता
है।
नहीं, तुम
दृश्य में
इतने लीन हो
कि सोचने वाला
है कहां? जाग
कर देखने वाला
है कहां? निर्णय
कौन करे? तुम
तो हो ही नहीं।
तुम तो सिफर, तुम तो नकार
हो। तुम्हारी
मौजूदगी नहीं
है। तुम्हारी
मौजूदगी की
किरण आ जाए तो
सपना अभी टूटने
लगे, अभी
बिखरने लगे।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
को साधना के
पूर्व तीन महीने
के लिए एक ही
प्रयोग
करवाता था कि
किसी भांति
सपने में
जागना आ जाए।
बहुत सी
विधियां उसने
खोजी थीं।
उनमें एक विधि
यह थी कि तीन
महीने तक चलो, उठो, बैठो,
बाजार जाओ,
दुकान जाओ,
दफ्तर जाओ,
मगर एक बात
खयाल रखो कि
जो भी तुम देख
रहे हो झूठ है।
इसको स्मरण
रखो। इस स्मरण
को गहराओ। इस
बात का अभ्यास
करो कि जो भी
देख रहे, सब
झूठ है।
बड़ी
कठिनाई है।
राह पर तुम चल
रहे हो, जो लोग चल
रहे—झूठ, जो
कारें दौड़
रहीं—झूठ, जो
बसें चल रहीं—झूठ;
सब झूठ है।
पहले तो अड़चन
होती है। पहले
तो बड़ी अड़चन
होती है। बार—बार
भूल जाते हो, क्योंकि
जन्मों—जन्मों
तक इसे सच
माना है।
लेकिन
गुरजिएफ कहता
है, चेष्टा
करते रहो। कोई
महीने भर के
प्रयोग के बाद
यह बात थमने
लगती है। यह
भाव बना रहने
लगता है कि सब
झूठ।
तीन
महीने पूरे
होते—होते एक
दिन तुम अचानक
पाओगे कि रात
सपने में, अचानक
बीच सपने में
तुम्हें
स्मरण आ जाता
है—झूठ! और
वहीं सपना टूट
कर बिखर जाता
है। तीन महीने
तुमने अभ्यास
किया कि जो
दिखाई पड़ रहा
है—झूठ, जो
दिखाई पड़ रहा
है—झूठ, जो
दिखाई पड़ रहा
है—झूठ। यह
अभ्यास गहरे
चला गया। इसका
तीर प्रवेश कर
गया तुम्हारे
हृदय की आखिरी
सीमा तक। फिर
एक दिन वहीं
से रात सपना
भी दिखाई ही
पड़ेगा। यह
अभ्यास एक दिन
बोलेगा सपने
में— 'झूठ'।
झूठ
कहते ही, यह भाव उठते
ही कि यह झूठ
है, यह
सपना है—सपना
बिखर जाता है।
सन्नाटा छा
जाता है। और
जिस क्षण
तुम्हें याद
आता है कि यह
सपना है, इधर
सपना टूटा, उधर तुम
जागे। दृश्य
गया, द्रष्टा
उठा।
और जिस
दिन तुम सपने
में जान लोगे
कि यह झूठ है, सपना झूठ
है, दृश्य
झूठ है, द्रष्टा
सच है; उस
दिन तुम सुबह
जाग कर पाओगे,
अब अभ्यास
की जरूरत न
रही। अब तो जो
दिखाई पड़ता है
वह झूठ है।
झूठ का यह
अर्थ नहीं है
कि नहीं है, झूठ का इतना
ही अर्थ है :
आभास है। झूठ
का इतना ही
अर्थ है :
शाश्वत नहीं
है, क्षणभंगुर
है। पानी का
बबूला है।
पानी पर बबूले
उठते हैं, झूठ
तो नहीं हैं, हैं तो।
लेकिन झूठ इस
अर्थ में हैं,
टिकेंगे
नहीं। अभी उठे,
अभी गए।
क्षणभंगुर
हैं। आई लहर, गई लहर।
टिकती नहीं, स्थिर नहीं
है, थिरता
नहीं है। कल
नहीं थी, आज
है, कल फिर
नहीं हो जाएगी।
इस
परिभाषा को
याद रखना।
पूरब की सत्य
की यह परिभाषा
है : जो सदा रहे
वह सत्य। जो
सतत रहे वही
सत्य। सतत का
निचोड़ ही सत्य।
सत्य और सतत
एक ही अर्थ
रखते हैं। वह
जो सातत्य है, वही सत।
जो आज है कल
नहीं हो जाए, वही असत।
जिसका सातत्य
न रहे, वही
असत।
असत को
खयाल रखना।
असत का यह
मतलब नहीं
होता कि नहीं
है। पानी का
बबूला भी है
तो। रात का
सपना भी है तो।
सपना है, तो भी है तो।
पानी पर उठी
लहर है, मगर
है तो। थोड़ी
देर को है, बस
इतना ही अर्थ
है। और थोड़ी
देर को जो है, उसमें जो
उलझ गया वह
दुख पाएगा।
क्योंकि जो
थोड़ी देर को
है, थोड़ी
देर बाद नहीं
हो जाएगा।
तुम एक
प्रेम में पड़
गए। तुमने एक
स्त्री को
चाहा, एक
पुरुष को चाहा,
खूब चाहा।
जब भी तुम
किसी को चाहते
हो, तुम
चाहते हो
तुम्हारी चाह
शाश्वत हो जाए।
जिसे तुमने
प्रेम किया वह
प्रेम शाश्वत
हो जाए। यह हो
नहीं सकता। यह
वस्तुओं का
स्वभाव नहीं।
तुम भटकोगे।
तुम रोओगे।
तुम तड़पोगे।
तुमने अपने
विषाद के बीज
बो लिए। तुमने
अपनी
आकांक्षा में
ही अपने जीवन
में जहर डाल
लिया। यह
टिकने वाला
नहीं है। कुछ
भी नहीं टिकता
यहां। यहां सब
बह जाता है।
आया और गया।
अब तुमने यह
जो आकांक्षा
की है कि
शाश्वत हो जाए,
सदा—सदा के
लिए हो जाए; यह प्रेम जो
हुआ, कभी न
टूटे, अटूट
हो; यह
श्रृंखला बनी
ही रहे, यह
धार कभी क्षीण
न हो, यह
सरिता बहती ही
रहे—बस, अब
तुम अड़चन में
पड़े। आकांक्षा
शाश्वत की और
प्रेम
क्षणभंगुर का;
अब बेचैनी
होगी, अब
संताप होगा।
या तो प्रेम
मर जाएगा या
प्रेमी मरेगा।
कुछ न कुछ
होगा। कुछ न
कुछ विध्न
पड़ेगा। कुछ न
कुछ बाधा आएगी।
ऐसा ही
समझो, हवा
का एक झोंका
आया और तुमने
कहा, सदा
आता रहे।
तुम्हारी आकांक्षा
से तो हवा के
झोंके नहीं
चलते। वसंत
में फूल खिले
तो तुमने कहा
सदा खिलते रहें।
तुम्हारी
आकांक्षा से
तो फूल नहीं
खिलते। आकाश
में तारे थे, तुमने कहा
दिन में भी
रहें।
तुम्हारी
आकांक्षा से
तो तारे नहीं
संचालित होते।
जब दिन में
तारे न पाओगे,
दुखी हो
जाओगे। जब
पतझड़ में
पत्ते गिरने
लगेंगे, और
फूलों का कहीं
पता न रहेगा, और वृक्ष
नग्न खड़े
होंगे दिगंबर,
तब तुम
रोओगे, तब
तुम पछताओगे।
तब तुम कहोगे,
कुछ धोखा
दिया, किसी
ने धोखा दिया।
किसी
ने धोखा नहीं
दिया है। जिस
दिन तुम्हारा
और तुम्हारी
प्रेयसी के बीच
प्रेम चुक
जाएगा, उस दिन तुम
यह मत सोचना
कि प्रेयसी ने
धोखा दिया है;
यह मत सोचना
कि प्रेमी
दगाबाज निकला।
नहीं, प्रेम
दगाबाज है। न
तो प्रेयसी
दगाबाज है, न प्रेमी
दगाबाज है—प्रेम
दगाबाज है।
जिसे
तुमने प्रेम
जाना था वह
क्षणभंगुर था, पानी का
बबूला था। अभी—अभी
बड़ा होता
दिखता था।
पानी के बबूले
पर पड़ती सूरज
की किरणें
इंद्रधनुष का
जाल बुनती थीं।
कैसा रंगीन
था! कैसा
सतरंगा था!
कैसे काव्य की
स्फुरणा हो
रही थी! और अभी
गया। गया तो
सब गए
इंद्रधनुष!
गया तो सब गए
सुतरंग। गया तो
गया सब काव्य!
कुछ भी न बचा।
क्षणभंगुर
से हमारा जो
संबंध हम बना
लेते हैं और
शाश्वत की
आकांक्षा
करने लगते हैं
उससे दुख पैदा
होता है।
शाश्वत जरूर
कुछ है; नहीं है, ऐसा
नहीं। शाश्वत
है। तुम्हारा
होना शाश्वत
है। अस्तित्व
शाश्वत है।
आकांक्षा कोई
भी शाश्वत
नहीं है।
दृश्य कोई भी
शाश्वत नहीं
है। लेकिन
द्रष्टा
शाश्वत है।
देखो, रात तुम
सपना देखते हो,
सुबह पाते
हो सपना झूठ
था। फिर दिन
भर खुली आंखों
जगत का फैलाव
देखते हो, हजार—हजार
घटनायें
देखते हो। रात
जब सो जाते हो
तब सब भूल
जाता है, सब
झूठ हो जाता
है।
दिन
में तुम पति
थे, पत्नी
थे, मां थे,
पिता थे, बेटे थे; रात
सो गए, सब
खो गया। न
पिता रहे, न
पत्नी, न
बेटे। दिन तुम
अमीर थे, गरीब
थे; रात सो
गए, न अमीर
रहे न गरीब।
दिन तुम क्या—क्या
थे! रात सो गए, सब खो गया।
दिन में जवान
थे, के थे, रात सो गए, न जवान रहे, न बूढ़े।
सुंदर थे, असुंदर
थे, सब खो
गया। सफल—असफल
सब खो गया।
रात ने दिन को
पोंछ दिया।
जैसे
सुबह रात को
पोंछ देती है, वैसे ही
रात दिन को
पोंछ देती है।
जैसे दिन के
उगते ही रात
सपना हो जाती
है, वैसे
ही रात के आते
ही दिन भी तो
सपना हो जाता
है। इसे जरा
गौर से देखो।
दोनों ही तो
भूल जाते हैं।
दोनों ही तो
मिट जाते हैं।
लेकिन एक बना
रहता है—रात
जो सपना देखता
है वही जागृति
में दिन का फैलाव
देखता है।
देखने वाला
नहीं मिटता।
रात सपने में
भी मौजूद होता
है।
कभी—कभी
सपना भी खो
जाता है और
इतनी गहरी
तंद्रा, इतनी गहरी
निद्रा होती
है कि स्वप्न
नहीं होते, सुषुप्ति
होती है
स्वप्नशुन्य,
तब भी
द्रष्टा होता
है। सुबह
तुमने कभी—कभी
उठ कर कहा है—रात
ऐसे गहरे सोए,
ऐसे गहरे
सोए कि सपने
की भी खलल न थी।
बड़ा आनंद आया।
बड़े ताजे उठे।
तो
जरूर कोई बैठा
देखता रहा रात
भी। कोई जाग
कर अनुभव करता
रहा रात भी। गहरी
निद्रा में भी
कोई जागा था।
कोई किरण
मौजूद थी। कोई
प्रकाश मौजूद
था। कोई होश
मौजूद था। कोई
देख रहा था।
नहीं तो सुबह
कहेगा कौन? तुम सुबह
ही जाग कर अगर
जागे होते तो
रात की खबर
कौन लाता? उस
गहरी
प्रसुप्ति की
कौन खबर लाता?
रात भी तुम
कहीं जागते थे
किसी गहरे तल
पर। किसी गहरे
अंतश्चेतन
में कोई जागा
हुआ हिस्सा था,
कोई प्रकाश
का छोटा सा
पुंज था। वही
याद रखे है; उसी की
स्मृति है
सुबह कि रात
बड़ी गहरी नींद
सोए। अपूर्व
थी, आनंदपूर्ण
थी।
एक बात
तय है, जागो
कि सोओ, सपना
देखो कि जगत
देखो, सब
बदलता रहता है,
द्रष्टा
नहीं बदलता।
इसलिए
द्रष्टा
शाश्वत है।
बचपन में भी
द्रष्टा था, जवानी में
भी द्रष्टा था,
बुढ़ापे में
भी द्रष्टा था।
जवानी गई, बचपन
गया, बुढ़ापा
भी चला जाएगा,
द्रष्टा
बचा रहता है।
तुम जरा गौर
से छानो, तुम्हारे
जीवन में तुम
एक ही चीज को
शाश्वत पाओगे,
वह द्रष्टा
है। कभी हारे,
कभी जीते; कभी धन था, कभी निर्धन
हुए; कभी
महलों में वास
था, कभी
झोपड़े भी
मुश्किल हो गए,
लेकिन
द्रष्टा सदा
साथ था।
जंगलों में
भटको कि
राजमहलों में
निवास करो, हार तुम्हें
गड्डों में
गिरा दे कि
जीत तुम्हें
शिखरों पर
बिठा दे, सिंहासन
पर बैठो कि
कौड़ी—कौड़ी को
मोहताज हो जाओ,
एक सत्य सदा
साथ है :
द्रष्टा।
देखने वाला
सदा साथ है।
और अगर
तुम इस देखने
वाले को ठीक—ठीक
पहचानने लगो
तो जब तुम
मरोगे तब भी
यह साथ रहेगा।
बस यही साथ
रहेगा, और सब छूट
जाएगा।
मृत्यु तो एक
घटना है। जैसे
जीवन देखा
वैसे मृत्यु
को भी तुम देखोगे।
जैसे दिन देखा—दिन
जीवन है; और
रात देखी—रात
मौत है; ऐसे
ही बड़ी रात
आएगी मौत की, अमावस आएगी,
वह भी तुम
देखोगे। मगर
द्रष्टा से
पहचान बना लो।
द्रष्टा से
दोस्ती बना लो।
द्रष्टा के
साथ गठबंधन कर
लो।
हालत
तो ऐसी है कि
तुम अभी दिन
में ही बेहोश
तो रात में तो बेहोश
रहोगे ही।
जीवन ही सोए—सोए
जा रहा है तो
मौत तो और
गहरी नींद है, वहां तो
तुम जाग न
पाओगे। और
जिसने एक बार
मौत को जाग कर
देख लिया, उसका
फिर जो नया
जन्म होगा वह
भी जाग कर
होगा। जब मौत
तक को देख
लिया, फिर
क्या अड़चन रही?
तुम जागते
हुए जन्मोगे।
बस, जाग कर
एक बार मौत हो
जाए तो उसके
बाद जो जन्म
होगा वह जागा
हुआ होगा। तुम
देखते हुए
जन्मोगे। और
उसके बाद फिर
कुछ भी नहीं
है। फिर आखिरी
जीवन आ गया, फिर जो मौत
होगी वही
मोक्ष है।
कर्ता
और भोक्ता
दृश्य में
उलझाव है, द्रष्टा
भीतर की
यात्रा है।
'धीर
पुरुष को
स्वाभाविक उच्छृंखल
स्थिति भी
शोभती है' —सुनना
सूत्र को— ‘धीर
पुरुष को
स्वाभाविक
उच्छृंखल
स्थिति भी शोभती
है, लेकिन
स्पृहायुक्त
चित्तवाले
मूढ़ की बनावटी
शांति भी नहीं
शोभती।’
उच्छृंखलाप्यकृतिका
स्थितिर्धीरस्य
राजते।
न तु
संस्पृहचित्तस्य
शांतिर्मूढ्स्य
कृत्रिमा।।
अष्टावक्र
कह रहे हैं कि
अगर ज्ञान को
उपलब्ध, साक्षी में
जागा पुरुष हो,
धीर पुरुष
हो तो उसको
अशांति भी
शोभती है।
उसके जीवन में
दुख भी आभूषण
हैं। उसे अगर
तुम
क्रोधयुक्त
भी पाओगे तो
उसके क्रोध
में भी तुम
पाओगे एक
गरिमा, एक
गौरव, एक
दिव्यता। अगर
वैसा व्यक्ति
उच्छृंखल भी
होगा तो तुम
उसकी
उच्छृंखलता
के गहरे में
शांति की
अपूर्व धारा
पाओगे।
और
इससे विपरीत
भी सच है : 'स्पृहायुक्त
चित्त वाले
मूढ़ की बनावटी
शाति भी नहीं
शोभती।’
'स्पृहायुक्त
चित्त वाले...।’
जिसके
जीवन में अभी
ईर्ष्या है, द्वेष है,
स्पर्धा है,
कॉम्पिटीशन
है। खयाल करो,
द्रष्टा
होने में तो
कोई स्पृहा
नहीं हो सकती।
क्योंकि मैं
द्रष्टा हो
जाऊं तो तुमसे
कुछ छीनता
नहीं। तुम
द्रष्टा हो
जाओ तो मुझसे
कुछ छीनते
नहीं। लेकिन
मैं अगर
भोक्ता बनूं
तो तुमसे बिना
छीने न बन
सकूंगा। मुझे
अगर बड़ा महल
चाहिए तो
किन्हीं के
मकान गिरेंगे।
मुझे अगर बहुत
धन चाहिए तो
किन्हीं की
जेबें कटेगी।
मुझे अगर बहुत
यश चाहिए तो
किन्हीं के
जीवन से यश के
दीये बुझेंगे।
मुझे अगर पद
चाहिए तो जो
पद पर हैं
उन्हें नीचे
गिराना होगा।
स्पृहा। भोग
में तो स्पृहा
है।
अगर
मुझे कर्ता
होना है तो
संघर्ष होगा, कलह होगी।
क्योंकि और भी
कर्ता बनने
निकले हैं, मैं अकेला
नहीं। और
कर्ता का जो
जगत है, वह
बाहर है। सभी
निकले हैं
विजेता होने,
सभी सिकंदर
बनने निकले
हैं। संघर्ष
होगा। हिंसा
होगी। कष्ट
फैलेगा। दुख
आएगा। मनुष्य—जाति
का पूरा
इतिहास
स्पृहा से भरे
हुए पागलों का
इतिहास है।
तैमूरलंग, चंगीजखान,
सिकंदर, नेपोलियन
और सब। लेकिन
एक ऐसा जगत भी
है जहां दूसरे
से कोई स्पृहा
नहीं है।
अगर
मैं द्रष्टा
बनने निकलूं
तो किसी से
मेरा कोई
संघर्ष नहीं।
मैं
अप्रतियोगी
हो गया। मेरी
किसी से कोई
दुश्मनी न रही।
लाख तुम लोगों
को समझाओ कि
मित्रता रखो, सभी
तुम्हारे भाई—बंधु
हैं, देखो
पिता सबका एक
है, परमात्मा
एक है और हम सब
उसके बेटे हैं
तो हम सब भाई—बंधु
हैं, लेकिन
यह हल नहीं
होता इससे कुछ,
कितना ही यह
कहो।
स्कूल
में तीस बच्चे
हैं, एक
क्लास में
पढ़ते हैं, हम
उनको कितना ही
कहें कि तुम
एक—दूसरेके
मित्र हो, यह
बात हो नहीं
सकती।
क्योंकि
स्पर्धा तो
मौजूद है, प्रथम
आने की दौड़ तो
मौजूद है। कोई
एक प्रथम आएगा
उनतीस को हरा
कर। तो हरेक
हरेक का
दुश्मन है।
लाख समझाओ—बुझाओ।
लाख ऊपर से हम
रोगन पोते और
कहें कि हम एक—दूसरे
के मित्र हैं,
यह सब
मित्रता
दिखावा है, पाखंड है, औपचारिकता
है।
शायद
यह दिखावा भी
जरूरी है उस
भीतरी संघर्ष
को चलाए रखने
के लिए। यह
मुखौटा भी
जरूरी है, नहीं तो
संघर्ष
बिलकुल खुल कर
हो जाएगा; गर्दनें
कट जाएंगी। तो
गर्दन काटते
भी हैं हम और
इस ढंग से
काटते हैं कि
कहीं कोई पता
भी न चले, शोरगुल
भी न हो, आवाज
भी न हो। हम
जेब काटते भी
हैं और जेब
में हाथ भी
नहीं डालते।
एक बड़े
राजनेता ने एक
बहुत बड़े
दर्जी से अपने
कपड़े बनवाए।
जब वे कपड़े
गहन कर उसने
देखे तो बड़ा
खुश हुआ। पूरी
कुशलता दर्जी
ने बरती थी।
कोट भी सुंदर
था, कमीज
भी सुंदर थी, पैंट भी
सुंदर था।
राजनेता बहुत
खुश हुआ। तभी
उसने खीसे में
हाथ डाल कर
देखा तो खीसा
नहीं था। तो
उसने दर्जी से
पूछा कि इतना सुंदर
तुमने वेश
तैयार किया, खीसा तो है
ही नहीं। यह
भूल कैसे हो
गई? उसने
कहा, मैं
तो सोचा कि आप
राजनेता हैं;
राजनेता
अपने खीसे में
हाथ तो डालते
ही नहीं। तो खीसे
की जरूरत क्या?
राजनेता तो
दूसरे के खीसे
में हाथ डालते
हैं। इस
कुशलता से
डालते हैं कि
दूसरे को पता
भी नहीं चलता।
चोर भी चुराते
हैं मगर पता
चल जाता है।
राजनेता भी
चुराते हैं
लेकिन पता
नहीं चलता।
इस जगत
में तो सब तरफ
संघर्ष है।
कोई बहुत
सज्जनता से
करता है, कोई बड़ी
कुशलता से
करता है, कोई
छीना—झपटी कर
देता है। जो
छीना—झपटी कर
देता है वह
अकुशल है, बस।
बेईमान तो सब
एक जैसे हैं।
बेईमानी में
तो कुछ भेद
नहीं है। इस
जगत में
ईमानदार होना
तो असंभव है।
क्योंकि इस
जगत की दौड़
ऐसी है कि
वहां बेईमान होना
ही पड़ेगा। जो
कर्ता बनने
निकला है उसे
लड़ना पड़ेगा।
और लड़ना कहीं
नैतिक हो सकता
है? जो
भोक्ता बनने
निकला है उसे
दूसरे की
गर्दन काटनी
ही होगी। अब
दूसरे की
गर्दन भी कहीं
धार्मिक ढंग
से काटी जा
सकती है? मित्रता
इत्यादि सब
नाम हैं, बातचीत
है, बकवास
है, ऊपर का
पाखंड है, धोखा
है। जिसको तुम
संस्कृति
कहते हो, सभ्यता
कहते हो, वह
सब बातचीत है।
उस बातचीत—सुंदर
बातचीत के
नीचे एक—दूसरे
की जेबें काटी
जाती हैं, एक—दूसरे
की गर्दन काटी
जाती है, एक—दूसरे
की जड़ काटी
जाती है। यहां
दुश्मन तो
दुश्मन हैं ही,
यहां मित्र
भी दुश्मन हैं।
ऑस्कर
वाइल्ड ने
लिखा है, हे प्रभु, दुश्मनों से
तो मैं निपट
लूंगा, मित्रों
का तू जरा
खयाल करना!
दुश्मन से
निपटना तो
बहुत आसान है,
कम से कम
मामला साफ है।
मित्रों से
निपटना बहुत
मुश्किल है, क्योंकि
मामला बिलकुल
साफ नहीं है, मित्र होने
का दावा है।
अंतत: मित्र
ही बड़े शत्रु
सिद्ध होते
हैं। क्योंकि
वे ही निकट
होते हैं और
छुरा भोंकना उन्हें
ही आसान होता
है।
स्पृहा
हिंसा है।
स्पृहा
शत्रुता है।
स्पृहा में
सारा रोग है, महारोग
है।
अष्टावक्र
कहते हैं
उच्छृंखलाप्यकृतिका
स्थितिर्धीरस्य
सजते।
अगर
कभी तुम धीर
पुरुष को
क्रोध में भी
देखो, उच्छृंखल
भी देखो, नाराज
भी देखो, तो
भी गौर से
देखना, उसकी
नाराजगी के
पीछे गहन शाति
होगी। और तुम
अगर स्पृहा से
भरे हुए
व्यक्ति को
शांत बैठा
देखो तो उसकी
शांति ऊपर—ऊपर
होगी और भीतर
गहन अशांति का
तूफान, अंधड़
चलता होगा।
रोजे
के दिन थे और
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
अपने तीन
मित्रों के
साथ एक दिन
मौन से बैठने
का निर्णय
किया; दिन
भर मौन रखना
है। बैठे ही
थे मौन से, आधा
घड़ी भी न
गुजरी थी कि
एक व्यक्ति
थोड़ा बेचैन सा
होने लगा और
एकदम से बोला
कि पता नहीं, मैं घर में
ताला लगा पाया
कि नहीं।
दूसरे ने कहा,
नालायक! बोल
कर सब खराब कर
दिया। टूट गया
व्रत। तीसरे
ने कहा, किसको
समझा रहे? तुम
भी बोल गए।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा कि हमीं
भले, अभी
तक नहीं बोले।
अशांत
आदमी चेष्टा
करके बैठ भी
जाए तो भी कुछ
फर्क तो नहीं
पड़ता। अशांत से
अशांत है, ऊपर—ऊपर
से थोप भी ले
तो कुछ अंतर
नहीं आता। सच
तो यह है, अगर
तुम अशांत हो
तो जब तुम
शांत बैठ जाएगे
तब तुम्हारी
अशांति जितनी
प्रकट होगी उतनी
कभी भी प्रकट
नहीं होगी।
क्योंकि उस
वक्त तो
अशांति ही अशांति
बचेगी। एक
झीनी सी पर्त
तुम ऊपर से ओढ़ लोगे—स्व
चादर, और
भीतर तो अंधड़
चल रहे होंगे।
जीवन के कामों
में उलझे रहते
हो तब उतने
अंधड़ चलते भी
नहीं। क्योंकि
ऊर्जा कामों
में उलझी रहती
है। शांत होकर
बैठ गए तो
ऊर्जा का क्या
होगा, शक्ति
का क्या होगा?
जो दुकान
में लगी है, लड़ने में
लगी है, मरने—मारने
में लगी है, वह सब खाली
पड़ी है। वह
एकदम भीतर
घुमड़ने लगेगी।
वह सारी भाप
तुम्हारे भीतर
इकट्ठी होने
लगेगी।
तुम्हारी
केतली शोरगुल
करने लगेगी, फूटने का
क्षण करीब आने
लगेगा।
अक्सर
ऐसा होता है, जब लोग
ध्यान करने
बैठते हैं तब
उन्हें अशांति
का पता चलता
है। मेरे पास
लोग आकर कहते
हैं कि जब हम
ध्यान के लिए
नहीं बैठते तब
सब ठीक रहता
है, जब
ध्यान के लिए
बैठते हैं, हजार—हजार
सवाल उठते हैं,
हजारों
विचार उठते
हैं। न मालूम
कहां—कहां कें—वर्षों
पहले की यादें
आती हैं।
जिनको हम सोचते
हैं भूल ही
चुके थे, वे
अभी ताजे
मालूम पड़ते
हैं। जो घाव
हम सोचते थे
भर चूके हैं, वे फिर खुल
जाते हैं। यह
क्या ध्यान
हुआ? यह
कैसा ध्यान है?
लेकिन
कारण है।
साधारणत: तुम
व्यस्त रहते
हो। तुम्हें
अपने भीतर
झांकने का मौका
भी नहीं मिलता।
अगर तुम घड़ी
भर को शांत
होकर बैठ जाओ
तो भीतर का सारा
रोग
साक्षात्कार
होने लगता है, सामने आ
जाता है। सारा
ज्वर, सारी
मवाद भीतर बहती
हुई दिखाई
पड़ने लगती है।
'धीर
पुरुष को
स्वाभाविक
उच्छृंखल
स्थिति भी शोभती
है।’
खयाल
करना इस वचन
का— 'स्वाभाविक'।
मैंने
तुम्हें पीछे
कहा, चादविक
ने लिखा है कि
रमण को कभी
उसने नाराज न देखा
था। लेकिन एक
दिन एक पंडित
आया और उनसे
ऐसे—ऐसे
प्रश्न पूछने
लगा; और
उन्होंने उसे
बहुत समझा—समझा
कर कहा, लेकिन
वह माने ही
नहीं। वह
शास्त्रों के
उद्धरण दे, और विवाद के
लिए बिलकुल
तत्पर खड़ा।
चादविक ने
लिखा है कि हम सब
परेशान हो गए
कि वह नाहक
उन्हें परेशान
कर रहा है। और
उन्हें जो
कहना 'या, कह दिया।
समझ ले ठीक, न समझे, जाए।
लेकिन वह वेद,
उपनिषद, गीता
इनके उद्धरण
देने लगा और
सिद्ध करने
लगा कि मैं
सही हूं।
चादविक
ने लिखा है, तब एक
घटना घटी जो
अलौकिक थी।
रमण ने उठाया
डंडा और उसके
पीछे दौडे।
रमण महर्षि
किसी के पीछे
डंडा उठा कर
दौड़े। सब भक्त
भी चौंक गए।
और वह आदमी
भागा एकदम
घबड़ा कर। उसे
बाहर खदेड़ कर
वे हंसते हुए
भीतर आए। डंडा
रख कर अपनी
जगह बैठ गए।
अब यह
जो घटा यह
बिलकुल
स्वाभाविक है।
यह आदमी दूसरी
भाषा समझता ही
न था। कोई
उपाय ही न था।
यह कुछ क्रोध
नहीं है। यह
वैसा क्रोध
नहीं है जैसा
तुम जानते हो।
इसमें रमण
कहीं भी अपने
केंद्र से
च्युत नहीं
हुए। अपने
केंद्र पर थिर
हैं। लेकिन यह
आदमी दूसरी
भाषा समझता ही
नहीं। इसको सब
तरफ से समझाने
की कोशिश कर
ली, यह
सिर्फ डंडे की
भाषा ही
समझेगा। ऐसा
देख कर— और ऐसा
भी किसी निर्णय
से नहीं कि
ऐसा सोच—विचार
कर डंडा उठाया
हो, डंडा
उठा लिया
बालवत, स्वाभाविक।
यही मौजूं था
इस स्थिति में,
यह
स्वाभाविक था।
चादविक
ने लिखा है, उस दिन
जैसी शांति
रमण में पहले
नहीं देखी थी।
शांति, अपूर्व
शांति थी।
इतनी गहरी
शांति थी
इसीलिए इतने
स्वाभाविक रूप
से क्रोध को
भी हो जाने
दिया। इससे भी
कोई बाधा न थी।
अष्टावक्र
कहते हैं, स्वाभाविक
उच्छृंखल
स्थिति भी
शोभती है।
चादविक ने
लिखा है, वह
रूप रमण का जो
उस दिन देखा, अपूर्व था, बड़ा प्यारा
था। यह भी
शोभती है।
'लेकिन
स्पृहायुक्त
चित्तवाले
मूढ़ की बनावटी
शांति भी नहीं
शोभती।’
मूढ़ तो
बोले तो
मुश्किल में
पड़े, न
बोले तो
मुश्किल में
पड़े।
मैंने
सुना है, लाला
करोड़ीमल की
छोटी सी दुकान
थी। एक बार
दुकान में से
दस रुपये का
नोट कम हो गया।
तो उन्होंने
अपने नौकर
ननकू से कहा, आज सुबह से
शाम तक दुकान
में कोई कौवा
भी नहीं आया।
दुकान में
तुम्हारे और
मेरे अलावा
कोई भी न था।
तुम्हीं कहो,
दस रुपये
कहां जा सकते
हैं? ननकू
ने तपाक से
अपनी जेब से
पांच रुपये
निकाल कर देते
हुए कहा, हुजूर,
यह लीजिए
मेरा हिस्सा।
मैं आपकी
इज्जत खराब
नहीं करना
चाहता।
मूढ़
बोले तो फंसे, न बोले तो
फंसे। मूढ़ फंसा
ही हुआ है; कुछ
भी करे। हर
जगह उसकी
मूढ़ता का
दर्शन हो
जाएगा।
इसलिए
असली सवाल
शांत बैठने, न बैठने
का नहीं है, असली सवाल
मूढ़ता को
तोड्ने का है।
असली सवाल
जागने का है, अमूर्च्छा
को लाने का है।
ध्यान, तप,
जप कामन
आएंगे।
क्योंकि मूढ़
जप भी करेगा तो
मूढ़ता ही प्रकट
होगी। तप भी
करेगा तो
मूढ़ता ही
प्रकट होगी।
तुम्हारे
भीतर जो है
वही तो प्रकट
होगा। तुम कुछ
भी करो, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता, जब
तक कि भीतर के
केंद्र पर ही
क्रांति घटित
न हो। इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं, उपर
की व्यर्थ
बातों में मत
उलझना। सारी
शक्ति भीतर
लगाओ, जागने
में लगाओ।
तुमने
गौर से देखा
कभी? मूढ़
अगर शांत बैठे
तो सिर्फ जड़
मालूम होता है,
मुर्दा
मालूम होता है,
प्रतिभाशून्य
मालूम होता है,
सोया—सोया
मालूम होता है।
ज्ञानी अगर
शात बैठे तो
उसकी शांति
जीवंत होती है।
तुम गौर से
सुनो तो उसकी
शांति का कलकल
नाद तुम्हें
सुनाई पड़ेगा।
ज्ञानी शांत
बैठे तो उसकी
शांति नाचती
होती, उत्सवमग्न
होती। मूढ़ की
शांति डबरे की
भांति है।
ज्ञानी की
शांति कलरव
करती बहती हुई
सरिता की
भांति है, गत्यात्मक
है। मूढ़ की
शांति कहीं
नहीं जा रही, कब्र की
शांति है।
ज्ञानी की
शांति कब की
शाति नहीं है,
जीवन का
अहोभाव है, जीवन का
महारास, जीवन
का नृत्य, जीवन
का संगीत है।
मूढ़ की शांति
में कोई संगीत
नहीं। बस तुम
शांति ही
पाओगे।
ज्ञानी की
शांति
संगतिपूर्ण
है—छंदोबद्ध,
स्वच्छंद
है।
तो
ध्यान रखना, शांति को
लक्ष्य मत बना
लेना, नहीं
तो बहुत जल्दी
तुम मूढ़ की शांति
में पड़ जाओगे।
क्योंकि वह
सस्ती है और
सुगम है। कुछ
भी करना नहीं।
बैठ गए!
इसीलिए तो
तुम्हारे
बहुत से साधु—संन्यासी
बैठ गए हैं।
तुम उनके पारा
जाकर मूढ़ता ही
पाओगे। उनकी
प्रतिभा
निखरी नहीं है,
और जंग खा
गई। ऐसी शांति
का क्या मूल्य
है जो
निष्क्रिय हो?
ऐसी शांति
चाहिए जो
सृजनात्मक हो।
ऐसी शांति चाहिए
जो गुनगुनाए।
ऐसी शांति
चाहिए जिसमें
फूल खिले। ऐसी
शांति चाहिए जिसमें
जीवन का
स्पर्श अनुभव
हो, और
महाजीवन
अनुभव हो; मरघट
की नहीं। तुम्हारे
मंदिर भी मरघट
जैसे हो गए
हैं। नहीं, कहीं भूल हो
रही है।
अष्टावक्र
ठीक कहते हैं, मूढ़ की
बनावटी शांति
भी शोभा नहीं
देती।
ऐसा समइते
कि कोई कुरूप
स्त्री खूब
गहने पहन ले।
तुमने देखा? स्त्री
और कुरूप हो
जाती है, अगर
कुरूप है और
गहने पहन ले।
और अक्सर ऐसा
होता है, कुरूप
स्त्रीयों
को तो गहने
पहनने का खूब
भाव पैदा होता
है। कुरूप
स्त्रियां
सोचती हैं कि शायद
जो कुरूपता है
वह गहनो में
ढाक ली जाए।
तो खूब रंग—बिरंगे
कपड़े पहनो, खुब गहने ढ़का
लो। लेकिन
कुरूपता हीरे—जवाहरातों
से नहीं मिटती, और कर दिखाई
पड़ने लगती है।
कितने ही
बहुमूल्य
वस्त्र पहन लो, करूपता वस्त्रों
से नहीं मटती।
इतना आसान
नहीं।
और कोई
सुंदर हो तो
निर्वस्त्र
भी, बिना
वस्त्रों के
भी सुंदर है, साधारण
वस्त्रों में
भी सुंदर है, बिना गहनों
के भी सुंदर
है, बिना
आभूषणों के भी
सुंदर है। हां,
अगर व्यक्ति
के हाथ में
आभूषण हों तो
आभूषण भी
सुंदर हो जाते
हैं। कुरूप
व्यक्ति के
हाथ में पड़े
आभूषण भी
कुरूप हो जाते
हैं।
तम
जैसे हो वही
तुम्हारे
जीवन पर फैल
जाता है—वही
रंग। इसलिए
असली , असल
आभूषणों का
नहीं है, असली
सवाल अंत:सौंदर्य
को जगाने का
है। तुम्हारे भीतर
एक सौंदर्य की
आभा होनी
चाहिए, जो
तुम्हारे पोर—पोर
से बहे और
झलके; तुम्हारे
रोएं—रोएं में
जिसकी
मौजूदगी हो; तुम्हारी
श्वास—श्वास
में जिसकी महक
हो।’कल्पनारहित,
बंधनरहित
और मुक्त
बुद्धिवाले
धीर पुरुष कभी
बड़े—बड़े भोगों
के साथ क्रीड़ा
करते हैं और
कभी पहाड़ की
कंदराओं में
प्रवेश करते
हैं।’
विलसन्ति
महाभोगै
विशन्ति
गिरिगह्वरान्।
निरस्तकल्पना
धीरा अबद्धा
मुक्तबुद्धय:।।
और
अष्टावक्र
कहते हैं, मुक्त
पुरुष को न तो
महल से मोह है,
और न झोपड़े
से मोह है।
इसे
खयाल रखना।
जिनका महलों
से मोह छूट
जाता उनका
झोपड़ों से मोह
बंध जाता है, लेकिन
मोह जारी रहता।
जिनका धन से
मोह छूट जाता
उनका
निर्धनता से
मोह बंध जाता
है, लेकिन
मोह जारी रहता।
अष्टावक्र
कहते हैं, 'कल्पनारहित,
बंधनरहित
और मुक्त
बुद्धि वाले
धीर पुरुष कभी
बड़े—बड़े भोगों
के साथ क्रीड़ा
करते हैं।’
जैसा
हो, उसमें
ही राजी हैं।
महल, तो
महल में राजी।
सुख, तो
सुख में राजी।
सिंहासन, तो
सिंहासन पर
राजी। और कभी
पहाड़ की
कंदराएं, तो
वे भी सुंदर
हैं। सच तो यह
है, मुक्त
पुरुष महल में
होता है तो
महल प्रकाशित हो
जाते हैं।
मुक्त पुरुष
कंदराओं में
होता है, कंदराएं
प्रकाशित हो
जातीं। मुक्त
पुरुष जहां
होता वहीं
सौंदर्य झरता।
मुक्त पुरुष
की मौजूदगी
सभी चीजों को
अपूर्व गरिमा
से भर देती है।
वह पत्थर छुए
तो हीरा हो
जाता है। हीरा
छुए तो
स्वभावत: हीरे
में भी सुगंध
आ जाती है।
सोने में
सुगंध।
लेकिन
मुक्त पुरुष
का किसी चीज
से कोई आग्रह
नहीं है। ऐसा
ही हो, ऐसा
ही होगा तौ ही
मैं सुखी
रहूंगा, ऐसा
कोई आग्रह
नहीं है। जैसा
हो, उसमें
वह राजी है।
उसका राजीपन
प्रगाढ़ है, गहरा है, पूर्ण
है।
समस्तरूपेण
उसने स्वीकार
कर लिया है।
जो दिखाए
प्रभु, जहां
ले जाए उसके
लिए राजी है।
न वह महल
छोड़ता है, न
वह झोपड़े को
चुनता है।
जीता है सूखे
पत्ते की
भांति, हवा
जहां ले जाए।
'धीर
पुरुष के हृदय
में पंडित, देवता और
तीर्थ का पूजन
कर तथा स्त्री,
राजा और
प्रियजन को
देख कर कोई भी
वासना नहीं होती।’
श्रोत्रिय
देवतां
तीर्थमंगना
भूपति
प्रियम्।
दृष्ट्वा
सत्त्व
धीरस्य न कापि
हृदि वासना।।
'धीर
पुरुष के हृदय
में पंडित, देवता और
तीर्थ का पूजन
कर...।’
तुम तो
पूजन भी करते
हो तो वहां भी
वासना आ जाती
है। तुम्हारा
तो पूजन भी
कामना से
दूषित हो जाता
है। तुम्हारे
तो पूजन में
भी सुगंध नहीं
रहती, वासना
की दुर्गंध आ
जाती है। धीर
पुरुष भी पूजन
करता है, लेकिन
उसके पूजन में
और तुम्हारे
पूजन में जमींन —भासमान
जितना फर्क है।
धीर पुरुष भी
कभी मंदिर
जाता है, कभी
मग्न होकर
प्रतिमा के
सामने नाचता
है। कभी गंगा
भी नहाता है, कभी तीर्थों
की यात्रा भी
करता है, लेकिन
उसके मन में
कोई वासना
नहीं है।
मंदिर इसलिए
नहीं जाता कि
कुछ मांगना है; मंदिर भी
परमात्मा का
है। धीर पुरुष
मंदिर भी जा
सकता है, मस्जिद
भी जा सकता है।’
गुरूद्वारा
भी जा सकता है,
गिरजा भी जा
सकता है। सभी
परमात्मा का
है।
धीर
पुरुष जहां है, वहीं
मंदिर। कोई
मंदिर में ही
सुख लेगा ऐसा
भी नहीं है, लेकिन मंदिर
का कोई त्याग
भी नहीं है।
कभी पूजा भी
कर सकता है।
क्योंकि पूजन
का भी एक मजा
है। पूजन का
भी एक रस है।
पूजन भी एक
अहोभाव है।
लेकिन यह सब
है अहोभाव, एक धन्यवाद।
तूने खूब दिया
है उसके लिए
धन्यवाद। और
तुझसे। मांगने
की कोई चाह
नहीं। और की
कोई वासना
नहीं है।
तुम
जाते भी मंदिर, झुकते भी,
तो भी
तुम्हारे
हृदय में कुछ
वासना है। कुछ
मिल जाए। तुम
भिखारी की तरह
ही जाते हो।
धीर पुरुष हो
गया सम्राट; नाचता है।
जगत को बहुत
कुछ देता ही
है, परमात्मा
को भी देता है,
मांगता
नहीं।
परमात्मा के
हाथों भी
स्वयं को
उंडेल देता है।
वहां भी नाच
कर थोड़ा नाच
परमात्मा को
दे आता है।
’पंडित,
देवता और
तीर्थ का पूजन
कर तथा स्त्री,
राजा और
प्रियजन को
देख कर कोई भी
वासना नहीं
होती।’
सुंदरतम
स्त्री को देख
लेता है तो भी
वासना नहीं
होती। क्या
इसका यह अर्थ
हुआ कि उसे
सुंदर स्त्री
में सौंदर्य
दिखाई नहीं पड़ता? ऐसा लोग
समझाते हैं।
ऐसा तुम्हारे
पंडित—पुरोहित
तुम्हें कहते
हैं।
बात
गलत है। उसे
सौंदर्य तो
दिखाई पड़ता है—दिखाई
पड़ेगा ही।
उसको ही। दिखाई
पड़ेगा, तुम्हें
क्या दिखाई
पड़ेगा? तुम
तो अंधे हो।
जहां सौंदर्य
होता, उसे
दिखाई पड़ता है।
लेकिन वासना
पैदा नहीं
होती, वहां
भी अहोभाव
पैदा होता है।
सुंदर स्त्री
में भी प्रभु
का ही दर्शन
होता है, सुंदर
पुरुष में भी
प्रभु का ही
दर्शन होता है।
अगर : कमल में
देख कर प्रभु
का दर्शन होता
है तो मनुष्यों
के कमल जहां
खिलते हैं
उन्हें देख कर
क्या घबड़ाहट?
घबड़ाहट तो
जिन्हें होती
है वे खबर दे
रहे हैं कि
अभी वासना मांगती
है, जीती
है। अभी वासना
चुकी नहीं।
अभी ईंधन जारी
है। अभी
घबड़ाहट है।’। आंख फेर
लेते हैं, आंख
बंद कर लेते
हैं।
नहीं, धीर
पुरुष
सौंदर्य को
देखेगा और हर
सौंदर्य उसे
उस परम
सौंदर्य की
याद दिलाएगा।
हर सौंदर्य उस
परम प्रकाश की
ही एक किरण है।
किसी स्त्री
में नाची वह
किरण, किसी
बच्चे की आंखों
में झलकी वह
किरण, किसी
झरने में
गुनगुनाई वह '
हरण, लेकिन
सब तरफ वही है।
यह सूरज की ही
धूप है सब तरफ।
तुम्हें चाहे
सूरज दिखाई न
भी पड़े, लेकिन
जो भी धूप है, यह सब सूरज
की है। चाहे
सूरज को सीधा
देखना संभव भी
न हो।
शायद
परमात्मा को
सीधा देखने
में आंखें काम
न आएं। शायद
परमात्मा को
सीधा देखना
संभव ही नहीं
है, क्योंकि
हमारी आंखों
की सीमा है।
इसलिए हम
प्रतिफलन में
देखते हैं।
किसी स्त्री
के चेहरे पर, किसी बच्चे
की आंखों में।
किसी वीणाकार
के स्वर में, पक्षियों के
कलरव में, सागर
की चट्टानों
से टकराती
लहरों के
शोरगुल में।
यह सब
प्रतिफलन है।
यह सब उसी की
गंज, अनुगूंज
है। यह एक ही
छाया है। इस
अनेक में वही
अनेक की तरह
उतरा है।
तो
स्त्री, राजा और
प्रियजन को
देख कर कोई भी
वासना नहीं होती।
सम्राटों को
देखकर भी धीर
पुरुष आनंदित
होता है।
क्योंकि
सम्राटों में
भी उसी का
साम्राज्य है।
वह जो सम्राट
की चाल में
गौरव है, गरिमा
है, वह जो
कुलीनता है, वह जो
श्रेष्ठता है,
वह जो
आभिजात्य है,
वह भी उसी
का आभिजात्य
है। वह जो
सम्राट की आंखों
में एक चमक है,
वह भी उसी
की चमक है।
सब चमक
उसकी है।
इसलिए सम्राट
को देख कर भी
उसे ऐसा नहीं
होता कि वासना
पैदा होती हो
कि मैं सम्राट
हो जाऊं। वह
तो सम्राट हो
ही गया है। वह
तो सम्राटों
का सम्राट हो
गया है। वह तो
राजराजेश्वर
है। लेकिन अब
किसी सम्राट
में भी देखता
है तो याद करता
है, उसी
का छोटा सा
टुकड़ा यहां भी
उतरा। धूप
थोड़ी सी यहां
भी है, उसी
की है।
धूप का
यह गुनगुना
स्पर्श
चौकड़ी
भरते किरन के
इंगुरी छोने
फिर
लगे तृण—पालकी
मृदु ओस की
ढोने
पर्त
कोहरे की हटा
दुर्धर्ष
धूप का
खोल वातायन
धुआंते कक्ष
में झांका
भोर ने
फिर सूर्य
नीलाकाश में
टीका
सुर्ख
मूंगे की तरह
आकर्ष
धूप का
यह गुनगुना
स्पर्श
जहां
भी धूप है
वहां
परमात्मा का
ही गुनगुना स्पर्श
है। प्रियजन
को देख कर भी
कोई वासना
पैदा नहीं होती।
जो अपने हैं
वे तो अपने
हैं ही, जो पराए हैं
वे भी अपने
हैं। क्योंकि
वस्तुत: न तो
कोई अपना है, न कोई पराया
है। यहां तो
एक ही है।
अपना कहो तो
वही, पराया
कहो तो वही।
अपना न कहो तो
वही, पराया
न कहो तो वही।
यहां तो एक ही
है। यहां तो
एक ही स्व का
विस्तार है।
स्व ही सर्व
है, वासना
कैसी?
योगी नौकरों
से, पुत्रों
से, पत्नियों
से, पोतों
से और
संबंधियों से
हंसकर धिक्कार
जाने पर भी
जरा भी विकार
को प्राप्त
नहीं होता है।’
भृत्यै:
पुत्रै:
कलत्रैश्च
दौहित्रैश्चापि
गोत्रजै:।
विहस्य
धिक्कृतो
योगी न याति
विकृति मनाक्।।
समझना।
वह जो ज्ञानी
पुरुष है, अगर अपने
नौकर भी उसका
अपमान कर दें
ताक भी नाराज
नहीं होता।
क्यों नौकर को
ही विशेष रूप
से सूत्र में
कहा है? क्योंकि
नौकर अंतिम है,
जिससे तुम
अपेक्षा करते
हो कि
तुम्हारा
अपमान कर देगा।
नौकर और
तुम्हारा
अपमान कर दे? नौकर तो
तुम्हारा
खरीदा हुआ है,
स्तुति के
लिए ही है। वह
तुम्हारी
निंदा कर दे? असंभव। वह
हंसकर
धिक्कार कर दे।
यह असंभव है।
तुम ,और
सबका धिक्कार
चाहे स्वीकार
भी कर लो, अपने
नौकर का
धिक्कार तो
स्वीकार न कर
सकोगे। तुम
उसे कहोगे, नमकहराम!
तुम उसे कहोगे
कि जिस दोने
में खाया, जिस
पत्तल में
खाया, उसी
में छेद किया।
तुम कहोगे, जिसका नमक
खाया उसका
बजाया नहीं।
नमकहराम! तुम
बड़े नाराज हो
जाओगे।
इसलिए
पहला
अष्टावक्र
कहते हैं, नौकर भी
अगर धिक्कार
कर दे— और साधारण
धिक्कार नहीं,
हंसकर
धिक्कार कर दे।
हंसी और भी
जहर हो जाती
है धिक्कार
में मिल जाए
तो; व्यंगात्मक
हो जाती है, गहरी चोट
करती है। फिर
अपने नौकर से?
यह तो अंतिम
है जिससे तुम
अपेक्षा करते
हो। हां, तुम्हारा
मालिक अगर धिक्कार
कर दे तो तुम
बरदाश्त कर लो—करना
पड़े। महंगा है
न बरदाश्त
करना। मालिक
गाली भी दे तो
भी तुम्हें
धन्यवाद देना
पड़ता है।
नौकर
प्रशंसा भी
करे तो भी तुम
कहां धन्यवाद
देते हो? तुम अखबार
पढ़ रहे तो
बैठे अपने
कमरे में, नौकर
गुजर जाता, तुम इतना भी
स्वीकार नहीं
करते कि कोई
गुजरा। तुम
नौकर में
व्यक्तित्व
ही कहां मानते?
नौकर की
कहीं कोई
आत्मा होती है?
कोई दूसरा
गुजरता तो तुम
उठ कर खड़े
होते। कोई
दूसरा आता तो
तुम कहते, आओ, बैठो, विराजो।
नौकर गुजर जाए
तो तुम्हारे
ऊपर कुछ भी
भाव नहीं आता।
तुम अपना अखबार
पढ़ते रहते हो,
जैसे कोई भी
नहीं गुजरा।
नौकर को तुम
स्वीकार ही
नहीं करते कि
वह मनुष्य है।
तो नौकर अगर
अपमान कर दे, धिक्कार कर
दे, तो बड़ी
कठिनाई हो
जाएगी।
अष्टावक्र
कहते हैं, 'योगी
नौकर से, पुत्रों
से.,.।’
अपने
पुत्र से तो
कोई धिक्कार
की संभावना
नहीं मानता।
बेटा अपना और
हंस दे, धिक्कार कर
दे? तुम
सबको माफ कर
सकते हो लेकिन
अपने बेटे को
तो न कर सकोगे।
क्योंकि बेटा
तो तुम्हारा
ही विस्तार है।
तुम्हारा ही
एक रूप, तुम्हीं
पर हंस दे? .यह
तो जैसा अपना ही
हाथ अपने को
चांटा मारने
लगे तो तुम
कैसे बरदाश्त
कर सकोगे? यह
तो बहुत
ज्यादा हो
जाएगा।
'पत्नियों
से...।’
अष्टावक्र
ने जब ये
सूत्र कहे तब
पत्नी आज जैसी
तो नहीं थी, आधुनिक
तो नहीं थी।
पत्नी तो
खरीदी हुई थी।
स्त्री धन—संपत्ति
थी। ये सूत्र
इतने पुराने
हैं कि तब अगर
कोई अपनी
स्त्री को मार
भी डालता था
तो भी अपराध
नहीं था। अपनी
स्त्री मारी।
किसी से कुछ
प्रश्न ही
नहीं है, अदालत
का कोई सवाल
नहीं है। अपनी
थःई, मारी।
तुम अपनी
कुर्सी तोड़
डालो, तुम
अपने मकान को
गिरा डालो, तुम अपने
नोट में आग
लगा दो, तुम्हारी
मर्जी। तुमने
अपनी पत्नी
मार डाली, तुम
जानो।
मैं एक
घर में रहता
था रायपुर में, कोई दों—चार
ही दिन मुझे
वहां हुए थे, कि बगल में
एक रात कोई एक
बजे मेरी नींद
खुली। वह पति
अपनी पत्नी को
मार रहा है।
दोनों मकानों
की छतें मिलती
थीं तो मैं छत
उतर कर उसके
मकान में गया।
मैंने उस आदमी
को रोकने की
कोशिश की कि
तुम यह क्या पागलपन
कर रहे हो? रुको।
वह बोला, आप
कौन हैं बीच
में बोलने
वाले? यह
मेरी पत्नी है।
मैं चाहे इसे
बचाऊं, चाहे
मारूं, आप
कौन हैं बीच
में बोलने
वाले?
वह ठीक
बोल रहा है, शास्त्र
की भाषा बोल
रहा है। मनु
महाराज की
भाषा बोल रहा
है। जैसे
पत्नी उसकी
कोई चीज है! वह
इस बुरी तरह
मार रहा है, उसके सिर से
खून बह रहा है।
और मुझसे कहता
है, आप बीच
में न पड़े। आप
कौन हैं बीच
में बोलने
वाले? यह
मेरी पत्नी है।
अष्टावक्र
कहते हैं, अपनी
पत्नी से, पोतों
से, संबंधियों
से हंसकर
धिक्कारे
जाने पर भी
जरा विकार को
प्राप्त नहीं
होता।’
क्योंकि
जिसे ज्ञान
घटा, न
कोई अपना रहा,
न कोई पराया।
कौन बेटा, कौन
बाप? जिसे
ज्ञान घटा, कौन मालिक, कौन नौकर? जिसे ज्ञान
घटा, कौन
पत्नी, कौन
पति? जिसे
ज्ञान घटा, एक ही बचा।
और जिसे ज्ञान
घटा वह तो मिट
गया। वह घाव
ही न रहा जिस
पर चोट लगती
है धिक्कार की,
अपमान की, असम्मान की,
कोई हंस दे
इस बात की। वह
घाव ही भर गया,
वह घाव ही न
रहा। अहंकार न
रहा तो अपमान
जरा भी पीड़ा
नहीं देता।
विहस्य
धिक्कृतो
योगी न याति
विकृति मनाक्।
जरा भी, किंचित
भी अंतर नहीं
पड़ता। मैं ही
नहीं बचा तो
तुम चोट कैसे
करोगे? तुम
जो चोट कर रहे
हो वह व्यर्थ
जा रही है, खाली
जा रही है।
वहां कोई है
नहीं जो चोट
को पकड़े, जिसमें
चोट चुभे।
'धीर
पुरुष
संतुष्ट होकर
भी संतुष्ट
नहीं होता है,
और दुखी
होकर भी दुखी
नहीं होता है।
उसकी
आश्चर्यमय
दशा को वैसे
ही ज्ञानी
जानते हैं।’
यह
सूत्र बहुत
अनूठा है; इसे
समझने की
कोशिश करें।
संतुष्टोऽपि
न संतुष्ट:
खिन्नोऽपि न च
खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशा
ती तां तादृशा
एव जानन्ते।।
'धीर
पुरुष
संतुष्ट होकर
भी संतुष्ट
नहीं होता।’
क्या
इसका अर्थ
होगा 2
क्योंकि
संतोष और
संतोष में भेद
है। एक संतोष
है, जो
वही खट्टे
अंगूर वाला
संतोष है।
नहीं मिला
इसलिए किसी
तरह अपने को
संतुष्ट कर
लिया। एक
सांत्वना है,
एक भुलावा
है कि क्या
करें, मिलता
तो है नहीं, रोने से भी
सार क्या है? इसलिए मन
मारकर बैठ गए।
अब यह भी
स्वीकार करने
की हिम्मत
नहीं होती कि
हार गए हैं।
हार भी क्या
स्वीकार करनी!
यह हार का
रोना भी क्या
रोना! तो अपनी
हार को ही सजा
कर बैठ गए।
अपनी हार को
ही गले का हार
बना कर बैठ गए।
इसका ही
गुणगान करने
लगे। कहने लगे
कि रखा ही
क्या है? संसार
में है क्या? संतुष्ट हो
गए। कहते हैं,
हम तो
संतुष्ट हैं।
एक ऐसा
संतोष है जो
मुर्दा दिलों
की सुरक्षा करता
है, हारे
हुओं की
सुरक्षा बनता
है। और जो
जीवन के
संघर्ष में, चुनौती में,
विजययात्रा
पर, अंतर्यात्रा
पर निकलने का
साहस नहीं
रखते उनको जड़
बना देता है।
यह एक तरह की
शराब है, जिसको
पीकर बैठ गए, कहीं जाने
की जरूरत न
रही।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, हारे हुए
लोग अगर यह भी
स्वीकार कर
लें कि हम हार
गए तो भी
गरिमा पैदा
होती है। तो
भी जीवन में
एक गति आती, गत्यात्मकता
आती। लेकिन
हारे हुए लोग
यह स्वीकार
नहीं करते कि हम
हार गए। वे तो
हार को भी लीप—
पोत कर जीत
जैसा दिखाना
चाहते हैं। एक
ऐसा संतोष है।
जब
अष्टावक्र
कहते हैं, संतुष्टोऽपि
न संतुष्ट—वह
जो धीर पुरुष
है, संतुष्ट
होकर भी इस
अर्थ में
संतुष्ट नहीं
है। उसका
संतोष बड़ा और
है। उसका
संतोष आनंद से
जन्मता है, हार से नहीं।
उसका संतोष
अंतर—रस से
उपजता है।
उसका संतोष
सात्वना नहीं
है। उसका
संतोष
उदघोषणा है
विजय की। जीवन
को जाना, जीया,
पहचाना; उस
पहचान से आया
संतोष। उसका
संतोष, आनंद
नहीं मिला
इसलिए मन
मारकर बैठ गए
ऐसा नहीं है, आनंद मिला
इसलिए
संतुष्ट है।
उसका संतोष
आनंद का
पर्यायवाची
है—पहली बात।
दूसरी
बात. जो पहला
संतोष है वह
तुम्हें रोक
देगा, तुम्हारी
गति को मार
देगा; वह
तुम्हें आगे न
बढ़ने देगा।
दूसरा जो
संतोष है, वह
मुक्त है। वह
गति को मारता
नहीं, वह
गति को बढ़ाता
है। तुममें और
जीवन—ऊर्जा
आती है। तुम
जितने आनंदित होते
हो और उतने
ज्यादा
आनंदित होने
की क्षमता और
पात्रता आती
है। तुम जितना
नाचते हो उतना
नाचने की
कुशलता बढ़ती
है।
इसलिए
जीसस ने कहा
है, जिनके
पास है उनको
और' भी
दिया जाएगा।
और जिनके पास
नहीं है उनसे
वह भी ले लिया
जाएगा जो उनके
पास है। कितना
ही कठोर लगता
हो यह वचन, लेकिन
यह वचन परम
सत्य है।
जिनके पास है
उन्हें और भी
दिया जाएगा।
वे ही मालिक
हैं। उन्हें
और—और मिलेगा,
उन्हें
मिलता ही
रहेगा। उनके
मिलने का कोई
अंत नहीं आता।
उन्हें सदा
मिलेगा, शाश्वत
तक मिलेगा।
कहीं कोई
आखिरी घड़ी
नहीं आती, जहां
उनके मिलने का
द्वार बंद हो
जाता हो। एक
द्वार चुकता
है, दूसरा
खुलता है। एक
पहाड़ पूरा चढ़े,
दूसरा
उतुंग शिखर
सामने आ जाता
है। तो एक तो
संतोष है कि
बैठ गए मारकर
मन, कि अब
कहां जाना है।
हो गए संतुष्ट।
नहीं है कुछ
सार कहीं।
समझा लिया
अपने मन को:, कि अपने से
यह होगा नहीं।
अपनी हालत
पहचान ली। दबा
ली पूंछ और
बैठ गए। नहीं,
ज्ञानी का
संतोष ऐसा
संतोष नहीं।
संतुष्टोऽपि
न संतुष्ट:।
संतुष्ट
होकर भी इस
अर्थ में
संतुष्ट नहीं।
और एक
अर्थ. एक तो
संतोष है, जो
असंतोष के
विपरीत है। और
एक ऐसा संतोष
है जो असंतोष
के विपरीत
नहीं। एक ऐसा
संतोष है, जो
असंतोष से
विपरीत है इस
अर्थ में कि फिर
तुम्हें जरा
भी असंतुष्ट
नहीं होने
देता। लेकिन
तब तो गति मर
जाएगी।
समझो।
लोग तुम्हें
समझाते हैं, संतुष्ट
हो जाओ। जैसे
हो, जहां
हो, संतुष्ट
हो जाओ। यह
बात अधूरी है।
ज्ञानियों ने
कहा है, बाहर
से संतुष्ट हो
जाओ, भीतर
से संतुष्ट मत
हो जाना। धन, पद, मर्यादा,
इससे हो जाओ
संतुष्ट।
इसमें कुछ सार
भी नहीं है।
रुक गए तो कुछ
खोया नहीं, क्योंकि
चलने वाले कुछ
पाते नहीं।
ठहर गए तो कुछ
जाता नहीं, क्योंकि जो
दौड़ते रहे वे
कुछ पाते नहीं।
इसमें
संतुष्ट हो
जाओ। लेकिन
भीतर संतुष्ट
मत हो जाना।
भीतर तो और—और
अनंत यात्रा
है। शुरू तो
है वहां, अंत
नहीं है वहां।
अनंत है
यात्रा। भीतर
तो और—और
खोजना है।
तो एक
दिव्य असंतोष
की आग भीतर
जलती रहे।
राजी मत हो
जाना, क्योंकि
परमात्मा
इतना बड़ा है, तुम छोटा—मोटा
टुकड़ा लेकर
बैठ मत जाना।
तुम तो बढ़ते
ही जाना जब तक
कि पूरे
परमात्मा को न
पा लो। और
पूरे को कभी
कोई पाता है? पाता जाता
है, पाता
जाता है, पूरे
को कोई कभी
नहीं पाता। यह
मंजिल ऐसी
नहीं है कि
कभी चुक जाए।
और यह सौभाग्य
है कि मंजिल
चुकती नहीं।
नहीं तो फिर
क्या करते? मंजिल चुक
जाती, पा
लिया पूरा
परमात्मा, बंद
कर दिया
तिजोड़ी में, बैठ गए। फिर क्या
करते? नहीं,
यह चुकती
नहीं। जितना
तुम पाओगे, उतना ही
पाने को शेष
मालूम पड़ेगा।
तो जीसस
के वचन में एक
वचन और जोड़
देना चाहिए।
जीसस कहते है, जिनके
पास है उसे
मिलेगा; और
मिलेगा। और
जिसके पास
नहीं है उनसे
वह भी छीन
लिया जाएगा जो
उनके पास है।
इसमें एक वचन
और जोड़ देना
चाहिए कि
जिसके पास है
उसे और मिलेगा।
और जिसे और
मिलेगा उसे और
खोजना पड़ेगा।
जो जितना
पाएगा उतना ही
पाएगा और पाने
को शेष है।
परमात्मा
कभी अशेष होता
ही नहीं। सदा
शेष है; और शेष है, और शेष है।
उसका दूसरा
कोई किनारा
नहीं है। नाव
छोड़ दी एक दफा
सागर में तो
सागर— और सागर—
और सागर—विराट
होता चला जाता
है। जितनी
तुम्हारी
हिम्मत बढ़ती,
जितनी
तुम्हारी
पात्रता बढ़ती,
जितनी
तुम्हारी
योग्यता
अर्जित होती
उतना ही सागर
बड़ा होता चला
जाता।
संतुष्टोऽपि
न संतुष्ट—इसलिए
ज्ञानी
संतुष्ट होकर
भी संतुष्ट
कहां?
खिन्नोऽपि
न च खिद्यते—
और खिन्न होकर
भी खिन्न नहीं।
कभी—कभी
तुम ज्ञानी को
खिन्न भी
देखोगे, फिर भी वह
खिन्न नहीं है।
उसकी खिन्नता
भी अदभुत है।
कभी—कभी तुम
उसे उदास भी
देखोगे। उसकी
उदासी
तुम्हारी
खुशियों से
ज्यादा मूल्यवान
है। क्योंकि
वह अपने लिए
कभी उदास नहीं
होता, वह
सदा औरों के
लिए उदास होता
है। इसलिए कहा
है, 'खिन्नोऽपि
न च खिद्यते।’
बुद्ध
के पास एक
आदमी आया और
उसने कहा कि
मैं दुनिया की
कैसे सेवा
करूं, आप
मुझे समझा दें।
और कहते हैं, बुद्ध ने आंख
बंद कर ली और
उनकी आंख से
एक आंसू टपका।
ऐसा बहुत
मुश्किल से
होता है कि
बुद्ध रोएं।
वह आदमी भी
घबड़ा गया कि
मैंने कुछ ऐसी
बात तो नहीं
कह दी कि
उन्हें चोट
लगी हो? कि
मैंने उनके
फूल जैसे कोमल
हृदय को कोई
आघात तो नहीं
पहुंचा दिया?
ऐसा मैंने
कुछ कहा तो
नहीं। वह तो
सोच कर ही आया
था कि बुद्ध
बड़े प्रसन्न
होंगे, जब
सुनेंगे कि
मैं अपना सारा
जीवन मनुष्य
जाति की सेवा
में लगाना
चाहता हूं। और
यह क्या हुआ
कि बुद्ध की आंख
से आंसू टपका?
आनंद
भी विल हो गया, और भी
भिक्षु विल हो
गए। उन्होंने
कहा, तुमने
कहा क्या आखिर?
उस आदमी ने
कहा, मैंने
कुछ ऐसी बात
कही नहीं, इतना
ही कहा है।
बुद्ध से पूछा
उन्होंने, कि
क्या हुआ? आपकी
आंख में आंसू?
उन्होंने
कहा, मैं
इस आदमी के
लिए रोया।
इसने अभी अपनी
ही सेवा नहीं
की और यह सारी
दुनिया की
सेवा करने चला।
इसने अभी अपने
को भी नहीं
जाना। यह आदमी
महादु:ख में
है। यह अपने
दुख से बचने
के लिए दूसरों
की सेवा करने
में उलझना
चाहता है। यह
इसका बचाव है।
इसलिए मैं
रोता हूं।
इसकी करुणा
वास्तविक
करुणा नहीं है,
इसकी करुणा
आत्मपलायन है।
इसलिए मैं
रोता हूं।
बुद्ध
और रोते?
खिन्नोऽपि
न च खिद्यते।
ज्ञानी
पुरुष अगर कभी
उदास हो, दुखी हो, उसकी
आंख में आंसू
भी आ जाएं तो
जल्दी
निष्कर्ष मत
लेना। वह अपने
लिए नहीं रोता।
समझो।
तुम तो जब भी
रोते हो, अपने लिए
रोते हो। जब
तुम बताते हो
कि दूसरों के
लिए रो रहे हो
तब भी तुम
अपने लिए ही
रोते हो। पति
मर गया किसी
का और पत्नी
रो रही है; लेकिन
वह अपने लिए
ही रो रही है, पति के लिए
नहीं रो रही।
यह सहारा था, सुरक्षा थी,
अर्थ की
व्यवस्था थी।
यह पति का
सहारा छूट गया।
इस पति के
कारण हृदय भरा—पूरा
था, एक
खाली जगह छूट
गई। वह अपने
लिए रो रही है।
वह पति के लिए
नहीं रो रही
है।
मैंने
सुना है, एक पति मरा—स्वभावत:
घटना अमरीका
की है—इश्योरेंस
कंपनी का आदमी
आया, उसने
एक लाख डालर
का चेक पत्नी
को दिया। पति
का बीमा था।
पत्नी ने कहा,
धन्यवाद।
अगर मेरा पति
मुझे वापस मिल
जाए तो इसमें
से आधी राशि
मैं अभी भी
लौटा सकती हूं—
आधी! वह भी
पूरी न लौटा
सकी। पति वापस
मिलने को है
भी नहीं, पति
तो मर गया।
इसमें से अभी
भी आधी राशि
वापस लौटा
सकती हूं!
कनक्यूशियस
की बड़ी
प्राचीन कथा
है कि कनफ्यूशियस
एक गांव से
गुजरता था और
उसने एक
स्त्री को एक
कब पर पंखा
करते देखा।
बड़ा हैरान हुआ।
इसको कहते हैं
प्रेम! पति तो
मर गया, कब्र को
पंखा कर रही
है? उसने
पूछा कि देवी,
सुना है
मैंने
पुराणों में
कि ऐसी
देवियां हुई
हैं, लेकिन
अब होती हैं
सोचता नहीं था।
लेकिन धन्य!
तेरे दर्शन
हुए, चरण
छू लेने दे।
उसने कहा, रुको।
पहले पूछ तो
लो कि क्यों
पंखा हिला रही
है? क्यों
हिला रही है? कनफ्यूशियस
ने पूछा। उसने
कहा कि जब मेरा
पति मरा तो
उसने कहा कि
देख, विवाह
तो तू करेगी
ही, लेकिन
जब तक मेरी कब
न सूख जाए, मत
करना। पंखा
हिला रही हूं?
कब को सुखा
रही हूं। गीली
कब। अब पति को
वचन दे दिया।
हम
अपने लिए ही
रोते हैं। जब
कोई मर जाता
है तब भी हम
अपने लिए रोते
हैं। जब राह
से किसी की
अरथी गुजरती
है, और
तुम्हारे मन
में एक धक्का
लगता है। तुम
कहते हो कि
अरे! कोई मर
गया। तब
तुम्हें याद
आती है अपने
मरने की कि
मुझे भी मरना
होगा। जल्दी
करो, जाने
का वक्त आता
होगा। यह अरथी
इसी की नहीं
सजी, मेरी
भी सजने के
करीब है।
तुम जब
भी रोते हो, अपने लिए
रोते हो। तुम
जब भी खिन्न
होते हो, अपने
लिए खिन्न
होते हो। तुम
जब भी क्रोधित
होते हो, अपने
लिए क्रोधित
होते हो।
तुम्हारा
सारा जीवन अहं—केंद्रित
है। ज्ञानी
पुरुष अगर कभी
खिन्न भी
मालूम पड़े तो किसी
और के लिए।
ज्ञानी पुरुष
अगर कभी
क्रोधित भी हो
जाए तो किसी
और के हित के
लिए। ज्ञानी
पुरुष अगर कभी
उदास भी हो तो
खयाल करना, जल्दी
निर्णय मत ले
लेना। उसकी
उदासी उसकी
करुणा का
हिस्सा होती
है।
'धीर
पुरुष
संतुष्ट होकर
भी संतुष्ट
नहीं, दुखी
होकर भी दुखी
नहीं होता।’ तो कितने ही
दुख में तुम
पाओ
बुद्धपुरुष
को, वह
दुखी नहीं है।
उसके भीतर अब
दुख का कोई
वास नहीं रहा।
अहंकार गया, उसी दिन
अहंकार की
छाया दुख भी
गया।’.. .उसकी
उस आश्चर्यमय
दशा को वैसे
ही ज्ञानी जान
सकते हैं।’
बड़ी
कठिन बात है
लेकिन, तुम कैसे
पहचानोगे? तुम्हारी
तो सब पहचान
तुमसे ही
निकलती है।
तुम्हीं तो
कसौटी हो
तुम्हारे लिए।
तुम जब रोते
हो तो तुम
जैसा सोचते हो,
वैसा ही कोई
किसी और को भी
रोते देखोगे
तो वही सोचोगे।
तुम जब हंसते
हो, जैसा
तुम सोचते हो
वैसा किसी और
को हंसते देखोगे
तब भी तुम
वैसा ही
सोचोगे। तुम
अपने ही
मापदंड से
सोचते हो।
तुम्हारा
मापदंड तुम्हीं
हो। इसलिए
ज्ञानी पुरुष
को तुम समझ
नहीं पाते।
अष्टावक्र
ठीक कहते हैं, तस्य
आश्चर्यदशा—ऐसे
ज्ञानी पुरुष
की बड़ी
आश्चर्यमय
दशा है। और
तुम उसे समझ न
पाओगे, क्योंकि
तुम्हारा
वैसी दशा का
कोई भी अनुभव
नहीं है।
ती ता
तादृशा एव
जानन्ते।
उसे तो
वे ही जान
सकते हैं
जिन्होंने
वैसी दशा का
अनुभव किया हो।
बुद्ध को
बुद्ध जान
सकते हैं। जिन
को जिन जान
सकते हैं। कृष्ण
को कृष्ण जान
सकते हैं। उस
परम दशा को
जानने का और
कोई उपाय नहीं
है, जब
तक कि वह परम
दशा तुम्हारे
भीतर न घट जाए।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, हम
कैसे सदगुरु
को पहचानें? बहुत
मुश्किल है।
असंभव है। तुम
नहीं पहचान
सकते। कोई
उपाय नहीं है।
तुम जो भी
उपाय करोगे वह
गलत होगा।
तुम्हारे पास
तो एक ही उपाय
है कि जहां
तुम्हें लगे—
अनुमान ही
होगा
तुम्हारा, कोई
प्रमाण नहीं
हो सकता। जहां
तुम्हें लगे,
जिसके पास
तुम्हें लगे
कि तुम्हारे
जीवन में कुछ
रसधार बहती है
वहां रुक जाना।
अनुभव करना
कुछ। अनुभव
बढ़ने लगे तो
समझना कि ठीक
जगह रुक गए।
अनुभव न बढ़े
तो समझना कि
कहीं और चलना
पड़ेगा, कहीं
और खोजना
पड़ेगा।
टटोलते रहना;
और कोई उपाय
नहीं।
तुम
चाहो कि
तुम्हारे पास
कोई पक्की
गारंटी हो सके—
असंभव।
क्योंकि तुम
जाचोगे कैसे? जिन
अनुभवों का
तुम्हारे
जीवन में कोई
अब तक स्वाद
ही नहीं है, तुम कैसे
पहचानोगे? तुम
जो भी तय कर
लोगे वह गलत
होगा। तुम अगर
किसी शानी
पुरुष को
खिलखिला कर
हंसते देखोगे
तो तुम सोचोगे,
अरे यह कैसा
ज्ञानी है? ऐसे तो हमीं हंसते
हैं। तुम अगर
किसी ज्ञानी
पुरुष की आंख
में आंसू
टपकते देख
लोगे, तुम
कहोगे यह कैसा
ज्ञानी है? ऐसे तो हम
रोते हैं।
तुम
किसी ज्ञानी
पुरुष को किसी
भी अवस्था में
देखोगे तो वे
ही सारी
अवस्थाएं
अज्ञान में भी
होती हैं, इसको
खयाल में रखना।
ज्ञान में जो
होता है वही
सब अजान में
भी होता है।
कारण अलग—अलग
होते हैं, कारण
में भेद होता
है, लेकिन
कार्य वही के
वही होते हैं।
करीब—करीब एक
सी घटनाएं
घटती हैं।
उनघटनाओं से ही
तो तुम तौलोगे।
कारण का तो
तुम्हें कुछ
पता नहीं है।
भूल हो जाएगी।
इस झंझट में
पड़ना ही मत।
इसलिए मैं कहता
हूं तुम तो
जहां
तुम्हारा मन
लग जाए, अनुमान
जहां हो—
अनुमान ही
कहता हूं—
जहां तुम्हें
लगे कि ही, कुछ
यहां हो सकता
है, ऐसी
तुम्हें थोड़ी
सी छाया
प्रतीत हो, मालूम हो, रुक जाना।
कोशिश करना।
हिम्मत करना।
प्रयोग करना।
अगर
कुछ है वहां
तो धीरे— धीरे
तुम्हारा
जीवन
रूपांतरित
होने लगेगा।
धीरे— धीरे
तुम्हारी नाव
किनारे से
छूटने लगेगी।
बंधन कटने
लगेंगे। धीरे—
धीरे आनंद की
तरंगें उठने
लगेंगी। धीरे—
धीरे एक नया
लोक तुम्हारे
भीतर अपने
द्वार खोलने
लगेगा। खुलने
लगें द्वार तो
रुके रह जाना।
न खुलें द्वार, कहीं और
टटोलना। और
जिस दिन तुम
किसी सदगुरु
को छोड़ो
क्योंकि तुम्हारे
द्वार नहीं
खुल रहे हैं, उस दिन भी तय
मत करना कि वह
सदगुरु है या
नहीं।
क्योंकि कई
बार यह होता
है, तुम्हारे
द्वार जहां न
खुलें वहा
किसी और के खुल
जाते हों। कई
बार यह होता
है, जहां
किसी और के द्वार
न खुलें
तुम्हारे खुल
जाते हों।
क्योंकि लोग
भिन्न हैं।
लोग बड़े भिन्न
हैं।
और कोई
एक गुरुसभी का
गुरु नहीं हो
सकता। इतने
भिन्न लोग हैं।
बुद्ध के पास
किसी के द्वार
खुलते, महावीर के
पास किसी के
द्वार खुलते
हैं। कृष्ण के
पास किसी और
के द्वार
खुलते हैं।
इसलिए तुम यह
निर्णय ही मत
करना। न जाने
के पहले
निर्णय करना,
न छोड़ते
वक्त निर्णय
करना। तुम तो
कहना, कोशिश
करके देख लेते
हैं। कुछ होने
लगे, ठीक; रुक जाएंगे।
कुछ न हो, धन्यवाद
देकर हट
जाएंगे। हटते
वक्त भी
धन्यवाद से ही
भरा हुआ मन हो।
हटते वक्त
शिकायत से भरा
हुआ मन न हो कि
इतने दिन खराब
गए। क्योंकि
कुछ खराबजाता
नहीं। वह जो
गलत दरवाजों
पर हमने दस्तक
दी है, वे
दस्तके भी
व्यर्थ नहीं
जातीं। वे
दस्तके ही
हमें ठीक
दरवाजे पर ले
जाती हैं।
तस्य
आश्चर्यदशा
ती तां तादृशा
एव जानन्ते।
जान तो
उन्हीं को वे
ही लोग पाएंगे, जो
उन्हीं की दशा
को उपलब्ध हो
जाते हैं।’कर्तव्य
ही संसार है
और उस कर्तव्य
को शून्याकार,
निराकार, निर्विकार
और निरामय
ज्ञानी नहीं
देखते हैं।’
ममेदं
कर्तव्य।
शास्त्रों
में एक वचन है—मेरे
को यह कर्तव्य
है। ममेदं
कर्तव्य, ऐसे निश्चय
का नाम ही
संसार है। जब
तक तुम्हें
लगता है, ऐसा
मेरा कर्तव्य,
ऐसा मुझे
करना ही पड़ेगा,
तब तक तुम
संसार में हो।
जिस दिन
तुम्हें लगा
कि
मेरास्मृक्या
कर्तव्य? जिसने
सारे को रचा, उसका ही
होगा। मैं तो
थोड़ा सा अपना
पार्ट है जो
दिया, अदा
कर देता हूं।
कर्तव्य नहीं,
अभिनय। जिस
दिन तुम कर्ता
न होकर
अभिनेता होकर
जीने लगे, बस
उसी दिन
क्रांति घट गई।
कर्तव्यतैव
संसारो न तां
पश्यन्ति
सूरय।
शून्याकारा
निराकारा
निर्विकारा
निरामयाः।।
कर्तव्यतैव
संसारो।
जब तक
तुम सोचते, ऐसा मेरा
कर्तव्य है, ऐसा मुझे
करना है, करना
पड़ेगा, ऐसी
मेरी जिम्मेवारी
है। चार
बच्चों का
पिता हूं
पत्नी है, कर्तव्य
है, पूरा
करना है, तब
तक तुम संसार
में जी रहे हो।
पत्नी छोड़ कर
मत भागो, बच्चे
छोड़ कर मत
भागो। पत्नी
और बच्चे में
संसार नहीं है।
इस सूत्र को
समझो।
ममेदं
कर्तव्य—मेरे
को यह कर्तव्य
है, ऐसे
निश्चय का नाम
संसार है।
कर्तव्यतैव
संसारी।
जब तक
कर्तव्य तब तक
संसार।
कर्तव्य को ही
छोड़ दो। पत्नी
को रहने दो, बच्चे को
रहने दो।
दफ्तर भी जाओ,
दुकान भी
जाओ, काम
भी करो। कर्ता
परमात्मा को
बना दो, तुम
कर्ता न रहो।
तुम कहो, जो
लीला तुझे
दिखानी, जो
अभिनय तूने दे
दिया, जिस नाटक
में पात्र
बुना दिया, पूरा कर
देंगे। राम मत
बनो। रामलीला
के राम ही रहो।
मंच पर जो खेल
खेलने को कहा
गया है उसे
पूरा—पूरा कर
दो। उसे
परिपूर्ण
हृदय से पूरा
कर दो, लेकिन
कर्ता की तरह
नहीं।
न तां
पश्यन्ति
सूरय:।
जो
ज्ञानी हैं वे
कर्तव्य को
देखते ही नहीं।
उन्हें कोई
कर्तव्य नहीं
दिखाई पड़ता।
जो परमात्मा
करवाता है, वे करते
हैं। जो नहीं
करवाता, वे
नहीं करते।
उनकी कोई
जिम्मेवारी
नहीं। इसलिए
तो अष्टावक्र
उन्हें कहता
है स्वच्छंद।
शून्याकारा
निराकारा
निर्विकारा
निरामयाः।
ऐसी
चार उनकी
लक्षणा है।’
शून्यकारा—वे
अपने भीतर
शून्य रहते
हैं। बाहर
हजार—हजार रूप
धर लेते हैं, 'भीतर
शून्य बने
रहते हैं।
क्रोध में
उन्हें पाओ, रमण को
भागते देखो
डंडा लिए, तब
भी भीतर
शून्याकारा।
कि गुरजिएफ को
क्रोध से
उबलते देखो...।
गुरजिएफ
के शिष्यों ने
बहुत से
संस्मरण लिखे हैं
कि जब वह
क्रुद्ध होता
था तो तुफान—आधी
आ जाए ऐसा
कुद्ध होता था।
ऐसा लगता था, सब मिटा
डालेगा। और
क्षण
भर में जैसे
आंधी चली गई।
और क्षण भर
बाद उसे देखो
तो पता ही न
चलता कि वह कभी
क्रोधित हो
सकता है।
और कभी—कभी
तो गुरजिएफ
गजब कर देता
था; बड़ा
कुशल अभिनेता
था। दो आदमी
बैठे हों तो
एक आदमी को तो
एक आंख से वह
क्रोध
दिखलाता और
दूसरे आदमी को
प्रेम दिखलाता।
और दोनों जब
बाहर मिलते तो
उनमें विवाद
छिड़ जाता कि
यह आदमी अच्छा
है कि बुरा।
वह एक कहता, बड़ा खतरनाक
है। मेरी तरफ
ऐसा देख रहा
था, जैसे
मार डालेगा।
और दूसरा कहता,
मेरी तरफ
उसने इतने प्रेम
से देखा, तुम
गलत बात कह
रहे हो। कोई
आदमी एक—एक आंख
से अलग—अलग
थोड़े ही देख
सकता है।
लेकिन
इसकी संभावना
है, क्योंकि
तुम्हारे
भीतर दो
मस्तिष्क हैं
और दोनों का
अलग—अलग उपयोग
हो सकता है।
बाईं आंख अलग
मस्तिष्क से
चल रही है; दाएं
मस्तिष्क से
चल रही है।
दाईं आंख बाएं
मस्तिष्क से
चल रही है।
दोनों अलग हैं।
दोनों का
प्रयोग ठीक से
कर लो तो
दोनों का उपयोग
किया जा सकता
है।
अभी
पश्चिम में
कुछ प्रयोग
चलते हैं।
अनूठे प्रयोग
हैं, भविष्य
में काम आएंगे।
अब तक आदमियत
ने आधे का ही
उपयोग किया है
इसलिए हमारा
एक हाथ चलता
है, और एक
हाथ नहीं चलता।
अब पश्चिम में
वे अभ्यास कर
रहे हैं कि
दूसरा हाथ भी
इतना ही चल
सकता है। कोई
कारण नहीं है।
तो अब
बच्चों को
भविष्य में
ऐसा सिखाया
जाना है कि
दोनों हाथ
चलें। तो
दोहरी शक्ति
हाथ में आ
जाएगी। और जब
दोनों हाथ
चलेंगे तो
दोनों
मस्तिष्क काम
करेंगे। आदमी
अब तक अधूरा
जीया है। आदमी
में बड़ी
क्षमता प्रकट
होगी अगर
दोनों मस्तिष्क
काम करने लगें।
और अगर
तुम्हारी कला—कुशलता
बढ़ गई.. .जो बढ़
जाएगी, क्योंकि
आदमी को खयाल
आ जाए तो फिर
उपाय शुरू हो
जाते हैं। तो
फिर पारी—पारी
बदली जा सकती
है। आधा
मस्तिष्क काम
करता है, इसको
छह घंटे काम
लेने दो, फिर
इसको बदल दो।
फिर दूसरे
मस्तिष्क को
काम करने दो।
तो एक का
विश्राम
चलेगा, दूसरे
का काम चलेगा।
काम की क्षमता
बहुत बढ़ सकती
है।
गुरजिएफ
इस पर प्रयोग
कर रहा था।
लेकिन
गुरजिएफ का
सारा मामला
नाटक था। उसके
एक शिष्य ने
लिखा है कि
उसके साथ
यात्रा की
उसने एक
स्टेशन से
दूसरे स्टेशन
तक। कहा कि
फिर कसम खा ली
कि जिंदगी में
अब कभी इसके
साथ यात्रा
नहीं करेंगे।
क्योंकि उसने
ऐसा उपद्रव
मचाया!
पहले
तो स्टेशन पर
ही उसने इतना
शोरगुल मचाया कि
भीड़ इकट्ठी कर
ली। गाड़ी दस
मिनट लेट हो
गई उसके
उपद्रव के
कारण। फिर वह
किसी तरह अंदर
चढ़ा, तो
जहां सिगरेट
नहीं पीना है
वहा सिगरेट
पीने लगा बैठ
कर। जहां शराब
नहीं पीनी है
वहां शराब
पीने लगा; फिर
वहां शोरगुल
मचा। फिर
ड्राइवर और
कंडक्टर भागे
आए, फिर
किसी तरह उसको
समझाया। तो वह
अनर्गल बकने
लगा। और वह
शिष्य जानता
है कि वह
बिलकुल होश
में है। वह
कुछ गड़बड़ नहीं
कर रहा है। वह
कितनी ही शराब
पीए, बेहोश
होता नहीं था।
वह भी
एक गहरा
अभ्यास है; भारत में
अघोरपंथी
साधु बहुत दिन
से करते रहे।
ध्यान की
परीक्षा है कि
शराब
तुम्हारे
ध्यान को
प्रभावित न
करे। कितनी ही
शराब पी जाओ
और ध्यान
अछूता बचा रहे।
क्योंकि शराब
से अगर ध्यान
डूब जाए तो यह
कोई ध्यान
हुआ! यह तो जरा
सी शराब ने
बदल दिया, यह
तो जरा से
रसायन ने बदल
दिया। यह कोई
बहुत गहरा
नहीं है।
तो
शिष्य जानता
है, वह
सबको समझाता
है कि नाटक है,
मगर कौन
उसकी माने? क्योंकि यह
कैसा नाटक? रात दो बजे
तक उसने सारी
ट्रेन को
परेशान कर रखा।
यहां तक हालत
आ गई कि जहां
नहीं उतरना था
वहा ड्राइवर
ने गाड़ी खड़ी
कर दी और कहा, इस आदमी को
उतारना पड़ेगा।
यह चलने ही
नहीं देता, यात्रियों
को परेशान कर
रहा है। पूरी
गाड़ी जुड़ी है
तो वह इस कोने
से लेकर उस
कोने तक आ— जा
रहा है, शोरगुल
मचा रहा है, सोए आदमियों
को हिला कर
जगा रहा है।
और वह
शिष्य परेशान
है। और वह
शिष्य जानता
है, सब
उसी के लिए
किया जा रहा
है।
बामुश्किल उस
शिष्य ने हाथ—पैर
जोड़ कर किसी
तरह कहा कि
अगले स्टेशन
पर हमें उतरना
ही है, वहां
तक तो चले
जाने दो। अब
जो हो गई भूल, हो गई। अगले
स्टेशन पर उतर
कर जब वे कार
में बैठे तब वह
हंसने लगा।
उसने कहा, कहो,
कैसी रही? तुम बहुत
घबड़ा गए थे।
घबड़ा गए थे? वह कहता, मैं
कंपता रहा। अब
कभी तुम्हारे
साथ यात्रा
नहीं करूंगा।
और मैं जानता
था कि सब नाटक
है। और तुमने
मेरी खूब
परीक्षा ली।
इतना मैंने
कोसा तुम्हें
इस पूरे वक्त।
क्योंकि
तुमको तो लोग
समझ रहे थे, तुम बेहोश
हो, सब
मुसीबत मुझ पर
आ रही थी कि
तुम किस आदमी
को लेकर क्ष
गए ट्रेन में!
वह
आदमी
प्रसिद्ध
आदमी था; एक बड़ा
पत्रकार था, लेखक था।
उसको लोग
जानते भी थे।
उसकी खूब
बेइज्जती
करवाई उसने।
लेकिन उस
पत्रकार ने
लिखा है कि उस
दिन के बाद मेरे
जीवन में बड़े
फक भी हुए।
दूसरे दिन
सुबह मैं
बिलकुल हलका
उठा, जैसे
मेरा पहाड़ उतर
गया। वह
अहंकार, कि
मैं बड़ा
प्रसिद्ध फला—
ढिकां. .उसने
सब मिट्टी
करवा दिया।
वही मेरा
इलाका था जहां
लोग मुझे
जानते हैं।
उसने सब पानी
फेर दिया। और
दूसरे दिन मैं
बिलकुल हलका
उठा—निर्भार!
कठिन
है कहना, ज्ञानी का
व्यवहार कैसा
हो?
कर्तव्यतैव
संसारो न ती
पश्यन्ति कय:।
शून्याकारा—वह
भीतर तो शून्य
बना रहता; बाहर कुछ
भी व्यवहार
करे।
निराकारा—बाहर
कैसा ही अभिनय
करे, भीतर
निराकार बना
रहता है।
निर्विकारा—तुम
उसे शराबघर
में देखो कि
वेश्यालय में, कोई फर्क
नहीं पड़ता। वह
भीतर
निर्विकार
बना रहता है।
निरामया—तुम
उसे कैसी भी
दशा में देखो, वह
दुखरहित होता।
गुरजिएफ
के जीवन में
और भी उल्लेख
हैं, जो
बड़े
महत्वपूर्ण
हैं। गुरजिएफ
ने आखिरी समय
अपनी कार को
टकरा लिया एक
वृक्ष से। उसे
कार चलाने का
शौक था और
दौड़ाता था
सीमा के बाहर।
जब उसकी कार टकराई
तो ऐसी कार की
हालत हो गई थी
कि उसे कार से
निकालने में
डेढ़ घंटा लगा—गुरजिएफ
को बाहर
निकालने में।
उसका शरीर इस
बुरी तरह उलझ
गया था कार के भीतर,
सब चकनाचूर
हो गया था।
लेकिन
जो लोग निकाल
रहे थे उनको
उसने सब बताया
कि कैसे
निकालो। वह
पूरे होश में
था। जब उसे
बाहर निकाल
लिया गया तो
उसने बताया कि
कहां—कहां
पट्टियां
बांधो। सारा
शरीर चकनाचूर
था। और जब
छत्तीस घंटे
बाद उसे बड़े
अस्पताल में लाया
राया तो
डाक्टरों ने
माना ही नहीं
कि आदमी जिंदा
रह सकता है।
यह असंभव है।
उसके सारे
फेफड़ों में
खून भरा था, उसके
सारे
मस्तिष्क में
खून भरा था। न
केवल वह जिंदा
था, वह
परिपूर्ण होश
से जिंदा था।
वह डाक्टरों
से बात करता
रहा और
डाक्टरों को भरोसा
न आया कि आदमी
बेहोश नहीं है।
उसके
शिष्य जानते
थे कि उसने
जानकर किया।
वह मरने के
पहले मृत्यु
को स्वेच्छा
से देख लेना
चाहता था। वह
अपने शरीर को
आखिरी विकृति
में डाल कर
देख लेना
चाहता था कि
फिर भी मेरा
होश रह सकता
है कि नहीं।
डाक्टरों ने
कहा, यह
बच ही नहीं
सकता। यह आदमी
मर ही जाना
चाहिए। ऐसा
कोई उल्लेख ही
नहीं अब तक कि
ऐसा आदमी बच सके।
लेकिन वह बच
गया। न केवल
बच गया, उसने
कोई दवा न ली।
उसने किसी तरह
का इंजेक्यान
न लिया। उसने
किसी तरह की
शामक
ट्रेक्येलाइजर
न ली। उसने
कहा कि नहीं, कुछ भी नहीं।
और
इतना ही नहीं, वह दूसरे
दिन सुबह अपने
शिष्यों के
बीच बैठा समझा
रहा था। उसको
लाया गया
स्ट्रेचर पर।
मगर वह समझा
रहा था, जो
बातें उसे
समझानी थीं।
और तीन सप्ताह
के भीतर वह
बिलकुल चंगा
था; फिर
चलने लगा, फिर
ठीक हो गया।
जब वह मरा—कई
साल बाद मरा
इस घटना के—जब
वह मरा तो
उसका एक बहुत
प्रसिद्ध
अनुयायी बेनेट
पहुंच नहीं
पाया समय पर।
खबर कर दी गई
थी, शिष्य
आ जाएं, क्योंकि
उसे बोध था कि
वह कब शरीर
छोड़ देगा।
लेकिन वह नहीं
पहुंच पाया।
पहुंचने की
कोशिश की
लेकिन प्लेन
देर से आया।
जब पहुंचा तो
वह मरे कोई
बारह घंटे हो
चुके थे।
रात, आधी रात
बेनेट पहुंचा।
जिस चर्च में
उसकी लाश रखी
थी, वह
अंदर गया।
वहां कोई भी न
था रात में, सब शिष्य जा
चुके थे। वह
बड़ा हैरान हुआ।
उसे ऐसा लगा
कि वह जिंदा
है। और बेनेट
एक बड़ा विचारक
है, गणितज्ञ
है, वैज्ञानिक
है। वह पास
गया, उसने
हृदय के पास
कान रख कर
सुनना चाहा।
उसे ऐसा लगा
कि वह सांस ले
रहा है। वह
बहुत घबड़ाया।
मरे बारह घंटे
हो गए और यह
आदमी क्या अब
भी कोई खेल कर
रहा है, मरने
के बाद भी?
उसे
इतना भय लगा
कि वह बाहर आ
गया निकलकर, लेकिन
फिर भी उसकी
आकांक्षा बनी
रही कि एक दफा
और जाकर देख
लूं कि सच में
यह बात है कि
मैं किसी भ्रम
में हूं? वह
भीतर गया, उसने
सब तरह से—
अपनी सांस रोक
कर बैठा। कहीं
मेरी सांस की
आवाज ही तो
मुझे नहीं
सुनाई पड़ रही
है? लेकिन
तब भी उसे
सांस लेने की
आवाज सुनाई
पड़ती रही।
गुरजिएफ
उस समय भी प्रयोग
कर रहा था देह
के बाहर खड़े
होकर। देह के
भीतर प्रयोग
किए, देह
के बाहर
प्रयोग किए।
गुरजिएफ अब भी,
मर जाने के
बाद भी उसके
शिष्यों को
उपलब्ध है—उतना
ही जीवित, जितना
तब था जब वह
जीवित था।
मृत्यु
में भी मरता
नहीं ज्ञानी।
दुख में दुखी
नहीं होता—निरामयाः।
ज्ञानी को
पहचानने के
लिए लेकिन
तुम्हें ज्ञानी
हो जाना पड़े।
जैसे को जानना
हो, वैसा
होना ही उपाय
है।
आज इतना ही।
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