अध्याय
28 : खंड 1
स्त्रैण
में वास
जो
पुरुष को तो
जानता है,
लेकिन
स्त्रैण में
वास करता है,
वह
संसार के लिए
घाटी बन जाता
है।
और
संसार की घाटी
होकर,
वह
उस मूल स्वरूप
में स्थित
रहता है,
जो
अखंड है।
और
वह पुनः शिशुवत
निर्दोषता
को उपलब्ध हो
जाता है।
जो
शुक्ल
(प्रकाश) के
प्रति
होशपूर्ण है,
लेकिन
कृष्ण
(अंधेरे) के
साथ जीता है,
वह
संसार के लिए
आदर्श बन जाता
है।
और
संसार का
आदर्श होकर,
उसको
वह सनातन
शक्ति
प्राप्त हो
जाती है,
जो
कभी भूल नहीं
करती।
और
वह पुनः अनादि
अनस्तित्व
में वापस लौट
जाता है।
इस
सूत्र में
प्रवेश के
पूर्व कुछ
बुनियादी बातें
समझ लेनी
जरूरी हैं।
पहली
बात। लाओत्से
स्त्री
को--स्त्रैण
चित्त को--ज्यादा
मौलिक, आधारभूत
मानता है।
पुरुष गौण है।
सारे
जगत में पुरुष
प्रमुख समझा
जाता है, स्त्री
गौण। पहले तो
इस बात को ठीक
से समझ लेना
चाहिए; क्योंकि
पूरे
मनुष्य-जाति
का इतिहास
लाओत्से के
विपरीत
निर्मित हुआ
है। सभी
सभ्यताएं पुरुष
को प्रमुख और
स्त्री को गौण
मान कर चलती रही
हैं।
लाओत्से
मानता है, स्त्री
प्रमुख है, पुरुष गौण
है।
और आज
विज्ञान भी
लाओत्से के
समर्थन में
है। क्योंकि
विज्ञान भी
मानता है कि
सभी बच्चे मां
के पेट में
प्राथमिक रूप
से स्त्रैण
होते हैं। जो
गर्भ का
प्रारंभ है, मां
के पेट में, सभी बच्चे
स्त्री की तरह
यात्रा शुरू
करते हैं। फिर
उनमें से कुछ
बच्चे पुरुष
की तरह विभिन्न
यात्रा पर
निकलते हैं।
लेकिन
प्रारंभ सभी
बच्चों का
स्त्रैण है।
दूसरी
बात समझ लेने
जैसी है, वह यह
कि पुरुष भी
स्त्री से ही
जन्मता है। इसलिए
गौण ही होगा, प्रमुख नहीं
हो सकता। वह
भी स्त्री का
ही फैलाव है।
वह भी स्त्री
की ही यात्रा
है।
तीसरी
बात।
जीव-शास्त्री
कहते हैं कि
पुरुष में एक
तरह की
तनाव-स्थिति
है;
स्त्री में
वैसी
तनाव-स्थिति
नहीं है।
जीव-वैज्ञानिकों
के अनुसार जिस
दो अणुओं के
मिलन से, जीवाणुओं
के मिलन से
व्यक्ति का
जन्म होता है।
प्रत्येक
जीवाणु में
चौबीस कोष्ठ
होते हैं। यदि
चौबीस-चौबीस
कोष्ठ के दो
जीवाणु मिलते
हैं तो स्त्री
का जन्म होता
है। कुछ कोष्ठ
तेईस
जीवाणुओं वाले
होते हैं। अगर
तेईस और चौबीस,
ऐसे दो
जीवाणुओं
वाले कोष्ठ का
मिलन होता है
तो पुरुष का
जन्म होता है।
पुरुष में
संतुलन थोड़ा
कम है। एक तरफ
चौबीस कोष्ठ
हैं, एक
तरफ तेईस
कोष्ठ हैं।
स्त्री
संतुलित है। दोनों
कोष्ठ चौबीस-चौबीस
हैं। तो
जीव-वैज्ञानिक
कहते हैं कि
स्त्री के
सौंदर्य का
कारण यही
संतुलन है।
ज्यादा
संतुलित, ज्यादा
बैलेंस्ड।
यही कारण है
कि स्त्री का
धीरज, सहनशीलता
पुरुष से
ज्यादा है। और
यही कारण भी है
कि पुरुष
स्त्री को
दबाने में सफल
हो पाया।
क्योंकि
बेचैनी उसका गुण
है; वह जो
तेईस और चौबीस
का असंतुलन है,
जो तनाव है,
वही उसका
आक्रमण बन
जाता है। और
पुरुष पूरे जीवन
संतुलन की खोज
कर रहा है।
इसलिए
बहुत मजे की
बात है:
स्त्रियों ने
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, जीसस
पैदा नहीं किए
हैं। पुरुषों
ने पैदा किए हैं।
उसका बहुत
मौलिक कारण
यही है कि
पुरुष की ही
खोज है शांति
के लिए; स्त्री
की कोई खोज
नहीं है।
स्त्री
स्वभाव से शांत
है; अशांति
विभाव है। उसे
चेष्टा करके
अशांत किया जा
सकता है।
पुरुष स्वभाव
से अशांत है।
चेष्टा करके
उसे शांत किया
जा सकता है।
इसलिए बुद्ध
पुरुषों में
पैदा होंगे, स्त्री में
पैदा नहीं
होंगे।
पुरुष
चेष्टा कर रहा
है निरंतर कि
कैसे शांत हो
जाए। और
आक्रामक होना
उसका स्वभाव
होगा, एग्रेशन उसका लक्षण
होगा। इसीलिए
पुरुष खोज
करेगा; क्योंकि
खोज आक्रमण
है। पुरुष
विज्ञान निर्मित
करेगा; क्योंकि
विज्ञान
आक्रमण है।
पुरुष
एवरेस्ट पर चढ़ेगा, चांद
पर जाएगा, मंगल
को जीतेगा; क्योंकि यह
सारा अभियान
आक्रमण का है।
स्त्री
आक्रामक नहीं
है। पुरुष
युद्ध करेगा;
बिना युद्ध
के जी नहीं
सकेगा। कितनी
ही शांति की
बातें करे, लेकिन
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
पुरुष का
जीवाणु-संगठन
ऐसा है कि वह
बिना युद्ध के
जी नहीं सकता।
युद्ध उसकी
प्रवृत्ति का
हिस्सा है। जब
तक कि उसकी
प्रवृत्ति न
बदल जाए, या
जब तक कि हम
उसके
जीवाणुओं का
संगठन न बदल दें,
तब तक युद्ध
वह करेगा। यह
हो सकता है, शांति के
लिए युद्ध
करे।
इसलिए
बड़े मजे की
बात है, जो
शांतिवादी
हैं, अगर
उनका भी जुलूस
देखें और उनके
भी नारे सुनें,
तो वे युद्धवादियों
से कम युद्धवादी
नहीं मालूम
होते। वे
शांति के लिए
संघर्ष करते
हैं, लेकिन
करते संघर्ष
ही हैं। वे
शांति के लिए
जान देने को, लेने को
तैयार हैं।
बहाना कोई भी
हो, पुरुष
की उत्सुकता
लड़ने में है।
इसलिए
जब युद्ध चलता
है कहीं भी, तो
पुरुषों की
आंखों में चमक
आ जाती है।
जीवन में कुछ
रस मालूम होता
है--कुछ हो रहा
है! वह जो उदासी
है, टूट
जाती है, एक
रौनक छा जाती
है। स्त्री और
पुरुष के बीच
जो मौलिक
असंतुलन का
भेद है, वही
इसके पीछे
कारण है।
हिंसा
एक आंतरिक
असंतुलन का
परिणाम है और प्रेम
एक आंतरिक
संतुलन का।
इसलिए स्त्री
ने प्रेम किया
है। लेकिन
प्रेम से न तो
चांद पर जाया
जा सकता है, न
एवरेस्ट चढ़े
जा सकते हैं।
सच तो यह है कि
स्त्रियों की
कभी समझ में
नहीं आता कि
एवरेस्ट चढ़ने
की जरूरत क्या
है? चांद
पर जाने की
जरूरत क्या है?
स्त्री की
उत्सुकता
निकट में होती
है, दूर
में बिलकुल भी
नहीं। विजय
में बिलकुल
नहीं होती, आक्रमण में
बिलकुल नहीं
होती। एक
संतुलित, शांत,
प्रेमपूर्ण
जीवन में होती
है--अभी और
यहीं। इसलिए
स्त्रियां
दूर-दृष्टि की
नहीं होतीं।
उनको बहुत पास
का दिखाई पड़ता
है; दूर
व्यर्थ हो जाता
है। पुरुष को
पास का बिलकुल
दिखाई नहीं
पड़ता।
क्योंकि जो
पास है, उसको
जीतने में कोई
मजा नहीं है।
वह जीता ही हुआ
है।
इसलिए
बड़े मजे की
घटना घटती है, पुरुष
की उत्सुकता
किसी भी
स्त्री में
तभी तक होती
है, जब तक
वह उसे जीत
नहीं लेता।
जीतते ही उसकी
उत्सुकता
समाप्त हो
जाती है।
जीतते ही फिर
कोई रस नहीं
रह जाता।
नीत्शे ने कहा
है कि पुरुष
का गहरे से
गहरा रस विजय
है। कामवासना
भी उतनी गहरी
नहीं है।
कामवासना भी
विजय का एक
क्षेत्र है।
इसलिए पत्नी
में उत्सुकता
समाप्त हो
जाती है, क्योंकि
वह जीती ही जा
चुकी। उसमें
कोई अब जीतने
को बाकी नहीं
रहा है। इसलिए
जो बुद्धिमान पत्नियां
हैं, वे
सदा इस भांति जीएंगी
पति के साथ कि
जीतने को कुछ
बाकी बना रहे।
नहीं तो पुरुष
का कोई रस
सीधे स्त्री
में नहीं है।
अगर कुछ अभी
जीतने को बाकी
है तो उसका रस
होगा। अगर सब
जीता जा चुका
है तो उसका रस
खो जाएगा। तब
कभी-कभी ऐसा
भी घटित होता
है कि अपनी सुंदर
पत्नी को छोड़
कर वह एक
साधारण
स्त्री में भी
उत्सुक हो
सकता है। और
तब लोगों को
बड़ी हैरानी
होती है कि यह
उत्सुकता
पागलपन की है।
इतनी सुंदर
उसकी पत्नी है
और वह नौकरानी
के पीछे दीवाना
हो! पर आप समझ
नहीं पा रहे हैं।
नौकरानी अभी
जीती जा सकती
है; पत्नी
जीती जा चुकी।
सुंदर और
असुंदर बहुत
मौलिक नहीं
हैं। जितनी
कठिनाई होगी
जीत में, उतना
पुरुष का रस
गहन होगा।
और
स्त्री की
स्थिति
बिलकुल और है।
जितना पुरुष
मिला हुआ हो, जितना
उसे अपना
मालूम पड़े, जितनी दूरी
कम हो गई हो, उतनी ही वह
ज्यादा लीन हो
सकेगी।
स्त्री इसलिए
पत्नी होने
में उत्सुक
होती है; प्रेयसी
होने में
उत्सुक नहीं
होती। पुरुष प्रेमी
होने में
उत्सुक होता
है; पति
होना उसकी
मजबूरी है।
स्त्री
का यह जो
संतुलित भाव
है--विजय की
आकांक्षा
नहीं है--यह
ज्यादा मौलिक
स्थिति है। क्योंकि
असंतुलन
हमेशा संतुलन
के बाद की स्थिति
है। संतुलन
प्रकृति का
स्वभाव है।
इसलिए हमने
पुरुष को
पुरुष कहा है
और स्त्री को
प्रकृति कहा
है। प्रकृति
का मतलब है कि
जैसी स्थिति
होनी चाहिए
स्वभावतः।
इसलिए
बहुत मजे की
घटना घटती है:
जब कोई पुरुष शांत
हो जाता है, तो
उसमें
स्त्रैण
लक्षण प्रकट
हो जाते हैं।
बुद्ध के
चेहरे को देख
कर पुरुष का
कम और स्त्री
का खयाल
ज्यादा आता
है। हमने तो
इसीलिए बुद्ध,
महावीर, कृष्ण,
राम को दाढ़ी-मूंछ
भी नहीं दी।
नहीं थी, ऐसा
नहीं है। दाढ़ी-मूंछ
निश्चित ही
थी। लेकिन जिस
अवस्था को वे उपलब्ध
हुए, वह स्त्रैणवत
हो गई। वे
इतने शांत और
संतुलित हो गए
कि वह जो पुरुष
की आक्रामकता
थी, वह खो
गई। इसलिए
सिर्फ प्रतीक
है यह। इसलिए
हमने उनको दाढ़ी-मूंछ
नहीं दी।
जैनों के
चौबीस
तीर्थंकर हैं,
एक को भी दाढ़ी-मूंछ
नहीं है। बड़ा
मुश्किल है
चौबीस ऐसे
आदमी खोजना, जिनमें एक
को भी दाढ़ी-मूंछ
न हो। एकाध तो
कभी आदमी मिल
सकता है, लेकिन
चौबीस खोजना
बड़ा मुश्किल
है। बुद्ध को दाढ़ी-मूंछ
नहीं है।
कृष्ण को, राम
को दाढ़ी-मूंछ
नहीं है। आपने
कोई चित्र
नहीं देखा
होगा राम का दाढ़ी-मूंछ
के साथ। क्या
कारण है?
दाढ़ी-मूंछ
निश्चित रही
होगी, क्योंकि
दाढ़ी-मूंछ
का न होने का
मतलब है कि वे
ठीक से पुरुष
ही नहीं थे।
बीमार थे, रुग्ण
थे, कुछ
हारमोन की कमी
थी। नहीं, यह
सिर्फ प्रतीक
है। हमने यह
बात उनमें
अनुभव की कि
वे स्त्री
जैसे हो गए
थे। इसलिए दाढ़ी-मूंछ
को प्रतीक की
तरह छोड़ दिया।
नीत्शे
ने तो स्पष्ट
रूप से बुद्ध
और जीसस को
स्त्रैण कहा
है,
फेमिनिन
कहा है। निंदा
के लिए कहा है,
पर बात उसकी
सच है। उसने
तो निंदा में
कहा है, उसने
तो कहा है कि
इन स्त्रैण
पुरुषों की
बातें मान कर
अगर दुनिया
चलेगी तो सारी
दुनिया स्त्रैण
हो जाएगी।
उसने तो निंदा
में कहा है, क्योंकि वह
तो पुरुष का
पक्षपाती है।
वह तो कहता है,
जगत में पौरुषिकता
बढ़नी चाहिए।
और ये बुद्ध
और क्राइस्ट
और महावीर, इनके खिलाफ
है; क्योंकि
ये स्त्रियों
के पक्षधर
हैं। ये जो भी
अहिंसा, करुणा
की बातें कर
रहे हैं, वे
सब स्त्रैण
गुण हैं।
नीत्शे कहता
है, युद्ध,
हिंसा, आक्रमण,
रक्त, ये
पुरुष का
लक्षण है। तो
वह कहता है कि
ये दगाबाज
पुरुष धोखा दे
गए पुरुषों को
और स्त्रैण प्रचार
कर रहे हैं।
लेकिन उसकी
बात में थोड़ी
सचाई है।
बुद्ध और
महावीर
स्त्रैण हो गए
हैं। बहुत
गहरे तल पर
संतुलन हो गया
है। इसलिए वह
जो पुरुष का
आक्रमण है, हिंसा है, वह खो गई है।
लाओत्से
के लिए स्त्री
मूल है, आधार
है। पुरुष
उसकी एक शाखा
है।
इसे हम
एक और दिशा से
भी समझ लें।
पुरुष और स्त्री
के
व्यक्तित्व
की बनावट भी, उनके
शरीर का
निर्माण भी, सूचक है।
पुरुष के पास
जो जनन-यंत्र
है, वह भी
आक्रामक है।
स्त्री के पास
जो जनन-यंत्र
है, वह भी
आक्रामक नहीं
है, सिर्फ
ग्राहक है।
इसलिए स्त्री
किसी पर व्यभिचार
नहीं कर सकती।
असंभव है।
स्त्री किसी
पर आक्रमण
करके
व्यभिचार
नहीं कर सकती।
वह असंभव है।
और पुरुष के
लिए व्यभिचार
जितना संभव है,
उतना प्रेम
संभव नहीं है।
इसलिए जिन
स्थितियों
में पुरुष
सोचता है कि
वह प्रेम कर
रहा है, उन
स्थितियों
में भी सौ में
से नब्बे मौकों
पर वह
व्यभिचार ही
कर रहा होता
है। यह थोड़ा
कठिन है।
लेकिन आज मनसविद
कहते हैं कि
यह सही है कि
पुरुष अक्सर
प्रेम में भी
आक्रमण ही
करता है। वहां
भी एक तरह की
जबरदस्ती है। और
स्त्री केवल
इस जबरदस्ती
को स्वीकार
करती है। और
यह पता लगाना
मुश्किल है कि
उसकी स्वीकृति
में उसका
प्रेम था, या
नहीं था।
क्योंकि
स्त्री के
प्रेम की प्रक्रिया
भी पैसिव
है, निष्क्रिय
है। इसे भी हम
समझ लें तो
सूत्र में
प्रवेश बहुत
आसान हो
जाएगा।
पुरुष
के प्रेम की
प्रक्रिया
सक्रिय है। वह
प्रेम को प्रकट
करता है। उसका
प्रेम भी
आक्रमण बनता
है। स्त्री का
प्रेम केवल
समर्पण है।
स्त्री यदि
प्रेम में
बहुत ज्यादा
सक्रियता बरते
तो पुरुष को
बेचैनी होगी।
वह सिर्फ
स्वीकार करे, समर्पण
करे, लीन
हो जाए, प्रतिरोध
न करे, अप्रतिरोध
में हो, सहयोगी
हो। और उसका
सहयोग भी पैसिव
हो, सिर्फ
एक आमंत्रण हो,
स्वीकृति
हो, सहयोग
हो, प्रफुल्लता
हो। लेकिन
प्रेम सक्रिय
न बने। उतनी
ही स्त्री
पुरुष को
ज्यादा
प्रीतिकर होगी।
उसका प्रेम
स्वीकार है, बहुत गहन
स्वीकार है।
और इसलिए पता
लगाना भी बहुत
आसान नहीं है।
पुरुष का
प्रेम तत्काल
पता चल सकता है,
क्योंकि
सक्रियता में
प्रकट होता
है।
निष्क्रियता
का यह तत्व भी
सोचने जैसा
है। क्योंकि
जो तत्व जितना
निष्क्रिय
होगा, उतना
शांत होगा, उतना मौन
होगा, उतना
गहन, उतना
गहरा होगा। जो
तत्व जितना
सक्रिय होगा,
उतनी सतह पर
होगा, उथला
होगा। लहरें
तो सतह पर
होती हैं; बड़ा
शोरगुल होता
है। सागर की
गहराई में तो
मौन होता है।
वहां कोई
लहरें भी नहीं
होतीं, कोई
शोरगुल भी
नहीं होता।
पुरुष एक तरह
की सतह है, जहां
बड़ी सक्रियता
है, बड़े
तूफान, बड़ी
आंधियां हैं।
स्त्री एक तरह
की गहन गहराई है,
जहां सब मौन
और शांत है।
लेकिन ध्यान
रहे, वह जो
पुरुष की
सक्रियता है,
वह उसी
गहराई के ऊपर
टिकी है। वह
उसी गहराई का ऊपरी
हिस्सा है।
स्त्री
केंद्र पर है,
पुरुष
परिधि पर है।
इसलिए जब भी
कोई पुरुष केंद्र
में प्रवेश
करता है, स्त्रियों
जैसा हो जाता
है। और जब भी
कोई स्त्री
सक्रिय होने
की कोशिश करती
है, सतह पर
आ जाती है और
पुरुष जैसी हो
जाती है।
पश्चिम
में आज स्त्री
की बड़ी दौड़
है--पुरुष जैसे
हो जाने की।
इधर लाओत्से
पुरुषों को
समझा रहा है
कि वे
स्त्रियों
जैसे हो जाएं।
वहां पश्चिम
में एक दौड़ है
कि स्त्रियां
पुरुष जैसी हो
जाएं। कारण है
उसका।
क्योंकि
पश्चिम की
पूरी
संस्कृति
पुरुष के
द्वारा
निर्मित हुई
है--आक्रामक, हिंसक।
उसने स्त्री
को पोंछ डाला,
दबा डाला, मिटा डाला।
यह सीमा के
बाहर चला गया
आक्रमण। और इस
पुरुष ने सब
तरह की जो
शिक्षा
स्त्री को दी,
वह स्त्री
भी उस शिक्षा
में पुरुष की
आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं
से भर गई। आज
दुनिया में जो
भी शिक्षा है,
वह
स्त्रियों के
लिए कोई भी
नहीं है। वह
सब पुरुषों के
लिए निर्मित
हुई शिक्षा
है। स्त्रियां
उसमें प्रवेश
कर गई हैं।
मौलिक ढांचा
पुरुष के लिए
है उस शिक्षा
का, स्त्री
के लिए नहीं
है। जिनको हम
स्त्रियों की
संस्थाएं कहते
हैं, उनकी
भी शिक्षा का
ढांचा पुरुष
का है। क्या पढ़ाते हैं,
इससे सवाल
नहीं पड़ता।
कैसे पढ़ाते
हैं और किसलिए
पढ़ाते
हैं? और
क्या है
लक्ष्य? सारा
ढांचा पुरुष
का
है--महत्वाकांक्षा,
एंबीशन,
विजय, दौड़,
प्रतिस्पर्धा,
वह उसका
सूत्र है, शिक्षा
का। उसमें ही
स्त्री को
ढाला गया है
पश्चिम में।
अब स्त्री
पुरुष जैसा
होना चाहती है।
यह बड़ी
ही गहरी
कठिनाई पैदा
करने वाली बात
है। क्योंकि
स्त्री अगर
पुरुष जैसे
होने की कोशिश
करे तो इस जगत
में जो भी
मूल्यवान है, जो
भी कीमती है, जो भी
सारभूत है, वह सब खो
जाएगा। इधर
पूरब में
लाओत्से जैसे
मनुष्यों ने
दूसरी कोशिश
की है कि
पुरुष स्त्री जैसा
होने की कोशिश
करे, ताकि
जो गहन है, मूल्यवान
है, वह और
भी थिर हो जाए,
और भी प्रकट
हो जाए, और
भी मनुष्य की
अंतरात्मा
में प्रविष्ट
हो जाए।
स्त्रियां
जब पुरुष जैसी
होती हैं, तो
सब उथला हो
जाता है।
स्त्री तो
उथली हो ही जाती
है। स्त्री
सबसे ज्यादा
चीज अगर कुछ
खो सकती है, तो वह पुरुष
जैसे होने की
दौड़ में खो
सकती है--अपनी
आत्मा खो सकती
है। हो तो
नहीं पाएगी
पुरुष जैसी, लेकिन आवरण
ले सकती है।
और जो स्त्री
पुरुष जैसा
आवरण ले लेगी,
उससे
ज्यादा
असंतुष्ट
पुरुष भी
खोजना मुश्किल
हो जाएगा।
क्योंकि
पुरुष के लिए
अशांति स्वाभाविक
है, स्त्री
के लिए अशांति
आरोपित होगी।
पुरुष के लिए
दौड़ नैसर्गिक
है, स्त्री
के लिए दौड़
उसकी प्रकृति
के प्रतिकूल होगी।
इसलिए
आज अगर पश्चिम
में स्त्री
एकदम रुग्ण
होती जाती है, और
उसे कोई शांति
नहीं है, तो
उसका मौलिक
कारण यही है।
वह कभी शांत
हो नहीं सकती।
पुरुष भी
पुरुष रह कर
शांत नहीं हो
पाता, तो
स्त्री तो
पुरुष होकर
शांत कैसे हो
सकेगी? पुरुष
भी तभी शांत
हुआ है, जब
वह स्त्री
जैसा गहन
निष्क्रिय हो
गया है, शून्य
हो गया है, समर्पित
हो गया है, अनाक्रामक
हो गया है। तब
शांत हुआ है।
पुरुष भी
स्त्री जैसा
होकर शांत
होता रहा हो
तो स्त्री तो
पुरुष जैसी
होकर कभी शांत
नहीं हो सकती।
हां, पुरुष
से ज्यादा
अशांत हो
जाएगी, विक्षिप्त
हो जाएगी, पागल
हो जाएगी।
उसके
कारण हैं।
क्योंकि
पुरुष जब
स्त्री जैसा
होता है, तो
वस्तुतः वह
अपने ही
केंद्र पर लौट
रहा है। ऐसा
हम समझें कि
वह जिस मां से
निकल कर जगत
में भागा और दौड़ा था, उसमें वापस
लौट रहा है।
लेकिन स्त्री
अगर पुरुष
जैसे होने की
कोशिश कर रही
है तो
विक्षिप्तता
के अतिरिक्त,
पागलपन के
अतिरिक्त, कोई
और परिणाम
नहीं हो सकता।
और पुरुष जैसी
किसी भी
क्रिया में
कोई हल, कोई
सांत्वना
नहीं मिल
सकती। सिर्फ
एक फीवरिश,
एक रुग्ण
बुखार पैदा हो
सकता है।
लाओत्से
मानता है कि
निष्क्रियता
प्राकृतिक
है। सक्रियता
तूफान है, आंधी
है। और वापस
गिर जाएगी, गिरना ही होगा।
इसे हम समझें।
कोई भी चीज
सक्रिय नहीं
रह सकती सदा; क्योंकि
सक्रियता में
शक्ति व्यय
होती है। एक
पत्थर पड़ा है।
आप उसे उठाते
हैं हाथ में
और फेंकते हैं
आकाश में। अभी
तक निष्क्रिय
पड़ा था। आपने
अपने हाथ की
ताकत उसे दी
और सक्रिय कर
दिया। आपने भी
थोड़ी ताकत खोई।
इसलिए आप भी
अगर पत्थर उठा
कर फेंकते
रहेंगे तो
दस-बीस पत्थर
के बाद आप
कहेंगे, अब
मैं नहीं फेंक
सकता। आपकी
ताकत जा रही
है पत्थर के
साथ। आप अपनी
शक्ति पत्थर
को दे रहे हैं।
तभी तो पत्थर
हवा से
टकराएगा, लड़ेगा
और यात्रा
करेगा। और जब
तक सक्रिय
रहेगा, तभी
तक सक्रिय
रहेगा, जब
तक कि वह
शक्ति को व्यय
न कर देगा।
व्यय होते ही
पत्थर वापस
जमीन पर गिर
जाएगा। फिर
निष्क्रिय हो
जाएगा।
एक
पत्थर जमीन पर
पड़ा रह सकता
है
हजारों-लाखों
साल तक
निष्क्रिय।
लेकिन फेंका
गया पत्थर हजारों-लाखों
साल तक यात्रा
नहीं कर सकता।
हम यह भी
कल्पना कर
सकते हैं कि
पत्थर पड़ा रहे
अनंत काल तक
तो भी पड़ा रह
सकता है।
क्योंकि पड़े
रहने में कोई
शक्ति का
अपव्यय नहीं
है। लेकिन चल
नहीं सकता अनंत
काल तक, क्योंकि
चलने में
शक्ति का व्यय
है। शक्ति चुकेगी
और गिर जाएगा।
सब सक्रियता
शक्ति का व्यय
है।
निष्क्रियता
शक्ति का
संग्रह है; शक्ति व्यय
नहीं होती।
इसलिए
लाओत्से कहता
है कि
निष्क्रियता
स्वभाव है।
सक्रियता
स्वभाव के बीच
में घटी शक्ति
को व्यय करने
की इच्छा का
परिणाम है।
स्त्री
ज्यादा
निष्क्रिय
है। पुरुष
ज्यादा सक्रिय
है। इसलिए
लाओत्से
स्त्री को मूल
में मानता है।
लेकिन इससे
स्त्रियां यह
न सोच लें कि
काम पूरा हुआ।
इससे
स्त्रियां यह
न सोच लें कि
अब कुछ करने को
उनके लिए नहीं
बचा।
तब
दूसरी बात
खयाल में ले
लें। जो परम
संतुलन है, वह
दो विरोध के
बीच संतुलन
है। अगर
स्त्री निष्क्रिय
रह कर ही
निष्क्रिय रह
पाती हो तो
परम संतुलित नहीं
है। अगर
सक्रिय होकर
भी भीतर
निष्क्रिय रह
पाती हो तो
परम संतुलन
है। उलटा, अगर
पुरुष सब कुछ
काम छोड़ कर
जंगल में भाग
कर मौन बैठ
जाए तभी शांत
हो पाए, तभी
स्त्रैण हो
पाए, तो वह
भी शांति परम
शांति नहीं
है। क्योंकि
सक्रियता के
विरोध में
चुनी गई शांति
भी एक तरह की
सक्रियता है।
जहां विरोध है,
वहां
क्रिया है।
अगर किसी ने
अपने को
सक्रियता के
विरोध में
निष्क्रियता
में डुबाने
की कोशिश की
तो वह कोशिश
भी सक्रियता
है।
इसलिए
ताओ के मानने
वाले, झेन को
मानने वाले जो
परम ज्ञानी
हैं, वे
कहते हैं, प्रयास
से जो शांति
मिल जाए, वह
परम शांति
नहीं है।
क्योंकि
प्रयास से जो
मिली है, प्रयासजन्य जो है, उसमें
तो सक्रियता
जुड़ी ही हुई
है। अप्रयास से
जो मिल जाए, इफर्टलेसली जो मिल जाए, वही परम
शांति है।
इसका
क्या मतलब हुआ? इसका
मतलब हुआ कि
विरोध की भाषा
में जब तक हम सोचते
हैं, तब तक
हम शांत न हो
पाएंगे। जब
विरोध की भाषा
ही गिर जाए, तो हम शांत
हो पाएंगे।
स्त्री
सक्रिय होकर
भी अपनी
निष्क्रियता
में बनी रहे, पुरुष
सक्रिय होकर
भी
निष्क्रियता
में डूब जाए, करे भी और
भीतर न किया
हुआ भी बना
रहे, बोले
भी और भीतर
शांति बनी
रहे। मौन होकर
न बोलने में कोई
कठिनाई नहीं
है, बोल कर
मौन को खो
देने में कोई
कठिनाई नहीं
है। शब्द हो
बाहर, मौन
हो भीतर, तब
जो संतुलन
स्थापित होता
है, दो
विरोध के बीच
जो सेतु बन
जाता है, वह
परम है, वह
आत्यंतिक है।
फिर उसको
विनष्ट नहीं
किया जा सकता।
अब हम
इस सूत्र में
प्रवेश करें।
"जो
पुरुष को तो
जानता है, लेकिन
स्त्रैण में
करता है वास, वह संसार के
लिए घाटी बन
जाता है। और
संसार की घाटी
होकर वह उस
मूल स्वरूप
में स्थित
रहता है, जो
अखंड है।'
"ही हू
इज़ अवेयर
ऑफ दि मेल, बट
कीप्स टु
दि फीमेल, बिकम्स
दि रैवाइन
ऑफ दि वर्ल्ड।
बीइंग दि रैवाइन
ऑफ दि वर्ल्ड
ही हैज दि ओरिजनल
कैरेक्टर
व्हिच इज़
नाट कट अप, एंड
रिटर्न्स
अगेन टु दि
इनोसेंस ऑफ दि
वे।'
जो
पुरुष को
जानता है, लेकिन
स्त्रैण में
वास करता है।
जो क्रिया में
जीता है, लेकिन
निष्क्रियता
जिसके भीतर
बनी रहती है।
ऐसा
करें: दौड़ रहे
हैं रास्ते पर, तब
बाहर तो दौड़
है, लेकिन
भीतर कोई है, जो दौड़ नहीं
रहा। जरा भीतर
झांकें।
उसे पकड़ लेना
कठिन नहीं
होगा, जो
भीतर बैठा हुआ
है, जो दौड़
नहीं रहा।
शरीर दौड़ता
है, चेतना
तो दौड़ती
नहीं। चेतना
तो वहीं बैठी
रहती है।
चेतना तो कभी
चली ही नहीं
है। आप कितने
ही चले हों, चेतना नहीं
चली है।
चेतना
करीब-करीब
वैसी है, जैसे
आप हवाई जहाज
में बैठे हैं।
हवाई जहाज दौड़
रहा है हजारों
मील की रफ्तार
से और आप बैठे
हैं। शरीर भी
आपका वाहन है।
शरीर दौड़ रहा
है, आप
बैठे हैं। और
हवाई जहाज में
तो यह भी संभव
है--अगर आपका
दिमाग खराब
हो--कि हवाई
जहाज भी भाग
रहा हो, आप
उसमें भाग रहे
हों अंदर, जल्दी
पहुंच जाने के
खयाल से। ठीक
वैसा पागलपन
आप भीतर भी कर
सकते हैं।
शरीर भाग रहा
हो और आप भी
भीतर भागने की
कोशिश कर रहे
हों। जल्दी नहीं
पहुंच जाएंगे
आप; क्योंकि
भीतर कोई गति
हो नहीं सकती।
भीतर अगति है।
भीतर कोई मूवमेंट,
कोई हलन-चलन
संभव नहीं है।
शरीर हलन-चलन
कर सकता है।
तो जो
व्यक्ति
दौड़ते हुए
भीतर ध्यान रख
सके उस पर जो दौड़ता
नहीं है, तो वह
पुरुष होकर
स्त्रैण में
वास कर रहा
है। जो विचार
करते समय भी
गहरे तल पर
निर्विचार में
रह सके, तो
वह पुरुष होते
हुए स्त्रैण
में वास कर
रहा है। जो इस
संसार में
चलते हुए, जीते
हुए भी, संन्यासी
रह सके, तो
वह पुरुष के
साथ स्त्रैण
में ठहरा हुआ
है। संन्यास
स्त्रैण है।
सैनिक होना
पुरुष, संन्यासी
होना स्त्रैण
है। लेकिन जो
सैनिक रह कर
संन्यासी रह
सके, उसकी
स्थिति परम
है। या जो
संन्यासी रह कर
सैनिक रह सके,
उसकी
स्थिति भी परम
है। क्योंकि
दो विरोध जब मिल
जाते हैं, तो
एक-दूसरे को
काट देते हैं।
ऋण और धन जब
मिलते हैं, तो एक-दूसरे
को विलीन कर
देते हैं। और
उनके नीचे
शून्य रह जाता
है।
"जो
पुरुष को
जानता है, लेकिन
स्त्रैण में
वास करता है...।'
स्त्रैण
से समझें
निष्क्रियता, स्त्रैण
से समझें
त्याग, स्त्रैण
से समझें
समर्पण, स्त्रैण
से समझें
स्वीकार--स्त्रैण
से इस तरह की
बातें समझें।
पुरुष से
समझें आक्रमण,
परिग्रह, संग्रह, दौड़,
महत्वाकांक्षा,
प्रतिस्पर्धा।
ये शब्द
प्रतीक हैं।
अगर आपका मन
दौड़ में जी
रहा है सिर्फ
और आपने उसको
बिलकुल नहीं
जाना जहां दौड़
नहीं है, तो
आप आधे जी रहे
हैं। इस संबंध
में एक बात और
नवीन खोज की
खयाल में लेनी
चाहिए।
कार्ल
गुस्ताव जुंग
ने इस सदी की
महानतम खोजों
में एक अनुदान
किया है। और
वह यह कि कोई
पुरुष न तो
पूरा पुरुष है
और न कोई
स्त्री पूरी
स्त्री।
प्रत्येक
व्यक्ति
द्विलिंगी है, बाई-सेक्सुअल
है। मात्रा का
फर्क है। आप
साठ परसेंट
पुरुष होंगे,
चालीस परसेंट
स्त्री
होंगे। आपकी
पत्नी साठ परसेंट
स्त्री होगी,
चालीस परसेंट
पुरुष होगी।
बस ऐसा फर्क
है। सौ परसेंट
पुरुष आप नहीं
हैं। न सौ परसेंट
कोई स्त्री
है। हो नहीं
सकता ऐसा।
इसलिए नहीं हो
सकता कि आपका
जन्म स्त्री
और पुरुष
दोनों के मिलन
से होता है।
स्त्री में
होता है; स्त्री
से आप बाहर
आते हैं।
लेकिन पुरुष
इसमें सहयोगी
होता है। वह
पुरुष आपके
भीतर प्रवेश कर
जाता है।
क्योंकि जन्म
सेक्सुअल है,
पुरुष और
स्त्री के
मिलन से है, इसलिए दोनों
ही मात्रा में
मौजूद
रहेंगे। यह हो
सकता है कि एक
व्यक्ति
नब्बे परसेंट
पुरुष हो और
दस परसेंट
स्त्री हो; लेकिन
स्त्रैण
हिस्सा होगा।
और कभी-कभी
ऐसा होता है
कि यह अनुपात
इतना क्षीण
होता है कि कभी-कभी
कोई स्त्री
बाद में पुरुष
हो जाती है, कोई पुरुष
बाद में
स्त्री हो
जाता है।
लिंग-परिवर्तन
हो जाता है।
अगर इक्यावन परसेंट आप
पुरुष हैं, तो खतरा है।
एक ही परसेंट,
दो परसेंट
का मामला है।
जरा सा भी
केमिकल फर्क,
जरा से
हारमोन का
फर्क--किसी
बीमारी के
कारण, किसी
दवा के
कारण--और आप
तत्काल स्त्री
हो सकते हैं।
अगर आप सिर्फ
एक-दो परसेंट
के फासले पर
हैं, मारजिन बहुत कम है, तो परिवर्तन
हो सकता है।
और अब
तो वैज्ञानिक
कहते हैं कि
परिवर्तन--मारजिन
कितना ही बड़ा
हो--किया जा
सकता है।
क्योंकि हारमोन
का फर्क है।
अगर थोड़े
स्त्रैण
हारमोन आप में
डाल दिए जाएं
तो आपकी
मात्रा, भीतर
का अनुपात बदल
जाएगा, आप
स्त्री होना
शुरू हो
जाएंगे।
इसका
अर्थ यह हुआ
कि पुरुष के
भीतर स्त्री
छिपी है, स्त्री
के भीतर पुरुष
भी छिपा है।
इन दोनों के
बीच भी अगर
संतुलन न बन
पाए तो आप
असंतुलित रहेंगे।
इन दोनों में
भी भीतर
तालमेल हो
जाना चाहिए।
खयाल
करें तो आपको
अनुभव में आना
शुरू होगा। सुबह
आप बड़े शांत
हैं। जरा सा
किसी ने कुछ
कहा,
आप क्रोधित
हो गए, आग
जलने लगी।
आपको पता नहीं
है, भीतर
जब आप शांत थे,
तो स्त्रैण
तत्व प्रमुख
था। स्त्रैण
ऊपर था, पुरुष
नीचे दबा था।
अब किसी ने आप
में एक अंगारा
फेंक दिया, एक गाली दे
दी, किसी
ने धक्का मार
दिया, किसी
ने कुछ कह
दिया, जो
चोट कर गया।
स्त्री
तत्काल पीछे
हट गई। क्योंकि
स्त्री चोट का
जवाब नहीं दे
सकती, स्त्री
आक्रामक नहीं
हो सकती।
स्त्री तत्काल
पीछे हट गई, पर्दे की ओट
हो गई। पुरुष
बाहर आ गया।
आपकी आंखें
खून से भर
गईं। हाथ-पैर
में जहर दौड़
गया। आप गरदन
किसी की दबाने
को, किसी
को मार डालने
को उत्सुक हो
गए।
आप दिन
में चौबीस
घंटे में कई
बार स्त्री हो
जाते हैं, कई
बार पुरुष हो
जाते हैं। जो
स्त्री आपको
प्रेम करती है,
और कभी आप
सोच नहीं सकते
कि आपकी गरदन
दबा सकती है, वह भी कभी
आपकी गरदन दबा
सकती है। उसके
भीतर भी वह
गरदन दबाने
वाला छिपा है।
अगर वह देख ले
आपको कि आप
किसी और के
प्रेम में पड़े
जा रहे हैं, तो वह गरदन
भी दबा सकती
है। न भी दबाए
तो विचार तो
करेगी ही गरदन
दबाने का। यह
भी हो सकता है,
आपकी न दबाए
तो अपनी दबा
ले। मगर दबा
सकती है।
अक्सर
यह होगा कि
पुरुष जब
क्रोधित होता
है तो दूसरे
को नष्ट करना
चाहता है; स्त्री
जब क्रोधित
होती है तो खुद
को नष्ट करना
चाहती है।
उतना उन दोनों
में भेद है।
क्योंकि
दूसरे को नष्ट
करने में
ज्यादा
आक्रामक होना
पड़ता है, खुद
को नष्ट होने
में कम
आक्रामक होना
पड़ता है।
इसलिए
स्त्रियां
ज्यादा
आत्मघात करती
हैं। करने का
कारण कुल इतना
है, वह भी
हत्या करना
चाहती हैं
आपकी, लेकिन
स्त्रैण होने
की वजह से
उन्होंने
अपनी हत्या कर
ली। पुरुष कम
आत्मघात करते
हैं। क्योंकि
जब भी वे
आत्मघात करना
चाहते हैं, तब उनका मन
किसी दूसरे की
हत्या करने के
लिए दौड़ पड़ता
है। दूसरे की
हत्या करना
पुरुष को आसान
है; क्योंकि
दूसरा दूर है।
और स्त्री को
अपनी हत्या
करना आसान है;
क्योंकि
स्त्री अपने
पास है। उसकी
नजर पास पड़ती
है, दूर
नहीं पड़ती।
लेकिन
दोनों
एक-दूसरे के
भीतर छिपे
हैं। और इनमें
से अगर एक को
बिलकुल काट
दिया जाए तो
आप अपंग हो
जाएंगे, जैसे
बायां पैर
किसी ने काट
दिया। आप चल
पाते हैं, क्योंकि
दाएं और बाएं
के बीच एक
संतुलन बना
रहता है; यद्यपि
दोनों का काम
विरोधी है। जब
बायां पैर ऊपर
उठता है, तो
दायां जमीन को
पकड़े
रहता है। और
जब बायां जमीन
को पकड़ लेता
है, तब
दायां उठता
है। दोनों
एक-दूसरे के
विरोध में
होते हैं। एक
जमीन पर होता
है, एक
जमीन को छोड़
देता है। लेकिन
इन दोनों के
बीच गति संभव
हो पाती है। और
इन दोनों के
बीच जितना
संतुलन हो, जितनी बराबर
शक्ति हो
दोनों में, उतनी ही गति
व्यवस्थित हो
पाती है।
आपके
भीतर की
स्त्री और
आपके भीतर का
पुरुष भी एक
संतुलन
मांगते हैं।
जिस दिन यह
संतुलन पूरा
हो जाता है, उस
दिन, लाओत्से
कहता है, आप
ताओ को उपलब्ध
हो गए।
क्योंकि
लाओत्से कहता
है, इस
संतुलन का नाम
ही निर्दोषता
है, इनोसेंस
है।
जो
पुरुष को
जानता और
स्त्रैण में
वास करता है।
स्त्रैण हो
नहीं जाता, स्त्रैण
में वास करने
लगता है। ठीक
इससे विपरीत
स्त्री के
लिए: जो
स्त्रैण को जानती
है और पुरुष
में वास करती
है; पुरुष
हो नहीं जाती।
वह संसार के
लिए घाटी बन जाता
है।
घाटी
का,
वैली का, रैवाइन का लाओत्से
के लिए प्रतीक
अर्थ है। पहाड़
जाएं आप देखने,
तो उठे हुए
शिखर हैं पहाड़
के। और उन
शिखरों के पास
ही, निकट
पड़ोस में घाटियां
हैं, वैलीज हैं। आपने
खयाल भी न
किया होगा कि
शिखर उठ ही
इसलिए पाता है
कि पास में
घाटी बन जाती
है। अगर घाटी
न हो तो शिखर
उठ नहीं
पाएगा। शिखर
घाटी से ही अपने
सामान को
खींचता है और
उठता है। शिखर
गौण है। शिखर
बन नहीं सकता।
फिर
शिखर आक्रामक
है--जैसे
अहंकार उठ गया
हो आकाश में।
घाटी
निरहंकार, विनम्र
है। शिखर को
अपने को
सम्हालना
पड़ता है, क्योंकि
गिरने का सदा
डर है। जो ऊपर
उठता है, उसे
गिरने का डर
होगा ही। घाटी
अपने को
सम्हालती
नहीं; क्योंकि
गिरने का कोई
डर ही नहीं
है। जो नीचे उतरता
है, उसे
गिरने का कोई
डर नहीं रह
जाता। घाटी
निश्चिंत सोई
रहती है; शिखर
चिंता से भरा
रहेगा। शिखर
आज नहीं कल
मिटेगा, क्योंकि
शिखर होने में
शक्ति व्यय
होती है। जब
शिखर अपने को
सम्हाले हुए
है, तो
शक्ति व्यय हो
रही है। घाटी
में शक्ति
व्यय होती ही
नहीं; क्योंकि
घाटी मात्र
निष्क्रियता
है, शून्यता
है।
इसलिए
लाओत्से घाटी
का बड़ा उपयोग
करता है। और
लाओत्से यह
कहता है, पुरुष
शिखर की तरह
है, स्त्री
घाटी की तरह।
यह प्रतीक भी
ठीक है। और स्त्री
के
व्यक्तित्व, उसकी
शरीर-रचना में
भी यह बात सच
है। पुरुष की शरीर-रचना
शिखर की तरह
है, स्त्री
की शरीर-रचना
घाटी की तरह।
घाटी शांत है,
शिखर सदा
अशांत होगा।
लेकिन जो
व्यक्ति अपने भीतर
दोनों का
संतुलन कर
लेता है, वह
भी घाटी की
तरह शांत हो
जाता है।
"वह उस
मूल रूप में
स्थित रहता है,
जो अखंड है।'
मूल
रूप सदा अखंड
है। गौण रूप
सदा खंडित
होते हैं। इसे
हम ऐसा समझें, स्त्री
और पुरुष दो
खंड हैं एक ही
मूल रूप के।
इसीलिए
स्त्री और
पुरुष में
इतना आकर्षण
है। आकर्षण
होता ही सदा
उससे है जो
हमारा ही खंड
हो और दूर हो
गया हो, जो
अपना ही हो और बिछुड़ गया
हो। इसे हम
थोड़ा विज्ञान
की यात्रा से
भी समझें।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
जो जीवाणु
मौलिक है जगत
में,
वह है
अमीबा। अमीबा
दोनों है, स्त्री-पुरुष
साथ-साथ।
अमीबा में जो
जनन की प्रक्रिया
है, वह बड़ी
अदभुत है।
अमीबा में
स्त्री-पुरुष
अलग-अलग नहीं
हैं। इसलिए
स्त्री और
पुरुष के मिलन
से बच्चे का
जन्म नहीं हो
सकता। अमीबा
दोनों है एक
साथ। वह
स्त्री भी है
और पुरुष भी
है। तो अमीबा
फिर जनन कैसे
करता है?
उसका
जनन बहुत
अदभुत है। वह
सिर्फ भोजन
करता जाता है
और बड़ा होता
जाता है। जब
एक सीमा के
बाहर उसका
शरीर हो जाता
है,
उसका शरीर
दो टुकड़ों
में टूट जाता
है। ये दो
टुकड़े भी
स्त्री-पुरुष
नहीं होते, स्त्री-पुरुष
साथ-साथ होते
हैं। ये दो टुकड़े
प्रत्येक
स्त्री-पुरुष
एक साथ होते
हैं। फिर ये
भोजन करते
जाते हैं। फिर
यह शरीर बड़ा होकर
एक सीमा के
बाहर जाता है,
शरीर दो
हिस्सों में
टूट जाता है।
अमीबा को वैज्ञानिक
कहते हैं कि
यह पृथ्वी पर
पैदा हुआ पहला
जीवन है, पहला
जीवाणु है।
अमीबा
में कोई
कामवासना नहीं
है;
परम
ब्रह्मचारी
है। कामवासना
का कोई उपाय
नहीं है; क्योंकि
दूसरा कोई है
नहीं, जिसके
प्रति वासना
हो सके। और
दूसरे से
मिलने की कोई
इच्छा अमीबा
में नहीं है।
यह बड़े
मजे की बात
है। अमीबा में
मिलने की इच्छा
बिलकुल नहीं
है;
टूटने की
इच्छा है। तो
अमीबा जब भोजन
करता है, तो
टूटना चाहता
है। भारी हो
जाता है, टूटना
चाहता है।
आपको ठीक भोजन
मिले तो कामवासना
पैदा होती है;
आप मिलना
चाहते हैं।
इसे थोड़ा समझ
लें।
अगर
आपको ठीक भोजन
न मिले तो
कामवासना खो
जाती है।
इसलिए
तथाकथित साधु
उपवास कर-करके
कामवासना को
तोड़ने का उपाय
करते हैं।
तथाकथित कहता
हूं;
क्योंकि
वस्तुतः
मिटती नहीं है,
केवल शक्ति
के न होने से
पता नहीं
चलती। जैसे अमीबा
को भोजन न दें
तो फिर वह दो
में नहीं टूटेगा;
क्योंकि
भोजन के बिना
शरीर बड़ा नहीं
होगा, टूटने
का सवाल नहीं
होगा। टूटना
ही उसके जनन की
प्रक्रिया
है। जब आपको
भोजन ठीक से
मिलेगा, तो
आप तत्काल
दूसरे से
मिलना
चाहेंगे--पुरुष
हैं तो स्त्री
से, स्त्री
हैं तो पुरुष
से। क्यों? जैसे अमीबा
टूट कर जन्म
देता है, आप
मिल कर जन्म
देते हैं। और
अमीबा टूट कर
इसलिए जन्म दे
सकता है कि
उसमें
स्त्री-पुरुष
दोनों उसके
भीतर ही मौजूद
हैं। आप टूट
कर जन्म नहीं
दे सकते, आप
मिल कर ही
जन्म दे सकते
हैं। क्योंकि
जन्म का आधा
हिस्सा आपके
पास है और आधा
हिस्सा स्त्री
के पास है।
बच्चा पैदा
होगा दोनों के
मिलने से। आधा
आपके पास है
बच्चा, आधा
स्त्री के पास
है। और जब तक
वे दोनों न
मिल जाएं, तो
बच्चा पैदा
नहीं होगा।
अमीबा
टूटता है
शक्ति बढ़ने से; आप
शक्ति बढ़ने से
मिलना चाहते
हैं। इसलिए
अगर आप भोजन न
करें, कम
भोजन करें, ऐसा भोजन
करें जिससे
आपकी शक्ति न
बढ़े, तो
कामवासना
क्षीण हो
जाएगी। मिट
नहीं जाएगी।
जिस दिन भोजन
करेंगे, उस
दिन फिर जाग
जाएगी।
पुरुष-स्त्री
के बीच जो
मिलन का
आकर्षण है, उसका
कारण
बायोलाजी, जीव-विज्ञान
के हिसाब से
यही है कि
दोनों एक अखंड
चीज के टुकड़े
हैं और फिर से
पूरा होना चाहते
हैं। इसलिए
संभोग में
इतना सुख
मालूम पड़ता है--एक
क्षण के लिए
पूरा हो जाने
का सुख। वे जो
टूटे हुए
टुकड़े थे किसी
एक अखंड के, वे एक क्षण
के लिए इकट्ठे
हो गए। वह
इकट्ठे हो जाने
में एक क्षण
को, उन्हें
जो सुख प्रतीत
होता है, वह
पूरा हो जाने
का सुख है।
इसलिए
संभोग में जो
अपने को पूरा
खो नहीं सकता, उसे
संभोग में कोई
भी सुख नहीं
मिलेगा। और
बहुत कम लोग
हैं, जो
संभोग में अपने
को खो सकते
हैं। क्योंकि
नैतिक
शिक्षाओं ने,
धर्मगुरुओं ने इतना
विषाक्त कर
दिया है मन।
उनके विषाक्त
कर देने से आप
संभोग से बचते
नहीं; वह
तो बच नहीं
सकते आप। जब
तक आदमी भोजन
कर रहा है, तब
तक धर्मगुरु
जीत नहीं
सकते। कोई
उपाय नहीं है
उनके जीतने
का। जब तक
आदमी स्वस्थ
है, शक्तिशाली
है, तब तक
वे जीत नहीं
सकते। वह तो
आदमी को
बिलकुल सिकोड़
कर, उसकी
सारी
शक्ति-ऊर्जा
खींच कर, अगर
अस्थि-कंकाल
खड़े कर दिए
जाएं सारे जगत
में, तो ही
साधु-संन्यासी
जीत सकते हैं।
वे जीत नहीं
सकते।
क्योंकि जो
जैविक
प्रक्रिया है,
वह जिन
क्रियाओं से
घटित हो रही
है, उनका
उन्हें कोई
बोध नहीं है।
लेकिन
वे एक काम कर
सकते हैं। वे
आपके संभोग से
तो आपको नहीं
बचा सकते, लेकिन
संभोग में आप
पूरे न खो
सकें, इसका
उपाय कर देते
हैं। उनकी
बातें, उनके
विचार, आपकी
खोपड़ी में समा
जाते हैं। फिर
संभोग के क्षण
में भी वह
खोपड़ी आप अलग
नहीं रख सकते
उतार कर। वह
आपके साथ होती
है। संभोग भी
करते हैं और पूरे
लीन भी नहीं
हो पाते। तब
आपको अपने
साधु-संन्यासियों
की बातें ठीक
मालूम पड़ती
हैं कि वे लोग
ठीक ही कहते
हैं कि संभोग
में कोई सुख
नहीं है। यह
एक विसियस
सर्कल है, यह
एक बड़ा
दुष्ट-चक्र
है। क्योंकि
वे कहते हैं, इसलिए आपको
सुख नहीं
मालूम पड़ता; जब आप डूब ही
नहीं पाते तो
सुख मालूम
नहीं पड़ता।
डूब जाएं तो
सुख मालूम
पड़ेगा।
यद्यपि सुख क्षणिक
होगा, लेकिन
मालूम पड़ेगा।
क्षण भर ही
सही, लेकिन
वह सुख है।
सुख
क्या है? सुख
है दो आधे टुकड़ों
का मिल कर एक
हो जाना। एक
क्षण को ही यह
होगा, लेकिन
एक क्षण में
आप भी मिट
जाएंगे
स्त्री भी मिट
जाएगी। संभोग
का मतलब है:
जहां स्त्री
और पुरुष मिट
जाते हैं; जहां
स्त्री
स्त्री नहीं
रह जाती, पुरुष
पुरुष नहीं रह
जाता; जहां
दोनों खो जाते
हैं, एकाकार
हो जाते हैं।
एक चैतन्य रह
जाता है। क्षण
भर को दो
अहंकार नहीं
रह जाते, दो
शरीर नहीं रह
जाते, दो
मन नहीं रह
जाते, दो
आत्माएं नहीं
रह जातीं। एक
क्षण को द्वैत
खो जाता है, अद्वैत हो
जाता है। एक
क्षण को ही
होता है; एक
क्षण के बाद
वापस आप पुरुष
हैं, स्त्री
स्त्री है।
इसलिए संभोग
सुख भी देता है,
दुख भी। सुख
देता है क्षण
भर को, चौबीस
घंटे को दुख
दे जाता है।
क्योंकि
मिलने में
क्षण भर को
सुख होता है, फिर बिछुड़न।
वह अलग होना, वह अलग होना
फिर दुख है।
और आदमी इस
सुख-दुख के बीच
घूमता रहता
है। क्षण भर
का सुख, फिर
दिनों का दुख,
फिर क्षण भर
का सुख, फिर
दिनों का दुख।
अद्वैत
एक क्षण को भी
मिल जाए तो
सुख मिलता है।
इसलिए बुद्ध, महावीर,
लाओत्से
कहते हैं, यह
अद्वैत अगर
सदा को मिल
जाए तो आनंद
उपलब्ध होता
है। और अद्वैत
जब सदा को
मिलता है, तो
फिर दुख का
कोई उपाय नहीं
रह जाता। जब
सुख क्षण भर को
मिलता है, तभी
दुख का उपाय
होता है।
यह जो
अद्वैत की
तलाश है, इस
तलाश का जो
पहला अनुभव
आदमी को हुआ
है, वह
संभोग से ही
हुआ है। कोई
और उपाय भी
नहीं है। आदमी
को समाधि की
जो पहली झलक
मिली है, वह
संभोग से ही
मिली है। कोई
और उपाय नहीं
है। पहले
मनुष्य को जब
खयाल आया होगा,
जब पहले
विचारशील
मनुष्य ने
सोचा होगा कि
क्यों मिलता
है सुख संभोग
में, तब
उसे लगा होगा
कि मिट जाता
हूं मैं, इसलिए।
तो अगर मैं
पूरा ही मिट
जाऊं सदा के
लिए उस परम
चैतन्य में, परम
अस्तित्व में,
तो फिर दुख
नहीं रह
जाएगा।
संभोग
के अनुभव से
ही समाधि की
धारणा और
समाधि का
दूरगामी
लक्ष्य पैदा
हुआ है। बड़ा
फासला है
दोनों में; लेकिन
दोनों में एक
जोड़, एक
सेतु है। जब
स्त्री-पुरुष
संभोग में डूब
जाते हैं, तब
दोहरी घटना
घटती है। वह
दोहरी घटना भी
समझ लेनी
चाहिए।
क्योंकि आप
दोहरे
हैं--स्त्री
भी, पुरुष
भी। और स्त्री
भी दोहरी
है--स्त्री और
पुरुष भी। जब
एक स्त्री और
पुरुष एक जोड़े
में लीन हो
जाते हैं, तो
आपके भीतर का
पुरुष आपके
बाहर की
स्त्री से
मिलता है और
आपके भीतर की
स्त्री भी
आपके बाहर के
पुरुष से
मिलती है--यह
एक रूप। और इस
गहरे मिलन में
आपके भीतर का
पुरुष भी आपके
भीतर की
स्त्री से
मिलता है और
आपकी प्रेयसी
के भीतर की
स्त्री भी
भीतर के पुरुष
से मिलती है।
तब एक वर्तुल
निर्मित हो जाता
है। एक क्षण
को यह घटना
घटती है कि आप
टूटे नहीं
होते, अखंड
हो जाते हैं।
इस
अखंडता को
कामवासना के
द्वारा स्थिर
रूप से नहीं
पाया जा सकता।
इस अखंडता को
केवल समाधि के
द्वारा स्थिर
रूप से पाया
जा सकता है।
लेकिन यह
अखंडता की एक
झलक,
समाधि की एक
झलक, संभोग
में घटित होती
है। और अगर
आपको घटित नहीं
होती, तो
उसका मतलब ही
यह है कि आपका
मस्तिष्क
संभोग होने ही
नहीं देता। आप
अपराध से भरे
हुए ही संभोग
में जाते हैं।
आप जानते हैं
कि पाप कर रहे हैं।
आप जानते हैं
कि गर्हित
कृत्य कर रहे
हैं। आप जानते
हैं कि कुछ
बुरा हो रहा
है; मजबूरी
है, इसलिए
कर रहे हैं। आप
यह सब जानते
हुए जब संभोग
में जाते हैं,
तो घटना
नहीं घटती। और
जब घटना नहीं
घटती, तब
आपके समझाने
वाले गुरुओं
के वचन आपको
बिलकुल ही ठीक
मालूम पड़ते
हैं कि ठीक
कहा है उन्होंने
कि यह सब
व्यर्थ का है।
और जब आप बाहर
आते हैं, तो
और दुख से भरे
हुए लौटते हैं,
और पश्चात्ताप
से भरे लौटते
हैं। सुख
मिलता नहीं, सुख का क्षण
आपका
मस्तिष्क
गंवा देता है,
और पीछे का
दुख मिलता है।
तब स्वभावतः
आपकी धारणा और
मजबूत होती
चली जाती है।
यह मजबूत होती
धारणा आपको
संभोग से
वंचित ही कर
देती है।
और जिस
व्यक्ति को
संभोग का कोई
अनुभव नहीं होता, वह
अक्सर समाधि
की तलाश में
निकल जाता है।
वह अक्सर
सोचता है कि
संभोग से कुछ
नहीं मिलता, समाधि कैसे पाऊं? लेकिन
उसके पास झलक
भी नहीं है, जिससे वह
समाधि की
यात्रा पर
निकल सके।
स्त्री-पुरुष
का मिलन एक
गहरा मिलन है।
और जो व्यक्ति
उस छोटे से
मिलन को भी
उपलब्ध नहीं
होता, वह
स्वयं के और
अस्तित्व के
मिलन को
उपलब्ध नहीं
हो सकेगा।
स्वयं का और
अस्तित्व का
मिलन तो और
बड़ा मिलन है, विराट मिलन
है। यह तो
बहुत छोटा सा
मिलन है। लेकिन
इस छोटे मिलन
में भी अखंडता
घटित होती है--छोटी
मात्रा में।
एक और विराट
मिलन है, जहां
अखंडता घटित
होती
है--स्वयं के
और सर्व के
मिलन से। वह
एक बड़ा संभोग
है, और
शाश्वत संभोग
है।
यह
मिलन अगर घटित
होता है, तो उस
क्षण में
व्यक्ति
निर्दोष हो
जाता है। मस्तिष्क
खो जाता है; सोच-विचार
विलीन हो जाता
है; सिर्फ
होना, मात्र
होना रह जाता
है, जस्ट बीइंग।
सांस चलती है,
हृदय धड़कता
है, होश
होता है; लेकिन
कोई विचार
नहीं होता।
संभोग में एक
क्षण को
व्यक्ति
निर्दोष हो
जाता है।
लेकिन
लाओत्से कहता
है कि अगर इस
गहन आंतरिक मिलन
को व्यक्ति
उपलब्ध हो जाए
कि पुरुष को
जाने, स्त्री
में वास करे, तो संसार के
लिए घाटी बन
जाता है। और
घाटी होकर
स्वरूप में
स्थित रहता है,
अखंड हो
जाता है। शिशुवत
निर्दोषता
उपलब्ध होती
है।
अगर
आपके भीतर की
स्त्री और
पुरुष के
मिलने की कला
आपको आ जाए, तो
फिर बाहर की
स्त्री से
मिलने की
जरूरत नहीं
है। लेकिन
बाहर की
स्त्री से
मिलना बहुत
आसान, सस्ता;
भीतर की
स्त्री से
मिलना बहुत
कठिन और
दुरूह। बाहर
की स्त्री से
मिलने का नाम
भोग; भीतर
की स्त्री से
मिलने का नाम
योग। वह भी मिलन
है। योग का
मतलब ही मिलन
है।
यह बड़े
मजे की बात
है। लोग भोग
का मतलब तो
समझते हैं
मिलन और योग
का मतलब समझते
हैं त्याग। भोग
भी मिलन है, योग
भी मिलन है।
भोग बाहर जाकर
मिलना होता है,
योग भीतर
मिलना होता
है। दोनों
मिलन हैं। और
दोनों का सार
संभोग है।
भीतर, मेरे
स्त्री और
पुरुष जो मेरे
भीतर हैं, अगर
वे मिल जाएं
मेरे भीतर, तो फिर मुझे
बाहर की
स्त्री और
बाहर के पुरुष
का कोई
प्रयोजन न
रहा।
और जिस
व्यक्ति के
भीतर की
स्त्री और
पुरुष का मिलन
हो जाता है, वही
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होता है। भोजन
कम करने से
कोई
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
नहीं होता; न स्त्री से,
पुरुष से
भाग कर कोई
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध होता
है। न आंखें
बंद कर लेने
से, न
सूरदास हो
जाने
से--आंखें फोड़
लेने से--कोई
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होता है। ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होने का
एकमात्र उपाय
है: भीतर की
स्त्री और
पुरुष का मिल
जाना।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि
बाहर की
स्त्री से आप
कितनी देर
मिले रह सकते
हैं?
शरीर के तल
पर क्षण भर
मिल सकते हैं।
क्योंकि वह
मिलन बहुत
महंगा है।
आपको बहुत
ऊर्जा खोनी
पड़ती है, शक्ति
खोनी पड़ती है।
अब तो ऊर्जा
नापी जा सकती
है कि कितनी
शक्ति आप एक
संभोग में
खोते हैं, कितनी
शरीर की
विद्युत
विनष्ट होती
है। इसलिए जब
तक उतनी
विद्युत आप
फिर पैदा न कर
लें, मिलन
नहीं हो सकता।
इसलिए अब
रुकना पड़े--चौबीस
घंटे, अड़तालीस
घंटे, सप्ताह
भर। जैसे उम्र
बढ़ती जाएगी, उतना ज्यादा
आपको रुकना
पड़ेगा--महीना
भर। क्योंकि
जब तक उतनी
विद्युत फिर
पैदा न हो जाए,
यह मिलन अब
नहीं हो सकता।
इसलिए यह मिलन
स्थिर तो हो
ही नहीं
सकता--एक क्षण
में इतनी
विद्युत खो
जाती है।
इसीलिए
संभोग के बाद
लोगों को
शांति मालूम
पड़ती है, विश्राम
मालूम पड़ता है,
नींद आ जाती
है। फ्रायड ने
संभोग को ही
एकमात्र
प्राकृतिक ट्रैंक्वेलाइजर
कहा है। है
भी। अमीर आदमी
और तरह के भी ट्रैंक्वेलाइजर
खोज लेता है; गरीब के लिए
तो एक ही ट्रैंक्वेलाइजर
है। और इसलिए
गरीब ज्यादा
बच्चे पैदा
करते हैं। और
कहीं कोई
विश्राम नहीं,
और कहीं कोई
उपाय नहीं खो
जाने का।
अमरीका
की मैं एक
घटना पढ़ रहा
था। अमरीका के
एक नगर में एक
वर्ष तक
टेलीविजन
यांत्रिक
कारणों से बंद
करना पड़ा। कुछ
खराबी थी और
एक वर्ष तक
टेलीविजन
नहीं चला। बड़ी
हैरानी की घटना
घटी,
जो किसी ने
सोची भी न थी।
दूसरे साल
दुगने बच्चे
पैदा हुए उस
गांव में।
क्योंकि लोग
टेलीविजन देख
लेते थे, सो
जाते थे
चुपचाप
देख-दाख कर।
साल भर
टेलीविजन बंद
रहा, अमीर
और गरीब बराबर
हो गए। एक ही
मनोरंजन बच गया।
दुगने बच्चे!
एक
मनोवैज्ञानिक
ने सुझाव दिया
है कि
टेलीविजन
बर्थ-कंट्रोल
की सबसे अच्छी
व्यवस्था है।
घर-घर में
टेलीविजन
पहुंचे, तो
लोग...बर्थ-कंट्रोल
की कम जरूरत
पड़ेगी--अगर उस
गांव का अनुभव
सभी जगह काम
आया तो। आना
चाहिए, क्योंकि
आदमी एक जैसा
है। इसलिए
गरीब ज्यादा बच्चे
पैदा करते
हैं। उनके पास
कुछ और स्वयं
को खोने का
उपाय नहीं है।
इसलिए अमीर
आदमियों को
अक्सर बच्चे
गोद लेना पड़ते
हैं।
अगर
बाहर का मिलन
है,
शरीर के तल
पर, तो
क्षण भर को
होगा। और मन
के तल पर तो
क्षण भर को भी
नहीं हो पाता।
इसे थोड?ा समझ लें।
शरीर के तल पर
तो क्षण भर को
भी हो पाता है;
मन के तल पर
क्षण भर को भी
नहीं हो पाता।
इसलिए काम, यौन तो आसान
है; प्रेम
बहुत कठिन है।
प्रेम का मतलब
है मन के तल पर
मिलन--किसी
स्त्री-पुरुष
का मन के तल पर
ऐसा मिल जाना
जैसे संभोग
में शरीर के
तल पर घटित होता
है। कोई विरोध
नहीं रह गया; कोई भेद
नहीं रह गया; कोई अस्मिता,
अहंकार
नहीं रह गया; जब मन के तल
पर ऐसा मिलन
होता है तो
प्रेम घटित होता
है; जब
शरीर के तल पर
ऐसा मिलन होता
है तो यौन
घटित होता है।
प्रेम बड़ा
कठिन है।
क्योंकि दो मन
का ऐसे क्षण
में आ जाना
जहां कोई
विरोध न हो, कोई अहंकार
न हो, अति
कठिन है।
शरीर
के तल पर क्षण
भर को, मन के तल
पर क्षण भर को
भी नहीं, इसलिए
दुख मिलेगा।
अपने
भीतर एक मिलन
घटित हो सकता
है स्वयं की स्त्री
और स्वयं के
पुरुष का--वह
आत्मा के तल
पर है। और वह
जो मिलन है, उसमें
कोई शक्ति
व्यय नहीं
होती। क्यों?
आप अपने
बाहर जाते ही
नहीं। अगर
विज्ञान की भाषा
में कहें तो
अमीबा जैसे
शरीर के तल पर
स्त्री और
पुरुष एक है, ऐसे ही जो
व्यक्ति अपने
भीतर स्त्री
और पुरुष को
मिला लेता है,
आत्मा के तल
पर अमीबा की
तरह एक हो
जाता है। इस मिलन
का नाम आनंद
है। इसकी
प्रक्रिया
योग है। और
ऐसी स्थिति
में आया हुआ
व्यक्ति
बिलकुल बच्चे
की तरह
निर्दोष हो
जाता है।
बच्चे
की तरह कहने
का कारण है।
बच्चे से मतलब
है,
जब यौन की
धारणा विकसित
नहीं हुई।
छोटा बच्चा न
स्त्री है, न पुरुष।
शरीर की
दृष्टि से तो
स्त्री-पुरुष
है, पर अभी
उसे अपने शरीर
का पता ही
नहीं है। आपको
पता है। तो
आपके लिए एक
बच्चा स्त्री
है, एक
बच्चा पुरुष
है। बच्चा
पैदा हुआ।
मां-बाप पता
लगाना चाहते
हैं--लड़का है, लड़की है। यह
लड़का-लड़की
मां-बाप के
लिए है। अपने
लिए? अपने
लिए अभी कुछ
भी नहीं है।
अभी इसे शरीर
का बोध ही
नहीं है। अपने
लिए तो अभी यह
सिर्फ है। वक्त
लगेगा। जब आप
इसको सिखाएंगे,
बड़ा होगा, तब यह
समझेगा कि
लड़का है या
लड़की। फिर भी
समझ कर भी
इसकी समझ में
न आएगा कि ऐसा
बहुत फर्क क्या
है लड़का और
लड़की में।
चौदह साल का
होगा, तब
इसकी
ग्रंथियां
शक्ति पैदा
करना शुरू करेंगी,
हारमोन
विभाजित
होंगे। तब इसे
पहली दफा भीतर
से अनुभव आएगा
कि लड़का होने
का क्या अर्थ
है और लड़की
होने का क्या
अर्थ है। तब
लड़के शिखर
बनने लगेंगे,
लड़कियां घाटियां
बनने लगेंगी।
तब उनकी मिलन
की आकांक्षा
पैदा होगी। तब
वे एक-दूसरे
से मिल कर
पूरा होना चाहेंगे।
लाओत्से
कहता है, जो
व्यक्ति
पुरुष होकर
स्त्री में
वास कर लेता
है, वह
भीतर एक
निर्दोष
बच्चे की
भांति हो जाता
है। फिर न वह
स्त्री है, न पुरुष।
मैंने
कहा आपको कि
बुद्ध
स्त्रैण
मालूम होते हैं।
अगर हम बाहर चंगीजखां
को,
हिटलर को, नेपोलियन को,
सिकंदर को
पुरुष मानते
हैं, तो
निश्चित ही
बुद्ध
स्त्रैण
मालूम होते
हैं। लेकिन
बुद्ध के भीतर
का अनुभव क्या
है? भीतर
का अनुभव यह
है कि बुद्ध
अब न स्त्री
हैं, न
पुरुष। बुद्ध
अब केवल हैं।
अब वे उस
बच्चे की
भांति हो गए
जिसको पता ही
नहीं कि शरीर
में कोई
भेद--जिसे यह
भी पता नहीं
कि शरीर है।
कभी
आपको खयाल हो
न हो,
शरीर का
आपको पता ही
तब चलता है, जब आप बीमार
होते हैं।
नहीं तो पता
नहीं चलता। अगर
बच्चा स्वस्थ
है तो बिलकुल
पता नहीं चलता
कि शरीर है।
स्वस्थ बच्चे
को शरीर का
कोई पता नहीं
होता। जब
बीमारी आती है,
भूख लगती है,
ठंड लगती है,
तब बच्चे को
पता चलता है
कि शरीर है।
आप भी अगर पूरे
स्वस्थ
हों--जो कि बहुत
कठिन है--तो
आपको भी शरीर
का पता नहीं
चलेगा।
बीमारी का पता
चलता है। पैर
में कांटा
चुभता है तो
पैर का पता
चलता है। सिर
में दर्द होता
है तो सिर का
पता चलता है।
और अगर आपको
सिर का पता
चलता ही रहता
है तो समझना
कि दर्द है।
विचार बहुत
चलते रहें, वे भी दर्द
पैदा करते
हैं। उनकी वजह
से भी खोपड़ी
का पता चलता है।
बच्चे
को कोई पता
नहीं शरीर का।
बच्चे को किसी
भेद का पता
नहीं। बच्चे
को किसी से
मिलने की कोई
आकांक्षा
नहीं। बच्चा
अपने में लीन
है। फ्रायड ने
जो शब्द उपयोग
किया है, वह
बहुत बढ़िया
है। फ्रायड
कहता है, बच्चा
आटो-एरोटिक
है, आत्म-कामी
है। खुद काफी
है; उसे
कोई और जरूरत
नहीं है। देखा,
बच्चा अपना
ही हाथ चूसता
रहता है। आपको
अगर हाथ चूसने
में मजा लेना
हो तो किसी और
का चूसना पड़े।
अपना हाथ
बिलकुल मजा
नहीं देगा। या
कि आपको दे
सकता है? अगर
दे तो आपके
घरवाले आपका
इलाज करवाने
चिकित्सक के
पास ले
जाएंगे।
बच्चा आटो-एरोटिक
है।
तीन
तरह की
संभावनाएं
हैं,
मनसविद कहते हैं। हेट्रो-सेक्सुअल,
विपरीत
लिंगी
काम--पुरुष और
स्त्री के
बीच। होमो-सेक्सुअल,
समलिंगी
काम--पुरुष और
पुरुष के बीच,
स्त्री और
स्त्री के
बीच।
आटो-सेक्सुअल,
आत्म-लिंगी काम--खुद
ही, किसी
के प्रति
नहीं। बच्चा
आटो-सेक्सुअल
है। उसे अभी
दुनिया में
किसी की जरूरत
नहीं है। अभी
वह अपने को ही
प्रेम करता
है।
नार्सीसस की
कथा अगर आपने
पढ़ी हो।
यूनानी कथा है
कि नार्सीसस
इतना सुंदर था
कि जब उसने
पहली दफा पानी
में अपनी छाया
देखी, तो उसके
प्रेम में पड़
गया। फिर वह
अपने को ही
प्रेम करता
रहा। फिर वह
किसी को प्रेम
नहीं कर सका।
बच्चे नार्सीसस
हैं; वे
खुद ही को
प्रेम करते
हैं। अभी
दूसरा है ही नहीं।
लेकिन
अभी दूसरा
आएगा। जल्दी
ही;
शरीर
तैयारी कर रहा
है।
प्रतीक्षा है,
जल्दी ही
दूसरा आ
जाएगा। जल्दी
ही बच्चे
दूसरे में रस
लेना शुरू कर
देंगे। छिपे
में अभी भी रस
होता है--छिपे
में, अभी
बच्चे को साफ
भी नहीं
होता--अनकांशस,
अचेतन में।
इसलिए लड़कियां
पिता को
ज्यादा प्रेम
करती हैं; लड़के
मां को ज्यादा
प्रेम करते
हैं। मां लड़कों
को ज्यादा
प्रेम करती है;
बाप लड़कियों
को ज्यादा
प्रेम करता
है। वह विपरीत
अभी भी आकर्षक
है। इसलिए बाप
और बेटे में
थोड़ी सी कलह
रहती है। लड़की
और मां में
थोड़ी सी कलह
रहती है। और
अगर बाप लड़की
को ज्यादा
प्रेम करता है
तो कलह और बढ़
जाती है। या
अगर मां लड़के
को ज्यादा
प्रेम करती है
तो कलह और बढ़
जाती है। वह
विपरीत का
आकर्षण अभी भी
छिपा है। लेकिन
अभी प्रकट
नहीं है।
प्रकट हो
जाएगा।
लेकिन
जब भीतर यह
मिलन घटित हो
जाता है, तो
पुनः व्यक्ति
बच्चे की तरह
निर्दोष होता
है। बच्चे की
तरह! यह बात
ठीक बच्चे की
तरह नहीं है।
और ही आयाम
खुल जाता है।
अब दूसरा कभी
भी महत्वपूर्ण
नहीं होगा। अब
दूसरे का
आकर्षण सदा के
लिए खो गया।
अब यह सारी
बात ही समाप्त
हो गई। अब यह
भीतर
आत्म-कामी है।
यह अब अपने ही
भीतर पूरे रस
में लीन है।
अब यह उस
अद्वैत को
उपलब्ध हो गया,
जहां अब
कहीं बाहर
जाने की, प्रेमी
को खोजने की
अब कोई जरूरत
न रही। अब
प्रेमी भीतर
मिल गया है।
और तब
स्वभावतः, सब
तनाव खो जाए, सब अशांति
खो जाए, सब
दुख खो जाए, तो आश्चर्य
नहीं है।
क्योंकि ऐसा
व्यक्ति सदा
ही भीतर अमृत
के झरने को
अनुभव करता
है।
जो झलक
कभी संभोग में
आपको दिखी हो, अगर
आपका
साधु-संन्यासियों
ने मस्तिष्क
खराब न किया
हो, जो कि
बहुत मुश्किल
है ऐसा आदमी
खोजना जो साधु-संन्यासियों
से बच जाए।
क्योंकि उनका
जाल बहुत
पुराना; उनका
धंधा बहुत
प्राचीन। और
उनके हाथ सब
जगह फैले हुए
हैं। और हर
बच्चे की गरदन
पर उनके हाथ पहुंच
जाते हैं। और
इसके पहले कि
बच्चा होश से
भरे, उसके
मस्तिष्क में
कामवासना के
संबंध में
अत्यंत मूढ़तापूर्ण
विचार डाल दिए
जाते हैं, जो
उसको कभी भी
संभोग के क्षण
में सुखी न
होने देंगे।
अगर
मनुष्य-जाति
के साथ कोई
सबसे बड़ा
अनाचार हुआ है, तो
वह यह है।
क्योंकि जो
सहज सुख था, वह असंभव कर
दिया गया। और
उसके असंभव हो
जाने से धर्म
कोई फैल गया
हो, ऐसा
नहीं। सिर्फ
अधर्म फैला।
क्योंकि वह
सहज सुख की
संभावना अगर
बनी रहे तो
आदमी समाधि की
खोज में
निश्चित ही
निकल जाएगा।
जिसे जरा सी भी
झलक मिली हो, वह और को
पाना चाहेगा।
जिसे बिलकुल
भी झलक न मिली
हो, वह
केवल हताश हो
जाता है। कुछ
और पाने का
सवाल ही नहीं
रह जाता है।
अगर मैं आपके
हाथ में झूठा
हीरा भी दे
दूं, तो भी
असली हीरे की
खोज शुरू हो
जाएगी। लेकिन आपके
हाथ में असली
हीरा भी रखा
हो और चारों
तरफ समझाने
वाले लोग हों
कि यह पत्थर
है, तो
उसको भी आप
फेंक देंगे।
और असली की
खोज तो असंभव
हो जाएगी। झलक,
और विराटतर
सत्य की तरफ
ले जाती है।
इसलिए
कहता हूं, अगर
आपको संभोग का
कभी जरा सा भी
क्षण भर को भी अनुभव
हुआ हो, तो
आप कल्पना कर
सकते हैं उस
योगी की, जिसको
भीतर यह संभोग
घटित होता है।
तो फिर यह रस
चौबीस घंटे
झरता रहता है।
कबीर कहते हैं,
जागूं कि सोऊं, उठूं
कि बैठूं, वह
अमृत झरता ही
रहता है। वह
कौन सा अमृत
है? वह एक
भीतर मिलन का
अमृत है। अब
भीतर कबीर एक
हो गए।
इस एक
हो जाने का
नाम ही आत्मा
है। भीतर बंटे
होने का नाम
मन है और भीतर
एक हो जाने का
नाम आत्मा है।
और जब तक आपके
भीतर आत्मा
नहीं है, तब तक
आप व्यक्ति
नहीं हैं, इंडिविजुअल नहीं हैं।
आप सिर्फ एक
भीड़ हैं, एक
समूह; बहुत
से लोगों का
वास है। जब यह
भीड़ खो जाती
है, और एक
ही बच रहता
है। जब यह
द्वैत खो जाता
है, और एक
ही बच रहता
है।
लाओत्से
कहता है, "जो
शुक्ल के
प्रति
होशपूर्ण, लेकिन
कृष्ण के साथ
जीता है; जो
प्रकाश के
प्रति
होशपूर्ण, लेकिन
अंधेरे के साथ
जीता है; वह
संसार के लिए
आदर्श बन जाता
है। और संसार
का आदर्श होकर
उसको वह सनातन
शक्ति
प्राप्त होती
है, जो कभी
भूल नहीं
करती। और वह
पुनः अनादि
अस्तित्व में
वापस लौट जाता
है।'
प्रकाश
के प्रति
होशपूर्ण, लेकिन
अंधेरे में
जीता है। और
भी कठिन बात
है। क्योंकि
हम प्रकाश को
चाहते हैं
अंधेरे के
खिलाफ। हमारी सारी
वासना किसी की
चाह किसी के
खिलाफ से बनी है।
प्रकाश!
ऋषि ने
गाया है, हे
प्रभु मुझे
प्रकाश की तरफ
ले चल! अंधेरे
से हटा, प्रकाश
की तरफ ले चल!
मृत्यु से हटा,
अमृत की तरफ
ले चल!
लाओत्से
की बात उस ऋषि
से ज्यादा
गहरी है। क्योंकि
वह ऋषि
सामान्य
मनुष्य की
वासना को ही
प्रकट कर रहा
है। उस ऋषि ने
जो भी कहा है, वह
कोई असामान्य
बात नहीं है।
सामान्य आदमी
की वासना है
कि मुझे
अंधेरे से
प्रकाश की तरफ,
मृत्यु से
अमृत की तरफ, सुख की तरफ
दुख से, वेदना
से आनंद की
तरफ ले चल! यह
तो ठीक वासना
सामान्य आदमी
की है। इसमें
ऋषि का कुछ
बहुत है नहीं।
कहें कि ऋषि
ने सभी
सामान्य
मनुष्यों की वासना
को अपने इस
सूत्र में
प्रकट कर दिया
है।
लेकिन
लाओत्से की
बात सचमुच
उसकी बात है
जिसने जाना
है। वह कह रहा
है,
जो शुक्ल के
प्रति
होशपूर्ण!
जागे रहना
प्रकाश की तरफ,
लेकिन
अंधेरे के
खिलाफ प्रकाश
को मत चुन
लेना। डरना मत
अंधेरे से।
अंधेरे में
जीना। घबड़ाना
भी मत।
क्योंकि जो
आदमी अंधेरे
में जीने को राजी
है बिना भय के,
वही आदमी
वस्तुतः
प्रकाश को
उपलब्ध हुआ
है। जो अंधेरे
से डरता है, वह प्रकाश
को कभी
वस्तुतः
उपलब्ध नहीं
हो सकता।
क्योंकि
अंधेरा
प्रकाश का ही
एक रूप है। अंधेरा
प्रकाश का ही
एक रूप है।
भेद हमें
दिखाई पड़ता
है। अस्तित्व
में भेद नहीं
है।
और अगर
हम गहरे उतरें
तो इसका मतलब
है कि जो नीति
की तरफ
होशपूर्ण, लेकिन
अनीति से
भयभीत नहीं; जो संन्यास
के प्रति जागा
हुआ, लेकिन
संसार से भागा
हुआ नहीं। इस
सूत्र को पूरे
जीवन के समस्त
विरोधों में
फैला देना
जरूरी है।
जहां-जहां
विरोध हो, वहां-वहां
जानना कि
दोनों को एक
साथ जोड़ लेना है।
तब जो स्थिति
घटित होगी, वही परम
शांति की है।
अगर हम
द्वंद्व में
से चुनते हैं, तो
शांति कभी
घटित नहीं
होगी। जो भय
से भाग गया
संसार से और
संन्यास चुन
लिया, वह
संसार से
पीड़ित रहेगा।
जो भयभीत है
जिससे, भय
उसका पीछा कर
रहा है। वह
कहीं भी चला
जाए, उसे
शांति न
मिलेगी। और डर
लगा ही रहेगा
संसार का। और
संसार छाया की
तरह पीछे
जाएगा। और वह
कितना ही बचे,
जहां जाएगा
वहीं संसार
निर्मित हो
जाएगा। लेकिन
जो संसार के
बीच संन्यस्त
हो जाता है, अब इसे कोई
भय न रहा। अब
इसे कहीं जाने
की जरूरत न
रही। अब यह
जहां भी है...।
कबीर
मरने के करीब
थे। तो कबीर
जिंदगी भर
काशी में रहे
और मरते वक्त
उन्होंने कहा, मुझे
काशी के बाहर
ले चलो। लोगों
ने कहा, आप
पागल हो गए
हैं! लोग मरने
के लिए काशी
आते हैं।
क्योंकि यहां
जो मरता है, वह मोक्ष को
उपलब्ध हो
जाता है। कबीर
ने कहा, इसीलिए
मुझे काशी के
बाहर ले चलो।
इसीलिए मुझे
काशी के बाहर
ले चलो, क्योंकि
मर कर मैं
वहीं उपलब्ध
होना चाहता
हूं, जहां
उपलब्ध हो
सकता हूं।
काशी का सहारा
नहीं लेना
चाहता। पर
लोगों ने कहा,
ऐसी जिद्द
भी क्या? अगर
काशी के सहारे
भी मोक्ष
मिलता हो तो
ऐसी जिद्द
भी क्या? तो
कबीर ने कहा
है कि जो
मैंने भीतर पा
लिया है, अब
मुझे नरक में
भी फेंक दिया
जाए तो वहां
भी मोक्ष है।
अब कोई भेद
नहीं पड़ता।
क्या मुझे
मिलता है, इससे
कोई सवाल नहीं
है। क्योंकि
मैंने जो भीतर
पा लिया है, वही मोक्ष
है।
काशी
मरने वही आते
हैं मोक्ष के
लिए,
जिन्हें
भीतर का मोक्ष
नहीं मिला है।
और जिन्हें
भीतर का नहीं
मिला, वे
पागल हैं कि
सोच रहे हैं
कि बाहर का
मिल जाएगा।
काशी में
कितने ही बार
मरो, मोक्ष
नहीं मिल
सकता। अपने
में एक बार भी
मर जाओ, मोक्ष
अभी और यहीं
है।
अपने
में मरने का
सूत्र है:
द्वंद्व में
चुनाव मत करना, द्वंद्व
को पूरा का
पूरा आत्मसात
कर लेना। बुरे
और भले को, शुभ
और अशुभ को, शुक्ल और
कृष्ण को, सब
को एक साथ
आत्मसात कर
लेना, ताकि
दोनों
एक-दूसरे को
काट दें। उनके
कटते ही
व्यक्ति
अनादि
अस्तित्व में
वापस लौट जाता
है।
"और
उसे वह सनातन
शक्ति
प्राप्त हो
जाती है, जो
कभी भूल नहीं
करती।'
फिर
उसे सोचना
नहीं पड़ता कि
मैं यह करूं
और यह न करूं।
फिर उसे सोचना
नहीं पड़ता कि
क्या ठीक है
और क्या गलत
है। फिर तो
उससे जो होता
है,
वह ठीक होता
है। और उससे
जो नहीं होता,
वह गलत है।
फिर तो उसका
होना ही उसका
नियम है।
आज
इतना ही। पांच
मिनट रुकें, कीर्तन
करें, और
फिर जाएं।
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