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शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--039

श्रेष्ठ शासक कौन?--जो परमात्मा जैसा हो--(प्रवचन--उनतालीसवां)

 अध्याय 17 : खंड 1

शासक

सर्वश्रेष्ठ शासक कौन है?

जिसके होने की भी खबर प्रजा को न हो;

उससे कम श्रेष्ठ को प्रजा प्रेम और प्रशंसा देती है;

उससे भी कम से वह डरती है;

और सब से घटिया शासक की वह निंदा करती है।

जब शासक प्रजा की श्रद्धा के पात्र नहीं रह जाते,

और प्रजा उनमें विश्वास नहीं करती,

तब ऐसे शासक शपथों का सहारा लेते हैं!

लेकिन जब श्रेष्ठ शासक का काम पूरा हो जाता है,

तब प्रजा कहती है: "यह हमने स्वयं किया है।'


पहले एक प्रश्न।

किसी ने पूछा है: लोग अक्सर कहते सुने जाते हैं, जो होता है ठीक ही होता है। इस ठीक का क्या अर्थ है? क्या यह सिर्फ एक सांत्वना है मन को समझाने के लिए? क्या यह संभव है कि जो भी होता हो, सभी ठीक होता हो? कहीं यह वैसा ही तो नहीं है, जैसा ईसप की कथा में लोमड़ी को अंगूर खट्टे मालूम पड़े; क्योंकि वह उन तक पहुंच नहीं सकी!

श्रेष्ठतम नियम भी निकृष्टतम उपयोग में लाए जा सकते हैं। जीवन की परम रहस्य की बातें भी क्षुद्रताओं को छिपाने का कारण बन सकती हैं। ऐसा ही यह सूत्र भी है, और लाओत्से से संबंधित है, इसलिए इस पर विचार करना उचित है।
लाओत्से कहेगा, जो होता है ठीक ही होता है। इसलिए नहीं कि यह कोई सांत्वना है, कोई कंसोलेशन है; बल्कि इसलिए कि ऐसी ही लाओत्से की दृष्टि है। लाओत्से कहता है, जो गलत है, वह हो ही कैसे सकता है? और जो भी हो सकता है, वह ठीक है।
यहां ठीक से संबंध, जो हो रहा है, उसके संबंध में वक्तव्य नहीं है, बल्कि जो हो रहा है, उसको देखने वाले के संबंध में वक्तव्य है। जब लाओत्से कहता है, जो होता है ठीक होता है, तो वह यह कह रहा है कि अब इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरे लिए बुरा हो। यह वक्तव्य, जो होता है, उसके संबंध में नहीं है। यह वक्तव्य साक्षी के संबंध में है, लाओत्से के खुद के संबंध में है। लाओत्से यह कह रहा है कि अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरे लिए बुरा हो सके। मैं उस जगह खड़ा हूं, जहां बुराई नहीं छू सकती है। अब सभी कुछ ठीक है। अब इसलिए सभी कुछ ठीक है कि लाओत्से उस आनंद में है, जिस आनंद को नष्ट करने का अब कोई उपाय नहीं है।
आपके लिए सभी कुछ ठीक नहीं हो सकता। आपके लिए वही ठीक होगा, जिससे सुख मिले; और वह गलत होगा, जिससे दुख मिले। जब तक आपको दुख मिल सकता है, तब तक सभी कुछ ठीक नहीं हो सकता। जब तक आप दुखी हो सकते हैं, तब तक सभी कैसे ठीक होगा? छोटा बच्चा आपका पैदा हो प्यारा और मर जाए, कैसे कह सकेंगे कि ठीक हुआ? जिसे प्रेम करते हों और वह न मिल सके, कैसे कह सकेंगे कि ठीक हुआ? जीवन भर, जो आप समझते हैं अच्छा है, करते रहें और परिणाम बुरे हों, कैसे कह सकेंगे कि ठीक हुआ?
नहीं कह सकेंगे; क्योंकि आपका सुख कारण-निर्भर है। तो जिन कारणों से सुख सध जाता है, वे ठीक हैं; और जिन कारणों से नहीं सधता, वे ठीक नहीं हैं। जब तक आपको सुख-दुख में फर्क है, तब तक कुछ गैर-ठीक होगा ही। बीमारी को कैसे ठीक कहिएगा? और मौत को कैसे ठीक कहिएगा?
जब तक जीवन की चाह है, तब तक मौत तो बुरी होगी ही। और जब तक स्वास्थ्य की आकांक्षा है, तब तक बीमारी शत्रु है। जब हम किसी चीज को ठीक और गैर-ठीक कहते हैं, तो चीज ठीक या गैर-ठीक है, इससे कोई संबंध नहीं है; हमारी अपेक्षाओं की हम खबर देते हैं।
और अगर ऐसा आदमी कहे कि सब ठीक है, तो यह कंसोलेशन, सांत्वना ही होगी। और इस कहने में कोई आनंद न होगा, सिर्फ एक निराशा, एक उदासी होगी। इस वक्तव्य में कोई विजय की घोषणा नहीं है; इस वक्तव्य में पराजय का स्वीकार है। कुछ नहीं कर पाते हैं, इसलिए समझा लेते हैं अपने को कह कर कि सब ठीक है।
संतोष पराजितों की भी सहायता करता है। लेकिन वह संतोष झूठा होता है। वास्तविक संतोष तो उन्हें ही मिलता है, जो जीवन के विजेता हैं। विजेता इन अर्थों में कि अब कोई उपाय नहीं है उन्हें हराने का; विजेता इन अर्थों में कि अब उन्हें हार भी हार नहीं है। और लाओत्से ने कहा है, तुम मुझे हरा न सकोगे, क्योंकि मैं पहले से ही हारा हुआ हूं। तुम मुझे मेरे सिंहासन से उतार न सकोगे, क्योंकि मैं जहां बैठा हूं, वह अंतिम स्थान है। उससे नीचे उतारने का कोई उपाय नहीं है। तुम मुझे दुख न दे सकोगे, क्योंकि मैंने सुख की आकांक्षा को ही विसर्जित कर दिया है। इस अर्थ में जो विजेता है, संतोष उसके जीवन में प्रकाश की तरह है।
हम जैसे हारे हुए लोग...। और हम बहुत हारे हुए लोग हैं; क्योंकि जो भी हम चाहते हैं, वह नहीं मिलता। जो भी हम कामना करते हैं, वही कामना टूट जाती है, बिखर जाती है। हम बुरी तरह हारे हुए लोग हैं--सर्वहारा, सब कुछ हारे हुए हैं; कुछ मिलता नहीं है। इस हार में भी संतोष का उपयोग किया जा सकता है। तब वह झूठा है। तब ऊपर से थोपा हुआ, चिपकाया हुआ है। तब भी हम कह सकते हैं, सब ठीक है। तब ईसप की कथा ठीक है।
ईसप की कथा हम सबको ज्ञात है कि लोमड़ी ने बहुत छलांग मारीं, अंगूरों तक नहीं पहुंच सकी। लेकिन अहंकार यह भी तो स्वीकार नहीं कर सकता कि मेरी छलांग छोटी है। अहंकार यही कहेगा कि अंगूर खट्टे हैं।
लेकिन यह कहानी अधूरी है। ईसप दुबारा आए, तो कहानी को पूरा करे। मैं कहानी को पूरा कर देता हूं। जब इस लोमड़ी ने ईसप की कहानी पढ़ी, तो उसने तत्काल एक जिम्नाजियम में जाकर व्यायाम करना शुरू कर दिया। छलांग लगानी सीखी, दवाएं लीं, ताकत के लिए विटामिन्स लिए। और लोमड़ी इतनी ताकतवर हो गई कि वापस गई उसी वृक्ष के नीचे और पहली ही छलांग में अंगूर का गुच्छा उसके हाथ में आ गया। लेकिन जब उसने चखा, तो अंगूर सच में ही खट्टे थे। लेकिन अब लोमड़ी क्या करे? उसने लौट कर लोगों से कहा कि अंगूर बहुत मीठे हैं।
अहंकार है, तो कहीं से भी भर लेगा। न पहुंच पाएं अंगूर तक, तो अंगूर खट्टे हैं। और पहुंच जाएं, तो खट्टे भी हों तो भी मीठे हैं। एक बात ध्यान रख लेनी जरूरी है कि हम जो भी वक्तव्य दे रहे हैं, वह वक्तव्य हमारी पराजय से तो नहीं निकलता है? हार से तो नहीं निकलता है? हारे हुए वक्तव्यों का कोई भी मूल्य नहीं है।
और लाओत्से आपको यह नहीं सिखा रहा है कि आप थोप लें संतोष। लाओत्से यह कह रहा है कि संतोष जीवन के साथ संगीत का संबंध है, पराजय का नहीं। दुश्मनी का नहीं, मैत्री का संबंध है। लाओत्से यह कह रहा है कि जो भी होता है, वह इतनी विराट घटना है और इतने विराट उसके कारण हैं और इतना विराट उसका फैलाव और रहस्य है कि आप बचकानापन करेंगे, अगर आप निर्णय करें कि ठीक है या गलत है। आप निर्णायक नहीं हो सकते।
जगत इतनी बड़ी घटना है कि उसमें जो होता है, वह तो एक फ्रैगमेंट, एक टुकड़ा है। जैसे कि किसी आदमी को एक उपन्यास का एक पन्ना में हाथ लग जाए और वह उस पन्ने को पढ़ कर निर्णय ले कि उपन्यास नैतिक है या अनैतिक है, अश्लील है कि श्लील है, श्रेष्ठ है कि निकृष्ट है, और उस पन्ने पर वह निर्णय करे ठीक या गलत होने का, तो हम उसे नासमझ कहेंगे। हम कहेंगे, पूरी कथा से परिचित हो जाना जरूरी है निर्णय के पहले। लेकिन जगत के संबंध में हम रोज निर्णय लेते हैं। और जगत की पूरी कथा से परिचित होने का कोई भी उपाय नहीं है।
अगर हिटलर मर जाए बचपन में ही, तो उसकी मां सोचेगी: बहुत बुरा हुआ। क्योंकि यह एक टुकड़ा है। लेकिन हिटलर ने जो किया, अगर उसकी मां जिंदा हो, तो सोचेगी: यह पैदा होते ही मर जाता, तो अच्छा था। लेकिन यह भी एक टुकड़ा है। और अभी इसके वृहत्तर...हिटलर भला समाप्त हो जाए, लेकिन हिटलर ने जो किया है, वह सक्रिय रहेगा। और यह भी हो सकता है कि दुनिया में अब कोई युद्ध न हो, सिर्फ इसलिए कि हिटलर हो गया। तब? तब हिटलर का होना अच्छा होगा या बुरा?
यह हो सकता है कि हिटलर के कारण ही युद्ध रुक जाए। और मुझे दिखता है! बुद्ध और महावीर के कारण युद्ध नहीं रुक सके; हिटलर के कारण रुक सकते हैं। क्योंकि हिटलर ने युद्ध को ऐसा विषाक्त रूप दे दिया, उसको उसकी चरम परिणति तक पहुंचा दिया, बीमारी आखिरी जगह पहुंच गई, कि अगर आदमी अब भी युद्ध करे, तो फिर हमें मानना चाहिए कि आदमी में आदमियत जैसा कुछ भी नहीं है। हो सकता है जगत में अब कोई विराट महायुद्ध न हो। लेकिन तब उसका सारा श्रेय हिटलर पर ही जाएगा।
कौन कह सकता है कि हिटलर का होना अच्छा हुआ या बुरा हुआ?
हम टुकड़े पर निर्णय करते हैं, एक खंड पर निर्णय करते हैं। जीवन अखंड धारा है। और अनंत है, अनादि है। न उसका प्रारंभ है, न उसका कोई अंत है। तो सिर्फ निर्णायक परमात्मा ही हो सकता है। जिस दिन सृष्टि समाप्त हो, उस दिन ही तय हो सकता है: क्या था ठीक, क्या था गलत। हम कैसे निर्णय ले सकते हैं?
लाओत्से जब कहता है कि सब ठीक है, तो वह यह कह रहा है कि निर्णय हम ले नहीं सकते। यह निर्णय नहीं है। जब लाओत्से कह रहा है, सब ठीक है, तो यह "सब गलत है,' उसके विपरीत निर्णय नहीं है। जब लाओत्से कह रहा है, सब ठीक है, तो वह यह कह रहा है कि मैं विराट की इच्छा के साथ अपने को एक करता हूं; मेरी अपनी कोई अलग इच्छा नहीं।
जीसस को सूली लग रही है। आखिरी क्षण में एक संदेह जीसस को पकड़ जाता है। जब हाथ पर कीले ठोंक दिए गए हैं, तब जीसस के मुंह से आह निकलती है और वे कहते हैं, हे परमात्मा, यह तू मुझे क्या दिखा रहा है?
कहीं छिपी कोई आकांक्षा रही होगी, कहीं दूर गहरे में, जिसका जीसस को भी पता न हो। ठोंके गए कीलों ने उसे जगा दिया होगा। कहीं किसी गहरे में प्रसुप्त कोई बीज रहा होगा, यह भरोसा रहा होगा कि ईश्वर मुझे सूली नहीं लगने देगा। कहीं गहरे में ईश्वर के प्रति यह धारणा रही होगी कि सूली तो बुरी है, तो मुझे ईश्वर सूली कैसे लगने देगा! सूली अच्छी है, ऐसा जीसस को खयाल नहीं रहा होगा। नहीं तो जीसस के मुंह से यह वचन न निकलता कि हे परमात्मा, यह तू मुझे क्या दिखा रहा है? इसमें ईश्वर पर संदेह तो हो गया। और इसमें सर्व-स्वीकार नहीं रहा। सूली बुरी हो गई। और जो हो रहा है, वह गलत हो रहा है।
लेकिन तत्क्षण जीसस जैसे व्यक्ति को बोध आ गया होगा। तत्क्षण जीसस को लगा होगा, यह भूल हो गई। यह तो भूल हो गई साफ, मैंने ईश्वर से अपने को ज्यादा बुद्धिमान मान लिया। मैंने निर्णय दे दिया कि जो हो रहा है, वह गलत हो रहा है; और जो होना चाहिए था सही, वह नहीं हो रहा है। इस जरा सी आह में मैं नास्तिक हो गया; मेरी श्रद्धा खंडित हो गई। तो तत्क्षण जीसस ने क्षमा मांगी है। उनकी आंखों से आंसू बह गए और उन्होंने कहा, हे परमात्मा, मुझे क्षमा कर! तेरी मर्जी ही मेरी मर्जी है। तेरी मर्जी पूरी हो; क्योंकि तेरी मर्जी ही शुभ है।
लाओत्से जब कहता है, सब ठीक है, तो वह यह कह रहा है, उस शाश्वत नियम के विपरीत हमारे वक्तव्य नासमझी से भरे हुए हैं। वह शाश्वत नियम इतना बड़ा है--होगा ही। हम उससे ही पैदा होते हैं। मेरी मृत्यु होगी कल, तो मैं कहूंगा बुरा हो रहा है। लेकिन जिससे मेरा जन्म हुआ था, उससे ही मेरी मृत्यु हो रही है। और जिस शाश्वत नियम से मैं प्रकट हुआ था, वही शाश्वत नियम मुझे वापस बुला रहा है। अगर उसके भेजने से मैं राजी था, तो उसके बुलाने से क्यों राजी नहीं हूं? और अगर उसका दिया हुआ जीवन अच्छा था, तो उसकी दी हुई मौत बुरी कैसे हो सकती है? एक ही स्रोत से सब कुछ जन्म रहा है। उसी स्रोत से खिलते हैं फूल और उसी स्रोत से लगते हैं कांटे। अगर उसके फूल भले हैं, तो उसके कांटे बुरे क्यों होंगे?
और लाओत्से यह कह रहा है कि कांटे भी उसी के हैं, फूल भी उसी के हैं, इसलिए सब ठीक है। यह "सब ठीक' वस्तुओं के प्रति वक्तव्य नहीं, स्वयं और शाश्वत के साथ जो संगीत सध गया है, उसकी खबर है। यह कोई सांत्वना नहीं है। क्योंकि सांत्वना का तो अर्थ ही यही होता है कि सब गलत है, और हम अपने को समझा रहे हैं कि सब ठीक है। जो ठीक नहीं है, उसको हम समझा रहे हैं कि सब ठीक है, तब सांत्वना है। लेकिन अगर ऐसी ही प्रतीति है कि सब ठीक है, तो फिर सांत्वना नहीं है।
धर्म का निकृष्ट रूप सांत्वना है, कंसोलेशन है। और धर्म का श्रेष्ठतम रूप संगीत है। व्यक्ति और विराट के बीच जो संगीत है, वह धर्म का श्रेष्ठतम रूप है। व्यक्ति और विराट के बीच जो संघर्ष है, उसमें व्यक्ति की जो पराजय है, उस पराजय में जो सांत्वना खोजी जा रही है, वह धर्म का निकृष्टतम रूप है। यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह इस शाश्वत नियम को सांत्वना बनाता है या सत्य। इसे केवल एक मलहम-पट्टी समझता है कि घाव को भीतर छिपा लिया, या एक अनंत संगीत की संभावना--यह व्यक्ति पर निर्भर है। यह आप पर निर्भर है।
अधिक लोग सांत्वना में ही जीते हैं। इसीलिए आदमी दुख में धर्म की तलाश करता है; क्योंकि दुख में सांत्वना की जरूरत है। दुखी आदमी के पैर मंदिर की तरफ बढ़ने लगते हैं। माक्र्स ने तब तो ठीक ही कहा है कि धर्म दुखी आदमी की आह है और धर्म जनता के लिए अफीम है। ठीक ही कहा है। धर्म का जो निकृष्टतम रूप है, वह यही है। और यही बड़ा रूप है। सौ में निन्यानबे लोग इसी भांति धार्मिक हैं। और आश्चर्य नहीं है कि माक्र्स को सौवां आदमी न मिला हो। वह आसान भी नहीं है सौवां आदमी मिलना। निन्यानबे आदमी जगह-जगह मौजूद हैं। अगर माक्र्स को ऐसा लगा हो कि धर्म अफीम का एक नशा है, तो कुछ गलत नहीं लगा।
लेकिन इसमें निंदा भी क्या है? चिकित्सक भी, अगर आप बहुत दर्द में हों, तो नशा देकर आपके दर्द को भुलाता है। मार्फिया देता है। दर्द के साथ एक मजा है कि उसका पता चले, तो ही होता है। पता ही न चले, तो कहां है? दर्द के साथ हम दो काम कर सकते हैं: दर्द को मिटाने का--वह धर्म की श्रेष्ठतम संभावना है; दर्द को भुलाने का--वह धर्म की निकृष्टतम संभावना है। जब दुखी आदमी धर्म की तरफ बढ़ता है, तो वह सांत्वना के लिए जा रहा है। जब सुखी आदमी धर्म की तरफ बढ़ता है, तब वह संगीत के लिए जा रहा है।
इसलिए मैं कहता हूं, जब आप सुख से भरे हों, तब धर्म की तरफ बढ़ना। बहुत कठिन है, बहुत कठिन है। दुख से जब भरे होते हैं, तब बहुत सरल है। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि दुखी, दीन, दरिद्र, गरीब समाज धार्मिक नहीं हो पाते। उनके लिए धर्म अफीम ही है। समृद्ध, सुखी, संपन्न समाज ही धार्मिक हो पाते हैं। क्योंकि सुख जब व्यर्थ मालूम होता है, तब ठीक और गैर-ठीक की सब धारणाएं गिर जाती हैं। जब सुख ही व्यर्थ मालूम होने लगता है, तो फिर क्या ठीक है और क्या गलत है?
जब तक दुख गलत मालूम होता है, तब तक हम ज्यादा से ज्यादा सांत्वना खोज सकते हैं। यह व्यक्ति पर निर्भर है कि आप धर्म को सांत्वना बनाते हैं। अगर आप धर्म को सांत्वना बनाते हैं, तो धर्म आपके लिए एक ड्रग, अल्कोहल, इससे ज्यादा नहीं है।
नीत्शे ने कहा है, पश्चिम में दो मादक द्रव्य हैं: क्रिश्चियनिटी और अल्कोहल, शराब और ईसाइयत।
वह ठीक कहा है। अधिक लोग शराब और धर्म से एक ही काम लेते हैं। जो लोग शराब से ले सकते हैं, वे धर्म की फिक्र नहीं करते। जो शराब से लेने में डरते हैं, वे धर्म से वही काम ले लेते हैं। इसलिए जो धार्मिक, तथाकथित धार्मिक आदमी, जो धर्म से शराब का ही काम ले रहा है, वह शराबियों के बड़े खिलाफ होगा। सजातीय हैं वे। और शराब काम्पिटीटर है उनके धर्म का। इसलिए तथाकथित धार्मिक आदमी शराब के बड़ा खिलाफ होगा। क्योंकि उसे पक्का भरोसा है कि अगर शराब ज्यादा चलती है, तो धर्म कम चलेगा। वह काम्पिटीटर है।
ठीक धार्मिक आदमी को शराब से क्या विरोध हो सकता है! बल्कि एक अर्थ में बेहतर है कि आदमी शराब पीकर भुला ले। धर्म पीकर जो भुलाता है, वह ज्यादा खतरनाक है; क्योंकि धर्म का दुरुपयोग है वह। और शराब का यह सदुपयोग है। शराब की श्रेष्ठतम संभावना यही है कि आपको भुला दे। धर्म की यह निकृष्टतम संभावना है कि भुला दे।
तो जो धर्म का शराब की तरह उपयोग करता है, वह धर्म को भी नुकसान पहुंचाता है। उससे बेहतर है वह शराब ही पी ले। कम से कम रास्ता सीधा, साफ-सुथरा तो है। अपने को धोखा तो नहीं दे रहा है। लेकिन अधिक लोग धर्म को भी विस्मरण के लिए ही काम में लाते हैं। उनके कारण ही पृथ्वी धार्मिक नहीं हो पाती।
यह प्रश्न ठीक है। सर्व-स्वीकार परम आस्तिकता है--टोटल एक्सेप्टबिलिटी। सर्व-स्वीकार में कोई दंश नहीं है। कुछ ऐसा नहीं है कि कोई तकलीफ है, इसलिए सब स्वीकार। बल्कि यह स्मरण आ गया है कि एक लहर अगर सागर को स्वीकार न करे, तो व्यर्थ ही परेशान होगी। एक लहर का होना ही सागर का होना है। सागर का अस्तित्व ही लहर में आंदोलित हो रहा है। अगर लहर अपनी इच्छा निर्मित कर ले, तो दुखी होगी, पीड़ित होगी। लहर सागर पर ही सब छोड़ दे, तो चिंता का भार हट जाएगा।
चिंता हमारी यही है कि हम लहर होकर अपने को सागर समझ लेते हैं, लहर होकर सागर के विपरीत खड़े हो जाते हैं। तब अस्वीकार पैदा होता है। तब यह ठीक है और यह गलत, हम निर्णायक हो जाते हैं।
लाओत्से इतना ही कहता है कि निर्णय लहर क्या लेगी! लहर है ही कहां, जो निर्णय ले सके? उसका अलग होना ही नहीं है, सागर का एक हिस्सा है; सागर से ही जन्मी है, सागर में ही लीन हो जाएगी। जन्म को जिस सदभाव से स्वीकार किया है, उसी भाव से मृत्यु को भी स्वीकार कर लेना जरूरी है। दोनों ही सागर का दान हैं। सुख को जिस भांति माना, वैसे ही दुख को भी मान लेना जरूरी है। दोनों ही सागर के दान हैं। इस अर्थ में सर्व-स्वीकार परम क्रांति है, उससे बड़ी और कोई क्रांति नहीं है। क्योंकि तब व्यक्ति की बूंद खो जाती है, और सागर ही रह जाता है।
अब हम सूत्र को लें।
निष्क्रियता लाओत्से के लिए परम सत्य है, आत्यंतिक, अल्टीमेट। लेकिन निष्क्रियता का ऐसा अर्थ नहीं है कि वह परिणामकारी नहीं है। लाओत्से कहता है, निष्क्रियता परम परिणामकारी है। उसके होने से ही घटनाएं घट जाती हैं। एक शांत व्यक्ति आपके पास से गुजर जाए--शांत व्यक्ति, कि जिसके भीतर एक भी तरंग नहीं, एक मौन झील, जिसमें सब शांत हो गया है, जिसके भीतर कोई आंदोलन नहीं, वह आपके पास से गुजर जाए--तो जैसे हवा का एक शांत झोंका आपके पास से गुजर गया हो। वह कुछ करता नहीं है। सिर्फ आपके पास मौजूद था, अचानक आप पाएंगे, आपके भीतर कोई शांति की वर्षा हो गई। शायद आपको खयाल भी न हो कि जो पास से गुजर गया है, उसके कारण। और जो गुजर गया है, उसको तो बिलकुल ही खयाल नहीं होगा कि उसके कारण किसी पर शांति की वर्षा हो गई है। उसकी निष्क्रियता भी, उसकी शून्यता भी परिणामकारी है।
लाओत्से कहता है, श्रेष्ठतम परिणाम शून्यता से आते हैं। क्योंकि शून्यता में कोई हिंसा नहीं है। अगर मेरी शांति आपको छू ले और आप शांत हो जाएं, तो मैंने आपको बदला नहीं, आप बदल गए। लेकिन अगर मुझे चेष्टा करनी पड़े आपको बदलने की और आपको शांत करने के लिए उपाय करने पड़ें, तो मेरे उपाय कितने ही शुभ मालूम हों, उनमें हिंसा होगी ही। क्योंकि जब एक व्यक्ति तय करता है दूसरे को बदलने का, तभी हिंसा शुरू हो जाती है।
इसलिए साधु-महात्मा बड़े सूक्ष्म रूप में हिंसक होते हैं; क्योंकि वे आपको वैसा ही स्वीकार नहीं कर सकते, जैसे आप हैं। वे आपको बदलेंगे। वे आपको अच्छा बनाएंगे। वे आपको शुभ बनाएंगे। वे आपके जीवन से मिट्टी अलग करेंगे और सोना डालेंगे।
बड़े अच्छे उनके खयाल हैं। लेकिन दूसरे को बदलने का खयाल ही दूसरे को मिटाने का खयाल है। दूसरा जैसा है, उसमें रत्ती भर भी फर्क करने का अर्थ है कि हमें दूसरे की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं। और हम में से कोई भी दूसरे की स्वतंत्रता बर्दाश्त नहीं करता। बाप बेटे को बदलने में लगा है, बनाने में लगा है; बिना इसकी फिक्र किए कि वह खुद भी बन पाया है या नहीं। हर बाप बेटे के साथ हिंसा करता है। इसलिए दुनिया इतनी बुरी है। फिर बेटे अपने बेटों के साथ निकाल लेते हैं। और सिलसिला जारी रहता है। ऐसी पत्नी खोजनी मुश्किल है, जो पति को बदलने में न लगी हो। अब तक ऐसा पति नहीं हो सका--हो ही नहीं सका, श्रेष्ठतम रहा हो, तो भी--जिसमें पत्नी के लिए बदलाहट का काम बाकी न हो। सुकरात जैसा पति मिल जाए, तो भी पत्नी बदलने की कोशिश करती है। बड़ी भली आशा से, बड़ी अच्छी आकांक्षा से--अच्छा बनाने की।
और एक मजे की बात है, जब आप किसी को अच्छा बनाने की कोशिश में लग जाते हैं, तो आप बड़ी कुशलता से दुष्ट हो सकते हैं। और दुष्टता चूंकि अच्छाई में छिपी होती है, इसलिए उसका विरोध भी नहीं किया जा सकता। इसलिए जो नासमझ दुष्ट हैं, वे सीधे-सीधे दुष्ट होते हैं। जो समझदार और चालाक दुष्ट हैं, वे अच्छाई के नाम पर दुष्ट होते हैं। अगर कोई आदमी आपको ही बदलने के लिए आपकी गर्दन पकड़ ले, तो विरोध भी तो नहीं किया जा सकता, बगावत भी तो नहीं की जा सकती। इसलिए तथाकथित अच्छे आदमियों के साथ में बेचैनी मालूम पड़ती है।
तो मैं आपको सूत्र देता हूं: वही है ठीक अच्छा आदमी, जिसके साथ बेचैनी मालूम न पड़े। अगर किसी अच्छे आदमी के पास बेचैनी मालूम पड़े, तो समझना कि उस अच्छे आदमी से कुछ न कुछ हिंसा आपकी तरफ बहती है। इसलिए महात्माओं के दर्शन किए जा सकते हैं, उनके साथ रहना बड़ा मुश्किल है। क्योंकि चौबीस घंटे उनकी आंखें आप पर गड़ी हुई हैं--आपने यह तो नहीं खाया, यह तो नहीं पीया, ऐसे तो नहीं बैठे, वैसे तो नहीं सोए। वे चौबीस घंटे आपके पहरे पर हैं। आप जैसे हैं, वह उन्हें स्वीकार नहीं है।
बड़ा मजा है, आप जैसे हैं, परमात्मा को आप बिलकुल स्वीकार हैं। अब तक मैं नहीं समझता कि बुरे से बुरे आदमी से भी परमात्मा ने शिकायत की हो कि तू थोड़ा अच्छा हो जा! थोड़ा तो सुधर! परमात्मा ने अब तक शिकायत ही नहीं की। और महात्माओं के पास सिवाय शिकायत करने के दूसरा कोई काम नहीं है। ऐसा लगता है कि महात्माओं का धंधा और परमात्मा के धंधे में बुनियादी दुश्मनी है। परमात्मा को सर्व-स्वीकार है।
लाओत्से का यह सूत्र इसी ओर इशारा करने वाला सूत्र है।
लाओत्से कहता है, "सर्वश्रेष्ठ शासक कौन है? जिसके होने की भी खबर प्रजा को न हो।'
पता ही न चले कि वह है भी। क्योंकि होने की भी खबर हिंसा है। अगर बेटे को पता चलता है घर में कि बाप है, तो बाप की तरफ से कोई न कोई हिंसा जारी है। अगर पति को पता चलता है कि घर में पत्नी है और दरवाजे पर सम्हल कर और टाई वगैरह ठीक करके उसको भीतर प्रवेश करना पड़ता है, तो समझना कि हिंसा है। अगर पति के आने से पत्नी ठीक वैसी ही नहीं रह जाती जैसी अकेले में थी, तो समझना कि पति की तरफ से हिंसा है। होने का पता ही नहीं चलना चाहिए। प्रेम की जो परम अभिव्यक्ति है, वह यही है कि प्रेमी का पता ही न चले, उसकी मौजूदगी कहीं भी चोट न करे।
ध्यान रखें, पता ही चलता है चोट से। संस्कृत में बड़े कीमती शब्द हैं। एक कीमती शब्द है वेदना। वेदना के दोनों अर्थ होते हैं, दुख भी और ज्ञान भी। वेद का अर्थ होता है ज्ञान। उसी विद से बनता है विद्वान, जानने वाला; उसी से बनता है वेदना, दुख। एक ही शब्द के दो अर्थ और बड़े अजीब! अगर वेदना का अर्थ दुख हो और वेदना का अर्थ ज्ञान भी हो, तो समझ में नहीं पड़ता, दुख और ज्ञान में क्या संबंध है? अगर दुख की जगह सुख और ज्ञान होता, तो संबंध भी बन सकता था।
लेकिन संबंध है। आपको दुख का ही ज्ञान होता है, सुख का ज्ञान नहीं होता। इसलिए जिन क्षणों को आप कहते हैं कि बड़े सुख में बीते; वे वे क्षण हैं, जिनके बीतते वक्त आपको उनका बिलकुल भी पता नहीं चला। दुख का बोध होता है। पैर में कांटा गड़ जाए, तो पैर का पता चलता है; नहीं तो पैर का पता नहीं चलता। सिर में दर्द हो, तो पहली दफे सिर का पता चलता है; नहीं तो सिर का पता नहीं चलता।
तो जिस आदमी को सिर का पता चलता हो, उसे जानना चाहिए कि उसे सिर की कोई बीमारी है। जिस आदमी को शरीर का पता चलता हो, उसका अर्थ है कि वह बीमार है, रुग्ण है। स्वास्थ्य की एक ही परिभाषा है कि शरीर का पता न चले। स्वस्थ आदमी विदेह हो जाएगा, उसे पता ही नहीं चलेगा कि देह भी है। सिर्फ बीमार आदमी के पास शरीर होता है, स्वस्थ आदमी के पास शरीर नहीं होता। और बीमार आदमी के पास बड़ा शरीर होता है। जितनी बीमारियां, उतना बड़ा शरीर। क्योंकि उतना शरीर का बोध होता है।
दुख, बोध एक ही बात है। जिसकी मौजूदगी पता चले, उससे आपको कोई दुख मिल रहा है। जिसकी मौजूदगी पता न चले, उससे ही आनंद मिलता है। अगर दो प्रेमी एक कमरे में बैठे हैं, तो वहां दो व्यक्ति नहीं बैठे हैं। वहां एक-दूसरे से एक-दूसरे को कोई बोध नहीं है। वहां एक ही चेतना रह गई है।
लाओत्से कहता है, सर्वश्रेष्ठ शासक वह है, जिसके होने का पता ही शासितों को न चले।
शायद परमात्मा के अतिरिक्त ऐसा और कोई शासक नहीं है। उसका भर हमें पता नहीं चलता। खोजें, तो भी पता नहीं चलता। पता लगाने जाएं हिमालय में, तो भी पता नहीं चलता। काशी, मक्का, मदीना भटकें, तो भी पता नहीं चलता।
थोड़ा खयाल करें। आपके मन की एक इच्छा होती है कि आप जहां भी जाएं, वहां लोगों को पता चले कि आप आए हैं। कितना उपाय नहीं करते हैं हम इसका कि लोगों को पता चले कि आप आ गए। आप इस भवन में आएं और किसी को पता न चले, तो आप बड़े पीड़ित हो जाएंगे, बड़े पीड़ित हो जाएंगे।
आसपेंस्की पहली दफा जब गुरजिएफ को मिलने गया, तो बीस लोग बैठे थे। आसपेंस्की बड़ा बुद्धिमान व्यक्ति था, बड़ा गणितज्ञ था, वैज्ञानिक चिंतक था--अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध। गुरजिएफ को कोई जानता भी नहीं था। किसी अचेतन मन में आसपेंस्की ने सोचा होगा: गुरजिएफ उठ कर मिलेगा, जो लोग बैठे होंगे, चमत्कृत होंगे कि आसपेंस्की जैसा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का व्यक्ति अनजान गुरजिएफ से मिलने आया है! वहां बीस लोग बैठे थे और गुरजिएफ भी बैठा था। आसपेंस्की को जब भीतर ले जाया गया, तो आसपेंस्की ऐसा हैरान हुआ, ऐसा मरा हुआ कमरा उसने कभी देखा ही नहीं था। उन बीस में से कोई हिला भी नहीं, किसी ने आंख भी उसकी तरफ न की। उन बीस ने जैसे जाना ही नहीं कि कोई आया। गुरजिएफ वैसा ही बैठा रहा, जैसा बैठा था।
आसपेंस्की जाकर खड़ा हो गया। यह बड़ा अजीब परिचय का क्षण था। यह भी न पूछा--कैसे आए? यह भी न पूछा--कौन हैं? यह भी न कहा--बैठें, कृपा करें। सर्द रात थी। आसपेंस्की ने लिखा है, माथे पर मेरे एक क्षण में पसीना झलकने लगा। यह मैं कहां आ गया हूं? वहां से पैर भी वापस लौटाने की हिम्मत न रही। वहां मैं जड़ की तरह खड़ा रह गया। कोई कहे कि बैठो, तो बैठ भी जाऊं। लेकिन वहां कोई देखता ही नहीं है। मिनट, दो मिनट...! आसपेंस्की ने लिखा है, पहली दफे मुझे समय का बोध हुआ कि समय कितनी भारी चीज है। मेरे सिर पर जैसे पहाड़ गुजरने लगा। क्या होगा अंत? जो आदमी दरवाजे पर छोड़ कर गया था, वह दरवाजा बंद करके लौट गया है। क्या होगा अंत? क्या रात भर ऐसे ही बीतेगी? यह तो नरक हो गया। और इतने चुप बैठे हैं वे लोग, इतने मूर्तिवत, कि अपनी तरफ से उस मौन को भंग करना भी अशिष्टता मालूम पड़ती है। आसपेंस्की ने लिखा है कि मैं बिलकुल नाचीज मालूम पड़ने लगा--नोबडी, जैसे मैं कुछ भी नहीं हूं।
यह कोई पंद्रह मिनट हालत रही। और तब गुरजिएफ ने ऊपर चेहरा उठा कर देखा और कहा, पसीना पोंछ लो, रात ऐसे बहुत सर्द है; बैठ जाओ। जान कर ही हमने यह किया। हम जानना चाहते थे कि तुम कैसे व्यक्ति हो। क्या तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारी उपस्थिति अनुभव करें। क्योंकि हम इसे हिंसा मानते हैं। तुम पंद्रह मिनट भी बर्दाश्त न कर सके। तुम पंद्रह मिनट भी ऐसे न हो सके, जैसे मौजूद ही न हो! अगर तुम ऐसे हो सकते, तो फिर मेरे पास तुम्हें सिखाने को कुछ भी नहीं था। लेकिन तुम ऐसे नहीं हो सके, तो मुझे तुम्हें सिखाने को बहुत कुछ है। तुम हिंसक हो।
हम हिंसा बहुत तरह से करते हैं। प्रकार अनेक हो सकते हैं। एक आदमी ऐसे वस्त्र पहन कर आ जाता है कि आपको देखना ही पड़े; कि एक आदमी ऐसी चाल-ढाल से आता है कि आपको देखना ही पड़े। हर आदमी शोरगुल करता आता है, चाहे कितना ही चुप आ रहा हो। और हर आदमी धक्का देता आता है, चाहे कितना ही धक्कों से बचता हुआ आ रहा हो। हर आदमी यह खबर लाता है कि मैं आ गया हूं, मैं यहां हूं।
सिर्फ परमात्मा ऐसी कोई खबर नहीं करता। नास्तिक कहते हैं, वह दिखाई पड़े, तो हम मान लें। नास्तिक यह कहते हैं कि वह भी हमारी ही तरह सूचना दे अपनी मौजूदगी की, तो हम मान लें।
नास्तिकों को पता नहीं कि परमात्मा के होने का जो गुण है, जो गहरा गुण है उसके अस्तित्व का, वह यही है कि वह न होने जैसा हो, उसका कोई पता न चले। जिस दिन परमात्मा का पता चल जाए, उस दिन वह परमात्मा न रहा। और जिस दिन वह स्वयं अपनी घोषणा करने लगे, उस दिन वह परमात्मा न रहा। जिस दिन वह आकर आपकी गर्दन हिला कर आपको कहने लगे कि मैं यहां हूं, देखो, मैं यहीं मौजूद हूं, तुम बिना देखे ही चले जा रहे हो, उस दिन वह परमात्मा न रहा।
परमात्मा का अर्थ ही यह है कि जिसकी उपस्थिति और अनुपस्थिति में रंच मात्र का फर्क नहीं है। जिसके लिए एब्सेंस और प्रेजेंस, दोनों शब्द पर्यायवाची हैं, एक ही अर्थ रखते हैं। जिसके उपस्थित होने का ढंग ही अनुपस्थिति है।
तो लाओत्से कहता है, श्रेष्ठतम शासक है वही, जिसके होने की खबर भी प्रजा को न हो।
ईश्वर के सिवाय ऐसा कोई शासक नहीं है। कभी अगर कोई शासक इस ईश्वर की स्थिति के निकट पहुंच जाता है, तो ही...। इसलिए पुराने दिनों में, कम से कम लाओत्से के समय के और कोई दो-ढाई हजार वर्ष पहले, ईश्वर का अवतार मानते थे सम्राट को। अब तो ऐसा लगता है कि वह चालबाजी थी। अब तो इधर दोत्तीन सौ वर्षों में जो चिंतन चला है, उसने समझाया है कि यह सब शरारत थी, यह पुरोहितों और राजाओं का षडयंत्र था। बहुत दूर तक यह सही भी है; लेकिन पूरे रूप से सही नहीं है। कभी-कभी कोई राजा ऐसा भी हुआ है, जिसकी उपस्थिति का प्रजा को न के बराबर पता चला। तब उस राजा को लाओत्से जैसे लोगों ने ईश्वरीय कहा है; जिसके होने का पता ही न चला हो या कम से कम पता चला हो। इतना ही पता चला हो कि वह है, और कोई खबर न मिली हो।
लाओत्से कहता है कि अगर कोई शासक, कोई सम्राट इस तरह अनुपस्थित हो जाए अपने भीतर, तो उसकी मौजूदगी से ही प्रजा का कल्याण हो जाता है।
ये बातें आज समझनी बहुत मुश्किल हो गई हैं। क्योंकि आज तो राजपद की तरफ वही आदमी जाता है, जो बेचैन है अपनी उपस्थिति बताने को। जिसकी एक ही बेचैनी है कि लोग जान लें कि वह कुछ है। इसके लिए वह लोगों के चरणों पर भी सिर रख कर सिंहासन की यात्रा करता है।
लोग बड़े परेशान होते हैं कि कल जो आदमी चरणों में सिर रखने को राजी था एक मत पाने के लिए, अचानक विजेता होकर वही आदमी उनकी तरफ देखता भी नहीं! शायद वही आदमी उनके सिर को भी इस योग्य नहीं मानता कि उस पर चरण रखे।
जनता बेचैन होती है, लेकिन बेचैन बिलकुल नहीं होना चाहिए। गणित बिलकुल साफ है। तुम्हारे चरणों पर सिर रखा ही इसलिए गया था, ताकि तुम्हारे सिरों पर चरण रखे जा सकें। सीधा गणित है। इसमें कुछ बेचैन होने जैसा नहीं। इसमें कहीं कुछ गलती नहीं हो रही है। इसमें वही हो रहा है, जो पूर्व नियोजित था। और जब आप इतने प्रसन्न हो गए थे चरणों पर सिर रखते वक्त, तो अब उनको भी प्रसन्न होने दें। यह लेन-देन है।
आज तो राजपद की तरफ वही आदमी जाता है, जो अनुभव करता है कि बिना पद पर हुए कोई अनुभव नहीं करेगा कि मैं भी था। होने का अनुभव अब तो कुर्सी पर ही होकर हो सकता है। इसलिए आज लाओत्से जैसे लोगों की बात समझनी बड़ी कठिन है। लेकिन कभी यह बात भी सार्थक थी और कभी इस पृथ्वी पर वैसे राजा भी हुए हैं, जिनके होने की कोई खबर लोगों को नहीं हुई, या इतनी ही ज्यादा से ज्यादा खबर हो सकी कि वे हैं।
लाओत्से कहता है कि सम्राट का यह गुण है, वही सम्राट है, कि जो अपने भीतर अहंकार को इस तरह पोंछ डाले कि एक शून्य हो जाए। सिंहासन पर अगर शून्य बैठा हो, तो राज्य में मंगल होगा, ऐसा लाओत्से की धारणा है! लेकिन अब तो सिंहासनों पर अहंकार के सघन रूप बैठे हैं। मंगल असंभव है। लाओत्से कहता है, पद पर होने का वही हकदार है, जो मिट ही गया हो, जो हो ही नहीं। जो जितनी ज्यादा मात्रा में है, उतना ही पद पर होने का अधिकारी नहीं है। अहंकार और सिंहासन का जोड़ जहरीला है। अहंकार और शक्ति का जोड़ खतरनाक है। शक्ति वहीं होनी चाहिए, जहां निरहंकार हो। जहां निरहंकार हो, वहीं शक्ति प्रवाहित होनी चाहिए।
इसलिए हमने इस मुल्क में एक अदभुत प्रयोग किया था कि हमने क्षत्रिय के ऊपर भी, राजा के ऊपर भी, ब्राह्मण को रख दिया था। यह अनूठा प्रयोग था मनुष्य-जाति के इतिहास में। असफल गया। जितना बड़ा प्रयास हो, उतनी असफलता की ज्यादा संभावना होती है; जितना क्षुद्र प्रयास हो, उतनी सफलता की ज्यादा संभावना होती है। कम्युनिज्म सफल होकर रहेगा; क्योंकि मनुष्य-जाति के इतिहास में क्षुद्रतम प्रयोग है। असफल नहीं हो सकता। यह प्रयोग असफल हुआ कि हमने ब्राह्मण को ऊपर रख दिया; भिखारी को, जन्मजात भिखारी को, जिसके पास कुछ भी न था, उसे हमने सम्राट के ऊपर रख दिया।
बुद्ध एक गांव में आए हैं। उस गांव का सम्राट अपने मंत्रियों को पूछता है कि क्या यह उचित होगा कि मैं बुद्ध का स्वागत करने गांव के द्वार पर जाऊं? उसका जो प्रधानमंत्री है, उसने यह सुनते से ही अपना इस्तीफा लिख कर उस राजा को दे दिया। और उसने कहा कि मुझे क्षमा कर दें, अब मैं आपकी सेवा नहीं कर सकता हूं। पर उस सम्राट ने कहा, इसमें अभी ऐसी क्या बात हो गई? उसने कहा, यह पूछना ही कि क्या यह उचित होगा कि मैं बुद्ध का स्वागत करने जाऊं, आपकी अयोग्यता का प्रमाण है। बात समाप्त हो गई। मैं आपके नीचे नहीं रुक सकता अब। ऐसे आदमी के पास रुकना पाप है। यह पूछना ही हद्द हो गयी अशिष्टता की। सम्राट ने कहा, इसमें...। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि न जाऊं; पूछता हूं, क्या यह उचित होगा कि एक सम्राट और एक भिखारी का स्वागत करने जाए? उस आमात्य ने, उस वृद्ध मंत्री ने कहा, यही सम्राट की शोभा है। और ध्यान रखें, भूल न जाएं कि वह जो भिखारी की तरह आज गांव में आ रहा है, वह भी कभी सम्राट था। वह साम्राज्य को छोड़ कर भिखारी हुआ है; अभी आप साम्राज्य को पकड़े हुए हैं। आपकी हैसियत उसके मुकाबले नहीं है। वह सम्राट होने योग्य भिखारी है; आप भिखारी होने योग्य सम्राट हैं।
जो ना-कुछ हो गया है, वह श्रेष्ठतम है। जो कुछ भी नहीं है, वही सब कुछ है।
इसलिए लाओत्से कहता है, श्रेष्ठतम शासक कौन? जिसके होने की भी खबर न हो।
"उससे कम श्रेष्ठ को प्रजा प्रेम और प्रशंसा देती है।'
हम सोचेंगे, तो हमें कठिन लगेगा। हमें लगेगा, जो श्रेष्ठतम है, उसे प्रजा प्रेम और प्रशंसा देती है। लेकिन लाओत्से कहता है, वह नंबर दो का शासक है। क्योंकि प्रेम और प्रशंसा पाने के लिए उसे कुछ करना पड़ता है। और प्रजा उसे प्रेम और प्रशंसा इसीलिए देती है कि वह कुछ करता है। जो कुछ भी नहीं करता, जो शून्यवत है, प्रजा को उसका पता ही नहीं चलेगा। यद्यपि बहुत कुछ उससे होगा, लेकिन प्रजा को पता नहीं चलेगा।
वह जो शून्यवत है, उसके संबंध में आखिरी सूत्र में लाओत्से कहता है, "और जब श्रेष्ठ शासक का काम पूरा हो जाता है, तब प्रजा कहती है, यह हमने स्वयं किया है।'
क्योंकि वह कभी घोषणा भी नहीं करता कि यह मैं कर रहा हूं। यह कभी किसी को पता भी नहीं चलता कि यह किसने क्या है। और जब पता नहीं चलता, तो हर आदमी सोचता है, यह मैंने किया है।
उससे कम श्रेष्ठ को प्रजा प्रेम और प्रशंसा देती है, आदर करती है।
आपका आदर पाना हो, प्रशंसा पानी हो, प्रेम पाना हो, तो फिर अपनी मौजूदगी आपको अनुभव करवानी ही पड़ेगी। अच्छे ढंग से, ऐसे ढंग से कि आप प्रशंसा करें, प्रेम करें। लेकिन निष्क्रियता के बिंदु से यह आदमी सक्रियता में उतर आया, कुछ करने में लग गया। और चाहे प्रेम भी किया जाए...।
प्रेम हो, यह बिलकुल और बात है। लेकिन साधारणतः जो प्रेम होता है, उसका आपको पता भी नहीं चल सकता। अगर कोई आपको प्रेम करता है, तो उसका पता कैसे चलता है? वह कहे कि आपको प्रेम करता है, कि आभूषण लाकर भेंट करे--कुछ करे कि पता चले कि प्रेम करता है। अगर कोई आपको प्रेम करता है और कभी न कहे, और न कभी कुछ भेंट करे, और उसका प्रेम मौन हो और चुप हो, तो आपको पता भी नहीं चलेगा।
प्रेम का भी पता तब चलता है, जब प्रेम एग्रेसिव, आक्रामक हो जाता है। इसलिए जितना आक्रामक प्रेमी होता है, उतना पता चलता है। जो जितना हमलावर प्रेमी होता है, उतना पता चलता है। जो शांत प्रेमी होता है, उसका पता भी नहीं चलेगा। क्योंकि शांत प्रेम के अनुभव के लिए आपकी चेतना भी इतनी ऊपर उठनी चाहिए कि शांति के संदेश को भी पकड़ पाए। आप हिंसा का संदेश ही पकड़ पाते हैं, आक्रमण को ही पकड़ पाते हैं। इसलिए जो प्रेमी जितना आक्रामक है, वह उतना ज्यादा प्रेमी मालूम पड़ता है।
अगर सम्राट द्वितीय कोटि का है, तो ही, लाओत्से कहता है, प्रजा उसको प्रशंसा और प्रेम दे पाएगी। क्योंकि द्वितीय कोटि का होगा, तो ही प्रजा को पता चलेगा।
प्रेम भी शून्य से नीचे की घटना है। एक प्रेम है, जो शून्य में भी होता है। लेकिन फिर उसका कोई पता नहीं चलता। उसका कोई पता नहीं चलता। परमात्मा के प्रेम का आपको कभी कोई पता चला है? यद्यपि उसके बिना प्रेम के आपकी श्वास भी नहीं चल सकती। उसके बिना प्रेम के एक फूल भी नहीं खिल सकता। उसके बिना प्रेम के कुछ भी संभव नहीं है। उसका प्रेम ही सब संभावनाओं का स्रोत है। लेकिन उसका कोई पता नहीं चलता। इसलिए परमात्मा को हम प्रेमी नहीं बना पाते। हम एक क्षुद्रतम आदमी को प्रेमी बना लेंगे। उसका प्रेम आक्रामक है, पता चलता है।
इसलिए प्रेम का अभिनय भी किया जा सकता है। क्योंकि आप पता भर चलवा दें, तो प्रेम का अभिनय पूरा हो जाएगा। प्रेम न हो, तो भी आप प्रेमी बन सकते हैं, अगर आप थोड़ा अभिनय कर सकें, प्रकट करने में अभिनय कर सकें। और प्रेम हो, तो भी पता न चलेगा, अगर आप कृत्य तक उसको प्रकट न होने दें। शायद सच्चा प्रेमी कभी भी पता नहीं चल पाता; क्योंकि सच्चा प्रेमी इतना भी आक्रमण नहीं कर सकता कि कहे कि मैं प्रेम करता हूं। पर वह हमारी सीमा के बाहर छूट जाता है। वैसा शासक, वैसा प्रेमी हमारी सीमा के बाहर छूट जाता है।
"उससे भी कम से प्रजा डरती है, भयभीत होती है।'
और आमतौर से जिससे हम भयभीत होते हैं, उसको हम प्रेम करते हैं। वह तृतीय कोटि का व्यक्तित्व है।
तुलसीदास ने कहा है: भय बिन होय न प्रीति, बिना भय के प्रेम नहीं होता। निश्चित ही वे इस तीसरी कोटि की बात कर रहे हैं। हम सब ऐसे ही लोग हैं, जिनकी तुलसीदास बात कर रहे हैं। हमको भय हो, तो ही प्रेम होता है। हम परमात्मा से भी प्रेम करते हैं, भय के कारण। जितना परमात्मा हमें डराए या डराता हुआ मालूम पड़े कि नरक में डाल दूंगा, आग में जला दूंगा, पाप किया तो सदा-सदा के लिए, अनंतकाल तक सड़ोगे, ऐसी कोई बातें परमात्मा की तरफ से हमारे लिए कही जाएं, तो हम तत्काल प्रेम से भर जाते हैं, हमारे हाथ प्रार्थना में जुड़ जाते हैं। हम भय को समझ पाते हैं। शून्य को तो हम क्या समझ पाएंगे, हम प्रेम तक को नहीं समझ पाते! हम भय को समझ पाते हैं।
इसलिए जो हमें जितना भयभीत कर दे, वह उतना बड़ा शासक मालूम होता है। अगर हम इतिहास उठा कर देखें, तो हम उन शासकों के ही नाम पाएंगे स्वर्ण-अक्षरों में लिखे, जिन्होंने लोगों को जितनी ज्यादा मात्रा में भयभीत किया है। फिर चाहे वे सिकंदर हों, चाहे नेपोलियन हों, चाहे चंगीज हों, चाहे कोई और हों। हमारा सारा इतिहास भयभीत करने वालों और भयभीत होने वालों का इतिहास है। जो जितना भयभीत कर दे, उतना बड़ा शासक हमें मालूम पड़ता है। क्यों? हमें प्रेम भी, अगर आक्रमण न करे, तो पता नहीं चलता। और प्रेम आक्रमण करना नहीं चाहेगा। भय का हमें पता चलता है, क्योंकि भय शुद्ध आक्रमण है। भय का अर्थ ही है कि किसी ने आपके अस्तित्व को कंपा दिया।
थोड़ा समझें इस बात को। श्रेष्ठतम शासक वह है, जिसके होने का आपको पता नहीं चलता। और निकृष्टतम शासक वह है, जो आपके होने को भी खतरे में डाल देता है। श्रेष्ठतम वह है कि आप उसकी तरफ देखें भी न। निकृष्टतम वह है कि उसकी नजर आपके प्राणों की जड़ों को कंपा दे। आप कंपे हुए हों, भयभीत हों।
भय हमारी सारी स्थिति बदल देता है। चंगीज ने हमला किया है, तो जिस गांव पर चंगीज हमला करता है, उस गांव के बच्चों को कटवा कर भालों पर छिदवा देता है उनके सिरों को। दिल्ली में उसने दस हजार भाले बच्चों के सिरों पर छिदवा दिए। जहां से गुजरता है, वहां गांवों में आग लगा देता है, ताकि उसकी फौजों को प्रकाश मिल सके। चंगीज को आदमियत भूल नहीं सकती। तैमूर को लोग भूल नहीं सकते।
तैमूर ने हमला किया था मुल्ला नसरुद्दीन के गांव पर। खबर मिली तैमूर को कि गांव में एक ज्ञानी है, नसरुद्दीनपकड़वा भेजा, अदालत में खड़ा किया और कहा कि मैंने सुना है कि तुम एक मिस्टिक हो, एक रहस्यवादी हो। प्रमाण दो! अन्यथा यह तलवार रखी है। मैं प्रमाण मानता हूं, बातचीत नहीं। नसरुद्दीन ने आंखें बंद की, खुशी से भर गया आकाश की तरफ देखा और कहा कि देखो, देवता मौजूद हैं। नीचे आंख की और कहा, यह सातवां नरक! सब मुझे दिखाई पड़ रहे हैं। तैमूर ने कहा, हद! क्या है इसकी तरकीब, क्या है इसकी विधि जिससे तुम देवता देख लेते हो और नरक देख लेते हो?
नसरुद्दीन ने कहा, विधि? नथिंग बट फियर। वह तुम्हारी तलवार की वजह से सब मुझे दिखाई पड़ रहा है। कुछ और नहीं है विधि, सिर्फ भय। रहस्यवादी वगैरह मैं नहीं हूं। मगर अब क्या कर सकता हूं? भय तो आदमी को कुछ भी दिखा देता है।
आपको आकाश में देवता और स्वर्ग और नरक और ईश्वर वगैरह जो-जो दिखाई पड़ते हैं, वह भी भय ही कारण है। इसलिए बूढ़ा आदमी ज्यादा धार्मिक हो जाता है; क्योंकि बूढ़ा आदमी ज्यादा भयभीत हो जाता है। जवान आदमी को धार्मिक बनाना जरा मुश्किल है; बूढ़े आदमी को धार्मिक बनने से बचाना बहुत मुश्किल है। और लोग कहते हैं कि अभी तुम्हारी उम्र नहीं धार्मिक होने की! उनका मतलब साफ है कि जरा भय बढ़ने दो, फिर तुम्हें स्वर्ग-नरक सब दिखाई पड़ने लगेंगे। मौत जैसे करीब आती है, वैसे आदमी धार्मिक होने लगता है--अनुपात में। जैसे मौत करीब आती है, आदमी धार्मिक होने लगता है। मौत के करीब आने से धार्मिक होने का क्या लेना-देना होगा? भय बढ़ने लगता है, हाथ-पैर कंपने लगते हैं, डर लगने लगता है, घबड़ाहट होने लगती है।
जिससे हम भयभीत होते हैं, वह परमात्मा नहीं है। वह हमारे भय का ही विस्तार है।
लाओत्से कहता है, "उससे भी कम से वह डरती है।'
तृतीय कोटि का जो शासक है। अगर हम सारी दुनिया में शासन को देखें, तो वह तृतीय कोटि का ही होगा। क्योंकि सारा शासन भय पर खड़ा है। कानून, अदालत, सब भय पर खड़े हैं।
"और सबसे घटिया शासक की वह निंदा करती है।'
चौथी कोटि, इस सीमा पर पहुंच जाती है स्थिति कि लोगों को निंदा करनी पड़ती है।
लेकिन एक मजे की बात है। चेस्टरटन ने कहा है कि किसी जगह से मैं गुजरूं, तुम अगर मेरी प्रशंसा न करो, तो कम से कम निंदा तो करो। क्योंकि निंदा करके भी तुम स्वीकार करते हो कि मैं कुछ हूं।
ध्यान रहे, इस जगत में उपेक्षा से बड़ी पीड़ा नहीं है। निंदा भी इतनी बड़ी पीड़ा नहीं है। जब लोग आपकी निंदा भी करते हैं, तब भी आपको स्वीकार करते हैं कि आप कुछ हैं। अगर लोग निंदा भी न करें, प्रशंसा भी न करें, उपेक्षा करें, तो फिर अहंकार को कोई जगह नहीं मिलती खड़े होने के लिए।
चौथे शासक वे हैं, जो आपकी निंदा से भी जीते हैं, आपकी निंदा पर ही जीते हैं। आपको इस हालत में खड़ा कर देते हैं कि आपको सतत उनकी निंदा तो करनी ही पड़ेगी। मगर तब भी ध्यान आपको उन पर ही देना पड़ता है। कोई हर्ज नहीं, बदनामी ही सही, गाली-गलौज ही सही। किसी रास्ते पर फूल मिलें, तो ठीक; पत्थर मिलें, तो भी ठीक। लेकिन किसी रास्ते पर कुछ भी न मिले, कोई देखे ही नहीं; तब बहुत पीड़ा होगी। क्योंकि अहंकार ध्यान मांगता है, आकर्षित करना चाहता है लोगों को।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि दुनिया में इतने ज्यादा अपराधों का कारण? कारण वही है, जिस कारण से लोग साधु होते हैं। कारण में कोई फर्क नहीं है। जो साधु होकर प्रशंसा पा सकता है, वह साधु हो जाता है। जो उतना नहीं कर सकता, वह अपराधी होकर निंदा पा लेता है। लेकिन दोनों अखबार में सुर्खियां बना देते हैं। बुरा आदमी भी तब तक न मिटेगा दुनिया से, जब तक हम बुराई की निंदा करते हैं। यह बहुत कठिन मालूम पड़ेगा। यह उलटा गणित है।
जीसस ने कहा है, रेसिस्ट नॉट ईविल, बुराई का भी विरोध मत करो। क्योंकि विरोध करके भी तुम बुराई को आदर दे रहे हो। और विरोध करके भी तुम बुराई पर ध्यान दे रहे हो। और विरोध करके भी तुम बुराई को प्राण दे रहे हो। बुराई का भी विरोध मत करो। क्योंकि बुरा आदमी भी, जब तुम निंदा करते हो, तो आनंदित होता है।
आप ऐसा मत समझना कि हायरेरकी राजधानियों में ही होती है; जेलखानों में भी होती है। जेलखानों में आप जाएं, तो वहां भी दादा अपराधी होते हैं। साधारण अपराधी भी होते हैं; बड़े, महान अपराधी भी होते हैं। और जब जेल में नया अपराधी पहुंचता है, तो लोग उससे पूछते हैं, पहली दफे ही आ रहे हो? यानी सिक्खड़ हो, नए-नए हो, एमेच्योर! वहां गुरुजन भी होते हैं; वे जो काफी निष्णात हैं, जो कुशल हैं, बहुत बार आए-गए हैं। वहां भी हायरेरकी है। कितने अपराध किए हैं, उससे उतना ही आदर मिलता है जेलखाने में; जैसे मंदिर में कितना दान किया है, उससे मिलता है। कितना आतंक फैला दिया है लोगों में, उससे भी आनंद मिलता है। अहंकार के तृप्त होने के रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं।
लाओत्से कहता है, जो चतुर्थ कोटि है, वह सबसे घटिया शासक की है। प्रजा उसकी निंदा करती है। लेकिन वह निंदा से ही जीता है।
"जब शासक प्रजा की श्रद्धा के पात्र नहीं रह जाते और प्रजा उनमें विश्वास नहीं करती, तब ऐसे शासक शपथों का सहारा लेते हैं।'
ईसाइयों का एक संप्रदाय है, क्वेकर। वे शपथ नहीं लेते अदालत में, कसम नहीं खाते; कसम खाने को पाप मानते हैं। इसके लिए उन्होंने बहुत मुसीबत सही; क्योंकि अदालत तो कसम पहले दिलवाएगी कि कसम खाओ बाइबिल को हाथ में लेकर, या ईश्वर को साक्षी रख कर, कि तुम जो कहोगे, वह सच होगा। ईसाई क्वेकर कहते हैं कि जो शपथ मैं लूंगा, अगर मैं असत्य ही बोलने वाला हूं, तो शपथ भी असत्य ली जा सकती है। कम से कम शपथ लेने के पहले तो मैंने कोई शपथ नहीं ली है। जब मैं कहता हूं कि जो मैं बोलूंगा, वह मैं सत्य ही बोलूंगा, इसके पहले मेरी क्या शपथ है? मैं यह भी तो झूठ बोल सकता हूं। और अगर मुझ पर भरोसा है, तो शपथ की कोई भी जरूरत नहीं। और अगर मुझ पर भरोसा नहीं है, तो मेरी शपथ पर भरोसा करने का क्या कारण?
फिर क्वेकर कहते हैं कि हम शपथ खाएं, उसका मतलब यह है कि हम झूठ भी बोलते हैं। मैं कसम खाऊं कि मैं सच ही बोलूंगा अदालत में, उसका मतलब यह है कि मैं झूठ भी बोलता हूं। इसलिए शपथ झूठ बोलने वाला ही खा सकता है। इसलिए जितनी कसमें खाने वाले लोग होते हैं, उनसे जरा सावधान रहना! जो घड़ी-घड़ी कसम खाते हैं, खतरनाक लोग हैं। असल में, कसम खाकर वे आपको और अपने को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि आदमी अच्छा हूं, कसम खाता हूं।
जब सम्राट के पास कोई उपाय नहीं रह जाता लोगों में श्रद्धा जगाने का, तब शपथ उतर आती है। अगर सम्राट लोगों में श्रद्धा जगा सकता है, तो कसम खाने का कोई भी सवाल नहीं है।
एक व्यक्ति मेरे पास आए थे। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। आपकी बात मुझे ठीक लगती है, आपके पास मैं आना चाहता हूं; लेकिन मैं पहले एक गुरु बना चुका हूं। और उन गुरु ने मुझे कसम खिला दी है कि अब दुबारा किसी को गुरु मत बनाना।
तो मैंने उनको कहा कि तुम्हारे गुरु को पहले ही शक रहा होगा अपने पर! अपने पर शक रहा होगा, भरोसा न रहा होगा अपनी गुरुता का, इसीलिए तुम्हें शपथ दिला दी है। अगर यह भरोसा होता, तो यह शपथ की कोई जरूरत ही न थी। डर रहा होगा कि आज नहीं कल छोड़ कर तुम किसी और गुरु के पास चले जाओगे। इस भय का उपाय किया है। तो मैंने उनसे कहा, जो गुरु शपथ दिलाता हो, शपथ देने के पहले ही भाग खड़े होना। क्योंकि आज नहीं कल भागोगे ही, यह गुरु भी जानता है। उसे खुद भी भरोसा नहीं है अपने पर कि तुम्हें रोक पाएगा।
श्रद्धा शपथ नहीं दिलाती, सिर्फ संभावना जगाती है। शपथ श्रद्धा के अभाव से पैदा होती है। अदालत, मंदिर में हमें शादी करवा कर कसम दिलवानी पड़ती है पति-पत्नी को कि सदा मैं तुम्हारा रहूंगा, कि सदा मैं तुम्हारी रहूंगी। उसी दिन बात खराब हो गई। वह शपथ ही बता रही है कि मामला टूट चुका है। शादी के पहले तलाक हो गया। यह शपथ किस बात की खबर है? यह इस बात की खबर है कि पक्का पता है कि आज नहीं कल तुम अलग होना चाहोगे। अगर दो व्यक्तियों में प्रेम है, तो यह खयाल भी नहीं आएगा कि हम कसम खाएं कि हम सदा साथ रहेंगे। यह प्रेम न होने की खबर है। लोग प्रेम के कारण विवाह नहीं करते; प्रेम नहीं है, इस डर से विवाह करते हैं। जमीन पर प्रेम हो, तो शायद विवाह अनावश्यक हो जाए। जब तक प्रेम नहीं है, तब तक विवाह अनिवार्य है। क्योंकि जो हम नहीं कर सकते, वह हम कसमें खाकर आयोजन कर लेते हैं। जो सहज नहीं हो सकता, उसकी हम नियम बना कर व्यवस्था कर लेते हैं।
लाओत्से कहता है, जो शासक श्रद्धा पैदा नहीं करवा पाते...। वे शासक कोई भी हों। चाहे वे राज्य के शासक हों और चाहे धर्मगुरु हों; जिनसे भी शासन मिलता है, डिसिप्लिन मिलती है, जिनसे भी जीवन को दिशा मिलती है, वे सभी शासक हैं। वे चाहे माता-पिता हों, चाहे गुरुजन हों, चाहे वृद्धजन हों; जिनसे भी शासन मिलता है जीवन को, अनुशासन मिलता है और जिनसे भी मार्ग-निर्देश मिलता है, जब वे श्रद्धा नहीं पैदा करवा पाते, तब वे शपथ पर उतर आते हैं।
"लेकिन जब श्रेष्ठ शासक का काम पूरा हो जाता है, तब प्रजा कहती है, यह हमने स्वयं किया है।'
जब श्रेष्ठ गुरु का काम पूरा हो जाता है, तो शिष्य अनुभव करता है, यह मैंने स्वयं पाया है। जब श्रेष्ठ पिता का काम पूरा हो जाता है, तो बेटा अनुभव करता है, यह मेरी अपनी उपलब्धि है। और गुरु का यही आनंद है कि एक दिन शिष्य जान पाए कि जो भी उसने जाना है, उसने ही जाना है। इसका अर्थ यह हुआ कि गुरु ने इतनी भी बाधा नहीं डाली, इतनी भी अड़चन नहीं डाली कि शिष्य को याद रहे कि गुरु ने कुछ किया है।
गुरु के करने के भी ये ही चार ढंग हैं, जो शासक के हैं।
और लाओत्से निष्क्रियता को श्रेष्ठतम मानता है। और जितनी सक्रियता बढ़ती जाती है, उतनी बात निकृष्ट होती जाती है। शून्यता सर्वश्रेष्ठ है। और जितनी शून्यता के बाहर हम आते हैं और आंधी में पड़ते जाते हैं, उतने निकृष्ट होते चले जाते हैं।

आज इतना ही। पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें, और फिर जाएं।



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