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शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--067

सारा जगत ताओ का प्रवाह है—(प्रवचन—सड़सठवां)

अध्याय 34

महान ताओ सर्वत्र प्रवाहित है

महान ताओ सर्वत्र प्रवाहित है;
(बाढ़ की तरह) यह बाएं-दाएं सब ओर बह सकता है।
असंख्य वस्तुएं उसी से जीवन ग्रहण करती हैं;
और यह उन्हें अस्वीकार नहीं करता।
जब उसका काम पूरा होता है,
तब वह उन पर स्वामित्व नहीं करता।
असंख्य वस्तुओं को यह वस्त्र और भोजन देता है,
तो भी उन पर मालकियत का दावा नहीं करता।
प्रायः यह चित्त या वासना से रहित है,
इसलिए तुच्छ या छोटा समझा जा सकता है;
फिर सभी चीजों का,
उन पर बिना दावा किए, आश्रय होने के कारण,
वह महान भी समझा जा सकता है।
और चूंकि अंत तक वह महानता का दावा नहीं करता,
इसलिए उसकी महानता उपलब्ध है।


श्वर को कहां खोजें? कहां उसका मंदिर है? सत्य की कहां हो तलाश, किस दिशा में?
हजारों वर्षों से आदमी पूछता रहा है, खोजता रहा है, सोचता रहा है। और बहुत सी दिशाएं भी तय की गईं; बहुत से स्थान भी तय किए गए; बहुत से मंदिर, बहुत से तीर्थ निर्मित हुए। उनमें संघर्ष भी रहा कि ईश्वर की खोज कहां हो, कैसे हो। लाओत्से का उत्तर बहुत अनूठा है।
लाओत्से कहता है, जो किसी दिशा में खोजता है सत्य को वह सत्य को कभी भी उपलब्ध न कर पाएगा। क्योंकि सत्य किसी भी दिशा में नहीं है; विपरीत, सभी दिशाएं सत्य में हैं।
तो सत्य को एक दिशा में खोजने वाला भटक जाएगा। और सत्य को जो एक दिशा में खोजता है वह उस एक दिशा के कारण ही असत्य तक पहुंचेगा, सत्य तक नहीं पहुंच सकता। परमात्मा को जो मंदिर में देखता है मस्जिद के विपरीत, मस्जिद में देखता है चर्च के विपरीत, उसका परमात्मा से कोई संबंध न हो सकेगा। क्योंकि परमात्मा किसी मंदिर, किसी मस्जिद और किसी चर्च में नहीं है; वरन सभी मंदिर, सभी चर्च, सभी गुरुद्वारे, सभी मस्जिदें परमात्मा में हैं।
इस भेद को ठीक से समझ लें तो इस सूत्र में प्रवेश आसान हो जाए।
यह पूछना ही कि परमात्मा कहां है, गलत है। यह प्रश्न ही गलत है कि परमात्मा कहां है। और जो इसका उत्तर देता है उसे कुछ पता नहीं। और जो भी उत्तर दिए जाएंगे वे गलत होंगे; क्योंकि गलत प्रश्न का उत्तर गलत ही हो सकता है। परमात्मा कहां है, यह बात व्यर्थ है पूछनी; क्योंकि सभी कुछ परमात्मा में है। कहां तो हम उसके लिए पूछ सकते हैं जो सभी कुछ को न घेरता हो। सभी कुछ का जो जोड़ है उसको हम इशारा करके बता नहीं सकते कि वह कहां है। परमात्मा को बताना हो तो मुट्ठी बांध कर बता सकते हैं; अंगुली के इशारे से नहीं बता सकते। क्योंकि वह सब जगह है। समग्र अस्तित्व का नाम ही परमात्मा है।
लाओत्से इसीलिए परमात्मा शब्द का प्रयोग भी नहीं करता। क्योंकि परमात्मा शब्द का प्रयोग करते ही मूर्ति निर्मित होती है, व्यक्तित्व निर्मित होता है, और परमात्मा एक व्यक्ति, एक पर्सन की भांति हमारे खयाल में उतरने लगता है। और व्यक्ति तो सब जगह नहीं हो सकता; व्यक्ति तो कहीं होगा, किसी जगह होगा, किसी स्थान में होगा। इसलिए लाओत्से परमात्मा शब्द का उपयोग पसंद नहीं करता। वह कहता है, ताओ या धर्म। और धर्म लाओत्से की धारणा में वैसा ही है जैसा आकाश। आप नहीं पूछ सकते आकाश कहां है; या कि पूछ सकते हैं? अच्छा होगा पूछना कि हम पूछें कि आकाश कहां नहीं है? जहां भी आप देखेंगे वहां आकाश है। आप भी आकाश में खड़े हैं। आपकी श्वासें भी आकाश में चल रही हैं। इसलिए आकाश को कोई इशारा करके बताएगा तो गलती होगी। आकाश सब जगह है; सभी कुछ आकाश में है। और आकाश किसी में भी नहीं है।
ताओ या धर्म सभी को घेर लेने वाले अस्तित्व का नाम है।
लेकिन अड़चन है। अड़चन यह है, खासकर धर्मशास्त्रियों को, कि अगर परमात्मा सब जगह है तो निंदा करनी बहुत मुश्किल हो जाती है, फिर संघर्ष खड़ा करना बहुत मुश्किल हो जाता है। अगर सभी कुछ परमात्मा है तो फिर बुरा क्या है? फिर बुरा कुछ भी नहीं रह जाता। इसलिए धर्मशास्त्री भला कितना ही कहता हो कि सभी कण-कण में वही समाया हुआ है, पर उसकी बात में ईमानदारी नहीं होती। क्योंकि वह फिर भी कहे चले जाता है: यह गलत है, यह बुरा है, यह छोड़ना है, इससे हटना है, इससे पार होना है।
अगर परमात्मा सभी जगह है तो फिर क्या छोड़ना है? परमात्मा सभी जगह है, ऐसी जिसकी प्रतीति हो, उसको छोड़ने को कुछ भी न बचा। क्योंकि जो भी छोड़ा जाएगा वह भी परमात्मा होगा। उसे पाने को भी कुछ न बचा, क्योंकि पाने को तभी कुछ होता है जब कुछ छोड़ने को होता है। उसके लिए कुछ श्रेष्ठ न रहा और कुछ निकृष्ट न रहा। उसके लिए कुछ शुभ न रहा और कुछ अशुभ न रहा। उसके लिए पूरा जीवन एकरस स्वीकृत हो गया।
इस भय के कारण कि पूरा जीवन स्वीकार करने में हमें डर लगता है, हम परमात्मा को काट लेते हैं, और जो-जो हमें पसंद नहीं पड़ता उसे हम अलग कर देते हैं। हम अस्तित्व के दो टुकड़े कर लेते हैं। कुछ लोग अस्तित्व को दो हिस्सों में बांट देते हैं कि यह संसार है और वह मोक्ष है, और संसार और मोक्ष को विपरीत संघर्ष में जुटा देते हैं। फिर जीवन की एक ही खोज रह जाती है कि कैसे संसार से छुटकारा हो और कैसे मोक्ष की उपलब्धि हो। इस अस्तित्व को बांटने से वासना का जन्म होता है, वासना मिटती नहीं। नई वासना का जन्म होता है कि संसार कैसे छूटे और मोक्ष की कैसे प्राप्ति हो। और जब तक वासना है तब तक मोक्ष की कोई प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि मोक्ष का अर्थ ही है निर्वासना; मोक्ष का अर्थ ही है कि अब कोई चाह न रही। इसलिए मोक्ष की चाह भी मोक्ष में बाधा है।
लाओत्से के विचार में प्रवेश के पहले ये सारी बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। जब भी हम जगत को बांटेंगे तो वासना का जन्म होगा। सिर्फ अनबंटे जगत में वासना का जन्म नहीं होगा। या तो हम कहते हैं संसार और मोक्ष, या हम कहते हैं शैतान और ईश्वर। तब हम कहते हैं शैतान बुरा है और ईश्वर भला है। तो सारे संसार की जो बुराई--हमें जो बुराई मालूम पड़ती है--वह हम शैतान पर थोप देते हैं। और जो भी हमारी धारणा में भलाई है वह हम परमात्मा पर थोप देते हैं। तब शैतान से बचना है और परमात्मा को पाना है। लेकिन वासना पैदा होगी। जहां चुनाव है वहां वासना से छुटकारा कैसे होगा? सिर्फ अचुनाव में, च्वाइसलेसनेस में वासना गिर सकती है; उसके पहले वासना नहीं गिर सकती।
लाओत्से की बात ठीक से समझ में आ जाए तो वासना छोड़नी नहीं पड़ती; वासना का उठना ही असंभव हो जाता है। और जिस वासना को छोड़ना पड़े वह छूटेगी नहीं; क्योंकि वासना को छोड़ने की कोशिश में भी आप और किसी वासना का सहारा लेंगे। जब भी आप एक वासना को छोड़ेंगे तो दूसरी वासना के सहारे छोड़ेंगे। तो एक छूट जाएगी और दूसरी पकड़ जाएगी। और तब इलाज बीमारियों से भी ज्यादा बदतर सिद्ध होते हैं। क्योंकि एक बीमारी हटती नहीं कि जिसे हमने औषधि समझी थी वह बीमारी हो जाती है, और वह हमें पकड़ लेती है।
इसलिए संसार को छोड़ कर भागने वाला जो संन्यासी है उसका संन्यास भी एक रोग है। होगा ही। क्योंकि उसके संन्यास में समग्रता नहीं है। वह भी एक खंड है; तोड़ कर, बचा कर, जबरदस्ती, आस-पास दीवालें खड़ी करके वह संन्यास को बचा रहा है। और जिस संन्यास को बचाना पड़ता हो वह मुक्ति नहीं ला सकता। और जिस संन्यास को किसी चीज के विपरीत खड़ा हो वह अपने विपरीत से जुड़ा रहता है; वह विपरीत का ही हिस्सा होता है। उसका प्राण अपने विपरीत में ही होता है। संसार के विपरीत जो संन्यास होगा वह संन्यास नाममात्र को होगा; वह एक नए ढंग का संसार होगा। शक्ल बदल जाएगी, व्यवस्था बदल जाएगी; लेकिन मूल रोग अपनी जगह होगा।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपनी चिकित्सा, अपनी मानसिक चिकित्सा करवा रहा था। वर्षों के बाद उसके एक मित्र ने पूछा कि अब तो चिकित्सा मालूम होता है पूरी हो गई, क्योंकि तुम चिकित्सक की तरफ जाते हुए दिखाई नहीं पड़ते। क्या लाभ हुआ तुम्हें?
तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि मेरी बीमारी यह थी कि मैं हर छोटी-छोटी चीज से भयभीत हो जाता--ऐसा भी नहीं कि कुछ हो रहा हो तब भयभीत होता हूं, होने की आशंका से, हो न जाए इस कल्पना से भी भयभीत हो जाता हूं। उदाहरण के लिए मेरी हालत ऐसी थी चिकित्सा के पहले कि टेलीफोन रखा हुआ है, तो कहीं घंटी न बजने लगे, कोई किसी से बात न करनी पड़े, तो मैं कंपने लगता था, घबड़ाने लगता था। और घंटी अगर बज गई तो मैं इतना घबड़ा जाता था कि मैं उठ ही नहीं सकता था अपनी जगह से।
तो उसके मित्र ने पूछा, तो अब तो तुम ठीक हो गए, अब क्या हालत है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि अब मैं इतना ठीक हो गया हूं कि अब हालत ऐसी है कि घंटी न भी बजे तो भी दिन में बीस दफे मैं फोन पर जवाब देता हूं। तब घंटी भी बजती थी तो उठ नहीं सकता था, अब घंटी नहीं भी बजती है तो कोई फिक्र नहीं, मैं तो फोन उठा कर जवाब दे ही देता हूं।
एक बीमारी से दूसरी बीमारी में चले जाना बहुत आसान है। और विपरीत बीमारी में चले जाना तो एकदम आसान है। लेकिन मूल रोग अपनी जगह खड़ा रहता है। जहां भी हम विपरीतता खड़ी करते हैं वहीं उपद्रव हो जाता है।
लाओत्से कहता है, यह सारा जगत, यह सारा अस्तित्व ताओ का प्रवाह है, धर्म का प्रवाह है।
यहां माया और ब्रह्म, ऐसे दो नहीं हैं। यह जो माया दिखाई पड़ रही है यह भी ब्रह्म का ही प्रवाह है। ऐसा कहना ठीक नहीं कि परमात्मा कण-कण में है; कण-कण परमात्मा है। यह कहना भी भ्रांत है कि कण-कण में परमात्मा है, क्योंकि तब हमने कण को अलग कर लिया और परमात्मा को ऐसे डाल दिया जैसे डब्बे के भीतर कोई किसी चीज को रख देता है। लाओत्से की दृष्टि में, कण-कण में परमात्मा है, ऐसा कहना ठीक नहीं; कण-कण ही परमात्मा है। यहां परमात्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं।
मगर तब हमें कठिनाई होगी। क्योंकि तब हम किससे लड़ेंगे? और बिना लड़े अहंकार खड़ा नहीं होता। तब हम किसको जीतेंगे, किसको दबाएंगे, किसको नष्ट करेंगे? क्योंकि बिना लड़े अहंकार को कोई मजा नहीं होता। अगर सभी कुछ परमात्मा है तो हम एकदम खाली हो जाएंगे। हमारी सारी लड़ाई खो गई। लड़ने को कुछ भी न बचा। और हम चाहते हैं कि लड़ने को कुछ बचे। क्योंकि लड़ने में ही हमें पता चलता है कि हम हैं। जितना हम लड़ते हैं उतना हमें पता चलता है कि हम हैं। जब आपको कुछ करने को नहीं होता तब आपको ऐसा लगता है आप मिट गए।
मनसविद कहते हैं कि लोग जैसे ही अपने काम से रिटायर होते हैं उनकी दस वर्ष उम्र कम हो जाती है; क्योंकि लड़ने को कुछ नहीं बचता। यह जान कर आप हैरान होंगे कि कुंआरे लोग कम जीते हैं बजाय पतियों के, क्योंकि उनको लड़ने को कुछ नहीं होता। यह पश्चिम में जब अभी इस सब की गणना चलती थी तो वे बहुत चकित हुए। वे सोचते थे कि कुंआरा आदमी ज्यादा जीना चाहिए, क्योंकि कोई झगड़ा नहीं, कोई झंझट नहीं, पत्नी-बच्चे का उपद्रव नहीं। लेकिन वे जल्दी मर जाते हैं। क्योंकि वह झगड़ा-झंझट जो है वह जिलाए रखता है; उससे लगता है मैं भी हूं। कभी जीतते हैं, कभी हारते हैं; लेकिन दांव चलते रहते हैं। और आदमी टिका रहता है। अगर आपको लड़ने को कुछ भी नहीं है तो आपको लगेगा आप खो गए। लड़ाई से जैसे ईंधन मिलता था।
गैर-विवाहित लोग ज्यादा विक्षिप्त होते हैं बजाय विवाहित लोगों के। नहीं होना चाहिए ऐसा। क्योंकि विवाहित आदमी कैसे विक्षिप्त होने से बचता है, यही चमत्कार है। लेकिन गैर-विवाहित लोग ज्यादा मानसिक बीमार होते हैं बजाय विवाहित लोगों के। क्या होगा कारण?
मनसविद कहते हैं, वह जो संघर्ष है उससे उनके अहंकार को शक्ति बनी रहती है। रोज-रोज लड़ कर वे अपने को निखारते रहते हैं; ताजे बने रहते हैं। लड़ने को कुछ नहीं होता, आदमी ढीला पड़ जाता है, सुस्त हो जाता है।
आप देखते हैं, जब कभी युद्ध होता है तो मुल्क में कैसी जान आ जाती है! कैसा हर आदमी तेजी से चलने लगता है, और हर आंख में चमक मालूम होती है। लोग मर रहे हैं, और मुल्क में तेजी की लहर दौड़ जाती है। क्या कारण होगा? वह जो संघर्ष है वह आपको खबर देता है कि आप भी जिंदा है; आप भी कुछ कर सकते हैं। जब कुछ संघर्ष नहीं है तो आदमी खाली हो जाता है। फिर उसे लगता है कि मैं हूं या नहीं, इसका भी पता नहीं चलता। अपनी आइडेंटिटी, अपना तादात्म्य खोजना मुश्किल हो जाता है। इसलिए सारा जगत प्रतियोगिता में लगा रहता है। सच्ची प्रतियोगिता, नहीं तो हम झूठी प्रतियोगिता भी खड़ी कर लेते हैं।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा मेन कैम्फ में लिखा है कि अगर युद्ध न भी हो, रहा हो तो भी किसी मुल्क को अगर जवान रहना हो, तो युद्ध की आशंका को बनाए रखना चाहिए, कि युद्ध होने वाला है, कि युद्ध होने वाला है। इस आशंका को तो बनाए ही रखना चाहिए अगर मुल्क को जवान रहना हो। असली युद्ध न हो तो नकली युद्ध की हवा। यह जो कोल्ड वार चलती है दुनिया में वह उसीलिए चलती है। क्योंकि युद्ध हमेशा चलाए रखना आसान नहीं है। लेकिन ठंडा युद्ध हमेशा चलाया जा सकता है। उससे लोग जिंदा मालूम पड़ते हैं।
आप भी अपनी जिंदगी में प्रतियोगिता खोजते रहते हैं। अगर बाजार से मन नहीं भरता तो ताश फैला कर टेबल पर बैठ जाते हैं। लड़ाई शुरू, ताश के ऊपर लड़ाई शुरू। शतरंज रख लेते हैं। अब घोड़े और हाथी असली लेकर लड़ाई पर जाना जरा मुश्किल है तो लकड़ी के घोड़े-हाथी चलाने लगते हैं। और युद्ध का पूरा मजा! आप दिन भर के थके थे, वह थकान एकदम खो जाती है। जैसे ही शतरंज बिछाई गई, वह थकान खो गई। अब आप पूरी रात टिके रह सकते हैं। कौन यह शक्ति देता है आपको? यह शक्ति कहां से आती है?
यह शक्ति आती है अहंकार के संघर्ष से। इसलिए आप देखते हैं कि संन्यासी के चेहरे पर जो रौनक दिखाई पड़ती है--लड़ने वाले संन्यासी के चेहरे पर--वह रौनक कुछ तपश्चर्या का कारण नहीं है। वह एक ऐसी लड़ाई में लगा हुआ है जहां अहंकार की तृप्ति की बड़ी सुविधा है। आपकी लड़ाई दो कौड़ी की है। इसलिए जब भी आप उसके पास जाएंगे, वे कहेंगे: क्या कर रहे हो! क्या इकट्ठा कर रहे हो क्षणभंगुर संपदा! इस जीवन में क्या रखा है! हमारी तरफ आओ। हम उस जीवन को खोज रहे हैं जो शाश्वत है; हम उस संपदा की तलाश में है जो कभी नष्ट नहीं होती। वह एक बड़ी लड़ाई लड़ रहा है। उस बड़ी लड़ाई में उसमें रौनक है, ताजगी है; वह टिका हुआ है। लेकिन वह लड़ाई अहंकार को निर्मित कर रही है। और ध्यान रहे, अहंकार की रौनक रुग्ण है, और अहंकार की रौनक विषाक्त है।
लाओत्से कहता है कि ताओ का प्रवाह है सब कुछ; बाढ़ की भांति ताओ ही सब तरफ बह रहा है।
सभी कुछ स्वीकार करने जैसा है; यहां अस्वीकार करने जैसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि जो भी अस्वीकृत हो रहा है वह भी परमात्मा है। मगर इतना बड़ा हृदय चाहिए स्वीकार करने का फिर। अस्वीकार करने के लिए तो क्षुद्र हृदय काफी है। इसलिए जो आदमी जितने छोटे हृदय का होता है उतना अस्वीकार करता रहता है, उतना निषेध करता रहता है। यह भी ठीक नहीं, यह भी ठीक नहीं, यह भी ठीक नहीं; इनकार करता रहता है। बहुत छोटा, संकीर्ण हृदय है।
अगर आप पूरे अस्तित्व को हां कह सकें तो ही आपको परमात्मा की प्रतीति शुरू होगी। वह कहीं छिपा नहीं है, वह यहीं प्रकट है। वह सब जगह प्रकट है। सभी रूप उसके हैं; सभी अभिव्यक्तियां उसकी हैं। सभी घटनाओं में वह छिपा है। जिसको हम बुरा कहते हैं वह हमारी व्याख्या है; जिसको हम भला कहते हैं वह हमारी व्याख्या है। लेकिन परमात्मा बुरे में भी है और भले में भी। क्योंकि हमारी व्याख्याएं परमात्मा को निर्धारित नहीं करतीं।
सूत्र में प्रवेश करें।
"महान ताओ सर्वत्र प्रवाहित है; दि ग्रेट ताओ फ्लोज एवरीव्हेयर'
सब कहीं प्रवाहित है। दो बातें हैं इसमें। एक तो सब कहीं, सर्वत्र, एवरीव्हेयर; और दूसरी बात, प्रवाहित है। लाओत्से के मन में परमात्मा कोई स्टेटिक कंसेप्ट, कोई ठहरी हुई धारणा नहीं है; प्रवाहपूर्ण है।
यह भी समझने जैसा है। क्योंकि जब भी हम ईश्वर की बात करते हैं तो हमें लगता है कि कोई चीज जो ठहरी हुई है, कोई चीज जो स्थिर है, कोई चीज जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई चीज जिसमें परिवर्तन की कोई संभावना ही नहीं है। क्योंकि हमारे मन में पूर्णता का अर्थ ही यह होता है कि जिसमें परिवर्तन न हो।
इसे थोड़ा समझें। क्योंकि लाओत्से का अर्थ बड़ा अलग है। हमारे मन में, अगर हम कहें कि ईश्वर भी विकासमान है, तो उसका तो मतलब हुआ कि वह भी अधूरा है। क्योंकि विकास तो उसी में होता है जिसमें कमी है। एक बच्चा विकसित होता है; वह कम है अभी। एक पौधा विकसित होता है, बड़ा होता है; छोटा था। सब चीजें विकसित होती हैं, विकास में परिवर्तित होती हैं। लेकिन परमात्मा कैसे विकसित होगा? क्योंकि वह तो पूर्ण है। उसमें तो कोई हलन-चलन भी नहीं हो सकता; उसमें कोई गति और प्रवाह नहीं हो सकता।
लेकिन ध्यान रहे, अगर परमात्मा में कोई गति और प्रवाह नहीं है तो परमात्मा मुर्दा होगा। लाओत्से की दृष्टि में इस तरह की पूर्णता तो मौत का पर्याय है। आदमी तभी बढ़ना रुकता है जब मर जाता है। कोई भी चीज तभी ठहर जाती है जब उसमें और जीवन नहीं रह जाता। जीवन तो प्रोसेस है; जीवन तो प्रवाह है, प्रक्रिया है। जीवन कोई ठहरी हुई चीज नहीं है; नदी की भांति है।
लेकिन परमात्मा को प्रवाह कहने में हमें बहुत डर लगेगा। क्या वह भी विकसित हो रहा है? क्या वह भी गतिमान है? क्या उसमें भी नया घटित हो रहा है? हमारे मन में परमात्मा बिलकुल पत्थर का, जड़, ठहरा हुआ रूप है। संसार में गति है; परमात्मा में कोई गति नहीं है। संसार में प्रवाह है; परमात्मा बिलकुल ठहरा है।
पर हमारी धारणा लाओत्से को मुर्दा लगती है। और वह कहता है कि जो ऐसा ठहरा हुआ परमात्मा है उससे इस प्रवाहपूर्ण जगत का कैसे संबंध हो सकता है? ऐसा मरा हुआ जो परमात्मा है उससे इस जीवंत-गति का, इस गत्यात्मकता का, इस डायनामिज्म का क्या नाता हो सकता है? लाओत्से उनको बांटता भी नहीं है। लाओत्से कहता है, यह प्रवाह ही परमात्मा है। तब उसकी धारणा पूर्णता की बिलकुल अलग हो जाती है। लाओत्से पूर्णता शब्द का प्रयोग पसंद नहीं करता, वह समग्रता शब्द का प्रयोग करता है।
ये दोनों शब्द बड़े अदभुत हैं। पूर्णता, परफेक्शन; समग्रता, होलनेस। पूर्णता का अर्थ होता है कि अब इसमें और कोई आगे गति की संभावना नहीं है; सब समाप्त हो गया। समग्रता का अर्थ होता है पूरापन, टोटैलिटी; इस क्षण भी पूर्ण है, अगले क्षण भी पूर्ण होगा। लेकिन प्रवाह है।
इसे हम ऐसा समझें। नदी को आपने देखा, गंगा को, गंगोत्री पर। बहुत छोटी है, बड़ी पतली धार है; लेकिन उस क्षण भी उसका सौंदर्य समग्र है। फिर आगे बढ़ी है; पहाड़ों को पार किया है; हजारों और धाराएं जलधाराएं आकर मिल गई हैं। फिर मैदान में उसका विराट रूप है। वहां भी उसका सौंदर्य समग्र है। फिर सागर में गिर रही है और खो रही है। वहां भी उसका सौंदर्य समग्र है। तीन जगह आपने देखा--गंगोत्री में देखा, मैदानों में देखा, सागर में गिरते देखा। गंगोत्री में जिस गंगा को आपने देखा है, सागर में गिरती गंगा उससे ज्यादा पूर्ण नहीं हो गई है। वहां भी समग्र थी; अपने छोटेपन में भी एक होलनेस, एक समग्रता थी।
एक बीज भी समग्र है और एक वृक्ष भी समग्र है; लेकिन बीज की समग्रता में और वृक्ष की समग्रता में एक प्रवाह है। लाओत्से नहीं कहेगा कि वृक्ष पूर्ण हो गया और बीज अपूर्ण था। लाओत्से कहेगा कि बीज भी पूर्ण था, वृक्ष भी पूर्ण है। बीज की पूर्णता बह कर वृक्ष की पूर्णता बन गई। और इसीलिए तो बीज वृक्ष बनेगा और वृक्ष फिर बीज बन जाएगा। नहीं तो फिर पूर्ण कैसे बीज बनेगा? फिर पूर्ण कैसे अपूर्ण बनेगा? बीज से वृक्ष जन्मता है और वृक्ष में फिर करोड़ों बीज जन्म जाते हैं। फिर वृक्ष; फिर बीज। और एक समग्रता परिवर्तित होती रहती है। लेकिन प्रतिपल सब समग्र है।
बच्चा समग्र है, और उसका अपना सौंदर्य है। और जवान भी समग्र है, और उसका अपना सौंदर्य है। कोई जवान बच्चे से ज्यादा पूर्ण है, यह बात अलग है। बच्चे की पूर्णता एक ढंग की है; जवान की पूर्णता दूसरे ढंग की है। दोनों में कोई तुलना नहीं है। फिर बूढ़े की पूर्णता बिलकुल तीसरे ढंग की है। उनमें कोई तुलना नहीं है। लेकिन तीनों अपनी-अपनी अवस्थाओं में समग्र हैं।
तो लाओत्से नहीं कहता कि बच्चे को जवान होने की कोशिश में लगना चाहिए; लाओत्से कहता है बच्चे का बचपन समग्र होना चाहिए। उस समग्रता से दूसरी समग्रता पैदा होगी। जवानी को कोई बूढ़ा होने की चेष्टा में नहीं लग जाना चाहिए; जवानी को समग्र होने की चेष्टा करनी चाहिए। होलनेस, टोटैलिटी, पूर्णता यहां कोई शिखर की भांति नहीं है। पूर्णता यहां सब कुछ हो जाना है। जो भी हो सकता है जवान, वह उसे पूरी तरह हो जाना है। इस पूर्णता से वृद्धावस्था की पूर्णता निकलेगी। और जीवन जब पूर्ण होता है तो उससे पूर्ण मृत्यु का जन्म होता है। और जीवन जब समग्र होता है तो मृत्यु भी समग्र हो जाती है, अखंड हो जाती है। इन दोनों में फर्क को ठीक से समझ लें। ऐसा समझें कि एक फूल है। अगर हम पूर्णतावादी हैं, परफेक्शनिस्ट हैं, तो हमारी फिक्र यह होगी कि फूल सारे दूसरे फूलों के मुकाबले सबसे ज्यादा सुंदर हो जाए, सबसे ज्यादा बड़ा हो जाए।
मेरे बगीचे में एक माली था। उसके फूल हर वर्ष प्रतियोगिता में प्रथम आ जाते थे। तो मैं उसको पूछा कि तू करता क्या है? तो उसने कहा कि मैं एक पौधे पर एक ही फूल को लगने देता हूं, बाकी फूलों को काट देता हूं। तो जब बाकी फूल कट जाते हैं तो वह जो बेचैन धारा जीवन की उन फूलों से प्रकट होती, मजबूरी में एक ही फूल की तरफ प्रवाहित होगी, और एक फूल बड़ा हो जाएगा। लेकिन वह बड़ापन भी रुग्ण है। वह बड़ापन भी अपना नहीं है, शोषित है। प्रतियोगिता में प्रथम आ जाएगा, लेकिन वह फूल समग्र नहीं है। वह दूसरे पर जी रहा है, और प्रतियोगिता में, किसी दूसरे से तुलना में, बड़ा है।
फूल की समग्रता अलग बात है। किसी आदर्श के अनुकूल होने की जरूरत नहीं है। फूल जो भी हो सकता था, उसके भीतर जो भी छिपा था, वह सब खिल जाए, उसके भीतर कुछ दबा न रह जाए; यह समग्रता है। किसी दूसरे से तुलना करने की और उसकी पूर्णता की कोई दृष्टि नहीं है। अगर आप पूर्ण होने की कोशिश में लगे हैं तो आप हमेशा सोचेंगे कि मैं बुद्ध जैसा हो जाऊं, कि महावीर जैसा हो जाऊं, कि कृष्ण जैसा हो जाऊं। अगर आप समग्र होने की कोशिश में लगे हैं तो बुद्ध, महावीर, सब खो जाएंगे; तब आपकी एक ही चेष्टा होगी कि जो भी मैं हो सकता हूं वह मैं पूरा का पूरा हो जाऊं; मेरे भीतर कुछ अधूरा न रह जाए। मरते वक्त मुझे ऐसा न लगे कि कोई अंग मेरा अपंग रह गया। मरते वक्त मुझे ऐसा न लगे कि कोई फूल मुझमें खिल सकता था और नहीं खिल पाया; कोई बीज अंकुरित हो सकता था, बीज ही रह गया। मरते समय मैं इस भाव से विदा हो सकूं कि जो भी मेरे भीतर हो सकता था, जो भी मेरी नियति थी, वह पूरी हो गई। बुद्ध से कोई तुलना नहीं है। बुद्ध की अपनी नियति है; वे अपने ढंग से पूरे हो गए। आपकी नियति आपकी अपनी नियति है; आप अपने ढंग से पूरे होंगे।
लाओत्से पूर्णता के लक्ष्य को नहीं मानता। क्योंकि पूर्णता का लक्ष्य बहुत खतरनाक है। और उसमें दमन अनिवार्य है। उसमें काट-पीट जरूरी है। उसमें हिंसा होगी ही। और पूर्णता का जो लक्ष्य है उसमें दूसरे से प्रतिस्पर्धा है; और दूसरे के साथ कलह और संघर्ष है। समग्रता, टोटैलिटी, मेरे भीतर कुछ भी अनखिला न रह जाए।
तो परमात्मा को लाओत्से एक प्रवाह मानता है--पूर्णता का प्रवाह। हजारों तरह की पूर्णताएं हो सकती हैं। जब एक फूल खिलता है तब परमात्मा फूल में पूर्ण होता है। और जब एक नदी बहती है तो परमात्मा नदी में पूर्ण होता है। और जब एक बुद्ध का व्यक्तित्व अपनी पूर्णता में आता है, पूर्णिमा बनती है जब बुद्ध के व्यक्तित्व की, तब परमात्मा बुद्ध में पूर्ण होता है। एक पक्षी में भी पूर्ण होता है; एक पत्थर में भी पूर्ण होता है। अनंत पूर्णताएं हैं। क्योंकि जगत प्रवाह है। यहां पूर्णता कोई एक भी नहीं है। और एक पूर्णता अपने आप में यूनीक, अद्वितीय है; दूसरे से उसकी तुलना का भी कोई सवाल नहीं है।
लाओत्से कहता है, जीवन एक प्रवाह है। और इस प्रवाह को ठोस, बंधी हुई धाराओं में, जमे हुए शब्दों में सोचना गलत है।
इसलिए जब हम परमात्मा को सोचते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि किसी न किसी दिन परमात्मा को पा लेंगे, कब्जा कर लेंगे। लाओत्से के परमात्मा पर आप कब्जा न कर पाएंगे। आप जिस परमात्मा को सोचते हैं, आपकी धारणाएं कब्जा कर लेंगी--बांसुरी बजाने वाले कृष्ण पर, धनुर्धारी राम पर--कोई एक धारणा है आपकी, उस पर आपका कब्जे का भाव है कि आप कब्जा कर लेंगे, उसको पजेस कर लेंगे। लेकिन लाओत्से के परमात्मा को आप कभी भी पजेस न कर पाएंगे। वही आपको पजेस करेगा। आप उसमें डूब जाएंगे। उसको आप मुट्ठी में न ले पाएंगे।
इसलिए लाओत्से कहता है, परमात्मा को, सत्य को या ताओ को हम कभी उपलब्ध नहीं कर सकते मुट्ठी में; हम स्वयं को उसमें लीन कर सकते हैं। वही उपलब्धि है।
तो पहली तो बात कि सब तरफ वही है। इस भाव के उठते ही निंदा खो जाती है। इस भाव के उठते ही विरोध गिर जाता है। इस भाव के उठते ही आपकी सब व्याख्याएं व्यर्थ हो जाती हैं। और अगर यह भाव मन में गहरा हो जाए तो आप अचानक पाएंगे कि जहां आपको कल बुरा दिखाई पड़ता था वहां भी अब बुरा दिखाई नहीं पड़ता।
समझें! अभी मैं एक वैज्ञानिक का जीवन भर का अनुसंधान देख रहा था। उसने पूरे जीवन दुख, पीड़ा के ऊपर, कष्ट के ऊपर काम किया है। जब भी आपको पीड़ा होती है तो आपको लगता है कि परमात्मा नहीं हो सकता। क्योंकि इतनी पीड़ा क्यों है? इसलिए जो भी हम मोक्ष की धारणा करते हैं उसमें पीड़ा को हम कोई जगह नहीं देते। असंभव। अगर मोक्ष में भी पीड़ा होती हो तो फिर काहे का मोक्ष? पीड़ा तो यहां है। और नरक में पीड़ा ही पीड़ा है। मोक्ष में पीड़ा बिलकुल नहीं है। और हम मध्य में हैं दोनों के। और यहां पीड़ा भी है और सुख भी है, और दोनों के बीच हम डोल रहे हैं। जहां भी हमें पीड़ा दिखाई पड़ती है वहीं लगता है कि परमात्मा कैसे हो सकता है? नास्तिकों की ईश्वर के खिलाफ जो दलीलें हैं उनमें एक यह भी है कि अगर परमात्मा है और करुणावान है और जैसा जीसस कहते हैं कि प्रेम है परमात्मा का स्वरूप, तो इतना दुख क्यों है?
यह वैज्ञानिक जीवन भर दुख की तलाश कर रहा था कि दुख है क्या? और उसकी जीवन में उपयोगिता क्या है? क्योंकि है तो उपयोगिता होगी। तो वह एक अनूठे नतीजे पर पहुंचा। कुछ ऐसे बच्चे पैदा होते हैं, बहुत कभी-कभी, जिनको संवेदन नहीं होता दुख का, जिनके शरीर के कुछ तंतु खराब होते हैं और उनको पीड़ा का अनुभव नहीं होता। आपके शरीर में कुछ तंतु हैं जो पीड़ा की खबर ले जाते हैं; वे तंतु अगर काम न कर रहे हों तो पीड़ा की खबर नहीं मिलेगी। लेकिन ऐसे बच्चे जी नहीं पाते, मर जाते हैं। क्योंकि उनके हाथ में आग लग जाए तो वे हाथ को हटाएंगे नहीं। उनको पीड़ा होती ही नहीं।
ऐसे बच्चों के संबंध में बड़ी अदभुत बात है कि वे अपने भोजन के साथ अपनी जीभ भी चबा लेते हैं, क्योंकि उनको पीड़ा होती नहीं। वे अपनी जीभ को काट कर खा जाते हैं, चबा जाते हैं; उनको पता ही नहीं चलता। क्योंकि जीभ का आपको पता जीभ के कारण थोड़े ही चलता है, उसमें जो पीड़ा होती है उसके कारण पता चलता है। अगर आपको पीड़ा न हो जीभ की तो आप काट जाएंगे भोजन के साथ; आपको पता नहीं चलेगा। ऐसे बच्चे बच नहीं पाते, क्योंकि उनको सुरक्षा का कोई उपाय नहीं है। उनको पीड़ा नहीं होती, इसलिए वे कुछ भी उपद्रव कर सकते हैं। घर में आग लगी हो और बच्चा सो रहा हो तो निकल कर बाहर नहीं भागेगा; वह सोया रहेगा। उसे पता ही नहीं चलेगा कि वह कब जल गया।
तो इस वैज्ञानिक के जीवन भर की खोज का परिणाम यह है कि उसने कहा कि पीड़ा जो है वह जीवन के अस्तित्व के लिए बड़ी सुरक्षा है। सारी व्याख्या बदल गई फिर। जीवन हो ही नहीं सकता बिना पीड़ा के। तो पीड़ा फिर बुरी नहीं रही। फिर तो पीड़ा जीवन की भूमि हो गई; फिर तो पीड़ा शुभ हो गई। क्योंकि उसी की भूमि में जीवन का फूल खिलता है। वह उसकी सुरक्षा है। इसलिए जितना संवेदनशील व्यक्तित्व होगा उतना जीवंत होगा। यह जरा मुश्किल बात है। जितना संवेदनशील व्यक्तित्व होगा, जितनी छोटी सी भी पीड़ा का जिसे अनुभव होता है, वह उतना ज्यादा बुद्धिमान, उतना ज्यादा चैतन्य, उतना ज्यादा जीवंत होगा।
आप कोशिश कर सकते हैं पीड़ा से बचने की; आप तंतुओं को नष्ट कर सकते हैं। आप फकीरों को देखते हैं, लेटे हैं कांटों पर। अभ्यास से हो जाता है। वे जो तंतु पीड़ा की खबर ले जाते हैं, वे खबर नहीं ले जाते। लेकिन उसी मात्रा में वह फकीर मुर्दा हो गया। जिस मात्रा में पीड़ा पहुंचनी बंद हो गई उसी मात्रा में मुर्दा हो गया। आप प्रभावित होते हैं कि गजब का चमत्कार है कि कांटों पर लेटा हुआ है। लेकिन चमत्कार सिर्फ इतना ही है कि उसने अपने तंतुओं को जड़ कर लिया। और उन तंतुओं के जड़ होने के साथ ही उसी मात्रा में उसकी जीवन की ज्योति भी क्षीण हो गई। इसलिए कांटों पर लेटे फकीर की आंखों में आपको जीवन का दर्शन नहीं होगा। आप सिर्फ कांटे और फकीर को देख कर लौट आते हैं। उसकी आंखें भी देखें। वहां लगेगा: एक मुर्दगी, एक डेडनेस; सब कुछ मरा हुआ। वह एक लाश है।
जैसे ही आप जीवन को पूरा का पूरा, एक देखना शुरू करेंगे, आपकी व्याख्याएं बदलनी शुरू हो जाएंगी।
आप जिसे प्रेम करते हैं उससे कलह भी हो जाती है। हम सब सोचते हैं कि जिससे प्रेम है उससे कलह नहीं होनी चाहिए। कैसे होगी कलह? अगर प्रेम है तो कलह होनी ही नहीं चाहिए। कलह है बुरी; वह घृणा का हिस्सा है; प्रेम का कैसे हो सकता है? लेकिन मनसविद कहते हैं--और ठीक कहते हैं--कि कलह दो प्रेमियों के बीच बड़ी जरूरी है। जैसे आप श्वास लेते हैं भीतर और फिर श्वास बाहर छोड़ते हैं, वह बाहर श्वास का जाना फिर भीतर श्वास लेने के लिए जरूरी है। चौबीस घंटे आप भीतर ही भीतर श्वास लें; चौबीस घंटे बचेंगे ही नहीं। आप कहें कि भीतर ही लेंगे श्वास, बाहर नहीं लेंगे। बाहर छोड़नी पड़ती है श्वास, फिर भीतर लेते हैं; खाली हो जाते हैं।
प्रेम भी चौबीस घंटे नहीं किया जा सकता; वह भी जहर हो जाएगा। उसे छोड़ना भी पड़ता है। वह भी श्वास की तरह है; जैसे दिन और रात हैं; जैसे बाहर आती श्वास और भीतर जाती श्वास। दो प्रेमी कलह करके दूर हट जाते हैं। दूर हटने के कारण फिर पास आने का उपाय हो जाता है। अगर वे पास ही पास बने रहें तो ऊब जाएंगे और पास होना खतरनाक होने लगेगा। और फिर वे भागना चाहेंगे, बचना चाहेंगे। दूरी जरूरी है। फिर दूरी पास आने का आकर्षण पैदा करती है। फिर पास आना सुखद मालूम होने लगता है। अक्सर दो प्रेमी लड़ कर जैसा प्रेम करते हैं, वह प्रेम बहुत ताजा होता है। बिना लड़े प्रेम करते रहते हैं, वह बासा हो जाता है। दूरी जरूरी है पास आने की ताजगी के लिए।
तब तो इसका अर्थ हुआ कि कलह की भी सार्थकता है और उसके प्रति भी दुश्मनी का भाव रखने की कोई जरूरत नहीं है। अगर यह समझ हो तो कलह भी सुखद हो गई। अगर यह समझ हो तो दूर हटना भी सारपूर्ण हो गया। और हम उसके लिए भी धन्यवाद देंगे, उसके लिए भी आभारी होंगे।
जैसे-जैसे जीवन को इस विचार से देखेंगे कि सभी तरफ परमात्मा है तो कुछ भी अशुभ हो नहीं सकता। अगर दिखाई पड़ता है तो हमारी कहीं भूल होगी। तो हम और खोजें, और गहरे प्रवेश करें, तो हमें पता चल जाएगा कि भूल हमारी कहां थी। और भूल गिर जाएगी। और हम अखंड जीवन का जो उत्सव है उसको पहचान पाएंगे।
"महान ताओ सर्वत्र प्रवाहित है; बाढ़ की भांति बाएं-दाएं सब ओर बहता है।'
उसकी कोई दिशा नहीं है।
"असंख्य वस्तुएं उसी से जीवन ग्रहण करती हैं, और यह उन्हें अस्वीकार नहीं करता।'
यह समझने जैसा है। सुना है मैंने, एक सूफी फकीर ने परमात्मा से प्रार्थना की एक रात कि उसके पड़ोस में एक आदमी है जो बाधा डालता है प्रार्थना में, पूजा में। उपद्रवी है, दुष्ट है, शैतान है पूरा का पूरा। इसे सुधार दो; क्योंकि इसके रहते पूजा-प्रार्थना ही मुश्किल हो गई है।
तो उसने अपने स्वप्न में आवाज सुनी कि उस आदमी को मैं तीस साल से स्वीकार किए हुए हूं और तुझे तो अभी तीन महीने ही इस पड़ोस में आए हुए हैं। और जिसे मैंने स्वीकार किया है उसे तुझे अस्वीकार करने की क्या जरूरत है? और अगर वह पूजा में तेरी, प्रार्थना में बाधा डालता है, तो तू उस पर ध्यान मत दे। तेरी पूजा और प्रार्थना कमजोर है, तू उसका स्मरण कर। और जान कर ही मैंने तुझे उस पड़ोस में भेजा है, ताकि तेरी पूजा कितनी गहरी है उसका तुझे पता चल जाए। और यह आदमी बड़ा काम का है और मेरे ही काम में लगा है।
वह फकीर बहुत हैरान हुआ। सुबह जाग कर उसको बड़ी मुश्किल हुई खड़ी। बात तो ठीक लगी। क्योंकि जगत में जो भी हो रहा है, अगर वह परमात्मा को अस्वीकार है, तो वह होगा ही नहीं। एक बात। वह हो कैसे सकता है? इसके तो दो ही अर्थ हो सकते हैं कि या तो परमात्मा को वह स्वीकार है और या फिर जगत में वैसा भी कुछ हो सकता है जो उसको अस्वीकार है। और अगर उसको अस्वीकार होकर भी जगत में कुछ हो सकता है तो उसकी कोई शक्ति नहीं है; वह व्यर्थ है। और अगर उसके विपरीत भी कुछ हो सकता है तो उस नपुंसक परमात्मा को पाकर भी क्या करिएगा? अगर उसके विपरीत भी कुछ हो सकता है तो आप मोक्ष से भी खींचे जा सकते हैं वापस।
परमात्मा के विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए जो आपको बुरा भी दिखाई पड़ रहा हो वह भी उसकी ही मर्जी से हो रहा है। और यह प्रतीति आते ही कि उसकी मर्जी ही अस्तित्व का आधार है, जो आपको बुराई दिखाई पड़ती है वह बुराई दिखाई पड़ेगी नहीं। वह बुराई दिखाई ही इसलिए पड़ती है कि आपको अस्वीकार है। लेकिन जब उसको स्वीकार है तो आपकी अस्वीकृति का क्या अर्थ है? आप अपनी अस्वीकृति को गिरा दें।
लाओत्से कहता है, "असंख्य वस्तुएं उसी से जीवन ग्रहण करती हैं।'
सभी कुछ उसी से जीवन ग्रहण करता है--जहर भी और अमृत भी। दोनों में उसी का जीवन है, उसी की शक्ति, उसी की ऊर्जा है। साधु में और असाधु में, हत्यारे में और प्रेमी में, करुणावान में और कठोर में वही प्रवाहित है।
"और यह उन्हें अस्वीकार नहीं करता।'
और कोई अस्वीकृति नहीं है अस्तित्व को किसी की भी। अस्तित्व सभी को समाहित किए है।
साधक को अगर यह खयाल आना शुरू हो जाए कि मैं भी अस्तित्व की भांति हो जाऊं और सभी कुछ समाहित कर लूं; और मेरे भीतर से भी विरोध, शत्रुता गिर जाए; और मैं न कहूं कि यह बुरा है और मैं न कहूं कि यह भला है; और मैं कहूं कि उसकी मर्जी है, सिर्फ इतना ही जानूं कि अस्तित्व की मर्जी है। और जब अस्तित्व की मर्जी है तो जरूर कुछ कारण होगा, गहन कारण होगा। जिसे हम भला कहते हैं वह बुरे के बिना अस्तित्व में नहीं हो सकता; उसके लिए बुरा जरूरी है। बुरा पृष्ठभूमि बनता है। जिसको हम सौंदर्य कहते हैं वह कुरूपता के बिना न होगा। वह कुरूप बादलों के बीच में ही सौंदर्य की बिजली चमकती है।
तो जहां-जहां द्वंद्व है वहां-वहां एक अनिवार्यता है। और तब अगर आप सुंदर को स्वीकार करते हैं तो असुंदर को अस्वीकार मत करें। क्योंकि वह सौंदर्य पैदा ही नहीं हो सकता असुंदर के बिना। अगर आप जीवन को अहोभाव मानते हैं तो मृत्यु को पीड़ा मत मानें, दुख मत मानें। क्योंकि जीवन जन्मता ही मृत्यु में है। दोनों छोर पर मृत्यु है; बीच में जीवन की थोड़ी सी लहर है। वह लहर दोनों तरफ की मृत्यु के दबाव से ही उठती है। और आप मृत्यु के विरोध में हैं तो आप आधे को स्वीकार कर रहे हैं, आधे को अस्वीकार कर रहे हैं। और वे जो दो आधे दिखाई पड़ रहे हैं वे सिर्फ आपकी दृष्टि में आधे हैं, अपने आप में वे जुड़े हैं और एक हैं। जीवन ही तो बह कर मृत्यु बन जाता है; मृत्यु ही तो बह कर फिर जन्म बन जाती है। जो यहां लहर जीवन की है वही लहर मौत की बन जाती है।
यहां सब कुछ इकट्ठा है; यहां बंटा हुआ कुछ भी नहीं है। यहां राम और रावण अस्तित्व में अलग-अलग नहीं हैं। रामायण में अलग-अलग हैं, अस्तित्व में एक हैं। अस्तित्व में राम और रावण एक ही चीज के दो पहलू हैं, और दोनों एक-दूसरे के सामने अड़ कर खड़े हैं। उनमें से एक भी हट जाए तो दूसरा गिर जाएगा। दूसरा खड़ा नहीं रह पाएगा। राम को सोच ही नहीं सकते रावण के बिना। रावण को हटा लें रामकथा से और रामकथा में देखने योग्य कुछ भी न रह जाएगा। सुनने योग्य, पढ़ने योग्य कुछ भी न रह जाएगा। मजे की बात यह है कि रावण के मिटते ही राम की सारी गरिमा खो जाएगी। वह सारी गरिमा जैसे रावण से उपलब्ध हो रही है। और विपरीत भी सही है। राम को हटा लें तो रावण का कोई मूल्य नहीं रह जाता। सारा रस रावण में राम से बह रहा है। ऊपर से दिखाई पड़ते हैं वे दुश्मन; भीतर से वे गहरे मित्र हैं। अस्तित्व में जहां-जहां द्वंद्व है वहां-वहां जरा सी खोज करेंगे, जरा खोदेंगे, और भीतर मिलेगा, एक गहरी आत्मीयता बह रही है।
लाओत्से कहता है कि इस असंख्य अभिव्यक्तियों वाले जगत को वह अस्वीकार नहीं करता। लेकिन बड़े मजे का शब्द है! लाओत्से यह नहीं कहता कि वह स्वीकार करता है। वह कहता है, अस्वीकार नहीं करता। यह बहुत सोच-समझ कर कहा हुआ वक्तव्य है। वह यह नहीं कहता कि स्वीकार करता है, इतना ही कहता है कि अस्वीकार नहीं करता। अगर वह स्वीकार करता है तब तो आपको बदलने का कोई उपाय ही नहीं रह जाता। तब तो जीवन-क्रांति और जीवन का आरोहण सब खो जाता है।
नहीं, वह आपको अस्वीकार नहीं करता; लेकिन जब तक आप जीवन को रूपांतरित नहीं करते हैं तब तक आप अपने ही हाथों से उससे दूर बने रहेंगे। वह आपको स्वीकार करे तब तो आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है। वह सिर्फ अस्वीकार नहीं करता। वह आपको मिटाता नहीं, वह आपको हटाता नहीं, वह आपको तोड़ता नहीं, वह आपको बदलता नहीं, वह आपसे कहता नहीं कि ऐसे हो जाओ; आप जैसे हो उसको अस्वीकार नहीं करता। यह निगेटिव है, यह नकारात्मक है बात।
लेकिन वह आपको स्वीकार भी नहीं करता। स्वीकार तो आप तभी होते हैं जब आप बदलते हैं और उसके निकट आते हैं; जब आप रूपांतरित होते हैं और उसके निकट आते हैं। और यह रूपांतरण की कीमिया यह है कि जब आप समग्र अस्तित्व को स्वीकार करने लगते हैं तब आप उसे स्वीकार होने लगते हैं। लेकिन स्वीकार पाजिटिव बात है। इसलिए उसका अस्वीकार न करना आपको अस्तित्व देता है, जीवन देता है; लेकिन जिस दिन वह आपको स्वीकार करता है उस दिन महाजीवन!
जीसस ने कहा है कि तुम जिसे जानते हो वह जीवन है, लेकिन मैं जिस तरफ तुम्हें ले जा रहा हूं वहां तुम्हें महाजीवन--लाइफ, एबनडंट लाइफ; परम जीवन या दिव्य जीवन, अमृत या मुक्ति, जो भी हम नाम देना चाहें दें।
वह हमें अस्वीकार नहीं करता तो भी हम जीते हैं। उसकी अस्वीकृति में तो हम जी ही न सकेंगे। वह अस्वीकार नहीं करता, इसलिए हम जीते हैं। लेकिन अगर हम जगत को स्वीकार कर लें तो वह हमें स्वीकार कर लेता है। और उस स्वीकृति में महाजीवन उपलब्ध होता है। वह जो अभी एक चिनगारी की तरह हमारे भीतर है वह एक महासूर्य की तरह हो जाती है। वह जो अभी चैतन्य की एक छोटी सी बूंद है वह चैतन्य का एक महासागर बन जाती है।
परमात्मा आपको अस्वीकार नहीं करता है, लेकिन इससे आप यह मत समझ लेना कि आप स्वीकृत हो गए हैं। स्वीकृत होने के लिए तो पात्र होना होगा। और इस पात्रता का पहला कदम यही है कि आप अस्वीकार करना बंद कर दें।
जीसस का एक बहुत प्यारा वचन है जिसमें उन्होंने कहा है, जज यी नाट सो दैट यी मे नाट बी जज्ड
तुम दूसरों का निर्णय मत करो, और तुम दूसरों के संबंध में धारणाएं मत बनाओ, तुम दूसरों के न्यायाधीश मत बनो, ताकि वे भी तुम्हारे न्यायाधीश न बनें। अगर तुमने कहा कि यह बुरा है, तुमने कहा कि यह गलत है और तुमने कहा कि यह आदमी जीने योग्य भी नहीं है, तुमने निंदा की, तुमने घृणा की और तुमने अस्वीकार किया, तो तुम अपने ही हाथों जो तुम दूसरे के लिए कर रहे हो अस्तित्व से तुम अपने लिए कर रहे हो। तुम मत करो निर्णय और तुम मत न्यायाधीश बनो।
और हम सब न्यायाधीश हैं। हम उठते-बैठते-चलते निर्णय किए चले जाते हैं। कुछ भी हम देखते हैं, और हम देख भी नहीं पाते हैं पूरा और भीतर निर्णय हो जाता है। एक आदमी को देखा नहीं कि हम सोच लेते हैं कि यह आदमी बुरा है। एक आदमी को देखा नहीं कि हम सोच लेते हैं कि यह गलती बात है। हम बड़ी जल्दी निर्णय ले रहे हैं, जैसे निर्णय हमारे लिए ही हुए हैं। कोई आदमियों को देखने की जरूरत नहीं; हम पहले से ही जानते हैं कि आदमी गलत है। बस थोड़ा सा सहारा चाहिए, बहाना चाहिए। हमने सब तैयार कर रखा है, खूंटी कहीं मिल जाए, हम टांग देंगे। हमारे निर्णय पूर्व-निर्मित हैं, और हम लोगों पर उन्हें टांगते रहते हैं।
जिस दिन आदमी अस्वीकार करना बंद कर देता है और जीवन के रहस्य को स्वीकार कर लेता है, और जान लेता है कि जो मेरी समझ में नहीं आता वह भी अस्तित्व को तो समझ में आता ही है, जो मुझे बुरा लगता है वह भी अस्तित्व को तो बुरा नहीं लगता इसीलिए है, जो मुझे स्वीकार नहीं है वह भी जीवन को स्वीकार है। जीवन मुझसे बड़ा है, मैं अपनी अस्वीकृति को हटा दूं; मैं अपने निषेध को अलग रख दूं; मैं निर्णय न लूं और मैं बिलकुल निष्पक्ष हो जाऊं; मैं कोई पक्ष न बनाऊं। ऐसा व्यक्ति एक क्रांति से गुजर जाता है। क्योंकि जैसे ही आप ये पक्ष बनाने, धारणाएं बनानी बंद कर देते हैं...।
आपको लगता है कि चोर बुरा है। लेकिन चोर इसलिए बुरा नहीं लगता कि चोरी बुरी है; चोर इसलिए बुरा लगता है कि आपको अपनी संपत्ति प्रिय है। उस तत्व को आप नहीं देखते कि चोर बुरा क्यों लगता है। संपत्ति प्रिय है! और इसलिए चोर का विरोध करना जरूरी है। क्योंकि आप कहते हैं, अगर सब ठीक है तो फिर कल कोई आपकी चीज उठा कर ले जाता है। आप जानते हैं कि मेरी चीज कोई उठा कर ले जाए तो मुझे बुरा लगता है। लेकिन फिर भी चोर का अस्तित्व है और यह बुरा लगना मेरी धारणा है। और यह धारणा बदल सकती है। व्यक्तिगत संपत्ति न रहे समाज में तो चोरी के बुरे होने की बात खत्म हो जाएगी।
एस्कीमो हैं साइबेरिया में। तो एस्कीमोज की एक व्यवस्था है। आप किसी एस्कीमो के घर में जाएं, वैसे ज्यादा एस्कीमो के पास कुछ होता नहीं, बहुत छोटी-मोटी चीजें, जीवन-चलाऊ, बामुश्किल कठिनाई से जीता है, लेकिन अगर आपको कोई चीज पसंद आ जाए तो एस्कीमो समाज की व्यवस्था है कि कोई कह दे कि तुम्हारा कोट बहुत अच्छा, तो उसी वक्त कोट भेंट कर देना है। तो एस्कीमो समाज में चोरी नहीं होती। चोरी का उपाय नहीं है। चीजें बहुत थोड़ी हैं, जीवन बहुत कठिन है और दरिद्र है। लेकिन यह नियम चोरी को काट डाला है। किसी के भी घर में कोई कह देगा कि यह कुर्सी मुझे पसंद पड़ गई, यह खाट मुझे अच्छी लग गई, यह कपड़ा बहुत प्यारा है, यह बर्तन तो बहुत सुंदर है, बस यह कहने का मतलब यह है कि उस आदमी की वासना पैदा हो गई और अब उसे न देने का अर्थ उसे चोर बनाना होगा; इसलिए उसे उसी वक्त दे देना। इसका परिणाम यह हुआ है कि एस्कीमो समाज में कोई चोरी नहीं हो सकती। चोरी का कोई उपाय ही नहीं है।
समाज बदले, धारणा बदले, तो चोरी...। चोरी एक व्यवस्था के अंतर्गत चलती है। आपकी धारणा अस्तित्व पर मत थोपें। इतना जानें कि मुझे अच्छा नहीं लगता कि कोई मेरी चीज ले जाए, इसलिए चोरी बुरी है। लेकिन अस्तित्व में क्या बुरा है? आदमी के साथ चोरी आई; पशुओं में तो कोई चोरी नहीं है। क्योंकि कोई निजी संपत्ति नहीं है। निजी संपत्ति होगी, चोरी पीछे आ जाएगी। तो निजी संपत्ति में ही चोरी छिपी हुई है। इसलिए प्रूधां का बहुत प्रसिद्ध वचन है: प्रापर्टी इज़ थेफ्ट। सब धन चोरी है। धन मात्र चोरी है। क्योंकि धन मेरा है, तो मैंने कब्जा किया है। और किसी की भी वासना उस पर पैदा होती है। और वासना पर किसी की भी तो मालकियत नहीं है।
आपकी मालकियत है वासना पर? एक मकान आप देखते हैं; क्या है आपका बल कि आप भीतर वासना को रोक दें? वासना उठती है कि यह मकान मेरा होता! चोरी शुरू हो गई। आप कमजोर हों, न कर पाएं, समाज का भय हो, अदालत का डर हो, और कारण हों, नीति का भय हो, नरक जाने का डर हो, भगवान दंड देगा उसकी कोई चिंता हो, और आप न कर पाएं, वह बात दूसरी है। लेकिन चोरी आपके भीतर शुरू हो गई। आपने दूसरे की चीज पर मालकियत शुरू कर दी। आप चाहते हैं; नहीं कर पाते हैं, बात दूसरी है।
तो दो तरह के चोर हैं। एक जो भीतर ही भीतर करते रहते हैं; एक जो बाहर कर लेते हैं। जो बाहर करते हैं, उनमें साहस ज्यादा होता है, मूढ़ता ज्यादा होती है, समझ कम होती है। सोच-विचार नहीं कर पाते, ज्यादा दूर का, क्या परिणाम होगा, इसका हिसाब नहीं लगा पाते। चालाक कम हैं, कनिंग कम हैं; गणित का उन्हें पता नहीं है। आप ज्यादा चालाक हैं, गणित लगा लेते हैं; भीतर-भीतर करते हैं, लेकिन बाहर कभी नहीं आने देते।
लेकिन निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। माना कि एक आदमी चोर है और मुझे चोरी पसंद नहीं है, तो भी वह चोर बुरा है, ऐसी धारणा बनाने की कोई जरूरत नहीं है। मुझे पसंद नहीं, इसलिए मुझे बुरा मालूम पड़ता है; लेकिन अस्तित्व में उसकी स्वीकृति है। परमात्मा उसे भी जीवन दे रहा है; उसकी श्वास में कोई बाधा नहीं डालता। और सूरज रोशनी कम नहीं देता और हवाएं उसको प्राणवायु नहीं रोकतीं। जीवन उसे स्वीकार किए हुए है। तो जिसे जीवन स्वीकार किए हुए है उसे मैं भी अस्वीकार न करूं।
ऐसी धारणा बढ़ती चली जाए तो अनूठी घटना घटती है। आपके भीतर से सब तनाव समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि तनाव धारणाओं के हैं; तनाव वह जो आपके भीतर बेचैनी है, चिंता है, वह इन धारणाओं के कारण है। वह क्षीण हो जाती है, और आप एक शांत मौन में प्रविष्ट होने लगते हैं।
उस प्रवेश में ही आपको, वह जो सर्वत्र प्रवाहित ताओ है, उससे संस्पर्श होता है।
"जब उसका काम पूरा होता है तब वह उन पर स्वामित्व नहीं करता।'
यह ताओ अस्वीकार नहीं करता किसी को। और जब इनमें से कोई जीवन अपने शिखर पर पहुंच जाता है और उसकी समग्रता खुल जाती है और प्रकट हो जाती है, तब भी ताओ उस पर दावा नहीं करता।
समझें। बुद्ध या महावीर परिपूर्णता को उपलब्ध हुए। परमात्मा चोर को इनकार नहीं करता, और परमात्मा ने फिर कोई घोषणा नहीं की कि बुद्ध को मैं स्वीकार करता हूं। परमात्मा ने कोई घोषणा नहीं की कि अब बुद्ध मेरे हो गए। उसने कोई स्वामित्व की घोषणा नहीं की। काम पूरा हो गया। बुद्ध वहां आ गए जहां उनकी चेतना अंततः आ सकती थी। वह हो गया जो हो सकता था; शिखर छू लिया गया; लेकिन कोई स्वामित्व का दावा नहीं है। और बड़े मजे की बात है कि बुद्ध तो कहते हैं कोई परमात्मा नहीं है। इस स्थिति में भी परमात्मा की कोई घोषणा नहीं है कि मैं हूं, कि तुम अब मेरे हुए, कि तुम पर अब मेरी मालकियत है। क्षुद्र का अस्वीकार नहीं है; श्रेष्ठ के ऊपर कोई स्वामित्व का दावा नहीं है। परमात्मा शून्यवत है। परमात्मा एक परम स्वतंत्रता है, जिसमें आप जो भी होना चाहें, हो सकते हैं। वह आपको न रोकता है, न धक्के देता है।
धर्म को इस भाषा में समझें कि धर्म है आपका परम स्वातंत्र्य। आप जो भी होना चाहें वह हो सकते हैं। परमात्मा के विपरीत भी जाना चाहें तो भी जा सकते हैं; तो भी उसका सहारा मिलता रहेगा। वह आपको अस्वीकार न करेगा। और उसके अनुकूल आना चाहें तो अनुकूल भी आ सकते हैं; तो भी वह स्वामित्व की घोषणा नहीं करेगा कि तुम अब मेरे हुए। उसकी तरफ से कभी भी कोई दावा नहीं किया जाता; अस्तित्व दावे से रहित है। यह बहुत सुखद है। यह अनूठी घटना है। इसकी कोई तुलना में दूसरी घटना जीवन में दिखाई नहीं पड़ती।
समझें, एक मित्र मेरे हैं। उनके एक लड़के की मृत्यु हो गई। लड़का मंत्री था, और मित्र सोचते थे कि जल्दी ही मुख्यमंत्री होगा। और आशाएं थीं कि कभी हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री भी होगा। लड़का मर गया तो भारी दुख में थे। आत्महत्या की दोत्तीन बार कोशिश की। कोशिश निश्चित ही अधूरी थी और आधे हृदय से थी; नहीं तो दोत्तीन बार करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। शायद वह भी एक दिखावा था। राजनीतिज्ञ हैं; राजनीतिज्ञ की किसी बात का कोई भरोसा नहीं। खुद बड़ा रोना-धोना करते थे।
तो मैंने उनसे पूछा कि इतने आप क्या परेशान हैं! और आपका दूसरा लड़का भी है। उनका दूसरा लड़का भी है। मैंने उनसे पूछा कि अगर यह दूसरा लड़का मर जाता तो आप इतने दुखी होते? मैंने कहा, ईमानदारी से ही मुझे जवाब देना। उन्होंने कहा कि दुखी नहीं होता, यह दूसरा लड़का मर जाता तो। क्योंकि इसे मैंने कभी चाहा ही नहीं। यह मुझे कभी स्वीकृत ही न हुआ। वह दूसरा लड़का साधारण है--उनकी भाषा में।
बाप को कोई बेटा साधारण तो नहीं होना चाहिए। लेकिन कौन बाप बाप होता है? असाधारण बेटा वह है जो मंत्री हो गया है; और यह बेटा साधारण है, क्योंकि दुकान करता है, धंधा करता है; साधारण है। इस दूसरे बेटे से अहंकार की कोई तृप्ति नहीं होती, इसलिए साधारण है। उस बेटे से अहंकार की तृप्ति होती थी। वह बाप की महत्वाकांक्षा था। बाप उसके कंधे पर बंदूक रख कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा था। वे खुद भी प्रधानमंत्री होना चाहते थे; वे नहीं हो सके। अब वे बेटे के द्वारा होने की कोशिश में लगे थे।
तो उन्होंने मुझसे कहा कि दूसरा बेटा मर जाता तो इतना दुख मुझे नहीं होता। वह स्वीकार नहीं था। और सच तो यह है कि वे चाहते नहीं कि कोई समझे कि वह उनका बेटा है, दूसरा। जब तक उनका पहला बेटा नहीं मर गया तब तक लोगों को पता ही नहीं था कि उनका दूसरा बेटा भी है। वे एक की ही बात करते थे।
परमात्मा, वह जो निकृष्टतम है, उसके विरोध में नहीं है, और वह जो श्रेष्ठतम है उसका भी दावेदार नहीं है। क्योंकि अस्तित्व की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। ऐसा नहीं है कि वह राम के पक्ष में हो और रावण के विरोध में हो। क्योंकि अगर दोनों उसी से पैदा होते हैं तो रावण का भी उसे अस्वीकार नहीं है और राम के होने में भी कोई गौरव और अहंकार नहीं है। उसका भी कोई दावा नहीं है।
इसका अर्थ यह हुआ कि परमात्मा या ताओ या धर्म परम स्वतंत्रता है। उसमें आप जो भी होना चाहें हो सकते हैं। होने का सारा जिम्मा आपके ऊपर है, सारा दायित्व आपके ऊपर है।
आप परमात्मा से विपरीत चलते हैं तो दुख पाएंगे। इस कारण बड़ा उपद्रव हुआ है। आप परमात्मा से विपरीत चलते हैं तो दुख पाएंगे; आप अनुकूल चलते हैं तो सुख पाएंगे। इस कारण दुनिया के बहुत से धर्मग्रंथ बड़ी भ्रांति पैदा कर दिए हैं। उन्होंने इसको ऐसा समझाना शुरू कर दिया कि जो उसके विपरीत चलेगा उसको वह दुख देता है और जो उसके अनुकूल चलेगा उसको वह सुख देता है।
यह बात बिलकुल गलत है। क्योंकि परमात्मा भी अगर विपरीत चलने वाले को दुख देता है तो अति साधारण मनोदशा हो गई; और अनुकूल चलने वाले को सुख देता है तो मनुष्य की साधारण बुद्धि से ज्यादा बुद्धि वहां भी न रही। प्रशंसा जो करता है, स्तुति जो गाता है, पैरों में जो पड़ता है, उसको आकाश में उठा देता है; और जो इनकार करता है और स्वीकार नहीं करता, और शराबखाने में बैठता है और मंदिर में नहीं जाता, उसको नरकों में डाल देता है। ईसाइयत, यहूदी और इसलाम, तीनों धर्मों ने एक नैसर्गिक घटना को मनुष्य की व्याख्या देकर बहुत विकृत कर दिया।
जब आप उसके अनुकूल नहीं चलते तो वह आपको दुख नहीं देता, आप दुख पाते हैं। इस फर्क को समझ लेना चाहिए। वह आपको दुख नहीं देता। अपनी तरफ से वह आपको कुछ भी देता-लेता नहीं है। जैसे आप आग में हाथ डालते हैं तो आप जल जाते हैं; आग आपको जलाती है, ऐसा मत कहिए। आप आग से दूर हाथ ले जाते हैं तो ठंडक मालूम होने लगती है; आप पास हाथ लाते हैं तो गर्मी मालूम होने लगती है। आग अपने स्वभाव से चलती रहती है। न आपको जलाने को उत्सुक है; न आपको न जलाने को उत्सुक है। आपसे आग को कुछ संबंध नहीं है। आग जल रही है; उसका स्वभाव है जलना। आप दूर और पास आते हैं तो ठंडक और गर्मी बढ़ जाती है।
परमात्मा का स्वभाव है स्वतंत्रता। आप दूर जाते हैं स्वतंत्रता से तो आप बंधन में पड़ने लगते हैं--बंधन से दुख। आप पास आते हैं तो आप खुलने लगते हैं--स्वतंत्रता का सुख। लेकिन यह सुख और दुख आपके आने-जाने पर निर्भर है। इसमें परमात्मा कुछ करता नहीं। इसमें कोई मोटिवेशन, परमात्मा की तरफ कोई हेतु नहीं है। परमात्मा न आपको सुख देता है, न दुख देता है; न स्वर्ग भेजता है, न नरक भेजता है। आप ही जाते हैं। ये आपकी ही यात्राएं हैं। इनसे उसका कोई भी संबंध नहीं है। हां, आप नरक जाते हैं तो वह रोकता नहीं; आप स्वर्ग जाते हैं तो वह खींचता नहीं। अस्तित्व आपके ऊपर जबरदस्ती नहीं करता।
और ध्यान रहे, अच्छा है कि अस्तित्व जबरदस्ती नहीं करता। क्योंकि अगर अस्तित्व जबरदस्ती करे तो शायद आप फिर कभी भी ठीक न हो पाएंगे। क्योंकि जैसे ही जबरदस्ती की जाती है वैसे ही चित्त प्रतिकूल जाने के लिए आतुर हो जाता है। अगर आपको जबरदस्ती स्वर्ग में भी भेजा जाए तो आप निकल भागने की कोशिश करेंगे। स्वर्ग सुख नहीं देता, जबरदस्ती दुख देती है। आप अपनी मौज से नरक में भी चले जाएं तो आपको वहां भी बड़ी शांति मिलेगी। आप खुद ही वहां चले गए हैं। और जिस चीज का भी निषेध किया जाए वहां जाने का मन होता है। और जहां भी जबरदस्ती लाया जाए वहां से हट जाने का मन होता है।
आप सबको अनुभव होगा कि कोई सुखद से सुखद चीज भी दुखद हो जाती है अगर जबरदस्ती की जाए, और दुखद से दुखद चीज भी सुखद हो जाती है अगर आपने ही उसे चुना है। क्योंकि सुख स्वतंत्रता में है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। आपने चुना है, इसलिए स्वतंत्रता है; दूसरे ने थोपा है तो परतंत्रता हो गई। परतंत्रता में दुख है; स्वतंत्रता में सुख है। क्यों? क्योंकि जितने आप स्वतंत्र होते हैं उतने आप भी परमात्मा जैसे हो जाते हैं। और जितने आप परतंत्र होते हैं उतने प्रतिकूल होते चले जाते हैं।
परमात्मा जीवन का नियम है। वह कोई व्यक्ति नहीं है जो आपको कुछ देगा। आप रास्ते पर चलते हैं। तिरछे चलते हैं, गिर पड़ते हैं, टांग टूट जाती है। तो आप ऐसा नहीं कहते कि ग्रेविटेशन ने मेरी टांग तोड़ दी, कि जमीन की कशिश ने मेरी टांग तोड़ दी। जमीन की कशिश को आपकी टांग से क्या लेना-देना? जमीन की कशिश कोई व्यक्ति तो नहीं है कि वहां बैठा देख रहा है कि यह देखो, तिरछा चल रहा है, इसकी तोड़ो टांग! यह आदमी बिलकुल सीधा चल रहा है, इसको कुछ पुरस्कार दो। वहां कोई नहीं है। कशिश एक नियम है, एक लॉ है।
ताओ का अर्थ होता है नियम। आप तिरछे चलते हैं; अपने ही कारण आप गिर जाते हैं। आप सीधे चलते हैं; अपने ही कारण आप चलते हैं। कशिश का प्रभाव तो नीचे बह रहा है; ग्रेविटेशन तो मौजूद है हमेशा।
परमात्मा जीवन का परम नियम है। जब आप प्रतिकूल चलते हैं, आप दुख अपने लिए पैदा कर लेते हैं; जब आप अनुकूल चलते हैं तब आप अपने लिए सुख पैदा कर लेते हैं। जब आपको सुख मिले तब आप समझना कि आप किसी न किसी कारण अनुकूल हैं; और जब आपको दुख मिले तो आप समझना कि आप किसी न किसी कारण प्रतिकूल हैं।
अगर आदमी सिर्फ सुखवादी भी हो जाए तो परमात्मा तक पहुंच जाए। लेकिन हम दुखवादी हैं। अगर आप अपने सुख को भी पहचानने लगें कि कब आपको सुख मिलता है, क्यों मिलता है; कैसी अवस्था होती है जब सुख मिलता है; आपके भीतर क्या होता है जिससे आप सुख के साथ टयून हो जाते हैं; अगर इतना भी आप समझ लें तो आपको कोई शास्त्र की जरूरत नहीं है, किसी गुरु की जरूरत नहीं है। सुख महागुरु है। आप सुख के सूत्र को पकड़ कर ही खोजते रहें, थोड़े दिन में ही आपको वह कुंजी हाथ में आ जाएगी जहां से आप परमात्मा को खोल लेंगे।
लेकिन आप दुखवादी हैं। आपको इसकी भी होश नहीं है जरा कि कब आपको सुख मिलता है, क्यों मिलता है, कहां से आता है, कैसी भाव-दशा होती है जब आपके भीतर सुख झलक आता है, कैसी आपके हृदय की धड़कन होती है, कैसी आपकी श्वास होती है, आप किस मुद्रा में होते हैं जब सुख आपके पास निकट आ जाता है, और आप किस मुद्रा में होते हैं जब सुख आपसे दूर छिटक जाता है।
अगर आप अपने सुख को ही पहचानने लगें तो काम पूरा हो गया। वही सुख की पहचान आपको पास लाने लगेगी। क्योंकि नियम केवल इतना ही है: जब भी आप उसके अनुकूल होते हैं, क्षण भर को भी, कभी-कभी तो दुर्घटना के कारण आप उसके अनुकूल हो जाते हैं। क्योंकि आप जैसे हैं आप प्रतिकूल ही चलते जाते हैं; कभी-कभी दुर्घटना के कारण, कभी-कभी संयोगवश, कभी आपने नहीं सोचा था तो भी, आप अनुकूल हो जाते हैं--अनुकूल होते ही झरोखा खुल जाता है और एक हवा, ठंडी हवा और नई ताजी हवा आपके भीतर भर जाती है। मगर आप अपनी पुरानी आदतों से ऐसे ग्रस्त हैं कि आप पहचान नहीं पाते। आप फिर सम्हल कर दुर्घटना के बाहर होकर अपने पुराने रास्ते पर चलने लगते हैं।
लोग कहते हैं, सुख क्षणिक है। इस कारण नहीं कि सुख क्षणिक है; इस कारण कि आपकी आदतें दुख की हैं। और दुख बहुत लंबा है। इसलिए नहीं कि दुख लंबा है; आप बड़े कुशल हैं। आप दुख पैदा करने में ऐसे कुशल हैं कि सुख की कैसी ही अवस्था हो, आप उसमें से दुख पैदा कर लेंगे।
सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन ज्यादा बीमार था। तो उसके चिकित्सकों ने उसे पहाड़ भेजा। पहाड़ से पांच-सात दिन बाद ही उसका तार आया अपने चिकित्सक के नाम: आई एम फीलिंग वंडरफुल; व्हाई? मैं बहुत आनंद में हूं; क्यों? इसका जवाब चाहता है वह।
आपको भरोसा भी नहीं आता जब आप सुख में होते हैं। आप भी पूछते हैं, कुछ गड़बड़ हो गई? क्या बात है, मैं और सुख में? यह हो ही नहीं सकता। दुख में आप बिलकुल तृप्त होते हैं। दुख में आप चलते हैं कि बिलकुल ठीक। रास्ता जाना-माना, सब पहचाना हुआ। यहां आप ठीक से यात्रा करते हैं। सुख में आप बिलकुल विचलित हो जाते हैं, आपकी समझ में नहीं आता। और जब तक आप दुख न बना लें...।
सुना है मैंने कि एक आदमी बहुत ज्यादा चिंतित, परेशान और हमेशा उलझा-उलझा और उदास रहता था। सलाह ली उसने, किसी मनोवैज्ञानिक को पूछा कि क्या करूं? तो उसने कहा कि तुम गलत पहलू देखते हो जिंदगी का, अंधेरा पहलू देखते हो; उजाला पहलू देखो। जिंदगी में रात ही रात नहीं है; दिन भी है। और कांटे ही कांटे नहीं हैं; फूल भी हैं। तुम जरा फूलों पर नजर ले जाओ। तुम्हारा जो पेसिमिज्म है, यह जो दुखवाद है, इसको छोड़ो। तुम ऑप्टिमिस्ट हो जाओ; तुम आशावादी हो जाओ। तो उस आदमी ने कहा, अच्छा, मैं कोशिश करूंगा।
उसने कोशिश शुरू कर दी और वह अपने संबंध में जो भी बातें करता सब में उसने आशावाद फैला दिया। कोई पूछता कि धंधा कैसा है? तो वह कहता है कि बहुत अच्छा है, और कल और अच्छा हो जाएगा। पत्नी कैसी है? तो वह कहता कि बहुत अच्छी है, और कल और बहुत अच्छी हो जाएगी। सब संबंध में वह अच्छी बातें करने लगा और आशा बताने लगा। लेकिन सब लोग परेशान हुए, वह चिंतित पहले से भी ज्यादा दिखाई पड़ता था।
तो आखिर लोगों ने पूछा कि मामला क्या है? तुम आशावाद की इतनी चर्चा करते हो, फिर भी तुम इतने चिंतित क्यों दिखाई पड़ते हो? उस आदमी ने कहा कि नाउ आई एम वरीड एबाउट माई ऑप्टिमिज्म। अब मैं अपने आशावाद के प्रति चिंतित हूं कि यह सब होने वाला नहीं है जो मैं कह रहा हूं। हालतें बहुत खराब हैं।
आदमी आदतों से जीता है। आपको सुख की कोई आदत नहीं है और दुख की मजबूत आदत है। इस आदत से घिरे हुए जब सुख के सामने भी आप खड़े होते हैं तो सुख भी कुछ कर नहीं पाता, आप इतने सख्त और मजबूत हैं; वह भी दुख जैसा ही आपको दिखाई पड़ता है। आप उसमें से भी दुख खोज लेते हैं। आप कुछ न कुछ निकाल ही लेते हैं जिससे दुख...। और फिर आप निश्चिंत हो जाते हैं।
लाओत्से के हिसाब में आप जब भी ताओ की तरफ गतिमान होते हैं तब सुख की वर्षा होने लगती है। तब स्वर्ग और पृथ्वी का मिलना होने लगता है; मीठी अमृत की झलक आपके ऊपर आने लगती है।
जब भी आपको कहीं भी सुख मिलता हो, चाहे वह सुख कितना ही धर्मगुरु कहते हों कि निकृष्ट है, मैं आपसे कहता हूं कि जहां भी आपको सुख मिलता हो, चाहे आप नरक में भी पड़े हों तो जब भी आपको सुख मिलता हो तब आप जानना कि किसी न किसी कारण परमात्मा से थोड़ा सा संबंध जुड़ गया है। चाहे जो आप कर रहे हों, वह बिलकुल पाप ही क्यों न हो, लेकिन उस पाप के बीच में भी आप किसी भी कारण से, जाने-अनजाने, परमात्मा से संयुक्त हो गए हैं। सुख तो सदा उससे ही मिलता है।
अगर यह आपको खयाल रहे तो आपने पाप से पुण्य का मार्ग खोज लिया, और आपने दुख से सुख की किरण पकड़ ली। और किरण हाथ में आ जाए तो सूरज बहुत दूर नहीं है। और किरण कितनी ही दूर हो, सूरज बहुत दूर नहीं है। किरण पकड़ में आ जाए और आप किरण के रास्ते पर ही चल पड़ें तो आप एक न एक दिन सूरज तक पहुंच जाएंगे।
"और जब उसका काम पूरा होता है, तब भी वह उन पर स्वामित्व नहीं करता।'
वह परम स्वतंत्रता है।
"असंख्य वस्तुओं को यह वस्त्र और भोजन देता है, तो भी उन पर मालकियत का दावा नहीं है।'
सारा जीवन उससे आता है। श्वास उससे चलती है, प्राण उससे धड़कता है; फिर भी उसका कोई दावा नहीं है।
"प्रायः यह चित्त या वासना से रहित है, ऐसा समझा जाता है, इसलिए तुच्छ या छोटा है।'
यह थोड़ा समझने की बात है। वह जो ताओ है, वह जो परम धर्म है जीवन का, न तो वहां कोई वासना है, न वहां कोई चित्त है, न कोई मन है, न कोई विकार है, न कोई विचार है। तो लोगों को लगता है कि यह ताओ तुच्छ और छोटी चीज है; क्योंकि हमारे लिए तो बड़प्पन अहंकार में है। हम तो एक ही बड़प्पन जानते हैं वह अहंकार का। और जहां अहंकार गौरवमंडित सिंहासनों पर नहीं पाया जाता वहां हमें लगता है सब क्षुद्र है। हम तो पूजा करते हैं सिर्फ अहंकार की। निश्चित ही, परमात्मा के पास कोई अहंकार नहीं हो सकता। होगा भी तो किसके विपरीत होगा? परमात्मा तो अति विनम्र है। अति विनम्र कहना भी ठीक नहीं है, इतना ही कहना चाहिए कि वहां कोई अहंकार नहीं है। अहंकार दूसरे के विपरीत खड़ा होता है; उससे दूसरा कोई भी नहीं है। तो अगर हमें ऐसा लगे कि उसकी न कोई महत्वाकांक्षा है, न कोई वासना है, न कोई चित्त है, तो हमें ऐसा लगेगा वह बहुत क्षुद्र है, छोटा है। क्योंकि बड़ा तो हमारे लिए महत्वाकांक्षी मालूम होता है।
अगर परमात्मा आपके बीच खड़ा हो तो आप उसे देख भी न पाएं, पहचान भी न पाएं। खड़ा ही है। लेकिन देख भी नहीं पाते, पहचान भी नहीं पाते, क्योंकि कठिनाई है। हम पहचानते उसको ही हैं जो अहंकार की घोषणा करता है और दावा करता है। चाहे धन के कारण दावा करे, चाहे ज्ञान के कारण दावा करे, चाहे पद के कारण दावा करे, जब कोई घोषणा करता है कि मैं कुछ हूं तभी हमें बड़ा मालूम पड़ता है। लेकिन परमात्मा की कोई घोषणा न होने से, लाओत्से कहता है, शायद हमें लगे कि वह तो छोटा है, क्षुद्र है।
"फिर सभी चीजों का, उन पर बिना दावा किए, आश्रय होने के कारण, उसे महान भी समझा जा सकता है।'
कोई उसे क्षुद्र समझ सकता है, क्योंकि कोई महत्वाकांक्षा का विस्तार नहीं है। और कोई उसे महान भी समझ सकता है, क्योंकि सब उसी का फैलाव है। और फिर भी सबका आश्रय होने पर भी उसकी कोई मालकियत की घोषणा नहीं।
"और चूंकि अंत तक वह महानता का दावा नहीं करता, उसकी महानता शाश्वत है, उसकी महानता सदा है।'
दावे खंडित किए जा सकते हैं। असल में, दावा करता ही वही है जिसे भय होता है। नहीं तो दावे का कोई सवाल नहीं है। जिस चीज का भी आप दावा करते हैं, आपने खयाल किया कि आप भयभीत होते हैं, इसीलिए दावा करते हैं। अगर आपको डर है तो आप दावे से डर को छिपाते हैं।
मैंने सुना है कि एक बड़े कुलीन परिवार में एक भोज का आयोजन था। और जो गृहपति था उसने एक प्रतिष्ठित महिला को अपने बाएं हाथ पर भोजन के समय बिठाया हुआ था। उस प्रतिष्ठित महिला को थोड़ी पीड़ा हो रही थी। जिस देश में यह भोज था वहां दाएं हाथ पर बिठाना ज्यादा सम्मानजनक समझा जाता था। तो उस महिला को बेचैनी हो रही थी कि उसे बाएं हाथ पर बिठाला गया; उसे ठीक जितनी प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए भोज में उतनी नहीं मिली। लेकिन कहे भी तो कैसे कहे? तो उसने फिर ढंग से बात की।
उसने मेजबान को कहा कि इतने लोग आए हैं भोजन के लिए कि अनेक बार आपको भी असुविधा होती होगी, अड़चन होती होगी, किसको कहां बिठाएं! बिठाने में बड़ी दिक्कत होती होगी; इतने लोग हैं और सभी को उनके सम्मानित पद पर बिठाना अड़चन की बात है। उस गृहपति ने कहा--उसका वचन बहुत मूल्यवान है--उसने कहा, दोज हू मैटर दे डोंट माइंड एंड दोज हू माइंड दे डोंट मैटर। जिनको खलता है उनका कोई मूल्य नहीं और जिनका मूल्य है उनको पता ही नहीं चलता कि उन्हें कहां बिठाया गया है।
आपको कहां बिठाया गया है, यह आपको पता ही तब चलता है जब आपको भीतर भय है, और आप आश्वस्त नहीं हैं अपने प्रति, कि आपकी जो गरिमा है उस पर आपको खुद भी भरोसा नहीं है। तो आप सुरक्षित करना चाहते हैं। जरा सी बात में आप बेचैन हो जाते हैं। कोई जरा सा हंस दे, और आपको तकलीफ शुरू हो जाती है। क्योंकि आपको खुद ही डर लगा हुआ है कि हालत तो ऐसी है कि लोग हंसने चाहिए। आप जानते हैं कि आपकी दशा कैसी है। उसको छिपाए हैं, सम्हाले हुए हैं। एक पोज है आपका व्यक्तित्व; एक मुद्रा है चेष्टित। उसमें सब तरफ से डर है कि कोई तोड़ न दे।
आप अपने ज्ञान को घोषित किए हुए हैं; आप खुद ही भयभीत हैं, आपको कुछ पता है नहीं। इसलिए कोई अगर जरा सा सवाल उठा दे तो मुश्किल खड़ी हो जाती है। या कोई जरा सा विरोध कर दे, या कोई खंडन कर दे, तो आप इतने ज्यादा जोर से हमला बोल देते हैं उस पर, सुरक्षा के लिए, क्योंकि डर है कि अगर जरा हमला हुआ ज्यादा तो आपकी रक्षा-पंक्ति टूट जाएगी।
इसलिए बुद्धिमान जो लोग हैं वे विवाद भी नहीं करते एक-दूसरे से; वे इस तरह की बातें नहीं उठाते जिनमें कि कोई विवाद हो जाए। इसलिए सबने सुविधाजनक बातें खोज रखी हैं: मौसम कैसा है? आपके बच्चे कैसे हैं? ये ऐसी बातें हैं जिनमें कि कोई जरा भी उपद्रव नहीं है; इनकी बातें करके और बच कर निकल जाना है। कोई ऐसी भी बात, जिससे कि कुछ टूट जाए, कोई विरोध हो जाए, खतरनाक है। आपको अपने पर आश्वासन नहीं है।
लेकिन परमात्मा को क्या कारण हो सकता है दावे का? आश्वस्त है।
रोम के एक चौरास्ते पर एक दिन ऐसा हुआ कि एक यात्री आया। रोम के उस चौराहे पर बारह भिखमंगे बैठे हुए थे। सब स्वस्थ मालूम पड़ते थे। शरीर अभी ठीक लगता था। तो यात्री को हुआ कि निश्चित ही अलाल हैं, भीख मांगने का धंधा कर रहे हैं। तो उसने खड़े होकर कहा कि यह जो सोने का सिक्का है, उसके लिए, जो तुममें सबसे ज्यादा अलाल हो। ग्यारह आदमी भाग कर आए और उन्होंने कहा कि मैं सबसे ज्यादा अलाल हूं। उसने कहा कि ठहरो, वह जो आदमी पीछे लेटा हुआ है यह रुपया उसके लिए है। पर उन्होंने कहा कि हम दावा कर रहे हैं, और आपने कहा जो सबसे ज्यादा अलाल हो! मैं कहता हूं कि मैं सबसे ज्यादा अलाल हूं, और सिद्ध कर सकता हूं। उसने कहा, सिद्ध करने का कोई सवाल नहीं है। दावा ही वह करता है जिसको भीतर सिद्ध नहीं है। वह आदमी सिद्ध अलाल है। उठ कर भी नहीं आया है, रुपया लेने भी नहीं आया है; कोई दावा ही नहीं किया कि मैं अलाल हूं। दावा क्या करना है? आश्वस्त है। और जब वह उसे रुपया देने गया तो उसने इशारा किया कि खीसे में!
आप जब आश्वस्त हैं तो न कुछ सिद्ध करने को है, न कुछ दावा करने को है। जब आप आश्वस्त नहीं हैं तब आप सिद्ध करते हैं, दावा करते हैं। इसलिए एक बहुत मजे की घटना घटी है कि दुनिया में सिर्फ उन लोगों ने ईश्वर को सिद्ध करने के प्रमाण दिए हैं, जिनको ईश्वर पर भरोसा नहीं था। जिन्होंने तर्क दिए हैं ईश्वर को सिद्ध करने के लिए वे संत नहीं हैं; उनको खुद ही पता नहीं है। वे आपको तर्क नहीं दे रहे हैं; वे खुद को ही तर्क दे रहे हैं।
पहली बार जब पाश्चात्य भाषाओं में उपनिषदों का अनुवाद हुआ तो वहां के विचारक भरोसा न कर सके कि इस तरह की किताबें--किस तरह की किताबें हैं ये! क्योंकि इनमें कोई तर्क नहीं है। ईश्वर है, इसकी सीधी चर्चा है; लेकिन इसका कोई तर्क नहीं है सिद्ध करने के लिए कि वह क्यों है। तो उन्हें लगा कि ये किताबें कविता की ज्यादा हैं, दर्शन की नहीं। क्योंकि वे जिन किताबों से परिचित हैं उन किताबों में तर्क दिए हुए हैं कि ईश्वर इसलिए है, ईश्वर इस कारण से है। उपनिषदों में कोई तर्क नहीं है। और मैं कहता हूं, इसीलिए उपनिषद धार्मिक किताबें हैं, क्योंकि तर्क देने का कोई सवाल ही नहीं है। उपनिषद के ऋषियों को आश्वासन है कि वह है। बात खतम हो गई है। इसे सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है; न कोई जरूरत है।
जब भी आप किसी चीज को सिद्ध करने के लिए चेष्टारत हो जाते हैं तब अपने भीतर खोजना, और आप पाएंगे कि आपका आश्वासन नहीं है। नास्तिक आस्तिकता को सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहते हैं; अधार्मिक धार्मिकता को सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहते हैं। जो आप नहीं हैं उसको ही सिद्ध करने की आप कोशिश में लगे रहते हैं। जो आप हैं उसको तो छिपाना पड़ता है; सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है।
लाओत्से कहता है, उसका कोई भी दावा नहीं है, महानता की कोई घोषणा नहीं है; और इसलिए उसकी महानता सिद्ध है, सदा उपलब्ध है।

अब पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें और फिर जाएं।
आज इतना ही।


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