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शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--041

सिद्धांत व आचरण में नहीं, सरल-सहज स्वभाव में जीना--प्रवचन--इकतालिसवां

अध्याय 19 : सूत्र 1

स्वयं को जानो

1. बुद्धिमत्ता को छोड़ो, ज्ञान को हटाओ,
और लोग सौ गुना लाभान्वित होंगे;
मानवता को छोड़ो, न्याय को हटाओ,
और लोग अपनों को पुनः प्रेम करने लगेंगे;
चालाकी छोड़ो, उपयोगिता को हटाओ,
और चोर तथा लुटेरे अपने आप ही लुप्त हो जाएंगे।

लाओत्से को समझने में जो बड़ी से बड़ी कठिनाई है, वह हमारे चिंतन की कोटियां हैं। चिंतन का जो ढंग हमारा है, लाओत्से को उसी ढंग से पकड़ना बहुत मुश्किल होगा। और लाओत्से का चिंतन का ढंग ही विपरीत है; उसका तर्क ही विपरीत है। वह दूसरे ही आयाम से जीवन को देखता है।
इसलिए आप जो प्रश्न भी पूछते हैं, वे लाओत्से से कम संबंधित और आपसे ही ज्यादा संबंधित होते हैं।
लाओत्से की दृष्टि को समझना हो, तो अपनी दृष्टि को थोड़ा छोड़ कर ही देखना पड़ेगा। अगर आप अपनी दृष्टि, अपने शब्द और अपने बंधे हुए खयालों से ही लाओत्से को देखेंगे, तो यह निर्णय करना तो बहुत मुश्किल है कि लाओत्से सही है या गलत, आप समझ भी नहीं पाएंगे कि वह क्या कह रहा है।
आपके चिंतन का जो ढंग है, उसे एक तरफ रखें, तो लाओत्से को समझ पाएंगे। फिर निर्णय आपके हाथ में है कि आप तय करें कि वह गलत है या सही। लेकिन समझने के पहले ही तय करना उचित नहीं है। और समझने में अड़चन है। और वह अड़चन यह है कि हमारा एक ढांचा है देखने का; लाओत्से उस ढांचे के बिलकुल प्रतिकूल है। जैसे हम हाथ से छूते हों और वह आंख से देखता हो; या जैसे हम आंख से देखते हों और वह कान से सुनता हो; और सारी भाषा अलग हो। जैसे मैंने कल कहा कि अगर चेतना बढ़ेगी, तो दूसरी तरफ अचेतना बढ़ जाएगी, मूर्च्छा बढ़ जाएगी। चेतना का जो भी अर्थ हमें पता है वह महावीर, कृष्ण और बुद्ध से हमें मिला है। वह अर्थ लाओत्से के साथ काम नहीं पड़ेगा। तो आपके मन में जो प्रश्न उठ आते हैं, वे प्रश्न आपके नहीं हैं। चिंतन की एक धारा आपके मन में है। तब हमें बड़ी घबड़ाहट होती है, इसका क्या मतलब हुआ?
इसका मतलब हुआ कि अगर एक महावीर चेतना को उपलब्ध हो जाएगा, परम चेतना को, तो महावीर के कारण एक व्यक्ति को परम अचेतना में पड़ना पड़ेगा! तो यह तो हिंसा हो गई। और महावीर को ऐसा करते हम सोच भी नहीं सकते कि उनके कारण कोई अचेतना में पड़ जाए। और यह बात अजीब सी लगती है कि कोई आदमी की चेतना बढ़े, तो किसी दूसरे को अकारण ही अचेतना में पड़ना पड़े, जिसका कोई संबंध नहीं है।
लेकिन अगर हम लाओत्से से पूछें, तो लाओत्से नहीं कहेगा कि महावीर की चेतना बढ़ गई। लाओत्से कहेगा, महावीर चेतना-अचेतना दोनों के पार हो गए। और जब कोई दोनों के पार हो जाता है, तो उसका कोई परिणाम, कोई रेखा जगत पर नहीं छूटती है। लाओत्से से हम पूछें, तो वह यह नहीं कहेगा कि कृष्ण जो हैं, परम चैतन्य पुरुष हैं। अगर वे परम चैतन्य पुरुष हैं, तो परम मूर्च्छित पुरुष उनको संतुलित करेगा ही। लाओत्से के हिसाब में वे चेतना-अचेतना के पार गए पुरुष हैं, अतिक्रमण कर गए, द्वंद्व के बाहर हो गए, द्वंद्वातीत हो गए। तब उनके कारण इस जगत में कहीं भी कोई रेखा नहीं पड़ेगी।
तो जो लोग द्वंद्व के भीतर हैं, वे तो संतुलन करेंगे ही। महावीर को इसलिए लाओत्से साधु नहीं कहेगा। क्योंकि साधु तो असाधु पैदा करेगा ही। साधु-असाधु द्वंद्व है; बुरा-भला द्वंद्व है। लाओत्से कहेगा, महावीर दोनों के पार हो गए। न अब वे बुरे हैं, न अब वे भले हैं। क्योंकि भले होने के लिए भी बुरे से तो जुड़ा ही रहना पड़ता है। भले होने का कोई अर्थ ही नहीं होता, अगर हम बुरे के साथ जोड़ कर न सोचें। भले हैं, क्योंकि झूठ नहीं बोलते; लेकिन झूठ से जोड़ना पड़ेगा। भले हैं, क्योंकि क्रोध नहीं करते; लेकिन क्रोध से जोड़ना पड़ेगा। भले हैं, चोरी नहीं करते; लेकिन चोरी से जोड़ना पड़ेगा। सब भलाई बुराई से जुड़ी हुई होगी। अगर महावीर को हम भला कहते हैं, तो महावीर द्वंद्व के बाहर नहीं हैं। और तब तो उनके द्वारा बुरा भी पैदा होगा। लेकिन महावीर भले नहीं हैं। महावीर बुरे भी नहीं हैं। ये दोनों कोटियां उनके ऊपर लागू नहीं होतीं। वे दोनों के बाहर हो गए।
हमें समझना कठिन पड़ेगा। क्योंकि हमने सोचने की एक धारा बना रखी है। हमने बुरे और भले में सबको बांट रखा है। तीसरी कोई कोटि नहीं है। और तीसरी कोटि ही असली कोटि है। उस तीसरी में जो प्रवेश करता है, वही जीवन की परम अवस्था को, जिसे लाओत्से ताओ कहता है, सहज धर्म को उपलब्ध हो जाता है।
तो हमारी सारी कठिनाई एक ही पड़ेगी बार-बार लाओत्से को समझने में। और वह यह कि आपकी एक बंधी हुई धारणा है। उसे एक तरफ रखें। जरूरी नहीं है कि उसे रखने से आप लाओत्से को सही ही मानें। लेकिन उसे एक तरफ रखें, ताकि लाओत्से को समझ सकें--वह क्या कह रहा है? फिर पीछे तय कर लेना कि वह सही है या गलत है।
और जहां तक मैं समझता हूं, जो समझ पाएगा कि वह क्या कह रहा है, वह कभी भी इस खयाल का नहीं हो सकता कि वह गलत कह रहा है। और जिसका यह खयाल हो कि वह गलत कह रहा है, उसका एक ही मतलब होता है कि वह समझ ही नहीं पाया कि लाओत्से क्या कह रहा है। उसके कहने का ढंग अलग है, उसकी पहुंच अलग है, उसके प्रकट करने का ढंग अलग है। अगर ढंग को आप जोर से पकड़ेंगे, तो मुश्किल में पड़ेंगे। और आदमी हमेशा मुश्किल में पड़ता रहा है। महावीर के कहने का ढंग एक है; बुद्ध का बिलकुल विपरीत है। कृष्ण एक ढंग से कहते हैं; क्राइस्ट बिलकुल दूसरे ढंग से कहते हैं। यह सारी दुनिया में इतने धर्मों का जो उपद्रव है, यह कहने के ढंग को न समझ पाने की भूल है। और अब तक मनुष्यता इतनी प्रौढ़ नहीं हो पाई कि हम शैलियों के भेद को, भाषाओं के भेद को सत्य का भेद न समझें।
महावीर से अगर पूछें कोई बात, तो महावीर की अपनी कहने की व्यवस्था है। होगी ही। बुद्ध की अपनी कहने की व्यवस्था है। और सत्य इतना बड़ा है कि बुद्ध और महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट, सबके लिए उसमें जगह है। हम सबका खयाल यह होता है कि सत्य बड़ी छोटी चीज है। जब हम उसमें बैठ गए, तो दूसरा उसमें कैसे बैठेगा? सत्य बहुत बड़ी चीज है, काफी जगह है। आपके जो प्रतिकूल है, उसको भी काफी जगह है वहां होने की। पर हम सबका खयाल यह होता है कि जब मैं ही बैठ गया सत्य पर, तो अब जगह कहां बची कि कोई दूसरा उस जगह में समा जाए। बाकी जो भी है, वह असत्य होगा। सत्य बड़ी घटना है। विपरीत को भी सत्य समा लेता है।
यह बड़े मजे की बात है कि असत्य बहुत छोटी चीज है, विपरीत को नहीं समा सकता। कभी आपने खयाल किया, अगर आप एक असत्य बोल रहे हैं, तो उसके विपरीत को आप कभी स्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि उसको स्वीकार करने का मतलब होगा, आपका असत्य टूट जाएगा। असत्य बड़ी संकीर्ण चीज है। उसमें ज्यादा जगह नहीं है। इसलिए जो असत्य बोलता है, वह किसी दूसरे को स्वीकार नहीं कर सकता। सत्य बहुत बड़ी घटना है। आप जो बोल रहे हैं, उससे बिलकुल विपरीत भी सत्य हो सकता है। और सत्य में दोनों के लिए जगह है। और परम सत्य को वही उपलब्ध होता है, जो सभी सत्यों के लिए जगह को देख पाता है।
लेकिन हम सब संकीर्ण होते हैं; अपनी दृष्टि से बंधे होते हैं। महावीर ने कहा है कि जब तक तुम दृष्टि से ऊपर न उठो, तब तक दर्शन को उपलब्ध न हो सकोगे। उलटी बात लगती है: दृष्टि से ऊपर न उठो, तब तक दर्शन को उपलब्ध न हो सकोगे। महावीर ने कहा है, सम्यक-दृष्टि वह है, जिसकी सब दृष्टियों से जो ऊपर उठ गया।
दृष्टि का मतलब होता है, मेरे देखने का ढंग। अगर मैं अपने देखने के ढंग से बंध गया हूं, तो आपके देखने के ढंग को मैं समझ ही न पाऊंगा। और अगर मेरे देखने के ढंग में कोई बंधन नहीं है, तो मैं सभी दृष्टियों को समझ पा सकता हूं। और तब एक दिन मुझे समझ में आ सकता है कि नदियां कितनी ही प्रतिकूल क्यों न बहती हों, वे सभी सागर में पहुंच जाती हैं। और तब मैं यह न कहूंगा कि जो नदी पूर्व की तरफ जा रही है, वह गलत है; क्योंकि मेरी नदी पश्चिम की तरफ जा रही है। तब मुझे सागर दिखाई पड़ेगा सभी नदियों से। लेकिन दृष्टि बंधी हो, तो बहुत कठिनाई हो जाती है। और तब हम समझ ही नहीं पाते। फिर तो सोचने का उपाय नहीं रह जाता।
लाओत्से कठिन है इस लिहाज से। क्योंकि उसकी सोचने की पद्धति, उसके देखने का ढंग, उसके बोलने की व्यवस्था अनूठी है। और इसीलिए उसे समझने में मजा भी है। अगर आप समझ पाए, तो आप विकसित हो जाएंगे, फैल जाएंगे, विस्तार होगा आपके बोध का। अगर आप न समझ पाए, तो संकीर्ण रह जाएंगे।
और सदा अच्छा है अपने से प्रतिकूल भाषा में सोचने वाले को समझना। जो आपकी ही भाषा में सोचता है, वह आपको बदल नहीं पाता, सिर्फ आपका संग्रह बढ़ाता है। आपके पास दस बातें थीं, बारह हो जाती हैं, पंद्रह हो जाती हैं। लेकिन जो आपसे भिन्न सोचता है, वह आपके लिए नया आकाश खोल देता है। सिर्फ बढ़ती नहीं होती, आपकी चेतना समृद्ध होती है।
तो लाओत्से को समझने के लिए थोड़ा अपनी दृष्टियों को एक तरफ रख देने की जरूरत है। नहीं तो आपकी दृष्टि प्रश्न खड़े करेगी, वे प्रश्न बेमानी हैं। क्योंकि वे समझ कर खड़े नहीं हो रहे हैं।
इस सूत्र को समझें, तो खयाल में आएगा।
"बुद्धिमत्ता को छोड़ो'
कठिन लगेगा। बुद्धिमत्ता को खोजो, यह समझ में आता है। बुद्धिमत्ता को छोड़ो! तीन शब्द हैं हमारे पास। एक शब्द है: इनफरमेशन, सूचना। दूसरा शब्द है: नालेज, ज्ञान। और तीसरा शब्द है: विजडम, बुद्धिमत्ता। अधिक लोग तो सूचना को ही ज्ञान समझते हैं, इनफरमेशन को ही नालेज समझते हैं। जितना ज्यादा जानते हैं, सोचते हैं, उतने ज्ञानी हो गए। मात्रा ही उन्हें गुण मालूम होती है, क्वांटिटी को वे क्वालिटी समझते हैं; कि अगर मैं हजार बातें जानता हूं, तो मैं ज्ञानी हो गया।
आप थोड़े बड़े कम्प्यूटर हो गए। आपकी स्मृति ज्यादा हो गई, संग्रह बढ़ गया, आप नहीं बढ़ गए। स्मृति ज्ञान नहीं है। सूचना ज्ञान नहीं है। सूचना बहुत हो सकती है; तब आदमी जानकार होता है, शिक्षित होता है। ज्ञानी नहीं होता।
लेकिन यह बहुत कठिन नहीं है। जगत में बहुत लोगों ने कहा है कि सूचनाओं को छोड़ो, ज्ञान को पाओ। सूचनाओं से कोई सार नहीं है। कितना भी इकट्ठा कर लोगे, उससे क्या होगा! और जो भी इकट्ठा है, वह उधार है। सब सूचनाएं उधार होती हैं। और ज्ञान होता है अपना। इसलिए उधार को छोड़ो और अपने अनुभव को उपलब्ध होओ। यह भी समझ में आ जाएगा।
लेकिन लाओत्से कहता है, ज्ञान भी छोड़ो। यह जानना भी छोड़ो। क्योंकि यह जानना और न जानना एक द्वंद्व है। यह भी एक संघर्ष है। यह भी छोड़ो
यह भी हम मान ले सकते हैं। बुद्ध ने भी कहा है, जान कर क्या होगा? शास्त्र जान लिए, तो क्या होगा? जानने का सवाल नहीं है, प्रज्ञा बढ़नी चाहिए; अंतर-बोध बढ़ना चाहिए। समझ, अंडरस्टैंडिंग बढ़नी चाहिए। बुद्धिमत्ता ज्ञान का सार है। जैसे फूलों को निचोड़ कर इत्र बन जाए, सार। ऐसे समस्त अनुभव, समस्त ज्ञान का जो सार है, वह बुद्धिमत्ता है। बुद्धिमत्ता एक सुगंध है। हजार ज्ञान निचुड़ें, तो बूंद भर बुद्धिमत्ता बनती है।
लेकिन लाओत्से कहता है, बुद्धिमत्ता भी छोड़ो। तो बहुत कठिन मालूम होता है। सूचना छोड़ें, समझ में आ सकता है; उधार है। ज्ञान भी छोड़ दें, समझ में आ सकता है; क्योंकि द्वंद्व है ज्ञान और अज्ञान का। यह बुद्धिमत्ता भी छोड़ दें, तो तत्काल हमारा मन कहेगा, पत्थर की भांति हो जाएंगे। फिर हममें और जड़ में फर्क क्या होगा? फिर आप जिस कुर्सी पर बैठे हैं, उसमें और आप में फर्क क्या होगा?
लेकिन हमारा यह जो मन सवाल उठाता है, यह लाओत्से को समझने में कठिनाई पैदा करेगा।
लाओत्से कहता है, बुद्धिमत्ता छोड़ो। इसका अर्थ क्या है? लाओत्से कहता है, जो चीज पकड़ी जा सकती है, छोड़ी जा सकती है, वह तुम्हारी है ही नहीं। जो तुम छोड़ ही न सकोगे, वही बुद्धिमत्ता है। बाकी तुम सब छोड़ो। जो तुम छोड़ सकते हो, छोड़ते चले जाओ। एक घड?ी ऐसी आएगी कि तुम कहोगे, अब मेरे पास छोड़ने को कुछ बचा ही नहीं--धन नहीं, मकान नहीं, जानकारी नहीं, स्मृति नहीं, ज्ञान नहीं, कोई बुद्धिमत्ता नहीं, कोई अनुभव नहीं। जिस क्षण तुम कह सकोगे कि अब मेरे पास कुछ भी नहीं है, जिसे मैं छोड़ सकूं; लाओत्से कहता है, इसे शब्द देना उचित नहीं, पर यही बुद्धिमत्ता है।
जिस बुद्धिमत्ता को छोड़ने से आप डरते हैं कि छोड़ने से मैं जड़ जैसा हो जाऊंगा, वह बुद्धिमत्ता है ही नहीं। ठीक से समझें, तो इसका अर्थ यह होता है कि जो छोड़ी ही नहीं जा सकती, वही बुद्धिमत्ता है। इसलिए लाओत्से बेफिक्री से कहता है, बुद्धिमत्ता छोड़ो। क्योंकि जो तुम छोड़ सकोगे, वह बुद्धिमत्ता नहीं थी। बुद्धिमत्ता, लाओत्से के हिसाब से, स्वभाव है। वह छोड़ा नहीं जा सकता। जो भी छोड़ा जा सकता है, वह स्वभाव नहीं है।
लाओत्से कहता है, आत्यंतिक रूप से वही बच जाए, जो मैं हूं। कोई संग्रह मेरे ऊपर न रहे। दूसरे का ज्ञान तो छोड़ ही दो; अपने ज्ञान को भी क्या ढोना, उसे भी छोड़ दो। दूसरे के अनुभव तो उधार हैं ही, अपने अनुभव भी मृत हैं। मैंने जो कल जाना था, वह आज मुर्दा हो गया। मैंने जो कल जाना था, उसका जो सार है, वह मेरी बुद्धिमत्ता है। वह भी अतीत हो गया, व्यतीत हो गया। छोड़ो उसे भी, राख है।
अंगार जलता है, तो राख इकट्ठी होती है। कभी आपने खयाल किया कि जो अभी राख है, वह भी थोड़ी देर पहले अंगार थी। कहीं बाहर से नहीं आई है, अंगार का ही हिस्सा है। लेकिन अगर अंगार को जलता हुआ रहना है, तो राख को छोड़ते जाना है।
लाओत्से कहता है, तुम्हारी बुद्धिमत्ता भी तुम्हारे स्वभाव पर राख है; तुमसे ही आती है। तुम अंगार हो। राख को भी झाड़ते चले जाओ। सिर्फ प्रज्वलित अग्नि रह जाए; सिर्फ तुम्हारा स्वभाव रह जाए। उस पर कुछ भी न हो। दूसरे के द्वारा डाली गई राख और अपने ही अंगार से पैदा हुई राख में भी क्या फर्क है? क्या इसी कारण कि यह राख मुझसे पैदा हुई है, प्यारी है, और इससे चिपके रहो।
आप पचास साल जीए हैं, तो पचास साल के अनुभव की राख आपके पास इकट्ठी हो गई है। इसमें जो आपने दूसरों से सीखा, वह सूचना है, इनफरमेशन है। इसमें जो आपने अपने से जाना, वह नालेज है, ज्ञान है। ज्ञान और सूचना, सब के तालमेल से जो निचोड़, जो एसेंस, जो सुगंध आपके भीतर पैदा हो गई, वह आपकी बुद्धिमत्ता है। लाओत्से कहता है, इसे भी छोड़ो। तुम सिर्फ वही रह जाओ, जो तुम हो--निपट तुम्हारे स्वभाव में। नेकेड नेचर, शुद्धतम वही रह जाए, जो है। इसको महावीर आत्मा कहते हैं। इसको बुद्ध शून्यता कहते हैं। ये शब्दों के फासले हैं। लाओत्से इसको सिर्फ स्वभाव कहता है; ताओ कहता है।
"छोड़ो बुद्धिमत्ता, ज्ञान को हटाओ! और लोग सौ गुना लाभान्वित होंगे।'
अगर लोग निपट अपने स्वभाव में थिर हो जाएं, तो उनके जीवन से दुख, पीड़ा, बेचैनी, बोझ, तनाव, चिंता, सभी विसर्जित हो जाएंगे; तब वे निर्दोष खिल जाएंगे अपने में। लोग लाभान्वित होंगे, अगर यह सारा ज्ञान, जानकारी, बुद्धिमानी, पांडित्य, यह सारा बोझ हट जाए। यह सारे अनुभव की शृंखला हट जाए और चेतना, आत्मा--या जो भी नाम हम देना पसंद करें--वह जो हमारे भीतर छिपा है सत्व, वह अपनी निजता में रह जाए, उसके ऊपर कुछ भी न हो, खाली, शुद्ध, जिसको हाइडेगर ने अभी-अभी प्योर बीइंग कहा है, उसकी ही बात लाओत्से कर रहा है, लोग हजार गुना लाभान्वित होंगे।
हम तो सोचते हैं, लोगों का जितना ज्ञान बढ़ेगा, अनुभव बढ़ेगा, जानकारी बढ़ेगी, बुद्धिमानी बढ़ेगी, उतना लाभ होगा। लाओत्से उलटी बात कह रहा है। असल में, जितना ज्ञान बढ़ेगा, जानकारी बढ़ेगी, बुद्धिमानी बढ़ेगी, उतना ही आपके स्वभाव पर पर्त दर पर्त राख इकट्ठी होती चली जाएगी। आपका अंगारा राख की पर्तों में खो जाएगा। खुद तक पहुंचना मुश्किल हो जाएगा। इतने वस्त्र हो जाएंगे शरीर पर कि शरीर तक पहुंचना मुश्किल हो जाएगा।
आमतौर से हर आदमी प्याज की गांठ की भांति है। पर्त-पर्त उखाड़ते चले जाएं, दूसरी पर्त निकल आती है। और उखाड़ें, तीसरी पर्त निकल आती है। आप अनुभव, ज्ञान, जानकारी, समझ, शिक्षा, संस्कार, सभ्यता, संस्कृति, इन सबकी पर्तों का एक जोड़ हैं। आप कहां खो गए हैं, कुछ पता नहीं है। आदमी अपने वस्त्रों में ही खो जाता है। लाओत्से कहता है, हटा दो सब वस्त्र! रह जाए वही, जिसे तुम हटा ही न सको। बस एक ही उसकी शर्त है कि जिसे तुम हटा ही न सको, वही रह जाए। तब तुम वस्तुतः लाभान्वित होओगे। अन्यथा बड़ी से बड़ी हानि जगत में एक ही है--स्वयं को खो देना।
इस सूत्र का नाम है: स्वयं को जानो। अंग्रेजी में नाम और भी सुंदर है: रियलाइज दि सिंपल सेल्फ। "सिंपल' विचारणीय है--सरल, सहज। स्वयं को जानो में थोड़ी सी असहजता है।
जीसस या सुकरात शब्द का उपयोग करते हैं: नो दाई सेल्फ--स्वयं को जानो। उपनिषद उपयोग करते हैं: स्वयं को जानो, आत्मविद बनो। लाओत्से कहता है: दि सिंपल सेल्फ। अध्यात्मवादियों की आत्मा नहीं, सिद्धांतवादियों की आत्मा नहीं, ज्ञानियों की, पंडितों की आत्मा नहीं, दि सिंपल सेल्फ, वह सरल सी आत्मा जो अज्ञानियों के भीतर भी है। कोई बड़े सिद्धांत की, शास्त्र की बात नहीं, सरलतम तुम जो हो--नग्न, सहज--वही, उसे ही जानो। लेकिन उसे जानना हो, तो तुम जो भी जानते हो, उसे हटाओ। जो भी अब तक जाना है, उसे अलग कर दो। सब प्याज के छिलके अलग निकाल डालो। जब निकालने को कुछ भी न बचे, शून्य रह जाए, तभी तुम जानना कि अब सहज स्वभाव, सिंपल सेल्फ के करीब आए।
"ज्ञान को हटाओ, और लोग सौ गुना लाभान्वित होंगे। मानवता को छोड़ो, न्याय को हटाओ; और लोग अपनों को पुनः प्रेम करने लगेंगे।'
अक्सर ऐसा होता है कि जो आदमी किसी को भी प्रेम नहीं कर पाता, वह मानवता को प्रेम करने लगता है। एक आदमी को प्रेम करना बहुत मुश्किल है, मनुष्यता को प्रेम करना बहुत आसान है। पड़ोसी को प्रेम करना बहुत मुश्किल है; मनुष्य-जाति को प्रेम करना बहुत आसान है। एक व्यक्ति को प्रेम करो, तो झंझटें शुरू होती हैं; मनुष्यता को प्रेम करने में कोई भी झंझट नहीं है। मनुष्यता है ही कहां? मनुष्य हैं, मनुष्यता तो कहीं भी नहीं है। और जहां भी जाएंगे, मनुष्य मिलेगा; मनुष्यता तो कहीं मिलेगी नहीं। मनुष्यता तो एक एब्सट्रैक्ट, एक खयाल है। खयाल को प्रेम करना बहुत आसान है। भारत-माता को प्रेम करना हो, मजे से करो; अपनी मां को प्रेम करना बहुत मुश्किल है, बहुत मुश्किल है। क्योंकि दूसरी तरफ जीवित व्यक्ति है। और किसी भी जीवित व्यक्ति से संबंधित होना हो, तो झंझट है, कलह है, उपद्रव है। बहुत कठिनाई है। शब्द को प्रेम करने में कोई कठिनाई नहीं है।
इसलिए अक्सर जो मानवतावादी हैं, जो कहते हैं पूरी मनुष्यता को प्रेम करते हैं, अगर उनके जीवन में तलाश करें, तो पाएंगे कि वे एक भी व्यक्ति को प्रेम करने में सफल नहीं हो पाए। और तब उन्होंने एक सपने को, एक शब्द को, एक आदर्श को प्रेम करना शुरू कर दिया। उस आदर्श के साथ, उस शब्द के साथ, स्वप्न के साथ कोई अड़चन नहीं है, कोई दुविधा नहीं है, कोई जटिलता नहीं है।
लेकिन एक बड़ा धोखा है; क्योंकि मानवता को प्रेम किया ही नहीं जा सकता, मनुष्यों को ही प्रेम किया जा सकता है। प्रेम तो एक यात्रा है। और प्रेम तो एक निखार है प्रतिपल, कसौटी है, एक आग है, जिसमें से गुजरना है। लेकिन मानवता है, वहां फिर कोई आग नहीं है। दूसरी तरफ कोई है ही नहीं, आप अकेले हैं। उचित हो यह कहना कि हमने प्रेम ही नहीं किया किसी को। मनुष्यता को प्रेम किया, तो धोखा है। नहीं प्रेम किया, इस बात को छिपाने की तरकीब है कि मनुष्यता को प्रेम किया। अक्सर ऐसा होता है कि जो एक व्यक्ति को प्रेम नहीं कर सकते, वे ईश्वर को प्रेम कर लेते हैं। हालांकि व्यक्ति को भी प्रेम करना जिनकी सामर्थ्य नहीं है, वे ईश्वर को प्रेम नहीं कर पाएंगे। ईश्वर का प्रेम व्यक्तियों के प्रेम से बचने का उपाय नहीं है; ईश्वर का प्रेम व्यक्तियों के प्रेम की ही गहनता का अंतिम फल है। एक व्यक्ति को कोई प्रेम करे और इतना प्रेम करे, इतना प्रेम करे कि व्यक्ति एक द्वार बन जाए और मिट जाए और अनंत व्यक्ति में से झांकने लगे, तो ईश्वर आ गया द्वार पर!
लेकिन हर व्यक्ति तो बंद दरवाजा है। वहां से दीवार है, वहां तो कोई द्वार मिलता नहीं, वहां प्रवेश हो नहीं सकता। एक आदमी आंख बंद करके ईश्वर को प्रेम करता है। यह ईश्वर इस आदमी की कल्पना में ही है, और कहीं भी नहीं। ईश्वर चारों तरफ मौजूद है। लेकिन हम जहां से भी उसे छुएंगे, वहीं व्यक्ति मिलेगा। अगर कोई सोचे कि निर्व्यक्ति ईश्वर को प्रेम करना है, तो वह अपने को धोखे में डाल लेगा। वह प्रेम के अभाव को परमात्मा का प्रेम समझ कर भूल में पड़ सकता है, वंचना में पड़ सकता है।
लाओत्से कहता है, छोड़ो मानवता को, ताकि मनुष्य के प्रति प्रेम हो सके। छोड़ो बड़े सिद्धांत; वह तुम्हारी पात्रता नहीं है। छोड़ो दूर की बातें; ताकि निकट से प्रेम हो सके।
और चलना हो किसी को, तो निकट से चलना पड़ता है। अगर मुझे यात्रा करनी है, तो मुझे पहला कदम तो अपने पास ही उठाना पड़ेगा। हजार मील दूर की मंजिल से तो कदम नहीं उठाए जा सकते; वहां तो मैं हूं नहीं। मैं जहां हूं, वहां से मुझे यात्रा करनी होती है। प्रेम का भी कदम उठाना हो, तो मुझे अपने पास ही उठाना पड़ता है। धर्म का भी कदम उठाना हो, तो मुझे पास ही उठाना पड़ता है।
एक आदमी कहता है कि नहीं, आदमियों को मैं प्रेम नहीं कर सकता, मैं तो मनुष्यता को प्रेम करूंगा। यह मंजिल से यात्रा शुरू कर रहा है। जहां यह है ही नहीं, वहां से यह यात्रा शुरू कर रहा है। एक आदमी कहता है, मैं तो ईश्वर को प्रेम करूंगा। ईश्वर ही मिल गया होता, तो ईश्वर को प्रेम करने की अब कोई जरूरत न थी। और जो मिला ही नहीं है, उसे प्रेम कैसे करिएगा? जिसे जाना नहीं, उसे प्रेम कैसे करिएगा? लोग कहते हैं कि प्रेम करके हम ईश्वर को जान लेंगे। लेकिन जिसे जाना नहीं, उसे प्रेम कैसे करिएगा? जिससे कोई परिचय नहीं, जिससे कोई मिलन नहीं, उसे प्रेम कैसे करिएगा? तो हमारा प्रेम कहीं धोखा न हो! जिन्हें हम जानते हैं, उनसे बचने का उपाय न हो! जिन्हें हम प्रेम कर सकते हैं, कहीं उनसे भाग जाने की विधि न हो!
ईश्वर को प्रेम किया जा सकता है; विराट को प्रेम किया जा सकता है; लेकिन यात्रा सदा ही निकट से शुरू करनी पड़ती है। आकाश में भी जाना हो, तो घर की अपनी सीढ़ी पर ही पहला पैर रखना पड़ता है। दूर जिन्हें जाना है, उन्हें समीप से शुरू करना पड़ेगा। अंतिम कदम पहले कदम से ही शुरू होता है। अंतिम कदम से कोई यात्रा शुरू नहीं होती।
लेकिन सिद्धांत हमें अंतिम कदम को पहले पकड़ा देते हैं। हम सबके मन में ऊंचे शब्द हैं। और लाओत्से दुश्मन है शब्दों का। हम सबके मन में बड़े अच्छे सिद्धांत हैं। सिद्धांतों की कोई कमी नहीं है हमारे मन में। हम नरक में हों भला, हमारे पास स्वर्ग के शब्द हैं। और हम इन शब्दों को जोर से पकड़ते हैं। क्योंकि हमें डर भी लगता है कि अगर ये शब्द भी हम से छूट गए, तो नरक, जिसमें हम खड़े हैं, वह साफ-साफ दिखाई पड़ने लगेगा। नरक दिखाई न पड़े, इसलिए हम स्वर्ग के शब्दों की चर्चा में तल्लीन रहते हैं। नरक को भुलाने के लिए हम शब्दों का जाल बिछाए हुए हैं अपने चारों तरफ। नरक में खड़े हुए ईश्वर की बातें करते रहते हैं। वे ईश्वर की बातें सिर्फ भुलावा हैं।
लाओत्से कहता है, छोड़ो इन शब्दों को! छोड़ो यह ज्ञान, छोड़ो ये शास्त्र! अगर प्रेम नहीं है जीवन में, हर्ज नहीं कोई; लेकिन मनुष्यता को प्रेम मत करो।
यह बहुत मजे की बात है, और गहरी है। आदमी बिना प्रेम किए तो रह नहीं सकता। अगर उसे पता चल जाए कि मनुष्यता को मैं प्रेम कर नहीं सकता और मनुष्य को मैं प्रेम कर नहीं पाता हूं, तो उसके जीवन में पहली दफा क्रांति शुरू होगी। एक इतनी बेचैनी शुरू होगी, एक ऐसा संताप शुरू होगा कि उस संताप से ही, उस अग्नि से ही रूपांतरण हो जाएगा। लेकिन एक आदमी पड़ोसी को तो प्रेम कर नहीं सकता, कर नहीं पाता, ईश्वर को प्रेम करता रहता है। तो खाली जगह पैदा नहीं होती, जिसमें क्रांति हो जाए। ऐसा लगता है कि प्रेम तो कर रहा हूं। अगर यह पता चल जाए कि ईश्वर को प्रेम मैं कर कहां सकता हूं! कर सकता हूं पड़ोसी को, और पड़ोसी को कर नहीं पाता हूं। इसे थोड़ा ठीक से समझें। अगर पड़ोसी को प्रेम करना हो, तो आपको अपने को बदलना पड़ेगा। ईश्वर को प्रेम करना हो, तो कुछ भी बदलने की जरूरत नहीं है। अगर मनुष्यता को प्रेम करना हो, तो आप जैसे हैं, वैसे ही योग्य हैं। कोई शर्त नहीं है, कोई पात्रता नहीं है। एक छोटे से बच्चे को प्रेम करें, और आपको बदलना पड़ेगा। एक छोटे से बच्चे का प्रेम से हाथ हाथ में ले लें, और आपकी पूरी जिंदगी आपको बदलनी पड़ेगी। आप वही आदमी नहीं हो सकते। प्रेम आग है; वह आपको बदल ही डालेगी। और अगर कोई प्रेम आपको नहीं बदल रहा है, तो उसका मतलब यह है कि आप सिर्फ खयाल में हैं; कोई प्रेम नहीं है।
लाओत्से कहता है, हटाएं बड़े शब्दों को। मानवता, ईश्वर, विराट--हटा दें। अनुभव करें कि कोई प्रेम आपके जीवन में नहीं है। और ध्यान रहे, लाओत्से की कीमिया, उसकी अल्केमी यही है कि खाली तो प्रेम के बिना आप नहीं रह सकते। अगर आप अपने को धोखा न दें, तो जो निकट है, उसे आपको प्रेम करना ही पड़ेगा।
इसलिए वह कहता है, "मानवता को छोड़ो, न्याय को हटाओ; और लोग अपनों को पुनः प्रेम करने लगेंगे।'
अपनों को पुनः प्रेम करने लगेंगे! आज अपनों को कोई प्रेम करता ही नहीं है।
मैं पढ़ रहा था, फोर्कविथ ने लिखा है कि अंतर्राष्ट्रीयतावादी वह है, जो अपने देश को छोड़ कर और सब देशों को प्रेम करता है। मानवतावादी भी वह है, जो अपने निकट के लोगों को छोड़ कर दूर के लोगों को प्रेम करता है।
दूर में अड़चन ही नहीं है कोई। क्या अड़चन है? आपके दरवाजे पर एक भिखारी भूखा बैठा हो, तो कोई अड़चन नहीं आती; बंगला देश में कोई भूखा है, तो आप बड़े बेचैन होते हैं। बहुत मजेदार बात है। आपकी सड़क पर कोई मरा हुआ पड़ा हो, तो कोई हर्ज नहीं है। वियतनाम में कोई मर गया, तो आप पर बड़ा आध्यात्मिक संकट आ जाता है! क्या, हो क्या गया है आदमी को? यह दूर इतना क्यों आकर्षित करता है?
यह इसलिए आकर्षित करता है कि दूर के लिए सदा आप दूसरों को जिम्मेवार ठहरा सकते हैं। आपकी सड़क पर जो आदमी भूखा मर रहा है, उसके लिए आप जिम्मेवार ठहरेंगे। बंगला देश में कोई मर रहा है, तो भुट्टो होंगे जिम्मेवार, कोई और होगा जिम्मेवार; आप नहीं। वियतनाम में कोई मरता है, तो अमरीका होगा जिम्मेवार, निक्सन होंगे जिम्मेवार; आप नहीं।
टाल्सटाय ने लिखा है कि मेरी मां बड़ी दयालु थी। उसकी दया का अंत नहीं था। शाही परिवार था। टाल्सटाय शाही ज़ार परिवार का आदमी था। मां काउंटेस थी। टाल्सटाय ने लिखा है कि मां की ऐसी दया की हालत थी कि नाटक देखते वक्त उसकी आंखें सूज जाती थीं रो-रो कर। दो नौकरानियां दोनों तरफ आंसू पोंछने के लिए रूमाल बदलती रहती थीं। उसके हृदय पर ऐसे आघात होते थे नाटक में। नाटक में कोई भूखा मर रहा है, किसी के मकान में आग लग गई, किसी को उसके प्रेम में असफलता मिली, और वह जार-जार हो जाती थी।
और टाल्सटाय ने लिखा है कि बाहर हमारा जो कोच, जिस पर हम बैठ कर बग्घी पर जाते थे, बर्फ पड़ती रहती मास्को में, और अक्सर ऐसा होता कि हमारा जो कोचवान होता, वह बर्फ में गल कर, दब कर मर जाता। जब बाहर काउंटेस मेरी मां आती, देखती कि कोचवान मर गया, उसको हटा कर, फेंक कर सड़क के किनारे, दूसरा कोचवान रख कर वह कोच चल पड़ती। और मेरी मां अपने आंसू पोंछती रहती--नाटक में जो हुआ था।
टाल्सटाय ने लिखा है कि उसी दिन से मुझे पता चला कि आदमी कैसा धोखा दे सकता है!
निकट बिलकुल नहीं दिखाई पड़ता। निकट के प्रति एकदम अंधे हैं, बहरे हैं। दूर के प्रति बड़े सचेत हैं। क्या इस टाल्सटाय की मां को यह दिखाई नहीं पड़ता होगा कि यह आदमी मर गया? लेकिन कोचवान भी कहीं आदमी होता है? और जो नाटक में रो सकती थी, बड़ी हैरानी मालूम पड़ती है कि उसको खयाल में नहीं आता होगा!
नहीं, खयाल में नहीं आएगा। असल में, नाटक में रोना एक बचाव है। जो नाटक में रो सकते हैं, वे जिंदगी में बिलकुल बधिर और अंधे होंगे। असल में, नाटक में रोकर वे अपना रोना निकाल लेते हैं। और वह रोना बिना खर्च के है, सस्ता है। क्योंकि कोचवान के लिए रोना मंहगा पड़ेगा, और कुछ करना पड़ेगा। आदमी ने बड़ी व्यवस्था की है। दूर के प्रति सिद्धांत निर्मित करके वह पास के प्रति जिम्मेवारी से बच गया है। इतनी गहन बेईमानी है इसमें कि जिसका कोई हिसाब नहीं है।
लाओत्से कहता है, छोड़ो मानवता, छोड़ो न्याय; और लोग अपनों को पुनः प्रेम करने लगेंगे। यह जीवन को बिलकुल दूसरे ही ढंग से देखने की व्यवस्था है। लाओत्से कहता है, छोड़ दो फिक्र दूर की। अगर प्रेम निकट है, तो कभी दूर भी फैल सकता है। एक पत्थर को हम फेंक देते हैं पानी में। लहर उठती हैं पास; फिर फैलती चली जाती हैं दूर। कोई ऐसा पत्थर आपने फेंकते देखा कि लहरें पहले उठें दूर और फिर आती चली जाएं पास? जिस दिन ऐसा आप पत्थर फेंक सकें, उस दिन लाओत्से गलत हो जाएगा। उसके पहले गलत नहीं हो सकता।
जीवन के तो नियम हैं। यहां सभी कुछ पास से शुरू होता है। अगर मेरे हृदय में प्रेम है, तो उसकी पहली लहर मेरे पास के लोगों को छुएगी। अगर मेरे हृदय में तरंग उठी है प्रेम की, तो जो मेरे निकटतम है, वह पहले आंदोलित होगा; उसको मेरा प्रेम पहले छुएगा। और अगर मेरे प्रेम की लहर इतनी बड़ी है कि उसके पार भी जा सके, तो उससे जो दूर है, उसको छुएगी। अगर और बड़ी है, तो और दूर। अगर मेरा प्रेम इतना बड़ा है कि सारे संसार को पार करके परमात्मा तक पहुंच सके, तो ही मेरा प्रेम उसके चरणों में निवेदित हो सकता है। उसके पहले नहीं।
लेकिन मैं हूं कंजूस। मैं सोचता हूं, यहां फालतू आदमियों में प्रेम खर्च करके क्या है सार? बचा कर रखूं; परमात्मा के चरणों में ही सीधा चढ़ा दूंगा। मात्रा भी ज्यादा होगी, लाभ भी ज्यादा मिलेगा।
लेकिन परमात्मा के चरणों तक पहुंचने का उपाय ही नहीं है। और प्रेम कोई संपदा नहीं है कि उसे बचाया जा सके। प्रेम एक ग्रोथ है, एक विकास है; जो जितना करता है, उतना ज्यादा प्रेम हो जाता है। जो जितना करता है, उतना ज्यादा हो जाता है। प्रेम कोई संपत्ति नहीं है कि खर्च हो जाए। प्रेम कोई संपत्ति होती, तो मैं जितना बांट दूं, उतना कम हो जाएगा। परमात्मा के दरवाजे पर पहुंचूंगा भिखारी की तरह। क्योंकि वह तो मैं पहले ही बांट चुका; जो रास्ते में मिले, उन्हीं को दे दिया। तो फिर बचाना जरूरी है।
लेकिन प्रेम संपदा नहीं है। प्रेम तो वैसे ही है, जैसे जीवन की और सब गहन क्रियाएं हैं। आप श्वास लेते हैं। जितनी ज्यादा श्वास लेते हैं, उतने जीवंत हो जाते हैं। जितने पैर चलते हैं, उतनी चलने की क्षमता बढ़ जाती है। जितनी आंख देखती है, उतनी देखने की क्षमता बढ़ जाती है। जितना आप प्रेम करते हैं, उतना प्रेम बढ़ जाता है। ये क्षमताएं हैं--विकासमान। ये कोई जड़ संपदाएं नहीं हैं कि इनमें कुछ कमी हो जाए। ऐसा मत सोचिए कि दौड़ेंगे, तो फिर आपकी चलने की क्षमता कम हो जाएगी, संपत्ति चुक जाएगी। जो जितना दौड़ेगा, उतना ज्यादा दौड़ सकेगा। जो जितना ज्यादा प्रेम करेगा, उतना ज्यादा प्रेम कर सकेगा। यह हर बार बढ़ता चला जाएगा। और हर बड़ी लहर और बड़ी लहर को जन्म दे जाएगी।
परमात्मा के चरणों तक तो वही आदमी पहुंच पाता है, जो इतना प्रेम करता है, इतना प्रेम करता है कि उसके प्रेम की लहरें उठती ही चली जाती हैं। और कोई उसके प्रेम को चुका नहीं पाता। सबको उसका प्रेम पार करके निकल जाता है। सब उसके प्रेम में नहा जाते हैं। लेकिन उसका प्रेम चुकता नहीं, और बढ़ता जाता है। एक दिन वह प्रेम विराट के चरणों को भी स्पर्श कर लेता है। जो कंकड़ छोटा सा हमने फेंका था सागर में, वह किसी दिन सागर के अनंत तटों को भी स्पर्श कर सकती है उसकी लहर। लेकिन वह कंकड़ डर जाए और सोचे कि छोटा हूं कंकड़, अपनी ताकत कितनी, बिसात क्या, एकाध-दो लहरें उठ भी सकती हैं, बचा कर रखूं; तभी उठाऊंगा, जब तट पर पहुंच जाऊंगा। फिर वे लहरें कभी भी नहीं उठेंगी
लाओत्से कहता है, छोड़ो मानवता, छोड़ो न्याय।
ध्यान रहे, लाओत्से न्याय के बहुत खिलाफ है, जस्टिस! हैरानी लगती है। क्यों, न्याय के इतने क्यों खिलाफ है? हम तो कहते हैं, फलां आदमी बड़ा न्यायपूर्ण है। और हमें खयाल भी नहीं है...।
इसे थोड़ा हम समझें। ईसाई कहते हैं कि ईश्वर न्यायपूर्ण, प्रेमी, दयालु है। लाओत्से बहुत हंसेगा, अगर उसको पता चल जाए। क्योंकि लाओत्से कहता है कि जो प्रेमी है, वह दयालु नहीं हो सकता। और जो प्रेमी है, वह न्यायविद भी नहीं हो सकता, न्यायी भी नहीं हो सकता।
इसे हम थोड़ा समझें। अगर परमात्मा न्यायपूर्ण है, जस्ट है, तो दयालु नहीं हो सकता। कैसे दयालु होगा? तब जिसको जो दंड मिलना चाहिए, वह मिलना चाहिए; दया का कोई सवाल नहीं है। जिसको नरक में पड़ना चाहिए, पड़ना चाहिए; दया का कोई सवाल नहीं है। और अगर परमात्मा दयालु है और वह आदमी भी स्वर्ग में प्रवेश कर जाता है जिसे नरक में होना चाहिए था, तो फिर जो नरक में पड़ गए हैं, उनके साथ बड़ी अदया हो रही है। तब तो इसका मतलब यह हुआ कि परमात्मा प्रशंसकों को, खुशामदियों को स्वर्ग में जगह दे देता है।
जैनियों ने इसीलिए परमात्मा को बीच से हटा दिया है। वे कहते हैं, सीधा कर्म! नहीं तो बीच में गड़बड़ होगी। तुमने बुरा किया है, बुरा फल मिलेगा; कोई बीच में निर्णायक नहीं है, कर्म स्वयं ही अपना निर्णायक है। क्योंकि वे कहते हैं, अगर बीच में हम किसी व्यक्ति को रखें, तो कठिनाई होगी। क्योंकि व्यक्ति कभी दया भी खा सकता है, कभी प्रेम में भी पड़ सकता है। कभी रहम, कभी बेरहम हो सकता है। अपनों पर, परायों पर कुछ भेद हो सकता है। और जैन कहते हैं कि अगर परमात्मा ऐसा है कि वह दया नहीं करता, कोई प्रेम नहीं करता, तो उसे बीच में रखने की जरूरत भी क्या है? फिर तो कानून काम करता है। आग में हाथ डालोगे, हाथ जल जाएगा। आग दया नहीं करती, प्रेम नहीं करती, न्याय भी नहीं करती। आग का तो एक जड़ नियम है; वह पूरा होता है। तो जैन कहते हैं, कर्म का नियम पूरा होता रहता है; कोई नियंता बीच में नहीं है।
एक लिहाज से ठीक बात है। नियंता को मानते हैं, तो फिर उसमें दो बातें समझ लें। अगर नियंता जस्ट है, न्याय ही उसका जीवन है, तो फिर दया असंभव है। और सब प्रार्थनाएं व्यर्थ हैं; स्तुति का कोई सार नहीं है। लाख चिल्लाओ ईश्वर के दरवाजे पर कि मुझे क्षमा कर दो, मुझसे भूल हो गई; कोई चीज क्षमा नहीं की जा सकती। अगर न्याय है ईश्वर, तो प्रार्थनाएं व्यर्थ हैं, कोई सार नहीं है उनमें।
और अगर ईश्वर दया है, तो चरित्र बिलकुल व्यर्थ है, प्रार्थनाएं काफी हैं। तब सारी ताकत प्रार्थना में लगानी चाहिए। फिर फिजूल की बातों में नहीं पड़ना चाहिए कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, बुरा मत करो। यह सब नासमझी है। इतनी ताकत से तो परमात्मा की दया ही पाई जा सकती है। यह सब भी करो और प्रार्थना करो।
उमर खय्याम ने कहा है। उमर खय्याम से एक मौलवी ने गांव के कहा है कि उमर खय्याम, अब तुम बूढ़े हो गए, अब बंद करो यह शराब पीना! अब कुछ तो खयाल करो कयामत का; याद करो उस दिन का, जब जजमेंट होगा, निर्णय होगा और परमात्मा के सामने खड़े होओगे। उमर खय्याम तो पीए था; हाथ में प्याली लिए था। उसने धीमे से आंखें खोलीं और उसने कहा कि मुझे उसके रहमवर होने का पक्का भरोसा है। वह परमात्मा दयालु है। और तुम मरते वक्त मुझमें अश्रद्धा पैदा मत करो। मेरी श्रद्धा मजबूत है। यह छोटा सा प्याला और यह थोड़ी सी शराब और यह तुच्छ सा उमर खय्याम, इसको वह माफ न कर सकेगा, तो बड़े पापियों का क्या होगा? परमात्मा दयालु है।
दया अगर है, तो न्याय असंभव है। अगर न्याय है, तो दया असंभव है। दोनों चीजें साथ नहीं हो सकतीं। और दुनिया के अधिक धर्म परमात्मा को दयालु और न्यायप्रिय इकट्ठा मानते हैं।
लाओत्से कहता है, न्याय को हटाओ, प्रेम काफी है।
यह भी थोड़ी सोचने जैसी बात है कि न्याय आता ही तब है, जब प्रेम नहीं होता। न्याय की पूरी दृष्टि ही प्रेम के अभाव में जन्मती है। इसे हम ऐसा समझें। आप अपने पिता के पैर दाब रहे हैं। आप कहते हैं, डयूटी है, कर्तव्य है--पिता हैं। आप बूढ़ी मां की सेवा कर रहे हैं। आप कहते हैं, कर्तव्य है। लेकिन क्या आपने कभी खयाल किया कि कर्तव्य बहुत कुरूप शब्द है, डयूटी बहुत अग्ली शब्द है। क्योंकि कर्तव्य का मतलब यह हुआ कि करने योग्य है, करना चाहिए, इसलिए कर रहा हूं; लेकिन हृदय करने में बिलकुल नहीं है। मां है, बूढ़ी है, अपनी ही मां है, इसलिए अस्पताल ले जा रहे हैं। कर्तव्य है!
लेकिन जब आप अपनी प्रेयसी को अस्पताल ले जा रहे हैं, तब आप कहते हैं कि कर्तव्य है?
प्रेम है, तो कर्तव्य बिलकुल नहीं पैदा होगा। प्रेम नहीं है, तो कर्तव्य पैदा होगा। कर्तव्य सब्स्टीटयूट है। जब प्रेम मर जाता है, तो वे ही चीजें जो प्रेम होता तो करते, वे फिर कर्तव्य के नाम से करनी पड़ती हैं। प्रेम होता, तो करने में होता आनंद। और जब कर्तव्य होता है, तो सिर्फ होता है एक बोझ, जिसे किसी भांति उतार देना है।
लाओत्से कहता है कि न्याय प्रेम का अभाव है। अगर प्रेम है लोगों में, तो अन्याय ही नहीं होगा और न्याय की कोई जरूरत न पड़ेगी। अन्याय होता है, इसलिए न्याय की जरूरत पड़ती है। और लाओत्से कहता है, जब अन्याय होता ही है, तो तुम न्याय से कुछ हल न कर पाओगे। अन्याय न हो! इसे हम ऐसा समझें। दो तरह की दवाएं हो सकती हैं। एक दवा, जिसको हम प्रिवेंटिव कहें। बीमार आप न हों, इसलिए दी जाती है। और एक दवा, जब आप बीमार हो जाते हैं, तब दी जाती है। एक बीमारी के पहले और एक बीमारी के बाद।
लाओत्से कहता है, न्याय बीमारी के बाद की गई दवा है। अन्याय हो रहा है, इसलिए न्याय की जरूरत पड़ती है। लाओत्से कहता है, मैं तो उस धर्म की बात करता हूं कि अन्याय न हो, न्याय की जरूरत ही न रहे। इसलिए कहता है, न्याय को छोड़ो। क्यों? क्योंकि अगर न्याय छोड़ोगे, तो तुम्हें अन्याय दिखाई पड़ेगा। न्याय के धुएं में तुमने अन्याय को अच्छी तरह छिपा लिया है। और न्याय के नाम से अन्याय तो नहीं रुकता, अन्याय दिखाई नहीं पड़ता है।
लाओत्से का एक अनुयायी लीहत्जू कुछ दिनों के लिए एक राज्य का मंत्री हो गया था। पहला ही जो मुकदमा उसके हाथ में आया, एक आदमी ने चोरी की थी। बड़ी चोरी थी, और गांव के सबसे बड़े संपत्तिशाली आदमी के घर हुई थी। लीहत्जू ने मुकदमा सुना; जिसने चोरी की थी, उसे छह महीने की सजा; और जिसके घर चोरी हुई थी, उसे भी छह महीने की सजा दे दी। अमीर तो बौखला गया। उसने कहा कि लीहत्जू, तुम पागल तो नहीं हो? न्याय की कुछ बुद्धि भी है? कभी सुना है ऐसा अन्याय? और अभी पहले ही दिन तुम बैठे हो न्यायाधीश के पद पर और यह तुम क्या कर रहे हो? सम्राट से शिकायत करूंगा, यह तुम मजाक कर रहे हो! छह महीने की सजा मुझे भी, जिसकी चोरी हुई?
लीहत्जू ने कहा कि तुमने इतना पैसा गांव में इकट्ठा कर लिया कि अब चोर तुम्हारे कारण पैदा होंगे ही। तुम जब तक हो, तब तक चोरी नहीं रुक सकती। और जुर्मी तुम पहले हो; यह तो नंबर दो है। न तुम इतना धन इकट्ठा करते, न यह आदमी चोरी करता। इसकी चोरी में तुम्हारा हाथ है, तुम साझेदार हो। तुम दोनों पार्टनर हो। आधा काम तुमने किया है, आधा इसने किया है। इसलिए मैं तो जड़ से ही अन्याय मिटाऊंगा। अन्याय मिटाने को हम न्याय कहते हैं, लीहत्जू ने कहा।
लेकिन सामान्य न्याय यह होता कि चोर को छह महीने की सजा मिलनी थी, साहूकार को नहीं। यह न्याय होता, जो कि हर अदालत में हो रहा है। लाओत्से कहता है, छोड़ो यह न्याय! क्योंकि तुम सिर्फ अन्याय छिपा रहे हो। तुम्हारी सब अदालतें, तुम्हारे सब कानून, तुम्हारी सब विधान-सभाएं बड़े महत्वपूर्ण, सदा से चलने वाले ऐतिहासिक अन्यायों पर पर्दा डालने के उपाय से ज्यादा नहीं हैं। और उस अन्याय के कारण जो और अन्याय पैदा हो रहे हैं, उनको तुम रोके चले जा रहे हो। लेकिन मूल अन्याय नष्ट नहीं होता।
लीहत्जू को सम्राट के सामने जाना पड़ा। सम्राट ने कहा, ऐसा न्याय हमने भी कभी नहीं सुना। तुम जैसे आदमी को मैं अपना न्याय-मंत्री नहीं रख सकता; क्योंकि आज नहीं कल तुम मुझे सजा दे दोगे। सारी व्यवस्था की बात है। और अगर यह साहूकार जुर्मी है, तो मैं कितनी देर तक जुर्म के बाहर रहूंगा? लीहत्जू ने कहा कि महाराज, यही आपको स्मरण दिलाने के लिए यह सजा दी है।
हम सब अपराधी हैं। लेकिन बड़े अपराधी बच जाते हैं, छोटे अपराधी फंस जाते हैं। बड़े अपराधियों के हाथ में सारी व्यवस्था है; छोटे अपराधियों के हाथ में व्यवस्था नहीं है। इसलिए बड़े अपराधियों के विपरीत जो भी चलता है, वह फंस जाता है।
लीहत्जू ने कहा कि मैं तो न्याय ऐसा ही करूंगा। चाहें तो रहूं, अन्यथा बाहर हो जाऊं। क्योंकि जिसको आप न्याय कहते हैं, मेरे गुरु ने सिखाया है कि वह तो न्याय नहीं है। वह न्याय छोड़ो
इसे ऐसा हम समझें कि हमारी बहुत अच्छी-अच्छी धारणाओं के नीचे बड़े गहन पाप छिपे हुए हैं, जो हमें दिखाई ही नहीं पड़ते। दिखाई न पड़ने का कारण है, हम अभ्यस्त हो गए हैं। वे इतने पुराने हैं और इतने प्राचीन हैं और इतने परंपरागत हैं और उनकी आदत इतनी गहरी हो गई है कि वे हमें दिखाई नहीं पड़ते। वे हमें दिखाई नहीं पड़ते; हम उनके प्रति बिलकुल ही बेहोश की तरह जीए चले जाते हैं। हमारे खून और हड्डी में वे मिल गए हैं। अगर कोई हमें बताए, तो हमें बहुत हैरानी होती है कि यह क्या बात है!
अगर यह लीहत्जू कहे कि छह महीने की सजा उसको भी जिसके यहां चोरी हुई है, तो हमें बहुत चौंकाने वाली बात मालूम पड़ती है। लेकिन क्या सच में ही यह चौंकाने वाली बात है? या सिर्फ हमारी एक आदत हो गई है? इसमें चौंकाने वाला क्या है? यह बात तो गहरे में ठीक ही है। लेकिन हमारी धारणा में उसके लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए बात एकदम चौंकाने वाली मालूम पड़ती है।
आस्कर वाइल्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैंने जिंदगी में बहुत तरह से लोगों को चौंकाने के उपाय किए, लेकिन सबसे ज्यादा लोग तभी चौंकते हैं, जब तुम कोई सत्य कह दो। बड़े से बड़ी झूठ भी इतना नहीं चौंकाती, क्योंकि लोग अभ्यस्त हैं; लेकिन सत्य बहुत चौंकाता है।
दो-चार शब्दों को हम देखें, जिनके नीचे हमारे गहरे असत्य छिपे हुए हैं। न्याय एक शब्द है, जिसके अंतर्गत हम न मालूम कितना पाप करते हैं। एक बात, अभी तक हम उन सारे लोगों को, जो भी संपत्ति की व्यवस्था के विपरीत कुछ करते रहे, अपराधी मानते रहे हैं। लेकिन संपत्ति की पूरी व्यवस्था भी अपराधी हो सकती है, यह हमारे खयाल में नहीं आता। पूरी व्यवस्था ही अपराधी हो सकती है, अगर यह खयाल में आ जाए, तो फिर जिनको हम अपराधी ठहराते हैं, वे अपराधी न रह जाएंगे।
एक छोटी क्लास है स्कूल की, प्राइमरी स्कूल की। और एक बच्चा अपने पड़ोसी बच्चे की कलम उठा कर अपने खीसे में रख लेता है। यह चोरी है। प्राइमरी स्कूल के शिक्षक से लेकर दिल्ली के प्रेसीडेंट तक सभी उसके खिलाफ हो जाएंगे। लेकिन उस बच्चे की तरफ से हम समझने की कोशिश करें। सब बच्चों के पास रंगीन कलमें हैं; उसके पास नहीं है। रंग उसे आकर्षित करते हैं; सभी बच्चों को करते हैं। वह भी एक रंगीन कलम अपने खीसे में रखना चाहता है, जैसे दूसरे बच्चे रखते हैं। और बूढ़े तक जब चीजें रख कर अकड़ते हैं, तो छोटे बच्चे अगर रख कर अकड़ना चाहें, तो बुराई क्या है? और जब आपके पास नई कार आती है, नए रंग की, तो आपकी चाल बदल जाती है, और जवानी लौट आती है, उम्र दस साल कम हो जाती है। यह छोटा सा बच्चा एक कलम को खीसे में रख कर यह भी अकड़ सके, इसमें ऐसा एतराज क्या है?
लेकिन यह बच्चा अपराधी है। दूसरे बच्चों के पास कलमें क्यों हैं और इस बच्चे के पास कलम क्यों नहीं है? अगर इसके हम पीछे यात्रा करना शुरू करें, तो हम पाएंगे, दूसरे बच्चों के बाप इस बच्चे के बाप से ज्यादा बेईमान सिद्ध हुए, ज्यादा चालाक सिद्ध हुए, ज्यादा होशियार सिद्ध हुए। अगर हम इस कलम का पूरा इतिहास खोजने जाएं, तो हम न मालूम कितने पाप और न मालूम कितने अपराध इस कलम तक पाएंगे, जो इसके पीछे छिपे हैं! लेकिन उनसे कोई संबंध नहीं है। इस बच्चे ने कलम उठा ली, क्योंकि रंग उसे भी पसंद है। जो कलम दूसरे के पास है, वह उसे भी पसंद है। वह भी इस कलम को रख कर शान से चलना चाहता है। इस बच्चे के इस भाव में कहीं भी कुछ पाप नहीं है। ऐसा होना ही चाहिए। यह स्वाभाविक है। इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं मालूम पड़ता। ऐसा न हो, तो अस्वाभाविक है। लेकिन यह बच्चा अपराधी है।
और हमारे सारे अपराध ऐसे ही अपराध हैं। फिर इस पर न्याय की व्यवस्था है। समाज एक तरफ अपराध पैदा करवाए चला जाता है, दूसरी तरफ से न्याय बिठाए चला जाता है। इस न्याय से अपराध मिटते नहीं, मिट नहीं सकते। क्योंकि न्याय खुद ही उनको छिपाने और ढांकने की व्यवस्था है। अपराध बढ़ते चले जाते हैं; न्याय की धारणा बढ़ती चली जाती है। लोग न्याय का नारा लगाए चले जाते हैं और अपराध गहरे होते चले जाते हैं।
लाओत्से कहता है, इन थोथे शब्दों को हटाओ; और जीवन की जो सच्चाई है, सीधी-साफ, उसे देखो। हटाओ न्याय की धारणा। अन्याय है, तो अन्याय को देखो, ठीक सीधा। छिपाओ मत। वस्त्रों में ढांको मत।
और अगर अन्याय हमारे सबके सामने प्रकट हो जाए, तो शायद अन्याय बच नहीं सकता। लेकिन अन्याय दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए बच सकता है। बीमारी अगर छिपी हो, तो बच सकती है। अगर उघड़ आए, तो बच नहीं सकती। हम उसे तोड़ ही फेंकेंगे, हटा ही डालेंगे। जो भी अन्याय अन्याय की तरह साफ हो जाए, वह टिकेगा नहीं। आदमी उसे बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। लेकिन अन्याय के ऊपर फूल लगा दो, रंगीन कागज चिपका दो, इत्र छिड़क दो, फिर अन्याय बच जाएगा।
और हम सब कुशल हो गए हैं। समाज के कोढ़ पर रंगीन चीजें चिपकाने में हम कुशल हो गए हैं। अब धीरे-धीरे भीतर सब कोढ़ हो गया है; सिर्फ ऊपर रंगीन चीजें रह गई हैं। कभी यहां से उखड़ जाती हैं, कभी वहां से। थोड़ी दुर्गंध आती है। फिर यहां से चिपका देते हैं; फिर वहां से बंद कर देते हैं। भीतर एक लाश रह गई है सड़ी हुई।
लाओत्से का अर्थ केवल इतना ही है कि जो है, उसे सीधा देख लो; उसके विपरीत सिद्धांत मत खड़ा करो। हम सबकी आदत क्या है? जो है, उसकी तो हम फिक्र नहीं करते; तत्काल उसके विपरीत सिद्धांत खड़ा करते हैं। और विपरीत सिद्धांत हमारा उपद्रव बन जाता है। भीतर हिंसा है, तो हम तत्काल अहिंसा का सिद्धांत खड़ा कर लेते हैं। हिंसक आदमी अहिंसा परमो धर्मः लिख कर अपनी तख्ती लगा लेता है अपने मकान पर। भीतर हिंसा है, वह कहता है, अहिंसा सिद्धांत है। वह कहता है, आज अहिंसक नहीं हूं, कल अहिंसक हो जाऊंगा, परसों अहिंसक हो जाऊंगा। कोशिश तो कर रहा हूं, अहिंसा को मानता भी हूं। महावीर के चरणों में जाता हूं, बुद्ध को मानता हूं, अहिंसा में मेरी बड़ी आस्था है। कमजोर हूं, अभी हिंसा है। लेकिन सिद्धांत मेरे पास है; आज नहीं कल अहिंसक हो जाऊंगा
आपको पता है, क्या कर रहा है यह आदमी? हिंसा का जो कोढ़ है, उसको देखने से बचने की तरकीब निकाल रहा है। हिंसा भारी है। और अगर यह अपनी हिंसा को देखे, तो एक दिन भी उस हिंसा में खड़ा हुआ नहीं रह सकता। जैसे घर में आग लग गई हो और पता चल जाए कि आग लग गई है, तो आप फिर एक क्षण रुक नहीं सकते। फिर आप यह भी नहीं पूछने रुकेंगे कि मैं किस गुरु से रास्ता पूछूं बाहर निकलने का? कि सदगुरु कौन है, उसकी ही मान कर निकलूंगा! कि खिड़की से निकलूं, कि दरवाजे से निकलूं, कि छलांग लगाऊं, कि रस्सी लटकाऊं, कि सीढ़ी लगाऊं? आप कुछ न पूछेंगे। इतनी फुर्सत न होगी, इतना समय भी न होगा। सच तो यह है कि आपको पता ही न चलेगा, कब आप बाहर निकल गए हैं। बाहर निकल कर ही पता चलेगा कि मैं बाहर आ गया हूं। तभी आप श्वास लेंगे और विचार शुरू करेंगे।
अगर किसी व्यक्ति को अपने भीतर हिंसा का, अपने कोढ़ का ऐसा ही बोध हो जाए, तो वह यह नहीं कह सकता कि कल निकलूंगा। मकान में आग लगी है, तब आप यह नहीं कह सकते कि कल निकलेंगे, परसों निकलेंगे, अभी सोचने का मौका चाहिए, और फिर जल्दी क्या है, अभी उम्र तो पड़ी है। ये सब बातें नहीं हैं। आग लगी है, तो आदमी निकल जाता है। लेकिन जिंदगी की जो आग है, हमारी बचने की एक तरकीब है गहरी से गहरी: क्रिएट दि अपोजिट, विपरीत को पैदा कर लो, उसको सिद्धांत बना लो। भीतर के कोढ़ पर नजर मत रखो, सिद्धांत पर नजर रखो: अहिंसा परम धर्म है! और सोचो निरंतर कि आज नहीं कल अहिंसक हो जाएंगे। इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में हो जाएंगे। कोशिश जारी रखेंगे; और धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अहिंसा आ जाएगी, हिंसा चली जाएगी।
यह अहिंसा कभी भी न आएगी। यह पोस्टपोनमेंट है। यह तरकीब है। यह स्थगित करना है। और मजे की बात यह है कि हिंसा जारी रहेगी। आपके भीतर दो तल हो जाएंगे: आपका असली आदमी हिंसक बना रहेगा, आपका नकली आदमी अहिंसक हो जाएगा। और नकली आदमी नकली अहिंसा के इंतजाम कर लेगा--रात खाना नहीं खाएगा; दिन में पानी छान कर पी लेगा।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पानी छान कर मत पीएंहाइजिनिक है। लेकिन अहिंसा मत समझें। अच्छा है; लेकिन अहिंसा मत समझें। अहिंसा इतनी सस्ती बात होती कि आप एक कपड़ा खरीद लाए और पानी छान लिया! और कितनी मौज से जब लोग पानी छान कर पीते हैं, तो वे सोचते हैं, स्वर्ग का बिलकुल पक्का हो गया, अब मोक्ष में कोई बाधा न रही। दिखा देंगे यह कपड़ा, कि देखो पानी छान कर पीया था, और रात कभी खाना नहीं खाया।
मैं देखता हूं। कभी-कभी ऐसे घरों में ठहरने का मुझे मौका मिलता है। भीतर अंधेरा हो गया, तो बाहर बैठ जाते हैं। सूरज तो डूब रहा है, डूबने के करीब है, या डूब भी गया है। बाहर बैठ जाते हैं इस भरोसे में कि अभी सूरज नहीं डूबा है। जल्दी खाना खा रहे हैं कि रात...।
इनका खाना खाना तक हिंसा है। इतनी तेजी से खा रहे हैं कि वह भी एक प्रेमपूर्ण, आनंदपूर्ण कृत्य नहीं है। वह भी हिंसा है। लेकिन वे जल्दी खाए चले जा रहे हैं। रात हुई जा रही है; रात वे खाना नहीं खाएंगे।
रात लाखों पशु-पक्षी खाना नहीं खाते। अगर वे सब मोक्ष में जा रहे हैं, तो आप मत जाना। यह कोई गुण नहीं है। नहीं खाते, बड़ा अच्छा है; स्वास्थ्यपूर्ण भी है। और आपके हित में है; आपके शरीर के हित में है। आत्मा का कुछ बहुत लेना-देना नहीं है।
झूठा आदमी जो अहिंसक है, ऊपर वह झूठी अहिंसा पैदा कर लेता है। वह कहता है, हरी सब्जी नहीं खाएंगे। अब कितने होशियार लोग हैं! और कितने बेईमान! इन्हीं को लाओत्से कहता है, छोड़ो बेईमानी, छोड़ो होशियारी!
एक घर में मैं रुका था। तो जैनों के पर्यूषण के दिन थे। तो हरी सब्जी नहीं खाएंगे, लेकिन केला खा रहे थे। मैंने कहा, यह क्या हुआ? उन्होंने कहा, यह हरा नहीं है, रंग हरा नहीं है। हरी सब्जी से मतलब रंग हरा! यह होशियारी है, कानूनी होशियारी है। हरे का मतलब होना चाहिए गीला। सूखा खा सकते हैं। लेकिन हरे का मतलब ले लिया है कि रंग हरा न हो बस, फिर कोई बात नहीं है। तो केले का रंग हरा नहीं है; फिर मजे से खा सकते हैं।
कुछ लोग हैं, जो सोचते हैं कि सूखा ही खाना चाहिए। लेकिन महावीर का खयाल ऐसा था कि जो चीज वृक्ष से अपने आप पक कर गिर पड़ी हो और सूख गई हो; तोड़ी न गई हो। लेकिन सूखा ही खाना चाहिए व्रतों के दिनों में, तो लाकर लोग चीजों को सुखा कर पहले से रख लेते हैं। आप ही सुखा रहे हैं। अभी सुखाते हैं कि आठ दिन बाद सुखा कर खाते हैं, या गीला खाते हैं, क्या फर्क पड़ रहा है? आठ दिन पहले सुखा कर रख लिया है, फिर बाद में खा रहे हैं, क्योंकि सूखी चीज खा रहे हैं।
एक दिन ऐसा हुआ कि बुद्ध का एक भिक्षु भिक्षा मांगने गया। और एक चील आकाश में उड़ती थी और उसके मुंह में मांस का टुकड़ा था और वह भिक्षा के पात्र में गिर गया।
भिक्षु बड़ा मुश्किल में पड़ा। क्योंकि बुद्ध ने कहा था, भिक्षा के पात्र में जो भी मिल जाए, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। अब यह भिक्षा के पात्र में मांस मिल गया!
वह आया लौट कर। उसने बुद्ध से कहा कि अब मैं क्या करूं? आपने कहा है कि भिक्षा के पात्र में जो भी आ जाए! एक चील एक मांस का टुकड़ा मेरे भिक्षा के पात्र में गिरा गई है।
ऐसा बहुत कम उल्लेख है कि बुद्ध ने किसी का उत्तर देते वक्त सोचा हो। लेकिन इस भिक्षु को उत्तर देते वक्त, कहते हैं, सोचा। आंख बंद कर ली; और फिर कहा कि ठीक है, जो भी भिक्षा-पात्र में आ गया है, उसे तू ले ले।
आनंद ने कहा कि आप यह क्या कह रहे हैं? मांस!
तो बुद्ध ने कहा, चीलें रोज-रोज भिक्षा-पात्रों में मांस नहीं गिराएंगी। संयोग की बात है। अब शायद दुबारा ऐसा फिर कभी नहीं होगा इतिहास में भी। लेकिन इस संयोग की बात के लिए अगर मैं यह कहूं कि नहीं, भिक्षु तुम स्वयं चुन लेना कि क्या लेना और क्या नहीं लेना, तो लोग सिर्फ मिठाइयां ही लेंगे और बाकी चीजें छोड़ देंगे। लोग होशियार हैं आनंद, लोग चालाक हैं। चीलें इतनी चालाक नहीं हैं कि रोज-रोज...। तो मैंने यही सोचा कि चीलें ज्यादा चालाक हैं कि आदमी ज्यादा चालाक हैं; उस हिसाब से नियम बनाना चाहिए।
लेकिन बुद्ध को पता नहीं कि आप कोई भी नियम बनाओ, आदमी की चालाकी में फर्क नहीं पड़ता। और आज चीन और जापान, सब बौद्ध मुल्क मांसाहारी हैं। और हर बौद्ध होटल के ऊपर लिखा रहता है कि यहां मारे गए जानवर का मांस नहीं मिलता, अपने आप मर गए जानवर का मांस मिलता है। क्योंकि मारने में हिंसा है; अब एक जानवर अपने आप ही मर गया, इसमें किसी ने हिंसा तो की नहीं। अब इसका मांस खा लेने में क्या हर्ज है?
इतने जानवर अपने आप मरते भी नहीं। लेकिन वह मारने का काम कोई और करते हैं। होटल में तो मांस ही आता है मरा-मराया। होटल के मैनेजर को इससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह खुद भी बौद्ध है, तख्ती लगी हुई है कि मरे हुए जानवरों का ही मांस मिलता है।
सारी दुनिया में बौद्ध मांसाहारी हैं। और कुल कारण इतना है--यह एक छोटी सी घटना कारण बनी। क्योंकि बुद्ध ने कहा कि न तो इस भिक्षु ने किसी को मारा है--मारा होता तो हिंसा होती--इसने न तो मारा है, न चील से यह मांगने गया था। यह संयोग है। तो बौद्ध भिक्षु मांगते नहीं हैं मांस; लेकिन आप डाल दें, तो मजे से स्वीकार करते हैं। मजे से स्वीकार करते हैं।
आदमी विपरीत सिद्धांत को अगर झूठा बना ले, तो रास्ते निकाल लेता है। रास्ते निकालने में कोई कठिनाई नहीं है। नीचे असली आदमी चलता चला जाता है; ऊपर एक झूठा आदमी चलता चला जाता है। यह झूठा आदमी अच्छा आदमी होता है; इसकी सब आशाएं भविष्य में होती हैं। असली आदमी अभी होता है; उसके सब काम वर्तमान में होते हैं। और इन दोनों के बीच धीरे-धीरे इतना फासला हो जाता है कि आपके अच्छे आदमी को ही आपके झूठे आदमी की कोई खबर नहीं रह जाती। आप भूल ही जाते हैं कि आपके नीचे असली आदमी छिपा हुआ है। और वही असली आदमी आप हैं।
लाओत्से कहता है, विपरीत का निर्माण मत करो। तुम जो हो, उसी को जानो, उसी में जीओ। और यह बहुत गहन सूत्र है। अगर मैं अपनी हिंसा में जीऊं और अहिंसा का सिद्धांत निर्मित न करूं, तो एक दिन मैं अहिंसक हो जाऊंगा। अगर मैं अपने क्रोध में जीऊं और अक्रोध का सिद्धांत निर्मित न करूं, तो क्रोध ही मुझे बदल डालेगा। अगर मैं अपनी कामवासना में जीऊं और ब्रह्मचर्य की कोई धारणाएं न बनाऊं, तो मेरी कामवासना ही मुझे बदल जाएगी। जो गलत है, जो दुखदायी है, जो पीड़ा है, उसमें ज्यादा देर रहा नहीं जा सकता। वह आग है। उसमें हम जलेंगे, झुलसेंगे, अनुभव से सीखेंगे और किसी दिन छिटक कर बाहर हो जाएंगे।
लेकिन एक आदमी कीचड़ में खड़ा है, कांटों में खड़ा है, गंदगी में खड़ा है। अगर इसकी आंखें नीचे लगी रहें--गंदगी देखे, कीचड़ देखे, मक्खी हैं, मच्छर हैं, बदबू आ रही है--कितनी देर खड़ा रहेगा? लेकिन यह आदमी एक तरकीब कर सकता है। यह आंखें आकाश की तरफ उठा ले, चांदत्तारों का चिंतन करे, भूल जाए नीचे की कीचड़, चांदत्तारों में जीने लगे, तो यह जिंदगी भर खड़ा रह सकता है इस कीचड़ में। क्योंकि कीचड़ नहीं है दुखदायी, कीचड़ का बोध दुखदायी है। हिंसा नहीं है दुखदायी, हिंसा की प्रतीति। क्रोध नहीं है दुखदायी, क्रोध की प्रतीति, क्रोध का अनुभव, क्रोध की आग, उसका अहसास।
लाओत्से कहता है, जो है, उसमें ही जीएं। वह अपने से तिरोहित हो जाएगा। क्योंकि अगर वह गलत है, तो बदल जाएगा; अगर सही है, तो बदलने का कोई सवाल नहीं है।
इसलिए लाओत्से कहता है, "छोड़ो मानवता को, न्याय को हटाओ; और लोग अपनों को पुनः प्रेम करने लगेंगे। चालाकी छोड़ो, उपयोगिता को हटाओ; और चोर तथा लुटेरे अपने आप ही लुप्त हो जाएंगे।'
चालाकी छोड़ो, उपयोगिता को हटाओ! ये दो बातें भी समझ लेने जैसी हैं।
बड़े मजे की बात यह है कि जब चालाकी आदमी किन्हीं ऐसे कामों में करता है जिन्हें हम बुरा कहते हैं, तब तो हम उसे चालाकी कहते हैं; और वही काम अगर वह उन कामों में करे जिन्हें हम अच्छा कहते हैं, तो फिर हम चालाकी नहीं कहते। फिर हम उसे बुद्धिमानी कहते हैं, होशियारी कहते हैं। यह भी चालाकी का ही एक हिस्सा है। जैसे, चालाकी का अर्थ यह है कि जो भी मैं करूं, वह परिणाम के ध्यान से करूं।
चालाकी का अर्थ क्या होता है? कनिंगनेस का मतलब क्या है?
रास्ते पर आप मिले। अगर मैं नमस्कार भी करूं, तो परिणाम को ध्यान में रख कर करूं कि इस नमस्कार से क्या मिलेगा? यह आदमी किस मिनिस्टर का रिश्तेदार है? या रिश्तेदार का रिश्तेदार है? कहां तक इसकी पहुंच है? या इससे क्या काम निकालना है? इससे क्या मिलेगा? एक नमस्कार भी कैलकुलेशन है, गणित है।
अगर एक नमस्कार भी गणित है, तो चालाकी हो गई। तो फिर जिस दिन इस आदमी से कुछ नहीं मिलेगा, उस दिन बात व्यर्थ हो गई।
तुर्गनेव ने एक कहानी लिखी है। एक होटल के सामने लोग इकट्ठे हैं। और एक कुत्ते को एक आदमी दोनों पैर पकड़ कर पटकने के लिए तैयार है, मार डालने को। क्योंकि उस कुत्ते ने इसे काट लिया है। तभी दो पुलिस वाले वहां आते हैं और एक पुलिस वाला नीचे झांक कर कहता है कि ठीक है, मार ही डालो इस कुत्ते को! यह हम पुलिस वालों को भी बड़ा परेशान करता है; रात भौंकता-भांकता है। पुलिस वालों और कुत्तों के बीच कोई जन्मजात विरोध है। मुझे भी बहुत परेशान करता है, इसको मार ही डालो। तभी बगल वाला पुलिस वाला कहता है, जरा सोच कर कहना, यह हमारे बड़े साहब का कुत्ता मालूम पड़ता है। वह पहला पुलिस वाला फौरन झपट कर उस आदमी की गर्दन पकड़ लेता है जो कुत्ते को पकड़े हुए है, और कहता है कि तू समझता नहीं क्या कर रहा है! यह कुत्ता कोई साधारण कुत्ता है? छोड़ इसको! कुत्ते को छुड़ा कर गोदी में ले लेता है। और अपने दूसरे साथी से कहता है, हथकड़ी डालो इस आदमी को। यह बलवा खड़ा कर रहा है यहां सड़क पर। तभी वह दूसरा साथी कान में कहता है, लेकिन नहीं, यह कुत्ता वह नहीं मालूम होता। तो वह उस कुत्ते को पटक देता है और कहता है, मार डालो इस कुत्ते को! सब गंदा हो गया। स्नान करना पड़ेगा। लेकिन तभी वह साथी कहता है कि नहीं-नहीं, है तो यह साहब का ही कुत्ता। फिर वह कुत्ते को उठा लेता है।
यह कहानी चलती है। और यह सब चालाक लोगों की जिंदगी की कहानी है। पूरे वक्त यह चल रहा है। चालाकी का अर्थ है: परिणाम महत्वपूर्ण है। कोई हिसाब है पीछे। जो भी हम कर रहे हैं, उसमें हिसाब है। अगर यह बात सच है, तो एक आदमी मंदिर जाकर घंटा बजा रहा है, पूजा कर रहा है--चालाक है। हिसाब है उसका। एक आदमी माला फेर रहा है--चालाक है। वह कहता है, कितनी मालाएं फेरनी हैं? एक लाख माला अगर फेर लीं, तो यह फल होगा। एक लाख दफे अगर माला फेर ली, तो यह फल होगा। इतनी दफे राम का नाम ले लिया।
मैं एक मंदिर में गया। वहां लाखों कापियां रखी हैं अंदर राम-राम लिख-लिख कर। जो आदमी लिखवा रहे हैं राम-राम, वे घूम-घूम कर दिखलाते हैं। सारी अलमारियां भरी हैं। मैंने पूछा, यह क्या, हो क्या रहा है?
तो उन्होंने कहा, मैंने नियम लिया हुआ है कि इतने अरब नाम लिखवा कर रहूंगा।
क्या होगा इससे?
क्या होगा! यह व्रत अगर मेरा पूरा हो गया, तो फिर आवागमन से छुटकारा है।
तुम कापियां खराब करोगे और आवागमन से छुटकारा हो जाएगा? और न मालूम कितने पागलों को लिखवाने में लगाए हुए हो। उनका समय खराब कर रहे हो। मगर उस आदमी का आवागमन से छुटकारा हो रहा है; क्योंकि राम-राम, राम-राम कापियों पर लिखवा रहा है।
मैंने उसको कहा, पागल, अब तो प्रेस है। अब इसकी कोई जरूरत नहीं। तू छपवा ले जितना तुझे छपवाना है, और रख ले और उनके ऊपर बैठ जा।
लेकिन कैलकुलेशन है। राम का नाम भी आदमी लेगा, तो हिसाब है। बेकार हो गई बात। अगर राम का नाम भी हिसाब से लिया, तो राम का नाम लिया ही नहीं। हिसाब चालाकी है। हर चीज में चालाकी है।
बेटा बाप के पैर दाब रहा है। वह देख रहा है कि क्या-क्या मिल सकता है? वसीयत में क्या मिलेगा, क्या नहीं मिलेगा? कहते हैं कि अमीर बाप के बेटे कभी भी बाप के मरने पर सच में दुखी नहीं होते। हो भी नहीं सकते। होने का कोई कारण भी नहीं है। भीतर शायद खुश ही होते हैं। सम्राटों के बेटे तो अक्सर बाप को मारने का कारण ही बनते हैं। सब तरफ हिसाब है।
लाओत्से कहता है, यह चालाकी जब तक है--और यह सिर्फ गलत चीजों में ही नहीं है, सब चीजों में है यह चालाकी--अगर यह चालाकी है, तो यह जिंदगी कभी भी कृत्रिमता के पार सहजता में प्रवेश नहीं कर सकती। परिणाम में मत जीओ; कृत्य में जीओ। मोमेंट टु मोमेंट लिव इन दि एक्ट, नॉट इन दि कांसीक्वेंस, नॉट इन दि रिजल्ट। वह जो कृत्य है, उस में ही जीओ
रास्ते पर कोई आदमी मिला है, उससे राम-राम कर लेने का ही काफी मजा है। इसलिए अगर आप छोटे गांव में जाएं, तो आपको बड़ी हैरानी होगी। कोई आपको जानता नहीं, फिर भी लोग राम-राम कर लेंगे। बड़ी बेचैनी होगी, क्योंकि ऐसा कहीं नहीं होता। जब तक जानते न हों, मतलब न हो, कोई हिसाब न हो, यह काहे के लिए राम-राम कर रहे हैं? आपको बेचैनी होगी। पूछने का मन होगा, भई क्यों राम-राम करते हो? क्या मतलब है? विचित्र मालूम होता है। छोटे गांव में जाएं, कोई भी आदमी राम-राम करता है। न आपको कोई जानता, न आपके धन का किसी को पता, न आपके पद का पता। आप क्या कर सकते हैं, इसका भी पता नहीं। लेकिन वे गांव के पुराने लोग बिना हिसाब राम-राम किए जा रहे हैं। उसमें कोई हिसाब नहीं है। उसमें कोई गणित नहीं है कि आप क्या करोगे। आपसे कोई मतलब नहीं है। राम-राम करना आनंदपूर्ण है; कर लिया है।
हम सब तरफ हिसाब से भर गए हैं। हमारा प्रेम एक गणित। हमारी प्रार्थना एक गणित। हमारी दूकान तो है ही चालाकी, हमारा मंदिर भी हमारी चालाकी का विस्तार है। वहां भी हम सब लगा रहे हैं--आगे तक का हिसाब फैला कर रखा हुआ है।
इसे लाओत्से कहता है, यह चालाकी तुम्हें कभी सहज न होने देगी। छोड़ो चालाकी। छोड़ो उपयोगिता, यूटिलिटी
अब यह ज्यादा गहरा मामला है उपयोगिता का; क्योंकि चालाकी ही इसलिए है कि उपयोगिता पर दृष्टि है हमारी। हर चीज की यूटिलिटी। अगर मैं एक बम बनाऊं, तो अखबारों में खबर छप सकती है; एक नया बम बनाऊं, नोबल प्राइज मिल सकती है। लेकिन एक सुंदर गीत लिखूं, कहीं कोई खबर न छपेगी। क्योंकि गीत की उपयोगिता क्या है? कोई भी पूछेगा, उपयोगिता क्या है आपके गीत की? इससे कितने आदमी मारे जा सकते हैं? इससे कितने लोगों को रोटी मिल सकती है? इससे कितने लोगों को कपड़ा मिलेगा? इसकी उपयोगिता बताइए। गीत की क्या उपयोगिता है? कोई भी उपयोगिता नहीं है। एक फूल की क्या उपयोगिता है? कोई उपयोगिता नहीं है। बेकार है।
हमारा जो उपयोगितावादी दृष्टिकोण है, अगर ठीक से समझें, तो वही मैटीरियलिज्म है। वह आदमी नहीं है नास्तिक, जो ईश्वर को नहीं मानता। वह आदमी नास्तिक है, जो केवल उपयोगिता को मानता है। और आस्तिक वह है, जो उपयोगिता पर ध्यान ही नहीं देता। उपयोगिता महत्वपूर्ण भी नहीं है। और जीवन में जितनी श्रेष्ठतर चीजें हैं, उतनी गैर-उपयोगी हैं।
गैलीलियो ने जब किताब लिखी अपनी विश्व की व्यवस्था की, तो उसने ईश्वर का एक भी जगह उपयोग नहीं किया, शब्द का। हजारों पृष्ठ की किताब में ईश्वर शब्द का एक भी जगह उपयोग नहीं है। तो उसके मित्रों ने पूछा कि एकाध जगह तो ईश्वर शब्द का उपयोग कर लेते; इतने बड़े ग्रंथ में एक भी जगह ईश्वर का प्रयोग नहीं हुआ। तो गैलीलियो ने जो कहा है वह यह, उसने कहा कि मेरी परिकल्पना में ईश्वर शब्द की कोई भी उपयोगिता नहीं है; नो यूटिलिटी। यह जो मेरी हाइपोथीसिस है, इसमें ईश्वर शब्द की कोई उपयोगिता नहीं है। इसमें कोई सवाल ही नहीं है। ईश्वर बिलकुल गैर-उपयोगी है। क्या फायदा? उससे क्या करवाऊं? ग्रेविटेशन चीजों को नीचे खींच लेती है। सब नियम उपयोगी अपना काम करते हैं। ईश्वर बिलकुल गैर-उपयोगी हाइपोथीसिस, एक नॉन-यूटिलिटेरियन हाइपोथीसिस है। गैलीलियो ने कहा कि ईश्वर एक कविता है, इसकी यहां कोई जरूरत नहीं है।
उपयोगिता का ध्यान अगर ठीक हो, तो प्रेम की कोई उपयोगिता है? कोई नहीं है उपयोगिता। क्या उपयोगिता है? आदमी के जीवन में प्रेम की क्या उपयोगिता है? थोड़ी अड़चन पैदा होती है; और तो कोई उपयोगिता नहीं है। थोड़ी परेशानी पैदा होती है। इसलिए जो बहुत होशियार हैं और उपयोगिता से जीते हैं, वे प्रेम वगैरह में कभी भी नहीं उतरते हैं। उस झंझट में वे नहीं पड़ते हैं। रुपए की उपयोगिता है; प्रेम की क्या उपयोगिता हो सकती है? एक मकान की उपयोगिता है; एक कविता में रहिएगा, सोइएगा, बैठिएगा, क्या करिएगा?
एक दृष्टिकोण है जीवन का जिसमें हर चीज एक कमोडिटी है, एक वस्तु है, जिसका उपयोग करना है। पत्नी एक उपयोगिता है। पति एक उपयोगिता है। मां एक उपयोगिता है। पिता एक उपयोगिता है। बेटा एक उपयोगिता है। और ऐसा नहीं कि साधारण लोगों के साथ ऐसा हो; अगर लाओत्से हमारे शास्त्रों को देखे, तो बहुत हैरान हो जाए। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि बेटा होना ही चाहिए पैदा; नहीं तो अंत्येष्ठि कौन करेगा? अब बेटे की उपयोगिता यह है कि जब बाप मरे, तो वह उनकी खोपड़ी तोड़े मरघट पर। इसके लिए वे पैदा किए जा रहे हैं। इसलिए जिनके अपने पैदा नहीं होते, वे गोद लेंगे; क्योंकि बेटा एक उपयोगिता है, मरने के बाद सिर को तोड़ेगा कौन?
हद हो गई। यह चालाक लोगों की बुद्धि है। और फिर बेटे अगर जिंदा में ही खोपड़ी तोड़ दें, जरा जल्दी, तो इतने नाराज क्यों होते हैं? उनका काम ही यही है। कुछ जरा जल्दी कर जाते हैं, कुछ जरा देर से करते हैं। कोई वक्त पर करते हैं, कोई वक्त के पहले कर देते हैं। मगर यह उपयोगिता! किसी के जीवन का अपना कोई सहज मूल्य नहीं है। जीवन अपने आप में मूल्यवान नहीं है। किसी के लिए उपयोगी है।
इजिप्त में ममीज हैं सम्राटों की, फेरोह की। और उनकी पत्नियां, उनके नौकर, सब उनके साथ दफन कर दिए जाते थे; क्योंकि उनकी उपयोगिता यही थी, जब तक सम्राट था। हम हजारों साल तक न मालूम लाखों स्त्रियों को सती करवाए; क्योंकि स्त्री की उपयोगिता पति के लिए थी, और तो उसका कोई मूल्य ही नहीं है। था मूल्य तो इतना था। जब पति ही नहीं रहा, तो अब उसका क्या मूल्य है? स्त्री का अपना कोई मूल्य ही नहीं है। एक उपयोगिता है वह। एक साधन था पति का। जब पति ही समाप्त हो गया, साधन का क्या करिएगा? उसको दफना दो, पति के साथ ही उसकी हत्या करवा दो।
लेकिन अच्छे शब्दों में हम छिपा सकते हैं हत्या को। हम कहते हैं सती होना। और बड़े मजे की बात यह है कि जो पुरुष इस सब की चर्चा करते रहे, वे एक भी उनमें से सती या सता--जो भी हम कहें--वे कभी नहीं हुए। इतनी स्त्रियां मरती रहीं, एक पुरुष को न सूझा कि हम भी सती हो जाएं। उसका कारण है, पुरुष मालिक है। स्त्री की उपयोगिता पुरुष के लिए है। स्त्री साधन है। पुरुष हजार स्त्रियां खोज लेगा।
जीवन को इस ढंग से जो देखने की आदत है, वह है पदार्थवाद, वह है मैटीरियलिज्म
प्रत्येक चीज का अपने में मूल्य है। और मूल्य किसी उपयोगिता के कारण नहीं है; होना ही मूल्यवान है। एक स्त्री है। वह अपनी वजह से मूल्यवान है। न तो किसी की मां होने के कारण, और न किसी की पत्नी होने के कारण, और न किसी की बेटी होने के कारण। अपनी वजह से मूल्यवान है। सहज मूल्यवान है। होना ही मूल्य है। कोई उपयोगिता नहीं है। और आपका जीवन भी होने की वजह से मूल्यवान है; किसी कारण से नहीं। आप क्या करेंगे, इसलिए ज्यादा उपयोगी नहीं हो जाएंगे। आपके कृत्यों का जोड़ आपका मूल्य नहीं है। आप क्या हैं, वह काफी है; आपने क्या किया, इससे कोई संबंध नहीं है।
जीवन को ऐसे उपयोगितावाद से मुक्त करने की जो धारणा है, वही धर्म है। और जीवन को उपयोगिता से बांधने की जो दृष्टि है, वही जीवन को बाजार बनाने की है। वहां सब चीजें खरीदी और बेची जाती हैं। सब चीजें बिकती हैं, सब खरीदी जाती हैं। क्योंकि सब चीजों का उपयोग है, सब चीजों की कीमत है।
इमर्सन ने कहीं कहा है कि चीजों का मूल्य तो हमें बिलकुल पता नहीं, सिर्फ कीमत पता है। वी डोंट नो दि वैल्यू, वी ओनली नो दि प्राइस। कीमत का मतलब होता है, इतनी उपयोगी है, इसलिए कीमत है। मूल्य का अर्थ होता है कि है अपने में--एक विशिष्टता, एक खिलावट जीवन की, एक अस्तित्व के फूल का खिल जाना--वह उसका मूल्य है।
अगर हम बुद्ध की कीमत लगाने जाएं, तो आइंस्टीन से कम लगेगी--कीमत, प्राइस। अगर दोनों को बेचना हो, तो बुद्ध को कौन खरीदेगा? आइंस्टीन को कोई भी खरीदेगा। क्योंकि आइंस्टीन की उपयोगिता है, एटम बम बना सकता है। यह बुद्ध को और उपद्रव बांध लेंगे। बन भी जाए, तो उसको काम में लाने में बाधा डालेंगे। इनको कोई खरीदेगा नहीं। आइंस्टीन की कीमत है। बुद्ध को तो तभी खरीदा जा सकता है, जब लोग मूल्य को समझते हों, वैल्यू को; प्राइस को नहीं। तब तो बुद्ध की खिलावट, उनका खिल जाना मूल्य है कि एक खिला हुआ आदमी है। आइंस्टीन, तो आइंस्टीन एक साधारण आदमी है। उपयोगिता को हटा दें, तो आइंस्टीन उतना ही साधारण है जितना कोई और। कोई और मूल्य नहीं है। वह क्या कर सकता है, उसमें मूल्य है। वह क्या है, इसमें मूल्य नहीं है। होने के मामले में तो दीन है; करने के मामले में वह कुछ कर सकता है। बुद्ध होने के मामले में बड़े समृद्ध हैं! करने के मामले में, करने का कोई सवाल ही नहीं है। वह न-करने में ठहर गए हैं।
लाओत्से कहता है, चूंकि निष्क्रियता परम स्थिति है, इसलिए करने का मूल्य कम करो और होने का मूल्य बढ़ाओ। जोर मत दो कि तुम क्या करते हो, जोर दो कि तुम क्या हो। इसकी फिक्र छोड़ो कि एक आदमी ने क्या-क्या किया; इसकी फिक्र करो कि एक आदमी क्या है। और उसका होना अपने आप में मूल्यवान है, किसी और कारण से नहीं।
अब बुद्ध को अगर हम कोई भी कारण से सोचें, तो मूल्य, कीमत के अर्थों में, हम कहां खोज पाएंगे? कहीं नहीं मिलेगा। लेकिन फिर भी ऐसा लगेगा कि हजार आइंस्टीन न हों और एक बुद्ध हों। क्यों ऐसा लगता है? इस लगने में क्या बात है? यह बुद्ध का होना इंट्रिंजिक वैल्यू है, आंतरिक मूल्य है। इसका बाजार में कोई मूल्य नहीं लग सकता।
ऐसी मजेदार घटना घटी। फरीउद्दीन अत्तार एक सूफी फकीर था। हमला हुआ और अत्तार को पकड़ लिया गया। तैमूर के लोगों ने अत्तार को बंद कर दिया। और जब अत्तार को वे बंद कर रहे थे हथकड़ियों में, तब राह से गुजरते एक आदमी ने पहचान लिया कि यह अत्तार है।
अत्तार बड़ा अदभुत आदमी था। अत्तार उसका नाम ही इसलिए पड़ गया था। एक तो इसलिए कि वह--सूफी फकीर ऐसा करते हैं कि अपने को छिपाने के लिए कुछ काम कर लेते हैं--तो वह इत्र बेचने का काम करता था। वह छिपाने के लिए, ताकि किसी को अकारण पता न चले कि वह क्या है। इतना ही जानें कि अत्तार है--इत्र बेचने वाला है। लेकिन जो उसे जानते थे, वे जानते थे कि वह इत्र है। वह सब फूल वगैरह के बाहर, आखिरी जो निचोड़ बच जाता है जीवन का, वही है।
वह आदमी पहचान गया कि यह तो फरीउद्दीन अत्तार है। तो उसने जाकर, जो लोग उसे कैद कर रहे थे, उनसे कहा कि मैं एक हजार दीनार, एक हजार सोने के सिक्के अभी देता हूं, इस आदमी को छोड़ दो। छोड़ने को वे तैयार हो गए। एक हजार स्वर्ण के सिक्के मिल रहे थे एक साधारण आदमी के।
अत्तार ने कहा, ठहरो! अगर तुम ठहरे, तो ज्यादा कीमत भी मिल सकती है। उन्होंने सोचा कि जब एक आदमी अचानक आकर एक हजार दे रहा है, ज्यादा देने वाले भी मिल सकते हैं। उस आदमी ने कहा कि मैं पांच हजार दे देता हूं, तुम छोड़ दो इस आदमी को। मैं दस हजार दे देता हूं...।
लेकिन जैसे वह कीमत बढ़ती गई, वैसे उन्होंने समझा कि यह आदमी कोई साधारण नहीं है।
अत्तार ने कहा कि जरा धैर्य रखना, अभी और बड़े खरीददार भी आएंगे। तब तो उन्होंने कहा कि तुम कुछ भी दो, हम छोड़ने वाले नहीं हैं। वह आदमी दस हजार दीनार की बात कह कर चला गया।
फिर एक और आदमी आया। अत्तार ने कहा कि यह आदमी जो आ रहा है, अगर यह कोई भी मूल्य दे, तुम स्वीकार कर लेना। वह आदमी आया। वह एक घसियारा था, घास का एक बंडल लिए जा रहा था। सैनिकों ने उसे बुलाया और कहा कि तुम इस आदमी को खरीदना चाहते हो? उसने देखा; उसने कहा कि अच्छा ठीक है, यह घास का एक गट्ठर तुम ले लो और दे दो।
अत्तार ने कहा कि बिलकुल दे दो इस आदमी को; यह ठीक उपयोगिता समझ गया है मेरी।
उन सैनिकों ने तो सिर पीट लिया कि तू आदमी पागल तो नहीं है!
अत्तार ने कहा कि वह आदमी मेरा मूल्य जानता था और फिर भी कीमत की बात कर रहा था; इसलिए मैंने रोका। ही निउ माई वैल्यू एंड वाज़ टाकिंग इन टर्म्स ऑफ प्राइस; इसलिए मैंने तुम्हें रोका। और यह आदमी, इसको मूल्य का कोई पता ही नहीं है। यह मुझे एक कमोडिटी समझता है। इसने मेरी तरफ देखा कि हां, घास वगैरह काटने के थोड़े-बहुत काम पड़ सकता है। यह मेरी उपयोगिता जानता है; वह आदमी मेरी उपयोगिता नहीं, उपयोगिता के पार जो मैं हूं, वह जानता था। इसलिए मैंने रोका। उस आदमी से दाम लेना ठीक नहीं। वह मेरी बहुत कम कीमत आंक रहा था। यह आदमी बिलकुल ठीक कीमत आंक रहा है। ठीक प्राइस यह आदमी आंक रहा है। यही मेरी कीमत है। उपयोग तो मेरा कोई भी नहीं है। घास भी काट सकूंगा कि नहीं काट सकूंगा, यह इसका अनुमान है। लेकिन वह आदमी मेरी गलत कीमत आंक रहा था, क्योंकि उसे मेरे मूल्य का पता था। वह कितनी ही कीमत तुमको कहता, मैं इनकार करता जाता कि इससे राजी मत होना।
जीवन का एक तो मूल्य है और एक कीमत है। लाओत्से कहता है, मूल्य तब प्रकट होगा, जब कीमतों का बाजार, शोरगुल बंद हो जाए। छोड़ो उपयोगिता, और चोर और लुटेरे अपने आप लुप्त हो जाएंगे।
क्योंकि हमने जिंदगी को एक बाजार बना दिया, एक दुकानदारी बना दी। उसमें सब चीजों की कीमत लगी हुई है। हर आदमी के माथे पर लिखा है, कितना दाम है, खरीद लो। किसी का थोड़ा कम होगा, किसी का थोड़ा ज्यादा होगा। लेकिन हर आदमी बिकाऊ है। हर चीज बिक रही है। यहां चोर और लुटेरे पैदा नहीं होंगे, तो क्या होगा! जहां सब चीजें बिकती हैं, वहां चोर और लुटेरे पैदा नहीं होंगे, तो क्या होगा!
चोर और लुटेरे का मतलब क्या है? चोर और लुटेरे का मतलब यह है कि उपयोगिता तो वे भी मानते हैं चीज की, सिर्फ उनके पास चुकाने को दाम नहीं हैं। तो वे बिना दाम के चीजें ले जाने की कोशिश करते हैं। और जहां सब चीजों के दाम हैं, और कुछ लोगों के पास दाम हैं और कुछ लोगों के पास दाम नहीं हैं, वहां कुछ लोग चोरी भी करेंगे, डाका भी डालेंगे।
लाओत्से कहता है कि बस मूल्य रह जाने दो, दाम हटा दो; फिर चोरी नहीं हो सकेगी। फिर चोरी नहीं हो सकेगी। चीजों का मूल्य रह जाने दो, दाम हटा दो।
इसे हम ऐसा समझें। अगर चीजों का मूल्य रह जाए और दाम हट जाएं, तो हीरे का कोई दाम होगा? मूल्य तो हीरे में बिलकुल नहीं है। वैल्यू क्या है हीरे की? किसी भी पत्थर की जो वैल्यू है, वह हीरे की वैल्यू है। दाम बहुत है। हीरे की क्या है मूल्यवत्ता? लेकिन दाम बाजार में बहुत है। हीरे की चोरी होगी। जितनी चोरी हीरे की होगी, उतनी किसी चीज की न होगी। हीरा जिसके पास है, वह खतरे में है। चोरी होगी, हत्या होगी। क्यों आखिर?
हीरे में दाम आदमी की ईजाद है। हीरे में क्या है मूल्य? कोई भी मूल्य नहीं है। और अगर जंगल में आप पड़े हों और भूखे पड़े हों, और एक रोटी कोई दे दे, तो आप एक हीरा दे दें। और प्यास लगी हो और मरुस्थल में पड़े हों, और एक गिलास पानी कोई दे दे, तो आप हीरा दे दें। मूल्य तो बिलकुल नहीं है। कीमत भी आदमी की बनाई हुई है, ईजाद की हुई है। और हमने हर चीज पर कीमत लगा दी है। मूल्यहीन मूल्यवान मालूम होता है। मूल्यवान मूल्यहीन मालूम होता है। हमारी कीमत की वजह से।
लाओत्से कहता है, हटाओ उपयोगिता, छोड़ो चालाकी; और चोर और लुटेरे अपने आप विदा हो जाएंगे।
अगर जीवन सहज हो और अगर जीवन मूल्य पर निर्भर हो, तो लाओत्से बिलकुल ही ठीक कहता है, चोर और लुटेरे नहीं रह जाएंगे। चोर और लुटेरे पैदा ही इसलिए होते हैं कि हमने सारे जीवन को उपयोगिता की भाषा में बांध दिया। और जब जीवन एक उपयोगिता है, तो चोरी हो सकती है। मूल्य है, तो चोरी नहीं हो सकती। चोरी उन्हीं चीजों की हो सकती है, जो बाजार में हैं। और सारी जिंदगी बाजार में है। पांच हजार, दस हजार साल की निरंतर चेष्टा का परिणाम यह हुआ कि हर चीज बाजार में है। बाजार के बाहर कुछ भी नहीं है। और अगर बाजार के बाहर कुछ भी नहीं है, तो हमें स्वभाव का, सत्य का, आत्मा का कोई भी पता नहीं चल सकता है।
लाओत्से कहता है, गणित को हटा दो, कीमत को हटा दो, होशियारी को हटा दो, ज्ञान को हटा दो। यह न्याय, यह मानवता, यह नीति, यह सिद्धांत--ये हटा दो। और सहज हो जाओ। और जब वह कहता है कि नो दि सिंपल सेल्फ, तो वह यह नहीं कहता कि कोई तुम्हारे भीतर ब्रह्म विराजमान है, उसको जानो। वह कहता है, इन बातों में मत पड़ो। जो भी सहज तुम्हारे भीतर चेतना की छोटी सी किरण है--जो भी, उसे बड़े नाम मत दो--उसकी तलाश करो, उसको खोज लो। और जिस दिन तुम अपने सहज झरने को पा जाओ जीवन के, तब उसके संगीत में ही लीन रहो। जिस दिन तुम अपने झरने को पा जाओ, तब उसी में बहो। जिस दिन तुम अपने भीतर का द्वार खोल लो, तब वही तुम्हारा मंदिर है।
यह जो भीतर छोटा सा छिपा हुआ राज है, यह जो सीक्रेट है, जिस दिन तुम्हारे हाथ में आ जाए, उस दिन तुम सम्राट की गरिमा को उपलब्ध हो जाते हो। और यह तभी उपलब्ध हो सकेगा, जब यह जो जाल तुमने अपने चारों तरफ खड़ा किया है, इसे तुम तोड़ने में सफल हो जाओ।
यह जाल बड़ा है। और इस जाल को हम रोज बढ़ाए चले जाते हैं, इसे बड़ा करते चले जाते हैं। धीरे-धीरे हमारा जो सहज जीवन का स्वर है, वह बिलकुल खो जाता है। उसका हमें कोई पता ही नहीं रह जाता है।

आज इतना ही। फिर हम कल बात करेंगे। पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें, और जाएं।


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