दिनांक 20 जनवरी
1978;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्न
सार:
1--क्या प्रार्थना
और भक्ति भिन्न—भिन्न
हैं?
2--संन्यास
की वैज्ञानिक विधि
क्या है? जो
पथ मुझे मौन में
मिला है, वह
श्रेष्ठ है या
संन्यास?
3--क्या संन्यास
लिए बगैर मेरा
शिष्य रहना संभव?
सोचता हूं आपकी
साधना में एक शाखा
ऐसी भी रहे जिसमें
बिना संन्यास वगैरह
लिए उस सत्ता तक
पहुंचा जाए।
4--यह संसार
क्या है, यह
माया क्या है?
5--क्या आप शराब
भी पीते हैं?
पहला
प्रश्न :
क्या प्रार्थना
और भक्ति—भिन्न—भिन्न
हैं?
भिन्न भी
हैं और अभिन्न
भी।
भिन्न इसलिए
है कि जहां प्रार्थना
पूर्ण होती है,
वहां भक्ति प्रारंभ
होती है। अभिन्न
इसलिए है कि बिना
प्रार्थना के कोई
भक्ति नहीं। ऐसा
ही समझो कि कोई
शास्त्रीय संगीतज्ञ
पहले अपना साज
बिठाता है। साज
बैठ जाए तो संगीत
पैदा हो। साज बिठाना
ही संगीत नहीं
है, लेकिन साज
बिना बिठाए भी
संगीत पैदा न होगा—भूमिका
है। ऐसी ही प्रार्थना
है। प्रार्थना
यानी साज बिठाना।
परमात्मा
की तरफ शब्द के
माध्यम से चलने
का नाम प्रार्थना
है। जब शब्द अनिवार्य
नहीं रह जाते हैं,
निशब्द फलित
होता है;जब
हम परमात्मा के
साथ चुप हो सकते
हैं, मौन हो
सकते है, जब
बोलने की कोई जरूरत
नहीं रह जाती;जब श्रद्धा उस
पराकाष्ठा को छू
लेती है जंहा यह
सवाल ही नहीं उठता
कि हम कुछ कहें—जों
कहना है, वह
जानता है; जो
होना है वह वह जानता
है; जो नहीं
होना है, वह
नहीं हो सकता है;जो नहीं होना
चाहिए, वह नहीं
होगा—जंहा प्रीति
ऐसी परम स्थिति
को उपलब्ध होती
है, वहा भक्ति।
प्रार्थना
है फूल जैसी, भक्ति है सुगंध
जैसी। प्रार्थना
में थोड़ा रूप है,
थोड़ा रंग है;
आकार है, गुण है; भक्ति
निर्गुण है, निराकार है।
भक्ति सुवास है
मुक्त हो गयी फूल
से। लेकिन फूल
के बिना कोई सुवास
नहीं है।
दोनों की
सीमाएं मिलती हैं,
एक—दूसरे में
प्रवेश करती हैं;कहा प्रार्थना
समाप्त हो जाती
है, कहा भक्ति
शुरू होती है कहना
अति कठिन है। रेखा
खींची नहीं जा
सकती। किस दिन
आदमी जवान था और
किस दिन बूढ़ा हो
गया, कौन रेखा
खींचे! किस दिन
बच्चा बच्चा था
और कब जवान हो गया,
कौन रेखा खींचे!
कब तक आदमी जीवित
था और कब मर गया,
कौन रेखा खींचे!
सब रेखाएं कृत्रिम
हैं, काम—चलाऊ
हैं।
काम चलाने
के लिए तुमसे कह
रहा हूं कि प्रार्थना
सशब्द भक्ति है।
और भक्ति निशब्द
हो गयी प्रार्थना
है। जंहा सारे
शब्द शून्य में
लीन हो गए हैं।
जंहा संगीत भी
शांत हो
गया। उस परम नीरवता
में, उस निबिड़
घने मौन में भक्ति
है।
दूसरा
प्रश्न :
संन्यास
की वैज्ञानिक विधि
क्या है? विधि
की व्याख्या करें।
जो पथ मुझे मौन
में मिला है, वह श्रेष्ठ है
या संन्यास?
संन्यास
की कोई वैज्ञानिक
व्याख्या नहीं
है। संन्यास वैज्ञानिक
नहीं है। संन्यास
विज्ञान के पार
है। विज्ञान यानी गणित,
विज्ञान यानी
तर्क, विज्ञान
यानी आदमी के सोच—समझ
के जो भीतर है।
विज्ञान की सीमा
पदार्थ पर पूरी
हो जाती है। विज्ञान
देह से ज्यादा
गहरा प्रवेश नहीं
कर पाता। विज्ञान
की विधि ही स्थूल
पर आधारित है।
सूक्ष्म विज्ञान
की पकड़ मे नहीं
आता। सूक्ष्म छूट—छूट
जाता है। चूंकि
सूक्ष्म छूट—छूट
जाता है, विज्ञान
कहता है
सूक्ष्म है ही
नहीं। ऐसे ही समझो
कि कोई कान से देखने
चला—कान से कोई
कैसे देखेगा,
कान से सुनेगा।
फिर कान को ही जिसने
आंख समझा है, वह कहेगा, सुनने पर जगत
समाप्त हो जाता
है; यहा देखने
को न कुछ है, न कभी था, न
कभी होगा। या जो
आंख से सुनने चला,
वह भी अज्ञान
में भटक जाएगा।
आंख देख सकती है,
सुन नहीं सकती।
रूप देखेगी, रंग देखेगी,
लेकिन ध्वनि!
ध्वनि आंख के लिए
अस्तित्व में ही
नहीं होती। ध्वनि
की कोई टंकार आंख
पर नहीं पड़ती।
तो जो आंख से सुनने
चला है, वह अगर
कहे—कोई संगीत
नहीं, कोई ध्वनि
नहीं, जगत मौन
है, तो कुछ आश्चर्य
न होगा।
ऐसी ही अड़चन
विधियों के साथ
है। विज्ञान की
विधि है—तर्क,
गणित। जीवन तर्क
और गणित से बड़ा
है। यहा बहुत कुछ
है जो तर्क और गणित
की पकड़ में नहीं
आता। और सच तो यह
है, वह जो तर्क
और गणित की पकड़
में नहीं आता,
वही मूल्यवान
है। कोई पूछे तुम
से, प्रेम की
क्या वैज्ञानिक
व्याख्या है?
अब तक कोई कर
नहीं पाया। इससे
यह सिद्ध नहीं
होता कि प्रेम
नहीं होता। इससे
यही सिद्ध होता
है कि प्रेम और
तर्क के रास्ते
अलग—अलग—है, एक दूसरे को काटते
नहीं। प्रेम होता
है अतर्क्य, अनिर्वचनीय।
उतरता है ऊपर से,
घेर लेता है
तुम्हें, रूपांतरित
कर जाता है, नया कर जाता है।
तुम अनुभव भी कर
लेते हो, फिर
भी कहने में असमर्थ
पाते हो कि क्या
हुआ है। प्रेमी
अवाक होता है,
ठगा—ठगा रह जाता
है। भरोसा नहीं
कर पाता कि जो हुआ
है, वह हुआ! लेकिन
हुआ है, यह भी
तय है, क्योंकि
अपने को बदला हुआ
पाता है, नया
हुआ पाता है।
संन्यास
परम का प्रेम है।
वह जो आत्यंतिक
है, वह जो तर्कातीत
है, उसका प्रेम
है। संन्यास का
अर्थ है, मैं
इस बात की घोषणा
करता हूं कि अब
मैं परम के लिए
समर्पित हूं। और
अगर परम अतर्क्य
है, तो मैं अतर्क्य
मे जाऊंगा। मैं
तर्क को बाधा न
बनाऊंगा। और अगर
परम बुद्धि के
अतीत है, तो
में बुद्धि के
अतीत उठूंगा। मैं
कोई सीमा न मानूंगा।
जैसा जीवन है,
मैं उस पूरे—पूरे
जीवन को जानना
चाहूंगा। अगर जीवन
विरोधाभासी है,
तो मैं कोई शर्त
न लगाऊंगा कि विरोधाभास
नहीं होना चाहिए।
अगर जीवन असंगत
है, तो मैं असंगत
में छलांग लगाऊंगा।
संन्यास
की कोई वैज्ञानिक
व्याख्या संभव
नहीं है। काम चलाने
को कुछ बातें हम
कह सकते हैं, लेकिन ध्यान
रखना—काम चलाने
को।
एक व्यक्ति
तो होता है विद्यार्थी।
विद्यार्थी का
अर्थ होता है,
जो ज्ञान अर्जित
करने चला और एक
व्यक्ति होता है
शिष्य। शिष्य का
अर्थ होता है,
जो अस्तित्व
अर्जित करने चले,
ज्ञान नहीं।
ज्ञान छोटी बात
है। विद्यार्थी
सूचनाएं इकट्ठी
करता है। शिष्य
गुरु का अस्तित्व
पीता है, सत्संग
करता है। संन्यास
शिष्यत्व की पराकाष्ठा
है। जंहा शिष्य
ऐसा अनुभव करता
है कि अब मेरे अलग
होने की कोई जरूरत
नहीं है। अब मैं
गुरु से एक हो जाऊं।
अब इतनी भी दूरी
क्यों रखूं! यह
मैं, मैं, मैं का स्वर क्या
बचाऊं? शिष्य
गुरु के सान्निध्य
को अनुभव करते—करते
उस जगह आ जाता है
जंहा वह जानता
है—अब एक छोटी सी
बाधा रह गयी है
मैं की, अब इस
बाधा को भी गिरा
दूं। अब मेरे और
गुरु के बीच कोई
व्यवधान न रहे।
वह घड़ी संन्यास
की घड़ी है।
विद्यार्थी
सूचना इकट्ठी करता
है, शिष्य अस्तित्व
इकट्ठा करता है।
संन्यासी अस्तित्व
में एक हो जाता
है, लीन हो जाता
है। संन्यास ऐसे
है जैसे नदी सागर
में गिरती है;ऐसे जब कोई व्यक्ति
जब किसी में गिरता
है। विद्यार्थी
को प्रयोजन नहीं
है। उसकी एक सीमा
है। वह कहता है,
आपकी जानकारियों
का मुझे पता चल
जाए, मैं इकट्ठी
कर लूं और अपने
रास्ते पर चला
जाऊं। उसका एक
स्वार्थ है, वह पूरा हो जाए।
संन्यासी
जाने को नहीं है।
वह कहता है—आ गया,
मुझे मेरा मुकाम
मिल गया, अब
मुझे कहीं जाना
नहीं है। इन दोनो
के बीच में शिष्य
है, जो थोड़ा—
थोड़ा संन्यासी
है, थोड़ा— थोड़ा
विद्यार्थी है।
जो कहता है कि सूचना
से ही नहीं होगा,
अस्तित्व को
भी थोड़ा चखूं।
लेकिन अभी अपने
को बचाए भी रखता
है कि कौन जाने,
जरूरत पड़ जाए,
तो एकदम अपने
को गंवा ही न दूं।
मौका आए, अड़चन
आए, कठिनाई
पड़े तो लौट भी जा
सकूं। पुरानी सीढ़ियां
तोड़ न दूं;पुरानी
नाव तोड़ न दूं,
अपने को थोड़ा
बचाए रखूं। कभी
कोई कठिनाई हो
जाएगी तो अपनी
सुरक्षा रहेगी।
संन्यासी
अपनी सब सुरक्षा
भूल जाता है। तोड़
देता है उन सेतुओं
को जिनसे आया,
तोड़ देता अपने
को। मैं के स्वर
के विसर्जन का
नाम संन्यास है।
यह तो उसकी अंतरात्मा
है। फिर भी कहता
हूं—यह काम—चलाऊ
है। लेकिन इससे
तुम्हें थोड़ा सा
इंगित मिलेगा।
पूछा है—संन्यास
की वैज्ञानिक विधि
क्या है? संन्यास
की विधि कहना ठीक
नहीं, संन्यास
परम विधि है। संन्यास
एक उपाय है अहंकार—मुक्ति
का। संन्यास और
विधियों में एक
विधि नहीं है।
जब सब विधियां
हार जाती हैं,
तब संन्यास है।
जंहा आदमी जो कर
सकता था कर लिया—योग
किया, ध्यान
किया, तप किया,
पूजा की, उपासना की, उपवास किए—जो
कर सकता था, सब कर लिया, जो अपने से कर
सकता था सब कर लिया।
और ऐसा भी नहीं
है कि उनसे लाभ
नहीं हुआ, खूब
लाभ भी हुए, मगर तृप्ति नहीं
हुई। मिला भी,
नही मिला ऐसा
नहीं। जो टटोलेगा,
खोजेगा, चलेगा,
पाएगा, लेकिन
इतना न मिला कि
यह खोज समाप्त
हो जाती। तब एक
दिन सारी विधियों
के उपयोग करने
के बाद यह समझ में
आना शुरू होता
है कि एक अडूचनन
है। मैं अड़चन हूं,
जिसके कारण सभी
विधियां अधूरी
रह जाती हैं। ध्यान
तो करता हूं;लेकिन मैं ध्यान
करता हूं। और मैं
बाधा बन जाता है।
तप तो करता हूं,
लेकिन मैं तप
करता हूं;और
मैं तप की सारी
की सारी गुणवत्ता
बदल देता है। अमृत
तो खोजता हूं लेकिन
मैं के पात्र में
खोजता हूं और मैं
जहर है। अमृत की
बूंद पड़ भी नहीं
पाती इस पात्र
में कि जहर हो जाती
है। जिस दिन बहुत
विधियां करके यह
समझ में आता है
संन्यास निर्विधि
है, उस दिन व्यक्ति
कहता है—अब इस मैं
को कहा टागूं?
इस मैं को कैसे
गिराऊं? तुम
अपने से गिराओ
तो अड़चन है। अड़चन
यह है कि वह ‘मैं’
ही गिराने वाला
भी होगा।
इसे समझना, यह
थोड़ा सूक्ष्म है।
‘मैं’ को अपने
से गिराना ऐसे
ही है, जैसे कोई
अपने जूते के बंदों
को पकड़कर अपने
को उठाने की कोशिश
करे। या जैसे कभी
सर्दी की सुबह
मे तुम ने धूप लेते
कुत्ते को देखा
हो, अपनी पूंछ
को पकड़ने की कोशिश
करे। बैठा देखता
है कि पूंछ यह रही,
पास ही पड़ी है,
इतने पास कि
झपट्टा मार दे।
लेकिन जब झपट्टा
मारता है, तो
पूंछ भी छलांग
लगा जाती है। तब
तो कुत्ता भी और
भी उद्विग्न हो
जाता है, और
भी तीव्रता से
भर जाता है। यह
चुनौती स्वीकार
करने योग्य मालूम
होती है, और
झपटने लगता है।
जितना झपटता है,
उतना ही पगलाता
है। पूंछ पकड़ी
नहीं जा सकती ऐसे।
तुम अपने
अहंकार को अपने
से न गिरा सकोगे।
गिराने वाला कौन? गिराने
वाले में ही अहंकार
छिप जाएगा। अहंकार
की यही सूक्ष्म
गति है। अहंकार
कहने लगेगा, देखो! मैं कितना
निर—अहकारी हो
गया हूं! देखो,
मेरी जैसी विनम्रता
किसकी! देखो, मैं चरणों की
धूल हो गया—सबके
चरणों की धूल! लेकिन
मैं खड़ा है और रस
ले रहा है। कभी
लेता था रस—मेरे
पास इतना धन है,
मेरा इतना नाम
है, मेरा इतना
यश है। अब रस लेता
है कि देखो मेरी
विनम्रता।
चीन में
एक पुरानी कहानी
है। एक ताओवादी
संत दूर जंगल मे
अकेला रहता था।
कोई यात्री निकलते
थे जंगल से। संत
को वृक्ष के नीचे
बैठे देखकर वे
बड़े प्रभावित हुए।
उन्होंने और भी
संत देखे थे, लेकिन
इतने एकात में
बैठा हुआ संत! उन्होंने
संत देखे थे जो
शिष्यों की तलाश
करते रहते हैं,
और यह आदमी सबसे
भाग आया है। इसे
शिष्यों से कुछ
लेना—देना नहीं
है। इसे भीड़— भाड़
से कोई संबंध नहीं
है। वे चरणों में
झुके और उन्होंने
कहा—संत आप हैं।
और संतों को तो
हमने बाजार में
भागते देखा है,
शिष्यों की भीड़
इकट्ठी करते देखा
है, संत आप हैं।
संत ने आखें खोलीं
और कहा कि तुम ठीक
कहते हो, मेरा
एक भी शिष्य नहीं
है।
क्या फर्क
पड़ा?
कोई कहता है
—मेरे लाख शिष्य
हैं, और कोई
कहता है—मेरा एक
भी शिष्य नहीं
है। कहा फर्क है?
कहीं फर्क नहीं
है। मैं खड़ा है।
संत की आंखों में
वही चमक आ गयी जो
अहंकार की चमक
है। संत यह कह रहा
है —मुझे देखो,
और संत कहा हैं;
संत हूं तो मैं
हूं और तो सब धोखा—ढकोसला
है। सब मिथ्या
हैं, सत्य मैं
हूं।
अहंकार
और क्या है?
स्वयं से
गिराना मुश्किल
है। संन्यास इतना
ही अर्थ होता है—कोई
बहाना ले लें अहंकार
को गिराने का।
मैं तुमसे कहता
हूं कि लाओ, मुझे
दे दो। अहंकार
कुछ है नहीं कि
तुम मुझे दे दोगे,
अहंकार तो छाया
है। ऐसा भी कुछ
नहीं है कि तुम्हारा
अहंकार मैं ले
लूंगा तो मैं किसी
अड़चन में पड़ जाऊंगा।
अहंकार तो कुछ
है ही नहीं, सिर्फ भ्रांति
है। मैं तुमसे
कहता हूं—चलो,
मुझे दे दो।
तुम भ्राति से
भरे हो, मैं
कहता हूं तुम्हारी
भांति मुझे दे
दो, मैं सम्हाल
लूंगा; तुम
निश्चित हो जाओ।
यह तो सिर्फ निमित्त
है। गुरु सिर्फ
निमित्त है, जंहा अहंकार
को चढ़ाया जा सकता
है—और सरलता से,
बिना चेष्टा
के।
संन्यास
लेने का अर्थ है, अहंकार
देना। तुम उधर
से अहंकार दो,
मैं इधर से तुम्हें
संन्यास देता हूं।
तुम उधर से झुको,
मैं इधर से अपने
को तुम में भरूं।
तुम उधर खाली हो
जाओ, तो मेरे
और तुम्हारे बीच
एक संबंध बनेगा
जो न विद्यार्थी
का है, न जो केवल
शिष्य का है। एक
ऐसा संबंध बनेगा
जिसमें तुम मुझसे
अनन्य हो गए, तुम मुझसे अभिन्न
हो गए। यह हिम्मत
वही कर सकता है
जो पीछे लौटने
की जरा भी कामना
न रखता हो। यह हिम्मत
वही कर सकता है
जिसे अतीत का थोड़ा
भी मोह न हो। यह
हिम्मत वही कर
सकता है जो जोखम
उठाने में साहसी
है।
संन्यास
जोखम है; दुस्साहस
है। यह परम विधि
है। यह सारी विधियों
का अंतिम चरण है।
जब और विधियां
और काम कर जाती
हैं लेकिन अहंकार
को नहीं छुड़ा पातीं,
तब संन्यास है।
संन्यास
शब्द का अर्थ होता
है—सम्यक—न्यास।
ठीक—ठीक छुटकारा।
ठीक—ठीक मुक्ति।
कर ली सारी चेष्टाएं, अब
हार गए, थक गए।
उस हारी— थकी दशा
में चढ़ा दिया जो
भी था। निर्भार
हो रहे। बड़ा कठिन
है आदमी को निर्भार
होना। अहंकार हमारे
भीतर ऐसा प्रबल
है कि हम उसी अहंकार
के कारण दूसरों
में भी अहंकार
देखते हैं। जहां
नहीं है, वहा
भी हमें अहंकार
दिखायी पड़ता है।
लोगों की तो बात
ही छोड़ दो, हम
परमात्मा में भी
किसी तरह का अहंकार
खोजते रहते हैं।
कल मैं एक
गीत पढ़ता था—
रात में
क्या जाने
कोई गिनता
है कि नहीं गिनता
आसमान के
तारों को यों
कि कोई रह
तो नहीं गया आने
से
प्रभात
में क्या जाने
कोई सुनता
है कि नहीं सुनता
यों
कि रह तो
नहीं गया कोई पंछी
गाने से
दोपहर को
कोई
देखता है
कि नहीं देखता
वन—भर पर
दौड़ा कर आंख
कि पानी
सबने पी लिया है
कि नहीं
और शाम को
यह
कि जितना
जिसे दिया गया
था
उतना उसने
जी लिया है कि नहीं
ऐसा कोई
परमात्मा कहीं
बैठा हुआ नहीं।
परमात्मा कोई व्यक्ति
नहीं है, लेकिन
हम व्यक्ति हैं,
तो हम परमात्मा
तक को व्यक्ति
के ही आकार में
सोचते हैं। हम
सोचते हैं, परमात्मा भी
कहता होगा—मैं।
मैं चलाऊ तारों
को, मैं जगाऊं
तारों को, मैं
सुलाऊं तारों को,
मैं उठाऊं पक्षियों
को, मैं खोलूं
पखडियों को फूलों
की, मैं जाऊं
और देखूं मैं रक्षा
करूं, नियोजन
करूं, संयोजन
करूं—ऐसा कोई मैं
नहीं है वहां।
लेकिन तुम्हारे
भीतर तुमने मान
रखा है कि कोई मैं
है—श्वास लूं यह
करूं, वह करूं।
तुम सोचते हो,
ऐसा ही विराट
होगा परमात्मा
का अहंकार।
जैसे—जैसे
तुम अनुभव करोगे
कि तुम्हारे होने
की कोई जरूरत नहीं
और सब चलता है, यही
परम अनुभव है।
जिस दिन तुम यह
पाते हो कि तुम
सांस न लो, तो
भी चलती है—सब चलता
है, कहीं कोई
अवरोध नहीं आता;
सच तो यह है,
पहले से बेहतर
चलता है, क्योंकि
पहले मैं के कारण
थोड़ी अड़चनें आती
थीं, अब वे भी
नहीं आतीं। मैं
के कारण कभी विषाद
होता था, कभी
विजय के कारण उन्माद
होता था, कभी
हार के कारण विषाद
होता था, अब
वे भी नहीं होते।
अब न कोई उन्माद
है, न कोई विषाद
है। अब सब शांत
है। अब सब
गया ऊहापोह, गयी सब आपाधापी।
अब चीजें बड़ी शांति
से बहती हैं, जैसे झरने बहते
हैं, जैसे वृक्ष
बढ़ते हैं, जैसे
किसी मां के पेट
में बच्चा बड़ा
होता है, जैसे
जमीन में कोई बीज
टूटता है, ऐसे
सब चुपचाप होता
रहता है, किसी
के किए कुछ भी नहीं।
क्या तुम
सोचते हो बीज जब
टूटता है जमीन
में तो अपने को
तोड़ता है, कि
कहता है कि अब मैं
तोडु कि देखो अब
वसंत के दिन आ गए,
कि अब ऋतु अनुकूल
हुई, कि अब यह
समय है, कि यह
तिथि आ गयी, अब मुझे टूटना
ही होगा। क्या
सुबह उठकर पक्षी
सोचते हैं कि अब
सुबह हो गयी, अब उठें भी और
अब गीत गाएं। क्योंकि
यही हमारे पुरखे
भी करते रहे, यही हम भी करें,
यही हमारी नियति
है। क्या तुम सोचते
हो सांझ होने पर
तारे विचार करते
हैं कि अब हटा दें
अपना घूंघट और
प्रकट हो जाएं,
दिन गया, सूरज अस्त हुआ।
कहीं कुछ नहीं
कोई सोच रहा है।
सब हो रहा है चुपचाप।
कर्ता कहीं भी
नहीं है और विराट
कृत्य चल रहा है।
यही रहस्य है,
यही लीला है।
लीलाधर कोई भी
नहीं है।
संन्यास
उसी की दिशा में
एक अनुभव है। संन्यास
उसी की दिशा में
एक द्वार है कि
तुम छोड़ो और चीजों
को अपने से होने
दो।
फिर तुमने
पूछा : कि जो पथ मुझे
मौन में मिला है, वह
श्रेष्ठ है या
संन्यास? मौन
में यदि पथ मिला
हो तो कहौ ले जाएगा,
संन्यास में
ही ले जाएगा। मौन
में अगर समझ जगी
हो, तो समर्पण
में ही ले जाएगी।
मौन में अगर अहंकार
मिला हो, तो
संन्यास में बाधा
पड़ेगी। तो तुम्हारे
प्रश्न में बहुत
ज्यादा अर्थ नहीं
है कि श्रेष्ठ
कौन है? यह तो
ऐसे ही है कि जैसे
कोई कहे कि अगर
एकांत में फूल
खिला हो, तो
फिर सुगंध श्रेष्ठ
है या फूल? फूल
खिला हो, तो
सुगंध ही प्रकट
होगी और क्या प्रकट
होगा! एकांत में
मौन फला हो तो अहंकार
की मृत्यु होगी
और क्या होगा! और
संन्यास अहंकार
की मृत्यु का एक
प्रयोग है। दोनों
में कुछ भेद नहीं
है।
सुगंध में
स्वर होता
है कि नहीं होता
प्यार में
डर होता
है कि नहीं होता
पुरानी
पड़ चुकी छवियां
मन में नाचती
हैं कि नहीं नाचती
डूबकर किरनें
छाया को
बाचती हैं कि नहीं
बाचतीं
फूल और बीज
एक हैं या नहीं
पूनों और
तीज एक हैं या नहीं
या सब चीजें
एक हैं
उनके सिर्फ
अलग—अलग रुख हैं
जैसे हमारे इस
ने
सुख और दुख
हैं
कहां भेद
हैं?
—
फूल और बीज
एक हैं या नहीं
पूनों और
तीज एक हैं या नहीं
वह जो तीज
है,
वही तो पूनों
बनेगी। और जो पूनों
है, वही तो तीज
बनती है।
तुम्हें
अगर एकात में कोई
मार्ग मिला है, पथ
सूझा है, तो
कहा ले जाएगा?
एकात में मिला
हुआ पथ, मौन
में दिखा हुआ मार्ग,
अंततः ले जाएगा
समर्पण में। समर्पण
संन्यास है।
मैं तो निमित्त
हूं;
यहां संन्यास
घटता है या नहीं
घटता, यह सवाल
नहीं है, कहीं
न कहीं घटेगा।
यहीं घटे, ऐसा
कोई आग्रह नहीं
है। क्यों यहीं
घटे? इतनी विराट
पृथ्वी है, कहीं भी घट सकता
है। तो ध्यान रखना,
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि तुम्हारा
संन्यास यहीं घटना
चाहिए। तुम्हारा
फूल यहीं सुगंध
को बिखेरे, यह भी कोई बात
हुई! मगर फूल खिला
है तो सुगंध बिखरेगी।
संन्यास फलित होगा।
कपड़े बदलें कि
न बदलें...। यह बड़ा
सवाल नहीं है,
कि मेरे पास
घटे कि किसी और
के पास घटे, कि अत्यंत एकात
में घटे, यह
भी बात नहीं है।
लेकिन संन्यास
घटेगा अगर मार्ग
मिल गया है।
लेकिन तुम्हारा
प्रश्न ही बनाता
है कि मार्ग मिला
नहीं होगा। तुमने
मान लिया है कि
मिल गया है। मिल
ही गया हो तो पूछो
क्यों? पूछने
को क्या है फिर
और? मानते होओगे
कि मिल गया है—ऐसा
कैसे हो सकता है
कि मुझे और न मिले!
वही मैं पीछे खड़ा
है। वही मैं झुकने
से रोकता है। गौर
से देख लेना, तुम्हारी मर्जी।
उस मैं के साथ तुम
रहना चाहो तो मैं
कौन हूं जो बाधा
दूं। उस मैं के
साथ तुम्हें रस
आता हो, तो मेरे
सारे आशीर्वाद
तुम्हें हैं,
तुम रस लो। लेकिन
अगर उस मैं मे काटे
चुभते हों, उदासी पकड़ती
हो, विषाद गहन
होता हो; उस
मैं के कारण जीवन
उथला—उथला रह जाता
हो, गहराई न
पाता हो, तो
यहां भी एक द्वार
हमने खोला है,
उस द्वार से
तुम प्रवेश पा
सकते हो प्रभु
के मंदिर मे। और
भी बहुत द्वार
हैं, इसी द्वार
का दावा नहीं है।
लेकिन तुम कहीं
न कहीं से प्रवेश
पाओ जरूर। मैं
से थकों, समर्पण
में डूबो।
तीसरा
प्रश्न :
क्या यह
संभव है कि मैं
बगैर संन्यास लिए
आपका शिष्य रह
सकूं और जिस मौन—साधना
का जन्म मेरे भीतर
हुआ है, उसे आगे
बढ़ाता जाऊं? है तो सब आपका
ही दिया हुआ, पर यह मेरे अंतस
से जानी हुई प्रणाली
है, और मुझे
लगता है इसी का
अनुगमन करने में
ज्यादा फायदा है।
मैं यह भी सोचता
हूं कि आपकी साधना
में एक शाखा ऐसी
भी रहे जिसमें
बिना संन्यास वगैरह
लिए भी उस सत्ता
तक पहुंचा जाए।
कृपाकर बताएं कि
मैं कहा तक सही
सोचता हूं?
जब तक तुम
सोचते हो, गलत
ही सोचोगे। सोचना
मात्र गलत है।
जब तक 'तुम'
सोचोगे, तब
तक गलत सोचोगे
क्योंकि मैं की
अवधारणा ही गलत
है।
तुम जोखम
भी नहीं लेना चाहते, तुम
पाने को भी आतुर
हो, और तुम कोई
खतरा नहीं उठाना
चाहते। तुम कहते
हो—क्या यह संभव
है कि मैं बगैर
संन्यास लिए आपका
शिष्य रह सकूं?
मेरी तरफ से
कोई अड़चन नहीं
है, अड़चनें
तुम्हारी तरफ से
आएंगी। मेरी तरफ
से क्या अड़चन है,
तुम मजे से शिष्य
रहो, विद्यार्थी
रहो, कोई भी
न रहो, मेरी
तरफ से कोई अड़चन
नहीं है। मेरी
तरफ से तुम मुक्त
हो। अड़चन तुम्हारी
तरफ से आएगी—तुम
बिना संन्यासी
हुए शिष्य रहना
चाहते हो, अड़चन
शुरू हो गयी। इसका
मतलब यह हुआ कि
मेरे बिना पास
आए पास आना चाहते
हो। कैसे यह होगा?
पास आओगे तो
संन्यास फलित होगा।
संन्यास से बचना
है तो दूर—दूर रहना
होगा, थोड़े
फासले पर बैठना
होगा। थोड़ी गुंजाइश
रखनी होगी। कहीं
ज्यादा पास आ जाओ
और मेरे रंग में
रंग जाओ, यह
डर तो बना ही रहेगा
न! मेरी बात भी सुनोगे
तो भी दूर खड़े होकर
सुनोगे, कि
कितनी लेनी और
कितनी नहीं लेनी।
चुनाव करने वाले
तुम ही रहोगे।
और काश! तुम्हें
पता होता कि सत्य
क्या है तब तो मेरी
बात भी सुनने की
क्या जरूरत थी!
तुम्हे सत्य का
कुछ पता नहीं।
तुम चुनाव करोगे,
तुम्हारे असत्य
ही उस चुनाव में
आधारभूत होंगे।
वही तुम्हारी तराजू
होगी, उसी पर
तुम तौलोगे;और सदा तुम डरे
भी रहोगे कि कहीं
ज्यादा पास न आ
जाऊं, कहीं
इन और दूसरे गैरिक
वस्त्रधारियों
की तरह मैं भी सम्मोहित
न हो जाऊं—मुझे
तो संन्यासी नहीं
होना है, मुझे
तो सिर्फ शिष्य
रहना है।
शिष्य का
मतलब समझते हो?
शिष्य का
मतलब होता है—जो
सीखने के लिए परिपूर्ण
रूप से तैयार है।परिपूर्ण
रूप से तैयार है।
फिर संन्यास घटे
कि मौत घटे, फिर
शर्त नहीं बांधता।
वह कहता है—जब सीखने
ही चले, तो कोई
शर्त न बाधेगे।
फिर जो हो। अगर
सीखने के पहले
ही निर्णय कर लिया
है कि इतना ही सीखेंगे,
इससे आगे कदम
न बढ़ाके, तो
तुम अपने अतीत
से छुटकारा कैसे
पाओगे? तुम
अपने व्यतीत से
मुक्त कैसे होओगे?
तो तुम्हारा
अतीत तुम्हे अवरुद्ध
रखेगा।
मेरी
तरफ से कोई अड़चन
नहीं है। मैं किसी
को भी नहीं कह रहा
हूं कि तुम संन्यासी
हो जाओ—जल्दी ही
मैं लोगों को समझाने
भी लगूंगा कि अब
मत होना। क्योंकि
आखिर मुझे भी कितनी
झंझट लेनी है, उसकी
सीमा है।
जल्दी ही
मैं लोगो को हताश
भी करने लगूंगा
कि नहीं, कोई जरूरत
नहीं है संन्यास
की। मैं किसी को
कह भी नहीं रहा
हूं कि तुम संन्यास
ले लो। और अगर कभी
किसी को कहता हूं
तो उसी को कहता
हूं जिसे मैं पाता
हूं जो कि ले ही
चुका है;जो
सिर्फ प्रतीक्षा
कर रहा है—प्रतीक्षा
भी इसलिए कर रहा
है कि संकोच लगता
है, कैसे कहूं
कि मुझे संन्यास
दे दें—उस को ही
मैं कहता हूं।
मांगूं कैसे?
पता नहीं पात्र
हूं या अपात्र
हूं? ऐसा जब
मैं कोई व्यक्ति
पाता हूं;जो
यह सोचता है कि
मांगूं कैसे,
पता नहीं अपात्र
होऊं —यह दुविधा
मेरे सामने नहीं
खड़ी करना चाहता
कि मुझे न कहना
पड़े, तो चुपचाप
प्रतीक्षा करता
है—जब मैं किसी
को ऐसे चुपचाप
प्रतीक्षा करते
देखता हूं? तभी उसे पुकार
कर कहता हूं कि
तू संन्यास ले।
अन्यथा मैं नहीं
कहता।
यह प्रश्न
पूछा है विजय ने।
विजय परसो दर्शन
को आया था। बार—बार
माला की तरफ देखता
था,
मगर मैंने नहीं
कहा। नहीं कहा
इसीलिए कि यह सब
भाव भीतर बैठे
है। और विजय मुझ
से परिचित है,
कम से कम बीस
साल से परिचित
है, लेकिन उसके
भीतर एक तरह की
अस्मिता है, जिसका मुझे पता
है। कठोर अस्मिता
है, वही बाधा
है। वही अस्मिता
नए—नए रूप लेती
है। अब वही अस्मिता
कहती है कि क्या
आपके पास शिष्य
बनकर नहीं रह सकता?
संन्यास लेना
क्या आवश्यक है?
मेरी तरफ से
कोई भी बात आवश्यक
नहीं है। तुम्हें
जितने देर तक चलना
हो, चलो। शिष्य
रहना है शिष्य
रहो, विद्यार्थी
रहना हो विद्यार्थी
रहो;दर्शक की
भांति आना है,
दर्शक की भांति
आओ, तुम जितना
पी सको, उतना
पीओ। मेरी—तरफ
से बाधा नहीं है
कि अगर तुम आगे
बढ़ना चाहो तो,
मेरी तरफ से
उसमें भी बाधा
नहीं है।
तुम पूछते
हो : कि जिस मौन—साधना
का जन्म मेरे भीतर
हुआ है, उसे आगे
बढ़ाता जाऊं? है तो सब आपका
ही दिया हुआ...। यह
भी तुम बड़ी मुश्किल
से कह रहे होओगे।
यह भी मन मारकर
कहा होगा कि है
तो सब आपका ही दिया
हुआ। यह भी तुम्हें
कहना पड़ा है। नहीं
तो प्रसन्नता तुम्हें
यही कहने में है
कि मेरे भीतर जिस
मौन—साधना का जन्म
हुआ है, उसे
मैं आगे बढ़ाता
जाऊं? क्योंकि
वह मेरे अंतस से
जागी हुई प्रणाली
है। और मुझे लगता
है कि इसीका अनुगमन
करने में ज्यादा
फायदा है। जब तुम
जानते ही हो फायदा
किस बात मे है,
तो चुपचाप अपने
फायदे की बात को
माने चलो। जिस
दिन फायदा न दिखे,
उस दिन पूछना,
अभी वक्त नही
आया। अभी पूछने
का क्षण नहीं आया।
जिस दिन हार जाओ,
उस दिन पूछना।
पूछते क्यों
हो अगर फायदा पता
है?
कहीं संदेह होगा।
कहीं संदेह होगा
कि फायदा हो रहा
है कि नहीं हो रहा
है? कि मैं माने
जा रहा हूं? अक्सर ऐसा हो
जाता है। एक वृद्ध
सज्जन कुछ दिन
पहले आए, कहा
कि तीस साल से ध्यान
कर रहा हूं—मंत्र—जप
करता हूं! मैंने
पूछा, कुछ हुआ?
कहा—हुआ क्यों
नहीं! मगर चेहरे
पर मुझे दूसरा
भाव दिखायी पड़
रहा है कि कुछ नहीं
हुआ, वह कहते
हैं, हुआ क्यों
नहीं! तो मैंने
कहा—सच कह रहे हैं,
थोड़ा सोचकर कहें;आंख बंद कर लें,
एक क्षण सोच
लें—कुछ हुआ? सोचा होगा—एकदम
मूढ़ नहीं थे, नहीं तो जिद बांधकर
बैठ जाते कि जरूर
हुआ है—आंख खोली
और कहा, आपने
ठीक पकड़ा, हुआ
तो कुछ भी नहीं
है। तो फिर मैंने
कहा, आप इतनी
जल्दी कह क्यों
दिए कि हुआ क्यों
नहीं! कहा—वह भी
मुश्किल मालूम
होता है। तीस साल
से मंत्र—जाप करो
और कुछ न हो तो कैसी
अपात्रता मालूम
होती है। तो कैसा
पापी हूं मैं।
फिर तीस साल बेकार
गए? तो तीस साल
का अहंकार खंडित
होता है।
तो अक्सर
लोग,
जब कुछ भी नहीं
होता तो भी किए
चले जाते हैं,
क्योंकि अब कैसे
छोड़े। तीस साल
नियोजित कर दिए;किसी ने पचास
साल किसी विधि
मे लगा दिए, अब कैसे छोड़े?
अभी एक वृद्ध
सज्जन सी. एस. लेविश
लंदन से आए, वह गुर्जिएफ
के शिष्य, कोई
पचास साल... अस्सी
साल उनकी उस... पचास
साल गुर्जिएफ की
धारा के अनुसार
चले। मुझे वहा
से पत्र लिखते
थे कि आना है, दर्शन करना है।
गुर्जिएफ के साथ
तो नहीं हो पाया,
चूक गया, आपको नहीं चूकना
है। यहा आए लेकिन
वह पचास साल का
जो गुर्जिएफ की
प्रणाली के साथ
चलने का अहंकार
है, वह भारी
था। कहने लगे कि
अब इस उम्र में
क्या संन्यास लेना,
अस्सी साल का
हो गया;अब इस
उम्र में क्या
नाव बदलनी! मैंने
कहा पुरानी नाव
ले जाती हो तो मैं
भी नहीं कहूंगा
कि नाव बदलों,
मेरी नाव में
वैसे ही भीड़ है;
तुम पुरानी नाव
से जा सकते हो,
इस नाव में वैसे
भी गुंजाइश नहीं
है, नाव को रोज
बड़ा करने की कोशिश
चल रही है—मगर अगर
पुरानी नाव कहीं
न ले जाती हो तो
एक दफा सोच लो।
वह इतने घबड़ा गए
कि भाग गए। यह बात
ही सोचकर घबड़ा
गए कि पुरानी नाव
से न हुआ हो! फिर
उन्होंने आश्रम
में दूसरे दिन
प्रवेश ही नहीं
किया। आए थे यहां
दों—तीन महीने
रुकने को। सिर्फ
एक चिट्ठी लिखकर
छोड़ गए कि मैं जाता
हूं। वह पचास साल
का भाव, कि पचास
साल मैंने एक साधना
में लगाए। आदमी
का अहंकार न मालूम
किस—किस तरकीबों
से अपने को भरता
है।
मार्ग मिला
हो,
मजे से चलो।
लाभ हो रहा हो,
छोड़ना ही मत—फिर
क्या मेरे साथ
और हानि उठानी
है! जब लाभ हो रहा
है, फायदा हो
रहा है, और तुम्हें
पता है कि फायदा
किस बात में होगा।
तुम निश्चितमना
उसी मार्ग पर चलते
रहो।
और मुझे
यह भी सलाह दी है
कि मैं यह भी सोचता
हूं कि आपको साधना
में एक शाखा ऐसी
भी रहे जिसमें
बिना संन्यास वगैरह
लिए भी उस सत्ता
तक पहुंचा जाए।
क्यों? जिनकी
इतनी हिम्मत नहीं
जो मुझसे पूरे
जुड़ सकें, वे
कहीं और ही रहें।
यहां भीड़ उनकी
क्यों मचाना?
यहां मुझे उन
पर काम करने दो।
जिन्होंने साहस
किया है अपने को
पूरा छोड़ने का।
इन कमजोरों को
यहां क्यों इकट्ठा
करना? इन अपाहिजों
को यहां क्यों
इकट्ठा करना?
लगड़े—लूलों को
क्यों इकट्ठा करना?
जिन लोगों ने
समर्पण किया है,
उनको पहुंचा
पाऊं उनकी मंजिल
तक, सारी शक्ति
उन्हीं पर लगा
देनी है। इसलिए
चुनूगा, जल्दी
ही उनको चुनता
रहूंगा, धीरे—
धीरे उनको छाट
दूंगा बिलकुल,
जिनसे मुझे लगे
कि जिनका साथ कुछ
अर्थ का नहीं—जों
साथ हैं ही नहीं।
जो नाहक ही भीड़—
भाड़ किए है। ताकि
मेरी सारी शक्ति
और मेरी सारी सुविधा
उनके लिए उपलब्ध
हो सके जिन्होंने
जोखम उठायी है।
उनके प्रति मेरा
कुछ दायित्व है।
उनने जोखम उठायी
है, उनके प्रति
मेरा कुछ कर्तव्य
है। और जिनने कुछ
दाव पर नहीं लगाया
है, उनसे मेरा
क्या लेना—देना?
तुम उतनी ही
मात्रा में पाओगे,
जितना तुम दाव
पर लगाओगे। उससे
ज्यादा नहीं मिल
सकता है। उससे
ज्यादा मिलना संभव
ही नहीं है।
आज कुछ नहीं
दिया मुझे पूर्व
ने
यों रोज
कितना देता था।
छंद—छंद
हवा के झोंके
प्रकाश
गान गंध
आज उसने
मुझे कुछ नहीं
दिया
शायद मेरे
भीतर नहीं उभरा
मेरा सूरज
खोले नहीं मेरे
कमल ने
अपने दल
रात बीत
जाने पर!
सूरज तभी
दे सकता है जब तुम
अपने कमल—दल खोलो।
तुम जब अपना हृदय—कमल
खोलो। तुम अपना
हृदय—कमल बंद रखो, फिर
शिकायत सूरज की
मत करना, फिर
यह मत कहना कि सूरज
ने मुझे कुछ नहीं
दिया। तुम लेने
के लिए झोली तो
फैलाओ।
संन्यास
वही झोली फैलाना
है। तुम कहते हों—मेरी
झोली खाली है; तुम
कहते हो—छुपाऊंगा
नहीं, सच—सच
कहे देता हूं मेरी
झोली खाली, यह मेरे हाथ खाली,
यह मेरा भिक्षापात्र
है, मुझे भर
दो। संन्यास का
इतना अर्थ है कि
मैं निवेदन करता
हूं कि मैं खाली
रह गया हूं और मैं
खाली नहीं रह जाना
चाहता, मैं
इस जीवन से भरकर
विदा होना चाहता
हूं। संन्यास का
अर्थ है कि मैं
कहता हूं कि मैं
अज्ञानी हूं मुझे
किरण चाहिए। लोग
हैं जो कहना चाहते
हैं कि जानता तो
मैं भी हूं लेकिन
थोड़ा—बहुत आप से
भी मिल जाए तो कोई
हर्जा नहीं, उस को भी सम्हाल
लूंगा, उस को
भी रख लूंगा। ऐसे
तो मैंने पा ही
लिया है, कुछ
आप से भी मिल जाए
तो चलो और, थोड़े
से ज्यादा भला।
जिन्हें
पता है, उन्हें
मुझ से कुछ भी नहीं
मिलेगा। जो ज्ञानी
हैं, उन्हें
मेरे पास से एक
किरण भी नहीं मिलेगी।
इसलिए नहीं कि
मैं उन्हें देने
में कोई कंजूसी
करूंगा, नहीं
मिल सकती क्योंकि
वे अपने कमल—हृदय
को ही नहीं खोलेंगे।
संन्यास
निमंत्रण है अपने
को मिटाने का।
विराट किसी
तरल रूप—सिंधु
की लहर आत्मा के
मेरे तट
तोड़ रही
है
तकलीफ हो
रही है मगर
आश्वास
मिल रहा है एक कि
लहर
रूप से अरूप
को
जोड़ रही
है
पीड़ा तो
होती है। जब तुम
टूटोगे तो दुख
भी होगा। हृदय
क्षार— क्षार होगा, खंड—खंड
होगा। टूटोगे तो
कोई सुख से कोई
नहीं टूटता, यह बात सच है।
टूटो तो पीड़ा होती
ही है। लेकिन इतना
ही आश्वासन बना
रहे—
तकलीफ हो
रही है मगर
आश्वास
मिल रहा है एक कि
लहर
रूप से अरूप
को
जोड़ रही
है
आने दो मुझे
एक लहर की तरह, खोलो
अपना हृदय, तो मैं तुम्हें
तोडू। तोडू तो
तुम्हें बनाऊं।
मारूं तो तुम्हें
जिलाऊं। सूली पर
लटको तो तुम्हारा
पुनरुज्जीवन है।
संन्यास सूली है
और पुनरुज्जीवन।
चौथा
प्रश्न :
यह संसार
क्या है, यह
माया क्या है?
स्वम्न
है अंधेरे से भरे
मन का। स्वम्न
है सोयी हुई चेतना
का। रोज रात तुम
सपने देखते हो
न, ऐसा ही यह भी स्वम्न
है खुली आंख देखा
गया। भेद जरा भी
नहीं है। रात सपने
में भी तो तुम इसी
भ्रांति में पड़
जाते हो कि जो देख
रहे हो वह सच है।
वही भ्रांति दिन
में भी दोहराते
हो। भ्रांति एक
ही है। रात सपने
को सच मान लेते
हो, दिन संसार
को सच मान लेते
हो। रात दिन का
संसार बिलकुल भूल
जाता है; और
दिन में रात का
सपना बिलकुल भूल
जाता है। और तुमने
हजारों सपने देखे
और हजारों सुबह
तुमने देखीं और
हर सुबह जागकर
पाया सपने झूठे
थे। और फिर रात
आयी और फिर सपने
में खो गए; फिर
भी याद न की। सपने
में कभी याद आती
है तुम्हें कि
जो देख रहा हूं
यह झूठ है, यह
बहुत बार देख चुका?
नींद तुम्हारी
हद की है! कितनी
बार तुमने जाना
कि सपना झूठ है,
मगर यह संपदा
तुम्हारे भीतर
टिकती नहीं। यह
छोटा सा बोध भी
तुम्हारे भीतर
निर्मित नहीं होता।
इसी बोध को तुम्हें
नींद में ले जाना
पड़ेगा। यह नींद
में जाए तो फिर
जागरण में भी आएगा।
गुर्जिएफ
अपने शिष्यों को
कहता था कि पहला
काम है नींद में
जो सपना है उस को
सपना जानना। वह
यह नहीं कहता था
कि संसार को सपना
जानो, क्योंकि
यह बड़ा काम है,
यह संसार तो
बहुत बड़ा है। तुम्हारा
छोटा सा एक संसार
है रात सपने का—बिलकुल
निजी, वैव्यक्तिक।
वहा तुम अकेले
होते हो, कोई
बहुत बड़ा भी नहीं
होता, छोटा
सा घेरा होता है—आंगन—यह
तो बड़ा आकाश है।
फिर इसमें एक खतरा
और है, कि इसमे
तुम्हीं नहीं देखने
वाले हो, दूसरे
भी देख रहे हैं।
और दूसरों की गवाही
भी मिल रही है कि
सच है। रात तुम
जो फूल देखते हो
वह तो तुम अकेले
देखते हो, कोई
गवाह नहीं होता,
बिना गवाह के
भी तुम सच मानते
हो, दिन में
तो बहुत गवाह हैं,
फूल खिला है
लाखों गवाह हैं;
हो सकता है तुम
गलत हो, इतने
लोग कैसे गलत होंगे!
इसलिए दिन पर तो
भरोसा टूट नहीं
सकता।
इस देश में
संसार को माया
कहने की पुरानी
परंपरा रही है।
लेकिन गुर्जिएफ
ने ठीक विधि खोजी
थी—इसको तोड़ना
कैसे? सिर्फ कहने
से क्या होगा?
वेदांती कहते
रहते है—सब संसार
माया है, मगर
कहने से क्या होता
है? उस वेदांती
के जीवन में भी
कहीं दिखायी नहीं
पड़ता कि संसार
माया है। वह भी
ऐसे ही जीता है
जैसा जिसको तुम
कहते हो अज्ञानी,
कोई भेद नहीं
है। जरा भी भेद
नहीं है।
मेरे घर
एक वेदांती संन्यासी
मेहमान हुए। कहते—सब
माया है। अपनी
छोटी सी संदूक
में शंकर जी की
एक पिंडी लिए हुए
थे। मैं जिनके
पड़ोस में रहता
था उनके बच्चे
वहां मेरे खास
खेलने आते थे।
वे बच्चे खेल रहे
थे,
मैंने उनको वह
शंकर जी की पिंडी
दे दी। मैंने कहा,
खेलो; मजा
करो, ले जाओ।
वह स्वामी तो बहुत
नाराज हुए। एकदम
पिंडी छीन ली और
कहा, आप क्या
कहते हैं? यह
शंकर जी की पिंडी,
आपको पता नहीं!
अपवित्र करवा दी!
मैंने कहा, संसार माया है
और पिंडी सच? इतना विराट संसार,
ब्रह्मांड माया
है और यह छोटे से
शंकर जी सच! छोड़ो
भी, जाने दो,
सब माया है।
कोई खास चीज नहीं
ले जा रहे हैं।
पत्थर का टुकड़ा
है, कहीं से
उठा लिया है।
लेकिन हिम्मत
न जुड़ा सके वे कि
पिंडी को दे देते।
जल्दी से संदूकची
में सम्हालकर रख
ली। तो मैंने कहा, अब
तुम यह माया इत्यादि
की बकवास बंद कर
दो। तुम्हारी पिंडी
सच है और किसी ने
अपनी तिजोड़ी में
धन इकट्ठा कर रखा
है, वह माया
है। फर्क क्या
है? भेद क्या
है?
स्वयं आद्य
शंकराचार्य के
संबंध में यह कहानी
है कि काशी के घाट
पर उतरते थे, सुबह
स्नान करके कि
एक शूद्र पास से
गुजर गया—गुजरा
ही नहीं, उनको
छूता गुजर गया।
बहुत नाराज हो
गए। एकदम चिल्लाए
कि तुझे इतनी भी
समझ नहीं है, शूद्र होकर और
होश नहीं रखता,
मैं अभी—अभी
नहाकर आया, मुझे अपवित्र
कर दिया। उस शूद्र
ने कहा—महाराज,
आपके ज्ञान की
चर्चा सुनी, उसी भांति मे
मैं आ गया। मैंने
सोचा जब सब माया
है तो कौन शूद्र,
कौन ब्राह्मण?
कैसा शूद्र,
कैसा ब्राह्मण,
जब सब सपना है?
किस ने किस को
छुआ, जब छूना
ही सपना है?
फिर मैं
यह पूछता हूं कि
आपकी देह अपवित्र
हो गयी कि आपकी
आत्मा अपवित्र
हो गयी? क्योंकि
देह तो अपवित्र
है, ऐसा मैंने
आपके वचनों में
पढ़ा कि देह तो अपवित्र
है ही। तो जो अपवित्र
है, वह तो मेरे
छूने से अपवित्र
नहीं हो जाएगी।
यह भी देह है, वह भी देह है,
अपवित्र ने अपवित्र
को छुआ, इसमें
क्या फर्क पड़ गया?
और आत्मा आपके
भाषणों मे मैंने
सुना कि पवित्र
है—शुद्ध—बुद्ध,
सत—चित—आनंद।
तो मेरी आत्मा
ने अगर आपकी आत्मा
को छुआ तो भी कोई
अड़चन नहीं होनी
चाहिए, क्योंकि
दोनों ही शुद्ध—बुद्ध,
मिल गए, आनंद
ही आनंद है, आप इतने नाराज
क्यों होते हैं?
शंकराचार्य
कभी किसी पंडित
से नहीं हारे थे, उस
शूद्र से हारे।
झुककर उसे प्रणाम
किया और कहा, तूने मुझे ठीक
बोध दिया।
सिद्धात
की बात एक है, तर्क
की बात एक है, जीवंत अनुभव
बड़ी और बात है।
गुर्जिएफ
ने ठीक विधि खोजी
थी। गुर्जिएफ की
विधि यह थी कि सपने
मे जागकर देखना
है कि यह सपना है।
तो वह अपने शिष्यों
को कहता कि रोज
रात सोते समय एक
ही बात, एक ही बात,
एक ही बात दोहराते—दोहराते
सोना, कब नींद
आ जाए पता न चले,
तुम यह दोहराते
ही रहना कि आज की
रात चूकूंगा नहीं,
सपना सामने आएगा
और मेरे भीतर यह
भाव उठेगा कि यह
सपना है, यह
झूठ है।
कोई तीन
महीने से छह महीन
लग जाते, लेकिन
एक दिन यह बात घटती
है। एक दिन यह बात
सपने में घट जाती
है कि सामने सपना
होता है—यह सोने
का महल, कि यह
अप्सराओं का नृत्य,
कि यह हीरे—जवाहरातों
की राशि, या
कुछ और—एक दिन यह
बात घटती है कि
वह दोहरते—दोहरते
निरंतर—निरंतर
तुम्हारे चेतन
से उतरते—उतरते,
रिसते—रिसते
अचेतन में बात
पहुंच गयी। उस
दिन सपना होता
है और तुम एकदम
से जागकर भीतर
देखते हो कि अरे!
यह सपना है, झूठ है। और तब
एक बड़ा अदभुत अनुभव
होगा, अदभुत
अनुभव यह होगा
कि जैसे ही तुमने
जाना कि यह झूठ
है कि सपना टूट
जाता है—उसी वक्त
सपना टूट जाता
है फिर एक इंच आगे
नहीं चलता। जैसे
फिल्म एकदम से
बंद हो गयी, पर्दा खाली हो
गया।
गुर्जिएफ
कहता था, फिर दूसरा
चरण है। जब वह घट
जाए, रात का
सपना तोड़ने की
कला तुम्हें आ
जाए, तब फिर
दिन में जागकर
देखना कि सब सपना
है। तब वह भी घटेगा,
शायद वह और भी
ज्यादा समय लेगा।
मगर रात का सपना
जिसने तोड़ लिया,
उसका दिन का
सपना भी टूट जाएगा।
तुम पूछते
हो : यह संसार क्या
है,
यह माया क्या
है? यह खुली
आंख देखा गया सपना
है। यह तुम्हारी
वासनाओं का विस्तार
है। यह तुम्हारे
विचारों का प्रक्षेपण
है।
रेत की नाव, झाग
के मांझी
काठ की रेल, सीप
के हाथी
हल्की—भारी
प्लास्टिक की कलें
मोम के चाक
जो रुके न चलें
राख के खेत, धूल
के खलिहान
भाप के पैरहन, धुएं
के मकान
नहर जादू
की,
पुल दुआओं के
झुनझुने
चंद योजनाओं के
सूत के चेले, मूंज
के उस्ताद
तेश दफ्ती
के,
काच के फरिहाद
आलिम आटे
के,
और रवे के इमाम
और पन्नी
के शायराने—कराम
ऊन के तीर, रुई
की शमशीर
सदर मिट्टी
का और रबर के वजीर
अपने सारे
खिलौने साथ लिए
दस्ते—खाली
में कायनात लिए
दो सुतूनों
में बौध के रस्सी
हम खुदा
जाने कब से चलते
हैं
न तो गिरते
हैं न सम्हलते
हैं
ऐसा सब झूठ
है।
हम खुदा
जाने कब से चलते
हैं
न तो गिरते
हैं न सम्हलते
हैं
चलती जाती
यह कहानी। और इस
कहानी को हम गूंथते
चले जाते हैं।
हम इसमें रोज पानी
डालते हैं। हम
रोज इसमें नए—नए
आयोजन जुटाते।
अगर पुराने खिलौने
टूट जाते हैं, हम
नए बनाते हैं।
अगर एक वासना व्यर्थ
होती है, हम
दस और सजा लेते
हैं। मरते दम तक
हम रंगते ही जाते
हैं पर्दे को।
नए —नए चित्र उभारते
हैं, नए —नए गीत
बसाते हैं, नए—नए राग छेड़ते
है, और अत्यंत
दुख पाते है। फल
दुख है।
इसे ऐसा
समझो, सत्य का फल
है आनंद, असत्य
का फल है दुख। जंहा
दुख पाओ, जानना
असत्य है। दुख
कसौटी है। जितना
दुख उतना असत्य।
जंहा दुख पाओ,
समझना कि झूठ
है कुछ। झूठ से
दुख मिलता है।
दुख झूठ के साथ—साथ
चलता है। दुख और
झूठ का शाश्वत
रिश्ता है। जहां
थोड़ी सी आनंद की
झलक मिले, जहां
थोड़ी शांति उतरे,
जंहा थोड़ा सन्नाटा
घेरे, जंहा
थोड़ा विश्राम हो,
जंहा थोड़ी मौज
उठे, वहां समझना
कि सच करीब है।
सत्य की कोई किरण
तुम्हारे अंतःपटल
में प्रवेश कर
गयी है। खोजना,
जहां—जंहा आनंद
हो वहा—वहां खोजना।
तुमसे कहा
गया है कि परमात्मा
मिले तो आनंद मिले।
मैं तुमसे कहता
हूं : आनंद मिले
तो परमात्मा मिले।
और शांडिल्य मुझ
से राजी होंगे।
तुमसे कहा गया
है कि परमात्मा
मिले, तो तुम्हारे
जीवन में प्रीति
का आविर्भाव हो।
मैं तुमसे कहता
हूं : तुम्हारे
जीवन में प्रीति
का आविर्भाव हो
तो तुम्हें परमात्मा
मिले। और शांडिल्य
मुझ से राजी होंगे।
सत्य कहो, अगर
तानी की भाषा उपयोग
करनी हो;प्रेम
कहो, अगर भक्त
की भाषा उपयोग
करनी हो;लेकिन
बात एक ही है। जंहा
सत्य है, जंहा
प्रेम है, वहा
आनंद है। आनंद
सबूत है। इसलिए
तुम आनंद की तलाश
करो। और जंहा—जंहा
तुम्हें दुख मिलता
हो, वहा—वहां
अपने को जगाओ।
बहुत हो गया, खूब चल चुके;यह सपना अब टूटना
ही चाहिए। और तुम्हारे
अतिरिक्त कोई इसे
तोड़ न सकेगा। तुम
ही तोड़ना चाहोगे
तो तोड़ सकोगे।
खूब देखो, कितना
दुख इससे मिलता
है।
लोग मुझ
से पूछते है कि
सपना तोड़े कैसे? यह
बात ही गलत है।
सिर्फ अपने से
कितना दुख मिलता
है यह भर देखते
चलो, टूट जाएगा।
तुम्हें दुख का
ठीक—ठीक एहसास
हो जाए, तुम्हें
कार्य—कारण की
साफ—साफ समझ आ जाए
कि जंहा—जंहा दुख
मिलता है, वहा—वहा
झूठ है। लेकिन
तुम बड़े चालबाज
हो। तुम अजीब—अजीब
बातें सोच लेते
हो।
कुसुम
ने एक प्रश्न पूछा
है :
कि धर्मात्मा
मनुष्य को दुख
क्यों मिलता है
और पापी मजा क्यों
करते? ऐसा कभी हुआ
ही नहीं। अगर दुख
मिल रहा हो धर्मात्मा
को, तो वह छिपे
पापी हैं और कुछ
भी नहीं। और अगर
पापी आनंद कर रहा
हो, तो तुम्हारे
समझने में कहीं
भूल हो गयी है,
वह पापी नहीं
है। पाप से और आनंद
मिलता ही नहीं,
मिल ही नहीं
सकता। अगर तुम
पाओ कि कोई चोर
बड़ा सुखी है, तो उसका मतलब
इतना ही हुआ कि
चोरी के अतिरिक्त
भी उसमें कुछ और
गुण होंगे जिनके
कारण सुख मिल रहा
है—चोरी से कैसे
सुख मिल सकता है?
हो सकता है साहसी
हो। चोर अक्सर
साहसी होते हैं।
दुनिया में सौ
मे निन्यानबे आदमी
इसीलिए चोर नहीं
हैं कि साहस नहीं
है और कोई खास बात
नहीं है। कोई गुण
वगैरह नहीं है,
कोई नीति वगैरह
नहीं है, सिर्फ
कमजोर हैं, काहिल हैं, नपुंसक हैं,
चोरी करने से
डरते हैं, कि
कहीं पकड़े न जाएं।
तुम भी जरा सोचो,
अगर तुम्हें
कोई बिलकुल गारंटी
दे दे कि तुम पकड़े
नहीं जाओगे, फिर तुम चोरी
करोगे कि नहीं?
पकड़े जाओगे ही
नहीं, इसकी
पक्की गारंटी है,
तो तुम फिर कहोगे,
फिर क्यों नहीं
करनी, फिर कर
ही लें। तो तुम
इतने दिन से जो
चोरी नहीं कर रहे
थे, वह चोरी
गलत है इस कारण
नहीं, बल्कि
पकड़े जाने का भय
है। प्रतिष्ठा
पर दाग लगेगा,
बेइज्जती होगी,
लोग क्या कहेंगे,
कि आप और चोर!
अहंकार को चोट
लगेगी, बस,
उसी डर से रुके
थे।
सौ अचोरों
में निन्यानबे
सिर्फ भय के कारण
अचोर हैं, इसलिए
दुख पाएंगे। वे
सोचेगे कि हम चोरी
नहीं कर रहे और
दुख क्यों पा रहे
हैं? चोर तो
हो ही तुम, चोरी
की या नहीं, इससे थोड़ी ही
कोई चोर होता है!
चोर होना तुम्हारी
चेतना की दशा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक ट्रेन
में सफर करता था।
उस डिब्बे में
दो ही थे, वह था और
एक सुंदर स्त्री
थी। उसने सुंदर
स्त्री को कहा
कि अगर मैं हजार
रुपए दूं तो रात
मेरे साथ सोओगी?
उस स्त्री ने
कहा, तुमने
मुझे समझा क्या
है? चेन खींच
दूंगी, पुलिस
को बुलाऊंगी। उसने
कहा, नाराज
न होओ, मैं तो
सिर्फ एक निवेदन
किया। अगर दस हजार
दूं तो? स्त्री
शांत हो
गयी, फिर उाने
नहीं चिल्लाया।
उसने कहा कि पुलिस
को बुलाऊंगी और
चेन खींच दूंगी,
मुल्ला ने कहा,
दस हजार? तो उसने कहा,
दस हजार के लिए
मैं राजी हो सकती
हूं; मुल्ला
ने कहा, ठीक,
और अगर दस रुपया
दूं? तब तो वह
स्त्री एकदम खड़ी
हो गयी, उसने
कहा, अभी चेन
खींचती हूं;अभी पुलिस को
बुलाती हूं। पर
मुल्ला ने कहा,
यह क्या बात
हुई? उस स्त्री
ने कहा, आप जानते
नहीं मैं कौन हूं?
मुल्ला ने कहा,
मैं समझ गया
तुम कौन हो, अब तो हम मोल— भाव
कर रहे हैं। दस
हजार में जब तुम
सोने को राजी हो
तो यह तो मैं जान
ही गया कि तुम कौन
हो, अब तो सिर्फ
मोल— भाव की बात
है —तो मैं व्यापारी
आदमी हूं! वह तो
मैंने दस हजार
इसीलिए कहे थे
कि पहचान लूं कि
तुम हो कौन। वह
बात खतम हो गयी,
वह निर्णय हो
चुका, अब नाहक
चेन वगैरह न खींचो,
बैठो;अब तो
मोल— भाव कर लें
बैठकर, जो भी
तय हो जाए, ठीक
है।
तुम भी सोच
लेना, तुम्हारी
जीवन—दशा तुम्हारी
चोरी करने से चोर
की नहीं होती,
चोरी की वृत्ति!
उस वृत्ति के कारण
तुम दुख पाते हो।
और हो सकता है चोर
अगर सुख पा रहा
है तो जरूर उसमें
कुछ होगा, कुछ
होगा जिससे सुख
आता है—साहस होगा,
बल होगा, दाव पर लगाने
की हिम्मत होगी,
निश्चित मन होगा
कि हो जो हो। दुनिया
क्या कहती है,
इसकी फिकर न
करता होगा। थोड़ी
बगावती दशा होगी।
कुछ होगा उसके
भीतर, कुछ गुण
होगा जिसके कारण
सुख मिलता है।
तुम्हारा
महात्मा है, तुम
कहते हो, महात्मा
है, बड़ा दुख
पा रहा है। लेकिन
दुख पाएगा तो सबूत
है कि कहीं कुछ
बात होगी। कभी
महात्मा दुख नहीं
पाता;पा नहीं
सकता, क्योंकि
दुख छाया है झूठ
की। दुख छाया है
असत्य की। दुख
छाया है माया की।
अब अगर महात्मा
दुख पा रहा है तो
कहीं न कहीं कोई
भ्रांति है, महात्मा है नहीं।
और अगर कहीं कोई
पापी आनंद पा रहा
है, तो वहां
भी तुम्हारी समझ
में कुछ भूल हो
गयी है। फिर से
देखना, गौर
से देखना।
कभी—कभी
शराबियों में ऐसे
सज्जन मिल जाते
हैं,
जो सज्जनों में
न मिलें। अक्सर
शराबी जितने सरल
होते हैं, उतने
सज्जन नहीं होते।
सरलता आनंद लाती
है। अगर कोई सरलता
की वजह से शराब
पी रहा है तो निश्चित
ही आनंद होगा।
और अगर कोई सिर्फ
स्वर्ग पाने के
लिए शराब नहीं
पी रहा है, तो
आनंद नहीं हो सकता।
क्योंकि वहा वासना
है। सरलता नहीं
है, गणित है,
चालबाजी है।
वह आदमी होशियार
है। वह कह रहा है,
स्वर्ग जाना
है मुझे। स्वर्ग
जाना है तो इतना
चुकाना पड़ेगा।
तुम अपने
भीतर ही परीक्षण
करो और तुम पाओगे
जब भी तुम सच के
अनुकूल होते हो, तत्क्षण
वर्षा होती है
आनंद की। धूप खिल
जाती है, फूल
उमग आते हैं, सुवासित हो जाते
हो।
संसार
क्या है? माया क्या
है? एक जाल है,
जो हमने बुना—मकड़ी
के जाल की तरह—और
जिसमें हम खुद
फंस गए हैं।
रोज बढ़ता
हूं जंहा से आगे
फिर वहीं
लौट के आ जाता हूं
बारहा तोड़
चुका हूं जिनको
इन्हीं
दीवारों से टकराता
हूं
रोज बसते
हैं कई शहर नए
रोज धरती
में समा जाते हैं
जलजलों
में भी जरा—सी गर्मी
वो भी अब
रोज ही आ जाते हैं
जिस्म से
रूह तलक रेत ही
रेत
न कहीं धूप, न साया,
न शराब
कितने अरमान
हैं किस सहरा में
कौन रखता
है मजारों का हिसाब
नब्ज बुझती
भी भड़कती भी है
दिल का मामूल
है घबराना भी
रात अंधेरे
ने अंधेरे से कहा
एक आदत है
जीए जाना भी
कौस इक रंग
की होती है तुलूअ
एक ही चाल
भी पैमाने की
गोशे—गोशे
में खड़ी है मस्जिद
शक्ल क्या
हो गयी मयखाने
की
कोई कहता
था समंदर हूं मैं
और मेरी
जेब में कतरा भी
नहीं
खैरियत
अपनी लिखा करता
हूं
अब तो तकदीर
में खतरा भी नहीं
अपने हाथों
को पढ़ा करता हूं
कभी कुरान, कभी
गीता की तरह
चंद रेखाओं
में सीमाओं में
जिंदगी
कैद है सीता की
तरह
राम कब लौटेंगे
मालूम नहीं
काश, रावण
ही कोई आ जाता
ऐसी बुरी
दशा है—
राम कब लौटेंगे, मालूम
नहीं
काश, रावण
ही कोई आ जाता
आदमी बंद
पड़ा सीता की तरह।
और किसी और ने नहीं
बनाए हैं ये जाल, यह
हमने बनाए। न हमने
केवल बनाए हम रोज
बना रहे हैं। आज
भी तुम बनाओगे।
आज तुम्हारा दिन
इसी में जाएगा।
इन्हीं दीवालों
को तुम और मजबूत
करोगे, इन्हीं
सींखचों पर तुम
और फौलाद चढाओगे।
इन्हीं जंजीरों
को तुम और भारी
करोगे। इसी पागलपन
को तुम और खाद दोगे,
पानी दोगे।
रात अंधेरे
ने अंधेरे से कहा, एक
आदत है जीए जाना
भी तुम जीए जा रहे
हो, आदतवश।
कल भी जीए थे, परसों भी जीए
थे, जीने की
एक आदत हो गयी है।
जैसे लोग सिगरेट
पीते हैं, ऐसे
लोग जीते हैं।
क्या करें, आदत हो गयी। लोग
सिगरेट पीते हैं,
शराब पीते हैं,
पान खाते हैं,
तमाखू चबाते
हैं, ऐसी ही
जीने की भी आदत
हो गयी, क्या
करें? कल भी
जीए थे, परसों
भी जीए थे, बहुत
दिन जीए हैं, अब जीने की आदत
हो गयी तो जीए जाते
हैं। उन्हीं बातों
को दोहराए चले
जाते हैं जिन्हें
कल भी किया था रोज
बढ़ता हूं जहां
से आगे, फिर
वहीं लौट के आ जाता
हूं।
तुम जरा
देखो, तुम्हारा
जीवन का चाक घूमता
रहता वहीं, वहीं, वहीं।
इसलिए ज्ञानियों
ने संसार को संसार—चक्र
कहा है।
रोज बढ़ता
हूं जंहा से आगे
फिर वहीं
लौट के आ जाता हूं
बारहा तोड़
चुका हूं जिनको
इन्हीं
दीवारों से टकराता
हूं
सोचते हो
तुम कि तोड़ चुके
तुम,
मगर तुम जरा
गौर से देखो, उन्हीं से टकराते
हो। कल भी क्रोध
से टकराए थे, परसो भी क्रोध
से, और परसों
से पहले भी, और आज भी। भरोसा
रखो अपना, आज
भी क्रोध से ही
टकराओगे; और
आने वाले कल भी।
सोचते हो तुम कि
कसमें खा लीं,
अब कभी क्रोध
न करेंगे। कसमें
काम आतीं? सब
कसमें खाते हैं!
क्रोध कसमों से
बहुत बड़ा है। कितनी
बार कसम खा ली कि
अब और मोह न बनाएंगे,
लेकिन मोह फिर—फिर
बन जाता है—मोह
कसमों से बड़ा है।
कितने तो व्रत
लिए, सब व्रत
तो टूट गए; कोई
व्रत तो सम्हलता
नहीं—व्रत संभल
ही नहीं सकता,
सिर्फ होश काम
आता है;कोई
और बात काम नहीं
आती। जरा होश से
देखो! यह मत कहो
कि क्रोध नहीं
करूंगा अब, सोचो कि अब तक
क्रोध क्यों किया?
यह मत कहो कि
कसम खाता हूं कि
अब क्रोध न करूंगा,
क्योंकि तुम्हारी
कसम से क्या होगा,
क्रोध जहां से
आता था वहां से
आएगा, जिस अंधेरे
अचेतन से उठता
था फिर उठेगा;तुम्हारी आदत
बड़ी है; तुम्हारी
कसम नयी है, आदत पुरानी है,
कसम बहुत छोटी
है। जब आदत का तूफान
आएगा, कसम ऐसे
उड़ जाएगी जैसे
हवा में कोई तिनका
उड़ गया। फिर—फिर
पछताओगे, पछताना
भी तुम्हारी आदत
है।
मेरे पास
एक आदमी आया, उसने
कहा कि मेरी क्रोध
से जिंदगी बरबाद
हो गयी, मुझे
क्रोध से छुड़ाओ।
और मैं बहुत पछताता
हूं;और हर बार
क्रोध करके रोता
हूं;छाती पीटता
हूं;अपने को
उपवासा भी रखा
कई दिन तक, मारा
भी है अपने को,
आत्मघात की भी
सोची, मगर यह
क्रोध जाता नहीं।
मुझे क्रोध से
बचाओ। मैंने उससे
कहा, तू एक काम
कर, क्रोध तो
जाता नहीं, तू कम से कम पश्चात्ताप
छोड़। उसने कहा,
आप क्या कहते
हैं? पश्चात्ताप
छोड़ दूंगा, पश्चात्ताप कर—करके
तो क्रोध छूटा
नहीं, पश्चात्ताप
छोड़ दूंगा तो और
क्रोधी हो जाऊंगा।
मैंने कहा, वह तो तू करके
देख चुका, अब
मेरी मान, तू
कम से कम पश्चात्ताप
छोड़। तू अब क्रोध
कर, बेफिकर
कर और पश्चात्ताप
छोड़ दे। और तीन
सप्ताह बाद मुझे
आकर कहना कि क्या
हुआ।
तीन सप्ताह
बाद वह आया, वह
बोला कि पश्चात्ताप
भी नहीं छूटता।
तुम जरा सोचो तो
क्रोध क्या खाक
छूटेगा, पश्चात्ताप
भी नहीं छूटता।
नपुंसक पश्चात्ताप
जिससे कुछ परिणाम
कभी नहीं हुआ,
वह भी नहीं छूटता,
वह भी आदत हो
गयी। मैंने कहा,
इसीलिए मैंने
तुझे यह कहा था
कि तुझ सेयह दिखायी
पड़ जाए कि पश्चात्ताप
जिसका कोई परिणाम
कभी नहीं हुआ,
मुर्दा पश्चात्ताप,
वह भी नहीं छूटता,
तो क्रोध तो
परिणामकारी है।
उससे तो बहुत परिणाम
हुए है—बुरे हुए,
भले हुए, क्या हुए, मगर परिणाम हुए
हैं। क्रोध तो
ऊर्जा है। जब निर्वीर्य
पश्चात्ताप नहीं
छूटता, तो यह
ऊर्जा से भरा हुआ
क्रोध कैसे छूटेगा?
तू फिर से देख,
तू फिर से सोच।
तूने शास्त्रों
से सुन लिया कि
क्रोध करना बुरा
है और तू कसमें
खाने लगा है, तूने अपने क्रोध
को नहीं जाना।
जमाना था
एक,
आकाश में बिजली
चमकती थी, लोग
घबड़ाते थे, कंपते थे, वेद कहते हैं
कि इंद्र नाराज
है, बिजलियां
कौधा रहा है, देवता नाराज
है। अज्ञानियों
को तो छोड़ो, उस दिन के ज्ञानी
भी यही सोचते थे
कि देवता नाराज
है। न कोई देवता
है, न कोई नाराज
है, मगर बिजली
इतनी भयंकर थी
और घबड़ाने वाली
थी, और बिजली
की दहाड़ और बादलों
की गड़गड़ाहट, हम सोच सकते हैं,
आदमी की छाती
बैठ जाती होगी।
डरता होगा।
फिर हमने
एक दिन बिजली को
समझ लिया—वेद के
ऋषि तो प्रार्थना
ही करते रहे कि
इंद्र देवता! नाराज
न होओ। हम गाय चढ़ाके, बैल
चढ़ाके, आदमी
चढ़ाके; हम यश
करेंगे, हम
तुम्हारी स्तुति
करेंगे, हे
इंद्र देवता! स्तुतियों
से भरा हुआ सारा
वेद पड़ा है। मगर
न इंद्र देवता
ने सुनी—कोई हों
तो सुने—न बिजली
बंद हुई;बिजली
वैसी ही कड़कती
रही और बादल वैसे
ही गरजते रहे और
तुम्हारे ऋषि आए
और चले गए और कोई
परिणाम न हुआ।
पानी पर खींची
गयी लकीरें थीं
उनकी प्रार्थनाएं
और उनके हवन और
उनके यश। और तुमने
बलि भी दी, और
तुमने आदमी भी
मारे, मगर कुछ
भी न हुआ। फिर एक
दिन आदमी ने बिजली
के रहस्य को समझा,
तब से बिजली
गुलाम हो गयी।
अब तुम्हारे घर
में पंखा चलाती
है, अब इंद्र
देवता कुछ भी नहीं
कर पाते हैं। बिजली
पंखा चला रही है,
बिजली घर में
तुम्हारे रोशनी
कर रही है, तुम्हारा
चूल्हा जला रही
है, बिजली हजार
काम कर रही है।
अब कोई प्रार्थना
नहीं करता है कि
हे इंद्र देवता!
अब हम जानते हैं,
बिजली हमारे
वश में है।
ऐसा ही क्रोध
तुम्हारे भीतर
के आकाश की बिजली
है। पश्चात्ताप
से नहीं रुकेगा, प्रार्थना
से नहीं रुकेगा;
समझो, पकड़ो,
पहचानो, जागो—क्या
है क्रोध? क्रोध
में करुणा छिपी
है। जिस दिन तुम
क्रोध को समझ लोगे,
उसके मालिक हो
जाओगे, उस दिन
तुम पाओगे क्रोध
तुम्हारा सेवक
हो गया—बड़ा सेवक
है, उस पर चढ़कर
तुम बड़ी दूर की
यात्रा कर सकते
हो। जिस आदमी में
क्रोध नहीं, उस आदमी में रीढ़
ही नहीं होती।
जिस आदमी में क्रोध
नहीं, उस आदमी
में जिंदगी ही
नहीं होती। जिस
बच्चे में क्रोध
है, उसी में
संभावना है। और
किसी बच्चे में
क्रोध न हो तो समझना
गोबर—गणेश, किसी काम के नहीं
हैं। गणेश जी की
जरूरत हो तो उन
को बिठाल लो और
पूजा का लो। इन
से जीवन में कुछ
भी नहीं होगा।
कोई संभावना नहीं,
ऊर्जा ही नहीं
है।
क्रोध मनुष्य
के अंतर— आकाश की
बिजली है।
जीवन को
समझो, पहचानो।
बिना पहचाने हम
जीते हैं तो—
रात अंधेरे
ने अंधेरे से कहा
एक आदत है
जीए जाना भी
रोज बढ़ता
हूं जहां से आगे
फिर वहीं
लौटकर आ जाता हूं
बारहा तोड़
चुका हूं जिनको
इन्हीं
दीवारों से टकराता
हूं
रोज बसते
हैं कई शहर नए
रोज धरती
में समा जाते हैं
जलजलों
में थी जरा—सी गर्मी
वो भी अब
रोज ही आ जाते हैं
धीरे— धीरे, धीरे—
धीरे सब उदास हो
जाता है।
इस संसार
की पूरी यात्रा
का फल क्या है? आखें
धूल से भर जाती
हैं, ओठों पर
धूल जम जाती है,
स्वाद मर जाता
है, संवेदनशीलता
मर जाती है—मरने
के पहले हम मर जाते
हैं, मरने के
पहले हम मुर्दा
हो जाते हैं। लोगों
को देखो, कितनी
धूल जम गयी है उन
पर, फिर भी चले
जाते हैं।
रात अंधेरे
ने अंधेरे से कहा
एक आदत है
जीए जाना भी
जिस्म से
रूह तलक रेत ही
रेत
न कहीं धूप, न साया,
न सराब
कितने अरमान
हैं किस सहरा में
कौन रखता
है मजारों का हिसाब
नब्ज बुझती
भी भड़कती भी है
दिल का मामूल
है घबराना भी
और दिल घबराए
यह स्वाभाविक है; क्योंकि
यहां हाथ कुछ लग
नहीं रहा है। टटोलते—टटोलते
थक गए हैं। मरुस्थल
ही मरुस्थल है।
जिस्म से
रूह तलक रेत ही
रेत
न कहीं धूप, न साया,
न सराब
पानी की
तो कौन कहे, झूठी
मृग —मरीचिका भी
नहीं मिलती। मरूद्यान
की तो कौन कहे,
मरूद्यान का
सपना भी हाथ नहीं
लगता। जो पकड़ो,
वही व्यर्थ सिद्ध
हो जाता है। दूर
के ढोल सुहावने
लगते हैं, पास
आते—आते सब रंग—रौनक
उड़ जाती है। दूर
रहो, सब ठीक
लगता है। पास आओ,
सब व्यर्थ हो
जाता है। जो मिल
जाए, वही व्यर्थ
हो जाता है। जो
न मिले, उसी
में रस टंगा रहता
है। आदमी आशा के
सहारे जीता है,
अनुभव के सहारे
नहीं। अनुभव तो
यही कहता है कि
अब जागो, बहुत
हो गया;आशा
कहती है, और
थोड़ी देर सो लो,
कौन जाने कोई
सुखद सपना आने
को हो! अनुभव कहता
है, यहां कभी
कुछ हाथ नहीं लगा।
आशा कहती है, अभी तक तो नहीं
लगा, ठीक है।
लेकिन कल की कौन
जाने, कल लग
जाए, थोड़ा और,
थोड़ा और...। आशा
अटकाए चली जाती
है। आशा माया का
आधार है।
इस आदत से
जगना होगा। इस
यंत्रवत्ता को
तोड़ना होगा। थोड़ा
होश सम्हालो। क्या
कर रहे हो, इसे
जागकर करना शुरू
करो—मैं नहीं कहता
कि इसे बंद कर दो
आज। किसी स्त्री
के प्रेम मे हो,
अब जागकर। किसी
स्त्री को छाती
लगाओ, अब जागकर।
मैं नहीं कहता
कि अभी रोक दो।
जल्दी मत करना।
जल्दी में आदमी
कच्चा रह जाता
है। और जब तक आदमी
पक न जाए, जीवन
में कोई क्रांति
नहीं होती। धन
में मजा है, चलो, और धन
इकट्ठा करो, लेकिन अब जरा
होश से। गौर से
देख लेना धन को
हाथ मे लें—लेकर
कि क्या मिल रहा
है। कुछ मिल रहा
है? और अभी मैं
नहीं कह रहा हूं
कि जल्दी निर्णय
ले लेना कि नहीं
मिल रहा है। —शास्त्रों
को बीच में मत आने
देना और सदगुरुओं
को बीच मे मत बोलने
देना। वह कितना
ही कहें कि कुछ
नहीं है, सब
राख है, मगर
तुम्हें अभी इसमें
चमक मालूम पड़ती
है। तुम्हें जिस
में चमक मालूम
पड़ती है, तुम
अभी उसकी चमक को
और गौर से देखते
रहो।
मुल्ला
नसरुद्दीन और उसकी
पत्नी एक रास्ते
से गुजरते थे।
उसने भागकर रास्ते
के किनारे पड़ा
कुछ उठाया, फिर
जोर से फेंका और
कहा कि अगर यह आदमी
मिल जाए तो इसकी
गर्दन उतार लूं।
उसकी पत्नी ने
कहा, बात क्या
है, क्या हुआ?
उसने कहा कि
किसी आदमी ने इस
तरह खखार थूकी
कि बिलकुल अठन्नी
मालूम होती थी।
चमक रही होगी धूप
में।
मगर दूसरों
के कहने से नहीं, तुम
उठाओगे तो ही,
तो ही तुम जानोगे।
धन इकट्ठा करने
का मन है, करो;पद पर जाने का
मन है, जाओ,
लड़ों मगर होश
से जाना, कुर्सी
पर बैठकर देखना
कि ऊंचे हो गए?
क्या मिल गया?
यश का मोह है,
ठीक है, तलाश
करो। जब हजारों
लोग तुम्हें जानने
लगें, तब सोचना
कि क्या मिल गया?
इतने लोग मुझे
जानते हैं, मेरे नाम को जानते
हैं, इससे क्या
मिल गया? क्या
हुआ? नहीं जानते
थे तो हर्ज क्या
था? जानते हैं
तो लाभ क्या है?
मैं भी मिट जाऊंगा,
ये भी मिट जाएंगे;इस प्रसिद्धि,
प्रतिष्ठा का
प्रयोजन क्या है?
बस, इतना
जागकर देखते रहो।
जल्दी निष्कर्ष
मत लेना। मेरी
तुम से यह विनती
है,
जल्दी निष्कर्ष
मत लेना। तुम जल्दी
निष्कर्ष लेते
हो, उसी में
कच्चे रह जाते
हो, फिर लौट—लौटकर
वहीं आ जाते हो।
एक चीज को पक जाने
दो। जिस दिन तुम
पूरी तरह जान लोगे
कि कुर्सी पर बैठकर
कोई आदमी बड़ा नहीं
हो जाता—चाहे प्रधानमंत्री
बन जाओ और चाहे
राष्ट्रपति, कोई आदमी बड़ा
नहीं हो जाता।
सच तो यह है कि कुर्सी
पर बैठकर आदमी
के सब छोटेपन जाहिर
हो जाते है, प्रकट हो जाते
हैं, क्योंकि
सब छोटेपन ब्रॉडकास्ट
हो जाते हैं, सबको दिखायी
पड़ने लगते हैं,
और कुछ भी नहीं
होता। और आदमी
भीतर खाली है सो
खाली है। मगर जो
आदमी कुर्सी पर
बैठ जाता है, फिर कुर्सी नहीं
छोड़ता, वह जोर
से पकड़ लेता है।
उसे यह भी दिखायी
पड़ता है कि कुछ
मिल नहीं रहा है,
लेकिन छोड़ने
में भी डर लगता
है। अब यह भय होता
है कि मिल तो कुछ
नहीं रहा है, लेकिन चलो, न कुछ से यही ठीक,
कम से कम लोग
तो जानते हैं,
कम से कम लोगों
को तो भ्रांति
है कि मिल गया।
खयाल करना
इस बात पर। तुम्हें
तो नहीं मिला है, तुम
तो जानते हो मुझे
कुछ नहीं मिला,
मगर अब कहने
से भी क्या सार
है। अपनी दीनता
क्या कहनी है।
अकड़कर चलते रहो।
लोग तो मानते हैं
कि मिल गया, चलो लोगों को
मानने दो, इससे
ही एक राहत मिलती
है।
जिंदगी
कैद है सीता की
तरह
राम कब लौटेंगे, मालूम
नहीं
काश, रावण
ही कोई आ जाता कुछ
तो आ गया, रावण
ही सही! धन तो आ गया!
दूसरे तो सोचते
हैं, दूसरे
तो तडूफते हैं,
दूसरे तो ईर्ष्या
से भरते हैं कि
इस आदमी को मिल
गया, अब हमको
नहीं मिला, कोई हर्जा नहीं!
हम अपनी बात छुपाकर
रखेंगे, चुपचाप
चले जाएंगे, बिना किसी को
पता हुए, बिना
किसी को खबर पड़े,
विदा हो जाएंगे,
कहानी रह जाएगी,
लोग कहेंगे कि
क्या आदमी था,
सिकंदर था,
इतना धन पाकर
मरा, इतनी प्रतिष्ठा,
इतना यश लेकर
मरा। ध्यान रखना,
जो लोग ऐसा कहेंगे
वे वे ही लोग होंगे
जिन्हें जीवन में
यश नहीं मिला।
इसलिए उन्हें कुछ
पता नहीं कि उठन्नी
थी ही नहीं। ये
वे ही लोग होंगे
जिन्हें जीवन में
धन नहीं मिला;
ये वे ही लोग
होंगे जिन्हें
जीवन में पद नहीं
मिला। चूंकि इन्हें
नहीं मिला, दूर के ढोल सुहावने
हैं।
तुम देखते
हो,
प्रधानमंत्री
आ जाएं या राष्ट्रपति,
भीड़ इकट्ठी हो
जाती है—कौन लोग
हैं? यह वे ही
लोग हैं जिनके
जीवन में कुछ भी
नहीं मिला। यह
खाली लोग एक दूसरे
खाली आदमी को भरने
पहुंच जाते हैं।
और मजा यह है कि
इन खाली लोगों
की भीड़ को देखकर
वह खाली आदमी जो
पद पर बैठा है,
सोचता है कि
चलो कोई बात नहीं,
मुझे तो नहीं
मिला है मगर इतने
लोग तो मानते हैं
कि मुझे मिला है,
यही क्या कम
है! चलो, रावण
ही आया तो ठीक।
जो आदमी
जागकर देखता रहेगा
वह धीरे— धीरे— धीरे—
धीरे इन सारी चीजों
को इतनी प्रगाढ़ता
से पहचान लेगा, उसी
पहचान में मुक्ति
है; उसी पहचान
से संसार समाप्त
हो जाता है, मोक्ष का उदय
होता है।
अंतिम
प्रश्न :
क्या
आप शराब भी पीते
हैं?
और कुछ पीने
योग्य है भी नहीं।
वर्षों से पानी
तो मैंने पीआ नहीं, इतना
तो मैं पक्का भरोसा
दिला देता हूं—दस
साल से तो नहीं
पीआ। सोडा पीता
हूं और शराब। सोडा
बाहर का, शराब
भीतर की। मैं संतुलन में
भरोसा रखता हूं—
थोड़ा बाहर
का,
थोड़ा भीतर
का।
जो कभी खींची
नहीं गयी
ऐसी शराब
है एक
जिसकी तरफ
कभी कोई
ताक नहीं सका
ऐसी आब है
एक
मैं इस बिना
खींची
शराब को
पीता हूं
मैं इस बिना
देखी
आब को जीता
हूं
और मैं तुम्हें
भी शराबी बनाना
चाहता हूं। भक्ति
यानी शराब। शांडिल्य
यानी शराबी। भक्त
का मंदिर यानी
मधुशाला, मादकता,
माधुर्य। परमात्मा
को पीओ, फिर
कोई और शराब पीने
जैसी नहीं रह जाएगी।
मेरे देखे जो लोग
शराब पीते हैं,
वे इसीलिए पीते
हैं कि उनकी असली
खोज तो परमात्मा
की है, और परमात्मा
मिलता नहीं। असली
खोज तो यह है कि
कैसे अपने को डुबा
दें, लेकिन
ऐसी कोई जगह नहीं
मिलती जहां डुबा
दें, तो चलो
भुला लें, डुबना
तो होता नहीं तो
थोड़ी देर को भुला
लें। शराब थोड़ी
देर को भ्रांति
देती है कि भूल
गए अपने को। अहंकार
बहुत पीड़ा है।
ये दो ही
उपाय हैं या तो
परमात्मा में डुबा
दो अहंकार को, तो
सदा को डूब जाता
है, फिर कोई
पीड़ा नहीं बचती।
अगर उतनी हिम्मत
न हो सदा को डुबाने
की, तो फिर शराब
में डुबाओ। फिर
शराबें कई तरह
की हैं। कोई एक
ही तरह की शराब
नहीं है—शराब और
शराब। जो मधुशाला
में बिकती है वह
तो एक ही प्रकार
की शराब है। और
बहुत तरह की शराबें
हैं जो दूसरी जगहें
बिकती हैं, और वे ज्यादा
सूक्ष्म हैं।
जो आदमी
धन के पीछे दीवाना
है,
तुम सोचते हो
शराब नहीं पी रहा
है। शास्त्रों
में धन की दीवानगी
को धन मद कहा है—
धन की शराब। उस
को एक नशा है। जैसे—जैसे
धन की ढेरी बढ़ती
जाती है, वह
इसी में अपने मैं
को डुबा रहा है।
वह अपनी तिजोरी
में अपने मैं को
डुबा रहा है। उस
को कुछ और चिंता
नहीं बची है अब,
दुनिया में और
कोई चिंता नहीं,
सारी चिंताएं
उसने एक चीज में
नियोजित कर दीं—
धन का ढेर; यह
उसकी शराब है।
शास्त्र ठीक कहते
हैं— धन मद।
जो आदमी
पद के पीछे दीवाना
है,
तुम सोचते हो
वह शराबी नहीं।
तुम सोचते हो मोरारजी
देसाई शराबी नहीं।
पद मद शास्त्र
कहते हैं। धन से
भी बड़ा मद है पद
का। बड़ा ही होगा,
क्योंकि आदमी
अस्सी साल का हो
जाए और फिर भी पद
के मोह से मुका
न हो, तो कब मुका
होगा? भयंकर
होगा, बचें
चाहे जाएं लेकिन
पद पर तो पहुंचना
ही है। किसी तरह
पहुंचें, पद
पर तो पहुंचना
ही है। जवान आदमी
पद का दीवाना हो,
सूक्ष्म है।
जवानी को मूढ़ताएं
माफ की जा सकती
हैं। जवानी एक
तरह की नासमझी
है। मगर अस्सी
साल का आदमी पद
के पीछे दीवाना
हो, क्षम्य
नहीं है। माफ नहीं
किया जा सकता।
उसका अर्थ हुआ,
बाल धूप में
पकाए। उसका अर्थ
हुआ, जिंदगी
ऐसे ही चली गयी,
एक आदत की तरह।
और मजा यह है कि
मोरारजी खिलाफ
हैं शराब कें—शराब
बंदी होनी चाहिए।
मेरे देखे
राजनीति की शराब
से जितनी हानि
मनुष्य जाति को
हुई है, उतनी अंगूर
की शराब से नहीं
हुई है। राजनीति
से जितनी हिंसा
और जितना खून बहा
है, उतनी अंगूर
की शराब से नहीं
बहा है। लेकिन
एक तरह का शराबी
दूसरे तरह की शराब
के विरोध में होता
है। उस को अपनी
शराब पसंद है,
वह चाहता है
सभी लोग उसी शराब
में डूब जाएं।
शराबी की
तलाश क्या है—चाहे
वह किसी तरह का
शराबी हो; संगीत
में खोजे, कि
संभोग में खोजे,
कि संपत्ति में
खोजे, कि सुयश
में खोजे, कि
सत्ता में खोजे,
कहीं भी खोजे,
शराबी की खोज
क्या है? वह
अपने को डुबाना
चाहता है। बहुत
गहरे में तो वह
परमात्मा को खोज
रहा है, लेकिन
उसे साफ समझ नहीं
है कि वह क्या खोज
रहा है। पद को खोजने
वाला भी बहुत गहरे
में परम पद को खोज
रहा है, परमात्मा
को खोज रहा है।
धन को खोजने वाला
भी बहुत गहरे में
परम धन को खोज रहा
है, परमात्मा
को खोज रहा है।
शराबी भी वस्तुत:
तो उस शराब को पीना
चाहता है
जो कभी खींची
नहीं गयी
ऐसी शराब
है एक
जिसकी तरफ
कभी कोई
ताक नहीं सका
ऐसी आब है
एक
मैं इस बिना
खींची
शराब को
पीता हूं
मैं इस बिना
देखी
आब को जीता
हूं
वह भी वही
पीना चाहता है, लेकिन
वह बड़ी महंगी मालूम
पड़ती है। दाम चुका
सकेगा कि नहीं।
यात्रा बड़ी लंबी
है, यात्रा
शिखर की, उसे
अपने पैरों पर
इतना भरोसा नहीं।
यात्रा कठिन और
दुर्गम, खड्ग
की धार पर चलना
होगा। तो वह सोचता
है यह अपने वश की
बात नहीं, हम
तो जाकर बाजार
में सस्ती शराब
खरीद लेते हैं
और पी लेते हैं।
चलो थोड़ी देर को
भूले, यही बहुत।
अहंकार थोड़ी देर
को भी भूल जाता
है शराब में, तो भी राहत मिलती
है। तो सोचो जरा
उस शराब की जहां
अहंकार सदा के
लिए भूल जाएगा!
फिर राहत ही राहत
है। फिर विश्राम
है, विराम है।
उस दशा को भक्तों
ने बैकुंठ कहा
है।
कुरान में
यह जो बात है कि
स्वर्ग में शराब
के चश्मे बहते
हैं,
उसका यही अर्थ
होना चाहिए कि
वहां अहंकार को
बचाने का कोई उपाय
नहीं है, सब
डूब जाएगा। खुदा
शराब है, यह
मतलब होना चाहिए।
पीओ तुम
भी,
बनो शराबी तुम
भी। भक्ति का मार्ग
तो पियक्कड़ों का
मार्ग है। पर ऐसी
शराब पीओ कि फिर
नशा उतरे न। चढ़े
तो चढ़े, फिर
उतरे न। उतर—उतर
जाए, वैसे नशे
का कितना मूल्य
हो सकता है? वैसा नशा क्षणभंगुर
है। इसलिए शांडिल्य
कहते हैं : क्षणभंगुर
से संबंध छोड़ो,
और शाश्वत से
जोड़ो। क्षणभंगुर
से प्रेम करो,
दुख आता है।
शाश्वत से प्रेम
करो, परम सुख
आता है। क्षणभंगुर
की शराब पीओ—अंगूर
की शराब—दुख लाएगी।
थोड़ी देर को धोखा
होगा, फिर धोखा
टूटेगा। हर बार
जब धोखा टूटेगा,
तुम और भी गर्त
में गिरोगे, और भी अंधेरे
में गिरोगे, और भी नर्क में
गिरोगे। शाश्वत
की शराब पीओ। और
जब शाश्वत उपलब्ध
हो सकता हो, तो फिर क्या छुद्र
को पीना! जब आकाश
से बरसता हुआ स्वाति
नक्षत्र का जल
उपलब्ध हो सकता
हो, तो नाली
की गंदगी में क्यों
डूबना!
ही, मैं
शराब पीता हूं
और मैं तुम्हें
भी शराब पीना सिखाना
चाहता हूं।
आज इतना
ही।
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