पउड़ी:
4
साचा
साहिबु साचु
नाइ। भाखिया
भाउ अपारु।।
आखहि
मंगहि देहि
देहि। दाति
करे दातारू।।
फेरि
कि अगै रखीऐ।
जितु दिसै
दरबारु।।
मुहौ
कि बोलणु
बोलीऐ। जितु
सुणि धरे
पिआरु।।
अमृत
वेला सचु नाउ।
वडिआई
वीचारु।।
करमी
आवे कपड़ा।
नदरी माखु
दुआरु।।
'नानक'
एवै जाणिए।
सभु आपे
सचिआरु।।
पउड़ी:
5
थापिया
न जाई कीता न
होई। आपे आप
निरंजन सोई।।
जिनि
सेविआ तिनि
पाइआ मानु। 'नानक'
गावीऐ
गुणीनिधानु।।
गावीऐ
सुणीऐ मनि
राखीऐ भाउ।
दुख परहरि
सुखु घर लै
जाउ।।
गुरुमुखि
नादं
गुरुमुखि
वेदं।
गुरुमुखि रहिआ
समाई।।
गुरु
ईसरु गुरु
गोरखु बरमा।
गुरु पारबती
माई।।
जे
हउ जाणा आखा
नाहीं। कहणा
कथनु न जाई।।
गुरा
एक देहि
बुझाई--
सभना
जीआ का इकु
दाता। सो मैं
विसरि न जाई।।
साहब
सच्चा है, उसका नाम
सच्चा है, उसका
गुणगान अशेष
भावों में
किया जाता है।
गुणगान करते
हैं लोग। और
दो, और दो, करके मांग
करते हैं; और
दाता देता ही
चला जाता है।
फिर उसके आगे
क्या रखा जाए
कि उसके दरबार
का दर्शन हो? और हम कौन-सी
बोली बोलें
जिसे सुन कर
वह प्यार करे?
अमृत वेला
में सत्य नाम
की महिमा का
ध्यान करो।
कर्म से शरीर
मिलता है।
कृपा-दृष्टि
से मोक्ष का
द्वार खुलता
है। नानक कहते
हैं, इस
प्रकार जानो
कि सत्य ही, परमात्मा ही
सब कुछ है।
साहब, नानक का
परमात्मा के
लिए दिया गया
शब्द है। परमात्मा
के साथ हम दो
तरह से जुड़
सकते हैं। एक
तो
दार्शनिकों
की परमात्मा
के संबंध में
चर्चा है।
लेकिन उनके
शब्द प्रेम से
अधूरे हैं।
उनके शब्द
सूखे हैं।
उनके शब्द बौद्धिक
हैं, हार्दिक
नहीं।
दूसरा
भक्त का मार्ग
है; उसके
शब्दों में रस
है। वह
परमात्मा को
एक सिद्धांत
की तरह नहीं, एक संबंध की
तरह देखता है।
वह उससे कुछ
संबंध जोड़ता
है। क्योंकि
जब तक संबंध न
जुड़ जाए तब तक
हृदय प्रभावित
नहीं होता।
परमात्मा का
नाम हम कह सकते
हैं, सत्य।
लेकिन साहब
में जो बात है
वह सत्य में न होगी।
सत्य से हम
कैसे जुड़ेंगे?
हमारा क्या
संबंध होगा? हमारे हृदय
और सत्य के
बीच कौन-सा
सेतु बनेगा?
लेकिन
साहब प्यार का
संबंध है।
साहब होते ही
परमात्मा
प्रियतम हो
गया। अब हम
जुड़ सकते हैं।
अब रास्ता
खुला है। अब
हम दौड़ सकते
हैं। सत्य
कितना भी ठीक
हो, फिर भी
भक्त के लिए
रूखा-सूखा है।
भक्त चाहता है
कुछ, जिसके
साथ स्पर्श हो
सके। भक्त
चाहता है कुछ,
जिसके
आसपास नाच सके,
गा सके।
भक्त चाहता है
कुछ, जिसके
चरणों में सिर
रख सके। साहब
प्यारा नाम
है। उसका अर्थ
है मालिक, उसका
अर्थ है
स्वामी।
फिर
संबंध बहुत
ढंग के हो
सकते हैं।
सूफियों ने
परमात्मा को
प्रेयसी माना
है, तो साधक
प्रेमी हो
जाता है।
हिंदुओं ने, यहूदियों ने,
ईसाइयों ने
परमात्मा को
पिता माना है,
तो साधक
बेटा हो जाता
है। नानक ने
परमात्मा को
साहब माना है,
तो साधक दास
हो जाता है।
इसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है।
क्योंकि इन
सभी संबंधों
का मार्ग
भिन्न-भिन्न
होगा। प्रेमी
के साथ हम एक
ही तल पर खड़े
होते हैं।
प्रेमी न तो ऊपर
होता है न
नीचे।
प्रेयसी और
प्रेमी एक ही तल
पर खड़े होते
हैं। कोई ऊपर
नहीं और कोई
नीचे नहीं।
पिता और बेटे
के बीच जो
संबंध है, वह
संस्कारगत
है। चूंकि हम
किसी पिता के
घर पैदा हुए
हैं, इसलिए
एक संबंध है।...
मालिक
हम खुद होना
चाहते हैं और
हमारी चले तो परमात्मा
को दास बना
लें। तो
अहंकार
मिटाने के लिए
दास की भावना
से बड़ी कोई
भावना नहीं हो
सकती। न तो
पिता के संबंध
में अहंकार
गिरेगा, न
प्रेयसी-प्रेमी
के संबंध में
अहंकार गिरेगा।
अहंकार तो गिर
सकता है सिर्फ
दास की भावना में,
कि मैं
गुलाम हूं और
तू मालिक है।
और यह
सबसे कठिन है।
क्योंकि यही
अहंकार के विपरीत
स्थिति है।
अहंकार मानता है, मैं मालिक
हूं, सारा
अस्तित्व
मेरा गुलाम
है। भक्त
कहेगा, सारा
अस्तित्व
मालिक है, मैं
गुलाम हूं।
यही वास्तविक
शीर्षासन है।
सिर को जमीन
में करके पैर
ऊपर करके खड़े
हो जाना असली
शीर्षासन
नहीं
है--अहंकार को
नीचे करके! क्योंकि
वही सिर है।
उसको नीचे
करके खड़े हो
जाना दास की
भावना है।
इसलिए दास ही
ठीक-ठीक शीर्षासन
करता है। वह
उलटा हो जाता
है। और जैसे
तुमने दुनिया
को अब तक देखा
है मालिक होने
के ढंग से, तो
दुनिया को
तुमने कुछ और
ही पाया है।
रास्ते
से तुम गुजरते
हो, भिखारी
तुमसे मांगता
है। क्या उसके
मांगने से कभी
कोई तुम्हारे
मन में और
उसके बीच कोई
संबंध स्थापित
होता है? किसी
तरह का लगाव
बनता है? उलटी
ही हालत होती
है। उसके
मांगने से तुम
खिंच जाते हो।
अगर देते भी
हो तो बेमन से
देते हो। और
दुबारा ध्यान
रखते हो कि उस
रास्ते से
संभल कर
निकलना है। जब
कोई मांगता है
तब तुम सिकुड़ते
हो, देना
नहीं चाहते।
और जब कोई
मांगता नहीं
तभी देने का
मन होता है।
तुम
जरा अपने को
ही समझो तो
परमात्मा की
तरफ जाने के
रास्ते साफ हो
जाएं। जब कोई
तुमसे मांगता
है तब तुम
देना नहीं
चाहते, क्योंकि
उसकी मांग
छीन-झपट मालूम
होती है। वह आक्रमण
कर रहा है। सब
मांग आक्रमण
है। लेकिन जब
तुमसे कोई
मांगता नहीं,
तब तुम हलके
होते हो, तब
तुम सहज दे
सकते हो।
बुद्ध
ने अपने
भिक्षुओं को
कहा है कि जब
तुम गांव में
भिक्षा के लिए
जाओ तो मांगना
मत। सिर्फ
द्वार पर खड़े
हो जाना। अगर
कोई
प्रति-उत्तर न
मिले तो आगे
बढ़ जाना; मांगना
मत।
और यही
तो भिक्षु और
भिखारी में
भेद है। भिक्षु
को हमने
महासम्मान
दिया, जो
हमने
सम्राटों को
नहीं दिया। और
भिखारी को तो
हम आखिरी जगह
रखे हुए हैं।
सम्मान दूर, उसे हम
अपमान देने के
योग्य भी नहीं
मानते। उससे
हम नजर बचा कर
निकलते हैं।
बुद्ध के
भिक्षुओं ने
पूछा कि बिना
मांगे कोई
कैसे देगा? बुद्ध ने
कहा, बिना
मांगे ही
दुनिया में
चीजें मिलती
हैं। मांगे कि
मुश्किल में
पड़े। क्योंकि
जब तुम मांगते
नहीं तब तुम
दूसरे को आतुर
करते हो देने
के लिए। जब
तुम मांगते हो
तब तुम दूसरे
में संकोच
पैदा करते हो।
तुम
अपने जीवन के
सभी संबंधों
में इस कहानी
को छिपा हुआ
पाओगे। पत्नी
कुछ मांगती है, देना
मुश्किल हो
जाता है। लाते
भी हो तो बेमन से
सिर्फ कलह
टालने को। वह
प्रेम का
संबंध न रहा।
वह सिर्फ
उपद्रव से
बचने की
व्यवस्था हुई।
पत्नी मांगती
ही नहीं, कभी
नहीं मांगती,
तब
तुम्हारा
हृदय प्रफुल्लित
होता है। तब
तुम कुछ लाना
चाहते हो। तब तुम
उसे कुछ देना
चाहते हो।
देना तभी संभव
हो पाता है जब
कोई न मांगे।
तुम
परमात्मा से
टूटे हो
तुम्हारी
मांग के कारण।
और तुम्हारी
सब
प्रार्थनाएं
दो, और दो से
भरी हैं। तुम
परमात्मा का
उपयोग एक सेवक
की तरह करना
चाहते हो। तुम
कहते हो, मेरे
पैर में दर्द
है, दूर
करो। तुम कहते
हो, आर्थिक
स्थिति अच्छी
नहीं है, ठीक
करो। तुम कहते
हो, पत्नी
बीमार है, स्वस्थ
करो। नौकरी खो
गयी है, नौकरी
दो। तुम
परमात्मा के
द्वार पर सदा
भिखमंगे की
तरह पहुंचते
हो, मांगते
पहुंचते हो।
तुम्हारा मांगना
ही बताता है
कि साहब तुम
अपने को समझ रहे
हो और
परमात्मा को
तुम दास समझ
रहे हो। वह तुम्हारी
जरूरतें पूरी
करने के लिए
है। और तुम्हारी
जरूरतें इतनी
महत्वपूर्ण
हैं कि तुम परमात्मा
को भी सेवा
में रत करना
चाहते हो।
नहीं, अगर
परमात्मा
साहब है और
तुम गुलाम हो,
तो मांग
क्या? और
मजा यह है कि
तुम मांगते हो
और वह देता
चला जाता है।
ऐसा भी नहीं
है कि
तुम्हारे
मांगने से न
मिलता हो, मिलता
चला जाता है।
लेकिन जितना
ही तुम पाते हो
उतना ही तुम
उससे दूर हटते
जाते हो।
क्योंकि तुम
और मांगोगे।
जितना मिलेगा
और मांगोगे। जितना
तुम मांगोगे,
दूर हटते
जाओगे।
मांग
कभी भी
प्रार्थना
नहीं बन सकती।
वासना कभी भी
प्रार्थना
नहीं बन सकती।
चाह कभी भी
उपासना नहीं
बन सकती।
प्रार्थना का
तो सूत्र ही यही
है कि तुम
वहां धन्यवाद
देने जाते हो, मांगने
नहीं। उसने
पहले ही बहुत
दे रखा है। जितनी
जरूरत है उससे
ज्यादा दे रखा
है। जितनी
योग्यता है उससे
ज्यादा दे रखा
है। प्याली
पहले से ही
भरपूर है और
बह रही है।
वास्तविक
भक्त उसे
धन्यवाद देने
जाता है। उसकी
प्रार्थना
अहोभाव है। वह
कहता है कि
तूने मुझे
बहुत दिया है।
मेरी योग्यता
क्या थी! और तुम
कहते हो, देखो
मेरी योग्यता
को, मेरे
साथ अन्याय हो
रहा है। मुझे
और दो। और यह और
कहीं समाप्त न
होगा।
नानक
कहते हैं, 'लोग मांगते
रहते हैं और
दाता देता चला
जाता है, फिर
भी उनकी मांग
का कोई अंत
नहीं होता।'
आखहि
मंगहि देहि
देहि। दाति
करे दातारू।।
और वह
दे रहा है। और
मांगने वाले मांगते
चले जाते हैं।
मांग अनंत है।
उसके अंत होने
का कोई उपाय
नहीं। अगर तुम
मांगते ही रहे
तो प्रार्थना
कब करोगे? पूजा कब
शुरू होगी? क्योंकि
मांग का कोई
अंत नहीं है।
एक मांग पूरी
होती है, दस
खड़ी हो जाती
हैं। एक वासना
समाप्त नहीं
हुई कि दस को
जन्म दे जाती
है। तुम
मांगते ही
रहोगे, उपासना
कब होगी? धन्यवाद
कब दोगे? कितने
जन्मों से तुम
मांग रहे हो, अभी भी तुम
भरे नहीं?
तुम
कभी भरोगे ही
नहीं।
क्योंकि भरना
मन का स्वभाव
नहीं है। मन
सदा अतृप्त ही
रहेगा। वह उसका
स्वभाव है। मन
छूट जाए तो
तृप्ति होती
है। मन रहे तो
अतृप्त। मन
कभी तृप्त
नहीं होता।
इसलिए कोई ऐसा
आदमी तुम न पा
सकोगे जो कहे
कि मेरा मन
तृप्त हो गया है।
और अगर कभी
तुम ऐसा आदमी
पाओ जो कहे
मेरा मन तृप्त
हो गया, तो
तुम गौर से
देखना, उसके
पास मन होगा
ही नहीं।
मन
क्या है? मन
तुम्हारी सब
मांगों का जोड़
है। देहि
देहि--दो, और
दो, और
दो--इन सारी
मांगों के जोड़
का नाम मन है।
मन से बड़ा
भिखमंगा इस
जगत में कोई
भी नहीं है।
कितना ही मिले,
कोई अंतर
नहीं पड़ता।
सिकंदर भी
मांग रहा है।
रास्ते का
भिखारी भी
मांग रहा है।
मन का
स्वभाव समझ
लेना जरूरी
है। और मन से
तो प्रार्थना
कैसे होगी? प्रार्थना
का नाम ही
अमनी अवस्था
है। प्रार्थना
का अर्थ है कि
तुम मांगने
नहीं गए, तुम
धन्यवाद देने
गए हो। सारी
दृष्टि बदल
गयी। जैसे ही
मन को तुम
हटाओगे, तुम
पाओगे कि इतना
मिला है, अब
और क्या
चाहिए! मन को
बीच में लाए
कि लगेगा बिलकुल
कुछ नहीं मिला
है, सब
चाहिए। मन
देखता है अभाव
को। मन के
हटते ही दर्शन
होता है भाव
का।
इसे
ऐसा समझो, एक आदमी है, उसे तुम
गुलाब के
फूलों की झाड़ी
के पास ले जाओ।
उसे सिर्फ
कांटे दिखाई
पड़ते हैं। वह
गिनती करता है
कांटों की।
उसे फूल दिखता
ही नहीं। तुम
कितना ही उसे
दिखाओ; वह
कहेगा, जहां
हजार कांटे
हैं, वहां
एक फूल हुआ भी
तो क्या? और
जहां हजार
कांटे लगे हैं,
वह आदमी
कहेगा, संभल
कर फूल को
पकड़ना, वह
भी कांटों का
ही धोखा होगा।
उसका
तर्क ठीक भी
है। कि जहां
कांटे ही
कांटे लगे हैं, पहले तो
वहां फूल
लगेगा कैसे? कहां कांटे,
कहां फूल!
और जब हजार
कांटों में
छिद चुका होगा
उसका मन, तो
उसे डर पैदा
हो जाएगा। वह
फूल पर भी
भरोसा न कर
सकेगा। आस्था
न कर सकेगा।
वह कहेगा, कोई
भ्रम हो रहा
है, कोई
सपना है। मैं
किसी भूल में
पड़ा हूं। या
कोई मुझे धोखा
दे रहा है। या
किसी ने फूल
को ऊपर से
चिपका दिया
है। फूल हो
कैसे सकता है
जहां कांटे ही
कांटे हैं? अगर कांटों
की गिनती करो
तो फूल पर भी
श्रद्धा चली
जाती है।
अगर
फूल की गिनती
करो, अगर फूल
में लीन हो
जाओ, अगर
फूल की सुगंध
लो, फूल का
स्पर्श
तुम्हें
पुलकित कर दे,
तो दूसरी
अवस्था पैदा
होती है। तुम
कहोगे, जहां
इतना प्यारा
फूल लगा है, वहां कांटे
हो कैसे सकते
हैं? और
अगर हों भी, तो फूल की
रक्षा के लिए
होंगे। और अगर
हों भी, तो
फूल के सहयोगी,
साथी
होंगे। और अगर
हों भी, तो
परमात्मा की
कोई मर्जी
होगी। शायद
फूल बिना
कांटों के
नहीं हो सकता,
इसलिए
कांटे हैं। वे
सुरक्षा हैं,
वे पहरेदार
हैं। वे फूल
को बचा रहे
हैं।
और फूल
में तुम्हारा
रस बढ़ता जाए, बढ़ता जाए, तो एक दिन
तुम पाओगे कि
वही रस फूलों
में चल रहा है
जो कांटों में
बह रहा है।
इसलिए उनमें
विरोध कैसे हो
सकता है?
मन
देखता है
कांटों को; मन देखता है
क्या नहीं है।
मन देखता है
कहां शिकायत
है; मन देखता
है कहां भूल
है। मन देखता
है कहां कमी
है। मन देखता
है असंतोष, अतृप्ति।
मांग खड़ी हो
जाती है।
इसलिए मन से
भरा जो जाता
है मंदिर में,
वह मांगने
जाता है। वह
भिखारी है।
अगर
तुम मन को
थोड़ा अलग कर
के देखो तो
तुम पाओगे
फूलों को; तब तुम
पाओगे जीवन की
ऊर्जा को; तब
तुम पाओगे
जीवन के
अहोभाव को।
इतना मिला है,
पहले से ही
इतना मिला है,
शिकायत का
उपाय कहां?
और
जिसने इतना
दिया है, अगर
उसने कुछ बचा
रखा है, तो
उस बचाने में
कुछ राज होगा।
अगर उसने कुछ
बचा रखा है, तो उस बचाने
में कोई कारण
होगा। शायद
मैं अभी तैयार
नहीं। शायद अभी
योग्यता
चाहिए। शायद
अभी मैं पात्र
नहीं।
और समय
के पहले कुछ
ऊपर आ जाए तो
सुख नहीं लाता, दुख लाता
है। हर चीज का
समय है। हर
चीज की परिपक्वता
है। जब मैं
पकूंगा तब वह
देगा।
क्योंकि उसके
देने का इतना
अपरंपार है
मार्ग। उसके
हाथ हजारों
फैले हुए हैं।
हिंदू परमात्मा
की हजारों
हाथों से
कल्पना करते
हैं। उस
कल्पना में
बड़ा प्यार है।
वे यह कहते हैं
कि वह हजार
हाथों से देता
है, दो हाथ
नहीं हैं
उसके। तुम ले
न पाओगे, तुम्हारे
दो हाथ हैं।
तुम कितना
संभालोगे? वह
हजार हाथों से
दे रहा है।
लेकिन ठीक समय,
समय की ठीक
प्र्रतीक्षा,
शिकायत का
अभाव--और
वर्षा होनी
शुरू हो जाती
है।
नानक
कहते हैं, गुणगान भी
करते हैं लोग,
तो दो-दो कर
मांगते चले
जाते हैं। और
दाता देता ही
चला जाता है।
और अंधों को
दिखाई ही नहीं
पड़ता। वे
मांगते ही
रहते हैं कि
दो, और दो।
चारों तरफ
वर्षा हो रही
है और लोग चिल्लाते
रहते हैं कि
हम प्यासे
हैं। जैसे शिकायत
से मोह बन गया
है। जैसे दुख
से लगाव बन गया
है।
'फिर
उसके आगे क्या
रखा जाए कि
उसके दरबार का
दर्शन हो?'
यह बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है। नानक
कह रहे हैं कि
उसने इतना
दिया है, मांगने
को कुछ छोड़ा
नहीं। जब
शिकायत हट
जाती है और
अहोभाव पैदा
होता है और हम
धन्यवाद देने
जाते हैं, तो
क्या रखें
उसके चरणों
में? क्या
भेंट ले जाएं
उसके द्वार पर?
फेरि
कि अगै रखीऐ।
जितु दिसै
दरबारु।।
उसके
दरबार में हम
क्या रखें? धन्यवाद
देने के लिए
क्या भेंट ले
जाएं? क्या
चढ़ाएं उसके
चरणों में? कैसे करें
पूजा? कैसे
करें अर्चना?
तुम फूल ले
जाते हो तोड़
कर--उसके ही
फूल। बेहतर थे
वृक्ष पर; जीवित
थे। तुमने तोड़
कर मार डाले।
उसके ही फूल
मार कर तुम
उसी के ही
चरणों में चढ़ा
आते हो। और तुम्हें
शर्म भी नहीं
आती! तुम उसे
दोगे क्या? सब उसका ही
दिया हुआ है।
तुम धन
लगा कर मंदिर
खड़ा कर दो, नया
गुरुद्वारा
बना दो, मस्जिद
निर्मित कर दो,
पर तुम कर
क्या रहे हो? उसकी ही दी
हुई चीजों को
उसे वापस लौटा
रहे हो। फिर
भी तुम अकड़े
नहीं समाते
हो। तुम कहते
हो, मैंने
मंदिर बनाया।
मैंने इतने
गुरुद्वारे बनाए।
मैंने इतना
भोजन बांटा, इतने वस्त्र
बांटे। तुम
अकड़ते हो। तुम
थोड़ा सा दे
क्या देते हो,
तुम्हारे
अहंकार का अंत
नहीं होता।
इससे
क्या खबर
मिलती है? इससे खबर
मिलती है कि
तुम समझ ही न
पाए कि जीवन ने
जो तुम्हें
दिया है उसे
वापस लौटाने
में तुम्हारा
क्या है? तुम
यह भेंट उसे
देने जा रहे
हो और शघमदा
भी नहीं हो।
उसके
चरणों में
क्या रखें? नानक पूछते
हैं, उसके
आगे क्या रखें
कि उसके दरबार
का दर्शन हो? कि हम उसके
निकट आ जाएं, कि हमारी
भेंट स्वीकार
हो जाए। क्या
रखें? केसर
में रंगे हुए
चावल? खरीदे
गए फूल? तोड़े
हुए पत्ते? धन, दौलत,
क्या रखें?
नहीं, कुछ भी रखने
से न चलेगा।
अगर तुम यह
समझ जाओ कि
सभी उसका है, बस! भेंट
स्वीकार हो
गयी। जब तक
तुम यह समझ
रहे हो कि कुछ
मेरा है, तभी
तुम रखने की
बात सोच रहे
हो। जब तक तुम
समझते हो मैं
खुद मालिक हूं,
चाहूं तो
भेंट कर सकता
हूं, तभी
तक तुम भूल से
भरे हो। तुम
कुछ भी रख दो, सारा
साम्राज्य रख
दो अपना, तो
भी कुछ तुमने
रखा नहीं।
क्योंकि सभी
उसका था। तुम
उसके हो।
तुमने जो कमा
लिया, तुमने
जो इकट्ठा कर
लिया, वह
भी उसी का खेल
है।
तो
नानक कहते हैं, क्या रखें
कि तेरे दरबार
का दर्शन हो? कि तेरी
प्रतीति मिले?
कि तेरा
साक्षात हो? कि तेरी आंख
से आंख मिले? क्या लाएं
तुझे चढ़ाने को?
अगर
तुम्हें यह
समझ में आ जाए
कि सभी उसका
है, कुछ ले
जाने की जरूरत
न रही। फूल
वृक्षों पर ही
उसी को चढ़े
हुए हैं। सब
उसी को चढ़ा
हुआ है। चांदत्तारे
उसको चढ़े हुए
हैं।
तुम्हारे घी
के दीए क्या
करेंगे और अब?
चांद-सूरज उसको
चढ़े हुए हैं।
तुम थोड़े से
घी के दीए जला
कर चढ़ा दोगे
तो क्या होगा?
व्यक्ति
अगर ठीक से
आंख खोल कर
देखे तो सारा
अस्तित्व
उसकी अर्चना
में है। यही
तो अर्थ है साहब
का। वह सब का
मालिक है, सब
उसको चढ़ा हुआ
है।
इसलिए
नानक कहते हैं, क्या लाएं? यह प्रश्न
है नानक का, क्या चढ़ाएं?
'मुंह
से कौन सी
बोली बोलें
जिसे सुन कर
वह प्यार करे?'
क्या
कहें उससे? कौन से
शब्दों का
उपयोग करें? कैसे उसे
रिझाएं? कैसे
उसे राजी करें?
कैसे हम
करें कुछ कि
उसका प्यार
बरसे?
उत्तर
नानक नहीं
देते मालूम
पड़ते हैं।
प्रश्न उठा कर
छोड़ दिए हैं।
वही कला है।
क्योंकि वे यह
कह रहे हैं कि
हम कुछ भी बोलें, वही हम से
बोल रहा है।
उसके ही शब्द
उसी को चढ़ाएं
इसमें क्या
कुशलता है? उसका ही
बासा कर के
उसी को लौटा
दें? यह
सिर्फ
अज्ञानी कर
सकता है।
ज्ञानी तो
पाता है कि
चढ़ाने को कुछ
भी न बचा, क्योंकि
मैं खुद भी
चढ़ा हुआ हूं।
और ज्ञानी
पाता है कि
कोई शब्द उसकी
प्रार्थना न
बन सकेंगे, क्योंकि सभी
शब्द उसके
हैं। वही बोल
रहा है। वही
धड़क रहा है
हृदय में। वही
श्वासों की
श्वास है। तो
फिर ज्ञानी
क्या करे?
नानक
कहते हैं, 'अमृत वेला
में सत्य नाम
की महिमा का
ध्यान करो।'
कुछ
करने को नहीं
है और। समझदार
क्या करे?
'अमृत
वेला में सत्य
नाम की महिमा
का ध्यान करो।'
यह
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है।
जिसे हिंदू
संध्या कहते
हैं, उसे नानक
ने अमृत वेला
कहा है।
संध्या से भी
कीमती शब्द
अमृत वेला है।
हिंदू तो
हजारों साल से
श्रम कर रहे
हैं--जीवन के
सत्य की खोज, चैतन्य की
खोज, और
कहां-कहां से
मार्ग हो सकते
हैं। ऐसा कुछ
भी हिंदुओं ने
छोड़ा नहीं है,
जो छूट गया
हो; जो
उनकी जानकारी
में न आ गया
हो। हजारों
साल के बाद
हिंदुओं को
पता चला
धीरे-धीरे--उपनिषद
उसकी चर्चा
करते हैं--कि
चौबीस घंटे
में दो संध्या
क्षण हैं।
रात जब
तुम सोने जाते
हो तो सोने और
जागने के बीच
एक क्षण ऐसा
है जब न तो तुम
सोए होते हो, न जागे होते
हो। उस समय
जैसे
तुम्हारी
चेतना गेयर
बदलती है। अगर
तुम कार चलाते
हो तो तुम्हें
पता है कि एक
गेयर से दूसरे
गेयर में गाड़ी
डालते वक्त
बीच को
क्षण-भर को
गाड़ी न्यूट्रल
गेयर से
गुजरती है। एक
गेयर से दूसरे
गेयर में जाते
वक्त क्षण भर
को गाड़ी किसी
गेयर में नहीं
होती।
नींद
और जागरण दो
अवस्थाएं हैं; बिलकुल अलग,
एकदम अलग, जागे में
तुम कुछ और थे
नींद में तुम
बिलकुल कुछ और
हो जाते हो।
जागते तुम
दुखी थे, रो
रहे थे, दीन
थे, दरिद्र
थे; नींद
में तुम
सम्राट हो
जाते हो। और
संदेह भी नहीं
आता कि मैं
भिखारी कैसे
सम्राट होने
का सपना देख
रहा हूं! तुम
बिलकुल दूसरे
गेयर में हो।
चेतना का
बिलकुल दूसरा
तल है, जिसका
पहले तल से
कोई संबंध न
रह गया। नहीं
तो थोड़ी तो
याद आती। थोड़ा
तो स्मरण होता
कि मैं
भिखमंगा और यह
क्या देख रहा
हूं कि मैं सम्राट
हो गया? नहीं,
जब तुम सपना
देखते हो, सपने
पर पूरा भरोसा
आता है। ऐसा
लगता है कि बारह
घंटे जाग कर
तुमने जो जीवन
जीया था, वह
जीवन अलग
प्रकोष्ठ है।
और रात तुम सो
कर जो जीवन
देख रहे हो, वह अलग
प्रकोष्ठ है।
तुम दूसरी ही
दुनिया में
चले आए। दिन
में तुम साधु
थे, रात
तुम असाधु हो।
कि दिन में
असाधु थे, रात
साधु हो गए।
संदेह भी पैदा
नहीं होता।
कभी तुम्हें
सपने में
संदेह पैदा
हुआ है? अगर
सपने में
संदेह पैदा हो
जाए तो सपना
उसी वक्त टूट
जाएगा।
क्योंकि
संदेह, जागरण
चेतना का हिस्सा
है। सपने में
संदेह भी पैदा
नहीं होता। यह
भी खयाल नहीं
आता कि मैं
सपना देख रहा
हूं। अगर यह
खयाल आ जाए कि
यह सपना है तो
सपना तत्क्षण
टूट जाएगा।
बहुत
सी परंपराएं
हैं साधकों की, जो साधक को
यह सूत्र देती
हैं साधना का
कि तुम रात जब
सोओ तो यह
खयाल रखो कि यह
सपना है...यह
सपना है...यह
सपना है। कोई
तीन साल लग
जाते हैं तब
कहीं यह
याददाश्त
मजबूत होती है।
और जिस दिन
साधक को पता
चल जाता है कि
यह सपना है, उसी वक्त
सपना टूट जाता
है। और न केवल
एक सपना टूटता
है, उसके
बाद सपने आने
बंद हो जाते
हैं। क्योंकि
अब उसके गेयर
अलग-अलग नहीं
रहे। अब उसके
प्रकोष्ठ
इकट्ठे हो गए।
अब वह सोया
हुआ भी जागा
हुआ है। यही
तो कृष्ण कहते
हैं कि योगी
उस समय भी
जागता है जब
तुम सोते हो।
उसके जो दो
कमरे अलग-अलग
थे, उसने
बीच की दीवाल
हटा दी। दोनों
कमरे एक हो गए
हैं।
रात जब
तुम नींद में
उतरते हो, और सोने से
सुबह फिर तुम
जागते हो--ये
दो घड़ियां हैं
जब तुम्हारी
चेतना बदलती
है। एक क्षण
को मध्य काल
होता है। उसको
हिंदू संध्या
काल कहते हैं।
उसी को नानक
ने अमृत वेला
कहा है। अमृत
वेला इसलिए
कहा
है...संध्या
काल तो
वैज्ञानिक शब्द
है। संध्या का
अर्थ है मध्य
का; न यहां
का, न वहां
का; न इसका,
न उसका। उस
संध्या काल
में क्षण भर
को तुम परमात्मा
के निकटतम
होते हो।
इसलिए
हिंदुओं की प्रार्थना
संध्या काल का
उपयोग करना
चाहती है। उसी
को नानक अमृत
वेला कह रहे
हैं। अमृत वेला
और भी प्यारा
शब्द है।
क्योंकि उस
क्षण तुम अमृत
के करीब होते
हो।
शरीर
तो मरणधर्मा
है। शरीर के
ही एक यंत्र
से तुम जागते
हो और शरीर के
ही दूसरे
यंत्र से तुम
सोते हो। सब
सपने शरीर के
हैं। सब
जागना-सोना
शरीर का है।
इस शरीर के
पीछे तुम छिपे
हो, जो न कभी
सोता है, न
कभी जागता है।
क्योंकि जो
सोया ही नहीं,
वह जागेगा
कैसे? न
कभी सपने
देखता है, क्योंकि
सपने देखने के
लिए सोना
जरूरी है। इन शरीर
की अवस्थाओं
के पीछे छिपा
है अमृत; जो
न कभी पैदा
होता है, और
न कभी मरता
है।
अगर
तुम संध्या
काल को पकड़ने
में समर्थ हो
जाओ तो
तुम्हें शरीर
के भीतर छिपे
हुए अशरीरी का
पता चल जाएगा।
दास के भीतर
छिपे हुए साहब
का पता चल
जाएगा। तुम
दोनों हो। अगर
तुम शरीर को
ही देखते हो
तो दास हो; अगर शरीर के
भीतर छिपे
मालिक को
देखते हो तो साहब
हो।
तो
नानक कहते हैं
कि बस एक ही
काम करने
योग्य है।
मंदिरों में
मांगने से कुछ
न होगा।
पूजा-अर्चना
चढ़ाने से कुछ
न होगा।
फूल-पत्ते
रखने से कुछ न
होगा।
क्योंकि उसी
का उसी को
भेंट कर आने
में कौन सी
कुशलता है? कौन सी बड़ाई
है? एक ही
करने जैसी
प्रार्थना है,
एक ही
पूजा-अर्चना
है, और वह
है--अमृत वेला
में सत्य नाम
की महिमा का ध्यान
करो।
अमृत
वेला सचु नाउ।
वडिआई
वीचारु।।
वह जो
संध्या काल
है...लेकिन एक
क्षण का है।
और तुम्हारा
मन कभी भी
वर्तमान में
नहीं होता।
इसलिए तुम उसे
चूक जाते हो।
रोज वह आता
है। हर बारह
घंटे के बाद
वह घड़ी आती है
जब तुम
परमात्मा के
निकटतम होते
हो। लेकिन तुम
उसे चूक जाते
हो। चूक जाते
हो, क्योंकि
तुम्हारी नजर
उतने बारीक
क्षण को पकड़ने
में अभी कुशल
नहीं है। तुम
वर्तमान में
होते ही नहीं।
तुम
यहां बैठे
मुझे सुन रहे
हो या कि तुम
जा चुके दफ्तर
और तुमने काम
शुरू कर दिया? या कि तुम
अपनी दूकान पर
पहुंच गए और
तुमने व्यवसाय
शुरू कर दिया
है? मैं जो
कह रहा हूं वह
तुम उसे सुन
रहे हो या कि
उसके संबंध
में विचार कर
रहे हो? अगर
तुम उसके
संबंध में
विचार कर रहे
हो तो तुम
यहां नहीं हो।
वर्तमान क्षण
से तुम चूक
जाओगे।
इस
अमृत वेला को
पकड़ना हो तो
प्रतिपल
सजगता से जीना
जरूरी है। तुम
भोजन करो तो
सिर्फ भोजन करो
और कोई विचार
मन में न चले।
तुम स्नान करो
तो सिर्फ
स्नान करो और
कोई विचार मन
में न चले।
तुम दूकान जाओ
तो दूकान ही
रहे और कोई
विचार ही न
चले, घर भूल
जाए। घर आओ तो
दूकान भूल
जाए। तुम
एक-एक क्षण
में जब जाओ तो
पूरे वहां रहो,
यहां-वहां
नहीं। तब
धीरे-धीरे
तुम्हारी
दृष्टि
सूक्ष्म होगी
और तुम
वर्तमान क्षण
को, प्रेजेन्ट
मोमेंट को
देखने में
समर्थ हो पाओगे।
इसके
बाद ही अमृत
वेला में तुम
ध्यान कर
सकोगे, क्योंकि
वह तो बहुत
बारीक क्षण
है। एक झटके
में बीत जाता
है। तुम कुछ
और सोचते रहते
हो, वह उसी
वक्त बीत जाता
है।
सोने
के पहले पड़े
रहो बिस्तर
पर। सब तरह से
मन को शांत कर
लो। विचार
यहां-वहां न
ले जा रहे
हों। नहीं तो
जब क्षण आएगा, तब तुम वहां
मौजूद न
रहोगे। तुम
किसी चिंता-विचार
में खोए हो।
सब तरह से
अपने को शांत
कर लो। मन
बिलकुल सूना
हो जाए, वहां
कोई विचार न
घूमता हो। कोई
बादल न घूमता हो।
नील गगन जैसा
हो जाए
मन--खाली, सूना--और
देखते रहो; क्योंकि
खाली सूना
होने के साथ
खतरा है कि
तुम सो जाओ।
देखते रहो
भीतर क्या घट
रहा है। बराबर
तुम एक खटके
की आवाज
सुनोगे, जैसे
गेयर बदल रहा
है। पर गेयर
बहुत सूक्ष्म
है, अगर
विचार चल रहे
हैं तो तुम
सुन ही न
पाओगे। बराबर
तुम देखोगे कि
जैसे रात दिन
में बदल रही
है, दिन
रात में बदल
रहा है, सोना
नींद बन रहा
है, नींद
जागना बन रही
है; और तुम
दोनों से अलग
देखने वाले
हो। वह देखने वाला
ही अमृत है।
तुम देखोगे
अपने भीतर, जागरण गया
इस द्वार से, निद्रा आयी।
तुम सुबह
पाओगे, नींद
गयी, जागरण
आया। और जब
तुम नींद और
जागरण दोनों
को देख सकोगे,
तुम दोनों
से अलग हो गए।
तुम द्रष्टा
हो गए। यही
अमृत क्षण है।
इसे नानक कहते
हैं, अमृत
वेला में बस
उसकी महिमा का
भाव रहे।
महिमा
का अर्थ है, साचा साहब, साचा नाम।
बस, उसकी
महिमा का भाव
रहे। शब्द भी
नहीं। अगर तुम
जपुजी
दोहराते रहे
तो भी चूक
जाओगे। इसे भी
खयाल में रख
लेना कि महिमा
का अर्थ शब्द
नहीं है।
महिमा एक
भावदशा है।
तुमने अगर कहा
कि तू अपरंपार
है, तू
महान है, तू
ऐसा है, वैसा
है--इसी बकवास
में तुम चूक
जाओगे। वह क्षण
बारीक है। पर
इसे थोड़ा
समझना कठिन
है।
तुमने
कोई भाव जाना? तुम कभी
किसी के प्रेम
में उतरे? तो
क्या जरूरी है
कहना कि मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं? जब
तुम अपने
प्रेमी के पास
हो तो क्या
बार-बार दोहराना
जरूरी है कि
मैं तुम्हें
प्रेम करता हूं,
कि तुम बड़े
सुंदर हो, कि
तुमसे सुंदर
और कोई भी
नहीं? इन
शब्दों से तो
बातें थोथी और
ओछी हो जाती
हैं। सच तो यह
है कि तुम जब
यह कहते हो, तभी प्रेम
की महिमा खो
गयी। ये शब्द
उस महिमा को
नहीं ला सकते।
तुम
प्रेमी के पास
होते हो तो
तुम चुपचाप
बैठते हो।
लेकिन हृदय
में एक भाव
गूंजता रहता
है प्रेमी की
महिमा का। वह
भाव है, शब्द
नहीं। शब्द तो
मस्तिष्क में
गूंजते हैं, भाव हृदय
में गूंजते
हैं। तुम
पुलकित होते
रहते हो, तुम
आनंदित होते
हो, तुम
अकारण
प्रसन्न होते
हो। कुछ वजह
नहीं होती और
तुम पाते हो
भरे हुए हो।
कुछ खाली नहीं
है। तुम
परिपूर्ण
होते हो। और
तुम्हारी यह
परिपूर्णता, तुम्हारी यह
ओवर फ्लोइंग,
बाढ़ की तरह
तुम्हारी
बहती हुई यह
प्रेम की धारा
प्रेमी अनुभव
करता है।
प्रेमियों
को तुम सदा
चुप पाओगे।
पति-पत्नियों
को तुम सदा
बातचीत करते
पाओगे।
क्योंकि पति-पत्नी
डरते हैं चुप
होने से। चुप
हुए तो सब संबंध
टूट जाता है।
बातचीत का ही
सब संबंध है। अगर
पति चुप है तो
पत्नी समझती
है, क्यों
तुम चुप हो? क्या बात है?
अगर पत्नी
चुप है तो पति
समझता है, कुछ
गड़बड़ है। चुप
वे होते ही तब
हैं जब वे
लड़ते हैं।
अन्यथा वे
बोलते रहते
हैं।
इसे
थोड़ा सोचना।
तुम चुप होते
ही तब हो जब
तुम्हारा
झगड़ा चल रहा
है। बातचीत
बंद है। लेकिन
जब तुम ठीक
होते हो तब
तुम एकदम
बातचीत करते
रहते हो। तुम
मौन का उपयोग
झगड़े के लिए करते
हो। और मौन का
उपयोग बड़े से
बड़े प्रेम के
लिए करना है।
जब दो
प्रेमी सचमुच
प्रेम में
होते हैं, वे इतने
गदगद होते हैं
कि बोलने को
कुछ बचता नहीं।
आंसू बह सकते
हैं। उस गदगद
भाव में वे
हाथ एक दूसरे
के हाथ में ले
सकते हैं। वे
एक दूसरे के
आलिंगन में हो
सकते हैं। लेकिन
वाणी खो
जाएगी।
प्रेमी गूंगे
हो जाते हैं।
बोलना ओछा
मालूम पड़ता
है। बोलना भी
विघ्न मालूम
पड़ता है। बोले
तो यह जो गहन
शांति घिर गयी
है, यह टूट
जाएगी। बोले
तो जो यह तार
बंध गया है
हृदय का, यह
छिन्न-भिन्न
हो जाएगा।
बोले कि कंप
जाएगी सागर की
सतह और लहरें
उठ आएंगी।
इसलिए प्रेमी
चुपचाप हो
जाते हैं।
उस
क्षण में, अमृत वेला
में, महिमा
का विचार नहीं
करना है, शब्द
नहीं बांधने
हैं, महिमा
का भाव करना
है। अहोभाव, मूकभाव, कि
परमात्मा ने
सब दिया है।
और तुम
भरे-पूरे हो।
कुछ भी नहीं
चाहिए। और
तुमसे
धन्यवाद बह
रहा है।
'हम
मुंह से
कौन-सी बोली
बोलें कि जिसे
सुन कर वह
प्यार करे।'
कुछ
बोलने को नहीं
है। उससे हम
क्या कहेंगे? सब कहना
व्यर्थ है।
'सत्य
नाम की महिमा
का ध्यान करो।'
सत्य
नाम से भर
जाओ। और तुम
पाओगे एक
तालमेल हो
गया। उस बीच के
क्षण में, जब दिन जा
रहा है, रात
आ रही है; जागरण
जा रहा है, निद्रा
आ रही है; तुम
सजग हो गए।
तुम चौंक
जाओगे। तुम
पाओगे तुम
प्रकाश की एक
लपट हो गए।
जिसका न कोई
प्रारंभ है न
कोई अंत है।
जो सदा सच है, जो शाश्वत
है। उस लपट
में ही जीवन
के द्वार
खुलते हैं और
उस प्रकाश में
ही सत्य जो
छिपा है, अनावृत
होता है।
'कर्म
से शरीर मिलता
है।'
तब उस
घड़ी में तुम
जानोगे कि
कर्म से शरीर
मिलता है।
'और
कृपा-दृष्टि
से मोक्ष का
द्वार खुलता
है।'
यह जो
शरीर है, यह
तुम्हारे किए
हुए का फल है।
यह तुमने
कर-कर के पाया
है। यहां कई
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं। पहली
बात: कुछ
चीजें हैं जो तुम
कर के पा सकते
हो, कुछ
चीजें हैं तुम
कर के कभी
नहीं पा सकते
हो। क्षुद्र
को कर के पाया
जा सकता है।
विराट को कर
के नहीं पाया
जा सकता। कबीर
ने कहा है, अनकिए
सब होय। उस
विराट को पाने
के लिए तो
तुम्हें
अनकिए की अवस्था
में होना
चाहिए। तुम सब
पा सकते हो जो
क्षुद्र है, कर्तृत्व
से। जो विराट
है वह
अकर्तृत्व से
उपलब्ध होता
है। दोनों की
दिशा अलग है।
स्वाभाविक भी
है, तर्कयुक्त
भी है।
मैं जो
भी करूंगा वह
मुझसे बड़ा
नहीं हो सकता।
कैसे होगा? कृत्य कभी
कर्ता से बड़ा
हुआ है? मूर्ति
कभी
मूर्तिकार से
बड़ी हुई है? कविता कभी
कवि से बड़ी
हुई है? यह
असंभव है। जो
तुमसे
निकलेगा वह
तुमसे छोटा हो
सकता है।
ज्यादा से
ज्यादा
तुम्हारे
बराबर हो सकता
है। लेकिन
तुमसे बड़ा
नहीं हो सकता।
तुम परमात्मा
को कैसे पाओगे?
तुम्हारे
कर्तृत्व से
कुछ भी न
होगा। और तुम
जितनी पाने की
कोशिश करोगे,
उतने ही तुम
भटकोगे।
इसी
भटकाव को
छिपाने के लिए
तो हमने
मूर्तियां गढ़
ली हैं
मंदिरों में।
मूर्ति हम गढ़
सकते हैं।
परमात्मा को
गढ़ने का तो
कोई उपाय नहीं
है। परमात्मा
हमें गढ़ता है, मूर्ति हम
गढ़ते हैं।
परमात्मा
हमें बनाता है,
मंदिर हम
बनाते हैं।
मंदिर
क्षुद्र है।
वह तुम्हारे
हाथ की कृति
है। तुम्हारी
कृति में विराट
कैसे पाया जा
सकेगा? तुम्हारी
कृति तुमसे
बड़ी न होगी।
तुम्हारी कृति
में तुम ही तो
रहोगे, तुम्हारे
ही हाथ की छाप
होगी, उस
पर परमात्मा
का हस्ताक्षर
नहीं हो सकता।
हां, तुम्हारी
कृति में भी
कभी-कभी
परमात्मा का
हस्ताक्षर हो
सकता है--जब
तुम उसके
हाथों में अपने
को छोड़ दो; वह
करे और तुम
केवल उपकरण हो
जाओ।
बिड़ला
के मंदिर में
तुम उसको न पा
सकोगे। वह मंदिर
बिड़ला का है।
उसका भगवान से
क्या लेना-देना? अगर वह
भगवान का
मंदिर होता, तो बिड़ला का
कैसे हो सकता
था? हिंदू
के मंदिर में
तुम उसे न पा
सकोगे, वह
हिंदू का
मंदिर है। अगर
वह परमात्मा
का मंदिर होता,
तो हिंदू का
मंदिर उसे
क्यों तुम
कहते? सिक्ख
के
गुरुद्वारे
में तुम उसे न
पा सकोगे, वह
सिक्ख का गुरुद्वारा
है।
परमात्मा
के मंदिर का
कोई नाम नहीं
हो सकता। वह
अनाम है, उसका
मंदिर भी अनाम
होगा। तुम जो
भी बनाओगे, कितना ही
सुंदर बना लो,
स्वर्ण
मंदिर बना लो,
लेकिन आदमी
के हाथ की छाप
वहां होगी।
तुम्हारा
मंदिर दूसरे
मंदिरों से
बड़ा हो, तुमसे
बड़ा नहीं हो
सकता।
तुम्हारे
मंदिर में तभी
वह प्रगट हो
सकता है जब
तुम बिलकुल
अप्रगट हो
जाओ।
तुम्हारी छाप
ही न मिले।
अभी तक
हम जमीन पर
ऐसा मंदिर
बनाने में
समर्थ नहीं हो
सके जिसमें
आदमी के हाथ
की छाप न हो। सब
मंदिर किसी के
हैं। बनाने
वाला बहुत
प्रगाढ़ हो कर
वहां है। कोई
मंदिर उसका
नहीं है। सच
तो यह है कि
उसके मंदिर
बनाने की कोई
जरूरत नहीं है, क्योंकि यह
सारा
अस्तित्व
उसका मंदिर
है। पक्षियों
में वह कल-कल
कर रहा है।
वृक्षों में फूल
खिला रहा है।
हवाओं में बह
रहा है।
नदियों में
उसी का शोर
है। गगन उसी
का विस्तार
है। तुम उसी
में उठी हुई
लहरें हो।
उसका मंदिर तो
बड़ा है। तुम
कैसे छोटे
मंदिर में उसे
समाओगे?
आदमी
कर्म से बहुत
कुछ कर सकता
है। पश्चिम
उसका प्रतीक
है। उन्होंने
कर्म से बहुत
कुछ कर लिया
है। अच्छे
रास्ते बना
लिए, अच्छे
मकान बना लिए।
वैज्ञानिक
उपकरण खोजे। हाइड्रोजन
बम बना लिया।
मौत का बड़ा
आयोजन कर लिया,
सब कर लिया।
लेकिन
परमात्मा से
बिलकुल वंचित हो
गए।
और
जितना-जितना
उन्होंने
कृत्य किया, जो-जो चीजें
अकर्ता भाव से
पैदा होती हैं,
वे सब खो
गयीं। सबसे
पहले पश्चिम
से परमात्मा खो
गया। तो
नीत्से ने सौ
साल पहले
घोषणा की, गाड
इज डेड, ईश्वर
मर चुका।
पश्चिम के लिए
निश्चित मर
गया। क्योंकि
जब तुम कर्म
से बहुत भर गए,
तो उससे
तुम्हारा
सारा संबंध
टूट गया, मरे
के बराबर हो
गया। पहले
ईश्वर खो गया
और जब ईश्वर
खो गया तो
प्रार्थना
थोथी हो गयी।
ध्यान ओछा हो
गया। कुछ सार
न रहा। किसका
ध्यान? कैसा
ध्यान? किसलिए?
कर्म सब कुछ
हो गया। ध्यान
तो अक्रिय
अवस्था है, जब तुम कुछ
भी नहीं करते।
इसलिए
पश्चिम में
लोग सोचते हैं, पूरब के लोग
काहिल हैं, सुस्त हैं।
नानक के पिता
भी यही सोचते
थे कि नानक
काहिल और
सुस्त है।
बैठा-बैठा
क्या कर रहा
है? पिता
के पास
व्यवसायी की
बुद्धि थी, तो लगता था
कि यह लड़का एक
उपद्रव है। न
कुछ काम करता
न कुछ धाम
करता, न
कुछ कमाता; इसके भविष्य
के संबंध में
पिता चिंतित
थे। कई बार
काम खोजे। सब
जगह से बेकाम
हो कर लौट
आया। कुछ नहीं
सूझा।
पढ़ा-लिखा नहीं,
क्योंकि
पंडित से
विवाद हो गया।
और पंडित खुद
आ कर लड़के को
वापस पहुंचा
गया कि अपने
बस के बाहर
है। क्योंकि
यह कहता है, आखिरी शब्द
हो गया अब और
क्या बचा? और
पंडित को भी
लगा कि कहता
तो ठीक है कि
अब इसके पार
और क्या पढ़ने
को है? और
नानक ने पूछा,
और पढ़-पढ़ कर
क्या होगा? और पढ़-पढ़ कर
क्या उसको पाया
जा सकता है? तुमने उसे
पा लिया? पंडित
ने कहा कि
पढ़-पढ़ कर तो
उसे नहीं पाया
जा सकता।
मैंने भी उसे
पाया नहीं। तो
नानक ने कहा, फिर हम वही
रास्ता
खोजेंगे
जिससे उसे
पाया जा सकता
है।
कबीर
कहते हैं--
पोथी
पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ न
कोय।
ढाई
आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित
होय।
तो
नानक ने कहा
कि हम भी वही
ढाई अक्षर
पढ़ेंगे, जिसको
पढ़ कर लोग
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाते हैं। अब
हम यह इतना
लंबा किसलिए
पढ़ें!
इस
पढ़ाई का तो
प्रयोजन भी
दूसरा है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने स्कूल
जाता था बच्चों
को पढ़ाने।
अपने गधे पर
बैठ कर जाता
था। कई वर्षों
से उसी गधे पर
आ-जा रहा था। स्कूल
की हवा गधे को
भी लग गयी। एक
दिन रास्ते में
गधे ने पूछा, मुल्ला!
स्कूल किसलिए
रोज जाते हो?
मुल्ला
पहले तो डरा।
फिर उसने सोचा
कि कई मैंने
बोलने वाले
गधे देखे हैं, तो यह गधा भी
बोलने वाला
गधा मान लेना
चाहिए।
घबड़ाने की
इतनी कोई
जरूरत नहीं
है। फिर लगता है
इसको स्कूल की
हवा लग गयी
है। गधा बोलने
लगा है। अपनी
ही भूल है।
रोज स्कूल ले
जाते रहे, हवा
लग गयी।
मुल्ला
ने पूछा, क्या
करेगा जान कर?
उस गधे
ने कहा, मैं
जानना चाहता
हूं कि रोज
स्कूल क्यों
जाते हो? जिज्ञासा
उठ गयी है।
मुल्ला
ने कहा, स्कूल
पढ़ाने जाता
हूं।
गधे ने
पूछा, पढ़ने
से क्या होगा?
मुल्ला
ने कहा, अक्ल
आती है पढ़ने
से।
गधे ने
पूछा, अक्ल
से क्या होगा?
मुल्ला
ने कहा, अक्ल
से क्या होगा?
अक्ल से मैं
तुझ पर सवार
हूं।
तो गधे
ने कहा, फिर
मुल्ला, मुझे
भी पढ़ा दो और
अक्ल दे दो।
मुल्ला
ने कहा, ना
भाई। क्योंकि
फिर तू मुझ पर
सवार हो
जाएगा। हरगिज
नहीं।
इस
दुनिया में तो
हम जो पढ़ रहे
हैं, वह
एक-दूसरे पर
सवारी करने के
उपाय हैं।
यहां पढ़ना
तुम्हारे
संघर्ष का
आयोजन है। तुम
ठीक से लड़
सकोगे अगर
तुम्हारे पास
डिग्रियां
हैं। तुम
दूसरों के
कंधों पर सवार
हो सकोगे अगर
तुम्हारे पास डिग्रियां
हैं। ये
विद्यालय
तुम्हारे
हिंसा के
फैलाव हैं।
इनके कारण तुम
ज्यादा
कुशलता से
शोषण कर
सकोगे।
दूसरों को
व्यवस्था से
सता सकोगे।
कानून से
जुर्म कर
सकोगे। नियम
से, विधि
से वह सब कर
सकोगे जो कि
नहीं करना
चाहिए। सारी
पढ़ाई-लिखाई
बेईमानी का
प्रशिक्षण है।
तुम लोगों पर
सवार हो
सकोगे। इससे
कभी कोई ज्ञानी
तो नहीं हुआ।
इससे ही तो
लोग अज्ञानी
होते चले जाते
हैं। हमारे
विद्यालय
अविद्यालय हैं।
वहां ज्ञान तो
कभी घटता
नहीं।
तो
नानक को उनके
स्कूल का
अध्यापक
पंडित छोड़ गया
घर, कि यह
अपने बस के
बाहर है।
नानक
का जनेऊ हो
रहा था, तो
सारा समारंभ
हो गया था। सब
लोग आ गए थे।
बैंड-बाजे बज
चुके थे, पंडित
सूत्र पढ़ चुका
था। फिर वह
गले में जनेऊ डालने
लगा तो नानक
ने कहा, रुको!
इस जनेऊ के
डालने से क्या
होगा? उस
पंडित ने कहा
कि इस जनेऊ के
डालने से तुम
द्विज हो
जाओगे। नानक
ने पूछा कि
द्विज का क्या
अर्थ है? द्विज
का अर्थ है कि
दुबारा जन्म।
क्या इस सूत
के धागे को
डाल लेने से
मेरा दुबारा
जन्म हो जाएगा?
क्या मैं
नया हो जाऊंगा?
क्या
पुराना मर
जाएगा और नए
का जन्म हो
जाएगा? अगर
यह होता हो तो
मैं तैयार हूं।
पंडित
भी डरा।
क्योंकि माला
गले में डाल
लेने से जनेऊ
की क्या होने
को है? फिर
नानक ने पूछा
कि यह जनेऊ
अगर टूट गया
तो? उसने
कहा कि बाजार
में और मिलते
हैं। इसको फेंक
देना, दूसरा
ले लेना। तो
नानक ने कहा
कि फिर यह
रहने ही दो।
जो खुद ही टूट
जाता है, जो
बाजार में
बिकता है, जो
दो पैसे में
मिल जाता है, उससे उस
परमात्मा की
क्या खोज होगी?
जिसको आदमी
बनाता है, उससे
परमात्मा की
क्या खोज
होगी! आदमी का
कृत्य छोटा
है।
नानक
के पिता कालू
मेहता को यही
लगता था, यह
लड़का बिगड़ गया
है। सब उपाय
कर डाले। फिर
कुछ रास्ता न
बचा तो गांव
में आखिरी
उपाय रहता है
कि इसको घर के
गाय-भैंस
चराने भेज दो।
नानक को भेज
दिया गाय-भैंस
चराने। वे बड़े
खुशी से गए, वहां ध्यान
लग गया, वृक्ष
के नीचे महिमा
में डूब गए।
गाय-भैंस पड़ोसियों
के खेत चर
गयीं। दूसरे
दिन वह भी रोक
देना पड़ा।
आखिर बाप को
पक्का हो गया
कि इससे कुछ
होना-जाना
नहीं है।
यह बड़े
मजे की बात है
कि इस दुनिया
में जो लोग कुछ
कर पाते हैं
वे उस दुनिया
से वंचित रह
जाते हैं। और
जो उस दुनिया
को पाने के
हकदार होते हैं, करीब-करीब
इस दुनिया में
कुछ भी करने
में समर्थ
नहीं होते।
ऐसा नहीं कि
उनसे कुछ होता
नहीं, लेकिन
उनके होने का
ढंग और गुण
अलग है। वे
उपकरण हो जाते
हैं। उनसे
बहुत कुछ होता
है।
क्या
हो जाता अगर
नानक ठीक से
गाय-भैंस को
चरा कर भी लौट
आते? बहुत से
लोग लौट रहे
हैं। क्या हो
जाता दुनिया
में? क्या
होता कि नानक
एक दूकान ठीक
से चला लेते? बहुत सी
दूकानें ठीक
से चल रही
हैं। लेकिन
कृत्य के जगत
से हट कर यह
व्यक्ति
महिमा के जगत
में डूब गया।
महिमा
का अर्थ है, करने वाला
तू है। महिमा
का अर्थ है कि
मैं क्या कर
सकूंगा। और
जैसे ही
तुम्हें यह लग
जाता है कि
मैं क्या कर
सकूंगा, तुम्हारा
अहंकार
बूंद-बूंद
खोने लगता है।
जिस दिन
तुम्हें
परिपूर्णता
से यह प्रतीति
हो जाती है कि
मैं असमर्थ
हूं, मेरे
किए कुछ भी न
होगा, मैं
असहाय हूं, उसी क्षण
मोक्ष का
द्वार खुल
जाता है।
नानक
कहते हैं, कर्म से
शरीर मिलता है,
संसार
मिलता है।
कृपा-दृष्टि
से मोक्ष का
द्वार
प्राप्त होता
है। नानक कहते
हैं, इस
प्रकार जानो
कि सत्य ही, परमात्मा ही
सब कुछ है।
'परमात्मा
न तो स्थापित
किया जा सकता
है'--इसलिए
मंदिर कैसे
बनाओगे? 'न
निर्मित किया
जा सकता है'--इसलिए
मूर्तियां
कैसे गढ़ोगे? 'वह निरंजन
आप में ही सब
कुछ है।' तुम्हें
उसे बनाने की
जरूरत नहीं
है। तुम नहीं
थे तब भी था, तुम नहीं
होओगे तब भी
रहेगा। आदि
सचु जुगादि सचु।
तुम उसको
बनाने की
फिक्र छोड़ो।
पूजा, मंदिर,
मूर्ति, इनसे
कुछ होने वाला
नहीं है। फिर
किससे होगा?
'जिन्होंने
उसकी सेवा की,
आराधना की,
वे महिमा को
प्राप्त हुए।'
अगर
वही सब कुछ है
तो सेवा ही प्रार्थना
है। अगर वही
सब कुछ है तो
सेवा ही आराधना
है। अगर वही
सब कुछ है, उसका ही
फैलाव है, तो
तुम जितनी
सेवा में रत
हो जाओ, तुम
उतने ही उसके
निकट पहुंच
गए। वृक्ष
प्यासा है, पानी डाल
दो। गाय भूखी
है, घास रख
दो। तुम उसी
के सामने घास
रख रहे हो और तुम
उसी की जड़ों
में पानी डाल
रहे हो।
बड़ी
संवेदनशीलता
चाहिए
प्रार्थना
करने के लिए।
छोटे-मोटे
मंदिर से नहीं
होगा। वे तो
तरकीबें हैं
प्रार्थना से
बचने की। यह
मंदिर बड़ा है
और विराट सेवा
की भावदशा
चाहिए।
क्योंकि वही
है।
जीसस
ने कहा है...जब
जीसस को सूली
लगने का वक्त
आया तो उनके
साथियों ने, संगियों ने
पूछा, अब
हम क्या
करेंगे? जीसस
ने कहा, तुम
फिक्र मत करो।
अगर तुम भूखे
को पानी पिलाओगे
तो मेरे कंठ
में पानी
पहुंचेगा।
अगर तुम दीन
की सेवा करोगे
तो तुम मुझे
वहां छिपा
पाओगे। और
जीसस ने कहा
है, अगर
तुम नाराज हो
और किसी से
तुमने अपशब्द
कहे हैं और
किसी पर तुम
क्रोधित हुए
हो, तो
मंदिर आने में
अभी कोई सार
नहीं है। अगर
तुम मंदिर में
भी आ गए हो, तुमने
घुटने भी टेक
दिए और
तुम्हें याद
आता है कि तुम
किसी के प्रति
नाराज हो, तो
उठो, पहले
उससे क्षमा
मांग आओ।
क्योंकि जब तक
उसने क्षमा
नहीं कर दिया
है, तब तक
प्रार्थना
कैसे होगी?
चारों
तरफ फैला है
वही। इसलिए
नानक कहते हैं, 'जिन्होंने
उसकी सेवा की,
आराधना की,
वे महिमा को
प्राप्त हुए।'
कैसी
आराधना? सेवा!
सेवा शब्द
महत्वपूर्ण
है। वह जितने
गहरे
तुम्हारे
भीतर उतर जाए
उतना अच्छा।
लेकिन एक बात
ध्यान रखनी जरूरी
है, वह
फर्क की बात
है। तुम जिसकी
सेवा कर रहे
हो वह
परमात्मा है,
यह धारणा
उसमें
महत्वपूर्ण
है।
तुम
ऐसे भी सेवा
कर सकते हो कि
दीन है, गरीब
है, बेचारे
की सेवा कर
दो। जब तुम
किसी बेचारे
की सेवा करते
हो तब तुम ऊपर
हो, बिचारा
नीचे है। तुम
कृपा कर रहे
हो, सेवा
नहीं। फिर यह
साधारण
सामाजिक सेवा
है। यह सेवा
आराधना नहीं
है। तुम एक
सोशल वर्कर
हो। लायन्स
क्लब के मेंबर
हो, कि
रोटेरियन हो;
कि वी सर्व,
सेवा हमारा
लक्ष्य है।
मगर तुम बड़ी
अकड़ में हो।
तुम एक छोटा
अस्पताल बना
देते हो तो
तुम भारी
प्रोपेगंडा
मचाते हो।
सामाजिक सेवा
आराधना नहीं
है। सामाजिक
सेवा में तो
तुम टुकड़े
फेंक रहे हो
भूखों के लिए।
बड़ी दया कर रहे
हो। एहसान कर
रहे हो। तुम
ऊपर हो, जिसकी
तुमने सेवा की
वह नीचे है।
और उसे अनुगृहीत
होना चाहिए।
तब यह आराधना
न रही।
सेवा
तब आराधना
बनती है जब
तुम जिसकी
सेवा कर रहे
हो, वह
परमात्मा है।
वह साहब है, तुम दास हो।
और अनुगृहीत
वह नहीं है, तुम हो, कि
उसने मौका
दिया। तुमने
एक गरीब को
रोटी दी और
धन्यवाद भी
दो।
पुराना
हिंदुओं का
नियम है कि जब
किसी ब्राह्मण
को भिक्षा दो, फिर दक्षिणा
भी दो। यह
दक्षिणा क्या
है? उसने
भिक्षा ग्रहण
की, इसका
धन्यवाद है।
वह ग्रहण न
करता तो तुम
क्या करते? तो पहले
भिक्षा दो, फिर दक्षिणा
दो। दक्षिणा
का अर्थ है कि
तुम्हारी बड़ी
कृपा कि तुमने
स्वीकार की
मेरी सेवा। जिस
दिन तुम
अनुगृहीत
अनुभव करोगे
उसके, जिसकी
तुमने सेवा की
है, तब
आराधना बन
गयी। तब सेवा
सामाजिक बात न
रही, एक
धार्मिक
कृत्य हो गया।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लेना।
अगर तुम सेवा
से अकड़ गए और
सेवक हो गए, तो यह नानक
की आराधना न
हुई। सेवा
तुम्हें विनम्र
करेगी। सेवा
दीन को
परमात्मा
करेगी, तुम्हें
दास बनाएगी।
जो बिलकुल
पीछे खड़ा है वह
प्रथम हो
जाएगा और तुम
पीछे खड़े हो
जाओगे। और
सेवा का अर्थ
है कि जो भी
तुम्हें सेवा
का मौका दे, तुम उसके
धन्यवादी हो।
'वह
निरंजन आप ही
सब कुछ है।'
थापिया
न जाई कीता न
होई। आपे आप
निरंजन सोई।।
जिनि
सेविआ तिनि
पाइआ मानु।
'और
जिन्होंने की
सेवा उन्हें
बड़ा मान मिला,
बड़ी महिमा
मिली।'
यह मान
तुम्हारा
अहंकार नहीं
है। क्योंकि
यह मान तो तभी
मिलेगा जब
तुम्हारा
अहंकार मर
जाएगा।
'तब
वे बड़े
प्रकाशित
हुए।'
तब
उनमें
बुद्धत्व
प्रकट हुआ। तब
उनके घर का अंधेरा
मिट गया और
दिया जला।
जिनि
सेविआ तिनि
पाइआ मानु।
'नानक
कहते हैं कि
उस गुणनिधान
का भजन करो।
उसका ही भजन
करो, श्रवण
करो, उसका
ही भाव मन में
रखो। इस
प्रकार दुख से
छूट कर सुख घर
ले जाओगे।'
उस
गुणनिधान का
भजन, श्रवण, उसका ही
भाव। तुम जो
भी करो, उसे
परमात्मा को
समर्पित कर दो,
तभी यह हो
पाएगा। दूकान
पर बैठो और
ग्राहक आए, तो तुम
ग्राहक को मत
देखो, उसको
ही देखो। और
ग्राहक के साथ
वैसा ही
व्यवहार करो,
जैसा
परमात्मा आया
होता तो तुम
उससे व्यवहार करते।
क्योंकि
चौबीस घंटे
अगर उसके भाव
में डूबना है,
तो इसके
सिवाय कोई
उपाय नहीं।
भोजन करो, तो
वही भोजन से
तुम में
प्रवेश कर रहा
है। इसलिए
हिंदुओं ने
कहा, अन्नं
ब्रह्म, अन्न
ब्रह्म है।
तुम ऐसे ही
भोजन मत करो।
क्योंकि वही
खिला है। वही
अनाज बना है।
तुम बड़े अनुग्रह
भाव से उसे
ग्रहण करो। और
भोजन को, अन्न
को जब तुम
ब्रह्म मान
लोगे--पानी
पीओगे और वही
पानी में आया
है तुम्हारी
प्यास को तृप्त
करने को--तभी
तो चौबीस घंटे
उसका भजन
होगा। नहीं तो
कैसे होगा?
तुम जा
कर
गुरुद्वारा
में, मंदिर
में घड़ी भर
भजन कर आओगे।
लेकिन जब तुम
भजन कर रहे हो
तब भी मन
भागा-भागा है।
तब भी तुम बीच-बीच
में घड़ी देख
लेते हो कि
समय ज्यादा
हुआ जा रहा
है। दूकान
खोलने का वक्त
हुआ जा रहा है।
तुम कैसे उसका
भजन करोगे? खंड-खंड भजन
नहीं किया जा
सकता कि सुबह
कर लिया, कि
सांझ कर लिया,
और चौबीस
घंटे साधारण
हो गए।
धार्मिक
होना चौबीस
घंटे का कृत्य
है, भाव है।
इसे तुम
कभी-कभी नहीं
कर सकते। न
कोई धार्मिक
दिवस है और न
कोई धार्मिक
घड़ी है। समस्त
जीवन उसी का
है। सब क्षण
उसी के हैं।
तो तुम इस ढंग
से जीयो--धर्म
जीने की एक
अलग शैली है--तुम
इस ढंग से
जीयो कि तुम
जो भी करो, वह
किसी न किसी
रूप में
परमात्मा से
संयुक्त हो
जाए।
नानक
कहते हैं, 'उस गुणनिधान
का भजन करो।
उसका ही भजन, श्रवण उसका
ही, भाव
उसका ही।'
तुम
मुझे यहां सुन
रहे हो। तुम
ऐसे सुन सकते
हो जैसे कोई
बोलने वाला
बोल रहा है, और तुम ऐसे
भी सुन सकते
हो कि
परमात्मा की
आवाज आ रही
है। और
तत्क्षण
तुम्हारे
जीवन में फर्क
शुरू हो
जाएगा। उसका
ही भाव मन में
रखो।
'इस
प्रकार दुख से
छूट कर सुख घर
ले जाओगे।'
और तब
चौबीस घंटे के
बाद, मेहनत
श्रम के बाद जब
तुम घर लौटोगे
तो दुख की जगह
सुख ले जाओगे।
अभी तुम दुख
लाते हो। अभी
ग्राहक
तुम्हें लूट ले
गया। किसी ने
तुम्हारी जेब
काट ली। अभी
तुमने जो भी
खाया वह ठीक न
था, शिकायत
रही। तुमने जो
भी पहना सुंदर
न था, मजबूरी
रही। अभी तुम
दुख इकट्ठा
करते हो। अगर तुम्हें
परमात्मा सब
तरफ दिखाई
पड़ने लगे और
तुम जो भी करो उस
सब में उसकी
झलक मिलने लगे,
तो नानक
कहते हैं, तुम
सुख घर ले
जाओगे।
और न
केवल इस
साधारण घर तुम
सुख ले जाओगे, मरने के
वक्त जब असली
घर जाने लगोगे,
तब तुम सुख
ही सुख ले
जाओगे। तुम
आपूर जाओगे। तुम
भरे-पूरे
जाओगे। तब तुम
रोते-रोते
नहीं, नाचते-नाचते
जाओगे।
और
मृत्यु अगर
नृत्य न बन
जाए तो समझ
लेना कि जीवन
व्यर्थ गया।
अगर मृत्यु एक
आनंद, उत्सव
न बन जाए तो
समझ लेना कि
जीवन व्यर्थ
गया। क्योंकि
तुम घर लौट
रहे हो। और घर
जाते वक्त भी
हृदय
तुम्हारा
आनंद से भरा
हुआ नहीं है, तुमने जीवन
में सिर्फ दुख
ही दुख इकट्ठे
किए हैं।
नानक
गावीऐ
गुणीनिधानु।
गावीऐ
सुणीऐ मनि
राखीऐ भाउ।
दुख परहरि
सुखु घर लै
जाउ।।
'दुख
से छूट कर तुम
सुख घर ले
जाओगे।'
अगर
तुम दुखी हो
तो सिर्फ
इसीलिए कि तुम
परमात्मा को
छोड़ कर जिंदगी
चला रहे हो।
उसे तुमने बाद
कर रखा है।
तुम अपने को
ज्यादा
होशियार समझ
रहे हो। तुम
जरूरत से
ज्यादा अपने
पर भरोसा कर
रहे हो। इसलिए
दुखी हो। दुख
का और कोई
कारण नहीं है।
और सुख
का भी और कोई
कारण नहीं है।
जिस दिन तुम अपनी
अक्लमंदी, अपनी
होशियारी छोड़
दोगे और उसे
देखने लगोगे;
और ज्यादा
उसमें जीयोगे
कम अपने में; और
धीरे-धीरे
पूरे उसमें
जीयोगे, कम
अपने में...।
क्या
जरूरत है कि
पत्नी में तुम
पत्नी देखो, क्यों न
परमात्मा
देखो? क्या
जरूरत है तुम
अपने बेटे में,
बेटे को
अपना देखो, क्यों न
परमात्मा का
बेटा देखो? जैसे ही
दृष्टि बदलती
है, वैसे
ही सुख आना
शुरू हो जाता
है। कल अगर
तुम्हारा
बेटा मर जाएगा
तो तुम दुखी
होओगे। इसलिए
नहीं कि बेटा
मर गया, इसलिए
कि तुम्हारी
दृष्टि
भ्रांत थी।
तुम सोचते थे,
मेरा बेटा।
अगर तुमने
पहले से ही
जाना होता कि
परमात्मा का
बेटा; तो
तुम कहते कि
जब उसकी मर्जी
थी भेजा, जब
उसकी मर्जी
हुई उठा लिया।
उसका हुक्म।
और तुम हर
हालत में राजी
रहोगे।
क्योंकि उसका
बेटा था, उसने
भेजा। जितने
दिन भेजा, उतनी
कृपा। शिकायत
किससे करनी है?
जब उठा लिया
उसकी मर्जी।
हमारा कुछ है
ही नहीं। सब
कुछ उसी का
है। फिर तुम
कैसे रोओगे? कैसे चिंतित
होओगे? कैसे
संताप करोगे?
दे, तो
तुम राजी
रहोगे। ले ले,
तो तुम राजी
रहोगे।
क्योंकि उसके
रास्ते अनूठे
हैं। कभी वह
तुम्हें देता
है और देने के
द्वारा
तुम्हें
निर्मित करता
है। और कभी ले
लेता है और
लेने के
द्वारा
तुम्हारा
विकास करता है।
कभी जरूरत
होती है कि
तुम्हें दुख
मिले, क्योंकि
दुख तुम्हें
चेताता है, होश लाता
है। सुख में
तो तुम सो
जाते हो, खो
जाते हो। दुख
में तुम जाग
आते हो।
एक
सूफी फकीर
हुआ। हसन उसका
नाम था। उसके
शिष्य ने एक
दिन पूछा कि
सुख है, यह
तो समझ में
आता है, क्योंकि
परमात्मा है,
वह पिता है,
वह सुख दे
रहा है। लेकिन
दुख क्यों? दुख समझ में
नहीं आता। हसन
अपनी नाव में
बैठा था और
दूसरी पार जा
रहा था। उसने
शिष्य को भी नाव
में बिठा लिया,
कुछ बोला
नहीं। और एक
ही चप्पू से
उसने नाव चलानी
शुरू कर दी।
वह नाव
गोल-गोल घूमने
लगी। उस युवक
ने कहा, आपका
दिमाग तो खराब
नहीं हो गया
है? अगर एक
ही चप्पू से
नाव चलायी तो
हम यहीं भटकते
रहेंगे। इसी
किनारे पर
गोल-गोल घूमते
रहेंगे। दूसरा
चप्पू खराब है?
या आपका हाथ
काम नहीं कर
रहा? या
हाथ में दर्द
है तो मैं
चलाऊं! हसन ने
कहा, तू तो
समझदार है।
मैं तो समझा
कि नासमझ है।
अगर सुख ही
सुख होगा, नाव
वर्तुल में
घूमती रहेगी।
कहीं
पहुंचेगी
नहीं। उसको साधने
के लिए विपरीत
चाहिए। दो
चप्पुओं से नाव
चलती है। दो
पैर से आदमी
चलता है। दो
हाथ से जीवन
चलता है। रात
और दिन चाहिए।
सुख और दुख चाहिए।
जन्म और
मृत्यु
चाहिए।
अन्यथा नाव
घूमती रहेगी,
भंवर बन
जाएगी। तुम
कहीं पहुंचोगे
ही नहीं।
जब कोई
ठीक से देखना
शुरू करता है
कि सभी में वही
है, तब तुम
उसके दुख को
भी अहोभाव से
अंगीकार करते
हो। तब तुम
उसके सुख को
भी अंगीकार
करते हो, उसके
दुख को भी। जब
तुम दोनों को
समान भाव से अंगीकार
करते हो, तब
न तो सुख सुख
रह जाता है, न दुख दुख रह
जाता है। उनकी
भेद-रेखा खो
जाती है। और
जब तुम दोनों
को समभाव से
देखते हो, तुम्हारा
लगाव सुख से
ज्यादा और दुख
का विरोध टूट
जाता है, तुम
तत्क्षण अलग
हो जाते हो।
तुम तीसरे हो
जाते हो। तुम
साक्षी भाव को
उपलब्ध हो
जाते हो। दुख
से छूट कर तब
तुम सुख घर ले
जाओगे।
'गुरुवाणी
ही नाद है और
गुरुवाणी ही
वेद है। वह परमात्मा
गुरुवाणी में
ही समाया हुआ
है। गुरु शिव,
गुरु
विष्णु, गुरु
ही ब्रह्मा
है। जो भी मैं
जानता हूं, यदि मैं उसे
पूरा भी जानता
तो भी उसका
वर्णन नहीं कर
सकता हूं।
क्योंकि वह
कथन द्वारा
नहीं कहा जा
सकता। लेकिन
एक गुर से
सारी पहेली हल
हो जाती है।
और वह गुर है कि
सभी
प्राणियों का
एक ही दाता
है। उसे मैं न भूल
जाऊं।'
इन्हें
थोड़ा समझने की
कोशिश करें।
नानक ने गुरु
को बड़ी महिमा
दी है। सारे
संतों ने गुरु
को बड़ी महिमा
दी है।
शास्त्रों से
ऊपर गुरु को
रखा है। अगर
गुरु कुछ कहे
और वेद में न
मिले, तो
वेद छोड़ दो।
क्योंकि गुरु
की वाणी वेद
है। अगर गुरु
कुछ कहे और
शास्त्र-संगत
न हो, तो
किसको छोड़ोगे?
शास्त्र को
छोड़ दो।
क्योंकि गुरु
जीवित शास्त्र
है। गुरु का
इतना मूल्य
संतों ने किसी
कारण से दिया
है।
कुछ
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं। पहली बात, वेद भी
गुरुओं के वचन
हैं। लेकिन वे
गुरु अब मौजूद
नहीं हैं। और
न ही वचन
शुद्ध रह गया
है। न वचन
शुद्ध रह सकता
है। क्योंकि
संगृहीत करने वाले
अपने विचारों
को मिलाएंगे
ही। वह उनकी मजबूरी
है। वे जान कर
मिलाते हैं, ऐसा भी नहीं
है। वे
मिलाएंगे ही।
तुमसे अगर मैं
कोई बात कहूं
और कहूं कि
तुम जा कर
पड़ोसी को कह
दो; बीच
में बात से
कुछ गिर जाएगा,
कुछ जुड़
जाएगा। बात का
ढंग बदल
जाएगा। अगर
तुम शब्द भी
वही उपयोग करो,
शत प्रतिशत
जो मैंने कहे,
तो भी टोन, कहने का ढंग,
एम्फेसिस
बदल जाएगी।
फिर तुम जब
बोलोगे, तो
तुम्हारा
अनुभव, तुम्हारा
ज्ञान, तुम्हारी
समझ उन शब्दों
में भर जाएगी।
मैं
तुम्हें फूल
दे दूं हाथ
में, तुम उस
फूल को अपने
हाथ में ले
जाओ किसी को
देने, लेकिन
तुम्हारे
शरीर की गंध
भी वह फूल पकड़
लेगा। जैसे
तुम्हारा हाथ
फूल की गंध को
पकड़ता है, वैसा
फूल तुम्हारे
शरीर की गंध
को पकड़ेगा। वह
फूल वही नहीं
रह गया जो
मैंने दिया
था। और अगर
हजारों हाथों
से फूल गुजरा,
तो हजार
शरीरों की गंध
पकड़ जाएगी। और
अगर दुबारा वह
फूल मेरे पास
आए तो मैं भी
पहचान न पाऊंगा
कि यह वही फूल
है जो मैंने
दिया था। न तो
इसमें अब वह
गंध रह गयी
होगी जो मैंने
दी थी।
क्योंकि वह खो
गयी हजारों
हाथों में
लग-लग कर। और
यह हजारों
हाथों की
दुर्गंध
इकट्ठी कर लाएगा।
न इसकी शक्ल
वह रह जाएगी
जो मैंने दी थी।
वह टूट-फूट
जाएगा, इसकी
पंखुरियां
गिर जाएंगी।
अधूरा फूल
मेरे पास न
लाया जाए, इसलिए
लोग दूसरी
पंखुरियां
इसमें जोड़
लाएंगे, ताकि
फूल पूरा हो
जाए।
वेद
गुरु वचन हैं।
जिन्होंने
जाना
उन्होंने कहा।
लेकिन फिर
हजारों-हजारों
साल बीत गए।
उसमें बहुत
कुछ जुड़ गया, बहुत कुछ हट
गया। इसलिए
जीवित गुरु को
खोज लेना परम
सौभाग्य है।
किताब तो बासी
हो ही जाएगी।
फिर और
बड़े मजे की
बात है कि
किताब को जब
तुम पढ़ोगे, तो तुम ही तो
उसका अर्थ
निकालोगे।
अर्थ कौन निकालेगा?
तुम ही
पढ़ोगे, तुम
ही अर्थ
निकालोगे।
अर्थ तुम से
तो ज्यादा नहीं
हो पाएगा।
तुम्हारी समझ
से पार नहीं
हो पाएगा। तुम
अपने ही अर्थ
को किताब पर
आरोपित कर
दोगे।
तो
किताब
तुम्हारी
गुरु नहीं हुई, तुम ही गुरु
हो गए किताब
के। शास्त्र
को तुमने नहीं
पढ़ा, तुम
शास्त्र को ही
पढ़ाने लगे।
इसीलिए तो
इतनी व्याख्याएं
हैं। गीता की
हजारों
व्याख्याएं
हैं। जो पढ़ता
है, अपना
अर्थ करता है।
कृष्ण खड़े
नहीं हैं बीच
में कि रोकें;
कि भाई, यह
मेरा अर्थ
नहीं है।
कृष्ण का तो
एक ही अर्थ
रहा होगा।
हजारों अर्थ
तो नहीं हो
सकते। हजारों
अर्थ अगर
कृष्ण के थे, तो अर्जुन
पागल हो जाना
चाहिए। कृष्ण
का तो एक
सुनिश्चित
अर्थ रहा
होगा। लेकिन
कौन कहे वह अर्थ
क्या था? अर्जुन
भी नहीं कह
सकता जिसने
सुना था।
क्योंकि वह भी
जो कहेगा, वह
भी बदल जाएगा।
और फिर
यह पूरी की
पूरी गीता
संजय ने लिखी
है। संजय यानी
पी.टी.आई, रियूटर
रिपोर्टर।
इसने बड़े दूर
बैठ कर कहीं टेलीविजन
से खबर पा कर
कही है। वह भी
अंधे धृतराष्ट्र
को कही
है--दूरी बढ़ती
जाती है। क्या
कृष्ण अर्जुन
से कहते हैं, अर्जुन भी
ठीक-ठीक
रिपोर्ट नहीं
दे सकता। वह
अपनी समझ के
अनुसार देगा।
जो उसे समझ
में आया वह
कहेगा। वह
नहीं, जो
कृष्ण ने कहा
है। और यह भी
खबर संजय
इकट्ठी कर रहा
है। संजय
रिपोर्टर है।
वह भी अंधे
धृतराष्ट्र
को कह रहा है।
बहरे सुन रहे
हैं, अंधों
से कह रहे
हैं। फिर
हजारों-हजारों
साल बीत गए।
फिर व्याख्याकार
हैं, वे
व्याख्या कर
रहे हैं। फिर
एक-एक शब्द के
अनेक अर्थ हो
जाते हैं। फिर
गीता में कोई
अर्थ नहीं रह
जाता। जो तुम
डालो वही अर्थ
है। फिर गीता
पर तुम अपने
को आरोपित
करते हो।
इसलिए
नानक, कबीर,
दादू सभी का
आग्रह
है--क्योंकि
इनके समय तक
आते-आते सारे
प्राचीन
शास्त्र बासे
और उधार हो
गए--इन सब ने एक
बात पर जोर
दिया है कि
जीवित गुरु को
खोज लो। उसकी
वाणी ही वेद
है। और तुम
सामने-आमने
बैठ कर सुनोगे
तो भी बदलाहट
तो हो ही
जाएगी, लेकिन
कम से कम।
'गुरुवाणी
ही नाद है।
गुरुवाणी ही
वेद है। वह परमात्मा
गुरुवाणी में
समाया हुआ है।
गुरु शिव, गुरु
विष्णु, गुरु
ही ब्रह्मा, वही पार्वती
है।'
गुरुमुखि
नादं
गुरुमुखि
वेदं।
गुरुमुखि रहिआ
समाई।।
गुरु
ईसरु गुरु
गोरखु बरमा।
गुरु पारबती
माई।।
जे हउ
जाणा आखा
नाहीं। कहणा
कथनु न जाई।।
जिन्होंने
अपनी आंख से
देखा है उस
परमात्मा को, वे भी उसे ठीक
से नहीं कह
पाते। पूरा
नहीं कह पाते।
और तुम
परमात्मा को
किताब से खोज
रहे हो? गीता,
बाइबिल, गुरुग्रंथ--तुम
परमात्मा को
किताब से खोज
रहे हो! जीवित
गुरु भी उसे
पूरा नहीं कह
पाता। नानक
खुद अपने
संबंध में
कहते हैं कि
जो मैं जानता
भी--पूरा-पूरा
जानता--तो भी उसका
वर्णन नहीं कर
सकता। हूं।
क्योंकि वह
कथन द्वारा
नहीं कहा जा
सकता है।
जो कथन
द्वारा नहीं
कहा जा सकता, उसे तुम कथा
द्वारा समझ
रहे हो! जो कथन
द्वारा नहीं
कहा जा सकता, उसे तुम छपे
हुए वचनों के
द्वारा समझ
रहे हो!
नहीं, उसकी खबर तो
जीवित गुरु के
पास ही मिलेगी।
वह भी नहीं कि
गुरु जो कहता
है उससे तुम
समझोगे, बल्कि
गुरु जो है
उससे तुम
समझोगे। गुरु
की मौजूदगी
समझाएगी।
गुरु का होना
समझाएगा।
उसके साथ होना,
उसकी हवा, उसकी
क्लाइमेट।
गुरु के पास
होना एक दूसरी
हवा में होना
है। कम से कम
उतनी देर को
संसार खो जाता
है। कम से कम
उतनी देर को
तुम दूसरे लोक
में होते हो।
कम से कम उतनी
देर को
तुम्हारी
चेतना किसी नए
ढांचे में हो
जाती है। गुरु
की खिड़की से
थोड़ी देर को
तुम झांकने को
राजी हो जाओ, उसके सिवाय
और कोई रास्ता
नहीं है।
'जो
मैं जानता भी,
तो उसका
वर्णन मैं
नहीं कर सकता
था। क्योंकि
वह कथन के
द्वारा नहीं
कहा जा सकता
है।'
जे हउ
जाणा आखा
नाहीं। कहणा
कथनु न जाई।।
'लेकिन
एक गुर से
सारी बात हल
हो जाती है।'
गुर जो
दे वही गुरु
है। गुर का
अर्थ है
टेक्नीक, गुर
का अर्थ है
विधि, गुर
का अर्थ है
मैथड। और वह
जिससे मिल जाए,
वही गुरु।
एक गुर से सारी
बात हल हो
जाती है, सारी
उलझन हल हो
जाती है। और
वह गुर, नानक
कहते हैं, यह
है:
गुरा
एक देहि
बुझाई--
सभना
जीआ का इकु
दाता। सो मैं
विसरि न जाई।।
सबका
वही एक मालिक
है। सबका वही
एक निर्माता है।
सबका वही एक
स्रष्टा है।
उसे मैं भूल न
जाऊं। इस सत्य
को मैं स्मरण
रख सकूं कि
सबमें वही छिपा
है। सब हाथों
का हाथ वही।
सब आंखों की
आंख वही। वही
धड़कता, वही
जीवन है। इसे
मैं भूल न
जाऊं।
प्रतिपल यह मुझे
याद बनी रहे।
यह गुर, यह सीक्रेट
पकड़ जाए तो
तुम धीरे-धीरे
माला के मनकों
से हट कर, मनकों
के भीतर जो
छिपा धागा है,
उसको पकड़
लोगे। वही
धागा
परमात्मा है।
तुम मनके हो।
तुम्हारे
भीतर जो जीवन
की धारा बह
रही है, जो
जीवन का धागा
है, वही
परमात्मा है।
वह धागा
मुझमें भी वही
है, तुममें
भी वही है।
वृक्ष में, पशु-पक्षी
में, चट्टान-पहाड़
में भी वही
है। वही जीता
है अनेक रूपों
में। वही
लहराता है
अनेक लहरों
में। तो तुम
उस धागे को भर
न भूलो तो गुर
हाथ में आ
गया। और सब
पहेलियां
अपने आप हल हो
जाएंगी।
क्या
करोगे? कैसे
इस गुर को
संभालोगे? चौबीस
घंटे संभालना
है। बड़ी
हिम्मत
चाहिए। बड़ी
अड़चन भी होगी।
अगर अड़चन न
होती होती, तो दुनिया
कभी की
धार्मिक हो
गयी होती।
अड़चन तो है ही
और होनी भी
चाहिए।
क्योंकि बिना
अड़चन कुछ मिल
जाए तो व्यर्थ
है। बिना
यात्रा के तुम
मंजिल पर
पहुंच जाओ, तो तुम फिर
भटक जाओगे। मुश्किल
से जिसे तुम
पाओगे, उसी
को तुम
संभालोगे।
मुफ्त
तुम्हें जो
मिल जाए, तुम
उसे संभाल भी
न सकोगे। और
फिर इतने
विराट सत्य को
पाने चले हो
तो दांव पर
कुछ गंवाना भी
होगा।
धर्म
एक तरफ से
गंवाना है और
एक तरफ से
पाना है।
इसलिए अड़चन
है। अगर
ग्राहक में
तुम परमात्मा
को देखोगे तो
लूट कैसे
सकोगे उसे? जरा मुश्किल
हो जाएगा। अगर
तुम जेब काटते
हो और उसमें
परमात्मा को
देखोगे तो हाथ
ठहर जाएंगे।
बुरा कैसे कर
सकोगे? अगर
तुम्हें वही
दिखाई पड़ने
लगा तो कैसे
किसी को
अभिशाप दे
सकोगे? कैसे
किसी को गाली
दे सकोगे, अगर
वही दिखने लगा?
कैसे होओगे
नाराज? कैसे
बांधोगे
दुश्मनी? किससे
बांधोगे
दुश्मनी?
अगर
वही है, तो
तुम थोड़ी
मुश्किल में
पड़ोगे।
तुम्हारे जीवन
का ढांचा
जगह-जगह से
गिरने लगेगा।
तुमने जो मकान
बनाया है, वह
उसके विपरीत
है। तुमने
उसको भूल कर
मकान बनाया
है। तुम उसे
याद करोगे तो
तुम्हारा यह
मकान तो नहीं
टिक सकता।
हां, एक बात
पक्की है कि
तुम्हें बहुत
बड़ा मकान मिलेगा।
लेकिन वह
तुम्हें आज
दिखाई भी नहीं
पड़ सकता।
इसीलिए तो
जुआरी चाहिए,
हिम्मत के
लोग चाहिए, कि हाथ में
जो है उसे छोड़
दें; उसे
पाने को जिसका
अभी पक्का
भरोसा नहीं
है। इसलिए मैं
निरंतर कहता
हूं कि
व्यवसायियों
का काम नहीं है
धर्म; जुआरियों
का काम है।
जुआरी दांव पर
लगा देता है
इस आशा में कि
दोहरा हो कर
मिलेगा।
मिलेगा कि
नहीं, कुछ
पक्का नहीं
है। पासे कैसे
पड़ेंगे, कोई
भी नहीं जानता
है। हिम्मत
चाहिए जुआरी
की, नानक
के साथ चलना
हो तो।
इसलिए
तो सारे धर्म
विकृत हो जाते
हैं। क्योंकि
हमारे पास
जुआरी की
हिम्मत नहीं, व्यवसायी का
गणित है। और
तब इस सूत्र
को याद रखना
मुश्किल हो
जाता है।
क्योंकि यह
सूत्र तुम्हारी
जिंदगी को
आमूल बदल
देगा। तुम यही
न रह जाओगे।
एक छोटा सा
सूत्र और
तुम्हारी
पूरी जिंदगी में
आग लग जाएगी।
यह जिंदगी न
रह जाएगी।
कबीर
कहते हैं, जो घर बारै
आपना चलै
हमारे संग। जो
तैयार हो अपने
घर में आग लगा
देने को, वह
हमारे साथ
चले।
वह कौन
सा घर है? वह
घर जो तुमने
बना रखा है
आसपास
अपने--झूठ का, बेईमानी का,
क्रोध का, वैमनस्य का,
द्वेष का, घृणा का--वह
पूरा का पूरा
तुम्हारा घर
है।
अगर
तुम इस एक
सूत्र को पकड़
लो, नानक
कहते हैं:
गुरा
एक देहि
बुझाई--
सभना
जीआ का इकु
दाता। सो मैं
विसरि न जाई।।
बस, उसका
विस्मरण न हो,
कि सबके
भीतर एक, सबका
मालिक एक, सबका
साहब एक।
तुम्हारी
जिंदगी बदल
गयी। कुछ और
चाहिए नहीं। न
तुम्हें करने
की जरूरत है
पतंजलि के
योगासन; न
तुम्हें
चिंता करने की
जरूरत है
यहूदियों के
टेन
कमांडमेंट्स,
दस
आज्ञाएं। न
तुम फिक्र करो
गीता क्या
कहती है, कुरान
क्या कहता है।
एक छोटा सा
गुर। तुम्हारी
सारी जिंदगी
बदल जाए। इस
छोटे से गुर
से नानक ने
पाया, तुम
भी पा सकते
हो।
लेकिन
ध्यान रखना, जो घर बारै
आपना चलै
हमारे संग।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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